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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
जिससे मिथ्यादर्शन का नाश हो और मोक्षसुख को प्राप्त करनेवाले सम्यग्दर्शन प्राप्त हो ।
इत्यब्ददिनपरिमितोपदेशप्रासादवृत्तौ प्रथमस्तं मे अष्टमं व्याख्यानम् ॥ ८ ॥
व्याख्यान ९
समकित के तीन लिङ्गों में से पहिला शुश्रूषा नामक लिङ्ग
शुश्रूषा भगवद्वाक्ये, रागो धर्मे जिनोदिते । वैयावृत्त्यं जिने साधौ, चेति लिंगं त्रिधा भवेत् ॥५॥
भावार्थ:- श्री जिनेश्वर के वाक्यों में शुश्रूषा अर्थात् सुनने की इच्छा, जिनेश्वरद्वारा कहे धर्म में राग-प्रीति और जिनेश्वर तथा साधुओं का वैयावृत्य - ये तीन समकित के लिङ्ग हैं |
श्री अरिहंत के कहे हुए वचनों को सुनने की निरन्तर इच्छा रखना चाहिये, क्योंकि बिना जिनवचनश्रवण किये किसी भी ज्ञानादिक गुण की प्राप्ति नहीं होती । आमम में भी कहा है कि :
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सवणे नाणे य विन्नाणे, पञ्चरकाणे य संजमे । अनि तवे चेव, वोदाणे अकिरिय निवाणे ॥ १ ॥