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: व्याख्यान ४: ज्ञानचारित्रहीनोऽपि, श्रूयते श्रेणिकः किल । सम्यग्दर्शनमाहात्म्यात्तीर्थकृत्त्वं प्रपत्स्यते ॥२॥
भावार्थ:-ज्ञान और चारित्र रहित केवल समकित ही प्रशंसनीय है, परन्तु मिथ्यात्वरूपी विष से दूषित हुआ ज्ञान और चारित्र श्लाघ्य नहीं । देखिये ! श्रेणिक राजा के विषय में ऐसा सुना जाता है कि वे ज्ञान और चारित्रहीन थे किन्तु केवल सम्यकदर्शन ( समकित ) के प्रभाव से वे तीर्थकर होनेवाले हैं क्यों कि उन्होने तीर्थकरनामकर्म बांधा है।
यहां पर यदि किसी को यह शंका हो कि श्रेणिक राजाने तीन प्रकार के समकित में से किस समकित द्वारा तीर्थकरनामकर्म उपार्जन किया है तो उसके उत्तर में कहता है कि सम्यक्त्व तीन प्रकार के हैं-औपशमिक, क्षयोपशमिक और क्षायिक । उनमें से भस्म से आच्छादित अग्नि सदृश मिथ्यात्व मोहनी और अनंतानुबंधिनी चोकड़ी (क्रोध, मान, माया और लोभ ) के उपशम से जो प्राप्त होता है उसको औपशमिक सम्यक्त्व कहते हैं। यह समकित अनादि मिथ्यादृष्टि जीव को पूर्वकरण करने से अन्तर्मुहूर्त की स्थितिवाला होता है अथवाय ह समकित उपशमश्रेणि पर आरूढ़ होनेवाले मुनि को उपशांत मोह नाम के अठारवें गुणस्थान पर प्राप्त होता है। इस विषय में श्रीजिनभद्रगणि महाराज का महाभाष्य में कहना है कि