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व्याख्यान ५ :
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का एक हाथ ओढ़े हुए वस्त्र में से बाहर निकल गया । वह ठंड के मारे ठर जाने से राणी जाग उठी और मुंह से सीत्कार शब्द करती हुई राणीने वह हाथ शीघ्र ही सोड में ले लिया। उस समय नदी के किनारे पर वस्त्र रहित उस मुनि के रहने का उसको स्मरण आने से वह बोली कि-अहो! प्राण के नाश करनेवाली ऐसी उग्र ठंड में उसकी क्या गति डुई होगी? उसका यह वाक्य अकस्मात् जगे हुए राजा के सुनने में आया। इस से उसने विचारा कि-अहो ! यह राणी दुराचारणी जान पडती हैं, इसको मेरे अतिरिक्त कोई अन्य पुरुष प्रिय मालुम होता हैं इससे सचमुच यह व्यभिचारिणी हैं तो फिर अन्य सब राणीये व्यभिचारिणी हो जिसमें तो सन्देह ही क्या हैं ? इस प्रकार मन में क्रोधित होकर राजाने विचार ही विचार में रात्रि जगते जगते बिताया। बहुधा समझदार पुरुष भी अपनी स्त्री को स्नेह से बुलानेवाले से भी इर्षालु होते है।
प्रातःकाल राजाने अभयकुमार को बुला कर आज्ञा दी कि-मेरा समग्र अन्तःपुर दुराचारी है, अतः अभी सब अन्त:पुर में आग लगा दो। यह सुन कर अभयकुमारने कहा कि-हे पिता! आप की आज्ञा सिरोधार्य है। तत्पश्चात् श्रेणिक राजा शीघ्र ही जिनेश्वर को वन्दना करने के लिये गये । प्रभु के मुख से धर्मदेशना सुनने के पश्चात् राजाने प्रभु से पूछा कि-हे स्वामी ! चेटक राजा की पुत्री (चेलणा ) के