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व्याख्यान ५ :
सर्व कुमारों को तृप्त किये । यह हकीकत सुन कर राजा श्रेणिक की बुद्धि से अन्तःकरण में प्रसन्न हुए किन्तु उझरी मन से निन्दा की कि पक्वान्न का भूका कर राख की तरह खाया उसकी बुद्धि राख के समान ही समझना।
एक वार राजमहलों में अग्नि लगी उस समय राजाने कुमारों को आज्ञा दी कि-जिन से जो चिज़ ले जाई जा सके ले जाओ । यह सुन कर सब कुमार मणि, माणिक्य आदि जवाहीर ले आये किन्तु श्रेणिकने राजा के जय के प्रथम चिन्हरूप भंभा को लिया । यह सुन कर भी राजाने श्रेणिक की निन्दा की और उस का भंभसार नाम रक्खा ।
तत्पश्चात् राजाने श्रेणिक के अतिरिक्त अन्य कुमारों को भिन्न भिन्न देश दिये किन्तु श्रेणिक को कुछ भी नहीं दिया। इस से श्रेणिक अपमानित होने से गुप्तरूप से नगरी से चला गया। अनुक्रम से वह चलते चलते बेनातट नगर में पहुँचा । उस नगर में प्रवेश कर श्रेणिक किसी भद्र नामक श्रेष्ठी की दुकान पर बैठ गया। उस दिन श्रेणिक के पुण्य प्रभाव से उस श्रेष्ठी को व्यौपार में बहुत लाभ हुआ। इस लिये उसने श्रेणिक से पूछा कि-हे पुण्यनिधि ! आज आप किस के यहां अतिथि होगें ? श्रेणिकने हँसी में ही उत्तर दिया किआप के यहाँ ही। यह सुनकर श्रेष्ठीने अत्यन्त प्रसन्न हो कर विचार किया कि-आज जो मैने मेरे स्वप्न में मेरी पुत्री