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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तरः कर खड़ी हुई मुद्गरपाणि नामक यक्ष की मूर्ति थी । उस यक्ष की वह माली अपनी स्त्री सहित उसके कुलदेवता समान नित्य अर्चना किया करता था । एक वार महोत्सव का दिन होने से कोई छ पुरुष फिरते फिरते मुद्गरपाणि यक्ष के देरा में आकर बैठे हुए आनन्द मना रहे थे कि उस समय अर्जुनमाली उसकी स्त्री सहित सुन्दर पुष्प लेकर यक्ष की पूजा करने को आया। उसको आते देख कर उन छ ही मित्रोने परस्पर विचार किया कि-इस माली की स्त्री अति रूपवान है, इस लिये इस माली को बांध कर इसके समक्ष ही उसकी स्त्री के साथ हम को क्रिया करना चाहिये। ऐसा निश्चय कर वे दरवाजे के पीछे छिप कर खड़े हो गये । वह माली देवालय में आकर पुष्प आदि से यक्ष की पूजा कर पंचांग प्रणाम करने लगा कि उस समय उन छ ही मित्रोंने बाहर आकर उसको बांध दिया। फिर उस के समक्ष ही उसकी स्त्री के साथ विलास करने लगे। यह देखकर अर्जुनमाली को विचार हुआ कि मेरे जीने को धिक्कार है, क्योंकिःसह्यन्ते प्राणिभिर्बाढं, पितृमातृपराभवाः । भार्यापराभवं सोढुं, तिर्यंचोऽपि न हि क्षमाः॥१॥
भावार्थ:-प्राणी पिता तथा माता के पराभव को सहन कर सकते हैं परन्तु स्त्री के पराभव को सहन करने में तो तिथंच भी समर्थ नहीं होते ।