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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : बिछाने वस्त्र बाकी हैं वे नहीं बिछाये गये हैं लेकिन संथारा जितना बिछाया गया उतना बिछा ही गया है उसमें अब और बिछाने की आवश्यकता नहीं, अतः विशिष्ट समय की अपेक्षावाले भगवान के वाक्य में किसी प्रकार का दोष नहीं हैं।
इस प्रकार अनेक युक्तियों से स्थविर साधुओंने जमालि को समझाया तिस पर भी वह नहीं समझा तो वे उसे छोड़ कर वीरप्रभु के पास चले गये । किन्तु सुदर्शनाने तो जमालि पर अनुराग होने से उसके मत को स्वीकार किया। वह ढंक नामक कुम्हार जाति के श्रावक के यहां रहती थी उससे उसको अपना मत का बनाने के लिये समझाने लगी, परन्तु ढंकने उसको मिथ्यात्व पाई हुई जान कर कहा कि-हम तो ऐसी बातों में कुछ नहीं समझते । पश्चात् एक दिन ढंक श्रावक आव में से वर्तन निकालता था और उसी स्थान पर सुदर्शना साध्वी बैठी बैठी स्वाध्याय करती थी, उसको प्रतिबोध करने के लिये ढंकने अग्नि का एक अंगारा उसके वस्त्र पर डाल दिया जिससे उसके कपड़े का एक छोर जल गया । उसको देखकर सुदर्शनाने कहा कि हे श्रावक ! तूने मेरा कपड़ा जला दिया । तब ढंक बोला कि-अरे ! जलते को जला हुआ कहना तो श्रीभगवान का मत है, तुम ऐसा कहां मानते हो ? इससे तुम्हारे मतानुसार तो मैंने कपड़ा नहीं जलाया फिर जला हुआ किस प्रकार कहते हो ? इस प्रकार