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व्याख्यान ७:
: ७५ : भावार्थ:-मनुष्य ऐसा समझता है कि यह धर, मित्र, पुत्र, स्त्री, धन, धान्य आदि सर्व मेरे उद्योग का फल है, परन्तु वह मूर्ख यह नहीं समझता कि इन सब को यहीं पर छोड़ कर प्राणी परलोक में अकेला ही जावेगा।
- इस प्रकार की देशना से वैराग्य पाये हुए जमालिने अपने घर जाकर अत्यन्त आग्रह से अपने मातापिता की आज्ञा लेकर पांचसो क्षत्रियों सहित प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की। उसके बाद हजार स्त्रियों सहित सुदर्शनाने भी दीक्षा ग्रहण की। चारित्र का पालन करते हुए जमालिने अगीयारह अंगों का अभ्यास किया। बाद में अकेले विहार करने की प्रभु आज्ञा मांगी। भावी लाभ नहीं जानकर प्रसु मौन रहे। कोई उत्तर नहीं दिया तिस पर भी जमालिने पांच सो साधुओं को साथ लेकर विहार कर श्रावस्ति नगर गया। वहां तिन्दुक उद्यान में किसी यक्ष के मन्दिर ठहरे । रूक्ष एवं निरस आहार करने से कुछ समय बाद जमालि को दाहज्वर उत्पन्न हुआ जिस से उसके शरीर में बैठने या खड़े रहने की भी शक्ति नहीं रही । एक दिन उसने साधुओं से कहा कि-मेरे लिये जल्दी से संथारा करो जिससे मैं सो जाऊँ । यह सुनकर साधुलोग संथारा करने लगे। जमालिने दाहज्वर की अधिक पीड़ा होने से तुरन्त ही साधुओं से पूछा कि-संथारा पथराया या नहीं ? तब साधुने आधा पथराने पर भी उत्तर दिया कि-हाँ, पथरा