Book Title: Agam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 02 Sthanakvasi
Author(s): Amarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Amar Publications
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशीथ-सूत्रम् NISITHA - SUTRA सम्पादक उपाध्याय कवि श्री अमर मुनि मुनि श्री कन्हैयालाल "कमल" Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ About the Book Nishtha is an important Agama text of the Jainas. The Bhashya of Sthavira Pungava Shri Vishahagani Mahattara and the Churni of Jinadasa Mahattara on this, Agama text posses a great value and special significance. The Bhashya described different aspects of conduct situated to time and place. Besides, the Bhashya throws light on the cultural, Political, Social and other aspects contemporaneous with the period of Bhashyadara. In fact, Nishith is an encyclopaedia of knowledge which the Bhashya suppliments additionally. It was first published by Sanmati Gyan Peeth, Agra under the Editor-ship of Pujya Shri Amar Muni Ji Maharaj and Muni Shri Kanhaiya Lalji. A number of scholars have written thesis on the work obtained Doctorates. With the first edition going out of print, there has been an incresing demand for the supply of this book. It is to meet this long -felt need of scholars, Universities and private Institutions that this present in the same Type reprint has seen the light of the day. Due to Flourish the name of Pujya Gurudev the limited Copies have again printed as a IInd edition. Complete set in four parts Rs. 1000/ Jain cre ate national jainelibrary.org Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थविर - पुंगव श्री विसाहगणि महत्तर- प्रणीतं, सभाष्यं निशीथ -सूत्रम् आचार्य प्रवर श्री जिनदास महत्तर- विरचितया विशेष- चूर्णी समलंकृतम् द्वितीयो विभागः उद्देशकाः 1-9 सम्पादक : उपाध्याय कवि श्री अमरमुनि जी महाराज व मुनि श्री कन्हैयालाल जी महाराज " कमल " अमर पब्लिकेशन वाराणसी-1 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशन : अमर पब्लिकेशन सी.के.-13/23, सत्ती चौत्तरा वाराणसी. फोन : (0542) 2392378 वितरक : भारतीय विद्या प्रकाशन 1, यू.बी. जवाहर नगर, बंगलो रोड़, दिल्ली-7. फोन : 011-23851570 पोस्ट बोक्स न. 1108, कचौड़ी गली, वाराणसी फोन : (0542) 2392378 मूल्य : 1200.00 (चार भाग में) संस्करण : 2005 मूद्रक : टिविन्क्ल ग्राफिक्स, दिल्ली-110088. Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NISHITH SUTRAM (With Bhashya) By STHAVIR PUNGAVA SHRI VISAHGANI MAHATTAR and Vishesh Churni By ACHARYA PRAVAR SHRI JINDAS MAHATTAR PART U UDESHIKA 1-9 Edited by Upadhaya Kavi Shri Amarchand Ji Maharaj Muni Shri Kanhaiyalal Ji Maharaj "Kamal AMAR PUBLICATIONS VARANASI-1 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published by: AMAR PUBLICATIONS CK-13/23, Satti Chautra Varanasi. Phone : (0542) 2392376 Distributers : BHARATIYA VIDYA PRAKASHAN 1, U.B., Jawahar Nagar, Bungalow Road, Delhi-7. Phone : 011-23851570 Post Box No. 1108, Chauchari Gali, Varanasi Phone : (0542) 2392378 Price : Rs. 1200.00 (In four parts) Edition : 2005 Printed by : Twinkle Graphics, Delhi-110088. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किस के कर-कमलों में ? जिन का मनो लोक गगन - सा विशाल, विराट और शारदी प्रभा से भी शुभ्र है । जिन का हृदय पर वेदना में कुसुमादपि कामल, और अपनी संयम साधना में वज्रादपि कठोर है । वरदहस्त, जिन का स्नेह - सिक्त मेरे सिर पर सदा से रहा है । जिनका वात्सल्य मेरी संगम यात्रा का, संबल सबल और सुखद पाथेय रहा है । अपने उन परम - - पवित्र, परम गुरु, परम श्रद्धेय । श्री फतेहचन्द जी म० को, सभक्ति सविनय समर्पित । - जिन का तपः पूत जीवन पवित्र है, जिन का आचार निर्मल एवं शुद्ध है । जिन का विचार उच्चतर, और बाणी मधुर, सरस एवं स्निग्ध है । · - मूनि कन्हैयालाल 'कमल' Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रात्म-निवेदन मानव-मन में चिरकाल से संकलित संकल्पों की सिद्धि, मानव के तदनुरूप सत्साहन, साधन-परिज्ञान एवं अथक परिश्रम से होती है । साहित्य साधना का यही मूल मंत्र मेरे जीवन को सदा प्रगति की ओर बढ़ाता रहा है। श्रय उपाध्याय कविरल श्री अमरचन्द्र जी महाराज की विमल यश-रश्मिया मेरे मानस को चिरकाल से आलोकित कर रही थी, पर उनके व्यावर वर्षावास से पूर्व जब मेने सुना कि उपाध्याय श्री जी मरुधरधरा को पावन करने के लिए पधार गए हैं, तव मेरा हृदय हर्ष-विभोर हो गया। उनके महामहिम व्यक्तित्व का स्पष्ट और विशद परिचय-मुझे "मधुकर" जी महाराज ने कराया, क्योंकि वे व्यावर-वर्षावास में उपाध्याय श्री के ज्ञानामृत का निरन्तर पान करते रहे थे। अजमेर वर्षावास से पूर्व उपाध्याय कवि श्री जी के दर्शनों का पूण्यमय लाभ मुझे पुष्कर में मिला । वह दिवस मेरे जीवन का पवित्रतम दिवस था। पुष्कर में अल्प समय के संपर्क से ही मुझे कवि श्री जी के दार्शनिक मस्तिष्क का, सरम कवि मानस का और विराट व्यक्तित्व का साक्षात्कार हो गया। फिर तो सादड़ी सम्मेलन में, सोजत सम्मेलन में, जोधपुर के संयुक्त वर्षावास में और भीनासर के सम्मेलन में, कवि श्री जी के उर्वर एवं ज्योतिर्मय मस्तिष्क ने जो विचार क्रान्ति पैदा की, उससे ग्राज कौन अपरिचित है? कवि श्री जी के विराट मानस में सबको सहज स्नेह से प्रात्म-जन बनाने की अपार क्षमता है। ज्ञान और विचार के इस अधि देवता ने एक ओर अपने अगाध ज्ञान से समाज के पुरातन मानस को प्रभावित किया, तो दूसरी पोर समाज के उदीयमान ग्रंकुरों को भी अपने ज्ञान के जल से सहज स्नेह के साथ सींचा है। इसका अर्थ - यह है, कि कवि श्री जी पुराने और नये युग की सन्धि हैं, बेजोड़ कड़ी हैं। उनके जीवन की अमर देन है -समाज संघटन। ____ मैं अपने साहित्यक जीवन के प्रारम्भ से ही प्रागम-साहित्य के सम्पादन के लिए उत्साहित रहा हूँ । पागम साहित्य की सेवा मेरे जीवन की विशेष अभिलाषा रही है। परन्तु मैं युगानुरूप अपनी एक नयी पद्धति से ही पागम साहित्य की सेवा करना चाहता था । अपनी, इस साध को पूरा करने के लिए मुझे अतीत में वहुन कुछ श्रम करना पड़ा है । मैं पागमों का विलय-क्रम से वर्गीकरण करने का कार्य करीव ७.८ वर्ष पूर्व से कर रहा हूँ, उसे सुसम्बद्ध करने के लिए मुझे किसी बहुश्रुत के सहयोग की अपेक्षा थी। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) कविश्री जी के जयपुर वर्षावास में इसी शुभ संकल्प को लेकर में उनकी पवित्र सेवा में रह चुका हूँ । परन्तु उनका स्वास्थ्य ठीक न रहने से में पूरा लाभ नहीं ले सका । मेरे मन की चिर साध ज्यों की त्यों बनी रही । परन्तु मैं निराश और हताश नहीं हुआ, क्योंकि " आशा मानव की परिभाषा" यह मेरे जीवन का संबल रहा है । अस्तु अपने संकलित आगम साहित्य को अन्तिम मूर्त रूप देने की पबल भावना से ही मैं हरमाड़ा से आगरा पुनः कवि श्री जी की पुनीत सेवा में उपस्थित हुआ । आगमों के वर्गीकरण का कार्य साधारण नहीं है, अपितु यह एक चिरसमय-साध्य महान कार्य है, परन्तु कवि श्री जी के दिशा-दर्शन से काफी सफलता मिली है, उसका एक भाग लगभग तैयार हो चुका है, और वह देर-सवेर में प्रकाशित भी होगा । निशीथ भाष्य एवं निशीथ चूर्णी का सम्पादन जिसकी मुझे स्वप्न में भी कल्पना नहीं थी, वह भी कवि श्री जी की प्रेरणा, दिशा दर्शन और उत्साह का ही शुभ परिणाम है । अन्यथा यह महान् कार्य कहाँ और मेरी ग्रल्प शक्ति कहाँ ? ग्रागरा प्रस्थान से पूर्व मेरे सामने अनेक विकट समस्याएं थीं, जिसमें श्रद्धेय गुरुदेव फतेहचन्द्र जी म० की अस्वस्थता मुख्य थी । परन्तु गुरुदेव ने मुझे ग्रागरा जाने के लिए 'केवल प्रेरणा ही नहीं दी, बल्कि हृदय के सहज स्नेह से शुभाशीश भी प्रदान की। उनके शुभाशीर्वाद के बिना मेरा आगरा ग्राना संकल्प मात्र स्वप्न ही बना रहता। अतः मैं अपने मानस की स भक्ति के साथ गुरुदेव का ग्रभिनन्दन करता हूँ। साथ ही गुरुदेव की सेवा का भार मुमुक्षु पं० मुनि श्री मिश्रीमल जी महाराज ने स्वीकार करके महान् ज्ञान यज्ञ के लिए जो सेवाएं अर्पित की हैं इसके लिए भी में उनका हृदय से आभारी हूँ । श्रद्धेय अमोलकचन्द्र जी महाराज की प्रेरणा उत्साह और सहयोग भी मेरे जीवन में चिरस्मणीय बना रहेगा । निशीथ त्रूणि के प्रस्तुत प्रकाशन में सब से बलवती प्रेरणा आपकी ही रही है । मैं अपने निकट सहयोगी मुनि श्री चाँदमल जी की सेवा को भी नहीं भूल सकता उनकी सक्रिय सेवा भी मेरे कार्य में एक विशेष स्मरणीय रहेगी । दिनांक श्री पार्श्वजयंती १६- १२ सन् १९५७ लोहामंडी, आगरा । मुनि कन्हैयाला लकमल' Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपत्र अनुनम - अनुयोग की व्याख्या हस्तकर्म सूत्र संख्या १ हस्तकर्म का पदार्थ भिक्षुपद का निक्षेप हस्त का निक्षेप कर्म का निक्षेप द्रव्य कर्म और भावकर्म विषयानुक्रम प्रथम उद्देशक हस्तकर्म के भेद अक्लिट हस्तकर्म के भेद-प्रभेद तथा तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त सिद्धसेन के मतानुसार हस्तकर्म के छेदन आदि भेद तथा तत्सम्वन्धी प्रायश्चिन छेदन आदि के अपवादों का स्वरूप महेतुक और महेतुक संक्लिट हस्तकर्म मदोष वसति में संविल हस्तकर्म के हेतुओं की परम्परा तथा संयम की रक्षा के लिए गीतार्थ-निधि अपवाद व नद्विपयक प्रायश्चित्त यतना की स्थिति में भी साधक की मंगम में अस्थिरता एवं तद्विषयक पानी के प्रचन प्रवाह में पतित वट-पाद का हान्त मति के बाहर मोहोदय के हेतु श्रवण, दर्शन, स्मरण आदि से होने वाले मोहोदय का निग्रह करने के हेतु प्रशस्त भावना एवं यतना बाह्य निमित्त के अभाव में होने वाले तीत्र मोहोदा के ग्राम्यन्तरिक हेतुयों का स्वरूप एवं तत्सम्बन्धी नीन दृष्टान्त : १ - चक्रवर्ती का आहार २ - कामातुर युवती ३ पानी के प्रवाह में बहने वाला पुरुष गाथा के ४६७-५६१ ૪૨૭ E YE ५०० " ५०१ ५०२-५०३ ५०४-५०५ ५०६-५१३ ५१४- ५१६ ५१०-५६४ ५.६५ ५६६ ५.६७-५७० ०७१-५७३ पृष्ठाङ्क १-२ २-२६ ~ Im : : : २ 19 ३ ४ ४-५ ५-७ ७ ७-१६ १६ "" १६-२० २१-२२ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र संख्या २-६ अंगादान २ ३ ४ ሃ ६ ७ ८ ६ १० ११ विषय हस्त कर्म के प्रायश्चित्तों का कालकृत विभाग मोहोदय होने पर प्राचार्य से निवेदन तथा आचार्य द्वारा मोहोपशमन की विधि का उपदेश निर्ग्रन्थियों के लिए विशेष प्रायश्चित्त का निरूपण कारित एवं अनुमोदित हस्तकमं के विभिन्न प्रायश्चित्त कारित एवं अनुमोदित का स्वरूप निर्ग्रन्थियों के लिए विशेष प्रायश्चित्त का निरूप १२ [ २ ] काष्ठ आदि से अंगादान के संचालन का निषेध एवं तत्सम्बन्धी प्रायश्चित अंगदान के मदन का निषेध एवं तत्सम्बन्धी प्रायश्चित तेल आदि से अंगादान के अभ्यंग का निषेध तथा तत्सम्बन्धी प्रायश्चित लोध आदि के कल्क से अंगादान के उबटन का निषेध एवं तद्विषयक प्रायश्चित्त शीत अथवा उष्ण जल से अंगादान के धोने का निषेध एवं तद्विषयक प्रायश्चित्त गादान की त्वचा दूर करने का निषेध तथा तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त गादान के घने का निषेध उपर्युक्त सात सूत्रों के सात हान्त अंगादान सम्बन्धी अपदाद संचालन-विषयक सूत्र को छोड़कर शेष छः सूत्रों द्वारानिर्ग्रन्थों के समान निग्रन्थियों का वर्णन शुक्ररात का निषेध तथा तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त एवं प्रपवाद निर्ग्रन्थों के समान निग्रन्थियों का वर्णन गाथाङ्क ५७८-१८५ ५८६ ५८७ ५६८ ५८६ ५६०-५६१ ५६२-६१३ ५६२-५६६ ५६७-५६८ ५६६ सचित्त पुष्प आदि की गन्ध सूंघने का निषेध गंध सूंघने से लगने वाले दोष, तत्सम्बन्धी विराधना, अपवाद एवं विधि ६१४-६१० सोपान आदि का निर्माण करवाने का निषेव सोपान आदि के निर्माण से लगने वाले दोष, तत्सम्बन्धी अपवाद एवं क्रम ६१६-६२६ सेतु पुल का निर्माण करवाने का निषेध सेतु का निर्माण करवाने से लगने वाले दोष एवं तद्विषयक अपवाद ६०० ६०१-६१२ ६१३ ६३०-६३८ पृष्ठाङ्क २२-२४ २४ २५ 19 93 २५-२६ २६-३२ २६-२७ २७ 39 19 " २८ "" "" २६ :) २६-३१ ३२ ३२ ✓ m ३२-३३ ३३ ३३-३५ ३६ ३६-३७ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र संख्या १३ ૪ विषय छींके के निर्माण का निषेत्र छीके के निर्माण के अपवाद १५-३८ सूई, करनी (केंवी) नखछेदक एवं कर्णशोधक १५-१८ सूई, कतरनो, नखछेदक एवं कर्णशोधक के सुधरवाने का निषेध एवं तद्विषयक अनवाद १६- २२ बिना प्रयोजन सूई आदि की याचना करने का निषेध एवं तद्विषयक दोष २३-२६ सूई आदि की प्रविधि से याचना करने का निषेध ४० ३९-४६ पात्र, दण्ड प्रदि ३६ ४१ रज्जु, चिलमिली आदि के निर्माण का निषेव एतद्विषयक प्रावाद ४२ ४३ [ ३ ] २७-३० सूई ग्रादि जिस प्रयोजन से लाई जाए उसके अतिरिक्त अन्य प्रयोजन सिद्ध करने का निषेध ६७१-६७२ ३१-३४ सूई प्रादि केवल अपने कार्य के लिए लाने पर अन्य को देने का निषेध ६७३-६७४ ६७५-६८१ ३५-३८ सूई प्रादि के अविधिपूर्वक लौटाने का निषेध सूई आदि के लौटाने की विधि ६८२-६८४ पात्र सुधरवाने का निषेध पात्र के भेद व पात्र सम्बन्धी प्रपवाद दंड प्रादि सुधरवाने का निषेध दंड के द दंड का परिमार दंड रखने का प्रयोजन दंड आदि सुधरवाने के अपवाद पात्र के गली लगाने का निषेध पात्र के थेगली लगाने के अपवाद पात्र के तीन से अधिक थेगलियां लगाने का निषेध एवं तत्सम्बन्धी अपवाद पात्र को प्रविधि मे बांधने का निषेध बंधन के प्रकार तथा बंधन की विधि बिना प्रयोजन विधिपूर्वक बांधने का भी निषेध पात्र बांधने के अपवाद गाथाङ्क ६३१-६५० ६५१-६६१ ६६२-६८४ ६६२-६६७ ६६६-६७० ६८५-७५८ ६६५-६६८ ६८-६६८ ६६६ ७००-७०२ ७०३ ७०४-७२५ ७२६-७३१ ७३२-७३६ ७३७-७३६ vrs ७४१-७४२ पृष्ठाङ्क ३७ ३८-३६ ३६ ४०-४१ ४१-४६ ४१-४२ ४२-४३ ४३ ४३-४४ ४' ४४-४५ ૪૬ ४६-५६ ४६-४७ ४७-४८ ४८ ४६ 39. 99 ४६-११ ५१ ५१-५२ ५२-५३ ५३ " ५४ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र संख्या rr સ્ विषय पात्र को एक बंधन से बांधने का निषेध पात्र को तीन से अधिक बंधनों से बांधने का निषेध एवं तत्सम्बन्धी प्राश्चित व अपवाद ४६ नियत काल के बाद अधिक बंधन वाला पात्र रखने का निषेध बन्धन वाला पात्र रखने में लगने वाले दोष ४७-५६ वस्त्र ४७ ४८ ४६ ५० ५१ [ ४ ] ५.६ वस्त्र के गली देने का निषेध वस्त्र के प्रकार वस्त्रों के परिभोग की विधि तथा तद्विषयक गुण बहु परिकर्मयुक्त वस्त्र ग्रहण करने का निषेध एवं तत्सम्बन्धी अपवाद वस्त्र के तोन से अधिक थेगलियां लगाने का निषेध तथा तत्सम्बन्धी अपवाद वस्त्र को अविधि से सीने का निषेध तथा तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त सिलाई के भेद वस्त्र के गांठ लगाने का निषेध, तत्सम्बन्धी अपवाद एवं प्रायश्चि वस्त्र के तीन से अधिक गांठें लगाने का निषेध ५२ फटे हुए वस्त्र के गांठ लगाने का निषेध ५३ फटे हुए वस्त्र के तीन से अधिक गांठें लगाने का निषेध ५४ अविधि से गांठ लगाने का निषेध ५५ असदृश वस्त्र को थेगली लगाने का निषेध, तत्सम्बन्धी प्रपवाद एवं प्रायश्चिन ५७ घर की भित्ति पर लगे हुए घूम को लेने का निषेध एतत्सम्बन्धी अपवाद एवं प्रायश्चित्त ५८ सदोष आहार ग्रहण करने का निषेध एतत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त एवं अपवाद गाथाङ्क ७४३-७४४ प्रमाण से अधिक वस्त्र नियत काल से अधिक समय तक रखने का निषेध, तत्सम्बन्धी अपवाद एवं प्रायश्चित ७४५-७४६ ७५०. ७५१--७५८ ७५६-७६७ ७५-७६३ ७६४-७६६ ७६७--७७५ ७७६-७८० ७८१७८३ ७८४७८६ 959-98? ७६२७६७ ७६८- ८०३ ८०४ -८१५ पृष्ठाङ्ग ५.४ ५. ५. ५५-५६ ५६ -- ६२ ५६ ५६-५७ ५७-५८ ५८-५६ ५६--६० m ६० 07 ६०.६१ ६१ " ६१--६२ ६२ ६२-६३ ६३ ६३-६६ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशक सूत्र संख्या विषय गाथाङ्क पृष्ठाङ्क प्रथम और द्वितीय उद्देशक का सम्बन्ध ८१६-८१८ १-८ पाद-प्रोञ्छनक (रजोहरग) ८१६-८५० ६७-७२ काष्ठ के दंड वाला पाद-प्रोञ्छनक बनाने का निषेध, तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त एवं अपवाद ८१६-८२७ ६७-६६ काष्ठ के दण्ड वाला पाद-प्रोञ्छनक रखने से लगने वाले दोष ८२८६६ काष्ठ के दण्ड वाला पाद-प्रोञ्छनक रखने के कारण વરદ ૭૦ दण्ड और दसा का परिमाण काष्ठ के दण्ड वाला पाद-प्रोञ्छनक रखने के प्रावाद ८३१-८३४ काष्ठ के दण्ड वाला पाद-प्रोञ्छनक ग्रहण करने का निषेध काष्ठ के दण्ड वाला पाद-प्रोञ्छनक लेकर रखने का निषेध काष्ठ के दण्ड वाला पाद-प्रोञ्छनक रखने की आज्ञा देने का निषेध काष्ठ के दण्ड वाला पाद-प्रोञ्छनक देने का निषेध काष्ठ के दण्ड वाले पाद-प्रोञ्छनक के परिभोग का निषेध ५३५-८३७ नियत काल से अधिक काष्ठ के दण्ड वाला पाद-प्रोञ्छनक रखने का निषेध, एतत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त एवं अपवाद ७३८--८४४ ७१-७२ काष्ठ के दण्ड वाले पाद-प्रोञ्छनक को धोने का निषेध, तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त एवं अपवाद ८४५-८५० ७२--७३ गन्ध चन्दन प्रादि की गन्ध सूंघने का निषेध, तत्सम्बन्धी अपवाद एवं प्रायश्चित्त ८५१ सोपान सोपान आदि का स्वयं निमांग करने का निषेध, तत्सम्बन्धी अपवाद एवं प्रायश्चित्त सेतु सेतु का निर्माण करने का निषेध. तत्सम्बन्धी अपवाद एवं प्रायश्चित्त छींका छींका आदि के निर्माण का निषेध, तत्सम्बन्धी प्रावाद एवं प्रायश्चित्त १३ रज्जु रज्जू प्रादि का निर्माण करने का निषेध, तत्सम्बन्धी अपवाद एवं प्रायचित्त १४. १७ सूई आदि के सुधारने ( संवारने ) का निषेध १८-१९ भाषा ८५२-८८५ ७४-८१ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र संख्या विषय गाथाङ्क पृष्ठाङ्क १८ कठोर भाषा बोलने का निषेध तत्सम्बन्धी अपवाद एवं प्रायश्चित २२२-८७४ ७४-७६ मृषावाद बोलने का निषेध,तद्विषयक भपवाद एवं प्रायश्चित्त ८७५-१८५ ७६-१ २० अदत्तादान ८५६--८६४ ८१-८३ प्रदत्तादान का निषेध, तद्विषयक अपवाद तथा प्रायश्चित्त २१ हस्त-पाद-प्रक्षालन ८९५.-९१२ ८३.-८६ हाथ-पर प्रादि धोने का निर्देध, तत्सम्बन्धी पावाद तथा प्रायश्चित २२ चर्म ६६-६३ चर्म रखने का निषेध, तत्सम्बन्धी अपवाद एव प्रायचित्त २३-२४ वस्त्र ६४८-६७४ ६३-१८ २३ प्रमाग से अधिक वस्त्र रखने का निषेध, वस्त्रों के प्रकार, अधिक मूल्य के वस्त्र रखने का निषेध, प्रमाण से अधिक तथा बहुमूल्य वस्त्र-ग्रहग-सम्बन्वी अपवाद एवं प्रायश्चित्त ६३.१७ अखण्ड वस्त्र लेने का निषेध १८ २५-३१ पात्र, दण्ड आदि ६७५-६६८ २५ पात्र सुधारने का निषेध, तत्सम्बन्धी अपवाद एवं प्रायश्चित २६ दण्ड प्रादि सुधारने का निषेष, तत्सम्बन्धी अपवाद एवं प्रायश्चित ६८--88 स्वजन के द्वारा मवेषित पात्र ग्रहण करने का निषेधे, तत्सम्बन्धी अपवाद तथा प्रायश्चित्त ६७८-६८७ १६-१०० अन्य तीर्थी प्रादि पर के द्वारा गवेषित का पात्र लेने का निषेध, तत्सम्बन्धी अपवाद एवं प्रायश्चित्त १८८ ग्राम महतर प्रादि द्वारा गवेषित पात्र लेने का निषेध, तद्विषयक अपवाद तथा प्रायश्चिन बलवान दारा गोषित पात्र ग्रहण करने का निषेध. तद्विषयक अपवाद एवं प्रायश्चित्त ९९१-९६२ ३१ दान का फल बताकर पात्र लेने का निषेध, तत्सम्बन्धी अपवाद एवं प्रायश्चित्त ६६३-६६८ १०१-१०२ ३२-३६ पाहार ९९-१००६ १०३--१०५ ३२ नियपिण्ड और अमपिण्ड ग्रहण करने का निषेध नित्य पिण्ड के भेद निमन्त्रण आदि की व्याख्या १०००-१००२ २८ १०३ REE Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाङ्क २००३-१००४ १००५.-१००६ पृष्ठाङ्क १०३-१०४ १०४ १००७ १०४-१०५ १०५--१०८ १०५ सूत्र संख्या विषय नित्यपिण्ड संवन्धी प्रायश्चित्त नित्यपिण्ड ग्रहण करने से लगने वाले दोष नित्यपिण्ड सम्बन्धी अपवाद ३३--३६ नित्य पिण्ड का उपभोग करने का निषेध, तद्विषयक अपवाद एवं प्रायश्चित्त वास चार प्रकार के नित्य द्रव्यादि की चतुर्भङ्गी द्रव्यादि चार प्रकार के निलों की विशेष व्याख्या नित्यवास के प्रायश्चित्त नित्यवास के अपवाद ३८ दान-संस्तव दान के पूर्व प्रथदा पश्चात् दाता के संस्तव का निषेध संस्तव के भेद स्वजन-संस्तव के दोष १००८--१००६ १०१०-१०२४ १.१० १०११-१०१२ १०१३-१०१८ १०१६-१०२० १०२१--१०२४ १०२५--१०५३ १०६--१०७ १०७ ५०८-११३ १०८ १०८--१११ १११-११२ १०२५-१०४० १०४१-१०४५ १०४६-१०४७ वचन-संस्तव १०४८-१०४६ १०५० १०५१ १०५२ ३ १०५३ ३६ १०५४ १०७६ ११३-११७ पश्चात्-संस्तव संस्तव का प्रायश्चित संस्तव सम्बन्धी अपवाद वचन और स्वजन-संस्तव की पूर्वापरता निर्ग्रन्थों के समान निन्थियों का वर्णन आहार भिक्षाकान के पूर्व अथवा पश्चात् स्वजनों के यहां भिक्षार्थ जाने का निषेध एवं तद्विषयक दोष मिक्षार्थ जाने के कारण प्रबलतम कारण के सात भेद कारणवशात भिक्षा के लिए जाने वाला पाराधक मातृकुल और पितृकुल की व्याख्या अकाल-प्रवेश के दोष १०५४-१०६० १०६१-१०६३ १०६४-१०६६ १०६७-१०६८ १०६६-१०७२ १०७३-१०७७ ११३-११४ ११४-११५ ११५ ११५-११६ ११६ ११६-११७ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुत्र संख्या विषय गाथाङ्क पृष्ठाडू अकाल प्रवेश के अपवाद १०७८ ११७ अकाल में भिक्षार्थ प्रवेश की विधि १०७६ ४०.४२ अन्यतीर्थी प्रादि के माध भिक्षा ग्रादिके लिए गमन १०८० -११०३ ११८-१२२ ४० अन्यतीर्थी आदि के साथ भिक्षा के लिए जाने का निषेध, तत्सम्बन्धी दोष तथा प्राद १०८०-१०८६ ११८-१२० ४१ अन्यतीर्थी आदि के साथ शौच या स्वाध्याय के लिए जाने का निपेष, तत्सम्बन्धी दोष एवं अपवाद १०६०-१०६५ १२०-१२१ ४२ अन्य तीर्थी अथवा गृहस्थ के साथ विहार करने का निषध, तत्पबन्धो दोष, अपवाद. विधि एवं प्रायश्चित १०६६-११०३ "२१-१२२ ४३ पानक ११०४.-११११ १२२.-१२४ कमले पानी को परठने फेंकने का निरोध, तत्सम्बन्धी दोप तथा अपवाद ११०४-१११० प्रपेय की व्यारा ४४--४५ आहार १११२-११३७ १२५-१३० ४४ अनेक प्रकार के भोजन में से अच्छा- अच्छा खाकर खराब-खराब फेंक देने का निषेध, तत्सम्बन्धी दोप, अावाद ग्रादि १११२-११२१ १२५-१२६ ४५ अधिक आहार में से बचे हुए आहार को बिना अनुज्ञा के फेंकने पर लगने वाले दोप, पियक अपवाद ग्रादि ११२२-११३७ ।। १२६-१३० ४६-४६ सागारिक पिण्डादि ११३८-१२१६ १३०-१४८ ४६-४७ मागारिक पिण्ड का उपभोग करने एवं ग्रहण करने का निव मागारिक की व्याख्या ११३८-११४० १३०-१३१ शय्यातर प्रादि की व्यारूका ११४१-११५० १३१-१३३ पिण्ड के प्रकार, तत्सम्बन्धी दोप, अपवाद, विधि प्रादि ११५१-१२३४ १३१-१४६ ४८ सागारिक के कुल को विना जाने पूछे ग्राहारार्थ प्रवेश करने का निषेध, तत्सम्बन्धी दोष एवं अपवाद १२०५-१२०६ ४६ मागारिक की निश्राय में आहार ग्रहण करने का निषेध १.१०.१२१६ १४७- १४८ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथाङ्क पृष्ठाङ्क १२१७-१३८६ १४६-१८७ १२१७-१२४३ १४६-१५४ १२४४-१२८० १५४-१६३ १२८१-१२८६ १६३-१६४ १२८७-१२६६. १६४-१६७ सूत्र संख्या विषय ५०-५८ शय्या-संस्तारक पयुषणतक के लिए लाये हुए शय्या-संस्तारक को अतिरिक्त काल तक रखने का निषेध संवत्सरी के बाद दस रात्रि से अधिक समय तक शय्यासंस्तारक रखने का निषेध वर्षा में भीगते हुए शय्या-संस्तारक को उठा कर एक ओर न रखने से लगने वाले दोष बिना सागारिक को अनुमति के प्रत्यर्पणीय शय्या-संस्तारक एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने का निषेध ५४-५५ सागारिक के शया-संस्तारक को बिना अनुज्ञा के एक स्थान से दूसरे स्थान में बाहर ले जाने का निषेध प्रत्यर्पणीय शय्या-संस्तारक को बिनो वापिस सौंपे विहार करने का निषेध बिछाये हुए शय्या-संस्तारक को बिना समेटे विहार करने का निषेध ५८ खोए गए शय्या-संस्तारक के न ढूढने पर लगने वाले दोष बिना प्रतिलेखन उपधि रखने का निषेध उपधि-उपकरण के प्रकार जिनकल्पिक उपधि स्थविरकल्पिक उपाध उपधि की प्रतिलेखना एवं तत्सम्बन्धी दोष १६७ ५६ १३००-१३०६ १६७-१६६ १३१०-१३१३ १३१४-१३८६ ।। ५९ १३८७-१३८६ १३६०-१३६४ १३६५-१४१६ १४१७-१४३११ १६६-१७० १७०-१८७ १८७ १८८ १८८-१८६ १८६ १६३ १९३-१६७ १४३८ १६६ १-१५ १९९-२०६ तृतीय उद्देशक द्वितीय तथा तृतीय उद्देशक का सम्बन्ध आगंतागार, पारामागार, गृहपतिकुल प्रादि से सम्बन्धित ग्राहार १४३६-१४८१ प्रागंतागार (मुसाफिर खाना ) आदि में जोर-जे. से चिल्लाकर आहार मांगने का निषेध, तत्सम्बन्धी दोष, अपवाद प्रादि १४३६.१४४८ पागंतागार प्रादि में कौतुक के निमित्त आने वाले से पाहार पांगने का निषेध, तत्सम्बन्धी दोप, अपवाद एवं प्रायश्चित्त १४४६-१४५७ १९६-२०१ २०१-२०३ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय आगंतागार आदि में सन्मुख लाकर दिये जाने वाले श्राहारके ग्रहरण का निषेध श्रादि गृहपति के मना करने पर ब्राहारादि के निमित्त प्रवेश करने का निषेध १४ भोज के स्थान पर जाकर श्राहारादि ग्रहण करने का निषेध त्रिगृहान्तर से लाकर दिये जाने वाले आहार के ग्रहण का निषेध १५ १६- २१ पाद का प्रमार्जन आदि १६ पाद के ग्रामज्जन प्रमार्जन का निषेध १७ पाद के परिमदन का निषेध १८ १६ पाद के अभ्यंग का निषेध पाद के उबटन का निषेध पाद के प्रक्षालन का निषेध २० २१ पाद को रंगने का निषेध २२- २७ काय का प्रमार्जन आदि २८-३३ काय के व्रण का प्रमार्जन आदि ३४-३६ गांठ-बड़े यादि का उपचार ४० गुदा आदि की कृमियों को अंगुली से निकालने का निषेध ४१-४६ लम्बे बढ़े हुए नख, बाल आदि का छेदन करने का निषेध ४७-६६ दांत, श्रोष्ठ आदि के प्रमार्जन, परिमर्दन श्रादि का निषेध १५१४-१५२० ६७-६८ काय को विशुद्ध करने का निषेध १५२१-१५२३ ६६ सूत्र संख्या ६-१२ १३ 1 १० 1 ग्रामानुग्राम विचरण करते हुए वस्त्रादि से सिर ढकने का निषेध ७० वशीकरण-सूत्र ( ताबीज ) बनाने का निषेध ७१-८० घर में, घर के द्वार पर, घर के प्रांगन में, श्मशान में, कीचड़ आदि के स्थान में उच्चार प्रश्रवण (टट्टीपेशाब) डालने का निषेध, तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त, अपवाद आदि गाथाङ्क १४५८-१४६४ १४६५-१४७० १४७१-१४८२ १४५३ - १४६० १४६१-१४६६ १४६१-१४६४ १४६५ - १४६६ १५०० १५०१-१५०४ १५०५ - ५५०६ १५१०-१५१३ १५२४-१५२८ १५२६-१५३२ १५३३ - १५५४ पृष्ठाङ्क २०३-२०५ २०५ - २०६ २०६ २०६ २०६-२१० २१०-२१३ २१०-२११ २११ 19 " २११-२१२ २१२-२१३ २१३ २१३-२१५ २१५-२१७ २१७ २१७-२१८ २१८-२२१ २२१-२२२ २२२-२२३ २२३-२२४ २२४-२२६ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्क २३१ २३१-२३३ २३३-२३६ २३६-२३८ २३८-२४३ २४३-२५३ २४३-२४४ २४४ २४५ २४५-२५१ २५१-२५३ । ११ ] चतुर्थ उद्देशक मूत्र संख्या विषय गाथाङ्क तृतीय और चतुर्ध उद्देशक का सम्बन्ध १५५५ १ राजा को वश में करने का निषेध १५५६-१५६७ २-१८ राजरक्षक, नयररक्षक इत्यादि को वश में करने आदि का निषेध १५६८-१५८२ १६ कृत्स्न-प्रखण्ड औषधि के उपभोग का निषेध १५८३-१५६१ - २०-२१ प्राचार्य एवं उपाध्याय को बिना दिए आहार का उपभोग करने का निषेध १५६२-१६१६ - २२ स्थापना-कुल में बिना जाने-बूझे प्रवेश करने का निषेध १६१७-१६६५ ।। स्थापना-कुल के भेद १६१७-१६२२ स्थापना कुल सम्बन्धी दोप १६२३-१६२४ तत्सम्बन्धी प्रायश्चित १६२५ स्थाना-कुल में प्रवेश न करने वाले क गुण गच्छवासियों की समाचारी १६२७-१६५२ स्थापना-कुलों में भोजनादि ग्रहण करने वालों को ममाचारी १६५३ १६६५ साधु द्वारा साध्वी के उपाश्रय में प्रविधिपर्वक प्रवेश करने का निषेध १६६६-१७४५ 'साधु-साध्वियों की समाचारी १७४६-१७८४ २४. साध्वी के ग्रागमन-पथ में दड आदि रखने का निषेध २७८५-१७६६ २५-२६ क्लेश का निषेध १७६७-१८२२ २५ नये क्लेश की उत्पत्ति का निषेध १७६७-१८१७ २६ . . पुराने क्लेश को पुनरुत्पत्ति का निधि १८१८-१८२२ २७ मुह फाड़ फाड़ कर हँसने का निषेध १८२३-१८२७ २८-३० पावस्थ आदि शिथिलाचारियों के साथ सम्बन्धस्थापन का निषेध १८२८-१८५७ 1८-३६ मस्निग्ध हस्त प्रादि से पाहार ग्रहण करने का निषेध १८४८-१८५३ ४०-४८ ग्राम-रक्षक प्रादि को प्रशंसा-पूजा करने का निषेध १८५४ ४६-१०१ परस्पर पाद, काय. दत, प्रोट इत्यादि के प्रमाजन, परिमर्दन ग्रादि का पूर्ववत् निषेध १८५५ १०२-१२२ उचार-प्रवण भूमि के अप्रतिलेखन से लगने वाले दोष १८५६-१८९३ १०४.१११ उबार प्रश्रवण सम्बन्धी अन्य दोप एवं प्रायश्चित्त १८६४-१८८२ ११२ अपारिहारिक द्वारा पारिहारिक के साथ अाहारादि का उपभोग करने का निषेध, तत्सम्बन्धी दोप. प्रायश्चित एवं अपवाद १८८३.१८६४ २५४-२६६ २७०-२७७ २७७-२७६ २७६-२८५ २७९-२८४ २८४-२८५ २८५-२८६ २८६-२६० २६०-२६१ २६१-२६२ २६२-२६७ २६७-२६८ २६८-३०३ ६०३.३०५ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र संख्या १-१० ११ विषय चतुर्थ और पंचम उद्दे शक का सम्बन्ध सचित्तं वृक्ष के मूलपर खड़े होकर स्वाध्याय आदि करने का निषेध आलोचना, अपनी संघाटी अन्यतीर्थिक आदि से सिलवाने का निषेध [१२] पंचम उह शक १९ संघाटी के दीर्घसूत्र करने का निषेध १३-१४ लिम्ब, पलाश इत्यादि के पत्तों पर रख कर आहार करने का निषेध ६३ १५ - २३ प्रातिहार्य - लौटाने योग्य पाद- प्रोञ्छन इत्यादि निश्चित अवधि से अधिक समय तक रखने का निषेध २४ सन, ऊन, कपास आदि का दीर्घ सूत्र बनाने का निषेध २५- ३३ सचित्त, चित्र एवं विचित्र दारु-दण्ड इत्यादि के निर्माण, ग्रहण एवं परिभोग का निषेध ३४-३५ नवस्थापित निवेश, ग्राम, सन्निवेश आदि में प्रवेश कर आहारादि ग्रहण करने का निषेध ३६-५६ मुख, दंत, प्रोष्ठ, नासिका इत्यादि को वीणा के समान बनाने एवं बजाने का निषेध ६०-६२ औ शिक, सप्राभृतिक एवं सपरिकर्म शय्या के परिभोग का निषेध संभोगी के साथ संभोग का निषेध – संभोगी एवं संभोगी की सोदाहरण विस्तृत व्याख्या ६४-६६ रखने योग्य अलाबु पात्र, दारु-पात्र, मृत्तिका पात्र, वस्त्र, कम्बल, दण्ड आदि को तोड़-फोड़ कर फेंक देने का निषेध प्रमाणातिरिक्त रजोहरण रखने का निषेध सूक्ष्म रजोहरण - शीर्षक बनाने का निषेध रजोहरण को अविधि से बाँधने का निषेध ६७ ६८ ६६ - ७२ १३-७७ रजोहरण को प्रविधि से रखने का निषेध, तत्सम्बन्धी प्रायश्चित्त एवं अपवाद १८६५ गाथाक १८६६-१६२० १६२१-१६२६ १६३०-१९३४ १९३५-१६४३ १६४४-१६६४ १६६५-१६६५ १६६६-२००३ २००४-२०१२ २०१३-२०१६ २०१७-२०६८ २०६६-२१५८ २१५६-२१६४ २१६५-२१७२ २१७३-२०७४ २१७५-२१८० पृष्ठाङ्क ३०७ ३०७-३१२ ३१२-३१३ ३१४ ३१४-३१६ ३१६-३२० ३२०-३२६ ३२६-३२८ ३२८-३३० ३३०-३३१ ३३१-३४१ २४१-३६३ ३६३-३६५ ३६५-३६६ ३६६-३६७ ३६७-३६८ २१८१-२१६४ ३६८-३७० Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र संख्या १-७७ १ २-११ १-२२ १-३ ४-६ ७-६ [ १३ ] षष्ठ उद्ददेशक विषय पंचम और षष्ठ उद्ददेशक का सम्बन्ध स्त्री के साथ मैथुन सेवन की इच्छा मातृगाम के विविध प्रकार एतद्विषयक विविध प्रायश्चित्त मैथुनेच्छा से हस्तकर्म आदि करने का निषेध एतद्विपयक विवेचन १२ 'मैथुनेच्छा से कलह करने का निषेध मैथुनेच्छा से लेख लिखने का निषेध १३ १४- १८ मैथुनेच्छा से जननेन्द्रिय को पुष्ट करने का निषेध १६- २३ मैथुनेच्छा से चित्र-विचित्र वस्त्र धारण करने का निषेध २४ -७७ मैथुनेच्छा से अपने पाद, काय आदि के प्रमार्जन, परिमर्दन इत्यादि का निषेध सप्तम उद्ददेशक पत्र एवं सप्तम उद्ददेशक का सम्बन्ध स्त्री के साथ मैथुन सेवन की इच्छा मैथुनेच्छा से माला बनाने, धारण करने आदि का निषेध मैथुनेच्छा से लोहे इत्यादि का संचय करने का निषेध मैथुनेच्छा से हार, अर्धहार, एकावली, मुक्तावली इत्यादि के निर्माण, धारण आदि का निषेध १०-१२ मधुनेच्छा से अजिन, कंबल इत्यादि के निर्माण, धारण आदि का निषेध १३ मैथुनेच्छा से प्रांख, जंघा इत्यादि के संचालन का निषेध १४-६६ मंधुनेच्छा से परस्पर पाद आदि के प्रमार्जन, परिमर्दन, उबटन, प्रक्षालन इत्यादि का निषेध ९७-७८ मैथुनच्छा से सचित्त पृथ्वी आदि पर बैठने, सोने इत्यादि का निषेध गाथाङ्क २१६५ २१६६-२२८६ २१६६-२२०१ २२०२-२२४८ २२४६-२२५६ २२५७-२२६० २२६१-२२६८ २२६६-२२७७ २२७८-२२८० २२८१-२२८६ २२८७ २२८८-२३४० २२८८-२२६१ २२६२-२२६४ २२६५-२२६७ '२२६८-२३०० २३०१-२३०२ २३०३-२३०७ २३०८-२३१३ ७६८१ मैथुनेच्छा से एक दूसरे की चिकित्सा याद करने का निषेध २३१४-२३२० SAM २- मधुनेच्छा से पशु-पक्षी के अंगोपांगों के स्पर्शन आदि का निषेध २३२१-२३२८ थुनेच्छा से श्राहारादि देने, वाचना प्रदान करने इत्यादि निषेध, तद्विषयक प्रायश्चित्त आदि २३२६-२३४० पृष्ठाङ्क ३७१ ३७१-३६४ ३७१-३७२ ३७२-३८१ ३८२-३८३ ३८३-३८४ ३८४ ३८५-३८६ ३८६-३८७ ३८८ ३८८-३६४ / ३६५ ३६५-४१३ ३६५-३६६ ३६७ ३६७-३६८ ३६८४०० ४०० ४००-४०६ ४०६-४०६ ४०६-४१० ४१०-४११ ४११-४१३ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठाङ्क ४१५ ४१५-४४१ अष्टम उद्देशक सूत्र संख्या विषय गाथाङ्क सप्तम एवं अएम उद्देशक का सम्बन्ध २३४१ १-११ स्त्रो के साथ विहार, स्वाध्याप ग्रादि करनेका निषेध २३४२-२४६६ प्रागंतागार, पारामागार आदि स्थानों में अकेली स्त्री के साथ विहार, स्वाध्याय, आहार, उच्चार-प्रश्रवण एवं कथा करने का निषेध २३४२.२४९५ २-१० उद्यान, उद्यानगृह, उद्यानशाला ग्रादि में अकेली स्त्री के साथ स्वाध्याय यावत् कथा करने का निषेध २४२६--२४३५ स्वगच्छ अथता परगच्छ की साध्वी के साथ विहारादि करने का निषेध २४३६-२४६६ १२-१३ स्वजन अथवा परजन के साथ उपाश्रय में रात्रि के समय शयन करने का प्रथवा बाहर ग्राने-जाने का निषेत्र २४६७-२४७७ - १४-१८ राजा के यहां से ग्राहारादि ग्रहण करने का निषेध २४७८ २४६५ ४१५ ४३१ ४३१-४३५ ४३५.४४१ ४४१-४४३ ४४३-४४७ नवम उद्देशक २४६६ २४६७-२५१२ २५१३-२५२५ ४४६ ४४४-४५१ ४५२-४५४ अटम एवं नवम उईगक का सम्बन्ध १.२ राजपिण्ड के ग्रहण एवं उपभोग का निषेध ३-५ राजा के अन्तःपुर में प्रविष्ट होने का निषेध राजा के यहां बने हुए भोजन में से द्वारपाल इत्यादि के भाग को ग्रहण करने का निपेध ७-२८ राज्याभिषिक्त राजा को देखने प्रादि का निषेध २५२६-२५३२ २५३३.२६०५ ४५४-४५५ ४५५-४७० अशुद्धि-शोधनप्रस्तुत भाग के पृष्ठ ३६१ पर सूत्र दशवाँ मुद्रण में छूट गया है, वह इस प्रकार है :जे भिक्ख सचित्त-रुक्ख-मूलंसि ठिच्चा सज्झायं १डिच्छह, पडिच्छंतं वा सातिजति ।। मू० १० ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अर्हम्) निशीथ-सूत्रम् [ भाष्य सहितम् ] आचार्यप्रवरश्रीजिनदास गहन र विरचितया विशेष समलंकृतम् द्वितीयो विभाग: उद्देशकाः १-६ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ण हु होति सोयितव्यो, जो कालगतो दढो चरित्नम्मि । सो होइ सोयितव्यो, जो संजम-दुबलो विहरे ।।१७१७।। लद्रूण माणुसत्तं, संजम-चरणं च दुल्लभं जीवा ।। आणाए पमाएना, दोग्गति-भय-बडगा होति ॥१७१८॥ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अहम् नमोऽत्यु णं समणस्म भगवो महावीरस्म भाचार्य प्रवर श्री विसाहगणी-विनिर्मितं, सभाष्यम् निशीध सूत्रम् माचार्य श्री जिनदासमहत्तर-विरचितया विशेष चूर्णा समलंकृतम् प्रथम उद्देशकः 'भणिो णामणिफण्णो णिक्खेयो - इदाणि मुत्तालावगणिफण्णो णिक्खेवो अवसरपत्तो वि सो ण णिक्खिप्पति । कम्हा ? लाघवत्थं । अस्थि इतो ततियं अणुप्रोगदारं अणुगमो त्ति । ताहि णिरिखते इह णिविखतं, इह णिक्खिप्त तहि मिक्खितं. तम्हा तहि चेव णिविश्वविस्मामि । तं च पत्तं तनियमाअोगदार अणुगमति । सो य अणुगमो दुवि हो – सुनाणुगमो गिज्जुत्तिनगुगमो य । सुनाणुगमे सुनं उच्चारेयव्वं अक्ख लियादि गुगोवेयं, गिज्जुत्ति अणुगमे तिविहो. तं जहा - शिकवे व-गिज्जुनी उवोग्घाय-गिजुती सुतफासिय मिज्जुत्ती स । जिवखेव-गिज्जुत्ती अदितो प्रारम्भ-जाव-मुनालावगगिफणो णिखेवो ए त्यंतरा जे च णामाति-णिक्खेवा कता ते सव्वे णिवखेव-णिऽजुतीए, जे य वक्खमागा। गता णिक्वेवणिज्जुत्ती। १पीठिकायामिति । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-१ इदाणि उवोग्यायणिज्जुत्तीसा जहा - सामाइयज्झयणे इमाहिं दोहिं गाहाहि अणुगता - गाहारो-उद्देसे १ गिद्देसे २ अ, निग्गमे ३ खेत ४ काल ५ पुरिसे य ६ । कारण ७ पच्चय ८ लक्खण ६, नये १० समोप्रारणा ११ ऽणुमए १२ ॥१॥ किं १३ कतिविहं १४ कस्स १५, कहिं १६ केसु १७ कहं १८ किच्चिरं १६ हवइ कालं । का २० संतर २१ मविरहियं २२, भवा २३ गरिस २४ फासण २५ निरुति २६ ।।२।। __यथासंभवमिहाप्यनुगन्त या। इदाणिं सुत्तफासिय-णिज्जुत्ती - मुत्तं फुसतीति सुत्तफासिया । सा पुण सुत्ते उच्चारिए भवति, अणुच्चारिए किं फुसइ, तम्हा सुत्ताणुगमो जो य सण्णासितो, सुत्तालावगो ठावितो, सुतफ सिया-णिज्जुत्ती य तिणि वि समग वुच्चंति ।। तत्थ सुत्ताण गमे सुत्तं उच्चारेयव्वं प्रखलिय अमिलिएत्यादि - संहिता य पदं चेव, पयत्थो पयविग्गहो । चालणा य पसिद्धी य, छव्विहं विद्धि लक्खणं ॥१॥ तत्थ सुत्ताणुगमे संहितासूत्रम् - जे भिक्खू हत्थकम्मं करेइ, करेंतं वा साइज्जइ ॥०॥१॥ इदाणि सुत्तालावगो भग्णति - "जे" त्ति पदं, "भिक्षु" पयं, "हत्य" पदं, “कम्म" ति पद, "करेति" पदं, "करेंत” पर्द, ''वा" इति पदं, "सातिज्जति" ति पदं । इदाणि पदत्थो भण्णति - जे ति य खलु णिसे, भिक्खू पुण भेदणे खुहस्स खलू । हत्थेण जं च करणं, कीरति तं हत्थकम्मं ति ॥४६७।। जे" इति निदेसे, "खलु' विसेसणे, किं विशिनष्टि ? भिक्षोर्नान्यस्य, "भिदि" विदारणे "क्षुध" इति कर्मण आख्यानं, ज्ञानावरणादिकर्म भिनत्ती ति भिक्षुः, भावभिक्षोविशेषणे पुनः शब्दः, "हत्थें' त्ति हन्यतेऽनेनेत्ति हस्तः, हसति वा मुखमावृत्ये ति हस्तः, आदाननिक्षेपादिसमर्थो शरीरकदेशो हस्तोऽतस्तेन यत् करणं व्यापारेत्यर्थः, स च व्यापारः क्रिया भवति, अत: सा हस्तक्रिया क्रियमाणा कर्म भवतीत्यर्थः । 'साइज्जति” साइज्जणा दुविहा-कारावणे अणुमोदणे एस पयत्यो गयो। इदाणि सुत्तफासिया-णिज्जुत्ती अत्थं वित्थारेति - णामं ठवणा भिक्खू, दव्य-भिक्खू य भाव-भिक्खू य। दव्यं सरीरभविओ, भावेण तु संजो भिक्खू ॥४६८॥ नाम-स्थापने पूर्ववत् । दब्व-भिक्खू दुविहो-पागमो णो प्रागमो य । मागमतो भिक्खुशब्दार्थज्ञो । तत्रचानुपयुक्तः अनुपयोगो द्रव्यमिति कृत्वा । गोग्रागमतो अस्य व्याख्या - दञ्चपच्छद्धं । “दव्व" मिति णोप्रागमतो द्रव्य-भिक्षुः प्रतिपाद्यते - सरीरग्रहणात् ज्ञशरीर-द्रव्यभिक्षु भव्यशरीर-द्रव्यभिक्षुश्च भविउ त्ति ज्ञशरीर-भव्यशरीर-व्यतिरिक्तः एगभविप्रो Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा ४६७-५००. प्रथम उद्देशक: बद्धाउनो अभिमुहणामगोप्रो य । एगगविप्रो जो अणंतरं उध्वट्टित्ता वितिए भवे भिक्खू होहिति । बद्धाउरो जत्य भिवखुभावं वेदिस्सति तत्थ जेस पाउणामगोयाति कम्माति बद्धाति । अभिमुह-शाम-गोमो पव्वजाभिमुहो संपट्टितो। ग्रहवा – ज्ञशरीर-भत्र्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यभिक्षुः शाक्य-तापस-परिव्राजकादि । च शब्दो - समुच्चये । इदाणि भावभिक्खू 'भावेण तु" भावगहणा भाषभिक्षुः, तु शब्दो भेद दर्शने, को भेद ? इमो - आगमतो णोप्रागमतो प्र। आगमनो जाणए उवउत्ते भावभिक्खू भवति । गोमागमतो संजतो, सं एगीभावेण जातो संपतः मूलुत्त रगुणेष्वित्यर्थः । इह भावभिक्खुणा अधिकारः ॥४६८।। इदाणि हत्थो भण्णति - णामं ठवणा हत्थो, दचहत्थो य भावहत्थो य । मूलुत्तरो य दव्वे, भावम्मि य कम्मसंजुत्तो ॥४६६।। णाम-स्थापने पूर्ववत् । द्रव्यहस्तो तृतीयपादेन व्याख्यायते, स च पाद एवमवतीयते प्रागमतो णोग्रागमतो य। आगमतो जाणए अणुवउत्ती, णोप्रागमतो हत्यस हजाणगस्त शरीरगं, तं हस्त शब्दं प्रति द्रव्यं भवति, भूतभावत्वात् । भव्यशरीरं हत्थसहं अहुगा ण ताव जाणति किंतु जागिस्सति, तदपि हस्तशब्दं प्रतिद्रव्यं भवति, भाविभावत्वात् । ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तो द्रव्यहस्तः मूलगुगनिव्वत्तितो उत्तरगुणनिवत्तियो य । मूलगुणनियत्तिमो मृताख्ये शरीरे, जो पुण कटुलेप्पचित्त कम्मादिसु सो उत्तरगुणनिव्वत्तितो; द्रव्यमिति गतार्थ एव, च शब्दो समुच्चते । इदणि भावहत्थो - प्रागमतो जाणए उव उत्ते, णोआगमयो "भावम्मि य कम्मसंजुनो' प्रादाणनिक्षेपक्रियाकर्मणा च युक्तो भावहस्तो भवति, च शब्दाजीवप्रदेशाधिष्ठितश्च । भावहस्तेनाधिकारेत्यर्थः ।।४६६।। इदाणिं कम्म भण्णति - कम्मच उक्क दव्ये, संत उक्खेव तुन्नगादी वा। भावुदो अट्ठविहो, मोहुदएणं तु अधिकारो ॥५००॥ कम्मसद्दो चउब्विहो - णामादिशिक्खेवो । णाम-ढवणानो पूर्ववत् । सव्वं घोसेऊण ज्ञशरीरभव्यशरीर-व्यतिरिक्त । द्रव्यकम्म दुविहं - दवकामं नोदव्वकम्मं च । दबकम्मं णाम जे कम्मवग्गणाए णाणावरणादिजोग्गा पोग्गला कम्मत्तेण परियास्यन्ति ण ताद गच्छन्ति । अहवा – दव्वकम्म “संत'' त्ति संतमिति ज्ञानाबरणा दिवद्ध ण तात्र उदयमागच्छति तं संतं दनकम्म भण्णति । गोदबकम्मं ति उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुचन-प्रसारण गमनं, "तुणगादि" तुणामिति वच्छिदे पुण णवकरणं तुणणमिति भणति, ग्रादि सद्दातो कृभकार-रहकार-तंतुगार-लोहगारादि । गतं दव्वकम्म। इदाणि भावकम्म। तं दुविहं - ग्रागमतो णोपागमतो य । आगमतो उवउत्तो णोग्रागमतो अभावकम्मं “भावुदयो उ अविहो" - णाणावरणादित्राणं करमाणं जो ण णावरणादितेण भवुदो अनुभावेत्यर्थः, तं भावकम्म भण्णति । इह पुण कतमेण कम्मुदएण अधिकारो ? भण्णति - मोहस्सुदएण अधिकारः प्रयोजनमित्यर्थः ।।५००।। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे जं भावहत्येण कम्मं करेति तं भण्णति हत्यकम्मं । तण दुविहं हत्थकम्मं । जतो भणति - तं दुविहं गातव्वं, असंकिलिङ्कं च संकिलिङ्कं च । जं तं असंकिलिङ्कं तस्स विहाणा इमे होंति ॥ ५०१ ॥ 9 " तद्" इति हत्थकम्मं संबज्झति । "दुविह" मिति दुभेदं । "णायव्व" मिति बोधव्वं । के ते दो मैदा ? भण्णंति - संकिलिट्ठ असंकिलिट्ठ च । श्रदुष्टात्मचित्तस्य यत् कर्म तत् अकिलिट्ठ, तत्त्रति पक्षतो संकिलिट्टे । च शब्दी भेदप्रदर्शकौ । जं तं पुम्वाभिहियं असं किलिट्रं जगारुदिट्ठस्स तगारेण निद्देसो, विहाणाइति भेदा, "इमे" इति वक्ष्यमाणा भवन्ति ॥ ५० ॥ छेदणे भेदणे चेव, घणे पीसने तहा । श्रभिघाते सिणेहे य, काये खारो दियावरे || ५०२ ।। वक्ष्यमाणस्वरूप एषा गाहा । छेदणं भुसिरे ग्रज्भुसिरे वा करेति एवं भेदा दिएस वि । एक्के क्कं पुणो प्रणंतरे परंपरे य ॥५०२ ॥ एवं भेदेषु विवरितेष्विदं प्रायश्चित्तम् - सिर- भुसिंरे लहुओ, लहुया गुरुगो य हुंति गुरुगा य । संघट्टण परितावण, लहुगुरुगऽतिवातणे मूलं ॥५०३ ॥ सिरे प्रणंतरे लहुगो भुसिरे श्रणंतरे लहुगा, श्रज्भुसिरे य परंपरे गुरुगो, भुसिरे य परंपरे गुरुगा बहुतरदोषत्वात् गुरुतरं प्रायश्चित्तं परम्परे शस्त्रग्रहणाच्च संक्लिष्टतरं चित्तं श्रतो परंपरे गुरुतर प्रायश्चित्तं । एवं सुद्धपदे पच्छितं । श्रसुद्धपदे पुण इणमणं "संघट्टण" पच्छद्धं । बेदियाणं संघट्टे लहुगा, परितावेइ चउगुरु, ( ' उपद्रवयति षट्लघु । त्रीन्द्रीन् संघट्टयति चतुगुरु, परितापयति षट्लघु, प्रपद्रावयति षट्गुरु | चतुरिन्द्रियान् संघट्टयति षट्लघु, परितापयति षट्गुरु, श्रपद्रावयति छेदः । पंचेन्द्रियान संघट्टयति षट्गुरु, परितापयति छेदः) पंचेंद्रिय श्रइवाए इति मूलं, शेषं उपयुज्य वक्तव्यम् ||५०३।। इदमेवार्थ सिद्धसेनाचार्यो वक्तुकाम इदमाह - [ सूत्र- १ एक्क्क्कं तं दुविहं णंतर परंपरं च णात | डाय पुणो, होति अणट्ठाय मासलहू || ५०४ ॥ "एक्क्कमिति छेदादिया पदा संबज्भंति "तद्" इति छेयादि एवं संबज्झति । "दुविहं" दुभेयं अनंतरं-परंपरं च सद्दो समुच्चए, पुणो एक्केक्कं दुविहं "अट्टागट्टा" य । श्रर्थः प्रयोजनं श्रणट्टो निःप्रयोजनं श्रट्टाए छेदणादि करेंतस्स श्रसमायारिणिफणणं मासलहुं ॥ ५०४ ॥ १ कोकान्तगंत पाठः पूनासत्कप्रतो न विद्यते । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ भाष्यगाथा ५.१-५०८ प्रथम उद्देशकः अज्झसिराणंतरे लहु, गुरुगो तु परंपरे अमुसिरम्मि । झुसिराणंतर लहुगा गुरुगा य परंपरे अहवा ।।५०५॥ एतीए गाहाए पिट्टतो अहवा सद्दो पउत्त; अहवा सद्दातो एतेसु चेव छेदणादिसु अझसिर-मुसिरअणंतर-परंपरेसु प्रकारवाचकत्वात् । अहवा - शब्दस्य इमं पच्छित्तं अज्झुसिरे अणंतरे मासलहु, परंपरे मासगुरु अझुसिरे चेव । झुसिरे प्रणंतरे चउलहु, परंपरे चउगुरु मुसिरे चेव ॥५०५॥ कहं पुण छेदणं, अणदरे परंपरे वा संभवति ? णह-दंतादि अणंतरं, पिप्पलगादि परंपरे आणा । छप्पड़गादि संजमे, छेदे परितावणा ताए ।।५०६।।दा०गा०॥ गहेहिं दंतेहिं वा जं छिदति तं अणंतरे छेयो भण्णति, प्रादिग्गहणातो पायेण, परंपरे छेदे पिप्पलगेण, प्रादिग्गणातो 'पाइल्लग छुरिय-कुहाडादीहिं च । “प्राण' त्ति अणंतरपरंपरेण छिदमाणस्त तित्थगर-गणहराण आणाभंगो कतो भवति, प्राणाभंगे य चउगुरुगं, अणवत्थपसंगेण तं दट ठूण अण्णे वि करेंति छेदादी, तेत्य वि चउलहुगा मिच्छत्तं च जण पति । एते अच्छता छेदमादि सिट्टरेहिं अच्छंति, ण सज्झाते, एत्थ वि चउलहुआ (अ "इत्यपि" ) वत्थे छिज्जते छप्प इगादि छिज्जति । एस से संजमविराहणा। आदिसद्दातो अणंतरपरंपरछेदणादिकिरियामु छज्जीवणिकाया विराहिज्जति । तत्थ से छककायपच्छित्तं । अह छेदणादिकिरियं करेंतस्स हत्यपादादि छेज्जेन, ततो प्रायविराहणा, तत्थ से चउगुरु । अहवा "परितावणाए'' ति परितावमहादुक्खेत्यादि गिलाणारोवणा। ५०६॥ "छेयणे” त्ति गयं । इदाणिं भेयणादि पदा भणंति - एमेव सेसएसु वि, कर-पातादी अणंतरे होति । जंतु परंपरकरणं, तस्स विहाणा इमे होति ||५०७॥ "एमेव" जहा छेयणपदे, “सेसएसु" ति भेषणादिपदेसु तेसु अणंतरं दरिसावयंति, 'करपाया" पसिद्धा, प्रादिसद्दातो जाणुकोप्परजंघोरु घेप्पति । एवं जहा संभवं भेदणादिपएसु अणंतरकरणं जोएयव्वं । "जं तु परंपर करणं" ति जं पुण भयणादिपदेसु परंपरकरणं तस्स विहाणा भेदा इसे भवन्तीत्यर्थः ।।५०७।. कोणयमादी भेदो, घसण मणिमादियाण कट्ठादि । ' पट्टे वरादिपीसण, गोफणधणुमादि अभिषाओ ॥५०८॥ कोगनो लगुडो भण्णति, अादिसद्दाप्रो उवललेढुगादि, तेहिं घडगादिभेदं करेति । भेदे ति गतं । पंसणमिति घंसणदारं गहियं - तत्थ परंपरे मणियारा साणीए घंसंति लगुडेण वेधं काउं। अादिसद्दातो मोतिया । कट्ठादि त्ति चंदणकट्ठामो घरिसादिसु धृष्यन्ति । घसणे त्ति गतं। पट्ट ति गंधपट्टातो तत्थ वरा प्रधाना गंधा पीसिज्जंति । पीसण त्ति गतं । १ ( प्रत्यं० "विरचिते इति" ) २ फावडा-मिट्टी खोदने का एक साधन । ३ चेष्टादिभिः । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र - १ गोफणा चम्मदवरगमया पसिद्धा, ताए लेट्टुप्रो उवलनो वा घत्तिज्जति, सो प्रभिघातो भण्णति, गुण वा कंडं । श्रभिघाम्रो त्ति गयं ॥ ५०८ || हवा अभिवा इमो होइ - विधुवण णंत कुसादी, सिणेह उदगादि आवरिसणंतु । का उ विवसत्थे, खारो तु कलिंचमादीहिं ॥ ५०६ ।। विधुवणो "वीतणगो, "णंतं" वत्थं, तेहि वीयंतो मभिधातं करेति पाणिणं । कुसो दम्भो, तेश मज्जाति श्रभिघातं करेति । श्रभिघाउ त्ति गयं । "सिणेह त्ति" सिणेहद्दारं, उदगं पाणीयं, तेण श्रावरिसणं करेति । श्रादिसद्दाता घय-तेल्लेण वा । सिणेह त्ति गतं । "काउ" त्ति काम्रो सरीरं, "बिंबि" त्ति विवयं तेण पिल्लेवकादि कायं णिव्वतेति "सत्ये " त्ति-शस्त्रेण परंपरकरणभूतेण पत्रछेदादिषु कायं निवर्तयन्ति । काये त्ति गतं । अज्भुसिरे वा खारं छुभति तं पुण परंपराहिकारे श्रट्टमाणे "कलिचमादी हि" ति कलिचे - वंसकप्परी ताए छुभति । खारे त्ति गतं ॥ ५०६ ॥ एक्वेक्का उपदाओ, आणादीया य संजमे दोसा । एवं तु णट्टाए, कप्पति अट्टाए जतणाए || ५१० ॥ छेदादिपदाश्रो प्राणाभंगो प्रणवत्थकरणं मिच्छत्तजणयं प्रायविराहणा संजमवि राहणा करेंतस्स भवंति । मूलदारगाहाए "अवरे" त्ति प्रन्यान्यपि एतज्जातीयानि गृह्यन्तेत्यर्थः अहवा - उस्सग्गातो अवरो श्रववातो भण्णति, कप्पति जुज्जते कतु, श्रर्थः प्रयोजनं, कारणे प्राप्ते, नो प्रयन्ते सत्नेनेत्यर्थः ॥ ५१० ॥ एक्क्का य । एते दोसा प्रणट्ठा असती अधाकाणं, दमिगाधिकछेदणं व जतणाए । गुलमादि लाउणालो, कप्परभेदो वि एमेव ॥ ५११ ॥ अति प्रभावो अहाकडा अपरिकम्मा दसिया छिदियव्वा, पमाणाहिकस्स वा वत्थस्स छेदणं जयति, जहा - प्रायसंजमविराहणा ण भवति, भेदणद्दारे गुलग्गहणं पिडगस्स वा भेदो, "लाउनालो”air किरणभया भिजति, संजती वा हत्यकम्मं करिस्सति । "कप्परं" कवालं, तं वा अहिकरणभया भिजति, एमेव त्ति जयणाए ।५११|| सणाववाओ - अक्खाणं चंदणस्स वा, धंसणं पीसणं तु गतादि । ग्वादीणऽभिघातो, अगतादि य ताव सुणगादि ॥ ५१२ || "अवख।” पसिद्धा तेसिं विसमाण समीकरणं, चंदणस्स वा परिडाहे घंसणं, पीसणद्दारे पोसणं श्रगतस्स अण्णस्स वा कस्सति कारण, अभिघातो गोफण धगुण वा वग्धादीण ऽभिभवति श्रभिधाओ कायन्वो । अगतस्स वा पताविज्जंतस्स सुणगादि वा श्रभिपडता लेटठुणा धाडेयब्वा ।।५१२।। १ वीजनकम् । २ स्नानादि । ३ ' मणीए" इत्यपि । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ५०६-५१७] प्रथम उद्देशक: सिणेहे अववाओ - बितियदवुझणजतणा, दाहणं देहभूमि सिंचणता । पडिणीयाऽसिवसमणी, पडिमा खारो तु सेल्लादी ॥५१३॥ "बितिय" भववायपदं, “दवं" पाणगं, तं उज्झति जयणाए भावरिसंतो। अहवा - वितिए ति तृषा डाहे वा सरीरस्स देहं सिंचति 'गिलाण परिणीए वा सीतलट्ठया भूमि सिंचति । "काए" ति कोइ मिहत्थो पहिणीतो तस्य प्रतिकृति कृत्वा मंत्र जपेत्ता विद्यावद् भद्रीभूतः । प्रसिवे वा असिवप्रशमनार्थ प्रतिमा कर्तव्या । "सारो" ति बितियपदे अणंतरपरंपरे छुभिज अज्झुसिरे वा झसिरे वा, तत्थ झुसिरे दरिसावयति "खारो तु सेल्लादि" ति । सेल्लं वालमयं भसिरं, तं खारे छुभति, कि खारो संजाभो न वि त्ति ॥५१३।। असंकिलिटुं कम्मं भणियं । इदाणि संकिलिट्ठ भण्णति - जं तं तु संकिलिहूं, तं सणिमित्तं च होज्ज अणिमित्तं । जं तं सणिमित्तं पुण, तस्सुप्पत्ती तिधा होति ।।५१४॥ जंति प्रगिट्टि, तं ति, पूर्वाभिहितं, तु शब्दो संकिलिट्टविसेसणे । तस्स संकिलिंदुस्स दुविहा उप्पत्तीसगिमित्ता प्रणिमित्ता य । णिमित्तं हेऊ वक्खमाणस्सरूवो, प्रणिमिनं निरहेतुकं । जं तं सणिमित्तं तस्सुप्पत्ती बहिरवत्युमवेक्ख भवति ॥५१४॥ पुनरवधारणे चोदग प्राह - णणु कम्मं चेव ससस णिमित्तं, किमण्णं बाहिरणिमित्तं घोसिजति ? प्राचार्याह - कामं कम्मणिगिन, उदयो णत्थि उदो उ तव्वज्जो । तहवि य बाहिरवत्थु, होति निमित्तं तिम तिविधं ॥५१५।। कामं अनुमतार्थे, किमनुमन्यते ? कोणमित्तो उदय इत्यर्थः । न इति प्रतिषेधे उदयः कर्मवयों न भवतीत्यर्थः । तथापि कश्चिद् बाह्यवस्त्वपेक्षो कोदयो भवतीत्यर्थः । तिविघं बाह्यनिमित्तमुच्यते ॥१५॥ सई वा सोऊणं, दद्दु सरितुं व पुव्वभुत्ताई । सणिमित्तऽणिमित्तं पुण, उदयाहारे सरीरे य ॥५१६॥ गीतादि विसयसई सोरं, प्रालिंगणातित्थीरूवं वा दर्छ, पुन्वकीलियाणि वा सरिउ, एतेहि कारणेहि सणिमित्तो हूदमो। प्रणिमित्तं पुण, पुणसद्दो प्रणिमित्तविसेसणे, कम्मुदमो माहारेणं सरीरोवचया, च सद्दो भेदप्रदर्शने ॥१६॥ "सई वा सोऊण" ति अस्य व्याख्या - पडिबद्धा सेज्जाए, अतिरित्ताए व उप्पता सद्दे । बहियावणिग्गतस्सा, सुणणा विसउब्भवे सद्दे ॥५१७॥ भत्तप्रत्यास्यानिनं दाहाभिभूतं । २ तस्योपशमनीं। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [सूत्र-१ दव्वभावपडिबद्धाए सेजाए विसप्रोब्भवसई सुगेज, "अतिरित्ताए व" त्ति अतिरित्ता घंघसाला, बहिया वसहीमो वियारभूमादि णिग्गतो वा विसउब्भवं सदं सुणेजा ॥५१७॥ "पडिबद्धा सेज्जाए य" त्ति अस्य व्याख्या - पडिबद्धा सेजा पुण, दव्वे भाव य होति दुविधा तु । दव्वम्मि पट्ठिवंसो, भावम्मि चउव्विहो भेदो ॥५१८॥ प्रतिबद्धा युक्ता संश्लिष्टा इत्यर्थः । सेजा वसही । रा संयोगो द्विविधो-द्रव्ये भावे च । द्रव्यप्रतिबद्धा पट्ठिवंसो वलहरणं, तेन प्रतिबद्धा एगमोभा इत्यर्थः । भावप्रतिबन्धे च उव्वि हो भेदो ।।५१८।। इमो - पासवणट्ठाणसरूवे, सद्दे चेव य हवंति चत्तारि । दव्येण य भावेण य, संजोगे चउक्कभयणाउ ॥५१६॥ पासवणं काइयभूमी, ठाणमिति इत्थीग अच्छणठाणं, रूवमिति जत्थ वसहीटिएहि इत्थीरूवं दीसति, सा रूव-प्रतिबद्धा । “सद्दे ति" जत्थ वसहीए ठितेहिं भासा-भूसण-रहस्ससद्दा सुणिज्जति, सा सद्दपडिबद्धा । एस चउव्विहो भावपडिबंधो भणितः । इदाणि दव्वपयस्स भावपदस्स य संयोगे चउक्कभयणा कायव्वा । इमा भयणा - दव्वरो पडिबद्धा, भावमा पडिबद्धा। दव्वप्रो पडिबद्धा, ण भावो। भावप्रो पडिबद्धा, ण दव्वप्रो । ण दव्वतो पडिबद्धा, ण भावतो पडिबद्धा ॥५१६।। एवं चउभंगे विरचिते भण्णति - चउत्थपदं तु विदिण्णं, दवे लहुगा य दोस आणादी । संसद्देण विबुद्ध, अधिकरणं सुत्तपरिहाणी ।।५२०॥ "चउत्थं पदं" चउत्थो भंगो समनुज्ञातः. तत्र स्थातव्यमित्यर्थः । “दव्वे" ति दन्यतो, ण भावतो द्वितीयभंगेत्यर्थः । तत्थ सुद्धपदे वि चउलहुगा । प्राणा-प्रणवत्थ-मिच्छत्त विराहणा य भवन्ति । इमे य अण्णे दोसा "संसद्देण" पच्छद्धं । साधुसद्देश असंजया विबुद्धा अधिकरणाणि करेंति । प्रह साहू अधिकरणभया णिसंचारा तुहिक्का य अत्थंति तो सुत्तऽत्याणं परिहाणी ।।५२०॥ कालस्याग्रहणे स्वाध्यायस्य प्रकरणात् इमं से पच्छित्तं - सुत्तऽत्थावस्सणिसीधियासु वेलथुतिसुत्तणासेसु । लहुगुरु पण पण चउ लहुमासो लहुगा य गुरुगा य॥२१॥ एयस्स पुबद्धेण अवराहा। पच्छद्धेण पच्छित्ता जहसंखं । सुतपोरिसिं ण करेंति मासलहुँ । मत्थपोरिसिं ण करेंति मासगुरु । "प्रावस्सिणिसीहि" ताण प्रकरणे रणगं । "वेल" ति पावरसगवेलाए Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ५१८-५२५ ] प्रथम उद्देशकः मावस्सग न करेति चउलहु । अधिकरणभया प्रविधीए करेति । श्रावस्सगे कते थुतीमो ण देति मासलहुँ । सुत्तणासे चउलहुं । प्रत्थणासे चउगुरु ।।५२१॥ "संसदेण विबुद्धे अहिकरणं" ति अस्य व्याख्या - आउज्जोवणवणिए, अगणि कुटुंबी कुकम्म कुम्मरिए . तेणे मालागारे, उन्भामग पंथिए जंते ॥५२२॥ साधुसद्देण विबुद्धा "प्राउ'' ति पाणियस्स गन्छति । "उजोवणं" ति गावीणं पसरणं सगडादीणं वा पयट्टणं । “कच्छपुडियवाणियो" वापारे गच्छति । लोहारादी उट्टेउ अग्गीकम्मेसु लग्गति । कुटंबिया साधुसद्देण विच्छुद्धा (विबुद्धा) खेताणि गच्छति । कुच्छियकम्मा कुकम्मा मच्छबंधगादयो मच्छगाण गच्छति । जे कुमारेण मारेंति ते कुमारिया, जहा "खट्टिका", महिसं दामेण लउडेहि कुटुंति ताव जाण सूणा सिंधमारगा वा। समण। जग्गति त्ति तेणा प्रासरंति । मालाकारो करंडं घेत्तूणारामं गच्छति । उम्भामगो पारदारिको, सो उम्भामिगा समीवातो गच्छति । पंथिया पंथं पयर्टेति । जंते त्ति जंतिया जंते वाहति ॥५२२।। अहिकरणभया तुण्हिक्का चेट्ठा करेंति, तो इमे दोसा - आसजणिसीहियावस्सियं च ण करेंति मा हु बुज्झज्जा । तेणा संका लग्गण, संजम आया य भाणादी ॥५२३।। प्रासज्ज णिसीहियं प्रावस्सियं च ण करेंति, मा असंजया बुज्झिस्संति, तमेव तुहिक्कं अतितं णिग्गच्छतं वा अण्णो साधू तं तेणगं संकमाणो जुद्धं लग्गेजा, तो जुतो संजमविराहणं प्रायविराहणं वा करेजा, भायणभेद, प्रादिसद्दातो अण्णस्स साहुस्स हत्थं पादं विराहेजा, तम्हा एतद्दोसपरिहरणत्थं दव्वपडिबद्धाए ण ठायव्वं ॥५२३॥ इदानि अस्यैव द्वितीयभंगस्स अववायं ब्रवीति - अद्धाण णिग्गतादी, तिक्खुत्तो मग्गिऊण असतीए । गीतत्था जतणाए, क्संति तो दव्वपडिबद्ध ॥५२४॥ प्रद्धाण जिग्गता एवं प्रतिपन्ना "प्रादि" सद्दातो असिवादिणिग्गता वा "तिक्खुत्तो" तिण्डिः तारा दब्वभावे हि अपडिबद्ध मग्गिऊण असति ति अलाभे चतुर्थभंगस्येत्यर्थः। गीतत्था सुत्तत्था ग्यणाए दोसपारेहरणं, "तो" ति कारणदीवणे कारणेण वसंति दवपडिबद्ध त्ति ॥५२४।। "गीयत्था जयणाए" त्ति अस्य व्याख्या - आपुच्छण आवस्सग, श्रासज्ज णिसीहिया य जतणाए। वरत्तिय आवासग, जो जाधे चिंधणदुगम्मि ॥२५॥ मापुच्छणं जयणाए करेंति साधू, कातिएभूमि णिग्गच्छंतो प्रणं साहुं आपुच्छिउं णिग्गच्छति, सोय छिक्कमेत्तो चेव उ?उं डंडगहियत्थो दुवारे चिट्ठति, जाव सो मागतो एसा आपुच्छणजयणा । मावस्सगं प्रासज्ज णिसीहीयं च हियएण करेज जहा वा ते ण सुशेति । "वेरत्तियं" ति वेरत्ति अकालवेलाए जो जाहे चेव सो ताहे कालभूमिं गच्छति, तुसिणीया पाक्स्सगं जयणाए करेंति, जो वा जत्थ ठितो करेति । अहवा जाहे पभायं गिहत्या उद्विता ताहे मावस्सयं धुतीमो वि जयणाए करेंति "चिंधणदुगम्मित्ति Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य - चूर्णिके निशीयसूत्रे [ सूत्र - १ चिर्धति लक्खेंति, सुत्तु द्देसगादिसु "दुगं" सुत्तं प्रत्यो य, तत्य जं वेरत्तियं करेंताण संकितं तं दिवा पुच्छतीत्यर्थः ।। ५२५|| जयाहिगारे श्रणुवट्टमाणे इमं पि भण्णति १ १० जणरहिते उज्जाणे वसंता सद्दे जयणं करेंति, मा हु दुपद - चउप्पद-पक्खि- सरिस्सिवादि बुज्भेजा, जति जणरहिते एस जयणा दिट्ठा किमंग पुण दव्वपडिबढाए सो पुण साहु ढड्ढ रसहो सो वेरत्तियं करें तो अणुप्पेहाए सज्झायं करेति, ण य संघाडेण वेरत्तियं करेति ।। ५२६ ॥ गतो बितियभंगो साववातो । दाणि ततियभंगो “भावओ पडिबद्धा णो दव्वस" एस भणति भावम्मि उ पडिबद्ध, चतुरो गुरुगा य दोस आणादी । विय पुरिमा दुविहा, भुत्तभोगी प्रभुत्ता य ।। ५२७॥ भावपडिबद्धए द्वायमाणाणं पच्छितं इमं "चउरों" ति चत्तारि चउगुरुगा पासवणादिसु, प्राणादिणो य दोसा भवंति ! पुण ते भावपडिबद्धाए वसहीए ठायंति दुविहा पुरिमा - भुक्तभोगा प्रभुक्तभोगाय । जे इत्थिभोगं भुंजिउं पव्वइया ते भुत्तभोगा, इतरे कुमारना ॥५२७॥ भावपविद्धाए पासवणादिसु उवि पदेसु सोलसभंगा कायव्वा । जो भण्णति - भावम्मि उपविद्ध, पण्णरसपदेसु चउगुरु होंति । एक्का पदातो, दोसा आणादी सविसेसा ||५२८|| "भावम्मि उ पडिबद्धे" ति एत्थ वयणे" सोलस भंगा दट्ठव्वा । ते य इमे - पासवणपडिबद्धा ठाणपsिबद्धा रूपविद्धा सपबिद्धा १ एस पढमभंगो । एस पासवण द्वाण रूत्र-पडिबद्धा को सद्द पडिबद्धा एवं सोलस भंगा stroवा । एवं रचिए पच्छित्तं विज्जइ । आदि भंग प्रारम्भ-जाद-पण्णरसमो ताव चउगुरु ं भवति । प्रादेसे वा पढमभंगे चउरुगा, एवं जत्य भंगे जति पदाणि विरुद्धाणि तति चउगुरुगा, सोलसमपदं शुद्धं । एक्केक्काउ पदाउ" ति एक्केक्कभंगाउ ति वुतं भवति प्राणादिदोसा भवति । "सविसेस" ति दव्वपडिबद्ध समीवाओ सविशेषतरा दोण भवतीत्यर्थः ।।५२= । ८ पासवण - पडिबद्धा, ठाण- पडिवद्धा, रूव-पढिबद्धा, सह-पडिबद्धा १ १ १ १ १ पासवण - पडिबद्धा, ठाण- पडिबद्धा, रूव-पडिबद्धा णो सद्द पडिबद्धा ६ २ १ १ O १० ३ १ ४ १ ५ १ ६ १ ७ १ १ 13 11 17 17 39 " 23 " 13 12 17 12 जणरहिते वुजा, जयणा सद्दे य किमु य पडिवद्ध े । ढड्ढरसराणुपेहा, ण य संधाडेण वरती || ५२६ ॥ " #1 १ ० o ० ० 11 "1 " "1 72 23 27 "} "1 23 19 27 37 १ ० १ १ o ० " "2 " 77 31 " 27 " " 11 ?? 33 23 "J १ १ - १ ० १ ० " "" 13 12 "7 13 " 11 "" "" 17 " 13 "" ११ १२ १३ १४ - १५ १६ ० ० ० ० ० ० o १ १ १ १ १ ० १ - १ १ ० १ ० O १ १ - ० ० ० १ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १२६-५३२ ] प्रथम उद्देशकः इदाणि पासवणादिपदाणं अन्योन्यारोपणं क्रियते -- ठाणे नियमा रूवं, भासा सद्दो उ भूसणे भइओ । काइय ठाणं णत्थी, सद्दे स्वे य भय सेसे ॥५२६॥ जत्थ ठाणं तत्य रूवं भासासदो य णियमा भवंति, भूसणसद्दो 'भतितो, जेश रंडकुरंडातो य प्रणामरणियानो भवंति । पासवणे पुण ठाणं णत्थि, जत्थ कातियभूमी पडिबद्धा तत्थ ठाणं णत्थि, भासासद्दो भूसणसद्दो रूवं च "भय" ति भयणिज्जं कयाइ भवंति कयाइ ण भवंति । सेसे ति एतान्येव शब्दादीनि शेषाणीत्यर्थः ॥५२६॥ जत्थ साहूणं असंजतीण य एगा काइयभूमी सा पासवणपडिबद्धा तत्थ दोसा भणंति - - आयपरोभयदोसो, काइयभूमीए इच्छऽणिच्छंते । संका एगमणेगे, वोच्छेदे पदो सतो जं च ॥५३०॥ "प्राय'' ति - साधु: मप्पणेण खुम्भति । "पर" ति इत्थिया साहुम्मि खुमति । "उभयं" ति साधू इत्थीए, इत्थीया साधुम्मि । एते प्रात्मपरोभयदोषा: काइयभूमो भवंतीत्यर्थः । “इच्छऽणिच्छते" त्ति जइ इत्थिया साहुम्मि खुभति तं जइ पडिसेवति तो वयभंगो। मह णेच्छति तो उड्डाहं करेति । एवं उभयथापि दोषः । अह साधू इत्थीए खुब्भति तो सा इत्थी इच्छेज्ज वा अणिच्छेज्ज वा । जति अणिच्छा तो उड्डाहं करेति - एस मे समणो वाहति । “संक" ति इत्थिया पविट्ठा काइयभूमीए पच्छा साहू पविठ्ठतो तया एगे संकति कि मण्णे एताणि तुरियाणि । अहवा - प्रणायारे एगे संकति प्रणेगा वा, एगमणेगे वा वोच्छेषं करेति वसहिमादीणं । पट्ठो वा गेण्हणकड्ढयववहारादि करेज्ज ॥५३०॥ __ जत्थ गिहत्थीणं संजयाण य एगं ठाणं तत्थिमे दोसा - दुग्गूढाणं छण्णंगदंसणे भुत्तभोगिसतिकरणं । वेउन्वियमादीसु य, पडिबंधुडंचगा संका ॥५३१।। "दुग्गूढे" दुगोवियं दुणियत्थं दुपाउयं वा छण्णंगं उरुगादि ताणि द? भुत्तभोगिणं स्मृतिकरणं भवति । "वेउब्वियमि" ति महत्प्रमाणं ! अहवा - वेउब्वियं मरहट्ठविाए सागारियं वज्झति, तत्थ वेंटको कज्जति अंगुलिमुद्रिगावत्, सा य अगारी तारिसेण पडिसेवियपुवा तस्स य साहुस्स सागारियं वेउब्वियं तत्थ पडिबंधं जाति, "उड्डंचगो वा" कुन्तिं करेति, प्रगारी वा संकति - किं मण्णे एस साधू सागारियं दंसेति, प्राय सो मां प्रार्थयतीत्यर्थः । लोगो वा संकति ण एते साधु ।।५३१॥ किंचान्यत् - अगुत्ति य बंभचेरे, लज्जाणासो य पीतिपरिवड्ढी । साधु तवो वणवासो, णिवारणं तित्थपरिहाणी ॥५३२॥ १ भजनावान् स्याद्वा न वेत्यर्थः । Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-णिके निशीथसूत्र । सूत्र-१ एगट्टाणे बंभचेरस्म अत्ती भवति । परोप्परो य लज्जाणासो अभिक्खदंसणे वा पोतिपरिवड्डी । लोको उभ्रसवचनेन ब्रनीति-साधु ! तबो वणवासो। रातादि निवारणं यथा-मा एतेसि मज्झे कोति पव्वयल, एवं तित्थवोच्छेदो भवतीत्यर्थः ॥५३२॥ रूवपडिबताए इमे दोसा, साधू अगाराण इमं येकवेति -- चंकम्मियं ठियं जंपियं च विप्पेक्खित्तं च सविलासं । आगारे य बहुविधे, दलृ भुत्लेयरे दोसा ॥५३३॥ "चंकम्मितं" गतिविभ्रम ठिता उभाकडित्यंभगेण मितं गच्छति, हंसी वा जंपति महुरं, कोइला वा, विप्रेक्षितं निदीक्षितं तच्च भ्रूक्षेपसहितं, सविस्मितं मुखं प्रहसितं सविलासं, एवमादि स्त्रीणां बहुविधानाकारानलंकृत' दृष्टा भुक्तभोगिनां स्मृतिकरणं भवति । "इतरे" अभुत्त भोगी, तेषां कोतुकं भवति, न चेव अम्हेहिं माणुस्सगा कामभोगगुणा भुत्ता, एवं तेसि पडिगमणादयो दोसा भवंति ॥५३३।। तायो वा इत्थीयो ते साहणो णाणादिसितो तत्थ ठितो दट्ठूण एवं संकेज्जा .. जल्लमलपंकिताण वि, लावण्णसिरी त जहासि देहाणं । सामण्णम्मि सुरूवा, सतगुणिया पासि गिहरासे ॥५३४।। 'जल्लो” कद्दिमभूतो, "मलो" उव्वट्टितो फिट्टति, पंकिता णाम तेण जल्लमलेन ग्र :, "लावणं" सरीरसोभा, लावणमेव श्री लावणश्री, जहा - यस्य साधोदेहे शरीरे अनभ्यंगादिभावेन युक्तस्यापि समणस्स भावो सामण्णं तस्सिं सुरूपता लक्ष्यते यदा पुनहवासे अगंगभावेन युक्तमासीत्तदा समीपतः शतगुणा सुरूपता प्रासीत् ।।५३४॥ सहडिबद्धाते दोसा - गीताणि य पढिताणि अ, हसिताणि ग मजुला य उल्लावा । भूसणसद्दे राहम्सिएप मोनुण जे दोसा ॥५३५॥ स्त्रीणां गीताणि, विदुषस्त्रीणां च पठितानि श्रुत्वा, सविकारहसिताणि च, मनं ज्वलयन्ति मनं शोभयन्ति ये उल्लावा तांश्च श्रुत्वा, वलयनूपुरशब्दांदच, रहसि भवा राहस्सिगा, पुरुषेण स्त्री भुज्यमानायां स्तनितादिशब्दान् करोति, ते रहस्यशब्दास्तान श्रुत्वा ये भुक्ता भुक्तसमुत्था दोसा भवंति तानाचायः प्राप्नोति । यस्य वा वसेन तत्र स्थिता । अहवा “ये दोस" ति - पावति तं निप्फ पायच्छित्तं भवति ||५३५।। इत्थियानो वा साधूण सद्दे सुपति - गंभीरविसद फुडमधुरगाही सुरसरो सरो जहसिं । सज्झायस्स मणहरो, गीतस्स ण केरिसो बासी ॥५३६॥ "गंभीरो" साणुशादी, विसदो व्यक्तः, "फुडो' अभिधेयं प्रति स्पष्टः, "मधुरो सुखावहः, सुभगत्वादर्थऽग्राहणसमर्थों ग्राहकः, शोभनरवरो यथा अस्य साधो: स्वाध्यायं प्रति मनं हरतीति मनोहरः । जया पुण वीसत्यो निहत्थकाले गेयं करोति उ ततो किण्णरो इव प्रासी ।।५३६।। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ५३३-५४२ ] प्रथम उद्देशकः पुरिसा य भुत्तभोगी, अभुत्तभोगी य ते मवे दुविधा । कोऊहण सितीकरणुब्भवेहिं दोसेहिमं कुजा ॥५३७।। ते पुण पुरिसा दुविहा - जुत्तभोगी प्रभुत्तभोगी य । स्मृतिकरणा कौतुकदोषा तेहिं दोसेहि उप्पणेहिं इमं कुज्जा ॥५३७॥ पडिगमण अण्णातित्थिय, सिद्ध.संजति सलिंगहत्थे य । अद्धाण वास सावय, तेणेसु य भावपडिबंधो ॥५३८॥ "पडिगमणं" उण्णिक्षमणं, अण्णउत्थिएसु वा जाति, "सिद्धपुति" वा पडिसेवति, संजती. वा सलिगे ठितो पडिसेवति, हत्थकम्मं वा करेति । तम्हा एयद्दोसपरिहरणत्थं ण तत्थ ठाएज्जा। भवे कारणं जेग तत्थ ठाएज्जा “मद्धाण" पच्छदं । प्रद्धाणं पडियन्ना वा, वासं वा पडति, वहि वा गामम्स मावयभयं सरीरोवकरणतेणा वा एतेहि कारणेहिं भावपडिबी ठायति ।।५३८॥ तं पुण इमाए जयणाए ठाएंति - विहिणिग्गतो तु जतितु, पडिबद्ध दव्वजोतिरुक्खाहे । ठायंति अह उ वासं, सावयतेणे य तो भावे ॥५३६॥ विहिणिग्गता सुद्धवसहि-अभावे दव्वपडिबद्धाए ठ.यति । तस्स अभावे जोइपडिबद्धाए । तस्स प्रभावे नहिया रुक्खहेतु ठायंति अहवा - बुडी संपडइ, सावयभयं वा, बाहिरे तेणगभयं वा तो भावपडिबद्धाए ठायति ॥५३६॥ तत्थ वि इमा जयणा - भावंमि ठायमाणो, पढम ठायंति स्वपडिबद्धं । तहियं कडगचिलिमिली, तस्सऽसती ठंति पासवणे ॥५४०॥ भावपडिवद्धाए ठायमाणा पढम ठ यंति रूवडिबद्धाए, पुटव-भणिय-दोसपरिहरणत्थं ग्रंतरे कडयचिलमिली वा अंतरं देति । 'तस्सऽसति" ति रूवपडिबद्धाए, तस्स असतीए पासवणपडिबद्धाए। तत्थ वि पुव्वदोसपरिहरणत्थं मत्तए वोसिरिउ अण्णत्थ परिहवें ॥५४०॥ असती य मत्तगस्सा, णिसिरणभूमीए वापि असीए । वंदेण वोलपविसण, तासि वेलं च वज्जेज ॥५४१|| असति पासवणमत्तगस्स अण्णाए वा काइयभूमीए असति "वंदेण" वंदणवोलं रोल करेंता 'विसंति" प्रविशंतीत्यर्थः । "तासिं' ति अगारीणं जा वोसिरणवेला तं वजेति ॥५४१॥ पासवणपडिबद्धाए असतीए सद्दपडिबद्धाए ठायति । सो य सद्दो तिविहो - भूसण-भासा रहस्ससद्दो य । तत्थ वि पढम इमेसु - भृसणभासासद्दे, सज्झायज्झाण णिच्चमुवयोगे। उवकरणेण सयं वा पेल्लण अण्णत्थ वा ठाणे ॥५४२॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [सूत्र-१ पढमं भूसणसहपडिबद्धाए, पच्छा भासासद्दे । तत्थ पुज्वभणिय-दोसपरिहरणत्यं इमा जयणा भण्णति --समुदिया महंतसद्देण सज्झायं करेंति, झाणलद्धि वा भायंति, एतेष्वेव नित्यमुपयोग। भूसणभासासद्दपडिबद्धाए असति. ठाण-पडिबद्धाए वा ठायति । तत्थ वि पुव्वभणियदोसपरिहरणत्थं इमा जयणा "उवकरणे" पच्छद्धं । उवगरणं विप्पगिणं तहा ठाएंति जहा तेसि ठाणमो ण भवति, सय वा विप्पगिण्णा होउ पेल्लंति । मणत्थ वा ठाणे गंतु दिवसतो अच्छंति ॥५४२॥ ठाणपडिबद्धाए असति रहस्ससद्दपडिबद्धाए ठंति - परियारसद्दजयणा, सद्दवते तिविध-तिविध-तिविधेया । उद्दाण-पउत्थ-सहीणभत्ता जा जस्स वा गरुई ॥५४३।। पुरिसेण इत्थी परियारिया पडिभुजमाणि ति वृत्तं भवति, जं मा सह करेति तत्थ 'जयणा कायव्वा । “सद्दवए" त्ति सहतो तिविहा - मंदसहा मज्झिमसद्दा तिव्वसद्दा य। वएण तिविहा - थेरी मज्झिमा तरुणी य । एक्केका तिविहा - उद्दाणभत्तारा उपउत्थभत्तारा "साहीणभत्तारा य। एवं परूवियासु ठाइयव्वं इमाए जयणाए - पुवं उद्दार्ण भत्ताराए थेरीए मंदसद्दाए। ततो एतेण चेव कमेण एनासु चेव थेरीसु मज्झिमसद्दासु । ततो एतेण चेव कमेण एतासु चेव थेरीसु तिवसद्दासु । ततो उद्दाणपउत्थपतियासु । ततो एतासु चेव जहक्कमेग मज्झिमासु मंदसद्दासु । ततो एतासु चेव जहक्कमेण तिन्वसद्द सु । तपो साहीणभत्तरासु थेरीमु मंदसदासु जाव तिव्वसद्दासु.। [ततो सभोइयासु थेरी मज्झिमासु जहासंखं । तो-सभोइयासु तरुणित्यीसु मंदमज्झिमतिव्वसदासु जहसंखं ।। अहवा - "जा जस्स वा गरुगोय" ति - जा इत्यो जस्स साहुस्स माउलदुहियादिया भव्वा सा गरुगी भणति । सा (स) तं (तां) परिहरति । ___ अहवा "गरुगि" ति जो जस्स सद्दो रुचति तिव्वादिगो तेण जुत्ता गुरुगी भणति, सो तं तां परिहरति ॥५४३॥ अहवा इमो कमो अण्णो - उद्दाणपरिदृषिया, पउत्य कण्णा सभोइया चेव । थेरीमज्झिमतरुणी, तिब्यकरो मंदसद्दा य ॥५४४ । इह गाहाए "कण्णा" सद्दो बंघाणुलोमानो माझे कपो एस प्रादीए कायन्यो। "कण्णा' अपरिणीया, "उद्दाण-भनारा" भत्तारेण परिठविता, पवासिय-भत्तारा, साहीण-भत्तारा सभोइया भण्णति । एयाप्रो जहासंखण थेरी-मझिम-तरुणी । एवं परूवियासु इमो कमो - पुव्वं कण्णाए थेरीए । ततो कण्णाए कप्पट्ठियाए। ततो मज्झिमकणाए । ततो उद्दाण-परिट्ठवण-पउत्थ-थेरीसु जहासंखं । ततो एतासु चेव मज्झिमासु । ततो एतासु चेव तरुणीसु। तपो सभोतिप्रथेरीए मंद-मज्झिम-तिव्वसद्दाए जहसंखं। ततो मज्झिमाए सभोतियाए तिविहसहाय जहासंखं । ततो तरुणित्थीए सभोइयाए तिविहसदाए जहासंख। एवं सामण्णजयणाए भणियं । विसेसे पुण जस्स जं प्रप्पदोसतरं तत्थ तेग ठायव्वं ॥५४४॥ १ स्वाध्यायकरणादिका । २ अपद्राणभत का। ३ प्रोषितभर्तृका । ४ स्वाधीनभर्तृका । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ५४३-५४६ ] प्रथम उद्देशकः ___पासवणादिपडिबद्धासु “सिद्धसेनायरिएण" जा जयणा भणिया त चेव संखेवरो "भद्दबाहू" भण्णति - पासवणमत्तएगं, ठाणे अण्णत्थ चिलिमिली रूवे । सज्झाए झाणे वा, आवरणे सद्दकरणे व ॥५४॥ पुब्वद्धं कंठं । इमा सद्दे जयणा ' सज्झाए" त्ति । अस्य व्याख्या - ।।५४५।। वेरग्गकरं जं वा वि, परिजितं बाहिरं च इतरं वा । सो तं गुणेइ सुत्तं, माणसलद्धी उ झाएज्जा ॥५४६॥ वेरग्गकरं जं सुत्तं तं पढति, जहा तं सदं न सुणेति ।। जं वा वि सुठ्ठ परिचियं अखलियं आगच्छति तं पुण अंगबाहिरं पण्णवण दि इतरं अंगपविट्ठ पायारादि जस्स साहुस्स एतेसि अण्णतरं प्रागच्छति सो तं गुणे ति सुत्तं । "झाणेव" ति अस्य व्याख्याझाणसलद्धी झायति ॥५४६॥ "प्रावरणे सद्दकरणे य" त्ति - दोसु वि अलद्धि कण्णावरेति तह वि सवणे करे सई । जह लज्जियाण मोहो णसति जयणातकरणं वा ॥५४७|| "दोसु वि" ति झाणे पाढे वा जो अलद्धि कण्णा आवरति आवरेंति त्ति वुत्तं भवति । तह वि जइ सदं सुणेति ताहे सई करेति तहा जहा तेसि लजियाण मोहो णासति - किमेयं भो ! विगुत्ता ण पस्ससि पम्हे ! जइ तह ण ठाति तो जयमाए करेति । पेच्छ भो ! इंददत्ताइ सोमसम्मा इमो अम्ह पुरनो विगुत्तो प्रणायारं तेवति ॥५४७ । गतो ततियभंगो। इदाणि पढमो भंगो भण्णति - उभयो पडिबद्धाए, भयणा पनरसिगा तु कायव्वा । दव्वे पासवणम्मि य, ठाणे रूवे य सद्दे य ॥५४८॥ उभयो पहिबद्धा णाम दव्येण य भावेण य, तत्थ पण्णरस भंगा कायव्वा, इमेण पच्छन्द्धकमेण दव्वत्तो पडिबद्धा, णो भावतो पासवणादिसु, एस.ण घडति उभयतो अप्रतिबद्धत्वात्, एवं अण्णे वि सोलस ग घडंति, उभयतो अप्रतिबद्धत्वादेव ॥५४८॥ बे पनरस उभयपडिबद्धा तेसु ठायमाणस्स इमे दोसा - उभयो पडिबद्धाए, ठायंते आणमादिणो दोसा । ते चेव होंति दोसा, तं चेव य होति बितियपदं ॥५४६॥ उभयतो दव्व-मावपडिबद्धाए ठायमाणस्स प्राणादिणो दोसा। जे य बितियततियभंगेसु दोसा समुदिता ते पढमभंगे दोसा भवंति। जं तेसु बितियततियभंगेसु अववातपदं तं चेव पढमभंगे भवति ॥५४६ ।। गयो पढभभंगो । सह वा सोउणं "ति दारं गतं'। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ सभाष्य- चूर्णिके निशीयसूत्रे " "श्रइरित्ताए च उप्पता सद्दे त्ति दारं प्राप्तं । अस्य व्याख्या उत्तप्यमाण अतिरंग हीणमाणा य तिविध वधी | अप्फुण्ण मणप्पुण्णा, संबाधा चेव णायव्वा ।। ५५० ।। वसही तिविधा - जुत्तप्पमाणा, अतिरित्तप्पमाणा, हीणप्पमाणा । जा साहूहि संभारगप्प कुणा वाविय त्ति वृतं भवति सा जुत्तप्पमाणा । जा प्रणकुष्णा सा भतिरेगा, जन्य संबाह काएंति सा हीणप्पमाणा गायव्वा ।। ५५० ।। हम तीसु वि विज्जंतीसु, जुत्तप्पमाणाए कप्पती ठाउं । तस्स असती हीणाए, अतिरेगाए य तस्सऽसती ।। ५५१ || - एतासु तीसु वि विज्जतीसु पढमं उत्तप्पमाणाए ठायव्वं । तस्सासती होणप्पमाणाए । त असती अतिरेगप्पमणाए ठावं ||५५१ || तत्थ जुत्तप्पमाणाए हीणप्पमाणाए य सदस्य असंभवो । इरित्तप्पमाणाए सहसंभवो जतो भणति अतिरित्ताए ठिवाणं, इत्थी पुरिसो य विसयधम्मट्ठी । उज्जुगमणुज्जुगा वा, एज्जाही तत्थिमो उज्जू ।। ५५२ || रिमाणाठिताणं इत्थी पुरिसो य विसयघम्मट्ठी तत्यागच्छेजा स्त्रोपरिभोगार्थीत्यर्थ सो पुण पुरिसो दुविहो - उज्जू अणुज्जू वा आगच्छेजा, मायावी श्रमायावित्ति वृत्तं भवति ।। ५५२॥ अतिरित्तवसहिठिताणं जइ इत्थी पुरिसो य आगच्छेज, तो इमा सामायारी - पुरिसत्थी आगमणे, अवारणे आणमादिणो दोसा । उप्पज्जंती जम्हा, तम्हा तु निवारण ते उ ।। ५५३॥ " तत्थिमो उज्जु" त्ति अस्य व्याख्या sfer सहीए जइ इत्थी पुरिसो य श्रागच्छति तो वारेयब्वा । श्रह न वारेति तो चगुरु । प्राणादिणो य दोसा भवंति । तम्हा दोसपरिहरणत्थं ताणि वारेयव्वाणि ।। ५५३ ॥ [ ख अम्हे मो आमा, रतिं वुच्छा पभाए गच्छामो । एसा य मज्कभज्जा पुट्ठो पुट्ठो व सा उज्जू ॥ ५५४|| जो इत्थिसहितो पुरिसो आगो सो एवं भणेजा - "अम्हे मो श्रादेसा" पाहुण त्ति वृत्तं भवति, इ बसहीए रत्ति वसिउं पभाए गच्छिरसामो, सा य इत्थिया मज्भं भज्जा भवति । एवं पुच्छितो वा अपुच्छितो वा कहेजा उज्जू ।। ५५४।। हवा इमो उज्जू अण्णोवि होइ उज्जू, सन्भावे णेव तस्स सा भगिणी । तंपि भांति चित्ते इत्थी बजा किमु सचेट्ठा || ५५५ || हु - Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यनाथा ५५०-५५८ ] प्रथम उद्देशकः "भ्रष्णो" त्ति श्रणेण पगारेणं उज्जू भवति । सो वि य पुच्छियो वा भणति एस मे इत्थिगा भगिणी भवति । सा य तस्स परमत्येणेव भगिणी "सब्भावेणे" त्ति वृत्तं भवति । "तंपि हु" त्ति तदिति तं भगिनिवादिनं ब्र ुवंति "भ्रम्हं चित्तकम्मे वि लिहिया इत्थी वजणिज्जा, किं पुण जा सचेयणा, तो तुमं इम्रो गच्छाहि" अपि पदार्थ संभावने, कि संभावयति ? यदिति भगिनिवादिनं एवं ब्रुवंति किमुत भार्यावादिनं "हु" बस्मादर्येत्यर्थं || ५५५॥ समजावादी भणति "ण वट्टए भ्रम्हं सह गिहत्यहि बसिउं" i किं च - बंभवतीणं पुरतो, किह मोहिह पुत्तमादिसरिसाणं । णवि भणी इ जुज्जति, रत्तिं विरहम्मि संवासो || ५५६ || बंभव्वतं घरेति जे "बंभवती" ताण पुरस्रो मग्गउ त्ति वृत्तं भवति, "कहं" केणप्पगारेण, "मोहिह" प्रणायारं पडिसेविस्सह, प्रायसो पिता पुत्रस्याग्रतो न प्रनाचारं सेवते । माउ वा । अहवा "प्रादि" ति आदिसद्दाम भाउ माउ पिउ वा । एवं तुमं पि पुत्तमादिसरिसाणं पुरतो कहं णायारं पडिसेवसीत्यर्थः । जो भगिणिवादी सो एवं पष्णविजति "ण वि" पच्छद्धं । भगिण्या सह रात्री "विरहिते" अप्यगासे वसिउं न युज्यतेत्यर्थः ॥ ५५६ ॥ अणुलोमण तेसिं, चउक्कभयणा अणिच्छ्रमाणेहिं । णिग्गमण पुव्वदिट्ठे ठाणं रुक्खस्स वा हेट्ठा || ५५७॥ "इय" एवं " प्रणुलोमणा" प्रणुष्णवणा पण्णवण त्ति, तेसि कोरइ । पण्णविज्जंता वि जति च्छंति णिग्गंतु, तदा "चक्कभयणा" चउभंगो कजति - पुरिसो भद्दगो, इत्थी वि भद्दिया । एवं चउभंगो । जं जत्य भद्दतरं तं अणुलोमिज्जति । जइ णिग्गच्छंति, तो रमणिज्जं । ग्रह बितिय ततिय-भंगेसु एगतरग्गाहतो मणिच्छंताणं, चत्ये उभयम्रो अभद्रत्वात् । प्रणिग्गच्छंताणं णिग्गमणं साहूणं "पुव्व दिट्ठे त्ति" जं पुब्वदिट्ठ सुरादि तत्थ ठायंति । सुष्णघरा प्रभावओो गामबहिया स्वखहेट्ठा वि ठायंति, ण यं तत्थ इत्थिसंसत्ताए चिट्ठति ॥५५७॥ अह बहिया इमे दोसा - पुढवी प्रोस सजोती, हरित तसा तण उवाथ वासं वा । सावय सरीरतेणग, फरुसादी जाव ववहारो || ५५८ || १७ बहिया गामस्स रुक्खट्ठाम्रो प्रागासे वा सचित्तपुढवी प्रोसा वा पडति, अण्णा वा सजोतिया वसही प्रत्थि, हरियकाम्रो वा, तसा वा पाणा, तहावि तेसु ठायंति, ण य तेहि सह वसति । हवा - बहिया उवहितेणा, वासं वा पडति, सीहाति सावयभयं वा, सरीरतेणा वा भ्रत्थि भण्णा १ चित्त भिति न निज्झाए - दश० प्र० ८गा०५५/१ । २ (१) पुरिसो भद्दगो, इत्यो वि भद्दिया । (२) पुरिसो भद्दगो, इत्थी प्रभद्दिया । (३) इत्थी भद्दिया, पुरुसो प्रभद्दगो । (४) पुरिसो भद्दगो, इत्यी वि प्रभद्दिया । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-१ य गत्यि वसही, ताहे ण बहिया वसंति, तत्येवऽच्छति । फरुसवयर्णेहिं णिठुरा बेंति, जाव ववहारो वि तेण समाणं कज्जति ।।५५८॥ एवं वा वीहावेंति - अम्हेदाणि विसेहिमो, इड्ढिमपुत्त बलवं असहमाणो । णीहि अणिते बंधण, उवट्टिते सिरिघराहरणं ॥५५६।। साहू भणति-प्रम्हे खमासीला, इदाणि विविहं विशिष्टं वा सहेमो विसहिमो, जो तत्थ प्रागारवं साहू सो दाइजति, इमो साहू कुमारपवतितो, सहस्मजोही वा, मा ते पंतावेज्ज, इड्ढिपुत्तो वा राजादीत्यर्थः, बलवं सहस्सजोही, असहमाणो रोसा बला णोणेहिति, ततो वरं सयं चेव णिग्गतो। जति णिग्गतो तो लटुं, मह ण णीति तो सब्वे वा साहू एगो वा बलवं तं बंधति । इत्थी वि जइ तडफडेति तो सा वि बज्झति । "उवद्विए" ति गोसे, मुक्काणि राउले करणे उवट्ठिताणि तत्थ कारणियाण ववहारा दिज्जति, सिरिघराहरणदिद्रुतेण । जइ रणो सिरिघररयणावहारं करेंतो चोरो गहितो तो से तुम्भे कं दंडं पयच्छह ? ते भगतिसिर से घेप्पति, सूलाए वा भिज्जए । साहू भणंति-अम्ह वि एस रयणावहारी अव्वावातिप्रो मुहा मुक्को बंधणेण । ते भगति-के तुभ रतणा ? साहू भणंति-णाणादी, कहं तेसि हारो ? प्रणायारपडिसेवणातो अपध्यानगमनेत्यर्थः ।।५५६।। गतो उज्जू । इदाणि अणुज्जू भण्णति - अम्हे मो आएमा, ममेस भगिणि त्ति वदति तु अणुज्जू । वसिया गच्छीहामो, रत्ति आरद्ध निच्छुभणं ॥५६०॥ ताए घंघसालाए ठिताणं सइत्थी पुरिसो अागतो भणति - अम्हे मो "प्रादेसा" - पाहुणा, एषा स्त्री मे भगिनी, न भार्या, एवं ब्रवीति अरिजु, इह वसित्ता रत्ति पभाए गमिस्सामो। एवं सो अणुकूलछम्मेण ठियो । “रत्ति प्रारद्धे" ति रत्ति सो इथियं पडिसेवेउमारद्धो तो वारिज्जति । तह कि अट्ठायमाणे णिच्छुभणं पूर्ववत् ॥५६०॥ णिच्छुन्भंतो वा रुट्ठो - श्रावरितो कम्मेहि, सत्तू इत्र उवडिओ थरथरितो मुंचति अ भिडियाओ, एक्केक्कं भेऽतिवाएमि ॥५६१॥ "प्रावरियो" प्रच्छादितः, क्रियते इति कर्म ज्ञानवरणादि, अहितं करोति, कर्मणा प्रच्छादित्वात् ! कहं ? जेण साहूणं उरि सत्तू इव उवट्ठितो रोसेण थरथरेंतो कंपयंतो इत्यर्थः, वातित जोगेणं मुचति 'भिडियाभो ताणि उ पोक्काउ त्ति वुत्तं भवति, भे युष्माकं एकैकं व्यापादयामीत्यर्थः ॥५६१।। एवं तमि विरुद्ध - णिग्गमणं तह चेव उ, जिद्दोस सदोसऽणिग्गमे जतणा । सज्झाए ज्झाणे वा, आवरणे सद्दकरणे य ॥५६२॥ "णिग्गमणं" तारो बहीहो, तह चेव जहा पुत्वं भणियं, जति बहिया णिहोस । अह सदोसं अतो अणिग्गमा तत्येवऽच्छंता जयणाए अच्छंति । का जयणा? "सज्झाए" पच्छदं । पूर्ववत् कण्ठ्य ॥५६२।। १ पूतकारा । २ गा०५५७/३।३ गा० ५४५/३,४ । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ५५६-५६७ J प्रथम उद्देशकः एवं पि जयंताणं कस्सति कामोदो भवेज्जा, इण्णे य इमं कुज्जा कोउहलं च गमणं, सिंगारे कुट्ट छिद्दकरणे य । दिट्ठे परिणयकरणे भिक्खुणो मूलं दुवे इतरे || ५६३ ॥ लहु गुरु लहुया गुरुगा, छल्लहु छग्गुरुयमेव छेदो य । करकम्मस्स तु करणे, भिक्खुणो मूलं दुवे इतरे || ५६४ || दो विगाहाश्री जुगवं गच्छति । कोउहलं से उप्पण्णं "कहमणायारं सेवंति ?” ति, एत्य मास हुं । श्रह से अभिप्पाश्रो उत्पज्जति " श्रासष्णे गंतु सुणेमि ''; अचलमाणस्स मासगुरु; 'गमणं" ति पदभेदे कए चउलहुश्रं । सिंगारसद्द कुडुकडंतरे सुणेमाणसं चउगुरु" । "करणादि" वडुछिद्दकरणे छल्लढुं; तेण छिद्दण भणारं सेवमाणा दिट्ठा छगुरुं । करकम्मं करेमि त्ति परिणते छेदो । प्राढत्तो करकम्मं करेउं मूलं भिक्खुणो भवति । 'दुवे त्ति अभिसेगायरिया, तेसि " इयरे" त्ति प्रणवट्टपारंचिया अंतपार्याच्छित्ता भवंति | हेट्ठा एक्के क्वं सति । अहवा - कोप्रा दिसु सत्तसु पदेसु मासगुरुविवज्जिता मासल हुगादि जहासंखं देया, सेसं तहेब कंठं ।।५६३-५६४।। सीसो पुच्छति - कहं साहू जयमाणो एवं श्रावज्जति ? ण्णति - वडपादव उम्मूलण तिक्खमिव विजलम्मि वच्चंतो | सहिं हीरमाणो, कम्मस्स समज्जणं कुणति ॥ ५६५॥ जहा वडपादनो अणेगमूलपडिबद्धो गिरिणतिसलिलवेगेणं उम्मूलिज्जति एवं साहू वि णतिपूरेण वा तिक्खेण कयपयतो वि जहा हरिज्जति, विगतं जलं "विज्जलं" सिढिलकर्दमेत्यर्थः, तत्थ कयपयत्तो वि वच्वंतो पडति, एवं साहू वि । सद्देह" पच्छद्ध रित्तवसहीए " त्ति दारं गतं दार्णि बहिया णिग्गतस्स दारं पतं वेयावच्चस्सट्ठा, भिक्खा वियारातिणिग्गते संते । - विसयसहि भावे हीरमाणे कम्मोवज्जणं करोतीत्युक्तम् ॥ ५६५॥ “प्रति - भूसणभासासह, सुणेज्ज पडियारणाए वा ॥ ५६६ ॥ १६ उस्सा बहि णिग्गमो इमेहि कारणेहिं - गिलाणस्स प्रोसहपत्थभोयणादिनिमित्तं । एवमादि वेयावच्चट्ठा | "णिग्गश्रो", भिक्खायरियं वा णिग्गतो आदिसद्दातो वियार-सज्झायभूमि वा णिग्गतो समाजो भुसणसद्दं वा भासासद वा परिवारणासह वा सुणेज्ज । पुरिसेण इत्थी परिभुज्जमाणा जं सद्द करेति एस परियारणासो भणति ॥५६६ ॥ तत्थ भुतभुत्ताणं संजमविराहणादोसपरिहरणत्थं इमं भण्णतिभारो विलवियमेत्तं सव्वे कामा दुहावथा । तिविहम्मि वि सद्दम्मी, तिविह जतणा भवे कमसो ॥५६७|| १ गा० ५१७/२ । २ उत्त० श्रध्य० १३ गा०१६/४ । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्र [ सूत्र- १ वलयादिभूसणसद्दे भूसणसद्दं वा श्राभरणभारो ति भण्णति । मित-मधुर-गीतादिमासासद्दे विलवियंति मति प्रवसित मृतभर्तरि गुणानुकीर्तनारोदिनी स्त्रीवत् । परियारसद्दे "सध्वे कामा दुहावह" त्ति दुबखं भावहतीति दुखावहा दुवखोपार्जका इत्यर्थः । तिविह भूसणादिसद्दे एस जयणा भणिता जहाकमसो ॥१६७॥ "सद्द वा सोऊणं" ति दारं गतं । २० इदाणि “दणं" ति दारं भण्णत्ति - - श्रलिंगणावतारण, चुंबण परितारणेतरं वा वि । सच्चित्तमचित्ताण व दट्ठणं उप्पता मोहो || ५६८ ।। पुरिसेणित्थी स्तनादिषु स्पृष्टा श्रलिंगता, वाहाहि श्रवतासिता, मुखेन चु बिता, सागारियसेवणं "परियारणं" "इतर" गुज्झप्पदेसो; एताणि स्वाणि सचित्ताणि वा प्रचित्ताणि वा "चित्र-कर्मलेप्यादिषु दृष्ट्वा मोहोत्पत्तीत्यर्थः ॥५६८ ।। " दठ्ठे " ति दारं गतं । इदाणि “सरिजं" त्ति दारं भण्णति - हासं दप्पं च रति, किड सहभुत्त आसिता च । सरिऊण कस्स इ पुणो, होज्जाही उप्पता मोहे ॥ ५६६ || किचि इत्थियाहि समं हसितं आसी । इत्यीहि सह हत्थो ( रंडा रती ) दो । हवा - गिद्धगादि भारियाए परिहासेण बला थणोरुघट्टणं दप्पो । रतीं ति वा कामो भुत्तो. किड्ड पासगादिभि:, एगभायणे सहभुतं श्रासियं एगासणे णिसण्णाणि तुयट्टाणि वा ठिताणि । एवमादियाणि पुवभुत्ताणि सरिऊण कस्स ति साहुस्स मोहोदग्रो होज्ज || ५६६|| नत्थ दणं मोहो उप्पज्जति, तात्यमा जतणा - दिडीप डिसंहारो, दिट्ठे सरणे विरग्गभावणा भणिता । जतणा सणिमित्तम्मी होतऽणिमित्तं इमा जतणा ॥ ५७० ॥ लिंगणावतासणादिसु दिट्टीपडिहारो कज्जति । दिट्ठेसु हासदप्परडमाइसु पुब्वभुत्तेसु सवणे वेरग्गमादियासु भावणासु अप्पाणं भावेति । भगिया जयणा सणिमिनम्मि । सनिमित्तमोहोदग्रो गम्रो । इंदाणि प्रणिमित्तं भणति । दोइ प्रणिमित्ते इमा परूवणा जयणा य ॥ ५७० ॥ अनिमित्तस्स तिविहो उदप्रो - कम्मो ग्राहारम्रो सरीरश्री य । तत्य कम्मोदश्रो इमो छायस्स पिवासस्स व सहाव गेलण्णतो वि किसस्स | 1 बाहिरणिमित्तवज्जो अणिमित्तु हवति मोहे ॥ ५७१ ॥ "छानो” भुक्खिश्रो, "पिवासितो" तिसितो, सहावतो किसो सरीरेण गेलष्णतो वा किसो, एरिसस्स जो मोहोदश्रो, बाहिरं सद्दादिगं णिमित्तं, तेण वज्जितो प्रणिमित्तो एस मोहोदो ||५७१ ॥ कम्मोदउत्ति गतं । १ प्राचा० श्रुत० २ चू० २ सू० १७१ । २ गा० ५१६ / २ | Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यंगाथा ५६८-५७४ ] प्रथम उद्देशकः २१ इदाणि 'पाहारोदो त्ति भण्णति - आहारउन्भवो पुण, पणीतमाहारभोयणा होति । वाईकरणाऽऽहरणं, कल्लाणपुरोध उज्जाणे ॥५७२।। भाहारपच्चो मोहब्भवो "पुण" विसेसणे, "पणीत" गलंतणेहं, माहार्यते इति प्राहारः, प्रणीता हारभोजनाद् मोहोद्भवो भवतीत्यर्थः । कथं ? उच्यते "वातीकरण" त्ति । पणीयाहारभोयणामो रसादि वुड्ढी जाव सुक्कंति ; सुक्कोवचया वायुप्रकोपः, वायुप्रकोपाच्च प्रजननस्य स्तम्धताकरणं, प्रतो भण्णति वाई... अहवा पणीयाहारो वाजीकरणं दप्पकारकेत्यर्थः । इहोदाहरणं - "कल्लाण पुरोहउज्जाणे" त्ति कंपिल्लपुरं णगरं । ब्रह्मदत्तो राजा। तस्स कल्लाणगं णाम आहारो। सो वरिसेण णिफिजति । तं च इत्थिरयणं चक्की य भुजंति । तव्वइरित्तो अण्णो जइ भुजति, तो उम्मामो भवति । पुरोहितो य तमाहारमभिलसति । पुणो पुणो रायाणं भणति - चिरस्स ते रज्जं लद्ध, अदिट्ठकल्लाणोसि, जेण सारीरियमाहारं ण देसि कस्स ति । राइणा रूसिएण भणिओ - कल्लं णातित्थिवग्ग सहिरो णिमंतिम्रो सि । राइणा उज्जाणे जेमावियो। तेहिं मोहुदो गोधम्मो समाचरितो। एवं पणीयाहारेण मोहुदो भवति त्ति ॥५७२॥ "आहारोदउ" त्ति गतं। इदाणि २"सरीरोदउ त्ति भणति - मंसोवचया मेदो, मेदामो ओढ-मिंज-सुक्काणं । सुक्कोवचया उदओ, सरीरचयसंभवो मोहे ॥५७३॥ माहारातो रसोवचनो। रसोवनयामो रुहिरोवचनो। रुहिरोवचया मंसोवचनो। मंसोवचया मेदावचनो। एवं कमेण 'मेदो" वसा "प्रट्ठी" हहुं, मिज्जं मेज्जुल्लउ त्ति वुत्तं भवति, ततो सुक्कोवचो, सुक्कोवच्चयानो मोहोदप्रो भवति । एवं सरीरोवचयसंभवो मोहोदनो भवतीत्यर्थः ॥५७३। गतं "सरीरोदए" त्ति दारं। एवं सणिमित्तस्स अनिमित्तस्स मोहुदयस्स उप्पण्णस्स झाणज्झयणादीहिं अहियासणा कायव्वा । अट्ठायमाणे - णिवितिगणिब्बले भोमे, तह उट्ठाणमेव उन्मामे । वेयावच्चा हिंडण, मंडलि कप्पट्टियाहरणं ॥५७४॥ णिव्वीतियमाहारं पाहारे ति। तह वि पठायमाणे णिवलाणि मंडगचणगादी पाहारेति । तह वि प्रठायमाणे प्रोमोदरियं करेति । तह वि ण ठाति चउत्थादि-बाव-छम्मासियं तवं करेति, पारणए णिन्बलमा हारमाहारेति । जइ उवसमति तो सुंदरं। प्रह णोवसमति "ताहे" उट्ठाणं महतं करेति कायोत्सर्गमित्यर्थः । तह वि अठायमाणे उन्मामे भिक्खायरिए गच्छति । अहंवा - साहूण 'वीसामणा" ति वेयावच्चं कराविज्जति । तह वि प्रठायमाणे देसहिंडगाणं सहामो दिज्जति । एत्थ हेदिल्लपया उवरुवरि टुवा, एवं प्रगीतत्पस्स । गीतत्वोपुण सुत्तत्थमंडलि दाविवति । १ गा० ५१६ । २ गा० ५१६ । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१ अहवा- गीतन्यस्स वि णिवितिगादि विभासाए दट्ठव्वा । नोदक आह - जति तावागीयत्थस्स निव्वीयादि तवविसेसा उवसमो ण भवति तो गीयत्थस्स कहं सीयच्छायादिठियस्स उवसमो भविस्सति ? प्राचार्याह - पैशाचिकमात्यानं श्रुत्वा गोपायनं च कुलवध्वास्संयम योगैरात्मा निरन्तरं व्यापृतः कार्यः "कप्पठियाहरणं" ति - एगस्स कुडुबिगस्स धूया णिक्कम्मवावारा सुहासणत्था अच्छति । तस्स य मन्भंगुव्वट्टण-ण्हाण-विलेवणादिपरायणाए मोहब्भवो । अम्मधाति भणति । आणेहि मे पुरिसं । तीए अम्मघातीए माउए से कहियं । तीए वि पिउणो । पिउणा वाहिरत्ता भणिया। पुत्तिए ! एतामो दासीनो सव्वघणादि अवहरंति, तुमं कोठायारं पडियरसु, तह त्ति पडिवन्न, सा-जाव-आण्णस्स भत्तयं देति, अण्णस्स वित्ति, अण्णस्स तंदुला, अण्णस्स आयं देवखति, अण्णस्स वयं, एवमादिकिरियासु वावडाए दिवसो गतो। सा अतीव खिण्णा रयणीए णिवण्णा अम्मधातीते भणिता - आणेमि ते पुरिसं? सा भणेति - ण मे पुरिसेण कज्जं, णि लहामि । एवं गीयत्थस्स वि सुत्तपोरिसिं तस्स अतीव सुत्तत्थेसु वारम्स कामसंकप्पो ण जायइ । भणियं च “काम ! जानामि ते मूलं" सिलोगो ॥५७४॥ एवं तु पयतमाणस्स उवसमे होति कस्सइ ण होति । जस्स पुण सो ण जायइ, तत्थ इमो होइ दिद्रुतो ॥५७॥ "एवं" गान्वीतियादिप्पगारेण जयमाणस्स य साहुस्स उवसमो यि होति, कस्स वि ण होति । जस्स पुण साहुस्स सो मोहावयमो ण जायति; तत्थ अणुवसमे इमो दिटुंतो कजति ॥५७५॥ तिक्खम्मि उदयवेगे, विसमम्मि वि विज्जलम्मि वच्चंतो। कुणमाणो वि पयत्तं, अवसो जध पावती पडणं ॥५७६॥ गिरिणईए पुण्णाए कयपयत्तो वि पुरिसो तिक्खेण उदगवेगेण हरिजति; एवं निम्नोन्नतं विसमं विगतजलं विज्जलं एतेसु कयपयत्तो वि पडणं पावति ॥५७६।। अस्य दृष्टान्तस्योपसंहार : क्रियते - तह समण सुविहियाणं, सव्वपयत्तेण वी जयंताणं । कम्मोदयपच्चइया, विराधणा कस्सइ हवेज्जा ॥५७७।। "तह" तेण प्रकारेण, समो मणो समणो, सोभणं विहियं पाचरणमित्यर्थः, सव्वपयत्तेण णिन्वीतियाति वा चणाति जोगेण जयंताणं विं कर्महेतुकचारित्रविराहणा कस्यचित् साधोर्भवेदित्यर्थः । एवं सो उदिण्णमोहो अदढधिती असमत्थो अहियासेउ ताहे हत्थकम्मं करेति ।।५७७।। पढमाए पोरिसीए, बितिया ततिया तहा चउत्थीए । मूलं छेदो छम्मासमेव चत्तारिया गुरुगा ॥५७८॥ १ महाभारते । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा ५७५-५८३ ] प्रथम उद्देशकः पढम-बितिय-ततिय-चउत्थीए पोरिसीए य जहक्कमेण हत्थाम्म करेंतस्स पच्छित्तं - मूलं छेदो छग्ग्ररु चउग्गुरुगा य ॥५७८॥ अस्या गाथाया व्याख्या - णिसिपढमपोरिसुब्भव, अदढविती सेवणे भवे मूलं , पोरिसि पोरिसि सहणे, एक्केक्कं ठाणगं हसति ॥५७६।। रातो पढमोरिसीए मोहुन्भवो जाओ, तम्मि चेव पोरिसीए अदढधितिस्स हत्थकम्मं करेंतस्स मूलं भवति । अह पढमपोरिसिं सहिउँ बितियपोरिसिए हत्थकम्मं करेति छेदो भवति । मह दो पोरिसिए सहि ततिए पोरिसिए हत्थकम्मं करेति छग्गुरुगा । अह तिणि पोरिसियो अहियासेउं चउत्थे पहरे हत्थकम्म करेति था । एवं पोरिसिहाणीए स्थानह्रासो भवतीत्यर्थः ॥५७६।। वितियम्मी दिवसम्मि, पडिसेवंतस्स मामितं गुरुगं । छ? पच्चक्खाणं सत्तमए होति तेगिच्छं ॥५८०॥ एवं रातीए चउरो पहरे अहियासेउ बितियदिवसे पढमपोरिसीए मासगुरु। एवं पंचम पायच्छित्तट्ठाणं । एवं पडिसेवित्ता अपडिसेवित्ता वा अण्णस्स साहुस्स कब्जे कहेज्जा । ते य कहिते इमेरिसमुवदिमेज्जा छ? पच्चक्खाणं "पच्छद्ध' ॥५८०॥ ( व्याख्या अग्रेतनासु गाथासु) पडिलाभणऽढमम्मी, णवमे सड़ढी उवस्सए फासे । दसमम्मि पिता पुत्ता, एक्कारसम्मि आयरिया ॥५८१॥ “पच्चक्खाणं' एतप्पभितीण इमं पच्छिा --- छट्ठो य सत्तमो या, अधसुद्धा ते मासियं लहुगं । उदरिल्ले जं भणंति, बुड्ढस्सऽधि मासियं गुरुगं ॥५८२॥ छटुसत्तमा ग्रहासुद्धा णाम न दोषयुक्तं उदय ददतीत्यर्थः । जे पुण ण गुरूपदेशो सेच्छाए भण्णति तेण तेसि मासलहुं पायच्छित्तं । उवरिल्ले ति पडिताभणादि तिष्णि "जं भणंति" ति सदोषमुपदेशं ददति तेण तेति तिण्ह वि मासगुरु पच्छित्तं । पिता वुड्डा तस्स वि मेहुणपल्लि णयंतस्स मासगुरु "अवि" संभावगे, अण्णस्स वि ॥५८२।।। "'छुट्टे पच्चक्खाणं" ति अस्य व्याख्या -- संघाडमादिकधणे, जंकतं तं कतमिदाणि पच्चक्खं । अधिसुद्धो दुट्टवणो, ण सुज्भ सिरिया से कातव्या ॥५८३॥ संघ डइल्लसाहुस्स अण्णस्स वा कहियं - जा मे हत्थकम्मं तं । सो भणति - कतं तं कतमेव, इदाणि भत्तं पच्चक्खाहि, किं ते भट्टपइण्णस्स जीविणं । १ गा० ५८०/३, उत्तरार्ध । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ " सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे "सत्तमतो होइ तेगिच्छं " अस्य व्याख्या "अविसुद्धो" पच्छद्धं । जहा अत्रिसुद्धो दुदुवणो रख्फगादि, किरियाए विणा ण विसुज्झति ण णप्पति, एवं तुभए जं कयं तं कतमेत्र इदाणिं णिश्वीतिय तिकिरियं करेहि जेगोवसमो भवति ||५८३ ॥ पडिलाभमे" अस्य व्याख्या dia पडिलाभणा तु सड्डी, कर सीसे बंद ऊरु दोच्चंगे । मूलादि उम्मज्जण, ओड्डण सदिमाणेमो ||५८४|| तथैवाख्याते इदमाह "सड्ढी" श्राविका, सा पडिला भाविज्जति । तीए पडिला भंतीए ऊरुए ठिए पात्रे महाभावेण प्रब्भुवेच्च वा चालिते ऊरुश्रं मञ्भेण प्रोगलति दोच्चंगाती तो सा सड्ढी करेण फुसति, सीसेण वंदमाणी पादे फुसेज्जा । इत्थीफासेण य बीएणिसग्गो हवेज्जा ततोवसमोस्यात् । ""णवमे सड्ढी उवस्सए" अस्य व्याख्या "मूलादि" पच्छद्धं । मूलं श्रादिग्गहणा तो गंडं प्रणतरं वा तदगुरूवं रोगमुक्कडं कज्जति, ततो सड्डी श्राणिज्जति उवस्सयं, तस्स वा घरे गम्मइ, ततो सा उम्मज्जतिस्पृशति उकडणं गाढतरं, तेण इत्थिसंफा सेण बीयणिसग्गो भवे ।। ५८४ ॥ ""दस मम्मि पितापुत्त" त्ति अस्य व्याख्या सण्णात पल्लि गेहिण, मेहुण खुड्डतणिग्गमोवसमो । अविधितिमिच्छा एमा, आयरियकहणे विधिक्कारे ॥। ५८५|| [ सूत्र- १ तथैवाख्याते दसमे ब्रवीति खंतं भणाति - तुब्भे दो वि पितापुत्ता सण्णायपल्लिं गच्छह सण्णायगगामं तित्तं भवति, तत्य "मेहृणिया" माउलदुहिया, 'खुडत" ति उत्प्रासवणेहि भिष्णकहाहि परोप्परं हत्थसंफरिसेण कीडंतस्स बीयणिसग्गो, ततोवसमो भवति । प्रविधितिगिच्छा एसा भणिया । "" इकारसमंमि प्रायरिया" अस्य व्याख्या - " आयरियकहणे विधिवकारों" । तह चेव Mard भइ तुमं श्रायरियाणं कहेहि, जं ते भगति तं करेहि एस एक्कारसमे विहीए उवएसो । तेण सो णिद्दोसो ||५८५|| हवा कोति भणेज्जा - इमेहि हत्यकम्मं कारविज्जति ' सारुवि - सावग - गिहिंगे, परतित्थि - णपुंसए य सुयणे य । चतुरो य होति लहुगा, पच्छाकम्मम्मि ते चेव ||५८६ ॥ साविगेण, सारूविगो सिद्धपुत्तो, सायगेण वा, गिहिणा मिच्छादिट्टिणा वा, परतित्थिएण वा, "नपुंसए सुयोय" ति अण्णे एए चेव चउरो पुरिसनपुंसया, एतेहि हत्थकम्मं कारविज्जति । एतेहि कारवेमाणस्स पत्तेयं चउलहुया भवंति । विसेमिया अंतपदे दोहि वि गुरुगा । एवं पुरिसनपुं सगेसु वि ) । ग्रह ते हृत्थकम्मं करेउं उदगेण हत्था घोयंति एवं पच्छाकम्मं । एत्थ से चउलहुयं । ने चेव चउलहगा ब्रवतोऽपि भवन्तीत्यर्थः । अहवा - "नपुंसए" त्ति काऊं चउगुरुश्रं । एस अण्णो आदेसो ॥ ५८६ ॥ १०५८० / ४ । २ गा०५८१/१ । ३ गा० ५८१ / २ । ४ गा० ५८५ / ३ । ५ गा० ५८५ / ४ । ६ बृह० उद्दे० ७ भाष्यगाथा ४६३६ । ७ " तपः कालाभ्याम्" | Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ५८४-५६१]. प्रथम उद्देशकः २५ अहवा - कोति भणिमो प्रभगितो वा इत्थियाहिं हत्थकम्म कारवेज्ज । एसेव कमो णियमा, इत्थीसु वि होति आणुपुवीए । चउरो य हुंति गुरुगा, पच्छाकम्ममि ते लहुगा ॥५८७॥ एसेव "कमो" पकारो जो पुरिसाण सारूवियादी भणितो "णियमा" अवस्सं सो चेव पगारो इत्योसु वि भवति । णवरं - च उगुरुगा भवंति । तह चेव विसेसिता। पच्छकमम्मि ते चेव चउलहुया भवंति ॥५८७॥ इदाणि जं 'सुते भणियं “करेंतं वा सातिजति" त्ति अस्य व्याख्या - अणुमोदणकारावण, दुविधा साइज्जणा समासेणं । अणुमोदणे तु लहुओ, कारावणे गुरुतरो दोसी ॥५८८॥ सातिज्जति स्वादयति, कर्मबन्धमास्वादयतीत्यर्थः, सा सातिज्जणा दुविहा - अणुमोयणे कारावणे य। “समासो" सं सीसो पुच्छत्ति - एतेसि कारावण मणुमतीणं कयरम्मि गुरुतरो दोसो भवति ? प्राचार्याह - “भणु” पच्छदं । अणुमोदणे लहुतरो दोसो, कारावणे गुरुतरो दोसेत्यर्थः ।।५८८।। कारावण अणुमतीणं किं सरूवं ? भण्णति - कारावणमभियोगो, परस्स इच्छस्स वा अणिच्छस्स । काउं सयं परिणते, अणिवारण अणुमती होइ ॥५८६॥ एवं भणति - तुम अप्पणो य अण्णस्स वा हत्यकामं करेहि ति, प्रात्मव्यतिरिक्तस्य परस्यैवं इच्छस्स वा प्रणिच्छस्स वा बलाभियोगा हत्थकम्मं करावयतो कारावणा भणति ति । इमं प्रणुमतिसरूवं. "काउं" पच्छदं जो सयं प्रप्पणो हत्यकम्म काउं परिणतो तं अनिवारेतस्स अणुमती भवति । ५८६।। भणितं साधूणं । इदाणिं संजतीणं भण्णति - एसेव कमो णियमा, णिग्गंथीणं पि होति कायन्यो । पुव्वे अवरे य पदे, जो य विसेसो स विष्णेओ ॥५६॥ एसेव "कमो" पगारो, संजतीण वि "णियमा" अवश्यं निर्ग्रन्थीनां भवतीत्यर्थः । “पुखपदं", उस्सग्गपदं, "प्रवरपदं भववादपदं तेसु जो विसेसो सो विष्णेयो ||३०|| इमं पच्छित्तं - दोण्हं पि गुरू मासो, तवकालविसेसितस्स वा लहुओ। अंगुलिपादसलाया दिओ विसेसोत्थ पुरिसा य ॥