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________________ : ९४ : श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : जिससे मिथ्यादर्शन का नाश हो और मोक्षसुख को प्राप्त करनेवाले सम्यग्दर्शन प्राप्त हो । इत्यब्ददिनपरिमितोपदेशप्रासादवृत्तौ प्रथमस्तं मे अष्टमं व्याख्यानम् ॥ ८ ॥ व्याख्यान ९ समकित के तीन लिङ्गों में से पहिला शुश्रूषा नामक लिङ्ग शुश्रूषा भगवद्वाक्ये, रागो धर्मे जिनोदिते । वैयावृत्त्यं जिने साधौ, चेति लिंगं त्रिधा भवेत् ॥५॥ भावार्थ:- श्री जिनेश्वर के वाक्यों में शुश्रूषा अर्थात् सुनने की इच्छा, जिनेश्वरद्वारा कहे धर्म में राग-प्रीति और जिनेश्वर तथा साधुओं का वैयावृत्य - ये तीन समकित के लिङ्ग हैं | श्री अरिहंत के कहे हुए वचनों को सुनने की निरन्तर इच्छा रखना चाहिये, क्योंकि बिना जिनवचनश्रवण किये किसी भी ज्ञानादिक गुण की प्राप्ति नहीं होती । आमम में भी कहा है कि : xande सवणे नाणे य विन्नाणे, पञ्चरकाणे य संजमे । अनि तवे चेव, वोदाणे अकिरिय निवाणे ॥ १ ॥
SR No.022318
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaylakshmisuri, Sumitrasinh Lodha
PublisherVijaynitisuri Jain Library
Publication Year1947
Total Pages606
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size34 MB
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