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: ४० . श्री उपदेशप्रासाद भाषान्तर : उवसामगम्मि सेढिगयस्स होइ
उवसमिअं तु सम्मत्तं । जो वा अकयतिपुंजो अखविय
मिच्छो लहइ सम्मं ॥१॥ भावार्थ:-उपशमश्रेणि पर आरूढ होनेवाले को औपशमिक समकित प्राप्त होता है अथवा जिसने तीन पुंज नहीं किये हो और मिथ्यात्व नहीं खपाया हो उसको यह समकित प्राप्त होता है। - मिथ्यात्व मोहनी तथा अनंतानुबंधी कषाय की चोकडी इसमें उदय हुई हो तो उसका देश से निर्मूल नाश कर डालती है और उपशम दोनों से युक्त जो समकित है उसको क्षयोपशमिक कहते हैं । इस समकित की बासठ सागरोपम की स्थिति बतलाई गई है।
तीसरा क्षायिक समकित है अर्थात् जिसमें समकित मोहनी, मिथ्यात्व मोहनी और मिश्रमोहनी तथा अनन्तानुबंधी चार कषाय इन सात प्रकृति का निर्मूल नाश हो जाता है। यह क्षायिक समकित आदि अनन्त स्थितिवाला होता है क्योंकि यह आने पर फिर वापस नहीं जाता । इस क्षायिक समकित के प्रभाव से ही श्रेणिक राजाने तीर्थकरनामकर्म का उपार्जन किया । इस विषय में कहा है कि:- .