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श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : राजन् ! आपको धन्य है । इन्द्रने आपकी जैसी प्रशंसा की है मैने उसी प्रकार आपको पाया है। जिस प्रकार समुद्र अपनी मर्यादा को नहीं छोड़ता है उसी प्रकार आप भी अपने सम्यक्त्व की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करते, आदि वचनों से स्तुति कर वह देव राजा को एक दैवी हार तथा दो क्षौम वस्त्र भेट कर अदृश्य हो गया ।
राजाने अपने महल में आ कर कपिला दासी को बुला कर कहा कि-तू मुनि को तेरे हाथ से दान दे। उसने उत्तर दिया कि हे-स्वामी ! मुझे ऐसी आज्ञा न दीजिये, मैं दान नहीं दे सकती । आप हुक्म देवें तो मैं अग्नि में कूद पहूँ, विष पान करूँ, परन्तु यह कार्य मुझ से नहीं हो सकता । उसके ऐसे वचन को सुन कर कालसौकरिक को बुला कर उसे कहा कि-तू केवल एक दिन के लिये ही पाड़े का वध करना त्याग दे । उसने उत्तर दिया कि-हे स्वामी ! मैं जो जन्म से प्रत्येक दिन पांचसो जीवों का वध करता हूँ उस से मैं नहीं छोड़ सकता। मेरे आयुष्य का अधिक भाग व्यतीत हो चुका है, अब थोड़ा सा शेष रहा है, अतः अब उस थोड़े से जीवन के लिये प्राणी वध क्यों छोडूं ? और किस प्रकार छोडूं ? बड़े समुद्र को पार कर अब छोटे से सोते में कौन डूबे ? यह सुन कर राजाने हँसते हुए उस को एक अंध कूप में डाल दिया । दूसरे दिन प्रात:काल में राजा प्रभु के पास जा कर उनको वन्दना कर बोला कि