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* दूसरा स्तंभ.
-- -- व्याख्यान १६ वां
मनःशुद्धि के विषय में मनःशुद्धिमबिभ्राणा, ये तपस्यन्ति मुक्तये। हित्वा नावं भुजाभ्यां ते, तितीर्षन्ति महार्णवम्॥१॥ तदवश्यं मनःशुद्धिः, कर्तव्या सिद्धिमिच्छता । बह्वाम्भेऽपि शुद्धन, मनसा मोक्षमाप्नुते ॥२॥ . भावार्थ:-मनःशुद्धि रहित जो मनुष्य मुक्ति के लिये तपस्या करते हैं वें मानों बहाण का त्याग कर दोनों हाथों द्वारा तैर कर महासमुद्र को पार करने की चेष्टा करते हैं अर्थात् जैसे समुद्र को पार करने के लिये नौका की ही आवश्यकता है इसी प्रकार इस स्थान पर मनःशुद्धि की आवश्यकता होती है, अतः मोक्षार्थी मनुष्य को अवश्य मनःशुद्धि करना चाहिये क्यों कि अत्यन्त आरंभी होने पर