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અહો! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૨૧૬
વ્યાકરણ સિદ્ધહેમશબ્દાનુશાસન લધુ વિવરણ ભાગ-૨
: દ્રવ્ય સહાયક: પૂ. શાસનસમ્રાટ નેમીસૂરીશ્વરજી સમુદાયના પૂ. આ. શ્રી શીલચંદ્રસૂરિજી મ.સા.ની પ્રેરણાથી
શ્રી મહુવા શ્વે. તપા. જૈન સંઘ જ્ઞાનખાતાની ઉપજમાંથી
: સંયોજક : શાહ બાબુલાલ સોમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન હીરાજેન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543 સંવત ૨૦૭૨
ઈ. ૨૦૧૬
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अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। પુસ્તકનું નામ
ક્રમાંક
પૃષ્ઠ
કર્તા-ટીકાકાર-સંપાદક पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
पू. मेघविजयजी गणि म. सा.
001
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक - शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद - 05.
018
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श्री नंदीसूत्र अवचूरी
श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
श्री अर्हद्गीता भगवद्गीता
| श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
अपराजितपृच्छा
शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
शिल्परत्नम् भाग - १
शिल्परत्नम् भाग - २
प्रासादतिलक
काश्यशिल्पम्
प्रासादमञ्जरी
राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
शिल्पदीपक
वास्तुसार
दीपार्णव उत्तरार्ध
જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
जैन ग्रंथावली
હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
| न्यायप्रवेशः भाग-१
दीपार्णव पूर्वार्ध
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग - १
| अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
तत्त्पोपप्लवसिंहः
शक्तिवादादर्शः
क्षीरार्णव
वेधवास्तु प्रभा
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा.
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा.
पू. मानतुंगविजयजी म.सा.
श्री बी. भट्टाचार्य
| श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री विनायक गणेश आपटे
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री नारायण भारती गोंसाई
श्री गंगाधरजी प्रणीत
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स
શ્રી હિમ્મતરામ મહાશંકર જાની
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म. सा.
श्री एच. आर. कापडीआ
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
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().
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202
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30 | શિન્જરત્નાકર
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री प्रासाद मंडन
| पं. भगवानदास जैन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ पू. लावण्यसूरिजी म.सा. | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ પૂ. ભવિષ્યસૂરિની મ.સા. श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા. श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. 036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. 037 વાસ્તુનિઘંટુ
પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા 038 તિલકમશ્નરી ભાગ-૧
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી 039 તિલકમગ્નરી ભાગ-૨
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી તિલકમઝરી ભાગ-૩
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્
પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી સપ્તભફીમિમાંસા
પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી ન્યાયાવતાર
| સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ 044 વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 045 સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક
શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા
શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી ન્યાયસમુચ્ચય
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી સ્યાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
પૂ. લાવણ્યસૂરિજી દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ
પૂ. દર્શનવિજયજી 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર
પૂ. દર્શનવિજયજી 054 | જ્યોતિર્મહોદય
સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
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(04)
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|
શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાન ભંડાર
ભાષા |
स
पू. लावच
218.
164
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
हीशन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह-04. (मो.) ८४२७५८५८०४ (यो) २२१३ २५४३ (5-मेल) ahoshrut.bs@gmail.com महो श्रुतज्ञानमjथ द्धिार - संवत २०७5 (5. २०१०)- सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી.
या पुस्तsी www.ahoshrut.org वेबसाईट ५२थी upl stGirls sरी शाशे. ક્રમ પુસ્તકનું નામ
ता-
टीर-संपES પૃષ્ઠ 055 | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्यास अध्याय-६
| पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
296 056| विविध तीर्थ कल्प
प. जिनविजयजी म.सा.
160 057 ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા
| पू. पूण्यविजयजी म.सा. 058 | सिद्धान्तलक्षणगूढार्थ तत्त्वलोकः
श्री धर्मदत्तसूरि
202 059 | व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
| श्री धर्मदत्तसूरि જૈન સંગીત રાગમાળા
. श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी | 306 061 | चतुर्विंशतीप्रबन्ध (प्रबंध कोश)
| श्री रसिकलाल एच. कापडीआ 062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय |सं श्री सुदर्शनाचार्य
668 063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
सं पू. मेघविजयजी गणि
516 064| विवेक विलास
सं/. | श्री दामोदर गोविंदाचार्य
268 065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
|
सं पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा. 456 066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
| सं पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
420 06764शमाता वही गुशनुवाह
गु४. पू. हेमसागरसूरिजी म.सा. 638 068 | मोहराजापराजयम्
सं पू. चतुरविजयजी म.सा. 192 069 | क्रियाकोश
सं/हिं श्री मोहनलाल बांठिया
428 070 | कालिकाचार्यकथासंग्रह
सं/४. श्री अंबालाल प्रेमचंद
406 071 | सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका | सं. श्री वामाचरण भट्टाचार्य
308 072 | जन्मसमुद्रजातक
सं/हिं श्री भगवानदास जैन
128 073 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
सं/हिं श्री भगवानदास जैन 0748न सामुद्रिन पांय jथो
१४. श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी | 376
4. 14.
060
322
532
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238
194
192
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ગુજ. |
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી
ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિ૨નીવન જોશ
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | શ્રી સારામારૂં નવાવ ગુજ. | શ્રી સYTમારૂં નવા ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામાકું નવાવ ગુજ. | શ્રી મનસુભાન કુકરમલ
| श्री जगन्नाथ अंबाराम ગુજ. | श्री जगन्नाथ अंबाराम ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શાસ્ત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરીન લોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સં. | પૂ. મેષવિનયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910 436
336
087
230
322,
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
क्रम
272
सं.
240
254
282
466 342 362 134 70
316 224
612
307
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम
कर्ता / टीकाकार भाषा | संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
बादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
बादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
| वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सुबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी
सं./गु | हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह
जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
| पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि | पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
| भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
| जिनविजयजी |सं. जैन सत्य संशोधक
सं./हि
514 454 354 337 354 372 142 336 364 218 656 122
764 404 404 540 274
सं./गु
414 400
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754 84 194
3101
276
69 100 136 266
244
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब
गुज. | साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. | हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. ब्रज. बी. दास बनारस 133 | | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसुरिजी
गुज. यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. | शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी | गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151| सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. ब्रीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय
सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274
168 282
182 384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
160
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
|
पृष्ठ 304
122
208 70
310
शा
462 512 264
| तीर्थ
144 256
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक विषय | भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण
| संस्कृत
जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य
व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156| प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव
| पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत | पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास । तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प पू. ललितविजयजी
संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक
पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी | साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय
गिरिधर झा
न्याय संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१
शिवाचार्य
न्याय
संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२
शिवाचार्य न्याय
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी
| लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम्
पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध
शिवराज | ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष
संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष
प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
| गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
75 488 | 226 365
संस्कृत
190
480 352 596 250
391
114
238 166
368
88
356
168
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
यह पुस्तकेwww.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
विषय
|
भाषा
पृष्ठ
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
| संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी
181
| संस्कृत
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने ३
330
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
185 | नृत्यरत्र कोश भाग-२
___ कर्ता / टिकाकार पूज्य मम्मटाचार्य कृत पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति
श्री अशोकमलजी | श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
248
504
संस्कृत
पूज्य जिनविजयजी संस्कृत यशोभारति जैन प्रकाशन समिति संस्कृत श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत
श्री रसीकलाल छोटालाल संस्कृत /हिन्दी | श्री वाचस्पति गैरोभा संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत/अंग्रेजी | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री संस्कृत श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग गुजराती मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला
448
188
444
616
190
632
| नारद
84
| 244
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक
| संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 | संगीरत्नाकर भाग-३ सटीक
संगीरनाकर भाग-४ सटीक 191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी 192
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक 194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५ 195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५ 199 | अध्यात्मसार सटीक 200 | छन्दोनुशासन 201 | मग्गानुसारिया
संस्कृत हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
श्री हीरालाल कापडीया पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी एच. डी. बेलनकर
446
|414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी
409
476
सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ
444
संस्कृत संस्कृत/गुजराती
श्री डी. एस शाह
| ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
146
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
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अहम् पूज्यपादाचार्यदेव श्रीमद विजय दान-प्रेम-रामचन्द्र-भद्रकरसद्गुरुभ्यो नमः
कलिकालसर्वज्ञ-श्रीमद्हेमचन्द्रसरिभगवत्प्रणीतं
श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम्
(स्वोपनबृहवृत्ति तथा न्यायसारसमुद्धार (लघुन्यास) संवलितम् )
द्वितीयो भागः
आद्य-संपादक शासन-सम्राट् पू. आचार्य देव श्रीमद् विजय नेमि सूरीश्वरजी महाराज साहेब की प्रेरणासे प. पू. आचार्य देव श्रीमद विजय उदयसूरीश्वरजी महाराज.
संपादक
सुविशाल गच्छाधिपति पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय रामचन्द्र सूरीश्वरजी महाराज सा. के शिष्यरत्न अध्यात्मयोगी पूज्यपाद पंन्यास प्रवर
श्री भद्रंकर विजयजी गणिवर्य श्री के शिष्य- . प. पू. आचार्यश्री कुंदकुंद सरीजीके शिष्य. पूज्य मुनिवर्य श्री वनसेनधिजयजी म. सा.
सह संपादक - पूज्य मुनिराजश्री रत्नसेन विजयजी म..
प्रकाशक भेरुलाल कनैयालाल रिलिजीयस ट्रस्ट
चन्दनबाला बम्बई
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प्रकाशक शा. भेरुलाल कनैयालाल रिलिजीयस ट्रस्ट
चंदनबाला एपार्टमेन्ट रीज रोड - वालकेश्वर बम्बई - 400 006
प्रकाशन – तिथि
कार्तिक शुक्ला पूर्णिमा, २०४२ (कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य भगवंत की जन्म तिथि)
आवृत्ति - द्वितीया मूल्य - ७०/- रुपये
: प्राप्ति-स्थान : सरस्वती पुस्तक भंडार ११२, हाथीखाना, रतनपोल,
अहमदाबाद
पार्श्व प्रकाशन, नीशा पोल, झवेरीवाड,
अहमदावाद-१
जशवंतलाल गीरधरलाल दोशीवाडामी पोल, अहमदाबाद--१.
मुद्रक गौतम आर्ट प्रिन्टर्स . नेहरु गेट के बाहर
व्यावर
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प्रकाशक की कलम से .......
सकल श्री संघ की सेवा में 'सिद्ध हेम बृहद्वृत्ति लघुन्यास सहित' महाग्रंथ के प्रथम भाग को प्रकाशन करने के वाद अल्प समय में ही यह द्वितीय विभाग को प्रकाशन करते हुए हम अत्यंत ही आनंद अनुभव कर रहे हैं । परम कृपालु महावीर देव जब बाल्यावस्था में थे तब सौधर्मेन्द्र ने आकर भगवान् से व्याकरण संबंधी जो प्रश्न किये थे । उन सभी का भगवान् ने संतोषप्रद समाधान किया था । बाल्यTय में भी प्रभु की अद्भुत ज्ञान प्रतिभा को देखकर सभी दंग (आश्चर्य चकित ) रह गये थे 1 उस काल में सर्वप्रथम जैनेन्द्र व्याकरण प्रसिद्धि में आया -- यह बात हम हर वर्ष पर्युषणों में सुनते आये हैं ।
कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचन्द्रसूरिजी म. ने सिद्धराज की प्रार्थना को लक्ष्य में रखकर 'सिद्ध हेमचन्द्र - शब्दानुशान का निर्माण किया । और उन्होंने इस ग्रन्थ के उपर लघुवृत्ति - बृहद्वृत्ति और वृहन्न्यास का भी निर्माण किया था । दुर्भाग्यवश आज वह बृहन्न्यास पूर्णरूप से उपलब्ध नहीं हैं। इस व्याकरण की बृहद्वृत्ति के ऊपर 7. आचार्य श्री कनकप्रभसूरीजी म. विरचितन्याससार समुद्धार (लघुन्यास संज्ञक ) उत्तम विवरण ज्ञान भंडारों में आज भी मौजूद हैं । परन्तु आज उसकी हालत अत्यंत ही गंभीर हैं । प जीर्ण हो गए हैं तथा इसके साथ ही दुष्प्राप्य भी हैं। लेकिन जैन- शासन का सौभाग्य है कि उस हालत को देखकर पूज्य आचार्य श्री विजय कुन्दकुन्दसूरीश्वरजी म. के शिष्यरत्न पूज्य मुनिराज श्री वज्रसेन विजयजी म. सा. के हृदय में उसके पुनर्मुद्रण रूप जीर्णोद्धार करवाने की सद्भावना जगी ।
दूसरी ओर सिद्धांत दिवाकर प. पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय जयघोष सूरिजी म. की ओर से हमारे ट्रस्ट के सदस्यों को इस ग्रन्थरत्न के जीर्णोद्धार के लिए पुनीत प्रेरणा प्राप्त हुई । विशालग्रन्थ रत्न का प्रकाशन करना, एक भगीरथ कार्य था और इस कार्य में प्रायः डेढ़ लाख रूपये से कम खर्च न था । हमारे ट्रस्ट के सदस्यों को पूज्य गुरुवर्यो की शुभ प्रेरणाओं से यह शुभ मनोरथ हुआ कि 'अपने ट्रस्ट के ज्ञाननिधि का सद्व्यय करके इस पुण्य कार्य का लाभ क्यों न उठाया जाय ? और आज ऐसे महान् ग्रन्थरत्नों के पीछे अपना अभूल्य समय देने वालों की संख्या अत्यल्प होने से पूज्य मुनि भगवंतों की इस पवित्र भावना को सहर्ष क्यों न अपनायी जाय ? और बस, हमने इस महाग्रन्थरस्न के जीर्णोद्धार में पूर्ण सहयोग देने का निश्चय कर लिया ।
इस ग्रन्थरत्न के सुवाच्य पुनः संपादन के इस भगीरथ कार्य को परमपूज्य, गच्छाधिपति, संघहितवत्सल, आचार्यदेव श्रीमद्विजय रामचन्द्रसूरीश्वजी महाराजा की अनुमति और शुभाशीर्वाद से अतिपरिश्रम पूर्वक पूर्ण करने वाले परम पूज्य अध्यात्मयोगी पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य श्री के शिष्य-प्रशिष्य परमपूज्य विद्वर्य मुनिराज श्री बज्रसेन विजयजी महाराज साहेब तथा परमपूज्य मु. श्री रत्नसेन विजयजी म. सा. के हम सदा ऋणी रहेंगे उनके इस भगीरथ कार्यकी हम बारंबार अनुमोदना करते हैं, एवं सकल श्री संघ को अर्ज करते हैं कि ऐसे संघरत्न मुनि भगवंतो, जो कि श्रुत-मक्ति से निःस्वार्थ श्रुत सेवा कर रहे हैं......उन्हें पूर्ण सहयोग प्रदानकर श्रुत समृद्धिको युगोपर्यंत जीवनदान देकर आत्म कल्याण के पथमें आगे बढे ।
लि. श्री भेरुलाल कन्हैयालाल रिलिजीयस ट्रस्ट
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ऐं नमः
किंचिद् वक्तव्यम
. "श्री सिद्धहैम वृहद्वृत्ति लघुन्यास" यह व्याकरणविषयक एक विशालकाय ग्रन्थरत्न है। इसके संपादन के समय थोडा सा भूतकाल को याद किये विना इस संपादन की भमिका को समजान नहीं है।
आज से लगभग २८ वर्ष पहेले संवत् २०१३ की साल में पाटण श्रीसिद्ध हैम लघुवृत्ति का अभ्यास मेरे सयम दाता, वात्सल्य महोदधि परम पूज्य पंन्यासजी भद्रकर विजयजी गणिवर्य श्री और मेरे उपकारी पूज्य संयमगुरुदेवं परम पूज्य आचार्य देव श्री कुंदकुन्दसूरीश्वरजी महाराज (उस समय मुनिराज) के आशीर्वादों से शुरू किया था। उस समय संदिग्धस्थानों को देखने के लिए पंडितजी 'सिद्धहैम बृहबृत्ति लघुन्यास' की प्रत का उपयोग करते थे। उस समय उस प्रत की जीर्ण शीर्ण अवस्था देखकर हमको मन में ऐसी भावना हुई के बड़े होकर इसका पुनर्मुद्रण करवाएगे, जिससे अभ्यासीओं को सुगमता प्राप्त हो सके ।
. बादमें यह बात विस्मृत हो गई । फिर से योगानुयोग इसी पाटण में संवत् २०३४ की साल में संघ स्थविर सविशाल गच्छाधिपति परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा का सुविशाल मुनि परिवार के साथ चातुर्मास हुआ। उस समय परम पूज्य, परम गुरुदेव पंन्यासजी महाराज श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य श्री आदिकी निश्रा में मुझे और मुनि श्री रत्नसेन विजयजी को भी रहने का आर्व लाभ मिला । उस समय मुनि श्री रत्नसेन विजयजी का बृहदवृत्ति का वांचन चल रहा था । पृज्य पंन्यासजी महाराजश्री शरीर से अस्वस्थ होने के कारण मुझे तो समय का अभाव था। इस कारण मुनि श्री रत्नसेन विजयजी को मैने सूचन किया कि बृहदवृत्ति के अभ्यास के साथ साथ लघुन्यास की हस्तलिखित प्रत को देखी जाय । उन्होंने मेरे सूचन का सहर्ष स्वीकार किया। और उस समय थोडे प्रकरणों को हस्तप्रत से मिलान कर लिया और बाद में इस कार्य के योग्य प्रयत्न जारी रखे ।।
इस दरम्यान मेरा २०३९ का चातुर्मास जामनगर में हुआ । इस ग्रंथ के पुनः मुद्रण की भावना हृदय में तो थी ही । उसमें परम पूज्य आचार्य देव श्री जयघोषसूरीश्वरजी महाराज की ओर से सुश्रावक हिंमतलालजी को सूचन हुवा की इस ग्रथ को “श्री भेरुलाल कनैयालाल कोठारी रीलीजीयस ट्रस्ट, चंदनबाला (बम्बइ)" की ओर से प्रकाशन का लाभ लेने जैसा है। इस बात को टस्ट के ट्रस्टीओं ने तुरन्त ही स्वीकार लीया और यह कार्य गतिमान हुआ।
इसके बाद शरीर अस्वस्थ रहने के कारण इस कार्य में सहयोगके लिए मुनि श्री रत्नसेन विजयजी को कहा और उन्होंने भी इस कार्य में सहयोग देने के लिए अपनी प्रसन्नता बताई। संवत् २०४० के चातुर्मास में रतलाम चातुर्मास दरम्यान मेरी सूचनानुसार योग्य अशुद्धिपरिमार्जन के साथ तीसरे
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अध्याय से सात अध्याय तक 'लधुन्यास' की प्रेस कोपी तैयार की । जिससे प्रिन्टींग आदि में अति सरलता रही । इस प्रकार अनेक महानुभावों की साहाय्य से संपादन कार्य प्रारम्भ हुआ ।
कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचन्द्राचार्य विरचित श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासन के ऊपर स्वोपज्ञ वृहद्वृत्ति आज भी उपलब्ध हैं । उस धृहब्रुत्ति पर कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य श्री ने वृहन्न्यास (८४००० श्लोक प्रमाण) की रचना की थी । किन्तु दुर्भाग्य से वह ग्रन्थ पूर्णरुप से उपलब्ध नहीं है । उसका आंशिक भाग ही उपलब्ध हैं । उस बृहद्वृत्ति के किलष्ट स्थानों पर चान्द्रगच्छशिरोमणि परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद् विजय देवेन्द्रसूरीश्वरजी महाराजा के शिष्य रत्न परम पूज्य आचार्य देव श्री कनक प्रभसूरिश्वरजी महाराज ने 'न्याससारसमुद्धार' की रचना की है । सद्भाग्य से वह पूर्ण ग्रन्थ आज भी उपलब्ध है।
"श्री सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासन की वृहदवृत्ति और न्याससार समुद्धार का प्रथम मुद्रण शासन सम्राट् परम पूज्य आचार्य देव श्रीमद्विजय नेमिसूरीश्वरजी महाराजा का प्रेरणा से प. पू. आचार्य म. श्रीमद् विजय उदय सूरीरश्वजी म० ने करवाया था। संवत् १९६२ में पोरवाडशातीय भगुभाई आत्मज मनसुखभाई की ओर से प्रकाशन हुआ था।
इस ग्रथ के पुनः प्रकाशन में उपर्युक्त पूर्व की आवृत्तियों का आधार लिया गया है। जहांजहां मुद्रण संबंधी अशुद्धियां थी उन्हें भी परिमार्जित करने का शक्य प्रयत्न किया गया है। प्रत्येक सूत्र की हदवत्ति के साथ ही लघुन्यास हो तो अध्ययन में विशेष सुविधा रहेगी. इसलिए प्रत्येक सूत्र के साथ ही लधुन्यास लिया है । पूर्व प्रकाशित लघुन्यास में जहां-जहां साक्षी सूत्रों के सांकेतिक नाम दिए गए थे-उन सूत्रों के क्रमांक का भी इसमें निदेश कर दिया है ।
अध्ययन-अध्यापन में सविधा की दृष्टि से इस महाकाय रथ को तीन भागों में विभक्त किया गया है।
प्रथम भाग-१ से १० पाद (ढाई अध्याय) । द्वितीय भाग-११ से २० पाद (ढाई अध्याय) स्वोपज्ञ-उणादि, धातुपाठ । तृतीय भाग-२१ से २८ पाद (दो अध्याय) लिंगानुशासन, सूत्रोकाअकारादिक्रम ।
आठ अध्यात्मक इस विशाल ग्रथ को तीन भाग में प्रकाशित करने का निर्णय होने पर एक ही समय में अलग-अलग तीन प्रेसों में मुद्रण कार्य प्रारम्भ हुआ । आज इस बात का आनंद है किअठाइस वर्ष पहेले जो भावना बीज रूप से अंतर में पड़ी थी, वह आज एक विशाल वृक्ष रुप होकर फलीभूत हो रही हैं। अभ्यासीओं के लिए छत्तीस हजार से भी अधिक श्लोक प्रमाण और सोलहसो से भी अधिक पृष्ठ का विस्तार रखता हुआ यह सिद्ध हेमबृहदवृत्ति लघुन्यास प्रथ का प्रथमभाग प्रका. शित होने के बाद अल्प समय में ही दूसरा भाग प्रकासित हो रहा है। तीसरा भाग जल्दी प्रकाशित हो इसलिए प्रकाशक संस्था प्रयत्न कर रही हैं । ___ इस ग्रथ के पुन: प्रकाशन के भगीरथ कार्य की निर्विघ्न समाप्ति के लिए परम पूज्य जिनशासनप्रभावक, संघहितचिंतक, सुविशाल गच्छाधिपति, आचार्य देवश्रीमद विजय रामचन्द्रसूरीश्वरजी
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महाराज के शुभाशीर्वाद और परम पूज्य अध्यात्मयोगी निःस्पृह शिरोमणि परम गुरुदेव पंन्यास प्रवर श्री भद्रंकरविजयजी गणिवर्य श्री की सतत कृपा वृष्टि, परम पूज्य सौजन्यमूर्ति, आचार्य देव श्रीमद्विजय प्रद्योतन सूरीश्वरजी महाराज साहेब की सतत प्रेरणा और परम पूज्य उपकारी गुरुदेव आचार्य देव श्रीमद् विजय कुन्दकुन्द सूरीश्वरजी महाराज की अदृश्य कृपा और मेरे संसारी पिता T. मुनिराज श्री महासेन विजयजी म. की सहानुभूति और मेरे गुरु बन्धु मुनिश्री हेमप्रभबिजयजी की आर्य सहायता प्राप्त होती रही है। उन ज्यों की असीम शक्ति के बल से ही यह कार्य निर्विघ्न परिपूर्ण हुआ है।
उन सब उपकारीयो के पावन चरणों में कोटिशः वंदना पूज्य कलिकाल सर्वज्ञ श्री. हेमचन्द्रसूरी. श्वरजी महाराजा की व्याकरण विषयक यह कृति कितनी सरल और सुगम है यह तो अभ्यास करने वाले ही समज सकते हैं । कहा भी है कि व्याकरणान् पद सिद्धिः पदसिद्धेरर्थनिर्णयो भवति । अर्थात् तत्वज्ञानं तत्वज्ञानात् परंश्रेयः॥
अर्थात् 'व्याकरण से पद की सिद्धि होती हैं । पदसिद्धि से अर्थ का निर्णय होता हैं । और अर्थ के निर्णय से तत्व की सिद्धि होती है । तत्त्वसिद्धि मुक्ति की प्राप्ति में हेतुभूत बन सकती है ।। इस दृष्टि से व्याकरण के अध्ययन का महत्त्व है । अभ्यासी महात्माओं इस ध्येय पूर्वक इस ग्रंथ का अध्यन करेंगे तो संपादन का हमरा श्रम विशेष सफल होगा । जैसे तो श्रत सेवा का आर्व लाभ मिलने से संपादन का श्रम सफल ही है।
यह दुसरे विभाग के अफरीडींग आदि के लिये मुनिश्री हितविजयजी और मुनिश्री अनन्त. दर्शन विजयजी का भी समय समय पर अर्ब सहयोग रहा है ।
इसके प्रिन्टोंग में गौतम आर्ट प्रिन्टर्स (ब्यावर) के मालिक श्रीफत्तेचन्दजी जैन के अर्व सहयोग से यह कार्य इतना जल्दी हो रहा है ।
इत ग्रंथ के प्रिन्टी में मतिमंदता से दृष्टिदोष से या प्रेसदोष से कोई क्षतियाँ रही हो. वह सुज्ञजन सुधारने की कृपा करे । खास-खास अद्धियां का शुद्धिपत्र दिया गया है।
-घनसेन विजय
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समर्पण
'नमस्कार महामन्त्र' जिनकी अंतरात्मा का सुमधुर संगीत था जिनकी आत्मा परमात्मा-चरणों में पूर्ण समर्पित थी, जिनकी वाणी में अमृत सा अद्भूत माधुर्य था जो सदा महामन्त्र की अनुप्रेक्षा में तल्लीन रहते थे सकल सत्त्व-हिताशय की पवित्र भावना से जो अत्यन्त भावित थे । जिनके शुभ सानिध्य में परम आनन्द की अनुभूति होती थी।
ऐसे परम पवित्र शुभनामधेय परम गुरुदेव निस्पृहशिरोमणि पंन्यास प्रवर श्री भद्रङ्कर विजयजी गणिवर्यश्री के पवित्र आत्मा को यह ग्रन्थ-रत्न समर्पित करते हुए हमें अत्यन्त ही आनन्द का अनुभव हो रहा है।
र
. ओ परम सुरुदेव ! आपने हमारे जैसे अज्ञानी जीवों पर करुणा दृष्टि कर.. ओ हमें संयम की नौका समर्पित की और आप स्वय' ही इस संयम-नौका के वाहक
बने । आप ही के पुण्य प्रभाव से यह संयम नौका आगे बढ़ सकती हैं...आप जहाँ भी हो सतत वृपा बृष्टि करते रहो...और आपके उपकारों की ऋण मुक्ति के लिए जिन शासन की सेवा करने का सामर्थ्य प्रदान करते रहो ।
चरणचञ्चरीक मुनि वज्रसेन विजय मुनिरत्नसेन विजय
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प्रकाश की कलम से
किञ्चिद् वक्तव्यम्
तृतीय- अध्याय :
चतुर्थ - अध्याय :
पञ्चम - अध्याय :
उणादिविवरण
धातुपाठ :
तृतीयपाद :
चतुर्थपाद
:
प्रथमपाद : द्वितीयपाद :
तृतीयपाद :
चतुर्थपाद:
प्रथमपाद : द्वितीयपाद :
तृतीयपाद : चतुर्थपाद :
अनुक्रमणिका
3
4
१
४१
७७
१०८
१४०
१७०
२०८
૨૪૮
२७४
३०६
३३९
४५०
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प्रहम् ॥ अनंतलब्धिनिधानाय श्रीगौतमस्वामिने नमः ।। । पूज्यपादाचार्यदेवश्रीमद् दान-प्रेम-रामचन्द्र-मवङ्करसद्गुरुभ्यो नमः ।
कलिकालसर्वज्ञ-श्रीहेमचन्द्रसरिभगवत्प्रणीतंश्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनम् । [स्वोपज्ञतत्त्वप्रकाशिकाभिधबृहवृत्ति-मनीषिकनकप्रभसूरि. विरचितन्याससारसमुद्भार (लघुन्यास)-संवलितम् ]
तत्र[ तृतीयाध्याये तृतीयपादः ]
वृद्धिरारैदौत् ॥ ३. ३. १ ॥
आकार आर् , ऐकार, औकारश्च प्रत्येकं वृद्धिसंज्ञा भवन्ति । माष्टि, पाक्यम् , दाक्षिः; कारयति, कार्यम, आर्षम; नाययति, नायकः, ऐन्द्रम् ; लावयति, लावकः, औपगवः । वृद्धिप्रदेशा:- "मजोऽस्य वृद्धिः" [ ४. ३. ४२ ] इत्येवमादयः॥१॥
न्या० स०-वृद्धिरारदौत-वृद्धिशब्दस्य संज्ञात्वात् अनुवादविधित्वेन ( विधेयत्वेन ) च परनिपातः प्राप्नोति । आरैदौदित्यनूद्य एते वृद्धिसंज्ञा भवन्तीति ह्यभिधीयते । सत्यम् , मङ्गलार्थं निपातः।
नन्वाकारोदयो द्वधा तद्भाविता अतद्भाविताच, तद्भाविता वृद्धिसंज्ञया निष्पादिता; यथा-आश्वलायनः, कार्तवीर्यः, ऐतिकायन: औपगवः इत्यादिषु । अतद्भाविता यथा-राजा, प्रार्छयति, रैपात्रं, नौघोष इत्यादिषु । तत्र पूर्वेषामितरेतराश्रयदोष. प्रसङ्गादितरेषु चरितार्थतया वृद्धिसंज्ञया न भाव्यमिति न वाच्यम् । सामान्येन भाविन्याः संज्ञाया आश्रयणात् नास्तीतरेतराश्रयप्रसङ्गो यथाऽस्य सूत्रस्य पटं वयेति । न चाकारादयः संज्ञा, वृद्धिशब्द: संज्ञीति विपर्ययोऽत्र युज्यते लाघवार्थत्वात् संज्ञाकरणस्य, न च समुदितानामारैदौतां संज्ञेयमिति वाच्यं 'वद्धियस्य स्वरेष्वादिः ६-१-८ इति दर्शनात् , न च समुदाय आदिस्वरो भवति ।
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बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-२-३
गुणोऽरेदोत् ॥ ३. ३. २ ॥
'अर् एत् ओत्' इत्येते प्रत्येक गुणसंज्ञा भवन्ति । करोति, कर्तव्यम् , चेता, चेयम् , स्तोता, स्तोतव्यम् । गुणप्रदेशाः-"नामिनो गुणोऽक्ङिति" [४. ३. १] इत्येवमादयः ।।२।।
न्या० स०-गुणोऽरे०-गुणशब्दस्य पूर्वनिपातो मङ्गलस्यैवातिशय प्रतिपादनार्थः । क्रियार्थो धातुः ॥ ३. ३. ३॥
कृतिः क्रिया, प्रवृत्तिापार इति यावत् , पूर्वापरीभूता साध्यमान रुपा साऽर्थोऽभिधेयं यस्य स शब्दो धातुसंज्ञो भवति । एधते, अत्ति, दीव्यति, सुनोति, तुदति, रुणद्धि, तनोति, क्रोणाति, सहति । आयादिप्रत्ययान्तानामपि क्रियार्थत्वात् धातुत्वम्-गोपायति, कामयते, ऋतीयते, जुगुप्सते, कण्डूयति, पापच्यते, चोरयति, कारयति, चिकोर्षति, पुत्रकाम्यति, पुत्रीयति, अश्वति, श्येनायते, हस्तयते, मुण्डयति । एवं जु-स्तम्भूचलुम्पादीनामपिजवनः, स्तम्नाति, चुलुम्पांचकार, प्रेङ्खोलयति ।
शिष्टप्रयोगानुसारित्वादस्य लक्षणस्याणपयत्यादिनिवृत्तिः, शिष्ट ज्ञापनाय चेदं लक्षणम् , एतदविसंवादेन च शिष्टा ज्ञायन्त इति ।
अन्वय-व्यतिरेकाभ्यां च धातोः क्रियार्थत्वावगमः, तथाहि-पचतीत्यादौ धातुप्रत्ययसमदाये संसष्टक्रियाकालकारकाद्यनेकार्थाभिधायिनि प्रयज्यमाने धातोरेव क्रियार्थत्वमवगम्यतेऽन्वय-व्यतिरेकाभ्यां नेतरेषाम् । पचतीति प्रयोगे द्वयं श्रूयते-'पच' इति प्रकृतिः, 'अतिः' इति च प्रत्ययः, अर्थोऽपि कश्चिद् गम्यते विक्लित्तिःकर्तृत्वमेकत्वम; पठतीत्युक्ते कश्चित् शब्दो होयते कश्चिदुपजायते कश्चिदन्वयी, 'पच' शब्दो हीयते पठ्' शब्द उपजायते 'अति' शब्दोऽन्वयी, अर्थोऽपि कश्चिद्धीयते कश्चिदुपजायते कश्चिदन्वयी, विक्लित्तिायते पठिरुपजायते कर्तृवमेकत्वं चान्वयी; तेन मन्यामहे-यः शब्दो हीयते तस्यासवर्थों योऽर्थो हीयते, यश्च शब्द उपजायते तस्यासावर्थो योऽर्थ उपजायते, यश्च शब्दोऽन्वयो तस्यासावर्थो योऽन्वयीति ।
ननु च कृतिः करोत्यर्थः किया, तत्र युक्तं पचादीनां किं करोति ? पचति, कि करोति ? पठतीति करोतीत्यर्थभितत्वात् क्रियात्वम् , अस्ति विद्यते भवतीनां तु न युक्तम् , नहि भवति-किं करोति ? अस्ति भवति विद्यते चेति, तदयुक्तम्-न करोत्यर्थः क्रियाशब्दस्य प्रवृत्तिनिमित्तम् , अपि तहि कारकव्यापारविशेषः, व्यापारश्च व्यापारान्तराद् भिद्यत इत्यस्त्याद्यर्थोऽपि क्रियैव, करोत्यर्थस्तु क्रियाशब्दस्य व्युत्पत्तिनिमित्तमेव; एवं सति क्रियासामान्यवचनाः कृभ्वस्तयः क्रियाविशेषवचनास्तु पचादय इति सिद्धम् । तथा 'भावे घञ्' इत्युक्त्वा 'कारः, पाकः' इत्यादयोप्युदाह्रियन्ते । ‘कियोपपदाद्धातोस्तुम्' इत्युक्त्वा 'योद्धधनुर्भवति, द्रष्टचक्षर्जातम्' इत्याद्यप्युदाहरणं युक्तम् । यदाहः-'यत्रान्यत क्रियापदं न श्रयते तत्रास्तिर्भवन्तीपरः प्रथमपुरुषे प्रयुज्यते” इति । क्रिया च द्वेधा सिद्ध-साध्यत्वभेदात. तत्र सिद्धस्व. भावोपसंहृतकमा परितः परिच्छिन्ना सत्त्वभावमापन्ना मादिभिरभिधीयते.. यदाह"कृदभिहितो भावो द्रव्यवत् प्रकाशते" इति; तुमादिभिस्तु सत्त्वभावमनापन्नेति विशेषः;
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पाद-३, सूत्र-३]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
साध्यमानावस्था पूर्वापरोभूतावयवा भूत-भविष्यद्-वर्तमान-सदसवाद्यनेकावयवरूपाssख्यातपदैरुच्यते, यदाह-"पूर्वापरीभूतं भावमाख्यातेनाचष्टे" यथा च पञ्चतीत्यत्र पूर्वापरीभावस्तद्वदेव 'जायते, अस्ति, विपरिणमते, वर्धते, प्रपक्षीयते, विनश्यति, भवति, श्वेतते, संयुज्यते, समवैति' इत्यादावपि साध्यत्वाभिधामेन क्रमरूपाश्रयणात् क्रियाध्यपदेशः सिद्धः, तदुक्तम्
"यावत् सिद्धमसिद्धं वा, साध्यत्वेनाभिधीयते ।
आश्रितक्रमरूपत्वात् , तत् क्रियेति प्रतीयते।" ॥३॥ न्या० स०-क्रियार्थो०-पूर्वावयवयोगात्पूर्वाऽपरावयवयोगादऽपरा पूर्वा चासावपरा च पूर्वापरा अपूर्वापरा पूर्वापरा भूता पूर्वापरीभूता, तत्र पूर्वापरयो योरपि प्रथमोक्तत्वेन 'पूर्वापरप्रथम' ३-१-१०३ इति शब्दपरस्पर्धनाऽपरशब्दस्य पूर्वनिपाते प्राप्ते राजदन्तादित्वात् पूर्वस्य पूर्वनिपातः, तत्र पूर्वोऽवयवोऽधिश्रयणादिरपर उदकसेकादिस्तौ द्वावपि भागौ पाकक्रियायां स्तः, सा ह्यधिश्रयणोदकसेचनादि रूपा।
साध्यमानरूपेति-साध्यमानं साधनायत्तं रूपं स्वरूपं यस्याः सा क्रिया, यथापचति कः ? चैत्र , किम् ? ओदनम् , कै: ? काष्ठः क्व ? स्थाल्यां, कुतः ? कुशूलात् , कस्मै ? मैत्रायेति भावना।
ननु पचतीत्यादिष्वस्तु क्रियात्वं भवतीत्यादिषु तु सत्ताया नित्यत्वेन साध्यमानत्वाऽभावात् तदभावे च पूर्वापरविभागावात् तदभावे च क्रियार्थत्वाभावे न प्राप्नोति धातुसंज्ञा ? . सत्यं, आधेयभेदेन सत्तापि पूर्वापरीभूता साध्यमानरूपा, यथा-सैव देवदत्तसत्ता क्वचिद्गमनयुक्ता क्वचिद्भोजनयुक्ता क्वचिद्पठनयुक्ता, एवमनेकधा योजना कार्या ।
आयादिप्रत्ययान्तेति-ननु क्रियार्थे धातौ शिश्ये इत्यादिषु भावे तदर्थप्रत्ययस्यापि धातुत्वप्रसङ्गः । भावप्रत्ययो हि क्रियार्थ एव उत्पद्यते ततश्च 'आत् संध्यक्षर', ४-२-१ इत्या. त्वप्रसङ्गः । आत्वे हि धातोविहितमनैमित्तिकं चेति । अतः प्रत्ययप्रतिषेधार्थ क्रियाविशेषक प्रथमग्रहणं कर्त्तव्यं व्याख्येयं च प्रथमं यः क्रियामाहेति, प्राथम्यं चात्राभिधानापेक्षं ग्राह्य, तेन किं सिद्धं ? अन्येनानभिहितां क्रियां य आह स धातुः । अयमर्थोऽन्येभ्यः क्रियाभिधायिभ्यो यः प्रथममाहेति । शिश्ये, इत्यत्र तु शीत्यनेनाभिहितां क्रियां प्रत्यय आहेति, न तस्य धातुसंज्ञाप्रवृत्तिः । शब्दार्थापेक्षया प्राथम्यं घटते तत्र शब्दतश्चेत्पुत्रीयतीत्यादावपि न प्राप्नोति, नात्र प्रथममुच्चार्यमाणः पुत्रशब्दः क्रियामाह । अर्थतश्चेत् पुत्रीयतीत्यादौ प्रथमा आद्या क्रिया अप्रथेनापि क्येनाभिधीयते न तु द्वितीयेति सिध्यति धातुसंज्ञा ।
ननु प्रथमग्रहणे सति चिकीर्षतीत्यत्रापि न प्राप्नोति धातुसंज्ञा, यतोऽत्रापि सन् प्रत्ययो न प्रथम क्रियामाह अपि तु कृइत्यनेनाभिहिताम् ? नैवं, करोत्यर्थोपसर्जनामिच्छामन्येन अनभिहितां सन्प्रत्यय आहेति स्यादेव धातुसंज्ञेति । अत्रोच्यते,-यथात्र प्रथमग्रहणे कृते 'शिश्ये' इत्यत्र धातुसंज्ञा न भवति तथा स्वाथिकानामायादीनामपि न प्राप्नोति । गोपायति, कामयत इत्यादिषु अत्रापि अभिहिताया एव क्रियाया आयादिभिरभिहितत्वात्, तस्मादेवं व्याख्येयं-क्रियामेव प्राधान्येन योऽभिधत्ते स क्रियाभिधायी धातुसंज्ञः । गोपायतीत्यादावपि तदस्तीति सिद्धा घातुसंज्ञा । 'शिश्ये' इत्यादौ तु भूतानद्यतन परोक्षत्वादेरभि
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४]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद-३, सूत्र-३
धानान्न धातुसंज्ञा । एतेन क्रियवाभिधेया यस्य स धातुः एवं च कृत्वा, कत्तु मित्यादिषु भावे कृत् प्रत्ययान्तस्यापि न धातुसंज्ञा । कि चात्रान्यदपि उत्तरमस्ति साध्ये अव्ययसंज्ञया धातुसंज्ञाया बाधितत्वात् , 'इकिश्तिवस्वरूपार्थे' ५-३-१३८ इति प्रत्ययान्तस्य सिद्धसाध्ययोरभेदोपचारेण सिद्धरूपत्वात् । कर्त्तव्यं, भूयते इत्यादौ तु भावे त्याद्यन्तस्य क्रियार्थत्वेऽपि न धातुत्वं साहचर्यात् , यतोऽन्येषामलिङ्गसंख्यानामपदसंज्ञकानां धातुसंज्ञाप्रत्ययादि, अत्र तु लिङ्गसंख्यापदसज्ञानां विद्यमानत्वात् ।
शिष्टप्रयोगानुसारित्वादिति-लक्षणात् पार्थक्येन शिष्यन्ते प्रतिपाद्यन्ते इति शिष्टा धातवस्तेषां प्रयोगः पाठस्तदनुसारित्वात् तत्सव्यपेक्षत्वात् ।
अस्य लक्षणस्य क्रियार्थो धातुरित्यस्येत्यर्थः, यद्येवं पाठ एवाऽस्तु किमनेन लक्षणेनेति चेत् ? नैवं, पाठपठितानामपि क्रियार्थानामेव धातुत्वज्ञापनार्थत्वादित्याह-शिष्टज्ञापनायेति-अयमर्थो लक्षणात् पृथक्पठिता अपि त एव शिष्टा धातवो ये क्रियार्थाः, तेन वावाप्रभुतीनां सर्वनामविकल्पाद्यर्थानां पाठाविसंवादित्वेऽपि लक्षणविसंवादित्वादाणपयत्यादीनां तु क्रियार्थत्वेऽपि पाठविसंवादित्वाद्धातुत्वाभावः ।।
अन्वयव्यतिरेकाम्यामिति-अथ कथं प्रकृतिप्रत्ययसमुदायेऽपि प्रकृतेरेव धातुत्वम् ? इत्याह-तथाहि-पचतीति-अत्र पचि: पाके वर्त्तते, पाकशब्देन च सिद्धो भाव उच्यते, साध्याभिधायिनश्च धातुत्वमतः कथमिह धातुत्वम् ? (सत्यं,) अन्यथा वक्तुमशक्यत्वात् . पाकशब्देनापि साध्यो भाव उच्यते साध्यावस्थामनुभूयैव हि सिद्धभावोऽपि भवतीति ।
संसष्टक्रियेति-क्रिया च काल कारकं च क्रियाकालकारकाणि तानि आयो येषां, आदिशब्दादेकत्वादि, संसृष्टाश्च ते क्रियाकालकारकादयश्च ते च ते अनेकार्थाश्च । न एकोऽनेकः, अनेके च ते अर्थाश्च तान् अभिदधातीति ।
शब्दो हीयते इति जहाति शब्दं देवदत्तः, स एवं विवक्षते, नाहं जहामि किंतु स्वयमेव हीयते।
व्यापारविशेष इति-पचतीत्यादिषु हि तदस्ति इति धातुत्वं यतः, पचतीत्युक्ते, न पठति, न गच्छति, न किंचिदन्यद्व्यापारान्तरं विधत्ते किंतु पाकरूपविशेष एव गम्यत इति । ननु तथापि अस्त्यादीनां न प्राप्नोति क्रियात्वं सत्ताया व्यापारविशेषाभावात् , यतः सर्वोऽपि धात्वर्थोऽस्त्यादिभिर्व्याप्त: ? इत्यतो युक्तिमाह
व्यापारश्चेत्यादिः-अयमर्थोऽस्त्येवैतत् तथापि पाकादेविशेषात् सत्ताया अपि विशेषो ज्ञायते स्वरूपेण, न हि स एव पाक: सैव सत्तेति, यथाऽनेकघटाच्छादक एक: पटस्तेष्वनुष्यूतोऽपि तेभ्यो भिद्यते, न हि स एव पट: स एव घट इति, एवं कृतेऽपि तथा ।
भावे घनीति-यथा क्रियाशब्दस्य न करोत्यर्थः प्रवृत्तिनिमित्तं किन्तु कारकव्यापारविशेषस्तथा भावशब्दे च न भवत्यर्थः प्रवृत्तिनिमित्तमपि तु कारकव्यापार एवेत्यर्थः, यदाह हरि:
आख्यातशब्दे भागाभ्यां, साध्यसाधनवतिता। प्रकल्पिता यथाशास्त्रे, स घत्रादिष्वपि क्रमः ।।१।।
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पाद-३, सूत्र-४]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
साध्यत्वेन क्रिया तत्र, धातुरूपनिबन्धना।
सत्वभागस्तु यस्तस्याः, स घनादिनिबन्धनः ।।२।। तत्र सिद्धस्वभावेति- निर्धारणसप्तम्यन्तात् त्रप् , सिद्धसाध्यभेदयोर्मध्ये इत्यर्थः । परितः परिच्छन्नेति-निष्पन्नत्वात् सर्वात्मना ज्ञातेत्यर्थः परिनिष्ठितरूपा वेत्यर्थः ।
सत्वभावमापन्नेति-अयमर्थः पाक इत्यादी प्रकृतिभागः साध्यरूपमर्थमाह प्रत्ययभागस्तु सत्त्वरूपताम् ।
भूतभविष्यदित्यादि-सर्वेषां द्वंद्वपूर्वो बहुव्रीहिः पृथगर्थत्वात् , भूतभविष्यद्वर्त्तमानाश्च ते सदसन्तश्चेति कर्मधारयपूर्वो वा, आदिशब्दात् प्रत्यक्षपरोक्षता ।
विपरिणमते इति--विपरिणमति देवदत्तः पदार्थं स एवं विवक्षते, नाहं विपरिणमामि स्वयमेव विपरिणमते, 'एकधातोः" ३-४-८६ इत्यात्मनेपदं, किरादित्वाच्च क्याभावः एवमपक्षीयते इत्यत्रापि ।
यावत् सिद्धमसिद्धं वेति सिद्धं सत्तादि, असिद्धं तु कटादि । नन्वेवं तहि सत्तायाः साध्यमानता कया रीत्या ? उच्यते,-यथा एकस्मिन् स्थाने पाषाणखण्डं कस्तूरिका चास्ति, ततः कस्तूरिकामाहात्म्यात् पाषाणखण्डमपि सुगन्धि भवत्येवमत्रापि कस्मिश्चिदेकस्मिन् पिण्डे पाकक्रिया सत्ता च विद्यते पाकक्रिया च पूर्वापरीभता ततस्तस्या माहात्म्यात सत्तापि पूर्वापरीभूता भवति इति साध्यमानत्वं किंबहुनाख्यातपदेन उच्यमान: सिद्धभावोऽपि साध्यरूपतां भजति तन्माहात्म्यात् ।
न प्रादिरप्रत्ययः ॥ ३. ३. ४ ॥
'प्रादिश्चाधन्तर्गणः, स धातुः,-धातोरवयवो न भवति-तं व्युदस्य ततः पर एव धातसंज्ञो वेदितव्यः, अप्रत्यय.-न चेत ततः परःप्रत्ययो भवति । अभ्यमनायत, अभिमिमनायिषते, अभिमनाय्य गतः, प्रासादीयत् , प्रासिसादीयिषति, प्रासादोग्य गतः । प्रादिरिति किम् ? अमहापुत्रीयत् । अप्रत्यय इति किम् ? 'औत्सुकायत, उत्सुसुकायिषते, उत्सुकायित्वा । 'अभिमनायादिः प्रत्ययान्तः स प्रादिसमुदायः क्रियार्थ इति तस्मिन् धातुसंज्ञे प्राप्ते प्रादिस्ततः प्रतिषेधेन बहिष्क्रियते, ततश्च तत उत्तर एव धातुरिति तस्याट द्विवचनं च भवति, प्रादेश्वोत्तरेण समास इति क्त्वाया यबादेशः। असंग्रामयत शूर इति नायं सम् प्रादिः, किन्तु धात्ववयवः, यथा-विच्छाद्यवयवो विः, “संग्रामणि युद्ध" इत्यखण्डस्य चुरादौ पाठात् ॥४॥
न्या० स०-न प्रादि०-प्रासादीय्य गत इति-यद्यत्र धातुत्वं स्यात्तदा 'गतिक्वन्य' ३-१-४२ इति समासो न स्यात 'नाम नाम्ना०'३-१-१८ इत्यनवर्तनात, धातत्वे च नामत्वं न स्यात् । उत्सुसुकायते इति 'नाम्नो द्वितीयात् ४-१-७ इति सु इति द्विरुक्तः, 'धुटस्तृतीयः' २-१-७६ इति कृतदस्थानतकारस्य परेऽसत्त्वात् 'न बदनम्' ४-१-५
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६ ]
बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते
[ पाद- ३, सूत्र -५
इति द्वित्वाभाव:, अन्वित्यधिकाराद् वा पश्चात् 'अघोषे ' १-३-५० इति तः, ततः सुइत्यस्यैव द्वित्वम् ।
अवो दा-धौ दा ॥ ३ ३.५ ॥
·
;
'दा धा' इत्येवंरूपौ धातू श्रवानुबन्धौ दासंज्ञौ भवतः । दारूपाश्चत्वारः, धारूपौ द्वौ | दांम् प्रणिदाता, बैंङ- प्रणिदयते, डुदांग्क् प्रणिददाति, दोंच्- प्रणिति ट्वें- प्रणिधयति, धांग्क् - प्रणिदधाति । दाधारूपोपलक्षितस्य दासंज्ञावचनात् ' दो दें ट्वें' इत्येतेषां शितिदा धारूपाभावेऽपि वासंज्ञा सिद्धा । दोङो दारूपस्य बहिरङ्गत्वान्न भवति, ततश्व 'उपादास्त' इत्यत्र "इश्व स्थाद: " [ ४. ३.४१ ] इतीत्वं न भवति । अवाविति किम् ?. दांव - दातं बहिः, वैव् अवदातं मुखम् । अविति बकारो न पकारः, दातियतिश्च वकारानुबन्ध, तेन प्रणिदापयति प्रणिधापयतीत्यत्र दासंज्ञायां सत्यां नेर्णत्वं सिद्धम् । दाप्रवेशा:" हौद :" [ ४.१.३१ ] इत्यादयः ।। ५ ।
वर्तमाना-तिव् तस् अन्ति, सिव् यस् थ, मिबू वसू मसू; ते आते अन्ते, से आथे वे, ए वहे महे ।। ३. ३. ६ ॥
इमानि वचनानि वर्तमानसंज्ञानि भवन्ति । वित्करणं "शिववित्" [४.३.२० ] इत्यत्र विशेषरणार्थम्, एवमन्यत्रापि वित्करणस्य प्रयोजनं द्रष्टव्यम् । वर्तमानाप्रदेशा:"स्मे च वर्तमाना" [ ५. २. १६ ] इत्येवमादयः ।। ६ ।।
न्या० स०० - वर्तमाना- संज्ञिनां बहुत्वेऽपि संज्ञागतैकत्वाश्रयणात् वर्त्तमानेति संज्ञाया एकवचनं, वचनभेदेऽपि संज्ञासंज्ञिनिर्देशो भवत्यनवर्णानामीतिवत् ।
सप्तमी - यात्याताम् युस्, यासू यातम् यात, याम् याव याम; ईत ईयाताम् ईरन, ईथास ईयाथाम् ईध्वम्, ईय ईव हि ईमहि ॥ ३३७ ॥
इमानि वचनानि सप्तमीसंज्ञानि भवन्ति । सप्तमीप्रवेशा:-"इच्छायें कर्मणः सप्तमी" [ ५. ४. ८६ ] इत्येवमादयः ।। ७ ।।
पञ्चमी- तु ताम् अन्तु, हि तम् त, आनिव आवव आमव्; ताम् श्राताम् अन्ताम्, स्त्र आथाम् ध्वम्, ऐव् आवहैव आमहैव्
॥ ३.३.८ ॥
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पाद- ३, सूत्र - ९-१३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
[ ७
इमानि वचनानि पञ्चमीसंज्ञानि भवन्ति । पश्चमी प्रदेश :- "स्मे पञ्चमी" [ ५. ४. ३१ ] इत्येवमादयः ।। ८ ।।
ह्यस्तनी - दिव ताम् श्रन्, सिव् तम् त,
अम्बू व म; त
"
आताम् अन्त, थास् श्राथाम् ध्वम्, इवहिमहि ॥ ३.३.१ ॥
इमानि वचनानि ह्यस्तनीसंज्ञानि भवन्ति । ह्यस्तनी प्रदेशा:-- “ अनद्यतने ह्यस्तनी" [ ५. २.७ ] इत्येवमादयः ।। ६ ।।
एताः शितः । ३. ३. १० ॥
एता वर्तमाना सप्तमी - पञ्चमी - ह्यस्तन्यः शितः शानुबन्धा वेदितव्याः । शित्त्वाच्च शित्कार्यम् - भवति, भवेत् भवतु श्रभवत् ॥ १० ॥
1
अद्यतनी - दिताम् अन्, सि तम् त, ग्रन्त, थास् आथाम् व्वम्, इ वहि महि
॥
अम् व म; त आताम्
३ ३. ११ ।।
-
इमानि वचनान्यद्यतनीसंज्ञानि भवन्ति । श्रद्यतनी प्रदेशा:- "प्रद्यतनी' [ ५.२.४ ]
इत्यादयः ।। ११ ।।
परोक्षा-णव् अतुस् उस्, थव् अथुम् अ, णव व म, ए या इरे, से आथे ध्वे, ए वहे महे ॥ ३. ३. १२ ॥
इमानि वचनानि परोक्षासंज्ञानि भवन्ति । परोक्षाप्रदेशा:-' श्रु-सद-वस्भ्यः परोक्षा वा" [ ५.२.१ ] इत्येवमादयः ।। १२ ।।
"
आशी:- क्यात् क्यास्ताम् क्यासुस् क्यास क्यास्तम् क्यास्त, क्यास क्यास्व क्याम्म, सीष्ठ सीयास्ताम् सीरन्, सीष्टास् सीयास्थाम् सीध्वम्, सीय सीवहि सीमहि ।। ३ ३ १३ ॥
"
इमानि वचनानि आशी संज्ञानि भवन्ति । कित्करणं "नामिनो गुरणोऽक्ङिति " [ ४. ३. १ ] इत्यादिषु विशेषणार्थम् । श्राशीः प्रदेशाः - आशिष्याशीः- पञ्चम्यौ " [ ५.४. ३८ ] इत्यादयः ।। १३ ।।
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बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-१४-१७
श्वस्तनी-ता तारौ तारस्, तासि तास्थस् तास्थ, तास्मि तास्वस् तास्मस् ; ता तारौ तारस् , तासे तासाथे ताध्ये, ताहे तास्वहे तास्महे ॥ ३. ३. १४॥
इमानि वचनानि श्वस्तनीसंज्ञानि भवन्ति। श्वस्तनीप्रदेशा:-"अनद्यतने श्वस्तनी" [ ५. ३. ५ ] इत्येवमादयः ॥ १४ ॥
भविष्यन्ती-स्यति स्यतस् स्यन्ति, स्यसि स्यथस् स्यथ, स्यामि. स्यावस् स्यामस् , स्यते स्येते, स्यन्ते, स्यसे स्येथे स्पध्चे, स्ये स्यावहे स्यामहे ॥ ३. ३. १५॥
इमानि वचनानि भविष्यन्तीसंज्ञानि भवन्ति । भविष्यन्तीप्रदेशा -"भविष्यन्ती" [५.३ ४ ] इत्यादयः ॥१५॥
क्रियातिपत्तिः-स्यत् स्यताम् स्यन् , स्यस् स्यतम् स्यत्, स्यम् स्याव स्याम् ; स्यत स्येताम् स्यन्त, स्यथास् स्येथाम् स्यध्वम् , स्ये स्यावहि स्यामहि ॥ ३. ३. १६ ॥
इमानि वचनानि क्रियातिपत्तिसंज्ञानि भवन्ति । क्रियातिपत्तिप्रदेशा:-"सप्तम्यर्थे कियातिपत्तौ क्रियातिपत्तिः” [ ५. ४ ६ ] इत्येवमादयः ॥ १६ ॥
त्रीणि त्रीण्यन्ययुष्मदस्मदि ।। ३. ३. १७॥ .
सर्वासां विभक्तीनां त्रीणि त्रीणि वचनानि अन्यस्मिन्नर्थे युष्मदर्थे प्रस्मदर्थे चाभिधेये यथाक्रमं परिभाष्यन्ते । अन्यत्वं युष्मदस्मदपेक्षं संनिधानात् । युष्मच्छब्दोपसृष्टार्थो युष्मदर्थः, तेन भवच्छब्देनोच्यमानो न युष्मदर्थः । स पचति, तौ पचत ते पचन्ति; पचति पचत: पचन्ति; स पचते, तौ पचेते, ते पचन्ते; पचते, पचेते, पचन्ते; भवान पचति, भवन्तौ पचतः, भवन्त: पचन्ति इत्यादि । युष्मदि-त्वं पचसि, युवा पचथः यूयं पचथ; पचसि, पचथः, पचथ; त्वं पचसे, युवां पचेथे, यूयं पचध्वे; पचसे, पचेथे, पचध्वे । अस्मादि-अहं पचामि, प्रावां पचावः, वयं पचामः; पचामि, पचावः, पचामः; अहं पचे, आवां पचावहे, वयं पचामहे ; पचे, पचावहे, पचामहे । एवं सर्वासु । द्वययोगे त्रययोगे च शब्दपराश्रयमेव वचनमतिदिश्यते-स च त्वं च पचथः, स चाहं च पचावः, स च त्वं चाहं च पचामः ।
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पाद-३, सूत्र-१७]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
कथमत्वं त्वं संपद्यरो-अनहमहं संपद्यते-त्वद्भवति मद्भवति ? युष्मदस्मदोगौणत्वात् , त्वमादेशौ तु शब्दमात्राशयत्वाद् भवत एव ।
एहि मन्ये-रथेन यास्यसि, नहि यास्यसि यातस्ते पितेति प्रहासे यथाप्राप्तमेव प्रतिपत्तिात्र प्रसिद्धार्थविपर्यासे किचिनिबन्धनमस्ति, रथेन यास्यसीति भावगमनाभिधानात् प्रहासो गम्यते, नहि यास्यसीति बहिर्गमनं प्रतिषिध्यते, अनेकस्मिन्नपि प्रहसितार च प्रत्येकमेव परिहास इत्यभिधानवशात् 'मन्ये' इत्येकवचनमेव, लौकिकश्च प्रयोगोऽनुसर्तव्य इति न प्रकारान्तरकल्पना न्याय्या ।। १७॥
न्या० स०-त्रीणि बहुवचनं विभक्तित्रयेऽपि चरितार्थमिति कथं सर्वासामिति लभ्यते ? सत्यं, यद्येतदिष्टं स्यात्तदा विभक्तित्रयानन्तरमिदं सूत्रं कुर्यान्न सर्वविभक्त्यन्ते ।
___ अन्यत्वमिति-युष्मदस्मदी चाऽत्र सूत्रे संनिहितेऽतस्तदपेक्षयवाऽन्यस्मिन्निति विज्ञायते । नन्वस्तु युष्मदस्मदपेक्षमन्यत्वं युष्मदस्मदोस्त्वत्र स्वरूपग्रहणमुतार्थग्रहणं स्वरूपेण चेत; किमसि, विस्मरसि स्मरसायकान, नास्मि, रमे, कि प्रतार यस्येवमिति युष्मदस्मदपेक्षमन्यत्वं युष्मदस्मदर्थप्रयोगे द्वितीयतृतीयत्रिके न स्याताम् ? इत्याह-युष्मवर्थ इत्यादि-नन्वर्थग्रहणे भवान् मन्यते इत्यत्रापि प्राप्नोति ? मैवं, भवच्छब्दस्य हि युष्मदर्थत्वाभावाद् द्वितीयत्रिकाप्रसङ्गः, भवच्छब्दो हि अन्यार्थो, न युष्मदर्थः, युष्म च्छब्दप्रवृत्ति प्रति योग्यो हि यष्मदर्थो न च भवच्छब्देनाभिधीयमानो युष्मच्छब्दप्रवत्ति प्रति योग्यः, न हि कदाचिदेवं प्रयुज्यते त्वं भवान् पचसीति । एकेनैव तस्मिन्नुक्ते तत्रेतरस्य विषयाभावादित्याह
तेनेत्यादि-भवच्छब्देनाभिधोयमाने युष्मदर्थाभिधायकस्यापि शब्दस्य न प्रतिषेधः । मत्संबन्धेऽस्तिधातोर्वर्तमानासिवि प्रत्यये योऽसौ प्रयोगस्तत्सदृशत्वात् कि बहुनाऽस्येष्टत्वात् भवति ।
त्वं पचसीति-त्वमिति सामान्य उक्ते न ज्ञायते-किं गच्छसि, पठसोति विशेषार्थ पचसीति प्रयुञ्जते । युष्मच्छब्दस्तु केनचिद् भ्रान्त्या पचसीति पदे भवदर्थेऽपि ज्ञाते तन्निरासाय त्वमिति प्रयोक्तुयुक्तः, यथा शंखस्य धवलत्वे सत्यपि भ्रान्त्या केनचित् पीतत्वे ज्ञाते पाण्डुर इति विशेषणमुपन्नम् ।
कथमऽत्वं त्वमिति-अयमर्थः प्रकृतिविकृत्योरभेदविवक्षायां च्विः प्रत्ययस्त च किं प्रकृत्याश्रयणे प्रथमत्रिकेण भवितव्यमुत विकृत्याश्रयणे द्वितीयत्रिकेणेति ? उच्यते, प्रकृतेरेव संपत्तौ कर्तृत्वात् प्रथमेनैव भाव्यमित्याह
त्वद्भवति मद्भवतीति-संपद्यते इत्यर्थकथनमिदमन्यथा कृ-भ्वस्तियोगाभावात् विन स्यात् !
यूष्मदस्मदोगौणत्वादिति-अयमर्थः-अत्र पूर्व अत्वंशब्देन सह संबन्धोऽतो यूष्म च्छब्दस्य गौणत्वं, यदा तु त्वमित्यनेन प्रथम संबन्धो विवक्ष्यते तदा भवत्येव, यद् वा युष्मदस्मदोरर्थस्य निषिध्यमानस्य कर्तृत्वे गौणत्वं यदा त्वनिषिद्धस्य कत्तृ त्वं तदा भवत्येव ।
शब्दमात्राश्रयत्वादिति - अर्थाश्रयो हि शब्दानां गौणमुख्यव्यवहारो, न स्वरूपेण ।
यूम
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१० ]
बृहद्वृत्ति- लघुन्याससंवलिते
[ पाद- ३, सूत्र - १८-२०
यदाह-गौण मुख्यार्थाश्रयत्वात्तथाशब्दोऽपि व्यपदिश्यते, न च त्वमादेशविधावऽर्थचिन्ता कृतेति ।
एहि मन्ये रथेनेति मध्यमोत्तमयोः प्राप्तयोरुत्तममध्यमविधानार्थं 'प्रहासे च च भन्योपपदे मन्यतेरुत्तम एकवच्च' इति परसूत्रमत्र प्रहासः, परिहासः प्रहासे गम्यमाने मन्योपपदे धातो मध्यमः पुरुषो भवति मन्यतेश्चोत्तमः स च एकवद् भवतीति सूत्रार्थ: । एहि, मन्ये ओदनं भोक्ष्यसे, न हि भोक्ष्यसे, भुक्तः सोऽतिथिभिः । एहि, मन्ये रथेन यास्यसि न हि यास्यसि, यातस्ते पिता । मध्यमोत्तमयोः प्राप्तयोरुत्तममध्यमौ विधीयेते । प्रहास इति किम् ? एहि, मन्यस ओदनं भोक्ष्ये इति सुष्ठु च मन्यसे, साधु च मन्यसे । न्यासः प्रहासे गम्यमान इति । यत्र भूतार्थाभावात् वञ्चनैव परं तत्र वक्तुरभिप्रायाविष्करणेन प्रहासो गम्यते । मन्योपपदे इति मन्यतिरुपपदमुपोच्चारितं पदं यस्य स तथोक्तः । मध्यमस्य धातोविधानात् धातुरन्यपदार्थो विज्ञायते इत्याह- धाताविति स च एकवच्चेति । यत्र द्वौ मन्तारौ बहवो वा तत्रायमेकवद्भावो विधीयते, अन्यत्र तु वक्तुरेकत्वात् एकवचनं सिद्धम् । मन्य इति श्यनिर्देशो देवादिकपरिग्रहार्थः तेन तनादिकस्य न भवति । सूत्रेऽन्ययुष्मदस्मदीति निर्देशस्यार्थपरत्वेऽपि शब्दार्थयोरभेदाच्छब्दपरत्वेन न 'त्यदादि:' ६-१-७ इत्येकशेषः, तत्रार्थपरत्वेन स्वीकृतत्वात् ।
एक द्वि- बहुषु ।। ३ ३.१८ ॥
अन्यादिषु यानि त्रीणि त्रीणि वचनानि उक्तानि तानि एक-द्वि-बहुष्वर्थेषु परिभाष्यन्ते - एकस्मिन्नर्थे एकवचनम्, द्वयोरर्थयोद्विवचनम् बहुष्वर्थेषु बहुवचनम् । स पचति, तौ पचतः ते पचन्ति इत्यादि । वचनमेवान्नान्यादिभिरेकादीनां यथासंख्यम् ।। १८ ।।
नवाद्यानि शतृ - कसू च परस्मैपदम् । ३. ३. ११ ॥
सर्वासां विभक्तीनामाद्यानि नव नव वचनानि शतृ-क्वसू च प्रत्ययौ परस्मैपदसंज्ञानि भवन्ति । तिय् तस् अन्ति, सिव् यस् थ, मिव् वस् मस् एवं सर्वासु । परस्मैपदसंज्ञाप्रदेशा:"शेषात् परस्मै" इत्यादयः ।। १९ ।।
न्या० स० - नवाद्यानि -नव नव वचनानीति संज्ञिनां बहुत्वादगृहीतविप्सोऽपि नवन् शब्दो वीप्सां गमयति, एवं पराणीत्यत्रापि । नन्वनन्तराया: क्रियातिपत्तेरेवाद्यानि परस्मैपदानीति कथं न लभ्यते ? सत्यं लृदिद्युतादिसूत्रेषु अन्यासामपि विभक्तीनां परस्मैपदग्रहणात् ।
पराणि काना - शौचात्मनेपदम् ॥ ३. ३. २० ॥
सर्वासां विभक्तीनां पराणि नव नव वचनानि काना-ssनशौ च प्रत्ययावात्मनेपदसंज्ञानि भवन्ति । ते आते प्रन्ते, से आये ध्वे, ए वहे महे, एवं सर्वासु । आत्मनेपदप्रदेशा:"सिजाशिषावात्मने" [ ४. ३. ३५ ] इत्यादयः ।। २० ।।
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पाद-३, सूत्र-२१]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
[११
तत् साप्या ऽनाप्यात् कर्म-भावे कृत्य-क्त खलाश्व।। ३. ३. २१॥
तद्-प्रात्मनेपदं, कृत्य क्त-खलाश्च प्रत्ययाः साप्यात्-सकर्मकाद् धातोः कर्मणि, अनाप्याद् अकर्मकादविवक्षितकर्मकाच्च भावे भवन्ति । क्रियते कटश्चैत्रेण, क्रियमाणः, करिष्यमाणः चक्राणः । भावे-भूयते भवता, भूयमानं भवता, सकर्मका अप्यविवक्षितकर्माणः कञकनिष्ठव्यापारा अकर्मका भवन्ति, तेनैषां भावेऽपि प्रयोगः-क्रियते भवता, मृदु पच्यते भवता, पञ्च वारान् भुज्यते भवता। कृत्य-कार्यः, कर्तव्यः, करणीयो, देयः, कृत्यः कटो भवता, भवती शयितव्यम् , भवता शेयम् , भवता कार्यम् , कर्तव्यम् , करणीयम् ; देयं भवता, कृत्यं भवता । क्त-कृतः कटो भवता, शयितं भवता, कृतं भवता । सकर्मकादपि क्लीबे क्तमिच्छन्त्येके-ग्रामं गतं भवता; ओदनं भुक्तं भवता । खलर्थ-सुकरः कटो भवता, सुशयं भवता, सुकरं भवता, सुकटंकराणि वीरणानि, ईषदाढय भवं भवता, सुज्ञान तत्त्वं मुनिना, सुग्लानं कृपणेन । “काला-ऽध्व-भाव-देश वा०" [२. २. २३ ) इत्यादिना काला-ऽध्व-भाव-देशानां कर्मसंज्ञाया अकर्मकत्वस्य च विधानात् तद्योगे कर्मणि भावे चात्मनेपदादीनि भवन्ति-मास आस्यते, क्रोशो गुडधानाभिभूयते, गोदोहः सुप्यते, नदी सुप्यते, मास प्रासितव्यः. मास आसितः, मासो दुरासः; भावे-मासमास्यते. कोशमधीयते, प्रोदनपाकं स्थीयते, कुरून् सुप्यते, मासमासितव्यम् , मासमासितत् , मासं स्वासम् । भावे च युष्मस्मत्संबन्धनिमित्तयोः कर्तृ-कर्मणोरभावात प्रथममेव त्रयं भवति, साध्यरूपत्वाच्च संख्यायोगो नास्तीति प्रोत्सगिकमेकवचनमेव भवति । पाकः पाको पाका:, पाको वतते, पाक करोतीत्यादौ च नव्ययकदाभिहितो भावो द्रव्यवत प्रकाशत इति संख्यया लिङगेन कारकैश्च युज्यते, त्यादिनेवाव्ययेनाभिहितस्त्वसत्त्वरूपत्वान्न युज्यते 'उष्ट्रासिका पास्यन्ते, हतशायिकाः शय्यन्ते' इति तु बहुवचनं कृदभिहितेनाभेदोपचाराद् भवतीति ॥२१॥
न्या०-स०-तत्साप्याऽनाप्या-तेनैषां भावेऽपीति-भावे क्रिया न स्वाश्रिता, न पराश्रिता किन्तु निराधारैव शाब्द्या वृत्त्या, आर्थ्या तु भवतीत्यपि ।
ग्रामं गतं भवतेति भवता क; गतं वर्तते । के ग्रामं ‘वा क्लीब' २-२-६२ इति षष्ठ्यपि भवति, यथा ग्रामस्य गतमिति।।
मासमासितव्यमिति-द्वितीयाप्रदानकाले कर्मसंज्ञा षष्ठीप्रदानकाले तु न स्याद्वादात् ।
'भावे च युष्मदस्मत्संबन्धेति युष्मदस्मदोर्यः संबन्धस्तस्य निमित्तयोः कारणभूतयोरित्यर्थः, यद्यपि नाऽकर्त को भाव इति तथापि यत्र सामानाधिकरण्येनात्मनेपदाभिधेयः कर्ता कर्म वा भवति स संबन्धो ग्राह्यो, भावे तु न तादृशः धात्वर्थ एव तत्र विधानात् , यथा त्वं पाठ्य से इत्यत्र कम्मरूपो युष्मदर्थः, आत्मनेपदेन प्रतिपाद्यते । त्वं पठसीति कत रूपः, एवमहं पाठ्य, अहं पाठयामीत्यत्रापि । ततश्च कर्मकोंः प्रतिपादित्वात आत्मनेपदेन कर्मकर्तृकार्य न भवतः, न तथा त्वया भूयते इत्यत्र भावप्रत्ययेन कश्चिदर्थः प्रतिपाद्यते । अतश्च युष्मदस्मदोऽतिरिक्तार्थप्रतिपादकत्वात् प्रथममेव त्रयम् ।
औत्सगिकमिति-एकवचनं च संख्याविशेषाणामभावेऽभेदकत्वं तन्निबन्धनं न तु संख्यानिबन्धनं द्वित्वप्रतियोगि।
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१२ ]
बृहद्वृत्ति- लघुन्याससंवलिते
[ पाद- ३, सूत्र - २२ २३
त्यादिवाव्ययेनेतिः - यथा त्याद्यभिहितो भावोऽसत्त्वरूपतां भजति तथाऽव्ययेनापीत्यर्थः, अव्ययेनेति चोपलक्षणं तेन भावे कृत्यप्रत्ययान्तेनापि तथैव ।
बहुवचनमिति - आस्यन्ते, शय्यन्ते इत्यस्य अव्ययेनेव त्याद्यभिहित भावस्येत्यर्थः ।
अभेदोपचारादिति - आस्यन्ते इत्येवंरूपस्य साध्यभावस्योष्ट्रा सिकारूपेण सिद्धताख्येन सहेत्यर्थः । ' कया युक्त्या आस्यन्ते' इति कोऽर्थः ? आसनानि वर्त्तन्ते किं विशिष्टानि ?, उष्ट्रासिका उष्ट्रा सिकारूपाणि, एवं द्वितीयेऽपि ।
इङितः कर्तरि ॥ ३. ३. २२ ॥
इकारेतो ङकारेतश्च धातोः कर्त्तर्यात्मनेपदं भवति । इदित्-एधि एधते, स्पधि- स्पर्धते एधमानः, स्पर्धमानः । ङितू-शिङ्- शेते, शयनः, ह, नुङ् ह, नुते, ह, नुवानः; महीड़महीयते, महीयमानः, कामयते, कामयमानः श्येनायते, श्येनायमानः; पापच्यते, पापच्यमान:; उत्पुच्छयते, उत्पुछ्धमानः । एभ्य एव कर्तरीति नियमार्थं वचनम् ।। २२ ।।
न्या० स० - इङितः भावकर्म्मणोः पूर्वसूत्रोपादानन्यादेव कर्तृ ग्रहणे सिद्धे तद्ग्रहणमुत्तरार्थं तेनोत्तरसूत्रेण कर्त्तयेव विधानं, ततो व्यतिगम्यन्ते ग्रामा इत्यादिषु पूर्वेणात्मनेपदं सिद्धमन्यथा अगतीत्यंशेन निषेधः स्यादिति तत्र स्वयमेव कथयिष्यति ।
नियमार्थमिति - सतीत्यादिसूत्रैः परस्मैपदात्मनेपदविशेषरहितानां सामान्येन वर्त्तमानादिविभक्तीनां विधानादात्मनेपदे सिद्धे नियमः प्रत्ययनियमश्चायं एभ्य आत्मनेपदमेव न प्रत्ययान्तरमिति, विपरीतनियमो न 'इङितो व्यञ्जन० ' ५-२-४४ इत्यादिकरणात्, कर्त्तयेवात्मनेपदमेभ्य इत्यपि वैपरीत्यं न तत्साध्येत्यस्य व्यक्त्या प्रवृत्तेः ।
क्रियाव्यतिहारेऽगति हिंसा - शब्दार्थ- हसो हवहवानन्योऽन्यार्थे
॥ ३. ३. २३ ॥
इतरेण चिकषितायां क्रियायामितरेण हरणं करणं क्रियाव्यतिहारः, तस्मिन् अर्थे वर्तमानाद् गतिहिंसाशब्दार्थ - हसवजताद् धातोर्ह वहिभ्यां च कर्तर्यात्मनेपदं भवति, न चेदन्योऽन्यार्था: - अन्योऽन्येतरेतर परस्परशब्दाः प्रयुज्यन्ते । व्यतिलुनते, व्यतिपुनते, व्यतिहरते भारम् संप्रहरन्ते राजानः, संविवहन्ते वर्गेः । हृ-वहोर्गतिहिंसार्थत्वात् प्रतिषेधे प्राप्त प्रतिप्रसवार्थमुपादानम् । व्यतिहार इति किम् ? लुनन्ति, पुनन्ति । क्रियेति किम् ? द्रव्यव्यतिहारे मा भूत्-चैत्रस्य धान्यं व्यतिलुनन्ति श्रत्र लुनातिरुपसंग्रहात्मके लवने वर्तते । चैत्रेण यत् गृहीतं धान्यं पुरस्ताल्लवनेनोपसंगृह्णन्तीत्यर्थः । प्रगति - हिंसाशब्दार्थ- हस इति किम् ? । व्यतिगच्छन्ति, व्यतिसर्पन्ति, व्यतिहिंसन्ति, व्यतिघ्नन्ति, व्यतिजल्पन्ति, व्यतिपठन्ति, व्यतिहसन्ति । अनन्योऽन्यार्थे इति किम् ? अन्योऽन्यस्य व्यतिलुनन्ति इतरेतरस्य व्यतिलुनन्ति, परस्परस्य व्यतिलुनन्ति । क्रियाव्यतिहारो व्यतिनैव द्योतित
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पाद-३, सूत्र-२४-२५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्याय:
[ १३
इत्यन्योऽन्यादिभिस्तत्कर्माभिसंबध्यते अन्योऽन्यस्य केदारमिति । कर्तरीत्येव ? तेन भावकर्मणोः पूर्वेणैव स्यादनेन मा भूत् , यदि ह्यनेन स्यात् तदा व्यतिगम्यन्ते ग्रामाः, व्यतिहन्यन्ते दस्यव इत्यत्रागतिहिंसाशब्दार्थहस इति प्रतिषेधः स्यादिति ॥ २३ ॥
न्या० स०-क्रियाव्य-अनेकार्थत्वात् हरणमित्यस्य करणं पर्याय: । तस्मिन्नर्थे इति-यदा अन्येन कर्त्तव्यां त्रियामन्य: करोति, तत्कर्त्तव्यां चेतरस्तदा त्रियाणां व्यतिहारे विनिमये इत्यर्थः । ।
संविवहन्ते इति-अनेकार्थत्वात् गत्यर्थोऽत्र वहिः । अत्र लुनातीति-अयमर्थः व्यतिहृतं धान्यं लुनन्ति लवनेनोपसंगृह्णन्तीति द्रव्यमत्र व्यतिहियते न लवन क्रिया, न ह्यत्र व्यतिना लूनातियुक्तोऽपि त्वप्रयुक्तोऽपि गृह्णातिस्तस्य धान्यं कर्म न क्रियेत्याहलुनातिरुपसंग्रहात्मके इति-उपसंग्रहस्य लवनपूर्वकलाभस्यात्मा यस्मात् लवनात् कोऽर्थः लवनपूर्वकं लानमित्यर्थः ।
कियाव्यतिहार इति-लौकिके शब्दव्यवहारे लाघवानादरादन्योन्यादिशब्दा उपसर्गाश्च क्रियाव्यतिहारद्योतनाय प्रयुज्यन्ते इति न पौनरुक्त्यं, अपौनरुक्त्यं माभूत् अत्र तु क्रियाव्यतिहारस्य व्यतिनैव द्योतितत्वात् क्व अन्योन्यादिशब्दाः संबध्यन्त इत्याहक्रियाव्यतिहार इत्यादि । तत्कर्माभिसंबध्यते इति-अत्र क्रियाव्यतिहारो द्रव्यव्यतिहारश्च वर्तते ततः क्रियाव्यतिहारे प्राप्तम् ।
निविशः॥ ३. ३.२४ ॥
निपूर्वाद विश: कर्तात्मनेपदं भवति । निविशते । न्यविशतेत्यटो धात्ववयवत्वान्न व्यवधायकत्वम् । मधुनि विशन्ति भ्रमरा इत्यादि [ इत्यादौ ] तु निविशोरसम्बन्धादनर्थकस्वाच्च न भवति ॥ २४ ॥
न्या० स०-निविश:-ने: परो विश् नेः संबन्धी विशित्यनन्तरानन्तरिसंबन्धो वा विधेयः ।
उपसर्गादस्योहो वा ॥ ३. ३. २५ ॥
'उपसर्गात् पराभ्यामस्यत्यूहिभ्यां कर्तर्यात्मनेपदं वा भवति । विपर्यस्यति, विपर्यस्यते; समूहति, समूहते, "संततं तिमरमिन्दुरुदासे" [ माघे ] | "यश: समूहन्निव दिग्विकीर्णम्" [किराते ] । अस्येति श्यनिर्देशोऽस्त्यसतिनिवृत्त्यर्थः । उपसर्गादिति किम् ? अस्यति, ऊहते । अस्यतेरप्राप्ते ऊहतेश्च नित्यं प्राप्ते उभयत्र विभाषेयम् । अन्ये त्वकर्मकाभ्यामेवेच्छन्ति, प्रत्युदाहरन्ति च-निरस्यति शत्रून् , समूहते पदार्थान् ।। २५ ।। न्या० स०-उपसर्गा०:
लेखयाविमलविद्रुमभासा-संततं तिमिरमिन्दुरुदासे । दंष्ट्रया कनकभङ्गपिशङ ग्या, मण्डलं भुव इवादिवराहः ।। १ ।।
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१४ ]
बृहवृत्ति-लधुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-२६-२८
वोडानतराप्तजनोपवीतः, संशय्य कृच्छ्रेण नृपः प्रपन्नः ।
वितानभूतं विततं पृथिव्यां, यशः समूहनिवदिग्विकोणम् ।। २ ।। उत्-स्वराद् युजेरयज्ञ-तत्पात्रे ॥ ३. ३. २६ ॥
उदः स्वरान्ताच्चोपसर्गात् पराद् युनक्तेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति, अयज्ञतत्पात्रे-न चेद् यज्ञे यव तत्पात्रं तद्विषयो युज्यर्थो भवति । उद्युङ्क्ते, उपयुङ्क्ते. नियुङ्क्ते । उत्-स्वरादिति किम् ? संयुनक्ति, नियुक्ति । अयज्ञ-तत्पात्र इति किम् ? द्वन्द्वं यज्ञपात्राणि प्रयुनक्ति । यत्र तु यज्ञ एव न तु तत्पात्रम् , तत्पात्रमेव वा न यज्ञस्तत्र भवत्येव । यजे मन्त्रं रन्धनपात्राणि वा प्रयुङ्क्ते, यज्ञपात्राणि रन्धने प्रयुङ्क्ते । "युजिच समाधौ" इत्यस्येदिस्वादात्मनेपदविधानमनर्थकम् ।। २६ ॥
न्या० स०-उत्स्वराः-युजेरीदित्त्वात् फलवति सिद्धेऽफलवदर्थमिदम् । युजिच समाधाविति-न च वाच्यं नियमो व्याख्यास्यतेऽयज्ञतत्पात्रविषय एवास्यात्मनेपदमिति, यज्ञपात्रविषयेऽस्य प्रयोगाभावात् , कथंचित् प्रयोगेऽपि वा नियमाद्विधि: श्रेयानिति भाध्यकारः।
परिव्यवात् क्रियः ॥ ३. ३. २७ ॥
'परि वि अव' इत्येतेभ्य उपसर्गेभ्यः पराक्रोणातेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । पराक्रोणीते, विक्रोणोते, प्रवक्रीणीते; सर्वत्रेगितः फलवतोऽन्यत्र विधिः । उपसर्गादित्येव ? उपरि कोणाति, गविक्रीणाति, वनं बहुविकोणाति, अपचावः कोणीवः । 'की' इत्यनुकरणमनुकार्येनार्थे. नार्थवदितिनामत्वे सति ततः स्यादयः, प्रकृतिवदनुकरणम् इति न्यायाच्च धातुकार्यमियादेशः। अत एव च ज्ञापकात्-प्रकृतिवदनुकरणे कार्य भवति, तेन 'मुनी इत्याह' द्विष्पचतीस्याह इत्यादौ प्रकृतिभाव-षत्वविकल्पावि सिद्धं भवति ।। २७ ।।
न्या० स०-परिव्यवा०-अन्यत्र विधिरिति-अत एव व्यावृत्त्युदाहरणेषु सर्वत्र परस्मैपदम । प्रकृतिवदिति-वतकरणाच्च सर्वथा घातृत्वाभावान्न त्यादयः । प्रकृतिभावषत्वेत्यादि 'ईदेद्विवचनम्' १-२-२४ इति प्रकृतिभावः ‘सुचो वा' २-३-१० इत्यनेन तु षत्वविकल्पः । द्विरिति, पचतीति च पृथक् केनापि प्रयुक्त तवयमनुक्रियते, तत्र यथाऽनुकार्ये द्विष्पचतीत्यत्र षत्वं तथाऽनुकरणेऽपि, एवं प्रथमेऽपि यथानुकार्येऽसंधिस्तथानुकरणेऽपि ।
परा-वेर्जे ॥ ३. ३. २८ ।।
'परा-वि' इत्येताम्यामुपसर्गाम्यां पराज्जयतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । पराजयते, विजयते । उपसर्गादित्येव ? सेना पराजयति, बहु विजयति वनम् ॥२८॥
न्या० स०-परावेर्जे:-जिरिति धातुत्वकरणेऽपि न घातुकार्यमियादेशः बाहुलकात।
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पाद-३, सूत्र-२९-३२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
समः क्ष्णोः ३. ३. २१ ॥
समः परात् क्ष्णौतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । संक्ष्णुते शस्त्रम् । सम इति किम् ? क्ष्णौति । उपसर्गादित्येव ? आयसं क्ष्णौति ।। २९ ।।
___ न्या० स०-समः क्षणोः-ननु समो गमृच्छित्यत्रैव क्ष्णुग्रहणं क्रियतां किं पृथगारम्भेण ? नैवं, तत्र कर्मण्यसतीत्यनुवर्तनात् , इह तु संक्ष्णुते शस्त्रमिति सकम्मणोऽपि भवति ।
अपस्किरः ।। ३. ३. ३० ॥
अपपूर्वात् फिरतेः सस्सट्कात् कर्तर्यात्मनेपदं भवति । अपस्किरते वृषभो हृष्टः, अपस्किरते कुक्कुटो भक्ष्यार्थी, अपस्किरते श्वा आश्रयार्थी "अपाच्चतुष्पात् पक्षि-शुनि हृष्टाऽन्नाऽऽश्रयार्थे" [ ४-४-६६ ] इति स्सट् । सस्सटकनिर्देशादिह न भवति-अपकिरति वृषभः । अपेति किम् ? उपस्किरति ।। ३० ।। .
न्या० स०-अपस्किर:-वृषभो हृष्ट इति-'हृषच तुष्टाविति' विस्मयार्थो विवक्ष्यते ततो 'हृषे: केश' ४-४-७६ इति इड्विकल्प:, अनेकार्थत्वात् 'हृषू अलीके' इत्येषोऽपि हर्षे -ततस्तस्य क्ते रूपम् । तुषं हृषच तुष्टावित्यप्यूदितं मन्यते नन्दी। हृष्टि रस्यास्तीति "अभ्रादिभ्यः' ७-२-४६ इत्यप्रत्ययो वा, अन्यथा इट् स्यात् ।
उदश्वरः साप्यात् ।। ३. ३. ३१ ॥
उत्पूर्वाच्चरतेः साप्यात्-सकर्मकाव कर्तर्यात्मनेपदं भवति । गुरुवचनमुच्चरते, मार्गमच्चरते. व्यत्क्रम्य गच्छतीत्यर्थः: प्रासमच्चरते. सक्तनच्चरते-भक्षयतीत्यर्थः । इति किम् ? चारं चरति । साप्यादिति किम् ? धूम उच्चरति, शब्द उच्चरति, उर्ध्व गच्छतीत्यर्थः ।। ३१॥
न्या० स०-उदश्चरः- व्युत्क्रम्य गच्छतीति-ननु चैवमपि व्युत्क्रमणस्य क्रियान्तरस्य घात्वन्तरार्थत्वान्न तत्कर्मणा चरिः सकर्मक इत्युदाहरणायोगः ? उच्यते, चरिरेवात्र व्युत्क्रमणोपसर्जनायां विशिष्टायां गतौ वर्तते, यथा 'जीव प्राणधारणे' इति जीवतिरेव विशिष्टे धारणे इति, तद्व्युत्क्रमणं चरावन्तर्भूतमिति, चरेरेवार्थ इति सकर्मक इत्यदोष:, प्रत्युदाहरणे तु गतिमात्रे वर्त्तते न व्युत्क्रमणाङगे घातूनामनेकार्थत्वादिति ।
समस्तृतीयया ॥ ३. ३. ३२ ॥
समः पराच्चरतेस्तृतीयान्तेन योगे सति कर्तर्यात्मनेपदं भवति । अश्वेन संचरते, रथेन संचरते । तृतीययेति किम् ? उमौ लोकौ संचरसि, इमं च मुच देवल । किं त्वं करिष्यसि रथ्यया संचरति चैत्रोऽरण्ये ? इत्यत्र तु तृतीयान्तेन योगाभावान्न भवति ।।३२।।
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बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-३३-३५
न्या० स०-समस्तृती०-धातोस्तृतीयया योगाभावादित्याह तृतीयान्तनेति-उभौलीको संचरसीति-यद्यप्यत्र विद्यया तपसा वेत्यर्थादिह तृतीयान्तं गम्यते तथापि तृतीययेति सहयोगे तृतीया साक्षाद्योगप्रतिपत्यर्थं न गम्यमाने इति प्रत्युदाह्रियतेऽन्यथा करणमन्तरेण क्रियासिद्धेऽभावाद् व्यावृत्तिरेव न घटत इति भावः, न हि काचित् क्रिया करणमन्तरेण भवतीति । सह धनेन देवदत्तः संचरतीत्यत्र तु विद्यमानार्थतायां चरतेस्तृतीयान्तेन योगाभाव एव, तत्र हि तृतीयान्तं कर्जव युक्तं न संचरतिना, न हि तद्धनं चैत्रेण सह संचरतीति ।
क्रीडोऽकूजने ॥ ३. ३. ३३ ॥
कजनमव्यक्तः शब्दः ततोऽन्यस्मिन्नर्थे वर्तमानात संपूर्वात कोडेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । संक्रीडते, संकोडमाणः, रमते इत्यर्थः । सम इत्येव ? क्रीडति । प्रकूजन इति किम् ? संक्रोडन्ति शकटानि, अव्यक्तं शब्दं कुर्वन्तीत्यर्थः ।। ३३ ॥
अन्वाङ्परेः॥ ३. ३. ३४ ॥
'अनु आङ् परि' इत्येतेभ्य उपसर्गेभ्यः परात् क्रीडतेः कतर्यात्मनेपदं भवति । अनुक्रीडते, अनुक्रीडमाणः । आक्रीडते, आक्रीडमानः। परिक्रीडते, परिक्रीडमानः । उपसर्गादित्येव ? माणवकमनुक्रीडति, माणवकेन सह क्रीडतीत्यर्थः, धातुना अनोरसम्बन्धाद् वा न भवति । एवं उपरिकोडति ॥ ३४॥
न्या० स०-अन्वाङ्प०-माणवकमनुकोडतीति-अत्रानोर्माणवकेन योगादुपसर्गत्वाभावादुपसर्गानुवृत्तेरवनात्मनेपदम् । अनोरसंबन्धाद वेति-उपसर्गनिरपेक्षमिदमुक्तं कोऽर्थः ? उपसर्गाननुवृत्तावप्यऽन्वाङ परेरिति आवृत्त्या संबन्धषष्ठ्या आश्रयणादनोर्धातुना संबन्धाभावात्तदभाव इति।
शप उपलम्भने ॥ ३. ३. ३५ ॥
उपलम्भनेऽर्थे वर्तमानाच्छपतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । उपलम्भनं-प्रकाशनं ज्ञापनम् । मैत्राय शपते, मैत्रं कश्चिदर्थ बोधयतीत्यर्थः, मैत्रमेववंभूतोऽसावित्यन्यस्म प्रकाशयतीत्येके । अथवा स्वाभिप्रायस्य परत्राविष्करणमुपलम्भनं शपथ इति यावत् । मैत्राय शपते इति, वाचा मात्रादिशरीरस्पर्शनेन मैत्रं स्वाभिप्रायं बोधयतीत्यर्थः । प्रोषितस्य भावाऽभावोपलब्धौ कस्यचिदर्थस्यासेवनं चोपलम्भनम्-मैत्राय शपते इति, प्रोषिते मैत्रे तस्य भावेऽभावे चोपलब्ध सति तदनुरूपं किश्चिदनुतिष्ठतीत्यर्थः। उपलम्भन इति किम् ? मैत्रं शपति, आकोशतीत्यर्थः ।। ३५ ॥
न्या० स०-शप उ०-प्रकाशयतीत्येके इति-अस्मिन् व्याख्याने मैत्रशब्दान्मतान्तरेणैव चतुर्थी प्रयोज्यत्वाभावान्मत्रस्य। .
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पाद- ३, सूत्र - ३६-३८ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
आशिषि नाथः ॥ ३. ३.३६ ॥
श्राशिष्येवार्थे वर्तमानान्नाथते: कर्तर्यात्मनेपदं भवति । सर्पिषो नाथते, मधुनो नाथते - सपि भूयान्मधु मे भूयादित्याशास्ते इत्यर्थः । श्राशिष्येवेति नियमः किम् ? मा भूत् मधु नार्थात । ङिस्करणं त्वस्यानप्रत्ययार्थम् ॥। ३६ ।।
भुनजोऽत्राणे ॥ ३. ३. ३७॥
त्राणात् - पालनादन्यत्रार्थे वर्तमानाद् भुनक्तेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । श्रोदनं भुङ्क्ते, परिभुङ्क्ते । अत्राण इति किम् ? महीं भुनक्ति पालयतीत्यर्थः ; "अम्बरीषश्च नाभागो बुभुजाते चिरं महीम्" इत्यत्र तु न पालनं भुजेरर्थः, किन्तु पालननिमित्तक उपकारः, धातूनामनेकार्थत्वात्, पालनेन महीमुपकृतवन्तौ मह्याश्रयं फलं स्वीकृतवन्ताविति वेत्यर्थः । उभयपदिनमेनमन्ये मन्यन्ते । भुनजिति इननिर्देश "भुजोंत् कौटिल्ये" इत्यस्य निवृत्त्यर्थ:- ओष्ठौ निर्भुजति, कुटिलयतीत्यर्थः ॥ ३७ ॥
न्या० स०- भुनजो० :
-
[ १७
अरिषड्वर्गमुत्सृज्य, जामदग्न्यो जितेन्द्रियः ।
अम्बरीषश्च नाभागो, बुभुजति चिरं महीम् ।। १ ।।
अमति गच्छति प्रतिष्ठां 'अमेर्वरादि : ' ५५५ ( उणादि ) इति ईषप्रत्यये अम्बरीषो राजा, किं भूतो ? नाभाग:, न विद्यते भागः पुण्यमस्य, न अभागो नाभाग:, यद्वा न भाग: पिता देवतास्य 'देवता' ६-२-१०१ इत्यण् ।
भूजोंत् कौटिल्ये इतीति-अथ निरनुबन्धग्रहणे यति ? सत्यं जात्याश्रयणेऽत्रापि स्यात्, न्यायानामनित्यत्वाद् वा ।
इति न्यायादेवास्य न भवि
हगो गतताच्छील्ये ॥ ३.३.३८ ॥
गतं प्रकारः सादृश्यमनुकरणमित्ये कोऽर्थः तच्छीलमस्य तच्छीलस्तस्य भावस्ताच्छील्यम्, उत्पतेः प्रभृत्याविनाशात् तत्स्वभावता । हरतेः प्रकारताच्छील्येऽर्थे वर्तमानात् कर्तर्यात्मनेपदं भवति । शब्दशक्तिस्वाभाव्याच्चानुपूर्व एव हरतिर्गतताच्छील्ये वर्तते । पैतृकमश्वा अनुहरन्ते, मातृकं गावोऽनुहरन्ते पितुरागतं मातुरागतं गुणविषयं क्रियाविषयं वा सादृश्यमविकलं शीलयन्तीत्यर्थः । एवं पितुरनुहरते, पितरमनुहरते; मातुरनुहरते, मातरमनुहरते । गतग्रहणं किम् ? पितुर्हरति, मातुर्हरति । ताच्छील्य इति किम् ? नटो राममनुहरति-नटो हि कश्विदेव कालं राममनुकरोतीत्यसातत्ये न भवति । यद्वा गमनं गतं, तस्य पित्रादेः शीलमस्य तच्छीलस्तस्य भावस्ताच्छोत्यम्, गतेन गमनेन ताच्छीत्यं गतताच्छील्यं, - तस्मिन्नर्थे वर्तमानाद्धरतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । पैतृकमश्वा अनुहरन्ते पितुरागतं गमनमविच्छेदेन शीलयन्तीत्यर्थः । एवं पितुरनुहरते, पितरमनुहरते । गतताच्छील्य इति किम् ?
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१८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-३९-४०
धर्मान्तरेण पितरमनुहरन्ति । अथवा गते-गमने ताच्छील्ये च वर्तमानाद्धरतेरात्मनेपदं भवति-पैतृकमश्वा अनुहरन्ते, तद्वद् गच्छन्ति-तद्वच्छोलन्ति वेत्यर्थः ॥ ३८ ॥
न्या० स०-हगो गत-गम्यते ज्ञायते सदृशतया गतं कर्मेति व्युत्पत्त्या सादृश्य तच्च तत् तेन वा ताच्छील्यं तस्मिन् । केवलोऽपि हरतिस्ताच्छील्ये उच्यते यथा पितुर्हरतीति, परं गतताच्छील्येऽनुपूर्व एव, अनुपूर्वो हरतिर्गतताच्छील्य एवोदेतीति वैपरीत्यं न, नटो राममनुहरतीत्यादौ गतताच्छील्यं विनापि सादृश्ये अनुपूर्वकहरतेर्दर्शनात् , एवं पितुरनुहरते इति प्रकाराऽनुकारसादृश्यानामैकार्थेऽपि शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् सादृश्ये कर्म नास्तीति संबन्धेऽत्र षष्ठी।
तद्वद्गच्छन्तीति-पितुरागतं यथा भवति एवं गच्छन्तीत्यर्थे पैतृकशब्दात् क्रियाविशेषणादम् , तद्वदित्यत्र परार्थे प्रयुज्यमानः शब्दो वति विनापि वत्यथं गमयति । तदवच्छीलन्तीति-तद्वच्चारित्रिणो भवन्ति, शोल समाधौ शोलण् इत्यस्य वा णिचोऽनित्यत्वात् , नात्र ताच्छील्यं पूर्वोक्तमुत्पत्तेः प्रभृतीत्यादि ।
पूजा-ऽऽवार्यक-भृत्युत्क्षेप-ज्ञान-विगणन-व्यये नियः।। ३.३.३९ ।।
पूजाऽऽचार्यकभृतिषु यथासंख्यं कर्मकर्तृधात्वर्थविशेषणेषु गम्यमानेषु, उत्क्षेपादिषु च धात्वर्थेषु वर्तमानान्नयतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । पूजा-सन्मान:-नयते विद्वान् स्याद्वादे, प्रमाणव्यापारवित् स्याद्वारे जीवादीन् पदार्थान् युक्तिभिः स्थिरीकृत्य शिष्यबद्धि प्रापयतीत्यर्थः, ते युक्तिभिः स्थिरीकृताः पूजिता भवन्ति । आचार्यस्य भावः कर्म वा-ऽऽचार्यकम्-मारणवकमुपनयते, स्वयमाचार्यो भवन् माणवकमध्ययनाया-ऽऽत्मसम पं प्रापयतीत्यर्थः । भृतिः वेतनम-कर्मकरानुपयते, वेतनेनात्मसमीपं प्रापयतीत्यर्थः । उत्क्षेपः ऊर्ध्वं नयनम्-शिशुमुदानयते, उत्क्षिपतीत्यर्थः । ज्ञानं प्रमेयनिश्चयः-नयते तत्त्वार्थे, तत्र प्रमेयं निश्चिनोतीत्यर्थः । विगणनम् ऋणादेः शोधनम्- मद्राः कारं विनयन्ते, राजग्राह्यभागं दानेन शोधयन्तीत्यर्थः । व्ययो धर्मादिषु विनियोग:-शतं विनयते, सहस्र विनयते, धर्माद्यर्थं तीर्थादिषु विनियुक्त इत्यर्थः । एतेष्विति किम् ? अजां नयति ग्रामम् । गित्त्वावफलदर्थ आरम्भः ।। ३६ ॥
न्या० स०-पूजाचार्यक० पूजादयोऽत्र नयतेविशेषणतयोपादीयमानाः केचित् साक्षाद्विशेषणभावमनुभवन्ति, केचित्तु पारंपर्येणेति विभज्याह-पूजेत्यादिना आचार्यकग्रहणात् प्राचार्यकर्म कुर्वन्नेवात्मनेपदविधौ कर्ता, अत एवाचार्य इति नोपात्तम् ।
कर्तृस्थामूर्ताप्यात् ।। ३. ३. ४० ॥
कर्तृस्थममूर्तमाप्यं-कर्म यस्य तस्मान्नयतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । श्रमं विनयते, क्रोधं विनयते-शमयतीत्यर्थः । कर्तृस्थेति किम् ? चैत्रो मैत्रस्य मन्यु विनयति । अमूर्तेति किम् ? गड़ेविनयति, घट्ट विनयति । आप्येति किम् ? बुद्धचा विनयति । 'श्रमं विनयते'
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पाद-३, सूत्र-४०-४५] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
[१९
इत्यादौ श्रमापगमादेः फलस्य कर्तृ समवाययित्वात सिद्धे आत्मनेपदे नियमार्थ वचनम् , व्यवेच्छेद्य च प्रत्युदाहरणम् । शमयतिक्रियावचनादेव च नयतेरात्मनेपदं दृश्यते न प्रापणा. र्थात, यथा
"शिवमोपयिकं गरीयसी, फलनिष्पत्तिमदूषितायतिम् ।
विगणय्य नयन्ति पौरुषं, विहितक्रोधरया जिगीषवः ॥१॥"[किराते ]
यथा च कोपं शमं नयति, मन्यु नाशं नयति, प्रज्ञा प्रवृद्धि नयति, बुद्धि क्षयं नयति ॥४०॥
न्या० स०-कर्तृ स्था०:-नियमार्थमिति-तेनात्र सूत्रे फलवत्तैव विवक्ष्यते । व्यवच्छेद्यमिति-तेन प्रत्युदाहरणेषु फलवत्त्वविवक्षायामऽपि नात्मनेपदम् ।
शदेः शिति ॥ ३. ३. ४१ ॥ शदेः शिद्विषयात् कर्तर्यात्मनेपदं भवति । शीयते । शितीति किम् ? शत्स्यति ॥४१।। प्रियतेरद्यतन्याशिषि च ॥ ३. ३. ४२ ॥
म्रियतेरद्यतन्याशीविषयाच्छिद्विषयाच्च कर्तर्यात्मनेपदं भवति । अमृत, मृषीष्ट, नियते. म्रियेत, म्रियताम् , अम्रियत । अद्यतन्याशिषि वेति किम् ? ममार, मासि, मरिष्यति, अमरिष्यत् । तिवनिर्देशाद् यङ्लुपि न भवति-मर्मति ॥ ४२ ॥
क्यक्षो नवा ॥ ३. ३. ४३ ॥
डाउलोहितादिभ्यः क्यङ्षित् वक्ष्यते, तदन्ताद्धातोः कर्तर्यात्मनेपदं भवति वा। पटपटायति, पटपटायते; लोहितायति, लोहितायते; निद्रायति, निद्रायते ।। ४३ ।।
धुभ्योऽद्यतन्याम् ॥ ३. ३. ४४ ॥
बहुवचनं गणार्थम् । तादिभ्योऽद्यतनीविषये कर्तर्यात्मनेपदं वा भवति । व्यधुतत् , व्यद्योतिष्ट; अरुचत् , अरोचिष्ट । प्रद्यतन्यामिति किम् ? द्योतते । धुति १ रुचि २ घुटि ३ रुटि ४ लुटि ५ लुठि ६ श्विताङ् ७ मिमिदाङ् जिश्विदाङ् निष्विदाङ् १० शुभि ११ क्षुभि १२ णभि १३ तुभि १४ स्त्रम्भूङ् १५ भ्रसूङ् १६ स्रसूङ् १७ ध्वंसूङ् १८ वृतूङ् १६ स्यन्दौङ् २० वृधूङ २१ शृधूङ २२ कृपौङ् २३ इति द्युतादिः । प्राप्तविभाषेयम् ॥४४॥
वृद्भ्यः स्यसनोः ॥ ३. ३. ४५ ॥
बहुवचनं पूर्ववत् , वृतादयो द्युताद्यन्तर्गताः पञ्च, तेभ्यः स्यकारादिप्रत्यये सन्प्रत्यये विषये च कर्तर्यात्मनेपदं भवति वा । वृतूङ् १-वय॑ति, वतिष्यते, अवय॑त् , प्रतिष्यत,
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२० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-४६-४९
वय॑न् , वतिष्यमाणः; विवृत्सति, विवतिषते । एवं-स्यन्दौङ २-स्यन्त्स्यति, स्यन्विष्यते, सिस्यन्त्सति, सिस्यन्दिषते । वृषङ् ३-वय॑ति, वधिष्यते, विवृत्सति, विधिषते, शृधड ४शत्यति धिष्यते, शिशत्सति, शिधिषते । कृपौड ५-कल्स्यति, कल्पिष्यते, चिक्लप्सति, चिकल्पिषते । स्य सनोरिति किम् ? वर्तते, वर्धते । इयमपि प्राप्तविभाषा ॥ ४५ ॥
न्या० स०-वृद्भ्यः स्य-चिक्लप्सतीति-'दूरादामन्त्रस्य'-७-४-९९ इत्यत्र लग्रहणेन के ऋवर्णापदिष्टं कार्य लवर्णस्यापि के इति लुतोऽपि 'ऋतोऽत्' ४.१३८ ।
कृपः श्वस्तन्याम् ॥ ३. ३. ४६ ॥ कृपेः श्वस्तन्यां विषये कर्तर्यात्मनेपदं वा स्यात् । कल्प्तासि, कल्पितासे । ४६ ।। . क्रमोऽनुपसर्गात् ॥ ३. ३. ४७ ॥
अविद्यमानोपसर्गात् क्रमेः कर्तर्यात्मनेपदं वा भवति । क्रमते, क्रामति । अनुपसर्गादिति किम् ? संक्रामति । वृत्त्यादेरन्यत्रायमारम्भ इत्यप्राप्तविभाषा । ४७ ॥
न्या० स०-क्रमोऽनु०:- अविद्यमानोपसपर्गादिति-बहुव्रीहिरयम् , यदि पुनर्न उपसर्गोऽनुपसर्ग इति तत्पुरुषो विधीयते, तदोपसर्गादन्योऽनुपसर्गस्तस्मात् परो यः ऋमिस्तत इति प्रतिपत्तौ केवलान्न स्यात् , प्रसज्याश्रयणे त्वऽसमर्थसमास: कष्टः स्यात् ।
वृत्ति-सर्ग-तायने ॥ ३. ३. ४८ ।।
वेति निवृत्तम् । वृत्त्यादिष्वर्थेषु वर्तमानात् क्रमेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । वृत्तिरप्रतिबन्ध प्रात्मयापनं वा, शास्त्रेऽस्य क्रमते बुद्धिः-तत्र न हन्यते आत्मानं यापयति वेत्यर्थः । सर्ग उत्साहस्तात्पर्य वा, सर्गेणातिसर्गस्य लक्षणादनुज्ञा वा-सूत्राय क्रमते, तदर्थमुत्सहते, तत्परो वाऽनुज्ञातो वा । तायनं स्फीतता संतानः पालनं वा, क्रमन्तेऽस्मिन् योगाः, स्फीता भवन्ति, संतन्यन्ते पाल्यन्ते वेत्यर्थः । वृत्त्यादिष्विति किम् ? कामति ।। ४८ ।।
न्या० स०-वृत्तिसर्ग०-विरोधिनामिति व्यावृत्तिप्रसङ्ग सूत्रत्वात् समाहार: कर्मधारयो वा। वेति निवृत्तं-व्यावृत्तव्यवच्छेद्याभावात् अर्थविशेषोपादानाद् वा। सन्तन्यन्ते हुति-संतानेन प्रवर्तन्ते कर्मकर्तरि कर्मणि वा तदा विस्तार्यन्त इत्यर्थ, सामर्थ्यादनेनैव अस्मिन् शब्दवाच्यत्वेन, पाल्यन्ते इति कर्मणि, न तु कर्मकर्तरि 'भूषार्थ' ३-४-९३ इति क्यनिषेधात् , अस्मिन् विषये आचार्येण योगा रक्ष्यन्ते इत्यर्थः ।
परोपात् ।। ३. ३. ४१ ॥
परोपाभ्यामेव परात् क्रमेव त्यादिष्वर्थेषु कर्तर्यात्मनेपदं भवति । पराक्रमते, उपक्रमते । परोपादेवेति किम् ? अनुक्रामति। वृत्त्यादिष्वित्येव-पराक्रामति, उपकामति । अन्ये तु परोपाभ्यां परात् क्रमतेर्वृत्त्याद्यर्थाभावेऽपीच्छन्ति, तेन-पराक्रमते, उपक्रमते इत्या
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पाद - ३, सूत्र - ५०-५२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
[ २१
त्मनेपदमेव, वृत्त्यादिषु त्वन्योपसर्गपूर्वादपि पूर्वेण मन्यन्ते - निष्क्रमते, प्रतिक्रमते, - न प्रतिहन्यते इत्यर्थः ॥ ४६ ॥
न्या० स०- परोपा०:- पराक्रामतीति- कोऽर्थः ? परावृत्त्या क्रामति शौर्यं वा कुरुते । उपक्रामति समीपे गच्छतीत्यर्थः ।
वेः स्वार्थे ॥। ३. ३. ५० ॥
स्वार्थः पादविक्षेपः तस्मिन् वर्तमानाद् वेः परात् क्रमेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । साधु विक्रमते गजः । स्वार्थे इति किम् ? श्रश्वेन विक्रामति, विक्रामत्य जिन संधि:, - स्फुटतीत्यर्थः ; विक्रामति राजा, उत्सहते इत्यर्थः ।। ५० ।।
न्या० स० - वेः स्वार्थे- अश्वेन विक्रामतीति- नन्वत्रापि पादविक्षेप एव ऋमिर्वर्त्तते स च कर्तृ कृतः करणकृतो वा भवतु ? सत्यं, गौणमुख्ययोः * इति न्यायात् सर्वकारकप्रधानभूतकर्तृकृत एव गृह्यते, अत्र तु करणकृतः पादविशेष इति न भवति । विक्रामति राजेति- 'परोपात्' ३-३-४९ एवेति नियमात् ' वृत्तिसर्ग' ३-३-४८ इत्यादिनापि न ।
प्रोपादारम्भे ।। ३ ३ ५१ ॥
"
प्रारम्भ श्रादिकर्म, अङ्गीकरणं चेत्यन्ये, तस्मिन् वर्तमानात् प्रोपाभ्यां परात् क्रमेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । प्रक्रमते, उपक्रमते भोक्तुम्, - प्रारभते अङ्गीकरोति चेत्यर्थः । आरम्भ इति किम् ? पूर्वेद्युः प्रक्रामति, गच्छतीत्यर्थः ; अपरेद्युरुपक्रामति- समीपमागच्छतीत्यर्थः । " परोपात्" [ ३. ३. ४६ ] इत्यनेनापि न भवति वृत्त्यादेरर्थस्याविवक्षितस्वात् । अन्ये तु स्वार्थविषय एवारम्भे मन्यन्ते, तेनोपक्रमते, प्रक्रमते पादाभ्यां गन्तुमारभत इत्यर्थ इत्यत्रैव भवति, स्वार्थविषयारम्भादन्यत्र तु प्रक्रामति, उपक्रामति भोक्तुमित्यत्र न भवति ।। ५१ ॥
श्राङो ज्योतिरुद्गमे ॥ ३. ३. ५२ ॥
आङः परात् क्रमेर्ज्योतिषां चन्द्रादीनामुद्गमे ऊर्ध्वगमने प्रधाने उपसर्जने वा वर्तमानात् कर्तर्यात्मनेपदं भवति । श्राक्रमते चन्द्रः आक्रमते, सूर्य:, - उदयते इत्यर्थः ; दिवमाक्रममाणेन केतुना, अत्र दिवमिति कर्मणा योगादुद्गमनोपसर्जन व्याप्तिवचनः क्रमिः । ज्योतिरुद्गम इति किम् ? आक्रामति मारणवक: कुतुपम् - अवष्टम्नातीत्यर्थः । ज्योतिरिति किम् ? धूम आक्रामति, उद्गच्छतीत्यर्थ; श्राक्रामति धूमो हर्म्यतलम्, - उद्गच्छन् व्याप्नोतीत्यर्थः । उद्गम इति किम् ? 'नभः समाक्रामति नष्टवर्त्मना, स्थितैकचक्रेण रथेन भास्करः ।" अत्र व्याप्तिमात्रं विवक्षितम्, न तद्गमोपसर्जनव्याप्तिः । अन्ये तद्गमोपसर्जनां व्याप्ति पश्यन्तोऽसाधुमेनं मन्यन्ते ।। ५२ ।।
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२२ ]
बृहद्वत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-५३-५८
दागोऽस्वाऽऽस्यप्रसार-विकासे । ३. ३. ५३ ॥
आङपूर्वाद् ददातेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति, न चेत् स्वास्यप्रसारणं विकासश्चार्थो भवति । विद्यामादत्ते, धनमादत्ते। प्रस्वास्यप्रसार-विकास इति किम् ? उष्ट्रो मुखं व्याववाति,-प्रसारयतीत्यर्थः; कूलं व्याददाति, विपादिका ज्याददाति, विकसतीत्यर्थः । स्वग्रहणमिति किम् ? व्याददते पिपीलिकाः पतङ्गस्य मुखम् । प्राङ इत्येव ? ददाति । फलवन्तोऽन्यत्रायं विधिः ॥ ५३ ।।
न्या० स०-दागोऽस्वा०-प्रसारणं प्रयोजकव्यापारः, विकासश्च कर्तृव्यापार इत्यनयोर्भेदः, विपूर्वात् कस गतावित्यतो घत्रि वृद्धौ विकासः ।
नु-प्रच्छः ॥ ३. ३.५४ ॥
प्राङ्पूर्वानौतेः प्रच्छेश्च कर्तर्यात्मनेपदं भवति । प्रानुते शृगालः, उत्कण्ठितः शब्दं करोति, उत्कण्ठापूर्वके संशब्दे नौतेरयं विधिर्न सर्वत्र । प्रापृच्छते गुरून् , आपृच्छस्व प्रियसखम्" [ मेघदूते ] वियुज्यमानस्य प्रश्नेऽयं विधिः। आङ इत्येव ? नौति, प्रणौति, पृच्छति, परिपृच्छति ॥ ५४॥
गमेः क्षान्तौ ॥ ३. ३.५५ ॥
क्षान्तिः कालहरणम् , तत्र वर्तमानाद् गमयतेरापूर्वकात् कर्तर्यात्मनेपदं भवति । आगमयते गुरून , कश्चित् कालं प्रतीक्षते; आगमयस्व तावत्, कश्चित् कालं सहस्वेत्यर्थः । क्षान्ताविति किम् ? आगमयति विद्याम्, गृह्णातीत्यर्थः। क्षान्तौ स्वभावाद् गमिर्ण्यन्त एव वर्तते ॥ ५५॥
हः स्पर्धे ॥ ३. ३.५६ ॥
आङपूर्वाद हयतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति, स्पर्षे गम्यमाने । स्पर्षः संघर्षः,-पराभिभवेच्छा, स धात्वर्थस्य विशेषणम् , धात्वर्थश्च ह्वयतेरापूर्वस्य शब्द एव स्वभावात् । मल्लो मल्लमाह्वयते, स्पर्धमान आकारयतीत्यर्थः । स्पर्ष इति किम् ? गामह्वयति ।। ५६॥
सं-नि-वेः ॥ ३. ३. ५७॥
सं-नि-विभ्यः पराद् ह्वयतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । संह्वयते, नियते, विह्वयते ॥ ५७ ॥
उपात् ॥ ३. ३. ५८ ॥ उपपूर्वाद ह्वयतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । उपह्वयते । योगविभाग उत्तरार्थः ॥१८॥
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पाद-३, सूत्र-५९-६१ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्याय:
[२३
यमः स्वीकारे ॥ ३. ३. ५१ ॥
उपपूर्वाद् यमः स्वीकारेऽर्थे वर्तमानात् कर्तर्यात्मनेपदं भवति । कन्यामुपयच्छते, वेश्यामुपयच्छते, उपायंस्त महास्त्राणि । विनिर्देशः किम् ? शाटकानुपयच्छति, नात्रास्वं स्वं क्रियते, स्वत्वेन तु निर्मातस्य ग्रहणमिति न भवति । उद्वाह एवेच्छन्त्यन्ये ॥ ५६ ॥
न्या० स०-यमः स्वी०-उद्वाह एवेच्छन्तीति-तन्मते वेश्यामुपयच्छते इत्यादि न भवति ।
देवार्चा-मैत्री-संगम-पथिकर्तृक-मन्त्रकरणे स्थः ॥ ३. ३.६० ॥
एष्वर्थेषु वर्तमानात् उपपूर्वात् तिष्ठतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । देवार्चायाम्जिनेन्द्रमुपतिष्ठते।
बहूनामप्यचित्तानामेको भवति चित्तवान् ।
पश्य वानरसंघेऽस्मिन यदर्कमुपतिष्ठते ।। १ ॥ यदा तु नेयं देवपूजाऽपि तु चापलमिति विवक्षितं तदा न भवति• "मैवं मंस्थाः सचित्तोऽयमेषोऽपि हि यथा वयम् ।
एतदप्यस्य कापेयं, यदर्कमुपतिष्ठति ॥१॥ मित्रतया मित्त्रं वा कर्तु माचरणं मैत्री, उपस्थानस्य हेतुः फलं वा-महामात्रानुपतिष्ठते, रथिकानुपतिष्ठते । मैत्र्या हेतुना फलेन वाऽऽराधयतीत्यर्थः । संगम उपलेश्षःयमुना गङ्गामुपतिष्ठते । पन्थाः कर्ता यस्यार्थस्य स पथिकर्तृकः, अयं पन्थाः स घ्नमुपतिष्ठते । मन्त्रः करणं यस्यार्थस्य स मन्त्रकरणः ऐन्द्रया गार्हपत्यमुपतिष्ठते, सावित्र्या सूर्यमुपतिष्ठते, आराधयतीत्यर्थः; मन्त्रादन्यत्र भर्तारमुपतिष्ठति यौवनेन । करणग्रहणं किम् ? गायत्रीमुपतिष्ठति, प्रत्र मैत्री धात्वर्थविशेषणेनोपसर्जनं धात्वर्थः, शेषास्तु प्रधानम् ॥६०॥
न्या० स०-देवार्चा०—मित्रतया मित्रं वा कर्तु मिति-'अजयं संगतम्' इतिवत् संपूर्वस्य गमेमत्र्यामपि दर्शनात् , मैत्रीसंगमयोराभेद इति, यः शङ्कते तं प्रत्युपश्लेषरूपात् संगमात् मित्रतयेत्यादिना मैत्र्या भेदं दर्शयति, विनापि हि संश्लेषेण मैत्रीत्यर्थः, मित्रस्य भावो मैत्री, 'सा उपस्थानस्य धात्वर्थस्य हेतुनिवत्तिका, यदा हि रथिकानुपतिष्ठत इत्यत्रोपस्थाता मित्रं सत् उपतिष्ठते तदा मैत्री हेतुः, यदा तु प्रागमित्रः सन् मैत्र्यर्थं प्रवर्तते तदा मैत्री फलं, ततश्च कारणस्य फलस्य च क्रियां प्रति विषयत्वोपपत्तेरुपस्थानस्य विशेषणत्वेन मैत्री गौणो धात्वर्थो भवति ।
वा लिप्सायाम् ॥ ३. ३. ६१ ।।
उपपूर्वाव तिष्ठतेलिप्सायां गम्यमानायां कर्तर्यात्मनेपदं भवति । भिक्षुको दातृकुलमुपतिष्ठति उपतिष्ठते वा, भिक्षां लभेयेति ॥ ६१ ॥
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२४ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-६२-६६
उदोऽनूचेहै ॥ ३. ३. ६२ ॥
अनूवो य ईहश्चेष्टा, तत्र वर्तमानादुदः परात तिष्ठतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । मुक्तावतिष्ठते, मुक्त्यर्थ चेष्टत इत्यर्थः । अनूर्वेति किम् ? आसनादुत्तिष्ठति । ईहेति किम् ? आसनाद ग्रामाच्छतमुत्तिष्ठति, सेनोत्तिष्ठति, उत्पद्यत इत्यर्थः ॥ ६२ ॥
सं-वि-प्राऽवात् ॥ ३. ३.६३ ॥
एभ्यः परात् तिष्ठतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । संतिष्ठते, वितिष्ठते, प्रतिष्ठते, अवतिष्ठते ।। ६३ ॥
ज्ञीप्सा-स्थेये । ३. ३. ६४ ।।
परपरितोषार्थमात्मरूपादिप्रकाशनं-ज्ञोप्सा, तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थेयः, रूढिवशाद विवादपदे निर्णता प्रमाणभूतः पुरुष उच्यते । जीप्सायां स्थेयविषयायां च क्रियायां वर्तमानात् तिष्ठतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । तिष्ठते कन्या छात्रेभ्यः, तिष्ठते वृषली प्रामेभ्यः, स्वाभिप्रायप्रकाशनेनात्मानं रोचयतीत्यर्थः । त्वयि तिष्ठते, मयि तिष्ठते, “संशय्य कर्णादिषु तिष्ठते यः" [ किराते ] कर्णाविस्थेयोपदिष्टं निर्णयतीत्यर्थः ।। ६४ ॥
न्या० स०-जीप्सा०-स्थेय इत्यत्र बाहुलकात् अधिकरणेऽपि 'य एच्चात:' ५-१-२८ इति यः, व्युत्पत्तिसमये आधारस्य निर्णेतृत्वं न विवक्षितमिति वाक्ये परस्मैपदमेव, अधिकरणस्य प्रत्ययार्थत्वेऽपि नास्याधिकरणमात्रे वृत्तिः, किं तहि क्वचिदेव ? इत्याह-रूढिवशादित्यादि ।
प्रतिज्ञायाम् ।। ३. ३. ६५ ॥
प्रतिज्ञा अभ्युपगमः, तत्र वर्तमानात् तिष्ठतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । नित्यं शब्दमातिष्ठते, तदतदात्मकं तत्त्वमातिष्ठते । स्वभावाच्चायमापूर्व एव प्रतिज्ञायां वर्तते । योगविभाग उत्तरार्थः ॥ ६५ ॥
न्या० स०-प्रतिज्ञा०-तदतदात्मकमिति-एकशेषोऽनित्यः, शब्दप्रधानो वा निर्देशः शब्दार्थयोरभेदेन चार्थो वाच्यः, स चासावसश्च तदसः, स आत्मा यस्येति कर्मधारयपूर्वो वा बहुव्रीहिः।
समो गिरः ॥ ३. ३.६६ ॥
सम्पूर्वाद गिरतेः प्रतिज्ञायां वर्तमानात् कर्तर्यात्मनेपदं भवति । स्याद्वादं संगिरते, प्रतिजानीत इत्यर्थः । प्रतिज्ञायामित्येव ? संगिरति ग्रासम् । गिर इति निर्देशाद गणातेन भवति ॥६६॥
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पाद-३, सूत्र-६७-७० ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
[२५
न्या० स०- समो०- ननु समं विना प्रतिज्ञायां गिरतेवत्तिर्न दृश्यते, तत: किं समग्रहणेन ? सत्यं, केवलोऽप्यन्योपसर्गपूर्वोऽपि च प्रतिज्ञायां वर्तते. उत्तरत्र पृथग्योगात् प्रतिज्ञायामिति निवृत्तमिति भणितेः, यदि ह्यन्योपसर्गपूर्वो न वर्तते तर्हि पृथग्योगादिति भणितेः किं फलम् ?।
अवात् ।। ३. ३. ६७॥
पृथग्योगात् प्रतिज्ञायामिति निवृत्तम् , अवपूर्वाद गिरतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । अवगिरते, अवादन्यत्र गिरति । गिर इत्येव ? अवगृणाति । अवपूर्वस्य । गृणातेः प्रयोगो नास्तीत्यन्ये ।। ६७ ।।
निह्नवे ज्ञः ॥ ३. ३.६८॥
निह्नवोऽपलापः, तस्मिन् वर्तमानाजानातेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । शतमपजानीते, अपह नुते इत्यर्थः, अपेन चास्यायमर्थोऽभिव्यज्यते । निह्नव इति किम् ? तत्वं जानाति । ६८॥
सं-प्रतेरस्मृतौ ।। ३. ३. ६१ ॥
सं-प्रतिभ्यां पराज्जानातेरस्मृतौ वर्तमानात् कर्तर्यात्मनेपदं भवति । शतं संजानीते, प्रवेक्षते इत्यर्थः । शतं प्रतिजानीते, शतेन संजानीते,-अभ्युपगच्छतीत्यर्थः । अस्मृताविति किम् ? मातुः संजानाति, मातरं संजानाति,-स्मरतीयर्थः ।। ६९ ॥
न्या० स०-संप्रते०-शतेन संजानीते इति-'समो ज्ञोऽस्मृतौ वा' २-२-५१ इति वा तृतीया, तद्विकल्पे च पक्षे द्वितीया ।
अननोः सनः॥ ३. ३. ७०॥
सन्नन्ताज्जानातेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति, स चेदनोरुपसर्गात् परो न भवति । धर्म जिज्ञासते । अननोरिति किम् ? धर्ममनुजिज्ञासति । कथमौषधस्यानुजिज्ञासते ? अकर्मकात "प्राग्वत्" [ ३. ३. ७४ ] इत्यनेन भविष्यति ॥ ७० ॥
न्या० स०-अननो:-अकर्मकादित्यादि-सकर्मकादनेन आत्मनेपदं विधीयते न त्वकर्मकादिति प्रतिषेधाभावः, कथं पुनर्जायते अनेन सकर्मकाविधिरिति ? उच्चते, अकर्मकाद् ज्ञ इत्यनेन प्रागिष्टत्वात् सन्नन्तात् 'प्राग् व' ३-३-७४ इत्यनेनात्मनेपदे सिद्धे -सकर्मकादेवाऽयं विधिरिति ज्ञायते ।
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बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-७१-७४
श्रुवोऽनाङ्-प्रतेः ॥ ३. ३. ७१ ॥
सन्नन्ताच्छृणोतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति, स चेदाङ्-प्रतिभ्यामुपसर्गाभ्यां परो न भवति । शुश्रुषते गुरून् , संशुश्रूषते शब्दान् । अनाङ्-प्रतेरिति किम् ? प्राशुश्रूषति, प्रति. शुश्रूषति । 'चैत्रं प्रति शुश्रूषते' इति प्रतिना सम्बन्धाभावात् प्रतिषेधो न भवति ।। ७१।।
स्मृ-दृशः ॥ ३. ३. ७२ ॥
स्मृ दृशिभ्यां सन्नन्ताभ्यां कर्तर्यात्मनेपदं भवति। सुस्मूर्षते पूर्ववृत्तम् , दिदृक्षते देवम् ।। ७२।।
शको जिज्ञासायाम् ॥ ३. ३.७३ ॥
शकिः स्वभावादन्यधात्वर्थानुसंहितः प्रवर्तते-शक्नोति भोवतुमन्यद् वेति, ततो ज्ञानानुसंहितार्थात सन्नन्ताव कर्तर्यात्मनेपदं भवति । विद्याः शिक्षते ज्ञातु शक्नुयामितीच्छतीत्यर्थः । जिज्ञासायामिति किम ? शक्तमिच्छति.-शिक्षति, "शिक्षि विद्योपादाने" इत्यनेनैव सिद्धे प्रामनुप्रयोगार्थ वचनम् , तेन 'शिक्षांचके' इति भवति, न तु शिक्षांचकारेति । केचित तु शके: सन्नन्तस्यात्मनेपदमनिच्छन्तः शिक्षतेरेव जिज्ञासायामात्मनेपदमन्यत्रच परस्मैपदमिच्छन्ति ।। ७३ ।।
न्या० स०-शको जि०:-धात्वर्थानुसंहित इति-शकिरन्यस्य धातोरर्थेन युक्त इत्यर्थः, यथा शक्नोति भोक्तुमित्यत्र भुज्यर्थेन युक्त इत्यर्थः । विद्याः शिक्षत इति-आत्मनेपदेनैव जिज्ञासाया अवगमात् जिज्ञासितुमिति न प्रयुज्यते । आमनुप्रयोगार्थमिति-यद्यदः सूत्रं व्यधास्यत तदा शकेर्धातो: सन्नन्तस्य 'आमः कृगः' ३-३.७५ इति आमः परात् कृग आत्मनेपदं नाऽभविष्यत् , ततः शिक्षांचक्रे इति न स्यात् , शिक्षेस्त्वामोऽसंभव एव एकस्वरत्वात् ।
प्राग्वत् ।। ३. ३. ७४ ॥
सनः प्राक् पूर्वो यो धातुस्तस्मादिव सन्नन्तात् कर्तर्यात्मनेपदं भवति, यत् पूर्वस्य घातोरनुबन्धेनोपपदेनार्थविशेषेण वाऽऽत्मनेपदं दृष्टं तत् सन्नन्तादतिदिश्यते । अनुबन्धेन'शी-शेते,' शियिषते; एधि-एधते, एदिधिषते; लोलयते, लोलयिषते; श्येनायते, शिश्येनायिषते उपपदेन-निविशते, निविविक्षते; अश्वेन संचरते अश्वेन संचिचरिषते । अर्थविशेषेण-शास्त्रेऽस्य क्रमते बुद्धिः, चिकंसते उभयेन,-आक्रमते चन्द्रः, आचिकंसते । यत् पुनः सप्रत्ययधातुनिमित्तं तन्नातिदिश्यते शिशत्सति, मुमूर्षति, अत्र हि न शदि-म्रियती एव निमित्ते, कि तहि ? शिदाशीरशतन्योऽपि । अनुबन्धादिनिमित्तमपि यद् विशेषविधानबाधया प्राग न दृष्टं समातिदिश्यते, यथा-अनुकरोति, अनुचिकीर्षति; पराकरोति, पराचिकर्षति । तिजादीनां स्वर्थविशेषेषु केवलानामप्रयोगात् सन्नन्तसमुदायार्थमेव अनुबन्धविधानम् , तेन 'तितिक्षते, जुगुप्सते, मीमांसते, इत्यादौ प्रागदृष्टमप्यात्मनेपदमनुबन्धसाम
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पाद-३, सूत्र-७५-७६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
[२७
र्थ्यात् भवति, यथा कुस्मि-चित्रङ्-महीङ्-हणीङामनुबन्धो णिच्-क्यन्-यगन्तसमुदायार्थःविकुस्मयते, चित्रीयते, महीयते, हृणीयते । अवयवे वा कृतं लिङ्ग समुदायस्य विशेषक भवति, यद्येवं तितिक्षयति, जुगुप्सयति, मीमांसयतीत्यत्रापि प्राप्नोति ? नवं, अवयवे कृतं लिङ्ग तस्यैव समुदायस्य विशेषकं भवति यं समुदायं सोऽवयवो न व्यभिचरति, यथा-गोः सक्थनि कर्णे वा कृतं लिङ्ग-चिह्न गोरेव विशेषकं भवति, न गोमण्डलस्य, सन्नन्तं च समुदायं तिजादयोऽर्थविशेषेषु न व्यभिचरन्ति, णिगन्तं पुनर्व्यभिचरन्ति । ननु सन्नन्तमपि व्यभिचरन्ति-तेजर्यात, गोपायति, मानयतीति ? नैवम् ,-अर्थविशेषेषु न व्यभिचार इत्युक्तत्वात् । “गूप-तिजो गाँ-क्षान्तो"[ ३.४. ६ ] 'शान-दान-मान-बधान्निशानाऽऽर्जवविचार-वैरूप्ये'' [ ३. ४. ६ ] इति हि वक्ष्यत इति ।। ७४ ॥
न्या० स०-प्राग्वत्-अनबन्धादिनिमित्तम्पीति-आदिपदात् 'गन्धनावक्षेप०' ३-२-७६ इत्यादिना कृगो धातोर्गंधनाद्यर्थनिमित्तं 'परानोः कृगः' ३-३-१०१ इत्यादि-विशेषविधानबाधितं सत् , प्राग् न दृष्टं तदपि नातिऽदिश्यते । सन्नन्तसमुदायार्थ मेवेति-अर्थ विशेषेषु इदमेव फलमन्यत्र त्वनाद्यपीति एवकारार्थः । अनुबन्धविधानमिति-न च वाच्यं क्षान्त्याद्यर्थाभावे अनुबन्धादात्मनेपदं भविष्यतीति, एषामर्थान्तरेपि त्यादयो नाभिधीयन्ते इति भणनात् 'इडितो व्यञ्जनाद्य०' ५-२-४४ इत्यादौ चरितार्थमिति चेत् ? न, तदा 'भूषाक्रोध०' ५.२-४२ इत्यादौ स्वरूपेण ग्रहणं कुर्यात् किं व्याप्तिपरेणानुबन्धेन ।
अवयवे वा कृतमिति-भवत्वनप्रत्ययेऽनुबन्धस्य चरितार्थत्वं तथाप्यात्मनेपदं भवती. त्यभ्युपगम्यमाह।
आमः कृगः॥ ३. ३.७५ ॥
आमः परादनुप्रयुज्यमानात करोतेराम एव प्राग यो धातुस्तस्मादिव कर्तर्यात्मनेपदं भवति । भवति न भवति चेति विधि-प्रतिषेधावतिदिश्येते, यथा- उशीनरवन्मद्रेषु यवाः सन्ति न सन्तीति । 'ईहांचके ईक्षांचक्रे' इत्यफलवत्यपि भवति, “बिभयांचकार, जागरांचकार' इति फलवत्यपि न भवति । यत्र तु पूर्वस्मादुभयं तत्र फलवत्यफलवति चोभयं भवतिबिभरांचके, बिभरांचकार; पाचयांचके, पाचयांचकार । कृग इति किम् ? करोतेरेव यथा स्यादिह मा भूत-ईक्षामास, ईक्षांबभूव ।। ७५ ॥
गन्धनाऽवक्षेप-सेवा-साहस-प्रतियत्न-प्रकथनोपयोगे॥३. ३.७६॥
गन्धनादिष्वर्थेषु वर्तमानात करोतेः कर्तयात्मनेपदं भवति । गन्धनं-द्रोहाभिप्रायेण परदोषोद्घाटनम् , प्रोत्साहनादिकमन्ये । उत्कुरुते, उदाकुरुते माम् , अध्याकुरुते जिघांसुः, अपकत्रै कथयतीत्यर्थः । अवक्षेपणं अवक्षेपः, कुत्सनं भर्त्सनं वा, दुर्वृत्तानवकुरुते, कुत्सयतीत्यर्थः; श्येनो वर्तिकामपकुरुते, भर्त्सयतीत्यर्थः । सेवा-अनुवृत्तिः, महामात्रानुपकुरुते, सेवते इत्यर्थः । साहसम्-अविमृश्य प्रवृत्तिः, परदारान् प्रकुरुते, विनिपातमविभाव्य तान् अभिगच्छतीत्यर्थः । प्रतियत्नः-सतो गुणान्तराधानम् , एधोदकस्योपस्कुरुते, तत्र गुणान्तरमादधातीत्यर्थः । प्रकथनं-कथनप्रारम्भः प्रकर्षेण कथनं वा, जनवादान् प्रकुरुते, कथयितुमारभते,
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२८ ]
बृहद्वृत्ति- लघुन्याससंवलिते [ पाद- ३, सूत्र- ७७-७९
प्रकर्षेण कथयति वेत्यर्थः । उपयोगो धर्मादौ विनियोगः, शतं प्रकुरुते धर्मादौ विनियुङ्क्ते इत्यर्थः । एव्विति किम् ? कटं करोति । अफलवत्कर्त्रर्थ आरम्भः ।। ७६ ।।
न्या० स०- गन्धनावक्षे:- प्रोत्साहनादिकमिति आदेरव्याबाधाऽनुज्ञोदय:, तथा च पठन्ति तथ्येनातथ्येन वा गुणेन प्रोत्साहनं गन्धनम् । भर्त्सयतीति-राज़ग् टुभ्राजि दोप्तावित्यत्र भ्राजिग्रहणेनात्मनेपदाऽनित्यत्वज्ञापनात् परस्मैपदमत्र ।
अधेः प्रसहने । ३. ३. ७७ ॥
-
अधेः परात् करोतेः प्रसहने वर्तमानात् कर्तर्यात्मनेपदं भवति । प्रसहनं पराभिभवः परेण पराजयो वा तं हाधिचक्रे तं प्रसेहे तमभिभूतवान् तेन वा न पराजित इत्यर्थः । अथवा सहनं क्षमा तितिक्षोपेक्षेति यावत्, प्रकर्षेण सहनं प्रसहनम् तच्च द्विधा- शक्तस्याशक्तस्य च, "भवादृशाश्चेदधिकुर्वते परान्, 'समर्था अपि यद्युपेक्षन्ते तदा' निराश्रया हन्त ! हता Haftant" [ किराते ], 'अधिचक्रे न यं हरिः' सोढुमशक्तः सन् तेन न्य क्रियते । प्रसहन इति किम् ? तमधिकरोति । अधेरिति किम् ? शत्रून् प्रकरोति ।। ७७ ॥
"
दीप्ति-ज्ञान- यत्न- विमत्युपसंभाषोपमन्त्रणे वदः ।। ३. ३. ७८ ॥
areeferenषु गम्यमानेषु वदतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । दीप्तिर्भासनम्, सा चं कर्तृ विशेषणं वा वदनक्रियासहचारिणी धात्वर्थो वा, केवलैव वा धात्वर्थः । वदते विद्वान् स्याद्वादे सम्यग्ज्ञानादनाकुलकथानच्च विकसितमुखत्वाद् दीप्यमानो वदतीति वा वदन् - इति वा, दीप्यत एव वेत्यर्थः । ज्ञानमवबोधः, तच्च वदिक्रियाया हेतुर्वा, विषय वा फलं वा, केवलमेव वा धात्वर्थः । वदते धोमांस्तत्त्वार्थे, ज्ञात्वा वदतीति वा; जानाति वदितुमिति वा वदन् जानातीति वा, जानात्येवं वेत्यर्थः । यत्न उत्साहः, स च धात्वर्थस्य विषयो धात्वर्थः एव वा; श्रुते वदते, तपसि वदते, तद्विषयमुत्साहं वाचाविष्करोति, तत्रोत्सहते इति वेत्यर्थः । नानामतिविमतिः, सा च धात्वर्थस्य हेतुः, धात्वर्थ एव वा; धर्मे विवदन्ते, विमतिपूर्वकं विचित्रं भाषन्त इति वा, विविधं मन्यन्त इति वेत्यर्थः । उपसंभाषोपसान्त्वनमुपालम्भो वा धात्वर्थ एवायम्; कर्मकरानुपवदते, उपसान्त्वयति, उपलभते वेत्यर्थः । उपमन्त्रणं रहसि उपच्छन्दनम्, तदपि धात्वर्थ एव; कुलभार्यामुपवदते, परदारानुपवदते, रहस्युपलोभयतीत्यर्थः । दीप्त्यादिष्विति किम् ? यत् किश्विद् वदति ।। ७८ ।।
न्या० स० - दीप्तिज्ञान० : - उपच्छन्दनमिति - छन्दसोपचरति णिच् उपच्छन्द्यते
1
अनटि ।
व्यक्तवाचां सहोक्तौ ॥ ३. ३. ७१ ॥
व्यक्ताव्यक्ताक्षरा वाग् येषां ते व्यक्तवाचः, रूढ्या मनुष्यादय एवोच्यन्ते; तेषां सहोक्तौ-संभूयोच्चारणे वर्तमानाद् वदेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति । संप्रवदन्ते ग्राम्याः, संप्रवदन्ते पिशाचाः, संभूय भाषन्त इत्यर्थः । व्यक्तवाचामिति किम् ? संप्रवदन्ति कुक्कुटा:,
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पाद-३, सूत्र-८०-८१] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
[२९
संप्रवदन्ति शुकाः। शुकसारिकादीनामपि व्यक्तवाक्त्वात् सहोक्ताविच्छन्त्यन्ये,-संप्रवदन्ते शुकाः, संप्रवदन्ते सारिकाः । सहोक्ताविति किम् ? चैत्रेणोक्ते मैत्रो वदति ॥ ७९ ॥
विवादे वा ।। ३. ३.८० ॥
विरुद्धार्थो वादो विवादः, व्यक्तवाचां सहोक्तौ विवादरूपायां वर्तमानाद् वदेः कर्तर्यात्मनेपदं वा भवति । विप्रवदन्ते विप्रवदन्ति वा मौहूर्ताः, परस्परप्रतिषेधेन युगपद् विरुद्धं वदन्तीत्यर्थः । विवाद इति किम् ? सम्प्रवदन्ते वैयाकरणाः,-सह वदन्तीत्यर्थः । व्यक्तवाचामित्येव ? सम्प्रवदन्ती शकुनयः, नानारुतं कुर्वन्ति जातिशक्तिभेदात् । सहोक्तावित्येव ? मौहूर्तो मौहूर्तेन सह क्रमेण विप्रवदति,-विरुद्धाभिधानमात्रमिह विवक्षितं, न तु विमतिपूर्वकम् , तेन विमतिलक्षणमप्यात्मनेपदं न भवति ।। ८० ।।
न्या० स.-विवादे:०-सह वदन्तीत्यर्थ इति सहशब्देनापि सहोक्तावुक्तायां व्यक्तवाचामित्यनेनापि नात्रात्मनेपदम् । संप्रवदन्ति शकुनय इति-व्यक्तवाक्कत्वे सति विवादविवक्षेति न ह्यङ्गविकलता, विवादाभावेऽपि परस्परं स्वरभेदात् विवादोप्यस्ति वा।
अनोः कर्मण्यसति ३. ३.८१ ॥ ___ व्यक्तवाचामित्येवाऽनुवर्तते, व्यक्तवाचां सम्बन्धिन्यर्थे वर्तमानादनुपूर्वाद् वदेः कर्मण्यसति कर्तयात्मनेपदं भवति, अनुः सादृश्ये पश्चादर्थे वा। अनुवदते चैत्रो मैत्रस्य,-यथा मैत्रो वदति तथा चैत्रो वदतीत्यर्थः, अनुवदते प्राचार्यस्य शिष्यः, आचार्येण पूर्वमुक्ते पश्चाद् वदतीत्यर्थः । कर्मण्यसतीति किम् ? उक्तमनुवदति । व्यक्तवाचामित्येव ? अनुवदति वीणा। कथं वाचिक-पडिको न संवदेते' इति ? मिथो विरुध्येते इत्यर्थः विमतिविवक्षायां भविष्यति। अकर्मकादित्यनुक्त्वा 'कर्मण्यसतीति' इति निर्देश उत्तरत्र शब्दे स्वेऽङ्गे च कर्मणीति लाघवेन प्रतिपत्त्यर्थः ।। ८१॥
न्या० स०-अनोः कर्मः- व्यक्तवाचामित्येवेति पूर्वसूत्रे व्यक्तवाक्सहोक्तावित्येवमकरणात् , एक स्यैव अनुवर्तनार्थमेव हि भिन्नविभक्तिकनिर्देशः । कथं वाचिकषडिकावित्यादि-वागाशिम वागार्शीदत्त इति वा प्रकृतिः, अनुकम्पितो वागाशीर्वागाशीर्दत्तो वा 'अजाते नाम्नः' ७-३-३५ इतीके 'षड्वजॅकस्वर०, ७ ३-४० इत्यादिना आशीरादिलोपः, एवमनुकम्पितः षडङ्गुलि: षडङ गुलिदत्तो वा 'अजाते.' ७-३-३५ इतीके 'द्वितीयात्स्वरादूध्वम्' ७-३-४१ इति ङ गुलिलोपे वाचिकषडिकाविति । ननु षडिक इत्यत्र पदसंज्ञाया: सित्येवेति नियमेन निवत्तितत्वात् पदान्तत्वाभावात् डत्वं न प्राप्नोति, न च वाच्यं 'स्वरस्य०' ७-४-११० इति परिभाषया स्थानिनाकारेणासित्प्रत्ययस्य व्यवधानं 'न संधि०' १-३-५२ इत्यस्यावस्थानात् ? सत्यं, 'षड्वर्ज' ७-३-४० इत्यत्र षड्वर्जनं ज्ञापयति, नात्र स्थानित्वप्रतिपत्तिः। नन 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः' ७-४-११५ इति न्यायात् सित्येवेत्यस्याऽवकाशो न हि ? सत्यं, षड़वर्जनं ज्ञापयति अवयवस्यापि नियमो भवति । तेन वाचिक इत्यत्र 'चजः कगम' २-१-८६ इति न भवति ।
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३० ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-८२-८४
मिथो विरुध्येते इति-यथा वाचिक इति निष्पद्यते तथा षडिक इति न सिध्यति, तथाहि 'द्वितीयात्स्वरादूर्ध्वम्' ७-३-४१ इति कृते वाचिक इति न सिध्यति, एकस्वरादूध्व लोपेकृते षडिक इति न इति महाभाष्यविचारः विमतिविवक्षायामिति-शब्दपक्षे शब्दशब्दवतोर भेदोपचारेण ।
ज्ञः ॥ ३. ३. ८२॥
जानातेः कर्मण्यसति कर्तर्यात्मनेपदं भवति । सर्पिषो जानोते, मधुनो जानीते। कथमत्र जानातिरकर्मकः ? उच्यते, नात्र सपिराविज्ञेयत्वेन विवक्षितं किं तहि प्रवृत्ती करणत्वेन ? सर्पिषा मधुना वा करणेन मोक्तु प्रवर्तत इत्यर्थः, अत एव "अज्ञाने ज्ञ: षष्ठी" [२. २.८० ] इति षष्ठी; मिथ्याज्ञानार्थो वा जानातिः,-सपिषि रक्तः प्रतिहतो वोदकादिषु सपिष्टया ज्ञानवान् भवतीत्यर्थः, मिथ्याज्ञानं चाज्ञानमित्यज्ञानार्थत्वे पूर्ववदेव षष्ठी; अथवा सपि: संबन्धि ज्ञानं करोतीति विवक्षायां ज्ञानार्थोऽपिजानातिरकर्मकः, तदा तु सम्बन्धे षष्ठी।कर्मण्यसतीत्येव ? तैलं सपिषो जानाति, तैलं सपिष्टया जानातीत्यर्थः; स्वरेण पत्रं जानाति । केचित् तु-ज्ञानोपसर्जनायां प्रवृत्तावेवाकर्मकाज्जानातेरात्मनेपदमाहुः, अत एव ते-'संभविष्याव एकस्यामभिजानासि मातरि" 'अभिजानासि मैत्र! कश्मीरेषु वत्स्यामः' इत्यादी प्रवृत्यर्थामावादात्मनेपदाभावं मन्यन्ते; "ज्ञास्ये रात्राविति प्राज्ञः" इत्यत्रापि ज्ञात्वा प्रतिष्य इति व्याचक्षते; "जाने कोपपराङ्मुखी" [ अमरुशतके ] इत्यत्र तु "ज्ञोऽनुपसत्" [ ३ ३. ६६ ] इत्यनेनात्मनेपदमिच्छन्तीति ।। ८२ ॥
न्या० स०-जः-प्रतिहतो वेति-प्रतिपूर्वको हनिषे वर्तते अकर्मकश्च, ततः कर्तरि क्तः, प्रतिहतिरस्यास्ति अभ्राद्ये वा, कर्मकर्तरि वा । तदा तु संबन्धे इति-न माषाणामश्नीयादितिवदित्यर्थः । संमधिष्याव इति-'अयदि स्मृत्यर्थे' ५-२-९ इत्यनेन भविष्यन्ती स्यावस् । अभिजानासि मातरीति-तन्मते इत्युल्लेखेनेति विवक्षायामऽकर्मकत्वमन्यथा व्यङ्गविकलता स्यात् , स्वमते तु वाक्यार्थस्य कर्मत्वविवक्षायां सकर्मत्वान्नात्मनेपदं, ते हीत्थं व्याख्यान्तिअभिजानासि स्मरसि, केनोल्लेखेन कोपपराङ्गमुखीति, अनेन व्याख्यानेन 'ज्ञः' ३-३-८२ इत्यनेनाप्यात्मनेपदं वाक्यार्थकर्मणि तु 'ज्ञोऽनुपसर्गात्' ३-३-९६ इत्यनेन ।
उपात् स्थः ॥ ३.३.८३ ॥
उपपूर्वात तिष्ठतेः कर्मण्यसति कर्तर्यात्मनेपदं भवति । भोजनकाल उपतिष्ठते, योगे योग उपतिष्ठते, ज्ञानमस्य जेयेषुपतिष्ठते, संनिधीयत इत्यर्थः । कर्मण्यसतीत्येव ? राजानमुपतिष्ठति ।। ८३ ॥
___ न्या० स०-उपास्थ:-संनिधीयत इति-कर्मकर्तरि घीङ च् अनादरे इत्यस्य वा रुपमिदम् ।
समो गमृच्छि-प्रच्छि-श्रु-वित्-स्वरत्यर्ति-दृशः॥ ३. ३. ८४ ॥
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पाद - ३, सूत्र - ८५-८७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
[ ३१
समः परेभ्यो गमादिभ्यः कर्मण्यसति कर्तर्यात्मनेपदं भवति । संगच्छते, समृच्छते, मृच्छयते, संपृच्छते, संशृणुते, नित्यपरस्मैपदिभिः साहचर्यात् ज्ञानार्थस्यैव विदेर्ग्रहणम्संवित्त, संस्वरते, प्रर्तीति सामान्यनिर्देशात् भ्वादिरदादिश्च गृह्यते-समृच्छते, समियते, संपइयते, स्वरत्ययस्ति निर्देशो यङ्लु निवृत्त्यर्थः । कर्मण्य सतीत्येव ? संगच्छति सुहृदम् ॥ ८४ ॥
न्या० स०- समोगमृ०-समृच्छिष्यते इति-समृच्छे इत्यस्य ऋच्छेरर्तेश्च रूपसाम्यात् ऋच्छेरभिव्यक्त्यर्थं समृच्छिष्यते इति द्वितोयमुदाहरणम् । सामान्यनिर्देशादितियद्यपि सामान्यनिर्देशात् ऋश् गतावित्यस्यापि कैयादिकस्य ग्रहणं स्यात्, तथापि साम्यात् ह्रस्व एव गृह्यते परस्परं ह्रस्वत्वेन नियमितत्वात् । यङ्लु निवृत्त्यर्थ इति - तेन स्वरते: संसरिवत्ति, संसवत्ति, संसरस्वति अर्त्तेस्तु रिरीआगमे 'पूर्वस्य' ४-१-३७ इति इयादेशे समरियत्ति समरियरीति र् आगमे समति इति, अन्येषां यङ् लुप्यपि संजंगते, संपरोपृष्टे, संशोश्रुते संवेवित्ते, संदरीदृष्टे इत्यात्मनेपदमेव, ऋच्छेस्त्वसंभवो यङः ।
वेः कृगः शब्दे चानाशे ॥ ३ ३ ८५ ॥
विपूर्वात् करोतेरनाशेऽर्थे वर्तमानात् कर्मण्यसति शब्दे च कर्मणि कर्तर्यात्मनेपदं भवति । कर्मण्यसति - विकुर्वते सैन्धवाः, साधु दान्ताः, -शोभनं वल्गन्तीत्यर्थः ; प्रोदनस्य पूर्णाशछात्रा विकुर्वते - निष्फलं चेष्टन्त इत्यर्थः । शब्दं कर्मणि- क्रोष्टा विकुरुते स्वरान्, नानोत्पादयतीत्यर्थ । शब्दे चेति किम् ? विकरोति मृदम् । अनाश इति किम् ? विकरोत्यध्यायं विकरोति शब्दं विनाशयतीत्यर्थः ।। ८५ ।।
न्या० स०-वेः कृगः - विकुर्वते सैन्धवा इति ननु विकारहेतौ सति विक्रियन्ते इत्यादौ कथं क्यः 'णिस्नुध्यात्मने' ३-४ - ९२ इत्यधिकारे 'भूषार्थ ३ - ४ - ९३ इति निषेघात् ? सत्यं, अत्र कर्मणि क्यः कर्त्ता तु विकार एव ।
आङो यम-हनः स्वेऽङ्गे च ॥ ३. ३. ८६ ॥
"
आङः पराभ्यां यमि- हनिभ्यां कर्मण्यसति कर्तुः स्वेऽङ्गे च कर्मणि कर्तर्यात्मनेपदं भवति । अयच्छते आहते स्वेऽङ्गे आयच्छते पादम् आहते शिरः । स्वेऽङ्गे चेति किम् ? प्रयच्छति रज्जुम् श्राहन्ति वृषलम् । स्व इति किम् ? आयच्छति पादौ चैत्रस्य, आहन्ति शिरो मंत्रस्य । अङ्ग इति किम् ? स्वामायच्छति रज्जुम् स्वं पुत्रमाहन्ति । स्वाङ्ग इति समस्तनिर्देशे पारिभाषिकस्वाङ्गप्रतिपत्तिः स्यादित्यसमस्ताभिधानम् ||८६ ॥
,
न्या० स० - आङो यम०:- पारिभाषिकस्वाङ्गति- ततश्चायच्छति पादौ चैत्रस्येत्यादावप्यात्मनेपदप्रसङ्गः ।
व्युदस्तपः ।। ३ ३ ८७ ॥
व्युद्भ्यां परात् तपेः कर्मण्यसति, स्वेऽङ्गे च कर्मरिण कर्तयत्मनेपदं भवति ।
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३२ ]
बृहद्वृत्ति- लघुन्याससंवलिते
[ पाद- ३, सूत्र -८८
वितपते उत्तपते रविः दीप्यत इत्यर्थः । स्वेऽङ्गे वितपते, उत्तपते पाणिम्, तापयतीत्यर्थः । व्युद इति किम् ? निष्टपति । स्वेऽङ्गे चेत्येव ? वितपति पृथिवीं सविता, संतापयतीत्यर्थः; उत्तपति सुवर्ण सुवर्णकारः, द्रवीकरोतीत्यर्थः । स्व इत्येव ? उत्तपति पृष्ठं चैत्रस्य । श्रङ्ग इत्येव ? स्वं सुवर्णमुत्तपति । इह 'दीप्यते ज्वलति भासते रोचते' इत्येष्वर्थेषु तपिमकर्मकं स्मरन्ति यथा वहति भारमिति प्रापणे वहिं सकर्मकं स्यन्दने त्वकर्मकम् वहति नदी, स्पन्दत इत्यर्थ ॥। ८७ ।।
1
न्या० स० व्युदस्तपः दीप्यते सामान्येन दीप्तो भवति, ज्वलति ज्वालावान् भवति, भासते उद्भूतरूपो भवति, रोचते किरणवान् भवति ।
अणिकर्मणिक्कतृ' काष्णिगोऽस्मृतौ । ३. ३. ८८ ॥
" प्रयोक्तृव्यापारे णिग्" [ ३.४.२० ] इति वक्ष्यते प्रणिगवस्थायां यत् कर्म तदेव णिगवस्थाया कर्ता यस्य सोऽणिक्कमणिक्कर्तृकः, तस्मात् निगन्ताद् धातोरस्मृतौ वर्तमानात् कर्तर्यात्मनेपदं भवति । आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः प्रारोहयते हस्ती हस्तिपकान् आस्कन्दयत इत्यर्थः पश्यन्ति राजानं भृत्याः, दर्शयते राजा भृत्यान् भृत्यैरिति वा ; पिबन्ति मधु पायकाः पाययते मधु पायकान् । अणिगिति किम् ? आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः, आरोहयति हस्तिपकान् महामात्रः, श्रारोहयन्ति महामात्रेण हस्तिपकाः ; प्रथमन्तिकर्मणि द्वितोय रिगगन्तकर्तर्यपि मा भूत् । गित्करणं किम् ? गणयति गणं गोपालकः, गणयते गणो गोपालकम्, इति णिजन्तकर्मणिक्कर्तृ कादपि णिगन्तात् प्रतिषेधो मा भूत् । कर्मेति किम् ? करणादेः कर्तृत्वे मा भूत् पश्यन्ति भृत्याः प्रदीपेन, दर्शयति प्रदीपो भृत्यान् । णिगिति किम् ? यस्थाणिगन्तस्यैव कर्म कर्ता भवति, ततो णिगन्तान्मा भूत्लुनाति केदारं चैत्रः. लूयते केदारः स्वयमेव तं प्रयुङ्क्ते लावयति केदारं चैत्रः । कर्तृग्रहणं किम् ? आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः तानेनमारोहयति महामात्रः । णिग इति किम् ? आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः, तानारोहयते हस्तीत्यणिगवस्थायां मा भूत् । प्रत्यासत्तेश्व यस्यैव धातोरणिगवस्था तस्यैव धातोर्णिगवस्था गृह्यते न घात्वन्तरस्य, तेनेह न भवतिआरुह्यमाणो हस्ती चेतयति पृष्ठं मूत्रेण । 'हस्तिपकैरारुह्यमाणो हस्ती स्थलमारोहयति मनुष्यान्' इत्यत्र तु सदृशधातुप्रयोगेऽपि पूर्वो हस्तिपककर्तृको रुहिः परश्व मनुष्यकर्तृक इति साधनभेदात् क्रियाभेदे धातुभेदः । ग्रस्मृताविति किम् ? स्मरति वनगुल्मं कोकिलः, स्मरयत्येनं वनगुल्मः ।
-
कथं हन्त्यात्मानं, घातयत्यात्मेति श्रत्र ह्यात्मनोऽणिवकर्मणो णिक्कर्तृ त्वमस्तीति; नैवम् - द्वावात्मानौ शरीरात्माऽन्तरात्मा च तत्र भेदेनैव लोके नित्यमयं प्रयोगः, हन्त्यात्मानमिति शरीरात्मनोऽन्तरात्मनो वा कर्मत्वम् घातयत्यात्मानमित्यपि तस्यैव कर्मत्वं न कर्तृत्वमिति । ननु यदि अणिक्कर्मणो णिक्कर्तृ तायां णिगन्तादात्मनेपदमिष्यते तर्हि शुष्यन्त्यातपे व्रीहयः, शोषयते व्रीहीनातपः' इत्यादावधिकरणादेः कर्तृ तायामात्मनेपदं न प्राप्नोति ? न, फलवत्कर्तृ र भविष्यति । यद्येवमारोहयते हस्ती हस्तिपकानित्यादावपि तथैवास्तु, सत्यम् - किन्तु फलवतः कर्मस्थक्रियाच्चान्यत्रायं विधिः तथाहि - 'लावयते केदार:, भूषयते
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पाद-३, सूत्र-८८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
[ ३३
कन्या, कारयते कटः, गमयते गणः, आरोहयते हस्ती स्वयमेव' इत्यादौ कर्मस्थक्रियत्वात् "एकधातौ कर्मक्रिययकाकर्मक्रिये" [ ३. ४. ४६ ] इत्यनेनैवात्मनेपदं भवति ।
नन्वारोहयते हस्ती स्वयमेवेत्यस्य प्रास्कन्दयते' इति किलार्थः, तत् कथं कर्मस्थक्रियता रहेः ? उच्यते,-यदा न्यग्भावनार्थोऽयं तथा कर्मस्थक्रियत्वम् , तथाहि-'आरोहन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः' इति न्यग्भवनोपसर्जने न्यग्भावने रुहिर्वर्तते, स द्वितीयस्यामवस्थायाम् आरुह्यते हस्ती स्वयमेव' इत्यस्यां कर्मकर्तृ विषयो न्यग्भवनमात्रवृत्तिर्भवति, अथ चतुर्थ्यामन्तभू ततृतीयायाम् 'आरुह्यमाणं प्रयुञ्जते' इति हस्तिपकव्यापारप्रधानायां णिगन्तः सन 'आरोहयन्ति हस्तिनं हस्तिपकाः' इत्यस्यां शद्धारोहतिवन्यग्भवनोपसर्जने न्यग्भावने वर्तते, पुनयंदा अस्यैव प्रयोजकव्यापाराविवक्षा तदा 'आरोहयते हस्ती स्वयमेव' इत्यस्यां पञ्चम्यामवस्थायाम् 'आरुह्यते हस्ती स्वयमेव' इतिवन्न्यग्भवनलक्षणस्य विशेषस्य हस्तिसमवेतत्वेनोपलम्भात् 'लावयते केदारः' इत्यादाविवकर्मस्थक्रियत्वमस्त्येवेति न किञ्चिदनुपपन्नम् । तदुक्तम्
"न्यग्भावना न्यग्भवनं, रुही शुद्ध प्रतीयते । न्यग्भावना न्यग्भवनं, ण्यन्तेऽपि प्रतिपद्यते ।। अवस्थां पञ्चमीमाहुर्ण्यन्ते तां कर्मकर्तरि ।
निवृत्तप्रेषणाद् धातोः प्राकृतेऽर्थे णिगुच्यते ॥२॥” इति ॥८॥ न्या० स०-प्रणिक्कर्म०-आरोहयते हस्तीति-अत्राऽनुकूलाचरणं पादार्पणशिरोऽधूननादि । आस्कन्दयत इति हस्तिन उपर्यागच्छन्ति तानुपर्यागमयतीत्यर्थः, अत्राप्येतेनात्मनेपदम् । पाययते मधु पायकानिति-'चल्याहारार्थ' ३-३-१०८ इति परस्मैपदे प्राप्ते 'परिमुह' ३-३-९३ इत्यनेन फलवत्यात्मनेपदमित्यत्र त्वऽफलवत्यप्यनेन । प्रारोहयन्ति महामात्रेण हस्तिपका इति-आरोहयति हस्तिपकान् महामात्रस्तमारोहयन्तं हस्तिपका: प्रयुञ्जते इति वाक्यं, हस्तिपकानारोहयन्तं महामात्रं हस्त्येव प्रयुङक्ते इति वाक्ये द्वितीयणिगि अणिक्कर्मणो हस्तिन: कर्तृत्वेऽपि नात्मनेपदं, प्रत्यासत्तेल्यात् यदि अनन्तरे णिगि कर्मणः कर्तृत्वमत्र तु द्वितीये णिगि । लूयते केदार इति-ननु लूयते केदार इत्यादाविव आरोहयते हस्ती हस्तिपकान् इत्यादावपि यदेव पूर्व कर्म तदेव कर्तेति 'एकधातौ' ३-४-८६ इत्यनेन कर्मकर्तथेवात्मनेपदं भविष्यति किमनेन ? सत्यं, अकर्मकक्रियत्वाभावान्न, अत्र कर्मणः प्रयोजकव्यापारात् कर्तृत्वं, एकधातावित्यत्र तु सोकर्यादित्यऽनयोर्भेदः । णिग इति किमिति-तदा णिगि णिविषये कर्ता यस्येति व्याख्येयम् । प्रारोहयन्ति हस्तिनमितिअत्रारोहयते हस्तीत्यर्थे विवक्षिते आत्मनेपदं प्राप्तं तत् णिग इति व्यावृत्त्या निषिध्यते । आरुह्यमाणो हस्तीत्यादि-सिञ्चति मूत्रं कर्तृ पृष्ठं कर्मतापन्नं तत् सिञ्चत् हस्ती प्रयुङ क्ते सदृशधातप्रयोगेऽपीति-यथा ग्लानाय मुद्राः प्रत्यहं दीयमानाः सादृश्यात्त एव मुद्रा दीयन्ते इति व्यवह्रियते तथा ( अत्रापि कर्तृ भेदेन ) भिन्नोऽपि रुहिः सादृश्यादेकीक्रियते ।
कथं हन्ति प्रात्मानमिति-य एव आत्मा अणिक्कर्म स एव णिक्कत्यात्मनेपदं प्राप्नोतीति पराशयः । घातयत्यात्मेति-हन्त्यन्तरात्मानं बाह्य वा चौरसत्कं राजा तमेकं
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३४ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससवलिते
[पाद-३, सूत्र-८९
घ्नन्तमपरो बाह्य आन्तरो वा प्रयुङ क्ते इति स्थितिः । फलवकर्तरीति-कृषीवलादेः प्रशंसादिकमातपस्य फलम् ।
अनेनैवात्मनेपदं भवतीति-न त्वनेनाऽप्राप्तेः कर्मणः कर्तृत्वाभावात् तथा कर्मस्थक्रियेऽप्राप्ति दर्शयति । कया युक्त्या लुनाति केदारं चैत्रः ? स एवं विवक्षते-नाहं लुनामि, लुयते केदारः स्वयमेव । तं स्वयमेव लूयमान: चैत्रः प्रयुङक्ते, लावयति केदारं चत्र:, स एवं विवक्षते नाऽहं लावयामि,-अपि तु लावयते केदारः स्वयमेवेत्यनया प्रक्रिययाऽनेन न प्राप्नोति, अणिक्कर्मणोऽणिग्येव कर्तृतायाः सद्भावात् । एवं भूषयते कन्या इत्यादिष्वपि । एतवृत्त्यभिप्रायेण कृतम् । यदा तु लुनाति केदारं चैत्रः तं लुनन्तं मैत्रः प्रयुङक्ते, लावयति केदारं चैत्रेण मैत्र:, स एवं विवक्षते नाहं लावयामि चैत्रेण, लावयते केदारः स्वयमेवेति प्रक्रिया क्रियते तदाऽनेनापि प्राप्नोति अणिक्कर्मणो णिक्कर्तृताया: सद्भावात् , परं तदापि परत्वादेकघातावित्यनेनैव भवति, एवमन्येष्वपि । अत्र निवर्तना भूयोऽपि निर्वर्तना ततो निवर्तनम् । नन्वारोहयते हस्ती स्वयमेवेत्यस्यां पञ्चम्यावस्थायां प्रयोजकव्यापारेऽविवक्षित निमित्ताभाव इति न्यायात् णिगोप्यभावः प्राप्नोति ? नैवं, 'णिस्नुयात्मनेपद०' ३-४-६२ इति सूत्रे ण्यन्तानामेव त्रिक्ययोनिषेधात् ।
तत्कथमिति-गत्यर्थानां कर्तृ निष्ठव्यापारत्वेन कर्मस्थक्रियत्वासंभव इति पारायणं, यतो गम्यते ग्राम: स्वयमेवेति न भवति, कसमवेतत्वात गमनक्रियायाः। आस्कन्दनक्रिया हि हस्तिपककर्तृ समवेता न हस्तिकर्मयुक्तेति कथं कर्मस्थक्रियता रुहेरिति पराशयः ।
न्यगभवनोपसर्जने इति-अण्यन्तस्य न्यग्भवनं गौणत्वान्न विवक्ष्यते, ण्यन्तस्य तु गौणमपि पार्थक्येन विवक्ष्यत इति पञ्चैवावस्था न षट् । .
अन्तर्भूततृतीयायामिति-अन्तर्भूतन्यग्भवनरूपतृतीयावस्थायामित्यर्थः । तामितियत्तदोनित्याभिसंबन्धात् । यस्यां किमित्याह-कर्मकर्तरि विवक्षिते । निवृत्तप्रेषणा निवृत्तप्रयोजकव्यापारात् । धातोः प्राकृतेऽर्थे न्यग्भवनरूपे णिजुच्यते णिजिति मतान्तरेण, स्वमते
तु णिगेव ।
प्रलम्भे गृधि-वञ्चेः ॥ ३. ३. ८६ ॥ .. गधि-वश्विभ्यां गिन्ताभ्यां प्रलम्भे-बचने वर्तमानाभ्यां कर्तर्यात्मनेपदं भवति । बटु गर्धयते, बटुवञ्चयते, विप्रतारयतीत्यर्थः । प्रलम्भ इति किम् ? श्यानं गर्धयति, प्रलोभयतीत्यर्थः, अहि वञ्चयति, गमयतीत्यर्थः । गिग आत्मनेपदविधानं सर्वत्राफलवदर्थम् ॥८६।
न्या० स०-प्रलम्मे०-बटु बञ्चयते इति-वचिणो णिजि सिद्धं णिगन्तस्य तू विध्यर्थ चौरादिकादेव णिचि णिगन्तादात्मनेपदमित्येके । णिगन्त एव चाऽयं प्रतारणे वर्तते स्वभावात् । श्वानं गर्द्धयतीति-अत्र फलवत्त्वेऽपि नात्मनेपदं, 'अणिगि प्राणि०' ३-३-१०७ इति निषेधात् । अहिं वञ्चयतीति-अकर्मकत्वादिणिगि प्राणीति निषेधः, सकर्मकत्वे तु फलवत्यात्मनेपदं भवत्येव ।
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पाद-३, सूत्र-९०-९३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
[ ३५
लिङ्-लिनोऽर्चाऽभिभवे चाच्चाऽकर्तर्यपि ॥ ३. ३. १० ॥
लीयति-लिनातिभ्यां णिगन्ताभ्याम ऽभिभवयोः प्रलम्मे चार्थे वर्तमानाभ्यां कर्तर्यात्मनेपदं भवति, अनयोश्चान्तस्याकर्तर्यप्याकारो भवति । जटामिरालापयते, परैरात्मानं पूजयतीत्यर्थः, श्येनो वर्तिकामपलापयते, अभिभवतीत्यर्थः; कस्त्वामुल्लापयते? वञ्चयते इत्यर्थः। एष्विति किम् ? बालकमुल्लापयति, उत्क्षिपतीत्यर्थः। कथं तह्मत्रात्त्वम् ? "लीलिनोर्वा" [ ४. २.६ ] इति भविष्यति । अकर्तर्यपीति किम् ? जटाभिरालाप्यते जटिलेन । ङिच्छनानिर्देशो यौजादिकनिवृत्त्यर्थः ।। ६०॥
न्या० स०-लोड्लि०-अर्चा मुख्य एव धातोरर्थः, अत एव उदाहरणे पर्यायो णिगन्तः कथितो यथा पूजयति, अर्चयतीत्यर्थः, अभिभवप्रलम्भौ तु णिगन्त एव धातौ वर्त्ततेऽतोऽणिगन्तौ पर्यायावूचाते । यदि तु मुख्यौ स्यातां धातोस्तदानीं तौ प्रयोजकव्यापारेण व्याख्येयाताम् ।
स्मिङः प्रयोक्तुः स्वार्थे । ३. ३. ११ ॥
प्रयोक्तुः सकाशाद् यः स्वार्थः स्मयस्तत्र वर्तमानाण्णिगन्तात स्मयतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति, अस्य चान्तस्याकारोऽकर्तर्यपि भवति । जटिलो विस्मापयते । प्रयोक्तुः स्वार्थे इति किम् ? करणात स्वार्थे मा भूत ,-रूपेण विस्माययति । अकर्तर्यपीत्येव ? विस्मापनम् । किनिर्देशाद् यङ्लुपि न भवति-सेष्माययति ।। ६१ ॥
बिभेतेीषु च ।। ३. ३. १२ ॥
प्रयोक्तुः सकाशात स्वार्थे वर्तमानाण्ण्यन्ताद बिभेतेः कर्तर्यात्मनेपदं भवति, अस्य च भीषादेशः, पक्षेऽन्तस्याकारश्चाकर्तर्यपि भवति । मुण्डो भीषयते, मुण्डो भापयते । प्रयोक्तुः स्वाथे इत्येव ? कुश्विकया भाययति । अकर्तर्यपीत्येव ? भीषा, मापनम् । तिनिर्देशाद् यङ्लुपि न भवति-मुण्डो बेभाययति ॥६॥
मिथ्याकृगोऽभ्यासे । ३. ३. १३ ॥
मिथ्याशब्दयुक्तो यः कृग तस्माण्णिगन्तादभ्यासेऽर्थे वर्तमानात कर्तर्यात्मनेपदं भवति । अभ्यासः पुनः पुनः क्रियाभ्यावृत्तिः । पदं मिथ्याकारयते, स्वरादिदोषदुष्टमसकृदुच्चारयतिपाठयतीत्यर्थः । आत्मनेपदेनैव क्रियाभ्यावृत्ते?तितत्वात् आमीक्ष्ण्ये द्विर्वचनं न भवतीति केचित् । मिथ्येति किम् ? पदं साधु कारयति । कृग इति किम् ? पदं मिथ्या वाचयति । अभ्यास इति किम् ? सकृत् पदं मिथ्या कारयति ॥ ६३ ॥ .
न्या० स०-मिथ्या०-मिथ्यायुक्तः कृग् मयूरादित्वात् युक्तशब्दलोपः, यद् वा मिथ्याशब्दात् , तृतीयैकवचने 'लुगात०' २-१-१०७ इत्याल्लोपः 'अव्यय०' ३-२-७ इति टालोपो वा, तदा तु युक्तार्थस्तृतीययैव कथ्यते ।
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३६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद-३, सूत्र-९४-९५
पदं मिथ्या कारयते इति-मिथ्येति पद-समानाधिकरणं विशेषणं मिथ्याभूतं पदं करोति, उच्चरति कश्चित्तमऽन्यः प्रयुङक्ते णिग् 'अव्यय०' ३-२-७ इत्यमो लुप् न भवति ।
केचिदिति-स्वमते तु द्विवचनं भवत्येव शब्दशक्तिस्वाभाव्यात , केवलेनात्मनेपदेनाभ्यासो वक्तु न शक्यते, यथा भोज भोजं व्रजतीत्यादावाभीक्ष्णये आगतोऽपि रूणं द्विवचनमाकाङक्षति इति, पदं मिथ्या कारयत इति प्रयोगो ज्ञेयः, वृत्तौ त्वेकदेशेनोदाहारि । केचिदिति-न्यासकारादयः, तदपरे न मृष्यन्ति, यत एवम भ्युपगम्यमानेऽभ्यासे द्योतकस्यात्मनेपदस्याभावे पदं साधु कारयतीत्यादिप्रत्युदाहरणेषु कस्मान्न भवति? न चाभ्यासो नास्तीति वाच्यं, ह्यङ्गवैकल्यप्रसङ्गात् तस्माद्यदेकदेशेनेत्याधुक्तं स एव पक्षो न्यायः । परिमुहा-ऽऽयमा-ऽऽयस-पा-ट्धे-वद-वस-दमा-ऽऽद-रुच-नृतः फलवति ।
॥३. ३.१४॥ फलवतीति भूम्न्यतिशायने वा मतुः, तेन यत् क्रियायाः प्रधानं फलमोदनादि यदर्थमियमारभ्यते तद्वति कर्तरि विवक्षिते, परिपूर्वान्मुहेरापूर्वाभ्यां यमियसिम्यां-पिबति-धबद वसति-दमा-ऽऽद-रुच-नतिम्यश्च णिगन्तेभ्यः कर्तर्यात्मनेपदं भवति परिमोहयते चैत्रम् , आयामयते सर्पम् , आयासयते मैत्रम् , पाययते बटुम् , धापयते शिशुम , वादयते शिशुम् , वासयते पान्थम् , दमयतेऽश्वम , आवयते चैत्रेण । अवेनच्छन्त्यन्ये-आदयति चैत्रेण, रोचयते मैत्रम् , नर्तयते नटम् । पिबत्यत्तिधेषातूनामाहारार्थत्वादोदासीन्यनिवृत्त्यर्थतायामकर्मकत्वाच्च नतेश्चलनार्थत्वाच्च शेषाणां स्वरूपतो विवक्षातो वाऽकर्मकत्वादुत्तराभ्यां परस्मैपदे प्राप्ते वचनम् । 'पा' इति 'धे' साहचर्याद पिबतेर्ग्रहणम् , न पातेः; वदसाहचर्याच्च 'वस' इति वसतेन वस्तरिति-पाति चैत्रो नोदास्ते, पालयति चैत्रम् ; बस्ते मैत्रो न नग्नः, वासयति मैत्रमित्येव भवति ॥१४॥
न्या० स०-परिमुहा०-मायामयते सर्पमिति-कश्चिद्यम: परिवेषण इति पठति, तन्मताभिप्रायेण न ह्रस्वः, स्वमते तु भवत्येव ।
उत्तराभ्यां परस्मैपदे इति-पिबति-अत्ति-ट्धे-धातूनामाहारार्थत्वान्नृतेश्चलनार्थत्वात् 'चल्याहारार्थ' ३-३-१०८ इत्यनेन नृतवजितानामऽमीषामकर्मकत्वे तु 'अणिगि प्राणि' ३-३-१०७ इत्यनेनेत्यर्थः , स्वरूपतो वसः अन्येषामविवक्षातश्चाकर्मकत्वे अनेनैव प्राप्ते ।
ईगितः ॥ ३. ३. १५ ॥
ईकारेतो गकारेतश्च धातोः फलवति कर्तर्यात्मनेपदं भवति । यजी-यजते, उपचीपचते, लक्षीण-लक्षयते; डुकृग-कुरुते, टुडुभृगक-बिभृते, कण्डूग-कण्डूयते, गिगन्तगमयते । ईगित इति किम् ? गच्छति, चोरयति । फलवतीत्येव ? यजन्ति याजकाः, पचन्ति पाचकाः, कुर्वन्ति कर्मकराः, गमयत्यश्वं दमकः, नात्र स्वगौवनादि प्रधानं फलं की संबध्यते, यच्च दक्षिणावेतनादि संबध्यते, न तत् क्रियायाः फलं प्रधानमिति ।
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पाद-३, सूत्र-९६ ९७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
[ ३७
तच्चैतत् स्वार्थलक्षणं फलं सदसद् वा विवक्षानिबन्धनमेव ग्राह्य, तथैव लोके व्यवहारात् । तथाहि-क्वचिदसदपि सद्विवक्ष्यते, यथा-शोषयते व्रीहीनातपः, शब्दः प्राक स्वार्थमभिधत्ते ततो द्रव्यम् , परकर्मण्यपि प्रवृत्ताः केचिदाहुः-यजामहे, इमे पचामहे, यत्नादस्मदीयमेवैतदिति । क्वचित् सदप्यसद् विवक्ष्यते, यथा-इमे ब्रूमः, प्रवचनप्रतिषेधपरत्वेन प्रवृत्तेविवक्षितत्वात् , एवम्-अगमकत्वादिति ब्रू मो न ब्रू मोऽपशब्दः स्यादिति । तदाहुः
"क्रियाप्रवृत्तावाख्याता, कैश्चित् स्वार्थपरार्थता ।
असती वा सतो वापि विवक्षितनिबन्धना ॥” इति । केचित् तु रिणग्वजितादीगितो धातोणिगर्थे एव प्रेरणाध्येषणविशेष प्रतिविधाननाम्नि वर्तमानादात्मनेपदमिच्छन्ति-पचते, पाचयतीत्यर्थः; केशश्मश्रु वपते, वापयतीत्यर्थः, वेदो वैधर्म्य विधत्ते, विधायपतीत्यर्थः, इत्यादि यवाहुः
"कोणीष्व वपते धत्ते, मिनुते चिनुतेऽपि च ।।
आप्तप्रयोगा दृश्यन्ते, येषु ण्यर्थोऽभिधीयते ।।" इति । एतच्च श्रोत्रियमतमित्युपेक्ष्यते ।। ६५॥
न्या० स०-ईगितः-गमयत इति-गतिः पादविहरणं, चलनं तु स्थितस्यैव पदार्थस्येति 'चल्याहारार्थ' ३-३-१०८ इति न परस्मैपदमत्र । स्वार्थलक्षणमिति-अर्थ्यत इत्यर्थोऽर्थनीयः स्वस्यार्थः स्वर्गादिः स लक्षणं यस्य ।
शब्द प्राक् स्वार्थमिति-यथा गोशब्दः स्वार्थं सामान्यं गोत्वं प्राक् ततो गोलक्षणं द्रव्यम् । पूर्वाचार्यसंस्कृतेन द्रढयति यथात्र शब्दस्य फलवत्त्वमसदपि विवक्षितम् । अगमकत्वादिति-यथा ऋद्धस्य राज्ञः पुरुष इत्यत्र समासो न भवतीति अगमकत्वात् ब्रमः विवक्षितार्थप्रतिपादकत्वात् न ब मोऽपशब्दः स्यात् लक्षणादिदोषदुष्ट इति न ब्रूमः ।
स्वार्थपरार्थतेति-फलवत्ताफलवत्तेत्यर्थः, स्वस्मै इयं, परस्मै इयं क्रियाप्रवृत्तिः कर्मधारयात् स्वार्थपरार्थतो, भावे तल् । मतान्तरेण पुवद्भावः, स्वमते तु 'त्वते गुण:' ३-२-५९ इति गुणवचनस्य भवति । प्रतिविधाननाम्नीति-पूर्वेषां प्रयोजकव्यापारस्य प्रतिविधान इति संज्ञा, ततो विधानमर्थात्प्रयोज्यव्यापार प्रतिगतं प्रतिविधानं तन्नाम यस्य णिगर्थस्य तस्मिन् ।
ज्ञोऽनुपसगात् ॥ ३. ३.१६ ॥
अविद्यमानोपसर्गाज्जानातेः फलवति कर्तर्यात्मनेपदं भवति । गां जानीते, प्रश्वं जानीते। अनुपसर्गादिति किम् ? स्वर्ग प्रजानाति । फलवतीत्येव ? परस्य गां जानाति । अकर्मकात् पूर्वेण सिद्धे सकर्मकाथं वचनम् ॥ ९६ ॥
न्या० स०-ज्ञोऽनुप०-पूर्वेणेति-ज्ञ इत्यनेनेत्यर्थः । वदोऽपात् ॥ ३. ३.१७॥
अपपूर्वाद् वदतेः फलवति कर्तर्यात्मनेपदं भवति । एकान्तमपवदते । अपादिति किम् ? वदति । फलवतीत्येव ? अपवदति परं स्वभावत: ।। ६७॥
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३८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-९८-१०२
समुदाङो यमेरग्रन्थे ॥ ३. ३. १८ ॥
समुदाझ्यः पराद् यमेरग्रन्थविषये प्रयोगे फलवति कर्तर्यात्मनेपदं भवति । संयच्छते व्रीहीन , उद्यच्छते भारम् , प्रायच्छते वस्त्रम् । समुदाङ इति किम् ? नियच्छति वाचम् । प्रग्रन्थ इति किम् ? वैद्यश्चिकित्सामुद्यच्छति, चिकित्साग्रन्थे उद्यमं करोतीत्यर्थः । फलवतीत्येव ? संयच्छति उद्यच्छति, आयच्छति परम्य वस्त्रम् । आइपूर्वादकर्मकात् स्वाङ्गकर्मकाच्च "प्राडो यम-हन:०" [ ३. ३.८६ ] इति सिद्धेऽन्यकर्मकार्थं वचनम् ।। ६८ ॥
न्या० स०-समुवाडो-चिकित्साग्रन्थ इति-चिकित्साहेतुत्वात् ग्रन्थोऽपि चिकित्सा चिकित्स्यतेऽस्या इति वा 'शसि प्रत्ययात्' ५-३-१०५ तदा बाहुलकात् स्त्रीत्वं सा चासो ग्रन्थश्च ।
पदान्तरगम्ये वा ॥ ३. ३.११ ॥
अनन्तरसूत्रपञ्चकेन यदात्मनेपदमुक्त तत् पदान्तराद् गम्ये फलवति कर्तरि वा भवति । स्वं शत्रु परिमोहयते परिमोहयति वा, स्वं यज्ञं यजते यजति वा, स्वं कटं कुरुते करोति वा, स्वमव गमयते गमयति वा, स्वं शिरः कण्डूयते कण्डूयति वा, स्वां गां जानीते जानाति वा, स्वं शत्रुमपववते अपवदति वा, स्वान् वोहीन संयच्छते संयच्छति वा ।। ६६
शेषात् परस्मै ।। ३. ३. १००॥
पूर्वप्रकरणेनात्मनेपदनियमः कृतः, परस्मैपदं तु अनियतमिति नियमार्थमिदम् , उपयुक्तादन्यः शेषः । येभ्यो धातुभ्यो येन विशेषणात्मनेपदमुक्त ततोऽन्यस्मादेव धातोः कर्तरि परस्मैपदं भवति । अनुबन्धोपसर्गार्थोपपदप्रत्ययभेदाच्चानेकधा शेषः । अनुबन्धशेषात-भवति, अत्ति, बोमवीति, दीव्यति, गोपायति, पणायति, पुत्रीयति, पुत्रकाम्यति, अश्वति, मन्तूयति । उपसर्गशेषात्-प्रविशति, अधितिष्ठति, आगच्छति विपश्यति । अर्थशेषात-करोति, नयति, वदति । उपपदशेषात्-गृहे संचरति, साधुभ्यः संप्रयच्छति, साधु पदं कारयति । प्रत्ययशेषात्-शत्स्यति, मुमूर्षति ॥ १० ॥
परानोः कृगः ॥ ३. ३. १०१॥
परानुभ्यां परात्करोतेः कर्तरि परस्मैपदं भवति । पराकरोति. अनुकरोति । गङ्गामनु कुरुत तप इति नात्र करोतिरनुना संबध्यते । गन्धनादावर्थे गित्त्वात्फलवति च प्राप्तस्यात्मनेपदस्यापवादोऽयम् ।। १०१॥
प्रत्यभ्यतेः क्षिपः॥ ३. ३. १०२॥
प्रत्यभ्यतिभ्यः परात क्षिपेः कर्तरि परस्मैपदं भवति । प्रतिक्षिपति, अभिक्षिपति, प्रतिक्षिपति वटुम् । प्रति क्षिपते भिक्षामिति नायं क्षिपिः प्रतिना संबध्यते । ईदित्त्वात्फलवतिप्राप्तस्यात्मनेपदस्यापवादोऽयम् , एवमुत्तरसूत्रद्वयमपि ।। १०२॥ .
न्या० स०-प्रत्यभ्यतेः-ईदित्त्वादिति-इह क्षिपिस्तौदादिक ईदित् ग्रह्यते न तु देवादिकः, परस्मैपदी तस्यानुबन्धशेषेण 'शेषात्' ३-३-१०० इत्यनेनैव सिद्धत्वात् । न च
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पाद-३, सूत्र १०३-१०७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
[३९
वाच्यमस्यापि नियमार्थं कस्मान्न भवति, विधिनियमसंभवे विधेरेव ज्यायस्त्वम् ।
प्रादहः॥ ३. ३. १०३ ॥ प्रपूर्वाद्वहतेः कर्तरि परस्मैपदं भवति । प्रवहति ॥ १०३ ॥ परेमृषश्च ॥ ३.३.१०४॥
परिपूर्वान्मषेर्वहेश्च कर्तरि परस्मैपदं भवति । परिमष्यति, परिवहति । मैत्रं परिमृष्यते धनं परिवहते इत्यत्र न परिभृषिवहिभ्यां संबध्यते । वहेर्नेच्छन्त्यन्ये ॥ १०४ ॥
व्याङपरे रमः॥ ३.३.१०५ ॥
व्यापरिभ्यः पराद्रमेः कर्तरि परस्मैपदं भवति । विरमति, आरमति, परिरमति । इदित्त्वादात्मनेपदस्यापवादः ॥ १०५॥
वोपात् ॥ ३.३.१०६ ॥
उपपूर्वाद्रमेः कर्तरि परस्मैपदं भवति वा । भार्यामुपरमति उपरमते वा । उपसंप्राप्तिपूविकायां रतौ वर्तमानोऽन्तर्भूतणिगर्थो वा रमिः सकर्मकः । उपरमति उपरमते वा संताप । उपरमति उपरमते वावद्यात् । उपाद्रमेः सकर्मकात्परस्मैपदमेवे येके । आत्मनेपदमेवेत्यन्ये ।। १०६ ॥
- न्या० स०-वोपातः-उपरमते वा संताप इति-निवृत्त्यर्थः पुररुपपूर्वोऽप्यकर्मक इति दर्शयति । ... अणिगि प्राणिकर्तृ कानाप्याण्णिगः ॥ ३.३. १०७॥
___ अणिगवस्थायां यः प्राणिकर्तृ कोऽकर्मकश्च धातुस्तस्माण्णिगन्ताकर्तरि परस्मैपदं भवति । आस्ते चैत्र आसयति चैत्रम् , शेते मैत्रः शाययति मैत्रम् । अणिगीति किम् । स्वयमेवारोहयमाणं हस्तिनं प्रयुङ्क्ते आरोहयते । अरिणगिति गकारः किम् ? णिजवस्थायां प्राणिकर्तृ कानाप्यात णिगन्ताद्यथा स्यात् । चेतयमानं प्रयुङ्को चेतयतीति । प्राणिकर्तृ केति किम् ? शुष्यन्ति बोहयः, शोषयते वोहीनातपः। 'प्राण्यौषधिवृक्षेभ्यः (६-२-३१) इति पथग्निर्देशादिहलोके प्रतीता एव प्राणिनोगान्ते । अनाप्यादिति किम्? कटं कुर्वाणं प्रयुङक्ते कटं कारयते । णिरा इति किम् ? प्रास्ते, शेते । गकारः किम् ? अणिगवस्थायां प्राणिकर्तृकानाप्याणिजन्तान्माभूत । चेतयते, 'ईगितः' ( ३.३-६५) इत्यात्मनेपदस्यापवादोऽयम् ॥ १०७ ॥
___ न्या० स० प्रणिगि०:-आरोहयत इति-आरोहयते हस्तिना हस्तिपक इति सकलप्रयोगः । अत्र चावस्थापञ्चकं पूर्ववत् विधाय षष्ठ्यामवस्थायां स्वयमेवारोहयमाणं हस्तिनं प्रयुङ क्ते, इत्यस्यां परस्मैपदं प्राप्तं तदणिगीति व्यावृत्त्या निषिध्यते ।
ननु द्वितीयस्यामवस्थायामारुह्यते हाती स्वयमेवेत्यस्यामणिगन्तायं धातुः प्राणिकतूं कोऽनाप्यश्चास्ति तत्कथं न भवति परस्मैपदम् ? सत्यं, तदपेक्षया चतुर्थ्यामुत्पन्नमेवारोयन्ति हस्तिनं हस्तिपका इति. प्रस्तुते त्वारोहते हस्ती स्वयमेवेत्यस्याः पञ्चम्या अवस्थाया अनन्तरं स्वयमेवारोहयमाणं हस्तिनं प्रयुङ क्ते इत्यस्यां षठ्यामवस्थायां णिगि
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४० ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद-३, सूत्र-१.८
प्राप्तमनेन निषिध्यते, तदा हि णिगवस्थायामनाप्यो घातुर्नाणिगवस्थायाम् पञ्चम्यामवस्थायामयं धातुनित्याकर्मकोऽतो नित्याकर्मकद्वारेण णिगन्तस्य धातोः षठ्यामवस्थायां 'वाकर्मणाम्' २-२-४ इत्यनेन हस्तिनः कर्मत्वं प्राप्तमणिक्कतत्यंशेन निषिध्यते ।
चल्याहारार्थेबुध-युध-पु-दु-मुनिश-जनः॥ ३. ३. १८८ ॥
चलिरर्थः कम्पनम् , तदर्थेभ्य माहारार्थेभ्य इडादिभ्यश्च णिगन्तेभ्यः कर्तरि परस्मैपदं भवति । चल्यर्थः-चलयति, कम्पयति चोपयति शाखाम् । आहारार्थ,-निगारयति, भोजयति, आशयति चैत्रमन्नम् । पय उपयोजयते चत्रेणेति युजेरनाहारार्थत्वात न भवति । इङ-सूत्रमध्यापयति शिष्यम् । बुध-बोधयतिपन रविः, बोषयति धर्म शिष्यम् । युधयोषयपति काष्ठानि । प्र-प्रावयति राज्यं प्रापयतीत्यर्थः । ब्रु-द्रावयत्ययः, विलाययतीत्यर्थः । त्र-स्त्रावयति लम् , स्पन्दयतीत्यर्थः । नश् नाशयति पापम् । जन-जनयति पुण्यम् । * प्रस्त्र द्रणामचलनार्थार्थ शेषाणां सकर्मकार्थमप्राणिकर्तृकार्थं च वचनम् ।। १०८ ।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनबृहवृत्तौ
तृतीयस्याध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः।।। श्रीदुर्लभेशद्युमणेः पादास्तष्टुविरे न केः ।
लुलद्भिर्मेदिनी,-पाल लिखिल्यैरिवाग्रतः ।। न्या० स०-चल्याहार०-चलिरर्थ इति-चलिलक्षणोऽर्थः, कः कम्पनमनयापि युक्त्या यातीति षठ्यया न व्याख्येयम् ।
कम्पयतीति-कथं शिरः कम्पयते युवेत्यत्रात्मनेपदम् ? सत्यं, णिग्द्वयमत्र । कथं कम्पमानं शिर आत्मा प्रयुङ क्ते, तं युवा प्रयुङ क्ते ततो नात्र कम्पनं, कि तहि कम्पना चलिरर्थः कम्पनमिति चोक्तम् । ननु बुधिर्वादिषु द्विः पठ्यते एको गित् अपरश्च परस्मैपदी, द्वैवादिकोऽप्यात्मनेपदी तत् कस्य ग्रहणम् ? उच्यते, नात्र निरनुबन्धग्रहणपरिभाषोपतिष्ठतेऽनेन बुधेर्ण्यन्तस्य परस्मैपदविधानसामर्थ्यात् । यदि हि भौवादिकस्य बुधेः परस्मैपदिन एव निरनुबन्धत्वाद्ग्रहणं स्यान्नाऽन्यस्य ततश्च बोधयति, बोधयते इति नित्यमेव धातुभेदेन रूपद्वयमविचलं स्यात्तदनेन बुधग्रहणेन किं कृतं स्यात् ? अर्थस्वरूपयोरभेदात् इह बुधिग्रहणं बोधयत इति प्रयोगो माभूदेवमयं कृतं तस्माद्बुधग्रहणसामर्थ्यादविशेषेणेह बुध अवगमने 'बुधग् बोधने' 'बुधिंच ज्ञाने' इति बुधीनां ग्रहणं तेन बोधयतीति नित्यमेव भवति ।
प्रवन णामिति-प्राप्ति विलयादिभ्यो हि चलनस्यान्यत्वात् तथाहि चलनं कायव्यापारविशेषः, प्राप्तेः कारणं स्यन्दनविलयावपि प्राप्तिविशेषौ ।
इत्याचार्य
वालिरिव खिल्यन्ते 'शिक्यास्य' ३६४ ( उणादि ) इति निपात्यते । ईश्वरविवाहे होमादिक्रियां कुर्वतो ब्रह्मणः कक्षाबन्धाद्गौरीरूपदर्शनक्षुभितस्य वीर्यमपप्तत् तच्च वीडया तेनोत्पुसितुमारब्धं, तस्माच्चाऽमोघत्वेनाब्रह्मण्यममिति ब्रवाणा अष्टाशीतिसहस्रसंख्या ऋषय उदतिष्ठन् , ते च चतुर्मुखचरणाक्रान्तत्वेनाङ गुष्ठप्रमाणा अभवन्नित्यागमः ।
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चतुर्थः पादः
गुप-धूप- विच्छि-पणि-परायः ॥ ३. ४. १ ॥
गुपादिभ्यो धातुभ्यः पर आयप्रत्ययो भवति स चानिर्दिष्टार्थत्वात् स्वार्थे । गोपायति, धूपायति, विच्छायति पणायति व्यवहरति, स्तौति चेत्यर्थः । न चोपले मे वणिजां पणायाः, पनायति व्यवहारार्थात् पणेर्नेच्छन्त्यन्ते, शतस्य पणते । अनुबन्धस्याशवि आयप्रत्ययाभावपक्षे चरितार्थत्वादायप्रत्ययान्ताभ्यां पणिपनिभ्यामात्मनेपदं न भवति । पावरका गुपि गोपने इत्यस्य निवृत्यर्थः पङ्लु निवृत्त्यर्थश्च ॥ १ ॥
न्या० स०- - गुपौधूप० - आयस्यादन्तत्वे अजुगोपायादित्यादि सिद्धमन्यथाऽदन्तत्वाभावे ‘उपान्त्यस्य' ४-२ - ३५ इति ह्रस्वत्वे अजुगोपयदित्यनिष्टं स्यात् । विच्छायतीति ननु विच्छेस्तौदादिकत्वेन शविषयाभावाद् विकल्पः प्राप्नोति ? नैवं शवोपवादत्वात् शप्रत्ययस्यापि शव्शब्देनाभिधानाददोषः एवं चाशवीत्यनेनाशितीत्यर्थ सिद्धो भवति, अशितीत्येव वा पठनीयं धातुपारायणकृता तु मेने विच्छायति, विच्छतीति । शतरि 'अवर्णादश्न ० ' २-१-११५ इति वा अन्तादेशे विच्छती, विच्छन्ती स्त्री कुले वा । द्रमिलास्तु शे नित्यमायं तुदादिपाठबलाच्चायव्यवायेऽपि पक्षेऽन्ताभावमिच्छन्ति विच्छायन्ती, विच्छायती; यथा जुगुप्सते इति सना व्यवधानेऽपि आत्मनेपदम् ।
पर्नेच्छन्त्यन्ये इति- जयादित्यप्रभृतयः, पनि स्तुत्यर्थस्तत्साहचर्यात्पणेरपि स्तुत्यर्थादाय इति व्याख्यानयन्ति ।
गुपि गोपन इत्यस्य निवृत्त्यर्थ इति- 'गुपण् भासार्थ:', 'गुपच् व्याकुल्वे' इत्यनयोस्तु धूपसाहचर्यान्निरासः । ननु धूपश्चुरादिरप्यस्ति ? सत्यं, अणिजन्तविच्छसाहचर्यात् भौवादिकस्यैव धूपस्य ग्रहणम् । ननु विच्छिरपि भासार्थश्चुरादिस्तत्कथं तेन साहचर्यम् ? सत्यं, तस्याणिजन्ताभ्यां पणिपनिभ्यां साहचर्यान्निरासः ।
यङ्लुग्नवृत्त्यर्थश्चेति- ननु यप्रत्ययस्य प्राप्तिरेव नास्ति, आयप्रत्ययेऽनेकस्वरत्वात् तत्कथं यङ्लुप्त्निवृत्त्यर्थश्चेत्युक्तम् ? सत्यं, अशत्विषये विकल्पितस्यायस्य प्रथमं य प्रकृतिग्रहणेति न्यायात्प्राप्ति ।
कमेर्णिङ् ॥ ३. ४. २ ॥
कमेर्धातोः स्वार्थे णिङ् प्रत्ययो भवति । कामयते, कारो वृद्धद्यर्थः । ङकार आत्मनेपदार्थः ॥ २ ॥
न्या० स० - कमेणङ्० - णकारो वृद्धघर्थ इति यद्येवं 'अमोऽकम्यऽमिचमः ' ४-२-२६ इत्यत्र कमेः प्रतिषेधो व्यर्थस्तेन ह्यस्य ह्रस्वत्वं निषिध्यते, हस्वत्वस्य च णित्करणसाम
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४२ ]
बृहवृत्ति-ल घुन्याससंवलिते
[ पाद-४, सूत्र-३-६
र्थ्यात् याऽसौ वृद्धिः प्रवर्त्तते तयैव बाधः संपन्न इति किमर्थः प्रतिषेध इति शेषः ? सत्यं, णिङऽभावपक्षे यदा णिगुत्पद्यते तदा ह्रस्वत्वं मा प्रापत् , वृद्धिरेव श्रूयतामित्येवमर्थः प्रतिषेधः । 'णेरनिटि' ४-३-८३ इति च सामान्यग्रहणार्थो णकारोऽर्थवान् इति प्रतिषेधाभावे ह्रस्वः स्यादिति ।
डकार प्रात्मनेपदार्थ इति-धात्वनुबन्धस्य अशवि चरितार्थत्वात्तदन्तस्य न प्राप्नोति । ऋतेडीयः ।। ३. ४.३॥
ऋत घृणागतिस्पर्धेषु इत्यस्माद्धातोः स्वार्थे डीयः प्रत्ययो भवति । ऋतीयते, डकार आत्मनेपदाद्यर्थः ॥ ३ ॥
न्या० स०-ऋतेमयः-आत्तितीय दित्यत्र फलमदन्तताया ङीयस्य अन्यथा आत्तितियदिति स्यात् । आत्मनेपदाद्यर्थ इति-आदिपदात् गुणाभावः ।
अवि ते वा ॥ ३. ४.४ ॥
गुपादिभ्योऽशवि विषये ते आयादयो वा भवन्ति । गोपायिता, गोप्ता, धूपायिता, धपिता, विच्छायिता, विच्छिता, पणायिता, पणिता, पनायिता, पनिता, कामयिता, कमिता, ऋतीयिता, अतिता ॥४॥
गुप्-तिजो गर्हा-तान्तौ सन् ॥ ३. ४. ५ ॥
गपतिज इत्येताभ्यां यथासंख्यं गर्हायां क्षान्तौ च वर्तमानाभ्यां स्वार्थे सन प्रत्ययो भवति । जुगुप्सते-गर्हते इत्यर्थः, तितिक्षते-सहते इत्यर्थः । गक्षिान्ताविति किम् ? गोपनम् , गोपयति, तेजनम् , तेजयति । अनयोरान्तरेऽपि त्यादयो नाभिधीयन्त इत्यत्यादिना प्रत्युदाहृतम् , एवमुत्तरसूत्रद्वयेऽपि प्रायेण ज्ञेयम् । अकारः सनग्रहणेषु सामान्यग्रहणार्थः, नकारः सन्यङश्चेत्यत्र विशेषणार्थः ।। ५॥
न्या. स०-गपतिजो०-त्यादय इति-त्यादिसमानार्थत्वाच्छत्रानशावपि । केचिच्छत्रानशाविच्छन्ति, तेन गोपमानं, तेजमानं, केतन्तं प्रयुङ क्ते, इत्यपि भवति । प्रायेणेति भणनात् गोपते, तेजते, केतति, बधते इत्याद्यपि, अत एव रसवाचकतिक्तशब्दसाधनाय तेजते इति वाक्यं कृतं क्षीरस्वामिना । 'पुतपित्त:' २०४ (उणादि) इति साधुः ।
प्रकारः सन्ग्रहणेष्विति-अन्यथेच्छासन एव ग्रहणं स्यात् । कितः संशय-प्रतीकारे ।। ३. ४. ६ ॥
कितो धातोः संशये प्रतीकारे च वर्तमानात् स्वार्थे सन् प्रत्ययो भवति । विचि. कित्सति-संशेते इत्यर्थः, व्याधि चिकित्सति-प्रतिकरोतीत्यर्थः । निग्रहविनाशौ प्रती
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पाद-४, सूत्र-७-८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
[४३
कारस्यैव भेदौ तेनात्रापि भवति,-क्षेत्रे चिकित्स्यः पारदारिकः,-निग्राह्य इत्यर्थः, चिकित्स्यानि क्षेत्रे तृणानि विनाशयितव्यानि इत्यर्थः । संशयप्रतीकार इति किम् ? केतनम् , केतयति ।। ६॥
न्या० स०-कितः संशय:-अनवधारणात्मक: प्रत्ययः संशयः । प्रतीकारा दुःखहेतोनिराकरणम् । निग्रहविनाशाविति-अन्यनिग्रहविनाशयोरपि सन्नभिहित: तत्स्वमते कथमित्याशङ्का।
शान्-दान-मान-बधान्निशानाऽऽर्जव-विचार-वैरूप्ये दीर्घश्चेतः
शान-दान-मान-बध इत्येतेभ्यो यथासंख्यं निशाने, आर्जवे, विचारे, वैरूप्ये च वर्तमानेभ्यः स्वार्थे सन् प्रत्ययो भवति, दीर्घश्चैषां द्विर्वचने सति पूर्वस्येकारस्य । शीशांसते, शीशांसति, दीदांसति, दीदांसते, मीमांसते, बीभत्सते । अर्थनिर्देश: किम् ? अर्थान्तरे माभूतनिशानम् अवदानम् , अच् ,-अवमानयति, बाधयति ।। ७॥
न्या० स०-शानः-निन्दितरूपो विरूपः, तस्य भावो वैरूप्यम् । नन्वत्र इद्ग्रहणं किमर्थं, दीर्घ इति सामान्योक्तावपि सनि इत एव संभवः ? सत्य, अदिति ग्रहणाभावे सनि प्रथममेवाकारस्य दीर्घः स्यात् , शान्दानोः साहचर्यात् मानिर्वादिह्यते न तु चुरादिः ।
निश्यतीत्यचि निशानं, अवद्यतीत्यचि अवदानं, 'शोंच तक्षणे,' 'दोंच् छेदने' अनयोऽनडन्तयोरिदं रूपयमिति कश्चिदाशङ केत तद्व्युदासार्थमाह-अजिति ।
धातोः कण्ड्वादेर्यक् ।। ३. ४. ८ ॥
द्विविधाः कण्डवादयः धातवो नामानि च, कण्डवादिभ्यो धातुभ्यः स्वार्थे यकप्रत्ययो भवति । कण्डयति, कण्डूयते, महीयते, मन्तूयति । धातोरिति किम् ? कण्डः, कण्ड्वौ, कण्ड्वः । यकः कित्त्वाद्धातोरेवायं विधिः । धातुग्रहणम् उत्तरार्थमिह सुखार्थ च । कण्डूग , गकारः फलवति 'ईगित:' ( ३. ३. ६५ ) इत्यात्मनेपदार्थः। महीङ, हृणीङ्, वेङ्, 'लाङ् 'ङकार आत्मनेपदार्थः। मन्तु, वल्गु, असु, वेट , लाट । वेट्लाट । इत्यन्ये । लिट्, लोट् , उरस् , उषस् इरस् , तिरस्, इयस् , इमस् , अस् , पयस् , . संभूयस् , दुवस् , दुरज , भिषज् , भिष्णुक , रेखा, लेखा, एला, वेला, केला, खेला, खल इत्यन्ये । गोधा, मेधा, मगध, इरध इषुध, कुषुम्भ, सुख, दुःख, अगद, गद्गद, गद्गदङित्येके । तरण, वरण, उरण, तुरण, पुरण, भुरण, वुरण, भरण, तपुस, तम्पस, परर, सपर, समर इति कण्ड्वादिः ।। ८॥
न्या० स०-धातोः कण्ड्वा०-कण्ड्व इति यदा कण्डूमिच्छन्ति क्यनि क्विपि तल्लोपे जसि 'संयोगात्' २-१-५२ इत्युवादेशे कण्डुव इति भवति । यकः कित्त्वेति-कितः फलं 'नामिनो गुणः' ४-३-१ इत्येवमादीनि तानि च धातोरेव गौणमुख्ययोरिति न्यायात्
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४४ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद- ४, सूत्र - ९
मुख्यो धातुरेव । नामापि धातोः सकाशाद् भवति । उक्तं च- नाम च धातुजमाह । उत्तरार्थमिति यदा तु 'दीर्घश्च्वियङ' ४-३ - १०८ इत्यादि कित्त्वफलं तदा धातुग्रहणमत्रापि सार्थम् ।
व्यञ्जनादेरेकस्वराट् शृशाऽऽभीक्ष्ण्ये यवा ।। ३. ४.१॥
गुणक्रियाणामधिश्रयणादीनां क्रियान्तराव्यवहितानां साकल्येन संपत्तिः फलातिरेको वा भृशत्वम्, प्रधानक्रियाया विक्लेदादेः क्रियान्तराव्यवधानेनावृत्तिराभीक्ष्ण्यम्, तद्विशिष्टेऽर्थे वर्तमानाद्धातोर्व्यञ्जनादेरेकस्वराद्यङ्प्रत्ययो वा भवति । भृशं पुनःपुनर्वा पचति पापच्यते, जाज्वल्यते, अथाभीक्ष्ण्ययङतस्याभीक्ष्ण्ये द्वित्वं कस्मान्न भवति ? उक्तार्थत्वात् यदा तु भृशार्थयङतादाभीक्ष्ण्यविवक्षा - तदा भवत्येव । पापच्यते पापच्यते इति, तथा भृशार्थयङतादाभीक्ष्ण्ये आभीक्ष्ण्ययङताद्वा भृशार्थे विवक्षिते यदा पश्चमी केवला, तदा सा केवला तदर्थद्योतनेऽसमर्थेति तदर्थद्योतने द्विर्वचनमपेक्षते । पापच्यस्व पापच्यस्वेति धातोरित्येव ? तेन सोपसर्गान्न भवति । भृशं प्राति । व्यञ्जनादेरिति किम् ? भृशमीक्षते । एकस्वरादिति किम् ? भृशं चकास्ति । केचिज्जागर्तरिच्छन्ति - जाजाप्रीयते । सर्वस्माद्धातोरायादिप्रत्ययरहितात्केचिदिच्छन्ति-अवाव्यते, दादरिद्रयते । भृशाभीक्ष्ण्ये इति किम् ? पचति । वेति किम् ? लुनीहि लुनीहीत्येवायं लुनातीत्यादि यथा स्यात् ।। ६ ।।
न्या० स० - व्यञ्जनावे ० : -- क्रियान्तराऽव्यवहितानामिति - विरोधिभिर्ग्रामगमनादिभि: अविरोधिभिस्तूच्छ्वासादिभिर्भवत्येव । साकल्येन संपत्तिरिति सामस्त्येन ढौकनमित्यर्थः । फलातिरेको वेति- फलसमाप्तावपि क्रियानुपरतिः ।
प्रधानक्रियाया इति पचौ विक्लेदः प्रधानक्रिया, तां कश्चित्समाप्य क्रियान्तरमनारभ्य पुनस्तामेव क्रियामारभते तस्याः पुनः पुनर्भाव अभीक्ष्ण्यं तदा भवत्येवेति यदा त्वाभीक्ष्ण्ययङन्ताद् भृशार्थविवक्षा, तदा न द्वित्वं शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् तस्यार्थस्य यङव प्रतिपादितत्वात् । किंच भृशत्वं गुणक्रियाणां साकल्येन संपत्तिः, अभीक्ष्ण्यं प्रधानक्रियायाआवृत्तिः, अतः प्रधानक्रियायां गुणक्रिया न्यग्भूतेति ।
,
दामीति तर्हि एतस्यां विवक्षायां पञ्चम्यपि न प्राप्नोति ? न, शब्दशक्तिस्वाभाव्यात्, 'भृशाभीक्ष्ण्ये० ' ५-४-४२ इति पञ्चमी भवत्येव, लुनीहि लुनीहीत्येवायमिति, न च हि-स्वविधानसामर्थ्यादेव तौ भविष्यत इति वाच्यं, स्वराद्यनेकस्वरेभ्यः तयोश्चरितार्थत्वात् तथा यदा भृशं पचति, पचनविशिष्टो भृशार्थो धात्वर्थस्तदा वाक्यार्थमपि वा ग्रहणम्, तर्हि वाक्यार्थमिति कथं नोक्तम् ? सत्यं, यदा पचतिना पाकः, भृशब्देन तु भृशार्थतद वाक्यं सिद्धमिति वाक्यार्थमिति नोक्त पाक्षिकप्राप्तेरप्रधानत्वात् । ननु ' व्यञ्जनादेरेकस्वात्' ३-४-९ इति किमर्थं यत उत्तरसूत्रेऽट्यतिग्रहणात् व्यञ्जनादित्वं सूत्रिमूत्रिग्रहणात् एकस्वरत्वं चात्र लप्स्यते, तस्मादुत्तरसूत्रकरणादिह 'व्यञ्जनादेरेक० ३-४-९ एव भविष्यति ? नैवं, गत्यर्थानां भृशा भीक्ष्ण्येऽर्थे यदि यङ स्यात्तदाऽट्यत्त्यरेव स्यात्, तथा
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पाद-४, सूत्र-१०-१२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
[४५
च दनीध्वस्यते इति न स्यात् , व्यञ्जनादीनामेकस्वराणामदन्तानामेव स्यात् , तथा च पापच्यते इति न स्यादिति नियमाशङ्का स्यात्तन्निवृत्त्यर्थम् ।
अटयर्तिसूत्रिमूत्रिसूच्यशूर्णोः ॥ ३. ४. १० ॥
एभ्यो भृशाभीक्षण्ये वर्तमानेभ्यो यङ्प्रत्ययो भवति । भृशं पुनःपुनर्वाटति प्रटाटयते । एवमित्ति ऋच्छति वा प्ररायते, सूत्रण-सोसूत्र्यते, मूत्रण-मोमूत्र्यते, सूचण्-सोसूच्यते, अश्नुते अश्नाति वा अशाश्यते, ऊर्गुण्क्-प्रोर्णोनूयते । अटयर्त्यशामव्यञ्जनादित्वात् सूत्रिमूत्रिसूचीनामनेकस्वरत्वात् ऊर्णोतेरव्यञ्जनाद्यनेकस्वरत्वात्पूर्वेणाप्राप्ते वचनम् ।। १०॥
न्या स०-अयति०-यङोऽदन्तत्वे अटाट्यते, अरार्यते इत्यादिषु फलम् ।
गत्यर्थात्कुटिले ॥ ३. ४. ११॥
व्यञ्जनादेरेकस्वराद् गत्यर्थात्कुटिल एवार्थे वर्तमानात् धातोर्यङ्भवति न भशाभीक्ष्ण्ये । कुटिलं कामति चंक्रम्यते, दन्द्रम्यते । कुटिल इति किम् ? भशमभीक्ष्णं वा कामति । धात्वर्थविशेषणं किम् ? साधने कुटिले माभूत-कुटिलं पन्थानं गच्छति । तककौण्डिन्यन्यायेन भशाभीक्षण्ययोनिषेधार्थ वचनम् । भृशाभीक्ष्ण्ये कुटिलयुक्ते एव यङ्न केवल इत्यन्ये, एवमुत्तरत्रापि । कथं जंगमः ? रूढिशम्बोऽयम् लक्षणया स्थावरप्रतिपक्षमात्रे वर्तते ।। ११॥
'न्या० स० गत्यर्थात्:-तक्रकौण्डिन्येति-अयमर्थः सामान्यलक्षणस्य विधेविशेषलक्षणो विधिधिको भवति, तक्रं देयमस्मै तक्रदेयः कौण्डिन्यः 'मयूर' ३-१-११६ इति देयलोपः । कथं जङ्गमः ? इति-अत्र कुटिलार्थाभावे कथं यङित्याशङ्कार्थः । लक्षणयेति-यन्मुख्यं प्रवृत्तिनिमित्तं शब्दस्य तत्प्रत्यासत्त्या तदुपलक्षितं धर्मान्तरमपादाय प्रवृतिर्लक्षणा तया। गच्छतीति-'गमेज च वा' १३ (उणादि) इत्यऽप्रत्यये वा जमादेशे च ।
ग-लुप सद-चर-जप-जभ-दश-दहो गये ।। ३. ४. १२ ॥
गो एवार्थे वर्तमानेभ्यो गृप्रभृतिभ्यो धातुभ्यो यप्रत्ययो भवति न भृशादिषु । गहितं निगिरति निजेगिल्यते । एवं लोलुप्यते, सासद्यते, चञ्चर्यते, जञ्जप्यते, जञ्जभ्यते, दन्दश्यते, दंदह्यते । दंशेः कृतनलोपस्य निर्देशो यङलुप्यपि नलोपार्थः- तेन दंदशीति । गोति किम् ? साधु जपति । धात्वर्थविशेषणं किम् ? साधने गा माभूतजपति वृषलः । नियमः किम् ? भृशं पुनःपुनर्वा निगिरति कुटिलं चरतीत्यत्र न भवति ।१२।
न्या० स०-गृलुप-लोलुप्यते इति-लुप्लु ती युपरुपलुपचित्यस्य वा । चंचूर्यते इति'अङ हिहन०' ४-१-३४ इत्यतः पूर्वादित्यधिकारात् द्वित्वे सति 'ति चोपान्त्यातः' ४-१-५४ इति उत् ,
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बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-१३-१७
तेन दंदशीतीतिः-अन्तरङ्गानपि इति न्यायात् प्रथममेव यङो लुपि ङित्वाभावात् न लोपो न स्यात् ।
न गृणाशुभरुचः॥ ३. ४. १३॥
गणातिशुभिरुचिभ्यो भूशाभीक्षण्यादौ यङ् न भवति । गहितं गृणाति, भृशं शोभते, भृशं रोचते ।। १३ ॥
न्या० स०-न गृणा०:-भृशाभीक्ष्ण्यादाविति-आदिपदात् गृणातेगृह्येऽर्थे । बहुलं लुप् ।। ३. ४. १४ ॥
यडो लुप् बहुलं भवति । बोभूयते, बोभवीति, बोभोति; रोख्यते, रोरवीति, रोरोति; लालप्यते, लालपीति, लालप्ति; चंक्रम्यते, चंकपीति, चंक्रन्ति ; जंजप्यते, जंजपीति, जंजप्ति । बहुलग्रहणं प्रयोगानुसरणार्थम् । तेन क्वचिन्न भवति ? लोलूया, पोपूया ॥१४॥
अचि ॥ ३. ४. १५ ॥
प्रचि प्रत्यये परे यको लुप् भवति । लोलुवः, पोपुवः, सनीनसः, बनीध्वंसः, चेच्यः, नेन्यः । नित्यायं वचनम् ॥ १५॥
न्या० स०-प्रचिः-लोलव इति-ॐ अन्तरङ्गानपि * इति न्यायात् अत इति अन्तरङ्गमपि अलुकं बाधित्वा स्वरान्तस्यैव यङो लुप् । ननु यङो लुपि 'नामिनः' ४-३-१ इति कथं न गुणः ? 'न वृद्धिश्चाविति' ४-३-१1 इति निषेधात् ।
नोतः ।। ३. ४. १६ ॥ . उकारान्ताद्विहितस्य योऽचि परे लुप् न भवति । योयूयः, रोख्यः ॥ १६ ।।
न्या० स०-नोत:-योयूप इति-अत्र पृथग्योगात् बहुलमित्यनेनापि न, अन्यथा चिनोत इत्येकमेव कुर्यात् ।
चुरादिभ्यो णिच् ॥ ३. ४. १७ ॥
णितश्चुरादयः-तेभ्यो धातुभ्यः स्वार्थे णिच् प्रत्ययो भवति । चोरयति, नाटयति, पदयते,-णकारो वृद्धयर्थः । णिग्रहणेषु सामान्यग्रहणार्थश्च । चकारः सामान्यग्रहणाविघातार्थः । चुरण, पृण , घृण, श्वल्कवल्कण , नक्कधक्कण , चक्कचुक्कण , टकुण , अर्कण् , पिव्वण , पचुण् , म्लेच्छण, ऊर्जण् , तुजपिजुण, भजुण् , पूजण् , गजमार्जण् , तिजण , वजवजण , रुजण, नटण, चटचुटचुछुटुण, कुट्टण, पुट्टचुट्टपुट्टण, पुटमुटण् , अस्मि
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पाद - ४, सूत्र - १७- ] श्री सिद्ध हेम चन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
[ ४७
दृण्, लुण्टण्, स्निटण्, घट्टण्, खट्टण्, पट्टस्फिटण्, स्फुटण्, कीटण्, वटुण्, रुटण्, शठश्वठश्वठ्ठण्, शुठण, शुठुण, गुठुण् लडण्, स्फुडूण्, श्रोलडुण्, पीडण्, तडण्, खड, खडुण, कडण्, कुडण्, गुडुण, वुडुण, मडुण्, भडण्, पिडुण्, ईडण्, चडुण्, जुडचूर्णवर्णण, चूणतूणण्, श्रणण, पूणण, चितुण्, पुस्तवस्तण, मुस्तण्, कृतण्, स्वर्तपथुण् श्रथण्, पृथण्, प्रथण्, छदण्, चुदण्, मिदुण्, दुर्दण्, गुर्दण्, छर्दण्, बुधण्, वर्धण्, गर्धण् बन्धवधण्, मानण्, छपुण्, क्षपुण्, ष्टूपण, डिपण्, हृपण् डपुडिपुण्, शूर्पण, शुल्वण्, डबुडिबुण्, सम्बण, कुबुण्, लुबु, तुबुण् पुर्वण्, यमण्, व्ययण्, यवण, कुद्रुण्, श्वभ्रण, तिलण्, जलण्, क्षलण्, पुलण्, बिलण्, तलण्, तुलण्, दुलण, बुलण्, मूलण, कलकिलपिलण्, पलण्, इलण्, चलण्, सान्त्वण्, धूशण्, शिलपण, लूषण, रुषण्, प्युषण, पसुण्, जसुण्, पुसण्, ब्रस्, पिसजसबर्हण्, ष्णिहण, स्रक्षण, भक्षण्, पक्षण, लक्षोण इतोऽथ विशेषे आलक्षिणः ।
,
ज्ञाण मारणादिनियोजनेषु, च्युण् महने, भूण् अवकल्कने, वुक्कण् भाषणे, रक लक रंग लगण आस्वादने, लिगुण् चित्रीकरणे, चर्चण् प्रध्ययने, अंचण विशेषणे, मुचण् प्रमोचने, अर्जण, प्रतियत्ने, भजण् विश्रारणने, चट स्फुटण् भेदे, घटण संघाते हन्त्यर्थाश्च । कणण निमीलने, यतण् निकारोपस्कारयोः निरश्व प्रतिदाने, शब्दण् उपसर्गाद्भाषाविष्कारयोः, ष्वदण् आश्रवणे, आङः क्रन्दण् सातत्ये, स्वदण् आस्वादने, आस्वदं सकर्मकात्, मुदण् संसर्गे, शृधण् प्रहसने, कृपण् अवकल्कने, जभुण् नाशने, अमण् रोगे, चरण् असंशये, पूरण आप्यायने, दलण् विदारणे, दिवण् अर्दने, पश पषण् बन्धने, पुषण धारणे, घुषण्, विशब्दने श्राङ: क्रन्दे भृष तसुण् अलंकारे, जसण् ताडने, त्रसण वारणे, वसुण् स्नेहच्छेदावहरणेषु प्रसण् उत्क्षेपे, ग्रसण् ग्रहणे, लसण् शिल्पयोगे, अर्हण् पूजायाम्, मोक्षण असने, लोकृतर्क रघु, लघु, लोच, विच्छ, अजु, तुजु, पिजु, लजु, लुजु, भजु, पट, पुट, लुट, घट, घटु, वृत, पुथ, नद, वृध, गुप, धूप, कुप, चीव, दशु कृशु, त्रसु, पिसु, कुसु, दसु बर्ह बहु, वल्ह, अहु बहु, महुण् भासार्थाः, युणि जुगुप्सायाम्, गुणि विज्ञाने, वश्विण् प्रलम्भने, कुटि प्रतापने, मदिण् तृप्तियोगे, विदिण् चेतनाख्याननिवासेषु, मनिण् स्तम्भे, बलिभलिण् आभण्डने, दिवि परिकूजने, वृषिण शक्तिबन्धे, कुत्सिण् अवक्षेपे, लक्षिण आलोचने, हिष्कि, किष्किण, निष्किण्, तर्जिण, कूटिण्, त्रुटि, शठिण, कूणिण्, तृणिण्, भ्रणिण् चिति, वस्तिगन्धिन्, डपडिपि, डम्पि, डिम्पि, डम्भि, डिम्भिण्, स्यमिण्, शमिण, कुस्मिण, गूरिण्, तन्त्रिण, मन्त्रिण्, ललिण्, स्पशिण्, दंशिण, दंसिण, भत्सिण् यक्षिण । इतोऽदन्ताः ॥
1
अङ्कण्, ब्लेष्कण्, सुखदुःखण् अङ्गण्, अधण्, रचण् सूचण्. भाजण्, सभाजण्, लजलजुण्, कूटण्, पटवटण, खेटण् खोटण्, पुटण्, बटुण्, रुटण्, शठश्वठण्, दण्डण्, व्रणण्, वर्णण्, पर्णण् कर्णण्, तृणण्, गणण्, कुलगुणकेतण्, पतण्, वातण् कथण्, श्रथण्, छेदण्, गदण्, अन्धण्, स्तनण्, ध्वनण्, स्तेनण् ऊनण्, कृपण, रूपण्, क्षपलाभण्, भामण्, गोमण, सामरण, श्रामण, स्तोमण, व्ययण, सूत्रण मूत्रण्पारतीरण, कत्र गोत्रण, चित्रण, छिद्रण, मिश्रण चरण
,
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४८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुग्याससंवलिते
[ पाद- ४, सूत्र - १८-१९
स्वरण, शारण, कुमारण, कलण, शोलण, वेलकालण, पहयूलण, अंशण, पषण, गवेषण, मृषण, रसण, वासण्, निवासण्, चहण्, महण्, रहण्, रहुण, स्पृहण, रूक्षण, मृगणि, अर्थणि, पदणि, संग्रामणि, शूरवीरणि, सत्रणि, स्थूलणि, गर्वणि, गृहणि, कुहणि इति चुरादयः ।
श्रादन्तवं च सुखादीनां णिच्संनियोगे एव द्रष्टव्यम् तेन णिजभावे जगरणतुः जगणिथेत्यत्र अनेकस्वरत्वाभावादाम् न भवति । अनित्यो हि णिच् चुरादीनाम्, 'घुषेरविशब्दे' ( ४-४-६९) इत्यत्र ज्ञापयिष्यते । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् तेन संवाहयतीति सिद्धम् ।। १७ ।।
I
न्या० स० - चुरादिभ्यो::- चकार इति चकारे तु सति निरनुबन्धस्य णेरभावात् सामान्येन ग्रहणं भवति । ज्ञाण्-मारणादीनां निद्दिष्टार्थानामिह दर्शनमर्थान्तरेऽमीषां तु चुरादिपाठो नेष्यते इति ज्ञापनार्थम् । हन्त्यर्थाश्चेति- सर्वे हन्त्यर्था धातवोऽत्र पठितव्या:, तेन णिज्शवादिकं च कार्यं भवति । सुखादीनामिति अङ्कादीनामिति वक्तव्येङ्कब्लेप्कयोः फलाभावात् सुखादीनामित्युक्तम् । पूर्वाचार्यानुरोधेन त्वऽदंतमध्ये पठति । श्रनेकस्वरत्वाभावादिति - द्वित्वे सत्येकस्वरत्वेऽपि सन्निपातन्यायान्न भवति । संनिपातनिमित्तं ह्यनेकस्वरत्वम् । संवाहयतीति - अङ्गानि मृद्नाति इत्यर्थः ।
युजादेर्नवा ॥ ३ ४ १८ ॥
चुराद्यन्तर्गणो युजादिः, युजादिभ्यो धातुभ्यः स्वार्थे णिच् प्रत्ययो भवति वा । योजयति, योजति, साहयति, सहति, सहति, कलमेभ्यः, परिभवम् । युजण्, लोण्, मीण्, प्रीग्ण, धूग्ण, वृग्ण, जण्, चीक्, शीकण्, मार्गण्, पृचण्, रिचण्, वचण्, अचिण्, वृजैण, मृण्, कठण्, श्रन्य, ग्रन्थण्, क्रथ, अदिण्, श्रथण् वदिण्, छदण्, आङ: सदण गतौ । छ्दण्, शुन्धिन्, तनूण् उपसर्गाद्देयें, मानण् पूजायाम् तपण, तृपिण्, प्राप्ण्, भिण्, ईरण, मृषिण्, 'शिषण, विपूर्वोऽतिशये' जुषण, घृषण, हिसुण, गर्हण, बहण हति युजादिः ।। १८ ।।
"
भूङः प्राप्तौ णिङ् ॥ ३. ४. ११ ॥
भुवो धातोः प्राप्तावर्थे वर्तमानात् णिङ् प्रत्ययो वा भवति । भावयते भवते प्राप्नोतीत्यर्थः । भवतीत्येवान्यत्र णिङिति ङकार आत्मनेपदार्थः । मूङ इति ङकारनिर्देशो रिङमावेऽप्यात्मनेपदार्थः । प्राप्त्यभावेऽपि क्वचिदात्मनेपदमिष्यते यथा
'याचितारश्च नः सन्तु, दातारश्च भवामहे ।
आक्रोष्टारश्च नः सन्तु क्षन्तारश्च भवामहे ॥१॥ इति
प्राप्तावपि परस्मैपदमित्यन्ये, सर्वं भवति प्राप्नोतीत्यर्थः, अवकल्कने तु भावयतीत्येव । भूण अवकल्कने इति चुरादौ पाठात् ।। १९ ।।
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पाद-४, सूत्र-२० ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
[ ४९
प्रयोक्तृव्यापारे णिग् ॥ ३. ४. २० ॥
कर्तारं यः प्रयुङ्क्ते स प्रयोक्ता, तव्यापारेऽभिधेये धातोणिग् प्रत्ययो वा भवति । व्यापारश्च प्रेषणाध्येषण-निमित्त-भावाख्यानाभिनय-ज्ञानप्राप्तिभेदैरनेकधा भवति । तत्र तिरस्कारपूर्वको व्यापारः प्रेषणम् , सत्कारपूर्वकस्त्वध्यषणम् ।
कर्वन्तं प्रयङक्ते कारयति, पचन्तं प्रयङक्ते पाचयति-अत्र प्रेषणेनाध्येषणेन वा यथासंभवं प्रयोक्तृत्वम् , वसन्तं प्रयुङ्क्ते वासयति भिक्षा, कारीषाग्निरध्यापयति-पत्र निमित्तभावेन, राजानमागच्छन्तं प्रयुङ्क्ते राजानमागमयति, मृगान् रमयति, रात्रि विवासयति कथकः,-अत्राख्यानेन, पाख्यानेन हि बुद्धचारूढा राजादयः प्रयुक्ताः प्रतीयन्ते, कंसं घ्नन्तं प्रयुङ्क्ते कंसं घातयति, बलि बन्धयति नटः,-अत्राभिनयेन । पुष्येण युञ्जन्तं प्रयुङ्क्ते पुष्येण योजयति चन्द्रम् , मघाभिर्योजयति गणकः-अत्र कालज्ञानेन, उज्जयिन्याः प्रदोषे प्रस्थितो माहिष्मत्यां सूर्यमुद्गच्छन्तं प्रयुङ्क्ते माहिष्मत्यां सूर्यमुद्गमयति, रैवतकात प्रस्थितः शत्रुञ्जये सूर्य पातयति, अत्र प्राप्त्या। ननु च कर्तापि करणादीनां प्रयोजक इति तद्व्यापारेऽपि णिग प्राप्नोति? नवम्, प्रयोक्तृग्रहणसामति, तथा क्रियां कुर्वन्नेव-काभिधीयते, तेन तूष्णीमासीने प्रयोज्ये मा पृच्छतु भवान् अनुयुक्तां मा भवानित्यत्र णिग्न भवति, पञ्चम्या बाधितत्वाद्वा । वाधिकार आ बहुलवचनात् पक्षे वाक्यार्थः ।। २० ॥
. न्या० स० प्रयोक्तृव्या०:-मगान् रमयतीति-रममाणान् मृगान् कथयन् तेषां प्रयोजको भवति । कथनेन यदारण्यस्थो रममाणान् मृगान् प्रतिपाद्यमाचष्टे एतस्मिन्नवकाश एव मृगा रमन्ते इति तदास्य प्रतिपाद्यदर्शनार्थी प्रवृत्तिर्भवति, तस्यां च णिग् वक्तव्यः । बुद्धचारूढा इति-बुद्धिषु श्रोतृणां चित्तेषु आरूढाः सत्तामापन्नाः प्रयुक्ताः प्रवर्तिताः प्रतीयन्ते । राजादीनां हि उभयत्र भावो बहिरन्तश्च । तत्राख्यात्रा बहिर्भावस्य कर्तुमशक्यत्वेऽपि अन्तर्भावस्य सुशकत्वाद् बहिःप्रयोगाभावेऽप्यन्तःप्रयोगात्प्रयोक्तृत्वमिति । कसं घातयतीति-अयं नट: कौशलात्तथा सरसमभिनयति यथा कंसवधाय बलिबन्धनाय चायमेव नारायणं प्रयुङक्ते इति परेषां प्रतिपत्तिर्भवतीति ।
___माहिष्मत्यामिति-महिषा अत्र सन्ति 'नडकुमुद' ६-२-७४ इति डिति मतौ अन्त्यलोपे 'धुटस्तृतीय' २-१-७६ इति डत्वं प्राप्तं 9 असिद्धं बहिरङ्गम् * इत्यनेन व्युदस्यते, न च 'स्वरस्य' ७-४-११० इति स्थानित्वेऽकारेण व्यवधानमिति वाच्यं, 'न सन्धि' ७-४-१११ इत्यस्य असविधावस्थानात् । महिष्मति भवा 'भवे' ६-३-१२३ (इति) अण। रैवतकादिति-राया द्रव्येण वन्यन्ते स्म क्ते रेखङ रेवत इति 'पूतपित्त' २०४ ( उणादि ) निपातो वा रैवता वृक्षास्ते सन्त्यत्र 'अरीहणादेरकण्' ६-२-८३ । ननु च कर्तापि करणादीनामिति-अयमर्थः,-कट करोतीत्यादौ मुख्यकर्तृव्यापारेऽपि णिग् प्राप्नोति, अत्रापि प्रयोक्तृव्यापारस्य विद्यमानत्वात् । तथाहि कटं करोतीति कोऽर्थः ? जायमानं जनयतीत्यर्थः, इत्याशङ्कायामाह प्रयोक्तृग्रहणसामर्थ्यादिति-करिं यः प्रयुङ क्ते स हि प्रयोक्ता, यदि च व्यापारमात्रे णिग् स्यात्तदा व्यापारे णिगित्येवोच्येत । तेन तूष्णीमासोने इति-प्रयोज्ये प्रच्छ्ये तूष्णीमासीने प्रयोजकः प्रच्छिक्रियायाः कारयिताह मां पृच्छतु भवानिति । पञ्चभ्या बाधिताद्वेति-अथवा सव्यापारेऽपि प्रयोज्ये परत्वात् 'प्रैषानुज्ञावसरे' ५-४-२६ इति विहितया
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५० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-२१-२३
पञ्चभ्या णिग् बाधते, प्रेषरूपे प्रयोक्तृव्यापारे णिग् पञ्चमी प्रेषविशिष्टे कर्तरि वाच्ये भवति, इति समानविषयत्वं ततो णिग् बाध्यते । तहि मूलोदाहरणेष्वपि पञ्चमी प्राप्नोति ? न, प्रेषणमात्रेणिगुक्तः पञ्चमी तु प्रेषणविशिष्टे कादौ, यदा तु प्रेषणमात्रं विवक्ष्यते तदा णिग् तद्विशिष्टे तु कर्बादौ पञ्चमी, कारयित्वित्यादौ प्रेषणस्यापि प्रेषणविवक्षा ।
तुमहोदिच्छायां सन्नतत्सनः॥ ३. ४.२१॥
यो धातुरिः कर्म इषिणैव च समानकर्तृकः स तुमर्हः, तस्मादिच्छायामर्थे सन् प्रत्ययो वा भवति, न चेत्स इच्छासन्नन्तो भवति । कर्तुमिच्छति चिकोर्षति, गन्तुमिच्छति जिगमिषति । तुमर्हादिति किम् ? अकर्मणोऽसमानकर्तृकाच्च माभूत् , गमनेनेच्छति । भोजनमिच्छति देवदत्तस्य । इच्छायामिति किम् ? भोक्तुव्रजति । अतत्सन इति किम् ? किचोषितुमिच्छति । तद्ग्रहणं किम् ? जुगुप्सिषते । सनोऽकारः किम् ? अर्थान् प्रतीषिषति, नकारः सनग्रहणेषु विशेषणार्थः । कथं नदीकूलं पिपतिपति, श्वा मुमूर्षति, पतितुमिच्छति मर्तुमिच्छति इति वाक्यवदुपमानाद्भविष्यति ।। २१॥
___ न्या० स० तुमहर्हा०:-भोजनमिच्छतीति-अत्र 'शकष' ५-४-९० इति न तुम् तुल्यकर्तृ कत्वाभावात् । चिकाषितुमिच्छतीति-चिकीर्षणं 'शकधृष' ५-४-९० इति तुम् ।
द्वितीयायाः काम्यः ॥ ३. ४. २२ ॥
द्वितीयान्तानाम्न इच्छायामर्थे काम्यप्रत्ययो वा भवति । पुत्रमिच्छति पुत्रकाम्यति. इदंकाम्यति, स्वःकाम्यति,-काम्येनैव कर्मण उक्तत्वाद्भावकोंरेव प्रयोगः । पुत्रकाम्यतेऽनेन, पुत्रकाम्यत्यसौ। द्वितीयाया इति किम् ? इष्टः पुत्रः. इष्यते पुत्रः । इह कस्मान्न भवति भ्रातुः पुत्रमिच्छति आत्मनः पुत्रमिच्छति महान्तं पुत्रमिच्छति पुत्रमिच्छति स्थूलं
शनीयं वा? सापेक्षत्वात ,-नह्यन्यमपेक्षमाणोऽन्येन सहकार्थीभावमनमवितुं शक्नोति । भ्रातुष्पुत्रकाम्यतीत्यादि तु समर्थत्वात , अधमिच्छति, दुःखमिच्छतीत्यत्रापि परस्येत्यपेक्षितत्वात सापेक्षत्वम् । कथं तहि पुत्रकाम्यति ? इत्यत्र पुत्रस्यात्मीयता गम्यतेऽन्यस्याश्रुतेः इच्छायाश्चात्मविषयत्वात् ।।२२।।
न्या० स० द्वितीया०-सस्वरस्य काम्यस्य फलमजघटकाम्यत् काम्यांचकारेत्यादौ । परस्येत्यपेक्षितत्वादितिः-न हि कोप्यात्मनोऽघादीच्छति ।
अमाव्ययात् क्यन् च ॥ ३. ४. २३ ॥
अमकारान्तादनव्ययाच्च द्वितीयान्तानाम्न इच्छायामर्थे क्यन् प्रत्ययो वा भवति काम्यश्च । पुत्रमिच्छति पुत्रीयति, एवं नाव्यति, वाच्यति,-चकारः काम्यार्थोऽन्यथा मान्ताव्यययोः सावकाशः स क्यना बाध्येत । अमाव्ययादिति किम् ? इदमिच्छति, स्वरिच्छति । गोशब्दसंध्यक्षरवर्जस्वरनान्तेभ्य एव क्यनमिच्छन्त्यन्ये-गव्यति, पुत्रीयति, राजीयति । अन्यत्र न भवति । यमिच्छति, कमिच्छति । नकारः क्यनीत्यत्र विशेषरणार्थः, ककारः क्यग्रहणे सामान्यग्रहणार्थः ॥ २३ ॥
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पाद-४, सूत्र २४-२५ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
[५१
न्या० स०-अमाव्य:-कीयांचकारेत्यादौ क्यनः सस्वरत्वे आम् सिद्धः । आधाराचोपमानादाचारे ॥ ३. ४. २४॥
अमाव्ययादुपमानभूताद् द्वितीयान्तादाधाराच्चाचारार्थे क्यन् प्रत्ययो भवति वा । पुत्रामिवाचरति पुत्रीयति छात्त्रम् , वस्त्रीयति कम्बलम् , पुत्रीयति स्थूलं दर्शनीयं वा, आधाराव-प्रासाद इवाचरति प्रासादायति कुटयाम्, पर्यकीयति मञ्चके। उपमानादिति किम? छात्रादेर्माभत । प्राधाराच्चेति किम ? परशना दात्रेणेवाचरति । प्रमाव्ययादिति किम् ? इदमिवाचरति, स्वरिवाचरति । उपमानस्य नित्यमुपमेयापेक्षत्वात सापेक्षत्वेऽप्यसामर्थ्य न भवति ।। २४ ॥
कर्तः विप गल्भ-क्लीब-होडात्तु ङित् ॥ ३. ४. २५ ॥
कर्तु रुपमानानाम्न प्राचारेऽर्थे किम् प्रत्ययो वा भवति गल्भक्लीबहोडेभ्यः पुनः '. स एव ङित् । अश्व इवाचरति प्रश्वति, एवं गर्दमति, दधयति, गवा, नावा, अःप्रत्ययः। राजेवाचरति राजनति, मधुलिडिवाचरति-मधुलेहति, गोधुगिवाचरति गोदोहति ।
गल्मक्लीबहोडात्तु डिव-गल्भते, अवगल्भते, क्लीबते, विक्लीबते, होडते, विहोडते, गल्भांचके, अवगल्भांचके, ङित्त्वादात्मनेपदं भवति । एके तु कर्तुः संबन्धिन उपमानात द्वितीयान्तात् क्विक्यङाविच्छन्ति । अश्वमिवात्मानमाचरति गर्दभः प्रश्वति, श्येनमिवात्मानमाचरति काकः श्येनायते, तन्मतसंग्रहार्थ कर्तुरिति षष्ठी व्याख्येया। द्वितीयाया इति चानुवर्तनीयम् , क्विबिति पूर्वप्रसिद्धयनुवादः ॥ २५ ।।
न्या० स०-कर्तुः क्विप्-गवेति-गौरिवाचरति क्विपि लुपि गवनं 'शंसिप्रत्ययादयः' ५-३-१०५ एवं नावेत्यत्र । राजनतीति-अस्य क्विपो व्यञ्जनादिफलं नेष्यते, तेन नाम सिदिति पदसंज्ञाया अभावे न लोपाभावः सिद्धः । गल्भांचके इति-गल्भि धाष्ट्र्ये इत्यादिभिमू लोदाहरणानि सिध्यन्ति, परं गल्भाचक्रे इत्यादिष्वाम् न स्यात् ।
एके विति-ते हि मन्यन्ते द्वितीयाया इत्यनुवृत्तावपि कर्तुं रिति विशेषणं संबन्धषष्ठ्यामुपपद्यते, तेनाऽयमर्थः कर्तुर्यत् कर्मोपमानभूतं ततः क्विप्क्यडाविति ।
द्वितीयान्तादिति-कर्मण इत्यर्थः, ननु कर्ता कारकं कर्म च तयोश्चायःशलाकाकल्पयोरनभिसंबन्धो न हि कर्तु: कर्म भवति अपि तु क्रियायाः कर्ता कर्म च संपद्यते तत्र साध्यसाधनभावलक्षणसंबन्धोऽस्ति न तु परस्परम् ? सत्यं, न कर्तु रित्यनेन कर्मकारकशक्तिविशिष्यते अपि तृपमानादितीहानुवर्तते, तेन कर्मणो योऽसावुपमानमश्वादिरस्ति स कर्तु रित्यनेन विशिष्यते कर्तुर्यदुपादानं कर्म तस्मात् क्विबिति, नन्विदमप्यचारु, कर्तु: किल कर्म कथमुपमानमस्तु अत्यन्तवैलक्षण्यात ? सत्यं, एवं कर्तु: कर्म उपमानं भवति, यदि स एव कर्ता आचरणक्रियायाः कर्म भवति, यथा अश्वमिवात्मानमाचरति गर्दभः अत्र आचरण क्रियायाः गईभः कर्ता स एवात्मभेदेन कर्म, एकस्यवात्मभेदाद् अनेककारकशक्त्यावेशो
यते, यथोच्यते हन्त्यात्मानमात्मनेति । श्येन इवाचरति काको मत्स्यमित्यत्र न भवति,
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५२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-२६-२९
मत्स्यमित्यनेन बाह्यकर्मणाऽसंबन्धात् । पूर्वप्रसिद्धचनुवाद इति-तेनास्मिन् स्वमते किपित् कार्य न भवति, परमते तु कितः फलमाचारक्विपि 'अहन्पञ्चम०' ४-१-१०७ इति दीर्घ इदामति कीमतीत्यादौ।
क्यङ्॥ ३. ४. २६ ॥
कर्तु रुपमानादाचारेऽर्थे क्यङ् प्रत्ययो वा भवति । श्येन इवाचरति श्येनायते, हंसायते, अश्वायते, गर्दभायते, गल्भायते, क्लीबायते, होडायते । विपक्यङोस्तुल्यविषयत्वादसत्युत्सर्गापवादत्वे पर्यायेण प्रयोगः । ककारः सामान्यग्रहणार्थः, ऊकार प्रात्मनेपदार्थः ॥ २६॥
न्या० स० क्यङ-क इवाचरति इति कृते कायांचवे इत्यत्र सस्वरस्य क्यङः फलम् ।
सो वा लुक् च ॥ ३. ४. २७॥
स इति आवृत्त्या पञ्चम्यन्तं षष्ठयन्तं चाभिसंबध्यते। सकारातात्क रुपमानादाचारेऽर्थे क्यङ् प्रत्ययो वा भवति अन्त्यसकारस्य च लुग्वा भवति । पय इवाचरति पयायते, पयस्यते, सरायते, सरस्यते, अन्ये स्वप्सरस एव सलोपो नान्यस्य अप्सरायते, अन्यत्र पयस्यते इत्याद्यवेत्याहुः । क्यङ् सिद्धो लुगथं वचनम् , चकारो लुचः क्यसंनियोगार्थः ।२७।
न्या० स० सोवा०:-क्यङ्सप्रियोगार्थ इति-समुच्चये तु स्वतन्त्री लुकक्यौ स्याताम् । अप्सरायते इति-अप्सरस्यते इत्यपि ।
ओजोऽप्सरसः ॥ ३. ४. २८ ।।
प्रोजःशब्दो वृत्तिविषये स्वभावात्तद्वति वर्तते, ओजःशब्दादप्सरस्शब्दाच्च कर्तु। रुपमानमृतादाचारेऽर्थे क्यङ्ग प्रत्ययो वा भवति सलोपश्च। ओजस्वीवाचरति ओजायते अप्सरायते । अन्ये त्वोजःशब्दे सलोपविकल्पमिच्छन्ति,-मोजायते, ओजस्यते ॥२८॥
न्या० स० ओजोप्सर०-पूर्वेणसिद्धे नित्यसलोपार्थं वचनम् । व्यर्थे भृशादेः स्तोः॥ ३. ४. २१ ॥
भूशादिभ्यः कर्तृभ्यः व्यर्थे क्यङ् प्रत्ययो वा भवति सकारतकारयोर्यथासंभवं लुक च, व्यर्थे इत्यनेन लक्षणया भवत्यर्थविशिष्टं प्रागतत्तत्त्वमुच्यते, करोतिस्तुकतुरित्येनन व्युदस्तः । भवत्यर्थे च विधानात् क्यङन्तस्य क्रियार्थत्वम् भवत्यर्थशब्दाप्रयोगश्च-अभशो भशो भवति भृशायते, उन्मनायते, वेहायते, अनोजस्वी ओजस्वी (ओजः) भवति ओजायते,अत्र तद्ववृत्तेरेव च्व्यर्थ इति धर्ममात्रवृत्तेन भवति-अनोज प्रोजो भवति । कर्तु रित्येव ? अभृशं भृशं करोति । व्यर्थ इति किम् ? भृशो भवति । प्रागतत्तत्त्वमात्रे च्वेविधानात्क्या चिर्न बाध्यते भृशीभवति । भृश, उत्सुक, शीघ्र, चपल, पण्डित, अण्डर, कण्डर, फेन,
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पाद-४, सूत्र-३०-३१ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
[५३
शुचि, नील, हरित, मन्द, मद्र, भद्र, संश्चत , तृपद, रेफन , रेहव , वेहव , वर्चस् , उन्मनस् , सुमनस् , दुर्मनस् , अभिमनस् ॥ २६॥
___न्या० स०-चव्यर्थे भृशार्थे०-व्यर्थ इत्यनेनेति-ननु भृशादेश्व्यर्थे क्यङविधानात् च्व्यर्थस्य चाऽक्रियारूपत्वात् ( अधातुत्वात् ) कथं क्यङन्तात्तिवादिरित्याह-लक्षणयेतिउपचारेणेत्यर्थः, मुख्यवृत्त्या हि व्यर्थ इत्यनेन प्रागऽतत्तत्वं केवलमेवाभिधीयते, न भवत्यर्थविशिष्टं, लक्षणया तु तद्विशिष्टमपि, यद्येवं च्व्यर्थ इत्यनेन प्रागतत्तस्वं लक्ष्यते तहि करोत्यर्थविशिष्टेऽपि प्रागतत्तत्त्वं प्राप्नोतीत्याशङ क्याह
करोतिस्त्वित्यादि-अयमर्थः करोत्यर्थविशिष्टे प्रागऽतत्तत्त्वे भशादीनां कर्तृत्वं न संभवत्यपि तु कर्मत्वमेवेत्याह-कर्तु रित्यनेन व्युदस्त इति-ननु व्यर्थे च्वे: क्यङश्च विधानात् क्यङा च्विबाधा प्राप्नोति ? इत्याशङक्याह-प्रागतत्तत्वमात्रे इति-अयमर्थः भवत्यर्थविशिष्टे व्यर्थे क्यङ विहितः, च्विस्तु तद्योगमात्रेऽत एव वियोगे करोति भवत्योः प्रयोगो भवत्यऽनुक्तार्थत्वात् क्रियार्थत्वाभावाद् धातुत्वं च न भवति ।
डाच्लोहितादिभ्यः षित् ॥ ३. ४. ३० ॥
डाचप्रत्ययान्तेभ्यो लोहिताविभ्यश्च कर्तृभ्यश्च्च्यर्थे क्यङ् प्रत्ययः षिद्भवति वा । डाच अपटत् पटद्भवति पटपटायति, पटपटायते । एवं दमदमायति, दमदमायते । डाजन्तारक्यविधानात कृम्वस्तिभिरिव क्यापि योगे डान् भवति । अलोहितो लोहितो भवति लोहितायति, लोहितायते ।
कर्तु रित्येव ? अपटपटा पटपटा करोति, अलोहितं लोहितं करोति । व्यर्थ इत्येव ? लोहितो भवति । लोहित, जिह्म, श्याम, धूम, चर्मन् , हर्ष, गर्व, सुख, दुःख, मूर्छा, निद्रा, कृपा, करुणा। बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । लोहितादिषु लोहितशब्दादेवेच्छन्त्यन्ये । षकारः 'क्यङ्गो नवा' (३-३-४३) इति विशेषणार्थः । धूमादीनां स्वतन्त्रार्थवत्तीनां प्रकृतिविकारभावाप्रतीतेश्च्व्यर्थो नास्तीति तद्ववृत्तिभ्यः प्रत्ययो भवति । अधूमवान् धूमवान् भवति धूमायति, धूमायते ॥३०॥
न्या० स०-डाच्लोहिता०-डाजन्तात् क्यविधानादिति-ननु भवत्यर्थविशिष्टे व्यर्थे क्यङले विहितः, ततश्च क्यङषा भवत्यर्थस्योक्तत्वात् तदभावे निमित्ताभावे इति न्यायात् डाचोऽपि निवृत्ति:प्राप्नोति इत्याशङक्याह-डाजन्तात क्यविधानाव-डाच भवतोति-विधानसामर्थ्यात् कृभ्वस्त्यभावे न निवर्त्तते इत्यर्थः, अन्यथा क्यङषा भवत्यर्थस्योक्तत्वाद् भवतियोगाऽभावात् डाच् न स्यात् ।
बहुवचन मिति-तेनामृतं यस्य विषायतीति सिद्धं, यद्वा विषस्यायो लाभः स इवाचरतीति क्विप् ।
कष्ट कक्ष-कृच्छ-सत्र-गहनाय पापे क्रमणे ॥ ३. ४.३१॥
कष्टादिभ्यो निर्देशादेव चतुर्थ्यन्तेभ्यः पापे वर्तमानेभ्यः कमणेऽ” क्यङ् प्रत्ययो वा भवति । कष्टाय कर्मणे कामति कष्टायते, एवं कक्षायते, कृच्छायते, सत्रायते,
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५४ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद-४, सूत्र-३२-३५
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गहनायते । कष्टाविम्य इति किम् ? कुटिलाय कर्मणे कामति । चतुर्थीनिर्देशः किम् ? रिपुः कष्टं कामति । पाप इति किम् ? कष्टाय तपसे कामति, कमणमत्र न पादविक्षेप किन्तु प्रवृत्तिमात्रम् , द्वितीयान्तेभ्यः पापचिकीर्षायामित्यन्ये, कष्टं चिकीर्षति कष्टायते इत्यादि ॥३१॥
न्या० स०-कष्टकक्ष०- कष्टायते इति-कष्टाय पापभूताय पुरुषाय प्रवर्तते इत्यादावपि । कष्टाय तपसे कामतीति-पापमनार्जवाचारः स इह नास्तीति न भवति, अथ यथेह पापं नास्ति तथा क्रामणमपि पादविक्षेपो नास्तीति व्यङ्गवैकल्यमित्याशङ क्याहक्रमणमत्रेति
रोमन्थाद् व्याप्यादुच्चर्वणे ॥ ३. ४. ३२ ॥
रोमन्थावकर्मणः पर उच्चर्वणेऽर्थे क्यङ प्रत्ययो वा भवति । अभ्यवहृतं द्रव्यं रोमन्थः, उदगोर्य चर्वणमुच्चर्वणम् । रोमन्थम उच्चर्वयति रोमन्थायते गौः-उदगीर्य चर्वयतीत्यर्थः । उच्चर्वण इति किम् ? कोटो रोमन्थं वर्तयति, उद्गीर्य बहिस्त्यक्तं पृष्ठान्तेन निर्गतं वा द्रव्यं गुटिकां करोतीत्यर्थः ॥३२॥
न्या० स०-रोमन्थ-उच्चर्वयतीति-बहुलमेतन्निदर्शन मिति चुरादित्वम् । फेनोष्म-बाष्प-धूमादुद्धमने ॥ ३. ४. ३३ ॥
फेनादिभ्यः कर्मभ्य उद्वमनेऽर्थे क्यङ् प्रत्ययो वा भवति । फेनमुद्रमति फेनायते, एवमूष्मायते, बाष्पायते, धूमायते ॥३३॥
सुखादेरनुभवे ॥ ३. ४. ३४ ॥
साक्षात्कारोऽनुभवस्तस्मिन्नणे सुखादिभ्यः कर्मभ्यः क्यङ प्रत्ययो वा भवति । सुखमनुभवति सुखायते, दुःखायते । अनुभव इति किम् ? सुखं वेदयते प्रसाधको देवदत्तस्य, मुखादिविकारेणानुमानतो निश्चिनोतीत्यर्थः। सुख, दुःख, तृप्र, कृच्छ, प्रास्त्र, अलीक, करण, कृपण, सोढ, प्रतीप ॥३४॥
शब्दादेः कृतौ वा ।। ३. ४. ३५ ॥
शब्दादिभ्यः कर्मभ्यः करोत्यर्थे क्यङ, प्रत्ययो वा भवति, णिजपवादः । शब्द करोति शब्दायते, वैरायते, कलहायते,-वाशब्दो व्यवस्थितविभाषार्थः, तेन यथादर्शनं णिजपि भवति,-शब्दयति, वैरयति । वाधिकारस्तु वाक्यार्थः । शब्द, वैर, कलह, ओघ, वेग, युद्ध, अभ्र, कण्व, मम, मेघ, अट, अटया, अटाटया, सोका, सोटा, कोटा, पोटा, प्लुष्टा, सुदिन, दुर्दिन, नीहार ॥३५।।
न्या० स० शब्दादे-व्यवस्थितविमाणेति-व्यवस्थितं प्रयोगारूढं विधिप्रतिषेधादिकार्य विशेषेण भाषते इति व्यवस्थितविभाषा तदर्थ इत्यर्थः ।
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पाद-४, सूत्र-३६-३८ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
[५५
तपसः क्यन् ॥ ३. ४. ३६ ॥
तपःशब्दात् कर्मणः करोत्यर्थे क्यन् प्रत्ययो वा भवति। तपः करोति-तपस्यति । अत्र यदा व्रतपर्यायः तपःशब्दस्तदा क्यनकर्मणो वृत्तावन्तर्भूतत्वादकर्मकत्वम् , यदा तु संतापक्रियावचनस्तदा क्यनकर्मणो वृत्तावन्तर्भावेऽपि स्वकर्मणा सकर्मक एव, शत्रूणां तपः करोति-तपस्यति शत्रूनिति, यथा व्याकरणस्य सूत्रं करोति व्याकरणं सूत्रयति ।।३६॥
न्या० स०-तपस-अतपसस्यदित्यत्राऽन्यस्येति तृतीयावयवस्य द्वित्वेऽदन्तक्यनः
नमो-वरिवश्चित्रडोर्चा-सेवाश्चर्ये ।। ३. ४. ३७॥
नमस , वरिवस् , चित्रशब्देभ्यः कर्मभ्यो यथासंख्यं पूजासेवाश्चर्येष्वर्णेषु करोत्यर्थे क्यन् प्रत्ययो वा भवति । देवेभ्यो नमस्करोति-नमस्यति देवान् , गुरूणां वरिवः करोति वरिवस्यति गुरुन् , चित्रं करोति-चित्रीयते, डकार प्रात्मनेपदार्थः । अर्चादिष्विति किम् ? नमः करोति, वरिवः करोति,-नमोवरिवःशब्दमुच्चारयतीत्यर्थः, चित्रं करोति,-नानात्वमालेख्यं वा करोतीत्यर्थः । ननु च नमस्यति देवानित्यत्र नमःशब्दसंयोगनिबन्धना चतुर्थी कस्मान्न भवति ? उच्यते,-नामधातूनामविवक्षितप्रकृतिप्रत्ययभेदानां धातुत्वादनर्थकोऽत्र नमःशब्द, उपपदविभक्तेर्वा कारकविभक्तिर्वलीयसी, एवं च नमस्करोति देवानिति वाक्येऽपि द्वितीया सिद्धा । यद्येवं नमस्करोति देवेभ्य इति न भवितव्यम् ? नैवम् , करोतेः नमःशब्दसंबन्धेन देवपदेनासंबन्धात् । कस्मै इति त्वाकाङक्षायां देवेभ्य इति संबन्धाच्चतुर्थी संप्रदाने वा इत्यदोषः ॥३७॥
न्या० स० नमोवरि०-चित्रीयते इति-कस्य चित्रीयते न धी: इत्यकर्मक: चित्रमाश्चर्यं करोति जनस्येति विवक्षायां चित्रीयते जनं व्याकरणं सूत्रयतीतिवद् भवति ।
देवेभ्यो नमस्करोतीति-व्युत्पत्त्युपायभूतमवयवार्थप्रदर्शकं वाक्यं समुदायस्तु क्यन्नन्तोऽविद्यमानावयवार्थ एवाऽर्चालक्षणेऽर्थे वर्तते, एवं गुरूणां वरिवः करोतीत्यादावपि द्रष्टव्यम् । वृणीते 'स्वरेभ्यः' १-३-३० इप्रत्यये वरिः सेवकस्तत्र वसतीति विचि वरिवः । नमःकराताति-अत्र नमःशब्दरूपापेक्षया नपुसकत्वे 'अनता लुप्' १-४-५९ अर्थप्रधानो ह्यऽव्ययमत्र तु शब्दप्रधानः । उपपदविभक्तेर्वेति-समुदायिन एव समुदाय इति विवक्षायां समुदायिनौ च द्वौ नमस् प्रकृति: क्यङ च प्रत्यय, इति नमः शब्दो भिन्नोऽस्तीति प्राप्तिरस्तीत्याह-नमः शब्दसंबन्धेनेति-करोतेरसंबन्धात् केन सह ? देवपदेन, किं भूतेन ? नमः शब्देन सह संबन्धो यस्य तेनानया युक्त्या कारकविभक्तेः प्राप्तिर्नास्ति ।।
अङ्गानिरसने णिङ् ॥ ३. ४. ३८ ॥
अङ्गवाचिनः शब्दात् कर्मणो निरसनेऽर्थे णिङ् प्रत्ययो वा भवति । हस्तौ निरस्यति हस्तयते, पादयते, ग्रीवयते । निरसने इति किम् ? हस्तं करोति हस्तयति । कर्मण इति किम् ? हस्तेन निरस्यति । उकार आत्मनेपदार्थः ॥३८।।
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५६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-३९-४२
न्या० स० अङ्गानिर०-कर्मण इति-'रोमन्थाद्व्याप्यात्' ३-४-३२ इत्यतो व्याप्यादित्यनुवर्तते तत्पर्यायतया च प्रसिद्धं सत् कर्मण इत्येव लिखितम् । हस्तयतीतिणिजपवादस्य णिङोऽभावादत्र णिजेव ।
पुच्छादुत्परिव्यसने ॥ ३. ४. ३१ ॥
पुच्छशब्दात्कर्मण उदसने, पर्यसने, व्यसने, प्रसने चार्थे रिणङ् प्रत्ययो वा भवति । पुच्छम् उदस्यति उत्पुच्छयते, पर्यस्यते परिपुच्छयते, व्यस्यति विपुच्छयते, अस्यति पुच्छयते ॥३६॥
भाण्डात् समाचितौ ॥ ३. ४.४० ॥
भाण्डशब्दाकर्मणः समाचयनेऽर्थे णिङ् प्रत्ययो वा भवति । समाचयनं च समा परिणा च द्योत्यते, भाण्डानि समाचिनोति संभाण्डयते, परिभाण्डयते ॥४०॥
चीवरात् परिधार्जने ॥ ३. ४. ४१ ॥
चीवरशब्दात्कर्मणः परिधानेऽर्जने चार्थे णिङ् प्रत्ययो वा भवति । चीवरं परिधत्ते परिचीवरयते,-समाच्छादनमपि परिधानम् , चोवरं समाच्छादयति संचीवरयते, चीवरमर्जयति चीवरयते । संमार्जनेऽप्यन्ये । चीवरं संमार्जयति संचीवरयते ॥४१॥
णिज् बहुलं नाम्नः कृगादिषु ॥ ३. ४. ४२ ॥
गादीनां धातनामर्थे नाम्नो णिच् प्रत्ययो भवति बहुलम् , बहुलग्रहणं प्रयोगानुसरणार्थम् , तेन यस्मानाम्नो यद्विभक्त्यन्ताद्यस्मिन् धात्वर्थे दृश्यते तस्मात्तद्विभक्त्यन्तातद्धात्वर्थे एव भवतीति नियमो लभ्यते ।
मुण्डं करोति मुण्डयति छात्रम् , एवं मिश्रयत्योदनम् , श्लक्ष्णयति वस्त्रम , लवणयति सूपम् , एभ्यश्चव्यर्थे एवेति कश्चित् । अमुण्डं मुण्डं करोति मुण्डयतीत्यादि, लघु करोति लघयति, एवं छिद्रयति, कर्णयति, दण्डयति, अन्धयति, अङ्कयति, व्याकरणस्य सूत्रं करोति व्याकरणं सूत्रयति, द्वारस्योद्घाटनं करोति द्वारमुद्घाटयति ।
___ ननु व्याकरणशब्दात वाक्ये षष्ठो दृश्यते उत्पन्ने च प्रत्यये कथं द्वितीया ? उच्यते,-योऽसौ सूत्रव्याकरणयोः संबन्धः, स उत्पन्ने प्रत्यये निवर्तते सूत्रयातिक्रियासंबन्धाच्च द्वितीयैव, एवं द्वारमुदघाटयति, पाप्मिन उल्लाघयति, त्रिलोकी तिलकयतीत्याद्यपि द्रष्टव्यम् । अथ तपः करोति तपस्यतीत्यादिवत् कर्मणो वृत्तावन्तर्भूतत्वान्मुण्डिरकर्मकः प्राप्नोति ? नैवम् , सामान्यकर्मान्तर्भूतं विशेषकर्मणा तु सकर्मक एव, मुण्डयति कं छात्रमिति, यद्येवं पत्रोयतिरपि विशेषकर्मणा सकर्मकः प्राप्नोति पत्रीयतिकं छात्रमिति ? सत्यम् ,-प्राचारक्यना तु बुद्धेरपहृतत्वात् इच्छाक्यन्नन्तस्य विद्यमानमपि विशेषकर्म न प्रयुज्यते । तथाहि-पुत्रीयति छात्त्रमित्युक्ते पत्रमिवाचरति छात्त्रमिति प्रतीतिर्भवति न तु पुत्रमिच्छतीति । तदुक्तम्
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पाद-४, सूत्र-४२ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः ।
[ ५७
सदपीच्छाक्यनः कर्म, तदाचारक्यना हतम।
कौटिल्येनैव गत्यर्थाभ्यासो वृत्तौ न गम्यते ॥१॥ मुण्डं बलीव करोतीति उभयधर्मविधाने मुण्डं शुक्लं करोतीत्यनुवादे वानभिधानान्न भवति । पटुमाचष्टे करोति वा पटयति, एवं स्थूलं स्थवयति, दूरं दवयति, युवानं यवयति, क्षिप्रं क्षेपयति, क्षुद्रं क्षोदयति, प्रियं प्रापयति, स्थिरं स्थापयति, स्फिरं स्फापयति, पुच्छं पुच्छयति, वृक्षमाचष्टे रोपयति वा वृक्षयति, कृतं गृह्णाति कृतयति, एवं वर्णयति, त्वचयति त्वचशब्दोऽकारान्तस्त्वपर्यायः, रूपं दर्शयति रूपयति-रूपं निध्यायति-निरूपयति, लोमान्यनमाष्टि-अनलोमयति, तस्तानि विहन्ति उदहति वा-वितस्तयति,-उत्तस्तयति केशान-विजटीकरोतीत्यर्थः । वस्त्रं वस्त्रेण वा समाच्छादयति संवस्त्रयति, वस्त्रं परिदधाति परिवस्त्रयति, तृणान्युत्प्लुत्य शातयति उत्तृणयति, हस्तिनातिकामति अतिहस्तयति, एवमत्यश्वयति, वर्मणा संनह्यति संवर्मयति, वीणया उपगायति उपवीणयति, सेनया अभियाति अभिणयति. चूर्णैरवध्वंसयति, अवकिरति वा अवचूर्णयति , तूलैरनुकुष्णाति अवकुष्णाति अनुगह्णाति वा अनुतूलयति प्रवतूलयति, वास्या छिनत्ति वासयति, एवं परशुना परशर्यात, असिना असयति, वास्या परिच्छिनत्ति परिवासयति, वाससा उन्मोचयति, उद्वासयति, श्लोकैरुपस्तौति उपश्लोकयति, हस्तेनापक्षिपति अपहस्तयति, अश्वेन संयुनक्ति समश्वयति, गन्धेनार्चयति गन्धयति. एवं पुष्पयति । बलेन सहते बलयति. शीलेनाचरति शीलयति, एवं सामयति, सान्त्वयति, छन्दसोपचरति उपमन्त्रयते वा उपच्छन्दयति, पाशेन संयच्छति संपाशयति, पाशं पाशाद्वा विमोचयति विपाशयति, शूरो भवति शूरयति, वीर उत्सहते वीरयति, कूलमुल्लङ्घयति उत्कूलयति, कूलं प्रतीपं गच्छति प्रतिकूलयति, कलमनुगच्छति अनुकूलयति, लोष्टानवमर्दयति अवलोष्टयति, पुत्रं सूते पुत्रयति इत्यादि ।
___ आख्यानं नलोपाख्यानं कंसवधं, सीताहरणं, रामप्रव्रजनं, राजागमनं, मगरमणम्, आरात्रिविवासमाचष्टे इत्यादिषु इन्द्रियाणां जयं. क्षीरस्य पानं, देवानां यागं, धान्यस्य यं, धनस्य त्यागम् , प्रोदनस्य पाकं करोतीत्यादिषु च बहुलवचनान्न भवति ।
___ अथ हस्तौ निरस्यति, हस्तयते, पादयते इत्यादिवदुत्पुच्छयते इत्यादावप्युपसर्गस्याप्रयोगः प्राप्नोति ? नैवम् , यत्रानेकविशेषणविशिष्टा क्रिया प्रत्ययार्थस्तत्र क्रियाविशेषाभिव्यक्तये युक्त उपसर्गप्रयोगः, यथा-विपाशयति संपाशयतीति । यत्र त्वेकविशेषणविशिष्टा क्रिया प्रत्ययार्थस्तत्र संदेहाभावादुपसर्गो न प्रयुज्यते, यथा श्येन इवाचरति श्येनायते, बाष्पमुद्वमति बाष्पायते, हस्तौ निरस्यति हस्तयते, पुत्रमिवाचरति पुत्रीयति । यद्येवमतिहस्तयति, उपवीणयति इत्यादावेककविशेषणविशिष्टत्वादुपसर्गप्रयोगो न प्राप्नोति ? मैवं, अत्र णिच प्रत्ययस्य करोत्याचष्टेऽतिक्रामति इत्याद्यनेकाथत्वात सदेह तदभिव्यक्त्यथमुपसगप्रयोगः,-यत्र पुनरनेकोपसर्गविशिष्टा क्रिया प्रत्ययार्थस्तत्र शब्दशक्तिस्वाभाव्यादेक एवोपसर्गार्थः प्रत्ययार्थेऽन्तर्भवति द्वितीयस्तुपसर्गेणैव प्रत्याय्यते यथा-भाण्डं समाचिनोति-संभाण्डयते, वस्त्रं वस्त्रेण वा समाच्छादयति संवस्त्रयतीति ॥ ४२ ।।
__ न्या० स० णिजबहुलं०-व्याकरणं सूत्रयतीत्यादौ-सापेक्षत्वेऽपि गणपाठाण्णिजिष्यते।
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५८
बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पाद- ४, सूत्र - ४३-४४
पामिन उल्लाघयतीति - पाप्मा पापमस्त्येषां शिखादित्वादिन् पाप्मिना मुल्लाघ करोति । त्रिलोकीमिति - त्रिभुवनीति तु न तस्य पात्रादौ दर्शनात् । तदुक्तं सदपीच्छाक्यन इति यथा जंगम्यते इत्यादी यद्यपि भृशं गच्छति, तथापि कुटिलं गच्छति इत्येव प्रतीयते न भृशार्थस्तथाऽत्रापि इच्छाक्यन: कर्म विद्यमानमपि आचारक्यना हृतं सद्वृत्तौ आख्यातवृत्तौ न प्रतीयते ।
उभयधर्म विधाने इति कश्चिन्मृन्मयं बलीवर्दं करोति, तत्र च मुण्डत्वं बलीवर्दत्वं च धर्मद्वयं विधत्ते, तत्र न भवति, मुण्डं प्रसिद्धमनूद्याप्रसिद्धं शुक्लं करोतीत्यनुवादे च न भवत्यनभिधानात् । पटयतीति अत्र वार्तिककारो वृद्धिमनिच्छन्नपपटदिति मन्यते, स्वमते तु वृद्धावसमानस्यौकारस्य लोपे सन्वद्भावादपीपटदिति भवति । त्वचयतीति - नन्वत्र ‘नॅकस्वरस्य’ ७-४-४४ इत्यन्त्यस्वरादिलोपनिषेवे वृद्ध्यां त्वाचयततीति प्राप्नोति तत्कथमित्याह त्वचशब्द इत्यादि अत्र व्यञ्जनान्तं त्वक्शब्दं परित्यज्य स्वरान्तपाटेन ज्ञाप्यते क्वचिन्नाम्नोऽप्यतो 'ञ्णिति' ४ - ३ - ५० इति वृद्धिर्भवति यथा त्वापयति मापयतीति । ततश्चात्र व्यञ्जनान्तस्य वृद्धौ त्वाचयतीत्यनिष्टं रूपमापाद्येत ।
तुलैरनुकृष्णातीति- तुलैः कृत्वा अनुकूलं, अवाक् च यथा भवति, एवमन्तरवयवान् बहिनिकासति - निःसारयतीत्यर्थः । अनुकुष्णात्यवकुष्णात्यनयोरुभयोः साधरणोऽर्थोऽनुगृह्णातीति यतोऽत्रान्वर्थेऽवः । इन्द्रियाणां जयमिति- इन्द्रियजयं करोतीत्येवमपि कृ भवति बाहुलकादेव, यथा विपाशयतीति पाशिक्रिया हि विमोचनसंयमाद्यनेकविशेषणंविशिष्टा सती प्रत्ययवाच्या ततश्चोपसर्गप्रयोगाभावे एकतरेणापि विशेषणेन वैशिष्ट्यं न प्रतीयते ।
संभांडयते इति - शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् प्रत्ययेनाङर्थ: प्रतिपाद्यते न समर्थ इत्याभाण्डयते इत्यादि न भवति ।
व्रताद् भुजि - तन्निवृत्त्योः || ३. ४. ४३ ॥
व्रतं शास्त्रविहितो नियमः - व्रतशब्दाद्भोजने तन्निवृत्तौ च वर्तमानात्कृगादिष्वर्थेषु णिच् प्रत्ययो भवति बहुलम् । पय एव मया भोक्तव्यमिति व्रतं करोति गृह्णाति वा यो व्रतयति, सावद्यान्नं मया न भोक्तव्यमिति व्रतं करोति, गृह्णाति वासावद्यान्नं व्रतयति । अर्थनियमार्थ आरम्भः ॥ ४३ ॥
न्या० स० व्रताद् भुजि० - अर्थनियमार्थ आरम्भ इति-यदि बहुलग्रहणस्य प्रयोगानुसरणार्थत्वात् अर्थनियमो भविष्यतीत्युच्यते तदा तत्प्रपञ्चार्थोऽयमित्यदोषः, उक्तं हि - 'ते वै विधयः सुसंगृहीता भवन्ति येषां लक्षणं प्रपञ्चश्च' |
सत्यार्थ वेदस्याः ।। ३. ४. ४४ ॥
सत्यार्थवेद इत्येतेषां णिचसंनियोगे आकारोऽन्तादेशो भवति । सत्यमाचष्टे करोति वा सत्यापयति, एवमर्थापयति, वेदापयति । 'त्रन्त्यस्वरादेः' ( ७-४-४३ ) इत्याकारस्य लुग्न भवति विधानसामर्थ्यात् ॥ ४४ ॥
न्या० स० सत्यार्थ० - णिज्संनियोग विधानादाकारेण णिच् न बाध्यते । त्रन्त्य
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पाद-४, सूत्र-४५-४६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
[५९
स्वरादेरिति-येन नाप्राप्त इति न्यायेनान्तलोपस्य बाधकत्वेन आकारविधानात् अकारस्यैव प्रथमं 'त्रन्त्यस्वरादेः' ७-४-४३ इत्यन्त्यलोपो न भवति ।।
श्वेताश्वाश्वतर-गालोडिताऽऽहरकस्याश्वतरेतक-लुक् ॥३. ४. ४५॥
श्वेताश्व, अश्वतर, गालोडित, प्राह्वरक इत्येतेषां णिच्संनियोगे यथासंख्यमश्वतरेतक इत्येतेषां लुग्भवति । श्वेताश्वमाचष्टे करोति वा श्वेताश्वेनातिकामतीति वा श्वेतयति, एवमश्वयति, गालोडितमाचष्टे करोति वा गालोडयति, एवमाह्वरयति । लुगर्थं वचनं णिच् तु सर्वत्र पूर्वेण सिद्ध एव ॥ ४५ ॥
न्या० स० श्वेताश्व०-श्वेतयतीत्याष्वनेन सस्वराणामेवाश्वादीनां लुक् , न तु त्रन्त्यस्वरादेरित्यकारलोपे सति विशेषविधानात् अश्वादिलोपात्पश्चादपि त्रन्त्यस्वरादेरित्यन्त्यस्वरादेर्न लुक् , 'सकृत् बाधित' इति न्यायात् , श्वेतयीत्यादिषु अन्त्यस्वरादेर्लोपेऽपि न किंचिदं विनश्यति । गालोडयतीत्यत्र तु अनेन इतलोपे 'अन्त्यस्वरादेः' ७-४-४३ इत्योडलोपे सति गालयतीति स्यात्, 'लोडङ उन्मादे', लोडनं क्लीबे क्तः गोर्लोडितम , अथवा गुप्तं लोडितं क्षोरस्वामिना पृषोदरादि: । नन्वतिहस्तयतीतिवत् श्वेतयतीत्यत्राप्यतिशब्दप्रयोगः प्राप्नोति ? न, अत्र शब्दशक्तिस्वाभाव्यादतिशब्दमन्तरेणापि तदर्थप्रतीतिः । धातोरनेकस्वरादाम् परोक्षायाः कृभ्वस्ति चानु तदन्तम्
॥३. ४.४६ ॥ अनेकस्वराद्धातो: परस्याः परोक्षायाः स्थाने आमादेशो भवति, प्रामन्ताच्च परे कृभ्वस्तयो धातवः परोक्षान्ता अनु पश्चादनन्तरं प्रयुज्यन्ते । चकासांचकार, चकासांबभूव, चकासामास, चुलुम्पांचकार, चुलुम्पांबभूव, चुलुम्पामास, लोल्यांचक्के, लोलयांबभूव, लोलयामास । अस्तेमून भवति विधानबलात् । अनेकस्वरादिति किम् ? पपाच । कश्चित्तु प्रत्ययान्तादेकस्वरादपोच्छति,-गौरिवाचचार गवांचकार, गवांबभूव, गवामास, एवं स्वांचकारेत्यादि । अनुग्रहणं विपर्यासव्यवहितनिवृत्त्यर्थम् , तेन चकारचकासाम् ईहांदेवदत्तश्चक्के इत्यादि न भवति । उपसर्गस्य तु क्रियाविशेषकत्वात व्यवधायकत्वं नास्ति । तेन 'उक्षां प्रचकुर्नगरस्य मार्गान्' इत्यादि भवत्येव ॥४६॥
____ न्या० स० धातोर०-धातुग्रहणाभावे उपसर्गपूर्वाददेरपि स्यात् । लोल्यांचने इति-'आम: कृगः' ३-३-७५ इति नियमदामः परात् कृग एवात्मनेपदं न भ्वस्तिभ्याम् । पपाचेति-द्विर्वचने कृते त्वनेकस्वरत्वेऽपि संनिपातेति न्यायान्न भवति, विहितविशेषणाद् वा, यद्यनेकस्वराद् विहितो भवति । उपसर्गस्य त्विति-ननु काद्यपि क्रियाया विशेषकं भवतीति तस्याप्यव्यवधायकत्वं प्राप्नोति ? नैवं, क्रियाया एव विशेषकमित्यवधारणस्य विवक्षितत्वात् , कादि च यथा क्रियाया विशेषकं तथा द्रव्यस्यापीति, तथा तं पातयां प्रथममासेति कथंचित्समर्थ्यते, प्रथम मित्यस्य क्रियाविशेषणत्वात् । प्रभ्रंशयां यो नहुषं चकारेति त्वतिदुष्टम् ।
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६० ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-४७-५०
दयायास्कासः॥ ३. ४. ४७॥
दय , अय् , आस् , कास् , इत्येतेभ्यो धातुभ्यः परस्याः परोक्षायाः स्थाने आमादेशो भवति आमन्ताच्च परे कृभ्वस्तयः परोक्षान्ता अनु प्रयुज्यन्ते । दयांचके, दयांबभूव, दयामास, पलायांचक्रे, पलायांबभूव, पलायामास, आसांचक्र, आसांबभूव, आसामास, कासांचके, कासांबभूव, कासामास ॥४७।।
गुरुनाम्यादेरनृच्छ्र्णोः ॥ ३. ४. ४८ ॥
गुरुनामी प्रादिर्यस्य तस्माद्धातोऋच्छृणु जितात् परस्याः परोक्षायाः स्थाने आमादेशो भवति, आमन्ताच्च परे कृभ्वस्तयः परोक्षान्ता अनु प्रयुज्यन्ते । ईहांचके, ईहांबभूव, ईहामास, उञ्छांचकार. व्युछांचकार, उब्जांचकार । गुरुग्रहणं किम् ? इयेष । नामिग्रहणं किम् ? आनर्च । आदिग्रहणं किम् ? निनाय । ईङस्तु व्यपदेशिवद्धावाद्भवति-अयांचक्र, अयांबभूव, अयामास, ईषतुः ईषुः इत्यत्र * संनिपातलक्षणो विधिरनिमित्तं तद्विधातस्य * इति न भवति । अनुच्छूोरिति किम् ? आनच्छ, प्रोणु नाव । अत एव ऋच्छप्रतिषेधासंयोगे परे पूर्वो गुरुरिति विज्ञायते ॥४८॥
न्या० स० गुरुनाम्यादे०-गुरुग्रहणं नामिनो विशेषणं न धातोः, धातुविशेषणे हि इयेष इत्यत्रापि स्यात् । व्यपदेशिवद्भावादिति-धातुपारायणकृता तु व्यपदेशिवद्भावो नेष्टस्तन्मते ईये इत्येव भवति ।
जाग्रुषसमिन्धेर्नवा ॥ ३. ४. ४१ ॥
जाग , उष, सम्पूर्व इन्ध इत्येतेभ्यो धातुभ्यः परस्या: परोक्षायाः स्थाने आमादेशो वा भवति, आमन्ताच्च परे कृम्वस्तयः परोक्षान्ता अनु प्रयुज्यन्ते । जागरांचकार, जागरांबभूव, जागरामास, जजागार, ओषांचकार, उवोष, समिधांचक्र, समीध । समग्रहणं किम् ? इन्धांच, प्रेन्धांचक । सोपसर्गादिन्धेराम् न भवत्येवेति कश्चित , अन्ये तु परोक्षायामिन्धेरामन्तस्यैव प्रयोग इत्याहुः । समोऽन्यत्रापि इन्धेरामविकल्प इत्यन्यः । इन्धांचके ईधे इति ।।४।।
भी-ही-भृ-होस्तिव्वत् ॥ ३. ४. ५० ॥
भी, ही, भृह इत्येतेभ्यो धातुभ्यः परस्याः परोक्षायाः स्थाने आमादेशो वा भवति, स च तिव्वत् अामन्ताच्च परे कृभ्वस्तयः परोक्षान्ता अनु प्रयुज्यन्ते । विभयांचकार, बिभयांबभूव, बिभायमास, बिभाय, जिह्रयांचकार, जिलाय, बिभरांचकार, बभार, जुहवांचकार, जुहाव, जुहवांचके, जुहुवे । तिव्वद्भावाद्वित्वमित्वं चेति ॥५०॥.
