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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तरः अतिचार दोषरहित ब्रह्मचर्य का पालन कर छट्ठी प्रतिमा बहन किया । फिर सात महिने तक सातवी सचित्त के वर्जन करनेरूप प्रतिमा धारण की । फिर आठ महिने तक स्वयं समग्र आरंभ नहीं करनेरूप आठवीं आरम्भत्याग नामक प्रतिमा को धारण किया। फिर सेवक द्वारा भी कोई आरम्भ नहीं करनेरूप नवमी प्रतिमा को नो मास तक वहन किया। फिर खुद के निमित्त बनाया हुआ भोजन नहीं करनेरूप दशवी प्रतिमा का दस महिने तक बहन किया। फिर अन्त में अग्यारवीं प्रतिमा को ग्रहण किया जिसका स्वरूप निम्न प्रकार से है :खुरमुंडो लोएण वा, रयहरणं उवग्गहं च घेत्तूणं। समणभूयो विहरइ, धम्म काएण फासंतो ॥१॥
" उस्त्रा ( Razor ) से मुंडन कराकर अथवा लोचकर रजोहरण तथा पात्रादिक ग्रहण कर कायाद्वारा धर्म का पालन करता हुआ साधु के समान विचरण करे और कुटुम्ब में "प्रतिमाप्रपन्नस्य श्रावकस्य भिक्षां देहि " इस प्रकार पुकार कर भिक्षा मांगे।"
इस प्रकार ग्यारहवीं प्रतिमा को ग्यारह महिने तक वहन किया । इस ग्यारहवीं प्रतिमा में पिछली पिछली सर्व प्रतिमाओं को एकत्रित समझकर उन सब अतिचारोंरहित ही इसका पालन करना चाहिये । अग्यारे प्रतिमाओं को