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व्याख्यान ९:
: ९५ : भावार्थ:-शास्त्रश्रवण से ज्ञानोपार्जन होता है, ज्ञान से विज्ञान, विज्ञान से पच्चक्खाण, पचक्खाण से संयम, संयम से दोष रहित तप, तप से क्रिया रहितपन प्राप्त होता है, पूर्वकर्म की निर्जरा होती है, नये कर्म नहीं बांधे जाते और क्रिया रहित होने से निर्वाण-मोक्ष की प्राप्ति होती है।
श्री हरिभद्रसरिने भी इस प्रकार कहा है किःक्षाराम्भस्त्यागतो यद्वन्मधुरोदकयोगतः । बीजं प्ररोहमादत्ते तद्वत्तत्त्वश्रुतेर्नरः॥१॥
भावार्थ:-जिस प्रकार खारे जल के त्याग से और मीठे जल के योग से बीज अंकुरित होता है उसी प्रकार तत्त्वज्ञान को प्राप्त करता है-ज्ञानरूपी अंकुर प्रकट होते हैं ।
अतः यह शुश्रूषा समकित का प्रथम लिंग है । इस पर सुदर्शन श्रेष्ठी का दृष्टान्त प्रसिद्ध है। सुदर्शन श्रेष्ठी और अर्जुनमाली का दृष्टान्त ।
राजगृह नगर में अर्जुन नामक एक माली रहता था। उसके अत्यन्त सुन्दर और युवावस्था से मनोहर बंधुमती नामक स्त्री थी । उस माली के नगर के बाहर पंचरंगी पुष्पोंवाला एक सुन्दर बाग था । उस बाग के समीप एक यक्ष का देवालय था। उसमें हजार पल का लोहे का मुद्गर धारण