न्या० स० भीह्री०-जुहवांचके इति-अत्र 'क्य: शिति' ३-४-७० इति क्यो न भवति, शितीति सामान्योक्तेऽपि क्यस्य भावे कर्मणि च विधानाच्छित प्रत्ययोऽपि भावकर्म
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पाद-४, सूत्र-५१-५४ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
[६१
विहितो गृह्यते, अत्र तिव्वदित्युक्तं । ति च भावेकर्मणि न भवति, ग्रन्थकृता च तिव्वद्भावाच्छित्वे द्वित्वमित्वं चेत्येवोक्तम् ।
वेत्तेः कित् ॥ ३. ४.५१ ॥
"विदक ज्ञाने' इत्यतो धातोः परस्याः परोक्षायाः स्थाने प्रामादेशो वा भवति, स च कित प्रामन्ताच्च कृभ्वस्तयोऽन प्रयुज्यन्ते । विदांचकार, विदांबभव, विदामास । कित्त द गुणो न भवति । पक्षे, विवेद, वेत्तेरविदिति कृते इन्ध्यसंयोगात्परोक्षा किद्वदित्यामः स्थानिवद्भावेन कित्त्वे सिद्धेऽपि कित्त्वविधानमामः परोक्षावद्भावनिवृत्तिज्ञापनार्थम् , तेन परोक्षावद्भावेन हि कित्त्वद्विर्वचनादिकं न भवति । तिनिर्देश आदादिकपरिग्रहार्थः॥५१॥
न्या० स० वेत्तेः कित-कित्त्वद्विवचनादिकं न भवतीति-तेन जुहवांचक्रे कित्त्वाऽभावाद्गुणः । विदांचकार अपरोक्षत्वात् द्विवचनाभावः, आदि शब्दाद्दयांचक्रे इत्यादी एत्वाभावः सिद्धः । आदादिकपरिग्रहार्थ इति-अन्यथा विद इति सामान्योक्तौ चतुर्णामऽदाद्यनदाद्योरित्यतोऽदादिवजितानां त्रयाणां वा ग्रहः स्यात् , यङ लुब्निवृत्त्यर्थश्च तिवनिर्देशः, तेन यङ लुपि वेवेदांचकारेति सिद्धम् , 'धातोरनेकस्वरात्' ३-४-४६ इत्यामि नाऽनेन विकल्पः।
पञ्चम्याः कृग ॥ ३. ४. ५२ ॥
वेत्तेः परस्याः पञ्चम्याः स्थाने किदामादेशो वा भवति, प्रामन्ताच्च परः पञ्चम्यन्तः कृगनु प्रयुज्यते । विदांकरोतु-वेत्तु , विदांकुरु-विद्धि, विदाकरवाणि-वेदानि । कृग्नहणं भ्वस्तिव्युदासार्थम् ॥ ५२॥
न्या० स०-पञ्चम्या०-भ्वस्तिसंबद्ध एव कृगऽनूद्यते, तेन कृग्ट् इत्यस्य न ग्रहः । सिजद्यतन्याम् ॥ ३. ४. ५३ ॥
धातोरद्यतन्यां परभूतायां सिच प्रत्ययो भवति, वेति निवृत्तम् । अनैषीत् , अपाक्षीत , अकृषाताम् कटौ चैत्रेण । इकारचकारौ विशेषणाथो । ५३ ॥
न्यास-सिजद्यः-'चजः कगम्' २-१-८६ इति कृते कित्त्वाशङ्का स्यात् । वेति निवृत्तमिति-आनिवृत्तौ तत्संबन्द्धत्वात् , विशेषणार्थाविति-अन्यथा 'हनः सिज्' ४-३-३८ इत्यादौ सिरिति कृते वर्तमाना-'सि'-प्रत्यये स इति च कृते सकारादिमात्रे प्रसङ्गः स्यात् ।
स्पृश-मृश-कृष-तृप-दृपो वा ।। ३. ४. ५४ ॥
स्पृशादिभ्यो धातुभ्योऽद्यतन्यां सिज्वा भवति । अस्प्राक्षीत , अस्पाीत, अस्पृक्षव; अम्राक्षीव , अमाीत , अमृक्षत; अकाक्षीद , अकार्षीत , अकृक्षत; अत्राप्सीत् , अतार्सीत्, अतृपत् ; अद्राप्सीत् , प्रदार्सीत् , अदृपत् । तृपडपोः पुष्यादित्वाङि शेषाणां तु सकि प्राप्ते वचनम् ।। ५४॥
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बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-५५-५७
न्या० स०-स्पश०-दृपः साहचर्यात तपौच इत्यस्य ग्रहणं. कृषस्त स्पशमशाभ्यां न साहचर्यमनिष्टेः । सकि प्राप्ते वचन मिति-ननु यथाऽयमङि सकि च प्राप्ते विधीयमानस्तयोः पक्षे बाधको भवत्येवं निचोऽपि बाधकः प्राप्नोत्यस्मिन्नपि प्राप्तेऽस्य विधीयमानत्वादिति ? नैवं, * पूर्वे अपवादा अनन्तरान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान् * इति न्यायात् ।
हशिटो नाम्युपान्त्याददृशोऽनिटः सक् ॥ ३. ४. ५५ ।।
हशिडन्तानाम्युपान्त्याद् दृशिवजितात् अनिटो धातोरद्यतन्यां परतः सक् प्रत्ययो भवति, सिचोऽपवादः । दुह.-अधुक्षत् , विश्-अविक्षत् , लिहलिशो:,-अलिक्षत् , द्विषअद्विक्षत् । हशिट इति किम् ? अभेत्सीत् । नाम्युपान्त्यादिति किम् ? अधाक्षीत् । अदृश इति किम् ? अद्राक्षीत् । अनिट इति किम् ? अकोषीत् । विकल्पितेटोऽपि पक्षेऽनिटत्वाद्भवति,-न्यधुक्षत् । अन्यत्र न भवति-न्यगृहीत् ॥ ५५ ।।
न्या० स०-हशिटो०:-सिचोऽपवाद इति-तस्मिन् प्राप्तेऽस्य विधानात् । अदृश इति किम् ? ननु परत्वात् पूर्वमकारागमे नाम्युपान्त्यभावात् सको न प्राप्तिस्तत्कि वर्जनेन ? नैवं, 'नशो धुटि' ४-४-१०९ इत्यतो धुटीत्यधिकारात् स्वरादिप्रत्यये 'अ: सृजि' ४-४-१११ इत्यकारागमो नास्ति, ततो नाम्युपान्त्यत्वात् सकि व्यत्यदृक्षन्त इत्यनिष्टं स्यात् । सिचस्तु व्यञ्जनान्तत्वेनाऽनकारान्तत्वात् , 'अनतोऽन्तो' ४-२-११४ लुपि व्यत्यहक्षत इति, अमादौ च अदृक्षं व्यत्यदृक्षेतामित्यादि स्यात् , सिचि तु अद्राक्षं व्यत्यहक्षातामिति भवति ।
श्लिषः ॥ ३. ४.५६ ॥
श्लिषो धातोरनिटोऽद्यतन्यां सक् प्रत्ययो भवति । आश्लिक्षत्कन्यां देवदत्तः, पुष्यावित्वादडिप्राप्ते वचनम् * पुरस्तादपवादा अनन्तरान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान् * इत्यङ एव बाधो न जिचः । आश्लेषि कन्या देवदत्तेन । अनिट इत्येव ? श्लिषू , दाह इत्यस्मात्सेटो माभूत्-अश्लेशीत् , अधाक्षीदित्यर्थः ।। ५६ ॥
नासत्त्वाऽऽश्लेषे ॥ ३. ४. ५७॥
श्लिषो धातोरप्राण्याश्लेषे वर्तमानात सक् प्रत्ययो न भवति,-उपाश्लिषज्जतु च काष्ठं च, समाश्लिषद्गुरुकुलम् । पृथग्योगात्पूर्वेणापि प्राप्तः प्रतिषिध्यते, व्यत्यश्लिक्षन्त काष्ठानि । असत्वाश्लेष इति किम् ? व्यत्यश्लिक्षन्त मिथुनानि ।। ५७ ॥
न्या० स०-नाऽसत्त्वा०:- नन्वनन्तरस्य विधिः प्रतिषेधो वा के इति न्यायादनन्तरस्य सकोऽङ बाधकत्वात् परस्मैपदविषयस्यैव प्रतिषेधः प्राप्नोति, न तु क्रियाव्यतिहारे कर्तर्यात्मनेपदे प्रवर्त्तमानस्य 'हशिट०' ३-४-५५ इत्यस्येत्याशङ क्याह-पृथग्योगादिति-यदि ह्यनन्तरविहितस्यैव प्रतिषेधः स्यात्तदा श्लिषोऽसत्त्वाश्लेषे इत्येकमेव योगं कुर्यात् ।
- व्यत्यश्लिक्षन्त मिथुनानीति-अत्र प्राच: पूर्वस्मात् परो विधिः प्राविधिरित्यकारस्य स्थानित्वात् 'अनतोऽन्तो०' ४-२-११४ इत्यनेनादेशो न भवति ।
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पाद - ४, सूत्र- ५८-६० ] श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
णि श्रिदु स्रु कमः कर्तरि ङः ॥ ३. ४. ५८ ॥
ण्यन्तात् श्रयादिभ्यश्च कर्तरि अद्यतन्यां ङः प्रत्ययो भवति । णि-प्रचीकरत्, अचू चुरत्, औजढत्, अचीकमत । कर्मकर्तापि कर्तेव । अचीकरत कटः स्वयमेव, श्रि-अशिश्रियत्, दु-अदुद्रुवत्, स्र ं गतौ प्रसुत्र वत्, कम् - अचकमत ।
कर्तरीति किम् ? अकारयिषातां कटौ देवदत्तेन । कमिग्रहणम् 'प्रशवि ते वा' ( ३-४-४ ) इति यदा णिङ् नास्ति तदार्थवत् । ङकारो ङित्कार्यार्थः ॥ ५८ ॥
[ ६३
न्या० स० - णिश्रि० - प्रचीकरदिति- ननु 'स्वरस्य परे' ७-४-११० इति ह्रस्वत्वस्य स्थानित्वे लघोऽभावात् सन्वद्भावो न प्राप्नोति ? न एतत्सूत्रसामर्थ्याद् भवति, यत ओगेॠदनुबन्धकरणव्याख्यानात् पूर्वं ह्रस्वत्वे कृते स्थानिवद्भावो न प्राग्विधावित्यस्य प्राचि पूर्वस्मिन् काले विधिः प्राग्विधिरिति व्याख्यानात् वा ।
औजढदिति - अत्र परे द्वित्वे 'हो धुट्पदान्ते' २-१-८२ इत्यस्याऽसत्त्वे तदाश्रितत्वात् 'अधश्चतुर्थात्तथो०' २-१-७९ इत्यस्याप्यऽसत्त्वे णो यत् कृतम् इति न्यायाasकारस्य स्थानित्वे 'नाम्नोद्वितीयात्' ४-१-७ इत्यनेन हतेति द्विर्वचनं तत्र यदा परे द्वित्वे 'हो धुट्पदान्ते' २-१-८२ इत्यस्य शास्त्रस्यासिद्धिराश्रीयते तदा पुनरपि 'हो छुट् पदान्ते' २१-८२ इत्यादि प्रक्रिया क्रियते ततो 'ढस्तड्ढे' १-३-४३ इति ढलोपे पूर्वजकाराकारस्य दीर्घत्वे 'ह्रस्वः' ४-१-३९ इत्यनेन ह्रस्वः ।
अकारयिषातामिति - क्रियेते कटौ देवदत्तेन, तो देवदत्तेन क्रियमाणौ यज्ञदत्तेन प्रयुज्येते स्म यद्वा करोति कटौ देवदत्तः, स एवं विवक्षते नाहं करोमि, अपि तु क्रियेते कटौ स्वयमेव, तो क्रियमाणी कटौ यज्ञदत्तेन प्रायुक्षाताम् ।
दूधेश्वेर्वा । ३. ४. ५१ ॥
,
वेश्विभ्यां कर्तर्यद्यतन्यां ङः प्रत्ययो वा भवति । अदधत् अधात्, अधासीत्, अशिश्वियत् अश्वयीत् श्रश्वत् । कर्तरीत्येव ? अधिषाताम् गावौ वत्सेन ।। ५९ ।। शास्त्यस्· वक्ति-ख्यातेरड् । ३. ४. ६० ॥
"
एभ्यो धातुभ्यः कर्तयद्यतन्यामङ् प्रत्ययो भवति । शासूक्-अशिषत् व्यत्यशिषत, अन्वशिषत स्वयमेव । असूच्- आस्थत्, अपास्थत्, वचंक् ब्रग्फ् वा, श्रवोचत् प्रवोचत, ख्यांक चक्षिक् वा आख्यत्, प्राख्यत ।
कर्तरीत्येव ? प्रशासिषाताम् शिष्यौ गुरुणा । तिनिर्देशो यङ्लुबन्तनिवृत्त्यर्थः । प्रशाशासीत्, अवावाचीत्, अचाख्यासीत् । श्रसू इत्यूकारः किम् ? असक् भुवि, असी गत्यादी - आभ्यां माभूत् अभूत् श्रासीत् । अस्यतेः पुष्यादित्वादङि सिद्धे वचनम् श्रात्मनेपदार्थम्, शास्तेरात्मनेपदे नेच्छन्त्येके, तन्मते व्यत्यशासिष्ट ।। ६० ।।
न्या० स० - शास्त्य० - वक्तिख्यातीत्युक्ते चक्षिक गोरपि ग्रहणं यतः 'इकिस्तिव्' ५ -३ - १३८ इति इकि विषये वचः ख्यादेशे पश्चात्तिव उत्पन्नः । श्रात्मनेपदार्थमितितर्हि आत्मनेपदपरस्मैपदयोरनेनैव सिध्यति किं पुष्यादिपाठेन ? सत्यं, अस्य पुष्यादिपाठो
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बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते [ पाद- ४, सूत्र - ६१-६४
द्विद्धं सुबद्धं भवतीति ज्ञापनार्थ:, तेनास्मादऽङोऽव्यभिचारः अन्येषां तु क्वचिद्व्यभि चारोऽपि तेन भगवन्मा कोपीरित्यादि बालरामायणोक्त सिद्धम् ।
६४
सर्त्यतैर्वा ॥ ३. ४. ६१ ॥
सृ
'सृऋ' प्राभ्यां धातुभ्यां कर्तर्यद्यतन्यामङ् प्रत्ययो वा भवति । ॠ अदादिवदिर्वा । प्रसरत्, प्रसार्षीत् । सर्तेः कर्तरि आत्मनेपदे न दृश्यते इति नोदाह्रियते । ऋआरत्, प्रार्षीत्, समारत, समार्ष्ट । श्रात्मनेपदे न भवति परस्मैपदे नित्यमित्येके, परस्मैपदे नित्यमात्मनेपदेऽर्तेर्वा सर्तेर्नेत्यन्ये । उभयत्र नित्यमित्यपरे, ति निर्देशो यङ्लुबन्तनिवृत्त्यर्थः - असरिसारीत्, प्रारारीत् ॥ ६१ ॥
7
न्या० स० - सतें - श्रदादिवदिति-निर्देशादेव शवऽभावे तिनिर्देशस्य समानत्वादुभयोर्ग्रहणमित्यर्थः । भ्रात्मनेपदं न दृश्यत इति - ' क्रियाव्यतिहार' ३-३-२३ इत्यत्र गत्यर्थवर्जनात् सर्वे गत्यर्था ज्ञानार्था इति ज्ञानार्थस्यापि नेष्यते । समाष्ट इति-अत्र नित्यत्वात् सिज्लोपात् प्रागेव 'स्वरादेस्तासु' ४-४-३१ इति वृद्धिरिति न्यासः, 'एत्यस्तेर्वृद्धि:' ४-४-३० इति ज्ञापकज्ञापिता विधयो ह्यनित्या इति न्यायाद् वा प्रागेव वृद्धिः । सर्वनेत्यन्य इति - ते हि सर्त्तेरात्मनेपदमिच्छन्ति नाऽङम् । आरारीत् भृशं पुन: पुनर्वा इयत्त ऋच्छति वा 'अति' ४-४-३० इति यङ् तस्य लुप् ततो द्विर्वचनम्, 'ऋतोत्' ४ १ ३८ 'रिरौ च लुपि' ४-१-५६ इति रागमस्ततोऽद्यतनीदि, सिच्, 'स: सिजस्तेदिस्यो:' ४-३-६५ ईत्, इट् 'इट ईति' ४-३ - ७१ सिच्लोपस्तत: 'सिचिपरस्मै ० ' ४-३-४४ इति धातोद्धिरार्, ततः ‘स्वरादेस्तासु, ४-४- ३१ इति पूर्वस्याकारस्य आकारः ।
ar-faq-faa: 11 3. 8. ॥ ६२ ॥
एम्य: कर्तर्यद्यतन्यामङ् प्रत्ययो भवति । आहृत्, अलिपत्, असिचत् ।। ६२ ।। वात्मने ॥ ३. ४. ६३ ॥
ह्वादिभ्यः कर्तर्यद्यतन्यामात्मनेपदे वाङ् भवति । आह्नत आह्वास्त, अलिपत, अलिप्त, असिचत, असिक्त ।। ६३ ।।
न्या० स० - वात्मने० :- श्रातेति - स्पर्द्धापूर्वके आकारणे 'ह्वः स्पर्द्ध:' ३-३-५६ इत्यनेनात्मनेपदं, सामान्याकारणे 'ईगित : ' २-३ - ९५ इत्यनेनात्मनेपदम् ।
लृदिद- तादि- पुष्यादेः परस्मै ॥ ३. ४. ६४ ॥
लृदितो घातोर्छु तादिभ्यः पुष्यत्यादिभ्यश्च कर्तर्यद्यतन्यां परस्मैपदे अङ् प्रत्ययो भवति । लृदित्- अगमत् असृपत्, अशक्त् । द्युतादि - अद्युतत् अरुचत् । द्युतादयो 'द्युद्भ्योSद्यतन्याम्' ( ३-३-४४ ) इत्यत्र परिगणिताः । पुष्यादिः - अपुषत् औचत्, प्रश्लिषत् जतु च काष्ठं च पुष्यादयो दिवाद्यन्तर्गताः 'दिवादेः श्य:' ( ३-४-७२ ) इत्यत्र परि
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पाद-४, सूत्र ६५ - ६७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
[६५
गरिणष्यन्ते । श्यनिर्देशः किम् ? पोषतिपुष्णात्यादिभ्यो माभूत-अपोषीत् , अभूषीत् , अपोषीत् , अकोषीत् । परस्मैपद इति किम् ? समगंस्त, व्यद्योतिष्ट, व्यत्यपुक्षत ।। ६४ ॥
न्या० स०-लदिबूतादि-आगन्तुनाऽकारेण द्युतेति कृत्वा तृतीयत्वाप्रसङ्गात् धुतादीति निर्देशः । अश्लिषत् जतु च काष्ठं चेति-जतु च कर्तृ, काष्ठं च कर्तृ अश्लिषत् कर्म किमपि न विवक्षितं 'श्लिष:' ३-४-५३ इति सक् प्राप्तो 'नाऽसत्त्वाश्लेषे' ३-४-५७ इति निषेधः । ननु धुतादयः पुष्यादयश्च लुदित: कृत्वा लुदितः परस्मै इत्येतावदेव सूत्रं विधेयम् ? नैवं, द्युतादयः पुष्यादयश्च बहव आदित उदितश्च ततस्तेषां लुदितामुच्चारयितुमऽशक्यत्वाददोषः । ऋदिच्चि -स्तन्भू-स्तम्भू-म चूम्लु-चू-ग्रु-चूग्लु-चुग्लुञ्चूजो वा
॥ ३. ४. ६५॥ ऋदितो धातोः श्विप्रभृतिभ्यश्च कर्तर्यद्यतन्यां परस्मैपदे वाङ् प्रत्ययो भवति । अरुधत , अरौत्सीत् , अभिदत् , अभैत्सीत , अश्वत् , अश्वयीत , अशिश्वियत , अस्तमत् , प्रस्तम्भीत अस्तुभव, अम्र चत् , अम्रोचीत्, अम्लूचत्, अम्लोचीत् . अग्रुचत् , अग्रोचीत्, ग्रुचो नेच्छन्त्यन्ये-अग्लुचत् , अग्लोचीत् , अग्लुचत् , अग्लुश्चीत्। ग्लचग्लुश्चोरेकतरोपादानेऽपि रूपत्रय सिध्यति अथभेदात्तद्वयारुपादानम्,प्रन्येखविधानसामथ्र्यात ग्लञ्चेनेलोपनेच्छन्ति, तेनाग्लुश्चत् । जशजषवा अजरत् , अजारीत् । परस्मैपद इत्येव ? अरुद्ध, अभित्त ॥६५॥
बिच् ते पदस्तलुक् च ॥ ३. ४. ६६ ॥
पदिच् गतावित्यस्माद्धातोः कर्तर्यद्यतन्यास्ते परे त्रिच प्रत्ययो भवति निमित्तभूतस्य तकारस्य लुक् च । उदपादि भिक्षा, समपादि विद्या । त इति किम् ? उदपत्साताम् ,पदेरात्मनेपदित्वात्त इति आत्मनेपदप्रथमत्रिकैकवचनं तकारो गृह्यते न परस्मैपदमध्यमत्रिकबहुवचनम् , एवमुत्तरत्र-अकारो 'णिति' (४-३-५०) इति विशेषणार्थः । चकारो 'न कर्मणा जिच्' (३-४-८८) इत्यत्र विशेषणार्थः ।।६६॥
न्या० स-जिच ते०-न परस्मैपदमध्यमत्रिकबहुवचनमिति के ननु प्रकृतिग्रहणे यङ लुबन्तस्यापि * इति यङ लुक् च इति परस्मैपदित्वे च परस्मैपदस्यापि संभव: ? न, श्रुतानुमितयोः श्रौतसंबन्धो बलीयान् , यङ लोपोऽपि च न दृश्यते, अत एव सिद्धमऽन्ववादि ।
दीप-जन-बुधि-पूरितायप्यायो वा ।। ३. ४. ६७ ॥
एभ्यः कर्तर्यद्यतन्यास्ते परे जिच् प्रत्ययो वा भवति निमित्तभूततलुक् च । प्रदीपि, अदीपिष्ट, अजनि, अजनिष्ट, अबोधि, प्रबुद्ध, अपूरि, अपूरिष्ट, अतायि, अतायिष्ट, अप्यायि, अप्यायिष्ट । त इत्येव ? अदो पिषाताम् । कर्तरीत्येव ? अदीपि भवता, उत्तरेण नित्यमेव । बुधीति इकारो देवादिकस्यात्मनेपदिनः परिग्रहार्थः, तेन बुधग प्रबोधिष्टेत्यत्र न भवति ।६७
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बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-६८-७१
न्या० स०-दीपजन०-अजनीति-'न जनवघः' ४-३-५४ इति वृद्ध्यभावः । भाव-कर्मणोः ॥ ३. ४. ६८||
सर्वस्माद्धातोः भावकर्मविहितेऽद्यतन्यास्ते जिच् प्रत्ययो भवति तलुक् च । आसि भवता, अशायि भवता, अकारि कटः । अपाच्योदनश्चत्रेण ॥६८॥
स्वर-ग्रह-दृश हन्भ्यः स्य-सिजाशीःश्वस्तन्यां जिट् वा॥३. ४. ६१॥
स्वरान्ताद्धातोः ग्रहादिभ्यश्च विहितासु भावकर्मविषयासु स्यसिजाशीःश्वस्तनीषु जिट प्रत्ययो वा भवति । स्वर-दायिष्यते, दास्यते, अदायिस्यत, अदास्यत, अदायिषाताम् , प्रदिषाताम् , दायिषोष्ट, दासोष्ट, दायिता, दाता, शमिष्यते, शामिष्यते, शमयिष्यते, प्रशमिष्यत, प्रशामिष्यत, अशमयिष्यत, प्रशमिषाताम् , प्रशामिषाताम् , अशमयिषाताम् , शमिषीष्ट, शामिषीष्ट, शमयिषोष्ट, शमिता, शामिता, शमयिता, एवं चायिष्यते, चेष्यते, शायिष्यते, शयिष्यते, स्ताविष्यते, स्तोष्यते, लाविष्यते, लविष्यते, कारिष्यते, करिष्यते, तारिष्यते, तरिष्यते, तरीष्यते । ग्रह-ग्राहिष्यते, ग्रहीष्यते, अग्राहिषाताम् , अग्रहीषाताम् ग्राहिषोष्ट, ग्रहीषीष्ट, ग्राहिता ग्रहीता ।
दृश-शिष्यते, द्रक्ष्यते, अशिषाताम् , अदृक्षाताम् दशिषीष्ट, दृक्षीष्ट, दशिता, द्रष्टा । हन्-घानिष्यते, हनिष्यते, अघानिषाताम् , अवधिषाताम् , अहसाताम् , घानिषोष्ट, वधिषोष्ट, घानिता, हन्ता । एभ्य इति किम् ? पठिष्यते । स्यादिष्विति किम् ? चीयते । भावकर्मणोरित्येव ? दास्यति, चेष्यति । प्रकृतिप्रत्यययोवंचनवेषम्यान यथासंख्यम् ॥६९।।
न्या० स०-स्वरग्रह-अवधिषातामिति-'अद्यतन्यां वा' ४-४-२२ इति वधस्तत इटि 'अतः' ४-३-८२ इत्यलोपः। अहसातामिति-'हनः सिच' ४-३-३८ इति कित्त्वे 'यमिरमि' ४-२-५५ इति न लोपः ।
क्यः शिति ॥ ३. ४.७०॥
सर्वस्माद्धातो वकर्मविहिते शिति क्यः प्रत्ययो भवति । शय्यते भवता, शय्येत भवता. शय्यतां भवता, अशय्यत भवता, भिद्यते कूसलेन । कर्मणि,-क्रियते कट:, क्रियते कटः, क्रियतां कटः, प्रक्रियत कट:, अक्रियेतां कटौ, अक्रियन्त कटाः, किया। शितीति किम् ? अभावि, बभूवे, भविषीष्ट, भविता, भविष्यते, अभविष्यत भवता, एवमकारि कटो भवता । भावकर्मणोरित्येव ? आस्ते, पचति ॥७॥
न्या० स०-क्यः शिति०-बभूवे इति-'धातोरिवर्णोवर्ण०' ७-१-५० इति उदादेशे 'भुवो वः' ४-२-४३ इत्यूकारः ।
कर्तर्यनद्भ्यः शव् ॥ ३. ४. ७१ ॥ धातोरदादिवजितात् कर्तरि विहिते शिति शव प्रत्ययो भवति । शकारवकारौ
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पाद-४, सूत्र-७२ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
[ ६७
शिद्वित्कार्याथी, भवति चोरयति, पचन , पचमानः, धारयः, पारयः, जनमेजयः । कर्तरीति किम् ? पच्यते । अनभ्य इति किम् ? अत्ति, अदती अदंप्सांक-भक्षणे, भांक, यांक , वांक , ष्णांक , श्रांक , द्रांक , पांक , लांक , रांक , दांवक् , ख्यांक, प्रांक , मांक, इंक , इंणक् , वीक , द्युक् , षुक् , तुक् , युंक् , णुक , क्ष्णुक , स्नुक, टुक्षुरुकुक् , रुदृक् , जिष्वपंक , अनश्वसक , जक्षक, दरिद्राक् , जागृक , चकासक , शासूक, वचंक्, मृजौक, सस्तुक् , विदक , हनंक , वश , असा , षसक् , यङ्लुप्क् , इंङ्क , शीङ्क् , न्हुंङ्क, षडौक , पृचैड्, पृजुङ , पिजुकि, वृज कि, णिजुकि शिकि, ईडिक् , ईरिक्, ईशिक , वसिक् , आङः, शासूकि, आसिक, कसुकि, णिसुकि , चक्षिक , ऊर्तुगक , ष्टुगक , ब्रगक , द्विषोंक , दुहीक , दिहीक , लिहीक, हुंक, ओहांक , जिभोंक , हीक , पृक् , ऋक्, ओहांङक, माक् डुदांग , डुधांग्क , टुडुभृगक, रिणजे की, विजुकी , विष्लको इति कितोऽदादयः । शितीत्येव ? पपाच ।। ७१।।
. न्या० स०- कर्तर्यनय-एकस्माद् बहुवचनानुपपत्तेः सर्वेषामप्यभेदोपचारात् अच्छब्देनाभिधानात् बहुत्वादनद्भ्य इति बहुवचनं, न विद्यते अद्येषामिति बहुव्रीहिस्तु नाशङ्कनीयो 'हवः शवि' (?) इत्य करणात् , विशेषेसति सामान्योपादानस्याधिकत्वात् । जनमेजय इति-एजन्तमेजमानं प्रयुङ क्ते णिग् जनमेजयतीति 'एजेः' ५-१-११८ इति खश् ।
दिवादेः श्यः ॥ ३. ४.७२ ॥
दिवादेर्गणात्कर्तृ विहिते शिति श्यः प्रत्ययो भवति । शकारः शित्कार्यार्थः,-दीव्यति, दीव्यन् ,-श्यादयः शवोऽपवादाः। दिवूच , जृष्च , झूषच , शोंच , दोंच , छोंच , षोंच , वोडच , नृतैच् , कुथच , पुथ्च् , गुधच् , राधंच , व्यधंच , क्षिपंच, पुष्पच् , तिमतीमष्टिमष्टोमच् , षिवूच , लिंबूच् ( श्रिवूच् ) ष्टिवूच , क्षिवूच , इषच्, ष्णसूच् , कसूच् , त्रसंच, बुसच , षहषुहच , पुषंच , उचच , लुटच् , विदांच् , क्लिदौच , जिमिदाच , निविदाच , क्षुधंच , श्रुन्धच् . क्रुधंच , विधूच , ऋधूच् , गृधूच् , रधौच , तृपौच , हुपौच , कुपच , गुपच , युपरुपलुपच् , डिपच् , ष्ट्रपच् , लुभंच, क्षुभंच , णभतुभच् , नशौच , कुशच , भृशूभ्रशूच , वृशच , कृशच , शुषंच् , दुषंच , श्लिषंच , प्लुषूच , जितृषच , तुषं हृषंच , ऋषच , पुसपुषच् , विसच , कुसच , असूच , यसूच , जसूच् , तसूदसूच , वसूच , वुसच , मुसच , मसैच , शमूदमूच , तमूच , श्रमूच , म्रमूच , क्षमौच , मदेच् , क्लमूच , मुहौच , द्रुहीच , न हौच , ष्णिहौच , वृत पुष्यादिः ।
कूडौच , दूच , दींच , धींच , मीच , रीङ्च , लीच , वोङ्च , डोंच । वृत् स्वादिः । पोंच , ईङ्च , प्रीङ्च , युजिच , सृजिच , वृतूङ्च , पदिच , विदिच , खिदिच , युधिच , अनोरुधिच , बुधि मनिच , अनिच , जनैचि , दोपैचि, तपिच , पूरैचि, घूरचि , जूरैचि , धूरचि, गूरैचि, शूरैचि, तूरैचि इति घूरादयः। चूरैचि, क्लिशिंच , लिशिच , काशिच , वाशिच् , शकींच , शुगेच् , रञ्जींच , शपींच , मृषींच , णहीच । इति चितो दिवादयः ।।७२॥
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[ पाद- ४, सूत्र - ७३-७६
भ्राश-भ्लाश-भ्रम-क्रम-क्लम-त्रसि- त्रुटि - लषि-यसिसंयसेर्वा । ३.४.७३ ।
एभ्यः कर्तरि विहिते शिति श्यः प्रत्ययो भवति वा, प्राप्ताप्राप्तविभाषेयम् । भ्राश्यते, भ्राशते, भ्लाश्यते, भ्लाशते, भ्राम्यति, भ्रमति भौवादिकस्य भ्रम्यति । क्राम्यति, क्रामति, क्लाम्यति क्लामति, त्रस्यति, त्रसति, त्रुटयति, त्रुटति, लष्यति, लषति, यस्यति, यसति, संयस्यति, संयति । यसिग्रहणेनैव सिद्धे संयसिग्रहणमुपसर्गान्तरपूर्वकस्य यसे निवृत्त्यर्थम्, तेन श्रायस्यति प्रयस्यति इति नित्यं श्यः ॥ ७३ ॥
कुषि - रजे - व्यये वा परस्मै च ॥ ३. ४. ७४ ॥
कुषिरञ्जिभ्यां व्याप्ये कर्तरि शिद्विषये परस्मैपदं वा भवति तत्संनियोगे श्यश्व, क्यात्मनेपदापवादौ । कुष्णाति पादं देवदत्तः कुष्यति पादः स्वयमेव, कुष्यते पादः स्वयमेव, कुष्यन् पादः स्वयमेव, कुष्यमाणः पादः स्वयमेव, रजति वस्त्रं रजकः, रज्यति वस्त्रं स्वयमेव, रज्यते वस्त्रं स्वयमेव, राज्यद्वस्त्रं स्वयमेव, रज्यमानं वस्त्रं स्वयमेव ।
६८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
ourite कर्तरीति किम् ? कुष्णाति पादं रोगः, रज्यति वस्त्रं शिल्पी । शितात्येव ? अकोषि, चुकुषे, कोषिष्यमाणः, श्ररञ्जि, ररञ्जे, रङक्ष्यमाणं स्वयमेव, परस्मैपदसंनियोगविज्ञानादिह न भवति -कतोह कुष्णानाः पादाः, कतीह रजमानानि वस्त्राणि, 'वयः शक्तिशीले ( ५-२-२४ ) इति शानः । क्यात्परस्मैपदविकल्पविधानेनैव सिद्धे श्यविधानं कुष्यन्ती रज्यन्तीत्यत्र 'इयशवः' ( २-१-११५ ) इत्यनेन नित्यमन्तादेशार्थम् ।। ७४ ।।
न्या स० - कुषिरजे० - कुष्णाति पादं देवदत्त इति बहिनिकृष्टान्तरवयवं करोति देशान्तरं प्रापयति वा । कोषिष्यमाण इति - कोषिष्यति पादं देवदत्तः, स एवं विवक्षते, नाहं कोषिष्यामि, स्वयमेव कोषिष्यते आनश् । अरञ्जीति - आराक्षीत् वस्त्रं शिल्पी, नाऽहमराङक्षं स्वयमेवाऽरञ्जि । कतीह कुष्णाना इति कुष्यन्ते स्वयमेवेत्येवंशीलाः ततः शाने 'क्रयादेः' ३-४-७९ श्ना 'श्नश्चात: ' ४-२-६६ इति आलोपः । एकधातावित्यत्र तथेत्याश्रयणात् आत्मनेपदविषये शिति क्यस्य प्रवर्तनादत्र क्यो न शान्प्रत्यये हि न परस्मैपदी, नाप्यात्मनेपदी, एवं रज्यन्ते इत्येवंशीलानि रजमानानि । क्यात्परस्मैपदविकल्पेति - कुषिर जेर्व्याप्ये क्याद् वा परस्मै इति क्रियतामित्याशयः ।
स्वादेः श्नुः ।। ३. ४. ७५ ॥
स्वादेर्गणात्कर्तरि विहिते शिति श्नुः प्रत्ययो भवति, शकारः शित्कार्यार्थः । सुनोति, सुनुते, सुन्वन्, सुन्वानः, सिनोति, सिनुते, सिन्वन्, सिन्वानः, षुग्ट्, बिट् शिद, डुमिग्ट्, चिट्, धूगद्, स्तृगद्, कृद्, वृग्ट्, हिट्, ट्, टुट्, पृट्, स्पृ, शक् तिक तिगषघट्, राधंसाधंद्, ऋधूट्, श्राप्लंट् तृपद्, दम्भूट्कृट्, धिट्, ञिधृषाट् ष्टिघिट, अशौटि, इति टित्ः स्वादयः ।। ७५ ।।
वाक्षः ।। ३. ४. ७६ ॥
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पाद-४, सूत्र-७७-८१ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः।
[६९
अक्षौ इत्येतस्मात्कर्तरि विहिते शिति श्नुः प्रत्ययो भवति वा । अक्षणोति, अक्षति ॥७६ ॥
ततः स्वार्थे वा ॥ ३. ४. ७७॥
स्वार्थस्तनूकरणं तस्मिन्वर्तमानात्तक्षौ इत्येतस्मात् कर्तरि विहिते शिति श्नुः प्रत्ययो वा भवति । तक्ष्णोति तक्षति काष्ठम् , शाने तक्ष्णुवानः, तक्षमाणः । स्वार्थे इति किम् ? संतक्षति वाग्भिः शिष्यं निर्भत्सयतीत्यर्थः ।।७७॥
स्तम्भू-स्तुम्भू-स्कम्भू-स्कुम्भूस्कोः श्ना च ॥ ३. ४. ७८ ॥ ___ स्तम्भ्वादिभ्यः सौत्रेभ्यो धातुभ्यः स्कुगश्च कर्तरि विहिते शिति श्नाः श्नुश्च प्रत्ययो भवति, शकारः शित्कार्यार्थः । स्तम्नाति, स्तम्नोति, स्तम्नानः, स्तमनुवानः, स्तुभ्नाति, स्तुभ्नोति, स्कन्नाति, स्कभ्नोति, स्कुम्नाति, स्कुम्नोति, स्कुनाति, स्कुनीते, स्कुनोति, स्कुनुते । स्तम्भवादीनामूदित्करणं क्त्वाक्तयोरिड्विकल्पनित्यप्रतिषेधौ यथा स्याताम्,-स्तब्ध्या, स्तम्भित्वा, स्तब्धः, स्तब्धवान् ॥७॥
न्या० स०-स्तम्भू०-स्तुभ्नान इति-अनिर्दिष्टानुबन्धानां सौत्राणां घातूनां परस्मैपदित्वात् अत्र 'वयः शक्तिशील.' ५-२-२४ इति शानः । स्तम्भित्वेति-'क्त्वा' ४-३-२९ इति किवद्भावः ।
क्रयादेः ॥ ३. ४.७१ ॥ क्रयादेर्गणात्कर्तरि विहिते शिति श्नाः प्रत्ययो भवति । कोणाति, प्रीणाति ।
डुक्कोंग्श् , पिंगश , प्रींग्श् , श्रींगश् , मींग , युगश् , स्वनुगश् , क्नूगश् , दुग्श् , ग्रहोश् , पूगश् , धूगश् , लूग श , स्तृग श , कृग्श् , वृग्श् . ज्यांश् , रीश् , लीश् , क्लीश् , ब्लीश कृमृशृश् , पृश , वृश , भृश् , दृश् , जश् , नृश् , गृश् , ऋश् ,ज्ञांश् , क्षिषश् , वींश् , भ्रींश् , हेठश, मृडश, श्रन्थश् , मन्थश् , ग्रन्थश् , कुथश् , मृदश् , गुषश् , क्षुभश् , णभतुभश् , खवश , क्लिशोश् , अशश् , इषश् , विषश्, पृष्, प्लुषश् , मुषश् , पुषश् , कुषश , ध्रसूश , वृश , इति शितः कयादयः ।।७६॥
व्यञ्जनाच्छनाहेरानः ॥ ३. ४. ८० ॥
व्यञ्जनान्ताद्धातोः परस्य श्नायुक्तस्य हैः स्थाने प्रान आदेशो भवति । पुषाण, मुषारण, उत्तभान, विष्कभांण । व्यञ्जनादिति किम् ? लुनीहि । श्नाहेरिति किम् ? प्रश्नाति, उत्तभ्नुहि, विस्कम्नुहि ।।८०॥
तुदादेः शः ।। ३. ४. ८१॥ तुदादेर्गणात्कर्तरि विहिते शिति शः प्रत्ययो भवति, शकारः शित्कार्यार्थः । तुदति,
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७० ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-८२-८४
तुदते, तुदन् , तुदमानः । तुदीत् भ्रर्जीद, क्षिपीत , दिशीत , कृषींव , 'मुच्लुती, षिचीत , विद्ल ती, लुप्लुतो, लिपीत , कृतैत् , खिदंत , पिशत्' । रिपित् , धित् , क्षित , पूत , मृत , कृत् , गृत् . लिखत् , जम्झर्चत , त्वचत् , ऋचत् , ओवश्चौत् , ऋच्छत् , विच्छत , उच्छत् , मिच्छत् , उच्छत् , प्रच्छंत् , उब्जत् , सृजत् , रुजोत् , भुजोत , टुमस्जोंत् , जर्जझर्सत् उज्झत् जुडत् पृडमृडत् कडत् पृणत् तृणत् मृणत् द्रुणत् , पुणत् , मुणत् , कुणत् घुणघूर्णत् , चूतैत् , णुदंत , षद्लुत् , विधत् , जुनशुनत् , छुपंत् , रिफत् , तृफतृम्फत् , ऋफऋम्फत् , दृफडम्फत् , गुफगुम्फत् , उभउम्भत् , शुभशुम्भत् , दृभैत् , लुभत् , कुरत् , क्षरत, खरत , घुरत् , पुरत् , मुरत् , सुरत्, स्फरस्फलत् , किलत , इलत , हिलत, शिलसिलत् , तिलत् , चलत् , चिलत् , विलत् , णिलत् , मिलत् , स्पृशंत् , रुशंरिशंत् , विशंत् , मृशंत् , लिशं, कृषत् , इषत् , मिषत् , वृहौत् , तृहौ, तृन्हौ, स्तृहौ, स्तन्हौत् , कुटत् , गुंत , धुत् , णूत् , धूत् , कुचत् , व्यचत् , गुञ्जत् , घुटत् , चुट, छुट, त्रुटत् , तुटत् , मुटत् , स्फुटत् , पुटलुठत् , कृडत् , कुडत् , गुडत् , जुडत् , तुडत् , लुडथुडस्थुडत् , बुडत् , ब्रुड, भ्र डत् , द्रुडहुडत्रुडत् , वुरगत् , डिपत्, छुरत् , स्फुरत् , स्फुलत् , कुङ्, कड़त , गुरति, पृत , दृत् , धृत , ओविजैति, ओलजैङ, ओलस्जैति, ध्वजित् , जुति ; इति तितस्तुदादयः ।।८१॥
रुघां स्वराच्श्नो नलुक च ।। ३. ४. ८२ ।।
रुधादेर्गणस्य स्वरात्परः कर्तरि विहिते शिति श्नः प्रत्ययो भवति तत्संनियोगे च प्रकृतिनकारस्य लुगन्वाचीयते, प्रत्ययनकारस्य तु विधानसामान भवति । शकारः 'श्नास्त्योलक (४-२-६०) इत्यत्र विशेषणार्थः । रुणद्धि, रुन्धे भिनत्ति, भिन्ते, मनक्ति, हिनस्ति, हिंसन , रुध पी, रिचपी, विचपी, युजपो, भिदपी, छिदपो, क्षुद पी, ऊछ दपी, ऊतृदपी, पृचैप, वृचैप , तञ्च , तञ्जूप, भजोंप , भुजंप , प्रजाप , प्रोविजप् , कृतैप , उन्दैप, शिष्लप , पिष्टुप् , हिसुतृहप् , खिदिप विदिप , जि इन्धैपि इति पितो रुधादयः ।२।
कृगतनादेरुः ॥ ३. ४. ८३ ॥
कृगस्तनादेश्च गणात्कर्तरि विहिते शिति उः प्रत्ययो भवति । करोति, कुरुते, कुर्वन् , कुर्वाणः, तनोति, तनुते, तन्वन् , तन्वानः । तनूयी, षणूयो, क्षणक्षिणयो, ऋणयो तृणुयी घृणूयो, वनयि, मनयि, इति यितस्तनादयः ।।८३॥
न्या० स०-कृगतनादे-तनादावपठित्वा भ्वादिपाठोऽस्य करतीत्यत्र शवर्थः, येषां मते तनादौ पाठस्तन्मते 'तन्भ्यो वा तथासि' ४-३-६८ इति रूपद्वयं प्राप्येत शव च न सिध्येत् । स्वमते तु अकृत, अकृथा इति नित्यमेव 'धुट ह्रस्वात्' ४-३-७० इति लुक । अन्यैः कृग्तनादौ पठितस्तत्साहचर्यात् कृग् गृह्यते न तु कृग्ट् ।
सजः श्राद्ध जिक्यात्मने तथा ॥ ३. ४.८४॥
सजो धातोः श्रद्धावति कर्तरि जिक्यात्मनेपदानि भवन्ति तथा यथा विहितानि । अजि मालां धार्मिकः, सृज्यते मालां धार्मिकः, स्रक्ष्यते मालां धार्मिकः । श्राद्ध इति किम् ?
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पाद-४, सूत्र-८५-८६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
[७१
व्यत्यसृष्ट माले मिथुनम् , सृजति,-स्रक्ष्यति मालां मालिकः । तथेति वचनावद्यतन्यामात्मनेपदे ते जिच तलुक्च शिति च क्य इति सिद्धम् ॥४॥
न्या० स०-सृजः श्राद्धे-अत्र निक्यौ तथा विधीयेते । आत्मनेपदं तु मुख्यमेव विधीयते ।
तपेस्तपःकर्मकात् ॥ ३. ४. ८५ ॥
तपेर्धातोरर्थान्तरवृत्तित्वेन तपःकर्मकात् कर्तरि जिक्यात्मनेपदानि भवन्ति तथा । तप्यते तपः साधुः, तेपे तपांसि साधुः, तपिरत्र करोत्यर्थः, त्रिच तु 'तपः कत्रनुतापे च' (३-४-९१) इति प्रतिशोधान्न भवति, अन्वतप्त तपः साधुः। तपेरिति किम् ? कुरुते तपांसि साधुः । तप इति किम् ? उत्तपति सुवर्ण सुवर्णकारः । कर्मेति किम् ? तपांसि साधुतपन्ति, दुःखयन्तीत्यर्थः ।।५।।
न्या० स०- तपेस्तप-अर्थान्तरवृत्तित्वेनेति-करोत्यर्थेनेत्यर्थः । एकघातौ कर्मक्रिययेकाकर्मक्रिये ॥ ३. ४. ८६ ॥
एकस्मिन्धातौ कर्मस्थक्रियया पूर्वदृष्टया एका अभिन्ना संप्रत्यकमिका क्रिया यस्य तस्मिन्कर्तरि कर्मकर्तृरूपे धातोजिक्यात्मनेपदानि तथा भवन्ति । अकारि कटः स्वयमेव, करिष्यते कटः स्वयमेव, क्रियते कटः स्वयमेव, क्रियमाण: कट: स्वयमेव, चके कटः स्वयमेव, अमेदि कुशूल: स्वयमेव, भिद्यते कुशूलः स्वयमेव, बिभिवे कुशूलः स्वयमेव, प्रत्र करोति कटम् , भिनत्ति कशूलमित्यादौ यैव कटादिकर्मणां निर्वृत्तिद्विधाभवनादिका क्रिया सैव सौकर्यादविवक्षिते कर्तृव्यापारे स्वातन्त्र्यविवक्षायां तस्मिन्नेव धातावमिका च, एवं चाकर्मत्वाद्भावेऽप्यात्मनेपदं भवति । क्रियते कटेन, भिद्यते कुशूलेन । एकधाताविति किम् ? पचत्योदनं चैत्रः, सिध्यत्योदनः स्वयमेव । कर्मक्रिययेति किम् ? साध्वसिश्छिनत्ति, साधु स्थाली पचति इति करणाधिकरणक्रिययकक्रिये माभूत् । एकक्रिययेति किम् ? स्रवत्युदकं कुण्डिका, स्रवत्युदकं कुण्डिकायाः । अत्र विसजति, निष्कामतीति क्रियाभेदात् , गलन्त्युदकं वलीकानि, गलत्युदकं वलोकेभ्य इति । अत्रापि मुञ्चतीति, पततीति, क्रियाभेदात् नैकक्रियत्वम्।
अकर्मक्रिय इति किम् ? भिद्यमानः कुशूलः पात्राणि भिनत्ति । अन्योन्यमाश्लिष्यतः, हन्त्यात्मानमात्मा। एकस्य कर्मत्वं कर्तृत्वं च कथमिति चेत् ? उच्यते-सर्वमपि हि कर्म स्वव्यापारे स्वातन्त्र्यमनुभूय कर्तृव्यापारेण न्यक्कृतं सत् कर्मतामनुभवति । कर्तृव्यापाराविवक्षायां तु स्वव्यापारे स्वातन्त्र्यात् कर्तृत्वमस्याव्यावृत्तमेव । यदाहुः
निवृत्त्यादिषु तत्पूर्वमनुभूय स्वतन्त्रताम् । कञन्तराणां व्यापारे, कर्म संपद्यते ततः ॥१॥ निवृत्तप्रेषणं तत्स्वनियावयवे स्थितम् । निवर्तमाने कर्मत्वे स्वे कर्तृत्वेऽवतिष्ठते ॥२॥ इति ॥८६।।
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७२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-८७
न्या० स०-एकधातौ०-पूर्वदृष्टयेति-पूर्वस्मिन् काले दृष्टा तया सहार्थे तृतीया । अकारि कट: स्वयमेवेति-अकार्षीत् कटं देवदत्तः, स एवं विवक्षते-नाहमकार्षम् , अकारि कट: स्वयमेव, स्वयं शब्दस्तृतीयार्थे करणे कारके वर्त्तते । अभेदि कुशूलः स्वयमेवेतिअभैत्सीत् अभिदवा कुशूलं देवदत्तः द्विधा भवन्तं द्वधा अबीभवत्, स एवं विवक्षते नाहमभिदम अभैत्सं वा किंतु स्वयमेवाऽभेदि। सिध्यत्योदनः स्वयमेवेति-नन्वत्र यथा । स्तथा धातूभेदे क्रियाभेदोऽपि ? नैवं, एकाभिन्ना क्रियेत्येकधाताविति स्थिते द्रष्टव्यमिति न व्यङ्गवैकल्यम् ।
निष्कामतीति क्रियाभेदादिति विसर्गः विसर्जनमात्रं, निष्क्रमणं तु विसर्गानन्तरं गमन मिति विसर्जननिष्क्रमणयोर्भेदः, अत्र विसृजति उदकं कुण्डिका, सा एवं विवक्षते, नाहं विसृजामि किन्तु स्वयमेव निष्कामतीति विवक्षायां न भवति, यदा तु स्वयमेव विसृज्यते इति विवक्ष्यते तदा क्यादयो भवन्ति वा नवा ? उच्यते, शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् स्वयमेव विसृज्यत इत्यर्थो न प्रतीयते किन्तु निष्क्रामतीत्येव । भिद्यमानः कुशूल: पात्राणि भिनत्तीति-नन्वत्र द्व्यङ्गविकलत्वं व्यावृत्तेर्यतः प्रथमो देवदत्तकर्तृको द्वितीयस्तु कुशूलकर्तृक इतिसाधनभेदात् क्रियाभेदे धातुभेद: ? न, स्याद्वादादत्र धावुभेदो नाश्रीयते, अन्यथा सूत्रमिदं निरर्थकं स्यात् । यतोऽकारि कट: स्वयमेवेत्यत्रापि इत्थं धातुभेदसद्भावात् , तथाहि-प्रथमं देवदत्तकर्तृक: कृग, पश्चात् कटकर्तृक: । स्वातन्त्र्यमनुभयेतियतः कटं करोतीत्यादिषु स्वव्यापारे जननादिलक्षणे कटादि कर्म स्वातन्त्र्यमनुभवति स्वातन्त्र्याच्च कर्तृत्वम् । कञन्तराणां व्यापारे इति-स्वव्यापारे स्वातन्त्र्यात् कटादिकर्मणः कर्त रूपादऽन्यो वरुटादिः कर्ता कर्बन्तरं तस्य ।
निवृत्तप्रेषणमिति-निवृत्तकर्तृव्यापारमित्यर्थः । पचिदुहेः ।। ३. ४. ८७॥
पचिदुहिन्यामेकधातौ कर्मस्थक्रियया पूर्वदृष्टयाऽमिकया समिकया वा, एकक्रिये कर्तरि कर्मकर्तृरूपे जिक्यात्मनेपदानि भवन्ति अपवादविषयं मुक्त्वा ।
__ अपाच्योदनः स्वयमेव, पच्यते प्रोदनः स्वयमेव, पक्ष्यते ओदनः स्वयमेव, प्रदोहि गौः स्वयमेव, दुग्धे गौः स्वयमेव, अदुग्ध गौः स्वयमेव । उदुम्बरं फलं पचति वायुः, उदम्बरः फलं पच्यते स्वयमेव, अपक्तोदुम्बरः फलं स्वयमेव । गां दोग्धि पयो गोपालकः, दुग्धे गौः पयः स्वयमेव, अदुग्ध गौः पयः स्वयमेव, अधुक्षत गौः पयः स्वयमेव, दुहिपच्योः कर्मणि जिचः प्रतिषेधं वक्ष्यति । तथा अविशेोरण दुहेजिचो विकल्पं क्यस्य च प्रतिषेधं वक्ष्यति, अकर्मकस्येह पूर्वेणैव सिद्धे सकर्मकार्थं वचनम् ।।७।।
न्या० स०-पचिदुहेः-अमिकयेति-अकर्मकत्वे पूर्वेण सिद्धमऽप्यनुद्यते सूत्रारम्भात् , अनेन तु कर्मणि विधीयते तमुत्र कर्मणीत्युच्यताम् ? न, एवं कृते पचिदुह्योः * तक्रकौण्डिन्यन्यायेन * सत्येव कर्मणि स्यात् कर्मण्यऽसति पूर्वेणापि न स्यात् । उदुम्बरं फलं पचति वायुरिति-अयमन्तर्भूतण्यर्थो द्विकर्मकः, उदुम्बरात् फलं पाचयति वायुरित्यर्थः ।
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पाद-४, सूत्र-८८-९२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
[७३
प्रविशेषणेति-कर्मणि सत्यऽसति वेत्यर्थः, अविशेषेणेत्युक्तेऽपि कर्मणि 'न कर्मणा त्रिच्' ३-४-८८ इति नित्यं प्रतिषेधः अकर्मणि तु विकल्पः ।
न कर्मणा बिच ॥ ३. ४.८८ ॥
पचिदुहेः कर्मणा योगेऽनन्तरोक्ते कर्तरि जिच् न भवति । अपक्तोदुम्बरः फलं स्वयमेव, अदुग्ध गौः पयः स्वयमेव । कर्मणेति किम् ? अपाच्योदनः स्वयमेव, अदोहि गौः स्वयमेव । अनन्तरोक्ते कर्तरीत्येव,-प्रपाचि उदुम्बरः फलं वायुना, अदोहि गौः पयो गोपालकेन ।।८।।
रुषः ॥ ३. ४. ८१ ॥
रुधो धातोरनन्तरोक्ते कर्तरि जिच् न भवति । अरुद्ध गौः स्वयमेव, अनन्तरोक्ते कर्तरोत्येव,-अरोधि गोर्गोपालकेन ।॥८६॥
स्वर-दुहो वा ।। ३. ४.१०॥
स्वरान्ताद्धातोर्दुहेश्वानन्तरोक्ते कर्तरि त्रिच वा न भवति । अकृत अकारि कटः स्वयमेव, अलविष्ट अलावि केदारः स्वयमेव. अदुग्ध प्रदोहि गौः स्वयमेव । स्वरदुह इति किम् ? अभेदि कुशूल: स्वयमेव । अनन्तरोक्ते कर्तरीत्येव,-अकारि कटश्चेत्रेण, अदोहि गौर्बल्लवेन ॥१०॥
तपः कनुतापे च ॥ ३. ४. ११ ॥
तपेर्धातो: कर्मकर्तरि कर्तरि अनुतापे चार्थे जिच न भवति । अनुतापग्रहरणाद्भावे कर्मणि च । अन्ववातप्त कितवः स्वयमेव । कर्तरि,-प्रतप्त तपासि साधुः, अन्वतप्त चैत्रेण, अन्ववातप्त पापः पापेन कर्मणा । कत्रनुतापे चेति किम् ? प्रतापि पृथिवी राज्ञा ॥१॥
न्या० स०-तपत्र-नन्वनेन सामान्येन सानुतापेऽननुतापे च कर्तरि कर्मकर्तरि च भविष्यति किमनुतापग्रहणेनेत्याशङक्याह-अनुतापप्रहरणादिति । अन्वतप्त चैत्रेणेति-पश्चात्तपनं कृतमित्यर्थः, अग्रेतने तु पश्चात्तापं कारित इत्यर्थः ।
णि स्नु-यात्मनेपदाकर्मकात् ॥ ३. ४. १२ ॥
ण्यन्ताद्धातोः स्नुश्रिभ्यां चात्मनेपदविधावकर्मकेभ्यश्च कर्मकर्तरि निच न भवति । येभ्यः कर्मण्यसति आत्मनेपदं विधीयते, ते आत्मनेपदाकर्मकाः। णि-पचति ओदनं चैत्रः, तं मैत्रः प्रायुक्त, अपीपचत् ओदनं चैत्रेण मैत्रः। पुनरोदनस्य सुकरत्वेन कर्तृत्वे अपीपचतौदनः स्वयमेव । यदि वा स्वयमेव पच्यमानः ओदन: स्वं प्रायुक्त अपीपचतौदनः स्वयमेव, उभयत्र स्वयमेवापाचीत्येवार्थः।
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बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद- ४, सूत्र - ६३
श्रचचुरत् गां चैत्र, अचुचूरत गौः स्वयमेव । पुच्छमुत्क्षिपति उत्पुच्छयते गौः । अन्तर्भूतयर्थत्वात्सकर्मकत्वे उदपुपुच्छत गां देवदत्तः, उदपुपुच्छत गौः स्वयमेव । यद्वा उत्पुच्छा मकार्षीदिति णिचि उदपुपुच्छद्गां देवदत्तः, उदपुपुच्छतः गौः स्वयमेव । स्नुप्रास्तावीत् गां देवदत्तः, प्रास्नोष्ट गौः स्वयमेव । श्रि उदशिश्रियत् दण्डं दण्डी, उदशिश्रियत दण्डः स्वयमेव आत्मनेपदाकर्मक, व्यकार्षीत् संन्धवं चैत्रः, वल्गयति स्मेत्यर्थः ।
७४ ]
व्यकृत सैन्धवः स्वयमेव, विकरोतिर्वल्गनेऽन्तर्भू तण्यर्थः कर्मस्थक्रियः, व्यकार्षीत् कटं चैत्रः, व्यकृत कटः स्वयमेव, अवधीत् गां गोपः, आहत गौः स्वयमेव । व्यंताप्सीत् पृथिवीं रविः । व्यतप्त पृथ्वी स्वयमेव, त्रिनिषेधात् ञिट् भवत्येव । पाचिता, पाचिषीष्ट श्रोदनः स्वयमेव प्रास्नाविष्ट प्रस्नाविषीष्ट गौः स्वयमेव, उच्छ्रायिता उच्छ्रायिषीष्ट दण्ड: स्वयमेव । आघनिष्ट आघानिषीष्ट गौः स्वयमेव । पृथग्योगात् उत्तरेण ञिटः प्रतिषेधो न भवति ||२|
न्या० स० - णिस्नु० - प्रपीपचतौदनः स्वयमेवेति - अत्र प्रयोजकव्यापाराविवक्षायां ग्नि निवर्त्तते, ण्यन्तानां त्रिच्प्रतिषेधात् । स्वयं पच्यमान ओदनः स्वं प्रायुक्तेति ततोऽपीपचदोदनः स्वमात्मानमित्यर्थः । स ओदनः विवक्षते - नाहमात्मानमपीपचम्, नाहमात्मानं सिध्यन्तमसो सधं किं तर्हि ? स्वयमोदनोऽपीपचत असीसघत इत्यर्थ: प्रास्नोष्ट गौरितिअत्र पूर्वमेव नित्यत्वादन्तरङ्गत्वाच्च गुणः ।
श्रात्मनेपदाकर्मकेति येषामकर्मकाणामात्मनेपदं व्यवधाय तेषामित्यर्थः ।
भूषार्थ सन्- कियादिभ्यश्च विक्यौ । ३. ४. १३ ॥
भूषार्थेभ्य: सन्नन्तेभ्यः किरादिभ्यश्चकाराणिश्नुध्यात्मनेपदाकर्मकेभ्यश्च धातुभ्यः कर्मकर्तरि क्यो न भवतः । ञिरुत्सृष्टानुबन्धो ञिच्ञिटोर्ग्रहणार्थ: । भूषार्थ - श्रलमकार्षोत् कन्यां चैत्रः, अलमकृत कन्या स्वयमेव, एवमलंकरिष्यते प्रलंकुरुते कन्या स्वयमेव, पर्यस्कात्कन्यां चैत्रः, पर्यस्कृत परिष्करिष्यते परिष्कुरुते कन्या स्वयमेव, अबूभुषत् कन्यां छात्रः, प्रबूभुषत भूषयिष्यते भूषयते कन्या स्वयमेव, अममण्डत् कन्या छात्त्र: अममण्डत मण्डमण्ड कन्या स्वयमेव, भूषिमण्डयोर्ण्यन्तत्वेनैव निषेधे सिद्धे विप्रतिषेधार्थं भूषार्थदाहरणम् ।
सन्नन्त- अचिकीर्षीत् कटं चैत्रः । अचिकीर्षीष्ट, चिकीषिष्यते, चिकीर्षते कटः स्वयमेव, अबिभित्सात् कुशूलं चैत्रः, अबिभित्सिष्ट बिभित्तिष्यते बिभित्सते कुशूल: स्वयमेव, किरादि - अकारीत्पांसु करी, अकीष्ट कीर्षीष्ट किरते पांसुः स्वयमेव एवमवाकी श्रवकीर्षीष्ट अवकिरते पांसुः स्वयमेव, अगारीत् ग्रासं चैत्रः, अगोष्ट गीर्षीष्ट गिरते ग्रासः स्वयमेव, एवं न्यगोष्ट निगोर्षीष्ट निगिरते यासः स्वयमेव, दोग्धि गां पयो गोपः, दुग्धेः गौः स्वयमेव, दुग्धे गौः पयः स्वयमेव, कथमदोहि गौः स्वयमेव, दुहेजिज्विकल्प उक्तः । अवोचत्कथां चैत्रः । अवोचत ब्रूते कथा स्वयमेव । अश्रन्थीत् मालां मालिकः । अश्रन्थिष्ट श्रथ्नीते श्रन्थते माला स्वयमेव । अग्रन्थोत् ग्रन्थं विद्वान् । अग्रन्थिष्ट ग्रथ्नीते
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पाद - ४, सूत्र - ९४ ]
श्री सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासने तृतीयोऽध्यायः
[ ७५
ग्रन्थते ग्रन्थः स्वयमेव । श्रन्थिग्रन्थी क्रियादौ युजादौ वा श्रनंसीत् दण्डं द्रुण्डी, अनंस्त नमते दण्ड: स्वयमेव, परिणमति मृदं कुलालः, परिणमते मृत स्वयमेव, कृ, गृ, दुह, ब्रु, श्रन्य्, ग्रन्थ्, नम् इति किरादयः, बहुवचनं शिष्टप्रयोगानुसरणार्थम् ।
णिस्नुयात्मनेपदाकर्मकाणां त्रिच्प्रतिषेधः पूर्वसूत्रे उदाहृतः ञित्वेषां पृथग्योगाद्भवत्येवेति चोक्तम् । क्यनिषेध उदाह्रियते । व्यन्त- कारयते कटः स्वयमेव, चोरयते गौः स्वयमेव, उत्पुच्छ्यते गौः स्वयमेव, स्नु, प्रस्नुते गौः स्वयमेव श्रि, उच्छ्रयते दण्डः स्वयमेव, आत्मनेपदाकर्मकः - विकुर्वते सैन्धवाः स्वयमेव, आहते गौः स्वयमेव । अन्ये तु णिस्नुश्रयात्मनेपदाकर्मकेभ्यो ञटोऽपि प्रतिषेधमिच्छन्ति, तन्मते पाचयिता पाचयिष्यते श्रोदनः, प्रस्नोता प्रस्नोष्यते गौः, उच्छ्रयिता उच्छ्रयिष्यते दण्डः, आहन्ता आहनिष्यते गौः स्वयमेवेत्येव भवति । स्तुनमो: अन्तर्भू तण्यर्थत्वेन सकर्मकत्वाद्गवादेः कर्मकर्तृत्वम् ।
यत्र तु यर्थो नास्ति तत्र कर्तृनैव । यथा प्रस्नौति गौर्दोग्धुः कौशलेन, नमति पल्लवो वातेन । ननु कर्मस्थया क्रियया एकाकर्मक्रिये कर्तरि ञिक्यात्मनेपदानि भवन्ति अत्र तु ण्यन्तानां प्रयोजकव्यापारः सन्नन्तानां चेच्छाकर्तृ स्थैव क्रियेति, त्रिक्ययोः प्राप्तिरेव नास्ति किं प्रतिषेधेन ? उच्यते, प्रयोजकव्यापारस्येच्छायाश्च तदर्थत्वात् करणादिक्रियारूपस्य प्रकृत्यर्थस्य प्राधान्यम् तस्य च कर्मस्थत्वात् णिसन्नन्तानामपि कर्मस्थक्रियत्वम्, तथांबते कथेत्यत्र वचनं शब्दप्रकाशनफलत्वात् उपाध्यायेनोक्तः करोतीतिवत् प्रेरणार्थस्वात् वा कर्मस्थक्रियारूपम् । भूषाक्रियाणां च भूषाफलं शोभाख्यं कर्मणि दृश्यत इति कर्मस्थक्रियत्वम् एवमन्यत्रापि भावनीयम् ॥ ३ ॥
·
न्या० स०- - भूषार्थ :- जिट् प्रतिषेधार्थमिति - अन्यथा पृथग्योगात् ण्यन्तद्वारात् ञिट् प्रतिषेधो न स्यात्, किंतु पूर्वेण त्रिच एव । क्रियादों युजादौ चेति धातुपारायणे तु भ्वादिसत्कावपि स्नुनमोरिति ननु स्नुनमावकर्मको तत्कथमनयोः कर्मस्थक्रियत्वमित्याह- अन्तभू. तण्यर्थत्वेनेति । अत्र तु ण्यन्तानामिति - यथा कुर्वन्तं प्रयुङ्क्ते इति अत्र हि प्रयोजकक्रिया देवदत्तादौ स्थिता यतो देवदत्तः कटादि कुर्वन् चैत्रेण प्रयुक्तः स च कर्त्तव । सन्नन्तानां चेति- इच्छायाः प्राणिधर्मत्वात्, यश्च इच्छति स कर्त्तव । ब्रूते कथेत्यत्रेति ननु वचनक्रिया देवदत्ते कतरि स्थिता, न तु कथाकर्मणि तत्कथं कर्मस्थक्रियत्वमित्याह - शब्दप्रकाशनफलत्वादिति-अस्यां ये शब्दास्ते प्रकाशमाना वचनेन प्रकाश्यन्ते इति वचनं कर्मस्थक्रियारूपम् । प्रेरणार्थत्वाद्वेति-अयमर्थः प्रेरणार्थी वा अत्र ब्रू ग्, ततश्च ब्रूत इति कोऽर्थः ? शिष्येण बुध्यमानां बोधयतीत्यर्थः ।
करणक्रियया कचित् ॥ ३. ४. १४ ॥
एकधातौ पूर्वदृष्टया करणस्थया क्रियया एकाकर्मक्रिये कर्तरि ञिक्यात्मनेपदानि क्वचिद्भवन्ति । परिवारयन्ति कण्टकैः पुरुषा वृक्षम्, परिवारयन्ते कण्टका वृक्षं स्वयमेव, यवचिन्न भवति साध्वसिश्छिनत्ति ॥ ६४ ॥
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बृहद्वृत्ति लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-९४
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानु
शासनबृहद्वृत्तौ तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ।। प्रतापतपनः कोपि मौलराजेनवोऽभवत ।।
रिपुस्त्रीमुखपमानां न सेहे यः किल श्रियम् ॥ १ ॥ करणक्रियया-एकाकर्मक्रियेति-एतदधिकारायातत्वात् योजितं क्वचिद्ग्रहणात्तु सकर्मकत्वेऽपि भवति । परिवारयन्ति-क्वचिदित्युक्त्यापि न भवति ।
इत्याचार्य० तृतीयाध्यायः समाप्तः ।।३।।
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। चतुर्थोऽध्यायः प्रथमः पादः । द्विर्धातुः परोक्षाङे प्राक्तु स्वरे स्वरविधेः॥ ४. १. १.॥
परोक्षायां डेच प्रत्यये परे धाद्विर्भवति,-धातोरवस्थितस्य द्वितीयमुच्चारणं क्रियते इत्यर्थः । स्वरादौ तु द्विवचननिमित्त प्रत्यये स्वरस्य कार्यात प्रागेव द्वित्वं भवति । पपाच, पपाठ, इयाज, आर, अचकमत । धातुरिति किम् ? प्राशिश्रियत् । 'वेत्तेः कित्' (३-४-५१) इति वचनादामि परोक्षाकार्य न भवति । दयांचके, विदांचकार । परोक्षाङ इति किम् ? अदात् । प्रागिति किम् ? निनाय, निनयिथ, निन्यतुः, चक्रतुः, पपौ, पपतुः, जग्मतुः, अदधत् । एवमादिषु वृद्ध्यादेः स्वरविधेः पूर्वमेव द्वित्वं सिद्धं भवति । स्वर इति किम् ? दिदीर्वान् , शिशीर्वान् , जेघ्रीयते, देध्मीयते, जेगीयते। स्वरविधेरिति किम् ? श्वि, शुशाव। तितवनीयिषतीत्यत्र तु स्वरविद्विर्वचन निमित्तप्रत्ययाजन्यत्वान्न ततःप्राग द्वित्वम् । जग्ले, मम्ले इति अनिमित्तकमात्वम् । अधिजगे इति विषये प्रादेशः। प्राक्तु स्वरे स्वरविधेरिति आद्विवचनमधिकारः, अन्यथा हि आटिटत् इत्यादि न सिध्यति ॥१॥
न्या० स० द्विर्धातुः०-पपाचेति-अत्र पुनरपि द्विर्वचनं न भवति, द्विरिति वचनात् । निनायेति-'स्वरस्य परे' ७-४-११० इत्यनेनापि सिद्धम् ? नैवं, कालापेक्षायां स्थानित्वाऽभावः । शुशावेति-अत्र हि स्वरव्यञ्जनकार्य 'वा परोक्षायाङि' ४-१-९० इति स्वत् 'दीर्घमवोऽन्त्यम्' ४-१-१०३ । तितबनीयिषतीति-तुक वृत्तीत्यतोऽनडन्तात् क्यनि सनि 'अन्यस्य' ४-१-८ इति द्वित्वम् । स्वरविधेरिति-गुणरूपस्येत्यर्थः ।
पाटिटदित्यादि न सिध्यतीति-प्रागेव णेर्लोपे सति । आद्योंऽश एकस्वरः॥ ४. १. २. ॥
अनेकस्वरस्य धातोराद्य एकस्वरोऽवयवः परोक्षा प्रत्यये द्विर्भवति । जजागार, अचकाणत् । पूर्वेण सर्वस्य द्वित्वे प्राप्ते वचनम् ॥ २॥
न्या० स०-प्राद्योंश-अनेकस्वरस्येति-एकस्वरस्यैकस्वरेंऽशे द्विरुक्ते न किञ्चिदऽस्य फलं, यद्वा 'एकस्वर' ४-४-५७ इति संबन्धिशब्दः सामर्थ्यादऽनेकस्वरं धातुमाक्षिपति । एकत्सूत्रं विना अचकाणदित्ययं विनश्यति, तथा अजूघुणदित्यपि न तु जजागार इति ।
सन्यङश्च ॥ ४.१.३.॥
सन्नन्तस्य यङतस्य च धातोराद्य एकस्वरोऽवयवो द्विर्भवति । तितिक्षते, चिकीर्षति, पापच्यते, लोलूयते । षष्ठीनिर्देश उत्तरार्थः । चकारः पूर्वोक्तनिमित्तसमुच्चयार्थ उत्तरार्थ एव, तेनोत्तरत्र परोक्षाडे सन्नन्तयङन्तानां च यथासंभवं द्वित्वं सिद्धम् ॥३॥
न्या० स०-सन्यङश्च-षष्ठीनिर्देश इति-नन्वत्र सनि यङि च निमित्तभूते एकस्व
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७८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-४-७
रस्य द्वित्वं ततः कथं सप्तमी नादायि ? इत्याह-उत्तरार्थ इति, तेनोत्तरेण प्रतीषिषतीत्यादि सिद्धं, दशितोदाहरणाऽपेक्षया चेदमुक्तं यावता यङ लुपि बोभवतीत्यादिष्विहापि फलमस्ति। किञ्च चकार उत्तरार्थ एवेत्यत्रैवकारेण षष्ठीतिनिर्देशस्य इहार्थत्वमपि ज्ञायते ।
स्वरादेर्दितीयः ॥ ४. १. ४.॥
स्वरादेर्धातोद्विवचनभाजो द्वितीयांश एकस्वरो विर्भवति न त्वाद्यः । अटिटिषति, अशिशिषति, अटाटयते, अशाश्यते । प्राक्तु स्वरे स्वरविधेरित्येव,-आटिटत् , आशिशत प्रोणुनाव, प्रोणुनविषति, अरिरिषति, अरिरिषतीत्यत्र तु इट: कायित्वं न निमित्तत्वम् । ततो द्वित्वनिमित्तस्य स्वरादिप्रत्ययस्याभावात् प्राक् स्वरविधिरेव ॥४॥
न्या० स०-स्वरादे०-प्रोर्णनावेति-अत्र द्वित्वरूपे परे कार्ये णत्वशास्त्रस्याऽसत्त्वात् द्वित्वे कृते णत्व । अरिरिषतीति-ऋक् ऋप्रापणे ऋश् वा, अतुमऽरितुमरीतुं वा इच्छतीति सनि आद्याभ्यां 'ऋस्मिपूड' ४-४-४८ इति ऋशस्तु 'इवृध' ४-४-४७ इत्यनेनेट । अरिरीषतीत्येतत्तु ऋश एव, अन्यथा 'वृतोनवा' ४-४-३५ इति दी? न स्यात् ।।
इट: कारियत्वमिति-स्वरादित्वाद्धातोद्वितीयांशस्य इटरूपस्य द्वित्वे चिकीषिते इट: कायित्वमेवेत्यथः । स्वरविधेरेवेति-गुणरूप इत्यर्थः ।
न बदनं संयोगादिः॥ ४. १. ५ ॥
स्वरादेर्धातोद्वितीयस्यावयवस्यकस्वरस्य बकारदकारनकाराः संयोगस्यादयो न द्विर्भवन्ति । उजिजिषति, अट्टिटिषते, अड्डिडिषति, उन्दिदिषति, इन्द्रिद्रीयिषति, औजिजत् , आट्टिटव , आड्डिडत् , औन्दिदत् । बदनमिति किम् ? ईचिक्षिषते। संयोगादिरिति किम ? प्राणिणिषति ॥५॥
न्या० स०-न बदनं-संयोगादिरित्यस्य दः किर्भावे इति पुंस्त्वम् । अयि रः ॥ ४. १. ६॥
स्वरादेर्धातोद्वितीयस्यावयवस्यकस्वरस्य रेफः संयोगादिद्विनं भवति, 'अयि' रेफात्पर आनन्तर्येण यकारश्चेन्न भवति । अचिचिषति, प्रोणुनविषति, प्रोर्णोनयते, प्रोर्णनाव, प्रोर्णनवत , प्राचिचत् । अयोति किम् ? अरार्यते । अर्यमाख्यातवान् , आर्यत् । संयोगादिरित्येव,-अरिरिषति ॥६॥
न्या० स०-अयि र:-आनन्तर्येणेति-* सप्तम्या निद्दिष्टे पूर्वस्य * तच्चानन्तरस्यैवेति । आरर्यदिति-अत्र स्वरादेशोन्त्यस्वरलोपरूपो द्वित्वे कार्य स्थानी निमित्तापेक्षयापि प्रागविधिरिष्यते ।
नाम्नो द्वितीयाद्यथेष्टम् ॥ ४. १.७॥
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पाद-१, सूत्र-८-१३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः।
[७६
स्वरादेन म्नो धातोः द्विवचनमाजो द्वितीयादारभ्यैकस्वरोऽवयवो यथेष्टं द्विरुच्यते । अशिश्वीयिषति, अश्वीयियिषति, अश्वीयिषिषति ॥ ७ ॥
न्या० स०-नाम्नो द्वि०-'गम्ययप०' २-२-७४ इति पञ्चमी। यथेष्टमिति-यो य इष्टो 'योग्यतावीप्सा' ३-१-४० इत्यनेनाव्ययीभावः ।
अन्यस्य ॥ ४. १.८॥
स्वरादेरन्यस्य व्यञ्जनादेनम्निो धातोद्विवचन भाजो एकस्वरोऽवयवो यथेष्टं प्रथमो द्वितीयस्ततीयादिर्वाऽन्यतमो द्विरुच्यते । पुपुत्रीयिषति, पुतित्रीयिषति, पुत्रीयियिषति, पुत्रीयिषिषति । पुत्रीयन्तं प्रायुक्त अपुपुत्रीयत् , अपुतित्रीयत् , अपुत्रीयियत् ।। ८॥
न्या० स०-अन्यस्य-द्वितीयादित्यधिकारो नेष्ट इति प्रथमो द्वितीय इत्याद्युक्तम् । अपुत्रीयियदिति-अत्र 'अत:' ४-३.८२ इत्यनेन विषयेऽप्यकारलोपात् परनिमित्तत्वाभावे 'स्वरस्य परे' ७.०-११० इति स्थानित्वाभावात् यि इत्यस्य द्वित्वं, न तु य इत्यस्य, एवं आसूयिय दित्यादिष्वपि।
कण्ड्वादेस्तृतीयः ॥ ४. १. १ ॥
कण्ड्वादेर्धातोद्विवचनमाज एकस्वरस्तृतीय एवावयवो द्विर्भवति । कण्डूयियिषति, असूयियिषति आसूयियत् ॥ ९ ॥
पुनरेकेषाम् ॥ ४. १. १० ॥
एकेषामाचार्याणां मते द्वित्वे कृते पुनद्वित्वं भवति । सुसोषुपिषते, प्राणिणिनिषत , बुबोभूयिषते । एकेषामिति किम् ? सोषुपिषते, प्राणिणिषत , बोभूयिषते ।। १० ॥
न्या० स.-पुनरे० सुसोषुपिषते इति-भृशार्थे यङ 'स्वपेर्यङङ च' ४-४-८० इति वृद् द्वित्वं सोषुपितुमिच्छति सन् , 'अतः' ४-३-८२ इत्यनेन विषयेऽस्य लोपात् 'स्वरस्य परे'७-४-११० इति स्थानित्वाऽभावे यो लुक् सिद्धः । प्राणिणिनिषदिति-द्वित्वेऽप्यन्ते' २-३-८१ इत्यत्र द्वित्वे इति वचनात् द्वयोरेव णत्वं न तृतीयस्यापि ।
यिः सन्वेयः॥ ४. १. ११ ॥ ईयतेद्विवचनभाजो यिः सन् वा द्विर्भवति । ईष्यियिषति, ईष्यिषिषति ॥ ११ ॥ हवः शिति ।। ४. १. १२॥
जुहोत्यादयः शिति द्विर्भवन्ति । जुहोति, जुह्वत् । प्राक्तु स्वरे स्वरविधेरित्येव,जुहवानि ॥ १२ ॥
चराचर-चलाचल-पतापत-वदावद-घनाघन-पाटूपटं वा॥४.१.१३॥
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८०]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-१४-१७
एते शब्दा अचि कृतद्विवचना वा निपात्यन्ते । चरिचलिपतिवदिहन्तीनामजन्तानां द्वित्वं हन्तेहस्य घत्वं पूर्वस्य च दीर्घः । चरतीति चराचरः, चलाचलः, पतापतः, वदावदः, घनाघनः । पाटयतेरजन्तस्य द्वित्वम् ह्रस्वत्वं पूर्वस्य च ऊदन्तो निपात्यते-पाटयतीति पाटूपटः । पक्षे, चरः, चल:, पतः, वदः, हनः, पाटः । केचित्तु पटूपट इति निपातयन्ति ।।१३॥
न्या० स०-चराचरघनाघन इति-प्रथमस्य निपातनात् घत्वं द्वितीयस्य तु 'अङ हिहन' ४-१-३४ इति सिद्धमेव ।
चिक्लिद-चक्नसम् ॥ ४. १. १४॥
चिक्लिदचक्नसशब्दौ निपात्येते। क्लिद्यतेः के क्नस्यतेरचि उभयत्र घबर्थे वा के द्वित्वं निपात्यते । चिक्लिदः, चक्नसः । चक्रुः ययुः बभ्र : इत्यौणादिकाः ।। १४ ।।
न्या० स० चिक्लिद०-क्लिदौच क्लिद्यतीति 'नाम्युपान्त्य' ५-१-५४ इति क: क्नस्यतीत्यऽच् क्लेदनं क्लसनं वा स्थादित्वात्के । चक्रुः वैकुण्ठः कर्मठश्च, ययुः अश्वः यायावरः स्वर्गमार्गश्च, बभ्रुः ऋषि: नकुलः राजा वर्णश्च, 'हनिया' ७३३ ( उणादि ) इति त्रयोऽपि साधवः ।
दाश्वत् साहृत् मीढ्वत् ॥ ४. १. १५ ॥
एते शब्दाः क्वसुप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । दाग दाने इत्यस्य क्वसावद्वित्वमनिट्त्वं च निपात्पते । दाश्वान् , दाश्वांसो, दाशुषी । बहि मर्षणे इत्यस्य परस्मैपदमद्वित्वमुपान्त्यदीर्घत्वमनिटत्वं च निपात्यते । साह्वान् , 'मिह सेचने' इत्यस्याद्वित्वमनिटत्वमुपान्त्यदीर्घत्वं ढत्वं च निपात्यते, मीढ्वान् ।। १५ ।।
न्या० स०-दाश्वत्साह्वत्-'षहण मर्षणे' इत्यस्य न निपातनमिष्टिवशात् । ज्ञप्यापो ज्ञीपीप न च द्विः सि सनि ॥ ४. १. १६ ॥
ज्ञपेरापेश्च सकारादौ सनि परे यथासंख्यं जीपीप् इत्येतावादेशौ भवतो न चानयोरेकस्वरोंऽशो द्विर्भवति । प्रादेशे कृते द्वित्वं प्राप्नोतीति निषिध्यते । आवेशसंनियोगे च निषेधात् अन्यत्र द्वित्वं भवत्येव । जीप्सति, ईप्सति । सीति किम् ? जिज्ञपयिषति । 'इवृध'( ४-४-४७ ) इत्यादिना विकल्पेट् । सनीति किम् । आप्स्यति ॥१६॥
न्या० स०-ज्ञप्यापो०-आदेशे कृते इति-परत्वात् प्रथममेवेत्यर्थः । जीप्सतीति-ज्ञांश , जानन्तं प्रयुङ क्त णिग् , 'अत्तिरी' ४-२-२१ इति पोऽन्तः, 'मारणतोषण' ४-१-३० इति ह्रस्वत्वं, ज्ञपयितुमिच्छति 'तुमर्हात्' ३.४-२१ इति सन् । ईप्सतीति-आप्Mण लम्भने इत्यस्य णिजभावेऽपि नित्यमिटि सादिस्सन् नास्ति ।
ऋध ईत् ॥ १. १. १७॥
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पाद-१, सूत्र १०-२१ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[३१
ऋधः सकारादौ सनि परे ईत् इत्यादेशो भवति न चास्य द्विः । ईसति । सीत्येव ? अदिधिषति ।। १७ ।।
न्या० स०-ऋध ईत्-ईसंतीति-'इवृध' ४-४-४७ इति वेट् । दम्भो धिप धीप् ॥ ४. १. १८ ॥
दम्भेः सकारादौ सनि परे धिप् धीप् इत्येतावादेशौ भवतो न चास्य द्विः । धिप्सति, धीप्सति । सीत्येव,-दिदम्भिषति ।। १८॥
श्रव्याप्यस्य मुचेमोग्वा ।। ४. १. ११ ॥ __ मुचेरकर्मकस्य सकारादौ सनि परे मोक् इत्ययमादेशो वा भवति न चास्य द्विः । मोक्षति मुमुक्षति चैत्रः, मोक्षते मुमुक्षते वा वत्सः स्वयमेव । अव्याप्यस्येति किम् ? मुमुक्षति वत्सं चैत्रः ॥ १९॥
___ न्या० स०-अव्याप्यस्य-न विद्यते व्याप्यं यस्य, यदा नामनाम्नेत्याश्रयणादविद्यमानं व्याप्यं यस्य तदा मयुरव्यंसकादित्वात् मध्यपदलोप: । मोक्षते वत्स इति-वाक्यकाले मुमुक्षति वत्सं चैत्रः स एवं विवक्षते, नाऽहं मुमुक्षामि 'भूषार्थ' ३-४-९३ इति क्याऽभावः ।
मिमीमादामित्स्वरस्य ॥ ४. १. २०॥
मिमीमा इत्येतेषां वासंज्ञकानां च स्वरस्य सकारादौ सनि परे इदावेशो भवति, न चैषां द्विः । डुमिंगट-मित्सति, मित्सते शतम् , मीति मींच्मींगशोर्ग्रहणम्-मित्सते, प्रमित्सति, प्रमित्सते, शत्रून् , मेति मांकमांङ्कमेंडां ग्रहणम्-मित्सति, प्रमित्सते भूमिम् , अपमित्सते यवान् । मातेर्नेच्छन्त्येके-मिमासति । दासंज्ञ,-दाम ,-प्रदित्सति दानम् , देडदित्सते पुत्रम् , डुदांगक-दित्सति दित्सते वस्त्रम् , दोंच दित्सति दण्डम् , ट्वें वित्सति स्तनम् , डुधांगक धित्सतिधित्सते श्रुतम् । बहुवचनं व्याप्त्यर्ण, १ तेन 'निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धस्य' * इत्यादि नाश्रीयते । स्वरस्येति किम् ? सर्वस्य मामूत् ॥२०॥
न्या० स०-मिमीमादा०-'मिग्मीगोऽखलचलि' ४-२-८ इत्यात्वे माद्वारेणैव सिध्यति किं मिग्रहणेनेति ? सत्यं, 'नामिनोऽनिट' ४-३-३३ इति सनः कित्वादात्वं न प्राप्नोति । मीति मीचमींगशोरिति-मीण गताविति यौजादिकस्यापि ग्रहः, यतः मींडचमींगशावेव गतौ वर्तमानौ युजादी तेन * निरनुबन्धग्रहणे * इति यद्यऽयं न्यायः स्यात्तदा मांक माने इत्यस्य मतान्तरेण ककारानुस्वारयोरनित्यत्वात् निरनुबन्धग्रहणे सति मांडक् इत्येतस्य ग्रहणं न स्यात्, आदिशब्दात् एकानुबन्धग्रहणे न द्वयनुबन्धकस्य लक्षणप्रतिपदोक्तयोरित्यादयोऽपि नाश्रीयन्ते तेन डुमिंग्टमेंडोरपि ग्रहणम् ।
रम-लभ-शक-पत-पदामिः ॥ ४. १. २१ ॥ एषां स्वरस्य सकारादौ सनि परे इकार प्रादेशो भवति न चैषां द्विः । रभ,-आरि
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८२]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद-१, सूत्र-२२-२५
प्सते, लभ् लिप्सते, शक्-शिक्षति, पत् पित्सति, पद्-पित्सते। सीत्येव,-पिपतिषति । बहुवचनं शकीचशक्लुटोरुभयोरपि परिग्रहार्थम् ।। २१ ।।
न्या० स० रभलभ०-शिक्षतीति-शकीच शिक्षते इत्यपि । बहुवचनमिति-अन्यथा निरनुबन्धत्वाद्देवादिकस्यैव स्यात् ।
राधेवंधे ॥ ४. १. २२ ॥
राधेहिसायां वर्तमानस्य सकारादौ सनि परे स्वरस्येकारादेशो भवति, न चास्य द्विः । प्रतिरित्सति, अपरित्सति । वध इति किम् ? आरिरात्सति गुरून् ।। २२ ॥
अवित्परोक्षा-सेट्थवोरेः॥ ४. १. २३ ॥
राधेहिसायां वर्तमानस्य अविति परोक्षायां थवि च सेटि स्वरस्यकारो भवति, न चास्य द्विर्भवति । रेधतुः, रेधुः, रेधिथ, अपरेधतुः, अपरेधुः, अपरेधिथ, प्रतिरेधतुः, प्रतिरेधुः, प्रतिरेधिथ, परिरेधतुः, परिरेधुः, परिरेधिथ, अपरेधिव, अपरेधिम । अविदिति किम् ? अपरराध । परोक्षासेट्थवोरिति किम् ? अपराध्यते । वध इत्येव,-आरराधतुः । आरराधिथ ॥२३॥
अनादेशादेरेकव्यञ्जनमध्येऽतः ।। ४. १. २४ ॥
अविस्परोक्षासेट्थवोः परयोर्योऽनादेशादिर्धातुस्तत्संबन्धिन: स्वरस्यातोऽकाररूपस्यासहायव्यञ्जनयोर्मध्ये वर्तमानस्य स्थाने एकारादेशो भवति, न च धातुर्भिवति । पेचतुः, पेचुः, पेचिवान् , पेचुषी, पेचिव, पेचिम, पेचिथ, रेणतुः, रेणिथ । अविदित्येव ? प्रहं पपच । परोक्षायामित्येव,-पच्यते । सेट्थवीत्येव,-पपवथ । अनादेशादेरिति किम् ? बभणतुः, बमणिथ, चकणतुः, चकणिथ । एकव्यञ्जनमध्ये इति किम् ? ततक्षतुः, ततक्षिथ । अत इति किम् ? दिदिवतुः । दिदेविथ । अवित्परोक्षासेट्थवभ्यामादेशादित्वस्य विशेषणं किम् ? इहापि यथा स्यात् । णम्-नेमतुः, नेमुः, नेमिथ, सेहे, सेहाते सेहिरे, युजादौषहण सेहिथ । अत्र हि अनिमित्ते नत्वसत्वे न तु परोक्षाथनिमित्ते इति ।।२४।।
न्या० स०-अनादेशा०-एके च असहाये च ते व्यञ्जने च तयोर्मध्यं तस्मिन् । अहं पपचेति-अन्त्यणवो वा णित्वादऽकारसंभवे द्वयङ्गवैकल्याऽभाव इत्यन्तणवि दशितम् , ममथ्वानित्यत्रैकव्यञ्जनस्य लाक्षणिकत्वान्न भवति ।
त-त्रप-फल-भजाम् ॥ ४. १. २५॥
एषामवित्परोक्षासेट्थवोः स्वरस्यात एत्वं भवति, न चैते द्विर्भवन्ति । तेरतुः, तेरिथ, पे, पाते, त्रेपिरे, फेतुः, फेलिथ, भेजतुः, भेजिथ । प्रविदित्येव, अहं ततर, सेटोत्येव,-बमक्थ । अत इत्येव,-तितीर्वान् । तरतरतो गुणरूपत्वात अपेरनेकव्यञ्जनमध्यत्वात् फलमजोरादेशादित्वात् न प्राप्नोतीति वचनम् । बहुवचनं तु फलजिफला इत्युभयोरपि ग्रहरणार्थम् ॥२५।।
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पाद-१, सूत्र-२६-२९ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
न्या० स०-तुत्रप०-तेरतुरिति-प्राक्तु स्वरे ४-१-१ इति भणनात् पूर्ण द्वित्वे 'स्कृच्छतोकि' ४-३-८ इति गुणेऽस्य एत्वे न च द्विरिति वचनात् कृतमपि द्वित्वं निबर्तते, एवं जुधातोरपि ज्ञेयं, गुणरूपत्वात् 'न शस' ४-१-३० इति निषेधः स्यादित्याह-तरतेरित्यादि । बहुवचनमिति-अन्यथा निरनुबन्धग्रहण इत्यनेन त्रिफला इत्यस्य न स्यात् ।
ज-भ्रम-बम-त्रस-फण-स्यम-स्वन-राज-भ्राज-भ्रास-भ्लासो वा। ४.१.२६
एषामवित्परोक्षासेट्थवोः स्वरस्यात एत्वं वा भवति, न चैते द्विर्भवन्ति । जेरतुः, जजरतुः, जेरिथ, जजरिथ, भ्रमतु, बभ्रमतुः, भ्रमिथ, बभ्रमिथ, वेमतु, ववमतुः, वेमिथ, अवमिथ । 'उद्वेमुस्तत्र रुधिरं रथिनोऽन्योन्यवोक्षिताः' । वमर्नेच्छन्त्यन्ये वेसतुः, तत्रसतुः, सिथ, तत्रसिथ फेणतुः, पफणतुः, फेणिथ, पफणिथ, स्येमतुः, सस्यमतुः, स्येमिथ, सस्यमिथ, स्वेनतुः, सस्वनतुः, स्वेनिथ, सस्वनिथ, रेजतुः, रराजतुः, रेजिथ, रराजिथ, भेजे, बभ्राजे, भ्रसे, बभ्रासे, म्लेसे, बम्लासे । अविदित्येव.-अहं जजर ॥२६॥
न्या० स०-जभ्रमवम०-राजसहचरितभ्राजेरेव ग्रहणमिति पारायणे निर्णीतम् । श्रन्थ-ग्रन्थो न्लुक् च ॥ ४. १. २७॥
अनयोः स्वरस्यावित्परोक्षासेट्थवोरेकारादेशो वा भवति, तत्संनियोगे च नकारस्य लुक् ,-न चैतौ द्विर्भवतः । श्रेथतुः, शश्रन्थतुः, श्रेथिथ, शश्रन्थिथ, प्रेथतुः, जग्रन्थतुः, प्रेथिथ, जग्रन्थिथ । अविदित्येव,-शश्रन्थ, जग्रन्थ ।। २७ ।।
न्या० स०-श्रन्थग्रन्थ-श्रथुङ ग्रथुङड् इत्यनयोर्लाक्षणिकत्वान्न भवति, प्रकृतिप्रत्ययोर्वचनभेदान्न यथासंख्यम्' ।
दम्भः ॥ ४. १. २८॥ - दम्भेरवित्परोक्षायां स्वरस्य एकारादेशो भवति,-तत्संनियोगे नकारस्य लुक , न चायं द्विर्भवति । देमतुः, देभुः । प्रविदित्येव,-ददम्भ ॥२८॥
न्या० स० थेवा-वर्तमाना थप्रत्यये स्वादेः श्नुना व्यवधानात् प्राप्त्यभाव इति परोक्षाया एव थप्रत्यय ग्रहणम् ।
थे वा ॥ ४. १. २१ ॥
दम्भेः स्वरस्य थे परे एकारादेशो वा भवति, तत्संनियोगे च नकारस्य लुक , न चायं द्विर्भवति । देभिथ, ददम्मिथ ।।
__ अन्ये तु श्रन्थिग्रन्थिदम्भीनां नलोपे सति नित्यमेवमिच्छन्ति नलोपं त्वविति परोक्षायां नित्यमेव, तेन श्रेथतुः, ग्रंथतुः, देभतुः, नलोपाभावे तु शश्रन्थिथ, जग्रन्थिथ दवम्भिथेत्येव भवति । अन्यस्त्ववित्परोक्षासेटूथवोनित्यमेत्वमिच्छति नलोपं त्वविति परोक्षायामेव, तेन श्रेथतुः ग्रंथतुः वेभतुः नलोपाभावेऽपि श्रेन्थिथ, प्रेन्थिथ, देम्भिवेत्येवेच्छति ।२९।
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८४
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-३०-३४
न शस-दद-वादि-गुणिनः॥ ४. १. ३० ॥
शसिदद्योर्वकारादीनां गुणिनां च धातूनां स्वरस्यत्वं न भवति । विशशसतुः, विशशसिथ, दददे, दददाते, दददिरे, ववले, ववलाते, ववलिरे, ववणतुः, ववणिथ, विशशरतुः, विशशरिथ, बिभयिथ, लुलविथ ॥३०॥
हो दः॥ ४. १. ३१ ॥
दासंज्ञकस्य धातोही परेऽन्तस्यैकारादेशो भवति, न चायं द्विः । देहि, धेहि । न च द्विरिति वचनात्कृतमपि द्वित्वं निवर्तते, तेन यङ्लुप्यपि देहीति भवति । हाविति व्यक्तिनिर्देशादिह न भवति,-दत्तात् , धत्तात् ॥३१॥
न्या० स०-हौदः-यङ्लुप्यपीति-प्रत्यासत्तेायात् यस्मिन्नेव प्रत्यये द्वित्वमेत्वं च प्राप्त तस्मिन्नेव प्रत्यये, न च द्विरिति प्रवर्तते, अत्र च यङ निमित्तकं द्वित्वं कथं निवय॑ते ? उच्यते व्यक्त्या प्रवृत्तेः ।
देर्दिगिः परोक्षायाम् ।। ४. १. ३२ ॥
देङः परोक्षायां दिगिरित्ययमादेशो भवति, न चायं द्विः । दिग्ये, दिग्याते, दिग्यिरे, अवदिग्ये, अवदिग्याले, अवदिग्यिरे ।। ३२ ॥
डे पिब पीप्य ॥ ४. १. ३३ ॥
ण्यन्तस्य पिबतेर्डे परे पीप्य इत्ययमादेशो भवति न चायं द्विः। अपीप्यत , अपीप्यताम् , अपोप्यन् । पिबतिनिर्देशात्पातेन भवति,- अपीपलत् । लुप्ततिवनिर्देशाद्यङ्लुप्यपि न भवति, अपापयत् । ऊ इति किम् ? पाययति ।। ३३ ॥
न्या० स०- पिबः-लुप्ततित्निईशादिति-यतः सूत्रे पिबत्येकदेशः पिबऽनुचक्रे । श्रङे हिहनो हो घः पूर्वात् ।। ४. १. ३४ ॥
हिहन इत्येतयोर्धात्वोर्डवजिते प्रत्यये परे द्वित्वे सति पूर्वस्मात् परस्य हस्य घो भवति । प्रजिघाय, प्रजिघीपति, प्रजेघीयते। प्रजेघेति । हन ,-जिघांसति, जंघन्यते, जड़नीति । अङ इति किम् ? प्राजोहयत् । अङे द्विवचननिमित्तप्रत्ययेऽनन्तरस्य विज्ञानादिह न भवति, हननीयितुमिच्छति-जिहननीयिषति । उपर्यु दासात्तु रिणव्यवधाने भवति,प्रजिघायियिषति । पूर्वादिति वचनान्न च द्विरिति निवृत्तम् ॥३४॥
न्या० स०- अहिहनो-जंघन्यते इति-कुटिलं हन्ति 'गत्यर्थात्' ३-४-११ इति यङ, यदि हिंसार्थस्तदा 'हनो नोवंधे' ४-३-९९ इति स्यात् । प्रजिघाययिषतीति-प्रहिण्वन्तं प्रयुक्त णिग् वृद्धिः, प्रहाययितुमिच्छति सन् ।
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पाद- १, सूत्र -३५-३९ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
जेर्गिः सन्परोक्षयोः ॥ ४. १. ३५ ॥
जयतेः सन्परोक्षयोद्वित्वे सति पूर्वस्मात्परस्य गिरादेशो भवति । जिगीषति, विजिगीषते, जिगाय, विजिग्ये । सन्परोक्षयोरिति किम् ? जेजीयते । जिनातेजिरूपस्य लाक्षणिकत्वाज्जिज्यतुः ||३५||
[ ८५
न्या० स० - जेगि: सन् - पूर्वस्मादिति यदि पूर्वादित्यधिकारो न स्यात्तदा द्वित्वसहितस्यापि धातोरादेशः स्यात्, यद्वा पूर्वस्या भक्त ेः स्यात् न च वाच्यं कृतेऽपि 'गहोर्ज : ' ४-१-४० इति स्याद्विधानसामर्थ्यान्न भवतीत्याशङ्का स्यात् एवमुत्तरत्रापि ।
2
चेः किव ॥ ४. १. ३६॥
चिनोतेः सन्परोक्षयोद्वित्वे सति पूर्वस्मात्परस्य किरादेशो वा भवति । चिकीषति, चिचीषति, चिकाय, चिचाय, चिषये, चिच्ये । सम्परोक्षयोरित्येव - चेचीयते ।। ३६॥
न्या० स० चे किर्वा चिकीषतीति- 'स्वरहन्' ४-१-१०४ इति दीर्घत्वे द्वित्वे करूपादेशे पुनः 'स्व रहन्' ४-१-१०४ इति दीर्घत्वं यावत्संभव इति न्यायात् ।
पूर्वस्यास्वे स्वयोरिव ॥ ४. १. ३७ ॥
धातोद्वित्वे सति यः पूर्वस्तस्य संबन्धिनो योरिकारस्योकारस्य चात्वे स्वरे परे आसन्नौ इय् उव् इत्येतावादेशौ भवतः । इयेष, उवोष, इर्यात, इयृयात् । अर्तेर्यङ्लुपि द्वित्वे पूर्वस्याकारे 'रिरौ च लुपि' (४-१-५६ ) इत्यनेन रिरीहत्यागमे तदिवर्णस्य चेयुभावे सति अरियत, अरियरीति, एके त्वत्रेयं नेच्छन्ति, प्रर्यंत अर्यरीतीति । तन्मतसंग्रहार्थं पूर्वस्येति समानाधिकरणं विशेषणं तेन इकारोकारमात्रस्यैव पूर्वस्येयुवौ भवतः । अस्व इति किम् ? ईषतु:, ऊषतुः । स्वर इति किम् ? पिपक्षति, पुपूषति, इयाज, उवाप ॥ ३७ ॥
न्या० स०10- पूर्वस्यास्वे- इयेषेति - अस्वे स्वरे इति भणनात् गुणे कृते इयादेशः, नन्वियादेशेऽपि विधेये 'स्वरस्य परे' ७-४- ११० इत्यनेन गुणस्य स्थानिवद्भावादियुवौ न प्राप्नुतः ? सत्यं परे इति सप्तमी सप्तम्या च निद्दिष्टे पूर्वस्यानन्तरस्यैव, अत्र तु पकारेण व्यवधानमिति न. स्थानित्वं, अस्वे इति नत्रा निद्दिष्टमनित्यमिति वा, यद्वा स्वे स्वर इति व्याप्तेः । ननु तथापि न प्राप्नोति असिद्धं बहिरङ्गम् इति न्यायेन गुणस्यासिद्धत्वात् ? न, न स्वरानन्तर्य इति न्यायादयं न्यायो नोपतिष्ठते ।
योः समानाधिकरणमिति-योः किंविशिष्टस्य पूर्वस्य न तु पूर्वसंबन्धिनः, यदि इकार-ईकार-उकाराः स्वातन्त्र्येण पूर्वे भवेयुरत्र तु रिरीत्यादेरधिकस्य संबन्धिनः ।
ऋतोऽत् ॥ ४. १. ३८ ॥
धातोद्वित्वे सति पूर्वस्य ऋतोऽद्भवति । चकार, ववृधे ||३८||
ह्रस्वः ।। ४. १. ३१ ॥
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बृहद्वृत्ति - लघुन्यास संवलिते [ पाद- १, सूत्र - ४०-४४
धातोद्वित्वे सति पूर्वस्य स्वरान्तस्य ह्रस्वो भवति । पपौ, निनाय लुलाव, चकार, सिसेके, लुलोके, तुत्रौके ||३६||
८६ ]
गोर्जः ॥ ४. १. ४० ॥
धातोद्वित्वे सति पूर्वयोर्गका रहकारयोर्जकारो भवति । जगाम, जघास, ह, जहौ, जिहीर्षति, जुहोति, जहाति ॥ ४० ॥
द्युतेरिः ॥
४. १.४१ ॥
वे सति पूर्वस्यत इर्भवति । दिद्युते, श्रविद्युतत् देद्युत्यते, विविद्युतिषते विदिद्योतिषते ॥। ४१॥
3
न्या० स०-- - द्युतेरि:- विदिद्युतिषते - इत्यत्र 'वौ व्यञ्जनादेः' ४-३ - २५ इति सनो वा कित्त्वम् ।
द्वितीयतुर्ययोः पूर्वौ ।। ४. १. ४२ ॥
धातोद्वित्वे सति पूर्वस्य द्वितीयतुर्थयोः स्थाने यथासंख्यं पूर्वावाद्यतृतीयावासन्नौ भवतः । चखान, चिच्छेद, टिठकारयिषति, तस्थौ, पफाल, जुघोष, जझाम, डुढौके, दधौ, बभार । द्वितीयतुर्ययोरिति किम् ? पपाच ॥४२॥
न्या० स०-०-- द्वितीय०- पपाचेति-अत्र सामीप्यात् पूर्वी नकारः स्यात् ।
तिर्वा ष्ठवः ॥ ४. १. ४३ ॥
ठिद्वित्वे सति पूर्वस्य द्वितीयस्य तिरादेशो वा भवति । तिष्ठेव, टिष्ठेव, तेष्ठीव्यते, टेष्ठीव्यते । तेfरकारोत्रोच्चारणार्थ: तेन 'इवृध' - ( ४-४-४७ ) इत्यादिना वेटि तुष्ठतिष्ठति । पूर्वस्येत्या देश विधानमेव ज्ञापयति ष्ठिवेः षकारः ठकारपरः ष्ठाष्टचप्रभृतीनां तु तवर्गपरः तेन तस्थौ तष्टयौ इत्यादि भवति । केचित्तु 'स्वरेभ्यः' (१-३-३०) इति द्विरुक्तस्य छकारस्य द्वित्वे सति पूर्वस्य त्यादेशमिच्छन्ति । तन्मते उच्छेत् उतिच्छिषति, ऋच्छत् ऋतिच्छिषतीति ॥४३॥
न्या स०-
-- तिर्वा ष्ठिव:-ष्ठिवो भ्वादेदिवादेश्च ग्रहः, ठकारपर इति यद्यत्र षकारः थकारपरः स्यात् तदाऽनेन तविधानं न कुर्यात् यत: 'अघोषे शिट : ' ४ - १ - ४५ इति षलोपे * निमित्ताभावे इति न्यायेन ठस्य थे 'द्वितीयतुर्ययोः ४-१-४२ इति थकारस्य च ते तकार: सिद्ध एव, पक्षे टकारविधानार्थं तु टिर्वा ष्ठिव इति सूत्रं कुर्यादित्यर्थः । तष्ट्या - विति - अत्र 'अघोषे शिट : ' ४-१-४५ इति षलुपि निमित्ताभाव इति टस्य तकारः ।
व्यञ्जनस्थानादेलुक् ॥ ४. १. ४४ ॥
धातोद्वित्वे सति पूर्वस्यव्यञ्जनस्थानावेलु ग् भवति । जग्ले, मम्ले, पपाच, प्राटतु:,
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पाद-१, सूत्र-४५-४८ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[८७
ऋच्छव ऋचिच्छिषति, उच्छेत् उचिच्छिषति, अटाठ्यते । व्यञ्जनस्येति किम् ? स्वरस्य मा भूत् । अनादेरिति किम् ? आदेर्माभूत् - पपाच ॥४४॥
_न्या० स०-व्यञ्जनस्या०-ऋतिच्छिषतीति-अनेनाधस्तनच्छस्य लुकि निमित्ताभाव इति ऊर्ध्वस्थचस्य छः ततो 'द्वितीयतुर्ययोः' ४-१-४२ इत्यनेन छस्य चः ।
अघोषे शिटः ।। ४. १. ४५ ॥
धातोद्विरुके सति पूर्वस्य शिटस्तत्संबन्धिन्येवाघोषे परे लुग भवति, अनादिलुगपवादोऽयम् । चश्चोत, टिष्टेव, चस्कन्द । प्रघोषे इति किम् ? सस्नो । शिट इति किम् ? पप्सौ ॥४५॥
न्या० स०-प्रघोषे शिटः-तत्संबन्धिन्येवेति-अत्र तत्संबन्धिव्याख्याऽभावे सिद्ध सत्यारम्भ इति न्यायात् नियमार्थमेतदित्याशङ्का स्यात् , अघोष एव शिट: ततश्चनीकस्यते इत्यादिष्वेव स्यात् , न तु लालस्ये इत्यादिषु परत्राऽघोषाभावात् । चक्रम्यते इत्यत्र तु अनुस्वारस्य शिट्त्वेऽपि एवकारान्न लुक् , अत्र हि ह्यानन्तर्येण संबन्धमात्रं न तत्संबन्ध्येव म्वागमस्य पूर्वभक्तत्वात् ।
कङश्च ।। ४. १. ४६ ॥
धातोद्वित्वे सति पूर्वयोः ककारङकारयोर्यथासंख्यं चकारत्रकारौ भवतः । चकार, चखान, अङवे, जिङकारोयिषति ॥४६॥
न कवतेर्यङः ॥ ४. १. ४७ ॥
यङन्तस्य कवतेद्वित्वे सति पूर्वस्य कस्य चो न भवति । कोकूयते खरः, शनिर्देश: कौतिकुवत्योनिवृत्त्यर्थः । चोकयते, कवतिरव्यक्ते शब्दे, कुवतिरार्तस्वरे, कोतिः शब्दमात्रे, एषां पाठे शब्दमात्रार्थत्वेऽपि गत्यर्थत्वाविशेषे धावतिगच्छत्यादीनामिवार्थभेदः । यङ्लुपि च निषेधो न भवति । चोकवीति, अन्ये तु यङ्लुप्यपि प्रतिषेधयन्ति, कोकवीति । यङ इति किम् ? चुकुवे ।।४७॥
न्या० स०-न कवते-प्रतिषेधयन्तीति-प्रतिषेधं व्याचक्षते 'णिज्बहुलम्' ३-४-४२ । आगुणावन्यादेः॥४. १.४८॥
धातोर्यडन्तस्य द्विस्वे सति पूर्वस्यान्यावे मुरीरिरन्तवजितस्याकारो गुणश्चासत्रौ भवतः । पापच्यते, अटाटयते, चेचीयते, लोलयते, हांक-जेहीयते, पापचीति, बेभिदीति, लोलवीति । नैतावाकारगुणौ यनिमित्ताविति यङ्लुप्यपि भवतः । अन्यादेरिति किम् ? धनीवच्यते, यंयम्यते, नरीनृत्यते, नरिनति, नत्ति । ननु चात्र अपवादत्वान्यादय एव बाधका भविष्यन्ति किं न्यादिवर्जनेन ? सत्यम् , द्वित्वे सति पूर्वस्य विकारेषु बाधको न बाधक इति ज्ञापनार्थम् , तेन प्रचीकरदित्यत्र 'लघोर्दीर्घोऽस्वरादेः' (४-१-६४) इति सन्वत्कार्य न बाध्यते ॥४८॥
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८८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-४९-५२
न्या० स०-आगुणा०-न भविष्यन्ति न्यादयो यस्य असावऽन्यादि: तस्य ।
अपवादत्वान्यादय एवेति-न्यादीनां तु संबन्धिनोऽन्तस्य विधानसामर्थ्यान्न प्राप्तिः, अत पूर्वस्यैव प्राप्नुत आगुणौ । सन्वत्कार्यमिति-सन्वत्कार्यबाधे त्वऽचाकरदित्यनिष्टं स्यात् ।
न हाको लुपि ॥ ४. १. ४१ ॥
ओहांक त्यागे इत्यस्य द्वित्वे सति पूर्वस्य यडो लुप्याकारो न भवति । जहाति, जहेति । लुपीति किम् ? जेहीयते ॥४६॥
वञ्च-सन्स-ध्वन्स-भ्रंश-कस-पत-पद-स्कन्दोऽन्तो नीः॥ ४.१.५० ।।
एषां यङन्तानां द्वित्वे सति पूर्वस्य नीरन्तोऽवयवो भवति । वनीवच्यते, वनीवचीति, सनीस्रस्यते, सनीस्र सीति, दनीध्वस्यते, दनीध्वंसीति, बनीभ्रश्यते, बनीभ्रशीति, चनीकस्यते, चनोकसोति, पनीपत्यते, पनीपतीति, पनीपद्यते, पनीपदीति, चनीस्कद्यते, चनीस्कन्दीति । दोघंविधानाध्रस्वो न भवति ॥५०॥
न्या० स०-वञ्चस्रस०-द्यतादिध्वंससाहचर्यात् स्रसूङ, इत्यस्यैव द्यतादिनसो ग्रहः, स्रसूङ प्रमादे इत्यस्य तु सास्रस्यत इति भवति । भ्रंशिरपि भ्रंशूङिति भ्वादिरेव गृह्यते भ्वादिध्वंस् साहचर्यात् । भृशुच् भ्रंशुच् इत्यस्य तु बाभ्रश्यत इत्येव ।
मुरतोऽनुनासिकस्य ।। ४. १. ५१ ॥
अकारात्परो योऽनुनासिकस्तदन्तस्य धातोर्यङन्तस्य द्वित्वे सति पूर्वस्य मुरन्तो भवति । बम्भण्यते, बम्भणीति, तन्तन्यते, तन्तनीति, जङ्गम्यते, जगमोति । यलवानामनुनासिकत्वे तन्तय्यते, तन्तयें, चंचल्यते, चञ्चल, ममते, मम । अननुनासिकत्वे, तातय्यते, तातयः, चाचल्यते, चाचलः, मामव्यते, मामवः । प्रत इति किम् ? तेतिम्यते, जोधुण्यते, बाभाम्यते । अनुनासिकस्येति किम् ? पापच्यते ॥५१॥
न्या० स०-मुरतो०-बामाम्यते इति-भामि क्रोधे इत्यस्य रूपम् , ये त्वनुनासिकान्तस्य धातोद्वित्वे सति पूर्वस्याऽत इति विशेषणं मन्यन्ते तन्मते बंभाम्यत इति तन्मतसंग्रहायाऽत इति षष्ठी व्याख्येया।
जप-जभ-दह-दश-भञ्ज-पशः॥ ४.१.५२ ॥
एषां गङन्तानां द्वित्वे सति पूर्वस्य मुरन्तो भवति । जंजप्यते, जंजपीति, जंजभ्यते, जंजभीति, दवाते, दंदहीति, दंवश्यते, दंदशीति, बम्भज्यते, बम्मजीति, पशिति सौत्रो पातः, पंपश्यते, पंपशीति । दशिति लुप्तनकारनिर्देशात् यङो लुप्यपि दंशेर्नलोपो भवति । अन्यस्तु नलोपं नेच्छति तेन दंदंशोति ॥५२॥
न्या० स०- जपजभ०-पस इति दन्त्यान्तं न्यासकारादयो मेनिरे, भोजस्तु तालव्या
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पाद - १, सूत्र - ५३-५६ ]
श्री सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ ८९
न्तम् । जंजभीति - आगमशासनमनित्यमिति 'जभः स्वरे' ४-४-१०० इति नागमाभावः । लुप्तनकारेति - 'गुलुप' ३ - ४ - १२ इत्यत्रापि ज्ञापितं परं द्विर्बद्धं सुबद्धं भवति इत्यत्रापि ज्ञापितम् ।
चरफलाम् ॥ ४. १. ५३॥
चरफलत्रिफला इत्येषां यङन्तानां द्वित्वे सति पूर्वस्य मुरन्तो भवति । चंचूर्यते, चञ्चुरीति, पम्फुल्यते, पम्फुलीति । बहुवचनं त्रिफला विशरणे इत्यस्यापि परिग्रहार्थम् ॥५३॥
ति चोपान्त्यातोऽनोदुः ॥ ४, १. ५४ ॥
यङन्तानां चरफलां तकारादौ च प्रत्यये उपान्त्यस्यात उरादेशो भवति 'स चानोत्' तस्य गुणो न भवति । चंचूर्यते, चंचुरीति, पंफुल्यते, पंफुलीति, चूतिः, ब्रह्मचूणिः, प्रफुल्लिः, प्रफुल्लः, प्रफुल्लवान् । श्रत इति किम् ? चारयतेः फालयतेश्व क्विप् तत आचारे क्विप्, ततो यङ् चचार्यते पंफाल्यते । अत्रैकदेशविकृतस्यानन्यत्वात्प्राप्नोति । श्रनोदिति किम् ? चंचूति, पंफुल्ति अत्र गुणो न भवति ।। ५४ ।।
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न्या० स० - तिचोपान्त्या०- यङन्तानामिति द्वित्वे सति ज्ञातव्यं न पूर्वस्य उपान्त्याऽकारस्य ग्रहणात् । चञ्चूर्यते इति द्वित्वे सतीत्यधिकारान्न पूर्वमुत्वम् । चूतिरित्यत्र तु द्वित्वाऽसंभवात् द्वित्वाऽभावेऽपीति दृश्यम् । चूतिरिति चरणं 'समज' ५-१-९९ इति समावेशार्थत्वात् 'श्रवादिभ्यः' ५ १-९२ क्तिः । प्रफुल्ल इति - त्रिफलेत्यस्य यदा फलति स्मेति वाक्ये क्तस्तदा 'आदित: ' ४-४-७१ इति नित्यमिडऽभावः, फलितुमारब्ध इति आरम्भे क्ते तु 'नवा भावारम्भे' ४-४-७२ इति वेट् फलनिष्पत्तावित्यस्य तु नित्यमिट् । चञ्चार्यत इति चरन्तं प्रयुङ्क्ते णिग् वृद्धिः चारयतीति क्विप् 'णेरनिटि' ४-३-८३ चारिवाचरति 'कर्ता' : क्विप्' ३-४-२५ गर्हितं चारति एवं पंफाल्यते इति ।
"
ऋमतां रीः ॥ ४, १. ५५ ॥
ऋकारवतां धातूनां यङन्तानां द्वित्वे सति पूर्वस्य रीरन्तो भवति । नृतैच्-नरी - नृत्यते, दृशू - दरीदृश्यते, वृतङ् वरीवृत्यते, वृधूङ वरीवृध्यते, कृपौङ्-चलीक्कृप्यते, धज् दधृज्यते, प्रच्छंद - परीपृच्छ्यते, ओव्रश्चात् वरीवृश्च्यते, ग्रहीश्- जरीगृह्यते, प्रच्छिवश्विग्रहीणामृकारे कृते ऋमत्त्वम् । ऋमतामिति किम् ? चेक्रीयते, जेह्रीयते । कृगहुगो रीभावे कृते द्वित्वमिति ऋमत्त्वं नास्ति, बहुवचननिर्देशो लाक्षणिकपरिग्रहार्थः ।। ५५।।
न्या० सः ऋमतां-चलोक्लृप्यते द्वित्वात् प्रागेव 'ऋर लृलम्' २-३-९९ इत्यस्य प्रवृत्तौ ततो द्वित्वे ऋकारोपदिष्टम् इति न्यायेन लृकारस्याप्यात् । दरीबृज्यते इतिइकारोपान्त्यमिति केचित्तन्मते भृशं धिजति देध्रिज्यते इति । चेक्रीयते इति - 'ऋतो री: ' ४-३-१०९ ततो द्वित्वम् ।
रिरौ च लुपि ।। ४. १, ५६ ॥
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बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-५७-६०
ऋमतां धातूनां यङो लुपि द्वित्वे सति पूर्वस्य रिरौरी चान्तो भवति । कृ-चरिकति, चर्कति, चरीकति, ह-जरिहति, जर्हति, जरीहति, नरिन्तीति. नरिनति, नतीति, नति, नरीनृतीति, नरीनति, वरिवृश्चीति, वरिवृष्टि, ववृश्चीति, वर्वृष्टि, वरीवृश्चीति, वरीवृष्टि, चलिक्लुपीति, चलिकल्प्ति, चल्क्लुपीति, चल्कल्प्ति, चलीक्लपीति, चलीकल्प्ति । लुपीति किम् ? नरीनृत्यते । ऋमतामित्येव,-कृ-चाकरीति, चाकति, चाकीर्तः, चाकिरति, गृ,-जागल्ति, तृ-तातति ॥५६॥
न्या० स०-रिरौ च०-वरीवृष्टीति-'संयोगस्यादौ २-१-८८ इति शलोपे 'यजसृज' २-१-८७ इति चस्य षः, परे गुणे विधेये शलोपश्चाऽसन् इति गुणाभावः । जागल्तीतिअयवृल्लेनदित्युक्तेर्यङ्लुप्यपि 'ग्रो यङि' २-३-१०१ इति लत्वम् ।
निजां शित्येत् ॥ ४. १,५७ ॥
निजिविजिविषां त्रयाणां शिति द्वित्वे सति पूर्वस्यैकारादेशो भवति । नेनेक्ति, नेनिक्ते, नेनिज्यात , नेनेक्तु, अनेनेक् , वेवेक्ति, वेविक्ते, देवेष्टि, वेविष्टे । शितीति किम् ? निनेज, निनिक्षति, अनोनिजत् । निजामिति बहुवचनेन निजिविजिविषस्त्रय एवादादिपर्यन्तपठिता गृह्यन्ते ॥५७।।
प-भृ-माहा-ङामिः ॥ ४. १, ५८ ॥
पृऋभृ मा हाङ् इत्येतेषां शिति द्वित्वे सति पूर्वस्येकारो भवति । पिपति, पिपृयात, इति, इत्र्याव , बिभति, बिभृयात , मिमीते, प्रमिमीत, जिहीते, अजिहीत । केचित्तु पृ पालनपूरणयोरिति जुहोत्यादौ दीर्घत्वं पठन्ति, तन्मतसंग्रहार्थं पृश्च ऋश्चेति विग्रहोऽऽत एव च बहुवचनम् । पिपति, पिपूर्तः पिपूर्याद । हाङिति कारः किम् ? ओहांक-जहाति । शितीत्येव,-पपार, आर, बमार, ममे, जहे। शितीति द्वित्वस्य विशेषणं किम् ? पर्पति, परीपति । अत्र यडन्तस्य द्वित्वं न शितीति न भवति ।।५।।
न्या० स०-पभृमाहा-शिति द्वित्वे सति भणनात् पृत् इत्यस्य व्युदासः ।
सन्यस्य ॥ ४. १.५१॥
धातोद्वित्वे सति पूर्वस्याकारस्य सनि परे इकारो भवति । पिपक्षति, पिपासति, प्रतीषिषति, जिह्वायकोयिषति । सनीति किम् ? पपाच । अस्येति किम् ? लुलूपति, पापचिषते ।। ५९।।
ओर्जान्तस्थापवर्गेऽवणे ॥ १. १. ६० ॥
धातोद्वित्वे सति पूर्वस्योकारान्तस्यावान्ते जान्तस्थापवर्गे परतः सनि परे इकारोऽन्तादेशो भवति । जु सौत्रो धातुः-जिजावयिषति, यियविषति, यियावयिषति, रिरावयिषति, लिलावयिषति, पिपविषते, पिपावयिषति, विभावयिषति, मिमावयिषति । प्रोरिति
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पाद - १, सूत्र - ६१-६२ ]
श्री सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः [ ९१
किम् ? पापचिषते । जान्तस्थापवर्ग इति किम् ? श्रवतुतावयिषति, जुहावयिषति, शुशाaff | अवर्ण इति किम् ? बुभूषति, जुज्यावयिषति । सनीत्येव - लुलाव । ननु व्यन्तानां वृद्ध्यवा देशयोः कृतयो द्वित्वे सति पूर्वस्योकारान्तता न संभवति, तत्र 'सन्यस्य' ( ४ - १ - ५९ ) इत्यनेनैव सिद्धे किं गुरुणा सूत्रेण एतावत्तु विधेयम् 'ओ: पयेऽवर्णे' इति - पिपविषति, यियविषतीत्यत्र पूर्वस्योकारान्तस्येत्वं यथा स्यात् ? सत्यं, णौ यत्कृतं कार्यं तत्सर्वं स्थानिवद्भवति * इति न्यायज्ञापनार्थं वचनम्, तेन पुस्कारयिषति चुक्षावयिषति, शुशावयिषतीत्याद्यपि सिद्धम् । एतच्च ज्ञापकं जान्तस्थापवर्गवत् अन्यत्राप्यवर्ण एव द्रष्टव्यम् तेनाचिक्कीतदित्यत्रेकारवतो द्विर्वचनं सिद्धम् ॥६०॥
न्या. स०- ओजन्तस्था० - यियविषतीति- 'यु ं ग् श् योतुमिच्छति युक्मिश्रणे यवितुमिच्छति सन् 'इवृध' ४-४-४७ इट् । जुहावयिषतीति ह्वयन्तं प्रयुक्त णिग् 'णौ ङसनि' ४-१-८८ इति णिविषयेऽपि य्वृत्, ह्वाययितुमिच्छति हुंक् इत्यस्य तु हावयितुमिच्छति सन् । शुशावयिषतीति श्वयन्तं प्रयुङ्क्ते णिग् 'श्वेर्वा' ४-१-८९ इति णिविषये वृत् श्वाययितुमिच्छति । श्रन्यत्रापीति - ओजन्तिस्थापवर्गेऽपीत्यर्थः तेना चिकीर्तदिति ननु कीत्र्यादेशस्यानिमित्ते एव विधानात् निमित्तत्वाऽभावे कथं णौ यत्कृतं कार्यम् इति न्यायेन स्थानित्वप्राप्तिरिति ? सत्यं -यद्विना यन्न भवति तत्तस्य निमित्तमिति कृत्वा णिज् निमित्तं कीर्त्तः, यतश्चुरादीनां णिच् अवश्यमेव भवति, ततो णिच्संनियोगे कोशोतो निमित्तत्वम् ।
श्रु-ख-दु-प्लुच्योर्वा ॥ ४. १. ६१ ॥
एषां सनि परे द्वित्वे सति पूर्वस्योकारान्तस्यान्तस्थायामवर्णान्तायां परत इकारोऽन्तादेशो वा भवति । शिश्रावयिषति, श्रुश्रावयिषति, सिस्रावयिषति, सुस्रावयिषति, दिद्रावयिषति, दुद्रावयिषति, पिप्रावयिषति, पुप्रावयिषति, पिप्लावयिषति, पुप्लावयिषति, चिच्यावयिषति, चुच्यावयिषति । वचनादेकेनावर्णेनान्तस्थाया व्यवधानमाश्रीयते । अवर्ण इत्येव श्रुश्रूषते, सुत्र षति । ओरित्येव - सोत्रविषति ॥ ६१ ॥
न्या० स० श्रुत्र दु० - सोस्रविषतीति- कुटिलार्थे यङ् लुबन्तस्य सनि स्रवतेः प्रयोगः, यदि शृणोतेः स्यात्तदा सनि प्रत्यये परे 'श्रुवोऽनाङ प्रते : ' ३ - ३-७१ इत्यात्मनेपदं स्यात्, अतः कारणात् शोधितम् ।
स्वपो णावुः ॥। ४. १. ६२ ।।
सनोति निवृत्तम्, स्वपेण सति द्वित्वे कृते पूर्वस्योकारोन्तादेशो भवति । सुष्वापfrषति, स्वपेण णके क्यनि णौ ङे च असुष्वापकीयत् । स्वापेः क्विबन्तात्कतु' : क्विपि यसोवाप्यते । अन्ये तु णौ सति क्विवनिमित्तानन्तयें एवेच्छन्ति । स्वापकीयतेः सनि सिवाकोयिषति । णाविति किम् ? णकान्तात्वयनि सनि च सिध्वापकीयिषति । स्वपो गाविति किम् ? स्वापं चिकीर्षति सिष्वापयिषति, अत्र न स्वपेणिर्धत्रा व्यवधानात् । स्वपो णौ सति
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ε२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद - १, सूत्र - ६३-६४
द्वित्व इति किम् ? सोषोपयिषति - श्रत्र यङ्लुबन्तात् द्वित्वे सति णिर्न तु णौ सति द्वित्वमिति ।। ६२ ।।
न्या० स०-स्वपो०- अनन्तराऽनन्तरिभावसंबन्धे षष्ठी आनन्तर्यषष्ठ्याः फलमसुवापकीयत्, सनीति निवृत्तं कार्यान्तरविधानात् ।
नन्वऽस्वापपकीय दित्यादौ 'स्वपोणावु : ' ४-१-६२ इत्युकारः कथं न ? उच्यते - स्वपेः संबन्धी अकारो नास्ति, किंतु णकसंबन्धी अकार इति ।
सिवाकोयिषतीति स्वपन्तं प्रयुङ्क्त णिग्, स्वापयतीति णकः, स्वापकमिच्छति क्यन्, स्वापकीयितुमिच्छति सन् ततो 'णिस्तोरेव' २-३ - ३७ इति षत्वम् ।
1
सोषोपयिषतीति भृशार्थे यङ लुप् ' स्वपेयङङ े च' ४ १ ८० इति यङ् लुप्यपि वृत् ततो द्वित्वं, सोषुपतं प्रयुङ्क्ते णिग् सोषोपयितुमिच्छति सन् 'णिस्तोरेव' २-३-३७
1
इति षत्वम् । असमान - प्रयोजितवानिति प्रयुक्तवानित्यर्थः, यौजादिकस्य प्रयोगात् ।
rata वीणामिति वदति वीणा तां परिवादकः प्रयुक्तवान् तमऽन्यः प्रयुक्तवान् णिग्द्वयं । यद्यप्यत्र णौ णेर्लोपोऽभूत्तथापि न समानलोपः यतो णाविति जात्या एकवचनं ततश्च यः कश्चित् णिग् स सर्वोऽपि निमित्ततयोपात्तः, अतः स लुप्तोऽपि निमित्तं, एवमपीपठदित्यत्रापीति ।
समानलोपे सन्वलघुनि डे ॥। ४. १. ६३ ।।
"
न विद्यते समानस्य लोपो यस्मिन् ङपरे णौ द्वित्वे सति पूर्वस्य लघुनि धात्वक्षरे परे सनीय कार्य भवति । सन्यस्येत्वमुक्तमिहापि तथा अचोकरत्, अजीहरत् । 'ओर्जान्तस्थापवर्गेऽवर्णे' ( ४-५-६३ ) इत्युक्तमिहापि तथा अजीजवत्, प्रयोयवत्, अरीरवत् प्रलीलवत्, पीपवत्, प्रबीभवत्, अमीमवत् । 'श्रुत्र डुप्लुच्योर्वा' (४-१-९१ ) इत्युक्तमिहापि तथा - अशिश्रवत्, अशुश्रवत् श्रदिद्रवत्, अद्रवत्, श्रपिप्रवत्, अपुप्रवत्, अपिप्लवत्, अपुप्लवत्, अचिच्यवत्, अचुच्यवत् । अन्यस्य न भवति - अनूनवत्, अजूहवत् । लघुनीति किम् ? अततक्षत्, अबभाणत्, अचिक्रमत्, अचिक्वणत् इत्यादौ अनेकव्यञ्जनव्यवधानेऽपि स्थादीनामित्वबाधकस्यात्वस्य शासनात् सन्वद्भावो भवति, न तु स्वरख्यञ्जनव्यवायेऽपि तेन अजजागरत् । णावित्येव, अचकमत । श्रसमानलोप इति किम् ? प्रचकथत्, पदमाख्यात् अददृपत् । पटुं लघु कषि हरि वाख्यत् अपीपटत्, अलीलघत्, प्रचीकपत्, अजीहरत् इत्यादौ तु वृद्धौ कृतायां सन्ध्यक्षरलोप इति असमानलोपत्वात्सन्वद्भावः । णाविति जात्याश्रयणात् वादितवन्तं प्रयोजितवान् अवीवदद्वीणां परिवादकेन, अपीपठन्माणवकमुपाध्यायेन, अत्र णेः समानस्य लोपेऽपि भवति ॥ ६३ ॥ |
घोर्दीर्घोऽस्वरादेः ॥। ४. १. ६४ ॥
अस्वरादेर्धातोर्ड परेऽसमानलोपे णौ द्वित्वे सति पूर्वस्य लघोर्लघुनि धात्वक्षरे परे दीर्घो भवति । अचोचरत्, श्रलीलवत्, अतृतवत् अब्बूभुजत् । लघोरिति किम् ? अचि -
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पाद-१, सूत्र-६५-६८]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ ९३
क्षणत् । अस्वरादेरिति किम् ? और्ण नवत् । ऊरुरिवाचरतीति क्विन्लोपे णौ औरिरवत् । लघुनीत्येव,-अततक्षत् । णावित्येव,-अचकमत । ङ इत्येव,-रिरमयिषति । असमानलोपे इत्येव,-प्रचकथत् , अददृषत् । णिजात्याश्रयणात् प्रवीवदद्वीणां परिवादकेन ।।६४।।
न्या० स०-लघोर्दी?०-अचीचरदिति-ननु 'स्वरस्य' ७-४-११० इति परिभाषया पूर्वस्मिन्नित्वे विधेये स्वरादेशस्य ह्रस्वस्य स्थानित्वेन लघुनीत्यभावादित्वं न प्राप्नोति ? उच्यते, 'स्वरस्य' ७-४-११० इति पूर्वस्मिन् ( कालापेक्षया देशापेक्षया वा ) स्थानित्वमत्र तु कालापेक्षया इत्वस्य परत्वं यतः प्रथममुपान्त्यहस्वस्तत इत्वमिति, देशापेक्षया तु परिभाषाया अनित्यता, तथाहि-पूर्वदेशे ह्रस्व इति परिभाषाप्रसक्तिः ।
स्मृदृत्वरप्रथम्रदस्तस्पशेरः।। ४. १. ६५ ॥
एषां धातूनामसमानलोपे ऊपरे णौ द्वित्वे सति पूर्वस्याकारोऽन्तादेशो भवति, सन्वद्भावापवादः । स्मृ,-प्रसस्मरत, दृ, अददरत ,-अत्र परत्वादी?ऽपि न भवति । त्वर,अतत्वरत्, प्रथ,-अपप्रथत् , म्रद,-अमनदत्, स्तृ-अतस्तरत् , स्पश-अपस्पशत् ॥६५॥
__न्या० स०-स्महत्त्वर०-सन्वाभावापवाद इति-बहुप्रयोगापेक्षयेदमुक्त यावता दीर्घस्यापि । अपस्पशदिति-स्पशि: सौत्र, स्पशिण इति णिगन्तो वा, केचित्त पषीस्थाने स्पशीति पठन्ति तस्य वा।
वा वेष्टचेष्टः॥ ४. १. ६६ ॥
वेष्ट वेष्टोर्धात्वोरसमानलोपे उपरे णौ द्वित्वे सति पूर्वस्य प्रकारोऽन्तावेशो वा भवति । प्रववेष्टत् , अविवेष्टत् , अचचेष्टत् , अचिचेष्टत् ॥६६॥
ई च गणः॥ ४. १. ६७॥
गणेङपरे णौ द्वित्वे पूर्वस्येकारोऽकारश्चन्तादेशो भवति । अजीगणत् , अजगणत, गणेरदन्तत्वेन समानलोपित्वात्सन्यद्भावो दीर्घत्वं च न प्राप्नोतीतीत्वविधिः । 'भूरिदाक्षिज्यसंपन्नं यत्वं सान्त्वमवोकथः' इति प्रयोगदर्शनादन्येषामपि यथादर्शनमीत्वमिच्छन्त्येके ।।६७।। ।
न्या० स०-ई च गणः-ननु ई वा गण इति क्रियतामदन्तत्वेन समानलोपित्वादेव पक्षेऽजगणदिति भविष्यति ? सत्यं, चुरादिभ्यो णिच अनित्यो णिच्सन्नियोगे एवैषामsदन्तत्वं तदऽभावे तदऽभावादऽजगणदिति न सिध्येत् कित्वऽजोगणदित्येव ।
अस्यादेराः परोक्षायाम् ॥ ४. १. ६८ ॥
परोक्षायां धातोद्वित्वे सति पूर्वस्यादेरकारस्याकारो भवति । आटतुः, आटुः, आटिथ, आदतुः, प्रादुः, आदिथ । अस्येति किम् ? ईयतुः,-ईयुः। आदेरिति किम् ? पपाच । परोक्षायामिति उत्तरार्थम् ।।६।।
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६४ ]
बृहवृत्ति लघून्याससंवलिते
[पाद १, सूत्र-६९-७२
न्या० स०-अस्यादे०-'लुगस्यादेत्यपदे' २-१-११३ इत्यस्याऽपवाद:। उत्तरार्थमिति-इह तु परोक्षाया अन्यस्मिन् यङादौ प्रत्यये द्वित्वे सति आदावकारस्याऽसम्भवात् ।
अनातो नश्चान्त ऋदाद्यशौसंयोगस्य ॥ ४. १. ६१ ॥
ऋकारादेरश्नोतेः संयोगान्तस्य च धातोः परोक्षायां द्वित्वे पूर्वस्यादेरकारस्यानात प्राकारस्थानेऽनिष्पन्नस्याकारो भवति कृताकारात्त्वस्मान्नोऽन्तश्च । ऋदादि,-आनधतुः,प्रानधुः आनृजे, प्रानृजाते, प्रानजिरे, अशो, आनशे, आनशाते, आनशिरे । संयोग,-आनर्च, मानतः आनञ्ज, आनञ्जतुः, आनङ्ग, प्रानन्त, आनर्छ, आनईतः। ऋदादेरिति किम? प्रार, आरतः। अशावित्योकारः किम ? अश्नातेभित , प्राश, आशतः। संयोगस्येति किम् ? आट, आटतुः । अनात इति किम् ? आछु, आयामे-आञ्छ, प्राञ्छतुः । . कश्चिदत्रापीच्छति । आनाञ्छ, आनाञ्छतुः आनाञ्छुः ।।६९।
न्या० स०- अनातो न-न विद्यते आत् स्थानितयाऽस्यो प्रानछेति-प्रथम द्वित्वं तत: 'स्कृच्छ्रतः' ४-३-८ इति गुणः । आरेति ऋक ऋप्रापणे वा णव द्वित्वं 'ऋतोऽत्' ४-१-३८ 'अस्यादेः, ४-१-६८ इति आकारस्ततो 'नामिनोऽकलि' ४.३-५१ इति वृद्धिः, आद्यन्तवदेकस्मिन्नित्यपि न यतो यथाऽन्त्यव्यपदेशे ऋदादित्वं एवमादिव्यपदेशे ऋदन्तत्वमपि तत ऋत् आदिरेव यस्येत्यवधारणेनाऽस्य निरासः ।
भूस्वपोरदुतौ ॥ ४. १. ७० ॥
भूस्वप् इत्येतयोः परोक्षायां द्वित्वे सति पूर्वस्य यथासंख्यमकारोकारौ भवतः । बभूव, बभूवतुः, बभूवे चैत्रेण, अनुवभूवे कम्बलः साधुना, सुष्वाप, सुष्वपिथ । परोक्षायामित्येव,-बुभूपति, बोमवाचकार । केचित्त कर्तर्येव भुवोऽकारमिच्छन्ति न भावकर्मणो तेन बुभूवे चैत्रेण, अनुबुभूवे कम्बलः साधुनेत्येव भवति ॥७॥
न्या० स० ज्याव्यव्यधि०-संविव्यायेति-'यजादिवशवचः' ४-१-७२ इति य्वबाध. नार्थमिफारस्यापि इ: । विव्यचिथेति-'कुटादेङिद्वत्' ४-३-१७ इत्यनेनेटो ङित्वेऽपि व्यचोऽनसि' ४-१-८२ इति न वृत् , समासान्तागम इति न्यायात् कुटादिगणनिर्दिष्टस्य ङित्वस्याऽनित्यत्वात्।
ज्याव्येव्यधिव्यचिव्यथेरिः ॥ ४. १. ७१. ॥
एषां परोक्षायां द्वित्वे सति पूर्वस्येकारो भवति । ज्या,-जिज्यौ, जिज्यिथ । व्येगसंविव्याय, संविव्ययिथ । व्यध-विव्याध, विव्यधिथ । व्यच् ,-विव्याच, विचिथ । व्यथ ,विव्यथे, विव्यथाते, विव्यथिरे परोक्षायामित्येव,-वाव्यथ्यते ।।७१॥
यजादिवशवचः सस्वरान्तस्था वृत् ॥ ४. १. ७२ ॥ यजादीनां वशवचोश्च परोक्षायां द्वित्वे सति पूर्वस्य सस्वरान्तस्था म्वृत् इकार
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पाद-१, सूत्र-७३-७५ ] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[९५
उकारऋकाररूपा प्रत्यासत्या भवति । इयाज, इयजिथ, वेंग-उवाय, उवयिथ, डुवपीउवाप, उवपिथ, वहीं,-उवाह, उवहिथ, बद-उवाद, उवदिथ, वसं-उवास, उवसिथ, व्येगः पूर्वेणेकारविधानबलात् ह्वेगश्वयत्योस्तु पूर्वस्यान्तस्थाया अभावात् न भवति । वश्उवाश, उवशिथ । वचिति वश्साहचर्यात् वचंकब्र गादेशो वा आवादिको गृह्यते न यौजादिकः । उवाच, उचिथ । परोक्षायामित्येव,- यायज्यते, वावच्यते ॥७२।।
न्या० स० यजादिवश०-उवयिथेति-सृजिशि' ४-४-७८ इति वेटि 'थ्वो:प्वऽय' ४.४-१२१ इति य लुपि उवथ, वहेस्तु उवोढ इति भवति । ह्रगश्वयोस्त्विति-'द्वित्वे ह्वः' ४-१-८९ 'वा परोक्षायङि' ४-१-९० इत्यनेन च स्वविधानात् विकल्पपक्षेऽपि 'व्यञ्जनस्य' ४-१-४४ इति लुकप्रवृतेः ।
न वयो यु ॥ ४. १. ७३ ॥ . पूर्वस्येति निवृत्तमसंभवात् । वेगादेशस्य वयेर्यकारः परोक्षायां य्वृन्न भवति । ऊयतुः ऊयुः ।।७३।।
न्या० स०-न वयो य-ऊयतुरिति-वेंग् 'वेवय' ४-४-१६ 'यजादिवचेः किति' ४-१-७९ वकारस्य स्वृत् , द्वित्वे 'व्यञ्जनस्य ४-१-४४ इति यलोपे 'समानानाम्' १-२-१ इति दीर्घः, अत्र 'यजादिवचे:' ४-१-७६ इत्यनेन यकारस्य वकाराकारेण सह वृत्प्राप्नोति ।
वेरयः॥४. १. ७४ ॥
वेगोऽयकारान्तस्य पूर्वस्य परस्य च परोक्षायां ग्वृन्न भवति । ववो, वविथ । अय इति किम् ? उवाय, उवयिथ ॥७४।।
न्या० स०-वेरय०-ववाविति-'वेर्वय' ४-४-१६ इत्यस्य विकल्पप्रवृत्तेर्वयऽभावः, अत्र 'यजादिवश्' ४-१-७२ इति प्रथमस्य न प्राप्नोति । उवायेति-अत्र वयादेशे किदऽभावात् 'यजादिवचे' ४-१-७६ इत्यस्याप्रवृत्तौ द्वित्वे 'यजादिवश्' ४-१-७२ इति पूर्ववकारस्य य्वृत् ।
अविति वा ॥ ४. १.७५ ॥
वेगोऽयकारान्तस्याविति परोक्षायां परतो वृद्वा न भवति । ववतुः, ववः, ऊवतुः, ऊवः । द्वित्वे कृते परत्वाद्धातोरुवावेशे सति पश्चात् पूर्वस्य समानस्य दीर्घः । अय इति किम् ? ऊयतुः, ऊयुः ।।७।।
न्या० स०-प्रवितिवा-ववतुरिति-द्वित्वात् प्रागेव 'यजादिवचेः ४-१-७६ इत्यनेन प्राप्तमनेन विकल्प्यते, द्वित्वे तु कृते पूर्वस्य 'यजादिवश्' ४-१-७२ इति प्राप्तं 'वेरयः' ४-१-७४ इत्यनेन निषिध्यते ।।
ऊवतुरिति-अत्र पूर्वं य्वृत्ततो द्वित्वं * वृत्सकृत् * इति न्यायात् पश्चात्वकारस्य न स्वत् ।
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बृहद्वृत्ति लघुन्याससंवलिते
[पाद १, सूत्र-७६-८०
ज्यश्च यपि ॥ ४. १. ७६ ॥ ज्या इत्येतस्य वेगश्च यपि परे वृन्न भवति । प्रज्याय, उपज्याय, प्रवाय उपवाय ७६। व्यः॥ ४. १.७७॥ व्येगो यपि परे वृन्न भवति । प्रव्याय, उपव्याय । योगविभाग उत्तरार्थः ।।७७।। संपरेर्वा ॥ ४. १.७८ ॥
संपरिभ्यां परस्य व्यगो यपि परे य्वद्वा न भवति । संव्याय,-संवीय, परिव्याय, परिवीय। निरपेक्षत्वेनान्तरङ्गत्वात् प्रागेव वृतो दीर्घत्वम् , न तु तोऽन्तः । समो नेच्छन्त्येके । तेन नित्यं संव्याय ।।७८॥
यजादिवः किति ॥ ४. १. ७१ ।।
नेति निवृत्तम्, यजादीनां धातूनां वचेश्च सस्वरान्तस्था किति प्रत्यये परे वृत् भवति । यजी,-ईजतुः, ईजुः, इज्यते, इज्यात , इष्ट:.-इष्टवान् , ईजिवान् , इष्ट्वा , इष्टि:, वेंग,-ऊयतुः, ऊयुः । 'प्रविति वा (४-१-७५) इति वचनात् ववतुः, ववुः, ऊवतुः, ऊवुः, . ऊयते, ऊयात् , उतः, उतवान् । व्यंग-संविव्यतुः, संविव्युः,-संवीयते, संवीयात , संवीत:, संवीतवान् । आँग-हूयते, हूयात् , हूतः-हूतवान् । वपीं, ऊपतुः, उपुः-उप्यते, उप्यात् , उप्तः, उप्तवान् । वहीं-ऊहतुः ऊहुः, उह्यते, उह्यात् , ऊढः, ऊढवान् । श्वि-शूयते, शूयात् , शूनः, शूनवान् । वद-ऊदतुः, ऊदुः, उधरो, उद्यात् , उदितः, उदितवान् । वसंऊषतुः, ऊषुः, उष्यते, उष्यात् , उषितः, उषितवान् । वचिति वचक ब्र गादेशो वा-ऊचतुः, ऊचुः, उच्यते, उच्यात् , उक्तः, उक्तवान् । यौजादिकस्य तु न भवति,-चच्यते । कितीति किम् ? इयाज, यक्षीष्ट, वावच्यते, वक्ता ॥७६।।
न्या० स०-यजादिवचे०-नेति निवृत्तमिति-प्राप्तेरभावात् । इष्टिरिति-'आस्यटि' ५-३-६७ इति क्यपसमावेशार्थ श्रवादिकत्वात् क्तिः । उत इति-क्विपि तु उत् उतौ उत इति, परमते तु ऊ: उवौ उवः, ते 'दीर्घमवोऽन्त्यम्' ४-१-१०३ इत्यत्र अव इति न कुर्वते । यौजादिकस्य तु न भवतीति-नित्याणिजन्तैर्यजादिभिः साहचर्यादित्यर्थः ।
स्वपेर्यडे च ॥ ४. १.८०॥
स्वपेर्यङि डे किति च प्रत्यये सस्वरान्तस्था वृत् भवति । सोषुप्यते, सोषुपीति । यङ्लुपि नेच्छन्त्यन्ये-सास्वप्ति । णिमन्तरेण इस्यासंभवात् स्वपितिय॑न्तो लभ्यते । असूषुपत् । डे, वृत्, गुणो, ह्रस्वत्वं, द्वित्वं, पूर्वस्य दीर्घत्वमित्यत्र,-क्रमः । किति,-सुषुपतुः, सुप्यते, सुप्यात् , सुषुप्सति । एध्विति किम् ? स्वपिति । घन्तादपि केचिदिच्छन्ति । स्वापमकरोत् असुषुपत् ।।८।।
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पाद-१, सूत्र-८१-८४ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः ।
[६७
न्या० स०-स्वपेय च-असूषुपदिति-न च वाच्यं * प्राक् तु स्वरे० * इति न्यायात् द्वित्वमेव भविष्यति न णिगाश्रितो गुणः, यतो यदि तेनैव द्वित्वनिमित्तेन प्रत्ययेन जन्यते स्वरविधिस्तदैव न स्यादऽत्र तु द्वित्वनिमित्तप्रत्ययाऽजन्य इति ।
असुषुपदिति-स्वमते तु असस्वापदिति । ज्याव्यधः क्ङिति ॥ ४. १.८१ ॥
जिनाविध्यतेश्च सस्वरान्तस्था किति डिति च प्रत्यये परे स्वत् भवति । जिज्यतुः जीयते, जीयात् , जीनः, ङिति-जिनाति, जेजीयते, जेजेति, विविधतुः, विध्यते, विध्यात् , विद्धः, डिति-विध्यति, वेविध्यते, वेवेद्धि । विङति इति किम् ? ज्याता, व्यद्धा ।।८१॥
न्या० स०-ज्याव्यधः-प्रत्यय इति विशेष्यं ङितीति विशेषणमतो धातुनिमित्तयोर्यथासंख्यं न भवति । जिनातीति-रवृत् 'दीर्घमवोन्त्यं' ४-१-१०३ 'प्वादेहूं स्वः' ४-२-१०५।
व्यचोऽनसि ।। ४. १. ८२ ।।
व्यचेः सस्वरान्तस्थाऽस्वजिते पिङति प्रत्यये परे म्वृद्भवति । विचिता, विचितुम् , वेविच्यते, विचति । अनसोति किम् ? उरुव्यचा: ।।२।।
न्या० स०-व्यचोऽनसि-विचितेति-कुटादित्वात् ङित्वे यवृत् । उरुव्यचा इतिउरुविचति असित्यऽसः कुटादित्वात् ङित्वम् ।
वशेरयङि ।। ४. १. ८३ ॥
वशेः सस्वरान्तस्था अयङि डिति प्रत्यये परे वृद्भवति । उश्यते, ऊशतुः उशितम् , उष्टः, उशन्ति । अयङीति किम् ? वावश्यते । क्डिन्तीत्येव,-वष्टि ।।८३॥
ग्रह-वस्व-भ्रस्ज-प्रच्छः ॥ ४. १.८४॥
ग्रहादीनां सस्वरान्तस्था क्ङिति प्रत्यये परे य्वद्भवति । जगहतुः, जगृहुः गृह्यते, गृहीतः, जिघृक्षति, गृह्वाति, जरोगृह्यते, जरीगहीति, वृश्च्यते, वृक्णः, वृश्चति, वरीवृश्च्यते, भज्ज्यते, भृष्टः, भृज्जति, बरीभृज्ज्यते, पृच्छयते, पिपच्छिषति पृष्टः, पृच्छतिः, परीपृच्छचते, पच्छा। ङितोत्येव,-ग्रहीता, ववश्चतुः वभ्रज्जतुः, पप्रच्छतु, प्रश्नः । व्यचिवशिवश्चिभ्रस्जिप्रच्छीनां पञ्चानां यङलबन्तानां नेच्छन्त्यन्ये । तस् ,-वाव्यक्तः । नाम्नि-तिकवाव्यक्तिः, वावष्टः, वावष्टिः, वावष्टः, वावष्टिः, बाभ्रष्टः, बाभ्रष्टिः, पाप्रष्टः, पाप्रष्टिः। अन्ये तु के 'प्रकृतिग्रहणे यङ्लुबन्तस्यापि ग्रहणम्' * इति यङ्लुप्यपि मन्यन्ते तेन वेविक्तः, वेविक्तिः, वरिवृष्टः, बरिवृष्टिः बरिभृष्टः, बरिभृष्टिः, परिपृष्टः, परिपृष्टिः । अपरे तु विचतिवृश्चतिभृज्जतिपृच्छतीनां नित्यं वृत ज्यादीनां त्वनित्यमिति मन्यन्ते तेनेदं सिद्धम् 'तस्यास्त्रयस्त्रीनपि विव्यधुः शरैः' इति अन्ये तु विधिधुरित्येवाहुः ।।८४॥
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६८ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-८५-46
न्या० स०-ग्रहवश्च०-पृच्छ्यते इति-क्यस्य सानुनासिकत्वं नादृतमिति 'अनुनासिके च' ४-१-१०८ इति शो न भवति । वरिष्ट इति-वशस्तु भाष्यकृताप्यनुदाहृतत्वान्न दशितं, प्रयोगस्तु वोष्टि: वोष्ट इति टिप्पनकृतः ।
व्येस्यमोर्यङि ॥ ४. १. ८५ ॥
व्येस्यमो: सस्वरान्तस्था यङि वृद्धवति । वेवीयते, वेश्योति, सेसिम्यते, सेसिमोति । यङ्लुपि नेच्छन्त्यन्ये । वाव्याति, संस्यन्ति । यडीति किम् ? व्ययति ॥८५।।
चायः की ॥ ४. १.८६
चायगित्येतस्य यङि को इत्ययमादेशो भवति । चेकोयते । दीर्घनिर्देशो यङ्लुबर्थ:चेकीतः ॥८६॥
न्या० स०-चायः की-दीर्घनिर्देशात् यङ लुप्यप्यादेश इत्यर्थः, अन्यथा हि यदि साक्षात् यङयादेशः स्यात्तदा 'दीर्घश्च्चि' ४-३-१०८ इति दीर्घः सिद्धः, एवं 'प्यायः पी' इत्यत्रापि।
दित्वे हः॥४. १.८७॥
ह्वयतेद्वित्वविषये सस्वरान्तस्था वृद्धवति । जुहाव, जुहुवतुः, जोहूयते, जोहवीति, जुहषति । अनेनैव सिद्धे उत्तरसूत्रकरणं णेरन्यस्मिन् द्वित्वनिमित्तप्रत्ययव्यवधायके ग्वृन्माभूदित्येवमर्थम् , तेनेह न भवति-ह्वायकमिच्छति हायकोयति । ततः सन् जिह्वायकोयिषति ॥८॥
णौ उनि ॥ ४. १.८८॥
यते: सस्वरान्तस्था ऊपरे सन्परे च णौ विषये स्वृद्भवति । अजुहवत , जुहावयिषति । णाविति विषयसप्तमीति किम् ? णिविषय एवान्तरङ्गमपि यकारागमं बाधित्वा ग्वृद्यथा स्यात् । ङसनीति किम् ? हाययति ॥८८।
न्या० स०-णौङसनि०-यकारागमं बाधित्वेति-उपलक्षणत्वात् के णौ यत्कृतं कार्यम् , इति च वृत् यथा स्यादिति, कृते तु वृति यो न भवति, 'अत्तिरी०' ४-२-२१ इति प्वागमबाधकत्वेन आदन्तेभ्यो यस्य प्रवृत्तेः ।
श्वेवा ॥४. १. ८१ ॥
श्वयतेः सस्वरान्तस्था ऊपरे सन्परे च णौ विषये वृद्वा भवति । अशूशवत , अशिश्वयव, शुशावयिषति, शिश्वाययिषति । विषयविज्ञानादन्तरङ्गमपि वृद्ध्यादिकं वृता बाध्यते, कृते च तस्मिन्वृद्धिः, तत प्रावादेश उपान्त्यह्रस्वत्वम् , ततो णिकृतस्य
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पाद-१, सूत्र-९०-९३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[६६
स्थानित्वात् शोद्वित्वम् ततः पूर्वदीर्घ इति क्रमः । गावित्येव,-अशिश्वियत् , शिश्वयिषति ॥ ८६ ॥
न्या० स०-श्वेर्वा - विषयविज्ञानादित्यादि-ननु विधानसामर्थ्यादेव वृद्ध्यादिकं बाधित्वा वृद्भविष्यति किं विषयव्याख्यानेन ? नैवं,-वृद्धौ कृतायामऽपि यस्यापि य्वृत् प्राप्नोति, अतो विधानं चरितार्थम् ।
वा परोक्षायङि ।। ४. १. १० ॥
श्वयतेः सस्वरान्तस्था परोक्षायां यङि च परे वा स्वृत भवति । शुशाव, शिश्वाय, प्रहं शुशव, शिश्वय, शुशुवतुः, शिश्वियतुः, शुशविथ, शिश्वयिथ, शोशूयते. शोशवीति, शेश्वीयते, शेश्वयोति । अवित्परोक्षायां कित्त्वाद्यजादित्वेन प्राप्ते विति परोक्षायां यङि चाप्राप्ते विभाषा ९०॥
न्या० स वा परोक्षा०-शुशुवतुरिति-'दीर्घमवः' ४-१-१०३ इति दीर्घ द्विवचनम् । प्यायः पी॥ ४. १. ११ ॥
प्यायतेः परोक्षायां यडि च पोरादेशो भवति । प्रापिप्ये, प्रापिप्याते, आपिप्यिरे, पेपोयते, प्रपेयीयते । दीर्घनिर्देशो यङ्लुबर्थ:-आपेपेति, आपेपीतः ॥१॥
न्या० स०-प्याय: पी०-आपेपीत इति-भोजेनैतत् क्तान्तं साधितमिति तिवन्तोदाहरणमग्रेतन वर्तमानानिश्चयार्थम् ।
क्तयोरनुपसर्गस्य ॥ ४. १. १२ ॥
अनुपसर्गस्य प्यायः क्तयोः क्तक्तवत्वोः प्रत्यययोः परयोः पीत्ययमादेशो भवति । पोनं मुखम् , पीनवन्मुखम् । क्तयोरिति किम् ? प्यायते । अनुपसर्गस्येति किम् ? प्रप्यानो मेघ: ।।२।।
आङोऽन्धूवसोः॥ ४. १. १३ ॥
आङ उपसर्गात्परस्य प्यायतेरन्धावूधसि चार्थे क्तयोः परतः पीरादेशो भवति । प्रापीनोऽन्धुः, आपीनभूधः, अन्धुव्रणम् ऊधसो वा पर्यायः । आङ इति किम् ? प्रप्यानोऽन्धुः, परिप्यानमूधः । अन्धूधसोरिति किम् ? आप्यानश्चन्द्रः । प्राङ एवेति नियमात प्राप्यानमूध इत्यत्राङन्तादुपसर्गान भवति । अनुपसर्गस्य तु पूर्वेण भवत्येव । पोनोऽन्धु, पीनवानन्धु, पोनमूधः, पीनवदूधः । अन्ये तु प्यायतेः केवलस्याङ्तर्वस्याङन्तोपसर्गपूर्वस्यैव च प्रयोगमिच्छन्ति नान्यपूर्वस्य । तन्मत प्रप्यानपरिप्यानादयोऽप्रयोगाः । क्तयोरित्येव, आप्याय्यः ॥६॥
न्या० स०-प्राङोन्धुधसो:०-ऊधसो वा पर्याय इति-ननु तहि आङोन्धाविति सिद्ध ऊधस्ग्रहणं किमर्थम् ? सत्यं, ऊधोग्रहणं बोधयति आपीन इति प्रयोगो व्रणे विशेषणतया
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१०० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-६४-६७
ऊधसि च पर्यायेण, यद्वा ऊधोग्रहणमेव ज्ञापयति, अन्धुशब्द: कैश्चिदेव ऊधसि कीर्त्यते अन्यथाऽन्धुनापि साध्यसिद्धिः ।
आङ एवेतीति-अत्राप्यनुपसर्गस्येत्यनुवर्तनीयं ततश्च आङ-पूर्वस्य प्यायः पी:, कथं भूतस्याङ: ? अनुपसर्गस्य, किमुक्त भवति ? केवलस्येत्यर्थ इत्यवधारणान्नियन्त्रणान्न तु * सिद्धे सत्यारम्भोनियमार्थः ॐ इति, यद्वा सर्वं वाक्यं सावधारणमिति न्यायादेवकारः । प्राप्याय्य इति-'कालाध्व' २-२-२३ इत्यनेन मासादेः कर्मत्वेऽन्तभूतण्यर्थत्वेन वा सकर्मकत्वे कर्मणि ध्यण् भावे तु क्लीबत्वं स्यात् ।
स्फायः स्फो वा ॥ ४. १.१४॥
स्फायतेः क्तयोः परतः स्फी इत्ययमादेशो वा भवति । स्फीतः, स्फीतवान् , संस्फीतः, संस्फीतवान् , स्फातः, स्फातवान् । क्तयोरिति किम् ? स्फाति:-विकल्पं नेच्छत्यन्ये ।।१४।।
न्या० स०- स्फायः स्फी वा-स्फातिरिति - तत्कथं स्फीति ? उच्यते, स्फायते स्म क्तः स्फीत इवाचरति 'कर्तु: क्विप्' ३-४-२५ स्फीततीति 'स्वरेभ्य इ' १-३-३० ।
प्रसमः स्त्यः स्ती ॥ ४. १. १५ ॥
प्रसम् इत्येवंसमुदायपूर्वस्य स्त्यायतेः क्तयोः परतः स्ती इत्ययमादेशो भवति । प्रसंस्तीतः, प्रसंस्तीतवान् । प्रसम इति किम् ? संप्रस्त्यानः, संप्रस्त्यानवान् , स्त्यानः, संस्त्यानः । प्रसमो नेच्छन्त्यन्ये ॥१५॥
न्या० स०-प्रसमः-व्यावृत्तौ केवलात् प्रोपसर्गान्न दशितमुत्तरेण विधानात् । नेच्छन्त्यन्ये इति-ते हि ह्य तत्सूत्रं न कुर्वन्ति ।
प्रात्तश्च मो वा ॥ ४. १. १६ ॥
प्रात्केवलात्परस्य स्त्यायतेः क्तयोः परयोः स्ती इत्ययमादेशो भवति, क्तयोस्तकारस्य च वा मकारो भवति । प्रस्तीमः, प्रस्तीमवान् , प्रस्तीतः, प्रस्तीतवान् ।।९६॥
श्यः शीवमूर्तिस्पर्शे नश्वास्पर्शे ॥ ४. १. १७ ॥
द्रवस्य मूतिः काठिन्यं तस्मिन् स्पर्श च वर्तमानस्य श्यायतेः क्तयोः परतः शो इत्ययमादेशो भवति, तत्संनियोगे च क्तयोस्तकारस्यास्पर्श विषये नकारादेशो भवति । शीनं घृतम् , शीनवद् घृतम् , शीनं मेदः शीनवन्मेदः, द्रवावस्थायाः काठिन्यं गतमित्यर्थः । स्पर्शशीतं वर्तते, शीतो वायुः । गुरणमात्रे तद्वनि वार्थे स्पर्शविषयो भवति । द्रवमूतिस्पर्श इति किम् ? संश्यानो वृश्चिकः,-शीतेन संकुचित इत्यर्थः । 'व्यञ्जनान्तस्थातोऽख्याध्यः' (४.२७१ ) इति नत्वम् ।।९।।
न्या स० श्यः शी-द्रवमूत्तिश्च स्पर्शश्चेति कृते विरोधिनामिति व्यावृत्तेः सूत्रत्वात्स
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पाद-१, सूत्र-९८-१०१ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१०१
माहारः कर्मधारयो वा, शीतं वर्तते इति-कतरिक्तः, अत्र शीतस्पर्शो मुख्यभावेन, शीतो वायुरित्यत्र तु गौण भावेन वर्तते ।
प्रतेः॥ ४. १.१८॥
प्रतिपरस्य श्यायतेः क्तयोः परतः शी इत्ययमादेशो भवति तत्संनियोगे च क्तयोस्तकारस्य नकारः। प्रतिशीनः, प्रतिशीनवान् । प्रतिपूर्वोऽयं रोगे वर्तत इति पूर्वेणाप्राप्तौ वचनम् ।।६८॥
वाभ्यवाभ्याम् ॥ ४. १.११ ॥
अभि, अव इत्येताभ्यां परस्य स्त्यायतेः क्तयोः परतः शी इत्ययमादेशो वा भवति, तत्संनियोगे च क्तयोस्तस्यास्पर्श नो भवति । अभिशीनः, अभिशीनवान् , अभिश्यानः, अभिश्यानवान् , अवशीनः, अवशीनवान् , अवश्यानः, अवश्यानवान् । द्रवमूर्तिस्पर्शयोरप्यनेन परत्वाद्विकल्पो भवति । अभिशीनं घतम , अभिश्यानं घृतम्, प्रवशीनं हिमम् , अव. श्यानं हिमम् , अभिशीतो वायुः, अवशीतो वायुः, स्पर्शत्वान्न नत्वम् । अभिश्यानो वायुः, अवश्यानो वायुः । 'व्यञ्जनान्तस्थातोऽख्याध्यः' ( ४-२ ७१ ) इति स्पर्शऽपि नत्वम् । अभ्यवाभ्यामिति किम् ? संश्यानः, संश्यानवान् । केचित्तु समा व्यवधानेऽपीच्छन्ति । अंभिसंशीन:, अभिसंशोनवान , अभिसंश्यानः, अभिसंश्यानवान , अवसंशोनः, अवसंशोनवान् , प्रवसंश्यानः, अवसंश्यानवान् । तदाभ्यवाभ्यामिति तृतीया व्याख्येया। समस्ताभ्यामपीत्यन्ये अभ्यवशीनः, अभ्यवश्यानः । विपर्यासे प्रयोगो, नास्ति, वा शब्दस्य च व्यवस्थितविभाषार्थादन्योपसर्गान्ताभ्यां न भवति । समभिश्यानः, समभिश्यानवान् , समवश्यानः, समवश्यानवान् ।।६।।
न्या० स०-वाभ्य०-अस्पर्शे नो भवतीति पूर्वसूत्रे अस्पर्श इति नोक्त रोगेऽसंभवात् । श्रः श्रुतं हविःक्षीरे ॥ ४. १. १००॥
श्रातः श्रायतेश्च क्तप्रत्यये हविषि क्षीरे चाभिधेये शृभावो निपात्यते । शृतं हविः, शृतं क्षीरम् स्वयमेव । श्रातिश्रायती हि अकर्मको कर्मकविषयस्य पचेरर्थे वर्तेते । तयोश्च - तन्निपातनम् । हविःक्षीर इति किम् ? श्राणा यवागूः ॥१००।।
न्या० स०-श्रः शतं-ननु कथं शतं क्षीरं स्वयमेवेत्युक्त, शतं क्षीरं देवदत्तेनेति कथं न भवति ? इत्याशङ्कयाह -श्राति, श्रायती इति ।
श्रपेः प्रयोक्त्रैक्ये ॥ ४. १. १०१ ॥
श्रायतेः श्रातेर्वा ण्यन्तस्यैकस्मिन् प्रयोक्तरि क्ते परतो हविषि क्षीरे चाभिधेये शुभावो निपात्यते । श्राति, श्रायति वा हविः स्वयमेव तच्चत्रेण प्रायुज्यत शतं हविश्चैत्रेण । शृतं क्षीरं चैत्रेण । यदा तु द्वितीये प्रयोक्तरि णिगुत्पद्यते तदा न भवति । श्रपितं हवि
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१०२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-१०२-१०४
श्चैत्रेण मैत्रेणेति । हविःक्षीर इत्येव,-श्रपिता यवागः, अन्ये तु श्रपि चुरादौ पठन्ति तस्यैव श्रपेनिपातनम् । प्रयोजकण्यन्तस्य त्वेकस्यापि प्रयोगं नेच्छन्ति । तन्मते कर्मकर्तृहविः श्रातुचैत्रः प्रयुक्तवान् इति प्रयोजकव्यापारे णिगि अपितं हविश्चैत्रेणेत्येव भवति । अपरे तु सकर्मकावपि श्रातिश्रायती इच्छन्ति-तन्मते, तयोरप्यण्यन्तयोनिपातनं भवति । शृतं हविश्चत्रेण । ण्यन्तयोस्तु न भवत्येव, श्रपितं हविश्चत्रेण मैत्रेणेति ॥१०१॥
__न्या० स० श्रपेः प्रयो०-शृतं हविश्चैत्रेणेति णिगि पान्ते घटादेह स्वे श्रप्यते स्मेति वाक्ये कर्मणि क्ते निपातनादिडभाव । श्रपितं हविरित्यादि-पूर्ववत्प्रथमो णिग् , ततस्तं चैत्रं श्रपयन्तं मैत्र: प्रायुक्त, पाचितमित्यर्थः । श्रपि चुरादाविति-अदन्तं, तस्य च फलं हविः क्षीरादऽन्यत्र दृश्यम् । तयोरपीति-न केवलमऽकर्मकयो: सकर्मकयोरपि तयोः श्रः शत. मिति निपातनं भवति इत्यपेरर्थः ।
स्वृत्सकृत् ॥ ४. १.१०२॥
स्वदिति अन्तस्थास्थानानाभिकारोकारऋकाराणां शास्त्रेऽस्मिन् व्यवहारः। धातोवत्सकृदेकवारमेव भवति । यावत्संभवस्तावद्विधिरिति न्यायात पुनःप्राप्तं प्रतिषिध्यते । संवोयते, विध्यते, विच्यते, वेवीयते, वेविध्यते, वेविच्यते ।।१०२॥ न्या० स० वृत्सकृत-संवीयते इति-अत्र यकारस्य यजादिवचे:' ४-१-७६ इति
स्य प्राप्तमनेन निषिध्यते ।
दीर्घमवोऽन्त्यम् ॥ ४. १. १०३ ॥
वेगवजितस्य धातोर्वृदन्त्यं दीधं भवति । जोनः, जीनवान् , जिनाति संवोतः, हूतः, शूनः । अव इति किम् ? उतः, उतवान् । अन्त्यमिति किम् ? सुप्तः, उप्तः ॥१०३॥
न्या० स० दीर्घमवो०-उत इति-क्विपि उत् उतौ उत इति भाष्यम् । सुप्त इति'ज्ञानेच्छार्थि०' ५-३-९२ इति क्तः ।
स्वरहनगमोः सनि धुटि ॥ ४. १. १०४॥ ..
स्वरान्तस्य धातोर्हन्तेर्गमोश्च धुडादौ सनि परे स्वरस्य दीर्घो भवति । स्वर-चिची. षति, तुतूषति, चिकीर्षति, हन-जिघांसति, गमु-जिगांस्यते, संजिगांसते, अधिजिगांस्यते माता, अधिजिगांसते सूत्रम् । गम्विति इरिणकिङादेशस्य गमेर्ग्रहणाद्गच्छतेनं भवति । संजिगंसते वत्सो मात्रा। इङादेशस्यैव गमोरिच्छन्त्येके-तन्मते इण जिगंस्थते. संजिगंसते। इक-अधिजिगंस्यते मातेत्येव भवति । सनीति किम् ? स्तुतः । धुटीति किम् ? यियविषति ॥१०४।।
न्या० स० स्वरहन-संजिगांसते इति-समेतुमिच्छति सन् , 'सनीङश्च' ४-४-२५ इति गमुः, गम्लु गतावित्यनेन सह इणादेशस्य गमेऽरभेदोपचाराद् गम्लकार्यमात्मनेपदं प्राग्वदित्यनेन, अन्यथा सनः प्राग् आत्मनेपदाऽदर्शनान्नस्यात् , उपचारे तु 'समो गमृच्छि'
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पाद-१, सूत्र-१०५-१०८ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१०३
३.२-८४ इति प्राक् दृष्टम् । यियविषतीति-प्रथमं गुणं बाधित्वा दीर्घ सकृद्गते इति प्रवर्तते ।
तनो वा ॥ ४. १. १०५ ॥
तनोतेधुडादौ सनि परे स्वरस्य दी? वा भवति । तितांसति, तितंसति । धुटीस्येव,-वितितनिषति । यङ्लुपि,-तंतनिषति ॥१०॥
न्या० स० तनो वा-तंतनिषतीति-'इवृध' ४-४-४७ इतीटि विकल्पात्तितांसति तितंसतीत्यपि ।
क्रमः क्वि वा ॥४. १. १०६ ।।
क्रमः स्वरस्य धुडादौ क्त्वाप्रत्यये वा दीर्घो भवति । कान्त्वा, क्रन्त्वा। धुटि इत्येव,-क्रमित्वा । 'ऊदितो वा' (४-४-४२) इति वेट् । प्रकम्येत्यत्र त्वन्तरङ्गमपि दीर्घत्वं बाधित्वा प्रागेव यप , एतच्च 'यपि चादो जग्ध' (४-४-१६) इत्यत्र ज्ञापयिष्यते ।।१०६॥
अहन्पञ्चमस्य विवक्ङिति ॥ ४. १. १०७॥
हनवजितस्य पञ्चमान्तस्य धातोः स्वरस्य क्वौ धुडादौ च क्ङिति प्रत्यये दी? भवति । प्रशान्, प्रतान् , प्रदान , प्रशामौ, प्रतामो, प्रदामौ। किति-शान्तः, शान्तवान्, शान्त्वा, शान्ति, एवं तान्तः, दान्तः । डिति-शंशान्तः, तन्तान्तः, दंदान्तः । पञ्चमस्येति किम् ? प्रोदनपक्, पक्त्वा । अहन्निति किम् ? वृत्रहणि, भ्रूणहनि । विवक्ङिति इति किम् ? गन्ता, रन्ता । धुटीत्येव,-यम्यते, यंयम्यते । कश्चित्त्वाचारक्वावपि दीर्घत्वमिच्छति । कमिवाचरति कामति, एवं शम्-शामति, किम् कोमति, इदम्-इदामति ।१०७।
न्या० स० प्रहनपञ्चम०-प्रशानिति-नादेशस्य परेऽसत्त्वान्नलोपाभावः, हन्वर्जनात उपदेशावस्थायां पञ्चमो गृह्यते, तेन सुगणित्यत्र दी| न । वृत्रहणीति-संज्ञायां 'पूर्वपदस्था' २-३-६४ इति असंज्ञायां तु 'कवर्गक' २-३-७६ इति णत्वं, कश्चित्तु आचारकाविति-स्वमते तु तस्मिन् धातुत्वाऽभावान्न दीर्घः ।
अनुनासिके चच्छवः शूट ॥ ४. १. १०८॥
अनुनासिकादौ क्वौ धुडादौ प्रत्यये च धातोश्च्छकारवकारयोर्यथासंख्यं श् ऊट इत्येतावादेशौ भवतः । प्रश्नः, विश्नः, छस्य द्विःपाठात् द्वयोरपि शकारः । क्वि-शब्दप्राट, शब्दप्राशौ, गोविट , गोविशौ, धुट-पृष्टः, पृष्टवान , प्रष्टा, प्रष्टुम् , स्योमा, स्योनः । सिवेमनि प्रत्यये औणादिके च ने लघूपान्त्यगुणात्पूर्वमूट क्रियते नित्यत्वात-तत्र कृतेऽल्पाश्रितत्वेनान्तरङ्गत्वाद्यत्वं न तु गुणः । अक्षय :, हिरण्ययुः । * 'प्रसिद्ध बहिरङ्गमन्तरङ्ग' * इति स्वरानन्तर्य नेष्यते तेन यत्वं भवति । द्यूतः, द्यूतवान् , दुधूषति । वकारस्य विकल्पेनानुनासिकत्वाद्वन्क्वनिपोः सुस्योवा, सुस्यूवा, पक्षे, सुसेवा, सुसित्वेत्यपि सिद्धम् । धातोरित्येव,दिवेरौणादिकडिवप्रत्ययान्तस्य धुभ्याम् , द्युभिः,-यदा तु दिवेः क्विप् तदा धातुत्वात धुभ्यां
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१०४ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद-१, सूत्र-१०९-१११
भिरिति । यङ्लुपि तु देद्योति देद्योषि, सेष्योति, सेष्योषि, देबूतः, सेप्यूतः । अन्ये तु देदेति, देदेषि, सेसेति, सेषेषीत्येवेच्छन्ति, तन्मतपरिग्रहार्थं विडतीत्यनुवर्तनीयम् । यजादिसूत्रे च च्छग्रहणं विधेयम् । टकार 'ऊटा' (१-२-१३) इत्यत्र विशेषणार्थः ।।१०८।।
न्या० स०-अनुनासिके चल-द्विः पाठादिति द्वित्वापन्नस्य छस्येत्यर्थः । द्वयोरपीति-अपि शब्दात् केवलस्य, तेन वाछु इच्छायामित्यस्य वान् वांशी वांश इति सिद्धं, न च वाच्यं सूत्रे द्विच्छकारपाठात् केवलस्य न प्राप्नोतीति छ् च च्छ् चेति कृते 'पदस्य' २-१-८६ इत्येकललोपे निमित्ताभाव इत्यनेन चस्य छत्वे 'अघोषप्रथम' ४-१-४५ इति पूर्वछस्य चत्वे च च् छ् इति साधितत्वात् , यद्वा पूर्व द्वि: च्छकार: द्वितीयस्तु लघु ततः च्छ् च छ् चेति कृति 'पदस्य' २-१-८९ इति लघुछकारस्य लुक, तदा निमित्ताभाव इत्यादि न क्रियते । अक्षयूरिति-साऽनुबन्धत्वादूटि कृते 'उ: पदान्तेऽनुत्' २-१-११८ इति न भवति । विकल्पेनाऽनुनासिकत्वादिति-म्लेच्छेयङलुपि वसि 'अनुनासिके च' ४-१-१०८ इति छस्य शत्वे मेम्लेश्व:, निरनुनासिकत्वे तु मेम्लेच्छ्व इति । विङतीत्यनुवर्तनीयमिति तहि प्रष्टेत्येतत् छस्य शत्वाऽभावे 'यजसृज' २-१-८७ इति षत्वाभावे न सेत्स्यतीत्याह-यजादीत्यादि ।
मव्यविश्रिविज्वरित्वरेरुपान्त्येन ॥ ४. १. १०१॥ .
शकारस्य स्थानी छ इह न संभवतीत्यूडेवानुवर्तते। मव्यादीनामनुनासिकादौ क्वौ धुडादौ च प्रत्यये वकारस्योपान्त्येन सहोड् भवति । मव-मोमा, मः, मुवी, मुवः, मूतिः।। यङ्लुपि-मामोति, मामूत: । अव-ओम् , औणादिको म-प्रोमा ऊ:-उवौ उवः, ऊतिः । श्रिव-श्रोमा, श्रूः, श्रुवौ, श्रुवः, भूतः, श्रूतवान् , भूतिः, शेश्रोति, शेभूतः । ज्वर,-जूर्मा, जू:, जूरी, जूरः जूतिः, जाति, जाजूर्तः । त्वर्-तुर्मा, तूः, तूरौ, तूरः, तूर्णः, तूर्णवान् , तूतिः, तातूर्ति, तातूतः । ज्वरत्वरोरुपान्त्यो वकारात्परः । श्रिव्यविमवां तु पूर्वः ॥१०॥
राल्लुक ॥ ४. १. ११०॥
रेफात्परयोर्धातोश्छकारवकारयोरनुनासिकादौ क्यो धुडादौ च प्रत्यये लुग्भवति शूटोऽपवादः । मुर्खा, हुर्छा, मोर्मा, होर्मा, मूः. मुरौ, मुरः, हू:, हुरौ, हुर , मूर्तः, मूर्तवान् , मतिः हर्णः, हूणवान् , हूतिः, मोमोति, जोहोति, तुर्वे, धुर्वे, तोर्मा, धोर्मा, तूः तुरौ, तुरः, धः धरौ, धुरः, तूर्णः, तूर्णवान् , तूतिः, घूर्णः, धूर्णवान् , धूतिः । धूर्त इति त्वौणादिकः । अनुनासिकादावित्येव,-मूर्छा, तूर्विता ।।११०।।
न्या० स०-राल्लुक -मोमेति-अत्र गुणे कर्तव्ये 'भ्वादे मिन:' २.१.६३ इति शास्त्रमसदिति गुणः, एवं धोर्मेत्यत्रापि । धूर्ण इति यद्यत्र णकारस्तत्कथं धूर्त इत्याहधूर्त इतीति।
क्तेऽनिटश्वजोः कगौ घिति ॥ ४. १. १११ ॥
क्तेऽनिटो धातोश्चकारजकारयोः स्थाने घिति प्रत्यये यथासख्यं कगौ भवतः । पाकः, सेकः, पाक्यम् , सेक्यम् , त्यागः, रागः, भोग्यम् , योग्यम् , संपर्को, संसर्गो । क्तेऽनिट इति किम् ? संकोचः, कूजः, खयः, गर्व्यः, परिवाज्यम् , उदाजः, समाजः, नन्वजेः
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पाद-१, सूत्र-- ११२-११३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १०५
क्तेऽनिटत्वात् गत्वं प्राप्नोति ? नैवम् , क्तेऽनिट इति विद्यमानस्य विशेषणम् , अजेस्तु वीभावेन असत्त्वाद् गत्वं न भवति । क्त इति किम् ? अर्चः, अय॑म् , याच्यम् , रोच्यम् । अर्चादयो हि अर्कः याचा रुक्ममिति प्रयोगेष्वनिटोऽपि क्ते सेट इति कत्वं न भवति । घितोति किम् ? पचनम् , त्यजनम् ।। १११।।
न्या० स० - क्तेऽनिट:-असत्त्वादिति-अविद्यमानत्वात् , यदि क्तकालेऽविकृतत्वात् धातोविद्यमानस्याऽनिटत्वं भवति तदेत्यर्थः ।
न्यबृद्गमेघादयः ॥ ४. १. ११२ ॥
न्यवादयः कृतकत्वा उद्गादयः कृतगत्वा मेघादयः कृतघत्वा निपात्यन्ते । न्यञ्चेरुप्रत्यये न्यकुः । तश्चिवञ्चिशुचीनां रकि तक्रम् , वकम् , शुक्रः, शुचिरुच्योनि शोकः, रोकः । क्ते सेट्वान्न प्राप्नोति । घोऽन्यत्र शोच्यम् , रोच्यम् , श्वपाकः, मांसपाकः, पिण्डपाकः, कपोतपाकः, उलूकपाक: । पचेः 'कर्मणोऽण' (५-१-७२) इत्यणि सति, प्रणभावे श्वपच इत्यादि। नीचेपाकः, दूरेपाकः, फलेपाकः, क्षणेपाकः । पचेर्नीचे पच्यते नीचे पच्यते स्वयमेवेति कर्मकर्तर्यचि दीर्घत्वं च निपातनात् । 'तत्पुरुषे कृति' (३-२-२०) इति बहुलाधिकारात् सप्तम्या अलुप् । उकारान्ता अपि गणे पठ्यन्ते । नीचेपाकुः, फलेपाकुः, दूरेपाकुः, क्षणेपाकुः, अत एव निपातनादुकारः । नोचेपाका, दूरेपाका, फलेपाका, क्षणेपाका इत्यावन्ता अपि । अनुबवीतीत्यच-अनुवाकः. सोमं प्रवक्तीत्यण-सोमप्रवाकः, उचेः न्युच्यति समवैतीति लिहाचि न्योको वृक्षः शकुन्तो वा। उब्जेनि-उद्गः, समुद्गः, न्युद्गः, अभ्युद्गः । क्ते सेट्त्वाद्गत्वमुपान्त्यस्य च दत्वं निपात्यते । सजेः कर्तर्यचि-सर्गः, विसर्गः, अवसर्गः, उपसर्गः । षञ्जरचि-व्यतिषङ्गः, अनुषङ्गः मस्जेरुः, मद्गुः, भ्रस्जे: कुः सलोपश्च । भृगुः, युजे: 'कर्मणोऽण्' (५.१-७२) इत्यणि गोयोगः मिहेरचि संज्ञायां हस्य घत्वम्-मेघः, अन्यत्र मेहः। वहेरनुपर्सगस्य वस्योकारश्च । वहतीत्योघः प्रवाहः । अनुपसर्गस्येत्येव,प्रवहः, विवहः, परिवहः, संवहः उद्वहः, अभिवहः, निवहः । संज्ञायामित्येव,-वहः । दहेन्यवाभ्यां घजि निदाघः ऋतविशेषः । अवदाघः केवलपानीयपक्वोऽषपः । संज्ञायामित्येव,निदाहः, अवदाहः । अर्हतेघनि अर्को मूल्यम् पूजाद्रव्यं च । संज्ञायामित्येव,-अर्हः एवमविहितलक्षणानि कत्वगत्वचत्वानि द्रष्टव्यानि ॥११२।।
न्या० म० न्यङ्कद्-अनुवाक इति-पाठविशेषः गणपाठाद्दीर्घत्वम् । व्यतिषङ्ग इति-व्यतिषजतीति क्रियाव्यतिहारे व्यतिषजते इति वाऽच्, 'स्थासेनि' २-३-४० इति षत्वम् ।
मदगुरिति-अत्र जस्य गत्वे कृते निमित्ताऽभाव इति दन्त्यसकारभावे दन्त्यसकारस्थाने 'तृतीयस्तृतीय' १.३.४९ इति दन्त्यसस्य तृतीयो दकारः।
न कञ्चेर्गतौ ॥ ४. १. ११३ ॥
वञ्चेर्गतौ वर्तमानस्य कत्वं न भवति, वञ्चेर्घञ् । वञ्च वञ्चति, गन्तव्यं गच्छतीत्यर्थः ।
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___ १०६ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद-१, सूत्र-११४-११७
पर्येते व्यायवाण्यसंकुलं वित्तवत्तमा. ।
रात्रावपि महारण्ये वञ्च वञ्चन्ति वाणिजाः' ॥१॥ गताविति किम् ? वङ्ककाष्ठं कुटिलमित्यर्थ ।।११३।।
न्या० स०-न वञ्चेर्ग०-व्याधवार्केष्यसंकुले इति-वृक एव 'वृकाट्टेण्याण' ७-३-६४, व्याधश्च वाग्यश्च समासे कृते 'वान्येन' ६-१-१३३ इति विभाषया न लुप् वार्केण्य बहुत्वात् ।
यजेर्यज्ञाङ्ग ॥ ४. १. ११४ ॥
यज्ञाङ्ग वर्तमानस्य यजेर्जस्य गत्वं न भवति । पञ्च प्रयाजाः, त्रयोऽनुयाजाः, एकादशोपयाजाः, उपांशुयाजाः, पत्नीसंयाजाः, ऋतुयाजाः । पञ् याज इत्यप्यन्ये । यज्ञाङ्ग . इति किम् ? प्रयागः, अनुयागः, यागः ।।११४।।
न्या० स०-यजेर्यज्ञा०-पञ्च प्रयाजा इति-प्रेज्यन्ते एभिः 'व्यञ्जनाद् धन' ५-३-१३२, प्रयजनानि भावे घत्रि वा, एवं सर्वत्र भावेन बहुवचनेन च वाक्यानि ।
उपांशुयाजा इति-उपांशु एकान्ते यजनानि 'सप्तमी शौण्डाद्यैः' ३.१-८८ 'नाम्नि' ३-१-६४ वा समासः ।
ध्यण्यावश्यक ॥ ४. १. ११५ ॥
आवश्यकोपाधिके ध्यणि प्रत्यये परतो धातोश्चजोः कगौ न भवतः । अवश्यपाच्यम, अवश्यरेच्यम् , अवश्यरज्यम् , अवश्यभञ्ज्यम् । आवश्यके इति किम् ? पाक्यम् , रेक्यम् , रङ्ग्यम् , भङ्ग्यम् ॥११५॥
___ न्या० स० ध्यण्यावश्य-अवश्यपाच्यमित्यादिषु-'मयूरव्यंसक' ३-१-११६ इति सः, 'णिन् चावश्यक' ५-४-३६ इति घ्यण् ।
निप्राद्य जः शक्ये ॥ ४. १. ११६ ॥
निप्राभ्यां परस्य युजः शक्येऽर्थे गम्यमाने घ्यणि परे गो न भवति । नियोक्तु शक्यः, नियोज्यः, प्रयोज्यः । शक्य इति किम् ? नियोग्यः, प्रयोग्यः ॥११६।।
भुजो भक्ष्ये ॥ ४. १. ११७॥
भजो भक्ष्येऽर्थे ध्यणि परे गो न भवति । भोज्यमनम, भोज्या यवागूः भोज्यं पयः। भक्ष्य इति किम् ? भोग्यः कम्बलः प्रावरणीय इत्यर्थः । भोग्या अपूपाः पालनीया इत्यर्थः । भक्ष्यमभ्यवहार्यमात्रम् न खरविशदमेव । यथा अब्भक्ष्यो वायुमक्ष्य इति ॥११७॥
न्या० स० भूजो भ० - न खरविशदमेवेति कठोरप्रत्यक्षमित्यर्थः, अखरविशदमपि भक्ष्यं दृष्टमिति दृष्टान्तमाह-प्रबभक्ष्येति-आपो द्रवं रूपं न कठिनं प्रत्यक्षं त्वस्ति वायुस्तु कठिनो न प्रत्यक्षस्तस्यानुमानेन गम्यत्वात् तेन भोज्यं पय इत्यादि सिद्धम् ।
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पाद - १, सूत्र - ११८-१२१ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्याय:
त्यज-यज-प्रवचः ॥ ४. १. ११८ ॥
एषां ध्यणि कणौ न भवतः । त्याज्यम्, याज्यम् । अत एव प्रतिषेधाद्यजेर्घ्यणपि । प्रवचिग्रहणं शब्दसंज्ञार्थम्, प्रवाच्यो नाम पाठविशेषः, तदुपलक्षितो ग्रन्थोऽप्युच्यते, उपसर्गनियमार्थं वा । प्रपूर्वस्यैव वचेरशब्दसंज्ञायां प्रतिषेधो भवति नान्योपसर्गपूर्वस्य । अधिवाक्यं नाम दशरात्रस्य यज्ञस्य यदृशममहः । यस्मिन्याज्ञिका श्रधिवते तस्मिन्नेवाभिधानम् । अधिवाच्यमन्यत्र ॥ ११८ ॥
[ १०७
न्या० स० त्यजयजप्र० - श्रधिवाक्यं नामेति नानिष्टार्थेति न्यायादधिवाक्यप्रयोगाय नियमो नाऽन्यत्र तेनाधिवाच्यमित्यत्रोत्तरेण प्रतिषेधः । दशरात्रस्येति दशानां रात्रीणां समाहारो दशरात्रः दशरात्रनिष्पाद्यो यज्ञोऽपि दशरात्र उपचारात्, दशरात्रमस्यास्तीति अभ्रादित्वाद् वा अः । तस्मिन्नेवाऽभिधानमिति तत्रैव प्रपूर्वस्यैवेत्युपसर्गनियमस्येष्टिरित्यर्थः ।
वचोऽशब्दनानि ॥। ४. १. १११ ॥
अशब्दसंज्ञायां गम्यमानायां वचेर्घ्यणि को न भवति । वाच्यमाह, अवाच्यमाह । शब्द नाम्नीति किम् ? वाक्यं, विशिष्टः पदसमुदायः ।। ११९ ॥
भुजन्युब्जं पाणिरोगे । ४. १. १२० ॥
भुजेन पूर्वस्योब्जेव घञन्तस्य पाणौ रोगे चार्थे यथासंख्यं भुजन्युब्जौ निपात्येते । भुज्यतेऽनेनेति भुजः पाणिः, न्युब्जिताः शेरतेऽस्मिन् इति न्युब्जो नाम रोगविशेषः । व्यञ्जनाद् घञिति गत्वाभावो भुजेर्गुणाभावश्च निपात्यते । पाणिरोग इति किम् ? भोगः, न्युद्गः ।। १२० ।।
न्या० स०- भुजन्यु० - न्युद्ग - इत्यत्र न्यङक्वादित्वाद्गत्वं दत्वं च ।
वीरुन्न्यग्रोधौ ॥ ४. १. १२१ ॥
faपूर्वस्य रुहे: fraft न्यक्पूर्वस्य चाचि वीरुधन्यग्रोधशब्दौ धकारान्तौ निपात्येते । विरोहतीति वीरुत्, न्यग्रोहतीति न्यग्रोधः, अवरोध इत्यप्यन्ये ।। १२१ ।।
इत्याचार्य श्री हेमचन्द्र विरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनबृहद्वृत्तौ चतुर्थस्याध्यायस्य प्रथमः पादः ॥
कुर्वन् कुन्तलशैथिल्यं मध्यदेशं निपीडयन् । अङ्गेषु विलसन् भूमेर्भर्ताभूद्भीमपार्थिवः ॥ १ ॥ न्या० स० - वीरुन्न्यग्रो - वीरुदित्यत्र निपाताद्दीर्घः । इत्याचार्य श्री० चतुर्थस्याध्यायस्य प्रथमः पादः सम्पूर्णः ।
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अथ द्वितीयः पादः आत्संध्यतरस्य ॥ ४.२.१॥
धातोः सन्ध्यक्षरान्तस्याकारो भवति निनिमित्तः । व्यंग-संव्याता, देङ्-दाता, म्लैं-म्लाता, शों निशाता । अनैमित्तिकत्वादात्वस्य प्रागेव कृतत्वादाकारान्तलक्षण: प्रत्ययो भवति । सग्लः, सम्लः, सग्लानम, सम्लानम् । धातोरित्येव,-गोभ्याम, नौम्याम । संध्यक्षरस्येति किम् ? कर्ता । इह लाक्षणिकत्वान्न भवति-चेता, स्तोता ॥१॥
न्या० स०-आत् संध्यक्ष०-निनिमित्त इति-उत्तेरण सह पृथग्योगात् । . न शिति ॥ ४. २.२॥
धातोः संध्यक्षरान्तस्य शिति प्रत्यये वि कारोन भवति । ग्लायति, मलायति, संव्ययति ॥२॥
न्या० स०-न शिति-ग्लायतीति-गुण इति सान्वय संज्ञा समाश्रयणादऽत्र गुणाभावः, यतः सतो विशेषाघानं गुणः, अत्र त्वैकारस्य एकारे कर्तव्ये न तथा, समासान्तागमेति न्यायाद् वा न गुणः । गुण इति हि संज्ञा ।
व्यस्थवणवि ॥ ४.२.३॥
व्ययतेस्थवि वि च विषयभूते प्राकारो न भवति । संविव्ययिथ, संविव्याय, अहं संविव्यय । थवणवीति किम् ? संव्याता, संव्यातुम् । केचित्तु परोक्षामात्रे आत्वप्रतिषेधमिच्छन्तो व्येगो वृद्विधि विकल्पयन्ति । तेन त्वक्त्रः संविध्ययुर्वेहान इति सिद्धम् । तदपरे पाठभ्रम एवायमिति मन्यन्ते, त्वक्त्रः संविव्युरङ्गानि इति तु सम्यक्पाठः। एवं
____ 'संविव्ययुर्वसनचारु चमूसमुत्थं, पृथ्वीरज: करभकण्ठकडारमाशाः' । इत्यत्रापि संविव्युरम्बरविकासि चमूसमुत्थमिति सत्पाठः ॥ ३ ॥
स्फुर-स्फुलोजि ॥ ४. २. ४ ॥
स्फुरस्फुलोर्घजि संध्यक्षरस्याकारो भवति । विस्फारः, विस्फालः, विष्फारः, विष्फालः । 'वे:' (२-३-५४) इति वा षत्वम् । घनीति किम् ? विस्फोरकः ॥४॥
२-.26 वापगुरो णमि ॥४. २.५ ॥
अपपूर्वस्य गुरति इत्यस्य धातोः संध्यक्षरस्य स्थाने णमि प्रत्यये परे आकारादेशो वा भवति । अपगारमपगारम , अपगोरमपगोरम् । आभीक्ष्ण्ये रुणम् द्वित्वं च । अस्यपगारं युध्यन्ते । अस्यपगोरं युध्यन्ते । 'द्वितीयया' ( ५-४-७८ ) इति णम् ॥५॥
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पाद-२, सूत्र-६-८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१०६
न्या० स०-वापगु०-अपगारमपगारमिति-अभीक्ष्णमपगय अपगुरणं पूर्व वा । ननु रुणम् प्रत्ययेनैव आभीक्ष्ण्यस्योक्तत्वात् द्वित्वं न प्राप्नोति ? न, शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् केवलख्णम् आभीक्ष्ण्यं न द्योतयतीति द्वित्वमपेक्षते ।
दीङः सनि वा ॥ ४. २. ६ ॥
दोङः सनि परे आत्वं वा भवति । दिदासते, दिदीपते, उपदिदासते, उपदिदीपते ॥६॥
यबक्ङिति ।। ४. २. ७ ॥
दीङो यपि अङिति च प्रत्यये विषयभूते आकारोऽन्तादेशो भवति । उपदाय, उपदाता, अवदाय, उपदातुम् , उपदातव्यम् , उपादास्त । विषयसप्तमीनिर्देशात्पूर्वमेवात्वे सति ईषदुपादानः उपादायो वर्तते इत्यत्र आकारान्तलक्षणोऽन: घ च भवति ।
यबविडतीतो किम् ? दोनः, उपदीयते, उपदेदीयते, सानुबन्धनिर्देशाधङ्लुपि न भवति,-उपदेदेति ।।७।।
न्या० स०-यबक्ङिति-ईषदुपादान इति-ईषदऽनायासेनोपादोयते 'शासयुधि' ५-३-१४१ इत्यनः । उपदायो वर्तत इति-यदा उपादान मिति भावविवक्षा तदा 'युवर्ण' . ५-३-२८ इत्यऽल्विषये आत्वे भावाऽकोंर्घत्र , यदा तु उपदीयते इति कर्तृ विवक्षा तदाऽपि णकविषये आत्वे 'तन्व्यधी' ५-१-६४ इति णः, एतदपि विषयव्याख्याफलम् । ननु णं बाधित्वा उपसर्गाद विशेषेण 'उपसर्गादात:' ५-३-११० इति डो भविष्यतीति वाच्यं? न, यतस्तस्मिन् कर्तव्ये बाहुलकादात्वं नेष्यते इति महाभाष्येऽभाषिष्ट ।
घञ्च भवतीति-ननु घत्रः कथमाकारान्तलक्षणत्वमादन्तेभ्योऽप्यन्यत्रापि सामान्येन तस्य विधानात् ? उच्यते, घोप्याकारान्त लक्षणत्वं सामान्यमऽस्ति, यतः आकाराऽभावे ईदन्तत्वादऽल् स्यात् ।
मिग्मीगोऽखलचलि ॥ ४. २. ८ ।।
मिनोतिमीनात्योर्यपि खलचल्वजितेऽङिति च प्रत्यये विषयभूत प्राकारान्तादेशो भवति । निमाय, निमाता, निमातुम् , निमातव्यम् , न्यमासीत् । मोग-प्रमाय, प्रमाता, प्रमातुम् , प्रमातव्यम् , प्रामासीत् । प्रखलचलोति किम् ? ईषन्निमयः, दुष्प्रमयः । अचि-मयः, आमयः । अलि-निमयः, प्रमयः । सानुबन्धनिर्देशो यङ्लुनिवृत्त्यर्थः । निमेमेति, प्रमेमेति ।
____यबक्ङितीत्येव,-निमितः, प्रमीत:, निमेमीयते, प्रमेमीयते। मिगमोग इति किम् ? मीच हिंसायामिति देवादिकस्य माभूत । मेता, मेतुम् । अस्याप्यात्वमिच्छन्त्यन्ये । माता, मातुम् ।।८।।
न्या० स०-मिग्मीगो०-निमायेति-तृविषये आत्वे 'तन्व्यधी' ५-१-६४ इति णे निमाय इति विसर्गान्तमपि, तर्हि निमातेति कथम् ? उच्यते, असरूपत्वात्तुचपि । देवादिकस्येति-उपलक्षणत्वान्मीणगतावित्यस्यापि ।
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११० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद-२, सूत्र-९-१२ लीड्-लिनोर्वा ॥ ४. २. १ ॥
लीयतेलिनातेश्च यपि खलचल्वजितेऽक्ङिति प्रत्यये च विषयभूते आकारोऽन्तादेशो वा भवति ।
विलाय, विलीय, विलाता, विलेता, विलास्यते, विलेष्यते, विलास्यति, विलेष्यति, व्यलासीत , व्यलषीत् । अखलचलीत्येव,-ईषद्विलयः, विलयः, विलयो वर्तते । यबक्ङितीत्येव,-लोनः, विलीनः, लीयते, लेलीयते, लिनाति । डिल्लुप्ततिवोनिर्देशाङ्लुपि न भवति-लेलेति । ली द्रवीकरण इति यौजादिकस्य च न भवति-विलयति ।।६।।
न्या० स-लोलिनोर्वा-णे विलाय इत्यपि सिद्धम् । लीन इति-'ऋल्वादेः' ४.२-६८ इति कैयादिकस्य देवादिकस्य 'सूयत्याद्यो' ४-२-७० इति नत्वम् ।
णौ क्री-जीङः ॥ ४. २. १० ॥
क्रींग , जि, इङ् इत्येतेषां गौ परे आकारोऽन्तादेशो भवति । क्रापयति, जापयति, अध्यापयति ॥१०॥
सिव्यतेरज्ञाने ॥ ४. २. ११ ॥
पिधच संराद्धावित्यस्याज्ञाने वर्तमानस्य णौ परतः स्वरस्याकारो भवति । मन्त्रं साधयति, तपः सापयति, अन्नं साधयति सामिकेभ्यो दातुम् ।
अज्ञान इति किम् ? तपस्तपस्विनं सेष्यति, सिध्यति जानीते तपस्वी ज्ञानविशेषमासादयति तं तपः प्रयुङ्क्ते इत्यर्थः । स्वान्येवैनं कर्माणि सेधयन्ति । अस्य अनुभवविशेषमुत्पादयन्तीत्यर्थः । सिध्यतेरिति किम् ? षिधू गत्यामिति भौवादिकस्य मा भूत् । अन्नं सेधयति, तपः सेधयति । साधिनैव सिद्धे सिध्यतेरज्ञाने सेधयतीति प्रयोगनिवृत्त्यर्थं वचनम् ।।११।।
न्या० स०-सिध्यतेर०-स्वरस्याकार इति-संध्यक्षरप्रस्तावात् स्वरस्येति लभ्यतेऽन्यथा 'षष्ठ्या अन्त्यस्य' ७.४.१०६ इति न्यायात् धकारस्यैव स्यात् ।
__सामिकेभ्य इति-समानो धर्मः सधर्मः स प्रयोजनमेषां 'प्रयोजनम्' ६-४-११७ इतीकण् , समानो धर्मोऽस्येति बहुव्रीहौ तु 'द्विपदाधर्मादऽन्' ७-३-१४१ स्यात् । कर्माणि सेधयन्तीति-सिध्यति अनुभवविशेषमासादयति तमेनं तपस्विनं कर्माणि प्रयुञ्जते । अनुभवविशेषमिति-अनुभवः साक्षात्कारः स च ज्ञानमेव ।
वि-स्फुरोर्नवा ॥ ४. २. १२ ॥
चिनोतेः स्फुरतेश्च णौ परे स्वरस्यात्वं वा भवति । चापयति, चाययति, स्फारयति, स्फोरयति ॥१२॥
न्या० स०-चिस्फुरो०-स्फरस्फलत् स्फुरणे इत्यनेनैव सिद्धे स्फुरेरात्ववचनं ण्यन्तात्सनि पुस्फारयिषतीत्येवमऽर्थम् ।
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पाद-२, सूत्र १३-१७ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१११
वियः प्रजने ॥ ४. २. १३ ॥
प्रजनो जन्मन उपक्रमो गर्भग्रहरणम् । तस्मिन् वर्तमानस्य वी इत्येतस्य णौ परे आत्वमन्तादेशो वा भवति । पुरो वातो गा प्रवापयति, प्रवाययति गर्भ ग्राहयतीत्यर्थः । वातेः प्रजने वृत्ति स्तोत्यारम्भः ॥१३॥
न्या० स०-विय-प्र०-प्रजननं घत्र , 'न जनवधः' ४-३-५४ इति वृद्धिनिषेधः । ___पुर इति-पूर्वस्या दिश आगतः, 'पूर्वावराधरेभ्योऽस्' ७-२-११५, प्रवापयतीतिप्रवियतीः प्रयुङ क्ते।
रुहः पः॥४. २.१४॥ .
