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व्याख्यान ७ :
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हे आचार्य ! 'क्रियमाणं कृतं ' आदि भगवान के वाक्य सत्य ही है। उसमें कोई प्रत्यक्ष विरोध नहीं है क्यों कि एक घटादिक कार्य में अवान्तर कारण और कार्य असंख्यात होते हैं। मिट्टी लाना, उसको मर्दन कर पिन्ड बनाना, उसको चक्र पर चढ़ाना, दंड से चक्र को घुमाना, प्रथम शिव करना, फिर स्थासक करना, आदि घटरूपी सर्व कार्यों का कारण है और अन्त में डोरेद्वारा काट कर घट को चक्र से अलग किया तब ही वह घटरूपी कार्य हुआ ऐसी आपकी मान्यता हैं यह अयोग्य है। क्यों कि घटरूप कार्य करते समय प्रत्येक वक्त अन्य कार्यों का आरंभ होता हैं और वह कार्य निष्पन्न होता हैं क्यों कि कार्य के कारण का और निष्पत्ति का एक ही समय हैं ( कारण का काल भिन्न और निष्पत्ति का काल भिन्न ऐसा नहीं) इस लिये सर्व अवांतर कारण और कार्य के होने बाद अन्त समय में ही परिपूर्ण घट का आरम्भ होता है उसी समय वह निष्पन्न होता है (इस विषय बहुत विस्तार हैं जो महाभाष्य से जाना जा सकता है ।) अपितु हे जमालि ! तुमने आधा संथारा पाथरा हुआ देख कर संथारा किया ही नहीं इस प्रकार कहा जो अयोग्य हैं, क्यों कि संथारा आधा बिछाया हैं ऐसा तुमने भी कहा। यदि वह नहीं बिछाया हुआ होता तो किस प्रकार बोलते ? अतः पहेले से जितने आकाश-प्रदेश में संथारा बिछाना शुरु किया उतने आकाशप्रदेश में तो वह बिछा दिया गया हैं, केवल ऊपर