५६॥ "दोण्हं पि" ति - साहु साहुणीणं । १ प्रथम सूत्र। Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૬ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे हवा - कारावणे अणुमतीते य मासगुरू पञ्छितं । अहवा कारावगस्स मासलहुं तवगुरुगं । श्रणुमतीते य मासगुरू कालगुरु । इमो पुण संजतीणं हत्यकम्मकरण विसेसो, अंगुलीए वा हत्यकम्मं करेइ पादे वा पहियपदेसे, प्रण्णतरं दोद्धियणालादि बंधिउं. करेति । भ्रणस्स वा पायंगुदुगेण पलंबगेण वा श्रष्णतराए वा कटुसलागाए, एस विसेसो । “पुरिसा य" जहा पुरिसाण इत्यीओ तहा ताण पुरिसा । गुरुगादित्यर्थः ॥ ५६१ ॥ जे भिक्खु श्रंगादाणं कट्ठेण वा कलिंचेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा संचाइ संचातं वा सातिज्जति || | ० || २ || "अंगं" सरीरं सिरमादीणि वा अंगाणि, तेसि प्रादाणं अंगादाणं प्रभवो प्रसूतिरित्यर्थः । तं पुण अंगादाणं मेद्र भणति । तं जो अण्णतरेण कट्टेण वा "कलिवो" वंसकप्परी, "अंगुली" पसिद्धा, वेत्रमादि सलागा. एतेहि जो संचालेति साइज्जति वा तस्स मासगुरुगं पच्छित्तं । इदाणिं णिज्जुती भणति अंगण उबंगाणं, अंगोवंगाण एयमादाणं । एतेणंगाताणं, अणातणं वा भवे वितियं || ५६२॥ अंगाणि अट्ट - सिरादी, "उवंगा" कष्णादी, अंगोवंगा णखपव्वादी, एतेसि " एयं पादाणं" कारणमिति । एतेण एयं श्रंगादाणं भण्णति । हवा - प्रणायतणं वा भत्रे बितियं णाम ॥५६२॥ "अंगाणं" ति ग्रस्य व्याख्या सीसं उरो य उदरं पट्टी बाहा य दोणि ऊरूश्रो । एते दूंगा खलु, अंगोचंगाणि सेसाणि ॥ ५६३ || "सिरं" प्रसिद्धं, "उरो" स्तनप्रदेशः, "उदरं " पेट्टं, "पट्टी" पसिद्धा, दोन्हि बाहातो, दोहि ऊरू । एताणि अट्ठगाणि । "खलु" अवधारणे भणितः । प्रवसेसा जे ते उवंगा अंगोवंगा य ॥५६३॥ ते इमे य - [ सूत्र २-६ होंति उवंगा कण्णा, णासऽच्छी जंघ हत्थपाया य । ह केस मंसु अंगुलि, तलोत्रतल अंगुवंगा तु ।। ५६४ ॥ कण्णा, णासिगा, अच्छी, जंघा, हत्था, पादा, य एवमादि सब्वे उवंगा भवंति । णहा वाला श्मश्रु अंगुली हस्ततनं हत्थतलाम्रो समंता पासेसु उण्णया उवतलं भष्णति । एते नखादि सव्वे अंगा इत्यर्थः ॥ ५४ ॥ तस्स संचालणसंभवो इमो - संचालणा तु तस्सा, सणिमित्तऽणिमित्त एतरा वा वि । श्रत - पर-तदुभए वा अणंतर परंपरे चेव ॥ ५६५॥ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ५६२ - ५६६ ] प्रथम उद्देशकः तस्येति मेद्रस्य संचालणा सनिमित्ते मोहोदए अनिमित्ते वा । सणिमित्ते “सदं वा सोउणं, दट्ट् सरि व पुताई 'पूर्वसूत्रे यथा तथा व्याख्यातव्यमिति । प्रनिमित्ते "उदयाहारे सरीरे य" इदमपि प्रथमसूत्र एव व्याख्यातव्यम् । "इतरा वा वि" त्ति सणिमित्ता णिमित्तवज्जा | सामण्णेण सव्वावि चालणा तिविधा - प्रप्पाणेण परेण वा उभएण वा । एक्केक्का दुविधा - श्रणंतरा परंपरा वा । श्रणंतरेण हत्येण, परंपरेण कट्ठादिणा ||५|| "एतरा वा वि" त्ति श्रस्य व्याख्या - उदु - णिवेसुल्लंघण - उन्नत्तण-गमणमादिए इतरा | णय घट्टणवोसिरितुं चिट्ठति ता णिष्पगलं जाव || ५६६॥ उतस्स, णिपीएंतस्स वा, लंघणीयं वा उल्लंघेंतस्स सुत्तस्स वा, उव्वत्तणादि करेंतस्स गच्छंतस्स वा, प्रादिसद्दातो पडिलेहणादि किरियासु । एवमादि इतरा संचालणा । सण्णं काइयं वा वोसिरिउं न संचालेति । काइयपडिसाडणणिमित्तं ताव चिट्ठइ जात्र सयं चैव णिप्पगलं । प्रणंतरपरंपरेण संचालेमाणस्स मासगुरू प्राणादिणो य दोसा भवंति ।। ५६६ ॥ २७ जे भिक्खु अंगादाणं संवाहेज्ज वा पलिमद्द ेज्ज वा, संवाहतं वा पलिमद्दतं वा सातिज्जति ||सू०॥३॥ 'संवाहति” एक्कसि "परिमद्दति" पुणो पुणो, सा संवाहणा सगिमित्ता वा प्रणिमित्ता वा पूर्ववत् । श्राणादिविराधणा सच्चेव । जे भिक्खू अंगादाणं तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीए वा 'अब्भंगेज मक्खेज्ज वा अब्भंगितं वा मक्र्खेतं वा सातिज्जति | | ० ||४|| "तेल्लघृता" पसिद्धा, वसा प्रयगर मच्छ-सूकराणं प्रब्भंगेति एक्कसि, "मक्ख ति पुर्णा पुणो । ग्रहवा – थेवेण श्रब्भंगणं, बहुणा मक्खणं, उवट्टणासूत्रे घोवणासूत्रे सणिमित्त श्रणिमित्ताय पूर्ववत् साइज्जणा तहेव, प्राणातिविराणा पूर्ववत् । जे भिक्खू अंगादाणं कक्त्रेण वा लोद्वेण वा पउमचुण्णेण वा सिणाणेण वा चुण्णेहिं वा वण्णेहिं वा उब्वट्टेइ परिवट्टेइ वा, उव्वट्टतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥५॥ “कक्कं” उव्वलणयं, द्रव्यसंयोगेण वा कक्कं क्रियते, किचिल्लोहं (लोद्र) हट्टद्रव्यं, तेण वा उव्वट्टे ति, पद्मचूर्णेन वा, "व्हाणं" व्हाणमेव । अहवा - उवण्हाणयं भण्णति, तं पुण माषचूर्णादि, सिगाणं-गंधियावणे अंगाघसणयं वुति, वो जो सुगंघो चंदणा दिचूर्णानि जहा वड्ढमाणचुणी पडवासवासादि वा, सनिमित्तऽनिमित्ते तहेव उम्बट्टे ते एक्कसि, परिवट्टे ति पुणो पुणो । जे भिक्खू अंगादाणं सीतोदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उज्छोलेज वा पषोएज वा, उच्छोलेंतं वा पधोवंतं वा सातिज्जति | | ० || ६ || १ गा० ५१६ / १-२ । २ गा० ५६५ / २ । ३ प्रभ्यंग मालिश । पहाणेण वा परिवट्टेतं वा Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ७-८ सीतमुदकं सीतोदकं, "वियडं" ववगयजीवियं, उसिणमुदकं उसिणोदकं, 'वियड" च ववगयजीवियं, "उच्छोले ति" सकृत्, “पधोवणा” पुणो पुणो । जे भिक्खू अंगादाणं णिच्छल्लेति, णिच्छल्लेतं वा सातिज्जति ||सू०||७|| णिच्छल्ले ति त्वचं प्रवणेति, महामणि प्रकाशयतीत्यर्थः । जे भिक्खू अंगादाणं त्रिति जिंघंतं वा सातिज्जति ॥सू०||८|| जिघ्रति नासिकया प्राघ्रातीत्यर्थः । हत्येण वा मलेऊणं लंबणं च जिधति । एतेसि संचालणादीनं जिघणावसाणाणं सत्तण्हवि सुत्ताणं इमा सुत्तफासविभासा-संवाहणमभंगण, उच्चट्टण धोवणे य एस कमो । णायव्वो णियमा तु, णिच्छलण-जिंघणाए य || ५६७ || २८ ני संवाहणा. सूत्रे प्रभंगणासूत्रे उब्बट्टणासूत्रे धोवणा सूत्रे एस गमो ति सो चैव य पगारो णायन्त्रो "णियमा" अवश्यं णिच्छल्लजंघणः सूत्रे च ॥५६७।। • एते चैव सत्तसु वित्तेसु इमे दिनंता जहङ्क्रमेण - - सीहाssसीविसग्गी, भल्ली वग्घे य अयकर - परिंदे | सत्तसु वि पदेसेते, हरणा होंति णायव्वा ||५६८ || संचालणासुत्ते दिट्ठतो - सीहो सुत्तो संचालितो जहा जीवितकरो भवति । एवं अंगादाणं संचालियं मोटु भवं जणयति । ततो चारितविराहणा । इमा प्रायविराहणा- मुक्कखएण मरेज्ज । जेण वा कट्ठाइ संचालेति तं सत्रिसं उमुत्तिल्लयं वा स्वयं वा कटुग हवेज्जा । जो संवालणासूत्रे भणिप्रो संवाहणात्ते इमो दिट्ठतो - जो प्रासीविसं सुहसुतं संजोहेति सो विबुद्धो तस्स जीवितकरो भवति । एवं अंगादाणं वि परिमद्दमाणस्स मोहुब्भवो ततो चारितजीवियत्रिणासो भवति । प्रब्भंगणासुत्ते इमो दिट्ठतो - इयरहा वि ताव भग्गी जलति कि पुण घतादिणा सिन्च्चमाणी । एवं अंगादाणे विभक्खिज्ज माणे सुट्ठनर मोहुब्भवो भवति । उव्वट्टणासुत्ते इमो दिट्ठतो "भल्ली” शस्त्रविशेषः, सा सभावेण तिष्हा किमंग पुण जिसिया एवं श्रंगादाणसमुत्थो सभावेण मोहो दिप्पति, किमंग पुण उन्नतेि । उच्छोलणासुते इमो दिट्ठतो - एगो वग्बो, सोच्छिरोगेण गहियो, संबद्धा य अच्छी तस्स य एगेण वेज्जेण वडियाए श्रवखीणि अंजेऊण पउणीकताणि, तेण सो चेव य खद्धो । एवं अंगादाणं पि सो (सुठु) इतर चारित्रविनाशाय भवतीत्यर्थः । च्छिणासुते इमोदितो - जहा प्रयगरस्स सुहत्यत्तस्स मुहं वियडेति त तस्स व्यवहा भवति । एवं अंगादाणं पि मिच्छल्लियं चारित्रविनाशाय भवति । जिवणासुत्ते इमो दिठ्ठतो - "गरिदे" ति । एगो राया तस्स वेज्जपडिसिद्धे अंबए जिघमाणस्स वाही उद्धाइतो, गंधप्रियेण वा कुमारेणं गंधमग्घायमागेग अप्पा जीवियाम्रो भंसिम्रो। एवं अंगादाणं जिधमाणो संजमजीवियाम्रो चुम्रो प्रणाइयं च संसारं भमिस्सति त्ति । सत्तसु वि पदेसु एते प्राहरणा भवतीत्यर्थः ||८|| भणिश्रो उस्सग्गो । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाव्यगाथा ५६७-६०३] प्रथम उद्देशक: - इदाणिं अववातो भण्णति - बितियपदमणप्पज्झे, अपदंसे मुत्तसक्कर-पमहे । सत्तसु वि पदेसेते बितियपदा होति णायव्वा ।।५६६॥ "बितियपदं" अववायपदं प्रणप्पज्झो अनात्मवशः ग्रहगृहीत इत्यर्थः । सो संचालणादिपदे सव्वे करेज्जा। प्रपसो-पित्तारुमं, मुत्तसक्करा पाषाणकः, पमेहो रोगो सततं कायियं ज्झरतं मच्छति । 'एतेसु पदेमु सत्तसु वि जहासंभवं भाणियव्वा ॥५६॥ भणियं संजयाण । इदाणि संजतीण - एसेव गमो णियमा, संचालगवज्जितो उ अजाणं । संशहणमादीसु, उवरिल्लेसु छसु पदेसु ॥६००॥ एसेव पगारो सवो णियमा संचालणासुत्तविज्जिो संवाहणादिसु उवरिल्लेसु छसु वि मुत्तेष्वित्यर्थः ।।६००। जे भिक्खू अंगादाणं अण्णयरंसि अचित्तसि सोयंसि अणुप्पवेसेत्ता सुक्कपोग्गले णिग्घाएति निग्यायंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥६॥ अन्नयरं णाम बहुणं परूवियाणं अण्णतरे प्रचितं नाम जीव-विरहितं, सवतीति सोतं तत्र अंगादाणं दास ऊण मुक्कपोग्गले णिग्याएति । इदाणिं णिज्जुत्ती - अच्चित्तसोत तं पुण, देहे पडिमाजुतेतरं चेत्र । दुविधं तिविधमणेगे, एक्कक्के तं पुणं कमसो ॥६०१॥ "प्रच्चित्तं" जीवरहितं “सोतं" छिद्र, पुणसद्दो भेदप्पदरिसणे, तं प्रचित्तसोतं तिविहं - देहजुर्य पाडमाजुयं चेयरं च । एककेकस्स पुणो इमे भेदा कमसो दट्ठव्वा - देहजुत्तं दुविहं, पडिमाजुतं तिविहं, इतरं प्रणेगहा ॥६०१॥ नत्थ जं देहजुग्रं तं दुविहं इमं - तिरियमणुस्सित्थीणं, जे खलु देहा हवंति जीवजढा । अपरिग्गहेतरा वि य, तं देहजुतं तु णायव्वं ॥६०२॥ तारयइत्थीणं मणुयइत्यीणं जे देहा जीवजढा भवन्ति, "खलु" अवधारणे, ते पुण सरीरा प्रपरिम्गहा "इतरा" सपरिग्गहा. सचेतणं सपरिग्गहं अपरिग्गहं उवरि वक्खमाणं भविस्सति । एवं देहजुतं पवतीत्यर्थः ॥६०२॥ इदाणि पडिमाजुत्तं तिविहं परूविज्जति - तिरियमणुयदेवीणं, जा य पडिमा -अश्रो सन्निहिओ। अपरिग्गहेतरा वि य, तं पडिमजुतं तु णायव्वं ॥६०३।। १ पूर्वोक्तेषु । २ गालयतीत्यर्थः । ३ अउ सन्निहितिउ ( प्रत्यन्तरे ) । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र तिरियपडिमा मणुयाडिमा देविपडिमा य प्रसन्निहियायो 'सन्निहियानो। प्रसणिहिया दुविहाअपरिगहा, "इतरा" सपरिगहा य । जं एयविहाणठियं तं पडिमजुत्तं ति णातव्वं ॥६०३॥ इदाणि इतरं अणेगविहं परूविज्जति - जुग-छिड्ड-णालिया-करग गीवेमाति सोतगं जं तु । देहच्चाविवरीतं, तु एतरं तं मुणेयव्वं । ६०४॥ जुगं बलिहाण खंधे प्रारोविजति लोगपसिद्ध तस्स छिडुअण्णतरं वा, णालिया वंस-णलगादीणं रिह, करगो पाणियभंडयं, तरस गीवा छिडे वा एवमादि सोतगं । देहं सरीरं, अच्चयंति तामिति प्रच्चा प्रतिमा, तेसि विवरीतं अण्णंति वुत्तं भवति । इह पुण असन्निहिय अपरिगहेसु अधिकारो । जं एरिसं तं इतरं मुणेयव्वमित्यर्थः ॥६०४॥ एतेसि सोप्राणं अण्णतरे जो सुक्कपोग्गले णिग्याति तस्स पच्छित्तं भण्णति - मासगुरुगादि छल्लहु, जहण्णए मज्झिमे य उक्कोसे । अपरिग्गहितऽच्चित्ते अदिट्ठदिढे य देहजुते ॥६०५।। देहजुए अपरिग्गहिते प्रच्चित्ते जहण्णए प्रदिढे मासगुरु । दिढे चउलहु । अड्ढोवकतीए चारियध्वं । मज्झिमे प्रदिटे च उलहुधे । दिद्वे चउगुरु । उकोसते प्रदिढे चउगुरु, दिढे छल्लहुधे ।।६०५।। तिरियमणुयाण सामण्णेण देहजुझं अपरिग्गहियं भणियं ।। इदाणि तिविह-परिग्गहियं भण्णति - चउलहुगादी मूलं, जहण्णगादिम्मि होति अच्चित्ते । तिविहहिं परिगहिते, अदिदिढे य देहजुते ॥६०६॥ इमा वि अढोक्कंती चारणिया देहजुते अचित्ते पायावच्चपरिग्गहे जहण्णए अदिट्ट चउलयं । दि? चउगुरुयं । कोडंबिय परिग्गहे जहण्णए अदि8 चउगुरु, दिट्टे छल्लहुं । दंडियपरिग्गहे जहण्णए अदितु छल्लहुयं, दिढे छग्गुरुयं । एतेण चेव कमेणं तिपरिगहे मज्झिमए चउगुरुगादि छेदे ठाति । एतेण चेव कमेणं तिपरिग्गहे उक्कोसए छल्लहुअादि मूले ठाति ॥६०६।। भणियं देहजुग्रं। पदाणि पडिमाजुभं भण्णति - पडिमाजुते वि एवं, अपरिग्गहि एतरे असण्णिहिए । अचित्तसोयसुत्ते, एमा भणिता भवे सोधी ॥६०७|| पडिमाजुयं पि एवं चेव भाणियध्वं । जहा देहजुनं अचित्तं अपरिग्गहं तहा पडिमाजुप्रं असणिहियं अपरिग्गहियं । जहा देहजुनं प्रचित्तं सपरिगहं तह पडिमाजुग्रं प्रसिणिहियं सपरिग्गहियं भाणियव्वं । इतरेसु पुण जुगच्छिड्डणालियादिसु मासगुरु । एत्थ मुत्तनिवातो एसा अचित्तसोयसुत्ते सोही भणिया. ॥६०७11 -साधिधिता। २भारी ति भापायां। ३ प्राजापत्य-लोक। ४ मङपक्रांत्या। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माप्यगाथा ६०४-६१२ । प्रथम उद्देशकः एनेसामण्णतरे, तु सोतए जे उदिण्णमोहो उ । सणिमित्तऽणिमित्तं वा, कुजा णिग्यातणादीणि ॥६०८।। एनेसि अचित्तसो प्राणं सणिमिते प्रणिमित्ते वा मोहुदए (एतेसि) अण्णतरे प्रचित्तसोतए सुकूपोग्गले णिग्वातेति, सो प्राणादि विराहणं पावइ ।।६०८।। इमा संजमविराहणा रागग्गि संजमिंधण, दाहो ग्रह संजमे विराहणया । मुक्कावए य मरणं, अकिच्चकारि ति उब्बंधे ॥६०६।। राग एवं अग्निः रागाग्निः, संजम एव इंधणं संजमेधनं, प्रतस्तेन रागाग्निना संयमेन्धनस्य दाहो भवति विनाशेत्यर्थः । "प्रह" इति एष संयमविराधणा । इमा प्रात्मवि राधना पुगो पुणो निग्घायमाणस्स मुक्खा मरणं भवति । ते वा सुक्क गेग्गले गिग्घाएता अकिच्चकारि ति काउं अप्पाणं "उन्नधेति" 'उल्लवेति त्ति वुनं भवति ॥६०६।। इयाणिं अववातो भण्णति - वितियपदं तेगिच्छं, णिनीतियमादियं अनिक्कते । अट्ठाण-सद्दहत्थं, च पच्छा अचित्त जतणाए ॥६१०॥ विनियाद" अवधायपयं, तेण कयाति सुत्तपडिसिद्ध करेज्ज । कहं ? णिवीतियमादियं तेइच्छं जया प्रइकतो तह वि अगुवसंतो। “अट्ठाण" पच्छदं ।।६१०।। 'यहाणं' ति अस्य व्याख्या - उवभुत्तभोगथेरेहि मद्धिं वेसा दुवस्सए ठाणं आलिंगणादि दटुं. बीयविवेगो जदि हवेज्जा ॥६११ । उवभुत्तभोगी भुत्तभोगिणो विगतकौतुकाः निविकारा गीतार्था ते य थेरा, तेहि सद्धि समाणं वेसितायो दुवक्ख रियानो वेसस्त्रिया, तेमि समीवे उव-सतो घेप्पति । "ठाणं' ति अण्णासो वा जाम्रो तक्कामाग्रो तत्य ठातिज्जति, तत्थ ठियस्स प्रालिंगणा उरु-थ णाति फुसणं ति, प्रादिसद्दातो उवगृहणं चुंबनं वा दटण, जति णाम बीयणिसग्गो भवे तो मुदरं ॥६११॥ प्रह तह विण उवसमति तो सहपडिबद्धाए ठातिज्जति । तत्थ परियारणादि सद्द सुणेऊण जति बीगिसगो भवति तह वि अणुवसंते "हत्थं च" अस्य व्याख्या - दुमपलासंतरिए, अपडिबद्धं समिल छिडमादिसु वा । णिसिमादि असागरिए, जिंदण कहणा य पच्छित्तं ॥६१२।। "दूस" वत्थं 'पलासं" कोमलं वडादिपत्तं, तेण अंतरियं हत्थकम्मं करेति, अप्रतिबद्ध प्रसंततमित्यर्थः । एक दो तिष्णिा वा दिवसे । १ फांसी लटकना । . Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ इदाणि साहुणीणं - ""पच्छा अचित्तं " ति श्रस्य व्याख्या तह विप्रायमाणे समिलं जुगादिखिहु सु सुक्कपोगले णिग्घातेति श्रसागरिए, तत्थ वि तिष्णिवारे । तत्थ वि श्रायमाणे तिरियदेहे अचित्ते पडिमासु वा अपरिग्गहेमु । तह वि श्रठायमाणे एतेणेव कमेण एतेसु चैव सपरिग्गहे । मणुयदेहे प्रचित्ते पडिमासु वा प्रपरिग्गहासु । तह वि श्रठायमाणे एतेणेव क्रमेण एतेसु चेव परि एक्क्के तिष्णिवारा । "जयणाए त्ति” । एयाए जयणाए काउं प्रप्पाणं "गिदति" गरिहति, पच्छा आयरियाणं कहेति, पायच्छितं च पडिवजति । शेषं उपरिष्टाद्वक्ष्यमाणम् ||६१२|| भणितं साधूणं । एसेव गमो नियमा, णिग्गंथीणं पि होइ णायव्वो । पुरिस - पडिमा तासिं, सविंटगपलंचमादितरं ॥ ६१३ ॥ सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे पुव्वद्धं कंठं । पुरिससरीरं प्रचित्तं तस्स वाउप्पयोगेण सागारियं थद्ध । तत्थ श्रचित्तपोगले णिग्घाति । पुरिसपडिमाम्रो वा सागारिएण थद्धेण । "सवेंटपलंचं " सवेंट दोद्धियमादी । श्रादिसद्दातो कटुपासाणादिणा । इतरं नाम देहपडिमावज्जं ॥। ६१३ ॥ इदाणिं णिज्जुती - - जे भिक्खू सचित्तपट्ठियं गंधं जिघति, जिघंतं वा सातिज्जति ||१०|| सू० || सचित्ते दव्वे जो गंधो सो सचित्तपइट्ठितो, सो य श्रइमुत्तगपुप्फातियं, जो जिघति तस्स मासगुरु श्राणादिणो य दोसा | जो गंधो जीवजुए, दव्वम्मी सो तु होति सच्चित्तो | संबद्धमसंबद्धा, व जिंघणा तस्स दुविधा तु ।। ५१४ ॥ जिघतस्स इमे दोसा जीवजुतं दव्वं सचेणं, तम्मि जो गंधो सो सचित्तपतिट्ठितो भण्णति । तं पुणो दव्वं पुप्फफलाति । तस्स जिघणा दुविहा - नासग्गे संबद्धा, असंबद्धा वा । नासाग्राऽसंस्पृष्टा दूरे कृत्वा जिघ्रतीत्यर्थः ॥ ६१४ || जो तं संबद्ध वा, अथवाऽसंबद्ध जिघते भिक्खू | सो श्रणाणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ||६१५ ॥ इमा संजमविराहणा [ सूत्र - १० जो साहू तं गंध णासाए संबद्ध असंबद्ध वा जिग्धति सो प्राणाभंगे, अणवत्थाए य वट्टति, अण्णेसि मिच्छतं जणयति, प्रायसंजमविराहणाए य वट्टति ॥ ६१५ || णासा मुहणिस्सासा, पुप्फजियवधी तदस्सिताणं च । या विसपुष्कं तब्भावितमच्च दितो || ६१६ ।। १ गा० ६१० / ४ । २ गा० ६१०/४ | Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ६१३-६२० ] संतस्स णासामुहेसु जो वायू तेण पुप्फजीवस्स संघट्टणादी भवति । " तदस्सियाणं" ति - तम्मि पुप्फे ये श्राश्रिता प्रतिकादयः तेषां च संघट्टणादि संभवति । इमा प्रायविराहणा " आयर" पच्छद्ध | प्रायविरोहणा कयाइ विसपुष्कं भवति तेण मरति, "तब्भावियं" ति तेण विसेण भावितं तद्भावितं प्रत्यनीकादिना. " श्रमच्चो" चाणक्को, तदुवलक्खितो दिट्ठतो, जहा - तेण चाणक्केण जोगविसभाविता गंधा कता मुबुद्धिमंत्रिधाय । इदमावश्यके गतार्थम् । दाणिं वातो चितियपदमण पज्झे, अप्पज्भे वा पयागरादिसु । वावी हवेज्ज कोयी, विज्जुवदेसा ततो कप्पे || ६१७॥ प्रथम उद्देशकः -- oursो जिघेजा, " अणवज्भो" अजाणमाणो जिघति, "अप्पज्झो" वा जाणमाणो । " पयागरादिसु" त्ति रातो जग्गियव्वं तत्थ कि चि एरिसं पुप्फफलं जेण जिंघिएण गिद्दा ण एति । श्रादिसद्दतो वा निद्रालाभे वा निद्रालाभनिमित्तं जिघति । वाही वा को ति जिंधिएण उवसमति । तं विज्जुवदेसा जिघति ।।६१७ || इमे विहिणा चित्तमसंबद्ध, पुब्विं जिघे ततो य संबद्ध । चित्तमसंबद्ध, सचित्तं चैव संबद्ध ||६१८ ॥ चित्तदव्वे गंध प्रसंबद्ध नासिकाग्रे "पुव्वं" ति पढमं जिघति, ततो तं चेव प्रचित्तं संबद्धं ततो सचितं असंबद्धं ततो सचित्तं संबद्धं जिघति ॥ ६१८ ॥ जे भिक्खू पदमग्गं वा संक्रमं वा अवलंबणं वा अण्णउत्थिण वा गारन्थिएण वा करेति, करेंतं वा सातिज्जति ॥ सू० || ११ || पदं पदाणि तेसि मग्गो पदमग्नो सोपाणा, संकमिज्जति जेण सो संकमो काष्टचारेत्यर्थः । श्रवलंविज्जति त्ति जं तं अवलंबणं, सो पुग्ण वेतिता मत्तालंबो वा, वागारो समुच्चयवाचौ, एते श्रण्णतित्थि एण हित्थे वा करावेति तस्स मासगुरु आणादिशो य । इदाणिं णिज्जुती - पदमग्गसंकमालंचणे य, वसधी संबद्धमेतरा चेव । विसमे कदम उदए, हरिते तसपाणजातिसु वा ॥६१६॥ यमग्गो ति ग्रस्य व्याख्यां - १ ना० ६१९ / १ । पदमग्गो सोवाणा, ते तज्जाता व होज्ज इतरे वा । तज्जाता पुढवीए, इट्टगमादी अतज्जाता | ६२०॥ ३३ ५ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-११ पदानां मागः पदमार्गः, सो पुण मग्गो सोवाणा, ते दुविहा - तज्जाया 'इतरे" मतज्जाया, तम्मि जाता तजाता पुचि चेय सपि कना, न तम्मि जाया अतजाया इट्टगपासाणादीहिं कता । एक्केक्का बसहीए संबद्धा "इतरा" असंबहार संबला वसहीए लग्गा ठिता, असंबद्धा अंगणए अग्गपवेसदारे वा, तं पुण विसमे कद्दमे वा उदए वा 'हरिएनु वः जातेमु तसपाणेसु वा घणसंसत्तेसु करेति ॥६१६-६२०।। २इदाणि 'संकमो' त्ति अस्य व्याख्या - दुविधो य संकमी खलु, अणंतरपतिट्टितो य वेहासे । दव्वे एगमणेगो, चलाचलो चेव णायल्यो ।।६२१॥ संकमिज्जति जेग सो संकमो, सो दुविही - "खलु" अवधारणे, अणंतरपइद्वितो जो भूमीए चेव पइट्टितो, वेहासो जो खभेस ना वेलीनु वा पति द्वितो। एक्केको दुविहो - एगंगियो य, अणेगंगिनो य - एकानेकपट्टकृतेत्यर्थः । पनाको गलस्थिरविकल्पेन नेयः । तदपि विषमकर्दमादिषु कुर्वन्तीत्यर्थः ॥६२१॥ 'प्रालंबणेति हास्य व्याख्या -- बालंबणं तु दुविहं, भूमीए संकमे च णायव्वं । दुहतो व एगतो वा, वि वेदिया सा तु णायव्वा ॥६२२।। एतस्स चेव संकमस्स अवलंबणं कजति । तं अवलंबणं दुविहं - भूमीए वा संकमे वा भवति । भूमीए विसमे लग्गणणिमित्तं कजति । संकमे वि लम्बणनिमित्तं संकज्जति । सो पुण दुहनो एगो वा भवति । . सा पुण "वेइय' ति भण्णति मत्तालंबो वा ॥६२२।। एते सामण्णतरं, पदमग्गं जो तु कारए भिक्खू । गिहिअण्णतित्थिएण व, सो पावति आणमादीणि ।।६२३।। "एतेसि" पयमग्गसंकमावलंबणाणमण्णयरं जो भिक्खू गिहत्थेण वा अन्नतिथिएण वा कारवेति सो प्राणादीणि पावति ॥६२३॥ इमे दोसा - खणमाणे कायवधा, अचिर्त वि य वणस्सतितसाणं । खणणेण तच्छणेण व, अहिदद्दुरमाइश्रा घाए ॥६२४॥ तम्मि गिहत्थे अन्नतिथिए वा खणते छण्हं जीवनिकायाणं विराहणा भवति । जइ वि पुढवी प्रचित्ता भवति तहावि वणस्सतितसाणं विराहणा। अहवा - पुढवीखणणे अहिं ददुरं वा घाएजा। कटुं वा तच्छिंतोमंतरे अहिं उंदरं वा पाएज्जा ॥६२४ । एसा संजमविराहणा। आयाए हत्थं वा पादं वा लूसेज्जा । अहिमादिणा वा खज्जेज्जा । जम्हा एते दोसा तम्हा न तेहि कारवेज्जा। १ बीलेसु वा प्रत्य० । २ गा० ६१६/१ । ३ गा० ६१६/१ । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ६२१-६२६ ] प्रथम उद्देशक: ३५ अववाएण कारवेज्जा - वसही दुल्लभताए, वाघातजुताए अधव सुलभाए। एतेहिं कारणेहिं, कप्पति ताहे सयं करणं ॥६२५ ।। दुल्लभा वसही मग्गंतेहि वि ण लब्भति । अहवा - सुलभा वसही किन्तु वाघातजुता लब्भति। ते य दबपडिबद्धा भावपडिबद्धा जोतिपडिबढेत्यादि । पच्छद्धं कंठं ॥६२५॥ सयं करणे ताव इमेरिसो साह करेति - जिइंदियो घिणी दक्खो, पुच्वं तक्कम्मभावितो। उवउत्तो जती कुजा, गीयत्थो वा असागरे ।।६२६।। इंदियजये वट्टमाणो जिइंदिनो, जीवदयालू घिणी, अण्णोणकिरियाकरणे दक्खो, “पुव" मिति गिहत्यकाले, तक्कम्मभावितो णाम तत्कर्माभिज्ञ स च रहकारधरणिपुत्रेत्यादि, "यती" प्रवजितः, स च उपयुक्तः कुर्यात, मा जीवोपघातो भविष्यति । एवं ताव तक्कम्मभावितो गीयत्थो, तस्स अभावे अगीयत्थो तक्कम्मभावितो, तस्स प्रभावे तक्कमाऽभावितो गीयत्थो, तम्स अभावे अगीयत्थो अ, एते सव्वे वि असागरे करेंति ॥६२६॥ . जया तेहिं पदमग्गसंकमालंबणेहि कज्ज समत्तं, तदा इमा समाचारी - कतकज्जे तु मा होज्जा, तो जीवविराधणा। मोतं तज्जाय सोवाणे, सेसे वि करणं करे ॥६२७॥ "कते" परिसमत्ते कजे मा जीवविराधणा भवे, "ततो" तस्मात् साधुप्रयोगाद. प्रतो तजाते सोवाणे मोत्तुं सेसे वि "करणं" विणासणं कुज्जा । तजाए ण विणासे त्ति, मा पुढविक्काइयविराहणा भविस्सति ॥६२७॥ अववायमुस्सग्गे पत्ते अववाओ भण्णति - बितियपदमणिउणे वा, णिउणे वा केणई भवे असहू । वाघाओ व सहुस्सा, परकरणं कप्पती ताहे ॥६२८|| "बितियपदं" अववातो तेण सयं न करेति, गिहिणा कारवेति । कहं ? भण्णति - सयं अणिउणो, णिउग्रो वा केणइ य रोगातकेण असहू, सहुणो वा "वाघातो'' विग्धं, तं च पायरियगिलाणादि पग्रोप्रणं, "परों" गिहत्थो। जता अप्पणा पुन्वििहयकारणातो असमत्थो ताहे तेण कारावेउं कप्पते ॥६२८।। तेसि गिहत्थाण कारावणे इमो कमो - पच्छाकड साभिग्गह, णिरभिग्गह भदए व असण्णी। गिहि अण्णतित्थिए वा, गिहि पुव्वं एतरे पच्छा ॥६२६॥ "पच्छाकडो" पुराणो, पढमं ता तेण कराविज्जति । तस्स प्रभावे साभिग्गहो गिहीयाणव्यती सावगो। ततो णिरभिग्गहो दसणसावगो। तमो प्रथाभहएण असण्णिगिहिणा मिथ्या दृष्टिना । पच्छा Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र १२-१३ कडादि परतित्थियादि चउरो दृढव्वा । एतेसि पुण पुव्वं गिहिणा कारवेयव्वं । पच्छा परतित्थिणा अप्पतरपच्छकम्मदोसातो ॥६२६॥ जे भिक्खू दगवीणियं अण्णउत्थिएहिं वा गारथिएहिं वा करेति करेंतं वा सातिज्जति ।मु०॥१२॥ "दगं" पाणी तं “वीणिया" वाहो, दगस्स वीणिया दगवीगिया। विकोवणाणिमित्तं णिज्जुत्तिकारो भणति - वासासू दगवीणिय, वसधी संबद्ध एतरे चेव । वसतीसंबद्धा पुण, बहिया अंतोवरि तिविधा ॥६३०॥ वासासु दगर्वाणिया कजति । सा दुविहा - वसहीए संबद्धा, "इतरा" असंबद्धा । वसहीमबद्धा तिविहा - बहिया अंतो उरि च ॥६३०॥ इमं तिविहाए वि वखाणं - णिच्चपरिंगले बहिता, उम्मिज्जण अंनो व उदए वा । हम्मियतलमाले वा, पणालछिड्डं व उवरित्तु ॥६३१॥ ना सा वसहीसंबद्धा बहिया सा निच्चपरिग्गलो । जा सा अंतो संबद्धा ता भूमी उम्म जति । मिग वा उप्पिलिंगा वा वासोदगं वा छिड्डेहिं पविटुं । जा सा उवरिसंबद्धा सा ' हम्मियतले" हम्मतले आयालोवरि. मंडविगाछादितमाले वा वासोदगं पविटुं, डायाले वा पणालछिड्डु ॥६३१॥ वसधी य असंबद्धा, उदगागमठाणकद्दमे चेव । पहमा वसधिणिमित्तं, मग्गणिमित्तं दुवे इतरा ॥६३२॥ वसाह असंबद्धा ति विहा - उदगस्स आगमो उदगागमो, वसहि तेण आगच्छति पविसति ति । अंगणे वा जत्थ साहुणो अच्छंति । तं "ठाणं" उदगं एति । णिग्गमपहे वा उदगं एति तत्थ कद्दमो भवति । तत्य पढमा जा वसहि, तेण पविसति तीए अण्णतो दगवाहो कज्जति, मा वसहिविणासो भविस्सति । इयरासु दुसु जा अंगणं एति जा य गिग्गमपहे एता अण्णतो दगवीणिया कज्जति, मा उदगं ठाहि ति तं च संसज्जति । तत्थ अनितणिताणं तसपाणविगणा कद्दमो वा होहि ति । मग्गणिमित्तं णाम मग्गो रुझिहि ति उदगेण कद्दमेण वा वसहिअसंबद्धासु वि दगवीणिया कज्जति ।।६३२॥ एते सामण्णतरं, दगवीणिय जो उ कारवे भिक्खू । गिहि-अण्णतिथिएण व, अयगोलसमेण आणादी ॥६३३॥ अयं" लोह, तस्स "गोलो" पिंडो, सो तत्तो समंता डहति, एवं गिहि अण्णतित्थिो वा समंततो जीवोवधाती, तम्हा एतेहिं ण कारवे दगवीणिया ॥६३३॥ एगट्ठिया इमे - दगवीणिय दगवाहो, दगपरिगालो य होंति एगट्ठा। विणयति जम्हा उदगं, दगवीणिय भण्णते तम्हा ॥६३४॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ६३०-६३८ । प्रथम उद्देशकः पुव्वद्धे एगट्ठिया, पच्छद्धे दगवीणियणिरुत्तं ।।६३४।। गिहिअण्णतित्थिएहि दगवीणियं कारवेंतस्स इमे दोसा - आया तु हत्थ पादं, इंदियजायं व पच्छकम्मं वा । फासुगमफासुदेसे सव्वामिणाणे य लहु लहुगा ॥६३५॥ "प्राय" इति प्रायविराहणा। तत्थ हत्यं पादं वा लूसेज्जा । इंदियाण अण्णतरं वा लूसेजा । अहवा - "इंदियजाय" मिति बेइंदिया दिया ते विराहेज्जा । पच्छाकम्मं वा करेज्जा । तत्थ फासुएणं देसे मासलहुँ, सवे चउलहुं । अफासुएणं देसे सव्वे वा चउलहुं ॥६३५।। अप्पणो करेंतस्स एते चेव दोसा। कारणेण करेज वि दगवीणियं । किं कारणं ? इमं - वसही दुल्लभताए, वाघातजुताए अहव सुलभाए। एतेहि कारणेहिं, कप्पति ताहे सयं करणं । पूर्ववत् कंठा। दगवीणियाए प्रकरणे इमे दोसा - पणगाति हरितमुच्छण, संजम आता अजीरगेलण्णे । बहिता वि आयसंजम, उवधीणासो दुगंछा य ॥६३६।। "पणगो" उल्ली संमुच्छइ, अादिग्गहणातो बेइंदियादि समुच्छंति, हरियकारो उद्देति । एसा संजमविराहणा । प्रायविराहणा सीतलवसहीए भत्तं ण जीरति, ततो गेलणं जायति । एते वसहिसंवद्धाए दगवीणियाए अकज्जमाणीए दोसा। वसहि असंबद्धाए बहिया इमे दोसा - उदगागमे ठाणे अगदारे 'चिलिच्चिले लूमति प्रायविराहणा, संजमे पणगा हरिता वेइंदिया वा उवहिविणासो, कद्दमेण मलिणवासा दुगु छिज्जति ॥६३६।। कारणे गिहिअण्णतित्थिएहिं वि कारविज्जति - 'बितियपदमणिउणे वा, णिउणे वा केणती भवे असहू । वाघातो व सहुस्सा, परकरणं कप्पती ताहे ॥६३७॥ पच्छाकड साभिग्गह, णिरभिग्गह भद्दए य असण्णी । गिहि-अण्णतिथिए वा, गिहि पुव्वं एतरे पच्छा ॥६३८॥ __ दो वि पूर्ववत् कंठानो। जे भिक्खू सिक्कगं वा सिक्कणंतगं वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेति, करतं वा सातिज्जति ।मु०॥१३॥ १ मा । २ द्वितीयपदं प्रशालवन् गा० ६२८-६२६ । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीयसूत्रे [सूत्र १३-१४ __"सिक्कगं" पसिद्धं, जारिस वा परिव्वायगस्स । सिक्कगणतो उ पोणनो उच्छाडणं भणति, जारिसं कावालिस्स 'भोयगुग्गुलि एस सुत्तत्यो । इदाणि णिज्जुत्ति वित्थरो - सिक्कगकरणं दुविधं, तस-थावर-जीव-देह-णिप्फणं । अंडग-वाल य कीडग, हारू वज्झादिग तसेसु ॥६३६।। तं सिक्कगं दुविधं - तसथावरजीवदेहणिप्फणं । तत्थ तसणिप्फणं अणेगविहं "अंडयं" हंसगम्भादि "वालयं" उणियं उट्टियं च, "कीडगं" पट्टकोसिगारादि, “हारू वज्झा" पसिद्धा ॥६३६॥ इदाणि थावरणिप्फण्णं अणेगविहं - थावरणिप्फण्णं पुण, पोंडमयं वागयं पयडिमयं । मुंजमयं वच्चमयं, कुस-वेत्तमयं च वेलुमयं ॥६४०॥ "पोंडयं" कप्पासो, “वाग" सणमादी 'पयडी". णालिएरिचोदयं, "मुंज" सरस्स छल्ली, 'वच्चगो'दभागिती तणं, "कुसो" दब्भो, 'वेत्तो" पाणियवंसो, “वेणू" थलवंसो ॥६४०॥ एतेसामण्णतरं, तु सिक्कयं जो तु कारवे भिक्खू । गिहि-अण्णतित्थितेण व, सो पावति प्राणमादीणि ॥६४१॥ ४पूर्ववत् कंठा । तम्हा सिक्कयं ण कारवेज्जा, अणुवकरणमिति का ॥६४१।। बितियपदे कारवेज वि - सिकूगकरणे कारणानि - वितियपद-बूढ-ज्झामित, हरियऽद्धाणे तहेब गेलण्णे । असिवादि अण्णलिंगे, पुचकताऽसति सयं करणं ॥६४२॥ सव्योवधी दगवाहेण बूढो। अहवा -- सब्बो णिबुडो उत्तरंतस्स अहवा – दढ्ढो। अहवा - सबो हरितो तेणएहिं । अहवा - अद्धाणे सिक्कयं घेप्पेज्जा, कारण वा पल्लिमादिभिक्खायरियाए गमेज्ज । अहवा - परिवायगादि परलिंग करणो करेज्ज, तत्य सिक्कएण पयोजणं होज्जा, गिलाणस्स. प्रोसहं निवखवेज्ज, असिवगहितो वा परलिंगं करेज्ज, अतरंता वा वंतरं वा मोहणटुं वा । __ एतेहिं कारणेहि दिटुं सिक्कयणग्गणं । तं पुवकयं गेण्हियव्वं, असति पुव्वकतस्स ताटे सयं करेयव्वं ॥६४२॥ १ सुगंध द्रव्यम् । २ स्नायु-नस। ३ त्वचा। ४ सू० ११ गा० ६२३ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६ भाष्यगाथा ६३६-६५० ] प्रथम उद्देशकः वितियपदमणिउणे वा णिउणे वा केणती भवे असहू । वाघातो व सहुस्सा, परकरणं कप्पती ताहे ॥६४३॥ पच्छाकड साभिग्गह, गिरभिग्गह भदए य असणी । गिहि-अण्णतित्थिए वा, गिहि पुव्वं एतरे पच्छा ॥६४४॥ 'पूर्ववत् ।।५४४॥ अह सिक्कयंतयं पुण, सिक्कतो पोणत्रो मुणेयव्यो । सो जंग-भंगियो वा, सण-पोत्त-तिरीडपट्टमत्रो ॥६४॥ सिक्कयंतयं णाम तस्सेव पिहणं, मा तत्थ संपातिमा पडिस्संति, सो तु "पूणउ" त्ति देसीभासाते वुच्चति । सो दुविहो - तस-थावरदेहणिप्फण्णो “जंगियो" अंडगादी, "भंगियो" प्रदसिमादी, "सणो" वागो, "पोत्तं" पसिद्धं, "तिरीडपट्टो" रुक्खतया ॥६४६।। एते सामण्णतरं, उ पोणयं जो तु कारवे भिक्खू । गिहि-अण्णतित्थिएण व, कीरते कीते व छक्काया ।।६४६॥ २कंठा !॥६४६॥ सिक्कतो जे तसा उद्दवेति, अप्पाणं वा विधेजा तत्थ गिलाणारोवणा - वितियपदबूढज्झामिय, हरियऽद्धाणे तहेव गेलण्णे । असिवादी परलिंगे, पुव्यकताऽसति सयं करणं ॥६४७।। 3कंठा पूर्ववत् ॥६४७॥ वितियपदमणिउणे वा. णि उणे वा केणती भवे असहू । वाघातो व सहुस्सा, परकरणं कप्पती ताहे ॥६४८॥ पच्छाकड साभिग्गह, गिरभिग्गह भदए य असण्णी । गिहि-अण्णतिथिए बा, गिहि पुव्वं एतरे पच्छा ॥६४६॥ बितिम्रो वि य आएसो, मिहणंतग-वत्थअंतकम्मं ति । तं दुल्लभवत्यम्मी, देसम्मी कप्पती काउ॥६५०॥ 'प्रादेशः" प्रकार:, सिहणंतगस्स दसावत्थस्स अते कम्मं अंतकम्मं दत्तकम्मदसातो वुति त्ति वृत्तं भवति । अवव दतो दुल्लभवत्ये देसे तं करेउं कप्पति ।।६५०॥ जे भिक्खू सोत्तियं वा रज्जुयं वा चिलिमिलि वा अण्णउत्थिएण वा-. गारथिएण वा कारेति, कारेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१४॥ १ गा० ६२८-६२६ । २ गा० ६२३ । ३ गा० ६४२ । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १४-१७ सुत्ते भवा सोत्तिया वस्त्रकम्बल्यादिका इत्यर्थः । रज्जुए भवा रज्जुमा दोरको ति वुत्तं भवति । सुत्तमयी रज्जुमयी, वागमयी चेव दंड-कडगमयी। पंचविध चिलिमिली खलु, उवग्गहकरी भवे गच्छे ॥६५॥ सुत्तेग कता “सुत्तमयी", तं वत्थं कंबली वा । रज्जुणा कता रज्जुमती, सो पुण दोरो। वागेसु कता वागमयी, बागमयं वत्थं दोरो वा वक्कलं वा वत्थादि । दंडो वंसाती। कडमती वंसकडगादि । एसा पंचविहा चिलिमिणी गच्छस्स उवग्गहकारिया घेप्पति ।।६५१॥ सुत्तमयचिलिमिणीए पमाणप्पमाणं गणणप्पमाणं च इम - हत्थ-पणगं तु दीहा, ति-हत्थ-रुदो (ओ) णिया असती खोमा । एय पमाणं गणणे,-क्कमेक्कगच्छं च जा वेढे ॥६५२॥ पंचहत्थाणि "दोहा", "रुंदा" विच्छिण्णा तिण्णि हत्था, उस्मग्गेगं ताव एस उणियाए खोम्मियाए, ताए वि एवं चेव प्पमाणं । गणणप्पमाणेणं एक्केकस्स साहुस्स । पाडिहारिया वा जा गच्छं वेढिति सा एक्का चेव प्रणियतप्पमाणा ॥६५२॥ इदाणिं रज्जुमती - असतुण्णि-खोम-रज्जू, एगपमाणेण जा तु वेदेति । कडहू वागादीहि, तु पोत्तऽसति भए व वक्कमयी ॥६५३॥ तत्थ पुव्वं उण्णिो दोरो । असति खोमियो। सो दीहत्तणेण पंचहत्यो एक्केकरस साहुस्स गणावच्छे तिय-हत्थे वा एकको चेव जो गच्छं वेढेइ । कडभू रुक्खो, तस्स वक्कलं भवति, वागेहिं वा वुतं । खोमियाए प्रसती वागमयी, तस्स वि प्पमाणं 'पूर्ववत् ।।६५३।। इदाणि दंडमती - देहहिको गणणेक्को, दुवारगुत्ती भएउ दंडमयी । संचारिमा तु चतुरो, भयमाणे कडगऽसंचारी ।।६५४।। 'देह" सरीरं, तप्पमाणाम्रो प्रधितो दंडतो, सो पुण समए णालिया भण्णति । एक्केक्कस्स साहुस्स सो एक्केक्को भवति । सावयादिभए दुवारगुत्तीकरणं तेहिं देहाहिदंडएहिं २किडिया कज्जति । आदिमा चउरो वसहीमो वसहि, खेत्तानो वा खेत्तं संचरंति । कडगमती माणे भयणिज्जा प्रसंचारिमा य ।।६५४।। किं पुण कज्ज चिलिमिणीए ? इमं सुणसु - सागारिय-सज्झाए पाणदय-गिलाण-सावयभए वा । श्रद्धाण-मरण-वासासु चेव सा कप्पती गच्छे ॥६५शा पडिलेहोभयमंडलि, इत्थीसागारिएत्थ सागरिए । घाणा-लोगज्झाए, मच्छियडोलादिपाणट्ठा ॥६५६।। १ घिलिमिलीवत् । २ लघुद्वारम् चिलिमिलियो। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ६५१-६६१] प्रथम उद्देशकः भए सारोवहिं चिलिमिणि दाउं पडिलेहज्जति । सागारिए उड्डाहरक्खणत्थं भोयणमंडलीए चिलिमिली दिज्जति । इत्थीरूवपडिबद्धाए चिलिमिली दिज्जति । जनो रुधिर वच्चकाति ततो चिलिमिलि दाउं सज्झामो कज्जति । ज दिसं मुत्तपुरिसाति घाणी आगच्छति तं दिसि चिलमिलि का सज्झामो कज्जति । जं दिसं मच्छिडोलादि पाणा आगच्छंति ततो चिलिमिली दिज्जति ॥६५६॥ उभयो-सह-कज्जे वा, देसी वीसत्थमादि गेलण्णे । अद्धाणे छण्णाऽसति, भत्तोवधि सावते तेणे ॥६५७॥ गिलाणो पच्छण्णे उभयं काइयसण्णा वोसिरति । प्रोसहं वा. दिज्जति । "देसि" त्तिजत्थ देसे डागिणीणमुवद्दवो तत्थ गिलाणो पच्छण्णे परिज्जति । वीसत्थो वा गिलाणो अच्छइ पच्छण्णे । प्रद्धाण-पडिवण्णगा य पच्छण्णस्स असति चिलिमिणि दाउं भत्तटुं करेंति । सारोवहिं वा पडिलेहंति । सावयतेणातिभए दंडमतीए दारं पिहेति ६५७॥ । छण्ण-वह-गट्ठ-मरणे, वासे उज्झखणीए कडओ उ । उल्लुवहि विरल्लेति, व अंतो बहि कसिण इतरं वा ॥६५८॥ जाव मतमो ण परिविज्जति ताव पच्छष्णे धरिज्जति । श्रद्धाणे वा जाव थंडिल न लब्भति तावऽच्छति तो मतो 'वुज्झति । जो "उझंखणीए" ति तत्तो कडगचिलिमिली दिज्जति । वासासु वा उल्लुवहिं विरल्लेंति दोरे जहासंखं अंत-बहि-कसिण-इतरं वा ॥६५८॥ पंचविधचिलिमिणीए, पुन्यकताए य कप्पती गहणं । असती पुन्यकताए, कप्पति ताहे सयं करणं ॥६५६।। कंठा ॥६५६॥ बितियपदमणिउणे वा, निउणे वा होज्ज केणई असहू । वाघातो व सहुस्सा, परकरणं कप्पती ताहे ॥६६०।। पच्छाकड साभिग्गह, णिरभिग्गह भद्दए य असण्णी । गिहि अण्णतित्थिए वा, गिहि पुव्वं एतरे पच्छा ॥६६१॥ पूर्ववत् कंठा ।।६६०-६६१।। जे भिक्खू सूतीए उत्तरकरणं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेति, कारेंत वा सातिज्जति ।।सू०॥१॥ जे भिक्खू पिप्पलगस्स उत्तरकरणं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेति, कारेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१६॥ जे भिक्खू णहच्छेयगस्सुत्तरकरणं अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा कारेति, कारेंतं वा सातिज्जति ॥०॥१७॥ १ पाच्छाद्यते। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे जे भिक्खु कण्णमोहन स्मुत्तरकरणं अण्णउत्थिएण वा गारत्थिएण वाकारेति, कारेंतं वा सातिज्जति ॥ सू०|| १८ || सूतीमादीयाणं, उत्तरकरणं तु जो तु कारेज्जा । गिही अण्णतित्थिएण व सो पावति श्राणमादीणि ॥ ६६२ || कंठा ॥६६२॥ उवग्गहिता सूयादिया, तु एक्केक्क ते गुरुस्सेव । गच्छं व समासज्जा, अणायसेक्वेक्क सेसेसु ॥ ६६३ || सूती पिप्पल महच्छेयणं कण्णसोहणं उवगहितोवकरणं । एते य एक्केक्का गुरुस्स भवंति, सेसा तेहि चैव कज्जं करेंति । महल्लगच्छं व समासज्ज प्रणायसा श्रलोहमया वंससिंगमयी वा सेससाहूणं एक्के व का भवति ।। ६६३|| कि पुण उत्तरकरणं ? इमं - पासग-मट्टिणिसीयण- पज्जण- रिउकरण उत्तरं करणं । सुमं पि जंतु कीरति, तदुत्तरं मूलणिव्वते ||६६४|| [ सूत्र १८-३० "पासगं" बिलं वड्ढिज्जति, लण्हकरणं, "मट्टिणिसियणं" णिसाणे, "पज्जणं" लोहकारागारे, "रिज्जु" उज्जुकरणं । एवं सव्वं उत्तरकरणं । हवा - मूलणिवत्ति उवरि सुहुममवि जं कज्जति तं सव्वं उत्तरकरणं ॥ ६६४॥ सूतीमादीयाणं णिप्पडिकम्माण कष्पती गहणं । " सती णिपडिकम्मे, कप्पति ताहे सयं करणं ॥ ६६५ ॥ चितियपदमणिउणे वा, णिउणे वा सेवती भवे सहू | वाघातो व सहुस्सा, परकरणं कप्पती ताहे ॥६६६॥ पच्छाकड साभिग्गह, निरभिग्गह भहए य असण्णी । गिहि अण्णतित्थिए वा, गिहि पुव्वं एतरे पच्छा ||६६७|| पूर्ववत् ॥६६७।। जे भिक्खू अण्णट्ठाए मूर्ति जायति, जायंतं वा सातिज्जति | | ० || १६॥ जे भिक्खू अण्डाए पिप्पलगं जायति, जायंतं वा सातिज्जति ||०||२०|| जे भिक्खू अण्णा कण्णसोहणगं जायति, जायंतं वा सातिज्जति | | ० ||२१|| जे भिक्खू अण्णाए णहच्छेयणगं जायति, जायंतं वा सातिज्जति ॥ सू०||२२|| सूयिमणट्ठा तु, जे भिक्खु पाडिहारियं जाते । सो आणाणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ॥ ६६ ॥ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ६६२-६७२ ] प्रथम उद्देशकः "अणट्ठा" णिप्पोयणे, पडिहरणिज्ज "पाडिहारिय” ॥६६८।। इमे दोसा - णढे हित विस्सरिते, तदण्ण दव्यस्स होति वोच्छेदो । पच्छाकम्मपवहणं, धुवावणं वा तदट्ठस्स ॥६६६॥ हत्थानो चुता गट्ठा, तेणेहिं हिता, कहिं पि मुक्का ण जाणए वीसरिता । तद्दव्वप्रणदव्वस्स वा तस्स वा अण्णस्स वा साहुस्स वोच्छेयं करज्जा । पच्छाकम्मं अण्णं घडावेति प्रसूतिसमणेण वा छिक्का घोवति । प्रवहंतं वा अण्णं वा घोवावेति । धुवावणं दवावेति ॥६६६॥ प्राणाए वोच्छेदे, पवहण किण पच्छकम्म पच्छित्ता। गुरुगा गुरुगा लहुगा, लहुगा गुरुगा य जं चऽणं ॥६७०॥ प्राणादी पंचपदा एतेसु जहासंखं । पायच्छित्ता पच्छद्धणं ॥६७०।। जे भिक्खू अविहीए सूई जायइ, जायंतं वा सातिज्जति ॥०॥२३॥ जे भिक्खू अविहीए पिप्पलगं जायइ, जायंतं वा सातिज्जति ॥११॥२४॥ जे भिक्खू अविहीए णहच्छेयणगं जायइ, जायंतं वा सातिज्जति ॥२०॥२५॥ जे भिक्खू अविहीए कण्णसोहणयं जायइ, जायंतं वा सातिज्जति ॥०॥२६॥ जे भिक्खू पाडिहारियं सूई जाइत्ता वत्थं सेव्विस्सामि त्ति पादं सिव्वति, सिव्वंतं वा सातिज्जति ॥२०॥२७॥ जे भिक्खू पाडिहारियं पिप्पलयं जाइत्ता वत्थं छिंदिस्सामि त्ति पायं छिंदति, छिदंतं वा सातिज्जति ॥२॥२०॥ जे भिक्खू पाडिहारियं णहच्छेयणयं जाइत्ता नखं छिंदामि त्ति सल्लुद्धरणं करेड, करतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२६॥ जे भिक्खु पाडिहारियं कण्णसोहणगं जाइत्ता कण्णमलं-णीहरिस्सामि त्ति दंतमलं वाणखमलं वाणीहरेति णीहरार्वतं वा सातिज्जति सू०॥३०॥ का अविधी ? इमा - वत्थं सिव्विस्सामी, ति जाइ पादसिव्वणं कुणति । अहवा वि पादसिव्वण, काहेतो सिब्बती वत्थं ॥६७१॥ कंठा ॥६७१॥ तं दट्ठण सयं वा, अहवा अण्णेसि अंतियं सोचा। अोभावणमग्गहणं, कुज्जा दुविधं च वोच्छेदं ।।६७२।। १ हृता। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र । सूत्र ३१-३८ सूति-सामिणा अविहीएसिव्वंतो सयमेव दिट्टो अण्णस्म वा समीवे सुतं । "प्रोभावणा" अण्णस्स पुरप्रो खिसति, "अग्गहणं" साहूण अगायर करेति । दुविहो वोच्छेदो – तव्वण्णदव्वाणं ; तस्स वा अण्णम्स वा साहुस्स ॥६७२॥ जे भिक्खू अप्पणो एक्कस्स अट्ठाए सूई जाइत्ता अण्णमण्णस्स अणुप्पदेति, अणुप्पदेतं वा सातिज्जति वा ॥०॥३१॥ जे भिक्खू अप्पणो एक्कस्स अट्ठाए पिप्पलयं जाइत्ता अण्णमण्णस्म अणुप्पदेति, अणुप्पदंतं वा सातिज्जति ।।मू०॥३२॥ जे भिक्खू अप्पणो एक्कस्स अट्ठाए णहच्छेयणयं जाइत्ता अण्णमण्णरस अणुप्पदेति, अणुप्पदंतं वा सातिज्जति ॥०॥३३॥ जे भिक्खू अप्पणो एक्कस्स अट्ठाए कण्णसोहणयं जाइत्ता. अण्णमण्णस्म अणुप्पदेति, अणुप्पदेंतं वा सातिज्जति ॥२०॥३४॥ अहगं सिव्विस्मामीति, जाइउसो य देति अण्णेसिं । अण्णो वा मिचिहिती, सो सिव्वणमप्पणा कुणति ॥६७३।। अप्पणो अट्टाए जाएउ अण्णास्स अलद्धियसाहुस्स देति । ताणि वा कुलाणि जस्स साहुस्स उवसमंति तस्स णामेण मग्गिउ अण्णो सिब्वेति ।।६:१३।। को दोसो? इमो तं दठ्ठण सयं वा, अहवा अण्णेसि अंतियं सोचा । श्रोभावणमग्गहणं, कुज्जा दुविधं च वोच्छेदं ॥६७४॥ कंठा ॥६७४।। जे भिक्खू सूर्ति अविहीए पञ्चप्पिणति, पञ्चप्पिणतं वा सातिज्जति।सू०॥३५॥ सूयिं अविधीए तू, जे भिक्खू पाडिहारियं अप्पे । तक्कज्जसंधणं वा, कुज्जा छक्कायघातं वा ॥६७॥ जं ताए सूतीए कज्जं तं "तककज ' गणपणेग वा छक्कायघायं करेज्जइ ॥६७५।। इदाणि' चउण्ह वि सुत्ताण विधी भण्णति - तम्हट्ठा जाएज्जा, जं सिव्वे कस्म कारणा वा वि । एगतरमुभयतो वा, अणुण्णवेउ तधा भिक्खू ॥६७६॥ "प्रट्टाए जाएज्जा", जं वा वत्थादि सिब्वे तैदट्टाए जाएज्जा। जस्स साहुस्स कजं तण्णामेण जाएज्जा : अप्पणो परम्सुभयट्ठा वा जाएज्जा। जहा काउकामो तहा अक्खिउं जातियव्वं । एस परमत्थो ॥६७६॥ १ भूचि प्रादि की याचना प्रविधियाचना अन्वर्थ याचना और प्रविधिप्रत्यर्पण ए चारसूत्र । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ६७३-६८१) प्रथम उदक. अप्पणे विधी भण्णति - गहणमि गिहिऊणं, हत्थे उत्ताणगम्मि वा का। भूमीए व ठवेतुं, एस विही होती अप्पिणणे ॥६७७॥ गहणं पासमो तम्मि सयं गेण्हि ऊण प्रणिएणं ( प्रण्यग्रभागेन ) गिहत्यस्स अप्पेति । एवं संजयपोगो " भवति । उत्ताणगंम्मि वा हत्ये वितिरिच्छं प्रणिएण वा ठवेति । एवं भूमीए वि. टवेति ।।६७७॥ एतेसिं च उण्ह वि सुत्ताणं इमे बितियपदा - लामालाभपरिच्छा, दुल्लभ-अचियत्त-सहस अप्पिणण । चउसु वि पदेसु एते, अवरपदा होंति णायव्वा ॥६७८|| साहू खेत्तपडिलेहगा गता कि सूती मग्गिता लब्भति ण व त्ति प्रणट्ठाए मग्गेज्जा । पत्तरािवणट्ठाए दुल्लभाम्रो सूतीनो वत्यसिवणट्टमवि 'णीयाए पत्तं सिव्विज्जति, तं पुण जयणाए सिव्वेति जहा ण दीसति । कोइ सभावेण अचियत्तो साहू सो ण लम्मति, तस्स वा णामेण ण लभति, ताहे अप्पणो अट्टाए जाइ तस्स देज्जा "सहस" प्रणाभोएण वा अविहीए अप्पिणेज्जा ॥६७८॥ जे भिक्खू अविहीए पिप्पलगं पञ्चप्पिणति, पञ्चप्पिणंतं वा सातिज्जिति ।।सू०॥३६।। जे भिक्खु अविहीए णहच्छेयणगं पञ्चप्पिणइ, पञ्चप्पिणतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३७॥ जे भिक्खू अविहीए कण्णसोहणयं पञ्चप्पिणइ, पञ्चप्पिणंतं वा सातिज्जति ॥०॥३८|| पिप्पलग पहच्छेदण, सोधणए चेव होंति एवं तु । णवरं पुण णाणत्तं, परिभोगे होति णातव्वं ॥६७६।। एवं पिप्पलग-णहच्छेदण-कण्णसोहणे य एक्केको चउरो सुप्ता । प्रत्थो पूर्ववत् ॥६७६॥ परिभोगविसेसो इमो - वत्थं छिदिस्सामि त्ति जाइउ पादछिंदणं कुणति । अहवा वि पादछिंदण, काहिंतो छिंदती वत्थं ॥६८०॥ 'तारो गाहापो णक्खे बिंदिस्सामि त्ति, जाइउ कुणति सल्लमुद्धरणं । अहवा सल्लुद्धरणं, काहिंतो छिंदती णक्खे ॥६८१॥ • पानीतया सूच्या । २ सूचिसूत्रवत्, गाथा - ६७२, ६७३, ६७४, ६७५, ६७६, ६७७ । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-३६ पिप्पलग-णक्खच्छेयणाणं अप्पणे इमा विही - मज्झत्र गेण्हिऊण, हत्थे उत्ताणयम्मि वा काउं। भूमीए वा ठवेतुं, एस विधी होति अप्पिणणे ॥६८२॥ उभयतो धारणसंभवायो मज्झे गिहिऊण अप्पेति । सेसं कंठं ॥६८२॥ कण्णं सोधिस्सामि त्ति जाइ दंतसोधणं कुणति । अहवा वि दंतसोधण, काहेंतो सोहती कण्णे ॥६८३॥ 'तामो चेव गाहाम्रो - लामालाभपरिच्छा, दुल्लम-अचियत्त-सहस-अपिणणे ! 'बारससु वि सुत्तेसु अ, अवरपदा होंति णायव्वा ॥६८४॥ कंठा ॥६८४॥ जे भिक्खू लाउय-पादं वा दारू-पादं वा मट्टिया-पादं वा अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिघट्टावेइ वा संठवेति वा जमावइ वा अलमप्पणो करणयाए सुहुममवि नो कप्पइ जाणमाणे सरमाण अण्णमण्णस्स वियरइ, वियरंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३६।। दोद्धियकं तुबघटितं, मृन्मयं कपालकादि, परिघट्टणं अणिम्मोप्रणं, संठवणं मुहादीणं, जमावणं विसमाण समीकरणं । "अल" पज्जतं सक्केति प्रप्पणो काउंति वुत्तं भवति । “जाणइ" जहाण वट्टति अण्णउत्थियगारत्यिएहि कारावेउं जाणाति वा, सुत्तं सरति एस अम्ह उवएसो पच्छित्तं वा सरइ, 'अण्णमण" गिहत्थऽण उत्थिया, ताण "वितरति" प्रयच्छति कारयतीत्यर्थः । अहवा-गुरुः पृष्टः साधुभिर्यथागृहस्थान्यतीथिकैर्वा कारापयामः, ततः प्रयच्छत अनुज्ञा ददातीत्ययः । भणियो सुत्तत्थो। इदाणि णिज्जुत्तिवित्थरो भण्णति - लाउयदारुयपाते, मट्टियपादे य तिविधमेक्कक्के । बहुयप्पअपरिकम्मे, एक्केक्कं तं भवे कमसो ॥६८५॥ एकैकं त्रिविधं - बहु-अप्प-अपरिकम्ममिति । पुनरप्येककं त्रिविधं जघन्यादि । अहवा - द्वितीयमेककवचनं निगमनवाक्यमाहुः ।।६८५॥ परिकम्मणमुक्कोसं, गुणेहि तु जहण्णतं पढमपातं । बितियं दोहि वि मज्झ, पढमेण विवजिओ ततिए ॥६८६।। १ सूचि सूत्रवत् । २ याचना के चार प्रविधि से याचना के चार, अन्यार्थ याचना के चार, और प्रविधि से प्रत्यर्पण के चार, एवं बारह । ३ निर्मापण । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाव्यगाथा ६८२-६१२] प्रथम उद्देशक: पढम बहुपरिकम्म, तं गुणेहि जहणं, प्रात्मसंयमोपघातबहुत्वात् । अप्पपरिकम्म बितियं, तं पुणेहि मज्झिम, अल्लात्मसंयमोपघातत्वात् । अपरिकम्म ततियं, तं गुणेहिं उक्कोस, जतो पढमस्स विवज्जए. बट्टति, प्रात्मनो संयमस्स चानुपातित्वात् ॥६८६॥ बहुअप्पग्रहाकडाणं किं सरूवं ? इमं - श्रद्धगुला परेणं, छिज्जंतं होति सपरिकम्मं तु। अद्धंगुलमेगं तू , छिज्जंतं अप्पपरिकम्मं ॥६८७॥ भदंगुलापरेण छिज्जतं बहुपरिकम्मं भवति । जाव भद्धंगुलं ताव अप्पपरिकम्मं ॥६॥ जं पुवकतमुहं वा, कतलेवं वा वि लम्भए पादं । तं होति अहाकडयं, तेसि पमाणं इमं होति ॥६८८॥ प्रहाकडं जं पुवकयमुह, कयलेवं तं कुत्तियावणे लम्भति, णिण्हगो वा देति, पडिमापडिणियत्तो समणोवासगो वा देति, तं पादं दुविहं - पडिग्गहो मत्तो वा ।।६८८॥ पडिग्गहो इमो - तिण्णि विहत्थी चउरंगुलं च माणस्स मज्झिमपमाणं । एतो हीण जहण्णं, अतिरेगतरं तु उक्कोसं ॥६८६।। कंठा ।.६८६॥ उक्कोस-तिसा-मासे, दुगाउ अद्धाणमागतो साधू । चउरंगुलं तु वज्जे, भत्तपाणपज्जत्तियं हेट्ठा ॥६६॥ जेट्ठो प्रासाढो प्र उक्कोस-तिसा-मासा भवंति। उरि चउरंगुलं वज्जेत्तु हेट्ठा भारयं पज्जत्तिय भवति ॥६६॥ एवं चेव पमाणं, सविसेसवरं अणुग्गहपवत्तं । कंतारे दुभिक्खे, रोहगमादीसु भइयव्वं ॥६६॥ “सविसेसतर" वृहत्तरं गच्छानुग्रहाय प्रवर्तते उग्राह्यते इत्यर्थः। "कंतार" मडवी, दुभिक्खे रोहगे वा अच्छताण, "भजना" सेवना परिभोगमित्यर्थः ॥६६१॥ इदाणिं मत्तमो - भत्तस्स व पाणस्स व, एगतरागस्स जो भवे भरितो। पजो साहुस्स तु एतं किर मत्तअपमाणं ॥६६२॥ जो मागहो पत्थो, सविसेसतरं तु मत्तयपमाणं । दो सु वि दन्वगहणं, वासा-वासासु अहिगारो॥ यदासूबोदणस्स भरिउ, दुगाउ श्रद्धाणमागो साहू । भुजइ एगट्ठाणे, एवं किर मत्तगपमाणं ॥ १ कोष्ठान्तर्गतं गाथाढयं पूनासत्कप्रतो नोपलम्यते । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ कंठा ॥६६२॥ डिग्गहो मत्तगो वा इमेहिं गुणेहि जुत्तो समाध्य-पूर्णिके निशीष सूत्रे व समचउरंसं, होति थिरं थावरं च वण्णं च । हुंड वाताइद्ध, भिण्णं च अधारणिजाई ॥ ६६३ । भागा रेण "वर्द्ध" उद्यायपृथुत्वेन समं तमेव मिज्जमाणं ""समचउरंस" भण्णति । "थिरं" दृढं श्रविलियंति, प्रपाडिहारियं थावरं, वां सलक्खणं धारिणिज्जमेयं । इमं प्रधारिणिज्जं - उच्छ्राय पृथुत्वेन असम हुंड, वाताइद्धं त्रोप्पड्डुयं प्रनिष्पन्नमित्यर्थः, भिष्णं च प्रधारणेज्जा एते ।। ६६३ ॥ जम्हा एते दोसा, तम्हा 'मुत्तफासिया इमे - परिघट्टण णिम्मोयण, तं पुण श्रंतो व होज बाहिं वा । संठवणं मुहकरणं, जमणं विसमाण समकरणं ॥ ६६४ || बहि अंतो वा मोयफेडणं परिघट्टणं, सेस कंठं ॥ ६६४॥ पढम-1 म-वितियाण करणं, सुहुममवी जो तु कारए भिक्खु गिहि- अष्णतित्थिएण व, सो पावति श्राणमादीणि ॥ ६६५|| "पढमं" बहुपरिकम्मं, "बितियं" अप्पपरिकम्मं, सेसं कंठं ।। ६६५।। [ सूत्र - ४० - घट्टित संठविते वा, पुव्वं जमित य होति गहणं तु ! ती पुव्वतस्स तु कप्पति ताहे सयंकरणं ||६६६॥ बितियपदमणिउणे वा, णिउणे वा केणती भवे असहू । वाघातो व सहुस्सा, परकरणं कप्पती ताहे ॥ ६६७|| पच्छाकड साभिग्गह, णिरभिग्गह भदए य असण्णी । गिहि श्रष्णतित्थिए वा गिहि पुव्वं एतरे पच्छा ॥ ६६८ || पूर्ववत् । जे भिक्खु दंडयं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेणुसूइयं वा अण्णउत्थिएण वा गार थिएण वा परिघट्टावेति वा संठवेतिं वा जमावेति वा अलमप्पमणो करणयाए सुहुममवि नो कप्पइ जाणमाणे सरमाणे अण्णमण्णस्स वियरति वियरंतं वा सातिजति ॥सू०॥४०॥ "दंडो" बाहुप्पमाणो, "लट्टी" प्रायप्पमाणा, "अवलेहणिया" वासासु कमफेडिणी क्षुरिकावत्, "वेणू" वंसो, तम्मती सूती, परिषट्टणं भवतिहणं, संठवणं पासयादिकरणं, जमावेति उज्जगकरणं ! १ निज्जुत्ति । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २०१५ -२८२१] इमं णिग्गताण भण्णति खर- फरुस - णिट्टराई, अह सो भणितुं श्रभाणियव्वाईं । णिग्गमण कलुसहियए, सगणे अट्ठा परगणे य ॥ २८१७॥ दशम उद्देशकः "खर - फरुस - निठुराई" ति अस्य व्याख्या - उच्चसर - सरोसुत्तं, हिंसयं मम्मवयणं खरं तं तु । अक्कोस-निरुवया रुत्तमसन्भं णिट्ठरं होति || २८१८ ॥ उच्चेण महंतेण सरेण जं सरोसं उक्तं तं खरं । जं पुण हिंसगं मम्मघट्टणं च तं फरुसं । जगारादियं कोसवयणं । ककार डकारादियं च णिरुवयारं । श्रसभाजोग्गं प्रसभं जहा कोलिकः । एरिसं णिट्ठुरं होइ । रिसाणि प्राणियन्त्राणि ॥२०१८ || भणिम्रो कालुसहियप्रो, णिग्गतो सगच्छातो सो । सगणे घट्ट फडुया, परगणियव्वया वि श्रट्ठफड्डया । जे परगणियव्वा ते संभोइया श्रट्ट, असंभोइएस वि अट्ठ, जे अण्णसंभोतिया ते उज्जयचरणा घोसण्णा । सो एतेसु गतो अद्धट्ठ अट्टमासा, मासा दो होंति असु पयारो । वासासु असंचरणं, न चेत्र इयरे वि पेसंति ।। २८१६ ॥ सगणिन्वसु भट्ट फडएसु पक्खे पक्खे संवरंतस्स भद्ध मासा भवंति परगणच्चिएसु फडुएसु भट्ठ मासा, एते सव्वे विट्ठमासा । अट्ठसु उदुखद्धिएसु मःसेसु भिक्खुणं विहारो भवति तेण श्रट्ठगहणं कथं । वासासु चउसु मासेसु तस्य अधिकरणपाहुस्स संचरणं णत्थि - वासाकालो त्ति काउं । "इश्ररे वि" त्तिजम्मि फड्डए सो संकमति तेवि तं पण्णवेत्ता वर्षाकाल - इति कृत्वा न प्रेषयति । जतो प्रागतो तत्थ जे तस्स गणे श्रट्ठफड्डगा तेसु संकमंतस्स तेहि श्रसज्झाय भिक्ख भत्तट्टणापडिक्कमणवेलासु सो सारेतव्वो, उवसमति त्ति । जति ण सारेति तो मासगुरु पच्छितं, तस्स पुण भणुवसमंतस्स दिवसे दिवसे पंच रातिंदिया छेदो भवति ॥२८१६ ॥ सगणम्मि पंचराईदियाई दस परगणे मणुण्णेसु । सुहोंति पर - वीसा तु गयस्स असणे ||२८२० || જર परगणे संभोतिए संकेतस्स दसराइदियो छेदो, प्रणसंभोतिएसु पण्णरसराइदियो छेदो । श्रोसणेसु वीसराइदिम्रो छेदो एवं भिक्खुस्स भणियं ॥२८२०॥ इमं उवज्झायरियाणं - एमेव उवज्झाए, दसदिवसादी तु भिण्णमासंतो । पण्णरसादी उगणी, चउसु वि ठाणेसु मासंते ॥ २८२१॥ - एवं उवज्झायस्स वि णवरं दसराइदियो छेदो आदि, भिण्णमासो खेतो अंते । गुरुस्स प्राय. रियस्स तस्स चउसु ठाणेसु सगण- परगण-संभोइय परगण-मण्णसंभोतिष प्रोसण्णेसु य पण्णरसरातिदियो छेदोभादी, मासिश्रो छेदो अंते ।। २८२१ ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१४ १५ २० २५ (प्राकृतिरिक्) सगणे परगणसंभोइए परगण अण्णसंमोइए प्रोसणे भि०५ १: उ० १० प्रा० १५ २० एयं पुरिसेण सगणादिद्वाण विभागपच्छित्तं दंसियं । इदाणि एवं चेव ठाणेसु पुरिसविभागठाणं पच्छित्तं दंसिज्जति - सगणम्मि पंचराइंदियाई भिक्खुस्स तद्दिवसछेदो । इस होंति उवज्झाए, गणि आयरिए य पण्णरस ।।२८२२।। सगणे संकेतस्स भिवस्वम्स पंचर दिनो छेदो, उवज्झायस्स दस, पायरियस्स पण्णरस रातिदिया छेदो ॥२८२२॥ अण्णगणे भिक्खुस्स, दस तु रातिदिया भवे छेदो। पण्णरस उवज्झाए, गणि आयरिए भवे वीसा ॥२८२३॥ संविग्गमण्णसंभोइएहिं भिक्खुस्स पण्णरसछेदो । वीसा य उवज्झाए, गणि आयरिए य पणवीसा ॥२८२४॥ एवं एक्केक्कदिणं, हवेत्तु ठवणादिणे वि एमेव । चेइयवंदणसारिते, तम्मि वि काले तिमासगुरू ॥२८२॥ पासत्थादिगयस्सा, वीसं राइंदियाए भिक्खुस्स । पणवीस उवज्झाए, गणि आयरिए भवे मासो ॥२८२६॥ गणस्य गणे वा प्राचार्यः । अहवा - गणित्वमाचार्यत्वं च यस्याऽसौ गणि पायरियो ॥२८२६॥ इदाणि सगणादि ठाणे भिक्खुमादिपुरिसपक्खविभागेण य छेदसंकलणा भण्णति - अडाइज्जा मासा, पक्खे अट्ठहिं मासा हवंति वीसं तु । पंच उ मासा पक्खे, अट्ठहि चत्ता उ भिक्खुस्स ॥२८२७॥ अधिकरणं काउं अणुवसंतो भिक्खु सगणं संकेतो तस्स पक्खेणं दिणे दिणे पंचरातिदिएण वेदणे अड्डाइज्जमासा परियागस्स छिज्जति, पन्नरसएण पंचगुणिउँ, तीसाए भागे हिते अड्डाइज्जा मासा हवति । अट्ट सगणफड्डया। तेसु तस्सेव पणगच्छेदणं वीसं मासा छिज्जेति, पणरस अट्टहिं गुणितो पुणो पंचहिं गुणिता तीसाए भागे हिते वीसं मासा भवंति । परगणसंभोइएसु संकते पक्खेण ( दसएण ) छेदेण पंचमासा छिज्जति । तस्सेव ( दसरण ) चेव छेदेण परगणे अट्टहिं पक्खेहि वत्तालीसं मासा छिज्जति । एवं भिक्खुस्स ॥२८२७॥ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २८२२-२८३२] दशम उद्देशकः उवज्झायस्स संगणे - पंच उ मासा पक्खे, अट्ठहि मासा :वंति चत्ता उ । अट्ठमासपक्खे, अट्टहि सट्ठी भवे गणिणो ॥२८२८॥ पुनदं पूर्ववत । उवज्झायस्स परगणे पण्णरसेण छेदेण पखेण प्रदट्टमासा छिज्जति पंचदसहि गुणिता पंचदसा पंचवीसुतरा दोसया भवंति, ते तीसाए भागे हिते अट्ठ मासा भवंति । उवझायस्स परगणे अट्ठसु फड्डएसु अहिं पक्खेहिं पण्णरसेण छेदेण सट्ठि मासा छिज्जति, पण्णरस पण्णरसेहिं गुजिता पुणो अहिं गुणिता तीसाए भागे हिते सट्ठी भवंति। एवं गणिणो उपाध्यायस्येत्यर्थः ।।२८२८।। इदाणि पायरियस्स सगणे - अट्टमास पक्खे, अट्टहि मासा हवंति सट्ठीओ। दसमासा पक्खेणं, अहहऽसीती उ आयरिए ॥२८२६॥ पूर्ववत् पुव्वद्धं । पायरियस्स परगणे संकेतस्स पवखेण वीसएण छेदेण दसमासा छिज्जति, पण्णरस वीसहिं गुणिता तीसाए भागे हिते दसमासा भवंति । परगणट्ठफड्डगेसु अट्ठसु आयरियस्स अट्ठपक्खेहि वीसएण छेदेण भसीति मासा छिज्जति । पण्णरस अट्ठहि गुणिता पुणो वीसहि गुणिता तीसाए भागे हिते असीति मासा भवंति ॥२८२६।। इदाणि - एतेसिं चेव भिक्खु-उवज्झायायरियाणं संविग-अण्णसंभोतिएसु प्रोसणेसु य संकलियछेदो भणति । तत्थ भिक्खुस्स अण्णसंभोतियप्रोसण्णेसु - अद्धह्रमास पक्खे, अट्ठहि मासा भवंति सहीओ। दसमासा पक्क्षेणं, अहहऽसीती य भिक्खुस्स ।।२८३०॥ गुणगार-भागहारेहिं मासुप्पादणं पूर्ववत् ॥२८३०॥ उवज्झायस्स अण्णसंभोइएसु - दसमासा पक्खेणं, असि अट्ठहि य हवंति णायव्वा । . अद्धत्तेरसपक्खे, अट्ठहि य सयं भवे गणिणो ॥२८३१॥ पुव्वद्धं पूर्ववत् । उवज्झायस्स प्रोसण्णेसु संकेतस्स पक्खेण पणवीसएण छेदेण अद्धतेरसमासा छिज्जति, पण्णरस पणुवीसाए गुणिता तीसाए भागे हिते पद्धतेरसमासा भवंति । तस्सेव अट्ठसु प्रोसणेसु फडएसु भहिं पहुँहि पणुवीसएण छदेण सतं मासाणं छिजति, पण्णरस अट्ठहिं गुणिया पुणो पणुवीसगुणिता तीसाए भागे हिते सयं मासाणं भवति ।।२८३१॥ आयरियस्स अण्णसंभोतिएसु संकंतस्स - अद्धं तेरस पस्खे, मासाण सयं च अट्टहिं भवति । पण्णरस-मास-पक्खे, अहि वीसुत्तरं गणिणो ॥२८३२॥ पूर्वार्धं पूर्ववत् । पायनिस्स प्रोसण्णेसु पक्खेण तीसेण छेदेण पण्णरस मासा छिज्जति । प्रायरियस्स प्रोसण्णफडएसु तीसेण छे देण अहिं पक्खेहि वीसुत्तरं माससयं छिज्जति, गुणगार-भागाहारा पूर्ववत् ।।२८३२१. Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रं चोएति रागदोसे, सगण - परगणे इमं तु णाणतं । पंतावण णिच्छुभणं, परकुल घरघाडिए ण गता || २८३३ || सीसो चोदेति - "रागदोसी भवति, जं सगणे थोथं-पच्छितं देह परगणादिसु बहुयं, एस सगणे भे रागो, परगणे भे दोसो" । आरि भणति इमं तु छेदणाणसं करेंता दिट्टंतसामत्येण ण रागदोसी मवामो सुण, जहाएगस्स गिहिणो चउरो भज्जाओ । ताम्रो य तेण कम्हि एगे प्रवराहे कते पंतावेत्ता "णीह ममं गिहाम्रो" ति णिच्छूढा । तत्थेा कम्हि यि परघरम्मि गया । बितिया कुलधरं । ततिया भत्तुणो- एगसरीरो, घाडिउ त्ति वयंसो, तस्स घरं गता । चउत्था णिच्छुभंती वि बारसाहाए लग्गा हम्ममाणी वि ण गच्छति, भणति य - "कतो णं वच्चामि गत्थि मे अण्णो गतिविसश्रो, जति वि मारेहि तहावि तुमं चैव गतीसरणं ति” तत्थेव ठिता । दंडिया य । तुट्ठेण चउत्थी घरसामिणी कता । ततियाए घाडियघरं जंतीए सो चेव प्रणुवत्तियो विगयरोसेण खरंटिया प्राणिया य । बितियाए कुलघरं जंतीए " प्रवतावेइ" त्ति अण्णेहिं भणिएण विगयरोसेण खरंटिया [ सूत्र- १४ पढमा दूरगड त्ति ण ताए किं चि पत्रोणं, महंतेण वा पच्छित्तं दंडेउ प्राणिज्जति । एवं उवसंहारो - परघरसंठाणिया असण्णा, कुलघरसंठाणिया प्रसंभोइया, घाडियसमा संभोइया, अणिग्गमे धरसमो सगच्छो । जाव दूरतरं ताव महंततरो दंडो भवति इत्यर्थः ॥ २८३३|| भणियं सपक्खाधिकरणं | इदाणि परपक्खाधिकरणं भण्णति । तस्स पुण उप्पत्ती कहं हवेज्ज ? तो भण्णति अचियत्त- कुलपवेसे, अइभूमि असणिज्ज -पडिसेहे । अवहार मंगलुत्तरस भावचितमिच्छत्ते ||२८३४|| हिगरण गित्थेहिं, ओसरणं कडूणा य आगमणं । आलोयण पेसवणं, अपेसणे होंति चउलहुगा || २८३५|| कुले साहू पविसंता श्रचियत्ता तं च प्रजाणता प्रणाभोगमो वा पविट्ठा, तत्थ सो गिहवती श्राउसेज्ज वा हणेज वा । साघू त्रि असतो पच्चाउसे, तो अधिकरणं उप्पज्जति । एवं प्रतिभूमिपविट्टे । भिक्खा वा प्रणेसणिज्जा पडिसिद्धा, सेहो वा से सष्णाततो श्रवहडो, जत्ताणिग्गतो वा गित्यो साहु दट्ठ "अमंगलं " ति भष्णति, समयविचारे वा गिही उत्तरदाउमसमत्थो, सहावेण वा कोति साधू श्रचियत्तो तं दट्ठ, अभिग्गहीयमिच्छद्दिष्ट्ठी वा ।। २८३४।। - Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यनाथा २८३३-२८३६] दशम उददेशक: एवमादिएहि कारणाह गिहत्येण समाणमधिकरणमुप्पज्जति । प्रधिकरणं करेंतो साधू बितियसाहुणा सारेययो, प्रणोसरंतो बाहाए गहाय कडियम्वो। "मागमणं" ततो च्चिय सम्नियदृति, पालोएति य गुरुणो 'अधिकरणं कतं" ति, ताहे गुरू वि उवसमणट्ठा तत्थ वसभे पट्ठवेति, जति ण पेसवेति तो गुरुणो चउलहुं |च्छित्तं ॥२८३५॥ आणाइणो य दोसा, विराहणा होति संजमाताए। बुग्गाहण सत्थेणं, वारण अगणी विसं उवधी ॥२८३६॥ सो गिही अणुवसमतो संजमायविराहणं करेज्ज । जति पभू तो उण्णिक्खमावेज्ज, अप्पभू वा पमुणा उण्णिक्खमावेज्ज, एवमादि-संजमविराधणा । कसादिणा घाएज्ज एवमादि भायविराषणा भवेज्ज । गिहत्यो अणुवसमंतो लोग वुग्णाहेज्ज - णत्थि एतेसि धम्मो। अहवा भणेज्ज-सणं वोसिरिता एते विक्खिरंति, ण णिल्लेवेंति वा, एसा पवयणविराधणा । बग्गादिणा वा सत्येण हणेज्ज, भिक्खं वा वारेति, अगणिणा वा उवहिं उपस्सयं वा दहेज्ज, विसगरादि वा देज, उहि वा हरावेज ॥२८३६।। एसा संजमायविराहणा दट्टब्बा। तं पुण वारणं इमेसु ठाणेसु करेज्ज - रज्जे देसे गामे, णिवेसणगिहे य वारणं कुणति । जा तेण विणा हाणी, कुल-गण-संघे य पत्थारो॥२८३७।। भत्तोवकरणवसहिमादिणा वारिते तेण विणा वा परिहाणी पोडा वा साहूणं तं गुरू वसभे अपेसवेतो पावति । अहवा - पभवेतो सव्वं चेव कुल-गण-संघ पत्यारेज्ज-विस्तरेण विनाशं कुर्यादित्यर्थः ।।२८३७॥ एयस्स पत्थि दोसो, अपरिक्खगदिक्खगस्स अह दोसो। पभु कुजा पत्थारं, अपभू वा कारवे पभुणा ॥२८३८॥ गिही चितेति एयस्स साहुस्स पत्थि दोसो, जो एयं अणुवसंतं अपरिच्छिउं दिक्खेति तस्स दोसो, तं चेव पायेति । पमू एवं सयमेव पत्यारं करेति, प्रपभू वा रायवल्लभो अवल्लमो वा प्रत्यपदाणेण पभुणा कारवेति ॥२८३८॥ जम्हा एते दोसा तम्हा खलु पट्ठवणं, पुव्वं वसभा समं च वसमेहिं । अणुलोमण पेच्छामो, त्ति ऐति अणिच्छमाणो वि वसभेहिं ॥२८३६॥ गिहिरवसमणट्ठा पुग्विं मायरिमो वसभे पट्टवेति, तं प्रधिकरणं करेंति, वसहि वा समं सयमेव मायरितो गच्छति, गया अणुलोमक्यणेहि, "प्रणुलोमणं" ति प्रगुणीकरणमित्यर्थः । मह सो गिही अणुणिज्जतो भणेज्ज - "तं ता कलहयितं पाणेह, पेच्छामो, पच्छा खमीहामि गा।" ताहे वसमा तं तस्स अभिप्पायं णाऊण समीवं णेति ।। मह सो साधू प्रणिच्छो ताहे वसहेहि प्रणिच्छमाणो वि बला गेयव्यो ॥२८३९॥ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-१४ ते पुण इमेरिसगुणजुत्ता वसभा पुज्विं पट्टविज्जति । तस्संबंधि सुही वा, पगया श्रोयस्सिणो गहियवक्का । तस्सेव सुही सहिया, गति थेरा तगं पुत्वं ॥२८४०॥ "तस्स" त्ति-गिहिणो जे सयण, मित्ता वा, लोगे वा पगता प्रख्याता, "उय" ति तेयस्सिणो खीरासवादि-लद्धिसंपण्णा, मिटवाक्या सबवहारप्रयोगवशा भणंता गिहियवक्का भवंति, एरिसा वसभा तस्स गिहिणो जे अण्णे गिहीसंबंधे सुहिणो वा तेहिं सहिया गर्नेति, पूर्वमिति प्रथमं, पश्चात् साधु नयिष्यंति, थिरसभा वा येरा, परिणयवया वा थेरा ॥२८४०॥ तस्सग्गतो इमेरिसं भणंति - सो णिच्छुभति साधू, आयरिए तं च जुज्जसि गमेतुं । नाऊण वत्थुभावं, तस्स जति गंति गिहिसहिता ॥२८४१॥ जेण साहुणा तुमे समं कलहितं सो साधू पायरिएण धाडिज्जति, अम्हं पायरिया ण सुट्ठ सुर्णेति, तव च पायरियं जुज्जति गमेउं, जइ मायरियं गमेति खमति य तो लटुं । "पेच्छामो” त्ति अस्य व्याख्या - ‘णाउण वत्थु" पच्छद्धं, कूराकूरं गिहिवत्युमा । केण वाऽभिप्पाएण भणति - "प्राणेहि" ति किं हंतुकामो खमेउकामो वा? एवं पाऊण तस्स जहणेति तो जे संबंधी सुही वा गिही तेहिं सहिता तं साहू ऐति ।।२८४१॥ ___ अह सो गिही तिव्वकसानो उवसामिजंतो वि ण उवसमति तो तस्स साहुस्स गच्छस्स य संरक्खणट्ठा इमा विधी - वीसु उवस्सते वा, ठवेति पेसिति फड्डपतिणो बा । देंति सहाते सव्वे, व णिति गिहिते अणुवसेंते ॥२८४२॥ वीसुं पृथक् अण्णम्मि उवस्सयम्मि एत साहुं ठवेति, अण्णगामे वा जे फड्डया तेसु जे मायरिया तं ताण पट्ठवेंति, णितस्स य सहाए देंति, ग्रह मासकप्पो पुण्णो तो सव्वे णिति, एवं गृहस्थे अनुपशान्ते निर्गच्छन्तीत्यर्थः ॥२८४२।।। अह सो गिही उवसामिज्जतो उवसमति, साहू णोवसमति तो से भिक्खादिकिरियादिसु इमं पच्छित्तं - अविश्रोसियम्मि लहुगा, भिक्खवियारे य वसहि गामे य । गणसंकमणे भणंते, इहं पि तत्थेव वच्चाहि ॥२८४३॥ जति अणुवसंतो साहू भिवखं हिंडति, वियार-विहारभूमि वा गच्छति, वसहीउप्पायणट्ठा वा गामं पविसति, वसहोमो वा अण्णसाधु-वसहि गच्छति, तो सव्वेसु च उलहुगा पच्छित्तं । अतितिव्वकसायाभिभूतो अj गणं मंकतो तं अण्णगणिच्चया भणंति - "इहं पि गिहीअसहणा प्रत्थि तुम पि प्रसहणो, मा तेहिं समाणं अधिकरणं काहिति, तत्थेव वच्चावि" ॥२८४३॥ १ गा० २८३६ । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २८४० - २८४७ ] safaint विहणा, ण य वोच्छिष्णा इहं तुह कसाया । सिं पायासं, जणइस्ससि वच्च तत्थेव || २८४४ || गतार्थाः सिटुम्मि ण संगिज्झइ, संकंतम्मि उ असणे लहुया । गरुगा यण- कहणे, एगतरपदोसतो जं च ॥२८४५|| दशम उद्देशकः वसंतेहि साहुम्मिश्रणं गणं संकते मूलायरिएण साहुसंघाडगो पट्टवेयन्त्रो । तत्थ सो गतो ते संघाडएण सिट्टे कहिते सो तेहि ण संगहियव्वो । ग्रह पुण मूलायरियो तेसि साहुसंघाडयं ण पटुत्रेति तो चउलहुं, सो साहुसंघाडगो बहुजणमज्झे " एस द्धिम्मो गिहीहि समाणं अधिकरणं काउमागम्रो" एवं प्रजयणकणे चउगुरुगा पच्छितं । प्रजयणाते कहिते सो साधू एगतरस्स पदुट्टो जं क हिति तं ते अजयणाकही पावेंति । "एगतरो" ति साहुसंघाडग गिही य । ग्रहवा – साहुसंघाडगो मूलायरिश्रो य । अधवा 1 मूलायरिओ जस्स समोवं संकेतो य ॥२८४५॥ तम्हा अजयणं वज्जेउ इमा विधी - उवसामितो गत्थो, तुमं पि खामेहि एहि वच्चामो | ', दोसा हु अणुवसंते, पण सुज्झए तुज्झ सामयियं ||२८४६ || ५५ पुव्वं गुरुणो एगंते कहेउं पच्छा सो साधू एगंते भणति - "उवसामितो सो गिहत्थो, एहि बच्चामो, तुमं पितं खामेह, प्रणुवसमंतस्स इहलोगपरलोगे य बहु दोसा । समभावो - सामायियं तं सकस यस्स णो विभेज्जा" । एवं एगंते भणितो जति णोवसमति तो एवं चैव गणमज्भे भण्णति, एवं भणिए कोति गच्छति, कोति ण गच्छति ॥ २८४ ॥ तिव्वकसायपरिणतोय भणति - "तस्स गिहिणो निमित्तेणं इहं पि ठाणं ण लभामि - तमतिमिरपडलओ, पावं चिंते दीहसंसारी | पावं ववसितुकामो, पच्छित्ते मग्गणा होति || २८४७|| कण्हचउद्दसीए राम्रो भासुरदव्वाभावो तमं भणति तम्मि चेव रातो जदा रयरेणुधूमधूमिगा भवति तदा तमतिमिरं भण्णति, जदा पुण ताए चैव रातीए रयायिया मेहदुद्दिणं च भवति तदा तमतिमिरपडलं भण्णति – सुट्ठे अंधकारं ण तत्थ पुरिसो कि चि पासति । एवं पुरिसो कसाय-उदएण तिव्वतिव्वतरतिव्वतमेण तमतिमिरपडलभूतो भण्ाति । भूतशब्दः द्रव्यान्धकार सादृश्यौपम्यार्थे द्रष्टव्यः । अहवा तम एवं तिमिरं - तमतिमिरं तमतिमिरमेव पडलं - तमतिमिरपडलं, अंधकारविशेषमित्यर्थः, तेण उवमा कजति तेण तमतिमिरपडलभूतो । इहापि भूतशब्दः उपमार्थे । यथा अन्धकारेण ण किचिदुपलभ्यते एवं तीव्रकषायोदयान चारित्रगुणः कश्चिदुपलभ्यते । ग्रहवा - पित्तुदयविकारेण य दव्वचक्खिदियस्स सबलीकरणं तिमिरं भण्णति । दव्विंदियसबलभावे य दंसणावरणकम्मोदमो भवति । सिमुदयविकारेण य दव्वचक्खिदियस्संतरणं पडलं भण्णति, तम्भावे य चमखु Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ सभाष्य-चूमिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१४ दसणावरणोवनो। एवं तिमिरपडलेहिं पुरिसस्स तमो भवति - न किंचित् पश्यतीत्यर्थः । तेण उवमा जस्स कज्जति सो भण्णति तमतिमिरपडलभूतो। इहापि भूतशब्दो उपमा, यथाऽसौ पुमान् दर्शनावरणोदयान किंचित् पश्यति । एवं चारित्रावरणकषायोदयादिह परलोके हितं न किंचित् पश्यति । ऐश्वर्याजीविताद्वा भ्रसनं पापं तं तस्स गिहत्यस्स वितेति । तम्मि पाप-ववसिते पच्छिते इमा मगणा भणति ॥२८४७॥ वचामि वश्चमाणे, चतुरो लहुगा य होति गुरुगा य । (पंथे) पहरण मग्गण लद्धे गहणम्मि य छल्लहू गुरुगा ॥२८४८॥ वच्चामि तं गिहत्यं पंता वेमि ति संकप्पकरणे चउलहुमा, पदभेदातिपंथे वच्चंतस्स चउगुरुगा, पहरणमग्गणे छल्लहुगा, पहरणे लढे गहिते य छग्गुरुगा ॥२८४८।। उग्गिण्णदिण्ण अमाये, छेदो तिसु वेगसारणे मूलं । दोसु य अणवठ्ठप्पो, तप्पभिति होति पारंची ॥२८४६॥ उगिणे छेदो, पहरिते मूलं । अण्णे भणंति - उग्गिणे पहरिते य अमते छेदो, मते मूल । “जं जत्य' ति परितावणादियं च जं जत्य संभवति तं कतव्वं ॥२८४९॥ अहवा - तं संजयं गिहत्थवहाए पालतं सो चेव गिहत्यो। तं चेव निहवेती, बंधण णिच्छुभण कडगमद्दो वा । आयरिए गच्छम्मि य, कुलगणसंधे य पत्थारो ॥२८५०॥ तं संजयं णिटुवेति व्यापादयति बंधति वा, वसहि-णिवेसण-गाम-णगर-देस-रज्जातो वा णिच्छुमति घाडयतीत्यर्थः, जंतेण वा पोलति । अहवा- कडगमद्दो एगस्स रुट्ठो सव्वं चेव गच्छं व्यापादयति । जहा खंदगगच्छो पालएण। अहवा - मायरियाण बंधण-णिच्छुभण-कडगमई करेति, एवं कुलसमवायं दातुं कुलस्स करेति । एवं गणस्स संघस्स एस पत्यारो । प्रह एग प्रणेगे वा गामे गगरे पंथे वा जंजत्य पासतितं तत्येव व्यापादयति। एस पत्यारो भण्णति ॥२८५०॥ एवं एगागिणो वच्चंतस्स आरोवणा दोसा य भणिया । इदाणिं सहायसहियस्स प्रारोवणा भण्णति - संजयगणे गिहिगणे, गामे गगरे य देस रज्जे य । अहिवति रायकुलम्मि य, जा जहिं आरोवणा मणिता ॥२८५१|| बहू संजते मेलेता तं संजयगणं महायं गेहति । एवं गिहिगणं । तं पुण गामं णगरं देसं रज्जं, अहिपति ति मह एतेसिं चेव मधिया सहाया, ते गेण्हति । मणं वा कि चि रायकुलं सहायं गेहनि, जहा-सगा कालगज्जेण। एगागिणो जा अंकप्पादिगा पोरोवणा भणिता इहावि सच्चेव दट्टया ॥२८५१॥ संजयगुरू तदहिवो, गिही तु गाम पुर देस रज्जे वा। एएसि चिय अहवा, एगतरजुभो उभयभो वा ॥२८५२॥ संजयाचं जो गुरु सो सदधिवो भणति । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २८४८-२८५७ ] दशम उद्देशकः अहवा - संजताण अघिको गुरू । गिहीण तदधिको गिहत्थो भवति । तुशब्दो विकल्पे, पासंडी चेत्यर्थः । गाम-पुर-देस-रज्जाण जे अधिवा भण्णंति - गामस्स गामउडो व्यापृतक इत्यर्थः । पुरस्स सेट्ठी कोट्टवालो वा, देसस्स देसकुट्टो वा, देसव्यापृतको वा, रज्जस्स महामंत्री, राजा वा, एतेसि एगतरेण उभएण वा संजुत्तो गच्छति ॥२८५२॥ "'जा जहिं आरोवणा भणिता" अस्य व्याख्या - संजयगणेण तदधिवेण वा सहितो वच्चामि त्ति संकप्पे चउलहुँ। तहिं वच्चंते गुरुगा, दोसु उ छल्लहुग गहणे छग्गुरुगा। उग्गिण पहरण, छेदो मूलं जत्थ वा पंथे ॥२८५३॥ एगतरोभएण वा संजते पदभेदातिपंथे वच्चंतस्स चउगुरु, पहरण-मग्गणदितु य दोसु पदेसु छल्लहुँ, गहिए छम्गुरु, उगिणपहरिएसु दोसु पदेसु जहासंखं छेदो मूलं च, परितावणादियं पंथे वा पुढवादियं सव्वं दट्ठव्वं । गिहत्थादिएहि एगतरोभयसहितो गच्छामि त्ति संकप्पेति चउगुरु, पदभेदादिपंथे पहरणमग्गणे य दोसु वि पदेसु छल्लहुं । शेषं पूर्ववत् । एवं भिक्खुस्स भणियं ॥२८५३॥ एसेव गमो नियमा, गणि आयरिए य होइ णायव्यो । नवरं पुण णाणतं, अणवठ्ठप्पो य पारंची ॥२८५४॥ उवज्झाए प्रायरिए य एसेव विधी । णवरं - हेट्ठा पदं हुसति उरि प्रणवट्ठ-पारंचिया भवंति । अहवा- तवारिहा सारिसा चेव, उवज्झायस्स मूलठाणे प्रणवट्ठो, पायरियस्स पारंचियं ।।२८५४।। तवारिहाण इमो विसेसो - भिक्खुस्स दोहि लहुगा, गणवच्छे गुरुग एगमेगेणं । उवज्झाए आयरिए, दोहिं गुरुगं तु णाणत्तं ॥२८५॥ भिक्खुस्स दोहि वि लहुगा । पायरिये संते उवज्झायो गणवच्छो वि भण्णति, तस्स तवारिहा अण्णतरेण तवेण वा कालेण वा गुरू प्रादिज्जति । ___ अण्णे भणंति - तवगुरु चेव । कालगते आयरिए उवज्झायो जाव अणभिसित्तो प्रायरियपदं अणुसीलतो एवं उवज्झायो प्रायरियो भण्णति, पायरियस्स तवारिहा दोहि वि गुरुगा, एयं 'णाणत्तं" विसेसो ॥२८५५॥ काऊण अकाऊण व, उवसंत उवट्टियस्स पच्छित्तं । सुत्तेण उ पट्टवणा, असुते रागो य दोसो वा ॥२८५६॥ गिहत्थस्स प्रवकारं काउं प्रकाउ वा जतो उवसंतो गुरुस्स पालोयण-विहाणेण अपुणकरणेण उवट्टियस्स तस्स पच्छित्तं सुत्तेण पट्टविजाति ति, पट्टाविज्रति - तस्याग्रतो निगद्यते "इदं ते प्रायश्चित्तमिति" । प्रमुत्तोवदेसेणं पुण पायच्छित्तं प्रप्पं देतस्स रागो, बहुं देंतस्स दोसो ॥२८५६॥ थोवं जति आवण्णो, अतिरेगं देति तस्स तं होति । सुत्तेण उ पट्टवणा, सुत्तमणिच्छंते णिज्जुहणा ॥२८५७।। १गा०२८५१। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-१४ जति थोवं प्रावण्णो तत्थ जति आयरिश्रो तस्स अतिरेगं देति, ऊणं वा, तो जत्तिएण पहियमूणं वा देति, तमायरियस्स पच्छित्तं भवति । तम्हा सुत्तेण पट्टवणा । जो पुण सुत्तं णेच्छति सुत्तत्थाभिहियं वा पछित्तं णेच्छति, तस्स णिज्जूहणा विसंभोग इत्यर्थः ।।२८५७।। जेणऽहियं ऊणं वा, ददाति तावतियमप्पणो पावे । अहवण सुत्तादेसे, पावति चउरो अणुग्घाया ॥२८५८॥ पूर्वाधं गतार्थम् । अहवा - पायरियो ऊणातिरित्तं देंतो सुत्तादेसेण चउगुरु पावति । तं च इमं सुत्त""जे भिक्खू उग्घातियं अणुग्घातियं वदति अणुग्घातियं उम्घातियं वदति उग्घातियं अणुग्घातियं देइ अणुग्घातियं उग्घातियं देइ" तस्स चउगुरु पच्छितं भवतीत्यर्थः ॥२८५८।। बितियं उप्याएतं, सासणपंते असझ पंचपदा । आगाढे कारणम्मी, राया संसारिए जयणा ॥२८५४॥ कोइ पडिणीपो गिहत्थो, तस्स सासणहेतुं, तेण समाणमधिकरणमुप्पादेउं सो सासिज्जति । मप्पणा असमत्थो भागाढे कारणे (संजय-गाम) गामं णगरं देसं रज्जं एतेहिं पंचहिं पदेहिं सहितो सासेति, असमत्थो असहाम्रो वा रायसंसारियं कुज्जा, अणुसट्ठी धम्मकहा-विज्जा-णिमित्तादिएहिं जाउं । एसा जयणा। अहवा - पुवं गामभोइयस्स, पच्छा तस्सामिणो, एवं उत्तरुत्तरं, पच्छा जाव राया संसारियं कुज्जा । एसा वा जयणा-रायाणे पुण पंते तं रायाणं फेडिउं तत्वंसज अण्णवंसजं वा भयं ठवेति ॥२८५६।। जो इमेहिं गुणेहि जुत्तो फेडेति तस्स - विज्जा-ओरस्सरली, तेयसलद्धी सहायलद्धी वा । उप्पाएतुं सासति, अतिपंतं कालगऽज्जो वा ॥२८६०॥ जो विज्जाबलेण जुत्तो जहा-प्रज्ज खउडो । उरस्सजेण वा बाहुबलेण जुतो जहा-बाहुबली । तेयलद्धीए वा सलद्धी जहा-बभदत्तो पुञ्चभवे संभूतो। सहायलद्धीए वा जहा-हरिएसबलो। एरिसो अधिकरणं उप्पाएउं अतिपंतं सासेति । जहा-कालगज्जेण गद्दभिल्लो सासियो। को उ गद्दभिल्लो? को वा कालगन्जो ? कम्मि वा कज्जे सासितो! १ भने वर्तमानानीमानि चत्वार्यपि सूत्राणि । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माणगाथा २८५८-२८६० ] दशम उदेशक: भण्णति - उज्जेणी णाम णगरी। तत्थ य 'गद्दभिल्लो' णाम राया ! तत्थ 'कालगज्जा' णाम आयरिया जोतिस-णिमित्त-बलिया। ताण भगिणी रूववती पढमे वए वट्टमाणी गद्दभिल्लेण गहिता। अंते पुरे छूढा । अबकालगा विण्णवेंति, संघेण य विण्णत्तो ण मुचति । ताहे रुट्ठो अज्नकालगो पइण्णं करेति- “जइ गद्दभिल्लं रायाणं रज्जानो ण उम्मूलेमि, तो पवयण-संजमोवग्घायगाणं तमुवेक्खगाण य गतिं गच्छामि" | ताहे कालगज्जो कयगेण उम्मत्तली भूतो तिग-च उक्क-चच्चर-महाजणट्ठाणेसु इमं पलवंतो हिंडंति - “जइ गद्दभिल्लो राया तो किंमतः परं । जइ वा अंतेपुरं रम्मं तो किमतः परं । विसो जइ वा रम्मो तो किमतः परं। सुणिवेट्टा पुरी जइ तो किमतः परं । जइ वा जणो सुवेसो तो किमतः परं । जइ वा हिंडामि भिक्खं तो किमतः परं । जइ सुण्णे देउले वसामि तो किमतः परं" एवं भावेउं सो कालगज्जो पारसकुलं गतो। तत्थ एगो साहि त्ति राया भण्णति, तं समल्लीणो णिमित्तादिएहिं प्राउट्टेति । अण्णया तस्स साहाणुसाहिणा परमरायाणेण कम्हि यि कारणे रुटेणं कट्टरिगा मुद्देउं पेसिया सीसं छिदाहि त्ति, तं प्रकोप्पमाणं यातं सोयं विमणो संजातो। ताहे कालगज्जेण भणितो मा अप्पाणं मारेहि । साहिणा भणियं - परमसामिणा रु?ण एत्थ अच्छिउण तरइ । कालगज्जेण भणियं - एहि हिंदुगदेसं वच्चामो। रण्णा पडिस्सुयं । तत्तुल्लाण य अण्णेसिं पि पंचाणउतीए साहिणा संग्रहण कट्टारियानो मुद्देउ पेसियालो । तेण पुग्विल्लेण या पेसिया मा अप्पाणं मारेह। एह वच्चामो हिंदुगदेसं । ते छण्णउति पि सुरटुमागया। कालो य णवपाउसो वट्टइ वरिसाकाले ण तीरति गंतु। छण्णउइं मंडलाइं कयाति (णि) विभत्तिऊणं । जं कालगजो समल्लीणो सो तत्थ राया अधिवो राया ठवितो, ताहे सगवंसो उप्पण्णो। वत्ते य वरिसाकाले कालगज्जेण भणियो-गद्दभिल्लं रायाणं रोहेमो। ताहे लाडा रायाणो जे गद्दभिल्लेण अवमाणिता ते मेल्लेई अण्णे य ततो उज्जेणी रोहिता । तस्स य गद्दभिल्लस्स एका विजा गहिरूवधारिणी अत्यि। सा य एगम्मि अट्टालगे परवलाभिमुहा ठविया। ताहे परमे प्राधिकप्पे गद्दभिल्लो राया अट्टमभत्तोववासी तं अवतारेति । ताहे सा गद्दभी महंतेण सद्देण णादति, तिरिओ मणुप्रो वा जो परबलिच्चो सदं सुणेति स सव्वो रुहिरं वमंतो भयविहलो गट्ठसण्णो धरणितलं णिवडइ। कालगन्जो य गद्दभिल्लं अट्ठमभत्तोववासिं गाउं सद्दवेहीण दक्खाणं अट्ठसतं जोहाण णिस्वेति - "जाहे एस गद्दभी मुहं विडंसेति जाव य सदं ण करेति ताव जमगसमगं सराण मुह पूरेज्जेह"। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १५-२२ तेहिं पुरिसेहि तहेव कयं । ताहे सा वाणमंतरी तस्स गद्दभिल्लस्स उरि हणि मुत्तेउं व लत्ताहिं य हंतु गता । सो वि गद्दभिल्लो अबलो उन्मूलियो। उहिया उज्जेणी। भगिणी पुणरवि संजमे ठविया। एवं अधिकरणमुप्पाएउ प्रतिपतं सासेंति। एरिसे वि महारंभे कारणे विधीए सुद्धो अजयणापच्चतियं पुण करेंति पच्छित्तं ॥२८६०॥ जे भिक्खू उग्धातियं अणुग्धातियं वदति, वदंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१५॥ जे भिक्खू अणुग्धातियं उग्धातियं वदति, वदंतं वा सातिजति ॥२०॥१६॥ जे भिक्खू उग्धातियं अणुग्धातियं देति, देंतं वा सातिज्जति ॥२०॥१७॥ जे भिक्खू अणुग्धातियं उग्घातियं देति, देंतं वा सातिज्जति ॥२०॥१८॥ उग्घातियं लहुयं भण्णति, अणुग्धाइयं गुरुगं । “वदति" प्ररूपयति, "ददाति" प्रारोपयति । एवं विवरीएसु परूवणादाणेसु चउगुरुगं पच्छितं ।। उग्घायमणुग्घायं, वणुग्धायं तहा य उग्घायं । जे भिक्खू पच्छित्तं, वएज्ज दिज्जा व विवरीयं ॥२८६१॥ गतार्था प्रायश्चित्तस्य न्यूनाधिकदाने आज्ञाभंगादयो दोषाः - सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं तहा दुविधं । पावति जम्हा तेणं, अव्विवरीयं वदे दे वा ॥२८६२॥ विवरीयं परूवेतो देतो वा तित्यगराणं प्राणाभंग करेति, अण्णहा परूवणदाणेसु य प्रणवत्या कता भवति, अण्णहा परूवणदाणेहि य मिच्छत्तं जणेति, जहा एयं तहा अन्यदपि सर्वमलीकमिति, ऊणे चरणस्स असुद्धी, अधिके साधुपीडा । एवं दुविहा विराहणा भवति, जम्हा एते दोसा तम्हा अविवरीयं वदति देति वा ॥२८६२॥ परितावमणणुकंपा, भयं च लहुगम्मि पत्ते गुरु देतो। वीसत्थया ण सुज्मइ, इयरे अलियं वदंते य ॥२८६३॥ लहुगम्मि पत्ते गुरु देते साहुस्स परितावणा कता, भणणुकंपा य, भयेण य पुणो णालोयेति । इतरे ति गुरु पत्ते लहुँ देते वीसत्थताए य पुणो पडिसेवेति, ण य से चारितं सुज्झइ । एते देते दोसा। वदंते पुण दोसु वि सुत्तेसु प्रलियं भवति ॥२८६३।।। किं चान्यत् - अप्पच्छित्ते उ पच्छित्तं, पच्छित्ते अइमत्तया । धम्मस्सासायणा तिव्वा, मग्गस्स य विराधणा ॥२८६४॥ अप्पच्चित्ते अणावत्तीए जो पच्छित्तं देति, पत्ते वा मावत्तीए जो प्रतिप्पमाणं पच्छित्तं देति, सो सुप्रचरण धम्मस्स भासादणं गाढं करेति, दर्शनज्ञानपरणात्मकस्य च मार्गस्य विराधणां करोति ॥२८६४॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २८६१-२ दशम उद्देशकः "धर्मस्ये" त्ति अस्य व्याख्या - सुय-चरणे दुहा धम्मो, सुयस्स आसायणऽण्णहा दाणे । ऊणं देंते ण सुज्झति, चरणं आसायणा चरणे ।।२८६५॥ अण्णहा वदंतेण सुतं विरायिं । ऊणं देतेण चरणं विराधितं ॥२८६५॥ मग्गस्ये ति व्याख्या - नाणाति-तिविहा मग्गो, विराहितो होति अण्णहा दाणे । सुयमग्गो वेगट्ठा, मग्गो य सुयं चरणधम्मो ॥२८६६॥ पुचद्धं कंठें। सुयं ति वा मग्गो त्ति वा एगढें । अहवा - मग्गो सुप्रै भण्णति. धम्मो चरणं, एते विराहतेण मोक्खमणो विराहितो भवति । एवं संगम-प्रायविराहणानो असंखडादयो य दोसा, देवया छलेज्ज ॥२८६६।। बितियं गुरूवएसा, तववलिए उभयदुब्बल्लेवलिते। वेयावच्च अणुग्गह, विगिचणट्ठाए विवरीयं ॥२८६७॥ पायरियपरंपरोवदेसेण प्रागंतं गुरु लहुं वा वदंतो देंतो वा सुद्धो । “तवबलिय" ति चउत्थमादितव करणे बलियो, सो उग्घातिपायच्छित्ते दिणे भणाति - "किं ममेतेण कज्जं ति, अण्ण पि देति।" ताहे प्रायरितो अणुग्घातं देति, भणति - "इमं चेव पच्छित्तं, एतं मे अणुवउत्तण दिणं ।" "उभयदुबलो" णाम घितीए संघयणेण य, तस्स अणुग्घातिए वि उग्घातं दिज्जइ. जहा तरति वोढं । घितिसंघयणाण एगतरबलिए य तयणुरूवं दिज्जइ । "बलिए' त्ति - उभएण वि बलियस्स चियमंससोणियस्स दप्पुद्धरस्स उग्घातिए वि अणुग्घातं दिज्जति । जो पायरियाण वेयावच्चकरणे अब्भुज्जतो तस्स साणुग्गहं दिज्जति । भणियं च - "वेयावच्चकराणं होति अणुग्घाए वि उग्यातं" । अणुग्गहकसिणेण वा से दिजति, पायच्छित्ते दिण्णे छहिं दिवसेहिं गतेहि अण्णे छम्मासा जतिउं प्रावण्णो झोसिय छ आदिल्ला अण्णे छम्गासा दिज्जति । जो वा विगिचियबो तस्स अपच्छित्ते वि पच्छित्तं दिज्जति, अप्पे वा बहुं दिज्जति, वरं पच्छित्तो मग्गो णस्सिहिति ॥२८६७॥ जे भिक्खू उग्धाइयं सोच्चा णचा संभुंजइ, संभुंजत वा सातिज्जति ॥०॥१६॥ जे भिक्खू उग्धाइय-हेउं सोच्चा णच्चा संभुंजइ, संभुंजंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२०॥ जे भिक्खू उग्धाइय-संकप्पं सोच्चा णच्चा संभंजइ, संभुंजतं वा सातिज्जति ॥०॥२१॥ जे भिक्खू उग्धातियं उग्धातिय-हेउं वा उग्घातिय-संकप्पं वा सोच्चा णच्चा संभंजइ, संभुजंतं वा सातिज्जति ॥०॥२२॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सून २३-३० जे भिक्खू अणुग्धातियं सोच्चा गच्चा संभंजइ, संभुंजतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२३॥ जे मिक्खू अणुग्धाइय-हेउं सोच्चा णचा संभुंजइ, सं जंतं वा सातिज्जति ॥१०॥२४॥ जे भिक्खू अणुग्धाइय-संकप्पं सोच्चा णच्चा संभुंजइ, संभुंजंतं वा सातिजति ॥०॥२५॥ जे भिक्खू अणुग्यातियं अणुग्धाइय-हेउं वा अणुग्याइय-संकप्पं वा सोचा णचा संभुंजइ, संभुंजतं वा सातिज्जति ॥२०॥२६॥ जे भिक्खू उग्धाइयं वा अणुग्धाइयं वा सोच्चा णचा संभुंजइ, संभुजंतं वा सातिज्जति ॥२०॥२७॥ ने भिक्खू उग्पाइय-हेउं वा अणुग्धाइय-हेउं वा सोचा णचा संमुंजइ, संभुजंतं वा सातिज्जति ॥०॥२८॥ जे भिक्खू उग्धाइय-संकप्पं वा अणुग्घाइय-संकप्पं वा सोच्चा णचा संभुंजइ, संभुंजतं वा सातिज्जति ।।मु०॥२६॥ जे भिक्खू उग्धाइयं वा अणुग्याइयं वा उग्धाइय-हेडं वा अणुग्घाइय-हेउं का उग्याइय-संकप्पं वा अणुग्धाइय-संकप्पं वा सोच्चा णचा संभुंजइ संभंजंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३०॥ 'एते छ सुत्ता। उग्घातियं णाम जं संतरं वहति लघुमित्यर्थः । अणुग्घातियं णाम जं णिरंतरं वहति गुरुमित्यर्थः । “सोच्चं" त्ति अण्णसगासागो, “णच्चं" ति सयमेव जाणित्ता, “संभुजे" ति एगप्रो भोजनं । उग्धाइयहेउसंकप्पाण उग्घातियाण तिण्ह वि इमं वक्खाणं - उग्धातियं वहंते, आवण्णुग्धायहेउगे होति । उग्धातिय-संकप्पिय, सुद्ध परिहारियतवे य ॥२८६८॥ उग्धातियं ति पायच्छित्तं वहंतस्स - पायच्छित्तमापण्णस्स जाव मणालोइयं ताव हेउ भण्णति, आलोइए "अमुगदिणे तुज्झयं पच्छित्तं दिजिहिति" ति संकप्पियं भन्नति । एवं पुण दुविधं पि दुविहं वहति - सुद्धतवेण वा परिहारतवेण वा । हेऊ वि सुद्धस्स तबस्स वा परिहारतवस्स वा । संकप्पियं पि सुद्धतवेण वा परिहारतवेण वा ॥२८६८।। १ 'कानि षड्सूत्राणि' इति सम्यग्विचारणीयम् । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २८६८-२८७३ ] दशम उद्देशक: अणुग्धाइयहेउ संकप्पाण प्रणुग्धाइयाण तिष्ह वि इमं वक्खाणंअणुग्वातियं वहते, श्रवण्णऽणुघातउगं होति । अघातिय संकप्पिय, सुद्ध परिहारिय तत्रे य ॥२८६६॥ प्रणुग्धातिए त्ति वत्तव्वं ॥ २८६६ ॥ पूर्ववत् । णवरं जे सगच्छे सुद्धपरिहारतवाण प्रारूढा ते णज्जंति चेव । जे परगच्छातो श्रागता ते पुच्छिज्जंति - - को भंते ! परियाओ, सुत्तत्थ अभिग्गहो तवोकम्मं । कक्खडमकक्खडेसु य, सुद्धतवे मंडवा दोनि ॥ २८७०॥ इमा पढमा पुच्छा - गमगी गीओ, महंति कं वत्थु कस्स व सि जोग्गो ? । 9 गीति य भणिते, थिरमथिर तवे य कयजोग्गो ॥ २८७१ ॥ सो पुच्छिज्जति - किं तुमं गीयत्यो प्रगीयत्थों ? जति सो भणति - गोतो महं ति । तो पुण पुच्छिजति - कि आयरिश्रो ? उवज्झाम्रो ? पव्वत्तम्रो ? थेरो ? गणावच्छेतितो ? वसभो ? एतेसि एगतरे प्रक्खाए पुच्छिज्जति - कयमस्स तवस्स जोग्गो - सुद्धस्स, परिहारतवस्स ? थिरो प्रथिरोति । थिरो दृढो, तवकरणे बलवा ग्रह सो गीतोमि त्ति भणिज्जा प्रापुच्छिज्जति नित्यर्थः । श्रथिरो अंतरादेव भजते, नांतं नयतीत्यर्थः । पुणो थिरो अथिरो वा पुच्छिज्जति - तवे कयजोग्गो तवकरणेनाभ्यस्ततवो ॥ २८७१ ॥ गणम्मि नत्थि पुच्छा, अण्णगणादागयं च जं जाणे । परिया जम्म दिक्खा, अउणत्तीस वीसकोडी वा ॥ २८७२ ॥ - इदाणि "सुत्तत्थमि" ति अस्य व्याख्या सगणे या णत्थि पुच्छाश्रो, जो सगणवासिणो सब्वे णज्जंति जो जारियो, भण्णगणागतं पि जं जातं न पुच्छे । "भंते त्ति आमंतणवयणं, ""परियाए" त्ति परियाओ दुविहो - जम्मपरियाश्रो पव्वज्जापरिया य । जम्मपरिया जहण्गेण जस्स एगूणतीसवासा । कहं ? जम्मट्ठवरिसे पव्वतितो, णवमवरिसे उट्ठावितो, वीततिवरिसस्स दिट्टिवाओ उद्दिट्ठो, वृरिसेण जोगसमत्तों एवं एते श्रउणती सं वासा । उक्कोसेण सूणा पुत्रकोडी । पव्वज्जा एगूणवीसस्स दिट्टिवातो उद्दिट्ठो वरिसेण समत्तो, एते वीसं, उक्कोसेण देसूणा कोडी ||२८७२ || ६३ - णवमस्स ततियवत्थू, जहण्ण उक्कोस ऊणगा दस उ । सुत्तत्थऽभिग्गहे पुण, दव्वादितवो रयणमादी ॥२८७३ ॥ लवमस्स पुग्दस्स जहणेणं ततियं श्रायारवत्थू, तत्थ कालणाणं वणिज्जति, जाहे तं प्रधीयं । १ गा० २८७० । २ गा० २८७० । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र - ३० उक्कोसेण जाहे कणगा दस पुत्र अधीता । समत्तदसपुत्रिणो परिहारतवो ण दिज्जति । सुत्तत्थस्स एवं पमाणं । "अभिग्गहे" त्ति श्रभिग्गहा दव्वखेत्तकालभावेहिं । "तवोकम्मं" पुण " रयणमादि" त्ति, रयणावली प्रादिसदातो कणगावली सीहनिक्कीलियं जवमज्भं वइरमज्भं चदाणयं ॥ २८७३ ॥ ६४ " कक्खडेसु य पच्छद्ध" अस्य व्याख्या - सुद्धपरिहारतवाणं कतमो कक्खडो ? कथमो वा कक्खडो ? 'एत्थ सेल- एरंड-मंडवेहिं दिट्ठतो कज्जति - जं मायति तं छुमति, सेलमए मंडवे ण एरंडे | उभयबलियम्मि एवं, परिहारो दुब्बले सुद्धो ॥ २८७४॥ सेलमंडवे जं माय तं सुभति ण सो भज्जति । एरंडमए पुण जावतियं सहइ तावतियं छुभति । एवं " उभयबलिए" त्ति धिइसंवगणावजुत्ते जं श्रावज्जते तं परिहारतवेण दिजति । जो पुण घितिसंघयणेहि "दुब्बलो" त्ति होणो तस्स सुद्धतवो वा होणतरं पि दिज्जति ॥ २८७४ ।। सीसो पुच्छति - कि सुद्धपरिहारतवाण एगावत्ती उत भिष्णा ? उच्यते - विट्ठिावती, सुद्धतवे चैव तह य परिहारे । वत्युं पुण सज्जा, दिज्ज ते तत्थ एगतरो ||२८७५|| सुद्धपरिहास्तवाण प्रविसेसिया श्रावत्ती प्रायरिया दीवन्ति । संघयणोवजुत्तं जाणिकगं परिहारतवो दिज्जति, इतरो वा सुद्धतवो, एवं एगतरां दिज्जति ॥ २८७५॥ इमेरिसाण सव्वकालं सुद्धतवो दिजति - सुद्धतवो अज्जाणं, अगियत्थे दुब्बले संघयणे । घितिबलिए य समण्णागएसु सव्वेसु परिहारो ||२८७६|| जाणं श्रगीयत्यस्स, घितीए दुब्बलस्स, संघयणहीणे, एतेसि सुद्धतत्रो दिज्जति । धितिबलजुत्तो त्रयणसमणिए पुरिसे परिहारतवो दिज्जति ॥ २८७६ || परिहारतवं पडिवज्जंते इमा विही - विउसग्गो जाणणट्ठा, ठवणाभीएस दोसु ठवितेसु । गडे पदीय राया, दितो भीय सत्थे ॥ २८७७|| I परिहारवं पडिवज्जते दव्वादि अप्पसत्थे वज्जेत्ता पसत्येसु दव्वादिसु काउसग्गो कीरइ, सेससाहू जाणणट्ठा । श्रालावणादिपदाण य ठवणा ठविज्जति, तेसु श्रठविएमु जति भीतो तो प्रासासो कीरइति । इमेहि म बीहे, पायच्छितं सुज्झह, महती य णिज्जरा भवति । कप्पट्ठियमणुपरिहारिया य दो सहाया ठविता । मेहिं गड-दी-तीराइदिट्ठतेहिं भीतस्स प्रासासो कीरति । अगडे पडियस्स प्रासासो कीरति - एस जो धावति, रज्जू आणिज्जति । प्रचिरा उत्तारेज्जसि, मा विसादं गेण्हसु । एवं जति गाऽऽसासिजति तो क्या ति भीएण तत्थ चैव मरेज्ज । १ गा० २८७० । २ गा० २८७० । ३ गा० २८७० । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ८०६-८११ ] प्रथम उद्देशकः अहवा - ‘छूढेय मीसियं पूर्ति" ति । एयस्स इमं वक्खाणं-दीहिचुल्ली, कतासु उक्खासु पढमउक्साए ग्राहाकम्म, बितिय-च उत्थादिसु प्रायटुं उवक्खडेति, पढम दवीए घट्टेउ बितियचउत्थासु छोढुं घट्टेति पूतिमीसं भवति, उवकरणाहारसंभवाउ मीसं । उवकरणपूतितं गतं । इदाणिं आहारपूतितं - "डागो" पत्तसागो, सो संघट्टादिकारणा करो। संघट्टा लवणं व ट्टियं, संघट्टा हिंगु पल्लालियं, एताणि त्थोवं त्थोवं अप्पणो रद्धमाणे छुब्भति । एतं आहारपूतियं । जत्थाहाकम्मं रद्धं तं संकामेउं अप्पणो रघेति पूतियं भवति । उवरि धूमणेण घोवितं 'फोडित" भण्णति । तं संघट्टा तलियं अप्पणो रद्धेमाण छुभति पूतितं । “संधूमे" ति संघट्टा अंगाल धूत्रो कतो अप्पणो वि तम्मि चेव भायणं ठवेति, तत्थंबिलादि छुभति तं पूइतं ।।८०८।। . इदाणि अविसोधिकोडीए अकप्पकरणविधाणं भण्णति - लेवेहिं तीहिं पृति, कप्पते सुद्ध तिण्ह व परेण । तेण परं सेसेसुं, जावतियं फासते पूर्ति ॥८०६॥ जत्थुक्खाए प्राहाकामं कयं तत्थेगदिणेण ततो वारा अप्पणट्टा उवक्खडेति ति-दिणेण वा, तिसु वि लेवेसु पूतितं भवति । तं पूतितं जत्थं भायणे गहियं तं कयकप्पं सुज्झति। कप्पपमाणपदरिसणत्थं तिण्ह उ परेणं च उत्थे कप्पे सुज्झति, सह तेन कल्पोदकेनेत्यर्थः ।। अहवा - "तिण्ह व परेण", वकारो विकप्पदरिसणे, गिरवयवं तिसु, सावयव तिण्ह व परेणेत्यर्थः । "तेण परं" ति चतुर्थकल्पात् परतः, परशब्दोऽत्र आर वाची ति सेसा वि पढमकप्पा, तिसु जं पुटुं तं सव्वं पूतियं, ण केवलं पाहाकम्मेण पुढे पूतितं, पूतिएण वि पुढें पूइमित्यर्थः । अहवा - ततः ततियकप्पापरतो सेसेण च उत्थक.प्पेण पुढे जालतियं तं सव्वं पूतितं ण भवतीति वाक्यशेषः । एष एव गतार्थो । रन्धनकल्पेष्वेवं वक्तव्यः ।।८०६।। इदाणिं उवधिपूतितं - उवही य पूतियं पुण, वत्थे पादे य होति नायव्वं । वत्थे पंचविहं पुण, तिविहं पुण होति पादंमि ॥१०॥ उवधिपूतितं दुविहं-वत्थे पादे य । वत्थे जंगिताइ पंचविधं । लाउपाति पादे तिविधं । वत्थे आहाकम्माकडेण सुत्तेण सिव्वति थिग्गलं वा देति, पाए वि सीवति थिग्गलं वा देति ।।८१०॥ इंदाणि वसहिपूतियं - वसधीपूतियं पुण, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । एककेक्कं सत्तविधं, तव्वं प्राणुपुवीए ॥८११॥ वसहिपूतितं दुविध-मूलगुणे उत्तर गुणे य । मूलगुणे सत्तविहं चउरो मूलवेलीग्रो, दो धारणा, पट्टिवंसो य । उत्तर गुणे सत्तविधा - वंसग कडण प्रोकंपण-छावण-लेवण-दुवार-भूमिकम्मे य । एत्थ प्रणतमे छ - फासुग्रा कट्ठा, सत्तमं प्राहाकम्मियं छुब्भति ।।११।। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र - ५८ एवं पूतितसंभवो । पूतितं गेव्हंतस्स संजमविराहणा, प्रसुद्धगहणातो देवया पमत्तं छलेज्ज, श्रायविराहणा जिष्णे वा गेलण्णं भवेज्ज | ६६ बितियपदेणं श्राहारपूतितं गेण्हेज्ज - सोमोरिए, रायदुट्ठे भए व गेलण्णे । श्रद्वाण रोहए वा, गहणं आहारपूती || ८१२|| पूर्ववत् हिपूतितं इमेहिं कारणेहिं गेण्हेज्जा हित विस्सरिते, कामियवूढे तहेव परिजुण्णे | सती दुल्लहपडि सेवतो य गहणं तु उवधिस्स || ८१३ || कंठा पातपूतितं इमेहिं कारणेहिं गेण्हेज्जा - - सिवे मोरिए रायदुट्ठे भएं व गेलण्णे । असती दुल्लहपडि सेवतो य गहणं भवे पादे ।। ८१४॥ वसहिते इमे कारणा - -- सिवे मोरिए, रायदुट्ठे भए व गेलण्णे । वसधी - वाघाती वा असती वा वसहि गहणं तु ॥ ८१५ || मसिवगर्हिता वसह ण लब्भंति, पूइए द्वाअंति । श्रोमे पूइतवसहिट्टिया भत्तं लभंति | रा णिलुक्का प्रच्छति । भए वि एवं गेलणे श्रोसहकारणादि ट्ठिया ण लब्भति वा अण्णा, सुद्धवसहि - वाघाए पूतिताए ठायंति । असति वा सुद्धाए पूइयाए ठायंति । एवमादि प्रसिवादिकारणे वहिता सावतादि भए जाणिऊण अंतो पूतिताए ठायंतीत्यर्थः ॥ १५॥ ग्रंथाग्रं - १०६५ उभयं ५५६५ (५३६५) । विसेस - णिसीहचुण्णीए पढमो उद्देसो सम्मत्तो । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशकः - बितित भणि पढमो उद्देसो । इदाणि प्रवसरपत्तो बितिम्रो भण्णति । पढम-1 उद्देसगाण - संबंधकारिणी इमा गाहा भणिया तु श्रणुग्धाया, मासा ओघातिया दाणिं । परकरणं वा भणितं, सयकरणमियाणि चितियम्मि || ८१६ || पढमउद्द सए गुरुमासा भणिता । ग्रह इदाणि बितिए लहुमासा भष्णंति । अहवा - पढमुद्दे से परकरणं णिवारियं, इह बितिए सयंकरणं निवारिजति ॥ १६ ॥ हवा ऽयं संबंध: अव 'ण हेऽणंतर-मुत्ते घर - धूमसाडणं भाणत | रयहरणेण पमज्जित, तं केरिसमेस संबंधो ॥ ८१७॥ fafa - उद्देगपढमसुत्तातो हेट्ठा जं सुत्तं तं च पूइतं सुत्तं, तस्स प्रणंतरसुत्ते घर - धूमसाडणं भणियं, तं रोहरणेण साडिज्जति । तं रमोहरणं इमं भणति ॥ ८१७॥ हवा ऽयं संबंध: - - - उवकरणपूतियं पुण, भणितं करकमादिपदे वा, इहमवि अधमवि होति उवकरणं । हत्थस्स वावारो ||८१८॥ पढमुद्देगस्स अंतसुते उवकरणपूइतं भणितं । इह बितिय आदिसुत्ते उवकरणं चेव भण्णति । हवा ऽयं संबंध: पढमुद्दे सग प्रादिमुत्ते "करो" हत्यो, तस्स वावारो भणितो । इहावि दारुदंड -पाय- पुरंखणकरणं - हस्तव्यापार एव ॥१८॥ - अनेन संम्बन्धेनायातस्य द्वितीयोद्द` शकस्येदमादिसूत्रम् ने भिक्खू दारुदंडयं पायपुंछणयं करेह; करेंतं वा सातिज्जति ||०||१|| १ वाक्यालंकारे । २ अधः प्रपि । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणि के निशीथसूत्रे [ सूत्र "जे" ति णिसे, "भिक्खू" पूर्वोक्त, दारुमग्रो दंडअो जस्स तं दारुदंडयं, पादे पुछति जेण तं पादपुंछणं पट्टय - दुनिसिजबज्जियं रोहरणमित्यर्थः । तं जो करेति, करेंत वा सातिन्जति तम्स मासलहुं पच्छित्तं । एस सुत्तत्थो। एयं पुण सुतं प्रववातियं । इदाणि णिज्जुत्ति - वित्थरो पाउछणगं दुविधं, उस्सग्गियमाववातियं चेव । एक्केक्कं पि य दुविधं, णिव्वापातं चा वाघातं ।।८१६॥ "पाउंछणं" रोहरणं, तं दुविधं - उस्सग्गियं प्राववातियं च । उस्सग्गियं दुविधं - णिवाघातितं वाघातियं च । प्राववातितं पि य दुविधं-णियाघातित वाघातितं च ।।१६।। एतेसिं वक्खाणमियाणि भण्णति - जं तं णिचापातं, तं एगंगियमुणियं तु णायव्यं । वाघातें उट्टियं पि य, सणवच्च य मुंज पिच्चं च ॥२०॥ जं. उस्सग्गितं णिब्बाघातितं तं एगंगियं । एगि उष्णिय भवति । इदारिंण उस्सग्गे वाघातियं भण्णति - ज तस्सेव अणेगंगाप्रो उण्णिदसायो । असति तस्सेव उट्टदसाओ। असति तस्सेव सणदसानो। असति तस्सेव वच्चपिच्चदसाम्रो । वच्चो , तणविसेसो दर्भाकृतिर्भवति । असति तस्सेव मुंजपिच्चदसा मुंजो पिच्चिउ त्ति वा, विपिउ त्ति वा, कुट्टितो त्ति वा एगटुं । असति उण्णियस्स उट्टितपट्टतो एगंगदसो। एगंगासति उणिय-उट्ट-सणादिदसा चारेयवा । एते उस्सग्गित-वाघातप्रकारा अभिहिता इत्यर्थः ।।२०।। 'इदाणि अववातिकं दुविधं भण्णति - आवातं तव चेव य, तं णवरि दारुदंडगं होति । वाघाते अतिरेगो, इमो विसेसो तहिं होति ॥८२१॥ जहा उस्सग्गितं णिवाघातं उण्णिदस, वाघातितं च उट्टादिदसं भणितं, आववातितं तथा वक्तव्यमित्यर्थः । रोहरणपट्टयदुणिसेज्जवज्जियं दारूदंडयमेव तं भवति । उस्सग्गिय प्राववातितवाघाते अइरेगो इमो अण्णो वि दसाविसेसो भवति ।।८२१॥ उवरिं तु मजयस्सा, कोसेज्जय-पट्ट-पात्त-पिंछे य । संबंधे वि य तत्तो, एस विसेसो तु वाघाते ॥८२२१, रोहरणपट्टे दारुदंडे वा मुजदसा भवंति । मुंजदसाऽसति कोसेज्ज दसा, कोसेज्जा २वडप्रो भण्णति, तस्सासति दुगुल्लपट्टदसा, पट्टदसासति पोतदसा, पोत्तदसासति मोरंगपिछदसा । 'संबंधे दि य तत्तो" त्ति ततः कोसेतकादिविकप्पेसु वि संबंधासंबंधविकप्पेण रोहरणविकल्पा कार्या, आद्य भेदानामभावादित्यर्थः।।८२२॥ १ बृहत्कल्प उद्दे० २ सू० २५॥ शरस्तम्भः तं कुट्टयित्वा तदीयो यः क्षोदस्तं कतयन्ति। ततस्तै: वच्चकसूत्रः मुंजसूत्रश्च गोपा शवारको व्यूयते प्रावरणास्तरणानि च देशविशेषमासाद्य कुर्वन्ति । अतस्तन्निष्पन्नं रजोहरणं बच्चक- विष्पकं मंजविप्पकं वा भण्यते । २ टसरः इति भाषायां । ३ पश्य गा० ८२९ चूर्णि । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ८१६ -८२८ ] चतुभंगार्थंनरूपणार्थं गाथाद्वय माह जं तं णिव्वाघातं तं एगं उष्णियं तु घेत्तव्वं । उस्सग्गियवाघातं, उट्टियसणचचमुंजं च ॥ ८२३ ॥ पूर्वार्धन प्रथमभंगार्थः पश्चार्धेन द्वितीयभंगार्थः ॥ ८२३ ॥ णिव्वाघातववादी, दारुगदंडुण्णियाहिं दसियाहिं । अववातियवाघातं, उट्टियसणवच्चमुंजदसं ॥ ८२४॥ पूर्वार्धेन तृतीयभंगार्थः । पश्चार्धेन चतुर्थभंगार्थः ॥८२४॥ एवमेते चउरो भंगा विशेषार्थ प्रदर्शनार्थमन्येनाभिषानप्रकारेण प्रदर्श्यन्ते हवा उस्सग्गुस्सग्गियं च उस्सग्गओ य अववातं । अवादुस्सगं वा अववाओवाइयं चैव ॥ ८२५॥ उस्सग्गियगिव्वाघातादि चउरो जे भैया त एव चतुरः उत्सर्गोत्सर्गादि द्रष्टव्याः ॥८२॥ - द्वितीयभंगप्रदर्शनार्थं, तृतीय- चतुर्थभंगप्रतिषेधार्थं चेदमाह - एगंगि उण्णियं खलु असती तस्स दसिया उ ता चेव । ततो एगंगोट्टी, उण्णियउट्टियदसा चैव ॥ ८२६ ॥ प्रथम - जत्रो भण्णति द्वितीय उद्देशकः एगंगियउणियं संबद्धदसागं जं तं उस्सग्गुस्सग्गितं । इदाणि उस्सग्गाववातितं भष्णति । असति संबद्धदसागस्स उण्णिय - पट्टए उष्णियदसा लातिज्जंति, तस्सासति एगंगियं उट्टियं, तस्सासति उट्टियपट्टए उष्णियदसा, तस्सासति उट्टियपट्टए उट्टियदसा, तस्सासति उष्णियपट्टए सणादिदसा सव्वा णेया ॥ ८२६ ॥ - एवं सण वच्च मुंज चिप्पिते कोस- पट्ट - दुगुले य । पोते पेच्छेय तहा, दारुगदंडे बहू दोसा || ८२७|| के ते दोसा ? इमे - प्रसति उण्णियपट्टयस्स उट्टियपट्टए सणादिदसा सव्वा णेया । उट्टियपट्टासति सणयं एगंगियं । तस्सासति सणपट्टए उष्णियादिदसा या । वच्चगे वि एगंगियं उष्णियादिदसा सव्वा चारेयव्वा । एवं मुंजादिसु वि । णवरं - पिछे पट्टयं ण भवति । I चोदग ग्रह - ण सणवच्चगादिपट्टगेसु कोसेज्जपट्टगादिदसा प्रणाइण्णा । "प्रायरियाह - ता एव वरं, ण दारुडंडयं पादपुंखणं । कहं ? जतो दारुप्रदंडे बहू दोसा ||८२७ | १ पश्य गा० ८२४ । इधरहवि ताव गरुयं, किं पुण भत्तोग्गहे अधव पाणे । भारे हत्थुवघातो, पडमाणे संजमायाए || ८२८|| ६६ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १-७ "इहरह" ति विणा भत्तपाणेण स्वभावेन गुरुरित्यर्थः । "कि" मित्यतिशये, "पुनः" विशेषणे. जतो डिग्गहे भत्तं वा पाणं वा गहितं तदा पुव्वं गुरु ततो गुरुतरं भवतीत्यर्थः । गुरुत्वाद्धस्तोपघातः, पडमाणं गुरुत्वात् जीवोपघातं करोति, पादोवरि प्रातोवघातं वा च सद्दा प्राणादप्रो दोसा । तम्हा दारुदंडयं पावपुंछ न गेहियव्वं ||२६|| कारणओ गेण्हेज्जा | ७० इमेय ते कारणा संजम खेत्तचुया वा, श्रद्धाणादिसु हिते व णट्ठे वा । पुव्वतस्स उ गहणं, उण्णिदसा जाव पिच्छं तु ॥ ८२६॥ जत्थ श्राहारोवहिसेज्जा काले वा सति सततं श्रविरुद्धो उवहि लम्भति, तं संजमखेतं, ताम्रो प्रसिवातिकारणेहि चुता । सेसं कंठं ||८३६॥ वेलुम वेत्तमओ, दारुमओ वा वि दंडगो तस्स । रयणी पमाणमेतो, तस्स दसा होंति भइयव्वा ||८३०|| दसा तस्स भाज्जा । कथं ? यद्यसो त्रयोविंशांगुल तदा णवांगुल दसा । भथासौ चतुविशांगुल तदा श्रष्टांगुला दसा । यद्यसौ पंचविशांगुलः तदा सप्तांगुला दसा | दंडदसाभ्यां महाकडे एकतमे द्वितीयं भजनीयमित्यर्थः ॥ ८३०॥ तं दारुदंडयं पादपुंछणं जो करे सयं भिक्ख । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ॥ ८३१ ॥ कंठा हित विस्सरिते, भामियवूढे तहेव परिजुष्णे । सती दुल्लभपडिसेधतो य जतणा इमा तत्थ ||८३२॥ उस्सग्गियस्स पुव्विं णिव्वाघाते गवेसणं कुज्जा । तस्सऽसती वाघाते, तस्सऽसती दारुदंडमए ||८३३|| तम्मि विणिव्वाघाते, पुव्त्रकते चेव होति वाघाते । सती पुव्वकयस्स तु, कप्पति ताहे सयं करणं ॥ ८३४ || तमिव श्राववाति णि वाघाते पुव्वकए गहणं, पच्छा वाघांतपुव्वकए गहणं । असति पुव्वक्तस्स पच्छा सयं करणं ||३४|| जे भिक्खू दारुदंडयं पादपुंखणं गेण्हति, गेण्हतं वा सातिज्जति | | ० || २ || जे भिक्खु दारुदंडयं पादपुंछणं धरेड़, घरेंतं वा सातिजति ||८०|| ३ || गहियं संतं अपरिभोगेन धारयति । जे भिक्खू दारुदंडयं पादपंणं वितरह, वितरेतं वा साविज्जति ॥ ० ॥ ४ ॥ भ्रमणस्स साधोर्ग्रहणं पतिपुट्टे "वियरति" ग्रहणानुज्ञां ददातीत्यर्थः । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गगाथा ८२६-५४१ द्वितीय उद्देशकः जे भिक्खू दारुदंडयं पादपुंछणं परिभाएति, परिभाएं तं वा सातिज्जति।.सू०॥॥ विभयणं दानमित्यर्थः । जे भिक्खू दारुदंडयं पादपुंछणं परिभुंजइ, परिभुजंतं वा सातिज्जति ॥०॥६॥ परिभोगो तेन कार्यकारणमित्यर्थः ।। एसेव गमो णियमा, गहणे धरणे तहेव य क्यिारे । परिभायण परिभोए, पुब्धे अवरम्मि य पदम्मि ॥८३५॥ कंठा काउंसयं ण कप्पति, पुवकतंपि हु ण कप्पती घेत्तुं । धरणं तु अपरिभोगो, वितरण पुढे पराणुण्णा ॥८३६।। परिभायणं तु दाणं, सयं तु परिभुंजणं तदुपभोगो । गहणं पुन्यकतस्स उ, सयं परिकप्पते य धरणादी ॥८३७॥ गहणं णियमा पुवकयस्स, धारणादिपदा पुण चउरो सयं कते, परकते वा भवंति । सूत्राणि पंच । रहे ० २ सू० २ से ६ ) ॥८३७।। जे भिक्खू दारुदंडयं पादपुंछणं परं दिवड्ढायो मासाश्रो धरेइ, थरेतं वा सातिज्जति ॥सू०॥७॥ प्राणादि, प्रायसंजमविराहणा, मासलहु पच्छित्तं । उस्सग्गित-वाघातं, अहवा तं खलु तहेव दुविधं तु । जो भिक्खू परियट्टइ, परं दिवड्ढाउ मासातो ॥३८॥ उस्सग्गियवाघातादि तिण्णि वि परं दिवड्ढातो मासा उवरि कड्ढंतस्स दोसा इमे - सो आणा अणवत्थं मिच्छत्तविराधणं तथा दुविधं । पावति जम्हा तेणं, अण्णं पाउंछणं मग्गे ॥८३३॥ "अण्णं" ति उस्सग्गियणिव्वाघातियं ।।८३६i. इतरह वि ताव गरुयं, किं पुण भत्तोग्गहे अहव पाणे । भारे हत्थुवघातो जति पडणं संजमाताए ॥८४०॥ पूर्ववत् । तेण गुरुणा दंडपादपुंछणेण हत्थोवघाएहि घेप्पति, पडतं वा पायं विराहेज्जा, तत्थ भणागाढाति विराहणा, छक्कायविराहणा वा करेज्ज ।।८४०।। . तम्हा परं दिवड्ढामो मासातो ण वोढव्वं, अण्णं मग्गियव्वं इमाए जयणाए - उस्सग्गियवाघाते, सुत्तत्थ करेति मग्गणा होति । बितियम्मि सुत्तवज्ज, ततियम्मि तु दो वि वज्जेज्जा ॥४१॥ "बितियं" प्रववायुस्सग्गि, "ततियं" प्रववाताववातितं ॥८४१।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ पभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ७-१३ चत्तारि अधाकडए, दो मासा होंति अप्पपरिकम्मे । तेण पर वि य मग्गेज्जा, दिवड्ढमासं सपरिकम्मं ॥८४२।। एवं वि मग्गमाणे, जदि अण्णं पादपंछणं न लभे । तं चेवऽणुकड्ढेज्जा, जावऽण्णं लब्भती ताव ॥८४३॥ 'पूर्ववत् ॥८४३॥ एसेव गमो णियमा, समणीणं पादपुंछणे दुविधे । णवरं पुण णाणत्तं, चप्पडओ दडो तासिं ॥८४४॥ दुविहं --उस्सग्गियं अववातितं च । तासि दंडए विसेसो हत्थकम्मादिपरिहरणत्थं चप्पडयो कजति, न वृत्ताकृतिरित्यर्थः ॥८४४।। ने भिक्खू दारुदंडयं पादपुंछणयं विसुयावेइ, विसुयावेतं वा सातिज्जति ।।सू०।८।। विसुश्रावणसुक्कवणं, तं वच्चयमुंजपिच्चसंबद्धे । तं कठिण दोसकारण, ण कप्पती सुक्कवेतुं जे ॥८४५॥ तं विसुप्रावणं पडिसिझंति । वच्चयमुंजयचिप्पिएसु तद्दसिएसु वा, ते य सुक्का अतिकढिणा भवंति पमज्जणादिसु य ।।८४५॥ चोदक आह - तद्दोसपरिहारथिणा सबहा ण कायव्वमेव ? आचार्याह - न इति उच्यते - गटे हित विस्सरिते, झामियबूढे तहेव परिजुण्णे । असती दुल्लभपडिसेधतो य जतणा इमा तत्थ ॥८४६॥ एयमादिकारणेहिं कायव्वं इमाए जयणाए ॥८४६।। उस्सग्गियस्स पुव्विं, णिवाघाते गवेसणं कुज्जा । तस्सऽसती वाघाते, तस्सऽसती दारुदंडमए ॥८४७॥ कंठा ।।८४७।। मा जीवविराहणा भविस्सति । अतो ण उल्लेति ण वा सुक्कवेति । कारण उल्लेज्जा - बितियपदे वासासू, उदुबद्ध वा सिय ति तिमेज्जा । विसुयावण छायाए, अद्धातवमातवे मलणा ॥८४८॥ वासाकाले वग्धारियवृट्टिकायम्मि सग्गामपरग्गामे भिक्खादिगतस्स उल्लेज्जा । उदुबद्धे “वासिय" ति स्यात् कदाचित् ।।८४८।। १ उद्द० १ गा० ७५२, ७५३ । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ८४२-८५१] द्वितीय उद्देशक: कथं १ उच्यते - उत्तरमाणस्स णदि, सोधेतस्स व दवं तु उल्लेज्जा । पडिणीयजलक्खेवे, धुवणे फिडिते व 'सिण्हाए ॥८४६॥ पडिणीएण वा जले खित्ते सव्वोवहि कप्पे वा तं धोतं, पंथातो वा फिडियस्स उप्पहे उत्तरणेसु प्रोसाए उल्लेज्ज ॥४६॥ असुक्खवेंतस्स इमे दोसा - कुच्छणदोसा उल्लेण दावितकज्जपूरणं कुणति । उंडा य पमज्जंते, मलो य ाऊ ततो विसुवे ॥८५०॥ उल्ले असुक्खवेंतस्स कुहए पमज्जणकज्जं च ण करेति । अह उल्लेण पमज्जति तो दसंतेसु गोलया पडिबझंति, मलिणे य वासासु आउवधो भवति । एवं दोसगणं णाउं विसुभावे ति छायाए । जति ण सुनखेज्ज तो "प्रद्धायवे" देति, तह वि असुक्खंते "प्रायवे" सुक्खवेति, अंतरंतरे "मलेउ' पुणो प्रायवे ठवेति, एवं जाव मृक्खं मृदुकारणत्वात् ॥८५०॥ जे भिक्खू अचित्तपइट्टियं गंधं जिघति. जिघंत वा सातिज्जति ।।सू०॥ णिज्जीवे चंदणादिक? गंध जिंघति मासलहुँ । जो गंधो जीवजढो, दव्वं मीसो य हाति आच्चत्तो। संबद्धासंबद्धा य, जिंघणा तस्स णातन्वा ॥८५१॥ सर्वा नियुक्ति: "पूर्ववत् । जे भिक्खू पदमग्गं वा संकम वा पालवण वा सयमव करोति करेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१०॥ पूर्ववत्, णवरं मासलहुं परकरणवज्जणं च । शेषं सनियुक्तिकं पूर्ववत् । जे भिक्खू दगवीणियं सयमेव करेइ; करेंतं वा सातिज्जति ॥२०॥११॥ सभाष्यं पूर्ववत् । जे भिक्खू सिक्कगं वा सिक्कगणंतगं वा सयमेव करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१२॥ सभाष्यं पूर्ववत् । जे भिक्खू सोत्तियं वा रज्जुयं वा ( चिलिमिलि वा ) सयमेव करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१३॥ १ हिम-करा । २ दर्शितकार्यः । ३ कुथिते । ४ गा० ८४८ उत्तरार्ध व्या० ।५ (प्र.उ.सू. १०)। ६ (प्र. उ० सू० ११) । ७ (प्र० उ० सू० १२)।८ (प्र० उ० सू० १३)। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [सूत्र १४-१८ सभाष्यं पूर्ववत् । जे भिक्खू सूईए, उत्तरकरणं सयमेव करेड; करेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१४॥ जे भिक्ख पिप्पलयस्स उत्तरकरणं सयमेव करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१॥ जे भिक्खू णहच्छेयणस्स उत्तरकरणं सयमेव करेइ करतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१६॥ जे भिक्खु कण्णसोहणयस्स उत्तरकरणं सयमेव करेइ; करेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१७॥ सभाष्यं पूर्ववत् । जे भिक्खू लहुसगं फरुसं वयति, वयंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१८॥ "लहुसं" ईषदल्पं स्तोकमिति यावत् “फरुसं" णेवज्जियं अण्णं साहुं वदति भाषतेत्यर्थः । तं च फरुसं चउन्विहं - दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य लहुसगं भवे फरसं । एतेर्सि णाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुवीए ॥८५२॥ एतेसिं दव्ववेत्तकालाणं जहासंखं इमं वक्खाणं ।।८५२॥ . दव्वम्मि वत्थपत्तादिएसु खेते संथारवसधिमादीसु । काले तीतमणागत, भावे भेदा इमे होंति ॥८५३।। वत्थादिमपस्संतो, भणाति को णं सुवती महं तेणं । खेत्ते को मम ठाए, चिट्ठति मा वा इहं ठाहि ||८५४|| आदिग्गहणेणं डगलग-सूतिपिप्पलगादप्रो वि घेप्पंति । दव्वे वत्थपत्तादिएसु ति प्रस्य व्याख्या - वत्थपत्तसूइगादि अप्पणोच्चिया अपस्संतो एवं भणाति - महं अत्थि त्ति काउं इस्सा भावेण को णिई लभति ? इस्साभावेण वा महं तेण हडं एवं दव्यत्रो लहुसयं फरुसं भासति । खेत्तमो लहुसयं फरुसं तस्स संथारभूमीए कं चिट्ठयं पासित्ता भणति “को ममं संथारभूमीए ठाति अण्णं जाणमागो' । अहवा - मा मम संथारभूमीए ठाहि ।।८५४।। "काले तीतमणागते" त्ति अस्य व्याख्या - गंतव्वस्स न कालो, सुहसुत्ता केण बोधिता अम्हे । हीणाहियकालं वा, केण कतमिणं हवति काले ॥८५५|| १ (प्र० उ० सू० १४)। २ ( प्र० उ० सु० १५-१६-१७-१८ ) । ३ हृतम् । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ८५२-८५९ द्वितीय उद्देशकः ते साहुणो पए गंतुमणा ततो उढविजंतो भणति - गंतव्वस्स ण कालो, भज्ज वि सुहसुत्ता, केप वेरिएण प्रषण्ण पडिबोहिया पम्ह। अहवा - हीणं मधियं वा कालं केण कयमिणं तं च इमं भवति काले "हीणातिरित्तो" ॥५॥ गंतब्बोसह-पडिलेह-परिणा-सुवण-भिक्ख-सज्झाए । हीणाहि वितहकरणे, एमादी चोदितो फरुसं ॥८५६! गिलाणस्स प्रोसहवार गंतव्वे हीणातिरित्तं । अहवा - आयरियपेसणादिणिमित्ते गिलाणोसहोवोगे वा पच्चूसावरण्हेसु पडिलेहणं पहुन्च, "परिणे" ति बेण पोरिसिमादियपच्चक्खायं तस्स पारिउकामस्स भत्तादीणं वा गंतुकामस्स उग्घाडा णवे त्ति मत्तपच्चक्खायस्स वा समाहिपाणगादि प्राणयन्वा होणाधिक कतं, पादोसियं वा काउं सुविणे सुविउ कामाणे, भिक्खं वा हिडिउं कामाणं, सज्झाए पट्ठवणावेलं पडुच्च कालवेलं का, एवमाइसु कारणेसु हीणाधियं करतो चोइमो फरुसं वएज्जा ॥८५६॥ अहवा इमो फरुसवयणुप्पाए पगारो - गच्छसि ण ताव कालो, लभसु धितिं किं तडप्फडस्से । अतिपच्छासि विबुद्धो, किं ज्झसितं पएतव्वं ॥७५७।। गुरुणा पुव्वं संदिट्ठो प्रोसहातिगमणे अण्णं तत्व गंतुकामं साधु पुच्छति - गच्छसि ? सो पुच्छितसाधु फरुसं वयति - ण ताव कालो, लभसु घिति, कि तहप्फड सेवं । अहवा - सो चेव पुच्छिमो भणति पच्छद्ध कंठं । एस गाहत्यो पडिलेहणादिपदेसु जत्य जत्य जुज्जते तत्र तत्र सर्वत्र योज्यम् ॥८५७॥ अहवा - दव्वादिणिमित्तं एवं फरुसं भासति - वत्थं वा पायं वा, गुरूण जोगं तु कणिमं लद्ध। . किंवा तुम लभिस्ससि, इति पुट्ठो बेति तं फरुसं ॥८५८|| एगेण अभिग्गहाणभिग्गहेण साघुणा गुरुपायोग्गं वत्थं पतं संथारगादि उग्गमियं, तमणेण साहुणा दिन, तेण सो उग्गौतसाह पुच्छियो- केणुग्गमित ? सो भति - मया, कि वा त्वं क्षमः पाषाणावलतो' मलद्धिमान् लप्स्यसि, एवं फरुसमाह ।।८५८॥ इदाणिं खेत्तं पडुच्च - खेत्तमहायणजोग्गं, वसधी संथारगा य पाओग्गा । केणुग्गमिता एते, तहेव फरुसं वदे पुट्ठो ॥८५६॥ क्षेत्रेऽप्येवम् ॥५६॥ १ अनादरे। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१८ इदाणि तीतमणागतकालं पडुच्च - उडुवास सुहो कालो, तीतो केणेस जो इनो अहं । जो एस्सति वा एस्से, तहेव फरुसं वदे अहवा ॥८६०॥ "उड्ड" ति उडुबद्धकालो, "वास" ति वासाकालो। अहवा - "उडु" ति रिउ तस्मिन् वासः सुखेन उडुवासमुखः । शेषं कंठ्य ॥८६०॥ दव्वादिसु पच्छित्तं भण्णति - दव्वे खेत्ते काले, मासो लहुश्रो उ तीसु वि पदेसु । तवकालविसिट्ठो वा, आयरियादी चउण्हं पि ॥८६१।। दव्यखेत्तकालनिमित्तं फरुसं वयंतस्स पत्तेयं मासलहुं । प्रधवा मासो चेव मायरियस्स दोहिं गुरु । उवज्झायस्स तवगुरु । भिक्खुस्स कालगुरु । खुड्गस्स दोहिं लहू ॥८६१॥ इदाणिं भाव फरुसं भावे पुण कोधादी, कोहादि विणा तु कहं भवे फरसं । उवयारो पुण कीरति, दवाति समुप्पती जेणं ॥८६२॥ पुणसद्दो विसेसणे, किं विशेषयति ? भणति - दव्वादिएसु वि कोहादिभावो भवति ; इह तु दव्यादिणिरवेक्खो कोहादिभावो घेप्पति । एवं विसेसयति । दव्वादिसु कोहादिणा विणा फरुसं ण भवति । चोदग आह - तो किमिति दव्वादि फरुसं भन्नति भावफरुसमेव न भन्नइ ? आचार्याह- द्रव्यादीनां उपचारकरणमात्र, यतस्ते क्रोधादय: द्रव्यादिसमुत्था भवतीत्यथः ।।८६२।। भावफरुस-उप्पत्तिकारणभेदा इमे - आलत्ते वाहिते, वावारित पुच्छिते णिसढे य । फरुसवयणम्मि एए, पंचेव गमा मुणेयव्वा ।।८६३॥ "पालत्ते वाहित्ते वावारित" एषां त्रयाणां व्याख्या - आलावो देवदत्तादि, किं भो त्ति किं व वंदे त्ति । बाहरणं एहि इओ, वावारण गच्छ कुण वा वि॥८६॥ कंठा २"पुच्छ-णिसट्ठाण" दुवेण्ह वि इमा व्याख्या - पुच्छा कताकतेसु, आगतवच्चंत आतुरादीहिं । णिसिरण हिंडसु गेण्हमु, मुंजसु पित्र वा इमं भंते ॥८६शा कंठा १ गा० ८६३ । २ गा० ८६३ । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भागाथा ८६.-८७.] द्वितीय उद्देशक: ७७ पंचसु पालवणादिपदस एक्कक्के पदे इमे - अप्पगारा गेया - तुसिणीए हुंकारे, किं ति च कि चडकरं करेसि त्ति । किं णिचुती ण देसी, केवतियं वावि रडसि त्ति ॥८६६।। पुरिसो पुरिसेणालतो तुसिणीयादिछण्हपदाण अन्नतरं करेति । एवं वाहितो वि, वावारिओ वि, पुच्छमो वि. निसिट्ठो वि । ते य पुरिसा इमे- पायरियो, १ उवज्झायो, २ भिक्खू, ३ थेरो, ४ खुड्डो य ५ . एते पालवंतगा पालप्पा वि एते चेव। संजतीनो वि चेव । तं जहा - पवत्तिणी, १ अभिसेया, २ भिक्खुणी, ३ येरी, ४ सुड्डी य ५ ॥८६६॥ इयाणि पायरिएण पालवणादिसू ज पच्छित्तं तं इमाए गाहाए गहितं - मासो लहुओ गुरुओ, चउरो लहुगा य होंति गुरुगा य । छम्मासा लहुगुरुगा, छेदो मूलं तह दुगं च ॥८६७।' एयं चेव पच्छित्तं चारणप्पयोगेण इमाहिं दोहिं गाहाहिं दंसिज्जइ - आयरिएणालतो, आयरिए सोच तुसिणीए लहुओ । रडसि त्ति छग्गुरंतं, वाहित्ते गुरुयादि छेदंतं ॥८६८॥ लहुयादी दावारिते, मूलतं पुच्छिए गुरू णवमं । . णिस्सटे छसु पदेसु, छल्लहुगादी उ चरमंतं ॥८६६।। पप्पायरियं सोधी, आयरियस्सेव एस णातव्वा । एक्केक्कगपरिहीणा, पप्पभिसेगादि तस्सेव ॥८७०॥ तस्येति प्राचार्यस्य । तेसि इमो चारणप्पलोगो प्रायरिएणायरियो पालत्तो जदि तुसिणीनो अच्छति, तो से मासलहुँ । हुंकारं करेइ मासगुरु । किं ति भासति चउलहुं । किं चडगरं करेसि त्ति भासति चउगुरु। किं णिव्वुत्ति ण देसि त्ति भासति छल्लहुयं । केवइयं रडसि ति भासति छग्गुरुयं । मायरिएणायरिमो वाहित्तो तुसिणीयादिसु मासगुरुगादि छेदे ठाति । पायरिएणायरिप्रो वावारितो तुसिणीयादिसु छसु पदेसु चउलहुगाइ मूले ठायति। पायरिएणायरिमो पुच्छितो तुसिणीयादिसु छसु पदेसु चउगुरुगादि प्रणवढे ठायति । मायरिएणायरिस्स निसिटुं तुसिणीयादिसु छसु पदेसु चउलहुगाइ पारंचियं ठायति । एवं पायरियो उवझायं पालवति । तत्थ पालवणादिनिमिटुं तेसु पंचसु पएसु चारणियापनोगेण गुरुभिन्नमासाढत्तं प्रणवढे ठायति । आयरिएण भिक्षु मालत्तो-तत्थ वि पंचसु छमु पएमु तत्थ वि भारणियप्पप्रोगण लहुअभिन्नमासाठतं मूले ठायति । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र १८-११ पायरिएण थेरा मालत्ता गुरुप्रवीसराईदिए पाढते छेदे ठायति । पायरिएण खुड्डा पानत्ता लहुप्रवीसराइंदियमादत्तं छम्गुरुए ठायति ॥८७०॥ इयाणि उवज्झाय-भिक्खू-थेर-खुड्डाणं चारणिया भन्नति । तथिमा गाहा - आयरिश्रा श्रभिसेओ, एक्कगहिणो तदेक्किणा भिक्खू । थेरे तु तदेकेणं, थेरा खुड्डा वि एक्केणं ॥८७१॥ इमा चारणिया - उवन्झामो पायरियं मालवति । एवं उवज्झामो उवझायं, उवज्झायो मिाएं, उवज्झामो थेरं, उवज्झायो खुढ। सवचारणप्पप्रोगेण एकेक्कपदहीणं पण्णरसगुरुयराईदियाढतं प्रणवढे ठायइ । भिक्खू वि तदेगपदहीणो सब्वचारणपभोगेणं लहुपण्णरसराइंदियाढतं मूले ठायति । थेरो वि तदेवकपदहीणो सम्वधारणप्पप्रोगेण गुरुदसराइंदियाढत्तं छेदे ठायति । खुडो वि तदेवकपदहीणो सब्वचारणप्पप्रोगेण लहुदसराइदियाढत छन् रुए ठायति ॥८७१।। इदाणि संजतीण पच्छित्तं भन्नति. तत्थिमा गाहा - भिक्खुसरिसी तु गणिणी, थेरसरिच्छी तु होति अभिमेगा । भिक्खुणि खुडसरिच्छा, गुरु लहु पणगादि दो इतरे ॥८७२॥ पायरिओ पव्वत्तिणि पालवति सा तुसिणीयादि पदे करेति; तत्थ से पच्छित्तं भिवखुसरिस; तं च उपज्जिय दट्ठव्वं । जहा येरे पालवंते पायरियादीण पच्छित्तं, तहा मारिएणालताए अभिसेयाए पच्छित्तं दटुव्वं । जहा खुडायरियाईण पच्छितं तहा प्रायरिय भिक्खुणोए दटुव्वं ।। हा प्रायरिमो थेरि मालवति सा तुसिणीयादिपदेसु सव्वचारणप्पभोगेण गुरुप्रचदसराइंदियाउत्तं बल्ल हुए ठायति । मायरियो खुडिं पालवति तदा सव्वचारणप्पप्रोगेण लहुपंचदसराइंदियाढत्तं चउगुरुए ठायात । वझायो पव्वत्तिणिमाइयासु सव्वचारणप्पभोगेण गुरुदसरा दियाढत्तं छेदे ठायति । भिक्खू पचतिणिमाइयासु लहुदसराईदियाढतं छग्गुरुए ठायति । ते पव्वत्तिणिमाइयास गुरुगपणगाढतं छल्लहुए ठायति । गुड्डो पव्वत्तिणिमाइयासु लहुगपणगाढतं चउगुरुए ठायति । इतरगहणा थेरी खुड्डी य टुवा । जहा मायरियादो पत्तिणिमादियासु चारिया तहा पवत्तिणिमादियानो वि भायरियादिसु रेयव्वा, सम्वचारणप्पभोगेण पच्छित्तं तहेव, पवत्तिणिमाइया पव्वत्तिणिमाइयासु पच्छित्ता जहायरिकवत्तिणिमादिसु तहा वत्तव्वा । इत्यं पुण जत्य जत्य मासलहुं तत्थ तत्थ सत्तनिवामो. मिक्खसदृशी गणिणीरिति बनात सर्वत्र भिक्षुस्थानात प्रथमं प्रवर्तते ।।८७२॥ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ८७१-८७८ ] फरुसवणे इमे दोसो - एतेसामण्णयरं, जे भिक्खु लहुसगं वदे फरुसं । सो आणा अणवत्थं मिच्छत्तविराधणं पावे ||८७३ || ( नास्ति चूणिः ) ||८७३ ॥ कारण पुण भासेज्जा वि चितियपदमणप्पज्झे, अपज्झे वा वइज्ज खरसज्झे । अणु सासणात्रएसा, वएज्ज व वि किं चि ण ट्ठाए ||८७४ || द्वितीय उद्देशकः खित्ताइचित्तो भणेज्ज वा प्रायरियादि 'खरसज्भो वा भणेज्जा, ग्रन्नहा न वाइ । मृदू वि सासणं पडुच भणेज्ज, टक्क मालव- सिंधुदेसिया सभावेण फरुसभासी पंडगादि वा वि किं चि तीब्बो फरुसत्रयणेण सोय फरुसावितो असहमाणो गच्छ३ || ८७४ || जे भिक्खु लहुसगं सुसं वएति वयं तं वा सातिज्जति ॥ ० ॥ १६ ॥ "मुसं" श्रलियं, 'लहुसं प्रत्पं तं वदम्रो मासलहुँ । तं पुण मुसं चउब्बिहं - दव्वे खेत्ते काले, भावे य लहुसगं मुसं होति । एतेसिं गाणतं वोच्छामि महाणुपुत्री ||८७५॥ , गणत्तं" विसेसो, "प्राणुपुवीए" दव्व । दिउवन्नासकमेण वक्खाणं ।।८७५॥ रमे दव्वादि उदाहरणा - दव्वम्मि वत्थपत्तादिएस खेते संधारवसधिमादिसु । काले तीतमणागत, भावे भेदा इमे होंति || ८७६ ॥ पढमपादस्स वक्खाणं १ सरसाध्यः । पज्झ पडो णेस तुहं, ण यावि· सोतस्स दव्वतो लियं । गोरस्सं व भणते, दव्वभूतो व जं भणति ॥ ८७७|| अहवा दव्वालियं इमं - बत्थं पादं च सहसा भणेज्जा, मज्भेस ण तुज्भं, सहसा गोरश्व ब्रवते, द्रव्यभूतो वा अनुपयुक्त इत्यर्थः ||६७७|| वत्थं वा पादं वा, अष्णुप्पाइयं तु सो पुट्ठो । भणति मए उष्पाइयं, दव्वे अलियं भवे अहवा ||८७८|| ७२ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १९-२ वत्थपादादि अण्णेणुग्गमिमा अण्णो भणइ मए उप्पाइया ॥८७८॥ दव्वप्रो अलियं गयं । खेत्तनो “संथारवसतिमादीसु” अस्य व्याख्या - णिसिमादीसम्मूढो, परसंथारं भणाति मज्झेसो । खेत्तवसधी व अण्णेणुग्गमिता बेति तु मए त्ति ॥८७६॥ "गिसि'' त्ति राईए अंधकारे सम्मूढो परसंथारभूमि अप्पणो भणइ; मासकप्पपाउग्गं वा वासावासपाप्रोग्गं वा खित्तं वसही रिउखमा, अणणेगुग्गमिया भणाति मए ति ॥ ८७६ ॥ खित्तमो मुसावानो गों। "काले तीतमणागए" त्ति अस्य व्याख्या - केणुवसमिश्रो सड्ढो, मए त्ति ण या सो तु तेण इति तीए । को णु हु तं उबसामे, अणातिसेसी अहं वस्सं ॥८८०॥ एक्को अभिग्गहमिच्छो एगेण साहुणा उवसामिप्रो। अन्नो साहू पुच्छिमो केणेस सड्ढो उवसामिप्रो! अन्नया विहरतेण मए ति । एवं 'तीए" एगो अभिग्गहमिच्छो अरिहंतसाहुपडिणीप्रो, साहूण य समुल्लावं को हु तं उवसामेज । तत्थ एको साहू प्रणा तिसतो भणति - सो य अवस्सं मया उवस्सं मया उवसामियन्वो एवं एष्यकालं प्रति मृषावादः ॥८८०॥ अहवा कालं पडुच्च इमो मुसावादो - तीतम्मि य अट्ठम्मी, पच्चुप्पण्णे यऽणागते चेत्र । विधिसुत्ते जं भणितं, अण्णातणिस्संकितं भावे ॥८८१॥ सीतमणागतपटुप्पन्नेसु कालेसु जं अपरिन्नायं तं निस्संकियं भासंतस्स मुसावाता भवति । "विधिसुत्तं" दसवेयालियं, तत्थ वि वक्क सुद्धी, तत्थ जे कालं पडुच्च मुसावादसुत्ता ते इह दद्रुत्व १८८१॥ "भावे भेदो इमो” त्ति अस्य व्याख्या - पयला उल्ले मरुए, पच्चक्खाणे य गमण परियाए । समुद्देस संखडीयो खुड्डग परिहारिय मुहीमो ॥८८२॥ अवस्सगमणं दिसामू, एगकुले चेव एगदव्वे य. पडियाक्खित्ता गमणं, पडियाखित्ता य भुंजणं ॥८८३॥ दोऽवि गाहा जहा पेढे "पूर्ववत् ॥८३॥ दव्वादिमुसावायं भासंतस्स किं भवइ ? १ गा० ८७६ । २ गा० ८७६ । ३ संबंधि मृपा । ४ गा०८७६ । ५, २६८-२६६ द्वा० । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ८७६-८५७ ] द्वितीय उद्देशकः पायरियाह - एतेसामण्णयरं, जो भिक्खू लहुसयं मुसं वयति । ___ सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ॥८८४॥ कंठा ।।८८४॥ कारणो भासेजा वि वितियपदं उड्डाहे, संजमहेउ व बोहिए तेणे । खेत्ते वा पडिणीए, सेहे वा वादमादीसु ॥८॥ १-उड्डाहरक्खणटुं, जहा केण ति पुट्ठो - तुम्भं लाउएसु समुद्देसी ? ण च त्ति वत्तन्वं । २-"संजमहे" अत्यिं ते केति मिया दिट्ठा? दिमु वि न दिट्ठ त्ति वत्तन्वं । ३--"बोधिता" मिच्छा, तेसि भीमो भणिज - "एसो खंधावारो एति" ति। ४-तेणेसु "एस सत्यो एति" ति, "अवसरह'। ५- "खेत्ते" घीयार (जाइ) भाविए "बंभणो अहमि" ति भासए, जत्थ वा साहन नजति तत्थ पुच्छितो भणति सेय परिव्वायगा मो। ६- कोइ कस्सइ साहुस्स पदुट्ठो, सो च तं न जाणति, ताहे भणेज्जा "नाहं सो, ण वा जाणे, परदेसं वा गो" ति भणेज्जा। ७-सेहं वा सण्णायगा पुच्छंति - तत्थ भणिज्जा "नत्थेरिसो ण जाणे, गतो वा परदेसं"। ८-वादे असंतेणा वि परवादि निगिहिज्जा ।।८८५॥ जे भिक्खू लहुसगं अदत्तमादियइ, आदियंतं वा सातिज्जति ॥२०॥२०॥ "लहुसं" थोवं, “प्रदत्त" तेणं, "मादियणं" गहणं, "साइजणा' अणुमोयणा, मासलहु पच्छित्तं । अदत्तं दव्वादि चउन्विहं - दन्वे खेत्ते काले, भावे य लहूसगं अदत्तं तु । एतेसिं गाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुन्वीए ॥८८६॥ दव्व-खेत्त-कालाणं इमं वक्खाणं - दव्वे इक्कडकढिणादिएसु खेत्ते उच्चारभूमिमादीसु । काले इत्तरियमवी अजाइत्तु चिट्ठमाईसु ॥८८७॥ वणस्सतिभेदो "इकडा" लाडाणं पसिद्धा । कढिणो वंसो मादिग्गहणातो अवलेहणिया दारुदंडय - पादपुछणमादि एते अणणुन्नाते गिन्हति ।। खेत्तमो प्रदत्तं गिन्हति उच्चारभूमि मादि, मादिग्गहणामो पासवणलाउअणिल्लेवणभूमीए मनुतदित्ता उन्धाराती प्राय । खित्तमो प्रदत्तं गतं । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र - २१ काले " इत्वरं" स्तोकं श्रणणुन्नवित्ता चिट्ठति । भिखादि हिदो जाव वासं वासति 'वितिच्छं वा पडिच्छति, श्रद्धाणे वा अणणुष्णवेत्ता रुक्ख हेट्ठासु चिट्ठति, निसियति तुवदृति वा । दव्वातिसु तिसु वि मासलहं ॥८८७॥ ८२ इदाणि मावे दत्तं भावे पाउग्गस्सा, अणणुण्णवणाई तप्पढमताए । ठायंते उडुबद्ध, वासाणं वुडवासे ||८८८ | उडुबद्धे वासासु वा बुड्ढावासे वा तप्पडमयाए पायोग्गाऽणणुन्नवणभावेण परिणयस्स दव्वादिमु चैव भाव लहु श्रतं । उडुवासवुढेसु जं जोग्गं तं पाउग्गं भण्णति ॥८८॥ लहुसमदत्तं गेव्हंतस्स को दोसो ? इमो एतेसामण्णयरं, लहुसमदत्तं तु जो तु श्रतियई । सो आणा अणवत्थं मिच्छत्तविराधणं पावे ॥ ८८ ॥ कारणतो गेण्हतो ग्रपच्छिती प्रदोसो य - श्रद्धाणे गेलणे, ओमसिवे गामानुगामिमतिवेला | तेणा सावय मसगा, सीतं वासं दुरहियासं ॥ ८० ॥ श्रद्धाणाओ निग्गतो परिसंती गामं वियाले पत्तो ताहे श्रणुष्णवितं इक्कडाति गेव्हेज, वसहीए विगुणविया ठाएज्ज | आगाढगेलो तुरियकज्जे खिप्पामेव गुणावितं गेव्हेज । श्रोमोयरियाए भत्तादि प्रदिष्णं सयमेव गेण्हेज । श्रसिवगहिताणं न कोति देति ताहे प्रदिष्णं तणसंथारगादि गेव्हेज्ज । गामाशुगामं दूइज्माणा वियाले गामं पत्ता जइ य बसही ण लब्भति ताहे बाहि वसंतु, मा प्रदत्तं गेहंतु, मह बाहि दुविधा तेणा - सिंघाति वा सावया, मसगेहं वा खजिजति, सीयं वा दुरहियासं, जहा उत्तरावहे प्रणवरतं वा वासं पडति ||८०|| एतेहिं कारणेहिं, पुव्वं उ घेतु पच्छणुण्णत्रणा 1 श्रद्धाणणिग्गतादी, दिट्टमदि इमं होति ||८६१|| एतेहिं तेजातिकारणेह वसहिसामिए दिट्ठे श्रणुष्वणा श्रदिट्ठे श्रद्वाण निम्गयादि सयणसमोसिंगाइ गुणवेत्तुं घरसामिणा प्रदिष्णं उ घेत्तुं पच्छा घरसामियमगुण्णवेति ॥८१॥ इमेण विहाणेण - पडिलेहणऽणुण्णवणा, अणुलोमण फरुसणा य अधिवासे । अतिरिचमि दायण, णिग्गमणे वा दुविध-भेदो ||८६२|| " पडिलेह" त्ति ग्रस्य व्याख्या - अभासत्थं गंतूण पुच्छणा दूरयत्तिमा जतणा । तद्दिसमेत्तपडिच्त्रण, पत्तम्मि कहिं ति सम्भावं ||८६३॥ १ वा तिमिच्छं प्रतीक्षते । २ परिणाम । ३ पडोसी । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ८८८-८६६ ] द्वितीय उद्देशकः सो घरमामी जदि खेत्तं खलगं वा गतो जति प्रभासे तो गंतुं प्रणुष्णविज्जति । श्रहतरं देवीताहे त्राणामविघेहि ग्रागमेउं तं दिसं दूर गंतुं पडिक्खनि जाहे सहू (साहू) समोवं तीसह सब्भावो कहिजति । जहा तुज्झ वसहीए ठियामो त्ति ॥६६३॥ इणि तुमं णुजासु । जति दिट्ठदिष्णा तो लठ्ठे । ग्रह से मुवियत्तं न देति वा ताहे अनुलोमवयहि पष्णविजति अणुसासणं सजाती, सजातिमेवेति तह वि तु ते । अभियोगणिमित्तं वा, बंधण गोसे य ववहारो ||८६४ || जहा गोत्रात गोजा तिमंडलचुतो गोजातिमेव जाति ; आसणे वि णो महिस्सादिमु ठिनि करेति एवं वयं पिवेमो । जति तहवि ण देति फरुसाणि वा भगति, ताहे सो फरुसंग भूगति; अधिया सिजइ । जइ तह विमिच्छुभेज ततो विजाए उष्णेहि वा वसो कज्जति णिमित्तंग वा श्रउंटा विजति । तस्सासति रुक्मातिसु बाहि वसंतु मा य तेण समं कलहेतु । पावगं च ग्रह वाहि दुविप्रो - प्राय संजमाण, उवकरण- सरीराण वा, संजम - चरिताण वा 'अतिरिच्चते लंघतेत्यर्थः । ताहे भण्गति - श्रम्हे सहामो, जो एस ग्रागतिमंतो एस रायपुतो सहिस्स एस वा सहस्सजोही सोवि कयकरणो किं चि करणं दाएति; जहा "विस्सभूतिया मुद्दिष्पहारेग संधम्म कविट्ठा पाडिया" । एस दायणा । तह वि अट्टायमागे बंधिउं ठवेंति जाव पभायं । सो य जड रायकुलं गच्छति तत्थ तेण समाणं ववहारो वजति । कारगियाणं श्रतो भगति - ब्रम्हेहि राहियं याचितेहि बद्धो । जइ. म्हे बाहि मुसिता सावएहि वा खज्जंता तो रष्णो अहियं यसो य भवतो । परकृतनिलयाश्च तपस्विनः, रखियागिय तवोवणाणि, ण दोषेत्यर्थः ॥ ६४॥ ८.३ 5 जे भिक्खू लहुमएण सीतोदगवियडेण वा उसिणोद्गविग्रडेण वा हत्थाणि वा पादाणि वा कण्णाणि वा अच्छीणि वा दंताणि वा नहाणि वा मुहं वा उच्छोल्लेज वा पधोवेज वा; उच्छाल्लेतं वा पोतं वा सातिजति ||०|| २१॥ "लहुसं" स्तोकं याव तिष्णि पसती सीतोदगं सीतलं, उसिगोदगं उन्हें "त्रिय" ववगतजीवं । एत्थ सोतोगवियहि सपविक्खेहिं चउभंगो । मुत्ते य पढम ततिवभंगा गहिया । दो हत्था हत्याणिवा, दो पादा पादाणि वा बत्तीसं देता देताणि वा आसए, पोसए य, श्री य इंदियमुहा, मुहाणि वा "उच्छोलणं” घोवणं, तं पुण देसे सव्वे य। णिज्जुत्तिवित्थरो इमो तिष्णि पसती य लहुसं, विगडं पुण होति विगतजीवं तु । उच्छोलणा तु तेणं, देसे सव्वे य णातव्या ||६|| गतार्थाः ।।३६५॥ इष्णमणाण्णा, दुविधा देसम्मि होति णायव्वा । आण्णा वि यदुविधा, णिक्कारणओ य कारणो ||८६६ || १ गा० ८६२ । २ गा० ८६२ । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-२१ देसे उच्छोलणा दुविहा-माइण्णा प्रणाइण्णा य। साधुभिराचर्यते या सा पापि, इतरा तद्विपरीता । पाइण्णा दुविधा - कारणे णिक्कारणे य ॥८६॥ जा कारणे सा दुविधा - भत्तामासे लेवे, कारणणिक्कारणे य विवरीयं । 'मणिबंधादिकरसु, जेत्तियमेतं तु लेवेणं ।।८६७|| __ तत्थ भत्तामासे 'मणिबंधादिकरेसु" ति मसणाइणा लेवाडेण हत्था लेवाडिया ते मणिबंधातो ज व धावति, एसा भत्तामासे । इमा लेवे "जेत्तियमेत्तं तु लेवेणं" ति असज्झातिय मुत्तपुरीसादिणा जति सरीरावयवेण चलणादि गातं लेवाडितं तस्स तत्तियमेत्तं धोवे । एसा कारणो भणिता। णिक्कारणे तग्विवरीय ति॥८६॥ एतं खलु पाइण्णं, तब्विवरीतं भवे अणाइण्णं । चलणादी जाव सीरं, सव्वम्मि होतऽणाइण्णं ८६८॥ भत्तमासे लेवे य इमं प्राइण्णं, तन्विवरीयं - देसे सच्चे वा, सव्वं प्रणाइण्णं ॥८६॥ तत्थ देसे इमं प्राइण्णं - मुह-णयण-चलण-दंता, णक्क-सिरा-बाहु बत्थिदेसो य । परिडाह दुगुंछावत्तियं च उच्छोलणा देसे ॥६६॥ मुह - णयणादियाण केसि चि दुगुंछाप्रत्ययं परिदाघप्रत्ययं वा देसे सव्वे वा उच्छोलणं करोतीत्यर्थः ॥८६॥ वक्ष्यमाणषोडशभंगमध्यात् अमी अष्टौ घटमाना; शेषा अघटमाना : आइण्ण लहुसएणं, कारणणिक्कारणे वऽणाइण्णे। देसे सव्वे य तधा, बहुएणेमेव अट्ठपदा ॥६००॥ माइण्णलहुसकारणदेसे एष प्रथमः । एष एव शिक्कारणसहितः द्वितीयः । मनाचीर्णग्रहणात् तृतीय - चतुर्थी गृहीतौ । लहुसणिक्कारण देसेत्यनुवर्तते, चतुर्थे विशेष: सर्वमिति वक्तव्यम् । जहा लहुसपए चउरो भंगा तहा बहुएण वि चउरो सब्वे अट्ठः । एव-शब्दग्रहणात तृतीय चतुर्थ पंचम षष्ठ भंगविपर्यासः प्रदर्शितः ॥१०॥ वक्ष्यमाणषोडशभंगक्रमेण घटमानाघटमानभंगप्रदर्शनार्थं लक्षणम् - जत्थाइण्णं सव्वं, जत्थ व कारणे अणाइण्णं । भंगाण सोलसण्हं, ते वजा सेसगा गेज्झा ॥६०१॥ यस्मिन् भंगे आचीर्णग्रहणं दृश्यते तत्रैव यदि सर्वग्रहणं दृश्यते ततः पूर्वापरविरोधान्न घटते असो भंगः । यत्र वा कारणग्रहणे दृष्टे अनाचीर्ण दृश्यते असावपि न घटते । एते वर्जयित्वा शेषा ग्राह्याः ।।६० १॥ सोलसभंगरयणगाहा इमा - पाइण्णे लहुसकारण, देसेतरे भंग सोलस हवंति । एत्थं पुण जे गेज्झा, ते वोच्छं सुण समासेण ॥६०२॥ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यमाचा ८९७-९०८) द्विताय उद्दशक: इतरग्रहणात प्रणाइण्णबहुसणिक्कारणसव्वमिति एते पदा दट्ठन्वा ।।६०२।। प्रमी ग्राह्या - पढमो - पढमो ततिश्रो एक्कारो बारो तह पंचमो य सत्तमयो । पण्णर सोलसमो वि य, परिवाडी होति अट्टण्हं ।।६०३॥ पढमो, ततिम्रो, एककारसो, बारसो, पंचमो, सत्तमो य, दो चरिमा य यथोद्दिष्टक्रमेण स्थापयितव्या इमं ग्रंथमनुसरेल ।।६०३॥ आइण्णलहुसएणं, कारणणिक्कारणे वि तत्थेव । गाइण्ण देससव्वे, लहुसे तहिं कारणं णत्थि ॥६०४॥ माइण्ण लहुसएणं कारणे इति प्रथमः । णिक्कारणे तत्थेव त्ति प्राइण्ण लहुसे अनुवर्तमाने णिक्कारणं द्रष्टव्यम् । द्वितीयो भंगः । पढम - बितिएसु देसमिति अर्थाद् द्रष्टव्यम् । पश्चार्द्धन तृतीयचतुर्थभंगी गृहीतो । प्रणाइणं तृतीये वैसे, चतुर्थे सर्व । लहुसमित्यनुवर्तते । ततियचउत्थेसु कारणं णत्थि ।।६०४॥ इदाणि पंचमादि भंग प्रदर्शनार्थ गाथा - श्राइण्णे बहुएणं, कारणणिक्कारणे वि तत्थंव । णाइण्णदेससव्वे, 'यहुणा तहि कारणं णत्थि ॥६०|| पंचमे बहुएणं माइणं कारणं । "तत्थेव" ति पाइण्णबहुएसु अणुवट्टमाणेसु छटे निक्कारणं द्रष्टव्यमिति । पंचमछट्टेसु देसमिति अर्थाद्दष्टव्यमिति । सप्तमाष्टमेसु प्रणाइणं । सप्तमे देसं । प्रष्टमे सव्वं । बहुसमित्यनुवर्तते, कारणं नास्त्येवेत्यर्थः ॥१०॥ प्रथमभंगानुज्ञार्थ शेषभंगप्रतिषेधार्थ च इदमाह - प्राइण्णलहुसएणं, कारणतो देसे तं अणुण्णातं । सेसा णाणुण्णाया, उवरिल्ला सत्तवि पदा उ ॥६०६|| माइण्णलहुसएणं कारणे देसे । एस भंगो अणुनातो । उवरिमा सत्त वि पडिसिद्धा भंगा ।।६०६।। द्वितीयादिभंगप्रदर्शनार्थ इदमाह - प्राइण्ण लहुसएणं, णिक्कारण देसो भवे बितिम्रो । गाइण्ण लहुसएणं, णिक्कारण देसो तइयो ॥६०७॥ गाइण्ण लहुसएणं, णिक्कारण सव्वतो चउत्थो उ । एवं बहुणा वि अण्णे, भंगा चत्तारि णायव्वा ॥६०८|| माइण्णे सहुसएणं णिक्कारणे देसे एस बितियभंगो। प्रणाइपणे लहुसे णिककारणे देसे ततिय मंगो। प्रणा इणे लहुसे णिक्कारणे सव्वतो चउत्यभंगो । एवं बहुणा वि अण्णे चउरो भंगा कायव्वा ।।६०८॥ १ बहुसे। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूमिके निशीथसूत्रे पढमभंगो सुद्धो, सेसेसु इमं पच्छित्तें - सुद्धो लहुगा तिसु दुसु, लहुप्रो चउलहू य अट्ठमए । पच्छिचे परिवाडी, अट्ठसु भंगेसु एएसु ॥६०६॥ 'सुत्तणिवातो बितिए, ततिए य पदम्मि पंचमे चेव । छट्टे य सत्तमे वि य, तं सेवंताऽऽणमादीणि ॥९१०॥ बितिय-ततिय-पंचम- छ?-सत्तमेसु भंगेसु सुत्तणिवातो मासलहुं । चउत्थ?मेसु उनहुं । तमिति देसस्नानं वा सेवंतस्स प्राणा प्रणवत्व मिच्छत्तविराधणा भवति ॥१०॥ पहाणे इमे दोसा - छक्कायाण विराधण, तप्पडिबंधो य गारव विभूसा । परिसहभीरुत्तं पि य, अविस्मासो चेव ण्हाणम्मि ।।६११॥ व्हायंतो छजीवणिकाए वहेति । हाणे पडिबंधो भवति - पुनः पुनः स्नायतीत्यर्थः प्रस्नानसाधुशरीरेभ्यः निर्मलशरीरो अहमिति गारवं कुरुते, स्नान एव विभूषा अलंकारेत्यर्थः । भव्हाणपरीसहामो बीहति तं न जिनातीत्यर्थः । लोकस्याविश्रम्भणीयो.भवति ॥४१॥ एते सस्नानदोषा उक्ता। इदाणिं कप्पिया - बितियपदं गेलण्णे अद्धाणे वा तवादिआयरिए । मोहतिगिच्छभियोगे, ओमे जतणा य जा जत्थ ॥१२॥ गिलाणस्स सिंचणादि अंते वा सर्वस्नानं कर्तव्यं । प्रद्धाणे श्रान्तस्य पादादि देसस्नानं सर्वस्नानं वा कर्तव्यं । वादिनो वादिपर्षदं गच्छतो पादादि देसस्नानं सर्वस्नानं वा प्राचार्यस्य प्रतिशयमिति कृत्वा देसस्नानं सर्वस्नानं वा । मोहतिगिच्छाए किढियादि सहिढयाभिगमे वा देसादिस्नानं-सर्वस्नानं वा करोति ।रायाभियोगे मुठुल्लसियातिकारणेसु रायतेउरादि अभिगमे देशादिस्नानं कर्तव्यम् । प्रोमे उज्जलवेसस्स भिक्खा सन्मति रंको वा मा भणिहिति । जा जतफा, जत्य पाणए हाणपाणे वा, सा सर्वा कुज्जा IIE१२॥ जे भिक्खू कमिणाई चम्माई धरेति; घरेतं वा सातिज्जति ।मु०॥२२॥ कसिणमत्र प्रधानभावे गृह्यते । तं च कसिणं इमं चउन्विहं - सकल-प्पमाण-वष्णं, बंधण-कसिणं चतुत्थमजिणं तु । अकसिणमट्ठादसगं, दोसु वि पादेसु दो खंडा ।।९१३|| कमिणं चउव्विहं - सकलकसिणं, पमाणकसिणं, वणकसिणं, बंधणकसिणं गातव्वं भवति । एयं चन्विहं वि न कप्पइ पडिम्महि । चोदग आह - जइ एवं तो जं अकसिणं चम्मं तं अट्ठदसखंड का दोसु वि पादेसु परिहामव्वं । एस दारगाधा प्रत्यो ॥१३॥ १ नास्तीमा गाथा चूर्णा २ सूत्रोक्तम् ।। ३ जयति । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांध्यगाथा ६०६-९१६] द्वितीय उदेशक: सकलकसिणाए वक्खाणं - एगपुड-सगल-कसिणं, दुपडादीयं पमाणो कसिणं । कोसग खल्लग वग्गुरी. खपुसा जंघऽद्धजंघा य ।।६१४॥ एगपुडं - एगतलं अखंडियं सकलकसिणं भणति । दोमादि तला जीए उवाहणाए, एसा पमाणतो कसिणा । पमाणकसिणाधिकारे इमे वि अण्णे कसिणा तलपडिबद्धा- अद्धं जाव खल्लया जीए उवाहणाए सा 'पद्धखल्ला, एवं समत्तखल्लारे । खवुसा पदाणि चक्कपादिगा च, "वग्गुरी छिण्णपुडी, सुक्कजंघाए प्रदं जाव "कोसो प्रद्धजंघा, जाणुयं जाव समत्तजंघा ।।६१४॥ पादरस जं पमाणं, तेण पमाणण जा भवे कमणी । मज्झम्मि तु अक्खंडा, अण्पत्थ व सकलकसिणं तु ॥११॥ कंठा पमाण-वण्ण-बंध-कसिणाण वक्खाणं वण्णड्ढ-वण्णकसिणं, तं पंचविध तु होनि णातच्वं । बहुबंधणकसिणं पुण, परेण जं तिण्ह बंधाणं ॥१६॥ यच्चम वर्गेनाऽयमुज्ज्वलमित्यर्थः तद्वर्णकृत्स्नं । स कृष्णादि पंचविधः ।।१६।। वग्गुरि-खवुस-पद्धजंघा-समत्तजंघाए अ वक्खाणं इमं - दुगपुड-तिगपुडादी, खल्लग-खपुम-द्धजंघ-जंधा य । लहुओ लहुया गुरुगा, वन्गुरि गुरुगा य जति वारे ।।६१७।। उवरिं तु अंगुलीश्रो, जा छाए सा तु वग्गुरी होति । खवुसा उ खलुगमेतं, अद्ध गव्वं च दो इतरा ॥१८॥ “दो इतरा" श्रद्धजंघ-रामत्तगंधा य ॥६१८॥ इदाणि पच्छित्तं भण्णति सकलकसिणं । गाहा ॥ लहुओ लहुया दुपडादिगम गुरुगा य खल्लगादीसु । आणादिणो य दोसा, विराहणा संजमायाए ॥६१६।। सकलक सिणे मारालहुँ। दुपड दिसु पउलहुअा। चउगुरुगा इमेसु अद्धखल्ला समन्तखल्ला सवुसा वग्गुरी प्रद्धजंघा समत्तजंघा य; सम्वेसु च उगुरुगा ॥१६॥ १ या पादार्धमाच्छादयति सा अर्धखल्लका । २ या च सम्पूर्णपादमाच्छादयति सा समस्तखल्लका : ३ या चुटकं पिदधाति सा खपुसा । ४ या पुनरंगुलि च्छदित्वा पादावुपरिच्छादयति सा वागुरा । ५ यत्र तु पापाणादिपु प्रतिस्खलिताः पादनखा मा भज्यन्तामितिबुद्धयागुलिरंगुष्ठो वा प्रक्षिप्यते स कोशकः । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Et सभाष्य चूर्णि निशीथसूत्रे [ सूत्र- २१ ( प्राणाप्रा य दोसा, संयमविराहणा श्रायविराहणा य । तत्थ कमणीहि परिहित्राहि पीपीलिमाविराणा संयमविराहणा वर्द्ध छिन्ने पक्खलणा प्रायविराहणा पमत्तं वा देवया छलेज्जा | ) ||६१६ ॥ उवाणहाधिकारे इमेसु च्छित्तं भणति - अंगुलिकोसे पणगं, सकले सुक्के य खल्लए लहुआ । बंधणवण्णपमाणे, लहुगा तह पूर पुण्णे य || ६२० ॥ अंगुठ्ठगुलिकोसे पणगं । उवाणहाए अपडिबद्ध सुक्कखल्लाए मासलहुं । पूरपुण्णाए चउलहुं । गण्णड्ढे चउलहुं । बंधणक सिणे य चउलहुं श्रद्धखल्लादिसु चउगुरुगमभिहितं ॥१२०॥ तद्विशेषणार्थमिदमाह - अद्ध े समत्तखल्लग, वग्गुरि खपुसा य श्रद्धजंघा य । गुरुगा दोहि विसिट्ठा, वग्गुरिए श्रण्णतर एवं ॥ ६२१ ॥ श्रद्धखल्ला, समत्तखल्ला, खवुसा, प्रद्धसंमत्तजंघा य दो वि एक्कं चैव द्वाणं एतेसु चउसु तवकालविसिद्धं चउगुरुगं । वग्गुरिए तवकालाणं श्रण्णतरं गुरुश्रं दायव्वं ॥२१॥ इदाणि प्रायश्चित्तवृद्धिप्रदर्शनार्थं इदमाह - जत्तियमित्ता वारा, तु बंधए मुंचए तु जतिवारा । सङ्काणं ततिवारे, होति विवड्ढी य पच्छित्ते ||६२२ ॥ अंगुलिकोसगं जत्तिया वारा बंधति मुयति वा तत्तिया चेव पंचरातिदिया भवंति । एवमन्यत्रापि द्वाणं तत्तिया वारा भवति । "होति विवढी य पच्छिते ' त्ति एक्कं पणगादि सद्वाणं, बितियं प्राणाभंगप्रत्ययं =४ गुरु; । तइयमनवस्था प्रत्ययं का । चतुर्थं मिथ्यात्वजननप्रत्ययं का । डंकणादि श्रायविराहणादि प्रत्ययं - स्का । संजमे कायविराहणा णिप्फण्णं च एवं पच्छित्तस्स बुड्ढी । हवा - श्रभिक्खपडि सेवण' तो उवरि द्वाणंतवुड्ढी भवति ॥ ९२२ ॥ सुत्तनिवातप्रदर्शनार्थं इदमाह - सुत्तणिवा तो सगलक सिणं मितं जो तु गेण्हती भिक्खू । सो प्राणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ॥ ६२३|| कंठा इदाणि उपानत्क दोषप्रदर्शनार्थं इदमाह - १ २ 3 ४ गव्वो णिम्मद्दवता, णिरवेक्खो णिद्दश्र णिरंतरता | भूताणं उवघातो, कसिणे चम्मंमि छ दोसा ||६२४|| द्वा० गा० "गव्वो णिमद्दवे" त्ति दो दारा ! आसतो हत्थिगतो, गब्विज्जति भूमितो तु कमणिल्लो । पादो तु समाउक्को, कमणी तु खरा अधियभारा ॥२५॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २०-३० ] द्वितीय उद्देशक : जहा पदचारिल्लं पडुच्च प्रसगतो गल्लिजति तं पडुच्च हस्त्यारूढो गव्विज्जति, एवं 'अणुवाहतो कमणिल्लो गविज्जति । पादो मृदुत्वान्न तथा जीवोपघाताय यथा उपानत्का कठिणा अधिकभाराक्रान्ता जीवोपघाताय भवति ॥ ६२५॥ इदाणि "" णिरवेक्ख" ति दारं कंटादी पेहतो, जीवे विहु सो तहे पेहेज्जा । थिमहं तिय कमणी, णावेक्खति कंटए ण जिए ||२६|| - इदाणि "" णिहए" त्ति दारं - - - अणुवाहणो कंटादी पेहंतो जीवा वि पेहेज्जा । स उवाहणो पुण निरपायत्वादात्मनो न कंटकाद्यपेक्षते, तो जीवेष्वपि निरपेक्षः ॥६२६ ।। पुत्रं दता भूतेसु, होति बंधति कमेसु तो कमणी । जायति हु तदब्भासा, सुदयालुस्सा वि णिद्दयता ||२७|| "पुव्वं" श्रादौ "दया" निर्दयत्वं यदा श्रात्मनो मनसि कृतं भवति । तदा कमेसु कमणीभो बंधति । " तदब्भासा" सुदयालुस्स वि पुरिसस्स एवं निद्दयता जायति ॥९२७॥ इदाणि "" निरंतर " ति दारं वि बज्ज पादेण पेल्लितो अंतरंगुलगओ वा । मुच्चेज्ज कुलिंगादी, न य कमणीपेल्लियो जियइ ॥ ६२८ || "श्रवि" संभावणत्थे, "अंबकुज्जं" पादतलमध्यं तेन "पेल्लितो" आक्रान्तः, अंगुष्ठांगुल्यंतरं अंतरंगुलं प्रपि च, अणुवाहणस्स एतेसु पदेसु ठितो न मारिज्जति, ण य उवाहणाहि णिरंतरं भूमिपुसणाहि प्रक्कतो जीवति ॥२८॥ इदाणिं ""भूगाणं उवघातं " त्ति दारं किंह भृताणुवघातो, ण होहिति पगतिदुब्बलतपूर्ण | सभराहि पेल्लिताणं, कक्खलफासाहिं कमणीहिं ? ॥२६॥ ८६ "किह" त्ति केन प्रकारेण, "भूता" जीवा, "उपघातो" पीडा व्यापादनं वा पगति सभावं, दुब्बलं प्रदढं "तनुः " शरीरं, "सभराहि" पुरुषभाराक्रान्ताभिः, "पेल्लितो" श्राक्रान्तः कठिनस्पर्शन 'देहाभिः उपानत्काभिः । शिष्यो वक्तव्यः " त्वरितं प्राख्यायतां ", " कथं उपघातो न भविष्यतीत्यर्थः ?" ॥६२६ ॥ ववादे पुण कारणे घेत्तव्वा, जतों भणति I - 3 १ ४ NA ६ श्रद्धा गेलणे, रसा सहूय घट्ट भिण्णेयं । ५. १० अज्जाणं कारणज्जार ॥ ९३०॥ दुब्बलचक्खू बाले, १ अनुपानहं पुरुषं विलोक्य । २ गा० ६२४ । ३ गा० ६२४ । ४ गा० ६२४ । ५ गा० ६२४ । ६ " देहाहि " प्रत्यन्तरे । १२ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 은 "अद्वाणे गेलणे" त्ति वक्खाणेति सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे कंटाहिसीतरक्खट्टता विहे खउसमादि जा गहणं । सह-पाण गिलाणे, अहुणुट्ठित भेसयट्ठा वा ||३१|| - श्रद्धाणपडिवण्ण कंटक - अहि सीय रक्खट्टता कोस जाव खबुस प्रद्धजंघसमत्तजंघातो वि घेतब्वातो । - हवा प्रणापुब्वी खवुसं श्रादिकाउं सव्वे वि भेदा घेत्तन्त्रा । गिलाणोसह पाउं पुढवीएण ठति पाए, मा सीताणुभावा तो जोरेज्ज, महुरद्वितो गिलाण, अग्गिबलणिमित्तं, गिलाणट्ठा वा तुरियं सह गंतव्वं ॥ ६३१ ॥ safir "रिसिल्लादीणि" तिण्णि दाराणि - - रसिल्लरस व रिसा, मा खुब्भे तेण बंधए कमणी । समवंताहरणं, पाओ घट्टो व गिरिदेसे || ६३२॥ अरिसिलस्स मा पादतलदौर्बल्यादर्शक्षोभो भवेदिति । प्रसहिष्णुः राजादि दीक्षितः सुकुमारपादः प्रसक्तः उपानत्काभिर्विना गंतु । एत्थ दिदूंतो - उज्जेणीए प्रवतिसोमालो । गिरिदेसे चकमप्रो तलाई घट्टयंति गिरिदेसे वाण संक्कति विणा उवाणहाहिं चकमिउं ||६३२ ॥ "भिरण" कुट्ठाति तिष्णि दारा युगवं वक्खाणेति - - कुट्ठिस्स सक्करादीहि वा विभिण्णो कमो तु मधुला वा । बालो असंवुडो पुण, अज्जा विह दोच्च पासादी ||३३|| भिण्णकुट्ठियस्स पादा कट्टसक्कर कंटगादीहि दुक्खविज्जति पादे गंड " महुला" भष्णति, सा वा उता | बालो प्रसंवुडो जत्थ तत्थ वा पादे छुन्भति । विह श्रद्धाणं तत्थ जता प्रज्जाश्रो णिज्जंति, दोच्चं चोरातिभयं तत्थ वसभा कमणीओ कमेसु काउं पंथं मोतूगं पासट्ठिता गच्छन्ति । सव्वाणि वा उप्पण गच्छति । श्राइसदाओ सव्वे वि उम्मग्गेण गच्छति । जो चक्खुस्सा दुब्बलो सो वेज्जोव एसेण कमेसु कमणी पिधि । जं पाए अभंगणोवाहणाइ परिकम्मं कज्जति तं चक्खूवगारगं भवति । जम्रो उत्तं [ सूत्र - २२ इदाणिं कारणजाए ति दारं "दंताना मंजन श्रेष्ठ, कर्णानां दन्तधावनम् । शिरोऽभ्यंगश्च पादानां पादाभ्यङ्गश्च चक्षुषाम् ||" कुलमादिकज्ज इंडिय, पासादी तुरियधावणट्ठा वा । कारणजाते वण्णे, सागारमसागरे जतणा ||३४|| कुल - गण - संघकज्जेसु, दंडिया वा झोलग्गणे, तुरियधावणे स्मरणा चारभृतवत् कमणी कमेसु बंधति, अन्यत्र वा कारणे मायरियपेसणे वा, तुरिए वा सद्दाश्रो दारगाहत्य । चसद्दसूइए सम्मद्ददारे उदगागणि - चोर Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यगाथा ६३१-१४० ] द्वितीय उददेशक: वयमएसु वा णस्संतो, जत्थ सागारियदोसो णत्थि तत्थ जयणा। जत्थ पुण सागारिया उड्डाहति तत्थ वणउं गामादिसु पविसंति। ग्रहवा - मोरंगादि चित्तियाग्रो सागारियाउ त्ति काउं ण गेण्हति, उणुब्भडातो गेहति ॥६३४॥ एवं अद्धाणादिकारणेसु गेण्हमाणस्स वण्णकसिणे कमो भण्णति - पंचविह - वण्ण - कसिणे, किण्हं गहणं तु पढमत्रो कुज्जा। किण्हम्मि असंतम्मी, विवनकसिणं तहिं कुज्जा ॥३३॥ पंचविहे वणकसिणे पुत्वं कण्हं गेहति । तम्मि असंते लोहियादि गेण्हति । तस्स वि असते लिमादीहिं विवण्णकरणं करेति, मा उड्डा हिस्सति लोगो रागो वा भविस्सति ।।६३५॥ सगलप्पमाणबंधणकसिणेसु विही भण्णति - 'कसिणं पि गेण्हमाणो, झुसिरगहणं तु वज्जए साहू। बहुबंधणकसिणं पुण, वज्जेयव्वं पयत्तेणं ॥६३६।। सकलकसिणं पमाणकसिणं गेण्हमाणो झुसिरं वज्जते । बहुबंधणकसिणं पयो वज्जते ॥६३६॥ तं बंधणमिमं -- दोरेहि व वज्झहि व, दुविहं तिविहं च बंधणं तस्स । कित-कारित-अणुमोदित, पुन्यकतम्मी अहिकारो ॥६३७॥ दोरेण वा वध्रण वा दो तिष्णि वा बंधे करेति । कसिणं वा अकसिणं वा सयं ण करेति, अण्णेण वाण कारवेति, कीरतं णाणुमोदति । "पुवकत" महाकडए अधिकारो ग्रहणमित्यर्थः ॥६३७।। ते पुण दो तिण्णि वा बंधा भवंति - खलुगे एक्को बंधो, एक्को पंचंगुलस्स दोण्णेते। खलुगे एक्को अंगुडे, बितिम्रो चउरंगुले ततिरो ॥६३८॥ खलुगे गले वध्रबंधो एगो, अंगुट्ट अंगुलीणं च एगो, एते दोण्णि । खलुहए एगो, अंगुढे. बितिग्रो, चउरंगुलीए ततिप्रो ॥३८॥ । जो पुण सयं करेति कारवेति अणुमोदेति वा तत्थ पच्छित्तं - सयकरणे चउलहुआ, परकरणे मासियं अणग्यायं । अणुमोदणे वि लहुओ, तत्थ वि प्राणादिणो दोसा ।।६३६।। प्राणादिणो य दोसा, सयंकरणे अ उड्डाहो उपदकर: संभाव्यते ॥६३९।। अकसिणसगलग्गहणे, लहुश्रो मासो तु दोस आणादी। वितियपदघेप्पमाणे, अट्ठारस जाय उक्कोसा ।।६४०॥ १ "किण्हंमि'' कृष्णवर्णमपि गृहन् शुपिरग्रहणं साधुः प्रयत्नतो वर्जयेत् इति बृहत्कल्पे उद्दे० ३ सू० ५-६ - भाष्यगाथा ३८६८ । २ घुटके । ३ चर्मकरः । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथ पूत्रे [ सूत्र- २२ सकलादिच उप्पएस सोलसभंगा । तत्थेस टुमो भंगो पमाण वण्ण बंधणेहिं अकसिणं सगलक मिणं पुण । एत्थ से मास हुं । स्पष्टः सूत्रनिपातः । गेव्हंतस्म आणादिणो दोसा । द्वाणकारणेसु बितिय देण घेप्पमाणे सोलसभंगो ग्रहीतव्यो मध्ये खंडिता इत्यर्थः । ६२ अत्राह चोदक - दुखंडादि उनकोसेणं जाव गव खण्डा एगा, दोमु त्रि अट्ठारस ॥१४०॥ इदमेवाभिप्रायं चोदकः व्याख्यानयति - - जदि दोसा भवते, जहुत्ता कसिणाऽजिणे । अत्थावत्ती सूमो, एरिसं दाइ कप्पति ॥४१॥ " अजिनं" चर्म, तम्मि कसिणे घरिज्जमाणे जदि एवं दोसा भवंति तो प्रत्यावत्तीए "सूएमो" - जाणामो, “दाइ" त्ति अभिप्रायदर्शनं ईदृशं कल्पते ॥ ६४१|| अकसिणमङ्कारसगं, एगपुडविण्ण एगबंधं च । तं कारणमि कष्पति, णिक्कारणधारणे लहु ॥१४२॥ एष षोडशभंगो गृहीतः पूर्वार्धन, तदपि कारणे विकारणधरणे लहू ॥९४२॥ चोदग एवाह जति कसिणस्स गहणं, भागे 'काउ' कमे तु अंडरसा । एग पुडविणेहि य, तेहिं तहिं बंधए कज्जे ॥६४३॥ जति कसिणं घे पति तो जहाहं भणामि तहा घेउ । दो उवाहणाओ अट्ठारसखंडे काउं एगपुडविवण्णं च जत्थ जत्थ पाद- पदेसे प्राबाहा तहि तहि कज्जे एगदुगादिखण्डे बंधति ॥१४३॥ कहं पुण अट्ठारसखण्डा भवंति, भण्णति पंचगुलपत्तेयं, गुमहे य छडखंडं तु । सत्तममग्गतलम्मी, मज्झमपहिगा णत्रमं ॥ ६४४ ॥ पंचगुलपत्तेयं पंचखंडा । अंगुट्टगस्स अहो छुट्ट खंडं । श्रभ्गतले सत्तमं खडं । मज्भतले ग्रट्टमं खंडं । पहियाए एवमं खंड । एवं बितिउवाणाए वि गव । एवं सव्वे वि श्रारखण्डा भवति ॥१६४४ || एवं चोदकेनोक्ते आचार्याह एवंतियाण गहणे, मुंचते वा चि होति पलिमंत्री | वितियपदधिप्पमाणे दो खंडा मज्झपडिवद्धा ||६४५ || एवंतिया खंडाणं गहणमोयणे सुत्तत्थाणं पलिमंत्रो भवति ।। ६४५ ।। पुव्वद्धस्स वत्रखाणं - पडिलेहा पलिमंथो, गदिमादुदए य मंच बंधते । सत्थ फिट्टण तेणा, अंतरवेधे य डंकणता ||६४६ || १ उं कमेण दस इति प्रत्यन्तरे । २ एवंतीयाण गहणे होति पलिमंथो, पाठान्तरं - एतावतां खण्डाना ग्रहणे मासलघुप्रायश्चित्तमसमाचारीनिष्पन्नमित्यर्थः । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाध्यगाथा ६४१-६५०] द्वितीय उददयाकः जाव अट्ठारसखंडा दुसझ परिलेहेति ताव सुत्तन्थे पनिमंथो, 'गदिमादिउदगेण उनरंतो जाव मुयति उनिष्णो य जाव बंधति ताव सत्थातो फिट्टति । तो तेहि प्रोदुभति, प्रदेसिको वा अडविपहेग गच्छति, नत्थ वि तरच्छ - त्रग्घ अत्थभिल्लादिभय' बहुख डंत रेसु वा कंटगेसु विज्झडितं किज्जति वा । बहुबन्धघस्सेण वा डंको होज्जा। चोदगाह - ना कहं खंडिजति ? आचार्याह - पच्छद्धे - वितियपदे जता घेप्पति तदा मज्झतो दो खंडा कीरति । एवं अधिकरणादिदोसा जढा ॥६४६॥ तम्मज्झे बैंधणं दुविधं - तज्जातमतज्जातं, दुविधं तिविधं च बंधणं तस्स । तज्जातम्मि व लहुओ, तत्थ वि आणादिणो दोसा ॥६४७॥ तं पुण तलबंधणं पादबंधणं वा दुविधं - तज्जातमतज्जातं । तज्जातं वद्धेहिं, अतज्जातं दोरेहिं । प्रतज्जाएण बंधमाणे मासलहुं. णिक्कारणे तज्जाएण वि मासलहुं, अणादिणो य दोसा भवति ॥९४७।। जे भिक्खू कसिणाई वत्थाई घरेइ, धरतं वा सातिज्जति ॥सू०।२३।। संदसं प्रमाणातिरिक्तं कृत्स्नं भवति । एष सूत्रार्थः । इदाणिं नियुक्तिविस्तरः दव्वे खेत्ते काले, भावे कमिणं चउविहं वत्थं । दव्यकसिणं तु दुविधं, सगलं च पमाणकसिणं च ॥६४८|| दवकसिणं दुविहं - सगलकसिणं पमाणकसिणं च ।।६४८।। तत्थ सगलकसिणं इमं - घण - मसिणं निरुवहतं, जं वत्थं लब्भए सदसियागं । - एगं तु सगलकसिणं, जहण्णयं मज्झिमुक्कोसं ||६४६॥ . __ "घणं" तंतुहिं समं, "२मसिणं" कलं मोडियं वा, "णिरुवहतं' ण अंजणखंजणोवलित्तं वा मग्गिविदड्ढ मूसगखइयं वा। जं एरिसं सदसं लब्भति तं सगलकसिणं । तं पुण "जहणं" मुहपोत्तियाइ, 'मज्झिम" पडलादि, 'उकोसं'' कप्पादि ॥६४६।। इदाणि पमाणकसिणं - वित्थारायामेणं, जं वत्थं लभते समतिरेगं । एवं पमाणकसिणं, जहणियं मज्झिमुक्कोसं ॥६५०॥ "वित्थारो" पोहच्चं, "अायामो' देघत्तं, जं वत्थं जहाभिहियपमाणमो समतिरेग लम्भति तं पमाणकसिणं भण्णति । तं पि तिविहं जहणाइ ।।६५०॥ १ शस्त्रम् । २ कोमलम् । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६.४ त्रिविधं इदाणि खेत्तकसिणं - - जं वत्थं जंमि देसम्म, दुल्लभं अग्वियं च जं जत्थ | कसिणं, जहणणयं मज्झिमुक्कोसं ॥ ६५१ || तं खेत्तजु जं वत्थं जम्मि खेत्ते दुल्लभं जत्य वा खेत्ते गतं श्रग्घितं भवति, अग्वियं णाम बहुमोल्लं, तं तेण कसिणं भवति । यथा पूर्वदेशजं वस्त्रं लाटविषयं प्राप्य दुर्लभं प्रषितं च । तदपि त्रिविधं जघन्यादि ॥ ६५१ ॥ इदाणि कालकसिणं - सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे इदाणि भावकसिणं - - जं वत्थं जम्मि कालम्मि, अग्वियं दुल्लभं च जं जम्मि । तं कालजुकमिणं, जहण्णगं मज्झिमुक्कासं ॥ ६५२ || जं वत्थं जम्मिकाले श्रग्घितं जम्मि काले दुल्लभं तम्मि चेव काले कालकसिणं भवति । तदपि जघन्यादि । गिम्हे जहा कासाइ सिसिरे पावाराति, वासासु कु कुमादि खचितं ॥५२॥ दुविधं च भावकसिणं, वण्णजुत्रं चेत्र होति मोल्लजुत्रं । वण्णजुश्रं पंचविधं, तिविधं पुण होति मोल्लजु ॥६५३ ॥ भावकसिणं दुविधं - वणतो मोल्लती य । वण्गेण पंचविधं । मोल्लो जहण्णमज्झिमुक्कोसं ॥१५३॥ तत्थ वण्णतो इमं - [ सूत्र -२३ पंचन्हं वण्णाणं, अण्णतराण जं तु वण्णटं । तं वणजु कसिणं, जहण्णयं मज्झिमुक्कासं ॥ ६५४ || वर्णाढ्यं यथा - कृष्णं मयूरग्रीवसन्निभं नीलं सुकपिच्छसन्निभं रक्तं इन्दगोपसन्निभं पीतं सुवर्णवत् शुक्लं शंखेदुसन्निभं । तमेवंविधं वण्णकसिणं । तदपि त्रिविधं जघन्यादि । ५४ ।। दाणिदव्वखेत्त-कालकसिणेसु पच्छित्तं भण्णति - चाउम्मासुक्कोसे, 'मासिय मज्झम्मि पंच य जहण्णे । तिविधम्मि विवत्थम्मि, तिविधा आरोवणा भणिता ||६५५|| ww उक्कोसे, दव्व-खेत्त-काल-कसिणेसु पत्तेयं चउलहुआ । मज्झिम- दव्व- खेत्त काल कसिणेसु पत्तेयं मासलहु । जहणेषु दत्र-खेत्त-काल-कसिणे पत्तेयं पणगं, तिविहे जहण्णादिगे, तिविधा दव्वादिगा आरोवणा भणिया ।। ६५५|| अहवा - तिविधा आरोवणा चउलहुमासो पणगं । दव्वादितिविकसिणे, एसा आरोवणा भवे तिविधा । एसेव वण्णकसिणे, चउरो लहुगा व तिविधे वि ॥ ६५६ || पूर्वार्धं गतार्थम् । एसेव वण्णकसिणे भणिता । १ मासो प्र० । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ६५१-६६३ ] लहु ||६५६ ।। ग्रहवा :- वण्णकसिणे जहण्णमज्झिमुक्कोसए तिविधेवि रागमिति कृत्वा चउलहु चेव । ग्रहवा - विसेसो एत्थ कज्जति । उक्कोसे दोहिं गुरु, चउलहु । ' मज्झिमे तत्रगुरु जहणणे दोहिं दाणि मुल्लकसिणं - प्रथम उद्देशकः मोल्लजुतं पुण तिविधं, जहण्णयं मज्झिमं च उक्कोसं । जहणे अट्ठारसगं, सत्साहस्संच उक्कोसं ॥ ६५७|| मुल्लभावक सिणं तिविधं - जडण-मज्झिमुक्कोसं । जस्स अट्ठारस रूवया मुल्लं तं जहण कसिगं । सतसहस्समुल्ल उनकोस - कसिणं । सेसं वि मज्भं मज्झिमक सिणं ॥६५७।। इमं पुण कतमेण रूवएण पमाणं ? भण्णति - दोसा भरगा दीविच्चगाउ सो उत्तरापधे एक्को । दो उत्तरापधा पुण, पाडलपुत्ते हवति एक्को | ६५८ || "साहरको” णाम रूपकः, सो य दोविच्चिको । तं च दीवं सुरट्ठाए दक्खिणेण जोयणमेत्तं समुद्दमवगाहिता भवति, तेहि दोहिं दिविच्च गेहि एक्को उत्तरापहको भवति, तेहि एक्को पाडलिपुत्तगो भवति ।। ५८ ।। अहवा दो दक्षिणापहावा, कंचीए एक्को कुसुमणगरओ, तेण लओस दुद्गुणो उ । पमाणं इमं होति ॥ ६५६ ॥ * दक्खिणापगा दो रूपगा कंचिपुरीए एक्को लो भवति, "नेलको" रूपकः, स नेलो दुगुणो एगो "कुसुमपुरगो" भवति, कुसुमपुरं " पाडलिपुत्तं", अनेन रूपकप्रमाणेन श्रष्टादशकादिप्रमाणं ग्रहीतव्यम् । मूलवड्ढीओ पच्छित्तवढी भवति ।। ५६ ।। रसवसाय, उणपण्णा य पंच य सयाई । एगूणगं सहस्सं, दसपण्णासा सतसहस्सं ॥ ६६०॥ चत्तारि छचलहगुरु, छेदो मूलं च होति बोधव्वं । अणवठप्पो य तहा, पावति पारंचियं ठाणं ||६६१ || अट्ठारसवीसा य, सतमहातिज्जा य पंच य सगाई । सहसं च दस सहस्सा, पण्णास तहा सतसहस्सं ||६६२|| एतेसु जहासंखेण पच्छित्तं - लहु लहुया गुरुगा छम्मासा होंति लहुगगुरुगाय । छेदो मूलं च तहा, अणवटुप्पो ये पारंची ||६६३ || कंठा १ मध्यमे अन्यतरगुरुक्रमिति बृहत्वल्पे उद्दे० ३ भाष्यगाथा ३८८६ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-२३ अहवा - अट्ठारसबीसा य, पण्णास तथा सयं सहस्सं च। पण्णासं च सहस्सा, तत्तो य भवे सयसहस्सं ॥६६४॥ चउगुरुग छच्च लहु, गुरु छेदो मूलं च होति बोद्धव्वं । अणवठ्ठप्पो य तहा, पावति पारंचियं ठाणं ॥१६॥ अष्टादशक रूपकमूल्ये चतुर्गुरवः, विशतिमूल्ये घट्लघवः, पंचाशत् मूल्ये षट्गुरवः, शतमूल्ये छेदः, सहनमूल्ये मूलं, पंचाशत् सहस्रमूल्ये अनवस्थाप्यं । शतसहस्रमूल्ये पारांचिकं । एयं तु भावकसिणं, केण विसेसो उ दव्वभावाणं । भण्णति सुणसु विसेसं, इणमो फुडपागडं एत्थं ॥६६६।। एयं मुल्लकपिणं एवं दव्वादिकसिणे वक्खाए चोदगाह - द्रव्यभाववस्त्रयोविशेष नोपलभामहे कुतः ? उच्यते - यो द्रव्यस्य वर्णः स भाव उच्यते. न च भावमन्तरेण अन्यद् द्रव्यमस्तीति, प्रतो नास्ति विशेषः ।।६२६॥ प्राचार्याह - कज्जकारणसंबंधो, दचवत्थं तु आहितं । भावतो वण्णमायुत्तं, लक्खणादी य जे गुणा ॥६६७॥ कार्य पट:, कारणं तन्तवः तयोः संबंधः, यत् तंतुभिरातानवितानत्वं, तद् द्रव्यवस्त्रमुच्यते । कृष्णादिवर्णमृदुत्वश्लक्षणादयश्च गुणा भाववस्त्रमुच्यते । इदं द्रव्यनयाभिप्रायादुच्यते द्रव्ये आधारभूते वर्णादयो गुणा भवन्तीत्यर्थः ।।६६७॥ इमं वा भाववत्थं - अहवा रागसहगतो, वत्थं धारेति दोससहितो वा । एवं तु भावकसिणं, तिविधं परिणामणिप्फण्णं ॥६६८।। रागेण वा धरेति दोसेण वा तं भावकसिणं, परिणामतो तिविधं - रागदोसेहि जहणेहि जह, मज्झिमेहि मज्झिमं, उक्कोसेहिं उक्कोसं । इहापि पच्छित्तं पूर्ववत् ॥६६८।। सुत्तणिवातप्रदर्शनार्थम् - सुत्तणिवातो कसिणे, चतुबिधे मज्झिमम्मि वत्थम्मो । जहण्णे य मोल्लकसिणे, तं सेवंतम्मि आणादी १९६६॥ चउन्विहे मज्झिमे दब खेत-कालवण्ण-भावकसिणे य जहण्णे य मुल्लकसिणे मासलहु चेव ॥६६६।। सकल-कसिणे य प्रमाणातिरित्ते य इमे दोसा - भारो भयपरियावण, मारणमधिकरण अधियकसिणम्मि | पडिलेहाणालोवे, मणसंतावो उवादाणं ॥६७०॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ष्यगाथा ६६४-६७४ ] द्वितीय उद्देशकः भारो भवति पमाण-कसिणेण । श्रद्धाण पवण्णस्स अप्पणो चेव भयं भवति, भारेण वा परिताविजति। माणकसिणे य वत्यणिमित्त मारिज्जति । हरिए अहिकरणं भवति । अधिकसिणे एते दोसा । सगलकसिणे य ते चेव । इमे अण्णे सागारियभया ण पडिसेहिज्जति तया तित्थकराणाए लोवं करेति, हरिते मणसंतावो, हस्स उष्णिक्खमंतस्स उवादाणं भवति ॥९७०।। गोमियगहणं अण्णे, सिरुभणं धुवणकम्मबंधो य । ते चेव हुंति तेणा, तण्णिस्साए अहव अण्णे ।।९७१।। __ गोमिया 'सुकिया, कसिण-वत्थ-णिमित्तं तेहिं घेप्पंति । एतेसि पि अत्थि त्ति अण्णे वि साहुणो 6भंति । धुवणकाले य महंतो प्रायासो तत्थ परितावणादि दोसा। बहुणाऽतिद्रवेण धोव्वति, अणुवएसकारिणो कम्मबंधो य । एते चेव गोम्मियादि अण्णपहेण गंतु, तेणा भवंति । तष्णिस्साए-तेहिं वा पेरिया अण्णे भवति । अधवऽणे चेव तेणया सगलकसिणस्स भवंति ॥९७१।। एत्थ दिद्रुतो - एगो राया आयरिएण उवसमितो। सो सव्वं गच्छं कंबलरयणेहिं पडिलाभिउं उवट्टितो। आयरिएहिं णिसिद्धो “ण वट्टति" ति । प्रतिणिबंधा एगं गहितं । भणाति पाउएणं हट्टमग्गेण गच्छह । तहा कयं । तेणगेण दिवा । राति प्रागंतुं तेणगेण भणियं - जति ण देह वत्थं रायदिण्णं तो भे सिरन्छेयं करेमि । आयरिएण भणियं - खंडियं । दसेह । दंसियं । रुट्ठो भणेति - सिन्विउ देह । अण्णहा भे मारेमि । तं च सिविदिणं । विधिप्रदर्शनार्थ इदमाह - कसिणे चतुन्निधम्मी, इति दोसा एवमादिणो होति । उप्पज्जते तम्हा, अकसिणगहणं ततो भणितं ॥७२॥ दव्वादिगे चउन्विहे कसिणे जतो एवमादिदोसा उप्पज्जति तम्हा ण घेत्तव्वं, अकसिणं गहियव्वं ।।९७२।। तं च इमं - भिण्णं गणणाजुत्तं, च दबतो खेत्त-कालतो उचियं । मोल्ललहुवण्णहीणं, च भावतो तं अणुण्णातं ॥९७३।। "भिण्ण" मिति अदसागं। गणाए तो कप्पा । जं च जस्स गणणापमाणं वुत्तं तं तेण जुत्तं गेहति । अहवा-जुत्तमिति स्वप्रमाणेन दव्वतो २त्यूरं अगरहिय, खेत्तकालानो जणे उचियं सव्वजणभोग्गं । मुल्लो अप्पमुल्लं । वणहीणं भावतो एरिसं अणुण्णायं ॥९७३॥ कारणे कसिणं पि गेण्हेज्जा - वितियपदे जावोग्गहो, गणचिंतगउचियदेस गेलण्णे । तब्भाविए य तत्तो, पत्तेयं चउसु वि पदेसु ॥९७४|| १ शुल्कपालाः। २ प्रदशाकम् । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र २४-२७ "बितियपदे" त्ति अववादपदेण, “जावुग्गहो" ति चिरा चरियाए णिग्गतो प्रायरिपो जा ॥ णियत्त ति ता दसानो ण छिज्जति । गणचिंतगो वा धरेति, प्रोमादिमु 'केवडियहेउ घनादि घेपति । दव्वतो अववातो गतो । इदाणिं खेत्तो "उचितदेसे' तस्मिं देसे उचित कमिणं, सब्बजणो तालिम परि जति । कालो अववायो “गेलणे" जाव गिलाणो ताव कसिणं घरेति तं पाउणिज्जत २ण हसति । भावतो अववायो 'तब्भाविए य तत्तो" रायादि दिक्खियो, प्रोढण-परिहाणेमु कसिणवत्थभाविप्रो ण तस्स खंडिज्जति । दन्वादिएसु चउसु वि पदेसु पत्तेयं अववाग्रो भणियो ।।६७४॥ जे भिक्खू अभिण्णाई वत्थाई धरेति, धरतं वा सातिजति ।।सू०||२४|| जे भिक्खू लाउयपायं वा दारुयपायं वा मट्टियापायं वा सयमेव परिघट्टइ.वा संठवेइ वा जमावेइ वा परिघट्टेत वा संठवेंतं वा जमावेतं वा सातिज्जति ।।सू०१॥२५॥ भाष्यं यथा प्रथमोद्देशके तथाऽत्रापि । तत्र परकरणं प्रतिषिद्धं । इह तु स्वयं करणं प्रतिषिध्यते । "लाउय-दारुय-पादे, मट्टिय-पादे य तिविधमेकेक्के । बहु-अप्प-अपरिकम्मे, एक्केक्कं तं भवे कमसो ॥१७॥ ___"परिकम्म० १ (६८६) अद्धं० २ (६८७) जं पुत्व ० ३ (६८८) तिण्णि वि० ४ (६८६) उक्कोस. ५ (६६०) एवं चेव० ६ (६६१) भत्त० ७ (६६२) वटुं० ८ (६६३) परिघट्ट ६ (६६४) पढम० १० (६६५) एता गाहा दस । घट्टितसंठविताणं, पुब्बिं जमिताण होतु गहणं तु । असती पुवकताणं, कप्पति ताहे सयं करणं ।।६७६।। बीतिय० ( ६९७ ) पच्छा० ( ६६८ ) एताप्रो चेव गाहारो। जे भिक्खू दंडगं वा लट्टियं वा अवलेहणं वा वेणुसूइयं वा सयमेव परिघट्टे वा, संठवेइ वा, जमावेइ वा, परिघट्टतं वा, संठवेंतं वा, जमातं वा सातिज्जति ।।सू०॥२६।। इदमपि प्रथमोद्दे शकवद् वक्तव्यम् । डंडग विडंडए वा, लट्ठि विलट्ठी य तिविध तिविथा तु । वेलुमय वेत्त-दारुग, बहु-अप्प-अहाकडे चेव ।।६७७।। १ केतियहेतुना । २ न सरति । ३ एतदनन्तरकं सूत्रं नास्ति चूणों । ४ "लाउय.'' इत्यारभ्य "एताप चेव गाहापो" इत्यन्तं नास्ति चूर्णौ । ५ प्रथमोद्देशके एकोनचत्वारिंशत् सूत्रे । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यमाथा ६७५ - ६८१] तिनि उ हत्थे ० ( प्र. उ. ७०० ) ( ७०३ ) ( ७०६ ) ७०६ ) ७१२ ) दुपय ० परिघ० उडुबद्धे ० श्रद्धंगुल ० श्रद्धं गु० पढम० बितिय ० बारस० जा पुव्व ० ७ १५ ) वितिपद० ७१८ ) एक्केक्का ० ७२१ ) पढम० ( ७२४ ) पच्छा० जे भिक्खू यिग - गवेसियं पडिग्गहगं धरेह; धरेंतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥ २७ ॥ नियकः स्वजनः, स साधुवचनाद गवेषयति तेनान्विष्टं याचितं गवेसियं गृण्हातीत्यर्थः एस घट्टिय० वेणुमयी ० जा पुव्व० बितिय ० सुत्यो । ( ( ( ( 37 " " " " 21 او 11 अना नियुक्तिविस्तरः । द्वितीय उद्देशकः इमेहि कारणेहिं - (७०१ ) (७०४) (७०७) (७१०) (७१३) (७१६) ( ७१६) ( ७२२) (७२५) संजत णिए गिहिणिए, उभयणिए चेव होइ बोधव्वे । एते तिणि विकप्पा, णियगम्मी होंति णायव्वा ॥ ६७८ ॥ जे पुव्व ० घट्टिय० पच्छा० एक्क्का पढम० पच्छा० श्रद्धगु० घट्टिय० सतरो भयमायतीतकारोवकारिता चेत्र । इति णीयपरे वा वी णीएण गवेसर कोयी ||६७६ ॥ -- जो गिहत्थो पादं गवेसाविजति सो निजत्वेनान्विष्यते । साघोर्यस्य तत् पात्रमस्ति गृहिणः ( वा ) संजत णिए णो गिहिणीए, एवं ठाणक्रमेण चउभंगो कायव्वो । चतुर्थः शून्यः । ततियभंगे जइ वि संजयस्स णि तहावि गिहिणा मग्गावेति ॥ ७८ ॥ एतो एगतरेणं, णितिएणं जो गवेसणं कारे । भिक्खू परिग्गहम्मी, सो पावति आणमादीणि ॥ ६८० ॥ तिन्हं भंगाणं एगतरेणावि जो पडिम्माहं गवेसइ सो पावति प्राणमादीनि ॥ ६८० ॥ दामप्रियं तथाप्येवं ददाति (७०२) (७०५) (७०८) स्वजनत्वेनासन्नतरो भजस्वितरो वा भाति वा प्रायति सयस्स करेति, उपकारेण प्रत्युपकारेण वा प्रतिबद्ध इति कारणोपप्रदर्शने, परशब्द एष्यत्सूत्रस्पर्शने प्राद्य त्रयभंगप्रदर्शनार्थः ॥ ६७॥ (७११) (७१४) (७१७) (७२० ) (७२३) εε लजाए गौरवेण व, देइ णं समूहपेल्लितो वा वि । मित्ते हि दावितो वा, णिस्सो लुद्धो विमं कुज्जा ॥ ६८१ ॥ बहुजण मग्गितो लज्जाए ददाति । जेण मग्गितो तस्स गोरवेण देति । बहुजणमज्भे मग्गितो बहुजणेण वृत्तो देति । मित्ताण पुरो मग्गिश्रो मित्तेहिं भणियो देति । " णिस्सो" दरिद्रः, तम्मि वा भायणे बुद्धो इमं कुज्जा ॥८१॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र २७-३१ पच्छाकम्मपवहणे, अचि यत्ता संखडे य दोसे य । एगतरमुभयतो वा, कुज्जा पत्थारतो वा वि ॥९८२॥ तं दाउं अप्पणा विसूरंतो अण्णस्स भायणस्स मुहकरणं कोरणाति पच्छाकम्मं करेति । अण्णं वा अपरिभोगं पवाहेज्जा, संजए गिहत्थे वा अचियत्तं करेज्ज, अचियत्तेण जहासंभवं वित्तिवोच्छेदं करेज्ज, साहुणा गिहत्थेण वा सद्धि दाविउ त्ति तो असंखडं करेज, साहुस्स गिहत्थस्स वा उभो वा पउसेज्ज, पत्थारो वा सब्बसाहूणं पदुसेज्ज । पत्था रो वा डहण - घाय · मारणादि सयं करेज कारवेज्ज वा ।।९८॥ कारणपो पुण गिहिणा मग्गावेउ कप्पेज्ज - संतासंतसतीए, अथिर अपज्जत्तलब्भमाणे वा । पडिसेधऽणेसणिज्जे, असिवादी संततो असती ॥९८३॥ "संत" विज्जमानं, "असंत" अविज्जमानं । संतेसु चेव विसूरति, असंतेसु वा विसूरेइ । तत्थ संतासंती इमा अथिरं हुंडं अपज्जत्तं वा अस्थि गिहकुलेसु वा ण लभंति, रायादिणा वा पडिसेधिए ण लभंति, अणेसणिज्जा वा लभंति, असिवादीहि वा, संततो असती ॥६८३॥ असिवादी इमं - असिवे प्रोमोयरिए, रायगुडे भए व गेलण्णे । असती दुल्लहपडिसेवतो य गहणं भवे पादो ॥९८४॥ भाणभूमीए अंतरा वा असिवं, एवं प्रोमरायदुट्ठभया वि, गिलाणो ण सक्केति पादभूमि गंतु, दुल्लभपत्ते वा देसे, राइणा वा पडिसिद्धा, परिसा संतासंतीए गिहिगविट्ठस्स गहणं भवे ||९८४॥ ___ असंतासंती इमा - भिण्णे व ज्झामिते वा, पडिणीए साणतणमादीसु । एएहिं कारणेहिं, णायव्याऽसंततो असती ॥१८॥ भिण्णं, "झामियं" दड्ढ, पडिणीयसामतेणमादीहि हडं, प्रणं व णत्थि, एवं असतो असंतासंती गया ॥६८५॥ दुविहा ऽसतीए इमं विधि कुज्जा - संतासंतसतीए, गवेसणं पुन्चमप्पणा कुज्जा । तो पच्छा जतणाए, पीएण गवेसणं कारे ॥९८६।। दुविहा ऽसतीए पुज्वमप्पणा गवसेणं कुज्जा, सयमलब्भमाणे पच्छा जयगाए णितेग गवेसा - वते ॥९८६|| अहवा गविढे अलद्धे इमा विही - पुव्योवट्ठमलद्ध, णीयमपरं वा वि पट्ठवे तूणं । पच्छा गंतुं जायति, समणुव्वूहंति य गिही वि ॥९८७|| Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ६८२-६६१] द्वितीय उद्देशकः १०१ पुव्वं संजएण गविटुं ण लद्धं ताहे संजतो नियं परं वा पुव्वं तत्थ पटुवेति, गच्छ तुम तो पच्छा अम्हे गमिस्सामो, तुज्झयपुरो तं मग्गिस्सामो, तुम उवव्हेज्जासि - ''जतीणं पत्तदाणेण महतो पुण्णखंधो बज्झति,' उवहिते जति ण लब्भति पच्छा भणेज्जासु वि “देहि" त्ति एवं पदोसादयो दोसा परिहारिया भवंति ॥९८७॥ जे भिक्खू पर-गवेसियं पडिग्गहगं धरेइ, धरतं वा सातिजति ।।सू०॥२८॥ "परः" अस्वजन: भंगचतुष्कादि शेषं पूर्वसूत्रवत् द्रष्टव्यम् । संजयपरे गिहिपरे उभयपरे, चेव होति बोद्धब्वे । एते तिन्नि विकप्पा, नायब्वा होंति उ परंमि ॥६८८॥ (९८० - ६८१ - १८७ - १६४ - १६५ - १६६ - १६७ - १६८ - १६६ - १७० तायो चेव गाहापो) जे भिक्खू वर-गवेसियं पडिग्गहगं घरेड; धरेतं वा सातिज्जति ।।सू०॥२६॥ "वर" शब्दप्रतिपादनार्थमाह - जो जत्थ अचित्तो खलु, पमाणधुरिसो पधाणपुरिसो वा। . तम्मी वरसद्दो खलु, सो गामियरहितादी तु ॥९८६॥ जो पुरिसो जत्थ गामणगरादिसु अय॑ते, अचितो वा, खलुशब्दः अवधारणाथ, गामणगरादि-कारणेसु पमाणीकतो, तेसु वा गामादिसु धण कुलादिणा पहाणो, एरिसे पुरिसे वरशब्दप्रयोगः । सो य इमो हवेज "गामिए" ति गाममहत्तरः "रट्टिए" त्ति - राष्ट्रमहत्तरः । आदिसद्दातो भोइयपुरिसो वा शेषं पूर्ववत् ॥८६॥ एत्तो० (६८०) पच्छा० (९८२) संता० (९८३) असिवादि० (६८४) भिन्नेव० ९८५) ताओ चेव गाहारो। संतासंतसतीए, गवेसणं पुव्वमप्पणो कुज्जा । एत्तो पच्छा जयणाए, वरं गविलु पि कारज्जा ॥१६॥ जे भिक्खू वल-गवेसियं पडिग्गहगं धरेइ; धरतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३०॥ "बलं" सारीरं जनपदादि वा - जो जस्सुवरिं तु पभू, बलियतरो वा वि जस्स जो उवरिं । एसो बलवं भणितो, सो गहवति सामि तेणादि ॥६६१॥ "जो" ति यः पुरुषः यस्य पुरुषस्योपरि प्रभुत्वं करोति सो बलवं भण्णति । अहवा - अप्रभू वि जो बलवं सो वि बलवं भण्णति । सो पूण गृहपतिः गामसामिगो वा तेणगादि वा। शेषं पूर्ववत् ॥६६१॥ एत्तो० (६८०) पच्छा ० (९८२) संता० (६८३) असिवे० (६८४) भिन्नेव० (६८५)। संतासंतमतीए, गवेमणं पुन्चमप्पणो कुज्जा । तो पच्छा उ बलवता, जयणाए गवेसणं कारे ॥६६२।। जे जिक्खू ल व गवेसियं पडिग्गहगं धरेइ, धरतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३१॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ३१-३२ दाणफलं लविऊणं पडिग्गहं मग्गति - दाणफलं लवितूणं, लावावेतु गिहिअण्णतित्थीहिं । जो पादं उपाए, लव-गविटुं तु तं होति ।।३६३।। दाणफलं अप्पणा कहेति । गिहिअण्णतिथिएहि वा कहावेत्ता जो पादं उप्पादेति एवं लव-गविटुं भण्णति || तस्सिमे विहाणा - लोइय-लोउत्तरियं, दाणफलं तु दुविधं समासेणं । लोइयणेगविधं पुण, लोउत्तरियं इमं तत्थ ।।६६४॥ समासतो दुविधं दाणफलं - लोइयं लोउत्तरियं च । लोइयं अणे गविहं - गोदानं भूमीदानं भक्तप्रदानादि। लोउत्तरियं इमं ।।१४॥ अण्णे पाणे भेसज्ज-पत्त-वत्थे य सेज्ज संथारे । भोजविधे पाणरांगे, भायण भूमा गिहा सयणा ॥१६॥ अण्णपाणादियाण सत्तहं पच्छीण जहासंखं फला - अणदाणे भोजविही भवति, पानकदाने द्राक्षापानकविधी, भेसजदाणे आरोग्यविधी, पत्तदाणेण भायणविधी, वत्थदाणेण विभूसणविधी, सेजादाणेग विविहा गिहा, संथारगदाणेणे भोगंगादि सेजाविहाणा भवंति ॥६६५।। संखेवग्रो वा फलं इमं -- अधवा वि समासेणं, साधणं पीति - कारो पुरिसो । इह य परत्थ य पावति, पीतीअो पीवरतरीत्रो ह६॥ अहवासहो विकप्पवायगो, “समामो” संखेबो, साधूणं भत्तपाणेहि पीतीमुप्पाएंतो इहलोए परलोए य पोवरातो पीतीग्रो पावति । "पीवर' प्रधान, 'तर' शब्दः प्राधिक्यतरवाचकः, सर्वजनाधिक्यतराप्रीती: प्राप्नोतीत्यर्थः ।।६६६।। शेपं पूर्ववत् । एनो एगतरेणं० (९८०) पच्छाकम्मेय० (६८२) संतासंत० (९८३) असि० (६८४) भिन्ने० (९८५) तापो व माहाम्रो । संतासंतमतीए, गवसणं पुवमप्णो कुज्जा । एतो पच्छा जयणाए, लवं-गविट्ठ पि कारज्जा ।।६६७|| णवरं - एसेव गमो णिनमा, दुविध उब हिम्मि होति णायव्यो । पुन्चे अबरे य पदे, मेजाहारे वि य तहेव ।।६६॥ . दुविहे उबकरणे - प्रोहिए उवगहिए य । उस्सग्गव बाएहि एमेव गमो। सेज प्रा हारेम एसेव विही भाणियवो ||६|| Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ६६२-१००२) द्वितीय उद्देशकः १०३ जे भिक्खू णितियं अग्गपिंडं भुंजइ; भुंजंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३२॥ "णितिय" धुवं सासयमित्यर्थः, "अग्रं”. घरं प्रधानं । अहवा - जं पढमं दिज्जति सो पुण भत्तट्ठो वा भिक्खामेत्तं वा होज्जा, एस सुत्तत्थो । अधुना नियुक्तिविस्तरः - णितिए उ अग्गपिंडे, णिमंतणोवीलणा य परिमाणे । साभाविए य एत्तो, तिण्णि य कप्पंति तु कमेणं ॥६६६।।. णितियऽग्गा सुत्ते वक्खाया । गिहत्यो णिमंतेति, साहू उपीलणं करेति, साहू चेव परिमाणं करेति, साभावियं गिहत्थो देति । तिणि पाइल्ला ण कप्पंति, साभावियं कप्पति ॥६६६| णिमंतणोवीलणपरिमाणाणं इमानो तिण्णि वक्खाणगाहाम्रो - भगवं ! अणुग्गहंता, करेहि मज्झं ति भणति आम ति । किं दाहिसि जेणट्ठो, गतस्म तं दाहि ति ण वत्ति ॥१०००। दाहामि त्ति य भणिते, तं केवतियं व केचिरं वा वि । दाहिसि तुमं ण दाहिसि, दिण्णादिण्णे य किं तेण ॥१००१।। जावतिएणट्ठो भे, जच्चिय कालं च रोयए तुब्भं । तं तावतियं तच्चिर, दाहामि अहं अपरिहीणं ।।१००२॥ गिही णिमंतेति "भगवं ! अणुग्गहं करेह, मज्झ घरे भत्तं गेण्हह" । साहू भणति "करेमिणुग्गहं, कि दाहिसि ?" गिही भणति 'जेण भे अट्ठो”। साह उवीलणं करेमाणो भणति - घरं गयस्स तं दाहिसि ण वा । गिहिणा 'दाहामि" ति य भणिते साहू परिमाणं कारवेंतो भणति "तं परिमाणो केवतियं केवचिरं वा कालं दाहिसि ? प्रथमपादोत्तरं पाह" दाहिसि तुमं, ण दाहिसि?" दत्तमपि तत् अदत्तवद् द्रष्टव्यम्, स्वल्पत्वात् । गृहस्थ: द्वितीयपादोत्तरमाह "जावतिएण भत्तेण अट्ठो भे जावतियं वा कालं तुब्भट्ठो।" गिही पुणो भणति - कि बहुणा भणिएणं जं तुभं रोयते दवं जावतियं जत्तियं वा कालं तमहमपरिहीणं अपरिसंतो दाहामि त्ति ॥१००२।। णिमंतणोप्पीलणपरिमाणेसु वि मासलहुँ पच्छित्तं । चोदग आह - साभावितं च उचियं, चादगपुच्छाण पेच्छमो कोयि । दोसो चतुबिधम्मी, णितियम्मि अग्गपिंडम्मि ॥१००३।। साभावियं जं अप्पणो अट्ठा रद्धं, उचितं दिणे दिणे जनियं रज्झतं । चोदको भणति - एरिसे साभाविए णिमंतणोपीलणपरिमाणे य चउब्विहे वि अग्गपिंडे दोसं ण पेच्छामो ॥१००३।। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र ३२-३७ याचार्याह - साभावि णितियकप्पति, अणिमंतणोवीलअपरिमाणे य । जं वा वि सामुदाणी, तं भिक्खं दिज्ज साधूणं ॥१००४॥ साभावियं अत्तट्ठा रद्धं, तं नितितं दिणे दिणे अनिमंतियस्स अणोपीलियं अपरिमाणकडं च । जं वा वि सामुदाणीसामान्यं गृहपाकपक्वं तं णिमंतणोपीलणादीहि भिक्खामेत्तमवि अकप्पं, अण्णहा साहूर्ण कप्पं ॥१००४॥ साभाविय उचिए वि णिमंतणाकप्पंतिएहि इमे दोसा - णिप्फण्णो वि सअट्ठा, उग्गमदोसा उ ठवितगादिया । उप्पज्जते जम्हा, तम्हा सो वज्जणिज्जो उ ।।१००५॥ अप्पट्टा वि णिप्फण्णे ठवियगादि उग्गमादि दोसा भवंति। निकाचितोऽहमिति अवश्यं दातव्यं, कुंडगादिसु स्थापयति । तस्मान्निमंत्रणादि पिण्डो वयः ॥१००५।। ओसरकण अहिसक्कण, अज्झोयरए तहेव णेक्कंती।। अण्णत्थ भोयणम्मि य, कीते पामिच्चकम्मे य ॥१००६॥ अवस्सं दायव्वे अतिप्पए साहुणो प्रागच्छति, रंधियपुवस्स उसक्कणं करेज्ज, उस्सूरे प्रागच्छंति त्ति अहिसक्कणं करेज्ज । अज्झोयरयं वा करेज्ज । णिक्काउ त्ति काउं जति ते अण्णत्य णिमंतिया तहा वि तदद्वाए किणेज्ज वा पामिच्चेज्ज वा प्राहाकम्म वा करेज्ज ॥१००६॥ कारणे पुण णिकायणापिंडं गेण्हेज्ज । इमे कारणा - असिवे प्रोमोयरिए, रायदुढे भये व गेलण्णे । श्रद्धाण रोहए वा, जयणा गहणं तु गीतत्थे ॥१००७।। असिवग्गहितो ण लब्भति, णिमंतणाइएसु वि गेण्हेज्ज । अधवा - प्रसिवे कारणठितो शिवग्गहिय कुलाणि परिहरंतो असिवायो असंथरंतो अगहियकुलेसु अपावंतो, निमंतणा वीलणादिसु वि गेण्हेज्ज। ओमे वि अप्फचंतो। एवं रायदु भएसु अच्छतो गच्छंतो • वा गिलाणपाउग्गं वा णिमंतणादिएमु गेण्हेज्जा। अद्धाणे रोहए वा अप्फच्चंतो गीतत्थो पणगपरिहाणीए जाहे मासलहुँ पत्ते ताहे णीयग्गपिंडं गेण्हति ॥१००७।।। जे भिक्खू णितियं पिंडं मुंजइ; भुंजतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३३॥ जे भिक्खू णितियं अवड्ढ्भागं भुंजइ; भुंजतं वा सातिज्जति ।।२०।।३४|| जे भिक्खू णितियं भागं भुंजइ, भुजंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३॥ जे भिक्खू णितियं अवड्ढभागं भुंजइ, भुजंतं वा सातिज्जति ॥०॥३६॥ "पिंडो" भत्तट्ठो, “अवड्ढो" तस्साद्धं, "भागो" त्रिभागः, त्रिभागद्धं "प्रवड्ढ" भागो। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १००३-१०११] द्वितीय उद्देशक: १०५ एसेव गमो णियमा, णिइते पिंडम्मि होतऽवड्ढे य। भागे य तस्सुवड्ढे, पुव्वे अवरम्मि य पदम्मि ॥१००८॥ पिंडो खलु भत्तट्ठो, अवड्वपिंडो उ तस्स जं अद्धं । भागो तिभागमादी, तस्सद्धमुबड्ढभागो यः ॥१००६॥ गतार्था एक ॥१००६॥ जे भिक्खू णितियं वासं वसति; वसंतं वा सातिज्जति ॥०॥३७॥ उडुबद्ध वासासु अतिरिक्तं वसतः णितियवासो भवति । इदानि नियुक्तिमाह - दव्वे खेत्ते काले, भावे णितियं चउब्विहं होति । एतेसिं णाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुल्चीए ॥१०१०॥ दव्व-खेत्त-काल-मावेसु णितियं चउव्विहं । एतेसि "नानात्वं" विशेष, तमानुपूर्व्या वक्ष्ये ॥१०१०॥ संजोगचतुष्कभंगप्रदर्शनार्थमाह - दव्वेण य भावेण य, णितियाणितिए चतुक्कभयणा उ । एमेव कालभावे, दुयस्स व दुए समोतारो ॥१०११॥ दव्वतो णितिए, खेत्ततो णितिए, एवं चउभंगो कायन्वो । तत्य पढमभंगभावणा - संथारगाइ दव्वाणि कालदुगातीताणि तम्मि चेव खेत्ते परिभुजतो णितितो भवति, पढमभंगो। संथारगाति दव्वाणि कालदुगातीताणि अण्णम्मि खेते णे परि जति, बितियभंगो। तम्मि चेव खेते प्रणे संथारगादि गेण्हति, ततियभंगो। नितियं पडुच्च चउत्थभंगो सुष्णो । एवं कालभावेसु वि चउभंगो कायव्वो। कालो वि णियए भावो वि णियए । ङ्क । तत्थ पढमभंगो कालदुगातीतं वसति सड्ढादिसु भावपडिबद्धो पढमभंगो। कालदुगातीतं वसति ण सड्ढादिसु रागपडिबद्धो बितियभंगो। कालदुगणिग्गतस्स वि सड्ढातिसु भावपडिबद्धो, ततियभंगो । चतुर्थः शून्यः । “दुयस्स व दुवे समोयारो" त्ति-कालभाव - दुगस्स दव्व-खेत्तदुए समोतारः ॥१०११।। कालो दव्वऽवतरती, जम्हा दव्वस्स सो तु पज्जाओ । . भावो खेत्ते जम्हा, ओवासादीसु य ममत्तं ॥१०१२॥ __ कालो दव्वे समोतरति, जम्हा सो दव्वपज्जातो। एत्थ दव्वकालेसु चउभंगो भावयव्यो। भावो खेत्ते समोतरति, जम्हा प्रोवासाइसु भावपडिबंधो भवति । एत्थ वि खेत्तभावेसु चउभंगो भावेयब्वो। खेत्तकालचउभंगे इमा भावणा -- तम्मि य खेते मासातीतं वसति; पढमभंगो ; Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे । सूत्र-३७ चरिमं उडुबद्धितं जत्थ मासकप्पं ठिया तत्थेव वासं ठियाणं बितियभंगो। . प्राप्तेरिति । अणं भागं पडिवसभं वा संकमंतस्स सच्चेव भिक्खायरिया ततियभंगो । चतुर्थः शून्यः ॥१०१२॥ जो दव्वणितितो सो इमे पडुच्च - परिसाडिमपरिसाडी, संथाराहारदुविहमुवधिम्मि । डगलग - सरक्ख - मल्लग, मत्तगमादीसु दव्वम्मि ॥१०१३।। संथारो दुविहो – परिसाडी अपरिसाडी य, आहारतेसु चेव कुलेसु गेष्हति, दुत्रिहो य उवही - मोहितो उवग्गहितो य, पासवण - खेल- सण्णाणं तिण्णि मत्तया ।।१०१३॥ कालदुगातीतादीणिं, संथारादीणि सेवमाणा उ । एसो तु दव्वणितिओ, पुण्णेवंतो वहिं णेंतो ॥१०१४॥ एते संथारगादिदव्वे कालदुगातीते अपरिहरतो णितितो भवति । सबाहिरियंसि वा खेत्ते अंतो मासकप्पे पुणे ते चेव संथारगादि बहि णितो दव्वणितितो भण्णति ॥१०१४॥ इदाणिं खेत्तणितितो - ओवासे संथारे, विहार-उच्चार-वसधि-कुल-गामे । णगरादि देसरज्जे, वसमाणो खित्ततो णितिए ॥१०१॥ थारगो वासे । अहवा - संथारो पृथक् परिगृह्यते, विहारो सज्झायभूमी, उच्चारो सन्नाभूमि, ( वसति ) कृलगामादी ण मुच्चति, पुनः पुनः तेष्वेव विहरति । एस खते णितियो ।.१०१५।। इदाणिं कालणितियो - चाउम्मासातीतं, वासाणुदुबद्ध मासनीतं वा । वुड्ढावासातीतं, वसमाणे कालतोऽणितिते ॥१०१६।। उदुवासकालातीतं वसंतो कालगितिग्रो, वुड्डणिमित्तं बहुकालेण वि णितिम्रो ण भवति वुड्ढकार्यपरिसमाप्ती उपरिष्टाद्वसन् नितिग्रो भवति ।।१०१६॥ इदाणि भावणिनिश्रो - अोवासे संथारे, भत्ते पाणे परिग्गहे सड्ढे । सेहेसु संथुएसु य, पडिबद्ध भावतो णितिए ॥१०१७।। जे सेहा श तावत् प्रव्रजति पूर्वाप रे ग संवेग संथुनाग्रो वासादिमु सव्येसु रागं करेंतो भावपडिबद्धो भवति ।।१०१७॥ १ तत्थे Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १०१२-१०२३ ] द्वितीय उद्देशकः १०७ वसधी ण एरिसा खलु, होहिति अण्णत्थ णेव संथारे । ण य भत्त मणुनविधि ( विही ) सड्ढा सेहादि वऽण्णत्थ ॥१०१८|| अण्णत्थ एरिसा वसधी णत्थि त्ति रागं करेति । एवं संथारगभत्तपाणसड्ढसेहादिसु वि ॥१०१८॥ इदाणि दव्व -खेत्त-काल - भावेसु पच्छित्तं भण्णति - उक्कोसोवधिफलए, देसे रज्जे य वुड्ढवासे य । लहुगा गुरुगा भावे, सेसे पणगं च लहुगो तु ॥१०१६॥ दव्वं पडुच्च उक्कोसोवहीए फलए य चउलहुअा। खेतं पडुच्च देसरज्जेसु च उलहुप्रा । कालं पडुच्च वासातीते वुड्ढवासातीते य चउलहुा । रागेण भावे सव्वत्थ चउगुरुगा । संथारगवज्जेसु तणेसु डगलधार-मल्लएसु य पणगं । सेसेसु दव्वादिएमु प्रायसो मासलहुयं ॥१०१६॥ सुत्तणिवातो णितिए, चतुविधे मासियं जहिं लहुगं । उच्चारितसरिसाई, सेसाई विगोवणट्ठाए ॥१०२०॥ चउविहे दव्वादिणियते जत्थ मासलहु तत्थ सुत्तणिवातो। सेसा पच्छित्ता शिष्यस्य विकोवणट्टा मणिता ।।१०२०॥ कारणो पुण दव्वादि चउव्विहं पि णितियं वसेज । ते इमे कारणा - असिवे प्रोमोयरिए, रायदुढे भए व आगाहे.। गेलण्ण उत्तमढे, चरित्तसज्झाइए असती ॥१०२१॥ बाहिं प्रसिवं वट्टति अतो कालदुगातीतं पि एगखेत्ते वसेज्ज, बहिं प्रोमरायदुटुबोहियभए वा प्रागाढे वसेज्ज । उत्तिमट्टपडियरगा वा वसेज्ज, बहिया चरगादिसु चरित्तदोसा अतो वसेज्ज, बहिं वा सज्झातो ण सुज्झति, अतो सज्झायणिमित्तं वसेज्ज । असति वा बहिं मासकप्पपायोग्गाणं खित्ताणं तत्थेव वसे ॥१०२१॥ चोदगाह - एगखित्ते कालदुगातीतं वसमाणा कहं सुद्धचरणा ? प्राचार्याह - एगक्खेत्तणिवासी, कालातिक्तचारिणो जति वि । तह वि य विसुद्धचरणा, विसुद्धमालंबणं जेणं ॥१०२२॥ एगखेत्ते कालदुगातिकतं पि वसमाणा तहावि गिरइयारा जतो विसुद्धालंबणावलंबी, ज्ञानचरणाद्यं वाऽलंबनम् ॥१०२२॥ किंच - आणाए ऽमुक्कधुरा, गुणवड़ढी जेण णिज्जरा तेणं । मुक्कधुरस्स मुणिणो, ण सोधी संविज्जति चरित्ते ॥१०२३॥ आण त्ति - तित्थक रवयणं, जहा तित्थकरवयणातो णितितं ण वसति, तहा तित्थकरवयणामो चेव कारणा णियतं वसति । स एवं आणाए संजमे अमुक्कधुरो चेव । अमुक्कधुरस्स य णियमा गाणादिगुणपरिवुड्ढी, Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-३० जेण य तस्स गुणपग्वुिड्ढी तेण णिज्जरा विउला भवति । जो पुण तप्पडिपक्षे वट्टति तस्स सोही चरित्तस्स ण विज्जति ॥१०२३॥ इदाणिं गतोऽयर्थः स्फुटतरः क्रियते - गुणपरिवुढिणिमित्तं, कालातीते ण होंति दोसा तु । जत्थ तु बहिता हाणी, हविज तहियं न विहरेजा ॥१०२४॥ कालदुगातिक्रान्तं ज्ञानादिगुणपरि वृद्धिणिमित्तं वसतो न दोषः । जत्थ पुण बहि विहरतो णाणादीणं हाणी हवेज्ज ण तत्थ विहरेज्ज इत्यर्थः ।। १०२४।। जे भिक्खू पुरे संथवं पच्छा संथ वा करेइ; करेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३८॥ ... "संथवो" थुती, प्रदत्ते दाणे पुव्वसंथवो, दिणे पच्छासंथवो । जो तं करेति सातिज्जति वा तस्स मासलहुँ। ग्रहवा - सयणे पुज्वपच्छसंथवं करेइ । अत्र नियुक्तिमाह - दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य संथवो मुणेयव्यो । अात-पर-तदुभए वा, एक्केके सो पुणो दुविधो ॥१०२॥ साहू आत्मसंस्तवं करोति, साहू परस्य संस्तवं करोति, साहू उभयस्यापि संस्तवं करोति । अहवा - प्रात्मना संस्तवं करोती ति प्रात्मसंस्तवः । साहू गिहत्थं युगति, एष मात्मस्तवः । गिहत्थो साधं थुणति एष परस्तवः । दो वि परोप्परं एष उभयस्तवः । एतेसि एक्केको पुण दुविहो - संतासंतो य ।।१०२५। दव्वे खेत्ते काले संथवो इमो - दव्वे पुट्ठमपुट्ठो, परिहीणपणा तु पव्वयंती उ । खेत्ते कतरा खेत्ता, कम्मि वए ते दिक्खितो काले ॥१०२६।। दलसंथवो परेण पुच्छितो "तुमं सो ईसरो?" प्रामं ति भणाति । सो पुण तहा संतो वा असंतो वा पुच्छितो भगाति “अमुकणामधेयं तुम इस्सरं ण याणसि तो एवं भणसि' परिहीणधणा "पव्वयंति" ति । परिहीणधणो दरिद्रत्यर्थः । एवं परेण णिदितो 'समुत्तइतो परं णिभं काउं अप्पाणं पि धुणाति यथा भवानश्वर्य युक्तः तथा प्रहमप्यासी। खेत्तसंथवो-'कतगतो तुम खेत्ततो पव्वनितो" एवं पुट्ठो भणति तुज्झ चेव सहदेसी, कुरुक्षेत्राद्वा। इदाणिं कालतो - कम्मि २वदे दिक्खितो। भणाति तुम चेव सरिसवतोऽहं । अहवा - प्रथम वयंसि णिविट्ठो णिविम्समाणो वा ।।१०२६।। १ गवितो (दे०)। २ वयसि । ३ उद्वाहिते सति प्रवजितः । ४ स्थापितविवाहदिने सति प्रवर्जितः । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा १०२४-१०३२) द्वितीय उद्देशक: भावे संथवो दुविधो - सयणे वयणे य, सपणे नाव इमो।। मयणे तस्म सरिसओ, अामं तुसिणीए पुच्छितो को वा। आउट्टणा णिमित्तं, वयणे आउट्टिो वा वि ॥१०२७।। केणइ पच्छियो "जो सो इंददत्तभाया पवइतो सो तुमं सरिसो दीससि ।" सो भणाति - प्राम, नृमिगीग्रो वा अच्छति । भणति वा - को एरिसागि पुन्छति । इदाणि वयणसंथवो - प्रदत्ते दाणे पुवं करेति, प्राउट्टणाणिमित्तं वरं मे 'ग्राउट्टिता इट्टदाणं देहिति । दागेण वा दनेण पाराहितो पच्छा वयण यवं करेति ॥१०२७॥ एस संखेवो भणितो । इदाणि वित्थरो, संखेवभणियस्स वा इमं वक्खाणं । तत्थ दव्वसंथवो इमो च उस टिप्पगारो धण्णाई रतणथावर, दुपद चतुप्पद तहेव कुवियं च । चउवीसं चउवीस, तिय दुग दसहा अणेगविधं ॥१०२८।। धण दियाणं कुविय - पजवसाणाणं छहं पच्छद्धेण जहासंखं संखा भणिता ।।१०२८॥ धण्णाइ चउव्वीसं, जब-गोहुम-सालि-वीहि-सट्टिया। कोद्दव-अणया-कंगू, रालग-तिल-मुग्ग-मासा य ।।१०२६॥ बृच्छिरा कंगू, अल्पतरशिरा रालकः ॥१०२६॥ अतसि हिरिमंथ निपुड, णि फाव अलसिंदरा य मासा य । इक्खू मसूर तुवरी, कुलत्थ तह धाणग-कला य ॥१०३०॥ 'प्रतसि' मालवे पसिद्धा, "हिरिमया" वट्टचणगा, "त्रिपुडा" लंगवलगा, "णिप्फाव" चावल्ला प्रलिसिदा" चवलगारा य, “मामा" पंडरचवलगा, “धाणगा" कुथुभरी, "कला' वट्टचणगा ॥१०३०॥ रयणाइ चतुचीस, सुव्यण्ण-तवु-तंत्र-रयत-लोहाई। सीमग-हिरण्ण-पामाण-वेरमणि-मोत्तिय-पवाले ॥१०३१॥ "रयत" रुप्पं, "हिरण" रूपका, "पापाणः' स्फटिकादयः, "मणी" सूरचन्द्रकान्तादयः ॥१०३१॥ संख-तिणिमागुलु चंदणाई इत्यामिलाई कट्ठाई । तह दंन-चम्म-वाला, गंधा दव्बोसहाई च ॥१०३२॥ "निणिम" स्वावकट्टा, "अगलु'' अगरु, यानि न म्लायन्ते शीघ्रं तानि अम्लातानि वस्त्राणि, कट्टा" याकादिस्तंभा, "दन्ता" ह्स्त्यादीनां, “चम्मा" वग्घादीणं, “वाला" चमरीणं, गंधयुक्तिकृता गंवा, एकागं प्रौषधं द्रव्यं । वहुद्रव्यसमुदायादोपधं ॥१०३२॥ १ माराधिताः। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-३८ तिविधं थावरं - भूमि-घर-तरुगणादि, तिविध पुण थावरं समासेणं । चक्कारबद्धमाणुमदुविधं पुण होति दुपयं तु ॥१०३३॥ भूमी पक्खेल्ला, घरं खात्तोसियमुभयं, "तरुगणा' आम्रवणारामादि तिविध, दुपदं दुविधं, रहादि परगवद्ध', मानुषं च । दसविधं चउप्पदं ॥१०३६॥ गावी उट्टी महिसी, अय एलग आस आसतरगा य । घोडग गद्दभ हत्थी, चतुप्पदा होंति दसधा तु ।।१०३४।। कुप्पोक्करणं णाणाविहं आसतरगा वेसरा - णाणाविहं उवकरणलक्खण कुप्पं समामतो होति । चतुसट्ठिपडोगारा, एवं भणितो भवे अत्थो ।।१०३।। कुप्पोवकरणं ‘णाणाविहं" अणेगलक्खणं । तच्च कसभेडं लोहभांडं ताम्रमयं मृन्मयादि च । २ २ इ, ३, २, १०, १ = एष सर्वोऽपि संपिडितो चतुः षष्टिप्रकारोऽभिहितः ॥१०३५॥ आत्म-पर-संथवोपसंहार - णिमित्तमाह - चउमट्ठिपगारेणं, जधेव अटेण उवचितो सि त्ति । कि अप्पसंथवेणं, कतेण एमेव अह यं पि ॥१०३६।। यथा त्वं चतुःषष्टिप्रकारेणोपपेतः तथाऽहमप्पासम्, किं चात्मसंस्तवेनेति ॥१०३६।। इदाणिं खेत्तसंथवी तं अम्ह सहदेसी, एगग्गामेग-णगरवत्थव्यो । पुण्णाओ खेत्ताओ, अम्हे मो वञ्चिमो व त्ति॥१०३७॥ गिहिणा पुच्छितो, कम्मि देसे प्रज्जो ! उप्पण्णो ?, साहू भगति - कुरुखेते । गिही भणाति अम्ह सहदेसी, एगगाम - णगर - उप्पण्णो । गिहिणा पुच्छिो कहिं गम्मति - साहू भणति - कुरुखेत्ते ।।१०३७।। जइ भणति लोइयं तू , पुण्णं खेत्तं तर्हि भवे गुरुगा। अह आरुहतं अम्ह वि, जणजम्मादी तहिं लहुओ ॥१०३८॥ एवं जइ लोइयं पुण्णखेत्तं भणाति तो चउगुरु' । लोउत्तरे लहुप्रो ॥१०३८॥ इदाणि कालसंथवो गिहिणा पुच्छियो- कम्मि वए पब्बतियो? भणाति - एवइयं मे जम्मं, परियानो वा वि मज्झ एवतियो । मयणसमत्थो णिविट्ठो, णिविस्ममाणो पमूतो वा ॥१०३६।। एवइनो मे जम्मो, पवज्जाए वा एवतितो, मयणसमत्यो वा पवतो, “णिविट्ठो” परिणीयो "णिव्विसमाणो" विवाहदिणे ठविए, “पसूत्रो” पुत्तो जाओ ।।१०३६।। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा १०३३-१० द्वितीय उद्देशक: इदाणिं भावसंथवो - दुविधो उ भावसंथवो, संबंधी वयणसंथवो चेव । एक्केको वि य दुविधो, पुब्बिं पच्छा व णातब्बो ॥१०४०॥ दुविहो भावसंयवो - वयणे सयणे य । पुण एकोक्को दुविहो - पुचि पच्छा य ॥१०४०।। सयणसंथवो इमो - 'मातपिता पुत्रसंथवो, सासू ससुरादियाण पच्छा तु । गिहिसंथवो संबंधं, करेति पुब्बिं व पच्छा वा ॥१०४१।। एतं पुव्वावर संथवं दाणकालामो पुदि वा पच्छा वा करेज्जा ॥१०४१॥ तं सयणसंथवं वयणाणुरूवं करेति । • आतक्यं च परवयं, णातुं संबंधए तदणुरूवं । मम एरिसया माया, ससा व सुण्हा व णत्तादी ॥१०४२॥ मायवयं परवयं च णाऊणं घडमाणं तदारुवं करेति । जारिसी तुम, एरिसी मम माया 'ससा" - भगिगी, पुत्तस्स पुत्तो गतुप्रो ॥१०४२।। एत्थ इमे दोसा - अद्धिति दिट्ठी पण्हय, पुच्छा कहणं ममेरिसी जणणी । थणखेवो संबंधो, विधवा सुण्हा य दाणं च ।।१०४३।। साहू गहिय भिक्खो वि अद्धिति पुणो वि पाहुत-णयणो अगारि णिरिक्खमाणो पुच्छिषो भणति तुमे सरिसी मे माता, सा तुमे दळु सुमरिया"। सा भणाति - अहं ते माता । एस मातीसंबंधो। तीसे य सुण्हा घरे विहवा अच्छति । ताहे संबंध करेज । गिहत्यी वा साहुं दटुं अधिति करेति, साहुणा पुच्छिता भगति – तुमे सरिसमो मे पुत्तो घरानो गिग्गो, तुम दटुं मे सुमरितो" साहू भणति – अहं ते पुत्तो ; अहं वा सो । एवं सबसयणसंथवेसु वत्तव्वं ।।१०४३।। पच्छा संथवदोसा, सासू विधवादि धूतदाणं च । भजा ममेरिसि त्ति य, सज्जं घातो व भंगो वा ॥१०४४॥ सासूसंथवे विधवं धूतं ददाति । भज्जासंथवे सज्जघातं लभति । चरित्तभंगो वा भवति ।।१०४॥ सयणसंथवे इमे अण्णे दोसा भवंति मायावी चडुयारो, अम्हं ओभावणं कुणनि एसो। . (णच्छुभणाती पंतो, करेज्ज भद्देसु पडिबंधो ।।१०४५|| १मतिपिति २० । २ वषाणु । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-पूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र- ३८ अमायं मायमिति भणमणो मायावी, भिक्खणिमित्तं वा चाहुं करेति ण णखति को वि दासादी मातिसंबंध करेमाणो लोगे भ्रम्हं प्रोभावणं करेति । पंतो रुट्टो णिच्छुभणाति करेज । भद्दो पुण पडिबंध करेज || १०४५ || ११२ दाणिं वयणसंथवो गुणसंथवेण पुव्विं, संता संतेण जो धुणेज्जाहि । दातारमदिष्णम्मी, सो पुच्वो संथवो होति ||१०४६ ॥ संतेण असंतेण वा गुणेण जो दाणे प्रदिणे युणति सो पुव्वसंथवो ||१०४६ ॥ सो पुर्ण इमो - सो एसो जस्स गुणा, वियरंति अवारिया दसदिसासु । इहरा कहासु सुणिमो, पच्चक्खं श्रञ्जदिट्ठो सि ॥१०४७॥ जाणतो मजाणतोय तस्समक्खं ग्रण्णं पुच्छति सो एमो इंददत्तो । गिहत्यो भणति जो कयमो ? साहू भणति – जस्स दाणादिगुणा प्रणिवारिया वियरंति । " इहरा" इति भवाहनि प्रत्यक्षभावमुक्का कहासु - सुणिमो भज्जं पुण जणवयस्स देतो पच्चक्खं दिट्ठोसि || १०४७ ॥ ― पच्छासंथवो पुण इमो गुणसंथरेण पच्छा, संतासंतेण जो धुणिज्जाहि । दातारं दिष्णम्मी, सो पच्छासंथवो होति ॥१०४८ ॥ कंठा दाणदिणे इमो गुणसंथवो - जथत्थतो विसरिता गुणा तुज्यं । विमलीकतऽम्ह चक्खू, आसि पुराणे संका, 'संपति णिस्संकितं जातं ॥१०४६ ॥ तुमे दिट्टे विमलीकयं चक्खू । जहत्थया य दाणादिगुणा विसरिया तुज्यं, पुरा दाणादिगुणेसु संका भासि, इदाणि णिस्संकियं जायं ॥ १०४६ ॥ १ इदाणि । पच्छित्तमियाणि एतेसु - सुत्तणिवाती दव्वादि चउव्विहे संथवे संतम्मि मासलहुं, मोत्तूण सयणसंथवं । सयणसंथवे पुणे इमं पुरिस - संथवे चउलहु इत्थी-संथवे चउगुरुं । उव्विहे वि दव्वातिए संथवे प्राणादिया दोसा ।। १०५०।। सुतणिवातो णियमा चतुव्विधे संघवम्मि संतम्मि । मोत्तूण सयणसंथव, तं सेवतंमि आजादी ॥ १०५० ॥ " कारणे पुण संथवं करेज्जा वि - - अधिकरण यदुट्ठे, गेलण्णऽद्धाणसंभमभए वा । पुरिसित्थी संबंधे, समणाणं संजतीणं च ॥ १०५१ ।। Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १०४६-१०५५ ] द्वितीय उद्देशकः गिहत्थेण समं अहिकरणं उप्पण्णं तस्स उवसमणट्ठताए, पुण पुव्वं चउविहं पि दव्वातियं संतं करेति, पच्छा असंतं पि । एवं राय? वि उवसमणट्ठता। गिलाणोसहणिमित्तं वा, अद्धाणसंभमभएसु संताणट्ठया वा, "पुरिसित्थि" ति एएहि कारणेहिं संजताण संजतीण वा पुरिसित्थिसंबंधो भवेज ॥१०५१॥ वय-सयणक्रमप्रदर्शनार्थं इदमाह - वयसंथवसंतेणं, पुव थुणे पुरिससंथवेण ततो। तो णातिथिगतेण व, भोइयवज्जं च इतरेणं ॥१०५२॥ पुल्विं वयसंथवेण संतेणं, पच्छा पुरिससंथवेण पुलावरेण संतेणं, तो पच्छा जातिथिगतेणं संतेणं, ततो भोइयवज्जं इतरेण पच्छासंघवेणं संतेण, ततो पच्छा वयणादि असतेण ॥१०५२।। पुवे अवरे यः पदे, एसेव गमो उ होइ समणीणं । जह समणाणं गरुई, इत्थी तह तासिं पुरिसा तु ॥१०५३॥ संजतीणं एसेव गमो । जहा समणाणं इत्थी गरुगी तहा समणीणं पुरिसा गुरुगा ॥१०५३।। जे भिक्खू समाणे वा वसमाणे वा गामाणुगाम वा दुइज्जमाणे पुरे संधुयाणि वा पच्छा संथुयाणि वा कुलाई पुवामेव मिक्लायरियाय अणुपविसइ, अनुपविसंतं वा सातिज्जति ॥२०॥३६॥ भिक्षुः पूर्ववत् समाणो नाम समधीन: मप्रवसितः। कोऽसौ वुड्ढावासः ? बसमाणो उदुबदिए अट्टमासे वासावासं च णवमं, एयं णवविहं विहारं विहुरंतो वसमाणो भण्णति । अनु पश्चादभावे गामातो प्रष्णो गामो प्रणुगामो दोसु पाएसु सिसिरगिम्हेसु वा रीइज्जति त्ति । पुरे संयुता मातापितादी, पन्यासंधुता ससुराती, कुलशब्द: प्रत्येकं, भिक्खाकालातो पुस्विं, प्रप्राप्ते भिक्खाकालेत्यर्थः । अनुप्रवेशो पच्छा, भिक्खाकाले भतिक्रान्ते इत्यर्थः । एवं प्रप्राप्ते प्रतिकान्ते च पविसंतं साइज्जति अनुमोदते, मासलहुं से पच्छितं । एस सुत्तत्थो। इदाणिं णिज्जुत्तिवित्थरो समाणे वुड्ढवासी, वसमाणे णवविकप्पविहारी । दूतिज्जता दुविधा, णिक्कारणिया य कारणिया ॥१०५४॥ कारण-निक्कारणे वक्ष्यति । शेषं गतार्थमेव ॥१०५४।। इमे णिक्कारणिया - आयरियसाधुवंदण, चेतिय णीयन्लगा तहासण्णी । गमणं च देसदसण, णिक्कारणिए य वइगादि ॥१०५॥ मायरियसाहुचेइयाण च वंदणणिमित्तं गच्छंति, सण्णीणं दंसणत्थं, भोयणवत्थाणि वा लभिस्संति गच्छति, अपुब्वदेसदसणत्थं गच्छंति, वजितादिसु वा खीराचं लभिस्सामि ति गच्छति ॥१०५५।। १संतानार्थ दीक्षाहपुत्रदानार्थम् । २ चतुर्गुरुस्थानीयं प्रायश्चित्तम् । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ आयरियमाह सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे पुन्न-विचित्त- बहुस्सुता य परिवारवं च आयरिया | परिवारवज्जसाहू, चेतियऽपुव्वा अभिणवा वा ॥ १०५६ || पुव्वा मे प्रायरिया विचित्ता णिरतिचारचरिता बहुस्सुया विचित्तसुया य बहुसाहु - परिवुडा य, एरिसे प्रायरिए वंदामि । साहुस्स वि एते चैव गुणा । णवरं परिवारो वज्जिज्जति । चेतिया चिरायतणा अपुब्वा य । महवा अभिणवा कया ||१०५६।। दत्थी हामि व णीए, सण्णीसू य भोयणादि लब्भामो । देसो व मे अपुव्वो, वइगादिसु खीरमादीणि ॥ १०५७|| कंठा णिक्कारणे विहरतस्स इमे दोसा श्रद्धा उव्वाता, भिक्खूवहि तेण साण पडिणीए । 'श्रमाण अभोज्जघरे, थंडिल्लऽसती य जे जं च ॥ १०५८ || श्रद्धा समो भवति, भिक्खा वसहिं ण लब्भंति । उवहिसरीरतेणा भवंति । साणपडिणीएसु खज्जए (प्र) हंमए वां हिडंताणं सपक्खपरपक्खमाणं भवति । श्रभोज्जघरे पवयण- हीलणा भवति । प्रसति थंडिल्लस्स पुढवी मादिजीवे विराहेति । जे दोसा, जं च एतेसु परितावणादिणिप्कष्णं पच्छित्तं सव्वं उव उज्जियं वक्तव्यम् ।। १०५ ८ ।। संजमतो छक्काया, यात कंटद्विवातखुलगा य । उवधि अह हरावण, परिहाणी जा य तेण विणा ।। १०५६ ।। णिक्कारण प्रडतो छक्कायवि राहणं कुणति । एस संजमविराषणा । कंटट्ठिहि वा विज्झति, वा खुला वा भवंति एस श्रायविराहणा सागारियभया परिस्संतो वा पमादेण वा उर्वाह न पडिलेहेति, हरावे वा । उवहिम्मि प्रवहरिए य जातेण विणा परिहाणी तणग्रग्गिगहण सेवणादि जं करिस्सति तं सव्वं पच्छित्तं वत्तव्वं ॥ १०५६।। [ सूत्र - ३६ वेला तिक्कमपत्ता, सणादातुरा तु जं सेवं । पडिणीयसाणमादी, पच्छाकम्मं च वेलम्मि ।। १०६० भिक्खावेला प्रतिक्त पत्ता प्रप्फवंता असणं पि लेज्जा, तं णिष्फण्णं पच्छित्तं । पढमनितिएसु वा परीसहेसु ब्राउरा जं सेवे तं णिफणं । पडिणीतेण हते साणेण वा खतिए प्रायविराहणा णिष्फण्णं । प्रवेले भिक्खं हिंडतस्स पच्छाकम्मदोसा भवंति । संकातिया य दोसा तेणट्ठे मेहुणट्टे वा भवति ।। १०६०॥ इदाणिं कारणिया भष्णंति - कारणिए वि य दुविधे, णिव्वाघाते तहेव वाघाते । निव्वाघाते खेत्ता, संकंती दुविधकालम्मि || १०६१ ।। कारणिश्रो दुविहो - पिव्याघाते वाघाते य । तत्य णिव्वाघाते इमो उदुवासकप्पे वा वासा कप्पे वा समत्ते खेत्तातो खेत्तसंकंती ॥१०६॥ १ श्रीमाण = अपमान । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १०५६-१०६८] द्वितीय उददेशकः १५५ इदमेवार्थ दर्शयन्नाह - दोण्णेगतरे काले, जं खेत्ता खेत्तणंतरं गमणं । एतं णिबाघातं, जति खेत्तातिक्कमे लहुगा ॥१०६२॥ "जति खेत्तातिक्कमे" ति णिक्कारणे जत्तिया मासकप्पपायोग्गा खेत्ता लंघेति तत्तिया चउलहुप्रा भवंति ।।१०६२।। इदाणि वाघातेण मासकप्पपाओग्गं वोलेउं अण्णं खेत्तं संकमइ, ण य दोसो, इमे य ते वाघायकारणा - वापाते असिवाती, उवधिस्स व कारणा व लेवस्स । बहुगुणतरं च गच्छे, आयरियादी । आगाढे ॥१०६३॥ असिवगहियं खेतं वोलंति । प्रादिसद्दानो वा सन्झामो तत्थ ण सुज्झति, उवही वा तत्थ ण लन्भति लेवो वा, अण्णतो अण्णम्मि लब्भति त्ति वोलति । गच्छे वा बहुगुणतरं, साणपडिणीया णत्थि, तिणि वा भिक्खावेलामो अत्यित्ति, अतो वोलंति । आयरियादीण वा इह पाउग्गं णत्थि, अतो वोलंति । आगाढेहि वा कारणेहि वोलंति ॥१०६३॥ ते च आगाढकारणा इमे दवे खेत्ते काले, भावे पुरिसे तिगिच्छ असहाए । सत्तविहं आगाहें, णायध्वं आणुपुवीए ॥१०६४॥ दव्वं जोग्गं ण लब्भति, खेत्ते खलु खेत्तपडिणिमादीया । कालम्मि ण रितुक्खम, भावे गिलाणादीण णवि जोग्गं ॥१०६५।। पुरिसो आयरियादी, तेसिं अजोग्गं तिगिच्छिगा णत्यि । पत्थि सहाया व तहिं, आगाढं एव णातव्वं ॥१०६६।। दव्वं स्वतन्त्र प्रविरुद्ध जोग्गं ण लम्भति, खेत्ततो तं अतीव खुल्लखेत्तं, कालतो तं अरितुक्खम, भावे गिलाणादिजोग्गं ण लब्भति । पुरिसा पायरियमाती तेसिं तं प्रकारगं खेत्तं । तिगिच्छा तत्थ वेज्जा पत्थि । 'मसहाय" ति सहाया तत्थ णस्थि । सत्तविह पागाढकारणेण वोले मासकप्पजोगं अण्णं गच्छंतीत्यर्थः ॥१०६६॥ एतेहिं कारणेहिं, एगदुगंतर-तिगंतरं वा वि । संकममाणो खेतं, पुट्ठो वि जती ण ऽतिक्कमति ॥१०६७॥ कारणेण संकतो पुट्ठो वि दोसेहिं ण दोसिल्लो भवति, यतो यस्मात् तीर्थकराज्ञां नातिकामंतीत्यर्थः ॥१०६७॥ णिक्कारणगमणमि, जे च्चिय आलंबणा तु पडिकुट्ठा । कज्जम्मि संकमंतो, तेहिं चिय सुद्धो जतणाए ॥१०६८।। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिक निशीथसूत्र [ सूत्र-३६ णिककारणगमणे जे प्रालंबणा पायरियादी पडिसिद्धा, कज्जे तेहिं चेव जयणाए संकमंतो सुज्झति - प्राच्छिनि भवति ॥१०६८।। एत्य जे कारणिया तेहिं अधिकारो, णिक्कारणिया गच्छंता चेव लग्गति । एवं विहरंताणं संथवो इमो - कुलसंथवो तु तेसिं, गिहत्थधम्मे तहेव सामण्णे। एक्केक्को वि य दुविहो, पुज्विं पच्छा य णातव्यो ।।१०६६॥ तं कुलं संथुनं, संथुयं णाम लोगजस्ता परिचियं । गिहिषम्मे वा ठितस्स, सामण्णे वा ठितस्स । एकोपको दुविहो- गिहिधम्मे ठितस्स पुट्विं पच्छा वा, सामणे ठितस्स पुट्विं पच्छा वा ॥१०६६।। अस्यैव व्याख्या - अम्मा पितुमादी उ, पुव्वं गिहिसंथवो व णायव्यो । साम् सुसरादीओ, पच्छा गिहसंथवो होति ॥१०७०।। कंठा सामण्णे ठियस्स पुब्बिं पच्छा संधुता इमे - सामण्णे जे पुब्बिं, दिट्ठा भट्ठा व परिचिता वा वि । ते हुंति पुव्वसंयुय, जे पच्छा एतरा होति ।।१०७१।। सामणप्रतिपत्तिकालात् पूर्वपश्चाद्वा ॥१०७१।। प्रहबा सामण्णकाले चेव चितिज्जति ॥ अग्नया विहरंतेणं, संथुता पुबसंधुता । संपद विहरंतेणं, संधुता पच्छसंथुना ।।१०७२।। प्रतीतवर्तमानकालं प्रतीत्य भावयितव्यम् ॥१०७२।। एतेसामण्णतरं, कुलम्मि जो पविसति अकालम्मि । अप्पसमतिक्कते, सो पावति आणमादीणि ॥१०७३।। एतेसि पुवपच्छसंयुयकुलाणं मण्णतरं कुल प्रपत्ते भिक्खाकाले, अतिक्कते वा भिक्खाकाले पविसति, सो प्राणादि दोसे पावति ॥१०७३।। दुविहविराहणा य । तत्य संजमे इमा - सही गिहि अण्णतित्थी, करेन्ज तं पासितुं अकालम्मि । उग्गमदोसेगतरं, खिप्पं से संजताए ॥१०७४।। सट्टी श्रावकः, गिही अधाभद्रकः, रत्तपडादि, पुवाच्छपंथुनो वा । एते. अपर्याप्त काले पतं स्या उगमदोसेगतरं खिप्पं मंजयट्टाए करेज्ज ।।१०७४।। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १०६६-१०७६ ] द्वितीय उद्देशक: ११७ कहं पुण उग्गमदोसा भवे ? पुचपयावितमुदए, चाउलछुमणोदणो व पेज्जा था। आसण्णपूवि सत्तुअ, कयण उच्छिण्ण समिमादी ॥१०७५॥ साधू अागमणकालातो पुवं तत्तमुदगं साहुणो आगते दटुं तम्मि चेव तत्तोदए चाउले छुभेज सिग्धं प्रोदणं पेज्ज वा, एवं कम्मं करेज्ज । प्रासपण पूवियपरानो वा पूर्व किणेज्ज, सत्तू कूरं वा किणेज्जा । सब्वाणि वा उच्छिंदेज्जा पुचो मुग्रकणिकाए वा समितिमे करेज्ज ॥१०७५॥ कम्म इमं । अतिक्कते - __ एमेव अतिक्कते, उग्गमादी तु संजमे दोसा। संकाइ दुविधकाले, कोई पदुट्ठो व ववरोवे ।।१०७६॥ पुव्वद्धं कटं । दुविहकाले अपत्तमवकते अकालेत्ति काउं संकति । तेणं चारियं मेहुणटे वा दूतित्तणेण वा, पदुवो ववरोवेज वा हणेज्ज वा भतोबहिसेज्जाण वा वोच्छेयं करेज्ज ।।१०७६।। इदाणिं उपनयनिमित्तमाह - अप्पत्तमइक्कते, काले दोसा हवंति जम्हेते । तम्हा पत्ते काले, पविसिज्ज कुलं तहारूवं ॥१०७७।। अप्पत्तमतिक्कते जम्हा पविसंते एते दोसे पावति तम्हा पत्ते भिक्खाकाले तहारूवं कुलं पविसेज्ज । एए वि पत्तो तेसिं दरसावं ण देति, अन्नत्य ठायति ॥१०७॥ भवे कारणं अवेलाए वि पविसेज्ज । वितियपदमणाभोगे, अतिक्कमंते तहेव गेलण्णे । असिवे प्रोमोदरिते, रायदुढे भए व आगाहे ॥१०७८।। प्रणाभोगो अज्ञानं । सो साधू ण जाणइ एस्थ गामे मम पुत्रसंथुता प्रथि, प्रतो पविसति । ' ग्रहवा - सो वोले उमणो सिग्घं दोसिणातिगिमित्तं पविसेज्ज । गिलाणस्स वा तेसु,परं लब्मति तं च खो राति अतो पविसति । प्रोमे अपत्ते दोसीणगिमित्तं प्रप्फच्चितो वा अइक्कंते संथुय कुलेसु हिंडति । रायरे मा दीसिहि ति तेण प्रकाले हिंडति । बोहिगादिभए वा दोसीणातिघेत्तुं णम्सति, गट्ठो वा उस्सूरमागतो गेण्हति ॥१०७८|| अण्णत्थ वा ग्रागाढे अणाभोगपविट्ठो इमं विहाणं करेति - . संथरमाणमजाणंतपविट्ठो कुणति तत्थ उपभोगं । मा पुबुत्ते दोसे करेज इहरा उ तुसिणीअो ॥१०७६।। ___ जति अजाणतो संथुयकुले पविट्ठो, जति य संथ रति तो उवयोगं करेति । पृथ्वुत्तदोसपरिहणढताए सजयट्ठा कीरतं वारेति परिहरति वा । इहरा असंथरतो संजयट्ठा कीरत दलृ पि ण वारेति, तुमिणीयो प्रच्छति ॥१०७१।। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ सभाष्य-चूणिके निशीथसत्रे [ सूत्र-४० जे भिक्खू अण्णउथिएण वा गारत्थिरण वा परिहारिए वा अपरिहारिएण सद्धिं गाहावनिकुलं पिंडवायपडियाए णिक्खमति वा अणुपविसति वा णिक्खमंतं वा अणुपविसंतं वा सातिज्जति ।मु०॥४०॥ अण्णतीथिकाश्चरक - परिव्राजक - शाक्याजीवक - वृद्धश्रावकप्रभृतयः, गृहस्था-मरुगादि भिक्खायरा, परिहारियो मूलुत्तरदोसे परिहरति । अहवा - मूलुत्तरगुणे धरेति प्राचरतीत्यर्थः । तत्प्रतिपक्षभूतो अपरिहारी ते य अण्णतित्थियगि हत्या। णो कप्पति भिक्खुस्मा गिहिणी अहवा वि अण्णतित्थीणं । परिहारियस्म अपरिहारिएण सद्धिं पविसिजे ||१०८०॥ “सद्धि" समानं युगपत् एकत्र ।।१०८०॥ आधाकम्मादीणिकाए सावजजोगकरणं च । परिहारित्तपरिहरं, अपरिहरंतो अपरिहारी ॥१०८।। षड्जीवनिकाए सावज्जं मनादियोगत्रयं करणत्रयं च ।।१०८१॥ गाहावतिकुलं अस्य व्याख्या - . . गाह गिहं तस्स पती, उ गहपत्ती मुत्तपादे जधा वणियो। पिंडपादे वि तथा, उभए सण्णातु यामयिगी ।।१०८२।। गाह ति वा गिहंति वा एगटुं, तस्येति गृहस्य पतिः प्रभुः स्वामी गृहपतीत्यर्थः । दारमपत्यादि समुदापो "कुलं पिंडवायपडियाए" त्ति अस्य व्याख्या "पिंडो' असगादी, गिहिणा दीयमाणस्स पिंडस्य पात्रे पातः अनया प्रज्ञया ।।१०८॥ एत्थ दिदंतो जहा बालंजुम बणिउ बलंज घेत्तु गाम पविट्ठो। अणे पच्छियं कि णिमित्तं गामं पविट्रोसि ? भणाति - सुत्तपायपडियाए धण्णपायपडियाए ति । तहेव पिडवायपडियाए ति । किं च-इदं सूत्रं लोग - लोगोत्तर उभयसंज्ञाप्रतिबद्धं किंचित् स्वसमय संज्ञाप्रतिबद्धं भवति । "अणुपविसति' अस्य व्याख्या - चरगादिणियट्टेमुं, पागेव कते तु पविमणं जं तु । तं होतणुप्पविसणं, अणुपच्छा जोगतो मिद्ध ।।१०८३॥ "अनु” पथाभावे, चरगादिमु सणियट्टेसु पच्छा पागकरणकालतो वा पच्छा। एवं अनुशन्द: पभाद्योगे सिद्धः ॥१०८३।। एत्तो एगतरेणं, सहितो जो पविमती तु भिक्खस्म । सो प्राणाप्रणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावं ।।१०८४॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १०८०-१०८८ ] द्वितीय उद्देशक: ११६ एतो एगतरेण गिहत्येण वा अण्णतित्थिएण वा समं पविसंतस्स प्राणातिया दोसा प्रायसंजमविराहणा ॥१०८४॥ श्रीभावणा पवयणे. अलद्धिमंता अदिण्णदाणा य। जाणंति च अप्पाणं, वसंति वा सीसगणिवासं ॥१०८॥ पंडरंगादिएसु सद्धि हिंडंतस्स पवयणोभावणा भवति । लोगो वयति पंडरंगादिपसायो लभंति । सयं न लभति । प्रसारप्रवचनप्रपन्नत्वात् । अधवा लोगो वदति - प्रलद्धिमता य परलोगे वा प्रदिण्णदाणा प्रात्मानं न विदंति । सूद्रा इति पंडरंगादिशिष्यत्वमभ्युपगता वसंति, प्रतो एभिः सार्द्ध पर्यटन्ते । किं चान्यत् ॥१०८५।। अधिकरणमंतराए, अचियत्ता संखडे पदोसे य । एगस्सऽट्ठा दोण्हं, दोण्ह व अट्ठाए एगस्स ॥१०८६।। गिही अयगोलसमाणो ण वट्टति भणित एहि, णिसीद, तुयट्ट, वयाहि वा । भणतो अधिकरणं । गिहत्यो प्रलद्धी साहू लद्धी तो साहुस्स अंतराय, अह संजतो अलद्धी तो गित्थस्स अंतराय जेण समं हिंडति, दातारस्स वा अच्चियत्तं । कि मया समं हिंडसि त्ति प्रधिकरणं भवे । असंखडे उण पदृट्ठो अवस्सं अगणिणा । हिडेज, पंतावणादि वा करेज, एगस्स गिहिणा णीणिप्रो दोण्ह वि देज, तं चेव अंतरायं अचियत्ताए संखडाती य साहुस्स करेज, दातारस्स वा करेज, उभयस्स वा कुज्जा । दोण्ह वा अट्ठा णीणियं एगस्स देज्ज, साहुस्स गिहत्थस्स वा ते चेव अंतराताती दोसा । १८८६॥' जतो भण्णति - संजयपदोसगहवति, उभयपदोसे अणेगधा वा वि । णढे हित विस्सरिते, संकेगतरे उभयतो वा ॥१०८७॥ संनयगिहिउभयदोसा इति गतार्थ एव । 'प्रणेगहा व" ति अस्य व्याख्या - गढे दुपदचतुप्पद अपए वा एतेसु चेव हडेसु वत्थादिए सु वा विसुमरिएमु साधु गिहि वा एगतरं संकेज उभयं वा । किह पुणाति संकेज्ज ? एते समणमा हणा परोप्परं विरुद्धा एगतो अडंति, ण एते जे वा ते वा, णूणं एते चोरा चारिया वा कामी वा, दुपयादि वा प्रवहडमेएहिं । जम्हा एते दोसा तम्हा गिहत्यऽण्यतित्याहिं समं भिक्खाए ण पविसियव्वं ॥१०८ ॥ बितियपदेण कारणे पविसेज्जा वि जतो - वितियपदमंचियंगी, रायट्ठो सहत्थगेलण्णे । उवधीसरीरतेणग, पडिणीते साणमादीसु ॥१०८॥ 'अंचियं'' दुभिक्खं । एतेसु अचियादिसु एतेहिं गिहत्यण्ण तित्थीहि समं भिक्खा लम्भति अन्नहा न लम्भति, अतो तेहि समाणं अडे । सो य जति ग्रहाभद्दो णिमंतेइ वा अहाभट्टएण पुरा समाणं दो तिगि घग अण्णहा ते चेव संखडादी। रायदुटे सो रायवल्लभो गिलाणस्सोसह - पत्यभोयण ति सो दवावेति अण्णहा ण लब्भति । भिक्खायरियं वा वच्चंतस्स उबहिसरीरतेणारखपडिणीयसाणे वा वारेति । मादिसदातो गोणसूयरातो ॥१०८८॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० पविसतो पुण इमा विही - भष्णति । पुव्यगते पुरवा, समगपविडो व अण्णभावेणं । पच्छाकडादि मरुगादिणाति पच्छा कुलिंगीणं ॥ १०८ ॥ सभाध्य-पूर्णिके निशीथसूत्रे गिहत्य प्रणतित्थिए पुव्वपविट्ठे सयं वा पुत्र्व पविट्ठो " प्रण्णभावे" त्ति एरिसं भावं दरिसति ण ण णजति, जहा एतेण समाणं हिंडंति । तस्य इमो विही - - पुव्वं पच्छाकड - मरुएसु, तम्रो पच्छाकड- प्रण्णलिंगीसु, तम्रो अहाभद्दमस्एसु, तम्रो श्रहाभद्दमष्णलिगिणा । अहाभहुए वि एस चेत्र कमो ॥१०८६ ॥ [ सूत्र ४१-४२ जे भिक्खूणउत्थि एण वा गारत्थिएण वा परिहारिए वा अपरिहारिएण सद्धिं बहिया विहारभूमिं वा वियारभूमिं वा णिक्खमई वा पविसइ वा क्खिमंतं वा पविसंतं वा सातिज्जति | | ० || ४१ || सणावोसिरणं वियारभूमी, प्रसज्झाए सज्झायभूमी जा सा विहारभूमी, मा उब्भामगपोरिसी णो कप्पति भिक्खुस्सा गिहिणा अथवा वि अण्ण तित्थीणं । परिहारियस्स परिहारिएण गंतुं वियाराए || १०६० ॥ कंठा तो एगतरेणं सहितो जो गच्छती वियाराए । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ||१०६१ ॥ कंठा वीयारभूमिदोसा, संका अपवत्तणं कुरुकुयाम | दव अप्पकलुसगंधे, सती व करेज्ज उड्डाहं ॥ १०६२॥ वियारभूमीए पुरिसापातसंलो दोसा । संकाए वाण पवत्तति । अश्वत्तंते य । 'मुत्तणिरोहो०गाहा । श्रयः शल्या० श्लोकः । मट्टियाए बहुदवेण य कुरुकुया कारेयव्वा । एत्थ उच्छोलण उप्पोलणादीदोसा । श्रह कुरुकुयं ण करेति उड्डाहो । अप्पेण वा दवेणं कलुसेण वा दवेगं जिल्लेवेंतं दठ्ठे चउत्थ रसियादिणा वा गंधिल्लेण श्रभावे वा दवस्स प्रणिल्लेविते जगपुरश्रो उड्डाहं करेज || १०६२|| जम्हा एते दोसा तम्हा तेहिं सद्धि ण गंतव्वं । प्रववादपए पत्ते वच्चेज्ज - वीयारभूमि असती, पडिणीए तेणसावतभए वा । यदुट्ठे रोग - जतणाए कप्पते गंतुं ॥ १०६३॥ ओ वियारभूमीए श्रसति जतो ते गिहत्थ श्रष्णत्थिया वट्टेति ततो वएजा जतो भणावातमसंलोअ तो डिनीत ते सावयबोषितदोसा अंतरे तत्थ वा थंडिल्ले गतस्स, तो गिहत्थेहि समं गच्छे, ते निवारेंति । यदुरायवल्लभेण समाणं गम्मइ । रोहए एगा चैव सण्णा भूमी, एरिसेहि कारणेहि जयगाए गम्मति ॥ १०६३ ॥ १ बृह० उद्दे० ३ भा० गा० ४३८० । २ त्रयः शल्या महाराज !, श्रस्मिन् देहे प्रतिष्ठिताः । वायु-मूत्रपुरीषाणां प्राप्तं वेगं न धारयेत् ॥ - Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १०८६-१०६.] द्वितीय उद्देशक: १२१ सा य इमा जयणा पच्छाकड-वत-दसण-असंणि-गिहिए तहेव लिंगीसु । पुव्वमसोए सोए, पउरदवे मत्तकुरुया य ।।१०६४|| पुव्वं पच्छाकडेसु गिहियागुब्बए सु तेसु चेव दंसणसावएसु, ततो एसु चेव कुतित्थिएसु, ततो असणिगिहत्येमु, ततो कुलिंगिएसु अगणीसु सव्वानु, सञ्बेसु पुव्वं प्रसोयवादिसु, पच्छा सोयवादीसु, दूरं दूरेण परम्मुहो वेलं वजंतो पउरदवेणं मट्टियाए य कुरुकुयं करेंतो प्रदोसो ॥१०६४॥ - एमेव विहारम्मी, दोसा उड्डंचगादिया बहुधा । __ असती पडिणीयादिसु, वितियं आगाढ-जोगिस्स ||१०६५॥ विहारभूमीए वि प्रायसः एत एव दोषा, उहुंचकादयश्च अधिकतरा, बहवः अन्ये उड्डुचका कुट्टिदा उड्डाहंति वा वंदनादिसु । प्रत्यनीकादि द्वितीयपदं पूर्ववत् । चोदगो भणति - जत्येत्तिया दोसा तत्थ तेहि समाणं गंतुं बितियपदेण वि सज्झानो मा कीरउ । आयरियो भणति - प्रागाढजोगिस्स उद्देससमुद्देसादरो अवस्सं कायब्वा उवस्सए य प्रसज्झाइयं बहिं पडिणीयादि अतो तेण समाणं गंतुं करेंतो सुद्धो ॥१०६५॥ जे भिक्खू अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा परिहारियो अपरिहारिएहिं सद्धिं गामाणुगामं दूइज्जति; दूइज्जंतं वा सातिज्जइ ॥सू०॥४२॥ ग्रामादन्यो ग्राम: ग्रामानुग्र मं । शेषः सूत्रार्थः पूर्ववत् ।। णो कप्पति भिक्खुस्सा, परिहारिस्सा तु अपरिहारीणं । गिहिअण्णतिथि एण व, गामणुगामं तु विहरित्ता ।।१०६६॥ कंठा एत्तो एगतरेणं, सहितो दुइज्जति तु जे भिक्खू । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं पावे ॥१०६७।। द गती, "दुइजति" त्ति रीयति गच्छतीत्यर्थः । रीयमाणो तित्थकराणं प्राणं भंजेति । प्रणवत्थं करेति । मिच्छत्तं अण्णेसि जणयति । प्रायसंजमविराधणं पावति ॥१०६७।। इमं च पुरिसविभागेण पच्छित्तं - मासादी जा गुरुगा, मासो व विसेसिओ चउण्हं पि । एवं सुत्ते सुत्ते, आरुवणा होति सहाणे ॥१०१८॥ प्रगीयत्थभिक्खुणो गीयत्थभिक्खुणो उवज्झायस्स पायरियस्स एतेसि चउण्ह वि मासादि गुरुगतं अहवा - मासलहुं चेव कालविसे सियं । अहवा - प्रविसेसियं चेव मासलहुँ । चोदगाह - कि णिमित्तमिह सुत्ते पुरिसविभागेण पच्छितं दिणं ? आचार्याह - सर्वसूत्रप्रदर्शनार्थ । सुत्ते सुत्ते पुरिसाण सट्ठाणपच्छित्तं दृट्ठव्वं ॥१०६८॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्र । सूत्र ४२-४३ इमा संजमविराहणा संजतगतीए गमणं, ठाण-णिसीयणा तुअट्टणं वा वि । वीसमणादि यणेसु य, उच्चारादी अवीसत्था ।।१०६६॥ जहा संजनो सिग्धगतीए मंदगतीए वा वच्चति तहा गिहत्थो वि तो प्रधिकरणं भवति । तहासुहाए वा परिताविज्जति तं णिप्फणं । वीसमंतो सचित्तपुढवीकाए उट्ठाणं निसीयणं तुयट्टणं वा करेति । भत्तपाणादियणे उच्चारपासवणेसु य सागारिउ त्ति काउ अवीसत्थो ॥१०६६॥ साहु-णिस्साए वा गच्छंतो फलादि खाएबा अहिकरणं । साहू वा तस्स पुरो बितियपदेण गेष्हेजा, परितावणाणिप्फणं पादपमजणादि वा करेजा, तत्थ वि सट्ठाणं ।। अह करेति उड्डाहो । भाष्यकारेणैवायमर्थोउच्यते - मासादी जा गुरुगा, भिक्खु वसभाभिसे ग आयरिए । मासो विसेसियो वा, चउण्ह वि चतुसु सुत्तेसु ॥११००। अत्थंडिलमेगतरे, ठाणादी खद्ध उवहि उड्डाहो । धरणणिसग्गे वातोभयस्स दोसा ऽपमज्जरभो ॥११०१|| __साहुणिस्साए गिहत्थो गिहत्थणिस्साए वा साहू अथंडिल्ले ठाएज, खद्धोवहिणा भारदुदुहु ति उचाई करेति, धरणणिसग्गे वायकाइयसण्णा एण उभयहा दोसो, पमज्जतस्स उड्डाहो अपमज्जताण य विराहणा । जम्हा एते दोसा तम्हा ण गच्छेजा ।।११०१॥ बितियपदं अद्धाणे, मूढमयाणंतदुट्ठणद्वे वा । उवधी सरीरतेणग, सावतभय दुल्लभपवंसो ॥११०२।। अद्धाणे सथिएहि समं वच्चनि, पंथाओ वा मूढो दिसातो वा मूढो साहू-जाव-पंथे उयरंति । पंथगयाणंतो वा जाणगेहि समं गच्छेज, रायट्टे वा रायपुरिसेहि समं गच्छे, बोधिकादिभया गट्ठो वा तेहिं समाणं णिद्दोसो हवेज, तेणगभए वा गच्छे, सावयभए वा प्रणम्मि वा गादेस रज्जे दुल्लभपवेसे तेहि समं पविसेज्ज, अण्णहा ण लब्भति ॥११०२॥ जत्थ पुण नगरादिसु विहरति तत्थ अच्छंतो णितितो भवति । तेहिं समाणं गच्छतो इमा जयणा - णिब्भए पिट्ठतो गमणं, वीसमणादी पदा तु अण्णत्थ । सावत-सरीर-तेणग-भएसु तिहाणभयणा तु ॥११०३।। जिन्भए पिट्ठो गच्छंति, पिट्ठतो ठिता सवं पमजणाति सामायारि पउंजंति, वीसमणाती पदा जति असंतो थंडिले करेति तो संजया अण्णथंडिले ठायंति, तेण सावय भयं जइ पिट्ठतो तो मज्झतो पुरतो वा गच्छति ॥११०३॥ जे भिक्खू अन्नयरं पाणगजायं पडिगाहित्ता पुप्फगं पुप्फगं आइयइ, कसायं .. कसायं परिहवेइ परिवेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥४३॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाम्यगाथा १०६६-१ द्वितीय उद्देशकः १२३ अन्यतरग्रहणात् अनेके पानका: प्रदर्शिता भवंति, खंड-पानक-गुल-सक्करा-दालिम-मुद्दिता-चिंचादिपाने जातग्रहणात् प्रासुकं, पडीत्युपसर्ग । ग्रह आदाने, विधिपूर्वकं गृहीत्वा, पुष्पं णाम अच्छं वण्णगंधरसफासेहिं पधाणं, कसायं स्पर्शादिप्रति नोममप्रधानं कषायं कलुषं बहलमित्यर्थः । स्वसमयसंज्ञाप्रतिबद्धं इदं सूत्रम् । एवं करेंतस्स मासलहुं । एस सुत्तत्थो । अहुणा णिज्जुत्ती जं गंधरसोवेतं, अच्छं व दवं तु तं भवे पुर्फ। जं दुब्भिगंधमरसं, कलुसं वा तं भवे कसायं ॥११०४॥ कंठा घेत्तण दोण्णि वि दवे, पत्तेयं अहव एक्कतो चेव ।। जे पुप्फमादिइत्ता, कुज्ज कसाए विगिचणतं ॥११०॥ दोण्णि वि पुप्फ कसायं च एगम्मि व भायणे पत्तेगेसु वा भायणेसु पुप्फमाइता कसाय - परिढवणं करेज्ज तस्स मासलहुं ॥११०५॥ इमे दोसे पावेज्ज - सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं तहा दुविधं । पापति जम्हा तेणं, पुव कसाए तरं पच्छा ॥११०६॥ प्रायसंजमविराहणा-पुव्वं कसायं पिवे, इतरं पुप्फ पच्छा ॥११०६॥ जो पुप्फ पुब्बिं पिवे कसायं परिट्ठवेति तस्सिमे दोसा - तम्मि य गिद्धो अण्णं, णेच्छे अलभंतो एसणं पेल्ले । परिठाविते य 'कूडं, तसाण संगामदिटुंतो ॥११०७॥ अच्छदवे गिद्धो अण्णं कसायं णेच्छति पातुं, तं कसायं परिटुवेतु पुणो हिंडंतस्स सुत्तादिपलिमंथो। अच्छं अलभंतो वा एसणं पेल्लेज्ज प्रायविराहणातिता य बहुदोसा, कलुसे य परिट्ठविए कूडदोसो, जहा कूडे पाणिणो वझति तहा तत्थ वि मच्छिपाती पडिवउझंति, अण्णे य तत्थ बहवे पयंगाणि पतंति । पिपीलिगाहि य संसज्जति । एवं बहु तसघातो दीसति ।.. एत्थ संगामदिटुंतो - तत्थ कलुसे परिट्ठविए मच्छियाप्रो लग्गति, तेसि घरकोइला धावति, तीए वि मज्जारी, मजारीए सुणगो, सुणगस्स वि अण्णो सणगो, सुणगणिमित्तं सुणगसामिणो कलहेंति । एवं पक्खापक्खीए संगामो भवति । जम्हा एते दोसा तम्हा णो पुप्फ आदिए कसायं परिट्ठवेति । इमा सामायारी - वसहिपालो अच्छतो भिक्खागयसाहु आगमणं गाउं गच्छमासज्ज एक्कं दो तिणि वा भायणे उग्गाहति तो जो जहा साधुसंघाडगो आगच्छति तस्स तहा पाणभायणाउ अच्छतेसु भायणेसु परिग्गालेति । एवं अच्छं पुढो कज्जति कलुस पि पुढो कज्जति । तं कसायं भुत्ते वा अभुत्ते वा पुव्वं पिवंति तम्मि णिट्टिते पच्छा पुप्फ पिवंति ।।११०७।। १ चिंचा=इमली। २ भक्षयित्वा । ३ जाल । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र ४३-४४ पुप्फस्स इमे कारणा. आयरियप्रभावित पाणगढता पादपोसधुवणट्ठा । होति य सुहं त्रिवेगो, सुह आयमणं च सागरिए ॥११०८॥ पायरियस्स पाण-यतणा। एवं प्रभावियसेहस्स वि उत्तरकालं पाणढता पायुपोसं अपानद्वारम्, एतेसि धुवणट्ठा । उच्चरियस्स य सुहं विवेगो कज्जति । ण कूडाति दोसा भवंति । सागारिए य प्रायमणादि सुहं कज्जति ॥११०८॥ भाणस्स कप्पकरणं, दट्ठणं बहि आयमंता वा । अोभावणमग्गहणं, कुज्जा दुविधं च वोच्छेदं ॥११०६।। अच्छं भायणकप्पकरणं भवति । बहले पुण इमे दोसा - वसहीए बहिं चंकमणभूमीए वा वहि मायमंते दटुं सागारिश्रो लोगमज्झे अोभावणं करेज्ज, सन्वपासंडीगं इमे प्रहम्मतरा, असुचित्वात् । अम्गहणं वा करेज्ज सर्वलोगपाखंडधर्मातीता एते अग्राह्याः । अणादरो वा अग्गहणं । दुविहं वोच्छेदं करेज-तद्रव्याण्यद्रव्ययोः । तद्रव्यं पानकं, अन्यद्रव्यं भक्तवस्त्रादि । अहवा - तस्य साधोः, अन्यस्य वा साधोः, ॥११०६।। अववाएणं पुण परिढुवेंतो वि सुद्धो, जतो - वितियपद दोण्णि वि बहू, मीसे व विगिचणारिहं होज्जा। अविगिचणारिहे वा, जबणिज्ज गिलाणमायरिए ॥१११०॥ दो वि बहू पुप्फ 'कसायं वा णज्जति जहा अवस्सकायं परिदृविज्जति । जइ वि तं पिज्जति ताहे तं ण पिवति, पुष्पं पिवति । एस पत्तेयगहियाणं विही। ग्रह मीसं गहियं, तत्थ गालिए पुप्फ बहुयं कसायं थोवं, ताहे तं परिविज्जति पुप्फ पिवति । अहवा - कसायं विगिचणारिहं होज्जा प्रणेसणिज्जति, ताहे परिदृविज्जति । अहवा - अविगिचणारिहं पि जं पायरियातीणं जा(ज)वणिज्जं ण लभति । एवं परितो सुद्धो ॥१११०॥ विगिचणारिहस्स वक्खाणं इमं - जं होति अपेज्जं जं वणेसियं तं विगिचणरिहं तु । विसकतमंतकतं वा, दवविरुद्ध कतं वा वि ॥११११।। "प्रपेयं" मज्जमांसरसादि, "अणेसणिय" उग्गमादि दोसजुत्तं । अहवा - अपेयं इमं पच्छद्रेण विससंजुत्तं, वसीकरणादिमतेण वा अभिमंतियं । दवविरुद्ध - जहा खीरंबिलाणं ॥११११॥ १ विचितुं । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ भाष्यगाथा ११०८-१११६] द्वितीय उद्देशकः 'जे भिक्खू अन्नयरं भोयणजायं पडिगाहित्ता सुभि सुन्भिं भुंजइ, दुन्भिं - दुम्भिं परिटुवेइ, परिवंतं वा सातिज्जति सू०॥४४॥ सुभं - सुम्भी, असुभं - दुब्भी, शेषं पूर्ववत् । वण्णण य गंधेण य, रसेण फासेण जं तु उववेतं । तं भोयणं तु सुब्झि, तन्निवरीयं भवे दुभिं ॥१११२॥ जं भोयणं वण्णगंवरसफासेहिं सुभेहि उववेतं तं मुभिं भण्णति, इतरं दुन्भिं ।।१११२॥ अहवा - रसालमवि दुग्गंधिं, भोयणं तु न पूइतं । सुगंधमरसालं पि, पूइयं तेण सुभि तु ॥१११३॥ रमेण उववेयं पि भोयणं दुन्भिगंधं ण पूजितं दुब्भिमित्यर्थः । प्ररसालं पि भोयणं सुभगंधजुत्तं पूजितमित्यर्थः ।।१११३॥ घेत्तूण भोयणदुर्ग, पत्तेयं अहव एक्कतो चेव । जे सुभिं भुंजित्ता, दुन्भिं तु विगंचणे कुज्जा ॥१११४॥ सुन्भिं दुन्भिं च भोयणं एक्कतो, पत्तेय वा घेत्तुं जो साहू सुन्भिं भोच्चा दुन्भिं परिटुवेति तस्स मासलहुँ ।।१११४॥ इमे य दोसा - सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं तथा दुविध। पावति जम्हा तेणं, दुन्भिं पुव्वेतरं पच्छा ॥१११५।। कंठा इमे य दोसा रसगेहि अधिक्खाए, अविधि सइंगालपक्कमे माया । लोमे एसणघातो, दिटुंतो अज्जमंगृहि ॥१११६।। रसेसु गेही भवति । अण्णसाहूहि तो अहिगं खायति । भोयण - पमाणतो अहिगं खायति । एगो गहिस्स उद्धरित्तुं सुखं खायति इतरं छड्डेति । कागसियालअखइयं० २कारग गाहा। एवं अविही भवति । ___ इंगालदोसो य भवति । रसगिद्धो गच्छे अधिति अलभतो गच्छामो पक्कमति अपक्रमतीत्यर्थः । मायी मंडलीए रसालं अलभंतो भिक्खागप्रो रसालं भोत्तुमागच्छति । " भद्दकं भद्दकं भोच्चा विवणं विरस • माहारेत्यादि"। रसभोयणे लुद्धो एसणं पि पेल्लेति । एत्थ दिद्रुतो - अज्जमंगू मायरिया बहुरसुया बहुपरिवारा मयुरं मागता । तत्थ सड्ढेहिं परिज्जति ता कालंतरेण मोसण्णा जाता। कालं काऊण भवणवासी उववण्णो साहुपडिनोहणट्ठा मागमो। सरीरमहिमाए अद्धकनार १ एतत सूत्रम् ( २-४४ ) मुद्रितसूत्रप्रतो, (२-४३ ) सूत्रस्यांके वर्तते, च ( २ - ४३ ) अंकतम सूत्र ( २.४ ) सूत्रस्यांकेऽस्ति । २ नास्तीमा गाथा भाष्ये । ३ दश० ० ५ उ० २ । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाध्य-पूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ४४-४५ बीहं जिल्लाले ति । पुत्रो को भवं ? भणाति - प्रज्जमंगू हं । साधू सड्ढा य धणुसासिउं गतो । एते दोसा । पडिपक्खे अज्जसमुद्दा ते रसगिद्धीए भीता एक्कतो सव्वं मेलेउं भुजंति, तं च "मरसं विरसं या वि, सव्वं मुंगे न छड्डए" । सूत्राभिहितं च कृतं भवति ।। १११६ ॥ १२६ "2 "२ रसगिहि" ति श्रस्य व्याख्या - सुन्भी दढग्गजीहो, णेच्छति छातो वि भुंजिउं इतरं । आवस्यपरिहाणी, गोयरदीहो उ उज्झिमिया ॥ १११७ ॥ "इतरं" दुब्भिं तं लभंतो वि सुब्भिं भर्त्ताणमित्तं दीहं भिक्खायरियं ग्रड श्रावस्सएस परिहाणी भवति । दुब्भियस्स "उज्झिमिया" परिद्वावणिया ॥ १११७ ॥ farare" ति अस्य व्याख्या मणुष्णं भोयणज्जायं, भुंजंताण तु एकतो । : श्रधियं खायते जो उ, अहिक्खाए स बुच्चति ॥ १११८ ॥ मनसो रुचितं मनोज्ञ, "भोश्रणं" असणं, जातमिति प्रकार - वाचकः, साधुभिः सार्द्धं मुंजतः जो अधिकतरं खाए सो मंघिक्खाओ भण्णए ।। १११८।। जम्हा एते दोसा तम्हा विधी भुंजे, दिण्णम्मि गुरूण सेस रातिणितो । भुयति करंबेऊणं, एवं समता तु सव्वेसिं ॥ १११६ ॥ मादि का पुण विही ? जा हे आयरियगिलाणबालवुड्ढप्रादेसमा दियाणं उनकट्ठियं पत्तेयगहियं वा दिष्णं से मंडलिरातिणिश्रो सुब्भि दुब्भि दव्बाविरोहेण करंबेउं मंडलीए भुंजति । एवं सव्वेसि समता भवति । एवं पुख्ता दोसा परिहरिया भवंति ||१११६ ॥ कारण परिवेज्जा - बितियपदे दोणि वि बहू, मीसे व विगिंचणारिहं होज्जा । विचिणारि वा जवणिज्जगिलाणमा यरिए ॥ ११२० ॥ पूर्ववत् कण्ठा ।। ११२०॥ जं होज्ज अभोज्जं जं, चऽणेसियं तं विर्गिचणरिहं तु । विसकयमंतकथं वा, दव्वविरुद्ध कतं वा वि ॥ ११२१ ॥ पूर्ववत् । ११२१ ।। जे भिक्खुणं भोयणजायं पडिगाहेत्ता बहुपरियावन्नं सिया, अदूरे तत्य साहम्मिया संभोइया समणुन्ना अपरिहारिया संता परिवर्तति, ते १ दश० प्र० ५ उ० १-२ । २ भा० गा० १११६ । ३ खातो = बुभुक्षितः । ४ भा० गा० १११० । ५ जा० गा० ११११ । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १९१६-११२४ ] द्वितीय उद्देशक: १२७ - अणापुच्छिया अणिमंतिया परिट्ठवेति, परिहवेंतं वा साति ज्जति ।।सू०॥४॥ जं चेव सुन्भिसुत्ते सुब्भि भोयणं वुत्तं तं चेव माण्णं । अहवा - भुक्खत्तस्स पंतं पि मणुणं भवति । अट्टम - छट्ट - चउत्थ - प्रायंबिलेगासणियाण 'प्रोमच्छग परिहाणीए हिंडताणं असहू, सहूण जहाविधीए दिण्णच्चरियं । बहुणा प्रकारेण परित्यागमावन्न बहुपरियावन्न भण्णति । ण दूरे प्रदूरे मासणमित्यर्थः । “तत्थ" ति स्ववसघीए स्वग्रामे वा संभुंजते संभोइया, समणुण्णा उज्जयविहारी। चोदगाह - संभोइयगहणातो चेव अपरिहारिगहणं सिद्ध, किं पुणो अपरिहारिगहणं ? प्राचार्याह - चउभंगे द्वितीयभंगे सातिचारपरिहरणार्थ । “संत" इति विद्यमानः । जं चेव सुभिसुत्ते, वुत्तं तं भोयणं मणणं तु । अहवा वि 'परिभुसितस्स मणुण्णं होति पंतं पि॥११२२।। ""परिम्भुसितो" बुभुक्षितः । शेषं गतार्थम् ॥११२२॥ प्राचार्यो विधिमाह - जावतियं उवयुज्जति, तत्तियमेत्ते तु भोयणे गहणं । अतिरेगमणट्ठाए, गहणे आणादिणो दोसा ॥११२३॥ परिमाणतो जावतितं उवउजति तप्पमाणमेव घेत्तत्वं । अतिरेगं गेण्हते लोभदोसो, परिट्ठावणिय - बोसो य, प्राणा इणो य दोसा, संजमे पिपीलियादी मरंती, आयाए अतिबहुए भुत्ते विसूचियादी, तम्हा प्रतिषमाणं ण घेत्तव्वं ॥११२३॥ चोदग आह - तम्हा पमाणगहणे, परियावण्णं णिरत्थयं होती। अथवा परियावण्णं, पमाणगहणं ततो अजुतं १११२४॥ सस्माविति जति पमाणजुत्तं घेत्तव्वं तो परियावण्णगहणं णो भवति, सुतं णिरत्थय । प्रह परियावाणगहगं तो पमाणगहणमजुसं प्रत्थो णिरत्थतो ॥११२४) अह दोण्ह वि गहणं. एवं उभयविरोधे, दो वि पया तू णिरत्थया होति । जह हुंति ते सयत्था, तह सुण वोच्छं समासेणं ११२॥ अहवा - दो वि पदा णिरत्यया। १ दे० = अधोमुख । २ दिण्णं सत् उच्चरितं णाम उत्तीर्ण स्यात् । ३ तो जे ते(प्र०)। कोषे परिम्भुसित । ५ परिज्मुसित (५०) परिज्जुसित (सा०)। Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ सभाष्य-चूणिके निशीथसत्रे [ सूत्र-४५ आचार्याह - पच्छदं ॥११२५।। आयरिए य गिलाणे, पाहुणए दुल्लभे सहसदाणे । पुवगहिते व पच्छा, अभत्तछंदो भवेज्जाहि ॥११२६॥ जत्थ सड्ढाइठवणा कुला णत्थि तत्थ पत्तेयं सवसंधाडया प्रायरियस्स गेण्हति । तत्थ य प्रायरिमो एगएगसंघाडगाणीतं गेहति, सेसं परिहावणियं भवति । एवं गिलाणस्स वि सव्वे संदिट्ठा सव्वेहि गहियं । एवं पाहुणे वि। अहवा - को इ संघाडतो दुल्लम-दव्वखीरातिणा शिमंतितो सहसा दातारेण भायणं महंतं भरियं । एवं अतिरित्तं। अहवा - भत्ते गहिए पच्छा प्रभत्तछंदो जातो । एवं वा अतिरेगं होज्ज ॥११२६॥ एतेहि कारणेहि, अतिरेगं होज्ज पज्जयावण्णं । तमणालोएत्ताणं, परिहवेंताण आणादी ॥११२७।। जं तुमे चोइयं पज्जतावणं तमेतेहि कारणेहि हवेज्ज । तमेवं पज्जत्तावणं प्रणालोएता अणिमंतेत्ता परिट्ठवेति तस्स प्राणादी मासलहुं च पच्छित्तं ।।११२७॥ इमे य परिचत्ता - बाला वुड्ढा सेहा, खमग-गिलाणा महोदरा एसा । सब्वे वि परिच्चत्ता, परिहतेण ऽणापुच्छा ॥११२८॥ बाला वुड्ढा ऽभिक्खछुहा पुणो वि जेमेज्ज, सेहा वा प्रभाविता पुणो वि जेमेज्जा, खमगो का पारणगे पुणो जेमेज्ज, गिलाणस्स वा तं पाउग्गं, महोदरा वा मंडलीएण 'उवउट्टा जेमेज्जा, प्रादेसा वा तेहि भागता होज्ज, प्राणखिन्ना वा ण जिमिता पुणो जेमेज्ज । तत्थ प्रणापुच्छित्तुणं परिवेंतो एते सम्बे परिच्चत्ता ॥११०२८॥ इमं पच्छित्तं - शायरिए य गिलाणे, गुरुगा लहुगा य खमग-पाहुणए । गुरुगो य वाल-वुड्ढे, सेहे य महोयरे लहुओ ॥११२६॥ जति तेण भत्तेण विणा प्रायरिय - गिलाण-विराधणा भवति तो प्राणितस्स प्रणापुच्छा परिवेंतस्स चउगुरुगा, खमए पाहुणए य उलहुगा, बाले वुड्ढे गुरुगो, सेहे महोदरे लहुप्रो ॥११२६॥ चोदग प्राह - जदि तेसिं तेण विमा, आवाधा होज्ज तो भवे चत्ता। णीते वि हु परिभोगो, भइतो तम्हा अणेगंतो ॥११३०॥ १ उट्ठा (प्र०)। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ११२५-११३५ ] द्वितीय उद्देशक: १२६ "जति तेसि" आयरियादीगां तेण भत्तेण विणा परितावणाती पीला हवेज तो ते चत्ता हवेज्ज, जति गीए 'परिभोगः स्यात् २, तस्माद, गन्तत्वात् तेषामानीयमानेनावश्यं दोष इत्यर्थः ॥११३०॥ प्राचार्याह - भुजंतु मा व समणा, पातविसुद्धीए णिज्जरा विउला । तम्हा छउमत्थेणं, णेयं अतिसेसिए भयणा ॥११३१॥ प्रभुक्तेऽपि साधुभिः प्रात्मविसुद्धया नयतः विपुलो निर्जरालाभो भवत्येव । छपनि स्थितः - छद्मस्थ प्रनतिशयी तेनावश्यं नेयं । सातिसतो पुण जाणित्ता "भुंजई" तो गेति, मण्णहा ण णेति ॥११३१॥ चोदग आह - प्रायविसुद्धीए अपरिमुंजते कहं निर्जरा ? आचार्यो दृष्टान्तमाह - आतविसुद्धीए जती, अविहिंसा-परिणतो सति वहे वि। सुज्झति जतणाजुत्तो, अवहे वि हु लग्गति पमत्तो ॥११३२॥ यथा प्रात्मविशुद्धया यतिः प्रवजितः न हिंसा अहिंसा तदभावपरिणतः यद्यपि प्राणिनं बाधयति तथापि प्राणातिपातफलेन न युज्यते, यतनायुक्तत्वात् । पमत्तो पुण भावस्य प्रविशुद्धत्वात अवहेंतो वि पाणातिपातफले लग्गति ति ॥११३२॥ दिद्रुतोवसंहारमाह - एमेव अगहितम्मि वि, णिज्जरलाभो तु होति समणस्स । अलसस्स सोण जायति, तम्हा गेज्जा सति बलम्मि ॥११३३।। प्रगहिते वि भत्तपाणे प्रायविसुद्धीप्रो 0तस्स णिज्जरा विउला भवति । जो पुण अलसदोसबुत्तो तस्स सो णिज्जरालाभो ण भवति । तस्मानिर्जरालाभार्थिना सति बले नेयं ॥११३३॥ तथिमो कमो भणति - तम्हा आलोएज्जा, सक्खेते सालए इतरे पच्छा। खेत्तंतो अण्णगामे, खेत्तबहिं वा अवोच्चत्थं ॥११३४॥ "पालोएति" कहयति, "सक्खेते" स्वग्रामे, “सालए" स्वप्रतिश्रये जेट्ठिया संभोतिया ते भणाति - इमं भत्तं जइ अट्ठो मे तो घेप्पउ। जइ ते णेच्छंति ताहे अण्णे भणाति । "इतरे पच्छा" स्वग्रामे वा अण्णप्रतिश्रये, जति ते वि णेच्छति ताहे सखेत्ते अण्णगामे, जति ते पि णेच्छंति ताहे खेत्तबहि अण्णगामें कारणतो णिज्जति । एवं प्रवोच्चत्थं गेति । कारणे अण्णसंभोतिएसु वि एस चेव कमो॥११३४॥ उक्कमकरणप्रतिषेधार्थम् - भासण्णुवस्सए मोत्तुं, दूरत्थाणं तु जो गए। तस्स सव्वे व बालादी, परिच्चायविराधणा ॥११३॥ १ मजितः स्यात् । २ तो प्रायश्चितमपि स्यात् प्र.३ प्रवोचत्वमव्यत्यय-प्रविपरीत । १७ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [सूत्र-४६ प्रासणे मोत्तुं जो दूरत्थाणं पक्खवाएण णेति तस्स सा चेव बालातिविराहणा पुवुत्ता ॥११३५।। स्वजनममीकारप्रतिषेधार्थम् - ण पमाणं गणो एत्थं, ण सीसो णेत्र णाततमे। समणुग्णता पमाणं तु, कारणे वा विवज्जो ॥११३६।। मूलभेदो गणो, गच्छो वा गणो, सो पत्र प्रमाणं न भवति । मम सीसो मम स्वजनः इदमपि प्रमाणं न भवति । समणुण्णता संभोगो सोऽत्र प्रमाणं । कारणे पुण प्रासको मोत्तुं दूरे णेति, संभोतिए वा मोत्तुं अण्णसंभोतियाण वि णेति । तं पुण गिलाणाति कारणं बहुविहं ॥११३६॥ अववाएण अणेतो सुद्धो वितियपद होज्जमणं, दूरद्धाणे सपच्चवाए य । कालो वाऽतिक्कमता, सुब्भी लंभे व तं दुभिं ॥११३७॥ "अप्पं" स्तोकं प्रणेतो विसुद्धो, दूरं वा प्रद्धाणं दूरे प्रासपणे वा सपच्चवाए ण णेति, जाव आदिच्चो अत्थमेति, तेहिं वा सुन्भिं लद्धं, तं च पारिट्ठावणियं दुभिं, एवमादिकारणेहिं अणेतो विसुद्धो अपच्छित्ती ॥११३७॥ जे भिक्खू सागारियं पिंडं भुंजति, भुंजंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥४॥ जे भिक्खू सागारियं पिंडं गिण्हइ, गिण्हतं वा सातिज्जति ॥सू०॥४६।। सागारिओ सेज्जातरो, तस्सपिंडो ण भोत्तव्यो । जो भुंजति तस्स मासलहुं । सागारिउ त्ति को पुण, काहे वा कतिविधी व सो पिंडो । असेज्जतरी व काहे, परिहरितन्बो व सो कस्सा ॥११३८॥ दोसा वा के तस्सा, कारणजाते व कप्पते कम्हि । जतणाए वा काए, एगमणेगेसु घेत्तव्यो ॥११३६।। एताप्रो दारगाहारो "सागारिउ" ति अस्य व्याख्या - सागारियस्स णामा, एगट्ठा णाणवंजणा पंच । सागारिय सेज्जायर, दाता य धरे तरे वा वि ॥११४०॥ एगट्ठा एकार्थ-प्रतिपादका शकेन्द्रपुरन्दरादिवत्। "वंजणा" अक्सरा ते णाणाप्पगारा जेसि अभिधाणाणं ते अभिधाणा णाणावंजणा, जहा - घडो पडो । एते पंच पश्चानाभिहिता ॥११४०।। (१) कः पुनः सागारिको भवतीति चिन्तनीयम् । (२) कदा वा स शय्यातरो भवति । (३) कतिविधो वा "से" तस्स पिंड: । १ सागारिकपदमेकाथिकनामभिः प्ररूपणीयम्। २ तरे घरे चेव -बृहत्कल्पे उद्दे० २ भाष्यगाथा ३५२१ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ११२६-११४४. J (४) अशय्यातरो वा कदा भवति । (५) कस्य वा संयतस्य संबंधी स सागारिकः परिहर्तव्यः । (६) के वा तस्य सागारिकपिण्डस्य ग्रहणे दोषाः ! (७) कस्मिन् वा कारणे जाते असौ कल्पते । (5) कया वा यतनया सपिण्ड: । (६) एकस्मिन् वा सामारिके प्रनेकेषु द्वित्र्यादिषु सागारिकेषु ग्रहीतव्यः । इति द्वारगाथाद्वयसमासार्थः । सागारिय सेज्जाकर- दातारा तिष्णि वि जुगवं वक्खाणेति - गमकरणादगारं, तस्स हु जोगेण होति सागारी । सेज्जा करणा सेज्जाकरो उ दाता तु तद्दाणा ॥। ११४१ ॥ द्वितीय उद्देशकः इदाणि "धरेति" त्ति - " अगमा” रुक्खा, तेहि कत " अगारं ' घरं, तेण सह जस्स जोगो सो सागारिउ त्ति भष्णति । जम्हा सो सिज्जं करेति तम्हा सो सिज्जाकरो भणति । जम्हा सो साहूणं सेज्जं ददाति तेण भणति मेज्जादाता ।।११४१ ।। जम्हा धरेति सेज्जं, पडमाणीं छज्ज-लेप्पमादीहिं । जं वा तीए धरेती, परगा श्रयं धरो तेणं ॥ ११४२ ॥ जम्हा सेज्जं पडमाणि छज्ज-लेप्पमादीहि घरेति तम्हा सेज्जाघरो । ग्रहवा सेज्जादाण पाहणतो अप्पाणं गरकादिस पडतं घरेति त्ति तम्हा सेज्जावरो ॥। ११४२ । इदाणि "तरे" त्ति - गोवातूणं वसधि, तत्थ ठिते यावि रक्खितुं तरती । तदाणेण भवोघं, तरति सेज्जातरो तम्हा || १९४३ ।। इदाणि ""को पुण ति" दारं - १३१ सेज्जाए संरक्खणं संगोवणं, जेण तरति काउं तेण सेज्जातरो । अहवा तत्थ वसहीए साहुणो ठिता ते वि सारविखउं तरति तेण सेज्जादाणेण भवसमुद्र तरति त्ति सिज्जातरी ॥। ११४३|| सेज्जातरो त्ति दारं गतं । सेज्जातरो पभू वा, पशुसंदिट्ठो व होति कातव्वो । एगमणेगो व पभू पहुसंदिट्ठो वि एमेव । ११४४ ॥ को सेज्जातरो पहू, सो दुविहो- पभू वा पभुसंदिट्टो वा । पहू एगो प्रणेगे वा । पहुसंदिट्ठो एगो प्रणेगा वा ।। ११४४ ॥ १ भा० गा० ११३८ । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ सभाष्य-णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-४६ सागारियसंदिढे, एगमणेगे चतुक्कभयणा तु । एगमणेगा वज्जा, णेगेसु तु ठावए एक्कं ॥११४॥ एत्य सादेस्संतए य संदिट्टेसु य चउरो भंगा। १ एक्को पहू एवकं संदिसति । २ एगो पहू अणेगे संदिसति । एवं चउभंगो। एगो वा सेज्जातरो अणेगा वा सेज्जातरा वज्जेयव्वा । अववाए अणेगेसु ठावए एगं । एतं उवरि वक्खमाणं ॥११४५।। "को पुण" त्ति दारं गतं । इदाणि "'काहे त्ति" - अणुण्णवितउग्गहंऽगण - पाउग्गाणुण्ण अइगए ठविए । सिज्जाय भिक्ख भुत्ते, णिक्खित्ताऽऽवासए एक्के ॥११४६।। एत्थ णेगमणय - पक्खासिता पाहु। एक्को भणति - अणुण्णविए उवस्सए सागारिनो भवति । अण्णो भणति - जता सागारियस्स उग्गहं पविट्ठा । अण्णो भणति - जता अंगणं पविट्ठा। अण्णो भणति - जता पाउग्गं तणडगलादि अणुण्णवितं । अण्णो भणति - जता वसहि २पविदा अण्णो भणति - जदा दोद्धियादिभंडयं दाणाति कुलट्ठवणाए वा ठवियाए । अण्णो भणति - जता सज्झायं पाढत्ता काउ। अण्णो भणति - जता उवयोगं काउं भिक्खाए गता। अण्णो भणति - जता भुंजिउमारद्धा। अण्णो भणति - भायणेसु निक्खित्तेसु । अण्णो भणति – जता देवसियं आवस्सयं कतं । एकशब्दः प्रत्येकं योज्यः ॥११४६।। पढमे वितिए ततिए, चउत्थ जामम्मि होति वाघातो । णिवाधाते भयणा, सो वा इतरो व उभयं वा ॥११४७|| अण्णो भणति - रातीए पढमे जामे गते । अण्णो भणति - बितिए। अण्णो भणति - ततिए । अण्णो भणति - चउत्ये। आयरियो भणति - सव्वे एते प्रणादेसा एव होति । "वाघातो" ति "अणुष्णवितउग्गहं गणादिसु नाव-णिक्खित्तेसु' दिवसतो चेव । वाघाएण अण्णं वसहि अण्णं वा खेत्तं गताणं सो कस्स सागारिमो भवति ? १ मा० ११३८ । २ अइगया । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ११४५ - ११५२ ] द्विताय उद्देशकः श्रावस्सगादिसु रातो पढम-बितिय ततिय चउत्यजामेसु तव्वसहिवाघाएण बोहिताति भएसु य तत्थ अवसतो ण सागारिप्रो भवतीत्यतः सर्वे प्रनादेशा इत्यर्थः । " णिव्वाघाए भएण" त्ति जति ण गता णिव्वाघाएण, रति तत्थेव वुत्था, तो भयणा, सो वा सेज्जायरो, इतरो वा अण्णो उभयं वा ॥। ११४७।। ""सो वा इतरो व” त्ति अस्य व्याख्या जति जग्गंति सुविहिता, करेंति आवासगं तु अण्णत्थ । सेज्जातरो ण हांति, सुत्ते व कते व सो होति ॥। ११४८ ॥ "उभयं वा" ग्रस्य व्याख्या 'यदि " इत्यभ्युपगमे, रातीए चउरो वि पहरे जग्गति, सोभणविहिता "सुविहिता" साधव इत्यर्थः । अहोरत्तस्स चरमावस्सगं श्रण्णत्य गंतु करेंति स मे जातरो न भवति । जत्थ राउ द्विता तत्थेव सुत्ता तत्थेव चरिमावस्सयं कयं तो सेज्जातरो भवति ।। ११४८ !! - सेज्जायरस्स साय भयणा इमा वासग चरिममण्णहिं तु करे । अण्णत्थ वसीऊणं, दोणि वि तरा भवंती, सत्यादिसु अण्णहा भयणा ॥। ११४६ ॥ अण्णत्थ वसिउं चरिउं श्रावस्तयं जदि करेंति अण्णत्थ तो दो वि सेज्जातरा भवंति । इदं च प्रायसः सार्थादिषु संभवति "अण्णह" त्ति गामादिसु वसंतस्स भयणा ।। ११४६ ।। - सति सधीय वसु, वसमाणाणं तरा तु भइतव्वा । तत्थ ऽण्णत्थ व वासे, छत्तच्छायं च वज्जेति ॥ ११५० || जत्थ संकुडा वसही ण सव्वे साहो मायंति तत्य वीसुं अण्णवसहीए श्रद्धतिभागादि श्रागच्छति । एवं वसमाणाणं सेज्जातरा भइयव्वा । साप भयणा इमा जे सुए आगता ते जति तत्थेव कल्लदिणे सुत्तपोरिसि काउं श्रागच्छति तो दो वि सेज्जायरा । ग्रह मूलवसहिं प्रागम्म करेंति तो सेज्जांतरो ण भवति । जत्थायरिप्रो लाटाचार्याभिप्रायात् तत्थ वा श्रष्णत्थ वा वसंतु । "छत्तो" ग्रायरियो, तस्स छायं वज्र्जेति वसति स सेज्जायरो वज्जो । सेसा असेज्जातरा ।। ११५० ।। "काहे " त्ति दारं गतं । इदाणि " कतिविहो व सो पिंडो ति" दुविह चउहि उव्वह, अट्ठविहो होति बारसविधो वा । सेज्जातरस्स पिंडो, तव्वतिरित्तो पिंडो उ ।।११५१ ।। १३३ दुविहं चउव्विहं छव्विहं च एगगाहाए वक्खाणेति आधारोवधि दुविधो, बिंदु ऋष्ण पाण ओहुवग्गहिओ । असणादि चउरो ओहे, उवग्गहे छव्विधो एसो ।। ११५२ ।। आहारो उवकरणं च एस दुविहो । बे दुया चउरोति, सो इमो - अगं पानं श्रोहियं उवग्गहियं च | असणादि चउरो ओहिए ज्वग्गहिए य. एसो व्विहो ।।११५२।। १ गा० ११४७ । २ गा० ११४७ । ३ श्र दिने । ४ गा० ११३८ । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [ सूत्र-४७ इमो अदृविहो - ___ असणे पाणे वत्थे, पाते सूयादिगा ये चउरट्ठा । असणादी वत्थादी, सूयादि चउक्कगा तिण्णि ॥११५३॥ असणे पाणे वत्थे पादे, सुती प्रादि जेसि ते सूतीयादिगा-सूती पिप्पलगो नखरदनी कण्णसोहणयं । इमो बारसविहो - असणाइया चत्तारि, वत्थाइया चत्तारि, सूतियादिया चत्तारि, एते तिणि चउक्का बारम भवंति ॥११५३॥ इमो पुणो अपिंडो तण-डगल-छार-मल्लग, सेज्जा-संथार-पीढ-लेवादी । सेज्जातरपिंडेसो, ण होति सेहोव सोवधि उ ।।११५४॥ लेवादी, प्रादिसदातो कुडमुहादी, एमो सव्वो सेज्जातरपिंडो ण भवति । जति सेजायस्स प्रत्तो धूया वा वत्थपायसहिता पव्वएज्जा सो सेज्जातरपिंडो ण भवति ॥११५४।। इदाणि "असेज्जातरो व काहे" त्ति दारं - श्रापुच्छित-उग्गाहित, वसधीतो णिग्गहोग्गहे एगो । पढमादी जा दिवसं, तुच्छे वज्जेज्जऽहोरत्तं ॥११५५।। एत्थ नैगमनय - पक्षाश्रिता पाहुः । एगो भणति - जदा खेत्तपडिलेहएसु गएसु प्रायरिएणं अण्णोवदेसेण पुच्छितो भवति । 'उच्छू वोलंति ति गाहा। तदा असेज्जातरो भवति । अण्णो भणति - णिग्गंतुकामेहि उग्गाहिएहि असेज्जातरो। अण्णो भणति - वसहीयो जाहे णिग्गता। अण्णो भणति - सेज्जायरोग्गहातो जाहे णिग्गता । एगशब्दः प्रत्येकं । "पढमाति जाव दिवम्" ति - अणुगए सूरिए णिग्गता सूरोदयात्रो असेज्जातरमच्छंति । अण्णो भणति - सूरुग्गमे णिग्गताण जाव पढमपहरो ताव सेज्जातरो बितियाइसु अमेज्जानरो । अण्णो भणति - जाव दो जामा ताव सेज्जातरो, परतो असज्जातरो। अण्णो भणति - जाव तिणि जामा ताव सेज्जातरो परतो असेज्जातरो । अण्णो भणति - जाव दिवसं ताव सेजातरो परतो असेज्जातरो भवति । पढमाति जाव दिवसं अस्य व्याख्या "वुच्छे वज्जेज्जा" येनोक्तं "पदमपोरिमोए मोदय प्रारम्भ-जाव-चउत्थो पहरो ताव ण कप्पति परतो रातीए अचिंता' । अस्माकं प्राचार्याह - कुत एतत् ? । उच्छू वोलंति वई, तुंबीयो जायपुत्तभंडाम्रो । वसभा जायत्थामा, गामा पब्वाय चिक्खल्ला ॥ बृह० उ० १ भा० गा० १९२६ : Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गांवा ११५३-११५४ ] चोदगाह - द्वितीय उद्देशकः अग्गहणं जेण णिसिं, अणंतरेगंतरा दुहिं च ततो । ग्रहणं तु पोरिसीहिं, चोदग ! एते श्रणाएसा ॥। ११५६ ॥ यस्मात् रात्री ग्रहणं अस्माकं तस्मादचिता । अनंतर एगंतर दुअंतरपोरिसीहि जे गहणमिच्छंति स एवंत्रादी | ग्रहवा अन्यथाऽभिधीयते "आपुच्छिय उग्गाहिय वसहीश्रो णिग्गतोग्गहे " जंति गमणविग्धमुप्पण्णं ठे यह प्रसेज्जातरो भवति ? जे पुण पढमादि पहरविहागेण प्रसेज्जातरमिच्छति तेसि सूरत्थमणविणिग्गयाण प्राचार्याह - चोदक! एते सब्वे अणाएसा, इमो प्रदेसो वुच्छे - वज्जेज्जऽहोरतं, ण पहरविभागपारिकपणा विसेसो को विश्रत्थि । जतो भणति " "अग्गह" - आचार्याह - तो जेण श्रणंतर- एगंतर दुअंतराहि पोरिसीहि गहणमिच्छति । हे चोदक ! कारण एते सर्वे श्रनादेशा । एतं प्रायरियवयणं । वज्जो | - इमो एसो - जावतिएणं असेज्जातरो भवति । जहणेण चउजामेहिं गतेहि उक्कोसेणं बारसहिं । कहं चउरोजामा ? सूरत्थमणवेलाए दिवसतो णिग्गताणं रयणीए चउरो जामा । सूरुग्गमे प्रसेज्जातरो गतं ।। ११५६॥ १३५ सूरत्थमणम्मि तु णिग्गताण दोण्ह रयणीण अट्ठ भवे । देवसिय मज्झ चउरो, दिणणिग्गत वितिय सा वेला ॥११५७॥ उक्कोसेणं इमं ण सूरत्थमणे राम्रो णिग्गता रातीए चउरो जामा, पभाए दिवसस्स चत्तारि जामा, बीयरातिए चत्तारि, एवं बारसण्हं जामाणं अंते उक्कोसेण श्रसेज्जातरो । एस एक्को प्रादेसो । इमो बिति "च्छे दज्जेज्ज ग्रहोरत्तं" ति श्रस्य व्याख्या - "दिणणिग्गय बितिय सा वेला" । सूरुद दिवसतो णिग्गता बितिय दिवसे ताए चैव वेलाए असेज्जातरो, एवं ग्रहोरतं वज्जियं भवति । प्रातरो व काहे ति दारं गयं ।। ११५.५ ।। इदाणि "परिहरियवो व सो कस्से" ति दारं - लिंगत्थस तु वज्जो, तं परिहरतो व भुंजतो वा वि । जुत्तस्स अजुत्तस्स व रसावणो तत्थ दिट्ठतो ॥ ११५८ ॥ '' साधुगुणवज्जिश्रो जो लिंगं घरेति तस्स जो सेज्जातरो तस्स पिंडं सो भुंजउ, मा वा भुंजउ तहावि चोदगो भणति - साहुगुणेहि प्रजुत्तस्स कम्हा परिहरिज्जिइ ? आयरिश्रो भइ - साहुगुणेहि जुत्तस्स वा अजुत्तस्स वा वज्जणिज्जो । १ मा० गा० ११५६ । २ गा० ११३६ । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-४७ ___ एत्थ दिद्रुतो "रसावणो" रसावणो नाम मज्जावणो। मरहट्टविसए रसावणे मज्जं भवतु मा वा भवतु तहावि तत्थ ज्झयो बज्झति, तं ज्झयं दटुं सच्चे भिक्खायरियादी परिहरंत्ति "प्रभोज्जमि" ति काउं । एवं प्रम्ह वि साधुगुणेहिं जुतो वा अजुत्तो वा भवति, रयहरण ज्झयो जतो दीसति ति काउं परिहरंति दारं ॥११५८।। "'दोसा वा के तस्स" त्ति दारं - तित्थंकरपडिकुट्ठो, प्राणा-अण्णाय-उग्गमो ण सुज्झे । अविमुत्ति अलाघवता, दुल्लभ सेज्जा य वोच्छेदो ।।११५६॥ "तित्यकरपडिकुट्टो त्ति" अस्य व्याख्या - तित्थगरा ऋषभादयः तेहि पडिकुट्ठो प्रतिषिद्धः ।।११५६॥ पुर-पच्छिमवज्जेहिं, अवि कम्मं जिणवरेहिं लेसेणं । शुत्तं विदेहएहि य, ण य सागरियस्स पिंडो तु ॥११६०॥ "पुरिमो'' रिसभो, 'पच्छिमो" वद्धमाणो, एते दो वि मोतं. "अवि" संभावणे, तेसि मज्झिमेगाणं बावीसाए जिणिदाणं प्राहाकम्म भुत्तं “लेसेणं'' ति सुत्तादेसेणं, महाविदेहे खेत्ते जे साहू तेहि अ सुत्तादेसेण कम्म भुत्तं, ण य सागारियस्स रिडो । एवमसौ प्रतिषिद्धः । "राणाए" व्याख्या - सव्वेसि सि आणा, तप्परिहारीण गेण्हता ण कया। अण्णातं च ण जुज्जति, जहिं ठिता तत्थ गिण्हतो ॥११६१।। तं सेज्जातरपिंडं परिहरंति जे ते तप्परिहारी । ते य 3तित्थकरा। तेसि सव्वेसि सेज्जायरपिंड गेण्हता प्राणा कता भवति । "अण्णाय उच्छंति" अस्य व्याख्या - पच्छद्धं जेसिं चेव घरे ठितो तेहिं चेत्र घरे ठितो तहि चेव गेण्हतस्स अण्णायउँछंण घडतीत्यर्थः ।।११६१।। ""उग्गमो ण सुज्झति" अस्य व्याख्या - बाहुल्ला गच्छस्स तु, पढमालियपाणगादिकज्जेसु । सज्झायकरणमाउर्दिया करे उग्गमेगतरं ॥११६२॥ गच्छाणं बहुत्तेणं बाहुल्ला, गच्छे माहु - बहुतणेश वा बाहुल्ला, पढमालियपागमट्ठता पुणो पुणो पविसंतेसु उग्गमदोसेगतरं करेज्ज । अहवा स्वाध्यायमंता साधबो करणचरित्तमता साहवो एवं पाउट्टिया उग्गमदोसे करेज ॥११६२।। "अविमो त्ति" व्याख्या - प्रविमो ति भावः अविमुक्तिः गृद्धिरित्यर्थः । दव्ये भावेऽविमुत्ती, दव्वे वीरल्ल हारुबंधणता । सउणग्गहणाकड्ढण पइद्धमुक्के वि आणेति ॥११६३॥ १ गा० ११३८ । २ गा० ११५६ । ३ पदमचरमतित्थयरसाहूणं । ४ गा० ११.६।५ गा० ११५६ । - ६ गा० ११५६ । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ११५६-११६६ ] द्वितीय उद्देशकः अविमुक्तिः दुविधा - दव्वे भावे य । दव्वे वीरल्लसउणिदितो वीरल्लो श्रीलायगो सो हारु तंतीति पायबद्धो जत्थ तित्तिराति सउणो दीसति तत्थ मुंचति, तम्मि सउणं गहिते जदा उत्पत्तिो तदा तंतीउ श्रागड्ढियागयस्स हत्यतले मंसं दिज्जति । एवं सुभाविप्रो मंसपरिद्धो २ वि गावि हारुणीए सउणं मेतुं भागच्छति । ।। ११६३।। इयाणि भावाविमोत्ती - भावे उक्कोस -पणीत - गेहितो तं कुलं ण छड्डेति । हाणादी कज्जेसु वि, गतो वि दूरं पुणो एति ||१९६४ ॥ "भावे" त्ति भावप्रविमुत्ती उनकोसदव्वे खीरातिए "पणीतं" घृतं जेसु कुलेसु लब्भइ ते कुले न छड्डेड गेहियो । हवा - तित्थगर परिमाणं ण्हवणपूया रहजत्ताइसु कुलाइकज्जेसु वा दूरं पि गयो पुणो ते कुले एति गेहिश्रो ।। ११६४॥ इयाणि "अलाघवे" त्ति अस्य व्याख्या - लघुभावो लाघवं न लाघवं अलाघवं, मित्यर्थः । तं प्रलाघवं इमं दुविहं - उवधी - सरीरमलाघव, देहे णिद्धादिविहितसरीरो | संघसण सासभया, ण विहरति विहारकामो वि ॥११६५ || उवकरणालाघवं इमं वही सरीरे य प्रलाघवशब्दः प्रत्येकं योज्यः । " देहे" त्ति सरीरालाघवं भणति - घयखीरातिणिद्धज्वहारेगं प्रविहतो परिवृढसरी रो णिसज्जण संघसणभया सासभया वा ण विहरति विहरणकामो वि ।। ११६५ ।। १३७ - सागारिपुत्त-भाग- णत्तुग-दाणमतिखद्ध भारभया | ण विहरति श्रम सावत णिय ऽगणि-भाणए दोति ॥। ११६६ ॥ बहूपकरण सागारिओ सेज्जातरो, पुत्त भाय पुत्तस्स पुत्तो पत्तुनो, “दाणं" ति एतेहिं बहु सूवकरणं दत्तं, तब्भारभया तेणभ्या वा वोढुमसमत्यो य ण विहरति विहारकामो वि । "ओम" ति प्रण्णया दुब्भिवखं जातं, सो य साहू ण विहरति । सावगेण चितियं " म्हे ता बहुपुत्तणत्तुयादिपडिबद्धा ण विहरामो एस साहू किं ण विहरति ?” णू बहूवकरणपsिबद्धो तेन न विहरइ । तो ते सावएण साहुस्स भिक्खा दिविणिग्गयस्स सव्वोवकरणं संगोवेडं मायाविणा होउं उवस्सश्रो प्रगणिणा पलीविप्रो । साहू ग्रागग्रो हा कटुं करेति, बहूवकरणं दड्ढं । सावगं पुच्छति - कि चि श्रवणीयं ? सो भणति ण सक्कियं परं दो भायणे अवणीते । बितिय दिणे साहू भणइ - गच्छामि णं जो सुभिक्खं । सावएण भणियं अवस्सं सुभिक्खीभूते पुणो एज्जसु । पडिवण्णी । पुणो प्रागस्स सब्भावो कहियो । उवकरणं च से दिष्णं । एते दोसा लाघवे ।। ११६६ ॥ १ श्येनपक्षी । २ पगिद्धो प्र० । ३ गा० ११५६ । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र- इदाणि "'दुल्लभसेज्ज" त्ति अस्य व्याख्या - वासा पयरणगहणे, दोगच्चं अण्ण आगते ण देमो। पयरण पत्थिं ण कप्पइ, असाधु तुच्छे य पण्णवणा ॥११६७॥ एगम्मि णगरे सेट्ठिघरे एगनिवेसणे पंचसइनो गच्छो वासासु ठितो। सो य सेज्जातरो अपण्णविप्रो पण्णविनो वा घरे भणाति - जति साहू घरातो भिक्खकाले पढमं तुच्छेण रिक्कण मायणेण निग्गच्छंति तो अमंगलं भवति । ततो सव्वसाहूणं दिणे दिणे भिक्खं देज्जाहि । ते साधवो प्रोमकारणे तम्मि सेट्टिसेज्जायरकुले दिणे दिणे एक्केको साहुसंघाडो पढम पयरणं भिक्खं गेहति । ते साहु पुणे वासाकाले गता । तस्स य कालेण दोगच्चं दरिद्दता जाता। अण्णे साहवो पागया वसहि मग्गंति । सो भणांति अस्थि वसही, ण पुण देमो। साघुहिं भणियं - किं कारणं ण देसि ? सो भणाति - पयरणं णत्थि, तेण ण देमो । साहू भणति ण कप्पति अम्हं पयरणं घेत्तुं । सो भणाति - जइ साहू मम घरानो तुच्छेण रिकोण भायणेणं णिग्गच्छंति अमंगलं भवति । ताहे सो पण्णविनो, वसही य दिण्णा । एते दोसा ।।११७७।। इदाणि “२वोच्छेदे" त्ति अस्य व्याख्या - थल-देउलियट्ठाणं, सति कालं दटु दट्ठ तर्हि गमणं । णिग्गते वसही भुंजण, अण्णे उभामगा ऽऽउट्टा ॥११६८॥ एगो गामो तस्स मज्झे थलं । तम्मि थले गामेण मिलित्तु देउलं तं । तत्थ साहू रिता, सा सव्वो गामो सेज्जातरो । ते य साहू भिक्खाकालं पडियरंता जत्थ जत्य घरे सति कालं देवखंति तत्थ तत्थ गच्छंति । एवं ण किं चि बुलं दिणे दिणे छुट्टति । एवं ते गिहत्था णिविण्णा । गतेसु तेसु साहुसु देवकुलिया भगा । मा अण्णो वि कोवि ठाहिति । एवं सेज्जाविच्छेदो भवति । अण्णम्मि एरिसे थलग्गामे अण्णे साहू ठिता। ते सग्गामे ण हिंडंति, बहिं भिक्वायरियं करेंति सज्झायपरा य अच्छति । प्राउट्टो लोगो, णिमंतेति, साह भणंति - बालादीण कज्जे य घेच्छामो। एवं कज्जे सुलभं भवति, ण य वसहि - वोच्छेप्रो ॥११६८॥ “दोसा वा के तस्स" त्ति दारं गतं। इदाणि कारणजाते च कप्पति कम्हि" त्ति अस्य व्याख्या - दुविधे गेलण्णम्मि, णिमंतणा दव्वदुल्लभे असिवे । ओमोयरियपदोसे, भए य गहणं अणुण्णायं ॥११६६॥ दुविधं प्रागाढाणागाढं गेलणं ॥११६६।। तत्थ - तिपरिरयमणागाढे, अागाढे खिप्पमेव गहणं तु । कज्जम्मि छंदिया घेच्छिमो त्ति ण य वेंति उ अकप्पं ॥११७०।। १ मा० ११५६ । २ गा० ११५६ । ३ गा० ११३६ । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ११६७-११७४ ] द्वितीय उददेशक १३६ प्रणागाढे तिग्निवारा पाहिडिउं जति न लद्धं गिलाणपाउग्गं ततो च उत्थवाराए सेज्जातरपिंड गेव्हंति । आगाढे पुण गेलण्णे - खिप्पमेव सेज्जातरपिंडगहणं करेंति । "णिमंतणे" त्ति दारं -"छंदिता" नाम णिमंतिता भणंति "जया कज्जं तया घिच्छामो" ण य साहू भणंति - जहा तुम्ह. पिंडो अम्हंण कप्पति ॥११७०॥ अहवा - छंदिया एवं भणंति । जं वा असहीणं तं, भणति तं देहि तेण णे कज्जं । अतिणिब्बंधे व सतिं (सई), घेतूण पसंग वारेति ॥११७१॥ जं द्रव्यं, वा विकल्पप्रदर्शने, "प्रसहीणं" ति घरे णस्थि तं, साहू भणति - अमुगं दवं देहि तेण दब्वेण अम्ह भारियं कज्ज। अहवा - सेज्जातरस्स ग्राहं प्रति प्रतिणिबंधे "सई" तु सकृद्ग्रहणं कुर्वन्ति । तमेवं कारणे सकृद् गृहीत्वा प्रसंग णिवारयंतीत्यर्थः ॥११७१।। "दव्वदुल्लभे" त्ति अस्य व्याख्या - दुल्लभदव्वे च सिया, संभारघयादि घेप्पते तं तु । असिवोमे पणगादिसु, जति ऊणमसंथरे गहणं ॥११७२॥ दुल्लभदव्वं अण्णत्थ ण लन्भति, स्याद् अवधारणार्थे, बहुदव्व-संभारेण कतं घृतं तेल्लं वा खोरादि वा गिलाणवा सेज्जातरघरे घेप्पज्ज । “असिवे प्रोमे" " अण्णो पणगादि जतिऊण जाहे न संपरेति ताहे सेज्जातरकुले गहणं करेति ।।११७२।। "पदोसे" त्ति रायढे अस्य व्याख्या - उवसमणट्ट पउ8 सत्था वा जाव ण लभते ताव । अच्छता पच्छण्णं गेहंति भये वि एमेव ॥११७३।। पउढुस्स रणो उवसमणट्ठा अच्छता भत्तपडिसेहे सेज्जातरपिंडं गेण्हति । णिव्विसताण वा जाव सत्यो ण लब्मति ताव पच्छन्ना अच्छंता मा अडते राया रायपुरिसा वा दच्छिंति, अतो अंतो सेज्जातरकुले गेव्हंति । बोधियतेणेसु सग्गामे अलभते भिक्खायरियं च गंतुं ण सक्कंति प्रतो सेज्जातरकुले गेण्हंति ॥११७३।। ""जयणाए वा काए" त्ति अस्य व्याख्या - तिक्खुत्तो सक्खेत्ते, चउद्दिसि मग्गिऊण कडजोगी। दव्वस्स तदुल्लभया, सागारि णिसेवणा दवे ॥११७४॥ सक्कोसजोयणभंतरे सग्गामपरग्गामेसु ततो वारा तिक्खुत्तो मग्गिऊणं एवं समततो कए जोगे जाहे ण लभति भिक्खं दुल्लभदव्वं वा ताहे सागारियदव्वं णिसेविज्जति भुज्जते इत्यर्थः ॥११७४।। एगस्स सेन्जातरस्स विहाणं गतं। १ गा० ११६६ । २ अत्यावश्यकम् । ३ गा. १९६६ । ४ गा० ११६६। ५ गा० ११६६ । ६ गा० ११६९ । ७ गा० ११३६ । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० सभाष्य-चूणि के निशीथसूत्र [ सूत्र ४१-४२ "'इदाणिं एगमणेगेसु घेत्तव्यो" ति अस्य व्याख्या - णेगेसु पिता-पुत्ता, सवत्ति वणिए घडा वए चेव । एतेसिं णाणत्तं, वोच्छामि अहाणुपुवीए ॥११७॥ __ अणेगसेज्जातरेसु इमे विहाणा - पितापुत्ताणं सामण्णं घरं देवकुलं वा तम्मि पउत्थे, सवित्तिणीसामण्णं वा, बहुवणीयसामणं वा, एगम्मि वा अणेगहा ठिते ति । घडा गोट्ठी सामण्णं, वए गोकुले गोवालगधणियसामण्णं खीरादी, एतेसि पियापुत्तादियाण सरूपं, वक्ष्ये ।।११७५॥ पितापुत्त त्ति एते दोवि दारा जुगवं वच्चंति । एतेसिं इमे दारा - पियपुत्तथैरए वा, अप्पभुदोसा य तम्मि तु पउत्थे । जेट्ठादि अणुण्णवणा, पाहुणए जं विहिग्गहणं ॥११७६।। 3पियपुत्तथेरए वा अस्य व्याख्या -- दुप्पभिति पितापुत्ता, जहिं होंति पभू ततो भणति सव्वे । णातिक्कमति जं वा, अपभुं व प, व तं पुव्वं ।।११७७।। दुप्पभिति पितापुत्ताणं जे पभू दो तिणि वा ते सव्वे अणुणवेंति, जं वा प, वा णातिक्कमंति तं पुत्वं प्रगुण्णवैति ॥११७७॥ "४ अप्पभुदोसा य" अस्य व्याख्या - अप्पभु लहुओ दिय णिसि चउ णिच्छूटे विणास गरहा य । असधीणम्मि पभुम्मि तु, सधीण जेट्ठादणुण्णवणा ।।११७८।। जइ अप्प/ अणुण्णवेति मासलहुं, दिया जइ पभू णिच्छुभति चउलहुँ, राप्रो चउगुरु, राम्रो णिच्छूढा ते सावरहिं विणासं पावेज्जा, दिया रातो वा णिच्छूढा अण्णतो वसहि मग्गंता लोगेण गरहिज्जति किं वो सुभेहिं कम्मेहि घाडिया । अम्हे वि ण देमो। ""तम्मि उ पउत्थे जेद्रादि अणण्णवणा" अस्य व्याख्या - पश्चाद्ध । पभू पिता जदि असहीणो पविसितो जो जेट्ठो पुत्तो सो अणुण्णविज्जति । ततो अणुजेट्ठादि सव्वे वा पभू तो जुगवं । जे वा णातिक्कमति तं पुव्वं । एवं बहु - भेदे तहा अणुण्णवेति जहा दोसो ण भवति ।। ११७८।। "पाहुणए” त्ति अस्य व्याख्या - पाहुणयं च पउत्थे, भणंति मित्तं व णातगं वासे । तं पि य आगतमेत्तं, भणंति अमुगेण णे दिण्णं ॥११७६।। . १ गा० ११३६ । २ गृहे सपत्नि। ३ गा० ११७५ । ४ गा० ११७६ । ५ गा० ११७६ । ६ गा० ११७६ । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ११७५---११८३ ] द्वितीय उद्देशकः १४१ पभुम्मि 'पउत्थे तस्स य "२अब्भरहितो पाहुणो प्रागमो सो अणुण्णविज्जति । अहवा - मित्तो अणुणाविज्जति । स्वजनो वा से अणुण्णविज्जइ । तं पि य पशुं प्रागयमेत्तं एवं भणति - अम्हट्ठा गो अमुगेण दिण्णो । सो य इट्ठणामगहणे कते ण धाडेति ।।११७६॥ अप्पभुम्मि इमा विधी - अप्पभुणा तु विदिण्णे, भणंति अच्छामु जा पभू एति । पत्त तु तस्स कहणं, सो तु पमाणं ण ते इतरे ॥११८०॥ अप्पभू अणुणविप्रो भणति - अहं ण याणामि, ताहे साहू भणंति - जा पभू एति ता अम्हं ठागं पयच्छ । एवं अप्पभुगापि दिये अच्छंति प्रागते पहुम्मि तस्स जहाभूतं कहेंति, कहिए तो सो घाडेति वा देति वा स तत्र प्रमाणं भवति, " ते इतरे - अप्पभृणो प्रमाणमित्यर्थः ।।११८०।। "जं विहिगहणं" ति - जं विहीते. गहण तं अणुणातं अविहि - गहणं णाणुण्णायं । इति एस अणुण्णवणा, जतणा पिंडो पभुस्स वज्जो तु । सेमाणं तु अपिंडो, सो चिय वज्जो दुविधदोसा ॥११८१।। एस अणुण्णवणा, जयणा भणिया । इदाणि सेज्जातरपिडजयणा - जो पभू तस्स संज्जातरो ति काउ घरे भिक्खापिंडो वज्जो। सेसाणं अपहूण घरे 'ण सेज्जातरपिंडो तो वि सो वज्जो, भद-पंत-दोसपरिहरणत्थं ॥११८१।। "पियापुत्त" त्ति गयं। इदाणि ""सवित्तिणि" त्ति दारं - एगे महाणसम्मी, एगतो उक्खित्त सेसपडिणीए । जेहादि अणण्णवणा, पउत्थे सुतजेट जाव पभू ॥११-२॥ अम्या पश्चार्धस्य तावत् पूर्व व्याख्या - पभुम्मि प उत्थे जा जेट्टतरी भज्जा तमणुण्णवेति । तस्सासति अणुजेट्टाती । जस्स वा मुतो जेट्टो । अपुत्तमाया वि जा पभू तं वा अणुण्णवेति ॥११८२॥ इणमेवत्थं किचि विसेसियं भण्णति - तम्मि असधीणे जेट्ठा, पुत्तमाता व जाव से इट्ठा । अथ पुत्तमायसव्वा, जीसे जेट्ठो पभू वा वि ॥११८३॥ तग्मि घरसामिए असहीणे पवसिते जा जेट्ठा पुतमाता सा अणुणविज्जति । ग्रह दो वि जेट्टा पुत्तमाताप्रो य जा इट्टतरा सा अशुष्णविज्जति । ग्रह सव्वातो जेट्टायो, सपुत्तानो, इट्टायो य तो जीसे प्रत्तो जेट्टो सा अणुष्णविज्जति । अह जेट्ठो वि अप्पभू तो कणिट्ठयपभू माता वि अणुण्णविज्जति । अहवा जेट्ठा वा अजेट्ठा वा पुत्तमाता इतग वा जीए दिणणं णातिक्कमति तमगुण्णवेति । एसा अणुण्णवणा ॥११८३।।। १ प्रोषिते । २ पूज्य: । ३ भूमि । ४ गा० ११७६ । ५ गा० ११७५ । Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-४, इमा पिंडगहणे विही - असधीणे पभुपिंडं, वजंती सेसएसु भद्दादी। साथीणे जहिं भुंजति, सेमेसु व भद्दफ्तेहिं ॥११८४॥ 'प्रसहीणे सेज्जातरे जा पभुसवित्तिणी तीए पिंडं वजेति । सेस-सवित्तिणि-घरेसु ण सेज्जातरपिंडो, भद-पंतदोसणिमित्तं तेसु वि परिहरति । . अहवा - साहिणो सेज्जातरो तो जत्य भुंजति तत्य वजणिजो, सेसेसु ण पिंडो, दु-दोसाय परिहरंति । एवं पच्छद्ध गाहाते वक्खाणियं । इदाणि पुव्वद्ध वक्खाणिज्जति “एगे महाणसम्मि एगतो उक्खित्त सेसपडिणीए" ति । इमा भंगरयणाएगत्व रद्धं, एगत्थ भुत्तं । एगत्य रखें, वीसु भुत्तं । वीसुं रखें, एगत्य भुत्तं । वीसुं रखें, वीसु भुतं । एक महाणसम्मि एक्कतो त्ति एगो रद्धं, एगो त्ति भुत्तं, एस पढमभंगो। उक्खित्तसेसपडिणीते ति उक्खित्तं प्रतिणीयं भोजनभूमीए वीस रखें । एस ततियभंगो। दितिय-चउत्था भंगा प्रवजणिज्ज ति काउण गहीता ।११८४।। एतेसु भंगेसु इमा गहणविधी - एगत्थ रंधणे भंजणे य वज्जति भत्तसेसं पि। एमेव विम् रद्ध भुंजति जहिं तु एगट्ठा ॥११८५।। पढमभंगे भुत्तसेसं घरं पडिणीयं तं पि वजेति, "एमेव विसू रद्धे" ति ततियभंगे वि एवं चेव । एवं असहीणे भतारे॥११८५।। साहीणे पुण इमो विही - णिययं च अणिययं वा, जहिं तरो मुंजती तु तं वज्ज । सेसेसु न गेहंती, संछोभगमादि पंता वा ॥११८६॥ णितियं एगमज्जाए घरे दिणे दिणे भुंजति, प्रणितियं वाराण भुजति । एवं णितियं प्रणितिय वा जहि सेज्जातरो भुजति तं वज्जणिज्जं, सेसमजाघरेसु ण सेजातरपिंडो । तहावि ण गेष्हति, मा भद्दपंतदोसा होज्जा । भद्दो संछोभगाती करेज्ज, पंतो दुद्दिठ्ठधम्मा णिच्छुभेज्ज ॥११८६॥ सवत्तिणि त्ति गतं । इदाणि "3वणिए" त्ति दारं - दोसु वि अन्बोच्छिण्णे, सव्वं जंतम्मि जं तु पायोग्गं । खंधे संखडि अडवी, असती य घरम्मि सो चेव ॥११८७॥ १ विदेशं प्रयाते । २ गा० ११८२। ३ गा० ११७५ । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ११८४-११६१] द्वितीय उद्देशक: १४३ एस पुरातणा दारत्थगाहा । सेज्जातरो वणिज्जेणं गंतुकामो सकोस - जोयणखेत्तस्स अंतो बहि वा गिपगमएग ठिो, दोसु वि घरेसु जत्थ वा ठितो भत्तादी अयोच्छिन्नं प्राणिज्जति णिज्जती य तदा सेज्जातरपिंडो त्ति ण घेत्तव्वं । 'जंतम्मि" पट्टिते तद्दिामणदिशा-णीयं वा सव्वं घेप्पति, सर्वशब्दस्यातिप्रसंगाद्यप्रायोग्यमित्यर्थः ॥११८७।। इणवत्थं विसेसियमाह - णिग्गमणादि बहिठिते, अंतो खेत्तस्स वज्जए सव्वं ।, चाहिं तद्दिणणीतं, सेसेसु पसंगदोमेणं ॥११८८|| दोसु वि" त्ति अस्य व्याख्या - सेज्जातरो णिगमएण खेत्तस्स अंतो बहि ताव ठितो, अंतो ठियस्स तहिणणीग्रमण्णदिणणीयं वा सव्वं सेजातडउ त्ति वजते । खेत्तबहिं ठियस्स सेजायरो त्ति का तद्दिणगीयं सेजातरपिंडो। सेसदिणणीयं जं परियासियं तत्थ वा उवसाहियं ण सेजायरपिंडो, 'ण पुण गेण्हंति, भद्दातिदोसनिवृत्यर्थम् ॥११८८॥ "अव्वोच्छिन्न" त्ति अस्य व्याख्या : ठितो जदा खेत्तवहिं सगारो, असणादियं तत्थ दिणे दिणे य । अच्छिण्णमाणिजनि निजते वा, गिहा तदा होति तहिं विवजं ॥११८६॥ खेतबहिठियस्स सेज्जायरस्स असणादी तं दिणे दिणे अब्बोच्छिण्णं प्राणिज्जति घराओ, ततो य घरं गिज्जति तदा सव्वं वज्जणिज्ज ॥११८६।। "४सव्वं जंतम्मि' अस्य व्याख्या - बाहिठितपद्वितस्स तु, मयं च संपत्थिता तु गेण्हति । तत्थ तु भद्दगदोसा, ण होंति ण य पंतदोमा तु ॥११६०॥ खेतबहिडतो जाए वेलाए संपट्टितो तद्दिणमण्णदिणणोतं वा देंतस्स सव्वं घेप्पति, सयं वा साहुणो "पट्टिता सवं गे पहंति, 'ण य तत्थ भद्दपंतदोसा भवंति, पुनर्गहणाभावादित्यर्थः ।।११६०॥ खंधे - संखडि - अडवी तिण्णि वि एगगाहाते वक्खाणेति - अंतो बहि कच्छ-पुडादि वाहते पसंगदोसा तु । देउल जण्णगमादी, कट्ठादऽडविं च यच्चंते ॥११६१॥ सेज्जातरो खेत्तस्म अंतो बहिं वा गहियलंजो कच्छपुडो होउ - कक्खपदेसे पुडा जस्स स कच्छपृडयो - "गहियोभयमुत्तोलि' त्ति वुत्तं भवति, संबलं जेण ववहरतो साहणं जइ दधिखीरादि दवावेति, जइ खेतंतो बहि वा जणवदसामण्णं पत्तेयं वा संखडि वा करेज्जा; देव उलजण्णग-तलागजण्णगादि एत्थ वा देज. अवि वा कटुच्छेदणादि गिमित्तं गहिय - पच्छयणो गच्छंतो अंतो बहि वा खेत्तस्स देज्ज. एतेसु तिसु वि सेज्जातरपिंडणिद्धारणत्थं भण्णति ॥११६।। १ वाणिज्येन । २ गा० ११८७ । ३ गा० ११८७ । ४ गा० ११८७ । ५ पूर्णे मासकल्पे संप्रस्थिताः बृह० क० उद्द०२ भा० गा० ३५७१ । ६ गा० ११८७ । ७ पच्छदन:पाथेय ।। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे तणिमण्णदिणं वा, तो सामारियस्स पिंडो तु । सव्वेसु बाहि तद्दिण, सेसेसु पसंगदोसेणं ॥११६२ ॥ तिसु विखेत्तम्भंतरे तद्दिणमण्णदिणं वा णीयं सव्वं सेज्जातरपिंडो भवति । ' सव्वेसु" ति संघ - संखप्रिडविद्द | रेसु बाहि खेत्तस्स तद्दिणसंतयं सेज्जायरपिंडो, सेसदिणसंतयं ण पिंडो । पसंगदोसा पुण ण घेप्पति । सती य घरम्मि सो चेव" त्ति अस्य व्याख्या "असति" ति सयं सपुत्तबंधवो घरे णत्थि ति ग्रणविसर्याद्वितो विसों चैव सेज्जात रो " प्रणविसयद्वितस्स वा सो चेव घरे पिंडो" एसेवत्थो भणति ।।११६२ ।। 64 २ दाऊण गेहं तु सपुत्तदारो, वाणिज्जमादी जदि कारणेहिं । तं चैव ष्णं च वदेज्ज सं, सेज्जातरो तत्थ स एव होति ||११६३ ॥ घरं साहूण दाउ सपुत्तपसुदारो वाणिज्जमादिकारणे तं वा देसं घण्णं वा देतं गतो तत्थ वि ठितो, जति तस्स घरस्स सो सामी तथा सो चेव सेज्जातरो ॥ ११९३ ॥ इदाणि " उघड" त्ति दारं - महतर अणुमहयरए, ललितासण- कुंडुग-दंडपतिए य । एतेहिं परिगहिता, होंति घटाओ तथा कालं ।। ११६४॥ " महत्तरग्रणुमहत्तरे ४" त्ति अस्य व्याख्या सन्वत्थपुच्छणिज्जो, तु महत्तरो जेट्ठमासणधुरे य तहियं तु असण्णहिते, अणुमहतरतो धुरे ठाति ॥११६५ ॥ [ सूत्र- ४८ "ललिय- कडुय- दंडपतिए य इमं वक्खाणं - सव्वेसु उप्पज्ज माणेसु गोट्ठिकज्जेसु पुच्छणिज्त्रो, गोट्टिभत्त-भोयणकाले जस्स जेट्ठमासणं घुरे ठविजति सो महत्तरी भण्णति । मूलमहत्तरे प्रसण्णिहिते जो पुच्छणिजो घुरे ठायति सो श्रणुमहत्तरो ॥११६५॥ भोयणमासणमिठ्ठे, ललिते परिवेसिता दुगुणभागो । कडुओ उ दंडकारी, दंडपती उग्गमे तं तु ॥ ११६६॥ लियासयिस्स श्रासणं ललियं इटुं कर्जाति, परिवेसिया इत्थिया कज्जति, इटुभोयणस्स दुगुणो भागो दिज्जति । दोसावण्णस्स गोट्टियस्न दंडपरिच्छेपकारी कडुगो भण्णति । तं दंडं उम्गमेति जो सो दंडपती भाति, सो चेव दंडो भणति ।। ११६६ ।। एतेहि पंचाहि परिग्गहिता तदा पुव्वकाले घडातो नासि । ofवी भण्णति - ist उल्लोमाणुण्णवणा, अप्पभुदोसा य एक्कयो पढमं । जेट्ठादि अणुण्णवणा, पाहुणए जं विधिग्गहणं ॥। ११६७ ॥ १ गा० ११८७ । २ उपेन्द्रवज्जा । ३ घडा = गोष्ठ्यः (बृ० क० उद्द०२ मा० गा० ३५७४) । ४ गा० ११६४ । ५ गा० ११६४ । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा ११६२-१२०१] द्वितीय उद्देशक: दंडग - कडुय - ललियासणियादिप्पडिलोमं अणुणवेतस्स अप्पभुदोसा भवंति, तम्हा सव्वे एक्कतो मिलिया अणुणविजंति, महत्तरादि वा पंच । एवं चत्तारि तिणि दो जति मिलिया | लभंति तो पढमं जेट्टमहत्तरं, पच्छा अणुमहत्तरादि अणुण्णविजति । महत्तरादिसु घरे असंतेसु जो वा जस्म पाहुणो अब्भरहितो मितो ण यगो वा सो अगुण्णविजति । जं विहीए गहियं, तं अणुण्णायं, प्रविधीए णो ॥११६७।। अस्यैवार्थस्य व्याख्या - उल्लोम लहु दीय णिसि तेणेक्क-पिंडिते अणुण्णवणा । असहीणे जिट्ठादि व जति व समाणा महत्तरं वा ॥११६८॥ जति पडिलोमं अणुण्णवेति तो मासलहुं, पहू जति दिवसतो णिच्छुब्भति तो चउलह, रातो चउगुरु, जम्हा एते दोसा तम्हा ते सव्वे एक्कतो मिलिए अणुष्णवए । असहीणे ति - सवपिडिया 'असतीए जेट्टमहत्तरादिगिहेसु अणुण्णवेइ, तिप्पभिति वा मिलिया अणुण्णवए, महत्तरं वा एक्कं ॥११६८।। इदाणि "श्वए" त्ति दारं - बाहिं दोहणवाडग, दुद्ध-दही-सप्पि-तक्क-णवणोते । आसण्णम्मि न कप्पति, पंचपदे बाहिरे वोच्छं ॥११६६॥ जति सेनातरस्स गामतो वहि वाडगे गावीपो जत्थ दुभंति सो दोहण - वाडगो तत्थ दोहणवाडए दृद्धं दहियं णवणीयं सप्पि तक्कं च ए दवा प्रासण्णखेतब्भतरे सेज्जायरपिंडो त्ति न कप्पंति ॥११३।। एते चेव खीरातीपंचपदे गहणविधी भण्णति - णिज्जंतं मोत्तणं, बारग भति दिवगए भवे गहणं । छिण्णो भतीय कप्पति, असती य घरम्मि सो चेव ॥१२००॥ णिज्जतं सेज्जातरगोउलातो दुद्धातीणि पंच दव्वाणि घरं णिज्जंताणि तागि मोत्तुं सेज्जातरपिंडो त्ति काउ', जं अण्णं तत्थेव गोउले परिभुज्जति तं ण होति सेज्जातरपिंडो, न पुण कप्पति, भद्दातिदोसा उ । जहिवसं पुण भयगस्स वारगो तद्दिवसं मेज्जातरपिंडो ण भवति, तहावि सेज्जातरस्स अवेक्खातो अग्गहणं । गोवालग "भती" वृत्तिः, ताए छिनो विभागो गोवसत्तो तिं का कप्पति । "असती य घरे" ति जइ गराइसु साहूण सेज्ज दाळण सेज्जातरो अप्पणी घरं मोत्तुं सपुत्तदारो वइयाए अच्छेज्ज तहावि सो चेव सेज्जातरो ॥१२००। . पूर्वगाथार्थोच्यते - बाहिरखेत्ते छिण्णे, वारगदिवसे भतीय छिण्णे य । सोऊण सागरिपिंडो, वज्जे पुण भदपंतेहिं ॥१२०१।। खेतस्स बाहिरो जो छिणो विभागो सेज्जातरघरे ण णिज्जति, गोवालगवारगदिवसे वा सव्वो दोहो प्रतिदिवसं वा वृत्तिभागो छिण्णो । एते सेज्जातरपिंडा ण भवंति, भद्दपंतेहिं पुण वज्जो ॥१२०१।। १ अस्वाधीनेत्यर्थः बृहत्कल्पे उद्दे० २ भा० गा० ३५७८ । २ “बाहिरतो वोच्छं", क्वचित् “उरि वोच्छं''। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूब । सूत्र ४०-४१ अणेगेसु जइ णिक्कारणे एगं 'कप्पागं ठवेंति तो इमे दोसा . एग ठवे णिव्विसए, दोसा पुण भद्दए य पंते य । णीसाए वा छुभणं, विणास-गरिहं व पार्वति ॥१२०२।। णिक्कारणे एगं कप्पागं ठवेत्तु सेसे जति पविसंति तो भद्दपंतदोसा। भद्दो गिस्साए छुभेज, पंतो वज्जितोमि ति वसहीमो वा गरहेज ॥१२०२॥ सड्ढेहिं वा वि भणिता, एग ठवेत्ताण णिव्विसे सेसे । गण-देउलमादीसु वा, दुक्खं खु विगिचितुं बहुभा ॥१२०३॥ जे सड्ढा साहु - सामायारि जाणंति तेहि भणिया "एक्कं सेज्जातरं ठवेह मा सव्वे परिहरह" ताहे एक्कं ठवेत्तु, सेसेसु गिव्विसंति । गणदेउलमादिसु वा ठिता अवुत्ता वि सयमेव एक कप्पागं ठवेज्ज । कहं ? असंथरंता दुक्खं बहुया वज्जिङ सक्किज्जति ॥१२०३।। ग्रहवा बहुएसु इमो गहणविही - गेहंति वारएणं, अणुग्गहत्थीसु जह रुयी तेसिं । पक्कण्णे परिमाणं, संतमसंतयरे दब्बे ॥१२०४॥ दोसु सेज्जातरेसु एगंतरेण वारो भवति । तिसु ततिए दिणे सेज्जातरत्तं भवति । चउसु च उत्थे एवं वारएणं गेण्हंति । अणुग्गहत्यीसु जहा तेसु रुती तहा गेण्हंति । पक्के अण्णे जाणति परिमाणं, तदपि संतं, जहा सुरट्ठाए कंगु, असंतं तत्थेव साली, जति पुवपरिमाणेण संतं घरंति तो कप्पं अण्णहा भयणिज्ज । एवं सेज्जातरदटवे २उवज्जिऊण भयणा, अणुवउत्तस्स उग्गमातिदोसा भवंति ।।१२०४।। जे भिक्खू सागारियं कुलं अजाणिय अयुच्छिय अगवेसिय पुत्वामेव पिंडवाय पडियाए अणुप्पविसति; अणुप्पविसंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥४८॥ सागारिनो पुत्ववणियो, कुलं कुटुबं, भिक्खाकालागो पुवं, पुष्वदितु पुच्छा, अपुटवे गवेसणं, तं साहुसमीवे अपुच्छिऊण पविसंतस्स मासलहुं । गवेसणे इमो कमो - सक्खेत्ते सउवस्सए, सक्खेत्ते परउवस्सए चेव । खेत्तंतो अण्णगामे, खेत्तबहिं सगच्छ परगच्छे ॥१२०॥ सखेत्तगहणा स्वग्रामों गृहीतः,। सग्गामे सउवस्सए सगच्छे गवेसति । सग्गामे सउवस्सए परगच्छे गवेसति ! पढमपादे दो भंगा। सग्गामे अणुवस्सए सगच्छे, सम्गामे परउवस्सए परगच्छे । बितीयपादे दो भंगा । खेत्तंतो सकोसजोयणभंतरे। खितंतो अण्णगामे सगच्छे, खित्तंतो अण्णगामे परगच्छे। ततीयपाए वि दो भंगा। खेत्त-बहि अण्णगामे सगच्छे, खेत्तबहि अण्णगामे परगच्छे । एवं चउत्थपाए वि दो भंगा इति शेषः ॥१२०५।। . सागातर। जपयज्य । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १२०२-१२१० । द्वितीय उदेशकः १४७ सागारियं अपुच्छिय, पुर्व अगसितूण जे भिक्खू । पविसति भिक्खस्सट्ठा, सो पावति आणमादीणि ॥१२०६।। सागारियं पुवामेव अपुच्छिय अगवेसिय जे भिक्खटाए पविसइ तस्स प्राणाती, उग्गमादी, भद्दपंतदोसा य भवंति ॥१२०६॥ जम्हा एते दोसा - तम्हा वसधीदाता, सपरियणो णाम-गोत्त-वयगो य । वण्णेण य चिंधेण य, गवेसियव्यो पयत्तेणं ॥१२०७॥ तस्मात् कारणात् वसहीए दाता परिजनः स्वजनः, नाम इन्द्रदत्तादि, गोत्रं गोतमादि, वततो तरुणमज्झिम-थेरो, वणनो गोरादि, चिंधं व्रणादि, एवं प्रयत्नेन गवेसियब्वो ॥१२०७॥ को णामेकमणेगा, पुच्छा चिंधं तु होति वणमादी । अहव 'ण पुव्वं दिट्ठो, पुच्छा उ गवेसणा इतरे ॥१२०८।। णामतो किमेगणामो, अणेगणामो, एगोणेगा वा रोज्जातरा, एवमादि पुच्छति । तस्यैवान्वेषणा गवेसणा। अहवा - पुनदिद्वे पुच्छा, अपृव्यदिटे गवेसणा ॥१२०८।। कारणो ण पुच्छेज्जा - बितियपदमणाभोगे, गेलण्णाण संभमभए वा । सत्थवसगे व अवसे, परब्यसे वा वि ण गवसे ॥१२०६।। प्रणाभोगग्रो विस्सरिएणं, गिलाणट्टा वा, तरियकजे श्रद्धाणपडिवणा वा तुरियं वोले उमणा २उच्चाप्रो वा, ण गवेसति । उदगागणिसंभमे कि वि साहम्मियं अपासंतो, बोधियभए वा, सत्थवसगो वा, अडवि पविसंतो वा, अवसो वा रायट्टे रायपुरिसेहि णिज्जतो, परब्बसो खित्तचित्तादि, ण गवेसे ॥१२०६।। जे भिक्खू सागारियणीसाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अोभासिय अोभासिय जायति; जायंतं वा सातिज्जति ॥२०॥४६॥ सेज्जायरं परघरे दटुं दाविस्सति ति असणाति प्रोभासति एसा णिस्सा। एवं प्रोभासंतस्स मासलहुं । सागारियसण्णातग पगते सागारितं तहिं दटुं। दावेहिति एस महंति, एवं श्रोभासए कोई ॥१२१०॥ सागारियस्स जो सयणो तस्स पगरणे तत्थ सेज्जातरं दटुं एस ममं एतो दावेहि त्ति एवं सागारियणिस्साए के खडिय ति प्रोभासेज्ज ॥१२१०॥ १ "ण" वाक्यालंकारे। २ उच्चाटः । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे सागारियणिस्साए, सागारियसंधुते व सागारी । जो भिक्खू प्रभासति असणादाणादिणो दोसा ॥ १२११ ॥ सागारियनिस्साए त्ति गतार्थ । सागारिथं पुव्वपच्छासंधुते गतं दट्ट् तमेव सागारियं प्रभासति, दवावेहि एतातो ग्रहं सामारियस्स वा पुव्वपच्छासंयुयस्स णिस्साए श्रोभासति एतस्स गोरवेणं दाहिति त्ति, पुच्छ संयं वा श्रोभासति मम प्रियस्स घरट्टियस्स दावेहिति । एतेसि चरुं पगाराणं जे भिक्खू असणादि श्रोभासति तस्स प्राणादप्रो दोसा भवति ।। १२११ ॥ इमे य दोसा पक्व मादीया, सेज्जावोच्छेदमादिग तरम्मि | उम्गमदोसादीया, अचियत्तादी इतरम्मि ॥ १२१२|| भट्टो पक्खेभ्यं करेज्ज, पंतो से जातिवोच्छेदं करेज्ज । “तरम्मि" त्ति सेज्जातरम्मि एते दोसा । । उग्गमप्रचियत्ता दिया एते सेजातरे वि इतरम्मि पुत्रपच्छमधुते उग्गमदोसा, श्रचियत्तादिदोसा य भवति ।। १२१२ ॥ सेज्जातरदोसे इमे { सूत्र ४६-५० सण्णातसंखडीमू, भहो पक्खेवयं तु कारेज्जा । भासंति महाणे, ममं ति पंतो व छेज्जाहि ॥ १२१३॥ भद्दो सेज्जातरो संथुयसंखडीमु प्रष्णए तंडुलादि भेज्जा, रद्धं वा पक्खेवेज्ज । तो महाजण मज्झे ओभावंति. किं ममेतं घरे गत्थि । ग्रहो यहं एतेहि धरसितो, जत्थ जत्थ वच्चामि तत्थ तत्थ पो एने आगता प्रभासंति, एवं पट्टो दिवा रातो वा गिच्छुभेज, एगमगेगाण वा वोच्छेयं करेज ॥। १२१३॥ पुत्र- पच्छसंथुयदोसा इमे णीयरस अम्ह गेहे, एते ठिता उग्गमादि भद्दो तु । दोच्छेदपदोसं वा दातुं पच्छा करे तो ॥१२१४|| सेज्जायरम्स जे पुञ्चपच्छमंधुता ते परघरे प्रभासिज्जमाना एवं करेज्ज 'गोयस्स ग्रम्ह गेहे ठिय" ति । जे भद्दा ते उग्गमादि दोसा करेज्ज । पंतो पुण दाउमदा वा वोच्छेय-पदोसं वा करेज्ज । वा विकणे | पंतावेज वा, ग्रोभासेज्ज वा, उक्कोसेज्ज वा फरुसेज्ज वा । जम्हा एने दोसा तम्हा सागारियरस वा सागारिया वा मिस्साए ण प्रोभासेज्ज ।। १२१४ ॥ चितियपयं गेलण्णे, णिमंतणा दव्वदुल्लभे अमिये । ओमोरिय-पदोसे, भए व गहणं अणुण्णायं ।। १२१५ || एतेहिं कारणेहिं विसतो छिंदिता तु तं चिंति । सुष्णातगस्स पगते, दावेज्जा जं तुमे दिष्णं ।। १२१६ ।। एतेहि गिलाजातिकारणेहि मिस्साए श्रोभासेज्ज । विसेसप्रो छंदिया नाम निमंतिया । जता संजातरोमितेति तथा भण्णति सातपगते दावेहि तं तुमे चैव दिष्णं भवति । एवं जयगाए गेव्हति ।। १२१६ ॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यमाथा १२११-१२२२] दितीय उद्देशक: १४६ जे भिक्खू उडुबद्धियं सेज्जा - संथारयं परं पज्जोसवणाओ उवातिणाति, उवातिणंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥५०॥ उडुबद्धगहितं सेजासंथारयं पजोसवणरातीमो परं उवातिणावेति तस्स मासलहुं पच्छित्तं ॥१२१६॥ सेज्जासंथारविशेषज्ञापनार्थमाह - सव्वंगिया उ सेज्जा, बेहत्थद्धं च होति संथारो । अहसंथडा व सेज्जा, तप्पुरिसो वा समामो तु ॥१२१७। सव्वंगिया सेजा, अड्ढाइय हत्थो संथारो। अहवा-महासंथडा सेजा 'अचला इत्यर्थः । चलो संथारतो । अहवा तप्पुरिसो समासो कजति - शय्येव संस्तारकः शय्यासंस्तारक; ॥१२१७॥ संस्तारो दुविधो परिसाडिमपरिसाडी, दुविधो संथारतो उ णायचो । परिसाडी वि य दुविधो, अज्झसिर-ज्झसिरो य णातव्वो ॥१२१८॥ जत्थ परिभुज्जमाणो किं चि परिसडति सो परिसाडी, इतरो अपरिसाडी। जो परिसाडी सो विहो - अमुसिरो झुसिरो य ॥१२१ ॥ सालितणादि झुसिरो, कुमतिणमादी उ अज्झसिरो होति एगंगियो अणेगंगियो य दुविधो अपरिसाडी॥१२१६॥ सालितणादी मुसिरो, कुसवप्पगतणादी अज्भुसिरो। जो अपरिसाडी सो दुविहो - एगंगिमो प्रणेगगितो य ॥१२१६॥ एगंगितो उ दुविधो, संघातिय एतरो तु नायव्यो । दोमादी नियमा तू, होति अणेगंगियो एत्थ ॥१२२०॥ एगंगियो दुविधो-संघातिमो असंघातिमो य । दुगाति पट्टाच्चारेण संघातिता कपाटवत्, एस संघातिमो। एगं चेव पृथुफलकं असंघातिमो। दुगातिफलहा असंघातिता, वंसकंबियाप्रो वा अणेगंगियो ।।१२२०॥ एते सामण्णयरं, संथारुदुबद्ध गेण्हती जो तु। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तं विराधणं पावे ॥१२२१॥ एतेसि संथारगाणं अण्णतरं जो उडुबद्धे गेण्हति सो प्रतिक्कमे वट्टति, प्रणवत्थं करेति, मिच्छत्तं जणेति, प्रायमंजमविराधणं पावति, इमे दोसा ।।१२२१॥ । सज्झाए पलिमंथो गवेसणाणयणमप्पिणंते य । झामित-हित-वक्खेवो, संघट्टणमादि पलिमंथो ॥१२२२॥ ___ उडुबद्ध काले णिक्कारणे संथारगं गवेसमाणस्स प्राणेतस्स पुणो पच्चप्पिणंतस्स सज्झाए पलिमंथो भवति । कहंचि झमितो हितो वा संथारगसामी अणुण्णवेंतस्स सुत्थत्येसु वक्खेवो, संसत्ते - तससंघट्टणाति • १ पटपाट । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-५० णिप्फणं, संजमे पलिमंथो य । अह सामी भणेज्जा- "जो जाणह ततो मे अण्णं देह" ताहे अण्णं मग्गंताणं सो चेव पलिमंथो। पच्छित्तं दाउकामो भेदानाह -- झुसिरेतर ( ४०२ ) एतेसु इमे पच्छित्तं । परिसाडिमे ( ४०३ ) परिसाडियमझुसिरे मासलहुं झुसिरे, परिसाडी, एगंगिए, संघातिमे, असंघाइमे, अणेगंगिते य, एतेसु चउसु वि चउलहुग्र, ज्झामिते हिते वा अणं दव्वाविंजति, वहतं साहूण दाउं अवतयं 'पवाहेज, मोभासियो वा साहूअट्ठाए माहाकम्मं करेति, आदिसद्दामो कीयकडादिवखेवो ॥१२२२॥ सुत्तादिम गाहा - गतार्था रिवकेन दधिमंथनवत् - चोदगाह - एवं सुत्तणिबंधो, णिरत्थो चोदनो य चोदेति । जह होति सो सअत्थो, तं सुण वोच्छं समासेणं ॥१२२३।। संथारग्गहणं उडुबद्ध प्रत्येण गिसिद्धं, एवं सुत्तं गिरत्ययं, जतो सुत्ते पज्जोसवणरातिप्रतिक्कमणं पडिसिद्ध, तं गहिते संभवति । एवं चोदकेनोक्ते प्राचार्याह - जहा सुत्तत्थो सार्थको भवति तहाऽहं समासतो वोच्छे ॥१२२३॥ सुत्तणिवातो राणेसु, देसे गिलाणे य उत्तमढे य । चिक्खल्ल-पाण-हरिते, फलगाणि अकारणज्जाए ।।१२२४।। उद्धारगाहा । देसं पड्डच्च तणा घेप्पेज्ज ।।१२२४॥ असिवादिकारणगता, उवधी-कुच्छण-अजीरग-भये वा । अझुसिरमसंधबीए, एक्कमुहे भंगसोलसगं ।।१२२।। जो विसनो वरिसारत्ते पाणिएण प्लावितो सो उठ्ठबद्ध उभिज्जति, जहा सिंधुविसए ऊसभूमी वा जहा उरिणकंठं, तं असिवातिकारणेहिं गता 'मा उवही कुच्छिसति" ति अजीरणभया वा तत्थ तणा घेप्पेज्जा। ___ अझुसिरा, प्रसंधिया, अबीया, एगतो मुहा, एतेसु च उसु पदेसु सोलसभंगा कायव्वा । पढमो भगो सुद्धो । सेसेसु जत्थ झुसिरं तत्थ चउलहुं । बीएसु परित्ताणतेसु लहुगुरुपणगं। सेसेसु मासलहुं । असंधिया - पोरवज्जिता। जेसि एक्कमो णालाण मुहा ते एक्कतो मुहा ॥१२२५।। कुसमादि अझुसिराई, असंधिबीयाई एक्को मुहाई । देसीपोरपमाणा, पडिलेहा तिण्णि वेहासे ॥१२२६॥ पूर्वाधं गतार्थम् १ पीटाकरे। २ गाथात्रयमन्यदीयम्" इति भाष्यप्रत्योरन्तरे। पानी का किनारा । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १२२३-१२३१] द्वितीय उद्देशकः "देसीपोरपमाणा" अस्य व्याख्या - अंगुट्ठ पोरमेत्ता, जिणाण थेराण होंति संडासो । भूसीए विरल्लेत्ता, पमज्जभूमी समुक्खेत्तुं ॥१२२७॥ पदेसिणीए अंगुट्ठपोरद्विताए जे घेप्पंति तत्तिया जिणकप्पिया [ण घेप्पति । पदेसिणि अंगुट्ट अग्गमिलिएसु संडासो । थेराण संडासमेत्ता घेप्पंति । “२पडिलेहा तिण्णि". त्ति अस्य व्याख्या - भूमीए विरल्लेत्ता तणे उक्खिवेत्ता भूमी पमज्जिज्जति, एवं तिण्णि वारा कज्जति । अहवा - तिणि पडिलेहा पए । मझण्हे ऽवरण्हे, भिक्खादि वच्चंता वेहासे करेंति ॥१२२७।। इदाणि "3गिलाणउत्तिमट्रे" य अस्य व्याख्या - भत्तपरिणगिलाणे, अपरिमितसई तु वट्ट जयणाए। णिक्कारणमगिलाणे, दोसा ते चेव य विकप्पे ।।१२२८|| गिलाणभत्तपरिणीणं "प्रत्थुरण?ता तणा घेप्पंति । सति ति एक्कसि चेव पत्थरिय अच्छंत, असति तु वट्टो वा अच्छति ॥१२२८।। "जयणाए" त्ति अस्य व्याख्या - उभयस्स निसिरणट्ठा, चंकमणं वा य वेज्जकज्जेसु । उहिते अण्णो चिट्ठति, पाणदयत्था व हत्थो वा ॥१२२६॥ "उभयं" ति काइय सण्णा य तं गिसिरणद्वत'ए जति उद्वेति, कुडिउ वा चंकमणट्ठता उद्देति, वातविसरण कजेण वा उद्वेति, वेज्ज - कज्जेण वा. एवमाइसु कज्जेसु उद्वेति, अण्णो तत्थ संथारए चिट्ठति । किमर्थम् ? प्राणिदयार्थम् । अहवा - सो गिलाणो, गुरुतो हत्थो संथारे दिज्जति जाव पडिएति, मा पासायणा भविस्सति । एतेहि कारणेहिं उडुबद्धे संयारो घेप्पेज्ज । एय वज्ज जइ गेहति तो पुवुत्ता ते चेव दोसा विकल्पश्च भवति । विकल्पग्रहणा कल्पो प्रकल्पश्च सूचितः ॥१२२६।। संथारुत्तरपट्टो, पकप्प कप्पो तु अत्युरणवज्जो । तिप्पमिति च विकप्पो, णिक्कारणतो य तणभोगो ॥१२३०॥ थेरकप्पिया संथारुत्तरपट्टेसु सुवंति एस पकप्पो, जिणकप्पियाण प्रत्थुरणवज्जो कप्पो, ते ण सुवंति । उक्कुटुया चेव अच्छंति । थेरकप्पिया जति तिणि प्रत्थुरंति, णिककारणतो वा तणगोगं करेंति; तो विकप्पो भवति ॥१२३०॥ ग्रहवा इमा व्याख्या - अहवा अझुमिरगहणे, कप्पो पकप्पो तु कज्जे झुसिरे वि । झुसिरे व अझुसिरे वा, होति विकप्पो अकज्जम्मि ।।१२३१॥ १ पोर-ग्रंथी । २ गा० १२२६ । ३ गा० १२२४ । ४ दे० विछाने के लिए। ५ गा० १२२८ । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे । सूत्र-५० जिणकप थेरकप्पिएसु कज्जेसु अज्झसिरगहणे कप्पो भवति । थेर - कप्पियाण कज्जे झुसिरगहणे पकप्पो भवति । झुसिराण वा अझुसिराण वा अकज्जे विकप्पो भवति ॥१२३१॥ एवं ता उडुबद्ध, कारणगहणे तणाण जतणेसा । अधुणा उडुबद्ध चिय, चिक्खल्लादिसु फलगगहो ।।१२३२॥ एवं ता उड्डुबद्धे कारणगहिताण तणाण जतणाए परिभोगो भणियो। इदाणि तु उडुबद्ध चेव चिक्खल्लाइसु कारणेसु फलगगहो भण्णति - अझुसिरमविद्धमफुडित, अगरु-अणिसिह वीणगहणेणं । आता संजमगरुए, सेसाणं संजमे दोसा ॥१२३३।। अज्झुसिरो जत्थ कोहरं णत्थि, जो पुण कीडएहिं ण विद्धो। जस्म दालीउ ण फुरिया । अगरुउ त्ति लहुप्रो । न निसृष्टः अनिष्टः परिहारिकमित्यर्थः । एतेहिं पंचहि पदेहिं बत्तीसं भंगा कायव्वा । पढमो अणुण्णातो, सेसा एक्कत्तीसं णाणुणाता । पढमभंगो अणुण्णातो सो एरिसो हलुप्रो जहा वीणा दाहिणहत्येण घेत्तुं णिज्जति । एवं सो वि । गरुए प्रायविराहणा संजमविराहणा य । सेसेसु झुसिरेसु प्रायश. संजमविराधनैव भवति ॥१२३३।। अझुसिरमादीएहिं, जा अणिसिटुं तु पंचियाभयणा । अहसंथड पासुद्ध, वोच्चत्थे चतुलहू हुति ॥१२३४॥ पूर्वार्ध गतार्थ । णवरं - भंगेसु पच्छित्तं इमं - जत्थ झुषिरं तत्य प्रायविराहणं ति काउं चउगुरुयं । सेसेसु उवहिणिप्फष्णं च उलहुअं । जता पढमभंगादिए सुं गेहति तया वसहीए चेव महासंथडं गेहति । तस्सासति 'पासल्लियं । तस्सासति उद्धकयं । अतो वोच्चत्थं गेण्हंतस्स चउलहुरं ॥१२३४।। एरिसं जति अंतो न लभेज्ज - अंतोवस्सय बाहिं, णिवेसणे वाड साहितो गामे । ग्वेत्ते तु अण्णगामे, खेत्तबहिं वा अवोच्चत्थं ॥१२३।। अंतोवस्सयस्स अलब्भमाणे वाहि अलिंदातिसु गेहति । असति णिवेसणे, असति वाडगाउ, मसति सग्गामे गेण्हति । असति खेत्तभंतरे अण्णगामे गेहति । असति खेत्तबहियादि प्राणेति । अवोच्वत्थं गेहति । २वोच्चत्थं गेण्हमाणस्स चउलहुप्रा ।।१२३।। मग्गणे वेला-णियमो भण्णति - सुत्तं व अत्थं च दुवे वि काउं, भिक्खं अडतो उ दुए वि एसे । लंभे सहू एति दुवे वि घेत्तुं, लंभासती एग-दुए व हावे ।। १२३६॥ मुत्तत्यपोरिसीए काउंभिक्खाए प्रडतो 3दुए वि एसति - भत्तं संथारगं च । लद्धे संथारए जो सहू सो दुवे वि भत्तं संयारगं घेत्तु मागच्छति । एवं अलभंतो प्रत्यपोरिसिं हावेउं गवेसति । एवं पि अलभंतो दुवे वि सुत्तत्थपोरिसीमो हावेति ।। १२३६।। १ पावस्थितं । २ विपरीत । ३ भक्त और संथारा । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशकः एवं अलब्भमाणे, काउ जोगं दिने दिने । कारणे उडुबद्धम्मि, खेत्तकालं विभासए | १२३७॥ भाष्यगाथा १२३२ - १२४१ ] एवं सखेत्ते दिणे दिणे जोगं करेंतस्स अलब्भमाणे उडुबद्धे प्रवस्सं घेत्तव्वं, कारणे खेत्तम्रो जाव. बत्तीस जोया, कालतो पंचाहं जाव वा लद्धो ताव गवेसति ।। १२३७|| उडुबद्धगमेगतरं, संधारं जे उवातिणे भिक्खु । पज्जोसवणातो परं, सो पावति श्रणमादीणि ।। १२३८॥ उडुबद्धे परिस डेतरं वा कारणगहितं जो एगतरं संथारगं उवातिणावेति पज्जोसवणरातीतो परं सो प्राणादी दोसे पावति ।। १२३८ ।। असिरं परिसाडी उवातिणावेति मासलहुं । सेसेसु चउलहुं । इमे दोसा मायामोसमदत्त, अपच्चय खिंसणा उवालंभो । बोच्छेद पदोसादी, दोसाति 'उवातिणं तस्स ॥१२३६॥ श्रमग्गितो कहं गिज्जति त्ति । एवं धरेंतस्म माया भवति । उडुबद्धिउं मग्गिऊणं वासासु पडिभुंजति मोमं प्रदत्तं च भवति । जहा भासियं प्रकरेंतो अप्पच्चम्रो, प्रोसि पि न देति । धीरत्युते भो समणा ! एरिसस्स ते पव्वज्जा । एवं णिप्पिवासं भगतस्स खिसा जुतं णाम ते अलियं वोस्तुं, सप्पिवासं भणतस्स उवालंभो । तस्स वा णस्स वा साहुस्स तं दव्वं गणां वा दव्वं ग देति । एस वोच्छेश्रो तस्स वा अण्णस्स वा पदोसं गच्छति । एवमादि उवातिणावेंतस्स दोसा ।। १२३६ ॥ कारणे उवातिणाविज्ज चितियं पभुणिविस, ठुट्ठितसुण्णमयमणप्पज्झे । सहू संसते या, तक्कज्जमणिट्टिते दोच्चं ॥१२४०॥ १५३ संथारगपभू रण्णा णिव्विसतो कतो, णट्ठो सामी, उद्वितो गामो, सुण्णो, पवसितो, मतो वा संधारण - सामी, साधू वा मतो, संथारगसामी क्षणप्पज्झो, साघू वा खित्तादिचित्तो, प्रसहू अप्पणा वा जातो ण तरति उं, संधारतो वा संसतो, तिष्णि पडिले हणकाला धरिज्जइ । तिष्णि वा दिने जाव पाउस्सं सज्जति । जेण वा कज्जेश गहितं तं कज्जं णो समप्पड : एत्थं दोच्च प्रणुष्णविज्जति ॥ १२४० ।। एते कारणेसु इमा जयणा गिव्विसते छुट्ठिते व कज्जे समत्ते उति ! वच्चंता वा दट्टु, भणति कस्सऽप्पिणेज्जामो ॥१२४१ ॥ मुणिव्विस ट्टे उट्ठिते एतेसु चउसु वि पदेसु अप्पणो कब्जे समत्ते उज्झति । हवा - णिव्विसयादिसु तिसु जइ वच्चतं पेक्खति तो णं भण्णति - " प्रम्हे तुब्भं संधारतो गहितो तं कस्स पिज्जामो" एवं भणितो जं संदिसति तस्स प्रप्पियव्वो ।। १२४१ ॥ १ प्रतिक्रामतः । २० Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-५१ सुण्णे एतं पडिच्छए, वच्चंता वासएज्ज णीयाणं । असहू जाव ण हट्ठो, संसत्ते पोरिसी तिण्णि ॥१२४२॥ पवासिते एतं पडिक्सति जाव सो एति । अह ते साहुणो गंतुकामा तरंति ताहे समोसितगाण तस्स वा णीयल्लगाण अप्पेंति, भणति य तम्मि प्रागते अप्पेज्जसु । असहू जाव ण हट्ठो ताव णप्पेति । हट्ठीभूतो अप्पैति । कारणं च दीवेति । संसत्ते तिणि पोरुसियो धरेति ॥१२४२।। "'तक्कज्जमणिट्ठिते दोच्च" अस्य व्याख्या - पुणरवि पडिते वासे, तम्मि व सुक्खते दोच्चणुण्णवणा । अब्भागमे व अण्णे, अलद्ध तस्सेवऽणुण्णवणा ॥१२४३॥ जति पज्जोसवणकाले पुणो वासं पडति तम्मि वा पवपडिते असुक्खंते, अण्णो य संथरणो ण लब्भति ताहे तमेव दोच्च अणुणवेति । अहवा - "तम्मि वा" त्ति तम्मि, संथारए उल्लभूमीए असुक्खमाणीए जाव सुक्खइ ताव अणुण्णवेति "सुक्खे प्राणे हामो" त्ति भणंति । "अब्भागमे" पासण्णवासे अण्णो संथारगो ण लम्भति ताहे तमेव अणुण्णवेति । अहवा - अप्पणो लद्धो, २अब्भागगिगा अण्णे साहबो प्रागया, ते सड्ढाय अण्णम्मि अलब्भमाणे तमेव अणुण्णवेंति ।।१२४३॥ जे भिक्खू वासावासितं सेज्जा-संथारयं परं दसरायकप्पाओ उवातिणाति; उवातिणतं वा सातिज्जति ॥सू०५१।। दसरायकप्पगहणं जहाववायतो वासातीतं वसंति, लहा संथारगं पि ध रेति । उक्कोसं तिष्णि दसरातिया, ततो परं मासलहुँ। वासासु अपडिसाडी, संथारो सो अवस्स घेत्तव्यो। मणिकुट्टिमभूमी अवि, अगेण्हणे गुरुग आणादी ॥१२४४॥ वासावासे प्रपरिसाडी संथारप्रो अवस्सं घेत्तव्वो, जति वि मणिकोट्टिमभूमी। प्रह | गेण्हति चउगुरु, प्राणादि य दोसा ।।१२४४।। इमे य दोसा - पाणा सीतलकूध, उप्पातग-दीह-गोम्हि सुसुणाए । पणए य उवधिकुच्छण, मलउदगवधो अजीरादी ।।१२४५॥ सीयलाए भूमीए कुथुमादि पाणा समुच्छंति, सीयलाए वा भूमीए अजीरणादी दोसा भवंति । उप्पायगा भूमीए उप्पज्जंति, एसा संजमविराहणा।। इमा प्रायविराधणा - दीहो डसति, गोम्ही कण्णसियालीया कण्णे पविसति, सुसुणागो प्रलसो, सो वावातिज्जति, पणतो समुच्छति, सन्नेहभूमीए उवही कुच्छंति, सन्नेहभूमीए वा सुवंतस्स उवही मलेण १ गा० १२४०। २ प्राघुणकाः । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १२४२-१२४८ ] द्वितीय उदेशक: १५५ घेप्पति, ताहे भिक्खातिगस्स वासे पडते उदगविराहणा भवति । मलिणोवहीए छप्पया भवंति । सीयले छप्पयासु य णिद्दा ण लभति, ततो अजिणं भवति, ततो गेलणं, एवमादी दोसा ।।१२४५।। तम्हा खलु घेत्तव्यो, भेदा गहणे तु तस्सिमा पंच । गहणे य अणुण्णवणे, एगंगिय अकुय पाउग्गे ॥१२४६॥ जम्हा एते दोसा तस्मात् कारणात् खलु अवधारणे अवश्यमेव गृहीतव्यं । तस्य ग्रहणे इमे पंच भेदा भवंति । गहणं अणुण्णवणं एगगियं अकुय पाउग्गे त्ति एते पंच पदा ।।१२४६।। तत्थ 'गहणे त्ति दारं - गहणं च जाणएणं, जतणुण्णवणा य गहिते जतणा य । मम एत्थ पास तत्थेव, उक्खित्ते जं जहिं णेति ॥१२४७॥ पूर्वाधस्य व्याख्या - सेज्जा-कप्प-घिहिष्णू , गेहति परिसाडिवेज्जमप्पेहं। .. छण्णपहम्मि य ठवणं, कस्सप्पिणणं च पुच्छति ॥१२४८।। मायारग्गेसु सेज्जाए संथारगहणं भणितं । जेण सा सुनमो ऽधीया अत्थप्रो सुप्रा सो सेज्जाकप्प - विहिष्णू । तेण संथारगो घेत्तव्यो। इयाणि "२जयणाणुण्णवणे" त्ति जयणाए अणुण्णवेयन्वो । कहं ? जाहे लद्धो ताहे भण्णति - "परिभुज्जमाणे" ज परिसडति, तं वज्येसु अप्पिणिस्सामो, पाडिहारियं च गेहामो, णिवाघाएणं एवतियकालेणं अप्पिणिस्सामो जति एवं पडिवज्जति तो घेप्पति । प्रह गो पडिवज्जति ताहे अण्णं मग्गंति । जइ अण्णो मग्गिज्जमाणो ण लब्भति ताहे तं चेव गेण्हति । "इदाणि गहिते जतण" ति गहियसंथारगो जति णेउं ण तरति ताहे छन्ने प्रदेशे ठवेति, मा वरिसंते उवरि सेज्जति मे। इमं पुच्छंति - "सम्मत्ते कज्जे अम्हेहि कस्स अप्पेतब्बो"। सो भणाति “मम चेव अप्पेयबो” । ततो भण्णति "जइ कहंचि तुम्भे घरे ण दीसह ताहे कस्स अप्पेयव्वो” । सो भणाति - एत्थेव घरे प्राणेजह, ताहे भाणियब्यो “कतरम्मि प्रोगासे ठवेज्जामो," । अहवा भणेज्जा “एत्थेव घरे छण्णपदेसे ठाएज्ज ।” अहवा भणेज्ज "जतो गहितो ठाणातो एयस्स पासे ठवेज्ज । अहवा भणेज्ज "जतो गहितो ठाणातो तत्थेव ठवेज्ज"। अहवा भणेज्ज “उक्खित्ते" ति वेहासे ठवेज्जह,' । अहवा - जं संथारयं जहिं घरे भण्णति तं तहिं संथारयं णेति । एवं अभिग्गहितेसु भणितं ॥१२॥ १ गा० १२४६ । २ गा० १२४७ । ३ गा० १२४७ । ४ गा० १२४७ । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे अभिगहियस्सासति, वीमं गहणं पडिच्छिउ सब्वे । दाऊण तिष्णि गुरुणो, गेव्हंतणे जहा बुड्ढा ॥१२४६॥ अभिगहियमंघाडयस्स असति सव्वे संघाडया वीसुं गेहति । वंदेण वा सब्वे गेव्हंति एत्थ वि सव्वाए सेव जयणाणुष्णवणा जाव कस्सप्पिणणंति दट्ठव्वं । जो जहा आणेति सो तहा गणावच्छेतियस्स अप्पेति । साधुप्पमाणाम्रो य अतिरित्ता 'तम्रो गेहति जे गुरुणो दायव्त्रा । एवं श्रभिग्गहितेत रेसु वा प्राणीता सव्वे जता गणावच्छेतिएण पडिच्छिता ताहे जे सुहा सेज्जा ते तिणि गुरुणो दिज्जंति, सेसा गणावच्छेइप्रो श्रहारातिणियाए भाए त्ति गेव्हंति वा । एवं सगणे भणितं ।। १२४६ । गाण उ णाणतं, सगणेतरऽभिग्गहीण वण्णगणो । 3 ४ " ६ दिट्ठोभासण -लद्ध, सण्णायग- उड्ठ प्रभू चैत्र । १२५० ।। गण गणाण एगखेत्तट्ठियाण "णाणतं" विशेषः तं सगणिच्चयाणं इतरे य परगणिच्चा, सगणे अभिग्गही प्रभिग्गही वा, अण्णगणे वि अभिग्गही अणभिग्गही वा, सगणे परगणे वा संघाडएण वा वंदेण वा श्रहंताणं श्रारुव्वं तव्ववहारो भण्णति । इमेहि दारेहिं - दिट्ठे प्रोभासण लद्धे सष्णायग- उड्ड - पभू चेव ।। १२५० ।। तत्थ दिट्ठत्ति दारं । एयस्स इमाणि दाराणि - १ दट्ठण व हिंडतेण वा, णिउ तस्स वा विवयणं । दट्ठूणदारस्स वक्खाणं विष्परिणामणकहणे, वोच्छिष्णे जस्स वा देति ||१२५१ ॥ एसा चिरंतणगाहा ।। १२५१ ।। संथारो दिट्ठो ण य, तस्स जो पभू तो कहिते व कहिते वा, अण्णेण वि याणि साधुसंघाडण हिंडतेण संथारम्रो दिट्ठो । पुच्छितोऽणेण 'कस्सेस संधारतो ?” ताहे केण ति भणितं"णत्थेत्थ सो जस्सेस संथारम्रो ।" ताहे सो साधुसंघाडप्रो चितेति "जाहे संथारगसामी एहिति ताहे मग्गिहामो ।" तेण संघाडएण गुरूण आलोयध्वं "मए प्रमुगगिहे संचारगो दिट्ठो ण य तस्स जो पभू" । एवं प्रणालीयंतस्स मासलहु । तं जाणित्ता प्रणेण संघाडएण चितियं "जाव एस ण जायति तावऽहं मग्नाभि ।” मग्गितो लद्धो य । कस्स भवति ? पुब्वसंघाडएण गुरूण कहिए वा प्रकहिए वा तस्सेवाभवति । ण जेण पच्छा मग्गितो लोय ।। १२५२ ।। दट्ट्ठूण व" त्ति दारं गतं । दाणि "हितेण वा णिउ" त्ति प्रस्य व्याख्या - [ सूत्र - ५१ कहणे गुरूणं । तस्स ।। १२५२ ।। संथारं देहतं, असहीण पभू तु पासए पढमो । बितितो उ णदिट्ठ, असढो आणतणाभोगा ॥१२५३ ॥ पूर्वार्धं पूर्ववत् । तथाप्युच्यते एक्केण साधुसंघाडएण संधारतो दिट्ठो, ण तस्स पभू । “पढमो" बितियसंघाडावेखाए पढमो भण्णति । प्रष्णहा एस बितियप्पगारो बितिम्रो साहुसंघाडम्रो प्रणदिट्ठ १ त्रयः । २ गा० १२५१ । ३ गा० १२५१ । . Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १२४८-१२५७ ] द्वितीय उदेशक: संथारयं । "पसाभावो" - प्रमायावी प्रणाभोगादज्ञानात् ण याणति "जहा प्रणेण साहुसंघाडएण एस विट्ठो" एवं मगितो लदो प्राणिप्रो य कस्साभवति ? पुरिमस्स चेव ण जेण प्राणिमो। मण्णे भणति - साहारणो ॥१२५३॥ "तस्स वा वि वयणेणं" ति अस्य व्याख्या - ततिओ उ गुरुसगासे, विगडिज्जंतं सुणेतु संथारं । अमुयस्थ मए दिट्ठो, हिंडंतो वण्णसीसंतं ॥१२५४॥ "ततिम्रो" ति ततियप्पगारो तह चेव (म) दिटे सामिम्मि मग्गीहामो। प्रागतो गुरुस्स मालोएति"अमुभत्य मए संथारो दिट्टो" ति । अहवा - भिक्खं हिंडतेण चेव अण्णसंघाडस्स "सीसंतं" कथ्यमानमित्यर्थः, तमेवं दोहं पगारामं प्रणतरेणं सुणेत्तु "विपरिणाणं" ति एवं विप्परिणामंतो मग्गति ।।१२५४।। दिट्ठोवण्णेणम्हं, ण कप्पती दच्छिवे तमसुगो तु । मा दिज्जसि तस्सेतं, पडिसिद्ध तम्मि मज्झेसो ॥१२५।। मग्गणट्ठाए संथारगसामि भणति - "अम्हं एरिसो सिद्धतो दिवो अण्णेण प्रोभासिस्सामि त्ति सो संचारमो अण्णस्स ण कप्पति, "दच्छिवे तमसुगो" त्ति दृष्टवत्सो तं मग्गंतं तुम पडिसेहेज्जासि, मा तस्स एतं देजमि, पडिसिद्ध तम्मि य मज्झे सो भविस्सति ।” सो य तस्सादिण्णो । कस्स प्राभवति ? पुरिमस्स, ण बेण लद्धो ॥१२५५।। “२कहणे" त्ति अस्य व्याख्या अधवा सो तु विगडणं, धम्मकथा पणियलोभितं भणति । अमुगं पडिसेवेत्तुं, तो दिज्जसि मज्झ मा अज्ज ॥१२५६॥ तहेव पालोएंतस्स सोउ तत्थ गंतुं तस्स धम्मं कहेति । जाहे माक्खितो धम्मकहाए ताहे भगातिपेण सो दिट्ठो संथारप्रो तस्स य णाम घेत्तण भणाति - "जाहे सो मग्गति ताहे तं पडिसेहि, अज्ज दिणं वोलावे प्रणदिणे मज्झ देज्जसि"। सो एवं आणितो। कस्स प्राभवति ? पुरिमस्स, ण जेण लो। एवं विष्परिणामतस्स जइ सगच्छेल्लमो विप्परिणामेति तो चउलहुं, अह परगच्छेल्लो तो बउगुरु ॥१२५६।। "वोच्छिण्णे जस्स वा देइति"त्ति अस्य व्याख्या - विप्परिणतम्मि भावे, तिक्खुत्तो वा वि जाइतमलद्ध । अण्णो लभेज्ज फलगं, तस्सेव य सो ण पुरिमस्स ॥१२५७॥ जेग दिट्टो तस्स जति तम्मि संथारए भावो विप्परिणामितो। एवं वोच्छिण्णे साहुस्स भावे सो संधारगसामी जस्स चेव देति तस्सेव सो, ण जेण पुरा दिट्ठो। अधवा - जेग पुरा दिट्ठो तेण तिणि वारा मग्गितो, ण लद्धो। तस्स वोच्छिष्णे वा अवोच्छिष्णे १ मा० १२५१ । २ गा० १२५१। ३ गा० १२५१ । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र-५१ वा भावे प्रतो परं अण्णो जति लभेज्ज मग्गितं फलगं तस्सेव तं, ण जेण पुरा दिटुं ॥१२५७॥ "दि?" त्ति दारं गतं । इदाणिं "'प्रोभासणे" ति दारं भण्णति । जहा दिढदारं दळूण एवमादिएहि छहिं दारेहिं वक्खाणियं, तहा प्रोभासणदारं पिं छहिं दारेहिं वक्खाणेयव्वं । ते य इमे दारा सोउ हिंडण-कवणं, वोच्छिण्णे जस्स अण्णोअण्णं वा । विगडितो भामंत, च सोतुमोभासति तहेव ॥१२५८।। . सोउं हिंडण विपरिणामण कहण वोच्छिणे जस्स प्रणोपणं वा । एत्य विप्परिणामण - गाहाए ण गहियं । एगेण साधुसंधाडएणं संथारमो दि8ो । संपारगसामी प्रोभट्ठो, ण लद्धो । तस्स साहुसंघाडगस्स तम्मि संथारगे भावो ण वोच्छिज्जति । प्रागतेहि य गुरूणं मालोइयं । अण्णो साहुसंघाडो विगडिज्जतं - प्रोभासिज्जतं वा सोउं प्रोभासइ तहेव जहा दिट्टदारे । दुटुभाव: स तेण मग्गितो लद्धो प्राणियो। कस्स प्राभवति ? जेग पुरा प्रोभासितो, ण जेण पच्छा णोतो। सोउं गत । एक्केणं साहुसंघाडएणं संथारप्रो दिट्ठो, भोभासितो, ण लदो। अच्छिण्णभावे अण्णो संघाडमो महा भावेण प्रदुट्ठभावो हिंडतो प्राणेति । कस्स भाभवति ? पुरिमस्स, पच्छिमस्स ण । अण्णे साहारणं भणंति । एवं विप्परिणामण - कहण - वोच्छिण्णदारा वि जहा दिट्टद्दारे । णवरं - एत्य "प्रोभासण" त्ति वत्तव्वं ॥१२५८॥ अण्णोण्णं वा अस्य व्याख्या - अण्णो वा ओभट्ठो, अण्णं से देति सो व अण्णं तु । कप्पति जो तु पणइतो, तेण व अण्णेण व ण कप्पे ॥१२५६॥ एक्केण साहुसंघाडएण एक्कंसि घरे संथारो दिट्ठो, पणइयो, ण लखो। अन्योच्छिण्णो भावे अण्णेण साहुसंघाडएण तम्मि घरे अण्णो पुरिसो अोहट्ठो, अण्णं से संयार देति, कप्पति । सो वा पुरिसो जो पुब्बसंघाडएण पणतिमो अण्णसंधारयं देति, कप्पति । जो पुण पुनसंघाडरण पतितो संघारगो सो तेण वा पुरिसेण अण्णेण वा पुरिसेण दिज्जमाणो पुत्रसंघाडगस्स प्रबोच्छिण्णे भावे अण्णस्स न कपति । ॥१२५३॥ "प्रोभासण"त्ति गतं। इदाणि "२लद्धेति" - इक्केण साहुसंघाडएण संथारो दिट्ठो प्रोभट्ठो लद्धो य, ण पुण प्राणियों इमेहि कारणेहिं - काले वा घेच्छामो, वियावडा वा वि ण तरिमो णेत्तुं । लद्ध वि कहण विपरिणामण वोच्छिण्णे जस्स वादेति ॥१२६०।। १ गा० १२५० । २ गा० १२५० । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १२५८-१२६३ ] द्वितीय उद्देशकः जेण लद्धो सो चितेति -ण ताव एयस्स् संथारगस्स परिभोगे कालो | अच्छउ लद्धो, पज्जोसवंणकाले चैत्र घेच्छामो । अघवा - भत्तपाणभरिया वियावडा ण तरामो णेउं । एवं लद्ध वि णो प्राणेति । तत्थेक्को गुरुसमी वियडिज्जतं सोउ गंतुं मग्गति । संथारगसामिणा भणितो- स एस मए अण्णस्स दिष्णो, तहा वि तुमं गेण्ह, प्रण्णो वा देति । बितिम्रो ग्रहाभावेण प्राणेति, तस्स पुण तेण संचारगसामिणा विस्सरिएणं दिण्णो । ततितो धम्मक्रह काउ प्राणेति । चउत्यो विप्परिणामेउ प्रांणेति । पंचमो वोच्छिष्णे भावे । छट्टो प्रष्णं वा । व्याख्या व्यवहारश्च पूर्ववत् । णवरं सामी कहेति - "मय प्रण्णस्स दिण्णो" सि ।। १२६०॥ इयाणि "" सण्णाय " ति - सण्णातगे वित चेत्र कह विपरिणामणासु तु विभासा । अभासतरो गेण्हति मित्तो वण्णो विमं वोतुं ॥१२६१ ॥ " 1 केण इ सहुणा सण्णायगघरे संथारम्रो दिट्ठो, सो य मग्गितो । तेहि दिण्णो, भणिश्रो य - " गेव्ह" । साहुणा भणियं "जदा कज्जं तदा गेहिस्सामि, ताव एत्थेव प्रच्छउ " । तेण गंतूण गुरूण प्रालोइयं । प्रणतं सोउं तत्थ गंतु मग्गिउं प्राणेति । बितिम्रो महाभावेण प्राणेति न जाणेति - "एस साहुणा मग्गितो, सायना वा एते साधुस्स" । प्रण्णो तह च्चेत्र धम्मक हविष्परिणामणासु प्राणेति । अण्णो वोच्छिष्णे भावे भाति । ण सण्णः यगेण भणितो - "ग्रहं ते संधारगं देमि" । एतेसु द्वारेसु विभासा व्यवहारश्च पूर्ववत् । जो विपरिणामेति साहू सो तस्स गिहत्यस्स प्रासण्ातरो, सो विष्परिणामेत्तु गेण्हति अम्भरहिम्रो मितो वा । अष्णो इमं वोत्तुं गेहति ॥ १२६१ ॥ अणे वि तस्स णीया, देहिह अण्णं पि तस्स मम दातुं । दुल्लभलाभमणातुंछियम्मि दाणं हवति सुद्ध ं ॥ १२६२ ।। जेग एस संथारगो गहितो तस्स प्रण्णे वि णिया मित्ता वा अत्थि, सो तम्रो लभिस्सति । मम पुण तुब्भे चैव, अण्णतो ण ल भामि । - अहवा सो तुब्भं श्रासणी अहं पुण दूरेण तो मम दाउ पि तस्स लज्जाए श्रष्णं देहिह । कि वान्यत् - जे प्रष्णाय उंछिनो दुल्लभ -लाभो साहू तत्थ दाणं दिष्णं भवति सुद्ध - बहुफलमित्यर्थः ॥ १२६२ ।। इमा सण्णायग-कुल- सामायारी - १५६ सण्णातगिहे अण्णो ण गेण्हती तेण असमणण्णातो । सति विभवे सत्तीय व, सो वि हुण तेण णिव्विसती ॥। १२६३ ॥ जत्यगामे साहुणोठिता तम्मि गामे जस्स साहुस्स सण्णायगा तेण साहुणा श्रष्णुष्णाया, अण्णे साहुगो ण किंचि संघारगादि गेव्हंति । "सो वि सति विभवे", विभवो णाम अण्णतो संघारगादि लद्ध', 'सत्ती" नाम ग्रहमन्यत्रापि उत्पादयितुं समर्थः । सो एवमप्पाणं जाणिऊण "ण णिव्विसति" द्वि प्रतिषेधः प्रकृतं गमयति- विशत्येव न वारयतीत्यर्थः ॥१२६३॥ १ गा० १२५० । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-५१ इदाणि "'उड्ढे" त्ति दारं। संघाडएण संथारो दिट्ठो, अोभट्ठो, लद्धो य, काले वाघेच्छामो, भत्तादि वियावडा वा णेउं असमत्था, इमं वक्ष्यमाणं चितेंति - वरिसेज्ज मा हु छण्णे, ठवेति अण्णो य मा वि मग्गेज्जा । तं चेव उड्ढकरणे, णवरि पुच्छाए णाणत्तं ॥१२६४।। वरिसेज्ज मा हु. तम्मि वरिसमाणे उवरि सिजिहिति तेण छष्णे अवारादिसु उद्धं ठवेति, अण्णो वा साधू मा विग्गिहिति उड्ढे करेति । तेण गंतुं गुरुणो मालोइयं जं दिट्ठादिसु हारेसु भणितं सोउं महाभावविप्परिणामादिएहिं तं चेव उढ्ढकरणे वि, णवरि पुच्छाए ‘णाणत्तं" - विशेषः ॥१२६४।। छष्णे उड्ढो व कतो, संथारो होज्ज सो अधाभावा । तत्थ वि सामायारी, पुच्छिज्जति इयरहा लहुमो ॥१२६५।। केण इ साहुणा बणे कतो संथारभो दिट्ठो । सो चितेति - एस संथारप्रो संजयकरणे ठियो । कि मण्णे | साहुणा उद्धं कतो संथारो होज्ज उय गिहिणा महाभावेण को होज्ज? एत्थ इमा सामायारी - पुच्छिज्जति, इयरहा मासलहुं पच्छित्तं । एवं संदिद्धभावे पुच्छिज्जति ।।१२६५॥ उड्ढे केण कतमिणं, आसंका पुच्छितम्मि तु अ सिट्ठ । अण्णा असढमाणीतं, पुरिल्ले के ति माधारं ॥१२६६।। उड्वं संथारगो एस केण कतो ? प्रासंकाए पुच्छियम्मि गिहत्येण कहितो सड्ढेण प्राणितो, पुरिल्ले मह गिहत्येण प्रसिद्ध अण्णेण प्रसढमाणितो पुरिल्ले भवंति । के ति पुण साहारणं भणंति । उद्वेत्ति गतं । इदाणि "पभु" ति - एगेण संघाडएण पहू जातितो संथारगं । तं णाऊण एगो सढभावेण प्राणेति । बितिभो महाभावेण। ततिम्रो विप्परिणामेउं । चउत्यो धम्मकहाए लोभेउं । पंचमो वोच्छिणो भावे । छवो सो व ऽणो व तं व ऽण्णं वा । व्याख्या व्यवहारश्च पूर्ववत् । णवरं - पभू भणति ॥१२६६॥ पुत्तो पिता व जाइतो, दोहि वि दिणं पभूहिं (ण) वा जस्स । अपभुम्भि लहू आणा, एगतरपदोसओ जं च ॥१२६७॥ एगेण साहुणा पुत्तो जाइतो, प्रणेण पिता जाइयो। तेहि दोहि वि एगो संथारगो दियो । जति ते दो पभू दोण्ह वि साहारणो, जेण वा पुव्वमग्गितो तस्स प्राभवति । अह एगो पभू एगो अपभू तो पहुणा जस्स दिण्णो तस्स आभवति । जो अपहुं अणुण्णवेति तस्स मासलहुँ। प्राणादिगो य दोसा । एमतरस्म देतस्स साहुस्स वा पदोसं गच्छति, जं च रुट्ठो तालणाति करेस्सति तं पावति साहू ॥१२६॥ ""दिट्ठादिएम पदेसु जाव पहू' सव्वेसु इमं पच्छित्तं - अण्णेण अणुण्णविते, अण्णो जति गेण्हती तहिं फलगं । गच्छम्मि सए लहुया, गुरुगा वत्तारि परगच्छे ॥१२६८॥ १ गा० १२५० । २ दे० प्रापण हाटकादि । ३ गा० १२५० । ४ गा० १२५० । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १२६४-१२७३ ] द्वितीय उदेशक: इकोण साहुसंघाडएण एगम्मि घरे एगो संथारगो अणुण्णवितो, तं जति अण्णो गेण्हति तहि घरे तमेव फलगं, सगच्छिल्लगाण चउलहुगा, गुरुगा परगच्छे । एसा संघाडगविही भणिया ॥१२६८।। एगासति लंभे वा, गाण वि होति एस चेव गमो। दिट्ठादीसु पदेसुं, णवरमप्पिणणम्मि णाणत्तं ॥१२६६।। जदि एगेगो संघाडगो न लभति तो गाण वि वंदेण अडंतागं एसेव गमो । दिट्टादिएसु पएसु-जावपभू परूवणा प्राभयं तव्ववहारो य पूर्ववत् । णवरं - अप्पिणणे णाणत्तं ।।१२६६।। जाहे लद्धो ताहे तेहिं इमं वत्तव्वं - सव्वे वि दिगुरूवे, करेहि पुण्णम्मि अम्ह एगतरो। अन्नो वा वाघाते, अप्पेहिति जं भणसि तस्स ॥१२७०॥ सम्बे अम्हे वण - वण -तिलगातिएहि दिगुरूवे करेह, पुण्णे काले अम्हं एगतरो अप्पेहिति । मह प्रम्ह कोति वाघातो होज्ज तो प्रगो वि अप्पेहिति । तुमम्मि 'असहीणे अम्हे वा अण्णे वा जं भणसि तस्स अप्पेहामो ॥१२७०॥ संघाडगेण वंदेण वा गेण्हताणं इमो कमो - सज्झायं काऊणं, भिक्खं का अदितु वसितूणं । खेतम्मि उ असंतं, आणयणं खेत्तवहियातो ॥१२७१।। सुत्तत्यपोरिसीमो काउं भिक्खं हिंडंता मग्गंति । जे पुण वंदेण २ते णियमा भत्थपोरिसिं वज्जेत्ता मगंति । पहु दिटे त्ति पहु त्ति गतं। इदाणि "अदि?" त्ति दारं। जति सग्गामे न लभेज ताहे अण्णगामे मग्गिजति । तत्थ संथारगो दिट्ठो, ण संथारगसामी, जो खेत्तमादी गतो। एवं प्रदिढे वसिऊण गोसे संथारगं घेत्तुमागच्छति । जति सो खेत्ते अण्णगामे वि ण लब्मति ताहे प्राणयणं खेत्तवहितातो वि ॥१२७१।। “गहणे" त्ति मूलदारं गतं । इदाणि "3अणुण्णवणे" त्ति - सन्वेसु वि गहिएसु, संथारो वासगे अणुण्णवणा । जो जस्स तु पाउग्गो, सो तस्स तहिं तु दातव्वो ॥१२७२।। जता सब्बेसु साहुसु संथारगा पडिपुण्णा गहिना तदा जत्य संथारगे ठविजहिति, ते संधारोवासगा महारातिणियाए अणुणविनंति ॥१२७२॥ अववातो भण्णति । "जो जस्स उ" पच्छद्ध अस्य व्याख्या - खेल-पत्रात-णिवाते, काले गिलाणे य सेह-पडियरए । सम-विसमे पडिपुच्छा, प्रासंखडीए अणुण्णवणा ॥१२७३।। १ परदेशंगते । २ "दो वि वा परिहरेत्तु मगंति" क्वचित् पाठो । ३ गा० १२४६ । ४ गा० १२७२ । -- Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ५१-५२ जस्स खेलो संदति तस्स मझे ठातो पागतो, ततो तेण जो अंते साहू सो अणुण्णवेयबोइच्छाकारेण मम खेलो संदति, अहं तुब्भच्चए ठागे ठामि, "तुमं ममच्चए गाहि" त्ति । एवं अहं पित्तलो पवाते, वातलो णिवाते, कालग्राही कालग्रहणभूमीसमीवे, गिलाणपडियरगो गिलाणसमीवे, सेहो तप्पडियरगसमीवे, जो सामायारि गाहेति । जस्स विसमा संथारगभूमी सो अणधियासेमाणो पासाणि वा जस्स दुक्खंति सो जस्स समा संथारगभूमी तं अणुणवेति अधियासगं। प्रासंखडीओ सूरगस्स मूले ठपिज्जति जो वा जं - सुत्तत्थे पुच्छति सो तस्स पासे ठागं प्रणुण्णवेति ॥१२७६।। इदाणि "२एगंगिए" त्ति "अकुए" त्ति दो दारा एगगाहाते वक्खाणेति - एगंगियस्स असती, दोमादी संतरंतु णममाणे । कुयबंधणमि लहुगा, तत्थ वि आणादिणो दोसा ॥१२७४।। एगंगितं फलगं असंधातिमं घेत्तव्वं । असति एगंगियस्स दो पच्चरा संघाति गा गहेयव्वा । असति तिगादी संघातिगा गहेयया । एगंगियरस असति अणेगंगियो दोमादिफलगेहिं घेत्तव्यो। फलगासति कंबियमयो वि पुन्वसंघातितो, असति असंघातितो वि संतरंतु । "णममाणि" त्ति जे णमंति संतराग्रो कवियो बझति मा पाणजातिविराहणा भविस्सति । अहवा- णममाणे "अंतरा" अड्डया कंबिया बझंति । इदाणि "अकुए" त्ति दारं पच्छद्ध। "कुच" परिस्पंदने, अकुचो वंधेयवो निश्चलेत्यर्थः । इतश्चेतश्च जस्स कवियो चलंति स कुचः । ताहबंधने चतुलहुं । प्राणादिणो य दोसा भवंति । चले वा पडंति, पडते वा प्रायसंजमविराहणा ॥१२७४।। इदाणि "पाउग्गे" त्ति दारं उग्गममादी सुद्धो, गहणादी जाव वण्णिश्रो एसो । एसो खलु पायोगो, गुरुमादीणं च जो जोग्गो ॥१२७॥ जो उग्गमउप्पादणए सणाहि सुद्धो सो पाउग्गो । अहवा - गहणा दिदारेहिं जो एस वणिग्रो एस पाउग्गो । अहवा - जो गुरुमादीपुरिसविभागेण जोग्गो सो पाउग्गो भवति ॥११७५।। एवं गहियस्स परिभोगसामायारी भण्णति -... तद्दिवसं पडिलेहा, बंधा पक्खस्स सव्य मोत्तॄणं । लहुगा अणुमुयंते, ते चेव य अपडिलेहाए ॥१२७६।। जहा उपकरणस्स तहा संथारगस्स वि । "तद्दिवस" दिवसे उभयसंझ पडिलेहा, पक्खिए सवे बधे मोत्तु पडिलेहंति । जति पक्खिए बंधणा न मुयति तो चउलहुं । दिणे दिणे अपडिलेहंतस्स, ते चेव चउलटू भवंति ।।१२७६। १ मदीयं । २ गा० १२४६ । ३ गा० १२४६ । ४ गा० १२४६ । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा १२७४-१२-२ ] तस्स पुण इमा पडिलेहणविधी - कस्मि व भूमीए व कातूणं भंडगं तु संथारं । रयहरणेण पमज्जे, ईसि समुक्खेत्तु हेरिं ॥ १२७७॥ द्वितीय उद्देश कः मुहपोत्तिया दिसव्वोत्र करणं पडिलेहेउं ताहे तं उवकरणं अंकम्मि वा ठवेंति, भूमीए वा ठवेंति । ताहे संथारगं स्यहरणेण पमज्जति, हेट्टुवरि ईसि समुक्खविय ॥ १२७७ ॥ वामाण एंगतरं, संथारं जो उवादिणे भिक्खू | दसरातातो पण, सो पावति श्रणमादीणि ॥ १२७८ ।। इमेय - वासाकाले जो गहितो एगतरो परिसाडी वा अपरिसाडी वा जो तं भिक्खू मग्गसिरदसराईतो परं वोलावेति । पुणो कारणे उप्पण्णे वा जाव तिणि दसराई । इयरहा कत्तियचाउम्मा सियपाडिवरा प्रप्पेयव्वे । जोग पच्चपिणइ तस्स प्राणादयो दोसा ।।१२७८ ।। माया मोसमदत्तं, अप्पच्चयो खिसणा उवालंभो । बोच्छेदपदोसादी, दोसा तु अणपितम्मि || १२७६॥ त्रितियं पभुणित्रिए, गटठुट्ठितसुण्णमत मणप्पज्झे । सहू संसत्तेवा, रट्ठट्ठाणे य हितदड्ढे || १२८० ॥ पूर्ववत् जे भिक्खू उबद्धियं वा वासावासियं वा सेज्जासंथारगं उवरि सिज्जमाणं पेहाए न ओसारे, न श्रसातं वा सातिज्जति ॥ | सू०||५२ || जो वामेोवरि सेजमाणं न तस्मात् प्रदेशात् अपनयति तस्य मासलहुँ । परिसाडिमऽपरिसाडी, अंतो बहिता व दुविधकालम्मि । उवरितं पासिय, जो तं ण वसारे प्राणादी || १२८१ ॥ इमं च पच्छित्तं तो सहीए बहिता वा वसहीए दुविधकाले उडुबद्धे वासाकाले वा उवरि सिज्जंतं सिच्चमाणं जो साहू पेक्खतो प्रच्छति "णावसारे त्ति" प्रणोवरिसे ग करेति तस्स प्राणादी ।। १२८५ ।। १६३ - उवरिसंते लहुगं, अवस्स वरिसेस्सति त्ति लहुओ उ । लहुया लहुओ व कते, णिक्कारण-कारणे बाहिं || १२८२|| उवरि सिज्जमाणे चउलहुअं, "प्रवस्मयं वरिसिस्सति" त्ति णो प्रणोवरिसे मासलहु, अवस्स वरिसिस्सति ति तहावि शिक्कारणे बाहि करेति चउलहु, घासणं वामं गाऊण कारणे वि बाहिं णोणेति मासलहु । १ रद्धुं । २ट्टे । ३ गा० १२३६ - १२४० । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सत्र- ५२ किं पुण तं कारणं जेग बाहि णीणिज्जति ? पडिलेहणट्ठा असंसत्तो वा पातावणट्ठा ॥१२८२।। उवरि सिज्जमाणे इमे दोसा - तं दद्रुण सयं वा, अथवा अण्णे वि अंतिए सोच्चा । ओहावणमग्गहणं, कुज्जा दुविधं च वोच्छेदं ॥१२८३॥ तं उवरि सिज्जमाणं "सयं" संथारगसामी द?।। अधवा - प्रणेसि "अंतिए" प्रभासे सोचा प्रोभावणं अम्गहणं दुविधं वोच्छेयं वा कुबा ॥१२८३॥ अण्णे वि होति दोसा संजम पणए य जीव आताए । बंधाण य कुच्छणता, उल्लक्कमणे य तम्भंगो ॥१२८४॥ उल्ले पणो कुयू वा समुच्छंति, संजमविराहणा । सीयले वा भत्तं ण जीरति, लणं, प्रातविराहणा। बंधा वा कुहंति, ते कुहिया तुटुंति, उल्लो वा अक्कतो भजति ॥१२८४॥ चितियपदे वसधीए, ठिए व उच्छेदो भवे अंतो पडिलेहणमप्पिणणे, गिलाणमादीसुविहिया ? तु ॥१२८५॥ वरिसते वि प्रणोवरिसे ण कजति, वसही समंततो गलति त्ति अंतो वि ठवितो वसहीए तिम्मइ त्ति णावसारेइ, पडिलेहणट्ठा वा णीणितो, अप्पिणणट्ठा वा णीणितो ॥१२८५।। एवं ता णीहरणं, हवेज्ज अधणीणियं पि ण विसारे । गेलण्ण-वसहीपडणे, संभम-पडिणीय-मागरिए ॥१२८६॥ ___ एवमादिसु कारणेसु, वसहि - जोहरणं हवेज्ज। अह णी णियं उवरि सिबमाणं गावसारेति इमेहि कारणेहिं । "गिलाणमादिसुविहिया उ" अस्य व्याख्या "गेलण्ण" पच्छदं । गिलाणकारणे वावडो, सयं वा गिलाणो णावसारे। वसहिपडणे वा अंतो ण प्पवेसति । उदगागणिमादिएसु संभमेसुणावसारेति. प्रतिव्याकुलत्वात् । पडिणीग्रो वा बाहिं पडिक्खति जति एस समणो णिग्गच्छति तो गं पंतावेमि, सेहस्स बाहिं सागारियं । एतेहिं कारणेहि प्रणोवरिसे अकरेंतो सुद्धो ॥१२८६॥ जे भिक्खू पाडिहारियं सेज्जासंथारयं अणणुण्णवेत्ता बाहि गोणेति, णीणेतं वा सातिज्जति सू०॥५३॥ भिक्खू पूर्ववत् । पाडिहारको प्रत्यर्पणीयो। असेज्जातरस्स से जातरस्स वा संतितो जति पुणे मासकप्पे दोच्चं प्रणषुण्णवेत्ता अंतोहितो काहिं णोणेति, बाहिंतो वा प्रतो अतिणेति तहा वि मासलहु । एस सुत्तत्यो। इमा णिज्जुत्ती - परिसाडिमपरिसाडी, सागरियसंतियं च पडिहारि । दोच्चंअणुण्णवेत्ता, अंतो बहि णेति प्राणादी ॥१२८७॥ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १२८३-१२६१] द्वितीय उद्देशक: कुसातितणसंथारए परिभुज्जमाणे जस्स किंचि परिसडति सो परिसाडी। वंसकंबिमादी अपरिसाही। दोच्च अणणुण्णवेत्ता जो णेति तस्स प्राणा प्रणवत्थादि दोसा भवंति ॥१२८७॥ चोदगाह - 'णण सुते प्रणगुणवेतस्स वि मासलहु वुत्तं णिक्कारणे ? प्राचार्याह - णिवकारणे सुत्तं । प्रत्थो तु कारणे विधि दरिसेति । प्रविधीए इमे दोसा ताई तणफलगाई, तेणाहडगाणि अप्पणो वा वि । णिज्जता गहियाई, सिट्टाणि तहा असिहाणि ॥१२८८॥ ते तणफलया तस्स तेणाहडा वा, अप्पणो वा। तेणाहडेसु णिज्जतेसु अंतरे पुब्वसामी दटुं गहितेसु साधू पुच्छितो जति कति जस्स ते ण कहेति वा तो उभयहा वि दोसा, तम्हा दोसपरिहरणथं विही भणति - सपरिवखेवे ठिताणं अंतो मासो बहि मासो। अंतो मासपं काऊण बहिं णिगच्छतो तत्थेव तणफलगा गेहतु, मह ण लभति अण्णगामं वयतु । अह तेसु असिवातिकारणा अस्थि तो ते सव्वे तणफलयागीणंतु ।।१२८८।। इमा विही - अण्णउत्रस्सयगमणे, अणपुच्छा णत्थि किंचि तव्वं । जो ऐति अणापुच्छा, तत्थ उ दोसा इमे होति ।।१२८६।। सपरिवखेवे अण्ण उवस्सय वयंता प्रणापुच्छाए 'न किं चि णेयव्वं । "णत्थि" ति अनापृच्छय नास्ति किंचिन्नेयमिति । जो पुण प्रणापुच्छाए णेति तस्सिमे दोसा - कस्सेते तणफलगा, सिट्टे अमुगस्स तस्स गहणादी । णिण्हवति व सो भीओ, पच्चंगिरलोगमुड्डाहो ॥१२६०।। तेगाहडा प्रणापुच्छाए गिज्जता पुन्व सामिणा दिट्ठा, साहू पुच्छितो, कस्सेते तणफलगा ? साहू भण्णति - प्रमुगरस । तस्स गेगहण कड्ढगादिया दोसा । मह णिण्हवेति सो भीतो संतो साहू तो पच्चंगिर दोसो पदोषः तस्मिन् संभाव्यत इति, प्रत्य गिरा । लोगे वि उडाहो- 'साधवो वि परदव्यावहारिणो' त्ति ।।१२६०।। गहणादिपदस्स इमा वक्खा - णयणे दिट्ट मिट्ठ, कढण ववहार क्वहरितपच्छकत्ते । उड्डाहे य विरु भण, उद्दवणे चेव णिन्चिसिए ॥१२६१॥ तणफलया प्रणापुच्छाए गोति । तेणाहडा णिज्जमायो पुटवसामिणा दिट्ठा पुच्छिएण साहुणा सिटुं - अमुगस्स। सो रायपुरिसेहि हत्ये गहिउं कढियो। 'ववहारमेव" ति पुवसामिणा सद्धि ववहारो ति पुत्तं भवति । “ववहारिए" ति ववहरितुमारद्धं पच्छाकडे ति जिते । “उड्डाह विरु भणे" एक्कं पदं । "उद्दविते णि व्विसए" एक्कं पदं ॥१२६१।। १ परिमन्यदोषः । २ गा० १२६० । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे ५३-५६ एतेसु 'नवसु पदेसु इमं पच्छितं - मासगुरु वज्जिता, पच्छित्तं होइ नवसु एवं तु । लहुओ लहुगा गरुगा, छल्लहु छग्गुरुग छेदमूलदुर्ग ॥१२६२।। "२णिण्हवति त्ति पच्छद्धस्स इमा वक्खा - 'अहवा वि असिहम्मि य एसेव उ तेण संकणे लहुया। निस्संकियम्मि गुरुगा, एगमणेगे य गहणाई ॥१२६३ । प्रहवेत्ययं निपातः प्रविशब्दः प्रकारवाची, "प्रसि?" अनाम्याते, एसेव तु तेणो ति संकिते लहुअा, णिस्संकिते एस तेणो ति चउगुरुगा, तस्सेवेगस्स । प्रणेगाणं-अणेगेसिं साहणं गहणादी इमे दोसा - णयणे दिढे गहिते, कड्ढ विकड्ढे ववहार विवहरिए । "उड्डाहे य विरुमण, उद्दवणे चेव णिव्विसए ॥१२६४॥ तेणाहडादीण तणफलयाणं प्रणापुच्छाए नयणे पुश्वसामिणा दछु तणफलयाणि साहुस्स का गहणं कयं, विकोपयित्वा कड्ढणं, त्वं चोर इति विकोवणं, साहुस्स रायपुरिसेहिं कड्ढणं कतं, साहू ते रायपुरिसे प्रतीपं कड्ढति त्ति विकड्ढणं । सेसा ते चेव पदा तं चेव पच्छित्तं ॥१२६४॥ शिष्यः प्राह - किमस्तीदृशस्य संभवः ? आचार्याह - दंतपुरे आहरणं, तेणाहडवप्पगादिसु तणेसु । छावणमीराकरणे, "पत्थरण फला तु चंपादी॥१२६५॥ "दंतपुरे" दंतवक्के प्राख्यानकं पसिद्ध । तत् यथा तत्र तेणाहडवप्पगादिसु तणे सु संभवो भवे । तानि पुनः किमर्थ साधवो नयंति ? उच्यते - छावणनिमित्तं वा, मीराकरणं वा । मीरा मेराकडणमित्यर्थः। पत्थरणत्थं वा । फलगा वि मीराकरण पत्थरणनिमित्तं । ते पुण चंगपट्टादी भवंति ॥१२६५।। इदाणि अतेणाहडगाहा भाणियन्वा - अतेणाहडाण-णयणे, लहुओ लहुगा य होंति सिट्ठम्मि । अप्पत्तियम्मि गुरुगा, वोच्छेद पसज्जणा सेसे ॥ १२६६॥ प्रतणाहडतणाई जदि णेति प्रणापुच्छाए तणेसु लहुगो। अण्णेण से सिठं- तुझच्चया तणा फलया साधूहि वाहिं नीणिता एत्थ लहुगा । अणुग्गहो त्ति एतम्मि वि चउलहुगा । अप्पत्तियम्मि गुरुगा। वोच्छेदं वा करेज्जा। तस्स साधुस्स तद्दवस्स वा पसजणा । सेसेत्ति भण्णेसि पि साधूणं असणादियाण य दव्वाणं वोच्छेदो ॥१२६६॥ १ गा० ४७४ । २ गा० १२६० । ३ प्रणवटुप्पो दोसु य, दोसु य पारंचियो होति । इति पाठान्तरम् । ४ लहुमो लहुमा गुरुप्रा, छम्मासा छेदमूलदुगं । इति पाठान्तरम् । ५ प्रत्थरण । इति पा० । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा ११९२-१३०० । द्वितीय उदेशकः १६७ तणफलगविशेषज्ञापनार्थमाह - एसेव गमो णियमा, फलएसु वि होति प्राणपुवीए । .णवरं पुण णाणत्तं, चउरो लहुगा जहण्णपदे ।।१२६७।। जो तणेसु विधी भणितो फलगेसु वि एसो चेव विधी । नवरि णाणत्तं - चउरो लहुगा जहण्णपदे । जत्थ तणेसु मासलहुं । तत्थ फलगेसु चउलहू भवंतीत्यर्थः ।।१२६५।। वितियं पहुणिव्विसए, णटुट्ठितसुण्णमतमणप्पज्झे । खंधारअगणिभंगा, दुल्लभसंथारए जतणा ॥१२६८।। अणापुच्छाए वि नेज्ज । संधारगपभू निव्विसतो कतो, नट्टो वा, उद्वितो उब्वसितो वा, सुण्णो - पवसितो, मतो वा, अणप्पज्झो वा जातो, खंधावारभया वा बहितो अंतो अतिनेति, अग्गिाये वा नेति, विसय - भंगे वा नेति दुल्लभसंथारए वा जतणाए नेति ॥१२६॥ इमा सा जतणा - तम्मि तु असधीणे वा, पडिचरितुं वा सहीण वक्खिते । पुन्वावरसंझासु य, णयंति अंतो व बाहिं वा ॥१२६६।। गिहे संथारगसामी जदा असहीणो तदा नयंति, सहीणे वा पडिचरितुं जदा वक्खित्तचित्तो तदा गयंति, पुव्वसंझाए अवरसंझाए वा अंतातो बाहि, बाहिंतो वा अंतो नयंति ।।१२६६।। जे भिक्खू सागारियसंतियं सेज्जा-संथारयं अणुण्णवेत्ता बाहिं णोणेति; __णीणेतं वा सातिजति ॥सू०॥५४॥ जे भिक्खू पाडिहारियं सागारिय-संतियं वा सेज्जा-संथारयं दोच्चं पि अणणुण्णवेत्ता बाहिं णीणेति; जीणेतं वा सातिज्जति ।।सू०॥५॥ [नास्तीमे द्वे सूत्रे उपलब्ध भाष्यचूणिप्रतपु] जे भिक्ख पाडिहारियं सेज्जा-संथारयं पाताय अपडिहटु संपव्ययइ; संपव्ययंतं वा सातिजति ॥सू०॥५६।। प्रादाय गृहीत्वा, अप्पडिहट्ट नाम अणप्पिणिता, सम्म एगीभावेण प्रव्रजति संप्रव्रजति तस्स मासलहुं । एम सुत्तत्थो। इदाणि णिज्जुत्ती अत्थं वित्थरेति - पडिहरिणीश्रो पडिहारियो य याताय तं गहेऊणं । अप्पडिहट्ठमणप्पित्तु संपव्वए सम्मगमणं तु ॥१३००॥ मासकप्पे पुणे जम्मि कुले गहितो संथारयो तस्स पच्चप्पिणंतस्स त्ति जं धारणं सो पाडिहारितो भणति । एरिसीए कडाए तं प्रादायगृहीत्वा पुण्णे मासकप्पे अपडिहटुमणप्पिणित्तु न प्रतीपं अर्पयतीत्यर्थः । सं एगीभावे व्रज। 'वज" गतौ सम्यक प्रव्रजनं संप्रव्रजनं ॥१३००। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र-५६ संथारगो दुविहो - सेज्जासंथारो ऊ, परिसाडि अपरिसाडिमो होति । परिसाडि कारणम्मि, अणप्पिणणे मासो आणादी ॥१३०१॥ सव्वंगी सेज्जा, अड्ढातियहत्थो संथारो। अहवा - सेज्जा एव संथारगो सेज्जासंथारगो। एक्कको दुविहो - परिसाडी अपरिसाडी। उडुबद्ध परिसाडी कारणे घेप्पति, तं मासकप्पे पुण्णे प्रणप्पेतुं वयंतस्स मासलहु प्राणादयो दोसा ॥१३०१॥ इमे य अन्ने दोसा - . सोच्चा गत त्ति लहुगा, अप्पत्तिय गुरुग जं च वोच्छेदो । ___ कप्पट्ठखेलणे णयण डहण लहु लहुग जे जं जत्थ ॥१३०२।। सुतं तेण संयारगसामिणा जहा ते संजता संथारगं अणप्पिणितुं गता, चउलहुगा पच्छित्तं । परियणो य से भगति - "किं च संजताण दिणेण" । सो भणति - "प्रणप्पिते वि अणुग्गहो अम्ह" । एवं पत्तिए वि चउलहु । अह अप्पत्तियं करेति । तणा मे सुण्णा हारिता विणासिता वा चउगुरुगं । जं च वोच्छेदं करेति तस्स वा अण्णस्स वा साहुस्स, तद्दव्वस्स वा अण्णदश्वस्स वा, एत्थ वि चउगुरुगं। ___ अहवा - तम्मि संथारये सुरो कप्पट्ठाणि खेलंति, मासलहुँ। प्रह तुवटुंति मासगुरूं । प्रह अण्णतो णयंति मासलहु। अह दहति चउलह । डझतेसु य - अण्णपाणजातिविराहणा, जाति णिप्फणां च ॥१३०२।। कप्पट्ठ-खेल्लण-तुयट्टणे य लहुओ य होति गुरुगा य । इत्थी-पुरिस-तुपट्टे, लहुगा गुरुगा य अणायारे ।।१३०३।। पुबद्धं गतार्थम् । तम्मि सुण्णे संथारगे पुरिसित्थिसु तुयट्टेसु चउलहु । अणायारमायरतेसु चउगुरुगं । अहवा - सोउं गते इमं फरुसवयणं भणेज्ज ॥१३०३॥ दिज्जंते वि तदा णेच्छित्तणं अप्पसु ति त्ति भणिऊणं । कतकज्जा जणभोगं, कातूण कहिं मणे जत्थ ॥१३०४॥ गहणकाले ण देज्जतं पि दिज्जमाणं नेच्छिऊणं पुण्णे मासकणे "प्रप्पेसु" ति एवं भणित्ता णेऊण अप्पणो कते कज्जे सुण्णे जणभोगं करेऊण "कहि' त्ति के गाम नगरं वा "मण्णे" ति - पुनः शब्दो द्रष्टव्यः, यत्ति- निठुरं, किं पुण गामं नगरं वा गतेत्यर्थः ।।१३०४।। संथारगस्स गहणकाले इमा विही -- संथारेगमणेगे, भयणद्वविधा तु होति कायन्वा । पुरिसे घर-संथारे, एगमणेगे य पत्तेगे ॥१३०५।। सपारो घेप्पमाणो एगाणेगवयणे अविहभंगरयणा कायव्वा । सा इमेसु तिसु पदेसु पुरिस-घरसंथारयेसु । एगेण साधुणा – एगातो घरातो एगो संथारो। पढमो भंगो। एवं अट्ठ भंगा कातवा। "एगमणेगे" ति - एग - गणे प्रणेगगणेसु वा ॥१३०५।। साधारणपत्तेगेसु खेत्तेसु एस विधी भणितो। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १३०१-१३०६] द्वितीय उद्देशकः इमो अप्पिणंतेसु विधी "प्राणयणे" गाहा भणियव्वा - आणयणे जा भयणा, सा भयणा होति अप्पिणते वि । वोच्चत्थ मायसहिते, दोसा य अप्पिणंतम्मि ॥१३०६॥ प्राणयणे जा अट्ठिया भंगभयणा कता अप्पिणते वि सा चेव अट्ठिया भंगभयणा कातव्वा । प्रह विवरीतं अप्पेति, मायं वा करेति; न वा अप्पेति वोच्छेदादयो दोसा भवंति । जे पढमा चत्तारि भंगा तेसु जह चेव गहणं तह चेव प्रप्पिणं ति । पंचमभंगे गहणकाले “प्रम्ह अण्णतरो अप्पेहिति" त्ति। एस विधी न कतो, एगप्पणे वोच्चत्थं भवति । छट्ठभंगे एगो साधू पच्चप्पिणिउं पितो अवरो साहू चितेति "मज्झया वि . तणकंबीयो तत्थेव नेयवा, तस्स च्चयाणं मझे छुभति । अयाणंतस्स, नेच्छति नेउं ति, एवं माया भवति । सत्तमभंगे ततियभंगे वा ओहारकंबीमो तणा वा एगघरे समप्पेत्तस्स प्रणप्पिणणं संभवति । जम्हा एते दोसा तम्हा सन्वेहिं सव्वे वीसु अप्पेयत्तवा ।।१३०६।। कारणे पुण विवरीतं अप्पेति, न अप्पेति वा। इमे य ते कारणा वितियपदज्झामिते वा देसुट्ठाणे व बोधिगादीसु । अद्धाणसीसए वा, सत्थो व्व पधावितो तुरितं ॥१३०७॥ सो संथारगो ज्झामितो, देसुटाणेसु वा सो संथारगसामी कतो वि गतो, बोहियभए संथारगसामी साधू वा नट्ठा, श्रद्धाणसीसए वा मत्थो लदो तुरितं पहाविता, जाव ऽप्पिणंति ताव सत्थातो फिर्टेति ताव अण्णो दुल्लभो सत्यो ॥१३०७।। एतेहिं कारणेहिं, वच्चंते को वि तस्स तु णिवेदे । अप्पाहेंति सागारियादि असतऽण्णसाधूणं ।।१३०८।। __ न पच्चप्पिणंति, विकरणं पुण करेंति । अण्णे साधू सत्थेण वयंति । एगो साधु तस्सैव निवेदयति सत्थो तुरितं पधावितो, तेण न आनीनो, तुम्भे इयं संथारयं प्राणेज्जह । अण्णे वा साधू भणंति - तुन्भे इम संथारयं अमुगे कुले अप्पेज्जह । असति साहूण सागारियादिण अप्पाहेति । इमं संथारयं अप्पेज्जाह, णिवेद वा करेजह । एस तणकंबीणं विधी भणिता ।।१३०८।। पपेव गमो णियमा, फलगाण वि होति आणुपुवीए । चतुरो लहुया माया अ णत्थि एतत्थ णाणत्तं ॥१३०६।। फल गेसु सन्वो एसेव विधी, "णवरं" - विसेसो, पच्छित्तं चउलहुगा। माया य णत्थि - जहा तणे. कंबीसु वा अण्णे तणा कंबीग्रो वा पक्खिवंति तहा फलगाण णत्थि पखेवो ॥१३०६।। जे भिक्खू सागारियं संतियं सेज्जा-संथारयं आयाए अविगरणं - . कट्ट अणप्पिणित्ता संपन्वयति; संपव्ययंतं वा सातिज्जति ।।सू०५७ अविकरणं णाम जं संजतेण कयं, तणाण वा संथरणं, कंबीण वा बंधो, फलगस्स वा ठवणं । ए मफोडित्ता अणप्पिणित्ता वयति मासलहुं । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र ५७-५८ इमा णिज्जुत्ती परिसाडिमपरिसाडि य, सागारिय संतियं तु संथारं । अविकरणं कातूणं, दूतिज्जंतम्मि आणादी ॥१३१०॥ दोसु सिसिर - गिम्हासु रीइज्जति, दूइज्जति वा, दोसु वा पदेसु रीइज्जति ॥१३१०॥ अधिवकरणे इमे दोसा - किड्ड तुयट्ट अणाचार णयणे डहणे य होति तह चेव । विगरण पासुड्ढं वा, फलगतणेसुं तु साहरणं ॥१३११।। कप्पढगाणं किडणं, तुअट्टणं, थीपुरिसाणं तुयट्टणे अणायारसेवणं वा, अण्णत्थ वा णयणं, डहणं वा, एतेसु चेव जे दोसा पच्छित्तं च पूर्ववत् । फल गस विकरणं पासल्लियं करेति, उड्डे वा करेइ. तणेसु साहरणं, कंबीसु बंधण छोडणं वा ।।१३११।। कि च - पुंजा पासा गहितं, तु जं जहिं तं तहिं ठवेतव्वं । फलगं जुत्तो गहितं, वाघाते विकरणं कुज्जा ॥१३१२॥ जे तणा पुंजातो गहिता ते पुंजे ठवेयन्वा । जे पासातो गहिता ते तहि ठवेयव्वा । जं वा जतो गहियं तं तहियं ठवेयध्वं ति । कंबीमादी फलगं जतो पदेसातो गहितं तं तहि ठवेयव्वं । मासकप्पे वा - पुणे अन्तरा वाघाते उप्पण्णे णयमा विकरणं कायव्वं, ण करेजा वि विकरणं, ण य पावेजा पच्छित्तं॥१३१२॥ बितियपदमधासंथड देसुट्ठाणे व बोहिगादीसु । अद्धाणसीसए वा, सत्थो व पधावितो तुरितं ॥१३१३॥ महासंयडं नाम णिप्पकंप पट्टादि । शेषं पूर्ववत् ।।१३१३।। जे भिक्खू पाडिहारियं वा सागारिय-संतियं वा सेज्जा-संथारंय विप्पणटुं . ण गवसति, ण गवसंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥५८॥ वि इति विधीए, प इति प्रकारेण, रक्खिज्जमाणो णट्ठो विपणट्ठो । शेषं पूर्ववत् । . संथारविप्पणासे, वसधीपालस्स मग्गणा होति । सुण्णे बाल-गिलाणे, अव्यत्तारोवणा भणिता ||१३१४|| मुत्ते संथारविप्पणासो दिट्टो । सो पुण णासो अरक्खिते संभवति, कुरविखते वा । अतो वसही - पालगस्स मग्गणा कज्जति, सुणं वा वहिं करति, बालं वा वसहीपाल ठवेति ॥१३१४॥ एतेसु पदेसु गणाधिपतिणो आरोवणा भणति - पढमम्मि य चतुलहुगा, सेसाणं मासिगं तु णाणत्तं । दोहि गुरू एगेणं, चउत्थपदे दोहि वी लहुओ ॥१३१५॥ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १३१० - १३१८ ] द्वितीय उद्देशक: पढमं सुण्णपदं, तत्थ चउलहुगा । सेसेसु तिसु बाल - गिलाण - अव्वत्तेसु मासलहु । " णाणत" मिति - विसेसितं तवकालेहि चउलहुत्रं, तवकालेहिं गुरुगं, बाले तवगुरु, गिलाणे कालगुरु, प्रव्वत्ते दोहिं वि लहु ।। १३१५ ।। सुणे इमे दोसा मिच्छत्तदारस्स वक्खाणं सुष्णं वसही करेंताणं सेज्जायरो मिच्छतं वएज्ज ।। १३१६ ॥ २ मिच्छत्त बडुय चारण- भंडेय मरणं च तिरियर्मणुयाणं श्रादेस-वाल- णिक्केणेय सुष्णे भवे दोसा ॥ १३१६॥ सोच्चाऽपत्तिमपत्तिय, अकतण्णु दक्खिणा दुविधछेदो । भतिभरागमधाडण, गरहा ण लब्भंति वऽण्णत्थ || १३१७॥ ते साहूणं वसह काउं गया सव्वभंडगमादाय । सागारिएणं सुण्णा वसही दिट्ठा-सो पुच्छति कहि गता साहू ? प्रष्णेहि से कहियं - ण याणामो । ग्रहवा भांति - सव्वभंडगमाताय गता । ते संतिए सोच्चा जति तस्सऽप्पत्तियं अप्पीतिमुप्पाणा तो साहूण चहु । ग्रह से अप्पत्तियं जातं, प्रप्पत्तिश्रो य भणाति - ग्रहो ! ग्रकयष्णू साधवो, अदक्खिण्णा, froहा, प्रणापुच्छाए गया, लोगोवयारं पि ण जाणंति, लोगोवयार विरहितेसु वा कुतो धम्मो । एवं प्रप्पत्तिए चउगुरुं । दुविध - वोच्छेदं वा करेज्जा । तस्स वा साहुस्स । अष्णस्स वा तद्दव्वस्स वा श्रन्नदव्यस्स वा । एवं सो रुट्ठो । ते यमिखायरियाय गता भत्तपाणभरियभायणा भागता । कसातितो घाडेति । दिवसतो चउलहु । ते य भत्तपाणी वगरणभारावकंता पगलंते य अन्नवसहिं मग्गमाणा गाढं परिताविज्जति । तण्णिव्फण्णं च पच्छितं । गर हिज्जं ते य लोगेण - णूणं तुब्भे प्रमाधुकिरियद्विता, तेण घाडिया, अण्णत्थ वि ठागं ण लभति । ते य वसहिमलभमाणा श्रष्णं खेत्तं वएज्ज । एवं मासकप्पे भेदो भवति ।। १३१७॥ जतो भष्णति अहवा वएज्जा ।।१३१८॥ - भेदो य मासकप्पे, जमलंभे विहाति निग्गतावण्णे । बहि-भुत णिसागमणे, गरह-विणासा य सविसेसा || १३१८ || मासकप्पे भेदे य जा विराहणा, जं च ते भद्धाणे खुहपिवासासोउन्ह वा सश्रमं वसहिमलभंता पावंति तणिप्फण्णं । जं च सो उ दुरूहो विहाति णिग्गयाणं प्रणष्णसाहूणं ण देज्ज वर्साह । वसहि श्रभावे य जं च ते पाविहिति सावयतेणाति । एतेहितो तणिष्फष्णं । एते भिक्खं हिडिउं प्रागताण दोसा । श्रघ बाहि भोत्तुं सुत्तपोरिसि काउं विधाले भागता ण लभंति तो चउगुरुगं । राम्रो घाडिता राम्रो चेव भण्णं वर्साह मग्गमाणा सविसेसं गरहं पाविति । राम्रो य घडता तेण सावयवाल कंटक प्रारक्खिएहि तो सविसेसं विणासं पावेंति । १७१ - सो सम्मत्तं पडिवण्णो श्रणापुच्छाए गिग्गता । "आलोइय" त्ति काउं मिच्छतं Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ १७२ समाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [सूत्र-५८ इदाणि "वडुय" त्ति दारं-, _णं दटुं वडुगा, प्रोभासण ठाह जति गता समणा । आगमपवेसऽसंखड सागरि दिण्णं मए दियाणं ॥१३१६॥ ष्णं वसहिं दर्दू उडुएहिं सागारिओ प्रोभट्ठो। सो सागारियो भणाति - समणा ठिता ? ते भणंति - गता, सुण्णा वसही चिट्ठति । सो भणाति - ठाह, जति गता साहू । ते एवं ठिता साहू य भागया वसहिं पविसंता बड्डुएहिं णिरुद्धा । एवं तेसिं असंखडं नायं । साहू भणंति - "अम्ह दिण्णा" । इतरे भणंति - "अम्ह दिण्णा" । साहू सागारिसमीवे गता भणति - वडुएहि णिरुद्धा वसही। सो भणति-तुब्भे वसहिं सुण्णं का णिग्गया, प्रतो मए सुण्ण त्ति काउं वडुयाण दत्ता ॥१३१६।। सेज्जायरो भणति - संभिच्चेणं व अच्छह, अलियं न करे महं तु अप्पाणं। उड्डंचग अधिकरणं, उभयपदोसं च णिच्छूढा ॥१३२०॥ संभिच्चेण अच्छह एगट्ठा चेव, अलियवादी अप्पाणं अहं ण करेमि, अतो अहं ण घाडेमि । तत्व संभिच्चेणं अच्छताणं सज्झाय-पडिलेहण-पच्चक्खाण - वंदणादिसु उड्डंचये करेज्ज । कुट्टियागो करेज्ज । तत्य कोइ असहणसाहू तेहिं सद्धि प्रधिकरणं करेज्ज । ते साहूहि वा णिच्छूढा, अहाभद्दसेज्जायरेण वा णिच्छूता, साहुस्स सेज्जायरस्स वा उभयस्स वा पदोसं गच्छेज्ज ॥१३२०॥ सागारिसंजताणं, णिच्छूढा तेण अगणिमादीसु । जं काहिंति पउट्ठा, सुण्णं करेंते तमावज्जे ॥१३२१।। पदुट्ठो पाउसेज्ज वा हणेज्ज वा गिहाति वा डहेज्न वा हरेज्ज वा किंचि । अण्णं च प्रसंजएहि सद्धि वसंताणं प्राउजोवण वणियादिदोसा भवंति । साहूहिं सेज्जातरेण वा णिच्छूढा पदोसं गता, जहा वडुया तेणागणिमादिदोसे करेज्जा । एत्व उवकरणववहारादिसु जं पच्छित्तं तं सव्वं, सुष्णं करेंतो पावति ॥१३२१॥ "3चारण-भडे" दो दारे एगगाहाए वक्खाणेति - एमेव चारणभडे, चारण उड्डंचगा तु अधियतरो। णिच्छूढा व पदोसं, तेणागणिमादि जध बहुगा ॥१३२२॥ "चार - भडे" त्ति दो दारा गता ॥१३२२।। "इदाणि मरणं तिरियमणुयाणं 'आतेसा य" एते तिण्णि दारा एगढे भणाति - छड्डणे काउड्डाहो, णासारिसा सुत्तऽवण्णे अच्छंते । इति उभयमरणदोसा, आदेस जधा बडुयमादी ॥१३२३॥ सुण्णवसहीए तिरिक्खजोणिया गोणमुणगमादी, मणग्रो रंको छेवडितो वा, पविसित्ता मरेन । तत्य जति असंजतेगं छड्डावेंति तो असंजतो कायाण उवरि छड्डे ति छक्कायाण विराहणा। १ गा० १३१६ । २ प्राक्रोशयेत् । ३ गा० १३१६ । ४ गा० १३१६ । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १३१६-१३२७ ] द्वितीय उददेशकः AN अहवा - संजमभीतो असंजएण ण छडावेति, णेच्छति वा असंजतो, ततो अप्पणा चेव छ ति । "गरहिय" ति काउं उड्डाहो भवति । अह एसि दोसाणं भीया ा परेण अप्पणा वा छड्डे ति तो तत्थ अच्छते कुहियगंधेणं णामारिसानो जायंति, तं चेव प्रसज्झाय ति काउ सुत्तपोरिसिं अत्थ पोरिसिं वा । करेति, तणिफण पच्छित्तं च भवति। लोगो य प्रवण गेण्हति -प्रसुइया ऽच्छति । तम्मि कलेवरे अच्छते एते दोसा । इति उपप्रदर्शने । उभयं तिरियमणुया । पाएसा णाम पाहुणगा । तेसु जे वडय - चार - भडाण दोसा ते गिरवसेसा ।।१३२३।। तिणि य दारा गता। इदाणि “वाल निक्केयण" य दो दारा एगट्ठा वक्खाणेति - अधिकरणमारणाणी, णितम्मि अच्छंते वाले अातवघो। तिरियी य जहा वाले, मणुस्मासूयी य उड्डाहो ॥१३२४॥ वालो नाम अहिरूपं सम्पादि, सुण्णवसहीए पविसेज्ज । जति साधवो पागया तणिक्कालेति तो प्रधिकरणं भवति । कहं ? हरितादिमझेण गच्छेज्जा, मंड्रगादि वा डसेज्जा, मारिज्जति वा जीणिज्जतो लोगेण । अह एतद्दोसभीता ण छड्डेति तो अच्छते वाले प्रायवधी, तेण डकको साहू मरेज, तणिफण च पन्छित्तं भवति । णिक्केयणं दुविध - तिरक्खीण मणस्सीण य । तिरक्खीण जहा वाले प्रधिकरणं मारण प्रायवहो य । मगुस्सी जति सुणाए वसहीए पवेसेज्जा तो लोगो भणेज्ज - एतेहि चेव तं जणियं, एतीए उड्डाहो । अह जीणिज्ज ति तो अधिकरणं, गिरणुका त्ति वा उड्डाहो, तं दा चेडरूवं, सा वा वातातवेहि मरेज्जा। अथवा - सा णीणिज्जती पदुट्ठा २छोभ छुभेज्ज - जहा एतेहि मे जणियं । इदाणि णिलुभंति त्ति उड्डाहो ॥१३२४।। अधवा - छड्डेऊण जति गता, उज्झमणुज्झते होंति दोसा तु । एवं ता सुण्णाए, बाले ठविते इमे दोसा ॥१३२५।। काती प्रणाहित्थी बहिचारिणी वा साधुवसहीए सुणाए पविसित्ता तं चेडरूवं छड्डत्ता गया । ते साधवो गिर णुकंपा जइ उज्झति तया सिगालादिमु वा खज्जति, वातातवेसु वा मरेज्जा । अणुज्झतेसु तम्मि रुपते प्रसज्झायो, लोगो वा भणेज्ज - कुतो एवं ? जट् वसहीए सुण्णाए पविसित्ता चेडरूवं छडित्तं, रायपुरिसा वा गवेसेज्ज । एवं वित्थारे उड्डाहोभवो भवे ।।१३२५।। एते सुण्णवसही दोमा। सुण्णवसहीदोसभीता बालं ठवेज, तत्यिमे दोसा - चलि धम्मकहा किड्डा, पमज्जणा बरिसणा य पाहुडिया। खंधार अगणिभंगे, मालवतेणा व गातीया ॥१३२६॥ दा० गा. अण्णवसतीए असती, देवकुलादी ठिता तु होज्जा हि । बलिया वरिसादीणं, तारिसए संभवो होज्जा ॥१३२७॥ १ गा० १३१६ । २ कलंकं । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-५८ तत्थ पढम दारं बलि ति। उवदोसो सपाहुडियाए वसहीए ण ठायव्वं, ते य साहुणो कारणेण देवकुलमादिसु सपाहुडियाए वसहीए ठिता होज्जा, ते पुण बलिकारया सभावेण वएज्जा, 'कयगेण वा ॥१३२७।। तत्थ सभाविगेण भण्णति - साभावियणिस्साए, व आगतो भंडगं अवहरंति । णीणाविति व बाहि, जा पविसति ता हरंतऽण्णे ॥१३२८|| साभाविगा बली ण साहूण कारणा अवहारणिमित्तं प्राणिज्जति । अप्पणो देवयपूय गटुताए अागया, ण हरण बुद्धीए । तेसि बलि करेमाणाणं विरहं पासित्ता हरणबुद्धी जाता, ताहे हरंति तणीस्साए । अणणे पुष धुत्ता बलिकारगणीस्साए अागता। जता एते बलि करिस्संति तदा सो बालो वसहीपालो बाहि णिकलिस्मति बहुजगत्तणेण वा वक्खितो भविस्सति, तदा अम्हे प्रवहरिस्सामो त्ति अवहरंति । प्रवहरणट्ठनाए भणति ते धुत्ता- अरे खुड्डगा भंडगं तुब्भे बाहि गीगितेल्लयं करेहि, मा विणस्सिहि । ताहे सो बालो तं कज्ज अयागतो बहु च उवकरणं एककवाराए अचाएंतो धेवं थेवं घेत्तुं गोणेति, जाव अण्णस्स पविसति तावsyा हरंति अण्ण धुत्ता ॥१३२८।। एमेव कतिवियाए, णिच्छोटुं तं हरंति से उवधि । - बाहिं व तुमं चिट्ठसु, अवणे उवधिं च जा कुणिमो ॥१३२६॥ २केयवबली साहूवकरणस्स हरणट्ठताए जणाउले वखित्तस्स हरिस्सामो त्ति करेंति । जहा साभावियाए तण्णिस्सागता धुत्ता वालं णिच्छोढुं हरति । एवं कइयवेण वि । अधवा - तं बालं भणंति - बाहि तुम चिट्ठसु, जाव अम्हे उवालेवगादि करेमो, उवकरण वा बाहिं णोणेहि ॥१३२६॥ बलि ति दारं गतं । इदाणि "धम्मकहे" त्ति दारं भण्णति - कतगेण सभावेण व, कहा पमत्ते हरंति से अण्णे । किड्डइ तहेव रिक्खा, पास त्ति व तहेव किड्डदुगं ॥१३३०॥ धम्म पि कयगेण वा सभावेण वा मुगेज्ज । साभावियधम्म-सवणे पमत्तस्स धम्मकहाए अणे मे उवकरणं हरंति । कइतम - धम्मसवणे अणणे पुच्छति, अण्णे हरंति । धम्मकहे त्ति दारं गत । "किडु"त्ति दारं भण्णत - तहेव किड्डदुग" त्ति । जहा बलीए सभावेण कइतवेण वा एंति तहा किड्डाणिमित्तमवि तत्थ सो वालो सयं वा किड्ड ज्ज, तेहि वा भणिप्रो किड्डज्ज । रिक्ख नि रेखा को कतिवारे जिप्पति, मयं रेहा कड्डति. तेहिं वा भणियो कड्डति । अधवा - बालत्तणण ते किड्ड ते पामतो अच्छति । एवं वक्तित्तस्स अवहरंति ते भुयंगा ।।१३३०।। किड नि दारं गतं । इदाणि "४पमज्जणा वरिसण' त्ति दो दारा - जो चेव बलियगमो, पमज्जणा वरिमणे वि मो चेव । पाहुडियं वा गिण्हमु, पडिमाडणियं व जा कुणिमो ॥१३३१॥ १ कैनवेन वा । २ कैतवबली। ३ गा० १३२६ । ४ गा० १३२६ । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यमाथा १३२८-१३३५ ] द्वितीय उद्देशकः १७५ जो बलीए गमो प्रकारः स । एवसहो-प्रवधारणे, सम्मज्जणं, प्रमार्जन, पात्ररिसणं पाणिएणं उप्फोसणं, इहावि स एव प्रकारार्थः । इदाणि "पाहडि' त्ति दारं भण्णति - पच्छद्ध । पाहुडिय त्ति भिक्खा - बलि - कूर - परिसाडमं वा। तं पि दुविधं -- कईतवेण वा, सब्भातेण वा । कोति भणेज्ज - एहि घरे, भिक्खं गे'हाहि । ग्रहवा भोज्ज - जावच्चणियं करेमो ताव दुवारे चिट्ठम् । एवं भिक्खाग यस्स बाहिरे ठियस्रा वा अवहरति ।।१३३१।। “पाहड़िय" त्ति दारं गतं । इदाणि “खंधावार-गणि" त्ति दो दारा भण्णंति - खंधारभया णासति, सो वा एति त्ति कतितवे णासे । अगणिभया व पलायति, णस्सुसु अगणी व एसेति ॥१३३२॥ खंधारे पत्ते बालत्तणेण तब्भया णासति, णासंतो हीरेज्जा । सुण्णवसहीए वा से उवकरणं हीरेज । कयगेण सभावेण वा भणेज्ज सो वा एति ति, स इति खंधावार इत्यर्थः । एवं स्वभावेन, कृतकेन वा तद् भयान्नस्यमानस्य आत्मोपकरणापहारसंभव इत्यर्थः । साभावियअगणीते वि तब्भया णासति, कोति कइतवेण भणेज्ज - डहमाणो अगणीए से इज्जसु, गच्छेत्यर्थः । एवं नष्टे उबकरणं अवहीरति ॥१३३५।। इमे य अण्णे दोसा भवंति - उवधी लोभ-भया वा, ण णीति ण य तत्थ किंचि जीणेति । गुत्तो व सयं डज्झति, उवधी य विणा तु जा हाणी ॥१३३३।। उवहीए लुद्धो पायरियादि वा जुरीहिंति तब्भया ण णीति । ण य बाल तणेण किंचि उवकरणं णीति, गुत्तो प्रविष्टः उवकरणणिमित्तं अगणिभया वा पविट्ठो सयं डज्झति, उहि विणा जा परिहाणी तणिप्फणं । अगणि त्ति दारं गतं ॥१३३३।।। डंडियखोभादीओ, भंगो अधवा वि बोहिगादिभया । तत्थ वि हीरेज्ज सयं, उवधी वा तेण जंतु विणा ॥१३३४॥ भंगशब्द: खंधावार - अगणीसु योज्यः । अहवा - "भंगे' त्ति दंडिते मते भंगो भवति । अहवा - बोहिगभये भंगो भवेज्ज । एत्य वि मयं हीरेज उवही वा । तेण विणा जं पावति तष्णिप्फण्यं ॥१३३४॥ इदाणि "मालवतेणे" त्ति दारं - मालवतेणा पडिता, इतरे वा णासते जणेण समं । ण गेण्हति सारुवधी, तप्पडिबद्धो व हीरेज्जा ॥१३३।। मालवगो पव्वतो, तस्सुवरि विसमते तेणया वसंति, ते मालवतेणा । तेसु पडिएसु णासते जणेण समं इतरे वि नि । कइतवेण कोई भणेति मालवतेगा पडिया। सो बालो णासंतो " गेण्हति सारुवहि, तम्मि वा उवकरणे पडिबद्धो स एव बालो होरेज्ज ।।१३३५।। मालवतेणे त्ति दारं गतं । १ गा० १३२६ । २ गा० १३२६ । ३ गा० १३२६ । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-५८ इणि "पणाई' त्ति दारं । तं पि सभावेण कतितवेण वा - सण्णाततेहि णीते. एति वणीतं ति णडे जंतुवधि । केहि णीयंति कइतव, कहिए अण्णस्स सो कधए ॥१३३६।। सणायएहि प्रागएहिं वसहीए एकातो दिवो णीतो य । तम्मि णोते प्रणा उहि हरेज्ज, तणिफणं । अहवा - अण्णेण ते तस्स २णोताएंता दिट्टा, तेग से कहियं - श्रीया एए एंति, प्रागया वा, ताहे सो भया दल एज्ज । एवं ता सभावेणं । अह कइतवेण केइ जणा दो धुत्ता भरिता । ताप एक्को चेल्लय - समीवं गतो, पुच्छति - तुझ कि णाम? तेण से कहियं - अमुगं ति । काह वा तुमं जामो उप्पणो ? माउपिउभगिणिमाउगाणं णाम गोयाति वयो वणो ||१३३६।। चिंधेहिं आगमेत्तुं, सो वि य साहति से तुह णिया पत्ता। . णढे उवधि गहणं, तेहिं बहि पेसितो हरती ॥१३३७॥ चिहिं प्रागमेउं अण्णस्स साहति । सो खुडुगसमीवं गतो भणइ - अहो इंदसम्म ! किं ते वदृति ? खुड्डगो भणाति - मज्झ णामं कहं जाणासि ? सो भणति - ण तुज्झ केवलं, सव्वस्स वि ते पिउमादियरस सव्वस्स सयणस्स जाणामि । सबम्मि कहिए संवदिए य धुत्तो भणाति - ते तुज्झ सयणा आगत' । तव कएण, अमुगत्थ मए दिट्ठ ति, इदाणि मुहुत्तमेत्तेण पविसंति । ताहे सो पलायति । ते य उहि हरंति । अधवा भणेज्जा - अहं ते तेहि व तावतो पेसितो, सो वि तस्स विसंभेज्जा। वीसत्थस्स य उहि हरेज। अहवा सो भणेज्जा - अहं तव कएण पेसिप्रो, एहि गच्छामो । ताहे सो पलाएज्ज । सो वि से उवधि हरेज । मह इच्छइ खुडगो गंतु तं चेव हरति ।।१३३७।। बलादियाण तिण्ह वि एते दारा संभवति । ग्राह - एते पदे ण रक्खति, बालगिलाणे तधेव अव्वत्ते। णिद्दा-कधा-पमत्ते, वत्ते वि हुजे भवे भिक्खू ।।१३३८।। एते मिच्छमादि मालवतेण - गाइ - पज्जवसाणा पदा ण रक्खति बालो, गिलाणो य उबालगिलाणे, तहा अव्वत्तो वि ण रक्खति, एते पदे अज्ञत्वान्न रक्षति । जो पुण वत्तो भिक्खू सो निहा- धिकथा-प्रमादत्वात् ॥१३३८॥ बाल इति दारं गतं । इदाणि "४गिलाण अव्वत्त" दो दारा - एमेव गिलाणे वी, सयकिड्डकधापलायणे मोत्तुं । अव्वत्तो तु अगीतो, रक्षणकप्पे परोक्खो तु ॥१३३६।। एवमेव त्ति जे बालोसा ते गिलाणे वि । णवर - तस्स जो आयसमुत्थो किड्डादोसो धम्मकहादिदोसो वा, भया पलायणदोसा य, एते ण संभवति । असमर्थत्वात् । गिलाणो वा परिभूतो त्ति कारवसहिपालो त्ति ण ठविज्जति । एगागी वा अच्छतो कुवति । लोगो वा भणति - अहो णि रणुकंपा छड्डउं गया, १ गा० १३२६ । २ नीना इति पाठान्तरम् । ३ जहा य बाल - गिलाणा प्र० । ४ गा० १३२३ । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १३३६-१३४२ ] द्वितीय उद्देशकः १७७ उड्डाहो भवति । अपत्यं वा पकप्पियं वा एगागी अच्छंतो भुजेज्जा । अव्वत्तो णाम अगीयत्यो, सो रक्खणकप्पे "परोक्खो" बलिधम्मकहादिसु साभावियकृतकेस वा प्रज्ञ इत्यर्थः ।।१३३६।। जम्हा एते दोसा बालाइयाणं - तम्हा खलु अवाले, अगिलाणे वत्तमप्पमत्ते य । कप्पति वसधीपाले, धितिमं तह वीरियसमत्थे ॥१३४०॥ तम्हेति कारणा, खलु इति अवधारणे, अबाल इति अवर्ष-प्रतिषेधार्थ । असावपि अग्लान, अबालो वि य । वत्तो, दव्वतो वंजण जातो, भावप्रो गीतत्थो। सो वि अप्पमत्तो "कप्पति" त्ति । एरिसो वसहिपालो ठवेउं । कि "धितिम" सो वसहिपालो तहाए वा छुहाए वा परिगतो ण सुण वसहि काउं भत्ताए वा पाणाए वा गच्छति, धितिबलसंपन्नो होउं। "तथे' ति यथा धृतिबलेन युक्तः तथा वीर्येणापि । वीरियस्स सामत्थं वीरियसामत्थं । समत्थसद्दो वा युक्तवाचकः, वीर्ययुक्त इत्यर्थः । ण तेण पडिणीएहिं परभंतो वि जिणकप्पतिगो व उदासिणं भावेति, सव्वावतीसु वीरियसामत्थं दरिसेति ।।१३४०।। ते पुण केत्तिया वसहिपाला ठवेयव्वा ? उच्यते - सइ लाभम्मि अणियता, पणगं जा ताव होतऽवोच्छित्ती। जहण्णेण गुरु अच्छति, संदिट्ठो वा इमा जतणा ॥१३४१॥ ___ सति भत्तपाणलभे जावतिएहि भिक्खाए गच्छंतेहिं गच्छस्स पज्जत्तं भवति, तावतिया अभिग्गहियअणभिग्गहीया वा गच्छति । सेसा अणियया अच्छंति । अहवा - पणगं वा मायरियो उवज्झायो पवत्ती थेरो गणावच्छेतितो य एते पंच। . अहवा - पायरियो उवझायो थेरो खुड्डो सेहो एते पंच । अहवा - जो सुतत्थाण अब्वोच्छित्ति काहिनि सो पायरियस्स सहातो अच्छति । अह ण संथरति तो जहण्णण गुरु चिट्ठति । अहवा - प्रायरियस्स कुलादिकज्जेहिं णिग्गमगं होज्ज, ताहे जो पायरिएण संदिट्ठो - "मया णिग्गते प्रमुगस्स सव्वं आलोयणादि करेज्जह" सो वा अच्छतु । तस्स य वत्तस्स वसहिपालस्स 'बलिधम्मकहादिएसु सभावकतगेसु पड्डुप्पण्णेसु इमा जयणा ।।१३४१।। अप्पुवमतिहिकरणे, गाहा ण य अण्णभंडगं बिविमो । भणति य अठायमाणे, जं णासति तुज्झ तं उवरिं ॥१३४२॥ अपुव्वा बलिकारया जे तम्मि देवकुले पडिचरगा, ते ण भवंति । एत्य टुमि - चउद्दसादिसु बली कज्जति । ते पुण अतिही ते चेव उवट्ठिता । कतगेण तेणग त्ति णाऊणं गाहं भणति - 'ण वि लोणं लोगिज्जति, ण वि तुप्पिज्जति घतं व तेल्लं वा। किह णाम लोगडंभग ! वट्टम्मि ठविज्जते वट्टो' ॥ "अन्नं भंडेहि वणं, वणकुट्टग ! जत्थ ते वहइ चंचू । भंगुर वण वुग्गाहित !, इमे हु खदिरा वइरसारा ।। १ बृहत्कल्पपीठिकाटीकायां पूर्वोक्त चूणि-निदिष्ट-गाथया सह एषा अन्याऽपि गाथा समुपलभ्यते । २३ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-५८ एवं वुत्तं अम्हे गाय त्ति णासंति । अहवा - ते भणिज्ज - इमं उवहिं प्रवणेहि, अम्हे बलि करेमो। ताहे साहू भणति - भिक्खादिगताणं अण्णसाहूणं अम्हे उवकरणं ण च्छिवामो । अह ते धुता वोलेण हरिउकामा एक्के कोणादिसु सयमेव काउमारद्धो। ताहे साहू भणाति - वसहीए बाहिं ठिच्चा अण्णजणं सुणावेंतो- अहो ! इमे केति मम वलामोडीए उपकरणं विलोवेति । एवं च भणाति - "जं णासति तं तुझ उवरि ।।१३४२।। कारणे सपाहुडि-ठिता, वासासु करेंति एगमायोगं । साभावियदिट्टे वा, भणंति जा सारवेमुवहिं ॥१३४३।। सपाहुडियाए वसहीए ण ठातव्वं । ते पुण साहवो अण्ण - वसहि - प्रभाव कारणे ठिता । तत्य वासासु उवकरणं एगमायोगं एगबंधणं करेंति । अह बलिकरा साभावियतिथीए करेंति । दिदुपुवा य बलिकारका । ताहे साधू भणति – जाव अम्हे एगकोणे सारवेमो उवहिं ताव ठिता होइ ॥१३४३।। उव्वरगे कोणे वा, कातूण भणाति मा हु लेवाडे । बहुबल-पेल्लण ऽसारवणे, तहेव जंणासती तुझ ॥१३४४॥ सव्वोवगरण उबरगे छुभंति । प्रह णत्थि उव्वरगो तो सव्वोवकरणं एगकोणे करेंति । अण्णत्थ वा काऊणं भणंति - सणियं उवलेवणं करेज्जाह, मा लेवाडेहिह । अह ते बहु बला य पेल्लति, सारविज्जतं ण पडिक्वंति । एत्थ वि तहेव भणाति - "जं णासति तं तुझं उरि" ॥१३४४॥ कतगेण, सभावेण वा धम्मसवणोवट्टिते भणाति - पत्थि कहालद्धी मे, दिह्रो व भणाति दुक्खती किं चि ! दाणादि असंकणिया, अभिक्खमुवोगकरणं तु ॥१३४।। पत्थिं मे धम्मकहा लद्धी, ण वा जाणामि । ते भणंति - दिट्टो पुग अम्हेहि कहेंतो धम्म । ताहे भणाति - सिरं गलगो दा दुवखति, विस्सरितं वा त पुवाधीतं । अह ते दाणादिसड्ढा असंकणिया, तेसिं कहेंतो पुणो- पुणो उत्रकरणे उवउज्जति, मा तणिम्साए अपे' प्रबहरेज । आदिसद्दातो अभिगमसम्मत्तादिण घेणंति ।।१३४॥ 'किड्डाए इमा जयणा -- दलृ पिणेण लज्झा, मा किडह मा हरेज्ज को तत्थ । सम्मज्जणाऽऽवरिसण, पाहुडिया चेव बलि सरेसा ।।१३४६।। दछु पि अम्हं ण कप्पति, मा तुझे किडुह. मा तुझं गिरसाए प्राह उवकरणं हरेज समजणे आवरिसाणे पाहुडियाए य जहा बलीए जयणा तहेव दट्टव्वा ॥५३४६।। १ गा० १३२६ । २, ३, ४,- गा० १३२६ । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १३४३-१ द्वितीय उद्देशक: भिक्खाणिमंतितो इमं भणाति - अंतर णिमंतिप्रो वा, खंधारे कइतवे इमं भणति । किण्णे निरागसाणं, गुत्तिकरो काहिती राया ।।१३४७॥ . भिक्खाणिमंतितो भणाति - अज्ज प्रम्हाण "अंतर" ति उववासो। कइतव-खंधावारे इम भणति - "किम" ति पर प्रश्ने, न इत्यात्मनिर्देश. प्राकृष्यत इति आगसणं, तं च दविणं, तं जस्स पत्थि सो णिरागमो । गुत्ति करोती ति गुत्तिकरो, गुती रक्खा भण्णति । स गुत्ति करो राया मम्हं णिरागसाणं कि काहिति ॥१४॥ साभावित - खंधावारे इमं भणाति - पभु-अणु-पभुणो आवेदणं तु पेल्लिंति जाव जीणेमि । तह वि हु अठायमाणे, पासे जं वा तरति णेतुं ॥१३४८॥ पभू णाम राया, अणुप्पभु जुवराया, सेणावतिमादिगो वा, आवेदणं तेसिं जाणावणं, अम्हं उवकरणं खंघावारिएहि घेप्पति पेल्लंति वा ते वसहिं । रायरविखया य तवोवणवासिणो भवति । तं रक्खह भम्हं । ताहे रायपुरिमेहि जति रक्खावेंति तो लटुं। प्रध ण रक्खंति ण वा रायाणं विष्णवेउं प्रवगासो, ते य पेल्लति, ताहे भणाति - जावोवकरणं णिप्फिडेमि ता होह । तह वि अट्टायमाणेसु वसहिनिमित्तं व पेल्लंतेसु एगपस्से उवकरणं काउं रक्खति । अह ण सक्केति रक्खिउ 'वमालीभूतं, ताहे कप्पं पत्थरेत्ता सन्वोकरणं बंधति, बंवेत्ता जीणेति । अह ण चएति णे उंबहु उवकरणं, ताहे दोसु तिसु वा कप्पेसु बंधेत्ता कोल्लगपरंपरएण णीणेति । अह बहू मिलित्ता हरिउमारद्धा, ताहे जंतरति णे उजं वा पासे प्रायत्तं ततियं णेति ॥१३४८।। जत्थ अग्गी साहावियो तत्थ - कोल्लपरंपरसंकलियाऽऽगासं णेति वातपडिलोमं । अच्चल्लीणे जलणे, अक्खादीसारभंडं तु ॥१३४६।। कोल्लुगा णाम सिगाला । जहा ते पुत्तभंडाति 'थामातो थामं संचारेता एगं पुत्तभंडं थोवं भूमि गेउ जत्थ तं च ते अपच्छिमे पेल्ले पलोएति तत्थ मुंचति, ताहे पच्छिमे सव्वे तत्थ संचारेउ पुणो प्रगतो संचारेति । एवं चेव ण अति दूरत्थे प्रगणिम्मि कोल्लगपरंपरसंकलिया दिटुंतेणं, संकलियं वा दोरेण बद्धं जतो पागास वा तप्पडिलोमं वा ततो जयति । अतीव अच्चत्थं लीणो अच्चल्लीणो पासण्णमित्यर्थः । ___ अहवा - प्रतीव रूढो अच्चल्लूढो, एवं अतीव प्रज्वलितेत्यर्थः । प्रदीप्ले ज्वलने कि करोती ति जावतितं तरति तावतियं सारभंडं णीणाति ।।१३४६।। जत्थ 'मालवतेणा तत्थ - असरीरतेणभंगे, जणो पलायते तु जंतरति णेतुं । ण वि धूमो ण वि बोलं, ण दुवति जणो कइतवेणं ॥१३५०॥ प्रसरीरे त्ति जे माणुसं ण हरंति तारिसे तेणभयभंगे बहुजणे य पलायणे जावतियं उवकरणं नेउं १पुंजीभूतं । २ गा० १३२६ । ३ दे० स्थानान्तरम् । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र -५८ तरति सक्कति तं गैति । कृतकाग्नी कृतकचारेषु च पश्चार्येण ण वि धूमो दीसति, या वि जणवोलः, ११ जणे द्रवति, शीघ्र व्रजति । एवं कइतवेणं ति णायव्वं ॥१३५०।। सण्णायगद्दारे इमं भणति - अण्ण-कुल-गोत्त-कहणं, पत्तेसु व भीतपुरिसो पेल्लेति । पुव्वं अभीतपुरिसो, भणाति लज्जाए ण गतो मि ||१३५१॥ अण्णायमदिटुपुव्वेसु, अण्णं णामं अण्ण गोयं प्रणां कुलं सव्व मण्णमा इवखति । जत्य पुण ते चय संजयणिया पत्ता तत्थ जइ पुत्वं भीतपुरिसो पासी तो णं ते पेल्लेति, मुठु धाडेति । एरिसं तुहि तय। ममावहाग्यिं, इदाणिं से राउले बंधावेमि । मह पुव्वं भीत-पुरिसो भणाति - अहमवि पव्वज्जाए पराभगो, लज्जमाणो तुन्भे ण भणामि जहा उण्णिक्खिमामि त्ति, लज्जमाणो य घर ण गतोमि । तुहिं सुंदरं कतं जं मम अट्ठाए पागया, एत्ताहे गमिस्सामि ॥१३५१।। जा ताव ठवेमि वए य, पत्ते कुड्डादिछेद संगारो। मा सिं हीरेज्जुवधि, अच्छध जा णं णिवेदेमि ॥१३५२॥ किं तु अच्छह जा साहुणो एंति, जे मए वते गहिते तस्संतिते तेसिं चेव पडिणिक्खिवामि, वा सुणे तेसि उवकरणहारो भविस्सति । एवं उवाएण घरेति जाव साहुणो पत्ता । अह ते अणागतेसु साहुसु बला उमारद्धा । ताहे भणाति - अंतो उवस्सयस्स जाव ते ठवेमि ताव ठिया होह, ताहे पविसिता वारं ठवेति । पत्तंसु साहुमु पडिस्सयसंधि छेत्ता संगारं च काउं णासति । अहवा भणेज्जा - मा तेसिं सुण्णे उवही हीरेन, तुम्हे रक्खमाणा अच्छह, जाव अहं तेसि णिवेएमि, एवं वोत्तु णिग्गच्छति । ते य साहू भगाति - मए अमुगे गवेसेज्जह ॥१३५२।। खंधाराती णातुं, इतरे वि दुयं तहिं समहिल्लेति । • अप्पाहेति व सोधी, अमुगं कज्जं दुयं एह ॥१३५३॥ इतरे वि साधवो भिक्खाइगया । इतरे वि साधू खंधार - प्रगणि - तेणगमादी गाउं दूतं शीघ्रं तहिनि ईदृशे समुप्पणे वसहीए समभिलंति वसहिमागच्छंति । अहवा - समं ति तत्क्षणात् स्कन्धावारादिप्रयोजने उत्पन्नमात्र एवाभिमुखेन वहि गिलयंति । सो वि वसहिपालो भिक्खादिगताणं संदिसति - अमुगं कजं. द्रुतं शीघ्रमागच्छये ति ।।१३५३।। चोदक ग्राह संथारविप्पणासो, एवं खु ण विज्जए कधंचिदत्रि । णासे अविजमाणे, सुत्त अफलं सुण जधा सफलं ॥१३५४।। संथारविप्पणासो एवं सुरक्खिते न विद्यते । एवं नासे अविद्यमाने जं वदह सुतं 'संथारविपणासो' त्ति तं प्रजुत्तं, प्रयुक्तत्वात् । सूत्रमफलं प्राप्त । अथ चेत् सूत्रं सफलं तो जं वदह "एरिसो वसहिपालो" एव ११ षटति । एवं ते उभयहा दोसा । १ गा० १३२६ । २ गा० १३२६ । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय उद्देशकः एवमुक्ते प्राचार्याह - सुणह जहा सफलं ।। १३५४॥ भाष्यगाथा १३५१ - १३५६ ] पडिलेहण माणणे, अप्पिणाऽऽतावणणा बहिं रहिते । तेण-गणीया, संभम-भय- रट्ठ - उट्ठाणे ।। १३५५ ।। पडिले हट्ठा बाहि गणितो साधू पाद पुंछणस्स जाव ठितो जहि सो संथारम्रो प्रासि तत्थ जाव बंधे मुयति ताव श्रोगासं जाव पविसति । " प्राणयशे" त्ति आाणिज्जंतो अंतरा ठवितो वा प्राणेउं बाहि, एवं पिट्ठा बाहि ठविनो णिज्जंतो वा । अंतरा रायपुरिसेहिं रायबलेण वा । प्रातावणट्ठा बाहि ठवितो बाहि साहुरहिते शून्येत्यर्थः । हवा - तेणगगणीयाश्रो एगतरसभमे प्रवहितो, बोहितभए वा रठ्ठट्ठाणे वा प्रवहितो ।। १३५५ ।। एत्तो एगतरेणं, कारणजातेण विप्पणङ्कं तु । जे भिक्खू ण गवेसति, सो पावति आणमादीणि ।। १३५६ || जे एते पडिलेहणादि कारणा भगिता, एत्तो एगतरेणं संथार-विप्पणासो रक्खिज्जते वि हवेज्जा । तमेवं संथारगं विष्पणट्टं जति ण गवेसति तो तणेसु मासलहु कंबिफलगे य चउलहु प्राणादिणो य दोसा ।। १३५६ ।। 1 - अपच अकित्ती, मग्गंते सुत्तअत्थपरिहाणी । वोच्छेद-धुचावणे वा, तेण विणा जे य दोसा तु || १३५७|| पाडिहारि अणप्पिणिज्जमाणे प्रपञ्च भवति, पञ्चप्पिणीहामि त्ति प्रणप्पिनंते मुसावादिणो ति किती, अण्णं च संथारयं मग्गंताण सुत्तत्थाणं परिहाणी, वोच्छेदो तस्स वा अण्णस्स वा घुप्रावणं णाम दवावणं, तेण वा संथारगेण विणा जा परिहाणी तणिफण्णं ।। १३५७।। जहा एते दोसा १८१ , तम्हा गवेसियो, सव्वपयत्तेण जेण सो गहितो । अणुसकी धमका, रागवल्लभो वा निमित्तेणं ॥ १३५८ || तम्हा कारणा एतद्दोपरिहरणाथं सो संचारगो गवेसियन्वो सव्वपयत्तेण । गीते समाणे जेण सो गत सोमव । ग्रह मग्गितोग देति ताहे से श्रणुर्साट्ठ कुज्जा । तहावि प्रदेते धम्मकहाए श्राउट्टे उं दावेयो । तहावि प्रदेते दमगे भेषणं करते। रायवल्लभो विज्जामंतचुष्ण जोगा दिएहिं वसीकरेउ दाविज्जति । गिमितेश वा तीत मशागते आउट्टेउ दशविज्जति ॥१३५८ ।। इमा असी दिण्णो व एम गारिहसि णे ण दातुं जे । अण्णो वि ताव देगो, देज्जाणमजाणताऽऽणीतं ।। १३५६ || एस जो तुमे संचार गति एव भवद्विषेनेव साधूनां दत्तः, ततो तुम एस गारिहसि दाउ, अण्णो वि ताव भवता संथारगो देयो, किं पुण जो प्रष्णदत्तो जाणते अजाणतेण वा प्राणीतो ।। १३५६ ।। १ गा० १३६२ । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [मूत्र-५८ मंतणिमित्तं पुण रायवल्लभे दमग भेसणमदेंते । धम्मकहा पुण दोसु वि, जति-अवहारो दुहा वि अहितो ॥१३६०।। मंतणिमित्ता रायवल्लभे पयुजति । दमगे बीहावणं पयुजंति । अदेंते धम्मकहा पुण दोसु वि दमग. रायवल्लभेसु पयुजति । जति ति यतयः ताण जं उक्करणं तस्स अवहारो इहलोगे परलोगे य दुहा वि अहितो भवति ।।१३६०॥ कि चान्यत् - अण्णं पि ताव तेण्णं, इह परलोए य हारिणामहितं । परतो जाइनलद्ध, किं पुण मंत्रप्पहरणेसुं ॥१३६१।। प्रणमिति पागतजणस्स वि जं अवहरिज्जति तं पि ताव इहलोगपरलोगेसु हरंताण अहितं भवति । कि पुण जतीहि परतो जातितं लद्धं तं हरिज्जतं । किमिति क्षेपे । पुनविशेषणे । मन्नुः क्रोधः प्रहरणा ऋषयः, तेसि हिरिज्जत इहलोगे परलोगे अहितं भवति ।।१३६१।। एवं पि मग्गिज्जतो जति ण देज्ज - खंते व भूगते वा, भोइय-जामातुगे अमति साहे । मिट्ठम्मी जं कुणती, सो मग्गण-दाण-बवहारो ॥१३६२।। खतेणं ति पितरिगहिते भूणगम्स साहिज्जति, वुच्च इ य जहा - दवावेहि। एवं भोइयजामाउगेण वा दवावति । भूणगगहिए वि खंतगादिए हि भणावेति । . जो वि से वियत्तो जस्स वा वयणं णातिकमति तेण जगावेति दिज्जइ ति। "प्रसति" त्ति सव्वहा अदेमाणे “साहे" ति महत्तरमा दिवाण माहिज्जति । तस्म कहिते जं सो करिस्सति तं प्रमाणं । एवं पणट्ठो मंधारगो मग्गिज्जति । “दाणं" ति संथार-गवेसगं दिज्जति, ववहारो वा करणमिति जति ॥१३६२॥ इदमेवार्थमाह - भूणगगहिते खंतं, भणाति खंतगहिते य से पुत्तं । ___ असति त्ति ण देमाणे, कुणति दवावेति व ण वा तू ||१३६३।। भूणगेग गहिते खंतगेण मग्गाविज्जति । खंतगेण गहिते प्रत्तो भणाविजनि । “असति'' तिग देमाणे व्याख्यातं । भोतियमादियाण कहिए जं ते कुणंति बंधणरु धणादि, दवावेति वा, अतः परं ते प्रमाण ॥१३६३॥ 'माहे पदस्य व्याख्या - भोइत-उत्तर-उत्तर, तव्वं जाव अपच्छिमो राया। दावण-विसज्जणं वा, दिट्ठमदिट्ठ इमे होति ॥१३६४॥ भोदकस्म भोइको, तस्म वि जो अण्णो उनगेतरेण जाणाविज्जनि जाव पच्छिमो राय नि । "दावर्ग नि तेणगममीवातो भोइगपादियां मंथारगं घेनं देज साधूग. 'विमाजगं च ति । १ गा. ५४६ । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १३६०-१३६६ ] द्वितीय उददेशक: १८३ अहवा - ते भोइयमादिणो भणेज्ज - गच्छह भो तुब्भे । अम्हे तं संथारयं, संथारयसामिणो मप्पेहामो त्ति । एस विही दिढे संथारगे, गाते वा तेणगे ॥१३६४।। "उत्तर उत्तरे" त्ति अस्य व्याख्या - खंतादिसिटुऽदेंते, महयर किच्चकर भोइए वा वि | देसारक्खियऽमच्चे, करण णिवे मा गुरू दंडो ॥१३६५॥ भूणगादिगहिए खंतादिसिट्ठ ण देते भोइगातीण साहिज्जति । भोइगोत्तरस्य व्याख्या - महत्तरो ग्रामकूट: ग्रामे महत्तर इत्यर्थः । "किच्चकरे" ति ग्राम-कृत्ये नियुत्तः, ग्रामव्यापृतक इत्यर्थः । तस्य स्वामी भोतिकः, देसारविखनो विषयारक्षक: महाबलाधिकृतेति । अमच्चो मंत्री । “कर" ति एषां पूर्व निवेद्यते, न राज्ञः, मा गुरुदंडो भविष्यति ॥१३६५।। ''दावण-विसज्जण" त्ति ग्रस्य व्याख्या - एते तु दवाति, अहवा भणंते स कस्स दातव्यो। अमुगस्स ति व भणिते, वच्चह तस्सप्पिणिस्सामो. ॥१३६६।। एते ति भोतिगमादिकहिते जइ दवावेंति तो लढें । अध भणेज्जा - संथारगो कस्स दायव्वो? साहू भणति - अमुकस्स ति। ततो भोतिगातियो भणति - वच्चह तुम्भे, अम्हे तस्स संथारगसामिणो अप्पिणिस्सामो॥१३६६।। इदाणि साधु-विधि - जति सिं कज्जसमत्ती, वएंति इधरा तु घेत्तु संथारं । दिद्वे गाते चेवं, अदिट्ठणाते इमा जतणा ।।१३६७॥ जइ तेसिं साहूणं तेण संथारगेण कज्ज सम्मत्तं, पुण्णो य मासकप्पो, ततो ते भोइगादीहिं विसजिता वयंति । इहरहा तु संथारकज्जे अममत्ते, अपुणो मासकप्पे संथारगं तं चऽण्णं वा संथारगं घेत्तुं भंति । दिट्ठ संथारगे णाते वा संथारगतेगे एसा विधी भगिना । “अदिटु इमं होइ'' अदितु संथारगे अण्णाए वा तेणे इमा जयणा ॥१३६७॥ विजादीहि गवेमण, अदिवे भोइयस्स व कहेंति । जो भद्दश्रो गवेसति. पंते अणुमहिमादीणि ॥१३६८।। "२विज्जादीहिं गवेसण" ति अस्य व्याख्या - आभोगिणीय पसिणेण , देवताए णिमित्तो वा वि । एवं णाते जतणा, सच्चिय खंतादि जा राया ।१३६६।। प्राभोगिणि त्ति जा विजा जविता माणसं परिच्छेदमुप्पादयति सा प्राभोगिणी । जति प्रत्थि तो ताए प्राभोइजति - जेण सो गहितो संथारो। १ गा० १३६४ । २ गा० १३६८ । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-५८ ग्रहवा -- अंगुट्ठपसिणा किजति, सुविण-पसिणा वा । खवगो वा देवतं प्राउट्टेड पुच्छति । अवितह णिमित्तेण वा जाणंति । एवं आभोगि णिमादीहि णाते मग्गियव्वे जयणा । सा चैव "जा खंतादिग्गहिए भणिया भोतिगातादि जा अपच्छिमो राय" ति, णिवेयणे वि सच्चेव जयण त्ति ॥१६६६॥ "'अदिढे भोइगस्स व कहेंती" ति अस्य व्याख्या - . विज्जादसती भोयादिकहण केण गहितो ण याणामो। दीहो हु रायहत्थो, भद्दो श्राम गवेमति य ॥१३७०॥ अदिद्वे त्ति प्राभोइणिविजादीण असति ण णज्जति ताहे भोइगादीण कहेंति - संथारगो गट्ठो गवेसह त्ति । भोइगो भणाति - केण गहिते । साह भणंति - | जाणामो । भाइगो भणति - अणजमाणं संथारगं कहि गवेसामि । साहू भगंति - दीहो रायहत्थो । जो भोइतो भद्दगो भवति सो भणाति - सव्वं गवेसामि त्ति भणति, गवेसति य ॥१३७०॥ "पंते अणुसद्धि” त्ति अस्य व्याख्या - जाणह जेण हडो सो, कत्थ व मग्गामि णं अजाणतो। इति पंते अणुसट्ठी-धम्म-णिमित्तादिसु तहेव ॥१३७१।। ___ जो पंतो मो भगइ - जाणह जेग हडो ताहे मग्गामि । अहं पुण अजाणतो कुतो मग्गंतो दुल्लुदुल्लेमि अदेशिकास्ववत् इति । एवं भोतिगे भयंते पंते अणु सट्ठी धम्मकहा विज्जा मंता य प्रयोक्तव्यानि पूर्ववत् ।।१३७१।। असती य भेसणं वा, भीता भोइतस्स व भएणं । साहित्थदारमूले, पडिणीए इमेहि व छुहेज्जा ॥१३७२।। ग्रमती य अस्य व्याख्या - भोइयमादीणऽसती, अदवावेते व भणंति जणपुरतो। युझीहामु मकज्ने, किह लोगमताणि जाणंता ॥१३७३।। भोतिगमादीणऽसतीते वा भोतिगमादीणऽदवावेति । "भेसणं ब" ति अस्य व्याख्या - साधू जणं पुरतो भणंति - अम्हे लोगस्स गर्ल्ड विणटुं पन्भर्ट जाणामो। अपणो कहं गा जाणिस्सामो । जति अम्हं ण अपहे तं संथारगं तो जगपुरनो हत्थे घेत्तुं दवावमो ॥१३७३।। अह तुम्हे ण पत्तियह ता पेच्छह - "पेहुण तंदुल पच्चय, भीता साहति भोइयस्सेते । माहत्थि साहरंति द, दोण्ह वि मा होतु पडिणीओ ॥१३७४॥ १ गा० १३२८ । २ गा० १३६८ । ३ गा० १३३२ । ४ गा० १३.७२ । ५ मोरपुच्छ । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १६७५-१३७७ ] द्वितीय उद्देशकः १८५ तंदुला दुविधा कज्जति - 'मोरगगिरमिस्सा इतरे य । ताहे साधुमज्मातो एगो साधू अपसरति । गिहिणो पणीयो- तुभं एगो कि चि गेण्हतु । गिहिते य ागतो साधू भणाति -पंतीए ठाह, ठितेसु सो णिमित्तिय साधू उदगं अंजलीए ददाति । जेण य तं दिटुं साहुणो घेप्पमाणे साधू तंदुले दाति । जेण गहितं तस्स पेहणं तंदुलवतिमिस्से ददाति । इतरेसु सुद्धा । सो व णेमित्तियसाहू ते पेहणे दह्र भणाति - इमिणा गहियं ति । एवं पच्चए उप्पणे भीता चितेंति - भोतियरस एते साहिस्संति, तो अम्हे साहूणं साधामो अप्पेमो वा । अहवा - पडिणीतो "दोण्ह वि मा होउ" ॥१३७४॥ इमेसु पक्खिवति - पुढवी आउकाते, अगडवणस्सइ-तसेसु साहरई । घेत्तूण व दातव्यो, अदिट्ठदड्ढे व दोच्चं पि ॥१३७५।। कश्चित् प्रत्यनीक: साधुचर्याभिज्ञः सचित्तपुढवीए प्राउ - वणस्सति - तसेसु पक्खितं ण गोण्हहंति ति पक्खि वति, कूवे वा पक्खिवति । जति वि एतेसु पक्खित्तो तहावि एत्ततो घेत्तुं दायन्वो । सव्वहा – “प्रदिठे दड्ढेव दोच्चंपि'' ति - कप्पस्त तइतोद्दे सेऽभिहितं । इह खलु निग्गंधाण वा निग्गंथीण वा पाडिहारिए वा सागारियसंतिए वा सेज्जासंथारए विप्पणसेज्जा से य अणुगवेसियव्वे, सिया से अ अणुगवेस्समाणे लभेजा तस्सेव अणुपदातव्वे सिया त अणुगवेसमाणो नो लभेजा व से कप्पनी से दोच्च पि उग्गहं अणुण्णवेत्ता परिहारं परहरित्तए। दोचोग्गहो त्ति ।।१३७५।। चोदग अाह - " तस्स कि चि प्राइक्खिजति - जहा गट्ठो । गतुं भणाति - "पुव्वं पडिहारितो दत्तो इदा णि गिज्ज देहि" ति एस दोच्चोगहो । पायरिय पाह दिटुंत पडिहणित्ता, जतणाए भदो विसज्जेति । मग्गंते जतणाए, उवधिऽग्गहणे ततो विवातो ॥१३७६।। दिटुंत इति चोयगाभिप्राय, तं पडिहणिता जयगाए संथारसामिगो कहिज्जति । कहिते भद्दतो विसज्जेति - गच्छह ण भणामहं कि चि । अह पंतो संथारगं मग्गति ताहे अणुसट्टादी कज्जति । अहिच्छते जयणाए पंतोवधी दिज्जति, उक्करणं वा । प्रणिच्छते बला वा सारुवाहि गेण्हमाणे ततो गसमा (?) करगे विवानो कजति ।।१३७६।। अस्यैव गाथार्थस्य व्याख्या - परवयणाऽऽउदृढ, संथारं देहि तं तु गुरु एवं । आणेह भणति पंतो, तो णं दाहं ण वा दाहं ॥१३७७॥ "परः" चोदकः तस्य वचनं धम्मकहाए प्राउट्टेउ मग्गिज्जति - "तं संथारगं देहि" ति । "गुरु" प्राचार्य, स प्राह - एवं मायाते पणए तस्स च उगुरुग्रं पच्छित्तं ! १ मोरपुच्छ। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य चूर्णिके निशीथसूत्रं [ सूत्र- ५८ हवा - पणएंतस्स "गुरु" त्ति पच्छितं । भद्दपंतदोसा य । पंतो ग्रह - प्राणेह तं संथारगं ततो दाहामि वा ण वा ॥१३७७॥ १८६ तो भद्दो वा इमं चितेति - दिज्जतो वि ण गहितो, किं सुहसेज्जो इदाणि संजातो ! हित ट्ठो वा णूणं, अथक्कजायाइ सूमो || १३७८॥ पुवाणुष्णवणकाले दिज्जतो वि तदा गिदेज्जो ण गहितो। कि सो संथारगो सुहसेज्जो जातो ? जेल इदाणि "अथवक" त्ति अकाले याचयंति । सूचयामीति जाने हितो णट्टो वत्ति । गुणमिति वितर्कायें ।।१३७८ ॥ · इमे भद्दे दोसा - भो पुण गहणं जाणंतो वा वि विष्परिणमेज्जा | किं फुडमेव ण सिस्मर, इमे हु अण्णे हु संथारा ॥ १३७६ ॥ अहणमिति साहू ग्रणादशे सो संथारगो हितो जट्टो वा । इमे पुण मायाए पणएति । एव जाणतो सम्मदंसणपव्वज्जाभिमुहो वा विष्परिणमेज्जा । विष्परिणम्रो य भणेज्ज - फुडमेवऽम्हं किष्ण कहिज्जति - जहा संथारगो णट्ठो हडो दद्धो वा । किं मायाए जाय ? प्रणणे त्रि बहू संयारगा प्रत्थि । "हु" शब्दः प्रत्यक्षावधारणे ॥१३७६ ॥ इति चोदगदितं, पडिहंतुं कहिज्ज तमि सभावो | भदो सो मम नट्ठो, मग्गामिण तो पुणो दाहं ॥ १३८० || इति उवदंसणे, किं उवदंसयति ? भद्दपंतदोता । ग्रहवा - इति शब्दो एवकारार्थी दट्ठव्वो । एवं भद्दपंत दोसदरिसणेण चोदगाभिप्पायं परिहंतुं सब्भावो से जयगाए परिकहिज्जति । सन्भावको भद्दगोभणाति सो मम गट्टो ण तुब्भं, अज्जनभिति गामि तं लद्धं "पुणो पुणो तुब्भं दाहामि ॥। १३८० ॥ तुब्भे वि ताव गवेसह, अहं पिं जाऐभि गवेस अन्नं । ट्टो वि तुज्झ अणट्ठो, वयंति पंतेऽणुसङ्कादी ॥ १३८१ ॥ तुम्भेवितं संथागं गवेसह, अहं पि जाएमि त्ति गवेषयामि इत्यर्थः । ग्रह तुब्भं संथारएण पोय तु तो जाव सो लभति ताव अगं मग्गह। जयगाए वि सब्भावे कहिते, पंतो भणाति - णट्ठे वि संथारगे तुम्भे मम अट्टो । जतो जागह, ततो संथारगं मोल्लं वा देह । एवं पंते भगमाणे प्रसट्टी - धम्मकहाविजा मंनादयो पोतव्वा ।। १३८१॥ प्रणुमट्टादीहि ते विज्जादीहि प्रभावे य मोल्ल मग्गंते इमा जयणा - णत्थि ण मोल्लं उवधि, देह मे तस्संतपदावणता । णं वदेति फलगं, जतणाए विमग्गिउ तस्स || १३ = २ || अहिरण- सोवणिया समणं ति णत्थि मे मोल । ऋह सो भगति उहि देह, ताहे जेण सो संभारगो आणितो ते साहुगा तस्स संनियं अंत पंत उवकर दाविज्जति । म सारोवही दाविज्जति । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भायगाथा १३७८-१३८६) द्वितीय उद्देशक १८७ ग्रहवा - अण्णं से फलगं जयणाए मग्गिउं देति । तस्स एत्थ जयणासुद्धं मगिज्जति, प्रलम्भमाणे पणपरिहाणीए मग्गिउ देति ॥१३८२॥ मुल्लोवकरणाभावे वा - सच्चे वि तत्थ रुंभति, भद्दग मोल्लेण जाव अवरोहो । एगं ठवेत्तु गमणं, सो वि य जावऽहमं काउं॥१३८३॥ कोइ रायवल्लभादि सम्वे साहुणो रु भेज्जा, जति तत्थ कोइ प्रहाभद्दप्रो मोल्लेण मोएज्जा ताहे न सो पडिसेहियब्यो । ग्रह पडिसेहं करेति तो चउगुरु पच्छित्तं । असति मोए माणस्स जाव अवरहो ताव रावे सबालबुड्ढा अच्छंति । ताहे अमुचमाणे एग खमगादि ठवे ऊण सेसा सव्वे गच्छति । सो वि य एरिसो ठविउ जति - जो अट्ठमा दि काउंसमत्थो । अह असमत्थं ठवेति तो च उगुरुगं भवति ॥१३८३॥ लद्ध तीरित कज्ज, तस्सेवाप्पंति अहब भुंजंति । पभुलद्र वऽसमत्ते, दोच्चोग्गहो तस्स मूलातो ॥१३८४॥ एवं गवसंतेहि लद्धे, जइ तेण तीरियं समत्तं कज्ज तो तस्सेव संथारयसामिणो अति । अह काज ती परिभुति । अह संथारयसामिणा लद्धो. सारण य कज्ज ण समतं. ताहे तस्स समीत्रातो- दोच्चोग्गहो भवति । एवं मुने दोच्चोग्ग हो ति भणियं ॥१३८४।। णटु पि कारणे अगवेसतो अपच्छित्ती। ताणि इमाणि कारणाणि - बिइयं पहुणिविसए, णहितसुण्णमतमणप्पज्झे । असहू य रायदुढे बोहिय-भय सत्थ सीसे वा ॥१३८५॥ साहुस्स कज्ज सम्मनं, जो वि संथारगमामी एसो रायकुलेण णिविसतो को, विसयभंगे वा गाडो. दृभिक्खे ग वा उद्वितो उन्बसि उ त्ति वुत्तं भवति । 'सुण" ति सपनदारो ग्रामंतणादिसु गतो, मृतो वा, अगप्प:झो वा जातो । एए गिहत्थकारणा। हमे संजयकारणा अपहु साहू, रायट्ठो, बोहिय भये वाण गवसतिअद्धाण-सीमे वा सत्यवसगो गो ।।१३.५।। अज्झयणम्मि पकापे, विनिोदेसम्मि जत्तिया सुत्ता। संथारगं पडुच्चा, ते परिमाडम्मि णिवतंति ॥१३८६॥ पकपडझयणस्स बितिप्रोद्दे सके जत्तिया संथारगमुत्ता ते मासलहु प्रहिकारो ति का सव्वे परिसाडिमंथारगेमु गिवडति । संथारगाहिकारे अपरिमाडी प्रत्थतो भगिया इति ॥१३८७॥ जे भिक्ख इत्तरियं पि उहि ण पडिलहेति, ण पडिलेहेंतं वा सातिज्जति । तं मेवमाणे अावज्जनि मासितं परिहारहाणं उग्घातियं ।।मू०॥५६।। भिख्खू पूर्ववत्, इत्वरः" स्वल्पः, सो पुण जहणो मनिझमो वा । “ग पडिलेहेति" चक्खुणा ण पिरवति । पडिलेहगाए पप्फोडणपम जगायो सुइत प्रो। मनिझमे मासलहुं ति काउ एत्थ सुत्तणिवातो। प्रत्यग्रो ताव पटिलेणा । इनरियगहोम सबोव करणगहणं कयं । प्रतो उपकरणं ताव वोति परछा पडिलेहणा । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-५६ अतो उवकरणं भण्णति, सो दुविधो - अोहे उवग्गहम्मि य, दुविधो उबधी समासतो होति । एक्केक्को वि य तिविधो, जहण्णो मज्झिमुक्कोसो ॥१३८७॥ ओहोवधि ति मोहः संक्षेपः स्तोकः, लिंगकारकः । अवश्यं ग्राह्यः अवग्गहोवही, प्रोत्पत्तिकं कारणमपेक्ष्य संजमोपकरणमिति गृह्यते । एस संखेवतो दुविधोवही। प्रोघिनो उवग्गहिरो य । तिविधो - जहष्णो मज्झिमो उक्कोसो ॥१३८७॥ अोहोवही गणणपमाणेण पमाणपमाणेण य जुत्तो भवति । इमं गणणप्पमाणं - बारस चोद्दस पणवीसयो य अोघोवधी मुणेयव्यो। जिणकप्पे थेराण य, अज्जाणं चेव कप्पम्मि ॥१३८८॥ बारसविहो चोदसविहो पणवीसविहो ओहोवही । एअं गणगप्पमाणं यथासंख्यं जिणाण थेराण मज्जाण य । कल्पशब्दो पि प्रत्येक योज्यः ।।१३८८।। अोधोवधी जिणाणं, थेराणोहे उवग्गहे चेव । ओहोवधिमज्जाणं, अवग्गहिओ य णातव्यो ॥१३८६॥ जिणाणं एगविहो ओहोवधी भवति । थेराणं अज्जाण य प्रोहियो उवगहिरो य दुविहो भवति ॥१३८६॥ जिणकप्पियनिरूपणार्थमाह - जिणकप्पिया उ दुविधा, पाणीपाता पडिग्गहधरा य । पाउरणमपाउरणा, एक्केक्का ते भवे दुविधा ॥१३६०॥ जिणकप्पिया दुविधा भवंति - पाणिपात्रभोजिनः प्रतिग्रह-धारिणश्च । एकैका दुविधा दट्ठव्या - सपाउरणा इयरे य ॥१३६०॥ जिणकप्पे उवहीविभागो इमो - दुग-तिग-चउक्क-पणगं, णव दस एक्कारस एव बारसगं । एते अट्ठ विकप्पा, जिणकप्पे होंति उवहिस्स ११३६१॥ पाणिपडिगहियस्स पाउरणबज्जियस्स जहणोवही दुविधो - रयहरणं मुहपोत्तिया य। तस्सेब साउरणस्स एगकप्परगहणे तिविहो, दुकप्पगहणे चउबिहो. तिकप्पगणे पंचविहो । पडिग्गहधारिस्स अपाउरणस्स मुहपोत्तिय रमोहरण - पादणिज्जोगसहितो णवविहो जहणो । तस्सेव एगप्पग्गपणे दसविहो । दुकप्पग्गहणे एक्कारसविधो । तिकप्पग्गहणे बारसविधो । पच्छद्धं कंठं ।।१३६१॥ अहवा दुगं य णवगं, उवकरणे होति दुण्णि तु विकप्पा । पाउरणं वजित्ताणं विसुद्धजिणकप्पियाणं तु ॥१३६२।। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १३८७-१४०० ] द्वितीय उद्देशक: १८९ जे पावरणवज्जिया ते विसुद्धजिणकप्पिया भवंति । तेसि दुविध एव उवही भवति । दुनियो शवविधो वा ॥१२६२॥ अविसुद्ध-जिणकप्पियाणं इमो - पत्तं पत्ताबंधो, पायट्ठवणं च पादकेसरिया । पडलाइं रयत्ताणं, च गोच्छो पायणिज्जोगो ॥१३६३॥ कंठा तिपणेव य पच्छागा, रयहरणं चेव होति मुहपोत्ती । एमो दुवालसविधो, उवधी जिणकप्पियाणं तु ॥१३६४॥ कंठा जिणकप्पियाणं गणणप्पमाणमभिहितं । इदाणि थेराण - एते चेव दुवालस, मत्तग अतिरंगचोलपट्टो उ । एसो चोद्दसरूवो, उवधी पुण थेरकप्पम्मि ।।१३६॥ कंठा इदाणि अज्जाणं गणणप्पाणं भण्णति - पत्तं पत्ताबंधो, पादट्ठवणं च पादकेसरिया । पडलाई रयत्तणं, च गोच्छउ पायणिज्जोगो ॥१३६६॥ कंठा तिण्णेव य पच्छागा, रयहरणं चेव होति मुहपोती। तत्तो य मत्तो खलु चोदसमे कमढए होति ॥१३६७।। उ(अ)ट्ठगमयं कसभायणसंठाणसंठियं कमढयं चोलपट्टठाणे चोद्दसमं मत्तयं भवति ॥१३६॥ अण्णो देहलग्गो प्रोहियो इमो - उग्गहणंतगपट्टे, अड्ढोरुग चलणिया य बोधव्वा । अभिंतर-बाहि-णियंसणीय तह कंचुए चेव ॥१३६८।। अोकच्छिय-वेकच्छिय, संघाडी चेव खंधकरणी य । अोधोवहिम्मि एते, अज्जाणं पण्णवीसं तु ॥१३६६।। एतातो दो दार-गाहारो ।।१३६६॥ इयं व्याख्या - अह उग्गहणंतग णाव-संठियं गुज्झदेसरक्खट्ठा । तं तु प्पमाणेणेक्कं, घणमसिणं देहमासज्ज ॥१४००॥ अहेत्यानन्तर्ये, द्वारोपन्याससमनन्तरं व्याख्या ग्रन्थ इति, यथा चोलस्स पट्टगो चोलपट्टगो एवं उग्गहस्स गंतगो उग्गहणंतगो इति । उग्गह इति जोणिदुवारस्स सामहको संज्ञा । १ काधमयं। Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाष्य-बूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१६ अहवा - 'उदुयं उगिण्हतीति उग्गहणंतगं, तच्च तनु पर्यन्ते मध्ये विशालं नौवत् । ब्रह्मचयंसरक्षणायं गृह्यते । गणणाप्रमाणेनैकं । प्रावित्रीजातसंरक्षणार्थ धने वस्त्र क्रियते, पुरुषसमानस्पर्शपरिहरणार्थ समानस्पर्शत्वाच्च मसिणे वस्त्रे क्रियते । प्रमाणतः स्त्रीशरीरापेक्ष्यम् ।।१४००।। पट्टो वि होति एगो, देहपमाणेण सो तु भइयन्बो । छादंतोग्गहणतं, कडिबंधो मल्लकच्छा वा ॥१४०१॥ क्षुरिकापट्टिकावत् पट्टो दटुब्वो, अंते बीडगबद्धो, पुहुत्तेण चउरंगुलप्पमाणो समरित्तो वा, दीहत्तणेण इथिकडिप्पमाणो, पिहुलकडीए दीहो, किसकडीए हस्सतरो, एतदेव भाज्जं. उगहणंतगस्स पुरपिट्ठतो दो वि तोडेच्छाएंतो कडीए बज्झति । तम्मि बद्धे मल्लकच्छावद् भवति ।।१४०१॥ अड्ढोरुगो तु ते दो वि, गेण्हितुं छायए कडीमागं । जाणुप्पमाण चलणी, असिविता लंखियाए व ॥१४०२॥ अड्डो-उरुकाघ भजतीति प्रड्डोरुगो। उपरिष्टा उगहणंतगं पट्ट च एते दो वि गिहिउ ति, सव्वं कडीभागं छादयति, मल्लचलणाकृति । नवरं - ऊरुगान्तरे ऊरुगेसु च योणिबंधः । चलणिगा वि एरिसा चेव, गवरं - अहे जाणुप्पमाणा योत्रकनिबद्धा, लंखिया-पारधानवत् ।।१४०२॥ अंतो णिसणी पुण, लोणा कडि जाव अद्धजंघाती । वाहिरगा.जा खलुगो, कडी य दोरेण पडिबद्धा ॥१४०३|| पुणो त्ति सरूवावधारणे पडिहरणकाले लोणा परिहरिज्जति, मा उन्भूता जणहासं भविस्सति । उरि कडीपो प्रारदा प्रहो जाव अदजंघा । बाहिरणियंसणी उरि कडीनो पारद्धा जाव अहो खलुगो, उरि कडीए दोरेण बज्झति ॥१४०३।। अधो सरीरस्स षड्विधमुपकरणं, दवरकसप्तममाहितं । अतः ऊध्वं कायस्स - छादेति अणुकुइए, गंडे पुण कंचुरो असिब्बियो । __एमेव य उक्कच्छिय, सा णवरं दाहिणे पासे ॥१४०४॥ प्रच्छादयति "अणुकुए" ति अनुकुंचिता, अनुक्षिप्ता इत्यर्थः, गंड-इति स्तना । अधवा - "अणुकुंचित" ति - मनुः स्वल्पं, कुच स्पन्दने, कंचुकाभ्यन्तरे सप्रवीचारा, ण गाढमित्यर्थः । गाढ-परिहरणे प्रतिविभागविभक्ता जनहार्या भवन्ति, तस्मात् कंचुकस्य प्रसिदिलं परिधानमित्यर्थः । स च कंचुको दोहत्तणेण सहत्थेणं अड्डाइज्जहत्थो, पुहुत्तेणं हत्यो, असिवितो, कापालिककंचुकवत, उभमो कडिदेसे जोत्तयपडिबद्धो। महवा - प्रमाणं सरीरात् णिष्पादयितव्यमित्यर्थः । कच्छाए समोव उवकच्छं, वकारलोपं काउं तं छादयतीति उक्कच्छिया पाययसीलीए उक्कच्छिया । एमेव य उक्कच्छियाए प्रमाणं वक्तव्यम् । सा य समचउरंसा । सहत्येण दिवड्ड हत्या । उरं दादिगपास पटुिं च च्छादेंति परिहिज्जति । बंधे वामपासे य जोत. पडिनद्धा भति ॥१४०४।। १ । २ परके टखने तक। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १४०१-१४१० द्वितीय उद्देशक: १६१ 'वेकच्छिता तु पट्टो, कंचुगमुक्कच्छितं व छाडेतो। संघाडीतो चतुरो, तत्थ दुहत्था उवस्सयम्मि ॥१४०५॥ उक्कच्छियं प्रति विपरीते उवअत्थे परिहिज्जति, सा बंधाणुलोमा पाययसीलीए वेयच्छिया भण्णति, तु सद्दो उक्कच्छियसादृश्यावधारणे दृष्टव्यः । वामपार्श्व परिधानविशेपे वा दृष्टव्यः । सो य वेयच्छियापट्टो कंचुयं उक्कच्छियं व च्छाएंतो परिहिज्जति । उवरि परिभोगायो संघाडीमो चत्वार, पुहुत्तेण दुहत्थवित्थडा, दोहत्तणेण कप्पपमाणा चउहत्था वा । एवं सेसासु वि तिसु संघाडीएसु दोहत्तणं पहुत्तं पुण गंथसिद्धं ॥१४०५।। परिभोगमाह - दोणि तिहत्थायामा, भिक्खट्टा एग एग उच्चारे । अोसरणे चउहत्था, अणिसण्णपच्छादणमसिणा ॥१४०६।। । दो तिहत्थ वित्थडा जा ताण एक्का भिक्खट्टा, एगा उच्चारे भवति । समोसरणं गच्छती चउहत्व पाउणति । तत्थ अणिसण्णाए खंधानो पारद्धं जाव पाते वि पच्छातेति । वण्णसंजलणार्थ मसिणा । एता चउरो वि गणणप्पमाणेण एकं रूवं, युगपत् परिभोगाभावात् ।।१४०६।। खंधकरणी चउहत्थवित्थरा वातविधुतरक्खट्ठा। सुज्जकरणी वि कीरति, रूववतीए कडुह हेउं ॥१४०७॥ चउहत्यवित्थडा चउहत्थदीहा समचउरसा पाउरणस्स वायविहुयरक्खणट्टा चउफला खंधे कीरइ । सा चेव खंधकरणी, रूववतीए खुज्जकर णत्थं पट्ठिखंधखवगंतरे संवत्तियाए मसिणवत्यपट्टगेण उकच्छिवेयचिण्णिकाइयाए कडुभं कज्जति ॥१४०७।।। संघातिएतरो वा, सव्वो वेसा समासतो उवधी । - पासगवद्धमझुसिरे, जं वाऽऽइण्णं तयं णेयं ।।१४०८॥ सन्चो वेस उवही प्रमाणप्रमाणेन दुगादिसंघातितो एगगिनो वा भवति । पासगबंधो कीरतिपासगबंधत्ता वेव प्रभुसिरोवहि सिव्वणहि वा झुसिरे, पडिधिग्गलं वा न दायव्वं, विरलिमादि वज्जितो वा प्रज्झसिरो जं च दबखित्तकालभावेमु तं णेयं ग्राह्यमित्यर्थः ।।१४०८।। प्रोहावहारणत्थं पोहावग्गहप्रदर्शनार्थ चाह - जिणा बारसरूवाई, थेरा चोदसरूविणो । 'ओहेण उवथिमिच्छंति, अश्रो उड्ढे उवग्गहो ॥१४०६॥ उक्कोसो जिणाणं, चतुम्विहो मज्झिमो वि य तहेव । जहण्णो चउबिहो खलु, एत्तो वोच्छामि थेराणं ॥१४१०॥ पडिग्गहो तिगिण य कप्पा एस चउवि हो उक्कोसो। रयहरणं पडलाइ पतगबंधो रयत्ताणं एए चउरो मज्झिमो । मुहपोत्ति पादकेसरिया गोच्छनो पादढवणं च एस चउविहो जहणो । १ वैकक्षिका। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ तो परं थेराणं भण्णति ।। १४१०।। उक्कोसो थेराणं, चउव्विधो छव्विधो य मज्झिमत्रो । जहण्णो य चउव्विधो, खलु एत्तो अज्जाण वो च्छामि ॥१४११ ॥ एत्थ वि तहच्वेव, णवरं मज्झिमो छन्त्रिघो । ते य पुव्वुत्ता चउरो मत्तय-चोलपट्टसहिता || १४११॥ इतो प्रज्जाणं - उक्कोस दुविधो, मज्झिमत्रो होति तेरसविधो उ । जहणो चतुव्विधो खलु, एत्तो उ उवग्गहं वोच्छं ।। १४१२ ॥ पुव्वुत्ता चउरो प्रब्भंतरणियंसणी बाहिं णियंसणी संघाडी संघकरणी य एते उक्कोसया अट्ठ । मझिम तेरसविहो, - पुव्वुता चउरो मत्तग्रो कमयं उग्गहणंतयं पट्टो अद्धोरुश्रो चलणियां कंचुम्रो उक्कच्छिया वेकच्छिया । सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे जहण्णो पुव्वत्तो। तो परं उवग्गहो जण मज्झिमो उक्कोसो भण्णति ।। १४१२ ।। पीढग - णिसज्ज - दंडग - पमज्जणी घट्टए डगलमादी | पिप्पल - सूणिहहरणि, सोधणगदुगं जहण्णो उ ॥१४१३॥ छगणं पीढगं मिसिया वा णिसज्जा उष्णिया खोमिया । डंडयमज्जणी य अववाउस्सग्गिय अववातोवादियं वा रयोहरणं । श्रदिग्गहणा उच्चारो छगणादि वा । सोहणगं दुगं दंते कष्णे य ।। १४१३।। एस जहणो । इमो मज्झिमो - बासत्ताणे पणगं, चिलिमिणि पणगं दुगं च संथारे । दंडादी पणगं पुण, मत्तगतिग पादलेहणिया ॥ १४१४ ॥ [ सूत्र- ५९ वासत्ताणे पणगं वाले सुत्ते सूती - पलास - कुडसीसगच्छत्तए । चिलिमिणिपणगं - पोते वाले रज्जु कडग डंडमती । संथारो दुगं - भुसिरो प्रज्भुसिरो य । डंडपणगं - डंडए विंदंडए लट्ठी लिट्टी गालिया य। मत्तयतिगं खेल काइय- सण्णा ।। १४१४ । । - चम्मतिगं पट्टदुगं, गातव्वो मज्झिमो उवधि एसो । अजाण वारए पुण, मज्झमए होति अतिरित्तो ॥ १४१५ ।। चम्मतिगं पत्थरणं पाउरणं उवविसणं । अहवा कत्ती तलिया वज्झा । पट्टदुगं-संथारोत्तरपट्टो य । अहवा - पल्लत्थिया सव्णाहणपट्टो य । अज्जाण वि एस चेव णवरं - उड्डाहाच्छादणवारए अतिरिते भवति ॥ १४१५।। १ भज्जागं पणत्रीसंतु ( सा ) Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १४११-१४२२] द्वितीय उद्देशकः १६३ २ 3 इदाणि उक्कोसो - अक्खा संथारो य, एगमणेगंगियो य उक्कोसो। पोत्थगपणगं फलगं, वितियपदे होति उक्कोसो ।१४१६॥ समोसरण अक्वा । संथारुगो एगंगियोऽणगंगियो य । पोत्थगपणगंगंडी कच्छभी मुट्ठी च्छिवाडी य मंपुडयं च । फलग जत्थ पढिज्जति । मंगलफलहं वा जं वुड्ढवासिणो भणियं । एस उवग्गहिरो सबितियपदेण उकोसो भणियो ॥१४१६॥ इदाणि पडिलेहणा - पडिलेहणा तु तस्सा, कालमकाले सदोस-णिदोसा। हीणतिरित्ता य तथा, उक्कम-कमतो य णायव्या ॥१४१७।। पडिलेहण पप्फोडण, पमज्जणा चेव जा जहिं कमति । तिविहम्मि वि उबहिम्मि, तमहं योच्छं समासेणं ॥१४१८।। चक्खुणा पडिलेहणा, अक्खोडगप्पदाणं पप्फोडणा, मुहपोत्तिय - रयहरण - गोच्छगेहि पमज्जणा । एतानो तिविहोपकरणे जहण्णमज्झिमुक्कोसे जा जत्थ संभवति तं समासतो भणामि ॥१४१८।। पडिलेहणा य पप्फोडणा य वत्थे कमंति दो भेया। पडिलेहण पाणिम्मि, पमज्जणा चेव णायव्वा ॥१४१६॥ वत्थे पडिलेहण - पप्फोडगाग्रो दो भवति । पाणि त्ति हत्यो, तत्थ पडिलेहण - पमजणाप्रो दो भवंति। प्रहणिश्रेडेति त्ति पप्फोडणा, सा प्रविधि ति काउं ण भवति ॥१४१६॥ पडिलेहणा पमज्जणा, पादम्मि कमंति दो वि एताओ। दंडगमादीसु तहा, दिय-रातो अओ परं वोच्छं ।।१४२०।। पडिलेहितम्मि पादे, के यी पप्फोडणं पि इच्छंति । गोच्छगकेसरियाहि य, वत्थेऽवि पमज्जणा णियमा ॥१४२१॥ पाददंडगे प्रादिसद्दातो-पीढ - फलग - संथारग - सेज्जाए पडिले हण - पमज्जणा दो भवति । पाद - वत्सु पप्फोडणा प्रदर्शनार्थमाह । केति पायरिया भणंति - पडिले हिए पादे जमंगुलीहि पाहम्मति सा पफोडणा । पादवत्थेसु गोच्छगपादकेसरियाहिं णियमा पमजगा मंभवति, तत्केचिन्मतमित्यर्थ: ।।१४२१।। इदाणि पडिलेहण-पमज्जण-पप्फोडणा दिवसतो का कत्थ संभवति त्ति भण्णति । पडिलेहण पप्फोड ण, पमज्जणा चेव दिवसतो ह्येति । पप्फोडणा पमज्जण, रत्ति पडिलेहणा णत्थि ॥१४२२।। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-५६ पादादिए उवकरणे जहासंभवं दिवसतो तिण्णि वि संभवंति । राम्रो य पप्फोडण मज्जणा य दो संभवंति, पडिलेहणा ण संभवति अचक्खुविसयानो ॥१४२२।। पडिलेहणा पमज्जण, पायादीयाण दिवसो होइ । रत्तिं पमज्जणा पुण, भणिया पडिलेहणा नत्थी ॥१४२३॥ पडिलेहण त्ति दारं गतं । इदाणि "काले" त्ति दारं - मुरुग्गते जिणाण, पडिलेहणियाए आढवणकालो। शेराणऽणुग्गतम्मी, उवधिणा सो तुलेत्तव्यो॥१४२४।। जिणा इति जिणकप्पिया, तेसिं उग्गए सूरिए पडिलेहणाऽऽढवणकालो भवति । थेरा-गच्छवासी, तेसि अणुग्गए मूरिए पडिलेहणा। सीसो पुच्छति - अणुगए सूरिए का वेला ? आयरिपो आह - उवहिणा सो तुलेयन्वो । तुलणा परिच्छेदः, जहां इमेहिं दसहिं अंगेहि पडिलेहिएहि सूरियो उद्रेति तहा तं कालं तुलेति ।।१४२४॥ मुहपोत्तिय-रयहरणे, कप्पतिग-णिसेज्ज-चोलपट्टे य । संथारुत्तरपट्टे य, पेक्खिते जधुग्गमे सूरे ॥१४२५॥ मृहपोत्तिय, रयहरणं, कप्पतियं, दो णिसेज्जानो, चोलपट्टो, संथारुत्तरपद्रो प्र । एतेस् "पेक्खिए'' त्ति प्रत्युपेक्षितेसु सूर्य उदेति । अण्णे भणंति - एक्कारसमो दंडप्रो। सेसं वसहिमाद उदित सरिग य पडिलेहंति ततो साझायं पट्ठति ।।१-२५॥ इमो भाण-पडिलेहणकालो चउभागवसेसाए, पढमाए पोरिसीए भाण-दुगं । पडिलेहणधारणता, भयिता चरिमाए निक्खवणे ।।१४२६॥ पढमपहरचउभागावसेसा य चरिमत्ति भण्णति. तत्थ काले भाण - दुर्ग पडिले हिज्जति । सो भत्तट्ठी इतरो वा । जति भत्तट्ठी तो अणिविखनैहि चेव पढति सुणेति वा । प्रहाभत्तट्ठी तो णिक्खिवति, एस भयणा । एस उदुबद्ध वासासु वा विही । अण्णे भणंति - वासासु टोवि णिक्खिवंति । चरमपोरिसीए पूण प्रोगाहतीए चेव पडिलेहेज णिक्खिवंति । ततो सेसोवकरणं, ततो सज्झायं पट्ठति ॥१४२६।। पढमचरमाहिं तु पोरिसीहि पडिलेहणाए कालेसो । तविवरीओ उ पुणो, णातव्यो होति तु अकालो ॥१४२७|| १ गा० १४१७ । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १४२३-१४३१ ] द्वितीय उद्देशकः एस पढमचरमपोरिसीसु कालो। काले ति दारं गतं । तविवरीतो अकालो पडिलेहगाए। जति पुण प्रदाणे वा अण्णेण वा वाघायकारणण पढमाए ण पडिलेहियं, ताहे अकाले वि जाव चउत्यो ण उम्गाहेति ताव पडिलेहियव्वं । जति व पडिलिहियमेत्ते चेव चउत्यो प्रोगाहेति, तह वि पडिलेहियध्वं ।।१४२७।। प्रकालेर दारं गतं। इदाण सदोसात्त दार - .. प्रारभडा सम्पदा, वज्जेतव्वा य मोसली ततिया । पप्फोडणा चउत्था, वक्खिंत्ता वेइया छट्ठा ॥१४२८॥ भारमहं - जहाभिहितविषाणतो विपरीयं । अहवा- तुरियं अण्णम्मि वा दरपडिलेहंति, अण्णं पाढवेति । सम्मद्दणावेंटियमज्झतो जत्थ वा णिसण्णो बला कड्ढि पडिलेहेति । उड्ढमुहो तिरियं वा कुहादिसु पामुसंतं पडिलेहेति मोसली। रेणुगुंडियं वा पप्फोडेति, पप्फोडणा विधि खिवित्ता । अहवा - दूरत्थं वत्थं अण्णं भजाति – "खिवाहि प्रारतो जा पडिलेहेमि" ति विक्खितं । छट्टो वेतिया दोसो, ता य पंच -- जाणुवरि कोप्परा का पडिलेहेति, उड्ढवेतिया। एगजाणुं दुबाहंतो काउं पडिलेहेति, एगतोवेतिता। दो वि जाणू बाहंतो काउं पडिलेहेति, दुहितोवेतिता। जाणू हेट्ठामो ट्टितेसु हत्येसु पडिलेहेति, महोवेहमा । दोण्ह वि ऊरुप्राण अंतठितासु बाहासु पडिलेहेति, अंतोवेइया ॥१४२८॥ ग्रहवा इमे छद्दोसा पसिढिल-पलंब-लोला, एगामोसा अणेगरूवधुणा । कुणति पमाणपमादं, संकियगणणोवर्ग कुज्जा ॥१४२६।। पसिढिलं गेण्हति । एगपासामो पलंबं गेहति । महीए लोलंतं पडिलेहेति । " 3एगा मोस" त्ति - तिभागे घेत्तुं मविच्छेदामोसेणताणेति जा बितियतिगागो। अणेगाणि स्वाणि जुगवं पडिलेहेति । अक्खो - उगादिप्पमाणे प्पमायं करेति । जस्स जं संकियं भवति स गणंतो पडिलेहेति ।।१४२६॥ सदोसपडिलेहणाए इमं पच्छित्तं - मासो य भिण्णमासो, पणगं उक्कोस-मज्झिम-जहण्णे । दुप्पडिलेहित-दुपमज्जितम्मि उवधिम्मि पच्छित्तं ॥१४३०॥ दुप्पडिलेहिए दुप्पमज्जिते दोसेहिं वा प्रारभडादिएहि पडिलेहंतस्स उक्कोसे मासलहुं, मज्झिमे भिण्णमासो, जहणे पणगं ॥१४३०॥ सोसत्ति दारं गतं। इदाणि "णिद्दोसे ति उड्ढं थिरं अतुरितं, सव्वंऽता वत्थ पुन्च पडिलेहे। तो बितियं पप्फोडे, ततियं च पुणो पमज्जेज्जा ॥१४३१।। १ गा० १४१७ । २ मध्यप्रदेशे वस्त्रस्य संवलिता: कोणा यत्र भवन्ति सा संमर्दा उच्यते । ( ओ. नि० पृ० १.६) ३ मो. नि. गा० १६१ पृ० १०६ । ४ गा० १४१७ । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-५६ उडढमिति उक्कडग्रो णिविट्ठो, थिरमिति, दढं गेहति । प्रतुरितं. 'परिसंथियं, सव्वं वत्थं प्रतानो पढम पडिलेहेति । ततो वितिया पप्फोडणा पउंजति, प्रक्खोडगा ददातीत्यर्थः, ततो ततिया पमज्जणा पउ जति ॥१४३१॥ अणच्चानितं अवलियं, अणाणुबंधी अमोसलिं चेव । छप्पुरिमा णवखोडा, पाणी पाण य पमज्जणं ॥१४३२।। णचणं मगर, वत्थे वा। सरीरे उकंपणं, वत्थेवि विकारा करेंति । ण णच्चावियं प्रणच्चावियं । अलिय पि सरीरे वत्थे य, | वलियं अवलियं । णिरंतर अक्खोडपमज्जणा प्रकरणं अणाणुबंधी। कड्ढादिसु प्रमोमली। तिरिट्टिते वत्ये तिण्णि दाउ अवखोडा परावत्तेउ पुणो तिण्णि एते छप्पुरिममिति पुव्वं दायध्वं । ततो शव अक्खोडा पमज्जगंतरिपा दायवा। दाहिणहत्यकणि? -प्रणामियाहिं पढमतिभागमझे घेत्तुं, ग्रगामिय मज्झिमाहि मज्झ - तिभागमज्झे घेत्तुं , पदेसिणीहि ततियतिभागमज्झे घेत्तं , महो वामहत्थकरतल मारियस्सोवरि अनुरियादयो अवखोडगा दायवा, ततो प्राणिविसोधणत्थं प्रहो पाणी तेणे व वत्थेण ततो वारा पजियवा. पुणो तिणि अक्खोडगा तिम्णि पमजणातो ततियवाराए पुणो तिणि । एवं णव अक्खोडा गमन गातो य ॥१४३२॥ गिद्दोसेति दारं गतं । इदाणि 'होणातिरित्ते ति दारं - पडिलेहण-पप्फोडण, पमज्जणे वि य अहीणमतिरित्ता । उवधिम्मि य पुरिसेसु य, उक्कमकमतो य णातव्या ।।१४३३॥ पडिलेहण-पप्फोडण-पमज्जगा य एतातो अहीणमतिरित्ता कायव्वा । हीणातिरित्ते ति दारं गतं । 3उक्कमकमतो त्ति दारं- "उवधि · पुरिसेसु"। उवधिम्मि पच्चूसे पुव्वं मुहपोती, ततो रयहरणं, ततो प्रतो - णिसिज्जा, ततो बाहिर -णिसिज्जा, चोलपट्टो, कप्प, उत्तरपट्टे संथारपट्टे, दंडगो य । एस कमो प्राणहा उक्कमो । पुरिसेसु पुत्वं पायरियस्स, पच्छा परिणी, ततो गिलाण, सेहादियाण । मण्णहा उक्कमो ॥१४३३॥ उक्कमे अपडिलेहणाए य पच्छित्तं - चाउम्मासुक्कोसे, मासियमज्झे य पंच य जहण्णे । तिविधम्मि उवधिम्मि, तिविधा आरोवणा भणिता ॥१४३४॥ उक्कोसे चाउम्मासो, मज्झिमे मासो, जहणणे पणगं । तिविधे - जहण्णमझिमुक्कोसे ।।१४३४।। इत्तरिओ पुण उवधी, जहण्णो मज्झिमो य णातन्यो । सुत्तणिवातो मज्झिमे तमपडिलेहेते आणादी ॥१४३५॥ इत्तरगहणातो जहण्णमज्झिमे सुत्तणिवातो । मज्झिमे तमपडिलेहतस्स प्राणादिया य दोसा । १४३५।। १ स्थित । २ गा० १४१७ । ३ गा० १४१७ । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग्यगाथा १४३०-१४३८ ] द्वितीय उद्देशकः १६७ हमे गंजमदोमा - घर ताणग-पणगे, घरकोइलियादिपसवणं चेव । हिन-णहजाणणट्ठा, विच्छुय तह सेडुकारी य ॥१४३६॥ घरसतागो नि अपेहिए लूतापुडगं संबज्झति । पगो उल्ली अपेहिते भवति । गिहिकोइला पमवति । हिय णटुं वाऽसंभारियं भवति । गुम्हि विच्छुग - सप्पादिया पविसंति । अप्पेहिते तेहिं विप्रायविराहणा भवति । मेडयारिया, अण्णारिया गिह करेज्जा । जम्हा एते दोसा तम्हा सवोवही दुसंझ पडिलेयिबो॥१४३६।। कारणे पुण अपेहंतो वि अदोसो । इमे य ते कारणा - असिवे प्रोमोयरिए गेलण्णद्धाणसंभमभये वा। तेणयपउरे सागारे संजमहतं व बितियपदं ॥१४३७॥ असितगहितो ण तरति, तणडियरगा वा वाउलत्तणयो। प्रोमे 'पए च्चिय प्रारदा हिंडिर्ड पहिले हमार गथि कालो। गिलागो ण तरति एगागी। प्रद्धाणे सत्थवसो ण पेहे। अगणिमादि संभवा ग पेह । बोहिगादिभये वा। तेणयपउरे सारोवही य मा पस्सिहिति, ण पेहे कसिगोवहि ति। सागारिए ण पेहेति, उपावासगाण वा प्रगतो " पेहेति । संजमहेउवा- महियाभिष्णवाससचित्तरएसु बितिय-पदेण अपेहितो वि सुद्धो ॥१४३७।। ॥ विसेस-णिसीहचुण्णीए बितिश्रो उद्देसको समत्तो ।। १ प्रगे प्रभाते एव । २ संभमादद्रक्ष्यतीति । ३ प्राधुणकानाम् । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उदेशकः र्भाणतो बितिग्रो। इदाणि ततियो । तत्थ संबंधमाह - उवधी पडिलेहेत्ता, भिक्खग्गहणं तु तं कहिं कुज्जा । सहाणे अणोभट्ट, अधवा उवधी उ आहारो ॥१४३८॥ उवहि त्ति पडिग्ग हो, तं भिवखावेलाए पेहेत्ता तत्थ भिक्खग्गहणं कायन्वं । तं पुण भिक्खरगहणं कति काय ? सट्टःणे । ग्रहवा - जत्थ बितियजामे भिक्खाबेला तत्थ चरिमाए पडिग्गहं पेहेत्ता भिक्ख गाहणं करेति । अहवा - चरिमाए पेहेत्ता भिक्खग्गहणं काहिति, ण णिविखवंति । अत्थपोनिसि काउं तत्थ भिक्खं हिडंति । तं कहिं कुज्जा ? "सट्ठाणे" त्ति सट्टाणं मूलवमहिगामो, घरं वा । “अशोहदृ" 'प्रजाणियं । अहवा -- २कोंटलादि उवकरणविरहियं एस संबंधो। अहवा - उवही वुत्तो. इहं प्राहारो। द्वितीयोऽयं सम्बन्धः ।।१४३८॥ जे भिक्खू आगंतारेसु वा पारामागारसु वा गाहावतिकुलेसु वा परियावसहेसु वा, अण्णउत्थियं वा गारत्थियं वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइम वा अोभासिय ओभासिय जायइ; जायंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१॥ भिक्खू पूर्ववत्, प्रागंतारो जन्थ प्रागारी प्रागंतु चिटुंति तं आगंतागारं । गामपरिसट्टाणं ति वुत्तं भवति । प्रागंतुगाण वा कयं प्रागार प्रागंतागारं बहियावासे त्ति । पारामे आगारं पारामागारं । गिहस्म पती गिहपती. तस्स कुलं गिहपतिकुलं, अन्यगृहमित्यर्थः । गिहपज्जायं मोत्तु पवजापरियाए ठिता तेसिं पावसहो परियावसहो । एतेमु ठाणेमु ठितं अण्णउत्यियं वा असणाइ प्रोभासति साइज्जति वा तस्स मासलहुं । एस सुत्तत्थो। इमा सुत्तफासिया - श्रागंतारादीमुं, असणादोभासती तु जो भिक्खू । