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व्याख्यान १० :
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यह विषय अंतगडदशांग सूत्र में भी वर्णित है । इत्यद्वदिन परिमितोपदेशप्रासादवृत्तौ प्रथमस्तंभे नवमं व्याख्यानम् ॥ ९ ॥
व्याख्यान १० वां
समकित के दूसरे धर्मरागरूप लिंग के विषय में पिछले व्याख्यान के आरम्भ के श्लोक में " रागो धर्मे जिनोदिते " यह दूसरा पद कहा गया है । उसमें " जिन " अर्थात् रागद्वेष रहित जो तीर्थकर है उनसे कहा हुआ " धर्म " जो यतिधर्म और श्रावकधर्म हैं उनके विषय में " राग " अर्थात् मन की अत्यन्त प्रीति रखना चाहिये । -शुश्रूषा नामक लिंग में श्रुतधर्म पर राग रखने को कहा गया है और यहां पर चारित्र धर्म पर राग रखने का उपदेश किया गया हैं । इतना ही इन दोनों में अन्तर है । इस प्रसंग पर चिलातिपुत्र का दृष्टान्त प्रसिद्ध है, जो इस प्रकार हैं:चिलातिपुत्र का दृष्टान्त
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तीत्रेण धर्मरागेण, अघं दुष्टमपि स्फुटम् । चिलातिपुत्रवत्सद्यः, क्षयीकुर्वन्ति देहिनः ॥ १ ॥
भावार्थ:- प्राणी चिलातिपुत्र की तरह दुष्ट पाप को भी धर्म पर तीव्र राग रखने से तत्काल क्षय कर देते हैं ।