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तीर्थङ्कर चरित्र
(२६) तीर्थकर के पास आकर अन्य तीथिकलोग निरुत्तर हो जाते हैं।
जहाँ-जहाँ भी तीर्थकर देव विहार करते हैं वहाँ पच्चीस योजन अर्थात् सौ कोस के अंदर---
(२५) ईति-चूहे आदि जीवों से धान्यादि का उपद्रव नहीं होता। (२८) मारी अर्थात् जनसंहारक प्लेग आदि उपद्रव नहीं होते। (२९) स्वचक्र का भय (स्वराज्य की सेना से उपद्रव) नहीं होता। (३०) परचक्र का भय (पर राज्य की सेना से उपद्रव) नहीं होता। (३१) अधिक वर्षा नहीं होती। (३२) वर्षा का अभाव नहीं होता। (३३) दुर्भिक्ष-दुष्काल नहीं पड़ता । (३४) पूर्वोत्पन्न उत्पात तथा व्याधियाँ भी शान्त हो जाती हैं।
इन चौतीस अतिशयों में से दो से पांच तक के १ अतिशय तीर्थकर देव के जन्म से ही होते हैं। इक्कोस से चौंतीस तक तथा भामंडल ये पंद्रह अतिशय घाती कर्मों के क्षय होने से प्रस्ट होते हैं। शेष अतिशय देवकृत होते हैं।।
दीक्षा लेकर जब से भगवान विनीता नगरी से विहार कर गये थे तभी से माता मरुदेवी उनके कुशल समाचार प्राप्त न होने के कारण बहुत चिन्तातुर हो रही थी। इसी समय भरत महाराज उनके चरण वन्दन करने के लिये गये। वह उनसे भगवान के विषय में यूछ ही रही थी कि इतने में एक पुरुष ने आकर भरत महाराज को "भगवान को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ है" यह बधाई दी। उसी समय दूसरे पुरुष ने आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न होने की और तीसरे पुरुष ने पुत्र जन्म की बधाई दी । सबसे पहले केवलज्ञान महोत्सव मनाने का निश्चय करके भरत महाराज भगवान को वंदन करने के लिये रवाना हुए, हाथी पर सवार होकर मरुदेवी माता भी साथ में पधारी ।