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आगम के अनमोल रत्न
! (२०). अपरमर्मविद्धन्व-दूसरे के मर्म रहस्य का प्रकाशन होना।
(२१) अर्थधर्माभ्यासानपेतत्व-मोक्ष रूप अर्थ एवं श्रुतचारित्र रूप धर्म से सम्बद्ध होना। .
(२२) उदारत्व-प्रतिपाद्य अर्थ का महान होना अथवा शब्द और अर्थ की विशिष्ट रचना होना। .
(२३) परनिन्दात्मोत्कर्षविप्रयुक्तत्व- दूसरे की निन्दा एवं आत्म प्रशंसा से रहित होना ।
(२४) उपगत लाघत्व-वचन में उपरोक्त (परनिंदात्मोत्कर्ष विप्रयुत्व)- गुण होने से वक्ता की लाघा-प्रशंसा होना । - (२५) अनपमीतत्व-कारक, काल, वचन, लिंग आदि के विपर्यास रूप दोषों का न होना।
(२६) उत्पादिताविच्छिन्नकुतूहलव-श्रोताओं में वक्ताविषयक निरन्तर कुतूहल बने रहना ।
• (२७) अद्भुतत्व-वचनों के अश्रुतपूर्व होने के कारण श्रोता के दिल में हर्षरूप विस्मय का बने रहना।
(२८) अनतिविलम्बितव-विलम्ब रहित होना अर्थात् धारा-प्रवाह से उपदेश देना।
(२९) विभ्रमविक्षेपकिलिकिंचितादि विमुक्तत्व-वचा के मन में भ्राति होना विभ्रम है। प्रतिपाद्य विषय में उसका दिल न लगना विक्षेप है। रोष, भय, लोभ आदि भावों के सम्मिश्रण को किलिकिंचित कहते हैं । इनसे तथा मन के अन्य दोषों से रहित होना ।
__ (३०) अनेकजातिसंश्रयाद्विचित्रत्व-वर्णनीय वस्तुओं के विविध प्रकार की होने के कारण वाणो में विचित्रता होना । । (३१) माहितविशेषत्व-दूसरे पुरुषों की अपेक्षा वचनों में विशेषता होने के कारण श्रोताओं को विशिष्ट बुद्धि प्राप्त होना।
(३२) साकारत्व-वर्ण पद और वाक्यों का अलग अलग होना। (३३) सत्वपरिग्रहतत्व-भाषा का भोजस्वी प्रभावशाली होना ।