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ज्याख्यान ४:
: ४१ : न सेणिओ आसि तया बहुस्सुओ, __ न वा य पन्नत्तिधरो न वा युओ। सो आगमिस्साइ जिणो भविस्सइ,
सम्मिरकपन्नाइ वरं खु दंसणं ॥१॥ भावार्थ:-श्रेणिक राजा नहीं तो बहुश्रुत ही थे, न प्रज्ञप्ति के धारक ही तिस पर भी वे आनेवाली चोवीशी में तीर्थकर होनेवाले हैं इससे यह स्पष्ट है कि तत्वप्रज्ञावाला समकित ही श्रेष्ठ है । इस श्लोक का भावार्थ इसके दृष्टान्त से प्रत्यक्ष है
दृढ़ समकित पर श्रेणिक राजा का दृष्टान्त ।
राजगृही नगरी में श्रेणिक राजा राज्य करता था । उस नगरी के बाहर गुणशील नामक मंदिर में एक समय जगतस्वामी श्रीमहावीर प्रभु विराजे । उस समय चेलणा रानी को लेकर श्रेणिक राजा एक बृहत् सेना से सुसज्जित हो प्रभु को वन्दना करने के लिये गया । जिनेश्वर को वन्दना कर वह योग्य स्थान पर बैठ गया। उस समय उसने किसी कोढ़ी को उसके कोढ़ का रस लेकर प्रभु के पैरों पर लगाते हुए देखा । इस अयुक्त कार्य को देख कर राजा उस कोढ़ी पर क्रोधित हुआ । उस समय प्रभु को छींक आई तब वह कुष्ठी बोला, कि " मरो"। थोड़ी देर बाद राजा को छींक