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ।।१४३६॥ १ मायारहित । २ दे । ३ गिहि अन्नउत्थियं वा, सो पावति प्राणमादीणि । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र २-८ प्रागंतारादिसु निहत्थमन्नतित्थियं वा जो भिक्खू असणाती प्रोभासति सो पावति आणा - प्रणवत्थमिच्छत्त - विराहणं च ॥१४३६।। अगमेहि कतमगारं, आगंतू जत्थ चिट्ठति अगारो। परिगमणं पज्जाओ, सो चरगादी तु णेगविधो ॥१४४०॥ "अगमा" रुक्खा, तेहिं कतं अगारं । आगंतुं जत्थ चिटुंति आगारा तं प्रागंतागारं । परि-समंता गमणं गिहिभावगतेत्यर्थः । पज्जानो पध्वज्जा, सो य चरग-परिवाय-सक्क-प्राजीवगमादिगविधो ॥१४४०।। भद्देतरा तु दोसा, हवेज्ज अोभासिते अ ठाणम्मि । अचियत्तोभावणता, पंते भद्दे इमे होंति ॥१४४१॥ प्रट्ठाणठितोभासिते पंतभद्ददोसा । पंतस्स अचियत्तं भवति, प्रोभावणं वा, अहो इमे - दमगपवइया जेण एगमेगं अट्ठाणेसु असणादि प्रोभासंति, न वा एतेसि कोइ भद्दे ति काउं देति । इमे भद्द दोसा - जध आवरोसे दीसइ, जब य विमग्गंति मं अठाणम्मि । दंतेदिया तवस्सी, तो देमि णं भारितं कज्जं ॥१४४२।। जहा एयस्स साहुस्सातरो दीसति, जह य में प्राण - ट्ठियं विमग्गंति । दंतेदिया तवम्सी, तो देमि अहं एतेसि Yणं 'भारितं कज्ज' आपत्कल्पमित्यर्थः ।।१४४२।।। सड्ढि गिही अण्णतित्थी, करिज्ज अोभासिते तु सो असंते । उग्गमदोसेगतरं, खिप्पं से संजतहाए ।।१४४३।। श्चद्धाऽस्यास्तीति श्रद्धी, सो य गिही अण्णत्थिनो वा, प्रोभासिए समाणे से इति म गिही मण्णतिथियो वा खिप्पं तुरियं सोलसण्हं उग्गमदोसाणं अण्णतरं करेज्जा संजयटाए ॥१४४३।। एवं खलु जिणकप्पे, गच्छे णिक्कारणम्मि तह चेव । कप्पति य कारणम्मी, जतणा ओभासितुं गच्छे ।।१४४४।। एवं ता जिणकप्पे भणियं । गच्छवासिणो विणिक्कारणे । एवं चेव कारणजाते पुण कम्पति थेरकप्पि याणं भोभासिउं ।।१४४४॥ कि ते कारणा ? इमे - गेलण्ण-रायदुटे, रोहग-अद्धाणमंचिते ओमे । एतेहिं कारणेहिं, असती लंभम्मि अोभासे ॥१४४५॥ गिलाणट्ठा, रायदुढे वा, रोहगे वा अंतो प्रफच्चंता, अंचिते वा अंचियणं णाम दात्र(उ)संधी तत्य त(भ)वणीप्रो खंचि(ध)यानो ण वा णिप्फणं, गिफण्णे वा ण लब्भति । प्रोमं दुर्भिक्षं । एवं अंचिए प्रोमे दीर्घ-दुर्भिक्षमित्यर्थः । एतेहिं कारणेहिं अलभंते प्रोभासेज्जा ॥१४४५॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशकः भिण्णं समतिक्कतो, पुव्वं जति उण पणगपणगेहिं । तो मासिएसु पयतति, श्रभासणमा दिसू असढो || १४४६ ॥ भाष्यगाथा १४४०-१४४८ ] इमा जयणा - पढमं पणगदोसेन गेष्हति पच्छा दस- पण्णरस वीस भिण्णमास-दोसेण य । एवं पण गभेदेहि जाहे 'भिण्णं समतिक्कतो ताहे मासिग्रट्ठाणेसु प्रोभासणादिसु जतति असढो || १४४६ ॥ तत्थ प्रोभासणे इमा जयणा तिगुणगतेहिं ण दिट्ठो, गीया बुत्ता तु तस्स उ कहेह | पुट्ठाsपुट्ठा चेते, तो करेंति जं सुतपडिकुटुं ॥१४४७॥ - पढमं घरे सोभासिज्जति । श्रदिट्ठे एवं तयो वारा घरे गवेसियन्वो । तत्थ भज्जाति णीया वत्तव्वातस्स श्रागयस्स कहेज्जाह "साधू तव सगासं प्रागया कज्जेणं" घरे अदिट्ठे पच्छा श्रागंतारादिसु दिट्ठस्स घरगमणाति सव्वं कहेउं, तेण वंदिते प्रवंदिते वा तेश य पुढे पुढे वा जं सुत्ते पडिसिद्धं तं कुव्वंति श्रोभासंति इत्यर्थः ।। १४४७ ।। एवं अण्णउत्थिया वा गारत्थिया वा; || सू०||२|| अण्णउत्थिणी वा गारत्थिणी वा; || सू० ||३|| अण्णउत्थिणी वा गारत्थिणीओ वा; असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा श्रभासिय श्रभासि जायति, जायंतं वा सातिज्जति ||सू०||४|| १ भित्रमासं । २०१ पदमम्मी जो तु गमो, सुत्ते चितियम्मि होति सो चैत्र । ततिय - चउत्थे वि तहा, एगत - पुहुत-संजुते || १४४८|| पढमे सुत्ते जो गमो बितिये वि पुरिसपोहत्तियसुते सो चेत्र गमो ततिय चउत्थेसु वि इत्थिसुनेसु सो चेव गमो ॥। १४४८ ।। जे भिक्खु आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा कोउहल्लपडियाए पडियागयं समाणंअनउत्थियं वा गारत्थियं वा || सू०||५|| अनउत्थिया वा गारत्थिया वा | | ० ||६॥ अण्णउत्थिणी वा गारत्थिणी वा ॥ सू०॥७॥ अण्णउत्थिणीओ वा गारत्थिणीओ वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा भोभासिय भासिय जायति जायंतं वा सातिज्जति ||०||८|| २६ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ मालहुँ । सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ८- १२ को हल्ल-पडियाए कोऊहलप्रतिज्ञया, कोतुकेणेत्यर्थः । तमागतं जे असण ती श्रोभासति तस्रा आगंतागारेसुं, आरामागारे तथा गिहावसहे । पुव्वट्ठिताण पच्छा, एज्ज गिही अण्णतित्थी वा ॥। १४४६ ॥ प्रागलाइ साहू पुट्ठिता पच्छा गिही अष्णउत्थी वा एज || १४४६ | एसि आगमणकारणं - यहाभावेणं, कोऊहल केइ चंदण - णिमित्तं । पुच्छिस्सामा केयी, धम्मं दुविधं व घेच्छामो ॥ १४५० || केति श्रापवत्तिभावेणं, केति कोऊएणं, केइ वंदन- णिमित्तं केइ संसयं पुच्छिस्सामो, केति दुविधं धम्मं - साहुम्मं सावगधम्मं वा चेच्छामो ॥१४५०॥ एतो एगतरेणं, कारणजातेण श्रागतं संतं । जे भिक्खू भासत असणादी तस्सिमे दोसा || १४५१ ॥ " तस्सिमे भद्द - पंतदोसा - प्रात-परोभावणता, अदिष्णदिण्णे व तस्स अचियत्तं । पुरिसोभावणदोसा, सविसेसतरा य इत्थी || १४५२ ।। अलद्धे अप्पणी प्रोभावणा "सुद्दा ण लभति" ति । दिणे परस्स प्रोभावणा “किवणो" ति [ अ ] दिगे वा प्रचियत्तं भवति । महायणमज्भे वा पणइतो " देमि" त्ति पच्छा अचियतं भवति दाउं । पुरिसे भावण दोसा एव केवला । इत्थमासु प्रोभावणदोसा संकादोसा य, आय परसमुत्था य दोसा ॥। १४५२ || भद्दो उग्गमदोसे, करेज्ज पच्छण्ण अभिहडादीणि । पंतो पेलवगहणं, पुणरावत्ति तथा दुविधं ॥ १४५३॥ भश्रो उग्गमेगतरदोसं कुज्जा पच्छण्णाभिहडं पागडाभिहडं वा आाणिज्ज | पंतो साहुसु पेलवगहणं करेज - ग्रहो इमे प्रदिष्णदाणा जो आगच्छति तमोभासंति । साहु - सावगधम्मं वा पडिवज्जामि त्ति प्रोभासति । श्रभातिम्रो दुरूढो पडियणित्तो त्ति जाहे सावगो होहामि ताहे ण मुइहिंति जइ पव्वज्ज गच्छामि ति एगो विपरिणमति तो मूलं, दोसु गवमं तिसु चरिमं, 'सावगवतेसु चरिमं, जं च ते विपरिणया संजम काहिति तमावज्जति । ग्रहवा - णिण्हएसु वच्चति । जम्हा एते दोसा तम्हा ण श्रोभासियन्त्रो ।। १४५३ ।। ग्राम एवं पच्छित - परिहरियं, आणा अणुपालिया, प्रणवत्था मिच्छत्तं च परिहरियं । दुविहविराणा परिहरिता । कारणे पुण प्रोभासति । इमे य कारणा सिवे मोदरिए, यदुट्टे भए व गेलण्णे | श्रद्वाण रोहए वा, जतणा श्रभासितुं कप्पे || १४५४ ॥ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १४४६--१४५७ ] तृतीय उद्देशक: २०३ तिगुणगतेहिं ण दिट्ठो, णीया वुत्ता तु तस्स तु कहह । पुट्ठाऽपुट्ठा व ततो, करेंतिमं सुत्त-पडिकुटुं ॥१४५॥ एगत्ते जो तु गमो, णियमा पोहत्तियम्मि सो चेव । एगत्तातो दोसा, सविसेसतरा पुहुत्तम्मि ॥१४५६।। असिवे जता मासं पत्तो ताहे घरं गतुं प्रोभासिज्जति । अदिटे महिला से भण्णति - अक्खेज्जासि सावगस्स साधुणो दलृमागता ते प्रासि । सो अविरइयसमीवे सोउं प्रहभावेण वा प्रागतो सव्वं से घरगमणं कहिज्जति, कारणं च से दीविज्जिति, ततो जयणाए प्रोभासिज्जति । __ जइ सो भणति - घरं एज्जह, ताहे तेणेव समं गंतव्वं, मा अभिहडं काहि त्ति असुद्धं वा । एवं रायट्ठादिसु वि ।।१४५६॥ एगत्तियसुत्तातो पोहत्तिएसु सविसेसतरा दोसा - पुरिसाणं जो तु गमो, णियमा सो चेव होइ इत्थीसु । आहारे जो उ गमो, णियमा सो चेव उवधिम्मि ॥१४५७।। जो पुरिसाणं गमो दोसु सुत्तेसु, इत्थीण वि सो चेव दोसु सुत्तेसु वत्तव्यो। जो आहारे गमो सो चेव अविसेसिप्रो उबकरणे दट्टव्वो ॥१४५४॥ जे भिक्खू आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गहावइकुलेसु वा परियावसहेसु वा अन्नउत्थिएण वा गारथिएण वा ॥सू०।६।। अन्नउत्थिएहि वा गारथिएहि वा ॥सू०॥१०॥ अन्नउत्थिणी वा गारत्थिणी वा ।।सू०॥११।। अन्नउत्थिणीहि वा गारत्थिणीहि वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आहट्ट दिज्जमाणं पडिसेहेत्ता तमेव अणुवत्तिय अणुवत्तिय,परिवेढिय परिवेढिय,परिजविय परिजविय, अोभासिय अोभासिय जायइ, जायंतं वा सातिज्जति सू०॥१२॥ प्रागंतागाराइसु ठियाण साहूणं अणतित्थी गारथियो वा अभिहडं प्रामुखेन हृत, अभिहृतं, पारणादिसु कोइ सड्ढी सयमेव आहटु दलएज्ज । तं पडिसेहेत्ता "तमेव' त्ति तं दायारं, अणुवत्ति य त्ति मतपदाई गंता, परिवेढिय ति पुरतो पिट्ठतो पासतो ठिन्चा, "परिजविय" ति परिजल्प्य, तुम्भेहि एवं अम्हट्ठा आणियं, मा तुम अफलो परिस्समो भवतु, मा वा अधिति करेस्सह, तो गेहामो एवं प्रोभासंतस्स मासलहुं । सुद्धे वि असुद्धे । पुण जेण प्रसुद्धं तमावज्जे । १ स्वीया अविरतिका स्त्री । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १२-१३ आगंतागारेसुं, आरामागारे तहा गिहावसहे । गिहि अण्णतिथिए वा, आणेज्जा अभिहडं असणं ॥१४५८॥ कंठा अोलग्गणमणुवयणं, परिवेढण पासपुरउ ठातुं वा । परिजवणं पुण जंपइ, गेण्हामो मा तुमं रुस्स ॥१४५६।। "अणुवयणं" ति प्रोलग्गिउं अणुवाजतुं, परिवेढगं पुरतो पासपो ठाउ, परिजल्पनं परिजल्पः, इमं जंपइ - गेण्हामो, मा तुमं रुसिहिसि ॥१४५६।। तं पडिसेवेतूणं, दोच्च अणुवतिय गेण्हती जो उ । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥१४६०॥ तमाहडमेव पडिसेहेउ एकः प्रतिषेधः । द्वितीयो अणुवइय त्ति ओलग्गिउ अणुवज्जितु ग्रहा जो एवं गेण्हति तस्स प्राणादी दोसा, भद्दपंतदोसा य, प्राणाए भंगो, प्रणवत्था कता, अण्णहा कारंतेण मिच्छत्तं जणियं ॥१४६०॥ इमो संजमविराहणादोसो भद्दपंतदोसो य - एतेण उवातेणं, गेहंती भद्दो करे पसंगं । अलियाभिरता माई, कवडायारा व ते पंतो॥१४६१॥ भट्टो चितेइ - एतेण उवाएण गेण्हंति, पाहडे पुणो पसंगं करेति । पंतो पेल वगहणं करे, भणेज्ज - वा अलियं अनृतं तम्मि अभिरया अलियाभिरया, ण गेण्हामो ति भगित्ता पच्छा गेण्हंति। मायाविणो तत्थ वसहीए ण गेण्हंति, इह पडिणीयंतस्स गेण्हंति, कवडं कृतकाचारा, कवढेण सव्वं पन्वज्ज प्रायरंति, " एतेसि कोइ सब्भावो अस्थि । ___ अहवा - सन्मावेण माइकिरियाजुतो कवडागारमाती भणति, एवं पंतो वयति । जम्हा एते दोता तम्हा ण एवं घेत्तव्वं ॥१४६१।। कारणे पुण गहणं कुव्वंति - असिवे ओमोयरिए रायदुढे भये व गेलण्णे । अद्धाण रोधए वा, जतणा पडिसेवणा गहणं ॥१४६२॥ पडिसेहेउं जतणाए गेहंति ॥१४६२।। का य जयणा ? इमा - जति सव्वे गीतन्था, गहणं तत्थेव होति तु अलंभे । मीसेसणुवा इतूणं, मा य पुणो तत्थ एहामो ॥१४६३।। जाहे पणगाइजयणाए मासलहयं पत्तो ताहे जइ सम्वे साधू गीतत्था ताहे तस्थेव वसहीए गेण्हंति, पसंगणिवारणत्थं च भण्णति -- अम्हं घरगयाणं चेव दिज्जति, ण प्राणिज्जति । ताणि भणंति - "प्रज्जेक्कं गेह ण पुगो आणेमो' ताहे घेप्पति । प्रलंभेति प्रभावेंता प्रीतमीसे पुण तेसि । अगीताण पुरतो पडिसेहे पच्छतो तस्स अणुवतिऊण भगाति - मा पुणो आगेह, तत्थेव अम्हे हिंडंता एहामो ॥१४६३।। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भायगापा १४५८-१४६८] तृतीय उद्देशक: णिमंतेज्ज - ग्रहवा -- जइ अगदोसज्जितं भरपतदोरा वा ॥ भवति ताहे गिण्हति । इमं च भणति - तया दूराहडं एतं, आदरेण सुसभितं । मुहबण्णो य ते अासी, विवण्णो तेण गेण्हिमो ॥१४६४|| तुमे दुरानो ग्राणिय, प्रायरेण य प्राणीयं, 'वेसवाराणा य संघिय कयं, तुझ पडिसेहिते मुहबष्णो विवणो ग्रासि तेण गेडामो। एवं जयणाए गेहति । पसंगो णिवारितो, अगीता य वंचिया, प्राइप्रतिनिवृनभावात्मीकृतत्वान् । एवं इत्थियामु वि एवं पुहत्त - मुत्ते वि ।।१४६४।। जे भिक्खू गाहावनि-कुलं पिंडवाय-पडियाए पविढे पडियाइक्खिए समाणे दोञ्चं तमेव कुलं अणुप्पविसनि, अणुप्पविमंतं वा सातिजति ।। मू०॥१३॥ पडियाइक्खिा ति प्रत्यारुपातः, अतित्याविते ति भणियं भवति, दोच्चं पुनरपि तमेव प्रविमति, तस्स मासल हुं, प्राणाइणो य दोमा । णिज्जुत्ती - जे भिक्खू गिहबतिकुलं, अतिगत पिडयात-पडियाए । पच्चक्खिते समाणे, तं चैव कुलं पुणो पविसे ॥१४६५।। जे नि निद्देमे, भिवत्र पूर्ववन्, गिहस्स पती गिपती, तस्स कुलं गृहमित्यर्थः, अतिगतः -- प्रविष्ट डिपात - प्रतिजपा, पच्चक्खातो प्रतिषिद्ध, प्रत्याख्यानेन समः ममाणे ति प्रत्याख्यानेत्यर्थः । ग्रहवा – समाणे ति पञ्चवखाउ होउ तमेव पुगो प्रविशे ।।१४६५।। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्तविराधणं तधा दविधं । पारति जम्हा तेणं, पच्चक्खाते तु ण पविमे ।।१४६६।। दुविहा विराहणा - प्रायसं जमे । जम्हा एते दोसा पाति तम्हा ग तं पुणो कुतं पविसे ।। १४६ ।। ग्रह पविमति इमे दोसा - दुपय-चतुष्पदणासे, हरणोदवण य उहण स्वण्णे य । चारियकामी दोच्चादीएसु मंका भवे तत्थ ।।१४६७।। तम्मि कुले दुप्पदा दुप्रवरिया ति, न उपपद प्रश्चादि टुं हरितं वा, मो संकिज्जति । एवं उदृवित य घरादि डाहे, खते य ग्वए, चारि उ ति भरि नि कामी उम्भ मगो. हसादिग्रामा वा दुइत्तणं करे. एवं संकिते निरसंबिते वा जं तमावग्जे, म हहि घर वारियं ति राय ने कहेज. एव गेहदयो दोसा ।। १४६७।। कारणग्रो पृण दोच्च पि पविमति - वितियपदमणाभांगे, अंचित-गेलण्ण-गन-पाहणए । रायदुटु रोधग. अदाणे वा वि निविकप्पं ॥१४६८।। . मसालों में परिपकृत। Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R०६ सभाध्य-णिके निशीथसूत्रे [गुग १३-१४ प्रणाभोगेण दोच्चं पि पविसे तमणीग्रो खच्चियानो जत्थ तं अंचियं दाउं संधिमादी दुभिक्षं वा गिलाण कारणेण वा भुज्जो पविसति; अण्णत्थ ण लभति पगतं संखडी, भिक्खावेला पविट्ठस्स ण देसकालो प्रासि, अपज्जत्ते भुज्जो पविस ति एवं पाहुणगातिए सु वि, अद्धाणे वा वि। तिविकप्पे ति प्रादि मझे अवसाणे या __ अहवा - गेलण्णादिएसु कज्जेसु एसणिज्जे अलन्भमाणे तिपरियल्ल विकप्पे पुणो तेसु चेव गिहेसु दोच्चं वारं पविसति ॥१४६८॥ एतं तं चेव घरं, अपुवघरसंकडेण वा मुढो । पुट्ठो पुण सेसेसु, कहेति कज्जं अपुट्ठो वा ॥१४६६॥ प्रणाभोगपविट्ठो गिहीण सुर्णेत गं भणति - एयं तं चेव घरं ति। अहवा - अपुवघरसंकडेण वा पविट्ठो, भणाति - “एयं तं चेव घर" ति । "सेसेसु" ति - गिलाणादिसु कारणेसु गिहीसु पुच्छितो अपुच्छितो वा गिलाणट्ठो वा दोच्चं पि प्रागत त्ति कज्ज कहेति ।।१४६६।। भावितकुलाणि पविसति, अदेसकालो व जेसु से आसी। सुण्णे पुणरागतेसू , भद्दगऽमुण्णं च जं आसी ॥१४७०॥ __ अहवा - जे साहू साहूणीहि पविसंतेहिं भाविता कुला ण संकातिता दोसा भवंति, तेसु दोच्चं पि कारणे पविसति । प्रदेसकालो वि जेसु कुलेसु प्रासि पुणो तेसु देसकालेस पविसति । जं वा भिक्खाकालेसु मुण्णं मासि तेसु पुणो पविसति । भद्दगकुलं वा अमुणं जं पासि तत्य केणइ कारणेण भिक्खा ण दत्ता तं पुणो पविसति ॥१४७०॥ जे भिक्खू संखडि-पलोयणाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१४॥ संखडि ति - ग्राउप्राणि जम्मि जीवाण संखडिजति सा संखडी । संखडिसामिणा अणुगातो तो तम्मि रसवतोए पविसित्ता प्रोप्रणात्ति पलोइउ भणः ति - ‘इतो य इतो पयच्छाहि" ति, एस पलोगपाश । जो एवं गेहति असणाति तस्स मासलहुं । आइण्णमणाइण्णा, दुविधा पुण संखडी समासेणं । जा सा तु अणाइण्णा, तीए विहाणा इमे होति ॥१४७१।। सा संखडी समासेण दुविधा - प्राइण्णा प्रणाइणा य । साधूण कप्पणिज्जा पाइण्णा, इतरा प्रणाइणा, तीसे इमे विहाणा । तुसद्दोऽवधारणे ॥१४७१॥ जावंतिया पगणिया, मखेत्ताखेत्त बाहिराऽऽइण्णं । अविसुद्धपंथगमणा, सपच्चवाता य भेदा य ॥१४७२।। आचंडाला पढमा, वितिया पासंड-जाति-णामेसु । मक्खेत्ते जा सकोसे, अक्खेत्ते पुढविमादीसु ॥१४७३।। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भायगाथा १४६६-१४७६ । तृताय उदशक: २०७ पदमा नि जाव निगा ताप सन्वेसि तडियकापडिगाणं प्राचंडालेस् दिज्जति । "बितिय' त्ति पगिता, प्रकण गण्या प्रगण्या, पामंडीणं चेव तेसि पगणियाणं, दस सस रक्खा, दस शाक्या, दश परिवाट, दसश्वनाटा एवमादि । मखेने जा सकोमं जोयणन्भनरे, क्षेत्रावग्रहाम्यन्तरेत्यर्थः । अखिले जा सचित्तपुढवीए, गनिनवम्मतिकायादिासु वा ठिता ॥१४७३॥ एतासु च उसु वि इमं पच्छित्तं - जावंनिगाए लहुगा, चतुगुरु पगणीए लहुग संक्खेत्ते । मीसग मचित्त-ऽणंतर-परंपरे कायपच्छित्तं ॥१४७४|| जावंतियाए अन्यतो चउलहुँ, सुत्तादेसतो मासलहुं । पगतियाए चउगुरु । सखित्ते संखडिगमणे पउलहं, परित्तमीसेणंतरे मासलहु, अणंतमीसे अणंतरे मासगुरु । दोसु वि मीसेसु परपरे लहुगुरु पणगं, सचिते पग्निप्रांतरे व उलहु, परंपरे मासल हु, अणंते एते चेव गुरुगा । एयं कायपच्छितं ॥१४७४।। ''वाहिर" त्तिस्य व्याख्या - बहि वुड्ढी अद्धजोयण, लहुगादी अट्टहिं भवे सपयं । चरगादी आइण्णा, चतुगुरु हत्थादि भंगो य ॥१४७५।। बहिखेत्तस्स जाव अद्धजोयणे चउलहु, ततो परंपरवढिए अद्धजोयणे च उगुरुगं, दिवड्ढजोयणे छलहुँ, दुसु छगुरु, चउसु छेप्रो, अट्ठसु जोयणेसु मूलं, भिक्खुणो सपदं । उवज्झायस्म च उगुझगातो मट्ठसु य प्रणवहो । प्रायरियस्स छन्लहुयातो अट्ठमु चरिमं । अहवा - खेत्तबहि ति पढम ठाणं, ततो परं प्रद्धजोयणवड्ढीए अट्टेसु च उलहुगाति घट्टसु पदेसु । ‘सपत" ति पारंचियं भवति । अहवा - खेतबहिअद्धद्धजोगबुड्ढीए चउलहुगादि नउसु जोयणे पारंचियं । अभिक्खसेवाते अट्ठम् मपदं पावति । __ यातिण्ण ति अस्य व्याख्या - चरग - परिवायग - हड्डस रक्खादिएहिं तडियकप्पडिएहिं य जा प्राइ"या प्रादुला तं गच्छतो च उगुरु, तत्थ अति जणसमद्देण हत्यपायपत्तादियाणं भंगो भवति । च सद्दामो उबकरण मेहातियाण अवहारो भवति ।। १४७५।। अविसुद्धपह त्ति अस्य व्याख्या - कायेहऽविसुद्धपहा, मावत तणहि पच्चवाता तु । दमणवंभे आता, तिविध अवाना बहि तर्हि वा ॥१४७६।। संखडि गच्छतो अंतरा कएिहिं पुढवीग्राउवणस्सतितमातिएहिं पहो अदिसुद्धो - संसक्तेत्यर्थः । "मपञ्चवाय" त्ति जत्थ पच्चवाग्रो प्रत्थि सा सपञ्चवाता । ते य पच्चवाया अंतरा बहिं वा, सोहादिमावयतेणा हिमादिया । ते तु अभिगयधम्मा तत्थ चरगादिपहिं वुग्गाहिज्जंति, एस दंसणावातो। चरियादियाहि अण्णाहि वा इत्थीहि मत्तप्रमत्ताहिं प्रातपरसमुत्थेहि दोसेहि बंभविराणा, एस चरणावायो । प्रायावातो वुत्तो। एतेहि तिविधा प्रवाया भवंति ।।१४७६।। १ गा० १४७२ । २ गा० १४७२ । ३ गा० १४७२ । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इमं पच्छितं - दंसणवायला, समावासु चउगुरु होंति । जीवित-चरितभेदा, विसचरिगादीसु गुरुगा तु ॥१४७७॥ दंसणावावे चउलडु, सेमावाओ बंभाबायो प्रायविराहणा य एतेसु चउगुरु । इवाणि ""भेदा य" ति ग्रस्य व्याख्या - जीवित पश्चार्धम् । तत्थ कनाति पडिणी उवसगादि विसं गरं वा देख, जीवितभेदो भवति । चरिगाओ भष्णतराम्रो वा कुलटाम्रो चरितभेतो ह्वेज्ज। जीवित- चरणभेदे च उगुरुगं चैव पच्छितं ।। १४.७।। समाइणा खलु तव्विवरीता तु होति आण्णा | अण्णा कोयी, भत्तेण पलोयणं कारे || १४७८ || भाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे एस जावतियादिदोसट्टा अणानिष्णा । जावतियानिदोसविवमुक्का ग्राइण्णा । कोइ सी ग्राइण्णाए भगाति- तुब्भे पलोएह. जं एस्य मच्चति तं प्रच्व, सेसं मरुगादीश्राणं पयच्छामि ॥। १४७८ ।। तं जो उ पलोएज्जा, गण्हेज्जा श्रायइज वा भिक्खू | सो आणा अणवत्थं मिच्छत्त-विराधणं पावे ।। १४७६ ।। एवं भणिती जो तं पलोएज्ज व्हेज वा यदिएज्ज वा सो ग्राणाभ वति अणवत्थं करेति मिन्द्रनं जणयति । प्रायसंजमविराहणं च पावति ॥९४७॥ पुत्रं पलोतिते गहिते वा इमे दोसा पडिणीय विसकखेवी, तत्थ व अण्णत्थ वा वितणिस्सा | मरुगादीण पत्रोमो अधिकरणुस्फोस वित्तयो || १४८० || साणा जं पलोइयं भन्तराण तत्थ डिणीम्रो उवासगादि विसं खिवेज | इमा जयणा [ सूत्र - १३ 4 साधुसाए वा पट्टिो प्रणत्थ वा को नि विसं पक्खिवेजा । ग्रच्छते यस्वादमा मरुगादयः मिमियस पट्टा भोऩ गेच्छते, समभाग पुवं दनं उक्कोस वा वियति अगारदा वा करेज्ज, साहु वा पोहणेज, प्रमुइह वा छिति । उष्फोमेज रिभवति सोवा मखडिसामित्रो बीया रे प्रभुज संजयागं पसेन । रिक्को में विजयो जाम्रो होज्जति । अथवा धिज्जायागं दादा भावे, एना विनवी ग्रविगो जाओ ति ।।१४८० 'भवे कारण जेण पलोएज्ज । सिओमोरिए. रायदु भए व गेलणं । श्रद्धाणरोध वा जनणाए पलोयण कुज्जा ।। १४=१ || १ गा० १४.२ । हन्थे अमिते ( तो ) अणावडती मणो (णं) श मंनो य । दिस्मण्णतां मुहा भणति होज्ज णं कज्जममुएणं ||१४=२|| Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भायगाथा १४७७-१४६६ ] तृतीय उददेशकः हत्येण ण दाएति, इमो इम्रो त्ति, प्रणावडतो प्रणाभिडंतो उ फासणादोसपरिहरणत्थं (णउणतो प्र . ) तो प्रणतो मुहं पलोएतो 'सणियं भगाति "प्रभुगेण दहिमादिणा कज्जं होज", तं च गच्छुवगाहकरं पणीयं पलिट्ठ पज्जतं दव्वं पलोएति ।। १४८२ ।। जे भिक्खू गाहाबइ- कुलं पिंडवाय-पडियाए अणुपविट्ठे समाणे परं ति घरंतराओ असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आह दिज्जमाणं पडिग्गाहेति; पडिग्गार्हेतं वा सातिज्जति ||०||१५|| तिष्णि गिहागि तिघरं, तिघरमेव अंतरं तिघरंतरं किमुक्तं भवति गृहत्रयात् परत इत्यर्थः । हवा - तिष्णि दो अंतरात् तृतीय अंतरात् परत इत्यर्थः । श्रायाए गृहीत्वा किंचित् श्रसणाती भिडदोसेण जुत्तं प्रहट्टु साहुस्स देज्ज जो प्रणाइण्णं, तिघरंतरा परेणं आइ वा अणुवउत्तो गेण्हति तस्स मासलहुं । इमो णिज्जुत्ति - वित्थरो - - आइण्णमणादण्णं णिसिहाभिहडं व णो णिमीहं वा । 1 णिमीहाभिहडं ठप्पं, णो णिसीहं तु वोच्छामि || १४८३ ॥ ग्राहडं दुविधं – आइष्णमणा इणं च । अणाइणं दुविधं - जिसीहाभिहडं, नो मिसीहाभिहडं च । णिसोहं णाम अप्रकाशं, णो मिसीहं ग्राम प्रकाश । णिसीहा भिड्ड चिट्ठउ ताव, णो गिसीहं ताव वोच्छामि ।। १४६३॥ सग्गाम - परम्गामे, घरंतरे णो घरंतरे चैव । तिघरंतरा परेणं, घरंतरं तं मुणेपव्वं ॥ १४८४ ॥ मुग्गामा हडं दुविहं - घरंतरं गो घरंतरं च । तिघरंतराम्रो परेणं जं तं घरंतरं भणति ॥ १४८४ ॥ बाग - साहिणिवेसण, सग्गामे णो घरंतरं तिविहं । परगाव दुविधं, जलथल नावाए जंघाए || १४८५|| २०१ - बाडगा घो, साहितो, गिवेसणानो • वाडगस्स पाडगेति संज्ञा, घरपंती साही भण्णति, महाघरस्स परिवारघरा गिवेसणं भष्यति । जं परगामाह्ड नं दुविहं - सदेसगामाओ, "इयरे" ति परदेसगामा वा । एवं दुविधं पि जलेग वा थलेग वा प्राणिजति । जं जलेग, तं नावा तारिमेण वा, जंघातारिमेण वा ॥१४८५॥ जं थलेण तं - ist बलिग का सीसेण चतुव्विधं थले होति । एक्केकं तं दुविधं, सपच्चवातेयरं चैव ॥ १४८६ ॥ "भंडी " गड्डी भाति । "बहिलगो" त्ति गोणातिपिट्ठीए लगड्डा दिएसु आणिज्जति "काए” कावोडीसंकातिएण प्राणिज्जति, मिरेण वा, एवं चउत्र्विधं थलेण भवति । एवं जल थलेमु दुविधं पि१ सयं पा० । २ बलियं प्र० । - ܕ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० सभाष्य-चूर्णिकेनिशीथसूत्रे [सून १५-२० सपच्चवायं, "इतरं" वा अपच्चवायं । पच्चवानो पुण जले गाहा मगर - मच्छादि, थले चोर सावत - वालातितो प्रणेगविहो ॥१४८६॥ एतं सदेसाभिहडं, भणितं एमेव होति परदेसे । जल-थलमादी भेया, सपच्चवातेतरा णेया ।।१४८७॥ परदेसाभिहडे वि जल-थलादिभेदा सपच्चवाया इतरा सब्वे भाणियव्वा ॥१४८७॥ एयं णो णिसीहं भणियं । मिसीह भण्णति एसेव गमो णियमा, णिसीहाभिहडे वि होति णायन्यो । आइण्णं पि य दुविधं, देसे तह देसदेसे य ॥१४८८।। णिसीहाभिहडे वि एसेव गमो यन्वो । एयं सव्वं अणाइण्णं भणियं ।। इदाणि पाइण्णं तं दुविधं - देसे देसदेसे य । देसो हत्थसयं, तस्स संभवो परिमुज्जमाणीए दीहाए घंघसालाए, संखडीए वा परिएसणपंतीए । हत्थसता पारतो देसदेसो भण्णति ।।१४८८।। सुत्तनिवातो सग्गामाभिहडे तं तु गेण्हे जे भिक्खू । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥१४८६॥ सग्गामाभिहडे सुत्तणिवातो, सेसं कंठं ।।१४८६।। अणाइण्णं पि कारणे गेण्हेजा, ण दोसो - असिवे प्रोमोयरिए, रायदुढे भये व गेलण्णे। .. अद्धाण रोधए वा, जतणा गहणं तु गीतत्थे ॥१४६०॥ पणगपरिहाणी जयगाए जतिऊण जाहे मासियं पत्तो ताहे गेण्हति । गीयत्थ-गहणात। गायत्थो तं गेण्हतो वि संविग्गो भवति । अहवा - जयणं जाणति त्ति गीयत्थो गेण्हति स णिद्दोसो। अगीयत्थे पुण णत्थि जयणा, तेण तस्स जहा तहा गेहतो सदोसतेत्यर्थः ॥१४६०॥ जे भिक्खू अप्पणो पाए आमज्जेज वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१६॥ अप्पणो पाए प्रामज्जति एक्कसि, पमज्जति पुणो पुणो । अहवा हत्येण प्रामज्जणं, रयहरणेण पमजणं । तस्स मासलहुं । इमा णिज्जुत्ती - आइण्णमणाइण्णा, दुविहा पादे पमज्जणा होति । संसत्ते पंथे वा, भिक्ख-वियारे विहारे य ॥१४६१।। Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १४६९ - १४६४ ] तृतीय उद पुव्वद्धं कंठं । जा सा श्रइण्णा सा इमा - भणेगविहा, संसत्तो पादो ग्रामज्जितव्वो, पंये वा प्रथंडिलातो थंडिलं, थंडिलाश्रो वा प्रथंडिलं, प्रथंडिलातो वा थंडिले विलक्खणे, सकायसत्ये ति काउं संकमंतो कहभोमातीसु पमज्जति भिक्खातो वा पडिगियत्तो, वियारे त्ति सण्णाभूमीग्रो वा प्रागतो, विहारे त्ति सज्झायभूमीए, गामंतराम्रो वा कुल-गणादिसु कज्जेसु पडिप्रागश्रो पमजति । मा उवकरणोवघातो भविस्सति त्तिः ॥ १४६१।। एसा इण्णा खलु तव्विवरीता भवे श्रणाइण्णा । सुत्तमण एण्णाई, तं सेवंतम्मि आणादी || १४६२ ॥ खलु श्रवधारणे, जमातिकारणवतिरित्ता प्रणातिष्णा, सुत्तणिवातो प्रणाइण्णासु तं प्रणाइण्णपमज्जणं णिसेवंतस्स प्राणादीया दोसा || १४६२ ॥ इमा संजमविराहणा संघट्टणा तु वाते, सुहुमे यणे विराधय पाणे | बाउसदोसविभूसा, तम्हा ण पमज्जए पादे || १४६३|| मज्जणे वाता संघट्टिज्जति, अण्णे य पयंगादी सुहुमे बादरे वा विराहेति, बाउसदोसो च बंभचेरे अगुती, तम्हा पादे ण पमज्जते || १४३३|| २११ त्रितियपदमणप्पज्के, अपज्भुब्यातखज्जमाणे वा । पुव्वं पमज्जिऊणं वीसामे कंडुएज्जा वा ॥१४६४॥ प्रणो अनात्मवश: खित्तचित्तादिएसु पमज्जणाइ करेंज । प्रप्पज्झो वा उव्वातो श्रान्तः सपमज्जिउं विसामिज्जति, खज्जमाणो वा पादो पमज्जिउं कंडुइज्जति । उक्तार्थं च पश्चार्धम् ॥ १४६४ ॥ जे भिक्खू अप्पणो पाए संत्राहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, संवातं वा लिमतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥ १७॥ "" इति प्रशंसा | शोभना बाहा संवाहा । सा चउन्विहा- ट्ठि सुहाए, मंस- रोम तया, सा गुरुमाइयाण वियाले संबाधा भवति । जो पुष्ण अड्ढरते पच्छिमरते त्रि दिवसतो वा प्रगसो संबाधेति सा परिमद्दा भष्णति । जे भिक्खू अप्पणो पाए तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीए ण वा 'मक्खेज वा भिलिंगेजवा मक्तं वा मिलिंगतं वा सातिज्जति ||सू०||१८|| जे भिक्खू पण पाए लोद्वेण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वट्टेज्ज वा उल्लोलेंतं वा उतं वा सातिज्जति ||०|| १६॥ जे भिक्खू अप्पणो पाए सीयोदग-वियडेण वा उसिणोद्ग-वियडेण वा उच्छोल्लेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोवंतं वा सातिज्जति ||मू०||२०|| १ प्रब्भंगेज्ज वा प्र० । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ सभाष्य-चूणिके निशीथ सूत्रे [ सूत्र २१-२८ सीतमुदगं सीतोदगं, "वियड" ति व्यपगतजीवं, उसिणमुदगं उसिणोदगं, तेण अप्पणो पादे एक्कासि उच्छोलणा, पुणो पुणो पधोवणा । एवं सव्वे सुत्ता उच्चारेयवा । 'प्रन्भंगो थोवेण, बहुणा मक्खणं । अहवा - एक्कसि बहुसो वा । २कक्कादि प्रथमोद्देशके अंगादाण गमेण णेयं । जे मिक्खू अप्पणो पाए फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुर्मतं वा रएतं वा सातिज्जति ।।२०।२१।। प्रलत्तयरंगं पादेसु लाएउ पच्छा फुमति । तं जो रयति वा, फुमति वा । एतेसिं पंचण्हं सुत्ताणं संगहगाहा - संवाहणा पधोवण कक्कादीणुव्वलण मक्खणं वा वि । फुमणं वा राइल्लं वा जो कुज्जा अप्पणो पादे ।।१४६५॥ संबाहण ति विस्सामणं, सीतोदगारणा पधोवणं, कककाटणा उनलणं, तेल्लाइणा मक्खणं, असतगाइणा रंगणं, करेति तस्स प्राणाइया दोसा ।:१४६५।। एतेसिं पढमपदा, सई तु वितियां तु बहुसो बहुणा वा । संबाहणा तु चतुधा, फूमते लग्गते रागो ॥१४६६।। ___ एतेसि सुत्ताणं पढमपदा संबाहणादि सकृत करणे द्रष्टव्या, बितियपदा परिमद्दणाति बहुवारकरणे बहुणा वा करणे ट्ठन्वा । संवाहणा चउबिहा उक्ता । प्रलक्तकरंगो फुमिजतो लग्गति ।।१४६६॥ सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं तधा दुविधं । पावति जम्हा तम्हा, एते तु पदे विवज्जेज्जा ।।१४६७॥ सव्वेसु जहासंभवं विराहणा भणियन्वा । गाढसंबाहणा चम्म प्रवणेज्ज, प्रद्विभंग वा करेज । एवं उचलणे वि । पधोवणे एव चेव, उप्पिलावणादि वणे वि दोसा य । प्रभंगे वि मच्छिगाति - संपातिम-वहो । ॥१४६७॥ आत-पर-मोहुदीरण, बाउसदोसा य सुत्तपरिहाणी । संपातिमाति घातो, विवज्जयो लोगपरिवायो ॥१४६८॥ रंगे पधोवणातिमु य प्राय पर - मोहोदीरणं करेति, बाउसदोसो ( सा ) य भवति ( भवंति ), सुत्तत्थाणं च परिहाणी भवति । साघुक्रियायाः साघोरपरस्य वा विपर्ययो विपरीतता भवति । साधु-श्रावकमिथ्यादृष्टिलोके परिवादो "पादाम्पङगकरणेन परिज्ञायते न साधुरिति" ॥१४६८।। कारणतो करेज्ज - वितियपदं गेलण्णे, अद्धाणुव्वात - वाय - वासासु । आदी पंचपदाऊ, मोह-तिगिच्छाए दोणितरे ॥१४६६।। १ प्रथमोद्देशके चतुर्थ सूत्रे । २ प्रथमोदेशके पंचममूत्र । ३ रागयुक्तः । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा १४६५ - १५०० ] तृतीय उद्देशक: गिलास प्रद्धाणे वा, 'उव्वायस्स' वातेण वा गहियस्स, वामामु वा ! " ग्राइ" नि गिलागवयं तम्मि संवाहाती पंत्र वि पया पउक्तन्त्रा । वेज्जोवदेसेण पायनल रोगिणो मगदंतियानिलेवेण प्रयोग वा रंगो काव्वो । सेसेसु श्रद्धाणातिसु जहासंभवं । मोह-तिमिच्छाए रयणं फुमणं वा दो य कायव्वा । अहवा -संवाहातियाण पंचण्ह पदाणं माइल्ला चउरो पता गिलाणाइसु संभवति । दो कृमण रयण पता मोहं-तिमिच्छाए संभवति । चोदगाह -मण-रणे मोहवुड्ढी भवति ? - सामु या प्रायरियाह - सातिसतोत्रदेसेण जस्स तहा कज्जते य उवसमो भवति तस्स तहा कज्जति । किढिगात सेव वा । श्रद्धाणसंवाहणाति जहा संभवं । एवं वाते वि संबाह रोय - प्रभंगणाति । कद्दमलिताण घोत्रणेति । अंगुलिमंतराय कुहिया, कोव - पलालधूमेण रज्जति ।। १८६६ ।। एवं कायाभिलावेण छ सुत्ता भाणियव्वा - जे भिक्खू पण कार्य आमज्जेज वा पमज्जेज बा, मज्जतं वा पमज्जंतं वा सातिजति || मू०||२२|| जे भिक्खू पण कार्य संबाहेज वा पलिमहेजवा, संत्रातं वा पलिमदेतं वा सातिजति | | ० ॥२३॥ जे भिक्खू पण कार्य तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज वा मिलिंगेज वा, मक्खेनं वा मिलिंगेतं वा सातिञ्जति । || मू०||२४|| जे भिक्खू अपणो कार्य लोद्रेण वा कक्केण वा उल्लोलेज वा उव्वद्वेज वा, उल्लोलेंनं वा उद्वेतं वा सातिजति ||०||२५|| जे भिक्खू पण कार्य सीमोदग-वियडेण वा उमिणोद्ग-वियडेण वा उच्छोलेज बा पधोएज्ज वा, उच्छोलतं वा पधावेंतं वा सातिज्जति ॥ सू० ॥ २६ ॥ जे भिक्खू अप्पणी कार्य फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुमेतं वा एतं वा सातिज्जति | | ० ||२७|| एएच मृता पूर्ववत , गाह - पादेसुं जो तु गमो, णियमा कायम्मि होति म च्चेव । गायत्री तु मतिमता, पुत्रे अवरम्मि य पदम्मि || १५०० || २१३ जो पायसुते गमो कायमुत्तेमु वि छसु सो चेत्र दटुव्वो । गण नायव्त्रो ? मतिमत। पतिरस्या स्तीति मतिमं । पुवं उस्सग्गपदं, अवरं प्रववातपदं ।।१५००।। एवं वणाभिलावेण ते चैव छ सुत्ता वत्तव्वा जे भिक्खू पण कार्यसि वणं श्रमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, मज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ||०||२८|| Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र २६-३६ जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं संबाहेज्ज वा पलिमदेज्ज वा संबाहेंतं वा पलिमद्देतं वा सातिज्जति ॥२०॥२६॥ जे मिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा नवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज वा, मक्खेज्जतं वा भिलिंगेज्जंतं वा सातिजति ॥२०॥३०॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं लोद्रेण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वडेज्ज वा उल्लोलेंतं वा उबट्टेतं वा सातिजति ॥सू०॥३१॥ जेभिक्खू अप्पणो कायंति वणं सीयोदग-वियडेण वा, उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥०॥३२॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि वणं फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुमेतं वा रएंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३३॥ दुविधो कायम्मि बणो, तदुभवागंतुगो तु णातव्यो। तदोसो व तदुब्भवो, सत्थादागंतुओ भणिो ॥१५०१ कायव्वणो दुविधो - तत्व काये उन्भवो जस्स दोसो य तम्भवो, प्रागंतुएण सत्यातिणा कमो जो सो प्रागंतुगो । इमो तम्भवो तद्दोसो-कुटुं, किडिमं, दद्दू, विकिच्चिका, पामा, गंडातिया य । प्रागंतुगोसत्येण खग्गातिणा, कंटगेण वा, खाणूनो वा, सिरोवेवो वा, दीहेण वा, सुणह - डक्को वा ।।१५०१।। एतेसामण्णतरं, जो तु वर्णमि सयं करे भिक्खू । पमज्जणमादी तु पदे, सो पावति आणभादीणि ॥१५०२॥ एतेसिं प्रणतरे व्रणे जो पमज्जणातिपदे करेज तस्स आणाती दोसा मासलहुं च पच्छित्तं ॥१५०२।। सीस ग्राह - वेयणद्देण किं काय ? आयरिय प्राह - पच्चुप्पतितं दुक्खं, अभिभूतो वेयणाए तिव्वाए । अद्दीणो अव्वहितो, तं दुक्खऽहियासए सम्मं ॥१५०३।। "णच्च" ति ज्ञात्वा दुःखमुत्पन्न, वेद्यत इति वेदना, तिव्वाए वेयणाए सव्वं सरीरं व्याप्तमित्यर्थ । ण दीणो अदीणो पसण्णमणो स्वभावस्थ इत्यर्थः, ण वा प्रोहयमणसंकप्पे। अहवा - हा माते ! हा पिते ! एवमादि ण भासते। जो सो प्रदीणो ण वेयणद्दो अप्पयो सिरोरुकुट्टणादि करेति । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्य गाथा १५०१-१५०५ । तृताय उद्देशक: २१५ अहवा - ण वेयणट्टो चितेति - "अप्पाणं मारेमि" त्ति तं दुक्खमुप्पन्नं सम्म महियासेयत्वं इत्यर्थः ||१५०३।। कारणे पुण ग्रामज्जणाति करेज्ज - अयोच्छित्ति णिमित्तं, जीयट्ठी वा समाहिहेतुं वा । पमज्जणमादी तु पदे, जयणाए समायरे भिक्खू ॥१५०४॥ मुत्तत्योणं अवानिनि करिम्मामि, जीवितट्टी वा जीवंतो संजमं करिस्सामो, चउत्थाइणा वा नवा प्रप्पाणं भाविस्मामि, - दंम ग - चरित्त - समाहि - साहणा वा। ग्रहवा -- ममामि गणेग वा मरिस्सामि त्ति प्रामज्जणादिपदे जयणाए समाय रेज्ज । जयणा जहा जीवोवघातो ण भवतीत्यर्थः ।।१५०४।। जे भिक्ख अप्पणो कायंमि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्षणं सत्थ-जाएणं अच्छिंदेज्ज वा विच्छिंदेज्ज वा अच्छिंदतं वा विच्छिंदतं वा सातिज्जति।।सू०॥३४॥ गच्छती ति गंड, तं च गंडमाला, जं च अणं पिलगं तु पादगतं गंडं "अरतितं वा' अरतितो नं १च्चति, असी परिसा ता य अहिट्ठाणे गासाते वगेमु वा भवंति । पिलिगा (पिलगा.) सियलिया, भगंदरं प्रापतो अधिट्ठाणे क्षतं किमियजालसंपण्यं भवति । बहुसत्यसंभवे अण्णतरेण तिक्खं स ( अ ) हिणाधारं जातमिति प्रकार प्रदर्शनार्थम् । एककसि ईषद् वा प्राचिदणं, बहुवारं सुट्छु वा छिदणं विच्छिंदणं । गंडं च अरतियंसि, विग्गलं च भगंदलं च कायंसि । मत्थेणऽण्णतरेणं, जो तं अच्छिंदए भिक्खू ॥१५०॥ गतार्था । जे भिक्खू अप्पणो कायंसि ना गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं का अन्नयरेणं तिक सेणं सत्थ-जाएणं अच्छिंदित्ता विच्छिंदित्ता पूयं वा सोणियं वा णीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, णीहरेंतं वा विसोहेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३॥ पुवं सुतं सव्वं उच्चारेऊण इमे अइरित्ता पालावगा । 'पूयं वा" पक्कं सोणियं पुतं भगति । रहिर सभावत्थं सोगियं भण्णति । णीहरति गाम गिग्गलति । अवसेसावयवा फेडणं विसोहणं भण्णति । जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अन्नतरेणं तिक्खेणं सत्थ-जाएणं अच्छिंदित्ता विच्छिंदित्ता णीहरित्ता विसोहेत्ता सीत्रोदग-वियडेण वा उसिणोदग-वियटेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा उच्छोलतं वा पधोवेतं वा सातिज्जति सू०॥३६॥ जे भिक्खू दो वि पुव्व सुत्तालावगे भणियो । इमे तइयसुत्तालावगा सीयोदगवियड - गतार्थम् । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र ३७ ४१ जे भिक्ख अप्पणो कायंसि गंडं वा पिलगंवा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्षणं सत्थ-जाएणं अच्छिंदिता विच्छिंदित्ता णीहरित्ता विसोहेत्ता उच्छोलित्ता पधोइत्ता अन्नयरेणं आलेवणजाएणं आलिंपेज्ज वा विलिपेज्न वा आलिंपंतं वा विलिपंतं का। सातिज्जति ॥०॥३७॥ जे भिवस्खू तिण्हं भि सुत्ताणं पालायए वोत्तुं च उत्थमुत्तारित्ता इमे पालावगा बहु पालेवसं भवे । अण्णतरगहणं । प्रालिप्यते अनेनेति अालेप: जातग्गहणं प्रकारप्रदर्शनार्थं । सो पालेवो तिविधो-वेदना पसमकारी, पाककारी, पुतादि णीहरणकारी। जे भिक्खु अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं । तिक्वेणं मत्थ-जाएणं अच्छिंदित्ता विच्छिंदित्ता णीहरित्ता विसोहेत्ता पधोइत्ता विलिपित्ता तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा अन्भंगेंतं वा मक्खेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३८॥ जे भिक्खू अप्पणो कार्यसि गंड वा इत्यादि चउरो वि मुत्तालावगे वोत्तु इमे पंचममुत्तारिता पालावगा तेल्लेण वा गतार्थम् । जे भिक्ख अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं मत्थ-जाएणं अच्छिंदित्ता विच्छिंदित्ता नीहरित्ता विसोहेत्ता पधोइत्ता विलिंपित्ता मक्खेत्ता अण्णयरेणं धूवणजाएणं धूवेज्ज वा पधूवेज्ज वा, धृतं वा पर्वतं वा सातिज्जति।।मु०॥३६॥ एनेसि इमा संगहणि - गाहा - णीणेज्ज पूय-रुधिरं, तु उच्छोले सीत-वियड-उसिणेणं । लेवेण व आलिंपति, मक्खे धृवे व आणादी ॥१५०६॥ शीगन्ज पूयाती ततो उच्छोलेति, ततो प्रालिपति, ततो मक्खेति, ततो धूवेति । एवं जो करेति सो प्राणातिदोमे पावति । प्रायविराहणा मुच्छाती भवति । सजमे पाउक्कायातिविराहणा ॥१५० । एवं ता जिगकप्पे, गच्छवासीण विणिक्कारणे एवं चेव । जतो भण्णति - णिक्कारणे ण कप्पति, गंडादीएसु छेत्र-धुवणादी। आसज्ज कारणं पुण, सो चेव गमो हवति तत्थ ॥१५०७।। पुव्वद्धं कळं। कारणे पुण प्रासज्ज, एसेव कमो - सत्यादिणा अछिदति, जइ ण पण्णपइ तो प्रयाति गीहारेति । एवं अप्पणयंते उत्तरोत्तरपयकरणं ॥१५०७॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानवाचा १५०६-१५१३ ] तृतीय उद्देशकः २९७ णच्चुप्पति तं दुक्खं, अभिभूतो वेयणाए तिव्वाए । अद्दीणो 'अव्वहितो तं दुक्खऽहियासए सम्मं ॥१५०८॥ अब्बोच्छित्ति-णिमित्त, जीतट्ठीए समाहिहेतु वा। पमज्जणमादी तु पदे, जयणाए समायरे भिक्खू ॥१५०६।। पूर्ववत् । जे भिक्ख अप्पणो पालु-किमियं वा कुच्छि-किमियं वा, अंगुलीए निवेसिय निवेसिय णीहरति, णीहरंतं वा सातिज्जति ।।मू०॥४०॥ पालु अपानं, तम्मि किमिया समुच्छति । कुक्खीए किमिया कुक्खि-किमिया, ते य जूमा भवति । ते जति सणं वोसिरिउ अपाणभंतरे थक्केज्जतो ते पालुकिमिये अंगुलीए णिवेसिय प्रवेश्य पुणो पुणो णीहरति परित्यजतीत्यर्थः। इमा णिज्जुत्ती - गंडादिएसु किमिए, पालु-किमिते च कुच्छि-किमिते वा । जो भिक्खू णीहरती, सो पावति प्राणमादीणि ॥१५१०॥ गंडादिएसु व्रणेसु पालुप्रो वा, कुच्छि - किमिए वा, जो भिक्खू णीहरति सो प्राणातिदोसे पावति । णीहरणकप्पोवदरिसणत्थं भण्णति - णिक्कारणे सकारणे, प्रविधि विधी कट्ठमादिगा अविधी । अंगुलमादी तु विधी, कारणे अविधीए सुत्तं तु ॥१५११॥ गिकारणे प्रविधीए, कारणे विधीए । कट्टमादिएहि जति णीहरति तो प्रविधी, अंगुलमादिएहि विधी भवनि । ततियभंगे सुतं, चरिमे सुद्धो । दोसु पाइल्लेसु च उलहुँ । उस्सग्गेणं विधीए अविधीए वा ण णीहरियवा । तेमु विराहिज्जतेसु संजमविराहणा, खते ग्रायविराहणा, तत्थ गिलाणादि प्रारोवणा तम्हा अहियासेयत्वं ॥१५११॥ णच्चुप्पइ तं दुक्खं, अभिभूतो वेदणाए तिव्याए । अहीणो अव्वहितो, तं दुक्खऽधियासए सम्मं ॥१५१२॥ अयोच्छित्ति-णिमित्तं, जीतट्ठीए समाधिहेतुं वा । गंडादीसु किमिए, जतणाए णीहरे भिक्ख ॥१५१३॥ तेसि णीहरणे का जयणा ? पउमे वा, अल्लचन्मे वा । सेसं पूर्ववत् ।।१५१३।। जे भिक्ख अप्पणो दीहाओ णह-सिहायो कप्पेज्ज या संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥०॥४१॥. १ निश्चलः । २८ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ सभाष्य- चूणिके निशीथसूत्रे जे भिक्खु अपणो दीहाई जंघ- रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठवेंत वा सातिज्जति ॥ सू० ॥ ४२ ॥ जे भिक्खपणो दीहाई कक्ख- रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज बा, कप्पेतं वा संठतं वा सातिज्जति ॥ सू०||४३ ॥ जे भिक्ख पण दीहाई मंसु-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठतं वा सातिज्जति ॥ | सू०||४४ ॥ [ सूत्र ४२-६६ जे विक्खू अपणो दीहाई वत्थि - रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठतं वा सातिज्जिति ॥ ० ॥ ४५॥ जे भिक्खु अप्पणी दीहाई चक्खु-रोमाई कप्पेज्ज वा, संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठतं वा सातिज्जति ॥ | सू०||४६॥ १ जे भिक्ख पण दंते श्रासेज्ज वा पर्वसेज्ज वा, संत व पसंत वा सातिज्जति ||सू०||४७ जे भिक्खु अप्पणो दंते उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोवेंतं वा सातिज्जति ॥ सू०||४८ || जे भिक्ख पण दंते फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुमेतं वा रतं वा सातिज्जति ॥ सू० । ४६ ॥ जे भिक्खु अपणो उट्ठे श्रमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ॥सू०||५०|| पलिमद्देज्ज वा, जे भिक्खु अपणो उट्ठे बाहेज्ज वा aa संबार्हतं वा पलिमदेतं वा सातिज्जति ॥ सू० ॥ ५१ ॥ जे भिक्ख अप्पणो उट्ठे तेल्लेण वा घरण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा, मक्तं वा मिलिंगेंतं वा सातिज्जति ॥सू०||५२ ॥ जे भिक्खु अपणो उड्डे लोण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उब्वट्टेज्ज वा, उल्लोलेंतं वा उब्वतं वा सातिज्जति ||०||५३ ॥ जे भिक्खू अप्पणो उट्ठे सीओदग वियडेण वा उसिणोदग - वियडेण वा 'उच्छोलेज्ज वा पधोवेज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोवतं वा सातिज्जति ||०|| ५४ || Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय उद्देशक: जे भिक्खु अप्पणो उट्ठे फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुमेतं वा रतं वा सातिज्जति ॥ a भाष्यगाथा १५१४-१५१४ ] जे भिक्खु अपणो दीहाई उत्तरोट्ठ-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठवतं वा सातिज्जति ||सू०॥ ५६ ॥ ० ॥ ५५ ॥ जे भिक्खू अपणो दीहाई अच्छि - पत्ताई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठतं वा सातिज्जति | | ० || ५७|| जे भिक्खु अपणो अच्छीणि श्रमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, मज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ||सू०५८ || जे भिक्खू अप्पणी अच्छीणि संचाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संघातं वा पलिमतं वा सातिज्जति | | ० ||५६ || जे भिक्खू पण अच्छीणि तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीपण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा, मक्र्खेतं वा भिलिंगतं वा सातिज्जति ||०||६०॥ जे भिक्खू पण अच्छीणि लोद्वेण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उच्चवेज्ज वा, उल्लोलेंतं वा उच्चतं वा सातिज्जति ||सू०||६१ || जे भिक्खू अपणो अच्छीणि सीद्ग-वियडेण वा उसिणोद्ग-वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोतं वा सातिज्जति | | ० || ६२॥ | जे भिक्खू अपणो अच्छीणि फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुमेतं वा रतं वा सातिज्जति | | ० || ६३ | जे भिक्खू अप्पणो दीहाई भुमग-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठतं वा सातिज्जिति | | ० || ६४॥ जे भिक्खू पण दीहाई पास-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठतं वा सातिज्जति ॥ | सू० ||६५ || जे भिक्खू अपणो दीहाई के साई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठवतं वा सातिज्जति ||सू०||६६॥ २१६ जे भिक्खू दीहाम्रो अप्पणो णहा इत्यादि - जाव अप्पणी दोहे केसे कप्पे इत्यादि छवीसं सुत्ता - Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [मूत्र-६६ सुत्तत्थो णिज्जुत्ती य लाघवत्थं जुगवं वक्खाणिज्जति - जे भिक्खु णह-सिहाश्रो, कप्पेज्जा अधव संठवेज्जा वा । दीहं च रोमराई, मंसू केसूत्तरोढुंवा ॥१५१४॥ णहाणं सिहा णहसिहा, नखाग्रा इत्यर्थः । कप्पयति छिनत्ति, संठवेति तीक्ष्णे करोति, चंद्रार्धे सुकतुडे वा करोति । रोमराती पोट्टे भवति, ते दीह कप्पेति, संठवेति, सुविहत्ते अधोमुहे ओउ) लिहति । मंसुचिबुके, जंघासु, गुह्यदेसे वा, छिदति, संठवेति वा । केसे त्ति सिरजे, ते छिदति संठवेति वा । उत्तरो? रोमा दाठियानो वा, ता छिदति संठवेति वा ।।१५१४॥ भमुहाओ दंतसोधण, अच्छीण पमज्जण्णाइगाई वा । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥१५१|| एवं णासिगा-भमुग-रोमे वि। दंतेसु अंगुलीए सकृदामज्जणं, पुणो पुणो पमज्जणं । दंतधोवणं दंतकट्ट, प्रचित्ते सुतं । तेण एक्कदिणं आघसणं, दिणे दिणं पघंसणं । दंते फूमति रयति वा पादसूत्रवत् । अच्छीणि वा पामजति णाम अक्खिपत्तरोमे संठवेति, पुणो पुणो करेंतस्स पमजणा।। ... अहवा - बीयकणुगादीणं सकृत् प्रवणयणे प्रामजणा, पुणो पुणो पमज्जणा । प्रादिसहातो जे अच्छीणि पधोवति । उसिणाइणा पउंछति णाम अंजणेणं अंजेति । अच्छोणि फुमणरयणा पूर्ववत् । विसेसो कणुगादिसु फुमणं संभवति । एवं करेंतस्स प्रागातिविराहणातिया दोसा ॥१५१५।। आमज्जणा पमज्जणं, सइ असइ धोवणं तु णेगविधं । चीपादीण पमज्जण, फुमणासंतं जणे रागो ॥१५१६॥ उक्तार्थाः । पसमिति पसती, चुलुगो भण्णति, दबसंभारकयं पाणीयं । तं जुलुगे छोढं, तत्य णिवुडं अच्छिंधरेति, ततो उच्छुडु फुमति रागो लग्गति, अंजियं वा फुमति रागो लगति । ग्रहवा - पसमिति दोहि तिहिं वा णावापूरेहि प्रच्छिं धोवति, ततो अंजेति, ततो फुमति - रागो लग्गति ।।१५१६।। इमे दोसा - आत-पर-मोहुदीरण, बाउसदोसा य सुत्तपरिहाणी। संपातिमातिघातो, विवज्जते लोगपरिवाओ ॥१५१७॥ पूर्ववत् बितियपदं सामण्णं, सब्बेसु पदेसु होज्ज ऽणाभोगो। मोह-तिगिच्छाए पुण, एतो विसेसियं वोच्छं ॥१५१८॥ णहसिहातितो सन्वे सुत्तपडिसिद्धे प्रत्ये प्रणाभोगतो करेज, मोह-तिगिच्छाए वा करेज । प्रतो परं 'तेरसपयाण पइ अवसेपियं वितियपदं भण्णति ॥१५१८॥ १ छवीस । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा १५१५-१५२२] तृतीय उद्देशकः २२१ चंकमणमावडणे, लेवो देह-खत असुइ णक्खेसु । वण-गंड-रतिअंसिय, भगंदलादीसु रोमाई ॥१५१६।। चंकमतो पायणहा उपल-खाणुगादिसु अप्फिडंति। पडिलोमो वा भज्जति । हत्यणहा वा भायणे लेवं विणासेंति । देहं सरीरं, तत्य खयं करेज्ज । ताहे लोगो भणेन-एस कामी, अविरइयाए से णहपया दिण्ण ति । एयदोसपरिहरणत्यं छिदंतो सुद्धो। संठवणं क्रमतादिणा घसति । लोगो य भणति - दोहणहंतरे सण्णा चिट्ठति ति असुइणो एते । मवि य पायणहेसु दीहेसु अंतरंतरे रेणू चिट्ठति, तीए चक्खु उवहम्मति । व्रण - गंड - परइयंसि - भगंदरादिमु रोमा उवघायं करेंति, लेवं वा अंतरेंति, प्रतो छिदति संठवेति वा ॥१५१६।। दंतामय दंतेसु, णयणाणं श्रामया तु णायणेसु । भुमया अच्छि-णिमित्तं, केसा पुण पश्वयंतस्स ॥१५२०॥ ___ दंतेसु दंतामयो दंतरोगो, तत्थ दंतवणातिणा प्रासंति । एवं णयणामये वि णयणे धोवति, रयति, फुमति वा । भमुगरोमा वा प्रतिदीहा, अइमहल्लत्तणेण य अच्छीस पडते छिदति संठवेति वा । पन्धयंतस्स प्रतिदीहा केसा, लोगो काउं ण सक्केति, सिररोगिणो वा केसे कपिज्जति ॥१५२०।। जे भिक्खू अप्पणो कायाओ सेयं वा जल्लं वा पंकं वा मलं वा नोहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, नीहरतं वा विसोहेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥६७॥ जे भिक्खू अप्पणो अच्छिमलं वा कण्णमलं वा दंतमलं वा नहमलं वा णीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, णीहरेंतं वा विसोहेंत वा सातिज्जति ॥१०॥६॥ सेयो प्रस्वेदः स्वत्थः ( च्छ ) मले ( ल ) छि ( थि ) ग्गलं जल्लो भणति । एस एव प्रस्वेद उल्लिउतो पंको भणति, अण्णो वा जो कद्दमो लग्गो। मलो पुण उत्तरमाणो, अच्छो रेणू वा । सकृत् उवट्टणं, पुणो पुणो पन्चट्टणं कक्काइणा वा।। जे भिक्खू अच्छिमलं वा इत्यादि अच्छिमलो दूसिकादि। कण्णमलो कण्णगूषा (ला) ति । दंतकिणो दंतमलो । णहमलो णहविच्चरेणू । णोहरति प्रवणेति, असेस विसोहणं । सेयं वा जल्लं वा, जे भिक्खू णिहरेज्ज कायातो। कण्ण-च्छि-दंत-णह-मल, सो पावति प्राणमादीणि ॥१५२१॥ पढमसुत्तत्थो पुवढेण, बितियसुत्तत्थो पच्छद्धेण । प्राणादिया दोसा, प्रायविराहणा, पमत्तं देवता छलेज्ज, अप्परुतीए वा बाउसदोमा भवंति । सुत्तत्थेसु य पलिमंथो ॥१५२१॥ जल्लो तु होति कमढं, मलो तु हत्थादि घट्टितो सडति । पंको पुण सेउल्लो, चिक्खलो वा वि जो लग्गो ॥१५२२।। खरंटो उ जो मलो तं कमढं भणति । सेसं कंठं ॥१५२२॥ बितियपदमणप्पज्झे, णयणवणे ओस धामए चेव । मोह-तिगिच्छाए पुण, णीहरमाणो णतिक्कमति ॥१५२३।। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ सभाष्य-चूणिके निशीयसूत्रे [ मूत्र-६८ मणप्पज्झो खित्तचित्तादि, सव्वे उन्वट्टणादि अववाय पदे करेज । णयणे वा दूसिनो, बद्धो मच्चिरोगेण वा किंचि प्रच्छीमो उद्धरियञ्च । सरीरे वा धूणो, तस्स पन्भासे मलादि फेडिज्जति, मा तेण वणो दरिमहिति । अहवा - कच्छू दद्द, किडभं प्रणो वा कोति प्रामयो, स प्रोसहेहिं उन्वद्विज्जति । मोह - तिगिच्छाए वा, पुणो विसेसणे अण्णहा मोहो गोवसमति ति एवं विसे मेइ ति। एवं करेंतो घम्म मेरं माणं वा णातिकम्मति ॥१५२३॥ जे भिक्खू गामाणुगामं दूइज्जमाणे अप्पणो सीसवारियं करेति, करेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥६६॥ मासकप्पो जत्थ कतो ततो जं गम्मइ तं गामाणुगाम । एत्थ अणुसद्दो पच्छाभावे । अधवा - गच्छतो अग्गतो अणुकूलो गामो गामाणुगामो। दोसु सिसिर - गिम्हेसु रीइज्जति दुइज्जति, दोसु वा पदेसु रीइज्जति । सीसस्स प्रावरणं सीस दुवारं । अहवा - सीसस्स एगं दुवारं 'सीसदुवारिया । अप्पणो अप्पणा जो करेति तस्स मासलहुं । भिक्ख-वियार-विहारे, दूतिज्जंतो व गामणुग्गामि । - सीसदुवारं भिक्खू , जो कुज्जा आणमादीणि ॥१५२४॥ भिक्खं हिंडतो वियारं सप्णभूमि गच्छंतो, एएसु जो सीसदुवारियं करेति सो प्राणातिदोसे पावति । सीसवारियाए उत्रकरणभोगविवच्चासो । विवच्चासभोगे इमे पगारा पच्छित्तं च ।।१५२४॥ खंधे दुवार संजति, गरुलऽद्धंसो य पट्ट लिंगदुवे । लहुओ लहुओ लहुया, तिसु चउगुरु दोसु मूलं तु ॥१५२५॥ चउप्फलं मोक्कलं वा खंधे करेति, दुवार इति सीसदुवारिया करेति, दो वि बाहाम्रो छाएंतो संजतिपाउरणेण पाउणति, एगतो दुहतो वा कप्पच्चला खंधारोविया गरुलपक्ख पाउणति, अद्धसो उत्तरासंगो, पट्ट इति चोलपट्टे बंधति, लिंगदुर्ग - गिहीलिंग अशा उत्थियलिगं वा करेइ । एतेसु जहासंखं इमं पच्छितं - लहुगो वा पच्छद्धं । अकारणे भोगविवच्चासं करेंतस्स एवं पच्छित्तं ॥१५२५॥ अहवा - परिभोगविवच्चासो, लिंगविवेगे | छत्तए तिविधे। गिहिपंत-तक्करेसु य, पञ्चावाता भवे दुविहा ॥१५२६॥ सीसदुवारे परिभोगविवच्चासो भवति । उवकरणणिप्फणं साहुलिंगविवेगो भवति । छत्तयकरणं च भवति । गिहिपंता साहुभद्दगा जे तक्करा गिहि ति काउं मुसंति । इहलोइय - परलोइया दुविधा पचवाया भवति । अहवा - प्राय - संजमविराहणा । गिहि-पंत - तबकरेहिं प्राहम्मति प्रायविराहणा। विवच्चासभोगे संजमविराधणा ।।१५२६॥ १३. मस्तक -अवगुण्ठन अथवा चूंघट । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ माणवाचा १५२१-१५३० ] तृतीय उद्देशक: छत्तए तिविधे त्ति चउफल पोत्तिं सीसे, बहु पाउरणं तु वितिययं छत्तं । हत्थुक्खित्तं वत्थं, ततियं छत्तं च पिंछादी ॥१५२७|| उप्फलं कप्पं सिरे करेति । बहुपाउरणं णाम अंगुट्ठि करेति, एयं बितियं छत्तं । हत्थुक्खित्तदंडए वा काउं घरेति, तइअयं छत्तयं । अहवा - दो पुवुत्ता, ततियं पिच्छातिछत्तयं घरेति । जम्हा एते दोसा तम्हा णो सीसवारियं करे ॥१५२७॥ कारणे करेज्ज वि - बितियपदं गेलण्णे, असहू सागारसेधमादीसु । अद्धाणे तेणेसु य, संजत-पंतेसु जतणाए ॥१५२८॥ गिलाणो उण्हं ण सहति । कण्णा वा से तस्स भरिति । रायाति दिक्खितो वा असहू धारयति। सहास वा सागारियं ति काउं अंगुट्टुिं करोति । आदिसद्दातो असेहो वि पडिणीयस्स अण्णस्स वा संकता जातिमाति जुंगितो करेति । प्रद्धाणे वा उण्हं ण सेहेज्ज । तिसियो वा, संजयपंतेसु वा तेणेसु अंगुढेि करेति । अयणाए त्तिसलिंगोवहिणा सीसदुवारे कए णज्जति तो गिहि-कासायमादिवत्यं घेत्तुं करेति । एवं जहा म णज्जति तहा तहा करेति । एस जयणा ॥१५२८॥ जे भिक्खू सण-कप्पासो वा उण्ण-कप्पासो वा पोंड-कप्पासो वा अमिल-कप्पासो वा वसीकरण-सोत्तियं करति, करेंतं वा सातिज्जति ॥०॥७॥ सणो वणस्सतिजाती, तस्स वागो कच्चणिजो कप्पासो भण्णति, "उण्ण" त्ति लाडाणं गड्डरा भणंति, तस्स रोमा कच्चणिज्जा कप्पासो भण्णति । अहवा- उण्णा एव कप्पासो उण्णा कप्पासो। पोंडा वमणी तस्स फलं, तस्स पम्हा कच्चणिज्जा कप्पासो भण्णति । प्रवसा वसे कीरंति जेणं तं वसीकरणसुत्तयं, सो. पुण दोरो बेण वासे कोरइ उवकरणं बझति त्ति वुत्तं भवति । वसिकरण-सुत्सगस्सा, अंछणयं वदृणं व जो कुज्जा । बंधण-सिव्वणहेतुं, सो पावति प्राणमादीणि ॥१५२६।। सचित्ताचित्तदव्वा जेण वसीकीरते ते वसीकरणसुत्तयं जो करेति । अंछणं णाम - पण्ह ( म्ह) पसिरणं, बट्टणं णाम दो तंतू एक्कतो वलेति, जहा सिव्वणदोरो, सिक्कमदोरो वलणं वा वट्टणं, पम्हाए वा भंगो वट्टणं, उवकरणाति बंधणहेउं फट्टस्स वा सिव्वणहेउं । सो प्राणाती दोसे पावति ॥१५२६॥ अवसा वसम्मि कीरंति, जेण पसबो वसंति व जता ऊ। अंछणता तु पसिरणा, वट्टण सुत्ते व रज्जू वा ॥१५३०॥ पसो गवाती, संजया ण तडप्फडे, जया बसंति, पसरणं पण्हाए, बट्टणं सुते वा रज्जुए वर ॥१५३०॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्र तट्टणं वा करेंति जीवाण होति अविवातो । ऊरु य हत्थ छोडण, गिलाण रोवणायाए । १५३१ ॥ छवट्टणा संपतिमातिपाणा प्रइवाइज्जति, ऊरं वा छोडिज्जति छगिज्जति ति वुत्तं भवति, हत्या वा छणिज्जति, फोडगा वा भवति, तत्थ ग्रायविराहणा गिलाणारोवणा य ।। १५३१ ।। कारणा करेज्ज - श्रद्वाण णिग्गतादी, भामिय वृठे व तेणमादीमु । दुल्लभसुते असती, जतणाए कप्पती कातुं ॥। १५३२ ।। अद्धाणिग्गताती, आदिसद्दातो - पवेसे श्रद्धाणे ठिया वा श्रादिमहाम्रो प्रसित्रग्रोमा दुलोवकरण संचण सिन्वण- सिक्कगादिहेउं वा एवं झामिते उवकरणे, णतीपूरेण वा वा हरिते श्रादिमश्री डिणीए वा एतेहि कारणेहि अहाकडं घेत्तव्वं । दुल्लभसुत्ते देसे अरणातिमुवा असती गत्यि मुत्तं जयणाए अपणा काउं कप्पति । पुत्र्वं पेलू पिंजतो रूयं कप्पासो एस जयगा । अहवा - पगगहाणी जाहे मासियं पत्तो ताहे पसरणानि करेति ।। १५३ ।। जे भिक्खु हिंसि वा गिह-मुहंसि वा गिह-दुवारियंसि वा गिह-पडिदुवारियंसि वा गिहेलुयंसि वा हिंगणंसि वा गिह- वच्चंसि वा उच्चारं वा पासवणं वा परिवेति, परिवेतं वा सातिज्जति । मू०||७१ || थंडिल - तिविहुत्रघातिं, गिह तस अगणी य पुढविसंबद्ध | आऊवस्तीए, विभासितव्यं जधा सुते || १५३३|| [ सूत्र ७१-७४ थंडिलं तिविहोवघातियं आय पत्रयण संजमं । गिहे श्राउवघाओ, तस अणि विउवसति संबद्धं संजमोवघातितं । विभाषा, विस्तारेण कर्तव्या । जहा सुत्तं यावारवितियमुत्तस्व थंडिलसत्तिक्कए || १५३३॥ इमो सुत्तत्थो - तो हिं खलु हिं, कोट्टगसुविधी व गिहमुहं होति । अंगणं मंडवथाणं, अग्गदारं दुवारं तु || १५३४ ।। रस्स तो गिन्भंतरं गिहं भणति । गिह गहणेण वा सव्वं चेव घरं घेप्पति । कोटु - मिलिंदो, सुविही-ब (छ) द्दारुप्रालिदो, एते दो वि गिहमुहं । हिस्स अग्गतो भावग अंगणं भणति । श्रग्गदारं पवेसितं तं गिहदुवारं भण्णति ।। १५३४।। . गिहवच्चं परंता, पुरोहडं वा वि जत्थ वा वच्चं । गाद्धं हिस्स समंतततो वच्चं भाति । पुरोहडं वा वच्चं पत्थं ति वृत्तं भवति । जत्था वा वच्च करेंति, तं वच्च सणाभूमी भण्ाति । जे भिक्खु मडग - हिंसि वा मडग-च्छारियंसि वा मडग-धूभियंसि वा मडग आसयसि वा मडग- लेणंसि वा मडग - थंडिलंमि वा Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा १५३१-१५३८ 7 इ तृतीय उद्देशकः मडग- वच्चंसि वा उच्चारं पासवणं परिद्ववेइ, परिट्ठतं वा सातिज्जति ||०||७२॥ तत्थ मडगगहा मेच्छाणं, धूभा पुण विच्चगा हांति || १५३५ ॥ छारो तु पुंजकडो, छारचिता विरहितं तु थंडिल्लं । वच्चं पुण पेरंता, सीताणं वा वि सव्वं तु ॥ १५३६॥ मडगगिहं णाम मेच्छाणं घरब्भंतरे मतयं छोढुं विज्जति, न उज्झति, तं मडग-1 - गिहं । श्रभिणव-दड्डू अपुंजकयं छारो भण्णति । इट्टगादिचिया विच्चा थूभो भण्णति । मडाणं श्राश्रयो महाश्रय स्थानमित्यर्थः । मसाणासणी प्रणेत्तुं मडयं जत्थ मुच्चति तं मडासयं । मडयस्स उर्वारिं जं देवकुलं त लेगं भणति । छारचितिवज्जितं केवलं मडयदट्ठाणं थंडिलं भण्णति । मडयपेरंतं वच्चं भष्णति । सव्वं वा "सीताणं सीताणस्स वा पेरंतं वच्चं भण्णति ।। १५३६ ।। जे भिक्खू इंगाल- दाहंसि वा खार- दाहंसि वा गात दाहंसि वा तुस- दाहंसि वा ऊस - दाहंसि वा उच्चारं वा पासवणं वा परिट्ठवेइ परिद्ववेंतं वा सातिज्जति ||सू०||७३ || इत्थ - इंगाल - खार - डाहो, खदिरादी वत्थुलादिया । गोमादिरोगसमणो, दहंति गत्ते तहिं जासि || १५३७॥ खइराती इंगाला, वत्थुलमाती खारो, जरातिरोगमरंताणं गांख्यणं रोगपसवणत्थं जत्थ गाता उज्झति तं गात - दाहं भण्णति । कुंभकारा जत्य बाहिरभो तुसे डर्हति तं तुसडाहठाणं । प्रतिवर्षं खलगट्टाणे जय भुसंहति तं भुसडाहठाणं भण्णति ।। १५३७ ।। २२५ जे भिक्खु अभिणवियासु वा गोलेहणियासु अभिणवियासु वा मट्टियाखाणिसु वा परिभुज्जमाणियासु वा अपरिभुज्जमाणियासु वा उच्चारं वा पावणं वा परिद्ववेति, परिद्वर्वतं वा सानिज्जति || मू०||७४ || इमो तथ - ऊसत्थाणे गाओ, लिर्हति भुंजंति अभिणवा सा तु । अचियत्तमण्णलंहण, एमेव य मट्टियाखाणी ॥ १५३८ || जत्थ गावो ऊसत्थाणा लिहति, सा भुजमाणी णिरुद्धा ण वा भण्गति । तत्थ दोसा - सचित्तमीसो १ स्मशान । २ प्रायः । २६ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [सूत्र ७५-८. पुढविकायो, चियत्तं गोसामियस्स वा। ण वा तत्य गावो लेहवंति अंतरायदोसो, अण्णत्थ वा लेहवेति पुढविवहो। मट्टियाखाणीए वि सच्चित्तमीसा पुढवि, जणवयस्स वा प्रचियत्तं, अणां वा खाणीं पवत्तेति ॥१५३८॥ जे भिक्खू सेयाययणंसि वा पंकसि वा पणगंसि वा उच्चार वा पासवणं वा परिद्ववेइ, परिदुवेतं का सातिज्जति ॥२०॥७॥ इमो सुत्तत्थो - पंको पुण चिक्खल्लो, पणो पुण जत्थ मुच्छते ठाणे । सेयणपहो तु णिक्का, सु(मु)क्कंति फल जहिं वच्चं ॥१५३६॥ सचित्ताचित्तविसेसणे पुण सद्दो । प्रायतनमिति स्थानं । पणो उल्ली। सो जत्य ठाणे समुच्छति तं पणगट्ठाणं । कद्दमबहुलं पाणीयं सेो भण्णति, तस्स प्राययणं णिक्का ॥१५३६॥ जे भिक्ख उंबर-वच्चंसि वा णग्गोह-वच्चंसि वा असत्थ-वच्चंसि वा उच्चार वा पासवणं वा परिवेइ, परिहवेंतं वा सातिज्जति|सू०||७६।। जे भिक्खू 'डाग-वच्चंसि वा साग-बच्चंसि वा मूलय-वच्चंसि वा कोत्थुबरि-बच्चंसि वा खार-वच्चंसि वा जीरय-वच्चंसि वा दमण (ग) वच्चंसि वा मरुग-वच्चंसि वा उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ,परिहवेंतं वा सातिज्जति।।सू०॥७७॥ जे भिक्खू इक्खु-वणंसि वा सालि-वर्णसि वा कुसुंभ-वणंसि वा कप्यास-वर्णसिवा उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ, परिहवेंतं वा सातिज्जति ॥०॥७॥ जे भिक्खू अमोग-वणंसि वा सत्तिवण्ण-वणंसि वा चंपग-वर्णसि वा चूय-वणंसि वा अन्नयरेसु वा तरुप्पगारेसु वा पत्तोवएसु पुप्फोवएसु फलोवएसु बीओवएसु उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ. परिट्ठवेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥७६।। उंबरस्स फला जत्थ गिरिउडे उच्चविज्जति तं उंबरवच्चं भण्णति । एवं णग्गोहो वडो, मसत्योपिप्पलो, पिलक्खू पिप्पलभेदो, सो पुण इत्थयाभिहाणा पिप्पली भण्णति ॥१५३६।। एतेसामण्णतरं, थंडिल्ले जो तु वोसिरे भिक्खू । पासवणुच्चारं वा, सो पावति आणमादीणि ॥१५४०॥ कंठा एते पुण सम्वे वि थंडिला देशाऽऽहिंडकेन जनददप्रसिद्धा ज्ञेया। तिविधे उवधाए पाउंति । आया संजम पवयण, तिविधं उवघाइयं तु णातव्वं । गिहमादिंगालादी, सुसाणमादी जहा कमसो ॥१५४१।। १ डागो, पत्रसागो। २ तहप्पगारेसु । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्याचा १५३९-१५४५ ] तृतीय उद्देशकः २२७ गिहे भाउवाघातो। तं गिहं अपरिग्गहेतरं वा । अपरिगहे मासलहुँ, सपरिग्गहे चउलह, मेव्हण-कढणादयो दोसा । एवं मडगातिसु वि सुसाणमातिएसु पवयणोवघातो, प्रसुतिठाणासेविणो एते कापा - लिका इव । चउलहु पवसेसा प्रायसो संजमोवघातिणो उवउज्ज अप्पणा जो जत्थ उवघातो सो तत्थ वत्तव्यो ॥१५४१॥ इमे दोसा छड्डावण पंतावण, तत्थेव य पाडणादयो दिढे । अदिद्र अण्णकरणे, कायाकायाण वा उवरि ॥१५४२॥ ___गिहातिविरुद्धठाणे वोसिरंतो छड्डाविज्जति, पंताविज्जति वा, तत्थ वा पाडेइ, एते दिढे दोसा। प्रदिढे पुण अण्णं इंगालातिदाहट्ठाणं करेंति, कायविराहणा भवंति, तं वा सणं कायाण उवरि छड्डेति।।१५४२।। बितियपदमणप्पज्झे, प्रोसण्णाइण्ण-रोहगद्धाणे । दुब्बल-गहणी गिलाणे, जयणाए वोसिरेज्जाहि ॥१५४३।। प्रणप्पज्झे खित्ताती, भोसणमिति चिराययणं अपरिभोगट्टाणं, पाइण्णं पायरियं सव्वो जणो जत्व वोसिरति । रोहगे वा अण्णं पंडिलं णत्थि, प्रद्धाण पडिवण्णो वा बोसिरति, दुब्बलगहणी वा अण्ण थंडिनं गंतुं न सक्केति, गिलाणो वा जं अप्पदोसतरं तत्थ वोसिरति । एस जयणा । अधवा - अण्णो अवलोएति, अण्णो वोसिरति । पउर - दवेणं कुरुकुयं करेति ॥१५४३॥ जे मिक्खू सपायंसि वा परपायंसि वा दिया वा राम्रो वा वियाले वा उब्बाहिज्जमाणे सपायं गहाय परपायं वा जाइत्ता उच्चारं पासवणं वा परिहवेत्ता अणुग्गऐ सूरिए एडेइ; एडतं वा सातिज्जति; तं सेवमाणे आवज्जति मासियं परिहारट्ठाणं उग्धातियं ।।सू०॥८० राठ ति संज्मा, वियाले ति संज्झावगमो, तत्प्राबल्येन बाधा उब्बाहा, अप्पणिज्जो सणामत्तमो सगपाय भण्णति । अप्पणिज्जस्स प्रभाव परपाते वा जाइत्ता वोसिरह । परं अजाइउं वोसिरंतस्स मासलहु, भणुग्गए सूरिए छड्डेति मासलहु, मत्तगे णिक्कारणे वोसिरति मासुलहुँ। णिज्जुत्ती णो कप्पति भिक्खुस्सा, णियमत्ते तह परायए वा वि । वोसिरिऊणुच्चारं, वोसिरमाणे इमे दोसा ॥१५४४|| णियमत्तए परायत्तए वा णो कप्पति भिक्खुस्स वोसिरिउ ॥१५४४॥ जो वोसिरति तस्स इमे दोसा - सेहादीण दुगुंछा, णिसिरिज्जंतं व दिस्सगारी णं । उड्डाह भाण-भेदण, विसुया वणमादिपलिमंथो ॥१५४५।। संहो गंघेणं वा दळूण वा विपरिणमेज्ज, दुगुंछ वा करेज्ज, इमेहिं हड्डसरवखा वि जिता। पारिको वाणिसिरिज्जतं दटुं उड्डाहं करेज्ज - महो इमे भसुइणो सव्वलोगं विट्टालेति । भाणभेयं Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [ सूत्र-८० करेज्ज । उदिते प्राइच्चे जाव परिटुवेति। विसुप्रावेति त्ति-जाव - उव्ववेति वा ताव सुत्तत्ये पलिमंथो भवति । मादिसद्दातो परेण दिढे संका, भोतिगादिपसंगो॥१५४५।। चोदगाह - एयं सुत्तं अफलं, अत्थो वा दो वि वा विरोधणं । चोदग! दो वि असत्था, जह होंति तह णिसामेह ॥१५४३॥ सुत्ते वोसिरणं न पडिसिद्ध, तुमं पुण प्रत्येण पडिसेहेसि । एवं एगतरेण प्रफलेण भवितव्वं । दोवि परोप्परं विरोधेण ठिता । आयरियाह – "चोदग", पच्छद्धं । कंठं ॥१५४६।। सुत्तं कारणिय । के ते कारणा? इमे गेलण्णमुत्तमढे, रोहग-अद्धाण-सावते तेणे। दीहे दुविथ रुयादे (ए), कहग दुग अभिग्गहा सण्णो ॥१५४७।। गिलाणा काइयसण्णाभूमी गंतुं ण तरंति, प्रणासगमुत्तमट्ठ तं पडिवण्णो ण तरति गतुं, रोषगे काइयसण्णाभूमी पत्थि सागारियपडिबद्धा वा, अद्धाणे सचित्ताती पुढवी, राम्रो वा वसहीअो णिग्गच्छतस्स सावयभयं । एवं तेण-दीह-जाइयभयं पि । पमेहे मुत्त - सक्कराए य एयाते दुविह - रुयाए पुणो पुणो वोसिरति । मणिमोगकरणे धम्मकहणे य। अभिग्गहे - मोयपडिम पडिवण्णो । भावसण्णो वा काइयसण्णाभूमी गंतुं ण तरति ॥१५४७॥ अप्पे संसत्तम्मि य, सागरऽचियत्तमेव पडिबद्ध । पाणदयाऽऽयमणे वा, वोसिरणं मत्तए भणितं ॥१५४८॥ अप्पा काइयभूमी, संसत्ता वा काइयभूमी, साधुस्स वा बाहिरे सण्णायगादि सागारियं, सेजायरस्स वा अंतो वोसिरिज्जमाणे प्रचियत्तं, इत्थीहिं वा समं भावपडिबद्धा काइयभूमी, पाणदयट्ठा वा, वासमहियासु पडंतीसु । विज्जाए उवयारो, काइयाए मायमियव्वं काउं। एतेहिं कारणेहिं मत्तए वोसिरिउं बाहिं जयणाए उतिते सूरिए पट्टवेति ॥१५४८॥ 'अभिग्गह - २अप्प-दाराणं इमा दोण्ह वि व्याख्या - आभिग्गहिय त्ति कए, कहणं 'पुण होति मोयपडिमाए । अप्पो त्ति अप्पमोदं, मोदभूमी वा भवति अप्पा ॥१५४६॥ पुव्वद्धं कंठं । अप्पमिति मोतं, अप्पं पुणो पुणो भवति काइयभूमी वा अप्पा तेण मत्तए वोसिरति ॥१५४६।। एतेहिं कारणेहिं, वोसिरणं दिवसतो व रत्ती वा । पगतं तु ण होति दिवा, अधिकारो रत्ति वोसट्टे ॥१५५०॥ इह सूत्रे दिवसतो णाधिकारो, रातो वोसिरितेणाहिकारो १५५०॥ १ गा० १५४७ । २ गा० १५४८ । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १५४६-१५५ तृतीय उद्देशकः २२६ सग-पायम्मि य गतो, अधवा पर-पायगंसि जो भिक्खू । उच्चारमायरित्ता, सूरम्मि अणुग्गए एड़े ॥१५५१।। ___ कंठा । उच्चारो सण्णा, पासवणं कातिया। जो राम्रो वोसिरिउ अणुग्गए सूरिए परिढुवेति तस्सेयं सुत्तं ॥१५५१।। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं तहा दुविधं । पावति जम्हा तेणं, सुरम्मि अणुग्गए एडे ॥१५५२।। कंठा रातो परिढुवेंतस्स इमे दोसा - तेणारक्खियसावय-पडिणीय-णपुंस-इत्थि-तेरिच्छा। ओहाणपहि वेहाणसे य वाले य मुच्छा य ॥१५५३॥ रामो णिग्गयो तेणारविखएहिं घेप्पेज्ज, सीहमारणा वा सावतेहिं खज्जेज्जा, पडिणीमो वा पडियरिउ राम्रो प्रप्पसागारिते पंतावेज्ज, पडिणोपो वा भोज - एस चोर पारदारियो त्ति जेण राम्रो णिग्गच्छति । णपुंसगो वा रातो बला गेण्हेज्ज, इत्थी वा गेण्हेज्जा । अहवा - अहाभावेणं साधू इत्थी य जुगवं णिगता तत्य संकाइया दोसा। एवं महासद्दिया दितिरिक्खिए वि संकेज्ज । अधवा - णपुंस-इत्थी-तिरिच्छीए वा कोति प्रणायार सेवेज्जा। प्रोहाणपेही वा दिवसतो छिदं मलभमाणो रातो समाहिपरिढवणलवखेण - प्रोहावेज्जा। एवं वेहाणसं पि करेज्जा । सप्पातिणा वा वालेण - खइतो ण तरति प्रक्खाउं, मुच्छा वा से होज्ज । जम्हा एते दोसा तम्हा ण परिट्टवेयव्वो समाहिमत्तग्रो अणुग्गए सूरिए । कारणे पुण अणुग्गते नि परिवेति ॥१५५३॥ बितियपदे सागारे, संसत्तप्पेव्व णाण हेतु वा। एतेहिं कारणेहिं, सरम्मि अणुग्गए एडे ॥१५५४।। उग्गऐ सूरिए परिटुवेज्जमाणे सागारियं भवति, अंतो काईयभूमी अप्पा, संसत्ता वा, ताहे दिवसतो वि मत्तए वोसिरिउ राम्रो प्रप्पसागारिते बाहिं परिदृविज्जति । उग्गते सूरिते जाव परिवेति विसुवावेति वा ताव सुत्तपलिमंथो महंतो भवति ति अणुग्गए सूरिए परिवेति, परेवेतो सुद्धो भवतीत्यर्थः ।।१५५४।। ॥ इति विसेस-निसीहचुण्णीए ततिओ उद्देसओ समत्तो ।। Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ उद्देशकः ------ -- ------- उक्तस्तृतीयोद्दे शक इदाणि चतुर्थः । तस्यायं संबंधः - पासवण-पडण णिसिकज्ज-णिग्गतो गोमियादि गहितम्मि । तं मोयणटुताए, रायं अत्तीकरणमादी ॥१५५शा पासवां का इया, तस्स पडणं ति वा उज्झणं ति वा एगलैं, णिसी रात्री, एतेण कारणेणं रामो णि गतो. गोमिया दंडवामिया तेहि धेप्पेज्ज, तदित्यनेन साधु संबध्यते, तस्स मोयणटुताए रायाणं पात्मीकरोति । प्रादिसदातो अच्चीकरणमादिसूता सूइया ।।१५५५।। जे भिक्ख रायं अत्तीकरेइ करेंतं वा सातिज्जति ॥स०॥१॥ . अत्तीकरणं रण्णो, साभावित कइतवं च णायव्वं । पुवावरसंबद्ध, पञ्चक्ख-परोक्खमेक्केक्कं ॥१५५६।। तं पण प्रत्तीकरणं दुविध - साभावियं कतितवियं च । साभावितं संतं सच्चं चेव, सो तस्स मय गिज प्रो । कैतवं पुण प्रलियं। तं पुणो एक्के वकं दुविधं-पुत्र 'संथुता वा, प्रवरमिति पच्छासंबद्धं वा। त पुणो दुविध - पच्चवस्वं परोक्वं च । पच्चवखं सयमेव करेति, परोक्खं अण्ण कारवेति । ग्रहवा - राज्ञः समक्ष प्रत्यक्षं, अन्यथा परोक्ष भवति ॥१५५६।। मंते पच्चक्ख-परोक्खे इमं भण्णति - रायमरणम्मि कुल-घर-गताए जातोमि अवहिताए वा । निवासियपुत्तो व मि, अमुगत्थ गतेण जातो वा ॥१५५७।। र'याण मने देवी प्रावण सत्ता कुलघरं गया, तीसे प्रहं पुत्तो जहा खुड्डगकुमारो । भवहियाए य जहा प उमावतीए करकंडू कोइ रायपुत्तो णिच्छूढो । अण्णत्थगतेणं तेणाहं जातो, जहा अभयकुमारो। प्रमुगत्य गएण र ष्णा प्रहं जातो, जहा वसुदेवेण जराकुमारः । उत्तरमहुराणिएण वा अण्णियपुत्तो .।१५५७।। मत परकरणं कह संभवति ? दुल्लभपवेस लज्जालुगो व एमेवऽमच्चमादीहिं । पच्चक्ख-परोक्खं वा. कारेज्जा संथवं कोयी ॥१५५८|| १बद्ध । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १-६ तत्थ रायकुले दुल्लभो पवेसो, लज्जालुओो वा मो साधू, अपणो असत्तो प्रत्तीकरणं काउं ताहे श्रमच्चमातीहि कारवेति । "एमेव गहणातो असंतं संवज्झति ।" एते चैव कुलघरातिकारणा कोति जहाविजाणतो पच्चक्खं परोवखं संथवं करेज, श्रमच्चमादीहिं वा कारवेज्ज ।। १५५८ । । २३२ एतो एगतरेणं, अत्तीकरणं तु संतऽसंतेणं । अत्तीकरेति रायं, लहु लहुगा आणमादीणि || १५५६ ।। संते पच्चकखे परोक्खे वा मासलहुं, असंते पच्चवखे परोकखे वा चउलहु, आणाइणो य दोसा, गुलोमे पडिलोमे वा उवसग्गे करेज्ज | ११५५६ ॥ राया रायसुही वा, राया मित्ता मित्तसुहिणो वा । व तं सोच्चा || १५६० ॥ भिक्खुस्स व संबंधी, संबंधिमुही सयमेव राया, राज्ञः सुहृदः, ते पुनः स्वजना मित्रा वा राज्ञो, अमित्रा ते स्वजना दायादा प्रस्वजना वा केनचित् कारणॆन विरुद्धा, अमिताण वा जे सुहिणो साधुस्स वा जे संबंधिणो, ताण वा संबंधीण जे सुही, ते तं सोच्वा दुविहे उवसग्गे करेज्ज ।। १५६०।। संजमविग्घकरे वा, सरीरबाहा करे व भिक्खुस्स । लोमे पडिलोमे, कुजा दुविधे व उवसग्गे ॥ १५६१।। संजम विग्धकरे वा उवसग्गे सरीरबाहाकारके वा करेज्ज । जे संजमविग्धकरा ते अणुकूला, इतरे पढिकूला । एते दुविहे उवसग्गे करेज्ज ।। १५६१।। तत्थिमे अणुकुला - सातिज रजसिरिं, जुवरायत्तं व गेण्हसु व भोगे । इति राय तस्सुहीसु व उट्ठेजितरे यतं घेत्तुं ॥ १५६२।। राया भगति - रज्जसिरि साइज्जसु ग्रहं ते पयच्छामि, जुगराइतं विसिट्ठे वा भोगे गेण्हसु, "इति”. उपप्रदर्शने । राया एवमाह, तस्य सुहृदः तेप्येवमेन आहुः । " इतरे" त्ति जे रण्णो पडिणीया पडिणीयाण वाजे सुहिणो, ते तं उप्पन्नावेउं घेत्तुं वि उत्थागं करेज्जा उड्डमरं करेंतीत्यर्थः ।। १५६२ ।। सुहिणो व तस्स वीरियपरक्कमे पातु साहए रण्णो । तोसेही एस णिवं, अम्हे तुण सुट्ट पगणेति || १५६३।। जे पुण भिक्खुमुहिगो ते तस्स साहुस्स वीरियबलपरिक्कम गाउं उप्पब्वावेति साहेति वा रण्णी, सो तं उप्पव्वावेइ । ते पुण किं उपब्धावति ? एस रायाणं तोसेहिति ति, अम्हे राया ण मुट्ठ पगनेति ।।१५६३॥ इमे सरीरवाहाकरा पडिला उवसग्गा मोम धिमुंडिएण कुजा व रञ्जविग्धं मे । एमेव मही दरिमते विप्पदोतरे मारे || १५६५ || Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १५५६ चतुर्थ उद्देशक: राया भणति-प्रहो इमेण समणेण महायणमझे प्रोभामिनो धिक् मुंडितेन दुरात्मना य एवं भाषते। अहवा - एष भोगाभिलाषी मम परिसं निदिउं रज्जविग्धं करेज्ज । तं सो राया हणेज्ज वा, विधेज्ज वा, मारेज्ज वा, रणो जे सुद्री तेहिं प्राणेउं रणो दरिसिते राया तहेव पडिकूलं उवसग्गं करेज्ज। इतरे णाम जे रणो अमित्ता अमित्तसुहिणो वा ते रण्णो पडिणोयत्ताए तं मारेज भिक्खुस्स, णीया वा पडिलोमे उवसग्गे करेज्ज ।।१५६४।। उद्धंसियामो लोगंसि, भागहारी व होहिती मा णे । इति दायिगादिणीता, करेज पडिलोममुवसग्गे ॥१५६।। ___ "उद्धंसिय" त्ति प्रोभासिया अम्हे एतेण लोगमन्झे, प्रोभासियो वा एस अम्ह भागहारी होहिति त्ति मा वा अम्हं अधिकतरो एत्थ रायकुले होहिति ति। दुधयण - घाय- बंधाइएहिं उत्तावेंति मारेति वा । जम्हा एते दोसा तम्हा ण कप्पति रण्णो अत्तीकरणं काउं ॥१५६५।। कारणे पुण कप्पति - गेलण्ण रायगुडे, वेरज विरुद्ध रोहगद्धाणे । ओमुब्भावण सासण, णिक्खमणुवदेसकज्जेसु ॥१५६६॥ गिलाणस्स वेज्जेण उवदिटुं हंसतेल्लं कल्लाणघयं तित्तगं महातितगं वा कलम - सालि-मोदणो वा, ताणि परं रणो हवेज्ज, ए अत्तीकरणं करेति ॥१५६६।। इमा जयणा - पणगातिमतिक्कतो, पारोक्खं ताहे संतसंतेणं । एमेव य पञ्चक्खं, भावं णातुं व उवजूओ ॥१५६७॥ पणगपरिहाणीए जाहे मासलहुँ पत्तो ताहे संतं परोक्खं रणो अत्तीकरणं करेंति, पच्छा असंतपरोक्खं । एमेव य पञ्चवखं संतासंतेहिं णायव्वं । अण्णादेसेण संत परोक्खं, ततो संतं पच्चक्खं । एवं असंतंपरोक्ख पच्चक्खं । रण्णो य भावो जाणियचो - प्रियाप्रियेति । जो य लक्खणजुत्तो उ यो दर्शनीयः तेजस्वी वा स अत्तीकरणं करेति । 'रायदुढे वा उवसमण्णट्ठा, वेरज्जे वा प्रात्मसंरक्षणार्थे, विरुद्धरज्जे वा संकमणट्टा, रोहगे वा णिग्गमणट्ठा, अप्फवंता वा भत्तट्ठा, रणा वा सद्धि प्रद्धाणं गच्छंता, एवं बहुसु उप्पत्तिएसु कारणेसु, प्रोमे वा २भत्तट्ठा, वादकाले वा पवयण उम्भावणट्ठा, पडिणीयस्स वा सासणट्ठा, अतीकतो वा जो णिक्खमेज तवट्ठा, धम्म वा पडिवजिउक्कामस्स धम्पोवएसदाणट्ठा कुल - गणातिकज्जेसु वा प्रणेगेसु ॥१५६७।। जे भिक्खू रायारक्खियं अत्तीकरेति, अंत्तीकरतं वा सातिजति ।।स०॥२॥ जे भिक्खू णगरारक्खियं अतीकरति अत्तीकरतं वा सातिजति ॥सू०॥३॥ जे भिक्खू णिगमारक्खियं अत्तीकरेति, अत्तीकरतं वा सातिजति ॥सू०॥४॥ जे भिक्खू देसारक्खियं अत्तीकरति अत्तीकरेंतं वा सातिजति ॥स०॥ जे भिक्खू सव्वारक्खियं अत्तीकरति, अत्तीकरतं वा सातिजति ।।सू०॥६॥ १ गा० १५६६ व्याख्या। २ अप्फचंता । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ . . सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र७-१८ एतेहिं कारणेहिं, अत्तीकरणं तु होति नायव्वं । रायारक्खिय-नागरणेगमसव्वे वि एस गमो ॥१५६८।। एतेहिं उत्तरकरणेहिं रणो अत्तीकरणं करेज । रायाणं जो रक्खति सो रायारक्खिप्रो-सिरोरक्षः तत्थ वि सो चेव गमो। णगरं रक्खति जो सो णगररक्खिो कोट्टपाल। सबपगइयो जो रक्खति णिगमा. रक्खियो, सो सेट्टी। देसो विसतो, तं जो रक्षति सो देसारक्खियो, चोरोद्धरणिकः । एताणि सवाणि जो रक्वति सो सवारक्खियो, एतेषु सर्वकार्येषु आपृच्छनीयः स च महाबलाधिकतेत्यर्थः । एतेसि पंचण्हं सुत्ताणं इमं पच्छद्धं अइदेसं करोति । रायारविषय - णागरणेगमसम्बे वि । अपि शब्दाद् देशारक्षको द्रष्टव्यः । एतेसु वि एमेव उस्सग्गववायगमो दट्ठयो । १५६८।। जे भिक्खू रायं अच्चीकरेति, अचीकरतं वा सातिजति ।।सू०॥७॥ जे भिक्खू रायारक्खियं अञ्चीकरेति, अञ्चीकरेंतं वा सातिञ्जति ॥१०॥ जे भिक्खू णगरारक्खियं अञ्चीकरेति, अच्चीकरेंतं वा सातिजति ।।०॥६॥ जे भिक्खू णिगमारक्खियं अञ्चीकरेति, अच्चीकरतं वा सातिजति ॥०॥१०॥ जे भिक्खू देसारक्खियं अच्चीकरेति, अच्चीकरेंतं वा सातिजति ।।सू०॥११॥ जे भिक्खू सव्वारक्खियं अञ्चीकरेति अच्चीकरेंतं वा सातिजति ॥सू०॥१२॥ अर्चनं अर्चा, अर्चाया: करणं अर्चाकरणं । अच्चीकरणं रण्णो, गुणवयणं तं समासो दुविधं । संतमसंतं च तथा, पञ्चक्ख-परोक्खमेक्केक्कं ॥१५६६।। रणो अच्चीकरणं किं ? गुणवयणं सौर्यादि, तं दुविधं - संतमसंतं, एक्केक्कं पञ्चवखं परोक्खं ॥१५६६॥ एत्तो एगतरेणं, अच्चीकरणेण जो तु रायाणं । अच्चीकरेति भिक्ख, सो पावति अाणमादीणि ॥१५७०॥ कंठा इमं गुणवयणं - एकतो हिमवंतो, अण्णतो सालवाहणो राया । समभारभराक्ता , तेण ण पल्हत्थए पुहई ॥१५७१।। राया रायसुही वा, रायामित्ता अमित्तमुहिणो वा । भिक्खुस्स व संबंधी, संबंधि-सुही व तं सोच्चा ॥१५७२।। संजमविग्धकरे वा, सरीरबाधाकरे व भिक्खुस्स । अणुलोमे पडिलोमे, कुजा दुविधे व उवसग्गे ॥१५७३।। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यगाथा १५६८-१५७६ ] चतुर्थ उद्देशकः २३५ गेलण्ण रायदुठे, वेरज्ज विरुद्ध रोहगद्धाणे । अोमुब्भावण सासण, णिक्खमणुवएसकज्जेसु ॥१५७४।। एतेहि कारणेहिं, अच्चीकरणं तु होति कातव्वं । रायारक्खियणागर-णेगमसव्वे वि एस गमो ॥१५७५॥ पूर्ववत् । जे भिक्खू रायं अत्थीकरेति, अत्थीकरतं वा सातिज्जति सू०॥१३॥ . जे भिक्खू रायारक्खियं अत्थीकरेति, अत्थीकरेंतं वा सातिजति ।।स०॥१४॥ जे भिक्खू णगरारक्खियं अत्थीकरेति, अत्थीकरेंतं वा सातिजति ।।सू॥१५॥ जे भिक्खू णिगमारक्खियं अत्थीकरेति, अत्थीकरेंतं वा सातिजति ॥२०॥१६।। जे भिक्खू देसारक्खियं उत्थीकरेति, अत्थीकरेंतं वा सातिजति ।।स०॥१७॥ जे मिक्खू सव्वारक्खियं अत्थीकरेति, अत्थीकरेंतं वा सातिजति ।।सू०॥१८॥ अत्थयते अत्थी वा, करेति अत्थं व जणयते जम्हा । अत्थीकरणं तम्हा, तं विज्जणिमित्तमादीहि ।।१५७६।। साहू रायाणं अत्थेति प्रार्थयति । साधू वा तहा करेति जहा सो राया तस्स साहुस्स प्रत्थीभवति प्रार्थयतीत्यर्थः । साधू वा तस्य राज्ञः अर्थ जनयति, धातुवादादिना करोतीत्यर्थः । जम्हा एवं करेति तम्हा प्रत्यीकरणं भण्णति । साधू रायाणं भणाति - मम अस्थि विज्जाणि मत्तं वा तीताणागतं नाणं,ताहे सो राया प्रत्थीभवति । आदिसद्दातो रसायणादिजोगा ।।१५७६।। इमं अत्थीकरणं - - धातुनिधीण दरिसणे, जणयंते तत्थ होति सट्ठाणं । अत्ती- अच्ची- अत्थेण, संतमसंतेण लहुलहुया ॥१५७७॥ धातुबातेण वा से अत्थं करेति, महाकालमंतेग वा से णिहिं दरिसेति, एवं अत्थं जणयतो सट्ठागपच्छित्तं । "'छक्कायचउसु लहु" गाहा । सीहावलोयणेण गतोऽप्यर्थः- पुनरुच्यते - प्रत्ती अच्ची अत्थी, एतेसु संतेसु मासलहुं, असंतेसु चउलहुं ।।१५७७।। एत्तो एगतरेणं, अत्थीकरणेण जो तु रायाणं । अत्थीकरेति भिक्खू, सो पावति आणमादीणि ॥१५७८।। राया रायसुही वा, रायामित्ता अमित्तसुहिणो वा । भिक्खुस्स व संबंधी, संबंधिसुही व तं सोच्चा ॥१५७६।। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [ मूत्र-१६ संजमविग्धकरे वा, सरीरबाधाकरे व भिक्खुस्स । अणुलोमे पडिलोमे; कुज्जा दुविधे व उवसग्गे ॥१५८०॥ गेलण्ण-रायदुढे, वेरज्ज विरुद्ध रोहगद्धाणे। ओमुभावण सासण, णिक्खमणुवएसकज्जेसु ॥१५८१॥ एतेहि कारणेहिं, अत्थीकरणं तु होति कातव्वं । रायारक्खिय णागर-णेगमसच्चे वि एस गमो ॥१५८२।। पूर्ववत् जे भिक्खू कसिणाश्रो ओसहीओ आहारेति आहारेंतं वा सातिजति ।।स०॥१६॥ कसिणा संपुण्णा, दव्वतो अभिण्णा, प्रोसहिरो सालिमातियानो, पाहारेति भुंति, तस्स मासलहुँ । कसिणत्तमोसहीणं, दव्वे भावे चउक्कभयणा तुं । दव्वेण जा सगला, जीवजुत्ता भावतो कसिणा ॥१५८३॥ कसिणत्ते प्रोसहीण दव्वभावेहि चउभंगो काययो। दबतो कसिणा सतुसा अखंडिता अफुडिना । भावकसिणा जा सचेयणा ।।१५८३।। सतुसा सचेतणा वि य, पढमभंगो तु ओसहीणं तु । वितिो सचेतणऽतुसा खंडितगाधा अतिच्छडिता ||१५८४॥ जा सतुसा दव्वतो अभिण्णा सचेषणा य, एस पढमभंगो। जा सचेयणा अतुसा चेयणा तंदुला सतुसा वा खंडिता "अतिच्छडिता" एगदुच्छडा व कता ॥ १५८४।। एस बितियभंगो। णियगट्ठितिमतिक्ता , सतुसा बीया तु ततियो भंगो। पढमं पति विवरीश्रो, चउत्थभंगो मुणेतन्यो ॥१५८॥ __णियगा प्रात्मीयस्थिति, तमतिकता अचेतना इत्यर्थः, दव्वतो पुण सतुसा प्रखंडिता प्रफुडिता, एरिसा जा ओसहीनो । एस ततियभंगो । भावतो णिय गठितिमतिक्कता दवतो भिण्णा । एस पढमभंग पति विवरीतो चतुर्थभंगो भवतीति ।।१५८५।। एतेसु चउभंगेसु इमं पच्छित्तं - दो लहुया दोसु लहुअो, तवकालविसेसिता जधा कमसो । परित्तोसधीण सोधी, एसेव गुरू अणंताणं ॥१५८६।। पाइल्लेसु दोसु भंगेसु चउलहुगं, पच्छिमेमु दोसु भगेसु मासलहुं, जहाव में प्रातिल्लातो समार तवकालबिसेसिया । पढमे दोहिं वि गुरू, बितिए तवगुरु, ततिए कालगुरु, च उत्थे दोहि वि लहुं । एक परित्ते भणियं। अगंतबीएसु एवं चेव पच्छित्तं गुरुगं दट्ठव्वं ॥१५८६।। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १५८० -१५६१ ] चतुर्थ उददेशक: चोदगाह - अण्णोण्णेण विरुद्ध तु, सोधिं सुत्तं च मा भण । सा तु संघट्टणे सोही, पंचाहा भुंजतो सुत्तं ॥१५८७|| सुत्तगहणतो इह सुत्ते बितिएसु मासलहुं, सोधिग्रहणातो इहेव पेढिगाए प्रत्थे बीएमु पण गं दत्तं, एए दो वि अण्णोण्ण - विरुद्धा । मा एवं भणाहि प्राचार्याह - "सा तु संघट्टणे" पच्छद्धं । पंचराइंदिया प्रत्येण जे बीएसु भणिता ते संघट्टणे दम । पुण भुजतो सुत्ते मासलहुं, अतो भणियं तम्हा नो अण्णोण्णविरुद्धं ॥१५८७।। अण्णे पायरिया वक्खाणेति अत्थतो चोइए। प्राचार्य उत्तरमाह - "अणोणेण'' गाहा - शेषं पूर्ववत् । पुणरवि चोयग - जं च बीएसु पंचाहो, कंडरोद्देसु मासियं । तत्थ पाती तु सो बीयं, कुंडरोट्टातु णिच्चसो ॥१५८८॥ चोदको भणति – बीएसु संघट्टिऐसु पणगं, कुडरोट्टेसु संघट्टिएसु मासलहुं । एत्थ कि कारण ? तुसमुहीकणिया कुक्कस - मीसा कुडग भण्णति, असत्थोवहतो प्रामो चेयणं तंदुललोट्टो रोट्टो भणति । ___ आयरिश्रो भएणत - 'तत्थ पाती तु" पच्छद्धं । चोइते तत्थेव च उत्तरं भण्णति "पाति" रक्ख ति सो तुसो तं बीयं तेण तत्थ पणगं, कुंडरोट्टो पुण गितुसा तेण तत्थ महंततरी पीडा, प्रतो तत्थमासितं ॥१५८८॥ एतेसामण्णतरं, कसिणं जो ओसधिं तु आहारे । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥१५८६॥ तिल मुग्ग-मास-चवलग-गोधूम-चणय-सालि - कंगुमातियाणं प्रणतरं कसिणं भुजति, सो प्राणातिदोसे पावति ॥१५८६॥ इमे दोसा - पलिमंथो अणाइण्णं, जो णिग्घातो य संजमे । अतिभुत्ते य आयाए, पत्थारम्मि पसज्जणा ॥१५६०॥ ___ चवलयमातियासु संगासु सचित्तासु प्रचित्तासु वा पलिमंथोपगरिसेण संजमो मंथिज्जति जेण सो पलिमंथो, सहूण वा तानो प्रणाइण्णा, जोणीभूते बीए जोणीघातो भवति त्ति सचित्ते असंजमो भवति । रसाले वा प्रतिभुत्ते वीसूइयाति प्रायविरारहणा । अण्णतरे वा दोहे रोगायके भवति । तत्थ पत्थारपसंगो - प्रस्तरणं प्रस्तार:, प्रस्तारे उत्तरोत्तरदुःखसंभव इत्यर्थः ॥१५६०॥ तत्थ परितावमहादुःखे गहा - बितियपदं गेलण्णे, प्रद्धाणे चेव तह य ओमम्मि । कसिणोसहीण गहणे, जतणाए पकप्पती काउ।१५६१॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ सभाष्य-चूणि के निशीथसूत्रे [ सूत्र २०-२१ वेज्जुबदेसा गिलाणो भुंजति, भत्तालभे प्रद्धाणे अफव्वता वा प्रोमे कसिणोसहीगहणं करेजा। तं पि जयणाए पणगातिमासपत्तो, पच्छा चरिमभंगेण, ततो ततियभंगे, ततो बितियभंगे, ततो पढमेण, एवं महणं काउं कप्पति ॥१५६१॥ जे भिक्खू आयरिएहि अदिन्नं आहारेति, ___आहारतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२०॥ जे भिक्खू प्रायरिओवज्झाएहिं अविदिण्णं विगतिं श्राहारेति, __ आहारतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२१॥ प्राचार्येव उपाध्याय प्राचार्योपाध्यायः, असहोणे वा पायरिए उवज्झायो पुच्छिज्जइ । अहवा - उवज्झायगहणेणं जो जे पुरतो काउ विहरति सो पुण पुच्छियव्वो । अविदिण्णं प्रदत्तं अणुण्णायं, अण्णतरगहणातो णवविगईप्रो जो पाहारेइ तस्स मासलहुँ । एस सुत्तत्थो । णिज्जुत्ति वित्थरेति - इच्छामो नाउ का विगती ? केवतियानो वा ? - तेल्ले घत णवणीते, दधिविगतीओ य होंति चत्तारि । फाणिय-विगडे दो दो, खीरम्मि य होंति पंचेव ॥१५६२।। महुपोग्गलम्मि तिण्णि व, चलचल ओगाहिमं च ज पक्कं । एतासिं अविदिण्णं, जोगमजोगे य संवरणे ॥१५६३॥ सव्वे तेल्ला एगविगती। अण्णे भणंति - खारतेल्लं एक्कं विगती, सेसा पुण तेल्ला वि विगइया । लेवाडा पुण सब्बे घता, एक्का य विगती। एवं णवणीयादि । दहिविग तीनो वि चत्तारि, गाव-महिसी-अय-एलगाणं च । फाणिग्रो गुलो भण्णति, सो दुविहो- छिड्डगुडो खडहडो य । वियडं मज्ज, तस्स दो भेदा- पिटुकडं गुलकडं च । खीराणि पंव गावी महिसी अय एलय उट्टीणं च। महूणि तिष्णि - कोंतिय, मक्खियं, भामरं च । पोग्गले तिण्णि-जलयं थलयं खहयरं च । चलचलेति - तवए पढमं जं धयं खित्तं तत्थ अण्णं घयं अपक्खिवंती आदिमे जे तिणि घाणा पयतिते चलवले ति तेण ते चल चलगोगा हिमं भाति । तत्येव घते जे सेसा पच्चंति तेग चले त्ति, अतो तेण प्रातिल्ला तिणि घाणा मोत्तु सेसा पच्चक्खाणिस्स कप्पंति, जति अणं धयं ण पक्खिवति । जोगवाहिस्स पुण सेसगा विगती । एतेसि विगतीणं जो अण्णतरं विगति पाहारेति जोगवाही वा अजोगवाही वा संवरणे वा ॥१५६३।। आगाढमणागाढे, दविधे जोगे य समासतो होति । आगाहें णवग-वज्जण, भयणा पुण होतऽणागाढे ॥१५६४॥ जोगो दुविहो -- प्रागाढो प्रणागाढो य । प्रागाढतरा जम्मि जोगे जंतणा सो आगाढो यथा भगवतीत्यादि । इतरो प्रणागाढो यथा उत्तराध्ययनादि । प्रागाढे प्रोगाहिमवज्जा णव विगतीमो वजिज्जंति, दसमाए भयणा । सव्वा भोगाहिम-विगती पण्णत्तीए कप्पति । महाकप्पसुत्ते एक्का परं मोदगविगती Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगापा १५६२-१६००] चतुर्थ उद्देशक: २३९ कप्पति, सेसा प्रागावेसु सबविगतीतो ण कप्पंति । प्रणागाढे पुण दसविगतीतो भतितायो । जमो गुरुमणुण्णा तो कणंति, अणुण्णाए विणा ण कप्पंति, एस भयणा ।।१५६४॥ - अणुण्णातो वा अविधीए तो जोगभंगो भवति । जोगभंगो दुविधो - सव्वभंगो, देसभंगो य । विगतिमणट्ठा भुंजति, ण कुणति आयंबिलं ण सद्दहती। एसो तु सव्वभंगो, देसे भंगो इमो तत्थ ॥१५६५॥ विगती णिक्कारणे अणुण्णाप्रो भुजति, पायंबिलवारए आयंबिलं ण करेति, सबरसे य भुंजात, ण सद्दहति वा, एम सव्वभंगो । मागाढे सव्वभंगे चउगुरु, अणागाढे सबभंगे चउलहुं, इमो देसभंगो ।।१५६५॥ काउस्सग्गमकातुं, भुंजति भोत्तूण कुणति वा पच्छा । सय काऊण वा भुंजति, तत्थ लहू तिण्णि उ विसिट्टा ॥१५६६॥ जदि कारणे काउस्सग्गमकाउ भुजति, भोत्तूण वा पच्छा काउस्सग्गं करेति, सयं वा काउस्सग्गं काउ भुंजइ, 'अवरो गुरु भति - मम विगति विसज्जेह, एएसु वि चउसु वि मासलहुं तवकालविसिटुं । पउत्थे दोहि वि लहु ।जो पुणं कारणे अणुणातो काउस्सग्गं काउ भुजति सो सुद्धो। आगाढजोगे वि देसभगे एवं चेव, णवरं - मासगुरु । प्रणागाढागाढजोगाण देसभंगे इमं पच्छित्तं ॥१५६६॥ ण करेति भुंजितूणं, करेति काऊण भुंजति सयं तु । वीसज्जेह ममं ति य, तवकालविसेसिओ मासो ॥१५६७।। उक्तार्थाः । इमो विगतिविवज्जणे गुणो - जागरंतमजीरादी, ण फुसे लूहवित्तिणं । जोगी ऽहं ति सुहं लद्ध, विगतिं परिहरिस्सति ॥१५९८॥ सुत्तत्थज्झवणहेउ रातो जागरंतं अजीरातिया दोसा ण फुसंति लूहवित्तिणं । किं चान्यत् ? जोगीमिति लढे वि सुहेणं विगति वज्जेति ॥१५९८॥ कारणे जोगी वि विगति प्राहारेति - बितियपदमणागाढे, गेलण्ण-वए-महामहऽद्धाणे । ' श्रोमे य रायदुद्दे, अणगाढागाढजतणाए ॥१५६६।। प्रणागाढगेलण्णगहणातो गाढं पि गहियं, “वइगे" त्ति गोउलं, महामहो इंदमहादि, प्रद्धाणे वा, प्रोमे दुभिक्खे, रायढे वा, एतेहिं कारणेहिं प्रणागाढजोगी प्रागाढ जोगी वा जयणाए विगति भुजति ॥१५६६॥ जोगे गेलण्णम्मि य, श्रागाढितरे य होति चतुभंगो। पढमो उभयागाढे, बितिम्रो ततिओ य एक्केणं ॥१६००॥ १ गा० १५६७ । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-२१ जोग - गेलण्णेसु, आगाढ प्रणागाढेसु चउभंगो कायबो । पढमे उभयमवि भागाढं, बितिए जोगो पागाढी, ण गेलणं । तइंए न जोगो, गेलण्णं आगाढं । चउत्थे दो वि प्रणागाढा ॥१६००॥ उभयम्मि व आगाढे, दडल्लयपक्कएहि तिण्णि दिणे। मक्खेति अठायंते, पज्जेतियरे दिणे तिण्णि ॥१६०१॥ उभयागाढेति पढमभंगे "दड्ढेल्लग" प्रोगाहिमणिग्गालो, जंवा दोहि तिहि वा दवेहिं गिदड्ढें पक्कैल्लगं, हंसतेल्लमातीएहिं पति- दिणे तिणि दिणे मक्खेति । 'अठायते" ति जइ रोगो न उवसमत ताहे प्रवरे तिणि दिणे उवरुवार चेव दड्ढेल्लगातिए पमज्जति ॥१६०१॥ ... जत्तियमेत्ते दिवसे, विगति सेवति ण उदिसे ते तु । तह वि य अठायमाणे, णिक्खवणं सव्वधा जोगे॥१६०२।। जत्तिए दिवसे तं दड्ढेल्लगातिविगति पमज्जति तत्तियाणि दिवसाणि ण उद्दिसति, जति तह वि रोगो न उवसमति ताहे से सव्वहा जोगो णिक्खिप्पति ॥१६०२:। जति णिक्खवती दिवसे, भूमीग्रो तत्तिए उवरि बढे। अपरिमियं उद्देसो, भूमीओ परं तधा कमसो ॥१६०३॥ जत्तिए दिवसे णिक्खित्तजोगो अच्छनि पुणो उक्वित्तजोगे जोगभूमीमो तत्तिए दिवसे उरि वढिज्जति । जोगभूमीए चिरायणजोगभूमीए वि जे केति दिवसा सेसा जोगभूम्यतो भण्णति । तत्थ महाविणी कमट्ठगस्स अपरिमिनो उद्देसो चिरायणजोगभूमीए परमो वड्ढिदिवसेसु कमेण उद्देसो कज्जति । अण्णे भणंतिजत्तिए दिवसे ण उद्दिष्टुं तत्तिए दिवसे अपरिमित्तो उद्दे सो कायब्बो, ततो परं कमेण उद्देसो ॥१६०३।। इयाणि बितियभंगो - गेलण्णमणागाढे, रसवति होव्वरे असति पक्को । तह वि य अठायमाणे, मा वड़े णिक्खिवे तहेव ।।१६०४॥ जोगे पागाढे गेलण्णे अणागाढे गेहावगाढभत्तरसो तीए छुब्भति होवरते वा ते णे हावयवपोग्गला सरीरमणुपविट्ठा रोगोवसमा भवंति, ततो बड्डल्लग - पक्केलगेहि मक्खें ति, दिणे ३ अट्ठिए पज्जे ति, दिणे ३ तहावि अट्टिते रोगे मा प्रतीवरोगवुड्डी भविस्सति, तम्हा ओगगिवखेदो तहेव जहा पढमभंगे ॥१६०४।। इदाणि ततियभंगो- प्रणागाढजोगे आगाढगेलणे तिणि दिणा दड्ढेल्ल - पक्केल्ल गेहि मक्खेति । प्रवरे तिणि दिणे पजेति, ततो पर - तिण्णि-तिगेगंतरिते, गेलण्णागाहपरतो णिक्खिवणा । तिणि व तिग अंतरिता, चउत्थ ऽठंते वि णिक्खिवणा ।।१६०५।। ___ तिणि तिया णव, तेसि एककेकको तिगो एगा णिब्वितियंतरिमो कायवो, तिगिण दिणे का उस्सग काउं विगति प्राहारेता च उत्थ दिवसे णिव्वीयं प्राहारेति, ताहे पंचम - छ? - सतमाणि दिवसाणि विगति प्राहरेति अट्टमे दिवसे णिवीयं करेति, नवमे दिणे विगति पाहा रेति, ताहे जति गोवगमति ताहे दममे दिवमे जोगो शिक्खिप्पति ॥१६०५।। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा १६०१-१६०८ ] चतुर्थ उद्देशकः २४१ इदाणि च उत्थ-भंगो। एत्थ वि रसवतिणेहोव्वरमक्खणपमजणं तहेव । प्रतो परं "तिणि वि" पच्छद्धं तिणि वि तिया णव, एते एगंतरएण णिवीतितेण णायव्वा । विगती, णिवीतितं । वि ०१, नि०१। वि० १, नि० १ । वि० १, नि० १ । प्रतो परं अट्ठायतो सब्वहा जोगणिक्खेवो। पतिदिवसमलन्भंते परिवसा वेतव्वगकट्टियवगे वा जोगणिक्खेवो। अहवा - प्रजोग गिलाणस्स वि वीरातिणा होज कज्जं, ताहे य सम्गामे मग्गियध्वं, असति पक्खेते परगामे, सक्खेत्तै प्रसति खेतबहियातो वि प्राणियवं, सब्बहा अलभते गिलाणो वतितं गिज्जेजा॥१६०५॥ ""वतिए" त्ति दारं, तत्थिमा जयणा - वइगा अयोग-योगी, व अदढ-अतरंतगस्स दिज्जति । णिव्वीतियमाहारोऽसति अंतरविगती व णिक्खिवणा ॥१६०६॥ 'प्रतरंतगो" गिलाणो, अदढो विणा वि गेलण्णएण जो दुबलो, एते जया वइयं णिज्जंति तता एतेसि सहाया अजोगवाही दिज्जति । असति प्रजोगवाहीणं अणागाढजोगवाही वितिजगा दिज्जति । __ अहवा - 'अदढ" त्ति अजोगवाहिणो जे अदढसरीरा ते अतरंतस्स धितिजगा दिज्जति । रे पि तत्र बलिनो भविष्यतीत्यर्थः । जे जोगवाहिणो ते तत्थ वइग्राए णिवीयिमाहार गेहंति, असति णिव्वी. तियस्स अपज्जंतं वा लब्भति ताहे अंतरंतरा काउसग्गं करेत विगति भंजत । मायरणा पूण ततियभंगविकप्पेण सपर्य सव्वहा वा णिवीतीए अलभते णिक्खिवणा जोगस्स ।।१६०६॥ आयंबिलस्सऽलंभे, चउत्थ एगंगिए व तक्कादी । असतेतरमागाढे, णिक्खवणुद्देस तथ चेव ॥१६०७॥ तत्थ वतिताए पायंबिलवारए आयंबिलस्स प्रलंभे प्रभत्तटुं करेज्ज, जति उववासस्स असहू ताहे तस्काति एवेगंगियं भुंजति । प्रादिसद्दातो वल्ल-चणग-मुग्ग-मासप्पणियं विलेवी वा कंजियं सागं वा एवमातिजं णिव्वीतियं प्रलवणं, तं वा भुंजति। सलवणं पुण एगंगियं न भवतीत्यर्थः । ___ अणागा जोगवाहीण प्रसति इतरे णाम प्रागाढजोगी ते गिलाणस्स वितिज्जगा दिजंति, एकको दो वा अजोगी, तेसि कर्षियारो दिज्जति, तेसि जति णिव्वीतियं अस्थि तो वहंति, अलभते पुण भागाढ जोग-णिक्खेवो । मागाढणागाढाण पुणो उक्खित्तो उद्देसो तहेव जहा गिलाणदारे । एवं वइयाए ॥१६०७॥ इदाणि "२महामहे" त्ति दारं - सक्कमहादीएसू, पमत्तदेवा छलेज्ज तेण ठवे। । पीणिज्जंति व अदढा, इतरे उ वहति ण पहंति ॥१६०८॥ "सक्कमहो" इंदमहो, मादिसद्दानो सुगिम्हादी, जो व जत्थ महामहो, एतेसु मा पमत्तं देवया छलेज्जातेण "ठवे", ठवणे ति प्राणागाढजोगणिक्खेवो । किं चान्यत् ? तेसु य सक्कमहादिदिवसेसु विगतिलाभो १ गा० १५६६।२ गा० १५९६ । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाष्य-पूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र २१-२२ भवति, ताम्रो दुम्बलसरीरा भुजंति, ताहे पीणिज्जंति । बलिनो भवतीत्यर्थः । इतरे णाम भागाढजोगवाही ते जोगं वहति, जोगखंघा प्रच्छंति, ण तेसु उद्देसो, ण वा पुव्वुद्दिद्धं पढति ॥१६०८।। २४२ ददाणि ""श्रद्धाण- प्रोम रायटुं च तिण्णि वि दारे जुगवं वक्खाणेति - श्रद्धाण-श्रम-दुट्ठे, एसिं जोगीण सेस पणगादी । असती य णागाढे, णिक्खिव सव्वासती इतरे ॥१६०६॥ श्रद्धा गामाणुग्ग. मिए छिष्णद्धाणे वा जोगं वहति, ताहे जं एसणिज्जं तं जोगीण | दज्जति, "सेस" त्ति प्रजोगवाही ते पणगपरिहाणीए जयंति । फासुएसणिज्जस्स प्रसति जइ सव्वे जोगवाहिणो ण संथारंति ताहे प्रणामाढ - जोगवाहीणं जोगो णिक्खिप्परं । 'सव्वासति" णाम सव्वहा एसणिज्जे भलब्भमाणे इराण वि श्रगाढजोगो णिक्खिप्पर । चउभाग - - तिभागट्ठाणे वा असंथरणे गिक्खेवो । एवं प्रोमोयरियारायदुट्ठेसु वि ।। १६० ।। " जोग" त्ति गयं । इदाणि "जोग" त्ति - जे भिक्खु जोगी तु, णिक्कारणकारणा अणापुच्छा | पुच्छिता व पुणो, अविदिष्णं आतिए विगतिं ॥ १६१० ॥ जे भिक्खू जोगवाही णिक्कारणे विर्गात भुंजति, कारणे वा प्रणापुच्छाए भुंजति, कारणे वा पुच्छिते गुरूहि श्रदिष्णं भुंजति, तिन्ह वि मासलहु ॥१६१०॥ सो श्रणा प्रणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं तहा दुविधं । पावति जम्हा तेणं, कप्पति पुच्छितुं पुव्विं ॥ १६११॥ णिक्कारणे भुजंतस्स इमे दोसा - विगति विगति भी, विगतिगतं जो तु भुंजते भिक्खू । विगत विगतिसहावो, विगती विगतिं बला नेइ || १६१२ || घृतादिविगति, बितियविगतिग्रहणेण कुवाति विगती, एकं तं विगतिकयं जहा विस्संदणं, विगती बागता जम्मि दव्वे तं दव्वं विगतिगतं, जहा दध्योदना । विगतीए भुत्ताए साहू विगयस्सभावो भवति, साय विगत भुत्ता बितियं गरगातियं बला णेति ॥ १६१२ ॥ " कप्पति पुच्छिउं पुब्विं" ति अस्य व्याख्या इच्छामि कारणेणं, इमेण विगई इमं तु भोत्तुं जे । एवतियं वा वि पुणो, एवतिकाल विदिष्णंम ॥ १६१३॥ विणयपुष्वं गुरु वंदिऊण भणाति- इमेण कारणेण इमं विगत एवतियं पमाणेणं एवतियं कालं तुब्भेहि प्रणुष्णात भातुमिच्छामि । एवं पुव्वं पुच्छिए अणुष्णाए पच्छा भिक्खं पविट्ठो गहणं करोतीत्यर्थः ।। १६१३ ।। चितियपदे आहारो, हवेज्ज सो चेव कम्मिर देसे । सिवाय वेगागी, विगतीओ धूर लेभेज्जा || १६१४॥ १ गा० १५६६ । २ मा १५६३ । ३ गा० १६११ । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा १६०६-१६१६ ] चतुर्थं उद्देशकः कम्हि य देसे गामे वा सो चेव दहिखीराति प्राहारो हवेज, तत्थ विणा कारणेण श्राहारेज, असिवादीहि वा कारणेहि एगागी बिगतीओ थूर लंभेज्जा, श्रायरियउवज्झाएहि श्रणणुष्णाश्रो विगति मुंजेज्जा ।।१६१४ ॥ इदाणि "पच्चक्खाणे" ति दारं पच्चक्खाते संते, पारमगंतूण अंतरा जो तु । हारेज्जा विगतिं, सो पावति प्राणमादीणि ॥ १६१५ ।। दिवसे देवसियं प्रणागारपच्चक्लाए अभिग्गहपच्चक्खाए वा पारं पजवसाणं श्रगंतूण अंतरा जो विगत माहारेति सो प्राणादि दोसे पावति ।। १६१५ ।। बितिय गिलाणागारे, वंजण- खलिते व काल-संमूढे । एतेहिं कारणेहिं, पच्चक्खाते वि आहारो ॥। १६१६॥ प्रणुष्णे पच्चक्खाणे अंतरा गेलष्णं भवेज्ज, वंजणखलिएण वा पच्चवखायं पुण्णो त्ति पच्चक्खाणकालो कालसम्मूढो, अंतरा भुंजेज । एवं भुंजतो सुद्धो ।। १६१६ ॥ जे भिक्खू ठवण-कुलाई अजाणिय अपुच्छिय गवेसिय पुव्वमेव डिवायपडिया अणुप्पविसति, अणुष्पवितं वा सातिज्जति ||०||२२|| ठप्पा कुल ठवणाकुला प्रभोज इत्यर्थः, साघुठवणाए वा ठविज्जति त्तिठवणकुला सेजात रादित्यर्थः । पुव्वि दिट्ठे पच्छा प्रदिट्ठे गवेसणा । अधवा - - णामेण वा गोतेण वा दिसाए वा पुच्छा, ग्रभियाइचिघेहिं गवेसणा । पूर्वं प्रथमं श्रादावेव जो पुण पुच्छृणगवेसणं करेति तस्य पूर्वं न भवतीत्यर्थः । ठवणाकुला तु दुविधा, लोइयलोउत्तरा समासेणं । इत्तरिय भावकहिया, दुविधा पुण लोइया हुंति ॥१६१७|| समासो संखेबो, लोग दुविहा- इत्तरिया, प्रावकहिया य ।। १६१७।। इमे इत्तरिया सूयग- मतग कुलाई, इत्तरिया जे य होंति णिज्जूढा । जे जत्थ जुंगिता खलु, ते होंति आवकहिया तु || १६१८ || ૨૪૨ कालावत्रीए जे ठप्पा कया ते निज्जूढा, "जे" त्ति कुला जत्थ विसते जुंगिता दुगुछिता, भोजा इत्यर्थः । कम्मेण वा सिप्पेण वा जातीए वा । कम्मे - व्हाणिया, सोहका, मोर-पोसका । सिप्पे - हे दुण्हाविता, तेरिमा, पयकरा, जिल्लेवा। जातीए - पाणा, डोंबा, मोरत्तिया य । खलुसद्दोऽवधारणे, ते चैव प्रष्णत्थ अजुंगिता, जहा सिंए णिल्लेवगा ।। १६१६ ॥ इमे लोगुत्तरा - दुविहा लोउत्तरिया, वसधी संबद्ध एतरा चैत्र । सत्त घरंतर जाव तु, वसधीतो वसधिसंबद्धा ॥ १६६ ॥ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-२२ वसहीए संबद्धा य, प्रसंबद्धा य । वसहीए मोत्तुं सत्तघरावसहीसंबद्धा, तेसु भत्तं वा पाणं का न घेत्तन्वं ॥१६१६॥ इमा असंबद्धा - दाणे अभिगमसड्ड, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते । मामाए अचियत्ते य एतरा होति णायव्वा ॥१६२०॥ प्रहाभद्दो दाणरुई दाणसड्ढो, सम्मदिट्ठी गिहीताणुध्वनो अभिगमसड्ढो, सम्मत्ते त्ति अविरय - सम्मट्ठिी, एतेसु एसणादोसा । खलुसद्दो पादपूरणे । अभिगहियमिच्छे साहुपडिणाए ईसालुभत्तणेणं मा मम घरं अदीहि समण त्ति भणाइ, अण्णस्स ईसालुअत्तणेण चेव साहू घरं पविसंता अवियत्ता वायाए भणाति - "न किं चि।” एतेसु विसगर -पंतावणाति दोसा । "इयरे"त्ति असंबद्धा ॥१६२०॥ एतेसामण्णतरं, ठवण-कुलं जो तु पविसती भिक्खू । पुव्वं अपुच्छितूणं, सो पावति आणमादीणि ॥१६२१॥ कंठा चोदग आह - लोउत्तरठियाणं लोइयठवणापरिहारेण किं चि अम्हं ? प्राचार्याह - लोउत्तरम्मि ठविता, लोगणिव्वाहिरत्तमिच्छति । लोगजढे परिहरता, तित्थ-विवड्डी य वण्णो य ॥१६२२॥ पुन्वद्धं कंठं। लोगे दुगुंछिया जे, ते परिहरतेण तित्यस्स वुड्ढी कता भवति, “वण्णो"त्ति जसो पभावितो भवति ॥१६२२॥ लोइय-ठवणकुलेसु गेण्हंतस्स इमे दोसा अयसो पवयणहाणी, विप्परिणामो तहेव य दुगुंछा। लोइय-ठवणकुलेसुं, गहणे आहारमादीणं ॥१६२३॥ "अयसो" ति अवण्णो, “पवयणहाणी" न कश्चित् प्रवति, सम्मत्तचरिताभिमुहा विपरिणमंति, कावलिया इव लोए दुगुंछिता भवंति, अस्पृश्या इत्यर्थः । पच्छदं कंठं ॥१६२३॥ लोउत्तरिएसु दाणाइसडकुलेंसु पविसंतस्स इमे दोसा - आयरिय बालवुडा, खमग-गिलाणा महोदरा सेहा । सव्वे वि परिच्चत्ता, जो ठवण-कुलाई णिव्विसती ॥१६२४॥ महोदरोऽयं बह्वासी, पाएस प्राघूर्णकः, णि प्राधिक्केण विशति निविशति प्रविशतीत्यर्थः ॥१६२४।। इमं पच्छित्त आयरिए य गिलाणे, गुरुगा लहुगा य खमग पाहुणए । गुरुगो य बाल-वुड, सेहे य महोदरे लहुओ ॥१६२५॥ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४५ भाष्यगाथा १६२०-१६३२ ] चतुर्थ उद्देशकः जो एते ठवणाकुले ण णिन्विसति तस्सिमे गुणा - गच्छों महाणुभागो, सबाल-वुड्डोऽणुकंपिनो तेणं । उग्गमदोसा य जढा, जो ठवण-कुलाई परिहरइ ॥१६२६॥ जिनकल्पिकादिरलानामागरत्वात समुद्रवत महानुभागः । बाल-वृद्ध - गिलानादीनां च साधारणत्वात् महानुभागः । जो तेसु ण णिव्विसति तेण सो गच्छो अणु कंपितो, उद्गमदोषाश्च परित्यक्ता भवंति ॥१६२ ।। गच्छवासीणं इमा सामाचारी - गच्छम्मि एस कप्पो, वासावासे तहेव उडुबद्ध । गाम-णगरागरेसं, अतिसेसी ठावते सड्री ॥१६२७॥ कप्पो विधी। एस विधी वासावासे उदुबद्धे वा गाम-णगरातिसु विहरताणं । "प्रतिसेसि" त्ति प्रतिसयदव्वा उक्कोरा ते जेसु कुलेसु लभंति ते ठावियब्वा, ण सव्वसंघाडगा तेसु पविसंति । "सड्ढि" त्ति संजमे सद्धा जस्स प्रत्यि सो सड्ढी पायरियो ।।१६२७।। मज्जादाणं ठवगा, पवत्तगा सब्बखेत्ते आयरिया । जो तु अमज्जातिल्लो, श्रावज्जति मासियं लहुयं ।।१६२८॥ मजाया मेरा, ताणं ठवगा पन्वत्तगा य सव्ववेत्तेसु प्रायरिया भवंति, जो पुण आयरियो मज्जायं ण ठवेति, ण पवत्तेति सो अमज्जाइल्लो असामायारि-णिप्फण्णं मासलहुं पावति ।।१६२८॥ जे वत्थव्वा खेत्त-पडिलेहगा वा तेसि इमा समायारी दाणे अभिगमसड, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते । मामाए य चियत्ते, कुलाई साहिति गीतत्था ॥१६२६।। दाणे अभिगमसड़े, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते । मामाए अचियत्ते, कुलाई दाएंति गीतत्था ॥१६३०॥ रातो दिवसतो वा वसहिट्ठिया अण्णत्थ वा इंददत्ताभिणामेणं वगेण य पुव्वादियासुादसासु ठवणकुले दाएंति दरिसेंति ॥१६३०॥ दरिसितेसु गुरुणो इमा सामायारी दाणे अभिगमसहूं, सम्मत्ते खलु तहेव मिच्छत्ते । मामाए अचियत्ते, कुलाई अट्ठवेंते चउगुरुगा ॥१६३१।। गुरुणो ठवणकुले अठवेंतस्स नउगुरुगा ।।१६३१।। चोदगाह - किं कारणं? । किं कारणं चमढणा, दव्वखरो उग्गमो वि य ण सुज्झे । गच्छम्मि णियकज्जं, आयरिय गिलाण पाहुणए ॥१६३२।। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-२२ आयरिओ भण्णति - चमढणा, ८०वखयो, उग्गमो ण सुज्झ, गच्छे य कज्जं णिययं, पायरियगिलाण पाहुणगा, य एते दारा ॥१६३२॥ इमा व्याख्या "'चमढणे" ति दारं - पुत्वं पि धीरसुणिया, छिक्का छिक्का पधावती तुरियं । सा चमढणाए सिग्गा, संतं पि ण इच्छती घेतं ॥१६३३॥ सुणहबितिजोअसहाओ लुद्धगो "धीरो" भण्णति । "पुव्वं" ति सो धीरो सावते पाढे चेव क्रीडं हंतूण छिक्कारेति धावति य, ताहे सा धीरसुणिया इतो पधावलि तुरियं । 'अवि" सद्दातो दिढे वि एवं करेति । सा एवं धीरसुणिया रिकापहावणाहिं सिगा जति सो सावां एनछा दर्छ छिक्कारेति ताहे सा संतं पि घेत्तुं ण इच्छ त, अतिश्रमात् प्रतारणाद्वा ।।१६३३।। एवं सड-कुलाई, चमढिज्जंताई अण्णमण्णेहिं । णेच्छंति किंचि दातुं, संतं पि तहिं गिलाणम्स ॥१६३४॥ एवं ठवणकुला चमढिज्जता अण्णोऽोहिं साहूहि अण्णोऽणेहि वा रिक्कारणेहिं ! पच्छा कारणे उष्णणे संतं पि घरे, तहावि गिलाणस्स दाउं ण इच्छंति ॥१६३४॥ इदाणि "२दव्वक्खए" त्ति दारं - अण्णो चमढणदोसो, दुल्लभदव्यस्स होति वोच्छेदो। खीणे दुल्लभदब्बे, णत्थि गिलाणस्स पाउग्गं ॥१६३५॥ दुल्लभदव्वं घतादियं, तं जति अकारणे दिणे दिणे गेण्हंति ताहे तं वोच्छिज्जति । तम्मि कोच्छिष्णो गिलाणपोयणे उप्पण्णे गिलाणपाउग्गं ण लब्भति । अलभते य परिताव-महादुक्ख - गिलाणारोवणा भद्द - पंत दोसा य भवंति ॥१६३५॥ तथिमे पंतदोसा - दबखएणं पंतो, इत्थिं पातेज कीस ते दिण्णं । भद्दो हटु पहट्ठो, (करे) किणेज्ज अण्णं पि साधूणं ॥१६३६॥ पंतस्स भज्जा सड्ढी हवेज्ज, सा साहूहि रिककारिकपनोयणे जातिता घतादि पयच्छेज्ज । तमिल णिट्टिते संघाडेणं कूरं मगिता, “णत्थि'' त्ति भोज्ज । एवं कुमारादि एकेक मग्गिता णस्थित्ति-भोज्जा। सो भणाति - तं कहिं गयं? तो सड्ढी भणाति - साधूणं तं दिणं । ताहे सो पंतो तं पाएज्ज - कीस ते दिगं, साहूग वा पदुवो जं काहिति, छोभगं वा देज्ज । इदाणि “२ उग्गमे" त्ति दारं -- पच्छद्ध - एवं चेव सड्ढीए कहीए हट्ठो हरिसियो, सुठु संतुट्ठो, पहुट्ठो प्रकर्षण हृष्टः प्रहृष्टः, प्रहसितमनाः, उद्धसिय रोमश्व, भगाति - सुट्ट ते कयं जं दिणं. ममेसा धम्मसहाइणि त्ति, अण्णं पि १ गा० १६३२ । २ गा.१६३२ । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १६३३-१६३६ ] चतुर्थ उद्देशकः २४७ साहुप्रट्ठा किणिउं पच्चप्पिणेज्ज, साहूणं पयच्छाहि, जया गिट्ठियं तदा पुणो कहेज्जासु, अण्णं वा उग्गमदोसं कारवेज्ज । एतद्दोसपरिहरणत्यं । गच्छे णिययकज्ज, प्र.यरिय-गिलाण-पाहुणगट्ठा । तम्हा अतिसेसियसंघाडगं मोत्तुं ठवणा - कुलेसु सेसा णो पविसेज्जा ।।१६३६।। पाहुणगे य आगते पाहुणगं कायव्वं, तं च सभावाणुमयं देज्जा । ततो भण्णति - जड्डे महिसे चारी, आसे गोणे य तेसि जावसिया । एतेसिं पडिवक्खो, चत्तारि तु संजता होति ॥१६३७॥ जड्डो हत्थी, महिसो, प्रासो, गोणो य । एतेसिं चारि अणुकूलं प्राणेति, जवसं वहति जे ते जावसिया । ते य परियट्टया । पच्छद्धं कंठं ॥१६३७॥ पुव्वद्धस्स इमा वक्खा - जडो जं वा तं वा, सूमालं महिसो मधुरमासो। . गोणो सुगंधदव्वं, इच्छति एमेव साधू वि ॥१६३८॥ हत्थिस्स इह्र णलइवखु मोतगमादी, तं प्राहारेति । तस्साभावे "जं व" त्ति जं वा अणिठें तं वा प्राहारेति, जं वा कमागयं । महिसो सुकुमालं वंसपत्तमादी, तस्साभावे तद्भाव भावितत्वात् अण्णं ण चरति, तं अह चरए पुळिंग गेण्हति । एवं ग्रासो हप्पिच्छं ( हरिमत्थं ) मुग्गमादि मधुर । गोणो अज्जुणमाति सुगंधदव्वं । एवं साहू वि चउरो, चउविधं भत्तमिच्छति जड्ड - समस्स - उक्कोसाभावे दासीणातिगा कडपूरोण पोयणं । महिस - समस्स - सालिमातिणा सुकुमालोदणेण पनोयणं । पास • समस्स - खंड - खीर - सालिमाइएहि अ पोयणं । गोण - समस्स - हिंगुरिय - कट्ठ - मंडातिएहि मग हि पोयणं । एते पुण दवा ठवणकुलेसु संभवंति । अठविएमु य तेसु कतो प्राणेउ ? पाहुणो य अकते प्रयसो, 'ण य णिज्जरालाभो । अतो कायव्वं ॥१६३८॥ चोदगाह - 'ठवण कुलेमु मा कोति पविमतु, जता पोयणं पाहुगगाति उपyj ताहे पवेसियन्वं ।" पायरियाह - एवं च पुणो ठविते, अप्पविसंते इमे भवे दोसा । वीसरणे संजताणं, वि सुक्खगोणी य आरामे ॥१६३६।। Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ समाय-पूणिके निशीषसूत्र [सूत्र-२२ पुव्वद्धं कंठं । "विस्सरणा संजताणंति" भिक्खावस्मं दायब त्ति ण पडिवालेंति, खेत्तमातीयं चयंति वि सुक्खगोणी दिटुंतो इमो, जथा - एगस्स गिहिवतिणो पगतं काउकामस्स तक्केण पोयणं । तस्स य गोणी पदोस-पच्चूसेसु कुलमं कुलगं दुद्धस्स पयच्छति । तेण चितियं - प्रासण्ण गते दुज्झिहिति तो मे सगिहे चेव बहुतक्कं भविस्सइ ति ण दूढा । पत्ते य पगयकाले दोढुमाढत्तो जाव विसुक्का। पारामे त्ति दिटुतो - एवं मालागा रेण वि चितियं - प्रासण्णे छण्णे उन्बीहामि ति ण उव्वोता। जाव छणासण्णं ताव प्रोप्फुल्लो आरामो । एवं जाहे उप्पणं कज्जं ताहे पविट्ठा ठवणकुलेसु, ताहे सड्ढा भगंति - एत्थंचिय अच्छताण मुणह वेल अम्हं एए वत्ता वेला, अप्पविसंतेसु य ण कोति दंसणं पडिवज्जति, ण वा अणुबए, गिलाणपाउग्गं च णत्थि, तम्हा एगो प्रइसेसियसंधाडो इमेहिं दोसेहिं वजितो पविसतु ।।१६३६।। अलसं घसिरं सुचिरं, खमगं कोध-माण-माय-लोभिल्लं । कोऊहलपडिबद्धं, वेयावच्चं ण कारेजा ॥१६४०॥ पालस्सितो ताव अच्छति जाव फिट्टा वेला। अहवा - अपत्ते चेव देसकाले अडति, अलद्धे य गुरुमातियाण विराहणा, अतिक्कंतकाले अलाभो, वा अप्पलाभो वा, ठवणादोसा य, अपत्ते वा प्रोसकणदोसं, अण्णतो य अलाभो, चिरं वा हिंडेति । "घसिरो" वह्वासो, सो वि अप्पणो जाव पज्जत्तं गेण्हति ताव वेलातिककमो, गहिते वा मप्पण्णो जाव पन्जत गेहति ताव सीतलं, अकारकादि दोसा भवंति । जे अलसे ते सुचिरे वि दोसा, स्वपनशीलः सुचिरः । "ख गो” परिताविति, सेसा घसिरदोसा खमगे वि संभवति । "कोवी" प्रदत्ते रूसति, रुट्ठो वा घरं ण गच्छति, किं वा तुमं देसि त्ति दुव्वयणेहि विपरिणमेति । "माणो" ऊणे वा दिणे, अन्भुटाणे वा, प्रदिणे थमति त्ति, पुणो घरं माणेण ण गच्छति, तेण विणा जा हाणी तं पावति । "माती" भद्दगं भोच्चा पंतं ग्राहारेति, पंतेण वा छाएति । "लुद्धो" प्रोभासति, दिज्जत वा ण वारेति, अणेगेसु पविसमाणेसु जे दोसा ते लुढे संभवंति । कोऊएण णडयाती पेच्छंतो ताव अच्छति जाव देसकालो फिडिप्रो। सुत्तत्थेसु पडिबद्धो जाहे व पाढविरहो ताहे व प्रदेसकाले वि प्रोतरति, पडलं पाए वा प्रतिवकंतकाले उत्तरति, एत्थ प्रोसक्कण - उस्सका नाति दोसा ॥१६४०॥ एते जो ठवेति, जस्स वा वसेण ठविज्जति तस्सिमं पच्छित्तं- तिसु लहुरो तिसु लहुगा, गुरुगो गुरुगा य दोसु लहुगा य । अलसादीहि कममो, कारिति गुरुस्स पच्छित्तं ॥१६४१॥ प्रलममातिएसु जहासंख देयं ।।१६४१।। एतद्दोसविमुक्कं, कडजोगिं णात-सीलमायारं । गुरुभत्तिमं विणीतं, यावच्चं तु कारेज्जा ॥१६४२॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा १६४०-१६०१ | चतुर्थ उद्देशक: एतेसु मलसमादिया दोसा । तेहि विमुक्के वजितो सुत्तत्थेसु कडो जोगो जेण सो कडजोगी गीतार्थेत्यर्थः । वेयावच्चे वा जेणऽण्णया वि कडो जोगो सो वा कडजोगी । श्रक्कोहणादिसीलं जस्स णायं सो णायसीलो । आवरणमायारो, सो य पंचविहो नाणादि, सो जातो जस्स सो णातायारो उद्यताचारेत्यर्थः । गुरु प्रायरिया, एसुवरि भत्तिमंतो गुरोः सर्वकरणीय कारकेत्यर्थः । श्रब्भुद्वाणातिविणयकारी विणीतो । एरिसो गुरुमादियाण वैयावच्चं करिज्जति ॥ १६४ ॥ एयगुणोववेयाण वेयावच्चकरणे इमे गुणा साहिंति य पियधम्मा, एसणदोसे अभिग्गहविसेसे । एवं तु विहिग्गहणे, दव्वं वडृ ति खेतण्णा ||१६४३|| सान्ति कथयति । के कथयन्ति ? पियधम्मा, पिश्रो य धम्मो जेसि ते पियधम्मा । प्रियधर्मत्वादेव एस दोसे मक्खिताइए कथेति तेहि दोसेहि दृटुं साहूण ण दिज्जति, एवं बहुफलं भवति । साहूण य अभिग्गहविसेसे कहेंति । उक्खित्तचरगा निविखत्तरगा उक्खित्तनिक्खित्तचरगा अंतो संव्युक्कादि दंडायतियादि संसद्वातियाम्रो य एसणाम्रो कहयंति, जिण कप्पग्रभिग्गहे य कहंति एवं कहेयंता विधीए गहणं करेंता, एवं सढं वड्ढेंता, दवं वड्ढेंति, खेयन्ना ज्ञानिन इत्यर्थ. ।।१६४३ ।। सण- दोसे व कते, अकते वा जति-गुणेवि कत्थेंता । कति सभावा, सण- दोरो गुणे चेव ॥१६४४॥ ते पुण उल्लोएण धम्मं कहेंति । एसण-दोसे कते प्रकते वा जतीणं गुणा खमातिता विविधं कहयंतिलाघयंतीत्यर्थः, असढभावा, ण 'दंभेण, न भक्षणोपयनिमित्तं, एसणदोसे साधूग य गुणे कहेंति ।। १६४४ ।। इमं च कहेंति - ठाणं गमणागमणं, वावारं पिंडसोधिमुल्लोयं । जाणता ण वि तुब्भं, बहुवक्त्रेवाण कहयामो ॥१६४५॥ जत्य साहू ठाणे ठिता भिक्खं गेण्हति जत्थ वा ठाणे ठितो दायगो ददाति, ठाणं वा स्थापनंसदोष मित्यर्थः । गमो बागमो य दायगस्स जहा तहा कहेंति, कत्तण, पिंजण कंडणादिए य वावारे कहेंति, एरिसे गेलं, एरिसे वा प्रगेज्झ, एवं उक्खेवेण गिज्जुती कहेंति । इमं च भणाति जई वि साहुधम्मं वियाण तहावि बहुवक्वेवाण विस्संरिहिति तो अविस्मरणत्थं कहामो ।। १६४५ ।। बालादि - परिच्चत्ता, अकधित्तेणेसणादि - गहणं वा । णय कथपबंधदोसा, अधय गुणा-सोधिता होंति ॥१६४६ ॥ कि चान्यत् २४६ १ कैतवेन (भा) । सिं चि अभिहिता, अणभिग्गहितेसणा य केसिं चि । मावणं काहिह, सव्वे वि हु ते जिणाणाए ॥१६४७॥ - ३२ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-२२ अभिग्गहिया एसणा जिणकप्पियाणं, प्रणभिग्गहिता गच्छवासियाणं । अण्णोण्णोयरणं दर्दू, जो प्रवणवातो भासियवो । सव्वे ते जिणाणाए सकल्पत्वात् ॥१६४७।। ते पुण एसणदोसे कहेंति इमेण विधिणा - बालादि-परिच्चत्ता, अकधितेणेसणादि-गहणं वा । ण य कधपबंधदोसा, अध य गुणा सोधिता होति ॥१६४८॥ संविग्ग-भाविताणं, लोद्धग-दिवंत-भाविताणं च । मोत्तण खेत्त-काले, भावं च कहेंति सुठुत्थं ॥१६४६॥ उजयविहारीहिं जे सड्ढा भाविया ते संविग्गभाविया, पासत्थाईहिं जे भाविता ते बुद्धदिटुंत भाविता। कहं ते पासत्था एवं कहेंति ? - जहा लुद्धगो हरिणस्स पिठुलो धावति, हरिणस्स पलायमाणस्स सेयं लुद्धगस्स वि जेण तेण पगारेणं हं हरिणं आमंतु वावादेंतस्स सेयं । एवं जहा हरिणो तहा साधू, जहा लुद्धगो तहा सावगो। साधू अकप्पियकं उप्पहारातो पलायति । पासत्थो सड्ढे भणाति -- जेण तेग पगारेग सच्चालियादि भासिऊण तुन्भेहिं कप्पियं अकप्पियं वा साहूण दायव्वं, एयं तुझ सेयं भवति । कक्खडखित्तं प्रद्धाणं च पडुच्च साववायं कहति । दुभिक्खादिकालं गिलाणादिभावं पडुच्च साववाय कहेंति । एवमादि कारणे मोत्तु सेसेसु खेत्तादिसु सुठुत्थं कहेंति उत्सर्गत इत्यर्थः ॥१६४६।। संथरणम्मि असुद्धं, दोण्ह वि गेहंत-देंतयाणऽहितं । आउर-दिटुंतणं, तं चेव हितं असंथरणे ॥१६५०॥ फासुसणिज्जा असणादिया पज्जता जत्थ लभंति जत्थ हट्टो य तं संथरंतम्मि संथरे, प्रफासुयं देंत-गेण्हंतगाण अहियं भवति । तं चेव अफासुयं असंथरे हितं भवति । बोदगाह - "तदेव कल्पं तदेवचाकल्पं, कथमेतत् ? प्राचार्याह - आतुरदृष्टान्तसामर्थ्यात्, निरुजस्य विषादिना प्रौषधेन किं प्रयोजनं, सरुजस्म तदेव विषादिकं पत्थं भवति ।।१६५०॥ संचइयमसंचइते, णाऊणमसंचयं तु गेहति । संचइयं पुण कज्जे, णिबंधे चेव संतरितं ॥१६५१।। षय - गुल - मोयगाइणा जे अविणासी ते संचइगा, वीरदहिमादिया विणासी जे ते प्रसंचइया, ठवणकुलेसु पभूतं गाऊण असंचइयं गेहंति, संच इयं पुण गिलाणकज्जे उप्पणे गेहंति, अगिलाणो वि सड्ढग - णिबंधे गेण्हति, तं पुण "संतरित'' ण दिणे टिणणे इत्यर्थः ॥१६५१॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा १६४८-१६५६ ] चतुर्थ उद्देशकः २५१ अपवादस्यापवादमित्युच्यते - अहव ण सद्धा विभवे, कालं भावं च बाल-बुडादी । णातु णिरंतरगहणं, अछिण्णभावे य ठायंति ॥१६५२॥ मावगाण सद्ध गाऊग, विपुलं च विभवं णाऊण, कालं च दुभिक्खाइयं, गिलाणभाव च, बालवुड्ढाए य अप्पायणं च, एवमाइकज्जेण णाऊण णिरंतरं गेण्हति. जाव य तस्स दायस्स भावो ण वोच्छिज्जति तार दिज्जमाणं वारयति ॥१६५२।। ठवणकुलेसु गेण्हताण इमा सामायारी - दव्यप्पमाण गणणा, खारित फोडित तहेव अद्धा य । संविग्ग एगठाणा, अणेगसाहूसु पण्णरसा ॥१६५३॥ "'दव्वगणणापमाणे" वि दो वि वक्खाणेति - असणादि दव्बमाणे, दसपरिमितभत्तएगमुच्चारो। सो एगदिणं कप्पति, णिक्कंतियत्रो दरो इधरा ॥१६५४॥ तेसु ठवणकुलेसु असणस्स प्रादिसहातो पाण • खाइम - साइमस्स य परिमियापरिमियस्स दबस्स माणं साहुणा जाणियव्वं । गणणबारे जत्थ पारिमियं तत्थ दसहरद्धे एगभत्तट्ठो उच्चरे सं: एगदिश साहूण कप्पति, बितियादिदिणेसु जइ गेण्हति तो गेक्कंतितो होति तम्हा ण कप्पति ॥१६५४।। अपरिमिते आरेण वि, दसण्ह उच्चरति एगभत्तहो । जं वंजणसमितिमपिट्ठो, वेसणमादीसु वि तहेव ॥१६५५॥ जत्थ पुण अपरिमियं रद्धति तत्य पारेण वि दसण्हं णव - अट्ठ-सत्तिमादियाण रद्धे एगभत्तट्ठी उबरति, सो एगदिणं कप्पदि, सो वि प्रतो परं कंतितो भवति । "खारिय-फोडिय' त्ति दार। खारो लोणं जुन्मइ कडच्छूने घयं ताविति, तत्थ जीरगादि सम्भति, तेण ज धूवियं तं फोडियं भवति । व्यंजतेऽनेनेति व्यंजनं, तं च तीमण - माहुरगादि भणति । समिति 'मातलाहणगादि, पिढें उडेरगादि, वेसणं कडुभंडं जीरयं हिंगपत्तसागाति "तहेव" त्ति - जहा असणादियाण . तहा एतेसि परिमियापरिमिताण परिमाणं णायव्वं ॥१६५५।। एवमुच्चारो य - '. 3ग्रद्ध" त्ति दार - मति कालद्धं णातुं, कुले कुले तत्थ ताहे पविसंति । प्रोसक्क्रणादि दोमा, अलंभे बालादि-हाणी य॥१६५६|| मति विद्यमान भोजनकालं कुले कुले क्रमेणोत्क्रमेण वा प्रविसंति, उस्सकणातिया य दो परिहरंति । अह अदेसकाले पविसंति तो उससक्कणातिया दोसा । बालातियाण य अलाभे हाणी ।।१६५६।। १ गा. १६५३ । २ गा० १६५ । ३गा० १६५३ । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-२२ एगो व होज्ज गच्छो, दोण्णि तिण्णि व ठवणा असंविग्गे । 'सोधी गिलाणमादी, असती दवादि एमेव ॥१६५७॥ जत्थ एगो गच्छो तत्थ ठवणकुलेसु एसा सामायारी भणिया। जत्थ पुण दोण्णि तिण्णि वा गच्छा तत्थ ठवणकुलेसु कहं गहणं ? ते य दो तिणि वा गच्छा परोपरं संभोतिया असंभोइया वा । ॥१६५७।। असंभोइएसु इमा विही संविग्गमणुण्णाते, अतिति अधवा कुले विरिंचंति । अण्णाउंछु च सहू, एमेव य संजती-वग्गे ॥१६५८॥ संघिणा उज्जयविहारी, तेहिं वत्थव्वसंविग्गेहिं प्रागंतुगा संविग्गा अणुण्णाया ठवणाकुलेसु 'अतिति' प्रविशंतीत्यर्थः । वत्थव्वा साधू ठवणकुलवज्जेसु गुरुमाइयाण अप्पणो य भत्तमुप्पाएंति । अह दो वि असहू ताहे दोसु गच्छेसु अद्धद्धे कुले विरिचंति, तिसु तिभागेण एवं चउसु चउभागेण, आगंतुगा वा साधू अण्णायउंछं हिंडंतु । जो अण्णसभोतिएसु संजतेसु विधी, संजतीसु संभोइयासंभोइयासु सो चेव विधी ॥१६५८।। एवं तु अण्णसंभोइएसु संभोइएसु ते चेव ।। जाणित्ता णिबंधं वत्थव्वेणं स तु पमाणं ॥१६५६॥ एवं अण्णसंभोइयाण विधी भणितो, संभोतिएसु पुण ते चेव वत्थव्वा प्राणयंति, सड्ढाण वा णिब्बंधं जाणित्ता प्रागंतुगसंघाडमो वत्थव्वसंघाडएण सह पविसति, पविट्ठाण य ठवणकुलेसु जइ बहुयं भत्तं लब्भति तो पागंतुकेहिं ण गवेसणा कायवा, वत्थव्वस्स संघाडगो तत्य प्पमाणं जाणति, तम्हा सो चेव तत्थ पमाणं एवं एगवसहिठिताण विहाणं ।।१६५६।। असति वसधीए वीसुं रातीणिय वसधि भोयणागम्मं । असहू अपरिणता वा ताहे वीसुं सहू वितरे ॥१६६०॥ असतीए वसधीए वीसुं पृथक् स्थिता । तत्य आगंतुगो वत्थव्वगो वा जो रानिणियो तस्स वसहीए मागंत भुंजति । __ अह एगम्मि एच्छे असहू गिलाणा वा असहू अपरिणता वा सेहा, ताहे तेसु वीसु पृथक् ठिएसु प्रमहूण पढमालीयं वितरंति, पच्छा सव्वे गंतुं रातिणीय वसहिं एगो भुंजंति ।. अह दोसु वि गच्छेसु असहू अपिरषता वा, ताहे को यि परोप्परं असहूण पढमालियं प्रणुजाणंति, पच्छा सवे एगतो मुंजंति । मह एक्कसिं दोसु वा गच्छेमु असहू सव्वहा चेव भुत्ता, ताहे सेमा रातिणियवसहीए गंतु एगतमो मुंजंति ॥१६६०॥ अह संभोतिया वसहि अमावे मंडलिभूमि - प्रभावे वा गिलाणातिकारणेसु वा एगतो ण भुजंति । ताहे इमो विधी - तिण्हं एगेण समं, भत्तटुं अप्पणो 'अवडूतु पच्छा इतरेण समं, आगमणे विरेगो सो चेव ॥१६६१।। १ अस्या व्याख्या अग्रे द्रष्टव्या (गा० १६६१-६२) । २ अर्धः । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भष्यगाथा १६५७-१६६५ ] चतुर्थ उद्देशकः प्रायश्रिो एगो वत्यत्रो, दो प्रागंतुगा, ताण दोन्ह जो रातिणितो तस्स संघाडगे प्रप्पणी भत्तट्ठस्स ढं गेहति प्रागंतु बितियसंघाडगे वि श्रप्पणो भत्तेदृस्स प्रवढं चेव गेव्हंति, रातिणिएण समाणं श्रवढं भोच्चा इतरेण वि श्रवढं भुंजति । दो वि संविग्गिता प्रप्पणो य भत्तट्ठो पुष्णो भवति । " आगमणे" त्ति जति तिमादिया श्रागच्छति तो विभजनं विरेगो, सो चेत्र कायव्वो, जहा दोसु तहा तिसु चउमादिएस यौं ।। १६६१ ।। इयाणि ""प्रसंविग्गे सोही गिलाणमादि" अस्य व्याख्या संविग्गा साहू जत्य खेत्ते वसंति तत्य जे मेज्जातरादि ठवणकुला प्रणतो अलब्धंते तेसु कुलेसु पविसिउं "सोहि" त्ति सुद्धं जं भसवाणं तं गिलाणातिप्राण गेव्हेज्जा । तरंतस्स तु जोग्गासती य इतरेहि भाविते विसिउ । अण्णमहाणसु वक्खड, भुंजति जं वा सयं सण्णी ॥१६६२॥ संविग्भाविसु कुलेसु पविसंताण उग्गमाइया दोसा तम्हा णो पविसेज्जा । प्रतरंतो गिलाणी, तस्स जोग्गा असतीते "इतरे" त्ति पासत्य भाविता तेसु पविसिउं जम्मि महाणसे ते पासत्या भिक्खं गेव्हंति तत्थ न गेहुंति, अण्णमहाणसे गेहंति । जं वा सब्जिमातियाण पिघोवक्खडं ततो गेव्हंति, अप्णतो वा जं पगाति श्रायतं तं गेहति ॥। १६६२ ॥ ८२ " सती य दवाति एमेव" त्ति अस्य व्याख्या - - भावित ठवणकुलेसुदवं गेव्हंति । प्रादिसद्दातो प्रसंविग्ग भाविय ठवणाकुलेसु वि : सति प्रणोदवस संविग्ग भक्ति ठवणकुलेसु दवं जयणाए मेहति । श्रादिसद्दातो प्रसंविग्ग २५३ सती एव दवस तु, परिसित्तिय-कंजि- गुल-दवादीणि । अट्टिताणि गण्डति सव्वालंभे व मीसाई ॥ १६६३ ॥ 9 प्रसति प्रणतो अण्णायउंछे दव्वस्स संविग्गेतर भावियकुले दवं गेण्हेज्जा, तं च 'परिसित्तियं" नाम उपहोइगेण दहिमट्टगा निच्चं गालिज्जंति तं परिसित्तगपाणगं भण्णति । कंजिगं पसिद्धं । गुलो जीए कवल्लीए *ज्जति तत्थ जं पाणियं कयं तत्तमतत्तं वा तं गुलपाणियं भष्णति । तो ते गिहत्य प्रत्तद्विताणि गेण्हति । सव्वा फागस्स अलाभे सचितमीसं पि गेण्हति ।। १६६३ ।। पाणट्ठा व पविट्ठो, असुद्ध माहारछंदितो गेहे । श्रद्धाणादिमसंथरे, जतितुं एमेव जदसुद्ध || १६६४॥ संविग्नेतरभाविते कुलेसु पाणट्ठा पविट्ठो - सेसं कंठं । श्रद्धाणस्स वा श्रादीए मझे वा उत्तिष्णो वा संघतो पणगातिजयणाए जतिउं पच्छा जं प्रसुद्धं तं पि गेव्हंति । १ ६४ ।। वितियपदमणाभोगे, गेलण्णऽद्भाण-संजम भए वा । सत्यवसर व श्रवसे, परव्वसे वा वि णो पुच्छा ॥१६६५॥ श्रवसो खित्तचित्तादि, रायदुट्टे, रायपुरिसवसको परव्वसो, एवमादिएहि कारणेहिं ण पुच्छेज्जा बि, अपुच्छंतो य सुद्धो ।। १६६५।। १ गाया १५५७ । २ गा० १६५७ । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ सभाष्य-चूर्णिकेनिशीथसूत्रे जे भिक्खु णिग्गंथी उस्सयंसि अविहीए अणुप्पविसइ अणुष्पवितं वा सातिज्जति | | ० ||२३|| णिग्गय गंथी णिग्गंथी । उवस्सश्रो वसही । तं जो प्रविधीए पविसति तस्स मासलहुं, आणातिता दोसा भवंति । इदाणि णिज्जुती - णिक्कारणमविधोए, णिक्कारणतो तहेव य विधीए । ४ कारणतो अविधीए, कारणतो चेव य विधी || २६६६ ॥ पवेसे चउरो भंगा भवंति पढमे - णिक्कारणे प्रविधीए, बितिए शिक्कारणे विधीए । तइए कारणे प्रविधीए, चउत्थे - कारणे विधीए ।। १६६६ ।। पढमभंगो वक्खाणिज्जति मासियं गुरुगं । आदिभयणाण तिन्हं, अण्णतरीए तु संजतीसेज्जं । जे भिक्खू पविसेज्जा, सो पावति ऋणमादीणि ॥। १६६७ || तिष्णि प्रादिमा मंगा आदिभयणा भष्यति । एतेसि तिन्हं भंगाणं अष्णतरेण जो संजतिवसहि पविसति तस्स प्राणातिता दोसा ।।१६६७।। " - चोयगो पुच्छति - — णिक्कारणम्मि गुरुगा, तीसु वि ठाणेसु मासियं गुरुगं । लहुगा य वारमूले, अतिगतिमित्ते गुरू पुच्छा ||१६६८ || जात शिक्कारणे संजतिवसह जाति तो चउगुरु, प्रविधीए पविसंतस्स तीसु वि ठाणेसु इमे तिणि ठाणा - प्रग्गद्दारे, मज्झे, श्रासणे । एतेमु तीसु वि णिनीहियं प्रकरेंतस्म तिणि मासगुरुगा भवति । जर मूलदारसमीवे बहिया ठायंति नो चउलहुं तो पविसद्द तो चउगुरु ।। १६६८ । । [ सूत्र- २३ पाणातिवा कीस वा बहिरेमूले चउलहुं ? कीस वा अंतो प्रतिगयस्स चउगुरु ? आयरिश्र भणति - हे चोदग ! सुणेहि कारणं ।। १६६६ ।। पाणातिपातमादी, असेवतो केण होंति गुरुगा तु । कीस च बाहिं लहुगा, अंतो गुरु चोदग ! सुणंहि । १६६६ ।। करेंतस्स केण कारणेण चउगुरु पच्छित्तं भवति ? Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाया १६६६-१६७४ ] "पवलातिय" ति अस्य व्याख्या वीसत्थाय गिलाणा, खमिय वियारे य भिक्ख सज्झाए । पाली य होति भेदो, अत्ताणपरे तदुभए य || १६७० || दा० गा० 'वीसत्य त्ति दारं कायी सुहवीसत्था, दर - जमिय अवाउडा य पयलादी । श्रतिगतमेते तहियं, संकितपवलाइया थद्धा || १६७१ ॥ काति संजती वसहीए तो प्रायसुहेण भवंगुयसरीरा सुहवीसत्या प्रच्छति, प्रद्धभुता वा पंतो त्रसहीए दरणिवत्था श्रवाउडा णिसण्णा वा निवण्णा वा शिद्दायति, एवं तासु संजतीसु तम्मि संजते प्रतिगते पविट्ठे काति संकिता " श्रहमणेण प्रवाउडा दिट्ठ" ति पचलाइया नश्यति, सहसा पविट्ठे संखोहातो बद्धगण भवति ।। १६७१ ।। चतुर्थ उद्देशकः वीरल्लसउणि वित्तासियं जधा सउणि-वंदयं वुष्णं । वच्चति णिरावयक्खं दिसि विदिसाओ विभज्जंतं ॥१६७२॥ एतस्स दिट्ठनस्स इमोवसंहारो - वीरल्लग - सउणो उल्लगजाति, तेण वित्तासिता सउणो कवोतगाति, तेसि वृदं वुष्णं भयुन्मिष्णासण खुभियं वच्चति । प्रवेक्खा णाम अवलंभणा श्रष्णोष्णेसु पुत्तभंडातिसु, सा णिग्गता जस्स तं णिरवेक्ख भगति । दिसाच विदिसा दिसोदिसं विभज्जंतं अपुरयमाणं । १६७२ ।। तम्मिय प्रतिगतमेत्ते, वितत्थ उ तहेव जह समणी । गिण्हंति य संघाडि, रयहरणे या वि मग्गति ।। १६७३ || २५५ सम्मि संजते पविट्टे विविधं त्रस्ता वित्रस्ता जहा ताओ सउणीश्रो ताम्रो वि संजतीश्रो, प्रण्णा श्रवाउयगत्ता तुरियं तुरियं पाउणति मग्गति च श्रण्णा तुरियं रोहरणं मग्गति, अवि सद्दाम्रो संभमेण रोहरणं मोतुं णट्ठा पच्छा मग्गति ।। १६७३ ॥ इमे दोसा - छक्कायाण विराधण, आवडणं विसमखाणुए विलिता । थद्धा य पेच्छितुं भाव-भेदो दोसा तु वीसत्थे ।। १६७४ ।। कुमारसाला ति णिरवेक्खा णासंती छक्काये विराहेज्ज, आवडणं पक्खलणं हेट्ठोवर वा अफिडणं, विसमै वा पडति, खाणुए वा दुक्खविजति, प्रवाउडा वा विलिता विलक्खीभूता उब्बंधणादि करेल, यद्धं वा प्रवास पेच्छिऊण बहुप्रणमज्भे भावभेदो भवेज्जा, एमागिणी वा एक्क देख । एते दोसा बीसत्याए भवति । दारं ।। १६७४ ।। १ ० १६७० / Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ सभाष्य-पूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-२३ इदाणिं "गिलाणे" त्ति दारं कालातिक्कमदाणे, गाढतरं होज्ज व पउणेज्ज । संखोभेण णिरोधो, मुच्छा मरणं. च असमाही ॥१६७॥ संजयसंखोभेणं गिलाणी ण भुजति, भिक्खाए वा गिलाणीणिमित्तं ण वञ्चति, एवं प्रतिक्कतकाले दाणेण गाढतरं गेलण्णं हवेज, ण वा पउणेज्ज । अहवा - संजयसंखोभेण काश्यं सणं वा वायकम्मस्स वा गिरोह करेज, तत्थ गाढतरं गेलण्णं हवेज मुच्छा वा से हवेज्ज, णिरोहेण वा मरेज्ज, असमाधाणं वा से हवेज्ज। एत्थ परितावणादिणिप्फण्णं सव्वं पायच्छित्तं दटुब्वं । दारं ॥१६७५।। रदाणि "२खमग' ति दारं - पारणग-पट्टिता आणितं च अविगडित ऽदंसितं ण भुजे । अचियत्तमंतराए, परितावमसम्भवयणे य॥१६७६॥ समिगा पारणगट्ठा पट्ठिया, जेट्टऽज्जो भागमो ति णियत्तति, दारमूले वा सणिविट्टो उरि ण गच्छाम ति णिवत्तति, पवत्तिणो वा तस्स समीवे णिविट्ठा, खमिगाए वा पारणगमाणियं अविगडियं प्रणालोइयं प्रदसितं च ण भुजति, पत्तिणीयो दिक्खतीग्रो प्रच्छति, खमियाए प्रवियत्तं अंतरायदोसा य, खमिगा परिताविज्जति, प्रसन्भवयणं वा भणेज्ज, कि चि न किंचि ? कीलग प्रज्जो एस उवट्ठिय त्ति । दारं ॥१६७६।। इयाणि "वियारे" ति दारं - णोल्लेऊण ण सक्का, वियारभूमी य पत्थि से अंतो। संते वा ण पवत्तति, णिच्छुभण तिणास गरहा य ॥१६७७॥ जोलणं संघट्टणं ताणं अंतो विगारभूमी णत्थि, संकाए वा कस्सति ॥ पवत्तति, सेज्जायरेण अणगुणाय जति वोसिरति तो गिच्छुभेजा, दिया राम्रो वा गिच्छूढा अवसहिया विणासं पावेज, गव्हणं च पावति । दारं ॥१६७७॥ इदाणि "भिक्ख' ति दारं - सति कालफेडणे एसणादि पेल्लेमपेल्लणे हाणी । संकादभावितेसु य, कुलेसु दोसा चरंतीणं ॥१६७८॥ तामो य भिक्खं पद्विता, सो य प्रागतो, तस्स दक्खिपणेणं ताव ठिता जाव सति कालो फिडितो, ततो प्रवेलाए एसणं पेल्लेज्जा, तणिप्फणं । अपेल्लतीणं अपणो हाणी, तत्थ परितावणादि गिफण्णं, प्रभाविय - कुलेसु य प्रकाले चरंतीमो मेहुणढे संकिज्जति । दारं ॥१६७८॥ इदाणि "सज्झाय" ति दारं -- सज्झाए बापाओ, विहारभूमि व पट्ठियणियत्ता । प्रकरण णासारोवण, सुत्तत्थ विणा य जे दोसा ॥१६७६॥ १गा.१६७०.२ गा.१६७० । ३ गा० १६७०।४ गा० १६७०।५ गा० १६७० । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १६७५ - १६८४ ] चतुर्थं उददेशकः जेज्जो श्रागतो त्तिण पद्धति, वाघातो वसहीए वा प्रसज्झायं, सज्झायभूमीए पट्ठिताणं तं दट्ठ गियत्ताण सज्झायत्राघातो । " प्रकरणे " ति सुत्तपोर्शिस ण करेंति मासलहुं, प्रत्थपोरिसि ण करेंति मासगुरु, सुतं णाति । प्रत्यं णार्मेति ङ्का । सुत्तत्थेहि य णट्ठेहि कहं चरणविसुद्धी । दारं ।।१६७६ ।। इदाणि "पालियभेउ" त्ति दारं - संजम - महातलागस्स, णाण - रग्ग- सुपरिपुण्णस्स । सुद्धपरिणामजुत्तो, तस्स तु अणतिक्कमो पालीं ॥१६८० ॥ संजम महातलागस्स श्रणइक्कमपालिए भेदो भवति, वसहि-पालिए वा भेदो भवति ।। १६८०।। संजम अभिहस्स वि, विसुद्ध परिणाम-भाव- जुत्तस्स | विकहाति-समुप्पण्णो, तस्स तु भेदो मुणेतव्वो || १६८१ ॥ हवा पालयतीति, उवस्सयं तेण होति सा पाली । ती जायति भेदो, अप्पाण- परोभय-समुत्थो ॥१६८२॥ मोह - तिमिच्छा खमणं, करेमि श्रहमवि य बोहि - पुच्छा य । मरणं वा अचियत्ता, अहमवि एमेव संबंधो ॥ १६८३॥ सो गतो जाव एक्का वसहि-पाली प्रच्छति । तेण पुच्छिता किं ण गतासि भिक्खाए ? सा भण्णति श्रज्ज ! खमणं मे । सो भणति सा भणति मोह - तिगिच्छं करेमि । ताए वि सो पुच्छिम्रो भणाति अहं पि मोह - तिगिच्छं करेमि । कहं बोधिति - लद्धा ? परोपरं पुच्छति । तेण पुच्छिता - कहं सिं पव्वइया ? सा भणति भत्तारमरणेण तस्स वा श्रचियत्त नि तेश पतिता । ताए सो पुच्छितो भगति - अहं पि एमेव त्ति । 4 एवं भिण्ाकह- सबभावकहणेहि परोपरं भाव संबंधो हवेज्ज ।। १६८३ ॥ "२ बोहि - पुच्छाए" ति अस्य व्याख्या -- - कि निमित्तं ? - २५७ - प्रमाणस्स व दोसा, तस्स व मरणेण सग्गुणो आसि । महतरिय - पभावेण य, लड़ा मे संजमे बोधी ॥१६८४॥ · श्रमाणं ससवत्तियं । अहवा ससावत्ते विमं प्रोमं पासती, तेण दोसेण पन्त्रइया । सो मे भत्ता १ गा० १६७० । २ गा० १६८३ । - ३३ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [सूत्र-२३ सगुणो णेहपरो आसि, तस्स मरणेण पव्वइया । महयरिया मे णेहपरा धम्मवक्खाणं करेति तेण मे बोधी लदा ॥१६८४॥ किं चान्यत् - पंडुइया मि घरासे, तेण हतासेण तो ठिता धम्मे । सिटुं दाणि रहस्सं, ण कहिज्जति जं अणत्तस्स ॥१६८॥ घरवासे वाकारलोपाम्रो घरासे, घरे वा प्रासा घरासा, तम्मि घरासे पंडुइया भ्रसिया। "तेणं" ति . भत्तारेण, हता पासा जस्सा सा हतासा सिटुं कहियं । इदाणि रहस्सं णाम गुज्झ, अणत्तो अनाप्तः, तुमं पुण ममात्तो, तेण ते सव्वं कहियं ॥१६८५॥ किं चान्यत् - रिक्खस्स वा वि दोसो, अलक्खणो सो अभागधेज्जो वा। ण य णिग्गुणामि अज्जो ! अवस्स तुब्भे वि णाहित्थ ॥१६८६॥ रिक्खं णाम नक्खत्तं । गुणं विवाहदिणे विवक्करादि-दोसो णक्वत्तस्स प्रासि, तेण सो ममोवरि णित्तहो णिरणेहो प्रासि । अलक्खणो वा सो अभाग्यानि अपुण्याणि ताणि जो घरेति सो प्रभागधेयो, न याहं णिम्गुणा, तहा वि मम सो णित्तण्हो, एतेहिं दोसेहिं "अज्जो' ति प्रामंतणे । अहवा - किं णि उत्ताए सराहिज्जति ? तुम्भे वि णाहिह । “अवस्स'' ति णिद्धारणत्थे संदेहत्थे वा॥१६८६॥ ताए पुच्छियो सो वि दुद्धरो इमं भणति -- इट्ठ-कलत्त-विनोगे, अण्णम्मि य तारिसे अविज्जते । महतरय-पभारेण य, अहमवि एमेव संबंधो ॥१६८७॥ __ इटुं पियं धनं कलं यस्मात् सर्व अत्ते गृहाति तस्मात् बलतं, सा य भारिया, तस्स वियोगे । अण्णं च तारिसं पत्थि । महप्तरो य मे णेहपरो, तेण अहमवि पव्वइतो। "एमेव" त्ति जहा तीए प्रप्पणो साणुरागं चरितं प्रक्खियं तं एमेव सो कहेति, एवं तेसि परोप्परसंबंधो भवति ॥१६८७॥ किं चान्यत् - किं पेच्छह ? सारिच्छं, मोहं मे णेति मज्झवि तहेव । उच्छंग-गता व मया, इधरा ण वि पत्तियंतो मि ॥१६८८॥ सो तं णिद्धाए दिट्ठीए जोएति ताए भण्णति - किं पेच्छसि ? सो भगाति - सारिच्छं, तुम मम भारियाते हसिय -जंपिएण लडहत्तणेण य सन्वहा । सारिच्छा। तुज्झ दसणं मोहं मे णेति, मोहं करेति । अहवा - मोहं गेति उप्पादयति, णज्जति सा चेव त्ति । सा भणाति -- जहाऽहं तुझे मोहं करेमि, तहा मज्झवि तहेव तुमं करेसि ? केवलं सा मम उच्छंगे मया, इहर ति-जति सा परोक्खातो मरंति तो देवाण वि ण पत्तियंतो जहा तुम सा ण भवसि त्ति ।।१६८८।। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगापा १६८५-१६६५] चतुर्थ उद्देशकः २५६ इति संदसण-संभासणेहिं भिण्णकध-विरह जोगेहिं । सेज्जातरादि-पासण, वोच्छेद दुदिट्ठधम्मे त्ति ॥१६८६॥ __ "इति" एवार्थे, परोप्परं दंसणेण संभासणेण य एयाहिं य भिण्णकहाहिं विरहो, एगंतं तत्य जोगेहि चरित्तभेदो भवति । सेज्जातरो अण्णो वा कोति पासेज्ज, संकातोता दोसा । तस्स वा साहुस्स अण्णस्स वा वसहीए अण्णदयस्स वा वोच्छेदं करेज्ज । "दुट्ठिधम्मो" ति वा विपरिणामिज्ज । लिंगेण लिंगिणीए, संपत्ती जो नियच्छती मूढो। निरयाउयं निबंधति, आसायण दीहसंसारी ॥१६६०॥ अहवा - तत्थ गतो इमे भावे करेज्जा - पयला-णिद-तुयट्टे, अच्छिद्दिट्टम्मि चमढणे मूलं । पासवणे सचित्ते, संका वुच्छम्मि उड्डाहो ॥१६६१॥ पयला-णिद्द-तुयट्टे, अच्छि अदिट्ठम्मि चउलहु होति । सेसेसु वि चउगुरुगा, पासवणे मासियं गुरुगं ॥१६६२॥ निमनो पगलाति त्ति- जग्गो सुत्तो १ निसन्नो चेव निहायति २ सुत्तो सुत्तो तुयद्देति ३ संथारेतु णिवणो प्रच्छिं चमढेति ४ एतेसु पयलादिएमु परेण अदिढे चउलहुं पच्छित्तं । “मेसेसु वि" त्ति परेण एएसु चेव दिदै एक्कक्के संकाए चउगुरुग्रं चेव । निस्संकिते मूलं । जति संजतीणं फलिहतोगहे काइपभूमीवज्बे काइयं वोसिरति तो मासलहु ।।१६६२।। पयलत्तं दठूण परो इमं चितेति - सज्झाएण णु खिण्णो, आओ अण्णेण जेण पयलाति । संकाए होति गुरुगा, मूलं पुण होति णिस्संके ॥१६६३॥ कि एस संजतो सज्झायजागरेण खिण्णो पयलाइ ? प्राउ" ति अहोश्वित् “अण्णेणं' ति सागारियप्पसंगेण ? एवं संक - णिस्संकाए, पच्छदं ॥१६६३। सिद्धसेणक्षमाश्रमणकृता गाहा - पयला णिद्द तुयट्टे, अच्छिमदिट्ठम्मि चउगुरू होति । दिट्टे वि य संकाए, गुरुगा सेसेसु वि पदेसु ॥१६६४॥ पुबद्धं गतार्थ । पयलायते परेण दिट्ठ वि य संकाए चउगुरुगा, णिस्संकित मूलं, सेसेमु वि पएमु त्ति । णिहाइसु संकाए चउगुरुगा, निस्संकिए मूलं ॥१६६४॥ "'पासवणे मासियं गुरुगं' ति अस्य व्याख्या - अण्णत्थ मोय गुरुगो, संजतियोसिरणभूमिए गुरुगा। जोणोगाहणबी,, केई धाराए मूलं तु ॥१६६५॥ १गा० १९६२। Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-२३ मोयमिति काइयं । संजतीणं जा काइयभूमी, ताए स जति वोसिरति तो चउगुरुगं । तत्थ य कयाइ कीवस्स अण्णस्स वा बीयणिसग्गो भवे, तं बीयं जति धाराहतं मंजतीते जोणि पविसति तो संजयस्स मूलं । केइ आयरिया - धाराए चेव छिक्के मूलमिच्छंति, तहिं डिडिमे उड्डाहाती दोसा, जम्हा एते दोसा तम्हा णो णिक्कारणे संजतिवसहिं गच्छे ।।१६६५।। गतो पढमभंगो। इयाणि 'बितियभंगो णिक्कारणे विधीए वि, दोसा ते चे जे भणितपुव्वं । वीसत्थपदं मोतुं, गेलण्णादी-उवरिमेसु ॥१६६६॥ जो णिक्कारेणे संजतिवसति गच्छति, तिण्णि णिसीहियानो करेंतो विधीए पविसति तस्स वि ते चेव दोसा, जे पुट्विं पढमभंगे गणिता। वीरल्ल सउणिदिटुंतेण जे वीसत्थदोसा भगिता, ते मोत्तूण गिलाणाइया उवरिमा सव्वे बितियभंगे वि संभवंति ॥१६६६॥ णिक्कारणे विधीए वि, तिहाणे गुरुगो जेण पडिकुटुं । कारण-गमणे सुद्धो, णवरं अविधीए मास-तिगं॥१६६७॥ जो णिक्कारणे संजतिवसति गच्छति तस्स तिट्ठाणे णिसीहिकाविधि पजंतस्स वि मासगुरुगं भवति । कम्हा जम्हा ? पडिकुटुं गमणं । गतो बितियभंगो। इदाणिं ततियभंगो - पच्छद्ध । कारणे जो गच्छति संजतिवसति सो सुद्धो।। णवरं - तिट्ठाणे णिसीहियं अकरेंतस्स तिमासगुरु भवति, दोसु ठाणेसु न करेति दोमापगुरु, एगम्मि ठाणे अकरेंतस्स एगमासगुरु ॥१६६७।। कारणतो अविधीए, दोसा ते चेव जे भणितपुव्वं । . . कारणविधीए सुद्धो, पुच्छत्तं कारणं किं तु ॥१६६८॥ कारणे गच्छति, प्रविधीए पविसतो दोसा ते चेव जे पुटवं पढमभंगे वुत्ता वीसत्थातो ते सब्वे संभवंति । ततियभंग प्रविधिकारो त्ति काउं । गतो ततियभंगो। इयाणि 'चउत्थभंगो - पच्छद्ध । कारणे गच्छइ तिट्ठाणे णिसीहियाविधि पउजतो सुद्धो। सीसो पुच्छति - "कारणं कि" ? तुसद्दो पादपूरणे ॥१६६८॥ प्राचार्याह - गम्मति कारणजाते, पाहुणए गणहरे महिड्डीए । पच्छादणा य सेहे, असहुस्स चउक्क भयणा तु । १६६६।। कारणजाए त्ति दारं। १ गा० १६६६ । २ गा० १६६६ । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा १६६६ - १७०५ ] एयस्स इमाओ दो दारगाहाओ - २ 3 उवस्सए य संथारे, उवधी संघ - पाहुणे । 14 . ९ १० सेहे ठवणुसे, अणुष्णा भंडणे गणे ॥। १७०० ॥ ११ १२ १३ १४ १५ १६ अण गणि आऊ, वियारे पुत्त-संगमे । चतुर्थ उद्देशक: १७ संलेहण वोसिरणे, बोसिट्टे णिट्ठिते तिहिं ॥१७०१॥ 'उवस्सए संथारे त्ति दो दारा वक्खार्णेति जाणं पडिकुट्ठ, वसधी - संथारगाण गहणं तु । भासित दातव्वा वच्चेज्जा गणधरो तेणं ॥ १७०२ ॥ संजतीण वसहीए संधारगाण य सयं गहणं पडिसिद्धं । वहिं श्रभासियो ( उ ) अक्खा बन्वति । संधारगाण य प्रोभट्ठसमप्पियाणं दाणट्टा गच्छति गणधरो । संघारगे सयं विभयंतीप्रो मा श्रधि करिस्संति, तेण गणधरो गच्छति ।।१७०२ ॥ "२ उवहि" ति दारं पडितं पम्हु वा, पलावितं वा हितं व उग्गमितं । उवधिं भाएउ जे, दाउँ जे वा वि बच्चेज्जा ॥ १७०३॥ भिखादिप्रतीण पडिता उदही, सज्झायभूमीए का पम्हुट्ठा विस्सरिया, साणमाद पलः त्रिता, तेणगेहिं वा श्रवहरिता सा साहि लद्धा, गुरुगं समप्पिया, अपुत्र्वा वा उवही उग पडिय-पट्टा दिया भायगं, प्रपुव्वाए दाणं एतेहिं कारणहिं गणधरो वच्नेज्जा ।। १७०३ ।। इयाणि "संघपाहुण" ति दारं - श्राणाभिमुहीणं, थिरिकरणं कातुमज्जियाणं तु । गच्छेज्जा पाहुणओ, संघकुल- थेर गण थेरो ॥ १७०४ ॥ काय संजतीम्रो परिसहबाहिताओ सजमसारपरम्मुहीश्रो प्रोहाणाभिमुहीम्रो मच्छता थिरीकरणट्टा संघपाहुणो गच्छेज । कुल गण संघ-थेरा संघपाहुणा भण्णंति । श्रष्णो वा थिरीकरणलति गच्छेज || ७०४। इदाणि "" सेहे" त्ति दारं - stoणत्थ अप्पसत्था, होज्ज पसत्था व अज्जियोवसए । एतेण कारणेणं, गच्छेज्ज उवट्टवेरं जे || १७०५ ।। सेहस्स उवद्वावगाहे प्रज्जिप्रोवस्सयं गच्छेज्ज ।।१७०५ ।। ९ गा० १७०० । २ गा० १७०० । ३ गा० १७०० । ४ गा० १७०० Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे. इदाणि ""ठवणे" त्तिदारं - ठवण - कुलाइ ठवे ं, तासिं ठविताणि वा णिवेएउं । परिहरिउं ठविताणि व, ठवणाऽऽदियणं व वोत्तुं जे ||१७०६ || सैज्जातर मामगाइ ठवण - कुला भण्णंति । ते संजतिवसहीए गंतुं ताणं पुरतो ठवेंति, स वसहीए वा ठिण ठविया ताण गंतुं गिवेएति, इमाणि वा ठवियाणि मा पविसह त्ति णिवारणट्ठा गच्छति । ठविएसु वा वा इदाणि गहणं करेहि त्ति अणुष्णवणट्ठा गच्छति ॥ १७०६ ।। इदाणि " उद्दे सागुण्ण" त्ति दो दारा वसीय अज्झाए, गारव भय सडू मंगले चेव । उसादी काउं, वाएउ वा वि गच्छेज्जा ॥ १७०७ ।। साधुवसहीए श्रमज्झायं प्रप्पसत्या वा ताहे संजतिवसह गच्छति उद्देसाणुष्णट्ठा, दिखतेहि वा संजतिवसति गच्छनेहि ताण लोगे गारवं भवति, पडिणीयाण वा भयं भवति । हवा - श्रायरियो उद्देसाति करेति, सुहं गारव भएहि सिग्धं श्रहिज्जति, आयरिएण वा उद्दिले सद्धा भवति, संजती वा वहीए मंगल्लं तत्थ उद्दिसति एतेहि उद्दिसातिकारणेहिं गच्छति । पवत्तिणीए वा कालगाए अण्णा वायंती य णत्थि ताहे गणवरो वायगट्ठा गच्छति ।।१७०७ ॥ इदाणि "भंडणे" त्ति दारं - उप अधिकरणे, विओोसवेडं तहिं पसत्थं तु । अच्छंति खउरिता, संजमसारं ठवेतुं जे || १७०८|| संजतीणं उप्पणे अधिकरणे ताम्रो संजमसारं ठवेत्तु प्रच्छंति, खउरिता खरंटिता रोपेणेत्यर्थः, ताण य प्रसवणं संजतिवसहीए पसत्यं, तो संजतिवसहि श्रीसवणट्ठा गणधरो गच्छति ।।१७०८ || इदाणि "गण" त्ति दारं गणचिताए गणधरो गच्छेज्ज ।।१७०६ ॥ 6612 इदाणि “प्रणपज्झ त्ति दारं जति कालगता गणिणी, णत्थि य अण्णा तु गणवरसमत्था । एतेण कारणेणं, गणचिंताए वि गच्छेज्जा || १७०६ ॥ गणवरा रायादि अज्जं जक्साइड, खित्त-चित्तं व दित्त-चित्तं वा । उम्मतं पतंवा, काउं गच्छेज्ज अप्ययं ॥ १७१०॥ जक्खेण श्रादिट्ठा गृहीता, प्रोमाणिया खित्त चित्ता, हरिसेणं दित्त-चित्ता, प्रधिकतर प्रलापी मोहणिकम्मोदएण वा उम्मायं पत्ता वेदुम्मतेत्यर्थः । प्रायरियो मंतेण वा तंतेण वा प्रप्पज्भं स्वस्थचितं काम संजतिवसति गच्छेज्जा ।।१७१० ।। १ गा० १७०० । २ गा० १७०० । ३ गा० २७००४ गा० १७०० | ५ गा० १७०१ । - Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १७०६-१७१६] चतुर्थ उद्देशकः २६३ इदाणि "'अगणि" ति दारं जति अगणिणा तु दड़ा, वसती दज्झाति व डज्झिहिति व त्ति । णाऊण व सोऊण व, संठविउं जे वि वच्चेज्जा ॥१७११।। जति प्राणिणा वसहीओ दड्ढाम्रो, डझंति वा संपतिकाले, परो वा कहेंतो सुणाति दझति अहवा - दज्झिस्सति, एवं सयं णाऊणं सोऊणं वा परसमीवायो संठवणट्टा उज्झवणट्ठा वा गच्छेज्ज ।।१७११॥ इदाणि "२अाउ" त्ति दारं - णदिपूरएण वसती, बुज्झति बूढा व बुज्झिहिति व त्ति । उदगमरितं व सोच्चा, उवधेतुं वा वि गच्छेज्जा ॥१७१२।। उदगभरिए उल्लंचट्ठा उववेत्तुं उवाणहकरणट्ठा गच्छति ।।१७१२।। इदाणि "वियार" ति दारं - घोडेहि व धुत्तेहि ब, आवाहिज्जति वियारभूमीए । जयणाए वारेउं, संठवणाए वि गच्छेज्जा ॥१७१३॥ घोडा चट्टा, जूप्रकरादि- धुत्ता, तेहि वप्तहीए पुगेहडे उनसग्गिज्जति । अहवा - बाहिं वियारभूमीए जइ उवसग्गिजंति तो तेसि जयणाए साणुगतं गिवारणा गच्छेज्ज संजतीणं काइयसण्णाभूमिसंठवट्ठा गच्छेज्ज ।।१७१३।। इदाणि " पुत्ते'' ति दारं पुत्तो पिया व भाषा, भगिणी वा ताण होज्ज कालगया । अज्जाए दुखियाए, अणुसद्धिं दाउ गच्छेज्जा ॥१७१४॥ अणुमट्ठी उवदेसो, तं उवदेसं दाउकामा गच्छति ।।१७१४।। तेलुकिदेवमहिता, तित्थकरा गीरया गया सिद्धिं । थेरा वि गता केगी, चरणगुणपभावया धीरा ॥१७१॥ तेलोक्के जे देवा तेहिं महिना पूजिता ते वि ताव कालगया, थेरा गोयमादी ते वि कालगया किमंग पुण प्रणे माणुसा ? ॥१७१५॥ तहा - बम्ही य सुंदरी या, अण्णा वि य जाओ लोगजेट्ठाओ। ताप्रो वि य कालगता, किं पुण सेसाउ अज्जाओ ॥१७१६।। कंठा - १गा० १७०१ । २ गा० १७०१ । ३ भा० १७०१ । ४ गा० १७०१। Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-२३ ण हु होति सोयितव्यो, जो कालगतो दढो चरित्तम्मि । सो होइ सोयियव्वो, जो संजम - दुब्बलो विहरे ॥१७१७॥ कंठा लद्धण माणुसत्तं, संजमचरणं च दुल्लभं जीवा । आणाए पमाएत्ता, दोग्गति-भय-वडगा होति ।।१७१८॥ भगवतो प्राणं पमाएत्ता दोग्गतीनो भयं तस्स वड्डगा भवंति ॥१७१८।। इदाणि ""संगमे" त्ति दारं - पुत्तो पिया व भाया, अज्जाणं गतो तहिं कोयि । घेत्तण गणधरो तं, वच्चति तो संजती-बसधिं ॥१७१६।। चिरं पवसितो मातातो तं गणघरो घेत्तुं वच्चति । इदाणि “संलेहण” पच्छद्धं ।। "सलेहण" परिकम्मकालो। “वोमिरण" ति-प्रणसणपच्चक्खागकालो। "वोस " ति -प्रणसणं पच्चक्खातं । "णिट्टिय" ति-कालगता। एतेसु कालेसु मायरियो अवस्सं गच्छति । "तिहिं" ति - उवरुवरि तिणि दिणे सोगावणयणहेउं गच्छति ।।१७१९।। संलिहितं पि य तिविधं, वोसिरियव्वं च तिविह वोसटुं । कालगतं ति य सोच्चा, सरीरमहिमाए गच्छेज्जा ।।१७२०॥ माहारो सरीरं उवकरणं च, प्राहारे णिव्वीतियादि अप्पाहारो, सरीरस्स वि अवचयकारी, उवकरणे । वि अप्पोवकरणो, एवं चेव तिविधं वोसिरति, एवं चेव तिविधं वोसठ्ठ । __ अहवा - माहार-सरीर कसाए य एवं तिगं, कालगयाए य जया सरीरं परिठविज्जति तया महिमा कज्जति, कुकूहिगातिपवयणउन्भावणट्ठा १७२०" जाधे वि य कालगता. तांधे वि य दोण्णि वा दिवसो। गच्छेज संजतीणं, अणुसट्टि गणधरो दातुं ॥१७२१॥ कालगताए उरि पयत्तिणिमादि दुत्थं जाणिय एक्कं दो तिणि वा दिणे अणुसद्विपदाणटुं गच्छति ॥१७२१॥ गम्मति कारणजाते" त्ति मूलदारं गतं । इदाणि "पाहुणे" त्ति दारं - .. अप्प-बिति अप्प-ततिा , पाहुणगा आगया सउवयारा । सेज्जातर-मामाते, पडिकुठुद्देसिए पुच्छा ॥१७२२॥ "सउवयारे" ति जे तिण्णि णिसीहियानो काउं पविट्ठा ते सुउवयारा । १ गा० १७०१ । २ गा० १७०१॥ ३ गा• १७०१ । ४ गा० १७०१ । ५ गा० १७०१ । ६ गा• १६६६ । . Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १७१७ - १७२७ ] चतुर्थ उद्देशक: हवा - जेसि श्रागयागं उवचारो कीरइ ते सउवयारा, तेसु प्रागते गणिणी जति थेरी तो ग्रप वीया णिगच्छति । श्रह तरुणी तो भ्रप्प-ततिया निगच्छति, पुरतो थेरी ठायति ।। १७२२।। तेसि पुण गाणं इमो उवयारो - संदग-कट्टम, भिसिया वा पीढगं व छगणमयं । तक्खणलं असती, परिहारिय पेह भोगणे ॥। १७२३ ।। जति साधु गते तक्खणादेव प्रासंदगो कट्ठम अज्भुसिरो लब्भति भिसिगा वा पीढगं वा हे पाहारियं ण गेव्हंति, तक्खणलंभासतीए पाडिहारियं घेत्तुं ठवेति, पेहिति उभयसंज्यं, पेहिति त्ति पडिले हिति । "प्रभोगऽण्णे" ति प्रण्णो तंग कोति वि परिभुजति । ते तत्थ सुहासणत्था ठिता निराबाधं सव्वं पुच्छति । 'पच्छद्धं - सेज्जातर मामग - परिकुट्टेललगा प्रभोज्जा उद्देसियं वा जेसु कुलेसु कज्जति ते कुले पुच्छति ॥। १७२३ ।। इमा पुच्छगदायंतगाणं विधी बहाए अंगुली व लट्ठीय व उज्जुसंठितो संतो । ण पुच्छेज न दाइज्जा, पच्चवाता भवे तत्थ ॥१७२४ ॥ एगा परसिणी प्रायता अंगुली भण्णति । सेसं कंठं ।। १७२४ ।। प्रविधी दाइज्जते इमे दोसा भवति तेणेहि व गणीण व जीवितववरोवणं च पडिणीते । खरए खरिया सुहा, गड्डे वट्टक्खुरे संका || १७२५॥ बाहु अंगुलि - लट्ठिमा दिएहि जं घरं दातियं तत्य तेहि किं चि हडं, अगणिणा वा दड्ढे, नम्मि वाघरे वेरिणाको वि जीवितातो ववगेवितो, दुवक्खरगो वा गट्ठो, दुक्खरिया वा केण ति हडा, सुण्हा वा केवि सह विदेश पलाता, वट्टखुरो घोडप्रो तम्मि वा गठ्ठे साधू संकिज्जति । एताहिं दाहिति त्ति ताम्रो वा संकिज्जति । तम्हा गो प्रविधीए पुच्छे गो वा दाते । ते तत्थ अच्छंता णो हसंति, णो कंदपंत, वा किं चिट्ठा राति कहं कहेंति ।। १७२५ ।। इमं कहेंति - सेज्जातराण धम्मं, कहिंति अज्जाण देति णुसट्ठि | धम्मम्मिय कहितम्मी, सव्वे संवेगमावण्णा ||१७२६॥ उज्जुताण थिरीकरणत्थं, विसीयमाणाण उज्जमणट्ट, अज्जाण अणुमट्ठि देति । सड्ढा संजतीतो य सन्वे संवेगमागया. अप्पणी य णिज्जरा भवति ।। १७२६ ।। ग्रहवा - पाहुणगदारस्स इसा ग्रण्णा खा - २६५ to विएसो, पाहुणग अभासि दुल्लभा वसवी । तेणादि चिलिमिणिअंतर चातुस्साले वसेज्जा हिं ॥। १७२७॥ १ गा० १७२३ पच्छर्द्धस्स ववखा । २ गा० १७२२ । ३ गा० १६६६ । ३४ Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र-१३ पुटवानेसाप्रो इमो अण्णा प्रादेसो। "प्रभासित" ति कुडुक्कडुविडादि तम्मि य गामे दुल्लभा वसही। अहवा- पच्चंतियविसये सो गामो, तत्थ तेणगाति-भया वसहि ण लन्मति ताहे संजतीनो वसहि मगंति । जइ ताहि पि ण लद्धा तो बाहिं रुक्खमूलातिसु वसंतु । "तेण" त्ति जइ बाहिं सावय-तेगातिएहि पच्चवाया भवेज्ज ताहे संजतीवसहीए चिलिमिलि अंतरिया चाउ स्साले घरे वसेज्जा । हिं पायपूरणे ॥१७२७।। पच्छिमा चिलिमिणी । जतो भण्णति - कुड्डंतरिया असती, कडो पोत्ती व अंतरे थेरा। ते संतरिता खुड्डा, समणीण वि मग्गणा एवं ॥१७२८॥ अण्णवसहीते प्रभावे संजता संजतीनो य एक्कघरे वसंता कुडुतग्यिा वसंति, पिहदुवारे असति कुड्डस्म कडयो अंतरे दिज्जति, असति कडगस्स ताहे "पोत्ति" ति विलिमिणि त्ति वुत्तं भवति, पोत्तीएंतेण पोत्ति-अभावे वा जग्रो दढकुड्ड ततो तरुणीग्रो संजतीप्रो ठविज्जति, ताहे मज्झिमा, ताहे थेरी, खुड्डी य । जतो संजतीतो, ततो अंतरे थेरा खुट्टा मज्झिमा तरुणा य। समणीण एस चेव मग्गणा । णवरं - सरिसवयं वज्जेजा॥१७२ ॥ एसा पुण कुड्डघरे विधी - अण्णाते तुसिणीता, णाते सदं करेंति सज्झायं । अच्चुव्वाता व सुते, अच्छति व अण्णहिं दिवसं ॥१७२६।। जति अण्णाया जणेण ठिता तो राम्रो तुसिणीमा अच्छंति, अह णाया तो सद्दसज्झायं करेंति, अतीव उवाय अच्चुब्बाता श्रान्ता इत्यर्थः । अच्चुन्वाता वा सुवंति, ण परोप्परं संजया संजतीओ य उल्लवेति। एवं राम्रो जयणा एसा वुत्ता । कारणपो एगं दो तिष्णि वा दिणे अच्छता दिवसतो अण्णत्थ उज्जाणादिसु प्रच्छति ॥१७२६॥ समणी जणे पविटे, णीसंतु उल्लाव ऽकारणे गुरुगा। पयला-णिद-तुयट्टे, अच्छिचमढणे गिही मूलं ॥१७३०॥ गिहिजणेसु अप्पणो सयणीयघरेसु पविट्ठनु ताए णिसंतवेलाए जति समणी संजतेण समं उल्लावं करेति तो चउगुरु पच्छित्तं । अहवा - समणीजणे समणजणे य पविढे जइ एगा अणेगाप्रो वा एगेहि वा प्रणेगेहि वा संजतेहि समाणं णिसंतवेलाए अंतो बहिं वा उल्लावं करेंति चउगुरु ते । दिवसतो अच्छता जति पयला गिद्द तुयट्टणे अच्छि चमढणे च उगुरुं । गिहिदितु संकिते च उगुरुग्रं चेव । गिहिदिढे णिसं किते मूलं मत्तएसु वा काउ बाहिं परिवेंति, एवं जयंति । जति संजतिवसहिं संजता अदिट्ठा पविट्ठा तो अदिट्ठा एव णिति णिग्गच्छति । अह दिट्ठा पविट्ठा तो दिट्ठा वा अदिट्टा वा णिति एस भयणा ।।१७३०॥ तत्थऽण्णत्थ व दिवसं, अच्छंता परिहरंति णिहाती । जतणाए व सुवंति, उभयं पि व मग्गते वसधिं ॥१७३१॥ संजति-वसधीए राम्रो वसिता दिवसतो तत्थ वा संजतिवसधीए अच्छंति अण्णत्थ वा उजाणादिसु, पयलाणिद्दादिपए परिहरंति, जवणियंतरिया वा जयणाए सुवंति, जहा सागारिगो ण पेच्छति । जति ते पाहुणगा Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १७२८-१७३६ ] चतुर्थ उद्देशकः २६७ तत्य किं चि कालं कारणेण अच्छि उकामा तो उभयं साहुसाहुणीनो य .अण्णवसहिं मगति तत्थ ते माहू ठायति ॥१७३१॥ इदाणि 'गणधरे" त्ति दारं - उच्चारं पासवणं, अण्णस्थ व मत्तएसु व जतंति । अदिट्ठ-पविढे वा, दिट्ठा णितेहरा भइतं ॥१७३२॥ उच्चाराती ण संजतिकायभूमीए करेंति, अण्णत्थ करेंति ॥१७३२।। मुच्छा विसइगा वा, सहसा डाहो जराइ मरणं वा । जति आगाढं अज्जाण होति गमणं गणधरस्स ॥१७३३॥ पित्तादिणा मुच्छा, अतिभुत्ते वा विसूतिया, पित्तेण वा डाहो अग्गिणा वा, डाहजरो वा, मरणं वा, "सहस" त्ति अकम्हा जति आगाढं एरिसं अज्जाण होज्ज ताहे दिवसतो रातीए वा गणहरस्स गमणं भवे ।।१७३३।। अथवा - पडिणीय-मेच्छ-सावत-गय-महिसा-तेण-साणमादीसु । आसण्णे उवसग्गे, कप्पति गमणं गणहरस्स ॥१७३४॥ एतेहि पडिणीयातिएहिं जता उबसग्गिज्जति पासणे वसहीए ठिता तया गणहरस्स अण्णस्स वा कप्पति तष्णिवारणट्ठा गंतु । अधवा - "प्रासपणे'' त्ति पासणो उवसग्गो, एसे काले भविस्सति ण ताव भवति, तं शिवारणट्ठा गच्छति ।।१ ३४॥ इदाणि "महिड्डि' त्ति दारं - रायाऽमच्चे सेट्टी, पुरोहिते सत्थवाह पुत्ते य । गामउडे, रहउडे, जे य गणधरे महिडीए ॥१७३५॥ जो राया पव्वइओ, अमच्चो मंत्री, अट्ठार साह पगतीणं जो महत्तरो सेट्ठि, सपुरजणवयस्स रण्णो जो होमजावादिएहिं असिवादि पसमेति सो पुरोहितो, जो वाणियो रातीहिं अब्भगुणातो सत्थं वाहेति सो सत्थवाहो, तस्स पुत्तो सत्यवाहपुत्तो। अहवा - राया रायपुत्तो वा एवं सव्वेमु । गामउडो गाममहत्तरो, रट्टउडो रद्वमहत्तरो। जो अ गणहरो रायादिवल्लभो विज्जातिसयसंपण्णो महिड्ढियो । एते रायातीता साहू सव्वे संजतिवसहिं गच्छति ॥१७३५॥ इमो गुणो - अज्जाण तेयजणणं, दुज्जण-सचक्कारता य गोरवता । तम्हा समणुण्णातं, गणधर-गमणं महिडीए ॥१७३६॥ १ गा० १६६७। २ गा० १७०७ । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-२३ तेयो उज्जो जणणं करणं, तेजकरणमित्यर्थः । पडिणीयापि दुजणो सचक्कारा य सासंका भवंति, न किंचित् प्रत्यनीकं कुर्वन्तीत्यर्थ.। लोगे य अज्जाओ गोरवियानो भवंति, तम्हा गणहरस्स महिड्ढियाण य गमणं अणुण्णातं ।।१७३६।। ते य रायादि-दिक्खिते वसहिमागते दळु इमं चिंतेति - संतविभवा जति तवं, करेंति विप्पजहितूण इड्डीअो । सीयंतथिरीकरणं, तित्थ-विवडी य वण्णो य ॥१७३७॥ संतं विद्यमानं, विभवो सचित्ताचित्तादि दव्वसंपया, जति ताए छड्डिऊण तवं करेति किं अम्हे असंते विभवे पत्थेमाणीप्रो वि सीतामो, एवं तारो थिरीकता भवंति, नंदिशेनशिष्यवत् । एवं थिरीकरणे कज्जमाणे तित्थवुड्ढी कता भवति । तित्थवड्ढीए य पवयणस्स वणो जसो पभावितो भवति ।। १७३७॥ इदाणि "'पच्छादणा य सेहे' त्ति दारं-के यी रायपुत्ता समत्तलद्धबुद्धी णिक्खंता तेसिं पिता वीसं भृत्रो राया, लक्खणजुत्तो ण विज्जइ कुमारो। पडिणीएहि य कहिते. आहावंती दवदवस्स ॥१७३८॥ सरीरानो वा जीवो, जीवाप्रो वा सरीर वीसुं पृथग्भूतं राजा मृत इत्यर्थः । अमच्चादिया राजारिहं कुमारं वीणंति "इमो रज्जारिहो" त्ति, जे उत्तमा रज्जारिहा ते क्खिंता, ततो पडिणीएहिं कहियं ते विहरमाणा इहेव प्रमुगुज्जाणे संपत्ता. ततो अमच्चातीया णिरुत्तं जाणिऊण रायहत्थि रायस्स छत्तं चामरं पाउया खग्गं एवमाति रायारिहं घेत्तुं प्राधा विउमारद्धा । कहं ? "दुतं दुतं' शीघ्रमित्यर्थः ॥१७३८॥ ते पुण इमेण कारणेण ते पडिणीया कहेंति - अति सि जणम्मि वण्णो, य संगती इडिमंतपूया य । रायसुयदिक्खितेणं, तित्थविचड्डी य लद्धी य ॥१७३६॥ अतीव एतेसि जणे लोगे जसो, इमेण रायपव्वइएण राइणो संगति करिस्संति, इड्ढिमंता य अमच्चादिता एयप्पभावेण पूएर संति, राया एत्थ पव्वयति, मण्णे वि अमच्चातीया पव्वयंति, एवं तित्थवुडढी । तप्पभावेण वत्थअसणादिएहिं य लद्धी । उणिक्खतेग य एते वण्णा इया ण भविस्संति ति पडिणीया कहयंति ॥१७३६॥ ते य आयरियसमीवे तिण्णि रायपुत्ता - दठूण य राइड्डी, परीसहपराजितो तहिं कोयि । आमुच्छति आयरिए, सम्मत्ते अप्पमत्तो हु ॥१७४०॥ तं रज्जरिद्धि एज्जमागि पासिय एगो परीसहपराजितो पायरियं प्रापुच्छति - अहं असत्तो पधज्ज काउं। पायरिएण वत्तव्वं “सम्मत्ते अप्पमातो कायव्वो, चेतिय-साहूण य पूयापरेण भवियव्वं" ||१७४०॥ बितिग्रो प्रायरिएण भणियो - अज्जो ! अमच्चातिया प्रागच्छति उण्णिखावणहेउं, तो तुम प्रोसराहि कि वा कीरउ ? । १ गा० १७०७ । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा १७३७ - १७४५ ] सो भणाति - किं काहिं ति ममेते, पडलग्गतणं व मे जढा इड्डी | को वाsफिलेहिं, चलेहि विभवेहि रज्जेज्जा ॥ १७४१॥ चतुथं उद्देशक: किं श्रमच्चाति मम काहिति, जहा पडे लग्गं तणं विधुव्वति एवं मए वि इड्ढी विघृता, मा तुब्भे बीहेह, रज्जस्स विसयाणं भुत्ताण फलं नरश्रो, चला अधुवा, तेसु को रागं करेज्ज ? उत्तरमहुरबणिजवत् । बितितो घितिघणियबद्धकच्छो पागडो चेव सव्वे उवसग्गे जिणित्ता संजमं करेति ।। २७४१ ॥ तं रज्जरिद्धि एज्जमाणि दट्टु सोउं वा - तति संजम अट्ठी, आयरिए पणमिण तिविधेणं । गेलण्णं णिग्रडीए, अज्जाणमुवस्सयमतीति ॥१७४२॥ तिम्रो रायपुत्तो तिविघेणं ति मणोवातिकाएहिं । गेलणं णियडी प्रयिगेलोण संजतीण उवस्पयं प्रतीति ।।१७४२॥ तद्धाणा असती, जति मंसू लोग अंबिली - बीए । पीसित्ता देति मुहे, अप्पमासे ठवंति य विरेगो ॥१७४३॥ जति मंतो अंजणं वा तद्धाणियं वा प्रत्थि तो अंतद्धितो कज्जति ग्रह अंतद्धाणस्स प्रसति ताहे संजतिवसहि गिज्जति जति मंसु" त्ति जति स्मश्रु प्रत्थि तो लोप्रो कज्जति, ताहे अंबिल - बीयाणि पीसिता मुहमालिप्पति, संजतित्रसहीए अप्पगासे ठविज्जति, विरेमो से दिज्जति ।। १७४३ ।। . संथार कुसंघाडी, मणुण्णे पाणएय परिसेओ । सण पीसण सध, अद्धिति खरकम्मि मा बोलं ।।१७४४॥ १ गा० १६९७ । संघारगे ठविज्जति । मइला फट्टा कुसंघाडी, सेसा (तारा) से पाउगिज्जति । श्रमणुष्णं गंधीलयं पाणीयं तेग से परिसेप्रो कज्जति । अण्णा संजती श्रीमधं घसंति, अण्णाश्रो प्रोसहं पीसंति, प्रणा करतल पल्हत्थमुहीओ श्रद्धिति करेमाणीम्रो प्रच्छति । खरकम्मिय त्ति रायपुरिसा, तेसागतेसु भण्णति प्रतिषेधे, "बोलं" ति बोलं, तं मा करेह, एसा पवत्तिणी गिलाणा, ण सहति बोलं ति ॥ १७४४ ॥ इदाणि ""प्रसहस्स चउक्कभयण" त्ति दारं "AT" २६६ - दोणि वि सहू भवंति, सो वडसहू सा व होज्ज तू असहू । सहूणं, तिमिच्छ-जतणा य कायव्या ॥ १७४५॥ दोणं पि पढमभंगे - साधुणी वि सहू, साहू वि सहू । बितीयभगे - साधुणी सहू 'सो वमहू" त्ति साहू सहू । ततियभंगे - साधुणी श्रसहू, साहू सहू । चत्यभंगे - साहू साहुणी य दो वि असहू । चउसु वि भंगेसु तिगिच्छाए जयणा कायन्त्रा ॥। १७४५ ।। पढमभंगो ताव भण्णति । - Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० सभाष्य-चूगिक निशीयसूत्र [सूत्र-२३ साधु-साधुणीणं इमा सामायारी - सोऊणं च गिलाणि, पंथे गामे य भिक्खचरियाए। जति तुरितं णागच्छति, लग्गति गुरुगे चतुम्मासे ॥१७४६।। सोऊणं गिलाणी पंथे ग मे वा दिवसपो भिवखावेलाए राम्रो वा जइ तुरिय गिलाणीतो पागच्छति तो चउगुरुगे सवित्थरे लग्गति ॥१७४६।। जत्थ गामे सा गिलाणो तस्स बाहिरेण साहू वच्चति । ताहे गिहिणा भण्गति - तुभं गिलाणिस्स पडि जागरणा कि कज्जति ? साहुणा भणियं - मुठ्ठ कज्जति । गिहिणा भणियं - जति कज्जति तो एत्य गामे - लोलंती छग-मुत्ते, सोत्तुं घेत्तुं दव्वं तु आगच्छे । तूरंतो तं वसधिं, णिवेदणं छादणऽजाए ॥१७४७॥ एगागी अपणो छगण - मुत्ते लोलंती अच्छति । एवं सोउं ताहे साहू ततो चेव दव्वं घेत्तूण प्रागच्छे संजतिवसहिं । ताहे तीए वसहीए बाहिं ठाति । सेज्जियादिए तीए संजतीए णिवेतावेति "बाहिं साधू प्रागतो" त्ति, गत्तेसु य छादितेसु ताहे साधू पविसति ।।१७४७॥ इमं भण्णति - प्रासासो बीसासो, मा भाहि ती थिरीकरण तीसे । धुविउं चीरऽत्थुरणं, तिस्सप्पण बाहि कप्पो य ॥१७४८|| "प्रासासो" ति अहं ते सव्वं वेयावरचं करिम्स । “वीमासो" ति तुम मम माया वा भगिणी वा वयाणुरूवं भगाति । थिरीकरणं ति दृढीकरणं । छगण - मुत्तेण लुलितं तं संजति तीसे जे उवग्गहिया चीरा विट्ठति ते पत्थरेति । अभावे तेपि सो साधू अप्पणगे पत्यरेति । सेसा चीरा छगण - मुत्तेग लुलिता ते वसहीए बाहिं कप्पेति ।।१७४८।। "वसहिनिवेयणं' एयस्म पयस्स इमा वक्खाणगाहा - एतेहिं कारणेहिं, पविसंते णिसीहियं करे तिषिण । ठिच्चाणं कातव्वा, अंतर दूरे पवेसे य ॥१७४६॥ एतेहि कारणेहिं पविसति तो तिणि णिसीहियानो ठिच्चाणं करेति, मिसीहिय काउ ईसि अच्छति, "अंतरे" ति मज्झे, “दूरे" ति अग्गहारे, "एवेसे'' ति वसहिपासणे ॥१७४६।। पडिहारिते पवेसो, तक्कज्जमाणणा य जतणाए । गेलण्णादी तु पदे, परिहरमाणो जतो खिप्पं ॥१७५०॥ गाहे मेजियाए पडिहारितं कथितमित्यर्थः ताहे संजतो पविसति । एवं सो संजतो तं कज्ज गिलाणिकरणिज्यं मापातायगाए वक्खमाणाए य जयणाए समाणणत्ति परिसमाप्तिं नयतीत्यर्थः Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १७४६-१७५६ ) चतुर्थ उद्देशकः २७१ जता बहूणं मझे गिलागि पडिजग्गति तदा कारणे विधिपविट्ठो वीसत्थपदं न सभवति । सेसा गिलाणातिपदा जयणाजुतो परिहरिमाणो जया पण्णविता भवति तदा खिप्पं प्रतिक्कमति, जयणाजुत्तो वा खिप्पं पण्णवेति ॥१७५०॥ अजाए वेयावच्चकरो इमेहिं गुणेहि जुत्तो -- पियधम्मो दधम्मो, मियवादी अप्पकोतुहल्लो उ । अज्ज गिलाणियं खलु, पडिजग्गति एरिसो साहू ॥१७५१॥ पियं बोल्लेति मियभासी, अप्पमिति प्रभावे, थणोरूयमातिएहि ण कौतुकमस्तीत्यर्थः ।।१७५१।। सो परिणामविहिण्णू, इंदियदारेहि संवरित-दारो । जं किंचि दुब्भिगंधं, सयमेव विगिचणं कुणति ॥१७५२॥ सो इति वेयावच्चरो साहू, परिणमगं परिणामो, विही-विकप्पे णाणी, परिणामविधिज्ञ इत्यर्थः । इंदिया चेव दारा इंदियदारा, ते सविरता स्थगिता निवारिता इत्यर्थः । जं किं चि काइयसण्याति दुन्भिगंध तं अण्णास्स प्रभावे सो सयं चे विगिचति ॥१७५२॥ "अप्पको उहल्ल" इति अस्य व्याख्या - गुज्झंग-बयण-कक्खोरु-अंतरे तह थणंतरे दटुं। संहरति ततो दिलिं, ण य बंधति दिहिए दिद्धिं ॥१७५३॥ ___मृगीपदं गुभंग, क्यणं मुहं, उवच्छगो कक्खा, जहा गामाग्रो अण्णगामी गामंतरं, एयं ऊरुतो अण्णो उरुग्रंतरं, एवं थणंतरे वि, एतेसु जति दिदिणिवातो भवति तो ततो दिदि संहरति निवर्त यतीत्यर्थः । न च परस्परतः दृष्टिबन्धं कुर्वन्ति ।।१७५३।। "जं किं चि दुब्भिगंध' अस्य पश्चार्धस्य व्याख्या - उच्चारे पासवणे, खेले सिंघाणए विगिचणता। उव्यत्तण परियत्तण, गंतग णिल्लेवण सरीरे ॥१७५४॥ पुखद्धं कंटं। उत्ताण यस्म पासल्लियकरणं उब्बत्तगं, इयरदिसीकरणं परियत्तणं गंतगं वत्थं, सरीरं वा जइ छगणमुत्ताइणा लित्तं तं पि पिल्लेवेति धोति ति वुतं भवति ।।१७५४॥ दव्वं तु जाणितव्वं, समाधिकारं तु जस्स जं होति । णायम्मि य दव्यम्मी, गवसणा तस्स कातव्या ।।१७५॥ जम्स रोगस्स जं दवं पत्थं गिलागीए वा जं समाहिकारगं तं जाणियन्वं । तस्स दवस पयत्तेग गवेसगा कायव्वा, तस्स वा गिलाणिस्म अपत्थं जाणिऊण ण कायब्वं ॥१७५५।। किरियातीयं णातुं. जं इच्छति एसणादि जतणाए । सद्धावणं - परिण्णा पडियरण कथा णमोक्कारो ॥१७५६।। १ गा० १७५१ । २ गा० १७५२ । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [गूग-२३ किरियाए कीरमाणीए वि जा ण पण्णप्पति सा किरियातीता, तमेरिसिं गाउं जं दव्वं इच्छति तं से एसगादिसुद्ध दिज्जति, प्रसती सुद्धस्स पणगपरिहाणीजयणाए दिज्जति । सा किरियातीया तहा सद्धाविति जहा अणसणं पडिच्छति, परिण्णा अणासंगं परिणिगं सम्बं पयत्तेण पडियरति, धम्म से कहेति, मरणवेलाए य णमोकारो दिज्जति ॥१७५६॥ "किरियस्स सज्झाए" इमा विधी - सयमेव दिदुपाही, करेंति पुच्छति अजाणतो विज्जं । दीवण-दव्बातिम्मि य, उवदेसे ठाति जा संभो ॥१७५७।। सो साधू जइ दिट्टपाढी, वेज्जगस्स दिट्ठी पाढो जेग सो दिट्ठपाढी, अधीतवेज्जा इति यावत् । दीवा त्ति अहं एगागी मा हुज्ज अवसउगं वेजस्स दब- खेत्त-काल - भावेसु उपदेसे दियो भणाइ जइ एयं ण लभामो तो किं देमो, पुणो पुच्छति, उवदेसे दिणे पुणो पुच्छेति ' जइ एवं पि ण लभामो” पुणो कहेति, एवं ताव पुच्छति जाव लाभो त्ति, ततो ठायति पुच्छाए ।।१७५७।। अब्भासे व वसेज्जा, संवद्ध उवस्सगस्स वा दारे । आगाहे गेलण्णे, उवस्सए चिलिमिलि-विभत्ते । रातो वसंतस्स इमा विही - अन्भ से असंबद्धे अण्णघरे वा संबद्ध वसति तस्स वा उवस्सगरस दारं बसति । पच्छद्धं कंठं ।।१७५८॥ तं पुण अंतो इमेण कारणेण वसति - उव्वत्तण परियत्तण, उभयविगिचणट्ठ पाणगट्ठा वा। तक्कर-भय-भीरू य व, णमोक्कारट्ठा वसे तत्थ ॥१७५६।। उव्वत्तणाति कायव्वं । उभयं काइयसण्या तस्स विगिचणट्ठा उट्ठाणे वा असमत्था वोसिरणट्ठा उट्ठवेति, तण्हाए वा रातो पाणगं दायत्वं, तंककरभए वा साहू अंतो वसति, सा वा भीरु, णमोकारो वा दायव्यो । एतेहिं कारणेहिं अंतो वसति ॥१७५६।। धिति-बलजुत्तो वि मुणी, सेज्जातर-सण्णि-सेज्जगादिजुतो। वसति परपच्चयट्ठा, सिलाहणट्ठा य अवराणं ॥१७६०॥ अंतो वसंतो इमे वितिज्जते गेहति सेज्जातरं, सणि सावर्ग, सेज्जगो समोसियगो, तेहिं सह अंतो वसति परपञ्चयट्ठा अवरे अण्णे साहू, तेस श्लाघा भवति ॥१७६०॥ जो एवं जहुत्तं विधाणं करेति - सो णिज्जराए वट्टति, कुणति य वयणं अणंतणाणीणं । स बितिजो कहेति, परियट्टेगागि बसमाणो ॥१७६१॥ पुःवद्धं सुगम । सो णिज्जानगो वसंतो तस्स बितिज्जगस्स धम्म कहेति । मह एमागी वसति तो परियट्टेति ।।१७६१॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १७५७ - १७६७ ] चतुर्थ उद्देशकः पडजग्गिता य खिष्पं, दोण्ह सहू णं तिगिच्छ-जतणाए । तत्थेव गणधरो अहिं व जतणाए तो णेति ॥ १७६२|| भवति । एवं तेण साघुणा पयतेण पडिग्गिता सा लिप्यं शीघ्रं पष्णता, एवं दोन्हं सहूणं तिमिच्छाकरणं जयगाए युतं । जति तत्येव गणधरो तो वच्चेति, ग्रह प्रणहि गणधरो तो सत्थेण पटुवेति, सयं वा ति ।।१७६२।। ग्रह कारणिया तो सयं णेति, जाण व सा संयतो प्रायरियाण ताण प्रप्वाहेति संदिसइ । जयणाते तो णेति त्ति इमं वक्खाणं "गमणित्थिय" पच्छद्ध । णिक्कारणगिं चमढण, कारणगिं ति अहव अप्पाहे । गणित्थि मीस संबंधि वज्जिए असति एगागी ॥। १७६३ ॥ बा सा गिलाणा संगती सा जति णिक्कारणेण गणातो निग्गता तो चमढेति खरंटेति त्ति वुसं इत्थीहि णाल - बद्धाहि नेह उस्सग्गओ तयं सो उ । मास त्ति इत्थिपुरिसेहि नाल - बद्धेहि तदभावे || १७६४॥ तह इत्थि णाल - बद्धाहिं पुरिस अणालेहि नवए भद्देहिं । तह पुरिसा प्णालइत्थी, प्रणालं - बद्धाहि तदभावे || १७६५॥ संबंधवज्जिय ती, अणाल - बद्धमीसीहिं । तदभावे पुरिसेहि, भद्देहिं अणाल- बद्धेहिं ॥। १७६६।। तो पच्छा संधुए हिं, असइ एतेसिं तो सयं णेति । दुराहि पिट्ठो, जयणाए निज्जरट्ठियो || १७६७॥ जया प्रप्पणा णेति तथा इत्थिसत्येणं णालाति-बद्वेगं । तस्सासति मीसेणं इत्थिपुरिसेण णालाति-बद्धेश शेति । तस्सासति इत्यीहि संबद्धाहि पुरिसेहि असंबद्धेहि भद्दगेहि देति । तस्सासति इत्थीहि असंबद्धाहि भद्दाहि पुरिसेहि संबद्धेहि णेति । तस्सासति इत्यीहि पुरिसेहि य "वज्जिय" त्ति प्रसंबद्धेहि भद्देहिं गेति । तस्मासति पुरिस सत्येश संबद्वेण णेति । तस्सासति पुरिस- सत्येण प्रसंवर्द्धण भट्टगेण गेति । २७३ तस्सासति पच्छा एगागी णेति, अप्पा प्रगतो मंजती गामणे गातिदूरे पिट्ठम्रो । एवं जयगाए कारणिगि ऐति ।। १७६७ ।। पढमभंगो गतो । १ वक्खा गा० १७६३ । २ ग्रा० १८६ । - ३५ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ दाणि "" बितियभंगो" भण्णति - णविय समत्यो सव्वो, हवेज्ज एतारिसम्मि कजम्मि । कातव्वो पुरिसकारो, समाधिसंधाणणट्ठाए । १७६८|| गाण- दंसण - चरित्ताणं समाधारणं संघणट्टा पुरिसकारो कायव्वो ।। १७६८ ॥ सो पुण इमेहि पगारेहि असहू । सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे सोऊण व पासित्ता, संलावेणं तहेव फासेणं । एतेहि असहमाणे, तिगिच्छ जतणाए कातव्वा || १७६६॥ जयणाए कायव्वा ।। १७६३ ।। • भासिय हसिय-गीय कूजिय- विविधे य विलवियसद्दे सोऊण णेवत्थियं इत्थिं कुचादिहि वा गावयवेहि पासित्ता, इत्थिए वा सद्धि उल्लावं करेंतो, इत्थिफासेण वा बुद्धो, एतेहिं जो प्रसहू तेण तिमिच्छा साहू सहू गिलाणि पुच्छति - तुमं किं सहू असहू ? ता सा मिलाणी भणाति - विकोविता तु पुट्ठा, भणाति किं मं ण पाससी जियगे । लोलंती छग-मुत्ते ? तो पुच्छसि किं सहू असहू ? ॥ १७७०॥ अविकविता प्रगीयत्था, णियगे मात्मीये ॥ १७७० ।। साधू भणाति - जाणामि णाम एतं, देहावत्थं तु भगिणि ! जा तुब्भं । पुच्छामि चितिवलं ते, मा बंभविराधणा होजा ॥१७७१ ॥ णामसद्दो पादपूरणे श्रवधारणे वा ॥ १७७१॥ इधर वि ताव सहे, रुवाणि य बहुविधाणि पुरिसाणं । सोतूण व दट्ठूण व, ण मणक्खोभो महं कोयि ॥१७७२॥ [ सूत्र- २३ सा साधुणी भणाति - इहरहे त्ति हट्ठा बलियसरीरा गीतादिए सद्दे सोऊण ठेवत्येहि बहुविहा पुरिसरुवाते दट्ठूण न कोति त्ति कश्चित् स्वल्पोऽपि न भवतीत्यर्थः ॥ १७७२ ॥ किं चान्यत् - संलवमाणी वि अहं, ण यामि विगतिं ण संफुसित्ताणं । ear विकिमु य इहिं, तं पुण णियगं धितिं जाण ॥ १७७३ || दिवसेऽपि पुरिसेण संलवंती पुट्ठा वा विगारं ण गच्छामि, सुद्धबंभयारधारणातो, श्रमुद्धभावगमणं विगारो त्रिगती भण्णति हट्ठा बलिया णिरुयसरीरा एहिं एमाए गिलाणवत्थाए ति । सा तं साधु भगति - तुमं णियगं प्रात्मीयं धिति जाण ॥। १७७२ || १ गा० १७४३ । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यमापा १७६८-१७७८ ] चतुर्थ उद्देशक: २७५ सो मग्गति साधम्मि, सण्णि अहामदियं च सूतिं च । देति य से वेतणयं, भत्तं पाणं व पायोग्गं ॥१७७४॥ सो असहू सोहू तत्य वा अण्णत्थ वा गामे संभोतियमसंभोतियं वा संजति मग्गति । तासिं असति सणिं सावियं, असति महाभद्दियं चेव सूई, जा अगारीमो वियावेति सा सूती। प्रणिच्छंती वेयणएण विणा यणगं पि देति । “च" सहातो भत्तपाणं पि देति, गिलाणीए य भत्तपाणं पाउग्गं उप्पादेति,' पाउग्गगहणातो एसणिज्ज पत्थं च, च सद्दातो प्रणेसणिज्ज पि ॥१७७४॥ एतासिं असतीए, ण कधेति जधा अहं खु मी असहू । सद्दाती-जतणं पुण, करेमि एसा खलु जिणाणा ॥१७७॥ महं खु मी प्रात्मावधारणे, महमेव असहू । "पुण" सद्दो अनृतवाक्यप्रतिपादने, "खलु" सहोमाज्ञावधारणे ॥१७॥ सद्दादी इमा जयणा - सद्दम्मि हत्थवत्थादिएहि दिट्टीए चिलिमिलंतरितो। संलावम्मि परम्मुहो, गोवालग-कंचुओ फासे ॥१७७६।। मद्देण जो असहू सो तं गिलाणि भणाति - मा ममं वायाए किंचि माणवेज्जासि, हत्थेण वा वत्येण वा अंगुलीयाए वा दाएजसि। दिट्ठि- कीवो - सव्वं चिलिमिलियंतरितो करेति । संलाव-कीवो - अवस- संलवियन्वे परम्मुहो संलवति ।। फास - कीवो - तं पाउणिज्जतो अप्पणो गोवालकंचुयं काउं उब्वत्तणाति करेति । एस पुण कंचुगो प्राचार्येण दर्शितो ज्ञेयः ॥१७७६।। गतो बितियभंगो। इदाणि 'ततियो भंगो एसेव गमो णियमा, णिग्गंत्थीए वि होइ असहए । दोण्हं पि तु असहाणं, तिगिच्छ जतणाए कायव्वा ॥१७७७॥ पुन्वद्धं कंठं । गतो ततियभंगो। इदाणि चउत्थो - "दोहं पि" पच्छद्धं । दोण्हं पि साधुसाधुणीणं उवरिमेसु तिसु भगेसु जा जयणा सा जहासंभवं सव्वे चउत्थे कायव्वा । गतो चउत्थो भंगो ॥१७७७॥ ततिय - चउत्थेसु असहू संजती इमं भणाति ( भणेज्जा) आतंक-विप्पमुक्का, हट्ठा बलिया य णिव्वुया संती। अज्जा भणिज्ज कायी, जेट्टज्जा वीसमामो ता ॥१७७८॥ जहा घणेण विप्पमुक्को निद्धणो भवति एवं प्रायं कविप्पमुक्का हट्ठा भण्णति । 'ह?" त्ति निरोगा, १गा० १७४३ । २ गा० १७४३ । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ समाष्य-चूणिके निशीयसूत्र [सूत्र २३-२४ उवचियमंसा बलिया, सत्थिंदिया सुही नियुता भण्णति - संजममरोवकताण तप्परिचाए जहामुहं विहारो वीसमणं ॥१७७८॥ किं चान्यत् - दिटुं च परामटुं च, रहस्सं गुज्झमेक्कमेक्कस्स । तं विस्समामो अम्हे, पच्छा वि तवं करिस्सामो ॥१७७६॥ मुच्छियपडियाए प्रपाउयसुत्ताए वा वेयणट्टवेलाए उड्ढणिवेसणातिसु वा किरियासु दिटुं, 'च" सद्दामो प्रणेकसो, परिवत्तणादिकिरियासु परामटुं, चसद्दामो प्रणेगसो रहस्संगा ऊरुगाती, सति रहस्से वि गुज्झंगं मृगीपदमित्यर्थः। अहवा - रहस्सं अरुहं जं गुज्झं तं रहस्सगुझं एक्कमेक्कस्स मया तुम मम पि तुमे । पच्छिमे. काले, "प्रवि" पदत्थसंभावणे "२पच्छावि ते पयाया" कारगगाहा ॥१७७६॥ इय विभणियो उ भयवं, पियधम्मोऽवज्जभीरु संविग्गो । अपरिमितसत्तजुत्तो, णिक्कंपो मंदरो चेव ॥१७८०॥ "इय" त्ति एवं। जहा मंदरोवायुना न कंपते एवं परिभोग-णिमंतण-वायुणा ण कंपिज्जत।।१७८०॥ "उपच्छावि तवं करिस्सामो" ति भणंति तेण साधुणा - उद्धंसित्ता य तेणं, सुठ्ठ वि जाणाविया य अप्पाणं । चरसु तवं णिस्संका, तु आसिधे सो तु चेतेति ॥१७८१।। एवं भातीए तीए जो उज्जोता सिता उद्धंसिता, तेण साहुणा। अहवा - "उद्धंसिय" ति-खरंटिया णिधम्मे एरिसं दुक्खं अणुभवियं, वेरग्गं जायं, मया वि साधम्मिणि त्ति जीवाविया, इहरा मता होतं । सुठु ति पसंसा | चसद्दो प्रतिमयवयणपदरिसणे । पम्हे जाणाविया, चसद्दो ति निहेसे, त्वया अप्पा उपदेसो “चरसु" पच्छद्धं । "प्रासिग्रं" ति णिग्गच्छति, तस्मानिर्गमनं करोतीत्यर्थः ।।१७८१॥ एसेव.गमो नियमा, पण्णवण-परूवणासु अज्जाणं । पडिजग्गंति गिलाणं, साधु अज्जा उ जयणाए ॥१७८२॥ चउभंगेण पण्णवणा, एककभंगस्वरूपेण अक्खाणं परूवणा, “जयणाए" ति ॥१५६२।। इमा जयणा संजतीए वि साधुपडियरणे - सा मग्गति साधम्मी, सण्णि-अहाभद्द-संचरादि वा । . देति य से वेयणयं, भत्तं पाणं च पाउग्गं ॥१७८३॥ संचरो हाणिया सोघनो। शेषं पूर्ववत् ॥१७८३॥ कारणा अविधिते वि संजति-वसहिं पविसेज्ज१ स्वस्थेन्द्रिया । २ दशवकालिकचतुर्थाध्ययने । ३ गा० १७७६ । - - Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७७ माध्यमाचा १७७६-१७८८ ] चतुर्य उद्देशकः वितियपदमणप्पज्झ, पक्सेि अविकोविते व अप्पज्झे । तेणगणि-भाउ-संभम, बोहिगमादीसु जाणमवि ॥१७८४॥ प्रपझो, भकोविमो सेहो, तेणातिसंभमेसु जाणतो वि सहसा पविते ॥१०८४॥ जे मिक्खू णिग्गंथीणं आगमण-पहंसि डंडगं वा लहितं वा रयहरणं वा मुहपोत्तियं वा अण्णयरं वा उवगरणजायं ठवेति: ठवेतं वा सातिज्जति ॥२०॥२४॥ वेण पहेण पक्सियादिसुमागच्छति तम्मि पहे, दंडो बाहुप्पमाणो, लट्ठी पायप्पमाणा, अण्णतरग्गहणा मोहियं उवमहिमं वा णिक्सिवति, तम्मि पहे मुंचति, तस्स मासलहुं प्राणादिया य दोसा। कहं उवकरणस्स णिक्खेवसंभवो? उच्यते - णिसिदंतो व ठवेज्जा, पडिलेहंतो व भत्तपाणं तु । संथार-लोय-कितिकम्म कतितवा वा अणाभोगा ॥१७८५॥ णिसियंतो रयहरणं मुंचति, भत्तपाणाति वा पडिलेहंतो, संथारगं बद्धतो मुयंतो वा, लोयं वा करतो, कितिकम्मं विस्सामणं तं वा करतो, माताए वा कतितवेण मुंचति, प्रणाभोगेण वा । एतेहि कारणेहि रयोहरणादि मुंचेज ॥१७८५॥ निग्गंथी-गमण-पहे, जे भिक्खू निक्खवे कइतवेणं । अनतरं उवकरणं, गुरुगा लहुगो इतरि आणा ।।१७८६।। कइतवेण मेहुणटुस्स चउगुरुगं, इतरं प्रकेतवं प्रणाभोगो, प्रणाभोगेण मुंचति मासलहुं, प्राणादिया य दोसा भवंति ॥१७८६॥ इमा चरित्तविराहणा - पडिपुच्छ-दाण-गहणे, संलावऽणुराग-हास-खेडे य । मिनकधादि-विराधण, दठ्ठण व भाव-संबंधो ॥१७८७॥ पढमा पुच्छा, बितिया "'पडिवुच्छा", तस्सिमं वक्खाणं - कस्सेयंति य पुच्छा, ममं ति कातूण किं चुतं ? बितिया । चित्तं ण मे सधीणं, पक्खित्ते द? एज्जति ॥१७८८॥ रयोहरणादि काति संजती घेत्तणं पुच्छति - कस्सेयं ति रयोहरणं ? । साहू भणाति - "ममेयं त्ति काऊणं" ममीकृते साधुना इत्यर्थः । अहवा - साहूणं ति पढमपुन्छा, किं चुयं ? बितियपुच्छा, एम पडिपुच्छा टुब्वा । ततो साहू भणाति - "चित्तं ण मे सहीणं" ति ण मे वसं वट्टति चित्तं । करमादेतो? परखीए तुमं भागच्छमाणी दिट्टा ॥१७८८।। १गा. १७८७ । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ समाध्य-चूणिके निशीपसूत्र [ सूत्र २४-२५ सा भणाति - किं च मए अट्ठो मे ? आमं गणु दाणि हं तुह सहीणा । संपत्ती होतु कता, चउत्थ पच्छा तु एक्कतरो ॥१७८६।। साहू भणाति - "भामं" अनुमताथे, इदाणिं तुह सहीणा प्रायत्तेत्यर्थः । ततियपुच्छा गता । संपत्ती सागारिय सेवणा । चउत्थं पुच्छं। संजतो करेति संजती वा ॥१७८६॥ “पडिपुच्छ" त्ति गयं । इदाणि "'दान-गहणे" ति - भणितो य हंद गेण्हह, हत्थं दातूण साहरति भुज्जो । तुह चेव होतु घेत्तुं, व मुंचते जा पुणो देति ॥१७६०। हदेत्यामंत्रणे । संजतो हत्थं पसारेऊण भुजो पडिसाहरति, भणति य तुझेव भवतु । अहवा - सो संजतो तीए हत्थाम्रो घेत्तूण पुणो मुंचति । कस्माद्धतो: ? “जा पुणो देति" - जेण द्वितीयवारं मम देति, देंतीए य पुणो हत्यफासो भविस्सति तस्माद्धेतोः ।।१७६०।। इदाणि "संलावो" साह भणाति - धारेतव्वं जातं, जं ते पउमदल-कोमलतलेहिं । - हत्थेहिं परिगहितं, इति हासऽणुराग-संबंधो ॥१७६१॥ इति हासमेतत्, इति हासातो अणुरागो भवति । ततो य परोपरं भावसंबंधो ॥१७६१॥ इदाणि "अणुरागो" ति - संवालादणुरागो, अणुरत्ता बेति भे मए दिण्णं । इतरो चिय पडिभणती ( तुज्झ ) व जीतेण जीवामो ॥१७६२॥ अणुरागो भवति । इदाणिं "हास-खेड्ड" य त्ति - संजती प्रणरत्ता बेड - "भे भए दिwj" भे इति भवतः । इतरो - साहू भणति-जं पि मम जीवितं तं पि तुझायत्तं, तुज्झच्चएण जीकिरण जीवामो ॥१७६२।। एवं परोप्परस्सा, भावणुबंधेण होंति मे दोसा । पडिसेवण-गमणादी, गेण्हदिद्रुसु संकादी ॥१७६३।। पडिसेवणा च उत्थस्स, एगतरस्स दोण्ह वा गमणं उण्णिक्खमणं, प्रादिसद्दातो सलिंगट्ठितो वा प्रणायारं सेवति । संजतो वा वतिणि वतिणी वा संजतं उदिणमोहा बला वा गेण्हेज्जा । ग्रहवा – खरकम्मिएहि गेण्हणं, हासं, खेडु वा करेंनाणि सागारिएण दिट्ठाणि । संकिते चउगुरु, णिस्मंकिते मूलं । ___ अहवा - दिदै घोडिय - भोतिकादि-पसंगो ॥१७६३।। बंभवए विराधण, पुच्छादीएहि होति जम्हा उ । णिग्गंथी-गमण-पहे, तम्हा उ न निक्खिवे उवधिं ॥१७६४॥ कंठा १ गा० १७८७ । २ ग.० १७८७ । ३ गा० १७८७ । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा १७८६-१७६६ ] बितियपदमणा भोगे, पडिते पम्हुट्ठ संभमेगतरे । आसणे दूरे वा, णिवेद जतणाए पिणणं ॥। १७६५ ॥ पम्ह णाम विस्तरियं । एगतरसंभमो सावय - अगणि श्रउमाति, सो संजयाणं उवहि वसहीए आसणे वा पडितो दूरे वा, जति प्रासणे तो णिवेदेति, अह दूरे तो घेत्तुं जयणाए अप्पिणिति ।। १७६५।। आसणे साहंति, दूरे पडियं तु थेरिगा णेति । सणिक्खिवंति पुरतो, गुरूण भूमिं पमज्जित्ता ॥१७६६॥ वसहीए जइ आस पडियं, तो ण गेव्हंति । णियत्तिउं थेरिया गुरूण साहंति । श्रह दूरे पडियं तो थेरिया गिण्हंति, तरुणी वि घेत्तुं थेरियाण समप्पेंति, ता थेरिया संजयव सहिमागंतुं पमज्जित्त । भूमि गुरूण पुरतो णिक्खिवंति । एसा प्रविणणे जयणा भणिया ।। १७६६ ।। जे भिक्खु वा अणुपणाई अहिगरणाई उप्पाएति, उप्पातं वा सातिज्जति ||०||२५|| नवं यत् पुरातनं भवति, श्रणुष्णं संपयकाले प्रविज्ञमाणं, अधिकं करणं अधिकरणं, संयमयोगातिरिक्तमित्यर्थः, अघोकरणं श्रधिकरणं, श्रधोधः संयमकंडकेषु करोतीत्यर्थः । नरकतिर्यग्गतिषु वा श्रात्मानमघितिकरणं वा अधिकरणं अल्पसत्वमित्यर्थः । प्रधीकरणं वा न घी अधी, अधीकरणं श्रबुद्धिकरणमित्यर्थः । "उप्पाए" त्ति उत्पादनमुत्पत्ती, जो उपाएति तस्स मासलहं पच्छितं । इत्तफासि णिज्जुत्ती - णामं ठवणा दविए, भावम्मि चतुव्विधं तु अहिगरणं । एतेसिं णाणत्तं वोच्छामि महागुपुत्री ||१७६७ ॥ २७६ णाम-ठवणाम्रो गया । दव्वप्रो आगमग्री य नो आगमत्रो य, श्रागमतो जाणम्रो अणुवउत्तो, ण श्रागमप्रो जाणगसरीर भवियसरीरवइरितं दमं चउव्विहं - णिव्वत्तण णिक्खिवणे, संजोगण णिसिरणे य बोधव्वे । चतुविधं दुविधं, तिविधं च कमेण गातव्वं ॥ १८६८ ॥ वित्ताधिकरणं अविधं णिक्खिवणं चतुव्विधं संजोयणाधिकरणं दुविधं णिसिरणं तिविहं । एवं पच्छद्धं कमेण पुब्वद्धे जोएयव्वं ॥। १७६८ व्वित्तणाधिकरणं दुविधं मूलकरणं उत्तरकरणं च तत्थ मूलं णिव्वत्तणाधिकरणं ग्रहविहं भणति - पढमे पंच सरीरा, संघाडण साडणे य उभए वा । पडिलेहणा पमञ्जण, अकरण विधीए णिक्खिदणा || १७६६ || पढमेति णिव्वत्तणाधिकरणे पंचसरीरा ओरालियादि, संघातकरणं, साडकरणं, उभयकरणं च, एतं प्रविहं मूलकरणं । निक्खिवणाधिकरणं चन्विहं इमं पडिलेहणाए पमजगाए य प्रकरणे दो, एतेसिं चैत्र प्रविधिकरणे, एते चउरो ॥१७६६॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० समाज-णिके निशीथसूत्र [सूत्र-२५ ॥ संजोयणाधिकरणं दुविधं इमं - भत्तोवधिसंजोए, णिसिरण सहसा पमादऽणाभोगे । मूलादि जाव चरिमं, अहवा वी जे जधि कमति ॥१८००॥ भत्तसंजोयणा, उवधिसंजोषणा य, एते दो णिसिरणाधिकरणं । तिविधं इमं - सहसा णिसिरणं, पनातेण णिसिरणं, प्रणाभोगेग वा । एवं कमेण भेया भणिता ।।१८००॥ णिवत्तणाधिकरणसरूवं भण्णति - णिव्वत्तणा य दुविधा, मूलगुणे चेव उत्तरगुणे य । मूले पंचसरीरा, दोसु तु संघातणा णत्थि ॥१८०१॥ णिवत्तणाधिकरणं दुविधं - मूलगुण-णिवत्तणाधिकरणं, उत्तरगुण - णिव्वत्तणाधिकरणं च । मूले भोरालियादि पंच सरीरा दट्ठव्वा । दोसु य तेयकम्माएसु सव्वसंघातो णत्थि, अनाद्यत्वात् ॥१८०१।। संघातणा य पडिसाडणा य उभयं व जाव आहारं । उभयस्स अणियतठिती, आदि अंतेगसमओ तु ॥१८०२॥ त्रिकं त्रिष्वपि सम्भवति, उभयं संघातपरिसाडा, तस्स ठिती प्रणियता द्विकादिसमयसम्भवात् । संघातो प्रातीए समए, सर्वपरिसाडो अंते, एए दोणि एगसमतिता ।।१८०२।। सर्वसंघातप्रदर्शनार्थमाह - हविपूयो कम्मगरे, दिटुंता होंति तिसु सरीरेसु । कण्णे य खंधवण्णे, उत्तरकरणं व तीसु तु ॥१८०३॥ हवि घितं, तत्थ जो पूतो पच्चनि सो हविपूयो, सो य घयपुण्णो भण्णति संघायं घते पक्खित्ते, पढमसमए एगतेण घरगहणं करेति बिनियादिसमएसु गहणं मुचती य । कम्मकारो लोहकारो, तेण जहा . तवियमायसं जले पक्खित्तं पढमसमए एगतेण जलादाणं करेति, बितियादिसमएसु गहणं मुचती य । एवं तिसु मोरालियादिसरीरेसु पढमसमए गहणमेव करेति, बितियादिसमएसु संघातपरिसाडा, तेयगकम्माणं सव्वकालं संघाडपरिसाडो अनादित्वात् । पंचण्ह वि अंते सधसाडो। अहवा तिण्हं पोराल - विउवि - पाहारगाणं मूलंगकरणा अट्ठ - सिरो उरं उदरं पिट्ठी दो बाहामो दोणि य ऊरु, सेसं उत्तरकरणं । ___अहवा तिसु आइल्लेसु पोरालादिसु उत्तरकरणं कण्णेसु - वेहकरणं. रेज्जेण खंधकरणं, त्रिफलादि घृतादिना वनकरणं ॥१८० ३॥ अहवा इमं च उन्विहं दव्वकरणं - संघाडणा य परिसाडणा य भीसे तहेव पडिसेहो । पड संख सगड थूणा उडू-तिरिच्छातिकरणं तु ॥१८०४॥ संघायकरणं, पडिसाडणाकरणं, संघायपडिसाडणाकरणं, “पडिसेहो" ति - णो संघातो णो पडिसाडो। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भावगाथा १८००-१८०६ ] चतुर्य उद्देशक: २८३ जहासंखं उदाहरणाणि - पह-संख• सगड - यूगाए य उड्ड-तिरिच्छाति - करणं । अहवा - तिसु पाइल्लेसु णिव्वत्तणाधिकरणं । तत्व पोरालियं एगिदियादि पंचविषं, तं 'जोणिपाहुडातिणा' जहा सिद्धसेणायरिएण अस्साए कता। जहा वा एगेण आयरिएण सीसस्स उवदिट्ठो जोगो जहां महिसो भवति । तं च सुयं पायरियस्स भाइणितेण । सो य णिधम्मो उण्णिक्खंतो महिसं उप्पादेउ सोयरियाण हद्वे विकिणति । प्रायरिएण सुयं । तत्थ गतो भणाति - किं ते एएण ? अहं ते रयणजोगं पयच्छामि, दव्वे पाहाराहिते य ग्राहरिता, आयरिएण संजोतिता, एगते थले णिक्खित्ता, भणितो एत्तिएण कालेण ओक्खणेज्जाहि, अहं गच्छामि, तेण उक्खता दिट्टीविसो सप्पो जातो, सो तेण मारितो, अधिकरणच्छेग्रो, सो वि सप्पो अंतोमुत्तेण मनो। एवं जो णिवत्तेइ सरीरं मधिकरणं । कहं ? जतो सुते भणियं - "'जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरं णिवत्ते माणे किं अधिकरणं अधिकरणी? जीवो अधिकरणी, सरीरं अधिकरणं' । णिवत्तणाधिकरणं गतं ॥१८०४॥ इदाणि णिक्खिवणाधिकरणं । तं दुविधं - लोइयं लोउत्तरियं च । तत्थ लोइयं अणेगविधं - गल-कूड-पासमादी, उ लोइया उत्तरा चउविकप्पा । पडिलेहणा पमञ्जण अधिकरणं अविधि-णिक्खिवणा ॥१८०॥ गलो दंडगस्स अंतो लोहकंटगो कजति, तत्थ मंसपेसी कीरति, सो दीहरज्जुणा बद्धो मच्छट्ठा जले खिणइ । कूडंमियादीणं अट्ठा णिक्खिप्पह। पासं ति राईणं अट्ठा निक्खिप्पइ । प्रातिसद्दावो वा २मोराण उलाणसिंगतससयाण जालच्छइयाए । एवमादि लोइयाणि । लोउत्तरियं तं चउन्विहं- पच्छद्धं । ण पडिलेहेति, न पमजत एगो विगप्पो' न पडिलेहेइ, पमजति बिइप्रो विगप्पो । पडिलेहेइ, न पमजइ ततिमो विगप्पो। जंतं पडिलेहे ति पमजति, तं दुप्पडिलेहियं दुप्पमजियं, दुपडिलेहियं सुपमजियं, सुपडिलेहियं दुप्पमत्रियं । एते तिण्णि वि भंगा चउत्थो विकप्पो । एसा प्रविधि - णिक्खिवणा अधिकरणं । सुप्पडिलेहियं सुप्पमजियं एस सुद्धो अधिकरणं न भवति ।।१८०५।। . इदाणिं संजोयणा, सा दुविहा - लोइया लोउत्तरिया य । लोइया अणेगविहा - विसगरमादी लोए, उत्तरसंयोग मत्तउवहिम्मि । अंतो बहि आहारे, विहि अविधि सिव्वणाउवधी ॥१८०६॥ जाणि दयाणि संजोइयाणि विसं भवति ताणि संजोएति, विसेण वा अण्णदव्वाणि संजोएति, जेण १ भगवत्यां पाठोऽयमेवंरूप: जीवे णं भंते ! पोरालियसरीरं निव्वत्तेमाणे किं अधिकरणी, अधिकरण ? गोयमा ! प्रधिकरणी वि अधिकरणं पि। से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच - "मधिकरणी वि, अधिकरणं पि" गोयमा ! प्रविरतिं पडुच्च, से तेणतुणं जाव - अधिकरणं पि। मग० श० १६ उ० १ २ चारू । ३ बांजपक्षी । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [मूत्र-२५ गरितो अच्छति ण मरति सहसा सो गरो, सो वि दव्वसंजोगा भवति । प्रादिसद्दातो भणेगरोगउप्पायगा जोगा संखोएति । लोउत्तरिया संजोयणा दुविहा - भत्ते उवकरणे य । प्राहारे दुविहा - अंतो बाहिं च । अंतो त्ति वसहीए । सा तिविहा - भायणे हत्थे मुहे य । तत्थ भायणे खीरे खंडं, हत्ये गुलं मंडएण, मुहे मंडगं पक्खिविता पच्छा गुलाति पनिखवति । बाहिं भिक्खं चेव अडतो जं जेण सह संजुज्जति तं प्रोभासिउं संजोएति । ___ उवधि णिक्कारणे अविधीते सिब्वति, णिक्कारणे विधीए, कारणे प्रविधीए, एते तो वि भंगा प्रधिकरणं, चउत्थो सुद्धो ॥१८०६।। इदाणि णिसिरणा दुविधा - लोइया लोउत्तरिया य। लोइया अणेगविधा - कंडादि लोअ णिसिरण, उत्तर सहसा पमायऽणाभोगे । मूलादी जा चरिमं, अधवा वी जं जहिं कमति ॥१८०७॥ कंडं णिसिरति, आदिसद्दातो गोप्फणपाहाणं कणयं सत्ति वा । लोउत्तरिया णिसिरणा तिविधा -- सहसा, पमाएण, प्रणाभोगेण य । पुवाइद्वेण जोगेण किं चि सहसा णिसिरति, पंचविधपमायऽण्णतरेण पमत्तो णिसिरति, एगंत 'विस्सती प्रणाभोगो तेण णिसिरति । इदाणि णिव्वत्तणातिसु पच्छित्तं - तत्थ णिव्वत्तणा "मूलाति" पच्छद्धं । एगिदियादि - णिव्वत्तयंतस्स अभिक्खसेवं पडच्च पढमवाराए मूलं, बितियवाराए अणवटुं, ततियवाराए पारंचियं । अधवा - जे जहिं कमति त्ति संघट्टणादिकं प्रायविराहणादिणिप्फण्णं वा ॥१८०७॥ एगिदियमादीसु तु, मूलं अधवा वि होति सट्ठाणं । झुसिरेतरणिप्फण्णं, उत्तरकरणंमि पुव्वुत्तं ॥१८०८॥ एगिदियं जाव पंचिदिय णिवेत्तेतस्स मूलं । अहवा - वि होति सट्टाणं ति 'छक्काय च उसु" गाहा । परित्तं णिव्वत्तेति च उलहु । अणंते चउगुरु । बेइंदिए हिं छल्लहुँ । तेइंदिरहिं छग्गुरु । चउरिदिएहि छेदो । पंचिदिएहिं मूलं । उत्तरकरणे झुसिराझुसिरणिप्फणं पुवुत्तं इहेव पढमुद्देसए पढमसुत्ते ॥१८०८|| णिक्खिव -संजोग - णिसिरणेसु इमं पच्छित्तं - तिय मासिय तिग पणए, णिक्खिव संजोग गुरुग-लहुगा वा । झुसिरेतर-संतर-णिरंतरे य वुत्तं णिसिरणम्मि ॥१८०६॥ सत्तभंगीए पढम - बितिय - ततिएसु भंगेसु मासलहु, चउत्थ - पंचम-छ?सु पणयं. चरिमो सुद्धो, तवकाल -विसेसितो कायव्यो । प्राहारे उवकरणे वा रागे चउगुरुगं, दोसे चंउलहुगं । अहवा - सामणेण पाहारे चउगुरुगा, उवकरणे लहुगो। णिसिरणे झुसिरे प्रझुसिरे य संतरगिरं तरेसु वुत्तं पच्छित्तं पढमसुत्ते ॥१८०६॥ दव्वाहिकरणं गयं । १ विस्सर ई विस्मृतिः । २ गा० ११७ पृ० ४६ पीठिकायाम् । ३ गा० ५०३ पृ० ४। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८३ भाष्यगाथा १८०७-१८१६ ] चतुर्थ उद्देशकः इदाणि भावाधिकरणं जोगे करणे संरंभमादि चतुरो तहा कसायाणं । एतेसिं संजोगे, सतं तु अठ्ठत्तरं होइ ॥१८१०॥ संरंभो, समारंभो, प्रारंभो। एतेसिं अघो मण - वय - काया तिण्णि टावेयव्वा । तेसि पि प्रहो करणकारावणाणुमती य तिष्णि ठावेयवा। एतेसि पि अधो कोह - माण - माया - लोभा चउरो ठावेयन्या । इमो पुणो चारणप्पगारो। संरंभ मणेण करेति कोहसंपउत्ते । एवं माणतिया वि । एते करणे चउरो, कारावणे वि चउरो, अणुमतीते वि चउरो। एवं बारस मणेण लद्धा । वाए वि बारस । काएण वि बारस । एते संरंभेण छत्तीसं लद्धा । एवं समारंभेण वि छत्तीसं। प्रारंभेण वि छत्तीसं । सन् वि मेलिया पठ्ठत्तरं सतं भवति ॥१८१०।। संरंभ मणेणं तू , करेंति कोवेण संपउत्तो उ। इय माण-माय-लोभे, चउरो होती तु संजोगा ॥१८११॥ चतुरेते करणेणं, कारवणेणं च अणुमतीए य । तिण्णि चतुक्का बारस, एते लद्धा मणेणं तु ॥१८१२॥ संकप्पो संरंभो, परितावकारो भवे समारंभो। आरंभो उद्दवओ, सव्वणयाणं तु सुद्धाणं ॥१८१३।। एतेसामण्णतरं, अधिकरणं जो णवं तु उप्पाए । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥१८१४॥ एतेसि दव्वभावाधिकरणाणं अण्णतरं अणुप्पणं उपाएति जत्थ मासलहुं तत्थ सुत्तणिवातो, सेसा अस्थमो विकोवणट्ठा पच्छित्ता दिण्णा ॥१८१४॥ इह पुण सुत्ते भावाधिकरणेण पढमभंगेण अधिकारो। इमे य दोसा - तावो भेदो अयसो, हाणी दंसण-चरित्त-णाणाणं । साहुपदोसो संसारवडूणो साहिकरणस्स ॥१८१शा अतिभणिय-अभणिते वा, तावो भेदो उ जीवचरणेसु । रायकुलम्मि य दोसा, खुभेज्ज वा णीयमित्तादी ॥१८१६॥ ___ तप्पति महं तेण अतीव एवं भणितो, मए सो वा अतीव भणियो पच्छा तप्पइ, प्रमुगो वा मए ण मणिमो ति पच्छा तप्पति । भेदो दुविधो - जीवे चरणे य । जीए कलहिउं पच्छा एगतरो दो वि वा अप्पाणं Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ सभाष्य- चूर्णिके निशी सूत्रे. [ सूत्र २५-२७ मारेति, उष्णिक्ामंत वा चरणे, प्रष्णोष्णपक्खेण वा गच्छमेयो भवति । पदोसेण वा रायकुले कहेज्ज, तत्म हादिया दोसा, एगतरस्स दोन्ह वा णीया सुभेज, ते पंतवणादि करेज्ज, ताण वा परोप्परं कली भने, लोगे प्रयसो "अहो डोंबा विव सततं कलहसीला, रोसंणा, पेसुष्णमरिता"। तव्वेलं ण पढति णाणहाणी, साघुपदोसे दंसणहाणी, अत्राच्छल्यकरणा - "जं प्रज्जितं चरितं" कारक गाहा । एवं चरणहाणी । किं चान्यत् - साधुपदोसेण य संसारवडी भवति । एते साधिकरणस्स दोसा जम्हा तुम्हा जो अधिकरणं उप्पाएति ।। १८१६ । कारणे उप्पाएन - वितियपदमणप्पज्झे, उप्पादऽविकोवितेव अप्पज्झे । जाणते वा वि पुणो, विगिंचणट्ठार उप्पाए || १८१७॥ Mणप्पो, प्रकोवितो वा सेहो प्रणरिहो कारणे पव्वावितो कते कारणे सो प्रधिकरणं काउं विगिंचियो । १८१७।। जे भिक्खू पोराणाई हिगरणाणि खामिय विसमियाहं पुणो उदीरेइ, उदीरेंतं वा सातिजति ॥सू०॥२६॥ पोराणा पूर्वमुत्पन्ना । अधिकरणं पूर्ववत् । रोसावगमो खमा । तं न भष्णति तिविधं - खामियं ग्रोसवियं मिच्छादूक्कडप्पयणं । स्वामियं वायाए, मणसा विभोसवियं व्युत्सृष्टं, ताणि जो पुणो उदीरति उप्पादयति तस्स ग्रहवा मासलहुँ । खामित विउसविताएं, अधिकरणारं तु जे पुणोप्पाए । ते पावा गातव्वा, तेसिं तु परूवणा इणमो ॥ १८१८|| पावा ण साधुधर्मे व्यवस्थिता इत्यर्थः । कह उप्पा एति ? के ति साहूणो पुव्वकलहिता तम्मि ब खामिय विनोसवितें । उत्येगो भणति श्रहं णाम तुमे तदा एवं मणितो प्रासि ण जुत्तं तुज्झ । इयरो पडिमणाति - अहं पिते किं ण भणितो ? इतरो भणाति - इयाणि ते कि मुयामि ? एवं उप्पाएति स उप्पायगो ॥ १८१८ || उप्पादगमुप्पण्णो, संबद्धे कक्खडे य बाहू य । विट्टणा यमुच्छण, समुघाय ऽतिवागणे चैव ॥ १८१६॥ पुणो विकलुसिता उप्पष्णं, संबद्धं णाम वायाए परोपरं सेविउमारद्धा, कक्खढं णाम पासट्टितेहि त्रिसविज्जमाणा वि णोवसमंति, ' बाहू" ति - रोसवसेण बलोबल जुज्भं लग्गा प्रविट्टणा एगो हिमो, जो सो मिहतो सो मुच्छितो, मरणंतिय समुग्धारण समोहितो, प्रतिवायणा मारणं ।। १८१६ ।। एतेसु णवसु ठाणेसु उपायगस्स इमं पच्छितं - लहु लहुगा गुरुगा, छम्मासा होंति लहु गुरुगा य । छेदो मूलं च तहा, अणवट्टप्पो य पारंची || १८२०॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८१ भाष्यमाचा १८१८-१८२६ ] चतुर्य उद्देशकः नितियादिसु चउलहुगादी पच्छिता, उप्पादगपदं न भवति त्ति काउं ॥१८२०॥ तावो भेदो अयसो, हाणी दंसण-चरित्त-णाणाणं । साधुपदोसो संसारक्हणो होतुदीरते ॥१८२१॥ बितियपदमणप्पज्झे, उदीरे अविकोविदे व अप्पज्मे। .. जाणते वा वि पुणो, विगिचणट्ठा उदीरेजा ॥१८२२॥ पूर्ववत् । जे भिक्खू मुहं विष्फालिय विष्फालिय हसति, हसंतं वा सातिजति।सू०॥२७॥ मुखं वक्त्रं वयणं च एगटुं, विष्फालेति विकाडेति, प्रतीव फालेति. विष्कालेति वियंभमाणो व विविधः प्रकारः फालेति विप्फालेति विडालिकाकारवत् । वीप्सा पुनः पुनः । मोहनीयोदयो, हास्यं तस्स चउब्विहा उप्पत्ती - पासित्ता भासित्ता, सोतुं सरितूण.वा वि जे भिक्खू । विफालेत्ताण मुहं, सवियार कहक्कहं हसती ॥१८२३॥ प्रसंवुडादि पासित्ता, वाचि विक्सलियं भासित्ता, णमोककारगिज्जुत्तीए काग - सरडादि-अक्सागगे सुभेत्ता, पुब्वकीलिया ति सरिऊग, मोहमुहीरक अण्णस्स वा हासुप्पायगं सविकारं महंतेण वा उक्कलियासद्देश कहक्कहं भण्णति ॥१८२३।। जो एवं हसति - सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं तहा दुविधं । पावति जम्हा तेणं, सवियार कहक्कह ण हसे ॥१८२४॥ को दोसो? पुवामयप्पकोवा, अभिणवमूलं च मत्तगहणं वा । असंवुडणं वि भवे, तावसमरणेण दिलुतो ॥१८२॥ पुवामयो सूलाति रोगो मो उवसंतो पकोवं गच्छति । कण्णस्स अहो महता गलसरणी मता भणति ता घेप्पेज । मुहस्स वा असंवुडणं भवेज, जहा मेडिम्स मुहं विष्फाडिय हसमाणस्स तारिसं चेव - पद्धं ताहे वेज्जेण प्रयपिडं तावेत्ता मुहस्स ढोइतं संपुडं जातं । किं चान्यत् - पंचसता तादसा णं मोयए भक्खंति । तत्थ एगेण प्रदेसकाले दाढिया मोडिया, सचे पहसिता, गलम्गेहिं मोयगेहिं सब्वे मता ॥१८२५॥ कि चान्यत् - आसंक-वेरजणगं, परपरिभवकारणं च हासं तु । संपातिमाण य वहो, हसओ मतएण दिटुंतो।१८२६॥ परस्स आसंका अहं अणेण हसितो ति, किं वा अहमणेण हसितो वेरसंभवो भवति, हसंतेहि परपरिभवो कतो भवति, संपातिमादि मुहे पविसंति । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र २८-३७ मयगदिटुंतो य भणियव्वो - राया सह देवीए प्रोलोयणे चिट्ठति । देवी भणति रायं-'मुतं माणसं हसति ! राया ससंभते कहं कत्थ वा? साधु दरिसेति। राया भणति- कहं मतो त्ति? देवी भणति - इहभवे सव्वसुहवजितत्वात् मृतो मृतवत् ॥१८२७॥ बितियपदमणप्पज्झे, हसेज्ज अविकोविते व अप्पज्झे । जाणते वा वि पुणो, सागारितमाइकज्जेसु ॥१८२७॥ ___ सागारियमातिकज्जेसु सागारियं मेहुणं, तं कोति पडिबद्धवसहीए सेवति, ताहे हस्सिज ति जेण णातोमि" ति लज्जियाण मोहो णासति । अहवा - मा भपरिणया इत्थियाए सदं सुणेतु त्ति - हसिज्जति । प्रातिसद्दातो कारणे जागरातिसु १८२७॥ जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडयं देइ, देंतं वा सातिजति ॥सू०।२८|| जे भिक्खू पासत्थस्स संघाडयं पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा सातिजति ।।२०॥२६॥ जे भिक्खू ओसन्नस्स संघाडयं देइ, देंतं वा सातिजति ।।सू०॥३०॥ जे भिक्खू ओसन्नस्स संघाडयं पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा सातिजति ।।सू०॥३१॥ जे भिक्खू कुसीलस्स संघाडयं देइ, दंतं वा सातिजति ॥सू०॥३२॥ जे भिक्खू कुसीलस्स संघाडयं पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा सातिजति ।।सू०॥३३॥ जे भिक्खू नितियस्स संघाडयं देइ, देंतं वा सातिजति ।।सू०॥३४॥ जे भिक्खू नितियस्स संघाडयं पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा सातिजति।।