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व्याख्यान १६ :
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" लोग मुझे पूछते हैं कि तुम्हारा शरीर कुशल है ? परन्तु शरीर कुशल कैसे हो सकता है ? क्योंकि दिनप्रति - दिन आयुष्य तो कम होती ही जाती है। "
अतः अब मैं प्रमाद का त्याग कर श्रावक प्रतिमा को अंगीकार कर यथाशक्ति उसका पालन करुं । " ऐसा विचार कर प्रातःकाल स्वकुटुम्ब तथा ज्ञातिवर्ग को बुलाकर उनको भोजन, वस्त्र आदि से संतुष्टकर अपने ज्येष्टपुत्र को घर का भार सौंप स्वयं प्रतिमा वहन करने को तत्पर हुआ ।
उसने प्रथम छ आगार रहित तथा शंका, कांक्षादि पांच अतिचार रहित सम्यक्त्व नामक पहली प्रतिमा को एक मास तक धारण किया। फिर पूर्व की ( प्रथम प्रतिमा ) क्रियासहित बारह व्रत के पालनस्वरूप दुसरी प्रतिमा को दो महिने तक धारण किया । फिर पूर्व की क्रिया सहित सामायिक नामक तीसरी प्रतिमा को तीन महिने तक वहन किया। फिर पूर्व की क्रिया सहित चार महिने तक चार पर्वणीएं पौषध करते हुए पौषध नामकी चोथी प्रतिमा को बहन किया। फिर पांच महिने तक उन चारों पर्वणी के पौषध में रात्रि के चारों पहर में कायोत्सर्ग कर कायोत्सर्ग नामक पांचवी प्रतिमा को धारण किया । फिर छ मास तक
१ अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा और अमावस्या - ये चार पर्वणी इनमें से अष्टमी, चतुर्दशी दो दो होनेसे कुछ छ दिन गिनना ।