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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : गुणसुन्दरी को सौप कर वह धर्म आराधनामें तत्पर हो गई। कुछ समय बाद गुणसुन्दरीने एक पुत्र का प्रसव किया।
एक बार गुणसुन्दरी की माता बंधुश्रीने पुत्री से पूछा कि " हे पुत्री! तेरे पति के घर में तू सुखी तो हैं ?" गुणसुन्दरीने उत्तर दिया " हे माता ! मुझे शोक पर विवाह कर फिर मेरे सुख की क्या बात पूछती हो ? प्रथम सिर मुंडा कर फिर नक्षत्र का क्या पूछना? और पानी पी लेने के पश्चात् घर का क्या पूछना है ? मुझे तो पति के घर पर एक क्षणमात्र का भी सुख नहीं है। मेरा पति तो मेरी शोक पर ही आसक्त है।" बंधुश्रीने कहा कि-" हे पुत्री! जो वह तेरी शोक राग से तथा कला से ऐसे वृद्ध पति को भी सहन करती है, खुश करती है तो फिर दूसरों की तो बात ही क्या करना ? जहां साठ साठ वर्ष के बड़े हाथियों को वायु उछाल दे, वहां गायों की तो गिनती ही क्या ? और मच्छर आदि की तो बात ही करना ? तिस पर भी हे पुत्री ! तू शान्ति रख । तेरी शोक के विनाश का मैं कुछ न कुछ उपाय अवश्य करूंगी । तू अभी तो घर चली जा।" __एक वार साक्षात् रुद्र( शिव ) की मूर्ति के समान किसी कापालिक को देख कर बंधुश्रीने अपने कार्य साधना के इरादे से उसको अनेक रस संयुक्त भोजन कराया। कहा भी है कि: