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तीर्थङ्कर चरित्र
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(३४) अपरिखेदितत्व-उपदेश देते हुए थकावट अनुभव.न करना।
(३५) अव्युच्छेदत्व-जो तत्व समझना चाहते हैं उसकी सम्यक् प्रकार से सिद्धि न हो तब तक बिना व्यवधान के उसका व्याख्यान करते रहना। पहले सात अतिशय शब्द की अपेक्षा हैं। शेष अर्थ की अपेक्षा हैं।
तीर्थङ्करदेव के चौंतीस अतिशय (७) तीर्थंकरदेव के मस्तक और दाढ़ी मूछ के बाल बढ़ते नहीं हैं। उनके शरीर के रोम और नख सदा अवस्थित रहते हैं। .
(२) उनका शरीर सदा स्वस्थ तथा निर्मल रहता है। (३) शरीर में रक्तमांस गाय के दूध की तरह श्वेत होते हैं।
(४) उनके श्वासोच्छवास में पद्म एवं नीलकमल की अथवा पद्म तथा उत्पलकुष्ट (गन्धद्रन्य विशेष) की सुगन्ध भाती है।
(५) उनका आहार और निहार (शौचक्रिया) प्रच्छन्न होता है चमचक्षु वालों को दिखाई नहीं देता।
(६) तीर्थ कर देव के आगे आकाश में धर्मचक्र रहता है। (७) उनके ऊपर तीन छत्र रहते हैं। (८) उनके दोनों ओर तेजोमय (प्रकाशमय) गेष्ट चवर रहते हैं।
(९) भगवान के लिये आकाश के समान स्वच्छ स्फटिक मणि का बना हुआ पादपीठ वाला सिंहासन होता है।
(१०) तीर्थकर देव के भागे आकाश में बहुत ऊँचा हजारों छोटी छोटी पताकाओं से परिमण्डित इंद्रध्वज चलता है।
(११) जहाँ भगवान ठहरते हैं अथवा बैठते हैं वहाँ पर उसी समय पत्र, पुष्प और पल्लव से शोभित छत्र, वन, घंटा और पताका सहित अशोक वृक्ष प्रकट होता है ।
(१२) भगवान के कुछ पीछे मस्तक के पास अति भास्वर (देदीप्यमान) भामण्डल रहता है।