रुहेणौ परतः पकारोऽन्तादेशो वा भवति । रोपयति व्रीहीन , रोहयति व्रीहीन , रोहत्यर्थे रुप्यतिर्न दृश्यते इति योगारम्भः ॥ १४ ॥
लियो नोऽन्तः स्नेहवे ॥ ४. २. १५ ॥
ली इति लोग्लीडोः सामान्येन ग्रहणम् , लियः स्नेहद्रवेऽर्थे गम्यमाने णौ परे नोऽन्तोऽवयवो वा भवति । घृतं विलीनयति, घृतं विलालयति, णौ वद्धावायादेशः । लिय ई ली इति ईकारप्रश्लेषात् ईकारान्तस्यैव भवति । कृतात्वस्य तु वक्ष्यमाणो लकारपकारौ भवतः ।
घृतं विलालयति, विलापयति । स्नेहद्रव इति किम् ? यो विलाययति । पूर्वान्तकरणात व्यलोलिनादित्यत्रोपान्त्यह्रस्वो भवति । एवमुत्तरेष्वपि ॥१५॥
न्या० स०-लियो नोन्त:-लिय ई: लीस्तस्य उभयोः स्थाने इति न्यायात् समानानामिति दीर्धेऽपि इयादेशः । लोग्लीङोरिति-उपलक्षणत्वाल्लीण् इत्यस्यापि ।
लोलः॥ ४. २. १६ ॥
लाते। इत्यस्य च कृतात्वस्य स्नेहवेऽर्थे णौ परे लोऽन्तो वा भवति । घृतं विलालयति, घृतं विलापयति, घृतं व्यलीललत् । स्नेहद्रव इत्येव,-जटाभिरालापयते, श्येनो वर्तिकामुल्लापयते । लोलिनोऽर्चाभिभवे चाच्चाकर्तर्यपि' ( ३-३-६० ) इत्यनेनात्वमात्मनेपदं च ।। १६ ॥
पातेः ॥ ४. २. १७॥
पृथग्योगाद्वेति निवृत्तम् , पांक रक्षणे इत्येतस्य णौ परे लोऽन्तो भवति । पालयति, अपीपलत् । 'पलण रक्षणे' इति चौरादिकेनैव सिद्धे पातेोऽन्तः स्यादिति वचनम् । तिवनिर्देशो धात्वन्तरनिवृत्त्यर्थः । पा पाने, मैं शोषणे वा, पाययति । यङ लुनिवृत्त्यर्थश्च । पापाययति ।। १७ ॥
न्या० स०- पाते:-पापाययतीति-भृशं पाति यङ् लुप् द्वित्वं पापतं प्रयुङ क्ते ।
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११२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-१०-२१
धूग-प्रीगोर्न ॥ ४. २. १८ ॥
धगप्रोगइत्येतयोणौ परे नोऽन्तो भवति गट धूगश् धूग्ण वा धनयति, अदूधुनत् । प्रीश् प्रोग्ण वा, प्रोणयति अपिप्रिणत् । यौजादिकयोर्नेच्छन्त्येके । धावयति, प्राययति । अनुबन्धनिर्देशो यङ्लुबनिवृत्यर्थः । दोधावयति, पेप्राययति । धुवतिप्रीयतिनिवृत्त्यर्थश्चधावयति, प्राययति ।। १८ ।।
वो विधूनने जः ॥ १. २. ११ ॥
वा इत्येतस्य विधननेऽर्थे णौ परे जोऽन्तो भवति । पक्षण उपवाजयति, पुष्पाणि प्रवाजयति, अवीवजत् । विधनन इति किम् ? प्रो, केशानावापयति-शोषयतीत्यर्थः । वजिनैव सिद्ध वाते रूपान्तरनिवृत्त्यथं वचनम् ।। १६ ॥
न्या० स०-वो विधनने-उपवाजयतीति-वांक इत्यऽस्य न तु 4 ओर्वे इत्यस्य विधूनने वत्त्यऽभावात् , न च वाच्यं विधूनन इति व्यावृत्तेयङ्गवैकल्यं सूत्रे व इति सामान्य भणितेः ।
प्रा-शा-छा-सावेव्याहो यः ॥ १. २. २० ॥
एषां णौ परे योऽन्तो भवति । पां पाने, मैं शोषणे वा पाययति । पातेस्तु लकार उक्तः । शोंच-शाययति, छोंच अवच्छाययति, सों से वा-प्रवसाययति, वेग वाययति, वे इत्यनात्वेन निर्देशो वांक-गतिगन्धनयोः, ओवै शोषणे इत्यनयोनिवृत्त्यर्थः-वापयति, व्यंग-व्याययति,-हूंग-ह्वाययति । अपीपयत् , अशीशयत् इत्यादि । एषां कृतात्वानां ग्रहणादिह प्रकरणे लाक्षणिकस्यापि ग्रहणं भवति । तेन कापयतीत्यादि सिद्धम् , पोरपवादो योगः ।। २० ॥
न्या० स०-पाशाच्छा०-अपीपयदिति-पं शोषणे इत्यस्येदं पिबतेस्तु 'हुः पिबः' ४-१-३३ इत्यनेन पीप्यादेशेऽपीप्यदिति भवति ।
अति-री-ब्ली-ही-क्नू-यिक्ष्माय्यातां पुः ॥ ४. २. २१ ॥
एषामाकारान्तानां च धातूनां गौ परे पुरन्तो भवति । अर्तीति 'ऋगतो' 'ऋ प्रापणे चेत्यनयोर्ग्रहणं सामान्यनिर्देशात् । अर्पयति, तिनिर्देशो यङ्लुपनिवृत्त्यर्थः । अरारयति, अरियारयति ।
रीति रोयतिरिणात्योहणम्-रेपयति,-क्ली-ब्लेषयति, ही,-हेषयति, यि,कोपयति, मायि-मापयति, प्रादन्त,-दापयति, धापयति, जापयति, कापयति, अध्या. पयति, अदीवपत् । बहुवचनं व्याप्त्यर्थम् । तेन नाम्नोऽपि, सत्यापयति, अर्थापयति, वेदापयति, प्रिय,-प्रापर्यात, स्थिर-स्थापयति, स्फिर-स्फापयति, पोरकारः 'पुष्पौ' (४-३-३) इत्यत्र विशेषणार्थः ।।२१।।
न्या० स०-अत्तिरी०-अरारयतीति-आरतं प्रयुक्ते, अरियारयतीति-यङलुप् 'रिरौ च लुपि' ४-१-५६ इति रिः रीर्वा ततोऽरियतं, मतेनाऽयतं वा प्रयुङक्ते । अदीद
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पाद - २, सूत्र - २२-२४ ]
श्री सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ ११३
पदिति - 'मिमीमादामित्स्वरस्य' ४-१ - २० इत्यनेन मूलधातोरित्कार्यमऽद्वित्वं च भवति, तेनाऽत्र 'असमान लोपे ' ४-१-६३ इत्यनेन पूर्वस्य इल्लक्षणं सन्वत्कार्यं न भवति ।
स्फायू स्फाव् ।। ४. २. २२ ॥
स्फायतिणौ परे स्फाव् इत्ययमादेशो भवति । स्फावयति । अभेदनिर्देशोऽन्ताधिकारनिवृत्त्यर्थः ।। २२ ।।
शदिरगतौ शात् ॥ ४. २. २३ ॥
शीयते रगतावर्थे णौ परे शात् इत्ययमादेशो भवति । पुष्पाणि शातयति । अगताविति किम् ? गोपालको गाः शादयति, गमयतीत्यर्थः ||२३||
वस्तु वा ञिणम्परे ॥ ४. २. २४ ॥
घटादीनां धातूनां णौ परे ह्रस्वो भवति, त्रिणम्परे तु णौ दीर्घो वा भवति । घटयति, प्रघाटि, अघटि, घाटघाट, घटघटम्, व्यययति, अव्याथि, अव्यथ, व्यार्थव्याथम्, व्यर्थव्यथम्, हिडयति, अहीडि, प्रहिडि, हीडंहीडम, हिडंहिडम्, अक्षाञ्जि, प्रक्षञ्जि, क्षाक्षाञ्ज, क्षञ्जक्षञ्जम्, अदाक्षि, अदक्षि, दाक्षंदाक्षम्, दक्षंदक्षम्, क्षजिदक्ष्यादीनां ' घटादिपाठवलादनुपान्त्यस्यापि वा दीर्घः ।
वाणिम्पर इत्येव - हस्वविकल्पेन सिद्धे दीर्घग्रहणं हेडेरिकारस्य दीर्घत्वार्थम्, ह्रस्वविकल्पे हि पक्षे एकारश्रुतिः स्यात्, णिग्यव्यवहितेऽपि णौ ञिणम्परे दीर्घत्वार्थं च । णिग्व्यवाये, शमयन्तं प्रयुङ्क्ते, णिग् तदन्तात् ञौ णमि, प्रशामि, अशमि, शामंशामम्, शमंशमम् । यद्व्यवाये, शंशमयतेञौ णमि च अशंशामि, अशंशमि, शंशामंशंशामम्, शंशमंशंशमम् । अत्र योऽसौ णौ णिलुप्यते यश्च यङोऽकारस्तस्य स्थानिवद्भावेन घटादीनां व्यवहितत्वात् आनन्तयं नास्तीति । ञिणम्परे णौ न स्याद् हस्वविकल्पः । दीर्घग्रहणे तु दीर्घविधि प्रति स्थानिवद्भावप्रतिषेधादानन्तर्यमेवेति सिध्यति ।
घटिष् चेष्टायाम्, क्षजुङ् गतिदानयो:, व्यथिष् भयचलनयोः, प्रथिष् प्रख्याने, प्रदिष् मर्दने, स्वदिष् खदने, कटुङ क्रटुङ् क्लदुङ् वैक्लव्ये, क्रपिष् कृपायाम्, जित्वरिष् संभ्रमे, प्रसिषे विस्तारे, दक्षि हिंसागत्योः, श्रां पाके, स्मृ' आध्याने, दु मये, नू नये, ष्टकस्तक प्रतीघाते, चक तृप्तौ च, अंक कुटिलायां गतौ, कखे हसने, अग् अक्वत्, रंगे शङ्कायाम्, लगे सङ्गे, हगे, लगे, षगे, सगे, ष्टगे, स्थगे संवरणे, वटभट परिभाषणे, गट नृत्तौ, गड सेचने, हेड वेषने, लड जिह्वोन्मथने, फणकणररण गतौ, चण हिंसादानयोश्च शणश्ररण दाने, स्नथ, वनथ, क्रथ, क्लथ हिंसार्थाः, छद ऊर्जने, मदे हर्षग्लपनयोः, ष्टनस्तध्वन शब्दे, स्वन अवतंसने, चन हिंसायाम्, ज्वर रोगे, चल कम्पने, ह्वल ह्मल चलने, ज्वल दीप्तौ चेति घटादयः, फणिमेके घटादिमनिच्छन्तो गतावपि फाणयतीत्याहुः ||२४||
न्या० स० घटादेहस्वोट - हेडेरिकारस्य दीर्घत्वार्थमिति न च वाच्यं क्षञ्जेरपि दीर्घत्वार्थं यतस्तस्याऽनेन ह्रस्वविकल्प सामर्थ्यादेव अनुपान्त्यस्यापि णिति' ४-३-५०
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११४ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद २, सूत्र-२५-२७
इति दीर्घः स्यात् । शंशामशंशाममिति-कश्चिद्व्यावहरिष्यति नात्र शमः संबन्धी णिः किन्तु संशंशम: ? न, तत्संबन्धिव्याख्यानाभावात् , यथा 'स्त्रिया ङितां वा' १-४-२८ ।
कगे-वनू-जन-जष्-कन-सञ्जः॥ ४. २. २५ ।।
एषां णौ परे ह्रस्वो भवति, त्रिणम्परे तु णो वा दो? भवति । कगे-कगयति, अकागि, अगि, कागंकागम् , कगंकगम् । वन्-उपवनयति, उपावानि, उपावनि, अवानि, अवनि, उपवानमुपवानम् , उपवनमुपवनम् , वानवानम् , वनवनम् । जन-जनयति, अजानि, अजनि, जानजानम् , जनंजनम् , जृष् जरयति, अजारि, अजरि, जारंजारम् , जरंजरम् । क्नस्-क्नसयति, अक्तासि, अक्नसि, क्नासंक्नासम् , सक्नसम् , रजि-रजयति मृगाव्याधः, अराजि, अरजि, राजराजम् , रंजरजम् ।
___ 'णो मृगरमणे' ( ४-२-६१ ) इति नलोपः । नलोपे वचनस्य चरितार्थत्वात नलोपाभावे,-अरञ्जि,-रजंरञ्जम् इत्यत्र वा दीर्घो न भवति । केचित्तु 'रुणसूच निरसने' इत्यस्यापीच्छन्ति । स्नसयति, कगे इति सौत्रो धातुः । एकारश्चदित्कार्यार्थः । अकगीत वनू इत्यूकारनिर्देशात वन भक्तौ इत्यस्य न भवति । वानयति, अवानि, वानवानम् इह घटादयः पठितार्था एव गृह्यन्ते । अर्थान्तरे तूद्घाटयति, श्रापयति, स्मारयति, दारयति, नाटयति, लाडयति, फाणयति, छादयति, प्रमादयति, ध्वानयति, स्वानयति, चालयतीत्यादि । कगादीनां तु अर्थविशेषो नोपादीयते ॥२५॥
न्या० स०-कगेवन-अकगीदिति-व्यञ्जनादेर्वोपान्त्यस्यात:' ४-३-४७ इत्यनेन वृद्धिः प्राप्ता 'न शिव जागृ' ४-३-४९ इति एदित्वान्न भवति । एके कगे धातु सर्वधात्वर्थेषु मेनिरे, यथा कगति याति भुङ क्ते सरतीत्यादि । अन्ये कगे नोच्यते इत्यर्थे जगुः, यथा कगति न वक्तीत्यर्थः । न लोपाभावे इति-मृगरमणाऽभावे न लोपाऽप्रवृत्तेरित्यर्थः । अर्थविशेषो नोपादीयते इति-पूर्वेण पृथग्योगादित्यर्थः ।
अमोऽकम्यमि-चमः ॥ ४. २. २६ ॥
कम्यमिचमिवजितस्यामन्तस्य धातोणी परे ह्रस्वो भवति, त्रिणम्परे तु णौ वा दी? भवति । रमयति, प्ररामि, अरमि, रामरामम् , रमरमम् , दयमति, अदामि. अदमि, दामंदामम् , दमंदमम् । कथं संकामयति, संक्रामन्तं करोतीति ? शत्रन्ताणिचि भविष्यति ।
अकम्यमिचम इति किम् ? कामयते, अकामि, कामकामम् , प्रामयति, आममामम् , आचामयति, आचामि, आचाममाचामम् ।।२।।
पर्यपात्स्खदः ॥ ४. २. २७ ॥
पर्यपाभ्यामेव परस्य स्खदेणौ परे ह्रस्वो भवति, त्रिणम्परे तु वा दीर्घः । परिस्खदयति, पर्यस्खादि, पर्यस्खदि, परिस्खादंपरिस्खादम् , परिस्खवंपरिस्खदम् , अपस्खदयति, अपास्खादि, अपास्खदि, अपस्खादमपस्खादम्, अपस्खदमपस्खदम्, प्रवादप्यन्ये, अवस्खदयति।
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पाद-२, सूत्र-२८-३० ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ ११५
स्खदेघटादिपाठेन सिद्ध नियमाथं वचनम् । अन्योपसर्गपूर्वस्य माभूत ,-प्रस्खादयति । अन्ये तु निषेधाधिकारे 'अपपरिस्खदा' इति पठित्वा पर्यपपूर्वस्य स्खनिषेधमिछन्ति-तन्मते परिस्खादयति, पर्यस्खादि, परिस्खादंपरिस्खादम् , एवमपस्खादयतीत्यादि । पर्यपाभ्यामन्यत्र प्रस्खदयति, प्रास्खादि, प्रास्खदि, इत्यादि भवति ॥२७॥
___ न्या० स०-पर्यपात्स्खदः०-अन्योपसर्गपूर्वस्येति-अत्र विपरीतनियमो न भवति, 'एकोपसर्गस्य' ४-२-३४ इत्यत्र व्याप्त्या एकोपसर्गग्रहणेन परिच्छद इत्यत्र ह्रस्वविधानसामर्थ्यात् ।
शमोऽदर्शने ।। ४. २. २८ ॥
अदर्शनेऽर्थे वर्तमानस्य शमणौ परे ह्रस्वो भवति, भिणम्परे तु वा दीर्घः । शमयति रोगम् , निशमयति श्लोकान् , अशामि, अमि, शामंशामम् , शमंशमम् । अदर्शन इति किम् ? निशामयति रूपम् , दर्शन एव केचिदिच्छन्ति, तेषामुदाहरणप्रत्युदाहरणयोविपर्ययः ॥ २८ ॥
यमोऽपरिवेषणे णिचि च ॥ ४. २. २१ ॥
अपरिवेषणे वर्तमानस्य यमेणिच्यणिचि च णौ परे वा ह्रस्वो भवति, भिणम्परे तु णौ वा दीर्घः । यमयति, अयामि, अयमि, यामयामम्, यमंयमम् । अपरिवेषण इति किम् ? यामयति अतिथीन् , यामयति चन्द्रमसम् । यमः परिवेषण इत्यन्य-तन्मते उदाहरणप्रत्युदाहरणयोयत्यासः ।
__णाविति सिद्धे अस्य णिचि चेति वचनात् अन्येषां णिचि न भवति । स्यमिण वितर्के, स्यामयते, अस्यामि, स्यामस्यामम् , शमिण-आलोचने, निशामयते, न्यशामि, निशामंनिशामम् ।। २६ ।।
न्या० स०-यमोऽपरिवेषणे-परिवेषणे इति-परिवेषणमिह भोजनविषयि परिवेषणं सूर्यादिवेष्टनं च गृह्यते । यामयत्यतिथीनिति-परिवेषणक्रियया तान् व्याप्नोतीत्यर्थः ।
णाविति सिद्ध इति-अधिकारानुमिते इत्यर्थः । मारण-तोषण-निशाने ज्ञश्च ॥ ४. २. ३०॥
एष्वर्थेषु वर्तमानस्य जानातेणिचि अणिचि च णौ ह्रस्वो भवति, जिणम्परे तु वा दीर्घः, चकारो णिचि चेत्यस्यानुकर्षणार्थः ।
मारणे-संज्ञपयति पशून् ,-तोषणे, ज्ञपयति गुरून् , विज्ञपयति राजानम् , निशानेज्ञपयति शरान् , प्रज्ञपयति शस्त्रम् । प्रज्ञापि, अज्ञपि, ज्ञापंज्ञापं, ज्ञपंज्ञपम् । निशानं तेजनं तीक्ष्णीकरणम्-अन्ये तु निशामन इच्छन्ति । निशामनम् आलोचनं प्रणिधानमाहुः, इह पूर्वत्र च सूत्रे णिचि अणिचि च णौ रूपसाम्येऽप्यर्थभेदः । एकत्र स्वार्थोऽन्यत्र प्रयोक्तृव्यापारः ।। ३०॥
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बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-३१-३४
न्या० स०-मारणतोषण-चकारो णिचि चेत्यस्येति-धात्वाकर्षणे पूर्वेण सिद्धेः फलाऽभावात् प्रकृतेरपि स्थितः प्रत्ययमाकर्षति, स्वरूपव्याख्यानमिदं यावताऽधिकारायातमेव चकारेणानुमीयते, अन्यथा चानुकृष्टं नोत्तरत्रेति स्यात् । संज्ञपयतीति- आदेशादागम: * इति न्यायात् ह्रस्वात् प्रागेव प्वागमः । एकत्र स्वार्थ इति-स्वार्थे प्रथममेव मारणे वर्तते, अन्यत्र मरणे ततो मारणे इत्यर्थः ।
चहणः शाठ्ये नन्वदन्तस्य चहणः भौवादिकस्य च चहेः सर्वाण्यपि सेत्स्यन्ति किमनेन ? सत्यं, सूत्रं विना चाहिष्यते इति न सिध्यति, तथाहि-भौवादिकस्य स्वरान्तत्वाभावात 'स्वरग्रह' ३-४-६६ इति जिट नायाति, चौरादिकस्य त त्रिटि सत्यपि अदन्तत्वाद् वृद्धघऽभावे न सिध्यति, अथ णिगि सति भौवादिकस्य साध्यते, तर्हि प्रयोक्तृव्यापार आयातस्तस्मिन् सति अर्थभेदः स्यात् , अतः सूत्रं कार्यम् ।
चहणः शाठ्ये ॥ ४, २. ३१ ॥
चहेश्चौरादिकस्य शाठ्येऽर्थे वर्तमानस्य णिचि णो परे ह्रस्वो भवति त्रिणम्परे तु वा दीर्घः । चहयति, चाहिष्यते, पहिष्यते, चाहंचाहम्।
णित्करणाझौवादिकस्य न भवति । चाहयति, अचाहि, चाहंचाहम् । शाठय इति किम् ? अचहि, चहचहम् । चहयतीत्येतददन्तत्वात्सिद्धम् , वीर्घायं वचनम् ।। ३१ ।। ज्वल-बल-मल-ग्ला-स्ना-बनू-बम-नमोऽनुपसर्गस्य वा
॥४.२.३२॥ एषामनुपसर्गाणां गौ परे ह्रस्वो वा भवति । ज्वलयति, ज्वालयति, ह्वलयति, हालयति, लयति, ह्यालयति, ग्लपयति, ग्लापयति, स्नपयति, स्नापयति, वनयति, वानयति, वमयति, वामयति, नमयति, नामयति, अज्वालि, अज्वलि, ज्वालंज्वालम् , ज्वलंज्वलम् । इत्यादिषु दीर्घविकल्प: सिद्ध एव।
अनुपसर्गस्येति किम् ? प्रज्वलयति, प्रह्वलयति, प्रलयति, प्रग्लापयति. प्रस्नापयति, प्रवनयति, प्रवमयति, प्रणमयति ग्लास्नोरप्राप्ते शेषाणां तु प्राप्ते विभाषा ।। ३२ ।।
___ न्या० स०-ज्वलह्वल०-दीर्घविकल्पः सिद्ध एवेति अनेन वा ह्रस्वविधानात्तेन त्रिणम्परे इति नाऽनूद्यते ।
छदेरिस्मन्त्रटको ॥ ४. २. ३३ ॥
छदेरिस्मन्त्रविप्परे णौ ह्रस्वो भवति । इसि-छदिः, मनि-छद्म, त्रटि,-छत्त्रम् , छत्त्री । क्विपि-उपच्छत , धामच्छत् । डिति किम् ? त्रे माभूव । छात्रः ।। ३३ ।।
एकोपसर्गस्य च घे ॥ ४. २. ३४ ॥
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पाद - २, सूत्र - ३५ ]
श्री सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः [ ११७
एकोपसर्गस्यानुपसर्गस्थ च छदेर्घपरे णौ ह्रस्वो भवति । प्रच्छाद्यतेऽनेनेति प्रच्छदः, परिच्छदः, उपच्छदः, छाद्यतेऽनेनेति छदः सप्त छदा अस्य सप्तच्छदः, उरसश्छदः उरश्छदः, एवं दन्तच्छदः । एकोपसर्गस्य चेति किम् ? समुपच्छादः समुपामिच्छादः । घ इति किम् ? प्रच्छादनम्, तनुच्छादनम् ।। ३४ ।।
उपान्त्यस्यासमान-लोपिशास्वदितो ङे । ४. २. ३५ ॥
समानलोपिशासूक्ऋदनुबन्धवजितस्य धातोरुपान्त्यस्य ङपरे णौ ह्रस्वो भवति । अपीपचत्, अदीदपत्, अचीकरत्, अलीलवत् । श्रत्र नित्यमपि द्विर्वचनं बाधित्वा प्रागेव ह्रस्वो भवति श्रोणेॠ दित्करणज्ञापकात् । तद्धि मा भवानोणिणत् इत्यत्र ऋदित्वादुपास्यस्वत्वप्रतिषेधो यथा स्यादित्येवमर्थं क्रियते ।
यदि चात्र नित्यत्वात्पूर्वमेव द्वितीयद्वित्वं स्यात्तदानुपान्त्यत्वादेव ह्रस्वत्वस्याप्राप्तिरिति किं तन्निवृत्त्यर्थेन ऋदित्करणेन । एवं माभवानटिटत् मा भवानशिशत् इत्यादि सिद्धं भवति, ङपरे णौ इति च न धातुविशिष्यते कि तहि तदुपान्त्य इति णेः पूर्वस्याधातुत्वेऽपि ह्रस्वो भवति, तेन गोनावमाख्यत् अजूगुनत् ।
केचिदतः स्थानिवद्भावेनोपान्त्यत्वाभावाद् ह्रस्वं नेच्छन्ति तेनाजुगोनत् । गावित्येव, -ङ उपान्त्यस्यैतावत्युच्यमाने अलीलवदित्यादावन्तरङ्गावपि वृद्ध्यावादेशावदीदपदित्यादौ च वागमं च बाधित्वा वचनसामर्थ्यात् व्युपान्त्यस्य स्वरस्य ह्रस्वः प्रसज्ज्येत । अपीपचदित्यादौ प्युपान्त्यस्वराभावान स्यात् । णिग्रहणानुवृत्तौ तु ङपरे णावुपान्त्यस्य ह्रस्व इति सर्वत्र ह्रस्वः सिद्धो भवति ।
ङ इति किम् ? कारयति पाचयति । उपान्त्यस्येति किम् ? अचकाङ्क्षत्-येन नाव्यवधानमिति न्यायेनैव सिद्धे उपान्त्यग्रहणम् उत्तरार्थम् । श्रसमानलोपिशास्वृदित इति किम् ? राजानमतिक्रान्तवानत्यरराजत् । लोमान्यनुमृष्टवान् श्रन्वलुलोमत्, स्वामिनमाख्यत् असस्वामत्, तादृशमाख्यत् अततादत्, मातरमाख्यत् अममातत् यत्रान्त्यस्वरादिलोपस्तत्र स्थानिवद्भावेन न सिध्यतीति वचनम् । यत्र तु स्वरस्यैव लोपस्तत्र स्वरादेशत्वात् स्थानिवद्भावेनैव सिध्यति । मालामाख्यत् अममालत्, मातरमाख्यत् अममातत्, अशशारत्, अशुशूरत् ।
ननु यत्रापि स्वरव्यञ्जनलोपस्तत्रापि अवयवावयविनोरभेदनयेन स्वरादेश एवेति स्थानिवद्भावेनैव सिध्यति किमसमानलोपिवचनेन ? सत्यम्, - स्थानिवद्भावस्य अनित्यत्वख्यापनार्थं वचनम् - तेन वास्या परिच्छिन्नवान् पर्यवीवसत्, स्वादु कृतवान् असिस्वददित्यादि सिद्धम् । अत्रेकारोकारयोः 'नामिनोऽक लिहले:' ( ४-३ - ५१ ) इति वृद्धौ कृतायामन्त्य - स्वरादिलोपादसमानलोपित्वम् ।
ननु च परत्वात् प्रथमं लोपेनैव भवितव्यम् ? नैवम्, कलिह लिवर्जनात् परमपि लोपं वृद्धिर्बाधते अत एव तत्र कलिहलिवर्जनमर्थवत् । शासू, अशशासत्, श्राशासोऽपीच्छत्यन्यः - आशशासत् । ऋदिति, ओणु मा भवानोणिणत्, ओखु-मा भवानोखिखत्, एज
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११८ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद-२, सूत्र-३६
मा भवानेजिजत् , याच,-प्रययाचत् । सेक-असिसेकत् , लोक-प्रलुलोकत , ढौक-अडुढौकत, शासेरूदित्करणं यङ्लुपनिवृत्त्यर्थम्-अशाशसत । अन्ये त्वशाशासत् इत्यपीच्छन्ति । वदति स्म वीणा तां प्रायुक्त परिवादकः तमप्यन्यः प्रायुक्त अवीवदद्वीणां परिवादकेनेति तु णिजात्याश्रयणात सिद्धम् ॥३५।।
न्या० स०-उपान्त्यस्या०-नित्यमपीति-* कृताकृता 8 इति न्यायान्नित्यत्वं यथा मा भवानऽटिटदित्यादौ ह्रस्वत्वे कृतेऽकृते च द्वित्वं प्राप्नोतीति नित्यं ह्रस्वस्तु द्वित्वे कृते न प्राप्नोतीत्यऽनित्यः, न केवलं प्राक्तु स्वर इत्यपेरर्थः ।
गोनावमाख्यादिति-गौनौंर्यद्वा गोसहिता नौः गोनौः, 'मयूरव्यंसक' ३-१-११६ इति मध्यपदलोपी समासः । स्थानिवद्भावेनेति-स्वमते तु 'स्वरस्य परे' ७-४-११० इति परिभाषाया अनित्यत्वमाश्रितमिति सूत्रपर्यन्ते वक्ष्यति ।
वचनसामर्थ्यादिति-अन्यथा यदि वृद्ध्यावादेशौ स्यातां, तदा उपान्त्यत्वाभावेन ह्रस्वत्वाभावात् वचननैरर्थक्यं प्राप्नोति ।
ण्युपान्त्यस्येति-णेरुपान्त्यस्तस्य तथाहि-णिङ इति स्थिते ऊकार उपान्त्यः । अचकाङ्क्षदिति-वचनादेकेन वर्णेन व्यवधानं न त्वऽनेकेन ।
उपान्त्यग्रहणमिति-येन नाव्यवधानमिति न्यायादेकेन वर्णन व्यवहितोऽपि स्वरो ह्रस्वस्य स्थानी भविष्यति किमुपान्त्यग्रहणेनेत्याह उत्तरार्थमिति । 'ऋवर्णस्य' ४-२-३७ इत्यत्रेत्यर्थः, अन्यथा तत्रान्त्यस्यापि ऋकारस्य ऋत् स्यात् , न केवलमुत्तरार्थमिहार्थं, च, अन्यथा लीलवदित्यत्र वचनसामर्थ्यादऽकृतायां वृद्धौ ह्रस्वः स्यात् , न चान्तरङ्गत्वावृद्धिः, निरवकाशत्वादस्य, वृद्धौ सावकाशत्वमिति न वाच्यं यतो मुख्याऽभावे येन नाव्यवधानमाश्रीयेतेति ।
स्थानिवद्भावेन न सिध्यतीति-अयमर्थः 'स्वरस्य परे' ७-४-११० इति स्वरादेशः स्थानी, अत्र तु स्वरव्यंजनादेशः ।
अशशारत्-शारण दो अस्मादऽदन्तात् णिच् ।
अशुशूरत-शूरणि वि० अस्मादजन्तात् 'णिज् बहुलं' ३-४-४२ णिच् ततोऽद्यतनी, अन्यथा आत्मनेपदित्वादऽचं विना परस्मैपदं न स्यात् ।
अनित्यत्वख्यापनार्थ वचनमिति-कलिहलिवर्जनादेव सन्वदादिकार्येऽस्याऽनित्यत्वं सिद्धं तहि अत्यरराजदित्यादौ भेदपक्षे फलम् । प्रथमं लोपेनैवेति-ततश्च समानलोपित्वात् ह्रस्वत्वं न प्राप्नोतीति भावः ।
असिसेकदिति-येषां मते षोपदेशस्तन्मते असिषेकदिति । भ्राज-भास-भाष-दीप-पीड-जीव-मील-कण-रण-बण-भण-श्रण-के
हेठ-लुट-लुप-लपां नवा ।। ४. २. ३६ ॥ एषां ङपरे णो उपान्त्यस्य ह्रस्वो वा भवति । भ्राज,-अबिभ्रजत , अबभ्राजद , भास्-अबीभसत , अबमासद , भाष-अबीभषत ,
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पाद-२, सूत्र-३७-४० ] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[११९
अबभाषत , दोप-प्रदीदिपत् , अदिदीपत , पीड्-अपीपिडत , अपिपीडत , जीव-अजीजिवत् , अजिजीवत् , मोल-अमोमिलत् , अमिमोलत् , कण -प्रचोकणत् , अचकाणत् , रण-प्ररीरणत् , अरराणत् , बण-अबीबणत् , प्रबबाणत् , भण्-प्रबीभणत् , अबभाणत् , श्रण-प्रशिश्रणत्, प्रशाणत्, हग-अजूहवत् , अजुहावत् , हेठ-अजीहिठत् , अजिठत् , लुट्प्रलूलुटत् , अलुलोटत् , लुप्लु अल्लुपत् अलुलोपत् , लप्-अलीलपत् , अललापत् बहुवचनं शिष्ट प्रयोगानुसारेण अन्येषामपि परिग्रहार्थम् ॥३६।।
न्या० स०-भ्राजभास०-अशिश्रणदिति-शण श्रण दाने इत्यस्य दानेऽर्थे ह्रस्वत्वं घटादित्वात् सिद्धं पाकरूपेऽर्थान्तरे त्वऽनेन विकल्पः, 'श्रणण् दाने' इत्यस्य तु 'यमोऽपरिवेषणे णिचि च' ४-२-९ इत्यनेन णिचि यम एवेति नियमादऽप्राप्तं विकल्प्यते ।
अन्येषामपोति-तेन अबिभ्रसत् अबभ्रासदित्यादि सिद्धम् । ऋवर्णस्य ।। ४. २. ३७ ॥
धातोरुपान्त्यस्य ऋवर्णस्य ऊपरे णौ वा ऋकारो भवति । प्रवीवृतत् , अववर्तत् , अवीवृधत , अववर्धत् , अमीमजत् , अममार्जत् , अदीदृशत् , अददर्शत् , अबीकृतत्, : अचिकीर्तत् । वचनसामर्थ्यादीादेशौ बाध्येते । उपान्त्यस्येत्येव -अचीकरत् ॥३७॥
न्या० स०-ऋवर्णस्य.- ननु किमर्थं वर्णग्रहणं ऋहत इत्येतावदास्ताम् ? न, यद्येवं क्रियते तदाऽचीकृतदित्ययं प्रयोगो न निष्पद्यते, अथ पाठकालेऽपि कृतण् इति पठिष्यते, न, तदा ऋत्त इत्येतस्याऽन्यत्र ऋकारे चरितार्थत्वात् अत्र कीादेश एव स्यात् , अथ कीर्तण इत्यऽपठनादेवाऽस्यापि ऋद्भविष्यति, तदा यदाऽनित्यो हि णिच्चुरादीनामिति न्यायेन णिजऽभावस्तदा कुतण् इति पाठे कृततीति न स्यात् किन्तु कर्त्ततीत्यनिष्टं स्यादिति वर्णग्रहण, ह्रस्वाधिकारेणैव सिद्ध ऋत्करणमचोकृतदित्यत्र गुणनिषेधार्थं, ह्रस्वकरणसामर्थ्याद् गुणो न भविष्यतीति न वाच्यं गुणकरणे ह्रस्वस्य चरितार्थत्वात् ।
जिघ्रतेरिः ॥ ४. २. ३८ ॥
जिघ्रतेरुपान्त्यस्य उपरे णाविकारो वा भवति । अजिघ्रिपत् , अजिघ्रपत् । तिनिर्देशो यङलुनिवृत्त्यर्थः । अजाघ्रपत् ।।३८।।
तिष्ठतेः॥ ४, २, ३१ ॥
तिष्ठतेरुपान्त्यस्य ङपरे णाविकारो भवति । अतिष्ठिपत् , अतिष्ठिपताम् , अतिष्ठिपन् । तिनिर्देशो यङ्लुनिवृत्त्यर्थः । प्रतास्थपत् , योगविभागो नित्यार्थः ॥३९।।
ऊदुषो णौ ॥ ४. २. ४० ॥
दुरुपान्त्यस्य णो परे ऊकारादेशो भवति-दुष्यन्तं प्रयुङ्क्ते दूषयति, प्रदूष्य गतः । णाविति किम् ? दोषो वर्तते, धातोः स्वरूपग्रहणे तत्प्रत्ययविज्ञानादिह न भवति । दोषणं
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१२० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते.
[पाद-२, सूत्र-४१-४३
दुट् क्विप्-दुषमाचष्टे दुषयति, पुणिग्रहणं निवृत्त्यर्थम् , ॐ ह्रस्वो न भवतीत्यन्ये, अदुषत् ।। ४० ॥
न्या० स०-ऊदुषो०-तत्प्रत्ययविज्ञानादिति-तस्य दुषेर्धातोः संबन्धी प्रत्ययस्तत्प्रत्ययः, दुषयतीत्यत्र तु न दुषिधातोः संबन्धी प्रत्ययः किं तहि 'णिज् बहुलं नाम्नः कृगादिषु' ३-४-४२ णिज् नाम्नः परतो विहितत्वान्नामसंबन्धी, यद्वा तत्प्रत्ययस्येत्थंव्याख्यानात्तस्माद्धातोरनन्तरःप्रत्ययः ।
ङनिवृत्त्यर्थमिति-तेन सामान्येन णौ भवतीति न तु ङ पर एवेत्यर्थः । न भवतीत्यन्ये इति-तन्मतसंग्रहार्थमूकारप्रश्लेषो विधेयः।
अदुदूषदिति-दुष्यन्तं प्रायुक्त णिग् गुण उदुषा णौ ऊकारः ।
चित्ते वा ॥ ४. २. ४१ ॥
चित्तविषयस्य चित्तकर्तृ कस्य दुरुपान्त्यस्य णौ परे उद्वा भवति । चित्तं दुष्यति तदन्यः प्रयुङ्क्ते चित्तं दूषयति, चित्तं दोषयति, मनो दूषयति, मनो दोषयति । चित्तग्रहणेन प्रज्ञाया अपि ग्रहणात् प्रज्ञां दूषयति, प्रज्ञां दोषयति ।।४१।।।
न्या० स०-चित्ते वा-प्रज्ञाया अपीति-चित्तसहचरितत्वात् प्रज्ञाऽपि चित्तमित्यर्थः। गोहः स्वरे ।। ४. २. ४२ ॥
कृतगुणस्य गुहेः स्वरादौ प्रत्यये परे उपान्त्यस्योद्भवति । निगृहति, निगृहयति, निगूहकः, साधुनिगूही, निगृहनिगूहम् , निजुगूह । गोह इति किम् ? निजुगुहतुः, निजुगुहुः । स्वर इति किम् ? निगोढा, निगोढुम् ।। ४२ ।।
भुवो वः परोक्षाद्यतन्योः॥ ४. २. ४३ ॥
भवो वकारान्तस्य परोक्षाद्यतन्योः परतः उपान्त्यस्योद्भवति । बभूव, बभूवतुः, बभूवु, बभूविथ, बभूवुषः, बभूवुषा, प्रभूवन् , अभूवम् । वृद्धिगुणोवावेशेषु कृतेषु भुवो वका. रान्तत्वम् । व इति किम ? बभूवान् , प्रभूत् । प्रत्र भस्य माभूव । परोक्षाद्यतन्योरिति किम् ? भविष्यति ।। ४३ ॥
न्या० स०-भुवो वः०-भुवो वकारान्तस्येति अत्र पूर्वसूत्रात्स्वरऽनुवर्त्य ततश्च परोक्षाद्यतन्योः स्वरे परे इति व्याख्याने स्वयमेव वकारान्तत्वं लप्स्यते किं वग्रहणेन ? उच्यते, यदि स्वरोऽनुवर्यते तदा उत्तरसूत्रेऽनवर्तमानो दुनिवारः स्यात्तथा च स्रस्त इत्यादौ 'नो व्यञ्जनस्य' ४-२-४५ इति न लोपो न स्यात् , अत एव 'गमहन' ४-२-४४ इति सूत्रे स्वरग्रहणं, किं च वग्रहणाऽभावे बभूवेत्यादौ नित्यत्वादऽपवादत्वाच्च वृद्ध्यादिबाधया ऊकारोपान्त्यस्य भस्य ऊत्वप्रसङ्गः स्यादिति वग्रहणम् ।
प्रत्र भस्येति-उपान्त्यस्येत्यधिकारादित्यर्थः ।
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पाद-२, सूत्र-४४-४६ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१२१
गम-हन-जन-खन-घसः स्वरेऽनङि क्ङिति लुक् ॥ ४. २. ४४ ॥
एषामुपान्त्यस्यावजिते स्वरादी विङति प्रत्यये परे लुग भवति । किति-गम् , जग्मतुः, जग्मुः। हन-जघ्नतुः, जघ्नुः । जन-जज्ञे, जज्ञाते, जज्ञिरे । खन्-चख्नतुः, चख्नुः । घस्-जक्षतुः, जक्षुः, जक्षिवान् , ङिति-घ्नन्ति । कतीह निघ्नानाः । कथं जज्ञतुः जजुः इति छान्दसावेतौ । स्वर इति किम् ? गम्यते, हन्यते । अनङीति किम् ? अगमत, अघसत् । विङतीति किम ? गमनम् , हननम् ।। ४४ ॥
न्या० स०-गमहन०-कथं जज्ञतुरिति धातोरात्मनेपदित्वात् कथं परस्मैपदमित्याशयः । छान्दसाविति-जुहोत्यादौ जन जनने परस्मैपदिनं छान्दसं पठन्ति तस्याऽयं प्रयोग इष्यते।
नो व्यञ्जनस्यानुदितः॥ ४.२.४५ ॥ . व्यञ्जनान्तस्यानुदितो धातोरुपान्त्यस्य नकारस्य विङति प्रत्यये परे लुग्भवति । स्रस्तः, स्रस्तवान् , स्रस्यते, सनोस्रस्यते, ध्वस्तः, ध्वस्तवान् , ध्वस्यते, दनीध्वस्यते, अस्तभत् , अग्लुचत् , परिष्वजते, परिष्वजेते ।
___ व्यञ्जनस्येति किम् ? नीयते, नेनीयते । अनुदित इति किम् ? टुनदु नन्द्यते, नानन्द्यते, क्ङितीत्येव,-स्रसिता, ध्वंसिता । उपान्त्यस्येत्येव,-नाते, नानह्यते ।। ४५ ॥
अञ्चेरन याम् ॥ ४. २. ४६ ॥
अञ्चेरन यामेव वर्तमानस्योपान्त्यनकारस्य लुग् भवति । उदक्तमुदकं पात , अनर्चायामिति किम् ? अञ्चिता गुरवः, पूर्वण सिद्धे नियमार्थो योगः ॥४६।।
लङ्गि-कम्प्योरुपतापाङ्ग-विकृत्योः ॥ ४. २. ४७ ॥ लङ्गिकम्प्योरुपान्त्यनकारस्य यथासंख्यमुपतापेऽङ्गविकारे चार्थे विङति प्रत्यये
लुग्भवति
विलगितः, विकपितः । उपतापाङ्गविकृत्योरिति किम् ? विलङ्गितः, विकम्पितः । लङ्गिकम्प्योरुदित्त्वात् पूर्वेणाप्राप्ते वचनम् । द्विवचनं क्ङितीत्यनेन यथासंख्यनिवृत्त्यर्थम् ।४७।
___न्या० स०-लङ्गिकम्प्यो०-बिगलित इति-विगल्यते स्म, रोगादिनोपतापितः । विलङ्गित इति-विलङ्गति स्म केनचिदङ्गेन हीन इत्यर्थः । विकम्पित इति-विकम्पते स्म मनसि कम्पितः, चित्ते भीत इत्यर्थ इति नाऽङ्गविकृतिः ।
भजेौँ वा ॥ ४. २. ४८ ॥ भजेरुपान्त्यनकारस्य औ परे लुग्वा भवति । प्रभाजि । अभजि ॥४८॥ दंश-सञ्जः शवि ॥ ४. २. ४१ ॥
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१२२ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-५०-५५
अनयोरुपान्त्यनकारस्य शधि परे लग्भवति । दशति, सजति । तुदादावपठित्वानयोभादौ पाठः शवर्थः-तेन 'श्यशवः' ( २-१-११५ ) इति नित्यमन्तादेशः सिद्धो भवति । दशन्ती, सजन्ती ॥४९॥
अकटघिनोश्च रज्जेः ।। ४. २. ५० ।।
रजेरकटि घिनणि शवि च प्रत्यये उपान्त्यनकारस्य लुग् भवति । रजकः, रागी, रजति । रजः, रजनिः, रजनम् रजतमित्यौणादिककित्प्रत्ययान्ताः ॥५०॥'
णौ मृगरमणे ।। ४. २. ५१ ॥
रजेरुपान्त्यनकारस्य गौ परे मगाणां रमणे क्रीडायामर्थे लुग्भवति । रजयति मृगान्व्याधः । मृगरमण इति किम् ? रञ्जयति रजको वस्त्रम् , रञ्जयति सभां नटः ॥५१॥
न्या० स० णौ मग०-मृगरमणादन्यत्रापि ऋश्चिदिच्छति, यथा राजर्षिकल्पो रजयति मनुष्यान् । रज्जयति रजको वस्त्रमिति-रजति वस्त्रं रजकः, स एवं विवक्षते-नाऽहं रजामि, रज्यते वस्त्रं स्वयमेव तद्रज्यमानं प्रयुकते, यद्वा रजति वर्णान्तरमापद्यते वस्त्रं कर्तृ तद्रजत् रजकः प्रयुङ क्ते णिग् ।
घञि भावकरणे ॥ ४. २. ५२ ।।
रज्जेरुपान्त्यनकारस्य भावकरणार्थे धनि परे लुग भवति । रञ्जनं रजत्यनेनेति वा रागः । घजि इति किम् ? रञ्जनम् । भावकरणे इति किम् ? रजन्त्यस्मिन्निति रङ्ग ॥५२॥
स्यदो जवे ॥ ४. २. ५३ ॥
स्यद इति स्यन्वेजि नलोपो वृद्ध्यभावश्च निपात्यते, जवे वेगेऽभिधेये । गोस्यवः, अश्वस्यवः । जव इति किम् ? घृतस्यन्दः तैलस्यन्दः ॥५३।।
दश-नावोदेधौद्म-प्रश्रथ-हिमश्रथम् ॥ ४. २. ५४ ॥
एते शब्दाः कृतनलोपादयो निपात्यन्ते । दन्शेरनटि अवपूर्वस्य उन्देः इन्धेश्च घनि उन्देर्मनि नलोपः प्रहिमपूर्वस्य श्रन्थेनि वृद्ध्यभावश्न निपात्यते । दशनम् , अवोदः, एषः, ओग्र, प्रश्रयः, हिमश्रयः ।।५४।।
___ न्या० स० दशनावो०-अवोद इति-अत्र गुणे कृते 'उपसर्गस्यानिणे.' १-२-१९ इत्यऽकारलोपः । यमि-रमि-नमि-गमि-हनि-मनि-वनति-तनादेघु टि क्लिति
॥४. २. ५५ ॥
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पाद-२, सूत्र-५६-५८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१२३
मन्यः
यमिरमिनमिगमिह निमनीनां वनतेस्तनादीनां च धुडादौ विङति प्रत्यये परऽन्तस्य लुग्भवति ।
यदः, यतवान् , यत्वा, यतिः, रतः, रतवान् , रत्वा, रतिः, नतः, नतवान् , नत्वा, नतिः, गतः, गतवान् गत्वा, गतिः, हतः, हतवान् , हत्वा, हतिः, आहत, आहथाः । मनीति
वात् । मतः, मतवान , मत्वा, मतिः वतिः. क्तिः. तिकि तु प्रतिषेधं वक्ष्यति । तनादि-तनयी-ततः, ततवान् , तत्वा, ततिः, सनोतेरात्वं वक्ष्यति । क्षणूग्-क्षतः, क्षतवान् , क्षत्वा क्षतिः, ऋणूयी-ऋतः, ऋतवान् , तृणूयो-तृतः, तृतवान् , घृणूयो-घृतः, घृतवान् , वनूयि-वतः, वतवान् , मनूयि-मतः, मतवान् ।
एषामिति किम् ? शान्तः , दान्तः । तिवगणनिर्देशाद्यङ्लुपि न भवति । वान्तः, तंतान्तः । अन्यत्र भवति, यंयतः, रंरतः, नंनत , जंगतः, जंघतः, मंमतः । धुटोति किम् ? यम्यते. यंयम्यते । विङतीति किम ? यन्ता, रन्ता ॥५५।।
- न्या० स०-यमिरमि०-हतिरिति-सातिहेति' ५-३-९४ इति बाधनाथं थ्रवादिभ्यः क्ति: । वतिरिति-क्तक्त वतू न दर्शितौ इट् प्राप्तः, क्तौ तु नियमान्नेट । जंघत इति-कुटिलं हतः, यङलुप् द्वित्वं मुरन्तः, 'अहिहनः' ४-१-३४ इति घः, गत्यर्थत्वाद् घ्नीनं भवति, केचित्तु यङलुपि घ्नीं नेच्छन्ति तन्मते वधार्थोपि ।
यपि ॥ ४. २. ५६ ॥
एषां धातूनामन्तस्य यपि परे लुग्भवति । 'वामः' (४-२-५७) इति वचनान्नान्तानामेवायं विधिः । हन्-प्रहत्य, मन्-प्रमत्य, वनति-प्रवत्य, तनादि-प्रतत्य, प्रसत्य, प्रक्षत्य । यपीति किम् ? हन्यते, वन्यते, तन्यते ॥५६॥
वामः ॥ ४.२.५७॥
एषां मकारान्तानां यपि प्रत्ययेऽन्तस्य वा लुग्भवति । प्रयत्य, प्रयम्य, विरत्य, विरम्य, प्रणत्य, प्रणम्य, आगत्य, प्रागम्य । एषामित्येव,-उपशम्य ॥५७॥
गमां क्यो । ४. २. ५८ ॥
एषां गमादीनां यथादर्शनं क्वौ विडति प्रत्ययेऽन्तस्य लुग्भवति । बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् ।
जनं गच्छति जनंगत् , कलिङ्गगत , यम्-संयत् , वियत् , तन्-परीतव, उपातत् , सन् सुसद, मन्-सुमन , वन्- सुवद , क्षण-सुक्षत् , विक्षत् । अग्रेगूरित्यौणादिको डूः ।।५।।
न्या० स०-गमांक्वौ-गमादीनामिति-गमादयोऽन्येऽपि बहुलं ज्ञेया, न तु 'यमिरमि' ४-२-५५ इति सूत्रोक्ता एव गमादिगणस्य तेभ्यः पृथग्भूतत्वात् , अत एव सूत्रे यमामित्येव नोक्त, रमिनमिहनीनामुदाहरणानि च न दर्शितानि ।
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१२४ ]
बृहद्वृत्ति लघुन्यास संवलिते
न तिकि दीर्घश्च ॥ ४. २. ५१ ॥
rai fafe प्रत्यये लुग् दीर्घश्व न भवति । यन्तिः, रन्तिः, नन्तिः, गन्ति:, हन्तिः, मन्तिः, वन्ति:, तन्तिः । क्षणिति लाक्षणिकोऽयं णकारः तेन क्षन्तिरिति भवति । श्रन्यस्त्वोपदेशिकोऽयमिति मन्यते तन्मते क्षष्टिः । अन्तलोपे प्रतिषिद्धे 'श्रहन्पञ्चम' - (४-१-१०७ ) इत्यादिना दीर्घत्वं प्राप्तं तदपि प्रतिषिध्यते । एषामित्येव, शान्तिर्भगवान् । तिकीति किम् ? यतिः, रतिः, ततिः ॥ ५९ ॥
[ पाद २, सूत्र - ५९-६२
न्या० स०-न तिकि० - तेनक्षन्तिरितीति- नान्त प्रकृतेर्णत्वबाधनाय म्नामिति बहुवचनात् प्रथममेव नकारः, म्नामिति बहुवचनाण्णत्वं कृतमपि वर्गान्त कर्त्तव्ये निवर्त्तते वा, अत्र सूत्रे यमादयो गमादयश्च गृह्यन्ते, न त्वनन्तरसूत्रोक्ताः द्वयोरपि प्राप्तेः संभवात् । .
आः खनि सनि जनः ॥ ४. २.६० ।।
खनादीनां घुडादौ क्ङिति प्रत्यये परेऽन्तस्याकारादेशो भवति ।
खातः, खातवान्, खात्वा खातिः सन् - 'बणूयी दाने' वनपण भक्तौ वा । सातः, सातवान्, सात्वा, सातिः, जन्-जातः, जातवान्, जात्वा, जातिः । विङतीत्येव - चंखन्ति, संसन्ति, जंजन्ति ॥ ६०॥
न्या० स०-प्राः खनि-खात इति खायते स्म खन्यते स्मेति वा 'क्त' ५-१-१७४ इति वा क्ते 'वेटोऽपतः ४-४-६२ इडभावः । सात्वेति षणूयी दान इत्यस्यैवायं प्रयोगः, पण भक्तावित्यस्य सनित्वैव । चखन्तीत्यादि - तसि च चङ्खातः संसात: जंजातः सनिसिस निषतीति, सनोतेः सनतेर्वा 'णिस्तोरेव' २ - ३ - ३७ इति नियमान्न षत्वम् ।
सनि ॥ ४. २. ६१ ॥
खनादीनां धुडादौ सनि परतोऽन्तस्यात्वं भवति । सिषासति खनिजनोरिटा भवितव्यमिति घुडादिः सन्न भवति । घुटीत्येव - सिसनिषति - 'इवृध' - ( ४-४-४९ ) इत्यादिना वेट् । षिङतीत्यसंभवादिह न संबध्यते ॥ ६१ ॥
ये नवा ॥ ४. २. ६२ ॥
खनादीनां ये क्ङिति प्रत्ययेऽन्तस्याकारो वा भवति । खायते, खन्यते, चाखायते, चंखन्यते, प्रखाय, प्रखन्य, सायते सभ्यते, सासायते, संसन्यते, प्रसाय, प्रसन्य, प्रसत्य, जायते, जन्यते, जाजायते, जंजन्यते, प्रजाय, प्रजन्य । श्ये तु 'जा ज्ञाजनोऽत्यादी' ( ४ - २ - १४ ) इति नित्यं जादेशः जायते ।
य इत्यकारान्त निर्देशाविह न भवति । खन्यात्, सन्यात्- अन्यथा योति क्रियेत । केचिदत्रापोच्छन्ति खायात्, सायात् । विङतीत्येव - सान्यम्, जन्यम् ॥६२॥
न्या स०- ये नवा - प्रसायेत्युभयोः प्रसन्येति भक्त्यर्थस्य प्रसत्येति तु दानार्थस्य तनादित्वेन न लोपात् ।
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पाद - २, सूत्र - ६३ - ६७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
तनः क्ये ।। ४. २. ६३॥
तनोतेरन्तस्य क्य परे आकारो वा भवति । तायते तन्यते । क्य इति किम् ? तन्तन्यते ।। ६३ ।
[ १२५
तौ सनस्तिक ॥। ४. २. ६४ ॥
नित्येतस्य तकि प्रत्यये परे तौ लुगाकारौ वा भवतः । वणू, सतिः, सातिः, सन्तिः, षण् भक्तौ सतिः, सातिः सान्ति: । 'अहन्पश्वम-' ( ४- १ - १०७ ) इत्यादिना दीर्घः ।। ६४ ।।
६५ ॥
वन्याङ्पञ्चमस्य ।। ४. २.
धातोः पश्वमस्य वनि प्रत्यये परे आकारो भवति । आङिति आकारान्तरप्रश्लेषादननुनासिकोऽनुनासिकश्चायमादेशः । अन्यथा 'लि लौ" ( १-३-६६ ) इति ज्ञापकादननुनासिक एव स्यात् ।
जन् विजावा, खन् विखावा, क्रम् दधिक्रावा, गम् अग्रेगावा, घुण् ध्वावा, घूर्ण घूरावा, ओण अवावा, इव व्याप्तौ च । वनि-'य्वोः खय्व्यञ्जने लुक्' (४-४- १२२ ) इति वलोपे नकारस्थात्वे यावा । पुनराग्रहणं ताविति नवेति च निवृत्त्यर्थम् । ङित्करणं sardarat गुणनिषेधार्थम् ।। ६५ ।।
न्या० स० - वन्याङ्о- आकारान्तरप्रश्लेषादिति आश्चाऽसावाङ च यद्वा आश्च आश्च तयोरनुबन्धीङ इति ।
अपाच्चायश्चिः क्तौ ॥ ४. २. ६६ ।।
अपपूर्वस्य चायतेः क्तिप्रत्यये चिरादेशो भवति । अपचितिः ||६६ ||
दो हद क्तयोश्च ।। ४. २. ६७ ॥
ह्लादतेः क्तक्तवत्वोः क्तौ च परतो ह्लद् आदेशो भवति । ह्लन्न, लन्नवान्, प्रह्ननः प्रह्लन्नवान्, ह्नत्तिः, प्रह्नत्तिः । क्तयोश्चेति किम् ? ह्लादित्वा ॥६७॥
ऋल्वादेरेषां तो नोऽप्रः ।। ४. २. ६८ ॥
पूर्वाजतादृकारान्ताद्धातोर्वादिभ्यश्च परेषामेषां क्तिक्तक्तवतूनां तकारस्य नकार
प्रादेशो भवति ।
तृ-तीणिः तीर्णः तीर्णवान्, कृ-कोणिः, कीर्णः कीर्णवान्, गृ-गीणिः, गीर्णः, गीर्णवान्, ल्वादि- लूनि:, लून, लूनवान्, धूनिः धून, धूनवान्, लीनि:, लीनः, लीनवान् ।
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१२६ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद-२, सूत्र-६९-७०
अप्र इति किम् ? पूतिः । पूणिरित्यपि कश्चित् ,-पूर्तः, पूर्तवान् । स्वादिषु ये ऋकारान्ता स्तृदृप्रभृतयस्तेषामृग्रहणेनैव सिद्ध तत्र पाठः प्वादिकार्यार्थः । काद्यन्तर्गणो ल्वादिः ॥६८।।
न्या० स०-ऋल्वादे०-पूर्णिरित्यपोति-ते ह्य त्तरसूत्रेऽप्र इति कुर्वन्ति, तत्र च सूत्रे क्तयोरेव नत्वनिषेधः, क्तौ तु 'ऋल्वादे:' ४-२-६८ इति भवत्येव । ननु ऋकारान्तानामिरादेशे रेफान्तत्वादुत्तरेण भविष्यति किं ऋग्रहणेन ? सत्यं, उत्तरेण क्तयोर्भवति, अनेन तु क्तिक्तक्तवतुषु, अथ क्त्यर्थं ऋतां क्तावित्युच्येत, तर्हि ऋतां क्तावेव स्यात् क्तयोस्तूत्तरेणापि न स्यात् ।
रदादमूर्च्छमदः क्तयोर्दस्य च ॥ ४. २. ६१ ॥
मूच्छिमदिवजितानेफदकारान्ताद्धातोः परस्य क्तयोः तक्तवत्वोस्तकारस्य तत्संनियोगे धातुदकारस्य च नकारो भवति ।
पूरै-पूर्ण, पूर्णवान् , गुरे-पूर्णः, गूर्णवान् , मिद्-भिन्नः, भिन्नवान् , छिद्-छिन्नः, छिन्नवान् । रदादिति किम् ? चितः, चितवान् । अमूर्च्छमद इति किम् ? मूर्तः, मूर्तवान् , मत्तः, मत्तवान् । कृतस्यापत्यं कातिरित्यत्र * 'असिद्धं बहिरङ्गमन्तरङ्गे' * इति न भवति । क्तयोरिति किम् ? पूर्तिः, भित्तिः । कथं चूणिः ? चुरेरौणादिको णिः ।
रदस्येति किम् ? चरितम् , उदितम् । इटा व्यवधाने न स्यात् । कृतः कृतवानि- . त्यत्र तु वर्णैकदेशानां वर्णग्रहणेनाग्रहणान्न भवति । रेफात्परेण स्वरभागेण व्यवधानाद्वा, ऋकारस्य हि मध्येऽर्धमात्रो रेफः अग्रेपश्चाच्च तुरीयः स्वरभाग: प्रतिज्ञायते । भिन्नवद्भ्यामित्यत्र प्रत्ययदकारस्य परेऽसत्त्वात् सूत्रे चाश्रुतत्वान्न भवति । कयं चीर्णः चोर्णवानिति ? च इति धात्वन्तरं चरतिसमानार्थम् क्तक्तवतुविषयमामनन्ति ।।६९॥
___ न्या. स०- रदादमूर्छ०-प्रसिद्धं बहिरङ्गमिति-आरूपमित्यर्थः । वर्णग्रहणेनाग्रहणादिति-ऋकारलक्षणो वर्णः तस्य एकदेशो रेफो वर्णग्रहणेन न गृह्यते, कस्मात् ? असन्निधानात , यतो दकारः स्वतन्त्र एव वर्णोऽत्राऽस्त्यऽतो रेफोऽपि स्वतन्त्र एव ग्राह्यः ।
प्रतिज्ञायते इति-पूर्वाचार्यनिश्चीयते न तु लेखितु शक्यते ।
प्रत्ययदकारस्येति- 'धुटस्तृतीयः' २-१-७६ इति विहितस्य । सूत्रे चाऽश्रुतत्वादिति-रदादिति धातुदकारस्यैव भणनादित्यर्थः ।
तक्तवतुविषयमिति-तेन चर्यते स्मेति धात्वन्तरेण वाक्यम् । सूयत्याद्योदितः ॥ ४. २. ७० ॥
सूयत्यादिभ्यो नषभ्यो धातुभ्य ओकार इद्येषां तेभ्यश्च परस्य क्तयोस्तकारस्य नकारादेशो भवति ।
पूङौच-सूनः सूनवान् , दूच्-दूनः, दूनवान् , दोच्-दीनः, दीनवान् , धीच्धोनः, धोनवान् , मीच्-मीनः, मोनवान् , रोच्-रोणः, रीणवान् , लींच्-लोनः, लोनवान , डोच्-डीनः, डोनवान् , व्रीच्-वीणः, वीणवान् इति सूयत्यादयः । ओदित्
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पाद-२, सूत्र-७१-७४ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः।
[१२७
ओ लजैङ् पोलस्जेति वा लग्नः, लग्नवान् , ओविजैति, उद्विग्न:, उद्विग्नवान् । ओप्याय पीनः, पीनवान् , ट्वोश्वि-शूनः, शूनवान् , ओवश्चौत-वृक्णः, पुणवान् । एम्य इति किम् ? पोतः, पीतवान् सूयतीति श्यनिर्देशः सूतिसुवत्योनिवृत्त्यर्थः ।।७।।
व्यञ्जनान्तस्थातोऽख्याध्यः॥४. २.७१ ॥
ख्याध्यावजितस्य धातोर्यव्यञ्जनं तस्मात्परा याऽन्तस्या तस्याः परोय आकारस्तस्मात्परस्य क्तयोस्तकारस्य नो भवति ।
स्त्यान:, स्त्यानवान् , निद्राणः, निद्राणवान् , ग्लानः ग्लानवान् । व्यञ्जनेति किम् ? यातः, यातवान् । अन्तस्थेति किम् ? स्नातः, स्नातवान् । प्रात इति किम् ? च्युतः च्युतवान् , द्रुतः, द्रुतवान् , प्लुतः, प्लुतवान् । धातुना व्यञ्जनस्य विशेषणादिह न भवति । निर्यातः, निर्यातवान् । द्विर्भावेप्यन्तस्थेत्यभेदाश्रयणाबहिरङ्गत्वेनासिद्धेश्च न भवति । अख्याध्य इति किम् ? ख्यातः, ख्यातवान् , ध्यातः, ध्यातवान् । प्रातः परस्येति किम् ? दरिद्रितः, दरिद्रितवान् ॥७१॥
न्या० स० व्यञ्जनान्तस्थातोऽख्याध्यः-ख्याश्च ध्याश्चेति कृते यदा क्लीबे ह्वस्वस्तदा ङसोऽतः सूत्रत्वाल्लुप् । बहिरङ्गत्वेनेति-उपसर्गद्विपदाश्रयत्वाद् बहिरङ्गयकारस्य द्वित्वं । आतः परस्येति किमिति-ननु आत इति किमित्यऽनयापि व्यावृत्त्या सिद्धं किमनया ? सत्यं, तत्राकारात् विहित एव नास्ति, अत्र त्वाकाराद्विहितः परमिटा व्यवहितः।
पूदिव्यञ्चेर्नाशाद्य तानपादाने ॥ ४. २. ७२ ॥
पू दिव् अञ्च् इत्यतेभ्यो यथासंख्यं नाशेऽद्यूते अनपादाने चार्थे परस्य क्तयोस्तकारस्य नकारादेशो भवति । पूना यवा विनष्टा इत्यर्थः ।
आधून:, परिघुनः, समक्नौ शकुनेः पक्षौ संगतावित्यर्थः नाशाधूतानपादान इति किम् ? पूतं धान्यम् , द्यूतं वर्तते उदक्तमुदकं कूपात , कथं व्यक्तम् ? अञ्जर्भविष्यति ॥७२।।
न्या० स०-पूदिव्य०-अनपादाने चार्थे इति-कोऽर्थः ? अञ्चिवाच्या क्रिया यद्यप्यपादानसाधनिका न भवतीत्यर्थः ।
सेसे कर्मकर्तरि ॥ ४. २. ७३ ॥
सिनोतेः सिनातेर्वा परस्य क्तयोस्तकारस्य ग्रासे कर्मणि कर्तृत्वेन विवक्षिते नकारो भवति । सिनो ग्रासः स्वयमेव । ग्रास इति किम् ? सितं कर्म स्वयमेव । कर्मकर्तरीति किम् ? सितो ग्रासो मैत्रेण, सितो गलो ग्रासेन ॥७३॥
क्षेःक्षी चाध्यार्थे ॥ ४. २.७४ ॥
घ्यणर्थो भावकर्मणी ततोऽन्यस्मिन्नर्थे विहितयोः क्तयोस्तकारस्य क्षि इत्येतस्मास्परस्य नकारो भवति तत्संनियोगे चास्य क्षी इत्ययमादेशो भवति ।
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१२८ ]
बृहद्वृत्ति लघुन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-७५-७७
कर्तरि-क्षीणः क्षीणवान् मैत्रः । अधिकरणे, 'इदमेषां क्षीणम् । प्रध्यार्थ इति किम ? क्षितमस्य' भावे क्त:-क्षिषश् हिसायामित्यस्य सानुबन्धत्वान्न ग्रहणम् , अन्यस्तु तस्यापि ग्रहणमिच्छति ।।७४।।
वाक्रोशदैन्ये ।। ४. २. ७५ ॥
प्राकोशे दैन्ये च गम्यमाने क्षेः परस्याध्यार्थे क्तयोस्तकारस्य वा नकारादेशो भवति, तत्संनियोगे च क्षी इत्ययमादेशो भवति ।
आक्रोशे क्षीणायुः क्षितायुर्वा जाल्मः, दैन्ये क्षीणकः, क्षितक: तपस्वी । प्रघ्यार्थ इत्येव,-'क्षितं जाल्मस्य' क्षितं तपस्विनः । कश्चित्तु भावेऽपि विकल्पमिच्छति । क्षीणमनेन, क्षितमनेन-क्षेर्भावकर्मणोर्भाषायां क्त एव नास्तीति कश्चित् ।। ७५ ।।
न्या० स०-वाक्रोशदैन्ये-आक्रोशश्च दैन्यं चेति कृते विरोधिनामेव अद्रव्याणामेवेति समाहाराऽप्राप्तौ सूत्रत्वात् समाहारः, विशेषणसमासो वा ।
क्षितं जाल्मस्येति 'वा क्लीबे' २-२-९२ इति षष्ठी । भाषायामिति-लक्षणशास्त्र न भवति, किन्तु छन्दस्येवेत्यर्थः ।
हीघ्राधात्रोन्दनुद विन्तेर्वा ॥ ४. २. ७६ ॥ एभ्यः परस्य क्तयोस्तकारस्य नकारो वा भवति ।
ऋ.-ऋणम् , ऋतम् , ह्री,-ह्रोणः, ह्रीणवान् , ह्रीतः, ह्रीतवान् । घ्रा, घ्राणः, घ्राणवान् , घ्रातः, नातवान् । ध्रा, ध्राणः, ध्राणवान् , प्रातः. प्रातवान् । त्रा त्राणः, प्राणवान् , प्रातः, वातवान् । उन्द, समुन्नः समुन्नवान् , समुत्तः, समुत्तवान् । नुन्, नुन्नः, ननवान, नृत्तः नृत्तवान् । विदिष विचारणे विन्नः, विन्नवान , वित्तः, वित्तवान । विदः श्ननिर्देशाद्विद्यतेविन्दतेश्च नित्यं नकारः । विन्नः. विन्नवान् । प्रथमाभ्यामप्राप्ते घ्रादिभ्यस्तु प्राप्ते विकल्पः । तेन दकारान्तानां दस्यापि पूर्वेण नत्वं भवति । तकारनत्वाभावपक्षे च संनियोगशिष्टत्वाइस्यापि नकारो न भवति । व्यवस्थितविभाषेयम् , तेन ऋणमित्युत्तमर्णाधमर्णयोरेव । अन्यत्र ऋतं सत्यम् , त्रायतेस्तु संज्ञायां न भवति । त्रातः, देवत्रातः, अन्यत्र तु नत्वम्,त्राणः,-उभयमित्येके ।। ७६ ।।
न्या स०-ऋहीघ्राध्रा०-तेप्रत्ययान्तमाख्यातपदमनुक्रियते, 'इकिस्तिव' ५-३-१३८ इति श्तिवप्रत्ययान्तस्य तु न विनत्तीति रूपं स्यात् । देवत्रात इति-त्रासीष्ट देवता एनं त्रासीरन्निति वा 'तिक्कृतौ नाम्नि' ५-१-७१ इति क्तः। उभयमित्येके इति-असंज्ञायां नत्वं नाऽभावश्च संज्ञायां तु नत्वाभाव एवेत्यर्थः ।
दुगोरू च ।। ४. २.७७॥
दुगु इत्येताभ्यां परस्य क्तयोस्तकारस्य नकारादेशो भवति तत्संनियोगे च प्रनयोरूकारश्चान्तादेशो भवति । दूनः, दूनवान् , गूनः गूनवान् ।। ७७ ।।
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पाद-२, सूत्र-७८-८१ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १२९ .
तै-शुषि-पचो म-क-वम् ॥ ४. २. ७८ ॥
शुषिपचिभ्यः परस्य क्तयोस्तकारस्य यथासंख्यं म क व इत्येते आदेशा भवन्ति । क्षामः, क्षामवान् , शुष्कः, शुष्कवान् , पक्वः, पक्ववान् । ७८ ॥
निर्वाणमाते ॥ ४. २. ७१ ।।
निर्वाणमिति निरपूर्वाद्वाधातोः परस्य क्ततकारस्य नकारो निपात्यते, अवाते कर्तरि वातश्चेन्निर्वातिक्रियायाः कर्ता न भवति । निर्वाणो मुनि:, निर्वाणो दीपः।
अवाते इति किम् ? निर्वातो वातः, नितिं वातेन भावेऽपि वात एव कर्ता, निर्वाणः प्रदीपो वातेनेत्यत्र तु प्रदीपः कर्ता । वातस्तु हेतुः करणं वेति प्रतिषेधो न भवति । केचित्तु निर्वाणं वातेनेतीच्छन्ति, तेषां वाते कर्तरि प्रत्यये सति प्रतिषेध इति द्रष्टव्यम् ॥७९॥
, न्या० स०-निर्वाणमवाते-प्रवाते कर्तरीति-अकर्मकत्वाकर्ता लभ्यते । कर्तरि. प्रत्यये सतीति-अत्र तु भावे क्तः । अनुपसर्गाः क्षीबोल्लाघ-कृश-परिकृश-फुल्लोत्फुल्ल-संफुल्लाः
॥४. २.८०॥ अनुपसर्गाः क्तप्रत्ययान्ता एते शब्दा निपात्यन्ते । क्षीबृङ् मदे, उत्पूर्वो लाघङ सामर्थ्य, कृशच तनुत्वे केवल: परिपूर्वश्च, एभ्यः परस्य क्ततकारस्य लोप इडभावश्च निपात्यते।
क्षीबः, उल्लाघः, कृशः, परिकृशः, 'त्रिफला विशरणे' इत्यस्मात्केवलादुत्संपूर्वाच्च परस्य तस्य लादेशो भावारम्भविवक्षायामिडभावश्च निपात्यते । फुल्लः, उत्फुल्लः, संफुल्ल: । केचित्त क्षोबवान् , उल्लाघवान् , कृशवान् , परिकृशवान् , फुल्लवान् , उत्फुल्लवान् , संफल्लवान इति क्तवतावपि रूपमिच्छन्ति तदर्थ तक्तवत्वोस्तशब्दावधि निपातनं द्रष्टव्यम् , एतदर्थमेव बहुवचनम् ।
अनुपसर्गा इति किम् ? प्रक्षीबितः, प्रोल्लाघितः, प्रकृशितः, संपरिकृशितः, प्रफुल्लः । निपातनस्येष्टविषयत्वात फल निष्पत्तौ फलितः, फलितवान । क्षीबादयः शब्दा: केनाचापि च सिध्यन्ति, क्षीवित इत्यादिरूपनिवृत्यर्थ तु वचनम् । कथं प्रक्षीबः ? प्रगत: क्षीबः इति ? प्रादिसमासाद्भविष्यति ।।८।।
न्या० स०-अनुपसर्गाः० - भावारम्भविवक्षायामिति-अयमर्थः, यदा भावारम्भाविवक्षा तदा 'आदितः' ४-४-७१ इति नित्यमिडऽभावः, यदा तु भावारम्भविवक्षा तदा 'नवा भावारम्भे' ४-४-७२ इति विकल्पेनेट् स्यात् निपातसामर्थ्याच्च नित्यं निषिध्यते ।
फलनिष्पत्ताविति - उपलक्षणत्वात् फल गतावित्यस्यापि । भित्तं शकलम् ॥ ४. २. ८१ ॥
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१३० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-८२-८४
भिदेः परस्य तस्य नस्वाभावो निपात्यते शकलम् शकलपर्यायश्चेद्भित्तशब्दो भवति । भित्तम् शकलमित्यर्थः । शकलमिति किम् ? भिन्नम् । शकलमिति पर्यायनिर्देश: किम् ? भिदिक्रियाविवक्षायां शकले विषये भिन्नमित्येव यथा स्यात् । भिन्नं शकलम् , भिन्न भितम् ।।१।।
न्या० स०-भित्तं शकलम् -भिन्नं शकलमिति-वर्त्तते, किं तत् शकलं ? किं विशिष्टं भिन्न ? द्विधाकृतमिति विशेषणशब्दोऽत्र भिन्नशब्दः, यदि पुन: पर्यायशब्द: स्यात्तदा शकलस्याप्रयोगः स्यात् , पर्यायाणां हि प्रयोगो यौगपद्येन नेष्यते इति वचनात् ।'
भिन्न भित्तमिति-भित्तं शकलमित्यर्थः । वित्तं धनप्रतीतम् ॥ ४. २. ८२ ॥
विन्दतेः परस्यक्तस्य नत्वाभावो निपात्यते, धनप्रतीतम् धनपर्यायः प्रतीतपर्यायश्च चेद्वित्तशब्दो भवति । विद्यते लभ्यते इति वित्तम् धनम् , विद्यते उपलभ्यतेऽसाविति वित्त: प्रतीतः । धनप्रतीतमिति किम ? विन:, वेतविदितम । विन्तेविन्नं वित्तं च, विद्यतेविनम । वित्तं धने प्रतीते च विन्दतेविनमन्यत्र ।।८२॥
हुधुटो हेर्थिः ।। ४. २. ८३ ॥
जुहोतेधुडन्ताच्च धातोः परस्य हेधिरादेशो भवति । जुहुधि, धुट छिन्छि, भिन्द्धि, अद्धि, विद्धि । हधुट इति किम् ? कोणीहि । हुधुड्भ्यां परत्वेन हेविशेषणादिह न भवति । रुदिहि, स्वपिहि । हेरिति किम ? जुहोतु, अत्तु । जुहुतात्वम् भित्तात्त्वमित्यत्र नित्यत्वाप्रकृत्यनपेक्षणेनान्तरङ्गत्वाच्च तातङ् । तस्य च न पुनधिभावो हेरिति शब्दाश्रयणात् । केचित्तु 'हिंसेर्हेरत' हिंस, 'भुजिभजिभ्यां तु वा' भुज भुग्धि, भञ्ज भङ्ग्धि इतीच्छन्तिनेतद्वैयाकरणरूपसंमतम् । हिन्धि इत्याद्येव तु भवति ॥३॥
. न्या० स०-हुधुटोहे-हुधुड्म्यां परत्वेनेति-एतत्तु न कृतं हुधुड्भ्यां विहितस्य हेः । रुदिहीति-आगमा यद्गुणीभूता इति न्यायादिट्सहितस्य हेरादेशः प्राप्तः स न भवति, हेरिति व्यक्त्याश्रयणात् , केवलस्य तु हुधुट्भ्यां परत्वेनेति भणनात् न भवति । हिन्धीति-अत्र 'सोधि वा' ४-३-७२ इति वा सलुक् , तद्विकल्पे च 'तृतीयस्तृतीय' १-३-४९ इति सस्य तु दः, तस्य च 'धुटो धुटि' १-३-४८ इति वा लुप् तेन हिन्दीत्यपि ।
शासस-हनः शाध्येधि-जहि ।। ४. २. ८४ ॥
शास् अस् हन् इत्येतेषां हिप्रत्ययातानां शाध्येधि जहि इत्येते आदेशा यथासंख्यं भवन्ति । शाधि, एधि, जहि । शास्हनोः यलुप्यपि शाधि, जहि, हनेस्तु यङ्लुपि नेच्छन्त्यन्ये ? जङ्घहि ।।४।।
न्या० स० शाससहनः०- शास्हन्साहचर्यात् असिति आदादिकस्य ग्रहणम् । यङ्लुप्यपीति-अस्तेस्तु स्वरादित्वात् यङ् नास्ति, अथ णकादिविषये भू आदेशे
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पाद-२, सूत्र-८५-८८ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १३१
यङलुप्संभवस्तदाप्यस्तीति व्यक्तिनिर्देशान्न भवति, यद्वा यदा हिप्रदानविवक्षा तदा बाहुलकान्न यङलुप् ।
___ जंघहीति-गत्यर्थेऽत्र यङ हिंसार्थे तु 'हनो घ्नी' ४-३-९९ इति स्यात् , ये तु * तिवा शवा * इति न्यायस्य सूत्रगणनिर्दिष्टेऽपि प्रवृत्तिमभ्युपगच्छन्ति 'यमिरमि' ४-२-५५ इति लुगभावं क्ङिति 'अहन्पञ्चम' ४-१-१०७ इति हन्तेर्दीर्घत्वं चेच्छन्ति, तेषां हि जंघांहि तन्मते केवलस्यैव हनेवर्जनं न यङलुबन्तस्य ।
अतः प्रत्यययाल्लुक॥ ४. २. ८५ ॥
धातोः परो योऽकारान्तः प्रत्ययस्तस्मात्परस्य हेलुग्भवति । दीव्य, पच, पठ, तुद, चोरय । प्रत इति किम् ? राघ्नुहि, प्राप्नुहि । प्रत्ययादिति किम् ? पयि वयि गतौ पापहि, वावहि ॥८॥
असंयोगादोः ॥ ४. २.८६॥
असयोगात्परो य उकारस्तदन्तात्प्रत्ययात्परस्य हेलुंग भवति । सुनु, चिनु, कुरु । प्रसंयोगादिति किम? अहि, अक्षणहि । असंयोगादित्योविशेषणादिहापि न भवतिआप्नुहि, राध्नुहि । प्रोरिति किम् ? कोणीहि । प्रत्ययादित्येव,-युहि, रुहि ।।८६।।।
न्या० स०-असंयो०-विशेषणादिति-यदि वा संयोगाद्य उकारान्तः प्रत्यय इति विशेषणं स्यातदाऽत्रापि भवेत् ।
वम्यविति वा ।। ४. २. ८७ ॥
प्रत्ययादिति ओरिति च पञ्चम्यन्तमपि व्यधिकरणषठचन्ततया विपरिणम्यते । प्रसंयोगात्परो य उकारस्तस्य प्रत्ययसंबन्धिनो लुग् वा भवति, धकारादौ मकारादौ चाविति प्रत्यये ।
___ सुन्वः, सुनुवः, सुन्मः, सुनुमः, सुन्वहे, सुनुवहे, सुन्महे, सुनुमहे, तन्वः, तनुवः, तन्मः, तनुमः, तन्वहे. तनुवहे, तन्महे, तनुमहे । वमोति किम् ? सुनुतः, तनुतः । प्रवितीति किम् ? सुनोमि, तनोमि । ओरित्येव,-कोणीवः, प्रोणीमः। प्रत्ययस्येत्येव,-युवः युमः। प्रसंयोगादित्येव,-तक्ष्णुवः, तक्ष्णुमः, अणुवः, अणुमः । संयोगादित्योविशेषणादिहापि न भवति । आप्नुवः, आप्नुमः ॥७॥
कृगो यि च ॥ ४, २.८८॥ ___ कृगः परस्याकारस्य यकारादौ वमि चाविति प्रत्यये लुग्भवति । कुर्यात , कुर्याताम्, कुर्युः, कुर्वः, कुर्मः कुर्वहे, कुर्महे । यि वेति किम ? तनु, कुरुतः । अवितीत्येव,-करोमि । कुर्मीत्यपि कश्चित्तदसंमतम् । कृ हिंसायामित्यस्मात्तु नकारव्यवधानात उः परो न संभवतीति न भवति । कृणुयाव , कृणुवः, कृणुमः ।।८।।
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१३२ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-८६-६२
न्या० स० कृगोयि च-अव्यभिचारात् प्रत्यय इति नाधिचक्रे ।
उ: परो न संभवतीति-न चैतद् वाच्यं येन नाव्यवधानं यतः कुर्यादित्यादावव्यव. हितोऽस्ति ।
अतः शित्युत् ॥ ४. २. ८१ ॥ शित्यविति प्रत्यये य उकारः तन्निमितो यः कृगोऽकारस्तस्योकारो भवति ।
कुरुतः, कुर्वन्ति, कुरु, कुरुताम् , कुर्यात् , अकुरुताम् , कुर्वन्, कुर्वाणः । उविधानबलाद् गुणो न भवति-ओकार एवान्यथा विधीयेत । उकारनिमित्तत्वेनाकारविज्ञानात , कुर्यादित्यादावुकारलोपेऽपि भवति, अडागमस्य च न भवति-अकुरुत । शितीत्युकारस्य विशेषणं किम ? कुरुत इत्यादौ शिति व्यवहितेऽपि यथा स्यात् । अवितीत्येव,-करोति ॥८६॥
न्या० स०-प्रतः शि०-तन्निमित्त इति-एवं सति कुरु इत्यादी विभक्तिलोपेऽपि भवति । गुणो न भवतीति-उकारे निमित्ते 'लघोरुपान्त्यस्य' ४-३-४ इति प्राप्तः । व्यवहितेऽपीति-अन्यथा कुर्यादित्यादावेव स्यात् , न च 'स्वरस्य' ७-४-११० इति स्थानित्वे व्यवधायकत्वं वाच्यमस्या अनित्यत्वात् ।
श्नास्त्योलुक॥ ४.२.१०॥
श्नस्य प्रत्ययस्यास्तेश्च धातोः संबन्धिनोऽकारस्य शित्यविति प्रत्यये लुग्भवति । रुन्धः, रुन्धन्ति, रुन्ध्यात्, रुन्धन् , रुन्धानः, स्तः सन्ति, स्थः, स्य, स्वः, स्मः, स्यात, स्तात , स्ताम् , सन् ।
__ अवितीत्येव-रुणद्धि, अस्ति । अत इत्येव,-अन्त्यस्य मा भूत् । प्रास्ताम , प्रासन् । तिवनिर्देशः किम् ? अस्यते भूत् अस्यतः ॥१०॥
न्या०स०-श्नास्त्यो०-प्रन्त्यस्य मा भूदिति-अत इत्यधिकाराभावे षष्ठ्यान्त्यस्येति अस्तेः सस्य लुप् स्यात् , इनस्य तु प्रत्ययस्येति परिभाषया सर्वस्यापि स्यात् ।
वा द्विषातोऽनः पुम् ।। ४. २. ११ ॥
द्विष आकारान्ताच्च धातोः परस्य शितोऽवितोऽनः स्थाने वा पुसादेशो भवति । अद्विषुः, अद्विषन् , अयुः, अयान , अरुः, अरान् , अलुः, प्रलान् । अदधुरित्यत्र परत्वाग्नित्यमेव, पकारः 'पुस्पो' ( 6-३-३) इत्यत्र विशेषणार्थः ।।१।।
सिज्विदोऽभुवः ॥ ४. २. १२ ॥
सिचः प्रत्ययाद्विदश्च धातोः परस्थानः स्थाने पुसादेशो भवति, 'प्रभुवः' न चेद्भुवः परः सिज्भवति । प्रकाए:, अहाए, अगुः, अदुः, अधुः, अपुः, अस्थः, विद्-अविदुः । अविदन्नित्यपि कश्चित् । अभुव इति किम् ? प्रभूवन् ॥२॥
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पाद-२, सूत्र-९३-६७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १३३
न्या० स० सिविदोऽभुवः-सिच: प्रत्ययादिति-भूवर्जनेन सिच् प्रत्ययो लभ्यते, अन्यथा षिचीत् इत्यस्य ग्रहणं स्यात् , अन: स्थाने इत्यधिकारेऽपि सिजित्युक्तेरद्यतन्या अन् लभ्यते, विदस्तु शिदेव अद्यतन्यां तु सिज् द्वारा अवेदिषुरिति ।
कश्चिदिति-तन्मते पूर्वसूत्रे विद्ग्रहणं ज्ञेयम् । प्रभूवनिति-यदा यङ लुबन्तस्तदापि * प्रकृतिग्रहणे 8 इति न्यायात् पुस् न भवति, नाप्युत्तरेण शितोऽभावात्ततोऽबोभूवन्निति भवति।
व्युक्त-जक्षपञ्चतः॥ ४. २. १३ ॥
द्वे उक्ते यस्य व्युक्तः, पञ्चानां वर्गः पञ्चत् , जक्षाणां पञ्चत् जक्षपञ्चत , व्युक्ताद्धातोर्जक्षपञ्चतश्च परस्य शितोऽवितोऽन: स्थाने पुसादेशो भवति । प्रजुहवः, अविभयुः, अददुः, अनेनिजुः । भुवो यङ्लुपि अबोभवुः । जक्षादि-प्रजाः, अदरिद्रुः, अजागरुः, अचकासुः, प्रशासुः ।। ९३ ।।
अन्तो नो लुक् ॥ ४. २. १४ ॥ व्युक्तजक्षपञ्चतः परस्य शितोऽवितोऽन्तः संबन्धिनो नकारस्य लुग्भवति ।
जुह्वति, जुतु, जुह्वव , जुह्वतौ, जुह्वतः, जुह्वतम् , ददति, वदतु, ददद, ददती स्त्री कले वा, जक्षति, जक्षत, जक्षत् दरिद्रति, दरिद्रतु, दरिद्रत , दरिद्रती स्त्री कुले वा, जाग्रति, जाग्रतु, जाग्रत् , चकासति, चकासतु, चकासत् , शासति, शासतु, शासत् ॥१४॥
न्या० स० -अन्तो नो लुक्-ददती स्त्री कुले वेति-'अवर्णादश्नः' २-१-११५ इत्यन्तादेशे न लुक् । जुह्वती इति तु नात्र ज्ञेयं नकारासंभवात्, ददती इत्यादौ तु भूतपूर्वकत्वेन स्थानित्वेन वाऽवर्णान्तत्वे संभवः ।
शौ वा ॥ ४. २. १५ ॥
व्युक्तजक्षपञ्चतः परस्यान्तो नकारस्य शिप्रत्यये वा लुग् भवति । ददति, ददन्ति, जक्षति, जक्षन्ति, दरिद्रति, दरिद्रन्ति, जाग्रति, जानन्ति, चकासति, चकासन्ति, शासति, शासन्ति, कुलानि शाविति किम् ? ददती दधती कुले ॥६५॥
श्नश्चातः॥ ४. २.१६॥
व्युक्तजक्षपञ्चतः श्नाप्रत्ययस्य च संबन्धिनः शित्यविति प्रत्यये परे आकारस्य लुग्भवति । मिमते, मिमताम्, अमिमत, संजिहते, संजिहताम् , समजिहत, यायति, यायतु, दरिद्रति, दरिद्रतु । श्ना-क्रीणन्ति, क्रीणन्तु, अकोणन् , लुनते, लुनताम् , अलुनत, पुनते, पुनताम् , अपुनत । श्नश्चेति किम् ? यान्ति, वान्ति । आत इति किम् ? बिभ्रति, जक्षति । अवितीत्येव, अजहाम , अकोणाम् ॥६६॥
एषामीळञ्जनेऽदः ॥ ४. २. १७ ॥
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१३४ ]
बृहद्वृत्ति लघुन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-९८-१०१
एषां व्युक्तजक्षपञ्चतश्नाप्रत्ययानामाकारस्य शित्यविति व्यञ्जनादौ परत ईकारो भवति, दासंज्ञं वर्जयित्वा
मिमीते, मिमीताम् , अमिमीत, दावदेवोर्यङ्लुपि दादीत: । दादीथः, लुनीतः लुनीहि, लुनीयात् । व्यञ्जने इति किम् ? मिमते, लुनन्ति । अद इति किम् ? दत्तः, धत्तः, दद्वः, दमः, दध्वः, दध्मः, दद्यात् , दध्यात् । अवितीत्येव,-जहाति, लुनाति । शितीत्येव,संजिहासते ॥९७।।
इर्दरिद्रः॥ १. २. १८॥
दरिद्रतिय॑जनादौ शित्यविति प्रत्यये परे आकारम्येकारो भवति । दरिद्रितः, दरिद्रिथः, दरिद्रिथ, दरिद्रिवः, दरिद्रिमः, दरिद्रियात् । व्यञ्जन इत्येव,-दरिद्रति । शितीत्येव,-दिदरिद्रासति, अवितीत्येवं,-दरिद्राति ।।९८॥
भियो नवा ।। ४. २. ११ ॥
बिभेतेय॑जनादौ शित्यविति प्रत्यये परेऽन्तस्येकारो वा भवति । बिभितः, बिभीतः, बिभिथः, बिमोथः, बिभियात् , बिभीयात् , यङ्लुपि,-बेभितः, बेभीतः । व्यञ्जन इत्येव,-बिभ्यति, बिभ्यतु । शितीत्येव,-विभीषति, बेमीयते । प्रवितीत्येव,-बिभेति, बिभेषि En
हाकः ॥ ४. २. १००॥
जहातेयुक्तस्य व्यञ्जनादौ शित्यविति प्रत्यये परेऽन्तस्येकारो वा भवति । जहितः, जहीतः, जहिथः, जहीथः, जहिवः, जहीवः, जहिमः, जहीमः । व्यञ्जन इत्येव,जहति, जहतु । शितीत्येव,-जिहासति, जेहीयेते ।
अवितीत्येव,-जहाति, जहासि । अनुबन्धनिर्देश ओहायङ्लुपोनिवृत्त्यर्थः । उज्जिहोते, संजिहोते, जहीतः। योगविभाग उत्तरार्थः ।। १०० ॥
न्या० स०-हाकः-व्युक्तस्येति-अत्र व्युक्ताधिकृति विना द्विवचनात् प्रागेव इवं स्यात् , यतो हल्निमित्तं ततश्च प्राक्तु स्वर इति नोदेति ।
आ च हो॥ ४. २. १०१॥
अवितीति निवृत्तम् , वितोऽसंभवात् , शितीति त्वनुवर्तते । व्युक्तस्य जहातेही परे आकार इकारश्च वा भवति । जहाहि, जहिहि, जहीहि ॥१०१॥
न्या० स०-आ च हो-हाक इति सूत्रे जहातिव्युक्तो गृह्यते, इह उत्तरत्र च स एवानुवर्त्यते ।
इकारश्चेति-चेत्यकृते तत्र कौण्डिन्यन्यायेन ईर्न स्यात् ।
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पाद-२, सूत्र-१०२-१०६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१३५
यि लुक् ॥ ४. २. १०२॥
यकारादौ शिति प्रत्यये परे जहातेरन्तस्य लुग्भवति । जह्यात् , जह्याताम् , जा । शितीत्येव,-जेहीयते, हेयात् । वेति निवृत्तम् ।।१०२ ॥
न्या० स०-यि लुक्-लुञ्चनं 'क्रुत्संपदा' ५-३-११४ इति क्विपि स्त्र्युक्त इति स्त्रीत्वम् । लवनं 'द्रागादयः' ८७० (उणादि) इति लुक् पुंस्त्वं , एवं लुम्पनं 'क्रुत्संपदा' ५-३-११४ इति क्विपि स्त्रीत्वम् । 'गृपूदुर्वी' ६४३ (उणादि) इति क्विपि पुस्त्वम् ।
वेति निवृत्तमिति- इकाराधिकारे वाधिकृतः, इह लुग्विधीयते, अतो निवृत्तः । ओतः श्ये ॥ ४. २. १०३ ॥
धातोरोकारस्य श्ये परे लुग्भवति । दो-अवधति, सो-अवस्यति, शो-निश्यति, . छो-प्रवच्छयति । श्य इति किम् ? गौरिवाचरति गवति ।।१०३।।
जा ज्ञाजनोऽत्यादौ ॥ ४. २. १०४॥
ज्ञा जन इत्येतयोः शिति प्रत्यये परे जा इत्ययमादेशो भवति 'अत्यादौ' तिवादिश्चेदनन्तरो न भवति । जानाति, जानीते, जानन् , जानानः, जन-जायते, जायमानः । शितीत्येव,-ज्ञायते, जन्यते । अत्यादाविति किम् ? जाज्ञाति, जञ्जन्ति ।।१०४॥
न्या० स०-जाज्ञाजनो०-जाज्ञातीति-यङलुपि रूपं, शतरि तु ज्ञाजनोईयोरपि जत् इति । कया युक्त्या यङलुपि जाज्ञातीति जञ्जन्तीति वाक्ये शतरि 'जाज्ञा' ४-२-१०४ इति जादेशे 'श्नचातः' ४-२-९६ इत्याल्लुपि, अत्यथं जानन् अत्यथं जायमान इत्यर्थः ।
प्वादेह स्वः॥ ४. २. १०५॥
प्वादेर्गणस्य शिति प्रत्यये परे ह्रस्वो भवति, अत्यादौ । पुनाति, लुनाति, धुनाति । क्रयादिषु 'पूग्श् पवने' इत्यारभ्यः वृत्करणपर्यन्ताः प्वादयः । प्वादेरिति किम् ? वीणाति, भ्रोणाति । आ गणान्तात् प्वादय इत्यन्ये, वृत्करणं ल्वादिपरिसमाप्त्यर्थम्-तन्मते विणाति, भ्रिणाति इत्येव भवति । जानातीत्यत्र तु विधानसामर्थ्यान्न ह्रस्वः ।।१०५।।
गमि-पद्यमश्वः ॥ ४. २. १०६ ॥
गम् इषत् यम् इत्येतेषां शिति प्रत्यये परे छकारादेशो भवति अत्यादौ । गच्छति, संगच्छते, इच्छति, व्यतीच्छन्ते, यच्छति, आयच्छते, इषदिति तकारनिर्देश इष्यतीष्णात्योनिवृत्त्यर्थः ।
शितीत्येव-गन्ता, एष्टा, यन्ता । अत्यादावित्येव,-जंगन्ति, यंयन्ति । १०६॥
न्या० स०-गमिष०-गन्तेत्यादिषु सर्वेषु तृच् , अन्यथा व्यङ्गविकलत्वं स्यात् यतो यथात्र न शित् तथा अत्यादिरपि नास्तीति । जंगन्तीति-तसि तु जंगतः यंयत इति, शतरि
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१३६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद-२, सूत्र-१०७ १०६
तु गमो जंकछत् । कथं यङलुबन्तात् जंगन्तीति ? वाक्ये शतरि 'गमहन' ४-२-४४ इत्युपान्त ( उपान्त्य)लोपे 'अघोषे' १-३-५० इति गम्य कत्वे, यमस्तु यंयच्छत् ।
वेगे सर्तेर्धात् ॥ ४. २. १०७ ॥
सरतेवेंगे गम्यमाने शिति परे धाव इत्ययमादेशो भवति अत्यादौ । धावति, धाव, कतीह धावमानाः। वेग इति किम् ? प्रियामनुसरति, धाविना सिद्धे सरतेवेंगे सरतीति प्रयोगनिवृत्त्यर्थं वचनम् । तिन्निर्देशाद्यङ्लुपि न भवति । सस्रत, सरीस्रत्, सरिस्रत , ।१०७
श्रौति-कृ-बुधि-वुपा-घ्रा-मा-स्था-म्ना-दाम-दृश्रतिशद-सदः शृ-कृधि-पिब-जिघ्र-धम-तिष्ठ मन-यच्छ-पश्यर्छशीय-सीदम् ।। ४.२.१०८ ॥
श्रोत्यादीनां शिति परे यथासंख्यं श इत्यादय आदेशा भवन्ति अत्यादौ ।
श्रौतेः शृ-शृणोति, शृण्वन् , कृवोः कृ, कृणोति, कृण्वन् , धिवोधिः, धिनोति, धिन्वन , पः पिब:-पिबति पिबन् , श-उत्पिनः । स्वरान्तत्वादुपान्त्यलक्षणो गुणो न भवति । घ्रो-जिघ्रः, जिघ्रति, जिघ्रन् , उज्जिघ्रः, ध्मो धमः-धमति, धमन् , उद्धमः, स्थः तिष्ठः, तिष्ठति, तिष्ठन् , उत्तिष्ठमानः, म्नो मनः-आमनति, आमनन्, कतीहामनमानाः, दामो यच्छ:-प्रयच्छति, प्रयच्छन् , दास्या संप्रयच्छमानः । दृशः-पश्यः, पश्यति, पश्यन् , शेउत्पश्यः, अर्तेऋच्छ:, ऋच्छति, ऋच्छन् , समृच्छमान:, शदेः शीयः-शोयते, शीयमानः, सदेः मोदः-सीदति, कतीह सीदमानाः, घ्रादिभिः साहचर्यात्पायर्योभौवादिकयोरेव ग्रहणम् । लाक्षणिकत्वाच्च पें इत्येतस्य न ग्रहणम् तेन पान् इग्रत् पायति ।
श्रौत्यो स्तिनिर्देश: कृषिवुदृशदामामनुबन्धश्च यङलुप्यादेशनिवृत्त्यर्थः । शोध्रुवत् । अर्तेर्यङ्लुपि द्वित्वे पूर्वस्यात्वे रागमे धातोश्च रत्वे तन्निमित्ते रागमलोपे पूर्वाकारदीर्घत्वे च आरत , चरीकृण्वत् , देधिन्वत् , दर्द शत् , दादत् । केचित्तु श्रौतेर्यङलुप्यप्यादेशं नुप्रत्ययं चेच्छन्ति । शृणोति, कृवुधिवोस्तु चरीकृणोति देधिनोति इति रूपं मन्यन्ते-ते हि यङ्लुपि उप्रत्ययं वकारस्याकारन्तस्य 'प्रतः' इति लोपमकारस्य स्थानिवद्भावादुपान्त्यगुणाभावे मन्यन्ते । दामो मकारस्य निर्देशो दासंज्ञशङ्कानिवृत्त्यर्थश्च ।।१०८।
न्या० स०-ौतिकृ०-गुणो न भवतीति-न च वाच्यं विधानसामर्थ्याद् गुणो न स्यात् कुतः ? यतो यङ लुबन्तस्य पापेतीति वाक्ये शतरि गुणप्राप्ति स्ति, तत्र चरितार्थ विधानमत: स्वरान्तत्वेन प्रतिषिध्यते । आरदिति-अरर्तीति वाक्ये शतृ: । चरीकृण्वदितिचरकृणोतीति शतृः, वस्य ऊटि गुणे च वाक्यं, केचिदूटं नेच्छन्ति तन्मते चरीकर्तीति ।
देधिन्वदिति-अत्राप्यूटि गुणे च देधिनोतीति वाक्यं, मतान्तरे तु देधिन्तीति । दर्दशदिति-दर्दष्र्टीति शतृः ।
क्रमो दीर्घः परस्मै ॥ ४. २. १०१ ॥
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बाद- २, सूत्र. ११०-११३ ] श्रीसिद्धहेम चन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १३७
क्रमेः परस्मैपदे शिति परे दीर्घो भवति अत्यादौ क्रामति, क्राम्यति, क्रामन्, क्राम्यन्, श्रक्रामन् परस्मैपद इति किम् ? श्राक्रमते सूर्यः, आक्रममाणः । परस्मैपदनिमित्तविज्ञानाद्धेलु क्यपि भवति । क्राम, संक्राम ।। १०६ ॥
ष्ठिवलम्वाचमः ॥। ४. २. ११० ॥
food: क्लमेराङ्पूर्वस्य च चमेः शिति परे दीर्घो भवति अत्यादौ ष्ठीवति, देवादिकस्य तु ष्ठिवो दीर्घोऽस्त्येव । क्लामति, क्लाम्यति श्राचामति । चमेराङपूर्वस्य ग्रहणादिह न भवति, चमति विचमति । ष्ठिक्लमोरूकार निर्देशाद्यङ लुपि न भवति, - तेष्ठिवत्, चंवलमत् । 'अन्तो नो लुक् ' ( ४-२-६४ ) ।। ११० ।।
शमसप्तकस्य श्ये ।। ४. २. १११ ॥
अत्यादाविति निवृत्तम्, - शमादीनां मदेच्पर्यन्तानां सप्तानां श्ये परे दीर्घो भवति । शाम्यति, दाम्यति, ताम्यति, श्राम्यति, भ्राम्यति, क्षाम्यति, माद्यति ।
शमसप्तकस्येति किम् ? अस्यति । श्य इति किम् ? भ्रमति ।। १११ ।।
न्या० स०-शम् सप्त०-भ्रमतीति-भ्रमूच् अनवस्थाने इत्यस्य रूपं, अस्य यङ लुपि न दीर्घः शमादिगणनिर्देशात् श्यस्तु भवत्येव ' भ्रासभ्लास' ३-४-७३ इति प्रतिपदोक्तवात् तेन बंभ्रम्यतीति भवति ।
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विसिवोऽनटि वा ।। ४. २. ११२ ॥
ष्ठिवः सीव्यतेश्वानटि वा दीर्घो भवति । निष्ठीवनम् निष्ठेवनम्, सीवनम्, सेवनम् ।। ११२ ।।
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मव्यस्याः || ४. २. ११३ ॥
धातोविहिते मकारादौ वकारादौ च प्रत्ययेऽकारस्याकारो दीर्घो भवति । पचामि, पचाव:, पचामः पचावहे, पचामहे । वयो यङ्लुपि-वावामि, वावावः, वावामः । धातोः प्रत्ययेनाभिसंबन्धो नाकारेणेति प्रत्ययाकारस्यापि दीर्घो भवति । अस्येति किम् ? चिनुव: चिनुमः, रुवः रुमः । आकारास्य दीर्घत्वेन विशेषणमाकारो दीर्घ एव यथा स्यात् न प्लुतः तल्लक्षणयोगेऽपीत्येवमर्थम् ।। ११३ ।।
न्या० स०- मव्यस्या०-वावाव इति यत्र धातोराकारान्तत्वे सति व्युक्तत्वं तत्र 'एषामी' ४-२ - ९७ इति ईत्वं यत्र युक्तत्वे सति आकारान्तत्वं तत्र लाक्षणिकत्वात् आकारस्य न ईत्वं तेनात्र न ईकारः ।
आकारस्य दीर्घत्वेनेति-वृत्तावाकारो दीर्घो भवतीति किमर्थमुक्तं यत आकारो दीर्घ एवेत्याशङ्का न लूत इति । स्वमते तु 'सम्मत्यसूया' ७-४-८६ इत्यतः सूत्रात् अन्त्य इत्यधिकारे 'प्रश्ने च' ७-४-९८ इति प्लुतो न प्राप्नोति; परं केचिदनन्त्यस्यापि इच्छन्ति, तन्मते माभूदित्यर्थः ।
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१३८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद २, सूत्र-११४-११९
तल्लक्षणयोगेऽपीति-तस्य प्लुतस्य यल्लक्षणं तद्योगेऽपीत्यर्थः । अनतोऽन्तोऽदात्मने ॥ ४. २. ११४ ॥
अनकारात्परस्यात्मनेपदसंबन्धिनोऽन्तरूपस्यावयवस्यात् इत्ययमादेशो भवति । चिन्वते, चिन्वताम् , अचिन्वत , लुनते, लुनताम् , अलुनत । आत्मनेपदस्येति किम् ? चिन्वन्ति लुनन्ति । अनत इति किम् ? पचन्ते, पच्यन्ते ॥ ११४ ।।
न्या० स० अनतो०-पचन्ते, पच्यन्ते इति-प्राचः परो विधिरिति व्याख्यानेन अकारस्य स्थानित्वं भूतपूर्वकन्यायाद् वा।
शीङो रत् ॥४. २. ११५॥
शोङः परस्यात्मनेपदसंबन्धिनोऽन्तो रत् इत्ययमावेशो भवति । शेरते, शेरताम् , अशेरत ॥ ११५ ।।
न्या० स०-शोडो-यङ लुपि व्यति शेश्यते । वेत्तेर्नवा ॥ ४. २. ११६॥
वेत्तेः परस्यात्मनेपदसंबन्धिनोऽन्तो रत् इत्ययमादेशो वा भवति । संविद्रते, संविव्रताम् ; समविद्रत, पक्षे,-संविदते, संविदताम् , समविवत । आत्मन इत्येव,-विदन्ति, वेत्तेरिति किम् ? रौधादिकस्य मा भूत्-विन्दते ॥ ११६ ।।
न्या० स०-वेत्ते.-वेत्तेस्तिनिर्देशो यङ लुपि निवृत्त्यर्थश्च तेन व्यतिवेविदते । तिवां णवः परस्मै ॥ ४. २. ११७ ॥
वेत्तेः परेषां परस्मैपदसंबन्धिना तिवादीनां नवानां प्रत्ययानां स्थाने परस्मैपदसंबन्धिन एव णवादयो नवावेशा यथासंख्यं वा भवन्ति ।
वेद, विदतुः, विदुः, वेस्थ, विवथः, विद, बेव; विद्व, विप्र, वेत्ति, वित्तः, विवन्ति, वेत्सि, वित्थः, विस्थ, वेधि, विद्वः, विपः ॥ ११७॥
न्या० स०-तिवां-णवादय इति-अमीषां तदादेशेति न्यायात्परोक्षाकार्य न भवति । ब्रगः पञ्चानां पञ्चाहश्च ॥ ४, २. ११८॥
बगः परेषां तिवादीनां पञ्चानां स्थाने यथासंख्यं पश्च पवादय आदेशा वा भवन्ति, तत्संनियोगे ब्रूग आह इत्यादेशश्च भवति ।
आह, पाहतुः, आहुः आत्थ 'नहाहोतो' (२-१-८०६) इति हकारस्य तकारः । माहथः, ब्रवीति, बतः, अवन्ति, ब्रवीषि, बूथः । पश्चानामिति किम् ? बूथ ।। ११८ ॥
आशिषि तुह्योस्तातङ् ॥ ४. २. १११ ॥
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पाद-२, सूत्र-१२०-१२३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १३९
आशिषि विहितयोस्तुह्योः स्थाने तातङ् आदेशो वा भवति । जीवताद्धवान् , जीवतु भवान् , जीवतात् त्वम् , जीव त्वम् , आशिषीति किम् ? जीवतु, जीव । डिस्करणं गुणनिधार्थम् ।। ११६ ।।
न्या०स० आशिषि ०-गुणनिधार्थमिति- इदं चोपलक्षणं तेन ङित्करणेन तदादेशेति न्यायात् स्थानिनस्तुवो वित्त्वं बाध्यते, तेन युतात् रुतादित्यादौ विद्व्यञ्जनप्रत्ययाभावात् 'उत औविति' ४-३-५९ इति नौकारः, न तु शित्त्वमपि बाध्यते, यतस्तस्यैव शितो ङित्वं ततो ङित्वेन, वित्त्वमेव हन्यते न तु शित्त्वं ततश्च स्तात् इत्यादौ विच्छति प्रत्यये 'इनास्त्योलुक' ४-२-९० इति लुक सिद्धः ।
श्रातो णव औः ।। ४. २. १२० ॥
वेति निवृत्तम् , आकारात्परस्य णवः स्थाने औरित्ययमादेशो भवति । पपौ, तस्थौ सः, सुप्तोऽहं किल ययौ, पपौ । आत इति किम् ? स जगाय, सुप्तोऽहं किल विललाप ।१२०
न्या० स०-आतो०-वेति निवृत्तमिति-वेति शितीति संबद्धं णवग्रहणात्तन्निवत्तौ निवृत्तं , अत्र ओकारेणैव सिद्धे औकारकरणं ददरिद्रावित्याद्यर्थ, अन्यथा 'अशित्यस्सन्' ४-३-७७ इत्याल्लोपे इदं न सिध्येत् , नन्वत्रामादेशेन भाव्यं तत्कथमेतदर्थम् ? सत्यं, अत एव औकारकरणादामादेशस्यानित्यत्वम् । किल ययाविति-'कृतास्मरणा' ५-२-११ इति परोक्षा।
आतामातेआथामाथेआदिः॥ ४. २.१२१ ॥
अकारात्परेषामातामातेआथामाथे इत्येतेषाम् आत इर्भवति । पचेताम् , पचेते, पचेथाम, पचेथे । आदिति किम् ? मिमाताम् , मिमाते, मिमाथाम् , मिमाथे ॥१२॥
न्या० स०-आतामा०-आत इति-अर्थवशाद्विभक्तिपरिणामः । यः सप्तम्याः ॥४. २.१२२ ॥
अकारात्परस्य सप्तम्याः संबन्धिनो याशब्दस्येकारादेशो भवति । पचेत , पचेताम् पचेः, पचेतम् , पचेत, पचेव, पचेम । आदित्येव,-अद्यात् ।। १२२॥
__न्या० स०-यः सप्तम्या:-या शब्दस्येति-नन्वाकार स्याधिकृतत्वात् येन नाव्यवधानमिति न्यायाद्यव्यवधानेऽपि आत एव, यद्वा प्रत्ययस्येति परिभाषया समस्ताया अप्यादेशः प्राप्तः ? न, समस्ताया अप्यादेशोऽभिप्रेतो यदि स्यात्तदा यादि सप्तम्या इति क्रियेत, स्थिते तु निदिश्यमानानामिति न्यायात् या शब्दस्यादेशः।
इत्याचार्य चतुर्थस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः । यामयुसोरियमियुसौ ॥ ४. २. १२३ !! ___ अकारात्परयोर्याम्युस् इत्येतयोर्यथासंख्यमियमियुसावादेशौ भवतः । पचेयम् , पचेयुः ।। १२३ ॥
- इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्र विचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनबृहद्वृत्ती चतुर्थस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः । श्रीभीमपृतनोत्खातरजोभिरिभूभुजाम् । अहो चित्रमवर्धन्त ललाटे जलबिन्दवः ॥१॥
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अथ तृतीयः पादः नामिनो गुणोऽक्ङिति ॥ ४. ३. १ ॥
नाम्यन्तस्य धातो: कितडितजिते प्रत्यये परे आसन्नो गुणो भवति । चेता, नेता, स्तोता, लविता, कर्ता, तरिता, जयति, नयति, जुहोति, भवति, बिभति, तरति, करोति, एता एतोत्याद्यन्तवद्भावात्।
नामिन इति किम् ? उम्भिता, याति, ग्लायति, म्लायतीति ऐकारोपदेशबलान्न गुणः । नीम्याम् , लभ्यामिति गौणत्वात् । अविडतीति किम् ? चितः, चितवान् , अशिश्रियत् , अदुद्रुवत् , लिल्ये लुलुवे, इतः, युतः ॥ १।।
__न्या० स०-नामिनो गु० कर्तेति-निद्दिश्यमानत्वात् ऋकारर येवादेशो न त्वनेकवर्णः सर्वस्य । ऐकारोपदेशबलादिति-यद्वा गुण इति सान्वयसंज्ञेयं, तेन हानिरेव, न गुण उत्कर्षरूप इति तथा नौरिवाचरति नावति, नाव इवाचरणं नावा इत्यादौ न गुणः । गौणत्वादिति-नामार्थसंवलितधात्वर्थाभिधायित्वेन ।
उश्नोः ॥ ४. ३. २ ॥
धातोः परयोरुश्नु इत्येतयोः प्रत्यययोरङिति प्रत्यये परे गुणो भवति । तनोति, करोति, समर्णोति, तर्णोति, धर्णोति । धातोस्तु पूर्वेणोत्तरेण च गुणः । श्नु-सुनोति, सिनोति । अक्डिन्तीत्येव,-कुरुतः, सुनुतः ।। २ ॥
पुस्पो॥ ४. ३. ३ ॥
नाम्यन्तस्य धातो पुसि पौ च परे गुणो भवति । अबिभयुः, अजुहवः, अबिभरुः, ऐयरुः, अजागरुः । पु-अर्पयति, रेपयति, उलेपयति, हृपयति, क्नोपयति । नाम्यन्तस्येत्येव,अनेनिजुः, क्ष्मापति, दापयति ॥३॥
न्या० स० -पुस्पौ-नन्वत्र पुग्रहणं किमर्थं 'अत्तिरीली' ४-२-२१ इत्यत्र पोरागमत्वमपनीय प्रत्ययत्वे कृते 'नामिनो गुणः' ४-३-१ इत्यनेनैव गुणः सेत्स्यति, आगमत्वे तु पोर्धातुग्रहणेन ग्रहणात् अर्पयतीत्यत्रैव गुणः सिध्यति, रेपयतीत्यादौ तु गुरूपान्त्यत्वान्न सिद्ध्यति, प्रत्ययत्वे तु पोः सर्वत्र सिध्यति ? सत्यं -पोः प्रत्ययत्वे कृतेऽरीरिपत् अदीदपदित्यादावुपान्त्यत्वाभावात् 'उपान्त्यस्यासमानलोपि' ४-२-३५ इत्यनेन ह्रस्वत्वं न स्यादिति ।
लघोरुपान्त्यस्य ।। ४. ३. ४ ॥
धातोरुपान्त्यस्य नामिनो लघोरविङति प्रत्यये परे गुणो भवति । भेत्ता, गोप्ता, वर्तिता, भेदनम् , गोपनम् , वर्तनम् , वेत्ति, दोग्धि, ननति । लघोरिति किम् ? ईहते, कहते ।
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पाद-३, सूत्र-५-८]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१४१
उपान्त्यस्येति किम् ? भिनत्ति, रुणद्धि, तृणत्ति, छुरणत्ति । अक्ङितीत्येव,-भिन्नः, भिन्नवान् , बेभिद्यते, मरीमृज्यते ॥ ४ ॥
न्या० स०-लघो०-ननु 'नामिनो गुण' ४-३-१ इत्यनेनान्त्यविधानसामर्थ्यादनेनोपान्त्यस्यैव भविष्यति किमुपान्त्यग्रहणेन ?, न च वाच्यं पूर्वेणाक्डिति गुणोऽनेन तु विङत्यपि गुणो भवत्वेतदर्थं, 'जागुः किति' ४-३-६ 'ऋवर्णदृश' ४-३-७ इति सूत्रद्वयकरणात् ?
न, लघोरिति सति जागर्तेः कित्येव गुण इति विपरीतनियमाशङ्का स्यात् , अनामिनो वा गुण: स्यात् इति संदेहनिरासार्थमुपान्त्यग्रहणम् ।
मिदः श्ये ॥ ४. ३.५ ॥ मिदेरुपान्त्यस्य श्ये परे गुणो भवति । मेद्यति, मेद्यतः, मेद्यन्ति ॥५॥ जागुः किति ।। ४. ३. ६ ॥
जागतः किति प्रत्यये परे गुणो भवति । जागरित:, जागरितवान् , जागर्यते, जागयात् । क्वौ-जागः जजागरतुः, जजागरुः । कितीति किम् ? जागृतः, जापति, जाग्रत , जागयात् , जागृविः । इह कस्मान्न भवति जजागृवानिति ? जागर्तेः क्वसुरनभिधानाद्भाषायां नास्तीत्येके । गुणमेवेच्छन्त्येके-जजागर्वान् । अपरे तु क्वसुकानयोर्गुणप्रतिषेधमेवाहाजजागृवान् , व्यतिजजामाणः । विङति प्रतिषेधे प्राप्ते वचनम् । अक्ङिति तु पूर्वेणैव गुणः,जागरिता ॥६॥
न्या० स०-जागुः किति-जजागृवानितीति-एके सर्वथापीदं न मन्यन्तेऽतः परमतेन दशितम् ।
ऋवर्णदृशोऽङि ॥ ४. ३, ७॥
ऋवर्णान्तानां धातूनां दृशश्चाडि प्रत्यये परे गुणो भवति । मा भवानरव , असरत् , असरताम् , अजरत् , अजरताम् , अदर्शत् , अदर्शताम् ॥ ७ ।।
स्कुच्छृतोऽकि परोक्षायाम् ॥ ४. ३. ८ ॥
स्कृ ऋछ इत्येतयोऋकारान्तानां च धातूनां नामिनः परोक्षायां परतो गुणो भवति, अकि ककारोपलक्षितायां क्वसुकानरूपायां न भवति ।
स्कृ,-संचस्करतुः. संचस्करुः, ऋछ-आनर्छ, आनछतुः, आनछुः । ऋव , कृ,विचकरतुः, विचकरुः, तृ-तेरतुः, तेरुः, शृ-विशशरतुः, विशशरुः, दृ-विददरतुः, विददरुः । पृ,-निपपरतुः, निपपरुः । स्कृ इति कृगः सस्सट उपादानादिह न भवति,-चक्रतुः, चक्रुः। उत्तरेणैव सिद्धे स्कृग्रहणमुत्तरत्रौपदेशिकसंयोगपरिग्रहार्थम् । विचकार निजगारेत्यादौ परत्वाद्वृद्धिरेव।
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बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-९-१०
अकीति किम् ? संचस्कृवान् , संचस्क्राणः, आनच्छवान् , विचिकीर्वान् , वितितीनि , विततिराणः, विशिशीर्वान् , विशशिराणः, निपुपूर्वान् , निपपुराणः । काने पूर्व द्वित्वम् पश्चादिरादि: स्वरविधित्वात् ।। ८ ॥
न्या० स०-स्कच्छृतो०-परिग्रहार्थमिति-तेन संस्क्रियते,संचेस्क्रीयते, संस्क्रियात् इत्यादौ क्यङाशीर्य' ४-३-१० इति गुणो न भवति । संयोगादतः' ४-४-३७ इति इट् न विकल्पेन । विततिराण इति-व्यतिहारे कर्मण्यात्मनेपदम् । विशशिराण इति-विशशरे 'ऋः शप्रः' ४-४-२० इत्यनेन नवा ऋत्वे विशश्रे इति वा वाक्ये 'तत्र क्वसु' ५-२-२ इति कान प्रत्ययः, एवं निपपुराण इत्यत्रापि निपप्रे निपपरे वेति वाक्यम् ।
संयोगादृदः ॥ ४.३.१ ॥
संयोगात्परो य ऋकारस्तदन्तस्य धातोरर्तेश्च परोक्षायां परतो गुणो भवति, अकि । सस्मरतुः, सस्मरः, सस्वरतुः, सस्वरुः, दद्वरतुः, दद्वरः, वध्वरतुः, दध्वरुः, ह्व-जह्वरतुः, जह्वरुः, प्रतिः, आरतुः प्रारः ।।
संयोगादिति किम् ? चक्रतुः, चक्रुः । ऋदतरिति किम् ? चिक्षियतुः, चिक्षियुः । गुणप्रतिषेधविषये पुनःप्रसवार्थ वचनम् , वृद्धिस्तु भवत्येव ? सस्मार, सस्वार, ऋत: संयोगेन विशेषणादतिग्रहणम् । तिनिर्देश उत्तरार्थः ॥ ९ ॥
न्या० स०-संयोगा०-आरतुरिति-'इवर्णादेः' १-२-२१ इति रत्वेनापि सिध्यति परमन्तरङ्गत्वात् 'अवर्णस्येवर्णादिना' १-२-६ इति । द्वित्वाकारस्याग्रेतनऋकारेण सह रत्वबाधकोऽरादेशो माभूदित्यत्तिग्रहणमुत्तरार्थ च, अथ अरादेशेऽपि 'अस्थादेराः' ४-१-५८ इत्यात्वे सेत्स्यति, तदपि न, यतो द्विवचने पूर्वाकारस्य 'अस्यादेः' ४-१-६८ इत्यात्वमऽभाणि आरिवानित्यत्र त्वन्तरङ्गत्वानाश्रयणात् रत्वमेव ।
उत्तरार्थ इति-इह यलुबन्तस्यार्तेरनेकस्वरत्वात् परोक्षायामामि सति 'वेत्तेः कित्' ३-४-५१ इति सूत्रादामि परोक्षाकार्याऽभावान्न यङ लनिवृत्त्यर्थमिति वाच्यं, तत्रामभावादामि च सिद्ध एव गुणो यथा अरराञ्चकार अरियराञ्चकारेति ।
क्ययङाशीये॥ ४.३.१०॥
संयोगात्परो य ऋकारस्तदन्तस्य धातोरर्तेश्च क्ये यडि प्राशीःसंबन्धिनि ये च प्रत्यये गुणो भवति । स्मर्यते, स्वर्यते, अर्यते, सास्मयंते, सास्वर्यते, अरार्यते, स्मर्यात् , स्वर्यात , अर्यात् ।
औपदेशिकसंयोगग्रहणाविह न भवति-संस्क्रियते, संचेस्कोयते, संस्क्रियात् । ऋत इत्येव,-प्रास्तीर्यते, आतेस्तीर्यते, पास्तीर्यात् । आशीर्य इति किम् ? स्मषीष्ट, समषीष्ट । अर्ते रिति तिनिर्देशाबलपि न भवति । प्रारियात् , अप्रियात् ॥ १०॥
न्या. स०-क्यङा०-संस्क्रियत इति-कस्यादिरिति व्याख्यानेऽनुस्वारस्य व्यञ्जनत्वात् 'धटो धुटि' १-३-४८ इत्येकस्य सस्य वा लुक् । प्रारियादिति यङ लुपि द्वित्वे 'रिरोच' ४-१-५६ इति रागमे क्याति 'रिः शक्याशीर्ये' ४-३-११० इति धातो रिः, 'रो रे लुक'
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पाद-३, सूत्र-११-१२ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१४३
१-३-४१ इति र लोपे प्रागदीर्घ इति प्रथमप्रयोगे, द्वितीये तु 'रिरौच' ४-१-५६ इति रि: रीर्वा तस्य 'इवर्णादेः' १-२-२१ इति यत्वे 'रिः शक्य' ४-३-११० इति रिः, इयादेशस्तु 'पूर्वस्यास्वे स्वरे' ४-१-३७ इत्यत्र य्वोः पूर्वस्येति सामानाधिकरण्यव्याख्यानादिकारोकारमात्रस्यैव, अत्र तु अरि इति समुदायः पूर्व इति न, व्यधिकरणव्याख्याने तु अरियियादिति भवत्येव ।
न वृद्धिश्चाविति क्ङिल्लोपे ॥ ४. ३. ११ ॥
अविति प्रत्यये यः कितो डितश्च लोपस्तस्मिन्सति गुणो वृद्धिश्च न भवति, लोपोऽदर्शनमात्रमिह गृह्यते । यङ्लोपे देद्यः, वेव्यः, नेन्यः, लोलुवः, पोपुवः, मरीमृजः । विङदिति किम् ? रागी, रागः । अत्र नलोपे प्रतिषेधो मा भूत् ।।
केचित्त दधीवाचरतीति क्वि लोपे अप्रत्यये णिगि च दध्या दध्ययतीत्यत्रापि गुणवृद्ध्योः प्रतिषेधमिच्छन्ति, तन्मतसंग्राहार्थ विङल्लोपे सति प्रविति प्रत्यगे परे गुणवृद्धी न भवत इति व्याख्योयम् । विति तु,-दघयति, रोरवीति, बोभवीति । केचित्तु दोधीवेव्योरिवणे यकारे चान्तस्य लुकमन्यत्र तु गुणवृद्धिनिषेधमारभन्ते । आदीधिता, आवेविता, आदीधीत, आवेवीत, आदीध्यते, आवेव्यते । अन्यत्र आदीध्यनम् , आवेव्यनम् , आदीध्यकः, आवेव्यकः । तदसत छान्दसत्वादनयोः ।। ११ ॥
न्या० स०-न वृद्धिश्चा०-नामिन इति वर्तते । अदर्शनमात्रमिति-न तु लुकलुपावित्यर्थः, तद्ग्रहणे हि दध्येत्यादौ गुणप्रतिषेधो न स्यात् , अत्र हि क्विपो लुक लुप् वा न किन्तु अप्रयोगीत् । देद्य इति-दा संज्ञानां दीङ चेत्यस्य च यडि देदीयते इति वाक्ये अचि अचीति सस्वरस्यैव यङो लुप् , अन्यथा 'स्वरस्य' ७-१-११० इति अस्य स्थानित्वे गुणप्राप्तिर्न स्यात् ।
__मरीमज इति-'ऋतः स्वरे वा' ४-३-४३ इति वृद्धरनेन निषेधे गुणप्राप्तिः , प्यनेन निषिध्यते । दध्येति. स्वमते दघयनं, तन्मते तदध्यनमिति वाक्ये 'शंसिप्रत्ययादः' ५-३-१०५, दध्ययतीत्यत्र तु स्वमते परमतेऽपि दधयन्तं प्रयुङ क्ते इति वाक्यमिति व्याख्येयमिति, मूलव्याख्यानेऽविति प्रत्यये निमित्ते क्डिल्लोपे इत्युक्तमऽत्र तु डिल्लोपे सति अविति प्रत्यये परे इति भेदः ।
बोभवीतीति-ईत्परावयवो भवतीति वित्प्रत्ययः । दीधीवेव्योरिति-दीधी दीप्तिदेवनयोः वेवीङ वेतिना तुल्ये इत्यऽदादावात्मनेपदिनौ केचित् पठन्ति।
भवतेः सिजुलुपि ।। ४. ३, १२॥
सिचो लुपि भवतेर्गुणो न भवति । अभूत् , अभूताम् , अमूः । सिज्लुपीति किम् ? व्यत्यभविष्ट । तिवनिर्देशाद्यङ्लुपि न प्रतिषेधः। अबोभोत् ।। १२ ॥
न्या० स०-भवते०-ननु भवतेः सिच एव लोपोऽभ्यधायि तत् किं सिग्रहणेन ? सत्यं, भवतेलु पीति कृते भूरिवाचरत् अभवदित्यत्रापि गुणो न स्यात् । अबोभोदितिबुध्यतेरपीदं हस्तन्या दिवि भवति ।
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१४४ ]
बृहद्वृत्ति - लघुन्यास संवलिते
-
[ पाद- ३, सूत्र - १३-१७
सूतेः पञ्चम्याम् ।। ४. ३.१३ ॥
सूतेः पश्वम्यां गुणो न भवति । सुवै, सुवावहै, सुवामहै । तिनिर्देशाद्यङ्लुपि गुणो भवत्येव, सोषवाणि, - सोषवाव ।। १३ ।।
व्युक्तोपान्त्यस्य शिति स्वरे ॥ ४. ३. १४ ॥
कृत द्वित्वस्य धातोरुपान्त्यस्य नामिनः स्वरादौ शिति प्रत्यये परे गुणो न भवति । नेनिजानि, अनेनिजम्, वेविषाणि, अवेविषम्, बेभिदीति, अबेभिदम्, मोमुदीति, अमोदम्, नर्ऋतीति, अन तम् ।
द्वयुक्तेति किम् ? वेद, वेदानि, अवेदम् । उपान्त्यस्येति किम् ? जुहवानि, बोभवीति, सोषवोति । शितीति किम् ? निनेज, विवेद, - बेभेदिषीष्ट । स्वर इति किम् ? नेनेक्ति, मोमोक्ति, नर्नति ।। १४ ।।
न्या० स०
० - दव्युक्तो ० - संज्ञाशब्दत्वात् सूत्रत्वाद् वा क्तान्तं न पूर्व निपतति । बेदिषष्टेति यङलुपि कर्म्मण्याऽत्मनेपदं यङन्तात्तु गुणस्याप्राप्तिः यङकारस्य 'स्वरस्य' ७-४-११० इति स्थानित्वात् ।
द्विणोरविति व्यौ । ४ ३, १५ ॥
हु इण् इत्येतयोर्नामिन: स्वरादावपित्यविति च शिति परे यथासंख्यं वकारयकारादेशाविवोरपवादौ भवतः । जुह्वति, जुह्वतु, व्यतिजुह्वीरन्, व्यत्यजुह्वत, जुह्वत्, कतीह जुह्वानाः, यन्ति यन्तु, व्यतिप्रतियीरन्, मा स्म यन्, यन्, यन्तौ यन्तः । शितीत्येव - जुहुवतु, ईयतुः, ईयुः । स्वरादावित्येव, जुहुत:, इतः । अपिवतीति किम् ? पुस्, अजुहवुः, वित्-जुहवानि, अयानि । आयन्नित्यत्र तु 'एत्यस्तेर्वृद्धि:' ( ४-४-३०) इति वृद्धिरेवापवादत्वात् ।। १५ ।।
न्या० स०-ह्निणोर० - व्यतिप्रतियीरनिति - ज्ञानार्थत्वात् 'क्रियाव्यतिहारे' ३-३-२३ इत्यात्मनेपदम् । ईयतुरिति इणो द्वित्वे ' योऽनेकस्वरस्य २ - १ - ५६ इति यत्वापवाद 'इण: ' २-१-५१ इतीय् ततः 'समानानाम् ' १-२-१ दीर्घः ।
इको वा ॥ ४. ३. १६ ॥
इंक् स्मरणे इत्यस्य स्वरादावविति शिति परे वा यकारो भवति । अधियन्ति, अधयन्ति, अधियन्तु अधीयन्तु, व्यत्यधियीरन् व्यत्यधीयीरन्, मास्माधियन्, मास्माधीयन् कतीहाधियानाः, कतीहाधीयानाः ।। १६ ।।
1
,
कुटादिदणित् ॥ ४. ३. १७ ॥
तुदाद्यन्तर्गणो वृत्पर्यन्तः कुटादि:, कुटादेर्गणात्परो नित् विजितः प्रत्ययो
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पाद-३, सूत्र-१८-२१ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१४५
ङिवद्भवति । कुटिता, कुटितुम् , कुटितव्यम् , कुटिस्वा, गुता, गुतुम् , नुविता, नुवितुम् , धुविता, धुवितुम् , कुङ्कङत् शब्दे-कुता, कुतुम् , कुविता, कुवितुम् । न्यनुवीत् न्यधुवीदित्यत्र ङित्त्वात् 'सिचि परस्मै समानस्याङिति' (४-३ ४४) इत्यनेन वृद्धिरपि न भवति ।
प्रििदति किम् ? उदकोटि,-उत्कोटः, उस्कोटयति, उच्चुकोट, तृणकोटः, उत्कोटकः । कुटादेरिति किम् ? लेखनीयम् । के चिल्लिखिमपि कुटादौ पठन्ति । अपरे तु कडस्फरस्फलान् कुटादौ पठित्वा पाठसामर्थ्यात् णिति वृद्धिनिषेधमिच्छन्ति-कडकः, स्फरकः, स्फलकः ॥१७॥
न्या० स०-कुटादे०-डिद्वद्भवतीति -प्रत्यासत्तेायात् यत्कार्य कुटादेत्द्विारा प्राप्नोति तस्मिन्नेव कार्ये ङित्वं न आत्मनेपदादौ, तेन चुकुटिषतीत्यादौ सन्नन्तस्य ङित्त्वा. दात्मनेपदं न भवति ।
विजेरिट् ॥ ४. ३. १८ ॥
विजेरिट डिद्वद्भवति । उद्विजिता, उद्विजितुम् , उद्विजितव्यम् , उद्विजिष्यते । इडिति किम् ? उद्वेजनम् , उद्वेजयति ।। १८ ॥
न्या. स० विजेरि०-औविजैति ओविजैप उभयोर्ग्रहणं, विजुकी इत्यस्यापि च थवि सेट्त्वात् प्राप्तं परमऽदाद्यनदाद्योरनदादेरेव ग्रहणमिति तस्य न भवति ।
उद्विजितेति-उद्वेजिता वृष्टिमिराश्रयन्त इति तु णिगन्तात् क्ते भविष्यति । वोर्णोः॥ ४. ३.११॥
ऊर्णोतेरिड्वा द्विद्भवति । प्रोणुविता, प्रोणविता, प्रोणु वितुम् , प्रोर्णवितुम् , प्रोर्णावितुम् प्रोण विष्यति, प्रोणविष्यति । इडित्येव,-प्रोर्णवनम् , प्रोर्णवनीयम् ॥ १९ ॥
शिदवित् ॥ ४. ३. २०॥
धातोः परो विद्वजितः शित्प्रत्ययो डिद्वद्भवति । इतः,-सुतः, जागृतः, वित्तः, अधीते, संवित्ते, दीव्यति, सुनुतः, तुदति, क्रोणाति, अधीयन् सिद्धान्तम् , प्रधीयानः, विदन् , संविदानः, जिनाति, विध्यति, गृह्वाति, वृश्चति, हतः, नन्ति, शंशान्तः, तन्तान्तः । अविदिति किम् ? एति, जुहोति, जयति, हन्ति । शिविति किम् ? चेषीष्ट, वेत्ता। कथं च्यवन्ते प्लवन्ते ? अन्तरङ्गत्वाद्गुणे कृते शवो लोपात्, स्थानिवद्भावाद्वा ॥२०॥
इन्ध्यसंयोगात्परोक्षा किद्धत् ॥ ४. ३. २१ ।।
इन्धेरसंयोगान्ताच्च धातोः परा अवित्परोक्षा किवद्भवति । समीधे, समोधाते, समीधिरे, निन्यतुः, निन्युः, विभिदतुः, बिभिदुः, ईजतुः, ईजुः, ऊचतुः, ऊचुः, सुषुपतुः, सुषुपुः, जजागरतुः, जजागरुः । इन्ध्यसंयोगादिति किम् ? सत्र से, दध्वंसे । परोक्षेति किम् ? इन्धिता, नेता । अविदित्येव,-निनय, निनयिथ, इयाज, इयजिथ ।
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बृहद्वृत्ति- लघुन्याससंवलिते [ पाद- ३, सूत्र - २२-२४
ङिद्वदिति प्रकृते द्विद्वचनं यजादिवचिस्वपीनां य्वदर्थम् । जागर्तेश्व गुणार्थम् । वे हि ते न स्याताम् । यथा, - स्वपितः, स्वपन्ति, जागृतः, जाग्रति ।। २१ ।
१४६ ]
न्या० स० इन्ध्यसंयोगात् ० - निन्यतुरिति- नन्वत्र 'नो व्यञ्जनस्य' ४-२-४५ इत्युपान्त्यनकारस्य लुक् कथं न ? सत्यं प्रकृतेः पूर्वमन्तरङ्गमिति कृत्वा न लोपे बहिरङ्ग यत्वमसिद्धमिति न व्यञ्जनान्तत्वं यद् वा यत्वे कृते संयोगान्तो धातुस्ततः कित्त्वमपि नास्ति ।
ऊचतुरिति-यजादिसाहचर्यात् नित्याऽणिजन्तस्यैव वचो ग्रहणमिति वचण् भाषणे' इत्यस्य 'यजादिवचे: किति' ४-१-७९ इति न य्वृत् ।
द्विवचनमिति - नन्वधिकारायाते ङित्वेऽप्याश्रीयमाणे गुणादिकार्यं न भविष्यति किं द्विवचनेन ? इत्याह-यजादीति । ते इति तच्च स चेति वाक्ये त्यदादित्वात्तच्छेष: स्त्रीपुन्नपुंसकानामिति वचनात् सूत्रे यत्परं तद्भवति ।
स्वञ्जेर्नवा ।। ४. ३. २२ ॥
स्वजेः परा परोक्षा वा विद्वद्भवति । परिषस्वजे, परिषस्वजे ।। २२ ।।
जनशो न्युपान्त्येतादिः क्त्वा ।। ४. ३. २३ ।।
जकारान्ताद्धातोर्नशेश्व नकारे उपान्त्ये सति तकारादिः क्त्वा द्विद्वा भवति । रक्त्वा, रक्त्वा, भक्त्वा, भङ्क्त्वा, मक्त्वा, मङ्क्त्वा । 'मस्जेः सः' ( ४-४-१११ ) इति नः । नष्ट्या, नंष्ट्वा 'नशो घुटि' (४-४- ११० ) इति नः । नीति किम् ? भुक्त्वा, इष्ट्वा । उपान्त्य इति किम् ? निक्त्वा । क्त्वेति किम् ? भङ्क्ता, नंष्टा । तादिरिति किम् ? विभज्य, प्रञ्जित्वा ।। २३ ।।
न्या० स०० - जनशो - अञ्जित्वेत्यत्र 'धूगौदित: ' ४-४- ३८ इतीट् ।
ऋत्तृष-मृष-कृश-वञ्च-लुञ्च-थफः सेट् ॥ ४. ३. २४ ॥
न्युपान्त्य इति विशेषणं थफान्तानाम् नान्येषां संभवव्यभिचाराभावात् न्युपान्त्ये सति एम्यो विहितः क्त्वा सेट् किद्वद्वा भवति ।
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ऋत्-ऋतित्वा अतित्वा तृष्-तृषित्वा तृषित्वा, मृषच्, -मृषित्वा मर्षित्वा, कृश्,कृशित्वा, कशित्वा, वश्व, -वचित्वा, वश्वित्वा, लुम्व:-लुचित्वा, लुवित्वा, अन्य् श्रथित्वा, श्रथवा, ग्रन्थ, प्रथित्वा ग्रन्थित्वा, गुम्फ, गुफित्वा, - गुम्फित्वा, ऋम्फ, ऋफिरवा, ऋम्फित्वा । न्युपान्त्य इत्येव, कुथ्, -कोथित्वा, पुथ्, - पोथित्वा, रिफ, रेफित्वा । क्त्वेत्येव,प्रथितः, ग्रथितवान् । सेडिति किम् ? वञ्च, वक्त्वा, मृष- मृष्ट्वा । ऊदित्त्वात्क्त्वायां aat | विहितविशेषणाह फित्वेत्यत्र नलोपेऽपि कित्त्वाद्गुणो न भवति । क्त्वेत्यनेन कित्वप्रतिषेधे प्राप्ते विकल्पार्थं वचनम् ॥ २४ ॥
।
न्या० स० - ऋत्तृषमृष० - संभवव्यभिचाराभावादिति - ऋत्तृषमृषकृशां न संभव: वञ्चलुञ्चर्न व्यभिचार इति एतत्तु समुदितानां लक्षणम् ।
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पाद- ३, सूत्र - २५-२७ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः [ १४७
लुचित्वेति केचित्तु लुञ्चः क्तयोरपि सेटोर्वा कित्त्वमिच्छन्ति, तन्मते लुचितः लुञ्चितइति ।
गुफित्वेति- नन्वत्र न लोपे उकारोपान्त्यत्वादुत्तरेण 'वौ व्यञ्जनादे: ' ४-३-२५ इत्यनेन वा कित्त्वं प्राप्नोति तस्मिंश्च सति पक्षे गुणः प्राप्तः ? सत्यं, कितमाश्रित्य न लोपोतः संनिपातन्यायादुत्तरसूत्रकार्ये आत्मनिमित्तविहत्यै नोपतिष्ठते, तेन गुणो नोज्जह े । कोथित्वेति व्यावृत्तिबलादुत्तरेणापि विकल्पो न, किन्तु क्त्वेत्यनेन नित्यं निषेधः । वौ व्यञ्जनादेः सन्चाय्यः ॥ ४.३.२५ ॥
at उकारे इकारे चोपान्त्ये सति व्यञ्जनादेर्धातोः परः वत्वा सन् च सेटो वा द्विद्भवत: 'अय्व:' यकारान्ताद्वकारान्ताच्च न भवतः ।
द्युतित्वा द्योतित्वा दिद्युतिषते दिद्योतिषते, मुदित्वा, मोदित्वा मुमुदिषते, मुमोदिषते, लिखित्वा, लेखित्वा, लिलिखिषति, लिलेखिषति, श्वितित्वा श्वेतित्वा, शिश्वि`तिषते शिश्वेतिषते । वाविति किम् ? वर्तित्वा, विवर्तिषते । व्यञ्जनादेरिति किम् ? ओषित्वा ओषिषिषति । सेडित्येव, भुक्त्वा, बुभुक्षते । अय्व इति किम् ? देवित्वा, दिदेविषति ।। २५ ।।
न्या० स०-वौ व्यञ्जनादेः - विश्च य् च विय् वियिवाचरति क्विप् लुक् वेयनं पूर्वं क्वायां वेयित्वेति, अय्व इति व्यावृत्तो यान्तत्वे प्रयोगः कार्यः ।
उति शवदभ्यः क्तौ भावारम्भे ॥ ४. ३. २६ ॥
उकारे उपान्त्ये सति शवर्हेभ्योऽदादिभ्यश्च धातुभ्यो भावे आरम्भे चादिकर्मणि विहितौ तौ क्तक्तवतू सेटौ वा किद्वद्भवतः ।
कुचितमनेन, कोचितमनेन प्रकुचितः प्रकोचितः प्रकुचितवान्, प्रकोचितवान्, द्युतितमनेन द्योतितमनेन प्रद्युतितः, प्रद्योतितः, मुदितमनेन मोदितमनेन प्रमुदितः, प्रमोदितः, श्रद्भ्यः, रुदितमनेन, रोदितमनेन प्ररुदितः, प्ररोदितः, प्ररुदितवान्, प्ररोदितवान् । उतीति किम् ? श्वितितमनेन, प्रश्वितितः । शवद्द्भ्य इति किम् ? गुधितमनेन, प्रगुधितः । भावारम्भ इति किम् ? रुचिता कन्या । क्ताविति किम् ? प्रद्योतिषीष्ट, सेटावित्येव,रूढमनेन, प्ररूढः, प्ररूढवान् ।। २६ ।।
न्या० स० उति शव० - भावारम्भे इति सूत्रत्वात् समाहारः, यद्वा कर्मधारयः । कुचितमनेनेति कुच्यते स्म भावे क्तः ।
न डीङ्-शी-पूङ्-वृषि-दिवदि- स्विदि- मिदः || ४. ३. २७ ॥
भावारम्भ इति न स्मर्यते । एभ्यः परौ सेटौ क्तक्तवतू न किद्वद्भवतः ।
यतेः, डयितः, डयितवान्, शीङ्, - शयितः, -शयितवान्, पूङ्, पवितः पवितवान्, धृष्, - प्रधर्षितः, प्रर्धाषितवान्, क्ष्विद्-प्रक्ष्वेदितः, प्रक्ष्वेदितवान् स्विद्- प्रस्वेदितः, प्रस्वेदितवान् मिद्, - प्रमेदितः, प्रमेदितवान् । डीशीङ्ङामनुबन्धनिर्देशो यङ्लुनि
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१४८ ]
बृहवृत्ति लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-२८-३१
वृत्यर्थः । डेडियतः, डेडियतवान् , शेश्यितः, शेश्यितवान् , पोपुवितः, पोपुवितवान् । सेटावित्येव,-डीयते नः, डोनवान् , पूतः, पूतवान् , धृष्ट, धृष्टवान् , पिवण्णः, शिवण्णवान् , स्विन्नः, स्विन्नवान् , मिन्नः, मिन्नवान् ।। २७ ।।
न्या० स० न डीशीङ-न स्मर्यते इति-तेन भावारम्भादन्यत्रापि सामान्येन विधिः। पवित इति-'उवर्णात्' ४-४-५८ इति न प्रतिषेधः, 'पूङ क्लिशि' ४-४-४५ इति वेट । प्रषित इति 'आ.ित:' ४-४-७१ इति नित्यं निषेधे प्राप्ते धर्षितुमारब्धः प्रधृष्यते स्मेति वा वाक्ये क्ते 'नवा भावारम्भ' ४-४-७२ इतीट् । प्रर्षितवान् इति धर्षितुमारब्धवान् आरभ्भे क्तवत् , 'नवा भावारम्भे' ४-४-७२ इट् , एवम ग्रेतनेष्वपि । पोपुवित इतिपोप्यते स्म कर्मणि क्तः, अनेकस्वरत्वादिट् ‘उवर्णात्' ४-४-५८ इति न प्रतिषेधः 'पूडक्लिशि' ४-४-४५ इति विकल्पोऽपि न तिवा शवा * इति न्यायात् ।
डीन इत्यत्र-'डीयश्वी' ४-४-६१ इति नेट् । पूत इत्यत्र 'पूङक्लिशि' ४-४-४५ इति वेट । धृष्ट-इत्यत्र 'धृषशस' ४-४-६६ इति नेट् । दिवण्णः, स्विन्न, भिन्नः इत्यादिषु 'आदितः' ४-४-७१ इति नेट् ।
मृषः क्षान्तौ ।। ४. ३. २८ ।।
क्षान्तौ वर्तमानान्मृषः परौ सेटौ तक्तवतू किद्वन्न भवत: । मषितः, मषितवान् । क्षान्ताविति किम् ? अपमृषितं वाक्यमाह-सासूयमित्यर्थः । सेटावित्येव,-मृषू सहने चमृष्टः, मृष्टवान् ।। २८ ।।
क्वा ॥ ४. ३.२१ ॥
धातोः परः क्त्वा सेट किद्वन्न भवति । देवित्वा, सेवित्वा, वर्तित्वा, भ्रशित्वा, ध्वंसित्वा, वृश्चित्वा । कथं कुटत् कुटित्वा ? 'कुटादेङिद्वदणित' (४-३-१७) इति ङिद्वद्भावात् । सेडित्येव,-कृत्वा, इष्ट्वा, शान्त्वा ॥ २९ ।।
स्कन्दस्यन्दः॥ ४. ३. ३०॥
स्कन्दिस्यन्दिभ्यां परः क्त्वा किन्न भवति । स्कन्त्वा, स्यन्वा, प्रस्कन्ध, प्रस्यन्ध । के चित्र प्रस्कद्य प्रस्यद्येति यपः कित्त्वमिच्छन्ति, तन्मतसंग्रहार्थ क्त्वेति द्वितकारो निर्देशः । तकारादिः क्त्त्वेत्यर्थः । अनिडर्थः वचनम् । सेटि तु पूर्वसूत्रेण स्यन्दित्वेत्येव भवति ॥ ३० ।।
तुध-क्लिश-कुष-गुध-मृड-मृद-वद-वसः॥ ४. ३. ३१ ॥
नेति निवृत्तम् , एभ्यः परः क्त्वा सेट किवद्भवति । क्षुधित्वा, क्लिशित्वा, कुषित्वा, गधित्वा, मडित्वा, मदित्वा, उदित्वा, उषित्वा, । क्षुधेर्नेच्छन्त्यन्ये । 'क्त्त्वा' (४-३-२९) इति प्रतिषेधे 'वौ व्यञ्जनादेः सन्चाय्वः' (४-३-२५) इति विकल्पे च प्राप्ते वचनम् ।।३१।।
न्या० स०-क्षुधक्लिश-नेति निवृत्तमिति-मृडादीनामुपादानात् , तेभ्यो हि 'क्त्वा' ४-३-२६ इत्यनेन प्रतिषेधः सिद्ध इति तदुपादानमनर्थकं स्यात् , न वाच्यं क्षुधादीनामप्यु
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पाद-३, सूत्र-३२-३६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १४६
पादानादिति, यतस्तेषां 'वौ व्यञ्जनादेः' ४-३-२५ इति विकल्पे प्राप्तेऽनेन प्रतिषेधे चरितार्थमुपादानम् ।
रुद-विद-मुष-ग्रह-स्वप-प्रच्छः सन्च ॥ ४. ३. ३२ ॥ सेडिति निवृत्तम् , एभ्यः परः सन् क्त्वा च किवद्भवतः।
रुदित्वा, रुरुदिषति, विदित्वा. विविदिषति, मुषित्वा, मुमुषिषति, गृहीत्वा, जिघृक्षति, सुप्त्वा, सुषुप्सति, पृष्ट्वा, पिपच्छिषति, रुदविदमुषो 'वौ व्यञ्जनादेः सन् चाऽस्तः' (४-३-२५) इति विकल्पे आहेस्तु क्त्वा' (४-३-२६) इति प्रतिषेधे प्राप्ते वचनम् । स्वपिप्रच्छयोः सन्नर्थमेव, क्त्वा हि किदेव ।। ३२ ।।
- न्या० स०-रुदविद०-विदेति 'विदक ज्ञाने' इत्यस्य ग्रहणं नान्येषां तेषां हि निषेधाभावात् किद्वदेव क्त्वा, न वाच्यं 'वौ व्यञ्जनादे:' ४-३-३५ इति विक्ल्पः, तत्र सेटीति विशेषणात् । निवृत्तमिति-स्वपप्रच्छोरिटोऽसंभवात् ।
नामिनोऽनिट ।। ४. ३. ३३ ॥
नाम्यन्ताद्धातोरनिट सन् किवद्भवति । चिचीषति, तुष्टषति, लुलपति, चिकीर्षति, तितीर्षति । नामिन इति किम् ? पिपासति, तिष्ठासति । अनिडिति किम? शिशयिषते । सनित्येव? चेता, नेता ।। ३३ ।।
उपान्त्ये ॥ ४. ३.३४ ॥
नामिन्युपान्त्ये सति धातोरनिट् सन् किवद्भवति । बिभित्सते, बुभुत्सते, विवृत्सति, धिप्सति । अनिडित्येव,-विवतिषते, विधिषते। नामिन इत्येव,-यियक्षति, विवत्सति । सनित्येव,-भेत्ता ।। ३४ ॥
सिजाशिषावात्मने ॥ ४. ३. ३५ ॥ - नामिन्युपान्त्ये सति धातोः परे आत्मनेपदविषये अनिटौ सिजाशिषौ किवद्भवतः ।
अभित्त, अबुद्ध, असृष्ट, भित्सीष्ट, भुत्सीष्ट, सूक्षीष्ट । सिजाशिषाविति किम् ? भेत्स्यते, भोत्स्यते । आत्मने इति किम् ? अनाक्षीद , अद्राक्षीत् । नामिन इत्येव -अयष्ट, यक्षीष्ट । उपान्त्य इत्येव,-अचेष्ट, चेषीष्ट । अनिडित्येव,-प्रधिष्ट वधिषीष्ट ।। ३५॥
न्या० स० सिजाशिषा-अचेष्ट इति-सिचो लुकः परत्वेऽपि नित्यत्वात् प्रागेव गुणः, एतच्च 'धुट् ह्रस्व' ४-३-७० इत्यत्र कथयिष्यति ।
वर्णात् ॥ ४. ३. ३६ ॥
ऋवर्णान्ताद्धातोः परे अनिटावात्मनेपदविषये सिजाशिषौ किवद्भवतः। अकृत, अहृत, कृपोष्ट, हपोष्ट, अतीष्ट, अपूष्ट, तीर्घाट, पूर्षीष्ट । अनिटावित्येव -प्रवरिष्ट, वरिषोष्ट, अतरिष्ट, तरिषीष्ट ॥ ३६॥।
न्या० स० ऋवर्णाव-अतीष्ट इति-अस्मात् कर्मकर्तरि 'एकधातौ' २-४-८६
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१५० ]
बृहवृत्ति लघुन्याससंवलिते
[पाद ३, सूत्र-३७-४२
इत्यात्मनेपदतप्रत्यये 'स्वरदुहो वा' ३-४-९० इति विकल्पेन त्रिच् , कर्मणि तु नित्यं त्रिच स्यात् , एवमऽपूāत्यत्रापि।
गमो वा ॥ ४.३.३७॥
गमेः परे प्रात्मनेपदविषये सिजाशिषौ किद्वद्वा भवत: । समगत, समगस्त चैत्रः, अगसाताम् अगसाताम् ग्रामौ चैत्रेण, संगसीष्ट, संगसीष्ट चैत्रः, गसीष्ट, गंसीष्ट, चैत्रेण ।। ३७॥
हनः सिच् ॥ ४. ३. ३८॥
हन्तेः पर आत्मनेपदविषयः सिच् किद्वद्भवति । पाहत,-हसाताम् ,आहसत ।। ३८॥
यमः सूचने ॥ ४. ३. ३१॥
सूचनं परदोषाविष्करणम् तत्र वर्तमानाद्यमे: पर आत्मनेपदविषयः सिच् किद्वद्भवति । उदायत, उदायसाताम् , उदायसत । 'प्राङो यमहनः स्वेऽङ्गे च' ( ३-३-८६ ) इत्यात्मनेपदम् । सूचन इति किम् ? प्रायंस्त कूपाद्रज्जुम् , उद्धृतवानित्यर्थः । सकर्मकात् 'समुदाडो यमेरग्रन्थे' ( ३-३-३८ ) इत्यात्मनेपदम् ।। ३९ ।।
वा स्वीकृतौ ॥ ४. ३. ४० ॥
स्वीकृतौ वर्तमानाद्यमेः पर आत्मनेपदविषयः सिच् किद्वद्वा भवति । उपायत, उपायंस्त महास्त्राणि, उपायत उपायंस्त कन्याम, मोपयध्वं भयं सीतां नोपायंस्त दशाननः । 'यमः स्वीकारे' ( ३-३-५६ ) इत्यात्मनेपदम् । स्वीकृताविति किम् । प्रायंस्त पाणिम् । सिजित्येव,-उपयंसीष्ट कन्याम् । उद्वाह एवेच्छन्त्यन्ये ॥ ४० ॥
इश्च स्थादः॥ ४. ३. ४१ ॥ ___ तिष्ठतेसिंज्ञाच्च धातोः पर आत्मनेपदविषयः सिच् किद्वद्भवति, तत्संनियोगे च स्थादोरन्तस्येकारादेशो भवति । उपास्थित, उपास्थिषाताम्, उपास्थिषत, वाम्,-व्यत्यदित, व्यत्यदिषाताम् वस्त्रे, देङ्-प्रदित पुत्रम् , डुदांगक्-अदित धनम् , दोच ,-व्यत्यदित दण्डौ, ट्ध,-व्यत्यधित स्तनौ, डुधांगक, अधित भारम् ।
स्थाद इति किम् ? दांवक्र्दैवीयंत्यदास्त व्यत्यदासाताम् , व्यत्यदासत । आत्मनेपद इत्येव,-अधासीत् ।। ४१ ॥
न्या० स०-इश्न स्थाद:-किवद्भवतीति-नन्विकारविधानादेव गुणो न भविष्यति किं सिचः किद्विधानेन ? सत्यं, विधानस्य ह्रस्वद्वारा 'धुट्हस्व' ४-३-७० इति सिच्लोपे चरितार्थत्वात् गुणः स्यात् ।
मृजोऽस्य वृद्धिः ॥ ४. ३. ४२ ॥
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पाद-३, सूत्र-४३-४५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः।
[१५१
मृजेर्गुणे सत्यकारस्य वृद्धिर्भवति । माष्टि, मार्टा, माष्टुम् , माष्टव्यम् , माजिता, मार्जकः, संमार्जनम् , संमार्गः । अत इति किम् ? मज्यते, मरीमृज्यते, मृष्टः, मृष्टवान् , कथं स्रष्टा म्रष्टुम् , मिला जानन्ति ये मजेरपि रत्वमिच्छन्ति ॥ ४२ ॥
___ न्या० स०-मजो०- मजेरपीति-न केवलं मृजादीनामित्यर्थः । रत्वमिच्छन्तीतिसस्वरं रत्वमकारागमे रत्वं वा।
ऋतः स्वरे वा ।। ४. ३.४३ ॥
मजेऋकारस्य स्वरादौ प्रत्यये परे वा वृद्धिर्भवति । परिमार्जन्ति, परिमृजन्ति, परिमार्जन्तु, परिमृजन्तु, पर्यमार्जन् , पर्यमजन , परिममार्जतुः परिममजतुः, परिमार्जन् , परिमृजन् । ऋत इति किम् ? प्रमार्ज, मार्जयति । स्वर इति किम् ? मृष्टः, मृष्ठः, मृज्वः, मृज्मः ।। ४३ ।।
___न्या० स०-ऋतः स्वरे वा-ममार्जेति-गुणे कृते 'मृजोऽस्य वद्धिः' ४-३-४२ इत्यनेन नित्यं वृद्धिः, न त्वनेन विकल्पः। ननु गुणात् प्रागेव परत्वाद् वृद्धिः कथं न ? सत्यं, विकल्पबलात् , 'ऋतः स्वरे वा' ४-३-४३ इत्यस्य विकल्पपक्षे इदमुदाहरणमन्यथा हि परत्वात् वृद्धिः स्यात् किं व्यावृत्त्या, किंबहुना गुणे कृते वृद्धिविकल्पो माभूदित्येवमर्थभूत इति व्यावृतिस्तेन ममर्ज मर्जयतीति न भवति ।
स्वर इति किमिति ? धातोः कार्य विधीयमानं धात्वधिकारविहित एव प्रत्यये विज्ञायते इति कंसपरिमृज इत्यत्र विबन्तस्य धातुत्वेऽपि नामाधिकारविहिते स्यादिप्रत्यय
वृद्ध्यभावः।
सिचि परस्मै समानस्याङिति ॥ ४. ३. ४४ ॥
समानान्तस्य धातोः परस्मैपदविषये सिच्यङिति परे आसन्ना वृद्धिर्भवति । अचैषीत् · अनेषीत, प्रयावीत, अलावीत् , अकार्षीत्, प्रतारीख, प्रचेचायोत, अनेनायीत् ।
परस्मै इति किम् ? अच्योष्ट, अप्लोष्ट । समानस्येति किम् ? गौरिवाचारीत अगवीत , अचिकोर्षीदित्यत्र परत्वात् 'अतः' (४-३-८२) इति अकारस्य लुक् । अडितीति किम् ? णू-न्यनुवीत् , धू-न्यधुवीत , अणु:-प्रौर्णोनुषीत , गु,-न्यगुषीत, घु,-न्यध्रुषीत् । येषां तु गु दीर्घान्तो ध्रुस्तु सेट् तेषां न्यगुवीत न्यध्रुवीत इत्यपि भवति ॥ ४४ ॥
न्या० स०-सिचिपरस्मै०-अच्योष्टेति-नित्यत्वादन्तरङ्गत्वाच्च गुणः । अकारस्य लुगिति-अत एव मूलोदाहरणेषु अकारस्य वृद्धिर्न दर्शिता । गु दीर्घान्त इति-ऊदन्त इत्यर्थः, ऊदन्ताश्च तन्मते सेट एव, एतच्च ‘एकस्वरादनुस्वरातः' ४-४-५६ इत्यत्र सूत्रान्ते संग्रहश्लोके वक्ष्यते ।
व्यञ्जनानामनिटि॥ ४. ३. ४५ ॥ व्यञ्जनान्तस्य धातोः परस्मैपदविषयेऽनिटि सिचि परे समानस्य वृद्धिर्भवति । अपा
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१५२ ]
बृहद्वृत्ति- लघुन्याससंवलिते [ पाद- ३, सूत्र - ४६-४९
"
क्षीत्, अमेत्सीत्, अरौत्सीत्, अतासत् । बहुवचनं जात्यर्थम् । तेनानेकव्यञ्जनध्यक्षधानेऽपि भवति । रन्ज्-अराङ्क्षीत् सञ्ज्, असाङ्क्षीत, भञ्ज् अभाङ्क्षीत्, तक्षौअताक्षीत् त्वक्षौ - अत्वाक्षीत् औदित्वाद्वेटो । समानस्येत्येव, उदवोढाम् । अनि किम् ? प्रतक्षीत्, अत्वक्षीत्, अदेवीत्, प्रकोषीत्, अनर्तीत् ।। ४५ ।।
1
न्या० स० - व्यञ्जना० - अताक्षीदिति-तक्षौ अद्यतनीदि सिच् ईत् 'संयोगस्यादौ' २-१-८८ इति कलुकि 'षढोः कस्सि' २-१-६२ इति षस्य कत्वे सिचः षत्वेऽटि च रूपम् । उदवोढामिति - पूर्ववृद्धौ एकदेशेति न्यायाद् वहेरोत्वं, ततो भूतपूर्वगत्या ढस्य परेऽसत्त्वाद् वा व्यञ्जनान्तत्वे पुनरप्योकारस्य वृद्धिः प्राप्नोति ।
वोर्णुगः सेटि ॥ ४. ३. ४६ ॥
ऊर्णोतेः सेटि सिचि परस्मैपदविषये परे वृद्धिर्वा भवति । प्रोर्णावीत्, पक्षे प्रवीत् प्रर्णवीत् । परस्मै इत्येव प्रौर्णविष्ट । सानुबन्धोपादानं यङ्लुत्निवृत्त्यर्थम् । प्रोर्णोनावत् । अङित्वपक्षे पूर्वेण नित्यं वृद्धिः । ङित्वे तु प्रौर्णोनुवीत् । 'बोर्णोः’ ( ४-३ - १ ) इत्यत्र हि प्रनुबन्धाभावाद्यङ्लुबन्तस्यापि ग्रहणम् एवं च प्रकृते स्त्ररूप्यं लुबन्तस्य च द्वैरूप्यं सिद्धं भवति । सेटीत्युत्तरार्थम् ।। ४६ ।।
न्या० स०- वो ग ० :- प्रकृते स्त्ररूप्यमिति - शुद्धधातो रूपत्रयमित्यर्थः ।
1
व्यञ्जनादेवपान्त्यस्यातः ॥ ४. ३.४७ ॥
व्यञ्जनादेर्धातोरुपान्त्यस्यातः सेटि सिचि परस्मैपदविषये परे वृद्धिर्वा भवति । प्रकाणीत्, अकर्णात् प्रक्वाणीत्, अक्वणीत्, अश्वासीत्, अश्वसीत्, गौरिवाचारीत् अगावीत्, अगवीत् ।
9
व्यञ्जनादेरिति किम् ? मा भवानटीत् मा भवानशीत् । उपान्त्यस्येति किम् ? अरक्षीत् श्रपिपठिषीत्, अवधीत् । श्रत इति किम् ? अवेवीत् । सेटीत्येव, प्रधाक्षीत् ॥ ४७ ॥
वदव्रजलः ॥ ४. ३. ४८ ॥
वदव्रजोर्लकारान्तानां रेफान्तानां च धातूनामुपान्त्यस्याकारस्य परस्मैपदविषये सेटि सिचि परे वृद्धिर्भवति । प्रवादीत्, अव्राजीत्, अज्वालीत्, अचालीत्, अक्षारीत्, त्सर्-अत्सारीत् । उपान्त्यस्येत्येव - अश्वल्लीत्, अबीत् । अत इत्येव - न्यमीलीत्, न्यखोरीत् । पूर्वस्यापवादोऽयम् ।। ४८ ।।
न श्वि-जागृ-शस्-क्षण-ह्म्येदितः ॥। ४. ३. ४१ ॥
श्विजागृशस्क्षणां हकारमकारयकारान्तानामेदितां च धातूनां परस्मैपदविषये सेटि मिलि परे वृद्धिर्न भवति । श्वि-प्रश्वयीत्, जागृ, -अजागरीत्, शस् - प्रशसीत् । शसः स्थाने श्वसं पठन्त्यन्ये- अश्वसीत्, क्षण - प्रक्षणीत्, हान्त अग्रहीत् अचहीत् । मान्त, -
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पाद-३, सूत्र-५०-५२ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१५३
अवमीत् , अस्यमीत् , यान्त-अव्ययीत् , अहयोत , एदित्-अकगीत् , अरगीत , प्रकखीत् । श्च्यादीनां यङ्लुबन्तानामपि प्रतिशेधः । अशेश्वयीत् , अजर्जागरीत् । केचिज्जागर्तेरपि यङमिच्छन्ति । प्रशाशसीत् , अचक्षणीत् । अचाचहीत् , अजीत् , असंस्यमीत् , अवाव्ययीत् । एदितां तु यङ्लुपि न प्रतिषेधः । अजाहासीत , अजाहसीत् । अत एव श्व्यादयो नैदित: क्रियन्ते, अन्यथा ह्यदितः कृत्वा इह श्व्यादिग्रहणं न क्रियेत ।
सेटीत्येव,-अधाक्षीत् । वकारान्तस्यापि प्रतिषेधमिच्छत्यन्यः । अमवीत् । शिवजाग्रोः 'सिचि परस्मै समानस्याङिति' (-३-४४ ) इति वृद्धावन्येषां च 'व्यञ्जनादेर्वोपान्त्यस्यात.' (४-३-४७) इति विकल्पे प्राप्ते वचनम् ।। ४९ ।।
न्या० स०-न शिव जागृ०-अचाचहीदिति-अजर्गोंदिति-अजगहिदिति भग्नं तत्र वृति गुणे उपान्त्यस्याऽकाराऽसंभवात् ।।
.. असंस्यमीदिति-परमताभिप्रायेणेदं स्वमते तु 'वेः स्यम:' इति स्वृत्यऽसेसेमीदिति भवति ।
णिति ॥ ४. ३.५० ॥
मिति णिति च प्रत्यये परे धातोरुपान्त्यस्यातो वृद्धिर्भवति । अपाचि, पाकः, पाचकः, पपाच, पाचयति । अत इत्येव,-भोगः, भोजयति । उपान्त्यस्येत्येव,-भङ्गः, भञ्जकः, चकासयति । णितीति किम् ? पचति ।। ५० ।।
नामिनोऽकलिहलेः ४. ३, ५१ ॥ नाम्यन्तस्य धातोर्नाम्नो वा कलिहलिवजितस्य णिति प्रत्यये परे वृद्धिर्भवति ।
प्रचायि, अनायि, अयावि, अलावि, अकारि, अतारि, कारः, हारः, चिकाय, कारकः । कलिहलिवर्जनानाम्नोऽपि । तेन पटुमाख्यातवान् अपीपटत् , अलीलघत इत्यत्र वृद्धावन्त्यस्वरादिलोपे चासमानलोपित्वात् सन्धद्भावः सिद्धो भवति । कलिहलिवर्जनं किम् ? कलिं, हलि वाग्रहीत् , अचकलत् , अजहलत् । अन्ये तु नाम्नो वृद्धिमनिच्छन्तोऽन्त्यस्वरस्योकारस्यैव णिचि लोपमिच्छन्तः समानलोपित्वात्सन्वद्भावप्रति धऽपपटत् अललघदित्येवाहुः ॥५१॥
न्या० स०-नामिनोऽक-अपीपटदित्यादिसिध्यर्थं सूत्रं सूत्रितं, अन्यथा 'नामिनः' ४-३-५१ इति गुणे अयवादेशे च कृते 'णिति' ४-३-५० इति वृद्धौ सर्वाण्यपि सिध्यन्ति, ननु 'नामिनो गुणः' ४-३-१ इत्यत्र कलिहलिवर्जनं क्रियतां तद्वर्जनाच्च नाम्नोऽपि गुणेऽपीपटदित्यादीन्यपि सेत्स्यन्ति किमनेन ? सत्यं, कलिहलिवर्जनान्नाम्नोऽपि स्यात्ततश्च सख्येत्यादावपि गुणप्रसङ्ग।
जागुर्बिणवि ॥ ४. ३. ५२ ॥ जागर्तेौ णव्येव णिपि प्रत्यये परे वृद्धिर्भवति । अजागारि, जागारिष्यते,
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१५४ ]
बृहद्वृत्ति-लघु-याससंवलिते
[ पाद-३, सूत्र-५३-५६
जजागार । जिरणवीति किम् ? जागरयति, जागरकः, साधुजागरी जागरंजागरम् , जागरो वर्तते । पूर्वेणैव सिद्धे नियमार्थो योगः ॥ ५२ ॥
न्या० स०-जागुजि०-नियमार्थो योग इति-विपरीतनियमस्तु न भवति, अन्त्यणवो वाणित्त्वनिषेधात् , 'न जनबधः' ४-३-५४ इत्यादौ नित्प्रत्यये वृद्धिनिषेधाच्च ।
आत ऐः कृ जौ ४. ३. ५३ ॥ आकारान्तस्य धातोणिति कृति प्रत्यये औ च परे ऐकारो भवति ।
दायः, धाय , दायकः, धायकः, शतं दायी, गोदायो व्रजति, अदायि, अधायि, दायिप्यते । धायिष्यते । कृद्ग्रहणं किम् ? ददौ, दापयति ॥ ५३ ।।
न जनबधः ॥ ४.३.५४॥
जनबध्योः कृति जिणिति औ परे वृद्धिर्न भवति । प्रजनः, प्रजन्यः, जनकः, प्रजनि, बषः, बध्यः, बधकः, प्रवधि । बधिरत्र बध बन्धने इत्ययं गृह्यते यस्य बीमत्सत इति बैहप्य एव सनिष्यते, अन्यत्र बघते । भक्षकश्चेन्नास्ति बधकोऽपि न विद्यते। हन्यादेशस्य तु बधेरवन्तत्वावृदेरप्रसङ्ग एव, अन्ये स्वगणपठितं बर्षि हिंसार्थ 'यत्र शालमतीकाश: कर्णोऽवध्यत संयुगे' इत्यादिदर्शनान्मन्यन्ते । प्रत्युदाहरन्ति च बवाध ।। ५४ ।।
न्या० स०-न जनवध:-वधि हिंसामिति-एषामर्थान्तरेऽपि त्यादयो नाभिधीयन्त इति अङ्गीकुर्वाणाः परस्मैपदिनश्च एतस्यानियमस्त्यादीन्प्रति । ववाति-अत्र णित्कृदऽभावावृद्धर्भावः।
मोऽकमि-यमि-रमि-नमि-गमि-वमाचमः ॥ ४. ३. ५५ ॥ मान्तस्य धातोः कम्यादिवजितस्य णिति कृत्प्रत्यये नौ च परे वृद्धिर्न भवति ।
शमः, तमः, दमः, शमकः, तमकः, बमकः, शमी, तमी, बमो, प्रशमि, प्रतमि, प्रदमि । म इति किम् ? पाठः, पाठकः, अपाठि । कम्यादिवर्जनं किम् ? कामः, कामुकः, प्रकामि, यामः, यामकः, अयामि, रामः, रामकः, अरामि, नामः, नामकः, अनामि, प्रागामुकः, आगामि, वामः वामकः, प्रवामि, प्राचामः, प्राचामकः, आचामि।
प्राचम इति किम् ? चमः, विचमः, चमकः, विचमकः, अचमि, व्यचमि । अन्ये तु सामान्येन निधमिच्छन्ति-चामः, विचामः इत्यादि । कथमामः आमक: आमि? 'प्रमण रोगे' इत्यस्य भविष्यति । भौवादिकस्य त्वमे:-अमः अमकः । कृआवित्येव,शशाम, तमाम, निशामयते ॥ ५५ ॥
न्या० स०-मोऽकमि०-रामक इति-बाहुलकात् 'रम्यादिभ्यः' ५-३-१२६ इत्यनट् न । विश्रमे ॥ ४. ३. ५६ ॥
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पाद ३, सूत्र ५७-६१ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१५५
- विपूर्वस्य श्रमेणिति कृत्प्रत्यये नौ च परे वा वृद्धिर्न भवति । विश्रामः, विश्रमः, सूर्यविश्रामभूमिः, अविश्रमं यावदिदं शरीरम् , विश्रामकः, विश्रमक: व्यश्रामि, व्यश्रमि ।
वीति किम् ? श्रमः श्रमकः, अश्रमि। कृञ्जावित्येव,-विशश्राम, अन्ये तु विश्रमेवृद्धि नेच्छन्त्येव, अपरे तु नित्यमेव वृद्धिमुपन्ति । एके तु घञ्येव विकल्पमातिष्ठन्ते
उद्यमोपरमौ ॥ ४. ३. ५७॥
उदुपपूर्वयोर्यमिरम्योनि वृद्ध्यमावो निपात्यते । उद्यमः, उपरमः । अन्यत्र पूर्वेण वृद्धिरेव-यामः, संयामः, सुयामः, रामः, विरामः ।।५७।।
णिद्धान्त्यो णव ।। ४. ३. ५८ ।।
परोक्षातृतीयत्रिकवचनमन्स्यो णव वा णिन्न भवति, णित्त्वाश्रयं कार्य पक्षे प्रतिषिध्यते । सुप्तोऽहं किल विललप, विललाप, विवय, विवाय, निनय, निनाय, लुलव, लुलाव, जजागर, जजागार, चुकुट, चुकोट । वा णित्त्वप्रतिबन्धात्कुटादीनां गुणविभाषा । अन्त्य इति किम् ? स पपाच । णित्त्वाश्रयस्य विकल्पनात गवाश्रयं नित्यमेव-अहं पपौ ।।५।।
न्या० स०-णिद्वान्स्यो०-णवाश्रयं नित्यमेवेति - ननु तर्हि णवाश्रयत्वात् 'जागुनिणवि' ४-३-५२ इति अनेन जजागारेत्यत्र नित्यवृद्धिः प्राप्नोति ? सत्यं,-नानेन सूत्रेणात्र वृद्धिः, तत्र च णित्त्वमाश्रीयते।
उत और्विति व्यञ्जनेद्धः ॥ ४. ३. ५१॥ .
अद्विरुक्तस्योकारान्तस्य धातोयंजनादौ विति वकारानुबन्धे प्रत्यये परेओर्भवति । यौति, यौषि, यौमि, रौति, रौषि, रौमि, यौतु, रौतु, अयौत, अरौद , अयोः, परोः । उत इति किम् ? एति।
धातोरित्येव, सुनोमि, तनोमि । वितीति किम् ? युतः, रुतः । व्यञ्जन इति किम् ? यवानि, स्तवानि । अद्वेरिति किम् ? जुहोति, योयोति, तुष्टोथ । तोः स्थाने तातडो डित्त्वात्स्थानिवत्त्वं बाध्यते तेन युताव रतादित्यादौ नौकारः,-केचित्तु यङ्लुबन्तस्यापीच्छन्ति । नोनौति, योयोति, रोरोति ॥५६॥ .
वोर्णोः॥ ४. ३.६०॥
उर्णोतेरद्विरुक्तस्य व्यञ्जनादौ विति प्रत्यये और्वा भवति । प्रोणोंति, प्रोर्णोति । व्यञ्जनादावित्येव प्रोर्णवानि । वितीत्येव ? प्रोणुतः। अद्वेरित्येव,-प्रोर्णोनोति । पूर्वेण नित्यं प्राप्ने विकल्पः । यङ्लुबन्तस्यापीच्छन्त्यन्ये-प्रोर्णोनौति ॥६०॥
न दिस्योः ॥ १. ३. ६१ ॥
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बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद-३, सूत्र-६२-६४
ऊर्जादिस्योः परयोरौन भवति । पृथग्योगात् पूर्वेणापि प्राप्तः प्रतिषिध्यते । प्रौर्णोत् , प्रौर्णोः। विस्योरिति किम् ? प्रोणौति, प्रोपौषि । दिसाहचर्याद् हस्तन्या एव सिः ।। ६१॥
__न्या० स०-न दिस्योः-पृथगयोगादिति-अन्यथा वोर्णोरदिस्योरिति सूत्रं क्रियेत । पूर्वेणापोति-'उत औः' ४-३-५९ इत्यनेत्यर्थः । दिसाहर्यादित-प्राप्तिपूर्वको हि प्रतिषेधः प्राप्तिश्च 'वोर्णो:' ४-३-६० इत्यनेन ।
विति प्रत्यये इति-दिस्तावत् हस्तन्या एव तत्साहचर्यात् सिरपि हस्तन्या एव न तु वर्तमानायाः।
तृहः श्नादीत् ॥ ४. ३. ६२॥ तृहः श्नात्परो व्यञ्जनादौ विति प्रत्यये परे ईद ईकारो भवति ।
तृणेढि, तृणेक्षि, तृणेह्मि, तृणेढु । प्रतृणेडित्यत्र व्यञ्जनादौ प्रत्ययेऽस्य विधानाव प्रत्ययाश्रयत्वमेव न वर्णाश्रयत्वम् वर्णस्य प्रत्ययविशेषणत्वादिति प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणं भवत्येव आद्यन्तवद्भावाच्च व्यञ्जनादित्वम् । व्यञ्जनादावित्येव,-तृणहानि, अतृणहम् । वितीत्येव,-तृण्डः, दीर्घनिर्देश उत्तरार्थः ॥ ६२ ॥
ब्रतः परादिः॥ ४. ३.६३॥
अव ऊत् बच ब्रूतेककारात्परो व्यञ्जनादौ विति प्रत्यये परे ईद्भवति, स च परादिः परावयवः । ब्रवीति, ब्रवीषि, ब्रवीमि, अब्रवीत् ।।
ऊत इति किम् ? आत्थ । व्यञ्जनादावित्येव,-ब्रवाणि, अब्रवम् । वितीत्येव,बूत: ।। ६३ ॥
न्या० स०-अत:०-ब्रवीतीति-अत्र वचादेशो न ईतः परावयवत्वे शित्त्वात , न त तहि ब्रतः शिदिति क्रियतां किं गुरुणा सूत्रेण ? नैवं, एवं कृते ब्रवीतीत्यत्र गुणो न स्यात् । तहि श्विदिति क्रियताम् ? न, एवमपि कृते जंगमीति-जाज्ञेति इत्यादौ 'गमिषद्यमश्छ:' ४-२-१०६ ‘जा ज्ञाजनोऽत्यादौ ४-२-१०४. इत्याभ्यां छः जादेशश्च स्यात् , अत्यादेः सद्भावात् परादित्वे तु परभक्तत्वेन त्यादेरानन्तर्यान्न भवति ।
यतुरुस्तोर्बहुलम् ॥ ४. ३. ६४ ॥
यङ्लुबन्तात् तु रु स्तु इत्येतेभ्यश्च धातुभ्यः परो व्यञ्जनादौ विति प्रत्यये परे ईद्भवति, 'बहुलम्' शिष्टप्रयोगानुसारेण स च परादिः, क्वचिद्विकल्पः ।
बोभवीति, बोभोति, न तीति, नति, लालपीति, लालप्ति । क्वचिन्न भवतिवर्वति,-चर्कमि । अन्ये तु वावदीति लालपीति रोरवीतीति नित्यं,-बोभोति, बोमवीति, सोषोति, सोषवीति, चर्कति, चर्करोति इति विकल्पः, ननति, वर्वत्ति वर्वष्टि इत्यत्र न
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पाद - ३, सूत्र - ६५-६६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १५७
भवतीत्याहुः । तु, तेवीति, तौति, उत्सवीति, उत्तौति, रुक् - रवीति, रौति, उपरवीति, उपरौति, ष्ट गक्, स्वीति स्तौति उपस्तवीति, उपस्तौति । तुरुस्तुभ्य ईतं छान्दसमाहुरेके ।
व्यञ्जनादावित्येव - बोभवानि, अबोभवम्, लालपानि, तथानि, रवाणि स्तवानि । वितीत्येव - बोभूतः, लालप्तः तुतः, रुतः स्तुतः । श्रद्वेरित्यनुवृत्तेः तुतोथ तुष्टोथेत्यत्र न भवति, यङिति सामान्याभिधानेऽपि यङ लुबन्तस्य ग्रहणम्, यङन्तस्यात्मनेपदित्वाद्वितो
व्यञ्जनादेरसंभवात् ।। ६४ । ।
सः सिजस्तेर्दिस्योः ।। ४. ३. ६५ ।।
सिच्प्रत्ययान्ताद्धातोरस्तेश्च सः सकारान्तात्परः परादिशेत् भवति, दिस्योः परयोः । अकार्षीत्, प्रकार्षीः, अलावीत्, अलावी:, प्रासीत्, आसीः । स इति किम् ? प्रदात् अभूव । दिस्योरिति किम् ? प्रस्ति, प्रति ।। ६५ ।।
न्या स० सः सिजस्तै ० - आसीदिति ह्यस्तनी दिव् सिव् विधानसामर्थ्याच्च 'व्यञ्जनाद्दे:' ४-३ - ७८ इति ईत् देर्न लुप् ।
-
प्रासीरिति - आदेशादागम इति न्यायेन सकारलोपात्प्रागेव ईकारागमप्राप्तिः, अस्तेः सि हस्त्वेति ४-३ - ७३ इति तु सूत्रमवित्प्रत्यये व्यतिसे इत्यादौ चरितार्थं तेनात्र दिव्साहचर्यात् सिव् ह्यस्तन्या पवेति ।
पिबैतिदाभूस्थः सिचो लुप्परस्मै न चेट् । ४. ३. ६६ ॥
1
एम्य: परस्य सिचः परस्मैपदे परे लुग्भवति 'न चेट्' लुप्संनियोगे चैतेभ्य इट् न भवति । पिय, अपात् एतीति इणिकोर्ग्रहणम् । अगात् श्रध्यगात् दासंज्ञ, अदात्, अधात् । भू इति भवते रस्त्यादेशस्य च ग्रहणम्-प्रभूत्, स्या- प्रस्थात्, सिज्लोपः परत्वादीतं बाधते । पिबेति किम् ? पातिपायत्योः अपासीत् वनं वा वस्त्रम् वा ।
"
दासंज्ञ इति किम् ? अदासीत् केदारम् भोजनं वा । परस्मै इति किम् ? अपासत पयांसि चैत्रेण । व्यत्यभविष्ट, उपास्थिषत । लुकमकृत्वा लुम्विधानं स्थानिवद्भावाभावार्थम् तेनाबोमोदित्यत्र न वृद्धिः ॥ ६६ ॥
-
न्या० स०- - पिबैति०-न चेडिति नन्विटा सहितस्य सिचो लोपे पेचुष इत्यादी उषादेशवत् सिध्यति किमिवर्जनेन, न वाच्यमिटः प्रागेव लोपविधेर्बलीयस्त्वात् सिच्लोपो भविष्यति आदेशादागम इति न्यायात् ? सत्यं यावत्संभव इति न्यायात् पश्चादपीट् स्यात् न च पेचुष इत्यादावपि तथा स्यादिति वाच्यं यतस्तत्रोषादेशे कृते व्यञ्जनादित्वाभावः । अथ 'घसेकस्वरः ' ४-४-८ इत्यत्र क्वसोरित्युक्त' न व्यञ्जनादेरिति चेत् ? न स्त्रसृभृवृ' ४-४-८१ इत्यनेन सिद्धे तस्य नियमार्थत्वात्, अथ स्थानित्वे व्यञ्जनादित्वं न वर्णव त्वात् । व्यञ्जनं हि वर्ण इति । यङलुप्यपि अपापात्, अदादात्, अबोभोत्, अतास्थात्सर्वेषु इट्प्रतिषेधः ।
इणिको ग्रहणमिति -- इङस्तु आत्मनेपदित्वान्निरासः, इंदु इत्यस्य त्वध्यतीति रूपम् ।
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१५८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-६७ ७०
धेघाशाछासो वा ।। ४. ३. ६७ ॥ एभ्यः परस्य सिचः परस्मैपदे वा लुप् भवति, लुप्संनियोगे चैतेभ्य इट् न भवति ।
धे-अधात , अधासीत , घ्रां-अघ्रात अघ्रासोत , शों- अशात , अशासीत , छोंअच्छात् , अच्छासीत् , सों में वा-आसात् , प्रसासीत् । परस्मौ इत्येव,-अधिषातां स्तनो वत्सेन, ट्धः पूर्वेण नित्यं प्राप्ते शेषेभ्योऽप्राप्ते विकल्पः ।।६७।।
___ न्या० स०-धे घ्राशा०-छाशोः सोर्मध्ये पाठाभावान्न साहचर्य, तेन न देवादिकस्यैव ।
तन्भ्यो वा तथासि न्णोश्च ।। ४. ३. ६८॥
तनादेर्गणास्परस्य सिचस्ते थासि च प्रत्यये परे लुब्या भवति, तत्संनियोगे च नकारस्य णकारस्य च लुब् भवति न चेट ।
प्रतत, प्रतनिष्ट. अतथाः, अतनिष्ठाः, असत, असनिष्ट, असथाः, प्रसनिष्ठाः, अक्षत, अक्षणिष्ट, अक्षयाः, अक्षणिष्ठाः, आर्त, आणिष्ट, प्रार्थाः, प्राणिष्ठाः, अतृत, अतणिष्ट, अतथाः, अणिष्ठाः, अघृत, अर्घाणष्ट, अघृथाः, अणिष्ठाः, अवत अवनिष्ट, प्रवथाः, अवनिष्ठाः, अमत, अमनिष्ट, अमथा:, अमनिष्ठाः । इह परस्मै इति निवृत्तम थासग्रहणात थाससाहचर्यात्तप्रत्ययोऽप्यात्मनेपदसंबन्ध्येव गाते तेनेह न भवति । अतनिष्ट यूयम् ॥६८।।
न्या० स० तन्भ्यो वा०-णोश्चेति- केचित् क्षणगादीन् णोपदेशान्मन्यन्ते, तन्मतसंग्रहार्थं णकारकरणं. स्वमते तु लाक्षणिकत्वात् णकारस्य नग्रहणेनापि सिद्धम् । प्रततेति'न वृद्धिश्चाविति' ४-३-११ इति निषेधान्न गुणः, यद् वा सिच्प्रत्ययेनाद्यतन्युपलक्षणात् 'सिज्लोपे ऋवर्णात्' ४-३-३६ इति अद्यतन्याः कित्त्वं, 'लुप्यय्वृल्लेनत्' ७-४-११२ इत्यत्र नत्र निर्दिष्टस्यानित्यत्वाद् वा सिचः स्थानित्वे तस्यैव कित्त्वं सिजाशिषाविति ।
सनस्तत्रावा॥ ४. ३.६१ ॥
सनोतेस्तत्र लपि सत्यामन्तस्य वा आकारो भवति । असात. असत. प्रसाथा: असथाः । तत्रेति किम् ? असनिष्ट, असनिष्ठाः, केचिदात्वं न मन्यन्ते, नित्यमेवान्ये ।। ६६॥
धुडहस्वाल्लुगनिटस्तथोः ।। ४. ३.७० ॥
धुडन्तावहस्वान्ताच्च धातोः परस्यानिटस्सिचस्तकारादो थकारादौ च प्रत्यये लुग भवति । अभत्ताम् , अमेत्तम् , अभेत्त, अभित्त, अभित्थाः, वस्-अवात्ताम् , अवात्तम् , अवात्त, ह्रस्व-प्रकृत, अकृथाः, समस्थित, समस्थिथाः, प्राहत, प्राहथाः।
धुड्हस्वादिति किम् ? अमंस्त, प्रमंस्थाः, अच्योष्ट, अच्योष्ठाः, लुकः परत्वेऽपि नित्यत्वात्प्रागेव गुणः । तथोरिति किम ? अभिसाताम, अमित्सत, अकृषाताम, अकृषत । अनिट इति किम् ? व्यद्योतिष्ट, व्यद्योतिष्ठाः । ह्रस्वान्ताद्धातोरिति किम् ? प्रास्नाविष्ट गौः स्वयमेव अलाविष्टाम् , अलविष्ट । मेरिटश्न परस्य लोपो माभूत् , लुबधिकारे लुग्ग्रहणं
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पाद-३, सूत्र-७१-७५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१५९
सिज्लुक्यपि स्थानित्वेन तत्कार्यप्रतिपत्त्यर्थम्, तेनावात्तामित्यादिषु सिधि विधीयमाना वृद्धिस्तदभावेऽपि सिद्धा भवति । तथासीत्यनुवर्तमाने तथग्रहणं व्याप्तिप्रतिपत्त्यर्थम् तेन साहचर्य नास्ति । तथोरिति द्विवचनं यथासंख्यपरिहारार्थम् ।।७०॥
न्या स०-धुह्रस्वा०-अकृतेति-यदि तनादौ पाठः स्यात्तदा वा लुक् स्यात् । अलाविष्टामिति-नन्वनिट इत्यंशेन व्यङ्गविकलता ? नैवं, अलावि इति ह्रस्वान्तरूपाश्रयणेन ततः परस्यानिट: सिचो विद्यमानत्वात् ।
इट ईति ।। ४. ३. ७१ ॥
इटः परस्य शिच ईति परे लुग भवति । अलावीद , सिचो लुक्यपि स्थानिवद्भावादवृद्धिः । अग्रहीत् । इट इति किम् ? अकार्षीत् , अरौत्सीत् । ईति किम् ? अलाविष्टम् , अमणिषम् ।।७१॥
सो धि वा ॥ ४. ३. ७२ ॥
धातोर्धकारादौ प्रत्यये परे सकारस्य लुग वा भवति । चकाधि, चकाद्धि, प्राशाध्वम् , आशाध्वम् , अलविड्ढवम् , अलविढ्वम् । सिच्यनुवर्तमाने सग्रहणं सामान्यसकारपरिग्रहार्थम् , तेन प्रकृतिसकारस्यापि लुग भवति । विकल्पं नेच्छन्त्येके,-अन्ये तु सिच एव नित्यं लोपमिच्छन्ति ॥७२॥
__न्या० स० सो धिवा-प्रलविड्ढ्वमिति-लू धातुस्ततो ध्वम् , सिच् इडागमे च सिचः षत्वे च 'तवर्गस्य' १-३-६० इति धस्य ढत्वे 'तृतीयस्तृतीय' १-३-४९ इति षस्य डत्वे च सिद्धम् ।
अस्तेः सि हस्त्वेति ॥ ४. ३. ७३ ॥ - अस्ते: सकारस्य सकारादी प्रत्यये परे लुग भवति, एकारे तु प्रत्यये सकारस्य हकारः । असि, व्यतिसे। अकारसकारयोर्लोपे प्रत्ययमात्रं पदम् । हस्स्वेति, व्यतिहे, भावयामाहे, कारयामाहे चैत्रेण, परोक्षाया एकारे नेच्छन्त्यन्ये-भावयामासे, कारयामासे ।।७३।।
दुह-दिह-लिह-गुहो दन्त्यात्मने वा सकः ॥ ४. ३.७४ ॥ एभ्यः परस्य सक्प्रत्ययस्य दन्त्यादावात्मनेपदे परे लुग् वा भवति ।
दुह,-अदुग्ध. अधुक्षत, अदुग्धाः,-अधुक्षथाः, अधुग्ध्वम् , अधुमध्वम् , अदुह्वहि, अधुक्षावहि, दिह-अदिग्ध, अधिक्षत, अदिग्धाः, अधिक्षथाः, अधिग्ध्वम् , अधिक्षध्वम् , अदिबहि, अधिक्षावहि, लिह-अलीढ, अलिक्षत, अलीढाः, अलिक्षथाः, अलीढ्वम् , अलिक्षध्वम् , अलिह्वहि, अलिक्षावहि, गुह-न्यगूढ न्यघुक्षत, न्यगूढाः, न्यघुक्षथाः, न्यघड्ढ्वम्, न्यधुक्षध्वम् , न्यगुह्वहि, न्यघुक्षावहि । प्रात्मन इति किम् ? अधुमत् , अधिक्षत् । दन्त्येति किम् ? अधुक्षामहि, अधिक्षामहि ।।७४॥
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बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-७६-७७
स्वरेऽतः ॥ ४.३.७५ ॥
सकोऽकारस्य स्वरादौ प्रत्यये परे लग भवति । अधुक्षाताम् , अधुक्षाथाम् , अधुक्षि, अधिक्षाताम् , अधिक्षाथाम् , अधिक्षि । स्वर इति किम् ? अधुक्षत, अधिक्षत । अधुक्षन्ते. त्यकारलोपेऽपि स्थानिवद्भावादन्तोऽदादेशो न भवति ।। ७५ ॥
न्या० स० स्वरेऽतः-अधुक्षातामिति-सकोऽकारलोपात् 'आतामाते' ४-२-१२१ इति इत्वं, 'अवर्णस्य' १-२-६ इत्येत्वं च न भवति । स्थानिवद्भावादिति-प्राचः पूर्वास्माद्विधिरित्याश्रीयते इति 'स्वरस्य पर' ७-४-११० इति स्थानिवद्भावः ।
दरिद्रोऽद्यतन्यां वा ॥ ४. ३. ७६ ॥
दरिद्रातेरद्यतन्यां विषयेऽन्तस्य वा लुग भवति । अदरिद्रीत्, अदरिद्रासीत्, अदरिद्रि, अदरिद्रायि ॥ ७६ ।।
न्या० स० दरिद्रोऽद्यतन्यां वा-अद्यतन्यां विषयेति-विषयव्याख्यानादादेशादागम इति न्यायात् प्रथमं 'यमिरमिनम्यात:' ४-४-८६ इति इट् सोन्तश्च न, भावकर्मणोस्तु त्रिमिचि 'आत ऐः कृऔ' ४-३-५३ इति ऐकारो न ।
अशित्यस्सन्णकणकानटि ॥ ४. ३. ७७॥ ___ सकारादिसन्णकच्णकानड्वजितेऽशिति प्रत्यये विषयभूते दरिद्रातेरन्तस्य लुग् भवति । दरिद्रयति, दरिद्रिता, दरिद्रितुम, दरिद्रणीयम् , साधुदरिद्री। णिन-दरिद्रयते, दरिद्रयात्, दरिद्रांचकृवान् , विषयसप्तमीविज्ञानात्पूर्वमेवाकारलोपे दरिद्रातीति दरिद्रः । अजेव भवति नत्वाकारान्तलक्षणो णः। तथा दुर्दरिद्रमित्याकारान्तलक्षणोऽनो न भवति । दरिद्राणम् , दरिद्र इति च घनि 'प्रात' इति ऐन भवति ।
__ अशितीति किम् ? दरिद्राति, दरिद्रामि, अदरिद्राम् । सन्नादिवर्जनं किम् ? सनि, दिदरिद्रासति । क्रियायां कियार्थायां णकचि दरिद्रायको व्रजति । 'पर्यायाहर्ण' (५-३-२०) इत्यादिना णके दरिद्रायिका वर्तते । 'णकतृचौ' (५-१-४८) इति च णके दरिद्रायकः । अनटि,-दरिद्राणम् । सनः सादिविशेषणं किम? दिदरिद्विषति । प्रक-इत्येव वक्तव्ये णकचणकयोरुपादानं किम् ? आशिष्यकनि मा भूत-दरिद्रकः । केचिद्दरिद्रातेरनिटि कसावालोपं नेच्छन्ति, तन्मते इट् आम् चाभिधानान्न भवत:-दिदरिद्रावान् ॥ ७७ ॥
न्या० स० अशित्यस्सन् ०-दरिद्रयतीति-दरिद्रतं प्रयुङक्ते णिगि विषयविज्ञानात् पोऽन्तो न । दरिद्रातीति दरिद्रः इति-विशेषविहितापि लुक् लोपात्स्वरादेश इति 'आत ऐः कृऔ' ४-३-५३ इत्यैकारेण प्रत्यये बाध्यते ।
दरिद्रांचकृवानिति-आमादेशस्यानित्यत्वे ददरिद्रवानित्यपि, षष्ठ्यां तु ददरिद्रुष इति भवति ।
दिदरिद्विषतोति-नन्वत्र 'इडेत् पुसि च' ४ ३-९४ इत्यनेन आल्लुकि दिदरिद्रिषतीत्येव
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पाद-३, सूत्र-७८-८० ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१६१
भविष्यति किं सन: सादिविशेषनेन ? सत्यं, सादि विना 'इडेत्' ४-३-६४ इति असन्णकचिति विशेषनिषेधो बध्नीयात् ।
व्यञ्जनाः सश्च दः॥ ४. ३.७८ ॥
धातोर्व्यञ्जनान्तात्परस्य देलु क यथासंभवं धातुसकारस्य च दकारो भवति । अचकाद्वान् अन्वशात , अजाग:, अबिभः, शके:-अशाशक, वस्के:-अवावक । व्यञ्जनादिति किम् ? अयात् । धातोरित्येव,-प्रभेत्सीत् , ईतः परादित्वात्सेतोऽपि प्राप्नोति ॥७॥
न्या० स०-व्यञ्जनाद्दे:-अब्रवीदित्यादौ ईतः परत्वेऽपि सन्निपातन्यायादेर्न लुक् । अजागरित्यादिषु तु नानिष्टार्थेति न्यायात् सन्निपातन्यायो न प्रवृत्तः । प्रवावगिति-'संयोगस्यादौ' २-१-८८ इति सलुकोऽसत्त्वेऽपि देरनन्तरस्य विज्ञानात् पाश्चात्यसस्य दो न भवति, अत्र व्यञ्जनादिति भणनादिस्तन्या एव संभवति ।
सेः रद्धां च सा ॥ ४. ३.७१ ॥
धातोर्व्यञ्जनान्तात्परस्य सेलुक सकारदकारधकाराणां च यथासंभवं वा भवति । अचकास्त्वम् , अचकात्त्वम्, अन्वशास्त्वम् , अन्वशात्त्वम् । सकारस्य रुत्वे सिद्ध पक्षे रुत्वबाधनार्थं वचनम् , ततश्च पक्षे 'धुटस्तृतीयः' (२-१-७६) इति सकारस्य दकारो भवति ।
अभिनस्त्वम् , अभिनत्त्वम् , अच्छिनस्त्वम् , अच्छिनत्त्वम् , अरुणस्त्वम् ,अरुणत्त्वम्, अजर्घास्त्वम् , प्रजर्घवम् , अविभस्त्वम् , प्रजागस्त्वम् । रोरुदित्करणं किम् ? उस्वादिकार्य यथा स्यात्-अभिनोऽत्र, अरुणोऽत्र । दिप्रत्यासत्तेः सिरपि हस्तन्या एव । तेनेह न भवति, भिनत्सि ।।७।।
न्या० स०-सेः सद्धां०-उत्वादिकार्यमिति-आदिशब्दात् 'रोर्यः' १-३-३६ इत्यादि। योऽशिति ॥ ४. ३. ८०॥
व्यञ्जनान्ताद्धातोः परस्य यकारस्याशिति प्रत्यये परे लुग्भवति । जंगमिता, बेभिदिता, बेभिदांचक्र, बेभिदिषीष्ट । क्ये,-बेभिद्यते, सोसूचिता, सोसूत्रिता, मोमूत्रिता, शाशयिता, कुषुभिता, मगधकः । सूच्यादीनां णिज्लोपे शयादेशेऽस्य लोपे च व्यञ्जनान्तता, अन्ये तु लाक्षणिकव्यञ्जनान्तेभ्यो यलोपं नेच्छन्ति, तेन सोमूचियता, शाशय्यिता, कुषुभ्यिता, तन्मतसंग्रहार्थं व्यञ्जनान्ताद्धातोविहितस्येति विहितविशेषणं कार्यम् ।
__ धातोरित्येव,-ईयिता, मव्यिता, पुत्रकाम्यिता। व्यञ्जनादित्येव,-लोलयिता,कण्डयिता । प्रशितीति किम ? बेभिद्यते, चेच्छिद्यते ॥५०॥
न्या० स०-योऽशिति-जंगमितेति-यद्यत्र सस्वरस्य यस्य लुक् स्थात्तदा जंगमित इत्यादौ 'गमहन' ४-२-४४ इत्युपान्त्यलोप: स्यात् , स्थितेत्वस्य स्थानित्वाद् व्यवधायकत्वम् ।
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१६२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-८१-८३
क्यो वा ।। ४. ३. ८१ ॥
धातोर्व्यञ्जनात्परस्य क्यस्याशिति प्रत्यये परे वा लुग्भवति, सामान्यनिर्देशात् क्यन्क्यकोग्रहणम् । क्यक्षस्तु व्यञ्जनान्तात्प्राप्तिरेव नास्ति । समिधमिच्छति, समिधिष्यति, समिध्यिष्यति, समिध्यात्, समिध्य्यात् , दृषदिवाचरति दृषदिष्यते. दृषद्यिष्यते, दृषदिषोष्ट, दृषधिषीष्ट । व्यञ्जनादित्येव.-पटीयिता. पटायिता। अशितीत्येव,-समिध्यति, दृषद्यते, पठ्यते । केचित्तु यकोऽपि लुम्विकल्पमिच्छन्ति । भिषजिता, भिषज्यिता। तन्मतसंग्रहार्थ ककारेणोपलक्षितो य् क्य् इति व्याख्येयम् ।
अन्यस्त्वाह शिष्य इवाचरिता शिषिता शिष्यितेति । यद्यस्ति प्रयोगस्तदा कृत्क्यपोऽपि ग्रहणम् । क्य इति व्यञ्जनात्षष्ठी अतो लुकि कृते लुगा । अन्यथा हि अतो लुगपवादः क्यलुगविज्ञायेत एवं पूर्वत्रापि ।।१।।
न्या० स०-क्योवा-क्यलुक विज्ञायतेति-फलं च स्थानिवद्भावेस्य अदृषदि, अपापचि इत्यादौ न वृद्धिः, सस्वरयकारलोपे तु स्थानित्वं न स्यात् समुदायलोपात् , नापि 'न वृद्धिश्च' ४-३-११ इति वृद्धिनिषेधः, तत्र नामिन इत्यधिकारात्। तथा अवध्वंसते विच, अवध्वंसमिच्छति क्यन् , ततः क्तप्रत्यये अवध्वंसित इत्यस्य अकारस्य स्थानित्वात् 'नो व्यञ्जन' ४-३-४५ इति नस्य न लुक, सस्वरस्य तु क्यनो लोपे स्वरव्यञ्जनविधित्वात् 'स्वरस्य परे' ७-४-११० इति स्थानित्वाभावान्नस्य लूक स्यादेव, तथा 'अत:' ४-३-८२ इत्यकारलोपे स्थानिवद्भावे समिधिष्यतीत्यादिष्वपि गुणाद्यभावः सिद्धः, सस्वरक्यलोपे तु न सिध्येत् ।
अतः ॥ ४. ३. ८२ ॥
अकारान्ताद्धातोविहितेऽशिति प्रत्यये तस्यैव धातोल गन्तादेशो भवति । कथयति, कुषुभ्यति, मगध्यति, चैकोषितः, प्रचिकीर्घ्य, समिध्यिष्यति, दृषद्यिष्यते । प्रत इति विहित. विशेषणादिह न भवति-गतः, गतवान् , ततः, ततवान् । अत इति किम् ? याता, वाता। अशितीत्येव,-चिकोर्षत, लोलूयेत । चिकोयते चिकीर्ष्यादित्यादौ लोपविधेर्बलीयस्त्वात 'दीर्घश्च्वि '-(४-३-१०८ ) इत्यादिना दी? न भवति,-विषयविज्ञानाद्वा प्रागेव लोपः ॥८२।।
न्या० स०-प्रत:-चैकोषित इति-क्त चिकीषितं प्रज्ञाद्यणि चैकीर्षितः। विषयविज्ञानावेति-लोपात् स्वरादेश इत्याशङक्याह ।
गोरनिटि ॥ ४. ३. ८३॥
अनिटयशिति प्रत्यये गेलुंग भवति । प्रततक्षव , पररक्षत , आटिटव , आशिशव, कारणा, हारणा, कारकः, हारकः, कार्यते, हार्यते, प्रकार्य । इय्य्गुणवद्धिदीर्घतागमानां बाधकोऽयम् , अनिटीति विषयसप्तम्यपि तेन चेतन इत्यत्र प्रागेवणेला 'इडितो व्यञ्जनाद्यन्तात्' (५-२-४४) इति अनः सिद्धः। अनिटीति किम् ? कारयिता, हारयिता। प्रशितीत्येव,-कारयति हारयति ॥३॥
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पाद-३, सूत्र-८४-८८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चर्थोतुऽध्यायः
[१६३
न्या० स०-णेरनिटि-अनः सिद्ध इति-अन्यथाऽनेकस्वरत्वात् 'निन्दहिंस' ५-२-६८ इति णक एव स्यात् ।
सेटक्तयोः॥ ४. ३. ८४॥
सेट्कयोः क्तयोः परतो गेलुंग भवति । कारितः, कारितवान् , हारितः, हारितवान् , गणितः. संज्ञपित: पशुः । सेडिति किमर्थम् ? इटि कृते लोपो यथा स्यात् । शाकित:, शाकितवान् । अन्यथेह इट् न स्यात् ॥४॥
___न्या० स०-सेटक्तयो:-इट् न स्यादिति-एकस्वरत्वात् 'एकस्वरादनुस्वार' ४-४-५६ इति इनिषेधात् , न च वाच्यमेकस्वराद् विहिताभावादेवेहेनिषेधो न भविष्यति किमर्थमिदमुक्तमिति, यतो विषय एव णिलोपांपेक्षयेदं द्रष्टव्यम् । . आमन्ताल्वाय्येत्नावय ॥ ४. ३. ८५ ॥
आम , अन्त, आलु, आय्य, इत्नुप्रत्ययेषु परेषु णेरयादेशो भवति । लुकोऽपवादः । कारयांचकार, गणयांचकार, गण्डयन्तः, मण्डयन्तः, स्पृहयालुः, गृहयालुः, स्पृहयाय्यः, महयाय्यः, स्तनयित्नुः, गदयित्नुः, अन्ताय्येत्नव प्रौणादिकाः ।।८५॥
लघोर्यपि ॥ ४. ३. ८६ ॥
लघोः परस्य र्यपि परेऽयादेशो भवति । प्रशमय्य, प्रवेभिदय्य । लघोरिति किम ? प्रतिपाद्य गतः। वचनसामर्थ्यादेकेन धर्णेन व्यवधानमाश्रीयते न तु भूतपूर्वन्यायः प्रत इत्यकरणात् ।।६।।
न्या० स०-लघोर्यपि-प्रबेभिवय्येति-प्रबेभिद्यमानं प्रयुक्ते यङन्ताणिग् न यङलुबन्तात् । 'अत:' ४-३-८२ इत्यलोपे 'योऽशिति' ४-३-८० यलुप् अस्य स्थानित्वादगुणाभावः, प्रबेभिदनं पूर्व, यङ लुबन्ताद्धि णिगि गुणः स्यात् , 'न वृद्धिश्च' ४-३-११ इति न यङः पूर्वं लोपाद् भूतपूर्वन्याय इति । ननु वचनादेकवर्णव्यवधानं तदाश्रीयते यदा व्यवहितो न संभवति, अत्र तु चुराद्यदन्तेषु प्रबेभिदय्येत्यत्र यङोऽकारलोपे च भूतपूर्वगत्याऽव्यवहितोऽपि संभवतीत्याह-प्रत इत्यकरणादिति ।
वाप्नोः ॥ ४. ३. ८७॥
आप्नोते: परस्य णेर्यपि परेऽयादेशो वा भवति । प्रापय्य गतः, प्राप्य गतः । श्नुनिर्देशादिङादेशस्य न भवति, अध्याप्य गतः, 'आप्Mण लम्भने' इत्यस्यापीच्छन्त्यन्ये ।।८७।।
मेडो वा मित् ॥ ४. ३, ८८॥ मेडो यपि परे मिदादेशो वा भवति । अपमित्य, अपमाय ॥१८॥
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१६४ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-८९-९४
न्या० स०-मेडो-अत्र मिदादेशेऽपि 'हस्वस्य तः' ४-४-११३ तान्तः सिध्यति लाघवाथं तु मिदादेशः ।
तेः क्षी॥ ४. ३. ८१॥
ोर्यपि परे क्षी आदेशो भवति । प्रक्षीय, उपक्षीय । निरनुबन्धनिर्देशात् क्षिषश् हिसायामित्येतस्य न भवति । प्रक्षित्य, अस्यापि ग्रहणमित्यन्ये ।।८।।
न्या० स०-क्षेः क्षी-निरनुबन्धनिर्देशादिति-अत्र पूर्वाचार्यप्रसिद्धानुबन्धग्रहात् क्षित् निवासे इत्यस्याऽपि ग्रहः ।
क्षय्यजय्यो शक्ती ॥ ४. ३.१०॥
क्षि जि इत्येतयोः शक्तो गम्यमानायां यप्रत्ययेऽयन्तादेशो निपात्यते । शक्यः क्षेतुं, क्षय्यो व्याधिः, शक्यं क्षेतुं क्षय्यं बटुना, शक्यः जेतुम् जय्य: शत्रुः, शक्यं जेतुं जय्यं राज्ञा । शक्ताविति किम् ? अर्हे क्षेयम् , जेयम् ।।९०॥
क्रय्यः क्रयार्थे ॥ ४. ३. ११ ॥
कोणातेर्यप्रत्ययेऽयन्तादेशो निपात्यते 'क्रयार्थे'क्रयाय चेत्प्रसारितोऽभिधेयो भवति । कय्यो गौः, कय्यः कम्बलः । क्रयार्थ इति किम् ? केयं नो धान्यम् न चास्ति प्रसारितम् ॥६ ॥
सस्तः सि ॥ ४.३.१२ ॥
अशितीत्यनुवर्तते, धातोः सकारान्तस्याशिति सकरादौ प्रत्यये विषयभूते तकारोऽन्तादेशो भवति । वस्-वत्स्यति, अवत्स्यत् , अवात्सीत , वत्सीष्ट चत्रेण, व्यतिवत्सीष्ट, विवत्सति, प्रद-जिघत्सति, घस्-घत्स्यति, व्यतिघत्सीष्ट । स इति किम् ? यक्षीष्ट, यक्ष्यति । सोति किम् ? वसिषीष्ट, वसिष्यते । अशितीत्येव,-आस्से, वस्से। विषयसप्तमीविज्ञानात प्रवात्ताम् अवात्तेत्यत्र प्रागेव सस्य तकारः ।।९२॥
न्या० स०-सस्तः सि-अवात्तामिति-न च सिचो लुपः स्थानित्वाद् भविष्यति इति वाच्यं, यतः सकारे त उक्तः सस्य वर्णविधित्वात् ।
दीय दीङः क्ङिति स्वरे॥ ४.३, १३ ॥
दीङः विडत्यशिति स्वरे परे दीयादेशो भवति । उपदिदीये, उपदिदीयाते, उपदिदीयिरे, उपदिदीयिध्वे, उपदिदीयिट्वे, उपदिदीयानः । दीडो डिकरणं यङ्लुपनिवृत्यर्थम्उपदेधितः । विडतीति किम् ? उपदानम् । स्वर इति किम् ? उपवेदीयते। परोक्षायामिति सिद्धे विङति स्वरे इत्युत्तरार्थम् ॥१३॥
इडेत्पुसि चातो लुक् ॥ ४. ३. १४ ॥
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पाद-३, सूत्र-९५-९७ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रंशब्दानुशासत्रे चतुर्थोऽध्यायः
[ १६५
विडत्यशिति स्वरे इटि एकारे पुसि च परे आकारान्तस्य धातोरन्तस्य लुग भवति । पपतुः, पपुः, ङिव-अदधत . आह्वद , संस्था, प्रपा। इट् पपिथ, तस्थिथ, यङ्लुपि,-दादि. तुम् , दादितव्यम् , एव व्यतिरे, व्यतिले पुस् ,- उदगुः, प्रदुः। अयुः, अरु:, अलुः । विडतीत्येव,-दानम् , ददौ । अशितीत्येव,-यान्ति, वान्ति, व्यत्यरे व्यत्यले । स्वर इत्येव,-ग्लायते । प्रक्ङिदर्थ शिदथं चेडादिग्रहणम् ।।४।।
न्या० स० इडेत पुसि०-प्रपेति-प्रपोयत इति 'उपसर्गादातः' ५-३-११० इत्यङ, यदा तु प्रपिबन्त्यस्यामिति वाक्ये स्थादिभ्यः कस्तदा किद्वारमेव ।
संयोगादेशिष्येः ॥ ४. ३. १५ ॥
धातोः संयोगादेराकारान्तस्य विडत्याशिषि परेऽन्तस्यैकारावेशो वा भवति । ग्लेयात. ग्लायात. म्लेयात, मलायात । अपच्छायादित्यत्र त छकारस्य द्वित्वे सति संयोगा दित्वस्य लाक्षणिकत्वान्न भवति । संयोगादेरिति किम् ? यायात् । धातोरित्येव,-निर्यायात् । विडतीत्येव,-ग्लासीष्ट । आशिषीति किम् ? ग्लानः, म्लानः ॥९५।।
गा-पा-स्था-सा-दा-मा-हाकः ॥ ४.३.१६॥
एषामन्तस्य विङत्याशिष्येकारो भवति । गै-गेयात् , गास्थोर्मध्ये पाठाद् भौवादिकयोः 'पं पा' इत्येतयोः पाशब्देन प्रहणम्-पेयात् , पै इत्यस्य नेच्छन्त्यन्ये । आदादिकस्य पायात् । स्था-स्थेयात् , सों से वा-अवसेयात् , मैं क्षये इत्यस्य नेच्छन्त्यन्ये । वासंज्ञ,देयात् , धेयात् , मांक मेयात् , हांक-हेयात् , हाकः ककारो यङ्लुनिवृत्यर्थः । जहायात् । शेषाणां यङ्लुप्यपि भवति-जागेयात् , पापेयात् , तास्थयात् , अवसासेयात् , दादेयात् , दाधेयात् , मामेयात् । एषामिति किम् ? यायात् । विङतीत्येव,-गासीष्ट, पासीष्ट ॥९६।।
न्या० स०-गापास्था०-गाङ मेंङमाडां यङलुबन्तानां ग्रह , अन्यथामीषामात्मनेपदित्वात् किदाशीर्न संभवति । नेच्छन्त्यन्ये इति-लाक्षणिकत्वादिति शेषः ।
ईर्व्यञ्जनेऽयपि ॥ ४, ३. १७॥
गादीनामन्तस्य यपूजिते विडत्यशिति व्यञ्जनादौ प्रत्यये परे ईर्भवति । - गाङ् वा-गीयते, जेगीयते, गीतः, गोतवान् , गीत्वा, गाङो नेच्छन्त्यन्ये । पा-पीयते, पेपोयते, पीतः, पीतवान् , पीत्वा, स्था-स्थीयते तेष्ठीयते, सो-सीयते, सेषीयते, सैं-सीयते, सेसीयते, अषोपदेशत्वान्न षत्वम् , दासंज्ञ-दीयते, देवीयते, धीयते, देधीयते, धोतः, धीतवान् , धीत्वा स्तनम, माइति मामाङमेकां त्रयाणां ग्रहणम् मीयते, मेमीयते, मातेनेच्छन्त्यन्ये। मायते, मामायते । एवं पूर्वसूत्रेऽपि-मायाव, हांक-हीयते, जेहीयते हीनः, हीनवान् , हाङो न भवति-हायते, जाहायते । व्यञ्जन इति किम् ? तस्थतुः, तस्थुः।
अशितीत्येव,- माहि । विडतीत्येव,-गाता, दाता । अयपीति किम् ? प्रगाय, प्रपाय, प्रस्थाय, प्रदाय, प्रधाय, प्रमाय, प्रहाय । कथमापीय ? पोडो भविष्यति, स्वरादाव
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१६६ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद-३, सूत्र-९८-१०३
न्तलोपविधानाव्यञ्जनादौ लब्धे व्यञ्जनग्रहणं साक्षाव्यञ्जनप्रतिपत्यर्थम् , तेन क्विब्लुकि स्थानिवद्भावेनापि न भवति,-शंस्थाः पुमान् ॥१७॥
न्या० स०- ईय॑जने०-हाङो न भवतीति-'हाकः' ४-२-१०० इति भणनात् । शंस्था इति-शं सुखं तत्र तिष्ठति 'शमो नाम्न्यः' ५-१-१३४ इति अप्रत्ययापवादे 'स्थापास्ना' ५-१-१४२ इति के प्राप्तेऽसरूपत्वात् क्विप् , शंस्थाशब्दादन्यत्र लुप्तव्यञ्जनेऽपीच्छन्त्येके, तथा च जयकुमार: 'पां पाने' इत्यस्य क्विपि पीरित्याह ।
घ्राध्मोर्यङि ॥ ४. ३.१८॥
घ्राध्मोर्यडि परे ईकारोऽन्तादेशो भवति । जेघ्रीयते, देध्मीयते । यडीति किम् ? घ्रायते, ध्मायते, यङ्लुपि,-जानोतः, दाध्मीतः । अन्ये तु यङ्लुप्यपीच्छन्ति-जेघ्रोतः, देध्मीतः ॥८॥
हनो नीर्वधे ।। ४. ३. ११ ॥
हन्तेर्वधे हिंसायां वर्तमानस्य यङि नी इत्यादेशो भवति । जेनीयते, द्विषो जेनीयिषीष्ट वः । वधे इति किम् ? गतौ-जंघन्यते, केचिदिमं विकल्पेनाः, त्वं तु राजन् चटकमपि न जंघन्यसे । दीर्घनिर्देशात् यङ्लुप्यपि-जेनीतः, नेच्छन्त्यन्ये जंघत इति भवति ॥१९॥
___न्या० स०-हनो०-यङ्लुप्यपीति-यदि पूर्वसूत्रवत् यङयेव स्यात्तदा निरित्येव कुर्याद्दीर्घसिद्धावित्यर्थः । .
णिति घात् ।। ४. ३. १००॥
मिति प्रत्यये परे हन्तोर्घात इत्ययमादेशो भवति । घातः, घातयति, घातकः, साधुघाती, घातंघातम् । गितीति किम् ? हतः ॥१०॥
जिणवि घन ॥ ४. ३. १०१॥
औ णवि च प्रत्यये परे हन्तेर्घन् इत्ययमादेशो भवति । अघानि, जघान, अहं जघन, अहं जघान ।।१०१॥
न्या० स०-मिणवि०-'अङ हिहनः' ४-१-३४ इति सिद्धौ णवग्रहणं घात्बाधनार्थम् । नशेर्नेश वाङि ॥ ४. ३. १०२॥
नशेरङि परे नेश इत्ययमादेशो वा भवति । अनेशद, अनशन , अनेशताम् , अनशताम् , अनेशन् , अनशन , अनेशम् , अनशम् । अङीति किम् ? नश्यति ॥१०२।।
श्वयत्यसूवचपतः श्वास्थवोचपप्तम् ॥ ४. ३. १०३ ॥
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पाद-३, सूत्र-१०४-१०७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१६७
श्वयति असू वच पत् इत्येतेषामङि परे श्व अस्थ बोच पप्त इत्येते प्रादेशा भवन्ति । अश्वत , अश्वताम् , अश्वन , अश्वः । असू,-आस्थत, आस्थताम् , आस्थन , अपास्थत, अपास्थेताम् , अपास्थन्त, वच ब्रग वा-प्रवोचत् , प्रवोचताम् , अवोचन् , अवोचत । पत्,-अपप्तत् , अपप्तताम् , अपप्तन् । श्वयतेस्तिवनिर्देशो यङ्लुपनिवृत्त्यर्थः । अशेश्वियत् , अशोशुवत् ।।१०३॥
न्या० स०-श्वयत्यसू०-यङ्लुनिवृत्त्यर्थ इति-अन्येषां तु यङलुपि मूलप्रयोगा एव । शीङ ए: शिति ॥ ४. ३. १०४ ॥
शोङः शिति परे एकारोऽन्तादेशो भवति । शेते, शयाते, शेरते, शेताम् , शयीत् , अशेत, शयानः, अतिशयानः । शितीति किम् ? शिश्ये, संशोतिः, डिनिर्देशाद्यङ्लुपि न भवति । शेशीतः, शेश्यति ॥१०४॥
. क्ङिति यि शय् ॥ ४. ३. १०५ ॥
शोङः क्ङिति यकारादौ प्रत्यये शयादेशो भवति । शय्यते, शाशय्यते, संशय्य, शय्या। योति किम् ? शिश्यानः । विडतीति किम् ? शेयम् । यङ्लुपि न भवतिसंशेशीय ।। १०५।।
उपसर्गादूहो ह्रस्वः॥ ४. ३. १०६॥ .
उपसर्गात्परस्योहतेहकारस्य विङति यकारादौ प्रत्यये परे ह्रस्वो भवति । समुह्यते, समुह्यात् , समुह, पर्युाते, पर्यु ह्यात् , पर्युह्य, अभ्युह्यते, अभ्युह्यात् , अभ्युह्य । उपसर्गादिति किम् ? ऊह्यते, यीत्येव,-समूहितम् । विङतीत्येव,-अभ्यूह्योऽयमर्थः। ऊ ऊह इति ऊकार प्रश्लेषात् आ ऊह्यते ओह्यते समोह्यते समौह्यतेत्यत्र न भवति ।। १०६ ।।।
____ न्या० स०-उपसर्गादूह-प्रश्लेषादिति-ऊकारात् षष्ठ्याः सूत्रत्वाल्लुप् ऊहश्च षष्ठी एवं प्रश्लेषः, एवमुत्तरसूत्रेऽपि इण इत्यत्र ।
आशिषीणः॥ ४. ३. १०७॥
उपसर्गात्परस्येण ईकारस्य डिति यकारादावाशिषि परतो ह्रस्वो भवति । उदियात् , समियात् , अन्वियात् । उत्तरेण दीर्घत्वेऽनेन ह्रस्वः । आशिषीति किम् ? उदीयते । उपसर्गादित्येव,-ईयात् । ई इण इति ईकारप्रश्लेषात् मा ईयात् एयात् समेयादित्यत्र न भवति।
ननु प्रतीयादित्यत्र समानलक्षणे दोघे सति कथं न ह्रस्वः ? न,-दीघे सति उपसर्गास्परस्य इणोऽभावात् । केचित् अत्रापीच्छन्ति । प्रतियात् । इकोऽपि समानदीर्घत्वे इच्छन्त्येके-अधियात् ।। १०७ ॥
न्या० स०-आशिषीणः-इणोभावादिति-धात्वभावादित्यर्थः । अत्रापीच्छन्ति-ते ह्य भयोः स्थाने इति धातुव्यपदेशमेकदेशेऽपि समुदाय इति प्रत्युपसर्ग च कुर्वते ।
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१६८ ]
बृहद्वृत्ति- लघुन्याससंवलिते [ पाद - ३, सूत्र - १०८ - ११३
दीर्घश्च्विययकक्येषु च ॥ ४. ३.१०८ ॥
eat afsafe क्येषु यकारादावाशिषि च परतो ऽन्त्यस्वरस्य दीर्घो भवति । विशुचीकरोति, शुचीभवति, शुचीस्यात्, पटूकरोति, पटूभवति, पटूस्यात् । यङ् - चेचीयते, तोष्यते, यक्- मन्त्रयति । वल्गयति बहुवचनात् क्यशब्देन क्यनुक्यङ्क्य ङ्क्षयानामविशेषरण ग्रहणम्, अन्यथैकानुबन्धस्यैव क्यस्य ग्रहणं स्यात् । क्यन्- निधीयति, दधीयति, वय - श्येनायते भृशायते, क्यष्, -लोहितायते, लोहितायति, वय, चीयते श्रूयते, आशिषि यि - चीयात् स्तूयात्, इयात् । आशिषि यीत्येव - चेषीष्ट । विक्यानां ग्रहणादधातोरप्ययं विधिः ।। १०८ ।।
न्या० स० दीर्घश्च्वि ० - च्व्यन्तत्वात् सेः 'अव्ययस्य' ३-२-७ इति लुप् ।
-
ऋतो री ॥ ४. ३. १०१॥
धातोरधातोर्वा ऋदन्तस्य श्रुतत्वादृत: स्थाने रीरित्ययमादेशो भवति । वियङ्reti | पित्रीकरोति, पिश्रीभवति, पित्रीस्यात्, चेक्रीयते, जेह्रीयते, पित्रीयति, मात्रीयति पित्रीयते, मात्रीयते । ऋत इति किम् ? चेकीर्यते, निजे गिल्यते । । १०९ ।।
रिः शक्याशीर्ये ॥ ४. ३. ११० ॥
ऋकारान्तस्य धातोर्ऋतः स्थाने शे वये आशीर्ये च परे रिरादेशो भवति । शे व्याप्रियते, आद्रियते, क्रिया, क्रियते, ह्रियते, क्रियात्, हियात् । ह्रस्वविधानात्पूर्वेण दीर्घत्वं न भवति । आशीर्य इति किम् ? कृपीष्ट, हृषीष्ट ॥११०॥
न्या० स० - रिः शक्य ० - दीर्घत्वं न भवतीति अन्यथा पूर्वेणापि साध्येत ।
ईश्वाववर्णस्यानव्ययस्य ॥। ४. ३, १११ ॥
अव्ययवजितस्यावर्णान्तस्य च्वो प्रत्यये ईकारोऽन्तादेशो भवति । शुक्लीकरोति, शुवलीभवति, शुक्लीस्यात्, मालीकरोति, मालीभवति, मालीस्यात् । श्रनव्ययस्येति किम् ? दिवाभूता रात्रिः, दोषाभूतमहः । दीर्घत्वापवादो योगः ||१११ ।।
क्यनि ॥ ४. ३. ११२ ॥
क्न परेऽवर्णान्तस्येकारोऽन्तादेशो भवति, दीर्घत्वापवादः । पुत्रीयति, मालीयति, योगविभाग उत्तरार्थः ॥ ११२ ॥ |
न्या० स०- क्यनि-अव्ययात् क्यनोऽभावादनव्ययस्येति न विवृत्तम् ।
क्षुत्तृङ्गर्धेऽशनायोदन्यधनायम् ॥ ४. ३. ११३ ॥
क्षुदादिष्वर्थेषु थथासंख्यमशनायादयः क्यान्ता निपात्यन्ते, क्षुधि गम्यमानायाम
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पाद-३, सूत्र-११४-११५ ] श्रोसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १६९
शनशब्दस्यात्वम् तृषि गम्यमानायामुदकशब्दस्योदन्नित्ययमादेशो, गर्धे गम्यमाने धनशब्दस्यात्वम् क्यनि परे निपात्यते । अशनायति, उदन्यति, धनायति । क्षुतगर्ध इति किम् । प्रशनीयति, उदकीयति, धनीयति दानाय ।।११३।।
वृषाश्वान्मथुने स्सोऽन्तः ॥ ४. ३. ११४ ।।
वृषशब्दादश्वशब्दाच्च मैथुने वर्तमानात क्यनि परे सकारो भवति, स चान्तोऽवयवः । वृपस्यति गौः । अश्वस्यति वडवा । वृषाश्वशब्दावत्र मैथुने वर्तते, मनुष्यादावपि हि प्रयुज्यते । मैथुनेच्छापर्यायौ वृषस्याश्वस्येति ।
‘सा क्षीरकण्ठकं वत्सं वृषस्यन्ती न लज्जिता' । शुनी गौश्च स्वमश्वस्यति । लक्ष्मणं सा वषस्यन्ती महोक्षं गौरिवागमत ।
मैथुन इति किम् ? वृषीयति, अश्वीयति ब्राह्मणी । स्स इति द्विसकारनिर्देशः पत्वनिषेधार्थः । तेनोत्तरत्र दधिस्थति मधुस्यतीत्यत्र षत्वं न भवति ।।११४॥
न्या० स०-वृषाश्वान् ०-मैथुनेच्छायां वर्तमानौ क्व दृष्टावित्याह-सा क्षीरकण्ठक वत्समित्यादि-अन्तशब्दाभावे सप्पिष्ष्यतीत्यत्रोत्तरेण सागमे तस्य च प्रत्ययत्वात् 'नाम सित' १-१-२१ इत्यनेन सपिसशब्दस्य पदत्वे सो रुत्वं स्यात्तस्य 'शषसे शषसं १-३-६ इति वा रस्य सत्वे सप्पिः स्यति सप्पिस्स्यतीति रूदद्वयं स्यात् , अन्तसद्भावे त्ववयवत्वेनाविभक्त्यन्तात् सकारस्योत्पादे पदमध्यत्वात्प्रकृतिसस्य 'नाम्यन्त' २-३-१५ इति षत्वे 'सस्यशषौ' १-३-६१ इति प्रत्ययसस्य षत्वे सप्पिष्ष्यतीति स्यात् । षत्वं न भवतीति-दधिस्यतीत्यादिप्रयोगदृष्टे: प्रसिद्धस्यैव 'नाम्यन्तस्था' २-३-१५ इति षत्वस्य निषेधस्तेन सप्पिष्स्यतीत्यादावागमसकारस्य 'सस्य शषौ' १-३-६१ इत्यनेन षत्वं सिद्धम् ।
अस् च लोल्ये ॥ ४. ३. ११५ ॥
मोक्तुमभिलाषातिरेको लोल्यम् , तत्र गम्यमाने क्यनि परे नाम्नः स्सोऽस् चान्तो भवति । दधि भक्षितुमिच्छति दधिस्यति, दध्यस्यति, मधुस्थति मध्वस्यति, एवं क्षीरस्यति, लवणस्यति । .
अस्विधानमनकारान्तार्थम् । अकारान्तेषु हि 'लुगस्यावेत्यपदे' (२-१-११२) इति लुकि सति विशेषो नास्ति, अन्यस्तु लुकममृष्यमाणः क्षीरास्यति लवणास्यति इत्युदाहरतितच्च न बहुसंमतम् । लोल्य इति किम् ? क्षीरीयति दानाय ॥११॥
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिखहेमचन्द्राभिधानत्वोपज्ञशब्दानुशासनबहदघृतो चतुर्थस्याध्यायस्य तृतीयः पादः ।।
कर्ण च सिन्धुराजं च निर्जित्य युधि दुर्जयम् । श्रीभीमेनाधुना चक्र महाभारतमन्यथा ॥१॥ .
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१७० ]
बृहद्वृत्ति - लघुन्यास संवलिते
[ पाद- ४, सूत्र - १-२
न्या स० - अस्च० - दधि भक्षितुमिच्छतीति केचिल्लक्षीस्थाने भक्षीति पठन्ति तन्मतेनेदं, चुरादीनां णिचोऽनित्यत्वाद् वा । दधिस्यतीति द्विसकारपाठात् 'नाम्यन्तस्था' २-३-१५ इति न षत्वम् । पय इच्छति क्यनियमेन पदसंज्ञा कार्याणां व्यावर्त्तितत्वात् । पयसस्यति चर्मणस्यति, सेतु सति पयस्स्यति चर्म्मस्यति ।
श्रीसिद्धहेमचन्द्राभिधानास्वोपज्ञशब्दानुशासनबृहद्वृत्तौ
इत्याचार्य श्री हेमचन्द्र ० न्यासस्य चतुर्थाध्यायस्य तृतीयः पादः समाप्तः ।
-5
अथ चतुर्थः पादः
अस्तित्र वोर्भू वचावशिति । ४. ४. १ ॥
1
अस्ति वोर्यथासंख्यं भू वच् इत्येतावादेशौ भवतः अशिति प्रत्यये विषयभूते । अभूत, बभूव भविता, भूयात् अभविष्यत् भविष्यति, बोभूयते, बुभूषति, भवितव्यम्, भवितुम् ब्र - अवोचत् अवोचत, उच्यते, उवाच, ऊबे, वक्ता, उच्यात्, वक्षोष्ट, अवक्ष्यत्, अवक्ष्यत, वक्ष्यति, वक्ष्यते, वावच्यते, विवक्षति, विवक्ष्यते, वक्तव्यम्, वक्तुम् । ब्रंग्कोऽनुस्वरित्त्वाद्वच इडभावः ।
,
कथं लावण्य, उत्पाद्य, इवास, यत्नः ? असतेरयं प्रयोगः । ईक्षामासेत्यादौ णवन्तानुप्रयोगप्रतिरूपकनिपातस्य वा । अशितीति किम् ? अस्ति, स्यात्, अस्तु, आसीत्, सन्ब्रवीति ब्रूते, ब्रूयात्, ब्रवीतु अब्रवीत, ब्रुवन् ब्रवारणः । विषयसप्तमोनिर्देशः किम् ? भव्यम्, वाच्यम् । प्रागेवादेशे यध्यणौ सिद्धौ । चकासामासेत्यादौ तु अनुप्रयोगे कृभ्वस्तनां पृथग् निर्देशात् न भवति, अस्तीति निर्देशादस्यतेरसतेश्च न भवति । धात्वन्तरेणैव सिद्धेऽस्ति वोरशिति प्रयोगनिवृत्त्यर्थं वचनम् व गादेशस्य फलवत्यात्मनेपदार्थं च ॥१॥
कुर्यात् ।
न्या० स०- - श्रहं अस्तित्र वो० निर्द्देशान्न भवतीति अन्यथा कृग्भ्वोरेव द्वयोरुपादानं
श्रघञ्क्यवलच्यजेवीं ॥ ४. ४. २ ॥
घञक्यब्अल्अच्वजितेऽशिति प्रत्यये विषयभूतेऽजेव इत्यादेशो भवति । अनुस्वारेfasभावार्थ: । विवाय, वीयात्, प्रवेता, प्रवेयम्, प्रवयणीयम्, प्रवायकः, प्रवीय, प्रवीतः, प्रवीतिः ।
अघञ्क्यबलचीति किम् ? समाजः, उदाजः, समज्या, सयजः पशूनाम्, उदजः पशूनाम्, अजतोत्यजः, अजा ||२||
न्या० स० - अघञ् ० - विषयभूते इति विषय विज्ञानाद्यङि वेवीयते प्रवेयमित्यत्र च प्रागेवादेश सति यङ यप्रत्ययः ।
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पाद-४, सूत्र-३-६ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १७१
त्रने वा ॥ ४. ४. ३ ॥
तृ अन इत्येतयोः प्रत्यययोविषयभूतयोरजेवी इत्यादेशो भवति वा । प्रवेता, प्राजिता, प्रवयणो दण्डः, प्राजनो दण्डः, अन्य त्वने प्रत्यये यकाररहिते व्यञ्जनादौ चाविशेषेण विकल्पमिच्छन्ति । प्रवेता, प्राजिता प्रवेष्यति, प्राजिष्यति, प्रविवीषति, प्राजिजिषति, प्रवेतव्यम् , प्राजितव्यम् , प्रवेतुम् , प्राजितुम् ।।३।।
चक्षो वाचि क्शांग ख्यांग ॥ ४. ४. ४ ।।
चक्षिको वाचि वर्तमानस्याशिति प्रत्यये विषयभूते क्शांग ख्यांग् इत्यादेशौ भवतः, अनुस्वारेदिडभावार्थः । प्राक्शाता आखशाता । 'शिटयाद्यस्य द्वितीयो वा' (२-३-५९) इति ककारस्य खकारः । आख्याता, प्राक्शास्यति, प्राशास्यति, पाख्यास्यति, आक्शास्यते, आख्शास्यते, आख्यास्यते, आक्शेयात् , आक्शायात , आख्शेयात् , आख्शायाव , आख्येयात , आख्यायात , एवमाचाक्शायते, आचाख्यायत, प्राक्शातव्यम् , आख्यातव्यम् । विषयसप्तमोविज्ञानात् आक्शेयम् , आख्येयम् ।
वाचीति किम् ? बोधो, विचक्षणः, चक्षुः,-वर्जने,-संचक्ष्यते, अवसंचक्ष्याः परिसंचक्ष्या दुर्जनाः, संचक्ष्य गतः, हिंसायाम्-नृचक्षा राक्षसः । प्रशितीत्येव,-प्राचष्टे, गकारः फलवद्विवक्षायामात्मनेपदार्थस्तेन स्थानिवद्भावेन नित्यमात्मनेपदं न भवति । ४।।
नवा परोक्षायाम् ॥ ४. ४.५ ॥
चक्षिको वाचि क्शांगख्यांगो परोक्षायां वा भवतः । पाचकशो, प्राचखशौ, आच. यौ, पाचशे, प्राचख्शे, आचख्ये, पक्षे-आचचक्षे ।। ५ ।।
भृज्जो भर्ज ॥ ४. ४. ६ ॥
भृज्जतेरशिति प्रत्यये भज इत्ययमादेशो वा भवति । बमर्ज, बभर्जतुः, बमर्जुः, बभ्रज्ज, बभ्रज्जतुः, बभ्रज्जुः, भर्मोष्ट, भ्रक्षीष्ट, भ्रष्र्टा, भ्रष्टा, अभाीत् , अभ्राक्षीत् , बिभर्तति बिभ्रक्षति, बिजिषति, बिभ्रज्जिषति, भष्टुम् , भ्रष्टुम् , भय॑म् , भ्रद्ग्यम् , भर्गः, भ्रद्गः भर्जनम् , भ्रज्जनम् ।
अशितीत्येव,-भृज्जति, भूज्जते । कथं भृज्यात, भृज्यते, भृष्टः, भृष्टवान , बरीभृज्यते ? परत्वाद् भर्जादेशेऽपि स्थानिवद्भावेन पूर्वेण स्वरेण सह य्वृति भविष्यति, लुप्ततिनिर्देशो यड्लुप्निवृत्त्यर्थः । बर्भज्यते,-अत्र द्वित्वे सपूर्वस्य माभूत् ॥६॥
___ न्या० स०-मृज्जो भ०-भ्रद्यमिति-भृज्ज्यते 'ऋवर्ण' ५-१-१७ इति दः ध्यणि 'क्तेऽनिट:' ४-१-१११ इति गे निमित्ताऽभावे इति दन्त्यः सः तस्य 'तृतीयस्तृतीय.' १-३-४९ इति । कथं भृज्ज्यादिति-भर्जादेशः कथमत्र न भवतीत्याशङ्कार्थः । सपूर्वस्य माभूदिति-प्रकृतिग्रहणेति न्यायात्प्राप्तिः ।
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१७२ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-७-१०
प्रादागस्त आरम्भे कते ॥ ४. ४. ७ ॥
आरम्भे आदिकर्मणि वर्तमानस्य प्रशब्दादुत्तरस्य दागः स्थाने क्ते प्रत्यये परे तादेशो वा भवति । प्रत्तः, प्रदत्तः, दातु प्रारब्धवानित्यर्थः । प्रादिति किम् ? परीत्तम , उत्तरेण नित्यं त्तादेशः ।
दाग इति किम् ? दोंच-प्रत्तम् । प्रारम्भ इति किम् ? अन्यत्र नित्यमेव । प्रकर्षण दीयते स्म प्रत्तम् । क्त इति किम् ? प्रत्तवान् , दातु प्रवृत्त इत्यर्थः । द्विस्तकार आदेशः सर्वादेशार्थः,-प्रकार उच्चारणार्थः ॥७॥
न्या० स०-प्राददा०-तादेशो वा भवतीति-द्वितकारग्रहणं प्रक्रियालाधवार्थमन्यथाऽन्तस्य तादेशे 'अघोषे प्रथमोऽशिटः' १-३-५० इति सिध्यति । प्रत्त्त इति दातुमारब्धवानिति वाक्यं, न तु प्रारब्धवानिति, प्रशब्दार्थस्यारम्भस्यारब्धवानित्यनेनैवोक्तत्वात प्रशब्दप्रयोगे पौनरुक्त्यं भवति । सर्वावेशार्थ इति-अन्यथा षष्ठ्याऽन्त्यस्येति प्रवर्त्तते ।
निविस्वन्ववात् ॥ ४, ४. ८॥
एभ्यः परस्य दागः क्ते परे तादेशो वा भवति । नित्तम् , निदत्तम् , वोत्तम् , विदत्तम् , सूत्तम् , सुदत्तम् , अनूत्तम् , अनुदत्तम् , अवत्तम् , अवदत्तम् , सुदत्तमेवेत्यन्ये, उत्तरेण नित्यं त्तादेशे प्राप्त विभाणेयम् , केचिदत्राप्यारम्भ एव विकल्पमिच्छन्ति । यदाहः- .
'अववत्तं विदत्तं च प्रदत्तं चादिकर्मणि ।'
सुदत्तमनुदत्तं च निवत्तमिति चेष्यते इति । तन्मतसंग्रहार्थमारम्भ इत्यनुवतनीयम् ॥८॥
स्वरादुपसर्गादस्ति कित्यधः ॥ ४. ४. १ ॥
पूर्वयोगारम्भाद्वेति निवृत्तम् । स्वरान्तादुपसर्गात्परस्य धाजितस्य दासंज्ञकस्य तकारादौ किति प्रत्यये परे त्तादेशो भवति । प्रत्तः, प्रत्तवान , परीत्तः, परीत्तवान , परीस्त्रिमम् , प्रणीत्तिमम् , त्रिमा । धतेरपीत्वं बाधित्वा विशेषविहितत्वात् त्तत्वमेव भवति, अवत्तवान् । अवत्तिः।
उपसर्गादिति किम् ? दधि दत्तम् , लता दिता। स्वरादिति किम् ? निर्दत्तम् , दुर्दत्तम् , निदित्तम् , दुर्दित्तम् । द इति किम् ? प्रदाता वोहयः, निदातानि भाजनानि । कितीति किम् ? प्रदाता । तीति किम् ? प्रदाय । प्रध इति किम् ? धांग,-निहितः, धे,निधीतः ॥९
न्या० स०-स्वरादु०-तत्वमेव भवतीति-उपसर्गात् इति विशेषविधानात् , उत्तरत्र तु सामान्यम् । अवत्तिरिति-अवदानम् । 'उपसर्गादातः' ५-३-११० इति बाधकः श्वादिभ्यः क्तिः ।
दत् ॥ ४.४.१०॥
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पाद-४, सूत्र-११-१४ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१७३
- धाजितस्य दासंज्ञकस्य तादौ किति परे दत इत्ययमादेशो भवति । दत्तः, दत्तवान् , दत्तिः, दत्त्वा । द्यतेः परत्वादित्वम् । दितः, दितवान् । द इत्येव ? दातं बहिः, अवदातम् मुखम् । अध इत्येव ? धोतः, धीतवान् , धीत्वा, धीतिः ।।१०।।
दोसोमास्थ इः॥ ४. ४. ११ ॥
एषां तादौ किति प्रत्यये इरन्तादेशो भवति । द्यतेर्दद्भावस्य शेषाणामीत्वस्यापवादः । दो,-निदितः, निदितवान् , दित्वा, दितिः, सो,-अवसितः, अवसितवान् , सित्वा, सिति:, मा,-मितः, मितवान् , मित्वा, मितिः।
गामादाग्रहणेष्वविशेष इति माङ्मामेङां ग्रहणम् , अन्यस्तु मामेडोरेवेच्छति । मातेस्तु मातः मातवान् प्रस्थः स्थाल्याम् । स्था, स्थितः । स्थितवान् । स्थित्वा । स्थितिः । दोसो इत्योकारनिर्देशो देवादिकयोरेव परिग्रहार्थः । तीत्येव ? यङलुपि इट् दादितः, दादितवान् । 'इडतपुसि चातो लुक' (४-३-६४) इति आतो लुक । कितीत्येव ? अवदाता, अवसाता ॥११॥
न्या० स०-दोसो०-गामादाग्रहणेविति-ईर्व्यञ्जनेऽय पि' ४-३-९७ इति ईत्वस्यापवाद इति भणनात् ।
छाशोवो ॥ ४. ४. १२॥
छोशो इत्येतयोस्तादौ किति प्रत्यये परे इरन्तादेशो वा भवति । अवच्छितः, अवच्छितवान् , अवच्छातः, अवच्छातवान् , निशितः, निशितवान , निशात:, निशातवान् । श्यतिशिनोत्योरपि रूपद्वयसिद्धौ श्यतेविकल्पवचनं 'क्त नत्रादिभिन्नै' (३-१-१०५) इति समासार्थम् । शाताशितम् ॥१२॥
न्या० स०-छाशोर्वा-समासार्थमिति-अन्यथा धातुभेदात् प्रकृतिभेदे स न स्यात् ।
शो व्रते ॥ ४. ४. १३ ॥
श्यतेः क्तप्रत्यये व्रतविषये प्रयोगे नित्यमित्वं भवति । संशितं वतम् , असिधारातीक्ष्णमित्यर्थः । संशितवत: साधुः, संशितः साधुः, व्रते यत्नवानित्यर्थः । संशितशब्दः अन्यत्राप्यस्तीति व्रतमिति विशेषणं न दुष्यति, नित्यार्थ वचनम् , तेन व्रतविषये संशात इति न भवति । व्रत इति किम् ? निशातः ॥१३॥
न्या० स०-शो व्रते-विशेषणं न दुष्यतीति-ननु व्रते इत्वं प्रत्यपादि इत्युक्तार्थत्वात् व्रतस्याऽप्रयोगः प्राप्नोतीत्याह-अन्यत्राप्यस्तीति-अन्यस्मिन्नर्थे इत्यर्थः ।
हाको हिः क्वि ॥ ४. ४. १४ ॥ मोहांक इत्येतस्य तादौ किति क्त्वाप्रत्यये परे हिरादेशो भवति । हित्वा । ककारो
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१७४ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-१५-१७
हांड निवृत्त्यर्थ,-हात्वा । क्त्वीति किम् ? हीनः । तीत्येव ? प्रहाय । यङ्लुपि जहित्वा, द्वित्वे पूर्वदीर्घत्वमपीच्छन्त्येके । जाहित्वा । उभयत्रेटि आतो लक ।।१४।।
न्या० स०-हाको हिः क्त्वि-इ इत्येव सिद्धे हिकरणमुत्तरार्थ, इकरणे ह्य त्तरत्र धित इति स्यात् ।
धागः ॥ ४. ४. १५ ॥
दधातेस्तादौ किति प्रत्यये हिरादेशो भवति, क्त्वोति न संबध्यते पृथग्योगात् । विहितः,-विहितवान् , हित्वा, हितिः । गकारः धेनिवृत्त्यर्थः, धोतः, धोतवान् , धीत्वा, धोतिः । तीत्येव ? प्रधाय । यङ्लुपि इट-दाधित: दाधितवान् , दाधित्वा।
केचितु दोसोहाकधागां यङ्लप्यागमशासनमनित्यमिति न्यायादिटं नेच्छन्ति इत्वहित्वविधि च निषेधन्ति, तन्मते दत्तः, दत्तवान् । परमात्रस्यैव दद्भाव इति मते निदत्तः, निदत्तवान् , अवसासीतः, अवसासोतवान् , जाहातः, जाहातवान् , दाधीतः, दाधीतवान , इत्येव भवति ।।१५।।
न्या० स०-धागः-जाहात इति-'हाकः' ४-२-१०० इति अनुबन्धनिर्देशादऽत्र ईत्वं न ।
यपि चादो जग्ध ॥ ४.४. १६ ॥
तादौ कितिप्रत्यये यपि चावेर्जग्ध् इत्ययमादेशो भवति । जग्धः, जग्धवान , जग्ध्वा, जग्धिः, प्रजग्ध्य, विजग्ध्य । यपि चेति किम् ? अदनम् । तीत्येव ? अद्यात् । कितीत्येव ? अत्तव्यम, कथमन्नम् ? अनितेरौणादिको नः,-'अदोऽनन्नाव' (५-१-१५०) इति ज्ञापकाद्वाद्यते तदित्यनम् , एकपदाश्रयत्वेनान्तरङ्गत्वाद्यवादेशात्प्रागेव जग्धादेशे सिद्धे यग्रहणमन्तरङ्गानपि विधीन यवादेशो वाधते इति ज्ञापनार्थम् , तेन प्रशम्य, प्रपृच्छय. प्रदीव्य, प्रखन्य, प्रस्थाय, प्रपाय, प्रदाय, प्रधाय, प्रपठय त्यादौ दीर्घत्वं शत्वमूत्वमात्वमित्वमीत्वं हित्वमिट्त्वं यपा बाध्यते ॥१६॥
न्या० स०-यपि चा-न्यायानां क्वचिदप्रवृत्तेः प्रपठ्येति दर्शितं अन्यथा आगमा यद्गुणीभूता इति न्यायादिटा सहैवादेशः स्यात् ।
घस्लु सनद्यतनीघबचलि ॥ ४. ४. १७ ॥
एषु प्रत्ययेष्वदेघस्लु इत्ययमादेशो भवति । सन् ,-जिघत्सति, अद्यतनी,-अघसत , घन ,-घासः, अच् ,-प्रात्तीति प्रघसः, अल् ,-प्रादनं प्रघसः, घस्लु अदने इत्यनेनैव सिद्धेऽदेः सन्नादिषु रूपान्तरनिवृत्त्यथं वचनम् , लुदङर्थः ॥ १७ ॥
न्या० स०-घस्लु स-प्रघस इति-अजन्तस्य अदेः प्रपूर्वस्यैव घसादेशं वदन्ति वृद्धास्तेन माघमध्ये अदद इति प्रयोगः सिद्धः, अदन्तीत्यदाः, अच् , अदान भक्षकान् द्यति 'आतो ङः' ५-१-७६ इति डे अददो विष्णुः ।
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पाद-४, सूत्र-१८-२२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१७५
परोक्षायां नवा ॥ ४. ४. १८ ॥ .
परोक्षायां परतोऽदेर्घस्लादेशो वा भवति । जघास, जक्षतुः, जक्षुः आद, पादतुः, आदुः । घस्यदिभ्यामेव सिद्धे विकल्पवचनं घसेरसर्वविषयत्वज्ञापनार्थम् , तेन घस्ता घस्मर इत्यादावेव घसेः प्रयोगो भवति ।।१८।।
वेवय ।। ४. ४. ११ ॥
वेगो धातोः परोक्षायां वयित्ययमादेशो वा भवति । उवाय, ऊयतुः, ऊयु , ववौ, ववतुः, ववुः ॥१६॥ ..
