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व्याख्यान १५ :
: १४३ : कार्यार्थी भजते लोको, न कश्चित् कस्यचित् प्रियः। वत्सःक्षीरक्षयं दृष्ट्वा, परित्यजति मातरम् ॥१॥
भावार्थ:-लोग किसी न किसी स्वार्थ से ही दूसरे को चाहते हैं परन्तु स्वभाव से कोई किसी को प्रिय नहीं होता। वाछड़ा भी दूध नहीं रहने पर अपनी माता गाय. को त्याग देता है।
फिर वह योगी भी सदैव भिक्षा के लिये वहां आने लगा और बंधुश्री भी सदैव उनको नई नई भिक्षा देने लगी। एक बार प्रत्युपकार करने के लिये योगीने उसको कहा कि " है माता! तेरे को कोई काम हो तो मुझ से कहे कि मैं खुशीपूर्वक करूँ।" यह सुन कर बंधुश्रीने गद् गद् कंठ से उसकी पुत्री का दुःख उससे कहा । इस पर योगीने उत्तर दिया कि “ हे माता ! यदि मैं जयसेना का विनाश कर मेरो बहिन गुणसुन्दरी को सुखी न करूँ तो मैं अग्नि में प्रवेश कर अपने आप को जला दूंगा।" ऐसी प्रतिज्ञा कर वह उसके आश्रम को चला गया।
कृष्णचतुर्दशी की रात्री को उस योगीने स्मशान में एक मुर्दा लाकर उसकी पूजा की और वैताली विद्या का जाप कर उस मुर्दे में वैताली को प्रत्यक्ष कराया अर्थात् प्रवेश कराया। इस पर उस वैतालीने कहा कि "हे योगी!