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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर :
गीतार्थाः संयमैर्युक्तास्त्रिधा तेषां च सेवनम् । द्वितीया सा भवेच्छ्रद्धा, या बोधे पुष्टिकारिणी ॥१॥
भावार्थ:- संयमयुक्त ऐसे गीतार्थं मुनियों की तीन प्रकार से सेवा करना दूसरी श्रद्धा कहलाती है । वह श्रद्धा बोध में अर्थात् तत्वज्ञान में पुष्टिदायक है ।
गीत अर्थात् सूत्र और अर्थ अर्थात् उस ( सूत्र ) के अर्थ का विचार । ये दोनों जिस में हों वह गीतार्थ कहलाता है । संयम अर्थात् सर्वविरतिरूप सत्तर प्रकार का चारित्र । वह इस प्रकार -पांच आश्रवों को रोकना, पांच इन्द्रियों का निग्रह करना, चार कषायों को जीतना और तीन दंड से विराम पाना । इस प्रकार की विरति में आसक्त हुए तल्लीन मनवाले मुनियों की तथा ज्ञान और दर्शनवालों की भी मन, वचन और कायाद्वारा सेवा करना अर्थात् विनय करना, बहुमान करना और भक्ति करना आदि । अन्यथा हिंसा करनेवाली सिंहनी भी शिकार पर ताक कर नमन करती है. अर्थात् नीचे झुकती है उसकी तरह नमन करना तो निष्फल है। इस प्रकार की गुणवाली श्रद्धा को मुनिपर्युपास्ति नाम की दूसरी श्रद्धा कहते हैं। यह श्रद्धा वस्तु का यथार्थ स्वरूप जानने में पुष्टि करनेवाली है और समकित को स्फटिक के समान स्वच्छ करनेवाली है । इस पर पुष्पचूला साध्वी का दृष्टान्त प्रशंसनीय हैं: