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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : कठिन हैं। तो क्या यह विष्णु हैं ? नहीं, यह तो काला हैं। तब क्या ब्रह्मा हैं? नहीं वह तो अवस्थाद्वारा आतुर हैं और जरा ( वृद्धावस्था ) से व्याप्त हैं। तो क्या कामदेव है ? नहीं, वह तो बिना शरीरवाला हैं । तो क्या महादेव है ? नहीं, वह तो कंठ में शेषनाग के धारन करने से भयंकर है परन्तु यह तो सर्व दोषों रहित और समग्र गुणसमूह से व्याप्त हैं, अतः यह तो आखिरी तीर्थकर ही होना चाहिये । सूर्य के समान • इनके सामने भी नहीं देखा जा सकता और दुस्तर समुद्र
के समान इनका उल्लंघन भी नहीं किया जा सकता। अब इनके सामने मैं मेरा महत्व किस प्रकार करूँ ? अरे! मुझ जैसे मूर्खने सिंह के मुँह में हाथ डाला और बैर के वृक्ष की डाली का आलिंगन किया । मेरे लिये तो एक और पूरी भरी हुई नदी और दूसरी और बाघ इस न्याय के समान हुआ। अपितु एक कीली के लिये सम्पूर्ण महल को घिराना कौन चाहता हैं ? सूत के धागे के लिये सम्पूर्ण हार कौन तौड़े ? राख के लिये चन्दन की लकड़ी कौन जलावे? लोह के लिये समुद्र के जहाज को कौन तोड़े? परन्तु मैंने तो यह सब कुछ करनेवाले की तरह अविचारी कार्य किया है । मुझ दुर्बुद्धिने जगदीश्वर को जीतने की इच्छा की और इस लिये यहां आया परन्तु इस जगन्नाथने किसी भी दिव्य प्रयोग से मेरा मन वश कर लिया कि जिससे मेरी ऐसी बुद्धि हुई । अब इनके सामने मैं एक अक्षर भी किस प्रकार बोल सकता हुँ ? और