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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
साढे तीनसो शिष्यों सहित आये थे और चार पंडित तीनसो तीनसो शिष्यों सहित आये थे । इस प्रकार ४४०० ब्राह्मण इकट्ठे हुए थे । उस समय श्रीवीर प्रभु को वांदने के लिये आकाशमार्ग से आते हुए असंख्य सुर, असुर को देखकर तथा देवदुन्दुभि के स्वर को सुनकर वे पंडित बोले कि - अहो ! हमारे यज्ञ मंत्रों के आकर्षण से आकर्षित हो कर ये देव साक्षात् यहां आरहे हैं, परन्तु जब उन देवताओं को चांडाल के पाड़े के समान यज्ञ के स्थान को छोड़ कर प्रभु के पास जाते हुए देखा तो उन सब ब्राह्मणों को बड़ा खेद हुआ। उन्होंने लोगों के मुंह से सुना कि ये देवता सर्वज्ञ को बांद को जाते हैं । यह सुनकर उन ब्राह्मणों में जो सब से मुख्य इन्द्रभूति था उसने विचार किया कि अहो ! मेरे अकेले केही सर्वज्ञ होते हुए भी क्या कोई दूसरा भी मनुष्य अपना सर्वज्ञ होना प्रसिद्ध कर सकता है ? कदाच कोई धूर्त मूर्खजनों को धोका देता होगा, परन्तु अहो ! इस धूर्तने तो देवताओं को भी धोके में डाल दिया है कि जिससे सरोवर छोड़ कर जानेवाले मेंढक के समान, अच्छे वृक्ष को छोड़ कर जानेवाले ऊंट के समान, सूर्य के तेज को छोड़ कर जानेवाले उल्लू की तरह, और सुगुरु को छोड़कर जानेवाले कुशिष्यों समान ये देवतागण यज्ञमंडप को तथा मुझ सर्वज्ञ को भी छोड़कर उसके पास जाते है अथवा जैसा यह सर्वज्ञ होगा वैसे ही ये देवता भी होंगे तिस पर भी मैं ऐसे इन्द्रजाली को