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समर्पण
'नमस्कार महामन्त्र' जिनकी अंतरात्मा का सुमधुर संगीत था जिनकी आत्मा परमात्मा-चरणों में पूर्ण समर्पित थी, जिनकी वाणी में अमृत सा अद्भूत माधुर्य था जो सदा महामन्त्र की अनुप्रेक्षा में तल्लीन रहते थे सकल सत्त्व-हिताशय की पवित्र भावना से जो अत्यन्त भावित थे । जिनके शुभ सानिध्य में परम आनन्द की अनुभूति होती थी।
ऐसे परम पवित्र शुभनामधेय परम गुरुदेव निस्पृहशिरोमणि पंन्यास प्रवर श्री भद्रङ्कर विजयजी गणिवर्यश्री के पवित्र आत्मा को यह ग्रन्थ-रत्न समर्पित करते हुए हमें अत्यन्त ही आनन्द का अनुभव हो रहा है।
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. ओ परम सुरुदेव ! आपने हमारे जैसे अज्ञानी जीवों पर करुणा दृष्टि कर.. ओ हमें संयम की नौका समर्पित की और आप स्वय' ही इस संयम-नौका के वाहक
बने । आप ही के पुण्य प्रभाव से यह संयम नौका आगे बढ़ सकती हैं...आप जहाँ भी हो सतत वृपा बृष्टि करते रहो...और आपके उपकारों की ऋण मुक्ति के लिए जिन शासन की सेवा करने का सामर्थ्य प्रदान करते रहो ।
चरणचञ्चरीक मुनि वज्रसेन विजय मुनिरत्नसेन विजय