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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : करता है। ऐसा कह कर उसका तिरस्कार करने लगे। यह देख कर अभयकुमारने कहा कि-हे स्वामी! यदि विद्या ग्रहण करनी हो तो इसको सिंहासन पर बिठा कर आप हाथ जोड़ कर पृथ्वी पर इसके सन्मुख बैठिये तब विद्या प्राप्त हो सकेगी। यह सुन कर राजाने वैसा ही किया कि शीघ्र ही मानो हृदय में अंकित हो उस प्रकार दोनों विद्यायें दृढ़ हो गई। पश्चात् विद्यागुरु होनेसे उस चांडाल को अभयकुमारने राजा द्वारा मुक्त कराया। ___ इस कथा से विनय ही सर्वत्र फलदायी है ऐसा समझ कर विनयपूर्वक श्रुत का अध्ययन आदि करना चाहिये । इत्यब्ददिनपरिमितोपदेशप्रासादग्रंथस्य वृत्तौ प्रथमस्तंभे
त्रयोदशं व्याख्यानम् ॥ १३ ॥
व्याख्यान १४ वां।
अविनय का फल अन्वय से विनय का स्वरूप कह कर अब व्यतिरेक से उसका व्याख्यान करते हैं। प्रकृत्या दुर्विनीतात्मा, गुरूक्ते प्रतिकूलधीः । संसारसागरे मनो, विनेयः कूलवालकः ॥१॥
भावार्थ:-प्रकृति से ही अविनयवान (उद्धत) और