न्या० स०-वेर्वय-ऊयुरिति-'न वयो य' ४-१-७३ इत्यनेन यस्य न बत् । ववाविति-'वेरयः' ४-१-७४ इति न । वरिति-'अविति वा' ४-१ ७५ इति न । वृविकल्पात् ।
ऋः शदपः॥ ४. ४. २०॥
शृदृप्रः इत्येतेषां धातूनां परोक्षायां परत ऋकारोऽन्तादेशो वा भवति । विशशार, विशश्रतुः, विदद्रतुः निपप्रतुः । क्वसौ-विशशवान् , विददृवान् , निपपृवान् । पक्षे-विशशार, . विशशरतुः विददरतुः, निपपरतुः, विशिशोर्वान् , विदिदीर्वान् , निपुपूर्वान् ॥२०॥
न्या० स०-ऋः श-विशशारेति -ऋकारेकृतेऽपि णवीदृशमेव रूपं भवतीति निर्णयार्थं णवि दथितम् ।
हनो वध आशिष्यत्रौ ॥ ४. ४. २१ ॥
परोक्षानिवृत्ती वेति निवृत्तम् , आशीविषये हन्तेर्वध इत्यकारान्तादेशो भवति 'अऔं' जिविषये तु न भवति ।
वध्याव , वध्यास्ताम् , वध्यासुः, आवधिषीष्ट, प्रावधिषीयास्ताम् , आवधिषीरन् । स्थानिवद्भावेनानुस्वारेत्त्वेऽपि अनेकस्वरत्वाविप्रतिषेधो न भवति । अत्राविति किम् ? घानिषीष्ट ॥२१॥
न्या० स०-हनो व०-आशीविषये इति-अत्र विषयविज्ञानात् पूर्वमेवादेशे वध्यादित्यादौ 'अतः' ४-३-८२ इत्यकारलोपः सिद्धः, अन्यथा तत्रापि विहितव्याख्यानात् स न स्यात् । आवधिषीष्टेत्यादौ चेट् सिद्धः, अन्यथा 'एकस्व गदनुस्वारेतः' ४-४-५६ इत्यत्र विहितव्याख्यानात् तेन निषेधः स्यात् ।
अद्यतन्यां वा त्वात्मने ॥ ४. ४. २२ ॥
अद्यतन्यां विषये हनो वध इत्ययमादेशो भवति आत्मनेपदे त्वस्या वा भवति । अवधीव , अवषिष्टाम् , अवषिषुः। अलोपस्य स्थानिवद्भावेन 'व्यञ्जनादेर्योपान्त्यस्यातः'
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१७६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-२३-२७
(४-३-४७) इति वृद्धिर्न भवति । 'वा स्वात्मने' प्रावधिष्ट , आवधिषाताम , प्रावधिषत, अवधि, आहत, प्राहसाताम् , आहसत. अघानि । अद्यतन्यामिति किम् ? आजघ्ने ॥२२।।
न्या० स०-अद्यतन्यां-अवधीदिति-विषयविज्ञानात् प्रत्ययव्यवधानेऽपि भवति, यथाऽडागमः । किंच विषयव्याख्यां विनाऽवधीदित्यत्र 'एकस्वरादनुस्वारेतः' ४-४-५६ इत्यनेन विहितव्याख्यानादिट् न स्यात् ।
इणिकोर्गाः॥ ४. ४. २३ ॥
अद्यतन्यां विषये इण इकश्च धातोर्गा इत्ययमादेशो भवति । अगात् , अगाताम् , अगुः, अगायि भवता, अध्यगात् , अध्यगाताम् , अध्यगुः, अध्यगायि भवता ।।२३॥
न्या० स० इणिको-अत्र विषयव्याख्यां विनाऽगादित्यादिषु सिचो लुपि स्यात् न । त्वऽगायीत्यत्र त्रिचा व्यवधानात् ।
णावज्ञाने गमुः ।। ४. ४. २४ ।।
इरिणकोरज्ञाने वर्तमानयोणी विषये गमु इत्ययमादेशो भवति । उकारः 'स्वरहनगमोः सनि धुटि' (४-१-१०४) इत्यत्र विशेषणार्थः । गमयति, गमयत:, गमयन्ति ग्रामम् , अधिगमयति, अधिगमयतः, अधिगमयन्ति प्रियम् ।
अज्ञान इति किम् ? अर्थान् प्रत्याययति, अज्ञान इतीणो विशेषणं नेकोऽसंभवात् , धात्वन्तरेणेव सिद्ध णाविको ज्ञानादन्यत्रेणश्च रूपान्तरनिवृत्यर्थ वचनम् , कथमर्थान् गमयन्ति शब्दाः ? गमिनैव सिद्धम् ॥२४॥
न्या० स०-णावऽज्ञाने-अत्र विषयविज्ञानेऽजीगमसिद्धमन्यथा णौ परे गमादेशे * णौ यत्कृतं कार्यम् ॐ इति न्यायाद् इ इति द्विर्वचनं स्यात् ।
सनीङश्व ॥ ४. ४. २५ ॥
इङ इणिकोश्चाजाने वर्तमानयोः सनि परे गमुरादेशो भवति, अज्ञान इति इण एव विशेषणम् नेकिङोरसंभवात् । इङ्,-अधिजिगांसते विद्याम् , इण्-अविजिगमिषति ग्रामम् , इक्-मातुरधिजिगमिषति । अज्ञान इत्येव ? अर्थान् प्रतीषिषति ।।२५।।
गाः परोक्षायाम् ॥ ४. ४. २६ ॥
इङः परोक्षायां विषये गादेशो भवति । अधिजगे, अधिजगाते, अधिजगिरे, अधिजगिषे । विषयनिर्देशः किम् ? आदेशे सति द्विवचनं यथा स्याव , तेन प्राक्तु स्वरे स्वरविधेरिति नोपतिष्ठते ॥२६॥
णो सन्डे वा ॥ ४. ४. २७॥ सन्परे ङपरे च णौ परत इडो गादेशो वा भवति । अधिजिगापयिषति, अध्यापि
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पाद-४, सूत्र-२८-३० ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १७७
पयिषति, अध्यजीगपत् , अध्यापिपत् । णाविति किम् ? अधिजिगांसते । सन्ङ इति किम् ? अध्यापयति ॥२७॥
न्या० स०-णौसन्-अधिजिगापयिषतीति-अधीयानं प्रयुङ क्ते णिगि अन्तरङ्गयोरप्यात्वप्वागमयोरऽस्याऽपवादत्वात् अप्रवृत्तौ अध्याययितुमिच्छतीति सनि पाक्षिके गादेशे तदन्यत्रात्वे उभयत्र प्वागमे द्वित्वादौ च सिद्धं, यद्वा पापस्थाने गादेशे यावत्संभव इति न्यायात्पुन: पोन्तः।
वाद्यतनीक्रियातिपत्त्योर्गीङ् ॥ ४. ४. २८ ॥
अद्यतनीक्रियातिपत्त्योः परत इडो गोङादेशो वा भवति । अध्यगीष्ट, अध्यगीषाताम् , अध्यगोषत, अध्यष्ट, अध्यषाताम् , अध्यैषत, क्रियातिपत्तिः-अध्यगोष्यत, अध्यगीष्येताम् , अध्यगीष्यन्त, अध्यष्यत, अध्यष्येताम् , अध्यष्यन्त । कुकारो गुणनिषेधार्थः ॥२८॥
न्या० स०-वाद्यतनोकि०-अध्यगोष्टेति-अन्तरङ्गत्वात् प्रागेव सिचो गीङ । गुणनिषेधार्थ इति-न वाच्यं विधानसामर्थ्यात् न भविष्यतीति, तदा ह्यऽध्यगायीत्यत्र वृद्धिरपि न स्यात् ।
अड्धातोरादिह्य स्तन्यां चामाङा ॥ ४. ४. २१ ॥
शस्तन्यामद्यतनी क्रियातिपत्त्योश्च विषये धातो: आदिरवयवोऽड् भवति, 'अमाङा' माडा योगे तु न भवति ।
अकरोत् , अकार्षीत् , अकरिष्यत् विषयविज्ञानात् प्रत्ययव्यवधानेऽपि भवति, परविज्ञाने हि अहन्नित्यादावेव स्यात् । अमाति किम् ? मा भवान् कार्षीत , मास्म करोत् । अस्मद्विना मा भृशंमुन्मनी भूः । धातोरादिरिति किम् ? प्राकरोत् ।।२६।।
न्या० स०-अड् धातो० आदिरवयव इति- अटो धात्वऽवयवत्वे प्रयमिमीतेत्यादौ णत्वम् । अहग्नित्यादाविति-आदिशब्दादभोत्स्यत इत्यादौ ।
एत्यस्ते द्धिः ॥ ४. ४. ३० ॥
'इणिकोरस्तेश्चादेः स्वरस्य हस्तन्यां विषये वृद्धिर्भवति अमाङा । आदेरिति विभक्तिविपरिणामात् । आयन् , अध्यायन् , आस्ताम् , आसन् । अमात्येव मा स्म भवन्तो यन् , मा स्म भवन्तः सन् ।।
यत्वे लुकि च स्वराविस्वाभावावुत्तरेण वृद्धि प्राप्नोतीति वचनम् । विषयत्वविज्ञानात्परत्वाद्वा प्रागेव वृद्धो कुतो यत्वाल्लुको:प्राप्तिरिति चेत् ? सत्यम् , इदमेव वचनं ज्ञापकं कृतेऽन्यस्मिन् धातुप्रत्ययकार्ये पश्चाद्वृद्धिस्तद्बाध्योऽट् च भवति, तेन ऐयरुः प्रध्ययतेत्यादाविपादेशे सति वृद्धिः सिद्धा । प्रचोकरदित्यादौ च दीर्घत्वम् । पूर्वमटि तु स्वरादित्वा. तन्न स्याव , यत्वाल्लगपवादनायम् । तेनेकः पक्षे यत्वाभावेऽध्येयनित्यत्रेयि सत्युत्तरेणैव वृद्धिर्भवति ॥३०॥
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१७८ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद ४, सूत्र-३१-३३
न्या० स०-एत्यस्ते०-आदेरितीति-( अथ पूर्वसूत्रे आदि शब्दः प्रथमान्तस्तत्कथ. मात्र षष्ठ्यन्त इत्याह ) अर्थवशादिति शेषः । यत्वाऽल्लगऽपवादश्चायमिति-अयमर्थः इणो 'ह्विणोरप्विति व्यौ' ४-३-१५ इति नित्यं यत्वे प्राप्ते वचनं तत्साहचर्यादिकोऽपि 'इको वा' ४-३-१६ इति वा यत्वे कर्तव्ये बाधकमिदं यत्वाऽभावपक्षे तु इयि सत्युत्तरेणैव वृद्धिः ।
स्वरादेस्तासु॥४. ४. ३१॥
स्वरादेर्धातोरादेः स्वरस्य तास्वद्यतनीक्रियातिपत्तिास्तनीषु विषये आसन्ना वृद्धिर्भवति अमाङा।
आटोत् , आशीत् , आटिष्यत् , आशिष्यत् , प्राटत् , आश्नात् माझेत् , आछिष्यत् , आर्छत् , ऐषोत् , ऐषिष्यत् , ऐच्छत् , ऐक्षिष्ट, ऐक्षिष्यत, ऐक्षत, ऐधिष्ट, ऐधिष्यत, ऐधत, औब्जीत् , प्रौब्जिष्यत् , औब्जत, औहिष्ट, औहिष्यत, औहत, ओण,-औणिणत् , औणिष्यत . औणत . इन्द्रमंच्छत ऐन्द्रीयत, उस्लामैच्छत प्रौलीयत. एणमैच्छत ऐणीयत् , ऐश्वर्यमैच्छत् ऐश्वर्योयत्, ओंकारमैच्छत् औंकारीयत् , आ ऊढा ओढा तामैच्छत् प्रौढीयत् , औषधमैच्छत् प्रौषधीयत् , अमात्येव, मा भवानटीत , मा स्म भवानटत् ।।३१।
न्या० स०- स्वरादे० -अत्र विषयव्याख्यानाद् व्यवधानेऽपि वृद्धिरऽन्यथा ऋण यी इत्यस्य आर्तेत्यत्रैव अदेश्चाऽटि आददित्यत्रैव आदिष्यदित्यत्रैव च स्यान्नाऽन्यत्र ।
स्ताद्यशितोऽत्रोणादेरिट् ॥ ४. ४. ३२ ॥
धातोः परस्य सकारादेस्तकारादेवाशितः प्रत्ययस्यादिरिड भवति 'प्रत्रोणावे.' अस्य उणावेश्चन भवति । अटिटिषति, अलविष्ट, लविषीष्ट, लविष्यति, अलविष्यत. लविता, लवितव्यम् , लवितुम् ।
स्तादीति किम् ? अस्नुः, स्योमा, भूयात्, वीप्रः, ईश्वरः, विद्वान् । प्रशित इति किम ? प्रास्से । आस्ते । अत्रोणादेरिति किम् ? शस्त्रम् , योत्रम् , पत्त्रम् , पोत्रम् , उणादि, वत्सः, अंसः, दन्तः, हस्तः ।।३२।।
न्या० स०-स्ताशितो०-स्योमेति-ॐ असिद्ध बहिरङ्गम् * इति स्वरानन्तर्ये नेष्यते तेन यत्वं सिद्धम् , अन्यथा ऊटोऽसत्त्वात् गुणः स्यात् ।
तेहादिभ्यः ॥ ४. ४. ३३ ॥
ग्रहादिभ्य एव परस्य स्ताद्यशितस्तेरादिरिद भवति, तेरिति सामान्येन क्तेस्तिको वा ग्रहणम् । निगृहीतिः, अपस्निहिति, निकुचितिः, निपठितिः, उदितिः, भणितिः । रणितिः, मथितिः, लिखितिः, कम्पितिः, अन्दोलितिः। बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । तेहादिभ्य एवेति नियमावन्यत्र न भवति । शान्तिः, वान्तिः, वीप्तिः, ज्ञप्तिः, सस्तिः, ध्वस्तिः । तिकः खल्वपि-तन्तिः, सन्तिः, कण्डूतिः । गौ,-पाक्तिः, याष्टिः, प्रज्ञप्तिः । तेरेव प्रहादिभ्य इति विपरीतनियमो न भवति, उत्तरत्र ग्रहः परोक्षायामिटो वीर्घनिषेधात् ॥३३॥
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पाद-४, सूत्र-३४-३५ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः ।
[१७९
न्या० स०-तेस्रहा.-तन्तिरिति-'न तिकि दीर्घश्च' ४-२-५९ इति निषेधाल्लुगदीर्घाऽभावः । सन्तिरिति षण् यी इत्यस्य रूपं 'तौ सनस्तिकि' ४-२-६४ इति लुगाकारौ वा भवतः, दीर्घस्तु 'न तिकिः' ४-२-५९ इति निषेधान्न । षन भक्तावित्यस्य तु सान्तिरिति स्यात् , न वाच्यं तस्यापि 'न तिकि' ४-२-५९ इति निषेधस्तत्र तनादेरुपादानात् ।
गृहोऽपरोक्षायां दीर्घः ॥ ४. ४. ३४ ॥
गृहातेर्यो विहित इट् तस्य दीर्घो भवति 'अपरोक्षायाम' न चेत् स इट् परोक्षायां भवति । ग्रहीता, ग्रहीतुम् , ग्रहीषीष्ट, ग्रहीष्यति, अग्रहीष्यत् , अग्रहीत् । दीर्घस्य स्थानिवभावादिट ईतीति सिचो लुग्भवति । न चायं वर्णविधिः । इट इति रूपाश्रयत्वात् । अग्रहीध्वम् , अग्रहीत्वम् ।
. विहितविशेषणं किम् ? यङन्ताद्विहितस्य माभूत् । जरीगृहिता, जरीगृहितुम् , जरीगृहितव्यम् । लुप्ततिनिर्देशाधलुपि न भवति । जरीगहिता, जरीगहितुम , जरीगहितव्यम् । अपरोक्षायामिति किम् ? जगहिव, जगहिम । इट इत्येव ? ग्राहिषीष्ट, अग्राहिषाताम् , ग्राहिता, निटो माभूव ।।३४।।
न्या० स०-गृह्णोप०-जरीगृहितेति-'योऽशिति' ४-३-८० इति यलोपे गृह्णाते: पर इट् अस्त्येव, अतो विहितव्याख्यानम् ।
वृतो नवानाशीः सिच्परस्मै च ॥ ४. ४. ३५ ॥
वगवद्भ्यामकारान्तेभ्यश्च धातुभ्यः परस्य इटो वा दीर्घो भवति परोक्षायामाशिषि परस्मैपदविषये सिचि च न भवति । वृग,-प्रावरीता, प्रावरिता, प्राविवरीषति, प्राविवरिषति । वृङ्,-वरीता, वरिता, विवरीषते, विवरिषते, ऋदन्त,-तरीता, तरिता, तितरोषति, तितरिषति, जरीता, जरिता, जिजरीषति, जिजरिषति, वृत इति किम् ? करिष्यति, तकारो वर्णनिर्देशार्थः । अन्यथा समरीता समरितेति ऋणातेरेव विज्ञायेत ।
परोक्षादिवर्जनं किम् ? विवरिथ, तेरिथ, प्रावरिषीष्ट, आस्तारिषीष्ट । प्रावारिष्टाम । प्रावारिषः । आस्तारिष्टाम । आस्तारिषुः । सिच: परस्मैपदविशेषणादात्मनेपदे दी? भवत्येव । प्रवरीष्ट, अवरिष्ट, प्रावरीष्ट, प्रावरिष्ट, आस्तरीष्ट, आस्तरिष्ट ।३५॥
न्या० स०-वृतो न-सिचपरम्मै चेति-सिचः परस्मैपदमिति षष्ठीसमास:, यस्मिन् परस्मैपदे सिचः विधीयते तत् सिच: परस्मैपदं । विशेषणसमासो वा सिच् च तत्परस्मैपदं चेति, परस्मैपदनिमित्तत्वेनोपचारात् सिजपि परस्मैपदेनोच्यते । तकारो वर्णनिर्देशार्थ इतितकारोऽभावे ऋ इति निद्दिश्यमाने व इत्यनेन धातुना साहचर्यात् ऋश् गतावित्यस्यैव ग्रहणं स्यात् , न ऋकारान्तधातुमात्रपरिग्रहस्ततश्च समरीता समरितेत्यत्रैव स्यात् , तकारे तु सति ऋदित्यस्य धातोरऽभावात्तकारस्य च वर्णनिर्देशेषु प्रसिद्धत्वात् ऋकारवर्णविज्ञानात्तदन्तः घातुमात्रप्रतिपत्तिर्भवति इति तकारोपादानम् ।
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१८० ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-३६-३८
इट् सिजाशिषोरात्मने । ४. ४. ३६ ॥ वृतः परयोरात्मनेपदविषययोः सिजाशिषोरादिरिट् वा भवति ।
प्रावृत, प्रावरीष्ट, प्रावरिष्ट, अवृत, प्रवरीष्ट, अवरिष्ट, आस्तीष्ट, पास्तरीष्ट, प्रास्तरिष्ट, पास्तीर्षाताम् , आस्तरिषाताम् , आस्तरीषाताम् , आस्तीर्षत, आस्तरिषत, प्रास्तरीषत, प्रावषीष्ट, प्रावरिषीष्ट, वषीष्ट, वरिषीष्ट, आस्तीोष्ट. प्रास्तरिषीष्ट । आत्मने इति किम् ? प्रावारीत , अतारीत , आस्तारीत । एषु नित्यमेवेड् भवति । आशिषि तु परस्मैपदे यकारादित्वात् प्राप्तिरेव नास्ति, प्राप्ते विभाषा ॥३६॥
संयोगादृतः॥४. ४.३७॥
धातोः संयोगात्परो य ऋकारस्तदन्ताद्धातोः परयोरात्मनेपदविषययोः सिजाशिषोरादिरिड्वा भवति । अस्मृषाताम् , अस्मरिषाताम् , अध्वृषाताम् , अध्वरिषाताम , स्मषीष्ट, स्मरिषीष्ट, ध्वषोष्ट, ध्वरिषीष्ट । संयोगादिति किम् ? अकृत, कृषीष्ट । धातोरिति विशेषणादिह न भवति । मा निष्कृत, निष्कृषीष्ट । 'स्कृच्छृतोऽकि परोक्षायाम्' ( ४-३-८ ) इत्यत्र स्कृगो ग्रहणात्स्सटसंयोगो न गृह्यते, तेनेह न भवति-समस्कृत, संस्कृषीष्ट । आत्मन इत्येव ? अस्मार्षीत , अध्वार्षीत् ।। ३७।।
धूगोदितः ।। ४.४.३८ ॥
धूग औदिभ्यश्च धातुभ्यः परस्य स्ताद्यशित आदिरिड्वा भवति, पृथग्योगाव सिजाशिषोरात्मने इति निवृत्तम् ।
धग-धोता, धविता। औदिव-रधौच,-रद्धा, रधिता, तृपौच-तप्र्ता, त्रप्ता, पिता। दृपौच-द्रप्ता, दर्ता, दर्पिता । नशौच-नंष्टा, नशिता । मुहौच-मोग्धा, मोढा, मोहिता। द्रुहोच-द्रोग्धा, द्रोढा, द्रोहिता। स्नुहोच-स्नोग्धा, स्नोढा, स्नोहिता। स्निहोच-स्नेग्धा, स्नेहा, स्नेहिता । गुपौ-गौप्ता, गोपिता, जुगुप्सति । जुगोपिषति, गुहौ,-निगोढा, निगूहिता, गाहौविगाढा, विगाहिता । प्रोस्व-स्वर्ता, स्वरिता, सिस्वर्षति, सिस्वरिषति । पूडौ प्रदादौ दिवादौ च । सोता, सविता । स्ताशित इत्येव ? सन्धिव, ररन्धिम किल । अन्यस्त्वत्रापि विकल्पमिच्छति । रेध्व, ररन्धिव, रेम, ररन्धिम । स्वस्तेस्तु स्ये परत्वात 'हनतः स्यस्य' (४-४-४९) इति नित्यमिट-स्वरिष्यति । धग औस्व षड् इति त्रयाणाम् 'ऋवर्णश्यूर्ण गः कितः' ( ४-४-५८ ) इति 'उवर्णात ( ४-४-५६ ) इति च परत्वात् किति नित्यमिटप्रतिषेधः । धूत्वा, स्वृत्वा, सूत्वा ।
__ औदित इत्यनुबन्धनिर्देशात् यह लुपि नित्यमिट-सरीस्वरिता, जोगहिता । धूगिति गिनिर्देशात्तौदादिकस्य नित्यमिट् । धुविता। प्रत्रोणारित्येव ? धूसरः, प्रशौ-अक्षरम् । एके तु चायिस्फायिप्यायोनामपि विकल्पमिच्छन्ति । निचाता, निचायिता, निचिचासति, निचिचायिषति, आस्काता, आस्फायिता, आपिस्फासते,प्रापिस्फायिषते, आप्याता, आप्यायिता, प्रापिप्यासते, आपिप्यायिषते । अपरः पठति । नातिकस्यति, नातिक्रमिष्यति ।
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पाद-४, सूत्र-३९-४३ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १८१
अन्यस्त्वद्यतन्यामास्कन्दिषमास्कन्समितीच्छति । बहुलम् एकेषां विकल्पः । पक्ता, पचिता, आस्कन्तव्यम् , आस्कन्दितव्यम् , पट्टा, पटिता। तदेवं व्यवस्थितविभाषाविज्ञानादागमशासनमनित्यमिति न्यायाच्च विचित्रमतयो वैयाकरणाः ॥३८।।
न्या० स०-धूगौदि०-जुगुप्सतीति गोपायितुमिच्छति सन् , 'उपान्त्ये' ४-३-३४ इति कित्त्वं, जुगोपिषतीत्यत्र तु 'वौ व्यञ्जनादेः' ४-३-२५ इति वा कित्त्वम् ।
नातिकंस्यतीति-स्वमते 'क्रमः' ४-४-५४ इति नित्यमिट् । एकेषां विकल्प इतिसर्वेषां धातूनामित्यर्थः ।
निष्कुषः॥४. ४.३१ ॥
निनिस्संबद्धात्कुषः परस्य स्ताशित आदिरिड्वा भवति । निष्कोष्टा, निष्कोषिता, निष्कोष्टम् , निष्कोषितुम , निष्कोष्टव्यम् , निष्कोषितव्यम् निष्पूर्वनियमास्केवलावन्यपूर्वाच्च नित्य एवेट । कोषिता, प्रकोषिता ।
निनिस्संबद्धात्कुष इति किम् ? निर्गताः कोषितारोऽस्मानिष्कोषितृको देश इति नित्यमिट् , योगविभाग उत्तरार्थः ॥३६।।
न्या० स०-निष्कुषः-निष्पूर्वनियमादिति - निष्पूर्वो यस्मात्तस्य नियमः । क्तयोः ॥४. ४. ४० ॥
निष्कुषः परयोः क्तयोराविरिड्नित्यं भवति, पृथग्योगाद्वेति निवृत्तम् । निष्कुषितः, निष्कुषितवान् ॥४०॥
जबश्वः क्वः॥४. ४. ४१ ॥
जवश्चिभ्यां परस्य क्त्वाप्रत्ययस्यादिरिड भवति । जरित्वा, जरीत्वा, वृश्चित्वा । • 'क्त्वा' (४-३-२६) इत्यनेनाकित्त्वान्न स्वत् , ज इति भैयादिकस्य प्रहणम् । देवादिकस्य तु सानुबन्धस्य जी । प्रस्यैवेच्छन्त्यन्ये । जृ इत्यस्य 'ऋवर्णयूर्णगः कितः' (४-४-५८) प्रतिषेधे वश्चेरौदित्त्वाद्विकल्पे प्राप्ते वचनम् ॥४१॥
ऊदितो वा॥४.४.४२ ॥
ऊदितो धातोः परस्य क्त्वाप्रत्ययस्यादिरिड्वा भवति । दान्त्वा, दमित्वा, शान्त्वा, शमित्वा, तान्त्वा तमित्वा, धूत्वा, देवित्वा, स्यूत्वा, सेवित्वा । यमूसिध्यस्योरप्राप्तेऽन्येषां प्राप्ते विभाषा ॥४२॥
चुधवसस्तेषाम् ।। ४. ४. ४३ ॥
क्षुधवसिभ्यां परेषां तक्तवतुक्त्वामादिरिट् भवति । क्षुषितः, क्षुषितवान् , अधि. स्वा, उषितः उषितवान् , उषित्वा । यङ्लुपि वावसितः, वावसितवान् , बावसित्वा ।
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१८२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-४४-४६
यङ्लुपि नेच्छन्त्यन्ये-वावस्तः, वावस्तवान् , वावस्त्वा । वसिति वसतेर्ग्रहणम् , वस्तेस्त्विडस्त्येव ।।४३।।
न्या० स० - क्षुधवसः - यङलुपीति-मतप्रदर्शनार्थमऽदशि । वावसित इत्यादौगणनिर्देशात् 'यजादिवचेः' ४-१-७९ इति न य्वृत् ।
लुभ्यञ्चेर्विमोहाचें ॥ ४. ४. ४४ ॥
विमोहो विमोहनमाकुलीकरणम् अर्चा पूजा, लुभ्यञ्चिभ्यां यथासंख्यं विमोहे यां चार्थे वर्तमानाभ्यां परेषां तक्तवतुक्त्वामादिरिड् भवति । विलुभितः सोमन्तः, विलुभिता: केशाः, विलुमितानि पदानि, विलुभितवान् , लुभित्था, लोभित्वा केशान् गतः, अञ्चिता गुरवः, उच्चैरश्चितलागुलः, अञ्चितवान् गुरुन् । शिरोऽञ्चित्वेव संवहन् । विमोहार्च इति किम् ? लुब्धो जाल्म', लुब्धवान् , लुब्ध्वा, लुभित्वा, लोभित्वा । उदक्तमुदकं कुपात् । अक्वा, अञ्चित्वा । लुभेः क्त्वि 'सहलुम'-(४-४-४६ ) इत्यादिनाञ्चेश्च 'ऊदितः' ( ४-४-४२ ) इति विकल्पे उभयोश्च 'वेटोऽपत: (४-४-६३) इति नित्यं प्रतिषेधे प्राप्ते वचनम् ।।४४॥
न्या० स०-लुभ्यञ्चे०-विमोहनमिति-णिगन्तादालि । पूङक्लिशिभ्यो नवा ॥ ४. ४. ४५ ॥
पूङः क्लिशिभ्यां च परेषां तक्तवतुक्त्वामाविरिङ् वा भवति । पूतः, पूतवान् , पूत्वा, पवितः, पवितवान् , पवित्वा, क्लिष्टः, क्लिष्टवान् , क्लिष्ट्वा, क्लिशितः, क्लिशितवान् , क्लिशित्वा । पूङिति उकारः पूगो निवृत्त्यर्थः, तस्य हि 'न डीशीङ्-' (४-३-२७) इत्यादिना कित्त्वप्रतिषेधाभावात पुवित इत्यनिष्ट रूपमासज्जेत । बहुवचनं क्लिश्यतिक्लिश्नात्योहणार्थम । पूङः 'उवर्णात्' (४-४-५६) इति नित्यं निषेधे प्राप्ते क्लिश्यतेनित्यमिटि प्राप्ते क्लिश्नातेश्वौदित्त्वात् क्त्वायां विकल्पे सिद्धेऽपि क्तयोनित्यं निषेधे प्राप्ते विकल्पार्थ वचनम् ।। ४५॥ .
__ न्या० स०-पू-पुवित इत्यनिष्टमिति-स्थिते तु तस्य 'उवर्णात्' ४-४-५८ इतीडऽभावे पूत इत्येव ।
सहलुभेच्छरुषरिषस्तादेः ॥ ४. ४. ४६ ॥
एभ्यः परस्य तकारादे स्त्याद्यशित प्रादिरिड्वा भवति । सह, सोढा, सोढुम् , सोढव्यम् , सहिता, सहितुम् , सहितव्यम् ,-लुभ इत्यविशेषेण ग्रहणम् । लोब्धा, लोधुम् , लोब्धव्यम् , लोभिता, लोभितुम् , लोभितव्यम् . इच्छ,- एष्टा, एष्टम् , एष्टव्यम् , एषिता, एषितुम् , एषितव्यम् , इच्छेति निदेशादिषत् इच्छायामित्यस्य ग्रहणम्,-इषच् , गती, इषश् , प्राभीक्ष्ण्ये इत्यनयोस्तु नित्यमेवेट् । प्रेषिता, प्रेषितुम् , प्रेषितव्यम् , केचिदिषशोऽपि विकल्पमाहुः । रुष् ,-रोष्टा, रोष्टुम् , रोष्टव्यम् , रोषिता, रोषितुम् , रोषितव्यम् , रेष्टा, रेष्टुम् , रेष्टव्यम् , रेषिता, रेषितुम् , रेषितव्यम् ।
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पाद-४, सूत्र-४७ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १८३
तादेरिति किम् ? सहिष्यते, लोभिष्यति, एषिष्यति । कश्चित्तु पठति सूत्रम् अशिभृगस्तुशुचिवस्तिभ्यस्तकारादौ वेट । अष्टा, अशिता भर्ता, भरिता, स्तोता, स्तविता, शोक्ता, शोचिता, वस्ता, वसिता, तथा रुनुसुदुभ्योऽपि अपरोक्षायामेवेट् । रोता, रविता, नोता, नविता, सोता, सविता, दोता, दविता । अपरोक्षायामिति किम् ? रुरुविम, नुनुविम, सुसुविम, दुदुविम । तथा विषेर्मूलफलकर्मण्यपरोक्षायामिड्वा । वेष्टा, वेषिता मूलानि वा फलानि वा । अन्यत्र संवेष्टा । अपरोक्षायामिति किम् ? संविविषिमेति ।। ४६॥
न्या० स०-सहलुमे०-अपरोक्षायामेवेडिति-अयमर्थः अमीषां यस्मिन् प्रत्यये इट् विहितः स तस्मिन् वा भवति, परोक्षायां तु ‘स्क्रऽसृभृवृ' ४-४-८१ इति नित्यमेव । रवितेति-रुक्रुङोऽविशेषेण ग्रहः । सवितेति-अत्र सुं प्रसवैइत्यऽषोपदेश एव गृह्यते, अन्यथा व्यावृत्तिदर्शिते सुसुविमेति प्रयोगे कृतत्वात्षत्वं स्यात् । इवृधभ्रस्जदम्भश्रियूर्णभरज्ञपिसनितनिपतिवृदरिद्रः सनः
॥४. ४.४७॥ इवन्तेभ्य ऋधभ्रस्जदम्भश्रियु-ऊणुभरतिज्ञपिसनितनिपतिवृभ्य ऋकारान्तेभ्यो दरिद्रातेश्च परस्य सन आदिरिड्वा भवति । इवन्त,-दुषति, दिदेविषति, सुस्यूषति, सिसेविषति, ऋध ,-ईसति, अदिधिषति, भ्रस्ज,-विभ्रक्षति, बिभर्भति, विजिषति, बिभ्रजिषति, दम्म,-धिप्सति, धीप्सति, दिवम्भिवति, श्रि,-शिश्रीषति, शिश्रयिषति, यु,-युयूषति, यियविषति, ऊर्गु,-प्रोणुनूषति, प्रोणुनुविषति, प्रोणुनविषति भर,-बुमूर्षति, बिमरिषति । शनिर्देशो यड्लुपो बिभर्तश्च निवृत्त्यर्थः । बुमूर्षति, बिभर्तेरपीच्छन्त्येके । इडभावपक्षे गुणमपि । बिभर्षति, बिभरिषति । तन्मतसंग्रहार्थं कृतगुणस्य भृगो निर्देशः, तेन इडभावपक्षेऽपि गुणो भवति । जप , जीप्सति, जिज्ञपयिषति, ज्ञपीति कृतह्रस्वस्योपादानात् ज्ञापेजिज्ञापयिषतीत्येव भवति ।
सनीति सनते: सनोतेश्च ग्रहणम् । सिषासति, सिसनिषति, तन्,-तितंसति, तितांसति, तितनिषति, पत्-पित्सति, पिपतिषति, वृ इति वृगवृडोर्ग्रहणम् । प्राववर्षति, प्राविवरिषति, प्राविवरीषति, वर्षते विवरिषते, विवरीषते, ऋदन्त-तितीर्षति, तितरिषति, तितरीषति, प्रातिस्तीर्षति, प्रातिस्तरिषति, आतिस्तरीषति । चिकीर्षतीत्यत्र तु लाक्ष. णिकत्वान्न भवति । दरिद्रा,-दिदरिद्रासति दिदरिद्विषति । सन इति किम् ? देविता, यो: 'ग्रहगुहश्च सनः'-(४-४-६०) इति भ्रस्जभृगोस्तु सामान्येन प्रतिषेधेऽन्येषां च नित्यमिटि प्राप्ते विकल्पोऽयम् ॥४७॥२८
न्या० स०-इव-इवन्तेति-उदनुबन्धाऽकरणादिवु व्याप्तौ न गृह्यते । ईसंतीतिऋधूच ऋधूटित्यऽस्य वा अद्धितुमिच्छतीति वाक्यम् । दिदम्भिषतीति-अत्र सनि सादित्वाऽभावान्न धीपादेशः । गुणमपीति-स्वमते तु 'नामिनोऽनिट्' ४-३-५१ इति सन: कित्त्वम् । कृतगुणस्येति--प्रथमं शनिर्देशो व्याख्यातः । तन्मतसंग्रहार्थं तु कृतगुणस्येत्यर्थः । इडऽभावपक्षेऽपि गुण इति-सूत्रे कृतगुणनिर्देशात् कित्त्वेऽपि गुण इत्यर्थः ।
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१८४ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-४८-५१
ऋस्मिपूङञ्जशौकगृध्रप्रन्छः ॥ ४. ४. ४८ ॥
पृथग्योगाद्वेति निवृत्तम् । एभ्यः परस्य सन प्रादिरिड्भवति । ऋ,-अरिरिषति, स्मि, सिस्मयिषते, पूङ्-पिपविषते. अनुबन्धनिर्देशात्पूगः पुपूषति, पुपूषते, अञ्ज-अजिजिषति, अशौ,-अशिशिषते । अश्नातेस्त्विडस्त्येव । कु-चिकरिषति,-चिकरीषति, गृ-जिगरिषति, जिगरोषति। 'वृतो नवा-( ४-४-३५) इत्यादिना पक्षे दीर्घत्वम् । अन्ये तु व्यवस्थितविभाषयास्येटो दीर्घत्वं नेच्छन्ति । हेङ , आदिदरिषते, धृङ्-प्रादिधरिषते, प्रच्छपिपृच्छिषति । प्रच्छसहचरिताः कगध इत्येते तौदादिकाः, तेन कृणातेश्चिकीर्षति । चिकरिषति, चिकरीषति, गणाते:-जिगीर्षति, जिगरिषति जिगरीषति। धरतेदिधीर्षतीत्येव भवति । ऋस्मिपूधप्रच्छामप्राप्ते शेषाणां विकल्पे प्राप्ते वचनम् ।।४।।
हनृतः स्यस्य ॥ ४. ४. ४१ ॥
हन्तेऋकारान्ताच्च धातोः परस्य स्यस्यादिरिड् भवति । हनिष्यति, अहनिष्यत्, हनिष्यन् , आहनिष्यते, आहनिष्यमाणः, करिष्यति, अकरिष्यत्, करिष्यन् , करिष्यमाणः स्वरिष्यति, अस्वरिष्यत् , स्वरिष्यन् स्वरतेः परत्वाद्विकल्पं बाधित्वा नित्यमिट । तकारनिर्देशादर्तरेव ग्रहणं न भवति ॥४६॥
कृत-चूत-नृत-द-तृदोऽसिचः सादेर्वा ॥ ४. ४.५० ॥
एभ्यः परस्य सिज्वजितस्य सकारादेः स्ताद्यशितः प्रत्ययस्यादिरिडवा भवति । कृतत छेदने,-कृतैप वेष्टने वा, कर्व्यति, प्रकस्य॑त् , चिकृत्सति, कतिष्यति अकतिष्यत् , चितिषति, चत् ,-चय॑ति, अचय॑त् , चिचत्सति, चतिष्यति, अतिष्यत् , चितिषति, नृत-नय॑ति, अनत्य॑त् , निनत्सति, नतिष्यति, अनतिष्यत् , नितिषति, छुद् - छय॑ति, अच्छय॑त् , चिच्छ्रत्सति, छदिष्यति. अच्छदिष्यत् , चिच्छदिषति, तृद्-तस्य॑ति, अतयंत, तितृत्सति, तदिष्यति, अदिष्यत् , तितविर्षात ।
___सादेरिति किम् ? कतिता, चतिता, नतिता, छदिता, तदिता । असिच इति किम् ? अकर्तीत् , अचीत् , अनीत् , अच्छ>त् , अतर्दोत् । प्राप्ते विभाषा |॥५०॥
गमोऽनात्मने ॥ ४. ४. ५१ ॥
गमः परस्य सकारादेस्ताशित आदिरिड् भवति प्रात्मनेपदं चेन्न भवति । गम इति आदेशस्यानादेशस्य च ग्रहणमविशेषात् । गमल. गमिष्यति । अगमिष्यत् । जिगमिषति जिगमिषिता। जिगमिषितुम् । संजिगमिषिता । संजिगमिषितुम् । संजिगमिषितव्यम् । इण् , जिगमिषति प्रामम् , जिगमिषुः, इक् ,-अधिजिगमिषति मातुः अधिजिगमिषुः, इङ्अधिजिगमिषिता शास्त्रस्य, अधिजिगमिषुः, अधिजिगमिषितव्यम् , इडो नेच्छन्त्येके । तन्मते, अधिजिगांसिता, अधिजिगांसुः, अधिजिगांसितव्यमित्येव भवति ।
अनात्मने इति किम् ? गंस्यते ग्रामः, संगस्यते वत्सो मात्रा, गंस्यमानः, संगस्य
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पाद-४, सूत्र-५२ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१८५
मानः, अगस्यत, समगंस्थत, संगसोष्ट, संजिगंसते, संजीगंसमानः, संजिगंसिष्यते, संजिगंसिष्यमाणः, अधिजिगांसते, अधिजिगांसमानः. अधिजिगांस्यते, अधिजिगांसिष्यते, अधिजिगांसिष्यमाणः, इणिकोजिगांस्यते, संजिगांसते, अधिजिगांस्यते याता। कथं जिगमिषितेवाचरति जिगमिषित्रीयते इति । आत्मनेपदस्य क्यङाश्रितत्वेन बहिरङ्गत्वात , केचित्तु आत्मनेपदविषयस्य गमेरात्मनेपदाभावे सति इटो विकल्पमिच्छन्ति । गम्ल,-संजिगंसिता, संजिगमिषिता, संजिगंसितव्यम् , संजिगमिषितव्यम् । इङ्, अधिजिगांसिता, अधिजिगमिषिता, अधिजिगांसितव्यम, अधिजिगमिषितव्यम् , अनात्मनेपदनिमित्तात्तु गमेनित्यमिटमिच्छन्ति । गमिष्यति, जिगमिषतीति, जिगमिषिता, जिगमिषितुम् , अधिजिगमिषितुम् , अधिजिगमिषितव्यमित्यत्रापि गमेरनात्मनेपदविषयत्वान्नित्यमिड् भवति । तन्मतसंग्रहार्थमावृत्त्या सूत्रद्वयं व्याख्येयम् । गमोऽनात्मने गमोऽनात्मन इति । तत्र पूर्वस्यायमर्थः। गमेः सकारस्यादिरिड् वा भवति आत्मनेपदं चेन्न भवति, वेत्यनुवर्तनीयम् ।
द्वितीयसूत्रे तु अनात्मने इति प्रकृतिविशेषणं व्याख्येयम् , ततश्च गमेरात्मनेपदविषयासकारस्यादिनित्यमिड् भवति । इहानात्मने इति प्रकृतिविशेषणात्पूर्वसूत्रे आत्मनेपदविषयादिति सामर्थ्याल्लभ्यते, एवं च तन्मतसंग्रहः सिद्धो भवति । एके तु परस्मैपदविषयस्यैव गमेरिटमिच्छन्ति नात्मनेपदविषयस्य, तन्मतसंग्रहार्थ तनात्मने इत्यसमस्तं व्याख्येयम् । प्रात्मन इति च प्रकृतिविशेषणम् । एवं च गमेरात्मनेपदविषयात सकारस्यादिरिड् न भवति इति अयमर्थो भवति । तेन संजिगंसिता संजिगंसितव्यम् अधिजिगांसिता व्याकरणस्य अधिजिगांसितव्यम् ॥५१॥
न्या० स०-गमोऽनात्मने-प्रात्मनेपदं चेन्न भवतीति-आत्मनेपदविषयस्याविषयस्य च आत्मनेपदाभावे भवतीति । गंस्यते ग्राम इत्यारभ्य संजिगंसिष्यमाण इति-यावत् गम्लु इत्येतस्य रूपाणि, तत्र निरुपसर्गस्य भावे कर्मणि च आत्मनेपदं सम्पूर्वस्य तु 'समो गमच्छि' २-३-८४ इत्यनेन कर्तरि । कथमिति-जिगमिषित्रीयते इत्यत्र आत्मनेपदे इडsभावः प्राप्नोतीत्याशङक्याह-आत्मनेपदस्येति-केचित्तु आत्मनेपदविषयस्येति सामान्योक्तावऽपि कर्तवैवात्मनेपदविषयता ज्ञेया भावकर्मणोस्तु सर्वेऽपि धातव आत्मनेपदविषया एव इति व्यवच्छेद्य किमपि न स्यात् , आत्मनेपदं चेन्न भवतीति द्वितीयव्याख्यानादिहात्मनेपदविषयादात्मनेपदाऽभावो लभ्यते । प्रकृतिविशेषणं व्याख्येयमिति-पनर्गमग्रहणादऽन्यथा पूर्वसूत्राद् गम इत्य धिकारेणेव सिद्धम् । अयमर्थो भवतीति-प्रथममतविपरीतः ।
स्नोः ।। ४. ४.५२ ॥
स्नोः परस्य स्ताद्यशित आदिरिड् भवति आत्मनेपदं चेन्न भवति । प्रस्नविष्यति, प्रस्नविता प्रस्नवितासि । प्रस्नवितास्मि, प्रस्नवितुम् , प्रस्नवितव्यम् , प्रसुस्नूषतीत्यत्र 'ग्रहगुहश्च सन:' (४-४-६०) इत्यनेनेटप्रतिषेधः । अनात्मने इत्येव ? प्रस्नोष्यते, प्रस्नोध्यमाणः, प्रास्नोप्यत, प्रस्नोषीष्ट, प्रास्नोष्ट, प्रस्नोता, प्रस्नोतासे, प्रस्नोताहे । प्रस्नवितेवाचरति प्रस्नवित्रीयत इत्यत्र त्वात्मनेपदस्य बहिरङ्गत्वात् तदाश्रयः प्रतिषेधो न भवति । स्नौतेरिट सिद्ध एव । प्रतिषेधाभावादात्मनेपद इडनिवृत्त्यर्थं तु वचनम् । एवमुत्तरयोगोऽपीति ।।५२॥
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१८६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद-४, सूत्र-५३-५५
न्या० स०-स्नो:-पृथग्योगात् सादेरिति नानुवर्तते, अन्यथा स्नुगमोरिति कुर्यात् । प्रास्नोष्टेति-कर्मकर्तरि प्रयोगः ।
क्रमः ॥ ४. ४.५३ ॥ क्रमः परस्य स्ताद्यशित आदिरिड् भवति प्रात्मनेपदं चेन्न भवति क्रमिष्यति ।
निरक्रमीत , मितासि, चिक्रमिषति, चिकमिषिता, चिकमिषितुम् , प्रक्रमितुम् , प्रक्रमितव्यम् । अनात्मन इत्येव ? प्रक्रस्यते, प्रकंस्यमानः, उपक्रन्स्यते, उपकन्स्यमानः, प्रक्रन्ता, उपक्रन्ता, प्रक्रन्तासे, उपकन्तासे, प्रक्रन्सीष्ट, उपक्रन्सीष्ट, प्राक्रन्स्त, उपाकन्स्त, प्राक्रन्स्यत, उपाक्रन्स्यत, प्रचिक्रन्सते, उपचिक्रन्सते. प्रचिक्रन्सिष्यते, उपचिक्रन्सिष्यते । क्रमितेवाचरति मित्रीयते इति पूर्ववदि भवति । कथं चिक्रन्सया कृत्रिमपत्त्रिपङ्क्तेरित्यत्रेडभाव: । गतानुगतिक एष पाठः। जिघृक्षया कृत्रिमपस्त्रिपङ्क्तेरिति तु अविगान: पाठः ॥५३॥
न्या० स०-क्रमः आत्मनेपदं चेन्न भवतीति तद्विषयादऽविषयाद् वा । निरक्रमीदिति-व्यञ्जनादेः' ४-३-७८ इति न वृद्धिः, 'न शिवजागृ' ४-३-४९ इति निषेधात् ।
प्रकन्तेत्यादिषु-'प्रोपादारम्भे' ३-३-५१ इत्यात्मनेपदम् । गतानुगतिक इतिगतस्यानुगतं गतानुगतं तदत्रास्ति, 'अतोऽनेकस्वरात्' ७-२-६ इक: ।
तुः॥ ४. ४.५४ ॥
अनात्मनेपदविषयात क्रमः परस्य तुस्तृचस्तृनश्च स्ताशित प्रादिरिड् भवति । अनात्मन इति प्रकृतिविशेषणमत्रान्यथा व्यवच्छेद्याभावात् । क्रमिता, निष्क्रमिता । आत्मनेपदविषयश्च कमिः कर्मव्यतिहारवृत्यादिषु प्रोपव्यापूर्वश्च आरम्भादिषु भवति । अनात्मन इत्येव ? व्यतिक्रन्ता, पराकन्ता, प्रकन्ता, उपकन्ता, विक्रन्ता, प्राकन्ता ५४ ॥
न्या० स०-तुः-व्यवच्छेद्यामावादिति-प्रत्ययविशेषणे इत्यर्थः । क्रमितेति-'क्रमोऽनुपसर्गात्' ३-३-४७ इति विकल्पेनात्मनेपदविषयत्वात् क्रन्तव्यपि आरम्भादिष्वितिआदिपदाद् विपूर्वस्य स्वार्थे आङ पूर्वस्य तु ज्योतिरुद्गमे । ...
न वृद्भ्यः ॥ ४. ४. ५५ ॥
वृतूङ् स्यन्दौङ् वृधूङ् शृधूङ् कृपौङ् वृत् । एते पञ्च वृतादयः, वृत्करणं धुतादिवृतादिपरिसमाप्त्यर्थम्, एभ्यः परस्य स्ताशित आदिरिड न भवति । 'अनात्मेनाम्' अनात्मनेपदनिमित्तं चेद्वतादयो न भवन्ति । अनात्मनेपदनिमित्तं च वृतादयः स्यसनि श्वस्तन्यां च कृषिविकल्पेन भवन्ति ।
वृत्,-वस्य॑ति, अवय॑त् , विवृत्सति, विवृत्सिता, विवृत्सितुम्, विवृत्सितव्यम् , विवृत्सा, स्यन्द,-स्यन्त्स्यति, अस्यन्त्स्यत्, सिस्यन्त्सति, सिस्यन्त्सिता, सिस्यन्त्सितुम , सिस्यन्त्सितव्यम् , वृधेव तिवद्रूषाणि । शृथ्, शय॑ति, अशय॑त्, शिशृत्सति, शिशृत्सितुम् ,
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पाद-४, सूत्र ५६ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १८७
शिशृत्सिता, शिशृत्सितव्यम् । कृप,-कल्प्स्यति, प्रकल्प्स्यत् , चिक्लप्सति, चिक्लप्सिता, चिक्लप्सितुम् , चिक्लप्सितव्यम् , कल्प्ता, कल्प्तारौ, कल्प्तारः, कल्प्तासि, कल्प्तास्थः, कल्प्तास्थ, कल्प्तास्मि, कल्प्तास्वः, कल्प्तास्मः । स्यन्दिकृपोरौदिल्लक्षणो विकल्पः परत्वादनेन बाध्यते। अनात्मने इत्येव ? तिता, कल्पितव्यम् । स्यादावप्येषां पाक्षिकत्वात अनात्मनेपदनिमित्तत्वस्य यत्र तन्नास्ति तत्रेड भवत्येव । यतिष्यते, प्रतिष्यत, विवतिषते, विवतिषितुम् , वितिषितव्यम् , अधिष्यते, अधिष्यत, विधिषते, विद्धिषितुम् , विवधिषितव्यम् , शधिष्यते. अधिष्यत, शिधिषते, शिधिषितुम् , शिधिषितव्यम् ।
स्यन्दिकृपोरोदित्त्वाद्विकल्पः । स्यन्त्स्यते, स्यन्दिप्यते, अस्यन्त्स्यत, अस्यन्दिष्यत, सिस्यन्त्सते, सिस्यन्दिषते, सिस्यन्त्सितुम्, सिस्यन्दिषितुम्, कल्प्स्यते, कल्पिष्यते, अकल्प्स्यत, अकल्पिष्यत, चिकृप्सते, चिकल्पिषते चिक्लप्सितुम्, चिकल्पिषितुम्, कल्प्ता, कल्पिता, कल्प्तासे, कल्पितासे, कल्प्ताहे, कल्पिताहे । विवत्सितेवाचरति, विवृत्सित्रीयते इत्यादौ तु पूर्ववत् प्रतिषेधः, एके तु वृद्भ्यः स्यसनोः कृप: श्वस्तन्यां चात्मनेपदाभावे इट्प्रतिषेधमिच्छन्ति । तन्मते,-विवृत्सिता, विवृत्सितुम्, विवृत्सितव्यमित्यादौ अनात्मनेपदनिमित्तस्वाभावपक्षेऽपि इट् न भवति ॥५५।।
न्या० स०-न वृद्भ्यः आत्मनेपदनिमित्तं चेति-नन्वऽमीषामात्मनेपदिनामनात्मनेपदनिमित्तत्वं कथमित्याशङ्कयाह-स्यसनि श्वस्तन्यां चेति-'वृद्भ्यः स्यसनो:' ३-३-४५ 'कृपः श्वस्तन्याम्' ३-३-४६ इति सूत्राभ्यामित्यर्थः ।
स्यादावपीति-स्यसनि श्वस्तन्यां चेत्यर्थः । प्रनात्मनेपदनिमित्तत्वाभावपक्षेपोतिअत्र हि प्रकृतिरात्मनेपदविषया।
एकस्वरा-केचिद्विषिपुषिश्लिषिमात्रादिति-विष्लुकी विषश् श्लिषंच् श्लिष्षु इत्येतेभ्यः । युरुक्ष्विति-शीक्षुसाहचर्यात् यु रु इत्यतयोरादादिकयोर्ग्रहणं न रुङ रोषणे च युग्श् बन्धने इत्येतयोः । स्वरान्ता धातव इति स्वरान्ताः किंविशिष्टाः ये पाठे एकस्वरास्तेऽनुस्वारेत इत्यर्थः ।
एकस्वरादनुस्वारेतः ॥ ४. ४. ५६ ॥ एकस्वरादनुस्वारेतो धातोविहितस्य स्ताद्यशित प्रादिरिट् न भवति ।
पा-पाने, पाता, पातुम् । 'चक्षो वाचि शांग ख्यांग' (४-४-४) आक्शाता, आख्याता, जि,-जेता, जेतुम् , णींग,-नेता, नेतुम् , अजेवी,-प्रवेता, प्रवेतुम, इंङ्को गी,अध्यगीष्ट, श्रृं श्रोता, श्रोतुम् , स्म-स्मर्ता, स्मर्तुम् , शक्लट् शकींच वा,-शक्ता, शक्तुम् । शक्यतेरिटमिच्छन्त्येके । शकिता, वचंक् ब्रू गादेशो वा, वक्ता, वक्तुम् । विचपी,-विवेत्ता, विवेक्तुम् , रिचपी,-रेक्ता, रेक्तुम् , डुपची ,-पक्ता, पक्तुम् , षिचींव , सेक्ता, सेक्तुम् , मुचलन्ती,-मोक्ता, मोक्तुम् , प्रच्छंद,-प्रष्टा, प्रष्टुम् , भ्रस्जीद,-भ्रष्टा, भा, भ्रष्टुम् , भष्टुम् , टु मस्जोंद ,-मङ्क्ता, मङ्क्तुम् , भुजोंत् भुजंप वा, भोक्ता, भोक्तुम् , युजिच् युरॉपी वा, योक्ता, योक्तुम् , यजी-यष्टा, यष्टुम् , जिन , परिष्वङ्क्ता परिष्वङ्क्तुम् ।
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१८८ ]
बृहद्वत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-५६
रजों रञ्जींच वा, रङ्क्ता, रङ्क्तुम् , रुजोंद ,-रोक्ता, रोक्तुम् , णिज की,- नेक्ता, नेक्तुम् , निर्णेता, निर्णक्तुम् , विज़न्को,-विवेक्ता, विवेक्तुम् , सज,-सङ्क्ता, सङ्क्तुम् , भज्जोप-भक्ता, भङ्क्तुम् , भजी,-भक्ता, भक्तुम् , सजिच् सृजंत वा,-स्रष्टा स्रष्टुम् , त्यजं, त्यक्ता, त्यक्तुम् , स्कन्दृ-स्कन्ता, स्कन्तुम् , विदिच् विद्लन्ती विदिप वा-वेत्ता, वेत्तुम् , विन्दतेरिटमिच्छन्त्येके । वेदिता धनस्य, णुदंत ,-नोत्ता, नोत्तुम् , विदांच् ,- स्वेत्ता, स्वेत्तुम , शद्ल-शत्ता, शत्तुम् षद्ल षद्लुत वा,-सत्ता, सत्तुम् । भिदृपी,-भेत्ता, भेत्तम् , छिदृपी,-छेत्ता, छेत्तुम् , तुदींव,-तोत्ता, तोत्तुम् , प्रदंक , अत्ता, अत्तुम् , जिघत्सति । पदिच्-पत्ता, पत्तुम् , हदि,-हत्ता, हत्तुम् , खिदिच् , खिदित खिदिप वा खेत्ता, खेत्तुम् । खिन्दते. रिटमिच्छन्त्येके। खेदिता खेदितम, खिदितम । क्षद पी,-क्षोत्ता, क्षोत्तम । राधंच राधंट वा,-राद्धा, राद्धम् । साधंट-साद्धा, साद्धम् । श्रुधंच , शोद्धा, शोद्धम् । युधिच-योद्धा, योद्धम् । व्यधंच-व्यद्धा, व्यद्धम् । बन्धंश्-संवन्द्धा,-संवन्द्धम् । वधिंच ,-बोद्धा बोद्धम् ।
रुधृपी, रोद्धा, रोद्धम् , क्रुधंच,-कोद्धा, कोद्धम् । क्षुधंच .-क्षोद्धा,-क्षोद्धम् । सिधुन्च ,-सेद्धा, सेद्धम् । हनंक , हन्ता, हन्तुम् । मनिच-मन्ता, मन्तुम् । आपलन्ट,
आप्ता, आप्तुम् । तपं तपिच वा, तप्ता, तप्तुम् । शपी शपींच वा, शप्ता । शातुम् । क्षिपंच , क्षिपीत् वा क्षेप्ता, क्षेप्तुम् । छुपंत , छोप्ता, छोप्तुम् । लुपलन्ती, - लोप्ता, लोप्तुम् । सृपल-सप्ता, सप्र्ता, सप्तुम् , सप्तुम् , लिपीत्,-लेप्ता, लेप्तुम् । टु वपी, वप्ता, वातुम , त्रिप्वपंक ,-स्वप्ता, स्वप्तुम् । यभं,-यब्धा, यन्धुम । रमि, प्रारब्धा, आरआधुम । डु लभिष् ,-लब्धा, लब्धुम् , यमू-यन्ता, यन्तुम् । रमि,-रन्ता, रन्तुम् । णमं.- नन्ता. नन्तुम् । गमल,-गन्ता, गन्तुम् । क्रुशं,-क्रोष्टा, क्रोष्टुम् । लिशिच लिशित वा लेष्टा, लेष्टुम् । रुशंव , रोष्टा, रोष्टुम् । रिशंव ,-रेष्टा, रेष्टुम् । दिशीत , देष्टा, देष्टुम् । दंशं,-दंष्टा, दंष्टुम् ।
स्पृशंत् ,-स्प्रष्टा, स्पष्र्टा, स्प्रष्टुम् , स्प्रष्टुंम् । मृशंत् ,-म्रष्टा स्रष्र्टा, भ्रष्टुम्, मष्ट्रम, विशंत,-वेष्टाः, वेष्टम, दृश, द्रष्टा, द्रष्टम, शिप्लप,-शेष्टा, शेष्ट्रम, शुषंच - शोष्टा, शोष्टुम् , त्विषीं,-त्वेष्टा, त्वेष्टुम् । पिपलप,-पेष्टा, पेष्टुम् । विप्लन्को,-वेष्टा, वेष्टुम् । कृषं कृषीत् वा, कष्टा, की, कष्टुम् , कष्टुम् । तुसंच , तोष्टा, तोष्टुम् । दुषंच ,-दोष्टा, दोष्टुम् । पुषंच ,-पोष्टा; पोष्टुम् । श्लिषंच , श्लेष्टा, श्लेष्टुम् । द्विषींक ,-द्वेष्टा, द्वेष्टुम् । घसूल, घस्ता, घस्तुम् । वसं,-वस्ता, वस्तुम् , रह-रोढा, रोढुम् । लुहं रिहं इति हिंसाओं सौत्रौ । लोढा, लोढुम् , रेढा, रेढुम् । एतावनिटौ नेच्छन्त्येके । दिहीक ,-देग्धा, देग्धुम् , दुहीक ,-दोग्धा, दोग्धुम् , लिहीक ,-लेढा, लेढुम् ।
मिहं, मेढा, मेढम् । वहीं, वोढा, वोढुम् । णहींच , नद्धा , नद्धम् । दहं, दग्धा, दग्धुम् । एकस्वरादिति किम् । अवधीत् । शाशकिता । विहितविशेषणं किम् । चिकीर्षति, पश्चादनेकस्वरत्वेऽप्यत्र प्रतिषेधो भवत्येव । अनुस्वारेत इति किम् ? विरिवाचारोत् अवायोत् । प्रगावीत् । अगवीत् । श्वि, श्वयिता। श्रिग , श्रयिता। डीङ् डीच् वा डयिता। शीङ्,-शयिता, युक्, यविता, रुक्,-रविता, क्षुक ,-क्षविता, क्ष्णुक , क्षणविता, णुक - नविता; स्नुक , प्रस्नविता । वृट् , प्रावरिता, प्रावरीता। वृग ,-वरिता, वरीता।
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पाद-४, सूत्र-५७-५८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[१८९
भू,-भविता, णू-नुविता, लूगश् ,-लविता, तृ-तरिता, तरोता । स्तृगश्,-पास्तरीता, प्रास्तरीता। ओ-विजैति, उद्विजिता । उद्विजितुम् । विदक ज्ञाने वेदिता शास्त्रस्य । निष्विदाङ्, निविदाच वा स्वेदिता, विश्विदाङ्-क्ष्वेदिता । अस्मादपोटं नेच्छन्त्येके श्वेत्ता, बुधग बुध, वा, बोधिता। आभ्यामपीटं नेच्छन्त्येके । बोद्धा, षिध षिधौ च वा, सेधिता, मनूयि,-मनिता, कथं मतम् ? क्त्वि वेटकत्वात् 'वेटोऽपतः' (४-४-६३) इति भविष्यति । लुपच्,-लोपिता । कथं तप्र्ता, दर्ता । औदित्त्वाद्विकल्पेनेट् । शिष,-शेषिता, विष विषश् वा,-वेषिता, पूष पुषश वा,-पोषिता, श्लिष,-श्लेषिता । केचिद्रिषिपषिशिलषिमात्रादिडभावमिच्छन्ति । श्लिष्टमित्यत्र तु ऊदित्वात् क्तयोनित्यमिप्रतिषेधः ।। अत्र संग्रहश्लोकाः॥
'शिवधिडीशी युरुक्षुक्ष्णुणुस्नुभ्यश्च वृगो वृङः । ऊदृदन्तायुजादिभ्यः स्वरान्ता घातवोऽपरे ॥१॥ पाठ एकस्वराः स्युर्येऽनुस्वारेत इमे मताः । द्विविधोऽपि शकिश्चैव वाचविचिरिची पचिः ।।२।। सिञ्चतिर्मुचिरितोऽपि पृच्छतिघ्रस्जिमस्जिभुजयो युजिर्यजि । ज्वजिरञ्जिरजयो णिजिविजसञ्जिभजिमजयः सृजित्यजी॥३॥ स्कन्दिविद्या विद्लूविन्तयो नुदिः स्विद्यतिः शदिसदी भिविच्छिदी। तुद्यदो पविहदी खिदिक्षुदो राषिसाधिश्रुधयो युधिव्यषी ॥४॥ बन्धबुध्यरुधयः कुधिसुधी सिध्यतिस्तदनु हन्तिमन्यती। प्रापिना तपिशपिक्षिपिछ्पो लुम्पतिः सपिलिपी वपिस्वपी॥५॥ यभिरभिलमियमिरमिनमिगमयः कुशिलिशिरुशिरिशिदिशतिदशतयः । स्पृशिमृशतिविशतिशिशिष्लशुषयस्त्विषिपिषिविषलकृषितुषिपुषयः ॥६॥ श्लिष्यतिद्विषिरतो घसिवसती रोहतिलुहिरिही अनिगदितौ । देग्धिदोग्धिलिहयो मिहिवहती नातिहिरिति स्फुटमनिटः ।।५६।।
ऋवर्णश्यूर्णगः कितः ॥ ४. ४. ५७ ॥
ऋवर्णान्ताद्धातोः श्रयतेरूणु गश्चकस्वराद्विहितस्य कितः प्रत्ययस्यादिरिट न भवति । वृतः, वृतवान् , वृत्वा, स्वृतः, स्वतवान् , स्वृत्वा । तृ,-तीर्णः, तीर्णवान् , ती, पृ,-पूर्तः, पूर्तवान् , पूर्वा, श्रि,-श्रितः, श्रितवान् , श्रित्वा, उत्तरेणैव सिद्ध ऊणु ग्रहणमनेकस्वरार्थम् । ऊर्गुतः, ऊर्गुतवान् , ऊर्गुत्वा । गित्त्वाधङ्लुपि न भवति । ऊोन वित्वा । एकस्वरादित्येव ? जागरितः, जागरितवान् , जागरित्वा । कित इति किम् ? वरिता, तरिता, श्रयिता ऊणु विता, ऊर्णविता । विहितविशेषणात्तीर्णः पूर्त इत्यत्र कृतेऽपोहरादेशे निषेधो भवति ॥५७॥
उवर्णात् ॥ ४. ४.५८ ॥
उवर्णान्तादेकस्वराद्धातोविहितस्य कित आविरिट न भवति । युतः, युतवान्, युत्वा, लूनः, लूनवान्, लत्वा । कित इत्येव ? यविता, लविता ।।५८।।
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१९० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-५९-६३
ग्रहगुहश्च सनः॥ ४. ४.५१ ।।
ग्रहिगुहिन्यामुवर्णान्ताच्च धातोविहितस्य सन आदिरिट न भवति । ग्रह, जिघृक्षति । गुहौ, जुघुक्षति, रुरूषति, तुतूषति, बुभूषति, लुलूषति, पुपूषति । यौतेस्तु 'इवृध' ( ४-४-४७ ) इत्यादिना विकल्पः । यियविषति, युयूषति । गुहेरिटमपीच्छत्यन्यः । जुगूहिषन् मत्तगजोऽभ्यधावत् ।।५६॥
स्वार्थे ॥ ४.४.६०॥
स्वार्थे विहितस्य सन आदिरिट् न भवति । जुगुप्सते, तितिक्षते, चिकित्सति, शीशांसते, दोदांसते, मीमांसते, बीभत्सते, स्वार्थे इति किम् ? पिपठिषति ॥६०॥
ङीयश्व्यदितः क्तयोः॥ ४. ४. ६१ ॥ ___डीयतेः श्वयतेरैदिभ्यश्च धातुभ्यः परयोः क्तयोरादिरिट न भवति । डोनः, डोनवान्, उड्डोनः, उड्डोनवान्, शूनः, शूनवान्, ऐदितः, ओ लस्जौ, लग्न:, लग्नवान्, विजे,उद्विग्न, उद्विग्नवान्, यतै,-यत्तः, यत्तवान्, त्रस,-त्रस्तः, त्रस्तवान्, दीप,-दीप्तः, दीप्तवान् ।
___डीयेति श्यनिर्देशाव डयतेरिडेव । डयितः, इयितवान् । क्तयोरिति किम् ? डयिता, श्वयिता, लज्जिता, उद्विजिता। कृतन्तन्ते इत्येतेषां वेट्त्वेन क्तयोरिट्प्रतिषेधे सिद्ध ऐदित्त्वं यङ्लुवर्थम् । तेन चरीकृत्तः । चरीकृत्तवान्, नरोनृत्तः, नरोनृत्तवान्, चरीवृत्तः । चरीवृत्तवान् इत्यत्रानेकस्वरत्वेऽपोटप्रतिषेधः ।।६१॥
वेटोऽपतः ।। ४. ४. ६२ ॥
पतिवजिताद्यत्रक्वचिद्विकल्पितेटो धातारेकस्वरात्परयोः क्तयोरादिरिट न भवति । रधौ,-रद्धः, रद्धवान्, प्रजौ,-अक्तः, अक्तवान् , गुहौ,-गूढः, गूढवान्, शमू,-शान्तः, शान्तवान्, असू-अस्तः, अस्तवान् । केचिदस्यते वे क्ते नित्यमिटमिच्छन्ति । असितमनेन सह-सोढः, सोढवान् । अपत इति किम् ? पतितः,-पतितवान् । सनि वेदत्वात्प्राप्ते प्रतिषेधः। एकस्वरादित्येव ? दरिद्रितः, दरिद्रितवान् । कथं प्रोर्णतः, प्रोर्ण तवान् ? 'ऋवर्णश्यूटुंगः कितः' (४-४-५८) इत्यनेन भविष्यति ॥६३॥ ..
न्या० स०-वेटोऽपतः-कथं वञ्चितः वंचिण् प्रलम्भने इत्यस्य भविष्यति । संनिवेरदः ॥ ४. ४. ६३ ॥
संनिविपूर्वादर्दतेः परयोः क्तयोरादिरिट न भवति । समर्णः; समण्णन्,ि न्यणः, न्यवान्, व्यर्णः, व्यर्णवान् । संनिवेरिति किम् ? अदितः, प्रादितः । कश्चित्केवलादपोच्छति । अर्णः, अर्णवान् ॥६३।।
न्या० स०-संनिवेर०-समर्ण इति-'रदादमूर्छ' ४-२-६९ इति नः ‘रवर्ण' २-३-६३ इति क्तनस्य णत्वम् ।
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पाद-४, सूत्र. ६४-६८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १९१
अविदूरेऽभः ॥ ४, ४, ६४ ॥
विदूरमतिविप्रकृष्टम् । ततोऽन्यदविदूरम् । अभिपूर्वादः परयोः क्तयोरविदूरेऽर्थे प्रादिरिट् न भवति । अभ्यर्णम्,-अविदूरमित्यर्थः, अभ्यर्णा सरित् । अभ्यणे शेते, अविदूर इति किम् ? अदितो वृषल: शीतेन । बाधित इत्यर्थः ॥६४॥
न्या० स०-अविदूरेऽमे:-क्तवताऽर्थप्रतीतेरभावान्न दशितम् । वर्तेर्वृत्तं ग्रन्थे ॥ ४. ४. ६५ ॥
वृतेर्ण्यन्तात्वते वृत्तमिति ग्रन्थविषये निपात्यते, गुणाभावेदप्रतिषेधौ णिलुक् च निपातनात् । वृत्तो गुणश्छास्त्रेण । वृत्तं पारायणं चत्रेण । वृतेरन्तर्भूतण्यर्थस्यैतत् सिध्यति । वर्तस्तु ग्रन्थविषये वर्तितमिति प्रयोगनिवृत्त्यर्थं वचनम् । ग्रन्थ इति किम् ? वतितं कुङ्कुमम् । अन्ये तु ग्रन्थेऽपि वर्तितमिति प्रयोगमाद्रियन्त ॥६५॥
न्या० स०-वर्त्तवृत्तम्-णिलुक्चेति-'सेटक्तयोः' ४-३-८४ इति नियमात् 'णेरनिटि' ४-३-८३ इति न प्राप्नोतोत्याह वृत्तो गुण इति-उपचाराद्गुणप्रकरणं गुणः ।
धृषशसः प्रगल्भे ॥ ४. ४. ६६ ॥
प्रगल्भो जितसभः । अविनीत इत्यन्ये । षषिशसिभ्यां परयोः क्तयोरादिः प्रगल्भ एवार्थे इट् न भवति । धृष्टः, विशस्तः,-प्रगल्भ इत्यर्थः । प्रगल्भ इति किम् ? धर्षितः, विशसितः, धषेः 'आदितः' (४-४-७२) इति शसेरप्यूदित्त्वात् 'वेटोऽपतः (४-४-६३) इति प्रतिषेधे सिद्ध नियमार्थ वचनम् । अथ भावारम्भयोनित्यार्थ षषेरुपादानं कस्मान्न भवति ? नैवम्, धृषीवारम्भे स्वभावात प्रगल्भार्थानभिधानात् ॥६६।।
न्या० स०-धषशसः-धृषेरुपादानमिति-नन्वादितां धातूनां 'नवा भावारम्भे' ४-४-७२ इत्यनेन वा इनिषेधेऽत्र । धृषेरुपादानं नित्यमिडभावार्थमिति विधिपरतया किमिति न व्याख्यातमित्याशङ्का ।
कषः कृन्छगहने ॥ ४, ४. ६७॥
कृच्छ दुःखम् तत्कारणं च, गहनं दुरवगाहम् । तयोरर्थयोः कषेः परयोः क्तयोराविरिड्न भवति । कष्टं वर्तते, कष्टोऽग्निः, कष्टानि वनानि । कृच्छगहन इति किम् ? कषितं स्वर्णम् ॥६७॥
घुषेरविशब्दे ॥ ४. ४.६८ ॥
विशब्दनं विशब्दः नाना शब्दनं प्रतिज्ञानं च ततोऽन्यत्रार्थे वर्तमानात घुषेः परयोः क्तयोरादिरिट् न भवति । घुष्टा रज्जुः संबद्धावयवेत्यर्थः, घुष्टवान् अविशब्दन इति किम् ? अवघुषितं वाक्यमाह । नानाशब्दितं प्रतिज्ञातं वा वाक्यं ब्रत इत्यर्थः । अत एव विशब्दन
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१९२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-६६-७०
प्रतिषेधात् ज्ञाप्यते घुषेविशब्दनार्थस्य अनित्यश्चुराणिजिति, तेनायमपि प्रयोग उपपन्नो भवति ।
_ 'महीपालवचः श्रुत्वा जुधुषुः पुष्यमारणवाः' स्वाभिप्रायं नाना शब्दराविष्कृतवन्त इत्यर्थः ॥६॥
न्या० स०-घुषेरवि-अत एव विशब्देनेति-ननु घुष शब्दे इत्यस्यैव विशब्दने चुरादित्वाणिचि सत्यऽनेकस्वरत्वात्प्रतिषेधो न स्यात् किं वजनेन ? इत्याह-अनित्येति ।
बलिस्थूले दृढः ॥ ४. ४. ६१ ॥
बलिनि स्थूले चार्थे दृहेदृ"हेर्वा तान्तस्य दृढ इति निपात्यते । इडभावः ततस्य ढत्वं धातुहनयोर्लोपश्च निपातनात् । दृढो बली स्थलो वा, परिदृढय्य गतः, पारिदृढी कन्या, बलिस्थूल इति किम् ? दृहितम् , हितम् ।।६९।।
न्या० स०-बलिस्थले०-परिद्रढय्य गत इति परिदृढमाचष्टे णिज् पृथुमृदु' ७-४-३९ इति ऋतो रः, परिद्रढनं पूर्व क्त्वा 'लघोर्यपि' ४-३-८६ इत्यऽय् । नन्वत्र हलोपनिपातनं किमर्थं यावता 'भ्वादेर्दादेर्घः' २-१-८३ इति घस्य बाधके 'हो धुट्' २-१-८२ इति ढत्वे निपात्यमाने सर्व सिध्यति ? न ढस्य परेऽसत्त्वावर्णद्वयेन व्यवधाने 'लघोर्यपि' ४-३-८६ इति न स्यात् , वचनाद्धि एकेन वर्णेन व्यवधानमाश्रीयते, किञ्च ढस्याऽसत्त्वे संयोगे पूर्वो गुरुरिति न्यायात् गुरूपान्त्यत्वे पारिदृढीत्यत्र परिदृढस्यापत्यं 'अत इञ्' ६-१-३१ 'अनार्षे' २-४-७८ इति ष्यादेश स्यात् , न तु 'नुतिः ' २-४-७२ इति ङीः ।
तुब्ध-विरिब्ध-स्वान्त-ध्वान्त-लग्न-म्लिष्ट-फाण्ट-बाद-परिवृहं मन्थ
स्वरमनस्तमासक्तास्पष्टानायासभृशप्रभो ॥ ४. ४.७० ॥ क्षब्धादयः क्तान्ता मन्थादिष्वर्थेष यथासंख्यमनिटो निपात्यन्ते । क्षमेर्मन्थेऽर्थे तान्तस्येडभावो निपात्यते । मध्यत इति मन्थः,-कर्मणि घञ् । क्तोऽपि क्षुभेः कर्मण्येव, तत्सामानाधिकरण्यात् । क्षुब्धः समुद्रः मथित इति मध्यमानः संक्षोभं गत इति वार्थः । क्षुब्धा गिरिनदी। मन्थनं वा मन्थः । तस्मिन्नभिधेये क्षुब्धं बल्लवेन । विलोडनं कृतमित्यर्थः । प्रथवा द्रवद्रव्यसंपृक्ताः सक्तवो रूढया मन्थशब्देनोच्यन्ते । तद्व्याभिधाने क्षुब्धशब्दो मन्थपर्यायो भवति । यदा तु क्षोभं प्रवृत्तिनिमित्तीकृत्य मन्थे वर्तते तदा क्षुब्धो मन्थ इति सामानाधिकरण्यम् । संचलितो मन्थ इत्यथः ।
मन्थेऽभिधेय इति किम् ? क्षुभितं समुद्रेण । क्षुभितं मन्थेन, क्षुभित: समुद्रो मन्थेन, अन्यस्तु दध्यादिकं येन मथ्यते स मन्थो मन्थानक इत्याह ।
अमृतं नाम यत्सन्तो मन्त्रजिहेषु जुहति ।
शोभव मन्दरक्षुब्धक्षुभिताम्भोधिवर्णने । इति विपूर्वात्सौत्राद्रिवि रिब्ध इति भवति स्वरो ध्वनिश्चेत् । रेभेर्वा इत्वस्यापि निपातनात्, विरिमितं, विरेभितमन्यत्,-स्वनेः
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पाद-४, सूत्र-७१ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १९३
स्वान्तमिति मनश्चेत्, मनःपर्याय, स्वान्तशब्दः । विषयेष्वनाकुलं मनः स्वान्तमित्यन्ये, अन्यत्र स्वनितो मृदङ्गः, स्वनितं मनसा घट्टितं स्पृष्टमिति यावत , ध्वनेः ध्वान्तमिति तमश्चेत् , तमःपर्यायो ध्वान्तशब्दः, अनालोकं गम्भीर तमो ध्वान्तमित्यन्ये । अन्यत्र ध्वनितं तमसा । ध्वनितो मृदङ्गः । लगेर्लग्नमिति सक्तं चेत् । लगितमन्यत , म्लेच्छेम्लिष्टमिति अस्पष्टं चेत , इत्वमपि निपातनाव , म्लेच्छितमन्यत फणे: फाल्टमिति अनायाससाध्यं चेत् ,-यदआपतमपिष्टमुदकसंपर्कमात्राद्विभक्तरसमौषधं कषायादि तदेवमुच्यते । अग्निना तप्तं यदीषदुष्णं तत्फाण्टमित्यन्ये ।
अन्ये त्वविद्यमानायास: पुरुषोऽन्यो वा सामान्येन फाण्टशब्देनाभिधीयते । फाण्ट, श्चित्रास्त्रपाणय इत्याहुः,-वाहेढिमिति मृशं चेत् , क्रियाविशेषणमेवैतद स्वभावात् , बाढविक्रमा इति तु विस्पष्टपटुवत्समासः, वाहितमन्यत् , परिपूर्वस्य वृहे हेर्वा परिवृढ इति प्रभुश्चेत् ,-हकारनलोपे ढत्वे च निपातनात् । परिवृढः प्रभुः, परिवढय्य गतः, पारिवृती कन्या, अन्यत्र परिवहितं परिवृहितम् । केचित्तु लग्नविरिन्धम्लिष्टफाण्टवाढानि धात्वर्थस्य सक्ताद्यर्थविषयभावमात्रे भवन्तीत्याहुः । तेषां लग्नं सक्तेनेत्याद्यपि भवति । यथा लोम्नि हष्टमिति ।। ७० ।।
न्या० स०-क्षुब्धविरिब्ध०-गत इति वाऽर्थ इति-अन्तभूतण्यर्थत्वात् गमित इत्यर्थः । क्षुब्धा गिरिनदीति-मथिता मथ्यमाना सती क्षोभं गमिता वेत्यर्थः । मन्थपर्यायो भवतीतितृतीयव्याख्याने मन्थस्य कोऽर्थः ? सक्तोः क्षुब्ध इति पर्यायः, तुरीये तु मन्थस्य सक्तोविशेषणं क्षुब्ध इति ।
क्षभितं समुद्रणेति-अत्र मन्थनं वा मन्थ इति द्वितीयमपि व्याख्यानं न घटते, यतस्तत्र मन्थनं विलोडनं, प्रस्तुते तु संचलनमात्रम् । क्षुमितं मन्थेनेति-अत्र मन्थशब्देन मन्थानक उच्यते । ध्वान्तमिति-ध्वनन्त्यत्राऽपश्यन्तः प्राहरिका इति 'अद्यर्थाच्चाधारे ५-१-१२ इति क्तः, ध्वन्यते स्म हेयतयेति कर्मणि वा क्तः । म्लेच्छितमिति-म्लेच्छत्यव्यक्त भवति स्म व्याप्ये वा क्तः, कूटोच्चारितमित्यर्थः । चित्रास्त्रपाणय इति-चित्रास्त्राणि पाणिषु येषां 'न सप्तमीन्द्वादिभ्यश्च' ३-१-१६५ इति पाणिशब्दस्य न प्राग निपातः ।
बाढविक्रमा इति-यद्यऽयं क्रियाविशेषणं तत्कथमऽत्र विक्रमाभिधायी बाढशब्द: ? इत्याशङ्कायामाह-विस्पष्ट पटुवदिति-यथा तत्र क्रियाविशेषणेन समास्तथाऽत्रापि बाढशब्देन क्रियाविशेषणेन सः ।
हकार न लोपेति-अत्रापि हलोपनि पाताऽभावे पारिवढीत्यर्थः । लोम्नि हष्टमिति-यथा लोमविषये हृष्टं निपात्यते प्रयोगश्च लोमभिः हृष्टमिति तथाऽत्रापीत्यर्थः ।
आदितः ॥ ४. ४. ७१ ॥ प्राकारानुबन्धाद्धातोः परयोः क्तयोरादिरिट न भवति ।
जिमिदा-मिन्नः, मिन्नवान् , शिश्विदा-क्षिण्णः, विषण्णवान् , शिविदा-स्विनः, स्विन्नवान्, शिवता-श्वित्तः, श्वित्तवान्, आदितां धातूनां भावारम्भ वेटस्वादन्यत्र 'वेटोऽपतः'
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१९४ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद-४, सूत्र-७२-७५
(४-४.-६३) इति अनेनैव नित्यमिप्रतिषेधे सिद्ध योगविभागो यदुपाविभाषा तदुपाधेः प्रतिषेध इति न्यायज्ञापनार्थम् , तेन विदक् ज्ञाने विदितः, । विदितवान् , हषितः, हषितवान् , तुष्ट इत्यर्थः, इत्यादि सिद्धम् ।। ७१ ॥
न्या० स० आदितः-योगविभाग इति-आदितो नवा भावारम्भे इत्येक एव क्रियतां किं योगविभागेनेति ? तदुपाधेरिति-अयमर्थः 'नवा भावारम्भे' ४-४-७२ इत्यनेन भावारम्भविवक्षायां विभाषा इति यदा कर्मणि कर्तरि वा विवक्ष्यते क्तस्तदा 'वेटोऽपतः' ४-४-६२ इत्यनेनापि निषेधो न स्यात् इत्यस्य पृथगारम्भः । विदित इति 'गमहनविद्ल' ४-४-८३ इत्यनेन विद्लुती इत्यस्यैव वेट्त्वं न विदक् इत्यस्येत्यतो नित्यमिट , न वाच्यं 'गमहन' ४-४-८३ इत्यत्र विद्ल इति सानुबन्धोपादानादेव विदकित्यस्य न भविष्यतीति, यतो नाऽनुबन्धकृतानीति न्यायादनुबन्धवशाद् वैरूप्यं नानास्वरत्वं भिन्नवणत्वं च न. भवतीति ।
नवा भावारम्भे ॥ ४. ४. ७२ ॥
आरम्भ आदिक्रिया, प्रादितो धातो वे आरम्भे च विहितयोः क्तयोरादिरिड् वा न भवति । मिन्नमनेन, मेदितमनेन, प्रमिन्नः, प्रमेदितः. प्रमिन्नवान , प्रमेदितवान् । आदित इत्येव ? विदितमनेन, प्रविदितः, प्रविदितवान् ।
भावारम्भ इति किम् ? मिन्नः, मिन्नवान् । पूर्वेण नित्यं निषेधे प्राप्ते विकल्पः ।७२। शकः कर्मणि ॥ ४. ४. ७३ ।।
शकेर्धातोः कर्मणि विहितयोः क्तयोरादिरिड वा न भवति । शक्तः शकितो वा घटः कर्तु चैत्रेण, कर्मणि क्तवतुर्नास्तीति नोदाह्रियते। कर्मणीति किम् ? शक्तः कटं कर्तुम् चंत्रः ।। ७३ ।।
णौ दान्त-शान्त-पूर्ण-दस्त-स्पष्ट छन्न-ज्ञप्तम् ॥ ४. ४.७४ ॥ ___णौ सति दमादीनां क्तान्तानां दान्तादयो वा निपात्यन्ते । दम्,-दान्तः दमितः, शम्-शान्तः, शमितः, पूरै-पूर्णः, पूरितः, एषु णिलुग निपात्यते । दास,-दस्तः, वासितः, स्पश्-स्पष्टः, स्पाशितः, छद्, छन्नः, छादितः, एषु ह्रस्वश्च । ज्ञा,-ज्ञप्तः, ज्ञापितः, संज्ञपितः, संज्ञप्तः, प्रत्र क्वचिद्भस्वश्च इडभावा सर्वत्र ।।७४।।
न्या० स०-गौ दान्तशान्त०-स्पष्ट इति-पषी बाधने इत्यस्य स्थाने स्पशीति केचित् पठन्ति । स्पशिः सौत्रो वा स्पशन्तं प्रयुङक्ते णिग् स्पशिण ग्रहणे इति चुरादि । अत्र क्वचिदिति-क्वचिदिति कोऽर्थः ? ज्ञप्त इत्यत्र मारणाद्यर्थानामऽभावेऽपि ह्रस्व इत्यर्थः, अभावश्च तेषां पाक्षिके ज्ञापित इत्यत्र ह्रस्वाऽभावदर्शनान्निश्चीयते ।
श्वस-जप-वम-रुष-वर-संघुषास्वनामः ॥ ४. ४.७५ ॥ एभ्यः परयोः क्तयोराबिरिड् वा भवति । श्वस्तः, श्वसितः, प्रस्वस्तः, प्रश्वसितः,
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पाद-४, सूत्र-७६–७८ ] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १९५
आश्वस्तः, श्राश्वसितः, श्राश्वस्तवान्, आश्वसितवान्, विश्वस्तः, विश्वसितः, विश्वस्तवान्, विश्वसितवान् । व्याभ्यामेव केचिद्विकल्पमिच्छन्ति । तन्मते - श्वसितः श्वसितवान्, विश्वसितः, विश्वसितवान्, उच्छ्वसितः, उच्छ्वसितवान् ।
प्राविभ्यो नित्यमिनिषेध इत्यन्ये । प्रश्वस्तः, आश्वस्तः, विश्वस्तः । श्वसे: कर्तर्ययं निषेधो भावेऽधिकरणे च नित्यमेवेट - श्वसितं निश्वसितमिति केचित् । जप् जप्तः, जप्तवान्, जपितः, जपितवान् वम्, - वान्तः, वान्तवान् वमितः वमितवान् । जपिवभ्यो नित्यमिट् निषेधः जप्त, जप्तवान् वान्तः, वान्तवान् इत्यन्ये । रुष्, - रुष्टः, रुष्टवान्, रुषितः, रुषितवान्, वेट्स्वानुषेनित्यं प्रतिषेधे प्राप्ते वचनम् । त्वर् तूर्णः, तूर्णवान् त्वरितः, त्वरितवान्, संघुष्- संघुष्टं, संघुषितं वाक्यम् । संघुष्टौ संघुषितौ दम्यौ, संघुष्टवान् संघुषितवान् वाक्यम्, आस्वन्- आस्वान्तः, आस्वनितश्चैत्रः । संघुषास्वनिभ्यां परत्वात् अयमेव विकल्पः । तेनाविशब्दनेऽपि संघुष्टा रज्जुः । संघुषिता रज्जुः मनस्यपि, आस्वान्तं मनः, आस्वनितं मन इति भवति । अम् - अभ्यान्तः, अभ्यान्तवान्, अभ्यमितः अभ्यमितवान् ॥७५॥
,
न्या० स०- श्वसजप ० - अयमेव विकल्प इति न तु 'घुषेर विशब्दे' ४-४-६८ क्षुब्धविरब्ध' ४-४-७० इत्याभ्यां नित्यं प्रतिषेधः ।
हृषेः केशलोमविस्मयप्रतिघाते ।। ४. ४. ७६ ।।
केशलोक का क्रिया केशलोमशब्देनोच्यते । हृषेः केशादिष्वर्थेषु वर्तमानात्परयोः तयोरादिरिड्वा न भवति । हृष्टाः केशाः, हृषिताः केशाः, हृष्टं हृषितं केशैः, हृष्टानि हृषितानि लोमानि हृष्टं हृषितं लोमभिः, हृष्टः हृषितश्चैत्रः । विस्मत इत्यर्थः । हृष्टा हृषिता दन्ताः प्रतिहता इत्यर्थः । केशादिष्विति किम् ? हृष्टो मंत्र इत्यलीकार्थस्य हृषितश्चैत्रस्तुष्ट्यर्थस्य ।।७६।।
न्या० स०- - हृषेः - केशलोमविषया उद्घषणादिका क्रिया केशलोमशब्देनोच्यत इत्याह- केशलोमेति ।
अर्थ
"
tot
पूजा
अपचितः ॥ ४ ४ ७७ ॥
श्रपपूर्वस्य चायतेः क्तान्तस्येडभावश्चिदेिशश्च वा निपात्यते । अपचितः, अपचायितः, चिनोतिः पूजार्थो नास्तीति इदं निपातनम् ॥७७॥
सृजिदृशिस्कृस्वरात्वतस्तृनित्यानिटस्थवः ।। ४. ४. ७८ ॥
सृजिहरिभ्यां सरसट: कृगः स्वरान्तादका रवतश्व तृचि नित्यानिटो धातोविहितस्य व आदिरिड् वा न भवति ।
सृज्, - सस्रष्ठ, ससर्जिथ, दृश्, - दद्रष्ठ, ददर्शथ, स्कृ, संचस्कंर्थ, संचस्करिथ, स्वरयाथ, यथ, विवेथ, विवयिथ, निनेथ, निनयिथ, जुहोथ, जुहविथ, अत्वत्, - शशक्थ,
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१९६ ]
बृहद्वत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-७९-८१
शेकिथ, पपक्थ, पेचिथ,-इयष्ठ, इयजिथ, जगन्थ, जगमिथ | सृजिशिस्कृस्वरात्वत इति किम् ? रराधिथ. बिभेदिथ, चकर्थ । तृजिति किम् ? किति नित्यानिटो माभूत-लुलविथ ।
नित्येति किम् ? तृचि विकल्पेटो मामूद-विदुधविथ, रर न्धिथ । अनिट इति किम् ? शिश्रयिथ । थव इति किम् ? पेचिव, पेचिम । विहितविशेषणं किम् ? चर्षिय । अदादेशस्य घसेर्वेगादेशस्य च वयेः तृच्यभावान्नित्यमेवेड् भवति जघसिथ, उवयिथ । प्रकृ. त्यन्तरस्य तु घसेः परोक्षायामपि प्रायिक एव प्रयोग:, स्कादिसूत्रेण प्राप्ते विभाषा, स्वरान्तस्वेनैव सिद्ध स्कृग्रहणम् ऋतः' ( ४-४-८० ) इति प्रतिषेधबाधनार्थम् ॥७८।।
न्या० स०-सजिशि०-चकपिथेति-इह गुणे कृते अत्वान् न प्रथमम् । तृच्यऽभावादिति-घत्रचलि परोक्षायां च विधानात् घसादेशस्य ।
ऋतः॥ ४. ४.७१ ॥
ऋकारान्ताद्धातोस्तृचि नित्यानिटो विहितस्य थव आदिरिट न भवति, पृथग्योगाव वेति निवृत्तम् । जहर्थ, सस्मर्थ दध्वर्थ । ऋत इति किम् ? विभेदिय । तृनित्यानिट इत्येव ? सस्वरिथ । अत्रापोनिषेधमिच्छन्त्येके-सस्वर्थ । जजागरिथेत्यत्र त्वनेकस्वरत्वाच्वेनिषेधो न भवति । थव इत्येव ? जह्रिव, जहिम । पूर्वस्यापवादोऽयम् ।।७९।।
न्या० स०-ऋतः-पृथग्योगादिति-सूत्रारम्भसामर्थ्यादित्यर्थः, अन्यथा स्वरान्त-. त्वात् पूर्वेणैव सिद्धमिति ।
वृव्येऽद इट् ॥ ४. ४. ८०॥
अर्तेगो व्यगोऽदश्च धातोः परस्य थव आदिरिट् भवति, पुनरिटग्रहणान्नेति निवृत्तम् । ऋ,-आरिथ, वृग, ववरिथ, व्यग्-संविष्य यिथ, अद-आदिथ । अर्तेः पूर्वण वृग उत्तरेण प्रतिषेधे व्येऽदोस्तु ‘सृजिदृशि'-(४-४-७९) इत्यादिना विकल्पे प्राप्ते वचनम्।८०॥
न्या० स०-ऋवृश्ये०-वृ इति सामान्योक्तावपि वगो ग्रहः, वृङस्त्वात्मनेपदित्वेन थवोऽसंभवः, उत्तरसूत्रे तु परोक्षा इति भणनाद् द्वयोरपि ।
स्क्र-सृ-वृ-भृस्तुद्र -श्रु-स्रोव्ये अनादेः परोक्षायाः॥४. ४.८१ ॥
सस्मटः करोतेः सृवृभृस्तुश्रुत्र जितेभ्यश्च सर्वधातुभ्यः परस्य व्यञ्जनादेः परोक्षाया आदिरिट भवति ।
स्कृ-संचस्करिव, संचस्करिम, संचस्करिषे, खाद्यन्येभ्यः-ददिव, ददिम, ददिषे, चिच्यिवहे, चिच्यिमहे, निन्यिवहे, निन्यिमहे, जुहुविव, जुहुविम, लुलुविढ्वे, लुलुविध्वं, जह्निव, जहिम, तेरिव, तेरिम, शेकिव, शेकिम, पेचिणे, पेचिध्वे, पेचिवहे, पेचिमहे । स्कृ इति स्सटा निर्देशः किम् ? केवलस्य माभूव चकृव, चकृम, चकर्थ, चकृषे । स्रादिवर्जनं किम् ? ससव, ससृम, ससर्थ, ववृव, ववृम, ववृवहे, ववृमहे. बभूव, बभृम, बभर्थ तुष्टुव, तुष्टुम, तुष्टोथ, दुद्रुव, दुद्रुम, दुद्रोथ, श्रुश्रुव, श्रुश्रुम, श्रुश्रोथ, सुन व, सुन म, सुस्रोथ । स्तुद्रुश्रुत्र णां सृजिशि'-( ४-४-७९ ) इत्यादिनापि थवि विकल्पो न भवति । अनेन
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पाद-४, सूत्र-८२-८३ ] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १९७
प्राप्ते हि स विकल्पः, एषां तु प्रतिषिद्धत्वात्प्राप्तिर्नास्ति । ववृषे इत्यत्र तु 'स्ताद्यशितः'(४-४-३२ ) इत्यादिनापि न भवति । ऋवर्णश्यूर्णगः कितः' (४-४-५८ ) इति प्रतिषेधात् ॥८॥
घसेकस्वरातः कसोः॥ ४.४.८२ ॥
घसेरेकस्वरादादन्ताच्च धातोः परस्य परोक्षायाः कसोराविरिट् भवति । घस् - जक्षिवान् , एकस्वर-आदिवान्, प्राशिवान् । द्वित्वदीर्घत्वयोः कृतयोरेकस्वरत्वम्-ऊचिवान्, अनूचिवान् । रवृति दीर्घत्वे चैकस्वरत्वम् । शेकिवान , पेचिवान् , उपसे दिवान् । इणोऽर्तेश्न द्विर्वचने कृतेऽपि समानदीर्घत्वे अरादेशे च सत्येकस्वरसद्भावेनेट: प्राप्तिसद्भावात् इट नित्य एवेति पूर्वमेव भवति । तेन ईयिवान् , समीयिवान् , आरिवान् । आव-पपिवान् , ययिवान् , तस्थिवान् , जग्लिवान् ।।
घसेकस्वरात इति किम् ? विभिद्वान् , चिच्छिद्वान् , बभूवान् , उपशुश्रुवान् , नित्यत्वात् द्वित्वे कृतेऽनेकस्वरत्वम् । विहितविशेषणं चेह नाश्रीयते । क्वसोरिति किम् ? बिभिदिव, विभिदिम। वमयोनियमो न भवति । घस्याग्रहणमनेकस्वरार्थम् । इटि हि सत्याकारलोप उपान्त्यलोपश्च भवति । दरिद्रातेस्त्वामा भवितव्यम् । दरिद्रांचकृवान् । पूर्वेणैव सिद्ध नियमाथं वचनम् । एभ्य एव क्वसोरादिरिट् भवति नान्येभ्य इति ॥८२॥ - न्या० स०-घसेकस्वरा०-अरादेशे च सति-इटोनित्यत्वभावनार्थमित्थं प्रक्रिया दशिता न त्वेवं रूपसिद्धिविधीयते, यतोऽवर्णस्येत्यरं बाधित्वाऽल्पाश्रितत्वेन इवर्णादेरिति रत्वमेव ।,
इट् नित्य एवेतीति-द्वित्वमपि कृताऽकृतप्रसङ्गित्वेन नित्यं किं त्विट् परश्चेति तयोः स्पर्द्धः परत्वात्पूर्वमिडेव । ईयिवानिति-ऐत् इयाय अगात् वेयिवदिति साधुः ।
आरिवानिति-आर क्वसुः अनेनेट् , द्वित्वे 'ऋतोऽत्' ४-१-३८, 'अस्यादेशः' ४-१-६८ इत्यात्वम् । एकस्य स्थाने भवन् अल्पाश्रित इत्यवर्णस्येत्यरं बाधित्वा 'इवर्णादेः' १-२-२१ इति रत्वादेश एव । विहितविशेषणमिति-कुतो हेतोः घसग्रहणात्, अन्यथा विहितविशेषणत्वे एकस्वरत्वात् घस इट सिद्ध एव । दरिद्राञ्चक्लवानिति-'वत्तस्याम्' १-५-३४ इत्यव्ययत्वे 'अव्ययस्य' ३-२-७ इति सेलु पि 'तौ मुमः' १-३-१४ इत्यनुस्वारः सिद्धः, अन्यथा 'म्नाम्' १-३-३९ इत्यन्त्य एव स्यात् ।
नियमार्थमिति-विपरीतनियमस्तु न भवति घसादीनामनुस्वारेत्करणात् , तद्धि अनिडर्थं तच्च क्वसोरेवेत्यनेनैव नियमेन सिद्धम् ।
गम-हन-विद्ल विश-दृशो वा ॥ ४. ४. ८३॥
एभ्यः परस्य क्वसोरादिरिट वा भवति । गम्,-जग्मिवान् । जगन्वान् , हनजनिवान् , जघन्वान् , विद्ल -विविदिवान , विविद्वान् , विश्-विविशिवान् , विविश्वान, दृश्-दशिवान् , ददृश्वान् , लकारो लाभार्थस्य विदेग्रहणार्थः, तेन ज्ञानार्थस्य विविद्वानित्येव भवति । सत्ताविचारणार्थयोस्त्वात्मनेपदित्वात् क्वसुस्त्येिव ।।३।।
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१९८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-८४-८६
न्या० स०-गमहनविदल०-विदेग्रहणार्थ इति-अथ विद इत्युक्तेऽपि अदाद्यनदाद्योरिति न्यायात् लाभार्थस्यैव ग्रहणं भविष्यति सत्ताविचारार्थयोरनादित्वेऽप्यात्मनेपदित्वात् क्वसोरऽसंभवात् , नैवं,-निरनुबन्धपरिभाषया तौदादिकस्य ग्रहणाऽसंभवादुभे ह्येते वचने परस्परविरोधिनी नैवाऽत्र प्रवर्तते, तस्माद्येन प्रकारेण निविशङ्क लाभार्थस्य ग्रहणमुपपद्यते स प्रकारो वृत्तौ दर्शित इति । अथ विशिना तौदादिकेन साहचर्याल्लाभार्थस्यैव ग्रहणं भविष्यति किम्लकारकरणेन ? नैवं, यथा विशिना साहचर्य तथा हन्तिनापि साहचर्यशङ्का स्यात्ततश्चाऽदादेरेव ग्रहः स्यात् ।
सिचोऽजेः॥ ४. ४. ८४ ॥
अञ्जः परस्य सिच प्रादिरिड् भवति । प्राजीत , आजिष्टाम् , प्राजिषुः । सिच इति किम् ? अङ्क्ता, अजिता । औदित्त्वाद्विकल्पे प्राप्ते नित्यार्थ वचनम् ।।८४।।
धूगसुस्तोः परस्मै ॥ ४. ४. ८५ ॥
एभ्यः परस्य सिच आदिरिड् भवति । परस्मैपदे परत: । धग-अधावीत्, प्रधाविष्टाम् , अधाविषुः । सु इति सुमात्रस्य ग्रहणम् । असावीत्, प्रसाविष्टाम् , असाविषुः, स्तु-अस्तावीत , प्रस्ताविष्टाम् , अस्ताविषुः ।
परस्मा इति किम् ? अघोष्ट, अधविष्ट, असोष्ट, अस्तोष्ट, धूगो विकल्पे सुस्तुभ्यां च प्रतिषेधे प्राप्ते वचनम् ।।८।।
न्या० स०-धूगसुस्तो०-असोष्टेति-सुमात्रस्येत्युक्तेऽपि धूगृ इत्यस्यायं प्रयोगः, सुं प्रसवैश्वर्ययोरित्यस्य तु आत्मनेपदं न स्यात् कर्त्तरि, भावकर्मणोस्तु संभवेऽपि त्रिच् स्यात् ततश्चाऽसावि इति प्रयोगः स्यात् ।
यमिरमिनम्यातः सोऽन्तश्च ॥ ४. ४. ८६ ॥
यमिरमिनमिभ्य प्रादन्तेभ्यश्च धातुभ्यः परस्य परस्मैपदविषयस्य सिच आदिरिड भवति एषां च सोऽन्तो भवति । अयंसीत् , अयंसिष्टाम् , अयंसिषुः, व्यरंसीत् , व्यरंसिष्टाम् , व्यरंसिषुः, अनंसीत् , अनंसिष्टाम् । अनंसिषुः ।।
एभ्यो दिस्योः सिच इविधे वृद्धिप्रतिषेधः प्रयोजनम् । आदन्त,-अयासीत् , अयासिष्टाम् , अयासिषुः, अग्लासीत् , अग्लासिष्टाम् , अग्लासिषुः, अदरिद्रासीत् , प्रदरिद्रासिष्टाम् , अदरिद्रासिषुः, आलोपपक्षे,-अदरिद्रीत् , अदरिद्रिष्टाम् , अदरिद्रिषुः । परस्मा इत्येव ? आयंस्त, उपायंस्त, परंस्त, अनंस्तदण्डः स्वयमेव, अमास्त धान्यं चैत्रः।८६।
न्या० स०-यमिरमि०-सोन्तो भवतीति-अन्तग्रहात् 'षष्ठया अन्त्यस्य' ७-४-१०६ इति न प्रवर्तते । किञ्चान्तग्रहाभावेऽस्य प्रत्ययत्वं स्यात्ततोऽदरिद्रासीदित्यादौ 'स्ताद्यशितः' ४-४-३२ इत्यनेन सकारस्यादावषीट् स्यात् , दिस्योः परयोः सिचादाविविधानस्य किं फलमित्याह-वृद्धिप्रतिषेध इति-व्यञ्जनानामऽनिटि' ४-३-४५ इति प्राप्ताया इत्यर्थः ।
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पदा-४, सूत्र-८७-६१ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ १९९
आलोपपक्षे इति-दरिद्रोऽद्यतन्यां वा' ४-३-७६ इत्यनेनाऽद्यतनीविषयेऽपीत्यर्थः । ईशीडः सेध्वेस्वध्वमोः॥ ४. ४. ८७॥
आभ्यां परयोवर्तमानासेध्वयोः पञ्चमीस्वध्वमोश्चाविरिङ् भवति । ईश्,-ईशिषे, ईशिध्वे, ईशिष्व, ईशिध्वम् , ईड्-ईडिरे, ईडिध्वे, ईडिष्व, ईडिध्वम् । समुदायद्वयापेक्षं द्विवचनम् , तेन स्वसहचरितस्य ध्वमो ग्रहणात् ह्यस्तनीध्वमि न भवति । ईशीडो: ऐड्दवम् । परोक्षासेध्वयोरामा भाव्यमिति वर्तमानासेध्वयोग्रहणम् । वचनमेवो यथासंख्यनिवृत्त्यर्थः ।। ८७ ।।
न्या० स०-ईशीड:-ऐड्ढ्वमिति-ईशीडोस्तनीध्वमि 'यजसृज' २-१-८७ इति षत्वे तवर्गस्य' १-३-६० इति ढत्वे 'तृतोयस्तृतीय०' १-३-४६ इति षस्य डत्वे इति 'स्वरादेस्तासु' ४-४-३१ इति वृद्धिः ।
रुत्पञ्चकाच्छिदयः॥ ४. ४. ८८ ॥
रुदिस्वपि-अनिश्वसिजक्षिलक्षणानुत्पचकात्परस्य व्यञ्जनादेः शितोऽयकारादेरादिरिड् भवति । रोदिति, रुदितः, स्वपिति, स्वपितः, प्राणिति, प्राणितः, श्वसिति, स्वसितः, जक्षिति, जक्षितः । पञ्चकादिति किम् ? जागति । शिविति किम् ? स्वप्ता। व्यञ्जनादेरित्येष,-रुदन्ति । अयिति किम् ? रुचात् , स्वप्यात् ॥८॥
दिस्योरीट ॥ ४. ४. ८१ ॥
रुत्पश्चकात्परयोदिस्योः शितोरादिरीट् भवति । अरोदीत् , अरोदीः, अस्वपीत् , अस्वपीः, प्राणीत् , प्राणोः, अश्वसीत् , अश्वसीः, प्रजक्षीत् , अजक्षी: । दिस्योरिति किम् ? रोदिति । दिसाहचर्यात्सिा स्तन्या एव, तेन रोदिषि ॥९॥
अदश्वाट् ॥ ४. ४.१०॥
प्रत्ते रुत्पञ्चकाच्चपरयोदिस्योः शितोरादिरिट् भवति । आदत् , आदः, अरोवत् , अरोदः, अस्वपत् , अस्वपः, प्राणत् , प्राणः, अश्वसत् , अश्वसः, अजक्षत्, प्रजक्षः । दिस्योरित्येव ? अत्ति, अत्सि, रोदिति, रोविषि ।।१०।।
संपरेः कृगः स्सटू ॥ ४. ४.११ ॥
संपरिभ्यां परस्य कृग आदिः स्सट् भवति । संस्करोति कन्याम् , भूषयतीत्यर्थः। संस्कृतं वचनम् , संस्कारो वासना, तत्र नः संस्कृतं समुक्तिमित्यर्थः। परिष्करोति कन्याम् । परिष्कृतम् , परिष्कारः, तत्र न: परिष्कृतम् । भूषासमवाययोरेवेच्छन्त्येके, तन्मतेऽन्यत्र परिकृतम् । पूर्व धातुरुपसर्गेण संबध्यते पश्चात्सायनेनेति विर्वचनावडागमाच्च पूर्व स्सडेव भवति।
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२०० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-९२-६४
संचस्कार, परिचस्कार, समस्करोत्, पर्यस्करोत्, समस्कार्षीत् , पर्यस्कार्षीत् , समचिस्करत. पर्यचिस्करत, कथं संकृतिः, गर्गादिपाठात् । संकरः पा भविष्यति । संकार इत्यत्र किरतिरेव, बहुलाधिकारात घन । स्सडिति द्विसकारनिर्देशात् समचिस्करदित्यादौ षो न भवति । परिष्करोतीत्यादौ तु 'असोङसिवूस हस्सटाम्' (२-३४६ ) इत्यादिवचनाद्भवति, टकारः ‘स्सटि समः' (१-३-१२) इत्यत्र विशेषणार्थः ।।१।
न्या० स०-संपरेः कृणः-संस्करोतीति-कस्यादिरिति व्याख्यानादऽनुस्वारस्यापि व्यञ्जनत्वे 'धुटो धुटि' १-३-४८ इति प्रवर्त्तते इति न्यासः ।।
उपाभूषा-समवाय-प्रतियत्न-विकार-वाक्याच्यारे ।। ४. ४. १२ ॥
उपात्परस्य कृगो भूषादिष्वर्थेष्वादिः सट भवति, भूषालंकारः तत्र-कन्यामुपस्करोति भूषयति इत्यर्थः । समवायः समुदायः, तत्र न उपस्कृतं समुदितमित्यर्थः; पुनर्यत्नः प्रतियत्नः, सतोऽर्थस्य संबन्धाय वृद्धये तादवस्थ्याय वा समीहा प्रतियत्नः, एधोदकस्योपस्कुरुते । काण्डगुणस्योपस्कुरुते । तत्र प्रतियतत इत्यर्थः । प्रकृतेरन्यथाभावो विकारः,तत्र-उपस्कृतं भुङ्क्ते, उपस्कृतं गच्छति, विकृतमित्यर्थः । गम्यमानार्थस्य वाक्यैकदेशस्य स्वरूपेणोपादानं वाक्याध्याहारः, तत्र-उपस्कृतं जल्पति, उपस्कृतमधीते। सोपस्कराणि सूत्राणि सवाक्याध्याहाराणीत्यर्थः । एण्विति किम ? उपकरोति ।।१२।।
न्या० स०-उपाद्भूषा०- सतोऽर्थस्वेति-सतोऽसंबद्धस्य सबन्धाय लाभाय लब्धस्य वा वद्धये आधिक्याय वृद्धस्य वा तादवस्थ्याय सा पूर्वावस्थाऽस्य तदवस्थाऽस्य तदवस्थ वस्तु तस्य भावः । अपायपरिहारेणाऽभिमतावस्थासंरक्षणम् ।
उपस्कृतं भुङ्क्ते इति-संसत्कं धान्यं भुङक्ते इत्यर्थः । वाक्याध्याहार इति-गम्यमानार्थानि पदानि सुखार्थमुच्चार्यन्ते, यथा 'ज्ञः' ३-३-८२ इति सूत्रे कर्मण्यसति गम्यमानमपि स्वरूपेण उपादीयते, यथा वा 'किरो लवने' ४-४-६३ इति उपादिति स्वरूपेण गृह्यते ।
किरो लवने ॥ ४. ४. १३॥
उपात्परस्य किरतेः सडादिर्भवति लवने लवनविषयश्चेत्तदर्थो भवति । उपस्कोर्य मद्रका लुनन्ति, उपस्कारं मद्रका लुनन्ति--विक्षिप्य लुनन्तीत्यर्थः । 'उपात् किरो लवने' (५-४-७२) इति णम्।।
लवन इति किम् ? उपकिरति पुष्पम् ।। ६३ ॥
न्या स०-किरो लवने-किर इति इनिर्देश: क्रयादिकनिवृत्त्यर्थः, न तु इरादेशे सति कार्यार्थस्तेन वाक्येऽपि स्सट् भवति ।
प्रतेश्च वधे ॥ ४. ४.१४॥
प्रतेरूपाच्च परस्य किरतेर्वधे हिसायां विषयेऽभिधेये वा सडादिर्भवति । प्रतिस्कोणे ह ते वृषल भूयात् , उपस्कीणं ह ते वृषल भूयात्-हिंसानुबन्धी विक्षेपस्ते भूयात् इत्यर्थः ।
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पाद-४, सूत्र-९५-९८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[२०१
अभिधेये, उरोविदारं प्रतिचस्करे नखैः । हत इत्यर्थः। वध इति किम् ? प्रतिकोणं बीजं विक्षिप्तमित्यर्थः । ६४॥
अपाच्चतुष्पात्पक्षिशुनि हृष्टान्नाश्रयार्थे । ४. ४. १५ ॥
अपात्परस्य किरतेश्चतुष्पदि पक्षिणि शुनि च कर्तरि यथासंख्यं हृष्टेऽन्नाथिनि प्राश्रयाथिनि सति सडाविर्भवति । अपस्किरते वृषभो हृष्टः-हर्षाद्विलिख्य तटं विक्षिपतीत्यर्थः, अपस्किरते कुक्कुटो भक्ष्यार्थी-विलिल्यावस्कर विक्षिपत्तीत्यर्थः, अपस्किरते श्वाथ. यार्थी-विलिख्य भस्म विक्षिपतीत्यर्थः ।
अपादिति किम् ? विकिरति वृषमो हृष्टः । एबिति किम् ? अपकिरति वालो धूलि हृष्टः । हृष्टादिष्विति किम् ? अपकिरति हस्ती रजश्चापलेन ॥६॥
न्या० स०-अपाच्च०-हृष्ट इति-'हृषच तुष्टौ' हर्षणं क्तिः हृष्टिरस्यास्ति अभ्रादित्वादः, क्तान्तात्तु इट् स्यात्, हर्षिमप्यूदितं मन्यते नन्दी हपूरित्यपि तुष्ट्यर्थो वाऽनेकार्थ
स्वात् ।
वौ विकिरो वा ॥ ४. ४.१६ ॥
वो पक्षिण्यभिधेये विष्किर इति वा स्सट् निपात्यते । विकिरतीति विकिरः पक्षिविशेषः, विकिरोऽपि स एव । अन्ये तु पक्षिणोऽन्यत्र विकिरशम्दस्यापि प्रयोगो नास्तीत्याहुः ॥६६॥
प्रात्तुम्पतेर्गवि ॥ ४. ४. १७॥
प्रात्परस्य तुम्प इत्येतस्य धातोर्गवि कर्तरि स्सडाविर्भवति । प्रस्तुम्पति गौः, प्रस्तुम्पति वत्सो मातरम्, प्रस्तुम्पको वत्सः । गचीति किम् ? प्रतुम्पति बनस्पतिः । अन्ये तु प्रात्परस्य तुम्पतिशम्बस्य गधि अमिषेये सडाविर्भवति । प्रस्तुम्पतिगौः, अम्पतिरन्यः । तुम्पतिधातोस्तु सट् न भवतीति मन्यन्ते । एकेतु प्रात्तुम्पतेः कपोल्यारम्भन्ते । कपि हिसायो कच्पर्याये वा कपि समासान्त इति च व्याचक्षते, प्रस्तुम्पति वत्सो, मातरम् हिनस्तीत्यर्थ । प्रगतस्तुम्पोऽस्मात्प्रस्तुम्पको देशः ।।७।।
न्या० स०-प्रात्तुम्पते०-प्रस्तुम्पति वत्स इति,-वत्सोऽपि गौरेव विशेषस्य सामान्यात्मकत्वात् । तुम्पतिशम्बस्येति-तुम्पतेस्तिवन्तस्यैवाऽनुकरणं मन्यते इत्यर्थः । 'इकिश्तिव' ५-३-१३८ इति तिव्प्रत्ययान्तं वा, ततः प्रकृष्टा स्तुम्पतिहिंसा यस्याऽसौ प्रस्तुम्पतिगौः।
कपोत्यारम्भन्ते इति-कपेः सौत्रात् कम्पेर्वा कम्पनं 'क्रुत्सम्पद' ५-३-११४ इति क्विप् । 'लङ्गिकम्प्योः ' ४.२-४७ इति न लुक् ।
उदितः स्वरान्नोन्तः ॥ ४. ४. १८ ॥
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२०२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद- ४, सूत्र - ९९ - १०२
उदितो धातोः स्वरात्परो नोऽन्तोऽवयवो भवति । नन्दति, निन्दति, नन्दितः, निन्दितः कुण्डिता, हुण्डिता । अयं चोपदेशावस्थायामेव भवत्यनैमित्तिकत्वात् तेन कुण्डा हुण्डेत्यादौ 'क्तेटो गुरोर्व्यञ्जनात् ' ( ५-३ - १०६) इत्यप्रत्ययः सिद्धो भवति ॥ ६८ ॥
मुचादि - तृफ-टफ - गुफ-शुभोम्भः शे ॥ ४. ४. ११ ॥
एषां स्वरानोऽन्तो भवति शे परे । मुञ्चति, मुञ्चते, सिञ्चति, सिञ्चते, बिन्दति, विन्दते, लुम्पति लुम्पते, लिम्पति लिम्पते, कृन्तति, विन्दति, पिशति, तृफ- तृम्फति, हफम्फति, गुफ-गुम्फति, शुभ-शुम्भति, उभ्- उम्भति ।
तृफादयः सनकारा अनकाराश्च तुदादिषु पठ्यन्ते, तत्र तृम्फादीनां शे नस्य लुक् इति तृफादीनां नविधानम् । विधानसामर्थ्यात्त्वस्य लोपो न भवतीति तृफति तृम्फतीत्यादि द्वैरूप्यं सिद्धम् । एषामिति किम् ? तुदति । श इति किम् ? मोक्ता, मोक्तुम् । मुचलती, षिचींत्, विलृती, लुप्ती, लिपींत्, कृतैत्, खिदंत्, पिशत्, वृत् इति मुचादिः ॥ ६६ ॥
जभः स्वरे ॥ ४. ४. १०० ॥
जम्भतेः स्वरादौ प्रत्यये परे नोऽन्तो भवति । जम्भयति, जम्भकः, साधुजम्भी, जम्भंजम्भम्, जम्भो वर्तते । स्वर इति किम् ? जभ्यम्, जंजब्धि ॥१००॥
न्या० स०-जभः स्वरे - जम्भयतीति यभंजभ मैथुने जभुङ जभैङ, जृभुङ गात्रविनामे, जम्भन्तं जम्भमानं वा प्रयुङ्क्ते णिग् । जंजब्धीति - ईति जंजभीति न तु नागमः, * आगमशासनमनित्यम् इति न्यायात् ।
र इटि तु परोक्षायामेव ॥ ४. ४. १०१ ॥
रध्यतेः स्वरात्परः स्वरादौ प्रत्यये परेऽन्तो नो भवति इटि तु इडादौ तु प्रत्यये पक्षायामेव । रन्धयति, रन्धकः, साघुरन्धी । रन्धरन्धम् । रन्धो वर्तते । इटि तु परोक्षायाम् । ररन्धिव, ररन्धिम, रेधिवान् । अत्र नस्य लुक् ।
परोक्षायामेवेति किम् ? रक्षिता, रधिष्यति । एवकारो विपरीत नियमनिरासार्थः, नेह नियमो न भवति । ररन्ध । ररन्धतुः । ररन्धुः । स्वर इत्येव । रद्वा ॥ १०१ ॥
न्या० स०- रध इटि तु० - विपरीत नियमनिरासार्थ इति नियमस्तु पूर्वसूत्रात्स्वराधिकारे यदत्र इट्ग्रहणं करोति तस्मादेव सिद्ध इति ।
रभोsपरोक्षाशवि ॥ ४. ४. १०२ ॥
रभतेः स्वरात्परः परोक्षाशव्वजते स्वरादौ प्रत्यये परे नोऽन्तो भवति । आरम्भयति, प्रारम्भकः, साध्वारम्भी, प्रारम्भमारम्भम्, आरम्भो वर्तते । अपरोक्षाशवीति किम् ? आरेमे, आरभते । स्वर इत्येव, आरब्धा ।। १०२ ।।
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पाद-४, सूत्र-१०३-१०८ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[ २०३
लभः ॥ ४. ४. १०३ ।।
लभतेः स्वरात्परः परोक्षाशश्वजिते स्वरादौ प्रत्यये परे नोऽन्तो भवति । लम्भयति, लम्भकः, साधुलम्भी। अपरोक्षाशवीत्येव,-लेभे, लभते । लभेः परस्मैपदस्याप्यभिपानात् लभन्ती स्त्रीति केचित् । स्वर इत्येव,-लब्धा । योगविभाग उत्तरार्थः ॥१०३।।
आङो यि ॥ ४. ४. १०४ ॥
आङः परस्य लमतेः स्वरात्परो यि यकारादौ प्रत्यये नोऽन्तो भवति । आलम्भ्या गौः, आलम्भ्या बडवा । प्राङ इति किम् ? लभ्यः। योति किम् ? प्रालब्धा ॥१०॥
उपात्स्तुतौ ॥ ४. ४. १०५॥
उपात्परस्य लभतेः स्वरात्परो यकारादौ प्रत्यये परे स्तुती प्रशंसायां गम्यमानायां नोऽन्तो भवति । उपलम्भ्या विद्या भवता, उपलम्भ्यं शीलम् । स्तुताविति किम् ? उपलम्या वार्ता, उपलभ्यमस्मादृषलाव किश्चित् ।।१०।।
त्रिख्णमोर्वा ॥ ४. ४. १०६॥
जौ रूपमि च प्रत्यये परे लभते स्वरात्परो नोऽन्तो का भवति । प्रमाभि, मलम्भि, लाभलामम् , लम्भंलम्भम् ।।१०६॥ ....
उपसर्गात् खल्घञोश्च ॥ ४. ४. १०७ ॥
उपसर्गात्परस्य लभेः स्वरात्परः खलघमोजिष्णमोश्च परयो!ऽन्तो भवति । खल ईषत्प्रलम्भम् , ईषदुपलम्भम् , दुष्प्रलम्भम् , सुप्रलम्भम् । घम,-प्रलम्भः, उपलम्भः, विलम्भः । जि-प्रालम्भि-रणम्-प्रलम्भंप्रलम्भम् । उपलगदिति किम् ? ईपल्लभ:-लामो वर्तते । जिल्णमोनित्यार्थमुपसर्गादेव खल्घमोरिति नियमार्थ वचनम् ।।१०७।।
न्या० स०-उपसर्गात् खल्०-उपसर्गनियमस्तु न भवति । 'शाप् उपलम्भने ३-३-३५ इति ज्ञापनात् ।
सुदुभ्यः ॥ ४. ४. १०८ ॥ ___ सुदुइत्येताभ्यां व्यस्ताभ्यां समस्ताभ्यां चोपसर्गात्पराभ्यां परस्य लभतेः स्वरात्परः खल्घनोः परयोर्नोऽन्तो भवति । खल-अतिसुलम्भम्, अतिदुर्लम्भम्, घन-अतिसुलम्मः, अतिसुदुर्लम्मः । उपसर्गावित्येव,-सुलभम्, दुर्लभम् सुदुर्मभान, सुलामः, दुभिः सुदुर्लाभः । अतिसुलभमतिदुर्लभमित्यते: पूनातिकमयोरनुपसर्गस्वाद, उपसदिय सुदुर्ग इति नियमाचं वचनम् , बहुवचनं व्यस्तसपस्तपरिग्रहार्यम् दुस्संग्रहावं च ।।१०८।
न्या० स०-सुदुर्म्यः-समस्ताभ्यां चेति-अत्र समस्तग्रहणेन विपर्यस्तावपि गृह्येते, यतः सामस्त्यं हि द्वयोरपि एकस्मिन् प्रयोगे योजनं तच्च क्रमव्युत्क्रमाभ्यां भवति, तेन
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२०४]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद-४, सूत्र-१-०९-१११
दुःसुलाभ इति व्यावृत्त्युदाहरणमुपपन्नम्, यत्र तु साक्षात् विपर्यस्त ग्रहस्तत्र सुखार्थं गोबलीवईन्यायवत् ।
__ अतिसुदुर्लम्भ इति-अतिशयेन सुष्ठु दु.खेन लभ्यते, दु खस्यातिशयाऽतिशयः । नियमार्थमिति-पूर्वेणैव सिद्धेऽस्यारम्भादित्यर्थः, विपरीतनियमस्तु न, 'शप उपलम्भने' ३-३-३५ इत्यस्यैव ज्ञापकत्वात् ।
नशो धुटि ॥ ४. ४. १०१ ॥
नश्यतेः स्वरात्परो घुडादौ प्रत्यये परे नोऽन्तो भवति । नंष्टा, नंष्टुम्, नक्ष्यति, निनक्षति । धुटीति किम् ? नश्यति, नशिता ।। १०९।।
मस्जेः सः॥४.४.११०॥
मस्जतेः स्वरात्परस्य सकारस्य स्थाने धुडादौ प्रत्यये नोऽन्तो भवति । मङ्क्ता, ममतुम्, मक्ष्यति, मिमक्षति, ममङ्मय, समाक्षीद । आदेशकरणं नलोपार्थम् । मग्नः, मग्नवान् , मक्त्वा, तसि-मामक्तः । धुटोति किम् ? मज्जनम् ॥११०॥ .
न्या० स०-मस्जेः सः-न लोपार्थमिति न वाच्यं मङक्ता इत्यादिषु स्वरात् परे विधीयमाने नागमे संयोगमध्यस्थत्वात् सकारस्य लोपों न प्राप्तः, यतोऽत्रको न्ससंयोगोऽपरपथ स्ज ततश्च द्वितीयसंयोगादी सस्य सुकमग्न इत्यादौ तु सलुकि कृते 'नो व्यञ्जनस्य' ४-२-४५ इति उपान्त्यलोपे कर्तव्ये सलु असन् भवति इति नलोपार्थमादेशकरणमऽभाणि । पाणिनौ तु सात्परो नो विहितः संयोगश्च त्रयाणामपीष्ट इति संयोगादौ सुलुक , यद्येवं मक्तेत्यादौ संयोगद्वयविवक्षा एवं तहि इन्द्रिद्रीयिषतीत्यत्र दस्य द्वित्वं न प्राप्नोति, तत्रापि संयोगद्वयविवक्षायां दस्यादित्वात् । न,-'न बदनम्' ४-१-५ इत्य त्रावधारणत्वात् एवं व्याख्या कार्या, आदिरेव बदनं न द्विरुच्चते, अत्र तु नकारापेक्षया दकारोऽन्तेऽपि, यद्वा द्वितीयस्याऽवयवस्य संयोगपूर्वावयवानन्तरस्य ग्रहणात् । .....असृजिशोऽकिति ॥ ४. ४. १११ ॥
सजिशोः स्वरात्परो धुडादौ प्रत्यये प्रकारोऽन्तो भवति 'अकिति किति तु न भवति । स्रष्टा, स्रष्टुम् , स्रष्टव्यम् , अस्त्राक्षीत् । परत्वावकारागमे सति वृद्धिः । स्रक्ष्यति, व्रष्टा, द्रष्टुम्, द्रष्टव्यम्, अद्राक्षीद, द्रक्ष्यति, सरिस्रष्टि सरिस्रष्टः, दरिद्रष्टि, दरिद्रष्टः । डित्यपि नेच्छन्त्येके।
धुटीत्येव,-सर्जनम्, दर्शनम् । अकितीति किम् ? सृष्टः, दृष्टः, सिसृक्षति, दिक्षते । प्रसज्याश्रयणात्प्रतिषेधे धुटीति नाश्रीयते, तेन सिज्लुचो धुडादित्वं प्रति वर्णाश्रयत्वेन स्थानिवद्भावाभावेऽपि कित्त्वं प्रति स्थानिवद्भावात. शिवायः प्रतिषेधो भवति । प्रसृष्ट, असृष्ठाः, समदृष्ट, समदृष्ठाः। धातोः स्वरूपग्रहणे लत्प्रत्यये विज्ञानात् चेह न भवति । रज्जुसड्भ्याम्, देवदृग्भ्याम् ॥१११॥
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पाद-४, सूत्र-११२-११६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[२०५
न्या. स०-अः सृजिल-प्रसज्याश्रयणादिति-प्रसज्येति क्त्वान्तं ततः प्रसज्यप्रतिषेधः, तहि प्रसज्यः कथम् ? सत्यं,- ते लुग वा' ३-२-१०८ इति लोपेऽव्ययसंबन्धित्वाभावात् सेर्लोपाभावे भविष्यति ।
धुटीति नाश्रीयते इति-अयमर्थः अकिति धुडादौ प्रत्यये भवतीति नाश्रीयते इति । तत्प्रत्ययेति-तस्माद् धातोधु डादौ प्रत्यये कार्यविज्ञानं, अत्र तु रज्जुसृडिति नाम्नः।
स्पृशादिसपो वा ॥ ४. ४. ११२ ॥ . ।
स्पृशमशकृपतृपहपां सृपश्च स्वरात्परो धुडादौ प्रत्यये परेऽकारोऽन्तो वा भवति अकिति । स्प्रष्टा, स्पा, स्प्रष्टुम्, स्पष्टुम् , स्प्रष्टव्यम्, स्पष्टव्यम्, अस्माक्षीत, अस्पाीत, स्प्रक्ष्यति, स्पर्ध्यति. एवं स्रष्टा, मी, कष्टा, कर्टा, त्रप्ता, तप्र्ता, द्रप्ता, दर्ता, सप्ता, सप्र्ता । धुटीत्येव ? स्पर्शनम्, मर्शनम् । अकितीत्येव ? स्पृष्टः, पिस्पृक्षति ।। ११२॥
ह्रस्वस्य तः पित्कृति ॥ ४. ४. ११३॥
धुटीति निवसमसंभवाव कितीति च 'सोस्तो इनिपि' इति सूत्राकरणाव । ह्रस्वान्तस्य धातोः पिति कृत्प्रत्यये परे तोऽन्तो भवति । जगद, अग्निचित, सोमसुव, पुण्यात आगत्य, विजित्य, प्रस्तुत्य, प्रहृत्य । ह्रस्वस्येति किम् ? प्रामसी मालूय ।
पिदिति किम् ? चितम्, स्तुतम् । कृतीति किम् ? अजुहवः। प्रामणि कुलं पुत्रह कुलमित्यत्र तु 'असिखं बहिरङ्गमन्तरङ्ग' इति न भवति । सुशूः उपशूयेत्यत्रान्तरङ्गस्वादिशेषविहितत्वाच्चं म्वृदीर्घत्वं च भवति ।।११३॥
न्या. स०-हस्वस्यतः सोस्तो इवनिपीति-हस्वान्तादऽस्मादेव सुयजोवनिविति अकित्कृत्संभव इत्यर्थः, यद्वा क्विपः पित्त्वविधानात् , नैयासिकाः कितां कृतां पित्त्वविधानमित्युत्तरं प्राहुः, यदि हि कितीति संबध्येत तदा पित्करणं निरर्थकं स्यादिति ।
___- जगदिति-दिद्युत्' ५-२-८३ इति क्रियाशब्दोऽत्र संज्ञाशब्दस्तु 'गमेडिवे वा' ८८५ (उणादि) इति साधुः । प्रसिद्ध बहिरङ्गमिति-एकत्र क्लीबे ह्रस्वोऽन्यत्र न लोपः ।
अतो, म आने ॥ ४, ४.११४ ॥
धातोविहिते आने प्रत्यये परेऽकारस्य मोऽन्तो भवति । पचमानः, पवमानः, कवचमुखहमानः, करिष्यमाणः, विद्यमानः । अत इति किम् ? शयानः, भुजानः । मान इति किम् ? पचन् । पुर्वान्तकरणं 'मव्यस्याः ' (४-२-११३) इत्याकारनिवृत्त्यर्थम् ।। ११४।।
आसीनः॥४. ४. ११५ ॥ .
आस्तेः परस्यानस्यादेरीकारो निपात्यते । आसीनः, उदासीनः, उपासीनः, अध्यासीनः ॥११५॥
ऋतां विडतीर ।। ४. ४. ११६॥
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२०६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंकलिते [पाद-४, सूत्र-११७-१२०
ऋकारान्तस्य धातोः किति छिति च प्रत्यये परे निर्देशात् ऋकारस्यैव स्थाने इरित्ययमादेशो भवति । तीर्णम्, दोर्णम्, आस्तीर्णम्, विशीर्णम , किति -किरति, गिरति । बहुवचनं लाक्षणिकस्यापि परिग्रहार्थम् । चिकीर्षति, जिहीर्षति । विडतीति किम् ? तरति ।।११६॥
न्या० स०-ऋतां विङतीर्-ऋकारस्यैवेति- न त्वनेकवर्णः सर्वस्येति ।
ओष्ठयादुर् ॥ ४. ४. ११७ ॥
धातोरोष्ठयावर्णात्परस्य ऋकारस्य विडति प्रत्यये परे उरादेशो भवति, इरोऽ. पवादः । पूर्तः, पूः, पुरौं, पुरः, पोपूर्यते, पोपुरति, वुवर्षति, बुमूर्षति, मुमूर्षति । दन्त्योष्ठयोऽप्योष्ठयः, तेन ववर्षते प्राववर्षति । ओष्ठयादिति किम् ? तीर्णम् । धातोरिति विशेषणादिह न भवति । समीर्णम्, विडतीत्येव ? निपरणम्, निपारकः, प्रावरणम्, प्रावारकः । केचित्तु उपान्त्यस्यापि ऋत उरमिच्छन्ति । पृणमणोर्यङ्लुप तस् अहन्पञ्चम'(४-१-१०७) इत्यादिना दीर्घत्वम् । परिपूर्णः, मरिमूर्णः । भविशेषनिर्देशात्तदपि संगृहीतम् ।।११७।।
- न्या० स०-मोष्ठ्यादुर्-केचित्तूपान्त्येति-ऋकारावय वयोगाद् धातुरपि ऋकारः, 'विशेषणमन्तः' ७-४-११३ इति न्यायात् ऋकारान्तत्वं सामान्याधिकरण्ये च षष्ठी स्वमते, तन्मते तु धातोः संबन्धित ऋकारस्य उर् ततो व्यधिकरणे षष्ठीत्युपान्त्यं च सिद्धम् ।
इसासः शासोऽव्यञ्जने ।। ४. ४. ११८ ।।
शास्तेरवयवस्यासः स्थानेऽङि व्यञ्जमादौ च विडति प्रत्यये परे इसित्ययमादेशो भवति । अडि,-अशिषत, अन्वशिषत, विङति व्यञ्जने-शिष्टः, शिष्टवान्, अनुशिष्टः, शिष्टवा, अनुशिष्य, शिष्यः, शिष्यते, शेशिष्यते, शिष्टः, शिष्ठः, शिष्यः, शिष्मः शासः शिसित्यकृत्वा पास इस्विधानं यङ्लुपि शाशिष्ट इत्यादिप्रयोगार्थम्, अन्यथा शिष्ट इत्यादि स्यात् । अयञ्जन इति किम् ? शशासतुः, शशासुः, शासति । विडतीत्येव ? शास्ता, शास्त्रम, शास्ति ॥ ११८॥
न्या० स०-इसासः-शिष्ट इत्यादीति-यङ लुबन्तस्यापि इसादेशः स्यादित्यर्थः ।
को ॥ ४. ४. १११ ॥ शासोऽवयवस्यासः स्थाने क्वाविसादेशो भवति । आर्यशीः, मित्रशीः ।।११।।
न्या० स०-क्यौ-पूर्वेणैव सिद्धे क्वाविति पृथक्करणं क्वौ व्यञ्जनकार्याऽनित्यत्वज्ञापनार्थ, तेनाऽव्ययिति सिद्धं, न च वाच्यं णिलुक: स्थानित्वं 'न सधि' १-३-५२ इत्यस्य अवस्थानात् ।
आङः॥४. ४. १२०।। प्राङः परस्य शासोऽवयवस्यासः स्थाने क्वावेवेसादेशो भवति । आशीः, आशिषौ,
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पाद-४, सूत्र-१२१-१२२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने चतुर्थोऽध्यायः
[२०७
माशिषः, पूर्वेण सिद्ध नियमार्थो योगः । तेनेह न भवति-आयुराशास्ते, आशास्वहे । प्राशास्महे ।।१२०॥
न्या० स०-प्राङ:-क्वावेवेति-आङ एव क्वाविति प्रत्ययनियमस्तु न, पूर्वेणैकयोगाऽकरणात् , क्वौ व्यञ्जनकार्यमनित्यं च, तेन गिरौ गिर इत्यत्र व्यञ्जनाश्रितं न दीर्घत्वं राजनतीत्यादौ न लोपाभावश्च सिद्धः ।
योः प्वव्यञ्जने लुकू ।। ४. ४. १२१ ॥
पौ यकाररहितव्यञ्जनादौ च प्रत्यये यकास्वकारयोर्तुग भवति । पुग्रहणमप्रत्ययार्थम् । पौ-क्नोपयति, मापयति, अव्यञ्जने-बनतम्, मातम्, ऊतम्, देदिवः शेश्रिवः, अजेजीव, दिदिवान्, दिदिवासी, दिदिवासः, कण्डमिच्छतीति कण्डयते: क्विप् । कण्डूः । कण्डुवौ । कण्डुवः, लोलः, बोभूः । लन्युः, पून्वः, विचि तेवृदेवृडोः सुतेः, सुदेः।
· कथं वृक्षवयतीति वृक्ष , गिलुकः स्थानिवत्वात् भविष्यति । यवर्जनं किम् ? क्नय्यते, सेव्यते। व्यञ्जन इति किम् ? पयिता, देविता। प्रत्ययाप्रत्यययोः प्रत्ययस्यैव ग्रहणात् धात्ववयवे न भवति, व्रश्नकः ।।१२१॥
कतः कीर्तिः॥४. ४. १२२ ॥
कृतण् इत्येतस्य को इत्ययमादेशो भवति । कीर्तयति, कीर्तयतः, कीर्तयन्ति, कोत्तिः। कृत ऋदुपदेशोऽचीकृतदित्यत्र ऋकारश्रवणार्थः । इकारान्तनिर्देशो मङ्गलार्थः ॥१२२॥ ___. इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशम्बानुशासमवृत्ती चतुर्थः पादः ॥४।। इति चतुर्थोध्यायः ।
दुर्योधनोर्वीपतिजैत्रबाहु,-गृहीतचेदीशकरोऽवतीर्णः ।
अनुग्रहीतुं पुनरिन्दुवंशं श्रीभीमदेवः किल भीम एव ॥
न्या० स०-कृतः कोत्तिः ऋदुपदेश. इति-अयमर्थः धातुपाठे कीर्तणिति पठ्यतां किमननेत्याह-ऋकार श्रवणार्थ इति-यतः 'ऋवर्णस्य' ४-२-३७ इत्यत्र वर्णग्रहणसाम
र्थ्यात् कीादेशो बाध्यते । ननु कृतणित्यत्र ऋकारमपनीय ऋकार इति क्रियताम् , एवं च ऋवर्णस्येत्यत्रापि वर्णग्रहणं न कार्य भवेत् ? सत्यं, कृत इति निर्देशे कृते तु कृतत् वा गृह्यते इति संदेहः स्यात् ।
इत्याचार्य० चतुर्थोऽध्यायः । गृहीतचेदीशकर-इति पाण्डवभीमपक्षे चेदीशो दुःशासनस्तद्धस्तो हि भीमेन कृत्तः, द्वितीयपक्षे तु चेदीशो डाहालीयः कर्णः स गृहीतकरो गृहीतराजदेयभागः, तस्माद्धि मालवेशे सुवर्णमंडविकां भीमदेव आनिनाय ।
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। अथ पञ्चमोऽध्यायः प्रथमपादः । आ तुमोऽत्यादिः कृत् ।। ५. १. १ ॥
धातीविधीयमानस्त्यादिवजितो वक्ष्यमाणः प्रत्ययस्तुममभिव्याप्य कृत्संज्ञो भवति । घनघात्यः, उदकेविशीर्णम्, गोधायो जति । प्रत्याविरिति किम् ? प्रणिस्ते । कृत्प्रदेशाः"तिक-कृतौ नाम्नि" (५-१-७१) इत्येवमादयः॥१॥
न्या० स०-अहं आ सुमोऽत्यादिः कृव-घनघात्य इति-अत्र कृत्संज्ञायां 'कारक कृता' ३-१-६८ इति समासः । उपकेविशीर्णमिति-अत्र 'क्तेन' ३-१-६२ इति समासः, 'तत्पुरुषे कृति' ३-२-२० इत्यलुप् । गोदाय इत्यत्र तु 'ङस्युक्तं कृता' ३-१-४६ इति सः ।
बहुलम् ।। ५. १. २॥
अधिकारोऽयम् । कृत्प्रत्ययो यथा मिक्षिष्टादर्थावरम्यत्रापि बहलं भवति । पादाभ्यां ह्रियते-पावहारकः, गले चोप्यत इति-गलेचोपकः, मुह्यत्यनेनाऽऽत्मेति-मोहनीयं कर्म, स्नाति तेनेति-स्नानीयं चूर्णम्, एवंयानीयोऽश्वः । दीयते तस्मै इति-दानीयोऽतिथि:, संप्रमीयतेऽस्मा इति-संप्रदानम् , एवं-स्पृहणीया विभूतिः । समावर्तते तस्मादिति-समावर्तनीयो गुरुः, एक्सुद्धजनीयः खलः । तिष्ठन्त्यस्मिन्निति-स्थानीयं मगरम्, एवं-शयनीयः पल्याङ्कः॥२॥
न्या० स०-बहुलम्-अर्थादेरिति-आदिपदादुपपदधातू गृह्यते । स्पृहणीया विभूतिरिति-स्पृह्यतेऽस्यै स्पृहणीया विभूति: कर्मतापन्ना स्पृह्यत इत्यर्थः, व्याप्यस्य 'स्पृहेाप्य' २-२-२६ इति वा संप्रदान संज्ञा।
कर्तरि ।। ५. १.३॥ कृत्प्रत्ययोऽर्थविशेषनिर्देशमन्तरेण कर्तरि भवति । कारकः, कर्ता, पचः, नन्दनः।३। व्याप्ये पुर-केलिम-कृष्णच्यम् ॥ ५. १.४॥
'घर केलिम' इत्येतौ प्रत्ययौ कृष्टपच्यशब्दश्च व्याप्ये कर्तरि भवतीति वेदितव्यम् । घरो वक्ष्यते । केलिमोऽत एव वचनाद ज्ञायते, कृष्टपच्ये यश्च । भज्यते स्वयमेव--भङगुरं काठम, एवं-भिदुरः कुशूलः, छिदुरा रज्जुः। भास-मिदि-विदा कर्तयंव धुरः कर्मकर्तुरसंभवात, भासते इत्येवंशीलो-भासुरः, एवंमेदुरः, विदुरः । केचिच्छिदि-भिवोरपि कसरि घरमिच्छन्ति-"दोषान्धकारभिदुरो" दृप्तारितक्षश्छिदुरः इति । पच्यन्ते स्वमेव-पवेलिमा माषा:, एवं-भिदेलिमास्तण्डुलाः । कृष्टे पच्यन्ते स्वयमेव-कृष्टपच्याः शालयः ॥४॥
न्या० स०-व्याप्ये घुर०-केलिमोऽत एव वचनादिति-'विहाविसापचिभिद्यादेः केलिमः' ३५४ (उणादि) इति औणादिको नियतधातुविषयोऽयं तु सर्वविषय इत्याह ।
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पाद-१, सूत्र ५-६ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२०९
संगतेऽजर्यम् ॥ ५. १.५॥
संगमनं संगतम्, तस्मिन् कर्तर्यभिधेये नज्पूर्वाज्जीर्यतेर्यप्रत्ययो निपात्यते । न जीर्यतीति-अजर्यमार्यसंगतम्, “मगरजयं जरसोपदिष्टम्" ( रघु० स० १८, श्लो०-७)। सामान्यविशेषभावेन चोभयोरपि प्रयोगो भवति-"तेन संगतमार्येण रामाजयं कुरु द्रुतम्" "प्रजर्य संगतं नोऽस्तु" । संगत इति किम् ? अजरः पटः, अजरिता कम्बलः । कर्तरीत्येवअजायं संगतेन ॥५॥
न्या० स०-संगतेऽज०-क्रयादिकस्य जशो निपातनं न दृष्टमित्याह जीर्यतीति । रुच्या-व्यथ्य-वारतव्यम् ॥ ५.१.६ ॥
एते कर्तरि निपात्यन्ते । रोचते पूर्वात् व्यथतेन क्यप् प्रत्ययो, वसलेस्तु तव्यण निपात्यते । रोचते इति-रुच्यो मोदको मैत्राय । न व्यथते इत्यव्यथ्यो मुनिः । वसतीतिवास्तव्यः ॥६॥
भव्य-गेय-जन्य-रम्या-ऽऽपात्या-ऽऽप्लाव्यं नवा ॥ ५. १.७ ॥
एते कर्तरि वा निपात्यन्ते । भावकर्मणोः प्राप्तयोः पक्षे कर्तरि विधानार्थमिदम् । • भूगायति रमयतिम्यो यो यः प्रत्ययो यश्च जनेराङपूर्वाभ्यां च पति-प्लुभ्यां ध्यण स कर्तरि वा निपात्यते । भवत्यसाविति-भव्यः, पक्षे-भव्यममेन । गायतीति-गेयो माणवक: साम्राम, गेयानि मारणवकेन सामानि । जायतेऽसाविति-जन्यः, जन्यमनेन । रमयत्यसौ-रम्यः, रम्यते-रम्यः । आपतत्यसौ-पापात्यः, प्रापात्यमनेन । आप्लवतेऽसौ-आप्लाव्यः, प्राप्लाज्यमनेन ॥७॥
प्रवचनीयादयः॥ ५. १.८॥
प्रवचनीयादयः कर्तर्यनीयप्रत्ययान्ता वा निपात्यन्ते । प्रचक्ति प्रल ते वा-प्रवचनीयो गुरुः शासनस्य, प्रवचनीयं गुरुणा शासनम् । उपतिष्ठत इति - उपस्थानीयः शिष्यो गुरोः, उपस्थानीयः, शिष्येण गुरुः । एवं-रमयतीति-स्मणीयो देशः । मवयीतीति-मदनीया योषित् । दोपयतीति-दीपनीयं चूर्णम् । मोहयतीति-मोहनीयं कर्म । ज्ञानमावृणोतीतिज्ञानावरणीयम् । एवं दर्शनावरणीयम् ॥८॥
श्लिष-शी-स्था.ऽऽस-वस-जन-रह-ज-भजेः क्तः॥ ५. १.१॥
एभ्यः क्तप्रत्ययो यो विहितः स कर्तरि वा भवति । श्लिष्-आश्लिष्टः कान्तां कामुकः, आश्लिष्टा कान्ता कामुकेन, प्राश्लिष्टं कामुकेन । शोअतिशयितो गुरु शिष्यः, अतिशयितो गुरुः शिष्येण, मतिशयितं शिष्येण । स्था-उपस्थितो गुरु शिष्यः, उपस्थितो गुरुः शिष्येण, उपस्थितं शिष्येण । आस-उपासितो गुरु शिष्यः, उपासितो गुरुः शिष्येण, उपासितं शिष्येण । वस्-अनूषितो गुरु भवान् , अनूषितो गुरुभवता, अनूषितं भवता।
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२१० ]
बृहद्वृत्ति - लघुन्याससंवलिते
[ पाद- १, सूत्र - १०-११
जन् श्रनुजातो माणवको मानविकाम्, अनुजाता माणविका माणवकेन, अनुजातं माणवकेन; विजाता वत्सं गौः, विजातो वत्सो गवा, विजातं गवा । रुह - आरूढो वृक्षं भवान्, श्रारूढो वृक्षो भवता, आरूढं भवता । जू-अनुजीर्णो वृषलीं चैत्रः, अनुप्राप्य जीर्ण इत्यर्थः, अनुजीर्णा वृषली चैत्रेण, अनुजीर्ण चंत्रेण । भज् विभक्ता भ्रातरो रिक्थम्, विभक्तं भी रिक्थम् विभवतं भ्रातृभिः ।
1
कर्मका अपि हि धावत उपसर्गसम्बन्धात् सकर्मका भवन्तीति शीङादिग्रहणम्, अन्यथाऽकर्मकत्वादुत्तरेणैव सिद्धम् । श्लिष भजी केवलावपि सकर्मकौ ||९।।
न्या० स०० - श्लिषशीङ् - अनुपूर्वो ज प्राप्त्युपसर्जने जरणे वर्त्तते, जनिस्तु जननोपसर्जनायां प्राप्ताविति भेदः ।
आरम्भे ।। ५. १. १० ।
आरम्भे- आदिकर्मणि भूतादित्वेन विवक्षिते वर्त्तमानाद् धातोर्यः बतो विहितः स कर्तरि वा स्यात् ।
प्रकृतः कटं भवान् प्रकृतः कटो भवता, प्रकृतं भवता । प्रभुक्त श्रोदनं चैत्रः, प्रभुक्त श्रोदनश्चैत्रेण, प्रभुक्तं चेत्रेण ॥१०॥
न्या० स०-आरम्भे-भूतादित्वेन विवक्षते इति - आदिशब्दाद् वर्त्तमानत्वभविष्यत्वयोरपि परिग्रहः, यथा ज्ञातुमारभते प्रज्ञातः कषितुं प्रारप्स्यते प्रकष्टः ।
गत्यर्था - Sकर्मक- पिव-भुजेः ।। ५.१.११ ॥
भूतादौ यः क्तो विहितः स गत्यर्थेभ्योऽकर्मकेभ्यश्च धातुभ्यः पिब-भुजिभ्यां च कर्तरि वा भवति ।
गत्यर्थ- गतो मंत्री ग्रामम्, गतो मैत्रेण ग्राम, गतं मंत्रेण; यातास्ते ग्रामम्, यातस्तैग्रमः, यातं तैः । अकर्मक - आसितो भवान् शयितो भवान्, आसितं भवता, शयितं भवता । सकर्मका प्रप्यविवक्षितकर्माणोऽकर्मकाः, तेन पठितो भवान् एवं प्रख्यात, विदितः । अविवक्षितकर्मभ्यो नेच्छन्त्येके, तन्मते कृतो देवदत्तः हृतो देवदत्तः' इत्यादि कर्तरि न भवति । काल- भावा- sध्वभिश्च कर्मभिः सकर्मका श्रव्यकर्मका उक्ताः तेन त्रैरूप्यं भवति - सुप्तो भवान् मासम्, सुप्तो भवता मास:, सुप्तं भवता मासम; एवम्- 'श्रोदनपाकं सुप्तो भवान्' इत्यादि । पिब- पयः पीता गावः, इदं गोभिः पीतम्, इह गोभिः पीतम् । भुजि - प्रन्नं भुक्तास्ते, इदं तैर्भुक्तम, इह तैर्भुक्तम् ||११||
न्या० स०- गत्यर्थाक० - कालभावाऽध्वभिश्चेति - उपलक्षणत्वाद्देश इत्यपि ज्ञेयं तेन सुप्तो भवान् कुरूनित्यादि द्रष्टव्यम् । तेन त्रैरूप्यं भवतीति - ' कालाध्व' २-२-४२ इत्यादिना युगपत्सकर्मकत्वमकर्मकत्वं चोक्त, तेनाकर्मकत्वात् कर्त्तरि भावे च सकर्मकात् कर्मणि प्रयोग इति त्रैरूप्यम् । सुप्तो भवान्मासमिति - अत्र यावता कर्मसंज्ञा तावता कर्मणि द्वितीया, यावता त्वकर्मसंज्ञा तावता कर्त्तरि क्तः ।
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पाद - १, सूत्र - १२ - १६ ]
श्री सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ २११
अद्यर्थाच्चाधारे ॥ ५.१.१२ ॥
अद्यर्थात् आहारार्थात् धातोर्गत्यर्थाऽकर्मक- पिब भुजेश्च यः क्तः स आधारे वा भवति । इदमेषां जग्धम्, इदं तैर्जग्धम्, इह तैर्जग्धम् । इदमेषामभ्यवहृतम्, इदं तैरभ्यवहृतम्, इह तैरभ्यवहृतम् । इदं तेषामशितम्, इदं तैरशितम् इह तैरशितम् । आरम्भे तु कर्तर्यपि भवति-इह ते अन्नं प्राशिताः, इह ते मधु प्रलीढाः । गत्यर्थादिभ्यः खल्वपि - इदं तेषां यातम्, इदमहे: सृप्तम् इदमेषामासितम् इदमेषां शयितम्; इदं गवां पीतम् ; इदं तेषां भुक्तम् । पक्षे कर्तृकर्म - भावेषु पूर्वाण्येवोदाहरणानि ॥ १२ ॥
न्या० स० - अद्यर्थाच्चा०- नन्विदं तैर्जग्धमित्यादौ आधाराऽभावात्कर्मणि स्वयमेव क्तो भविष्यति किं विकल्पेनेति ? न, तक्रकौण्डियन्यायेनाधार एवं एभ्यः क्तः स्यात् यथा 'गत्यर्थात् कुटिले' ३ - ४ - ११ इत्यत्र यङ ।
पूर्वाण्येवोदाहरणानीति- 'गत्यर्थाऽकर्मक' ५-२-११ इति सूत्रे दर्शितानि । भावे ॥ ५. १. १३॥
क्वा - तुम
वेति निवृत्तम्, 'क्त्वा तुम् श्रम्' इत्येते प्रत्यया भावे धात्वर्थमात्रे वेदितव्याः । कृत्वा व्रजति, कर्तुं व्रजति, कारं कारं व्रजति, चौरंकार माक्रोशति, अतिथिवेदं भोजयति ||१३|| न्या० स०- क्वातुम० - वेति निवृत्तमिति कारकनिवृत्तेः ।
भीमादयोऽपादाने ॥ ५.१.१४ ॥
भीमादयः शब्दा अपादाने साधवो भवन्ति । विभ्यत्यस्मादिति - भीमः । एवंभीष्म:, भयानकः, चरुः, समुद्रः, स्रवः, त्रक्, रक्षः, संकसुकः, खलतिः । उणादिप्रत्ययान्ता एते "संप्रदानाच्चान्यत्रोणादयः ( ५- १ - १५ ) इति निषेधेनाप्राप्ता निपात्यन्ते || १४ ||
संप्रदानाच्चान्यत्रोणादयः ।। ५.१.१५ ।।
संप्रदानादपादानाच्चान्यत्र कारके भावे चोखादयः प्रत्यया भवन्ति । कृत्त्वात् कर्तर्येव प्राप्ताः कर्मादिष्वपि कथ्यन्ते । करोतीति - कारुः, वातीति वायुः, कषितोऽसाfafa कर्मणि - कषिः, तन्यतेऽसाविति - तनुः ऋचन्ति तयेति ऋक्, वृत्तं तत्रेति वर्त्म, चरितं तत्रेति-चर्म । १५ ।।
असरूपोऽपवादे बोत्सर्गः प्राकू क्तेः ॥ ५. १.१६ ॥
इतः सूत्रादारम्य स्त्रियां क्तिः " ( ५ -३ - ९१ ) इत्यतः प्राक् योऽपवादस्तद्विषयेऽपवादेनासमानरूप उत्सर्ग औत्सर्गिकः प्रत्ययो वा भवति । अवश्यलाव्यम्, अवश्यलवितव्यम्, श्रवश्यलवनीयम् । ज्ञः, ज्ञाता, ज्ञायकः । नन्दनः, नन्दकः, नन्दयिता ।
प्रसरूप इति किम् ? ध्यणि यो न स्यात्-कार्यम्, डविषयेऽण् न स्यात् - गोद: । 'अनु
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२१२]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-१७-२०
बन्धोऽप्रयोगी' इति सारूप्यमेव । प्राक् क्तेरिति किम् ? कृतिः, चितिः, रक्षितम्, रक्षणम् । घनादिर्न भवति ; चिकीर्षा, जिहीर्षा, क्तिर्न भवति ; ईषत्पानः, सुपानः, दुष्पानः, खल न भवति । अपवादत्यादिविषये तु असरूपोऽप्युत्सर्गत्यादिनं प्रवर्तते इति "श्रु-सद०" (५-२-१) इत्यादिसूत्रे वाग्रहणेन ज्ञापयिष्यते ।।१६।।
न्या० स०-असरूपोप०-अपोद्यते हेठ्यते उत्सर्गोऽनेनेति व्यन्जनाद् घत्र । उत्सर्ग इति-उत्क्रम्याऽपवाद सृज्यते विधीयत इति पत्र । नन्वत्र वा ग्रहणं किमर्थं यतोऽपवादो विशेषविधानादुत्सर्गस्तु पक्षे अस्माद् वचनाद् भविष्यति ? सत्यं,-वा ग्रहणाऽभावे सर्वोऽप्युत्सर्गोऽपवादे एव प्रवर्तते ततः कर्त्तत्यादौ अपवादविषयाभावात तजादिर्न स्यात् । ज्ञातेत्यादौ त्वपवादस्य कस्य दर्शनात् स्यात् ? औत्सगिक इति-उत्सर्जनमिति यदा भावे धन तदा प्रयोजनार्थे इकण् , यदा तु कर्मणि घन तदा विनयादिभ्यः स्वार्थिक इकण् । अपवादत्यादिविषये विति-अत्र सूत्रे कृद्विशेषाऽनभिधानात्त्यादिरपि प्राप्नोति । वाग्रहणेनेति-यद्येना. पवादत्यादिविषयेऽसरूप उत्सर्गस्त्यादिः स्यात् तदा किं तत्र वाकरणेनेत्यर्थः ?
वर्ण-व्यञ्जनाद् ध्यण ॥ ५. १. १७॥
ऋवर्णान्ताद् व्यञ्जनान्ताच्च घातोय॑ण प्रत्ययो भवति । कार्यम्, हार्यम् ; पाक्यम् , वाक्यम् । णकारो वृद्ध्यर्थः । घकार: "क्तेऽनिट:०" ( ४-१-१११ ) इत्यत्र विशेषणार्थः ।।१७॥
पाणि-समवाभ्यां सृजः ॥ ५. १. १८ ॥
पाणिपूर्वात् समवपूर्वाच्च सृजेय॑ण प्रत्ययो भवति । ऋदुपान्त्यक्यपोऽपवादः । पाणिभ्यां सृज्यते-पाणिसा रज्जुः, समवसृज्यते इति-समवसर्यः । पाणि-समवाभ्यामिति किम् ? सृज्यम् , संसृज्यम् । 'समव' इति समुदायपरिग्रहार्थं द्विवचनम् ।।१८।।
न्या० स०-पाणिसम०-क्यपोपवाद इति-पूर्वेण सिद्धे किमर्थमऽस्यारम्भ इत्याशङ्का। उवर्णादावश्यके ॥ ५. १. ११ ॥
अवश्यस्य भावोऽवश्यं भाव इति वा अकलि-आवश्यकम, तस्मिन् द्योत्ये उवर्णान्ताद् धातोय॑ण भवति । लाव्यम्, पाव्यम्, यन्नियोगात कर्तव्यमर्थप्रकरणादिना निश्चितं तत्रायं प्रत्ययः । लाव्यमवश्यम्, पाव्यमवश्यम्, अवश्यलाव्यम्, अवश्यपाव्यम्, अनावश्यंशब्देनापि अवश्यं भावो द्योत्यते, मयूरव्यंसकादित्वाच्च समासः । अवश्यस्तुत्य इति पर. त्वात् क्यप् । प्रावश्यक इति किम् ? लव्यम्, पव्यम् ।।१६।।
न्या० स०-उवर्णादा०-अर्थप्रकरणादिनेति-अवश्यमादिशब्दमन्तरेणेत्यर्थ । अवश्यंभावो द्योत्यते इति-यथा व्यतिलुनते इत्यादौ आत्मनेपदेनापि क्रियाव्य तिहारे व्यतिशब्दप्रयोगः तथाऽत्रापि घ्यणा द्योतितेऽप्यऽवश्यंभावेऽवश्यंशब्दप्रयोगः ।
आसु-यु-वपि-रपि-लपि-त्रपि-डिपि-दभि-चम्यानमः ॥५. १. २० ॥
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पाद-१, सूत्र-२१-२४ ] श्रोसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ २१३
प्राङ्पूर्वाभ्यां सुनोति-नमिभ्यां यौत्यादिभ्यश्च धातुभ्यो ध्यण भवति, यापवादः । याव्यम् , वाप्यम् , राप्यम्, लाप्यम् , अभिलाप्यम् , अपनाप्यम् , डेप्यम् । दभिः सौत्रो बन्धने वर्तते, दाभ्यम्, अवदाभ्यम , आचाम्यम् , पानाम्यम् , नमिरन्तभूतण्यर्थः सकर्मकः, प्रकर्मका अपि हि धातवो व्यर्थ वर्तमानाः सकर्मका भवन्ति, यथानेमि नमन्ति ।
डिपेः कुटादित्वाद् ये गुणो न लभ्यत इति घ्यण् विधीयते । आनमर्नेच्छन्त्येके ॥२०॥
न्या० स०-प्रासुयु०-दभिः सौत्र इति-दम्भेस्तु दम्भ्यमिति । आचाम्यमिति-केवलस्य 'मोऽकमि' ४-३-५५ इति वृद्धिप्रतिषेधे घ्यणि ये वा न विशेष इति सोपसर्गस्योदाहरणं, ननु डिपेः 'शकित कि' ५-१-२९ इति यप्रत्ययेऽपि डेप्यमिति भविष्यति किमत्र ग्रहणेन ? इत्याह-डिपे: कुटादीत्यादि।
वाऽऽधारेऽमावस्या ॥ ५. १. २१ ॥ • अमापूर्वाद् वसतेराधारे ध्यण प्रत्ययो धातोः पक्षे ह्रस्वश्च निपात्यते । प्रमाशब्दः सहार्थः, सह वसतोऽस्यां सूर्या-चन्द्रमसाविति-अमावस्या अमावास्या वा रूढया तिथिविशेषः । पक्षे यमकृत्वा हस्वनिपातनम् "अश्चामावास्यायाः” ( ६-३-१०३ ) इत्यत्रकेदशविकृतस्यानन्यत्वादमावास्याशब्देन प्रमावस्याशब्दस्यापि
॥२१॥ न्या० स०-वाधारेऽमा-पक्षे यमकृत्वेति-वाधारेमावसो य इति क्रियतां ध्यण तु वाग्रहणादाधारेऽपि भविष्यतीति भावः । अमावस्याशब्दस्यापीति-अन्यथा यध्यणन्तयोरऽत्यन्तभेदात् यान्तस्य ग्रहणं न स्यात् ।
संचाय्य-कुण्डपाय्य-राजसूयं क्रतो॥५. १. २२ ॥
एते तावभिधेये घ्यणन्ता निपात्यन्ते, आधारे कर्मणि वा, निपातनादेवायादेशदीर्घत्वे अपि भवतः ।
संचीयते सोमोऽस्मिन् संचीयते वाऽसाविति-संचाय्यः क्रतुः, संचेयोऽन्यः । कुण्डः पोयते सोमोऽस्मिन् कुण्ड: पीयते इति वा-कुण्डपाय्यः क्रतुः, ससोमको हि यागः क्रतुः, कुण्डपानोऽन्यः । राजा सूयतेऽस्मिन् राजा वा सोतव्य इति- राजसूयः क्रतुः ॥२२॥
प्रणाय्यी निष्कामा-ऽसम्मते ।। ५. १, २३ ।। __प्रपूर्वान्नयतेय॑ण् आयादेशश्च निपात्यते, निष्कामेऽसंमते वाऽभिधेये । प्रणाग्योऽन्तचासो, विषयेष्वनभिलाष इत्यर्थः, प्रणाय्यश्चौरः, सर्वलोकासम्मत इत्यर्थः, प्रणेयोऽन्यः ।२३। धाय्या-पाय्य-सान्नाय्य-निकाय्यमृङ्-मान-हवि-निवासे ।। ५.१.२४॥
धाय्यादयः शब्वा ऋगादिष्वर्थेषु यथासंख्यं ध्यणन्ता निपात्यन्ते. निपातनादेव च सर्वत्रायादेशः ।
दधातेऋचि-धीयते समिदग्नावनयेति-धाग्या ऋक्, रूढिशब्दत्वाव काश्चिदेव
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२१४ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-२५-२९
ऋच उच्यन्ते, अन्यत्र घेया। मोयते येन तन्मानम्, तत्र माङ आदिपत्वं च, मीयते तेनेतिपाय्यं मानम्, मेयमन्यत् । संपूर्वान्नयतेहविषि समो दीर्घत्वं च, सान्नायं हवि:, अयमपि रूढिशब्दत्वाद्धविविशेषेऽवतिष्ठते, संनेयमन्यत् । निपूर्वाच्चिनोतेनिवासे आदिकत्वं च । निकाय्यो निवास: निचेयमन्यत् ।।२४।।
परिचाय्योपचाय्या-ऽऽनाय्य समूह्य-चित्यमग्नौ ।। ५. १. २५ ॥
एतेऽग्नौ निपात्यन्ते, पर्युपपूर्वाच्चिनोतेय॑ण प्रायादेशश्च । परिचीयत इतिपरिचाय्योऽग्निः, एवमुपचाय्य:, परिचेयः, उपचेयोऽन्यः । आङ्पूर्वान्नयतेय॑ण आयादेशश्च । गार्हपत्यादानीयते इत्यानाय्यो दक्षिणाग्नि, स ह्याहवनीयेन सह एकयोनिरेवोच्यते, आनेयोऽन्यः । केचिदग्निविशेषादन्यत्राप्यनित्यविशेष इच्छन्ति-प्रानाय्यो गोधुक्, अनित्य . इत्यर्थः । संपूर्वाद् वहेय॑ण ऊत्वं च वशब्दस्य. समुह्यत इति-समूह्यः, अन्यः संवाह्यः । अन्ये तु संपूर्वान्हेरग्नावेवेति नियमार्थ घ्यणं निपातयन्ति, अग्नेरन्यत्र समूहितव्य इत्येव । वहेस्तु तन्मतेऽग्नावपि संवाह्य इति भवति । चिनोतेः क्यप , चित्योऽग्निः, चेयोऽन्यः ॥२५॥
न्या० स०-परिचाय्यो०-एकयोनिरेवेति-आहवनीयोऽग्नि दक्षिणाग्निश्च निर्वाणो
देवानीयेते, अतो द्वावप्येकयोनी गार्हपत्याग्निस्त्वरणिनिर्मन्थनादेवोत्पाद्य इति न स आनाय्यः ।
याज्या दानर्वि ॥ ५.१.२६॥
यजेः करणे ध्यण् निपात्यते, दानय॑भिधेयायाम् । इज्यतेऽनयेति-याज्या, 'त्यजयज्-प्रवचः" (४-४-११८) इति गत्वाभावः ॥२६॥
ताव्या-ऽनीयौ ॥ ५. १. २७॥
धातोः परौ 'तव्य अनीय' इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः । शयितव्यम्, शयनीयम्; वस्तव्यम्; वसनीयम् , कर्तव्यम्, करणीयं भवता, कर्तव्यः करणीयः कटः ।।२७।।
य एचाऽऽतः ।। ५. १. २८ ।।
ऋवर्ण-व्यञ्जनान्तात घ्यणो विहितत्वात् परिशिष्टात स्वरान्ताद् धातोर्यः प्रत्ययो भवति, अन्त्याऽऽकारस्य चैकारो भवति । दित्स्यम्, धित्स्यम्, चेयम्, जेयम्, नेयम्, शेयम्, नव्यम्, हव्यम्, लव्यम्, भव्यम् । एच्चातः-देयम्, धेयम् ॥२८।।
शकि-तकि चति-यति-शसि-सहि-यजि जि-पवर्गात् ॥५.१.२१।।
शक्यादिभ्यः पवर्गान्तेभ्यश्च धातुभ्यो यः प्रत्ययो भवति, घ्यणोऽपवादः । शक्यम् , तक्यम्, चत्यम् , यत्यम् , शम्यम् , सह्यम् , यज्यम् , भज्यम्। पवर्ग-तप्यम् , लभ्यम् , गम्यम् । यजेः "त्यज-यज्-प्रवचः' (४-१-११८) इति प्रतिषेधात् भजेश्च बाहुलकाद् ध्यणपि-याज्यम् , माग्यम् । यजि-भजिभ्यां नेच्छन्त्येके।
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पाद-१, सूत्र-३०-३३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ २१५
कथमसिना वध्योऽसिवध्यः, मुशलवध्यः ? "न जनबधः" ( ४-३-५४ ) इति वद्धिप्रतिषेधे ध्यणा भविष्यति ॥२९॥
न्या० स०-शकितकि त्यजयप्रवच इति प्रतिषेधादिति-अन्यथा घ्यणप्रत्ययाऽभावात् प्राप्तिरेव नास्ति।
यम-मद-गदोऽनुपसर्गात् ॥ ५. १. ३०॥ उपसर्गरहितेभ्य एभ्यो यः प्रत्ययो भवति । यम्यम्, मद्यम, गद्यम् ।
अनुपसर्गादिति किम् ? आयाम्यम् , प्रमाद्यम् , निगाधम् । पवर्गान्तस्वाद सिद्धे यमो नियमाथं वचनम - अनुपसर्गादेव यथा स्यात् । बहुलवचनान्माद्यत्यनेनेति-मद्यं करणेऽपि, नियम्यमिति च सोपसर्गादिति ॥३०॥
न्या० स०-यममद०-अनुपसर्गादेवेति-अनुपसर्गाद्यम एवेति विपरीतनियमस्तु न 'न शकितकि' ५-१-२६ इत्यत्र पवर्गग्रहणात् ।
चरेराङस्त्वगुरौ ॥ ५. १. ३१ ॥
अनुपसर्गाच्चरेराङपूर्वात् त्वगुरावर्थे यो भवति । चयं भवता, चर्यो देशः, प्राचर्य भवता, प्राचर्यो देशः । आङस्त्विति किम् ? अभिचार्यम् । अगुराविति किम् ? आचार्यो गुरुः ॥३१॥
वर्योपसर्या-ऽवद्य-पण्यमुपेयर्तुमती-गर्य-विक्रये ॥ ५. १. ३२ ॥
वर्यावयः शब्दा उपेयाविष्वर्थेषु यथासंख्यं यान्ता निपात्यन्ते । वृणातेर्ये-वर्या, उपेया चेद् भवति । शतेन वर्या, सहस्रण वर्या कन्या, संभक्तव्या मैत्रीमापादनीयेति यावत् ; वृत्याऽन्या, वृणोतेः क्या स्त्रीलिङ्गनिर्देशादिह न भवति-वार्या ऋत्विजः । अन्यस्तु"सुग्रीवो नाम बर्योऽसौ भवता चारुविक्रमः" (भट्टिप्रयोगः) इति प्रयोगदर्शनात् पुंलिङ्गेऽपीच्छति, सामान्यनिर्देशात् तदपि संगृहीतम्, शतेन वर्यः, सहस्रेण वर्यः । उपपूर्वात् सर्तेर्येउपसर्या, ऋतुमती चेत् । उपसर्या गौः, गर्भग्रहणे प्राप्तकालेत्यर्थः, अन्यत्र उपसार्या शरदि मथुरा। नपूर्वाद् वदेर्ये-प्रवचं, गां चेत् । अवध पापम् , अवद्या हिंसा, गोत्यर्थः, अनुधमन्यत् ।
कथमवाद्या ? वनिरुपपदात् घ्यण, पश्चान्नसमासः । पणेर्येपण्यं, विक्रेयं चेत् । पण्यः कम्बलः, पण्या गौः, विक्रयेत्यर्थः, अन्यत्र पाण्यः साधुः ।।३२।।
न्या० स०-वर्योप०-शतेन वर्य इति-यस्तु वरेण्यपर्यायः तस्य वरण इत्यस्मात् णिजन्तात् सिद्धिः । अनुधमऽन्यदिति- यत्तु अनूद्यमिति तदऽनुवदनं अनूत् , अनूदि साधु 'तत्र साधौ' ७-१-१५ इति यः ।
स्वामि-वैश्येयः॥ ५. १. ३३ ॥ अर्तेः स्वामिनि वैश्ये चाभिधेये यो निपात्यते । प्रर्यः स्वामी, अर्यो बेश्यः ।
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बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद-१, सूत्र-३४-३८
स्वामि-वैश्य इति किम् ? आर्यः ॥३३।। न्या० स०-स्वामिवैश्येऽर्यः--निपातनस्येष्टविषयत्वात् संज्ञायामेव निपातनम् । वह्य करणे ।। ५. १. ३४ ॥ वहेः करणे यो निपात्यते । वहन्ति तेनेति-वह्यशकटम, वाह्यमन्यत् ॥३४।। नाम्नो वदः क्यप च ।। ५. १. ३५ ॥ अनुपसर्गादिति वर्तते, अनुपसर्गानाम्नः पराद् वः क्यप् यश्च प्रत्ययौ भवतः ।
ब्रह्मोद्यम् , ब्रह्मवद्यम् ; सत्यवद्यम् , सत्योधम् । नाम्न इति किम् ? वाघम् । . प्रनसर्गादित्येव ? प्रवाद्यम् , अनुवाद्यम् । ककारः कित्कार्यार्थः, पकार उत्तरत्र तागमार्थः ।।३५॥
हत्याभूयं भावे ॥ ५. १. ३६ ॥
अनुपसर्गानाम्नः परौ 'हत्या भूय' इत्येतो भावे क्यबन्तौ निपात्येते । हन्ते: स्त्रीभावे क्या तकारश्चान्तादेशः ।
ब्रह्मणो वधः-ब्रह्महत्या, भ्रूणहत्या, दरिद्रहत्या, श्वहत्या। भवते पुसके भावे क्यप् । ब्रह्मभूयं गतः, देवसूयं गतः, ब्रह्मत्वं देवत्वं गत इत्यर्थः । भाव इति किम ? श्वधात्या वृषली। नाम्न इत्येव ? हतिः, धातः, भव्यम् ।
हन्तेवि ध्यण न भवत्यभिधानात, तथा च बहुलाधिकारः । अनुपसर्गादित्येव ? उपहतिः, प्रभव्यम् ॥३६।।
न्या० स०-हत्याभूयं-हत्या च भूयं चेति वाक्यं कार्य, भूयस्य नपुंसके निपातनज्ञापनार्थम् । क्यबन्ताविति-चानुकृष्टत्वात् यो नाऽनुवर्तते । ब्रह्मणो वध इति-संबन्धे षष्ठो अकर्मकस्य विवक्षणात् । हतिरिति-'सातिहेति' ५-३-६४ इति निपातनबाधनार्थं श्वादिभ्यः क्तिः । तथा च बहुलाधिकार इति-एतदर्थमेव बहुलाधिकारोऽनुवर्तते इत्यर्थः ।
अग्निचित्या ॥ ५. १. ३७॥ अग्नेः पराच्चिनोतेः स्त्रीभावे क्यप् निपात्यते । अग्नेश्चयनमग्निचित्या ॥३७।। खेय-मृषोद्य ॥ ५. १. ३८ ॥
अनुपसर्गादिति नाम्न इति च निवृत्तम् । खेय मृषोद्य' इत्येतो क्यबन्ती निपात्येते । खनेय॑णोऽपवादः क्यप् , अन्त्यस्वरादेरेकारश्च ।
खन्यत इति-खेयम् , निखेयम् , उत्खेयम् । मषापूर्वाद् वदतेः पक्षे ये प्राप्ते नित्यं क्यप् । मुखोद्यते-मृषोद्यम् । नात्र भाव एवेति योगविभागः ।।३।।
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पाद-१, सूत्र-३६-४२ ] श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ २१७
न्या० स०-खेयमृषो०-निवृत्तमिति-निपातनस्येष्टविषयत्वात् । निखेयमिति-द्योतकत्वात् न्यादिप्रयोगेऽपि भवति । कुप्य-भिद्योद्ध्य सिध्य-तिष्य-पुष्य-युग्या-ऽऽज्य-सूर्यं नाम्नि
॥५. १. ३१ ॥ एते क्यबन्ताः संज्ञायां निपात्यन्ते । गुपेः क्यप आदिकत्वं च धनेऽर्थे । गोप्यते तदिति-कुप्यं धनम्, गोप्यमन्यत् । भिदेरुज्झेश्च नदेऽभिधेये क्यप् उज्झेर्धत्वं च । भिन्नत्ति कूलानि इति-भिद्यः, उज्झत्युदकम्-उद्ध्यः, अन्यत्र-भेत्ता, उज्झिता।
सिधि-विषि-पुषिभ्यो नक्षत्रेऽभिधेये क्या त्विषेर्वलोपश्च । सिध्यन्ति त्वेषन्ति पुष्यन्ति अस्मिन् कार्याणीति सिध्यः, तिष्यः, पुष्यः, अन्यत्र-सेधनः, त्वेषणः, पोषणः । युजेः क्यप् गत्वं च वाहनेऽभिधेये । युजन्ति तदिति-युग्यं वाहनं गजाश्वादि, योग्यमन्यत् । आङ् पूर्वाद घृतेऽर्थे क्यप् । आञ्जन्त्यनेनेति-आज्यं घृतम् , आञ्जनमन्यत् । सर्तेः क्यप् ऋकारस्योर, सुवतेर्वा क्यप् रान्तश्च देवतायाम् । सरति सुवति वा कमसु लोकानितिसुर्यो देवता । बहुलाधिकाराग्निपातनसामर्थ्याद् वाऽनुक्तोऽपि निपातनेषु कारकविशेषो गम्यते ।।३९।।
दृ-वृग-स्तु-जुषेति-शासः ।। ५.१.४०॥ एभ्यः क्यप् भवति ।
दृ-आवृत्यः । वृग-प्रावृत्यः । वृङस्तु वार्या-ऋत्विजः । स्तु-स्तुत्यः, अवश्यस्तुत्यः । जुष-जुष्यः । एतीति इणिकोहणम् । इत्यः, अधोत्यः । प्रयतेरिङश्च न भवतिउपेयम्, अध्येयम् । इकोऽप्यध्येयमित्येके । ईयतेरप्युपेयमिति भवति । शास्-शिष्या, आशासेस्तु "आशास्यमन्यत पुनरुक्तभूतम्" (रघुवंशे) इति । कथम् “अनिवार्यो गजैरन्यः स्वभाव इव देहिनाम् ।" इति, संभक्तेरन्यत्रापि वृङ् ॥४०॥
न्या० स०-दृवृग्-इणिकोग्रहणमिति-इङस्तु परस्मैपद्यादादिकसाहचर्यात् निरासः । आशास्यमन्यदिति-आङ: क्वावेवेति नियमान्न शिषादेशः ।
ऋदुपान्त्यादपि-चुदृचः ॥ ५. १.४१ ॥ ऋकारोपान्त्याद् धातोः कृपि-चूति-ऋचिजितात् क्यप् भवति ।
वृत्यम्, वृध्यम्, गृध्यम्, शृध्यम् । अकृपि च इति किम् ? कल्प्यम्, चर्त्यम्, अय॑म् ।।४१॥
कु-वृषि-मृजि-शंसि-गुहि-दुहि-जपो वा ॥ ५. १. ४२ ॥ एभ्य क्यप् वा भवति। कृत्यम् , कार्यम् , वृष्यम् , वर्ण्यम् , मृज्यम् , मार्यम् , शस्यम् , शंस्यम् , गुह्यम्,
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२१८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-४३-४५
गोह्यम्, दुह्यम्, दोह्यम् । जप्यम्, जाप्यम्, जपेरपि क्यबभावपक्षे ध्यण विकल्पसामर्थ्यात् । ४२॥
न्या० स०-कृषि-क्यबऽभावपक्षे घ्यणिति-'शकितकि' ५-१-२९ इति या प्रत्यये तु विशेषाऽभावः।
जि-विपू-न्यो हलि-मुञ्ज-कल्के ।। ५.१.४३ ॥ .
जयतेविपूर्वाभ्यां च पू-नीभ्यां यथासंख्यं हलि-मुख-कल्केषु कर्मसु वाच्येषु क्यप प्रत्ययो भवति ।
महद्धलं हलिः । मुञ्जस्तृणविशेषः । कल्कस्त्रिफलादीनाम् । जीयते निपुणेनेतिजित्या जित्यो वा हलिः । पूङ् पूग वा-विपवितव्यो विपूयो मुञ्जः । पूगो नेच्छन्त्येके । विनेतव्यस्तैलादिना मध्ये इति-विनीयः कल्कः । हलि-मुज-कल्क इति किम् ? जेयम् , विपव्यम् , विनेयम् ॥४३।।।
न्या० स०-जिविपून्यो०-तैलादिना मध्ये इति-तैलादिना कत्मिनो मध्ये विनेतव्यः, कोऽर्थः ? प्रापयितव्यः, यद्वा मध्ये वर्तमानेन तैलादिना उत्कर्ष विनेतव्यः ।
पदा-स्वैरि-बाह्या-पक्ष्ये ग्रहः ॥ ५. १. ४४ ॥
विभक्त्यन्तं पदम् , अस्वैरी परतन्त्रः, बाह्या बहिवा, पक्ष्यो वयः, एष्वर्थेषु ग्रहः क्यप भवति, ध्यणोऽपवादः । . प्रगृह्यते-विशेषेण ज्ञायते प्रगृह्य पदम्, यत् स्वरेण न संघीयते-अग्नी इति । अव. गहते-नानावयवसात् क्रियते-अवगृह्य पदम् । अस्वैरिणि-गृह्याः कामिनः, रागादिपरतन्त्रा इत्यर्थः । बाह्यायां-ग्रामगृह्या श्रेणिः, नगरगृह्या सेना, बाह्य त्यर्थः, स्त्रीलिङ्गनिर्दशो लिङ्गान्तरेऽनभिधानख्यापनार्थः । पक्ष्येत्वद्गृह्यः, मद्गृह्यः, "गुणगृह्या वचने विपश्चितः" (किराते), तत्पक्षाश्रिता इत्यर्थः । एष्विति किम् ? ग्राह्य वचः ।।४४।।
न्या० स०-पदास्वैरि०-प्रगृह्य पदमिति-परैः स्वरेणाऽसंधीयमानस्य पदस्य प्रगृह्यमिति संज्ञा विहिता । नानावयवसात् क्रियते इति-यथा पचतीत्यत्र पच् शव् तिव् इत्य:वयवाः ।
भृगोऽसंज्ञायाम् ॥ ५. १. ४५ ॥ भृगो धातोरसंज्ञायां क्यप् भवति ।
भ्रियते-भृत्यः, पोष्य इत्यर्थः । प्रसंज्ञायामिति किम् ? भार्यो नाम क्षत्रियः, भार्या पत्नी । ननु च संज्ञायामपि स्त्रियां भृगो नाम्नि' ( ५-३-९८ ) इति क्यबस्ति, यथाकुमारभृत्या ? न-तस्य भाव एव विधानात् ।।४५।।
न्या० स०-भृगोसं०-कुमारपोषणप्रतिपादकं शास्त्रमप्युपचारात् कुमारभृत्या ।
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पाद-१, सूत्र-४६-५१ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः [२१९
समो वा ॥ ५. १. ४६ ॥ संपूर्वाद् भृगः क्यप् वा भवति । संभृत्यः, संभार्यः ।।४६।। ते कृत्याः ॥ ५. १.४७॥
ते-'ध्यण तव्य अनीय य क्यप्' इत्येते प्रत्ययाः कृत्यसंज्ञा भवन्ति । कृत्यप्रदेशा:"तत् साप्याऽनाप्याव कर्म-भावे कृत्य-क्त-खलाश्च' (३-३-२१) इत्यादयः ॥४७॥
णक-तृचौ ॥ ५. १.४८॥ धातोः परौ णक-तृचौ प्रत्ययो भवतः, कृत्त्वात् कर्तरि ।
पाचकः, पक्ता; पाठकः, पठिता । णकारो वृद्धयर्थः, चकारः "त्रन्त्यस्वरादेः" (७-४-४३) इत्यत्र सामान्यग्रहणाविधातार्थः ।।४८॥
न्या० स०-णकतृ-सामान्यग्रहणाविघातार्थ इति-अन्यथा * निरनुबन्धा० * इति न्यायात् तृच् एव ग्रहः स्यात् न तु तृनः ।
अच् ॥ ५. १.४१ ॥
धातोरच प्रत्ययो भवति, कृत्त्वात् कर्तरि । करः, हरः, पचः, पठः उद्वहः । चकारः "अचि" (३-४-१५) इत्यत्र विशेषणार्थः ॥४६॥
लिहादिभ्यः ॥ ५. १.५० ॥ लिहादिभ्यो धातुभ्योऽच प्रत्ययो भवति, पृथग्योगो बाधकबाधनार्थः ।
लेहः, शेषः, सेवः, देवः, मेथः, मेषः, मेघः, देहः, प्ररोहः, न्यग्रोधः, कोपः, गोपः, सर्पः, नर्तः, दर्शः, एषु नाम्युपान्त्यलक्षणं कं दृशेस्तु वा शं बाधते । 'अनिमिष' इति बहुलाधिकारात कोऽपि भवति । श्वपचः, पारापतः, कद्ववः, यद्वदः, अरीन् व्रणयतीत्यरिप्रणा शक्तिः, जारभरा, कन्यावरः, रघूद्वहः, रसावहः, एवणं बाषते । बहुवचनमाकृतिगणार्थम् । नदी, भषी, प्लवी, गरी, चरी, तरी, दरी, स्तरी, सूदी, देवी, सेवी, चोरी, गोही' एतेऽजन्ता गौरादौ द्रष्टव्याः ॥५०॥
न्या० स०-लिहादिभ्यः पृथग्योग इति-पूर्वेण सिद्धेऽस्यारम्भादित्यर्थः। वा शं बाधते इति-यदि हि नित्यं लिहाद्यऽच् स्यात्तदा दृशः शविधानमऽनर्थकं स्यादिति । कद्वद इति-कुत्सितं वदति 'रथवदे' ३.-२-१३१ कदादेशः।
आकृतिग्रहणार्थमिति-तेन वशा, अमर, क्षम, रण, श्लेष, अजगर इत्यादयोऽदर्शिता अपि ज्ञेयाः । गौरादौ द्रष्टव्या इति-अन्यै नदीइत्यादीनां ड्यर्थं टित्त्वं कृतं तत् स्वमते कथम् ? इत्याह-नदीत्यादीनां सामान्योऽनेन वाऽच् भवतु, भरतस्तु गौरादौ ।
ब्रुवः॥ ५. १.५१॥
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२२० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-५२-५४
ब्र वो धातोरचि ब्रुव इति निपात्यते । ब्राह्मणमात्मानं ब्रूते-ब्राह्मण वः । अण्वचादेश-गुणबाधनाथ निपातनम् ।।५१।।
नन्द्यादिभ्योऽनः ॥ ५. १.५२ ॥
नन्द्यादिभ्यो धातुभ्यो नामगणे दृष्टेभ्योऽनः प्रत्ययो भवति । नन्द्यावयो नन्दनरमणेत्यादिनामगणशब्देभ्योऽपोद्धृत्य वेदितव्याः, स च सप्रत्ययपाठो विशिष्ट विषयार्थो रूपनिग्रहाथश्च ।
नन्दि-वाशि-मदि-दूषि-साधि-वधि-शोभि-रोचिभ्यो ण्यन्तेभ्यः संज्ञायामनन्दनः, वाशनः, मदनः, दूषणः, साधनः, वर्धनः, शोभनः, रोचनः । सहि-रमि-दामरुचि-कृति-तपि-तृदि-दहि-यु-पू-लुभ्यः संज्ञायामेवाण्यन्तेभ्यः-सहते-सहनः, एवं-रमणः, दमनः, रोचनः विरोचनः, विकर्तनः, तपनः, प्रतर्दनः, दहनः, यवनः, पवन:, लवणः, निपातनाण्णत्वम् । समः क्रन्दि-कृषि-हृषिभ्य: संजायामेव-संक्रन्दनः, संकर्षण संहर्षणः । कर्मणो दमि-अदि-नाशि-सूदिभ्यः-सवदमनः, जनार्दनः, वित्तविनाशनः मधुसूदनः, असंज्ञायामपि-रिपुदमनः, कुलदमनः, परार्दनः, रोगनाशनः, अरिसूदनः । नदि-भीषि-भूषि-पि जल्पिभ्यः-नर्दयति-नर्दनः, विभीषयते-विभीषणः । भूषयति-भूषणः, दृप्यति-दर्पणः, जल्पति-जल्पनः । बहुवचनमाकृतिगरणार्थम् ।।५२॥
न्या० स०-नन्यादिभ्यो-सप्रत्ययपाठ इति-अथ प्रकृतय एव पठ्यन्तां किं सप्रत्ययपाठेनेत्याह-विशिष्टविषयार्थ इति-तेन ये निरुपसर्गयदुपपदोपसर्गाः पठ्यन्ते ते तथा गृह्यन्ते इत्यर्थः ।
ग्रहादिभ्यो णिन् ॥ ५. १.५३ ।। ग्रहादिभ्यो नामगणदृष्टेभ्यो णिन् प्रत्ययो भवति ।
ग्राही, स्थायी, उपस्थायी, मन्त्री, संमः । उपा-ऽवाभ्यां रुधः-उपरोधी, अवरोधी। प्रपाद् राधः-अपराधी । उदः सहि-दसि-भासिभ्यः-उत्साही उदासी, उद्भासी । नेः श्र-शोविश-वस-वप-रक्षिभ्यः-निशणोति-निश्रावी, निशायी, निवेशी, निवासी, निवापी,निरक्षी। नजो व्याह-संव्याहृ-संव्यवह-याचि-व्रज-वद-वासिभ्यः-न व्याहरति-अव्याहारी, असंव्यवहारी, प्रयाची, अवाजी, अवादी, अवासी। नपूर्वात स्वरान्तादचित्तवत्कर्तृकात अकारी धर्मस्य बालातपः, अहारी शीतस्य शिशिरः, चित्तवत्कर्तृकान्न भवति-अकर्ता कटस्य चत्रः । केचिदनपूर्वादिच्छन्ति-कारी, हारी । व्यभिभ्यां भुवोऽतीते-विभवति स्म-विभावी, अभिभावी । वि-परिभ्यां भवो ह्रस्वश्च वा-विभवति-विभावी, विभवी; परिभावी, परिभवी। वेः शीङ-षिगोर्देशे ह्रस्वश्च-गुणश्चित्ते विशेते विसिनोति वा-विशयीविषयी च प्रदेशः, निपातनात् षत्वम् । ग्रहादिराकृतिगणः॥५३॥
नाम्युपान्त्य-प्री-कृग-ज्ञः ।। ५. १. ५४ ॥
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पाद-१, सूत्र-५५-५८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२२१
नाम्युपान्तेभ्यो धातुभ्यः 'प्री क ग जा' इत्येतेभ्यश्च कः प्रत्ययो भवति, ककारः कित्कार्यार्थः।
विक्षिपः, विलिखः, बुध, युधः, कृशः, वितृदः । प्रीणातीति-प्रियः, किरतीतिकिरः, उत्किरः, गिलतीति-गिलः, निगिलः, जानातीति-ज्ञः। काष्ठभेद इति परत्वादण् ॥५४॥
न्या० स०-नाम्युपान्त्यः-युध इति-युध्यतेः योधवाचकस्तु णिगि योधयतीति अचि। गिलः, निगिल इति-'नवा स्वरे' २-३-१०२ इत्यत्र व्यवस्थितविभाषाश्रयणान्नित्यं लत्वम्
गेहे ग्रहः ॥५. १.५५॥ .
गेहेऽभिधेये ग्रहेः को भवति । गृहम् , गृहाणि ; गृहाः । पुसि बहुवचनान्त एव । उपचाराद् द्वारा गृहाः ।।५।।
न्या० स०-प्रेहे ग्र-बहुवचनान्त एवेति-दुर्गस्त्वेकवचनान्तमेवाह । उपसर्गादातो डोऽश्यः॥ ५. १. ५६ ॥ उपसर्गात् परात श्यजितादाकारन्तात् धातोर्डः प्रत्ययो भवति ।
आह्वयतीति-आह्वः, प्रह्वः, संव्यः, परिव्यः, प्रज्य:, अनुज्यः, प्रस्थः, सुग्लः, सुम्लः, सुत्रः, व्यालः, सुरः । केनैव सिद्ध डविधानं वृनिषेधार्थम् । उपसर्गादिति किम् ? -दायः, धायः । आत इति किम् ? आहर्ता । अश्य इति किम् ? णे-अवश्यायः, प्रतिश्यायः । के पूर्वेऽपवादा अनन्तरान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान् के इति णो बाध्यते नाण, तेन 'गोसंदाय वडवासंदाय' इत्यणेव ।। ५६।।
व्याघ्रा-ऽऽधे प्राणि-नसोः॥ ५. १. ५७ ॥
'व्याघ्र प्राघ्रा' इत्येतो शब्दो जिघ्रतेर्यथासंख्यं प्राणिनि नासिकायां चार्थे डप्रत्ययान्तौ निपात्येते ।
विविधम् आजिघ्रति-व्याघ्रः प्राणी,आजिघ्रति-आघ्रा नासिका । शस्यापवादः ।५७।
न्या० स०-व्याघ्राघ्र-व्याघ्र इति-अनेकार्थत्वाच्छिङ्घनपूर्वके हिंसने वर्त्तते । यत्क्षीरः विविधमाजिघ्रन् हिनस्तीति ।
घ्रा-ध्मा-पा-ट्धे-दृशः शः ॥ ५. १.५८॥ एभ्यः शः प्रत्ययो भवति ।
घ्रा-जिघ्रतीति-जिघ्रः, विजिघ्रः, उज्जिनः। ध्मा-धमः, विधमः, उद्धमः । घ्रादिसाहचर्यात 'पा' इति पिबतेर्ग्रहणं न पाते:-पिबः, निपिबः, उत्पिबः, पायतेस्तु लाक्षणिकत्वान्न भवति । धे-षयः विधयः, उद्धयः । दृशं -पश्यः, विपश्यः, उत्पश्यः । धेष्टकारो ड्यर्थः-उद्धयी, विधयी । उपसर्गादेवेच्छन्त्यन्ये । शकारः शित्कार्यार्थः ॥५॥
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२२२ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-५९-६३
साहि-साति-वेद्य देजि-धारि-पारि-चेतेरनुपसर्गात् ॥५.१.५१ ॥ एतेभ्य उपसर्गरहितेभ्यो ण्यन्तेभ्यः शः प्रत्ययो भवति ।
साहि-साहयतीति-साहयः । साति: सौत्रो धातुः-सातयः. वेदि-वेदयः, उदेजिउदेजयः, धारि-धारय , पारि पारयः, चेति-चेतयः । अनुपसर्गादिति किम् ? प्रसाहयिता। छत्रधार इति परत्वादणेव ।। ५६।।
लिम्प-विन्दः ॥ ५. १. ६० ॥
अनुपसर्गाभ्यां लिम्प-विन्दिभ्यां शो भवति । लिम्पतीति-लिम्पः, विन्दतीतिविन्दः । अनुपसर्गादित्येव ? प्रलिपः ॥६० ।
न्या० स०-लिम्पविन्दः-लिम्पिसाहचर्यात् विन्देस्तौदादिकस्य ग्रहः, न तु विदु अवयवे इत्यस्य ।
नि-गवादेर्नाम्नि ॥ ५. १. ६१ ॥ यथासंख्यं निपूर्वाद लिम्पेर्गवादिपूर्वाच्च विन्देर्नाम्नि-संजायां शो भवति ।
निलिम्पन्तीति-निलिम्पा नाम देवाः । गा विन्दतीति-गोविन्दः, कुविन्दः, अरविन्दः कुरुविन्दः, उरविन्दः । नाम्नीति किम् ? निलिपः ॥६१॥
न्या० स०-निगवादेर्ना-अरविन्द इति - चक्रावयव विशेषः, अब्जे तु क्लीबत्वम् , कश्चित्त्वऽब्जेऽपि पुंस्त्वमाह, राजा च ।
वा ज्वलादि-दु-नी-भू-ग्रहा-ऽऽस्रोर्णः ॥ ५. १. ६२ ॥
ज्वलादेगणात दु-नी-भू-अहिभ्य आङ्-पूर्वाच्च स्रवतेरनुपसर्गाण्णो वा भवति, पहिपर्यन्ता ज्वलादयो वृत्करणात् । ज्वलः, ज्वालः । चलः, चालः । 'निपातः, उत्क्रोशः' इति बहलाधिकारात् । दवः. वावः । नयः, नायः । दुनीभ्यां नित्यमेवेत्येके । भवः, भावः । व्यवस्थितविभाषेयम् , तेन-प्राहो मकराविः, ग्रहः सूर्यादिः । आस्रवः, पानावः । अनुपसर्गादित्येव ? प्रज्वलः, प्रदवः, प्रणयः, प्रभवः, प्रग्रहः, प्रस्रवः । १ ज्वल २ कुच, ३ पत्ल, ४ पथे, ५ क्वथे, ६ मथे, ७ षद्ल, ८ शद्लु, ९ बुध, १० टुवमू, ११ भ्रमू, १२ क्षर, १३ चल, १४ जल, १५ टल, १६ टवल, १७ ष्ठल, १८ हल, १६ णल, २० बल, २१ पुल, २२ कुल, २३ पल, २४ फल, २५ शल, २६ हुल, २७ कुशं, २८ कस, २९ रुहं, ३० रमि, ३१ वहि वृत् इति ज्वलादिः ॥६२॥
न्या० स०-वा ज्वलादि०-बहुलाधिकारादिति-सोपसर्गादपीत्यर्थः । अवह-सा-संस्रोः॥५. १. ६३ ॥ अवपूर्वाभ्यां ह-साभ्यां संपूर्वाच्च स्रवतेर्णः प्रत्ययो भवति । अवहारः, अवसायः, संत्रावः । संस्रव इत्यपि कश्चित् ।।६३।।
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पाद-१, सूत्र ६४-७० ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः । [२२३
तन्-व्यधीण-श्वसातः॥ ५, १.६४ ॥ 'तन् व्यधि इण श्वस्' इत्येतेभ्य प्रादन्तेभ्यश्च धातुभ्यो णः प्रत्ययो भवति ।
तानः, उत्तानः, अवतानः । व्याधः, प्रत्यायः, अत्यायः, अन्तराय: । अतिपूर्वादेवेण इत्येके । श्वासः, आश्वासः । आदन्त अवश्यायः, प्रतिश्यायः; ग्लायः, म्लायः । कथं ददः दध: ? ददिदध्योरचा सिद्धम् ।।६४।।
नृत्-खन्-रञ्जः शिल्पिन्यकट् ॥ ५. १. ६५ ॥ नति-खनि-रञ्जिभ्यः शिल्पिनि कर्तर्यकट् प्रत्ययो भवति ।
शिल्पं कर्मकौशलम् , तद्वान् शिल्पी। नर्तकः, नर्तकी; खनकः, खनकी; रजकः, रजकी। शिल्पिनीति किम् ? नतिका, खानकः, रजकः । टकारो यर्थः ॥६५।।
गस्थकः ॥ ५. १.६६ ॥
गायतेः शिल्पिनि कर्तरि थकः प्रत्ययो भवति । गायकः । गाङ: प्रत्यये शिल्पी न गम्यत इति गायतेग्रहणम् ।।६६।।
न्या० स०-गस्थकः-शिल्पी न गम्यत इति-शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् । टनण ॥ ५. १.६७॥
गायते: शिल्पिनि कर्तरि टनण प्रत्ययो भवति । गायनः, गायनी। टकारो इयर्थः । णकार ऐकारार्थः । योगविभाग उत्तरार्थः । एतौ प्रत्ययावशिल्पिन्यपीत्येके ॥६७।।
न्या० स०-टनण-एके इति-तन्मते गामादाग्रहणे सामान्यग्रहणमिति न्यायात् . गायतेर्गाडश्च ग्रहः ।
हः काल-ब्रीह्योः॥ ५. १.६८ ॥
जहातेजिहीतेर्वा कालव्रीह्योः कर्बोष्टनण् प्रत्ययो भवति । जहाति जिहीते वा भावान्-हायनः संवत्सरः, जहत्युदकं दूरोत्थानाव जिहते वा द्रुतंहायना नाम वोहयः । काल-द्रोह्योरिति किम् ? हाता ॥६॥
प्र-सू-खोऽकः साधों ।। ५. १. ६१ ॥
'प्रस ल' इत्येतेभ्यो धातुभ्यः साधुत्व-विशिष्टेऽर्थे वर्तमानेभ्योऽकः प्रत्ययो भवति । साधु प्रवते इति-प्रवकः, एवं-सरकः, लवकः । साधाविति किम् ? प्रावकः, सारकः, लावकः ॥६९॥
आशिष्यकन् ॥ ५. १.७० ॥
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२२४ ]
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बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-७१-७३
इष्टस्य प्रार्थनमाशीः, तस्यां गम्यमानायां धातोरकन् प्रत्ययो भवति ।
जीवतादित्याशास्यमानो जीवकः, एवं नन्दकः, भवकः । आशिषीति किम् ? जीविका, नन्दिका, भाविका । नकार "इच्चापुंसोऽनित्क्याप्परे" ( २-४-१०७ ) इत्यत्र व्युदासार्थः, तेन-जीवका, नन्दका, भवका ।।७०।।
तिक कृतौ नाम्नि ॥ ५. १.७१ ॥
आशिषि विषये संज्ञायां गम्यमानायां धातोस्तिक कृतश्च सर्वे प्रत्यया भवन्ति । शम्यात्-शान्तिः, तन्यात-तन्तिः, सन्याव-सन्तिः, रमतामित्येवमासंशित:-रन्तिः । कृतवीरो भूयादिति- वीरभूः, मित्रभूः, क्विप् । अग्निरस्य भूयात-अग्निभूतिः, देवभूतिः, . प्रश्वभूतिः, सोमभूतिः। कुमारोऽस्य दुरितानि नयतामित्याशंसित:-कुमारनीति:, मिन्त्रमेनं द्धिषीष्ट-मित्रवृद्धिः, क्तिः । देवा एनं देयासुदेवदत्तः, यज्ञदत्तः, विष्णरेनं श्रयादितिविष्णश्रुतः क्तः । शर्व एनं वृषीष्ट-शर्ववर्मा, मन् । गङ्गा एनं मिद्यात्-गङ्गामिन्त्रः, त्रक् । वधिषीष्ट-वर्धमानः ।।७१॥
न्या० स०-तिककृतौ नाम्नि-वीरभूरिति-वीरादे: शब्दात् भवत्यादेर्धातोरनेन प्रत्ययविधिः, ततो यद्यपि साक्षात् ङस्युक्तता नास्ति तथापि संज्ञायां प्रत्ययविधानात् सूचितेति 'ङस्युक्तम्' ३-१-४९ इति सः, 'नामनाम्ना' ३-१-१८ इति वा । अग्निभूतिरिति-- कृत्त्वात् कर्तयेव प्राप्तौ बहुलाधिकारात् संबन्धादावपि प्रत्ययः ।
कर्मणोऽण || ५. १. ७२ ।।
निर्वत्य-विकार्य-प्राप्यरूपात् कर्मणः परस्माद्धातोरण प्रत्ययो भवति, अजाद्यपवादः । निर्वात्-कुम्भकार. नगरकारः। विकार्यात्-काण्ड लावः शरलावः । प्राप्यात्वेदाध्यायः, चर्चापारः, भारहारः, सूत्रधारः, भारवाहः, द्वारपाल, उष्ट्रप्रणायः, कमण्डलुग्राहः ।
'आदित्यं पश्यति, हिमवन्तं शृणोति, ग्रामं गच्छति' इत्यादौ प्राप्यात कर्मणोऽनभिधानान्न भवति, महान्तं घटं करोतीति सापेक्षत्वात् , अनभिधानाच्च । तथा च बहुलाधिकारः । निर्वत्यं-विकार्याभ्यामपि क्वचिन्न भवति-संयोगं जनयतिः, स्रजं विरचयति, वृक्षं छिनत्ति, कन्यां मण्डयति । णकारो वृद्ध्यर्थः ।।७२।।
न्या० स०-कर्मणोऽण-सापेक्षत्वादिति-अगमकत्वमनपेक्ष्य सापेक्षत्वमात्रमुत्तरम् । अनभिधानाच्चेति-विवक्षितार्थाप्रतिपादनात्, अणि हि सति महतो घटकारस्य प्रतीतिः ।
शीलि-कामि-भक्ष्या-ऽऽचरीक्षि-तमोः णः॥ ५. १. ७३ ॥
कर्मणः परेभ्यः ‘शीलि, कामि, भक्षि, आचरि, ईक्षि, क्षम्' इत्येतेभ्यो धातुभ्यो णः प्रत्ययो भवति ।
धर्म शीलयति-धर्मशीलः, धर्मशीला, धर्मकामः, धर्मकामा, वायुभक्षः, वायुभक्षा,
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पाद-१, सूत्र-७४-७६ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२२५
आपूर्वश्चरि:-कल्याणाचारः, कल्याणाचारा । सुखप्रतीक्षः, सुखप्रतीक्षा, बहुक्षमः, बहुक्षमा। प्रल्घान्तः शीलादिभिर्बहुव्रीहौ सति धर्मशीलादयः सिध्यन्ति, अण्बाधनार्थ तु वचनम् , अणि हि स्त्रियां ङो: स्यात्, तथा च धर्मशीलोत्याद्यनिष्टं रूपं स्यात् । एवंप्रायेषु च बहुव्रीह्याश्रयणे अम्भोऽतिगमेति स्याद, अम्भोतिगामी चेष्यते । कामीति ण्यन्तस्योपादानादण्यन्तादणेव-पयस्कामीति, ण्यन्तस्य तु णे सति-पयःकामेति भवति । अत एव च ण्यन्तनिर्देशादण्यन्तनिर्देशे "अतः कृ-कमि कंस० (२-३.५) इत्यादौ केवलस्यैव कमेग्रहणम् , तेन-णे सति सकारादेशो न भवति ॥७३।।
न्या० स०-शीलिकामि०-अल्घान्तरिति-ण्यन्तेभ्योऽलि अण्यन्तेभ्यस्तु घत्रि । अम्भोतिगमेति स्यादिति-अतिगम्यते 'युवर्ण' ५-३-२८ इत्यलि बहुव्रीहौ न चैतदिष्यते, स्थिते तु अम्भः कर्म अतिगच्छति 'कर्मणोऽण्' ५-१-७२ ।
गायोऽनुपसर्गाट्टक् ॥ ५. १. ७४ ॥
कर्मणः परादनुपसर्गाद् गायतेष्टक् प्रत्ययो भवति । वकं गायति-वक्रगः, वनगी; सामगः. सामगी। अनुपसर्गादिति किम् ? वक्रसंगायः, खरसंगायः । वक्रादयो गीतविशेषाः । गायतिनिर्देशो गाङ् निवृत्त्यर्थः ॥७४।।
सुरा-शीधोः पिवः ॥ ५. १. ७५ ।।
सुरा-शीधुभ्यां कर्मभ्यां परादनुपसर्गात् पिबतेष्टक् भवति । सुरां पिबति-सुरापः, सुरापी; शोधुपः शोधुपी।
सराशीधोरिति किम् ? क्षीरपा बाला । पिब इति किम् ? सुरां पाति-सुरापा। कथं संज्ञायां सुरापा सुरापीति ? पाति-पिबत्योर्भविष्यति । न च धात्वर्थभेदः, संज्ञासु धात्वर्थस्य व्युत्पत्तिमात्रार्थत्वात् ।।७।।
न्या० स०-सुराशीधो०-कथमिति-अत्र ङी विकल्पः कथमित्याशङ्का ।
आतो डोऽहा-वा-मः ।। ५. १.७६ ॥
कर्मणः परादनुपसर्गात् ह्वा-वा-मावजितादाकारान्ताद् धातोर्डः प्रत्ययो भवति । गां ददाति-गोदः, कम्बलदः, पाणित्रम्, अङ्गलित्रम्, ब्रह्मज्यः, वपुर्वीतवान-वपुर्व्यः । अह्वावा-म इति किम् ?स्वर्गह्वायः, तन्तुवायः, धान्यमायः, अणेव । कथं मित्रहः? "क्वचित" ( ५-१-१७१ ) इत्यनेन डः। अनुपसर्गादित्येव ? गोसंदायः, वडवासंवायः । उपसगैरव्यबधानतैवेत्यण ॥७६॥
न्या० स०-आतो डो-अनिद्दिष्टार्थास्त्रिष्वपि कालेषु भवन्तीति वपुर्व्य इत्यत्र भूतेऽपि ङः । तन्तुवाय इति-वातिवायत्योरकर्मकत्वान्नग्रहणम् । धान्यमाय इति-धान्यं माति मिमीते मयते वा। अव्यवधानतैवेति-नन्वणपि ना प्राप्नोति कर्मण उपसर्गेण व्यव
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२२६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-७७-८२
हितत्वादित्याह-इत्यण् इति । एतत् कुतो लभ्यते । 'गायोऽनुपसर्गाट्टक' ५-१-७४ सूत्रे उपसर्गवर्जनात्, अन्यथा कर्मणः परात् उपसर्गव्यवधाने न प्राप्नोत्येव ।
समः ख्यः॥ ५.१.७७ ॥
कर्मणः परात् संपूर्वात ख्या' इत्येतस्मात् डो भवति । गां संख्याति संचष्टे वागोसंख्यः, पशुसंख्यः । उपसर्गार्थ वचनम् ।।७७ ।
दश्वाङः ॥ ५. १. ७८।।
कर्मणः परादाङपूर्वाद ददाते. 'ख्या' इत्येतस्माच्च डो भवति । दायमादत्ते दायादः, स्त्रियमाचष्टेस्च्याख्यः, प्रियाख्यः । इदमुत्तरं चोपसर्गार्थ वचनम् ।।७।।
प्राज्ज्ञश्च ।। ५. १. ७१ ।।
कर्मणः परात् प्रपूज्जिानातेदारूपाच्च डो भवति । पथिप्रज्ञः, प्रपाप्रदः । इह पूर्वसूत्रे च दारूपं गृह्यते, न संज्ञा ज्ञा-ख्यासाहचर्यात् । पूर्वसूत्रे तु दाग एव ग्रहणं तस्यैवाङा योगात तेन स्तनौ प्रधयति-स्तनप्रधायः ।।७।।
न्या० स०-प्राज्ञश्च ०-दारुपं गृह्यते इति-तेन दांवदेवोरपि ग्रहस्तेन केदारप्रदो भोजनप्रदश्चेति सिद्धम् ।
आशिषि हनः । ५. १.८०॥
आशिषि गम्यमानायां कर्मणः पराद्धन्ते? भवति । शत्रु वध्यात्-शत्रुहः, पापहः, दुःखहः । गतावपीति कश्चित् , क्रोशं हन्ति-क्रोशहः ।।८०॥
क्लेशादिभ्योऽपात् ॥ ५. १. ८१ ।। क्लेशादिभ्यः कर्मभ्यः परादपपूर्वाद्धन्तेर्डो भवति, अनाशीरर्थ आरम्भः ।
क्लेशमपहन्ति-क्लेशापहः, तमोपहः, दुःखापहः, ज्वरापहः, दोपह, दोषापहः, रोगापहः, वातपित्तकफापहः विषाग्निदर्पापहः । बहुवचनाद् यथावर्शनमन्येभ्योऽपि भवति । कथं 'दाघाट:, चार्वाघाट:? घटतेरणि संज्ञायां भविष्यति । चारु आहन्तीति-चार्वाधातो हन्तेरेव । दार्वाधातोऽपि तहि स्याव , असंज्ञायामिष्यत एव । एवमसंज्ञायां संपूर्वाभ्यां घटि-हनिभ्या-'वर्णसंघाटः, वर्णसंघातः, पदसंघाटः, पदसंघातः' इत्यादि सिद्धम्, हन्तेरेव वा पृषोदरादित्वात् वर्णविकारः । ८१।।
__ न्या० स०-क्लेशादिभ्यो-कथं दार्वाघाट इत्यादि-दारावाङो हन्तेरण अन्तस्य च ट: संज्ञायां चारौ तु ड इति परेषां सूत्रद्वयमत्र तत् स्वमते कथमित्याह-घटतेरणीति-दारुः सारसः, चारुस्तु जीवभेदस्तमाघटते संबध्नाति ।
कुमार-शीर्षाण्णिन् ।। ५. १.८२ ॥
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पाद-१, सूत्र-८३-८७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ २२७
कुमार-शीर्षाभ्यां कर्मभ्यां पराद्धन्तेणिन् प्रत्ययो भवति । कुमारं हन्ति-कुमारघाती, शीर्षघाती । अत एव निपातनाच्छिरसः (शीर्षभावः ), शीर्षशब्दोऽकारान्तः प्रकृत्यन्तरं वा । तथा च "शीर्षे स्थितं पृष्ठतः" इति ॥२॥
श्रचित्ते टक ।। ५. १.८३ ॥ कर्मणः पराद्धन्तेरचित्तवति कर्तरि टक् प्रत्ययो भवति ।।
वातं हन्ति-वातघ्नं तेलम्, पित्तघ्नं धृतम्, श्लेष्मघ्नं मधु, रोगघ्नमौषधम्, जायाघ्नाः तिलकालकाः पतिघ्नी पाणिरेखा, सर्वकर्मघ्नी शैलेशी, सुघ्नो नगरम, शतघ्नी आयुधविशेषः, हस्तघ्नो ज्याघा-तत्रो वर्धपट्टः। बहुलाधिकारात सध्नादयः संज्ञायाम् । अचित्त इति किम् ? पापघातो यतिः, चौरघातो राजा, आखुघातो बिडाल:, मत्स्यघातो बकः, सस्यघातो वृषभः ।।८३।।
न्या० स०-प्रचित्ते टक तिलकालका इति-तिलानां तुल्यास्तिलका अलका इवालकास्ते च ते अलकाश्च, येषां लोके मित्र इति प्रसिद्धिः। शैलेशीति-शिलानामीशः शिलेशस्तर येयं निष्प्रकम्पत्वात् ।
जाया-पतेश्चिह्नवति ॥ ५. १.८४ ॥
जाया-पतिभ्यां कर्मभ्यां पराद्धन्तेचिह्नवति कर्तरि टक् भवति । चिह्न शरीरस्थं शुभाशुभसूचकं तिलकालकादि । जायाघ्नो ब्राह्मणः, पतिघ्नी कन्या, अपलक्षणयुगित्यर्थः । चित्तवदर्थ आरम्भः ।।४।।
ब्रह्मादिभ्यः॥ ५. १.८५ ॥
ब्रह्माविभ्यः कर्मभ्यः पराद्धन्तेष्टक् प्रत्ययो भवति । ब्रह्म हम्ति-ब्रह्मघ्नः, कृतघ्नः, शत्रुध्नः, वृत्रघ्नः, भ्रूणघ्नः, बालघ्नः, शशध्नी पक्षिजातिः, गां हन्ति-गोध्नः पातकी। बहुलाधिकारात संप्रदानेऽपि-गां हन्ति यस्मै आगताय दातुस-गोध्नोऽतिथिः । बहुवचनाद् यथादर्शनमन्येभ्योऽपि भवति । चित्तवदर्थ प्रारम्भः ।।८५॥
हस्ति-बाहु-कपाटाच्छतो ॥ ५. १.८६ ॥ एम्यः कर्मभ्यः पराद्धन्तेः शक्तौ गम्यमानायां टक् भवति, चितवदर्थ आरम्भः ।
हस्तिनं हन्तु शक्तः-हस्तिघ्नो मनुष्यः, बाहुघ्नो मल्लः, कपाटघ्नश्चौरः । शक्ताविति किम् ? हस्तिनं हन्ति विषेण-हस्तिघ्रातो रसदः ।।८६।।
नगरादगजे ॥ ५. १. ८७॥
नगराव कर्मणः पराद्धन्तेर्गजवजिते कर्तरि टक् भवति, चित्तवदर्थ आरम्भः । नगरघ्नो व्याघ्रः । अगज इति किम् ? नगरघातो हस्ती ॥७॥
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२२८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-८८-६४
राजघः ॥ ५. १. ८८॥
राज्ञः कर्मणः पराद्धन्तेष्टक् प्रत्ययो घादेशश्च निपात्यते । राजानं हन्तिराजघः ||८||
पाणिघ-ताडघौ शिल्पिनि ॥ ५. १.८१ ॥
पाणि-ताडाभ्यां कर्मभ्यां पराद्धन्तेः शिल्पिनि कर्तरि टक् घादेशश्च निपात्यते । पाणि हन्ति पाणिघः, ताडवः शिल्पी। पाणिना ताडेन च हन्तीति करणादपि केचित् । शिल्पिनीति किम् ? पाणिघातः, ताडघातः ।।८।।
कुक्ष्यात्मोदरात् भृगः खिः ॥ ५. १. १० ॥
एभ्यः कर्मभ्यः परात् भृगो धातोः खि: प्रत्ययो भवति । कुक्षिमेव विति-कुक्षिभरिः, प्रात्मभरिः, उदरंभरिः । उदरात केविदेवेच्छन्ति । खकारो मागमार्थः ।।१०।।
अर्होऽच ॥ ५. १. ११॥
कर्मणः परावर्हतेरच् प्रत्ययो भवति, प्रणोऽपवादः । पूजामर्हति-पूजाह', साधुः, . पूजाऱ्या प्रतिमा ॥६१|| धनु-दण्ड-रसरु लागला-कुशष्टि-यष्टि शक्ति-तोमर घटाद ग्रहः
॥५. १.१२॥ एभ्यः कर्मभ्यः पराद् अहेरच् प्रत्ययो भवति । धनु हाति-धनुर्ग्रहः, दण्डग्रहः, सरुग्रहः, लाङ्गलग्रहः, अङ्कुशग्रहः, ऋष्टिग्रहः यष्टि ग्रहः, शक्ति ग्रहः, तोमरग्रहः, घटग्रहः, * नामग्रहणे लिङ्गविशिष्टस्यापि ग्रहणम् * इति-घटीग्रहः । अणपीत्येके-'धनुहिः, दण्डग्राहः' इत्यादि चोदाहरन्ति ।।१२।।
सूत्राद्धारणे ॥ ५. १. १३॥
सूत्रं कर्पासादिमयं लक्षणसूत्रं वाऽविशेषेण गृह्यते । सूत्रात कर्मणः परात अहेर्ग्रहणपूर्वके धारणेऽर्थे वर्तमानादच् प्रत्ययो भवति ।
सूत्रं गृह्णाति-सूत्रग्रहः प्राज्ञः सूत्रधारो वा, सूत्रमुपादाय धारयतीत्यर्थः । अन्ये त्ववधारणे एवेच्छन्ति, तन्मते-सूत्रग्रहः प्राज्ञ एवोच्यते । धारण इति किम् ? सूत्रग्राहः, यो हि सूत्रं गृह्णाति न तु धारयति स एवमुच्यते ।।६३॥
न्या० स०-सूत्राद्धारणे-अन्ये त्ववधारण एवेति-तन्मते यः सूत्रं धारयत्येव तत्रैवाच् , सूत्रधारस्तु प्रयोजने एव गृह्णाति न तु सर्वकालम् ।
आयुधादिभ्यो धृगोऽदण्डादेः॥ ५. १. १४ ॥
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पाद-१, सूत्र-९५-९८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचऽमोध्यायः
[ २२९
दण्डादीन् वजयित्वा आयुधादिभ्यः कर्मभ्यः परात् धगो धातोरच भवति । धनुधरति-धनुर्धरः, शक्तिधरः, चक्रधरः, वज्रधरः, शूलधरः, हलधरः । प्रादिग्रहणाद् भूधरः, जलधरः, विषधरः, शशधरः विद्याधरः, श्रीधरः, जटाधरः, पयोधरः । बहुवचनाद् यथादर्शनमन्येभ्योऽपि भवति । अदण्डादेरिति किम् ? दण्डधारः, कुण्डधारः, काण्डधारः, कर्णधारः, सूत्रधारः, छत्रधार ।।४।।
न्या० स०-प्रायुधादि-दण्डादीनां वजनात्तेभ्योऽण् निणिन्ये, अन्यथा युधादिद्वारोऽच् प्रत्ययोऽपि स्यादिति संदेहः स्यात् । .
हगो वयो-ऽनुद्यमे ॥ ५. १.१५॥
कर्मणः पराद्धरतेवयसि अनुद्यमे च गम्यमाने अच् भवति । प्राणिनां कालकृतावस्था वय, उद्यम उत्क्षेपणम्, आकाशस्थस्य वा धारणम्, तदभावोऽनुद्यमः । अस्थिहरः श्वशिशुः, कवचहरः क्षत्रियकुमारः । अनुधमे-अंशहरो दायावः, मनोहरः प्रासादः, मनोहरा माला । संज्ञायां टोऽपीति कश्चित-मनोहरी विषहरी मणिः । वयो-ऽनुद्यम इति किम् ? भारहारः । वयसि क्रियमाण: संभाव्यमानो वोद्यम उच्यमानो वयो गमयतीति उद्यमार्थ वयोग्रहणम् ।। ९५।।
न्या० स०-हगो वयो-क्रियमाण इति-क्रियमाणतया संभाव्यमान इत्यर्थः । संभाव्यमानो वेति-अकुर्वन्नपि, ततः कर्मास्मिन् , कर्मणि अयं शक्त इत्येवं संभाव्यमान इत्यर्थः । वयोग्रहणमिति-नन्वत्र वयोग्रहणं किमर्थम् ? इत्याह-उद्यमार्थमिति, अयमर्थो यत्र वयस्तत्रोद्यमेऽसत्यपि भवतीत्यर्थ , यथा कवचहर इत्यादौ ।
आङः शीले ।। ५. १. १६ ॥
कर्मणः परादाङपूर्वाद्धरतेः शोले गम्यमानेऽच् प्रत्ययो भवति, शीलं स्वाभाविकी प्रवृत्तिः ।
पुष्पाण्याहरतीत्येवंशील:-पुष्पाहरः, फलाहरः, सुखाहरः, पुष्पाद्याहरणे स्वाभाविकी फलनिरपेक्षा वृत्तिरस्येत्यर्थः । आङ इति किम् ? पुष्पाणि हर्ता, तृन् । शील इति किम् ? पुष्पाहारः । 'सुखाहरः' इत्यशीलेऽनुमेऽर्थे पूर्वेणाच् । लिहादिप्रपञ्चः प्रकरणमिदम् ॥६६॥
न्या० स०-प्राङः शोले-ननु लिहादिगणे एव धातूपपदार्थनियमः क्रियतां, किममीभिः सूत्रः ? इत्याह-लिहादिप्रपञ्च इति ।
दृति नाथात् पशाविः ।। ५. १. १७॥
प्राभ्यां कर्मभ्यां पराद्धरतेः पशो कर्तरि 'इ:' प्रत्ययो भवति । इति हरति-दृतिहरिः श्वा, नाथहरिः सिंहः । पशाविति किम् ? दृतिहारो व्याधः, नाथहारी गन्त्री॥७॥
रजः फले-मलाद ग्रहः ॥ ५. १. १८ ॥
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२३० ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-९९-१०३
एभ्यः कर्मभ्यः पराद् ग्रहेरिर्भवति । रजोग्रहिः कञ्चुकः, फलेग्रहिर्वक्षः, सूत्रनिर्देशादेत्वम्। मलग्रहिः कम्बलः । रजो-मलाभ्यां केचिदेवेच्छन्ति ।।६८॥
देव-वातादापः ।। ५. १. ११ ॥
देव-वाताभ्यां कर्मभ्यां परादापेर्धातोरिः प्रत्ययो भवति । देवानाप्नोति देवापिः, वातापिः ||६||
शकृत् स्तम्बाद् वत्स-बीही कृगः ।। ५. १. १००॥
शकृत-स्तम्बाभ्यां कर्मभ्यां पराव कृगो यथासंख्यं वत्से वोहौ च कर्तरि 'इ:' प्रत्ययो भवति । शकृत्करिर्वत्सः, स्तम्बकरिोहिः । वत्स-बोहाविति किम् ? शकृत्कारः, स्तम्ब. कारः ॥१०॥
कि-यत्-तद् बहोरः ॥ ५. १. १०१ ॥
एभ्यः कर्मभ्यः परात करोतेरः प्रत्ययो भवति । किं करोति-किकरः, किंकरा, यत्करः, यत्करा, तत्करः, तत्करा, चौर्य-तस्करः । बहुकरः, बहुकरा; बहुकरीति संख्यावचनादुत्तरेण ट: । जातिरिदानी किंकरीति हेत्वादौ टः ।।१०१॥
संख्या-ह-दिवा-विभा-निशा-प्रभा-भाश्चित्र-कर्नाद्यन्ताऽनन्त-कारबाहरुधनुर्नान्दी-लिपि-लिबि-बलि-भक्ति-क्षेत्र-जङ्घा-क्षपा-क्षणदारजनि
दोषा-दिन-दिवसाट्टः ॥ ५. १. १०२ ॥ संख्येत्यर्थप्रधानमपि, तेनैकादिपरिग्रहः, एभ्यः कर्मभ्यः परात् करोतेष्टः प्रत्ययो भवति । अहेत्वाद्यर्थ आरम्भः ।
संख्यां करोति-संख्याकरः, एककरः, द्विकरः, त्रिकरः । अहस्करः, दिवाकरः, विभाकरः, निशाकरः, प्रभाकरः, भास्करः, चित्रकरः, कर्तृकरः, प्रादिकरः, अन्तकरः, अनन्तकरः कारकरः, बाहुकरः, अरुष्करः, धनुष्करः, नान्दीकरः, लिपिकरः, लिबिकरः, बलिकरः, भक्तिकरः, क्षेत्रकरः, जङ्घाकरः, क्षपाकरः, क्षणदाकरः, रजनिकरः, रजनीकर:, दोषाकरः, दिनकरः, दिवसकरः । टकारो ड्यर्थ.-संख्याकरी ॥१०२।। हेतु-तच्छीला-ऽनुकूलेऽशब्द-श्लोक कलह-गाथा-बैर-चाटु-सूत्र
___ मंत्र-पदात् ॥ ५. १. १०३॥ हेतुः प्रतीतशक्तिकं कारणम्, तच्छीलं तत्स्वभाव:, अनुकूल पाराध्यचित्तानुवर्ती, एषु कर्तृषु शब्दादिवजितात् कर्मणः पराव करोतेष्टः प्रत्ययो भवति ।
हेतौ-यश: करोति-यशस्करी विद्या, शोककरी कन्या, कुलकरं धनम् । तच्छोले
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पाद-१, सूत्र-१०४-१०६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२३१
क्रीडाकरः, श्राद्धकरः। अनुकले-प्रेषणाकरः, वचनकरः । हेत्वादिष्विति किम् ? कुम्भकारः । शब्दादिनिषेध: किम् ? शब्दकार:, श्लोककारः, कलहकारः, गाथाकारः, वैरकारः, चाटुकारः, सूत्रकारः, मन्त्रकारः, पदकारः । तच्छीले ताच्छोलिकश्च प्रत्यय उदाहार्यः ।१०३
अतौ कर्मणः॥ ५. १. १०४ ॥
कर्मन्शब्दात् कर्मणः परात् करोते तो गम्यमानायां टो भवति, भृतिवेतनं कर्ममूल्यमिति यावत् ।
कर्मफरो भृतकः, कर्मकरी दासी। भृताविति किम् ? कर्मकार: । पुनः कर्मग्रहणं शब्दरूपकर्मप्रतिपत्त्यर्थम् ।।१०४॥
नेम-प्रिय-मद्र-भदात् खाण ॥ ५. १. १०५॥
एभ्यः कर्मभ्यः परात करोतेः 'ख अण' इत्येतो प्रत्ययौ भवतः । क्षेमं करोतिक्षेमंकरः, क्षेमकारः। प्रियंकरः, प्रियकारः । मद्रंकरः, मद्रकारः । भद्रंकरः, भद्रकारः । भद्रात केचिदेवेच्छन्ति । एभ्य इति किम् ? तीर्थकरः, हेत्वादिषु टः । 'तीर्थकरः, तीर्थकारः' इत्यपि कश्चित् । खो वेति सिद्धे अण्ग्रहणं हेत्वादिषु टबाधनार्थम् ।
- कथं योग-क्षेमकरी लोकस्येति ? उपपद विधिषु तदन्तविधेरनाश्रयणात, अत एव "संख्या" (५-१-१०२) इति सूत्रेऽन्तग्रहणे सत्यप्यनन्तग्रहणम्, उत्तरत्र च भयग्रहणेऽप्यभयग्रहणम् ।।१०।।
मेघर्ति-भया ऽभयात् खः । ५. १. १०६ ॥
एभ्यः कर्मभ्यः परात् करोतेः खप्रत्ययो भवति । मेघान् करोति-मेघंकरः । ऋतिर्गतिः सत्यता वा, ऋतिकरः, भयंकरः, अभयंकरः । हेत्वादिविवक्षायां टमपि बांधते पर. त्वात्-भयंकरं श्मशानम् ।।१०६।।
प्रिय-वशाद् वदः ।। ५. १. १०७॥
आभ्यां कर्मभ्यां पराद् वदेः खो भवति । प्रियं वदति-प्रियंवदः, वशंवदः ।।१०।। द्विषन्तप-परन्तपौ ।। ५. १. १०८॥
द्विषत-परशब्दाभ्यां कर्मभ्यां परात् ण्यन्तात् तपेः खः प्रत्ययो ह्रस्वत्वं द्विषत्तकारस्य मकारश्च निपात्यन्ते । द्विषतस्तापयति-द्विषन्तपः, परंतपः । निपातनस्येष्ट विषयत्वात स्त्रियामनभिधानम्-द्विषतीतापः । अण्यन्त्स्य च तपेन भवति-द्विषतः परांश्च तपतिद्विषत्तापः, परतापः ॥१०॥
परिमाणार्थ-मित-नखात् पचः॥ ५. १. १०१ ॥
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२३२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [पाद-१, सूत्र-११०-११५
सर्वतो मानं परिमाणम्, तदर्थाः प्रस्थादयः शब्दाः, ऐभ्यो मित-नखाभ्यां च कर्मभ्यां परात पचेः खः प्रत्ययो भवति । प्रस्थंपचा स्थालो, द्रोणंपचा दासी, प्रल्पंपचा मुनयः, “पान्तावल्पंपचान् मुनीन्,” मितंपचा ब्राह्मणी, नखंपचा यवागूः ॥१०६।।
कूला-ऽभ्र-करीषात् कषः॥ ५. १. ११०॥
एभ्यः कर्मभ्यः परात् कषेः खः प्रत्ययो भवति । कलंकषा नदी, प्रनकषो गिरिः, करीषंकषा वात्या ।।११०॥
सर्वात् सहश्च ॥ ५. १. १११॥
सर्वशब्दात् कर्मणः परात् सहेः कषेश्च खः प्रत्ययो भवति । सर्व सहते-सर्वसहो मुनिः, सर्वकषः खलः ।।१११।।
भृ-वृ-जि-तृ-तप-दमेश्व-नाम्नि || ५. १. ११२ ॥
कर्मणः परेभ्य एभ्यः सहश्च खो भवति, नाम्नि-संज्ञायाम् । विश्वं बिभति-विश्वं. भरा वसुधा । वृ-पतिवरा कन्या । जि-शत्रुञ्जयः पर्वतः, धनंजयः पार्थः । तृ-रथंतरं साम । तप-शत्रुतपो राजा। दमिरन्तभूतण्यर्थो ण्यन्तश्च गृह्यते, बलि दाम्यति दमयति वा-बलिदमः कृष्णः, अरिदमः, सह-शत्रुसहः, एतौ राजानी । नाम्नोति किम् ? कुटुम्ब बितिकुटुम्बभारः । केचित् तु-रथेन तरति-रथंतरं सामेत्यकर्मणोऽपीच्छन्ति ।।११२॥
धारेधर च ॥ ५. १. ११३ ॥
कर्मणः पराद् धारयतेः संज्ञायां खः प्रत्ययो भवति, 'घर्' इत्ययमादेशश्च । वसु धारयति-वसुंधरा पृथ्वी । युगंधरः, सीमंधरः, तीर्थकरावेतौ । संज्ञायामित्येव-छत्रधारः ।।११३॥
पुरंदर-भगंदरौ ॥ ५. १. ११४ ॥
एतौ संज्ञायां खप्रत्ययान्तौ निपात्येते । पुरो दारयति-पुरंदरः शक्रः, भगं दारयतिभगंदरो व्याधिः। दारयतेह्रस्वः पुरोऽमन्तता च निपात्यते । पुरशब्दपूर्वस्य तु पुरदार इति भवति ॥११४॥
न्या० स०-पुरन्दर०-पुरशब्दपूर्वस्येति-निपातनस्येष्ट विषयत्वात् । वाचंयमो व्रते ॥ ५. १. ११५ ॥
वतं शास्त्रीयो नियमः, तस्मिन् गम्यमाने वाचः कर्मणः पराद् यमेर्धातोः खो वाचश्चामन्तता निपात्यते। वाचं यच्छति नियमयति वा-वाचंयमो व्रती। व्रत इति किम् ? वाग्यामोऽन्यः ॥११५॥
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पाद-१, सूत्र-११६-१२१ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२३३
न्या० स०-वाचंयमो-शास्त्रीयो नियम इति-शास्त्रं संजालमस्य उपदेशकतया, शास्तुः सकाशात् इतः प्राप्तो वा, यद्वा शास्तारं कर्मताफ्नमित. प्राप्तः।
मन्याण्णिन ॥ ५, १, ११६ ॥
कर्मणः परान्मन्यतेणिन् प्रत्ययो भवति । पण्डितं मन्यते बन्धं-पंडितमानी बन्धोः । दर्शनीयां मन्यते भार्या-दर्शनीयमानी भाया । श्यनिर्देश उत्तरार्थः ॥११६॥
न्या० स०-मन्या०-उत्तरार्थ इति-मनुतेनिवृत्त्यर्थश्च । कर्तुः खश् ।। ५. १. ११७॥
प्रत्ययार्थात् कर्तु: कर्मणः परान्मन्यतेः खश् प्रत्ययो भवति । यदा प्रत्ययार्थ कर्ता प्रात्मानमेव दर्शनीयत्वादिना धर्मेण विशिष्टं मन्यते तदाऽयं कर्म, तत्रायं विधिः ।
पण्डितमात्मानं मन्यते-पण्डितंमन्यः, पट्वीमात्मानं मन्यते पद्विमन्या, विद्वन्मन्यः, विदुषिमन्या । प्रसरूपत्वाणिन्नपि-पण्डितमात्मानं मन्यते-पण्डितमानी पटुमानिनी; विद्वन्मानी, विद्वन्मानिनी। कर्तु रिति किम् ? वर्शनीयमानी चैत्रस्य, पूर्वेणात्र णिन्नेव । शकारः शित्कार्यार्थः ॥११७ ।
एजेः॥ ५. १.११८॥
कर्मणः परादेजयतेः खा भवति । मनायेजयति-अमेजयः, जनमेजयः, अरिमेजयः ।।११।।
शुनी-स्तन-मुञ्ज-कूला-ऽऽस्य-पुष्पात् धेः ।। ५. १. १११ ॥
एभ्यः कर्मभ्यः परात् टघेः खश् भवति । शुनी धयति-शुनिधयः, स्तनंषयः, मुजघयः, कलंधयः, प्रास्यंधयः, पुष्पंधयः । मुजाविभ्यः केचिदेवेच्छन्ति । धेष्टकारो यर्थःशुनिधयो स्तनंधयो सर्पजातिः ।।११९॥
न्या० स०-शुनीस्तन०-शुनिधयोति-क्रियावाचकत्वात् जातिद्वारा डीन प्राप्त इति टकरणम् ।
नाडी-घटी-खरी-मुष्टि-नासिका-वाताद धमश्च ।। ५. १. १२०॥
एम्यः कर्मभ्यः पराद् धमतेष्ट्धेश्च खश भवति । नाडौं धमति धयति वा-नाडिषमः, नाडिधयः । घटिंधमः, घटिषयः । खरिधमः, खरिषय । मुष्तिषमः, मुष्टियः । नासिकधमः, नासिकंधयः । वातंघमः, वातंधयः ।
__ यन्तनिर्देशस्तदमावे खशप्रत्ययनिवृत्त्यर्थः-नाडि धमति धयति वा-नाडिमः, नाडिषः, घटध्मः, घटधः, खरध्मः खरधः ।।१२०॥
पाणि-करात् ॥ ५. १. १२१ ॥
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२३४]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-१, सूत्र-१-१२२-१२७
आभ्यां कर्मभ्यां पराद् धमतेः खश् प्रत्ययो भवति । पाणि धमति-पाणिधमः, करंधमाः । पाणि-कराव धेरपीति कश्चित-पाणिधयः, करंधयः । पाणिधमाः, करंधमाः, नाडिधमाः पन्थान इति तद्योगाद्, यथा-मञ्चाः क्रोशन्तीति ।।१२१॥
न्या० स०-पाणिकराव-पाणिधमा इति पाणिधमपुरुषयोगात् पथां ताच्छब्द्यं, अधिकरणे वा 'बहुलम्' ५-१-२ इति खश् इति पारायणम् ।
कूलादुद् जोद्रहः ॥ ५. १. १२२ ॥
कलात् कर्मण पराभ्याम् 'उद्रुज उद्वह,' इत्येताभ्यां पर. खश भवति । कूलमुद्रुजो गजः, कूलमुद्वहा नदी ।।१२२॥
वहाऽभ्राल्लिहः ॥ ५. १. १२३ ॥
वहा-ऽभ्राभ्यां कर्मभ्यां पराल्लिहेः खश् भवति । वहं लेढि-वहंलिहो गौः, अभ्रंलिहः प्रासादः ।। १२३ ।
बहु-विध्वरुस् तिलात् तुदः॥ ५. १. १२४ ॥
एभ्यः कर्मभ्यः पराव तुदेः खश् भवति । बहुं तुदति बहुन्तुदं युगम्, विधुतुदो राहु, . अरुंतुदः पीडाकरः, तिलंतुदः काकः । बहोः केचिदेवेच्छन्ति ।।१२४।। ।
न्या० स०-बहुविध्वरु०-अरुंतुद इति-मोन्ते संयोगस्य' २ १-८८ इति स लोपः।।" ललाट-बात-शर्धात् तपा-ज-हाकः ।। ५. १. १२५॥
ललाटादिभ्यः कर्मभ्यः परेभ्यो यथासंख्यं तप अज् हाक , इत्येतेभ्यः खश् भवति । ललाटं तपति ललाटंतपः सूर्यः, वातमजन्ति-वातमजा मृगाः, शर्धजहति शर्धजहा माषाः । खशः शित्त्वादजेर्वी आदेशो न भवति । हाक: ककारो हाङो निवृत्यर्थः ॥१२५।।
असूर्योग्राद् दृशः ॥ ५. १. १२६ ॥
प्रसूर्योग्राभ्यां कर्मभ्यां पराव दृशेः खश् भवति । सूर्यमपि न पश्यन्ति-असूर्यपश्या राजदाराः, दृशिनां संबद्धस्य नमः सूर्येण सहासामर्थेऽपि गमकत्वात् समासः । उग्रं पश्यति-उग्रंपश्यः ॥१२६॥
न्या० स०-असूर्यो०-गमकत्वादिति-वाक्यार्थप्रतिपादकत्वादित्यर्थः । इरंमदः ॥ ५. १. १२७॥
कर्मण इति निवृत्तम् , इरापूर्वान्माद्यतेः खश् श्यामावश्च निपात्यते । इरा-सुरा, तया माद्यतीतिइरंमदः ॥१२७॥
न्या० स०-इरंमदः-कर्मण इति निवृत्तमिति-निपातनात् धातोरकर्मकत्वाद् वा।
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पाद-१, सूत्र--१२८-५३१ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२३५
नग्न-पलित-प्रिया-न्ध-स्थूल सुभगा-ऽऽदय तदन्ताच्च्व्य र्थेऽच्वे.
