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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : वर्ष की आयुष्य भोग कर शुभ भाव के कारण क्षायिक समकित के प्रभाव से तीर्थंकरपन को प्राप्त होगा। इत्यब्ददिनपरिमितोपदेशप्रासादग्रन्थस्य वृत्तौ प्रथमस्थंमे
चतुर्थ व्याख्यानम् ॥ ४ ॥
व्याख्यान ५ समकित के.सड़सठ भेदों में से पहले चार श्रद्धा के भेद में से परमार्थसंस्तव नामक प्रथम श्रद्धा का स्वरूपजीवाजीवादितत्त्वानां, सदादिसप्तभिः पदैः। शश्वत्तच्चिन्तनं चित्ते, सा श्रद्धा प्रथमा भवेत्॥१॥
भावार्थ:-जीव, अजीव आदि तत्वों का सत् आदि सात पदोंद्वारा चित्त में निरन्तर चितवन करना प्रथम श्रद्धा कहलाता हैं।
प्राणों के धारण करनेवाले को जीव कहते हैं और उसके विपरीत प्राण रहित को अजीव कहते हैं। मूल श्लोक में जीव, अजीव आदि तत्त्व ऐसा कहा गया हैं इस लिये आदि शब्द से पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष ए सात तच्च समझना चाहिये। उन तत्त्वों का छतापर्यु, संख्या, क्षेत्रस्पर्श, काल, अन्तर, भाव और अल्पबहुत्व इन सात