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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
क्षितिप्रतिष्ठ नगर में यज्ञदेव नामक एक ब्राह्मण रहता था । वह अनिंद्य जैन धर्म की निन्दा किया करता था । उस पंडितमानी ब्राह्मण को एक समय किसी क्षुल्लक जैन मुनिने वाद करने के लिये बुलाया । उस समय उसने शर्त की कि मेरे को जीतनेवाले का मैं शिष्य बन जाउंगा । वाद करते उस साधुने उसको जीत लिया इस पर वह पराजित होकर उसका शिष्य बन गया । एक वार शासन देवताने यज्ञदेव साधु से कहा कि - जिस प्रकार मनुष्य के नेत्र हुए भी वह सूर्य के प्रकाश विना नहीं देख सकता इसी प्रकार जीव ज्ञानयुक्त होने पर भी शुद्ध चारित्र बिना मोक्ष के सुख का अनुभव नहीं कर सकता । इस लिये तुम चारित्रवान बनों । शासनदेव के ऐसा कहने पर भी उस ब्राह्मण होने से वह अपने हठ को नहीं छोड़ता था । स्नान, दंतधावन आदि के नहीं करने से उसको दुर्गछा उत्पन्न हुई । उसकी स्त्री उसके प्रेम को नहीं छोड़ सकी अतः उसने उसको वश करने के लिये कामण किया इससे शारीरिक पीड़ा सहते हुए उस ब्राह्मणने मुनिशुद्ध चारित्र का पालन कर देवपद प्राप्त किया ।
उस ब्राह्मण की स्त्रीने अपने कामण से ही पति की मृत्यु होना जान कर वैराग्य उत्पन्न होने से चारित्र ग्रहण कर मुनिहत्या का पाप आलोच्ये बिना ही मृत्यु को प्राप्त कर स्वर्गारोहण किया ।
वह ब्राह्मण देव आयुष्य के पूर्ण होने पर चव कर राज