र्भुवः खिष्णु खुकञ् ॥ ५. १. १२८ ॥ नग्नादिभ्यः केवलेभ्यस्तदन्तेभ्यश्चाच्च्यन्तेभ्यश्च्च्यर्थे वर्तमानेभ्यः पराद् भवतेः खिष्णु-खुको प्रत्ययो भवतः।
अनग्नो नग्नो भवति-नग्नभविष्णुः, नग्नंभावुकः, पालितंभविष्णुः, पालितंभावुकः; प्रियंभविष्णुः, प्रियंभावुकः; स्थूलं भविष्णुः स्थूलंभावुकः; सुभगंभविष्णुः, सुभगंभावुकः; आढचं भविष्णुः, आढय भावुकः । तदन्तेभ्यः-अननग्नोऽनग्नो भवति-प्रनग्नमविष्णुः, प्रनग्नंभावुकः, असुनग्नः सुनग्नो भवति-सुनग्नंभविष्णुः, सुनग्नंभावुकः; इत्यादि । व्यर्थ इति किम् ? नग्नो भविता। अच्वेरिति किम् ? पाढयोमविता, तृच् । उपपदविषिषु तदन्तविधिरनाश्रित इति तदन्तग्रहणम् ॥१२॥
कृगः खनट करणे ॥ ५. १. १२१ ॥
नग्नादिभ्योऽच्च्यन्तेभ्यश्च्व्यर्थवृत्तिभ्यः परात् करोतेः करणे खनट् प्रत्ययो भवति । करण इति 'कर्तरि" (५-१-३ ) इत्यस्यापवादः । . अनग्नो नग्नः क्रियतेऽनेन नग्नकरणं धुतम् । एवं-पलितंकरणं तैलम् , प्रियंकरणं शीलम्, अन्धकरणः शोकः, स्थलंकरणं दधि, सुभगंकरणं रूपम्, आढय करणं वित्तम् । तदन्तेभ्योऽपि-अननग्नोऽनग्नः क्रियतेऽनेन-अनग्नकरणः पट:, सुनग्नं करणः, अपलितंकरणो रस इत्यादि । व्यर्थ इत्येव ? नग्नं करोति छूतेन, नात्र प्रकृतिविकारभावो विवक्ष्यते । अच्वेरित्येव ? नग्नीकुर्वन्त्यनेन अत्र खनटप्रतिषेधसामादनडपि न भवति, नहि नाग्नीकरणमित्यत्रानट-खनटो रूपे समासे स्त्रियां वा विशेषोऽस्ति । केचित् तु व्यन्तपूर्वादपि खनटमिच्छन्ति-नग्नीकरणं द्यूतम् ।।१२९॥
न्या० स०-कृगः खनट-विशेषोऽस्तीति-व्यन्तत्वादव्ययत्वं खित्यनव्यय' ३.२.१११ इति मोन्तोऽपि न भवति ।
भावे चाशिताद् भुवः स्वः॥ ५. १. १३०॥
आशितशब्दात पराद् भवतेर्भावे करणे चाभिधेये खः प्रत्ययो भवति । आशितेन तृप्तेन भूयते भवता-आशितंभवो वर्तते भवतः; आशितो भवत्यनेन-आशितंभव ओदनः, आशितो भवत्यनया-आशितंभवा पञ्चपूली। प्रसरूपत्वादनडपि-प्राशितस्य भवनम्, न घन सरूपत्वात् । आशित इति निर्देशादश्नातेः कर्तरि तो दीर्घत्वं च । आइपूर्वाद् वा अविवक्षितकर्मकात् कर्तरि क्तः ।।१३०॥
न्या० स०-भावे चाशिता-कर्तरि क्त इति-शील्यादित्वात् अविवक्षितकर्मकादिति'गत्यर्थाकर्मक' ५-१-११ इत्यनेन ।
नाम्नो गमः खड्-डौ च विहायसस्तु विहः ॥ ५. १. १३१ ॥
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२३६ ]
बृहद्वृत्ति लघुन्याससंवलिते [ पाद- १, सूत्र - १३२-१३४
नाम्नः परात् गमेः "खड् ड" इत्येतौ खश्च प्रत्यया भवन्ति, विहायस् शब्दस्य च विहादेशो भवति ।
खड़-तुरो गच्छति-तुरंग, भुजेन भुज इव वा गच्छति भुजंगः, प्रवेण प्लवेन गच्छति प्रवङ्गः, प्लवङ्ग, पतो गच्छति- पतंग, विहायसा गच्छति विहंग: । ड-तुरगः, भुजग:, प्लवगः, विहगः, अत्यन्तगः, सर्वगः, सर्वत्रगः, अनन्तगः, परदारगः, ग्रामगः, गुरुतल्पगः, प्रतीपग: पुरोग:, पीठग:, तीरगः । अग्रादिभ्यस्तदन्तेभ्योऽपि अग्रग, सेनाग्रगः, श्रादिगः, पङ्क्तयादिगः, मध्यगः गृहमध्यगः, अन्तगः, शाखान्तगः, अध्वगः, नगराध्वगः, दूरग:, अदूरगः, पारगः, वेदपारगः, अगारगः, स्त्र्यगारगः, इत्यादि ।
अथ संज्ञायाम् खे गच्छति खगः पक्षी, न गच्छति अगो वृक्षः पर्वतश्च, एवं नगः, उरसा गच्छति उरगः पृषोदरादित्वात् सलोपः । पतो गच्छति- पतगः पक्षी । पद्भ्यां न गच्छतिपन्नं गच्छति वा पन्नगः सर्पः । आपमन्धि गच्छत्यापगा नदी । आशु गच्छति - आशुगः शरः । निम्नगा, समुद्रगा, सततगा, इत्यादि । अगो वृषलः शीतेनेत्य संज्ञायामपि । श्रथ खः सुतं सुतेन वा गच्छति सुतंगमो नाम हस्ती यस्य सौतंगमिः पुत्रः । मितं गच्छतिमितंगमोऽश्वः, अमितंगमा हस्तिनी, जनंगमश्चण्डालः, पूर्वगमाः पन्थानः, हृदयंगमा वाचः, तुरंगमोऽश्वः, भुजंगमः सर्पः प्रवंगमः कपिः, प्लवंगमो भेक:, विहंगमो नभसंगमश्च पक्षी, नभसशब्दोऽकारान्तोऽप्यस्ति । उरंगम इत्यपि कश्चित् । बहुलाधिकाराद् यथाप्रयोगदर्शनं व्यवस्था । डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः ।। १३५ ।।
न्या० स०- नाम्नो गमः भूजेनेति - भोजनं स्थादित्वात्कः, भूजेन कौटिल्येन गच्छति । भूज इवेति भुज्यतेऽनेन भुजः पाणिस्तद्वद्गच्छति, पतो गच्छतीति-क्षीरस्तु पतत्यनेन 'पुन्नाम्नि' ५ ३- १३० इति घे पतः पक्षस्तैर्गच्छतीति । श्रापमब्धिं गच्छतीतिआपोऽत्र सन्ति ज्योत्स्नाद्यण्, अपामयमाधारत्वेन तस्येदमण वा, आप्यते नदीभिरिति वा भावे घञ ।
सुग-दुर्गमाधारे । ५. १
१३२ ॥
सु-दुर्भ्यां पराद् गमेराधारे डः प्रत्ययो निपात्यते । सुखेन दुःखेन च गम्यतेऽस्मि - निति - सुगः, दुर्ग: पन्थाः । आधार इति किम् ? सुगन्ता, दुर्गन्ता । असरूपत्वादनडपि भवति सुगमन:, दुर्गमनः । सुगमो दुर्गम इति कर्मणि ।। १३२ ।।
निर्गो देशे ।। ५. १. १३३ ॥
निस्पूर्वाद् गमेराघारे देशे डो निपात्यते । निर्गम्यतेऽस्मिन् देशे इति- निर्गो देशः । देश इति किम् ? निर्गमनः ।। १३३ ।।
शमो नाम्न्यः ।। ५. १. १३४ ॥
शमो नाम्नः पराद् धातोर्नाम्नि संज्ञायामः प्रत्ययो भवति । शमित्यव्ययं सुखे वर्तते, तत्र भवति - शंभवोऽर्हन् । शं करोति-शंकर:, शंगर:, शंवर:, शंवदः । स्वः पश्येत्या
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पाद -१, सूत्र-१३५-१३६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२३७
दिष्वव्ययानां कर्मत्वदर्शनाच्छमि कर्मणि हेत्वादिष्वपि परवात कृगष्टो बाध्यते-शंकरा नाम परिव्राजिका, शंकरा नाम शकुनिका तच्छीला च । नाम्नीति किम् ? शंकरी जिनदीक्षा ।। १३४ ।।
न्या० स०-शमो नाम्न्य:-कर्मत्वदर्शनादिति-एकेऽव्ययानां कर्मत्वं न मन्यन्ते तन्मतमाक्षिप्याह-ऊध्र्वादिभ्यः-नन कर्त शब्दाद बहवचनं प्राप्नोति ऊर्वादिविशेषणत्वात् ? सत्यं,-सामान्यमिदमित्येकवचनं, यथा-पञ्चादौ घुट् ।
पार्थादिभ्यः शीङः।। ५. १. १३५ ॥
पादिभ्यो नामभ्यः परात् शीङः 'मः' प्रत्ययो भवति । पाश्र्वाभ्यां शेते-पार्श्वशयः, एवं-पृष्ठशयः, उदर शयः । दिग्धेन सह शेते-दिग्धसहशयः, दिग्धसहाव तृतीयासमासात शोङोऽकारः, पश्चादुपपदसमासः । बहुवचनाद् यथादर्शनमन्येभ्योऽपि भवति । अनाधारार्थ प्रारम्भः ।।१३।।
ऊर्धादिभ्यः कर्तुः ॥ ५. १. १३६ ॥
ऊर्धादिभ्यो नामभ्यः कर्तृवाचिभ्यः परात् शोड: 'प्रः' प्रत्ययो भवति । ऊर्ध्वः शेते-ऊर्ध्वशयः, एवम्-उत्तानशयः, अवमूर्धशयः । बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् ॥१३६॥
आधारात् ॥ ५. १. १३७॥
प्राधारवाचिनो नाम्नः परात् शीङः 'अ' प्रत्ययो भवति । खे शेते-खशयः, गर्तशयः, गुहाशयः, हृच्छयः, 'बिलेशयः, मनसिशयः, कुशेशयः' इति सप्तम्या प्रलुप् । गिरिश इति संज्ञायां लोमादित्वाच्छः, क्रियार्थत्वे तु गिरिशय इति भवितव्यम् ॥१३७।।
न्या० स०-आधाराव-गतशय इति-फणगर्तेति पुंस्त्रीत्वे गर्ते शेते इति वाक्यम् । कुशेशय इति-कश्चित्पुमान्, जलजे तु क्लीबत्वं स्यात् । क्रियार्थत्वे इति-कलापके क्रियार्थत्वे तिपि साधितं, न तच्छिष्टसम्मतम् ।
चरेष्टः ।। ५. १. १३८॥
प्राधारवाचिनो नाम्नः पराच्चरेष्टः प्रत्ययो भवति । कुरुषु चरति-कुरुचरः, मद्रचरः, वनेचरः निशाचरः । टकारो ड्यर्थः-कुरुचरी, मद्रचरी । प्राधारादित्येव ? कुरूश्चरति, पश्वालांश्चरति ।।१३८॥
न्या० स०-चरेष्ट:-कुरूश्चरतीति-प्राप्यात्कर्मणः क्वचिदण् भवतीति यद्यणानीयते तदा समासोऽपि भवति तथा च कुरुचारः पञ्चालचारः इत्यपि ।
भिक्षा-सेना-ऽऽदायात् ।। ५. १. १३१ ॥ अनाधारार्थ आरम्भः, एभ्यः पराच्चरेष्टो भवति । भिक्षां चरति-भिक्षाचरः,
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२३८ ]
बृहद्वृत्ति लघुन्याससंवलिते [पाद-१, सूत्र-१४०-१४४
भिक्षाचरी। सेनां चरति-परीक्षते-सेनाचरस्तापसव्यञ्जनः, सेनया वा चरति-सेनाचरः । आदाय-गृहीत्वा चरति-प्रादायचरः, आदानं कृत्वा चरतीत्यर्थः, किमादायेत्यविवव । एभ्य इति किम् ? कुरूश्चरति ॥१३९॥
न्या० स०-भिक्षासे०-तापसव्यञ्जन इति-तपोऽस्यास्ति ज्योत्स्नादित्वादण् तापसः, तस्य व्यञ्जनं चिह्न यस्य, यद्वा तपस इदं तापसं तत् व्यञ्जनं यस्य, यद्वा तापस इति व्यज्यते प्रकटीक्रियते ज्ञायते तापसव्यञ्जनः, यद्वा तापसे व्यजनं व्याजो यस्येति ।
पुरो-ऽग्रतोऽग्रे सर्तेः ॥ ५. १. १४०॥
एभ्यो नामभ्यः परात सर्तेष्टो भवति । पुरः सरति-पुरःसरः, पुरः-सरी । अग्रतः सरति-अग्रतःसरः, आद्यादित्वात् तस् । अग्ने सरति-अग्रेसरः. सप्तम्यलुप, एकारान्तमव्ययं वा; सूत्रनिपातनाद् वैकारः, तत्राग्रं सरति अग्रेण वा सरति-अग्नेसर इत्यपि भवति ।। १४०।
पूर्वात् कर्तुः ॥ ५. १. १४१ ॥
पूर्वशब्दात् कर्तृवाचिनः परात सरतेष्टो भवति । पूर्वः सरति-पूर्वसरः, पूर्वो भूत्वा सरतीत्यर्थः, कस्मात् पूर्व इति अविवक्षव; पूर्वसरी। कर्तु रिति किम् ? पूर्व देशं सरतिपूर्वसारः ॥१४१॥
___ न्या० स०-पूर्वात्कर्तु: अविवक्षवेति-तेन सापेक्षत्वात् समासो न प्राप्नोतीति न वाच्यम् ।
स्था-पा-स्ना-त्रः कः ।। ५. १. १४२ ॥
नाम्नः परेभ्य एभ्यः कः प्रत्ययो भवति । समे तिष्ठति-समस्थः, विषमस्थः, कटस्थः, कपित्थः, दधित्थः, महित्थः, अश्वस्थः, कुलत्थः । द्विपः, पादपः, कच्छपः, अनेकपः, कटाहपः । नदीष्णः । आतपत्रम्, धर्मत्रम् । परत्वादयं "शमो नाम्न्यः " (५-१-१३४) इत्यप्रत्ययं बाधते शंस्थो नाम कश्चित् । 'शंस्थाः' इत्यसरूपत्वात् क्विप् ।।१४२॥ शोकापनुद-तुन्दपरिमृज-स्तम्बेरम-कर्णेजपं-प्रिया-ऽलस-हस्ति
सूचके । ५. १. १४३ ॥ शोकापनुदादयः शब्दा यथासंख्यं प्रियादिध्वर्थेषु कप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । शोकमपनदति-शोकापनुदः प्रियः, पुत्रादिरानन्दकर एवमुच्यते । तुन्दं परिमाष्टि-तुन्दपरिमृजोऽलसः. स्तम्बे रमते-स्तम्बेरमो इस्ती. कर्णे जपति-कणेजपः सचकः । एग्विति किम् ? शोकापनोदो धर्माचार्यः, तुन्दपरिमार्ज प्रातुरः, स्तम्बे रन्ता पक्षी, कर्णे जपिता मन्त्री ।४३।
मूलविभुजादयः ।। ५. १. १४४॥
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पाद-१, सूत्र-१४५-१४८ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२३९
मूलविभुजादयः शब्दाःकप्रत्ययान्ता नियतार्थधातूपपदा यथाशिष्टप्रयोगंनिपात्यन्ते ।
मूलानि विभुजति-मूलविभुजो रथः, उव्या रोहति-उर्वीरुहो वृक्षः, को मोदतेकुमुदं करवम्, महीं धरति-महीध्रः शैल:, उपसि बुध्यते-उषर्बु धोऽग्निः, अपो बिभर्तिअन्ध्र मेघः, सरिस रोहति-सरसिरहं पद्मम् , नखानि मुञ्चन्ति-नखमुचानि धनषि, काकेभ्यो गृहनीयाः-काकगुहास्तिलाः, धर्माय प्रददाति-धर्मप्रदः, एवं-कामप्रदः, शब्दप्रदः । शास्त्रेण प्रजानाति-शास्त्रप्रज्ञः, एवम्-आगमप्रज्ञः ॥१४४ ।
___ न्या० स०-मूलविभूजा-उवाल्ह इति-'ङस्युक्तम्' ३-१-४९ इति समासार्थमत्र पाठोऽन्यथा 'नाम्युपान्त्य' ५-१-५४ इति सिध्यति, एवं धर्मप्रद इत्यत्रापि, अत्र हि 'उपसर्गादातो डोऽश्यः' ५-१-५६ इति डै समासो न स्यात् ।
दुहेडुघः ॥ ५. १. १४५॥
' नाम्नः पराद् दुहेडुघः प्रत्ययो भवति । कामान् दुग्धे पूरयति-कामदुधा, धर्माय . दुग्धे-धर्मदुधा । असरूपत्वात् क्विप्-कामधुक् । डकारोऽन्त्यस्वरादिलोपार्थः ।।१४५।।
भजो विण ॥ ५. १. १४६ ॥
नाम्नः पराद् भजेविण प्रत्ययो भवति । अधं भजते-अर्धभाक् , पादभाक्, दूरभाक्, प्रभाक्, विभाक् । णकारो वृद्धयर्थः, इकार उच्चारणार्थः, बकारी विण क्विपोः सारूप्यार्थस्तेनात्र विषये क्विप् न भवति ।।१४६।।
मन् वन क्वनिप् विच क्वचित् । ५. १. १४७ ॥ नाम्नः पराद धातोरेते प्रत्ययाः क्वचित्-लक्ष्यानुसारेण भवन्ति ।
मन्-इन्द्रं शृणाति-इन्द्रशर्मा, सुशर्मा, सुवर्मा, सुदामा, अश्वत्थामा । क्वचिद्ग्रहणात् केवलादपि-शर्म, धर्म, हेम, दामा, पामा । धन्-भूरिदावा, घृतपावा, अमेगावा, विजावा-"वन्याङ् पञ्चमस्य" ( ४-२-६५ ) इत्यात्वम् । क्वनिप् प्रातरित्वा, प्रातरित्वानौ; सुधीवा, सुपीवा । केवलादपि-कृत्वा, कृत्वानौ; धीवा, पीवा । विच् कोलालपाः, शुभंयाः, पाप्मरेट् । केवलादपि-रेट, रोट्, वेट , जागः । ककार पकारौ कित-पित्कार्याथौ ।। १४७।।
क्विप् ॥५. १. १४८ ॥
नाम्नः पराद् धातो: क्विप् प्रत्ययो भवति क्वचित् । उखेन उखया वा नसतेउखात्रत्, वहात् भ्रश्यति-वहाभ्रट, "घञ्युपसर्गस्य बहुलम्" (३-२-८६) इति बहुलग्रहणादुख-वहयोर्दीर्घः । पर्णानि ध्वंसते-पर्णध्वत् । शकान्-ह्वयति--शकहूः । परिव्ययतिपरिवीः । यवलः, खलपूः, अक्षयः, मित्रभूः, प्रतिभूः, कटचिकोः ।
केवलादपि-पाः, वाः, की , गीः ऊः, लः, ऋ, पक् । सवि--सू-द्विष--द्रुह-दुह-युजविद-भिद-च्छिद-जि-नी-राजिभ्यश्च । दिवि सीदति-दिविषत, सप्तम्या अलुप्, मीरुष्ठाना
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२४० ]
बृहद्वृत्ति- लघुन्याससंवलिते [ पाद १, सूत्र - १४९ - १५१
दिवात् षत्वं च । सत्, अन्तरिक्षसत्, सभासत् प्रसीदति प्रसत्, उपसत् । अण्डं सूतेअण्डसूः, शतसूः, प्रसूः । मित्रं द्वेष्टि- मित्रद्विट्, 'प्रद्विट् द्विषो जेनीयिषीष्ट वः' । मित्राय दुह्यति-मित्रध्रुक् प्रधुक् विध्रुक् । गां दोग्धि गोधुक् कामधुक् प्रधुक् । अश्वं युनक्ति युज्यते वा प्रश्वयुक्, प्रयुक्; युङ्, युञ्जौ, युजः । तरववित् वेदविस् प्रवित्, 'निविविदे fai वर:', विवेरविशेषेण ग्रहणम्, लाभार्थाच्छन्त्येके । काष्ठं भिनत्ति-काष्ठमित्, बलभित्, गोत्रभित्, भिद् । रज्जुं छिनत्ति-रज्जु च्छित्, तमश्छित् मवच्छित्, प्रच्छित्, छित् । शत्रुं जयति - शत्रुजित्, प्रसेनजित् कर्मजित्, प्रजित्, अभिजित् । सेनां नयति-सेनानीः, अग्रणीः, ग्रामणीः, प्ररणी; नीः, नियौ, नियः । विश्वस्मिन् राजते- विश्वाराट्, विश्वस्य "वसु· राटो:' ( ३-२-६१ ) इति दीर्घः, राजसट, सम्राट्, विराट्, राट् । अञ्चेः- दध्य• श्वति दध्यङ्, देवमश्वति देवद्युङ्, अदद्रयङ् विश्वद्यङ्, यिर्यङ्, सयङ, सम्यङ् प्राङ्, प्रत्यङ्; केवलान्न भवति ।
तथा ऋतौ ऋतुम् ऋतवे ऋतुप्रयोजनो वा यजते- ऋत्विग् याजकः, "ऋत्विज़ ० " ( २-१-६६ ) इत्यादिसूत्रेण गत्वम् । धृष्णोति दधृक् प्रगल्भः, दधृगि- ( षि) ति निर्देशात् द्वित्वम् । उनिह्यति उन्नह्यति वा उष्णिक् छन्दः, उष्णिमिति निर्देशात् दलोप- षत्वादि । कथं 'दिश्यते दिक्. सृज्यते स्रक्' ? कृत्संपदादित्वात् क्विप् । ककारः कित्कार्यार्थः । पकारः पित्कार्यार्थः । इकार उच्चारणार्थः ।। १४८ ।।
न्या० स०० - क्विप् - उखेन उखया बेति- पुते वर्तमान उखशब्द: पुंस्त्री स्थाल्यां नित्यस्त्रीति वैयाकरणा मन्यन्ते पा इति- 'ईर्व्यञ्जने' ४-३-९७ इत्यत्र साक्षात् व्यञ्जनग्रहणात् क्विप्लोपे ईत्वं न ।
स्पृशोऽनुदकात् ।। ५. १. १४९ ॥
उदकवतानाम्नः परात् स्पृशेः क्विप् प्रत्ययो भवति । घृतं स्पृशति घृतस्पृक् । एवं मर्मस्पृक्, व्योमस्पृक् । मन्त्रेण स्पृशति मन्त्रस्पृक् । कर्मोपपदादेवेच्छन्त्यन्ये ।
श्रनुदकादिति किम् ? उदकस्पर्शः, उदकेन स्पष्ट । अनुदक इति पर्युदासाश्रयणादुदकसदृशमनुपसगंनाम गृह्यते तेनेह न भवति - उपस्पृशति ।। १४९ ॥ ॥
अदोऽनन्नात् ॥ ५.१.१५० ॥
अन्नवजितान्नाम्नः पराददे: क्विप् प्रत्ययो भवति । आममत्ति- आमात्, सस्यात् । श्रननाविति किम् ? अन्नादः । बहुलाधिकारात् कणादः, पिप्पलादः । विवप् सिद्धोऽन्नप्रतिषेधार्थं वचनम् ।। १५० ।।
न्या० स०- अदोन- ननु लक्ष्यानुसारेण क्विप् ५-१-१४८ इति क्विप् भविष्यति किमनेन ? सत्यं - तस्यैव प्रपञ्चोऽयमिति ।
क्रव्यात् क्रव्यादावाम पकादौ । ५. १. १५१ ॥
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पाद-१, सूत्र १५२-१५४ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः [२४१
'क्रयात् क्रव्याद' इत्येतौ शब्दौ यथासंख्यं क्विवणन्तौ साधू भवतः, यद्यामात् पक्वाच्चाभिधेयौ भवतः।
क्रव्यमत्ति-क्रव्यात्, प्राममांसभक्षः, ऋव्यादः पक्वमांसभक्षः। व्याद इति नेच्छन्त्यन्ये । आममांसवाच्यपि क्रव्यशब्द: क्रव्याद इति निपातनसामर्थ्यात् वृत्तौ पक्वमांसे वर्तते । प्रथवा कृत-विकृत्तशब्दस्य पक्वमांसार्थस्य पृषोदरादित्वात् ऋव्यादेशः । सिद्धौ प्रत्ययौ विषयनियमार्थं वचनम् ।।१५१॥
न्या० स०-ऋव्यात्-आममांसभक्ष इति-आमं च तत् मांसं चाममांसं तत् भक्षय. तीति 'शीलिकामि' ६-१-७३ इति णः । कृत्तधिकृत्तशब्दस्येति-विशेषेण कृत्तं विकृत्तं, पूर्व कृत्तं पश्चाविकृत्तं कृत्तं च तद्विकृत्तं च कृत्तविकृत्तं तस्य ।
त्यदाद्यन्यसमानादुपमानाद् व्याप्ये दृशष्टक-सको च॥५. १. १५२॥
' त्यदादेरन्यशब्दात् समानशब्दाच्चोपमानभूतान व्याप्ये कर्मणि वर्तमानात् परात् दृशेाप्य एव टक् सकौ क्विप् च प्रत्यया भवन्ति ।
त्यदादि-स्य इव दृश्यते-त्यादृशः, त्यादृशी, त्यादृक्षः, त्यादृक्षा, त्यादृक, एवंतादृशः, तादृशी, ताक्षः, तादृक्षा, ताहक । अन्य-अन्यादृशः, अन्याशी, अन्यादृक्ष:, अन्यादृक्षा, अन्याहक । समान-सदृशः, सदृशी, सदृक्षः, सहक्षाः, सहक् । केचित् सकमपि टितं मन्यते, तन्मते-त्यादृक्षीत्यायेव भवति ।
एभ्य इति. किम् ? वृक्ष इव दृश्यते । उपमानादिति किम् ? स दृश्यते । व्याप्ये वर्तमानादिति किम् ? तेनेव दृश्यते, तस्मिनिव दृश्यते, अस्मिन्निव दृश्यते। व्याप्य एवेति किम् ? तमिव पश्यन्तीत्यत्र कर्तरि न भवति । वचनभेदान्न यथासंख्यम् ।।१५२॥
कर्तुर्णिन ॥ ५. १. १५३ ॥ कर्तु वाचिन उपामानभूतानाम्नः पराद्घातोणिन् प्रत्ययो भवति । कृत्वात् कर्तरि ।
उष्ट इव क्रोशति-उष्टकोशी, ध्वाक्षरावी. खरनाही. सिंहनी । कर्तरिति किम् ? शालोनिव कोद्रवान् भुक्ते, उष्ट्र मिवाश्वमारोहति । उपमानभूतादित्येव ? उष्ट्र: क्रोशति । अशोलार्थो जात्यर्थश्चारम्मः ॥१५३॥
अजातेः शीले ॥ ५. १. १५४ ॥
अजातिवाचिनो नाम्नः पराद् धातोः शीलेऽर्थे वर्तमानात णिन् प्रत्ययो भवति ? उष्णं भुङ्क्ते इत्येवंशील:-उष्णभोजी, शीतभोजी। अजातेरिति प्रसज्यप्रतिषेधादसत्ववाचिनोऽप्युपसर्गाद् भवति । उदासरतीत्येवंशील:-उदासारी, प्रत्यासारी, प्रस्थायी, प्रतिबोधी, प्रयायी, प्रतियायी। उदाङ्-प्रत्याभ्यां परं सतिं वर्जयित्वाऽन्यस्माद् धातोरुपसर्गपरान्नेच्छन्त्यन्ये ।
____ अजातेरिति किम् ? ब्राह्मणानामन्त्रयिता, शालीन भोक्ता । प्रभोक्ता, उपभोक्ता, संभोक्ता इति बहुलाधिकारान्न भवति । शोल इति किम् ? उष्णभोज आतुरः ।।१५४।।
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२४२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद-१, सूत्र-१५५-१५८
न्या० स०-प्रजाते:-प्रसज्यप्रतिषेधादिति-पर्यु दासाश्रयणे तु जातिवाचिनो द्रव्यरूपनिषेधादजातिवाचिनोऽपि द्रव्यवचनादेव स्यात् । सत्ति वर्जयित्वेति-उत्प्रतिभ्यामाङः सर्ते. रिति परसूत्रमत्रार्थे ।
साधौ ॥ ५. १. १५५ ॥ नाम्नः परात् साधावर्थे वर्तमानात धातोणिन् प्रत्ययो भवति । प्रशीलार्थ आरम्भः ।
साधु करोति साधुकारी, साधुदायी, चारुनी, सुष्टुगामी । बहुलाधिकारात 'साधु वादयति वादको वीणाम्, साधु गायति' इत्यादौ न भवति ।। १५५।।
ब्रह्मणो वदः॥ ५. १. १५६ ॥
ब्रह्मन्शब्दात् पराद् वदेणिन् प्रत्ययो भवति । ब्रह्म ब्रह्माणं वा वदति-ब्रह्मवादी। अयमप्यशीलार्थ आरम्भः, जात्यर्थोऽसरूपविधिनिवृत्त्यर्थश्च ।।१५६।।
न्या० स०-ब्रह्मणो-निवृत्त्यर्थश्चेति-'कर्मणोऽण्' ५-१-७२ इत्यादेः । व्रता-ऽऽभीक्ष्ण्ये ॥ ५. १. १५७ ॥
व्रतं शास्त्रितो नियमः, आभीक्ष्ण्यं पौन:-पुन्यम्, तयोर्गम्यमानयो म्नः पराद धातोणिन् प्रत्ययो भवति ।
व्रते-अश्राद्धं भुङ्क्त-अश्राद्धभोजी, अलवणभोजी, स्थण्डिलस्थायी, स्थण्डिलवर्ती, वृक्षमूलवासी,पावशायी, तदन्यवर्जनमिह व्रतं गम्यते । प्राभीक्ष्ण्ये-पुनः पुनः क्षीरं पिबन्तिक्षीरपायिण उशीनराः, तक्रपायिणः सौराष्ट्राः, कषायपायिणो गान्धाराः, सौवीरपायिणो बालीकाः ।
व्रता-ऽऽभीषण्य इति किम् ? स्थण्डिले शेते-स्थण्डिलशयः । बहुलाधिकारादाभीक्ष्ण्ये. ऽपीह न भवति-कुल्माषखादाश्चोलाः । प्रशीलाथ जात्यर्थं च वचनम् ।।१५७॥
न्या० स०-व्रताभी०-सूत्रत्वात् समाहारः, कर्मधारयो वा । अश्राद्धभोजीति-श्राद्धं पितृदेवत्यं कर्म तदुद्दिश्य यत् क्रियते पिण्डादिकं तदपि श्राद्धम् । तदन्यवर्जनमिति-तस्याश्राद्धस्यान्यत् श्राद्धं तस्य वर्जनम् ।।
उशीनरा इति-उश्यते स्थादित्वात् कः, गौरादित्वात् डी, उशी नगरी तस्या नराः। सौराष्ट्रा इति-सुराष्ट्रशब्द एकवचनान्तोऽपि केषां मते इति 'बहुविषयेभ्यः' ६-३-४५ इति नाका कि त्वणेव । यद्वा सुराष्ट्रा नगरी तस्यां भवाः । गान्धारा इति-गन्धारदेशस्येमे तस्येदमण् ।
करणाद् यजो भूते ॥ ५. १. १५८ ॥ करणवाचिनो नाम्नः पराद् भूतेऽर्थे वर्तमानाद् यजेणिन् प्रत्ययो भवति ।
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पाद-१, सूत्र-१५९-१६१ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्याय:
[२४३
___ अग्निष्टोमेनेष्टवान्-अग्निष्टोमयाजी, भवति हि सामान्यविशेषयोर्भेदविवक्षायां सामान्ययजो विशेषयजिरग्निष्टोमः करणम् । भूत इति किम् ? अग्निष्टोमेन यजते । करणादिति किम् ? गुरूनिष्टवान् ॥१५॥
निन्द्य व्याप्यादिन विक्रियः ॥ ५. १. १५६ ॥ __ व्याप्यानाम्नः परात् विपूर्वात् क्रोणाते तेऽर्थे वर्तमानात कुत्सिते कतरीन् प्रत्ययो भवति ।
___ सोमं विक्रीतवान्-सोमविक्रयी, घृतविक्रयो, तैलविक्रयो ब्राह्मणः । निन्ध इति किम् ! धान्यविक्रायः, घृतविक्रायः, तैलविक्रायो वणिक । व्याप्यादिति किम् ? ग्रामे विकोतवान् । भावेऽलन्तस्य मत्वर्थीयेनेना सिध्यति कुत्सायामण्बाधनाथं वचनम् ॥१५९।।
हनो णिन् ॥ ५. १. १६०॥ व्याप्यानाम्नः पराद् भूतेऽर्थे वर्तमानात् हन्तेनिन्धे कर्तरि णिन् प्रत्ययो भवति ।
पितृव्यं हतवान्-पितृव्यघाती, मातुलघाती । असरूपत्वादणपि-पितृव्यघातः, मातुलघातः । केचित् त्वसरूपविधि नेच्छन्ति । निन्द्य इत्येव ? शत्रु हतवान् शत्रुघातः, चौरघातः । व्याप्यादित्येव ?-दण्डेन हतवान् । घनन्तान्मत्वोंयेनेना सिद्ध भूतकुत्साम्यामन्यत्र शत्रुधातीत्यादौ मत्वर्थीय निवृत्त्यर्थं वचनम् । अन्यत्रापीच्छत्यन्यः । एवं पूर्वसूत्रेऽपि ।। १६०॥
___न्या० स०-हनो णि-मत्वर्थोयनिवृत्त्यर्थमिति-हननं घातः घत्रि पश्चान्मत्वर्थीयो न। एवं पूर्वसूत्रेऽपीति-पूर्वसूत्रेऽनुक्तमपि द्वितीयमिदं फलं द्रष्टव्यम्, इह तु इदमेव ततोऽसरूपत्वादणत्रानुज्ञातः, घान्तादित्याद्यारम्येच्छत्यन्य इति पर्यन्तं पूर्वसूत्रेऽपीत्यत्र ज्ञेयम् ।
ब्रह्म-भ्र ण-वृत्रात् क्विप् ॥ ५. १. १६१ ॥ ब्रह्मादिभ्यः कर्मभ्यः पराद् भूतेऽर्थे वर्तमानाद्धन्तेः क्विप् प्रत्ययो भवति ।
ब्रह्माणं हतवान्-ब्रह्महा, भ्रूणहा, वृत्रहा । "क्विप्" ( ५-१-१४८ ) इत्यनेनैव सिद्धे नियमार्थं वचनम्, चतुर्विधश्चात्र नियमः ।
१-ब्रह्मादिभ्य एव हन्तेभू ते क्विप् नान्यस्माव-पुरुषं हतवान्-पुरुषघातः । 'मधुहा, अहिहा, गोत्रहा, हिमहा, तमोपहा, असुरहा, आखुहा' इत्यादिषु वर्तमानमविष्यतोः कालमात्र वा "क्विप् । (६-१-१४८) इत्यनेनैव क्विप् ।
२-तथा ब्रह्मादिभ्यो हन्तेरेव भूते नान्यस्माद् धातोः क्विप्-ब्रह्माधीतवान् ब्रह्माध्याय इत्यणेव न तु क्विप् । ब्रह्मविदादयस्तु भूताविवक्षायाम् ।।
३-तथा ब्रह्मादिभ्यो हन्ते ते विबेव नान्यः प्रत्यय:-ब्रह्माणं हतवान्-ब्रह्महा इति क्विबेव भवति नाण-णिनौ । ब्रह्मघ्नादयस्तु कालसामान्येन 'ब्रह्मादिभ्यः" (५.१-८५) इति टक् प्रत्यये साधवः । कथं 'वृत्रस्य हन्तुः कुलिशम्' इति ? केवलादेव हन्तेस्तृच
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२४४ ]
बृहद्वृत्ति- लघुन्याससंवलिते [ पाद - १, सूत्र - १६२-१६४
पश्चाद् वृत्रेण सम्बन्धः । ॐ मध्येऽववादाः पूर्वान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान् इति क्विपाडणादिरेव बाध्यते न क्त-क्तवत् ।
४- तथा ब्रह्मादिभ्यो हन्तेर्भूत एव काले क्विप् नान्यस्मिन् ब्रह्माणं हन्ति हनिष्यति वा-ब्रह्मघात इत्यणेव । तदेतत् सर्व बहुलाधिकाराल्लभ्यते ।। १६१ ।।
न्या० स० ब्रह्मभू० - कालमात्रे वा विवविति कया रोत्या मधोर्हन्ता कोऽर्थः ? मधुहननयोग्य : काल इति वाक्ये विवपि मधुहेत्यादि । ब्रह्मघात इति - 'ब्रह्मादिभ्यः ' ५-१-८५ इति टक् प्रसङ्गेऽपि बहुलमण् ।
कृगः सुपुण्य-पाप-कर्म-मन्त्र- पदात् ।। ५. १. १६२ ॥
सुशब्दात पुण्यादिभ्यश्च कर्मभ्यः परात् करोतेर्भू तेऽर्थे वर्तमानात् क्विप् भवति । सुष्ठु कृतवान् सुकृत्, पुण्यं कृतवान्- पुण्यकृत् पापकृत् कर्मकृत्, मन्त्रकृत्, पदकृत् । इदमपि नियमार्थं वचनम् । त्रिविधश्वात्र नियमः ।
,
१ - एभ्यः कृग एव भूते क्विप् नान्यस्माद् धातो:- मन्त्रमधीतवान्- मन्त्राध्याय इत्यता एव भवन्ति न क्विप् । 'मन्त्रवित्, पापनुत्' इत्यादौ तु भूताविवक्षायां क्विप् ।
२ - तथा एभ्यः कृगो भूत एव क्विप् । इह न भवति कर्म करोति करिष्यति वाकर्मकार:, मन्त्रकारः, पदकारः ।
३- तथा एभ्यः परात् कृगो भूते क्विबेव मान्यः प्रत्यय:, तेन कर्म कृतवान्- कर्मकार इति न भवति । एभ्य एव भूते कृगः क्विमिति धातुनियमो नेष्यते, तेन 'शास्त्रकृत्, तीर्थकृत्, वृत्तिकृत् सूत्रकृत् भाष्यकृत्' इत्यादयः सिद्धाः ।। १६२ ।।
•
न्या० स०- कृग सुपुण्य इत्यक्ता एवेति- अण् च क्तौ चाणक्ताः क्तवतुर्दशित एव क्तप्रत्ययस्तु आरम्भे यः क्तः स एव गृह्यते, अन्यस्य भावकर्मणोविधानात् 'गत्यर्थ' ५-१-११ इत्यस्य तु सकर्मकत्वादप्राप्तिः ।
सोमात् सुगः ।। ५.१.१६३ ॥
सोमात् कर्मणः परात् सुनोतेर्भू तेऽर्थे वर्तमानात् क्विप् भवति ।
सोमं सुतवान्- सोमसुत् । श्रयमपि नियमार्थो योग: । चतुविधश्चात्रापि नियमः । १- सोमादेवेति नियमात् सुरां सुतवान् सुरासाब इत्यण् । सुरासुदिति भूताविवक्षायाम् । २- सुग एवेति नियमात् सोमं पीतवान् सोमपा इति विच् । ३ भूत एवेति नियमात् - सोमं सुनोति सोष्यति वा सोमसाव इत्यण् । ४- क्विवेवेति नियमात् सोमं सुतवान् इत्यण् न भवति ।। १६३॥
अग्नेशचेः ॥ ५. १. १६४ ॥
अग्नेः कर्मणः पराच्चिनोतेर्भू तेऽर्थे वर्तमानात् क्विप् भवति ।
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पाद - १, सूत्र - १६५ - १६९ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः [ २४५
श्रग्नि चितवान्- प्रग्निचित् । प्रत्रापि चतुविधो नियमः । १- अग्नेरेवेति नियमात्कुड्य: चितवान् कुडयचाय इत्यण् । २ - चेरेवेति नियमात् अग्नि कृतवान् -- श्रग्निकारः । ३--भूत एवेति नियमात् -- अग्नि चिनोति चेष्यति वा अग्निचाय: । ४-- क्विवेवेति नियमात्अग्नि चितवानित्यण् न भवति ।। १६४ ।।
कर्मण्यग्न्यर्थे । ५. १. १६५ ॥
"
कर्मणः पराद् भूतेऽर्थे वर्तमानाच्चिनोतेः कर्मणि कारकेऽग्न्यर्थेऽभिधेये क्विप् भवति । श्येन इव चीयते स्म -- श्येनचित् एवं - कङ्कचित्, रथचक्रचित्, अग्न्यर्थ इष्टकचय उच्यते । बहुलाधिकाराद्रढिविषय एवायं दृष्टव्यः । केचित् तु संज्ञाशब्दत्वात् कालत्रयेऽप्ययं भवतीत्याहु:-- श्येन इव चीयते चितश्चेष्यते वा - श्येनचित् ।। १६५ ।।
दृशः क्वनिपू ।। ५. १. १६६ ।।
कर्मणः परात् दृशो भूतेऽर्थे वर्तमानात् क्वनिप् प्रत्ययो भवति । मेरु ं दृष्टवान्-मेरुदृश्वा विश्वदृश्वा बहुरश्वा, परलोकदृश्वा । सामान्यसूत्रेण क्वनिपि सिद्धे भूतकाले प्रत्ययान्तरबाधनार्थं वचनम् ॥ १६६ ॥
न्या० स०--दृशः क्व - प्रत्ययान्तरबाधनार्थमिति - अणादेरित्यर्थः ।
सह-राजभ्यां कृगु-युधेः ।। ५. १. १६७ ॥
सहशब्दात् राजन् शब्दाच्च कर्मणः परात् करोतेर्यु' घेश्च वर्तमानात् क्वनिप् प्रत्ययो
भवति ।
सह कृतवान्-- सहकृत्वा, सहकृत्वानौ । सहयुद्धवान् सहयुध्वा, सहयुध्वानौ । राजानं कृतवान् राजकृत्वा । राजानं योषितवान्- राजयुध्वा । युधिरन्तर्भूतण्यर्थः सकर्मकः । कर्मण इत्येव ? राज्ञा युद्धवान् । प्रत्ययान्तरबाधनार्थोऽयमप्यारम्भः ।। १६७॥
अनोर्जनेर्डः ।। ५. १. १६८ ॥
कर्मणः परानुपूर्वाज्जनेभू तेऽर्थे वर्तमानाडुः प्रत्ययो भवति ।
पुमांसमनुजातः - पुमनुजः, स्त्र्यनुजः, आत्मानुजः । श्रनुपूर्वो जनिर्जननोपसर्जनायां प्राप्तौ वर्तमानः सकर्मकः ।। १६८ ।।
न्या० स० - अनोर्जने- पुमनुज - इति पुमांसमनुजननेन प्राप्तवानित्यर्थः । जननोपसर्जनायामिति - जननमुपसर्जनं यस्याः ।
सप्तम्याः ।। ५. १. १६६ ॥
सप्तम्यन्तान्नाम्नः पराद् भूतेऽर्थे जमेड भवति ।
उपसरे जात:- उपसरजः, मन्दुरायां मन्दुरे वा जात:- मन्दुरजः, अप्सु जातम् - अप्सुजम्, अब्जम् ॥१६६॥
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२४६ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद-१, सूत्र-१७०-५७२
न्या० स०-सप्तम्या:-अप्सुजमिति-'वर्षक्षर' ३-२-२६ इति वाऽलुक् । अजातेः पञ्चम्याः ॥ ५. १. १७०॥ पञ्चम्यन्तादजातिवाचिनो नाम्नः पराद् भूतेऽर्थे जने? भवति ।
बुद्धर्जातो-बुद्धिजः संस्कारः, संस्कारजा स्मतिः, संतोषजं सुखम्, कौशल्याया जात:-कौशल्याजः, संज्ञाशब्दोऽत्रोपपदम्। अजातेरिति किम् ? हस्तिनो'जातः, अश्वाज्जातः ।।१७०॥
न्या० स०-अजातेः प-कौशल्याज इति-कोशलस्यापत्यं स्त्री 'दनादि'६-१-११८ इति व्यः । ननु गोत्रं च चरणैः सहेति जातित्वे डो न प्राप्नोति अतोऽत्र कथम् ? इत्याहसंज्ञाशब्द इति ।
कचित् ॥ ५. १. १७१॥ उक्तादन्यत्रापि पचिल्लक्ष्यानुसारेण डो भवति । .
उक्तान्नाम्नोऽन्यतोऽपि-कि जातेन-किंजः, केन जात:-किजोऽनितिपितृकः, प्रलं जातेनालंजः, द्विर्जातो द्विजः, न जातोऽज:, अधिजातोऽधिजः, उपजः, परिजः, प्रजाताःप्रजाः, अभिजः । अकर्मणोऽपि-अनुजः । जातेरपि-ब्राह्मणजः पशुवधः, क्षत्रियज युद्धम् स्त्रीजमनतम् । उक्ताद्धातोरम्यतोऽपि-ब्रह्मणि जोनवान-ब्रह्मज्यः । उक्तानाम्नो धातोश्चान्यतोऽपि-वरमाहतवान्-वराहः । उक्तानाम्नो धातोः कारकाच्चान्यतोऽपि-परिखातापरिखा, आखाता-आखा, उपखाता-उपखा।
नाम-धातु-कालान्यत्वे-मित्रं ह्वयति-मित्रह्वः, अणोऽपवादो डः। धातु-कारकान्यत्वे-पटे हन्यते स्म-पटहः। धातुकालान्यत्वे-बार्चरति-बा! हंसः । नाम-कारकान्यत्वेपुंसानुजातः-पुंसानुजः। नामाभावे उक्तधातु-कालान्यत्वे-प्रति अतति वा-अः, कायति कामयते वा-कः, भातीति-भं नक्षत्रम् । नामाभावे उक्तधातु-काल-कारकान्यत्वे च खन्यत इति-खम् ॥१७॥
न्या० स०-क्वचित-वा! हंस इति-'वार्हपत्यादयः' १-३-५८ इति निषेधात् 'चटते सद्वितीये' १-३-७ इति शो न भवति ।
सु-यजो वनिप् ॥ ५. १. १७२ ।। सुनोतेर्यजतेश्च भूतार्थवृत्तेचनिए भवति ।
सुतवान्-सुत्वा, सुत्वानो, सुत्वानः । इष्टवान्-यज्वा, यज्वानो, यज्वानः । क्वनिपवन्भ्यां सिद्धे भूते नियमाथं वचनम् । मन्नादिसूत्रस्थक्वचिद्ग्रहणस्यैव प्रपश्वः । कारो गुणनिषेधार्थः । पकारः पित्कार्यार्थः । इकार उच्चारणार्थः ॥१७२॥
न्या० स०-सुयजो०-मन्नादिसूत्रस्थक्वचिद्ग्रहणस्यैवेति-ननु तत्रस्थ क्वचिद्ग्रहणाः देव नियमो भविष्यतीत्याशङ्का ।
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पाद- १, सूत्र - १७३-१७४ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः [ २४७
जषोऽतृः ।। ५. १. १७३ ॥
जीर्भूतार्थवृत्तेरतृप्रत्ययो भवति । जीर्यति स्म जरन्, जरती । असरूपत्वात्जीर्ण, जीर्णवान् ऋकारो दीघत्वप्रतिषेधार्थः ।। १७३ ।।
क्तक्तवतू ।। ५. १. १७४ ॥
धातोर्भूतेऽर्थे वर्तमानात् क्तक्तवतू प्रत्ययौ भवतः ।
क्रियते स्म - कृतः, करोति स्म कृतवान् । प्रकृतः कटं देवदत्तः, प्रत्र समुदायस्याभूतत्वेऽपि कटैकदेशे कटत्वोपचारात् तस्य च निर्वृत्तत्वाद् भूत एव धात्वर्थ इत्यादिकर्मण्यप्यनेनैव क्तक्तवतू सिद्धौ ॥१७४॥ ॥
इत्याचार्य श्री हेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तौ
पञ्चमस्याध्यायस्य प्रथमः पादः ॥ १ ॥
अगणितपञ्चेषुबल: पुरुषोत्तमचित्तविस्मयं जनयन् । रामोल्लासन मूर्तिः श्रीकर्ण कर्ण इव जयति ॥ १॥
इत्याचार्यश्री० सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञ- शब्दानुशासनबृहद्वृत्तेः पञ्चमाध्या
यस्य न्यासत: प्रथमः पादः समाप्तः ।
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॥ श्रर्हम् ॥
अथ पञ्चमाध्याये द्वितीयपादः
श्रु-सद-वस्भ्यः परोक्षा वा ।। ५. २.१ ॥
भूत इति अनुवर्तते श्रुणोत्यादिभ्यो धातुभ्यो भूतार्थवृत्तिभ्यः परोक्षा विभक्तिर्वा
भवति ।
उपशुभाव, उपससाद, अनुवास। वावचनात् यथास्वकालमद्यतनी ह्यस्तनी चउपाश्रौषोत्, उपाभ्रूणोत्; उपासदत्, उपासीदत्; अन्ववात्सीत्, अन्ववसत् । एवं शुश्रुवे, अभाव, अश्रूयतेत्यादि ।
श्रन्ये तु श्रवादिभ्यो भूतमात्रे क्वसुमेवेच्छन्ति न परोक्षाम् । ह्यस्तनीमपोच्छत्यन्यः । बहुवचनं व्याप्त्यर्थम् तेन भूतानद्यतनेऽपीयं ह्यस्तन्या न बाध्यते । श्रसरूपत्वादेवाद्यतन्यादिसिद्धौ वावचनं विभक्तिष्वस रूपोत्सर्ग विभक्तिसमावेशनिषेधार्थम् ॥ १॥
न्या० स० श्रुतदवस्भ्यः - यथास्वकालमिति स्वकालस्याऽनतिक्रमेण तथा ह्यद्यतनेऽद्यतनी अनद्यतने तु ह्यस्तनी ।
randछत्य इति न केवलं भूतमात्रे परोक्षां ह्यस्तनीमपीत्यर्थः । विभक्तिष्विति तेन विभक्तीनामेवान्योन्यमसरूपविधिर्नास्ति, प्रत्ययेन तु विभक्तीनामस्त्येव तेनोपश्रुतवानित्यादि सिद्धम् । निषेधार्थमिति - तेन 'अयदि' ५-२-९ इति सूत्रे वत्स्यन्तीविषये ह्यस्तनी न ।
तत्र सु- कानौ तत् ॥ ५. २. २ ॥
तत्र - परोक्षामात्रविषये धातोः परौ क्वसुकानौ प्रत्ययौ भवतः, तौ च परोक्षावद् व्यपदिश्येते । तत्र क्वसुः परस्मैपदत्वात् कर्तरि, कानस्त्वात्मनेपदत्वाद् भाव- कर्मणोरपि ।
शुश्रुवान्, उपशुश्रुवान् ; सेदिवान्, उपसेदिवान्, प्रसेदिवान्, आसे दिवान्, निषेदिवान्, ऊषिवान्, अनूषिवान्, अध्यूषिवान्; पेचिवान्, पाचयांचकृवान्, जग्मिवान्, पपिवान्, पेचानः, चक्राणः । परोक्षावद्भावात् द्विर्वचनादि । परोक्षावद्भावादेव कित्त्वे सिद्धे कित्करणं संयोगान्तधात्वर्थम् तेनाजिवान्, बभज्वान्, सस्वजानः, एषु कित्त्वात् नलोपः । ऋदन्तानां गुणप्रतिषेधार्थं च - शिशीर्वान्, तितीर्वान्, पुपूर्वान् कर्मणि-शशिराण:, ततिराणः, पपुराणः । भावे-शशिराणमित्यादि ।
,
बहुलाधिकारात् श्रु-सद- वसिभ्यः कानो न भवति । केचित् तु " एभ्य एव क्वसुर्नान्येभ्यः, कानस्तु प्रत्यय एव नेष्यते" इत्याहुः । अपरे तु सर्वधातुभ्यः क्वसुमेवेच्छन्ति न कानम् । भूताधिकारेणैवोक्तपरोक्षाविषयत्वे लब्धे तत्र ग्रहणं परोक्षामात्रप्रतिपत्त्यर्थम् तेन 'पेचिवान्' इत्यादि सिद्धम् ||२||
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पाद - २, सूत्र - ३-६ ]
श्री सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ २४९
न्या० स०-तत्र क्वसु-न लोप इति अन्यथा ' इन्ध्यसंयोगात् ' ४-३ - २१ इत्यसंयोगान्तादेव कित्त्वेऽत्र नलोपो न स्यात् । प्रत्यय एव नेष्यते इति तन्मते कानो नास्तीत्यर्थः । परोक्षामात्र प्रतिपत्यर्थमिति - अन्यथा 'असद' ५-२- १ इति विहितपरोक्षाविषय एव स्यात्, तेभ्य एव भूतमात्रे विधानान्न तु 'परोक्षे' ५-२-१२ इति विहितपरोक्षाया विषये । इत्यादि सिद्धमिति - भूताधिकारे हि अनुवत्तंमानेऽपरोक्षे एवातीते स्यात्, परोक्षे तु परत्वात् परोक्षा स्यादित्युभयोरप्यर्थः संगृह्यते, तेन पपाचेति वक्तव्ये पेचिवानित्यादि सिद्धम् ।
वेयिवदनाश्वदनूचानम् ॥। ४. २.३ ।।
एते शब्दा भूतेऽर्थे क्वसु- कानान्ताः कर्तरि वा निपात्यन्ते ।
इणः क्वनिपात्यते - ईयिवान्, समीयिवान्, उपेयिवान् । तथा नञ्पूर्वादश्नातेः क्वसुरिङभावश्च निपात्यते - अनाश्वान् । तथा यचे गादेशाद् वाऽनुपूर्वात् कानो निपात्यतेअनूचानः । निपातनस्येष्ट विषयत्वात् कर्तुं रन्यत्र अनुक्तमित्याद्येव भवति । ब्रूग एवेच्छन्त्यन्ये । वावचनात् पक्षेऽद्यतन्यादयोऽपि श्रगात् उपागात्, उपत्, उपेयाय; नाऽऽशीत्, नाऽऽश्नात्, नाश, अन्ववोचत् प्रन्वब्रवीत्, अन्ववक्, अनूवाच ॥ ३ ॥
न्या० स० - वेयिवदना० - ' तत्र क्वसु' ५-२-२ इत्यनेन परोक्षाविषये क्वसुकानी विहिताविति ह्यस्तन्यादिविषये न स्यातामिति निपातनं, अत एवात्राऽगात् ऐत् इत्याद्यपि वाक्यं क्रियते । प्रनुक्तमित्याद्येवेति अत्र कानो न भवति । उपेयायेति- 'नामिनोऽकलिहले ' ४-३-५१ इति वृद्धी 'पूर्वस्यास्वे' ४-१-३७ इति पूर्वस्येयादेशे च रूपम् ।
अद्यतनी ।। ५. २. ४ ॥
भूतेऽर्थे वर्तमानाद् धातोरद्यतनी विभक्तिर्भवति । अहार्षोत् प्रकार्षीत् ॥४॥ विशेषाविवक्षा व्यामिश्रे ।। ५. २. ५ ।।
अनद्यतनादिविशेषस्याविवक्षायां व्यामिश्रणे च सति भूतेऽर्थे वर्तमानाद् धातोरद्यतनी
विभक्तिर्भवति ।
1
अकार्षीत्, अहार्षीत् श्रगमाम घोषान्, अपाम पयः, श्रजैषीत् गर्तो हूणान् रामो वनमगमत् । सतोऽप्यत्र विशेषस्थाविवक्षा, यथा-अनुदरा कन्या, प्रलोमिका एडकेति । व्यामिश्रे श्रद्य ह्यो वाऽभुक्ष्महि ।
विशेषाविवक्षेति किम् ? अगच्छाम घोषान्, अपिबाम पयः, अजयद् गर्तो हूणान्, रामो वनं जगाम । ह्यस्तन्यादिविषयेऽप्यद्यतन्यथं वचनम् ॥५॥
न्या० स० - विशेषाविवक्षा०-अनद्यतनादिविशेषस्याऽविवक्षायामिति आदिपदात् परोक्षपरिग्रहः ।
रात्रौ वसोऽन्त्ययामास्तर्यद्य ।। ५. २. ६ ।।
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२५० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-७-६
रात्रौ भूतेऽर्थे वर्तमाना वसतेर्धातोह्य स्तन्यपवादोऽद्यतनी विभक्तिर्भवति, अन्त्ययामास्वप्तरि-स चेदर्थो यस्यां रात्रौ भूतस्तस्या एवान्त्ययामं व्याप्याऽस्वप्तरि कर्तरि वर्तते, अद्य-तेनैवान्त्ययामेनावच्छिन्नेऽद्यतने चेत् प्रयोगो भवति नाद्यतनान्तरे ।
न्याय्ये प्रत्युत्थाने प्रत्युस्थितं कश्चित कंचिदाह-क्व भवानुषितः ? स आह-प्रमुत्रावात्समिति । राज्यन्त्ययामे तु मुहूर्तमपि स्वापे हस्तन्येव-प्रमुत्रावसमिति ।। ६ ।।
___न्या० स०-रात्रौ वसो०-अमुत्रावासमिति-उपाध्यायस्त्वाह-रात्रेश्च चतुर्थे यामे यदा वाक्यं प्रयुक्ते तदाऽमुत्रावात्समिति, तस्यातिक्रान्तरात्रिप्रहरत्रयमनद्यतनमिति ह्यस्तनीप्रसङ्ग यदा प्रयोक्ता सकलमतिक्रम्य रात्रिप्रहरत्रयं जागरितवान् तदाऽद्यतनी, यदा सुप्त्वा प्रयुङ क्ते तदा स्तन्येव । यत्सूत्रं वसेलुङ रात्रिशेषे जागरणसंतताविति तन्मतसंग्रहार्थ मिदं सूत्रं व्याख्येयम् ।
स्वप्तर्योति-कोऽर्थः ? अन्त्ययामप्रयोगे क्रियमाणे अन्त्ययामेति लुप्तसप्तम्येकव. चनान्तं पदम् ।
अनद्यतने ह्यस्तनी ॥ ५. २. ७॥
आ न्याय्यादुत्थानादा न्याय्याच्च संवेशनादहरुभयतः सार्धरात्रं वा-अद्यतनः काल:, तस्मिन्नसति भूतेऽर्थ वर्तमानाद् धातोटे स्तनो विभक्तिर्भवति । अकरोत् , अहरत ।. अनद्यतन इति किम् ? अकार्षीत् ।। ७ ।।
ख्याते दृश्ये ॥ ५. २. ८॥
ख्याते-लोकविज्ञाते, दृश्ये-प्रयोक्तुः शक्यदर्शने, भूतेऽनघतनेऽर्थे वर्तमानाद् धातोह्य स्तनी विभक्तिर्भवति, परोक्षापवादः ।
अरुण सिद्धराजोऽवन्तीन् , अजयत् सिद्धः सौराष्ट्रान् । ख्यात इति किम् ? चकार कटं चैत्रः । दृश्य इति किम् ? जघान कंसं किल वासुदेवः । अनद्यतन इत्येव ? उदगादद्यादित्यः ।। ८॥
न्या० स०-ख्याते ह-प्रयोक्तुः शक्यदर्शने इति-प्रयोक्तुश्च स एव दृश्यः यः प्रयोक्तृकालेऽनतिविप्रकर्षेण वृत्तः स्यात्, प्रयोक्तुश्चान्यत्र व्यासक्तत्वेन तद्दर्शनाऽभावात् परोक्षत्वं, तस्यार्थस्य परं स यदि तत्र व्रजति तदा पश्यत्येव तस्मिन्नर्थे शस्तनी, एवं च यस्मिन् कालेऽर्थों वृत्तस्तत्कालभावी पुरुषः कुर्वन् दुष्यति, यतोऽर्थभवनकाले तस्य पुरुषस्य तदर्थदर्शनयोग्यतायाः सद्भावात् , तथा जघान कंसं किल वासुदेव इत्यत्रापि यदि वधकालभावी प्रयोक्ता प्रयोगं कुरुते तदा तत्रापि अहन्निति भवति, यतस्तदा तस्यापि दृश्यत्वादिति, तदुक्तं
परोक्षे लोकविज्ञाने, प्रयोक्तुः शक्यदर्शने । .
ह्यस्तने ह्यस्तनी प्रोक्ता, चैत्रो नृपमहन्निति ।। अयदि स्मृत्यर्थे भविष्यन्ती ॥ ५. २. १ ॥
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पाद - २, सूत्र १०-१२ ]
श्री सिद्धहेमचन्द्र शब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः [ २५१
स्मृत्यर्थे धातावुपपदे सति भूतानद्यतनेऽर्थे वर्तमानाद् धातोर्भविष्यन्ती विभक्तिभवति, अयदि न चेद् यच्छन्दः प्रयुज्यते ।
अभिजानासि देवदत्त ! कश्मीरेषु वत्स्यामः स्मरति साधो ! स्वर्गे स्थास्यामः, एवं बुध्यसे चेतयसे प्रध्येष्यवगच्छसि चैत्र ! कलिङ्ग ेषु गमिष्यामः । अयदीति किम् ? अभिजानासि मित्र ! यत् कलिङ्ग ेष्ववसाम || ६ ||
न्या० स०-अयदि ने चेद्यत् शब्द इति धात्वर्थवाचकः क्रियाविशेषणरूपो न प्रयुज्यते यस्मादर्थे तु भविष्यन्त्येवेति न्यासः । यत्कलिङ्गष्ववसामेति क्रियाविशेषणमेतत्, यदुवसनं न स्मरसीत्यर्थः यदा तु यस्माद्धेतोः कलिङ्गेषु उषितवन्त इति विवक्ष्यते तत्र भविष्यन्त्येव ।
वाऽऽकाङ्क्षायाम् ।। ५. २. १० ॥
अयदीति नानुवर्तते, स्मृत्यर्थे धातावुपपवे सति यद्ययदि वा प्रयुज्यमाने प्रयोक्तुः क्रियान्तराकाङ्क्षायां सत्यां भूतानद्यतनेऽर्थे वर्तमानाद् धातोर्भविष्यन्ती वा भवति ।
स्मरति मित्र ! कश्मीरेषु वत्स्यामस्तत्रोदनं भोक्ष्यामहे पास्यामः पयांसि च स्मरसि मित्र ! कश्मीरेष्ववसाम तत्रौदनमभुमहि; स्मरसि मित्र ! यत् कश्मीरेषु वत्स्यामो यत् तत्रौवनम् भोक्ष्यामहे, स्मरसि मित्र ! यत् कश्मीरेष्ववसाम यत् तत्रौदनमभुञ्ज्महि । प्रत्र वासो लक्षणं भोजनं पानं च लक्ष्यमिति लक्ष्य - लक्षणयोः संम्बन्धे प्रयोक्राकाङ्क्षा भवति ॥ १० ॥
कृतास्मरणाऽतिनिह्नवे परोक्षा । ५. २११. ॥
कृतस्यापि व्यापारस्य चित्तव्याक्षेपादिनाऽस्मरणेऽत्यन्तापह्नवे वा गम्यमाने भूतेऽनद्यतनेऽर्थे वर्तमानाद् धातोः परोक्षाविभक्तिर्भवति, अपरोक्षकालार्थ प्रारम्भः ।
सुप्तोऽहं किल विललाप, मत्तोऽहं किल विचचार, चिन्तयन् किलाहं शिरः कम्पयांबभूव अङ्गुलिस्फोटयामास । अतिनिह्नवे-कश्चित् केनचिदुक्तः कलिङ्गेषु त्वया ब्राह्मणो हतः, स तदपह्नवान आह- कः कलिङ्गान् जगाम को ब्राह्मणं ददर्श, नाहं कलिङ्गान् जगाम, इत्यत्यन्तमपह्न ुते । प्रतिग्रहणादेकदेशापह्नवे ह्यस्तन्येव न कलिङ्गषु ब्राह्मणमह - महनम् ।। ११ ।।
परोक्षे ॥ ५. २. १२ ॥
1
अक्षाणां पर:- परोक्षः, अत एव निर्देशात् साधुः, प्रव्युत्पन्नो वा असाक्षात्कारार्थः, भूतानद्यतने परोक्षेऽर्थे वर्तमानाद् धातोः परोक्षा विभक्तिर्भवति । यद्यपि साध्यत्वेनानिष्पन्नत्वात् सर्वोऽपि धात्वर्थ: परोक्षस्तथापि प्रत्यक्षसाधनत्वेन तत्र लोकस्य प्रत्यक्षत्वाभिमानोsस्ति, यत्र स नास्ति स परोक्षः ।
जघान कंसं वासुदेवः, भरतं विजिग्ये बाहुबली, धर्म दिदेश तीर्थंकरः ॥ १२ ॥
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२५२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-१३-१५
ह-शश्वद-युगान्तःप्रच्छये ह्यस्तनी च ॥ ५. २. १३ ॥
पञ्चपर्ष युगं, तस्यान्तर्मध्यं, तत्र पृच्छचते यः स युगान्तःप्रच्छयः । हे शश्वति च प्रयुज्यमाने, युगान्तःप्रष्टव्ये च भूतानद्यतने परोक्षेऽर्थे वर्तमानाद् धातोशस्तनी परोक्षा च विभक्ती भवतः ।
इति हाऽकरोत् , इति ह चकार, शश्वदकरोत् , शश्वच्चकार । प्रच्छये -किमगच्छस्त्वं मथुराम् ? कि जगन्थ त्वं मथुराम् ? ह-शश्वद्युगान्तःप्रच्छय' इति किम् ? जघान कसं किल वासुदेवः। वेत्येव कृते भूतानद्यतनमात्र भाविन्या शस्तन्याः पक्षे सिद्धौ शस्तनोविधानं स्मत्यर्थयोगेऽपि हस्तन्येव यथा स्यान्न भविष्यन्तीत्येवमर्थम् , तेन स्मरसि मित्र! कश्मीरेष्वितिहाध्यैमहि, अभिजानासि चैत्र ! शश्वदध्यमहि, इत्यादि सिद्धम् । ' क्रियान्तराकाङ्क्षायां तु ह-शश्वत्प्रयोग एव न संभवतीति नोदाह्रियते ॥१३॥
न्या० स०-हशश्वद्यु-इतिहाकरोदिति-निपातसमुदाय: प्रवादपारंपर्य इतिहाशब्दो वर्त्तते, यद्वा एतत् ह इति वाक्यालंकारे । प्रयोग एव न संभवतीति-नियातानां यथादर्शनं प्रयोगात् ।
अविवक्षिते ॥ ५. २. १४ ॥
भूतानद्यतने परोक्षे परोसत्वेनाविवक्षितेऽर्थे वर्तमानाद् धातोय स्तनी विभक्तिभंवतिः।
अभवत् सगरो राजा, प्रहन कंसं वासुदेवः । एवं च परोक्षानघतने विवक्षावशादद्यतनी-शस्तनी-परोक्षास्तिस्रो विभक्तयः सिद्धाः। तथा च-"अन्वनेषीत् ततो वाली न्यक्षिपच्चाङ्गदं सुग्रीवं प्रोचे सद्भावमागतः ।" 'राक्षसेन्द्रस्ततोऽभषोत् सैन्यं समस्तं सोऽयुयुत्समल स्वयं युयुत्सयांच' । तथा
"अभवस्तापसाः केचित् पाण्डुपत्रफलाशिनः ।
पारिवाज्यं तदाऽवत्त मरीचिश्न तृषावितः ।" इति ॥१४॥ न्या० स०-अविवक्षिते-तिस्रोऽपि विभक्तय इति-परोक्षत्वेन वा विवक्षिते विशेषाविवक्षा' ५-२-५ इत्यवतनी, परोक्षत्वेन त्वऽविवक्षितेऽनेन ह्यस्तनी, उभयसद्भावविवक्षायां तु 'परोक्षे' ५-२-१२ इत्यनेन परोक्षा।
वाऽद्यतनी पुरादौ ॥ ५. २. १५ ॥
'परोक्षे' इति निवृत्तम् , भूतानद्यतने परोक्षे चापरोक्षे चार्थे वर्तमानाद् धातोः 'परा' इत्यादावुपपदेऽद्यतनी विभक्तिर्भवति वा । अपरोक्षे शस्तन्याः परोक्षे तु परोक्षाया अपवादः । वावचनात् पक्षे यथाप्राप्ति ते अपि भवतः ।
___ अवात्सुरिह पुरा छात्राः, अवसनिह पुरा छात्राः, ऊषुरिह पुरा छात्राः, तदाऽभाषिष्ट राघवः, तदाऽभाषत राघवः, बभाष राघवस्तदा। भूतानद्यतनपरोक्षेऽद्यतनों नेच्छ
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पाद-२, सूत्र-१६-१८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचऽमोध्यायः
[ २५३
न्त्यन्ये, एवमुत्तरसूत्रे पुरादियोगे वर्तमानाम् । हशश्वच्छब्दयोगेऽपि पुरादियोगे परत्वाद् विकल्पेनाऽद्यतनी-इति ह पुराऽकार्षीत, अकरोत, चकार, शश्वत पूराऽकार्षीदकरोच्चकार । भूतमात्रविवक्षयाऽद्यतन्या: सिद्धौ पुरादियोगे तद्वचनं स्मृत्यर्थ-ह-शश्वत्स्मयोगे सामान्यविवक्षयाऽद्यतनी न भवतीति ज्ञापनार्थम् ।।१५।।
न्या० स०-वाद्यतनी-ते अपि भवत इति-वाकरणादऽन्यथा च शब्दं कुर्यात् । अद्यतन्याः सिद्धाविति-'अद्यतनो' ५-२--४ इत्यनेन । सामान्यविवक्षवेति-भूतानद्यतनविवक्षायां तु पुरादियोगेऽनेन भवत्येव ।
स्मे च वर्तमाना ।। ५. २. १६ ॥
भूतानद्यतने परोक्षेऽपरोक्षे चार्थे वर्तमानान् धातोः स्मशब्दे पुरादौ चोपपदे वर्तमाना विभक्तिर्भवति ।
___ इति स्मोपाध्यायः कथयति, पृच्छति स्म पुरोषसम् , बसन्तीह पुरा छात्राः, भाषते राघवस्तदा।
“अथाह वर्णी विदितो महेश्वरः, यावद् गिरः खे मरुतां चरन्ति ।” (कुमारसम्भवे)
आदिग्रहणमिह पूर्वत्र च प्रयोगानुसरणार्थम् । एवं च पुरादियोगेऽद्यतनी-शस्तनीपरोक्षा-वर्तमानाश्चतस्रो विभक्तयः सिद्धाः, स्म-पुरायोगे तु परत्वाद् वर्तमानव-नटेन स्म पुराऽधीयते । एवं-ह-शश्वत-स्म-योगेऽपि-इलिह स्मोपाध्यायः कथयत्ति, शश्वदधीयते स्म । त्रययोगेऽप्येवम्-न ह स्म वै पुराऽग्निरपरशुवृषणं बहतीति ।। १६ ॥
न्या० स० स्मे च वर्तमाना-स्मशब्दोऽतीतकालद्योतकश्चादिः । पुराबियोगे इतिननु पुरादियोगः स्मयोगश्च भवति तदा कि पूर्वेणाद्यतनी उतानेन वर्तमाना इत्याहपरत्वादिति ।
ननौ पृष्टोक्तौ सद्धत् ॥ ५. २. १७॥
अनद्यतन इति निवृतम् , पृष्टस्य धात्वर्थस्योक्तिः प्रतिवचनं-पृष्टोक्तिः । ननुशब्बे उपपदे पृष्टोक्तौ भूतेऽर्थे वर्तमानाद् धातोः सद्वव-वर्तमान इव वर्तमाना विभक्तिर्भवति । सद्ववचनादत्र विषये शत्रानशावपि भवतः।
किमकार्षीः कटं चैत्र ? ननु करोमि भोः ! ननु कुर्वन्तं कुर्वाणं मां पश्य, किमवोचः किचिच्चैत्र ? ननु ब्रवीमि भोः ! ननु ब्र वन्तं ब्रवाणं मां पश्य । पृष्टोक्ताविति किम् ? नन्वकार्षीच्चैत्रः कटम् ।।१७।।
न्या० स०-ननौ-अनद्यतन इति निवृत्तमिति-अपेक्षात इति न्यायात् । ननु कुर्वन्तं कुर्वाणमिति-करोमि कुर्वे इति वाक्ये शत्रानशौ, कृतकार्य मां पश्येत्यर्थः ।
न-न्योर्वा ॥ ५. २. १८॥
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२५४ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद २, सूत्र-१९-२०
'न नु' इत्येतयोः शब्दयोरुपपदयोः पृष्टोक्तौ भूतेऽर्थे वर्तमानाद् धातोर्वा वर्तमाना विभक्तिर्भवति, सा च सद्वत् ।
किमकार्षीः कटं चैत्र ? न करोमि भोः! न कुर्वन्तं न कुर्वाणं पश्य माम् ; नाकार्षम् । कस्तत्रावोचत् ? अहं नु ब्रवीमि, ब्रुवन्तं ब्रुवाणं नु मां पश्य; अहं न्ववोचम् । १८
सति ॥ ५. २. ११॥
सन्-विद्यमानो वर्तमान इत्यर्थः, स च प्रारब्धापरिसमाप्त: क्रियाप्रबन्धः, सत्यर्थे वर्तमानाद् धातोर्वर्तमाना विभक्तिर्भवति ।
भवति, अस्ति, घटं करोति, प्रोदनं पचति । 'जीवं न मारयति, मांसं न भक्षयति' इत्यादौ नियमः प्रारब्धोऽसमाप्तश्च प्रतीयते । 'इहाऽधीमहे, इह कुमाराः कीडन्ति' इत्यादौ क्रियान्तरव्यवधानेऽप्यध्ययनादिक्रियायाः प्रारम्भापरिसमाप्तिरस्त्येव । 'चैत्रो भुङ्क्ते' इत्यादावपि हि क्रियान्तरव्यवधानमशक्यपरिहारम्, सोऽपि झवश्यं भुजानो हसति जल्पति पानीयं वा पिबतीति । 'तिष्ठन्ति पर्वताः, स्यन्दन्ते नद्यः' इत्यादौ तु स्फुटव प्रारम्भापरिसमाप्तिः ।
कथं तहि 'तस्थुः स्थास्यन्ति गिरयः' इति ? भूत-भाविनां भरत-कल्किप्रभृतीनां राजां याः क्रिय स्तदवच्छेदेन पर्वतादिक्रियाणामतीतत्वा-ऽनागतत्वोपपत्तेन भूत-भाविप्रत्ययानुपपत्तिदोषः । एवं च विद्यानकर्तृ केभ्योऽस्त्यर्थेभ्यो धातुभ्यः सर्वा विभक्तयो भवन्तिकूपोऽस्ति, कूपो भविष्यति, कूपो भविता, कूपोऽभूत, कूप आसीत्, कूपो बभूव ।।१६।।।
न्या० स०-सति-प्रारब्धापरिसमाप्त इति-पूर्व प्रारब्धः साक्षात् साध्यत्वेन प्रस्तुतो न च परिसमाप्तः फलस्यानिष्पत्तेः, फलाथं हि उपादीयमानायाः क्रियायाः फलेऽधिगते तस्याः परिसमाप्तिर्भवति, एवं च महताकालेन साध्यते, या क्रिया तस्या अन्तराले क्रियान्तरविच्छिन्नाया अपि प्रारब्धत्वादसमाप्तत्वाच्च वर्तमानत्वमस्त्येव ।
जीवं न मारयतीति-नन्वत्र निषेधस्याभावरूपत्वात् अभावस्य च प्रारम्भापरिसमाप्ती न घटेते इत्याह-प्रारब्ध इत्यादि-यावत् क्रिया प्रारब्धा न समर्थ्यते तावत्तस्याः क्रियान्तरैर्व्यवहितायाश्चाप्यसमाप्तिः।
तदवच्छेदेनेति-तविशिष्टत्वेन तयोः क्रिययोविभागो भूतो भविष्यन् वा भवतीत्यर्थः । एवं चेति-पूर्वोक्तेनैव न्यायेन भूतभविष्यत्-त्रिययोरपेक्षयेत्यर्थः ।
शत्रानशावेष्यति तु सस्यो । ५. २. २०॥
सत्यर्थे वर्तमानाद् धातोः शत्रानशौ प्रत्ययो भवत, एष्यति तु-एष्यन्मात्रे भविष्यन्तीविषयेऽर्थे सस्यौ-स्यप्रत्ययसहितौ शत्रानशौ भवतः । स्योऽपि प्रत्ययत्वाद् धातोरेव ।
यान, यान्तौ, यान्तः, शयानः शयानौ, शयाना:; निरस्यन् , निरस्यमानः; पचन् , पचमानः । एकविषयत्वाद् वर्तमानाऽपि -याति, यातः, यान्ति, एवं सर्वत्र । तथा-सन् ,
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पाद-२, सूत्र-२० ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ २५५
अस्ति; अधीयानः अधीते; विद्यमानः, विद्यते; जुह्वद, जुहोति; विदन् , वेत्ति; जानन् जानाति ब्राह्मणः ।
तथा तरादौ प्रत्यये-पचत्तरः, पचत्तमः, पचतितरां, पचतितमाम् । पचद्रूपः, पचतिरूपम् । जल्पत्कल्पः, जल्पतिकल्पम् । पश्यद्देश्यः, पश्यतिदेश्यम् । पठद्देशीयः, पठतिदेशीयम् । एवं-पचमानतरः, पचमानतमः, पचतेतरां पचतेतमामित्यादि ।
द्वितीयाद्यन्तपदसामानाधिकरण्य-संबोधन-तरादिवजिततद्धितप्रत्ययोत्तरपद-कियालक्षण-क्रियाहेतुषु वर्तमानाया अन्वयायोगात् शत्रानशावेव-पचन्तं पचमानं पश्य, पचता पचमानेन कृतम्, पचते पचमानाय देहि, पचतः पचमानाद् भीतः, पचतः पचमानस्य स्वम्, पचति पचमाने गतः, संबोधने-हे पचन ! हे पचमान ! तराद्यन्यतद्धिते-कुर्वतोऽपत्यं कौर्वतः, पाचतः, वैक्षमारिणः, कुर्वत्पाशः, पचत्पाशः; कुर्वच्चरः, पचच्चरः । उत्तरपदे-भज्यत इति भक्तिः, कुर्वन् भक्तिरस्य-कुर्वद्भक्तिः, कुर्वाणभक्तिः, कुर्वत्प्रियः, कुर्वाणप्रियः; ब्रुवन्माठरः, ब्रु वाणमाठरः । क्रियाया लक्षणं ज्ञापकं चिह्नम्, तत्र-तिष्ठन्तोऽनुशासति गणकाः, शयाना भुञ्जते यवनाः, बहुषु मूत्रयत्सु कश्चैत्र इति पृष्टः कश्चिदाह-यस्तिष्ठन् मूत्रयति, एवं-यो गच्छन् भक्षयति, यः शयानो भुङ्क्ते, योऽधीयान् प्रास्ते । तथा य: पठन पचति स मैत्रः, एवं-यः पचन पठति; योऽधीयान प्रास्ते, य प्रासीनोऽधीते । तथा
"फलन्ती वर्द्धते द्राक्षा, पूष्प्यन्ती वर्द्धतेऽम्जिनी ।
शयाना वर्धते दूर्वा, प्रासीनं वर्धते बिसम् ॥" क्रियाया हेतुर्जनकस्तत्र-अर्जयन् वसति, अधीयानो वसति ।
एष्यति तु सस्यौ-यास्यन , शयिष्यमाणः, पक्ष्यन , पक्ष्यमाणः; यास्यति, शयिष्यते, पक्ष्यति, पक्ष्यते । तथा-भविष्यन् , भविष्यति; अध्येष्यमाणः, अध्येष्यते ब्राह्मण इत्यादि । तथा-पक्ष्यत्तरः, पक्ष्यमाणतमः, पक्ष्यतितराम्, पक्ष्यतितमामित्यादि; सर्वेष्वेकविषयत्वाद् भविष्यन्त्यपि । 'पक्ष्यन् व्रजति, पक्ष्यमाणो व्रजति' इति क्रियायां कियार्थायाम, एकविषयत्वाच्च भविष्यन्त्यादयोऽपि-पक्ष्यामीति व्रजति, पाचको व्रजति, पक्तुं व्रजति । पूर्ववदेव च द्वितीयाद्यन्तसामानाधिकरण्यादिषु भविष्यन्त्याः समन्वयाभावादभावः-पक्ष्यन्तं पश्य, पक्ष्यमाणं पश्य । हे पक्ष्यन् ! हे पश्यमाण ! ब्राह्मण! पाक्ष्यतः, पाक्ष्यमारिणः, पक्ष्यमाणपाशः, पक्ष्यद्भक्तिः, पक्ष्यमाणप्रियः, जल्पिष्यन्तो ज्ञास्यन्ते पण्डिताः, अध्येष्यमाणा वत्स्यन्तीत्यादि । सदेष्यतोरभावे तु श्वः पक्ता।
बहुलाधिकाराद् द्रव्य-गुणयोर्लक्षणे, हेतुहेतुमद्भावद्योतके त्यादियोगे च न भवतियः कम्पते सोऽश्वत्थः, यत तरति तल्लघ, हन्तीति पलायते. वर्षतीति धावति, करिष्यतीति व्रजति, हनिष्यतीति नश्यति, पचत्यतो लभते, विजयतेऽतः पूज्यते । क्रियाया अपि लक्षणे चादियोगे न भवति-यः पचति च पठति च स चैत्रः, योऽधीते चास्ते च स मैत्रः, शकारः शित्कार्यार्थः । ऋकारो याद्यर्थः ॥२०॥
___ न्या० स०-शत्रानशा०-स्योऽपि प्रत्ययत्वादिति-शत्रानशौ प्रथम प्रधानत्वात धातोविधीयेते, ततः प्रत्ययत्वादेव स्योऽपि घातोरेवानन्तरं न तु शत्रानश्भ्यां परः।
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२५६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-२१-२२
द्वितीयाद्यन्तपवेति-शत्रान शोर्वर्तमानायाश्च समान विषयत्वेऽपि नाति प्रसक्तिरपि, द्वितीयाद्यन्तेन पदेन द्रव्याभिधायिना वर्तमानान्तेन च क्रियाभिधायिना सत्ता पश्येत्यादिक्रियायाः सामानाधिकरण्याऽसंभवात् संबोधने च सिद्धविषयत्वात् साध्यवाचिनि वर्तमानान्ताऽनुपपन्नत्वात्तरादिवजिततद्धितप्रत्ययस्योत्तरपदस्य च नामत्वे सति संभवाल्लक्षणहेतुत्वयोरपि सिद्धधर्मत्वात् साध्याभिधायिनाऽन्वयायोगः, एतदेव पचन्तमित्यादिना क्रमेण दर्शयति ।
___ कुर्वन भक्तिरस्येति-भज्यत इति कर्मणि क्तो भक्तिः सेव्य इत्यर्थः, अत्र वाच्ये पुंलिङ गेऽपि शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् क्त्यन्तस्य स्त्रीलिङ्गतैव । तिष्ठन्तोऽनुशासति गणका इति-अत्राऽनुशासनक्रियया गणका लक्ष्यन्ते, सा चाऽनुशासनक्रिया उपविष्ट उर्द्ध गच्छत्युभयविषयत्वेन दुर्लक्षा अतः स्थानक्रियया लक्ष्यते । नन्वनुशासतीत्यत्रापि वर्तमाना न प्राप्नोति, यतोऽनयापि गणका लक्ष्यन्ते ? न, क्रियायाः कर्मतापन्नाया लक्षणमिति वचनात् द्रव्यादेर्गणकस्य लक्षणे वर्तमाना भवत्येव । चादियोगे न भवतीति-न केवलं द्रव्यगुणयोलक्षणे चादियोगे सति क्रियाया अपि लक्षणे न भवति, यः पचति चेत्यादौ न क्रिययोलक्ष्यलक्षणभावो विवक्षितः, क्रमेण हि प्रतीयमानयोरर्थयोर्लक्ष्यलक्षणभाव: स्याज्जन्यजनकभावो वा, अत्र तु तुल्यकालतैव क्रिययोरऽत एव तद्योतको च शब्दौ प्रयुज्यते इति । स मैत्र इत्युभयत्र संबध्यते इति द्रव्यलक्षणे न भवति, क्रियालक्षणेऽपि न भवति, तथाहि-कुत्रापि एकस्मिन् प्रमातरि पचनपठनयोर्लक्ष्यलक्षणभावो येन गृहीतः स एवं ब्रवीति, यः पचति च स पठति च, एवं पचनक्रियालक्षणं पठनक्रिया लक्ष्या, चादियोगाऽभावे तु शत्रानशौ भवत एव, यथा पचन् पचमानो वा स पठति ।
तौ माझ्याक्रोशेषु ।। ५. २. २१ ॥
माङय पपदे आक्रोशे गम्यमाने सति तौ-शत्रानशौ प्रत्ययो भवतः, बहुवचनादसत्यपि । मा पचन् वृषलो ज्ञास्यति, मा पचमानोऽसौ मर्तु कामः ।
__ "मा जीवन यः पराधज्ञादुःखदग्धोऽपि जीवति । तस्याजननिरेवास्तु, जननोक्लेशकारिणः ॥१।।
( शिशुपालवधे, सर्ग-२) शत्रानशोरनुवृत्तावपि 'तो' ग्रहणमवधारणार्थम्, तेनात्र विषये असरूपविधिनाप्यद्यतनी न भवति । भवतीत्यपि कश्चित् ।।२१॥
___ न्या० स०-तौ माया-बहुवचनादसत्यपीति-तेन ये केचित् सत्यसति वा आक्रोशास्तेषु शत्रानशौ भवत इति व्याख्येयम् । मा पचन् वृषल इत्यादि-मा पाक्षीत्, मा पक्त, मा जोवीदित्यादि वाक्यमर्थकथनम् , यावता आक्रोशविवक्षायामनेन शत्रानशावेव, असरूपविधिनाप्यत्राद्यतनी नेष्टा । केचिदऽसरूपविधिमिच्छन्ति, तन्मतेन वा वाक्यम् यद्वा मा क्लेदयन् , मा क्लेदयमानः, मा प्राणान् धारयन्नित्यर्थान्तरेण वा वाक्यम् ।
वा वेत्तेः क्वसुः॥ ५. २. २२ ॥
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पाद-२, सूत्र-२३-२५ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२५७
सत्यर्थे वर्तमानाद् वेत्तेः क्वसुप्रत्ययो वा भवति, पक्षे यथाप्राप्तम् ।
विद्वान्, साधुस्तत्त्वं विद्वान् विदन् वेत्ति । विदुषा कृतम्, विदता कृतम् । हे विद्वन् !, हे विदन ! । वैष:. वेदतः । विद्याक्तिः। विवक्तिः । विदानास्ते. विदन्नास्ते । विद्वाल्लभते, विदल्लंमते । द्वितीयाद्यन्तपदसामानाधिकरण्याविषु पूर्ववदनन्वयादेव न वर्तमाना। ककारः कित्कार्याथः । उकारो ज्यर्थः ॥२२॥
न्या० स०-वा वेत्तेः-'असरूपोऽपवादेन' ५-१-१६ इत्यनेन विकल्पे सिद्ध वाग्रहणमत्र प्रकरणे असरूपविधेर्लक्ष्यानुरोधार्थ, अत एव 'वयः शक्ति' ५-२-१४ इत्यत्रानभिधानान्न वाऽसरू
कित्कार्याद्यर्थ इति-आदिपदात् 'तृन्नुदन्त' २-२-९० इत्यादि ।
पूङ् यजः शानः ॥ ५. २. २३ ॥ सत्यर्थे वर्तमानाम्यां पति-यजिभ्यां परः शानः प्रत्ययो भवति, कृत्त्वात कर्तरि ।
पवते-पवमानः, मलयं पवमानः । यजति यजते वा-यजमानः । पानशा योगे न षष्ठीसमासो, न च यजेरफलवति कर्तरि सोऽस्तीति वचनम्, एवमुत्तरत्रापि । शकारः शिकार्यार्थः ।।२३॥
- न्या० स०-पूयजः-मलयं पवमान इति-'तृन्नुदन्त'.२-२-९० इत्यनेन आनद्वारा कर्मषष्ठीनिषेधे मलयस्य संबन्धी पवमान इति संबन्धषष्ठीसमासः । नन पूङ आत्मनेपदित्वात् यजेरप्युभयपदित्वात् फलवत्कर्त्तरि 'शत्रानशौ' ५-२-२० इत्यनेनैव वानश् सिद्धः किमनेन ? इत्याह-मानशा योगे न षष्ठीसमास:-तृप्तार्थेति निषेधात् ।
वयः शक्ति-शीले ।। ५. २. २४ ॥
सत्यर्थे वर्तमानाद् धातोर्वयः-शक्ति-शोलेषु गम्यमानेषु शानो भवति, वयः-प्राणिनां कालकृता बाल्याद्यवस्था ।
____कतोह शिखण्डं वहमानाः, स्त्रियं गच्छमानाः । शक्तिः-सामर्थ्यम्, कतीह हस्तिनं निधनानाः, समश्नानाः । शीलं-स्वभावः, कतीहात्मानं वर्णयमानाः, परान्निन्दमानाः । अनमिषानान्न वाऽसरूपः शतृः ॥२४॥
धारीडोकृच्छेऽतृशू ।। ५. २. २५ ॥
अकृच्छ:-सुखसाध्यः, अकृच्छे सत्यर्थे वर्तमानाद् धारेरिङश्न परोऽतृश् प्रत्ययो भवति ।
धारयन् आचाराङ्गम्, अधीयन् ब्रुमपुष्पीयम् । अकृच्छ इति किम् ? कृच्छेण धारयति यतिधर्मम्, कृच्छणाधीते पूर्वगतम् । इङ आनशि प्राप्ते धारेरुभयप्राप्ती वचनम् । वासरूपोऽपि नेष्यत एव ॥२५॥
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२५८ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-२६-७२
न्या० स०-धारीडो-इङ, इत्यात्मनेपदित्वात् फलवत्कर्तरि धोरश्च सामान्यसूत्रेण शतृन प्राप्नोतीति सूत्रं कर्तव्यम् , तथापि प्रत्ययान्तरं मा विधायि शतृरेव विधीयतां सूत्रसामर्थ्यादिङ आत्मनेपदिनोऽपि भविष्यति ? नैवं,-इङ आत्मनेपदित्वेऽपि विधानसामर्थ्यात शतः स्यात् धारेस्तु फलवत्कतरि अकृच्छ्र एवार्थ शतृरिति नियमाः स्यात् यद् वा धारीत्युभयपदी ततश्च यधुभयपदिनामऽकृच्छ शतृः स्यात् , तदा धारेरेवेति नियमः स्यात् ।
प्राचाराङ्गमिति-आचारप्रतिपादकमङ्गमाचाराङ्ग, आचर्यते शोभनं कर्मानेन 'व्यञ्जनाद् घन ' ५-३-१३२ आचारश्च तदङ्ग चेति वा ।
दुमपुष्पीयमिति-द्रुमपुष्पमधिकृत्य कृतो ग्रन्थः, 'शिशुक्रन्दादिभ्य ईयः' ६-३-२००, अथवा द्रुमपुष्पस्य तुल्यं 'काकतालीयादयः' ७-१-११७, अथवा द्रुमपुष्पमत्रास्ति 'सूक्तसाम्नोरीयः' ७-२-७१ ।
कृच्छेण धारयतीति-अत्र शत्रानशावपि भवतः । यतिधर्ममिति-यमनं यतं तदस्यास्ति इन् यतिनो धर्मः, यदा तु यतिधातोरोणादिक इप्रत्ययस्तदा यतेर्द्धर्मः ।
सुग-द्विषा-ऽर्हः सत्रि-शत्रु-स्तुत्ये ॥ ५. २. २६ ॥
सत्यर्थे वर्तमानात सुनोतद्विषोऽहंभ्र धातोर्यथासंख्यं सत्रिणि शत्रौ स्तुत्ये च कर्तरि अतृश् प्रत्ययो भवति ।
सत्री-यजमानः, सर्वे सुन्वन्तः, यज्ञस्वामिन इत्यर्थः । चौरं विषन , चौरस्य द्विषन , शत्ररित्यर्थः । प्रजामहन, प्रशस्य इत्यर्थः। एबिति किम? सरी सनोति, भार्या देष्टि परं पश्यन्तीम् , वधमर्हति चौरः ॥२६॥
___ न्या० स०-सुद्वि-नन्वेषु शतृप्रत्यये अतृश्प्रत्यये वा रूपसाम्यान्न कश्चिद्विशेषः ? उच्यते, प्राकृते शत्रानशौ इति सूत्रे विशेषोऽस्ति ।
तृन शील-धर्म-साधुषु ॥ ५. २. २७॥ शोले धर्म साधौ च सत्यर्थे वर्तमानाद् धातोस्तृन् प्रत्ययो भवति ।
शोले-कर्ता कटम , वदिता जनापवादान्, करणं वदनं चास्य शीलमित्यर्थः । धर्म:कुलाद्याचारः, तत्र-वधूमूढां मुण्डयितारः श्राविष्ठायनाः, श्राद्ध सिद्धमन्नमपहर्तार अाह्वरकाः, मुण्डनादि तेषां कुलधर्म इत्यर्थः । साधौ-गन्ता खेलः, कर्ता विकटः, साधु गच्छति साधु फरोतीत्यर्थः ।
नप्तृ-नेष्ट-त्वष्टक्षत्त-होतृ-पोतृ-प्रशास्तृशम्दा औणाविकाः पितृमात्रादिवत् , प्रत पवैषामाविधौ पथनपादानम् । शीलादिष्विति किम् ? कत
दानम । शीलादिग्विति किम ? कर्ता कटस्य । बहुवचनं "सन-भिक्षाशंसेहः" (५-२-३३) इत्यादौ यथासंख्यपरिहारार्थम् । नकारः सामान्यग्रहणविधातार्थः ॥२७॥
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पाद-२, सूत्र-२८-३३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः।
[२५९
न्या० स०-तृनशील-श्राविष्ठायना इति-श्रूयतेऽनेन 'पुन्नाम्नि' ५-३-१३० इति घः, श्रवोऽस्त्यासां श्रववत्यः, अतिशयेन श्रववत्य इति विगृह्य इष्ठप्रत्यये पुंभावे 'विन्मतोः' ७-४-३२ इति लुपि श्रविष्ठा धनिष्ठास्ताभिश्चन्द्रयुक्ताभिर्युक्तः कालः, 'चन्द्रयुक्त' ६-२.६ इत्यणि लुपि श्रविष्ठास्तासु जाता 'श्रविष्ठाषाढा' ६-३-१०५ इति अः, श्रविष्ठाया अपत्यानि वृद्धानि अश्वादेरायन' ६-१-४९ । भाज्यलंकृग्-निराकृग्-भू-सहि-रुचि-वृति-वृधि-चरि-प्रजना-ऽपत्रप
इषः ।। ५. २. २८ ॥ एभ्यः शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्य इष्णुः प्रत्ययो भवति ।।
भ्राजनशीलो भ्राजनधर्मा साधु भ्राजते वा-भ्राजिष्णुः, "भ्राजिष्णुना लोहितचन्दनेन", अलंकृग-अलंकरिष्णुः, निराकृग्-निराकारिष्णुः, भू-भविष्णुः, "सर्वेषां मविष्णनां जन्यानां न तु स योग्यः" । सह-सहिष्णुः, रुच-रोचिष्णुः, वृत-वतिष्णु, वृध-वधिष्णुः, चर्-चरिष्णुः, प्रजन-प्रजनिष्णुः, अपत्रप-अपत्रपिष्णुः । भ्राजेनेच्छन्त्येके ॥२८।।
उदः पचि-पति-पदि-मदेः ।। ५. २. २१ ॥ उत्पूर्वेभ्य एभ्यः शीलादो सत्यर्थे वर्तमानेभ्य इष्णुर्भवति ।। उत्पचिष्णुः, उत्पतिष्णुः, उत्पदिष्णुः, उन्मविष्णुः । पदेनेच्छन्त्यन्ये ॥२६।। भू-जेः ष्णुक ॥ ५. २. ३०॥
शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानाम्यां भू-जिभ्यां ष्णुक् प्रत्ययो भवति । भूष्णुः, जिष्णुः । ककार: कित्कार्यार्थः ।।३०॥
स्था-ग्ला-म्ला-पचि-परिमृजि-तेः स्नुः ॥ ५. २. ३१ ॥ एभ्यः शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्यः स्नुप्रत्ययो भवति । स्थास्नुः, म्लास्नुः पक्ष्णुः, परिमाणुः, क्षेष्णुः । म्लादिभ्यः केचिदेवेच्छन्ति ॥३१॥
न्या० स०-स्थाग्लाम्ला-परिमाणु रिति-'धूगौदितः' ४-४-३८ इत्यनेन विकल्पेनेटि प्रत्यये परिमाजिष्णुरित्यपि।।
क्षेष्णुरिति-'क्षिष्श् इत्यस्य न सानुबन्धत्वात् । त्रसि-गृधि-धृषि-क्षिपः क्नुः ॥ ५. २. ३२ ॥
शोलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्य एभ्यः क्नुः प्रत्ययो भवति । प्रस्नुः, गृघ्नुः, घृष्णुः, क्षिप्नुः ।।३२॥
सन्-भिक्षाऽऽशंसेरुः ॥ ५. २. ३३ ॥
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२६० ]
बृहद्वृत्ति लघुन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-३४-३७
शोलादौ सत्यर्थे वर्तमानात सन्प्रत्ययान्ताद् धातोभिक्षा-शंसिभ्यां च पर उ: प्रत्ययो भवति ।
चिकीर्ष:, जिहीर्ष:, भिक्षुः । 'आशंस्' इति "आङः शसुङ इच्छायाम्" इत्यस्य ग्रहणम् , न तु "शंसू स्तुतौ च" इत्यस्य, तत्राङ्योगस्यानियतत्वात् । आशंसुः । स्तुत्यर्थस्यापीच्छत्यन्यः ॥३३॥
न्या० स०-सनभिक्षा-गर्गादौ जिगीषुशब्दपाठात् सन्निति सन्प्रत्ययान्तस्य ग्रहः, न भिक्षादिसाहचर्यात् सनतिसनोत्योर्द्धात्वोः प्रत्ययाप्रत्ययोरिति न्यायाद् वा इत्याहसन्प्रत्ययान्तादिति ।
विन्दिच्छू ॥ ५. २. ३४ ॥
शीलादो सत्यर्थे वर्तमानाद् वेत्तेरिच्छतेश्च उ: प्रत्ययो यथासंख्यं नोपान्त्य-छकारान्तादेशौ च निपात्यन्ते ।
वेदनशीलो-विन्दुः, एषणशील-इच्छुः । कथमपां विन्दुः ? विन्देरवयवार्थात् प्रौणादिक उः । अन्ये त्वस्यैव निपातनं, क्रियानिमित्तस्तु विन्दुरित्यनागमिक एवेत्याहुः। सर्वविदीनां सर्वेषीणां च निपातनमिदमित्यन्यः ।।३४।
श-वन्देरारुः ॥ ५. २. ३५ ॥
शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानाभ्यां शश-वन्दिम्यामारुः प्रत्ययो भवति । शणातीत्येवंशील:-शरारुः, विशीर्यते-विशरारुः । वन्दते-वन्दारुः ॥३५।।
दा-ट्धे-सि-शद-सदो रुः ॥ ५. २. ३६ ॥
शीलादौ सत्यर्थ वर्तमानेभ्यो 'दारूप ट्धे सिशद सद' इत्येतेभ्यो रुः प्रत्ययो भवति ।
ददाति, दयते, यच्छति, यति, दाति, दायति वेत्येवंशीलो-दारुः । कथं द्यति तदिति-दारु काष्ठम? औणादिकः कर्मणि रुः । धयति-धारुर्वत्सो मातरम । सिनोतिसेरुः । शीयते-शद्रः। सीदति-सद्रुः। एभ्य इति किम् ? दधातीत्येवंशीलो-दधिर्गाः । धग्रहणाद् दारूपमिह गृह्यते न संज्ञा ।।३६।।
शी श्रद्धा-निद्रा-तन्द्रा-दयि-पति गृहि-स्पृहेरालुः ।। ५. २. ३७॥ एभ्यः शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्य आलुः प्रत्ययो भवति ।
शेते इत्येवंशील:-शयालुः । श्रत्पूर्वो धाग, श्रद्धत्ते-श्रद्धालुः । निद्राति निद्रायति वानिद्रालुः, तत् द्राति द्रायति वा-तन्द्रालुः, निपातनात् तदो दस्य नः, तन्द्रेति सौत्रो वा। दयते-दयालुः । पति-गृहि-स्पृहयोऽदन्ताश्चौरादिकाः, पतिगृही सौत्राविकारान्तौ वा, पतपति-पतयालुः, गृहयते-गृहयालुः, स्पृहयति-स्पृहयालुः, मृगयतेरपि कश्चित-मृगयालुः ।
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पाद-२, सूत्र-३८-४२ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२६१
लज्जालुः, ईर्ष्यालुः, शलालुप्रभृतयस्त्वौणादिकाः । कृपालु हृदयालू मत्वर्थीयान्तौ ॥३७॥
ङौ सासहि-बावहि-चाचलि-पापति ।। ५. २. ३८ ॥
शोलादौ सत्यर्थे वर्तमानानां सहि-वहि-चलि-पतीनां यङन्तानां डौ सति यथासंख्यमेते निपात्यन्ते । अत एव वचनात डिरपि ।
__ सासह्यते इत्येवंशील:-सासहिः । वावह्यते-वावहिः । चाचल्यते-चाचलिः । पनीपत्यते-पापति:, निपातनात न्यागमाभावः । ङाविति ङकार: "तृन्नुदन्ताव्ययववस्वान०" (२-२-६०) इत्यत्र विशेषणार्थः ।।३।।
सनि-चक्रि-दधि-जज्ञि-नेमि ॥ ५. २. ३१ ॥ . एते शोलादौ सत्यर्थे कृतद्विर्वचना डिप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते ।
सरतीत्येवंशीलः-सनिः करोति-चक्रिः, दधाति-दधिः, जायते जानाति वा जज्ञिः, नमति-नेमिः, द्विर्वचनाभाव एत्वं च निपातनात् ।।३६॥ . श-कम-गम-हन-वृष-भू स्थ उकण् ॥ ५. २. ४०॥
शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्य एभ्य उकण् प्रत्ययो भवति ।
शणातीत्येवंशील:-शारुकः, प्रशारुकः शरः । कामुकः, कामुकी रिरंसुः, कामुका येच्छां विना कामयते, कामुका अन्यस्य स्त्रियो भवन्ति । गामुकः, आगामुकः स्वगृहम् । घातुकः, आघातुको व्याधः । वर्षुकः, प्रवर्ष कः पर्जन्यः। भावुकः, प्रभावुकः क्षत्रियः । स्थायुकः प्रमत्तः, उपस्थायुको गुरुम्, गुणानधिष्ठायुकः ।।४०॥
न्या० स०-शृकमगम-कामुका अन्यस्येति-'अकमेरुकस्य' २-२-९३ इत्यत्र कमिवजनान्न षष्ठीनिषेधः।
लष-पत-पदः।। ५. २. ४१॥ शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्य एभ्य उकण प्रत्ययो भवति ।।
अपलषतीत्येवंशोलमपलाषुकं नीचसांगत्यम् , अभिलाषुकः । उत्पातुकं ज्योतिः, प्रयातुका गर्भाः । उपपादुका देवाः । योगविभाग उत्तरार्थः ॥४१॥
भूषा-क्रोधार्थ-जु-सृ-गृधि ज्वल-शुत्रश्चानः॥ ५. २. ४२॥
भूषार्थेभ्यः क्रोधार्थेभ्यो जु-सृ-गृधि-ज्वलशुचिभ्यो लष-पत-पदिभ्यश्च शीलादौ सत्यर्थं वर्तमानेभ्योऽनः प्रत्ययो भवति ।
भषार्थे-भषयतीत्येवंशीलो-भूषणः कुलस्य, मण्डना गगनस्य भाः, प्रसाधनः । क्रोधार्थे-क्रोधन:, कोपनः, रोषणः । जवतिः सौत्रो वेगाख्ये संस्कारे वर्तते, तेन चल्यर्थ
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२६२ ]
बृहद्वृत्ति लघुन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-४३-४४
द्वारेण न सिध्यतीतीहोपादानम् । जवनः । सृ-सरणः, गृधू-गर्धनः, ज्वल-ज्वलन:, शुचशोचनः, लष-अभिलषणः, पत-पतनः। पदेरिदित्त्वादुत्तरेणैव सिद्धे सकर्मकार्य वचनम् । अर्थस्य पदनः ग्रन्थस्य पदनः; पदनः क्षेत्राणाम् ।
उत्तरत्र सकर्मकेभ्योऽपि विधिरित्येकेषां दर्शनम्, तथा चोकरणा बाधितोऽप्यसरूपत्वात् पदेरन: प्रत्ययो भविष्यतीति चेत् ? एवं तहि शीलादिप्रत्ययेष्वसरूपत्वेन शोलादिप्रत्ययो न भवतीति ज्ञापनार्थ पदिग्रहणम् , तेन-चिकोर्षिता कटम् , अलंकर्ता कन्यामिति न भवति । कथं तहि 'गन्ता खेलः, आगामुकः; भविता, भावुकः; जोगरिता, जागरूकः, विकत्थनः, विकत्थी; भासनं, भासुरम् ; वर्धनः, वधिष्णु ; अपलाषुकः, अपलाषी; कम्पना कम्प्रा शाखा; कमना कामुका युवतिः ?' क्वचित समावेशोऽपि भवति । एतदर्थमेव च "न ण्यादि०" (५-२-४५) सूत्रे दीपिग्रहणम् , अन्यथा रेणाऽनोऽस्य बाध्येतेति तदनर्थक स्यात । अनस्यैव विषये समावेश इत्येके ||४२।।
न्या० स०-भूषाकोधार्थ-वेगाख्ये इति-स्थिति-स्थापक भावनादिभेदात् त्रिधा संस्कारः, वेगाख्यस्तु चलनस्य हेतुरेव न तु चलनमित्यर्थः। अपलाषुक इति-निरुपसर्गस्य उकणश्चरितार्थत्वमतो न समानविषयता।
चाल शब्दार्थादकर्मकात् ॥ ५. २. ४३ ॥
चलनार्थाच्छब्दार्थाच्च धातोः शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानादकर्मकादविवक्षितकर्मकाद वा परोऽनः प्रत्ययो भवति ।
चलतीत्येवंशील:-चलन:, कम्पनः, चोपनः, चेष्टनः । शब्दयतीत्येबंशील:-शब्दनः, रवणः, आक्रोशनः । अकर्मकादिति किम् ? पठिता विधाम् ।।४३।।
इडितो व्यञ्जनाद्यन्तात् ।। ५. २. ४४ ॥
व्यञ्जनमादिरन्तश्च यस्य सव्यञ्जनाद्यन्तः । इदनुबन्धात् ङानुबन्धाच्च व्यञ्जनाद्यन्ताद् धातोः शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानादनः प्रत्ययो भवति ।
इदित्, स्पधि-स्पर्धनः। डित, वृतूङ्-वर्तनः, वृधृङ-वर्धनः । रतश्च विषय एव लोपे व्यञ्जनान्तत्वात इहापि भवति-चितिण-चेतनः, गुपि-जुगुप्सनः, मानि-मीमांसनः । इडित इति किम् ? स्वप्ता । व्यञ्जनाद्यन्तादिति किम् ? एधिता, शयिता । अकर्मकादित्येव ? वासिता वस्त्रम्, सेविता विषयान् । कथमुत्कण्ठावर्धनैरिति ? नात्र कर्मषष्ठीसमासो वृधेरकर्मकत्वात्, किन्तु तृतीयासमासः, उत्कण्ठया वर्धनैः, वर्धमानोत्कण्ठाशील. रिति यावत् । अन्ये त्वत्कर्मकादेवेति नेच्छन्ति ॥४४॥
न्या० स०-इङितो-इहापि भवतीति-अन्यथाऽनेक स्वरात् 'निन्दहिंस' ५-२-६८ इति णकः स्यात् । जुगुप्सन इति-नन्वत्राकारस्य विषयेऽपि लोपे सन्नन्तस्य डिदित्त्वाभावादनो न प्राप्नोति ? न, अत्र गुपेः स्वार्थे एव सन् ततश्च गुपिलक्षणे * अवयवे कृतं लिङ्ग समुदायस्याऽपि विशेषकम् * इति न्यायात् गुपिरेव द्रष्टव्यः ।
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पाद-२, सूत्र-४५-४६ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२६३
- ननु तथापि सन्नन्तत्वात् 'सभिक्ष' ५-२-३३ इत्यादिना उः प्रत्ययः प्राप्नोति ? नैवं, विषयव्याख्यानात् , यद्यकारलोपेऽपि उः प्रत्ययस्तदा विषयव्याख्या फलं न ।
न णिङ्-य-सूद-दीप-दीक्षः ॥ ५. २.४५ ॥ णिङन्तेभ्यो यान्तेभ्यः सूदादिभ्यश्च धातुभ्यः शीलादौ सत्यर्थेऽन: प्रत्ययो न भवति ।
भावयिता. हस्तयिता. उत्पच्छयिता.मायिताक्रयिता, दयिता, सदिता, दीपिता, दीक्षिता। मधुसूदनाऽरिसूदन-बलसूदनादयो नन्यादिषु द्रष्टव्याः ॥४५।।
न्या० स०-न णिय भावयितेति-अत्रानेकस्वरत्वात् णकविषये णिलोपात् व्यञ्जनान्तत्वात् अनः प्राप्तः प्रतिषिध्यते, तत इटि सति ‘णेरनिटि' ४-३-८३ इत्युक्तेः पुननिवर्त्तते एवं हस्तयितेत्यादौ भावना।
द्रम-क्रमो यङः॥ ५. २. ४६ ॥ शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानाभ्यां यङन्ताभ्यां द्रमि-क्रमिभ्यामन: प्रत्ययो भवति ।
कुटिलं द्रमति कामतीत्येवंशील:-दन्द्रमणः, चङ्क्रमणः । सकर्मकार्थ वचनम्, य इति प्रतिषेधनिवृत्त्यर्थं च । “प्रतः" ( ४-३-८२) इति हि लुक् प्रत्यये विषयभूतेऽपि भवति ।।४६॥
न्या० स०-व्रमक्रमो-सकर्मकार्थमिति- इङितः' ५-२-४४ इत्यनेन तु अकर्मकाद्विहितः । प्रतिषेधनिवृत्त्यर्थमिति-ननु यदि सकर्मकार्थमारम्भस्तदा न विधेयः, यतोऽविवक्षितकर्मकाभ्यामाभ्यां 'इङितः' ५-२-४४ इत्यनेन भविष्यतीत्याह-य इतीति-ननु यङोऽकारान्तत्वात् कथं यान्तत्वमित्याह-अत इतीति । विषयेभूतेऽपीति-अनेकस्वरत्वाण्णकस्य ।
यजि-जपि-दंशि-वदादूकः ॥ ५. २. ४७ ॥ एभ्यो यङन्तेभ्यः शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्य ऊकः प्रत्ययो भवति ।
भृशं पुनः पुनर्वा यजतीत्येवंशीलो-यायजूकः, जंजपूकः, दन्वशूकः, वावदूकः । अन्येभ्योऽपीति केचित-दंदहूकः, पापयूकः, निजागदूकः, नानशूकः, पंपशूकः ॥४७॥
जागुः ॥ ५. २. ४८॥
शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानाज्जागर्तेरूकः प्रत्ययो भवति, यङ इति निवृत्तम् । जागर्तीस्येवंशोलो-जागरूकः ॥४८॥
न्या० स०-जागुः-यङ इति निवृत्तमिति-अनेकस्वरत्वेनासंभवात् । शमष्टकाद् घिनण् ॥ ५. २. ४१ ॥ शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्यः शमादिभ्योऽष्टाभ्यो धातुभ्यो घिनण् प्रत्ययो भवति । शाम्यतीत्येवंशील:-शमी दमी, तमीश्रमी क्षमी, प्रमादी, उन्मादी क्लमी। घजन्ता
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२६४ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-५०-५४
न्मत्वर्थीयेन सिद्धयति तृन्बाधनार्थं तु वचनम् । अष्टकादिति किम् ? असिता। णकारो वृद्धयर्थः । चकार उत्तरत्र कत्व-गत्वार्थ: । अभिधानात् घिणन् अकर्मकेभ्यस्तेनेह न भवतिअरण्यं भ्रमिता, सकर्मकेभ्यस्तु यथादर्शनं दर्शयिष्यामः ।।४९।।
युज-भुज-भज-त्यज रञ्ज-द्विष-दुष-द्रह-दुहा-ऽभ्याहनः॥ ५.२.५०॥ एभ्यः शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्यः घिनण् भवति ।
युज्यते युनक्ति वा इत्येवंशीलो-योगी। भुङ्क्ते भुनक्ति भुजतीति वा-भोगी, भागी, कल्याणभागी, त्यागी, प्राणत्यागी, रागो "अघिनोश्च रञ्जः" (४-२-६०) इति न लोप: । द्वेषी, दोषी, द्रोही, दोही, अभ्याघाती। अकर्मकादित्येव ? गां दोग्धा, शत्रूनभ्याहन्ता ।।५०॥
आङः क्रीड-मुषः॥ ५.२.५१॥ शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानाभ्यामाङः पराम्यामाभ्यां घिनण भवति ।
प्राक्रीडत इत्येवंशीलः-आक्रोडी, प्रामोषी । शीलादिप्रत्ययान्ताः प्रायेण रूढिप्रकारा यथादर्शनं प्रयुज्यन्त इति उपसर्गान्तराधिक्ये न भवति । एवमुत्तरत्रापि । ५१।।
न्या० स० - आङः क्रीडमुषः-शीलाविप्रत्ययान्ता इति-ननु पूर्वे आङमाङ यसाङमुषाक्रोडेति पठित्वा घिनण्माहुस्तेषां विशिष्टस्वरूपोपादानान् नोपसर्गान्तराधिक्ये भवति । इह तु आङः पराभ्यामित्युच्यमाने उपात्तोपसर्मात् पूर्वमन्यस्मिन्नुपसर्गे सत्यपि व्यवधानाभावात् ततः परत्वस्य संभवादुपसर्गान्तराधिक्येऽपि भवतीत्याह-शीलादिप्रत्ययान्ता इत्यादि-शोलधर्मसाधुषु अर्थेषु ये प्रत्ययास्तदन्ता इमे प्रायेण रूढिशब्दप्रकारा यथा रूढिशब्दा रूढिविषय एव प्रवर्त्तन्ते तत्र च नियतरूपस्तथा इमेऽपि ये यथा प्रयोगे दृश्यन्ते यद्यदुपसर्गाः सोपसर्गा अनुपसर्गा वा ते तथैव प्रयोगानुसारेण प्रयोक्तव्याः, तथाहि-कामुक इति अनुपसर्ग एव प्रयुज्यते न सोपसर्गः, एवमागामुकः इति आङ पसर्गपूर्व एव, न त्वनुपसर्गोऽन्योपसर्गपूर्वो वा इत्येवमन्यदपि द्रष्टव्यमिति नोपसर्गान्तराधिक्ये भवति ।
प्राच यम-यसः॥५, २.५२ ॥ शीलादो सत्यर्थे वर्तमानाभ्यां प्रादाङश्च पराभ्यामाभ्यां घिनण भवति । प्रयच्छतीत्येवंशील:-प्रयामी, प्रायामी; प्रयासी, आयासी ॥५२।। न्या० स०-प्राच्च यम-यथासंख्यं यद्यभिप्रेतं स्यात्तदा प्राङ इति क्रियेत । मथ-लपः॥ ५. २.५३ ॥
प्रात् पराभ्यामाभ्यां शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानाभ्यां घिनण् भवति । प्रमथतीत्येवंशीलः-प्रमाथी, प्रलापी ॥५३॥
वेश्वः द्रोः ।। ५. २. ५४ ॥
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पाद-२, सूत्र-५५-६१ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२६५
वेः प्राच्च पराच्छोलादौ सत्यर्थे वर्तमानाद् द्रवतेधिनण् भवति । विद्रवतीत्येवंशोलो-विद्रावी, प्रद्रावी ।।५४॥ वि-परि-प्रात् सर्तेः ।। ५. २. ५५ ॥. वि-परि-प्रेभ्यः पराच्छोलादौ सत्यर्थे वर्तमानात् सर्तेधिनण् भवति । विसरतीत्येवंशोलो-विसारी, परिसारी, प्रसारी ॥५५॥ समः पृचैप-ज्वरेः ।। ५. २. ५६ ॥ शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानाभ्यां समः पराभ्यां पृणक्ति-ज्वरिभ्यां घिनण् भवति ।
संपृणक्तीत्येवंशीलः-संपर्की । पिनिदेशादादादिकस्य न ग्रहणम्-संपचिता । संज्वरतीत्येवंशीलः-संज्वारी । केचिद् ण्यन्तादपीच्छन्ति-संज्वरी । त्वरयतेरपि कश्चिद-संवरी। प्रकर्मकादित्येव ? संपृणक्ति शाकम् ॥५६।।
सं-वेः सृजः॥ ५. २. ५७ ॥ शीलादो सत्यर्थे वर्तमानात सं-विभ्य पराव सृजेधिनण् भवति । संसजतीत्येवंशोलः संसृज्यते वा-संसर्गी, विसर्गी ॥५७॥ सं-परि-व्यनु-प्राद् वदः।। ५. २. ५८ ॥ शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानात सं-परि-व्यनुप्रेभ्यः पराद् वदेधिनण् भवति ।
संवरतीत्येवंशीलः-संवादी, परिवादी, विवादी, अनुवादी, प्रवादी। परिपूर्वाण्ण्यन्तादपीति केचित् ॥५॥
वेर्विच-कत्थ-सम्भू-कष-कस-लस-हनः ।। ५. २. ५१ ॥ एभ्यो विपूर्वेभ्यः शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्यो घिनण् भवति ।
विविनक्तीत्येवंशीलो-विवेकी । विकत्थी, विलम्भी, विकाषी, विकासी, विलासी, विघाती ॥५६॥
व्यपा-ऽभेर्लषः ॥ ५, २, ६०॥ व्यपा-ऽभिभ्यः पराच्छीलादौ सत्यर्थे वर्तमानाल्लषेधिनण् भवति । विलषतीत्येवंशोलो-विलाषी, अपलाषी, प्रभिलाषी ॥६०॥ संप्राद् वसात् ॥ ५. २. ६१ ॥ सं-प्राभ्यां पराच्छीलादो सत्यर्थे वर्तमानाद बसतेधिनण् भवति ।
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२६६ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-६२-६७
संवसतीत्येवंशीलः-संवासी, प्रवासी । शनिदेशाद् वस्तेन भवति ।।६१।। समत्यपाभिव्यमेश्वरः॥ ५. २. ६२ ॥
'सम्, अति, अप, अभि, व्यभि' इत्येतेभ्यः पराच्छीलादौ सत्यर्थे वर्तमानाच्चरेघिणन् भवति ।
संचरतीत्येवंशीलः-संचारी, अतिचारी, अपचारी, अभिचारी, व्यभिचारी ॥६२।। समनुव्यवाद रुधः॥ ५. २. ६३ ॥ 'सम्, अनु, वि, अब' इत्येतेभ्यः पराच्छीलादौ सत्यर्थे वर्तमानात् रुघोधिनण भवति। . संरुन्धे इत्येवंशीलः-संरोधी, अनुरोधी, विरोधी, अवरोधी ॥६३ । वेर्दहः ॥ ५. २. ६४ ॥
विपूर्वाच्छीलादौ सत्यर्थे वर्तमानाद् दहेधिनम् भवति । विदहतीत्येवंशीलोविदाही ॥६४॥
परेदेवि मुहश्च ॥ ५. २. ६५ ॥
देवीति देवृधातोरण्यन्तस्य ण्यन्तस्य च ग्रहणम् । परिपूर्वाभ्यां शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानाम्यामाभ्यां दहश्च घिनण् भवति ।
परिदेवते परिदेवयति वा-परिदेवी । ण्यन्तान्नेच्छन्त्यन्ये । परिमोही, परि॥६५॥ न्या० स०-परेर्देवि-वृधातोरिति-लाक्षणिकत्वात् दीव्यतेय॑न्तस्य न ग्रहणम् । क्षिप-रटः ॥ ५. २.६६ ॥ . परिपूर्वाभ्यामाभ्यां शीलादो वर्तमानाम्यां घिनण् प्रत्ययो भवति । परिक्षिप्यति परिक्षिपति वा-परिक्षेपी, परिक्षेप्यम्भसाम्, परिराटी॥६६।। वादेश्व णकः ॥ ५. २. ६७॥
परिपूर्वाच्छीलादौ सत्यर्थे वर्तमानाद् वादयतेः क्षिप-रटिम्यां च णकः प्रत्ययो भवति ।
परिवादयतीत्येवंशील:-परिवादकः । वदेरपि केचित् । परिक्षेपकः । परिराटकः । असरूपत्वात् "णक-तृचौ" (५-१-४८) इति सिद्ध पुनविधानं शीलादिप्रत्ययेष्वशीलादिकृतप्रत्ययोऽसरूपविधिना न भवतीति ज्ञापनार्थम्, तेनालंकारकः, परिक्षिपः, परिरट इत्यादि शीलाद्यर्थे न भवति । बाहुलकाव क्वचिद् भवत्यपि
"काम-क्रोधो मनुष्याणां खादितारौ वृकाविव" । अत्र णकविषये तृच् ॥६७॥
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पाद-२, सूत्र-६८-७२ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२६७
निन्द-हिंस-क्लिश-खाद-विनाशि व्याभाषा-ऽसूया-ऽनेकस्वरात्
एभ्य: शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्यो को भवति ।
निन्दतीत्येवंशीलो-निन्दकः, हिंसकः, क्लिश्नाति क्लिश्यते वा-क्लेशकः, खादकः, विनाशयति-विनाशकः, व्याभाषक: । प्रसूयः कण्वादो-असूयकः, दरिद्रायकः, चकासकः, गणकः, चुलुम्पकः । अनेकस्वरत्वादेव सिद्धेऽसूयग्रहणं कण्ड्वादिनिवृत्यर्थम् , तेन-कण्डूयिता, मन्तूयिता, तृन्नेव । विनाशिग्रहणं तु अन्यस्य ण्यन्तस्य निवृत्त्यर्थम्-कारयिता । अनेकस्वरान्नेच्छन्त्यन्ये । क्लिशेर-विशेषेण ग्रहणाद् देवादिकादिदित्त्वेऽपि अनो न भवति ।।६।।
न्या० स०-निन्दहिंस-अन्यस्य ण्यन्तस्येति-कथं तहि गणकः, अत्रेदं व्याख्यानं कर्तव्यं, यत् विनाशीति णिगन्तस्योपादानं करोति तत् ज्ञापयति अन्यस्यापि, णिगन्तस्य वर्जनं तेन णिजन्तस्य भवत्येव ।
उपसर्गाद देव-देवि-कुशः ॥ ५. २. ६१ ॥ उपसर्गात परेभ्यः शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्य एभ्यो णको भवति ।
आदेवत इत्येवंशील:-आदेवकः, परिदेवकः । देवोति दीव्यतर्देवतेवा ण्यन्तस्य ग्रहणम् , आदेवयतीति-आदेवकः, परिदेवकः, प्राक्रोशकः, परिक्रोशकः । उपसर्गादिति किम् ? देवनः, देवयिता, क्रोष्टा । देवतेय॑न्तादेवेति कश्चित् ।।६।।
- न्या० स०-उपसर्गादेव-ण्यन्तस्य ग्रहणमिति-लक्षणप्रतिपदेत्यस्य न्यायस्यानित्यत्वात् अथवा भिन्नदेवृग्रहणात् अन्यथा देवग्रहणमेव कुर्यात् ।
वृभिक्षि-लुण्टि-जल्पि-कुट्टाट्टाकः ॥ ५. २. ७० ॥ एभ्यः शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्यष्टाक: प्रत्ययो भवति ।
वृणीते इत्येवंशीलो-वराकः, वराको । मिक्षाकः, भिक्षाकी । लुण्टाकः, लुण्टाको । जल्पाकः, जल्पाकी। कुद्राक:, कुद्राकी। टकारो उद्यर्थः ॥७॥
प्रात् सू-जोरिन् ॥ ५. २. ७१ ॥ प्रात् पराभ्यां सुवति-जुभ्यां शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानाभ्यामिन् प्रत्ययो भवति ।
'सू' इति निरनुबन्धग्रहणात सुवतेस्रहणम्, न सूति-सूयत्योः । प्रसुवतीत्येवंशील:प्रसवी। प्रजवी ॥७॥
जीण-दृ-ति-विधि परिभू-वमा-ऽभ्यमाऽव्यथः । ५. २. ७२ ॥ एभ्यः शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्य इन् भवति । जि-जयतीत्येवंशोलो-जयी, इण्-अत्ययी, उदयो, दृ-आदरी, क्षीति क्षि-क्षितो
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२६८ ]
बृहवृत्ति लधुन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-७३-७८
ग्रहणम् , क्षयो, विधि-विश्रयो, परिभू-परिभवी, वम्-वमी, अभ्यम्-अभ्यमी, अव्यथ-न व्यथते इति-अव्यथी ।।७२।।
न्या० स०-जीण दृक्षि-क्षिक्षितोरिति क्षिष्श् इत्यस्य तु सानुबन्धत्वान्न ग्रहः । सृ-घस्यदो मरक ॥ ५. २. ७३ ।। एभ्यः शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्यो मरक् प्रत्ययो भवति । सरतीत्येवंशील:-समरः, घस्मरः, अमरः ।।७३॥ भञ्जि-भासि-मिदो घुरः ।। ५. २.७४ ॥ एभ्यः शीलावो सत्यर्थे वर्तमानेम्यो धुरः प्रत्ययो भवति ।
भज्यते स्वयमेवेत्येवंशोलं-भङ्गुरं काष्ठम् । भासते-मासुरं वपुः, मेधति मेदते वामेदुरः । चकारो गत्वार्थः ।।७४।।।
न्या० स०-भञ्जिमासि-'व्याप्ये घुरकेलिम' ५-१-४ इति घुरप्रत्ययस्य व्याप्ये कर्तरि विधानादित्याह-भज्यते स्वयमेवेत्यादि-भासिमिदिविदां तु कर्तर्येव घुरोऽकर्मकत्वेन कर्मकर्तुरसंभवात् ।
वेत्ति-छिद-भिदः कित् ॥ ५. २. ७५ ॥ एभ्यः शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेम्यः किद् घुरः प्रत्ययो भवति ।
वेत्तीत्येवंशीलो-विदुरः, छिद्यते भिद्यते स्वयमेव-छिद्रः, भिदुरः, कित्त्वाद गुणो न भवति । वेत्तीति तिनिर्देश इतर विदित्रयव्युदासार्थः ॥७॥
भियो रुरुक-लुकम् ॥ ५. २. ७६ ।। शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानाद बिभेते 'ह रुक लुक' इति प्रत्ययत्रयं किद् भवति ।
बिभेतीत्येवंशीलो-भीरः, भीरकः भोलुकः । ऋफिडावित्वात् लत्वं प्रयोगानुसारगाद गरीय इति लाघवार्थ लुकवचनम् ॥७६।।
सू-जीण-नशष्ट्वरप् ॥ ५. २. ७७ ।। एम्यः शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्यः किन ट्वरप् प्रत्ययो भवति ।
सरतीत्येवंशोल:-सत्वरः, सत्वरी, जित्वरः, जिस्वरी। इण इत्वरः, इत्वरी। करकर्मणि पथिके नीचे दुर्विधे । नश्वरः, नश्वरी। टकारो ड्यर्थः । पकारस्तागमार्थः ७७।
गत्वरः॥ ५. २.७८ ॥ गमेष्टवरप मकारस्य च तकारो निपात्यते । गत्वरः, गत्वरी ॥७॥
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पाद-२, सूत्र-७९-८३ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२६९
स्म्यजस-हिंस-दीप-कम्प-कम-नमो रः ।। ५. २. ७१ ॥ स्म्यादिभ्यः शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्यो रः प्रत्ययो भवति ।
स्मयत इत्येवंशील-स्मेरं मुखम् । अजसिति "जसूच मोक्षणे" नपूर्वः, न जस्यतिअजस्र श्रवणम, प्रजना प्रवृत्तिः, अजस्रः पाकः, अजस्र पचति । प्रजनशब्दोऽयं स्वभावात सातत्यविशिष्टां क्रियामाह, तेन धात्वर्थ एव कर्तरि रः प्रत्ययोऽन्यथा क्रियाभिधानानुपपत्तेः, तेनाजस्रो घट इति न भवति । अजस्त्रमित्यव्ययमपि नित्यार्थ क्रियाविशेषणमस्ति । हिस्हिस्रो व्याधः । दीप-दीप्रो दीपः । कम्प-कम्प्रः । कम्-कामयते कम्रा युवतिः ।
बहुलाधिकारात् कर्मण्यपि, कम्यते-कम्रः, तत एव कमितेत्यपि । नम्-नमतीतिनम्रः । अजसि-कमि-नमिभ्यः कर्मकर्तर्यवेच्छन्त्येके ॥७६।।
न्या० स०-स्म्यजस जसूच् मोक्षणे इति-अन्येषामणिजन्तानां साहचर्याच्चुरादिणिजन्तो न गृह्यते । धात्वर्थ एव कर्तरीति-अन्यस्य धातोरर्थ इत्यर्थः, यथाऽजस्रः पाकः इत्यत्य पाकलक्षणेऽर्थे ।
तृषि-धृषि-स्वपो नजिङ्॥ ५. २. ८० ॥ तृषि-धृषि-स्वपिभ्यः शीलादौ सत्यर्थे वर्तमानेभ्यो नजिड़ प्रत्ययो भवति ।
तृष्यतीत्येवंशीलः-तृष्णक , तृष्णजी। कृष्णक, धृष्णजी । स्वप्नक, स्पप्नजो। डकारो गुणप्रतिषेधार्थः, इकार उच्चारणार्थः । धूषो नेच्छन्त्येके ।।८०॥
स्थेश-भास-पिस-कसो वरः ॥ ५. २. ८१॥ स्थादिभ्यः शीलादो सत्यर्थे वर्तमानेभ्यो वरः प्रत्ययो भवति ।
तिष्ठतीत्येवंशील:-स्थावरः, स्थावरा। ईश्वरः, ईश्वरा। कथमीश्वरी? "अश्नोरोच्चादे:" (४४२) इत्यौणादिके वरटि भवति । भास्वरः, मास्वरा । पेस्वरः, पेस्वरा । विकस्वरः, विकस्वरा । प्रमदेरपीति कश्चिद-प्रमाद्यति-प्रमद्वर ।।१।।
यायावरः ।। ५. २.८२ ॥ यातेर्धातोः शोलादौ सत्यर्थे वर्तमानाद् यन्तात् वरः प्रत्ययो निपात्यते । कुटिलं यातीत्येवंशीलो-यायावरः ॥२॥
न्या० स०-यायावर इति-'य्वोः' ४-४-१२१ इति यलुप्, 'योऽशिति' ४-३-८० इति न व्यञ्जनादित्यधिकारात् । दिद्यु ददृजगज्जुहू-बाक्-मादधी श्री-द्रव -ज्वायतस्तू-कटय़-परि
वाड्-भ्राजादयः किपः ॥ ५. २.८३॥
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२७० ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
पाद-२, सूत्र-८४-८५
एते शब्दाः क्विबन्ताः शीलादौ सत्यर्थे निपात्यन्ते ।
द्योतते इत्येवंशीलो-दिद्युत,-दिद्युतौ, दृणातीति-दृदत्, दहतो, गच्छतीति-जगत्, जुहोतीति-जुहूः, एषु द्वित्वम्, दृणाति-जुहोत्योह्र स्वत्वदीर्घत्वे च । वक्तीतिवाक् । पृच्छतीतिप्राट् , प्राशौ; शब्दप्राट्, तत्त्वप्राट् । दधाति ध्यायति वा-धीः, यतीति-श्रीः । शतं द्रवतीति-शतः, स्रवतीति त्र। जवतीति-जूः । प्रायतं स्तौतीति-आयतस्तुः, कटं प्रवतेकटः, परिव्रजतीति-परिवाट , परिवाजो, एषु दीर्घत्वम् दधातेराकारस्य ध्यायतेर्याशब्दस्य चेकारः।
बहुलाधिकारादशीलादावपि । धोः, प्रधीः, प्राधीः। भ्राजादि-विभ्राजत इतिविभ्राट्, विभ्राजौ। भासत इति-भाः, भासौ, भासः। पिपर्तीति-पूः, पुरौ, पुरः । धर्वतीति-धः, धूरौ, धूरः । विद्योतत इति-विद्युत्, विद्युतौ । ऊर्जयतीति-ऊ-ऊजौ, ऊर्जः । ग्रावाणं स्तौति-ग्रावस्तुत, ग्रावस्तुतौ । पचतीति-पक् । शक्नोतीति-शक । मिनत्तीति-भित् । वेत्तीति-वित् । शोकच्छित् । “भूवः संज्ञायामेव" । भूः-पृथिवी, शंभूः-शिवः, आत्म:कामः, मनोभूः-स एव, स्वयंभूब्रह्मा, स्वभूविष्णुश्च । मित्रभूनाम कश्चित्, प्रतिमू:-उत्तम
धमर्णयोरन्तरस्थः, हुन्मूः-व्यसनसहायः, कारभूः-पण्यमूल्यादिनिर्णता, वर्षाभूर्ददुर औषधिश्च, पुनर्भू:-पुनरूढा औषधिश्च, संज्ञायाम् , अन्यत्र-भविता।
शीलादिषु असरूपविधिनास्ति, तेन-सामान्यलक्षणः क्विय् न प्राप्नोतीति पुनविधीयते । शीलादिप्रत्ययानां पूर्णोऽवधिः । केचित् तु संज्ञाशम्दानां शीलाद्यर्थेषु कामचार. स्ते यथाकथंचिद् व्युत्पादनीया इति मन्यन्ते ॥३॥
___ न्या० स०-दिद्युद्दद्यत्-जगदिति-क्रियाशब्दोऽयं तेन जगतौ जगत इति । विष्टपवाचकस्तु गमेडिद् द्वे चेति साधुस्तस्य च जगती जगन्तीति द्विवचनबहुवचने सति भवतः । वाक् इति-निपातनात् कर्मण्यपि । पूरिति-पिपर्तीति पृश् इत्यस्य धात्वन्तरेण वाक्यं तच्चार्थकथनमेव, पृणातीत्येवंशीला इति तु कार्यम्। शीलादिष्विति-ननु तृन्नादीनां पक्षेऽसरूपत्वात् सामान्यक्विप् भविष्यति किमनेन ? इत्याह-असरूपविधिर्नास्तीति-सामान्यलक्षण: विबिति-भ्राजादिभ्य इति शेषः, दिद्युदादयस्तु निपातनीया एवाऽनेन सूत्रेण तेषां 'क्विप्' ५-१-१४८ इत्यनेन सिद्ध्यऽभावात् ।
शं-सं-स्वयं-विप्राद् भुवो डुः ॥ ५. २.८४ ॥ एभ्यः पराद् भुवः सत्यर्थे वर्तमानाड्डः प्रत्ययो भवति ।
शं सुखं तत्र भवति-शंभुः शंकरः, संभुर्जनिता, स्वयंभुः, विभुयापकः, प्रभुः स्वामी । बहुलाधिकारात शंभुः संज्ञायाम् । अन्ये त्वसंज्ञायामपि । मितावादयस्त्वौणादिकाः ॥२४॥
पुव इत्रो दैवते ।। ५. २. ८५॥ सामान्यनिर्देशाव पवतेः पुनातेश्च दैवते-देवतायां कर्तरि सत्यर्थे इत्रः प्रत्ययो भवति ।
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पाद-२, सूत्र-८६-९१ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२७१
पुनाति पवते वा-पवित्रोऽर्हन्, स मां पुनातु । करणेऽप्यन्ये ।।५।। ऋषि-नाम्नोः करणे ॥ ५. २. ८६ ॥ सत्यर्थे वर्तमानात पुवः करणे इत्रो भवति, ऋषौ संज्ञायां च ।
पूयतेऽनेनेति-पवित्रोऽयमषिः । नाम्नि-दर्भः पवित्रः, बहिः पवित्रम्, यज्ञोपवीतं पवित्रम्, ओघोपकरणं पवित्रम्, पवित्रा नदी । दर्भादीनां पवित्रमिति संज्ञा । ऋषो कर्तर्यपि केचित् ।।८६॥
__ न्या० स०-ऋषिनाम्नो:-ओघोपकरणमिति-वहति प्रापयति निरवद्यां सर्वसावद्यविरतिमिति अचि 'न्यक्रूद्ग' ४-१-११२ इति साधुः, यद्वा उङ शब्दे ऊयते शब्द्यते उपादेयतया लोकोत्तरे मघाघेति घः ।
लू-धू-सू-खन-चर-सहा-ऽतः॥५. २.८७॥ एभ्यः सत्यर्थे वर्तमानेभ्यः करणे इत्रो भवति ।
लुनात्यनेन-लवित्रम् , धुवत्यनेन-धुवित्रम्, धुनोतेरपि कश्चित-धवित्रम्, सुवत्यनेन-सवित्रम्, निरनुबन्धनिर्देशात धूग-सूङोर्न भवति । खनित्रम्, चरित्रम्, साहित्रम्, ऋच्छतीयति वा-ऽनेनारित्रम् । वहेरपि कश्चित्-वहित्रम् ॥७॥ नी-दाव-शसू-यु-युज-स्तु-तुद-सि सिच-मिह-पत-पा-नहसूट
॥५. २.८८ ॥ एभ्यः सत्यर्थे वर्तमानेभ्यः करणे ब्रट् प्रत्ययो भवति ।
नयत्यनेन-नेत्रम्, दांव , दान्त्यनेन-दात्रम्, शसू-शस्त्रम्, यु-योत्रम्, युज-योक्त्रम्, स्तु-स्तोत्रम्, तुद्-तोत्रम्, सि-सेत्रम्, सिच-सेक्त्रम्, मिह -मेढ़म, पत्-पत्रम्, पा-पात्रम्, पात्री, नह - नद्धः, नद्धी । टकारो ड्यर्थः ।।८।।
हल क्रोडाऽऽस्ये पुवः॥ ५, २.८१॥ प्रास्यं मुखम्, पुवो धातोः सत्यर्थे हलास्ये क्रोडास्ये च करणे अट् प्रत्ययो भवति । पुनाति पवते वाऽनेन-पोत्रम्, हलस्य सूकरस्य च मुखमुच्यते ॥४९।। दंशस्त्रः॥ ५.२.१०॥ वंशेः सत्यर्थे वर्तमानात करणे त्रः प्रत्ययो भवति । दशत्यनया-दंष्ट्रा । प्रत्ययान्तरकरणमावर्थम् ॥६॥ धात्री ॥ ५. २. ११ ॥
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२७२ ]
बृहवृत्ति लघुन्याससंवलिते
[पाद-२, सूत्र-६१-९३
धेर्दधातेर्वा कर्मणि ऋट् प्रत्ययो निपात्यते ।
धयन्ति तामिति-धात्री स्तनदायिनी। दधति तां भैषज्यार्थमिति धात्री प्रामलकी ।।९१॥
ज्ञानेच्छार्थजीच्छील्यादिभ्यः क्तः ५. २. १२ ॥
ज्ञानार्थेभ्य इच्छार्थेभ्योऽर्चा पूजा तदर्थेभ्यो जीभ्यः शील्यादिभ्यश्च धातुभ्यः सत्यर्थे वर्तमानेभ्यः क्तः प्रत्ययो भवति । पूर्ववच्चास्य कर्तृ-कर्माद्यर्थनिर्देशः ।
ज्ञानार्थ-राज्ञां ज्ञातः, राज्ञां बुद्धः, राज्ञां विदितः, राज्ञामवगतः । इच्छार्थ-राज्ञामिष्टः, राज्ञां मतः । अर्थार्थ-राज्ञाचितः, राज्ञां पूजितः । जीव-जिमिदा-मिन्नः, पिवण्णः, स्विन्नः, धृष्टः, तूर्णः, सुप्तः, भोतः, इद्धः, तृषितः, फुल्लः । शील्यादि
शीलितो रक्षतिः क्षान्त, आऋष्टो जुष्ट उद्यतः । संयतः शयितस्तुष्टो रुष्टो रुषित' आशितः ।। १ ।। कान्तोऽभिव्याहतो हृष्टस्तृप्तः सप्तः स्थितो भृतः । अमृतो मुदितः पूर्तः शक्तोऽक्तः श्रान्त-विस्मितौ ॥२॥ संरब्धाऽऽरब्ध-दयिता दिग्धः स्निग्धोऽवतीर्णकः । प्रारूढो मूढ प्रायस्तः, क्षुधित-क्लान्त-वीडिताः ।। ३ ।। मत्तश्रव तथा ऋद्धः, श्लिष्ट: सुहित इत्यपि ।
लिप्त-हप्तौ च विज्ञेयो सति लग्नादयस्तथा ॥ ४ ॥ बहुलाधिकाराद् यथाभिधानमेभ्यो भूतेऽपि तो भवति, तथा च तद्योगे तृतीयासमासोऽपि सिद्धः- "अर्हद्भ्यस्त्रिभुवन राजपूजितेभ्यः" इति, एवं-शीलितो मैत्रेण, रक्षितो मैत्रेणाऽऽऋष्टश्चत्रेणेत्यादावपि द्रष्टव्यम् । वर्तमानक्ते तु षष्ठय व-"कान्तो हरिश्चन्द्र इव प्रजानाम्" इति । अन्ये तु-ज्ञानाद्यर्थेभ्यः * तक्रकौण्डिन्य न्यायेन भते तस्य बाधनात वर्तमानक्तेन च योगे कर्तरि षष्ठीविधानात् 'त्वया ज्ञातो मया ज्ञातः' इत्यादिरपशब्द इति मन्यन्ते ॥९२॥
न्या० स०-ज्ञानेच्छा०-पूर्ववच्चास्येति-कर्तरि कर्मणि भावे च यथा यस्य प्रत्ययोऽभिहितस्तस्य तथैव केवलं वर्तमानकाल एव । ननु 'गत्यर्थ' ५-१-११ इति 'क्तक्तवतु' ५-१-१७४ इत्यनेन च सामान्येन विधानादमीषामपि सिद्धौ इत्याह-तत्रकौण्डिन्यन्यायेनेति ।
उणादयः॥५. २.१३॥ बहुलमिति वर्तते, सत्यर्थे वर्तमानाद् धातोरुणादयः प्रत्यया बहुलं भवन्ति ।
करोतीति-कारः, वायुः, पायुः। बहुलवचनात प्रायः संज्ञाशब्दाः, केचित्त्वसंज्ञा शब्दा इति अनुक्ता अपि प्रत्यया भवन्ति । ऋफिडः, ऋफिड्डः । तथा सति विहिता उणादयः क्वचिद् भतेऽपि दृश्यन्ते-भसितं तदिति भस्म, कषितोऽसौ-कषिः, ततोऽसौ-तनि: वृत्तं तदिति-वर्त्म, चरितं तदिति-चर्म, अभ्यः सरन्ति स्म-अप्सरसः । उक्तं च
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पाद-२, सूत्र-९३ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ २७३
"संज्ञासु धातुरूपाणि प्रत्ययाश्च ततः परे ॥ कार्यानुबन्धोपपदं विज्ञातत्यमुणादिषु ॥१॥"
तथा
"बाहुलकं प्रकृतेस्तनुदृष्टे: प्रायसमुच्चयनादपि तेषाम् । कार्यसशेषविधेश्च तदूह्य, नैगम-रूढिभवं हि सुसाधु ।।२।। नाम च धातुजमाह निरुक्ते, व्याकरणे शकटस्य च तोकम् । यन्न पदार्थविशेषसमुत्थं, प्रत्ययतः प्रकृतेश्च तदूह्यम् ॥३॥ इति ॥९३॥
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिबहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्ती पञ्चमस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः ।
अकृत्वाऽऽसननिर्वन्धमभित्त्वा पावनी गतिम् ।
सिद्धराजः परपुरप्रवेशवशितां ययौ ॥१॥ न्या० स०-उणादयः-प्रायसमुच्चयनादपोति-प्रायेण अकृत्स्न बहुत्वेन समुच्चयनं राशीकरणम् । कार्यसशेष विधेश्चेति-काक इत्यादिसिद्ध्यर्थं सूत्रान्तरं न प्रारेभे इति सविशेषविधित्वम् ।
इत्याचार्यश्री सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञ-शब्दानुशासनबृहवृत्तेः पञ्चमाध्यायस्य न्यासतः द्वितीयः पादः समाप्तः।
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॥ अहम् ॥ अथ पञ्चमाध्याये तृतीयपादः वय॑ति गम्यादिः ॥ ५. ३. १॥
गम्यादयः शब्दा वयति-भविष्यति धात्वर्थे इन्नादिप्रत्ययान्ताः सांधवो भवन्ति, अनेन सामान्यत: सिद्धानां प्रत्ययानां भविष्यद्धात्वर्थता विधीयते ।
गमिष्यतीति-गमी ग्रामम्, इन्नौणादिकः सति प्राप्तो वय॑ति भवति । आगामी, भावी, प्रस्थायी, एम्य औणाविको णिन् । प्रयायी, प्रतियायी, प्रबोधी, प्रतिबोधी, प्रतिरोधी एभ्योऽजातेः शीले प्रावश्यके वा णिन् सिद्धो भविष्यति नियम्यते । कथं श्वो ग्रामं गमी ? भविष्यत्सामान्ये पदं निष्पाद्य पश्चाच्छ्वःशब्देन योगः कार्यः ।।१।।
न्या० स०-वय॑ति-सामान्यतः सिद्धानामिति-ननु गमेरिन्नित्यादीनां सत्यधिकारे विहितत्वात् कथं सामान्यतः सिद्धता ? सत्यं,-एकदेशेन, गम्यादिगणे हि प्रयायीत्यादौ 'अजातेः शीले' ५-१-१५४ इत्यादिभिणिन् , ते चानिद्दिष्टकालत्वात् सामान्यतः सिद्धाः । उणादिप्रत्ययानां सत्यथें विधानात् अप्राप्तौ वय॑त्यर्थे विधिः, अन्येषां च सामान्यविधानात् . वय॑त्येवेति नियम इति सिद्धम् । कथमिति-अनद्यतने श्वस्तनी प्राप्नोति, न णिन्नित्याशङ्कार्थः।
वा हेतुसिद्धौ क्तः ।। ५. ३. २ ॥
हेतु:-कारणं तस्य सिद्धिः-निष्पत्तिः, वय॑त्यर्थे वर्तमानाद् धातोर्धात्वर्थे हेतोः सिद्धौ सत्यां क्तः प्रत्ययो वा भवति ।
कि ब्रवीषि वृष्टो देवः संपन्नास्तहि शालयः संपत्यस्यन्त इति वा, प्राप्ता नौस्तीर्णा तहि नदी तरिष्यत इति वा ।।२।।
कषोऽनिटः॥ ५. ३.३॥ कषेः-कृच्छ-गहनयोरनिट्त्वमुक्तम्. तस्माद् वत्स्य॑ति वर्तमानात तो भवति ।
कषिष्यतीति-'कष्टम् , कष्टा दिशस्तमसा । सत्यपि कश्चिद , कषति-कष्टम् । अनिट इति किम् ? कषिताः शत्रवः शूरेण ।।३।।
न्या० स०-कषोऽनिट:-कषिष्यतीति-अर्थकथनमिदं यावता कष्टगहने वय॑ति क्त एव भवति, असरूपविधिरपि नेष्टः, पूर्वत्र वाग्रहणात् । कषिताः शत्रव इति-अत्र भविष्य. तापि नास्तीति द्वयङ्गविकलतेति नाशङ्कनीयं यतोऽनिट इति विशेषणे सति वय॑तीति वाच्यं स्थितेष्वेतत्समर्थनमिति न्यायात् ।
भविष्यन्ती॥ ५. ३. ४ ॥
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पाद-३, सूत्र ५-८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२७५
वस्य॑त्यर्थे वर्तमानाद् धातोः परा भविष्यन्ती विभक्तिर्भवति । गमिष्यति, भोक्ष्यते ॥४॥
अनद्यतने श्वस्तनी ॥ ५. ३.५॥
न विद्यतेऽद्यतनो यत्र तस्मिन् वय॑ति धात्वर्थे वर्तमानात् धातो: श्वस्तनी विभक्तिभवति ।
कर्ता श्वः, कर्ता । अनद्यतन इति बहुव्रीहिः किम् ? व्यामिश्रे भविष्यन्ती मा भूव. अद्य श्वो वा गमिष्यति । कथं श्वो भविष्यति ? मासेन गमिष्यति ? पदार्थे भविष्यन्ती पश्चात् श्वःशब्देन योगः ॥५॥
न्या० स०-प्रनद्यतने श्वस्तनी-पदार्थे भविष्यन्तीति-पदं गमिष्यति क्रिया सार्थो यस्य धात्वर्थस्य तस्मिन् ।
परिदेवने ॥ ५. ३. ६ ॥
परिदेवनमनुशोचनम्, तस्मिन् गम्यमाने वस्यति धात्वर्थे वर्तमानाद् धातोःश्वस्तनी विभक्तिर्भवति । अनद्यतनार्थ प्रारम्भः ।
___ इयं नु कदा गन्ता यवं पादौ निदधाति, अयं नु कदाऽध्येता य एवमनभियुक्तः । विशेष विधानात् कदा-कहिलक्षणा विमाषा बाध्यते ॥६॥
न्या० स०-परिदेवने-विभाषा बाध्यते इति-'कदाकह्यानवा' ५-३-८ इत्यर्थः ।
पुरा-यावतोवर्तमाना ॥ ५. ३. ७॥ .. पुरा-यावतोनिपातयोरुपपदयोर्वर्त्यति धात्वर्थे वर्तमानाव् धातोर्वर्तमाना विभक्ति
पुरा भुङ्क्ते, यावद् भुङ्क्ते । भविष्यदनद्यतनेऽपि परत्वाद् वर्तमानव-पुरा श्वो भुङ्क्ते, यावच्छ्वो व्रजति । लाक्षणिकत्वाविह न भवति-महत्या पुरा जेष्यति प्रामम्, यावद् दास्यते तावद् भोक्ष्यते, यत्परिमाणमित्यर्थः ।।७।।
न्या० स०-पुरायावतो-पुराभुङ्क्ते इति-पुरेति क्रियाविशेषणं कालविशेषणे वा सप्तमी 'कालाध्व' २-२-२३ इति कर्मसंज्ञायामऽम् वा कर्तृ विशेषणे प्रथमा वा।
कदा-कोर्नवा ॥ ५. ३. ८ ॥
कदा-कोरुपपदयोर्वस्य॑त्यर्थे वर्तमानाद् धातोर्वर्तमाना वा भवति, पक्षे भविष्यन्ती-श्वस्तन्यावपि भवतः।
__कदा भुजते, कवा मोक्ष्यते, कदा मोक्ता; कहि भुङ्क्ते, कहि भोक्ता, कहि भोक्ष्यते; इति । कहिशब्दस्यानद्यतनार्थवृत्तित्वान्न प्राप्नोति, श्वो गमिष्यतीत्यादिवत तु भविष्यति । भूते तु नित्यं परोक्षादय:-कदा बुभुजे, कदा भुक्तवान् ; कहि बुभुजे, कहि भुक्तवान् ।।८।।
भवति।
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२७६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद ३, सूत्र-९-१२
न्या० स०-कदाको-अनद्यतनार्थवृत्तित्वादिति-अनद्यतन एव हिप्रत्ययविधानात् । भूते तु नित्यमिति-ये कदाहियोगे सर्वेषु कालेषु वर्तमानामिच्छन्ति तन्मतमऽपास्यमित्याह ।
किंवृत्ते लिप्सायाम् ॥ ५. ३.१ ॥
विभक्त्यन्तस्य डतर-डतमान्तस्य च किमो वृत्तं-किंवृत्तमिति वैयाकरणसमयः, तेन किंतरां कितमामिति न किंवृत्तम् । तस्मिन्नुपपदे प्रष्टुलिप्सायां गम्यमानायां वर्त्यत्यर्थे वर्तमानाद धातोर्वर्तमाना वा भवति, पक्षे भविष्यन्ती-श्वस्तन्यावपि भवतः । लन्धु. मिच्छा-लिप्सा।
को भवतां भिक्षां ददाति दास्यति दाता वा, के के भवन्तो भोजयन्ति भोजयिव्यन्ति भोजयितारो वा, कतरो भवतोमिक्षां ददाति दास्यति दाता था, कतमो भवतां मिक्षां ददाति दास्यति दाता वा । किंवृत्त इति किम् ? भिक्षां दास्यति । लिप्सायामिति किम् ? कः सिद्धपुरं यास्यति ॥९॥
लिप्स्यसिद्धौ ॥५. ३. १० ॥
लब्धुमिष्यमाण ओदनादिलिप्स्यस्तस्मात् सिद्धौ-स्वर्गाद्यवाप्तिलक्षणायां गम्यमानायां वय॑त्यर्थे वर्तमानाद् धातोर्वो वर्तमाना भवति, पक्षे भविष्यन्ती-श्वस्तन्यावपि भवतः।. अकिवृत्तार्थोऽयमारम्मः।
यो भिक्षां ददाति दास्यति दाता वा स स्वर्गलोकं याति यास्यति याता वा, लिप्स्याद् भक्ताव स्वर्गसिद्धिमाचक्षाणो दातारं प्रोत्साहयति ॥१०॥
न्या० स०-लिप्स्यसिद्धौ-यो भिक्षा ददातीति-अत्रोभयोक्यियोमिलितयोलिप्स्य- . सिद्धिरवगम्यते तेनोभयत्राप्यनेनैव वर्तमाना सिद्धा।
पञ्चम्यर्थ हेतौ ।। ५. ३. ११॥
पञ्चम्यर्थः प्रैषादिस्तस्य हेतुनिमित्तमुपाध्यायागमनादि तस्मिन्नर्थे वय॑ति वर्तमानाद् धातोर्वर्तमाना वा भवति, पक्षे भविष्यन्ती-श्वस्तन्यावपि भवतः।
उपाध्यायश्चेदागच्छति आगमिष्यति प्रागन्ता वा, अथ त्वं सूत्रमधीष्व, अथ त्वमनुयोगमादत्स्व; अत्र भविष्यदुपाध्यायागमनमध्ययनादिविषयस्य प्रेषस्यातिसर्गस्य प्राप्तकालतायाश्च हेतुर्भवति ॥११॥
____ न्या० स०-पञ्चम्यर्थहे-प्रेषस्येत्यादि-न्यक्कारपूर्व प्रेषणं प्रेषः, अनुमतादेशदानमतिसर्गः, अवसरः प्राप्तकालता।
सप्तमी चोर्धमौहर्तिके ।। ५. ३. १२ ।। ऊर्ध्व मुहूर्ताद् भव ऊर्ध्वमौहूर्तिकः "नाम नाम्ना०" (३-१-१८) इति समासः,
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पाद-३, सूत्र-१३-१५ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ २७७
उत्तरपदवृद्धिस्त्वस्मादेव निर्देशात् । पञ्चम्यर्थहेतौ ऊर्ध्वमौहूतिके वर्त्यर्थे वर्तमानाद् धातोः सप्तमी चकाराद वर्तमाना च विभक्तिर्वा भवति, पक्षे भविष्यन्ती-श्वस्तन्यावपि भवतः ।
___ ऊर्ध्वं मुहूर्तादुपरि मुहूर्तस्य परं मुहूर्तादुपाध्यायश्चेदागच्छेत् आगच्छति प्रागमिष्यति आगन्ता वा, अथ त्वं तर्कमधीष्व, अथ त्वं सिद्धान्तमधीष्व ।।१२।।
न्या० स०-सप्तमी चो-ऊवं मुहूर्तादिति-ऊर्ध्वमुपाध्यायागमनक्रियाविशेषणम् । परं मुहूर्तादिति-परमुपाध्यायागमनम् अव्ययं वा ।
क्रियायां क्रियार्थायां तुम् णकच् भविष्यन्ती ।। ५. ३. १३ ॥
वेति निवृत्तम्, यस्माद् धातोस्तुमादिस्तद्वाच्या या क्रिया साऽर्थः प्रयोजनं यस्याः सा कियार्था, तस्यां क्रियायामुपपदे वय॑त्यर्थे वर्तमानाद् धातोस्तुम्-णकच-भविष्यन्तीप्रत्यया भवन्ति ।
___कतुं व्रजति, कारको व्रजति, कारिष्यमीति व्रजति; भोक्तु व्रजति, भोजको व्रजति, भोक्ष्ये इति व्रजति । क्रियायामिति किम् ? मिक्षिष्ये इत्यस्य जटाः । क्रियार्थायामिति किम् ? धावस्ते पतिष्यति वासः, अत्रास्ति धावनक्रियोपपदं न स्वसौ पतनार्थमुपातेति न भवति । "णक-तृचौ" (५-१-४८) इति सामान्येन सिद्ध कियार्थोपपदभाविन्या भविष्यन्त्या बाधा मा भूदिति णकज्विधानम्, असरूपविधिना णकोऽपि भविष्यतीति चेत् ?. एवं हि प्रसरूपविधिना तजादयो मा भवन्निति पुनर्णकजविधानम, तेनौदनस्य पाचको व्रजति, पक्ता व्रजति, पचो व्रजति; विक्षिपो व्रजतीत्यादि न भवति ।।१३॥
न्या स०-क्रियायां कियार्थायां-वेति निवृत्तमिति-केवलविभक्तिविधानप्रस्तावे विकरयोस्तुम्णकचोविधानात् । धावतस्ते पतिष्यति वास इति-भिन्नकर्तृकत्वेऽपि सूत्रस्य प्रवृत्तिरिति प्राप्नोति, अत्र हि धावनक्रियाया देवदत्तः कर्ता, पतनक्रियायास्तु वासः ।
कर्मणोऽण ॥ ५. ३. १४ ।।
क्रियायां कियार्थायामुपपदे कर्मणः पराद् वय॑त्यर्थे वर्तमानाद् धातोरण् प्रत्ययो भवति ।
कुम्भकारो व्रजति, काण्डलावो व्रजति । "कर्मणोऽण्" (५-१-७२) इति सामान्येन विहितोऽण् णकचाऽनेन बाध्येतासरूपविधिश्च नास्तीति पुनविधीयते, सोऽपवादत्वाण्णकच बाधते, परत्वात सामान्यस्याणो बाधकान् टगादीनपि, तेन-वनगायो व्रजति, सुरापायो व्रजति, गोदायो व्रजति । बहुलाधिकाराण्णकच-भविष्यन्त्यावपि भवत:-कटं कारको व्रजति, ओदनं भोजको व्रजति, काण्डानि लविष्यामीति व्रजति, कम्बलं दास्यामीति वजति ॥१४॥
न्या० स० कर्मणोऽण-सामान्येन विहित इति-अनेन क्रियायां क्रियायामुपपदे वय॑त्यर्थे च विधानं पूर्वेण तु सामान्येन कर्मणः परादित्यर्थः ।
भाववचनाः॥ ५. ३. १५ ॥
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२७८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-१६-१८
भाववचना घञ्-क्त्यादयस्ते क्रियायां क्रियार्थायामुपपदे वय॑त्यर्थे वर्तमानाद् धातोर्भवन्ति । क्रियार्थोपपदेन तुमा मा बाधिषतेति वचनम् , असरूपविध्यभावस्य ज्ञापितत्वात् ।
पाकाय व्रजति, पक्तये व्रजति, पचनाय व्रजति, पाचनायै व्रजति । वचनग्रहणाद् यो यथा विहितः स तथा भवति । "तुमोऽर्थे भाववचनात" (२-२-६१) इति चतुर्थी ।१५।।
न्या० स०-भाववचनाः-वचनग्रहणादिति-यदि भावे इति क्रियेत तदा भावमात्र एव ये विहितास्त एव लभ्येरन् न सर्वे, वचनग्रहणे तु ये केचिद् भावं ब्रुवन्ति ते येन केनापि प्रकारेण भावं ब्रु वाणा गृह्यन्ते एव ।
पद-रुज-विश-स्पृशो घञ् ॥ ५. ३. १६ ॥ एभ्यो धातुभ्यो घञ् प्रत्ययो भवति, कृत्त्वात् कर्तरि । वय॑तीत्यादि निवृत्तम् ।
पद्यते पत्स्यते अपादि पेदे वा-पादः, एवं-रागः, वेशः, स्पर्शी व्याधिविशेषः, स्पर्शी देवदत्तः कम्बलस्य, घकारः कत्वगत्वार्थः । अकारो वृद्ध्यर्थः ।।१६।।
न्या० स०-पदरज-वस्य॑तीत्यादि निवृत्तमिति-'पदरूज' ५-२-१६ इत्यादिप्रकृति नियंत्रितप्रत्ययोपादानात्, आदिशब्दाक्रिया क्रियार्थोपपदं च । केचिदुपतापे एव स्पृशेर्घअमिच्छन्ति तन्मतव्युदासार्थं स्पृशेरुदाहरणद्वयम् ।
सर्तेः स्थिर-व्याधि-बल-मत्स्ये ।। ५. ३. १७॥ सर्तेरेषु कर्तृषु पञ् भवति ।
स्थिरे-सरति कालान्तरमिति सारः स्थिरः पदार्थः, सालसारः, खदिरसारः, काय॑सारः । व्याध्यादौ-अतीसारो व्याधिः, सारो बलम्, विसारो मत्स्यः ।।१७।।
भावा-कोः॥ ५. ३. १८ ॥ भावे वाच्ये कर्तृवजिते कारके च सर्वधातुभ्यो घञ् भवति ।
पचनं पाकः, एवं-रागः, त्यागः; प्रकुर्वन्ति तमिति-प्राकारः, एवं प्रासः, प्रसेवः, समाहारः, कारः, करणाधिकरणयोरनट तदपवादश्च व्यञ्जनान्तेभ्यो घज वक्ष्यते । दाशन्तेऽस्मा इति-दाशः, तालव्योपान्त्योऽयम् । आहरन्त्यस्मादित्याहारः। असंज्ञायामपिदायो दत्तः, लाभो लब्धः । 'कृतः कटो हृतो भारः' इत्यादौ बहुलाधिकारान्न भवति । प्रत्रिति पर्युवासेन कारकाश्रयणात संबन्धे न भवति देवदत्तस्य पच्यते।
भावा-कर्कोरिति किम् ? पचः । भावो भवत्यर्थः साध्यरूपः क्रियासामान्य धात्वर्थः, स धातुनवोच्यते तत्रैव च. त्यादयः क्त्वातुममस्तव्यानीयादयश्च भवन्ति । यस्तु भावो धात्वर्थधर्मः सिद्धता नाम लिङ्गसंख्यायीगी स द्रव्यवद् धात्वर्थादन्यः, तत्रायं धादिविधिः, तेन तद्योगे लिङ्गवचनभेद: सिद्धो भवति-पाकः पाको पाकाः, पचनं पचने पचनानि, पक्तिः पक्ती पक्तय इति ॥१८॥
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पाद-३, सूत्र-१९-२२ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ २७९
न्या० स०-भावाकों:-केचित्तु अत्र संज्ञायामित्याहुस्तन्निराकरणार्थमाह-प्रसंज्ञायामपीति-करकाश्रयणादिति-भावग्रहणाच्च, यदि हि भावग्रहणमपनीयाऽकर्तरीति कृत्वा प्रसज्य नत्र व्याख्यायते तदापि भाववत्संबन्धेऽपि घत्र स्यादिति संबन्धे घत्र निवृत्त्यर्थं भावग्रहणम् । क्रियासामान्यमिति-त्रियाणां साधारणं रूपमित्यर्थः, तथाहि-सर्वासु क्रियासु सत्त्वमिति भवत्यर्थः साधारण एव, स च धात्वर्थः, अत एव घातुनवोच्यते, स न प्रत्ययः । यः पुन: सिद्धता नाम स धात्वर्थस्य धर्म एव न धात्वर्थः, अत एव प्रत्ययैरेवोच्यते, स न धातुना, तदुक्तम्
आख्यातसाध्यैरर्थोऽसावन्तर्भूतोऽभिधीयते ।
नाम शब्दाः प्रवर्त्तन्ते, संहरन्त इव क्रमम् ।।१।। इङोऽपादाने तु टिद् वा ।। ५. ३. ११ ॥ इङो धातो वाऽकोर्षन् भवति, अपादाने तु कारके वा टिन् भवति ।
अध्ययनमध्यायः, अधीयत इति-अध्यायः, उपेत्याधीयतेऽस्मादिति-उपाध्यायः । टिद्विधानसामर्थ्याव स्त्रियां क्तिर्बाध्यते-उपाध्यायी उपाध्याया ॥१६॥
न्या० स०-इडोपादाने-क्तिर्बाध्यत इति-टित्त्वस्य हि स्त्रियां ङी प्रत्ययः फलं, ततो यदि स्त्रियां क्तिर्भविष्यति तदा किं टिद्विधानेन ।
श्रो वायु-वर्ण-निवृते ॥ ५. ३. २० ॥ 'श' इत्यस्माद् भावाऽकर्बोर्वाग्वादिष्वर्थेषु घञ् भवति । शीर्यते औषधादिभिरिति-शारो वायुः, मालिन्येन शीर्यते इति-शारो वर्णः, निवृतं
प्रावरणमित्यर्थः, निशोर्यते शीताद्यपद्रवो येन तत्-नीशारो निवृतम्, "गौरिवाकृतनीसारः प्रायेण शिशिरे कृशः" निवृता धृतोपकरणमिति कश्चिद, 'नियमेन वृता' इत्यन्वर्थात, शाररिव क्रीडितम् । एग्विति किम् ? शरः ।।२०॥
__न्या० स०-श्रो वायु-नीशार इति-बाहुलकात् परमप्यऽनटं घं वा बाघते पत्र
प्रत्ययः ।
निरभेः पू-ल्वः ॥ ५. ३. २१॥
'पू' इति पूग-पूडोः सामान्येन ग्रहणम्, निरभिपूर्वाभ्यां यथासंख्यं पू-लुभ्यां परो भावाऽकर्बोर्घञ् भवति ।
निष्पूयते-निष्पाव:, अभिलावः ॥२१॥ रोरुपसर्गात् ॥ ५. ३. २२ ॥ उपसर्गपूर्वाद रोतेवाइकों भवति।
संरवणं-संरावः, उपरावः, विरावः । उपसर्गादिति किम् ? रवः । सांराविणमित्यत्र जिन् बाधकः । कथं रावः ? बहुलाधिकारात ॥२२॥.....
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२८. ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-२३-२८
न्या० स०-रोरुपस०-साराविणमिति-समंतादावः अभिव्याप्तौ' ५-३-९० इति भिन् तत. स्वार्थे 'नित्यं आननोऽण' ७-३-५८ 'नो पदस्य' ७-४-६१ इत्यन्त्यस्वरादेलुक न 'अनपत्ये' ७-४-५५ इति निषेधात् ।
भू-श्रयोदडल ॥ ५. ३. २३ ॥ 'भू श्रि अद्' इत्येतेभ्य उपसर्गपूर्वेभ्यो भावाकोरल् प्रत्ययो भवति ।
प्रभवः, विभवः, संभवः; प्रश्रयः, प्रतिश्रयः, संश्रयः; प्रघसः, विघसः, संघसः । उपसर्गादित्येव ? भावः, श्रायः, घासः । भू-यूयोरुपसर्गादेवेति नियमार्थं वचनम् । कथं प्रभावः, विभाव:, अनुभाव: ? बहुलाधिकाराव, प्रकृष्टो भाव इत्यादिप्रादिसमासो वा । लकारो "मिग-मोगोऽखलचलि" (४-२-८) इत्यत्र विशेषणार्थः ।।२३।। न्यादो नवा ॥ ५. ३. २४ ॥
कारस्य दीर्घत्वं च वा निपात्यते । न्याद:, निघसः ।२४॥ सं-नि-व्युपाद् यमः ।। ५. ३. २५ ॥ एभ्य उपसर्गेभ्यः परान यमेर्भावा-कोरल् वा भवति । संयमः, संयामः, नियमः, नियामः; वियमः, वियामः; उपयमः, उपयामः ॥२५॥ नेनंद-गद-पठ-स्वन-कणः ॥ ५. ३. २६ ॥ नेरुपसर्गात परेभ्य एभ्यो भावा-कोरल् प्रत्ययो वा भवति ।
निनवः, निनादः; निगदः, निगादः; निपठः, निपाठः; निस्वनः, निस्वानः; . निक्वणः, निक्वाणः ॥२६॥
वैणे कणः॥ ५. ३. २७ ॥ वीणायां भवो-वैणः, वैणेऽर्थे वर्तमानादुपसर्गपूर्वात क्वणे वाऽोरल वा भवति ।
प्रक्वणो वीणायाः, प्रक्वाणो वीणायाः; एवं-निक्वणः, निवारणः ।वैण इति किम् ? प्रक्वारगः शृङ्खलस्य । कथं क्वणः क्वाणो वीणायाः ? "नवा क्वण." (५-३-४८) इत्यादिना सामान्येन विधानात वैणेऽपि भवति ॥२७॥
युवर्ण-वृ-दृ-वश-रण-गमद्-ग्रहः॥ ५. ३.२८ ॥
उपसर्गात् वा इति च निवृत्तम् । इवर्णान्तेभ्य उवर्णान्तेम्यो व-ह-वश-रण-गमिभ्य ऋकारान्तेभ्यो नहेश्च धातोर्भावाऽकोरल भवति, पत्रोऽपवादः ।
चयः, निश्चयः, जयः, क्षयः, क्रयः, यवः, रवः; नवः, स्तवः, लवः, पवः; वरः, प्रवरा; वरः, आवरः, वशः, रणः, गमः, अवगमः; कृ-करः, गृ-गरः, तृ-तरः, दृ-दरः,
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पाद-३, सूत्र २९-३३ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२८१
शृ-शरः, ग्रहः । कथं वारः समूहः, वारोऽवसरः, वारः क्रियाभ्यावृत्तिः ? बहुलाधिकाराद् घञ् । परिवार इति तु ण्यन्तादचि सिद्धम् ॥२८॥
न्या० स०-युवर्णवृ-उपसर्गाद्वेति च निवृत्तम्-'आङो रुप्लो' ५-३-४९ इति सूत्रकरणात् ।
वर्षादयः क्लीबे ॥ ५. ३. २१ ॥
वर्षादयः शब्दा अलन्ता: क्लीबे यथावर्शनं भावाकोंनिपात्यन्ते । नपुंसके ताऽनड्. निवृत्त्यर्थं वचनम् । . वर्ष भयं धनं वनं खलं पदम् । युगम, अत्र रथाङ्गकालविशेष-युग्मेष्वल् गत्वगुणाभावौ च निपातनात् । अनपुंसकक्तस्तु असरूपविधिना भवत्येव-वृष्यते स्म-वृष्टं मेघेन, भीतं बटुना ॥२६॥
- न्या० स०-वर्षाद-प्रननिवृत्त्यर्थमिति-तत्कि वर्षणमिति न भवति ? भवत्येव, वृषभो वर्षणादिति भाष्यकारवचनात् ।
वृष्टं मेघेनेति-अत्र भावे 'तत्साप्या' ३-३-२१ इति क्तः । समुदोऽजः पशौ ।। ५. ३. ३०॥
समुभ्यां परावजतेः पशुविषये धात्वर्थे वर्तमानात् मावाऽकोरल भवति । समजा पशूनाम , समूह इत्यर्थः; उदजः पशूनां, प्रेरणमित्यर्थः। समुद इति किम् ? व्याजः पशूनाम् । पशाविति किम् ? समाजः साधूनाम् , उदाजः खगानाम् ।।३०॥
स-ग्लहः प्रजनाऽने ॥ ५. ३. ३१ ॥
सति-ग्लहिभ्यां यथासंख्यं प्रजनाऽक्षविषये धात्वर्थे वर्तमानाभ्यां मावाऽकोरल् भवति ।
गवामुपसरः, पशूनामुपसरः, "वीनामुपसरं दृष्ट्वा "; प्रजनो गर्भग्रहणम् , तदर्थ स्त्रीषु पुंसां प्रथम सरणमुपसर उच्यते । अक्षाणां ग्लहः, ग्रहणमित्यर्थः, पहेः सूत्रनिपातनाल्लत्वम् , ग्लहिः प्रकृत्यन्तरं वा। प्रजनाऽक्ष इति किम् ? उपसारो भृत्य राज्ञाम् , ग्लहः ग्लाहो वा पादस्य । कथं परिसरविषमेषुलोढमुक्तौ ? प्रधिकरणे पुंनाम्नि घेन सिद्धम् ॥३१॥
पणेर्माने ॥ ५. ३. ३२॥
पणेर्मानेऽर्थे वर्तमानाद् भावाऽकोरल् भवति । मूलकपणः, शाकपणः, पण्यत इति पणः, मूलकादीनां संव्यवहारार्थ परिमितो मुष्टिरित्यर्थः । माने इति किम् ? पाणः। घनोऽपवादो योगः ॥३२॥
संमद-प्रमदौ हर्षे ।। ५. ३. ३३ ॥
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२८२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-३४-३६
'संमद प्रमद' इत्येतौ भावाऽकोहर्षेऽर्थेलन्तौ निपात्येते ।
सम्मदः कोकिलानाम् , प्रमदः कन्यानाम् । हर्ष इति किम् ? संमादः, प्रमादः । "संप्रान्मदे" इत्यनक्त्वा निपातनं रूपनिग्रहार्थम् , तेनोपसर्गान्तरयोगे न भवति-प्रसंमादः, संप्रमादः, अभिसंमादः ॥३३॥
न्या० स०-सम्मद-प्रसंमाद इति-प्रकृष्टः संमद इति कृते प्रसम्मद इत्यपि । हनोऽन्तर्घनाऽन्तर्घणौ देशे ॥ ५. ३. ३४ ॥ अन्तःपूर्वाद्धन्तेरल् प्रत्ययो घन-घणौ चादेशौ निपात्येते देशेऽभिधेये भावाऽकोंः ।
अन्तहण्यतेऽस्मिन्निति-अन्तर्घनः, अन्तर्घणो वा वाहीकेषु देशविशेषः; अन्तर्घातोऽन्यः । एके त्वन्तः संहतो देशोऽन्तर्धनः । अभ्यन्तरो देश इति केचित्-'तस्मिन्नन्तर्घणेऽपश्यत्' घणिः प्रकृत्यन्तरमित्यन्ये ॥३४॥
प्रघण-प्रघाणो गृहांशे ॥ ५.३.३५ ।।
प्रपूर्वाद्धन्तेर्ग्रहांशेऽभिधेयेऽल् प्रत्ययो घणघाणौ चादेशौ निपात्येते । प्रघणः प्रघाणो वा द्वारालिन्दकः; प्रधातोऽन्यः ॥३५॥ निघोघ-संघोघनाऽपघनोपनं निमित-प्रशस्त-गणाऽत्याधाना
ऽङ्गा-ऽऽसन्नम् ॥ ५. ३. ३६ ॥ हन्तेनिघादयः शब्दा यथासंख्यं निमितादिषु वाच्येषु कृतघत्वादयोऽलन्ता निपात्यन्ते ।
समन्ततो मितं तुल्यमविशेषेण वा मितं परिच्छिन्न-निमितम् , तुल्यारोहपरिणाहमित्यर्थः । निविशेषं निश्चयेन वा हन्यन्ते ज्ञायन्ते-निघा वृक्षाः, निघाः शालयः, निघा बहतिका, निघं वस्त्रम; निघातोऽन्यः। उत्कर्षेण हन्यते ज्ञायते-उदघः प्रशस्तः, उदघातोऽन्यः । गणः-प्राणिसमूहः, संहतिः, संघः, अन्यत्र संघातः।
कथं संघातो मनष्याणाम? संघातशE: समदायमात्रे। अत्याधीयन्ते छेदनार्थ कुट्टनार्थ च काष्ठादीनि यत्र तदत्याधानम् , उद्धन्यतेऽस्मिन्निति-उद्घनः, काष्ठोद्घनः, ताम्रोद्घनः, लोहोधनः, धनः, स्कन्धः; उद्घातोऽन्यः । अङ्ग-शरीरावयवः, अपहन्यतेऽनेनेत्यपघनोऽङ्गम् , “वणिभिरपघनैर्धर्धराव्यक्तघोषान्" । पाणिः पादश्वापघनो नापरमङ्गमित्यन्ये। अपघातोऽन्यः । उपहन्यते-समीप इति ज्ञायते-उपध्न आसन्नः, गुरूपघ्न:, ग्रामोपघ्नः, उपघातोऽन्यः । निपातनादेवोपात्तार्थविशेषे वृत्तिरसरूपप्रत्ययबाधनं च विज्ञायते ।३६
न्या० स०-निधोद्घ-समन्ततो मितमिति-निशब्दस्य द्वावथौ समन्ततोऽविशेषश्चेति । निविशेषं निश्चयेन वेति-समन्ततो मितमविशेषेण वा मितमिति भणितपूर्वार्थापेक्षया आभ्यां यथासंख्यं न, यत: स्वतन्त्राविमौ। कथं संघातो मनुष्याणामिति-नन्वत्र प्राणिसमूहत्वात् निपातः कथं न ? सत्यं,-संघातशब्दं प्रसाध्य पश्चात् मनुष्यशब्देन संबन्धः, अन्ये त्वपघनशब्देन हस्तपादस्यैव ग्रहणमाहुस्तन्निरासायाह-व्रणिभिरपघनैर्घर्घराव्यक्तघोषानिति-ननु
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पाद-३, सूत्र-३७-४१ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः।
[२८३
निघादिशब्दानां निमिताद्यर्थविशेषे कथं वृत्तिः कथमाघारादौ असरूपविधिनाऽनडादयश्च न भवन्ति ? इत्याह-निपातनादेवेति-अन्यथा निमितात्याधानादिषु विशेषार्थप्रतीतिस्तुल्यारोहपरिणाहादिका न स्यात् ।
मूर्ति-निचिताऽभ्रे घनः॥ ५. ३. ३७॥ हन्तेर्मूादिष्वर्थेषु अल् प्रत्ययो घनादेशश्च निपात्यते ।
मूत्तिः काठिन्यम् , अभ्रस्य घनः, काठिन्यमित्यर्थः; एवं-दधिधनः, लोहघनः । निचितं निरन्तरं तत्र, घनाः केशाः, घना वोहयः । अभ्र मेघस्तत्र-धनः । कथं घनं दधि ? गुणशब्दोऽयं तद्योगाद् गुणिन्यपि वर्तते ।।३७॥
व्ययो-द्रोः करणे ॥५. ३.३८ ।।
'वि अयस् द्रु' इत्येतेभ्यः पराद्धन्तेः करणेऽल प्रत्ययो घनादेशश्च निपात्यते । भावस्य कारकान्तरस्य चानुप्रवेशो मा भूदिति करणग्रहणम् ।
विहन्यतेऽनेन तिमिरं-विघनः, विघनेन्दुसमद्युतिः, वयः पक्षिणो हन्यन्तेऽनेनेति वा-विघनः, अयोधनः, द्रुहन्यतेऽनेनेति-द्रुघन: कुठारः । कथं द्रुघण: ? अरोहणादिपाटाण्णत्वे भविष्यति, घणतेर्वाऽजन्तस्य रूपम्, स्त्रियां त्वडेव परत्वात्-विहननी, अयोहननी, द्रहननी ॥३८॥
न्या. स०-व्ययोद्रो:-त्रुघन इति-'हनोघि' २-३-९४ इति व्याप्त्या प्रवृत्तेः 'पूर्वपदस्था' २-३-६४ इति न णत्वम् ।
घणतेर्वेति-घणिः सौत्रः, दूणि दारूणि घणति लिहाद्यच् । स्तम्बाद् घनश्च ।। ५. ३. ३१ ॥ स्तम्बशब्दात पराद्धन्तेरल घ्न-धनादेशौ च निपात्येते करणे।
स्तम्बो हन्यतेऽनेन-स्तम्बघ्नो दण्डः, स्तम्बध्नो यष्टिः, स्त्रियां परत्वादनडेव-स्तम्बहननी यष्टिः । केचित् तु-कप्रत्यये निपातनं कृत्वा स्त्रियामपि स्तम्बध्नेतीच्छन्ति । अन्ये तु-स्तम्बपूर्वस्यापि हन्तेः “सातिहेति०" (५-३-९४) इति निपातनात स्तम्बहेतिरितीच्छन्ति । करण इत्येव-स्तम्बहननं स्तम्बघातः । कथं स्तबध्नीषीका? करणस्यापि कर्तृत्वविवक्षया "अचित्ते टक्” (५-३-६४) इत्यनेन टकि सिद्धम् ॥३६॥
परेघः॥ ५. ३. ४०॥
परिपूर्वाद्धन्तेरल घादेशश्च करणे निपात्यते । परिहण्यतेऽनेनेति-पारिघोऽर्गला, लत्वे पलिघः ॥४०॥
हः समाह्वया-ऽऽहयो चूत-नाम्नोः॥ ५. ३. ४१ ॥
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२८४ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-४२-४६
करण इति निवृत्तम् , छूते नाम्नि चाभिधेये यथासंख्यं समाङ्पूर्वादाङ्पूर्वाच्च ह्वयतेरल् ह्वयादेशश्च निपात्यते ।
समाह्वयः प्राणिद्यूतम् , आह्वयो नाम ॥४१॥ न्यभ्युप-वेर्वाश्चोत् ।। ५. ३. ४२ ॥
नि-अभि-उप विभ्यः पराव ह्वयते वाऽकोरल तत्संनियोगे च वाशब्द उकारो भवति, अभेदनिर्देशः सर्वादेशार्थः ।
निहवः, अभिहवः, उपहवः विहवः । न्यभ्युपवेरिति किम् ? प्रह्वायः । ह इत्येव ? निवाय:। हो हव इत्यनिपातनं किम् ? यङ्लुपि निपातनं मा भूत् तेन विजोहव इति सिद्धम् , अन्यथा विहव इति स्यात् । जुहोतिनैव सिद्धे ह्वयते रूपान्तरनिवृत्तत्त्यर्थं वचनम् ॥४२॥
न्या० स०-न्यभ्युपवे-विजोहव इति-भृशं विह्वयति, यङ लुप् 'द्वित्वे ह्वः' ४-१-८७ इति स्वत्-विजोहवनं, अनेनाल् । अन्यथा विहव इति-प्रकृतिग्रहणे इति न्यायात् यङ लुबन्तस्याप्यनेनाऽलि ह्वो हव इति कृतद्वित्वस्यापि निपाते विहव इति स्यादित्यर्थः ।
आङो युद्धे ॥ ५. ३, ४३ ॥ आपूर्वाद ह्वयतेयुद्धेऽर्थे भावाऽकोरल् भवति, वाशब्दश्वोकारः ।
आहूयन्ते योद्धारोऽस्मिन्निति-आहवो युद्धम् । युद्ध इति किम् ? अाह्वायः, प्राह्वानम् ॥४३॥
आहावो निपानम् ।। ५. ३. '४४ ॥
निपिबन्त्यस्मिन्-निपानम् , पशु-शकुनीनां पानार्थं कृतो जलधारः । आइपूर्वाद ह्वयतेर्भावाकोरल् , प्राहावादेशश्च निपात्यते, निपानं चेदभिधेयं भवति ।।
___ आहूयन्ते पशवः पानायास्मिन्नित्याहावः पशूनाम् , पाहावः शकुनीनाम् , निपानमित्यर्थः । निपानमिति किम् ? आह्वायः, प्राह्वानम् ॥४४॥
भावेऽनुपसर्गात् ॥ ५. ३. ४५ ॥
अविद्यमानोपसर्गात् ह्वयतेर्भावेऽल वाशब्दश्चोकारो भवति । प्रकर्तरीत्यस्यानुप्रवेशो मा भूदिति भावग्रहणम् ।
ह्वानं हवः । भाव इति किम् ? कर्मणि बायः । अनुपसर्गादिति किम् ? आह्वायः॥४५॥
हनो वा वधु च ॥ ५. ३. ४६ ॥
अनुपसर्गाद्धन्तेर्भावेऽल् वा भवति, तत्संनियोगे चास्य वधादेशः । हननं वधः, घातः । अनुपसर्गादित्येव-संघातः ॥४६॥ .
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पाद-३, सूत्र-४७-५३ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२८५
न्या० स०-हनो घा-वध इति-यङ लुबन्तस्यापि वधो घात इत्येव भवति । व्यध-जप-मद्भ्यः ॥ ५. ३. ४७॥ एभ्योऽनुपसर्गेभ्यो भावाकोरल् भवति । बहुवचनाद् भाव इति निवृत्तम् । व्यधः, जपः, मदः । अनुपसर्गादित्येव ? आव्याधः, उपजापः, उन्मादः ।।४७।।
नवा कण-यम-हस-स्वनः ॥ ५.३.४८॥ __ अनुपसर्गभ्य एभ्यो भावाकोरल् वा भवति । क्वणः, क्वाणः; यमः, यामः; हसः, हासः; स्वनः, स्वानः । अनुपसर्गादित्येव ? .प्रकाणः, प्रयामः, प्रहासः, विष्वाणः । अप्राप्तविभाषेयम् ॥४८॥
आङो रु-प्लोः ॥ ५. ३. ४१॥ ... आड: पराभ्यां रु-प्लुभ्यां भावाऽकोरल वा भवति ।
आरवः, आरावः; आप्लवः, आप्लावः। प्राङ इति किम् ? विरावः, विप्लवः । रौतेजि प्लवतेरलि नित्यं प्राप्ते विकल्पः ॥४९॥
वर्षविघ्नेवाद् ग्रहः॥ ५.३.५०॥ अवपूर्वात् ग्रहेवर्षविघ्ने वाच्ये भावाऽकोरल् वा भवति ।
प्रवग्रहः, प्रवग्राहः; वृष्टेः प्रतिबन्ध इत्यर्थः । वर्षविघ्न इति किम् ? अवग्रहः पदस्य, अवग्रहोऽर्थस्य ॥५०॥
प्राद् रश्मि-तुलासूत्रे ॥ ५. ३. ५१॥ .
प्रपूर्वाद् ग्रहे रश्मी तुलासूत्रे चार्थे भावाऽकर्बोरल् वा भवति । प्रगृह्यत इति-प्रग्रहः, प्रगाह; अश्वादेः संयमनरज्जुस्तुलासूत्रं चोच्यते, अन्यस्तु प्रग्रहः ॥५१॥
वृगो वस्त्रे ॥ ५. ३. ५२ ॥ प्रपूर्वाद् वृणोतेर्वस्त्रविशेषे वाच्ये भावाऽकोरल् वा भवति ।
प्रवृण्वन्ति तमिति-प्रवरः, प्रावारः; "धञ्युपसर्गस्य बहुलम्" (३-२-८६) इति दीर्घः । अन्ये तु प्रापूर्व एव वृणोतिः स्वभावाद् वस्त्रविशेषे वर्तते, तेन प्रावारः प्रावरः इति भवति । वस्त्र इति किम् ? प्रवरो यतिः ॥५२॥
उदः श्रेः॥ ५. ३.५३ ॥
उत्पूवाच्छ्रर्भावाऽकोरल् वा भवति । उच्छ्रयः, उच्छ्रायः । नित्यमलि प्राप्ते विकल्पः॥५३॥
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२८६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-५४-६१
यु-पू-द्रोर्घञ् ॥ ५. ३. ५४ ॥ वेति निवृत्तं पृथग्योगाव-उत्पूर्वेभ्य एम्यो भावाऽकोंर्घञ् भवति, प्रलोऽपवादः । उद्यावः उत्पावः, उद्मावः ।।५४।। ग्रहः॥ ५.३.५५ ॥ उत्पूर्वात आहे वाऽकोंर्घन भवति, प्रलोऽपवादः। . उद्ग्राहः । उद इत्येव ? ग्रहः, विग्रहः ॥५५॥ न्यवाच्छापे ॥ ५. ३.५६ ॥
न्यवाभ्यां पराद ग्रहः शापे-आक्रोशे गम्यमाने भावाऽकोंर्घन भवति । निग्रहो ह ते वृषल ! भूयात, अवग्राहो हते जाल्म! भूयात् । शाप इति किम् ? निग्रहश्चौरस्य, अवग्रहः पदस्य ॥५६॥
प्राल्लिप्सायाम् ॥ ५. ३. ५७॥ प्रपूर्वाद् ग्रहेलिप्सायां गम्यमानायां मावाऽकोंर्घष भवति ।
पात्रप्रप्राहेण चरति पिण्डपातार्थी भिक्षः, न वस्य प्रग्राहेण चरति दक्षिणार्थी द्विजः । लिप्सायामिति किम् ? नु वस्य प्रग्रहः ॥५७।।
समो मुष्टौ ॥ ५. ३.५८ ॥
संपूर्वाद ग्रहे, ष्टिविषये धात्वर्थे भावाऽकोंर्घन भवति । मुष्टिरगुलिसंनिवेशो न परिमाणम् , तत्र "माने" (५-३-८१) इत्येव सिद्धत्वात् ।
संग्राहो मल्लस्य, अहो मौष्टिकस्य संग्राहः, मुष्टेर्दाढर्घ मुच्यते । मुष्टाविति किम् ? संग्रहः शिष्यस्य ॥५॥
यु-दु-द्रोः॥ ५. ३. ५१ ॥
संपूर्वेम्य एभ्यो भावाऽकोंर्घन भवति । संयावः, संवावः, संद्रावः । सम इत्येव ? विद्रवः, उपद्रवः ।।५६॥
नियश्चानुपसगोद वा ॥ ५. ३.६०॥ अविद्यमानोपसर्गानयतेयु-दु-द्रोश्न भावाऽकोंर्घन वा भवति ।
नयः, नायः, यवः, यावः; दवः, दावः; द्रवः, ब्रायः । अनुपसर्गादिति किम् ? प्रणयः॥६॥
वोदः॥ ५. ३.६१ ॥
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पाद-३, सूत्र--६२-६८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२८७
उत्पूर्वान्नयतेर्भावाऽकोर्वा घञ् भवति । उन्नायः, उन्नयः ॥६१॥ अवात् ॥ ५. ३. ६२॥ अवपूर्वान्नयते वाऽकोंर्घञ् भवति । अवनायः ॥६२॥ परेद्य ते ॥ ५. ३. ६३॥ परिपूर्वान्नयते तविषये धात्वर्थे वर्तमानाद् भावाऽकोंर्घञ् भवति ।
परिणायेन शारीन् हन्ति, समन्तानयनेनेत्यर्थः । द्यूत इति किम् ? परिणयः कन्यायाः॥६३॥
भुवोऽवज्ञाने वा ।। ५. ३. ६४ ॥
· परिपूर्वाद् भवतरेवज्ञानेऽर्थे वर्तमानाद् भावाकोंर्घञ् वा भवति । अवज्ञानमसत्कारपूर्वकोऽवक्षेपः।
परिभावः, परिभवः । अवज्ञान इति किम् ! समन्ताद् भवनं परिभवः ।।६४॥ यज्ञे ग्रहः॥ ५. ३. ६५ ॥ परिपूर्वाद् ग्रहेर्यज्ञविषये प्रयोगे भावाऽकोर्घञ् भवति ।
पूर्वपरिग्राह;, उत्तरपरिणाहः, वेदेर्यज्ञाङ्गभूताया ग्रहणविशेष एताभ्यामभिधीयते । यज्ञ इति किम् ? परिग्रहः कुटुम्बिनः ॥६५॥
संस्तोः ॥ ५. ३.६६ ॥
संपूर्वात् स्तोतेर्भावाऽकोर्यज्ञविषये घञ् भवति । संस्तुवन्त्यति संस्तावश्छन्दो. गानाम्, समेत्य स्तुवन्ति छन्दोगा यत्र देशे स देशः संस्ताव उच्यते। यज्ञे इत्येव ? संस्तवोऽन्यदृष्टे ॥६६॥
प्रात् सु-द्रु-स्तोः॥ ५. ३. ६७ ॥ । प्रात् परेभ्यः स्रवत्यादिभ्यो भावाऽकोंर्घञ् भवति । प्रस्रावः, प्रद्रावः, प्रस्तावः । प्रादिति किम् ? स्त्रवः, द्रवः, स्तवः । कथं नाव: ? बहुलाधिकारात् ॥६७।।
अयज्ञे स्त्रः॥ ५. ३.६८॥
प्रपूर्वात् 'स्तृ' इत्येतस्मात् धातो वाऽकत्रोर्घञ् भवति । अयज्ञे-न चेत् यज्ञविषयः प्रयोगो भवति ।
प्रस्तारः, मणिप्रस्तारः, विमानप्रस्तारः, नयप्रस्तारः। अयज्ञ इति किम् ? बहिप्रस्तरः, “समासेऽसमस्तस्य" (२-३-१३) इति षत्वम् ॥६॥
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२८८ ]
बृहद्वत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-६९-७५
वेरशन्दे प्रथने ॥५, ३, ६१ ॥ प्रथनं विस्तीर्णता, वेः परात् स्तृणातेरशब्दविषये प्रथनेऽभिधेये घञ् भवति ।
विस्तारः पटस्य । प्रथन इति किम् ? तृणस्य विस्तरः, छावनमित्यर्थः । अशब्द इति किम् ? अहो द्वादशाङ्गस्य विस्तरः ।।६६ ।
छन्दोनाम्नि ॥ ५. ३.७० ।।
छन्दः-पद्यो वर्णविन्यासः. विपूर्वाद स्तृणातेश्छन्दोनाम्नि विषये घञ् भवति । विष्टारपङ्क्तिः । केचित् तु वेरन्यतोऽपीच्छन्ति-आस्तारपङ्क्तिः, प्रस्तारपङ्क्तिः, छन्दोनाम ॥७०॥
न्या० स०-छन्दोनाम्नि-विष्टारपङ्क्तिरिति-पङ क्त्यन्तं छन्दोनामेति वाक्या. वस्थायां घत्र न तेन विस्तरश्चासौ पङक्तिश्चेति कर्मधारयः, षष्ठीपञ्चमीतत्पुरुषो वा।
तु-श्रोः॥५, ३. ७१ ॥
क्षोतेः शृणोतेश्च विपूर्वाद् भावाऽकोंर्घन भवति । विक्षावः, विधावः । वेरित्येव ? क्षवः, श्रवः ॥७१॥
न्युदो ग्रः॥ ५.३.७२॥
न्युभ्यां पराद् गिरतेगणातेर्वा भावाकोंघ भवति । निगारः, उद्गारः । न्युव इति किम् ? गरः, संगरः ॥७२॥
न्या० स०-न्युदो ग्रः-संगर इति-संगीर्यतेऽभ्युपगम्यते योद्धृभियुद्धं संगरणं वा तदा प्रतिज्ञा ।
किरो धान्ये ॥ ५. ३, ७३ ॥
न्युत्पूर्वाद किरतेर्धान्यविषये धात्वर्थे वर्तमानाद् भावाऽकोंर्घन भवति । निकारो धान्यस्य, उत्कारो धान्यस्य, राशिरित्यर्थः । धान्य इति किम् ? फलनिकरः, पुष्पोत्करः।७३
न्या० स०-किरोधा-निकारस्तिरस्कार इति तु करोतेर्घन । नेषुः ॥ ५.३.७४ ॥ निपूर्वात वृणोतेषूणातेर्वा धान्यविशेषेऽभिधेये भावाऽकोंर्घन भवति ।
निवियन्त इति-नीवारा नाम व्रीहिविशेषाः, "घञ्युपसर्गस्य बहुलम्" (३-२.८६) इति दीर्घत्वम् । धान्य इत्येव ? निवरा कन्या, स्वभावादलन्तोऽप्ययं स्त्रियां वर्तते, क्तिस्तु बहुलाधिकारान्न भवति ।। ७४ ॥
इणोऽभ्रषे॥ ५. ३. ७५. ॥
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पाद-३, सूत्र-७६-७९ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२८९
स्थितेरचलनमभ्रषः, निपूर्वादिणोऽभ्रषविषयेऽर्थे वर्तमानाद् भावाऽकोंर्घ प्रत्ययो भवति । शास्त्रलोकप्रसिद्ध्यादिना नियतमयनं-न्यायः । अभ्रष इति किम् ? न्ययं गतश्चौरः ।। ७५ ।।
परेः क्रमे ॥ ५. ३. ७६ ॥ क्रमः परिपाटी, परिपूर्वादिण: क्रमविषयेऽर्थे वर्तमानाद् भावाऽकोंर्घन भवति ।
तव पर्यायो भोक्तुम् , मम पर्यायो भोक्तुम् , क्रमेण पदार्थानां क्रियासंबन्धः पर्यायः। क्रम इति किम् ? पर्ययः स्वाध्यायस्य, अतिक्रम इत्यर्थः, विपर्ययो मतेः, अन्यथाभवनमित्यर्थः।। ६७ ।।
व्युपाच्छीङः ॥ ५. ३. ७७ ॥ व्युपाभ्यां पराच्छोडो भावाकोंर्घञ् भवति, कमे-क्रम विषयश्चेद् धात्वर्थो भवति ।
तव राजविशायः, मम राजोपशायः । क्रमप्राप्तं पर्यायसाध्यं शयनमुच्यते । अन्ये तु शयितु पर्याय उच्यते इत्याहुः । क्रम इति किम् ? विशयः, उपशयः ॥७७॥
न्या० स०-व्युपाच्छोङः-स्वमते शयनस्य प्राधान्यं तन्मते तु पर्यायस्येति तात्पर्यार्थः । हस्तप्राप्ये चेरस्तेये ॥ ५. ३.७८ ॥
हस्तेनोपायान्तरनिरपेक्षेण प्राप्तु शक्यं-हस्तप्राप्यम् , तद्विषयाच्चिनोतेर्भावाsकोंघञ् भवति, अस्तेये-न चेद् धात्वर्थः स्तेये-चौयें भवति । हस्तप्राप्यशब्देन प्रत्यासत्तिः प्राप्यस्य लक्ष्यते, तेन प्रत्यासत्तिविषये धात्वर्थे विधानम् ।
पुष्पप्रचायः, फलावचायः, फलोच्चायः, फलोच्चायश्च संहतः । उदो नेच्छन्त्यन्येफलोच्चयः । हस्तप्राप्य इति किम् ? पुष्पप्रचयं करोति तरुशिखरे । अस्तेय इति किम् ? स्तेयेन पुष्पप्रचयं करोति । हस्तप्राप्यशब्देन प्रमाणमप्युच्यते-यद्धस्ते संभवति न हस्तादतिरिच्यते इति, ततश्च "माने" (५-३-८१) इत्यनेनैव सिद्ध नियमार्थ वचनम्-अस्तेय एवेति, तेन पुष्पाणां हस्तेन प्रचयं करोति चौर इत्यत्र "माने" (५-३-८१) इत्यनेनापि घञ् न भवति ॥७॥
न्या० स०-हस्तप्राप्ये-यद्धस्ते संभवतीति-हस्ते सम्मातीत्यर्थः । चिति-देहा-ऽऽवासोपसमाधाने कश्चादेः ।। ५. ३. ७१ ॥
चीयत इति-चितिर्यज्ञेऽग्निविशेषः, तदाधारी वा; देहः शरीरम्, आवासो निवासः, उपसमाधानमुपर्यपरि राशीकरणम्, एष्वर्थेषु चिनो वाऽकोंर्घञ् तत्संनियोगे चादेः ककारादेशो भवति। .
प्राकायग्नि चिन्वीत । देहे-कायः शरीरम् । आवासे-ऋषिनिकायः । उपसमाधाने-गोमयनिकायः, गोमयपरिकायः । कथं काष्ठनिचयः ? बहुत्वमात्रविवक्षया। एग्विति
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२९० ]
बृहद्वृत्ति- लघुन्यास संवलिते
[ पाद- ३, सूत्र - ८०-८२
किम् ? चयः । चः क इत्येव सिद्धे आदिग्रहणमादेरेव यथा स्यात् तेन चेर्यङ्लुपि - निकेचाय इत्येव भवति ॥७६॥
संघेनू ॥ ५३.८० ॥
- न विद्यते कुतश्चिदूर्ध्वमुपरि किचिद् यस्मिन् सोऽनूर्ध्वः, तस्मिन् संघे प्राणिसमुदायेऽभिधेये चिनोतेर्भावाऽकर्त्रीर्घञ् तत्संनियोगे चादेः को भवति ।
वैयाकरणनिकायः, ताकिकनिकायः । संघ इति किम् ? सारसमुच्चयः, प्रमाणसमुच्चयः । अनूर्ध्व इति किम् ? सूकरनिचयः, सूकरा ह्य् पर्यपरि चीयन्ते ॥ ८० ॥ ० - संघेऽनू - सूकरनिचय इति पूर्वेणापि न भवति व्यावृत्तिबलात् ।
न्या० स०
माने ॥
५. ३. ८१ ॥
माने गम्यमाने धातोर्भावाऽकर्त्रीघ्ञ् भवति । मानमियत्ता, सा च द्वेधा-संख्या परिमाणं च । एको निघासः द्वौ निघासौ; एकस्तण्डुलावक्षाय: ; एकस्तण्डुल निश्चाय:, एक: कार:, द्वौ कारौ त्रयः काराः; द्वौ सूर्पनिष्पावो; समित्संग्राहः, तण्डुलसंग्राहः, मुष्टिरित्यर्थः । मान इति किम् ? निश्चयः । श्रल एवायमपवाद:, क्त्यादिभिस्तु बाध्यते - एका तिलोच्छितिः, द्वे प्रसृती ॥८१॥
न्या० स०-माने द्वौ सूर्प निष्पावाविति पवने पावौ निश्चितौ पावाविति कार्य, निष्पवने इति तु कृते 'निरभेः पूल्वः' ५ -३ - २१ इत्यनेनापि सिद्धम् । अल एवायमपवाद इति- मध्ये अपवादाः पूर्वान् विधीन् बाधन्ते नोत्तरान् इति न्यायात् ।
स्थादिभ्यः कः ।। ५. ३. ८२ ॥
स्थादिभ्यो धातुभ्यो भावाऽकत्रः कः प्रत्ययो भवति ।
आखूनामुत्थानम् - प्राखूत्थो वर्तते, शलभोत्थो वर्तते, प्रतिष्ठन्त्यस्मिन्निति प्रस्थः सानुः, संतिष्ठन्तेऽस्यामिति-संस्था, व्यवतिष्ठन्तेऽनयेति-व्यवस्था, प्रस्नात्यस्मिन्निति - प्रस्नः, प्रपिबन्त्यस्यामिति - प्रपा, विध्यतेऽनेनेतिविधः, आविध्यतेऽनेनेत्याविधः, विहन्यतेऽनेनास्मिन् वा - विघ्नः आयुध्यन्तेऽनेनेत्यायुधम् । आध्यायन्ति तमित्याढ्यः, पृषोदरादित्वात् घस्य ढः । सर्वापवादत्वादनटमपि कप्रत्ययो बाधते । कथमाव्याधः, घातः, विधातः, उपघातः ? बहुलाधिकारात् । बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् ||८२॥
न्या० स० - स्थादिभ्यः कः - प्रस्थ इति - प्रपूर्वस्तिष्ठतिर्गत्यर्थ इति क्षीरः, यदि प्रतिष्ठते मानार्थमिति क्रियते तदा 'उपसर्गादातो डोऽश्यः' ५-१-५६ इति डे प्रस्थो मानमिति भवति ।
संस्थेति - ' उपसर्गादातः ' ५ -३ - ११० इत्यङ बाधित्वा स्त्रियाः खलनावित्यनट् स्यादित्यत्र पाठः । विघ्न इति स्थादिगणपाठबलात् करणेऽपि कः प्रत्ययो न तु 'व्ययोद्रोः करणे' ५-३-३८ इत्यनेनाल् । घात इति विघात इतिवत् ।
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पाद-३, सूत्र-८३-८९ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२९१
घात उपघात इति-अत्रापि करणाधिकरणत्वं द्रष्टव्यम् । वितोऽथुः ।। ५. ३, ८३ ॥
वितो धातो वाऽकोरथः प्रत्ययो भवति । वेपथुः, वमथुः, श्वयथुः, स्फूर्जथः, भ्रासथः, नन्दथः, क्षवथः, दवथः । प्रसरूपत्वाद् घालावपि-वेपः, क्षवः ॥८३।।
डितस्त्रिमा तत्कृतम् ॥ ५, ३. ८४ ॥
डिवतो धातोर्भावाऽकोंस्त्रिमा प्रत्ययो भवति, तेन-धात्वर्थेन, कृतं निवृत्तमित्येतस्मिन्नर्थे ।
पाकेन निवृत्त-पक्तिमम् , उत्रिमम्, कृत्रिमम्, लन्ध्रिमम्, विहित्रिमम् , याचित्रिमम् , ट्विदसाविति कश्चित-याचथुः । ककारः कितकार्यार्थः ।।८४॥
न्या० स० ड्वितस्त्रिमक-निवृत्तमित्येतस्मिन्नर्थे इति-अन्तर्भूतण्यर्थत्वात् निर्वत्तितमित्यर्थः, कृतमित्येव वार्थः, तदा तु कर्मकर्तरि क्तः ।
यजि-स्वपि-रक्षि-यति-प्रच्छो नः ॥ ५. ३. ८५ ॥ एभ्यो भावाऽकोंर्नः प्रत्ययो भवति । यज्ञः, स्वप्नः, रक्ष्णः यत्नः, प्रश्नः ॥८५।। विच्छो नङ्॥ ५. ३. ८६ ॥ विच्छे वाकोंर्नङ् प्रत्ययो भवति । विश्नः । कारो गुणप्रतिषेधार्थः ॥८६।। उपसर्गाद दः किः ॥ ५. ३. ८७॥ उपसर्गपूर्वाद् दासंज्ञकाद् धातो वाऽकों: किः प्रत्ययो भवति ।
प्रादिः, प्रदिः प्रधिः, प्राषिः, निधिः, उपविधिः, संधिः, समाधिः । कित्करणमाकारलोपार्थम् ।।८७॥
व्याप्यादाधारे ।। ५. ३.८८ ॥
व्याप्यात कर्मणः पराद दासंज्ञावाधारे-प्रधिकरणे कारके किर्भवति । जलंधीयतेऽ. स्मिन्निति-जलधिः, शरधिः, इषुषिः, वालधिः, शेवधिः । प्राधारग्रहणमर्थान्तरनिषेधार्थम् ।।८।।
न्या० स०-व्याप्यादाधारे-शेवधिरिति-शेते निघाविति 'शीडापो ह्रस्वश्च वा' ५०६ (उणादि) इति वे शेवं स्थाप्यधनं तद्धीयतेऽस्मिन् ।
अन्तधिः ॥ ५.३.८१ ॥ अन्त:पूर्वाद् दधातेर्भावाकोः किः प्रत्ययो निपात्यते । अन्तधिः ।।४।।
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२९२ ]
बृहद्वृत्ति लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-६०-९३
अभिव्याप्तौ भावेऽन-जिन् ।। ५. ३. १०॥
क्रियया स्वसंबन्धिनः साकल्येनाभिसंबन्धोऽभिव्याप्तिः, तस्यां गम्यमानायां भावे धातोः 'अन जिन्' इत्येतो प्रत्ययो भवतः ।
समन्ताद् राव:-संवरणं सांराविणं सेनायां वर्तते । संकुटनं सांकौटिनमेषाम् । अभिव्याप्ताविति किम् ? संरावः, संकोटः । भावग्रहणं कर्माविप्रतिषेधार्थम् । असरूपविधिना क्त-घनादिनिवृत्त्यर्थमनग्रहणम् ॥१०॥
न्या० स०-अभिव्याप्तौ-क्रियया इति-द्विहेतोः' २-२-८७ इति कर्तरि वा षष्ठीत्यऽत्र न । असरूपविधिनेति-अयमर्थो यदि असरूपन्यायेनानट् भविष्यति तदान ग्रहणं न क्रियते, यथा ह्यनट तथा असरूपविधिनैव क्तपत्रावपि प्राप्नुतः तो माभूतामित्यनग्रहणम् ।
स्त्रियां क्तिः॥ ५. ३. ११॥
स्त्रियामिति प्रत्ययार्थविशेषणम् । धातो वाऽकों: स्त्रीलिङ्गे तिः प्रत्ययो भवति, घनादेरपवादः।
कृतिः, हतिः, चितिः, नीतिः, नुतिः, भूतिः। स्त्रियामिति किम् ? कारः, चयः ।९।। श्रूवादिभ्यः ॥ ५. ३. १२॥
शृणोत्यादिभ्यो धातुभ्यो स्त्रीलिङगे भाषाकों. क्तिर्भवति । वक्ष्यमाणैः क्विबादिभिः सह समावेशार्थ वचनम् ?
श्र-श्रुतिः, प्रतिश्रुत् । स्त्र- तिः, प्रतिसत । पद्-संपत्तिः, संपद् । सद्-आसत्तिः, संसद, उपनिषद् , निषद्या। विद्-संवित्तिः, संवित; विद्या, वेदना । लभ-लब्धि लभा । अर्द-शिरोतिः, प्रदिका । शस्-प्रशस्तिः, प्रशंसा । पच-पक्तिः, पचा। कण्डूय-कण्डुतिः, कण्डः, कण्ड्या । व्यवक्रुश-व्यवक्रुष्टिः, व्यावक्रोशी। इष्-इष्टिः, इच्छा । यज्-इष्टिः, इज्या। मन-मतिः, मन्या। आस-पास्या, उपास्तिः, उपासना । शास्-अनुशिष्टिः, आशीः । भृग-भृतिः, भृत्या । स्तूयते इज्यते इष्यतेऽनयेति-स्तुतिः, इष्टिः इष्टिरिति, संज्ञाशब्दत्वात करणेऽपि क्तिरेव नानट् । एवं-स्र तिः । अन्यत्र तु स्पर्धे परत्वाद के स्त्रीखलना प्रलो बधकाः, स्त्रियाः खलनौ * इति न्यायः ॥१२॥
___ न्या० स०-वादिभ्यः आसत्तिरिति-उपसर्गाणामतन्त्रत्वात् श्रुसदादिभ्यः क्तिक्विबादयोऽप्यनुज्ञाताः।
अदिकेति-यद्यपि णकप्रस्तावे शिरसोऽर्दनं शिरोत्तिरित्यत्र बाहुलकाण्णको निषिद्धः 'क्तेट' ५-३-१०६ इति अप्रत्ययोऽपि तथापि तत्र भाव एवात्र त्वपादानादौ अद्यतेऽस्याः 'नाम्नि पुंसि च' ५-३-१२१ इति णकः, भावे तु न तत्रैव बाहुलकादिति भणनात् ।
समिणासुगः ।। ५. ३. १३ ॥
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पाद - ३, सूत्र - ९४-६६ ]
श्री सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ २९३
संपूर्वादिण श्राङ्पूर्वात् सुनोतेश्च भावाऽकत्रः स्त्रियां क्तिर्भवति, क्यपोऽपवादः । समिति:, आसुतिः । समाङोऽन्यत्र - इत्या, सुत्येति क्यबेव भवति ॥ ६३ ॥
साति-ति-यूति-जूति ज्ञष्टि- कीर्ति ।। ५. ३. १४ ॥
एते शब्दा भावाऽकर्त्रीः क्तिप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते ।
सिनोतेः सुनोतेः स्यतेर्वा आत्वमित्वाभावश्च निपात्यते - सातिः । हिनोतेर्गुणे हन्तेर्वाऽन्त्यस्वरादेरेत्वेहेतिः । यौतेर्जवतेश्व दीर्घत्वे-यूतिः, जूतिः । ज्ञपयतेज्ञप्तिः, कीर्तयतेःकीर्तिः, आभ्यां ण्यन्तलक्षणोऽनो न भवति । कीर्तनेत्यपि कश्चित् ।। ९४ ।।
गा-पा-पची - भावे ।। ५, ३. १५ ॥
एभ्यो भावेऽर्थे स्त्रियां क्तिर्भवति । 'गा' इति सामान्येन ग्रहणम्, प्रगीतिः, संगीतिः | 'पा' इति गा-पचिसाहचर्यात् पिबतेर्ग्रहणम्, प्रपीतिः, संपीतिः । पक्तिः, प्रपक्तिः । भावग्रहणमर्थान्तरनिरासार्थम् । बाधकस्याङोऽपवादः ।।५।।
न्या० स०- गापापचो - पिबतेर्ग्रहणमिति - पायतेस्तु लाक्षणिकत्वान्न ग्रहः । प्रपीतिरिति भावेऽनेन क्तिरेव आधारे तु स्थादिभ्यः कः, अपादाने तु 'उपसर्गादातः ' ५ -३ - ११० इत्यऽङ ।
आयटिव्रज्यजः क्यप् - अस्य क्यपो न कृत्यसंज्ञा प्रकरणात्तत्र विहितस्यैव भवति । स्थो वा ॥ ५. ३. १६ ॥
तिष्ठतेर्भावेऽर्थे स्त्रियां तिर्वा भवति । प्रस्थितिः, उपस्थितिः । वावचनादङपिआस्था, व्यवस्था, संस्था | पूर्ववदङोऽपवादः ||१६||
आस्यटि. व्रज्-यजः क्यप् ॥ ५. ३. १७ ॥
एभ्यः परो भावेऽर्थे स्त्रियां क्यप् प्रत्ययो भवति । श्रास्-आस्था | अट्-अट्या, "वृथाऽट्या खलु सा तस्याः" । व्रज्-व्रज्या । यज् - इज्या | ककारः कित्कार्यार्थः । पित्करणमुत्तरत्र तागमार्थम् ||७||
भृगो नाम्नि ॥ ५. ३. १८ ॥
भृगः परो भावेऽर्थे स्त्रियां नाग्नि-संज्ञायां क्यप् प्रत्ययो भवति । भरणं भृत्या । नाम्नीति किम् ? भृतिः । भाव - इत्येव ? भ्रियत इति मार्या वधूः ॥ ६८ ॥
समज निपनिषद-शी-सुग्-विदि- चरि-मनीणः ॥ ५.३.११ ॥ योगविभागाद् भाव एवेति निवृत्तम् । एभ्यः परो नाम्नि भावाऽकत्रः स्त्रियां
क्यप् भवति ।
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२६४]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-१००-१०४
समज-समजन्त्यस्यामिति-समज्या। निपनिषदेति संहितानिर्देशात पतेः पदेश्च ग्रहणम्, निपतन्त्यस्यामिति-निपत्या, निपद्या। निषद्-निषदनं निषीदन्त्यस्यामिति वानिषद्या । शीड-शेरतेऽस्यामिति शय्या। संग-सवनं सन्वन्त्यस्यामिति वा-सत्या । विदवेदनं विदन्ति तस्यां तया वा हिताहितमिति-विद्या। चर् चरणं चरन्ति प्रनयेति वा-चर्या । मन्-मननं मन्यतेऽनयेति वा-मन्या। इण्-अयनमेत्यनयेति वा-इत्या । नाम्नीत्येव ? संघीतिः, निपत्तिः, निषत्तिः ||६||
न्या० स०-समजनि-पूर्ववत् संज्ञाशब्दत्वात् आधारेऽपि क्यप् । विद्येति-संज्ञा. शब्दत्वात् आदादिकस्यैव विदेब्रहणं न त्वऽन्यस्य ।
कृगः श च वा ॥ ५. ३.१००।
करोतेर्भावाकों: स्त्रियां शः प्रत्ययो वा भवति, चकारात क्यप् च । क्रिया, कृत्या, पक्षेकृतिः । क्रियेति यदा भाव-कर्मणोः शस्तदा मध्ये क्यः, यदा त्वपादानादौ शस्तदा क्यो नास्तीति रेरिकारस्येयादेशः ॥१०॥
मृगयेच्छा-याच्या-तृष्णा-कृपा-भा-श्रद्धाऽन्तर्धा ॥ ५. ३. १०१ ॥
एते शब्दाः स्त्रियां निपात्यन्ते । तत्रेच्छा भाव एव, शेषास्तु भावाऽकोंः । अन्ये तु सर्वान् भाव एवानुमन्यन्ते।
मगयतेः शः शव् च क्यापवादो निपात्यते-मृगया। इच्छतेः शः क्याभावश्चइच्छा । याचितृष्योर्न-नौ-याच्या, तृष्णा । क्रपेरङ् रेफस्य च ऋकार:-कृपा । भातेरङ्भा। श्रत्पूर्वादन्तःपूर्वाच्च दधातेरङ्-श्रद्धा, अन्तर्धा ॥१०॥
न्या० स०-मृगयेच्छा तृष्णेति-केचित्तु भिदादित्वात् तृषा, स्वमते तु क्रुत्संपदादित्वात् तृट् ।
परेः सृ-चरेयः ॥ ५. ३. १०२ ॥
परिपूर्वाभ्यां सूचरिभ्यां परः स्त्रियां य: प्रत्ययो भवति, भावाऽकोंः । भाव इत्यन्ये । परिसर्या, परिचर्या । परेरिति किम् ? संसृतिः, चूतिः ॥१०२॥
वाटाट्यात् ॥ ५. ३. १०३ ॥ अटतेयंडन्तात् स्त्रियां यः प्रत्ययो वा भवति, भावाऽकों: । भाव इत्यन्ये ।
अटाटया, पक्षे-अः प्रत्ययः-प्रटाटा । अन्ये तु क्तिप्रत्ययबाधनार्थमटतेरयङन्तस्य यप्रत्ययं द्विवचनं पूर्वदीर्घत्वं च निपात्यन्ति-अटनमटाटया ॥१०३।।
जागुरश्च ॥ ५. ३. १०४॥
जागर्तेः स्त्रियामः प्रत्ययो यश्च भवति । भावाऽकोंः। भाव इत्यन्ये । जागरा, जागर्या ॥१०४॥
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पाद-३, सूत्र-१०५-१०८] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२९५
शंसि-प्रत्ययात् ॥ ५. ३. १०५॥ शंसे: प्रत्ययान्तेभ्यश्च धातुभ्यो भावाऽकोंः स्त्रियामः प्रत्ययो भवति ।
प्रशंसा, गोपाया, ऋतीया, मीमांसा, कण्ड्या, लोल्या, चिकीर्षा, पुत्रकाम्या, पुत्रीया, गवा, गल्भा, श्येनाया, पटपटाया। शंसूः क्तेऽनिट् इति वचनम् ॥१०॥
क्तेटो गुरोर्व्यञ्जनात् ॥ ५. ३. १०६॥
क्तस्येट् यस्मात् स क्तेट् , क्तेटो गुरुमतो व्यञ्जनान्ताद् धातो वाऽकोंः स्त्रियामः प्रत्ययो भवति । ईहा, ऊहा, ईक्षा, उक्षा, कुण्डा, हुण्डा, शिक्षा, भिक्षा, व्यतीहा, व्यतीक्षा। क्तेट इति किम् ? सस्तिः, ध्वस्तिः, प्राप्तिः, दीप्तिः, अक्तिः, राद्धिः, चाय-अपचितिः, स्फुर्छा-स्फूतिः, मुर्छा-मूर्तिः । गुरोरिति किम् ? स्फुर-स्फूत्तिः, निपठितिः । व्यञ्जनादिति किम् ? संशोतिः ॥१०६।।।
न्या० स०-क्तेटो गु-क्तस्येट् यस्मादिति-क्तस्य इडैव यस्मादित्यवधारणं कार्य, तेन स्फच्र्छादिष धातष यद्यपि भावारम्भयोः क्तस्यादौ विकल्पेन इट विहितस्तथापि एकस्मिन् पक्षे नागच्छतीति व्यावृत्तिः । व्यतीहेति-'व्यतिहार' ५-३-११६ इत्यत्र ईहादिवर्जनात् क्त्यादीनामऽपवादोऽपि त्रो न भवति ।
षितोऽङ् ॥ ५. ३. १०७॥ षिद्भ्यो धातुभ्यो भावाऽकोः स्त्रियामङ् प्रत्ययो भवति ।
पचा, क्षमा, शान्तिरिति तु क्षाम्यते:, घटा, त्वरा, प्रथा, व्यथा, जरा, "ऋवर्णदृशोऽङि" (४-३-७) इति गुणः । ङकारो ङित्कार्यार्थः ॥१०७।।
भिदादयः॥ ५. ३. १०८ ॥ भिदादयः शब्दा भावाऽकोंः स्त्रियामप्रत्ययान्ता यथादर्शनं निपात्यन्ते ।
भिदा विदारणम्, छिदा द्वधोकरणम् विदा विचारणा, मजा शरीरसंस्कारः, क्षिपा प्रेरणम्, दया अनुकम्पा, रुजा रोगः, चुरा चौर्यम्, पृच्छा प्रश्नः, एतेऽर्थविशेषे । अन्यत्रभित्तिः कुड्यम्, छित्तिश्चौर्यादिकरणाद् राजापराधः, विच्छित्तिः प्रकार इत्यादि । तथा ऋ-कृ-ह-ध-तृभ्यः संज्ञायां वृद्धिश्च-पारा शस्त्री, ऋतिरन्या। कारा गुप्तिः कृतिरन्या । हारा मानम्, हृतिरन्या। धारा प्रपातः खड्गादेर्वा, धृतिरन्या । तारा ज्योतिः, तोणिरन्या। तथा-गुहि-कुहि-वशि-वपि-तुलि-क्षपि-विभ्यश्च संज्ञायाम्-गुहा पर्वतकन्दरा औषधिश्च, गूढिरन्या । कुहा नाम नदो, कुहनाऽन्या। वशा स्नेहनद्रव्यं धातुविशेषश्च, उष्टिरन्या । वपा मेदोविशेषः, उप्तिरन्या। एवं-तुला उन्मानम्, क्षपा रात्रिः, क्षिया प्राचारभ्रंशः । तथा संज्ञायामेव रिखि-लिखि-शुभि-सिधि-मिधि गुधिभ्यो-गुणश्च-रिखिः लिखे: समानार्थः सौत्रो धातुः, रेखा राजिः, लेखा सैव, शोभा कान्तिः सेधा सत्त्वम्, मेधा बुद्धिः, गोधा प्राणिविशेषो दोस्त्राणं च भिदादिराकृतिगणः, तेन चूडेत्यादि सिद्धम् ।
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२६६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद- ३, सूत्र - १०९-११३
प्रकृतस्य क्रिया चैव प्राप्तेर्बाधनमेव च । अधिकार्थविवक्षा च त्रयमेतन्निपातनात् ॥ १०८ ॥
न्या० स०-भिवादयः - मृजेति निपातनसामर्थ्यादेव 'ऋतः स्वरे वा' ४-३-४३ इति वृद्धिर्न भवति ।
मेधा बुद्धिरिति केचित्तु मेघृगः स्थाने मिधृगिति पठन्ति सौत्रो वा । भीषि-भूषि-चिन्ति प्रजि-कथि कुम्बि-चर्चि-स्प्रहि-तोलि-दोलिभ्यः
।। ५. ३. १०१ ॥
एम्यो ण्यन्तेभ्यः स्त्रियां भावाऽकर्त्रीरङ् भवति । व्यन्तत्वादने प्राप्ते वचनम् । भीषा, भूषा, चिन्ता, पूजा, कथा, कुम्बा, चर्चा, स्पृहा, तोला, दोला । बहुवचनाद् यथादर्शनमन्येभ्योऽपि भवति पीडा, ऊना ।। १०९ ।।
न्या० स०- भीषिभूषि-अप्रत्ययाधिकारेऽप्यस्मिन् कृते साध्यसिद्धिः स्यात् परं अङ्प्रत्ययाधिकारे यत्कृतं तण्णिग्लोपस्यानित्यत्वज्ञापनार्थं तेन चिंन्तिया. पूजिया, सुप्रकथियेत्यादि सिद्धम् ।
उपसर्गादातः ॥ ५, ३, ११० ॥
उपसर्गपूर्वेभ्य श्राकारान्तेभ्यो धातुभ्यः स्त्रियां भावाकरङ् भवति ।
उपदा, उपधा, आधा प्रदा, प्रधा, विधा, संधा, प्रभा, श्वादित्वात् क्तौ प्रमिति: । उपसर्गादिति किम् ? दत्तिः ॥ ११०॥
णि वेत्यास श्रन्थ-घट्ट-वन्देरनः ॥ ५. ३. १११ ॥
यन्तेभ्यो वेस्यास अन्य घट्ट वन्दिभ्यश्च धातुभ्यः स्त्रियां भावाऽकर्त्रीरनः प्रत्ययो
भवति ।
कारणा, हारणा, कामना, लक्षणा, भावना; वेदना, आसना, उपासना, श्रन्थना, ग्रन्थेरप्यन्ये- ग्रन्थना, घट्टना, वन्दना । वेत्तीति तिनिर्देशो ज्ञानार्थपरिग्रहार्थः ॥ १११ ॥ न्या० स० - णिवेत्यास ज्ञानार्थपरिग्रहार्थ इति यङ लुत्निवृत्त्यर्थश्च तेनाऽस्मात् श्रवादिभ्यः क्तौ वेवित्तिः ।
इषोऽनिच्छायाम् ॥ ५. ३. ११२ ॥
इरनिच्छायां वर्तमानात् स्त्रियां मावाऽकर्त्रीरनो भवति ।
अन्वेषणा, एषणा, पिण्डेषणा । अनिच्छायामिति किम् ? इष्टिः । कथं प्राणैषणा वित्तंषणा परलोकंषणा ? बहुलाधिकारात् ॥ ११२ ॥
पर्यधेर्वा ॥ ५. ३, ११३ ॥
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पाद-३, सूत्र-११४-११६ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२६७
पर्यधिपूर्वादिषेरनिच्छायां वर्तमानाद् भावाऽकोंः स्त्रियामनो वा भवति । पर्येषणा, परीष्टिः । अध्येषणा, अधीष्टिः । अधीष्टिरिति नेच्छन्त्यन्ये ।। ११३ ॥
कृत्-संपदादिभ्यः किप ॥ ५. ३. ११४ ॥ ___ क्रुधादिभ्योऽनुपसर्गपूर्वेभ्यः पदादिभ्यश्च समादिपूर्वेभ्यो धातुभ्यः स्त्रियां भावाऽकों: विवप् प्रत्ययो भवति ।
क्रुधः- क्रुव । युधेः-युत् । क्षुधे:-क्षुत् । तृषेः-तृट् । विषे:-त्विट् । रुषे:-रुट् । रुजेःरुक् । रुचे-रुक् । शुचे:-शुक् । मुदेः-मुत् । मृदे:-मृत् । गृ-गीः । त्र-त्राः । दिशेः-दिक् । सृजेः-स्रक। तथा पदे: संपद् , विपद्, आपद् , व्यापद् , प्रतिपद् । षद्लु-संसत्, परिषद, उपसत्, उपनिषत् । विदे:-निवित् । शासे:-प्रशोः, आशीः । श्रु-प्रतिश्रुत, उपश्रुत् । स्त्रपरिस्त । नहे:-उपानत् । वृषेः-प्रावृट् । पुषेः-विग्रुट् । वृतेः-नोवृत, उपावृत् । यतेः-संयत् । इणः-समित् । भृगः- उपभृत् । इन्धेः-समित् । क्रुधादिः संपदा विश्वाकृतिगणः ॥११४॥
भ्यादिभ्यो वा ॥५. ३. ११५ ॥ बिभेत्यादिभ्यो धातुभ्यः स्त्रियां भावाकोः क्विप् वा भवति ।
भीः भीतिः । ह्रीः, ह्रीतिः । लू:, लूनिः । भूः, भूतिः। कण्डूः, कण्ड्या। कृत, कृतिः । भित, भित्तिः । छित, छित्तिः । तुक, तुत्तिः । दृक् , दृष्टि: । नशेः-नक, नष्टिः । युजेः-युक् , युक्तिः । ज्वरे:-जूः, जूतिः । त्वरेः-तूः, तूतिः । प्रवतेः-ऊः, ऊतिः। श्रिवे:-श्रूः, श्रूतिः । मवते:-मूः, मूतिः । नौतेः-नुवः, नुतिः । शके:-शक् , शक्तिः ॥११५॥
न्या० स०-भ्यादि-नवित्र ये क्विबन्तास्ते क्रुधादिगणे पठिष्यन्ते क्त्यन्तास्तु थ्रवादौ किमनेन ? सत्यं, कण्डूयेति तृतीयरूपार्थम् ।
भीतिरित्यादि-एषु सर्वेषु स्त्रियां क्तिः । तत्तिरिति-षित्त्वादऽङ: पक्षे सुवादित्वात् क्तिः ।
व्यतिहारेऽनीहादिभ्यो ञः॥ ५. ३. ११६ ॥
व्यतिहरणं व्यतिहारः, परस्परस्य कृतप्रतिकृतिः। व्यतिहारविषयेभ्यो धातुभ्य ईहादिजितेभ्यः स्त्रियां अः प्रत्ययो भवति । बाहुलकाद् भावे क्त्यादीनामपवादः ।
परस्परमाकोशनं-व्यावक्रोशी, व्याक्रोशी; व्यावमोषी, व्यावहासी, व्यावलेखी, व्यातिचारी, व्यावचर्ची, व्यात्युक्षी । अनीहादिभ्य इति किम् ? व्यतीहा, व्यतीक्षा, व्यतिपृच्छा, व्यवहतिः । व्यत्युक्षेत्यप्येके । "नित्यं अजिनोऽण्" (५-३-५८) इति स्वार्थेऽण वक्ष्यते, तेन केवलस्य प्रयोगो न भवति । "वादिभ्यः' (५-३-६२) इति समावेशाभिधानाद-व्यवक्रुष्टिाक्रुष्टिरित्यपि भवति । स्त्रियामित्येव ? व्यतिपाको वर्तते ।।११६॥
न्या० स०-व्यतिहारे-व्याव्युक्षीति-'प्वः पदान्तात्' ७-४-५ इति ऐकारो न । 'न अस्वङ्गादेः' ७-४-९ इति निषेधात् ।
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२६८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद ३, सूत्र-११७-१२०
नजोऽनिः शापे ॥ ५. ३. ११७॥ नञः पराद् धातोः शापे गम्यमाने भावाऽकों: स्त्रियामनिः प्रत्ययो भवति ।
प्रजननिस्ते वृषल! भूयात् , एवमजीवनिः, प्रकरणिः, अप्रयाणिः, अगमनिः । नम इति किम् ? मृतिस्ते जाल्म! भूयात् । शापे इति किम् ? अकृतिस्तस्य पटस्य ॥ ११७॥
ग्ला-हा-ज्यः॥५.३.११८॥ ___ एभ्यः स्त्रियां भावाऽकोरनि: प्रत्ययो भवति । ग्लानि:, हानिः, ज्यानिः । म्लानिरित्यापि कश्चित् ।।११८॥
प्रश्ना-ऽऽख्याने वेञ् ।। ५. ३. १११ ॥
प्रश्ने आख्याने च गम्यमाने स्त्रियां भावाऽकोंधातोरिन् प्रत्ययो वा भवति, वावचनाद् यथाप्राप्तं च ।
कां त्वं कारिमकार्षीः ?, को कारिका, का क्रियां, को कृया, को कृतिम् । आख्याने सर्वां कारिमकार्षम्, सर्वां कारिका, सर्वां क्रियां, सर्वां कृत्यां, सर्वां कृतिम् । कां त्वं गणिमजीगण: ?, कां गणिका, कां गणनाम्; सर्वां गणिमजीगणम्, सर्वां गणिकाम, सर्वां गणनाम् । एवं-पाचि पाचिका पक्ति पचाम्, पाठि पाठिकां पठितिम् । प्रश्ना-ऽऽख्यान इति किम् ? कृतिः, हृतिः ।।११६॥
न्या० स०-प्रश्नाख्या-कां कारिकामिति- 'पर्यायाहर्ण' ५-३-१२० इति णकः । कां कृतमिति-भ्यादित्वात् क्विपि कां कृतमित्यपि ।
पर्यायाऽहोत्पत्तौ च णकः ॥ ५. ३. १२०॥
एष्वर्थेषु प्रश्नाऽऽख्यानयोश्च गम्यमानयोः स्त्रियां भावाऽकोंर्घातोर्णकः प्रत्ययो भवति, क्त्याद्यपवादः।
पर्याय:-क्रमः परिपाटिरिति यावत् । भवत प्रासिका, भवतः शायिका, भवतोऽन. गामिका; आसितु शयितुमने गन्तु च भवतः क्रम इत्यर्थः । अर्हरणमर्हः-योग्यता। अर्हति भवान् इक्षुभक्षिकाम् , ओदनमोजिकाम्, पयःपायिकाम् । ऋणं-यत् परस्मै धार्यते । इक्षुभक्षिकां मे धारयसि । उत्पत्तिर्जन्म, इक्षुभक्षिका मे उदपादि । प्रश्ने-कां त्वं कारिकामकार्षीः ? कां त्वं गणिकामजीगणः? आख्याने--सर्वां कारिकामकार्षम, सर्वा गणिकामजोगणम् । बहुलाधिकारात् क्वचिन्न भवति -चिकीर्षा, बुभुक्षा मे उदपादि । प्रश्नाऽऽख्यानयोगेऽपि पर्यायादिषु परत्वात् णक एव भवति, नेञ् ।।१२।।
न्या० स०-पर्यायाहो-इक्षुमक्षिकामिति-अत्र 'कृति' ३-१-७७ इति समासः । णक एव भवतीति-यथा कुत्र भवत आसिकेति आसितु पर्यायः ।
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पाद-३, सूत्र-१२१-१२४ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[२९९
नाम्नि पुंसि च ॥ ५. ३. १२१ ॥ धातोः स्त्रियां भावाऽकर्बोर्नाम्नि-संज्ञायां णकः प्रत्ययो भवति, यथादर्शनं पुंसि च ।
प्रच्छर्दनं प्रच्छद्यतेऽनयेति वा-प्रच्छदिका, एवं-प्रवाहिका, विचिका, प्रकन्दिका, विपादिका, एता रोगसंज्ञाः । उद्दालकपुष्पाणि भज्यन्ते यस्यां सा-उद्दालकपुष्पभजिका, एवं-वारणपुष्पप्रचायिका, अभ्योषा: खाद्यन्तेऽस्यामिति-अभ्योषखादिका, एवमवोषखादिका; साला भज्यन्ते यस्यां सा-सालभञ्जिका, एवंनामानः क्रीडाः।।
बहुलाधिकारादिह न भवति-शिरसोऽर्दनं-शिरोतिः, एवं-शीर्षात्तिः, शिरोऽभितप्तिः, शीर्षाभितप्तिः, तथा चन्दनतक्षा क्रीडा । बहुलाधिकारादेव चातिरित्यत्रार्दतेरर्दयतेश्च यथाक्रममप्रत्ययमनप्रत्ययं च बाधित्वा क्तिरेव भवति । पुसि च-अरोचनं न रोचतेऽस्मिन्निति वा-प्ररोचकः, अनाशकः, उत्कन्दकः, उत्कर्णकः ॥१२१।।
. न्या स०-नाम्नि पुसि च-उद्दालकपुष्पमजिकेति-अत्र 'कृति' ३-१-७७ इति षष्ठीसमासः, उद्दालकपुष्पाणि भज्यन्ते यस्यामिति त्वर्थकथनम् । वाक्यं तु भज्यन्ते यस्यां भजिका उद्दालकपुष्पाणां भञ्जिकेति कार्य, न तु 'अकेन क्रीडा' ३-१-८१ इति समासस्तेन कर्तृ विहिताऽकान्तेन सह विधानात् , णकस्त्वनेन कर्तृवर्ज प्रवर्तते । चन्दनतक्षेतिचन्दनास्तक्ष्यन्ते यस्यां बाहुलकात् 'पुंनाम्नि' ५-३-१३० (इति) विहितोऽपि स्त्रियामपि 'व्यञ्जनाद् घत्र'५-३-१३२ । ननु यथा शिरोतिरित्यत्र बाहुलकाण्णको निषिद्धस्तथा क्तिरपि न प्राप्नोति स्त्रीखलना इति न्यायादित्याह-बहुलाधिकारादिति -अईयतेश्चेतिऋथद्दिणित्यस्य । उत्कन्दक इति-उत्स्कन्दनं उत्स्कद्यतेऽनेनेति वा पृषोदरादित्वात् सलोप ।
भावे ॥ ५. ३. १२२॥
भावे-धात्वर्थनिर्देशे स्त्रियां धातोर्णकः प्रत्ययो भवति । आसिका, शायिका, जीविका, कारिका । बहुलाधिकारात्-ईक्षा, ऊहा, ईहा, स्मरणा ॥१२२॥
क्लीबे क्तः॥ ५. ३. १२३ ॥
क्लीबे-नपुंसकलिङ्गे भावेऽर्थे धातोः क्तः प्रत्ययो भवति, घनाद्यपवादः । स्त्रियां भावाऽकोरिति च निवृत्तम् ।
हसितं छात्रस्य, नृत्तं मयूरस्य, व्याहृतं कोकीलस्य, गतं मतंगजस्य । क्लीब इति किम् ? हसः, हासः ।।१२३।।
न्या० स०-क्लीबे क्तः-घनाद्यपवाद इति-आदिशब्दात् 'ट्वितोऽथुः' ५-३-८३ इत्यादयः।
अनट् ॥ ५. ३. १२४ ॥
क्लीबे भावेऽर्थे धातोरनट् प्रत्ययो भवति । गमनं भोजनं वचनं हसनं छात्रस्य । टकार उत्तरत्र ङ्यर्थः ॥१२४॥
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३०० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते [ पाद-३, सूत्र-१२५-१२८
यत्कर्मस्पर्शात् करृङ्गसुखं ततः ॥ ५. ३. १२५ ॥
येन कर्मणा संस्पृस्यमानस्य कर्तुरङ्गस्य-शरीरस्य सुखमुत्पद्यते ततः कर्मणः पराद् धातोः क्लीबे भावेऽर्थेऽनट भवति । पूर्वेणैव प्रत्यये सिद्धे नित्यसमासार्थ वचनम् ।
पयःपानं सुखम् । ओदनभोजनं सुखम् । कर्मेति किम् ? अपादानादिस्पर्श मा भूततूलिकाया उत्थानं सुखम् । स्पर्शादिति किम् ? अग्निकुण्डस्योपासनं सुखम् । कत्रिति किम् ? शिष्येण गुरोः स्नापनं सुखम्, स्नापयतेन गुरुः कर्ता, कि तहि ! कर्म। अङ्गग्रहणं किम् ? पुत्रस्य परिष्वञ्जनं सुखम् , पुत्रस्य स्पर्शान्न शरीरस्य सुखं, कि तहि ! मानसी प्रीतिः, अन्यथा परपुत्रपरिष्वङ्गेऽपि स्यात् ।
सुखमिति किम् ? कण्डकानां मर्दनम् । सर्वत्रासमासः प्रत्युदाहार्यः । अथवा तत इति सप्तम्यन्तात् तसुः, येन कर्मणा स्पृश्यमानस्य कर्तुरङ्गसुखमुत्पद्यते तस्मिन् कर्मण्यभिधेये सामर्थ्यात कर्त: पराद धातोरनट भवति, इत्यपरोऽर्थः । राज्ञा भज्यन्ते-राजभोजनाः शालयः, राजाच्छादनाः प्रावाराः, राजपरिधानानि वासांसि ।।१२५।।
न्या० स० यत्कर्मस्पर्शा-नित्यसमासार्थमिति-'इस्युक्त कृता' ३-१-४६ इत्यनेन, पूर्वेण हि प्रत्यये ङस्युक्तत्वाऽभावे केन समासः स्यात् । पयः पानमिति-नित्यसमासत्वाद पयसां पानमिति न कार्य, किन्तु पयसः पीतिरिति शब्दान्तरेणार्थः कथ्यते । सप्तम्यन्तात्तसुरिति-तदा पृषोदरादित्वाद्दलोपः, 'आ द्वेर' २-१-४१ इति तु न तसादी चेत्यधिकारात्. एके तु तस्वादावपीच्छन्ति ।
रम्यादिभ्यः कर्तरि ॥ ५. ३. १२६ ॥
रम्यादिभ्यो धातुभ्यः कर्तर्यनट् भवति । रम्-रमणी । नन्द-नन्दनी । कम्-कमनी । ह्लाद्-ह्लादनी। वश्च-इध्मवश्चनः । शाति:-पलाशशातनः । बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् ।।१२६।।
न्या० स० रम्यादिभ्यः कर्त्तरि-रमणी इति-रमते इति कृते णकतृचादयोऽनेन अनटा बाधिताः सन्तो बाहुलकादेव भवन्ति, एवमन्येषाम् । इध्मवश्चन इति-वृश्चतीति, इध्मानां व्रश्चनः 'कृति' ३-१-७७ इति समासः।।
कारणम् ॥ ५. ३. १२७॥
कृगः कर्तर्यनट् वृद्धिश्न निपात्यते । करोतीति-कारणम् । कर्तरीति किम् ? करणम् ।।१२७॥
भुजि-पत्यादिभ्यः कर्माऽऽपादाने । ५. ३. १२८ ।। भुज्यादिभ्यः पत्यादिभ्यश्च धातुभ्यो यथासंख्यं कर्मण्यपादाने चानट् भवति ।
भुज्यते इति-भोजनम् । निरदन्ति तदिति निरदनम् । आच्छादि-आच्छादनम् । अवस्रावि-अवस्रावणम् । अवसिच-प्रवसेचनम् । अस्-असनम् । वस्-वसनम् । आभृग
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पाद-३, सूत्र-१२९-१३१ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[३०१
आभरणम् । अपादाने, पत्-प्रपतत्यस्मादिति-प्रपतन: । स्कन्दि-प्रस्कन्दनः। श्च्योतिप्रश्च्योतनः । सृष्-निर्झरणाः । धृ-शङ्खोद्धरणः । दाग-अपादानम् । बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् ।।१२८।।
न्या० स०-भूजिपत्यादिभ्यः अवस्रावणमिति-अवस्रवत् अधः पतत् प्रयुङ क्ते णिगि अवस्राव्यते । वसनमिति-वसिक् वस्यते तदिति ।
करणाऽऽधारे ॥ ५. ३. १२१ ॥ करणाऽऽधारयोरर्थयोर्धातोरनट् भवति, घनाद्यपवादः ।
करणे-एषणी, लेखनी, विचयनी, इध्मवश्चनः, पलाशशातनः, अविलवन:, श्मश्रु. कर्तनः। आधारेगोदोहनी, सक्तुधानी, तिलपोडनी, शयनम् , मासनम् , अधिकरणम् , आस्थानम् ।। १२९।।
पुनाम्नि घः ॥ ५. ३. १३०॥ पुसो नाम-संज्ञा पुन्नाम, तत्र गम्यमाने करणाऽऽधारयोर्धातोर्घः प्रत्ययो भवति ।
करणे-प्रच्छदः, उरश्छदः, दन्तच्छदः, प्लवः, प्रणवः, करः, प्रत्यय:,शरः । आधारेएत्य कुर्वन्त्यस्मिन्नित्याकरः, आलवः, आरवः, पापवः, भव:, लयः, विषयः, भरः, प्रहरः, प्रसरः, अवसरः, परिसरः, विसरः प्रतिसरः । ग्रहणं किम् ? विचीयतेऽनयेति-विचयनी, प्रधोयते विकारोऽस्मिन्निति-प्रधानम् । नाम्नीति किम् ? प्रहरणो दण्डः । बहुलाधिकारात क्वचिन्न भवति-प्रसाधनः, दोहनः । घकार "एकोपसर्गस्य च घे" ( ४-२-३४ ) इत्यत्र विशेषणार्थः ॥१३०।।
___ न्या० स०-पुनाम्नि घ:-प्रणव इति-स्मरस्तु स्मरन्ति कामिनीमनेनेति वाक्ये अनेन घः इति पारायणम् । प्रधानमिति-सत्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः प्रधानम् । प्रसाधन इत्यत्र-णिगन्तादऽनट् एवं दोहन इत्यत्र । गोचर-संचर-बह-व्रज व्यज-खला-ऽऽपण निगम-बक भग-कषाऽऽ
कष-निकषम् ॥ ५. ३. १३१॥ एते शब्दा: करणाऽऽधारयोः पुनाम्नि व्यञ्जनाद् घनि प्राप्ते घप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते ।
गावश्चरन्ति प्रस्मिन्निति-गोचरो देशः, व्युत्पत्तिमात्रं चेदम् , विषयस्य तु संज्ञा"अनेकान्तात्मकं वस्तु गोचरः सर्वसंविदाम्"। संचरन्तेऽनेन-संचरः। वहन्ति तेन-वहः, वबस्कन्धदेशः । वजन्त्यस्मिन्निति-व्रजः । विपूर्वोऽजि:, व्यजत्यनेन-व्यजः. निपातनादीभावाभावः । खलन्त्यस्मिन्निति-खलः । एत्य पणायन्ति अस्मिन्निति-आपणः । निगच्छन्ति तत्रेतिनिगमः । वक्तीति-बकः, बाहुलकात कर्तरि । निपचन्त्यनेन निपक-इत्यपि कश्चित् ।
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३०२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-३, सूत्र-१३२-१३५
भज्यतेऽनेनास्मिन्निति वा भगः, भगमिति बाहुलकात क्लीबेऽपि घः। कषत्यस्मिन्नितिकषः, एवमाकषः, निकषः ॥१३१॥
व्यञ्जनाद् घन ॥५. ३,१३२॥
व्यञ्जनान्ताद् धातोः पुनाम्नि करणाऽऽधारे घञ् प्रत्ययो भवति, घस्थापवादः । वित्यनेन विन्दति विन्दते वा-वेदः । चेष्टतेऽनेन-चेष्टो बलम । एत्य पचयस्मिनित्या पाक: । प्रारामः, लेखः, बन्धः, नेगः, वेगः, रागः, रङ्गः, क्रमः, प्रसादः, अपामार्गः, नीमार्गः ॥१३२॥
न्या० स०-व्यञ्जनाद् घञ्-घस्यापवाद इति-'पुन्नाम्नि' ५-३-१३० इति प्राप्तस्य ।
अवात् तस्तभ्याम् ॥ ५. ३. १३३ ॥ अवपूर्वाभ्यां तृ-स्तृभ्यां करणाऽऽधारयोः पुनाम्नि घञ् भवति ।
अवतरन्त्यनेनास्मिन् वेति-अवतारः । अवस्तृणन्त्यनेनास्मिन्निति वा-अवस्तारः । बहुलाधिकारादसंज्ञायामपि-प्रवतारो नद्याः, उत्पूर्वादपि-नद्युत्तारः । करणाऽऽधार इत्येव ? अवतरः। केचित् तु-संज्ञायामसंज्ञायां च भावेऽकर्तरि कारके च स्त्रो नित्यं तरतेस्तु विकल्पेन घनमिच्छन्ति । द्विवचनं करणाऽऽधार इति यथासंख्यनिवृत्यर्थम् ॥१३३।।
न्या० स०-अवात्तस्तृभ्याम्-अवतारो नद्या इति-येन केनाऽपि पथाऽवतीर्यते स . एवावतारो न तु कस्यापि संज्ञा । न्यायाऽऽवायाऽध्यायोद्याव-संहारावहाराऽऽधार-दार--जारम् .
॥५. ३. १३४ ॥ स्वरान्तार्थ आरम्भ, एते शब्दाःपुनाम्नि करणाधारयोर्धे प्राप्ते घअन्ता निपात्यन्ते ।
निपूर्वस्येणो नीयतेऽनेनेति-न्यायः । एत्य वयन्ति वायन्ति वा तत्रेत्यावायः । अधीयतेऽनेनास्मिन् वा-अध्यायः । उद्युवन्ति तेन तस्मिन् वा-उद्यावः। संहरन्ति तेनसंहारः । अवहरन्ति तेन तस्मिन् वा-अवहारः। आघ्रियते तत्रेत्याधारः । दीयन्ते एभिरिति-दाराः। जीर्यतेऽनेनेति-जारः। दारयन्तीति-दाराः। जरयतीति-जार इति कर्तरि केचिन्निपातयन्ति ।।१३४||
न्या० स०-न्यायावाया-केचिन्निपातयन्तीति-ननु जार इत्यस्य 'कगेवनूजनैजष्' ४-२-२५ इति हस्वत्वे दीर्घार्थं निपातः क्रियतां, दार इत्यस्य तु कि निपातनेन ? सत्यं. भयविवक्षायां दधातोर्घटादित्वात् दरयतीति यदा क्रियते तदापि दीर्घो भूयादित्येवमर्थं निपातः।
उदकोऽतोये ॥ ५. ३. १३५ ॥
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पाद - ३, सूत्र - १३६ - १३९ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः [ ३०३
उत्पूर्वादञ्चतेः पु'नाम्नि करणाssधारयोर्घञ्ञ निपात्यते, अतोये-तोय विषयश्चेत् धात्वर्थो न भवति, जलं चेत् तेन नोदच्यत इत्यर्थः ।
तैलोदङ्कः, घृतोदङ्कः । अतोय इति किम् ? उदकोदश्वनः । " व्यञ्जनात् घञ्” ( ५-३ - १३२ ) इति सिद्धे तोये प्रतिषेधार्थं वचनम् । रूपाविशेषाद् घोऽपि न भवति ॥ १३५ ॥ न्या० स००- उदङ्कोऽतोये - धोऽपि न भवतीति ननु 'पुन्नाम्नि घ' ५ -३ - १३० इत्यस्यापवादो घञ, तत उदकविषये घञ् निवृत्ती प्रत्यनीकाभावात् घेनैव भवितव्यमित्याहरूपाऽविशेषादिति
आनायो जालम् ॥ ५. ३. १३६ ॥
आङ् पूर्वान्नयतेः करणे पुं'नाम्नि घञ् निपात्यते, जालं चेत् वाच्यं भवति । आनयन्ति तेन आनायो मत्स्यानाम्, आनायो मृगाणाम् ।। १३६ ।।
खनो ड-डरेकेकवक-धं च ॥ ५. ३. १३७ ॥
खः पुनाम्नि करणाssधारयोर्ड डर इक इकवक घ घञ् च प्रत्यया भवन्ति । प्राखायत आखन्यते वाऽनेनास्मिन् वा आखः, श्राखरः, आखनिक:, आखनिकवक:, श्राखनः, आखानः ।।१३७।।
न्या० स०-स्वनो डडरे- अनुकार्यानुकरणयोः कथंचिद् भेदाद् धातुत्वाऽभावे इकिरितवां खन इत्यत्राऽभावः ।
इ कि शिव स्वरूपार्थे | ५. ३. १३८ ॥
धातोः स्वरूपेऽर्थे चाभिधेये 'इ कि शितव्' इत्येते प्रत्यया भवन्ति । भञ्जि:, क्रुधि:, । अर्थ-यजेरङ्गानि, भुजिः क्रियते, पचतिर्वर्तते ॥ १३८ ॥
न्या० स० इफिश्तित् केचिदेतान् प्रत्ययान् कर्त्तरि समानयन्ति स्वमते तु कर्तृ कर्मभाव इति विशेषाभावात् सामान्येन भवन्ति । भवते: सिज्लुपि' ४-३-१२ 'न कवते - र्यङ : ४-१-४७ इत्यादौ भावेऽपि सूत्रसामर्थ्यात् शब् न तु क्यः । पचतिर्वर्तते इति- बाहुलकाद भावेऽपि शव् घयाऽभावश्च ।
दुःस्वीषतः कृच्छाच्छार्थात् खलु ।। ५. ३. १३१ ।।
कृच्छ्र ं दुःखम्, श्रकृच्छ्र सुखम् कृच्छ्रार्थवृत्तेर्दुरः सामर्थ्यादकृच्छ्रार्थवृत्तिभ्यां स्वीषद्द्भ्यां पराद् धातोर्भाव- कर्मणोरर्थयोः खल् प्रत्ययो भवति । कृत्यादीनामपवादः ।
दुःखेन शय्यत इति - दुःशयम, सुखेन शय्यते इति - सुशयम्, ईषच्छ्यं भवता । दुःखेन क्रियते इति - दुष्करः । सुखेन क्रियते इति - सुकरः, ईषत्करः कटो भवता । दुष्करं सुकरम् ईषत्करं भवता । दुःस्वीषत इति किम् ? कृच्छ्रसाध्यः, सुखसाध्यः । कृच्छ्राकृच्छार्थादिति किम् ? ईषल्लभ्यं धनं कृपणात्, अल्पं लभ्यमित्यर्थः । खकार उत्तरत्र मागमार्थः ।
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३०४ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[ पाद- ३, सूत्र - १४० - १४१
लकार: 'खलर्थाश्च' इत्यत्र विशेषणार्थः । इह स्त्रीप्रत्ययात् प्रभृति असरूपविधेरभावात् स्पर्धे 'अल: स्त्रीखलना:, स्त्रियास्तु खलनौ' परत्वाद् भवतः । तत्र 'चयः, जयः, लव:' इत्यादावलोsवकाश:, 'कृतिः, हृतिः' इत्यादी स्त्रीप्रत्ययस्य, 'चितिः स्तुति:' इत्यादौ तूभयं प्राप्नोति, अलोऽविशेषेणाभिधानात् तत्र परत्वात् स्त्रीप्रत्ययो भवति । तथा 'दुर्भेदः, सुभेद:' इत्यादt खलोsवकाशः, अलस्तु पूर्व एव 'दुश्चयं सुचयम्, दुर्लवं सुलवम्' इत्यादौ तूभयप्राप्तौ परत्वात् खल् भवति । तथा 'इध्मव्रश्चनः, पलाशच्छेदन:' इत्यादावनस्यावकाशः, अलस्तु पूर्वक एव, 'पलाशशातनो विलवनः' इत्यादौ तूभयप्राप्तौ परत्वादनो भवति । एवं 'हृतिः, कृति' इत्यादौ स्त्रीप्रत्ययस्यावकाश: 'दुर्भेदः, सुभेद:' इत्यादौ खल: 'दुर्भेदा सुभेदा' इत्यादौ तूभयप्राप्तौ परत्वात् खल् भवति । तथा 'इध्मवचनः पलाशच्छेदनः ' इत्यादावनस्यावकाशः, कृतिरित्यादौ स्त्रीप्रत्ययस्थ, 'सक्तुधानी, तिलपिडनी' इत्यादौ तूभयप्राप्तौ परत्वादनडेव भवति ।। १३९ ॥ ॥
न्या० स० - दुःस्वीषतः परत्वादनो भवतीति- 'करणाधारे' ५ -३ - १२० इत्यनेन ।
च्व्यर्थे कर्त्राप्याद् भू-क्रूगः ॥ ५. ३. १४० ॥
कृच्छ्राऽकृच्छ्रार्थेभ्यो दुःस्वीषद्भ्यः पराभ्यां च्व्यर्थे वर्तमानाभ्यां कर्तृ - कर्मवाचिभ्यां शब्दाभ्यां पराभ्यां यथासंख्यं भू- कृग्भ्यां पर: खल् प्रत्ययो भवति । खानुबन्धबलात् कर्तृकर्मणोरेवानन्तर्यम् ।
दुःखेनानाढ्येनाssढ्य ेन भूयते दुराढ्यं भवं भवता, सुखेनाऽनाढ्यं नाऽऽढय ेन भूयते - स्वाढ्यं भवं भवता, ईषदाढ्यं भवं भवता । दुःखेनाऽनाढ्य आढ्यः क्रियते दुराढ्य - करो मैत्रो भवता, सुखेनानाढ्य आढ्यः क्रियते - स्वाढ्यं करश्चैत्रो भवता, ईषदाढ्य करश्चैत्रो भवता । सुखेनाsकटः कटः क्रियन्ते सुकटंकराणि वीरणानि । सुकरः कटो वीरणेरित्यत्र तु करणविवक्षा ।
च्यर्थे इति किम् ? दुराढ्य ेन भूयते, स्वाढ्य ेन भूयते, ईषदाढ्येन भूयते, आढ्य एव सन् कंचिद् विशेषमापद्यत इत्यर्थः ; एवं दुराढ्यः क्रियते इत्यादि, अभूतप्रादुर्भावेऽपि वा प्रकृते रविवक्षणात् च्व्यर्थो नास्ति ।। १४० ।।
न्या० स० - व्यर्थ कर्त्रा खानुबन्धबलादिति-मागमार्थं हि खानुबन्धः ततो यद्यत्र कर्तृ कर्म्मवाचिभ्यां परेभ्यो दुःस्वीषद्भ्यः पराभ्यामिति विपरीतो विशेषणविशेष्यभावः क्रियेत तदा कर्तृकर्म्मवाचिभ्यां दुरादिभिर्व्यवधानात् मोन्तो न स्यात्, दुःस्वीषद्भ्यस्तु अव्ययत्वात् मागमाऽप्राप्तिरिति ।
दुरायेन भूयते इति - आढ्येन सता दुःखेन भूयते इत्यर्थः । प्रकृतेरविवक्षणादिति - अनाव्य इत्येवंरूपायाः ।
शासू-युधि - दृशि वृषि- मृषातोऽनः ।। ५. ३. १४१ ॥
कृच्छ्राकृछ्रार्थदुःस्वीषत्पूर्वेभ्यः शासूप्रभृतिभ्य आकारान्तेभ्यश्च धातुभ्यो भावकर्मणोरर्थयोरनः प्रत्ययो भवति ।
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पाद-३, सूत्र-१४१ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ ३०५
दुःखेन शिष्यते-दुःशासनः, सुखेन शिष्यते-सुशासनः, ईषच्छासनः । एवं-दुर्योधनः, दुर्दर्शनः, दुर्धर्षणः, दुर्मर्षणः । प्रादन्त-दुरुत्थानं भवता, सुत्थानम्, ईषत्थानम् ।। पयो भवता, सुपानम् , ईषत्पानम् । प्रादन्तजितेभ्यः केचिद् विकल्पमिच्छन्ति, तन्मते'दुःशासः, दुर्योधः, दुर्दर्शः, दुर्धर्षः, दुर्मर्षः' इत्याद्यपि भवति । दुर्दशो हि राजा कार्याकार्यविपर्यासमासन्नैः कार्यते । कथम् ईषद्दरिद्रः ? विषयेऽप्याकारस्य लोपेनादन्तत्वाभावात खलेव । खलोऽपवादो योगः ॥१४१॥ ।
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तौ पश्चमाध्यायस्य तृतीयः पादः ।
मात्रयाप्यधिक किचिन्न सहन्ते जिगीषवः।
इतीव त्वं धरानाथ ! धारानाथमपाकृथाः ॥१॥ न्या सह-शास्युधि-अनुपसर्गयुध्यादि-साहचर्यान्न आङ: शास इति । दुर्योधन इति-दु खेन युध्यते अन्तर्भूतण्यर्थः सूत्रे शास इति निरनुबन्धता यङ लोपेऽपि दुःशासन इति प्रयोगार्था ।
दुईझे हि राजेति-'ह्रक्रोर्नवा' २-२-८ इति राजन्नित्यस्य वा कर्मता !
इषदरिद्र इति-ननु धातोरकर्मकत्वाद्भावे प्रत्यये कथमत्र पुंस्त्वं दुराख्य भवमित्यादिवन्नपुंसकत्वप्राप्ति: ? सत्यं,-अत्र 'कालाध्व' २-२-२३ इत्यनेन मासादेः कर्मत्वे कर्मणि खल , न तु भावे ततो यत्र मासादौ दरिद्रैर्भयते स ईषद्दरिद्र उच्यते । विषयेऽपीतिअस्याऽनप्रत्ययस्य विषये इत्यर्थः।
___ इत्याचार्यश्री सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञ-शब्दानुशासनबृहद्वृत्तेः पञ्चमाध्यायस्य न्यासतः तृतीयः पादः समाप्तः।
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॥ अहम् ।। अथ पञ्चमाध्याय चतुर्थः पादः
सत्सामीप्ये सद्ध वा ॥ ५. ४. १॥
समीपमेव सामीप्यम्, सतो-वर्तमानस्य सामीप्ये- भूते भविष्यति चार्थे वर्तमानाद् धातोः सद्वद-वर्तमानवत् प्रत्यया वा भवन्ति । "सति" (५-२-१६) इति सूत्रादारभ्याऽऽपादपरिसमाप्तेविहिताः प्रत्यया भतभविष्यतोर्वा अतिविश्यन्ते ।
कदा चैत्रागतोऽसि ? अयमागच्छामि, आगच्छन्तमेव मां विद्धि । वावचनाद् यथाप्राप्तं च-प्रयमागमम, एषोऽस्म्यागतः। कदा मैत्र! गमिस्यसि ? एष गच्छामि, गच्छन्तमेव मां विद्धि, पक्षेएष गमिस्यामि, गन्ताऽस्मि, गमिष्यन्तमेव मां विद्धि । वत्करणस्य सादृश्यार्थत्वात् येनैव प्रकृत्युपपदोपाध्यादिना विशेषेण वर्तमाने विहितास्तेनैव विशेषेण भूत-भविष्यतोरपि भवन्ति-कदा भवान् सोमं पूतवान् पविष्यते वा? एषोऽस्मि पवमानः । कदा भावनिष्टवान् यक्ष्यते वा? एषोऽस्मि यजमानः । कटा भवान् कन्यामलंकृतवान् करिष्यते वा ? एषोऽस्म्यलंकरिष्णुरिति । सामोप्य इति किम् ? परदगच्छत्, वर्षण गमिष्यति ।।१।।
न्या० स०-सत्सामीप्ये-अतिदिश्यन्त इति-अतिक्रम्य निजं कालं दिश्यन्त इत्यर्थः। नन सत्सामीप्ये सति वेत्येतावदेव क्रियतां वर्तमाने ये प्रत्ययास्ते सत्सामीप्ये वा भवन्तीति सूत्रार्थे साध्य सिद्धिर्भविष्यति किं वत्करणेन ? इत्याह वत्करणस्येति-उपाध्यादिनेतिआदिशब्दात् कर्तृ विशेषेणापि। पवमान: यजमान इत्यत्र प्रकृतिविशेषः, अलंकरिष्णुरित्यत्र तु उपपदविशेषः शीलाद्युपाधिविशेषश्च ।
भूतवच्चाऽऽशंस्ये वा॥ ५.४.२॥
अनागतस्य प्रियस्यार्थस्याशंसनं प्राप्तुमिच्छा-प्राशंसा, तद्विषय प्राशंस्यः, तस्मिन्नर्थ वर्तमानाद् धातोभूतवच्चकारात् सद्वच्च प्रत्यया वा भवन्ति । आशंस्यस्य भविष्यत्वादयमतिदेशः । वाग्रहणाद् यथाप्राप्तं च।
उपाध्यायश्चेदागमत् , एते तर्कमध्यगीष्महि; उपाध्यायश्चेदागत:, एतैस्तर्कोऽ. धीतः: उपाध्यायश्चेदागच्छति, एते तर्कमधीमहे । पक्षे-उपाध्यायश्चेदागमिष्यति, एते तर्कमध्येष्यामहे; उपाध्यायश्चेदागन्ता, एते तर्कमध्येतास्महे । सामान्यस्यातिदेशे विशेषस्थानतिदेशात शस्तनो-परोक्षेन भवत: । आशंस्य इति किम? उपाध्याय आगमिष्यति तर्कमध्येष्यते मैत्रः ॥२॥
न्या० स०-भूतवच्च-आगमदित्यत्र अध्यगीष्महीत्यत्र चाऽनेनैव भूतप्रत्यय: उभयत्रप्याशंस्यस्य विद्यमानत्वात् ।
विशेषस्यानतिदेशादिति-एतच्च व्याख्यानतो विशेष प्रतिपत्तिरिति न्यायात् ।
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पाद-४, सूत्र-३-५ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ ३०७
क्षिप्राऽऽशंसार्थयोर्भविष्यन्ती-सप्तम्यौ ।। ५. ४.३॥
क्षिप्रार्थ आशंसार्थे चोपपदे आशंस्येऽर्थे वर्तमानाद् धातोर्यथासंख्यं भविष्यन्तीसप्तम्यौ विभक्ती भवतः। भूतवच्चेत्यस्यापवादः।
उपाध्यायश्चेदागच्छति आगमत् आगमिष्यति आगन्ता, क्षिप्रमाशु त्वरितमरं शोघ्रमेते सिद्धान्तमध्येष्यामहे । क्षिप्रार्थे नेति वक्तव्ये भविष्यन्तीवचनं श्वस्तनीविषयेऽपि भविष्यन्ती यथा स्यादित्येवमर्थम । उपाध्यायश्चेच्छवः शीघ्रमागमिष्यति, एते श्वः क्षिप्रमध्येष्यामहे । आशंसाथै खल्वपि-उपाध्यायश्चेदागच्छति आगमत् आगमिष्यति प्रागन्ता वा, आशंसेऽवकल्पये संभावये युक्तोऽधीयीय । द्वयोरुपपदयो: सप्तम्येव भवति शब्दतः परत्वात-प्राशंसे क्षिप्रमधीयीय ॥३॥
न्या० स०-क्षिप्राशंसा-भूतवच्चेत्यस्यापवाद इति-अथ क्षिप्रार्थे आशंसार्थे च उपपदे आशंस्ये एवार्थे वत्तमानाद् घातोर्भविष्यन्तीसप्तम्यौ विधीयेते तत्राशंस्यस्य भविष्यत्त्वात् सिद्धैव 'विधिनिमन्त्रणा' ५-४-२८ इति सप्तम्यपि प्रार्थनारूपत्वात् किमर्थमिदमुच्यते ? इत्याह-भूतवच्चेत्यादि-क्षिप्रार्थे न इतीति-ननु क्षिप्रार्थे न इति आशंसार्थे सप्तमी इति च पृथकसूत्रद्वयं क्रियतां किं क्षिप्रार्थे भविष्यन्ती विधानेन ? एवमपि कृते भविष्यन्ती सेत्स्यति, तथाहि-भूत वच्चेत्यनेन सामान्यभणनात् क्षिप्रार्थेऽक्षिप्रार्थे चोपपदे भूतवत्सद्वच्च प्राप्तानां प्रत्ययानां क्षिप्रार्थ नेत्यनेन निषेधे कृते पारिशेष्यात् स्वयमेव भविष्यन्ती भविष्यति कि तद्ग्रहणेनेत्याह-श्वस्तनीविषयेऽपीति-असति हि भविष्यन्तीग्रहणे यथा प्राप्तस्य भविष्यतप्रत्ययस्य प्रत्यज्जीवनं भवति । भविष्यतप्रत्ययश्च भविष्यदऽद्यतने भविष्यन्ती भविष्यदनद्यतने तु श्वस्तनी प्राप्नुयात्, इदानीं पुनर्भविष्यत्य द्यतनेऽनद्यतने च क्षिप्रार्थे उपपदे भविष्यन्त्येव न तु श्वस्तनी। द्वयोरुपपदयोरिति-क्षिप्राशंसार्थयोयुगपत् प्रयोगे क्षिप्रार्थोपपदनिबन्धना भविष्यन्ती आशंसार्थनिबन्धना सप्तमी वा भवतीत्याह-शब्दतः परत्वादिति ।
संभावने सिद्धवत् ॥ ५. ४. ४ ॥
हेतोः शक्तिश्रद्धानं-संभावनम्, तस्मिन् विषयेऽसिद्धेऽपि वस्तुनि सिद्ध्वत् प्रत्यया भवन्ति ।
समये चेत प्रयत्नोऽभूव, उदभूवन विभूतयः । इषे चेन्माधवोऽवर्षोत, समपत्सत शालयः॥ जातश्चायं मुखेन्दुश्चेत्, भृकुटिप्रणयी पुनः ।
गतं च वसुदेवस्य, कुलं नामावशेषताम् ॥४॥ न्या० स०-संभावने-जातश्चायं गतं चेति-अजनि, जायते स्म, अगमत् , गच्छति स्मेति वाक्यं कार्य न तु गमिष्यति जनिष्यत इति तत्राप्यस्य सूत्रस्य प्रवर्तनात् ।
नाऽनद्यतनः प्रबन्धाऽऽसत्त्योः ॥ ५. ४. ५ ॥
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३०८ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-६
प्रबन्धः सातत्यम्, आसत्तिः सामीप्यम्, तच्च कालतः, सजातीयेन कालेनाव्यवहितकालतेति यावत् । धात्वर्थस्य प्रबन्धे आसत्तौ च गम्यमानायां धातोरनद्यतनविहितः प्रत्ययो न भवति। भूतानद्यतने मस्तनो भविष्यदनद्यतने च श्वस्तनी विहिता तयोः प्रतिषेधः।
यावज्जोवं भृशमन्नमदात, यावज्जीवं भृशमन्नं दत्तवान्, यावज्जीवं भृशमन्नं दास्यति; यावज्जीवं युक्तोऽध्यापिपत्, यावज्जीवं युक्तोऽध्यापयिष्यति । आसत्तौ खल्वपियेयं पौर्णमास्यतिक्रान्ता एतस्यां जिनमहः प्रावतिष्ट, प्रवृत्तः । येयं पौर्णमास्यागामिनी प्रस्यां जिनमहः प्रतिष्यते। द्वौ प्रतिषेधौ यथाप्राप्तस्याभ्यनुज्ञानाय । केचित् तु-अनद्यतनविशेषविहितानामपि परोक्षादीनां प्रतिषेधमिच्छन्ति ।।५।।
न्या० स०-नानद्यतन:-न अद्यतनोऽनद्यतन इति कार्य, न तु न विद्यतेऽद्यतनो यत्रेति, यतो बहुव्रीहेयापकत्वात् परोक्षाया अपि निषेध: स्यात् , तत्राप्यद्यतनो नास्तीति कृत्वा । नञ्तत्पुरुषे तु सामान्येन कृते विशेषो नान्तर्भवति, सामान्यमध्ये विशेषाध्योगात् । तयोः प्रतिषेध इति-* सामान्यातिदेशे विशेषानतिदेश इति न्यायात सामान्यानद्यतनस्यैव प्रतिषेधो न विशेषानद्यतनस्य, तेन परोक्षाया न प्रतिषेधः ।
यावज्जीवमिति-यावन्तं कालं जीव्यते भावे 'यावतो विन्दजीव:' ५-४-५५ यावच्छब्दात् 'कालाध्वनो' २-२-४२ 'कालाध्व' २-२-२३ इति वा द्वितोया यावज्जीवं शब्दात्तु प्रथमासिः, यावज्जीवं यावद्वर्त्तते तावद्ददातीत्यर्थः ।
यथाप्राप्तस्याभ्यनुज्ञानायेति- द्वौ नौ प्रकृतार्थ गमयत * इति न्यायात् । ननु प्रबन्धासत्त्योरिति विधिसूत्रं कर्त्तव्यं विधिप्रतिषेधसंभवे हि विधेरेव ज्यायस्त्वात् , एवमपि ते अद्यतनी भविष्यन्ती सेत्स्यत:? नैवं, अद्यभवोऽद्यतनः, अनया व्युत्पत्त्या वत. मानापि स्यात् ।
प्रतिषेधमिच्छन्तीति-स्वमते तु सामान्यातिदेशे विशेषस्यानतिदेशात परोक्षादीनां न निषेधः, एवं च भूतानद्यतने अद्यतनीक्तप्रत्यययोविधिर्भविष्यदनद्यतने च भविष्यत्या एव ।
एष्यत्यवधौ देशस्यार्वाग्भागे ॥ ५. ४. ६ ।।
देशस्य योऽवधिस्तद्वाचिन्युपपदे देशस्यैवार्वाग्भागे य एष्यन्नर्थस्तत्र वर्तमानाद् धातोरनद्यतनविहितः प्रत्ययो न भवति । अप्रबन्धार्थमनासत्त्यर्थं च वचनम् । यद्यप्यनद्यतन इति प्रकृतं तथापीहैष्यतीति वचनात श्वस्तन्या एव निषेधः ।
योऽयमध्वा गन्तव्य आ शत्रजयात तस्य यदवरं वलभ्यास्तत्र द्विरोदनं भोक्ष्यामहे, द्विः सक्तून् पास्यामः । योऽयमध्वा गन्तव्य आ पाटलिपुत्रात तस्य यदवरमधं (कौशाम्ब्याः) तत्रोदनं भोक्ष्यामहे । एष्यतीति किम् ? योऽयमध्वातिकान्त आ शत्रुञ्जयात् तस्य यदवरं वलभ्यास्तत्र युक्ता द्विरध्यैमहि, द्विः सक्तूनपिबाम।।
अवधाविति किम् ? योऽयमध्वा निरवधिको गन्तव्यस्तस्य यदवरं वलभ्यास्तत्र
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पाद-४, सूत्र-७-८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[३०९
द्विरोदनं भोक्तास्महे, द्विः सक्तून् पातास्मः। प्रर्वाग्भाग इति किम् ? योऽयमध्वा गन्तव्य आ शत्रुजयात् तस्य यत् परं वलभ्यास्तत्र द्विरोदनं भोक्तास्महे, द्विः सक्तून् पातास्मः ।।६।
न्या० स०-एष्यत्यव-अत्र सूत्रे देश: प्रदेशमात्रं तेनाऽध्वनोऽपि देशता 'कालाध्वभाव' २-२-२३ इत्यत्र तु देशो राष्ट्रादिः, अत एव तत्र देशे सत्यपि अध्वग्रहणम् ।
कालस्याऽनहोरात्राणाम् ॥ ५. ४.७॥
कालस्य योऽवधिस्तद्वाचिन्युपपदे कालस्यैवाग्भिागे य एष्यन्नर्थस्तत्र वर्तमानाद् धातोरनद्यतनविहित: प्रत्ययो न भवति । अनहोरात्राणां-न चेत् सोऽर्वाग्भागोहोरात्राणां संबन्धी भवति?
योऽयमागामी संवत्सरस्तस्य यदवरम् आग्रहायप्यास्तत्र जिनपूजां करिष्यामोऽतिथिभ्यो दानं दास्यामहे । एष्यतीत्येव-योऽयं संवत्सरोऽतीतस्तत्र यदवरमाग्रहायण्यास्तत्र युक्ता द्विरध्यमहि । अवधावित्येव-योऽयमागामी निरवधिक: कालस्तत्र यदवरमाग्रहायण्यास्तत्र युक्ता अध्येतास्महे। प्रर्वाग्भाग इत्येव-परस्मिन् विभाषा वक्ष्यते । अनहोरात्राणामिति किम् ? योऽयं मास आगामी तस्य योऽवरः पञ्चदशरात्रश्तत्र युक्ता द्विरध्येतास्महे, योऽयं त्रिशदात्र आगामी तस्य योऽवरोऽर्धमासस्तत्र द्विरोदनं भोक्तास्महे । योऽयं त्रिंशद्रात्र आगामी तस्य योऽवरः पञ्चदशरात्रस्तत्र द्विः सक्तून् पातास्म इति त्रिविधेऽप्यहोरात्रसंबन्धे मा भूत् । योगविभाग उतरार्थः । बहुवचनं कालस्येति सामानाधिकरण्यभ्रमनिरासार्थम् ॥७॥ .
न्या० स०-कालस्यान-प्राग्रहायण्या इति-अग्रं हायनस्य 'द्वित्रिचतुष्पुरण' ३-१-५६ इति समासः, 'पूर्वपदस्था' २-३-६४ इति णत्वम्, ततः स्वार्थे अण् ङीः । अनहोरात्राणामिति किमिति-यत्राहः शब्दो रात्रिशब्दो.वा प्रयुज्यते तत्राहोरात्रत्वम् । पञ्चदशरात्र इतिअत्र कालसंबन्धी तादात्म्येनाऽहोरात्ररूपोऽर्वाग्भागः। योऽवरोऽर्धमास इति-अत्र कालोऽहोरात्ररूपस्तस्य संबन्धी अवयवावयविभावेनाऽर्वाग्भागः।
पञ्चदशरात्र इति-अत्र कालोऽर्वागभागश्चाहोरात्ररूपः । सामानाधिकरण्यभ्रमनिरासार्थमिति कालस्य किंभूतस्याऽनहोरात्रस्येत्येवं सामानाधिकरण्यं निषिध्यते, कालसामानाधिकरण्ये हि व्यावृत्तिप्रथमोदाहरणेऽपि सूत्रप्रवृत्तौ श्वस्तनीनिषेधः स्यात्, अत्रापि कालस्यानहोरात्ररूपत्वात् , वैयधिकरण्ये तु त्रिमकारेऽपि कालसंबन्धे व्यावृत्तिर्भवति ।
परे वा ॥ ५. ४.८॥
कालस्य योऽवधिस्तद्वाचिन्युपपदे कालस्यैव परस्मिन् भागेऽनहोरात्रसंबन्धिनि य एष्यन्नर्थस्तत्र वर्तमानात् धातोरनद्यतनविहितः प्रत्ययो वा न भवति ।
आगामिनः संवत्सरस्याग्रहायण्याः परस्ताव द्विः सूत्रमध्येष्यामहे, अध्येतास्महे वा। प्रबन्धासत्तिविवक्षायामपि परत्वादयमेब विकल्प:-प्रागामिनः संवत्सरस्याग्रहायण्या: परस्तादविच्छिन्नं सूत्रमध्येष्यामहे, अध्येतास्महे वा। कालस्येत्येव-प्रा शत्रुञ्जयाद् गन्तव्ये:
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३१० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
. [ पाद-४, सूत्र-९-११
स्मिन्नध्वनि वलभ्याः परस्तात द्विरोदनं भोक्तास्महे । प्रबन्धासत्योस्तु नित्यं भविष्यन्ती-आ शत्रुञ्जयाद् गन्तव्येऽस्मिन्नध्वनि वलभ्याः परस्तादविच्छिन्नं सूत्रमध्येष्यामहे ।
पर इति किम् ? अर्वाग्भागे पूर्वेण नित्यं प्रतिषेधः । एष्यतीत्येव ? अतीते वत्सरे परस्तादाग्रहायण्याः सूत्रं युक्ता अध्यैमहि । अवधावित्येव ? योऽयमागामी निरवधिकः कालस्तस्य यत् परमाग्रहायण्यास्तत्र द्विरध्येतास्महे । अनहोरात्राणामित्येव ? योऽयं त्रिशद्रात्र आगामी तस्य यः परः पञ्चदशरात्रस्तत्र युक्ता प्रध्येतास्महे ।।८।। .
न्या० स०-परे वा-अयमेव विकल्प इति-न तु 'नानद्यतन' ५-४-५ इति नित्यं निषेधः । नित्यं भविष्यन्तीति-'नानद्यतन' ५-४-५ इति श्वस्तन्या निषेधात् ।
सप्तम्यर्थे क्रियातिपत्तो क्रियातिपत्तिः॥ ५. ४. १ ॥
सप्तम्या अर्थो निमित्तं हेतु-फलकथनादिका सामग्री । कुतश्चिद् वैगुण्यात क्रियाया अतिपतनमनभिनिर्वृत्तिः-क्रियातिपत्तिः, तस्यां सत्यामेष्यत्यर्थे वर्तमानाद् धातोः सप्तम्यर्थे क्रियातिपतिविभक्तिर्भवति ।
दक्षिणेन चेदयास्यन्न शकटं पर्याभविष्यत् , यदि कमलकमावास्यन्न शकटं पर्याभविष्यत्, अत्र दक्षिणगमनं कमलका ह्वानं च हेतुरपर्याभवनं फलम्, तयोः कुतश्चित् प्रमाणाद् . भविष्यन्तीमनभिनिवृत्तिमवगम्यैवं प्रयुङ्क्ते । एवमभोक्ष्यत भवान् घृतेन यदि मत्समीपमागमिष्यत्, स यदि गुरूनुपासिष्यत शास्त्रान्तमगमिष्यत् ॥९॥
भूते ।। ५. ४.१०॥
भूतेऽर्थे वर्तमानाद् धातोः क्रियातिपत्तौ सत्यां सप्तम्यर्थे क्रियातिपत्तिविभक्तिभवति । “सप्तम्युताऽप्यो ढे" ( ५-४-२१ ) इत्यारभ्य सप्तम्यर्थेऽनेन विधानम् , ततः प्राक् "वोतात् प्राक्" (५-४-११) इति विकल्पो वक्ष्यते।
दृष्टो मया भवतः पुत्रोऽन्नार्थी चंक्रम्यमाणः; अपराश्चातिथ्यर्थी, यदि स तेन दृष्टोऽभविष्यत् उताभोक्ष्यत अप्यभोक्ष्यत, न तु दृष्टोऽन्येन पथा गत इति न भुक्तवान् ।।१०
न्या० स०-भूते-दृष्टोऽभविष्यदिति-अत्राश्रद्धाया गम्यमानत्वात् 'जातुयद्यदा' ५-४-१७ इति सप्तमीनिमित्तत्वम् ।
उताभोक्ष्यतेति-'सप्तम्युताप्यो ढे' ५-४-२१ इति सप्तम्यर्थः । वोतात् प्राक् ॥ ५, ४, ११ ।।
"सप्तम्यूताऽप्योढेि" (५-४-२१) इत्यत्र यद् उतशब्दसंकीर्तनं ततः प्राक सप्तमीनिमित्त क्रियातिपत्तौ सत्यां भूतेऽर्थे वर्तमानाद् धातोर्वा क्रियातिपत्तिर्भवति ।
कथं नाम संयतः सन्ननागाढे तत्रभवान् प्राधायकृतमसेविष्यत, धिग् गमिहे ।
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पाद-४, सूत्र-१२-१४ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[३११
वावचनाद् यथाप्राप्तं च-कथं सेवते, धिग् गर्हामहे । उतात् प्रागिति किम् ? कालो यदभोक्ष्यत भवान् । भूत इत्येव ? ए यति नित्यमेव ।।११॥
___ न्या० स०-वोतात् प्राक्-प्राधायकृतमिति-'अव्ययं प्रवृद्धादिभिः' ३-१-४८ इति सः । असे विष्यतेति--'कथमि सप्तमी च वा' ५-४-१३ इति सप्तम्यर्थः । यदभोक्ष्यतेति-अत्र सप्तमी यदि' ५-४-३४ इति सप्तम्यर्थता ततो भूते क्रियातिपत्तिः ।
क्षेपेऽपि-जात्वोर्वर्तमाना ॥ ५. ४. १२ ॥
भूत इति निवृत्तम्, क्षेपो-गर्हा, तस्मिन् गम्यमानेऽपि-जात्वोरुपपदयोर्धातोर्वर्तमाना विभक्तिर्भवति । कालसामान्ये विधानात् कालविशेषे विहिता अपि प्रत्ययाः परत्वादनेन बाध्यन्ते।
. अपि तत्रभवान् जन्तून् हिनस्ति, जातु तत्रभवान् भूतानि हिनस्ति, अपि संयतः सन्ननागाढे तत्रभवानाधायकृतं सेवते, धिग् गहमिहे । इह सप्तमीनिमित्ताभावात् क्रियातिपतने क्रियातिपत्ति!दाह्रियते ।।१२।।
न्या० स०-क्षेपेऽपिजा-भूत इति निवृत्तमिति-क्रियातिपत्तिसंबद्धत्वात् भूतस्य । - कथमि सप्तमी च वा ।। ५.४, १३ ॥
कथंशब्दे उपपदे क्षेपे गम्यमाने धातोः सर्वेषु कालेषु सप्तमी चकाराद् वर्तमाना च विभक्ती वा भवतः । वावचनाद् यथाप्राप्तं च ।।
कथं नाम तत्रभवान् मांस भक्षयेत् , मांस भक्षयति, धिग् गमिहे, अन्याय्यमेतत् । पक्षे-अबभक्षत् , अभक्षयत् , भक्षयांचकार, भक्षयिता, भक्षयिष्यति । अत्र सप्तमीनिमित्तमस्तीति भूते क्रियातिपतने वा क्रियातिपत्तिर्भवति-कथं नाम तत्रभवान् मांसमभक्षयिष्यत, भक्षयेत् , भक्षयति, अबभक्षत् , अभक्षयत् , भक्षयांचकार । भविष्यति तु क्रियातिपतने नित्यमेव क्रियातिपत्तिः-कथं नाम तत्रभवान् मांसमभक्षयिष्यत् , न तु वर्तमाना-सप्तमीभविष्यन्तीश्वस्तन्यः । क्षेप इत्येव ? कथं नाम तत्रभवान् साधूनपूपुजत् , एवं-यथाप्राप्ति वर्तमानादयो भवन्ति ।।१३।।।
किंवृत्ते सप्तमी-भविष्यन्त्यौ ॥ ५. ४. १४॥ किंवृत्ते उपपदे क्षेपे गम्यमाने धातोः सप्तमी-भविष्यन्त्यौ भवतः, सर्वविभक्त्य
पवादः।
किं तत्रभवाननृतं ब्रूयात् , कि तत्रभवान् अनृतं वक्ष्यति, को नाम कतरो नाम कतमो नाम यस्मै तत्रभवानन्तं ब्रयात् , अन्तं वक्ष्यति । अत्रापि सप्तमीनिमित्तमस्तीति भूते क्रियातिपतने वा क्रियातिपत्तिः-किं तत्रभवाननृतमवक्ष्यत् , पक्ष-ब्रू यात् वक्ष्यति च । भविष्यति तु नित्यम्-तत्रभवाननृतमवक्ष्यत् । क्षेप इत्येव ? किं तत्रभवान् देवानपूपुजदित्यादि ।।१४।।
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३१२ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-१५-१६
अश्रद्धाऽमर्षेऽन्यत्रापि ॥ ५. ४. १५ ॥
क्षेप इति निवृत्तम् , प्रश्रद्धा-असंभावना, अमर्षोऽक्षमा, अन्यत्र-अकिंवृत्ते, अपिशब्दात किंवृत्ते चोपपदेऽश्रद्धाऽ-मर्षयोर्गम्यमानयोर्धातोः सप्तमी-भविष्यन्त्यौ भवतः । सर्वविभक्त्यपवादः, वचनभेदाद् यथासंख्यं नास्ति ।
अश्रद्धायाम-न श्रद्दधे, न संभावयामि नावकल्पयामि तत्रभवान् नामाऽदत्तं गृह्णीयात , ग्रहीष्यति । किंवृत्तेऽपि-न श्रद्दधे न संभावयामि नावकल्पयामि किं तत्रभवान् नामाऽदत्तमाददीत, अदत्तमादास्यते । अमर्षे-न मर्षयामि न क्षमे, धिग मिथ्या, नैतदस्ति, तत्रभवान् नामाऽदत्तं गृह्णीयात् , अदत्तं ग्रहीष्यति । किवृत्तेऽपि-न मर्षयामि न क्षमे, धिग मिथ्या, नेतदस्ति, कि तत्रभवानदत्तं गडीयात . अदत्तं ग्रहोष्यति । अत्रापि सप्तमीनिमित्त मस्तीति भूते क्रियातिपतने वा क्रियातिपत्तिर्भवति-न श्रद्दधे न मर्षयामि तत्रभवानदत्तमग्रहीष्यत् , पक्षे-गृह्णीयात् ग्रहीष्यति च । भविष्यति तु नित्यम्-न श्रद्दधे न मर्षयामि तत्रभवानदत्तमग्रहीष्यत् । अन्यत्रापीति किम् ? यदाऽर्थात् प्रकरणाद् वाऽश्रद्धाऽमर्षयोर्गम्य. मानत्वात् तद्वाचकेनाप्युपपदेन धातोर्न योगस्तदा मा भूत् ।।१५।।
न्या० स०-अश्रद्धामर्षे:-अन्यत्रापीति अपिशब्दसमुच्चितेन किंवृत्तेन द्वित्वात् अश्रद्धामर्षाभ्यां सहात्र सूत्रे यथासंख्यं न, 'राष्ट्रक्षत्रियात्' ३-१-११४ इति सूत्रेऽपत्याधिकारे सति राज्यपीति कर्तव्ये अपत्यग्रहणात् , अन्यथा अपिशब्दसमुच्चितेनाधिकृतेनाऽ. पत्येन सिद्धत्वादपत्यग्रहणं व्यर्थं स्यात् ।
अन्यत्रापीति किमिति-पूर्वसूत्रात् किंवृत्तानुवृत्त्यभावात् किंवृत्तेऽकिंवृत्ते च भवि. ष्यति, किमन्यत्रापीत्यनेनेत्याशङ्का ? तद्वाचकेनापीति-यथा किवृत्तेऽकिंवृत्ते च विभक्ती स्तो न तथाऽश्रद्धामर्षयोर्गम्यमानयोः किन्तु पदैः प्रयुज्यमानयोरेव एतच्चास्मिन्नेव सूत्रे ज्ञातव्यं नोत्तरत्र यतः 'शेषे भविष्यन्त्ययदौ' ५-४-२० इत्यत्र आश्चर्य, यदि स भुजीत चित्रं यदि सोऽधीयोत, अत्राऽश्रद्धाप्यस्तोति कथयिष्यति ।
किंकिलाऽस्त्यर्थयोर्भविष्यन्ती ॥ ५. ४. १६ ॥
किकिलेति समुदायशब्देऽस्त्यर्थे च शब्दे उपपदेऽश्रद्धाऽमर्षयोर्गम्यमानयोर्धातोर्भविष्यन्ती भवति । सप्तम्यपवादः । वचनभेदादश्रद्धामर्ष इति यथासंख्यं नास्ति ।
न श्रद्दधे न मर्षयामि, किंकिल नाम तत्रभवान् परदारानुपकरिष्यते, "गन्धना.' (३-३-७६) इति सूत्रेण साहसे आत्मनेपदम् । अस्त्यर्था अस्ति-भवति-विद्यतयः। न श्रद्दधे न मर्षयामि अस्ति नाम, भवति नाम, विद्यते नाम तत्रभवान् परदारानुपकरिष्यते । अत्र सप्तमीनिमित्तं नास्तीति क्रियातिपतने क्रियातिपत्तिर्न भवति ॥१६॥
न्या० स०-किकिला-सप्तम्यपवाद इति-अश्रद्धामर्षे इति प्राप्तायाः, किलशब्द प्रसिद्धिद्योतने वाक्यालंकारे अमर्षद्योतने कोमलामन्त्रणे, एवं किंकिलशब्दोऽपि ।
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पाद - ४, सूत्र - १७ - २०
श्री सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः [ ३१३
जातु यद- यदा यदौ सप्तमी ॥ ५.४ १७ ॥
'जातु यद् यदा यदि' इत्येतेषूपपदेषु अश्रद्धाऽमर्षयोर्गम्यमानयोर्धातोः सप्तमी भवति । भविष्यन्त्यपवाद: ।
न श्रद्दधे न क्षमे - जातु तत्रभवान् सुरां पिबेत्, यत् तत्रभवान् सुरां पिबेत्, यदा तत्रभवान् सुरां पिबेत्, यदि तत्रभवान् सुरां पिबेत् । श्रत्र सप्तमीनिमित्तमस्तीति भूते क्रियातिपतने वा क्रियातिपत्तिः न श्रद्दधे न क्षमे जातु तत्रभवान् सुरामपास्यत्, पक्षे- पिबेत् । भविष्यति तु नित्यम् जातु तत्रभवान् सुरामपास्यत् ||१७||
न्या० स० - जातु यद्यदा- भविष्यन्त्यपवाद इति - ' अश्रद्धामर्षे' ५-४-१५ इति प्राप्तायाः ।
क्षेपे च यच्च यत्रे ॥ ५. ४.१८ ॥
यच्च यत्रशब्दयोरुपपदयोः क्षेपेऽश्रद्धाऽमर्षयोश्च गम्यमानयोर्धातोः सप्तमी भवति । अश्रद्धाऽमर्षयोभविष्यन्त्याः, क्षेपे तु सर्वविभक्तीनामपवादः ।
धिग् गर्हाम हे - यच्च तत्रभवानस्मानाक्रोशेत्, यत्र तत्रभवानस्मानाक्रोशेत्, न श्रद्धे न क्षमे यच्च तत्रभवान् परिवादं कथयेत्, यत्र तत्रभवान् परिवादं कथयेत् । अत्रापि सप्तमीनिमित्तमस्तीति भूते क्रियातिपतने वा क्रियातिपत्तिर्भवति धिग् गर्हामहे न श्रद्दधे न क्षमे - यच्च यत्र वा तत्रभवानस्मानाक्रोक्ष्यत्, पक्षे- आक्रोशेत् । भविष्यति तु नित्यम्-धिग् गर्हाम, न श्रद्दधे क्षमे यच्च यत्र वा तत्रभवान् परिवादकथयिष्यत् ||१८||
चित्रे ॥ ५. ४. ११ ॥
चित्रमाश्वर्यम्, तस्मिन् गम्यमाने यच्च यत्रयोरुपपदयोर्धातोः सप्तमी भवति । सर्वविभक्त्यपवाद: ।
चित्रमाश्वर्यमद्भुतं विस्मनीयं यच्च तत्रभवानकल्प्यं सेवेत, यत्र तत्रभवानकल्प्यं सेवेत । अत्रापि सप्तमीनिमित्तमस्तीति भूते क्रियातिपतने वा क्रियातिपत्तिर्भवति-चित्रं यच्च यत्र वा तत्र भवानकल्प्यमसेविष्यत्, पक्षे सेवेत । भविष्यति तु नित्यम् - चित्रं वा यच्च वा तत्रभवान कल्प्यम से विष्यत ||१९||
न्या० स० - चित्रे - सर्वविभक्त्यपवाद इति कालस्याऽनिद्देशात् त्रिष्वपि कालेष्वस्य प्रवर्त्तनात् ।
शेषे भविष्यत्ययौ ।। ५. ४, २० ॥
शेले शेषे यच्च यत्राभ्यामन्यस्मिन्नुपपदे चित्रे गम्यमाने धातोर्भविष्यन्ती विभक्तिर्भवति, प्रयदौ-यदिशब्दश्चेन्न प्रयुज्यते । सर्वविभक्त्यपवादः ।
चित्रमाश्चर्यमन्धो नाम पर्वतमारोक्ष्यति, बधिरो नाम व्याकरणं श्रोष्यति, मूको नाम धर्म कथयिष्यति । श्रत्र सप्तमीनिमित्तं नास्तीति न क्रियातिपत्तिः । शेष इति किम् ?
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३१४ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-२१-२३
यच्च-यत्रयोः पूर्वेण सप्तम्येव । अयदाविति किम् ? आश्चर्य यदि स भुजीत, चित्रं यदि सोऽधीयीत्त, प्रत्र प्रश्रद्धाऽप्यस्तीति “जातु-यद्-यदा-यदौ सप्तमी" (५-४-१७) इत्यनेन सप्तमी ॥२०॥
___ न्या० स०- शेषे भविष्य पूर्वेण सप्तम्येवेति-'चित्रे' ५-४-१९ इत्यनेन । अश्रद्धाप्यस्तीति-न केवलं यदिशब्दयोगः ।
सप्तम्युताऽप्योर्बाढे ॥ ५. ४. २१ ॥ बाढेऽर्थे वर्तमानयोरुताऽप्योपपदयोर्धातोः सप्तमी भवती । सर्वविभक्त्यपवादः ।
उत कुर्यात, अपि कुर्यात् , वाढं करिष्यतीत्यर्थः । बाढ इति किम् ? उतः दण्डः पतिष्यति ?, अपिधास्यति द्वारम्, प्रश्न: पिधानं च यथा क्रमं गम्यते । वोतात् प्रागिति निवृत्तम् । इतः प्रभृति सप्तमीनिमित्ते सति भूते भविष्यति च क्रियातिपतने नित्यं क्रियातिपत्तिः-उताऽकरिष्यत् , अप्यकरिष्यत् ।।२१।।
न्या० स०-सप्तम्यताप्यो-बाढं करिष्यतीति एवमन्या अपि विभक्तयो द्रष्टव्याः, सन्निहितत्वाच्च भविष्यन्त्येव दर्शिता।
संभावनेऽलमर्थे तदर्थानुक्तौ ॥ ५. ४. २२ ॥
अलमोऽर्थः सामर्थ्य तद्विषये संभावने-श्रद्धाने गम्यमाने तदर्थस्यालमर्थार्थस्य शब्दस्यानुक्तावप्रयोगे धातोः सप्तमी भवति । सर्वविभक्त्यपवादः ।
शक्यसंभावने-अपि मासमुपवसेत् , अपि पुण्डरिकाध्ययनमह्नाऽधीयोत, अपि स्कन्दकोद्देशं यामेनाधीयोत । अशक्यसंभावने-अपि शिरसा पर्वत भिन्द्यात , अपि खारीपाकं भुञ्जीत, अपि समुद्रं दोभ्यां तरेत् । अलमर्थ इति किम् ? निदेशस्थायी मे जिनदत्तः प्रायेण गमिष्यति । तदर्थानुक्ताविति किम् ? वसति चेत् सुराष्ट्रेषु वन्दिष्यतेऽलमुज्जयन्तम् , शक्तश्चैत्रो धर्म करिष्यति । अत्र सप्तमीनिमित्तमस्तीति भते भविष्यति च क्रियातिपतने नित्यं कियातिपत्तिर्भवति-अपि पर्वतं शिरसाऽभेत्स्यत् । तथा 'काकिन्या हेतोरपि मातुः स्तनं छिन्द्यात्' इत्यत्र "क्षेपेऽपि-जात्वोर्वर्तमाना" (५-४-१२) इति वर्तमानां बाधित्वा, चित्रमाश्चर्यमपि शिरसा पर्वतं भिन्द्यादित्यत्र तु "शेषे भविष्यन्त्ययदौ" (५-४-२०) इति भविष्यती च बाधित्वा परत्वादनेन सप्तम्येव भवति ।।२२।।
अयदि श्रद्धाधातौ नवा ।। ५. ४. २३ ॥
श्रद्धा-संभावना, तदर्थे धातावपपदेऽलमर्थविषये संभावने गम्यमाने धातोः सप्तमी वा भवति, अयदि-यच्छब्दश्चेन्न प्रयुज्यते । पूर्वण नित्यं प्राप्ते विकल्पः ।
श्रद्दधे संभावयामि अवकल्पयामि-भुञ्जीत भवान् । पक्षे यथाप्राप्तम्-भोक्ष्यते भवान् , प्रभुक्त भवान् , प्रभुङ्क्त भवान् । प्रयदीति किम् ? संभावयामि यद् भुञ्जीत भवान्, श्रद्धाधाताविति किम् ? अपि शिरसा पर्वतं भिन्द्यात् , उभयत्र पूर्वेण नित्यं सप्तमी।
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पाद-४, सूत्र २४-२६ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[३१५
अत्रापि सप्तमीनिमित्तमस्तीति भूते भविष्यति च कियातिपतने नित्यं क्रियातिपत्तिः-संभावयामि नाभोक्ष्यत भवान् ॥२३॥
न्या० स०-अयदि श्रद्धा-यच्छब्दश्चेन्न प्रयुज्यते इति-क्रियाविशेषणत्वेन चेद् यच्छब्दो न प्रयुज्यते, हेत्वर्थे तु भवत्येव ।
पूर्वेण नित्यं प्राप्ते इति-संभावने अलमर्थे' ५-४-२२ इत्यनेन । सतीच्छार्थात् ॥ ५. ४. २४ ॥ सति-वर्तमानेऽर्थे वर्तमानादिच्छार्थाद् धातोः सप्तमी वा भवति, पक्षे तु वर्तमानव ।
इच्छेत् इच्छति, उश्यात् वष्टि, कामयेत कामयते, वाञ्छेत् वाञ्छति । "क्षेपेऽपिजात्वोर्वर्तमाना" (५-४-१२) इत्यादावपि परत्वादयमेवविकल्प:-अपि संयत: सन्नकल्प्यं सेवितुमिच्छेत् , अपि संयतः सन्नकल्प्यं सेवितुमिच्छति, धिग् गर्हामहे । भूत-भविष्यतोरभावात् सत्यपि सप्तमीनिमित्ते सत्यपि च कियातिपतने क्रियातिपत्तिनं भवति ॥२४॥
वय॑ति हेतु-फले ॥५. ४. २५ ॥
हेतुः कारणं, फलं कार्यम्, हेतुभूते फलभूते च वय॑त्यर्थे वर्तमानाद् धातोः सप्तमी वा भवति ।
यदि गुरूनुपासीत शास्त्रान्तं गच्छेत् , यदि गुरूनुपासिष्यते शास्त्रान्तं गमिष्यति, प्रत्र गुरूपासनं हेतुः, शास्त्रान्तगमनं फलम् । वत्स्य॑तीति किम् ? दक्षिणेन चेद् याति न शकटं पर्याभवति । केचित् तु वा सर्वेषु कालेषु सर्वविभक्त्यपवादं सप्तमी मन्यन्ते-दक्षिणेन चेद् यायान शकटं पर्याभवेत्, दक्षिगेन चेद् यास्यति न शकटं पर्याभविष्यति, दक्षिणेन चेद् याति न शकटं पर्याभवति, दक्षिणेन चेदयासीन शकटं पर्याभूत । अत्रापि सप्तमीनिमित्तमस्तीति भविष्यति क्रियातिपतने क्रियातिपत्तिः-दक्षिणेन चेदयास्यन्न शकटं पर्याभविष्यत् । कथम
"अमङ्ख्यद् वसुधा तोये, च्युतशैलेन्द्रबन्धना ।
नारायण इव श्रीमान् यदि त्वं नाधरिष्यथाः ।" इति ? वय॑त्येवायं प्रयोगः । केचित तु भूत इच्छन्ति । हनिष्यतीति पलायिष्यते वषिष्यतीति धाविष्यतीत्यत्र तु हेतुफलमावस्येतिशब्देनैव धोतितत्वात् सप्तमी न भवति ॥२५॥
___ न्या० स०-वयंति हेतुफले-केचित्तु भूते इति-भूते हेतुफले सप्तमीमिच्छन्ति इत्यर्थः । हनिष्यतीति पलायिष्यते इति-बहुलाधिकाराद्धेतुहेतुमद्भावे शत्रानशौ न भवत इति ।
इतिशब्देनैव द्योतितत्वादिति-सप्तम्या हि हेतुफलभाव एव द्योत्यते स च इतिशब्देनैव द्योतितः ।
कामोक्तावञ्चिति ॥ ५. ४. २६ ॥
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बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-२७-२८
वेति निवृत्तम् । काम इच्छा, तस्योक्तिः प्रवेदनं तस्यां गम्यमानायां धातो: सप्तमी भवति, अकच्चिति-न चेत् कच्चिच्छब्दः प्रयुज्यते । सर्वविभक्त्यपवादः।
कामो मे भुञ्जीत भवान् , इच्छा मे, अभिप्रायो मे, श्रद्धा मे, अभिलाषो मे, अधीयोत भवान् । अकच्चितीति किम् ? कच्चिज्जीवति मे माता । अत्र सप्तमीनिमित्तमस्तीति भूते भविष्यति च क्रियातिपतने नित्यं क्रियातिपत्तिः-कामो मे भोक्ष्यत भवान् ।२६।
न्या० स०-कामोक्ता-वेति निवृत्तमिति-कामप्रवेदने विभक्त्यन्त र प्रयोगादर्शनात् । इच्छार्थे सप्तमी-पञ्चम्यौ ॥ ५. ४. २७॥
इच्छार्थे धातावुपपदे कामोक्तौ गम्यमानायां धातोः सप्तमी-पञ्चम्यौ भवतः । सर्वविभक्त्यपवादो।
इच्छामि भुञ्जीत भवान्, इच्छामि भुङ्क्तां भवान् , कामये, प्रार्थये, अभिलाषामि, वश्मि, अधीयोत भवान्, अधीतां भवान् । कामोक्तावित्येव ? इच्छया इच्छतः, कामयमानः कामयमानस्य भुङ्क्ते, नात्र प्रयोक्तुः कामोक्तिः । अत्र सत्यपि सप्तमोनिमित्ते इच्छार्थ उपपदे कामोक्तो क्रियातिपतनस्यासामर्थ्येनासंभवात् क्रियातिप्रत्तिर्न भवति । केचित तु "सप्तम्युताऽप्योढेि" (५-४-२१) इत्यत आरम्य यत्र सप्तम्या एव केवलाया निमित्तमस्ति न विभक्त्यन्तरसहितायास्तत्रैव क्रियातिपतने क्रियातिपत्तिर्भवतीति मन्यन्ते ॥२७॥
न्या० स०-इच्छार्थे सप्तमो-असामर्थ्येनासंभवादिति-कामप्रवेदनस्य क्रियातिपतनस्य च परस्पर विरुद्धत्वात् संबन्धाभावेनेत्यर्थः ।
विधि-निमन्त्रणा-ऽऽमन्त्रणा-धीष्ट-संप्रश्न-प्रार्थने ॥५. ४. २८ ॥
विध्यादिविशिष्टेषु कर्तृ-कर्म-भावेषु प्रत्ययार्थेषु धातोः सप्तमी-पञ्चम्यौ भवतः, सर्वप्रत्ययापवादौ । विधिरप्राप्ते नियोगः, क्रियायां प्रेरणेति यावत; अज्ञातज्ञापनमित्येके ।
कटं कुर्यात् करोतु भवान् , प्राणिनो न हिस्यात् न हिनस्तु भवान् । प्रेरणायामेव यस्यां प्रत्याख्याने प्रत्यवायस्तन्निमन्त्रणम्, इच्छामन्तरेणापि नियोगतः कर्तव्यमिति यावत् । द्विसंध्यमावश्यकं कुर्यात् करोतु भवान्, सामायिकमधीयोत अधीतां भवान् । यत्र प्रेरणायामेव प्रत्याख्याने कामचारस्तदामन्त्रणम् । इहासीत आस्तां भवान, इह शयोत शेतां भवान् , यदि रोचते । प्रेरणव सत्कारपूविकाऽधीष्टम् अध्येषणम् । तत्त्वज्ञानं नः प्रसीदेयुः प्रसीदन्तु गुरुपादाः, व्रतं रक्षेत् रक्षतु भवान् । संप्रश्नः संप्रधारणा। किन्नु खलु भो व्याकरणमधीयीय अध्ययै, उत सिद्धान्तमधीयोय अध्ययै । प्रार्थनं याच्या । प्रार्थना मे व्याकरणमधीयीय अध्यय, तर्कमधीयीय अध्ययै ॥२८।।
न्या० स०-विधिनिमन्त्रणा-नन्वत्र निमन्त्रणादीनां किमर्थमुपादानं विधिः क्रियायां प्रेरणेति यावदित्यूक्तं ततः सा प्रेरणा क्वचिनिमन्त्रणरूपा क्वचिदामन्त्रणरूपेति यथा प्रयोक्तृव्यापार इत्यत्र व्यापार : प्रेषणाध्येषणादिरूप इति विधिग्रहणे नैव सिद्धम् ? उच्यते,
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पाद-४, सूत्र २६-३२ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ ३१७
यद्यपि वृत्तौ व्याख्यानेनापि सिध्यति तथापि सूत्रे एषामुपादानं सुखावसेयं भवतीति । तत्वज्ञानमित्यादि-तत्वज्ञानं कर्मतापन्नं नोऽस्मभ्यं प्रसादपूर्वकं दधुः प्रसीदेयुः गुरुपादाः, अथवा तत्वज्ञानरूपक्रियाविशेषणमिदम् नोऽस्माकं प्रसीदेयुः ।
प्रैषा-ऽनुज्ञा-ऽवसरे कृत्य-पञ्चम्यो ।। ५. ४. २१ ॥
प्रेषादिविशिष्टे कर्नादावर्थे धातोः कृत्यप्रत्ययाः पञ्चमी च विभक्तिर्भवति । न्यत्कारपूविका प्रेरणा-प्रेषः, अनुज्ञा-कामचारानुमतिः, अतिसर्ग इति यावत् । अवसर:प्राप्तकालता निमित्तभूतकालोपनतिः।
भवता खलु कटः कार्यः कर्तव्यः करणीयः कृत्यः, भवान् कटं करोतु, भवान् हि प्रेषितोऽनुज्ञातो भवतोऽवसर: कटकरणे । यद्यपि कृत्याः सामान्येन भाव-कर्मणोविहितास्तथापि सर्वप्रत्ययापवादभूतया पञ्चम्या बाध्येरनिति पुनविधीयन्ते । अनुज्ञायां केचित् सप्तम्येवेत्याहुः-अतिसृष्टो भवान् ग्रामं गच्छेत् ।।२९ ।
न्या० स०-प्रेषानुज्ञावसरे-कामचारानुमतिरिति-केनचित् पुंसा कश्चित् पृष्टो यदुताहं कटं करोमि ततस्तेन कटमयं करोतु मा वेति मनसिकृत्वा एवमुच्यते कुरु इति, ततः स्वेच्छाप्रच्छकस्य कदाचिदेवमुच्यतेऽवश्यं कुरु, ततो नियोगः; प्रच्छकस्यैवंविधानुज्ञाऽत्र सूत्रे न गृह्यते ।
सप्तमी चोर्ध्वमौहर्तिके ॥ ५. ४. ३० ॥ . ऊर्ध्व मुहूर्तादुपरि मुहूर्तस्य भवोऽर्थ ऊर्ध्वमौहूर्तिकः, तस्मिन् वर्तमानाद् धातो: प्रैषादिषु गम्यमानेषु सप्तमी कृत्याः पञ्चमी च भवन्ति । ऊवं मुहूर्ताव कटं कुर्याद् भवान् , कार्यः कर्तव्यः करणीयः कृत्यः कटो भवता, कटं करोतु भवान् , भवान् हि प्रेषितोऽनुज्ञातो भवतोऽवसरः कटकरणे ॥३०॥
न्या० स०-सप्तमी चोर्ध्व-ऊर्ध्वमोहूत्तिक इति-कालादन्यत्र 'वर्षाकालेभ्यः' ६-३.८० इति न सिध्यति इत्यध्यात्मादिभ्य इकण् ।
स्मे पञ्चमी ॥ ५. ४. ३१ ॥
स्मशब्द उपपदे प्रेषादिषु गम्यमानेषु उर्ध्वमौहूतिकेऽर्थे वर्तमानाद् धातोः पञ्चमी भवति । कृत्यानां सप्तम्याश्चापवादः ।
ऊर्ध्व मुहूर्ताद् भवान् कटं करोतु स्म, भवान् हि प्रेषितोऽनुज्ञातो भवतोऽवसरः कटकरणे इति ॥३१॥
न्या० स० स्मे पञ्चमी-स्मशब्दः स्पष्टायः ।
अधीष्टौ ॥ ५. ४. ३२॥ ऊर्ध्वमौहूतिक इति निवृत्तम्, पृथग्योगात् । स्म उपपवेधीष्टावध्येषणायां गम्य
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बृहद्वृत्ति - लघुन्यास संवलिते [ पाद- ४, सूत्र - ३३-३५
३१८ ]
मानायां धातोः पश्वमी भवति । सप्तम्यपवादः ।
अङ्ग स्म विद्वन्नणुव्रतानि रक्ष, शिक्षा: प्रतिपद्यस्व ||३२||
न्या० स०- प्रधष्टौ - पृथग्योगादिति-स्मेऽधीष्टौ च पञ्चमीत्यकरणात् । सप्तम्यपवाद इति - अधीष्टावर्थे 'विधिनिमन्त्रण' ५-४-२८ इति प्राप्तायाः । अङ्गशब्द: प्रकाशे कोमलामन्त्रणे वा ।
काल-वेला-समये
तुम् वाऽवसरे ॥ ५. ४. ३३॥
काल-बेला समयशब्देषूपपदेष्ववसरे गम्यमाने धातोस्तुम् प्रत्ययो वा भवति । कालो भोक्तुम्, वेला भोक्तुम्, समयो भोक्तुम् । वावचनाद् यथाप्राप्तं च- कालो भोक्तव्यस्य । 'ऊर्ध्वं मुहूर्तात् कालो भोक्तुम, ऊर्ध्वं मुहूर्ताद् भोक्तु स्म काल:, अङ्ग स्म 'राजन् ! भोक्तु काल' इत्येतेषु परत्वात् तुमेव । अवसर इति किम् ? काल: पचति भूतानि, कालोऽत्र द्रव्यं न त्ववसरः ||३३||
न्या० स०- कालवेला - कालो भोक्तुमिति - 'प्रेषानुज्ञा' ५-४-२९ इति प्राप्तेऽयं विकल्प इति भुज्यतां भोक्तव्यस्य चेति वाक्ये तुमि षष्ठ्येकवचनस्य 'अव्ययस्य' ३-२-७ इति लुप् । कालो भोक्तव्यस्येति - प्रेषादि सूत्रेण तव्य इति भुज्यतामिति वाक्यं, विकल्पपक्षे प्रषादीति प्रवर्त्तत इत्यत्र सूत्रे कालो भोजनस्येति वालितम् । परत्वातुमेवेति - उर्ध्वं मुहूर्तात् कालो भोक्तुमित्यादिप्रयोगत्रये । ननु तुम् विकल्पेन भवति तत्कथं तुमेवेत्युक्तम् ? उच्यते, - विकल्पेन तुमेव भवति नानडादयः, 'सप्तमी चोर्ध्व' ५ -३ - १२ 'स्मे पञ्चमी' ५-४-३१ इति 'अधीष्टो' ५-४-३२ इति च यथाक्रमं प्रवर्त्तत एव ।
सप्तमी यदि । ५ ४. ३४ ॥
यदि यच्छब्दप्रयोगे सति कालादिषूपपदेषु धातोः सप्तमी भवति । तुमोऽपवादः । कालो यदधीयीत भवान्, वेला यद् भुञ्जीत भवान्, समयो यच्छयीत मवान् । बहुलाधिकारात् 'कालो यदध्ययनस्य, वेला यद् भोजनस्य, समयो यच्छ्यनस्य' इत्याद्यपि भवति ||३४||
न्या० स० - सप्तमी यदि-इत्याद्यपि भवतीति यच्छब्दप्रयोगेऽनेन सप्तमी विहितेति अनट् न प्राप्नोति, बाहुलकात् तु सोऽपि भवतीत्यर्थः ।
शक्ताऽहें कृत्याश्च ॥ ५, ४. ३५ ॥
शक्ते च कर्तरि गम्यमाने धातोः कृत्याः सप्तमी च भवति ।
भवता खलु भारो वाह्य:, वोढव्यः, वहनीयः, उह्य ेत, भवान् भारं वहेत्; भवान् हि शक्तः । श्रर्ह भवता खलु कन्या वाह्या, वोढव्या, वहनीया, भवान् खलु कन्यां वहेत्; भवता खलु छेदसूत्रं वाह्यम, वोढव्यम्, वहनीयम्, भवान् खलु च्छेदसूत्रं वहेतु भवानेत
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पाद-४, सूत्र-३६-३८ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[३१९
दहति । सप्तम्या बाधो मा भूदिति कृत्यग्रहणम् । बहुवचनमिहोतरत्र च यथासंख्यनिवृत्यर्थम् ।।३।।
न्या० स०-शक्तार्हे-गम्यमाने इति-न तु वाच्य एवेत्यर्थः । भवान् खलु कन्यां वहेदितिअत्राहे कर्तरि वाच्ये व्यक्तिव्याख्यानादनेन सप्तमी, अन्यथाऽर्हे कर्तरि 'अर्हे तृच' ५-४-३७ इति परत्वात् तृजेव स्यात्, भावकर्मणोरस्य चरितार्थत्वात् । यथासंख्यनिवृत्त्यर्थमितिननु समुच्चीयमानेन सह यथासंख्यस्य 'राष्ट्रक्षत्रिय' ३-१-११४ इत्यत्रापत्यग्रहणेन निरस्तत्वात् व्यर्थ बहुवचनम् ? सत्यं,-ज्ञापकज्ञापिका विधयो ह्यानित्या इति न्यायज्ञापनार्थम् ।
णिन् चाऽऽवश्यकाऽधमण्र्ये ॥५. ४. ३६ ॥
अवश्यंभाव आवश्यकम, ऋणेऽधमोऽधमणः, तस्य भाव आघमर्ण्यम् । आवश्यके आधमण्ये च गम्यमाने कर्तरि वाच्ये पातोणिन् कृत्याश्च भवन्ति ।
- अवश्यं करोतीति-कारी, हारी। यदा त्यवश्यमोऽपि प्रयोग उभाभ्यामपि धोत. नात् तदा मयूरव्यंसकादित्वात् समासः-प्रवश्यंकारी, प्रवक्ष्यंहारी। अवश्यशब्दप्रयोगे तुअवश्यकारी, अकारान्तोऽपि नव्ययमवश्यशब्दोऽस्ति । अवश्यं गेयो गाथको गीतस्य, अवश्यं भव्यश्चैत्रः। आधमये-शतं दायी, सहस्र दायो, कारी मे कटमसि, हारी मे भारमसि, गेयो गाथानाम् । णिना बाधो मा भूदिति कृत्यविधानम् । कृत्त्वाच्च कर्तरि णिनो विधानात कृत्यानामपि कर्तवैव विधानम्, भाव-कर्मणोस्तु सामान्येन विषानात् सिद्धा एव बाधकाभावात् ॥३६॥
... न्या स०-णिन् चावश्य-अवश्यं करोतीत्यादीनि वाक्यानि सामान्यविशेषभावेन उदाहारिषत अवश्यं भावे तु गम्यमाने नित्यमेव णिन् कृत्याश्च, वाक्यं त्ववश्यं विधायीत्यादि धात्वन्तरेण कार्यम् । कर्तयेव विधानमिति-ये पूर्वं 'भव्यगेय' ५-१-७ इत्यादिषु कर्तरि विहितास्त एवेह ज्ञायन्ते इत्यर्थः, यद्वा भावकभणोरपि ये विहितास्तेऽत्र कर्तरि भवन्तीत्यर्थः । बाधकाभावादिति-कर्तर्येव णिना बाध्यन्ते, न भावकर्मणोः।
अर्हे तृच ॥ ५, ४. ३७ ॥
अर्हे कर्तरि वाच्ये धातोस्तृच् प्रत्ययो भवति । भवान् कन्याया वोढा, भवान् खलु च्छेदसूत्रस्य वोढा । सप्तम्या बाधा मा भूदित्यर्हे तृज्विधानम् ॥३७॥
___ न्या० स०-प्रहें तृच् सप्तम्या बाधा माभूदिति-'शक्ताह' ५-४-३५ इति विहितया, सप्तम्येत्युपलक्षणं कर्तृ विहितैः कृत्यैरपि बाधा माभूदिति तृविधानम् ।
आशिष्याशीः-पञ्चम्यौ ॥ ५. ४. ३८ ॥
आशासनमाशीः, प्राशीविशिष्टेऽर्थे वर्तमानाद् धातोराशी:- पञ्चम्यो विभक्ती भवतः ।
जीयाव, जीयास्ताम्, जीयासुः; जयतात, जयताम, जयन्तु । आशिषोति किम् ?
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३२० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-३९-४१
चिरं जीवति मैत्रः। कश्चित् तु समर्थनायां पञ्चमीमिच्छति, परैरशक्यस्य वस्तुनोऽध्यवसायः समर्थना, कश्चिदाह-समुद्रः शोषयितुमशक्यः, स आह-समुद्रमपि शोषयाणि, पर्वतमप्युत्पाटयानि ॥३८।।
न्या० स०-आशिष्याशी:-चिरं जीवतीति-चिर इत्यकारान्तो वा 'कालाध्व' २-२-२३ इति कर्म ।
मायद्यतनी ॥ ५. ४. ३१ ॥ माङय पपदे धातोरद्यतनी भवति । सर्वविभक्त्यपवादः ।
मा कार्कदधर्मम्, मा हार्षीत् परस्वम् । कथं 'मा भवतु तस्य पापं, मा भविष्यति' इति ? असाधुरेवायम् । केचिदाहुरडितो माशब्दस्यायं प्रयोगः ।।३९।।
न्या० सा-मायद्यतनी-केचिदिति-स्वमतेऽप्यङिन्माशब्दप्रयोगोऽस्ति किंतु क्रियायोगेऽङिन्माशब्दस्य प्रयोगो नेष्यते अतः केचिदाहुरित्युक्तम् ।
सस्मे ह्यस्तनी च ।। ५.४.४०॥ स्प्तशब्दसहिते माङयु पपदे धातोह्य स्तनी चकारादद्यतनी च भवति ।
मा स्म करोत् , मा स्म कार्षात् , मा चैत्र ! स्म हरः परदव्यम् , मा चैत्र ! स्म हार्षीः परद्रव्यम् ॥४०॥
न्या० स०-सस्मे शस्तनी च-मा स्म करोदिति-माशब्देन निषेध उच्यते, स्मशब्देन च स एव द्योत्यते ।
धातोः संबन्धे प्रत्ययाः ।। ५. ४.४१ ॥
धातशब्देन धात्वर्थ उच्यते, धात्वर्थानां संबन्धे-विशेषणविशेष्यभावे सति, अयथाकालमपि प्रत्ययाः साधवो भवन्ति ।
विश्वदृश्वाऽस्य पुत्रो भविता, कृतः कटः श्वो भविता, भावि कृत्यमासीत् । विश्वश्वेति भतकाल: प्रत्ययो भवितेति. भविष्यत्कालेन प्रत्ययेनाभिसंबध्यमान: साधुभवति । एवं कृतः कट: श्वो भवितेति । भावि कृत्यमासीदित्यत्र तु भावीति भविष्यत्काल: प्रत्यय प्रासीदिति भूतकालेन प्रत्ययेनाभिसंबध्यमानः साधुर्भवति । विशेषणं गुणत्वाद् विशेष्यकालमनुरुध्यते, तेन विपर्ययो न भवति । तथा त्याद्यन्तमपि यदाऽपरं त्याद्यन्तं प्रति विशेषणत्वेनोपादीयते तदा तस्यापि समुदायवाक्यापिक्षया कालान्यत्वं भवत्येव ।
"साटोपमुर्वीमनिशं नदन्तो, यैः प्लावयिष्यन्ति समन्ततोऽमी। तान्येकदेशानिभृतं पयोधेः, सोऽम्भांसि मेधान् पिबंतो ददर्श । (रघु०३ सर्गे)
अत्र प्लावयिष्यन्तीति भविष्यदर्थस्य ददर्शति भूतानुगमः । बहुवचनात् अधात्वधिकारविहिता अपि प्रत्ययास्तद्धिता धातुसंबन्धे सति कालभेदे साधवो भवन्ति-गोमानासीत् , गोमान् भविता, अस्तिविवक्षायां हि मतुरुक्तः स कालान्तरे न स्यादिति ॥४॥
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पाद-४, सूत्र-४२ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[३२१
न्या० स०-धातोः संबन्धे-धात्वर्थ उच्यते इति-शब्दतः संबन्धाऽभावात् । भाविकृत्यमिति-भविष्यतीति 'भुवो वा' ९२२ (उणादि) इत्यौणादिको णिन् । भावीति भविव्यत्कालः प्रत्यय इति-नन्वौणादिकानां अनुपात्तकालविशेषाणां त्रिष्वपि कालेषु प्रवृत्तेः कथं भविष्यत्त्वम् ? सत्यं, अस्य गम्यादित्वात् 'वय॑ति गम्यादिः' ५-३-१ इत्यनेन भविष्यत्त्वम् । विपर्ययो न भवतीति-भवितेति भविष्यत्काल: प्रत्ययो विश्वदृश्वेति भूतकालेन सबध्यमान: साधुर्भवतीत्यादिरूपः, विश्वदृश्वेत्यादि हि विशेषणं भवितेति च विशेष्यम् ।
अधात्वधिकारविहिता अपीति-अन्यथा धातुप्रकरणत्वात् धातोरेव परे ये प्रत्ययास्त एव स्युः। भृशा-ऽऽभीक्ष्ण्ये हि-स्वौ यथाविधि, त-ध्वमौ च तद्य ष्मदि
॥५. ४.४२ ॥ गुणक्रियाणामधिश्रयणादीनां क्रियान्तररव्यवहितानां साकल्यं फलातिरेको वा भशत्वम, प्रधानक्रियाया विक्लेदादः क्रियान्तररव्यवहिताया: पौनःपन्यमाभीक्षण्यम. तदिशिष्टे सर्वकालेऽर्थे वर्तमानाद् धातोः सर्वविभक्ति-सर्ववचनविषये हि-स्वौ पञ्चमीसंबन्धिनौ भवतः, यथाविधि धातोः संबन्धे-यत एव धातोर्यस्मिन्नेव कारके हि-स्वौ विधीयेते तस्यैव धातोस्तत्कारकविशिष्टस्यैव संबन्धेऽनुप्रयोगरूपे सति; तथा त-ध्वमौ हि-स्वसाहचर्यात पञ्चम्या एव संबन्धिनौ, तयोः त-ध्वमोः संबन्धी बहुत्वविशिष्टो युष्मत, तस्मिस्तद्युस्मदि अभिधेये भवतः, चकाराद्धि-स्वौ च यथाविधि धातोः संबन्धे।
लुनीहि लुनीहीत्येवायं लुनाति, अनुप्रयोगात् कालवचनभेदोऽभिव्यज्यते । लुनीहि लुनीहीत्येवेमौ लुनीतः, लुनीहि लुनीहीत्येवेमे लुनन्ति; लुनीहि लुनीहीत्येव त्वं लुनासि, युवां लुनीथः, यूयं लुनीथ; लुनीहि लुनीहीत्येवाहं लुनामि, आवां लुनीवः, वयं लुनीमः; • एवं लुनीहि लुनीहीत्येवायमलावीत्, लुनीहि लुनीहित्येवायमलुनात, लुनीहि लुनीहीत्येवाऽयं लुलाव, लुनोहि लुनीहीत्येवायं लविष्यति, लुनीहि लुनीहीत्येवायं लविता, लुनीहि लुनीहोत्येवायं लुनीयात् , लुनीहि लुनोहीत्येवायं लुनातु, लुनीहि लुनीहीत्येवायं लूयात् ।
एवमधीष्वाऽधीष्वेत्येवायमधोते, इमावधीयाते, इमेऽधीयते; अधीष्वाऽधीष्वेत्येव त्वमधीक्षे, युवामधीयाथे, यूयमधीध्वे; अधीष्वाऽधीष्वेत्येवाऽहमधीये, प्रावामधीवहे, वयमधीमहे । तथा-अधीष्वाऽधीष्वेत्येवायमध्यगीष्ट, अधीष्वाऽधीष्वेत्येवायमध्येत, अधीप्वाऽधोष्वेत्येवायमधिजगे, अधीष्वाऽधीष्वेत्येवायमध्येष्यते, अधीष्वाऽधीष्वेत्येवायमध्येता, अधीष्वाऽधीष्वेत्येवायमधीयोत, अधीष्वाऽधीष्वेत्येवाऽयमधीताम्, अधीष्वाऽधीष्वेत्येवायमध्येषीष्ट । एवं सर्वविभक्तिवचनान्तरेष्वपि हि-स्वावदाहरणीयौ।
एवं भावकर्मणोरपि-शय्यस्व शय्यस्वेत्येव शय्यते अशायि शायिष्यते भवता, ल्यस्व ल्यस्वेत्येव लूयते अलावि लाविष्यते केदारः ।
तध्वमौ च तद्युष्मदि-लुनीत लुनोतेत्येव यूयं लुनीथ, लुनीहि लुनीहीत्येव यूयं
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३२२ ]
बृहद्वृत्ति लघुन्यास संवलिते
[ पाद- ४, सूत्र - ४३
लुनोथ; प्रधीध्वमधीध्वमित्येव यूयमधीध्वे, अधीष्वाधीष्वेत्येव यूयमधीध्वे । तथा लुनीत लुनीतेत्येव यूयमलाविष्ट, लुनीहि लुनीहीत्येव यूयमलाविष्ट । श्रधोध्वमधीध्वमित्येव यूयमध्यैवम्, अधीष्वाधीष्वेत्येव यूयमध्यगीढ्वम् । एवं ह्यस्तन्यादिष्वप्युदाहार्यम् ।
यथाविधीति किम् ? लुनीहि लुनीहीत्येवायं लुनाति, छिन्नत्ति लूयते वेति धातोः संबन्धे मा भूत् । श्रघीष्वाधीष्वेत्येवायमधीते, पठति अधीयते वेति धातोः संबन्धे मा भूत् । नीत लुनीतेत्येव यूयं लुनीथ, छिन्येति धातोः संबन्धे मा भूत् । श्रधीध्वमधीध्वमित्येव यूयमधीध्वे, पठति धातोः संबन्धे मा भूत् । लुनीहि लुनीहीत्यादौ च भृशाभोक्ष्ण्ये द्विर्वचनम् ।
ननु च भृशाभीक्ष्ण्ययोर्यङपि विधीयते न तु तत्र द्विर्वचनम्, इह तु द्विर्वचनमित्यत्र को हेतुः ? उच्यते - यङ् स्वार्थिकत्वात् प्रकृत्यर्थोपाधी मृशाभीक्ष्ण्ये समर्थोऽवद्योतयितुमिति तदभिव्यक्तये द्विर्वचनं नापेक्षते, हि स्वादयस्तु-कर्तृ कर्म- भावार्थत्वेनास्वार्थिकत्वादसमर्थाः प्रकृत्यर्थोपाधी भृशाभीक्ष्ण्ये अवद्योतयितुमिति तदवद्योतनाय द्विर्वचनमपेक्षन्ते इति ॥ ४२ ॥ |
न्या० स०- भृशाभीक्ष्ण्ये लुनीहि लुनीहीत्येवायमिति - इति शब्दः संबन्धोपादानार्थोऽन्यथाऽसत्त्वभूतार्थवाचिनोराख्यातयोः परस्परेण संबन्धो नावगम्येत । न तु तत्र द्विर्वचनमिति - किंतु भृशाभीक्ष्ण्यनिरपेक्षं 'सन्यङश्व' ४-१-३ इत्यनेन ।
प्रचये नवा सामान्यार्थस्य ।। ५. ४. ४३ ॥
भृशा - sset
यथाविधीति च नानुवर्तते । प्रचय:- समुच्चयः, स्वतः साधनभेदेन वा भिद्यमानस्य एकत्रानेकस्य धात्वर्थस्याध्यावाप इति यावत्, तस्मिन् गम्यमाने सामान्यार्थस्य धातोः संबन्धे सति धातोः परौ हि-स्वौ, त-ध्वमौ च तद्युष्मदि वा भवतः ।
व्रीहीन् वप लुनीहि पुनीहीत्येव यतते चेष्टते समीहते, यत्यते चेष्टयते समीह्यते, पक्षे-हीन वपति लुनाति पुनातीत्येव यतते, यत्यते । देवदत्तोऽद्धि गुरुदत्तोऽद्धि जिनदत्तोऽद्धि इत्येव भुञ्जते, भुज्यते, पक्षे-देवदत्तोऽत्ति गुरुदत्तोऽत्ति जिनदत्तोऽतीत्येव भुञ्जते भुज्यते । ग्राममट वनमट गिरिमटेत्येवाटति घटते, अटयते घटघते, पक्षे - ग्राममटति वनमटति गिरिमयतीत्येवाटति घटते अटयते घटयते । सक्तून् पिब, धानाः खाद, ओदनं भुङ्क्ष्वेत्येवाभ्यवहरति श्रभ्यवह्रियते, पक्षे-सक्तून् पिबति, धानाः खादति, ओदनं भुङ्क्ते इत्येवाभ्यवहरति श्रभ्यवह्रियते ।
सूत्रमधीष्व नियुक्तिमधीष्व भाष्यमधीष्वेत्येवाधीते पठति अधीयते पठ्यते, पक्षेसूत्रमधीते, नियुक्तिमधीते, भाष्यमधीते, इत्येवाधीते पठति, प्रधीयते पठद्यते ।
त-ध्वमौ तद्युष्मदि- व्रीहीन् वपत, लुनीत, पुनीतेत्येव यतध्वे, चेष्टध्वे समीहध्वे; व्रीहीन् वप लुनीहि पुनीहीत्येव यतध्वे चेष्टध्वे, समीहध्वे, पक्षे व्रीहीन् वपथ, लुनीथ, पुनीथेत्येव यतध्वे चेष्टध्वे समीहध्वे । ग्राममटत वनमटत गिरिमटतेत्येवाटथ घटध्वे, ग्राममट वनमट गिरिमटेत्येवाटथ घटध्वे, पक्षे-ग्राममटथ, वनमटथ, गिरिमटथेत्येवाटथ घटध्वे । सूत्रमधीध्वं निर्यु क्तिमधीध्वं भाष्यमधीध्वमित्येवाधीध्वे पठथ, सूत्रमधीष्व नियुक्ति
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पाद-४, सूत्र-४४-४६ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[३२३
मधीष्व भाष्यमधीष्वेत्येवाधीध्वे पठथ, पक्षे-सूत्रमधीध्वे नियुक्तिमधीध्वे भाष्यमधीध्वे इत्येवाधीध्वे पटथ । एवं-वचनान्तरे त्रिकान्तरे विभक्त्यन्तरेऽप्युदायिम् ।
___सामान्यार्थस्येति किम् ? वोहीन वप लुनीहि पुनोहीत्येव वपति, लुनाति, पुनातोति मा भूत, प्राममट, वनमट, गिरिमटेत्येव प्राममटति, वनमटति, गिरिमटतीति च मा भत् , कारक मेदेनाटतीत्यस्य सामान्यार्थत्वाभावात् ॥४३॥
न्या० स०-प्रचये नवा-समान एव सामान्यः स्वार्थे घ्यणन्तो वाचस्पतिना पुंलिङ्गो निणिन्ये, सामान्योऽर्थो यस्य, यद्वा समानस्य भावः सामान्यमर्थो यस्य । यथा. विधीति च नानुवर्तत इति-प्रचय इति भणनात् सामान्यार्थस्येति भणनाच्च । एवं वचनान्तरे त्रिकान्तरे इति-एतच्च हिस्वी प्रत्येव ज्ञातव्यं, न तध्वमौ तयोरेव घटनात् ।
निषेधेऽलं-खल्वोः क्त्वा ॥ ५. ४. ४४ ॥ निषेधे वर्तमानयोरलं-खलुशब्दयोरुपपदयोर्धातोः क्त्वा प्रत्ययो वा भवति ।
अलं कृत्वा, खलु कृत्वा, न कर्तव्यमित्यर्थः; पक्षे यथाप्राप्तम्-अलं वत्स ! रोदनेन, अलं रुदितेन, अलं रुदितम्, क्त्वान्तयोग एव खलुशग्दो निषेधवाचीति पक्षे खलुशब्दो नोदाह्रियते । अन्ये तु-'खलु कृतेन, खलु भोजनेन, खलु भोजनम्' इत्यप्युदाहरन्ति । निषेध इति किम् ? अलंकारः स्त्रियाः, सिद्धं खलु । अलंखल्वोरिति किम् ? मा कारि भवता।४४।
न्या० स०-निषेधेऽलंखल्यो:-क्त्वातुमादीनां कृत्संज्ञाया 'निसनिक्षनिन्द' ५-२-६८ इत्यत्र फलम् । खलुशब्दो नोवाहियत इति-वाक्यमपि खलु विधायेति धात्वन्तरेण कार्यम् ।
परा-वरे॥५. ४.४५ ॥ परे अवरे च गम्यमाने धातोः क्त्वा वा भवति ।
अतिक्रम्य नदी पर्वतः, नद्याः परः पर्वत इत्यर्थः; बाल्यमतिक्रम्य यौवनम् । अवरेअप्राप्य नदी पर्वतः, नद्या अर्वाक पर्वत इत्यर्थः; अप्राप्य यौवनं बाल्यम् । नदी-पर्वतयोऔल्य-योवनयोर्वा परावरत्वमात्रं प्रतीयते, अस्ति प्राप्यत इति वा, न द्वितीया क्रियेति तुल्यकर्तृकक्रियान्तराभावात् "प्राक्काले" (५-४-४७) इति न सिध्यतीति वचनम् । वाऽधिकाराद् यथाप्राप्तं च-नद्यतिक्रमेण पर्वतः, नद्यप्राप्त्या पर्वतः॥४५॥
न्या० स० परावरे-अतिक्रम्य नदी पर्वत इति-अतिक्रमेणेति वाक्यं वाक्ये च इत्थंभूतलक्षणे तृतीया। परावरत्वमात्रमिति-क्रियाद्वये विद्यमानेऽपि परावरत्वमात्रं जिज्ञासितम् ।
निमील्यादिमेङस्तुल्यकर्तृ के ॥ ५. ४. ४६ ॥
तुल्यो धात्वर्थान्तरेण कर्ता यस्य स तुल्यकर्तृ कस्तस्मिन्नर्थे वर्तमानेभ्यो निमोल्यादिभ्यो मेङश्च धातोः संबन्धे सति क्त्वा वा भवति । निमील्यादीनां समानकालार्थो मेङस्तु परकालार्थ आरम्भः । स्वभावात मेङ् व्यतिहार एव वर्तते ।
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३२४ ]
बृहद्वृत्ति लघु-याससंवलिते
[ पाद-४, सूत्र-४७-४८
अक्षिणी निमील्य हसति, मुखं व्यादाय स्वपिति, पादौ प्रसार्य पतति, दन्तान प्रकाश्य जल्पति, शिशुरयं मातरं भक्षयित्वोपजातः । मेङ्-अपमाय अपमित्य याचते, अपमातुं प्रतिदातु याचत इत्यर्थः, पूर्व ह्यसौ याचते पश्चादपमयत इति । याचेस्तु पूर्वकालेऽपि क्त्वा न भवति मेङ: परकालभाविन्या क्त्वया याचिप्राक्कालस्योक्तत्वात् । पक्षेयाचित्वाऽपमयते, अपमातु याचते । तुल्यकर्तृक इति किम् ? चैत्रस्याक्षिनिमीलने मंत्रो हसति, चैत्रस्यापमाने मैत्रो याचते ॥४६॥
__ न्या० स०-निमील्यादिमे-मेङ् व्यतिहार एव वर्तत इति-अपरे धातवो व्यतिपूर्वा व्यतिहारे वर्तन्तेऽयं तु स्वभावात् केवलोऽपीति नान्यैरिव व्यतिहारग्रहणमस्य विशेषक कर्तव्यमित्यर्थः ।
अक्षिणी निमील्य हसतीति-निमीलने इति वाक्यं अन्तर्भूतण्यर्थः सकर्मकः साक्षाण्णिगन्तो वा, अन्यथा तुल्यकर्तृ कत्वं न संगच्छेत, एवमुत्तरेऽपि ।
याचेस्तु पूर्वकालेऽपोति-नन्वेवमपि याचे: प्राक्कालवतित्वात् उत्तरेण कस्मात् क्त्वा न भवति ? इत्याह-याचेस्त्वित्यादि-उत्तरेण हि प्राक्कालद्योतनाय क्त्वाप्रत्ययः क्रियते, याचेस्तु पूर्वकालवत्तिता मेङ: परकालभाविन्या क्त्वया उक्तेति नैरर्थक्यात्ततः क्त्वा न भवति ।
प्राक्काले ॥५. ४. ४७॥
परकालेन धात्वर्थेन तुल्यकर्तृ के प्राक्कालेऽर्थे वर्तमानाद् धातोर्धातोः संबन्धे क्त्वा वा भवति ।
आसित्वा भुङ्क्ते, भुक्त्वा व्रजति, भुक्त्वा पुनर्भुङ्क्त, स्नात्वा भुक्त्वा पीत्वा व्रजति; पक्षे-आस्यते भोक्तुमित्यपि भवति । तुल्यकर्तृक इत्येव-भुक्तवति गुरौ शिष्यो व्रजति । प्राक्काल इति किम् ? भुज्यते पीयते चानेन । अथ 'यदनेन भुज्यते ततोऽयं पचति, यदनेनाधीयते ततोऽयं शेते' इत्यत्र कथं क्त्वा न भवति ? उच्यते-यत्र यच्छब्देन सह ततःशब्दः प्रयज्यते तत्र ततःशन्देनैव प्राक्कालताऽभिधीयत इत्युक्तार्थत्वात क्त्वा न भवति । 'यवनेन भक्त्वा गम्यते ततोऽयमधीते' इत्यत्र तु भोजन-गमनयो: क्रमे क्त्वा, गमनाऽध्ययनयोस्तु ततःशब्देन क्रमस्थाभिधानात गमेनं भवति । "प्राक्काले" इत्युत्तरत्र यथासंभवमभिधानतोऽनुवर्तनीयम् ।।४७॥
न्या० स०-प्राक्काले-प्राक्पूर्वः कालोऽस्येति प्राक्कालस्तस्मिन् । आसित्वा भुङ्क्त इति-आसिक्रियाया वर्तमानत्वेऽपि भुजिक्रियाऽपेक्षया प्राक्काल्यं, अत एव क्त्वो विकल्पपक्षे आस्यते भोक्तुमित्यत्र वर्तमाना।
ख्णम् चाभीक्ष्ण्ये ।। ५. ४.४८ ॥
प्राभीक्ष्ण्यविशिष्टे परकालेन तुल्यकर्तृ के प्राक्कालेऽर्थे वर्तमानाद् धातोर्धातोः संबन्धे रुणम्, चकारात क्त्वा च भवति ।
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पाद–४, सूत्र- ४९-५० ] श्री सिद्ध हेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ ३२५
भोजं भोजं व्रजति, भुक्त्वा भुक्त्वा व्रजति पायं पायं गच्छति, पीत्वा पोरवा गच्छति श्रग्रे भोजं भोजं व्रजति, प्रग्रे भुक्त्वा भुक्त्वा व्रजति । श्रत्र क्त्वा रणमोहिस्वादिवत् प्रकृत्यर्थोपाधिद्योतने सामर्थ्यं नास्तीत्याभीक्ष्ण्याभिव्यक्तये द्विर्वचनं भवति । इह कस्मात् ख्णम् न भवति यदयं पुनः पुनर्भुक्त्वा व्रजति, अधीते एव ततः परम्, आभीक्ष्ण्यस्य स्वशब्देनैवोक्तत्वात् । क्त्वापि तहि न प्राप्नोति ? मा भूदाभीक्ष्ण्ये, प्राक्काल्ये भवि व्यति । वाऽधिकारेणैव पक्षे क्त्वाप्रत्ययस्य सिद्धौ चकारेण तस्य विधानं वर्तमानादिप्रत्ययान्तरनिषेधार्थम् । ननु कत्वादिभिर्भावे विधीयमानैः कर्तु रनभिहितत्वादोदनं पक्त्वा भुङ्क्ते देवदत्त इत्यादिषु कर्तरि तृतीया प्राप्नोति ? नैवम् भुजिप्रत्ययेनैव कर्तुं रभिहितत्वान्न भवति 'प्रधानशवत्यभिधाने हि गुणशक्तिरभिहितवत् प्रकाशते' इति । खित्वं 'चौरंकारमाक्रोशति, खादु कारं भुङ्क्ते इत्युत्तरार्थम् ॥ ४८ ॥
न्या० स०- णम् चाभीक्ष्ण्ये यदयं पुनः पुनरिति ननु भृशाभोक्ष्ण्ये वर्त्तमानस्य धातोद्विर्वचनं भवति इह तु कथम् ? सत्यं, क्रियाविशेषणमपि क्रिया । वर्त्तमानादिप्रत्ययान्तरेति तेनाग्रे भुङ्क्ते भुङ्क्ते व्रजितुमित्यादि न भवति ।
पूर्वाग्रे प्रथमे । ५ ४ ४१ ॥
'पूर्व अग्रे प्रथम' इत्येतेषूपपदेषु परकालेन तुल्यकर्तृ के प्राक्कालेऽर्थे वर्तमानाद् धातोर्धातोः संबन्धे रुणम् वा भवति । अनाभीक्ष्ण्यार्थं वचनम् ।
पूर्व भोजं व्रजति, पूर्वं भुक्त्वा व्रजति । श्रग्रे भोजं व्रजति, अग्रे भुक्त्वा व्रजति । प्रथम भोजं व्रजति, प्रथमं भुक्त्वा व्रजति । वर्तमानादयोऽपि पूर्वं भुज्यते ततो व्रजति, अग्रे भुज्यते ततो व्रजति, प्रथमं भुज्यते ततो व्रजति । पूर्वादयश्चात्र व्यापारान्तरापेक्ष प्राक्काल्ये व्रज्यापेक्षे तु क्त्वा ख्णमाविति नोक्तार्थता, ततश्चायमर्थोऽन्य भोक्तृभुजिक्रियाभ्यः स्वक्रियान्तरेभ्यो वा पूर्वं भोजनं कृत्वा व्रजतीत्यर्थः । पूर्वप्रथम साहचर्यात् श्रग्रेशब्दः कालवाची ||४६||
न्या० स० - पूर्वाग्रेप्रथमे - पूर्वश्चाऽग्रेश्च प्रथमश्चेति द्वंद्वात् सप्तमी, उदाहरणेषु पूर्वाग्रेप्रथमेभ्यः 'कालाध्वनो:' २-२-४२ इति द्वितीया । अनाभोक्ष्ण्यार्थं वचनमिति - एतच्चोपलक्षणं पक्षे वर्त्तमानादिप्राप्त्यर्थं च । पूर्वं भुज्यते ततो व्रजतीति वर्त्तमानायाः प्राक्काल्याभिधानेऽसामर्थ्यात्तत इत्युपादायि । पूर्वादयश्चेति नन्वनेन प्राक्काले क्त्वा प्राक्कालश्च पूर्वादिभिरेवोक्त इति क्त्वा न प्राप्नोति ? इत्याशङ्का-साहचर्यादिति-पूर्वप्रथमौ तावदऽस्याद्यन्तौ कालवाचकौ अयमपि तादृशौ गृह्यते ।
अन्यथैव कथमित्थमः कृगोऽनर्थकात् ॥ ५. ४ ५० ॥
एभ्यः परात्तुल्यकर्तृकेऽर्थे वर्तमानात् करोतेरनर्थकात् धातोः संबन्धे रुणम् वा
भवति ।
अन्यथाकारं भुङ्क्ते, एवंकारं भुङ्क्ते, कथंकारं भुङ्क्ते, इत्थंकारं भुङ्क्ते; पक्षे वत्वैव अन्यथा कृत्वा, एवं कृत्वा, कथं कृत्वा, इत्थं कृत्वा भुङ्क्ते । एवमुत्तरत्रापि । आन
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३२६ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-५१-५४
र्थक्यं करोतेरन्यथादिभ्यः पृथगर्थाभावात् । यावदुक्तं भवति 'अन्यथा भुङ्क्ते' तावदुक्तं भवति 'अन्यथाकारं भुङ्क्ते' इति । अनर्थकादिति किम् ? अन्यथा कृत्वा शिरो भुकते, अनान्यथाशब्द: शिरःप्रकारे, करोतेश्च शिरः कर्म, तन्न करोतिना विना गम्यत इति ।५०।
न्या० स०-अन्यथैवं-पक्षे त्वैवेति-'प्राक्काले' ५-४-४७ इत्यनेन एवमुत्तरत्रापि इति-यथाऽत्र वाधिकारात् पक्षे क्त्वा तथोत्तरत्रापीत्यर्थः, प्रथममऽन्यथात्वं पश्चाद् भुङक्ते इत्यत्रापि प्राक्कालः।
यथा-तथादीोत्तरे ॥ ५. ४. ५१ ॥
यथा-तथाशब्दाभ्यां परात् तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानादनर्थकात करोतेर्धातो: संबन्धे सति णम् वा भवति, ईष्र्योत्तरे-ईयश्चेत् पृच्छते उत्तरं ददाति ।
कथं भवान् मोक्ष्यत इति पृष्टोऽसूयसा तं प्रत्याह-यथाकारमहं मोक्ष्ये तथाकारमहं मोक्ष्ये कितवानेन, ? कि ते मया, यथाहं भोक्ष्ये तथाऽहं भोक्ष्ये इत्यर्थः । ईष्र्योत्तर इति किम् ? यथा कृत्वाऽहं भोक्ष्ये तथा द्रक्ष्यसि । अनर्थकादित्येव ? यथा कृत्वाऽहं शिरो भोक्ष्ये तथा कृत्वाऽहं शिरो भोक्ष्ये कि तवानेन ? ॥५१॥
शापे व्याप्यात् ॥ ५.४.५२ ॥
अनर्थकादिति निवृत्तम् , व्याप्यात कर्मणः पराव तुक्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानात करोतेर्धातोः संबन्धे रुणम् वा भवति, शापे-माकोशे गम्यमाने ।
चौरंकारमातोशति, करोतिरिहोच्चारणे, चौरं कृत्वा-चौरशब्दमुच्चार्याक्रोशति, चौरोऽसीत्याक्रोशतीत्यर्थः । एवं-वस्युकारमाक्रोशति, व्याधंकारमाक्रोशति । शाप इति किम् ? चौरं कृत्वा हेतुभिः कथयति ।। ५२ ।
_न्या० स०-शापे व्याप्यादिति-अनर्थकादिति निवृत्तमिति-शापेऽसंभवात् व्याप्यादिति भणनाद् वा।
स्वादर्थाददीर्घात् ॥ ५. ४.५३ ॥
स्वादोरर्थे वर्तमानाच्छन्दावदीर्धान्ताद् व्याप्यात परस्मात तुल्यकर्तृ के वर्तमानात् करोतेर्धातोः संबन्धे रुणम् भवति वा ।
___ स्वादु'कारं भुङ्क्ते, संपन्नंकारं भुक्ते, मिष्टंकारं भुङ्क्ते, लवणंकारं भुक्ते; पक्षे-स्वादु कृत्वा, मिष्टं, कृत्वा, लवणं कृत्वा, भुङ्क्ते । अदीर्घाविति किम् ? स्वाद्वी कृत्वा, स्वादूकृत्य, संपन्नां कृत्वा, यवागू भुङ्क्ते। 'स्वादुकारं यवागू भुङ्क्ते, अस्वादु स्वादु कृत्वा-स्वादुकारं भुङ्क्ते' इत्यत्र तु डी-च्च्योविकल्पितत्वात् न दीर्घ इति भवति । 'संपन्न. कारं यवागू भुङ्क्ते' इति तु सामान्येन पदं निष्पाच पश्चाद् यवाग्वा संबन्धे भविष्यति ॥५३॥
विद्-दृग्भ्यः कात्स्न्ये णम् ॥ ५. ४.५४ ॥
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पाद-४, सूत्र-५५-५७ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ ३२७
कार्यविशिष्टाद् व्याप्यात् परेभ्यस्तुल्यकर्तृ के प्राक्कालेऽर्थे वर्तमानेभ्यो विदिभ्यो दृशेश्च धातोः संबन्धे णम् वा भवति । विद्यतेरकर्मकत्वात् तद्वस्त्रियो विदयो गृह्यन्ते।
अतिथिवेदं भोजयति, यं यमतिथि जानाति लभते विचारयति वा तं तं सर्व भोजयतीत्यर्थः । कन्यादर्श वरयति, यां यां कन्यां पश्यति तां तां सर्वा वरयति । बहुवचनात् त्रयाणामपि विदीनां ग्रहणम्, अन्यथा * निरनुबन्धग्रहणे न सानुबन्धकस्य * इत्युपतिष्ठेत । कात्स्य॑ इति किम् ? अतिथि विदित्वा भोजयति, कन्यां दृष्ट्वा वरयति ॥५४॥
__ न्या० स०-विदृग्भ्यः-अतिथिवेदमिति-अतिथि विदित्वा वित्त्वा वा । वरयतीतिबरण ईप्सायाम् । न सानुबन्धकस्येति-ततो विद्लुतीत्यस्य न स्यात् ।
यावतो विन्द-जीवः॥ ५. ४, ५५ ॥
काय॑विशिष्टाद् व्याप्यात यावच्छन्दात् पराभ्यां विन्द-जीविभ्यामेककर्तृ केऽर्थे वर्तमानाभ्यां धातोः संबन्धे णम् वा भवति । विन्वेति शनिदेशाल्लाभार्थस्य ग्रहणम् ।
यावद्वेदं भुक्ते, यावल्लमते तावद भुङ्क्ते, इत्यर्थः । यावज्जीवमधीते, यावज्जीवति तावदधीते इत्यर्थः । जीवेः पूर्वकालासंभवाद् अपूर्वकाल एव विधिः ॥५५॥
न्या० स०-यावतो-जीवेः पूर्वकालासंभवादिति-विशेषणयावत्योगे जीवनादुत्तरकालमध्ययनस्यासंभवात् द्वयोरपि युगपदुपपत्तौ जीवतेरपूर्वकाल एव प्रत्ययः, एतच्चोपलक्षणं विदेरप्यपूर्वकाल एव, तथाहि-भोजनक्रियायामारब्धायामपरिसमाप्तायां परिवेषणादिना भोजनाहलाभस्य समानकालत्वात् यद्यपि भोजनादौ भोजनार्हद्रव्यलाभस्य प्राक्कालत्वमपि संभवति तथापि न विवक्षितमिति स्पष्टतया नोक्तम, अत एव पक्षे क्त्वाप्रत्ययो न दक्षितः, तस्य प्राक्काल एव विधानात् ।
चर्मोदरात् पूरेः॥५. ४. ५६ ॥
व्याप्याभ्यां चर्मोदरशम्दाभ्यां परादेक-कर्तृ केऽर्थे वर्तमानात् पूरयतेर्धातोः संबन्धे णम् वा भवति । चर्मपूरमास्ते, चर्म पूरयित्वाऽऽस्ते इत्यर्थः । उदरपूर शेते, उदरं पूरयित्वा शेते इत्यर्थः ॥५६॥
न्या. स-चर्मोदरात-पूरयतेतिोरिति-पूरेरिति णिगि तदभावे च निर्देशस्य समानत्वेऽप्यणिगन्तस्याऽकर्मकत्वात् चर्मोदराभ्यां कर्मभ्यां संबन्धानुपपत्तेः "पूरैचि आप्यायने" इत्यस्य णिगन्तस्यैव ग्रहणं, तस्यैव सकर्मकत्वादित्याह-पूरयतेरित्यादि।
चर्मपूरमास्ते इत्यादि-यावत् पूरणं न संपन्नं तावदासनं शयनं च न करोति इति पूरणस्य प्राक्कालता, अतः पर्यायः क्त्वान्तो दशितः ।
वृष्टिमान ऊलुक चास्य वा ।। ५. ४. ५७ ॥
व्याप्यात परात् पूरयतेर्धातो: संबन्धे णम् वा भवति, प्रस्य च पूरयतेस्कारस्य लुग वा भवति, समुदायेन चेद् वृष्टिमानं-वृष्टीयता गम्यते ।
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वृहद्वृत्ति - लघुन्यास संवलिते [ पाद- ४, सूत्र - ५८-६०
rtores वृष्टो मेघः, गोष्पदपूरं वृष्टो मेघः, सीताप्रं सीतापूरं वृष्टो मेघः, यावता गोष्पदादिपूरणा भवति तावद् वृष्ट इत्यर्थः । अस्येति ग्रहणादुपपदस्य न भवति - मूषकबिलपूरं दृष्टो मेघः । गोष्पदप्रमिति प्रातेर्धातोः "आतो डोऽह्वावाम: " ( ५-१-७६ ) इति डेन, गोष्पदपूर मित्यणा च क्रियाविशेषणत्वे सिध्यति, एवं सर्वे णमन्ताः प्रयोगाः; तत्र
विधानमव्ययत्वेन तरामाद्यर्थमनुस्वारश्रवणार्थं च तेन 'गोष्पदप्रतराम, गोष्पदप्रतमाम्, गोष्पदरूपं गोष्पद-कल्पं देश्यं देशीयम्, गोष्पदपूरं तरां तमां रूप कल्पं देश्यं देशीयम्' इत्यादि सिद्धं भवति, अन्यथा हि गोष्पदप्रतरं गोष्पदपूरतरमित्याद्येव स्यात् । 'गोष्पदप्रेण, गोष्पदप्रभवति, गोष्पदपूरेण, गोष्पदपूरीभवति' इत्यादिप्रयोगास्तु ड घञादि प्रत्ययान्ता
द्रष्टव्याः ॥ ५७ ॥
३२८ ]
न्या० स० - वृष्टिमाने-मानशब्दः करणसाधनो भावसाधनो वा ततः कर्म्मषष्ठी समासः । क्रियाविशेषणत्व इति स्थिते तु न क्रियाविशेषणत्वं भावसाधनत्वेन सामानाधिकरण्याभावात्, गोष्पदं प्रातीत्यादी कर्तृ साधनत्वात् सामानाधिकरण्ये सति क्रियाविशेषणत्वमुपपद्यते ।
एवं सर्वे णमन्ता इति एतत् सूत्रोपात्ताः सीताप्रमित्यादय: ।
चेलार्थात् क्नोपेः ।। ५ ४.५८ ॥
चेलार्थात् व्याप्यात् परात् क्नोपयतेस्तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानात् वृष्टिमाने गम्यमाने धातोः संबन्धे णम् वा भवति ।
चेलक्नोपं वृष्टो मेघः, वस्त्रक्नोपम्, बसनक्नोपम्; यावता चेलं क्नूयते - आर्द्राभवति तावद् वृष्ट इत्यर्थः । अर्थग्रहणादत्र स्वरूप- पर्याय विशेषाणां त्रयाणामपि ग्रहणम्, तेन- 'पटिकावनोपम्, कम्बलक्नोपम्' इत्यादौ चेलविशेषादपि भवति । अयमप्यप्राक्काले विधिः ।। ५८ ।।
गात्र- पुरुषात् स्नः ।। ५. ४, ५१ ॥
गात्र- पुरुषाभ्यां व्याप्याभ्यां परादन्तर्भू तथ्यर्थात् स्नातेस्तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानात् वृष्टिमाने गम्यमाने धातोः संबन्धे णम् वा भवति
1
गात्रस्नायं वृष्टो मेघः, पुरुषस्नायं वृष्टो मेघः; यावता गात्रं पुरुषश्व स्नाप्यते तावद् वृष्ट इत्यर्थः । इदं केचिदेवेच्छन्ति ॥ ५६ ॥
न्या० स०- गात्र पुरुष - अन्तर्भू तण्यर्थादिति - एतेन उपपदयोः कर्मत्वमानीतम् ।
सति ।
शुष्क-चूर्ण-रूक्षात् पिषस्तस्यैव ।। ५. ४. ६० ॥
शुष्क- चूर्ण-रुक्षेभ्यो व्याप्येभ्यः परात् विषेर्णम् वा भवति, तस्यैव धातोः संबन्धे ordi fraft, शुष्कं पिनष्टीत्यर्थः एवं चूर्णपेषम्; रूक्षपेषम् ; शुष्कपेषं पिष्टः,
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पाद-४, सूत्र-६१-६४ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ ३२९
शुष्कपेषं पेष्टव्यः, शुष्कपेषं पिष्यते, क्तादिभिरूक्तेऽपि व्याप्ये तदुपपदताऽस्त्येव । प्रयोगानुप्रयोगक्रिययोरेक्यात तुल्यकर्तृकत्वं प्राक्कालत्वं च नास्तीत्यत्र प्रकरणे पक्षे क्त्वा न भवति । घनादय एव तु भवन्ति-शुष्कस्य पेषं पिनष्टि, सामान्यविशेषभावविवक्षया च धातुसंबन्धः । यदाहुः-सामान्यपुषेरवयवपुषिः कर्म भवतीति । कश्चित् तु 'सामान्यविशेषविवक्षयाऽत्रापि क्रियाभेदोऽस्तीति तुल्यकर्तृकत्वं प्राक्कालत्वं च, तेन-क्त्वाऽपि, निमूलं कषित्वा कषति' इत्यादि मन्यते ।।६०॥
__ न्या० स०-शुष्क चूर्ण-शुष्कपेषामित्यादि-क्रियाविशेषणेभ्य: 'अव्ययस्य' ३-१-२१ इत्यमो लुप् । तदुपपदताऽस्त्येवेति-शुष्कलक्षणविशेषकर्मोपपदता।
__सामान्यविशेषभावविवक्षयेति-अन्यथा प्रयोगो हि योगपद्येन नेष्यते इत्यर्थाभेदात्तस्यैव धातोरनुप्रयोगो न स्यात् ।
सामान्यपुषेरिति-तैः 'स्वस्नेहन' ५-४-६५ इति सूत्रे एतदुक्तमत्र तु प्रकरणात् कथितमिति पुषेरिति संशोध्य पिषेरिति न कर्त्तव्यं, सामान्यपिषेरनुप्रयोगे पिनष्टीत्यत्र ।
___ कर्म भवतीति-ननु शुष्कपेषमित्यादि क्रियाविशेषणं तत्कथं कर्म भवति ? सत्यं, तन्मते क्रियाविशेषणस्यापि कर्मता ।
कृग-ग्रहोऽकृत-जीवात् ।। ५. ४. ६१॥
'अकृत जीव' इत्येताम्यां व्याप्याभ्यां पराभ्यां यथासंख्यं करोति-गृह्णातिभ्यां तस्यैव धातोः संबन्धे सति णम् वा भवति ।
प्रकृतकारं करोति, अकृतं करोतीत्यर्थः । जीवनाहं गृह्णाति, जीवन्तं गृह्णातीत्यर्थः ।६१॥ निमूलात् कषः ॥ ५. ४. ६२ ॥
निमूला व्याप्यात् पराद कषस्तस्यैव धातोः संबन्धे सति णम् वा भवति । निमूलमित्यत्रात्ययेऽव्ययीभावः, निर्गतानि मूलान्यस्येति बहुव्रीहिर्वा ।
निमूलकाषं कषति, निमूलं कषतीत्यर्थः, पक्षे-निमूलस्य का कषति ॥६२॥ हनश्च समूलात् ।। ५. ४.६३ ॥
समूलशब्दाद व्याप्यात् परावन्तेः कषेश्च तस्यैव धातोः संबन्धे सति णम् वा भवति । समूलमिति साकल्येऽव्ययीभावो बहुव्रीहिर्वा ।
समूलधातं हन्ति, समूलं हन्तीत्यर्थः । समूलकाषं कषति, समूलं कषतीत्यर्थः ।६३। करणेभ्यः ॥ ५, ४. ६४ ॥
करणात् कारकात् पराद्धन्तेस्तस्यैव धातोः संबन्धे सति णम् वा भवति । पाणिघातं कुडयमाहन्ति, पादघातं शिलां हन्ति, पाणिना पादेन वा हन्तोत्यर्थः । बहुवचनं व्याप्त्यर्थम्,
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३३० ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-६५-६८
तेन-करणपूर्वाद्धिसार्थादपि हन्तेरनेनंव णम्-अस्युपघातमरीन् हन्ति, शरोपघातं मृगान् हन्ति, तथा च सति नित्यसमासस्तस्यैव धातोरनुप्रयोगश्च सिध्यति ।।६४।।
न्या० स०-करणेभ्य:-अनेनैव णमिति 'हिसार्थादेकाप्यात्' ५-४-७४ इत्यनेन । नित्यसमास इति-हिसार्थादित्यनेन तु प्रत्यये 'तृतीयोक्तं वा' ३-१-५० इति वा स्यात् ।
स्व-स्नेहनार्थात् पुष-पिषः ॥ ५. ४. ६५ ॥
प्रात्मा आत्मीयं ज्ञातिर्धनं च स्वम्, स्निह्यते-सिच्यते येनोवकाविना तत् स्नेहनम्, स्वार्थात् स्नेहनार्थाच्च करणवाचिनः पराद् यथासंख्यं पुषः पिषश्च तस्यैव धातोः संवन्धे सति णम् वा भवति ।
स्वपोषं पुष्णाति पुष्यति पोषति वा, एवम्-आत्मपोषं, गोपोषं, महिषीपोषं, पितृपोषं, मातृपोषं, धनपोषं, रेपोषम्, स्वादिभिः पुष्णातीत्याद्यर्थः । स्नेहनार्थात-उदपेषं पिनष्टि, एवं-घृतपेषं, तैलपेषं, क्षीरपेषम्, उदकादिना पिनष्टोत्यर्थः ।।६५।।
हस्तार्थाद ग्रह-वर्ति वृतः ॥ ५. ४. ६६ ॥
हस्तार्थात् करणवाचिन: शब्दात् परेभ्यो ग्रह-वति-वृद्भयस्तस्यैव धातोः संबन्धे सति णम् वा भवति । हस्तग्राहं गृह्णाति, एवं-करप्राहम्, पाणिग्राहम हस्तेन गृह्णातीत्यर्थः । वति-वृत इति वर्ततेय॑न्तस्याण्यन्तस्य च ग्रहणम् ।
__ हस्तवतं वर्तयति, करवर्तम् , पाणिवर्तम्। हस्तेन वर्तयतीत्यर्थः । हस्तवत वर्तते, करवर्तम्, पाणिवर्तम्; हस्तेन वर्तत इत्यर्थः । अण्यन्तान्नेच्छन्त्येके ॥६६॥
बन्धेर्नाम्नि ।। ५. ४.६७ ॥
बन्धेरिति प्रकृति मविशेषणं च । बन्धेर्बन्ध्यर्थस्य बन्धनस्य यन्नाम-संज्ञा तद्विषयात् करणवाचिनः पराद् बन्धेर्षातोस्तस्यैव धातोः संबन्धे सति णम् वा भवति ।
कौञ्चबन्ध बद्धः, मर्कटबन्धः बद्धः, मयूरिकाबन्धं बद्धः, गोबन्धं बद्धः, महिषीबन्धं बद्धः, अट्टालिकाबन्धं बद्धः, चण्डालिकाबन्धं बद्धः, कौश्चादीनि बन्धनामधेयानि, क्रौञ्चाद्याकारो बन्धः क्रौञ्चादिरित्युच्यते, तेन बन्धेन बद्ध इत्यर्थः । केचित तु उपपदप्रकृतिप्रत्ययसमुदायस्य क्रौञ्चबन्धमित्यादेः संज्ञात्व मन्यन्ते, व्युत्पत्ति च क्रौञ्चेन क्रौञ्चाय क्रौञ्चाद वा बन्धनमित्यादि यथाकथंचित् कुर्वन्ति, तन्मतसंग्रहार्थ नाम्नीति प्रत्ययान्तोपाधित्वेन व्याख्येयम् ।।६७॥
__ न्या० स०-बन्धेर्नाम्नि-बन्धिरिति यदा प्रकृतिस्तदा स्वरूपे यदा तु नामविशेषणं तदाऽर्थे इ: प्रत्ययः । प्रत्ययान्तोपाधित्वेनेति-प्रत्ययान्तं चेन्नाम भवतीत्यर्थः ।
आधारात् ।। ५. ४.६८ ॥
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पाद,-४ सूत्र-६९-७२ ] श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[३३१
आधारवाचिन: पराद् बन्धेस्तस्यैव धातोः संबन्धे णम् वा भवति । चक्रबन्धं बद्धः, चारकबन्धं बद्धः, कूटबन्धं बद्धः, गुप्तिबन्धं बद्धः; चक्रादिषु बद्ध इत्यर्थः । 'ग्रामे बद्धः, हस्ते बद्धः' इति बहुलाधिकारान्न भवति ॥६॥
न्या० स०-आधाराव-बहुलाधिकारान्न भवतीति-ग्रामबन्धं बद्ध इत्यादि न भवतीत्यर्थः ग्रामे बन्धं बद्ध इति तु घत्रि भवत्येव । आधारादित्यनेन णमि डस्युक्तत्वात् समासः स्यात्, णम् च बाहुलकान्नेष्यते ।
कर्तीव-पुरुषान्नश-वहः ५. ४.६१ ॥
कर्तृवाचिभ्यां जीव-पुरुषाभ्यां पराभ्यां यथासंख्यं नशि-वहिभ्यां तस्यैव धातोः संबन्धे सति णम् वा भवति ।
. जीवनाशं नश्यति, जीवन् नश्यतीत्यर्थः; पुरुषवाहं वहति, पुरुषः प्रेष्यो भूत्वा वहतीत्यर्थः । कर्तु रिति किम् ? जीवेन नश्यति, पुरुषं वहति ।।६६॥
न्या० स० कर्तु:-जीवनाशमिति-जीवतीत्यच् , तस्य कर्निशनम् । पुरुषः प्रेष्यो भूत्वेति-पृणाति प्रेषणमित्यत्र पुरुषः क्रियाशब्दः प्रेष्यपर्यायः, अनेकार्थत्वाद् धातूनाम् ।
जीवेन नश्यतीति-इदमर्थकथनं प्रयोगस्तु अस्मिन्नर्थे जीवनाशं नश्यतीत्यादि न भवति, जीवेन नाशं घनन्तं नश्यतीति भवति न तु जीवनाशम् । पुरुषं वहतीति-पुरुषस्य वाहमिति तु भवति, न तु पुरुषवाहमिति ।
ऊर्ध्वात् पूः-शुषः ।। ५. ४. ७० ॥
कर्तृवाचिन ऊर्ध्वशब्दात परात् पूरः शुषश्च तस्यैव धातोः संबन्धे सति णम् वा भवति । पूरीत्यनिर्देशात् पूर्दैवादिको, न चौरादिकः । ऊर्ध्वपूरं पूर्यते, ऊर्ध्वः पूर्यत इत्यर्थः। ऊर्ध्वशोषं शुष्यति, उर्ध्वः शुष्यतीत्यर्थः ।।७०॥
व्याप्याच्चेवात् ।। ५. ४. ७१ ॥
व्याप्यात. कर्मणश्चकारात् कतुश्चेवात्इवार्थादुपमानार्थात् पराद् धातोस्तस्यैव धातोः संबन्धे सति णम् वा भवति ।
सुवर्णनिधायं निहितः, सुवर्णमिव निहित इत्यर्थः । एवं रत्ननिधायम् , घृतनिधायम् । शाकक्लेशं क्लिष्टः, ओदनपाचं पक्वः । कर्तु:-काकनाशं नष्टः, काक इव नष्ट इत्यर्थः; एवं-जमालिनाशं नष्टः; अभ्रविलायं विलोनः, अभ्रमिव विलीन इत्यर्थः ॥ ७१।।
न्या० स०-व्याप्याच्चेवात-जमालिनाशमिति-जमतीत्यच , जमं भोजनकारक अलति वारयति इत्येवंशीलः तदा 'अजातेः शीले' ५-१-१५४ णिन् , अलिरिव वा तत्त्वपुष्पैकदेश चुम्बनात् , जमश्चासावलिश्च तस्येव नशनम् ।
उपात् किरो लवने ॥ ५. ४. ७२ ॥
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३३२ ]
बृहवृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-७३-७५
उपपूर्वात किरतेलवनेऽर्थे वर्तमानस्यान्यस्य धातोः संबन्धे सति णम् वा भवति । लवन इति वचनात् तस्यैवेति निवृत्तम् ।
__उपस्कारं मद्रका लुनन्ति, विक्षिपन्तो लुनन्तीत्यर्थः । लवन इति किम् ? उपकीर्य गच्छति ।। ७२ ॥
न्या० स०-उपाकिरो-तस्येवेति निवृत्तमिति-इत ऊर्ध्वं तस्यैवान्यस्यैवेति कामचारः परं यत्र तस्यैव तत्र क्रियाविशेषणमेव ।
विक्षिपन्त इति-पूर्वं विक्षिपन्तः पश्चाल्लुनन्तीत्यर्थः । दंशेस्तृतीयया ॥ ५. ४. ७३ ॥
तृतीयान्तेन योगे उपपूर्वात् तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानाद् दंशेरन्यस्य धातोः संबन्धे सति णम् वा भवति ।
मूलकेनोपदंशं भङ्क्ते, मूलकोपदंशं भुङ्क्ते ; आव्रकेणोपदंशं भुङ्क्ते, आर्द्रकोपदंशं भुङ्क्ते; पक्षे-मूलकेनोपदश्य भुङ्क्ते, आर्द्रकेणोपदश्य भुङ्क्ते । मूलकाद्युपदंशेः कर्मापि प्रधानस्य भुजेः करणमिति ततीयव भवति । प्रधान क्रियोपयुक्त हि कारके गणक्रिया न स्वानुरूपां विभक्तिमुत्पादयितुमलमप्रधानत्वादेव, यथेष्यते ग्रामो गन्तु, पक्त्वा भुज्यते ओवन इति । यदा त्ववयवक्रियापेक्षया पूर्वकालविवक्षायां क्त्वा क्रियते तदा क्रियाभेदात् संबन्धभेदे द्वितीयाऽपि भवति-मूलकमुपदश्य भुङ्क्ते इति ।। ७३ ।।
हिंसा देकाप्यात् ॥ ५. ४. ७४ ॥
हिंसा प्राण्युपघातस्तदर्थाद् धातोः संबध्यमानेन धातुना सहकाप्यात्-एककर्मकात् तृतीयान्तेन योगे तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानात् णम् वा भवति ।
दण्डेनोपघातं गाः सादयति, दण्डोपघातं गाः सादयति । खड्गेन प्रहारं खड्गप्रहारं शत्रून् विजयते, दण्डेनाताई दण्डाताडं गाः कलयति; पक्षे-दण्डेनोपहत्येत्यादि । हिंसादिति किम् ? चन्दनेनानुलिप्य जिनं पूजयन्ति । एकाप्यादिति किम् ? दण्डेनाहत्य चौरं गोपालको गाः खेटयति ॥ ७४ ।।
न्या० स०-हिसार्थादे-दण्डेनोपघातमिति दण्डशब्दात् हेतौ करणे वा तृतीया, ननु करणोपपदात् हिंसादपि 'करणेभ्यः' ५-४-६४ इति प्रवर्तते, तत्र च तस्यैवेत्युक्तमिति तस्यैवेति व्यावृत्तिः प्राप्नोति ? सत्यं,-'करणेभ्यः' ५-४-६४ इति सूत्रस्य तस्यैवेति व्यावृत्तिर्गत्यर्थस्यापि हन्तेश्चरितार्था इति करणोपपदादपि ।
उपपीड-रुध-कर्षस्तत्सप्तम्या ॥५. ४. ७५ ॥
तया तृतीयया युक्ता सप्तमी-तत्सप्तमी, तदन्तेन योगे उपपूर्वेभ्यः पीड-रुध-कर्षतिभ्यस्तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानेभ्यो धातोः संबन्धे णम् वा भवति ।
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पाद - ४, सूत्र ७६-७७ ] श्री सिद्ध हेमचन्द्र शब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः [ ३३३
पाश्वभ्यामुपपीडं शेते, पार्श्वोपपीडं शेते; पार्श्वयोरुपपीडं शेते, पार्श्वोपपीडं शेते; व्रजेनोपरोधं व्रजोपरोधं गाः सादयति, व्रजे उपरोधं व्रजोपरोधं गाः स्थापयति; पाणिनोees पाogues धानाः पिनष्टि, पाणावुपकर्षं पाण्युपकर्ष धाना गृह्णाति । कर्ष इति शनिर्देशाद् भौवादिकस्य 'कर्षन्ति शाखां ग्रामम्' इति द्विकर्मकस्याकर्षणार्थस्य ग्रहणम्, न तु तौदादिकस्य पञ्चभिर्हलै : कृषतीति विलेखनार्थस्य, तेनभूमावुपकृष्य तिलान् वर्षात, हलेनोपकृष्य वपतीत्यत्र न भवति । अन्ये त्वनयोरर्थभेदमप्रतिपद्यमानास्तौदादिकादपीच्छन्ति ।
उपेति किम् ? पार्श्वेन निपीड्य तिष्ठति । श्रन्ये तूपपूर्वादेव पीडेरिच्छन्ति, - कर्षाभ्यां तु कामचारेण तेन-व्रजरोधं गाः स्थापयति, हस्तरोधं दधद्धनुः, व्रजेन रोधम् हस्तेन रोधम् । उपपूर्वादपि व्रजोपरोधं गाः स्थापयति । अन्योपसर्गपूर्वादपि व्रजानुरोध गाः स्थापयति, एवं पाणिकर्ष धाना गृह्णाति, पाणौ कर्ष, पाणिना कर्षमित्याद्यपि भवति ||७||
न्या० स०-उपपीड-पीडश्च रुधश्च कर्षश्च पीडरुधकर्षम्, उपः पूर्वो यस्मात्तदुपपूर्वं उपपीडं च तत् पीडरुघकर्षं चेति कर्म्मधारयः तस्मात्, निर्देशस्य सौत्रत्वात् कर्षशब्दाऽकारलोप: । रुकर्षाभ्यां त्विति - उपपूर्वाभ्यामन्योपसर्गपूर्वाभ्यां निरुपसर्गाभ्यां चेत्यर्थः ।
प्रमाण- समासयोः ॥ ५. ४. ७६ ॥
आयाममानं प्रमाणं, समासत्तिः संरम्भपूर्वकः संनिकर्ष:, तयोर्गम्यमानयोस्तृतीयान्तेन सप्तम्यन्तेन च योगे धातोस्तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानाद् धातोः सम्बन्धे सति णम् वा भवति ।
द्वयङ्गुलेनोत्कर्षं द्वद्यङ्गुलोत्कर्षं गण्डिका श्छिनत्ति, द्वघङ्गुले उत्कर्ष द्वघगुलोhi गण्डिकाछिनत्ति । समासत्तौ केशग्रहं केशग्राहं युध्यन्ते, केशेषु ग्राहं केशग्राहं युध्यन्ते, एवं हस्तग्राहम् अस्यपनोदं युध्यन्ते, युद्धसंरम्भादत्यन्तं संनिकृष्य युध्यन्त इत्यर्थः । पक्षेद्वयङ्गुलेनोत्कृष्य द्वघङ्गुले उत्कृष्य गण्डिकाश्छिनत्ति, केशं गृहीत्वा केशेषु गृहीत्वा युध्यन्ते ।। ७६ ।।
न्या० स०-प्रमाणसमास-द्वयगुलेनोत्कर्षमिति - द्वयोरङ्गुल्योः समाहारः संख्याव्यय' ७-३ - १२४ इति ङः द्वे अङ्गुलीप्रमाणमस्येति तु न कर्त्तव्यं तस्मिन् हिन प्रमाणप्रतीतिः किंतु प्रमाणवतः द्वयङ गुलेन दैर्घ्यं परिछिद्य इक्ष्वादेर्गण्डिका श्छिनत्ति ।
पञ्चम्या त्वरायाम् ॥। ५. ४. ७७ ।।
त्वरा परीप्सा औत्सुक्यमिति यावत्, तस्यां गम्यमानायां पञ्चम्यन्तेन योगे धातोस्तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानाद् धातोः सम्बन्धे सति णम् वा भवति ।
4
शय्याया उत्थायं शय्योत्थायं धावति, एवं नाम त्वरते यदावश्यकादिकमपि नापेक्षते । स्तनरन्ध्रादपकर्षं स्तनरन्ध्रापकर्षं पयः पिबति, एवं नाम त्वरते यत् पात्रे दोहमप्यप्रतीक्ष्य मुख एव पयः पिबतीत्यर्थः । पक्ष - शय्याया उत्थाय धावति । त्वरायामिति किम् ? आसनादुत्थाय गच्छति ॥७७॥
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३३४ ]
बृहवृत्ति लघुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-७८-८१
द्वितीयया ॥ ५. ४.७८ ॥
द्वितीयान्तेन योगे धातोस्तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानात् त्वरायां गम्यमानायां धातो: सम्बन्धे णम् वा भवति ।
लोष्टान् ग्राहं लोष्टग्राहं युध्यन्ते, यष्टोहिं यष्टिग्राहं युध्यन्ते, दण्डमुद्यामं दण्डोद्यामं धावति, एवं नाम योधु त्वरन्ते यदायुद्धग्रहणमपि नाद्रियन्ते यत्किचिदासन्नं तद् गृह्णन्ति ; पक्षे लोष्टान् यष्टीहीत्वा युध्यन्ते । त्वरायामित्येव-खड्गं गृहीत्वा युध्यन्ते । योगविभाग उत्तरार्थः ।। ७८ ।।
स्वाङ्गेनाऽध्रवेण ॥ ५. ४.७१ ॥
"अविकारोऽद्रवं मूर्तम्" इत्यादिलक्षणं स्वाङ्गम, यस्मिन्नङ्गे छिन्न भिन्ने वा प्राणी न म्रियते तदध्रुवम् , अध्रुवेण स्वाङ्गेन द्वितीयान्तेन योगे धातोस्तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानात धातोः संबन्धे णम् वा भवति ।
भ्र वौ विक्षेपं भ्र विक्षेपं जल्पति, अक्षिणी निकाणमक्षिनिकाणं हसति, केशान् परिधायं केशपरिधायं नृत्यति, प्रतिमाया: पादवनुलेपं पादानुलेपं प्रणमति । पक्षे-भ्र वौ विक्षिप्य जल्पतीत्यादि । स्वाञ्जेनेति किम् ? कफमुनमूल्य जल्पति । अध्रुवेणेति किम् ? . शिर उत्क्षिप्य कथयति ।।७६॥
परिक्लेश्येन ॥ ५. ४.८० ॥ __ परि-समन्तात् किश्यमानं-पीड्यमान-परिकेश्यम् , तेन स्वाङ्गेन द्वितीयान्तेन योगे तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानाद् धातोर्धातो: संबन्धे णम् वा भवति । ध्रुवार्थोऽयमाऽम्भः ।
___ उरांसि प्रतिपेषमुरःप्रतिपेषं युध्यन्ते, शिरांसि च्छेदं शिरश्छेदं युध्यन्ते, उरांसि परितः पोडयन्तः शिरांसि छिन्दन्तो युध्यन्त इत्यर्थः । पक्षे-उरांसि प्रतिपिष्य, शिरांसि छित्त्वा ।। ८० ॥
विश-पत-पद स्कन्दो वीप्ला-ऽभीक्ष्ण्ये ॥ ५. ४. ८१ ॥
श्रुतत्वाद् विश्यादिक्रियाभिः साकल्येनोपपदार्थानां व्याप्तुमिच्छा-वीप्सा, प्रकृत्यर्थस्य पौनःपुन्येनासेवनम्-प्राभीक्ष्ण्यम् , यदाहुः-सुप्सु वीप्सा, तिषु अव्ययकृत्सु चाभीक्ष्ण्यमिति । द्वितीयान्तेन योगे विशादिभिस्तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानेभ्यो वीप्सायामाभीक्ष्ण्ये च गम्यमाने धातोः सम्बन्धे सति णम् वा भवति ।।
गेहं गेहमनुप्रवेशं गेहानुप्रवेशमास्ते, गेहमनुप्रवेशमनुप्रवेशं गेहानुप्रवेशमास्ते; गेहंगेहमनुप्रपातं गेहानुप्रपातमास्ते, गेहमनुप्रपातमनुप्रपातं गेहानुप्रपातमास्ते; गेहं गेहमनुप्रपादं गेहानुप्रपादमास्ते, गेहमनुप्रपादमनुप्रपादं गेहानुप्रपादमास्ते; गेहं गेहमवस्कन्दं गेहावस्कन्दमास्ते, गेहमवस्कन्दमवस्कन्दं गेहावस्कन्दमास्ते । पक्षे-'गेहं गेहमनुप्रविश्यास्ते, गेह
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पाद-४, सूत्र-८२-८३ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[ ३३५
मनुप्रविश्याऽनुप्रविश्यास्ते' इत्यादि । वीप्सायामुपपदस्य, प्राभीक्ष्ण्ये तु धातोद्विवचनम् । 'गेहानुप्रवेशमास्ते' इत्यादौ तु वीप्साभीक्षण्ये शब्दशक्तिस्वाभाव्यात् समासेनैवोक्ते, इति द्विर्वचनं न भवति । आभीक्षण्ये णम् सिद्ध एव विकल्पेनोपपदसमासार्थं वचनम्, तेन हि समासाभावः स्यात् । वीप्साभीक्ष्ण्य इति किम् ? गेहमनुप्रविश्यास्ते ।।८१॥
न्या० स०-विशपतपद-गेहानुप्रवेशमिति-वाच्यतया यद्यपि ते वीप्साभीक्ष्ण्ये समा. सस्य न विहिते, तथाप्यऽसावऽभिधानशक्तिस्वाभाव्यात्ते आचष्ट इति न तत् प्रतिपादनाय तत्र द्विर्वचनं प्रवर्तते ।
शब्दशक्तिस्वाभाव्यादिति-स्वभावे पर्यनुयोगो न हि । णम् सिद्ध एवेति-रूणम् चाभीक्ष्ण्ये' ५-४-४८ इति अनेन, न वाच्यं 'खित्यनव्य' ३-२-१११ इति मोन्तप्राप्तिः यतस्तस्मिन्समासाभावे विभक्तेरलुपि प्राप्त्यभावात् । विकल्पेनेति-'तृतीयोक्तं वा' ३-१-५० इत्यनेन ।
कालेन तृष्यस्वः क्रियान्तरे ॥ ५. ४. ८२ ॥
क्रियामन्तरयतीति-क्रियान्तरः क्रियाव्यवधायकः, तस्मिन्नर्थे वर्तमानाम्यां तृष्यसूभ्यां धातुभ्यां द्वितीयान्तेन कालवाचिना योगे धातो: सम्बन्धे णम् वा भवति ।
ब्द्यहं तर्ष व्यहतर्ष गावः पिबन्ति, व्यहमत्यासं व्यहात्यासं गावः पिबन्ति, तर्षेणात्यासेन च गवां पानक्रिया व्यवधीयते, प्रद्य पीत्वा व्यहमतिक्रम्य पिबन्तीत्यर्थः । अन्तमुहर्तमत्यासमन्तमुहूर्तात्यासं सम्यक् पश्यन्ति, सम्यग् दृष्ट्वाऽन्तर्मुहूर्त मिथ्यात्वमनुभूय पुनः सम्यग्दृष्टयो भवन्तीत्यर्थः । कालेनेति किम् ? योजनं तषित्वा गावा पिबन्ति, योजनमत्यस्य गावः पिबन्ति । तृष्यस्व इति किम् ? व्यहमुपोष्य भुङ्क्ते । क्रियान्तरे इति किम् ? अहरत्यस्येषून् गतः, इहात्यासेनाहरिषवश्व व्याप्यन्ते न तु गतिक्रिया व्यवधीयते ।८२
- न्या० स०-कालेन-द्वयोरह्नोः समाहारः द्वे अहनी समाहृते वा द्विगोरनह्नोऽट्' ७-३-९९ 'नोपदस्य' ७-४-६१ इत्यन्तलुक् । प्रहरत्यस्येति-अत्राऽत्यसनेन गतेर्व्यवधानं नास्ति, न हि गत्वा पुनरेकमहरत्यस्य गच्छतीत्येवंविधोऽर्थोऽत्र प्रतिपाद्यते कि तह्य हरिखूनत्यस्य गत इति ।
नाम्ना ग्रहा-ऽऽदिशः॥ ५. ४. ८३ ॥
नामशब्देन द्वितीयान्तेन योगे तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानाद् अहेरादिशश्च धातोः संबन्धे णम् वा भवति ।
नामानि ग्राहं नामग्राहमाह्वयति, नाम्नी देवदत्तो ग्राहं नामग्राहं देवदत्त आह्वयति; नामान्यादेशं नामादेशं ददाति । पक्षे-नाम गृहीत्वा दत्ते, नामाऽऽदिश्य दत्ते ।।८३॥
___न्या० स०-नाम्ना ग्रहा-नाम्नी देवदत्तो ग्राहमिति-यस्य येनाभिसंबन्धो दूरस्थस्यापि तेन स इति न्यायादेवदत्तपदेन व्यवधानेऽपि भवति ।
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३३६ ]
बृहद्वृत्ति-लघुन्याससंवलिते
[पाद ४, सूत्र-८४-८६
कृगोऽव्ययेनाऽनिष्टोक्तौ क्त्वा-णमौ ।। ५. ४.८४ ॥
अव्ययेन योगे करोतेस्तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानादनिष्टायामुक्तौ गम्यमानायां धातोः सम्बन्धे क्त्वाणमौ भवतः ।
ब्राह्मण ! पुत्रस्ते जातः, कि तहि वृषल ! नोचः कृत्वा नीचैःकृत्य कथयसि, कि तहि नोचैर्वृषल ! कारं वृषल ! नीचःकारं कथयसि, उच्चै म प्रियमाख्येयम् । ब्राह्मण ! कन्या ते गर्भिणी, कि तहि वृषल! उच्चैः कृत्वा, उच्चैःकृत्य, कथयसि, किं तहि उच्चवृषल ! कारं वृषलोच्चैःकारं कथयसि, नीच माप्रियमाख्येयम् । अनिष्टोक्ताविति किम? उच्चः कृत्वाचष्टेब्राह्मण ! पत्रस्ते जात इति, नीचैः कृत्वाऽऽचष्टे-ब्राह्मण ! कन्या ते गभिणी जातेति । अव्ययेनेति किम् ? ब्राह्मण ! पुत्रस्ते जातः, कि तहि वृषल ! मन्दं कृत्वा कथयसि, ब्राह्मण ! कन्या ते गमिणी जातेति कि तहि वृषल ! तारं कृत्वा कथयसि । वाऽधिकारेणैव पक्षे क्त्वायाः सिद्धौ समासाथ तद्विधानम् , अन्यथा हि णम एव पाक्षिकः समासः स्याव , न तु क्त्वः । क्त्वा चेत्यकृत्वा णविधानमुत्तरत्रोभयानुवृत्यर्थम् ॥४॥
तिर्यचाऽपवर्गे ॥ ५. ४. ८५ ॥
अपवर्ग:-क्रियासमाप्तिः समाप्तिपूर्वको वा विरामः, त्यागो वा । तस्मिन् गम्यमाने 'तिर्यच्' इत्यनेनाव्ययेन योगे करोतेस्तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानात धातोः सम्बन्धो क्त्वा मौ प्रत्ययौ भवतः ।
___तिर्यक्कृत्वा तिर्यक्कृत्य तिर्यकारमास्ते, समाप्य विरम्य वा उत्सृज्य वाऽऽस्ते इत्यर्थः । अपवर्ग इति किम् ? तिर्यकृत्वा काष्टं गतः ।।५।।
न्या० स०-तिर्यचापवर्गे-तिर्यक्कृत्येति-समाप्त्यादिद्योतकात्तिर्यकशब्दात् प्रथमा, वाचकाद् द्वितीया, तिर्यक् समाप्ति कृत्वा; द्योतकपक्षे समुदायेनार्थः कथ्यते तिर्यकारं. लक्षणेन ।
स्वाङ्गतश्च्व्य र्थे नाना-विना धार्थेन भुवश्च ॥ ५. ४.८६ ॥
स्वाङ्गमुक्तलक्षणम् , तस्प्रत्ययान्तेन स्वाङ्गेन व्यर्थवृत्तिभिर्नाना-विनाभ्यां धार्थप्रत्ययान्तश्च योगे भुवः कृगश्च तुल्यकर्तृ केऽर्थे वर्तमानात धातोः सम्बन्धे क्त्वा-णमौ भवतः । वचनभेदाद् धातु-प्रत्यययथासंख्यं नास्ति ।
मुखतो भूत्वा मुखतोभूय मुखतोभावमास्ते । मुखतः कृत्वा मुखतःकृत्य मुखतःकारमास्ते। पार्श्वतो भूत्वा पार्श्वतोभूय पार्श्वतोभावं शेते । पार्श्वतः कृत्वा पार्श्वत:कृत्य पार्श्वतःकारं शेते । मनाना नाना भूत्वा गतः-नाना भूत्वा नानाभूय नानाभावं गतः । अनाना नाना कृत्वा गतः-नाना कृत्वा नानाकृत्य नानाकारं गतः । एवं-विना भूत्वा विनाभूय विनाभावं गतः । विना कृत्वा विनाकृत्य विनाकारं गतः । धार्था धा-धमञ् एधा-ध्यमञः। द्विधा भूत्वा द्विधाभूय द्विधामावमास्ते । द्विधा कृत्वा द्विधाकृत्य द्विधाकारं गतः । द्वैधं भूत्वा
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पाद-४, सूत्र ८७-८६ ]
श्री सिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[३३७
द्वैधंभूय द्वैधंभावमास्ते। द्वधं कृत्वा द्वधंकृत्य द्वधंकारं गतः । द्वधा भूत्वा द्वेधाभूय द्वेधाभावमास्ते । द्वधा कृत्वा द्वधाकृत्य द्वेधाफारं गतः । ऐकध्यं भूत्वा ऐकध्यंभूय ऐकध्यंभावमास्ते । ऐकध्यं कृत्वा ऐकध्यंकृत्य ऐकध्यकारं गतः।
धणस्तु प्रकारविचालवदर्थत्वेनाधार्थत्वाद् अव्ययाधिकाराच्च निरासः । अस्यापि ग्रहणमित्यन्ये । अध्ययाधिकारादेव च-'मुखे तस्यति-मुखतः कृत्वा गत' इत्यत्र न भवति । स्वाङ्गेति किम् ? सर्वतो भूत्वाऽऽस्ते । तसिति किम् ? मुखे भूत्वा गतः। व्यर्थेति किम् ? नाना कृत्वा भक्ष्याणि भुङ्क्ते, द्विधा कृत्वा काष्ठानि गतः ।।८६॥
न्या० स०-स्वागन्तव्यर्थे-नानाभूत्वेति-च्च्यन्तानां 'गतिक्वन्य' ३-१-४२ इति नित्यं स इत्यत्राव्यन्ता एव । अवार्थत्वादिति-धार्थो कि प्रकारो विचालो वाऽयं तु तद्वति ।
___अव्ययाधिकाराच्चेति-अव्ययत्वाभावश्चास्य 'अधण्तस्वा' १-१-३२ इत्यत्र वर्जनात् । मुखतः कृत्वेति-सेः 'दीर्घङ याब' १-४-४५ लुक भ्वादित्वात् 'अभ्वादेः' ५-४-६० इति न दीर्घः, मुखतः करणं पूर्व मुखे उपक्षीणो यः स कृत्वा गत इत्यर्थः ।
तूष्णीमा ॥ ५. ४.८७॥
तूष्णींशम्देन योगे भवतेर्धातो: संबन्धे क्त्वा-णमौ भवतः तूष्णीं भूत्वा तूष्णीभूय तूष्णींभावमास्ते ।। ८७ ॥
न्या० स०-तूष्णीमा-तूष्णीं भूत्वेति-तूष्णींशब्दो मौने तद्वति च तेनायमों मौनेन सह भूत्वा मौनवान् वा भूत्वास्त इति ।
श्रानुलोम्येऽन्वचा ॥ ५. ४. ८८ ॥
आनुलोभ्यमनुकूलता परचित्ताराधनम् , 'अन्वच्' इत्यनेनाव्ययेन योगे भवतेस्तुल्यकतृकेऽर्थे वर्तमानादानुलोम्ये गम्यमाने धातोः संबन्धे क्त्वा-रणमौ भवतः ।
अन्वम् भूत्वा अन्वगभूय अन्वग्भावमास्ते, अनुकूलो भूत्वा तिष्ठतीत्यर्थः। भानुलोम्य इति किम् ? अन्वम् भूत्वा विजयते शत्रुः, पश्चाद् भूत्वेत्यर्थः । तिर्यचाऽन्वचेति शब्दानुकरणात , तिरश्चाऽनूचेति न भवति ।। ८८ ।।
न्या० सं०-आनुलोम्येऽन्वचा-प्रव्ययेनेति अन्वचित्यस्य दिक्शब्दत्वाऽभावाद् घाप्रत्यायाऽभावेऽपि स्वरादिपाठादऽव्ययत्वम् ।
इच्छार्थे कर्मणः सप्तमी ॥ ५, ४. ८६ ॥
इच्छार्थे धाता उपपदे तुल्यकतृकेऽर्थे वर्तमानात कर्मभूताद् धातोः सम्बन्धे सप्तमी विभक्तिर्भवति । कर्मत्वं तुल्यकर्तृकत्वं च धातोः श्रुतत्वादुपपदापेक्षे।
भुजीयेतीच्छति, भुञ्जीयेति वाञ्छति, भुजीयेति कामयते । इच्छार्थ इति किम ? भोजको व्रजति । कर्मण इति किम् ? इच्छन् करोति, अत्र करोतीच्छत्योर्लक्ष्यलक्षणभावो न तु कर्म-क्रियाभावः। तुल्यकर्तृके इति किम् ? इच्छामि भुङ्क्तां भवान् ।।६।
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३३८ ]
बृहद्वृत्ति-लधुन्याससंवलिते
[पाद-४, सूत्र-६०
न्या० स०-इच्छार्थे कर्मणः-उपपदे इति-उप समीपे पदमिति कृत्वा इच्छार्थेऽग्रेऽपि स्थिते भवति ।
भोजको व्रजतीति-अत्र कर्मतापि नास्तीति व्यावृत्तेर्व्यङ्गविकलत्वमिति न वाच्यं, यतो व्रजति कोऽर्थो बदध्या प्राप्नोति? किं तत् कर्मतापन्नं भावि भोजनं यतो भोजक इत्यत्र भविष्यदर्थे णकः, यद्वा गत्यर्थत्वात् ज्ञानार्थो वा ततो व्रजतीति कोऽर्थः ? अध्यवस्यति जानाति इत्येक एवार्थः। . शक घृष-ज्ञा-रभ लभ-सहा-ऽहे-ग्ला-घटा-ऽस्ति-समर्थार्थे च तुम्
॥५. ४.१०॥ शक्याद्यर्थेषु धातुषु समर्थार्थेषु नामसु च चकराविच्छार्थेषु धातुषूपपदेषु कर्मभूताद् धातोस्तुम् प्रत्ययो भवति ।
शक्नोति पारयति वा भोक्तुम्, घृष्णोत्यध्यवस्यति वा भोक्तुम्, जानाति वेत्ति वा भोक्तुम, प्रारभते प्रक्रमते वा भोक्तुम, लभते विन्दते वा भोक्तुस, सहते क्षमते वा भोक्तुम, प्रहति प्राप्नोति वा भोक्तुम , ग्लायति म्लायति वा भोक्तुम, घटते युज्यते वा मोक्तुम, अस्ति विद्यते वा भोक्तुम् , समर्थोऽलं प्रभवति ईष्टे वा भोक्तुम् । समर्थार्थप्रतीता. वपि भवति-द्रष्टुं चक्षुः, योद्धु धनुः । 'शक्त्या भुज्यते, मामर्थ्येन भुज्यते' इत्यादौ त्वनभिधानान्न भवति ।
इच्छार्थेषु-इच्छति भोक्तुम् , भोक्तु वाञ्छति, भोक्तुम् वष्टि, भोक्तुमभिलषति, समर्थार्थत्वादेव सिद्ध शकग्रहणमसमर्थार्थम् । कर्मण इति च सामर्थ्याच्छकादिष्वर्हपर्यन्तेषु इच्छार्थेषु चोपपदेषु सत्सु सम्बन्धनीयम् । अन्ये तु शकादिषु घटान्तेषु स्वरूपोपदेष्वेवेच्छन्ति, न तदर्थेषु । मतादार्थमकियोपपदार्थ चेदं प्रस्तूयत इति ॥९॥
इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्ती पश्चमाध्यायस्य चतुर्थः पादः।।
न्या० स०-शकधृषज्ञा-अत्र तुल्यकर्तृक इति यथासंभवं योज्यम् । शक्नोतीति-समापयतीत्यर्थ इति समर्थार्थद्वारा न सिध्यतीति शक्रिग्रहणम् ।
इत्याचार्यश्री सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञ-शब्दानुशासनबृहवृत्तेः पञ्चमाध्यायस्य न्यासतः चतुर्थः पादः समाप्तः।
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॥ अहं॥ श्रीकुमारपालभूपाललालितचरणरेणुना कलिकालसर्वज्ञेन
__ श्रीहेमचन्द्रसूरिभगवता प्रणीतं
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम् ॥
श्रीसिद्धहेमचन्द्र-व्याकरणनिवेशिनामुणादीनाम् ।
आचार्यहेमचन्द्रः, करोति विवृत्ति प्रणम्याहू म् ॥१॥ कृ-वा-पा-जि स्वदि-साध्य-ऽशौ-दृ-स्ना-सनि-जा-निरहीणभ्य उण ॥१॥
करोत्यादिभ्यो धातुभ्यः सत्यर्थे वर्तमानेभ्यः संप्रदानाऽपादानाभ्यामन्यत्र कारके भावे च संज्ञायां विषये बहुलमुण्प्रत्ययो भवति । डुकृग् करणे, कृगट् हिंसायां वा, निरनुबन्धग्रहणे सामान्य ग्रहणात् ; करोति करति कृणोति वा कारु:-कारी नापितादिः, इन्द्रश्च । वांक गतिगन्धनयोः, 4 ओवें शोषणे वा, वाति वायति वा द्रव्याणि-वायु:-नभस्वान् । पां पाने, पिबन्त्यनेन तैलादि द्रव्यं-पायु:-अपानमुपस्थश्च; पाति-पायत्योस्त्वसंगतेन ग्रहणम् । जि अभिभवे, जयत्यनेन रोगान् श्लेष्माणं वा-जायुः-औषधं, पित्तं, वा, ध्वदि आस्वादने, स्वद्यत इदमनेन वा-स्वादुः रुच्यं, स्वदनं वा-स्वादुः । साधंट संसिद्धौ, उत्तमक्षमादिभिस्तपोविषैर्भावितात्मा साध्नोतीति-साधुः, सम्यग्दर्शनादिभिः परमपदं साधयति वा-साधु:संयत , उभयलोकफलं साधयति वा साधुः-धर्मशीलः। अशौटि व्याप्तौ, अश्नुते तेजसा सर्व केदारं वा-इत्याशुः-सूर्यो, व्रीहिश्च, अशनं वा-आशु-क्षिप्रम् , अश्नुत इति वाआशु:-शीघ्रगामी शीघ्रकारी च । द भये, दृश् विदारणे वा, दरति दृणाति दीर्यते वादारु-काष्ठम्, भव्यं च । ष्णें वेष्टने, स्नायति स्नायू:-अस्थिसंहननम् । षन भक्ती, षण यी दाने वा, सनति सनोति वा मृगादीनिति-सानु:-पर्वतैकदेशः। जनैचि प्रादुर्भावे, जायतेऽनेनाकुञ्चनादि जानु उरुजङ्घासन्धिमण्डलम्, जानीत्याकारनिर्देशात् "न जनवधः" (४-३-५४) इति प्रतिषिद्धाऽपि वृद्धिर्भवति । रह त्यागे, रहति गृहीत्वा सूर्याचन्द्रमसौ स्वशरीरं वा-राहुः-सै हिकेयः । इंण्क् गतौ, एति-आयु:-पुरुषः, शकटम्, औषधम्, जीवनम्, पुरुरवः पुत्रो वा; जरायु:-गर्भवेष्टनम् , जलमलं वा, जटायु:-पक्षी, धनायु:-देशः, रसायुः भ्रमरः, “संप्रदानात् चान्यत्रोणादयः" (५-१-१५) इति यथायोगं प्रत्ययो वेदितव्यः ॥१॥
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३४. ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्र विवरणम्
[ सूत्र-२-८
अः॥२॥
सर्वस्माद् धातोर्यथाप्रयोगमकारः, प्रत्ययो भवति । भवः, तरः, वरः, प्लवः, शयः, शरः, परः, करः, स्तवः, चरः, वदः ॥२॥
म्लेच्छीडेह स्वश्व वा ॥ ३ ॥
आभ्यामः प्रत्ययो भवति, दीर्घस्य च ह्रस्वो वा भवति । म्लेछ अव्यक्तायां वाचि, म्लिच्छ:-मूकः, म्लेच्छः-कुमनुष्यजातिः। ईडिक् स्तुती, इड इडश्च-देवताविशेषौ मेदिनी च ।। ३ ॥
नमः क्रमिः-गमि-शमि-खन्याकमिभ्यो डित् ॥ ४ ॥ ___ नत्रः परेभ्य एभ्यो डित्, अः प्रत्ययो भवति । क्रमू पादविक्षेपे, न कामति-नक्रःजलचरो ग्राहः । गम्लु गतौ, नगः-वृक्षः, पर्वतश्च । शमूच् उपशमे, नशः-यक्षः। खनूग अवदारणे, नखः-करजः, नास्य खमस्तीति वा-नख इत्यपि । कमूङ कान्तो, नाकः-स्वर्गः, नात्राकमस्तीति-नाक इत्यपि, नखादित्वात् "अन् स्वरे" (३-२-१२६) इत्यन् न भवति । डित्करणमन्त्यस्वरादिलोपार्थम् ।। ४ ।।
तुदादि-विषि-गुहिभ्यः कित् ॥ ५ ॥
तुदादिभ्यो विष-गुहिम्यां च कित् अः प्रत्ययो भवति । तुदः, नुदः क्षिपः, सुरः, बुधः, सिवः । सुरत् ऐश्वर्य-दीप्त्योः । तुदादिर्न धातुगणः. किं तर्हि ? भिन्न इति, तेन बुधादीनामिति लिङ्गपरिणामस्तु ज्ञेयः, शिवः, तुदादीनां यथासंभवं कारकविधिः । विष्लकी व्याप्तौ, वेवेष्टि-विष प्राणहरं द्रव्यम् गुहौग् संवरणे, गृहति-गुहः स्कन्दः, गुहा पर्वतैकदेशः ।।५।।
विन्देनलुक् च ॥ ६॥
विन्देः कित् अः प्रत्ययो भवति, तत्संनियोगे नस्य लुक् च । विदु अवयवे, विद:गोत्रकृद् वृक्षजातिश्च ॥६॥
कृगो द्वे च ॥७॥
करोतेः कित् अः प्रत्ययो भवति, अस्य च धातो रूपे भवतः । डुकृग् करणे, चक्रं रथाङ्गम्, आयुधं च ॥७॥
कनि-गदि-मनेः सरूपे ॥८॥
किदिति निवृत्तम्, एभ्योऽकारः प्रत्ययो भवति, एषां च सरूपे-समानरूपे द्वे उक्ती भवतः । कनैदीप्ति-कान्तिगतिषु, कनति-दीप्यते-कङ्कन:-कान्तः । गद व्यक्तायां वाचि, गदति-अव्यक्तं वदति, गद्यते-अव्यक्तं कथ्यते वा गद्गदः अव्यक्तवाक् , गद्गदम्-अव्यक्तं वचनम् । मनिच ज्ञाने, मन्मनः-अविस्पष्टवाक् । सरूपग्रहणं "व्यञ्जनस्यानादेलुक" (४-१-४४) इत्यादिकार्यनिवृत्त्यर्थम् ।।८॥
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सूत्र-६-१४ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[३४१
ऋतष्टित् ।। ६॥
ऋकारान्ताद् धातोरकारः प्रत्ययो भवति, स च बहुलं टित्, धातोश्च सरूपे द्वे रूपे भवतः । दृश् विदारणे, दीर्यते भिद्यतेऽनेन श्रोत्रमिति-दर्दरः वाद्यविशेषः, पर्वतश्च, दर्दरी-सस्यलुण्टिः । कृत् विक्षेपे, कर्कर:-क्षुद्राश्मा, कर्करी-गलन्तिका । वृग्श् वरणे वर्वरःम्लेच्छजातिः, वर्वरी केशविशेषः । भृश् , भरणे, भर्भरः-छद्मवान् , भर्भरी-श्रीः। जृष्च जरसि, जर्जरः अदृढः, जर्जरी-स्त्री । झषच जरसि, झर्झर:-वाद्य-विशेषः झर्झरी-झल्लरिका। गत निगरणे. गर्गर:-रजर्षिः. गर्गरी-महाकम्भः। मश हिंसायाम , मर्मर:-शुष्कपत्रप्रकरः, तद्धर्माऽन्योऽपि, क्षोदासहिष्णुर्मर्मरो दानवश्च । 'मर्मरायां दूर्वायाम्' इत्यत्र टित्त्वेऽपि डीन भवति बहुलाधिकारात् । तत एव च ऋकारान्तादपि-धू सेचने, घर्घरः सघोषाव्यक्तवाक् घर्घरी-किङ्कणिका ॥९॥
किच्च ॥ १०॥
ऋकारान्ताद् घातोर्यथादर्शनं किदकारः प्रत्ययो भवति, घातोश्च सरूपे द्वे रूपे भवतः । मृश् हिंसायाम् , मूर्यतेऽनेनेति-मुर्मुर:-ज्वलदङ्गारचूर्णम् । पृश् पालन-पूरणयोः, पूर्यते जलाघातेन-पुपुर:-फेनः । तृ प्लवन तरणयोः,तीर्यतेऽनेनास्मिन् वा-तितिरः-संक्रमः । भृश् भर्जने च, भूर्यते-संचीयते-भुभुरः संचयः । शृश् हिंसायाम् , शीर्यते समन्तात्-शिशिरःपुजः ।। १० ॥
पृ-पलिभ्यां टिव पिपू च पूर्वस्य ॥ ११ ॥
• आभ्यां टिदः प्रत्ययो भवति, अनयोश्च सरूपे द्वे रूपे भवतः, पूर्वस्य च स्थाने 'पिप्' इत्यादेशो भवति । पृश् पालन-पूरणयोः, पृणाति छायया-पिप्परी-वृक्ष-जातिः। पल् गतो, पलत्यातुरं-पिप्पली-औषधजातिः । टित्करणं यर्थम् ॥ ११ ॥
क्रमि-मथिभ्यां चन्-मनौ च ॥१२॥
आभ्यामः प्रत्ययो भवति, सरूपे च द्वे रूपे भवतः, पूर्वस्य च स्थाने यथासंख्यं 'चन् मन्' इत्यादेशौ भवतः । क्रम पादविक्षेपे, कामति सुखमनेनास्मिन् वा-चङक्रमः-संक्रमः। मथे विलोडने, मथति चित्तं रागिणां-मन्मथः-कामः ॥ १२ ।।
गमेज॑म् च वा ॥ १३ ॥
गमेरः प्रत्ययो भवति, सरूपे च द्वे रूपे भवतः, पूर्वस्य च 'जम्' इत्यादेशो वा भवति । गम्ल गतौ, गच्छति-पादविहरणं करोति-जङ्गमः-चरः, गच्छत्यमाध्यस्थ्यमिति-गङ्गमः-चपलः ।। १३ ।।
अदुपान्त्य-ऋद्भ्यामश्चान्ते ॥ १४ ॥
अकारोपान्त्याद् ऋकारान्ताच्च धातोरः प्रत्ययो भवति, सरूपे च द्वे रूपे भवतः, पूर्वस्य चान्तोऽकारो भवति । पल फल शल गतौ, शलशलः । सल गतौ । सलसलः। हल
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३४२ ]
स्वोपज्ञोरणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-१५-१९
विलेखने, हलहलः। कलि शब्द-संख्यानयोः, कलकलः। मलि घारणे, मलमल: । घटिए चेष्टायाम्, घटघटः । वद व्यक्तायां वाचि, वदवदः । पदिच् गतौ, पदपदः । ऋदन्तः डुकग करणे, करकरः । मृत् प्राणत्यागे, मरमरः । दृङत् आदरे, दरदरः । सृङ्गतो, सरसरः । वृगट वरणे वरवरः । अनुकरणशब्दा एते ।। १४ ।।
मषि-मसेर्दा ॥१५॥
आभ्यामः प्रत्ययो भवति, सरूपे च द्वे रूपे भवत', पूर्वस्य चान्तोऽकारो वा भवति । मष हिंसायाम्, मषमषः, मष्मषः । मसैच् परिमाणे, मसमसः, मस्मसः ।। १५ ।।
हृ-सृ-फलि-कषेरा च ॥१६॥
एभ्यो अः प्रत्ययो भवति, सरूपे च द्वे रूपे भवतः, पूर्वस्य चान्त आकारो भवति । हग हरणे, हरति-नयति शस्त्राण्यस्खलन् लक्ष्य-हराहरः योग्याचार्यः । सृगतो, घावति वायुना नीयमानः समन्तात् सरासरः-सारङ्गः । फल निष्पत्ती, फलति निष्पादयति नानाविधानि पुष्पफलानि-फलाफलम्-अरण्यम् । कष हिंसायाम्, कषति विदारयति-कषाकषःकृमिजातिः ।। १६ ॥
इदुदुपान्त्याभ्यां किदिदुतौ च ॥ १७॥
इकारोपान्त्यादुकारोपान्त्याच्च कित् अः प्रत्ययो भवति, स्वरूपे च द्वे रूपे भवतः, पूर्वस्य च यथासंख्यमिकारोकारौ चान्तौ भवतः। किलत् श्वैत्य-क्रीडनयोः, किलिकिलः । हिलत् हावकरणे, हिलिहिल: । शिलत् उञ्छे, शिलिशिलः छुरत् छेदने, छुरुच्छूरः । मुरत् संवेष्टने, मुरुमुरः। घुरत् भीमार्थ-शब्दयोः, घुरुधुरः । पुरत् अग्रगमने, पुरुपुरः । सुरत् ऐश्वर्य-दीप्त्योः , सुरुसुरः, । कुरत् शब्दे, कुरुकुरः । चुरण स्तेये, चुरुचुरः । हुल हिंसा-संवरणयोश्च, हुलुहुलः । गुजत् शब्दे, गुजुगुजः । गुडत् रक्षायाम् गुडुगुडः । कुटत् कौटिल्ये, कुटुकुटः । पुटत् संश्लेषणे, पुटुपुट: । कुणत् शण्दोपकरणयोः, कुणकुणः । मुणत् प्रतिज्ञाने मुणुमुणः । अनुकरणशब्दा एते ॥ १७ ॥ .
जजल-तितल-काकोली-सरीसृपादयः ॥ १८॥
एते अप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । जल घात्ये, अस्य द्वित्वे पूर्वस्य जभावः, जजलः, यस्य जाजलिः पुत्रः। तिलत् स्नेहने, अस्य द्वित्वे पूर्वस्य च तिभावे घातोरिकारस्य अकारे तितलः । कुल बन्धु-संस्त्यानयोः, अस्य दित्वे पूर्वस्य च काभावे-काकोली, क्षीरकाकोलीति च वल्लीजातिः । सृप्ल गतो, अस्य द्वित्वे गुणाभावे पूर्वस्य च सरीभावे-सरीसृपः-उरगजातिः । आदिग्रहणाद् यथादर्शनमन्येऽपि ।। १८ ।।
बहुलं गुण-वृद्धी चादेः ॥ १६ ॥
धातोः कित् अः प्रत्ययो भवति, सरूपे च द्वे रूपे भवतः, पूर्वस्य चेकारवन्तौ भवतः, यथादर्शनं च गुणवृद्धी भवतः। केलिकिलः, कैलिकिलश्च-हसनशीलः। हिलत्
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सूत्र-२०-२२ ]
श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासने पंचमोऽध्यायः
[३४३
हावक रणे, हेलिहिलः, हैलिहिलश्च-विलनशीलः । शेलिशिलः, शैलिशिलश्च । शुभि दीप्तौ शोभते पुनः पुनरिति-शोभुशुभः, शौभुशुभः । णुदंत् प्रेरणे, नुदति पुनः' पुनरिति-नोदुनुदः, नौदुनुदः । गुडत् रक्षायाम्, गुलति-भ्राम्यति पुनः पुनरिति-गोलुगुलः, गौलुगुलः । बुलण् निमज्जने, बोलयति पुनः पुनरिति-बोलुबुलः । बौलुबुलः । तत्तद्धात्वर्थास्तच्छीला अनुवादविशेषा वैते ॥ १९॥ .
णेलु प् ॥२०॥
धातोरप्रत्ययसन्नियोगे बहुलं णेलुप् भवति । वज्र धारयतीति-वज्रधरः-इन्द्रः। एवं-चक्रधरः-विष्णुः, भूधर:-अद्रिः, जलधरः-मेघः । बाहुलकात् प्रत्ययान्तरेऽपि,-देवयतीति -दिव-द्यौः, व्योम, स्वर्गश्च । पुण्यं कारयन्तीति पुण्यकृतो देवाः, एवं-पर्ण शोषय. तीति पर्णशुट ।
"वान्ति पर्णशुषो वातास्ततः पर्णमुचोऽपरे।
तत: पर्णरुहः पश्चात् ततो देवः प्रवर्षति ।। १ ।।
तथा-महतः कारयांचक्रुराक्रन्दान् इति प्राप्ते ‘महतश्चक्रुराक्रन्दान्' इति भवति । "महीपालवचः श्रुत्वा जुघुषुः पुष्यमाणवाः । घोषयांचऊरित्यर्थः ।। २० ।। भीण-शलि-बलि-कल्यति-मय॑र्चि-मृजि-कु-तु-स्तु-दा-धा-रा-त्रा-का-पा-निहा
नशुभ्यः कः ॥२१॥ एभ्यः कप्रत्ययो भवति । जिभीक् भये, बिभेति दुन्दुभात् परस्माच्च-भेकः-मण्डूकः, कातरश्च बिभेति वायोः-भेक:-मेघः । 'इंण्क् गतौ' एत्यद्वितीय इतिएकः असहायः, संख्या, प्रधानम्, असमानम्, अन्यश्च । पल फल शल गती, शलन्त्यात्मरक्षणाय तमिति शल्कःशरणम् शलति त्यक्त बहिरिति-शल्कं गृहीतरसं शकलम् , शल्कः-काष्ठत्वक मलिनं च काष्ठमुद्गरः करणं च । वलि संवरणे, वल्कः-दशनः, वासः, त्वक् च । कलि शब्द-संख्यानयोः कल्क:-कषायः दम्भः, पिष्टपिण्डश्च । अत सातत्यगमने, अत्कः-आत्मा वायः व्याधितः, चन्द्रः, उत्पातश्च । मर्चः सौत्रो धातुः प्राप्तौ मर्कः, देवदारुः, वायुः, दानवः, मनः, पन्नगः, विघ्नकारी च । “च-जः क-गम्" (२-१-८६) इति कत्वम् । अर्च पूजायाम अर्क:-सर्यः, पुष्पजातिः, का (झा) टजातिश्च । मुजोक शुद्धौ, मार्कः-वायः। कंक शब्दे, कोक:-चक्रवाकः। तुक् वृत्ति-हिंसा-पूरणेषु, तोकम्-अपत्यम् । ष्टुंगा स्तुतौ, स्तोकम्-अल्पम् । डुदांग्क दाने, दाकः, यजमानः, यज्ञश्च । डुधांगा धारणे च, धाक:ओदनः, अनड्वान्, अम्भः, स्वम्भश्च । रांक दाने, राकः-दाता, अर्थः, सूर्यश्च, राकापौर्णमासी, कुमारी रजस्वला च । जङ पालने त्राकः-धर्मः शरणस्थानीयश्च । के शब्दे, काकः-वायसः । पां पाने, पांक रक्षणे वा, पाकः-बालः, असुरः, पर्वतश्च । ओहांक त्यागे, निहाक:-नि:स्नेहः, निर्मोकश्च, निहाकः-गोधा । शुं गतौ, न शवतीति-अशोकः ॥२१॥
विचि-पुषि-मुषि-शुष्यवि-सु-वृ-शु-सु-भू-धू-मू-नी-वीभ्यः कित् ॥ २२॥
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३४४ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-२३-२६
एभ्यः कित् कः प्रत्ययो भवति । विच पी पृथग्भावे, विक्कः-करिपोतः । पुषंच् पुष्टौ, पुष्कः-निशाकरः । मुषश् स्तेये, मुष्कः-चौरः, मांसलो वा, मुष्की-वृषणौ । शुषंच् शोषणे, शुष्कम्-अपगतरसम् । अवरक्षणादिषुः ऊक:-कुन्दुमः । सृ गतौ, सृकः वायुः, बाणः, सृगालः, बकः, निरयश्च, सृका-आयुधविशेषः । वृगट् वरणे, वृङश संभक्तौ वा वक:-मगजातिः, आदित्यः, धुर्तः, जाठरश्चाग्निः । शं गतौ, शुक:-कीरः, ऋषिश्च । षंगट अभिषवे, सुकः-निरामयः। भू सत्तायाम् भूक:-कालः, छिद्रं च । धूत् विधूनने, धूगट् कम्पने धूग्श् कम्पने वा धूकः-वायुः, व्याधिश्च धूका-पताका । मूङ बन्धने, मूक:अवाक् । णींग् प्रापणे, नीकः-खगः ज्ञाता च; नीका-उदकहारिका, ज्ञातिश्च । वींक प्रजनादिषु, वीक:-वायुः, व्याधिः, नाशः, अर्थः मनः, वसन्तश्च, वीका-पक्षिजाति:, नेत्रमलं च ॥२२॥
कृगो वा ॥ २३॥
कृगः कः प्रत्ययो भवति, स च कित् वा भवति । डुकृग् करणे, कर्कः-अग्निः, सारङ्गः, दर्भः, श्वेताश्वश्च । कृकः-शिरोग्रीवम् ।।२३।।
धु-यु-हि-पितु-शोर्दीर्घश्च ॥ २४ ॥
एभ्यः कित् कः प्रत्ययो भवति, एषां च दीर्घो भवति । घुङ शब्दे, घूकःकोशिकः । युक् मिश्रणे, यूका-क्षुद्रजन्तुः स्वेदजः । हिंट गति-वृद्ध्योः , होकः पक्षी। पित् गती, पीकः-उपस्थो, जलाश्रयश्च । तुक वृत्यादिषु, तूक:-उपस्थः, पर्वतश्च । शुंगतो, शूक:-किंशारुः, अभिषवः शोकश्च, शूका-हल्लेखः ।।२४।।
हियो रश्च लो वा ॥ २५ ॥
ह्रियः, कित् कः प्रत्ययो भवति, रेफस्य च लकारो वा भवति । (ह्रींक लज्जायाम्) ह्रीकः, ह्रीकः-लज्जापरः, नकुलश्च । ह्रीकः-लिङग्यपि ।। २५ ।। निष्क-तुरुष्कोदा-ऽलक-शुल्क-श्वफल्क-किञ्ज-ल्कोल्का-वृक्क-च्छेक-केका-यस्का
ऽऽदयः ॥ २६ ॥ एते कप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । नेः सीदतेडिच्च, निष्कः-सुवर्णादिः । तूरैचि त्वरायाम् , अस्य ह्रस्व उषश्चान्तः, तुरुष्क:-वृक्षः, म्लेच्छश्च । उदः परात् अर्तेः, उदक:क्रियाफलम् । अली भूषणादी, अस्मादर् चान्तः, अलर्कः-उन्मत्तः, मदालसात्मजश्च । “पल फल शल गतौ" इत्यस्योपान्त्योत्वं च, शुल्कं-रक्षा-निवेश: । शुनः परात् फालेह्रस्वश्च, श्वफल्क:-अन्धकविशेषः । किमः परात् जृषो रस्य लश्च, किञ्जल्क:-पुष्परेणुः । ज्वलेरुलादेशश्च, उलेः सौत्रस्प वा, उल्का औत्पातिकं ज्योतिः, अग्निज्वाला च वृजैकि वर्जने, अगुणत्वं च, वृक्क:-मुष्कः । छयतिकायत्योरेत्वं च, छेक:-मनीषी, केका-मयूरवाक् । यमेर्मस्य सः, यस्क:-आदिग्रहणात् ढ़क्का-स्पृक्काऽऽदयोऽपि ॥२६॥
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सूत्र-२७-३० ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम् ।
[ ३४५
द-क्र-नृ-सृ-भू-धू-वृ-मृ-स्तु-कु-क्षु-लचि-चरि-चटि-कटि-कण्टि-चणि-चषि-फलि-वमि-तम्यवि-देवि-बन्धि-कनि-जनि-मशि-शारि-कुरि-वृति-वल्लिमल्लिसल्लयलिभ्योऽकः ॥२०॥
एभ्योऽकः प्रत्ययो भवति । दृश् विदारणे, दरक:-भीरुः । कृत् विक्षेपे, करकःजलभाजनम् , कमण्डलुश्च; करकाः-वर्षपाषाणः । नृश् नये, नरकः-निरयः । सृ गतौ, सरको-मद्यविशेषः । कसभाजनविशेषश्च, सरका-मधुपानवारः। टुडुभृगक पोषणे च, भरक:-गोण्यादि: घृङ अवध्वंसने, घरक:-सुवर्णोन्माननियुक्तः । वृगट वरणे, वरकः वधूजानि-सहायः वाजसनेयभेदश्च । मृत् प्राणत्यागे, मरकः-जनोपद्रवः । ष्टुगा स्तुती, स्तबकः-पुष्पगुच्छः । कुंक शब्दे, कवकम्-अभक्ष्यद्रव्यविशेषः । टुक्षुक शब्दे, क्षवक:-राजसषपः। लघुङ गो, लङ्घक:-रङ्गोपजीवी । चर भक्षणे च, चरकः-मुनिः। चटण भेदे: चटकः-पक्षी। कटे वर्षाऽऽवरणयो:. कटकः-वलयः। कटु गतौ, कण्टक:-तरुरोम । चण शब्दे, चणक:-मुनिः, धान्यविशेषश्च । चषी भक्षणे, चषक:-पानभाजनम् । फल निष्पत्ती, फलक:-खेटकम् । टुवम् उगिरणे, वमकः-कर्मकरः । तम्च् काङक्षायाम् , तमक:व्याधिः, क्रोधश्च । अव रक्षणादौ, अवका-शैबलम् । देवङ देवने, देवका-अप्सराः, देविका-नदी । बन्धंश् बन्धने, बन्धकः-चारकपाल: । कनै दीप्त्यादिषु, कनक-सुवर्णम् । जनैचि प्रादुर्भावे, जनकः-सीतापिता । मश रोषे च, मशक:-क्षद्रजन्तुः। क्षर संचलने ण्यन्त, क्षारकं-बालमुकुलम् । कुरत् शब्दे, कोरकं प्रौढमुकुलम् । वृतूङ वर्तने, वर्तका वर्तिका वा-शकनिः वल्लि सवरणे, वल्लकी-वीणा। मल्लि धारणे, मल्लक:-शराव:, मल्लिकापुष्पजातिः, दीपाघारश्च । सल्लः सौत्रः, सल्लकी-वृक्षः, सत्कृत्य लक्यते स्वाद्यते गजैरिति वा-सल्लकी । अली भूषणादिषु, अलक:-केशविन्यासः, अलका-पुरी ॥२७॥
को रु-रुण्टि-रण्टिभ्यः ।। २८ ॥
कुशब्दात् परेभ्य एभ्योऽकः प्रत्ययो भवति । रुक् शब्दे, कुरवकः-वृक्षः। रुटु स्तेये, कुरुण्टको-वर्णगुच्छः । रण्टि: प्राणहरणे सौत्रः, कुरण्टक:-स एव ।। २८ ।।
ध्रु-धून्दि-रुचि-तिलि-पुलि-कुलि-क्षिपि-क्षुपि-क्षुभि-लिखिभ्यः कित् ॥ २६ ॥
एभ्यः कित् अक: प्रत्ययो भवति । ६ स्थैर्य च, ध्र वक:-स्थिरः, ध्र वका-आवपनविशेषः । धुत् विधुनने, धुवक-धूननम्, धूवक:-प्रधानं, स्त्री धुवका-आवपनविशेषः । उन्दैप क्लेदने, उदकं-जलम् । रुचि अभिप्रीत्यां च, रुचक:-आभरणविशेषः। तिलत् स्नेहने, तिलकः-विशेषकः, वृक्षश्च । पुलण् समुच्छाये, पुल महत्त्वे वा, पुलकः-रोमाञ्चः । कुल बन्धु-संस्त्यानयोः, कुलकं-संयुक्तम् । क्षिपीत् प्रेरणे, क्षिपकः-वायुः, क्षिपका-आयुधम् । क्षुपः सौत्रो ह्रस्वीभावे, क्षुपकः-गुल्मः । क्षुभच् संचलने, क्षुभकः-पाञ्चालकः । लिखत् अक्षरविन्यासे, लिखक:-चित्रकरः ।। २९ ।।
छिदि-भिदि-पिटेर्वा ॥ ३०॥ एभ्योऽकः प्रत्ययो भवति, स च किद् वा भवति । छिपी द्वैधीकरणे, छिदकः
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३४६ ]
स्वपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम् ।
[सूत्र-३१-३४
खड्गः, क्षुरश्च, छेदक:-परशुः । भिदृपी विदारणे, भिदक-जलं, पिशुनश्च, भेदक-वज्रम् । पिट शब्दे च, पिटक:-क्षुद्रस्फोटकः, पेटक-संघातः ।। ३० ॥
कृषगुण-वृद्धी च वा ॥ ३१ ॥
कृषेरकः प्रत्ययो भवति, गुण-वृद्धी चास्य वा भवतः । कृषीत् विलेखने, कर्षक:, कृषकः-परशुः, कार्षकः, कृषकः-कुटुम्बी ।। ३१ ॥
नञः पुंसेः ॥ ३२ ॥
नञः परात् "पुंसण अभिमर्दने" इत्यस्मात् किदकः प्रत्ययो भवति । नपुंसकंतृतीया प्रकृतिः, नखादित्वात् “नत्रत्" (३-२-१२५) न भवति ॥ ३२ ॥ कीचक-पेचक-मेचक-मेनका-भक-धमक-वधक-लघक-जहकैरकैडका-ऽश्मक
लमक-क्षुल्लक-वटवकाऽऽढकाऽऽदयः ॥ ३३ ॥ एते कीचकादायः शब्दा अकप्रत्ययान्ता निपान्यन्ते । कचि बन्धने, अस्योपान्त्यस्येत्वं च, कोचकः-वंशविशेषः । डुपची पाके, मचि कल्कने, मनिच् ज्ञाने, एषामुपान्त्यस्यत्वं च पेचकः-करिजघनभागः, मेचक:-वर्णः, मेनका-अप्सराः । अर्तेर्भश्चान्तः, अर्भक:बालः । ध्मां शब्दाऽग्निसंयोगयो:, अस्य धमादेशश्च, धमक:-कीट:, करिश्च, अन्यत्रापि धमादेशो दृश्यते, क्ते-धान्तः । हन्तेबंधश्च, वधक:-हन्ता, व्याधिश्च, वधक-पद्मबीजम, अन्यत्रापि दृश्यते, वृत्रं हन्ति अचि-वृत्रवधः-शक्रः, बधिता-निर्मोचकः, बध्यः, वधनम् । लघुङ गतौ, नलुक् च, लधक:-असमीक्ष्यकारी। जहाते रूपे अन्तलुक् च. जहक:-काल:, क्षुद्रश्च । ईरिक् गति-कम्पनयोः, ईङिक स्तुती, अनयोगुणश्च, एरका-उदकतृणजातिः, एडका-अविजातिः । अशोटि व्याप्तौ, अस्य मोऽन्तः, अश्मका-जनपदः । रमि क्रीडायाम्, अस्य लमादेशः लमक:-ऋषिविशेषः । क्षुदृपी संपेषे, अस्य क्षुल्लादेशश्च, क्षुल्लकं-दभ्रम् , क्षुधं लातीति वा क्षुल्लः, क्षुल्ल एव क्षुल्लक इति वा । वट वेष्टने, अस्यावोऽन्तश्च, वटवक:-तणपञ्जः। आङ पूर्वात ढोकतेडिच्च, आढकंमानम् । आदिग्रहणाद वहत्तन्त्रात. कला आपिबन्तीति-कलापकाः शास्त्राणि । कथण वाक्यप्रबन्धे, कथयतीति-कथकः-तोटकाख्यायिकादीनां वर्णयिता । एवम्-उपक चम्पक-फलहकादयोऽपि ।।३३।।
शलि-बलि-पति-वृति-नभि-पटि-तटि-तडि-गडि-भन्दि-बन्दि-मन्दि-नमि-कु-दु
पू-मनि-खजिभ्य आकः ॥ ३४ ॥ एभ्य आकः प्रत्ययो भवति । पल फल शल गतौ, शलि चलने च वा, शलाकाएषणी, पूरणरेखा, छूतोपकरणं, सूची च । बल प्राणन-धान्यावरोधयो:, बलाका-जल-चरी शकुनिः । पत्लु गतौ, पताका-वैजयन्ती। वृतूङ वर्तने, वर्ताका-शकुनिजातिः । णभच् हिंसायाम्, नभाकः-चक्रवाकजातिः, तमः, काकश्च । पट गतो, पटाका-वैजयन्ती, पक्षिजातिश्च । तट ऊच्छाये, तटाकं-सरः । तडण आघाते, तडाक-तदेव । गड सेचने, गडाक:
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सूत्र - ३५-३९ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्र विवरणम् ।
[ ३४७
शाकजाति: । भदुङ सुख - कल्याणयोः, भन्दाकं - शासनम् । वदुङ स्तुत्यभिवादनयोः, वन्दाकः - चीवरभिक्षुः । मदुङ स्तुत्यादिषु, मन्दाका - औषधी । णमं प्रहृत्वे, नमाकाम्लेच्छजातिः । कुंङ शब्दे, कवाकः - पक्षी । टुट् उपतापे, दवाक:- म्लेच्छः । पूङ पवने, पवाका - वात्या । मनिच् ज्ञाने, मनाका हस्तिनी । खज मन्थे, खजाक:- आकरः, मन्थाः, दविः, आकाश, बन्धकी, शरीरं पक्षी च ॥। ३४ ।।
शुभि - गृहि विदि-पुलि-गुभ्यः कित् ॥ ३५ ॥
एभ्यः किदाक: प्रत्ययो भवति । शुभि दीप्ती, शुभाका - पक्षिजातिः । गृहणि ग्रहणे, गृहाकः । विदंक ज्ञाने, विदाका भूतग्रामः । पुल महत्त्वे, पुलाकः, अर्धस्विन्नो धान्यविशेष: । गुंङ शब्दे, गुंतू पुरीषोत्सर्गे वा, गुवाकं - पूगफलम् ।। ३५ ।।
पिषेः पिन-पिण्यौ च ॥ ३६ ॥
'पिष्लृ प संचूर्णने" इत्यस्मात् किदाकः प्रत्ययो भवति, अस्य च 'पिन् पिण्य' इत्यादेशौ भवतः । पिनाकम् - ऐशं धनुः शूलं वा, पिनाक:-दण्डः, पिण्याकः - तिलादि
खलः ।। ३६ ।
मवाक - श्यामाक-वार्ताक-वृन्ताक - ज्योन्ताक-गूवाक-भद्राकाऽऽदयः || ३७ ॥
एते आकप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । मव्य बन्धने, यलोपः, मवाक:- रेणुः । श्यैङ गतौ, मोऽन्तश्च, श्यामाक. - जघन्यो व्रीहिः । वृतेर्वृद्धिश्च वार्ताकी - शाकविशेषः तत्फलं वार्ता - कम् । स्वरान्नोऽन्तश्च, वृन्ताकी उच्चबृहती, तत्फलं - वृन्ताकम् । ज्युङ गतौ, न्तश्च प्रत्ययादिः, ज्यवतेऽस्मिन् स्विद्यमान इति - ज्योन्ताकं - स्वेदसद्मविशेषः । गुंतु पुरीषोत्सर्गे, गुंड शब्दे वा, ऊवादेशश्च, गूवाकं पूगफलम् । भदुङ सुखकल्याणयो:, अस्य भद्रादेशश्च, भद्राक:- - अकुटिलः । आदिग्रहणात् स्योनाक- चार्वाक - पराकाऽदयो भवन्ति ॥ ३७ ॥
क्री-कल्यलि - दलि- स्फटि-दूषिभ्य इकः ॥ ३८ ॥
एभ्यइकः प्रत्ययो भवति । डुक्रींगश् द्रव्यविनिमये, क्रयिकः - क्रेता । कलि शब्दसंख्यानयोः, कलिका- कोरकः, उत्कलिका - ऊर्मिः । अली भूषणादो, अलिकं ललाटम् । दल विशरणे, दलिकं दारु । स्फट स्फुट्ट विसरणे, स्फटिक :- मणिः । दुषच् वैकृत्ये, दूषिकानेत्रमलः ॥ ३८ ॥
आङः पणि-पनि-पदि पतिभ्यः ॥ ३६ ॥
आङः परेभ्य एभ्य इकः प्रत्ययो भवति । पणि व्यवहार- स्तुत्योः, आपणिक:- पत्तनवासी, व्यवहारज्ञो वा । पनि स्तुतौ, आपनिक :- स्तावकः, इन्द्रनीलः, इन्द्रकीलो वा । पदिच् गतो, आपदिक:- इन्द्रनीलः, इन्द्रकीलो वा । पत्लृ गतो, आपतिकः पथि वर्तमानः, मयूरः, श्येनः कालो वा । आपणिकादयश्चत्वारो वणिजोऽपि ।। ३९ ।।
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३४८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम् ।
[ सूत्र-४०-४६
नसि-सि-कसिभ्यो णित् ॥ ४० ॥
एभ्यो णिदिकः प्रत्ययो भवति । णसि कौटिल्ये, नासिका-घ्राणम् । वसं निवासे, वासिका-माल्यदामविशेषः, छेदनद्रव्यं च ।कस गतौ, कासिका-वनस्पतिः ।। ४० ।।
पा-पुलि-कृषि-क्रुशि-व्रश्चिभ्यःकित् ।। ४१ ॥
एभ्यः किदिकः प्रत्ययो भवति । पां पाने, पिक:- कोकिलः । पुल महत्त्वे, पुलिक:मणिः । कृषीत् विलेखने, कृषिकः-पामरः, तृणजातिश्च । क्रुशं आह्वान-रोदनयोः, कुशिक:क्रोष्टुकः, उलूकश्च । ओवश्चौत् छेदने, वृश्चिक:-सविषः कीटः, राशिश्च नक्षत्रपादनवकरूपः ।। ४१ ।।
प्राङः पणि-पनि-कषिभ्यः ॥ ४२ ॥
'प्राङ' इत्येतस्मादुपसर्गसमुदायात् परेभ्यः एभ्यः किदिकः प्रत्ययो भवति । पणि व्यवहार-स्तुत्योः, प्रापणिकः-वणिक् । पनि स्तुती, प्रापनिकः-पथिकः । कष हिंसायाम् , प्राकषिकः-वायुः, खलः, नर्तकः, मालाकारश्च । प्रपूर्वात् पणेराङ पूर्वाच्च कषेरिच्छन्त्यन्येप्रपणिक:-गन्धविक्रयो, आकषिको न कर्तव्यः ॥ ४२ ।।
मुषेर्दीर्घश्च ॥ ४३॥ मुषेरिकः प्रत्ययो भवति, दीर्घश्च स्वरस्य भवति । मूषिक:-आखुः ।। ४३ ।। स्यमे सीम् च ।। ४४॥
स्यमेरिकः प्रत्ययो भवति, अस्य च 'सीम्' इत्यादेशो भवति । स्यम् शब्दे, . सीमिकः-वृक्षः, उदक कृमिश्च, सीमिका-उपजिबिका सीमिकं वल्मीकम् । केचित् 'सिम्' इति ह्रस्वोपान्त्यमादेशं प्रत्ययस्य च दीर्घत्वमिच्छन्ति-सिमीकः-सूक्ष्म कृमिः ।। ४४ ।।
कुशिक-हृदिक-मक्षिकेतिक-पिपीलिकादयः ॥ ४५ ॥
एते किदिकप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते कुषेः श च कुशिकः मुनिः। ह्रगो दोऽन्तश्च, हदिकः-यादवः । मषेः सोऽन्तश्च, मक्षिका-क्षुद्रजाति: । ऐतेस्तोऽन्तश्च, इतिकः- मुनिः । पीलेढे च, पिपीलिका-मध्यक्षामा कीटजातिः। आदिग्रहणात् गब्दिकभूरिक भुलि-काऽऽदयो भवन्ति ।। ४५ ॥
स्यमि-कषि-दृष्यनि-मनि-मलि-वल्यलि-पालि-कणिभ्य ईकः ॥ ४६॥
एभ्य ईकः प्रत्ययो भवति । स्वमू शब्दे, स्यमीक:-वृक्षः, वल्मीकः, नृप गोत्रं च स्यमीक-जलम् स्यमीका-कृमिजातिः । कष हिंसायाम्, कषीका-कुद्दालिका । दुषंच वैकृत्ये, ण्यन्तः, दूषिका-नेत्रमल:, वीरणजातिः, वर्तिः, लता च । अनक प्राणने, अनीकं-सेनासमूहः, संग्रामश्च । मनिच् ज्ञाने, मनीकः-सूक्ष्मः। मलि धारणे, मलीकम्-अञ्जनम्, अरिश्च । वलि संवरणे, वलीक:-बलवान् पटलान्तश्च, वलीकं वेश्मदारु । अली भूषणादौ, अलीकम्
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सूत्र ४७-५० ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम् ।
[ ३४९
C
असत्यम् , अलीका-पण्यस्त्री, व्यलीकम्-अपराध:, व्यलोका-लज्जा । पलण रक्षणे, पालीकं-तेजः । कण शब्दे, कणीक:-पटवासः, कणीका-भिन्नतण्डुलावयवः, वनस्पतिबीजं च ।। ४६ ।।
ज--प-द : श-वृ-मृभ्यो द्वे रश्चादौ ॥४७॥
एभ्यः ईकः प्रत्ययो भवति, द्वे च रूपे भवतः, एषां चादौ रो भवति । जषच जरसि, जर्जरीका-शतपत्त्री । पृश् पालन-पूरणयोः, पर्परीका-जलाशयः, सूर्यश्च; पर्परीकः-अग्निः , कुररः, भक्ष्यम् , कुकुरश्च । दृश् विदारणे, दर्दरीकः-दाडिमः, इन्द्रः, वादित्रविषेषः, वादित्रभाण्डं च । शृश् हिसायाम् , शर्शरीकः-कृमिः, विकलेन्द्रियः, दुष्टाश्वः, लावकश्च, शहरीका-माङ्गल्याभरणम् वृन्ट् वरणे, वर्वरीकः-संवरणम् , उरणः, पतत्त्री; केशसंघातश्च, वर्वरीका-सरस्वती मूत् प्राणत्यागे, मर्मरीक:-अग्निः, शूर , श्येनश्च ।। ४७ ।।
ऋच्यजि-हृषीषि-दृशि-मृडि-शिलि-निलीभ्यः कित् ।। ४८॥
एभ्यः किदीकः प्रत्ययो भवति । ऋचत् स्तुतौ ऋचीकः-ऋषिः । ऋजि गतिस्थानार्जनोर्जनेषु, ऋजीक-वज्रम् बलं, स्थानं च । हृष् अलीके, हृषच तुष्टौ वा, हृषीकम्इन्द्रियम् । इषत् इच्छायाम् ईष उञ्छे, ईष गति-हिंसा-दर्शनेषु वा, इषीका, ईषीका च तृणशलाका । दृशं प्रेक्षणे, दृशीक-मनोज्ञम् , दृशीका रजस्वला। मृडत् सुखने, मृडीकंसुखकृत् , सुखं चशिलत् उञ्छे, शिलीकः-सस्यविशेषः । लींडच श्लेषणे निपूर्वः, निलीकवृत्तम् । बाहुलकादीलुक् ।। ४८ ।।
मृदेवोऽन्तश्च वा ॥ ४६॥ मृदेः किदीकः प्रत्ययो भवति, वकारश्चान्तो वा भवति । मृदश् क्षोदे, मृद्वीका मृदीका च-द्राक्षा ॥ ४६॥
सृणीका-ऽस्तीक--प्रतीक-पूतीक-समीक-वाहीक-वाहीक-बल्मीक-फल्मलीकतिन्तिडीक--कङ्कणीक--किङ्किणीक--पुण्डरीक-चञ्चरीक-फर्फरीक-झझरिक--धर्धरीकाऽऽदयः ।। ५० ॥.
____एते किदीकप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । सर्तेोऽन्तश्च, सृणीकः-वायुः अग्निः अशनिः, उन्मत्तश्च, सणोका लाला अस्तेस्तोऽन्तश्च । अस्तीक:-जरत्कारुसुतः। प्रांक् पूरणे, प्रातेस्तोऽन्तो ह्रस्वश्च प्राति शरीरमिति-प्रतीकः-वायुः अवयवः, सुखं च । सुप्रतीक:-दिग्गजः । पुवस्तोऽन्तश्च, पूतीकं तृणजातिः । सम्पूर्वस्य एतेलुक् च, संयन्त्यस्मिन्नितिसमीक-संग्रामः। वहि-वल्हयो-र्दीर्घश्च, वाहीक;, वल्हीकः, एतौ देशौ । वलेर्मोऽन्तश्च, वल्मीकः-नाकुः । कलेर्मलश्चान्तः, कल्मलीक-ज्वाला । तिमेस्तिड् चान्त, तिन्तिडीकः-पक्षी, वृक्षाम्लश्च, तन्तिडीक इति पूर्वस्येत्वं नेच्छन्त्येके । च्डक्षण्यते: कङ्कण च, कङ्कणीकः-घण्टाजालम् । किमः परात् कणतेः कि ण चू, किङ्किणीका-घण्टिका । पुणेर्डर चान्तः, पुण्डतेर्वा अर्, पुण्डरीक-पद्म, छत्त्रं व्याघ्रश्च । चञ्चेरर् चान्तः, चञ्चरीकः-भ्रमरः। पिपर्त्तगुणो द्वित्वं
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३५० ]
स्वोपज्ञोणादिगण सूत्रविवरणम् ।
[ सूत्र- ५१-५७
पकारयोः फत्वं रश्चान्तः पूर्वस्य, फफेरीकं - पल्लवं, पादुका, मर्दलिका च झीर्यद्वित्वं तृतीय भावः पूर्वस्य रश्चान्तः, झर्झरीक:- देहः, अर्झरीका - वादित्रभाण्डम् । एवं - घस्ते, घरीका - घण्टिका आदिग्रहणादन्येऽपि ।। ५० ।।
मि-मि-कटि भल्लि कुरुकः ॥ ५१ ॥
एभ्य उकः प्रत्ययो भवति । डुमिंग्ट् प्रक्षेपणे, मयुकः - आतपः । बाहुलकात् "मिग्मीनो०" [ ४-२-८ ] इति नात्वम् । टुवम् उद्गिरणे, वमुकः - जलद: । 'कटे वर्षा ऽऽवरणयोः, कटुकः - रसविशेषः । भल्लि परिभाषण - हिंसादानेषु, भल्लुक :- ऋक्ष: । कुणि विस्मापने, कुहुकम् - आश्चर्यम् ।। ५१ ।।
सं-विभ्यां कसेः ॥ ५२ ॥
आभ्यां परस्मात् कसेरुकः प्रत्ययो भवति क स गतौ, संकसुकः- सुकुमारः, परापवादशीलः, श्राद्धाग्निश्च संकसुकं व्यक्ताव्यक्तं संकीर्णं च । विकसुक:- गुणवादी, परि
श्रान्तश्च ।। ५२ ।।
क्रमेः कृ॒म् च वा || ५३ "
*मेरुकः प्रत्ययो भवति, श्रस्य च 'कृम' इत्यादेशो वा भवति । क्रमू पादविक्षेपे, कृमुकः- बन्धनम् आदेशविधानबलाच्च न गुणः क्रमुकः पूगतरु ।। ५३ ।।
कमि तिमेर्दोऽन्तश्च ॥ ५४ ॥
आभ्यामुकः प्रत्ययो भवति, दश्चान्तो भवति । कमुङ्कान्तौ कन्दुक:- क्रीडनम् । तिमच् आर्द्रभावे, तिन्दुकः - वृक्षः ।। ५४ ।।
मण्डेर्मड्डश्च ॥ ५५ ॥
मण्डैरुकः प्रत्ययो भवति मड्डु च आदेशो भवति । मडु भूषायाम् मड्डुक:वाद्यविशेषः ।। ५५ ।।
कण्यणेर्णित् ।। ५६ ।।
आभ्यां णिदुकः प्रत्ययो भवति । कण अण शब्दे, काणुकः काकः, हिंस्रश्च, काणुकम् आणुकं च-अक्षिमलम् ।। ५६ ।।
कञ्चुक शुक-- नंशुक-पाकुक-हिबुक-चिबुक - जम्बुक- चुलुक-चूचुकोल्मुक-भावुकपृथुकमधुकादयः ॥ ५७ ॥
एते किदुकप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते कचि बन्धने अशोटि व्याप्तौ नशौच अदर्शने, एषां स्वरान्नोऽन्तश्च कञ्चुकः - कूर्पासः, अंशुकं - वस्त्रम् नंशुको - रणरेणुः, प्रवासशीलः, चन्द्रः, प्रावरणं च । पचेः पाक् च पाकुक:- लघुपाची सूपः, सूपकारः अध्वर्युं श्च । हिनोतिचिनोति जमतीनां वोऽन्तश्च, हिबुकं - लग्नाच्चतुर्थ स्थानम्, रसातलं, चिबुकं - मुखा
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सूत्र-५०-६३ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ३५१
धोभागः, जम्बुकः-सृगालः । चुलुम्पः सौत्रः, अन्त्यस्वरादिलोपश्च चुलुम्पतीति-चुलुकः करकोशः चतेश्चूच च, चूचुक:-स्तनाग्रभागः । ज्वलेरुल्म् च, उल्मुकम्-अलातम् । भातेर्वोऽन्तश्च, भावुकः-भगिनीपतिः । प्रथिष् प्रख्याने, पृथुकः-शिशुः व्रीह्याद्यभ्यूषश्च । मचि कल्कने, घश्चान्तादेशः, मधुकं यष्टीमधुः । आदिग्रहणाद् वालुको-वालुकादयो भवन्ति ।।५७।
मृ-मन्यञ्जि-जलि-बलि-तलि-मलि-मल्लि-भालि-मण्डि-बन्धिभ्य ऊकः ॥ ५८ ॥
एभ्य ऊकः प्रत्ययो भवति । मृत् प्राणत्यागे, मरूक:-मयूरः, मृगः, निदर्शनेभः, तृणं च । मनिच् ज्ञाने, मनूक:-कृमिजातिः । अजौप व्यक्ति-म्रक्षण-गतिषु, अजूकःहिंस्रः। जल घात्ये, जलूका-जलजन्तुः । बल प्राणन-धान्यावरोधनयोः, बलूकः-उत्पलमूलं, मत्स्यश्च तलण् प्रतिष्ठायाम् , तलूक:-त्वकृमिः । मलि धारणे, मलूकः-सरोजशकुनिः । मल्लि धारणे, मल्लूक:-कृमिजातिः। भलिण आभण्डने, भालूकः ऋक्षः । मुह भूषायाम् मण्डूके:-दुर्दुरः बन्धंश् बन्धने, बन्धूकः- बन्धुजीवः ।। ५८ ॥
शल्यणेर्णित् ॥ ५९॥
आभ्यां णिदूकः प्रत्ययो भवति । पल फल शल गतौ, शालूकं-जलकन्दः, बलवांश्च । अण शब्दे, आणूकम्-अक्षिमलम् ॥ ५६ ॥
कणि-भल्लेर्दीर्घश्व वा ॥ ६० ॥
आभ्यामकः प्रत्ययो भवति, दीर्घश्चानयोर्वा भवति । कण शब्दे, कणक:-धान्यस्तोकः, काणूक:-पक्षी, काएकम्-अक्षिमलम्, तमो वा । भल्लि परिभाषण-हिंसा-दानेषु, भल्लूक: भाल्लूकश्च-ऋक्षः ।। ६० ।।
शम्बूक--शाम्बूक-वृधूक-मधूकोलूकोरुबूक-वरूकादयः॥ ६१ ॥
एते ऊकप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । शमेोऽन्तो दीर्घश्च वा । शम्बूकः-शङ्खः, शाम्बूकः स एव । वृश् भरणे, अस्य वृधभावश्च, वृधूक:-मातृवाहकः, वृधूकं जलम् । मदेर्धश्च, मदयतीति-मधूकः-वृक्षः । अलेरुच्चोपान्त्यस्य, उलूकः-काकारिः । उरुपूर्वाद् वातेः किच्च, उरु वाति उरुवूकः-एरण्डः । वृधेर्लोपश्च, वर्धत इति-वरूकः-तृणजाति: आदिग्रहणादनूकवावदूकाऽऽदयो भवन्ति ।। ६१ ।।
किरोऽङ्को रो लश्च वा ।। ६२ ।।
किरतेरङ्कः प्रत्ययो भवति । रेफस्य च लकादेशो वा भवति । करङ्कः-समुद्रः, कलङ्कः-लाञ्छनम् ।। ६२ ।।
रा-ला-पा-का-भ्यः कित् ॥ ६३॥
एभ्य किदङ्कः प्रत्ययो भवति । रांक दाने, रङ्क: बलीयान् । लांक दाने, लङ्का पुरी । पांक रक्षणे, पङ्कः कर्दमः । के शब्दे कङ्कः पक्षी ।। ६३ ॥
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३५२ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-६४-७२
कुलि-चिरिभ्यामिङ्कक् ।। ६४ ॥
आभ्यामिङ्कक् प्रत्ययो भवति । कुल बन्धुसंस्त्यानयोः, कुलिङ्कः चटका। चिर हिंसायाम् सौत्रः, चिरिङ्क जलयन्त्रम् ॥ ६४ ॥
कलेरविङ्कः॥ ६५॥ कलेरवितः प्रत्ययो भवति । कलि शब्दसंख्यानयोः, कलविङ्कः गृहचटकः ।। ६५ ।। क्रमेरेलकः ॥६६॥ क्रम पादविक्षेपे, इत्यस्मादेलकः प्रत्ययो भवति । क्रमेलकः करभः ।। ६६ ।।। जीवेराको जैव च ।। ६७॥
जीव प्राणधारणे, इत्यस्मादातृक: प्रत्ययो भवति, जैव इत्यादेशश्च भवति । जैवातृकः आयुष्मान् चन्द्रः आम्रः वैद्यः मेघश्च । जैवातृका जीवद्वत्सा स्त्री ।। ६७ ।।
हृ-भू-लाभ्य आणकः ॥ ६८॥
एभ्य आणक: प्रत्ययो भवति । हग हरणे, हराणक: चौरः । भू सत्तायाम् , भवाणकः गृहपतिः । लांक् आदाने, लाणकः हस्ती ॥ ६८ ॥
प्रियः कित् ॥ ६६ ॥
प्रींग्श् तृप्तिकान्त्योः, इत्यस्मादाणकः प्रत्ययो भवति स च कित् भवति । प्रियाणकः पुत्रः ।। ६९ ॥
धा--लू-शिशिभ्यः ॥ ७० ॥
योगविभाग उत्तरार्थः एभ्यश्च आणकः प्रत्ययो भवति । डुधांग्क घारणे च, घाणकः दीनारद्वादशभागः हविषां ग्रहः छिद्रपिधानं च । लूग्श् छेदने, लवाणकः कालः तृणजाति: दात्रं च । शिघु आघ्राणे, शिवाणकः नासिकामलः ॥ ७० ॥
शी-भी राजेश्चानकः ॥ ७१॥
शीभीराजिभ्यो घालूशिङ्घिभ्यश्च आनक: प्रत्ययो भवति । शीङ क स्वप्ने, शयानकः-अजगरः, शैलश्च । त्रिभीक भये, बिभेत्यस्मादिति भयानकः भीमः, व्याघ्रः, वराहः, राहश्च । राजग दीप्ती, राजानक:-क्षत्रियः । डुधांग्क् धारणे च, धानक:-हेमादिपरिमा. णम् । लूग्श छेदने, लवानक:-देशविशेषः, दात्रं च । शिवन्त्यनेनेति शिवानक:-श्लेष्मायुः पुरीषं च ।। ७१॥
अणेर्डित् ॥ ७२॥ अणेडिदानकः प्रत्ययो भवति । अण् शब्दे, आनक:-पटहः ।। ७२॥
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सूत्र-७३-८१ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ३५३
कनेरीनकः॥ ७३॥
कनै दीप्तिकान्तिगतिषु, इत्यस्मादीनकः प्रत्ययो भवति । कनीनकः-कनीनिका वाऽक्षितारका ।। ७३ ।।
गुङ् ईधुकैधुको । ७४ ॥
गुङ शब्दे, इत्यस्मादीधुक एधुक-इत्येतो प्रत्ययौ भवतः । गवोधुकं-नरम् , धान्यजातिश्च । गवेधुकातृणजातिः ।। ७४ ।।
वृतेस्तिकः॥ ७५॥
वृतूङ वर्तने, इत्यस्मात्तिकः प्रत्ययो भवति । वत्तिका-चित्रकरोपकरणम् , शकुनिः, द्रव्यगुटिका च ।। ७५ ।।
कृति-पुति-लति-भिदिभ्यः कित ।। ७६ ॥ ___ एभ्यः कित्तिक: प्रत्ययो भवति । कृतत् छेदने, कृत्तिका नक्षत्वम् । पुतिलती सौत्री, पुत्तिका-मधुमक्षिका लत्तिका-वाद्यविशेषः; गौः गोधा च, गोपूर्वात् गोलत्तिका-गृहगोलिका; अवपूर्वात् , अवलत्तिका-गोधा, आलत्तिका-गानप्रारम्भः । भिदृपी विदारणे, भित्तिका, कुड्यम् , माषादिचूर्णम् , शरावती च नदी ।। ७६ ॥
इष्यशि-मसिभ्यस्तकक् ।। ७७ ।।
एभ्यस्तका प्रत्ययो भवति । इषत् इच्छायाम् , इष्टका-मृद्विकारः । अशौटि व्याप्ती, अष्टकाः-श्राद्धतिथयस्तिस्रः, अष्टम्यः, पितृदेवत्यं च । मसैच परिणामे, मस्तक:शिरः।। ७७॥
भियो द्वे च ॥ ७॥ त्रिभीक भये, इत्यस्मात्तकक् प्रत्ययो भवति द्वे च रूपे भवतः । बिभीतक:-अक्षः ७८ ह-रुहि-पिण्डिभ्य ईतकः॥ ७९ ॥
एम्य ईतकः प्रत्ययो भवति । हग हरणे हरीतकी पथ्या । रुहं जन्मनि, रोहीतकःवृक्षविशेषः । पिडुङ संघाते, पिण्डीतकः-करहाट: ।। ७९ ।।
कुषेः कित् ॥ ८० ॥ कुषश् निष्कर्षे, इत्यस्मात् किदीकः प्रत्ययो भवति । कुषीतकः-ऋषिः ।। ८० ॥ बलि-बिलि-शलि-दमिभ्य आहकः ॥ ८१ ॥
एभ्य आहक: प्रत्ययो भवति । बल प्राणनधान्यावरोधयोः, बलाहक:-मेघः, वातश्च । बिलत् भेदने, बिलाहकः-वज्रः । बाहुलकान्न गुणः । शल गतौ, शलाहक:-वायुः । दमूच् उपशमे, दमाहकः-शिष्यः ।। 4१॥
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३५४ ]
स्वोपज्ञोणादिगणमूत्रविवरणम्
[ सूत्र -८२-९०
चण्डि मल्लिभ्यामातकः ॥ ८२ ॥
आभ्यामातकः प्रत्ययो भवति । चडुङ कोपे, चण्डातकं नर्तक्यादिवासः । भल्लि परिभाषण हिंसादानेषु भल्लातकः - वृक्षः ।। ८२ ॥
·
श्लेष्मातकाम्रातका मिलातक-पिष्टातकादयः ॥ ८३ ॥
एते आतकप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । श्लिषेमंश्च परादिः, श्लेष्मातकः कफेलुः । अमेर्वृद्धो रश्चान्तः, आम्रातक:- वृक्षः । नत्रः परस्य म्लायतेमिल् च, अमिलातकम् - वर्णपुष्पम् । विषेस्तोऽन्तश्च पिष्टातकंवर्णचूर्णम् आदिग्रहणात् कोशातक्यादयो भवन्ति ॥ ८३ ॥
शमि-मनिभ्यां खः ॥ ८४ ॥
आभ्यां खः प्रत्ययो भवति, शमूच् उपशमे शङ्खः कम्बु, निषिश्च । मनिच् ज्ञाने, मङ्खः मागधः, कृपणः, चित्रपटश्च मङ्खा - मङ्गलम् ॥ ८४ ॥
श्यतेरिच्च वा ॥ ८५ ॥
शोंच् तक्षणे, इत्यस्मात् खः प्रत्ययो भवति, इश्चास्यान्तादेशो वा भवति । शिखाचूडा, ज्वाला च, विशिखा - आपणः । विशिखः - बाणः । शाखा-विटपः । विशाखा नक्ष श्रम् । विशाख:- स्कन्दः ।। ८५ ।।
पू-मुहोः पुन्मुरौ च ॥ ८६ ॥
पूङ पवने मुहौच् वैचित्ये, इत्येताभ्यां खः प्रत्ययो भवति । अनयोश्च यथासंख्यं पुनमुर् इत्यादेशौ भवतः । पुङ्खः - बाणबुध्नभागः, मङ्गलाचारश्च । मूर्खः - अज्ञः ।। ८६ ।।
अशेर्डित् ॥ ८७ ॥
अशोटि व्याप्ती, इत्यस्मात् डित् खः प्रत्ययो भवति । अश्नुत इति खमाकाशमिन्द्रियं च नास्य खमस्ति नखः, शोभनानि खानि अस्मिन् सुखम् । दुष्टानि खान्यस्मिन् दुःखम् ।। ८७ ।।
उषेः किल्लुक् च ॥ ८८ ॥
उष् दाहे, इत्यस्मात् कित् खः प्रत्ययो भवति, लुक् चान्त्यस्य भवति । उषन्त्यस्यामिति उखा स्थाली, ऊर्ध्वक्रिया वा ॥ ८८ ॥
मरुच्चास्य वा ॥ ८६॥
मह पूजायाम्, इत्यस्मात् खः प्रत्ययः अन्तलुक् अकारस्य च उकारादेशो वा भवति । मुखमाननम्, मखः यज्ञः, अध्वर्युः, ईश्वरश्च ॥ ८९ ॥
न्युङ्खादयः ॥ ६० ॥
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सूत्र-९१-९८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ३५५
न्युङ्खादयः शब्दाः खप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । नयतेः ख उन् चान्तः, न्युङ्खा:षडोङ्काराः । आदिग्रहणादन्येऽपि ।। ६० ।।
मये-धिभ्यामृखेखौ ।। ६१॥
मयि गतौ, एधि वृद्धौ, इत्याभ्यां यथासंख्यं ऊख, इख इत्येतो प्रत्ययो भवतः । मयूख:-रश्मिः । एघिखः-वराहः ।। ६१ ।।
गम्यमि-रम्यजि-गद्यदि-छो-गडि-खडि-ग-भृ-वृ-स्वृभ्यो गः॥ १२ ॥
एभ्यो गः प्रत्ययो भवति । गम्लु गतौ, गङ्गादेवनदी । अम गतौ अङ्गम्-शरीरावयवः, अङ्गः समुद्रः, वह्निः, राजा च, अङ्गा-जनपदः । रमि क्रोडायाम् , रङ्गः-नाटयस्थानम् । अज क्षेपणे च, वेग:-स्वरा, रेतश्च । गद वक्तायां वाचि, गद:-वाग्विकलः । अदंक भक्षणे, अद्गः समुद्रः, अग्नि:, पुरोडाशश्च । छोंच छेदने, छागः-बस्तः । गड सेचने, गङ्गः-मृगजातिः । खडण् भेदे, खड्गः मृगविशेषः असिश्च । गत् निगरणे, गर्ग:-ऋषिः। टुडुभृगक पोषणे च, भर्गः-रुद्रः, सूर्यश्च । वृग्ट वरणे, वर्गः संघातः औस्व शब्दोपतापयोः, स्वर्गः-नाकः।। ९२ ।।
पू-मुदिभ्यां कित् ॥ १३ ॥
आभ्यां किद्गः प्रत्ययो भवति । पूग्श् पवने पूगः-संघातः, क्रमुकश्च । मुदि हर्षे मुद्गः-धान्यविशेषः ।। ९३ ।।
भृ-वृभ्यां नोऽन्तश्च ॥ १४ ॥
आभ्यां किद्गः प्रत्ययो भवति, नकारश्चान्तो भवति । टुडुभृक् पोषणे भृङ्गःपक्षी, भ्रमरः वर्णविशेष:, लवङ्गश्च । वृन्ट् वरणे, वृङ्गः-पक्षी, उपपतिः।। ९४ ॥ . द्रमो णिद्वा ॥ १५॥
द्रम गती, इत्यस्माद्गः प्रत्ययो भवति स च णिद्वा । द्राङ्ग-शीघ्रम् , द्राङ्गः-पांशुः, द्रङ्ग:-नगरम् , द्रङ्गा-शुल्कशाला ।। ९५ ।।
शृङ्ग-शाङ्गादयः ।। ६६ ॥
शृङ्गादयः शब्दा गप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । शृश् हिंसायाम् , इत्यस्य नोऽन्तो ह्रस्वश्च । शृङ्ग-विषाणम् , शिखरं च, तस्यैव नोऽन्तो वृद्धिश्च, शाङ्ग:-पक्षी । आदिग्रहणात् हृग हरणे, हार्ग:-परितोषः । मत् प्राणत्यागे, मार्ग:-पन्थाः ॥६६॥
तडेरागः॥ १७ ॥ तडण् आघाते, इत्यस्मादागः प्रत्ययो भवति । तडागं सरः।। ९७ ।। पति-तमि-त-प-कृ-शल्वादेरङ्गः ॥१८॥ एभ्योऽङ्गः प्रत्ययो भवति । पत्लु गतौ, पतङ्गः-पक्षी शलभः, सूर्यः, शालि
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स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
सूत्र-६६-१०५
विशेषश्च । तमूच काङक्षायाम् , तमङ्गः-हर्म्यनि' हः । तृ प्लवनतरणयोः, तरङ्ग मिः । पृश् पालनपूरणयोः, परङ्गः-खगः, वेगश्च । कृत् विक्षेपे, करङ्गः कर्मशीलः । शृश् हिंसायाम् , शरङ्गः-पक्षिविशेषः । लूग्श् छेदने, लवङ्गः-सुगन्धिवृक्ष: । आदिग्रहणादन्येभ्योऽपि ॥ ९८॥
सृ-वृ-नभ्यो णित् ॥ ६ ॥
एम्यो णिदङ्गः प्रत्ययो भवति । सृगतो, सारङ्गः-हरिणः, चातकः, शबल वर्णश्च । वन्ट् वरणे, वारङ्गः, काण्डखङ्गयोः, शल्यं, शकुनिश्च । नृश् नये, नारङ्ग:-वृक्षजातिः ।।९।
मनमत्मातौ च ॥ १०॥
मनिच् ज्ञाने, इत्यस्मादङ्गः प्रत्ययो भवति, मत्-मातौ चास्यादेशौ भवतः । मतङ्गः-ऋषिः, हस्ती च । मातङ्ग:-हस्ती, अन्त्यजातिश्च ।। १०० ।।
विडि-विलि-कुरि-मृदि-पिशिभ्यः कित् ॥ १०१ ॥
एभ्यः किदङ्गः प्रत्ययो भवति । विड आक्रोशे, विडङ्गः-वृक्षजातिः, गृहावयवश्च । विलत् वरणे, विलत् भेदने वा, विलिङ्गः औषधम् । कुरत् शब्दे, कुरङ्गः-हरिणः, कुरङ्गी भोजकन्या मृदश् क्षोदे, मृदङ्ग:-मुरजः । पिशत् अवयवे, पिशङ्ग:-वर्णः ।। १०१ ।।
स्फुलि-कलि-पल्याट्य इङ्गक ॥ १०२ ॥
स्फुल्यादिभ्य आदन्तेभ्यश्च इङ्गक प्रत्ययो भवति । स्फुलत् संचये च, स्फुलिङ्गः स्फुलिङ्गा च अग्निकणः । कलि शब्दसंख्यानयोः, कलिङ्गो-राजा कलिङ्गा-जनपदः । पलगतो, पलिङ्गः, ऋषिः, शिला च । पातेः पिङ्गः । भातेः, भिङ्गाः । द्वावपि वर्णविशेषौ । ददाते: दिङ्ग:-अध्यक्षः। दधातेः धिङ्गः-श्रेष्ठी। लातेः लिङ्ग-स्त्रीत्वादि हेतुश्च । आलिङ्गः-वाद्यविशेषः । श्यतेः शिङ्गः-वनस्पतिः, किशोरश्च ।। १०२ ।।
भलेरिदुतौ चातः ॥ १०३ ॥
भलिए आभण्डने, इत्यस्मादिङ्गक प्रत्ययो भवति । अकारस्य च इकार-उकारी भवतः। भिलिङ्ग:-कर्मारोपकरणम् । भुलिङ्गः-ऋषिः, पक्षी च । भुलिङ्गा: साल्वावयवाः ।। १०३ ॥
अदेर्णित् ॥ १०४॥
अदंक भक्षणे, इत्यस्मात् दिङ्गक प्रत्ययो भवति । स च णित् भवति । आदिङ्गःवाद्यजातिः ।। १०४ ॥
उच्चिलिङ्गादयः ॥ १०५ ॥
उच्चिलिङ्गादयः शब्दा इङ्गप्रत्ययान्ता निपात्यन्तै। उत्पूर्वाच्चलेरस्येत्वं च । उच्चिलिङ्गः-दाडिमी । आदिग्रहणादन्येऽपि ।। १०५ ॥ ..
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सूत्र-१०६-११४ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ३५७
माङस्तुलेरुङ्गक् च ॥ १०६ ॥
माङपूर्वात् तुलण उन्माने, इत्यस्मात् उङ्गक इङ्गक् च प्रत्ययौ भवतः । मातुलुङ्गः बीजपूरः, मातुलिङ्गः स एव ।। १०६ ।।
कमि-तमि-शमिभ्यो डित् ।। १०७॥
एभ्यो डिदुङ्गः प्रत्ययो भवति । कमूङ कान्ती, कुङ्गा जनपदः । तमूच काङ्क्षायाम्, तुङ्गः-महावर्मा, शमूच् उपशमे, शुङ्गः-मुनिः, शुङ्गा-विनता । शुङ्गाः-कन्दल्यः । १०७॥
सतेः सुर्च ॥ १०८ ॥
सृ गतौ इत्यस्मादुङ्गः प्रत्ययो भवति, सुर् चास्यादेशो भवति । सुरुङ्गा-गूढमार्गः ।। १०८।।
स्था-ति-जनिभ्यो घः॥१०६ ॥
एभ्यो घः प्रत्ययो भवति । ष्ठां गतिनिवृत्ती, स्थाघः गाधः । ऋप्रापणे च, अर्घ:मूल्यम्, मानप्रमाणं, पादोदकादि च । जनैचि प्रादुर्भावे, जवाशरीरावयवः ॥ १०९ ॥
__ मघा घवाघ-दीर्घादयः ॥ ११ ॥
___ एते घप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । मङनूघलोपश्च । मघा नक्षत्रम् । हन्तेहंस्य घश्च, घङ्घः-घस्मरः, घवा काङ्क्षा । अमेलुक् च, अघं-पापम् । हणातेीर् च, दीर्घ-आयतः, उच्चश्च । आदिशब्दादन्येऽपि ॥११॥
सतेरेघः॥१११॥ सृ गतो, इत्यस्मादधः प्रत्ययो भवति । सरघामधुमक्षिका ॥१११॥ कु-पू-समिणभ्यश्चट् दीर्घश्च ॥ ११२ ॥
कुपूभ्यां सम्पूर्वाच्च इणश्चट् प्रत्ययो भवति । दीर्घश्च भवति, टो ड्यर्थः । कुङ शब्दे, कूचः-हस्ती, कूची-प्रमदा चित्रभाण्डम् , उदश्वित्, विकारश्च । पूग्श् पवने, पूचः, पूची मुनिः । इंणक् गती, समीचः ऋत्विक, समीचं-मिथुनयोगः। समीची-पृथ्वी, उदीची च, दीर्घवचनाद् गुणो न भवति ॥ ११२ ॥
कूर्च-चूर्चादयः ॥ ११३ ॥
कूर्च इत्यादयः शब्दाश्चट्प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । कवतेः किरतेः करोतेर्वा ऊरादेशश्चान्तस्य । कूर्च-श्मश्रु आसनं, तन्तुवायोपकरणं, यतिपवित्रकं च । कूर्चमिव कूर्चकः कूचिकेति च भवति । चरतेश्चोरयतेर्वा चूरादेशश्च, चूर्चः-बलवान् । आदिशब्दादन्येऽपि ।। ११३ ॥
कल्यवि-मदि-मणि-कु-कणि-कुटि कृभ्योऽचा ॥ ११४ ॥
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३५८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-११५-१२३
एभ्योऽचः प्रत्ययो भवति । कलि शब्दसंख्यानयोः, कलच:-गणक: । अव रक्षणादौ, अवच:-उच्चस्तरः। मदैच् हर्षे, मदच: मत्तः । मण शब्दे, मणचः-शकुनिः । कुङ शब्दे, कवचं-वर्म । कण शब्दे, कणचः-कणयः । कुटत् कौटिल्ये, कुटचः वृक्षजातिः, कृत विक्षेपे, करच:-धान्यावपनम् ।। ११४।।
क्रकचादयः ॥ ११५ ॥
क्रकच इत्यादयः शब्दा अप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । क्रमेः कश्च, जक:-करपत्त्रः । आदिशब्दादन्येऽपि ॥ ११५ ।।
पिशेराचक् ॥ ११६ ॥ पिशत् अवयवे, इत्यस्मादाचक् प्रत्ययो भवति । पिशाचः-व्यन्तरजातिः ।।११६॥ मृ-पिभ्यामिचः ॥ ११७ ॥
आभ्यामिचः प्रत्ययो भवति । मृत् प्राणत्यागे, मरिचम् ऊषणम् । त्रप्रौषि लज्जायाम् , त्रपिचा-कुथा ॥ ११७ ॥
म्रियतेरीचण ॥११८ ॥ मृत् प्राणत्यागे, इत्यस्मादीचण् प्रत्ययो भवति । मारोचः-रावणमातुलः ॥११८।। लषेरुचः कश्च ॥ ११९ ॥
लषी कान्तौ। इत्यस्मादुचः प्रत्ययो भवति । अन्त्यस्य च को भवति । लकुच:वृक्षजातिः ।। ११६ ।।
गुडेरूचट् ॥ १२०॥
गुडत् रक्षायाम् , इत्यस्मादूचट् प्रत्ययो भवति । गूडूची-छिन्नरुहा । कुटादित्वाद टित्त्वम् ।। १२० ॥
सिवेडित ॥१२१॥
षिवूच् ऊतो, इत्यस्यात् उचट् प्रत्ययो डित् भवति । सूचः-पिशुनः, स्तिभिश्चः । सूची-संधानकरणी ॥१२१॥
चि-मेडोंचडचौ ॥ १२२॥
चिमिभ्यां प्रत्येकं डोच डञ्च इति प्रत्ययो भवतः । वचनभेदान्न यथासंख्यम् । चिंगट चयने, चोचः वृक्षविशेषः, चञ्चा-तृणमयः पुरुषः। डुमिंगट प्रक्षेपणे, मोचा-कदली, मञ्चःपर्यङ्कः ।।१२२॥
कुटि-कुलि-कल्युदिभ्य इश्वक् ।। १२३ ॥
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सूत्र-१२४-१३१ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ३५९
एभ्य इञ्चक् प्रत्ययो भवति । कुटेः, कुटिञ्चः-क्षुद्रकर्कटः । कुलेः, कुलिञ्च:राशिः । कलेः, कलिञ्चः-उपशाखावयवः । उद आघाते सौत्रः, उदिञ्च कोण: येन तूर्य वाद्यते, परपुष्टश्च ।।१२३।।
तुदि-मदि-पद्यदि-गु-गमि-कचिभ्यच्छक् ॥ १२४ ॥
एभ्यश्छक् प्रत्ययो भवति । तुदीत् व्यथने, तुच्छ:-स्तोकः । मदैच् हर्षे, मच्छ:मत्स्यः, प्रमत्तपुरुषश्च; मच्छा-स्त्री । पदिंच गतौ, पच्छः शिला। अदंक भक्षणे, अच्छ:निर्मलः । गुङ शब्दे, गुच्छः स्तबकः । गम्लु गतौ, गच्छः क्षुद्रवृक्षः। कचि बन्धने, कच्छ: कूर्मपादः, कुक्षिः नद्यवकुटारश्च । कच्छा जनपदः । बाहुलकात् कत्वाभावः ।१२४॥
पीपूडोह्रस्वश्च ॥ १२५ ॥ • आभ्यां छक् प्रत्ययो भवति, ह्रस्वश्च भवति । पीङच पाने, पिच्छम् -शकुनिपत्त्रम्, पिच्छ:-गुणविशेषः । यद्वान् पिच्छिल उच्यते । पूङ पवने, पुच्छं वालधिः ॥१२५।।
गुलुञ्छ-पिलिपिञ्छैधिच्छादयः ॥ १२६ ॥
एते छप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । गुडेल उम् चान्तः, गुलुञ्छः स्तवकः । पीलेरिपि नोन्तो ह्रस्वश्च, पिलिपिञ्छः-रक्षाविशेषः । एधेरिट च, एपिच्छः नगः । आदिग्रहणात् पिञ्छादयोऽपि भवन्ति ।। १२६ ।। - वियो जक् ।। १२७ ॥
वींक् प्रजनकान्त्यसनखादनेषु च, इत्यस्मात् जक् प्रत्ययो भवति । बीजम्उत्पत्तिहेतुः ।। १२७॥
पुवः पुन् च ॥ १२८॥
पूङ पवने, इत्यस्मात् जक् प्रत्ययो भवति । अस्य च पुन् इत्यादेशो भवति । पुजः राशिः ॥१२८॥
कुवः कुब्कुनी च ॥ १२ ॥
कुछ शब्दे, इत्यस्मात् जक् प्रत्ययो भवति । अस्य च कुष् कुन् इत्यादेशौ भवतः । कुब्जः-वक्रानताङ्गः, गुच्छश्च । कुञ्जः-हनुः, पर्वतैकदेशश्च । निकुञ्जः-गहनम् ॥१२६॥
कुटेरजः ॥ १३ ॥
कुटत् कौटिल्ये, इत्यस्मादजः प्रत्ययो भवति । कुटजः-वृक्षविशेषः । कुटादित्वात् टित्त्वम् , कुटजी ।। १३० ॥
भिषेभिषभिष्णौ च वा ॥ १३१॥ .
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३६० ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-१३२-१४१
भिषेरजः प्रत्ययो भवति, भिषभिष्ण इत्यादेशौ चास्य वा भवतः। भिषिः सौत्रः, भिषजः । आदेशबलान्न गुणः । भिष्मजः-वैद्यः, भेषजम्-औषधम् ॥१३१।।
मुमुर् च ॥ १३२ ॥ ___ मुर्वे बन्धने, इत्यस्मादजः प्रत्ययो भवति । अस्य च मुर् इत्यादेशो भवति । मुरजः
मृदङ्गः ।। १३२॥
बलेर्वोन्तश्च वा ॥ १३३॥
बल प्राणनधान्यावरोधयोः, इत्यस्माद अजः प्रत्ययो भवति, वकारश्चान्तो वा भवति । बल्वजः-मुजविशेषः । बलजा-सबुसो धान्यपुजः ।। १३३ ।।
. उटजादयः ॥ १३४॥
उटजादयः शब्दा अजप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते, वटेवस्योत्वं च । आदिशब्दात् भूर्जभरुजादयो भवन्ति ।। १३४॥
कुलेरिजक् ॥ १३५॥ कुल बन्धुसंस्त्यानयोः, इत्यस्मात् इजक् प्रत्ययो भवति । कुलिज-मानम् ॥१३५।। कृगोऽञ्जः॥ १३६ ॥ करोतेरञ्जः प्रत्ययो भवति । करञ्जः-वृक्षजातिः ।। १३६ ।। झमेझः ॥ १३७॥ झमू अदने, इत्यस्मात् झः प्रत्ययो भवति । झजा-सशीकरो मेघवातः ।।१३७॥ लुषेष्टः ॥ १३८॥ लुष स्तेये, इत्यस्माट्टः प्रत्ययो भवति । लोष्टोमृपिण्डः ॥ १३८ ।। नमि-तनि-जनि-बनि-सनो लुक् च ॥ १३६ ॥
एभ्यष्टः प्रत्ययो भवति, लुक् चान्तस्य भवति । पमं प्रह्वत्वे, नट:-भरतपुत्रः । तनूयी विस्तारे, तटंकूलम् । जनैचि प्रादुर्भावे, जटा-ग्रथितकेशसंघातः। वन षण संभक्ती, वट:-न्यपोधः। सटा-अग्रथितः केशसंघातः ।। १३९ ।।
जनि पणि किजुभ्यो दीर्घश्च ॥ १४०॥
एभ्यष्टः प्रत्ययो भवति, दीर्घश्चैषां गुणापवादो भवति । जनैचि प्रादुर्भावे, पणि व्यवहारस्तुत्योः, जाण्टः, पाण्ट: वृक्षविशेषावेतौ। किजू सौत्रौ, कीट:-क्षुद्रजन्तुः । जूटः मौलिः॥ १४०॥
घटा घाटा घण्टादयः ॥ १४१ ॥
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सूत्र-१४२-१४७ ]
स्वपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
एते टप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । हन्तेर्घघाघनश्च, घटा वृन्दम् । घाटा स्वाङ्गम् । घण्टा-वाद्य विशेषः । आदिग्रहणात् छटादयो भवन्ति ॥ १४१ ।।
दिव्यवि श्रु-कु-कर्वि-शकि कति कृपि चपि चमि-कम्येधि-कर्कि मकिं कक्खि
तृ कृ-सृ-भृ-वृ-भ्यो-ऽटः ॥१४२ ॥ एभ्योऽटः प्रत्ययो भवति । दिवूच क्रीडादौ, देवटः देवकुलविशेषः, शिल्पी च । अव रक्षणादौ, अवट:-प्रपात: कुपश्च । श्रंट श्रवणे, श्रवट: छत्त्रम् कंक शब्दे, कवट:उच्छिष्टम् । कर्ब गतौ कर्बटक्षुद्रपत्तनम् । शक्लृट् शक्ती, शकटम्-अनः । ककुङ गतौ, कङ्कट:-सन्नाहः । कङ्कटं सीमा। कृपौङ सामर्थ कर्पट-वासः । चप सान्त्वने, चपटः-रसः । चमू अदने, चमट:घस्मरः । कमूङ कान्ती, कमट: वामनः । एघि वृद्धी, एघटः वल्मीकः । ककि-मर्की-सौत्रौ । कर्कट:-कपिलः, कुलीरश्च, कर्कटी-ऋपुसो। मर्कटः कपिः, क्षुद्रजन्तुश्च । कक्ख हसने, कक्खटः कर्कशः । तृप्लवनतरणयोः तरट: पीनः । डुकृग करणे, करटः काकः, : करिकपोलश्च । सृ गती, सरट: कृकलासः । टुडुभृगक पोषणे च, भरट: प्लवविशेषः भृत्यः, कुलालश्च । वृग्ट् वरणे, वरटः क्षुद्रधान्यम् , प्रहारश्च ।। १४२ ।। . कुलि-विलिभ्यां कित् ॥१४३ ॥
आभ्यां किदटः प्रत्ययो भवति.। कुल बन्धुसंस्त्यानयोः, कुलटा-बन्धकी । विलत् विरणे, विलटानदी ।। १४३ ।।
कपट-कीकटादयः॥ १४४ ।।
कपटादयः शब्दा अटप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । कम्पेनलोपश्च, कपटं माया। ककेरत ईच्च, कीकट: कृपणः । आदिग्रहणात् लघटपर्पटादयो भवन्ति ।। १४४ ॥ ___ अनि-शृ. पृ-वृ ललिभ्य आटः ॥ १४५॥
एभ्य आट: प्रत्ययो भवति । अनक् प्राणने, अनाटः शिशुः । शुश् हिंसायाम्, शराटः शकुन्तः । पृश् पालनपूरणयोः, पराट आयुक्तकः । वृङश् संभक्तौ वराटः सेवकः । ललिण् ईप्सायाम्, ललाटम्, अलिकम् ।। १४५ ।।
सृ सृपेः कित् ॥ १४६ ॥
आभ्यां किदाट: प्रत्ययो भवति । सृ गतौ, स्राटः पुरःसरः । सृप्लौंगतो, सृपाटः अल्पः, कुमुदादिपत्त्रं च । सृपाटी-उपानत्, कुप्यम् अल्पपुस्तकश्च ।। १४६ ।
किरो लश्च वा ॥ १४७॥
किरतेः किदाटः प्रत्ययो भवति लश्चान्तो वा भवति । किलाटो-भक्ष्यविशेषः किराटो वणिक् , म्लेच्छश्च ।। १४७ ॥
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३६२ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-१४८-१५५
कपाट विराट शृङ्गाटप्रपुन्नाटादयः ॥ १४८ ॥
एते आटप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । कम्पेनलोपश्च, कपाट अररि: जपादीनां पो व: [२-३-१०५] इति वत्वे-कवाटः । वङ इत्वं च, विराट:-राजा । श्रयतेः श्रङग च. शृङ्गाट जलजविशेषः, विपणिमार्गश्च । प्रपूर्वात् पुणेर्नश्च, प्रपुनाट:-एडगजः । आदिशब्दात् खल्वाटादयो भवन्ति ।। १४८ ।।
चिरेरिटो म च ॥ १४६ ॥
चिरेः सौत्रादिटः प्रत्ययो भवति, भकारश्चान्तादेशो भवति । चिभिटी वालुङ्गी ॥१४९ ।।
टिण्टश्चर् च वा ॥ १५० ॥
चिरेष्टिदिण्टः प्रत्ययो भवति, चर् इति चास्यादेशो वा भवति । चरिण्टो चिरिण्टी च-प्रथमवयाः स्त्री ।। १५० ॥
त-कृ-कृषि-कम्पि-कृषिभ्यः कीटः ॥ १५१ ॥
एभ्यः किदिटः प्रत्ययो भवति । तृ प्लवनतरणयोः, तिरीटं कूलवृक्षः, मुकुटं, वेष्टनं च । कृत् विक्षेपे किरीटं मुकुट, हिरण्यं च । कृपौङ सामर्थ्य , कृपीट-हिरण्यं जलं च । कपुङ चलने, कम्पीट-कम्पः, कम्पं च । कृषीत् विलेखने, कृषीटं जलम् ॥ १५१ ।।
खजेरीटः॥ १५२॥ खजु गतिवैकल्ये, इत्यस्मादरीटः प्रत्ययो भवति । खजरीट खञ्जनः ।।१५२।। गु-ज-द-व-भृभ्य उट उडश्च ॥ १५३ ॥
एभ्य उट उडश्च प्रत्ययौ भवतः । भिन्नविभक्तिनिर्देश उटस्योत्तर त्रानुबत्त्यर्थः । अप्रकृतस्यापि उडस्य विधानमिह लाघवार्थम् । गृश शब्दे, गरुट:-गरुडश्च-गरुत्मान् जषच जरसि, जरुटः, जरुडश्च वनस्पतिः। दृश् विदारणे, दरुट! दरुडश्च बिडालः । वश वरणे, वरुट: वरुडश्च मेषः । भृष् भर्जने च, भरुट: भरुडश्च मेष एव ।। १५३ ।।
मकर्मकमुकौ च ॥ १५४ ॥
मकुङ मण्डने, इस्यस्मात् उटः प्रत्ययो भवति, मक मुक इत्यादेशौ चास्य भवतः । मकुटः मुकुटश्च-किरीटः ॥ १५४ ।।
नकुट कुक्कुटोत्कुरुट-मुरुट-पुरुटादयः ॥ १५५ ॥
एते उटप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । नृतेः कश्च, नर्कुट:-बन्दी । कुकेः कोऽन्तश्च, कुक्कुट:-कृकवाकः । उतपूर्वात् कृगः, कुर् च उत्कुरुटः कचवारपुञ्जः। मुरिपुर्योगुणाभावश्च, मुरुटः यत् वेण्वादिमूलमृजूकतु न शक्यते । पुरुट:-जलजन्तुः । आदिशब्दात् स्थपुटादयो भवन्ति ।। १५५ ।।
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सूत्र-१५६-१६५ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[३६३
दुरो द्रः कूटश्च दुर् च ॥ १५६ ॥
दुपूर्वात् दृणातेः किदूट उठश्च प्रत्ययौ भवतः । दुर् चास्यादेशो भवति । दुर्दुरूट:-दुर्मुखः, दुई रुट: देशकालवादी.।। १५६ ।।
बन्धेः॥ १५७॥ बन्धंश् बन्धने, इत्यस्माद् कित उटः प्रत्ययो भवति । वधूटी-प्रथमवयाः स्त्री ।१५७ चपेरेटः॥१५८ ॥ चप् सांत्वने, इत्यस्मादेटः प्रत्ययो भवति । चपेटः चपेटा वा-हस्ततलाहतिः ।१५८ ग्रो णित् ॥ १५६ ॥ गृत् निगरणे, इत्यस्मात् णिदेटः प्रत्ययो भवति । गारेट:-ऋषिः ॥ १५९ ॥ कृ-शक शाखेरोटः ।। १६०॥
एभ्य ओटः प्रत्ययो भवति । डुकृग् करणे, करोट: भृत्यः, शिरः, कपालं च, करोटं-भाजनविशेषः । शक्लृट् शक्ती, शकोट:-बाहुः । शाख श्लाख व्याप्ती, शाखोटः वृक्षविशेषः ।। १६० ॥
कपोट-बकोटामोट-ककोंटादयः ॥ १६१ ॥
एते ओटप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । कवा वर्णे, पश्च, कपोट:-वर्णः, कितवश्च । वचे कश्च, वकोट: वकः । अश्नातेः सश्च परादिः, अक्षोट:-फलवृक्षः । कृगः-कोऽन्तश्च, कर्कोटः-नागः। आदिशब्दादन्येऽपि भवन्ति ॥ १६१ ।।
वनि-कणि-काश्युषिभ्यष्ठः ॥ १६२ ॥
एभ्यष्ठप्रत्ययो भवति । वन भक्ती, वण्ठः अनिविष्टः । कण शब्दे, कण्ठः-कन्धरा । काशृङ, दीप्तौ, काष्ठ-दारु, काष्ठा-दिक् अवस्था च । उषू दाहे, ओष्ठः-दन्तच्छदः ।१६२
पी-विशि-कुणि-पृषिभ्यः कित् ।। १६३ ॥
एभ्यः कित् ठः प्रत्ययो भवति । पीङ च पाने, पीठम्-आसनम् । विशंत् प्रवेशने, विष्ठा-पुरीषम् । कुणत् शब्दोपकरणयोः, कुण्ठः-अतीक्ष्णः पृषू सेचने पृष्ठः-अङ कुशः, शरीरैकदेशश्च ।। १६३ ।।
कुषेर्वा ॥ १६४ ॥
कुषश् निष्कर्षे, इत्यस्मात् ः प्रत्ययो भवति स च वा कित् भवति । कुण्ठंव्याधिः गन्धद्रव्यं च, कोष्ठः-कुशूलः, उदरं च ।। १६४ ।।
शमेलु च वा ॥ १६५ ॥
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३६४ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-१६६-१७०
शमूच उपशमे, इत्यस्मात् ठः प्रत्ययो भवति, लुक् चान्तस्य वा भवति । शठः धूर्तः शण्ठः-स एव, नपुंसकं च ।। १६५ ।।
पष्टैधिठादयः ॥ १६६ ॥
षष्ठादयः शब्दाष्ठप्रत्यत्यान्ता निपात्यन्ते । पुषः कित् ठः पषादेशश्च । पष्ठःप्रस्थः, पर्वतश्च । एधतेरिट च, एधिळं वनम् , एधिठः-गिरिसरिद्रहः । आदिशब्दादन्येऽपि ॥ १६६ ॥
मृ-ज-श-कम्यमि-रमि-रपिभ्योऽठः ॥ १६७ ॥
एभ्योऽठः प्रत्ययो भवति । मृत् प्राणत्यागे, मरठ.दध्यतिद्रवीभूतम्, कृमिजातिः, . कण्ठः, प्राणश्च । जुष्च जरसि, जरठः-कठोरः । शृश् हिंसायाम् . शरटः आयुधं, पापं, क्रीडनशीलश्च । कमूङ कान्तो कमठ:-भिक्षाभाजनम्, कूर्मास्थि, कच्छपः मयूरः, वामनश्च । अम गतौ, अमठः-प्रकर्षगतिः। रमि क्रीडायाम, रमठः-देशः, कृमिजातिः, क्रीडनशील: म्लेच्छ:, देवश्च, विलातानाम् । रप व्यक्ते वचने रपठः-विद्वान्, मण्डूकश्च ।। १६७॥
पश्चमात् डः ॥ १६८॥
पञ्चमान्तात् धातोर्ड: प्रत्ययो भवति । षन भक्ती, षण्ड:- वन, वृषभश्च । बाहलकात् सत्वाभावः । भण शब्दे, भण्ड:-प्रहसनकरः, बन्दी च। चण शब्दे, चण्ड:क्रूरः। पणि व्यवहारस्तुत्योः पण्ड:-शण्डः । गणण संख्याने, गण्ड:-पौरुषयुक्तः पुरुषः। मण शब्दे, मण्ड:-रश्मिः , अग्रम् , अन्नविकारश्च । वन भक्तो, वण्ड:- अल्पशेफः, निश्च. निशिश्नश्च । शमू दमूच उपशमे, शण्ड:-उत्सृष्टः, पशुः ऋषिश्च । दण्डः-वनस्पतिप्रतानः, राजशासनं, नालं, प्रहरणं च रमि क्रीडायाम् , रण्ड:-पुरुषः, रण्डा-स्त्री, रण्डम्अन्तःकरणम् । त्रयमपि स्वसम्बन्धिशून्यमेवमुच्यते । तमेस्तनेवो, तण्ड: ऋषिः । वितण्डातृतीयकथा । गमेः, गण्ड:-कपोलः । भामि क्रोधे, भाण्डम्-उपस्करः।। १६८।।
कण्यणि-खनिभ्यो णिद्वा ॥ १६६ ॥
एभ्यो ड: प्रत्ययो भवति, स च णिद्वा भवति । कण अण शब्दे, काण्डः शरः, फलसंधातः, पर्व च कण्ड-भूषणं, पर्व च । आण्ड:-मुष्कः, अण्ड:-स एव, योनिविशेषश्च खन्ग अवदारणे, खाण्ड:-कालाश्रयो गुडः । खण्ड:-इक्षुविकारोऽन्यः । खण्ड-शकलम् ॥१६६।
कु-गु-हु-नी-कुणि-तुणि-पुणि-मुणि-शुन्यादिभ्यः कित् ॥ १७० ॥
एभ्यः कित् डः प्रत्ययो भवति । कुङ शब्दे, कुड:-घटः, हलं च । गुङ : शब्दे, गुड:गोलः, इक्षुविकारश्च , गुडा-सन्नाहः । हुंक् दानादानयोः, हुड:-मूर्खः मेषश्च । णींग प्रापणे, नीडं-कूलायः। कूणत शब्दोपकरणयोः, कुण्डं-भाजनम, जलाधारविशेषश्च । कण्ड:भर्तरि जीवति जारेण जातः अपट्वीन्द्रियश्च । तुणत् कौटिल्ये, तुण्डम्-मुखम् । पुणत् शुभे,
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सूत्र १७१-१७६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ३६५
।
पुण्डः भिन्नवर्णः। मुणत् प्रतिज्ञाने, मुण्ड:-परिवापितकेशः । शुनत् गतो, शुण्डा-सुरा, हस्तिहस्तश्च । आदिग्रहणादन्येभ्योऽपि भवति ।। १७०॥
ऋ-स-त-व्या-लिह्यवि-चमि-वमि यमि-चुरि-कुहेरडः ॥ १७१ ॥
एभ्यो अडः प्रत्ययो भवति । ऋक् गतौ, अरडः-तरुः । सृ गती, सरड:-भुजपरिसर्पः, तरुश्च । तु प्लवनतरणयोः, तरड:-वृक्षजातिः । व्यग् संवरणे, व्याडः-दुःशीलः, हिंस्रः, पशुः, भुजगश्च । लिहींक आस्वादने, लेहड:-श्वा, चौर्यग्रासी च । अव रक्षणादी, अवड:-क्षेत्रविशेषः । चमू अदने, चमडः पशुजातिः । टुवम् उगिरणे, वमड:-लूताजातिः । यमू उपरमे, यमड:-वनस्पतिः, युगलं च । चुरण. स्तेये चोरड:-चोरः । कुहणि विस्मापने, कुहडः-उन्मत्तकः ।। १७१ ।। . बिहड-कहोड-कुरड-केरड-क्रोडाडयः ॥ १७२ ।।
एतेऽडप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । विपूर्वात् हन्तेरनो लुक् च, विहडः शकुनिः मूढचित्तश्च । कर्हः प्रत्ययोऽकारस्य च ओकारः, कहोडः ऋषिः । करेगुणाभावश्च, कुरड:मार्जारः । किरतेः केर् च, केरड:-राज्ये राजा । कृगः कित् प्रत्ययोकारस्य च ओकारः । कोड:-किरिः, अङ्कश्च । आदिग्रणात् लहोडादयो भवन्ति ।। १७२ ॥
ज-फ-त-श-स-भृ-वृभ्योऽण्डः ॥ १७३ ॥
एभ्योऽण्ड: प्रत्ययो भवति । जुष्च् जरसि, जरण्ड:-अतीतवयस्कः । कृत् विक्षेपे, करण्ड -समुद्गः, समुद्रः, कृमिजातिश्च । तृ प्लवनतरणयोः, तरण्ड:-प्लवः, वायुश्च । शश । हिंसायाम् , शरण्डः-हिंस्रः, आयुधं च । सृगतो, सरण्ड:-कृमिजाति:, इषीका, वायुः, भूतसंघातः, तृषसमवायश्च । टुडुइंग्क पोषणे च, भरण्ड:-भण्डजातिः, पक्षी च । वृग्ट् वरणे, वरण्ड:-कुड्यम् , तृणकाष्ठादिभारश्च ।। १७३ ॥
पूगो गादिः ॥ १७४॥
पूग्श् पवने, इत्यस्मात् गकारादिः अण्डः प्रत्ययो भवति । पोगण्ड:-विकलाङ्गः युवा च ।। १७४ ।।
वनेस्त् च ॥ १७५ ॥
वन भक्तो, इत्यस्माद् अण्ड: प्रत्ययो भवति, तकारश्चान्तादेशो भवति । वतण्ड:ऋषिः ।। १७५।।
पिचण्डैरण्ड-खरण्डादयः ॥ १७६ ॥
एतेऽण्डप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । पिचेरगुणत्वं च । पिचण्ड:-लघुलगुडः। ईरेगुणश्च, एरण्ड.-पञ्चाङ गुलः । खाद भक्षणे, अन्त्यस्वरादेररादेशश्च, खरण्ड:-सर्वत् कम् । आदिग्रहणात् कूष्माण्डशयण्डशयाण्डादयोऽपि भवन्ति ॥ १७६ ।।
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३६६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्र विवरणम्
[ सूत्र-१७७-१८४
लगेरुडः || १७७ ||
लगे सङंगे इत्यस्मात् उडः प्रत्ययो भवति । लगुड : यष्टि: । गु-ज् उडो विहित एव ।। १७७ ।।
गृ-ज-दृ-वृ-भृभ्यस्तु
कुशेरुण्डकू ।। १७८ ।।
कुशच् श्लेषे, इत्यस्मात् उण्डक् प्रत्ययो भवति कुशुण्डः - वपुष्मान् ।। १७८ ॥
शमिषणिभ्यां ढः ॥ १७६ ॥
आभ्यां ढः प्रत्ययो भवति । शमूच् उपशमे, शण्ढ ::- नपुंसकम् । षन भक्तौ षण्ढ :स एव । बाहुलकात् सत्वाभावः ॥ १७६ ॥
कुणेः कित् ॥ १८० ॥
कुणत् शब्दोपकरणयोः, इत्यस्मात् कित् ढः प्रत्ययो भवति । कुण्ठ:- धूर्तः । बाहुलकान दीर्घः ।। १८० ।।
नञः सहेः पा च ॥ १८१ ॥
नञपूर्वात् षहि मर्षणे, इत्यस्मात् ढः प्रत्ययो षा चास्यादेशो भवति । अषाढानक्षत्रम् ।। १८१ ॥
इणुर्वि-शा-वेणि-पु-कु-वृ-तृ-ज़-ह-सृपि-पणिभ्यो णः ॥ १८२ ॥
णः प्रत्ययो भवति । इंणक् गतौ, एण:- कुरङ्गः । उर्वे हिंसायाम्, उर्णामेषादिलोम, भ्रुवोरन्तरावर्तश्च । शोंच् तक्षणे, शाण:- परिमाणम्, शस्त्र तेजनं च । वेणुग् गतिज्ञानचिन्तानिशामनवादित्रग्रहणेषु, वेण्णा कृष्णवेण्णा च नाम नदी । पृश् पालनपूरणयोः, पर्णं- पत्त्रं, शिरश्च । कृत् विक्षेपे, कर्णः - श्रवणं कौन्तेयश्च । वृग्श् वरणे, वर्ण:शुक्लादि:, ब्राह्मणादि, अकारादिः, यशः स्तुतिः, प्रकारश्च । तू प्लवनतरणयो:, तर्ण:वत्सः । जृष्च् जरसि, जर्णः - चन्द्रमाः, वृक्षः, कर्कः, क्षयधर्मा, शकुनिश्च । दृङतु बदरे, दर्णः-पर्णम् । सृप्लृ ं गतौ, सवर्णः - सरीसृपजातिः । पणि व्यवहारस्तुत्योः, पण्णम्-व्यवहारः
॥ १८२ ॥
---शुषि - तृषि - कृष्यर्तिभ्यः कित् ॥ १८३ ॥
एभ्यः कित् णः प्रत्ययो भवति । घृ सेचने, घृणाकृपा । वीं प्रजननादिषु, वीणावल्लकी । ह्वोंग् स्पर्धाशब्दयोः, हूण:- म्लेच्छजातिः । शुषंच् शोषणे, शुष्णः- निदाघः । उष् दाहे, उष्णः - स्पर्शविशेष: । त्रितृषच् पिपासायाम्, तृष्णा-पिपासा । कृषीत् विलखने, कृष्णः - वर्णः, विष्णुः, मृगश्च । ऋक् गतौ, ऋणं वृद्धिधनम्, जलं, दुर्गभूमिश्च ।। १८३ ॥
द्रो ॥ १८४ ॥
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सूत्र-१८५-१८९ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[३६७
→ गतौ, इत्यस्मात् णः प्रत्ययो भवति, स च किद्वा भवति । द्रुणा-ज्या, द्रोण:चतुराढकं, पाण्डवाचार्यश्च । द्रोणी नौः, गौरादित्वात् डीः ।। १८४ ।।
स्था-क्ष-तोस्च्च ।। १८५॥
एभ्यो णः प्रत्ययो भवति, ऊकारश्चान्तादेशो भवति । ष्ठां गतिनिवृत्ती, स्थूणा तन्तुधारिणी, गृहधारिणी, शरीरधारिणी, लोहप्रतिमा, व्याधिविशेषश्च । टुक्षुक् शब्दे, सूणम्-अपराधः । तुक वृत्त्यादिषु, तूण:-इषुधिः ।। १८५ ॥
भ्रूण तृण-गुण-कार्ण-तीक्ष्ण-श्लक्ष्णाभीक्ष्णादयः ॥ १८६ ।।
एते णप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । भृगो 5 च भ्रूणः-निहीनः, अर्भकः, स्त्रैणगर्भश्च । तरते ह्रस्वश्च, तृणं-शष्पादि । गायतेर्गमे गातेर्वा गुभावश्च, गुणः-उपकारः, आश्रितः, अप्रधान, ज्या च। कृगो वृद्धिः कोऽन्तश्च, कार्ण:-शिल्पी। तिजेर्दीर्घः सश्च परादिः तीक्ष्णं-निशितम् । श्लिषे: सोऽन्तोच्चेतः श्लक्ष्णम्-अकर्कशं, सूक्ष्मं च । अभिपूर्वादिषे: किच्च सोन्तः अभोणम्-अजस्रम् । आदिग्रहणादन्येऽपि ॥ १८६ ॥ तृ-कृ-श-प-भृ वृ-श्रुरु-रुहि- लक्षि--विचक्षि-चुक्कि-चुक्ति--तङ्गथङ्गि-मङ्कि-कङ्कि
चरि-समीरेरणः ॥ १८७॥ एभ्योऽणः प्रत्ययो भवति । तृ प्लवनतरणयोः, तरणम् । कृत् विक्षेपे, करणम् । शृश् हिसायाम् , शरणं गृहम् । पृश् पालनपूरणयोः, परणम् । टुडुइंग्क पोषणे च, भरणम् । वृन्ट वरणे, वरणः-वृक्षः, सेतुबन्धश्च । वरणं-कन्याप्रतिपादनम् । श्रृंट् श्रवणे, श्रवण:--कर्णः, भिक्षुश्च । रुक् शब्दे, रुंड् रेषणे वा, रवणः-करभः, अग्निः, द्रुमः, वायुः, भृङ्गः, शकुनिः, सूर्यः, घण्टा च । रुहं जन्मनि, रोहणः-गिरिः। लक्षीण् दर्शनाङ्कनयोः, लक्षणं-व्याकरणम् , शुभाशुभसूचकं मषीतिलकादि अङ्कनं च । चक्षिक व्यक्तायां वाचि, विचक्षणः-विद्वान् । चुक्कण् व्यथने, चुक्कणः-व्यायामशीलः । बुक्क भाषणे, बुक्कणः-श्वा, वावदूकश्च । तगु गतौ, तङ्गणा:-जनपदः । अगु गतौ, अङ्गणम्-अजिरम् । मकुङ मण्डने, मङ्कण:-ऋषिः । ककुङ गतौ, कङ्कणं-प्रतिसरः । चर भक्षणे च, चरणः पादः । ईरिक् गतिकम्पन योः सम्पूर्वः, समीरणः वातः ।। १८७ ।।
क-ग-ए-कृषि-वृषिभ्यः कित् ॥ १८ ॥
एभ्यः किद् अणः प्रत्ययो भवति । कृत् विक्षेपे, किरण:-रश्मिः । गृत् निगरणे, गिरणः-मेघः, आचार्यः, ग्रामश्च । पृश् पालनपूरणयोः, पुरणः-समग्रयिता, समुद्रः पर्वतविशेषश्च । कृपौङ सामर्थ्य , कृपणः कीनाशः । वृष् सेचने, वृषणः-मुष्कः॥ १८ ॥
धृषि-वहेरिश्वोपान्त्यस्य ॥ १८ ॥
आभ्यां किद् अणः प्रत्यय इच्चोपान्त्यस्य भवति । त्रिभूषाट् प्रागल्भ्ये, धिषणःबृहस्पतिः, धिषणा-बुद्धिः । वहीं प्रापणे, विहण:-ऋषिः, पाठश्च ।। १८६ ।।
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३६८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-१९०-१६६
चिक्कण-दुक्कण-कण-कुङ्कण-त्रवणोल्वणोरणलवण-वङ्क्षणादयः ॥ १० ॥
एते किद् अण्प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । चिनोतेश्चिक्क च, चिक्कणः-पिच्छिलः । ककिकृगोः कोऽन्तश्च, कुक्कण:-शकुनिः । कृकण: ऋषिः । कूकेः स्वरान्नोऽन्तश्च, कुणाःजनपदः । पेर्वश्च, त्रवणः-देशः । वलेवस्य उत् , वोऽन्तश्च, उल्वणः-स्फारः । अर्तरुर् च, उरणः-मेषः । लीयतेः क्लिद्यते:-स्वद्यते-लवादेशश्च । लवणं, गुणः, द्रव्यं च । वञ्चेः सः परादिनलोपाभावश्च, वङक्षणः ऊरुमूलसंधिः । आदिशब्दात् ज्योतिरिङ्गणतुरणभुरणा. दयो भवन्ति ।। १६० ।।
कृषि-विषि-वृषि-धृषि-मृषि-युषि-द्रुहि-ग्रहेराणक् ।। १६१ ॥
एभ्य आणक् प्रत्ययो भवति । कृपौङ, सामर्थ्य कृपाणः-खङ्गः। विषू सेचने, विषाणः-शृङ्गम् , करिदन्तश्च । वृषू से चने, वृषाणः । त्रिधृषाट् प्रागल्भ्ये, धषाणः-देवः । मृषू सहने च, मृषाणः । युषि सेवने सौत्रः, युषाणः । द्रुहौच जिघांसायाम् , द्रुहाणः-मुखरः । ग्रहीश् उपादाने, गृहाणः । वृषाणादयः स्वप्रकृत्यर्थवाचिन: सर्वेऽपि कर्तरि कारके ज्ञेयाः ।। १९१ ।।
पषो णित् ॥ ११२ ॥
पषी बाधनस्पर्शनयोः इत्यस्माद् आणक् प्रत्ययो भवति, स च णिद् भवति । पाषाणः-प्रस्तरः॥ १६२॥
कल्याण-पर्याणादयः॥ १६३॥
कल्याणादयः शब्दा आणकप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते। कलेोऽन्तश्च, कल्याणं श्वोवसीयम् । परिपूर्वात इणो लूक च । पर्याणम् -अश्वादीनां पृष्ठच्छदः । आदिशब्दाद् द्रेक्काणबोक्काण-केक्काणादयोऽपि भवन्ति ।। १९३ ।।
द्रु-ह-वृहि-दक्षिभ्य इणः ॥ १६४ ॥
एभ्यः इणः प्रत्ययो भवति । द्रु गतो, द्रविणं-द्रव्यम् । हग हरणे, हरिणः:-मृगः । बृह वृद्धौ, बहिण:-मयूरः । दक्षि शैध्ये च दक्षिणः-कुशलः, अनुकूलश्च । दक्षिणा, दिग् , ब्रह्मदेयं च ॥ १९४ ।।
ऋ-द्रुहेः कित् ॥ १६५॥
आभ्यां किद् इणः प्रत्ययो भवति । ऋश् गतौ, इरिणम्-ऊषरम् , कुञ्जः, वनदुर्ग च । द्रुहीच जिघांसायाम् , द्रुहिण:-ब्रह्मा, क्षुद्रजन्तुश्च ।। १६५ ॥
ऋ-क-व-धृ-दारिभ्य उणः ।।१६६ ।।
एभ्य उणः प्रत्ययो भवति । ऋक् गतौ, अरुणः सूर्य; सारथिः, उषा, वर्णश्च । कृत् विक्षेपे, करुणा-दया, करुणः-करुणाविषयः, करुणं-दैन्यम् । वृश् भरणे, वरुणः-प्रचेताः । धृग् धारणे, धरुणः-धर्ता, आयुक्तो, लोकश्च । दृश् विदारणे, णौ, दारुणः-उग्रः॥ १९६ ॥
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सूत्र-१९७-२०२]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[३६६
क्षः कित् ॥ १७ ॥
क्ष क्षये, इत्यस्मात् किद् उणः प्रत्ययो भवति । क्षुणः-व्याधिः, क्षामः, क्रोधः, उन्मत्तश्च ॥ १६७॥
भिक्षुणी ॥ १९८॥ भिक्षेरुणः प्रत्ययो भवति, ङीश्च निपात्यते । भिक्षुणी-प्रतिनी ।। १९८ ॥ गा-दाभ्यामेष्णक् ।। १६६ ॥
आभ्यां एष्णक् प्रत्ययो भवति । - शब्दे, गेष्णः-मेषः, उद्गाता, रङ्गोपजीवी च । गेष्ण-साम, मुखं च, रात्रिगेष्णः-रङ्गोपजीवो। सुगेष्णा-किन्नरी । डुदांग्क् दाने, देष्णःबाहुः, दानशीलश्च । चारुदेष्णः-सात्यभामेयः । सुदेष्णा-विराटपत्नी ॥ १९९ ।।
दम्यमि-तमि-मा वा-पू-धू-ग-ज-हसि वस्यसि वितसि मसीण्भ्यस्तः ।। २००॥
एभ्यस्तः प्रत्ययो भवति । दमूच् उपशमे, दन्तः-दशनः, हस्तिदंष्ट्रा च । अम गतौ, अन्तः-अवसानम् , धर्मः, समीपं च । तमूच काङ्क्षायाम् , तन्त:-खिन्नः। मांक माने, मातम्-अन्तःप्रविष्टम् । वांक् गतिगन्धनयोः, वातः-वायुः । पूगश् पवने, पोत:-नोः, अग्निः, बालश्च । धूग्श् कम्पने, धोतः धूमः, शठः, वातश्च । गृत् निगरणे, गर्तः-श्वभ्रम् । जष्च् जरसि, जर्त-प्रजननं, राजा च । हसे हसने, हस्त-करः, नक्षत्रं च । वसूच स्तम्भे, वस्तः-छागः। असूच क्षेपणे, अस्त:-गिरिः । तसूच उपक्षये, वितस्ता-नदी । मसैच् परिणामे, मस्तः-मूर्धा । इणंक गतौ, एतः-हरिणः, वर्णः, वायुः, पथिकश्च ।। २००॥ शी-री-भू-द-मू-घृ-पा-धाग-चित्यय॑जि-पुसि मुसि-सि-विसि-रमि-धुर्वि
पूर्विभ्यः कित् ।। २०१॥ एभ्यः कित् तः प्रत्ययो भवति । शीङ क् स्वप्ने, शीतं-स्पर्शविशेषः । रीश् गतिरेषणयोः, रीतं-सुवर्णम् । भू सत्तायाम् , भूतः-ग्रहः, भूतं-पृथिव्यादि । दूङ च् परितापे, दूत:-वचोहरः । मूङ बन्धने, मूतः दध्यर्थं क्षीरे तक्रसेकः, वस्त्रावेष्टनबन्धनम् , आचमनी, आलानं, पाशः, बन्धनमात्रं, धान्यादिपुटश्च । सेचने, घृतंसपिः । पां पाने, पीतं-वर्णविशेषः । डुधांग्क् धारणे च, 'धागः' [ ४-४-१५ ] इति हिः, हितम्-उपकारि । चितै संज्ञाने, चित्तं मनः। ऋक् गतौ, ऋतं-सत्यम् । अञ्जोप् व्यक्तिम्रक्षणादिषु, अक्तःम्रक्षितः, व्यक्तीकृतः, परिमितः, प्रेतश्च । पुसच् विभागे, पुस्तः-लेख्यपत्रसंचयः, लेप्यादिकर्म च । मुसच् खण्डने, मुस्तागन्धद्रव्यम् । वुसच् उत्सर्गे, वुस्त:-प्रहसनम् । विसच् प्रेरणे, विस्तं-सुवर्णमानम् । रमि क्रीडायाम् , सुरतं-मैथुनम् । धुर्वे हिंसायाम् , धूर्तःशठः । पूर्व पूरणे, पूर्तः- पुण्यम् ॥ २०१॥
लु-म्रो वा ॥ २०२॥ आभ्यां तः प्रत्ययो भवति, स च किद्वा भवति । लूगश् छेदने, लूता-क्षुद्रजन्तुः ।
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३७० ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्र विवरणम्
[सूत्र-२०३-२०७
लोतः बाष्पं, लवनं, वस्तः, कीटजातिश्च । मृत् प्राणत्यागे मृतः गतप्राणः मत:-ऋषिः, प्राणी, पुरुषश्च ।। २०२॥
सु-सि-तनि-तुसेदर्दीर्घश्च वा ॥२०३ ॥ ___ एभ्यः कित् त: प्रत्ययो भवति, दीर्घश्च वा भवति । डुंग्ट अभिषवे, सूतः-सारथिः, सुतः-पुत्रः । किंग्ट् बन्धने, सीता-जनकात्मजा, सस्यं, हलमार्गश्च । सितः-वर्णः, बन्धश्च । तनूयी विस्तारे, तात:-पिता, पुत्रेष्टनाम च, ततं-विस्तीर्ण, वाद्यविशेषश्च । तुस शब्दे, तूस्तानि-वस्त्रदशाः, तुस्ता-जटाः, प्रदीपनं च ॥ २०३ ।।
पुत-पित्त-निमित्तोत-शुक्त-तिक्त-लिप्त-मूरतमुहूर्तादयः ॥ २०४ ॥
एते कित्तप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । पूडो ह्रस्वश्च, पुतः- स्फिक् । पीङ स्तोऽन्तश्च, पित्तं-मायुः । निपूर्वात् मिनोते मित् च, निमित्तं-हेतुः, दिव्यज्ञानं च । उभेलुक च, उतंआशङ्काद्यर्थमव्ययम् । शकेः शुचेर्वा शुक्भावश्च । शुक्तं कल्कजाति: । ताडयतेस्तकतेस्तिजेर्वा तिक् च, तिक्तः-रसविशेषः । लीयतेः पोऽन्तो ह्रस्वश्च, लिप्तं-श्लेषः, अंशदेशश्च । सुपूर्वात् रमेः सोर्दीर्घश्च, सूरत:-दमितो हस्ती, अन्यो वा दान्तः । हुर्छः मुश्च धात्वादिः, मुहूर्तःकाल विशेषः । आदिग्रहणाद् अयुतनियुतादयो भवन्ति ।। २०४ ।।
कृगो यङः ॥ २०५॥ __ करोतेर्यङन्तात् कित् तः प्रत्ययो भवति । चेक्री यित:-पूर्वाचार्याणां यङप्रत्ययसंज्ञा ॥ २०५ ।।
इवर्णादिलु पि ॥ २०६॥
करोतेर्यङो लुपि, इवर्णादिस्तः प्रत्ययो भवति । चर्करितं, चर्करीतं-यङ लुबन्तस्याख्ये ॥ २०६॥ दृ-पृ-भृ-मृ-शी-यजि-खलि-बलि-पवि-पच्यमि-नमि-तमि-दृशि-हर्यि-कति
भ्योऽतः ॥ २०७॥ एभ्योऽतः प्रत्ययो भवति । दृङत् आदरे, दरत: आदरः । पृक् पालनपूरणयोः, परत. कालः । टुडुभृङ्गक पोषणे च, भरतः-आदिचक्रवर्ती, हिमवत्समुद्रमध्यक्षेत्रं च । मृत प्राणत्यागे, मरतः-मृत्यः, अग्नि:, प्राणी च । शोङ क स्वप्ने, शयतः-निद्रालू, चन्द्रः, स्वप्नः अजगरश्च । यजी देवपूजासंगतिकरणदानेषु, यजतः-यज्वा, अग्निश्च । खल संचये च, खलतः-शीर्णके शशिराः । वलि संवरणे, वलतः-कुशूलः। पर्व पूरणे, पर्वतः-गिरिः । डुपचीं पाके, पचतः-अग्निः, आदित्यः, पालः, इन्द्रश्च । अम गतौ, अमतः-मृत्युः, जीवः आतङ्कश्च । णमं प्रह्वत्वे, नमतः-नटः, देवः, ऊर्णास्त रणं ह्रस्वश्च । तमूच् काङक्षायाम् , तमतः निर्वेदी, आकाङ्क्षी, धूमश्च । दृश प्रेक्षणे दर्शतः द्रष्टा, अग्निश्च । हर्य क्लान्तौ, हर्यतः-वायुः, अश्वः, कान्तः, रश्मिः, यज्ञश्च । ककुङ, गतौ, कङ्कतः केशमार्जनम् ॥२०७।।
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सूत्र - २०८-२१५ ]
स्वोपज्ञोणादिगण सूत्र विवरणम्
[ ३७१
पृषि रञ्जि-सिकिका-ला- नृभ्यः कित् ॥ २०८ ॥
एभ्यः किदु अतः प्रत्ययो भवति । पृषू सेचने, पृषतः - हरिणः । रञ्जीं रागे, रजतंरूप्यम् । सिकिः सौत्रः, सिकता वालुका । कैं शब्दे, कतः - गोत्रकृत् । लांक् आदाने, लतावल्ली । वृट् वरणे, व्रतं - शास्त्रविहितो नियमः ॥ २०८ ॥
कृ - - कल्यलि-चिलि-विलीलि-ला - नाथिभ्य आतंकू ॥ २०६ ॥
एम्य आत प्रत्ययो भवति । कृत् विक्षेपे, किरातः - शबरः । वृग्ट् वरणे, व्रातःसमूहः, उत्सेधजीविसंघश्च । कलि शब्दसंख्यानयोः, कलातः ब्रह्मा । अली भूषणादो, अलातम् - उल्मुकम् । चिलत् वसने, चिलाता :- म्लेच्छाः । विलत् वरणे, विलातः- शवाच्छादनवस्त्रम् । इलत् गत्यादी इलातः-नगः । लांक आदाने, लातः- मृत्तिकादानभाजनम् । नाथ उपतापैश्वर्याशीषु च । नाथातः - आहारः, प्रजापतिश्च ।। २० ।।
ह-श्या - रुहि शोणि-पलिभ्य इतः ॥ २१० ।।
एम्य: इतः प्रत्ययो भवति । हृग् हरणे, हरितः वर्णः । श्यैङ् गतो, श्येत:-वर्णः, मृग:, मत्स्यः श्येनश्च । रुहं जन्मनि, रोहितः वर्णः, मत्स्यः, मृगजातिश्च । लत्वे लोहितः वर्णः, लोहितम् असृक् । शोण वर्णगत्योः, शोणितं रुधिरम् । पल गतौ, पलितंश्वेतकेशः
।। २१० ॥
।। २११ ॥
नञ आपेः || २११ ॥
पूर्वाद् आप्लृट् व्याप्ती, इत्यस्माद् इतः प्रत्ययो भवति । नापितः कारुविशेषः
क्रुशि- पिशि- पृषि - कृषि - कुस्युचिभ्यः कित् ॥ २१२ ॥
एभ्यः क इतः प्रत्ययो भवति । कुशं आह्वानरोदनयो: क्रुशितं पापम् । विशत् अवयवे, पिशितंमांसम् । पृषू सेचने, पृषितं वारिबिन्दुः । कुष्श् निष्कर्षे, कुषितं पापम् । कुशच् श्लेषे, कुशितः ऋषिः, कुशितम्-ऋणं, श्लिष्टं च । उचच् समवाये, उचितं - स्वभावः योग्यं, चिरानुयातं, श्रेष्ठं च ।। २१२ ।।
हग ईत ॥ २१३ ॥
हृग् हरणे, इत्यस्माद् ईतण् प्रत्ययो भवति । हारीतः - पक्षी, ऋषिश्च ।। २१३ ॥
अदो भुवो डुतः ।। २१४ ॥
अपूर्वात् भुवो डुतः प्रत्ययो भवति । अद् विस्मितं भवति तेन तस्मिन् वा मनः अद्भुतम् आश्चर्यम् ।। २१४ ।।
कुलि-मयिभ्यामृतक् ॥ २१५ ॥
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३७२ ]
स्वोपज्ञोणादिगण सूत्रविवरणम्
[ सूत्र- २१६-२२१
आभ्यां ऊतक् प्रत्ययो भवति । कुल बन्धुसंस्त्यानयो:, कुलूता - जनपदः मयि गतौ, मयूता - वसतिः ।। २१५ ।।
जीवेर्मश्च ॥ २१६ ॥
जीव प्राणधारणे, इत्यस्माद् ऊतक् प्रत्ययो भवति, मश्चान्तादेशश्च । जीमूत : - मेध:, गिरिश्च ।। २१६ ॥
कबेरोतः प् च ।। २१७ ॥
कबृङ वर्णे, इत्यस्माद् ओतः प्रत्ययो भवति, पश्चान्तादेशो भवति । कपोतःपक्षी, वर्णश्च ।। २१७ ॥
आस्फायेडिंत् ॥ २१८॥
आङपूर्वात् स्फायैङ वृद्धौ इत्यस्मात् डि ओतः प्रत्ययो भवति । आस्फोतानाम औषधिः || २१८ ।।
- विशिभ्यामन्तः ॥ २१६ ॥
आभ्यां अन्तः प्रत्ययो भवति । नृष्च् जरसि, जरन्तः- भूतग्रामः, वृद्धः, महिषश्च । विशत् प्रवेशने, वेशन्तः- पल्वलम् । वल्लभः - अप्राप्तापवर्ग, आकाशं च ॥ २१९।।
रुहि नन्दि - जीवि प्राणिभ्यष्टिदाशिषि ॥ २२० ॥
एभ्य आशिषि दिन्तः प्रत्ययो भवति । रुहं जन्मनि, रोहतात् रोहन्त:- वृक्षः, रोहन्ती - औषधिः । टुनदु समृद्धी, नन्दतात् नन्दन्तः - सखा, आनन्दश्च नन्दन्ती सखी । जीव प्राणधारणे, जीवतात् जीवन्त: आयुष्मान्, जीवन्ती शाक: । अनक् प्राणने, प्राण्यात् प्राणन्तः- वायुः, रसायनं च प्राणन्ती स्त्री ।। २२० ।।
तृ-जि--भू-- वदि-वहि-- त्रसि-- भास्यदि - साधि-मदि - गडि-गण्डि -- मण्डि -- नन्दिरेविभ्यः ॥ २२१ ॥
1
एभ्यष्टिदन्तः प्रत्ययो भवति । आशिषीत्येके । तू प्लवनतरणयोः, तरन्तःआदित्यः, भेकश्च, तरन्ती स्त्री । जि अभिभवे । जयन्तः - रथरेणुः, ध्वजः इन्द्रपुत्रः, जम्बूद्वीपपश्चिमद्वारम् पश्चिमानुत्तरविमानं च, जयन्ती - उदयनपितृष्वसा । भू सत्तायाम्, भवन्तः कालः, भवन्ती । वद व्यक्तायां वाचि वदन्तः, वदन्ती । वहीं प्रापणे, वहन्त:रथः, अनड्वान् रथरेणु, वायुश्च वहन्ती । वसं निवासे, वसन्तः ऋतुः । भासि दीप्तो, भासन्त: सूर्य:, भासन्ती, ण्यन्तोऽपि भासयन्तः - सूर्यः । अदं भक्षणे, अदन्तः, अदन्ती । साधं संसिद्धौ, साधन्तः - भिक्षुः ण्यन्तोऽपि साधयन्तः भिक्षुः साधयन्ती । मदैच् हर्षे, णौ, मदयन्तः, मदयन्ती- पुष्पगुल्मजातिः । गड सेचने, गडन्तः- जलदः, ण्यन्तोऽपि, गडयन्तः, गडयन्ती । गडु वदनैकदेशे, ण्यन्तः, गण्डयन्तः - मेषः । मडु भूषायाम्, ण्यन्तः, मण्डयन्तः
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सूत्र-२२२-२२८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ३७३
प्रसाधकः, अलंकारः-आदर्शश्च । टुनदु समृद्धौ, ण्यन्तः, नन्दयन्तः-सुखकृत् , राजा, हिरण्यं, सुखं च, नन्दयन्ती । रेवुङ पथि गतौ, रेवन्तः-सूर्यपुत्रः । अनुक्तार्था धात्वर्थकाः ।२२१॥
सीमन्त-हेमन्त-भदन्त-दुष्यन्तादयः ॥ २२२ ॥
एतेऽन्तप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । सिनोतेः सीम् च, सीमन्तः-केशमार्गः, ग्रामक्षेत्रान्तश्च । हन्तेहिनोतेर्वा हेम् च, हेमन्त ऋतुः। भदन्तेर्नलुक् च, भदन्तः निर्ग्रन्थेषु शाक्येषु च पूज्यः । दुषेोऽन्तश्च । दुष्यन्तः-राजा । आदिग्रहणादन्येऽपि ।। २२२ ।।
शकेरुन्तः ॥ २२३ ।। शक्लृट् शक्ती, इत्यस्माद् उन्तः प्रत्ययो भवति । शकुन्तः-पक्षी ।।२२३।। कषेर्डित् ।। २२४॥ कष हिंसायाम् इत्येतस्माद् डिदुन्तः प्रत्ययो भवति । कुन्तः-आयुधम् ।। २२४ ।। कमि-गु-गार्तिभ्यस्थः ॥ २२५ ॥
एभ्यस्थः प्रत्ययो भवति । कमूङ कान्तौ, कन्था-प्रावरणम्, नगरं च । श्रृंड गती, प्रोथः-प्रियो, युवा, सूकरमुखं, घोणा च । - शब्दे, गाथाश्लोकः, आर्या वा। ऋक गतौ, अर्थ:- जीवाजीवादिपदार्थः, प्रयोजनम् , अभिधेयं धनं, यात्रा, निवृत्तिश्च ।। २२५ ॥
अवाद् गोऽच्च ॥ २२६ ॥
अवपूर्वाद्गायतेः थः प्रत्ययो भवति, अच्चान्तादेशो वा भवति । अवगथः, अवगाथ:-अक्षसंघः, प्रातःसवनं, रथयानं, साम, पन्थाश्च ।। २२६ ॥ नी-नू-रमि-त-तुदि-वचि-रिचि-सिचि-श्वि-हनि-पा-गोपा-बोद्गाभ्यः कित ।२२७।
एभ्यः कित् थः प्रत्ययो भवति । णींग प्रापणे, नीर्थ-जलम् , सुनीथो नाम राजा, नीतिमान् , धर्मशीलः ब्राह्मणश्च । णूत् स्तवने, नूथं तीर्थम् । रमि क्रीडायाम् , रथःस्यन्दनः। तृ प्लवनतरणयोः, तीर्थ-जलाशयावगाहनमार्गः, पुण्यक्षेत्रम् , आचार्यश्च । तुदीत् व्यथने, तुत्थं-चक्षुष्यः, धातुविशेषः। वचं भाषणे, उक्थ-शास्त्रं, सामवेदश्च, उक्थानि-सामानि । रिच पी विरेचने, रिक्थं-धनम् । षिचीत् क्षरणे, सिक्थंमदनं, पुलाकश्च । ट्वोश्वि गतिवृद्धयोः, शूथः- यज्ञप्रदेशः । हनंक हिंसागत्योः, हथः-पन्थाः, कालश्च । पां पाने, पीथं बाल घृतपानम् , अम्भः, नवनीतं च, पीथ:-मकरः रविश्च । गोपूर्वात् , गोपीथ: तीर्थविशेषः, गोनिपानं, जलद्रोणी, कालविशेषश्च । - शब्दे, अवगीथम्-यज्ञकर्मणि प्रातःशंसनम् , उद्गीथः शुनामूर्ध्वमुखानां विरावः, सामगानम् , प्रथमोच्चारणं च ॥२२७।।
न्युद्भ्यां शीः ॥ २२८॥
नि-उद्पूर्वात् शीङ क् स्वप्ने, इत्यस्मात् कित् थः प्रत्ययो भवति । निशीथ:अर्धरात्रः, रात्रिः, प्रदोषश्च । उच्छीथ:-स्वप्न, टिट्टिभश्च ॥ २२८ ॥
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३७४ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्र विवरणम्
[ सूत्र-२२९-२३५
अवभृ-निर्ऋ -समिणभ्यः ।। २२६ ॥
अपूर्वाद् बिभर्तेः, निस्पूर्वादः सम्प्र्वात् एतेश्च कित् थः प्रत्ययो भवति । अवभृथ: - यज्ञावसानं, यज्ञस्नानं च निर्ऋथि: - निकायः, निर्ऋ थं स्नानम् । समिथ:-संगमः, गोधूमपिष्टं च, समिथं समूहः ।। २२९ ।।
सर्वेणित् || २३० ||
सृ गतौ इत्यस्माद् णित् थः प्रत्ययो भवति । सार्थः समूहः || २३० ॥
पथ-यूथ- गूथ- कुथ-तिथ-निथ- सूरथादयः ॥ २३१ ॥
एते प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । पलतेर्लो लुक् च पथः पन्थाः । यौतेगु वतेश्च दीर्घश्च यूथ:-समूहः, गूथम् - अमेध्यं विष्ठा च । किरतेः करोतेर्वा कुश्च, कुथः- कुथा वाआस्तरणम् । तनोतेस्तिष्ठतेर्वा तिश्च तिथः कालः । तिम्यते, तिथः प्रावृट्कालः । नयतेह्रस्वश्च निथः - पूर्वक्षत्रियः कालश्च । सुपूर्वात् रमेः सोर्दीर्घश्च कित् च । सूरथः- दान्तः । आदिग्रहणाद् निपूर्वाद् रौतेर्दीर्घत्वं च निरूथ:-दिक्, निरूथं पुण्यक्रम नियतम् । एवं संगीथप्रगाथादयोऽपि ।। २३१ ।।
भृ-शी- शपि शमि-गमि-रमि-वन्दिवश्चि जीवि प्राणिभ्योऽथः ॥ २३२ ॥
भ्योऽथ: प्रत्ययो भवति । टुडुभृ ंग्क् च, भरथः - कैकयीसुतः, अग्निः, लोकपालश्च । शी स्वप्ने, शयथ: - अजगर:, प्रदोषः, मत्स्यः, वराहश्च । शपीं आक्रोशे, शपथ:-प्रत्ययकरणम्, आक्रोशश्च । शमूच् उपशमे, शमथः समाधिः, आश्रमपदं च । गम्लृ गतौ, गमथःपन्थाः, पथिकश्च । रमिं क्रीडायाम्, रमथः - प्रहर्षः । वदुङ स्तुत्यभिवादनयोः, वन्दथःस्तोता, स्तुत्यश्च । वञ्चू गतौ, वंचथः - अध्वा, कोकिलः काकः, दम्भश्च । जीव प्राणधारणे, जीवथ:-अर्थवान्', जलम्, अन्नं वायुः, मयूरः कूर्मः, धार्मिकश्च । अनक् प्राणने, प्राणथः- बलवान्, ईश्वरः, प्रजापतिश्च ।। २३२ ॥
उपसर्गाद्वसः ॥ २३३ ॥
उपसर्गात् परस्मात् वसं निवासे, इत्यस्मादथः प्रत्ययो भवति । आवसथः गृहम्, उपवसथ: - उपवासः, संवसथ:-संवासः, सुवसथ :- सुवास:, निवसथ: - निवासः ॥ २३३ ॥
विदि- भिदि रुदि-दुहिभ्यः कित् ॥ २३४ ॥
एभ्यः किथः प्रत्ययो भवति । विदंक् ज्ञाने विदथ: - ज्ञानी, यज्ञः अध्वर्युः, संग्रामश्च । भिदुपी विदारणे, भिदथः शरः । रुदृक् अश्रुविमोचने, रुदथः बालः, असत्त्वः, श्वा च । द्रुहौच् जिघांसायाम्, द्रुहथः - शत्रुः ॥ २३४ ॥
रोर्वा ॥ २३५ ॥
रुक् शब्दे, इत्यस्मादथः प्रत्ययो भवति, सच किद्वा भवति । रुक्थः शकुनिः, शिशुश्च । रवथः- आक्रन्दः, शब्दकारश्च ।। २३५ ।।
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सूत्र-२३६-२४४ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ३७५
ज-व-भ्यामूथः ।। २३६ ॥
आभ्यामूथः प्रत्ययो भवति । जृष्च् जरसि, जरूथ:-शरीरम् अग्रमांसम् , अग्निः, संवत्सरः, मार्गः, कल्मषं च । वृग्श् , वरणे, वरूथः-वर्मः, सेनाङ्ग, बलसंघातश्च ।।२३६।।
शा-शपि-मनि-कनिभ्यो दः ॥२३७॥
एभ्यो दः प्रत्ययो भवति । शोंच तक्षणे, शाद:-कर्दमः, तरुणतृणं, मृदुः, बन्धः, सुवर्णं च । शपी आक्रोशे, शब्द:-श्रोत्रग्राह्योऽर्थः। मनिच् ज्ञाने, मन्दः-अलसः, बुद्धिहीनश्च । कनै दीप्त्यादिषु कन्द:-मूलम् ।। २३७ ॥
आपोऽप् च ॥ २३८॥
आप्लुट् व्याप्ती, इत्यस्मात् दः प्रत्ययो भवति । अस्य चाप् इत्ययमादेशो भवति । अब्द-वर्षम् ।। २३८ ।।
गोः कित् ॥ २३६ ॥ गुंत् पुरीषोत्सर्गे, इत्यस्मात् कित् दः प्रत्ययो भवति । गुदम्-अपनाम् ।। २३९ ।। वृ-तु-कु-सुभ्यो नोऽन्तश्च ॥ २४० ॥
एभ्यः कित् द: प्रत्ययो भवति, नकारश्चान्तादेशो भवति । वृग्ट वरणे वृन्दंसमूहः तुंक् वृत्त्यादिषु, तुन्दं जठरम् । कुङ शब्दे, कुन्दः-पुष्पजातिः । डुंग्ट् अभिषवे, सुन्द:-दानवः ।। २४० ॥
कुसेरिदेदौ ॥ २४१ ॥
कुस्च् श्लेषे, इत्यस्मात् इद ईद इत्येतो किती प्रत्ययो भवतः । कुसिदम्-ऋणम् ; कुसीदं-वृद्धिजीविका ॥ २४१ ।।
इङ्ग्यर्बिभ्यामुदः ॥ २४२ ॥
आभ्यामुदः प्रत्ययो भवति । इगु गती, इङ गुदः-वृक्षजातिः । अर्ब गतो, अर्बुद:पर्वतः अक्षिव्याधिः, संख्याविशेषश्च । निपूर्वात् न्यर्बु दम्-संख्याविशेषः ।। २४२ ॥
ककेर्णिद्वा ॥ २४३॥
ककि लौल्ये, इत्यस्मादुदः प्रत्ययो भवति, स च णिद्वा भवति । काकुदं-तालु, ककुदं स्कन्धः ।। २४३ ॥
कुमुद-बुबुदादयः ॥ २४४ ॥
एते उदप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । कमेः कुम् च कुमुदं-कैरवम् । बुन्देः किद् वोऽन्तश्च, बुबुद:-जलस्फोटः, बुबुदः नेत्रजो व्याधिः । आदिग्रहणात् दूहीक क्षरणे प्रत्ययादेरत्वे, दोहदः-अभिलाषविशेषः । एवमन्येऽपि ॥ २४४ ।।
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३७६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-२४५-२५३
ककि-मकिभ्यामन्दः ॥ २४५॥
आभ्यामन्दः प्रत्ययो भवति । ककि लौल्ये। मकिः सौत्रः । ककन्दः मकन्दश्च राजानौ, यकाभ्यां निर्वृत्ता काकन्दी, माकन्दी च नगरी ॥ २४५ ।।
कल्यलि-पुलि-कुरि-कुणि-मणिम्य इन्दक् ॥ २४६ ॥
एभ्य इन्दक् प्रत्ययो भवति । कलि शब्दसंख्यानयोः, कलिन्दः पर्वतः यतो यमुना प्रभवति । अली भूषणादौ, अलिन्दः प्रघाणः, भाजनस्थानं च । पूल महत्त्वे, पूलिन्द:शबरः। कुरत् शब्दे, कुरिन्दः-धान्यमलहरणोपकरणम् , तेजनोपकरणं च । कुणत् शब्दोपकरणयोः, कुणिन्दः-म्लेच्छः, शब्द उपकरणं च । मण शब्दे, मणिन्दः-अश्वबल्लवः।२४६।
कुपेवं च वा ॥ २४७॥
कुपच् क्रोधे, इत्यस्माद् इन्दक् प्रत्ययो भवति । वश्चान्तादेशो वा भवति । कुपिन्दः, कुविन्दः-तन्तुवायः ।। २४७ ॥
पपलिभ्यां णित् ॥ २४८ ।।
आभ्यां णिद् इन्दक् प्रत्ययो भवति । पश् पालनपूरणयोः, पल गतौ, पारिन्दः, पलिन्दः, द्वावपि वृक्षगाथको, पारिन्द:-मुख्यः, पूज्यश्च । पालिन्दो-नृपतिः, रक्षकश्चेत्येके ।।२४८॥
यमेरुन्दः ।। २४६ ॥ यमूं उपरमे, इत्यस्माद् उन्दः प्रत्ययो भवति । यमुन्द:-क्षत्रियविशेषः ।।२४९।। मुचेडुकुन्द-कुकुन्दौ ॥ २५० ॥
मुच्लुती मोक्षणे, इत्यस्मात् डित् उकुन्दः किदुकुन्दश्च प्रत्ययो भवतः । मुकुन्दः विष्णुः, मुचुकुन्दः-राजा, वृक्षविशेषश्च ।। २५० ।।
स्कन्द्यमिभ्यां धः ॥ २५१ ॥
आभ्यां धः प्रत्ययो भवति । स्कन्द गतिशोषणयोः, स्कन्धः-बाहुमूर्धा, ककुन्दंविभागश्च । बाहुलकाद् दस्य लुक् । अम गती, अन्धः-चक्षुर्विकलः ।। २५१ ॥
ने स्यतेरधन ।। २५२ ॥
निपूर्वात् षोच् अन्तकर्मणि, इत्यस्माद् अधक् प्रत्ययो भवति । निषधः पर्वतः, निषधाः जनपदः ।। २५२ ॥
मङ्गे लुक् च ॥ २५३ ॥
मगु गतो, इत्यस्माद् अधक् प्रत्ययो भवति, नकारस्य च लुग भवति । मगधाः जनपदः ॥ २५३ ॥
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सूत्र-२५४-२६१ ]
स्वपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ३७७
आरगेधः ॥ २५४॥
आङ पूर्वात् रगे शङ्कायाम् , इत्यस्माद् वधः प्रत्ययो भवति । आरग्वधःवृक्षजातिः ।। २५४ ।।
परात् श्री डित् ॥ २५५ ॥
परपूर्वात् शृश् हिंसायाम् , इत्यस्मात् , डित् वधः प्रत्ययो भवति । परश्वधःआयुधजातिः॥२५५ ।।
इषेरुधक् ॥ २५६ ॥ इषत् इच्छायाम् इत्यस्माद् उधक् प्रत्ययो भवति । इषुधः-याञ्चा ।। २५६ ॥ कोरन्धः॥ २५७ ॥ कुङ शब्दे, इत्यस्माद् अन्धः प्रत्ययो भवति । कवन्धः-छिन्नमूर्धा देहः ।। २५७ ।। प्या-धा-पन्यनि-स्वदि-स्वपि-वस्यज्यति-सिविभ्यो नः॥ २५८ ॥
एभ्यो नः प्रत्ययो भवति । प्यङ वृद्धौ, प्यानः-समुद्रः चन्द्रश्च । डुधांग्क् धारणे च, घाना-भृष्टः यवः, अङकुरश्च । पनि स्तुती, पन्न-नीचैः करणम् , सृन्नं, जिह्वा च । अनक् प्राणने, अन्न-भक्तम् , आचारश्च । ष्वदि आस्वादने, स्वन्न-रुचितम् । निष्वपंक् शये, स्वप्नः मनोविकारः, निद्रा च । वसं निवासे, वस्न-वासः, मूल्यम् , मेढ़म् , आगमश्च । अज क्षेपणे च, वेनः-प्रजापतिः, ध्यानी, राजा, वायुः यज्ञः, प्राज्ञः, मूर्खश्च । अत सातत्यगमने, अत्न:-आत्मा, वायुः, मेघःप्रजापतिश्च । षिवूच उतो, स्योनं सुखम् , तन्तुवाय. सूत्रसंतानः, समुद्रः, सूर्यः, रश्मिः , आस्तरणं च ।। २५८ ॥
षसेर्णित् ॥ २५ ॥
षसक् स्वप्ने इत्यस्मात् णिद् नः प्रत्ययो भवति । सास्ना-गोकण्ठावलम्बि चर्म, निद्रा च ॥ २५६ ॥
रसेर्वा ॥ २६० ॥ . रस शब्दे, इत्यस्माद् न प्रत्ययो भवति, स च णिद् वा भवति । रास्ना-धेनुः औषपिजातिश्च । रस्नं-द्रव्यजातिः, रस्ना-जिह्वा, रस्नः-तुरङ्गः, दण्डश्च ।। २६० ।।
जीण-शी-दी-बुध्यवि-मीभ्यः कित् ॥ २६१ ॥
एभ्यः किद् न: प्रत्ययो भवति । जि अभिभवे, जिन:-अर्हन् , बुद्धश्च । इंण्क गतो, इनः-स्वामी, संनिपातः, ईश्वरः, राजा, सूर्यश्च । शी स्वप्ने, शीनः पीलुः । दीङ्च क्षये । दीनः, कृपणः, खिन्नश्च । बुधिच ज्ञाने, बुध्नः-मूलं, पृष्ठान्त:, रुद्रश्च । भव रक्षणादौ, ऊनम्-अपरिपूर्णम् । मीङ व् हिंसायाम् , मीन:-मत्स्यः , राशिश्च ।। २६१॥
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३७८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-२६२-२६६
सेर्वा ॥ २६२ ॥
पिंग्ट् बन्धने, इत्यस्माद् नः प्रत्ययो भवति, स च किद्वा भवति । सिनः कायः, वस्त्रं, बन्धश्च । सेना-चमूः ।। २६२ ॥
सोरू च ॥ २६३ ॥
पुग्ट् अभिषवे, इत्यस्मान्नः प्रत्ययो भवति, ऊकारश्चान्तादेशो भवति । सूनाघातस्थानम् , दुहिता, पुत्रः,प्रकृतिः, आघाटस्थानं च ।। २६३ ॥
रमेस्त् च ।। २६४ ॥
रमि क्रीडायाम् इत्यस्माद् नः प्रत्ययो भवति, तश्चान्तादेशो भवति । रत्नंवज्रादिः॥ २६४ ॥
क्रुशेवृद्धिश्च ।। २६५ ॥
क्रुशं आह्वानरोदनयोः, इत्यस्माद् नः प्रत्ययो भवत्यस्य च वृद्धिर्भवति । क्रोश्न:श्वापदः ।। २६५ ।।:
घ-सु-निभ्यो माङोडित् ॥ २६६ ॥
द्यसुनिपूर्वात् मांङ क् मानशब्दयोः, इत्यस्मात् डिद् नः प्रत्ययो भवति । द्युम्नंद्रविणंम् , सुम्न-सुखम् निम्नं नतम् ।। २६६ ।।
शीङः सन्वत् ॥ २६७ ॥ -- । .. - शोङ क् स्वप्ने इत्यस्मात् , डिद् नः प्रत्ययो भवति स च सन्वद्भवति । शिश्नशेषः ।। २६७ ॥
दिन-नग्न फेन-चिह्न-बध्न-धेन-स्तेन-च्योक्नादयः ॥ २६८॥
एते नप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । दिव्यते किल्लुक च, दिनम्-अहः । अञ्पूर्वात् वसेर्गोऽन्तो धातोलुंक्च । न वस्ते, नग्न:-अवसनः । फणेः, फलेः स्फायेर्वा फेभावश्च, फेन:-बुबुदसंघातः। चहेरिच्चोपान्त्यस्य, चिह्नम्-अभिज्ञानम् । बन्धेबंध्च । ब्रन:-रविः, प्रजापतिः, ब्रह्मा, स्वर्गः, पृष्ठान्तश्च । धयतेरेत्वं च, धेना-सरस्वती, माता च, धेन: समुद्रः, ईत्वं चेत्येके, धीना । स्त्यायेस्ते च स्तेनः चौरः, च्यवतेवृद्धिः कोऽन्तश्च । च्योक्नम् अक्षस्थानम् , अनुजः, क्षीणपुण्यश्च । च्योक्नी-कांस्यादिपात्री । आदिशब्दादन्येऽपि ।। २६८ ॥ स्वसि-रसि--रुचि-जि-मस्जि-देवि-स्यन्दि चन्दि-मन्दि-मण्डि-मदि-दहि-वह्या. .
देरनः ॥ २६६ ।। एभ्यः अनः प्रत्ययो भवति । युक् मिश्रणे, यवनाः जनपदः, यवनं मिश्रणम् । अस्च् क्षेपणे, असन:-बीजकः, रसण आस्वादनस्नेहनयोः, रसनाजिह्वा । रुचि अभिप्रीत्यां च, रोचना-गोपित्तम् , रोचन:-चन्द्रः, विपूर्वात् , विरोचन:-अग्नि:, सूर्यः, इन्दुः, दान
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सूत्र-२७०-२७५ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ३७९
वश्च । जि अभिभवे, जयनम्-ऊर्णापटः । टुमस्जत् शुद्धौ, मज्जनं-स्नानं, तोयं च । देवृह देवने, देवन:-अक्षः, कितवश्च । स्यन्दौङ स्रवणे, स्यन्दनः- रथः । चदु-दोप्त्यालादनयोः, चन्दनं-गन्धद्रव्यम् , मदुङ स्तुत्यादौ, मन्दनम्-स्तोत्रम् । मडु भूषायाम् , मण्डनम् अलंकारः । मदैच हर्षे, मदनः-वृक्षः, कामः, मधूच्छिष्टं च । दहं भस्मीकरणे, दहनः अग्निः । वहीं प्रापणे, वहनं-नौः । आदिग्रहणात् पचेः पचन:-अग्निः । पुनाते:, नयनं पवन: वायः । बिभर्तेः भरणं-साधनम् । नयतेः नयनं-नेत्रम् । धुतेः, द्योतनः-सूर्यः। रचेः, रचनावैचित्र्यम् । गृजेः-गृञ्जनम्-अभक्ष्यद्रव्यविशेषः । प्रस्कन्दनः, प्रपतन: इत्यादयो भवन्ति ।। २६९ ॥
अशो रश्चादौ ॥ २७० ॥
अशौटि व्याप्ती, इत्यस्माद् अनः प्रत्ययो भवति रेफश्चादी भवति । रशना मेखला। रशिमेके प्रकृतिमुपादिशन्ति, सा च राशिः, रशना, रश्मिः इत्यत्र प्रयुज्यत इत्याहुः ।। २७० ॥
उन्देर्नलुक् च ॥ २७१ ॥ ___ उन्दैप् क्लेदने, इत्यस्माद् अनः प्रत्ययो भवति, नलोपश्च भवति । ओदन:भक्तम् ॥ २७१ ॥
हनेतजधौ च ॥ २७२ ।।
हनंक हिंसागत्योः, इत्यस्माद् अनः प्रत्ययो भवति, घतजघावित्यादेशौ चास्य भवतः । घतनः रङ्गोपजीवी, पापकर्मा, निर्लज्जश्च । जघनं श्रोणिः ॥ २७२ ।।
तुदादि-वृजि-रञ्जि-निधाभ्यः कित् ॥ २७३ ।।
एभ्यः किद् अनः प्रत्ययो भवति । तुदीत् व्यथने, तुदनः । क्षिपीत् प्रेरणे क्षिपणः । सुरत् ऐश्वर्यदीप्त्योः , सुरणः । बुधिच् ज्ञाने, बुधनः। षिवूच् उतौ, सिवनः । एषां यथासंभवं कारकमच्यते । लबङ अवस्रसने, लम्बनः-शनिः । वकि वर्जने, वजिनम-अन्तरिक्षम् , निवारणं, मण्डनं च । रञ्जी रागे, रजनं-हरिद्रा । महारजनं-कुसुम्भम् , रजनःरङ्गविशेषः । डुधांग्क् धारणे च । निधनम्-अवसानम् ।। २७३ ।।
सू-धृ-भू-भ्ररिजम्यो वा ॥ २७४ ॥
एभ्यः अनः प्रत्ययो भवति, स च किद्वा भवति षूत् प्रेरणे, सुवन:-अङ कुरः, आदित्यः, प्रादुर्भावश्च, सुवनं-चन्द्रप्रभा, सवन-यज्ञः पूर्वाह्णापराह्ममध्याह्नकालश्च । विषवणम् । धूत विधूनने, धुवनः धूमः, वायुः, अग्निश्च, धुवनम्-एषः, धवनम् । भू सत्तायाम् , भुवनं-जगत् , भवनं-गृहम् , भ्रस्जीत् , पाके, भृज्जनम् अन्तरीक्षम् , अम्बरीषः, पाकश्च । भ्रज्जनः-पावकः ।। २७४ ।।
विदन-गगन-गहनादयः॥ २७५ ॥
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३८० ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-२७६-२८१
एते किदनप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । बिदु अवयवे नलोपश्च, बिदनः गोत्र कृत् । गमेग च, गगनम्-आकाशम् । गाहौङ विलोडने, ह्रस्वश्च, गहनं दुर्गमम् । आदिग्रहणात् काञ्चनकाननादयो भवन्ति ।। २७५ ।।
संस्तु-स्पृशि-मन्थेरानः ॥ २७६ ॥
संपूर्वात् स्तोः स्पृशेश्च सन् पूर्वाभ्यां वा स्तु-स्पृशिभ्यां मन्थेश्च आन: प्रत्ययो भवति । ष्टुंग्क् स्तुतौ संस्तवान:-सोम, होता, महर्षिः, वाग्मी च । स्पृशंत् स्पर्श, स्पर्शानःमनः, अग्निश्च । मन्थश् विलोडने, मन्थानः खजकः ।। २७६ ।।
यु-युजि-युधि बुधि मृशि-दृशीशिभ्यः कित् ॥ २७७ ।।
एभ्यः किद् , आनः प्रत्ययो भवति । युक् मिश्रणे, युवान:-तरुणः । युजपी योगे, युजानः सारथिः । युधिच संप्रहारे युधानः-रिपुः । बुधिच ज्ञाने, बुधानः-आचायः, पण्डितो वा। मृशंत् आमर्शने, मृशानः-विमर्शकः। दृशृप्रेक्षणे, दृशान: लोकपालः । युजादिप्रसिद्धकों एते। ईशिक् ऐश्वर्ये, ईशानः-ईश्वरः ।। २७७ ॥ .
मुमुचान-युयुधान-शिश्विदान-जुहुराण-जिहियाणाः ॥ २७८ ॥
एते किद् आनप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । मुचेद्वित्वं च, मुमुचान: मेघः । एवं युधिंच संप्रहारे, युयुधानः साहसिकः, राजा च कश्चित् । श्विताङ वर्णे, अस्य दश्च, शिश्विदानःदुराचारो द्विजः । हुर्छा कौटिल्ये, अस्यान्तलुक च, जुहुराण:-कठिनहृदयः, कुटिल:, अग्निः, अध्वर्युः, अनड्वांश्च । ह्रींक् लज्जायाम् , जिहियाणः, नीतिमान् । सर्वे एवैते मुच्यादिप्रसिद्धक्रियाकर्तृवचना इत्येके । अन्ये तु मुमुक्षादिसन्नन्तप्रकृतीनामेतन्निपातनं, तेन सन्नन्तक्रियाकर्तृवचना इत्याहुः ।। २७८ ॥
ऋञ्जि-रञ्जि-मन्दि-सह्यहिभ्योऽसानः ।। २७६ ॥
एभ्यः असानः प्रत्ययो भवति । ऋजुङ भर्जने, ऋजसान:-महेन्द्रः, मेघः, श्मशानं च । रञ्जी रागे, रञ्जसान:-मेघः, धर्मश्च । मदुङ् स्तुत्यादिषु, मन्दसानः-हंसः, चन्द्रः, सूर्यः, जोवः, स्वप्नः, अग्निश्च । षहि मर्षणे, सहमानः दृढः, मयूरः, यजमानः, क्षमावांश्च । अर्ह पूजायाम् , अर्हसान: चन्द्रः, तुरङ्गमश्च ।। २७६ ।।
रुहि-यजेः कित् ॥ २८० ।।
आभ्यां किद् असानः प्रत्ययो भवति । रुहं जन्मनि, रुहसानः-विटपः। यजी देवपूजासंगतिकरणदानेषु, इजसानः-धर्मः ।। २८० ।।
वृधेवों ॥ २८१॥
वृधेः असानः प्रत्ययो भवति, स च किद्वा भवति । वृधूड वृद्धो, वृधसानः-गर्भः । वर्धसान:-गिरिः, मृत्युः, गर्भः, पुरुषश्च ।। २८१ ।।
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सूत्र २८२-२८६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ३८१
श्या-कठि-खलि-नल्यवि-कुण्डिभ्य इनः ॥ २८२ ॥
एभ्य इनः प्रत्ययो भवति । श्यैड गतौ श्येन:-पक्षी, अभिचारयज्ञश्च । कठ कृच्छ्र जीवने, कटिनम् अमृदु । खल संचये च, खलिनम् अश्वमुखसंयमनम् । णल गन्धे, नलिनं-पद्मम् । अव रक्षणादौ अविनं जलं, मृगः, नाशः अग्निः, राजा, अध्वर्युः, विधानं, गुप्तिश्च । कुडुङ, दाहे, कुण्डिनः- ऋषिः, कुण्डिनं-नगरम् ।। २८२ ।।
वृजि-तुहि-पुलि-पुटिभ्यः कित् ॥ २८३ ॥
एभ्यः किद् इन: प्रत्ययो भवति । वृजैकि वर्जने, वृजिनं-पापं, कुटिलं च । तुह अर्दने, तुहिनम्-हिममन्धकारश्च । पुल महत्त्वे, पुटत् संश्लेषणे, पुलिनं, पुटिनं च-नदीतीरं, वालुकासंघातश्च ॥ २८३ ॥
विपिनाजिनादयः ॥ २८४ ॥
विपिनादयः शब्दाः किद् इनप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । डुवपी बीजसंताने, टुवेपृङ चलने इत्यस्य वा, इच्चोपान्त्यस्य । विपिनं-गहनम् , अब्जं, जलदुर्ग च । अज क्षेपणे च, अस्य वीभावाभावश्च । अजिनं-चर्म । आदिग्रहणादन्येऽपि ॥ २८४ ।।
महेर्णिद्वा ॥ २८५॥
मह पूजायाम् , इत्यस्माद् इनः प्रत्ययो भवति स च किद्वा भवति । माहिनं-राज्यं, बलं च । महिनं राज्यं, शयनं च । महिनः-माहात्म्यवान् ॥ २८५ ॥
खलि-हिंसिभ्यामीनः ॥ २८६ ॥
आभ्याम् ईनः प्रत्ययो भवति । खल संचये च, खलीनं- कवियम् । हिसुप् हिंसायाम् , हिंसीन:-श्वापदः ।। २८६ ।।
पठेणित् ॥ २८७॥ पठ व्यक्तायां वाचि, इत्यस्मात् णिद् ईन: प्रत्ययो भवति । पाठीनः मत्स्यः ।२८७। यम्यजि-शक्य-जि-शी-यजि-तृभ्य उनः ॥ २८८ ॥
एभ्य उन प्रत्ययो सवति । यमू उपरमे, यमुना-नदी । अज क्षेपणे च, वयुनंविज्ञानम् , अङ्ग च, वयुन:-विद्वान् , चन्द्रः, यज्ञश्च । शक्लट् शक्ती, शकुनः-पक्षी। अर्ज अजुने, अर्जुनः-ककुभः, वृक्षविशेषः, पार्थः, श्वेतवर्णः, श्वेताश्वः, कार्तवीर्यश्च । अर्जुनीगौः । अर्जुनं तणं, श्वेतसुवर्ण च । शीङक स्वप्ने, शयुन:-अजगरः । यजी देवपूजादो, यजुनाक्रतुद्रव्यम् । तृ प्लवनतरणयोः, तरुणः समर्थः, युवा, वायुश्च । ऋफिडादित्वाल्लत्वे तलुनः ।। २८८ ॥
लषेः शू च ॥ २८६॥
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३८२ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-२९०-२६६
लषी कान्तौ इत्यस्माद् उनः प्रत्ययो भवति । तालव्यः शकारश्चान्तादेशो भवति । लशुनं-कन्दजातिः॥ २८६ ॥
पिशि-मिथि-क्षुधिभ्यः कित् ॥ २६ ॥
एभ्यः किद् उन: प्रत्ययो भवति । पिशत् अवयवे, पिशुनः खलः, पिशुनं-मैत्री. भेदकं वचनम् । मिथूङ मेधाहिंसयोः, मिथुनं-स्त्रीपुसद्वन्द्वम् , राशिश्च । क्षुधंच बुभुक्षायाम् , क्षुधनः-कीटकः ।। २९० ।।
फलेोऽन्तश्च ॥ २६१॥ ___ फल निष्पत्ती, इत्यस्माद् उनः प्रत्ययो भवति, गश्चान्तो भवति । फल्गुन:अर्जुनः । फल्गुनीनक्षत्रम् ।। २९१ ।।
वी-पति-पटिभ्यस्तनः ॥ २६२ ॥
एभ्यस्तनः प्रत्ययो भवति । वीक् प्रजननादौ, वेतनं भृतिः । पत्लु गती, पत्तनम् । पट गतौ, पट्टनम् । द्वावपि नगरविशेषौ ।
पट्टनं शकटैगम्यं, घोटकैनौंभिरेव च । नौभिरेव तु यद् गम्यं, पत्तनं तत् प्रचक्षते ॥ २९२ ॥
पृ-पूभ्यां कित् ॥ २६३ ॥
आभ्यां कित् तनः प्रत्ययो भवति । पृङत् व्यायामे, पृतना सेना । पूग्श् पवने, पूतनाराक्षसी ॥ २६३ ।।
कृत्यशोभ्यां स्नक् ॥ २६४ ॥
आभ्यां स्नक्प्रत्ययो भवति । कृतत् छेदने, कृत्स्नं-सर्वम् । अशौटि व्याप्तौ। अक्षणं-नयनं, व्याधिः, रज्जुः, तेजनम् , अखण्डं च ।। २९४ ।।
अर्तेः शसानः ॥ २६५ ॥
ऋक् गतो, इत्यस्मात्तालव्यादिः शसानः प्रत्ययो भवति । अर्शसान.-पन्थाः, इषुः, अग्निश्च ।। २९५ ।।
भा-पा-चणि-चमि-विषि-सू-पृ-त-शी-तल्यलिशमि-रमि-वपिभ्यः पः॥ २६६ ॥
एभ्य पः प्रत्ययो भवति । भांक दीप्तौ, भाप:आदित्यः, ज्येष्ठश्च भ्राता। पांकरक्षणे पापं-कल्मषम् , पापः-धोरः । चण हिंसादानयोश्च, चण्पानगरी, चण्पः-वृक्षः । चमू अदने, चम्पा नगरी । विष्ल की व्याप्तौ, वेष्प:-परमात्मा, स्वर्गः, आकाशश्च । निपूर्वात् , निवेष्पः-अपां गर्भः, कूपः, वृक्षजातिः, अन्तरीक्षं च । सृ गतौ, सर्पः-अहिः । पृश् पालनपूरणयोः, पर्पः-प्लवः, शङ्खः समुद्रः, शस्त्रं च । तृ प्लनवतरणयोः, तर्पः-उडुपः
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सूत्र-२९७-३०३ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ३८३
नौश्च । शीङक स्वप्ने, शेपः-पुच्छम् । तलम् प्रतिष्ठायाम् , तल्पं-शयनीयम् , अङ्ग, दाराः, युद्धं च । अली भूषणादौ, अल्पं-स्तोकम् शमूच् उपशमे, शम्पा-विद्युत् , काञ्ची च । विपूर्वात् विशम्पः-दानवः रमि क्रीडायाम् , रम्पा चर्मकारोपकरणम् । डुवपी बीजसंताने, वप्प:-पिता ।। २६६ ।।
यु-सु-कु-रु-तु-च्यु-स्त्वादेरूच्च ।। २६७ ॥
एभ्य पः प्रत्ययो भवति, ऊकारश्चान्तादेशो भवति । युक् मिश्रणे, यूपः-यज्ञपशुबन्धनकाष्ठम् । धुंग्ट् अभिषवे, सूपः-मुद्गादिभिन्न कृतः । कुक शब्दे कूपः-प्रहिः । रुकशब्दे, रूपं-श्वेतादि, लावण्यं, स्वभावश्च । तुंक वृत्यादौ, तूपः-आयतनविशेषः । च्युङ - गतो, च्यूपः-आदित्यः, वायु!, संग्रामश्च । ष्टुंग्क् स्तुतौ, स्तूपः-बोधिसत्त्वभवनम् , उपायतनं च । आदिशब्दादन्येऽपि ॥ २६७ ॥
क-श-सभ्य-ऊर् चान्तस्य ।। २६८ ॥
एभ्यः पः प्रत्ययो भवति, अन्तस्य च ऊर् भवति कृत् विक्षेपे, कूर्पम्-भ्रूमध्यम् । शृश् हिंसायाम् , शूर्पःधान्यादिनिष्पवनभाण्डं, संख्या च । सृगतो, सूर्पः-भुजङ्गमः, मत्स्यजातिश्च ।। २९८ ।।
शदि-बाधि-खनि-हने षः च ॥ २६॥
एभ्यः पः प्रत्ययो भवति, षश्चान्तादेशो भवति । शदल शातने, शष्पं-बालतृणम् । शष हिंसायाम् इत्यस्य वा रूपम् । बाधृङ-रोटने, बाष्प:-अश्रु, धूमाभासं च मुखपानीयादौ । खनूग् अवदारणे, खष्प:-बलात्कारः, दुर्मेधाः कूपश्च । खष्पं-खलीनं, जनपदविशेषः, अङ्गारश्च । हनंक हिंसागत्योः, हष्पः-प्रावरणजातिः ॥ २९९ ॥
पम्पा-शिल्पादयः॥३०॥
पम्पादयः शब्दा पप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । पांक रक्षणे, मोऽन्तो हृस्वश्च । पम्पापुष्करिणो। शीलयतेः शलतेः शेतेर्वा शिलादेशश्च । शिल्पं-विज्ञानम् । आदिशब्दादन्येऽपि ।। ३०० ।।
क्षु-चुपि-पूभ्यः कित् ॥ ३०१॥
एभ्य: कित् प: प्रत्ययो भवति । टुक्षुक शब्दे क्षुपः-गुच्छः । चुप मन्दायां गतो, चुप्पं मन्दगमनम् । पूग्श् पवने, पूप: पिष्टमयः ॥ ३०१॥
नियो वा ॥ ३०२॥ ___णींग् प्रापणे, इत्यस्मात् पः प्रत्ययो भवति । स च किद्वा भवति । नीपः-वृक्षविशेषः, नेपः-नयः, पुरोहितः, वृक्षः, भृतकश्च, नेपम्-उदकं, यानं च ।। ३०२ ।।। ।
उभ्यवेलु क् च ॥ ३०३॥
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३८४ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्र विवरणम्
[ सूत्र - ३०४-३११
आभ्यां कि पः प्रत्ययो भवति, लुक् चान्तस्य भवति । उभत् पूरणे । अव रक्षणादौ । उप, अप च अव्यये ।। ३०३ ।
दलि-लि-तलि खजि ध्वजि - कचिभ्योऽपः ।। ३०४ ॥
एभ्यः अपः प्रत्ययो भवति । दल विशरणे, दलप:- प्रहरणम्, रणमुखम्, त्रिदलं, दलविशेषश्च, दलपं व्रणमुखत्राणम् । वलि संवरणे, वलपः- कणिका । तलण् प्रतिष्ठायाम्, तलप:- हस्तप्रहारः । खज मन्थे, खजपः - मन्थः, खजपं दधि, घृतम् उदकं च । ध्वज गतौ, ध्वजप :- ध्वजः । कचि बन्धने, कचपः - शाकपणः, बन्धश्च ।। ३०४ । ।
भुजि - कुति - कृटि - विटि कुणि-कुष्युषिभ्यः कित् ॥ ३०५ ॥
एभ्यः दिपः प्रत्ययो भवति । भुजंप पालनाभ्यवहारयोः, भुजपः- राजा, यजमानपालनादग्निश्च । कुतिः सौत्रः कुतपः - छागलोम्नां कम्बलः आस्तरणं, श्राद्धकालश्च । कुटस् कौटिल्ये, कुटप:- प्रस्थचतुर्भागः नीडं च शकुनीनाम् । विट् शब्दे, विटप :- शाखा । कुण शब्दोपकरणयोः । कुणप : मृतकं कुषितं, शब्दार्थसारूप्यं च । कुषश् निष्कर्ते, कुषप:विन्ध्यः, संदंशश्च । उषू दाहे, उषपः- दाहः, सूर्यः, वह्निश्च ।। ३०५ ।।
शंसेः श इच्चातः ।। ३०६ ॥
शंसू स्तुतौ च इत्यस्मादपः प्रत्ययो भवति तालव्यः शकारोऽन्तादेशोऽकारस्य च इकारो भवति । शिशपाः - वृक्षविशेषः ।। ३०६ ॥
विष्टपोलप - वातपादयः ॥ ३०७ ॥
विष्टपादयः शब्दाः किद् अपप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । विषेस्तोऽन्तश्च । विष्टपंजगत् सुकृतिनां स्थानं च । वलेरुल् च । उलप - पर्वततृणम्, पङ्कजं जलं च । उलपः ऋषिः । वातेस्तोऽन्तश्च । वातपः ऋषिः । आदिग्रहणात् खरपादयोऽपि भवन्ति ।। ३८७ ॥
कलेरापः ॥ ३०८ ॥
कलि शब्दसंख्यानयोः, इत्यस्मादापः प्रत्ययो भवति । कलापः काञ्चीसमूहः, शिखण्डश्च ।। ३०८ ॥
विशेरिपक् ।। ३०६ ॥
विशंत प्रवेशने, इत्यस्मादिपक् प्रत्ययो भवति । विशिपः- राशिः । विशिपं-तृणं, वेश्म, आसनं, पद्म च ॥ ३०६ ॥
दलेरीपो दिल् च ॥ ३१० ॥
दल विशरणे, इत्यस्मादीपः प्रत्ययो भवति । दिल् च स्यादेशो भवति । दिलीप:
राजा ।। ३१० ।
उडेरुपक ॥ ३११ ॥
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सूत्र - ३१२-३२० ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्र विवरणम्
[ ३८५
उड् संघाते, इति सौत्रात् उपक्प्रत्ययो भवति । उडुपः- प्लवः । जपादित्वाद्वत्वे उडुवः ।। ३११ ।
अश ऊपः पश्च ।। ३१२ ॥
अशौटि व्याप्तौ इत्यस्मादूपः प्रत्ययः भवति, पश्चान्तादेशो भवति । अपूपः पक्वान्नविशेष: ।। ३१२ ॥
सतेंः षपः ।। ३१३ ॥
सृ गतौ इत्यस्मात् षपः प्रत्ययो भवति । सर्षपः- रक्षोघ्नं द्रव्यम्, शाकं च ॥३१३॥ री- शीभ्यां फः ॥ ३१४ ॥
आभ्यां कः प्रत्ययो भवति । रींङ च् श्रवणे, रेफः- कुत्सितः । शीङ क् स्वप्ने । शेफः-मेढ्रः ।।३१४।।
कलि- गलेरस्योच्च || ३१५ ।।
आभ्यां फः प्रत्ययो भवत्यस्य चोकारो भवति । कलि शब्दसंख्यानयोः, गल अदने, कुल्फ :- जङ्घाङ घिसन्धिः । गुल्फ :- पादोपरिग्रन्थिः ।। ३१५ ।।
शफ - कफ शिफा - शोफादयः ॥ ३१६ ॥
शफादयः शब्दाः फप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । श्यतेः कायतेश्च ह्रस्वश्च । शफ:खुरः, प्रियंवदश्च । कफः- श्लेष्मा । श्यतेरित्वमोत्वं च । शिफा वृक्षजटा । शोफः श्वयथुः, खुरश्च । आदिशब्दाद् रिफानफासुनफादयो भवन्ति ।। ३१६ ।।
वलि -नितनिभ्यां वः ॥ ३१७ ॥
वलि संवरणे, निपूर्वाच्च तनूयी विस्तारे इत्याभ्यां बः प्रत्ययो भवति । बल्ब:वृक्ष: । नितम्बः श्रोणिः, पर्वतैकदेशः, नटश्च ।। ३१७ ।।
शम्य मेर्णिद्वा ॥ ३१८ ॥
आभ्यां बः प्रत्ययो भवति, स च णिद्वा भवति । शमूच् उपशमे, शम्ब:- वज्रः, कर्षणविशेषः, वेणुदण्डः, तोत्रम्, अरित्रं च । शम्बशाम्बी- जाम्बवतेयौ । अम् गतौ, अम्बामाता । आम्बः- अपह्नवः ।। ३१८ ।
शल्यलेरुच्चातः || ३१६ ॥
आभ्यां बः प्रत्ययो भवत्यकारस्य चोकारो भवति । पल-फल शल गतौ, शुल्बताम्रम् । अली भूषणादौ, उल्ब - रजतम्, गर्भवेष्टनम् । शुल्बं- बम्भ्रुः, तरक्षुश्च ।। ३१९ ।।
तुम्ब स्तम्वादयः ॥ ३२० ॥
तुम्बादयः शब्दा बप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । ताभ्यतेरत उत्वं च । तुम्बम् अलाबु,
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३५६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-३२१-३२७
चक्राङ्ग च । स्तम्भेलुक च । स्तम्बः-तृणं, विटपः, संघातः, अङ कुरसमुदायः, स्तबकः, पुष्पापीडश्च । आदिग्रहणात् कुशाम्बादयो भवन्ति ॥ ३२० ॥
क-कडि-कटि-वटेरम्बः ॥३२१ ॥ ___ एभ्यः अम्बः प्रत्ययो भवति । डुकृग करणे, करम्बः-दध्योदनः, दघिसक्तवः, पुष्पं च । कडत् मदे, कडम्बः-जातिविशेषः, जनपदविशेषश्च । कटे वर्षावरणयोः, कटम्ब:पक्वान्नविशेषः, वादित्रं च । कडम्ब-कटम्बौ वृक्षौ च । वट वेष्टने, वटम्बः-शैलः, तृणपुजश्च ।। ३२१ ॥
कदेर्णिद्वा ॥ ३२२॥
कद वैक्लव्ये, इति सौत्राद् अम्बः प्रत्ययो भवति, स च णिद्वा भवति । कादम्बःहंसः । कदम्बः-वृक्षजातिः॥ ३२२ ।।
शिल-विलादेः कित् ॥ ३२३॥
शिलादिभ्यः किद् अम्बः प्रत्ययो भवति । शिलत् उञ्छे, शिलम्बः-ऋषिः, तन्तुवायश्च । विलत् वरणे, विलम्बः-वेषविशेषः, रङ्गावसरश्च । आदिग्रहणादन्येऽपि ॥३२३।
हिण्डि-विलेः किम्बो नलुक् च ॥ ३२४ ॥
आभ्यां किद् इम्बः प्रत्ययो भवति, नस्य च लुग् भवति । हिडुड् गतो, विलत् वरणे, हिडिम्बः-विलिम्बश्च राक्षसौ ॥ ३२४ ।।
डी-नी-बन्धि-शृधि-चलिभ्यो डिम्बः ॥ ३२५ ॥
एभ्यः डिद् इम्बः प्रत्ययो भवति । डीङ विहायसा गती, डिम्ब:-राजोपद्रवः । णींग प्रापणे, निम्बः-वृक्षविशेषः । बन्धंश् बन्धने, बिम्ब-प्रतिच्छन्दः, देहश्च, बिम्बीवल्लिजातिः । शृघूड् शब्दकुत्सायाम् । शिम्बः-मृगजातिः। शिम्बी-निष्पाववल्लो च । चल कम्पने, चिम्बा-यवागूजातिः ।। ३२५ ॥
कुट्युन्दि-चुरि-तुरि-पुरि-मुरि-कुरिभ्यः कुम्बः ।। ३२६ ॥
एभ्यः किद् उम्बःप्रत्ययो भवति । कुटत् कौटिल्ये, कुटुम्ब-दारादयः । उदैप् क्लेदने, उदुम्बः-समुद्रः । चुरण स्तेये । तुरण त्वरणे, सौत्रः, चुरुम्बः तुरुम्बश्च-गहनम् । पुरत् अग्रगमने, पुरुम्ब:-आहारः। मुरत् संवेष्टने, मुरुम्बः-मृद्यमाणपाषाणचूर्णम् । कुरुत् शब्दे, कुरुम्बः-अङकुरः । निपूर्वात् निकुरुम्बः-राशिः ।। ३२६ ॥
ग-द-रमि-हनि-जन्यर्ति-दलिभ्यो भः ॥ ३२७ ॥
एभ्यो भः प्रत्ययो भवति । गत् निगरणे, गर्भः-जठरस्थः प्राणी । दृश् विदारणे, दर्भ:-कुशः । रमि क्रीडायाम, रम्भा-अप्सराः, कदली च । हनक हिंसागत्योः, हम्भा-गोधे.
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सूत्र- ३२८-३३६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्र विवरणम्
[ ३८७
नुनाद: । जनैचि प्रादुर्भावे, जम्भ:- दानवः, दन्तश्च, जम्भा - मुखविदारणम् । ऋक् गतो, अर्भ: - शिशुः । दलण् विदारणे, दल्भः ऋषिः, वल्कलं, विदारणं च ॥ ३२७ ।।
इणः कित् ॥ ३२८ ॥
sue गती, इत्यस्मात् किद् भः प्रत्ययो भवति । इभः - हस्ती ॥ ३२८ ॥
कृ-श-गृ-शलि-कलि-कडि-गर्दि - रसि-रमि- वडि वल्लेरभः ॥ ३२६ ॥
एभ्यः अभः प्रत्ययो भवति । कृत् विक्षेपे, करभः - त्रिवर्ष उष्ट्रः । शूश् हिंसायाम्, शरभः-श्वापदविशेषः । गृत् निगरणे, गरभ:- उदरस्थो जन्तुः । पल - फल-शल-गती, शलभः–पतङ्गः । कलि शब्दसंख्यानयोः, कलभः हस्ती यौवनाभिमुखः । कडत्-मदे, - हस्तिपोतकः । गर्द शब्दे, गर्दभः खरः । रासृङ् शब्दे, रासभः स एव । रमिं क्रीडायास्, रमभः - प्रहर्षः । वडः सौत्रः, वडभीवेश्माग्रभूमिका । ऋफिडादित्वाल्लत्वे वलभी । वल्लि संवरणे, वल्लभः - स्वामी, दयितश्च ।। ३२९ ।।
कडभः
सनेति ॥ ३३० ॥
षण् भक्तौ इत्यस्मात् डिद् अभः प्रत्ययो भवति । सभा परिषत्, शाला च ॥ ३३० ॥ ऋषि-वृषि-लुसिभ्यः कित् ॥ ३३१ ॥
एभ्यः कि अभः प्रत्ययो भवति । ऋषैत् गतो, वृषू सेचने, ऋषभः वृषभश्च पुङ्गवः, भगवांश्चादितीर्थंकरः । ऋषभः- वायुः । लुसिः सौत्रः, लुसभ: - हिंस्रः, मत्तहस्ती, वनं च ।। ३३१ ॥
सि टिकिभ्यामिभः सैर-टिट्टौ च ॥ ३३२ ॥
आभ्याम् इभः प्रत्ययो भवति । दन्त्यादिः सैर: टिट्टश्चादेशौ यथासंख्यं भवतः । षट् बन्धने, सैरिभ:- महिषः । टिकि गतौ, टिट्टिभः - पक्षी ।। ३३२ ।।
ककेरुभः ॥ ३३३ ॥
ककि लौल्ये, इत्यस्माद् उभः प्रत्ययो भवति । ककुभः - अर्जुनः ।। ३३३ ।। कुकेः कोऽन्तश्च ॥ ३३४ ॥
कुकि आदाने, इत्यस्माद् उभः प्रत्ययो भवति, ककारश्चान्तादेशो भवति । कुक्कुभः - पक्षिविशेषः ।। ३३४ ॥
दमो दुण्टू च || ३३५ ||
दमूच् उपशमे, इत्यस्माद् उभः प्रत्ययो भवत्यस्य च दन्त्यादिष्टवर्गतृतीयान्तो दुण्ड् इत्यादेशो भवति । दुण्डुभ: - निर्विषाहिः ।। ३३५ ।।
कृ- कलेरम्भः ॥ ३३६ ॥
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३८८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-३३७-३४१
आभ्याम् अम्भः प्रत्ययो भवति । डुकृग् करणे, करम्भः-दधिसक्तवः । कलि शब्दसंख्यानयोः, कलम्भः-ऋषिः ।। ३३६ ॥ .
का-कुसिभ्यां कुम्भः ॥ ३३७ ॥
आभ्यां किद् उम्भः प्रत्ययो भवति । के शब्दे, कुम्भः-घटः, राशिश्च । कुसच् श्लेषणे, कुसुम्भ:-महारजनम् ।। ३३७ ।। अर्तीरिस्तु-सु-हु-सृ-घृ-भू-श-क्षि-यक्षि-भा-वा-व्या-धा-पा-या-बलि-पदि-नीभ्यो
__ मः ॥ ३३८ ॥ एभ्यो मः प्रत्ययो भवति । ऋक् गतौ, अर्मः-अक्षिरोगः, ग्रामः, स्थलं च । ईरिक गतिकम्पनयोः, ईम-व्रणः । ष्टुंग्क् स्तुतौ, स्तोमः-समूहः, यज्ञः, स्तोत्रं च । धुंग्ट-अभिषवे, सोमः-चन्द्रः, वल्ली च । हुंक दानादनयोः, होमः-आहुतिः । सृगतौ, सर्म:-नदः, कालश्च ; सर्म-स्नानं, सुखं च । धू सेचने, धर्म:-ग्रीष्मः। धृङत् स्थाने, धर्म:-उत्तमक्षमादिः, न्यायश्च । शश हिसायाम् । शमं सुखम् । क्षित् निवासगत्योः, क्षेम-कल्याणम् । यक्षिण पूजायाम्, यक्ष्मः-व्याधिः । भांक दीप्तौ, भाम:-क्रोधः, भामा-स्त्री । वांक गतिगन्धनयोः, वामः-प्रतिकूलः, सव्यश्च । व्यंग संवरणे, व्यामः-वक्षोभुजायतिः । डुधांगक धारणे च, धाम-निलयः-मेधश्च । पां पाने, पामा-कच्छूः । यांक प्रापणे, यामः-प्रहरः । वलि संवरणे, वल्मः-ग्रन्थिः । पदिच् गतो, पद्म-कमलम् । णोंग प्रापणे, नेमः-अर्धः, समीपश्च ।।३३८।।
ग्रसि-हागभ्यां ग्राजिहौ च ॥ ३३६ ॥
आभ्यां मः प्रत्ययो भवत्यनयोश्च ग्राजिहावित्यादेशौ यथासंख्यं भवतः । ग्रामःसमूहादिः । जिह्मः-कुटिलः ।। ३३९ ।। विलि-भिलि-सिधीन्धि-धू-मू-श्या-ध्या-रु-सिवि-शुषि-मुषीषि-सुहि
युधि-दसिभ्यः कित् ।। ३४० ॥ एभ्यः किद् मः प्रत्ययो भवति । विलत् वरणे, विल्म-प्रकाशः । भिलिः सौत्रः, भिल्म-भास्वरम् । विधू-गत्याम् , सिध्मं-त्वग्रोगः । त्रिइन्धैपि दीप्तौ, इध्मम्-इन्धनम् । धूगश् कम्पने, धूमः-अग्निकेतुः । षूडौच् प्राणिप्रसवे, सूमः-कालः, स्वयथुः, रविश्च । सूमम्-अन्तरिक्षम् । श्यैङ गतौ, श्यामः-वर्णः, श्याम-नभः । श्यामा-रात्रि:, औषधिश्च । ध्यै चिन्तायाम् , ध्यामः-अव्यक्तवर्णः । रुक् शब्दे, रुमालवणभूमिः । षिवूच् उतौ, स्यूम:रश्मिः , दीर्घसूत्रतन्तुश्च । स्यूमम् जलम् । शुषंच शोषणे, शुष्मं-बलं, जलं, संयोगश्च । मुषश् स्तेये मुष्म:-मूषिकः । ईष उञ्छे, ईष्म:-वसन्तः, बाणः, वातश्च । पुहच् शक्ती सुह्माः-जनपदः, सुमः-राजा । युधिंच संप्रहारे, युध्मः-शरत्कालः, शूरः, शत्रुः, संग्रामश्च । दमूच् उपक्षये दस्मः-होनः, वह्निर्यज्ञश्च ।। ३४० ।।
क्षु-हिभ्यां वा ॥ ३४१ ॥
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सूत्र - ३४२-३४८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्र विवरणम्
[ ३८९
आभ्यां मः प्रत्ययो भवति, स च किद्वा भवति । टुक्षुक् शब्दे, क्षुमा-अतसी, मोक्षंवस्त्रम् | हिंदू गतिवृद्धयो:, हिमं तुषारः, हेमं- सुवर्णम् ।। ३४१ ।।
अवेद्द स्वश्च वा ॥ ३४२ ॥
अव रक्षणादी, इत्यस्मात् किद् म: प्रत्ययो भवति ऊटो ह्रस्वश्च वा भवति । उमागौरी, अतसी, कीर्तिश्च । ऊमम् ऊनम्, आकाशं, नगरम् ।। ३४२ ॥
सेरी च वा ॥ ३४३ ॥
षट् बन्धने इत्यस्मात् किद् म: प्रत्ययो भवति, ईकारश्चान्तादेशो वा भवति । सीमोग्रामगोचर भूमिः, क्षेत्रमर्यादा, हयश्च । सिमः एव सर्वार्थश्च ।। ३४३ ।।
भियः षोऽन्तश्च वा ॥ ३४४ ॥
त्रिभक् भये, इत्यस्मात् किद् म: प्रत्ययो भवति । षकारश्चान्तादेशो वा भवति । बिभेति अस्मादिति भीष्मः - भयानकः । भीमः स एव ।। ३४४ ॥
तिजि-युजेर्गं च ॥ ३४५ ।।
आभ्यां किद्मः प्रत्ययो भवति, गकारश्चान्तादेशो भवति । तिजि क्षमानिशानयोः, तिग्मं - तीक्ष्णं, दीप्तं, तेजश्च । यु पी योगे, युग्मं - युगलम् ।। ३४५ ।।
च,
रुक्म- ग्रीष्म-कर्म-सूर्य- जाल्म - गुल्म- घोम-परि- स्तोम सूक्ष्मादयः ॥ ३४६॥ एते किन्मप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । रोचतेः क् च रुक्मं - सुवर्णं रूप्यं च । ग्रसेर्गीष् ग्रीष्मः ऋतुः । कुरते दीर्घश्च, कूर्म :- व :- कच्छपः । षूत् प्रेरणे, इत्यस्माद्रोऽन्तश्च भवति । सूर्मी - लोहप्रतिमा, चुल्लिश्च जल घात्ये दीर्घश्च, जाल्मः - निक्रुष्ट । गुपच् व्याकुलत्वे 'लश्च, गुल्मः - व्याधिः तरुसमूहः, वनस्पतिः, सेनाङ्ग च, गुल्मम् - आयस्थानम् । जिघ्रतेरोत्वं च, घोम:- यज्ञाङ्गलक्षणः सोमः । परिपूर्वात् स्तोतेः षत्वाभावो गुणश्च, परिस्तोमःयज्ञविशेषः । सूचण् पैशून्ये कत्वं षोऽन्तश्च । सूक्ष्मः - निपुणः, सूक्ष्मम् - अणु । आदिग्रहणात् क्ष्मादयो भवन्ति ।। ३४६ ।।
सु-पृ-प्रथि-चरि-कडि-कर्देरमः ॥ ३४७ ॥
एभ्यः अम: प्रत्ययो भवति । सृ गतौ, सरमादेवशुनी । पृश् पालनपूरणयोः परम:उत्कृष्ट: । प्रथिषु प्रख्याने, प्रथमः- आद्यः । चर भक्षणे, चरम :- पश्चिमः । कडत् मदे, कडमःशालिः । ऋफिडादित्वाल्लत्वे कलम :- स एव । कर्द कुत्सिते शब्दे, कर्दमः - पङ्कः ।।३४७॥
अवेर्ध, चवा || ३४८ ॥
अव रक्षणादी, इत्यस्मादम प्रत्ययो भवति, धश्चान्तादेशो वा भवति । अधमः, अवमश्चहीनः ।। ३०८ ।।
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३९० ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
त्र-३४६-३५४
कुट्टि-वेष्टि-पूरि-पिषि-सिचि-गण्यर्पि-वृ-महिभ्य इमः ॥ ३४६ ॥
एभ्य इमः प्रत्ययो भवति । कुट्टण कुत्सने च, कुट्टिम-संस्कृतभूतलम् । वेष्टि वेष्टने, वेष्टिमं-पुष्पबन्धविशेषः, भक्ष्यविशेषश्च । पूरैचि आप्यायने, पूरिमं-मालाबन्धविशेषः, भक्ष्यविशेषश्च । पिषलप, संचूर्णने, पेषिमं-भक्ष्यविशेषः । षिचीत् क्षरणे, सेचिम-मालाविशेषः । गणण् संख्याने, गणिमं-गणितम्-ऋक् गतौ, णौ पौ, अपिमं बालवत्साया दुग्धम् । वृगट वरणे, वरिम-तुलोन्मेयम् । मह पूजायाम् , महिम-पूजनीयम् ॥ ३४६ ॥
वयिम-खचिमादयः ॥ ३५० ॥ __ वयिमादयः शब्दा इमप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । वेंग तन्तुसन्ताने, वयादेशश्च, वयिमं-माल्यं, कन्दुकः, तन्तुवायदण्डश्च । खनूग् अवदारणे, चश्च, खचिम-मणिलोहविद्धं, घृतविहीनं च दधि । आदिशब्दादन्येऽपि ॥ ३५० ।।।
उद्घटि-कुल्यलि-कुथि-कुरि-कुटि-कुडि-कुसिभ्यः कुमः ।। ३५१ ।।
उत्पूर्वाद्वटे: कुल्यादिभ्यश्च किदुमः प्रत्ययो भवति । वट वेष्टने, उद्वटुमः-परिक्षेपः । कुल बन्धुसंस्त्यानयोः, कुलुमः-उत्सवः । अली भूषणादौ, अलुम:-प्रसाधनम् , नापितः, अग्निश्च । कुथच् पूतीभावे, कुथुमः-ऋषिः, कुथुम-मृगाजिनम् । कुरत् शब्दे, कुरुम:कारुः, भाजनं च । कुटत् कौटिल्ये, कुटुमः-प्रेष्यः । कुडत् बाल्ये च, कुडुमाभूमिः । कुसच् श्लेषे, कुसुमं-पुष्पम् ।। ३५१ ॥
कुन्दुम-लिन्दुम-कुङ्कुम-विद्रुम-पटुमादयः ।। ३५२ ॥
एते कुमप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । कुकि आदाने स्वरान्नो दश्च, कुन्दुमः-निचयः, गन्धद्रव्यं च । लीङच श्लेषणे, लिन्दभावश्च, लिन्दुमः-गन्धद्रव्यम् । कूकेः स्वरान्नोन्तश्च । कुङ कुम-घुसृणम् । विद्लुती लाभे, रोन्तश्च, विद्रुमः-प्रवालः । पटेष्टोऽन्तश्च । पटुमनगरम् । आदिग्रहणादन्येऽपि ।। ३५२ ।।
कुथि-गुधेरूमः ॥ ३५३ ॥
आभ्यामूमः प्रत्ययो भवति । कुथच् पूतिभावे, कोथूमः चरणकृषिः । गुधच् परिवेष्टने, गोधूमः-धान्यविशेषः ।। ३५३ ।।
विहा-विशा-पचि-भिद्यादेः केलिमः ॥ ३५४ ॥
विपूर्वाभ्याम् ओहांक त्यागे, शोंच तक्षणे, इत्येताभ्यां पच्यादिभ्यश्च किद् एलिमः प्रत्ययो भवति । विहीयते त्यज्यतेऽशुचि शरीरमस्मिन्निति विहेलिमः स्वर्गः। विश्यति तनूभवति मासि मासि कलाभि-यमान इति विशेलिमः-चन्द्र , स्वर्गश्च । डुपची पाके, पचति असावन्नमिति पचेलिम:-अग्निः, आदित्यः, अश्वश्च । भिपी विदारणे, भिदेलिम:तस्करः । आदिशब्दात् दृश प्रेक्षणे, दृशेलिमम् अदं प्सांक् भक्षणे, अदेलिमम् । हनंक हिंसागत्योः, घ्नेलिमम् । डुयाचूग याच्यायाम, याचेलिमम् । पांक रक्षणे, पेलिमम् । कृग करणे, केलिमम इत्यादयो भवन्ति ।। ३५४ ।
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सूत्र-३५५-३६२ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[३९१
दो डिमः ॥ ३५५ ॥ दांम् दाने, इत्यस्मात् डिमः प्रत्ययो भवति । दाडिम: दाडिमी वा-वृक्षजातिः।३५५। डिमेः कित् ।। ३५६ ॥ डिमेः सौत्रात् कित् डितः प्रत्ययो भवति । डिण्डिमः-वाद्यविशेषः ॥ ३५६ ।। स्था-छा-मा-सा-सू-मन्यनि कनि-पसि-पलि-कलि-शलि-शकीयि-सहि-बन्धि
भ्यो यः॥३५७॥ एभ्योः यः प्रत्ययो भवति । ष्ठां गतिनिवृत्ती, स्थायः- स्थानम् , स्थाया-भूमिः । दो छोंच छेदने, छाया-तमः, प्रतिरूपम्, कान्तिश्च । मांक माने, माया-छद्म, दिव्यानुभावदर्शनं च । षौंच अन्तकर्मणि, सायं दिनावसानम् । षूत प्रेरणे, सव्य:-वामः, दक्षिणश्च । मनिंच ज्ञाने, मन्या-धमनिः । अनक प्राणने, अन्यः-परः। कनै दीप्त्यादिषु, कन्या कुमारी षसक स्वप्ने, सस्य-क्षेत्रस्थं गोधूमादि । पल गतो, पल्य:-कटकुसूलः । कलि शब्दसंख्यानयोः, कल्यः-नीरोगः । पल फल शल गतौ, सल्यमन्तर्गतं लोहादि शक्लट् शक्ती-शक्यम्असारम् । ईष्यिर्थिः , ईय॑ति ईय॑णं वा ईर्ष्या-मात्सर्यम् । षहि मर्षणे, सह्यः-पश्चादर्णवपार्श्वशैलः । बन्धश् बन्धने, वन्ध्या-अप्रसूतिः ।। ३५७ ॥
नञो हलि-पतेः ।। ३५८ ॥
नपूर्वाभ्यामाभ्यां यः प्रत्ययो भवति । हल विलेखने, अहल्या-गौतमपत्नी । पत्लु गतो, अपत्यं-पुत्रसंतानः ।। ३५८ ।।
सजेधूच ॥ ३५६ ॥
षजं सङगे इत्यस्माद् यः प्रत्ययो भवति, धकारश्चान्तादेशो भवति । संध्या. दिननिशान्तरम् ॥ ३५९ ॥
मृशी-पसि-वस्यमिभ्यस्तादिः ॥ ३६० ॥
एभ्यस्तकारादियः प्रत्ययो भवति । मृत् प्राणत्यागे मर्त्यः-मनुष्यः । शीङ क् स्वप्ने, शैत्य:-शकुनिः, संवत्सरः, अजगरश्च । पसि निवासे, सौत्रो दन्त्यान्तः, पस्त्यंगृहम् । वसं निवासे, वस्त्यः-गुरुः । अनक् प्राणने, अन्त्यः-निरवसितः, चण्डालादिश्च ॥ ३६० ॥
ऋशि-जनि-पुणि-कृतिभ्यः कित् ।। ३६१ ।।
एभ्यः किद् यः प्रत्ययो भवति । ऋश् गतौ स्तुती वा स्वरादिस्तालव्यान्तः, ऋश्य:-मृगजातिः । जनैचि प्रादुर्भावे, जन्यं-संग्रामः। जाया-पत्नी, 'ये नवा' इत्यात्वम् । पुणत् शुभे, पुण्यं सत्कर्म । कृतैत् छेदने, कृन्ततीति कृत्या-दुर्गा ।। ३६१ ।।
कुलेड च वा ॥ ३६२ ॥
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३९२ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम् ।
[सूत्र-३६३-३६८
कुल बन्धुसंस्त्यानयोः, इत्यस्मात् किद् यः प्रत्ययो भवति-डकारश्चान्तादेशो वा । कुड्य-भित्तिः । कुल्या-सारणी ।। ३६२ ।।
अग-पुलाभ्यां स्तम्भेर्डित् ॥ ३६३ ।।
अग-पुल इत्येताभ्यां परस्मात् स्तम्भेः सौत्रात् डिद् यः प्रत्ययो भवति । अगस्त्यः पुलस्त्यश्च-ऋषिः ।। ३६३॥
शिक्यास्याढ्य-मध्य-विन्ध्य-धिष्ण्याघ्न्यहर्म्य सत्य-नित्यादयः ॥ ३६४ ॥
एते यप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । शोंच तक्षणे, इकश्चान्त:, शिक्यं-लम्बमान: पिठाद्याधारः, परिवाड्भिक्षाभाजनस्थानम् , असारं च । असूच क्षेपणे-दीर्घत्वं च आस्यमुखम् । आङ पूर्वाद् ढोकतेडिच्च, आध्यः-धनवान् । मव बन्धने ध् च, मध्यं - गर्भः । विधत् विधाने, स्वरान्नोऽन्तश्च, विन्ध्य:-पर्वतः। त्रिधषाट् प्रागल्भ्ये, णोऽन्तो धिष् च, धिष्ण्यंभवनम् , आसनं च, धिष्ण्या-उल्का । नञ्पूर्वाद्धन्तेरुपान्त्यलोपश्च । अघ्न्यः-धर्मः, गोपतिश्च, अघ्न्या गौः। हरतेर्मोऽन्तश्च, हयं- सौधम् । अस्तेः, सत् च सत्यम् अमृषा । निपूर्वाद्यमेस्तोऽन्तो धातुलुक् च । नित्यं-ध्रुवम् । आदिग्रहणाल्लह्यद्रुह्यादयो भवन्ति
कु-गु-बलि-मलि-कणि-तन्याम्यक्षरयः ॥ ३६५ ॥
एभ्यः अयः प्रत्ययो भवति । कुंक शब्दे, कवयः-ऋषिः, पुरोडाशश्च । गुंङ शब्दे, गवय:-गवाकृति: पशुविशेषः । वलि संवरणे, वलयः-कटकः । मलि धारणे, मलय:-पर्वतः । कण शब्दे, कणयः-आयुधविशेषः। तनूयी विस्तारे, तनयः-पुत्रः । अमण रोगे णिचि च आमयः-व्याधिः । अक्षौ व्याप्तौ च, अकया-विष्णुः ।। ३६५ ।।
चायेः केक च ।। ३६६ ॥
चायग् पूजानिशामनयोः इत्यस्माद् अयः प्रत्ययो भवत्यस्य च केक इत्यादेशो भवति । केकय:-क्षत्रियः ।। ३६६ ॥
लादिभ्यः कित् ।। ३६७ ।। ..... लादिभ्यः किद् अयः प्रत्ययो भवति । लांक आदाने, लयः । पां पाने, पयः । ष्णांक शौचे, स्नयः । देङ पालने, दयः । ट्धं पाने, धयः । मेंङ प्रतिदाने, मयः, के शब्दे, कयः । खें खदने, खयः । श्रां पाके, श्रयः । बै-जै-सै क्षये, क्षयः, जयः सयः, त्रैङ पालने, त्रयः। . ओवै शोषणे वयः । इत्यादि ।। ३६७ ॥
कसेरलादिरिचास्य ॥ ३६८ ॥
"कस गतौ इत्यस्मादलादिरयः प्रत्ययो भवत्यकारस्य चेकारो भवति । किसलयंप्रवालम् ।। ३६८ ॥
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सूत्र-३६९-३७७ ]
स्वपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[३६३
वृः शषौ चान्तौ ॥ ३६६ ।
वृङश् संभक्तौ इत्यस्मात् किद् अयः प्रत्ययो भवति, शकार षकारी चान्ती भवतः । वृशयं-देशनाम, आकाशम् आसनं शयनं च । वृषयः-आशयः ॥ ३६६ ।।
गय-हृदयादयः ॥ ३७० ॥
गय-हृदयादयः शब्दाः किदयप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । गमेडिच्च, गयः-प्राणः, गया तीर्थम् । हरतेर्दोऽन्तश्च, हृदयं मनः, स्तनमध्यम् चं, आदिशब्दात् गणेरेयः गणेयं गणनीय. मित्यादि ।। ३७०।।
मुचे-घय-घुयौ ॥ ३७१॥ __ मुचलती मोक्षणे, इत्यस्माद् धितो अय उय इति प्रत्ययो किती भवतः । मुकयःमुकुयश्च-अश्वतरादश्वायां जातः । घित्करणं कत्वार्थम् ।। ३७१ ।।
कुलि-लुलि-कलि-कषिभ्यः कायः॥ ३७२ ॥
एभ्यः किद् आयः प्रत्ययो भवति । कुल बन्धुसंस्त्यानयो:-कुलाय:- नीडम् । लुलि: सौत्रं, लुलायः-महिषः । कलि शब्दसंख्यानयोः, कलायः-त्रिपुट: । कष हिंसायाम् , कषाय:-कल्कादिः ।। ३७२ ।।
श्रु-दक्षि-गृहि-स्पृहि-महेराय्यः ॥ ३७३ ॥
'एभ्य: आय्यः प्रत्ययो भवति । श्रृंट श्रवणे, श्रवाय्यः-यज्ञपशुः, ग्रहणसमर्थश्च श्रोता। दक्षि हिंसागत्योः, दक्षाय्यः-अग्नि, गृध्रः, वैनतेयः, दक्षतमश्च । गृह्नि ग्रहणे, गृहयाय्यः, वैनतेयः, गृहकर्मकुशलश्च । स्पृहण ईप्सायाम् , स्पृहयाय्य:-स्पृहयालुः, घृतं च । स्पृहयाय्याणि-तृणानि च, अहानि च । महण पूजायाम् । महयाय्यः-अश्वमेधः ।। ३७३ ।।
दधिषाय्य-दीधीषाय्यौ ॥ ३७४ ॥
एतौ आय्यप्रत्ययान्तौ निपात्येते । दधिपूर्वात् स्यतेः षत्वं च । दधिषाय्यं-पृषदाज्यम् , मृषावादी च । दिव्यतेर्दीधीष् च दीधीषाय्यं तदेव ।। ३७४ ।।
कौतेरियः ॥ ३७५॥ कुंक् शब्दे इत्यस्माद् इयः प्रत्ययो भवति । कवियं खलीनम् ।। ३७५ ।। । कृगः कित् ॥ ३७६॥ डुकृग् करणे इत्यस्मात् किद् इयः प्रत्ययो भवति । क्रियः-मेषः ॥ ३७६ ॥ मृजेर्णालीयः ।। ३७७ ॥
मृजौक शुद्धौ, इत्यस्माद् णिदालीयः प्रत्ययो भवति । मार्जालीयम्-पापशोधनम् , मार्जालीयः-अग्निः, मृजोऽस्य वृद्धिरिति वृद्धिः, णकार उत्तरार्थः ।। ३७७ ।।
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३९४ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-३७८-३८६
वेतेस्तादिः॥३७८ ॥
वीक प्रजनादी इत्यस्मात्तकारादिणिद् आलीयः प्रत्ययो भवति । वैतालीयंछन्दोजातिः ॥ ३७८ ।।
धाग-राजि-श-रमि-याज्यतैरन्यः ॥ ३७६ ॥
एभ्यः अन्यः प्रत्ययो भवति । डुधांगक धारणे च, धान्यं सस्यजातिः । राजग दीप्तौ, राजन्यः-ज्योतिः, अग्निः, क्षत्रियश्च । शुश् हिंसायाम् । शरण्य -त्राता । रमि क्रीडायाम्, रमण्यं-शोभनम् । यजी देवपूजादौ, योजन्य:-क्षत्रियः, यज्ञश्च । ऋक् गतौ अरण्यं-वनम् ॥ ३७६ ॥
हिरण्य-पर्जन्यादयः ॥ ३८० ॥
हिरण्यादयः शब्दा अन्यप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । हरतेरिच्चातः । हिरण्यं-सुवर्णादि द्रव्यम् । परिपूर्वस्य पृष् सेचने इत्यस्योपसर्गान्तलोपो धातोश्च जः समस्तादेशः, गर्जतेर्वा गकारस्य पकारः । पर्जन्यः-इन्द्रः, मेघः, शङकुः, पुण्यं, कुशलं च कर्म। आदिग्रहणादन्येऽपि ॥३८०॥
वदि-सहिभ्यामान्यः ॥ ३८१॥
आभ्याम् आन्यः प्रत्ययो भवति । वद वक्तायां वाचि, वदान्य:-दाता, गुणवान् चारुभाषी वा । षहि मर्षणे, सहान्यः-शैलः ।। ३८१ ॥
वृङ एण्यः ॥ ३८२ ॥
वृडश संभक्तो, इत्यस्माद् एण्यः प्रत्ययो भवति । वरेण्यः-परंब्रह्म, घाम, श्रेष्ठः, प्रजापतिः, अन्नं च ।। ३८२ ॥
मदेः स्यः॥ ३८३॥ मदैच् हर्षे, इत्यस्मात् स्यः प्रत्ययो भवति । मत्स्य:-मीनः, धूर्तश्च ॥ ३४३ ॥ रुचि भुजिभ्यां किम्यः ॥ ३८४ ॥
रुचि-भुजिभ्यां किद् इष्यः प्रत्ययो भवति । रुचि अभिप्रीत्यां च, रुचिष्यःवल्लभः, सुवर्णं च । भुजंप पालनाम्यवहारयोः, भुजिष्यः-आचार्यः, भोक्ता, अन्नं, मृदु, ओदनः-दासश्च, भुजिष्यं-धनम् ॥ ३८४ ॥
वच्यर्थिभ्यामुष्यः ॥ ३८५॥
आभ्याम् उष्यः प्रत्ययो भवति । वचं भाषणे, वतुष्या-वक्ता । अर्थणि उपयाचने, अयुष्यः अर्थी ॥ ३८५॥
वचोऽथ्य उत् च ॥ ३८६॥
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सूत्र ३८७-३८८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ३६५
वचंक भाषणे, इत्यस्मादथ्यः प्रत्ययो भवत्यस्य च उद् इत्यादेशो भवति । उतथ्य:ऋषिः॥ ३८६॥
भी-वृधि-रुधि-वज्यगि-रमि-मि-वपि-जपि-शकि-स्फायि-वन्दीन्दि-पदि-मदिमन्दि-चन्दि-दसि-घसि-नसि-हस्यसि-वासि-दहि-सहिभ्यो ः ॥ ३८७ ॥
एभ्यः रः प्रत्ययो भवति । त्रिभीक् भये, भेर:-भेदः, करभः, शरः, मण्डूकः, दुन्दुभिः, कातरश्च । ऋफिडादित्वाद् लत्वे, भेलः-चिकित्साग्रन्थकारः, शरः, मण्डूकः, प्रहीणः अप्राज्ञश्च । वृधूङ वृद्धौ, वध्रः-चर्मविकारः, चन्द्रः, मेघश्च । रुधृपी आवरणे, रौध्रः-वृक्षविशेषः। वज गतौ, वज्र-कुलिशम् , रत्नविशेषश्च । अग कुटिलायां गतौ, अग्र:-प्राग्भागः, श्रेष्ठश्च । रमि क्रीडायाम् , रम्र:-कामुकः। टुवम् उगिरणे, वम्रः-धर्मविशेष:, धूमश्च, वम्री-उपदेहिका। डुवपी बीजसंताने, वप्रः-केदारः, प्राकारः, वास्तुभूमिश्च । जप मानसे च, जप्रः-ब्राह्मणः, मण्डूकश्च । शक्लृट् शक्ती, शक्रः-इन्द्रः । स्फायड वृद्धौ, स्फारम्-उल्वणं, प्रभूतं च । वदुङ स्तुत्यभिवादनयोः, वन्द्रः-वन्दी, केतुः, कामश्च, वन्द्र-समूहः । इदु परमैश्वर्ये, इन्द्रः-शक्रः । पदिच् गतौ, पद्रं-ग्रामादिनिवेशः, शून्यं च । मदैच हर्षे. मद्राजनपदः, क्षत्रियश्च मद्र-सुखम् । मदुङ स्तुत्यभिवादनयोः, मन्द्रः- मधुर: स्वरः, मन्द्रं-गभीरम् । चन्दु दीप्त्याह्लादनयोः, चन्द्रः-शशी, सुवर्ण च । दसूच उपक्षये, दस्र:शिशिरम् , चन्द्रमाः, अश्विनोयेष्टश्च, दस्रो-अश्विनौ। घस्लु अदने, घस्रः दिवसः । णसि कौटिल्ये नस्रः-नासिकापुटः, ऋषिश्च । हसे हसने, हस्रः-दिनं, घातुकः, हर्षुलश्च, हस्र-बलाघानं संनिपातश्च, सहस्र-दश शतानि । असूच क्षेपणे, अस्रम्-अश्रु । वासिच् शब्दे, वास्रः-पुरुषः, शब्द: संघातः, शरभः, रासभः पक्षी च, वास्रा-धेनुः । दहं भस्मी. करणे, दह्रः-अग्निः, शिशुः, सूर्यश्च । षहि मर्षणे, सह्नः-शैलः ।। ३८७ ।।
ऋज्यजि-तश्चि-वश्चि-रिपि-सृपि-तृपि-दृपि-चुपि-क्षिपि-क्षपि-दि-मुदिरुदि-छिदि-भिदि-खिचून्दि-दम्भि-शुम्युम्भि-दंशि-चिसि-वहि-विसि-वसि-शुचिसिधि-गृधि-चीन्धि-विति-वृति-नी-शी-सु-सभ्यः कित् ॥ ३८८ ॥
एभ्यः किद् रः प्रत्ययो भवति । ऋजि गतिस्थानार्जनोपार्जनेषु, ऋज्रः-नायकः, इन्द्रः, अर्थश्च । अज क्षेपणे च, अज्रः-वीरः, विक्रान्तः । तञ्चू वञ्चू गतौ, तक्रम् उदश्वित्, वक्र:-कुटिलः, अङ्गारकः, विष्णुश्च । उभयत्र न्यङववादित्वात् कत्वम् । रिपि: सौत्रः, रिप्रं-कुत्सितम् । सृप्लु गतौ, सुप्रः-चन्द्रः, सुप्रं-मधु, सृप्रा-नाम नदी। तृपौच
ौ, तृप्रं-मेघान्तर्धर्मः, आज्यं, काष्ठं, पापं, दुःखं वा । पोच हर्ष-मोहनयोः, प्रं-बलं, दुःखं च, प्रा-बुद्धिः । चुप मन्दायां गतो, चुप्र:-वायुः । क्षिपीत्-प्रेरणे, क्षिप्रं शीघ्रम् । क्षुपि सादने सौत्रः, क्षुप्रं-तुहिनं, कण्ट किगुल्मकश्च । क्षुदृपी संपेषे, क्षुद्रम्-अणु, जलगर्तश्च, क्षुद्रा-मधुकर्यः, क्षुद्रः हिंस्रः । मुदि हर्षे, मुद्रा-चिह्नकरणम् । रुदृक अश्रुविमोचने, रुद्रःशम्भुः । छिपी द्वेधोकरणे, छिद्रं-विवरम् । भिदृ पी विदारणे, भिद्रम्-अदृढम् , भिद्रःशरः। खिदत् परिघाते, खिद्रम्-विघ्नः । खिद्रः-विषाणम् , विषादः, चन्द्रः, दीनश्च ।
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३९६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-३८९-३६३
उन्दैप् क्लेदने, उद्रः-ऋषिः, मत्स्यश्च । संपूर्वात् समुन्दन्ति-आर्दीभवन्ति वेलाकाले नद्योऽस्मादिति समुद्रः-सागरः । भीमादित्वादपादाने । दम्भूट दम्भे, दभ्रः-अल्पः, चन्द्रः, कुशः, कुशलः, सूर्यश्च । शुभि दीप्तौ, शुभ्रः-अवदातः। उम्भत पूरणे, उभ्र -मेघः, पेलवश्च । दशं दशने, दश्रः-दन्तः, सर्पश्च । चिंगट चयने, चिरम् अशीघ्रम् । घिन्ट् बन्धने, सिरारुधिरस्रोतोवाहिनी नाडी। वहीं प्रापणे उह्रः-अनड्वान् । विसच प्रेरणे, विस्रम्-आमगन्धि । वसं निवासे, उस्रः-रश्मिः । बाहुलकात् षत्वं न भवति । उस्रा गौः । शुच शोके, शुक्रः-ग्रहः, मासः, शुक्लश्च, शुक्र-रेतः, लत्वे शुक्लः-वर्णः, कत्वं न्यङक्वादित्वात् । षिधू गत्याम् , सिध्रः-साधुः, वृक्षः, मांसप्रभेदश्च । गृधूच अभिकाङक्षायाम् गृध्रः-श्येनः, लुब्धकः, कङ्कश्च । त्रिइन्धपि दीप्तौ, विपूर्वात् , वीध्रः-अग्निः, वायुः, नभः, निर्मलः, पूर्णचन्द्रमण्डलं च । श्विताङ वरणे, श्वित्रं-श्वेतकुष्ठम् । वृतूङ वर्तने । वृत्रः-दानवःबलवान् , रिपुश्च, वृत्रं-पापम् । णींग प्रापणे, नीरं-जलम् । शीङक स्वप्ने. शीर:-अजगरः पुंग्ट् अभिषवे, सुरः-देवः, सूरा-मद्यम् । षूङौच् प्राणिप्रसवे, सूरः-आदित्यः, रश्मिश्च । ३८८॥
इण-धाग्भ्यां वा ॥ ३८६ ॥
आभ्यां रः प्रत्ययो भवति, स च किद्वा। इंण्क् गतौ, इरा-मदनीयपानविशेषः मेदिनी च, एरा-एडका । डुधांग्क धारणे च । धीर:-सत्त्ववान् , धृतिमांश्च, धारा जलयष्टिः-खङ्गावयवः, अश्वगतिविशेषश्च ॥ ३८९ ।।
चुम्बि-कुम्बि-तुम्बेर्नलुक् च ॥ ३६० ।
एभ्यः किद् र: प्रत्ययो भवति, नकारस्य चैषां लुग् भवति । चुबु वक्त्रसंयोगे, चुन-वक्त्रम् चुम्बः-रश्मिः । कुबु आच्छादने, कुब्र-संकटम् , भग्नपृष्ठः, फल्गुहस्ती, चर्म, गृहाच्छादनं च । तुबु अर्दने, तुब-कुटिलम् ॥ ३९० ।।
भन्देर्वा ॥ ३६१॥
भदुङ सुख-कल्याणयोः इत्यस्माद् रः प्रत्ययो भवति, नकारस्य च लुग वा भवति । भद्रं, भन्द्रं च कल्याणम् , सुखं च ।। ३६१ ।। .
चि-जि-शु-सि-मि-तम्यमर्दीर्घश्च ।। ३६२ ॥
एभ्यो रः प्रत्ययो भवति दीर्घश्चैषां भवति । चिन्ट् चयने, चीरं-जीणं वस्त्र, वल्कलं च । जि अभिभवे ..जोरः-अजाजी, अग्निः, वायुः, अश्वश्च, जोरम्-अन्नम् , लत्वे जील:-चर्मपुटः । शुं गतो, शूर:-विक्रान्तः । बिग्ट् बन्धने, सीरं-हलम् , सीरा हलविलेखिता लेखा। डुमिंग्ट प्रक्षेपणे, मीरः-समुद्रः, मीरंजलम् , मीरा-मांस्पचनी, देवसीमा च । तमूच् काङ्क्षायाम् , ताम्रः-वर्णः, शुल्वं च । अम गतौ, आम्रः-वृक्षः । अर्द गतियाचनयोः, आर्द्र-सरसम् ॥ ३९२॥
चकि-रमि-विकसे-रुच्चास्य ॥ ३६३ ॥
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सूत्र - ३९४-३६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्र विवरणम्
[ ३९७
चक- रमिभ्यां विपूर्वाच्च कसे रः प्रत्ययो भवति । अकारस्य चैषामुकारो भवति । चकि तृप्तिप्रतीघातयोः, चुक्रः - अम्लो रसः, बीजपूरकमिञ्जिका, असुर, निमन्त्रणं च । रमिं क्रीडायाम्, रुम्र: - सुन्दरः, आदित्यसारथि:, ब्राह्मणः, विनाशश्च । कस गती विकुस्र:चन्द्र:, समुद्रश्च विकुत्र- पुष्पितम् । बाहुलकाद् विकसेविकल्पः विकस्रः ।। ३९३ ।।
शदेरूच्च ॥ ३६४ ॥
शद शातने इत्यस्माद्रः प्रत्ययो भवत्यकारस्य चोकारो भवति । शूद्र:चतुर्थो वर्णः ।। ३६४ ॥
कृतेः क्रू-कृच्छौ च ।। ३६५ ।।
कृतैत् छेदने, इत्यस्माद् रः प्रत्ययो भवत्यस्य च क्रू कृच्छ्र इत्यादेशौ भवतः । क्रूरम् - अमृदु, क्रूर:- पापकर्मा । कृच्छ्रम् - दुःखम् ।। ३९५ ।।
खुर-क्षुर-दूर - गौर - विप्र-कुप्र-श्वभ्राम्र-धूम्रान्ध्र रन्ध्रशिलीन्ध्रौड़- पुण्ड्र तीव्र- नीव-शीघो-तु-भुग्र-निद्रा-तन्द्रा-सान्द्र- गुन्द्रा-रिजादयः ॥ ३६६ ॥
1
एतेरप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । खुरत् छेदने, क्षुरत् विलेखने, अनयो रलोपो गुणाभावश्च । खुरः शफः, क्षुर:- नापितभाण्डम् । ननु च खुर-क्षुरशब्दो 'नाम्युपान्त्यप्री-कृ.गृशः कः' [ ५ १. ५४ ] इति केन सिध्यतः । सत्यम्, तत्र कर्तेवार्थ इह तु संप्रदानाच्चान्यत्रोणादय इत्यर्थभेदः, असर्वविषयत्वं वाऽनयोर्ज्ञाप्यते, यथा अदेः परोक्षायां वा घस्लादेशवचनेन घसेः एवमन्यत्रापि स्वयमभ्युह्यम् । दुर्पू र्वादिणो लुक् च दूरं विप्रकृष्टम् । गवते - वृद्धिश्च, गौरः - अवदातः । विपूर्वात् पातेर्लुक् च विप्रः- ब्राह्मणः विविधं प्रातीति वा विप्रः । गुप्च् व्याकुलत्वे, आदेः कत्वं च कुप्रंगहनम् गृहाच्छादनं च । ट्वोश्वि गतिवृद्धयोः अकारः भोऽन्तश्च, श्वभ्रं - बिलम्, आकाशं च । आप्लृट् व्याप्ती, अभादेशश्च अभ्रं मेघः । ुग्श् कम्पने, मोऽन्तश्च, धूम्र:- वर्णविशेषः । अहुङ, गतौ, घश्च अन्ध्रः क्षत्रजातिः रवेः स्वरान्नोऽन्तश्च, रन्ध्र- छिद्रम् । त्रिइन्धेपि दीप्तौ, अस्य च तालव्यादिशिलश्चादिः शिलिन्ध्रम्-उद्भिद्विशेषः । ओणेः डश्च, ओडूः - क्षत्रजातिः । पुणेः स्वरान्नोऽन्तो डश्च, पुण्ड्रः क्षत्रजातिः, तिलकश्च पुण्डैर्वा रूपम् । तिजेव दीर्घश्च तीवतेर्वा, तीव्रः- तीक्ष्णः, उत्कृष्टश्च । नियो वोऽन्तश्च, नीवतेर्वा नीव्र-गृहच्छदिरुपान्तः । श्यैङ ईत्वं यलोपो घश्चान्तः, शीघ्र:त्वरितः । उवेरुषेर्वा गः किच्च, उग्र:- रुद्रः रौद्रश्च । तुदींत् व्यथने गः किच्च तुग्रं शृङ्गम् । भुजंप् पालनाभ्यवहारयोः गः किच्च, भुग्रः- रश्मिसमूहः । णिदु कुत्सायाम्, किन्नलोपश्च निद्रा-स्वापः, तमूच् काङक्षायाम् दोऽन्तश्च तन्द्रा - आलस्यम् । षद् विशरणगत्यव - सादनेषु, अस्य स्वरान्नोऽन्तो वृद्धिश्च सान्द्रं - घनम् । गुदे : स्वरान्नोऽन्तश्च, गुन्द्राजलतृणविशेषः । राजे रज्जेर्वा किच्चेच्चोपान्त्यस्य, रिञः नायकः । आदिग्रहणादन्येऽपि ।। ३६६ ।।
ऋच्छि-चटि-वटि कुटि-कठि वठि-मव्यडि-शी-कृ-शी- भृ-कदिवदि-कन्दि-मन्दि
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३९८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-३९७-४०१
सुन्दि-मन्थि-मञ्जि-पञ्जि-पिञ्जि-कमि-समि-चमि-चमि-भ्रम्यमि-देवि-वासि-कास्यतिजीवि-बबि-कु-शु-दोररः ॥ ३६७॥
एभ्यः अरः प्रत्ययो भवति । ऋच्छत् इन्द्रियप्रलयमूर्तिभावयोः; ऋच्छर:-त्वरा. वान् , ऋच्छरा-वेश्या, कुलटा, त्वरा, अङ गुलिश्च । चट्ण् भेदे, चटर:-तस्करः । वट वेष्टने, वटर:-मधुकण्डरा । कुटत् कौटिल्ये, कोटरं-छिद्रम् । बाहुलकाद् गुणः । कठ कृच्छ्रजीवने, कठरः-दरिद्रः । वठ स्थौल्ये, वठरः-मूर्खः, बृहदेहश्च । मठ मदनिवासयोश्च, मठर:-ऋषिः, अज्ञानी, गौत्रम् , अलसश्च । अड उद्यमे, अडर:-वृक्ष:-शीकृङ सेचने, शीकर:-जललवसेकः । शोभृङ कत्थने, शीभरः-हस्तिहस्तमुक्तो जललवसेकः । कदिः सौत्रः, कदरः-वृक्षविशेषः। बद स्थैर्ये, बदरी-फलवृक्षः। कदुङ, वैक्लव्ये, कन्दर:-गिरिगर्तः । मदुङ स्तुत्यादौ, मन्दर:- शैलः । सुन्दिः सौत्रः शोभायाम् , सुन्दर:-मनोज्ञ: । मन्थश् विलोडने, मन्थर:-मन्दः, खर्वश्च । मजि-पजी सौत्रौ, मञ्जरी-आम्रादिशाखा । गौरादित्वाद् डोः, पञ्जर:-शुकाधवरोधसद्म । पिजुण-हिंसाबलदाननिकेतनेषु, पिञ्जरःपिशङ्गः । कमूङ कान्तौ, कमरः-मूर्खः, कार्मुकं कोमलः, चौरः, कान्तश्च । षम वैक्लव्ये, समर:-संग्रामः । चमू अदने, चमर:-आरण्यपशुः। टुवम् उगिरणे, वमर:-दुर्मेधाः । भ्रमुच अनवस्थाने, भ्रमरः-षट्पदः । अम गतौ, अमरः-सुरः । देवृङ देवने, देवरःपत्यनुजः । वसं निवासे, णौ वासरः-दिवसः, कामः, अग्निः, प्रावृट् च । अन्ये वाशिच् शब्दे इत्यस्मादपि तालव्यान्तादिच्छन्ति, वाशरः-अग्निः, मेघः, दिवसश्च । कासृङ शब्दकुत्सायाम् , कासरः-महिषः। ऋक् गतौ अरर:-कपाटः, बुधः, भ्रमर, गृहं, हरणं, शलाका च । जीव प्राणधारणे, जीवर:-दीर्धायः। बर्ब गतौ, बर्बर:-म्लेच्छजाति:, बर्बरीकुञ्चिताः केशाः । कुंक शब्दे, कबरः-वर्णः, कबरी-वेणिः । शुं गतो, शबरः-म्लेच्छजातिः । शव गतौ इत्यस्येत्यन्ये । टुदुंट उपतापे, दवर:-गुणः ।। ३६७ ।।
अवेध्च वा ॥ ३९८॥
अव रक्षणादौ, इत्यस्माद् अरः प्रत्ययो भवति-धकारश्चान्तादेशो वा भवति । अधरः-हीनः, उपरिभागस्य प्रतियोगी, दन्तच्छदश्च । अवरः-परप्रतियोगी ।। ३९८ ॥
मृयुन्दि-पिठि-कुरि-कुहिभ्यः कित् ॥ ३६६ ॥
एभ्य अरः प्रत्ययः किद् भवति । मृदश् क्षोदे, मृदरः-व्याधिः, अतिकायः, क्षोदश्च । उन्दैप क्लेदने, उदरं-जठरं, व्याधिश्च । पिठ हिंसासंक्लेशयोः, पिठरं-भाण्डम् । कुरत् शब्दे, कुररः-जलपक्षिजातिः । कुहणि विस्मापने, कुहरं-गम्भीरगर्तः ।। ३९९ ।।
शाखेरिदेतौ चातः ॥ ४०॥
शाख व्याप्ती, इत्यस्माद् अरः प्रत्ययो भवति, आकारस्य च इकार-एकारौ भवतः । शिखरम्-अग्रम् , शेखरः-आपीडः ।। ४०० ।।
शपेः फ च ॥ ४०१॥
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सूत्र-४०२-४०५ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[३९९
शपी आक्रोशे, इत्यस्माद् अरः प्रत्ययो भवति । फकारश्चान्तादेशो भवति । शफरः-क्षुद्रमत्स्यः ।। ४०१॥
दमणिद्वा दश्च डः ॥ ४०२ ॥
दमूच् उपशमे, इत्यस्माद् अरः प्रत्ययो भवति, स च णिद् वा दकारस्य च डकारो भवति । डामर:-भयानकः, डमरः स एव ।। ४०२ ॥
जठर-क्रकर-मकर-शंकर-कर-कूपर-तोमर-पामर-प्रामर-प्राबर-सगर-नगर-तगरोदेरा-दर-दर-दर-कदर-कुकुन्दर-गोवेराम्बर-मुखर-खर-डहर-कुञ्जरा-जगरा-दयः ॥ ४०३॥
एते किदरप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । जनेष्ठ च, जठरं-कोष्ठम् । क्रमेः क च, ककरःगौरतित्तिरः । मडके लोपश्च, मकरः-ग्राहः । शंपूर्वात् किरतेर्डिच्च, शङ्करः-रुद्रः । कृपेरुपान्त्यस्य उर्च वा, कर्परं-कपालम् । कूपरं-कफोणी। ताम्यतेरत ओच्च, तोमरःआयुधम् । पातेर्मोन्तश्च, पामरः-ग्रामीणः । प्रपूर्वादमतेः प्रामरः-ग्राम्यमन्दजातिः । प्रपूर्वादत्तोऽन्तश्च प्रामर:-नरपशः । सहिनश्योग च, सगर:-द्वितीयश्चक्रवती। नगरं-पूरम। तङगेर्नलोपश्च, तगर:-वृक्ष-विशेषः । ऊर्जः पराद् दणातेडित् जलुक् च, ऊर्जा-बलेन दृणाति बिभेति । ऊर्दरः-दुर्बलः । अदु बन्धने, नलुक् च, अदरं-वक्षः, वृक्षः, संग्रामः, चञ्चुसमूहः,मातृवाहश्च । शश् हिंसायाम् । दृश् विदारणे अनयोह्र स्वत्वं दश्चान्तः, शृदरः-सर्पः । दर:भयं, विषं च । डुकृग् करणे, दोऽन्तश्च कृदर:-वृक्षः-सर्वकर्मप्रवृत्तो दस्युजन:, कुशूलश्च । कुपूर्वात् स्कुदुङ् आप्रवणे, सलोपश्च, कुकुन्दरं-श्रोणीकूपकः । गोपूर्वाद् वृगो डिद् रश्चादिः, गोर्वरः-करीषः । अमेोऽन्तश्च, अम्बरं-वस्त्रम्, आकाशं च । मुहेः ख च, मखर:वाचालः । खनेडिच्च, खरः-रासभः । दहेरादेर्डश्च, डहरं-हृत्कमलम् । कूज अव्यक्ते शब्दे, हस्वः स्वरान्नोऽन्तश्च, कुञ्जर:-हस्ती। अजेरगश्चान्तः वीभावाभावश्च । अजगर:-शयः। आदिग्रहणात् कोठराडङ्गरशाङ्गरपाण्डरवानरादयो भवन्ति ।। ४०३ ॥
मुदि-गरिभ्यां टिद्गजो चान्तौ ॥ ४०४ ॥
आभ्यां टिद् अरः प्रत्ययो भवति । गकार-जकारौ वा यथासंख्यमन्तौ भवतः। मदि हर्षे, मुद्गरः-प्रहरणविशेषः, मुद्गरी-स्त्री। गूरैचि गती, गूर्जरः-सौराष्ट्रादिः, गूर्जरी स्त्री ॥ ४०४॥
अग्यङ्गि-मदि-मन्दि-कडि-कसि-कासि-मृजि-कञ्जि-कलि-मलिकचिभ्य आरः ॥४०५॥
एभ्यः आरः प्रत्ययो भवति । अग कुटिलायां गतो, अगारं-वेश्म । अगू गतो, अङ्गार:-नितिज्वालः, निर्वाणश्चोल्मुकावयवः, भूमिसुतश्च । मदच हर्षे, मदार:-पानशौण्डः, वराहः, हस्ती, अलसश्च । मदुङ स्तुत्यादौ, मन्दारः वृक्षविशेषः । कडत् मदे, कडारः-पिङ्गलः, विषमदशनश्च । कस गतौ, कसारः-हिंस्रः । कासृङ शब्दकुत्सायाम् ,
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___४०० ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-४०६-४१२
कासार:-पल्वलम् । मृजौक् शुद्धौ, मार्जारः बिडालः। कञ्जिः सौत्रः, कजारः कुशूलजातिः, यूपः, व्यञ्जनं च । कलि शब्दसंख्यानयोः, कलार:-विषमरूपः। मलि धारणे, मलार:-अलसः। मलमिवारा तोदोऽस्येति वा मलारः। कचि बन्धने, कचार:-अपनेयः, तृणबुसपांशुविकारः ॥ ४०५ ।।
त्रः कादिः ॥ ४०६॥ तृ प्लवनतरणयोः, इत्यस्मात् ककारादिरारः प्रत्ययो भवति । तर्कार:-वृक्षः ।४०६। कृगो मादिश्च ॥ ४०७ ॥
करोतेर्मकारादिः ककारादिश्च आरः प्रत्ययो भवति । कमरि:-लोहकारः । कर्कार:-वृक्षः ।।४०७।।
तुषि-कुठिभ्यां कित् ॥ ४०८ ॥
आभ्यां किद् आरः, प्रत्ययो भवति । तषंच तुष्टौ, तुषारः-हिमम् । कुठिः सौत्रः, कुठार:-परशुः ।। ४०८ ॥
कमेरत उच्च ॥ ४० ॥
कमूङ कान्तौ इत्यस्माद् आरः प्रत्ययो भवत्यकारस्य चोकारो भवति । कुमार:महासेनः, अभ्रष्टः, बालश्च ।। ४०९ ।।
कनेः कोविद-कर्बुद-काश्चनाश्च ॥ ४१० ॥
कनै दीप्तौ इत्यस्माद् आरः प्रत्ययो भवति, अस्य च कोविद कर्बुद काञ्चन इत्यादेशा भवन्ति । कोविदारः, कर्बुदारः, काञ्चनारेश्च वृक्षविशेषाः ।। ४१० ।।
द्वार-शृङ्गार-भृङ्गार-कहार-कान्तार-केदार-खारडादयः ॥ ४११ ॥
एते आरप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । उम्भत् पूरणे द्वादेशश्च, द्वारं-द्वाः । श्रयतेस्तालव्यादिः शृङ्गश्च, शृङ्गार:-रसविशेषः, विदग्धता च । भृगो भृङग् च, भृङ्गारः हस्तिमुखाकारगलन्तिका । कलेहंश्च स्वरात् परः, कहारः-उत्पलविशेषः । कमेस्तोऽन्तो दीर्घश्च कान्तारं-अरण्यम् । कदेः सौत्रस्यात एच्च, केदारः-वप्रः । खनेडिच्च, खारी- चतुर्दोणम् । खारडिति डकारो ड्यर्थः । आदिग्रहणात् शिशुमारादयो भवन्ति ।। ४११ ।। ..मदि-मन्दि-चन्दि-पदि-खदि-सहि-वहि-कु-सृभ्य इरः ॥ ४१२ ॥
एभ्य इरः प्रत्ययो भवति । मदैच् हर्षे, मदिरासुरा। मदुङ स्तुत्यादौ, मन्दिरंवेश्म, नगरं च । चदु दीप्त्याह्लादनयोः, चन्दिर:-चन्द्रमाः हस्ती च, चन्दिरं-चन्द्रिकावत्, जलं च । पदिच् गतौ, पदिर:-मार्गः । खद हिंसायाम् , खदिर:-वृक्षविशेषः । षहि मर्षणे, सहिरः-पर्वतः । वहीं प्रापणे, वहिर:-बलीवर्दः । कुंक शब्दे, कविर:-अक्षिकोणः । सृगतो, लत्वे सलिलम्-जलम् ।। ४१२॥
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सूत्र-४१३-४१८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[४०१
शव-शशेरिचातः॥ ४१३ ॥
आभ्याम् इरः प्रत्ययो भवत्यकारस्य चेकारो भवति । शव गतौ तालव्यादिः, शिबिरम्-सैन्यसंनिवेशः । शश प्लुतिगतो, शिशिरं-शोतलम् , ऋतुश्च ।। ४१३ ।।
श्रन्थेः शिथ् च ॥ ४१४ ॥
श्रथुङ, शैथिल्ये, इत्यस्माद् इरः प्रत्ययो भवत्यस्य च शिथ् इत्यादेशो भवति । शिथिरं-श्लथम् । लत्वे-शिथिलम् ।। ४१४ ।।
अशेर्णित् ॥ ४१५॥
अश्नातेरश्नोतेर्वा णिद् इरः प्रत्ययो भवति । आशिर: विष्णुः, आदित्यश्व । प्राशिरः बह्वाशी ।। ४१५ ॥ शुषीषि--बन्धि-रुधि-रुचि-मुचि-मुहि-मिहि-तिमि--मुदि-खिदि-च्छिदि-भिदि
स्थाभ्यः कित् ॥ ४१६ ॥ एभ्यः किदिर: प्रत्ययो भवति । शुषंच् शोषणे, शुषिरं-छिद्रम् । इषत् इच्छायाम् , इषिरं-तृणम् , इषिर:-अग्निः, आहारः क्षिप्रः, सेव्यश्च । बन्धंश् बन्धने, बधिरः- श्रुतिवि. कलः । रुधृपी-आवरणे, रुधिरं-द्वितीयो धातुः । रुचि अभिप्रीत्यां च, रुचिरं-दयितं, दीप्तिमच्च । मुच्लती मोक्षणे, मुचिर:-धर्मः, सूर्यः, मेघश्च । मुहौच वैचित्ये, मुहिरः कन्दर्पः, सूर्यश्च, मुहिर-तमः । मिहं सेचने, मिहिरः-मेघः सूर्यश्च, मिहिरं-तोयम् । तिमच् आर्द्रभावे, तिमिरं-तमः, तोयं, रोगश्च कश्चित् । मुदि हर्षे, मुदिर:-मेघः, सूर्यश्च । खिदंत् परिघाते, खिदिर:-त्रास: तस्करश्च । छिपी द्वधीकरणे, छिदिरः उन्दुरः, अग्निश्च, छिदिरं-शस्त्रम् । भिदृपी विदारणे, भिदिर:-अशनिः, भेदश्च । ष्ठां गतिनिवृत्तौ, स्थिरःअचलः ॥ ४१६ ।।
स्थविर-पिठिर-स्फिराजिरादयः ।। ४१७॥
एते किदिर प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते, तिष्ठतेोऽन्तो ह्रस्वश्च । स्थविरः-वृद्धः । पचतेरत इत्वं ठश्च पिठिर-साधनभाण्डम् , पटेर्वा रूपम् । स्फायतेडिच्च, स्फिरः-स्फारो वृद्धिश्च । अजेर्वीभावाभावश्च, अजिरम्-अङ्गणम् , नगरं, देववेश्म च आदिग्रहणादन्येऽपि ॥४१७॥
क-श-प पूग-मञ्जि-कुटि-कटि-पटि-कण्डि-शोण्डि-हिंसिभ्यः ईरः॥ ४१८ ॥
एभ्य ईरः प्रत्ययो भवति । कृत् विक्षेपे, करीर:-वनस्पतिविशेषः, वंशाद्यङ कुरश्च । शश हिंसायाम , शरीरं-वपुः । पश-पालनपुरणयोः, परीरं-बलं, लाङ्गलमुखं च । पुग्श पवने, पवीरं-रङ्गस्थानं, फलं, पवित्रं-बोजावपनं च । मञ्जिः सौत्रः, मजीरं-नूपुरः । कुटत् कौटिल्ये, कुटीरम्-आलयः, कर्कटकः, चन्द्राश्रय राशिश्च, कोटीरं-मुकुटः । बाहुलकाद् गुणः। कटे वर्षावरणयोः, कटीरं-जनपदः, जघनं जलं च। पट गतो, पटीर:-कन्दर्पः,
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४०२]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-४१९-४२४
पटीरं-कामुकम् , स्फिक् च । कडु मदे, कण्डीरं-हरितकम् । शौण्ड गर्वे, शौण्डीर:गर्वितः, सत्त्ववान् , तीक्ष्णश्च । हिसुप् हिंसायाम् , हिंसीरः-श्वापदः, हिंस्रश्च ।। ४१८ ।।
घसि-वशि-पुटि-कुरि-कुलिकाभ्यः कित् ॥ ४१६ ।।
एभ्यः किद् ईरः प्रत्ययो भवति । घस्ल अदने, क्षीरं-दुग्धं, मेघश्च । वशक कान्तौ, उशीरं-वीरणीमूलम् । पुटत् संश्लेषणे, पुटीर:-कूर्मः । कुरत् शब्दे, कुरीरं-मैथुनं, वेश्म च, कुरीर:-मालाविशेषः, कम्बलश्च । कुल बन्धुसस्त्यानयोः, कुलीरः कर्कटः । के शब्दे, कीरः-शुकः, काश्मीरकश्च ।। ४१६ ।।
कशेर्मोऽन्तश्च ॥ ४२०॥
कश शब्दे इत्यस्मात्तालव्यान्ताद् ईर: प्रत्ययो मश्चान्तो भवति । कश्मीराजनपद: ।। ४२०॥
वनि-वपिभ्यां णित् ॥ ४२१ ॥
आभ्यां णिद् ईरः प्रत्ययो भवति । वन-भक्ती, वानीर:-वेतसः । डुवपी बीजसंताने वापीर:-मेघः, अमोघनिष्पत्तिः क्षेत्रं च ।। ४२१ ।।
जम्बीराभीर-गभीर-गम्भीर-कुम्भीर-भडीर-भण्डीर-डिण्डीर-किर्मीरादयः॥४२२॥
एते ईरप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते जनेर्बोऽन्तश्च, जम्बीर:-वृक्षविशेषः । आप्नोतेर्भश्च आभीर:-शूद्रजातिः । गमेर्भः स्वरान्नस्तु वा गभीरः-अगाधः, अचपलश्च । गम्भीरः स एव । स्कुम्भेः सौत्रात् सलोपश्च, कुम्भीरः-जलचरः । भडुङ परिभाषणे, अस्य नलुक च वा, भडीरः, भण्डीरश्च-योद्धवचने । डीडो डित् द्वित्वं पूर्वस्य नोऽन्तश्च, डिण्डीर:-फेनः । किरतेर्मोऽन्तश्च, कीर्मीरः-कबुरः । आदिग्रहणात् तृणीर-नासीर-मन्दीर करवीरादयो भवन्ति ॥ ४२२ ॥
वाश्यसि-वासि-मसि-मथ्युन्दि-मन्दि-चति-चक्यङ्कि-कत्रि-चकि-बन्धिभ्य उरः॥ ४२३ ।।
एभ्य उरः प्रत्ययो भवति । वाशिच् शब्दे वाशुरः-शकुनिः, गर्दभश्च, वाशुरारात्रिः । असूच क्षेपणे, असुरः-दानवः । वासण उपसेवायाम् वासुरा, रात्रिः मसैच् परिमाणे, मसुरा-पण्यस्त्री; मसुरं-चर्मासनम् , धान्यविशेषश्च । मथे विलोडने, मथुरा-नगरी । उन्दैप् क्लेदने उन्दुरः-मूषिकः । मदुङ स्तुत्यादौ, मन्दुरा-वाजिशाला। चतेग याचने चतुरः-विदग्धः । चङ्किः सौत्रः, चङ्कति चेष्टते, चङ कुरः-रथः, अनवस्थितश्च । अकुङ लक्षणे, अङकुरः-प्ररोहः, तरुप्रतानभेदश्च । घञ्युपसर्गस्य बहुलमिति बहुलवचनाद् दीर्घत्वे अङ करः। कर्ब गतौ, कर्बुर:-शबलः । चकि तृप्ति-प्रतीघातयोः, चकुर:-दशनः । बन्धंश बन्धने, बन्धुरः-मनोज्ञः, नम्रश्च ॥ ४२३ ।।
मके लुक् वोच्चास्य ।। ४२४ ॥
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सूत्र-४२५-४२९]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[४०३
मकुङ मण्डने, इत्यस्मादुरः प्रत्ययो भवति, नकारस्य लुक अकारस्य चोकारो वा भवति । मुकुरः-आदर्शः, मुकुलं च, मुकुर:-आदर्शः, कल्कः, बालपुष्पं च ।। ४२४ ॥
विधेः कित् ॥ ४२५ ॥ विधत् विधाने, इत्यस्मात् किद् उरः प्रत्ययो भवति । विधूरं-वैशसम् ।। ४२५ ।।
श्वशुर-कुकुन्दुर-ददुर-निचुर-प्रचुर-चिकुर-कुकुर--कुक्कुर--कुकुर--शकुर-नूपुरनिष्ठुर-विथुर-मद्गुर-वागुरादयः ॥ ४२६ ॥
___ एते किद् उरप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । आशुपूर्वात् शुपूर्वाद्वा अश्नोतेरश्नातेर्वा आकारलोपश्च । श्वशुरः-जम्पत्योः पिता। कुपूर्वातु स्कुदुङ आप्रवणे, इत्यस्मात् सलुक् च, कुकुन्दुरौ-नितम्बकूपौ। दृणातेर्दोऽन्तश्च, दर्दुर:-मण्डूकः, मेघश्च । निपूर्वात् प्रपूर्वात् चिनोतेः चरतेर्वा डिच्च, निचुरः-तरुविशेषः । लत्वे निचुलः, प्रचुरं-प्रायः। चकेरिच्चास्य चिकुरं युवतीनामीषन्निमिलितमक्षि, चिकुराः-केशाः । कुके: कोन्तो वा, कुकुरः-यादवः, कुक्कुरः-श्वा, किरः कुर् कोऽन्तश्च कुकुरः-शश हिंसायाम् , गुणः कोऽन्तश्च शकु रस्तरुणः । गत स्तवने, पोऽन्तश्च । नपूर:-तुलाकोटिः । निर्वात तिष्ठतेः निष्ठरः-कर्कशः, निष्ठरं काहलम् । व्यथेविथ् च, व्यथन्तेऽस्माज्जनाः इत्यापादानेऽपि विथुर:-राक्षसः । मदिवा. त्योर्गोऽन्तश्च, मद्गुरः-मत्स्यविशेषः, वागुरा-मृगानायः । आदिग्रहणान्मन्यतेर्धश्च, मधुरःरसविशेष इत्यादि ॥ ४२६ ।।
मीमसि-पशि-खटि-खडि-खर्जि-कर्जि-सर्जि-कृपि-वल्लि-मणिडभ्य ऊरः ॥४२७॥ - एभ्य ऊरः प्रत्ययो भवति । मीङ च हिंसायाम् , मयूरः-शिखी । मह्यां रौति मयूर इति पृषोदरादिषु संज्ञाशब्दानामनेकधा व्युत्पत्ति लक्षयति । मसैच परिमाणे, मसूर:-अवरधान्यजातिः, चर्मासनं च । पशिः सौत्रः, पश्यते गम्यते इति पशूर:-ग्रामः । खट काङ क्षे, खट्रर:-मणिविशेषः । खडण भेदे, खरः-खुरलोस्थानम् । खज माजने च, खजूर:-वृक्षविशेषः। कर्ज व्यथने, कर्जूर:-स एव, मलिनश्च । सर्ज अर्जने, सर्जूर:-अहः । कृपौङ सामर्थ्य, कर्पूर:-गन्धद्रव्यम् । वल्लि संवरणे, वल्लूरः-शुष्कमांसम् । मडु भूषायाम् , मण्डूरः धातुविशेषः ।। ४२७ ।।
महि कणि-चण्यणि-पल्यलि-तलि-मलि-शलिभ्यो णित् ॥ ४२८ ॥
एभ्यो णिद् ऊरः प्रत्ययो भवति । मह पूजायाम् , माहूरः-शैलः। कण गती काएरः-नागः। चण हिंसादानयोश्च, चाणूर -मल्लो विष्णुहतः । अण शब्दे, आणूरः-- ग्रामः । पल गती, पालूरं नाम नगरमान्ध्रराज्ये । अली भूषणादौ, आलूरः-विटः । तलण् प्रतिष्ठायाम् , तालूर:-जलावर्तः। मलि धारणे, मालूरः-दानवः बिल्वश्च शल गतौ, शालूर:-दुर्दुरः ।। ४२८॥
स्था-विडे कित ॥ ४२६ ।। ।
आभ्यां किद् ऊरः प्रत्ययो भवति । ष्ठां गतिनिवृत्तौ । स्थूरः-बठरः, उच्चश्च, स्थूरा-जङ्घाप्रदेशः विड आक्रोशे, विडूरः-बालवाये ग्रामः ।। ४२६ ॥
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४०४ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-४३०-४३६
सिन्दूर-कच्चूर-पत्तूर-धुत्तूरादयः ॥ ४३० ॥
एते ऊरप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । स्यन्देः सिन्द् च, सिन्दूरं-चीनपिष्टम् । करोतेश्चोऽन्तश्च, कर्चुर:-औषधविशेषः । पतेस्तोऽन्तश्च, पत्तुरं-गन्धद्रव्यम् । धुवो द्विरुक्तस्तोऽन्तो ह्रस्वश्च, धुत्तूरः-उन्मत्तकः, दधातेर्धत्तूर इत्यन्ये । आदिग्रहणात् कस्तूरहार हूरादयो भवन्ति ॥ ४३०॥
कु-गु-पति-कथि-कुथि-कठि-कुठि-कुटि--गडि--गुडि--मुदि--मूलि--दंशिभ्यः केरः ।। ४३१ ॥
___एभ्यः किद् एरः प्रत्ययो भवति । कुंङ शब्दे, कुबेर:-धनद: गुत् पुरीषोत्सर्गे, गुबेरं-युद्धम् । पत्लु गतौ, पतेर:-पक्षी, पवनश्च । कथण वाक्यप्रबन्धे, कथेर:-कथकः, कुहकः, शकुन्तश्च । कुथच् पूतिभावे, कुथेरः-शिडाकीसंभारः। कठ कृच्छजीवने कठेर:दरिद्रः । कुठिः सौत्रः, कुठेर:-निःसृतसारः, अर्जकश्च । कुटत् कौटिल्ये, कुटेर:-शठः । गड सेचने, गडेर:-मेघः प्रस्रवणशीलश्च । गुडत् रक्षायाम् , गुडे र:-राजा पण्यं च बालभक्ष्यम् । मुदि हर्षे, मुदेरः-मूर्खः । मूल प्रतिष्ठायाम् , मूलेर:-वनस्पतिः, मूलेरं-पण्यम् । दंशं दशने, दशेर:-सर्पः, सारमेयः, जनपदश्च ।। ४३१ ।।
शतेरादयः ॥ ४३२॥
शतेर इत्यादयः शब्दाः केरप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । शद्लु शातने तश्च, शतेर:वायुः, तुषारश्च । आदिग्रहणाद् गुधेर-शृङबेर-नालिकेरादयो भवन्ति ।। ४३२ ॥
कठि-चकि-सहिभ्य ओरः ॥ ४३३ ॥
एभ्य ओरः प्रत्ययो भवति । कठ-कृच्छजीवने; कठोर:-अमृदुः, चिरंतनश्च । चकि तृप्तौ च, चकोरः-पक्षिविशेष: पर्वतविशेषश्च । षहि मर्षणे, सहोरः-विष्णुः, पर्वतश्च ॥ ४३३ ।।
कोर-चोर-मोर-किशोर-धोर-होरा-दोरादयः ।। ४३४ ॥
कोर इत्यादयः शब्दा ओरप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । कायतेश्चरतेम्रियतेश्च डिच्च, कोर:-बालपुष्पम् , चोरः-तस्करः । मोरः-मयूरः । कृशेरिच्चोपान्त्यस्य, किशोर:-तरुणः, बालाश्वश्च । हन्तेडित् घश्च घोरं-कष्टम् । हग हरणे, होरा-निमित्तवादिनां चक्ररेखा । डुदांग्क् दाने, दोच् छेदने वा, दोरः-कटिसूत्र-तन्तुगुणश्च । आदिग्रहणादन्येऽपि । ४३४ ।।
कि-श-वृभ्यः करः ॥ ४३५ ॥
एभ्यः करः प्रत्ययो भवति । किः सौत्रः, केकर:-वक्रदृष्टिः । शृश् हिंसायाम् , शर्करा-मत्स्यण्डिकादिः, कर्कशः, क्षुद्रापाषाणावयवश्च । वृन्ट् वरणे, वर्कर:-छागशिशुः ॥ ४३५॥
सू-पुषिभ्यां कित् ॥ ४३६ ॥
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सूत्र-४३७-४४१ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[४०५
आभ्यां कित् करः प्रत्ययो भवति । पूत् प्रेरणे, सूकर:-वराहः । पुष पुष्टौ, पुष्करं, पद्म, तूर्यमूखं, हस्तिहस्ताग्रम् , आकाशं, मुरजः-तीर्थनाम च ॥ ४३६ ॥
अनि काभ्यां तरः ॥ ४३७॥
आभ्यां कित् तरः प्रत्ययो भवति । अनक प्राणने, अन्तरं-बहिर्योगोपसंव्यानयोः, छिद्रमध्यविरहविशेषेषु च । के शब्दे, कातरः-भीरुः ॥ ४३७ ।।
इण-पूभ्यां कित् ॥ ४३८ ॥
आभ्यां कित् तरः प्रत्ययो भवति । इण्क् गतो, इतर:-निर्दिष्टप्रतियोगी । पूग्श् पवने, पूतर:-जलतन्तुः ।। ४३८ ॥
मी-ज्यजि-मा-मद्यशौ-वसि किभ्यः सरः ॥ ४३६ ॥ ___एभ्यः सरः प्रत्ययो भवति । मीङच् हिंसायाम् , मेसरः-वर्णविशेषः । जि अभिभवे, जेसर:-शूरः । अज क्षेपणे च, वेसरः-अश्वतरः । वेसृ गती, इत्यस्य वा जठरेत्यादिनिपातनादरे रूपम् । मांक माने, मासरः-आयामः । मदेच् हर्षे, मत्सरः-क्रोधविशेषः । अशौटि व्याप्ती, अक्षरं वर्णः, मोक्षपदम् , आकाशं च । अक्षर्वा अरे रूपम् । वसं निवासे, वत्सरः, संवत्सरः, परिवत्सरः, अनुवत्सरः, विवत्सरः, उद्वत्सरः-वर्षाभिधानानि । इडामानेन वसन्त्यत्र कालावयवा इति इडवत्सरः, इडया मानेन वसन्त्यत्रेति इडावत्सर:-वर्षविशेषाभिधाने। परिवत्सरादीन्यपि वर्षविशेषाभिधानानीत्येके । कि इत्यदादौ स्मरन्ति केसरःसिंहसटः, पुष्पावयवः, बकुलश्च । बाहुलकान्न षत्वम् ।। ४३९ ।।
कु-धृ-तन्यषिभ्यः कित् ॥ ४४० ॥
एभ्यः कित् सरः प्रत्ययो भवति । डुकृग् करणे, कृसरः कृसरा वा विलेपिकाविशेषः वर्णविशेषश्च । धूत् विधूनने, धूसर:-भिन्नवर्णः, वायुः, धान्यविशेषश्च । तनूयी विस्तारे, तसरः-कौशेयसूत्रम् । ऋषेत् गतौ, ऋक्षर:-कण्टकः, ऋत्विक च, ऋक्षरा-तोयधारा ।४४०॥
क-ग-श-द-वृग-चति-खटि-निषदिभ्यो वरट् ।। ४४१ ॥
एभ्यष्टिद्वरः प्रत्ययो भवति । कृत् विक्षेपे, कर्बर:-व्याघ्रः, विष्किरः, अञ्जलिश्च, कर्बरी-भूमिः, शिवा च । गृत् निगरणे, गर्वरः-अहंकारः महिषश्च, गर्वरी-महिषी, संख्या च । शृश् हिंसायाम् , शर्वरः-सायाह्नः-रुद्रः, हिंस्रश्च, शर्वरं-तमः, अन्नं च, शर्वरी-रात्रिः । दृश् विदारणे, दर्वरं-वज्रम् , दर्वरी-सेवा । वृगट वरणे, वर्वर:-कामः, चन्दनं, केशविशेष:-लुब्धकश्च, वर्वरी-नदी, भार्या च । चतेग याचने, चत्वरं-चतुष्पथम् अरण्यं च । चत्वरी-रथ्या, देवता, वेदिश्च । खट काङ क्षे, खट्वरं- रससंकीर्णशाकपाकः । कटे वर्षावरणयोः, कट्वरा-व्यालाश्वः, कट्वरी-दधिविकारः । षद्ल विशरणादी, निपूर्वः, निषद्वरः- कर्दमः-वह्निः, कर्मकरः, कन्दर्पः, इन्द्रश्च । निषद्वरम्-आसनम् ,-निषद्वरी-प्रपा, रात्रिः, प्रमदा इन्द्राणी च ।। ४४१ ।।
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४०६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम् ।
४४२-४४७
अश्नोतेरीच्चादेः ॥ ४४२॥
अशौटि व्याप्ती, इत्यस्माद्वरट् प्रत्ययो भवति, ईकारश्चादेर्भवति । ईश्वरः-विभुः, ईश्वरी-स्त्री ॥ ४४२ ॥
नी-मी-कु-तु-चेर्दीर्घश्च ॥ ४४३ ॥
एभ्यो वरट् प्रत्ययो दीर्घश्चैषां भवति । णींग प्रापणे, नीवर:-पुरुषकारः । मींग्श् हिंसायाम्, मीवरः-हिंस्रः, समुद्रश्च । कुंड, शब्दे, कूवर:-रथावयवः तुक वृत्त्यादिषु, तूवरः-मन्दश्मश्रुः, अजननीकश्च । चिन्ट् चयने, चीवरं मुनिजनवासः, निःसारकथा च॥ ४४३ ॥
तीवर-धीवर-पीवर-छित्वर-छत्वर-गहरोपहर-संयद्वरोदुम्बरादयः ॥ ४४४ ॥
एते वरट् प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । तिभ्यतेस्ती च तीक्तेर्वाऽरे तीवरं जलं, व्यञ्जनं च । ध्यायते/ च । धीवरः, कैवर्तः, प्याय: प्यैङो वा पी च, पीवतेर्वा किदरः, पोवरःमांसलः । छिनत्तेस्तः-किच्च, छित्वरः-शठः, जर्जरः, पिटकश्च छादेणिलुकि ह्रस्वश्च, छत्वरः, निर्भर्त्सकः, निकुञ्जश्च । छत्वरं-कुड्यहीनं गृहम् , शयनप्रच्छदः, छदिश्च । गुहेरच्चोतः गह्वरं-गहनं, महाबिलं, भयानक, प्रत्यन्तदेशश्च । उपपूर्वात् ह्वो वादेलुं क च, उपह्वरं-संधिः, समीपं, रहःस्थानं च । सम्पूर्वाद्यमेर्दश्च, संयद्वरः-रणः, संयमी, नृपश्च । उन्देः किदुम् चान्तः, उदुम्बरः-वृक्षविशेषः। आदिग्रहणाद् उम्बर-शम्बरादयो भवन्ति ॥४४४ ॥
कडेरेवराङ्गरौ ।। ४४५॥ .
कडत् मदे, इत्यस्माद् एवर अङ्गर इति प्रत्ययौ भवतः । कडेवरं-मृतशरीरम् , लत्वे कलेवरम् । कडङ्गरः-वनस्पतिः ।। ४४५ ।।
त्रट् ॥ ४४६ ॥
सर्वधातुभ्यस्त्रट प्रत्ययो भवति । छादयतीति छत्रम् छत्री वा धर्मवारणम् । पातीति पात्रम् ऊजितगुणाधारः साध्वादिः। पात्री-भाजनम् । स्नायतेः-स्नानं स्नानम् । राजते इति-राष्ट्र-देशः । शिष्यतेऽनेन-शास्त्रं-ग्रन्थः । अस्च क्षेपणे, अस्त्रं-धनुः ।।४४६।।
जि-भू-सू-भ्रस्जि-गमि-नमि-नश्यशि-हनिविषेद्धिश्च ।। ४४७ ॥
एभ्यस्त्रट प्रत्ययो भवति, वृद्धिश्चैषां भवति । जि अभिभवे, जैत्र:-जयनशील:, जैत्र-छूतम् । टुडुभृग्क् पोषणे च, भात्र-पोषः, यश्च भृति गृहीत्वा वहति । सृ गतौ, सात्रःआलयः । भ्रास्जोंत् पाके, भाष्ट्रम्-अम्बरीषम् । गम्लौंगतो, गान्त्रं-मन:, शरीर, लोकश्च । णमं प्रह्वत्वे, नान्त्रं-शिरः, शाखा, वैचित्र्यं च । नशौच अदर्शने नशो धुटोति नोन्तः, नांष्ट्रायातुधानाः। अश्नोतेरश्नातेर्वा आष्ट्रम्-आकाशः, रश्मिश्च । हनक हिंसागत्योः, हान्त्रंरक्षः, युद्धं, वधश्च । विष्लुको व्याप्ती, वैष्ट्र:-विष्णु , वायुश्च । वैष्टं- यकृत् , त्रिदिवं, वेश्म च ।। ४४७॥
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सूत्र-४४८-४५३ ]
स्वपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४०७
दिवेधौं च ॥ ४४८॥
दीव्यतेस्त्रट् प्रत्ययो भवति, द्यौ चास्यादेशो भवति । द्योत्रं-त्रिदिवं, ज्योतिः, विमानं, प्रमाणं, प्रतोदश्च ।। ४४८ ॥
सू-मू-खन्युषिभ्यः कित् ॥ ४४६ ॥
एभ्यः कित् त्रट् प्रत्ययो भवति । पुत् प्रेरणे, सूत्र-तन्तुः, शास्त्रं च । मूङ बन्धने, मूत्र-प्रस्रावः । खनूग अवदारणे, खात्रं-कूर्दालः, तडाकं, ग्रामाधानमृत् , चौरकृतं च छिद्रम् । उष् दाहे, उष्ट्र:-क्रमेलकः ।। ४४६ ।।
स्त्री॥४५॥ स्यतेः सूते: स्त्यायतेस्तृणातेर्वा त्रट् स्यात् डिच्च । स्त्री-योषित् ।। ४५० ॥
हु-या-मा-श्रु-वसि-भसि-गु-बी-पचि-वचि-धृ-यम्यमि-मनि-तनि-सदि--छादि-- क्षि-क्षदि-लुपि-पति-धूभ्यस्त्रः ।। ४५१ ।।
एभ्यस्त्रः प्रत्ययो भवति हुंक दानादनयोः, होत्रं-हवनं, होत्रा-ऋचः । यांक प्रापणे, यात्रा-प्रस्थानं यापनम् , उत्सवश्च । मांक माने, मात्रा-प्रमाणं, कालविशेषः, स्तोकः, गणना च । श्रृंट श्रवणे, श्रोत्रं-कर्णः । वसिक आच्छादने, वस्त्रं-वासः। भसिं जुहोत्यादौ स्मरन्ति, भस्त्रा चर्ममयम्-आवपनम् , उदरं च । गुंड शब्दे, गोत्र:-पर्वतः, गोत्रा-पृथ्वी, गोत्रम्-अन्वयः । वींक प्रजननादी, वेत्रं-वीरुद्विशेषः । डुपची पाके, पक्त्रं-पिठरं, गार्हपत्यं च । वचंक भाषणे, वक्त्रम्-आस्यम् , छन्दोजातिश्च । धृडत् स्थाने, धत्र:-धर्मः, वृक्षः, रविश्च । धत्रं-नभः, गृहसूत्रं च, धर्का-द्यौः । यम उपरमे, यन्त्रं-शरीरसंधानम्-अरघट्टादि च । अम गतौ, अन्न-पुरीतत् । मनिंच ज्ञाने, मन्त्र:-छन्दः । तनूयी विस्तारे, तन्त्र-प्रसारितास्तन्तवः, शास्त्रं-समूहः, कुटुम्ब च । षद्लु विशरणगत्यवसादनेषु, सत्रं-यज्ञः, सदः, दानं छद्म, यागविशेषश्च । छदण्-संवरणे, छादयतीति-छात्रः-शिक्षकः । क्षित् निवासगत्योः, क्षेत्र-कर्षणभूमिः, भार्या, शरीरम् , आकाशं च । क्षद संरवणे सौत्रः, क्षत्रं-राजबीजम् । लुप्लुती छेदने, लोत्रम्-अपहृतं द्रव्यम् । पत्लु गतो, पत्र-पर्णं, यानं च । धूग्श् कम्पने, धोत्रं-रज्जुः ।। ४५१ ॥
श्वितेवश्च मो वा ४५२ ॥
श्विताङ् वर्णे, इत्यस्मात् त्रः प्रत्ययो भवति, वकारस्य च मकारो वा भवति । श्मेत्रं च श्वेत्रं च-रोगौ ।। ४५२॥
गमेरा च ॥ ४५३॥
गम्लगती इत्यस्मात् त्रः प्रत्ययो भवति, आकारश्चान्तादेशो भवति । गात्रंशरीरम् । गात्रा-खट्वावयवः ।। ४५३ ।
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४०८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
-४५४-४६०
चि-मि-दि-शंसिभ्यः कित् ॥ ४५४ ॥
एभ्यः कित् त्रः प्रत्ययो भवति । चिन्ट् चयने चित्रम्-आश्चर्यम् , आलेख्यं, वर्णश्च । त्रिमिदांच् स्नेहने, मित्र-सुहृत् , अमित्रः- शत्रुः, मित्र:-सूर्यः । शंसू स्तुतौ च, शस्त्रं-स्तोत्रम् , आयुधं च ।। ४५४ ।।।
पुत्रादयः ॥ ४५५ ॥
पुत्र इत्यादयः शब्दाः त्रप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । पुनाति पवते च पितृपूतिमिति पुत्रःसुतः, यदाहुः-"पूतीति नरकस्याख्या दुःखं च नरकं विदुः।" पुन्नाम्नो नरकात् त्रायत इति व्युत्पत्तिस्तु संज्ञाशब्दानामनेकधा व्याख्यानं लक्षयति । आदिग्रहणादन्येऽपि ।। ४५५ ॥
वृग-नक्षि-पचि-बच्यमि-नमि-बमि-बपि-बधि-यजि-पति-कडिभ्योऽत्रः ॥४५६।
एभ्यः अत्रः प्रत्ययो भवति । वृण्ट वरणे, वरत्रा-चर्मरज्जुः । णक्ष गतौ नक्षत्रम्अश्विन्यादि । डुपचीष् पाके, पचत्रं-रन्धनस्थाली। वचंक्-भाषणे, वचत्रं वचनम् । अम गतौ, अमत्रं-भाजनम् । णमं प्रह्वत्वे, नमत्रं-कर्मारोपकरणम् । टुवम् उगिरणे, वमत्रं. प्रक्षेपः । डुवपी बीजसंताने, वपत्रं-क्षेत्रम् । बधि बन्धने, बधत्रम्-आयुधं, वस्त्रं, विष, शूरश्च । यजी देवपूजादौ, यजत्र:- यज्वा, यजत्रम्-अग्निहोत्रम् । पत्ल गतौ, पतत्रं-बहवाहनं व्योम च । कडत् मदे, कडचं दाराः, जघनं च ।। ४५६ ।।
सोविदः कित ॥ ४५७॥
सुपूर्वाद् विदः किद् अत्रः प्रत्ययो भवति । सुष्ठु वेत्ति विन्दति विद्यते वा सुविदत्रंकुटुम्ब, धनं, मङ्गलं च ॥ ४५७ ।।
कृतेः कृन्त च ॥ ४५८ ॥
कृतैच् छेदने, इत्यस्माद् अत्रः प्रत्ययो भवति । अस्य च कृन्तादेशो भवति । कृन्तत्रः-मशकः । कृन्तत्रं-छेदनं, लाङ्गलाग्रं च ।। ४५८ ।। ....बन्धि-वहि-कट्यश्यादिभ्य इत्रः ॥ ४५६ ।
एभ्यः इत्रः प्रत्ययो भवति । बन्धंश् बन्धने, बन्धित्रं-मन्थ । वहीं प्रापणे, वहिवंवाहनं च । कटे वर्षावरणयोः, कटि-लेख्यचर्म । अशौटि व्याप्तौ, अशश् भोजने वा। अशित्रं रश्मिः , हवि: अग्निः , अन्नपानं च । आदिग्रहणाद् लुनाते: लवित्रम्-कर्मद्रव्यम् , पुनातेः-पवित्रं-मङ्गल्यम् । भटतेः भटित्रं-शूले, पक्वमांसम् । कडतेः कडिनं-कटि त्रमेव । अमतेः अमित्रः-रिपुः इत्यादि ।। ४५९ ।।।
भू-ग-वदि-चरिभ्यो णित् । ४६० ॥
एभ्यो णिद् इत्र: प्रत्ययो भवति । भू सत्तायाम् , भावित्रं त्रैलोक्यं, निधानं, भद्रं च । गृत् निगरणे, गारित्रं-नभः, अन्नपानम् , आश्चर्य च । वद व्यक्तायां वाचि, वादित्रम्
चर भक्षणे। चारित्रं-वृत्तं, स्थित्यभेदश्च ।। ४६० ।।
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सूत्र-४६१-४६५ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[४०९
तनि-तृ-ला-पात्रादिभ्य उत्रः ॥ ४६१ ॥
एभ्य उत्रःप्रत्ययो भवति । तनूयी विस्तारे, तनुत्रं-कवचम् । त प्लवनतरणयोः, तरुत्रं-प्लवः, घासहारी च । लांक आदाने, लोत्रम्-अपहृतद्रव्यम् । पां पाने, पोत्रं हलसूकरयोमुखम् । श्रङ, पालने, त्रोत्रम्-अभयक्रिया। आदिग्रहणाद् वृणोतेः वरुत्रम्-अभिप्रेत. मित्यादयः ।। ४६१ ॥
शा-मा-श्या-शक्यम्ब्यमिभ्यो लः॥ ४६२ ॥
एम्यो ल: प्रत्ययो भवति । शोंच तक्षणे, शाला-सभा। मांक माने, माला-स्रक । श्यङ गतौ, श्याल:-पत्नीभ्राता । शक्लट शक्ती, शक्ल:-मनोज्ञदर्शनः, मधुरवाक् , शक्तश्च । अम्बुङ शब्दे, अम गती अम्ब्लः , अम्लश्च--रसः ।। ४६२ ॥ . शुक-शी-मृभ्यः कित् ॥ ४६३ ॥
एभ्यः किद् लः प्रत्ययो भवति । शुक गती, शुल्कः-सितो वर्णः । शीङक् स्वप्ने, शील-स्वभावः, व्रतं, धर्मः, समाधिश्च । मुङ बन्धने मूलम्-वृक्षपादावयवः, आदिः, हेतुश्च ।। ४६३ ।।
भिल्लाच्छभल्ल-सौविदल्लादयः ॥ ४६४ ॥
भिल्लादयः शब्दाः किद् लप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । भिदेर्लश्च भिल्ल:- अन्त्यजाति:। अच्छपूर्वाद् भलेः, अच्छभल्लः ऋक्षः, सुपूर्वाद्विदेरलोऽन्तः सोश्च वृद्धिः । सौविदल्लः कञ्चुकी । आदिग्रहणादल्लपल्ली रल्लादयोऽपि भवन्ति ।। ४६४ ।।
मृदि-कन्दि-कुण्डि-मण्डि-मङ्गि-पटि-पाटि-शकि-केव-देवृ-कमि-यमि-शलि-कलिपलि-गुध्वश्चि-चश्चि-चपि-वहि-दिहि-कुहि-त-सृ-पिशि-तुसि-कुस्यनि-द्रमेरलः ॥४६॥
एभ्यः अलः प्रत्ययो भवति । मृदश् क्षोदे, मर्दलः-मुरजः । कटु रोदनाह्वानयोः, कन्दलः-प्ररोहः । कुडुङ दाहे, कुण्डलं-कर्णाभरणम् । मडु भूषायाम् , मण्डलं-देशः, परिवारश्च । मगु गतौ, मङ्गलं शुभम् । पट गती, पटलं-छदिः, समूहः, आवपनं, नेत्ररोगश्च । ण्यन्तात् पाटल:-वर्णः । शक्लट् शक्ती, शकलं-भित्तम असारं च, केवृङ सेवने, केवलं परिपूर्ण ज्ञानम् , असहायं च । देवृङ देवने, देवल:-ऋषिः, देवत्रातः, क्रीडनश्च । कमूङ-कान्तौ, कमलं पद्मम् । णिङि, कामलः-नेत्ररोगः । यमू उपरमे, यमलं युग्मम् । शल गतौ, शललं-सेधाङ्गरुहशडकुः । कलि शब्दसंख्यानयोः, कललं-गर्भप्रथमावस्था । पल गतौ, पललम्-भृष्ट तिलातसीचूर्णम् । गुंङ शब्दे, गवलः महिषः । धूम्श् कम्पने, धवल:श्वेतः । अञ्चू गतौ च, अञ्चल: वस्त्रान्तः । चञ्चू गतौ, चञ्चलः-अस्थिरः । चप सान्त्वने, चपलः स एव । वहीं प्रापणे, वहलं-सान्द्रम् । दिहीक लेपे, देहली-द्वाराध: पट्टः, कुहणि विस्मापने, कोहल:-भरतपुत्रः, बाहुलकाद् गुणः । त प्लवनतरणयोः, तरल:-अधीरः, हारमध्यमणिश्च । सृ गतौ, सरल:-अकुटिल:, वृक्षविशेषश्च । पिशत् अवयवे, पेशल:
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४१० ]
स्वोपज्ञोणादिगण सूत्रविवरणम्
[ सूत्र-४६६-४७३
मनोज्ञः । तुस शब्दे, तोसलाः जनपद: । कुसच् श्लेषे, कोशला - जनपदः । अनक् प्राणने, अनलः अग्निः । द्रम गतौ, द्रमलं जलम् ॥ ४६५ ।।
नहि-लङ्गेदीर्घश्च ।। ४६६ ।
आभ्याम् अलः प्रत्ययो भवत्यनयोश्च दीर्घो भवति । नहींच् बन्धने नाहल : म्लेच्छ । लगु गतौ लाङ्गलं - हलम् ।। ४६६ ।
ऋ - जनेर्गोऽन्तश्च ॥ ४६७ ॥
आभ्याम् अलः प्रत्ययो गकारश्चान्तो भवति । ऋक् गतौ, अर्गला - परिघः । जनैचि प्रादुर्भावे, जङ्गलं निर्जलो देश: ।। ४६७ ।।
तृपि वपि कुपि - कुशि-कुटि - वृषि- मुसिभ्यः कित् ॥ ४६८ ॥
एभ्यः कि अलः प्रत्ययो भवति । तृपौच्प्रीतौ, तृपला-लता, तृपलं - शुष्क पर्णं, sri | डुव बीजसंताने, उपलः - पाषाणः । कुपच् कोपे, कुपल: प्रवाल: । कुशच् श्लेषणे, कुशल:- मेधावी । कुशलम् आरोग्यम् । कुटत् कौटिल्ये कुंटल - ऋषिः । वृषू सेचने, वृषलः- दासजातिः । मुसच् खण्डने, मुसलम् अवहननम् ।। ४६८ ।।
कोर्वा ॥ ४६६ ॥
कुंङ शब्दे इत्यस्माद् अलः, स च प्रत्ययो किद्वा भवति । कुवलं- बदरम् कुवलीक्षुद्रबदरी, कवल: ग्रासः ।। ४६९ ।।
,
शमे च वा ॥ ४७० ॥
शमूच् उपशमे, इत्यस्माद् अल: प्रत्ययो भवति मकारस्य च बकारो वा भवति । शबल:- कल्माषः, शमलं पुरीषम्, दुरितं च ।। ४७० ।।
छोर्डग्गादिर्वा ॥ ४७१ ॥
छोच् छेदने इत्यस्मात् किद् अलः प्रत्ययो भवति । स च डगांदिर्गादिर्वा भवति । छगल:-छागः, छागल:- ऋषिः । छलं - वचनविघातोऽर्थविकल्पोपपत्त्या ।। ४७१ ।।
सृजि-खन्याहनिभ्यो डित् ॥ ४७२ ॥
एभ्यः डि अल. प्रत्ययो भवति । मृजीक् शुद्धो मलं बाह्य रजः - अन्तर्दोषश्च । खनूग् अवदारणे, खलः दुर्जनः, निष्पीडितरसं पिण्याकादि, खलं- सस्यफलग्रहणभूमिः । हनंक हिंसागत्योः, आङपूर्व:, आहल:- विषाणं, नखरश्च ।। ४७२ ।।
स्थो वा ।। ४७३ ॥
तिष्ठतेः अलः प्रत्ययो भवति, स च डिद्वा भवति । स्थलं प्रदेश विशेषः । स्थालंभाजनम् ।। ४७३ ।
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सूत्र ४७४ -४७६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४११
मुरलोरल-विरल-केरल-कपिञ्जल-कजलेजल-कोमल-भृमल-सिंहल-काहल-शूकलपाकल-युगल-भगल-विदल-कुन्तलोत्पलादयः ॥ ४७४ ।।
एते अलप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । मुव्युयोर्वलोपः किच्च, मुरलाः- जनपदः । उरल:उत्कटः । विपूर्वाद्रमेडिच्च, विरल:-असंहतः। किरः केर च केरला-जनपद: । कम्पेरिजो. ऽन्तो नलोपश्च, कपिञ्जल:-गौरतित्तिरिः। कषीषो|ऽन्तोजश्च, कज्जलं मषी इज्जल:वृक्षविशेषः। कमेरत ओच्च कोमलं-मृदु । भ्रमे म् च, भृमलः वायुः, कृमिजातिश्च, भृमलं चक्रम् । हिंसेराद्यन्त विपर्ययश्च, सिंहला-जनपदः । कहीं दीर्घश्च, काहलः अध्यक्त. वाक् , काहला वाद्यविशेषः । शकेरूच्चास्य, शूकल:-अश्वाधमः। पचेः पाक् च पाकल:हस्तिज्वरः युजे: किद् ग च, युगलं-युग्मम् । भातेर्गोऽन्तो ह्रस्वश्च, भगल:-मुनिः । विन्देनलोपश्च, विदलं वेणुदलम् । कनेरत उत् तोऽन्तश्च कुन्तला-जनपदः, केशाश्च । उत्पूर्वात् पिबतेह्र स्वश्च, उत्पलं-पद्मम् । आदिग्रहणात् सुवर्चलादयो भवन्ति ।। ४७४ ।।
ऋ-कृ-मृ-वृत्तनि-तमि-चषि-चपि-कपि-कीलि-पलि-बलि-पश्चि-मङ्गि-गण्डिमण्डि-चण्डि-तण्डि-पिण्डि-नन्दि-नदि-शकिभ्य-आलः ॥ ४७५ ॥
एभ्य आल प्रत्ययो भवति ऋक् गतौ, अरालं वक्रम् । डुकृग् करणे करालम् उच्चम् । मृत् प्राणत्यागे, मरालः-हंसः, महांश्च । वृग्ट वरणे, वरालः वदान्यः । तनूयी विस्तारे, तनालं जलाशयः । तमूच् काङ्क्षायाम् तमालः-वृक्षः, व्यालश्च । चषी भक्षणे, चषालं यूपशिरसि द्रव्यम् । चप सान्त्वने, चपालं-यज्ञद्रव्यम् । कपिः सौत्रः, कपालं घटाद्यवयव:-शिरोऽस्थि च । कील बन्धे, कीलालं मद्यं, जलम् , असृक् च । पल गतौ, पलालम् । अकणो व्रीह्यादिः । बल प्राणनधान्यावरोधयोः बलालो वायूः । पचुडा व्यक्तीकरणे पञ्चालः ऋषिः, राजा च, पञ्चाला जनपदः मगु गतौ, मङ्गलः-देशः । गडु वदनैकदेशे, गण्डालः-मत्तहस्ती। मडु भूषायाम् मण्डाल. ऋषि, राजा च । चडुङ कोपे, चण्डाल:श्वपचः।
अकृतज्ञमकार्यज्ञं दीर्घरोषमनार्जवम् । ।
चतुरो विद्धि चण्डालान् जन्मना चेति पञ्चमम् ।।१।। तडुड अघाते, तण्डाल:-क्षुपः । पिडुङ, सङ्घाते, पिण्डाल:-कन्दजातिः। टुनदु समृद्धौ, नन्दालः-राजा । णद अव्यक्ते शब्दे, नन्दाल:-नादवान् । शक्लट् शक्ती, शकालाजनपदः ,मूर्खधनी च ॥
कुलि-पिलि-विशि-विडि-मणि-कुणि-पी-प्रीभ्यः कित् ॥ ४७६ ॥
एभ्यः किद् आल: प्रत्ययो भवति । कुल बन्धुसंस्त्यानयोः, कुलालः कुम्भकारः । पिलण क्षेपे, पिलालं-श्लिष्टम् । विशंत् प्रवेशने, विशालं-विस्तीर्णम् । बिड आक्रोशे, बिडाल:-मार्जारः। लत्वे बिलालः स एव । मृणत् हिंसायाम् , मृणालं-बिसम् । कुणत् शब्दोपकरणयोः, कुणालः-कृत मालः, कटविशेषश्च, कुणालं-नगरं, कठिनं च । पीङ च पाने, पियालः-वृक्षः, पियालं-शाकं, वोरुच्च । प्रीङच प्रीतौ, प्रियालः- पियालः ।। ४७६ ॥
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४१२ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-४७७-४८३
भजेः कगौ च ॥ ४७७॥
भजी सेवायाम्, इत्यस्मात् किद् अल: प्रत्ययो भवति, कगो चान्तादेशौ भवतः। भकालं, भगालम् उभयं-कपालम् ।। ४७७ ।।
सतेंर्गोऽन्तश्च ॥ ४७८ ॥ सृ गतौ, इत्यस्मात् किद् आल: प्रत्ययो भवति, गश्चान्तः । मृगालः-क्रोष्टा ।४७८॥ पति-कृ-लूभ्यो-णित् ।। ४७६ ॥
एभ्यो णिद् अलः प्रत्ययो भवति । पत्लु गतौ, पातालं रसातलम् । डुकृग् करणे, करालं-लेपद्रव्यम् । लूग्श् छेदने, लावाल:-उद्दन्तः ।। ४७९ ।।
चात्वाल-कङ्काल-हिन्ताल-वेताल-जम्बाल-शब्दाल-ममातालादयः ॥ ४८०॥
एते आलप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । चतेर्वोन्तो दीर्घश्च । चात्वाल:-यज्ञगर्तः । कचेः स्वगन्नोऽन्तः कश्च, कङ्काल:-कलेवरम् । हिंसेस्तश्च हिन्ताल:-वक्षविशेषः । वियस्तोऽन्तो गणश्च, वेताल:-रजनीचरविशेषः। जनेर्वोऽन्तश्च, जम्बाल:-कर्दमः, शैवलं च । शमेऋ. बेर्वा शब्दभावश्च, शब्दाल:-शब्दनशीलः । मलेवलोपो माप्तश्चान्तः । ममाप्तालः मतिः, स्नेहः-पुत्रादिषु स्नेहबन्धनं च । आदिशब्दाच्चक्रवालकरवालालवालादयो भवन्ति । ४८०॥ कल्यनि-महि-द्रमि-जटि-भटि-कुटि-चण्डि-शण्डि-तुण्डि-पिण्डि-भू-कुकिभ्य इल:
॥ ४८१॥ एभ्य इल: प्रत्ययो भवति । कलि शब्दसंख्यानयोः, कलिलं-गहनं, पापम् , आत्माधिष्ठितं च शक्रार्तवम । अनक प्राणने, अनिल:-वायुः । मह पूजायाम, महिला-स्त्री। द्रम गती, द्रमलाः-त्रैराज्यवासिनः । जट झट संघाते, जटिलः-जटावान् । भटभृतौ, भटिल:श्वा, सेवकश्च । कुटत् कौटिल्ये, कुटिलम्-वक्रम् । चडुङ कोपे, चण्डिल:-श्वा, क्रोधनः, नापितश्च । शडुङ रुजायाम् , शण्डिलः ऋषिः । तुडुङ तोडने. तुण्डिल:-वागजाली । पिड्रङ सङ्घाते, पिण्डिल मेघः, हिस्रः, हिमः, गणकश्च । भू सत्तायाम् , भविलः-मुनिः, समर्थः, गृहम् , बहुनेता च कुकि आदाने, कोकिलः-परभृतः ।। ४८१ ।।...
भण्डेनलुक् च वा ॥ ४८२ ॥
भडुङ परिभाषणे, इत्यस्माद् इलः प्रत्ययो भवति, नकारस्य लुग वा भवति । भडिलः ऋषिः, पिशाचः, शत्रुश्च । भण्डिल:-श्वा, दूतः, ऋषिश्च ।। ४८२ ।।
गुपि-मिथि-ध्रुभ्यः कित् ॥ ४८३ ॥
एभ्यः किद् इलः प्रत्ययो भवति । गुपौ रक्षणे, गुपिलं-गहनम् । मिथग मेधा-हिंसनयोः, मिथिला-नगरी । ध्र स्थैर्ये च, ध्र विल:-ऋषिः ।। ४८३ ॥
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सूत्र--४८४-४८६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४१३
स्थण्डिल-कपिल-विचकिलादयः ॥ ४८४ ॥
स्थण्डिलादयः शब्दा इलत्ययान्ता निपात्यन्ते । स्थलेः स्थण्ड च, स्थण्डिलं-वतिशयनवेदिका । कबेः प् च, कपिलः- वर्णः, ऋषिश्च । विचेरकोऽन्तश्च, विचकिलः- मल्लिकाविशेषः । आदिग्रहणाद् गोभिलनिकुम्भिलादयोऽपि भवन्ति ।। ४८४ ।।
हृषि-वृति-चटि-पटि-शकि-शति-तण्डि-मड़-ग्युत्कण्ठिभ्य उलः ॥ ४८५॥
एभ्य उल: प्रत्ययो भवति । हृषच तुष्टौ, हृष्ट अलीके. वा, हर्षुल:-हर्षवान् , कामी, मृगश्च । वृतूङ, वर्तने, वर्तुल:-वृत्तः । चटण भेदे, चटुलः-चञ्चलः । पट गतो, पटुल:-वाग्मी । शक्लृट् शक्ती, शकुलः-मत्स्यः। शङ कु शङ्कायाम् , शङकुला-क्रीडनशङ कु, बन्धनभाण्डम् , आयुधं च । तडुङ ताडने, तण्डुलो निस्तुषो व्रीह्यादिः । मगु गतो, मङ गुलं-न्यायापेतम् कठुङ शोके, उत्पूर्वः उत्कण्टुल:-उत्कण्ठावान् ।। ४८५ ।।
स्था-बङ्कि-हि-बिन्दिभ्यः किम्मलुक च ॥ ४८६ ॥
एभ्यः किद् उल: प्रत्ययो नकारस्य च लुग् भवति । ष्टां गतिनिवृत्ती, स्थुलंपटकुटीविशेषः । वकुङ कौटिल्ये, वकुल:-केसरः, ऋषिश्च । बहुङ वृद्धौ, बहुलं-प्रचुरम्बहुल:-प्रासकः, कृष्णपक्षश्च । बहुला:-कृत्तिकाः, बहुला-गौः। विदु अवयवे, विदुल:वेतसः ।। ४८६ ।। कुमुल-तुमुल-निचुल-वजुल-मञ्जुल-पृथुल-विशंस्थु-लागुल-मुकुल-शष्कुलादयः
॥ ४८७॥ एते उलप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । कमितम्योरत उच्च, कुमुलं-कुसुमम् , हिरण्यं च, कुमुल:-शिशुः, कान्तश्च । तुमुलं-व्यामिश्रयुद्धम् , संकुलं च । निजेः किच्चश्च । निचुल:वञ्जल: । वजेः स्वरान्नोऽन्तश्च, वजल:-निचलः। मञ्जिः सौत्रः, मजलं मनोज्ञम् । प्रथेः पृथ् च, पृथुल:-विस्तीर्णः । विपूर्वात् शसेस्थोऽन्तश्च, विशंस्थुल: व्यग्रः । अजेर्गश्च अङ गुलम् अष्टयवप्रमाणम् । मुचेः कित् कश्च, मुकुलः-अविकसितपुष्पम् । शके: स्वरात् षोऽन्तश्च, शष्कुली-भक्ष्यविशेषः, कर्णावयवश्च । आदिग्रहणाल्लकुल-वल्गुलादयो भवन्ति ।। ४८७ ।।
पिञ्जि-मञ्जि-कण्डि-गण्डि-बलि-वधि-वश्चिभ्य ऊलः ॥ ४८८ ॥
एभ्यः ऊल: प्रत्ययो भवति । पिजुण हिंसाबल-दान-निकेतनेषु, पिञ्जूलः हस्तिबन्धनपाशः, राशिः, कुलपतिश्च । मञ्जिः सौत्रः, मजूला मृदुभाषिणी । कडुङ. मदे, कण्डूल:-अशिष्टो जनः । गडु वदनैकदेशे, गण्डूल:-कृमिजातिः । बल प्राणन-धान्यावरोघयोः, बलूल:-ऋषिः, मेघः, मासश्च । बधि बन्धने, बधूलः हस्ती, घातकः रसायनं, तन्त्रकारश्च । वञ्चिण् प्रलम्भने, वञ्चूलः हस्ती, मत्स्यमारपक्षी च । ४८८ ।।
तमेवोऽन्तो दीर्घस्तु वा ॥ ४८६ ।
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४१४ ]
स्वोपज्ञोणादिगण सूत्र विवरणम्
[ सूत्र-४९०-४९६
तमूच् काङ्क्षायाम्, इत्यस्माद् ऊलः प्रत्ययो भवति, वोऽन्तश्च भवति, दीर्घस्तु वा । ताम्बूलं, तम्बूलम् उभयं पूगपत्रचूर्णसंयोगः ।। ४८९ ।।
कुल - पुल - कुसिभ्यः कित् ॥ ४६० ॥
एभ्यः प्रत्ययो भवति, स च किद् भवति । कुल बन्धु संस्त्यानयोः, कुलूलः कृमिजातिः । पुल महत्त्वे, पुलूलः - वृक्षविशेषः । कुशच् श्लेषे, कुशूल :- कोष्ठः ।। ४९० ।।
दुकूल- कुकूल - बब्बूल- लाङ्गूल शार्दू लादयः ॥ ४६१ ॥
दुकूलादयः शब्दा ऊलप्रत्यान्ता निपात्यन्ते । दुक्वोः कोऽन्तश्च, दुकूलं-क्षौमं वासः । कुकूलं कारीषोऽग्निः । बधेर्बोऽन्तो बश्च । बब्बूल:- वृक्षविशेषः । लङ गेर्दीर्घश्च लाङ्गुलं वालधिः । शृणातेर्दोऽन्तो वृद्धिश्च, शार्दूलः व्याघ्रः । आदिग्रहणाद् मालः कञ्चूलादयो भवन्ति ।। ४९९ ।
महेरेलः || ४६२ ||
मह पूजायाम्, इत्यस्मादेलः प्रत्ययो भवति । महेला स्त्री ।। ४६२ ।।
कटि-पटि-कण्ड-गण्डि - शकि- कपि चहिम्य ओलः ॥ ४६३ ॥
एभ्य ओल: प्रत्ययो भवति । कटे वर्षावरणयो:, कटोल:--कटविशेषः, वादित्रविशेषश्च । कटोला औषधिः । पट गतो, पटोला वल्लीविशेषः । कडु मदे. कण्डोल:विदलभाजनविशेषः । गडु वदनैकदेशे, गण्डोल: कृमिविशेषः । शक्लृट् शक्तौ शकोल:शक्तः, कपिः सौत्रः, कपोल:- गण्ड: । चह कल्कने, चहोल:- उपद्रवः ।। ४६३ ।।
ग्रह्माद्भ्यः कित् ॥ ४६४ ॥
ग्रहेराकारान्तेभ्यश्च धातुभ्यः किदोलः प्रत्ययो भवति । ग्रही उपादाने, गृहोल:बालिशः । कायतेः कोलः - बदरी, वराहश्च । गायतेः गोल:- वृत्ताकृतिः, गोला- गोदावरी, बालरमणकाष्ठं च । पातेः पोलाः तालाख्यं कपाटबन्धनं परिखा च । लाते: लोलः- चपलः । ददातेर्दयतेर्द्यतेर्वा दोला- प्रेङ्खणम् ॥ ४६४ ॥
पिञ्छोल- कल्लोल- कक्कोल - मक्कोलादयः ॥ ४६४ ॥
पिञ्छोलादयः शब्दा. ओलप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । पीडै: पिञ्छ्च् पिञ्छोल:वादित्रविशेषः । कलेर्लोऽन्तश्च कल्लोलः - ऊर्मिः । कचि मच्योः कादिः, कक्कोली लताविशेषः । मक्कोल : - सुधाविशेषः । आदिग्रहणादन्येऽपि ।। ४९५ ।।
वलि - पुषेः कलक् ॥ ४६६ ॥
आभ्यां कितु कलः प्रत्ययो भवति । वलि संवरणे, वल्कलं तरुत्वक । पुष् पुष्टा, पुष्कलं समग्रं युद्धं, शोभनं हिरण्यं धान्यं च ॥ ४६६ ।।
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सूत्र-४९७-५०४ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[४१५
+
मिगः खलश्चैश्च ॥ ४६॥
अपणे, इत्यस्मात् खलश्चकारात् कलश्च प्रत्ययौ भवतः, एकारश्चान्तादेशो भवति । मेखला-गिरिनितम्बः, रशना च । मेकलः-नर्मदाप्रभवोऽद्रिः । मिग एत्ववचनामात्वबाधनार्थम् ॥ ४६७ ॥
श्व ॥४८॥ शश् हिंसायाम् , इत्यस्मात् खलः प्रत्ययो भवति, नकारोऽन्तो ह्रस्वश्च भवति । शृङ्खला लोहरज्जुः, शृङ्खलः शृङ्खलं वा ।। ४९८ ।।
शमि-कमि-पलिभ्यो बलः ।। ४६ ॥
एभ्यो बलः प्रत्ययो भवति । शमूच उपशमे शम्बल-पाथेयम् । कमूङ कान्ती, कम्बलः-ऊर्णापटः । पल गती, पल्वलम् अकृत्रिमोदकस्थानविशेषः ।। ४६६ ।।
तुल्वलेल्पलादयः॥ ५००॥
तुल्वलादयः शब्दा वलप्रत्यान्ता निपात्यन्ते । तुलील्योणि-लुग्गुणाभावश्च । तुल्वलः-ऋषिः, यस्य तौल्वलिः पुत्रः । इल्वलः-असुरः, योऽगस्त्येन जग्धः, मत्स्यः, यूपश्च । इल्वला:-तिस्रो मृगशिरःशिरस्ताराः । आदिग्रहणात् शाल्वलादयो भवन्ति ।। ५०० ।।
शीङस्तलक्पाल-वालण-वलण-वलाः ॥ ५०१ ॥
शीङ्क् स्वप्ने, इत्यस्मात् तलक-पाल-वालण्-वलण वल इत्येते प्रत्यया भवन्ति । शीतलं-अनुष्णम् , शेपालम् , जपादित्वात् पस्य वत्वे शेवालम् , शैवालम् , शैवलम् , शेवलं पञ्चकमपि जलमलवाचि ॥ ५०१ ।।
रुचि-कुटि-कुषि-कशि-शालि-द्रभ्यो मलक् ।। ५०२॥
एभ्यः किन् मलःप्रत्ययो भवति । रुचि अभिप्रीत्यां च, रुक्मलं-सुवर्णम् , न्यङ क्वादित्वात् कत्वम् । कुटत् कौटिल्ये, कुट्मलम् मुकुलम् । कुष्श् निष्कर्षे, कुष्मलं तदेव, बिलं च । कश शब्दे तालव्यान्तः, कश्मलं-मलिनम् । शाडङ श्लाघायाम् , लत्वे शाल्मल:वृक्षविशेषः । दूं गतौ, द्रुमलं-जलं, वनं च ।। ५०२ ।।
कुशि-कमिभ्यां कुल-कुमौ च ।। ५०३ ॥
आम्यामलक् प्रत्ययो भवति । अनयोश्च यथासंख्यं कुल-कुम इत्यादेशौ च । कुश्च श्लेषणे, कुल्मलं-छेदनम् । कमूङ कान्तौ, कुम्मलं-पद्मम् ।। ५०३ ।।
पतेः सलः ॥ ५०४॥
पत्लु गती, इत्यस्मात् सलः प्रत्ययो भवति । पत्सलः-प्रहारः, गोमान् , आहारश्च ।। ५०४॥
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४१६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र - ५०५-५११
लटि-खटि-खलि-नलि-कण्यशौ-सृ-श-कु
प-श्या-शा-ला-पदि-हसीण
भ्यो वः ।। ५०५ ॥
एभ्यः वः प्रत्ययो भवति । लट बाल्ये, लट्वा क्षुद्रचटका कुसुम्भं च । खट काक्षे, खट्वा - शयनयन्त्रम् । खल संचये च । खल्वं निम्नं खलीनं च, खल्वा - इतिः । o गन्धे नत्व:- भूमानविशेषः । कण शब्दे, कण्वः ऋषिः, कण्वं पापम् । अशौटि व्याप्ती, अश्व:- तुरगः । सृ गतौ, सर्व:- शम्भुः । सर्वादिश्च कृत्स्नार्थे । शृष् हिंसायाम्, शर्व:शम्भुः । कृत् विक्षेपे, कर्व:- आखुः समुद्रः, निष्पत्तिक्षेत्रं च । गृत् निगरणे, गर्वः - अहंकारः । दृश् विदारणे, दर्वा :- जनपदः, दर्व :- हिंस्रः । पृश् पालन- पूरणयो:, पर्वः रुद्रः, काण्डं च । शपीं आक्रोशे, शप्वः- आक्रोशः । श्यैङ् गती, श्यावः वर्णः । शोंच् तक्षणे, शावः - तिर्यग्बालः । लांक आदाने लाव- पक्षिजातिः । पदिच् गतौ पद्वः - रथः, वायुः, भूर्लोकश्च । हृसः शब्दे, हृस्व:- लघुः । इण्क् गतौ, एवः केवलः एवेत्येवधारणे निपातश्च ।। ५०५ ।।
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शीङापो ह्रस्वश्च वा ॥ ५०६ ॥
आभ्यां वः प्रत्ययो ह्रस्वश्च वा भवति । शोङक् स्वप्ने शिवं-क्षेमम्, सुखं, मोक्षपदं च शिवा - हरीतकी च, शेवं धनम्, शेव:- अजगर : सुखकृच्च, शेवा--प्रचला निद्राविशेषः, मेढश्च । आप्लृट् व्याप्ती, अप्वा देवायुधम् आप्वा वायुः ।। ५०६ ।। .
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उर्देर्ध च ॥ ५०७ ॥
उदि मान क्रीडयोश्च इत्यस्माद् वः प्रत्ययो भवति, धकारश्चान्तादेशो भवति । ऊर्ध्वः-उद्वर्मा, ऊर्ध्वम् उपरि ऊर्ध्वं परस्तात् ।। ५०७ ।।
गन्धेरचन्तिः ॥ ५०८ ॥
गन्धि अर्दने, इत्यस्माद् वः प्रत्ययोर् चान्तो भवति । गन्धर्वः - गाथकः, देवविशेषश्च ।। ५०८ ॥
लषेषि च वा ॥ ५०६ ॥
ली कान्तो, इत्यस्माद् वः प्रत्ययोऽस्य च लिष् इत्यादेशो वा भवति । लिष्व:लम्पटः, कान्तः, दयितश्च । लष्वः - अपत्यम्, ऋषिस्थानं च ।। ५०६ ।।
सदि वा ।। ५१० ॥
सल गतौ, इत्यस्माद् वः प्रत्ययो भवति, स च णिद्वा भवति । सात्वाः, सल्वाश्चजनपद : क्षत्रियाश्च ।। ५१० ।।
निघृषीष्यृषि - श्रुश्रुषि - किणि विशि- विल्यविपृभ्यः कित् ॥ ५११ ॥
एभ्यः किदु वः प्रत्ययो भवति । घृषू संघर्षे, निपूर्वः निघृष्व:- अनुकूलः, सुवर्णनिकषोपलः, वायुः, क्षुरश्च । इषत् इच्छायाम्, इष्वः - अभिलषितः, आचार्यश्च, इष्वा -
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सूत्र-५१२-५१८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४१७
अपत्यसंततिः । ऋषत् गती, ऋष्व:-रिपुः, हिंस्रश्च । रिषेळञ्जनादेः केचिदिच्छन्ति, रिष्वः।स्रगतो, सव-हवनभाण्डम् । प्रष दाहे, प्रष्वा-निवत्तिःजललवश्च । किणः सौत्रः, किण्वं-सुराबीजम् । विशंत् प्रवेशने, विश्व-जगत् सर्वादि च। बिलत् भेदने, बिल्वःमालूरः । अव रक्षणादौ, अवेति, अव्ययम् । पृश पालन-पूरणयोः, पूर्वः-दिक्कालनिमित्त: ॥ ५११॥
नत्रो भुवो डित् ॥ ५१२ ॥ नत्र पूर्वाद् भवतेडिद् वः प्रत्ययो भवति । अभ्वम्-अद्भुतम् ।। ५१२ ।। लिहेर्जिह च ॥ ५१३ ॥
लिहीक आस्वादने, इत्यस्माद् वः प्रत्ययो भवत्यस्य च जिह इत्यादेशो भवति । जिह्वा-रसना ।। ५१३ ॥
प्रहाहायह्वा-स्वच्छेवा-ग्रीवा-मीवाव्यादयः॥ ५१४ ॥
प्रह्वादयः शब्दा वप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते, प्रपूर्वस्य ह्वयतेर्वादेर्लोपो यततेर्वा हादेशश्च । प्रह्वः-प्रणतः, आह्वयतेराह च आह्वा-कण्ठः । यमेर्यसेर्वा हश्च, यह्वा-बुद्धिः । अस्यतेरलोपश्च । स्वः-आत्मा, आत्मीयं, ज्ञातिः, धनं च । छ्यतेश्छिदेर्वा छेभावश्च, छेवाउच्छित्तिः । ग्रन्थतेगिरतेर्वा ग्रीभावश्च ग्रीवा । अमेरीच्चान्तो दीर्घश्च वा अमीवा-बुभुक्षा, आमीवा-व्याधिः । मिनोतेर्दीर्घश्च । मीवा-मनः, उदकं च । तदेतत् त्रयमपि तन्त्रेणावृत्त्या वा निदिष्टम् । अवतेर्वलोपाभावश्च, अव्वा-माता । आदिशब्दाद् प्वादयो भवन्ति ।५१४॥
वडि-वटि-पेल-चणि-पणि-पल्ल-बल्लेरवः ॥ ५१५ ॥
एभ्यः अव: प्रत्ययो भवति । वड-आग्रहणे सौत्रः, वडवा-अश्वा । वट वेष्टने, वटवा-सैव । पेल गतौ, पेलव-नि:सारम् । चण हिंसादानयोश्च चणव:-अवरधान्यविशेषः। पणि व्यवहार स्तुत्योः, पणवः-वाद्यजातिः। पल्ल गतौ, पल्लव:-किसलयम् । वल्लि संवरणे, वल्लव:-गोपः ॥ ५१५ ॥
मणि-वसेणित् ॥ ५१६ ॥
आभ्यां णिद् अवः प्रत्ययो भवति । मण शब्दे, माणवः-शिष्यः। वसं निवासे, वासवः-शक्रः ॥ ५१६ ।।
मलेर्वा ।। ५१७॥
मलि धारणे, इत्यस्माद् अवः प्रत्ययो भवति, स च णिद्वा भवति । मालवाः-जनपदः, मलव:-दानवः ।। ५१७ ।।
किति-कुडि-कुरि-मुरि-स्थाभ्यः कित् ।। ५१८ ॥ एभ्यः किद् अवः प्रत्ययो भवति । कित् निवासे, कितवः-द्यूतकारः । कुडत् बाल्ये
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४१८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्र विवरणम्
[ सूत्र-५१९-५२६
च । कुडवः - मानम्, लत्वे कुलवः स एव, नालीद्वयं च । कुरत् शब्दे, कुरवः - पुष्पवृक्षजातिः । मुरत् संवेष्टने, मुरव:-मानविशेषः, वाद्यजातिश्च । ष्ठां गतिनिवृत्तौ, स्थवःअजावृषः ।। ५१८ ॥
कैरव-भैरव-मुतव-कारण्डवादीनवादयः || ५१६ ॥
कैरवादयः शब्दा अवप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । कृग्भृगोः कैर-भैरावादेशौ । कैरवंकुमुदम्, भैरवः- भर्गः, भयानकश्च । मिनोतेर्मुद च, मुतवः - मानविशेषः । कृगाण्डोऽन्तो वृद्धिश्च, कारण्डवः - जलपक्षी । आङपूर्वाद् दीङो नोऽन्तश्च । आदीनवः- दोषः । आदिग्रहणात् कोद्रवः- कोटवादयोपि भवन्ति ॥ ५१९ ।।
शृणातेरावः || ५२० ॥
शृश् हिंसायाम्, इत्यस्माद् आवः प्रत्ययो भवति । शराव :- मल्लकः ।। ५२० ।। प्रथेरिवट् पृथू च || ५२१ ॥
प्रथिषु प्रख्याने, इत्यस्मादिवट्प्रत्ययो भवत्यस्य च पृथ् इत्यादेशो भवति । पृथिवीभूः ।। ५२१ ।।
पलि - सचेरिवः ।। ५२२ ।।
पलण् रक्षणे, षचि सेवने, इत्याभ्यामिवः प्रत्ययो भवति । पलिवः - गोप्ता । सचिवः सहायः ।। ५२२ ।।
स्पृशेः श्वः पार् च ॥ ५२३ ॥
स्पृशंत् संस्पर्श, इत्यस्मात् श्वः प्रत्ययो भवत्यस्य च पार इत्यादेशो भवति । पाश्वस्वाङ्गम्, समीपं च । पार्श्वः - भगवांस्तीर्थङ्करः ।। ५२३ ।।
कुडि - तुडयडेरुवः । ५२४ ॥
एभ्य उवः प्रत्ययो भवति । कुड बाल्ये च कुडुवं प्रसृतहस्तमानं च । तुडत् तोडने, डुवम् अपनेयद्रव्यम् । अड उद्यमे, अडुवः -प्लवः ।। ५२४ ।।
नी-हि- ध्यै ध्या-पा-दा-माभ्यस्त्वः ।। ५२५ ।।
एभ्यः त्वः प्रत्ययो भवति । णीं प्रापणे, नेत्वं द्यावा- पृथिव्यो, चन्द्रश्च । हुंक् दानादनयोः, होत्वं- यजमान, समुद्रश्च । इंण्क् गतौ, एत्वम् - गमनपरम् । ध्यें चिन्तायाम्, ध्यात्वं ब्राह्मणः । प्ङ वृद्धो, प्यात्वं- ब्राह्मणः समुद्रः, नेत्रं च । पां पाने, पात्वम् पात्रम् । डुदांग्क् दाने, दात्व:- आयुक्तः, यज्वा यज्ञश्च । मां माने, मात्वम् प्रमेयद्रव्यम् ।। ५२५।।
कृ-जन्येधि- पाभ्य इत्वः ।। ५२६ ||
एभ्यः इत्व: प्रत्ययो भवति । डुकु ग् करणे, करित्व:- करणशीलः । जनैचि प्रादु
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सूत्र-५२७-५३५ ]
स्वपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
र्भावे, जनित्व:-लोकः, माता-पितरो, द्यावा-पृथिव्यो च । जनित्वं-कुलम् । एघि वृद्धौ, एघित्वः-अग्निः, समुद्रः, शैलश्च पां पाने, पेत्वम्-तप्तभूमिप्रदेशः, अमृतं, नेत्रं, सुखं, मानं च ।। ५२६ ।।
पा-दा-वम्यमिभ्यः शः॥ ५२७ ॥
एभ्यःशः प्रत्ययो भवति । पांक रक्षणे, पाशः-बन्धनम् । डुदांग्क दाने, दाश:कैवर्तः । टुवम् उगिरणे, वंश:-वेणुः । अम गतौ, अंश:-भागः ॥ ५२७ ॥
कृ-वृ-भृ-बनिभ्यः कित् ।। ५२८ ।।
एभ्यः कित् शः प्रत्ययो भवति । डुकृग करणे, कृशः-तनुः। वृग्ट वरणे, वृशंशृङ्गबेरम्, मूलकं, लशुनं च । टुडुभृगक पोषणे च, भृशम् - अत्यर्थम् । वन भक्तौ, वश:आयत्तः ।। ५२८॥
कोर्वा ॥ ५२६ ॥
कुङ शब्दे, इत्यस्मात् शः प्रत्ययो भवति, स च किद्वा भवति । कुश:-दर्भः । कोशः-सारम् , कुड्मलं च ।। ५२६ ।।
क्लिशः के च ।। ५३०॥
क्लिशीश विबाधने, इत्यस्मात् शः प्रत्ययो भवत्यस्य च के इत्यादेशो भवति । केशाः मूर्धजाः ।। ५३० ।।
उरेरशक् ॥ ५३१॥ उर गतौ इत्यस्मात् , सौत्राद् अशक् प्रत्ययो भवति । उरशः ऋषिः ।। ५३१ ।। कलेष्टित् ।। ५३२॥
कलि शब्द-संख्यानयोः, इत्यस्मात् टिद् अशक् प्रत्ययो भवति । कलशः-कुम्भः । कलशी दधिमन्थनभाजनम् ॥ ५३२ ।।
पलेराशः ॥ ५३३॥ पल गती, इत्यस्माद् आशः प्रत्ययो भवति । पलाश:-ब्रह्मवृक्षः ।।५३३।। कनेरीश्चातः॥ ५३४॥
कनै दीप्त्यादौ, इत्यस्माद् आशः प्रत्ययो भवति, ईकारश्चाकारस्य भवति । कोनाशः-कर्षकः, वर्णसङ्करः, कदर्यश्च, तथा
लुब्धः कीनाशः स्यात् कीनाशोऽप्युच्यते कृतघ्नश्च ।
योऽश्नात्यामं मांसं स च कोनाशो यमश्चैव ॥ ५३४ ॥ कुलि-कनि-कणि-पलि-वडिभ्यः किशः॥ ५३५ ॥
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४२० ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-५३६-५४३
एभ्यः किद् इश: प्रत्ययो भवति । कुल बन्धुसंस्त्यानयोः, कुलिशं-वज्रम् । कनै दीप्त्यादौ, कण शब्दे, कनिशं, कणिशं च-सस्यमञ्जरी । पल गतौ, पलिशं-यत्र स्थित्वा मृगाः व्यापाद्यन्ते । वड आग्रहणे सौत्रः, बडिशं-मत्स्यग्रहणम् ॥ ५३५ ।।
बलेणिद्वा ॥ ५३६ ॥
बल प्राणन-धान्यावरोधयोः, इत्यस्मात् किशः स च णिद्वा भवति । बालिशःमूर्खः, बलिश:-मूर्खः, बलिशं-बडिशम् ।। ५३६ ।।।
तिनिशेतिशादयः ॥ ५३७॥
तिनिशादयः शब्दाः किशप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते, तनेरिश्चातः । तिनिशः-वक्षः। इणस्तोऽन्तश्च, इतिशः-गोत्रकृषिः । आदिग्रहणादन्येऽपि ।। ५३७ ।।
मस्ज्यङ्किभ्यामुशः ॥ ५३८ ॥
आभ्याम् उशः प्रत्ययो भवति । टुमस्जोंत् शुद्धौ, 'न्य ङ कूद्गमेघादयः' इति गः । मद्गुशः-नकुलः । अकुङ लक्षणे, अङ कुशः-सृणिः ।। ५३८ ॥
अर्तीणभ्यां पिश-तशौ ॥ ५३६ ॥
आभ्यां यथासंख्यं पिश तश इत्येतो प्रत्ययौ भवतः । ऋक् गतौ, अपिशम्-आर्द्रमांसम् , बालवत्साया दुग्धं च । इंण्क् गतौ, एतश:-अश्वः, ऋषिः, वायुः, अग्निः, अर्कश्च ॥ ५३९ ॥
वृ-क-तृ-मीङ्-माभ्यः षः ॥ ५४०॥
एभ्यः षः प्रत्ययो भवति । वृन्ट् वरणे वर्षः-भर्ता, वर्षः- संवत्सरः । वर्षा:-ऋतुः । कृत् विक्षेपे, कर्षः-उन्मानविशेषः। तृ प्लवनतरणयोः, तर्षः-प्लव:. हर्षश्च । मीङ च हिंसायाम् , मेष:-उरभ्रः । मांक माने, माषः-धान्यविशेषः, हेमपरिमाणं च ।। ५४० ॥
योरूच वा ॥ ५४१॥
युक् मिश्रणे, इत्यस्मात् षः प्रत्ययो भवति, ऊकारश्चान्तादेशो वा भवति । यूष:पेयविशेषः, यूषा-छाया, योषा-स्त्री ।। ५४१ ॥
स्नु-पू-सम्बर्कलूभ्यः कित् ॥ ५४२ ॥
स्वादिभ्योऽर्कपूर्वाच्च लुनाते: कित् षः प्रत्ययो भवति । स्नुक प्रस्रवणे, स्नुषापुत्रवधूः । पूग्श् पवने, पूषः- पवनभाण्डम् , शूर्पादिः । पूत् प्रेरणे, सूष:-बलम् । मूङ बन्धने मूषा-लोहरक्षणभाजनम् । लूग्श् छेदने, अर्कपूर्वः, अर्कलूषः-ऋषिः ।। ५४२ ॥
श्लिषेः शे च ॥ ५४३ ॥
श्लिषंच आलिङ्गने, इत्यस्मात् ष: प्रत्ययो भवत्यस्य च शे इत्यादेशो भवति । शेष:-नागराजः। ५४३॥
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सूत्र-५४४-५५३ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४२१ .
कोरषः । ५४४॥ कुङ शब्दे, इत्यस्माद् अषः प्रत्ययो भवति । कवष:-क्रोधी, शब्दकारश्च ।।५४४।। युजलेरापः॥ ५४५॥
आभ्याम् आषः प्रत्ययो भवति । युक् मिश्रणे, यवाष:-दुरालभा । जल घात्ये, जलाष-जलम् ॥ ५४५ ।।
अरिषः ॥ ५४६॥ ऋक् गतो, इत्यस्माण्ण्यन्ताद् इषः प्रत्ययो भवति । अर्पिषम्-आर्द्रमांसम् ॥५४६॥
मह्यविभ्यां दित् ॥ ५४७॥ __ आभ्यां टिद् इषः प्रत्ययो भवति । मह पूजायाम् , महिषः-सरिभः, राजा च, महिषी-राजपत्नी, सैरिभी च । अव रक्षणादौ, अविष:-समुद्रः, राजा, पर्वतश्च । अविषीद्यौः, भूमिः, गङ्गा च ।। ५४७ ।।
रुहेवृद्धिश्च ॥ ५४८॥ __रुहं जन्मनि, इत्यस्मात् टिद् इषः प्रत्ययो भवति, वृद्धिश्चास्य भवति । रौहिषंतृणविशेषः, अन्तरिक्षं च, रौहिषः-मृगः । रौहिषी-वात्या, मृगी, दूर्वा च ॥ ५४८ ।।
अमिमभ्यां णित् ।। ५४६ ॥
आभ्याम् इषः प्रत्ययो भवति, स च णिद् भवति । अम गती, आभिषं-भक्ष्यम् । मृश् हिंसायाम् , मारिषः-हिंस्रः ।। ५४९ ।।
तवेर्वा ॥ ५५॥
तव गती, इत्यस्मात् सौत्रात् टिद् इषः प्रत्ययो भवति, स च णिद्वा भवति । ताविषः, तविषश्च-स्वर्गः । ताविषं, तविषं च बलं तेजश्च । ताविषी, तविषी च वात्या, देवकन्या च ॥ ५५०॥
कले किल्ब च ।। ५५१ ।।
कलि शब्द-संख्यानयोः, इत्यस्मात् टिद् इषः प्रत्ययो भवत्यस्य च किल्ब इत्यादेशो भवति । किल्बिषं-पापम् , किल्बिषी-वेश्या, रात्रिः, पिशाची च ॥५५॥
नजो व्यथेः ।। ५५२ ।।
नपूर्वात् व्यस्थिष भय-चलनयोः, इत्यस्मात् टिद् इषः प्रत्ययो भवति । अव्यथिष:-क्षेत्रज्ञः, सूर्यः, अग्निश्च । अव्यथिषी-पृथिवी ।। ५५२॥
कृतृभ्यामीपः ॥ ५५३॥
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स्वोपज्ञोणादिगणसूत्र विवरणम्
[ सूत्र-५५४-५६०
आभ्याम् ईषः प्रत्ययो भवति । कृत् विक्षेपे, करीषः - शुष्कगोमयरजः । तू प्लवनतरणयोः, तरीषः समर्थः स्तम्भः, प्लवश्च ।। ५५३ ।।
४२२ ]
ऋजि-शु-पृभ्यः कित् ॥ ५५४ ॥
एभ्यः किद् ईषः प्रत्ययो भवति । ऋजि गत्यादौ, ऋजीषः - अवस्करः ऋजीषम् - घनम् । शृश् हिंसायाम्, शिरीषः - वृक्षः । पृश् पालन- पूरणयो:, पुरीषं शकृत् ।। ५५४ ।।
अमेर्वरादिः || ५५५ ॥
अम गतौ, इत्यस्माद् वरादिः ईषः प्रत्ययो भवति । अम्बरीषं भ्राष्ट्र, व्योम च । अम्बरीषः - आदिनृपः ।। ५५५ ।।
उषेर्णोऽन्तश्च ।। ५५६ ॥
उषू दाहे, इत्यस्माद् ईषः प्रत्ययो भवति, णकारश्चान्तो भवति । उष्णीषः मुकुटं, शिरोवेष्टनं च ।। ५५६ ।।
ऋ-पू- नहि हनि-कलि-चलि-चपि वपि - कृषि - हयिभ्य उषः || ५५७ ||
एभ्यः उषः प्रत्ययो भवति । ऋश् गतौ, अरुषः - व्रणः, हयः, आदित्यः वर्णः, रोषश्च । पृश् पालन- पूरणयोः, परुषः - कर्कशः । णहींच् बन्धने, नहुषः - पूर्वः राजा । हनक हिंसागत्योः, हनुषः- क्रोधः, राक्षसश्च । कलि शब्द- संख्यानयोः, कलुषम् - अप्रसन्नं, पापं च । चल कम्पने, चलुषः- वायुः । चप सान्त्वने, चपुषः- शकुनिः । डुवपीं बीजसंताने, वपुषःवर्णः । कृपौङ, सामर्थ्ये, कल्पुषः- क्रियानुगुणः । हय क्लान्तौ च हयुषा औषधिः ॥ ५५७ ॥
वि-दि-पृभ्यां कित् ॥ ५५८ ॥
आभ्यां किद् उषः प्रत्ययो भवति । विदक् ज्ञाने, विदुषो विद्वान् । पृश्-पालनपूरणयो:, पुरुष: पुमान्, आत्मा च ।। ५५८ ।।
अपुष - धनुषादयः ॥ ५५६ ॥
अपुषादयः शब्दा उषप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । आप्नोते हं स्वश्च, अपुषः- अग्निः, सरोगश्च । दघातेर्धन् च, धनुषः - शैलः । आदिग्रहणाल्लसुषादयो भवन्ति ।। ५५९ ।।
खलि-फलि-वृ-पृ-कृ-ज़-लम्बि-मजि-पीयि- हन्यङ्गि-मङ्गि गण्डयतिभ्य उषः । ५६० ।
1
एभ्यः ऊषः प्रत्ययो भवति । खल संचये च खलूषः - म्लेच्छजातिः । फल निष्पत्ती, फलूष:-वीरुत् । वृग्ट् वरणे, वरूषः- भाजनम् । पृश् पालन- पूरणयोः - परुषः, वृक्षविशेषः । कृत् विक्षेपे, करूषाः - जनपदः । जुष्चू जरसि, जरूष :- आदित्यः । लबुङ अवस्र सने च लम्बुषः- नीरकदम्बः, निचुलश्च । मञ्जि, पीयिश्च सौत्रौ, मञ्जूषा काष्ठकोष्ठः, पीयूषंप्रत्यप्रसवक्षीरविकारः, अमृतं घृतं च । हनंक् हिंसा गत्योः, हनूषः - राक्षसः । अगु, गतौ
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सूत्र-५६१-५६७ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[४२३
अङ गूषः-शकुनिजातिः, हस्ती, बाणः, वेगश्च । मगु गतौ, मङ गूष;-जलचरशकुनिः। गडु वदनैकदेशे, गण्डूष:-द्रवकवलः । ऋक् गतौ, अरूषः रविः ।। ५६० ।।
कोरदूषाटरूष-कारूप-शैलूषपिञ्जूषादयः ॥ ५६१ ॥
एते ऊषप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । कुरेरदोऽन्तश्च, कोरदूषः-कोद्रवः । अटेराङ पूर्वस्य चारोऽन्तश्च, आटरूष:-वासः । अटनं रूषतीति तु अटरूषः, पृषोदरादित्वात् । कृगो वृद्धिश्च, कारूषा:-जनपदः । शलेरै चोतः, शैलूषः-नटः । पिजुण हिंसादौ, पिञ्जूषः-कर्णशष्कुल्याभोगः । आदिशब्दात् प्रत्यूषाभ्यूषादयो भवन्ति ।। ५६१ ।।
कलेमेषः ॥ ५६२ । कलि शब्द-संख्यानयोः, इत्यस्मात् मषः प्रत्ययो भवति । कल्मषं-पापम् ।।५६२।। कुलेश्व मापक ॥ ५६३ ।।
कुल बन्धु-संस्त्यानयोः, इत्यस्मात् कलेश्च किद् माषः प्रत्ययो भवति । कुल्माष:अर्धस्विन्नमाषादि, कल्माषः-शबल: ।। ५६३ ।।
मा-वा-वद्यमि-कमि हनि-मानि-कष्यशि-पचि-मुचि-यजि-वृ-तृभ्यः सः ।५६४।
एभ्यः सः प्रत्ययो भवति । मांक माने, मासः-त्रिंशद्रात्रः । वाक् गति गन्धनयोः, वास:-आटरूषकः । वद व्यक्तायां वाचि, वत्सः-तर्णकः, ऋषिः, प्रियस्य च पुत्रस्याख्यानम् । अम गतो, अंसः-भुजशिखरम् । कमूङ कान्ती, कंस:-लोहजातिः, विष्णोरगतिः, हिरण्यमानं च । हनंक हिंसा-गत्योः, हंसः-श्वेतच्छदः। मानि पूजायाम् , मांस-तृतीयो धातुः । कष हिंसायाम् , कक्षः-तृणम् , गहनारण्यं, शरीरावयवश्च । अशौटि व्याप्तौ, अक्षा:प्रासकाः (पाशकाः), अक्षाणि-इन्द्रियाणि, रथचक्राणि च । डुपचीं पाके, पक्षः-अर्धमासः, वर्गः, शकुन्यवयवः, सहायः, साध्यं च । मुच्लुतो मोक्षणे, मोक्षः-मुक्तिः । यजी देवपूजादौ, यक्ष:-गुह्यकः । वृगश् वरणे, वर्सः-देशः, समुद्रश्च । त प्लवन-तरणयोः, तर्स:-वीतंसः, सूर्यश्च । वर्सतर्सयोर्बाहुलकान्न षत्वम् ॥ ५६४ ।।
व्यवाभ्यां तनेरीच वेः ॥ ५६५ ॥
वि अव इत्येताभ्यां परात् तनोतेः स प्रत्ययो भवति । वेरीकारश्चान्तादेशो भवति । वीतंसः-शकुन्यवरोधः । अवतंसः-कर्णपूरः ।। ५६५ ।।
प्लुषेः प्लप च ॥ ५६६ ।।
प्लुष दाहे, इत्यस्मात् सः प्रत्ययो भवत्यस्य च प्लष् इत्यादेशो भवति । प्लक्षंनक्षत्रं, वृक्षश्च ।। ५६६ ।।
ऋजि-रिषि-कुषि-कृति-प्रश्च्युन्दि-शृभ्यः कित् ॥ ५६७॥ एभ्यः कित् सः प्रत्ययो भवति । ऋजि गत्यादौ, ऋक्ष-नक्षत्रम् , ऋक्षः-अच्छ
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४२४ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्र विवरणम्
[ सूत्र -५६८- ५७२
भल्लः । रिष हिंसायाम्, रिक्षा-यूकाण्डम् लत्वे लिक्षा सैव । कुष्ा निष्कर्षे, कुक्ष:- गर्भः, कुक्षं गर्तः । कृतैत् छेदने, कृत्सः - गौत्रकृत्, ओदनं, वक्त्रं, दुःखजातं च । ओव्रश्चात् छेदने, वृक्षः - पादपः । उन्दै क्लेदने, उत्सः समुद्रः, आकाश, जल, जलाशयश्च, उत्सं-स्रोतः । शृशु हिंसायाम्, शीर्ष - शिरः ।। ५६७ ।।
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गुधि-गृधेस्त च ॥ ५६८ ॥
आभ्यां कितु सः प्रत्ययस्तकारश्चान्तादेशो भवति । गुधच् परिवेष्टने, गुत्स:रोषः, तृणजातिश्च । गृधूच् अभिकाङक्षायाम्, गृत्स:- विप्रः, श्वा, गृध्रः, अभिलाषश्च । तकारविधानमादिचतुर्थबाधनार्थम् ।। ५६८ ।।
तयणि-पन्यल्य वि-रधि-नभि-नम्यमि चमि तमि चट्यति - पत्तेरसः || ५६६ ॥
एभ्योऽस: प्रत्ययो भवति । तपं संतापे, तपसः- आदित्यः पशुः, धर्म:, धर्मश्च । अण शब्दे, अणसः शकुनिः । पनि स्तुती, पनसः फलवृक्षः । अली भूषणादौ, अलसः - निरुत्साहः । अव रक्षणादौ, अवस: - भानुः, राजा च । अवसं चापं, पाथेयं च । रधौच् हिंसा-संराध्योः, रध इटि तु परोक्षायामेव इति नागमे, रन्धसः-अन्धकजातिः । भच् हिंसायाम्, नभसः - ऋतुः, आकाशः, समुद्रश्च । णमं प्रह्वत्वे, नमसः - वेत्रः, प्रणामश्च । अम गतौ, अमसः कालः, आहारः, संसारः, रोगच । चमू अदने, चमस:सोमपात्रम्, मन्त्रपूतं, पिष्टं च । चमसी मुद्गादिभित्तकृता । तमूच् आङ्क्षायाम्, तमसः अन्धकारः, तमसा नाम नदी । चटण् भेदे, चटसः चर्मपुटः । अत सातत्यगमने, अतसःवायुः, आत्मा, वनस्पतिश्च, अतसी- ओषधिः । पत्लृ गतौ, पतसः पतङ्गः ।। ५६९ ।।
सृ-वयिभ्यां णित् ।। ५७० ॥
आभ्यां णिद् असः प्रत्ययो भवति । सृ गतौ, सारसः - पक्षिविशेषः । वयि गतौ, वायसः - काकः ।। ५७० ।।
वहि-युभ्यां वा ॥ ५७१ ।।
आभ्याम् असः प्रत्ययः, स च णिद्वा भवति । शकटम्, अजगर, वहनजीवश्च । वहसः अनड्वान् भक्तम्, तृणम्, मित्रं च यवसम् - अश्वादिघासः, अन्नं
वहीं प्रापणे, वाहसः - अनड्वान्, शकटश्च । युक् मिश्रणे, यावसंच ।। ५७१ ।।
दिवादि-रभि लभ्युरिभ्यः कित् ।। ५७२ ।।
दिवादिभ्यो रभि लभ्युरिभ्यश्व किद् असः प्रत्ययो भवति । दीव्यतेः दिवस:वासरः । व्रोड्यतेः लत्वे, व्रीलसः - लज्जावान् । नृत्यतेः नृतसः- नर्तक । क्षिप्यतेः, क्षिपसः - योद्धा । सीव्यतेः, सिवस :- श्लोकः, वस्त्रं च । श्रीव्यतेः श्रिवसः - गतिमान् । इष्यतेः, इषसःइष्वाचार्यः । रभि राभस्ये, रभसः संरम्भः, उद्धर्षः, अगम्भीरश्च । डुलभिष् प्राप्ती, लभस:याचकः, प्राप्तिश्च । उरिः सौत्रः, उरसः ऋषिः ।। ५७२ ।।
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सूत्र-५७३-५८३ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४२५
फनस-तामरसादयः॥ ५७३ ।।
फनासादयः शब्दा असप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । फण गती नश्च, फनसः पनसः । तमेररोऽन्तो वृद्धिश्च, तामरसं-पद्मम् । आदिग्रहणात् कीकस-बुक्कसादयो भवन्ति ।।५७३।।
यु-बलिभ्यामासः ॥ ५७४ ।।
आभ्याम् आसः प्रत्ययो भवति । युक् मिश्रणे, यवासः-दुरालभा । बल प्राणनधान्यावरोधयोः, बलास:-श्लेष्मा ।। ५७४ ।। .
किलेः कित् ॥ ५७५ ॥
किलत् श्वैत्य-क्रीडनयोः, इत्यस्मात् किद् आसः प्रत्ययो भवति । किलासं-सिध्मम् , किलासी-पाक-कर्परम् ।। ५७५ ।।
तलि-कसिभ्यामीसण ॥ ५७६ ॥
आभ्याम् ईसण् प्रत्ययो भवति । तलण् प्रतिष्ठायाम् , तालीसं-गन्धद्रव्यम् । कस गतो, कासोसं-घातुजमौषधम् ॥ ५७६ ॥
सेर्डित् ॥ ५७७ ॥ पिंग्ट् बन्धने, इत्यस्मात् डिद् ईसण् प्रत्ययो भवति । सीसं-लौहजातिः ।। ५७७ ।। त्रपेरुसः॥ ५७८॥..
त्रपौषि लज्जायाम् , इत्यस्माद् उसः प्रत्ययो भवति । त्रपुसं-कर्कटिका। विधानसामर्थ्यात् षत्वाभावः ॥ ५७८ ।।
पटि-वीभ्यां-टिस-डिसौ ॥ ५७६ ॥
आभ्यां यथासंख्यं टिसो डिद् इसश्च प्रत्ययो भवति । पट गतौ, पट्टिस:-आयुधविशेषः । वींक प्रजनादौ, बिसं मृणालम् ॥५७६ ।।
तसः॥ ५८०॥ पटि वीभ्यां तस: प्रत्ययो भवति । पट्टसः-त्रिशूलम् । वेतसः वानीरः ।। ५८० ।। इणः॥ ५८१॥ एतेस्तसः प्रत्ययो भवति । एतसः-अध्वर्युः ।। ५८१॥ पीङो नसक् ॥ ५८२॥ पीङ च् पाने, इत्यस्मात् किन्नसः प्रत्ययो भवति । पीनसः-श्लेष्मा ।। ५८२ ।। कृ-कुरिभ्यां पासः ॥ ५८३ ॥
आभ्यां पासः प्रत्ययो भवति । डुकृग् करणे, कर्पासः-पिचुप्रकृतिः, वीरुच्च । कुरत् शब्दे, कूर्पास:-कञ्चुक: ।। ५८३ ॥
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४२६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-५८४-५९३
कलि-कुलिभ्यां मासक् ॥ ५८४ ॥
आभ्यां किद् मासः प्रत्ययो भवति । कलि शब्दसंख्यानयोः, कल्मासं-शबलम् । कुल बन्धु-संस्त्यानयोः, कुल्मासः-अर्धस्विन्नं माषादि ।। ५८४ ।।
अलेरम्बुसः॥ ५८५॥
अली भूषणादौ, इत्यस्माद् अम्बुसः प्रत्ययो भवति । अलम्बुसः-यातुधानः, अलम्बुसा नाम औषधिः ॥ ५८५ ॥
लूगो हः ॥ ५८६ ॥ लुनातेर्हः प्रत्ययो भवति । लोह-सुवर्णादि ।। ५८६ ॥ कितो गे च ॥ ५८७॥
कित् निवासे, इत्यस्मात् हः प्रत्ययो भवत्यस्य च गे इत्यादेशो भवति । गेहंगृहम् ॥ ५८७॥
हिंसेः सिम् च ॥ ५८८॥
हिसुप हिंसायाम् , इत्यस्माद् हः प्रत्ययो भवत्यस्य च सिमित्यादेशो भवति । सिंहः-मृगराजः ।। ५८८ ॥
कु-प-कटि-पटि-मटि-लटि-ललि-पलि-कल्यनि-रगि-लगेरहः ॥ ५८६ ॥
एभ्यः अहः प्रत्ययो भवति । कृत् विक्षेपे, करहः-धान्यावपनम् । पृश् पालनपूरणयोः, परहः-शंकरः । कटे वर्षावरणयोः, कटहः-पर्जन्यः, कर्णवच्च कालायसभाजनम् । पट गतो, पटहः-वाद्यविशेषः । मट सादे सौत्रः, मटहः-ह्रस्वः। लट बाल्ये, लटति-विलसति, लटहः-विलासवान् । ललिण् ईप्सायाम् , ललहः-लोलावान् । पल गतौ, पलहःआवापः । कलि शब्दसंख्यानयोः, कलहः-युद्धम् । अनक प्राणने, अनहः-नीरोगः । रगे शङ्कायाम् , रगहः-नटः । लगे सङगे, लगहः-मन्दः ॥ ५८९ ।।
पुलेः कित् ॥ ५९॥ पुल महत्त्वे, इत्यस्मात् किद् अहः प्रत्ययो भवति । पुलहः-प्रजापतिः ।। ५६० ॥ वृ-कटि-शमिभ्य आहः॥ ५६१ ॥
एम्य आहः प्रत्ययो भवति । वृग्ट् वरणे, वराहः-सूकरः । कटे वर्षावरणयोः, कटाहः-कर्णवत् कालायसभाजनम् । समूच उपशमे, शमाहः-आश्रमः ।। ५९१ ।।
विले. कित् ॥ ५९२ ॥ विलत् वरणे, इत्यस्मात् किद् आहः प्रत्ययो भवति । विलाहः-रहः ।। ५६२ ।। निर इण ऊहश् ।। ५६३ ॥
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सूत्र ५६४-६०२ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४२७
निपूर्वात् इंणक् गती, इत्यस्मात् शिद् ऊहः प्रत्ययो भवति । नियूहः-सौधादिकाष्ठनिर्गमः ॥ ५९३ ॥
दस्त्यूहः ॥ ५६४ ॥ ददातेः त्यूहः प्रत्ययो भवति । दात्यूहः-पक्षिविशेषः ॥ ५९४ ।। अनेरोकहः ॥ ५९५॥ अनक् प्राणने, इत्यस्मादोकहः प्रत्ययो भवति । अनोकहः-वृक्षः ।। ५६५ ।। क्लेरक्षः ॥ ५६६ । वलि संवरणे, इत्यस्माद् अक्षः प्रत्ययो भवति । वलक्षः-शुक्ल: ।। ५६६ ।। लाक्षा-द्राचामिक्षादयः॥ ५६७॥
लाक्षादयः शब्दा अक्षप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । लसेरा च, लाक्षा जतु । रसेर्दा च, द्राक्षा-मदीका । आङ पूर्वान्मदेरन्त्यस्वरादेलक प्रत्ययादेरित्वं च । आमिक्षा-हविविशेषः । आदिग्रहणात् चुप मन्दायां गतौ इत्यस्य चोक्षः-ग्रामरागः, शुद्धं च । एवं पीयूक्षादयोऽपि भवन्ति ।। ५९७ ॥
समिण-निकषिभ्यामाः ॥ ५६८ ।।
सम्पूर्वादिण्क् गतौ, इत्यस्माद् निपूर्वात् कष हिंसायाम् । इत्यस्माच्च आः प्रत्ययो भवति । समया पर्वतम् , निकषा पर्वतम् । समीप-असूयावाचिनावेतौ ।। ५९८ ।।
दिवि-पुरि-वृषि-मृषिभ्यः कित् ॥ ५६६ ॥ ..
एभ्यः किद् आः प्रत्ययो भवति । दिवूच् क्रीडा-जयेच्छा-पणि-द्युति-स्तुति गतिषु, दिवा-अहः । पुरत् अग्रगमने, पुरा-भूतकालवाची। वृषू सेचने, वृषा-प्रबलमित्यर्थः । मृषीच तितिक्षायाम्, मृषा-अभूतमित्यर्थः ।। ५९९ ॥
वेः साहाभ्याम् ॥ ६००॥
विपूर्वाभ्यां षोंच अन्तकर्मणि, ओहां त्यागे, इत्येताभ्याम् आः प्रत्ययो भवति । विसाः-चन्द्रमाः, बुद्धिश्च । तालव्यान्तोऽयमित्येके विहा:-विहगः, स्वर्गश्च ।। ६०० ।।
वृ-मिथि-दिशिभ्यस्थ-य-व्याश्चान्ताः ॥ ६०१॥
एभ्यः किद् आः प्रत्ययो भवति । यथासंख्यं यकार-यकार-ट्यकाराश्चान्ता भवन्ति । वृग्ट वरणे, वृथा-अनर्थकम् । मिश्रृग् मेघा-हिंसयोः, मिथ्या-मृषा, निष्फलं च । दिशीत् अतिसर्जनेः दिष्टया-प्रीतिवचनम् ।। ६०१ ।।
मुचि-स्वदेध च ॥ ६०२॥
आभ्यां किद् आः प्रत्ययो भवति, धकारश्चान्तस्य भवति । मुच्लुती मोक्षणे, मुधाअनिमित्तम् । ष्वदि आस्वादने, स्वधा-पितृबलिः ॥ ६०२॥
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४२८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-६०३-६०७
सोबंग आह च ॥ ६०३ ॥ सुपूर्वात् ब्र तेः आः प्रत्ययो भवत्यस्य चाहादेशो भवति । स्वाहा-देवतातर्पणम् ।६०३। सनि-क्षमि-दुषेः ॥ ६०४॥
एभ्यो धातुभ्य आः प्रत्ययो भवति । षणूयी दाने, सना-नित्यम् । क्षमौषि सहने, क्षमा-भूः, क्षान्तिश्च । दुषंच वैकृत्ये, दोषा-रात्रिः ।। ६०४ ।।
डित् ॥ ६०५ ॥
धातोर्बहुलम् आ: प्रत्ययो भवति, स च डिद् भवति । मनिच ज्ञाने, मा-निषेधे । षोंच अन्तकर्मणि, सा-अवसानम। अनक प्राणने, आ-स्मरणादौ। प्रीडच प्रीतो, प्रा स्मयने । हनक हिंसागत्योः, हा-विषादे । वन भक्तौ, वा-विकल्पे । रांक दाने, रा-दीप्तिः। भांक दीप्तौ, भा-कान्तिः सह पूर्वः सभा-परिषत् । नाम्नीति सहस्य सः ।। ६०५ ।।
स्वरेभ्य इः ॥ ६०६ ॥
स्वरान्तेभ्यो धातुभ्य इ. प्रत्ययो भवति । जि अभिभवे, जयि:-राजा । हिंट गतिवृद्ध्योः , हयि:-कामः । रुक् शब्दे, रविः-सूर्यः। कुक शब्दे, कवि:-काव्यकर्ता। ष्टुंग्क् स्तुतौ, स्तविः-उद्गाता । लूगश् छेदने, लविः-दात्रम् । पूग्श् पवने, पविः-वायुः, वज्र, पवित्रं च । भू सत्तायाम् , भविः-सत्ता, चन्द्रः, विधिश्च । ऋक् गतौ, अरि:-शत्र: । हृग हरणे, हरिः-इन्द्रः, विष्णुः, चन्दनम् , मर्कटादिश्च । हरय:-शाश्वाः । टुडुभृगक पोषणे च, भरिः- वसुधा । सृगतो, सरि:-मेघः। पशु पालनपूरणयोः, परि:-भूमिः । त प्लवनतरणयोः, तरि:-नौः । दश विदारणे, दरिः-महाभिदा । मृश् हिंसायाम् , ण्यन्तः, मारिःअशिवम् । वृग्श् वरणे, वरिः-विष्णुः । ण्यन्ताद् वारिः-हस्तिबन्धनम् , वारि-जलम् ।६०६।
पदि-पठि-पचि-स्थलि-हलि-कलि-चलि-बलि-वल्लि-पल्लि-कटि-चटि-वटि-बधिगाध्यचि-बन्दि-नन्धवि-वशि-वाशि--काशि-छर्दि--तन्त्रि-मन्त्रि-खण्डि-मण्डि-चण्डियत्यञ्जि-मस्यसि-वनि-ध्वनि-सनि-गमि-तमि-ग्रन्थि-श्रन्थि-जनि-मण्यादिभ्यः ॥६०७॥
एभ्यः इ: प्रत्ययो भवति । पदिच् गतौ, पदिः-राशिः, मोक्षमार्गश्च । पठ व्यक्तायां वाचि, पठिः-विद्वान् । डुपची पाके, पचिः-अग्निः। ष्ठल स्थाने, स्थलि:-दानशाला। हल विलेखने, हलि:-हलः । कलि शब्द-संख्यानयोः, कलि:-कलहः, युगं च । बल प्राणनधान्यावरोधयोः, बलि:-देवतोपहार: दानवश्च । वलि-वल्लि संवरणे, वलिः-त्वक्तरङ्गः। वल्लि:-हिरण्य शलाका, लता च । पल्ल गतौ, पल्लि:-मुनीनामाश्रमः, व्याधसंस्त्यायश्च । कटे वर्षावरणयोः, कटिः-स्वाङ्गम् । चटण भेदे, चटि:-वर्णः। वट वेष्टने, वटि:-गुलिका, तन्तुः सूना च, नाभिः. वर्णश्च । बधि बन्धने, बधिः-क्रियाशब्दः । गाधङ प्रतिष्टालिप्साग्रन्थेषु, गाधि:-विश्वामित्रपिता । अर्च पूजायाम , अचिः-अग्निशिखा। वङ स्तुत्यभि. वादनयोः, वन्दिः-ग्रहणिः । टुनदु समृद्धौ, नन्दि: ईश्वरप्रतीहारः, भेरिश्च । अव रक्षणादौ, अविः-ऊर्णायुः । वशक् कान्तौ, वशिः-वशिता । वाशिच् शब्दे, वाशि:-प्रकान्तिः, रश्मि:
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सूत्र--६०८-६०६
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[४२९
गोमायः, अग्नि:, शब्दः, प्रजनप्राप्ता, चतुष्पात, जलदश्च। काशृङ, दीप्तौ, काशय:जनपदः । छर्दण् वमने, छदि:-वमनम् । तन्त्रिण कुटुम्बधारणे, तन्त्रिः -वीणासूत्रम् । मन्त्रिण गुप्तभाषणे, मन्त्रिः-सचिवः । खड्डुण भेदे, खण्डि:-प्रद्वारम् । मडु भूषायाम् , मण्डि:मृदुभाजनपिधानम् । चडुङ कोपे, चण्डि:-भामिनी । यतैङ प्रयत्ने, यति:-भिक्षुः । अजौप् व्यक्तिम्रक्षणगतिषु, अजि:-सज्जः, पेषणी, पेजः, गतिश्च । समञ्जिः-शिश्नः । मसैच परिणामे, मसि:-शस्त्री । असूच क्षपणे. असिः-खड्गः । वनूयी याचने, वनिः-साधुः, 'यात्रा, शकुनिः, अग्निश्च । ध्वन शब्दे, ध्वनिः-नादः । षण भक्तौ, सनि:-संभक्ता, पन्थाः, दानं, म्लेच्छः, नदीतटं च । गम्लु गतौ, गमिः-आचार्यः । तमूच काङक्षायाम् , तमि:अलसः । ग्रन्थश संदर्भ, श्रन्थश मोचन-प्रतिहर्षयोः, ग्रन्थिः, श्रन्थिश्च पर्व संध्यादि । जनैचि प्रादुर्भावे, जनिः- वधूः, कुलाङ्गना, भगिनी, प्रादुर्भावश्च । मण शब्दे, मणिः-रत्नम् । आदिग्रहणात् वहीं प्रापणे, वहिः-अश्वः । खादृ भक्षणे, खादि:-श्वा । दधि धारणे, दधिक्षीरविकारः। खल संचये च, खलि:-पिण्याकः । शचि व्यक्तायां वाचि, शची-इन्द्राणी, 'इतोऽक्तयर्थात्' इति गौरादित्वाद् वा ङीः इत्यादयोऽपि भवन्ति ।। ६०७ ।।
किलि-पिलि-पिशि-चिटि-त्रुटि-शुण्ठि-तुण्डि-कुण्डि-भण्डि-हुण्डि-हिण्डि-पिण्डिचुल्लि-बुधि-मिथि-रुहि-दिवि-
कीर्त्यादिभ्यः ॥ ६०८॥ एभ्यः इ: प्रत्ययो भवति । किलत् श्वैत्य-क्रीडनयोः, केलि:-क्रीडा । पिलण क्षेपे; पेलि:-क्षद्रपेला । पिशत् अवयवे, पेशि:-मांसखण्डम् । चिट प्रेष्ये, चेटि:-दारिका, प्रेष्या च । त्रुटत् छेदने, ण्यन्तः, त्रोटिः चञ्चुः। शुठु शोषणे, शुण्ठिः- विश्वभेषजम् । तुडुङ तोडने, तुण्डि:-आस्यम् , प्रवृद्धा च नाभिः । कुडुङ दाहे. कुण्डि:-जलभाजनम् । भडुङ परिभाषणे, भण्डिः -शकटम् । हुडुङ संघाते, हुण्डिः -पिण्डित: ओदनः । हिडुङ गतौ च, हिण्डि:-रात्रौ रक्षाचारः । पिडुङ संघाते, पिण्डि:-निष्पीडितस्नेहः पिण्डः । चुल्ल हावकरणे, चुल्लि:-रन्धनस्थानम् । बुधिच ज्ञाने, बोधिः-सम्यग्ज्ञानम् । मिथङ -मेघाहिंसयोः, मेथि:-खलमध्यस्थूणा । रुहं बीजजन्मनि, रोहिः-सस्यं, जन्म च । दिवूच क्रीडादौ, देविःभूमिः । कृतण संशब्दने, णिजन्तः, कीर्तिः-यशः । आदिग्रहणादन्येऽपि ।। ६०८ ।।
नाम्युपान्त्यक-ग-श-प-पूभ्यः कित् ॥ ६०६ ॥
नाम्युपान्त्येभ्यः क्रादिभ्यश्च किदि: प्रत्ययो भवति । लिखत् अक्षरविन्यासे, लिंखि:शिल्पम् । शूच् शोके, शुचिः-पूतः, विद्वान् , धर्मः, आषाढश्च । रुचि अभिप्रोत्यां च, रुचि:दीप्तिः, अभिलाषश्च । भुजंप पालनाभ्यवहारयोः, भुजिः-अग्निः, राजा, कुटिलं च । कुणत् शब्दोपकरणयोः, कुणिः-विकलो हस्तः, हस्तविकलश्च । सृजत् विसर्गे, सृजि:--पन्थाः । द्युति दोप्तो, द्युतिः-दोप्तिः । ऋत् घृणागतिस्पर्धेषु, ऋति:-यतिः । छदृपी द्वैधीकरणे, छिदि:छेत्ता, पशुश्च । मुदि हर्षे, मुदि:-बालः । भिदृपी विदारणे, भिदिः- वज्र, सूचकः भेत्ता च । ऊछदपी दीप्तिदेवनयोः, छुदिः-रथकारः । लिपीत् उपदेहे लिपिः-अक्षरजातिः । तुर त्वरणे, सौत्रः, तुरिः-तन्तुवायोपकरणम् । डुलण् उत्क्षेपे, डुलि:-कच्छपः । त्विषीं दीप्तौ,
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४३० ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम् .
[ सूत्र-६१०-६१५
एभ्यः
प. किन र
विषिः-दीप्तिः, विषिमान , राजवर्चस्वी च । कृषीत् विलेखने, कृषिः कर्षणम् , कर्षणभूमिश्च । ऋषत् , गतौ, ऋषिः-मुनिः, वेदश्च । कुषश् निष्कर्षे, कुषिः-शुषिरम् । शुषंच् शोषणे, शुषिः छिद्रम् , शोषणं च । हृषू अलोके हृषि:-अलोकवादी, दीप्तिः, तुष्टिश्च । ष्णुहोच् उगिरणे, स्नुहिः-वृक्षः । कृत् विक्षेपे, किरिः-सूकरः, मूषिकः, गन्धर्वः गर्तश्च । गृत् निगरणे, गिरिः-नगः, कन्दुकश्च । शृश् हिंसायाम् , शिरिः-हिंस्रः, खड्गः, शोकः, पाषाणश्च । पृश् पालनपूरणयोः, पुरि नगरं, राजा, पूरयिता च । पूङ पवने, पुविःवातः।। ६०९।।
विदि-वृतेर्वा ॥ ६१०॥
आभ्याम् इः प्रत्ययो भवति, स च किद्वा । विदक ज्ञाने, विदिः शिल्पी, वेदि:इज्यादिस्थानम् । वृतूङ वर्तने, वृति:-कण्टकशाखावरणम् । निर्वृतिः-सुखम् , वतिः द्रव्यम्, दीपाङ्गच ।। ६१०॥ त-भ्रम्यद्यापि-दम्भिभ्यस्तित्तिरभृमाधाप-देभाश्च ।। ६११ ॥
प्रत्ययो भवति । एषां च यथासंख्यं तित्तिर-भूम-अध अप-देभ इत्यादेशा भवन्ति तु प्लवनतरणयोः, तित्तिरिः-पक्षिजातिः, प्रवक्ता च वेदशाखाया । भ्रमू चलने, भृमिः-वायु, हस्ती, जलं च । बाहुलकाद् भृमादेशाभावे, भ्रमि:-भ्रमः । अदं प्सांक भक्षणे, अधि-उपरिभावे, अध्यागच्छति । आपलट व्याप्ती, अपि समुच्चयादौ, प्लक्षोऽपिन्यग्रोधोऽपि । दम्भूट दम्भे, देभिः-शरासनम् ।। ६११ ।।
मने-रुदेतौ चास्य वा ।। ६१२ ॥
मनिच ज्ञाने, इत्यस्माद् इ: प्रत्ययो भवत्यकारस्य च ऊकारकारी वा भवतः । मुनिः ज्ञानवान् । मेनिः-संकल्पः । मनि:-धूमवतिः ।। ६१२ ।।
क्रमि-तमि-स्तम्भरिच नमेस्तु वा ॥ ६१३ ॥
एभ्यः किद् इ: प्रत्ययो भवत्यकारस्य चेकारो भवति । नमेः पुनर कारस्येकारो विकल्पेन । क्रमू पादविक्षेपे, क्रिमि:-क्षुद्रजन्तुः । तमूच काङक्षायाम् , तिमिः महामत्स्यः । स्तम्भिः सौत्र:, स्तिभिः-केतकादिसूची, हृदयं, समुद्रश्च । णमं प्रह्वत्वे, निमि:-राजा, नमिः-विद्याधराणामाद्यः तीर्थकरश्च ।। ६१३ ॥
अम्भि-कुण्ठि-कम्प्यहिभ्यो नलुक् च ॥ ६१४ ॥
एभ्य इ. प्रत्ययो नकारस्य च लुग् भवति । अभूङ शब्दे अभि आभिमुख्येऽव्ययम् , अभ्यग्नि शलभाः पतन्ति । कुछ आलस्ये च, कुठिः-वृक्षः, पापं, वृषलः, देहः, गेहं, कुठारश्च । कपुङ चलने, कपिः, अग्निः, वानरश्च । अहुङ गतो, अहिः-सर्पः, वृत्रः वप्रश्च ।। ६१४ ॥
उभेत्रौ च ॥ ६१५॥
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सूत्र-६१६-६१६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४३१
उभत् पूरणे, इत्यस्माद् इ: प्रत्ययो भवत्यस्य च द्व त्र इत्यादेशौ, भवतः । द्वौ द्वितीयः, द्विमुनि व्याकरणस्य । त्रयः तृतीयः, त्रिमुनि व्याकरणस्य ।। ६१५ ।।
नी-बी-प्रहृभ्यो डित् ॥ ६१६ ॥
एभ्यो डिद् इ: प्रत्ययो भवति । णींग प्रापणे, निवसति । वींक प्रजनादौ, वि:तन्तुवायः, पक्षी, उपसर्गश्च, यथा विभवति । हग हरणे, प्रपूर्वः, प्रहिः-कूपः, उदपानं च ।। ६१६ ।।
वौ रिचेः स्वरानोऽन्तश्च ॥ ६१७ ॥
वावुपसर्गे सति रिचपी विरेचने, इत्यस्माद् इ: प्रत्ययः स्वरात् परो नोऽन्तश्च भवति । विरिञ्चि:-ब्रह्मा ।। ६१७ ॥
• कमि-वमि-जमि-सि-शलि-फलि-तलि-तडि-वजि-जि-ध्वजि-राजि-पणि-वणिवदि-सदि-हदि-हनि-सहि-वहि-तपि-वपि-भटि-कञ्चि-संपतिभ्यो णित् ॥ ६१८ ॥
एभ्यो णिद् इः प्रत्ययो भवति । कमूङ कान्तौ, कामिः-वसुकः, कामी च । टुवमू उगिरणे, वामिः-स्त्री । जमू अदने, जामिः-भगिनी, तृणं, जनपदश्चकः । घस्ल अदने, घासि:-संग्रामः, गर्तः, अग्निः, बहुभुक् च शल गतौ, शालिः-वीहिराजः। फल निष्पत्ती, फालि:-दलम् । तलण प्रतिष्ठायाम् , तालिः-वृक्षजातिः। तडण् आघाते. ताडिः स एव । वज व्रज ध्वज गतो. वाजि:-अश्वः, पहावसानं च। वाजिः-पद्धतिः. पिटकजातिश्च । ध्वाजिः-पताका, अश्वश्च । राजग दीप्तो, राजिः-पङक्तिः, लेखा च । पणि व्यवहारस्तुत्यो, पाणिः-करः । वण शब्दे, वाणिः-वाक्, ड्याम् वाणी । वद वक्तायां वाचि, वादि: वाग्मी, वीणा च । षद्ल विशरणगत्यवसादनेषु, सादि:-अश्वारोहः, सारथिश्च । हदि पुरीषोत्सर्गे, हादिः लूता। हनं हिंसागत्योः, घातिः-प्रहरणम् । केचित्तु हानिः- अर्थनाश:. उच्छित्तिश्चेति उदाहरन्ति तत्र बाहुलकात् 'ञ्णिति घात्' इति घाद् न भवति । बाहुलकादेव णित्त्वविकल्पे, हनिः-आयुधम् । षहि मर्षणे, साहिः-शैलः । वहीं प्रापणे, वाहि.-अनड्वान् । तपं संतापे, तापिः-दानवः । ड्रवपी बीजसंताने वापि:-पुष्पकरिणी । भट भृतो. भाटि:सुरतमूल्यम् । कचुङ दीप्तौ काञ्चिः -मेखला, पुरी च । णित्करणादनुपान्त्यस्यापि वृद्धिः । पत्लु गतौ, सपूर्वः संपाति:-पक्षिराजः ।। ६१८॥
कु-श-कुटि-ग्रहि-खन्यणि-कष्यलि-पलि-चरि-वसि-गण्डिभ्यो वा ॥ ६१९ ॥
एभ्य इ. प्रत्ययः स च णिद्वा भवति । डुकृग् करणे, कारि:-शिल्पी, करिः-हस्ती, विष्णुश्च । शुश् हिंसायाम् , शारि.-छूतोपकरणम् , हस्तिपर्याणम् , शारिका च । शरि:हिंसा, शूलश्च । कुटत् कौटिल्ये, कोटि:-अस्रिः, अग्रभागः, अष्टमं वाङ्कस्थानं च, कुटि:गृहं, शरीराङ्गच । ग्रहोण् उपादाने, ग्राहिः-पतिः, ग्रहिः-वेणुः । खनूग अवदारणे, खानिः, खनिश्च, निधिः, आकरः, तडागं च । अण शब्दे, आणिः, अणिश्च-द्वारकीलिका। कष हिंसायाम् , काषिः-कर्षकः । कषिः-निकषोपलः, काष्ठम् , अश्वकर्णः, खनित्रं च । अली
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४३२]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-६२०-६२७
भूषणादौ, आलि:-पङक्तिः , सखी च, अलि:-भ्रमरः । पल गतौ, पालि:-जलसेतुः, कर्णपर्यन्तश्च, पलिः-संस्त्यायः । चर भक्षणे च, चारि:-पशूनां भक्ष्यम् । चरि:-प्राकारशिखरम् , विषयः, वायुः, पशुः, केशोर्णा च । वसं निवासे, वासि:-तक्षोपकरणम् , वसिःशय्या, अग्निः, गृहं, रात्रिश्च । गडु वदनैकदेशे, गण्डि:-गण्डिका। णित्त्वपक्षे तु अनुपान्त्यस्यापि वृद्धौ गाण्डि:-धनुष्पर्व ॥ ६१६ ।।
पादाचात्यजिभ्याम् ॥ ६२०॥
पादशब्दपूर्वाभ्यां केवलाभ्यां चाऽत्य जिभ्यां णिद् इः प्रत्ययो भवति । अत सातत्यगमने, अज क्षेपणे च । पादाभ्यामतत्यजति वा पदातिः, पदाजिः । 'पदः पादस्याज्यातिगोपहते' इति पदभावः । उभावपि पत्तिवाचिनौ । आति:-पक्षी, सुपूर्वात् स्वातिः-वायव्यनक्षत्रम् । आजि:-संग्रामः-स्पर्धाऽवधिश्च ।। ६२० ॥
नहे च ॥ ६२१॥
णहीच बन्धने, इत्यास्माण्णिद् इः प्रत्ययो भवति । भकारश्चान्तादेशो भवति । नाभि:-अन्त्यकूलकरः, चक्रमध्यं, शरीरावयवश्च ।। ६२१ ।।
अशो स्वादिः ।। ६२२ ॥
अशौटि व्याप्तौ इत्यस्माण्णिद् इः प्रत्ययो भवति, रेफश्च धातोरादिर्भवति । राशिः-समूहः, नक्षत्रपादनवकरूपश्च मेषादिः ॥ ६२२ ।।
कायः किरिच वा ॥ ६२३ ॥
के शब्दे, इत्यस्मात् कि: प्रत्ययो भवति । इकारश्चान्तादेशो वा भवति । किकि:पक्षी, विद्वांश्च । काकि:-स्वरदोषः ।। ६२३ ।।
वर्द्धरकिः ॥ ६२४ ॥ वर्धण् छेदन-पूरणयोः, इत्यस्माद्ः अकिः प्रत्ययो भवति । वर्धकिः-तक्षा ॥६२४॥ सनेखिः ।। ६२५ ॥
षयी दाने, इत्यस्माद् डिद् अखिः प्रत्ययो भवति । सखा-मित्रम् , सखायौ, सखायः ।। ६२५॥
कोडिखिः ॥ ६२६॥ कुंक् शब्दे, इत्यस्माद् डिद् इखिः प्रत्ययो भवति । किसिः-लोमसिका ।। ६२६ ।। मृ-श्वि-कण्यणि-दध्यविभ्यः ईचिः ॥ ६२७ ॥
एभ्य ईचिः प्रत्ययो भवति । मृत् प्राणत्यागे, मरीचिः-मुनिः, मयूखश्च । ट्वोश्वि गति-वृद्धयोः, श्वयोचिः-चन्द्रः, श्वयथुश्च । कण अण शब्दे, कणीचि:-प्राणी, लता, चक्षुः,
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सूत्र-६२८-६३५ ]
स्वोपज्ञोणांदिगणसूत्र विवरणम्
शकटं, शङ्खश्च । अणीचि:-वेणुः, शाकटिकश्च । दधि धारणे, दधीचिः- राजषिः। अव रक्षणादौ, अवीचिः-नरकविशेषः ॥ ६२७ ॥
वेगो डित् ॥ ६२८॥ वेंग् तन्तुसंताने, इत्यस्माद् डिद् ईचिः प्रत्ययो भवति । वींचिः-उर्मिः ॥ ६२८ ॥ वणेणित् ॥ ६२६ ॥ वण शब्दे, इत्यस्माद् णिद् ईचिः प्रत्ययो भवति । वाणीचिः-छाया, व्याधिश्च ।६२९॥ कृषि-शकिभ्यामटिः ॥ ६३०॥.
आभ्याम् अटिः प्रत्ययो भवति । कृपौड सामर्थ्य, कटिं:-नि.स्वः । शक्लूट शक्ती, शकटि:-शकट: ।। ६३०॥
श्रेर्दिः ॥६३१॥ श्रिग् सेवायाम् , इत्यस्माद् ढि: प्रत्ययो भवति । श्रेढिः-गणितव्यवहारः ।।६३१।। चमेरुच्चातः ॥ ६३२॥ चमू अदने, इत्यस्माद् ढिः प्रत्ययो भवत्यस्योकारश्च । चुण्डि:-क्षुद्रवापी ॥६३२॥ मुषेरुण चान्तः ॥ ६३३ ॥
मुषश् स्तेये, इत्यस्माद् ढिः प्रत्यय उण चान्तो भवति । मुषुण्ठिः-प्रहरणम् । उणो न गुणो विधानसामर्थ्यात् ।। ६३३ ।।
का-वा-वी-क्री-श्रि-श्रु-क्षु-ज्वरि-तूरि-चूरि-पूरिभ्यो णिः ॥ ६३४ ॥
एभ्यो णिः प्रत्ययो भवति । के शब्दे, काणिः-वैलक्ष्याननुसर्पणम् । वेंग तन्तुसन्ताने, वाणिः-व्यूतिः । वींक प्रजनादौ, वेणिः-कबरी। डुकींग्श् द्रव्यविनिमये, क्रेणि:-क्रयविशेषः । श्रिग सेवायाम् , श्रेणिः-पङक्तिः, बलविशेषश्च, श्रेणयः-अष्टादश गणविशेषाः । निपूर्वात् निश्रेणिः-संक्रमः । श्रृंट श्रवणे, श्रोणिः-जघनम् । टुक्षुक शब्दे, क्षोणिः पृथ्वी । ज्वर रोगे, जूणिः-ज्वरः, वायुः, आदित्यः, अग्निः, शरीरं, ब्रह्मा, पुराणश्च । तूरैचि त्वरायाम् , तूणिः-त्वरा, मन:, शीघ्रश्च । चूरैचि दाहे, चूणिः-वृत्तिः । पूरैचि आप्यायने, पूणिःपूरः ।। ६३४ ॥
ऋत्-घृ-सू-कृ-वृषिभ्यः कित् ॥ ६३५ ॥
ऋकारान्तेभ्यो इत्यादिभ्यश्च किद् णिः प्रत्ययो भवति । शश हिंसायाम् शीणि:-रोगः, अवयवश्च । स्तम्श आच्छादने, स्तीणिः-संस्तरः । सेचने, घृणि:-रश्मिः, ज्वाला, निदाघश्च । सृ गौ सृणि:-आदित्यः, वज्रम् , अनिलः, अबकुशः, अग्निश्च । कुंक शब्दे, कुणि:-विकलो हस्तः, हस्तविकलश्च । वृषू सेचने, वृष्णिः-वस्तः, मेषः, यदुविशेषश्च । पर्षतेरपीच्छन्त्येके । पृष्णि:-रश्मिः ॥६३५।।
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. ४३४ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्र विवरणम्
[ सूत्र- ६३६-६४३
पृषि - हृषिभ्यां वृद्धिश्व ॥ ६३६ ॥
आभ्यां णिः प्रत्ययो नयोश्च वृद्धिर्भवति । पृषू सेचने, पाणि:- पादपश्चाद्भागा, पृष्ठप्रदेशश्च । हृषंच् तुष्टी, हाष्णिः - हरणम् ।। ६३६ ।।
हूर्णि:-धूर्णि भूर्णि धूर्यादयः ॥ ६३७ ॥
एते प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । हृग् हरणे, घुंग् धारणे, भू सत्तायाम् घृ सेचने, ऊत्वं रश्चान्तो निपात्यते । हूणिः कुल्या । घूणिः धृतिः । भूणिः - चेतनं, भूमिः, कालश्च । घूर्णि:- :- भ्रमः । आदिग्रहणादन्येऽपि ।। ६३७ ।।
ऋ-हृ-सृ-मृ-धृ-भृ-कृ-तु-ग्रहेरणिः ॥ ६३८ ॥
rsfr: प्रत्ययो भवति । ऋक् गतौ, अरणिः अग्निमन्थनकाष्ठम् । हृग् हरणे, हरणि:- कुल्या, मृत्युश्च । सृ गतौ, सरणिः - ईषद् गतिः पन्थाः, आदित्यः, शिरा, संघातश्च । मृत् प्राणत्यागे, मरणिः- रात्रिः । धृग् धारणे, धरणिः क्षितिः । टुडुभृ ंग्क् पोपणे च, भरणि:नक्षत्रम् | डुकु ग् करणे, करणि:- सादृश्यम् । तू प्लवन-तरणयो:, तरणि:- संक्रमः, आदित्यः, यवागूः, पतितगोरूपोत्थापनी च यष्टिः । वै दुःखार्थः, दुःखेन तीर्यत इति, वैतरणीनदी । ग्रहीश् उपादाने, ग्रहणिः- जठराग्निः, तदाघारो व्याधिः, मेढ्र, मृत्युश्च ।। ६३८ ॥ -
कङ्केरिच्चास्य वा || ६३६ ॥
ककुङ गतौ, इत्यस्माद् अणिः प्रत्ययो भवति, धातोरस्य चेकारो वा भवति । कङ्कणिः, कङ्कणम्, किङ्कणिः - घण्टा ।। ६३६ ।।
कर्णित् ॥ ६४० ॥
afe लौल्ये, इत्यस्माद् द् िअणिः प्रत्ययो भवति । काकणिः -मानविशेषः | ६४० । कृषेश्व चादेः ॥ ६४१ ॥
कृषीत् विलेखने, इत्यस्माद् अणिः प्रत्ययो भवत्यादेश्च चकारो भवति । चर्षणिःचमूः, अग्निः, बुद्धि:, व्यवसायः, वेश्या, वृषश्च ।। ६४१ ।।
क्षिपेः कित् || ६४२ ॥
क्षिपत् प्रेरणे, इत्यस्मात् किद् अणिः प्रत्ययो भवति । क्षिपणिः- आयुधं, बडिश - बन्धकः, कर्मकृता पाषाणसर्जनी च ।। ६४२ ।।
आङः -कृ-हृ-शुषेः-सनः ॥ ६४३ ॥
आङः परेभ्यो डुकृग् करणे, हृांग् हरणे, शुषंच शोषणे, इत्येतेभ्यः सन्नन्तेभ्योऽणिः प्रत्ययो भवति । आचिकार्षणिः - व्यवसायः । आजिहीर्षणिः श्रीः । आशुशुक्षणि:- अग्निः, वायुश्च ।। ६४३ ॥
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सूत्र-६४४-६५२ ]
स्वपोज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[४३५
वारिसादेरिणिक् ॥ ६४४ ॥
एभ्यः किद् इणिः प्रत्ययो भवति । वृन्ट् वरणे, ण्यन्तः । वारिणिः-पशुः, पशु-. वृत्तिश्च । सृगतौ, त्रिणिः-अग्निः, वज्र च । आदिग्रहणादन्येऽपि ॥ ६४४ ॥
अदेस्त्रीणिः ॥ ६४५ ॥ अदंक भक्षणे, इत्यस्मात् त्रोणिः प्रत्ययो भवति । अत्रीणि:-कृमिजातिः ।।६४५।। प्लु-ज्ञा-यजि-पपि-पदि-बसि-वितसिभ्यस्तिः ।। ६४६ ॥
एभ्यः तिः प्रत्ययो भवति । प्लुङ गतो, प्लोतिः-चीरम् । ज्ञांश अवबोधने, त्रैलोक्यस्य त्रातेति ज्ञाति:-इक्ष्वाकुर्वषभः, स्वजनश्च । यजी देवपूजादौ, यष्टिः-दण्डः, लता च । पप समवाये, सप्ति:-अश्वः । पदिंच गतो, पत्तिः-पदातिः । वसं निवासे, वस्ति:-. मूत्राधारः, चर्मपुटः, स्नेहोपकरणं च । तसूच् उपक्ष विपूर्वः, वितस्तिः-अधहस्तः ।६४६।
प्रथेलु क् च वा ।। ६४७ ॥
प्रथिष प्रख्याने, इत्यस्मात् तिः प्रत्ययो भवति, अन्तस्य च लुग् वा भवति । वृक्षं प्रति विद्योतते-प्रतिष्ठितः। पक्षे प्रत्तिः-प्रथनं, भागश्च ।। ६४५ ।।
कोर्यषादिः ।। ६४८॥ कुंक शब्दे, इत्यस्माद् यषादिः तिः प्रत्ययो भवति । कोयष्टि:-पक्षिविशेषः । ६४८। यो गृप च ॥ ६४६ ॥
गत् निगरणे, इत्यस्मात् तिः प्रत्ययो भवत्यस्य च गृष् इत्यादेशो भवति । गृष्टिःसकृत् प्रसूता गौः ।। ६४६ ।।
सोरस्तेः शित् ॥ ६५० ॥
सुपूर्वात् असक् भुवि, इत्यस्मात् , शित् तिः प्रत्ययो भवति । स्वस्ति-कल्याणम् । शित्त्वाद् भूभावाल्लुगभावः ।। ६५ ।।
दृ-मुषि-कृषि-रिषि-विषि-शो-शुच्यसि-पूयीण-प्रभृतिभ्यः कित् ॥ ६५१ ॥
एभ्यः कित् तिः प्रत्ययो भवति । दृङत् आदरे, दतिः छागादित्वङमयो जलाधारः । मुषश् स्तेये, मुष्टि:-अङ गुलिसंनिवेशविशेषः। कृषीत् विलेखने, कृष्टि:-पण्डितः । रिष् हिंसायाम् , रिष्टि:-प्रहरणम् । विष्ल को व्याप्ती, विष्टिः-अवेतनकर्मकरः। शोंच तक्षणे, शितिः-कृष्णः, कृशश्च । शुच् शोके, शुक्तिः-मुक्तादिः। अशौटि व्याप्ती, अष्टिःछन्दोविशेषः । पूयैड दुर्गन्धः-विशरणयोः, पूतिः-दुर्गन्ध, दुष्टम् , तृणजातिश्च । इंण्क् गतौ, इति हेत्वादो । टुडुभृगक पोषणे व प्रपूर्वः, प्रभृतिः-आदिः ॥ ६५१ ॥
कु-च्योर्नोऽन्तश्च ।। ६५२ ॥
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४३६.]
- स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र - ६५३-६६०
आभ्यां कि तिः प्रत्ययो भवति नकारश्चान्तो भवति । कुङ शब्दे, कुन्तिः- राजा, कुन्तयः - जनपदः । चिग्ट् चयने, चिन्तिः- राजा ।। ६५२ ।।
खल्यमि-रमि-वहि-वस्यर्तेरतिः ॥ ६५३ ॥
एभ्योऽतिः प्रत्ययो भवति । खल संचये च खलति :- खल्वाटः । अम् गतौ, अमतिः- चातकः, छागः, प्रावृट्, मार्गः, व्याधिः, गतिश्च । रमिं क्रीडायाम्, रमतिःक्रीडा, काम:, स्वर्गः, स्वभावश्च । वहीं प्रापणे, वहतिः- गौः, वायुः, अमात्यः, अपत्यं, कुटुम्बं च । वसं निवासे, वसतिः - निवासः, ग्रामसंनिवेशश्च । ऋक् गतौ, अरति:- वायुः, सरणम्, असुखं क्रोधः, वर्म च ।। ६५३ ।
हन्तेरह च ॥ ६५४ ॥
हन हिंसागत्योः, इत्यस्मादति: प्रत्ययो भवत्यस्य च अंह, इत्यादेशो भवति । अंहतिः - व्याधिः पन्थाः कालः, रथश्च ।। ६५४ ।।
वृगो व्रत् च ॥ ६५५ ॥
वृग्ट् वरणे, इत्यस्माद् अतिः प्रत्ययो भवत्यस्य च व्रत् इत्यादेशो भवति । व्रततिः- वल्ली ॥। ६५५ ।।
अञ्चैः क च वा ॥ ६५६ ॥
अञ्च गतौ चेत्यस्माद् अतिः प्रत्ययो भवत्यस्य च क् इत्यन्तादेशो वा भवति । अङ्कतिः- वायुः, अग्निः प्रजापतिश्च । अञ्चतिः - अग्निः ।। ६५६ ।।
:
वातेणिंद्वा ॥ ६५७ ॥
वां गतिगन्धनयो:, इत्यस्माद् अतिः प्रत्ययो भवति, स च णिद् वा भवति । वायतिः - वातः, वातिः - गन्धमिश्रपवनः ।। ६५७ ।।
योः कित् ।। ६५८ ||
युक् मिश्रणे, इत्यस्माद् अति: प्रत्ययः किद् भवति । युवतिः तरुणी ॥ ६५८ ॥ पार्वा ।। ६५६ ||
पां रक्षणे, इत्यस्माद् अतिः प्रत्ययः स च किद्वा भवति । पतिः भर्ता, पाति:भर्ता, रक्षिता, प्रभुश्च ।। ६५९ ।।
अगि विलि-पुलि-चिपेरस्तिक् ।। ६६० ॥
एभ्यः किदु अस्तिः प्रत्ययो भवति । अग कुटिलायां गतौ, अगस्तिः । विलत् वरणे, विलस्तिः । पुल महत्त्वे पुलस्तिः । क्षिपत् प्रेरणे, क्षिपस्तिः । एते लौकिका ऋषयः । अगस्तिः- वृक्षजातिश्च ।। ६६० ।।
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सूत्र-६६१-६७० ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[४३७
गृधेर्गम् च ॥ ६६१ ॥
धूच अभिकाङक्षायाम् , इत्यस्माद् अस्तिक् प्रत्ययो भवति, गर्म चास्यादेशो भवति । गभस्ति:-रश्मिः ॥ ६६१ ॥
वस्यर्तिभ्यामातिः ॥ ६६२ ॥
आभ्याम् आतिः प्रत्ययो भवति । वसं निवासे, वसातयः- जनपदः । ऋक गती, अराति:-रिपुः ।। ६६२ ।।
अभेर्यामाभ्याम् ।। ६६३ ॥
अभिपूर्वाभ्यामाभ्याम् आतिः प्रत्ययो भवति । यांक प्रापणे, मांक माने, अभियातिः, अभिमातिश्च-शः।। ६६३ ।।
यजो य च ॥ ६६४ ॥
यजी देवपूजादौ, इत्यस्माद् आतिः प्रत्ययो भवत्यस्य च यकारोऽन्तादेशो भवति । ययाति:-राजा ।। ६६४ ॥
वद्यवि-च्छदि-भूभ्योऽन्तिः ॥ ६६५॥
एभ्योऽन्तिः प्रत्ययो भवति । वद वक्तायां वाचि, वदन्तिः-कथा । अव रक्षणादिषु, अवन्तिः-राजा । अवन्तयः-जनपदः । छदण् अपवारणे, युजादिविकल्पितणिजन्तत्वादण्यन्तः, छदन्तिः-गृहाच्छादनद्रव्यम् , भू सत्तायाम् , भवन्ति:-कालः, लोकस्थितिश्च ।५६५।
शकेरुन्तिः ॥ ६६६ ॥ शक्लृट् शक्ती, इत्यस्माद् उन्तिः प्रत्ययो भवति । शकुन्ति:-पक्षी ।। ६६६ ॥ नत्रो दागो डितिः ॥ ६६७ ।।
नपूर्वात् डुदांग्क् दाने, इत्यस्माद् डिद् इतिः प्रत्ययो भवति । अदितिः-देवमाता ।। ६६७ ॥ .
देडः ॥ ६६८॥ देङ रक्षणे, इत्यस्माद् डिद् इतिः प्रत्ययो भवति । दितिः-असुरमाता ॥ ६६८ ।। वीसञ्ज्यिसिभ्यस्थिक् ॥ ६६६ ।।
एभ्यः थिक् प्रत्ययो भवति । वींक प्रजनादिषु, वीथिः-मार्गः। षजं सङ्गे, सक्थि:-ऊरुः, शकटाङ्गच । असूच क्षेपणे, अस्थि-पञ्चमो धातुः ।। ६६९ ॥
सारेरथिः॥ ६७०॥ सृगतो, इत्यस्माद् ण्यन्तादथिः प्रत्ययो भवति । सारथिः-यन्ता ।। ६७०॥
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४३८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-६७१-६८०
निषजेर्षित् ॥ ६७१ ॥
निपूर्वात् षजं सङगे, इत्यस्माद् चिद् अथिः प्रत्ययो भवति । निषङ्गथिः-रुद्रः, धनुर्धरश्च । घित्करणं गत्वार्थम् ।। ६७१ ।।
उदत र्णिद् वा ॥ ६७२॥
उत्पूर्वाद् ऋक् गतौ, इत्यस्माद् अथि: प्रत्ययो भवति, स च णिद्वा भवति । उदा. रथिः-विष्णुः, उदरथिः-विप्रः, काष्ठं, समुद्रः, अनड्वांश्च ।। ६७२ ।।
अतेरिथिः ॥ ६७३ ॥
अत सातत्यगमने, इत्यस्माद् इथि: प्रत्ययो भवति । अतिथि:-पात्रतमः, भिक्षावृत्तिः ॥ ६७३॥
तनेर्डित् ॥ ६७४ ।। तनूयी विस्तारे, इत्यस्माद् डिद् इथिः प्रत्ययो भवति । तिथि:-प्रतिपदादिः । ६७४। उषेरधिः ।। ६७५॥ उषू दाहे, इत्यस्माद् अधिः प्रत्ययो भवति । औषधिः-उद्भिद्विशेषः ।। ६७५ ।। विदो रधिक ॥ ६७६ ॥ विदक् ज्ञाने, इत्यस्मात् किद् रधिः प्रत्ययो भवति । विद्रधिः- व्याधिविशेषः ।६७६। वी-यु-सु-वह्यगिभ्यो निः ॥ ६७७ ॥
एभ्यो निः प्रत्ययो भवति । वीक प्रजनादौ, वेनिः-व्याधिः, नदी च । युक् मिश्रणे, योनिः प्रजननमङ्गम् , उत्पत्तिस्थानं च । धुंन्ट् अभिषवे, सोनि:-सवनम् । वहीं प्रापणे, वह्निः-पावकः, बलीवर्दश्च । अग कुटिलायां गतौ, अग्निः-पावकः ।। ६७७ ।।
धूशाशीडो ह्रस्वश्च ।। ६७८ ॥
एभ्यो नि: प्रत्ययो भवति, ह्रस्वश्चैषां भवति । धूग्श् कम्पने, धुनिः-नदी । शोंच तक्षणे, शनिः-सौरिः । शीङ स्वप्ने, शिनिः-यादवः, वर्णश्च ।। ६७८ ।।
लू-धू-प्रच्छिभ्यः कित् ॥ ६७६ ॥
एभ्यः किद् निः प्रत्ययो भवति । लुग्श् छेदने, लूनि:-लवनः । धूग्श् कम्पने, धूनिःवायुः। प्रच्छंत् ज्ञोप्सायाम् , पृश्नि:-वर्णः, अल्पतनुः, किरणः, वर्गश्च ।। ६७९ ॥
सदि-वृत्यमि-धम्यश्यटि-कट्यवेरनिः ॥ ६८० ॥
एभ्योऽनिः प्रत्ययो भवति । षद्ल विशरणादौ, सदनिः-जलम् । वृतूड, वर्तने, वर्तनि:-पन्थाः, देशनाम च । अम गतौ, अमनि:-अग्निः । धमः सौत्रः, धमनि:-मन्या, रसवहा च शिरा । अशौटि व्याप्ती, अशनि:-इन्द्रायुधम् । अट गतौ । अटनिः- चापकोटिः । कटे वर्षावरणयोः, कटनि:-शैलमेखला । अव रक्षणादौ, अवनि:-भूः ।। ६८० ॥
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सूत्र-६८१-६६० ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[४३९
रज्जेः कित् ॥ ६८१॥ रञ्जी रागे, इत्यस्मात् किद् अनिः प्रत्ययो भवति । रजनिः-रात्रिः ।। ६८१ ।। अतरत्निः ॥ ६८२॥
ऋक् गती, इत्यस्माद् अत्निः प्रत्ययो भवति । अरलिः- बाहुमध्यम् शमः, उत्कनिष्ठश्च हस्तः ॥ ६८२॥
एघेरिनिः॥ ६८३॥ एघि वृद्धी, इत्यस्माद् इनिः प्रत्ययो भवति । एधिनिः-मेदिनी ॥ ६८३ ॥ शकेरुनिः॥ ६८४॥ शक्लृट् शक्ती, इत्यस्माद् उनिःप्रत्ययो भवति । शकुनि:-पक्षी ।। ६८४ ।। अदेमेनिः ॥ ६८५॥
अदंक भक्षणे, इत्यस्माद् मनिः प्रत्ययो भवति । अनिः-पशूनां भक्षणद्रोणी, अग्निः, जयः, हस्ती, अश्वः, तालु च ।। ६८५ ॥ . दमे भिदुम् च ॥ ६८६ ।।
दमूच् उपशमे, इत्यस्माद् दुभिः प्रत्ययो भवत्यस्य च दुमित्यादेशो भवति । दुन्दुभिः-देवतूर्यम् ।। ६८६ ।।
नी-सा-वृ-यु--बलि-दलिभ्यो मिः ॥ ६८७ ॥
एभ्यो मिः प्रत्ययो भवति । णोंग प्रापणे, नेमिः-चक्रधारा। षोंच अन्तकर्मणि, सामि-अर्धवाचि अव्ययम् । वृग्ट् वरणे, वमिः-वल्मीककृमिः। युक् मिश्रणे, योमिःशकुनिः। शृश् हिंसायाम् , शमिः-मृगः। वलि संवरणे, वल्मिः-इन्द्रः, समुद्रश्च । दल विशरणे, दल्मिः -आयुधम् , इन्द्रः, समुद्रः, शकः, विषं च ।। ६८७ ।।
अशो रश्चादिः॥ ६८८॥
अशौटि व्याप्ती, इत्यस्माद् मिः प्रत्ययो भवति, रेफश्च धातोरादिर्भवति । रश्मिःप्रग्रहः, मयूखश्च ।। ६८८॥ . . . . . ...
सतरुच्चातः ॥ ६८६ ।।
आभ्यां मिः प्रत्ययो भवति, गुणे च कृतेऽकारस्योकारो भवति । सृगतो, सूमिःस्थूणा । ऋक् गतो, ऊर्मिः-तरङ्गः ।। ६८९ ॥
कृ-भूभ्यां कित् ॥ ६६० ॥
आभ्यां किद् मिः प्रत्ययो भवति । डुकृग् करणे, कृमि:-क्षुद्रजन्तुजातिः । भू सत्तायाम् , भूमिः-वसुधा ।। ६६०॥ . . . .
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४४०]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
६९१-६९०
कणेर्डयिः ॥ ६६१ ॥ क्वण शब्दे, इत्यस्माद् डिद् अयिः प्रत्ययो भवति । क्वयिः-पक्षिविशेषः ॥६९१।। तङ्कि-वङ्कयकि-मङ्कय हि-शद्यदि-सघशौ-वपि-शिम्यो रिः ॥ ६६२ ।।
एभ्यो रिः प्रत्ययो भवति । तकु कृच्छ्रजीवने । तङ क्रि:-युवा । वकुड कौटिल्ये, व क्रि:-शल्यं, परशुका, रथः, अहः कुटिलश्च । अकुङ, लक्षणे, 'अङ क्रिः-चिह्नम् , वंशकठिनिकश्च । मकुङ मण्डने, मङक्रि:-मण्डनम् , शठः, प्रवकश्च । अहुङ गतौ, अंहिःपादः, अङघेरप्येके । अघुङ गत्याक्षेपे, अङघ्रिः । शलु शातने, शद्रिः-वज्रः, भस्म, हस्ती, गिरिः, ऋषिः, शोभनश्च । अदंक भक्षणे, अद्रि:-पर्वतः। षद्ल विशरणादौ, सद्रिः-हस्ती, गिरिः, मेषश्च । अशौटि व्याप्ती, अश्रि:-कोटिः । डुवपी बीजसंताने, वप्रिःकेदारः । वशक् कान्तौ वधिः-समूहः ॥ ६६२ ।।
भू-सू-कुशि-विशि-शुभिभ्यः कित् ॥ ६६३ ॥ __ एभ्यः किद् रि प्रत्ययो भवति । भू सत्तायाम् , भूरि-प्रभूतं, काञ्चनं च । षूत् प्रेरणे, सूरिः-आचार्यः, पण्डितश्च । कुशच्-श्लेषणे, कुश्रिः-ऋषिः । विशंत् प्रवेशने, विश्रिः मृत्युः, ऋषिश्च । शुभि दीप्तौ, शुभ्रिः-यतिः, विप्रः, दर्शनीयं, शुभं सत्यं च । ६९३।
जषो-रश्च वः ॥ ६६४ ॥
जुष्व जरसि, इत्यस्मात् किद् रिः प्रत्ययो भवति, ईरि सति रेफस्य वकारश्च भवति । जीविः-शरीरम् ।। ६९४ ॥
कुन्द्रि-कुद्रयादयः॥ ६६५॥
कून्द्रयादयः शब्दाः किद् रिप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । कुपेः-कौतेश्च दश्चान्तः । कुन्द्रिः-ऋषिः । कुद्रिः-पर्वतः, ऋषिः समुद्रश्च । आदिग्रहणात् क्षौतेर्दोऽन्तः, क्षुद्रिः-समुद्रः । अर्तेोऽन्तः, ऋग्रिः लोकनाथः । शके: शक्रि:-बलवा नित्यादयोऽपि भवन्ति ।। ६६५ ।।
रा-शदि-शकि-कद्यदिभ्यखिः ॥ ६६६ ।
एभ्यः त्रिः प्रत्ययो भवति । रांक दाने, रात्रिः-निशा । शलु शातने, शत्त्रिःकुञ्जरः, क्रौञ्चश्च । शक्लट् शक्ती, शक्ति:-क्रौञ्चः, ऋषिश्च । कद वैक्लव्ये सौत्रः, कत्त्रिः-ऋषिः । अदंक भक्षणे, अत्रिः-ऋषिः ।। ६५६ ॥
पतेरत्रिः ।। ६६७॥ पत्ल गती, इत्यस्माद् अत्रिः प्रत्ययो भवति । पतत्रि:-पक्षी ।। ६९७ ॥ नदि-वल्लयर्तिकृतेररिः। ६६८॥.. एभ्योऽरिः प्रत्ययो भवति । णद अव्यक्ते शब्दे, नदरिः-पटहः। वल्लि संवरणे,
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सूत्र-- ६६९-७०५ ]
स्वोपज्ञोणादिगण सूत्रविवरणम्
[ ४४१
वल्लरि:- लता, वीणा, सस्यमञ्जरी च । ऋक् गतौ अररि:- कपाटम् । कृतैत् छेदने, कर्तरिः-केशादिकर्तनयन्त्रम् ॥ ६९८ ।।
मस्यसि सि जस्यङ्गि सहिभ्य-उरिः ॥ ६६६ ॥
एभ्य उरिः प्रत्ययो भवति । मसैच् परिणामे, मसुरि:- मरीचिः । असूच् क्षेपणे, असुरिः- संग्रामः । घस्लृ अदने घसुरि:- अग्निः । जसूच् मोक्षणे, जसुरिः - समाप्तिः, अशनि:, अरणिः, क्रोधश्च । अगु गतौ, अङगुरि:- करशाखा, लत्वे अङ्गुलिः । षहि मर्षणे, सहुरि :- पृथ्वी, अक्रोधनः, अनड्वान् संग्रामः, अन्धकारः, सूर्यश्च ।। ६९९ ।।
,
मुहे: कित् ।। ७०० ॥
मुहाच् वैचित्ये, इत्यस्मात् किद् उरिः प्रत्ययो भवति । मुहुरि:- सूर्यः, अनड्वांश्च
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धू-मृभ्यां लिक्-लिणौ ॥ ७०१ ॥
आभ्यां यथासंख्यं लिक् लिण् एतौ प्रत्ययौ भवतः । धूग्श् कम्पने, धूलिः - पांसुः । मूङ बन्धने, मौलि:- मुकुटः ।। ७०१ ।।
पाठ्यञ्जिभ्यामलिः | ७०२ ||
आभ्याम् अलिः प्रत्ययो भवति । पट गतौ ण्यन्तः, पाटलिः - वृक्षविशेषः । अञ्जोप् व्यक्त्यादौ, अञ्जलिः - पाणिपुट:, प्रणामहस्तयुग्मं च ।। ७०२ ।।
मा- शालिभ्यामोकुलि-मली ॥ ७०३ ॥
आभ्यां यथासंख्यम् ओकुलि-मलि इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः । मां माने, मोकुलि:काकः । शल गतौ ण्यन्तः, शाल्मलिः - वृक्षविशेषः ।। ७०३ ।।
दु-पु-व-भ्यो विः ॥ ७०४ ॥
•
वः प्रत्ययो भवति । दृश् विदारणे, दवि:- तर्दृ: । पृश् पालनपूरणयो:, पर्वि:कङ्कः, हिंस्रश्च । वृग्श् वरणे, वर्विः शकटं, घात्री, काकः, श्येनश्च । ७०४ ॥
जु- शु-स्तृ-जागृ-कृ-नी-घृषिभ्यो ङित् ॥ ७०५ ॥
एभ्यो ङदु विः प्रत्ययो भवति । जुष्च् जरसि, जीवि :- वायुः, पशुः, कण्टकः, शकटः, मद्गुः, कायम्, गुल्मं, शङ्का, वृद्धः, वृद्धभावश्च । शृश् हिंसायाम्, शीविः - हिंस्र:, कृमि:, न्यङ्कुश्च । स्तग्श आच्छादने, स्तीविः - गर्विष्ठः, अध्वर्युः, भगः, तनुः, रुधिरं, भयम्, तृणजातिः, नभः, अजश्च । जागृक् निद्राक्षये, जागृविः - राजा, अग्निः, प्रबुद्धश्च । ङित्वान्न गुणः । डुकृ ंग् करणे, कृविः - रुद्रः, तन्तुवायः, तन्तुवायद्रव्यम्, राजा च । यदुपज्ञ कृवय इति पूरा पञ्चालानाचक्षते । णींग् प्रापणे, नीविः - परिधान ग्रन्थिः, मूलधनं च । घृषु संघर्षे, घृष्वः - वराहः, वायुः, अग्निश्च ।। ७०५ ।।
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४४२ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-७०६-७११
छवि-छिवि-स्फवि-स्फिवि-स्थवि-स्थिवि-दवि-दीवि किकिवि-दिदिवि-दीदिवि-- किकीदिवि-किकिदीवि-शिव्यटव्यादयः ॥ ७०६ ॥
त्ययान्ता निपात्यन्ते । छयतेह्रस्वश्च, छवि.- त्वक, छाया, आवरणं च । छिदेर्लुक च, छिविः-फल्गुद्रव्यम् । स्फायतेः, स्फ-स्फिभावौ च, स्फविः-वृक्षजातिः, स्फिवि:-वक्षः, उदश्विच्च । तिष्ठतेः स्थ-स्थिभावौ च, स्थविः-प्रसेवकः, तन्तुवायः, सीमा, अग्निः, अजङ्गमः, स्वर्गः, कुष्ठी, कुष्ठिमांसं, फलं च, स्थिवि -सीमा । दमैलुक च, दवि:धर्मशीलः, दाता, स्थानं, फालश्च । दीव्यतेर्दीर्घश्च, दीवि: कितवः, द्युतिमान् , कालः, व्याघ्रजातिश्च । कितेदित्वं पूर्वस्य चत्वाभावो लुक् च, किकिविः-पक्षिविशेषः । दिवेद्वित्वं पर्वस्य दीर्घश्च वा. दिदिवि:-स्वर्गः। दीदिविः-अन्नं स्वर्गश्च । किते किकीदिभावश्च. किकीदिविः-वर्णः, पक्षी च । किकिपूर्वात् दीव्यतेदोर्घश्च । किकीति कुर्वन् दीव्यतोति किकिदीविः-चाषः । शीङो ह्रस्वश्च । शिविः-राजा। अटेरत् चान्तः अटवि:-अरण्यम् । आदिग्रहणादन्येऽपि ।। ७०६ ॥
प्रषि-प्लुषि-शुषि-कुष्यशिभ्यः सिक् ॥ ७०७ ।।
एभ्यः कित् सिः प्रत्ययो भवति । पुषू प्लुषू दाहे, घुक्षि-अग्निः, उदपानश्च । प्लक्षि:-अग्निः, जठर कुशूलश्च । शुषंच् शोषणे, शुक्षिः-वायुः, निदाघः, यवासकः, तेजश्च । कुषश् निष्कर्षे, कुक्षिः -जठरम् । अशौटि व्याप्तौ, अक्षि-नेत्रम् ॥ ७०७ ।।
गोपादेरनेरसिः ॥ ७०८॥
गोप इत्यादिभ्यः पराद् अनक् प्राणने, इत्यस्माद् असिः प्रत्ययो भवति । गोपानसिः-सौधाग्रभागच्छदिः । चित्रानसिः-जलचरः। एकानसिः-उज्जयनी। वाराणसि:काशीनगरी ।। ७०८ ॥
वृ-धृ-पृ-वृ-साभ्यो नसिः ॥ ७०६ ॥
एभ्यो नसिः प्रत्ययो भवति । वृन्ट वरणे, वर्णसिः-तरु: । धृग धारणे, धर्णसि:शैलः, लोकपालः, जलं, माता च । पृश् पालनपूरणयोः, पर्णसिः-जलधरः, उलुखलं, शाकादिश्च । वृश् वरणे, वर्णसिः-भूमि: । षोंच अन्तकर्मणि, सानसिः-स्नेहः, नखः, हिरण्यम् , ऋणं, सखा सनातनश्च ।। ७०६ ॥
वियो हिक् ॥ ७१० ॥ वीश् वरणे, इत्यस्माद् किद् हिः प्रत्ययो भवति । व्रीहिः-धान्यविशेषः ॥ ७१० ॥ त-स्त-तन्द्रि-तन्त्र्यविभ्य ईः ॥ ७११॥
एभ्यः ई. प्रत्ययो भवति । तृ प्लवनतरणयोः, तरी:-नौः, अग्निः, वायु:, प्लवनश्च । स्तृग्श् आच्छादने, स्तरीः-तृणं, धूमः, मेघः, नदी, शय्या च । तन्द्रिः सादमोहनयोः सौत्रः,
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सूत्र-७१२-७१६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
तन्द्रीः-मोहनिद्रा । तन्त्रिण कुटुम्बधारणे, तन्त्री:-शुष्कस्नायुः, वादित्रं, वीणा, आलस्यं च । अव रक्षणादौ, अवीः-प्रकाशः, आदित्यः, भूमिः, पशुः, राजा, स्त्री च ।। ७११॥
नडेणित् ॥ ७१२॥
नडे: सौत्राद् ईः प्रत्ययो भवति, स च गिद् भवति । नाडी-आयतशुषिरं, द्रव्यम् , अर्धमुहूर्तश्च ॥ ७१२ ।।
वातात् प्रमः कित् ॥ ७१३ ॥
वातपूर्वपदात् प्रेणोपसृष्टात् मांक माने, इत्यस्मात् किद् ईः प्रत्ययो भवति । वातप्रमी:-वात्या, अश्वः, वातमृगः, पक्षी, शमीवृक्षश्च ।। ७१३ ।।
या-पाभ्यां द्वे च ॥ ७१४ ॥
आभ्यां किद् ईः प्रत्ययो भवत्यनयोश्च द्वे रूपे भवतः । यांक प्रापणे, ययीः-मोक्षमार्गः, दिव्यवृष्टिः, आदित्यः, अश्वश्च । पां पाने, पपी:-रश्मिः, सूर्यः, हस्ती च ।।७१४॥
लक्षेर्मोऽन्तश्च ॥ ७१५॥
लक्षीण् दर्शनाङ्कनयोः, इत्यस्माद् ईः प्रत्ययो भवति । मकारश्चान्तो भवति लक्ष्मी:-श्रीः ।। ७१५ ।।
भृ-मृ-त-त्सरि-तनि-धन्यनि-मनि-मस्जि-शी-वटि-कटि-पटि-गडि-चञ्च्यसिवसि-त्रपि-श-स्व-स्निहि-क्लिदि-कन्दीन्दि-विन्धन्धि-वन्ध्यणि-लोष्टि-कुन्थिभ्य उः
॥ ७१६ ॥ एभ्यः उ: प्रत्ययो भवति । टुडुइंग्क् पोषणे च, भृग् भरणे वा। भरु:-समुद्रः, वणिः, भर्ता, च । मृत् प्राणत्यागे, मरु:-निर्जलो देशः, गिरिश्च । तु प्लवनतरणयोः, तरु:-वक्षः। त्सर छद्मगतो, त्सरु:-आदर्शखडगादिग्रहणप्रदेशः, वञ्चकः, क्षरिका च । तनूयी विस्तारे, तनुः-देहः, सूक्ष्मश्च । धन धान्ये सौत्रः, धनुः-अस्त्रं, दानमानं च । अनक प्राणने, अनुः-प्राणः, अनु पश्चादाद्यर्थेऽव्ययम् , मनिच् ज्ञाने, मनूयो बोधने वा, मनुःप्रजापतिः । टुमस्जोंत् शुद्धौ । मद्गुः-जलवायसः । शीङक स्वप्ने, शयु:-अजगरः स्वप्नः, आदित्यश्च । वट वेष्टने, वटुः-माणवकः । कटे वर्षावरणयोः, कटुः-रसविशेषः । पट गतो, पटुः-दक्षः । गड सेचने, गडुः-घाटामस्तकयोर्मध्ये मांसपिण्डः, स्फोटश्च । चञ्चू गतौ, चञ्चूः-पक्षिमुखम् । असूच शेपणे, असवः-प्राणाः । वसं निवासे, वसु-द्रव्यं, तेजो, देवता च । वसुः कश्चिद्राजा । त्रपौषि लज्जायाम् , अपु-लौहविशेषः । शश् हिंसायाम् , शरु:क्रोधः, आयुधः, हिंस्रश्च । औस्व शब्दोपतापयोः, स्वरुः-प्रतापः, वज्रः-वज्रा-स्फालनं च । ष्णिहौच प्रीती, स्नेहुः-चन्द्रमाः, सन्निपातजो व्याधिविशेषः, पित्तं, वनस्पतिश्च । क्लिदोच् आर्द्रभावे, क्लेदु:-क्षेत्र, चन्द्रः, भगम् , शरीरभङ्गश्च, क्लेदयतीति क्लेदुः-चन्द्रमा इत्यन्ये । कदु रोदनाह्वानयोः, कन्दु:-पाकस्थानम्-सूत्रोतं च क्रीडनम् । इदु परमेश्वर्ये, इन्दुः-चन्द्र। विदु अवयवे, विन्दुः-विग्रुट् । अन्धण् दृष्टय पसंहारे, अन्धुः-कूपः, व्रणश्च । बन्धंश् बन्धने,
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४४४ ]
स्वोपज्ञोणादिगण मूत्रविवरणम्
[ सूत्र - ७१७ ७२५
बन्धुः - स्वजन, बन्धु - द्रव्यम् । अण शब्दे, अणु:- पुद्गलः, सूक्ष्मः, रालकादिश्च धान्यविशेषः । लोष्टि संघाते, लोष्टुः- मृत्पिण्डः । कुन्थश् संक्लेशे । कुन्थुः - सूक्ष्मजन्तुः ।। ७१६ ।। स्यन्दि-सृजिभ्यां सिन्धू- रज्जौ च ॥ ७१७ ॥
आभ्याम् उः प्रत्ययो भवत्यनयोश्च यथासंख्यं सिन्धु रज्ज इत्यादेशौ भवतः । स्यन्दौङ स्रवणे सिन्धुः-नदः, नदी, समुद्रश्च । सृजत् विसर्गे, सृजिच् विसर्गे वा रज्जुः- दवरकः ।। ७१७ ॥
पंसेर्दीर्घश्च ॥ ७१८ ॥
पसुण् नाशने, इत्यस्माद् उः प्रत्ययो भवति, दीर्घश्चास्य भवति । पांशु: - पार्थिवं
रजः ।। ७१८ ॥
अशेरानोऽन्तश्व || ७१६ ॥
अशौटि व्याप्ती, इत्यस्माद् उः प्रत्ययो भवत्यकाराच्च परो नोऽन्तो भवति । अंशु:रश्मिः, सूर्यश्च । प्रांशुः - दीर्घः ।। ७१ ।।
नमेर्नाक् च ॥ ७२० ॥
मं प्रह्वत्वे इत्यस्माद् उः प्रत्ययो भवत्यस्य च नाक् इत्यादेशो भवति । नाकु:व्यलीकम्, वनस्पतिः, ऋषिः, वल्मीकश्च ।। ७२० ।।
मनि-जनिभ्यां धतौ च ॥ ७२१ ॥
आभ्याम् उः प्रत्ययो भवत्यनयोश्च यथासंख्यं धकार-तकारौ भवतः । मनिच् ज्ञाने, मधु क्षौद्रम्, शीधु च मधुः - असुर, मासश्च चैत्रः । जनैचि प्रादुर्भावे, जतु-लाक्षा ।। ७२१ ।।
अजे ज् च ।। ७२२ ॥
अर्ज अर्जने, इत्यस्माद् उः प्रत्ययो भवत्यस्य च ऋज् इत्यादेशो भवति । ऋजुअकुटिलम् ।। ७२२ ।
कृतेस्तर्क ्म च ।। ७२३ ।।
कृतैत् छेदने, कृतै वेष्टने, इत्यस्माद्वा उः प्रत्ययो भवति, अस्य च तर्क भवति । तर्क :- चुन्दः सूत्रवेष्टनशलाका च ।। ७२३ ॥
इत्यादेशो
नेरञ्चेः ।। ७२४ ।।
निपूर्वादञ्चते: उ: प्रत्ययो भवति । न्यङ कु:- मृगः, ऋषिश्च ।। ७२४ ।। किमः श्रोणित् ।। ७२५ ।।
किम्पुर्वात् शृश् हिंसायाम्, इत्यस्माद् णिद् उः प्रत्ययो भवति । किशारुः- शुकः धान्यशिखा, उष्ट्र: हिस्रः इषुश्च ।। ७२५ ।
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सूत्र ७२६-७३१ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
मि-बहि-चरि-चटिभ्यो वा ॥ ७२६ ॥
एभ्यः उः प्रत्ययो भवति, स च णिद्वा भवति । टुमिंग्ट प्रक्षेपणे मायुः पित्तं, मानं, शब्दश्च । गोमायुः शृगालः, मयुः-किन्नरः, उष्ट्रः, प्रक्षेपः, आकूतं च । बाहुलकादात्वाभावः । वहीं प्रापणे । बाहुः-भुजः, बहु-प्रभूतम् । चर भक्षणे च, चारु-शोभनम् , चरन्ति अस्माद् देव-पितृ-भूतानि इति अपादानेऽपि भीमादित्वात् , चरुः-देवतोद्देशेन पाकः स्थाली च । चटण् भेदे, चाटु-प्रियाचरणं, पटुजनः, प्रियवादी, स्फुटवादी, दळग्रम् , शिष्यश्च । चटुः प्रियाचरणम् ।। ७२६ ॥
-तृ-श-मृ-भ्रादिभ्यो रो लश्च ॥ ७२७ ॥
एभ्यो णिद् उः प्रत्ययो भवति, रेफस्य च लकारो भवति । ऋक् गतौ, ऋत् प्रापणे च वा, आलू:-श्लेष्मा, श्लेष्मातकः, कन्दविशेषश्च । तु प्लवनतरणयोः, तालु:काकुदम् । शृश् हिंसायाम् , शालुः-हिंस्रः, कषायश्च । मृत् प्राणत्यागे, मालु:-पत्रलता, यस्या मालुधानीति प्रसिद्धिः । टुडुइंग्क् पोषणे च भालु:-इन्द्रः । आदिग्रहणादन्येऽपि ।। ७२७ ।।
कृक-स्थूराद्वचः क् च ॥ ७२८॥
आभ्यां पराद् वचो गिद् उ: प्रत्ययो भवति, ककारश्चान्तादेशो भवति । वचंक् भाषणे, ब्र ग्क व्यक्तायां वाचि, कृकमव्यक्तं ब्रूते वक्ति वा । कृकवाकुः, कुक्कुटः, कृकलासः खजरीटश्च । एवं स्थूरवाकुः उच्चैर्ध्वनिः ।। ७२८ ॥
पृ-का-हृषि-धृषीषि-कुहि-भिदि-विदि-मृदि-व्यधि-गृध्यादिभ्यः कित् ।। ७२६ ।।
एभ्यः किद् उ: प्रत्ययो भवति । पृश् पालनपूरणयोः पुरुः, महान् लोकः, समुद्रः, यजमान: राजा च कश्चित् । के शब्दे, कु:-पृथ्वी। हृषच तुष्टौ हृषू अलीके वा, हृषुतुष्टः, अलीकः, सूर्य-अग्नि-शशिनश्च । त्रिधृषाट् प्रागल्भ्ये, धृषु:-प्रगल्भः संतापः, उत्साहः, पर्वतश्च । इषत् इच्छायाम् , इषुः-शरः । कुहणि विस्मापने, कुहुः-नष्टचन्द्रामावास्या । भिदपी विदारणे, भिदः, वज्रः, कन्र्दपश्च। विदक ज्ञाने. विदः-हस्तिमस्तकैकदेशः। मृदश् क्षोदे, मृदुः-अकठिनः । व्यधंच ताडने, विदुः-चन्द्रः, वायुः, अग्निश्च । गृधूच अभिकाङ क्षायाम् , गृधुः-कामः । आदिग्रहणात् पूरैचि आप्यायने, पूरण आप्यायने वा। पूरितमनेन यशसा सर्वमिति पूरु:-राजर्षिः एवमन्येऽपि ।। ७२९ ।।।
रभि-प्रथिभ्यामृच्च रस्य ॥ ७३० ।।
आभ्यां किद् उः प्रत्ययो भवति, रेफस्य च ऋकारो भवति । रभिं राभस्ये, ऋभवः-देवाः । प्रथिषु प्रख्याने, पृथुः-राजा, विस्तीर्णश्च ।। ७३० ।।
स्पशि-भ्रस्जेः स्लुक् च ॥ ७३१ ॥ आभ्यां किद् उःप्रत्ययो भवति, सकारस्य लुक् च भवति । स्पशिः सौत्रः ताल
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४४६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-७३२-७३९
व्यान्तः, पशुः-तिर्यङ, मन्त्रवध्यश्च जनः । भ्रस्जीत् पाके, भृगुः-प्रपातः, ब्रह्मणश्च सुतः । कित्त्वात् 'ग्रह-वश्च भ्रस्ज-प्रच्छ' इति वृत् 'न्यङ कुद्गमेघादय.' इति गत्वम् ।। ७३१ ॥
दुःस्वप-वनिभ्यः स्थः ॥ ७३२॥
दुस् , सु, अप, वनि इत्येतेभ्यः परात् ष्ठां गतिनिवृत्तौ, इत्यस्मात् किद् उः प्रत्ययो भवति । दुष्ठु-अशोभनम् , सुष्ठु-सातिशयम् , अपष्ठु-वामम् , वनिष्ठुः-वपासंनिहितोऽवयवः, अश्वः, संभक्तः, अपानं च ।। ७३२ ।।
हनि-या-कृ-भू-प-तृ-तो-द्वे च ॥ ७३३॥
एभ्यः किद् उः प्रत्ययो भवत्येषां द्वे रूपे भवतः । हनंक हिंसागत्योः, जघ्नुः-इन्द्रः, वेगवांश्च । यांक प्रापणे, ययुः-अश्वः, यायावरः, स्वर्गमार्गश्च । डुकृग् करणे, चक्रुःकर्मठः, वैकुण्ठश्च । टुडुभृगक पोषणे च, भृग भरणे वा, बभ्रुः-ऋषिः, नकुलः, राजा, वर्णश्च । पृश् पालनपूरणयोः, पुपुरुः-समुद्रः, चन्द्रः, लोकश्च । त प्लवनतरणयोः, तितिरु:पतङ्गः । त्रैङ पालने, तत्रु:-नौका ।। ७३३ ।।
कृ- ऋत उर् च ॥ ७३४ ॥
आभ्यां किद् उ. प्रत्ययो भवति, ऋकारस्य च उर् भवति । कृत् विक्षेपे, कुरु:राजषिः, कुरवः-जनपदः । गृश् शब्दे, गुरुः-आचार्यः, लघुप्रतिपक्षः, पूज्यश्च जनः ।७३४॥
पचेरिश्चातः ॥ ७३५ ॥
डुपची पाके, इत्यस्माद् उः प्रत्ययो भवत्यकारस्य च इकारो भवति । पिचुः- . निरस्थीकृतः कासः ।। ७३५ ॥
अर्तेरूच ॥ ७३६ ॥
ऋक गती, इत्यस्माद् उः प्रत्ययो भवत्यस्य च ऊर् इत्यादेशो भवति । ऊरु:शरीराङ्गम् ॥ ७३६ ॥
महत्युचें ॥ ७३७॥
अर्तेर्महत्यभिधेये उः प्रत्ययो भवत्यस्य च उर् इत्यादेशो भवति । उरु-विस्तीर्णम् ॥ ७३७॥
उद च मे ॥ ७३८॥
अर्तेर्भे नक्षत्रेऽभिधेये उः प्रत्ययो भवति, धातोश्च उडादेशो भवति । उडु-नक्षत्रम् ॥ ७३८॥
श्लिषेः क च ॥ ७३६ ॥
श्लिषच् आलिङ्गने, इत्यस्मात् किद् उ: प्रत्ययो भवति, ककारश्चान्तादेशो भवति । शिलकुः-मृगास्थि, सव्यवसायः, राज्य, ज्योतिष, सेवकश्च ।। ७३९ ।।
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सूत्र-७४०-७४६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४४७
रवि-लचि-लिङ्गे लुक् च ॥ ७४० ॥
एभ्य उः प्रत्ययो भवति, नकारस्य च लुग भवति । रघु लघुङ गतौ । रघुः-राजा । लघु-तुच्छं, शीघ्र च । लिगुण चित्रीकरणे, लिगु:-ऋषिः, सेवकः, मूर्खः, भूमिविशेषश्च ॥ ७४० ॥
पी-मृग-मित्र-देव-कुमार-लोक-धर्म-विश्व-सुम्नाश्मावेभ्यो युः ॥ ७४१ ।।
पी मृग-मित्र-देव कुमार लोक-धर्म-विश्व सुम्न-अश्मन्-अव इत्येतेभ्यः परात् यांक प्रापणे, इत्यस्मात् किद् उः प्रत्ययो भवति । पीयुः-उलूकः, आदित्यः, सुवर्ण, कालश्च । मृगयुः-व्याधः, मृगश्च । मित्रयुः-ऋषिः, मित्रवत्सलश्च । देवयुः-धार्मिकः । कुमारयु:राजपुत्रः । लोकयु:-वाक्यकुशल: जनः । धर्मयु:-धार्मिकः । विश्वयु:-वायुः । सुम्नयु:यजमानः । अश्मयु - मूर्खः । अवयु:-काव्यम् ।। ७४१ ।।
पराङ्मयां श-खनिभ्यां डित् ॥ ७४२॥
पर-आङपूर्वाभ्यां यथासंख्यं श-खनिभ्यां डिद् उः प्रत्ययो भवति । शश् हिंसायाम् , परान् शृणाति परशुः-कुठारः । खनूग अवदारणे, आखु:-मूषिकः ।। ७४२ ॥
शुभेः स च वा ॥ ७४३ ।।
शुभि दीप्तौ, इत्यत्माद् डिद् उः प्रत्ययो भवति, अस्य च दन्त्यः सो वा भवति । सुः शुश्च पूजायाम् , सुपुरुषः-शुनासोरः ।। ७४३ ॥
धु-द्रुभ्याम् ।। ७४४॥
आभ्यां डिद् उः प्रत्ययो भवति । युंक् अभिगमे, द्युः-स्वर्गक्रीडा, स्वर्गश्च । द्रु गतो, द्रुः वृक्षशाखा, वृक्षश्च ।। ७४४ ।।
हरि-पीत-मित-शत-वि-कु-कद्भयो द्रुवः ॥ ७४५ ॥
हरि-पीत-मित शत-वि-कु-कद् इत्येतेभ्यः पराद् द्रु गतौ, इस्यस्माद् उः प्रत्ययो भवति । हरिद्रुः-वृक्षः, ऋषिः, पर्वतश्च । पीतद्रुः, देवदारुः। मितद्रुः-समुद्रः, तुरगः, मितङ्गमश्च । शतद्रुर्नाम नदः, नदी च। विद्रुः-दारुप्रकारः, वृक्षश्च । कुद्रः-विकलपादः । कद्रुः-नागमाता, वह्निजातिः, गृहगोधा, वर्णश्च ।। ७४५ ॥
केयु-भुरण्य्वध्वर्यादयः ॥ ७४६ ॥
केवय्वादयः शब्दा डिदुप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । केवलपूर्वाद्यातेर्ललोपश्च । केवलो याति केवयुः-ऋषिः । भूपूर्वाद्याते रण चादौ, भुवं याति भुरण्यु:- अग्निः । अध्वरं याति पूर्वपदान्तलोपे, अध्वर्यु:-ऋत्विक् । आदिग्रहणात् चरन् याति चरण्यु:-वायुः अभिपूर्वस्य चाश्नातेः, अभीशुः-रश्मिः ।। ७४६ ।।
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४४८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
त्र-७४७-७५६
शः सन्वच्च ॥ ७४७॥
शोंच तक्षणे, इत्यस्माद् डिद् उः प्रत्ययो भवति, स च सन्वद् भवति । सनि इवास्मिन् द्वित्वं पूर्वस्य च इत्वं भवतीत्यर्थः शिशुः-बालः ।। ७४७ ।।
तनेर्डउः ॥ ७४८ ॥
तनूयी विस्तारे, इत्यस्माद् डिद् अउ: प्रत्ययो भवति, स च सम्वत् । तितउ:परिपवनम् ।। ७४८ ।।
कै-शी-शमि-रमिभ्यः कुः ॥ ७४६ ॥
एभ्यः कुः प्रत्ययो भवति । के शब्दे, काकु:-स्वरविशेषः । शीङक स्वप्ने, शेकु:उद्भिविशेषः। शमूच् उपशमे, शङ कु:-कीलकः, बाणः, शूलम् , आयुधं, चिह्नम् , छलकश्च । रमि क्रीडायाम् , रङ कु:-मृगः ।। ७४६ ।।
ह्रियः किद्रो लश्च वा ॥ ७५० ।।
ह्रींक लज्जायाम् , इत्यस्मात् कित् कुः प्रत्ययो भवति, रेफस्य च लकारो वा भवति । ह्रीकूः ह्लीकुश्च त्रपुजतुनी लज्जायांश्च-ह्रीकु:-वनमार्जारः ।। ७५० ।। .
किरः ष च ॥ ॥ ७५१॥
कृत् विक्षेपे, इत्यस्मात् कित् कु: प्रत्ययो भवति, षकारश्चान्तादेशो भवति । किष्कुः-छायामानद्रव्यम् ।। ७५१ ॥
चटि-कठि-पर्दिभ्यः आकुः ॥ ७५२ ॥
एभ्य आकुः प्रत्ययो भवति । चटण भेदे, चटाकु:-ऋषिः, शकुनिश्च । कठ कृच्छजीवने, कठाकुः-कुटुम्बपोषकः। पदि कुत्सिते शब्दे । पर्दाकु:-भेकः, वृश्चिकः, अजगरश्च ।। ७५२ ।।
सिवि-कुटि-कुठि-कु-कुषि-कृषिभ्यः कित् ।। ७५३ ॥
एभ्यः किद् आकुः प्रत्ययो भवति । षिवूच उतौ, सिवाकुः-ऋषि: । कुटत् कौटिल्ये, कुटाकुः-विटपः। कुठिः सौत्रः, कुठाकु:-श्वभ्रम् । कुङ शब्दे, कुवाकु:- पक्षी । कुषश् निष्कर्षे, कुषाकुः-मूषिकः, अग्निः, परोपतापी च। कृषीत् विलेखने, कृषाकु: कृषीवलः ।। ७५३ ॥
उपसर्गाच्चेर्डित् ।। ७५४ ॥
उपसर्गपूर्वात् चिंग्ट चयने, इत्यस्माद् डिद् आकः प्रत्ययो भवति । उपचाकु:संचाकुश्च ऋषिः । निचाकुः-निपुणः, ऋषिश्च ॥ ७५४ ॥
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सूत्र-७५५-७६४ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४४९
शलेरकुः ॥ ७५५॥ शल गतो, इत्यस्मात् अङ कुः प्रत्ययो भवति । शलङ कु:-ऋषिः ।। ७५५ ॥ सु-पृभ्यां-दाकुक् ॥ ७५६ ॥
आभ्यां किद् दाकुः प्रत्ययो भवति । सृगतो, सदाकु:-दावाग्निः, वायुः, आदित्यः, व्याघ्रः, शकुनिः, अस्तः, भर्ता, गोत्रकृच्च । पृक् पालनपूरणयोः, पृदाकुः- सर्पः, गोत्रकृच्च ।।७५६ ।।
इषेः स्वाकुक च ।। ७५७।।
इषत् इच्छायाम् , इत्यस्मात् कित् स्वाकः प्रत्ययो भवति । इक्ष्वाकुः-आदिक्षत्रियः ॥ ७५७ ॥
फलि-वल्यमेगुः ॥ ७ ॥
एभ्यो गुः प्रत्ययो भवति । फल निष्पत्ती, फल्गु-असारम् । वलि संवरणे, वल्गुमधुरम् , शोभनं च, वल्गुः-पक्षी । अम गतो, अङ गु:-शरीरावयवः ।। ७५८ ॥
दमेलुक् च ॥ ७५६ ॥ ___ दमूच् उपशमे, इत्यस्माद् गुः प्रत्ययो भवत्यन्त्यस्य च लुम् भवति । दगु:ऋषिः ॥ ७५६ ॥
होर्हिन च ॥ ७६०॥
हिंट् गतिवृद्ध्योः , इत्यस्माद् गुः प्रत्ययो भवत्यस्य च हिन् इत्यादेशो भवति । हिङ गु:-रामठः ।। ७६०॥
प्री-कै-पै-नीलेङ्गुक् ॥ ७६१ ॥
एभ्य किद् अङ गुः प्रत्ययो भवति । प्रींग्श् तृप्तिकान्त्योः, प्रियङ गुः-फलिनी, रालकश्च । के शब्दे, कङ गुः-अणुः । पैं शोषणे, पङ गु:-खञ्जः । गील वर्णे, नीलङ गु:कृमिजातिः, शृगालश्च ॥ ७६१ ॥
अव्यर्ति-गृभ्योऽटुः ।। ७६२ ॥
एभ्योऽटुः प्रत्ययो भवति । अव रक्षणादो, अवटु:-कृकाटिका । ऋक् गतौ, अरटु:वृक्षः । गृत् निगरणे, गरटुः-देशविशेषः, पक्षी, अजगरश्च ।। ७६२ ।।
शलेराटुः ।। ७६३ ॥ शल गती, इत्यस्माद् आटुः प्रत्ययो भवति । शलाटुः-कोमलं फलम् ॥ ७६३ ।। अङ्ग्यवेरिष्ठुः ।। ७६४॥
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४५० ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-७६५-७७२
___ आभ्यमिष्ठुः प्रत्ययो भवति । अञ्जौप् व्यक्त्यादौ, अञ्जिष्णु:-भानुः, अग्निश्च । अव रक्षणादौ, अविष्णु:-अश्वः, होता च ।। ७६४ ।।
तमि-मनि-कणिभ्यो डुः ॥७६५ ॥
एभ्यो डुः प्रत्ययो भवति । तनूयी विस्तारे, तण्डुः-प्रथमः । मनिच ज्ञाने, मण्डु:ऋषिः । कण शब्दे, कण्डुः-वेदनाविशेषः ।। ७६५ ॥
पनेर्दीर्घश्च ॥ ७६६ ॥
पनि स्तुती, इत्यस्माद् डुः प्रत्ययो भवति, दीर्घश्च भवति । पाण्डु:-वर्णः, क्षत्रियश्च ॥ ७६६ ॥
पलि-मृभ्यामाण्डुकण्डुकौ ॥ ७६७ ॥
आभ्यां यथासंख्यमाण्डुः कण्डुक् इति प्रत्ययौ भवतः । पल गती, पलाण्डुः-लशुनभेदः । मृत् प्राणत्यागे मृकण्डुः-ऋषिः ।। ७६७ ॥
अजि-स्था-वृ-रीभ्यो गुः ॥ ७६८ ॥
एभ्यो णुः प्रत्ययो भवति। अज क्षेपणे च, वेणुः-वंशः । ष्ठां गतिनिवृत्ती, स्थाणुःशिवः, ऊर्ध्वं च दारु । वृन्ट् वरणे, वणु:-नदः, जनपदश्च । रीश् गतिरेषणयोः, रेणुःधूलिः ।। ७६८ ॥
विषेः कित् ॥ ७६६ ।। विष्लुको व्याप्ती, इत्यस्मात् किद् पुः प्रत्ययो भवति । विष्णुः हरिः ॥ ७६६ ॥ क्षिपेरणुक् ॥ ७७० ॥
क्षिपीत् प्रेरणे, इत्यस्मात् किद् अणुः प्रत्ययो भवति । क्षिपणुः-समीरणः, विद्युच्च ।। ७७० ॥
अञ्जरिष्णुः ॥ ७७१॥ अञ्जोप व्यक्त्यादी, इत्यस्माद् इष्णुः प्रत्ययो भवति । अञ्जिष्णुः-घृतम् ।।७७१।। कु-ह-भू-जीवि-गम्यादिभ्य एणुः ।। ७७२ ॥
एभ्य एणुः प्रत्ययो भवति । कृस्ट हिंसायाम् , डुकृग् करणे वा, करेणुः-हस्ती। हग हरणे, हरेणुः-गन्धद्रव्यम् । भू सत्तायाम् , भवेणुः-भव्यः । जीव प्राणधारणे, जीवेणुःऔषधम् । गम्लु गतौ, गमेणुः गन्ता । आदिग्रहणात् शमूच उपशमे, शमेणुः-उपशमनम् । यजी देवपूजादौ, यजेणुः-यज्ञादिः । डुपची पाके, पचेणु:-पाकस्थानम् । पदेणुः, वहेणुरित्यादि ।। ७७२ ।।
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सूत्र-७७३-७७८ ]
स्वपोज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४५१
कृ-सि-कम्यमि--गमि-तनि-मनि-जन्यसि-मसि-सच्यवि-भा-धा-गा-ग्ला-म्लाहनि-हा-या-हि-क्रुशि-पूभ्यस्तुन् ।। ७७३ ॥
एभ्यः तुन्प्रत्ययो भवति । डुकृग् करणे, कर्तु:- कर्मकरः। किंग्ट् बन्धने, सेतुःनदीसंक्रमः । कमूङ कान्ती, कन्तु:-कन्दर्पः, कामी, मनः, कुसूलश्च । अम गतौ, अन्तु:रक्षिता, लक्षणं च । गम्ल गती, गन्तुः-पथिकः, आगन्तुः अवास्तव्यो जनः। तनूयी विस्तारे, तन्तुः-सूत्रम् । मनिच ज्ञाने, मन्तु:-वैमनस्यम् , प्रियंवदः, मानश्च । जनैचि प्रादुर्भावे, जन्तुः प्राणी। असक भुवि, अस्तुः-अस्तिभावः । बाहुलकाद् भूभावाभावः। मसैच परिणामे, मस्तुः-दधिमूलवारि । षचि सेचने, सक्तुः-यवविकारः । अव रक्षणादौ, ओतुःबिडाल: । भांक दीप्तौ, भातुः-दीप्तिमान् , शरीरावयवः, अग्निः, विद्वांश्च । डुधांग्क् धारणे च, धातु:-लोहादिः, रसादिः, शब्दप्रकृतिश्च । मैं शब्दे, गातु:-गायनः, उद्गाता च । ग्लै हर्षक्षये, ग्लातुः-सरुजः । म्लैं गात्रविनामे, म्लातुः-दीनः । हनं हिंसागत्योः, हन्तुः-आयुधं, हिमश्च । ओहांक त्यागे, हातुः-मृत्युः, मार्गश्च । यांक प्रापणे, यातुः-पाप्मा जनः, राक्षसश्च । हिंट गतिवृद्ध्योः हेतु:-कारणम् । क्रुशं आह्वान-रोदनयोः, क्रोष्टाशृगालः । पूग्श् पवने । पोतुः पविता । नित्करणम् 'क्रुशस्तुनस्तृच पुसि' इत्यत्र विशेषणार्थम् ।। ७७३ ।।
वसेर्णिद्वा ।। ७७४ ॥
वंस निवासे, इत्यस्मात् तुन् प्रत्ययो भवति, स च णिद्वा भवति । वास्तु-गृहं, गृहभूमिश्च । वस्तु सत् , निवेशभूमिश्च ।। ७७४ ।।
प: पीप्यौ च वा ॥ ७७५॥
पा पाने, इत्यस्मात् तुन् प्रत्ययो भवति । अस्य च पी पि इत्यादेशौ वा भवतः । पीतु:-आदित्यः, चन्द्रः, हस्ती, कालः, चक्षुः, बालघृतपानभाजनं च। पितुः-प्रजापतिः, आहारश्च । पातुः- रक्षिता, ब्रह्मा च ।। ७७५ ।।
आपोऽप च ॥ ७७६ ॥
आप्लट् व्याप्ती, इत्यस्मात् तुन्प्रत्ययो भवत्यस्य च अप् इत्यादेशो भवति । अस्तु:देवताविशेषः, कालः, याजकः, यज्ञयोनिश्च ।। ७७६ ।।
अञ्ज्यतः कित् ॥ ७७७ ।।
आभ्यां कित् तुन्प्रत्ययो भवति । अजौप् व्यक्त्यादिषु । अक्तु:-इन्द्रः, विष्णुः, रात्रिश्च । ऋक् गतौ, ऋतु:-हेमन्तादिः, स्त्रोरजः, तत्कालश्च ।। ७७७ ॥
चायः के च ।। ७७८ ॥
चायग् पूजा-निशामनयोः, इत्यस्मात् तुन्प्रत्ययः भवत्यस्य च के इत्यादेशो भवति । केतु.-ध्वजः, ग्रहश्च ।। ७७८ ॥
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४५२ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-७७९-७८८
वहि-महि-गुह्यं धियोऽतुः ॥ ७७६ ॥
एभ्योऽतुः प्रत्ययो भवति । वहीं प्रापणे, वहतुः विवाहः, अनड्वान्, अग्निः, कालश्च । मह पूजायाम्, महतुः अग्निः । गुहौग संवरणे, गूहतुः - भूमिः । एधि वृद्धो, एधतुः - लक्ष्मीः, पुरुषः, अग्निश्च ।। ७७९ ॥
कृ-लाभ्यां कित् ।। ७८० ॥
आभ्यां किद् अतुः प्रत्ययो भवति । डुकुरंग् करणे, ऋतु: - यज्ञः । लांकू आदाने, लतुः - पाशः ॥ ७८० ।।
तर्यतुः ॥ ७८१ ॥
तनूयी विस्तारे, इत्यस्माद् यतुः प्रत्ययो भवति । तन्यतुः - विस्तारः, वायुः, पर्वतः, सूर्यश्च ।। ७८१ ।।
,
जीवेतुः ॥ ७८२ ॥
जीव प्राणधारणे, इत्यस्मादातुः प्रत्ययो भवति । जीवातुः - जीवनम् औषधम्, अन्नम् उदकं द्रव्यं च ॥ ७८२ ॥
1
यमेदु क् ॥ ७८३ ॥
यमू उपरमे, इत्यस्मात् किद्दुः प्रत्ययो भवति । यदु: - क्षत्रियः ।। ७८३ ।।
शीङो धुक् ॥ ७८४ ॥
शीङक् स्वपने, इत्यस्मात् किद् धुः प्रत्ययो भवति । शीधु-मद्यविशेषः ।। ७८४ ॥ धूगो धुन च ॥ ७८५ ॥
धूग्श् कम्पने, इत्यस्माद् धुक् प्रत्ययो भवत्यस्य च धुन् इत्यादेशो भवति । धुन्धुःदानवः ।। ७८५ ॥
दा-भाभ्यां नुः ॥ ७८६ ॥
आभ्यां नुः प्रत्ययो भवति । डुदांग्क् दाने, दानुः- गन्ता, यजमानः, वायुः, आदित्यः, दक्षिणार्थं च धनम् । भांक् दीप्तौ, भानुः सूर्यः, रश्मिश्च । चित्रभानु - अग्निः । स्वर्भानुःराहुः । विश्वभानु: - आदित्यः ।। ७८६ ।।
धेः शित् ॥ ७८७ ॥
ट्वें पाने, इत्यस्माद् नुः प्रत्ययो भवति, स च शिद् भवति, शित्त्वादाद् 'आत् संध्यक्षरस्य' इति अकारो न भवति । धेनुः-अभिनवप्रसवा गवादिः ।। ७८७ ।।
सूङः कित् ॥ ७८८ ॥
gst प्राणिगर्भविमोचने, इत्यस्मात् किद् नुः प्रत्ययो भवति । सुनुः पुत्रः ॥ ७८८ ॥
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सूत्र-७८९-७६७ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४५३
हो जह च ॥ ७८९॥
ओहांक त्यागे, इत्यस्मात् किद् नुः प्रत्ययो भवत्यस्य च जह, इत्यादेशो भवति । जह्न :-गङ्गापिता ॥ ७८९ ।।
वचेः कगौ च ॥ ७६०॥
वचं भाषणे, इत्यस्माद् नुः प्रत्ययो भवति, ककार-गकारौ चान्तादेशौ भवतः । वक्नुः, वग्नुश्चवाग्मी ।। ७९० ।।
कृ-हनेस्तुक्-नुकौ ॥ ७६१॥
आभ्यां कितौ तु-नु इति प्रत्ययो भवतः । डुकृग् करणे, कृतुः-कर्मकारः । कृणु:कोशकारः, कारुश्च । हनं हिंसागत्योः, हतुः-हिमः, हनुः-वक्त्रैकदेशः । बाहुलकान्नलोप: ॥ ७६१॥
गमेः सन्वच्च ॥ ७६२ ॥
गम्लु गतो, इत्यस्मात् तुक्-नुको सन्वत् च भवतः । जिगन्तुः- ब्राह्मणः, दिवसः, मार्गः, प्राणः, अग्निश्च । जिगन्नुः-प्राणः, बाणः, मनः, मीनः, वायुश्च ।। ७६२ ।।
दा-भू-क्षण्युन्दि-नदि-वदिपत्यादेरनुङ् ॥ ७६३ ॥ ___ एभ्यो डिद् अनुः प्रत्ययो भवति । डुदांग्क दाने । दनुः-दानवमाता । भू सत्तायाम् , भुवनु:-मेघः, चन्द्रः, भवितव्यता, हंसश्च । क्षणू यी हिसायाम् , क्षणनुः-यायावरः । उन्दैप् क्लेदने, उदनुः-शुकः । णद अव्यक्ते शब्दे, नदनुः-मेघः, सिहश्च । वद वक्तायां वाचि, वदनुः-वक्ता । पत्लु गतौ, पतनुः-श्येनः । आदिग्रहणादन्येऽपि । कित्त्वमकृत्वा ङित्करणं वदेव दभावार्थम् ।। ७६३ ॥
कृशेरानुक् ॥ ७६४ ॥ कृशच तनुत्वे, इत्यस्मात् किद् आनुः प्रत्ययो भवति । कृशानु:-वह्निः ॥ ७९४ ॥ जीवेरदानुक् ॥ ७६५॥
जीव प्राणधारणे, इत्यस्मात् किद् रदानुः प्रत्ययो भवति । जीरदानुः । कित्करणं गुणप्रतिषेधार्थम् । वलोपे हि नाभ्यन्तत्वाद् गुणः स्यात् ।। ७९५ ॥
वचेरक्नुः ॥ ७६६ ॥
वचं भाषणे, इत्यस्मादक्नुः प्रत्ययो भवति । वचक्नुः वाग्मी, आचार्यः, ब्राह्मणः, ऋषिश्च ॥ ७९६ ॥
हृषि-पुषि-घुषि-गदि-मदि-नन्दि-गडि-मण्डि-जनि-स्तनिभ्यो रित्नुः ॥७६७॥ एभ्यो ण्यन्तेभ्य इत्नुः प्रत्ययो भवति । हृषंच तुष्टी, हृषू अलीके वा, हर्षयित्नु:
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४५४ ]
स्वोपज्ञोणादिगण सूत्र विवरणम्
[ सूत्र- ७९८-८०४
आनन्द:, स्वजन:, रङ्गोपजीवी, प्रियंवदश्च । पुषंच् पुष्टी, पोषयित्नुः - भर्ता, मेघः, कोकिलश्च । घुषण् विशब्दने, घोषयित्नुः - कोकिलः, शब्दश्च । गदण् गर्जे, गदयित्नुः - पर्जन्यः, वावदूकः, भ्रमरः कामश्च । मदैच् हर्षे, मदयित्नुः- मदिरा, सुवर्णम् अलंकारश्च । टुनदु समृद्ध, नन्दयित्नुः पुत्रः, आनन्दः प्रमुदितश्च । गड सेचने, गडयित्नुः - बलाहकः । मडु भूषायाम् मण्डयित्नु :- मण्डयिता, कामुकश्च । जनैचि प्रादुर्भावे, जनयित्नुः- पिता । स्तनण् गर्जे, स्तनयित्नुः - मेघः, मेघगर्जितं च ॥ ७९७ ।।
"
कस्यर्तिस्यामिपुक् ॥ ७६८ ॥
आभ्यां किद् इपुः प्रत्ययो भवति । कस गतौ, कसिपुः - अशनम् । ऋक् गतौ, रिपुःशत्रुः ।। ७९८ ।।
कम्यमिभ्यां बुः || ७६६ ॥
आभ्यां प्रत्ययो भवति । कमूङ कान्तौ, कम्बुः शङ्खः । अम गतौ, बुः यम् ।। ७६ ।।
- पानी
अम्बु
अभ्ररमुः || ८०० ||
अभ्र गती, इत्यस्यादमुः प्रत्ययो भवति । अभ्रमुः - देवहस्तिनी ।। ८०० ॥
जि- शुन्धि - दहि-दसि - जनि-मनिभ्यो युः ॥ ८०१ ॥
:
एम्योः प्रत्ययो भवति । यजीं देवपूजादी, यज्युः अग्नि, अध्वर्यु:, यज्वा, शिष्यश्च । शुन्ध शुद्धौ शुन्ध्युः - अग्निः, आदित्यः पवित्रं च । दहं भस्मीकरणे, दह्य अग्निः । दसूच उपक्षये, दस्युः- चौरः । जनैचि प्रादुर्भावे, जन्युः - अपत्यं, पिता, वायुः, प्रादुर्भावः, प्रजापतिः, प्राणी च । मनिच् ज्ञाने, मन्युः - कृपा, क्रोधः- शोकः, ऋतुश्च ॥ ८०१ |
भुजेः कित् ॥ ८०२ ॥
भुजंप् पालनाभ्यवहारयोः, इत्यस्मात् किदु युः प्रत्ययो भवति । भुज्युः - अग्निः, आदित्यः, गरुडः, भोगः, ऋषिश्च ॥ ८०२ ।।
सतेंरवन्यू || ८०३ ॥
सृ गतौ, इत्यस्माद् अयु, अन्यु इति प्रत्ययौ भवतः । सरयु ः- नदी वायुश्च । दीर्घान्तमिममिच्छन्त्येके । सरयूः । श्लिष्टनिर्देशात् तदपि संगृहीतमेव । सरण्युः - मेघः, अश्विनोर्माता, समेघो वायुश्च ।। ८०३ ।।
भू-क्षिपि चरेरन्युक् ॥ ८०४ ॥
एम्य: किदन्युः प्रत्ययो भवति । भू सत्तायाम्, भुवन्युः - ईश्वरः, अग्निश्च । क्षिपत् प्रेरणे, क्षिपण्युः - वायुः, वसन्तः, विद्युत्, अर्थ:, कालश्च । चर भक्षणे च चरण्युः वायुः ।। ८०४ ।।
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सूत्र-८०५-८१३ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
४५५
मुस्त्युक् ॥ ८०५॥
मृत् प्राणत्यागे, इत्यस्मात् कित् त्युः प्रत्ययो भवति । मारयतीति मृत्युः, कालः, मरणं च ।। ८०५॥
चि-नी-पी-म्यशिभ्यो रुः ॥८०६॥
एम्यो रुः प्रत्ययो भवति । चिन्ट चयने, चेरुः मुनिः। णींग प्रापणे, नेरुः-जनपदः । पीङच पाने, पेरुः-सूर्यः, गिरिः-कलविङ्कश्च । मीङ च हिंसायाम् , मेरु:-देवाद्रिः । अशौटि व्याप्ती, अश्रु-नेत्रजलम् ।। ८०६ ॥
रु-पूभ्यां कित् ॥ ८०७॥
आभ्यां किद् रुः प्रत्ययो भवति । रुक् शब्दे । रुरु:-मृगजातिः। पूग्श् पवने, पुरु:राजा ॥८०७ ॥
खनो लुक् च ।। ८०८॥
खनूग् अवदारणे, इत्यस्माद् रुः प्रत्ययो भवति, अन्त्यस्य च लुग् भवति । खरु:दर्पः क्रूरः, मूर्खः दृप्तः, गीतविशेषश्च ।। ८०८ ।
जनि-हनि-शद्यस्ति च ॥८०६॥
एभ्यो रुः प्रत्ययो भवति, तकारश्चान्तादेशो भवति । जनैचि प्रादुर्भावे, जत्रु:शरीरावयवः, मेघः, धर्मावसानं च । हनक हिंसागत्योः हत्रुः-हिस्रः । शद्ल शातने, शत्रु:रिपुः । बाहुलकात् तादेशविकल्पे शद्रुः-पुरुषः । ऋक् गतो, अत्रु:-क्षुद्रजन्तुः ।। ८०९ ॥
श्मनः शीडो डित् ॥ ८१० ।।
श्मन्पूर्वात् शीङ क् स्वप्ने, इत्यस्माद् डिद् रुः प्रत्ययो भवति । श्मश्रु-मुखलोमानि ।। ८१०॥
शिग्रु-गेरु-नमेादयः ॥ ८११ ॥
शिग्वादयः शब्दा रुप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । शिंग्ट् निशाने, कित् गोऽन्तश्च । शिग्रुः सौभाञ्ज,-नक: हरितकविशेषश्च । गिरतेरेच्च, गेरुः-धातुः। नमेनपूर्वस्य मयतेर्वा एच्चान्तः, नमेरुः-देववृक्षः । आदिग्रहणादन्येऽपि ॥ ११ ॥
कटि-कुट्यतररुः ॥८१२॥
एभ्योऽरुः प्रत्ययो भवति । कटे वर्षावरणयोः, कटरु:-शकटम् । कुटत् कौटिल्ये, कुटरुः-पक्षिविशेषः, मर्कटः, वृक्षः, वर्धकिश्च । कुटादित्वान्न गुणः । ऋक् गतौ, अररु:असुरः, आयुधं, मण्डलं च ।। ८१२॥
करारुः ॥ ८१३॥ कर्के सौत्रादारुः प्रत्ययो भवति । कर्कारु:-क्षुद्रचिर्भटी ।। ८१३ ।।
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४५६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
-८१४-८२४
उरादेरुदेतौ च ॥ ८१४॥
उर्वै हिंसायाम् , इत्यस्मादारुः प्रत्ययो भवति, आदेश्च ऊकार-एकार आदेशौ भवतः । ऊर्वत्याति मिति ऊर्वारु:-कटुचिर्भटी। एर्वारु:-चारुचिर्भटी।। ८१४ ।।
कृपि-क्षुधि-पी-कुणिभ्यः कित् ॥ ८१५ ॥
एभ्यः किदारुः प्रत्ययो भवति । कृपौङ सामर्थ्य, कृपारु:-दयाशीलः । क्षुधंच बुभुक्षायाम् , क्षुधारु:-क्षुधमसहमानः, लत्वे कृपालुः, क्षुधालुः । पीङ च पाने । पियारु:वृक्षः । कृणत् शब्दोपकरणयोः, कुणारु:-वनस्पतिः ।। ८१५ ।।
श्यः शीत च ॥ ८१६॥
श्यैङ गतो, इत्यस्माद् आरुः प्रत्ययो भवति । अस्य च शीत इत्यादेशो भवति । शीतारु:-शीतासह , लत्वे शीतालुः ॥ ८१६ ॥
तुम्बेरुरुः ॥ ८१७ ॥ तुबु अर्दने, इत्यस्मादुरुः प्रत्ययो भवति । तुम्बुरु:-गन्धर्वः, गन्धद्रव्यं च ।। ८१७ ।। कन्देः कुन्द् च ॥८१८ ॥
कदु रोदनाह्वानयोः, इत्यस्माद् उरुः प्रत्ययो भवत्यस्य च कुन्द् इत्यादेशो भवति । कुन्दुरुः-सल्लकोनिर्यासः।। ८१८॥
चमेरूरुः ॥ ८१६॥ चमू अदने, इत्यस्माद् ऊरु: प्रत्ययो भवति । चमूरु:-चित्रकः ।। ८१९ ॥ शीडो लुः ॥ ८२०॥ शीङक् स्वप्ने, इत्यस्माद् लुः प्रत्ययो भवति । शेलुः-श्लेष्मातकः ।। ८२० ।। पीङः कित् ॥ ८२१ ॥ पोङ च पाने, इत्यस्मात् कित् लुः प्रत्ययो भवति । पीलुः-हस्ती, वृक्षश्च ।।८२१।। लस्जीष्यि-शलेरालुः ॥ २२ ॥
एभ्य आलुः प्रत्ययो भवति । ओलस्जैति तोडे, लज्जालु:-लज्जनशीलः। ईर्घ्य इर्थिः , ईष्यालुः-ईर्ष्याशीलः । शल गतौ, शलालुः-वृक्षावयवः ।। ८२२ ।।
आपोऽप् च ॥ ८२३ ॥
आप्लृट् व्याप्ती, इत्यस्मादालुः प्रत्ययो भवत्यस्य च अप् इत्यादेशो भवति । अपालु:-वायुः ।। ८२३ ॥
गृहलु-गुग्गुलु-कमण्डलवः ।।८२४ ॥ एते आलुप्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । गूहतेह्रस्वश्च प्रत्ययादेः, गूहलु:-ऋषिः । गुंङ,
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सूत्र-८२५-८३२ ]
स्वोपशोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४५७
शब्दे, अस्यादेर्गुग्गुः लोपश्च प्रत्ययादेः, गुग्गुलुः-वृक्षविशेषः, अश्वश्च । कम्पूर्वादनिते?ऽन्तः ह्रश्वश्च प्रत्ययादेः, कमण्डलु:-अमत्रम् ।। ८२४ ।।
प्रः शुः ॥२५॥
पृश् पालनपूरणयोः, इत्यस्मात् शुः प्रत्ययो भवति । पशु:-वङ क्रिसंज्ञं वक्रास्थि ॥ २५ ॥
मस्जीष्यशिभ्यः सुक् ॥ ८२६ ॥
एभ्यः कित् मुः प्रत्ययो भवति । टुमस्जोंत् शुद्धौ, 'मस्जेः सः' इति नोऽन्तः, मङ क्षुः-मुनिः । इषश् आभीक्ष्ण्ये, इक्षुः-गुडादिप्रकृतिः। अशौटि व्याप्ती, अक्षुः-समुद्रः, चप्रश्च ॥ ८२६ ॥
तृ-पलि-मलेरक्षुः ॥ २७ ॥
एभ्योऽक्षुः प्रत्ययो भवति । तु प्लवनतरणयोः, तरक्षुः-श्वापदविशेषः । पल गती, मलि धारणे, पलक्षु., मलाश्च वृक्षः ।। ८२७ ।।
उले. कित् ॥ ८२८॥ उल दाहे, इत्यस्मात् सौत्रात् किद् अक्षुः प्रत्ययो भवति । उलक्षुः तृणजातिः ।२८। कृषि-चमि-तनि-धन्यन्दि-सजि-खर्जि-भर्जि-लस्जीयिभ्य ऊः ॥ ८२६ ॥
एभ्य ऊः प्रत्ययो भवति । कृषीत् विलेखने, कर्पू:-कुल्या, अङ्गारः, परिखा, गर्तश्च । चमू अदने, चमूः-सेना । तनूयी विस्तारे, तनूः-शरीरम् । धन शब्दे, धन धान्ये सौत्रो वा, धनूः-धान्यराशि: ज्या, वरारोहा च स्त्री। अदु बन्धने, अन्दूः-पादकटकः । सर्ज अर्जने, सजूं:-अर्थः, क्षारः, वनस्पतिः, वणिक् च । खर्ज मार्जने च, खजूं:-कण्डू:, विद्युच्च । भृजैड भर्जने, भ्रस्जीत् पाके वा, भजू :-यवविकारः । ओलस्जैति वीडे, लज्जूःलज्जालुः । ईj ईर्ष्यार्थः, ईयू :-ईष्यालुः ।। ८२९ ॥
फलेः फेल् च ॥८३० ॥
फल निष्पत्ती, इत्यस्मादूः प्रत्ययो भवत्यस्य च फेल इत्यादेशो भवति । फेलू:होमविशेषः ।। ८३०॥
कषेर्ड-च्छौ च षः ॥ ८३१॥
कष हिंसायाम्, इत्यस्माद् ऊः प्रत्ययो भवति । षकारस्य च ण्ड-च्छश्चादेशो भवति । कण्डूः, कच्छूश्च-पामा ।। ८३१ ।।
वहेथ् च ।। ८३२॥
वहीं प्रापणे, इत्यस्माद् ऊः प्रत्ययो धश्चान्तादेशो भवति । वधूः-पतिमुपसंपन्ना कन्या, जाया च ॥८३२ ।।
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४५८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-८३३-८४१
मृजेगुणश्च ॥ ८३३॥
मृजौक् शुद्धौ, इत्यस्माद् ऊः प्रत्ययो भवति, गुणश्चास्य भवति । मजूं :-शुद्धिः, रजकः, नद्यास्तोरं, शिला च । गुण सिद्धे गुणवचनमकारस्य वृद्धिबाघनार्थम् ॥ ८३३ ॥
अजे|ऽन्तश्च ।। ८३४॥
अज क्षेपणे, इत्यस्माद् ऊः प्रत्ययो भवति, जकारश्चान्तो भवति । अज्जूः-जननी ॥ ८३४ ।।
कसि-पद्यादिभ्यो णित् ॥ ८३५ ॥
एभ्यो णिद् ऊः प्रत्ययो भवति । कस गतौ, कासूः-शक्ति मायुधम् , वागविकलः, बुद्धिः, व्याधिः, विकला च वाक् । पदिच् गती, पादूः-पादुका। ऋक् गतो, आरू:-वृक्षविशेषः, कच्छूः, गतिः, पिङ्गलश्च । आदिग्रहणात् कचते:-काचूः । शलतेः-शालूः इत्या. दयोऽपि ॥ ४३५॥
अणेझैऽन्तश्च ॥ ८३६ ॥
अणेर्धातोणिद् ऊः प्रत्ययो भवति, डश्चान्तः। अण शब्दे, आण्डू:-जलभृङ्गारः ।। ८३६॥
अडो ल् च वा ।। ८३७ ॥
अड उद्यमे, इत्यस्माण्णिद् ऊः प्रत्ययो भवति, लश्चान्तादेशो वा भवति । आलू:भृङ्गारः, करकश्च । आडू:-दर्वी, टिट्टिभः, वनस्पतिः, जलाधारभूमिः, पादभेदनं च ।८३७।
नओ लम्बेर्नलुक् च ॥ ८३८॥
नपूर्वात् लबुङ, अवस्र सने, इत्यस्माद् गिद् ऊः प्रत्ययो भवति । नकारस्य च लुक् भवति । अलाबूः-तुम्बी ॥ ८३८ ।। .
कफादीरेले च ॥ ८३६॥
कफपूर्वाद् ईरिक् गति कम्पनयोः, इत्यस्माद् ऊः प्रत्ययो भवति, लकारश्चान्ता. देशो भवति । कफेलू:-श्लेष्मातकः, यवलाजाः, मधुपर्कः, छादिषेयं च तृणम् ॥ ८३९ ।।
ऋतो रत् च ॥ ८४०॥
ऋत् घृणागतिस्पर्धेषु, इत्यस्माद् ऊः प्रत्ययो भवति, रत् चास्यादेशो भवति । रतू:-नदीविशेषः, सत्यवाक् , दूतः, कृमिविशेषश्च ।। ८४० ।।
दृभिचपेः स्वरानोऽन्तश्च ॥ ८४१ ॥
आभ्यां पर ऊः प्रत्ययो भवति, स्वरात् परो नोऽन्तश्च भवति । भैत् ग्रन्थे, इन्भूःसर्पजातिः, वनस्पतिः, वज्रः, ग्रन्थकारः, दर्भणं च । बाहुलकाद् 'म्नां धुड्वर्गेऽन्त्योऽपदान्ते' इति नकारस्य लुग् न भवति । चप सान्त्वने, चम्पू:-कथाविशेषः ।।८४१ ।।
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सूत्र - ८४२ - ८५० ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्र विवरणम्
[ ४५६
धृषेदिधिष - दिधीषौ च ॥ ८४२ ॥
ञिधृषाट् प्रागल्भ्ये, इत्यस्माद् ऊः प्रत्ययो भवति, दिधिषु दिघीष् इत्यादेशौ चास्य भवतः । दिधिषूः - ज्यायस्याः पूर्वपरिणीता, पुंश्चली च । दिघीषूः ऊढायाः, कनिष्ठाया ज्येष्ठा, पुनर्भू : आहुतिश्च ।। ८४२ ।।
अनूढा,
भ्रमि-गम-तनिभ्यो डित् ॥ ८४३ ॥
एभ्यो डिद् ऊः प्रत्ययो भवति । भ्रमूच् अनवस्थाने, भ्रूः - अक्ष्णोरुपरि रोमराजि: । गम्लृ गतौ, अग्रे गच्छत्यग्रेगः - पुरस्सरः । तनूयी विस्तारे, कुत्सितं तन्यते कुतः - चर्ममयमावपनम् ।। ८४३ ।।
नृति-मृधि-रुषि-कुहिभ्यः कित् ॥ ८४४ ॥
एम्य: कि ऊः प्रत्ययो भवति । नृतैच् नर्तने, नृतुः- नर्तकः, कृमिजातिः, प्लव:, प्रतिकृतिश्च । शृघूङ शब्दकुत्सायाम्, शृषः - शर्धनः, कृमिजातिः, अपानं, बलिश्च दानवः । रुषंच् रोषे, रुषः - भर्त्सकः । कुहणि विस्मापने, कुहूः- अमावास्या ।। ८४४ ।।
तृ-खडिभ्यां डूः ॥ ८४५ ॥
आभ्यां डूः प्रत्ययो भवति । तू प्लवनतरणयोः, तङू :- द्रोणी, प्लवः, परिवेषणभाण्डं च । खडण् भेदे, खड्डूः - बालानामुपकरणम्, स्त्रीणां पादाङ गुष्ठाभरणं च ।।८५४ ।।
तृ-दृभ्यां दुः ॥ ८४६ ॥
आभ्यां दुः प्रत्ययो भवति । तु प्लवनतरणयोः, तद् :- दर्वी । दृश् विदारणे, दर्दू :कुष्ठभेदः ।। ८४६ ।।
।। ८४८ ।।
कमि-जनिभ्यां बूः ॥ ८४७ ॥
प्रत्ययो भवति । कमूङ कान्ती, कम्बू :- भूषणम्, आदर्शत्सरुः, कुरुविग्दश्च । जनैचि प्रादुर्भावे, जम्बू :- वृक्षविशेषः ।। ८४७ ।।
शकेन्धूः ॥ ८४८ ॥
शक्लृट् शक्ती, इत्यस्मादन्धूः प्रत्ययो भवति । शकन्धूः- वनस्पतिः, देवताविशेषश्च
कृगः कादिः ॥ ८४६ ॥
डुकृग् करणे, इत्यस्मात् ककारादिरन्धूः प्रत्ययो भवति । कर्कन्धूः- बदरी, व्रणं, यवलाजाः, मधुपर्कः, विष्टम्भश्च ।। ८४६ ॥
ः ॥ ८५० ॥
युक् मिश्रणे, इत्यस्माद् आगूः प्रत्ययो भवति । यवागूः- द्रवौदनः ।। ८५० ।।
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४६० ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-८५१-८५९
काच्छीडो डेरूः ॥८५१॥
कपूर्वात् शीङ क् स्वप्ने, इत्यस्माद् डिद् एरू: प्रत्ययो भवति । कशेरू:-कन्दविशेषः, वीरुच्च ।। ८५१ ।।
दिव ऋः॥८५२॥
दिवूच् क्रीडादौ, इत्यस्माद् ऋः प्रत्ययो भवति । देवा देवरः, पितृव्यस्त्री, अग्निश्च ।। ८५२ ॥
सोरसेः॥ ८५३ ॥ सुपूर्वादसूच क्षेपणे, इत्यस्माद् ऋः प्रत्ययो भवति । स्वसा-भगिनी ।। ८५३ ॥ नियो डित् ॥ ८५४ ॥ णींग प्रापणे, इत्यस्माद् डिद् ऋः प्रत्ययो भवति । ना-पुरुषः ।। ८५४ ।। सव्यात् स्थः॥५५॥
सव्यपूर्वात् ष्ठां गतिनिवृत्ती, इत्यस्माद् डिद् ऋः प्रत्ययो भवति । सव्येष्ठासारथिः ॥ ८५५ ॥
यति-ननन्दिभ्यां दीर्घश्च ॥ ८५६ ॥
यतेनपूर्वाद् नन्देश्च ऋः प्रत्ययो भवति, दीर्घश्चानयोर्भवति । यतैह प्रयत्ने, याता-पतिभ्रातृभगिनी, देवरभार्या, ज्येष्ठभार्या च । टुनदु समृद्धौ, ननान्दा-भर्तृ. भगिनी । नखादित्वान्नोऽन्न भवति ।। ८५६ ।।
शासि-शंसि-नी-रु-क्षु-ह-भू-धृ-मन्यादिभ्यस्तः ॥ ८५७॥
एभ्यः तृः प्रत्ययो भवति । शासूक अनुशिष्टी, शास्ता-गुरुः, राजा च; प्रशास्ताराजा, ऋत्विक् च । शंसू स्तुती च, शंस्ता-स्तोता। णोंग प्रापणे, नेता-सारथिः । रुक शब्दे, रोता-मेघः। दृक्षक शब्दे, क्षोता-मुसलम। हग हरणे, हर्ता-चौरः। टडभक पोषणे च, भर्ता-पतिः। धङत् अवध्वंसने, धर्ता-धर्मः। मनिच् ज्ञाने, मन्ता-विद्वान् , प्रजापतिश्च । आदिग्रहणादुपद्रष्टा-ऋत्विक, विशस्ता-धातकः इत्यादयोऽपि ॥ ८५७ ।।
पातेरिच ॥ ८५८ ॥
पांक रक्षणे, इत्यस्मात् तृः प्रत्ययो भवति, धातोश्चेकारोऽन्तादेशो भवति । पिताजनक: ।। ८५
मानिभ्राजेलु क् च ॥८५६ ।।
आभ्यां तृः प्रत्ययो भवति, लुक् चान्तस्य भवति । मानि पूजायाम् , माता-जननी। भ्राजि दीप्तो, भ्राता-सोदर्यः॥८५६ ॥
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सूत्र-८६०-६६८]
स्वोपशोणादिगणसूत्रविवरणम्
[४६१
जाया मिगः॥८६॥
जाशब्दपूर्वाद् डुमिन्ट प्रक्षेपणे, इत्यस्मात् तृः प्रत्ययो भवति । बायां-प्रजायां, मिन्वन्ति तमिति जामाता-दुहितृपतिः ।। ८६० ॥
आपोऽप् च ॥ ८६१ ॥
आप्लट् व्याप्ती, इत्यस्मात् तृः प्रत्ययो भवति । अप् चास्यादेशो भवति । अप्तायज्ञः, अग्निश्च ।। ८६१ ॥
नमेः प च ।। ८६२॥ __णमं प्रह्वत्वे, इत्यस्माद् तृः प्रत्ययो भवति, पश्चास्यान्तादेशो भवति । नप्तादुहितुः, पुत्रस्य वा पुत्रः ।। ८६२ ।।
हु-पुग्-गोत्री-प्रस्तु-प्रतिह-प्रतिप्रस्थाभ्य ऋत्विजि ॥ ८६३ ॥ :
एभ्य ऋत्विज्यभिधेये तृः प्रत्ययो भवति । हुंक् दानादनयोः, होता। पूग्श् पवने, पोता । में शब्दे, णोंग-प्रापणे उत्पूर्वः, उद्गाता, उन्नेता। ष्टुंग्क् स्तुती, प्रपूर्व:-प्रस्तोता। हूंग् हरणे प्रतिपूर्वः, प्रतिहर्ता । ष्ठां गतिनिवृत्ती, प्रतिप्रपूर्वः, प्रतिप्रस्थाता। एते ऋत्विजः ॥ ८६३ ॥
नियः पादिः ।।८६४॥ ___णींग प्रापणे, इत्यस्मात् षकारादिः तृः प्रत्ययो भवति । ऋत्विज्यभिधेये । नेष्टाऋत्विक् ।। ८६४ ॥
त्वष्ट्र-क्षत्त-दुहित्रादयः ॥ ८६५ ॥
एते तृप्रत्यायान्ता निपात्यन्ते । त्विषेरितोऽच्च । त्वष्टा देववर्धकिः, प्रजापतिः, आदित्यश्च । क्षद खदने सौत्रः, क्षत्ता-नियुक्तः, अविनीतः, दोवारिकः, मुसलः, पारशवः, रुद्रः, सारविश्च । दुहेरिट किच्च, दुहिता-तनया । आदिग्रहणादन्येऽपि ।। ८६५ ।।
रातेः ॥ ८६६॥ रांक् दाने, इत्यस्माद् डिद् ऐः प्रत्ययो भवति । राः द्रव्यम् । रायो, रायः १८६६। घु-गमिभ्यां डोः ॥८६७॥
आभ्यां डिद् ओः प्रत्ययो भवति । झुक् अभिगमे, द्यौः-स्वर्गः, अन्तरिक्षं च । गम्लु गतौ, गौः-पृथिव्यादिः ।। ८६७ ।।
ग्ला-नुदिभ्यां डौः ॥ ८६८ ॥
आभ्यां डिद् औः प्रत्ययो भवति । ग्लै हर्षक्षये, ग्लो:-चन्द्रमाः, व्याषितः, शरीर. ग्लानिश्च । णुदंत् प्रेरणे, नो:-जलतरणम् ॥ ८६८ ॥
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४६२ ]
स्वोपशोणादिगणसूत्रविवरणम्
सूत्र-८६६-८७७
तोः किक् ॥ ८६६ ॥
तुंक् वृत्त्यादी, इत्यस्मात् किक् प्रत्ययो भवति । ककारः कित् कार्यार्थः, इकार उच्चारणार्थः, तुक्-अपत्यम् ।। ८६९ ॥
द्रागादयः ॥ ८७०॥
द्राक् इत्यादयः शब्दाः किक् प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते, द्रवतेरा च । द्राक-शीघ्रम् । एवं सरतेः स्राक् स एवार्थः । इयर्तरर्वादेशश्च, अर्वाक्-अचिरन्तनम् । आदिग्रहणादन्येपि ।। ८७०॥
स्रोश्विक् ॥ ८७१॥
स्र गती, इत्यस्मात् चिक् प्रत्ययो भवति । स क्जुहू-प्रभृति अग्निहोत्रभाण्डम् । स्र चौ । स चः । इकार उच्चारणार्थः । ककारः कित्कार्यार्थः ।। ८७१ ।।
तनेड्वच ॥ ८७२॥
तनूयी विस्तारे इत्यस्माद् डिद् वच् प्रत्ययो भवति । त्वक्-शरीरादिवेष्टनम् ॥८७२ ॥
पारेरज् ॥ ८७३॥
पारण कर्मसमाप्ती, इत्यस्मादप्रत्ययो भवति । पारक् शाकविशेषः, प्राकारः, सुवर्ण, रत्नं च । पारजी, पारजः ॥ ८७३ ।।
ऋधि-पृथि-भिषिभ्यः कित् ॥ ८७४ ॥
एभ्यः किद् अजप्रत्ययो भवति । ऋषौच वृद्धी, ऋधक-समीपवाचि अध्ययम् । प्रथिष् प्रख्याने, निर्देशादेव वृत् । पृथग् नानार्थेऽव्ययम् । भिष् सौत्रः, भिषक्-वैद्यः, भिषजौ, भिषजः॥ ८७४ ॥
भृ-पणिभ्यामिपुर-वणौ च ॥ ८७५॥
भृ-पणिभ्यामिप्रत्ययो यथासंख्यं भुर वण इत्यादेशो भवत: । भृग भरणे, भुरिक्-बाहुः, शब्दः, भूमिः, वायुः, एकाक्षराधिकपादं च ऋक्छन्दः । पणि व्यवहारस्तुत्योः, वणिक-वैदेहिकः ॥ ८७५ ॥
वशेः कित् ॥ ८७६ ॥
वशक् कान्ती, इत्यस्मात् किद् इज् प्रत्ययो भवति । उशिक्-कान्तः, उशीरम् , अग्निः, गौतमश्च ऋषिः ।। ८७६ ॥
लङघरट् नलुक् च ॥ ८७७ ॥
लघुङ गतो, इत्यस्माद् अट्प्रत्ययो भवति, नलोपश्चास्य भवति । लघट्-वायुः, लघु च शकटम् ॥ ८७७॥
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सूत्र ८७४-८८५ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्र विवरणम्
[ ४६३
सर्तेरड् ॥ ८७८ ॥
सृ गतौ, इत्यस्मादप्रत्ययो भवति । सरड्वृक्ष विशेष:, मेघः, उष्ट्रजातिश्च । ८७८ |
ईडेरविड् ह्रस्वश्च ॥ ८७६॥
ईडिक् स्तुती, इत्यस्माद् अविप्रत्ययो भवति, ह्रस्वश्चास्य भवति । इडविट्विश्रवाः ।। ८७९ ।।
विपि म्लेच्छ्थ वा ॥ ८८० ॥
म्लेच्छेरीडैश्च क्विपि प्रत्यये वा ह्रस्वो भवति । अत एव वचनात् क्विप् च । म्लेच्छ अव्यक्ते शब्दे, म्लेट् म्लिट्-उभयं म्लेच्छजातिः । इंटू ईट् - स्वामी, मेदिनी
च ।। ८५० ।।
तृपेः कत् ॥ ८८१ ॥
तृपौच् प्रीतो, इत्यस्मात् किदु अत्प्रत्ययो भवति । तृपत्- चन्द्रः समुद्रः, तृणभूमिश्च ।। ८८१ ।।
संश्वद्-वेहत- साक्षादादयः ॥ ८८२ ॥
एते कत्प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । संपूर्वाच्चिनोतडित् समो मकारस्यानुस्वारपूर्वः शकारश्च । संश्चत् अध्वर्यु:, कुहकश्च । अनुस्वारं नेच्छन्त्येके, संश्चत्- कुहकः । विपूर्वाद्धन्तेश्च गुणः, विहन्ति गर्भमिति वेहतु - गर्भघातिनी अप्रजाः, स्त्री, अनड्वांश्च । संपूर्वादीक्षतेः साक्षाभावश्च साक्षात् समक्षमित्यर्थः । आदिग्रहणाद् रेहत्, वियत्, पुरीतदादयोऽपि ।। ८८२ ।।
. पटच्छपदादयोऽनुकरणाः ॥ ८८३ ॥
पटदित्यादयोऽनुकरणशब्दा: कत्प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । पट गतो, पटत् छुपत् संस्पर्शे उकारस्याकारश्च । छपत् । पत्लृ गतौ, पतत् । शृश् हिंसायाम्, शरत् । शल गतौ शत् । खुट काङक्षे, खटत् । दहेः प च, दपत् । डिपेः डिपत् खनतेरश्च, खरत् । खादतेः खादत्, सर्व एते कस्यचिद्विशेषस्य श्रुतिप्रत्यासत्त्याऽनुकरणशब्दाः । अनुकरणमपि हि साध्वेव कर्तव्यम्, न यत्किञ्चित्, यथाऽनक्ष रमिति शिष्टाः स्मरन्ति ॥ ८८३ ॥
दुहि वृहि महि - पृषिभ्यः कतुः ॥ ८८४ ॥
एम्य: किद् अतृः प्रत्ययो भवति । द्रुहौच् जिघांसायाम्, द्रुहन्- ग्रीष्मः, वृह वृद्धी, वृहन - प्रवृद्धः, बृहती छन्दः । मह पूजायाम्, महान् - पूजितः, विस्तीर्णश्च । महान्ती, महान्तः, महती | पृष् सेचने, पृषत्-तन्त्र, जलबिन्दु:, चित्रवर्णजातिः, दध्युपसिक्तमाज्यं च । पृषती मृगी । स्थूलपृषतिमालभेत । ऋकारो ङयाद्यार्थः ।। ८८४ ॥
गमेद्द्वेि च ॥ ८८५ ॥
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४६४ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-८८६-८९४
गम्लु गतो, इत्यस्मात् कतृप्रत्ययो डिद् भवति, द्वे चास्य रूपे भवतः । जगत्स्थावरजङ्गमो लोकः, जगती पृथ्वी ।। ८८५ ।।
भातेडवतुः॥८८६॥
भांक् दीप्ती, इत्यस्माद् डिद् अवतुः प्रत्ययो भवति । भवान् । भवन्तौ । भवन्तः । उकारो दीर्घत्वादिकार्यार्थः ।। ८८६ ।।
ह-स-रुहि-युषि-तडिभ्य इत् ॥ ८८७ ॥
एभ्यः इत्प्रत्ययो भवति । हग हरणे, हरित्-हरितो वर्णः, ककुप् , वायुः, मृगजातिः, अश्वः, सूर्यश्च । सृ गती, सरित-नदी। रुहं जन्मनि, रोहित-वीरुत्प्रकारः, मत्स्यः, सूर्यः, अग्निः, मृगः, वर्णश्च । युषः सौत्रः, योषति-गच्छति पुरुषमिति योषित स्त्री । तडण् आघाते, तडित्-विद्युत् ।। ८८७ ।।
उदकाच्छ्वे र्डित् ॥ ८८८॥
उदकपूर्वात्-ट्वोश्वि गति-वृद्धयोः, इत्यस्माद् डिद् इत्प्रत्ययो भवति । उदकेन श्वयति उदश्वित्-तक्रम् । 'नाम्न्युत्तरपदस्य च' इति उदकस्य उदभावः ।। ८८८।।
म्र उत् ॥ ८८६ ॥
मृत प्राणत्यागे, इत्यस्माद् उत् प्रत्ययो भवति । मरुत् वायुः, देवः, गिरिशिखरं च ॥८६॥
ग्रो मादिर्वा ॥८६॥
गत् निगरणे, इत्यस्माद् उत् प्रत्ययो भवति, स च मकारादिर्वा भवति । गर्मुत्गरुडः, आदित्यः, मधुमक्षिका, तक्षा, तृणं, सुवर्ण च । गरुत्-बहः, अजगरः, मरकतमणिः, वेगः, तेजसां वर्तिश्च ॥ ८६० ॥
शकेऋत् ॥ ८६१ ॥ शक्लट् शक्ती, इत्यस्माद् ऋत्प्रत्ययो भवति । शकृत्-पुरीषम् ।। ८६१ ।। यजेः क च ॥ ८६२॥
यजी देवपूजादौ, इत्यस्माद् ऋत् प्रत्ययो भवति, कश्चान्तादेशो भवति । यकृत्अन्त्रम् ॥ ८९२ ॥
पातेः कृथ् ॥ ८६३॥ पांक रक्षणे, इत्यस्मात् किद् ऋथ् प्रत्ययो भवति । पृथो नाम क्षत्रियाः । ८९३ । श-द-भसेरद् ॥ ८६४ ॥ एभ्योऽद्प्रत्ययो भवति । शृश् हिंसायाम् , शरद्-ऋतुः। दृ भये, दरत-जनपद
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सूत्र-८९५-६०२ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४६५
समानशब्दः क्षत्रियः। दरदः-जनपदः । भस भर्सन:दीप्त्योः सौत्रः, भसत्-जघनम् , आस्यम् , आमाशयस्थानं च । भषेरपीच्छन्त्येके भषत् ।। ८९४ ।।
तनि-त्यजि-यजिभ्यो डद् ॥ ८६५ ॥
एभ्यो डिद् अद्प्रत्ययो भवति । तनूयी विस्तारे, तत् , सः । त्यजं हानी, त्यद, स्यः । एतौ निर्देशवाचिनौ । यजी देवपूजादौ, यद्, यः । अयमुद्देशवाची ।।८९५॥
इणस्तद् ॥ ८६६ ॥
इणं गतो, इत्यस्मात् तद् प्रत्ययो भवति । एतद्-एषः, समीपवाची शब्दः ।८९६॥ प्रः सद् ॥ ८१७॥ पृश् पालनपूरणयोः, इत्यस्मात् सद् इत्येवं प्रत्ययो भवति । पर्षत् सभा ।। ८९७।। द्रो हुस्वश्च ॥ १८॥
दृश् विदारणे, इत्यस्मात् सद् प्रत्ययो भवति । ह्रस्वश्चास्य भवति, दृषत्-पाषाणः ॥ ८९८॥
युष्यसिम्यां क्मद् ॥ ८६६ ॥
आभ्यां किद् मद् इत्ययं प्रत्ययो भवति । युषः सौत्रः सेवायाम् , युष्मद् , यूयम् । असूच क्षेपणे, अस्मद्-वयम् ॥८९९ ।।
उक्षि-तक्ष्यक्षीशि-राजि-धन्वि-पश्चि-पूषि-क्लिदि-स्निहि नु-मस्जेरन् ॥१०॥
एभ्यः अन् प्रत्ययो भवति । उक्ष सेचने उक्षा-वृषः । तक्षौ तनूकरणे, तक्षावर्धकिः। अक्षौ व्याप्तौ च. अक्षा-दृष्टिनिपातः । ईशिक ऐश्वर्य, ईशा-परमात्मा। राजग दीप्तौ, राजा-ईश्वरः । धन्विः सौत्रो गतौ, धवु गतौ वा, धन्वा-मरुः, धनुश्च । पचुङ व्यक्तीकरणे, पञ्च संख्या। पूष वृद्धी, पूषा-आदित्यः। क्लिदोच आर्द्रभावे, क्लेदा-मुखप्रसेकः, चन्द्रः, इन्द्रश्च । ष्णिहौच प्रीती। स्नेहा-स्वाङ्गम् , हृत् , वशा च गौः। णुक स्तुतौ नव-संख्या । टुमस्जोंत् शुद्धौ, मज्जा-षष्ठो धातुः ।। ६०० ॥ • लू-पू-यु-वृषि-दंशि-धु-दिवि-प्रतिदिविभ्यः कित् ॥६०१ ॥ .
एभ्यः किद् अन् प्रत्ययो भवति । लुग्श् छेदने, लुवा-दात्रं, स्थावरश्च । पूग्श पवने, पुवा-वायुः । युक् मिश्रणे, युवा-तरुणः । वृषू सेचने, वृषा-इन्द्रः, वृषभश्च । दंशं दशने, दश-संख्या । छुक् अभिगमे, धुवा-अभिगमनीयः, राजा सूर्यश्च । दिवूच् क्रीडादौ, दिवादिनम् । प्रतिपूर्वात् प्रतिदिवा-अहः अपराह्णश्च ।। ६०१॥
श्वन-मातरिश्वन-मूर्धन्-प्लीहन्नर्यमन्--विश्वप्सन परिज्वन्-महन्नहन मघवन्नर्थवनिति ॥ ६०२॥
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स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-९०३-६०७
एते अन् प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । श्वयतेलुक च, श्वा-कुक्कुरः । मातरि अन्तरिक्षे श्वयति, मातरिश्वावायुः । अत्र 'तत्पुरुषे कृति' इति सप्तम्या अलुप् इकारलोपश्च पूर्ववत् । मूर्छ च, मूर्छन्त्यस्मिन्नाहताः प्राणिन इति, मूर्धा-शिरः । प्लिहे र्दीर्घश्च, प्लीहा-जठरान्तरावयवः । अरिपूर्वादमर्ण्यन्ताद् अरीन् आमयतीति, अर्यमा-सूर्यः । विश्वपूर्वात् प्सातेः कित् च, विश्वप्सा-कालः, वायुः, अग्निः, इन्द्रश्च । परिपूर्वात् ज्वलतेडिच्च परिज्वा-सूर्य, चन्द्रः, अग्निः, वायुश्च । महीयतेरीयलोपश्च महा-महत्त्वम् । अंहेर्नलोपश्च, अंहते अहः-दिवसः । मङघेर्नलोपोऽव् चान्तः मङघते इति, मघवा-इन्द्रः । नम्पूर्वात् खर्वे: खस्थश्च, न खर्वति, अर्थवा-वेद,, ऋषिश्च । इतिकरणादन्येऽपि भवन्ति ।। ९०२ ।।
पप्यशोभ्यां तन् ॥ १०३ ॥
आभ्यां तन् प्रत्ययो भवति । पप समवाये, अशोटि व्याप्तौ। सप्त, अष्ट उभेसंख्ये ॥ ९०३ ॥
स्ना-मदि-पद्यति-प-शकिभ्यो वन ॥ ९०४ ॥
एभ्यो वन् प्रत्ययो भवति । ष्णांक शौचे, स्नावाशिरा, नदी च । मदच हर्षे, मद्वादृप्तः, पानं, कान्तिः, क्रीडा, मुनिः, शिरश्च । मद्वरी-मदिरा । बाहुलकाद् डी:, वनोरश्च । पदिच् गती, पद्वा-पत्तिः, वत्सः, रथः, पादः, गतिश्च । ऋक् गतौ, अर्वा-अश्वः, अशनिः, आसनं, मुनिश्च । पृश् पालनपूरणयोः, पर्व-सन्धिः, पूरणं, पुण्यतिथिश्च · शक्लट् शक्तौ, शक्वा-वर्धकिः, समर्थः । शक्वरी-नदी, विद्युत् , छन्दोजातिः, युवतिः, सुरभिश्च । शाक्वरः-वृषः ।। ६०४ ॥
ग्रहेरा च ।। ६०५॥
ग्रहीश उपादाने, इत्यस्माद् वन् प्रत्ययो भवति । आकारश्चान्तादेशो भवति। ग्रावा-पाषाणः, पर्वतश्च ॥ ९०५ ।।
ऋ-शी-क्र शि-रुहि-जि-क्षि-ह-सू-धृ-दृभ्यः क्वनिए ।। ६०६ ॥
एभ्यः क्वनिप् प्रत्ययो भवति । ऋक् गतो, ऋत्वा ऋषिः । शोङ क स्वप्ने, शीवा-अजगरः। क्रुशं आह्वान-रोदनयोः, क्रुश्वा-सृगालः । रुहं बीजजन्मनि, रुह्वा-वृक्षः । जि अभिभवे, जित्वा-धर्मः, इन्द्रः, योद्धा च । जित्वरी-नदी, वणिजश्च, वाराणसी जित्वरीमाहुः । क्षि क्षये, क्षित्वा-वायुः, विष्णुः, मृत्युश्च । क्षित्वरी-रात्रिः । हग हरणे, हृत्वारुद्रः, मत्स्यः, वायुश्च । सृ गती, सृत्वा-कालः, अग्निः, वायुः, सर्पः, प्रजापतिः, नीचजातिश्च । सृत्वरी-वेश्यामाता। धृङत् स्थाने, धृत्वा-विष्णुः, शंलः, समुद्रश्च । धृत्वरी-भूमिः । हङत् आदरे, इत्वा-दृप्तः । पकरस्तागमार्थः ।। ९०६ ।।
सृजेः सज्-सको च ॥ ६०७ ॥
सृजंत विसर्गे, इत्यस्मात् क्वनिप् प्रत्ययो भवति । स्रज-सृक् इत्यादेशौ चास्य भवतः । स्रज्वा मालाकारः, रज्जुश्च । सृक्वणी-आस्योपान्तौ ।। ९०७ ।।
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सूत्र. ६०८-९१२ ]
स्वपोज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४६७
ध्या-प्योधी पी च ॥६०८॥
ध्ये चिन्तयाम् , प्यैड वृद्धौ, इत्याभ्यां क्वनिप् प्रत्ययो यथासंख्यं च धी पी इत्येता. वादेशौ भवतः । ध्यायतीति, धीवा-मनीषी, निषादः, व्याधिः, मत्स्य श्च । प्यायतेः, पीवापीनः ।। ९०८ ॥
अतेध च ॥१०॥
अत सातत्यगमने, इत्यस्मात् क्वनिप् प्रत्ययो भवति, घश्चान्तादेशो भवति । अध्वा-मार्गः ।। ९०९ ।।
प्रात्सदि-रीरिणस्तोऽन्तश्च ॥ १० ॥
प्रपूर्वेभ्यः सद्यादिभ्यः क्वनिप् प्रत्ययो भवति, तोऽन्तश्च भवति । षद्लु विशरणगत्यवसादनेषु, प्रसत्त्वा मूढः, वायुश्च । प्रसत्त्वरी-माता, प्रतिपत्तिश्च । रीश् गति-रेषणयोः, प्ररीत्वा वायुः। प्ररीत्वरी-स्त्रीविशेषः । ईरिक गति-कम्पनयोः, प्रेा-सागरः, वायुश्च । प्रेत्वंगे-नगरी। इंण्क गतो, प्रेत्वरी नगरीत्याहुः ।। ६१० ॥
मन् ॥ ६११ ॥
सर्वधातुभ्यो बहुलं मन् प्रत्ययो भवति । ड्रकृग करणे, कर्म-व्यापारः । वग्ट् वरणे, वर्म-कवचम् । वृतूङ वर्तने, वत्म पन्थाः । चर भक्षणे च, चर्म-अजिनम् । भस भर्त्सनदीप्त्योः सौत्रः, भसितं तदिति, भस्म-भूतिः । जनैचि प्रादुर्भावे, जन्म-उत्पत्तिः । शृश् हिंसायाम् , शर्म-सुखम् । वसवोऽस्य दुरितं. शीर्यासुरिति वसुशर्मा, एवं हरिशर्मा। मृत् प्राणत्यागे, मर्म-जीवप्रदेशप्रचयस्थानम् , यत्र जायमाना वेदना महती जायते । नृश् नये, नर्म-परिहासकथा । श्लिषंच आलिङ्गने श्लेष्मा-कफः। ऊष रुजायाम्, ऊष्मा-तापः । टुडुभृग्क् पोषणे च, भर्म-सुवर्णम् । यांक प्रापणे, यामा-रथः। वांक् गति-गन्धनयोः, वामा-करचरण ह्रस्वः । पांक रक्षणे, पामा-कच्छूः । वृष, सेचने, वर्म-शरीरम् । षद्ल विशरणगत्यवसादनेषु, सद्म-गृहम् । विशंत् प्रवेशने, वेश्म-गृहम् । हिंट गति-वृद्धयोः, हेमसुवर्णम् । छदण अपवारणे, छद्म-माया। दीङ च क्षये, देङ पालने वा, दाम-रज्जुः, माता च । दुधांग्फ धारणे च, धाम-स्थानं, तेजश्च । ष्ठां गतिनिवृत्ती, स्थाम-बलम् । धुंग्ट अभिषवे, सोम:-यक्षः, पयः, रसः, चन्द्रमाश्च । अशौटि व्याप्तौ, अश्मा-पाषाणः । लक्षीण दर्शनाङ्कनयोः, लक्ष्म चिह्नम् । अयि गतौ अय्म-संग्रामः । तक् हसने, तक्मा-रतिः, आतपः, दीपश्च । हुंक् दानादनयोः, होम-हव्यद्रव्यम् , अग्निहोत्रशाला च । धृग् धारणे, धर्मपुण्यम् । विपूर्वात् विधर्मा अहितः, वायुः, व्यभिचारश्च । ध्यें चिन्तायाम् । ध्यामध्यानम् ।। ६११ ।।
कुष्युषि-सृपिभ्यः कित् ॥ ६१२ ॥
एभ्यः कित् मन् प्रत्ययो भवति । कुषश् निष्कर्षे, कुष्म-शल्यम् । उषू दाहे, उष्मादाहः । सृप्लगतौ, सृप्मा-सर्पः, शिशुः, यतिश्च ।। ९१२ ।।
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४६८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-६१३-६२०
बृहे!ऽच्च ॥ ६१३ ॥
बृहु शब्दे, इत्यस्माद् मन् प्रत्ययो भवति, नकारस्य च अकारो भवति । ब्रह्म-परं तेजः, अध्ययनं, मोक्षः, बृहत्वादात्मा । ब्रह्मा-भगवान् ॥ ९१३ ॥
व्येग एदोती च वा ॥ ६१४॥
व्यग् संवरणे, इत्यस्माद् मन् प्रत्ययो भवति, एदोतो चान्तादेशौ वा भवतः । व्येमवस्त्रम् , व्येमा-संसारः, कुविन्दभाण्डं च । व्योम-नभः । पक्षे व्याम-न्यग्रोधाख्यं प्रमाणम् ॥९१४ ॥
स्यतेरी च वा ॥ ६१५॥ - षोंच अन्तकर्मणि, इत्यस्माद् मन् प्रत्ययो, ईकारश्चान्तादेशो वा भवति । सीमाअघाट: । पक्षे साम-प्रियवचनं, वामदेव्यादि च ।। ६१५ ।। सात्मनात्मन् वेमन-रोमन्-क्लोमन्-ललामन्-नामन्-पाप्मन-पक्ष्मन्-यक्ष्मन्निति ।।१६।
एते मन्प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । स्यतेस्तोऽन्तश्च । सात्म अत्यन्ताभ्यस्तं प्रकृतिभूतम् , अन्तकर्म च, अतेः, दीर्घश्च, आत्मा-जीवः । वेग आत्वाभावश्च, वेम तन्तुवायोपकरणम् । रुहेलुक् च, रोम-तनूरुहम् । लत्वे लोम-तदेव । क्लमेरोच्च क्लोम-शरीरान्तरवयवः । लातेद्वित्वं च ललाम-भूषणादि । नमेरा च, नाम-संज्ञा, कीर्तिश्च । पातयतेस्तः पच, पाप्मा-पापं रक्षश्च । पञ्चेः कः षोऽन्तो नलोपश्च, पक्ष्म-अक्ष्यादिलोम । यस्यते: यक्षिणो वा, यक्ष्मा-रोगः। इतिकरणात् तोक्म-रुक्म-शुष्मादयो भवन्ति ।। ९१६ ॥
ह-जनिभ्यामिमन् ॥ ६१७ ।।
आभ्याम् इमन्प्रत्ययो भवति । हृग हरणे, हरिमा-पापविशेषः, मृत्युः, वायुश्च । जनैचि प्रादुर्भावे, जनिमा-धर्मविशेषः, संसारश्च ।। ६१७ ।।
सृ-ह-भृ-धृ-स्त-सूभ्य-ईमन् ।। ६१८ ॥
एभ्य ईमन्प्रत्ययो भवति । सृ गतौ, सरीमा-कालः । हग् हरणे, हरोमा-मातरिश्वा । टुडुभृग्क् पोषणे च, भरीमा क्षमी, राजा, कुटुम्बं च । धृग् धारणे, घरीमा-धर्मः । स्तृग्श आच्छादने, स्तरीमा-प्रावारः । पूत् प्रेरणे, सवीमा गर्भः, प्रसूतिश्च ॥६१८ ।।
गमेरिन् ॥ ६१६॥ . गम्लु गती, इत्यस्माद् इन् प्रत्ययो भवति । गमिष्यतीति गमी-जिगमिषुः ।९१९॥ आङश्च णित् ॥ ६२०॥
आङ पूर्वात् केवलाच्च गणिद् इन् प्रत्ययो भवति । आगामिष्यतीति आगामीप्रोषितादिः । गमिष्यतीति गामी प्रस्थितादिः ।। ६२० ।।
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सूत्र-९२१-९३० ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[४६९
सुवः ॥ ६२१॥
षडौच् प्राणिप्रसवे, इत्यस्माद् णिद् इन् प्रत्ययो भवति । आसावी, आसविष्यमाणः, जनिष्यमाण इत्यर्थः ।। ६२१ ॥
भुवो वा ॥ २२ ॥
भू सत्तायाम् , इत्यास्माद् इन् प्रत्ययो भवति, स च णिद्वा भवति । भविष्यतीति, भावी-कर्मविपाकादिः । भवी-भविष्यन् ।। ६२२ ॥
प्र-प्रतेर्या-बुधिभ्याम् ॥२३॥
प्रपूर्वात् प्रतिपूर्वाच्च यांक प्रापणे, बुधि, मनिच् ज्ञाने, इत्यस्माच्च णिद् इन् प्रत्ययो भवति । प्रयास्यतीति-प्रयायी, प्रतियास्यतीति-प्रतियायी, प्रभोत्स्यत इति प्रबोधी, प्रतिबोधी-बालादिः ॥ ६२३ ।।
प्रात् स्थः॥ २४॥
प्रपूर्वात् ष्ठां गति निवृत्ती, इत्यस्माद् णिद् इन् प्रत्ययो भवति । प्रस्थास्यते इति प्रस्थायी-गन्तुमनाः ।। ९२४ ।।
परमात् कित् ॥ ६२५॥
परमपूर्वात् तिष्ठतेः किद् इन् प्रत्ययो भवति । परमे पदे तिष्ठतीति परमेष्ठीअहंदादिः । भीरुष्ठानादित्वात् षत्वम् , सप्तम्या अलुप् च ॥ ९२५ ।।
पथि-मन्थिभ्याम् ॥ ६२६ ॥
आभ्यां किद् इन् प्रत्ययो भवति । पथे गतौ, पन्थाः-मार्गः, पन्थानौ, पन्थानः, पथिप्रियः । मन्थश् विलोडने, मन्था:-क्षुब्धः, वायुः, वज्रश्च । मन्थानौ, मन्थानः, मथिप्रियः ।। ६२६ ॥
होर्मिन् ॥ ६२७ ॥ हुंक् दातादनयोः, इत्यस्माद् मिन् प्रत्ययो भवति । होमी-ऋत्विक् , घृतं च ।९२७॥ अतभुक्षिनक् ।। १२८॥
ऋक् गतौ, इत्यस्माद् भुक्षिनक् प्रत्ययो भवति । ऋभुक्षा-इन्द्रः । ऋभुक्षाणौ, ऋभुक्षाणः॥ ६२८॥
अदेस्त्रिन ॥ ६२६ ॥ अदंक भक्षणे, इत्यस्मात् त्रिन् प्रत्ययो भवति । अत्रिः ऋषिः ॥ ९२९ ॥ पतेरत्रिन् ।। ६३०॥ पत्लु गती, इत्यस्माद् अत्रिन् प्रत्ययो भवति । पतत्री पक्षी।। ६३० ।।
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४७० ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-९३१-६४०
आपः क्विप् ह्रस्वश्च ॥ ६३१॥
आप्लुट् व्याप्ती, इत्यस्मात् विवप् प्रत्ययो भवति, ह्रस्वश्चास्य भवति । आपःअम्भः । स्वभावाद् बहुत्वम् ॥ ६३१ ।।
ककुप्-त्रिष्टुबनुष्टुभः ॥ ६३२॥
एते क्विप् प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते। कपूर्वात् स्कुभ्नातेः सलोपश्च-क-वायु, ब्रह्म च, स्कुभ्नन्तीति ककुभ:-दिशः । कुकुप्-उष्णिक्छन्दः। श्यनुपूर्वात् स्तुभ्नातेः सः षश्च, त्रिष्टुप् छन्दः, अनुष्टुप् छन्दः बहुवचनानिजि-विजि-विषां क्विप शित् , नेनिक्-प्रजापतिः । वेविक्-शुचिः । वेविट-चन्द्रमाः ॥ ६३२ ।।
अवेमः ॥ ६३३ ॥ अव रक्षणादौ, इत्यस्माद् मः इत्ययो भवति । अवतीति ओम्-ब्रह्म, प्रणवश्च । ६३३। सोरेतेग्म् ॥ ६३४॥ सुपूर्वाद् इणंक गती, इत्यस्माद् अम् प्रत्ययो भवति । स्वयम्-आत्मना ।। ९३४ ।। नशि-नूभ्यां नक्त-नूनौ च ।। ६३५॥
नशौच अदर्शने, एत् स्तवने, आम्याम् अम् प्रत्ययो भवति, नक्त नून इत्यादेशौ चाऽनयोर्भवतः। नक्तं-रात्रौ । नूनं-वितर्के ।। ९३५ ।।
स्यतेर्णित् ॥ ६३६ ॥ _षोंच अन्तकर्मणि, इत्यस्माद् णिद् अम् प्रत्ययो भवति । सायम्-दिवसावसानम् ॥ ९३६ ॥
गमि-जमि-क्षमि-कमि-शमि-समिभ्यो डित् ।। ६३७ ॥
एभ्यो डिद् अम् प्रत्ययो भवति । गम्लु गती, गम् । जमू अदने, जम् । क्षमौषि सहने, क्षम्-एतानि भार्यानामानि । कमूङ कान्तो, कम्-पानीयम् । शमूच उपशमे, शम्सुखम् । षम वैक्लव्ये, सम्-संभवति ।। ६३७ ॥
इणो दमक् ॥ ६३८॥ इणक् गतो, इत्यस्मात् कित् दम् प्रत्ययो भवति । इदम् प्रत्यक्षनिर्देशे ।। ६३८ ।। कोर्डिम् ॥ ६३६ ॥
कुंङ, शब्दे, इत्यस्माद् डिद् इम् प्रत्ययो भवति । किम्-अनेनाविज्ञातं वस्तु पर्यनुयुज्यते ॥ ६३९ ॥
तूपेरीम् णोऽन्तश्च ॥ ६४०॥
तूष तुष्टी, इत्यस्माद् ईम् प्रत्ययो भवति, णकारश्चास्यान्तो भवति । तूष्णीम्वाङ नियमे ।। ९४० ।।
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सूत्र-६४१-९५० ]
स्वीपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४७१
ई-कमि-शमि-समिभ्यो डित ।। ६४१ ॥
एभ्यो डिद् ईम् प्रत्ययो भवति । ईङ च गतौ, ईम् । कमूङ कान्तो, कीम् । शमूच उपशमे, शीम् । षम वैक्लव्ये, सीम्-अभिनयव्याहरणान्येतानि । ईम् शीम्-अव्यक्ते । कोम्-संशयप्रश्नादिषु । सीम्-अमर्ष-पादपूरणयोः ॥ ९४१ ॥ .
क्रमि-गमि-क्षमेस्तुमाश्चातः ॥ ९४२ ।।
एभ्यः तुम् प्रत्ययो भवति, अकारस्य चाकारो भवति । क्रमू पादविक्षेपे, क्रान्तुंगमनम् । गम्लु गतौ, गान्तुम्-पान्थः । क्षमौषि सहने, क्षान्तुम्-भूमिः । तुमर्थश्च सर्वत्र ।। ९४२॥
गृ-प-दुर्वि-धुर्विभ्यः किम् ।। ६४३॥
एभ्यः क्विप् प्रत्ययो भवति । गश् शब्दे, गी:-वाक् । पृश् पालनपूरणयोः, पू:नगरी । दुवै धुर्वे हिंसायाम् , दूः-देहान्तरवयवः, धूः-शकटाङ्गम् , आदिश्च ।। ६४३ ।।
वाारौ। ६४४ ॥
एतौ क्विपप्रत्ययान्तो निपात्येते । वृणोते द्विश्च । वाः-पानीयम् । कर्मणि दश्च धात्वादिः । वृण्वन्ति तामिति द्वाः- द्वारम् । वरणे, इत्यस्य च णिगन्तस्य रूपम् ।।६४४।
प्रादतेरर् ॥ ६४५॥ प्रपूर्वाद् अत सातत्यगमने, इत्यस्माद् अर् प्रत्ययो भवति । प्रात:-प्रभातम् ।९४५। सोरतेलु क् च ।। ६४६ ॥
सुपूर्वात् ऋक् गती, इत्यस्माद् अर् प्रत्ययो भवति, पातोश्च लुग् भवति । स्व:स्वर्गः ॥ ९४६ ।।
पू-सन्यमिभ्यः पुनसनुतान्ताश्च ।। ६४७॥
पूग्श् पवने, षण् भक्ती, अम गती, इत्येतेभ्यः अर् प्रत्ययो भवति, यथासंख्यं च पुन्, सनुत् , अन्त् इत्यादेशा एषां भवन्ति । पुनः-भूयः । सनुतः-कालवाची । अन्तः-मध्ये ।९४७।
चतेरुर ॥१४ ॥
चतेग याचने, इत्यस्माद् उर् प्रत्ययो भवति । चत्वारः-संख्या । चत्वारि, चतस्रः ॥६४८॥
दिवेडिव ॥ १४ ॥
दिवूच क्रीडादौ, इत्यस्माद् डिद् इव् प्रत्ययो भवति । द्यौः-स्वर्गः, अन्तरिक्षं च । दिवौ, दिवः ॥ ९४६ ॥
विशि-विपाशिभ्यां किम् ॥ ९५० ॥
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४७२ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ सूत्र-६५१-६५५
आभ्यां क्विप् प्रत्ययो भवति । विशंत् प्रवेशने, विशः-प्रजाः, विट्-वैश्यः, पुरीष अपत्यं च । पशण बन्धने, विपूर्वः, विपाशयति स्म वशिष्ठमिति विपाट-नदी ॥६५० ॥
सहेः षषु च ॥ ६५१॥
षहि मर्षणे, इत्यस्मात् क्विप् प्रत्ययो भवति, षष् चास्यादेशो भवति । षट्संख्या ।। ६५१॥ - अस् ॥ ६५२ ॥
सर्वधातुभ्यो बहूलम् अस् प्रत्ययो भवति । तपं संतापे, तपः-संतापः, माघमासः, निर्जराफलं च अनशनादि । सुष्ठु तपतीति, सुतपाः । एवं महातपाः । णमं प्रह्वत्वे, नमःपूजायाम् । तमूच् काङ क्षायाम् , तमः-अन्धकारः, तृतीयगुणः, अज्ञानं च । इणं गतो, अय:-काललोहम् । वींक प्रजनादौ, वयः पक्षी, प्राणिनां कालकृता शरीरावस्था च यौवनादिः । वचि दीप्तौ, वर्च:-लावण्यम् , अन्नमलं, तेजश्च । सुष्ठु वर्चत इति सुवर्चाः । रक्ष पालने, रक्ष:-निशाचरः। त्रिमिदाच स्नेहने, मेद:-चतुर्थों धातुः । रह त्यागे, रहः-प्रच्छन्नम् । षहि मर्षणे, सहा:-मार्गशीर्षमासः । णभच हिंसायाम् , नमःआकाशं श्रावणमासश्च । चितै संज्ञाने, चेतः-चित्तम् । प्रचेताः-वरुणः। मनिंच ज्ञाने, मन:-नोइन्द्रियम् । अंग्क व्यक्तायां वाचि, वचः-वचनम् । रुदृक् अश्रुविमोचने, रोदःनभः, रोदसी-द्यावापृथिव्यो । रुधृम्पी आवरणे, रोधः-तीरम् । अनक प्राणने, अन:शकटम् , अन्नं, भोजनं च । सृगतो, सर:- जलाशयविशेषः। तृ प्लवन-तरणयो, तरःवेगः, बलं च । रहु गतो, रहः-जवः । तिजि क्षमा-निशानयोः, तेजः-दीप्तिः । मयि दीप्तौ, मय:-सुखम् । मह पूजायाम् , महः-तेजः । अचिण् पूजायाम् , अर्चः-पूजा । षद्ल विशरणगत्यवसादनेषु, सदः-सभा, भवनं च । अजौप् व्यक्त्यादौ, अञ्जः-स्नेहः ॥ ६५२ ।।
पा-हाभ्यां पय-ह्यौ च ॥ ६५३ ।।
पां पाने, ओहांक त्यागे, इत्येताभ्याम् अस् प्रत्ययो भवति, यथासंख्यं च पय् ह्य इत्यादेशावनयोर्भवतः । पयः-क्षीरं, जलं च । ह्यः-अनन्तरातीते दिने ॥ ६६३ ।।
छदि-बहिन्यां छन्दोधौ च ॥ ६५४ ॥
छदण संवरणे, वहीं प्रापणे, इत्येताभ्याम् अस् प्रत्ययो भवति, यथासंख्यं चानयोः छन्द् ऊध् इत्यादेशौ भवतः । छन्द:-वेदः, इच्छा, वाग्बन्धविशेषश्च । ऊध:-धेनोः क्षीराघारः।।६५४।।
श्वेः शव च वा ॥ ६५५ ॥
ट्वोश्वि गति-वृद्ध्योः , इत्यस्माद् अस् प्रत्ययो भवति, अस्य च शब् इत्यादेशो वा भवति । शवः-रोगाभिधानं, मृतदेहश्च । शवसी, शवांसि । श्वयः-शोफः, बलं च । श्वयसी, श्वयांसि ॥९५५ ॥
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सूत्र--९५६-९६४ ]
स्वोपशोणादिगणसूत्रविवरणम्
[४७३
विश्वाद् विदि-मुजिभ्याम् ।। ६५६ ॥
विश्वपूर्वाभ्यामाभ्याम् अस् प्रत्ययो भवति । विदक् ज्ञाने, विश्ववेदाः-अग्निः । भुजंप पालनाभ्यवहारयोः, विश्वभोजाः, अग्निः, लोकपालश्च ।। ९५६ ॥...
चायेनों ह्रस्वश्च वा ॥ ६५७ ॥
चायग पूजा-निशामनयोः, इत्यस्माद् अस् प्रत्ययो भवति, नकारोऽन्तादेशो ह्रस्वश्चास्य वा भवति । चण:-चाणश्चान्नम् । बाहुलकाण्णत्वम् । णत्वं नेच्छन्त्येके ।। ९५७ ॥
अशेयश्चादिः ।। ६५८ ॥
अशश् भोजने, अशौटि व्याप्ती, इत्यस्माद् वा अस् प्रत्ययो भवति, यकारश्च धात्वादिर्भवति । यशः-माहात्म्यम, सत्त्वं, श्रीः ज्ञानं, प्रतापः, कीर्तिश्च । एवं शोभनम अश्नाति, अश्नुते वा इति सुयशाः । नागमेवाश्नाति नागयशाः । बृहदेनोऽश्नाति बृहद्यशाः । श्रुत एनोऽश्नाति श्रुतयशाः एवमन्येऽपि द्रष्टव्याः ॥ ९५८ ।।
उषेण च ।। ६५६ ॥
उषू दाहे, इत्यस्मादस् प्रत्ययो भवति, जकारश्चान्तादेशो भवति । ओजः-बलं, प्रभावः, दीप्तिः , शुक्र च ।। ६५९ ॥
स्कन्देधं च ।। ६६० ॥
स्कंद गति-शोषणयोः, इत्यस्माद् अस् प्रत्ययो भवति । धकारश्चान्तादेशो भवति । स्कन्धः-स्वाङ्गम् ।। ९६० ॥ .
अवेर्वा ॥ ६६१॥
अव रक्षणादी, इत्यस्माद् अस् प्रत्ययो भवति, धकारश्चान्तादेशो वा भवति । अधः-अवरम् , अव:-रक्षा ।। ६६१ ।।
अमेही चान्तौ ॥ ६६२ ॥
अम गतौ, इत्यस्माद् अस् प्रत्ययो भवति, भकार-हकारी चान्तौ भवतः । अभ्भ:पानीयम् । अंहः-पापम् , अपराधः, दिनश्च ।। ६६२ ॥
अदेरन्ध च वा ॥ ६६३॥
अदंक भक्षणे, इत्यस्मादस् प्रत्ययो भवति, अन्धादेशश्चास्य वा भवति । अद्यते तदिति अन्ध:-अन्नम् । अद्यते दृशा मनसा च तद् इति अदः, अनेन प्रत्यक्षविप्रकृष्टम् अप्रत्यक्षं च बुद्धिस्थमपदिश्यते ।। ९५३ ।।
आपोऽपाप्ताप्सराब्जाश्च ।। ६६४॥ आप्लट् व्याप्ती, इत्यस्माद् अस् प्रत्ययो भवति । अप् , अप्त् , अप्सर्,
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४७४ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
-९६५-९७१
अब्ज इत्यादेशाश्चास्य भवन्ति । अपः-सत्कर्म, अप्तः तदेव, अप्सरसः-देवगणिकाः, अब्जःजलजम् , अजयं च रूपम् ॥ ६६४ ॥
उच्यञ्चेः क च ॥६६५॥
उचच समवाये, अञ्चू गतौ चेत्याभ्याम् अस् प्रत्ययो भवत्यनयोश्च कोऽन्तादेशो भवति । ओक:-आलयः, जलोकसश्च । अङ्कः-स्वाङ्गम् , रणश्च ।। ९६५ ।।
अज्यजि-युजि-भृजेर्ग च ।। ६६६ ॥
एभ्यः अस् प्रत्ययो भवति, गकारश्चान्तादेशो भवति । अञ्जोप व्यक्त्यादौ, अङ:-क्षत्रियनाम, गिरिपक्षी, व्यक्तिश्च । अज क्षेपणे च, अग:-क्षेमम् । युज पी-योगे, योगः-मनः-युगं च । भृजैङ् भर्जने, भर्गः-रुद्रः, हविः, तेजश्च ।। ९६६ ॥
अर्तेरुराशी च ।। ६६७ ॥
ऋक गतौ, इत्यस्माद् अस् प्रत्ययो भवत्यस्य च उरिति अर्श, इति च तालव्यशकारान्तः आदेशो भवति । उरः-वक्षः । अर्शासि-गुहादिकीलाः ।। ९६७ ॥
येन्धिभ्यां यादेधौ च ॥ ९६८॥
यांक प्रापणे, त्रिइन्धपि दीप्तो, इत्याभ्याम् अस् प्रत्ययो भवति, यथासख्यं च याद् एध इत्यादेशो भवतः । याद:-जलदुष्टसत्त्वम् । एषः-इन्धनम् ।। ६६८ ।।
चक्षः शिवा ॥ १६॥
चक्षिडक व्यक्तायां वाचि, इत्यस्माद् अस प्रत्ययो भवति, स च शिद्वा भवति । चक्षः, ख्याः, उभे अपि रक्षोनाम्नी। आचक्षा:-वाग्मी। आख्याः, प्रख्याश्च-बृहस्पतिः। संचक्षा:-ऋत्विक् । नृचक्षाः-राक्षसः ।। ६६६ ।।
वस्त्यगिभ्यां णित् ॥ ६७० ।।
वस्त्यगिभ्यां णिद् अस् प्रत्ययो भवति । वसिक् आच्छादने, वासः-वस्त्रम् । अग कुटिलायां गतो, आगः-अपराधः ।। ९७० ।।
मिथि-रज्युषि-तृ-पृ-श-भूवष्टिभ्यः कित् ॥ ६७१॥
एभ्यः किद् अस् प्रत्ययो भवति । मिथग मेघा हिंसयोः, मिथ:-परस्परम् , रहसि चेत्यर्थः । रञ्जी रागे, रजः-गुणः, अशुभम् , पांसुश्च । उष दाहे, उषा सन्ध्या, अरुणः, रात्रिश्च । तृ प्लवन-तरणयोः, तिरस्करोति-तिरः कृत्वा काण्डं गतः। तिर इति अन्तविनृजुत्वे च । पृश् पालन पूरणयोः, पुरः पुजायाम् । तथा च पठन्ति नमः पूजायां पुरश्चेति । शृश् हिंसायाम् , शृणाति-तद्वियुक्तमिति, शिरः-उत्तमाङ्गम् । भू सत्तायाम् , भुवः-लोकः, अन्तरिक्षम् , सूर्यश्च । वशक् कान्ती, उशा-रात्रिः ।। ९७१ ॥
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सूत्र-९७२-९८० ]
स्वोपशोगादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४७५
. विधेर्वा ॥ १७२॥
विधत् विधाने, इत्यस्माद् अस् प्रत्ययो भवति, स च किद्वा भवति । वेघाः-विद्वान्, सर्ववित् , प्रजापतिश्च । विधा:-स एव ।।.९७२ ।।
नुवो धयादिः॥ ६७३ ॥
णूत् स्तवने, इत्यस्माद् धकारादिस्थकारादिश्च किद् अस् प्रत्ययो भवति । नूधा नूथाश्च-सूतमागधौ । घादी गुणमिच्छन्त्येके । नोषाः-ऋषिः, ऋत्विक् ।। ६७३ ॥
वय:-पयः-पुरोरेतोभ्यो धागः॥ १७ ॥
एभ्यः पराद् डुधांग्क धारणे, इत्यस्मात् किद् अस् प्रत्ययो भवति । वयोधाः-युवा, चन्द्रः, प्राणी च । पयोधाः-पर्जन्यः । पुरोधाः-पुरोहितः, उपाध्यायश्च । रेतोधा:जनकः॥९७४ ।।
॥६७५ ॥ नत्र पूर्वाद् ईहि चेष्टायाम् , इत्यस्माद् अस् प्रत्ययो भवति, अस्य च एह, एध् इत्यादेशो भवतः । अनेहा:-कालः, इन्द्रः, चन्द्रश्च । अनेधा:-अग्निः, वायुश्च ।। ९७५ ॥
विहायस-सुमनस्-पुरुदंशस्-पुरूरवो-ऽङ्गिरसः ॥ ६७६ ॥
एतेऽस् प्रत्ययान्ता निपात्यन्ते । विपूर्वाज्जहातेजिहीतेर्वा योऽन्तश्च । विजहातीति विहाय-आकाशम् , विजिहीत इति विहायाः-पक्षी । सुपूर्वान्मानेह्रस्वश्च । सुष्ठु मानयन्ति मान्यन्ते वा, सुमनसः-पुष्पाणि । पुरुं दशतीति पुरुदंशाः-इन्द्रः । पुरुपूर्वाद्रौतेर्दीर्घश्च, पुरु रोति पुरूरवाः-राजा, यमुर्वशी चकमे । अङगेरिरोऽन्तश्च । अङ्गतीति-अङ्गिरा:ऋषिः ॥ ९७६ ॥
आतेजस्थसौ ॥ ७ ॥
पांक रक्षणे, इत्यस्माद् जस् थस् इत्येतो प्रत्ययो भवतः । पाजः-बलम् । पाथ:उदकम् अन्नं च ॥ ९७७ ॥
खरीभ्यां तस् ॥ ९७८॥
आभ्यां तस् प्रत्ययो भवति । स्रं गतो, स्रोतः-निझरणम् , सुष्ठु स्रवतीति सुस्रोताः । रीश् गतिरेषणयोः, रेतः-शुक्रम् ।। ९७८ ।।
अर्तीणभ्यां नस् ॥ ६७६ ॥
आभ्यां नस् प्रत्ययो भवति । ऋक् गती, अर्णः-जलम् । इणक् गतौ, एनः-पापम् , अपराधश्च ।। ९७९ ॥
रिचेः क च ॥ ६८०॥ . . . . . .
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४७६"]
स्वोपशोणादिगणसूत्रविवरणम्
[सूत्र-९८१-६८६
रिचपी विरेचने, इत्यस्माद् नस् प्रत्ययो भवति, अस्य च ककारोऽन्तादेशो भवति । रेक्ण:-पापं, धनं च ॥ ९८० ॥
री-वृभ्यां पस् ॥ १८१॥
अस्यां पस् प्रत्ययो भवति । रीश् गति-रेषणयोः, रेपः-पापम् । वृन्ट् वरणे, वर्पःरूपम् ।। ६८१॥
शीङः फस् च ॥ १८२॥
शीङ क् स्वप्ने, इत्यस्मात् फस् , चकारात् पस् प्रत्ययो भवति । शेफः, शेपश्च मेण्ढम् ॥ ६८२ ॥
पचि-वचिभ्यां सस् ॥१३॥
आभ्यां सस् प्रत्ययो भवति। डुपची पाके, पक्ष:-चक्रम् , इन्धनं च । वचंक् भाषणे, वक्षः-उरः, शरीरं च ।। ९८३ ।।
इणस्तशस् ॥ ६८४॥
इणंक गती, इत्यस्मात् तशस् प्रत्ययो भवति । एतशाः सोमः, अध्वर्यु:, वायुः, अग्निः , अर्कः इन्द्रश्च ।। ६८४ ॥
वष्टेः कनस् ॥ ६८५॥ • वशक् कान्ती, इत्यस्माद् किद् अनस् प्रत्ययो भवति । उशना:-शुक्रः ।। ९८५।।
चन्दो रमस् ॥ ६८६ ॥ चदु दीप्त्याह्लादयोः, इत्यस्माद् रमस् प्रत्ययो भवति । चन्द्रमाः शशी ।। ९८६॥ दमेरुनसूनसौ ॥ ६८७ ॥
दमूच् उपशमे, इत्यस्माद् उनस् ऊनस् इत्येतो प्रत्ययो भवतः । दमुना:-अग्निः । दमूनाः-सूर्यः, देवः, उपशान्तश्च ।। ९८७ ॥
इण आस् ॥ ६८८ ॥ इणंक गतो, इत्यस्माद् आस् प्रत्ययो भवति । अया:-कालः, आदित्यश्च ।।९८८।। रुच्यर्चि-शुचि-हु-सृ-पि-छादि-छुदिभ्य इस् ॥ ६८६ ॥
एभ्य इस् प्रत्ययो भवति । रुचि अभिप्रीत्यां च, रोचिः-किरणः । वसुपूर्वाद् वसुरोचि:-वासवः, किरणः, ऋतश्च । अर्च पूजायाम, अचिः-ज्वाला। शच शोके, शोचि:रश्मिः, शोकः, पिङ्गलभावः, विविक्तं च । हुंक दानादनयोः, हविः-पुरोडाशादि । सृप्ल गतो, सपि:-घृतम् । छदण् संवरणे, छादयतीति छदिः । 'छदेरिस् मन् बट् क्वौ' इति ह्रस्वः । बाहुलकाद्दीर्धत्वे छादिः-उभयं गृहच्छादनम् । ऊदपी दीप्ति-देवनयोः, छदिःवमनम् ।। ६८९॥
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सूत्र ९९०-९९७ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
४७७
बंहि-वृ' हेर्नलुक् च ॥ ६६० ॥
आभ्याम् इस् प्रत्ययो भवति, नकारस्य च लुक् भवति । बहुङ वृद्धौ, बहि:अनभ्यन्तरे, वृहु शब्दे च बहि:- शिखी, दर्भश्च ॥ १६० ।।
तेरादेव जः ॥ ६१ ॥
घुति दीप्तो, इत्यस्माद् इस् प्रत्ययो भवति, धात्वादेश्च वर्णस्य जकारो भवति । ज्योति:- तेजः, सूर्यः, अग्निः, तारका च ।। ६९१ ॥
सहेर्ध च ।। ६६२ ॥
हि मर्षणे, इत्यस्माद् इस् प्रत्ययो भवति, घकारश्चान्तादेशो भवति । सधि:सत्त्वम्, भूमिः, संयोगः, सहिष्णुः, अग्निः, अनड्वांश्च ।। ९९२ ।।
पस्थोऽन्तश्च ॥ ६६३ ॥
पां पाने, इत्यस्माद् इस् प्रत्ययो भवति, थकारश्चान्तो भवति । पाथि :- पानं, नदी, आदित्यः, ज्योतिः, स्वर्गलोकश्च ।। ६९३ ।
नियो डित् ॥ ६४ ॥
ग् प्रापणे, इत्यस्माद् दि इस् प्रत्ययो भवति । निश्चिनोति । निरुपसर्गोऽयं पृथग्भावे ।। ९९४ ।
अवेर्णित् ॥ ६६५ ॥
अव रक्षणादी, इत्यस्माद् दि इस् प्रत्ययो भवति । आविः - प्राकाश्ये, आविरभूत् आविष्करोति ।। ९९५ ।।
तु-भू-स्तुभ्यः कित् ॥ ६६६ ॥
एभ्यः, किद् इस् प्रत्ययो भवति । तुंकू वृत्त्यादी, तुविः समुद्रः सरित् विवस्वान्, प्रभुसंयोगश्च । भू सत्तायाम्, भुविः क्रतुः समुद्रः सरित् विवस्वांश्च । ष्टुंग्क स्तुतो, स्तुविः - स्तोता, यज्ञश्च ॥ ६६६ ।।
धर्ति - जनि-तनि-नि-मनि-ग्रन्थि-पु-त पि-त्रपि वपि यजि- प्रादि- वेपिभ्य उसु ॥६७॥
एभ्य उस् प्रत्ययो भवति । रुदृक् अश्रुविमोचने, रोदु :- अश्रुनिपातः । ऋक् गतो, अरु:- व्रणः, आदित्यः प्राणः, समुद्रश्च । जनैचि प्रादुर्भावे, जनुः, अपत्यं, पिता, माता, जन्म, प्राणो, च। तनूयी विस्तारे, तनुः- शरीरम् । धन धान्ये सौत्रः, धनुः- चापम् । मनिच् ज्ञाने, मनुः - प्रजापतिः । ग्रन्थश् संदर्भे, ग्रन्थ : - ग्रन्थः । पृश् पालन- पूरणयोः, परः, पर्व, समुद्र, धर्मश्च । तपं संतापे, तपुः त्रपुः, शत्रुः, भास्करः, अग्निः, कृच्छ्रादि च । त्रपौषि लज्जायाम्, त्रपुः-त्रपु । डुवपीं बीजसंताने, वपुः शरीरम्, लावण्यं, तेजश्च । यजीं देव
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४७८ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्र विवरणम्
[ सूत्र- ९९८-१००५
पूजा-संगति करणदानेषु यजुः -अच्छन्दा श्रुतिः, यज्ञोत्सवश्च । अदंक् भक्षणे, प्रपूर्वः, प्रादुःप्राकाश्ये, उत्पत्तौ च, प्रादुर्बभूव । प्रादुरासीत् । टुवेपृङ, चलने, वेपुः - वेपथुः ॥ ९९७ ।।
इणो णित् ॥ ६८ ॥
इक् गतौ इत्यस्माद् णिद् उस् प्रत्ययो भवति । आयुः - जीवितम् । जटापूर्वादपि जटायु:- अरुणात्मजः ।
'तं नीलजीमूतनिकाशवणं, सपाण्डुरोरस्कमुदारवैयम् । ददर्श लङ्काधिपतिः पृथिव्यां जटायुषं शान्तमिवाग्निदाहम्' ।। ६६८ ।
दुषेडिंत ॥ ६६६ ॥
दुषं च वैकृत्ये, इत्यस्माद् डिद् उस् प्रत्ययो भवति । दु: - निन्दायाम्, दुष्पुरुषः । ९९९ ।
- मिथ्यादेः कित् ॥ १००० ॥
आभ्यां किदुस् प्रत्ययो भवति । मुहौच् वैचित्ये, मुहु:-कालावृत्तिः मिथुग् मेघा - हिंसयोः, मिथुः - संगमः । आदिग्रहणादन्येभ्योऽपि भवति ।। १००० ॥
चक्षेः शिद्वा ।। १००१ ॥
चक्षिक् व्यक्तायां वाचि, इत्यस्मात् किद् उस् प्रत्ययो भवति, स च शिद्वा भवति । चक्षुः, परिचक्षुः, अवचक्षुः, अवसंचक्षुः, अचक्षुः, अवख्युः । बाहुलकाद् द्विर्वचने सचचक्षः, विचख्युः ।। १००१ ॥
पातेडु' म्सुः ॥ १००२ ॥
पांक रक्षणे, इत्यस्माद् डिदुम्सुः प्रत्ययो भवति । पुमान् पुरुषः, पुमांसी, पुमांसः । उकार उदित् कार्यार्थः ।। १००२ ।।
न्युद्भ्यामञ्चेः ककाकैसष्टाव च ॥ १००३ ॥
1
न्युद्भ्यां परादञ्च गतौ, इत्यस्मात् कितः अ आ ऐस् इत्येते प्रत्यया भवन्ति, ते चटाव, टायामिव एषु कार्यं भवतीत्यर्थः । तेन 'अच्च प्राग्दीर्घश्च' इति भवति । नीचम्, उच्चम् । नीचा, ऊच्चा । नीचैः उच्चैः प्रसिद्धार्था एते । लाघवार्थं सन्ताधिकारेऽप्यकारआकारप्रत्ययविधानम् ।। १००३ ।।
शमो नियो डैस् मलुक् च ॥ १००४ ॥
पूर्वात् ग् प्रापणे, इत्यस्माडिदैस् प्रत्ययो भवति, शमो मकारस्य लुग्भवति । शनैर्मन्दम् ।। १००४ ।
यमि-दमिभ्यां डोस् ॥ १००५ ॥
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सूत्र-१००६ ]
स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणम्
[ ४७९
आभ्यां डिदोस् प्रत्ययो भवति । यमं उपरमे । योविषयसुखम् । दमूच् उपशमे । दोर्बाहुः ।। १००५ ॥
अनसो वहे. किप सश्चडः ॥१००६ ॥
अनसशब्दपूर्वात् वहीं प्रापणे, इत्यस्मात् क्विप-प्रत्ययो भवति, सकारस्य च डो भवति । अनो वहति । अनड्वान् वृषभः ।। १००६ ।। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रकृतं स्वोपज्ञोणादिगणसूत्रविवरणं परिसमाप्तम् ।
अकृत्वासननिर्बन्धमभिस्वा पावनी गतिम् । सिद्धराजः परपुरप्रवेशवशितां ययौ ॥
NAGA
WOO.0.0.
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।। ॐ अर्ह नमः ॥
म परिशिष्टं प्रथमम् ॥
कलिकालसर्वज्ञश्री हेमचन्द्राचार्यविरचित धातुपाठः। .......... १ भू सत्तायाम् ।... ३६ के ३७ में ३८ रै शब्दे ।। ६४ वुगु वर्जने । ६५ गग्ध हसने। २ पां पाने ।
३९ ष्टय ४० स्त्य सङ्घाते च ।। ९६ दधु पालने। ३ घ्रां गन्धोपादाने। ४१ ईखदने ।
। ६७ शिघु आघ्राणे। ४ मां शब्दा-ऽग्निसंयोगयोः। ४२ ३ ४३ जे ४४ क्षये। ९८ लघु शोषणे । ५ ष्ठां गतिनिवृत्तौ । ४५ ४६ 8 पाके। [अत्र 'मघु मण्डने' इत्येके पठन्ति ६ म्नां अभ्यासे।
४७ 4 ४८ ओवै शोषणे। ९९ शुच शोके । ७ दां दाने। ४९ ष्ण वेष्टने।
१०० कुच शब्दे तारे। ८ जिजि अभिभवे । ५० फक्क नीचैर्गतौ।
१०१ क्रुञ्च गतौ । १० क्षि क्षये। ५१ तक हसने।
१०२ कुञ्च च कौटिल्याल्पी११ इं १२ , १३ द्रं १४ शुं। ५२ तक कृच्छजीवने।
भावयोः । १५ गतौ। ५३ शुक गतौ।
१०३ लुञ्च अपनयने । १६ धुं स्थैर्ये च । ५४ बुक्क भाषणे।
१०४ अर्च पूजायाम् । १७ मुं प्रसवैश्वर्ययोः। ५५ ओख ५६ राख ५७ लाख । १०५ अञ्चू गतौ च । १० स्मृचिन्तायाम् । ५८ द्राख ५६ ध्राल
१०६ वञ्चू १०७ चञ्चू १६ २० घुसेचने।
शोषणालमर्थयोः। १०८ तञ्चू १०९ त्वञ्चू २१ औस्वृ शब्दोपतापयोः । ६० शाख ६१ श्लाल व्याप्तौ। ११० मञ्चू १११ मुडचू २२ द वरणे। ६२ कक्ख हसने ।
११२ म्रञ्चू ११३ म्रचू २३ २४ ह्व, कौटिल्ये। ६३ उख ६४ नख ६५ णख ११४ म्लुचू ११५ ग्लुञ्चू २५ सृ गतौ।
६६ वख ६७ मख ६८ रख ११६ षस्च गतौ। २६ ऋ प्रापणे च।
६६ लख ७० मखु ७१ रखु ११७ ग्रुचू ११८ ग्लुचू स्तेये । २७ त प्लवन-तरणयोः। ७२ लख ७३ रिखु ७४ इख | ११९ म्लेछ अव्यक्तायां वाचि । २८ ट्धे पाने ।
७५ इखु ७६ ईखु ७७ वल्ग | १२० लछ १२१ लाछु लक्षणे। २९ देव शोधने ।
७८ रगु ७६ लगु ८० तगु १२२ वाछु इच्छायाम् । ३० ध्ये चिन्तायाम् । . ८१ श्रगु८२ श्लगु ८३ अगु १२३ आछु आयामे। ३१ ग्लैं हर्षक्षये ।
८४ वगु ८५ मगु ८६ खगु १२४ ह्रीछ लज्जायाम् । ३२ म्लैं गात्रविनामे।
८७ इगु ८८ उगु ८६ रिगु १२५ हुर्छा कौटिल्ये। ३३ वें न्यङ्गकरणे। ९० लिगु गतौ।
१२६ मुर्छा मोह-समुछाययोः। ३४ दें स्वप्ने ।
९१ त्वगु कम्पने च । १२७ स्फुर्छा १२८ स्मुर्छा ३५ धंतृप्तौ। ९२ युगु ९३ जुगु
विस्मृतौ।
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धातुपाठः
[४८१
१२९ युछ प्रमादे।
| १७६ शिट १८० पिट अनादरे।। २२४ कुठु २२५ लुकु . १३० धृज १३१ धृजु १८१ जट १८२ झट संघाते ।
आलस्येच। १३२ ध्वज १३३ ध्वजु १८३ पिट शब्दे च।
२२६ शुछ शोषणे। १३४ ध्रज १३५ ध्रजु १८४ भट भृतौ।
२२७ अठ २२८ रुठु गती। १३६ वज १३७ व्रज १८५ तट उछाये।
२२६ पुडु प्रमर्दने। १३८ षस्ज गतौ। १८६ खट काने।
२३० मुडु खण्डने च। .. . १३६ अज क्षेपणे च। १८७ णट नृत्ती।
२३१ मडु भूषायाम् । १४० कुजू १४१ खुजू स्तेये । १८८ हट दीप्तो।
२३२ गडु वदनैकदेशे। १४२ अर्ज १४३ सर्ज अजने । १८६ षट अवयवे।
२३३ शौड़ गर्वे। १४४ कर्ज व्यथने । १९० लुट विलोटने।
२३४ यौड़ सम्बन्धे । १४५ खर्ज मार्जने च। १६१ चिट प्रेष्ये।
२३५ मेड २३६ मेड .. १४६ खज मन्थे। १९२ विट शब्दे।
२३७ म्लेड २३८ लोड १४७ खजू गतिवैकल्ये।
१६३ हेट विबाधायाम् । ३३६ लौड़ उन्मादे । १४८ एज कम्पने। १९४ अट १९५ पट
२४० रोड़ २४१ रौड़ १४६ ट्वोस्फूर्जा बज्रनि?षे । १६६ इट १६७ किट
२४२ तोड़ अनादरे। १५० क्षोज १५१ कूज १५२ गुज | १९८ कट १६६ कटु
२४३ क्रीड़ा विहारे। १५३ गुजु अव्यक्ते शब्दे । २०० कटै गती।
२४४ तुड़ २४५ तूड़ १५४ लज १५५ लजू . २०१ कुटु वैकल्ये।
२४६ तोड़ तोडने। १५६ तर्ज भर्त्सने। २०२ मुट प्रमर्दने।
२४७ ह्र १२४८ हूड .. १५७ लाज १५८ लाजु . २०३ चुट २०४ चुटु अल्पोभावे । २४६ हूड २५० हौड़ गतो।। भजने च। २०५ वटु विभाजने।
२५१ खोड़ प्रतीपाते। १५९ जज १६० जजु युद्धे । २०६ रुटु २०७ लुटु स्तेये। . २५२ विड आक्रोशे। . : १६१ तुज हिसायाम् । २०८ स्फट २०९ स्फुट विसरणे। २५३ अड उद्यमे। १६२ तुजु बलने च । २१० लट बाल्ये।
२५४ लड विलासे । १६३ गर्ज १६४ गुजु
२११ रट २१२ रठ च २५५ कडु मदे। १६५ गृज १६६ गृजु
परिभाषणे।।
| २५६ कद्ड कार्कश्ये। .. १६७ मुज १६८ मुजु
२१३ पठ व्यक्तायां वाचि ।। २५७ अद्ड अभियोगे। १६६ मृज १७० मज शब्दे । २१४ वठ स्थौल्ये।
२५८ चुड हावकरणे। १७१ गज मदने च ।
२१५ मठ मद-निवासयोश्च । २५९ अण २६० रण १७२ त्यजं हानी।
२१६ कठ कृच्छजीवने। . २६१ वण २६२ व्रण १७३ षजं सङगे। २१७ हठ बलात्कारे।
२६३ बण २६४ भण १७४ कटे वर्षावरणयोः। २१८ उठ २१६ रुठ
२६५ भ्रण २६६ मण १७५ शट रुजाविशरणगत्यव- | २२० लूठ उपघाते।
२६७ धण २६८ ध्वण शातनेपु। | २२१ पिठ हिंसा-संक्लेशयोः। २६९ ध्रण २७० कण १७६ वट वेष्टने । २२२ शठ कैतवे च ।
२७१ क्वण २७२ चण शब्दे १७७ किट १७८ खिट उक्त्रासे।। २२३ शठ गतिप्रतीधाते । २७३ ओण अपनयने ।
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४८२ ]
२७४ शो वर्ण - गत्योः । २७५ श्रोण २७६ श्लोण संघाते २७७ पेण गति प्रेरण-श्लेषणेषु । २७८ चिते संज्ञाने ।
२७९ अत सातत्यगमने |
२८० च्युत आसेचने ।
२८१ चुतृ २८२ स्चुत २८३ स्च्युत क्षरणे । २८४ जुतू भासने ।
२८५ अतु बन्धने । २८६ कित निवासे । २८७ ऋत घृणा गति स्पर्धेषु ।
२८८ कुथु २८९ पृथु
२९० लुथु २९१ मधु २२ मन्थ २९३ मान्थ
हिंसा-संक्लेशयोः ।
२९४ खाह भक्षणे । २९५ बद स्थैर्ये ।
२९६ खद हिंसायां च । २९७ गद व्यक्तायां वाचि । २९८ २८ विलेखने ।
२९९ णद ३०० त्रिक्ष्विदा अव्यक्ते शब्दे ।
३०१ अर्द गति याचनयोः । ३०२ नर्द ३०३ गर्द ३०४ गर्द शब्दे ।
३०५ तर्द हिंसायाम् । ३०६ कर्द कुत्सिते शब्दे । ३०७ खर्द दशने ।
३०८ अदु बन्धने ! ३०६ इदुपरमैश्वर्ये । ३१० विदु अवयवे । ३११ णिदु कुत्सायाम् । ३१२ टुनदु समृद्धो । ३१३ चदु दीप्तयाह्लादयोः । ३१४ त्रदु चेष्टायाम् ।
धातुपाठः
३१५ कदु ३१६ ऋदु ३१७ क्लदु रोदनाह्वानयोः । ३१८ क्लिदु परिदेवने । ३१९ स्कन्दु गति शोषणयोः । ३२० षिधू गत्याम् । ३२१ षिध शास्त्र - माङ्गल्ययोः । ३२२ शुन्ध शुद्धौ ।
३२३ स्तन ३२४ घन
३२५ ध्वन ३२६ चन ३२७ स्वन ३२८ वन शब्दे । ३२९ वन ३३० षन भक्तौ । ३३१ कनै दीप्ति- कान्ति-गतिषु । ३३२ गुपौ रक्षणे ।
३३३ तपं ३३४ धुप संतापे ।
३३५ रप ३३६ लप ३३७ जल्प व्यक्ते वचने । ३३८ जप मानसे च । ३३९ चप सान्त्वने । ३४० शप समवाये ।
३४१ सृप्लूं गतौ ।
३४२ चुप मन्दायाम् । ३४३ तुप ३४४ तुम्प ३४५ त्रुप ३४६ त्रुम्प ३४७ तुफ ३४८ तुम्फ ३४६ त्रुफ ३५० त्रुम्फ
हिंसायाम् ।
३५१ वर्फ ३५२ रफ
३५३ रफु ३५४ अर्ब ३५५ कर्ब ३५६ खर्ब
३५७ गर्ब ३५८ चर्ब
३५९ त ३६० नर्ब
३६१ प ३६२ वर्ब ३६३ शर्ब ३६४ षर्ब
३६५ सर्ब ३६६ रिवु ३६७ रबु गतौ । ३६८ कुबु आच्छादने ।
३६९ लुबु ३७० तुबु अर्दने । ३७१ चुबु वक्त्रसंयोगे । ३७२ सृभू ३७३ सृम्भू ३७४ त्रिभू ३७५ षिम्भू ३७६ भर्भ हिंसायाम् । ३७७ शुम्भ भाषणे च । ३७८ यभ ३७९ जभ मैथुने । ३८० चमू ३८१ छमू
३८२ जमू ३८३ झमू ३८४ जिमू अदने ।
३८५ क्रमू पादविक्षेपे । ३८६ यमूं उपरमे ।
३८७ स्यम् शब्दे |
३८८ मं प्रहृत्वे |
३८९ षम ३९० ष्टम वैक्लव्ये ।
३९१ अम शब्द भक्त्योः ।
३९२ अम ३९३ द्रम
३९४ हम्म ३९५ मिमृ
३९६ गम्लृ गतौ ।
३९७ हय ३६८ हर्य क्लान्तौ च । ३९९ मव्य बन्धने ।
४०० सू ४०१ ईक्ष्यं ४०२ ईष्यं ईष्यर्थाः । ४०३ शुच्यं ४०४ चुच्यं
अभिषवे ।
४०५ त्सर छद्मगतौ । ४०६ कमर हूर्छने ।
४०७ अभ्र ४०८ बभ्र ४०६ मत्र गतौ ।
४१० चर भक्षणे च । ४११ घोर गतेश्चातुर्ये । ४१२ खोर प्रतीघाते । ४१३ दल ४१४ त्रिफला
विशरणे ।
४१५ मील ४१६ श्मील ४१७ स्मील ४१८ क्ष्मील निमेषणे ।
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घातुपाठः
[४८३
४१९ पील प्रतिष्टम्भे। ४७८ शर्व हिंसायाम् । । ५२५ निषू ५२६ पृषू ५२७ वृषू ४२० णील वर्णे।
४७६ मुर्वे ४४० मव बन्धने। , ५२८ मृषू सहने च । ४२१ शील समाधौ।
४८१ गुर्वे उद्यमे । ४८२ पिवु ५२९ उषू ५३० श्रिषू ५३१ श्लिषू ४२२ कील बन्धे ।
४८३ मिवु ४८४ निवु सेचने ।' ५३२ पृषू ५३३ प्लूषू दाहे । ४२३ कूल आवरणे। ४८५ हिवु ४८६ दिवु
५३४ ष संहर्ष। ४२४ शूल रुजायाम् । ४८७ जिवु प्राणने।
५३५ हृषू अलीके। ४२५ तूल निष्कर्ष।
४८८ इवु व्याप्तौ च । ५३६ पुष पुष्टौ। ४२६ पूल संघाते ।
४८६ अव रक्षण-गति-कान्ति- ५३७ भूष ५३० तसु अलङ्कारे । ४२७ मूल प्रतिष्ठायाम् ।
तृप्त्यवगमन-प्रवेश-श्रवण | ५३९ तुस ५४० ह्रस ५४१ ह्लस ४२८ फल निष्पत्तौ।
स्वाम्यर्थ-याचन क्रियेच्छा- | ५४२ रस शब्दे । ४२९ फुल्ल विकसने।
दीप्त्यवाप्त्या-ऽऽलिङ्गन-हिं-। ५४३ लस श्लेषण-क्रीडनयोः। ४३० चुल्ल हावकरणे।
सा-दहन-भाव-वृद्धिषु ५४४ घस्ल अदने ।" ४३१ चिल्ल शैथिल्ये च ।
[एकोनविंशतावर्थेषु] ॥ ५४५ हसे हसने। ४३२ पेल ४३३ फेल ४३४ शेल | ४६० कश शब्दे ।
५४६ पिसृ ५४७ पेस ४३५ खेल ४३६ सेल ४३७ वेल | ४६१ मिश ४९२ मश रोषे च । . ५४८ वेस गती। ४३८ सल ४३६ तिल ४४० तिल्ल | ४६३ शश प्लुतिगतौ । ५४९ शसू हिंसायाम् । ४४१ पल्ल ४४२ वेल्ल गतौ। | ४६४ णिश समाधौ।
५५० शंसू स्तुतौ च । ४४३ वेल ४४४ चेल ४४५ केल ४९५ दृशप्रेक्षणे।
५५१ मिहं सेचने। ४४६ क्वेल ४४७ खेल ४६६ दंशं दशने ।
५५२ दहं भस्मीकरणे। ४४० स्खल चलने। ४९७ घुष शब्दे ।।
५५३ चह कल्कने। ४४६ खल संचये च । ४९८ चूष पाने ।
५५४ रह त्यागे। ४५० श्वल ४५१ श्वल्ल आशुगतौ ४९९ तूष तुष्टौ।
५५५ रहु गतौ। ४५२ गल ४५३ चर्व अदने । ५०० पूष वृद्धौ।
५५६ दह ५५७ दहु ४५४ पूर्व ४५५ पर्व
५०१ लुष ५०२ मूष स्तेये। ५५८ बृह वृद्धौ। ४५६ मर्व पूरणे। ५०३ खूष प्रसवे।
५५६ बृह, ५६० बृहु शब्दे च । ४५७ मर्व ४५८ धवु' | ५०४ ऊष रुजायाम् ।। ५६१ उह. ५६२ तुह. ४५६ शव गतौ। ५०५ ईष उञ्छे।
५६३ दुह. अर्दने । ४६० कर्व ४६१ खर्व ५०६ कृषं विलेखने।
५६४ अर्ह ५६५ मह पूजायान् । ४६२ गर्व दर्प।
५०७ कष ५०८ शिष ५०९ जष ५६६ उक्ष सेचने। ४६३ ष्टिवू ४६४ क्षिवू निरसने। ५१० झष ५११ वष ५१२ मष | ५६७ रक्ष पालने। ४६५ जीव प्राणधारणे। ५१३ मुष ५१४ रुष ५१५ रिष |५६८ मक्ष ५६९ मुक्ष सङ्काते। ४६६ पीव ४६७ मीव ४६८ तीव ५१६ यूष ५१७ जूष ५१८ शष | ५७० अक्षौ व्याप्तौ च । ४६६ नीव स्थौल्ये।
५१६ चष हिसायाम् । | ५७१ तक्षौ ५७२ त्वक्षौ तनूकरणे। ४७० उर्व ४७१ तुर्वे ४७२ थुर्वे | ५२० वृषू सेंधाते च। | ५७३ णिक्ष चुम्बने। ४७३ दुर्वे ४७४ धुर्वे ४७५ जुर्वे | ५२१ भष भर्त्सने ।
५७४ तृक्ष ५७५ स्तृक्ष ४७६ अर्व ४७७ भर्व । ५१२ जिषू ५२३ विषू ५२४ मिषू | ५७६ णक्ष गतौ ।
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४८४ ]
घातुपाठः
५७७ वक्ष रोषे।
। ६२१ चकि तप्ति-प्रतीघातयोः। । ६७० चेष्टि चेष्टायाम । ५७८ त्वक्ष त्वचने।
६२२ ककुङ, ६२३ श्वकुङ ६७१ गोष्टि ६७२ लोष्टि संघाते। ५७९ सूक्ष अनादरे।
६२४ कुङ ६२५ श्रकुङ ६७३ वेष्टि वेष्टने । ५८० काक्षु ५८१ वाक्षु ६२६ श्लकुङ, ६२७ ढोकृङ ६७४ अट्टि हिंसा-ऽतिक्रमयोः । ५८२ माक्षु काङ्क्षायाम् । ६२८ श्रीकृङ ६२९ ष्वष्कि ६७५ एठि ६७६ हेठि विबाधायाम् ५८३ द्राक्षु ५८४ ध्राक्षु
६३० वस्कि ६३१ मस्कि ६७७ मठुङ ६७८ कठुङ् शोके । ५८५ ध्वाक्ष घोरवाशिते च । ६३२ तिकि ६३३ टिकि ६७९ मुलुङ पलायने ।
॥ इति परस्मैमाषा ।।। ६३४ टीकृङ ६३५ सेकृङ ६८० वठुङ एकचर्यायाम् । ५८६ गांङ गतौ।
६३६ स्रकृङ् ६३७ रघुङ ६८१ अठुङ्६८२ पागतो। ५८७ मिङ ईषद्धसने । ६३८ लवुङ गतौ।
६८३ हुडुङ् ६८४ पिडुङ् सङ्घाते। ५८८ डीङ विहायसां गतौ। ६३९ अधुङ ६४० वधुङ गत्याक्षेपे| ६८५ शडुङ् रुजायां च । ५८९ उंङ ५६० कुंङ ५६१ गुंड | ६४१ मघुङ केतवे च । ६८६ तडुङ, ताडने। ५९२ धुंङ ५९३ डुङ शब्दे। ६४२ राघृङ ६४३ लाघृङ ६८७ कडुङ मदे। ५९४ च्युङ ५६५ ज्युङ
सामर्थ्य । ६८८ खडुङ् मन्थे। ५६६ जुंङ ५९७ श्रृंङ ६४४ द्राङ आयासे च। ६८९ खडुङ्गतिवैकल्ये। ५६८ प्लुंङ गतौ।
६४५ श्लाघुङ कत्थने। ६९० कुडुङ्दाहे। ५६६ रुंङ रेषणे च । ६४६ लोचूङ दर्शने ।
६६१ वडुङ ६९२ मडुङ वेष्टने। ६०. पूङ पवने। ६४७ षचि सेचने।
६९३ भडुङ परिभाषणे। ६०१ मृङ बन्धने।
६४८ शचि व्यक्तायां वाचि ।। ६९४ मुडुङ् मज्जने । ६०२ धृङ अविध्वंसने । ६४९ कचि बन्धने।
६९५ तुडुङ् तोडने। ६०३ मेंङ प्रतिदाने।
६५० कचुङ दीप्तौ च । ६६६ भुडुङ्वरणे। ६०४ देंङ ६०५ त्रैड पालने । ६५१ श्वचि ६५२ श्वचुङ गतो। | ६९७ चडुङ् कोपे। ६०६ श्यङ गतौ। ६५३ वचि दीप्तौ।
६९८ द्राडङ् ६९९ धाडङ विशरणे ६०७ प्यङ वृद्धौ।
६५४ मचि ६५५ मुचुङ कलूने । ७०० शाड्ड श्लाघायाम् । ६०८ वकुङ कौटिल्ये। ६५६ मचुङ धारणोच्छाय-पूजनेषु । ७०१ वाडङ् आप्लाव्ये। ६०६ मकुङ मण्डने।
६५७ पचुङ व्यक्तीकरणे। ७०२ हेडङ् ७०३ होड़ अनादरे । ६१० अकुङ लक्षणे। ६५८ ष्टुचि प्रसादे ।
७०४ हिडुङ् गतौ च । ६११ शीकृङ सेचने । ६५६ एजुङ ६६० भ्रेजुङ ७०५ घिणुङ् ७०६ घुणुङ ६१२ लौकृङ दर्शने । ६६१ भ्राजि दीप्तौ। - ७०७ घृणुङ् ग्रहणे। ६१३ श्लोकङ सङ्घाते। ६६२ इजुङ गतौ।
७०८ धुणि ७०६ घूणि भ्रमणे। ६१४ द्रेकृङ ६१५ धेकृङ ६६३ ईजि कुत्सने च । ७१० पणि व्यवहार स्तुत्योः ।
शब्दोत्साहे। ६६४ ऋजि गतिस्थानार्जनोजनेषु ! ७११ यतैङ् प्रयत्ने ।। ६१६ रेकृङ ६१७ शकुङ ६६५ ऋजुङ ६६६ भृजङ भर्जने । ७१२ युतृङ् ७१३ जुतृङ् भासने ।
शङ्कायाम् । | ६६७ तिजि क्षमा-निशानयोः । ७१४ विथङ ७१५ वेथङ्याचने । ६१८ ककि लौल्ये। ६६८ घट्टि चलने ।
७१६ नाथङ उपतापैश्वर्याशीःषु च ६१९ कुकि ६२० वृकि आदाने। । ६६९ स्फुटि विकसने । | ७१७ श्रथुङ शैथिल्ये।
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धातुपाठः
[ ४८५
७१८ ग्रथुङ् कौटिल्ये। । ७५६ गेपृष्७५७ कपुर चलने।। ८०३ क्ष्मायैङ, विधूनने। ७१६ कत्थि श्लाघायाम् ।। | ७५८ ग्लेपृङ दैन्ये च । ८०४ स्फायङ् ८०५ ओप्यायङ् ७२० श्विदुङ, श्वैत्ये। ७५९ मेपृङ, ७६० रेपृङ
वृद्धौ। ७२१ वदुङ स्तुत्यभिवादनयोः । । ७६१ लेपृड गतौ।। ८०६ तायड सन्तान-पालनयोः । ७२२ भदुइ सुख-कल्याणयोः। । ७६२ अपौषि लज्जायाम् । ८०७ वलि ८०८ वल्लि संवरणे। ७२३ मदुङ स्तुति-मोद मद-स्वप्न- ७६३ गुपि गोपन कुत्सनयोः । ८०६ शलि चलने च ।
गतिषु ।। ७६४ अबुङ ७६५ रबुङ शब्दे । | ८१० मलि ८११ मल्लि धारणे। ७२४ स्पदुङ् किञ्चिच्चलने। ७६६ लबुङ अवस्र सने । ८१२ भलि ८१३ भल्लि परिभा. ७२५ क्लिदुङ्परिदेवने। ७६७ कबृङ् वर्णे।
षण-हिंसा-दानेषु। ७२६ मुदि हर्षे ।
७६८ क्लीबृज अधाष्ये । ८१४ कलि शब्द-संख्यानयोः । ७२७ ददि दाने। ७६९ क्षीवृक्ष मदे।
८१५ कल्लि अशब्दे। ७२८ हदि पुरीषोत्सर्गे। ७७० शीभृङ ७७१ वीभृङ ८१६ तेवृड ८१७ देवृष देवने । ७२९ व्वदि ७३० स्वर्दि ७७२ शल्भि कत्थने।
८१८ वृङ८१९ से वृद्ध ७३१ स्वादि आस्वादने । ७७३ वल्भि भोजने ।
८२० केवृड ८२१ खेबुङ ७३२ उदि मान-क्रीडयोश्च । ७७४ गल्भि धाष्ट्य । ८२२ गेवृङ८२३ ग्लेवृङ ७३३ कुंदि ७३४ गुदि ७७५ रेभुङ७७६ अभुङ ८२४ पेवृछ ८२५ प्लेवृङ ७३५ गुदि क्रीडायाम् । ७७७ रभुङ् ७७८ लभुङ् शब्दे ।। ८२६ मेवृड ८२७ म्लेवृङ् सेवने । ७३६ षूदि क्षरणे। . ७७६ ष्टभुङ७८० स्कभुङ ८२८ रेवड ८२६ पवि गतौ । ७३७ ह्रादि शब्दे।
७८१ ष्टुभुङ्ग स्तम्भे। ८३० काशृङ, दीप्तौ। ७३० ह्लादङ्गसुखे च। ७८२ जभु ७८३ जभा 1 ८३१ क्लेशि विवाघने। ७३६ पदि कुत्सिते शब्दे । ७८४ जुभुङ गाविनामे । ८३२ भाषि च व्यक्तायां वाचि । ७४० स्कुदुङ आप्रवणे। ७८५ रभिराभस्ये।
८३३ ईष गति-हिंसा-दर्शनेषु । ७४१ एधि वृद्धौ।
७८६ डुलभिष प्राप्ती। ८३४ गेषा अन्विच्छायाम् । ७४२ स्पद्धि सङ्घर्षे । ७८७ भामि क्रोधे।
८३५ येषप्रयत्ने। ७४३ गाधृङप्रतिष्ठा लिप्सा. ७८८ क्षमौषि सहने ।
८३६ जेषङ् ८३७ जेषङ् । ग्रन्थेषु । ७८६ कमूहकान्तौ।
८३८ एषङ् ८३९ ह्रषङ् गतौ । ७४४ बाधङ रोटने। ७९० अयि ७९१ वयि
८४० रेषड् ८४१ हेड अव्यक्ते ७४५ दधि धारणे। ७६२ पयि ७६३ मयि
शब्दे। ७४६ बधि बन्धने । ७६४ नयि ७९५ चयि
८४२ पर्षि स्नेहने । ७४७ नाधृङ् नाथवत् । ७९६ रयि गती।
८४३ घुषुङ कान्तीकरणे। ७४८ पनि स्तुतौ।
७९७ तयि ७९८ णयि रक्षणे च । ८४४ स्रसूङ् प्रमादे। ७४९ मानि पूजायाम् । ७९९ दयि दान गति-हिंसा दह- ८४५ कासृङ शब्दकुत्सायाम् । ७५० तिङ् ७५१ ष्टिपृङ
नेषु च । ८४६ भासि ८४७ टुभ्रासि ७५२ ष्टेपृङ क्षरणे।
८०० ऊयङ् तन्तुसन्ताने । ८४८ टुभ्लासृङ, दीप्तौ। ७५३ तेपृङ कम्पने च । ८०१ पूर्यङ् दुर्गन्ध-विशरणयोः। ८४९ रासृङ८५० णासृङ् शब्दे । ७५४ टुवेपृङ, ७५५ केपृङ । ८०२ क्नूयैड शब्दोन्दनयोः। । ८५१ णास कााट
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धातुपाठः
८५२ म्यसि भये।
| ८९१ डुयाग याञ्चायाम् । । ९२७ लषी कान्तौ । ८५३ आङः शसुङ इच्छायाम् ।
पाके।
९२८ चषी भक्षणे। ८५४ असूङ् ४५५ ग्लसूङ् अदने । ८९३ राजग ८६४ टुभ्राजि दीप्तौ ९२९ छषी हिंसायाम् । ८५६ घसुङ करणे।
८९५ भजी सेवायाम् । ६३० त्विषीं दीप्तौ। ८५७ ईहि चेष्टायाम् । ८९६ रजी रागे।
६३१ अषी ९३२ असी गत्या८५८ अहङ८५६ प्लिहि गतौ। ८६७ रेटग परिभाषण-याचनयोः
- दानयोश्च । ८६० गहि ८६१ गल्हि कुत्सने । | ८६८ वेणग् गति ज्ञान-चिन्ता. ६३३ दासृग् दाने । ८६२ वहि ८६३ वल्हि प्राधान्ये । निशामन-वादित्र-ग्रहणेषु ।। ९३४ माहग माने। ८६४ बर्हि ८६५ बल्हि परिभा- ८९९ चतेग याचने।
९३५ गुहौग संवरणे। षण-हिंसा-च्छादनेषु । ९०० प्रोग पर्याप्तौ।
| ९३६ म्लक्षी भक्षणे। ८६६ वेहृङ् ८६७ जेहृङ् ९०१ मिथग मेधा-हिंसयोः ।
। ॥ इति उभयतो भाषाः ।। ८६८ वाहृङ् प्रयत्ने। ६०२ मेथग सङ्गमे च ।
| ९३७ द्युति दीप्तौ। ८६९ द्राहङ निक्षेपे । ९०३ चदेग याचने।
| ९३८ रुचि अभिप्रोत्यां च । ८७० ऊहि तर्के।
९०४ ऊबुन्दृग् निशामने। | ९३९ घुटि परिवर्तने । ८७१ गाहौङ विलोडने । ९०५ णिहग ९०६ णेहग कुत्सा
| ६४० रुटि ६४१ लुटि ८७२ ग्लहौङ् ग्रहणे।
सन्निकर्षयोः । | ९४२ लुठि प्रतीघाते। ८७३ बहुङ ८७४ महुङ् वृद्धौ । | ९०७ मिग् ६०८ मेहग् मेधा.
९४३ श्विताङ्वर्ण । ८७५ दक्षि शैध्ये च।
हिसयोः। ९४४ निमिदाङ् स्नेहने । ८७६ धुक्षि ८७७ घिक्षि सन्दी
| ६०६ मेधृग् सङ्गमे च । ९४५ त्रिविदा।। पन-क्लेशन-जीवनेषु । | ९१० शृधूग् ६११ मृधूग उन्दे । । ६४६ त्रिविदाइ मोचने च । ८७८ वृक्षि वरणे। ९१२ बुधग् बोधने।
९४७ शुभि दीप्तौ। ८७९ शिक्षि विद्योपादाने । ९१३ खनूग अवदारणे। ९४८ क्षुभि संचलने । ८८० भिक्षि याञ्चायाम् ।
६१४ दानी अवखण्डने । ९४९ णभि ६५० तुभि हिंसायाम् ८८१ दीक्षि मौण्ड्यज्योपनयन- ६१५ शानी तेजने।
| ६५१ स्रम्भूङ् विश्वासे । नियम-व्रतादेशेषु । | ९१६ शपी आक्रोशे।
९५२ भ्रंशूङ ९५३ स्र सूङ - ८८२ ईक्षि दर्शने। ६१७ चायग् पूजा-निशामनयोः ।
अवस्र सने। ६१८ व्ययी गती।
९५४ ध्वंसूङ गतौ च । ॥ इति आत्मनेभाषाः ॥
९१९ अलो भूषण-पर्याप्ति-वार- ६५५ वृतूङ वतने । 4८३ श्रिग् सेवायाम् ।
__णेषु ।
| ५५६ स्यन्दौङ् स्रवणे। ८८४ णींग प्रापणे।
६२० धावूग् गति-शुद्धयोः ।। | ९५७ वृधूङ, वृद्धौ। ८८५ हग हरणे।
६२१ चीवृग् झषीवत् । ९५८ शृधूङ् शब्दकुत्सायाम् । ८८६ भृग भरणे। ९२२ दाशग दाने ।
९५९ कृपौङ् सामयें। ८८७ धृग धारणे।
९२३ झषी आदान संवरणयोः । ॥ वृत द्युतादयः॥ ४८८ डुकृग् करणे। ९२४ भेषग् भये।
६६० ज्वल दीप्तौ। ८८६ हिक्की अव्यक्ते शब्दे । ९२५ भ्रषग चलने च । ६६१ कुच् सम्पर्चन-कौटिल्य८९० अञ्चूग गतौ च । ६२६ पषी बाधन-स्पर्शनयोः। । प्रतिष्टम्भ-विलेखनेषु।
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धातुपाठः
[४८७
९६२ पत्ल ९६३ पथे गतौ। | ६६७ ट्वोश्वि गति-वृद्धयोः । १०३६ लड जिह्वोन्मन्थने । ९६४ क्वथे निष्पाके।
६६८ वद व्यक्तायां वाचि । १०३७ फण १०३८ कण ९६५ मथे विलोडने। EEE वसं निवासे।
१०३९ रण गती। १६६ पद्ल विशरण
॥ वृत् यजादिः।।
१०४० चण हिंसा-दानयोश्च । ___ गत्यवसादनेषु ।
१०४१ शण १०४२ श्रण दाने । ९६७ शद्लुशातने। १००० घटिष् चेष्टायाम् ।
१०४३ स्नथ १०४४ क्नथ ६६८ बुध अवगमने। १००१ क्षजुङ्-गति-दानयोः।
१०४५ ऋथ १०४६ क्लथ १००२ व्यथिष भय-चलनयोः। ९६९ टुवमू उद्गिरणे।
हिंसाः । १००३ प्रथिष प्रख्याने। ६७० भ्रमू चलने ।
१०४७ छद ऊर्जने। ९७१ क्षर संचलने । १००४ म्रदिष् मर्दने ।
१०४८ मदै हर्ष ग्लपनयोः । • ९७२ चल कम्पने । १००५ स्खदिष् खदने ।
१०४९ ष्टन १०५० स्तन ९७३ जल धात्ये। १००६ कदुइ १००७ ऋदुइ
१०५१ ध्वन शब्दे। ९७४ टल ६७५ टवल वैवल १००८ क्लदुवैक्लव्ये ।
१०५२ स्वन अवतंसने । ९७६ ष्ठल स्थाने। १००६ ऋपि कृपायाम् ।।
१०५३ चन हिंसायाम् । ९७७ हल विलेखने। १०१० त्रित्वरिष् सम्भ्रमे।
१०५४ ज्वर रोगे। ९७८ णल गन्धे ।
१०११ प्रसिष् विस्तारे। १०५५ चल कम्पने। ९७९ बल प्राणनधान्यावरोधयोः १०१२ दक्षि हिंसा-गत्योः ।
१०५६ ह्वल १०५७ ह्मल चलने ६८० पुल महत्वे। । १०१३ श्रां पाके।
१०५८ ज्वल दीप्तौ च । ६८१ कुल बन्धु-संस्त्यानयोः ।
१०१४ मृआध्याने। ६८२ पल९८३ फल
॥ वृद घटादिः॥ १०१५ दु भये। ९८४ शल गतौ । १०१६ नु नये ।
॥ इति वाक्यो मिरनुबन्धा
. धातवः समाप्ताः ।। १०१७ ष्टक १०१८स्तक ९८५ हुल हिंसा-संवरणयोश्च । ९८६ क्रुशं आह्वान-रोदनयोः ।
प्रतीघाते। | १०५९ अदं १०६० प्सांक ९८७ कस गती। १०१६ तृप्तौ च ।
भक्षणे। ९८८ रुहं जन्मनि ।
१०२० अक कुटिलायां गतौ । १०६१ भांक दीप्तौ। ९८९ रमि क्रोडायाम् । १०२१ कखे हसने।
१०६२ यांक प्रापणे। ९९० षहि मर्षणे।
१०२२ अग अकवत् । १०६३ वांक गति-गन्धनयोः ।
१०२३ रगे शङ्कायाम् । १०६४ ष्णांक शौचे। ॥ वृत् ज्वलादिः ।। १०२४ लगे सङ्गे।
१०६५ श्रांक पाके।। ५९१ यजी देवपूजा सङ्गति- १०२५ ह्रगे १०२६ लगे १०६६ द्रांक कुत्सितगतौ। करणदानेषु । १०२७ षगे १०२८ सगे
१०६७ पांक रक्षणे। ९९२ वेंग् तन्तुसन्ताने। १०२९ ष्टगे १०३० स्थगे संवरणे | १०६८ लांक आदाने । ९९३ व्यंग् संवरणे।
१०३१ वट १०३२ भट परिभाषणे| १०६६ रांक दाने । ९९४ ह्वेग स्पर्धा-शब्दयोः । | १०३३ णट नती।
१०७० दांव लवने । ९९५ टुवपी बीजसन्ताने। १०३४ गड सेचने।
१०७१ ख्यांक प्रथने। ६९६ वहीं प्रापणे। । १०३५ हेड वेष्टने।
१०७२ प्रांक पूरणे।
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४८८]
धातुपाठः
१०७३ मांक माने। | ११०६ ह नुक अपनयने। ।११३८ डुदांग्क् दाने । १०७४ इंक् स्मरणे।
११०७ धूडौक् प्राणिगर्भविमोचने | ११३६ डुधांगक धारणे च । १०७५ इंण्क् गतौ।
११०८ पृचैङ, ११०९ पृजुङ | ११४० टुडुभृगक पोषणे च । १०७६ वींक प्रजन-कान्त्यसन- १११० पिजुकि संपर्चने। ११४१ णिज की शौचे च ।
खादने च। ११११ वृजैकि वर्जने। ११
११४२ विज़ की पृथग्भावे । १०७७ धुक अभिगमे। | १११२ णिजुकि शुद्धौ । ११४३ विष्ल की व्याप्ती । १०७८ षुक् प्रसवैश्वर्ययोः। १११३ शिजुकि अव्यक्त शब्दे ।
॥ इति उभयतोभाषाः ॥ १०७६ तुक वृत्ति-हिंसा-पूरणेषु | १११४ ईडिक स्तुतौ ।
वृतह्वादयः १०८० युक् मिश्रणे।
१११५ ईरिक गति-कम्पनयोः। १०८१ णुक् स्तुतौ। १११६ ईशिक् ऐश्वर्ये।
इति अदावयः कितो धातवः ॥ १०८२ णुक तेजने । १११७ वसिक आच्छादने ।
११४४ दिवूच क्रीडा-जयेच्छा१०८३ स्नुक प्रस्नवने । १११८ आङः शासूकि इच्छायाम्
__ पणि-द्युति-स्तुति-गतिषु । १०८४ टूक्षु १०८५ रु १११९ आसिक् उपवेशने।
११४५ जृष् ११४६ झुष्च १०८६ कुक शब्दे।
जरसि। . ११२० कसुकि गति-शातनयोः । १०८७ रुदक् अश्रुविमोचने। ११२१ णिसुकि चुम्बने ।
| ११४७ शोंच तक्षणे। १०८८ त्रिष्वपंक शये।
| ११२२ चक्षिक व्यक्तायां वाचि। ११४८ दो ११४६ छोंच छेदने। १०८९ अन १०६० श्वसक
११५० षोंच अन्तकर्मणि । ॥इति प्रात्मनेभाषाः ।।
११५१ वीडच लज्जायाम् । प्राणने। ११२३ ऊणु ग्क् आच्छादने । १०९१ जक्षक भक्ष-हसनयोः।
११५२ नृतंच नर्तने। ११२४ ष्टुग्क स्तुतौ। १०६२ दरिद्राक् दुर्गतौ ।
११५३ कुथच् पूतिभावे । ११२५ ब्रूक व्यक्तायां वाचि । १०९३ जागृक् निद्राक्षये।
| ११५४ पुथच् हिंसायाम् । ११२६ द्विषीक अप्रीतौ। १०६४ चकासृक् दीप्तौ ।
११५५ गुधच् परिवेष्टने । ११२७ दुहीक क्षरणे।
११५६ राधंच वृद्धौ। १०६५ शासूक् अनुशिष्टौ। |
११२८ दिहींक लेपे। १०९६ वचंक भाषणे।
११५७ व्यधंच ताडने । ११२९ लिहींक आस्वादने । १०९७ मृजौक शुद्धौ।
११५८ क्षिपंच प्रेरणे।
॥इति उभयतोभाषाः ।। १०९८ सस्तुक स्वप्ने।
११५६ पुष्पच विकसने । ११३० हुक् दाना-ऽदनयोः। १०६६ विदक् ज्ञाने।
११६० तिम ११६१ तीम ११३१ ओहांक त्यागे। ११०० हनंक हिंसा-गत्योः ।
| ११६२ ष्टिम ११६३ ष्टीमच ११३२ त्रिभीक् भये।
__ आर्द्रभावे। ११०१ वशक् कान्तौ।
११३३ ह्रींक् लज्जायाम्। ११०२ असक् भुवि ।
| ११६४ षिवूच उतौ। ११३४ पृक् पालन-पूरणयोः । ११०३ षसक स्वप्ने ।
११६५ श्रिवूच गति-शोषणयोः । ११३५ ऋक् गतौ। यङ्लुप् च ।
११६६ ष्ठिवू ११६७ शिवूच ॥इति परस्मैभाषाः ।।
निरसने । ॥ इति परस्मैभाषाः ।।
११३६ ओहांङक गतौ।। | ११६८ इषच गतौ। ११०४ इंक अध्ययने । ११३७ मांङ्क मान-शब्दयोः। ११६६ ष्णसूच निरसने । ११०५ शीङ् स्वप्ने ।
॥ इति आत्मनेभाषाः॥ । ११७० क्नसूच ह्वति-दीप्त्योः।
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धातुपाठः
[ ४८९
११७१ सैच भये। । १२०८ शुषंच शोषणे। । | १२४३ दूच् परितापे। ११७२ प्युसच् दाहे।
१२०६ दुषंच वैकृत्ये । | १२४४ दीडच् क्षये। ११७३ षह ११७४ षुहच शक्तौ । १२१० श्लिषंच आलिङ्गने। १२४५ धींग्च् अनादरे। १२११ प्लुषूच् दाहे।
१२४६ मीच हिंसायाम् । ११७५ पुषंच् पुष्टौ।
१२१२ बितृषच पिपासायाम् । १२४७ रीच् स्रवणे। १९७६ उचच समवाये। १२१३ तुषं १२१४ हृषच तुष्टौ। १२४८ लींच् श्लेषणे। ११७७ लुटच् विलोटने। १२१५ रुषच रोषे।
१२४६ डीच् गतौ। ११७८ विदांच गात्रप्रक्षरणे। १२१६ प्युष १२१७ प्युस् । १२५० वींच् वरणे। ११७९ क्लिदौच आर्द्रभावे। १२१८ पुसच विभागे।
।। वृत स्वादिः॥ ११८० त्रिमिदाच स्नेहने। १२१६ विसच प्रेरणे। .११८१ निविदाच मोचने च। १२२० कुसच् श्लेषे।
१२५१ पीच् पाने । ११८२ क्षुधंच् बुभुक्षायाम् ।। १२२१ असूच क्षेपणे।
१२५२ ईच् गतौ। ११८३ शुधंच शोचे। १२२२ यसूच प्रयत्ने ।
१२५३ प्रींच् प्रोतौ। ११८४ क्रुधंच कोपे।
१२२३ जसूच मोक्षणे। १२५४ युजिच् समाधौ। ११८५ षिवूच संराद्धौ। १२२४ तसू १२२५ दसूच
१२५५ सृजिच् विसर्गे। ११८६ ऋधूच् वृद्धौ।
उपक्षये। १२५६ वृतूचि वरणे। ११८७ गृधूच अभिकाङ्क्षायाम् । १२२६ वसूच् स्तम्भे । १२५७ पदिच् गतौ। ११८८ रधौच हिंसा-संराद्धयोः। १२२७ वुसच् उत्सर्गे।
१२५८ विदिच् सत्तायाम् । ११८९ तृपौच प्रीतौ । १२२८ मुसच खण्डने।
१२५६ खिदिच दैन्ये । ११९० पौच हर्ष-मोहनयोः। १२२९ मसैच परिणामे।
१२६० युधिंच सम्प्रहारे। ११९१ कुपच क्रोधे । १२३० शमू १२३१ दमूच
१२६१ अनो रुधिच कामे । ११९२ गुपच व्याकुलत्वे ।
उपशमे।
| १२६२ बुधि १२६३ मनिच ज्ञाने ११९३ युप ११९४ रुप १२३२ तमूच काङ्क्षायाम् ।
१२६४ अनिच प्राणने । ११९५ लुपच् विमोहने । १२३३ श्रमूच खेद-तपसोः।
| १२६५ जनैचि प्रादुर्भावे । ११९६ डिपच् क्षेपे। १२३४ भ्रमूच अनवस्थाने।
१२६६ दीपैचि दीप्तौ। ११६७ ष्टूपच समुच्छ्राये। १२३५ क्षमौच सहने ।
१२६७ तपि च ऐश्वर्ये वा। ११६८ लुभच गाद्धर्य । १२३६ मदैच् हर्षे ।
१२६८ पूरैचि आप्यायने । ११६६ क्षुभच् संचलने। १२३७ क्लमूच ग्लानौ ।
१२६९ घूरैङ् १२७० जूरचि १२०० णभ १२०१ तुभच १२३८ मुहौच वैचित्त्ये।
जरायाम् । : हिंसायाम् ।। १२३६ Qहोच जिघांसायाम् ।। १२७१ पूरैङ् १२७२ गूरैचि गतौ १२०२ नशौच अदर्शने । १२४० ष्णुहौच उद्गिरणे। १२७३ शूरैचि स्तम्भे। १२०३ कुशच् श्लेषणे। १२४१ ष्णिहौ च प्रीतौ।
१२७४ तूरैचि त्वरायाम् । १२०४ भृशू १२०५ भ्रंशूच्
घुरादयो हिंसायां च । ॥ वृत् पुषाविः ।। अध: पतने।
१२७५ चूरैचि दाहे। १२०६ वृशच वरणे।
॥इति परस्मैभाषाः ।। १२७६ क्लिशिच उपतापे । १२०७ कृशच तनुत्वे । १२४२ षूडीच् प्राणिप्रसवे। । १२७७ लिशिंच अल्पत्वे ।
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४६. ]
घातुपाठः
१२७८ काशिच दीप्तो। १३१० कृवुट हिंसा-करणयोः । । १३३६ त्वचत् संवरणे । १२७९ वाशिच शब्दे । १३११ धिवुट गतौ। १३४० रुचत् स्तुतौ। ॥ इति प्रात्मनेभाषाः॥
१३१२ बिधृषाट् प्रागल्भ्ये। | १३४१ ओवस्चौत् छेदने । १२८० शकींच मर्षणे।
॥ इति परस्मभाषाः ।।
१३४२ ऋछत् इन्द्रियप्रलय-मूत्ति१२८१ शुचुगैच पूतिभावे। १३१३ ष्टिघिट आस्कन्दने।
भावयोः । १२८२ रजींच रागे। १३१४ अशौटि व्याप्ती।
१३०३ विछत् गता। १२८३ शपींच आक्रोशे।
| १३४४ उछत् विवासे।
॥ इति प्रात्मनेभाषा: ॥ १२८४ मृषीच तितिक्षायाम् ।
१३४५ मिछत् उत्क्लेशे।
॥ इति स्वादयष्टितो धातवः ।। १२८५ णहीच बन्धने ।
१३४६ उछुत् उञ्छे । ॥ उभयतोभाषाः ॥
१३१५ तुदीत् व्यथने। १३४७ प्रछंत् ज्ञोप्सायाम् । ॥ इति विवादयश्चितो धातवः ॥ १३१६ भ्रस्जीत् पाके।
१३४८ उजत् आर्जवे । १३१७ क्षिपीत् प्रेरणे। १२८६ धुंग्ट् अभिषवे।
१३४६ सृजत् विसर्गे। १३१८ दिशीत् अतिसर्जने । १२८७ बिग्ट् बन्धने।
१३५० रुजोंत् भने। १३१६ कृषीत् विलेखने । १२८८ शिंग्ट् निशाने।
१३५१ भुजोंत् कौटिल्ये। १२८९ डुमिन्ट प्रक्षेपणे ।
१२११ टुमस्जोंत् शुद्धौ। १३२० मुच्ल ती मोक्षणे। १३५३ जर्ज १३५४ झझंत् १२९० चिंग्ट् चयने। १३२१ षिचीत् क्षरणे।
परिभाषणे। १२६१ घूग्ट् कम्पने।
१३२२ विद्लुती लाभे। १२६२ स्तृग्ट आच्छादने।
१३५५ उद्झत् उत्सर्गे। १३२३ लुप्लुती छेदने। १२९३ कृग्ट् हिंसायाम् ।
१३५६ जुडत् गतौ। १३२४ लिपीत् उपदेहे। १२९४ वृन्ट वरणे।
१३५७ पृड १३५८ भृडत् सुखने। ॥ इति उमयतोभावाः॥
॥ इति उभयतोभाषाः॥ १३५९ कृडत् मदे ।
| १३२५ कृतत् छेदने। १२६५ हिंट गति-वृद्धयोः।।
१३६० पृणत् प्रीणने। । १३२६ खिदंत् परिधाते । १३६१ तुणत् कौटिल्ये। १२९६ श्रृंट् श्रवणे।
१३२७ पिशत् अवयवे। १३६२ मृणत् हिंसायाम् । १२९७ टुकुंट उपतापे।
१३६३ द्रुणत् गति कौटिल्ययोश्च । १२९८ पृट् प्रीतौ।
॥ वृत मुचादिः ।। १२६६ स्मृट् पालने च ।
१३६४ पुणत् शुभे। १३२८ रि १३२६ पित् गतौ। १३३० धित् धारणे।
१३६५ मुणत् प्रतिज्ञाने। १३०० शकलंट शक्तो। १३०१ तिक १३०२ तिग
१३६६ कुणत् शब्दोपकरणयोः । १३३१ क्षित् निवास-गत्योः ।
१३६७ घूण १३६८ घृणत् भ्रमणे १३०३ षघट हिंसायाम् । १३३२ षूत प्रेरणे।
१३६९ चैतत् हिंसा-ग्रन्थयोः । १३०४ राधं १३०५ साघंट १३३३ मृत् प्राणत्यागे। संसिद्धौ। | १३३४ कत् विक्षेपे।
१३७० णुदंत प्रेरणे। १३०६ ऋघूट वृद्धौ। १३३५ गुत् निगरणे।
१३७१ षद्लुत् अवसादने। १३०७ आप्लट् व्याप्तौ । १३३६ लिखत् अक्षरविन्यासे। । १३७२ विघत् विघाने । १३०८ तृपट प्रोणने। १३३७ जर्च १३३८ झर्चत् १३७३ जुन १३७४ शुनत् गतौ । १३०९ दम्भूट दम्भे।
परिभाषणे। । १३७५ छुपत् स्पर्शे।
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१३७६ रिफत् कथन युद्ध
हिंसादानेषु ।
१३७७ तृफ १३७८ तृम्फत् तृप्तौ १३७६ ऋफ १३८० ऋम्फत्
हिंसायाम् ।
१३८१ दृफ १३८२ दृम्फत्
उत्क्लेशे ।
१३८३ गुफ १३८४ गुम्फत्
ग्रन्थने ।
१३८५ उभ १३८६ उम्भत्
पूरणे ।
१३८७ शुभ १३८८ शुम्भत्
शोभा ।
१३८६ दृभैत् ग्रन्थे । १३६०. लुभत् विमोहने । १३९१ कुरत् शब्दे । १३२ क्षुरत् विखनने । १३९३ खुरत् छेदने च । १३९४ घुरत् मीमार्थशब्दयोः । १३६५ पुरत् अग्रगमने । १३९६ मुरत् संवेष्टने । १३९७ सुरत् ऐश्वर्य - दीप्त्योः । १३६८ स्फर १३९९ स्फलत् स्फुरणे । १४०० किलत् श्वैत्य क्रीडनयोः । १४०१ इलत् गति स्वप्न-क्षेपणेषु १४०२ हिलत् हावकरणे । १४०३ शिल १४०४ सिलत् उच्छे १४०५ तिलत् स्नेहने । १४०६ चलत् विलसने । १४०७ चिलत् वसने । १४० विलत्वरणे । १४०९ बिल भेदने । १४१० लित् गहने । १४११ मिलत् श्लेषणे । १४१२ स्पृशंत् संस्पर्शे ।
धातुपाठः
१४१३ रुशं १४१४ रिशंत्
हिंसायाम् ।
१४१५ विशंत् प्रवेशने । १४१६ मृशंत् आमर्शने । १४१७ लिश १४१८ ऋषत् गतौ । १४१९ इषत् इच्छायाम् । १४२० मिषत् स्पर्द्धायाम् । १४२१ वृहत् उद्यमे । १४२२ तृहौ १४२३ तृ हो १४२४ स्तृहौ १४२५ स्तृ होत् हिंसायाम् ।
१४२६ कुटत् कौटिल्ये । १४२७ गुंतू पुरीषोत्सर्गे । १४२८ धुंत् गति स्थैर्ययोः । १४२९ त् स्तवने । १४३० घूत् विघूनने । १४३१ कुचत् संकोचने । १४३२ व्यचत् व्याजीकरणे । १४३३ गुजत् शब्दे । १४३४ घुटत् प्रतीघाते । १४३५ चुट १४३६ छुट १४३७ त्रुटत् छेदने । १४३८ तुटत् कलहकर्मणि । १४३९ मुटत् आक्षेप प्रमर्दनयोः । १४४० स्फुटत् विकसने । १४४१ पुट १४४२ लुठत् संश्ले[डान्तोऽनित्यन्ये । ] १४४३ कृडत् घसने । १४४४ कुडत् बाल्ये च । १४४५ गुडत् रक्षायाम् । १४४६ जुडत् बन्धने । १४४७ तुडत् तोडने ।
१४४८ लुड १४४९ थुड १४५० स्थुडत् संवरणे । १४५१ वुडत् उत्सर्ग च ।
[ ४९१
१४५२ ब्रुड १४५३ ध्रुडत् संघाते १४५४ दुड १४५५ हुड १४५६ त्रुडत् निमज्जने । १४५७ चुणत् छेदने । १४५८ डिपत् क्षेपे । १४५९ छुरत् छेदने । १४६० स्फुरत् स्फुरणे । १४६१ स्फुलत् संचये च ।
।। इति परस्मैभाषाः ।। १४६२ कुंङ् १४६३ कूत् शब्दे । १४६४ गुरैति उद्यमे ।
॥ वृत् कुटादिः ।। १४६५ पृ.ङत् व्यायामे । १४६६ दृ ंङत् आदरे ।
१४६७ धृ ंङत् स्थाने । १४६८ ओविजैति भय-चलनयोः । १४६९ ओलजैङ् १४७० ओलस्जैति व्रीडे । १४७१ ष्वञ्जित् सङगे I १४७२ जुषैति प्रीति सेवनयोः ।
।। इति आत्मने भाषाः ।। ।। इति तुदादयस्तितो धातवः । १४७३ रुघृपी आवरणे । १४७४ रिपी विरेचने । १४७५ वि पी पृथग्भावे । १४७६ यु पी योगे । १४७७ भिदु पी विदारणे । १४७८ छिपी द्वैधीकरणे । १४७९ क्षुपी संपेषे । १४८० ऊछृदूपी दीप्ति देवनयोः १४८१ ऊतृपी हिंसा ऽनादरयोः
॥ इति उभयतोभाषाः ॥ १४८२ पृचैप् संपर्के । १४८३ वृचैप् वरणे ।
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४६२ ]
धातुपाठः
१४८४ तञ्चू १४८५ तजौप् | १५१० प्रींग्श् तृप्ति-कान्त्योः । । १५४३ भ्रींश् भरणे ।
___ संकोचने। १५११ श्रींग्श् पाके। १५४४ हेठश् भूतप्रादुर्भावे । १४८६ भञ्जोंप् आमर्दने ।। १५१२ मींग्श् हिंसायाम् । १५४५ मृडश सुखने। १४८७ भुजप् पालना-ऽभ्यवहा- | १५१३ युंग्श् बन्धने ।
१५४६ श्रन्थश् मोचनरयोः । । १५१४ स्कंग्श् आप्रवणे।
प्रतिहर्षयोः। १४८८ अजोप् व्यक्ति-म्रक्षण- | १५१५ क्नूग्श् शब्दे ।
१५४७ मन्थश् विलोडने । गतिषु। । १५१६ दूग्श हिंसायाम् । १५४८ ग्रन्थश संदर्भे । १४८९ ओविजैप भय-चलनयोः।। १५१७ ग्रहीश उपादाने । १५४६ कुन्थश् संक्लेशे । १४६० कृतैप वेष्टने। १५१८ पुग्श् पवने।
१५५० मृदश् क्षोदे। १४६१ उन्दैप् क्लेदने। १५१६ लूग्श् छेदने ।
१५५१ गुधश् रोपे। १४९२ शिष्लप विशेषणे। १५२० धूग्श् कम्पने।
१५५२ बन्धंश बन्धने । १४६३ पिष्ल प् संचूर्णने । १५२१ स्तृग्श् आच्छादने । १५५३ क्षुभश् संचलने। १४९४ हिसु १४९५ तृहप् १५२२ कृग्श् हिंसायाम् ।
१५५४ णभ् १५५५ तुभश् हिंसायाम् । १५२३ वृग्श् वरणे।
हिंसायाम् । ॥ इति परस्मभाषाः ॥ ॥ इति उभयतोभाषाः॥
१५५६ खवर हेठश्वत् ।
१५५७ क्लिशोश् विबाधने । १४६६ खिदिप दैन्ये। १५२४ ज्यांश हानी ।।
१५५८ अशश भोजने। १४६७ विदिप विचारणे । १५२५ रीश् गति-रेषणयोः।
१५५६ इषश् आभीक्ष्ण्ये । १४९८ त्रिइन्धैपि दीप्तौ।। १५२६ लींश् श्लेषणे।
१५६० विषश् विप्रयोगे । ॥इति आत्मनेभाषाः॥ १५२७ ब्लींश् वरणे।
१५६१ पुष १५६२ प्लुषश् ॥ इति रुधावयः पितो धातवः ॥ १५२८ ल्वीश् गतौ।
__स्नेह सेचन पूरणेषु । १४९९ तनूयी विस्तारे। १५२९ कृ १५३० मृ
१५६३ मुषश् स्तेये। १५०० षणूयी दाने। १५३१ शुश् हिंसायाम् ।
१५५४ पुषश् पुष्टौ। १५०१ क्षणूग १५०२ क्षियी १५३२ पृश् पालन-पूरणयोः ।
१५६५ कुषश् निष्कर्षे । १५३३ बृश् भरणे। हिंसायाम् ।
१५६६ ध्रसूश् उच्छे । १५०३ ऋण यी गतौ। १५३४ भश् भर्जने च।
॥ इति परस्मैभाषाः ।। १५०४ तृणुयी अदने।
१५३५ दृश् विदारणे। १५३६ जश वयोहानौ।
१५६७ वृङश् सम्भक्तौ। १५०५ घृणूयी दीप्तो। १५३७ नृश् नये।
॥ इति आत्मनेभाषाः ।। ॥ इति उभयतोभाषाः ।। १५३८ गृश् शब्दे ।
॥ इति यादयः शितो धातवः ॥ १५०६ वनूयि याचने। १५३६ ऋश् गतौ।
१५६८ चुरण स्तेये। १५०७ मनूयि बोधने ।
॥ वृत् प्वादिः ।।
१५६९ पृण पूरणे। ॥ इति प्रात्मनेभाषाः ।
१५७० वृण स्रवणे।
॥ वृत् ल्वादिः॥ । इति तनादयो यितो धातवः ॥ १५४० ज्ञांश अवबोधने ।
१५७१ श्वल्क १५७२ वलूण
भाषणे। १५०८ डुक्रोग्श् द्रव्यविनिमये। । १५४१ क्षिष्श् हिंसायाम् । १५७३ नक्क १५७४ धक्कण १५०९ किंग्श् बन्धने। | १५४२ वींशु वरणे।
नाशने ।
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घातुपाठः
१५
१५७५ चक्क १५७६ चुक्कण् । १६१५ रुटण रोषे। । १६५५ छदण् संवरणे।
व्यथने। । १६१६ शठ १६१७ श्वठ १६५६ चुदण् संचोदने। १५७७ टकुण् बन्धने । १६१८ श्वठुण संस्कार-गत्योः। । १६५७ मिदुण् स्नेहने । १५७८ अर्कण् स्तवने।
१६१६ शुठण आलम्ये। १६५८ गुर्दण् निकेतने। १५७९ पिच्चण् कुट्टने । १६२० शुठुण शोषणे। १६५९ छर्दण् वमने। १५८० पचुण विस्तारे। १६२१ गुटुण वेष्टने ।
१६६० बुधुण् हिंसायाम् । १५८१ म्लेच्छण म्लेच्छने। | १६२२ लडण उपसेवायाम् । १६६१ वधण् छेदन-पूरणयोः । १५८२ ऊर्जण् बल-प्राणनयोः। | १६२३ स्फुडुण परिहासे।
१६६२ गर्धण् अभिकाङ्क्षायाम् । १५८३ तुजु १५८४ पिजुण | १६२४ ओलडुण उत्क्षेपे।
१६६३ बन्घ १६६४ बधण हिंसा-बल-दान-निकेतनेषु ।। १६२५ पोडण् गहने ।
संयमने । १५८५ क्षजुण् कृच्छ्रजीवने।। १६२६ तडण् आघाते।
१६६५ छपुण् गती। १५८६ पूजण् पूजायाम् । १६२७ खड १६२८ खडुण भेदे।। १६६६ क्षपुण क्षान्तौ। १५८७ गज १५८८ मार्जण शब्दे १६२९ कडुण खण्डने च ।
१६६७ ष्टूपण समुच्छाये । १५८९ तिजण निशाने । १६३० कुडुण रक्षणे।
१६६८ डिपण् क्षेपे। १५९० वज १५६१ व्रजण् १६३१ गुडुण् वेष्टने च ।
१६६६ ह्वपण व्यक्तायां वाचि । ___ मार्गणसंस्कारगत्योः। १६३२ चुडुण् छेदने।
१६७० डपु १६७१ डिपुण १५९२ रुजण् हिंसायाम् । १६३३ मडुण् मूषायाम् ।
संघाते। १५९३ नटण अवस्यन्दने। १६३४ मडुण कल्याणे।
१६७२ शूर्पण माने । १५९४ तुट १५९५ चुट १६३५ पिडुण संघाते।
१६७३ शुल्बण् सर्जने च । १५९६ चुटु १५९७ छुटण छेदने । १६३६ ईडण स्तृती।
१६७४ डबु १६७५ डिबुण क्षेपे । १५९८ कुटण कुत्सने च। १६३७ चडुण् कोपे।
१६७६ सम्बण सम्बन्धे । १५९९ पुट्ट १६०० चुट १६३८ जुड १६३६ चूर्ण
१६७७ कुबुण् आच्छादने।। १६०१ षुट्टण अल्पीभावे ।
१६४० वर्णण प्रेरणे। १६७८ लुबु १६७९ तुबुण १६०२ पुट १६०३ मुटण १६४१ चूण् १६४२ तूणण्
अर्दने। संचूर्णने।
संकोचने । १६८० पुर्बण निकेतने। १६०४ अट्ट १६०५ स्मिटण १६४३ श्रणण् दाने।
१६८१ यमण् परिवेषणे । अनादरे।
१६४४ पूणण संघाते। १६८२ व्ययण् क्षये। १६०६ लुण्टण् स्तेये च । १६४५ चितुण् स्मृत्याम् ।।
१६८३ यत्रुण संकोचने । १६०७ स्निटण् स्नेहने । १६४६ पुस्त १६४७ बुस्तण
१६८४ कुद्रुण अनृतभाषणे । १६०८ घट्टण चलने।
आदरा-ऽनादरयोः।। | १६८५ श्वम्रण गती। १६०६ खट्टण सवरणे। १६४८ मुस्तण संघाते। १६८६ तिलण् स्नेहने । १६१० षट्ट १६११ स्फिट्टण
१६४६ कृतण संशब्दने । १६८७ जलण अपवारणे । हिसायाम् ।
१६५० स्वर्त १६५१ पथुण गतौ।। १६८८ क्षलण शौचे। १६१२ स्फुटण् परिहासे । १६५२ श्रथण् प्रतिहर्षे। १६८६ पुलण् समुच्छाये । १६१३ कीटण् वर्णने।
१६५३ पृथण् प्रक्षेपणे । १६९० बिलण भेदे । . १६१४ वटुण् विभाजने । | १६५४ प्रथण प्रख्याने।
१६६१ तलण प्रतिष्ठायाम् ।
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४६४ ]
धातुपाठः
१६९२ तुलण् उन्माने। | १७२६ चर्चण अध्ययने । १७६१ घ्रसण उत्क्षेपे। १६६३ दुलण् उत्क्षेपे। १७३० अञ्चण् विशेषणे । १७६२ ग्रसण् ग्रहणे। १६६४ बुलण् निमज्जने। १७३१ मुचण प्रमोचने। | १७६३ लसण् शिल्पयोगे। १६९५ मूलण् रोहणे। १७३२ अर्जण् प्रतियले। १७६४ अर्हण पूजायाम् । १६९६ कल १६६७ किल १७३३ भजण विश्राणने । १७६५ मोक्षण असने । १६९८ पिलण क्षेपे।
१७३४ चट १७३५ स्फुटण भेदे। | १७६६ लोक १७६७ तर्क १६६६ पलण् रक्षणे। १७३६ घटण् संघाते
१७६८ रघु १७६९ लघु १७०० इलण् प्रेरणे।
(हन्त्यर्थाश्च) | १७७० लोच १७७१ विछ १७०१ चलण् भृतो।
१७३७ कणण निमीलने। १७७२ अजु १७७३ तुजु १७०२ सान्त्वण सामप्रयोगे। १७३८ यतण निकारोपस्कारयोः | १७७४ पिजु १७७५ लजु १७०३ धूशण कान्तीकरणे।
(निरश्च प्रतिदाने ।) १७७६ लुजु १७७७ भजु १७०४ श्लिषण श्लेषणे । १७३९ शब्दण् उपसर्गाद् भाषा- १७७४ पट १७७९ पुट १७०५ लूषण हिंसायाम्।
. विष्कारयोः। १७८० लुट १७८१ घट १७०६ रुषण रोषे।
१७४० षूदण् आस्रवणे। १७८२ घटु १७८३ वृत १७०७ प्युषण् उत्सर्गे। १७४१ ङः क्रन्दण् सातत्ये । १७८४ पुथ १७८५ नद १७०८ पसुण नाशने।
१७४२ व्वदण् आस्वादने। १७८६ वृध १७८७ गुप १७०६ जसुण रक्षणे।
[ आस्वदः सकर्मकात् ]. १७८८ धूप १७८६ कुप १७१० पुंसण अभिमर्दने । | १७४३ मुदण संसर्गे।
१७९० चीव १७६१ दशु १७११ ब्रूस १७१२ पिस १७४४ शृधण् प्रसहने। १७९२ कुशु १७९३ त्रसु १७१३ जस १७१४ बर्हण १७४५ कृपण अवकल्पने। १७९४ पिसु १७६५ कुसु हिसायाम्। | १७४६ जमुण नाशने।
१७६६ दसु १७९७ वह १७१५ प्लिहण् स्नेहने। १७४७ अमण रोगे। . १७९८ वृहु १७९९ वल्ह १७१६ म्रक्षण म्लेच्छने। १७४८ चरण असंशये । १८०० अहु १८०१ वहु १७१७ भक्षण अदने।
१७४९ पूरण आप्यायने । १८०२ महुण भासार्थाः । १७१८ पक्षण परिग्रहे । १७५० दलण विदारणे।
॥इति परस्मैभाषाः ।। १७१६ लक्षीण् दर्शनाङ्कनयोः।। १७५१ दिवण अर्दने।
१७५२ पश १७५३ पषण | १८०३ युणि जुगुप्सायाम् । इतोऽर्थविशेषे आलक्षिणः ।
बन्धने । १८०४ गृणि विज्ञाने। १७२० ज्ञाण मारणादिनियोजनेषु १७५४ पुषण धारणे। . १८०५ वञ्चिण् प्रलम्भने । १७२१ च्युण सहने।
१७५५ घुषण विशब्दने। १८०६ कुटिण प्रतापने । १७२२ भूण अवकल्कने ।
( आङः क्रन्दे ।) १८०७ मदिण तृप्तियोगे । १७२३ बुक्कण भषणे। | १७५६ भूष १७५७ तसुण् । | १८०० विदिण चेतना-ऽऽख्यान१७२४ रक १७२५ लक
अलंकारे।
निवासेषु । १७२६ रग १७२७ लगण् १७५८ जसण् ताडने। १८०९ मनिण स्तम्भे।
आस्वादने । १७५६ असण् वारणे। १८१० बलि १८११ भलिण १७२८ लिगुण चित्रीकरणे। | १७६० वसण स्नेह-छेदा-ऽवहरणेषु
आभण्डने।
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१८१२ दिवि परिकूजने । १८१३ वृषिण शक्तिबन्धे । १८१४ कुत्सिण् अवक्षेपे । १८१५ लक्षिण आलोचने । १८१६ हिष्कि १८१७ किष्कि हिंसायाम् ।
१८१८ निष्किण् परिमाणे । १८१६ तर्जिण संतर्जने । १८२० कूटिण अप्रमादे । १८२१ त्रुटि छेदने । १८२२ शठिण श्लाघायाम् । १०२३ कूणिण संकोचने । १८२४ तूणिण पूरणे । १८२५ भ्रूणिण आशायाम् । १८२६ चितिण संवेदने । १८२७ वस्ति १८२८ गन्धिण् अर्दने ।
१८२६ डपि १८३० डिपि १८३१ डम्पि १८३२ डिम्पि १८३३ डम्भि १८२४ डिम्भिण् संघाते ।
१८३५ स्यमि वितर्के । १८३६ शमिण आलोचने । १८३७ कुस्मिण कुस्मयने । १८३८ गरि उद्यमे । १८३९ तन्त्रिण् कुटुम्बधारणे । १८४० मन्त्रिण गुप्त भाषणे । १८४१ ललिण् ईप्सायाम् । १०४२ स्पशिण ग्रहण - श्लेषणयोः १८४३ दशिण दशने । १८४४ दंसि दर्शने च । १८४५ भत्सिण् संतर्जने । १८४६ यक्षिण् पूजायाम् ।
॥ इति आत्मनेभाषाः ।। १८४७ अङ्कण् लक्षणे ।
धातुपाठः
१८४४ ब्लेष्कण् दर्शने ।
१८४९ सुख १८५० दु:खण् तत्क्रियायाम् ।
१८५१ अङ्ग पद लक्षणयोः । १८५२ अघण् पापकरणे । १८५३ रचण प्रतियत्ने । १८५४ सूचण् पैशून्ये । १८५५ भाजण् पृथक्कर्मणि । १८५६ समाजण् प्रीति-सेवनयोः १८५७ लज १८५८ लजुण्
प्रकाशने ।
१८५६ कूटण दाहे ।
१८६० पट १८६१ वटण् ग्रन्थे । १८६२ खेटण् भक्षणे 1 १८६३ खोटण क्षेपे । १८६४ पुटण् संसर्ग | १८६५ वटुण् विभाजने । १८६६ शठ १८६७ श्वठण् सम्यग्भाषणे । १८६८ दण्डण् दण्डनिपातने । १८६९ व्रणण गात्रविचूर्णने । १८७० वण्ण् वर्णक्रिया विस्तार - गुणवचनेषु । १८७१ पर्णण हरितभावे । १८७२ कर्णण भेदे | १८७३ तूणण संकोचने । १८७४ गणण् सङ्ख्याने । १८७५ कुण १८७६ गुण १८७७ केत आमन्त्रणे । १८७८ पतण गतौ वा । १८७९ वातण् गति सुख से वनयोः १८८० कथ वाक्यय प्रबन्धे । १८८१ श्रथ दौर्बल्ये । १८५२ छेदण द्वैधीकरणे 1 १८८३ मदण् गर्जे । १८८४ अन्घण् दृष्ट्य पसंहारे ।
[ ४९५
१८८५ स्तनण् गर्जे ।
१८८६ ध्वनण् शब्दे । १८८७ स्तेन चोर्ये । १८८८ ऊनण् परिहाणे । १८८९ कृपण दौर्बल्ये । १८९० रूपण रूपक्रियायाम् । १८९१ क्षप १८९२ लाभण् प्रेरणे १८९३ भामण् क्रोधे । १८९४ गोमण उपलेपने । १८९५ सामण् सान्त्वने । १८९६ श्रामण आमन्त्रणे । १८ε७ स्तोमण् श्लाघायाम् । १८९८ व्ययण् वित्तसमुत्सर्गे । १८९९ सूत्रण विमोचने । १९०० मूत्रण प्रस्रवणे । १९०१ पार १९०२ तीरण् कर्मसमाप्तौ ।
१९०३ कत्र १६०४ गात्रण
शैथिल्ये । १९०५ चित्रण चित्र क्रियाकदाचिद्दृष्ट्योः ।
१९०६ छिद्रण भेदे । १९०७ मिश्रण संपर्चने । १९०८ वरण् ईप्सायाम् । १९०९ स्वरण आक्षेपे । १९१० शारण दौर्बल्ये । १९११ कुमारण् क्रीडायाम् । १९१२ कलण् सख्यान- गत्योः । १९१३ शीलण् उपधारणे । १९१४ वेल १९१५ कालण्
उपदेशे । १९१६ पल्यूलण्-लबन पवनयोः । १९१७ अंशण समाघाते । १९१८ पषण् अनुपसर्ग: । [पषो वाधन स्पर्शनयोः, पषण्
बन्धने]
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४६६ ]
धातुपाठः
१६१९ गवेषण् मार्गणे। | १९४१ युजण संपर्चने । | १९६५ आङः सदण गतौ । १९२० मृषण् क्षान्तौ। १९४२ लीण द्रवीकरणे। १९६६ रुदण संदीपने। १९२१ रसण् आस्वादन-स्नेहनयोः | १९४३ मीण मतौ।
१९६७ शुन्धिण शुद्धौ। १९२२ वासण उपसेवायाम् । १९४४ प्रीग्ण तर्पणे । १९६८ तनूण श्रद्धाघाते । १९२३ निवासण् आच्छादने। । १९४५ धूग्ण कम्पने ।
(उपसर्गाद् दैर्घ्य।) १९२४ चहण कल्कने। | १९४६ वृग्ण आवरणे। | १६६९ मानण पूजायाम् । १६२५ महण पूजायाम् । | १९४७ जण वयोहानौ ।। १९७० तपिण दाहे। १६२६ रहण त्यागे।
१९४८ चौक १९४६ शोकण | १९७१ तृपण पृणने। १९२७ रहुण् गतौ।
___ आमर्षणे। | १९७२ आप्Mण लम्भने । १९२८ स्पृहण ईप्सायाम् । १९५२ रिचण वियोजने च । | १६७३ भैण भये। १९२९ रुक्षण पारुष्ये। १९५० मार्गण अन्वेषणे।
१९७४ ईरण क्षेपे। ॥ इति परस्मैभाषाः ।। १९५१ पृचण संपर्चने।
१६७५ मृषिण तितिक्षायाम् । १९३० मृगणि अन्वेषणे।
१९५३ वचण भाषणे। | १६७६ शिषण असर्वोपयोगे। १९३१ अर्थणि उपचायने ।
. (विपूर्वो अतिशये।) १९५४ अचिण पूजायाम्। .. १६३२ पदणि गतौ ।
१९५५ वृजैण वर्जने। १९७७ जुषण परितर्कणे । १९३३ संग्रामणि युद्धे ।
१६५६ मृजौण शौचा-ऽलङ्कारयोः | १९७८ धृषण प्रसहने । १९५७ कठुण् शोके।
१९७६ हिसुण हिंसायांम् । १६३४ शूर १६३५ वीरणि १९५८ श्रन्थ १६५९ ग्रन्थण् ।
१६८० गर्हण विनिन्दने। विक्रान्तो। १९२६ सत्रणि सन्दानक्रियायाम् ।
सन्दर्भे। | १९८१ षहण मर्षणे । १९३७ स्थूलणि परिवृहणे ।
१९६० ऋथ १९६१ अदिण * बहुलमेतन्निदर्शनम् । १६३८ गर्वणि माने।
हिंसायाम् ।
वृत् युजादिः परस्मैभाषाः १९३९ गृहणि ग्रहणे।
| १९६२ श्रथण बन्धने च । १९४० कुहणि विस्मापने। १९६३ वदिण भाषणे।
॥ इत्याचार्यहेमचन्द्रानुस्मृता ( संदेशने इत्यन्ये । ) .
चुरादयो णितो धातवः ।। ॥ इति आत्मनेभाषाः॥ १९६४ छदण अपवारणे। ।
___* यदेतद् भवत्यादिधातुपरिगणनं तबाहुल्येन निदर्शनत्वेन ज्ञेयम् । तेनाऽत्राऽपठिता अपि क्लविप्रभृतयो लौकिकाः, स्तम्भूप्रभृतयः सौत्राश्रलुम्पादयश्च वाक्यकरणीया धातव उदाहार्याः । वर्धते हि धातुगणः(क्लविप्रभृतयो लौकिका घातवः) | १९८७ स्कम्भू १९८८ स्कुम्भू । १९९२ महीङ् वृद्धौ पूजायाञ्च । १९८२ क्लवि विच्छायीभवने ।
रोधनार्थाः।।१९९३ हणी रोष-लज्जयोः । १९०३ क्षीच् क्षये।
१९८९ कगे। क्रियासामान्यार्थो- | १९६४ वेङ् धौर्य पूर्वभावे १९८४ मृगच् अन्वेषणे। ऽयमित्येके । अनेकार्थो
स्वप्ने च। १९८४ मृगच अन्वेषणे।
ऽयमित्यन्ये । ( सौत्रः) | १९६५ लाङ् वेङ्वत् । (स्तम्भूप्रभृतयः सौत्रा धातवः) | १९९० जं गतौ। (सौत्रः) | १६६६ मन्तु रोष वैमनस्ययोः । १९८५ स्तम्भू १९८६ स्तम्भू । १९९१ कण्डूग गात्रविघर्षणे । । । १९९७ वल्गु माधुर्य-पूजयोः ।
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धातुपाठः
[ ४९७
१९६८ असु मानसोपतापे। । २०२२ गोधा २०२३ मेघा | २०४८ रिखिलिखे: समानार्थः। ( अत्र असू असूग् इत्येके ।
आशुग्रहणे । । २०४९
२०४६ लुक कम्पने। अन्ये तु असूङ दोषाविष्कृतौ । २०२४ मगध परिवेष्टने ।
२०५० चुलुम्प विनाशे। रोगे चेत्याहुः।)
(नीचदास्ये इत्यन्ये ।)
सौत्रधातुव्याख्या१९९९ वेट् २००० लाट् वेड्वत् ।। २०२५ इरध २०२६ इषुध
क्रियावाचित्वे सति पाठाs( लाट् जीवने इत्येके । वेट्लाट |
. शरधारणे। २०२७ कुसुभ क्षेपे।
पठितत्वे सति सूत्रगृहीतत्वं सौत्रइत्यन्ये ।)
[श्रीहैमशब्दानुशासने 'कुषुम्भ' त्वम्। २००१ लिट् अल्पार्थे कुत्सायाञ्च | इति, क्रियारत्नसमुच्चये च 'कुरुरु
___ अर्थ-जो क्रियावाचक हो, धातु२००२ लोट् दीप्तो। क्षेपे' इति पाठः ।]
पाठ में नहीं कहे गए हो और सूत्र (लेट् लोट् धौत्यै पूर्वभावे स्वप्ने | २०२८ सुख २०२६ दु.ख
में जिनका ग्रहण नहीं हुआ हो चेत्येके । लेला दी'ताविति कचित् )
तक्रियायाम् ।
उन्हें 'सौत्रधातु' कहते हैं। २००३ उरस् ऐश्वर्ये ।
२०३० अगद निरोगत्वे । वाक्यकरणीयधातुव्याख्या२००४ उषस प्रभातीभावे। २०३१ गद्गद वाकस्खलने ।
क्रियावाचित्वे सति पाठा२००५ इरस् ईर्ष्यायाम् ।
२०३२ तरण २०३३ वरण गतौ । पठितत्त्वे स त सूत्रागृहीतत्वे सति (इरज् इरग् इत्यपि केचित् )
२०३४ उरण २०३५ तुरण शिष्टप्रयोगप्रयोज्यग्रहविषयत्वं २००६ तिरस् अन्तद्धौं।
स्वरायाम् । वाक्यकरणायत्वम् । २००७ इयस् २००८ इमस् २०३६ पुरण गतौ।
अर्थ-जो क्रियावाचि हो, २००६ पयस् २०१० अस् । २०३७ भुरण धारण-पोषण-युद्धेषु | २०३८ चुरण मति-चौर्ययोः।
घातुपाठ में अपठित हो और सूत्र प्रसृती।
| में ग्रहण नहीं किए हो, फिर भो २०११ सम्भूयस् प्रभूतभावे । (हेमशग्दानुशासने-'वुरण' इति ) |
| शिष्टप्रयोग से प्रयोज्य ज्ञान के २०१२ दुवस् परिताप२०३६ भरण प्रसिद्धार्थः।।
विषय हो उन्हें वाक्यकरणीयधातु परिचरणयोः। २०४० तपुस २०४१ तम्पस् २०१३ दुरज् २०१४ भिषज्
दुःखार्थः।
कहते हैं। चिकित्सायाम् । (तन्तस पम्पस इत्यन्यत्र)।
लौकिकधातुम्याख्या२०१५ भिष्णुक उपसेवायाम् । । २०४२ अरर आराकर्मणि।
क्रियावाचित्वे सति पाठा(भिष्णज उपसेवायामित्येके ) | २०४३ सपर पूजायाम् ।।
पठितत्वे सति सूत्रागृहीतत्वे सति २०१६ रेखा श्लाघा-सादनयोः। २०४४ समर युद्धे ।
केवललोकप्रयुक्तत्वं लौकिकत्वम् । २०१७ लेखा विलास-स्खलनयोः। ॥ इति कण्डवादयः॥ ____ अर्थ-क्रियावाचक होने पर (अदन्तोऽयमित्यपरे। २०४५ अन्दोलण
भी धातुपाठ में अपठित हो, सूत्र २०१८ एला २०१९ वेला २०४६ प्रेरङ्खोलण् अन्दोलने। में अगृहीत हो और केवल लोक २०२० केला २०२१ खेला विलासे | ४०४७ वीजण वीजने। में प्रयुक्त हो उसे 'लौकिकधातु' ( इला इत्यन्ये । खल इत्येके ।)। [एते त्रयोऽप्यदन्ताः ]। कहते है ।
॥ इति कलिकालसर्वज्ञश्रीहेमचन्द्राचार्यविरचितषातुपाठः समाप्तः ।।
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CREXXXXXXX Co शुद्धि-पत्र
गणाते
गृणाते सूत्रं न
अशुद्धि शुद्धि पेज नं. पं. नं. कारोदयो कारादयो १ १७ तस्यासवर्थो तस्यासावर्थो २ २१ विभागावात् विभागाभावात् ३ १८ कर्तु मित्यादिषु कतु मित्यादिषु ।
साध्ये ४ २ प्रकृते परिच्छन्नेति परिच्छिन्नेति ५ ५ उत्सुसुकायते उत्सुसुकायिषते ५ ३१ सीष्ठ सीष्ट स्यत् स्यत
८ ९ शब्दपरा- शब्दस्पर्धात् परा-८ २४ मात्राशय मात्राश्रय भवता, भवता शयनीयम् , भवती। भवता ११ प्रतिपादित्वात् प्रतिपादितत्वात् ११ ३१ शयनः शयानः १२ १० अपौन अथ पौन १३ १४ कत्मिने कर्तर्यात्मने परा
१४ १२ __ कर्त
१६ १२ भुङ्क्ते, परि भुङ्क्ते, उपभुते,
परि १७ ८ निर्देश निर्देशो १७ ११ समवाययि समवायि १६ २ क्रोधरया क्रोधजया १६६ ददाति ददाति, प्रददाति २२ लेषः श्लेषः २३ १७
अशुद्धि शुद्धि पेज नं. पं.नं.
२४ २८
२६ १८ चिकर्षति चिकीर्षति २६ ३० कर्तया कर्तर्या २६ ४६ स्मरसि. केनो । केनोल्लेखेन सभविष्याव इति वाक्यस्याप्यकर्मकत्वम् । स्वमते त्वभिजानासि किं तत् संभविष्याव इति वाक्यकर्मत्वान्नात्मनेपदं इति शब्दोऽध्याहर्त्तव्यः । कोपपराङ्मुखीति । तन्मतेऽजाहं जाने केनोल्लेखेन।
३० २४ शब्दं
शब्दे ङ्गति गेति चेतयति सेचयति ३२. २५ गमयते गणयते ३३ २ इति इति तु ३३ २३ शब्दात् शब्दात्, सहार्थे ३५ ३० ज्यायस्त्वम् ज्यायस्त्वात् ३९ २
तुष्टु
यङ दिकत्वेन दिकत्वेन
शविषयत्वात् ४१ १० व्याकुल्वे व्याकुलत्वे ४१ १८ शृशा भृशा
४४ ५ भृशब्देन
भृशशब्देन मपादाय मुपादाय ४५ २० चक्रपीति चंक्रमीति ४६ १०
परि
तष्टु पङ्
कत
४४
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शुद्धि-पत्र
[ ४६६
शुद्धि
भूष
हपद
xxx
१००
कृते
अशुद्धि पेज नं.पं. नं. | अशुद्धि
पेज नं.पं.नं. भृष्
४७ २० लालस्ये लालस्यते ८७ १२ भत्सिण भस्तिण
चलीक्कृप्यते चलीक्लप्यते ८९ २४ मृण मृजौण ४८ २१
दृषद
९२ २६,२७ बाधते बाध्यते
कषि कपि
६२ २७ किची चिकी ५० ११
तस्पशेरः तस्पशेर किम् क्विप ५१
तयाऽस्यो तयाऽस्य ९४ १२ दुपादानं दुपमादानं
भज्यते
भृज्ज्य ते ९७ २५ उद्गोर्य - उद्गीर्य ५४ १२
तन्मत तन्मते
१६ कोटो कीटो
तद्वनि तद्वति मुद्रमति मुद्वमति
यवागः यवागूः १०२ परिधार्जने परिधानार्जने ५६ १२
कृति
१०४ १० षष्ठो षष्ठी ५६ २४ पिधूच विधूच ११० पुत्रो पुत्री ५६ २६
विलालयति विलाययति १११ तीत्यादिष्व ५९
वत्य तीत्याष्व
।
वृत्त्य ११२
ठलेषयति ठलेपयति नियम नियमा ५९ २७
११२ श्लेशीत् श्लेषीत् ६२ २२
११२ शिलक्षन्त . श्लिभत ६२
क्रूयि क्नूयि
२५ कर्तय
क्नोप कर्तर्य
क्रोप
११२ व्यययति व्यथयति ११३ १२
वेषने वेष्टने अस्तुभवत्, अस्तुभत्
११३
दयमति दमयति अस्तुम्भीत्
दुपात्त्य दुपान्त्य ११७ ख त्वङ
उदुषा उदुषों १२० पुषच पुसच
विगलित विलगित १२१ म्रमूच भ्रमूच
विगल्यते शिती
विलग्यते शिता
वनपण वनषण प्रत्यये प्रत्ययो
१२४
मेषां इदमेषां . १२८ २ गुधश् गुधश् , बन्धंश् ६९ २२
स्य स्थ
१३२ १७ स्कनुगश स्कुगश् ६९ १९ इवं
इत्व गुरति
७० १५ लोपे लोपेऽनेन १३६ कशूल कुशूल ७१ १८ सीदति सीदति,सीदन् १३६ भित्सात् भित्सीत् ७४ २८ तिच
१४२ दण्डी
संग्रा संग्र
१४३ एकत्सूत्रं एतत्सूत्रं ७७ २५
तृषित्वा तषित्वा
१४६ २५ कारियत्व कायित्व ७८ १४ कृपीष्ट, कृषीष्ट चश्चोत चुश्चोत
हपीष्ट
१४९
वृद्धि
३
११४
Im
५
109mM
गुरैति
तिव
३१
द्रुण्डी
ह्रषोष्ट
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________________
५०० ]
शुद्धि-पत्र
१५२
१६१
१९७
बभू
अशुद्धि
पेज. नं. पं. नं. | अशुद्धि शुद्धि पेज नं. पं. नं.
१५१ २५ उदन्ता उदन्त १८६ ११ मिलि सिचि
युजि युजि १८६ १४ बधते वधते १५४ १३
लस्जौ
लस्जै १९० १२ पूर्वस्य वि पूर्वस्य १५५ २ २-३-६३ २.३-६३ ककारा रुकारा १५६ १७
इतिणः पिय पिब
'तवर्गस्य' १९० ३१ स्या
स्था १५७ २० जिहेषु जिह्वषु १९२ ३१ घ्राशा घ्राशा. सों
जुहति जुह्वति १९२ ३१ सैं वेति १५८ ७ वणत्व वणत्वं १६४ कसा क्वसा १६० २५ वणत्वं वर्णत्वं
१६४ ११ मूच्यिता 'सूच्यिता १६१ २५ चत्रः चैत्रः स्थात्तदा स्यात्तदा
कसो
क्वसो सक रादौ सकारादौ १६४ १७ वमयोनि वमयोनि १६७ ह्य भयोः ह्य भयोः १६७
वभू
१६७ विशेषण विशेषेण १६८
प्रतिकीणं प्रतिकीणं, च्वो च्वौ १६८ २१
उपकीर्ण २०१ २ थथा
यथा १६८ २९ प्रात्त प्रात्तु २०१ १८ वृष
डनि
वनि २०५ १३ सयजः समजः १७० २७ पूवुः पून्युः २०७
१७१
कृतत् वा कृतत् कृतप्वा २०७ श्वादि श्रवादि
१७२
कत्तयव कर्तर्येव २०८ यवा यबा
१७४
ममेन मनेन २०९ शदपः शदप्रः १७५ १२ धावत धातव २१० १८० २३ चरुः
२११ अनात्मेनाम् अनात्मने १८६ २७ क्रिया व्य- क्रियाव्यविषश् विषश् , पुषंच
तिहारे तिहारे द्योतिते २१२ पुषश् १८७ २१
राजा
राज्ञा २१३ संवन्द्धा संबन्द्धा १८८ १२
या
२१८४ वुधिंच बुधिंच् १८८ १२ सवदमनः सर्वदमनः २२० १३
तुषंच् १८८ २६ अव्याहारी अव्याहारी, वृगन वृग्श् १८८ ३६
असंव्याहारी २२० २५ त्रिविदाच जिश्विदाङ्
मिन्त्र मित्र २२४-१०-११-१२ वा स्वेदिता, निविदाच
निर्वत्य निर्वर्त्य २२४ १९ शिक्ष्विदाङ वा स्वेदिता १८६ ४. | द्वारपाल द्वारपाल: २२४ २१ सुधी क्षुधी १८६ १८ । अङ्ग
२२५ २५
वृप
भूज्यते
भृज्यते
२५
पूडौ
खूङो
वरुः
तुसंच
अगु
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शुद्धि-पत्र
[५०१
२२७
२३५
तेन
भित्
भूयते
अशुद्धि
पेज नं. पं. नं. | अशुद्धि शुद्धि पेज सं.पं.सं. भोजन भाजन
२२६
आकायभग्निं चितौ धृतम् घृतम्
आकायग्नि २८९ ३० छत्रधार छत्रधारः २२६
डित डिवत २६१ ६ अनुद्यमे- अंशहरो
संवरणं संरवणं २६२ ५ अंशहरो दायादः,
श्वा
वा २९६ १६ दायादः अनुद्यमे २२९ १२ तूतिः तितिः २९७ १७ ऐभ्यो एभ्यो २३२ २ । मूतिः मूतिः, पचले: प्रियंभावुकः, प्रियंभावुकः,
पूः पूति: २६७ १८ अन्धभविष्णु
इति
इतिअन्धं भावुक: २३५ ७
प्रणुवन्त्यनेन ३०१ नाग्नी नग्नी
प्रसादः प्रासादः ३०२ हस्ती मुनिः २३६ १४
तेन तस्मिन् भित् प्रभित् २४० ७
वा
३०२ खरनादी खरनादी,
र्भयते ।
३०५ १८ सिंहनादी २४१ २३ भाव भवा रम्ये रभ्ये २४३ १९. प्रबन्धा तमुद्यतनः ६-१-१४८ ५.१-१४८ २४३ २६
प्रबन्धा
३०८ १९ ऽर्थे वर्तमानात् २४५ २९
तत् ३०६ ३ कुर्वन् कुर्वन्न २५० २७ यच्च यच्च यत्र ३१३ पर्ष
२५२
विधिः यतो विधिः ३१६ वतिष्णु वतिष्णः २५९
स्पष्टाथः स्पष्टार्थः ३१७ २९ चाल चल २६२
स्प्त घिनण
भुङ्क्त भुङ्क्ते ३२४ २० इत्यत इत्यत्र
तावदुवतं तावदुक्तम् ३२६ २ पचिधातोः २६९ १३ सूयसा सूयया ३२६ ११ धीः धी:, सुधीः २७० ९ दण्ड
दण्डे ३३२ २२ सहाऽतेः सहाऽतः २७१ ११
तहि
तहि ३३६ तीर्यति तीयति २७१ १५
वृत्तेः
३३८ रक्षतिः रक्षितः
'उण २८१
'विषैः 'विशर्ष ५-३-६४ ५-१-८३
गुहिभ्य, गुहिभ्यः ३४० स्वडैव त्वनडेव २८३ १५ राषिः राजर्षिः ३४१ घा वा २८५
प्रत्र °पत्र प्रकाणः प्रक्वाणः २८५ सप्ल
सृप्ल ३४२ भिक्षः भिक्षः २८६ विलन विलसन ३४३
ऽर्थ
यत्
वर्ष
३२०
घिणन्
वृत्ती
२७२
उण
शृ
२८३
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________________ 502 ] शुद्धि-पत्र अशुद्धः स्वम्भ धु-यु झष च पेज नं.पं.नं. 343 28 344 14 अशुद्धिः स्वयथुः स्तम्भ भोक्षं घु-यु जुष च 349 एव पृश् पश शृश मूत् पूगतरु 346 349 349 350 मृत् पूगतरुः चते. 351 गृत शुद्ध पेज नं.पं.नं. श्वयथुः 388 24 क्षोम 3861 स एव 3828 डिमः वस्यनि° 391 | पाके तुषंच 400 404 अक्षेर्वा 405 13 भ्रस्जीत 406 20 भ्राष्ट्रम् 406 28 विष्ल की 406 31 संघरणे 407 22 लुप्लती . 407 23 पुष्टो 414 28 चर्मकृता 434 25 लोह 443 अर्जे 444 20 वसं 451 17 नरम् नगरम् उषू 354 363 क्रोडाडयः क्रोडादयः सूर्य; सारथिः सूर्यसारथिः 368 वृश् वृश् 368 कृत 368 वृजिनम् वजनम् 379 380 धेयम् धर्यम् ताभ्यते ताम्यते 385 गत् 386 गत् डितः वस्यमि 10 श्रां पाके तपंच क्षुद्रा अक्षर्वा भ्रास्जीत् भाष्ट्रम् विष्ल को 26 संरवणे लुप्लुती पुष्टा 22 कर्मकृता 'लौह परम 29 / अजे 28 / वंस यु पी युपी 443 परमे गत्