सू०॥३॥ जे भिक्खू संसत्तस्स संघाडयं देइ, देंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३६॥ जे भिक्खू संसत्तस्स संघाडयं पडिच्छइ, पडिच्छंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३७॥ णाण - दसण - चरिताण पासे ठितो पासत्थो, प्रोसन्नदोसो उस्सन्नो, उयो वा संजमो तम्मि सुष्णो उस्सष्णो, कुच्छियसीलो कुसोलो, बहुदोसो संमत्तो, दव्वाइए अमुयत्तो णितियो,एतेसि संघाडयं देति पडिच्छति वा तस्स मासलहुँ। पासत्थोसण्णाणं, कुमील-मंसत्त-नितियवासीणं । जे भिक्खू संघाडं, दिज्जा अवा पडिच्छेज्जा ॥१८२८॥ सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं तहा दुविक्ष । पावति जम्हा तेणं, णो दिज्जा णो पडिच्छेजा ।।१८२६।। "तेणं" ति संघाडएण ॥१८२६।। १ मत। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८७ भाव्यगाथा १८२७-१८३१] चतुर्य उददेशकः इमा चारितविराहणा अविसुद्धस्स तु गहणे, पावज्जण अगहिते य अहिगरणं । अप्पच्चो गिहीणं, किं णु हु धम्मो दुहाऽऽदिहो।।१८३०॥ साहू तेण संघाइएण समं हितो बेण दोसणासुदं गेहति तमावति । मह साहू प मेण्हति हो पासस्थस्स अनियतं, कलहं वा करेति । साहुणा परिसिढे पासत्येण गहिते अति साहू तुसिणीयो पञ्चति एत्व अणुमतीदोसो भवति । अपचनो गिहीणं भवति, इमं च गणिज्जा-किं तित्वकरेण दुविषो धम्बो कहितो? ॥१८३०॥ एवं भणिए - जति अच्छती तुसिणिो , भणति त एवं पि देसियो धम्मो। .. आसातणा सुमहती, सो च्चिय कलहो तु पडिपाते ॥१८३१॥ पासत्थाणुमत्तीए जर साधू तुसिणि प्रो मच्छति, प्रणुमती वा करेति, तो सुमहती भासायणा दीहं च संमारं णिवत्तेति । महवा - साधू भगति - "ण वट्टति, पासत्यवयणं च पडिधाएति", ताहे पासत्थो वितेति मं प्रोभासेति, सो चेव कलहो ॥१८३१॥ पासत्थाइया इमेण दोसे परिहरंति - पासत्थोसण्णाणं, कुसील-संसत्त-णितियवासीणं । उग्गम उप्पादण एसणाए बातालमवरावा ॥१८३२।। पाच्छो महा से मप्पणो छंदो पभिप्पाम्रो तहा पनवेति - उग्गमदोसा सोलस, उप्पादणा दोसा सोलस, दस एसणा दोसा ॥१८३२॥ संविग्गा पुण इमेण विधिणा परिहरंति - उग्गम उप्पायण एमणाए तिण्हं पि तिकरणविसोधी । पासत्थे सच्छंदे कुसीलणितिए वि एमेव ॥१८३३॥ तिण्हं त्ति माहार उहि सेजा, तिणि कारणा तिकारणा, तेहिं सुदं तिकरणसुद्ध ॥१८३६।। एयस्स पुव्वद्धस्स इमा वक्खा - मणउग्गमाहारादीया तिया तिणि तिकरणविसुद्धा । एक्कासीती भंगा, सीलंगगमेण तव्वा ।।१८३४॥ आहारउग्गमेणं, अविसुद्धं ण गेण्हे ण वि य गेण्हावे । ण वि गेहंतणुजाणे, एवं वायगए कारणं ॥१८३५॥ एमेव पत्र विकप्पा, उप्पातण एमणाए णव चेव । एए तिण्णि उ नवया, सगवीमाहारे भंगा तु ।।१८३६।। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्र एमेवोवधिसेज्जा, एक्केक्क सत्तावीस भंगा तु । एते तिणि वि मिलिता, एक्कासीती भवे भंगा ॥ १८३७ || मणाति तियं । उग्गमाति-तियं, माहाराति-तियं, एने तिष्णि तिया तिकरणविसुद्धा कायन्त्रा । - इमेण एक्कासीति भंगा - कायव्वा । महारीवहिंसेज्जा एयस्स हेट्ठा उग्गमाति - तियं । एयरस वि हेट्ठा मणाति - तियं । एयस्स वि हेट्ठा करणं - तियं । इमं च उच्चारणं श्राहारं उग्गमेण श्रसुद्ध मणेण ण गेव्हति ण गेण्हावेति, गेव्हंतं णाणुमोयति । एते मणेण तिष्ण, वायाते तिष्णि, कारण वि तिष्णि । एते जव उग्गमेण लद्धा । उप्पादणाए वि णव । एसणाए वि णव । एते सत्तावीसं प्राहारे । उवकरणे वि सत्तावीसं । सेज्जाए वि सत्तावीसं । सव्वे एक्कासीति । जहा एते वायालीसं श्रवराहे एक्कासीतीए परिहरति, एवं पासत्ये ग्रहाछंदे कुसीले संसप्ते णितिए, विसद्दाम्रो प्रोसणे, एतेसि संघाडगं तिकरणविसोहीए ण देज्जा, ण पडिच्छेज्जा, एक्कासीतीए वा भंगविकप्पेहि परिहरेज्जा ॥ १८३७।। एताई सोहितो, चरणं सोर्हेति संस नत्थि । एतेहिं असुद्ध हिं, चरित्तभेदं वियाण हि || १८३८|| एते श्राहारातीए एक्कासीतीए भंगेहि सोधयंतो चरितं सोहेति ॥ १८३८ ॥ एवं प्रत्येण पडिसिद्धे पासत्यत्तणे, जा तेहि सह संसग्गी सा पडिसिज्झति - पडिसेधे पडिसेहो, असंविग्गे दाण माति-तिक्खुत्तो । विसुद्ध चतुगुरुगा, दूरे साधारणं काउं ॥ १८३६ ॥ पासत्थादि - कुसीले, पडिसिद्ध े जा तु तेहिं संसग्गी । पडिसिज्झति एसो खलु, पडिसेहे होति पडिसेहो ॥१८४०|| पासत्येण ण भवियव्वं एस पडिसेहो । सेस कंठं । "प्रसंविग्गे दाणं" ति ग्रस्य व्याख्या - [ सूत्र -३७ दाणाई - संसग्गी, सई कयपडिसिद्ध लहुय आउट्टे । सम्भवति आउट्टे असुद्धगुरुगो उ तेण परं ॥१८४१ ॥ जति पासत्थातियाणं संघाडंगस्स क्त्यातियाण वा दाणं करेति एस संसग्गी । सई एक्कसि संसग्गिं करेति, पडिसिद्धो पचोइयो प्राउट्टो, मासलहु से पच्छिनं, सन्भावति प्राउट्टेति, एवं बितियत्राराए त्रि १ गा० १८३६ । Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगापा १८६७-१८४५] चतुर्थ उद्देशकः २८६ मासलहु. ततियवारायए वि प्राउट्टस्स मासलहु, तेण परं चउत्थवाराए णियमा प्रमुढे ति मायावी, माउथस्स मासगुरु ॥१४॥ ""माति तिक्खुत्तो" ति अस्य व्याख्या - तिक्खुत्तो तिणि मासा, आउद्धृते गुरू उ तेण परं । अविसुद्धं तं वीसुं, करेंति जो भुंजते गुरुगा ॥१८४१॥ तिणि वारा ति - खुत्तो, तिणि वारा प्राउट्टतस्स तिणि मासलहु, तिण्हं वाराणं परेणं तेण परं, पउत्थवाराए णियमा मायी पाउट्टे मायाणिप्फष्णं मासगुरु । "अविसुद्ध चउगुरुगा" अस्य व्याख्या - "अविसुद्ध" गाहवं। पासत्थ - संसग्गीकारी जति मालोयणं ण पडिच्छियो प्रविसुद्धो, तं प्रणाउटुंतं वीसुं करेति वीसुं भोगमित्यर्थः । जो तं मण्णो साधू संमुज्जति तस्स चउगुरु ॥१०४२॥ चोदगाह - कम्हा पढम - वितिय - ततियवारासु मासलह, चउत्थवाराए मासगुरु ? पायरियो आह - सति दो तिसिय अमादी, ततिया सेवीतु णियम सो मायी । सुद्धस्स होति चरणं, मायासहिते चरणभेदा ॥१८४३॥ सई पढमवारा, दो वितिय वारा,. ति ततियवारा, सिता माती तिसिता सेविडं जाव गति पमाती तो मासलहु, प्रह माती तो मासगुरुं । तेण परं णियमा माती तेण मासगुरु । पच्छदं कंठं ॥१४॥ "दूरे साधारणं काउं" ति अस्य व्याख्या समणुष्णेसु विदेसं, गतेसु अण्णाऽऽगता तहिं पच्छा । ते वि तहिं गंतुमणा, पुच्छंति तहिं मणुण्णे तु ॥१८४४॥ कयाइ संभोतिया साह विदेसं गता, अण्णे य संभोतिया अण्णामो विदेसामोतं चेव गच्छम,गता, जे ते विदेसं गता ते तेहिं मागंतुएहि ण दिट्ठा, ते वि मागंतुगा तं चेव देसं गंतुकामा पुच्छंति, अत्थि केयी तहिं अस्माकं संभोइया ? ॥१८४४॥ एवं पुच्छते - अत्थि त्ति होइ लहुओ, कयाइ ओसण्ण भुंजणे दोसा । पत्थि ति लहुओ भंडण, ण खेत्तकहणं ण पाहणं ॥१८४॥ मायरितो जइ भगति प्रत्यि तो मासलहुँ', "कताति ते मोसण्णो भूता होज्ज, ताहे गुरुवयणमो संमुज्जमाणा पोसण्णसंभुत्तदोसे पावेज्ज । मह वि गुरु भणति पत्थि तह वि मासलहुँ, यतः गुरुवयणामो तेहिं सदि संभोग ण करेंति, ताण य अपत्तियं, असंखडदोसा, ण य मास-कप्पजोगे खेत्ते कहेंति, णेब पाहुणे करेंति । १ गा. १८३८ । २ गा० १८३६ । ३ पडिच्छिम्रो प्रतीष्टः । ४ गा. १८३६ । ५ कदाचित । Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܘܛܐ ११८४० ॥ सभाष्य- चाणक निशाथसूत्र जम्हा एते दोसा तम्हा आयरिएणं इमं भणियव्वं सि तदा समगुणा, भुजध दव्वादिएहि पेहित्ता । एवं भंडणदोसा, ण होंति मणुण्णदोसा य || १८४६॥ दव्य - खेत्त - काल - भावेहि पडिलेहेत्ता भुजेज्जह, एवं साधारणे सव्वदोसा परिहरिया भवंति कारणा देज्ज वा पडिच्छेज्ज वा - - असि ओमोयरिए, रायदुट्टे भए व गेलण्णे । अद्वाण रोधए वा, देज्जा अधवा पडिच्छेज्जा || १८४७॥ असिवे कारणे एगागी, एगाणियस्स बहु दोस गुगं जाणित्ता पासत्थ-संघाडगं पडिच्छति । पासत्यस्स वा संघाडगो भवति, अफव्वंतो रायट्ठे रायवल्लभेण समाणं ण घेप्पति भए बितिम्रो सहाओ भवति, गेलणे पडियरणं, श्रद्धाणे सहाओ, रोधणिग्गमणट्ठा, एतेहि कारणेहि सव्वत्थ पणगादि - जयगाए जाहे मासल पत्तो ताहें देति वा पडिच्छति वा ।। १८४७॥ जे भिक्खू उदउल्लेण वा ससिणिद्वेण वा हत्थेण वा दन्त्रीए वा भायणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेति, पडिग्गार्हतं वा सातिजति ||०||३८|| जे भिक्खू ससरक्खेण वा 'मट्टिया-संसद्वेण वा ऊसा संसद्वेण वा लोणिय-संसद्वेण वा हरियाल - संसद्वेण वा मणोसिला - संसद्वेण वा वण्णिय-संसद्वेण वा गेरुय संसट्टेण वा सेडिय - संसद्वेण वा सोरट्ठिय-संसद्वेण वा हिंगुल - संसद्वेण वा अंजण- संसद्वेण वा लोद्ध-संसद्वेण वा कुक्कुस - संसद्वेण वा पिट्ठ- संसद्वेण वा कंतव- संसद्वेण वा कंदमूल संसद्वेण वा सिंगर संसद्वेण वा पुप्फ- संसद्वेण वा उक्कुड-संसद्वेण वा संसद्वेण वा हत्थेण वा दव्वीए वा भागणेण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेति, पडिग्गार्हतं वा सातिज्जति | | ० ||३६|| गिहिणा सचित्तोदगेण अप्पणट्टा धोयं हत्यादि, अपरिणयं उदउल्लं भण्णति । पुढविमत्रो मत्तम्रो । कंसमयं भायणं । श्रंजणमिति सोवीरयं रसंजणं वा । ते पुढविपरिणामा वणिया, जेण सुत्रष्णं वणिज्जति । सोरट्टिया तुवरि मट्टिया भगति । तंदुलपिट्टे श्रामं प्रसत्योवहतं । तंदुलाण कुक्कुसा । सचित्तवणस्सती-ष्णो कुट्टो भति । प्रसंस अणुवलितं । उदउल्ल मट्टिया वा, ऊसगते चैव होति बोधव्वे । हरिताले हिंगुलए, मणोसिला अंजणे लोणे || १८४८ ॥ १ प्रोक्तानि कतिपयपदानि भाष्यचूयनं व्याख्यातानि । २ कुट्टितवनस्पतिचूर्णः । Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ नावा १९४६-१८५३) चतुर्थ उद्देशकः गेरुय वण्णिय सेडिय, सोरद्विय पिट्ठ कुक्कुसकते य । उक्कट्ठमसंसडे, तव्वे आणुपुवीए ॥१८४६॥ एत्तो एगतरेणं, हत्थेणं दबिभायणेणं वा । जे भिक्खू असणादी पडिच्छते आणमादीणि ॥१८५०॥ उदउल्लादीएम, हत्थे मचे य होति चतुभंगो। पुढविभाउवणस्सति, मीसे संयोगपच्छित्तं ॥१८५१॥ हत्थे उद्उल्ले, मते उदउल्ले, १ हत्ये उदउल्ले नो मत्ते ॥२॥ नो हत्ये, मत्ते ।३। नो हत्ये नो मत्ते ।। एवं पुढवादिसु उमंगो। एते चउरो भंगा पुढवी-माउ - वणस्सतीसु संभवंति, नो सेसकाएम् । मीसेसु वि चउभंगा कायञ्चा। "संजोगपन्छितं" ति पढमभगे दो मासलहु, सेसेसु एक्कक्कं । चरिमो सुदो। अहवा - ‘मोसे संजोगपच्छितं' ति सचित्तमाउणा उदउल्लो हत्थो, मीसपुढवीकायगतो मत्तो। एत्थ जं पच्छित्तं तं संजोगपच्छित्तं भवति । एवं सर्वत्र योज्यम् ॥१८५१॥ असंसट्ठ इमं कारणं - मा किर पच्छाकम्मं, होज्ज असंसहगं तो वज्जं । कर-मत्तेहिं तु तम्हा, संसद्धेहिं भवे गहणं ॥१८५२।। कारणे गहणं - असिवे ओमोयरिए, रायदुट्टे भए व गेलण्णे । अद्धाण रोधए वा, जतणा गहणं तु गीतत्थे ॥१८५३॥ "जयमाए गहण" ति जया पणगपरिहाणीए मासलहुं पत्तो ततो गेण्हति । १८५३।। जे भिक्खू गामारक्खियं अत्तीकरइ; अत्तीकरेंतं वा सातिज्जति ॥०॥४०॥ जे भिक्खू गामारक्खियं अच्चीकरेइ, अच्चीकरेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥४१॥ जे भिक्खू गामारक्खियं अत्थीकरेइ , अत्थीकरतं वा सातिज्जति ॥०॥४२॥ जे भिक्खू सीमारक्खियं अत्तीकरहे, अत्तीकरेंतं वा सातिज्जति ॥०॥४३॥ जे भिक्खू सीमारविखयं अच्चीकरइ, अच्चीकरतं वा सातिज्जति ।।सू०॥४४॥ जे भिक्खू सीमारक्खियं अत्थीकरेइ, अत्थीकरतं वा सातिज्जति ॥२०॥४५|| जे मिक्ख रणारक्खियं अत्तीकरेइ, अत्तीकरेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥४६॥ Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे । सूत्र ४७-६८ जे भिक्खू रण्णारक्खियं अच्चीकरेइ, अच्चीकरतं वा सातिज्जति ।।सू०॥४७॥ जे भिक्खू रण्णारक्खियं अत्थीकरेइ, अत्थीकरेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥४८॥ एवं पण्णरस सुत्ता उच्चारेयव्वा, अर्थः पूर्ववत् । अत्तीकरणादीसु, रायादीणं तु जो गमो भणियो। सो चेव गिरवसेसो, गामादारक्खिमादीसु ॥१८५४॥ जो गमो भणितो इहेव उद्दसगे प्रादिसुत्तेसु ॥१८५३॥ जे भिक्खू अण्णमण्णस्स पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ॥२०॥४६।। जे भिक्खू अण्णमण्णस्स पाए संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संबाहेंतं वा पलिमदेंतं वा सातिज्जति ।।सू०।।५०॥ जे भिक्खू अण्णमण्णस्स पाए तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेंतं वा भिलिंगेतं वा सातिज्जति ।।सू०॥५१॥ जे भिक्खू अण्णमण्णस्स पाए लोगुण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उबट्टेज्ज वा, उल्लोलेतं वा उव्वद्रुतं वा सातिज्जति।।सू० सू०॥५२॥ जे भिक्खू अण्णमण्णस्स पाए सीओदग-वियडेण वा उसिणोदग-वियटेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥सू.०॥५३॥ जे भिक्खू अण्णमण्णस्स पाए फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुमतं वा रएंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥५४॥ जे भिक्खू अण्णमण्णस्स कायं आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जतं वा सातिज्जति ॥सू०।।५।। जे भिक्खू अण्णमण्णस्स कायं संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संबाहेंतं वा पलिमद्देतं वा सातिज्जति ।।मू०॥५६॥ जे भिक्खू अण्णमष्णम्स कायं तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेंतं वा भिलिंगेंतं वा सातिज्जति ।।मु०॥५७|| Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यमाथा १९५४ ] चतुर्थ उद्देशकः णमण्णस्स कार्य लोद्धरेण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वट्टेज वा, उल्लोलेंतं वा उव्वतं वा सातिज्जति ||०||२८|| जे भिक्खू अण्णमण्णस्स कार्य सीओदग-वियडेण वा उसिणोद्ग- विग्रडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलतं वा पघोएंतं वा सातिज्जति ||०||५६ जे भिक्खू जे भिक्खुणमण्णस्स कार्य फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुर्मेतं वा रतं वा सातिज्जति ||सू०||६०|| भिक्खुणस्स कार्यसि वणं श्रमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥ ६१ ॥ जे भिक्खू अण्णमण्णस्स कार्यंसि वणं संबाहेज वा पलिमद्देज्ज वा, संघातं वा पलिमद्दतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥६२॥ जे भिक्खूणमण्णस्स कायंसि वणं तेल्लेण वा घरण वा बसाए वा वणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा, मक्तं वा मिलितं वा सातिज्जति ॥ ० ॥ ६३ ॥ जे भिक्खुणमणस् कार्यंसि वर्ण लोद्वेण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वट्टेज्ज वा, उल्लोंलेंतं वा उवद्वेतं वा सातिज्जति ||सू०||६४ || जे भिक्खू मण्णस्स कार्यंसि वर्ण सीओदग विगडेण वा उसिणोद्ग- विग्रडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति | | ० ||६५|| जे भिक्खूणमण्णस्स कायंसि वर्ण फुमेज्ज वा रएज्ज वा, રમૈય फुमेतं वा रतं वा सातिज्जति ||सू०||६६ || जे भिक्खू अण्णमण्णस्स कार्यंसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अन्यरेणं तिक्खणं सत्थजाएणं च्छिदेज्ज वा विच्छिदेज्ज वा, अच्छिदेतं वा विच्छिदेतं वा सातिज्जति ।। सू०||६७|| जे भिक्खू अण्णमण्णस्स कार्यंसि गंड वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अन्यरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं श्रच्छिदित्ता विच्छिदित्ता पूर्य वा सोणियं वा नीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, नीरेतं वा विसोर्हेतं वा सातिज्जति ॥ | सू० ||६८|| Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___२१४ २६४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [ सूत्र ६६-८७ जे भिक्खू अण्णमण्णस्स कायंसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा 'भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्वेणं सत्थजाएणं अच्छिदित्ता विच्छिदित्ता नीहरित्ता विसोहेत्ता सीओदग-वियडेण वा उसिणोदग-विपडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलेतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ।।सू०।।६।। जे भिकावू अण्णमण्णस्स कायंसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्षणं सत्थजाएणं अच्छिदित्ता - विच्छिंदित्ता नीहरिता विसोहेत्ता उच्छोलेत्ता पधोएत्ता अन्नयरेणं आलेवणजाएणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा आलिंपतं वा विलितं वा सातिज्जति ।।मू०॥७०|| जे भिक्खू अण्णमण्णस्म कायंसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा अमियं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्खणं सत्थजाएणं अच्छिदित्ताविच्छिदित्ता नीहरित्ता विसोहेत्ता उच्छोल्लेत्ता पधोएत्ता आलिपित्ता विलिंपित्ता तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा, अभंगेंतं वा मक्खंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥७॥ जे भिक्खू अण्णमण्णम्म कायंमि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा अभियं वा भगंदलं वा अन्नयरेणं तिक्खणं सन्थजाएणं अच्छिंदित्ता विच्छिदित्ता नीहरित्ता विसाहत्ता उच्छोलित्ता पाइना आलिंपित्ता विलिंपित्ता अभंगत्ता मक्खेत्ता अन्नयरेण धृवणजाएण धृवेज्ज वा पधूवेज्ज वा, ध्वंतं वा पधुवंतं वा मातिन्जनि ।। ०।।७२।। जे भिक्व अण्णमण्णम्म पालु-किमियं वा कुच्छि-किमियं वा अंगुली निवमिय नियसिय नीहरड, नीहानं वा सातिजति ।।मू०॥७३॥ ज भिक्खू अण्णमष्णस्स दीहाओ नह-सीहाओ दीहाई रोमाई कप्पज्ज वा मंठवज्ज वा, कप्पतं वा मंठवतं वा मातिजति ।।मू०७४|| ज भिक्ख अण्णमण्णस्स दीहाई जंघ-रोमाई कप्पेज वा मंठवेज वा कप्पंतं वा संठवेंतं वा मातिजति ॥५०।७५॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १८५४ ] चतुर्थ उद्देशकः २६५ जे भिक्ख अण्णमण्णस्स दीहाई कक्ख-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेतं वा सातिज्जति ॥सू०॥७६॥ जे भिक्ख अण्णमण्णस्स दीहाई मंसु-रोमाई कप्पेज्ज वा संटवेज्ज बा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ।।मु०॥७७॥ जे भिक्ख अण्णमण्णम्स दीहाई वत्थि-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥७८|| जे भिक्ख अण्णमण्णस्स दीहाई चक्खु-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज का, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्नति ।।सू०७६ ।। जे मिक्ख अण्णमण्णम्स दंते आघंसेज्ज वा पघंसज्ज वा, आसंतं वा पवंसंतं वा सातिज्जति ।।मू०||८०॥ जे भिक्ख अण्णमण्णस्स दंते उच्छोलेज वा पधोएज्ज वा, उज्छोलतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ।।मू० ॥१॥ जे भिक्ख अण्णमण्णस्य दंते फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुतं वा रऐतं वा सातिज्जिति ।।मू०।।८२॥ जे भिक्य अण्णमण्णस्म उ8 आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज बा, आमज्जंतं वा पमजतं वा मातिज्जति ।।मू०||८३।। जे भिक्ख अण्णमण्णस्म उट्टे संबाहेज वा पलिमदेज्ज वा, संबाहेंतं वा पलिमहेंतं वा मातिजति ।।मू०॥८४॥ जे भिक्ख अण्णमण्णस्स उडे तेल्लेण वा घाण वा साए वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा, मक्खेतं वा भिलिंगतं वा मानिज्जति ।।मू ।।५।। जे भिक्ख अण्णमष्णम्स उढे लोट्टेण वा कक्केण वा उल्लोलेज वा उबट्टेज वा, उल्लोलतं वा उबट्टतं वा सानिज्जति ।।मु०॥८६।। जे भिक्ख अण्णमण्णम्म उडे सीओदग-वियडेण वा उमिणोदग-वियडेण वा, उच्छोल्लेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोल्लेंतं वा पधोएंनं या सातिज्जति ।।मू०||७|| Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ सभाष्य-पूर्णिके निशीथसूत्रे जे भिक्खु अण्णमण्णस्स उड्डे फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुमेतं वा रतं वा सातिज्जिति ||०||८८ || जे भिक्खू अण्णमण्णस्स दीहाई उत्तरोट्ठाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्पेतं वा संठवतं वा सातिज्जति ||सू०||८|| जे भिक्खू अण्णमण्णस्स दीहाई अच्छित्ताई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ||०||६०॥ जे भिक्ख अण्णमण्णस्स अच्छीणि श्रमज्जेज वा पमज्जेज वा श्रमज्जंतं या पमज्जंतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥ ६१ ॥ जे मिक्ख अण्णमण्णस्स अच्छीणि संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संबार्हतं वा पलिमदेतं वा सातिज्जति ||सू०||२|| जे भिक्खू अण्णमण्स्स अच्छीणि तेल्लेण वा घरण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा मिलिंगेज्ज वा मक्तं वा मिलितं वा सातिज्जति ||०|| ६३ ॥ a जे भिक्ख अण्णमण्णस्स अच्छीणि लोद्वेण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वट्टेज्ज वा, उल्लोलंतं वा उच्चतं वा सातिज्जति ||०||४|| जे भिक्खुणमण्णस्स अच्छीणि सीओदग-विंगडेण वा उसिणोद्ग-वियडेण वा उच्छोल्लेज्ज वा पधोएज्ज वा, a उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥६५॥ जे भिक्खुणमणस्स अच्छीणि फुमेज्ज वा रएज्ज वा, a फुर्मेतं वा रतं वा सातिज्जति | | ० ||६|| [ सूत्र ८८-१०२ जे भिक्खु णमणस्स दीहाई भुगग-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज श्रा कप्पेतं वा संठवतं वा सातिज्जति ||सू० ॥६७॥ जे भिक्खुणमण्णस्स दीहाई पास- रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठतं वा सातिज्जति | | ० ||८|| जे भिक्खू अण्णमण्णस्स अच्छि - मलं वा कण्ण-मल वा दंत-मलं ना नह-मलं वा नीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा नोहरेंतं वा विसोर्हेतं वा सातिज्जति ||०||६|| Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पापा १८५४-१८५८] चतुर्थ उद्देशकः २९७ जे मिक्ख अण्णमण्णस्स कायाओ सेयं वा जन्लं वा पंकं वा मलं वा नीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, नीहरतं वा विसोहेंतं वा सातिज्जति ॥२०॥१०॥ जे भिक्ख गामाणुगामियं दूइज्जमाणे अण्णमण्णस्स सीसदुवारियं करेइ करतं वा सातिज्जति ॥२०॥१०॥ इत्यादि 'एक्कतालीस सुत्ता उच्चारेयव्वा जाव अण्णमण्णस्स सीसवारियं करेति इत्यादि प्रर्थः पूर्ववत् । पादादी तु पमज्जण, सीसदुवारादि जो गमो ततिए । अण्णोऽण्णस्स तु करणे, सो चेव गमो चउत्थम्मि ॥१८५॥ तृतीयोद्देशकगमेन नेयं ॥१८५५॥ जे भिक्खू साणुप्पए उच्चारपासवणभूमि ण पडिलेहेति, ण पडिलेहेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१०२॥ साणुप्पो पाम चउभागावसेसचरिमाए उच्चारपासवणभूमीग्रो पडिलेहियव्वानो ति, ततो कालस्स पडिक्कमति, ततो पडिलेहेति, एस साणुप्पो जति ण पडिलेहेति तो मासलहुं, प्राणादिया दोसा । पासवणुच्चाराणं, जो भूमी अणुपदे ण पडिलेहे। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥१८५६।। अपडिलेहिते इमे दोसा - छक्कायाण विराधण, अहि विच्छुअ सण्ण-मुत्तमादीसु। वोसिरण-णिरोधेसू , दोसा खलु संजमायाए ॥१८५७।। प्रपडिलेहिते जति वोसिरति ततो दलमो छक्कायविराहणा संभवति । भावतो पुण विराषिता एस संजमविराधणा । बिलाति संभवे अपडिले हिते पहिविच्छंगादिणा खजति प्रायविराहणा । मुत्तेण वा पुरीसेण वा प्रादिसद्दातो वंतपित्तादिणा पायं लेवाडेज, ततो उपकरणविणासो वा, सेहविप्परिणामो वा । प्रपडिलेहियं वा थंडिलं ति णिरोहं करोति वोसिरति, एवं च "मुत्तणिरोहे चक्खु, वच्चणिरोहे जीवियं” एत्य वि प्रायविराहणा ॥१८५७॥ जम्हा एते दोसा तम्हा - चउभागसेसाए, चरिमाए पोरिसीए तम्हा तु । पयतो पडिलेहिज्जा, पासवणुच्चारमादीणं ॥१८५८|| चरिमा पच्छिमा, पयतो प्रयलवान् ॥१८५८।। १ किन्तु सूत्र - गणनया ५३ संख्याकानि सूत्राणि भवन्ति ? Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १०३-१०५ भवे कारणं ण पडिलेहेज्जा वि - गेलण्ण रायदुद्वे, अद्धाणे संभमे भएगतरे । गामाणुगामवियले, अणुप्पत्ते वा ण पडिलेहे ॥१८५६।। गिलाणो ण पडिलेहेइ, प्रगिलाणो वि गिलाणकज्जे पाउलो ण पडिलेहेति, रायदुद्वेण वा ण णिग्गच्छति, प्रद्धाणट्ठो वा सत्थद्वाणं वियाले पत्तो, अगणिमाति-संभमे ण वा पडिलेहेति,मासकप्पविहारगामाओं गच्छतो अण्णो अणुकूलो गामो तं वियाले पत्तो । एतेहि कारणेहिं अपडिलेहेंतो सुद्धो ।।१८५६।। जे भिक्ख तो उच्चार-पासवण-भूमीणो ण पडिलेहेइ, ण पडिलेहेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१०३॥ ततो-त्रयं सूचनात् सूत्रमिति द्वादशविकल्पप्रदर्शनार्थं त्रयो ग्रहणं अपडिलेहंतस्स मासलहु , प्राणातिया य दोसा। पासवणुच्चारादीण भूमीअो जो तो (उ) पडिलेहे । अंतो वा बाहिं वा, अहियासि वा अणहियासिं ॥१८६०॥ अंतो णिवेसणस्स काइभूमीमो अणहियासियानो तिन्नि - प्रासन्न मज्झ दूरे। अहियासियानो वि तिन्नि-पासन्न मज्झ दुरे । एया काइयभूमीप्रो। बहिं णिवेसणस्स एवं चेव छ काइभूमीग्रो एवं पासवणे बारस, सण्णाभूमीप्रो वि बारस, एवं च तापो सव्वाप्रो वउव्वीसं । कि णिमित्तं तिष्णि तिणि पडिले हिज्जति ? कयाति एक्कस्म बाघातो भवति तो बितियादिसु परिदृविज्जति । पासवणे तयो अपेहणे चेल्लगउट्टदिद्रुतो भाणियन्वो। अणधियासियकारणं कोवि अतीव उवाहितो जाव दूरं वच्वति ताव प्रायविराहणा भवे तेग प्रासणे पेहा ॥१८६०॥ जो एया ण पडिलेहेति तस्स प्राणादिया दोसा। .. सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं तहा दुविहं । पावति जम्हा तेणं, चउवीसं भूमि-पडिलेहे ॥१८६१॥ बितिय पदगाहा - छक्कायाण विराहण, अहि विच्छुग सण्ण-मुत्तमादीसु । वोसिरण निरोहेसु दोसा खलु संजमाताए ।।१८६२।। गेलण्ण रायदुडे, अद्धाणे संभमे भएगतरे । गामाणुगामवियले, अणुप्पते वा ण पडिलेहे ॥१८६३॥ जे भिक्ख खुड्डागंसि थंडिलंसि उच्चार-पासवणं परिट्ठवेइ, परिवेंतं वा सातिज्जति ॥०॥१०४॥ रयणिपमाणातो जं पारतो तं खुड्डु, तत्थ जो वोसिरति तस्स मासलहु प्राणादिया य दोसा । Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १८५९ - १८१०] चतुर्थ उद्देशकः वित्थाराय मेणं, थंडिल्लं बं भवे रतणि- मित्तं । चतुरंगुलोवगाढं, जहण्णयं तं तु वित्थिष्णं ॥ १८६४॥ वित्थारो पोहच्वं, प्रायामो दिग्वत्तणं, रयणी हत्यो तम्माणे ठितं रयणीमेत्तं । जस्स थंडिल्लस्स बत्तारि अंगुला हे चित्ता तं चउरंगुलोवगाढं । एयप्पमाणं जहणणं वित्थिष्णं ।। १८६४ ।। एतो हीणतरागं, खुड्डागं तं तु होति गातव्वं । तिरंगतरं एतो, वित्थिष्णं तं तु णायव्वं ॥ १८६५|| सक्को वित्थिष्णं बारसजोयणं, तं च जत्थ चक्कवट्टिसंघावारो ठिम्रो । पासवणुच्चारं वा, खुडाए थंडिलम्मि जो भिक्खू | जति वोसिरती पावर, आणा अणवत्थमादीणि ॥ १८६६ ॥ छक्कायाण विराधण, उभएणं 'पावणा तसाणं च । जीवित - चक्खु-विणासो, उभय-गिरोहेण खुड्डाए || १८६७ || असणे छक्काया ते उभएणं काइयसण्णाए प्लावेंति तसाणं च प्लवणा, खुडुयं काउं ण वो ति तेण जीविय चक्खु - विणासो भवति ।। १८६७ ॥ बितियपदं - थंडिल्ल सति श्रद्धाण रोधए संभमे भयासणे । दुब्बलगहणि गिलाणे, वोसिरणं होति जतणाए ॥१८६८|| असति प्यमाणजुत्तस्स थंडिलस्स, चोरसावयभया पमाणजुत्तं ण गच्छति, "प्रासणे" ति - प्रणहियास माणजुत्तं गंतु ण सक्कति दुब्बलगहणि वा ण तरति गंतु । इमा जयगा - वोसिरति कातियं प्रणत्य, अह काइयं पि प्रागच्छति ताहे कातियं मत्तए पडिच्छति ।। १८६८ ।। एत्थ सां जे, भिक्खू उच्चारपासवणं विधी परिवेश, १ प्लावना । थंडिल सामायारों ण करेति एसा प्रविधी, तीए वोसिरति तस्स मासलहुं । ग्राणादिया य दोसा पासवणुच्चारं वा, जो भिक्खु वोसिरेज्ज प्रविधीए । सो आणा णवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ।। १८६६ ॥ इमा विही परिवेतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥ १०५ ॥ ૧ पडिलेहणा दिसाणं, पायाण पमज्जणा य कायदुबे | reer arr दिसे भग्गहे य जतणा इमा तत्थ ॥ १८७० ॥ २६९ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १०६-११० सागारियसंरक्खणट्टा उडुमहोतिरियं च दिसावलोगो कायव्वो, ग्रह ण करेति तो दवअप्पकलुसादिएहि उड्डाहो भवति, पढमं पदं । जत्य बोसिरिउकामो तट्टाणस्स पासे संडासगं पादे य पमज्जति, श्रहण पमजति तो रयादिविणासणा भवति श्रसमायारी य च सद्दातो थंडिलं च, बितियपदं । " कायदुवे भयण" त्ति भयणासद्दो उभयदीपकः, इह कायदुवे भंगभयणा कजति जति पडिलेहेति ण पमज्जति । एत्थ थावरे रक्खति, ण तसे । अध ण पडिलेहेति, पमज्जति । एत्थ ण थावरे, तसे रक्खति । ३०० पडिले हेति, मजति । एत्थ दो वि काये रक्खति । ण पडिलेहेति ण पमज्जति । एत्थ दो वि न रक्खति । अधवा इमा चउव्विह भयणा - थंडिलं तसपाण सहितं |१| थंडिलं तसपाण - विरहितं । २। श्रथंडिलं तसपाण- - विरहितं ॥३॥ अथंडिलं तसपाण सहितं |४| - एवं ततियपयं भयणा ॥। १८७० ।। - दिसि पवण गाम सूरिय, छायाए पमज्जितूण तिक्खुत्तो । जस्सुग्गहो ति कुज्जा, डगलादि पमज्जणा जतणा ॥ १८७१ ॥ "छाय" त्ति प्रसंसतगहणी उन्हे वोसिरति, संसत्तगहणी छायाए वोसिरति, ग्रह उन्हे वोसिरति तो चहुं । एयं च उत्थ पदं । दिसाभिग्गहो- दिवा उत्तराहुतो, राम्रो दक्षिणाहुत्तो । ग्रह प्रणतो मुहो बस तो मासलहुं, दिसिपवण गाम सूरियादि य सव्वं श्रविवरीयं कायव्वं विवरीए मासलहुं ॥ १८७१ ॥ संका सागार, गरहमसंसत्त सति दोसे य । पंचसु विपदेसेते, वरपदा होंति जातव्वा ।। १८७२ ॥ बितियपदं दिसालोअं ण करेज, तत्थ गामे तेणभयं दिसालोयं करेंतो संकिजति । एस तेणो चारियो वा । पादे वि ण पमज्जेज्जा, सागारियत्ति काउं । श्रद्दमिति प्राद्र' थंडिलं ण पमजति । अधवा - तं थंडिलं गरिहणिज्जं तेण ण पमज्जति । श्रसंसत्तग्रहणी तेण ण छायाए वोसिरति । प्रसति दोसाणं दिसाभिग्गहणं ण करेज । वट्टियसण्णो डगलगं पि ण गेण्हेजा । गाम-सूरियादोण व पिट्ठ देजा, जत्थ लोगो दोसं ण गेहेति । पंचसु वि पदेसु एते प्रवरपता भणिता ।। १८७२ ॥ जे भिक्खू उच्चार पासवणं परिठवेत्ता न पुंछइ, न पुंछतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥ १०६ ॥ | ण पुंछति ण जिड्डुगलेति । जे भिक्खू उच्चार- पासवणं परिद्ववेत्ता कट्टेण वा किलिंचेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा पुंछति, पुंछतं वा सातिज्जति ॥ सू०|| १०७ || किलि वो वंस कप्परी, अण्णतरकट्टघडिया सलागा, तस्स मसलहुँ । Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०१ माधनाथा १८५१-१८७६ ) चतुर्थ उद्देशकः ... उचारमायरित्ता, जे.भिक्खू ण (य) पुंछती अहिट्ठाणं । पुंछेज व अविधीए, सो पावति प्राणमादीणि ॥१८७३।। पायरित्ता योमिरिता, प्रविधी कट्ठातिया बितियसुत्ते ॥१८७३॥ लित्थारणं दवेणं, जुत्तमजुत्तेण पावणा दोसा । संजम - आयविराधण, अविधीए पुंछणे दोसा ॥१८७४॥ पणिड्डगलिते प्रतीव लेयरियं तं दवेण जुत्तेण थोवेणं ति भणियं होति, तेण ण सुज्झन्ति । असुटे दिट्ठ उड्डाहो, सेहो वा विप्परिणमेज्ज । ___ मह मजुत्तेण बहुणा दवेण धोवति तो प्लावनादि दोसा। एते मपुंछिते दोसा। प्रविधीपुंछिते इमं पच्छदं । लंछिएहि मायविराहणा, मह जीवकायो ति संजमविराहणा य॥१८७४॥ इमा अविधी कद्वेण किलिंचेण व, पत्त सलागाए अंगुलीए वा। एसा अविधी भणिता, डगलगमादी विधी ति-विधा ॥१८७॥ पतं पलासपत्तादि । डगलेण वा, चीरेण वा, अंगुलीए वा, एसा तिविधा विधी। उगला पुण दुविधा - संबद्धा भूमीए होज्जा, असंबद्धा वा होज्जा । जे असंबद्धा ते तिविधा - उक्कोसति । उवला उक्कोस', लेट्मसिणा मज्झिमा, इट्टालं जहणं ॥१८७५॥ जम्हा एते दोसा तम्हा पुव्वादाणं, कातूर्ण डगलगाण छज्जा । उत्थाणोसहपाणे, असती व ण कुज्ज आदाणं ॥१८७६॥ मायाणं डगलगादीण, छज्ज उच्चारं वोसिरिज्जा। वितियपदं गाहापच्छ । उत्थाणं - पतिसारो, प्रोसहपीतो वा ण गेण्डति, प्रसती वा ण गेहति ॥१८७६॥ जे भिक्ख उच्चार-पासवणं परिहवेत्ता णायमति, णायमंतं वा सातिज्जति ॥२०॥१०८|| जे मिक्ख उचार-पासवणं परिद्ववेत्ता तत्थेव आयमति, आयमंतं वा सातिजति ॥२०॥१०॥ जे मिक्ख उचार-पासवणं परिद्ववेत्ता दूरे भायमति, आयमंतं वा सातिज्जति ।।१०।११०।। तिणि सुत्ता उच्चारेयव्वा । उच्चारे वोसिरिज्जमाणे अवस्सं पासवणं भवति ति तेण गहितं । पासवर्ण पुण काउं सागारिए णायमंति जहा उच्चारे । तत्येव त्ति पंडिले, जत्य सण्णा वोसिरिया। प्रतिदूरे हत्यसयमाणमेते। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ समाष्य-वणिके निशीथसूत्रे उच्चारं वोसिरिता, जे भिक्खू व आयमेज्जा हि । दूरे वाssसण्णे वा सो पावति णमादीणि ।। १८७७ || श्रायमणं णिल्लेवणं, श्रासण्णं तत्थेव थंडिले ।। १८७ ॥ प्रणायमंते इमे दोसा — सो पवयण-हाणी, विष्परिणामो तहेत्र य दुगंछा । दोसा श्रणायमंते, दूरासण्णायमंते य ।। १८७८ || यसो - इमे प्रसोइणो त्ति, ण एते णिल्लेवेंति त्ति । णपव्वयंति, श्रणे वि पञ्चयंते वारेति, पवयण हाणी । दंसणे चरिते वा प्रब्भुवगमं काउकामस्स विप्परिणामो भवति । सेहान वा मा एतेहि विट्टलेहि सह संफास करेहि, एसा पुच्छ' । दूरे वि एते दोसा । ग्रासणे वि एते चैव दोस! | कह ? सागारिनो पासति, संजम्रो सण्णं वोसिरिउं दूरं गतो, सागारिओ वि जोविजं पराभम्गो 'ण । णिल्लेवितं " ति लोगस्स कहेति । श्रासणे तत्थेत्र संजतो गिल्लेवेउं गतो, सागारिए प्रागंतु पलोइयं जाव मुत्तियं देक्खति, एतं से कातियं ति ण गिल्लेवितं, पच्छा लोगस्स कहेति । उत्थाणोसहपाणे, दव असतीए व णायमेज्जाहिं । थंडिल्लस्सव असती, आसण्णे वा विदूरे वा ॥। १८७६ ॥ श्रनस्स थंडिलस्स प्रसति तत्थेव निल्लेवेति थंडिलट्ठा दूरं गतं निल्लेवेति, सागारिनो पुण वोलावेति ।। १८७६॥ जे भिक्खू उच्चार- पासवणं परिवेत्ता नावा पूराणं आयमति, आयमंतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥ १११ ॥ [ सूत्र १११-११२ "नाव" त्ति पसती, ताहि तिहि प्रायमियत्वं । अण्णे मणंति अंजलि पढमणावापूर तिहा करेता श्रवयवे विगिचति, बितियं णावपूरं तिहा करेत्ता तिष्णि कप्पे करेति सुद्ध, प्रतो परं जति करेति तो मासलहुँ । उच्चारमायरित्ता, परेण तिन्हं तु गाव-पूरेणं । जे भिक्खु आयमती, सो पावति आणमादीणि ।। १८८० ॥ इमे दोसा - उच्छोलणुप्पिलावण, पडणं तसपाण-तरुगणादीणं । कुरुकुयदोसा य पुणो, परेण तिष्हायमंतस्स || १८८१ ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगाथा १८७७-१८९५ ] चतुर्थ उद्देशक: "'उच्छोलणा पधोइरस, दुल्लमा सोग्गति तारिसयस्स" उच्छोलणादोसा भवंति, पिपीलिमादोणं वा पाणाण उपिलावणा हवइ, खिल्लरंधे तसा पडंति, तरुगणपत्ताणि वा पुप्फाणि वा फलाणि वा पाति, मातिम्गहणेणं पुढवि-पाऊ-तेउ-वाऊण य, यत्राग्निस्तत्र वायुना भवितव्यमिति कृत्वा, कुरुकयकरणे व उस्सत्तं भवति ॥१८७१॥ कारणे अतिरित्तेण वि प्रायमे - बितियपद सेह रोधण, हरिसा आगार-सोयवादीसु । उत्थाणोसहपाणे, परेण तिण्हायमेजासि ॥१८८२॥ जेण वा णिल्लेवं णिग्गंधं भवतीत्यर्थः॥१८८२।। जे भिक्खू अपरिहारिएण परिहारियं वदेजा - "एहि अजो ! तुमं च अहं च एगो असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइम वा पडिग्गाहेत्ता, तो पच्छा पत्तेयं पत्तेयं भोक्खामो वा पाहामो वा" जो तं एवं वदति, वदंतं वा सातिजति । तं सेवमाणे आवजति मासियं परिहारहाणं उग्घातियं ॥०॥११२।। पायच्छित्तमणावष्णो अपरिहारियो, प्रावणो मासाति-जाव - छम्मासियं सो परिहारिमो, बूया - ब्रवीति, अज्ज इति प्रामंत्रणे, एगतप्रो संघाडएण भत्तं भोक्खामो, पाणगं पाहामो, उग्याएति - मासलहुं । सीसो भणति - भगवं? सो किहमाउत्तो प्रावणो ? आयरियो पाह कंटगमादीसु जहा, आदिकडिल्ले तथा जयंतस्स । अवसं छलणाऽऽलोयण, ठवणा णाते जुत्ते य वोसग्गे ॥१८८३॥ णाणादि तिगकडिल्लं, उग्गम-उप्पादणेसणा वा वि । आहार उवधि सेज्जा, पिंडादि चतुव्विधं वा वि ।।१८८४॥ जहा कंटगाकिण्णे पहे उवउत्तस्सापि कंटगो लग्गति, प्रादिसद्दातो विसमे प्राउट्टे वि प्रागच्छंतो पडति, कयपयत्तो वा णतिपूरेण हरिज्जति, सुसिक्खिनो वि जहा असिणा लंछिज्जति, एवं - कंटगस्थानीयं प्राइकडिल्लं । तं च उम्गम उप्पादणा एसणा । णाण - देसण - चरिता। एतेसु मुठु वि पाउत्तस्स अवस्सं कस्स ति छलणा भवति, छलिएण अवस्सं पालोयणा दायव्वा, संघयणातीहिं जुत्तं गाउं ततो से ठवणा ठविन्जति । ततो स साहूण जाणावणट्ठा सव्वेसिं पुरग्रो णिरुवसागणिमित्तं मंगलटुं च काउस्सगो कीरति ॥१८८४॥ "२ठवणा णाते जुत्त" पयाण इमा वक्खा - ठवणा तू पच्छित्तं, णाते समत्थो य होति गीतो य । आवण्णो वा जुत्तो, संघयण-धितीए जुत्तो वा ॥१८८५॥ १ दसर्वकालिक • चतुर्थाध्ययने । २ गा० १८८३ । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ सभाष्य-चूगिके निशीथसूत्र [ सूत्र-११२ - "ठवणे' त्ति - सव्वसाधूहि सम.णं पच्छित्तठवणा ठविज्जति, णाते ति समत्यो गीयत्यो वा गातो, प्रावणति पच्छितेण जुत्तो, संघयणधितीए वा जुत्तो ॥१८८५॥ पायरियो काउस्सग्गकरणकाले इमं भणइ - एस तवं पडिवज्जति, ण किं चि आलवति मा (एन) आलवहा । अत्तह-चिंतगस्सा, वाघातो भे ण कातव्वो ॥१८८६॥ पडिहारतवं पडिवज्जति ।।१८८६।। इमे वाघातकारणा - आलवणं पडिपुच्छण, परियटट्ठाण - वंदणग-मत्ते । पडिलेहण संघाडग, भत्तदाण संभुंजणा चेव ।।१८८७|| "पालवणं" ति - पालावो । हे भगवं ! सुत्तत्यं पुच्छति, पुन्वाधीयं परियट्रेति, तेण समकालस्स उट्रेति वंदणं देत, मत्तगं से देति, उवकरणं मे पडिलेहेति, भिक्खं मडंतस्स संघाडगो भवति, भत्तं पाणं वा देति, तेण समाणं एगमंडलीए भुजति ॥१७८७॥ संघाडगा उ जावं, लहुगो जा उ दसण्ह उ पयाणं । लहुगा य भत्तदाणे, संभुंजणे होतऽणुग्धाता ।।१८८८|| एतेसि आलवणाइयाण दसण्हं पदाणं - जाव - संघाडगपतं ताव पारिहारियरस पालवणाति करेंतस्स अट्ठसु पतेसु मासलहुं । पच्रद्धं कंठं ॥१८८८।। सुत्तणिवातो एत्थं, णायचो आदिमहसु पदेसु । एतेसामण्णतरं, सेवंताऽऽणादिणो दोसा ॥१८८६।। मालवणाती करेंतेण तित्थकराणाइक्कमो, पमत्तं वा देवता छलेज, प्रातविराहणा । अण्णेण वा भणितो- कीस मालवणातीणि करेसि ति ? सुट्छु त्ति भयंते अधिकरणं, एवं चरणभेदो, तम्हा ण करेज्ज । एताणि पदाणि ॥१८८६॥ कारणे करेजा वि - विपुलं च अण्णपाणं, दट्टणं साधुवजणं चेव । णाऊण तस्स भावं, संघाडं देंति आयरिया ॥१८६०॥ संखडीए छगूसवेसु वा विउल भत्तपाणं साधूहि लद्धं, तं दयण ईसिं तदभिलासो, साधूहि वज्जितो ऽहं सदुच्चरितेहिं स (अ) चेलो, एवं पायरिया गाउं संघाडगं देंति ॥१८६०॥ अधवा आयरिया चेव इमं णाउं संघाडगं देंति - देहस्स तु दोब्बल्लं, भावो ईसिं च तप्पडीबंधो । अगिलाइ सोधिकरणेण वा वि पावं पहीणं से ॥१८६१।। प्रायरिया अतीव देहदुब्बल्लं ठु प्रतिसएण प्रागारेण वा भावं ईसि विपुल - भत्ताभिलासिणं णचा पावं च से खीणपायं ताहे संघाडं देंति । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १५०६ - १८६४ ] चतुर्थ उद्देशकः इमेण विहिणा - प्रायरिया भणति एज्जाहि अज्जो भ्रमुगघरं, तत्थ य पुव्वगता प्रायरिया सो पच्छा वच्वति, ताहे से विरूवं रूवं भोगा हिमगादिभत्तं दव्वावेति । एतेहि कारणेहि उवलक्खित्ता, अण्णहा ण देति ॥ १८८ ॥ ""णाऊण तस्स भावं" ति अस्य व्याख्या - आगंतु एतरो वा, भावं प्रतिसेसियो से जाणिज्जा । हेतूहि वा स भावं, जाणित्ता अणतिसेसी वि ॥ १८६० ॥ - "इयरो" ति वत्थव्वो, ग्रइसएण हेऊहिं वा स प्रणतिसती वि भावं णाऊण संघाडगं ददंतीत्यर्थः ॥ १८६०॥ कारणाभावे पुण इमं करेंति भत्तं वा पाणं वा, ण देति पारिहारियस्सिमं करेंति । कारण उडवणादी, चोदग गोणीए दिट्ठता ॥ १८६३|| इमो गुणो - सेसकाले संघाडयं भत्तं वा घाणेउं न देंति । इमं पुण करेंति- जाहे खीणो ण तरति उउं पडिलेहणं वा काउं ताहे सो भणति उद्विज्जामि, निसिज्जामि, भिक्खं हिंडिज्जामि, भंडगं पडिले हिज्जामि, तापहारि बाहाए गहाय उट्ठवेति, णिसियावेइ वा, घरेइ वा बाहं पडिलेहावेति, घरियं वा भिक्खं हिंडावेति, एवं जं जं ण तरति तं तं से कीरति । चोयगो भणति - किं पच्छित्तं ? श्रवसो व रायदंडो तुब्भ त्ति ? एयावत्थस्स जेग आणेउं ण - दिज्जति ? एत्थ आयरिश्रदितं करेइ - जहा णवपाउसे जा गोणी ण तरति उट्ठेउं तं गोवो उट्ठवेति, वि चरणट्टा णेति, जा ण तरति गंतु तस्स गिहे माणेउं पयच्छति, एवं परिहारियो वि जं तरति काउं टं कारविज्जति । जंण तरति तं किज्जति ।। १८६३ ॥ ३०५ एवं तु असदभावो, विरियायारो य होति अणुविचिण्णो । भयजणणं सेसाणं, य तवो य सप्पुरिसचरियं च ॥ १८६४॥ एवं असढभावो भवति, वीरियं च ण गूहितं भवति, सेससाहूण य भयं जणियं भवति, तवो य कतो, सत्पुरिसचरियं च कतं भवतीति ॥ २८६४॥ १ गा० १८८८ । ॥ इति विसेस - मिसीहचुण्णीए चउत्थो उद्देसओ समत्तो ॥ ३६ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गाथामाह इदानीं उद्दसकस्स उद्दे सकेन सह संबंधं वक्तुकामो प्राचार्यः भद्रवाहुस्वामी नियुक्ति परिहार तव किलंतो, रुक्खमधिट्ठाणमादिचिंतेंतो । अभिघातिमरक्खट्ठा, पलोयए एस संबंधी || १८६५|| पंचम उददेशकः चउत्थस्स अंतसुते परिहारर्तवो भणिनो । तेण किलंतो रुक्खस्स अहे ठिम्रो ठाण- णिसोयणाति करें तो लउडादिग्रभिघायातिमरवखट्ठा उवरि पलोएति । एस संबंधी ।। १८६५ ।। जे भिक्खू सचित्त-रुक्ख- मूलंसि ठिच्चा आलोएज्ज वा पलोएज्ज वा लोएतं वा पलोएतं वा सातिज्जति ||सू०॥ १ ॥ सह चितेण चित्तो । रुक् पृथिवी तं खातीति रुक्खो । मूलं रुक्खावग्गहो । तम्मि ठिच्चा श्रालोयणं सकृत् प्रनेकशः प्रलोकनं । एस पंचम उद्देसगे प्रादिसुत्तस्य संखेवतो प्रत्थो । सच्चित-रुक्ख - मूलं, खंधातो जाव रतणिमेत्तं तु । तेण परं चित्तं सुत्तणिवा उ सच्चित्ते || १८६६ ॥ 1 जस्स सचित्त रुक्खस्स हत्यिपयप्पमाणो पेहुल्लेण खंत्रो तस्स सव्वतो जाव रयणिष्पमाणा ताव सचित्ता भूमी, एतं प्राणासिद्धं सेस कंठं ।। १८६४।। रयणिप्पमाणातो तो बाहिं वा । ग्रहवा सचित्तं श्रचितं वा - परिहं परिग्गहं च एक्केक्कगं भवे दुविधं । सपरिग्गहं चतुद्धा, दिव्व मणुय - तिरिक्ख-मीसं च ॥ १८६७|| हिं अरिहं वा एक्केक्कं दुविधं । स परिग्रहं चउब्विहं - देवपरिगहं मणु तिरिय मीसं - च | मीसस्स चउरो भैया - दुगसंजोगे तिष्णि, तिगसंजोगे एगो ॥ १८६५।। एक्क्कं तं दुविहं, पंतग - भदेहि होइ नायव्वं । गुरुगा गुरु लहुया, लहुओ पदमम्मि दोहि गुरू || १८६८ || Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र १-२ देवातिपरिग्गह एक्केक्कं दुभेयं कजति, भद्दग्ग - पंतेहिं । एतेसु एवं कप्पिएसु ठायंतस्स इमं पच्चित्तं । "गुरुगा" पच्छद्धं । दिव्वे पंतपरिगहे अंतो चउगुरु । । दिवे गद्दपरिग्गहे अंतो मासगुरु । दिने पंतपरिग्गहे बाहिं चउलहु, दिव्वे भद्दपरिग्गहे बाहिं मासलहु । एवं दिव्वे तवकालगुरु पच्छित्तं । मणुएसु वि एवं व । णवरं - तवगुरु । तिरिएसु वि एवं चेव । णवरं - कालगुरु ॥१८६८।। एतं तु परिग्गहितं, तबिवरीतमपरिग्गहं होति । सच्चित्त-रुक्ख-मूलं, हत्थिपदपमाणतो हत्थं ॥१७६६॥ एयं सपरिग्गहं सपच्छित्तं भणियं, तविवरीयं अपरिगहं । पच्छद्ध । गतार्थ ॥१८६६॥ मीसे इमं पच्छित्तं ति-परिग्गह-मीसं वा, पंते अंतो गुरुगा बहिं गुरुगो । भद्देसु य ते लहुगा, अपरिग्गह मासो भिण्णो य ॥१६००॥ पंत-सुर-परिग्गहिते, चतुगुरु अंतो बहिं तु मासगुरू । भद्दे वा ते लहुगा, णर-तिरिय-परिग्गहे चेवं ॥१६०१॥ एतं चिय पच्छित्तं, दुगाइसंजोगतो (जा) लता चउरो। अपरिग्गह-तरुहेट्ठा, मासो भिण्णो य अंतो बहिं ॥१६०२॥ दिव्व - मणुय - तिरिय - तिहिं वि परिग्गहियं मीसं । तत्थ दिव्व-प्रणुय - मीस-पंत - परिग्गहे अंतो चउगुरुगं । एतेसु चेव पंतेसु वाहिं मासगुरु । एतेसु चेव भद्देसु अंतो चउलहुगं । एतेसु चेव भद्देसु बाहिं मासलहुँ। एयं उभयलहुं दिव्व - तिरिय -परिग्गहे एवं चेव, णवरं - कालगुरु । माणुस - तिरिय परिग्गहे एवं चेव, णवरं - तवगुरु । दिश्व - मणुय - तिरिए परिगहे एयं चेव, णवरं - उभयगुरु । अपरिग्गहे अंतो मासलहुँ, बाहिं भिण्णमासो ॥१६०२।। एक्केक्कपदा आणा, पंता खेतादि चउण्हमण्णयरं । णर तिरि गेण्हणाहण, अपरिग्गह संजमाताए ॥१६०३।। सपरिगहं एतेसि एक्केक्कातो पदातो प्राणा प्रणवत्थं, मिच्छत्तं विराहणा भवति । तत्थ पंतदेवता खित्तचित्तं दित्तचित्तं जक्खाइटुं उम्मायपत्तं - एतेसि चउण्हं एगतरं कुज्जा। अहवा - उवसग्गःण वा च उण्हं - हासा पमोसा वीमंसा पुढोवेमाया एतेसि एगतरं कुज्जा । णरा . गेण्हणादी करेज । तिरिया पाहणण-मारणाती करेज्जा। अररिगहेवि प्राय - संजमविराहणा॥१६०३।। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १८६९-१९०६] पंचम उद्देशकः १०६ इमा संजमे हत्थादिपादघट्टण, सहसाऽवत्थंभ अधवष्णाभोगा। गातुम्हा उस्सासो, खेलादिविगिचणे जं च ॥१६०४॥ एतेहिं पगारेहि खंघस्स पिंडं करेज ॥१६०४॥ इमा प्रायविराहणा अढि व दारुगादी, सउणग-परिहार-पुप्फ-फलमादी । जीवोवधात देवत-तिरिक्ख-मणुया भवे दुट्ठा ॥१६०५॥ पट्टि वा दारुगं वा पति, 'ढंकातियाण सणाए लेवाडिज्जति, पुप्फफलाणं अन्नेसि च खंधेयातियाण जीकाणं उवघातो भवति, देवय -तिरिक्ख - मणुया वा दुट्ठा सपरिग्गहापरिग्गहे दट्ठट्वं । एते सपरिग्गहअपरिग्गहेसु दोसा ॥१६०१॥ कारणेण य पलोयणं करेजा - बितियपय गेलण्णे, अद्धाणे चेव तह य ओमम्मि । रायदुट्ठ-भए वा, जतणाए पलोयणादीणि ॥१६०६॥ एतीए गाहाए संखेवरो इमं वक्खाणं - रायदुट्ठऽभएसू, दुरूहणा होज्ज छायणट्ठाते । अहया वि पलंबट्ठा, सेसे छायं पलंबट्ठा ॥१६०७॥ रायदुटे बोधिगादिभये य प्रप्पणो छायणट्टा दुरुहंतो पलोएज, अलभंतो भत्तपाणं एतेसु चेक पलंबट्ठा पलोएज । सेसा गिलाणादिदारा तेसु णियमा पलंबढ़ा पलोएज। गिलाणो वा णिज्जतो छायाए वीसमति ति पलोएज ।।१६०७॥ __ "जयणाए" त्ति अस्य व्याख्या - अपरिग्गहिते बाहिं, भद्दग-पंते व ऽणुण्णविय बाहि । __अपरिग्गहं तो भद्दे, अंतो पंते ततो अंतो ॥१६०८।। पढमं अपरिगहे बाहि, ततो भद्दगपरिग्गहिएK अणुण्णविय बाहि, ततो पंतेसु अणुण्णविय वाहि, ततो अपरिग्गहे अन्तो, ततो भद्दएसु अणुण्णविय अंतो, ततो पंतेसु अणुण्णविय अंतो ॥१९०८॥ जे भिक्खू सचित्त-रुक्ख-मूलंसि ठिच्चा ठाणं वा सेज वा निसीहियं वा तुयट्टणं वा चेएइ, चेएंतं वा सातिज्जति ॥५०॥२॥ ठाणं काउस्सग्गो, वसहि णिमित्तं सेना, वीसम · द्वाण -णिमित्तं णिसीहिया। सच्चित्त-रुक्ख-मूले, ठाण-णिसीयण-तुयट्टणं वा वि । जे भिक्खू चेतीते, सो पावति आणमादीणि ॥१६०६॥ १ काकादीनाम् । २ गा० १६०६ । Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे हत्थादि पायघट्टण, सहसाऽवत्थंभ हवऽणाभोगा । गातुम्हा उसासे, खेलादिविचिणा जं च ॥ १६१०॥ अ व दारुगादी, सउणग- परिहार - पुप्फ-फलमादी । जीवोवघात देवत - तिरिक्ख - मणुया भवे दुडा || १६११॥ पूर्ववत् । सोम-दु- रोधग, गेलण्णद्वाण संभम भए वा । वसीवाघातेण य, असती जतणा य जा जत्थ ॥ १६१२|| असिवेण गहिता अण्णत्थ वसहि अलभता रुक्खमूले अच्छंता जा जा रुक्खाओ छाया णिग्गता ठायंति रुक्खमूले ठिता कागादी णिवारेति, पडमंडवं वा करेंति ॥१६१०॥ सेसे इमं वक्खाणं रायट्ठ भए वा दुरूहणा होज्ज छादण्डाए । हवा व पबट्ठा, सेसे ठाही पलंबा ॥१६१३॥ पूर्ववत् । ""वसहिवाघाएण" ग्रस्य व्याख्या - इत्थी णपुंसको वा, खंधारो गतो ति णिग्गमणं । सावय मक्कोडग तेण वाल मसगा ऽयगरे साणे || १६१४ || इमा जयणा गाहट्ठा देवकुले ठताण सुण्णघरे इत्थी णपुंसगो वा उवसग्गेति, खंधावारो वा श्रागतो तत्थ ठितो, दीविगादिसावयं वा पट्टं, तत्थेव पतितं विगाले कहियं, मक्कोडगा वा राम्रो उन्भुप्राणा, तेगा वा वा रातो प्रागच्छति, सप्पो व राति उवसग्गेति, मसगा वा राम्रो भवंति, श्रयगरो वा राम्रो आागच्छति, साणो वा राम्रो पत्तए अवहरति । एतेहिं वसहिवघातेहिं गिग्गता अण्णवसहि अलभता सचित्त रुक्मूले ठाएजा ।। १६१२॥ १ गा० १६१२ । [ सूत्र ३-११ जे भिक्खू सचित्त-रुक्ख- मूलंसि ठिच्चा असणं वा परिग्गहम्मि बाहिं, भद्दगपंते वऽणुष्णविय बाहिं । परिग्गहन्तो भव, अंतोपंते ततो अंतो || १६१५ || पूर्ववत् । पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेति, आहतं वा सातिज्जति ॥ | ० || ३ || सच्चित्त- रुक्ख मूले, असणादी जो उ भुंजए भिक्खू । सोणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥ १६१६ || Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १९१० - १९१६ ] गंतुं ।। १६९६ ॥ पंचम उद्देशकः ( पत्र गाथा: १६० । १९१० | १६१२ । १६१३ । संख्याकाः पुनरपि पठनीया: ) पूर्ववत् । जे भिक्खु सचित- रुक्ख - मूलंसि ठिच्चा उच्चार- पासवणं परिद्ववेद, परिट्ठतं वा सातिज्जति || ० ||४|| सच्चित्त- रुक्ख मूले, उच्चारादी आयरे जो भिक्खू । सो आणा अणवत्थं, विराहणं अट्टिमादीहिं ॥१६१७॥ पूर्ववत् । थंडिल्ल सति श्रद्वाण रोधए संभमे भगासण्णे । दुब्बलगहणि गिलाणे, वोसिरर्ण होति जतणाए || १६१८ || असति त्ति अण्ण थंडिल्ल णत्थि, रोहए तं अणुण्णायं श्रासणे भावा सण्णा ते दूरं ण सक्केति जे भिक्खू सचित्त-रुक्ख मूलंसि ठिचा सज्झायं करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ||०||५|| जे भिक्खू सचित्त-रुक्ख-मूलंसि ठिच्चा सज्झायं उद्दिसह, उद्दिसेंतं वा सातिज्जति ||०|| ६ || जे भिक्खू सचित्त-रुक्ख- मूलंसि ठिच्चा सज्झायं समुद्दिसह, समुद्दिसंतं वा सातिज्जति ॥ | सू०||७|| जे भिक्खु सचित्त-रुक्ख- मूलसि ठिच्चा सज्झायं अणुजाण, जाणतं वा सातिज्जिति ||०||८|| जे भिक्खू सचित्त-रुक्ख-मूलंसि ठिच्चा सज्झायं वाएइ, वाएंतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥ ॥ जे भिक्खू सचित-रुक्ख मूलंसि ठिच्चा सज्झायं परियई, परियद्वृतं वा सातिज्जति ॥ | ० ||११|| पेहा धम्मका पुच्छाओ सज्झायकरणं । उद्देसो अभिनव अधीतस्त, प्रथिरस्त समुद्देसो, थिरीभूयस्स प्रणुष्णा । सुत्तत्थाण वायां देति मुत्तमत्थं वा प्रायरियसमीवा पडिपुच्छंति, सुत्तमत्थं वा वावीतं अभासेति परियट्टेइ । सच्चित्त- रुक्ख मूले, उद्देसादीणि आयरे जो तु । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥ १६१६ ॥ ३११ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ समाष्य-चूणिको नशीथसूत्रे [ सूत्र-१२ बीयं जोगागाडे, सागर मते व असति वोच्छेदो। एतेहि कारणेहिं, उद्देसादीणि कप्पंति ॥१६२०॥ जोगो प्रागाढो, इह वसहीए प्रसज्झायं, तेण रुक्समूले उद्देसातीणि करेज्ज । अहवा - वसहीए सागारियं, रहस्स सुत्तं वा, अपरिणया बहू. ताहे बाहिं गम्मति । मतो वा सो जस्स पासतो तं गहियं, वसहीए य प्रसज्झातियं ताहे अज्झयणट्ठा बाहिं रुक्खमूलातिसु अब्भसेज्ज, पासण्णे वा मतं, वोच्छेदो णाम एगस्स तं भत्यि सो वि अतिमहल्लो ताहे वसहि असज्झातिते बाहिं रुक्खमूलादिसु करेंति तुरिता ॥१९१८॥ जे भिक्खू अप्पणो संघाडि अण्णउत्थिएण वा गारथिएण वा सागारिएण वा सिव्वावेइ, सिव्वातं वा सातिज्जति ॥२०॥१२॥ अप्पणो अप्पणिज्जं, संघाडी णाम सवडी सहसति ति काऊगं दोहि अंतेहिं मझे य जति प्रणउत्थिएण ससरक्खातिणा, गिहत्येण तुण्णागातिणा, संसिब्बावेइ अप्पणेण । णिकारणम्मि अप्पणा, कारणे गिहि अहव अण्णतित्थीहि । जे भिक्खू संघाडिं, सिव्वावे आणमादीणि ॥१६२१॥ (पत्र १९०६ अंक मिता गाथाः पुनः पठनीयाः )। जति णिक्कारणे अप्पणा सिव्वेति, कारणे वा अण्णउत्थिय - गारथिएहिं सिवावेति तस्म मासलहु । प्राणाइया य दोसा ॥१६१६॥ इमे दोसा णिकारणम्मि लहुगो, गिलाणारोवणा य विद्धम्मि । छप्पइकाई संजमे, कारणे सुद्धो खलु विधीए ॥१६२२॥ विद्धे प्रायविराहणा, छप्पत्तियवहे य संजमविराहणा, कारणे विषीर सयं सिव्वंतो सुद्धो ॥१९२२॥ चोदग आह – पढमुद्देसगे परकरणे मासगुरु वणियं, इह कहं मासलहुं भवति ? आयरिय आह - कामं खलु परकरणे, गुरुत्रो मासो तु वण्णिो पुज्विं । कारणियं पुण सुत्तं, सयं च णुण्णायते लहुओ ॥१९२३॥ कामं अणुमयत्थे. खलु पूरणे, पुव्वं पढमुईसए, इह तु कारणिए सुत्ते पप्पणो अणुण्णाते, परेण सिव्वावेतस्स मासलहुं ॥१९२३॥ सिव्वावणे इमे दोसा - गधुणममुंचंते, बंधमुयंते य होति पलिमंथो । एगस्स वि अक्खेवे ऽवहारो होइ सव्वेसि ॥१६२४॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १९२०-१९२६] पंचम उद्देशक: ३१३ जति बद्धं पडिले हेति प्रणेगरूवघुणणदोसो। प्रह बंधे मोत्तुं पडिलेहेति य बंधति ततो सुत्तत्थपलिमंथो भवति, पडच्छोडग-तेणगेण अक्खित्ते एगे वि सव्येसि प्रवहारो भवति ॥१६२४॥ अकारणा सिव्वणे य इमे दोसा - सयसिव्वणम्मि विद्धे, गिलाण आरोवणा तु सविसेसा । छप्पतियऽसंजमम्मी, सुत्तादी प्रकरणे इमं च ॥१६२५॥ अप्पणो सिव्वतो सूतीए विद्धो ताहे गिलाण प्रारोवणा सविसेसा सपरितावमहादुक्खा । छप्पतियबधे असंजमो भवति । तत्थ लग्गो सुत्तत्थपोरिसिं ण करेति । जहासंखं सुतं नासेति , प्रत्यं णासेइ ॥१९२५॥ इमं च परकारवणे दोसदसणं - अविसुद्ध ठाणे काया, पप्फोडण छप्पया य वातो य । पच्छाकम्म व सिया, छप्पति-वेधो य हरणं च ॥१६२६॥ अविसुद्धे ठाणे पुढविकायादियाणं उरि ठवेति कायविराहणा, पप्फोडणे छप्पया पडंति, वाउसंघट्टणा य, घाणावडियंविलिएण देस - सम्वण्हाणं करेज, छप्पयानो वा विधेति, अप्पणो वा उरुयं विधति, हरेज्ज वा तं संघाडि ॥१६२६॥ इदाणि अप्पणो सिव्वणे कारणं भण्णति - बितियं च वुडमुडोरगे य गेलण्ण विसमवत्थे य । एतेहिं कारणहिं, संसिव्वणमप्पणा कुजा ॥१६२७।। वुड्डो तस्स हत्था वा पाया वा कंपति, ण तरति पुणो पुणो संठवेउं । अधवा - उड्डोरगो गिलाणो वा, ण तरति पुणो पुणो संठवेलं, विसमवत्थाणि वा एगटुं सीविज्जंति, एतेहिं कारणेहिं सयं सीवंतो सुद्धो । जहण्णण तिणि बंधा, एक्को दंसते, बितिमो पासते, ततीतो मझे । बितीयदिसा ए वि तिण्णि, उक्कोसेण छ भवंति ।।१६२७॥ कारणे अण्णउत्थिएण सिव्वावेति - बितियपदमनिउणे वा, णिउणे वा होज्ज केणती असहू । वाघातो व सहुस्सा, परकरणं कप्पती ताधे ॥१६२८॥ अप्पणा अगिउणो वा, गिउणो वा प्रसहू, ग्लानवाघातो गिलाणाति - पनोयणेण वावडो, एवं परो कारवेउं कप्पति ॥१६२८॥ इमाए जयणाए - पच्छाकड साभिग्गह, णिरभिग्गह भद्दए य अस्सण्णी। गिहि अण्णतित्थिएहिं च, असोय-सोए गिही पुव्वं ॥१६२६॥ पच्छाकडो पुराणो, पढम तेण । ततो अणुव्वतसंपन्नो सावो साभिग्गहो। ततो दंसणसावतो गिरभिग्गहो । ततो असण्यो भद्दयो । एते चउरो गिहिभेदा । अण्णउत्थिए एते चउरो भेदा । एक्केक्के असोय - सोयभेया कायया । पुव्वं गिहीसु असोएसु, पच्छा सोयवादिसु, पच्छा प्रणतित्थिएस् ॥१६२६॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे जे भिक्खु अप्पणी संघाडीए दीह-सुत्ताई करेति; करें वा सातिज्जति ॥ सू०||१३|| संघाबिंधत्ता ते दीहा ग कायब्वा, अह दीहे करेति तो मासनहुं, प्राणादिगो य दोसा । जे भिक्खू दीहाई, कुज्जा संघाडिमुत्तगाई तु । सोणा णवत्थं, मिच्छत्त - विराधणं पावे ॥१६३०॥ इमे दोस - छ सम्मद्दा, पडिलेहा चेव णेगरूवाणं । सुत्तत्थतदुभय, पलिमंथो होति दीहेसु || १६३१ ॥ अंछणं णाम कड्ढणं, तत्थ सम्मद्दा णाम पडिलेहणद सो गेरूवधुणगदोसो य भवति मूढे मोहेंतस्स वलेंतस्य सुत्तत्थपलिमंथो ।। १६३१ ॥ जम्हा एते दोसा तम्हा इमं प्रमाणं - चतुरंगुलप्पमाणं, तम्हा संघाडिमुत्तगं कुज्जा । जहणेण तिणि बंधा, उक्कोसेणं तु छब्भणिता ॥। १६३२ ॥ चतुरंगुलमाला कायव्वा. छब्बंधा दोसु विदिसासु ।।१६३२ ।। तेसि मूले इमेरिसो पडिवंधो - सउणग-पाय- सरिच्छा, तु पासंगा दोणि अंतो मज्झेगो । तज्जातेण गहेज्जा, मोत्तूण य होति पडिलेहा || १६३३|| सउणगी पक्खी, तस्स जारिसो तिप्फडो पातो भवति तारिसी कायव्वो । तज्जाएण उभ्गियं उए, खोमियं खोमिएन । जया पडिलेहेति तता ते बंधे मोत्तूण पडिलेहेइ ।। १६३३ ।। बितिय पद मुडोरगे य गेलण्ण विसमवत्थे य । एतेहिं कारणेहिं दीहे वि हु मुत्तए कुज्जा ॥१६३४॥ [ सूत्र १३-१४ वुड्डो ते दीहे बधिन सक्केइ पूर्ववत् ।। १६३४ ।। भिक्खू पिउमंद - पलासयं वा पडोल - पलासयं वा बिल्ल-पलासयं वा पिचुमंदी लिंबो, पलासं पत्तं संफाणिय" ति धोदिउं । ग्रहवा - "संफोडिउं" मेलितुमित्यर्थः । सीतोदग - विगडेण वा उसिणोदग विगडेण वा संकाणिय संफाणिय आहारेति श्राहारेतं वा सातिज्जति | | ० || १४ || आहारमणाहारस्स मग्गणा णि (य) म सा कता होति । नित्रपडोलादीहि य, दिन-रात्र चउकभयणाओ || १६३५ || Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १९३०-१६४१ ] पंचम उद्देशकः को प्राहारो, को वा प्रणाहारो, एतेहिं लिंबपडोलाइएहिं मग्गणा कता भवति, आहार-प्रणाहारे य दियराई चउभंगो कायव्यो। दिया गहितं दिया भुत्तं, एवं चउभंगो ॥१९३५।। जो हदुस्साहारो, चउन्विधो पारिगासियं तं तु । णिवपलोलादीयं, सति लाभे जं च परिभुजति ॥१६३६।। हट्टो णिरोगो णिवाधितो समत्थो, तस्स जो आहारो असणाइ - चउम्विहो तं परियासिउं जो भजति । चउभंगेण तस्स पच्छित्तं । लिंबपडोलाइयं च जं सति लाभे परियासियं भुजति ॥१६३६॥ चउभंगे तस्स य पच्छित्तं इमं - चतुमंगे चतुगुरुगा, आहारेतरे य होंति चतुलहुगा। सुत्तं पुण तद्दिवसं, जो धुवति अचेतणा पलासे ॥१६३७॥ पाहारे परियासिते चउसु वि भगेसु चउगुरुगं, 'इतरे' प्रणाहारिमे, चउसु वि भगेभु चउल हुं इमं पुण सुतं जो तद्देवसियं प्रचित्तं धुविउ भुजति तस्स भवति ।।१६६७॥ अणाहारिमं परियासियं पडुच्च भण्णति - भयणपदाण चतुण्डं, अण्णतराएण जो तु आहारे । णिंब पडोलादीयं, सो पावति आणमादीणि ॥१६३८॥ चउरो भंगा भयणा पदा, तेहिं जो ग्राहारेति तस्स प्राणादि दोसा ।।१६३८॥ संफाणं ति सुत्तपदं, तस्सिमा वक्खा - सीतेण व उसिणेण व, वियडेणं धोवणा तु संफाणि । अहवा जायं धोवति, संफाहो उण णेगाहं ॥१६३६।। गाहा णेगाहं, अगोगदिवसपिडिताणि धोवति ॥१६३६॥ इमा विराहणा - छट्ठवत-विराधणता, पाणादी तकणायि संमुच्छे । तद्देवसिते वि अणट्ठा तष्णिस्सितघात भुंजते ॥१६४०॥ मुटुं रातीभोयणवयं, तं विराहिज्जति, मच्छियातिपाणा तत्थ निलंति, ते गिहकोइलियातिणा उक्किज्जति । तेसु वा पिंडिएसु कुंथुमाति समुच्छंति, प्रादिशब्द: तर्कणादिदोष प्रतिपादकः, यथा गवादीन ब्राह्मणान् परिभोजयेत् । एते परिवासते दोसा । इमे "तद्देवसिते'' तद्देव सिते वि लिबपत्ताति प्रणवा घेतुं धोविउं भुजतस्स तणिसियपाणिघातो गवति, धोवंतस्स य प्लावणदोसो, प्रतो तद्देवसियं पि ण कप्पति भुंजिउं ॥१६४०॥ कारणा कप्पति - वितियपदं गेलण्णे, वेज्जुवएसे य दुल्लभे दव्वे । तदिवसं जतणाए, बीयं गीयत्थ संविग्गे ॥१६४१॥ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र १५-१६ गिलाणकारणे वेज्जुवदेसेण संफाणे, दुल्लभदव्वं वा अगदिवसे संफाणेति । तद्दिवसियं पुग परसंफाणियं गेण्हति । असति अप्पणा वि संफाणेति, तद्दिवसियम्मि प्रलभंते बितियमिति प्रागाढे पोयमे गीतत्थो संविम्गे 'संविगरणं पि करेज्ज ॥१६४१॥ तं पुण पित्तादिरोगाणं पसमणट्ठा इमं गेण्हे - पउमप्पल मातुलिंगे, एरंडे चेव णिवपत्ते य । वेज्जुवदेसे गहणं, गीतत्थे विकरणं कुज्जा ॥१६४२॥ पित्तदए य प उमुप्पला, सण्णिवाए माउलिंग, वाते एरंडो, सिंभे णिबपत्ता । "२तहिवसं जयणाए" त्ति अस्य व्याख्या - "वेज्जुवएसे गहणंति"। "बितियं संविग्ग" त्ति अस्य व्याख्या - "गीयत्थे विकरणं कुज्जा" ॥१६४२॥ एतदेवार्थ स्फुटतरं करोति - संफाणितस्स गहणं, असती घेतण अप्पणा थोवे । तद्दिवसिगि लंभासति, णेगा विणिसा तु संफाणे ॥१६४३॥ तद्देवसियस्स अलाभे अणेगदिवसे वि धरेति ॥१६४३॥ जे भिक्खू पाडिहारियं पायपुंछणं जाइत्ता "तामेव रयणीं पच्चप्पिणिम्सामि ति" सुए पच्चप्पिणति, पच्चप्पिणंतं वा सातिजति ।।सू०॥१५॥ प्रतीपं हरणं प्रातिहार्य, तं प्रज्ज अमुयवेलाए रातो वा प्राणीहामि त्ति सुए कल्ले प्राणेति तस्स मासलहु प्राणातिया य दोसा। जे भिक्खू पाडिहारियं पायपुंछणं जाइत्ता "सुए पच्चप्पिणिस्सामि त्ति" तामेव रयणिं पच्चप्पिणति, पच्चप्पिणंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१६॥ अर्थः पूर्वत् - पाउंछणगं दुविधं, बितिप्रोद्देसम्मि वणितं पुव्वं । तं पाडिहारियं तू, गेण्हताऽऽणादिणो दोसा ॥१६४४॥ उस्सग्गियं अववातियं च पुव्वं बितिप्रोद्देसे सभेयं वणियं । तं जो पाडिहारियं गेहति, तस्स प्राणादिया दोसा ॥१६४४॥ इमे पाडिहारियदोसा - णडे हित विस्सरिते, अणप्पिणंतम्मि होइ वोच्छेओ । पच्छाकम्म पवहणं, धुवावणं वा तयगुस्स ॥१६४५॥ १ संधिकरण - संविगरणं पा० । २ या० १६४१ । ३ गा० १६४९ । -- -- -- Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम उद्देशकः ३१७ भायगाधा ११४२ - १६५० ] भिक्खाइ अडियं णट्टं, तेणगेण हरियं, सज्भावाति भूमीगयस्स कतो विस्सरियं एतेहि कारणेहिं प्रणसिस्से साहुस्स वा वोच्छेप्रो हवेज्ज, गित्यो वा श्रष्णं पाउंछणं करेज्ज, पच्छाकम्म वाठवियं प्रण करेज्ज । तस्स धुवावणं दवावणं तदट्ठस्स पादपुंछणस्स श्रण्णट्टं वा मुल्लं दवावेज्ज पहारिण गेहेज्जा ।।१६४५ ।। उव्वत्ताए पुव्वं, गहणमलंभे उ होड़ पडिहारी । तंपि य ण छिण्णकालं, दोसा ते चेव छिण्णम्मि || १६४६ || - जं पारिहारियं णिज्जं तं ठव्त्रत्ता गहणं पुव्वं तारिसं घेत्तव्वं, तारिसस्स प्रलंभे पाडिहारियं अज्जं वा कल्ले वा छिण्णकालं ण करेति । गेव्हंतेण भाणियव्वं - कता वि कए वज्जे प्राणहामि । दोसाद्विमिते चैव प्रज्जे सुए वा अप्पेहामिति । छिष्णकाले कताति वाघातो हवेज्ज ततो प्रणपिणंतो माया मोमं प्रदत्तं भवति ।। १६४६ ।। सो साहू इमेहिं कारणेहिं पाडिहारियं गेण्हति - डे हित विस्सरिते, भामिय वृढे तहे परिजुण्णे । असती दुल्लभपडिसेह य गहणं पडिहारिए चउहा ॥ १६४७॥ भामितं दड वूढं तिउत्तरमेण कालेन वा खुत्थं परिजुष्णं, असति पाडिहारियं ण लब्भनि दुल्नभे वा जाव लब्भति, पडिणीएण वा पडिसेहितो इमं चहिं पाडिहारियं ण्हति उगुग्गियं । उासगिय प्रववाइयं । प्रववाइयं, उरसग्गियं । श्रववायाववातियं ॥। १६४७ ।। प्रणाभोगेण कते छिण्णकाले, अलब्धंते वा छिण्णकाले कते । दोह वि सुत्ताण विवञ्चासकरणे जहा गाहा तं पाडिहारियं पापु छणं गिव्हिऊण जे भिक्खू | वोच्चत्थमप्पिणादी, सो पावति यणमादीणि ॥१६४८ || तं पाडिहारियं द्विण्णकालं गेण्हित्तु तम्मि चेत्र काले अप्पेयव्वं ॥ १६४८॥ विवरीयमप्पिणंतस्स इमे दोसा मायामोसमदत्तं पच्चत्र खिंसणा उवालंभो । , वोच्छेद- पड़ोसादी, वोच्चत्थं अपितस्स || १६४६ ॥ पूर्ववत् । वितियपदे वाघातो, होजा पहुणो वि अप्पणो वा वि । एतेहिं कारणेहिं, बोच्चत्थं अप्पिणिज्जाहि ॥ १६५० ॥ पण विसात वाघायकोरंगा होत्र ।। १६५० ।। Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ ग्रप्पणो इमे - सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे गेलण वास महिता, पडिणीए रायसंभम भए वा । श्रह समणे वाघातो, णिन्चिसगादी य इतरम्मि ॥। १६५१ ।। गिलाणो जातो, वासं महिता वा पडति, पडिणीप्रो वा अंतरे, रायदुट्ट बोहियादिभयं वा, गमातिसंभमं वा जातं, एते समणे वाघातकरणः || १६५४ ॥ [ सूत्र १७ - २३ जे भिक्खू सागारिय-संतियं पादपुंछणं जाइत्ता "तामेव रयणि पच्चप्पिणिस्सामि त्ति" सुए पञ्चपिणति, पच्चप्पियंतं वा सातिज्जति ॥सू०||१७|| जे भिक्खू सागारिय- संतियं पादपुंछणं जाइत्ता “सुए पच्चप्पिणिस्सामि त्ति" तामेव स्यणिं पच्चप्पिणिति, पच्चष्पिणंतं वा सातिज्जति ||मू०||१८|| सागारिो सेज्जातरो । जे भिक्खू पाडिहारियं दण्डयं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेलु-मूइं वा जाइता " तामेव स्यणि पच्चप्पिणिस्सामि त्ति" सुए पच्चप्पिणति, पच्चष्पितं वा सातिज्जति ॥सू०||१६|| जे भिक्खू पाडिहारियं दंडयं वा लडियं वा अवलेहणियं वा वेलु-सूई वा जाइत्ता "सुए पच्चप्पिणिस्सामि त्ति" तामेव स्यणि पच्चष्पिणति, पच्चपितं वा सातिज्जति ॥ मू०||२०|| जे भिक्खू सागारिय-संतियं दंडयं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेलु-सूई वा जाइत्ता " तामेव स्यणि पच्चप्पिणिस्सामि त्ति" सुए पच्चष्पिणति, पच्चपितं वा सातिज्जति || मू०||२१|| मूत्रार्थः पूर्ववत् । जे भिक्खु सागारिय-संतियं दंडयं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेलु-सूई वा 'जाइत्ता "सुए पच्चप्पिणिस्सामि त्ति" तामेव स्यणि पच्चष्पिणति, पच्चपितं वा सातिज्जति ||०||२२|| परिहारिए जो तु गमो, णियमा सागारियम्मि सो चेत्र । दंडगमादीसुतहा, पुत्रे अवरम्मि य पदम्मि || १६५२ || पाउंछणगं दुविधं वितिसम्म वणितं पुव्विं । सागारिय - संतियं तं गेहंताणादिणो दोसा ॥१६५३ ॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा १९५१ - १६६२ ] ट्ठे हिय विरसरिए, अणपिणंते य होइ वोच्छेयो । पच्छाकम्म पवहणं, धुवावेणं वा तयट्ठस्स || १६५४ ।। उच्वत्ताए पुव्वं, गहण अलंभे य होज्ज पडिहारि । तं पियणछिष्णकालं, ते च्चिय दोसा भवे छिण्णे ।। १६५५ ।। हित विस्सरिते, भामिय वृढे तहेव परिजुण्णे । असती दुल्लभपडिसेवतो य गहणं सागारिए चउहा ॥ १६५६ ॥ सागारिय- संतियं तं पायपुंछणं गेण्हिऊण जे भिक्खू । वोच्चत्थमप्पिणे, सो पावति श्राणमादीणि ॥। १६५७ || मायामोसमदर्त्त, अप्पच्चत्र खिंसणा उवालंभो । वोच्छेद-पदोसादी, वोच्चत्थं पिणंतस्स || १६५८॥ गेलण्ण वास महिया, पडिणीए रायसंभम भए वा । ग्रह समणे वाघातो, णिव्विसगादी य इयरम्मि || १६५६ || पंचम उद्देशकः भाष्य ग्रन्थः प्रविशेषेण पूर्ववत् ।।१६५४ - १६५६।। जे भिक्खू पाडिहारियं वा सागारिय-संतियं वा सेज्जा - संधारयं पच्चष्पिणित्ता दोच्चं पणनविय अहिडे, अहितं वा सातिञ्जति ॥३०॥२३ - सेज्जा एव संथारो सेज्जा- संथारम्रो ग्रहवा सेज्जा सव्वंगिया, संचारओ अड्डा इज्ज हत्थो । ग्रहवा सेज्जा वसही, संथारो पुण परिसाडिमेतरो वा । सामिणो प्रप्पेरं श्रणणुष्णवेत्ता पुणो ट्टेिति परिभुजति तस्स मासलहं । सेज्जा - संथारदुगं, णिज्जाजेतु ं गतागते संते । दोच्चमणणण्णवेत्ता, तमधितम्मि आणादी || १६६०॥ कारणे अधिट्टेति - परिसाडि अपरिसाडी णिज्जायमाणा प्रप्पेउं गता अवसउणेहिं पञ्चागता । सो य संथारमो तहेव प्रच्छति । तं दोच्चं प्रणगुण्णवेत्ता पुणो अधिट्ठेति परिभुंजति, मासलहुं प्राणाइया य दोसा ।। १६६०॥ मायामोसमदत्तं, अपच्ची खिंसणा उवालंभो | वोच्छेदपदोसादी, अणण्णुष्णातं अधिकं तो || १६६१ ॥ पूर्ववत् । ३१६ चितियपदमणाभोगा, दुड्डादी वा पुणो वि तक्कज्जं । आसणकारणम्म अधि अद्धाणमादिसु वा ।। १६६२ ।। Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र २४-२५ प्रणाभोगेण वा अधिटेति, दुट्ठादि वा सो अषि?ति, पुण ण किं चि भणाति, तेण कज्जं तकज्ज, संथारगसामिम्मि पविसते तक्कज्जे य उप्पणे अधिट्टिते, प्रासणं तुरियं तुरिए अधिढेता पच्छा प्रणुणवेति । प्रद्धाण पत्रणा वा ॥१६६२॥ इमं वसहीए बितियपदं - अद्धाणे गेलण्णे, ओमऽसिवे गामाणुगामि वि-वेले । तेणा सावय मसगा, सीतं वा तं दुरहियासं ॥१६६३॥ प्रद्धाणादिएहि कारणेहिं प्रगणुणवेता अहिटुंति, बहि रुक्खमूलातिसु ण वसंति ॥१९६३॥ तेणातिएहि कारणेहिं जं पुण संथारयं वसही वा अणणुण्णातं अधिटेति तं इमेसि - सणी सण्णाता वा, अहमदा ऽणुग्गहो ति णे मण्णे । सुण्णे य जहा गेहे, अणणुण्णवितुं तदा ऽधिटे ।।१६६४॥ सणी सावप्रो, सयणा वा, अहा भद्दप्रो वा अणुग्गहं भगति जो तस्स संथारगो वा वसही वा प्रधिट्टिजति ।।१९६४॥ . जे भिक्खू सण-कप्पासो वा उण्ण-कप्पासो वा पोंड-कप्पासो वा अमिल ___ कप्पासो वा दीहसुत्ताई करेति, करतं वा सातिज्जति।।सू०॥२४॥ दीर्घ-मूत्रं करोति, दीहमुत्तं णाम कत्तति, तस्स मासलहुं । पोंडमयं वागमयं, वालमयं वा वि दीह सुत्तं तु । जे भिक्खू कुज्जाही, सो पावति आणमादीणि ॥१६६५॥ सुत्तत्थे पलिमंथो, उड्डाहो झुसिरदोस सम्मदो । हत्थोवधाय संचय, पसंग आदाण गमणं च ॥१६६६।। तं करें तम्स सुनत्थपरिहाणी, गारथिएहि दिऐ गिहिकम्म ति उड्डाहो, झुसिरं च तं, तम्मि झुमिरे दोमा भवंति, मसगादि- संपातिमा संवझति, पिजिज्जते वाउकायवधो, संम्मद्ददोसो य । अवि य भगियं - "जीवेणं भंते ! सता यमितं एयति वेति चलति घट्टति फंदात ताव णं बंधति" - संजमवि राहणा, हत्योवघातो पायविराहणा. संचए पसंगो। अहवा – प्रतिपसंगो तणबुणगादियं पि करेज, मेहस्य य उपिाकिव उकामस्स पाया भवति. प्रादाणे य गमणं भवति ।। १६६६।। भवे कारणं करेजा वि - अद्धाण णिग्गतादी, झामिय बृढ तहब परिजुण्णे । दुबलवत्थे असती, दीहे वि हु सुत्नए कुज्जा ॥१६६७।। १ भग० श० ३ उ० ३ । किन्तु तत्र 'तात्र णं बंधति" इत्यंगः नोपलभ्यते । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १९६४ - १६७२ ] "श्रद्धा" त्ति दारं । चोदगाह - द्वाणं किं दार गाहा गम्मति ? आयरियाह- सुणेहि - तं सुभिक्खं । पंचम उद्देशकः उद्दद्दरे सुभिक्खे, श्रद्धाण पवज्जणा तु दप्पेणं । लहुया पुण सुद्धपदे, जं वा आवज्जती तत्थ ॥१६६८|| दुविधा दरा वष्णदरा य पोट्टदरा य, ते उद्धं पुरेंति जत्थ तं उद्दद्दरं । जत्य पुण सुलभं भिक्सं कारणेण गच्छेबा उद्दद्दगहणातो ण सुभिक्खं गहियं ? आयरिय ग्राह - भो । कुत: ? चउभंगसंभवात् । उद्दद्दरं, सुभिक्खं । जो उद्दद्दरं, सुभिक्खं । उद्दद्दरं, णो सुभिक्सं । जो उद्दद्दरं, जो सुभिक्खं । पढम-तइयमंगेसु जो प्रद्धानं दप्पेण परिवज्जति तस्स चउलहूयं । सुद्धपदे ग्रह आय- -संजमवि राहणं कि चि श्रावज्जति तो उष्णिफणं भवति ॥१६६८ ।। मागट्ट दंसणट्टा, चरितट्ठा एवमादि गंतव्वं । उवगरणपुव्वपडिलेहिएण सत्येण जयणाए || १६६६॥ ३२१ पानादि - कारणेहि बता गम्मति तता अद्धाणोवकरणोग्गाहितेष पडिलेहितेण सत्येण सुद्धेण जयणाए गंतव्वं । एसा गाहा उरि सवित्रा वणिज्जेहिति ॥१६६६॥ सत्ये वि वच्चमाणे, अस्संजत-संजते तदुभए य । मग्गंते जयणदाणं, छिष्णं पि हु कप्पती घेतु ॥१६७० ॥ बाषाति - कारणेहि गम्ममाणे अंतरा तेषा भवंति, ते य चउव्विहा - अस्संजय पंता पढमो भंगो, संजय पंता बितियमंगो । तदुभयपंता- ततिय संगो, तदुभयभद्दा चठत्यो मंगो ॥१६७०॥ एतेसि भंगाण फुडीकरणत्थं इमा गाहा संत - मद्दा गहि-महगा य पंतोभए उभय-मद्दा | तेषा होंति चउद्धा, विर्गिचणा दोसु तु यतीणं ॥ १६७१ ॥ संजयभद्दा जो गिभिद्दा, जो संजयभद्दा गिहिभद्दा | उभयता, उभयभद्दा । वितिय ततिएसु जतीण विकिचणा भवति ॥ १९७१ ॥ ४१ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र - २४ "मग्गंति" अस्य व्याख्या - जइ देत ऽजाइया जा, इयत्ति न वि देंति लहुग-गुरुगा य । सागारदाण गमणं, गहणं तस्सेव ण ऽण्णस्स ।।१६७२।। साहू प्रजातिता गिहीहिं जति ताण चीरे देति तो चउलहुं । अह जातिता ण देति तो च उगुरुगं । अदिण्णे उड्डाहं, पदोसं वा करेज्ज । "सागारं" पडिहारियं देंति, जस्स तं चीरं दिण्णं सो जति अण्णण पहेण गच्छति साधूण वि ततो गमणं चोरट्ठा, जाहे प्रद्धाणातो विणिग्गतो तस्समीवातो साधू तमेव चीरं गेहति, णो अण्णं ॥१६७२॥ • "जयणादाणं" इमं। दंड-पडिहार-वज्जं. चोल-पडल-पत्तबंध-वज्जं च । परिजुण्णाणं दाणं, उड्डाह पदोस रक्खट्ठा ॥१६७३॥ महंता जुण्ण कंबली सरडिता डंडपरिहारो भण्णति । डंडपरिहारो, चोलपट्टो, पडला, पनगबंधो एते ण दिति । अवसेसा पडिजुण्णा दिजंति - उड्डाह - पदोस - रक्खट्ठा ॥१६७३॥ "3छिण्णं पि हु कप्पते घेत्तु" तमेव, अविसद्दातो - धोतस्स व रत्तस्स व, अण्णस्स व गेण्हणम्मि चउलहुगा । तं चेव घेत्तु धोतं, परिभुजे जुण्णमुज्झे वा ॥१६७४॥ जति तेण गिहत्येण धोरं रत्तं वा अण्णहा वा प्रसाहपापोग्गं कतं ति ण गेहाति तो चउलहुगा, प्रतो तमेव घेत्तुं धोतं साधुपापोग्गं काउं परिभुजति, अतिजुणं वा उज्झति ॥१९७४॥ पढमो भंगो गतो। इदाणि बितियभंगो । तत्थ पुणो चउभंगो संभवति - संजतीतो विवित्ता, णो संजता। णो संजतीयो विवित्ता, संजता । संजतीतो संजता विवित्ता। णो संजतीनो णो संजता विवित्ता । सट्ठाणे अणुकंपा, संजति पडिसारिते णिसड्ढे य । असती तदुभए वा, जतणा पडिसत्थमादीसु ॥१६७॥ जत्थ संजता गिही य उद्ढा ण संजतीमो तत्य संजतीण सट्टाणं साहू ते प्रणुकंपियवा तेष दातव्यमित्यर्थः । साहूहिं संजतिसंतियं पाडिहारियं घेत्तव्वं ।। जत्थ संजतीनो गिहत्था य उद्ढा ण संजता तत्थ साधूगं मंजतीतो सट्ठाणं तासां दातव्यम् । तोमि पुण देंतेहि णिसटुं णिद्देज्जं दातव्यं । तदुभयं साधु साधुणीग्रो य । तेसिं असतीते जयणाए पडिसत्थमादिएमु मगंति ॥१९७५।। ण विवित्ता जत्थ मुणी, समणी य गिही य तत्थ उद्द्वा । सट्ठाणऽणुकंपतहिं, समणुण्णितरेसु वि तहेव ॥१६७६॥ १ गा० १६७०।२ गा० १९७१।३ गा० १६७१ । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ: ष्यगाथा १९७३ - १६८१ ! पंचम उद्देशकः समगुण्ण संभोतिता, इतरे पासत्यादि, पच्छा गिही, सव्वाभावे वि सव्वत्थ । पुव्वं संजती अणुकंप णिज्जा, सेसेसु सव्वत्थ ग्रासण्णतरं ठाणं श्रणुकंप णिज्जं ॥। १९७६ ॥ लिंग भिक्ख सीते, गिन्ती पाडिहारियमिमेसु । अमणुण्णेतरगिहिसुं, जं लद्धं तंणिभं देति || १६७७॥ सव्वायरेण गिट्ठा रयहरणं घेत्तव्वं । पत्तगबंधो भिक्खट्टा । सीयट्ठा पाउरणं । सव्वहा अलभते पारिहारियं इमेसु ण्हति - श्रमणण्णा प्रसंभोतिता, इतरे पासत्यादि, पच्छा गिहीसु । जं चोलपट्टादि लद्धं तणभं पडिसमप्पेंति । इह द्वितीयभंगे व्यारूयमाने प्रथम - -तृतीय - चतुर्थ - भंगा अपि लेशेन स्पृष्टा । गतो बितियभंगो ।। १६७७।। इदाणि ततिश्रो उड्डे वि तदुभए, सपक्ख परपक्ख तदुभयं होति ! हवा विसमण समणी, समणुण्णितरेस एमेव || १६७८|| उढं मुषितं, तदुभयं - सपक्खो संजता, परपक्खो गिहत्था । ग्रहवा - तदुभयं - समणा, समणीश्रो य । अहवा समणुष्णा संभोइया, इतरे असंभोइता । अहवा - संविग्गा, इयरे प्रसंविग्गा । १६७८ ।। समगुण्णेतर गिहि-संजतीण असति पडिसत्थ- पल्लीसु । तिण्डाए गहणं, पडिहारिय एतरे चैव ।। १६७६ ॥ ३२३ समण्णा संभोइया, इतरे प्रसंभोइया पासत्याइणो वा गिहीसु वा संजतीसु य " असति" त्ति प्रभावे नत्थाइयाण पडिसत्थे पल्लीसु वा जतंति पणगहाणीए । संजतीण णत्थि जयणा, तासि जहेव लब्भति तव घेत्तुं गत्तछायणं कज्जति । "तिरहं" ति लिंग भिक्ख-सीयट्ठा गहणं करेंति । इतरेसुं पडिहारियरस, “एतरे" त्ति पासत्या । च सद्दातो असं मोतियगिहि संजतीसु य, "एव" श्रवधारणे, हवा - एवं घेत्तुं प्रणम्मि लद्धे पडिहारियं तणिभं प्रप्पेंति ।। १६७९ ॥ एवं तु दिया गहणं, अहवा रत्तिम्मि लेज पडिसत्थे । गीतेसु रत्ति - गहणं, मीसेसु इमा तहिं जयणा ||१६८० || पण गहाणीए एगम्मि पडिसत्थे इमा जयणा जति सव्वे गीतत्था तो रातो चेव गेण्हंति ।। १६८० ॥ ग्रहवा - प्रगीतत्थ मीसा तो इमा जयणा वत्थेण व पाएण व, णिमंतऽणुग्गते च अत्थमिते । आदिच्च उदिए ति य, गहणं गीयत्थ-संविग्गे ॥ १६८१ ॥ पडित्यो कोइ प्रणुगते प्रत्थमिते वत्थेण णिमंतेति, तत्थ जति एक्को वा रातो चेव गंतुकामो ताहे गtत्था भणति - तुम्हे बच्चह अम्हे उइते श्राइच्चे घेत्तुमागच्छस्सामो, ते रातो चेव घेत्तुं सत्थस्स मग्गगतो नातिदूरे भागच्छंति, ठिते य सत्ये प्रागता आलोएंति । उदिते प्रादिच्चे गहणं कायंति । एवं गीयत्थसंविग्गा गेहति ॥ १८९॥ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-२४ पल्लि-पडिसत्थाण वा प्रभावे - खंडे पत्ते तह दब्म-चीवर तह य हत्थ-पिहणं तु । अद्धाण-विवित्ताणं, आगाहं सेस ऽणागाहं ॥१६८२॥ चर्मखण्डं, शाकादिपत्रं, दन्भं, चीरं, घणं गुप्फति, जहा मग्गपालीए । सव्वाभावे गुज्झदेसो हत्येण पिहिज्जति, एस संजतीए विधी, संजतिमीसेसु वा । एगागियाण संजयाणं इच्छाए तम्मि विहाणे अद्धाणे विवित्ताण प्रागाढं कारणं, सेसं अद्धाणं तम्मि उवकरशाभावे अणागाई " भण्णति, सेसं वा झामिताइ ते प्रणागढः ।। १६८२॥ असति विहि-णिग्गता, खुड्गादि पेमंति चउसु बग्गेसु । अप्पाहेति वऽगारं, साधु च वियारमादिगतं ॥१९८३॥ असति त्ति पडिसत्थपल्लिमाइसु, अभावे उब करणस्स, अदाणातो णिग्गता खुडगं पेसति । चउसु वग्गेसु - संजति संजय सावग साविगाण य, एतेसिं चेव चउण्ह वगाण अप्पाहेति । महाभद्दगाण वा खुडगाभावे वियारमातिगयं साधु भणंति - मुसियामो चीरे णीणेह । एत्य संजया सड्ढगा य संजयाण हत्थाहत्थिं, संजती सढिका य संजतीण देंति हत्थाहत्थिं ॥१९८३॥ जत्थ संजतीतो संजताण देंति, संजता वा संजतीणं तत्थिमा विही - खुड्डी थेराणप्पे, आलोगितरी ठवेत्तु पविसति । ते वि य घेत्तुमतिगता, समणुण्णजहे जयंतेवं ॥१९८४॥ खुड्डीणं असति इतरा तरुणी मज्झिमी साहु पालोइए उवकरणं ठवित्त पविसति । ते साधू तं उवकरणं परिहेत्ता गामं पविसंति । समणुण्णा संभोइया तेसु विरहिए एवं जयंति ।।१९८४ । यथा वक्ष्यति - अद्धाण-णिग्गतादी, संविग्गा दुविध सण्णि असण्णी । संजति एसणमादी, असंविग्गा दोण्णि वी वग्गा ॥१९८५॥ जे अद्धाणणिग्गता मुसिता प्रादिसद्दातो अणिग्गता वा जे विसूरंति ते वक्खमाणविहाणेण जयंति । संविग्गा दुविहा-संभोतिता अण्णसंभोइया य । सण्णी दुविधा-संविग्गभाविया असंविग्मभाविया य । असणी दुविधा- अागाढ-मिच्छदिट्ठी प्रणागाढ मिच्छट्टिी य। उज्जमंतसंजतीसु विकप्पो गस्थि । दोष्णि वग्गा - साहुवग्गो साहुणिवग्गो य पुणो। एक्केको दुविधो कज्जति - संविग्गपक्खिनो प्रसंविग्गपक्खियो य ॥१९८५।। "'संण्णि - असण्णि" त्ति अस्य व्याख्या संविग्गेतरभाविय, सण्णी मिच्छो तु गाहऽणागाहे । असंविग्ग-मिगाहरणं, अभिगह-मिच्छेसु विसं हीला ॥१६८६॥ १ गा० १६८५. Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १६८२ - १६६१ ] पंचम उद्देशकः पुव्वद्धं गतार्थं । असंविग्गभाविता ते मगा । हरिणदिट्ठतेण अकप्पियं देति । श्रगाढमिच्छादिट्ठी विसंवादेति, हीलं वा करेति, तेण तेसु पढमं ण ण्हति ।। १९८६ ।। एतेसु पढमं हति - संविग्ग - भावितेसु अणगाठेसुं जतंति पणगादी | उवएसो संघाडग, पुव्वगहितं तु अण्णे || १६८७|| संविभाविते सुद्ध, तेसु प्रसति प्रणागाढमिच्छेसु सुद्धं, तेसु श्रसति प्रसंविग्गभावितेसु सुद्धं । ते सति प्रणागाढभावितेसु सुद्धं, तेसु असति श्रणसं मोतियो वदिट्ठकुलेसु मम्गंति सुद्धं असति, अण्णसं भोतियसंघाडण सुद्धं, असति " अष्णेतुं" ति अण्णसंभोतितेसु जं पुत्रोवग्गहियं सुद्ध || १६८१|| अण्णसंभोति तेसु उक्तोप्यर्थः पुनरुच्यते विशेषज्ञापनार्थम् । उवएसो संघाडग, तेसि सङ्काइ पुत्र्वगाहियं तु । अहिणव-पुराण सुद्धे, उत्तरमूले सयं वा वि || १६८८॥ संभो तितेसुं उवदेससंघ डगविधि जाहे अइक्कतो ताहे अण्णसंभोतिएसुं पुण्योगहियं सयट्ठाए उत्तरमूलगुणेसु सुद्धं, तं प्रहिणवं पुराणं वा, पुव्वं ग्रहिणवं गेव्हंति, पच्छा पुराणं । "जतंति पणगाइ" ति ततो पच्छा पणगपरि हाणीए जति जाहे मासलहुं पत्ता त हे पासत्यातिसु ।।१६८८।। उarसो संघाडग, पुव्वग्गहितं च णितियमादीणि 1 अभिणव- पुराण सुद्ध, पुव्वमभुत्तं ततो भुतं ॥१६८६|| अस्यैवार्थस्य विशेषज्ञापनार्थ पुनरप्याह ३२५ गितियाततेसु उवदिट्ठघरेसु मग्गति । श्रसति णितिगातिसंघाडगेण उप्पाएंति । श्रसति तेसु चेव णितियातिए जं पुव्वोगहितं सुद्धं णवं अपरिभुक्तं तं गेण्हति । तस्सासति तेसु चैव जं तं पुन्वोगहितं । पुराणं परिभूतं गेहति ॥ १६८६ ॥ उत्तरमूले सुद्ध, वग-पुराणे चउक्कभयणेवं । परिकम्मण - परिभोगे, ण होंति दोसा अभिणवम्मि || १६६० ॥ मूलगुण- उत्तरगुणेसु सुद्धं एवं अपरिभुत्तं, पच्छा एत्थ चैव पुराणं अपरिभुतं, पच्छा एत्थ चेत्र णवं परिभूतं पच्छा एत्थ चेव पुराणं परिभुत्तं । एवं त्रितियाति विकल्पेसु वि चउरो भंगा भणितव्वा । कम्हा वं पुव्वं ? अत्र कारणमाह "परिकम्मण" पच्छद्धं । ण परिकम्मणदोसो, सुगंधवासियाविधि - परिभोगदोसा य ण भवति ।। १६६०। सतीय लिंगकरणं, पण्णत्रणट्टा सयं व गहणड्डा | गाढकारणम्मी, जहेब हंसादिणं गहणं ॥ १६६१ ॥ - सहा असति उवकरणस्स सक्काति परलिंगकरणं वज्जति, तेण लिंगेण उवासगाति पण्ण विज्जति, तल्लिंगट्टितेहि वा उवकरणं घेप्पति, अण्णहाण लब्भति । सव्वहा अभावे जहेव हंसतेल्लादियाण गहणं दिट्ठ उवकरणस्स वि तहेव । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र २५-३० अधवा - हंसो तेणगी, जहां हंसो गहणं करेति कज्जति, तहावि प्रसति सुत्तं जाएता तुणावेति । सति सुत्तं जाएता अप्पसागारिए तंतु काएति । कारणा प्रसति दीहमुत्तयं पि करेति || १६६१ ॥ सेडुग रूते पिंजिय, पेलुग्गहणे य लहुग दप्पेणं । तत्रकाले विसिट्ठा, कारणे अकमेण ते चैव ॥ १६६२॥ ३२६ सेडुमो कप्पासो, रू उट्टियं रूपता पिंजियं तमेव वलितं पेलू भण्णति । एतेसि दप्पतो महणे चहुं तवकालविसिदूं । कारणे पुव्वं पेलू, पच्छा रुतं पच्छा सेडुम्रो । उक्कमगहणे चउलहु ॥१६६२॥ एवं - कडजोगि एकगोवा, असतीए गालबद्ध - सहितो वा । णिष्फाते उवगरणं, उभय पक्खस्स पाउग्गं ॥१६६३॥ कडजोगी गीतत्यो जेण वा गिवासे कत्तियं तंतुकातितं वा सो कडजोगी, एक्कश्रो उवकरणं उप्पाएति, एरिसम्म ग्रसती बालबद्ध संजती - सहियो उभयपक्खस्स पाओग्गं उवकरणं उप्पाएति ।।१६६३।। गीते विगिंचे, जह लाभं सुलभ-उवधि- खेत्तेसुः । पच्छित्तं च वहंती, अलाभे तं चैव धारेंति ॥ १६६४ ॥ गीतवतिमिस्सा सुलभ उवधिवेत्तेसु गता श्रष्णोवकरणे लब्भमाणे पुण्त्रोत्रकरणं जहालाभं विकिंचिति, अहालहूगं च पच्दिनं वहति श्रगीयपच्चयणिमित्तं प्रणस्स प्रभावे तं चैव धरेंति । ग्रह सव्वे गीयत्था तामिलभमाणे जं ग्राहाकम्मकडं त्रिधीए उत्पाइयं तं परिच्चयंति वाण वा इच्छेत्यर्थः ॥ १६४॥ एसेव गमो नियमा, सेसेसु पदेसु होइ णायव्वो । भामितमादी, पुत्रे अवरम्मि य पदम्मि || १६६५|| कंठा जे भिक्खू सचिनाई दारु-दंडानि वा वेलु-दंडाणि वा वेत दंडाणि वा करेड़, करें वा सातज्जति ॥ मू०||२५|| जे भिक्खू सचित्तारं दारु-दंडाग वा बेलु-दंडाणि वा वेत दंडाणि वा धरेड, धरेतं वा सातिज्जति || मू०||२६|| सचित्ता जीवसहिता, वेणू वंसो, वेत्तो वि वंसभेप्रो चेत्र, दारु सीसवादिकरणं । परहस्ताद् ग्रहण मित्यर्थः । ग्रहणादुत्तरकालं अपरिभोगेण धरणमित्यर्थः । सच्चित्तमीसगे वा, जे भिक्खू दंडए करें धरे वा । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विरावणं पावे || १६६६ || सयमेव छेदणम्मी, जीवा दिट्ठे परेण उड्डाहो । परछिण्ण मीमदोसा, भारेण विराहणा दुविधा || १६६७॥ मयं छेणे जीवोवघातो, परेण दिट्ठे उड्डाहो भवति । पछि वि मोसवणस्सति त्ति जीवोवघोता भवति सार्द्रत्वाच्च । गुरु: गुरुत्वादात्मसंयोगातः ॥१६७॥ . Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा १९६२-२००२] पंचम उदेशकः ३२७ सुत्तणिवातो एत्थं, परछिण्णे होति दंडए तिविधे। सो चेव मीसो खलु, सेसे लहुगा य गुरुया य ॥१६६८॥ तिविधो - वंस - वेत्त - दारुमयो य, सो चेव परछिण्णो मीसो भवति, एत्थ मुत्तणिवातो सेस त्ति - सचित्ते परित्ते चउलहुश्र, प्रणंते चउगुरुयं ।।१६६८॥ वितियपदमणप्पज्झ, गेलण्णऽद्धाण सावयभए वा। उवधी सरीर तेणग, पडिणीते साणमादीसु ॥१६६६॥ . प्रणाप्पज्झो करेति ॥१६६६॥ गिलाण-प्रद्धाणेसु इमं वक्खाणं - वहणं तु गिलाणस्सा, बाला उवधी पलंब श्रद्धाणे । अस्चित्ते मीसेतर, सेसेसु वि गहण जतणाए ॥२०००॥ गिलाणो बालो उवही पलंबाणि वा अद्धाणे वुझंति, सावयभए गिवारणट्ठा घेप्पंति, उवहिसरीराण वट्ठा तेगग - पडिणीय - साणमादीण णिवारणट्टा पुवं प्रचितं, पच्छा मीसं, "सेसा" परित्ताणंता, पुव्वं परितं, पच्छा प्रणतं ।।२०००। जे भिक्खू चित्ताई दारु-दंडाणि वा वेलु-दंडाणि वा वेत्त-दंडाणि वा करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२७॥ जे भिक्खू चित्ताई दारु-दंडाणि वा वेलु-दंडाणि वा वेत्त-दंडाणि वा धरेइ, धरेतं वा सातिज्जति ।।मु०॥ २८॥ जे भिक्खू विचित्ताई दारु-दंडाणि वा वेलु-दंडाणि वा वेत्त-दंडाणि वा करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥२६॥ जे भिक्खू विचित्ताई दारु-दंडाणि वा वेलु-दंडाणि वा वेत्त-दंडाणि वा धरेइ, धरेंतं वा सातिज्जति ॥०॥३०॥ चित्रक एकवर्णः । विचित्रो नानावर्णः । करेति धरैति वा तस्स मासलहु । चित्ते य विचत्ते य, जे भिक्खू दंडए करे धरे वा । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥२००१।। चित्तो णाम एगतरेण वणेण उज्जलो, विचित्तो दोहि वष्णेहि, चित्तविचित्तो पंचवणेहिं ।।२००९।। सहजेणागंतूण व, अण्णतरजुत्रो य चित्तवण्णेणं । दुप्पभितिसंजुओ पुण, विचित्ते अविभूसिए सुतं ॥२००२।। सहजो णाम तद्रव्योत्थितः, कल्माषिका वंशडडकवत्, प्रागंतुको चित्रकराविचित्रितः, सूत्रस्याभिप्रायो अविभूषाभूषिते प्रायश्चित्तं भवति ॥२००२। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ सभाष्य- चूर्णिके निशी सूत्रे बितियपदमणपज्झे, गेलणे असती श्रद्धाण-संभम भए वा । उवधी सरीर तेणग, पडिणीए साणमादिसु वि ||२००३ || more डंडगाणं श्रभावे चित्तविचित्तादि गेहति ॥। २००३ || जे भिक्खू सचित्ताईं दारु-दंडाणि वा वेलु-दंडाणि वा वेत्त-दंडाणि वा भु, परितं वा सातिज्जति ||०|| ३१॥ जे भिक्खु चित्ताईं दारु-दंडाणि वा वेलु-दंडाणि वा वेत दंडाणि वा परिभुज, परिभुजंतं वा सातिज्जति | | ० || ३२॥ जे भिक्खू विचित्ताई दारु-दंडाणि वा वेलु-दंडाणि वा वेत्त- दंडाणि वा परिभुजइ, परिभुजंतं वा सातिज्जति ||०||३३॥ जे भिक्खु नग-विसंसि वा गामंसि वा जाव - सन्निवेसंसि वा विसित्ता असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेर, पडिग्गाहतं वा सातिज्जति ||०||३४|| पढमा वासं गवं करातियाण गम्मो गामो, करो जत्य ण विज्जति तं णयरं घुली पगारो जस्स तं खेडं, कुणगरं कब्बर्ड, अड्डा इज्जजोयणमब्भंतरे जस्स गोउलादीणि णत्थि तं मडंवं, जलेग थलेण दोसु वि मुहं दो मुहं, जलपट्टणं पुरिमाती, थलपट्टणं श्राणंदपुगति, प्रासमं तावसासमादि, सत्यट्ठाणं णिवेसणं, वणिया जत्य केवला वसति णिगमं वासः सु किसि काउं पभायत्ररिसे तं धष्णं जत्य दुग्गे संगेढुं वसंति तं संबाह रायाविट्टिया रायहाणी - एतेसु जो प्रसादि गेहति तस्स मासलहं प्राणादिया य भद्द पंतदोसा य । गामाइ - सण्णिवेसा, जेत्तियमेत्ता य श्रहिया सुत्ते । ते सणादीणि, गेहंताऽऽणाहणो दोसा || २००४|| मंगलममंगले या, पवत्तण णित्रत्तणे य थिरमथिरे । दोसा णिव्विसमाणे, पुढत्रीमादीण चिट्ठम्मि ||२००५ || [ सूत्र- ३१ भद्दो प्रणवासि कामो वि साहु दट्ठूण मंगल काउं श्रावासेति एवं पवत्तणं । घिरीभूते य भणति ग्रहो साहुदरिमणं घण्णं साधूण वा पढमं भिक्खापदानं कतं तेण थिरीभूता । प्रण्ातरं उग्गमदोसं तेसि असि वा करेज्ज | पंतो पुण प्रावासिउकामो वि साधुं दठ्ठे भ्रमंगलं ति काउ णावासेति एवं वित्तणं । प्रत्थिरे वा जाते भांति - "कुतो म्हाणं सुहं" ति जं पढमं ते लुत्तसिरा दिट्ठा, पडिलाभिया वा, भिवखं वा हि भमाडिता, तेसि प्रसि वा तत्य वा भत्ताति णिवारियंति, अंतरायदोसा य । एए निविस्समाणे दोसा । विट्ठे सचित्तपुढवियसंघट्टणादिदोसा, प्रादिसद्दाम्रो पाऊहरियक्काश्रो वा भवे ॥। २००५ ।। मंगल - बुद्धिपवत्तण, अधिकरण थिरम्मि होति तं चैव । अप्पडिपोग्गलठाणे, ओभावणमंतरायादी || २००६ ॥ पूर्वार्धं गतार्थम् । ठाण त्ति ठायंताण साहुदरिस । Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ मापमावा २००४-२०११] पंचम उद्देशकः अहवा - महापडिवत्तीए एतेसि अपडिपुग्गलं णाम दारिद्दता ताहे नहुजणमझे पंता भौमासंति पसि पि दिज्जमाणे णिवारेंति, अंतरायदोसा ॥२००६॥ असिवे प्रोमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे । अद्धाण रोहए वा, जतणा गहणं तु गीयत्थे ॥२००७॥ जयणाए गोयत्यो गहणं करेति ॥२००७॥ सा इमा जयणा - पुव्वपक्ते गहणं, उक्खित्तपरंपरे य अणमिहडे । चुल्लीपदेसरसवति, परिमलिते रुक्खदड्रादी ॥२००८॥ णवग - गिवेसे पुल्वपव्वत्तपरिवेसणाए गेहति मा पवत्तणे दोसो भविस्सति । जं पुबुक्खित्तं परंपरगिक्सित्तं च तं गेहति सट्ठाणटुं, नो अभिहडं । चुल्लिपदेसे विद्धन्थो पुढविकामो तत्थ गेण्हंति, भत्तरसवइपएसे जं वा गोरुगमादीहि परिमलियं ठाणं तत्येव गेण्हंति, रुक्खो वा जत्थ दड्ढो, प्रादिसद्दातो गोमुत्तिगादिसु ॥२००८॥ जे भिक्खू नवग-निवसंसि वा अयागरंसि वा तंबागरंसि वा तउआगरंसि वा सीसागरंसि वा हिरण्णागरंसि वा सुवण्णागरंसि वा रयणागरंसि वा वइरागरंसि वा अणप्पविसित्ता असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥३॥ प्रयं लोह, तं जत्य उप्पज्जति सो प्रयागरो, तवु, तब, सीसगं, हिरण्यं रुप्पयं, सुवष्ण, वइरं रत्न विशेषः पाषाणकः तत्य जो गेहति तस्स मासलहुं, प्राणादिया दोसा। अयमाइ आगरा खलु, जत्तियमेत्ता य आहिया सुत्ते । तेस असणादीणि, गेण्हंताऽऽणादिणो दोसा ॥२००६।। मंगलममंगले वा, पवत्तण णिवत्तणे य थिरमथिरे । दोसा णिव्विसमाणे, इमे य दोसा णिविट्ठम्मि ॥२०१०॥ पूर्ववत् । इमे य दोसा णिविटे पुढवि-समरक्ख-हरिते, सचित्ते मीसए हिए संका। सयमेव कोइ गिण्हति, तणीसाए अहव अण्णे ।।२०११।। गावग - णिवेसे असत्योवहता सचितपुढवी। अहवा - धाउ - मट्टिता खता ताए हत्था खरंटिता, ससरक्खेण वा हत्येण देज्ज, णवग - णिवेसे वा करियसभवो, सचित्तमीसस्स । तत्थ अण्णण सुवण्णातिते हरिते साहू संकिज्जति । ग्रहवा - कोइ मंजतो लुद्धो उणिवखमिउकामो सयमेव गेण्हति । Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र ३६-६० अहवा - साहुणिस्साते अण्णो कोइ गेण्हति । तत्थ ग्रामकाए गे"हण - क ड्हणानिया दोमा । जम्हा एते दोसा तम्हा णवर्गाणवेसेसु णो गेण्हेज ॥२०१२।। कारणा गेण्हेज्जा वि - असिवे प्रोमोयरिए, रायदुढे भए व गेलण्णे । अद्धाण रोहए वा, जतणा गहणं तु गीतत्थे ॥२०१२।। पूर्ववत् । जे भिक्खू मुह-वीणियं करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ।।मू०॥३६।। जे भिक्खू दंत-वीणियं करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ॥५०॥३७॥ जे भिक्खू उट्ठ-वीणियं करेइ, करतं वा सातिज्जति ।।मू०॥३८॥ जे भिक्खू नासा-वीणियं करेइ, करतं वा सातिज्जति ॥२०३६।। जे भिक्खू कक्ख-वीणियं करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥४०॥ जे भिक्खू हत्थ-वीणियं करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥४१॥ जे भिक्खू नह-वीणियं करेइ, करतं वा सातिज्जति ।।सू०॥४२॥ जे भिक्खू पत्त-वीणियं करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ॥२०॥४३॥ जे भिक्खू पुप्फ-वीणियं करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ॥०॥४४॥ जे भिक्खू फल-वीणियं करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ।।सू०४५।। जे भिक्खू बीय-वीणियं करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ।।मु०॥४६॥ जे भिक्खू हरिय-वीणियं करेइ, करतं वा सातिज्जति ॥०॥४७॥ जे भिक्खू मुह-वीणियं वाएइ, वाएंतं वा सातिज्जति ॥॥४८॥ जे भिक्खू दंत-वीणियं वाएइ, वाएंतं वा सातिज्जति ॥२०॥४६।। जे भिक्खू उट्ठ-वीणियं वाएइ, वाएंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥५०॥ जे भिक्खू नासा-वीणियं वाएइ, वाएंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥५१।। जे भिक्खू कक्ख-वीणियं वाएइ, वाएंतं वा सातिज्जति ॥०॥५२॥ जे भिक्खू हत्थ-वीणियं वाएइ, वाएंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥५३॥ जे भिक्खू नह-वीणियं वाएइ, वाएतं वा सातिज्जति ॥सू०॥५४।। जे भिक्ख पत्त-वीणियं वाएइ, वाएंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥५॥ जे भिक्ख पुप्फ-चीणियं वाएइ, वाएंतं वा सातिज्जति ॥२०॥५६॥ . Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३१ भाष्यगाथा २०१२-२०१७ ] पंचम उद्देशक: जे भिक्खू फल-वीणियं वाएइ, वाएंतं वा सातिज्जति ॥०॥५७॥ जे भिक्ख बीय-वीणियं वाएइ, वाएंतं वा सातिज्जति ॥१०॥५८॥ जे भिक्ख हरिय-वीणियं वाएइ, वायंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥५६।। मुह-वीणियातीहिं वादिवशब्दकरणं । बितियसुते मुहवीणियं करेंतो मोहोदीरके सद्दे करेति, अण्णतरग्रहणात् संयोगमवेक्खति, तं पगारमावणाणि तहप्पगाराणि, तत -वितत - प्रकारमित्यर्थः । मुहमादि वीणिया खलु, जत्तियमेत्ता य आहिया सुत्ते । सद्दे अणुदिण्णे वा, उदीरयंतम्मि आणादी ॥२०१३॥ अणुविष्णं जे मोहं जणेति. उवसंतं वा उदीरेति ।।२०१३॥ सविगार अमज्झत्थे, मोहस्स उदीरणा य उभयो वि । पुणरावत्ती दोसा, य वीणिगाओ य सद्देसु ॥२०१४।। सविगारता भवति, लोगो य भणति - अहो इमो सविकारो पव्वतितो। मज्झत्यो रागदोसविजुत्तो, सो पुण अमज्झत्थो । अप्पणो परस्स य मोहमुईरेति, पुणरावत्ति णाम कोइ भुत्तभोगी पन्वतितो सो चिंतेति अम्ह वि म हलाओ एवं करेंति, तस्स पुणरावत्ती भवति । अण्णेसि वा साहूणं सुणेत्ता पडिगमणादयो दोसा भवंति । वीणियासु वीणियासद्देसु य एते दोसा भवंति ।।२०१४।। इत्थि-परियार-सद्दे, रागे दोसे तहेव कंदप्पे। गुरुगा गुरुगा गुरुगा, लहुगा लहुगो कमेण भवे ॥२०१५|| इत्थि - सद्दे च उगुरु । परियार - सद्दे चउगुरु । अण्णतर - सई रागेण करेति चउगुरु । एतेमु तिसु चउ गुरुगा । दोसेण करेति चउ लहुगा । कंदप्पेण करेति मासलहुँ ॥२०१५।। बितियपदमणप्पज्झे, करेज अविकोवित्रो व अप्पज्झे। जाणते वा वि पुणो, सण्णा सागारमादीसु ॥२०१६॥ प्रणप्पज्झो करेति, अविकोवितो वा सेहो करेति, दिया रातो वा अद्धाणे मिलणट्ठा सण्णासदं कैरेति, भावसागारियपडिबद्धाए वा वसहीए सदं करेंति, जहा तं ण सुर्णेति ॥२०१६।। जे भिक्ख उद्देसियं सेज्जं अणुपविसई, अणुपविसंतं वा सातिज्जति ॥०॥६०।। उद्दिश्य कृता प्रौदेशिका, उवागच्छति प्रविसति तस्स मासलहु । ओहेग विभागण य, दुविहा उद्देसिया भवे सिज्जा । ओहणेवतियाणं, बारसभेदा विभागम्मि ॥२०१७॥ पोहो संखेवो प्रविसेसियं समणाणं वा माहणाणं वा ण णिदिसति । एवं का अविसेसिते पंचण्ह वा छह वा जणाण अट्टाए कता जाहे पविट्ठा भवंति ताहे जो अण्णो गणणादिक्कतो पविमति सस्स कप्पति । एसा हु उ सिया बारसभेया विभागे भवति ॥२०१७।। Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३१ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-६१ जामातिय-मंडवो, रसवति रह-साल-आवण-गिहादी। परिभोगमपरिभोगे, चउण्हट्ठा कोइ संकप्पे ॥२०१८॥ जामातिया - गिमित्तं कायमाणमंडवो कतो पासी, भत्ते वा रसवती कता प्रासी, रहट्ठाए वा साना कता आसी, ववहरणट्ठा वा प्रावणो कतो पासी, अप्पणो वा गिहं कतं पासी, अप्पणा परिभुत्तं वा अपरिभुत्तं वा अप्पणो णिरुवभोजीभूयं ण भुंजति ॥२०१८॥ इमेसि चउण्ह - उद्देसगा समुद्देसगा य आदेस तह समादेसा । एमेव कंडे चउरो, कम्ममिवि होति चत्तारि ॥२०१६॥ एयस्स इमं वक्खाणं - जावंतियमुद्देसो, पासंडाणं भवे समुद्देसो । समणाण तु आदेसो, निग्गंथाणं समादेसो ॥२०२०॥ आचंडाला जावतियं उद्देस भण्णन्ति । सामणेणं पासंडीणं समुद्देशं भणति । समणा णिग्गंध सक तावसा गेरु य आजीव-एतेसु उद्दिष्टुं प्रादेसं भण्णति । णिग्गंथा साहू, तेसिं उद्दिष्टुं समादेसं भण्णति ॥२०२॥ कडे वि एते चेव चउरो भंगा । इमं विसेसलक्खणं - सडित-पडिताण करणं, कुडकडादीण संजतट्ठाए । एमादिकडं कम्म, तु मंजितु नं पुणो कुणति ॥२०२१॥ कुडकडातीणं सडितं संजयट्ठा करेति, कुडकडातीण खंड पडियं संजयट्ठा करेति, प्रादिग्गहणे छावणथूणादियाण एवमादि कई भण्णति । कम्म पुवकयं मंजित्ता तेणेव दारुणा चोक्खतरं अण्णं करेति ॥२०२१।। तं कम्म भण्णति - उद्देसियम्मि लहुगो, चउसु वि ठाणेसु होइ उ विसिट्ठो। एमेव कडे गुरुओ, कम्मादिम-लहुग तिसु गुरुगा ॥२०२२॥ मोहुद्देशे मासलहुं । विभागुद्दे से चउसु वि भगेसु मासलहुं तवकालविसिटुं । कडे चउसु वि भेदेसु मासगुरु तकालविसेसियं । कम्मे जावंतियभेदे उलहुयं । सेसेसु तिसु चउगुरु ॥२०२२॥ सुत्तणिवातो आहे, आदिविभागे य चउसु वि पदेसु । एतेसामण्णतरं, पविसंताऽऽणादिणो दोसा ॥२०२३॥ असिवे प्रोमोयरिए, रायगुट्टे भए व गेलण्णे । अद्धाण रोहए वा, जयणाए कप्पती वसितुं ॥२०२४॥ जयणा जाहे पणगहाणीए मासलहुं पत्तो ॥२०२४॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंचम उद्देशकः जे मिक्स - पाहुडियंसेज्जं अणुपविसह, अनुपविसंतं वा सातिजति ॥०॥६९॥ जम्मि वसहीए ठियाण कम्मपाहुडे भवति सा सपाटूडिया छावण - लेवणादि- करणमित्यर्थः । साइमा पाहुडिया - पाहुडिया वि हु दुविधा, बादर सुहृमा य होति णायव्वा । एक्केक्का वि य तत्था, पंचविहा होंति भज्जती ॥२०२५ ॥ भाष्यगाथा २०१८-२०२९ ] बायरा पंवमेया, सुहुमा पंचमेवा ॥ २०२॥ इमा बायरा पंचविधा - S ૧ 3 विद्धंसण छावण लेवणे य भूमी - कम्मे पहुच पाहुडिया | श्रसक्कणीसक्कण, देसे सव्वे य णायव्वा ॥२०२६॥ विद्धंसणं मंजणं । खञ्जकरणं छायणं । कुडाण लिपणं लेवणं । भूमीए समविसमाए परिकम्मणं सूमीकम् । कालाण उस्सक्कणं श्रोसक्कणं, कालस्स संवद्धणं उस्सवकणं । एवं एक्केवक (देखे) दट्टव्यं । विद्वंसणा दिया य दोसा सव्वे य दट्ठव्वा ॥ २०२६॥ विद्धसणे उस्सकणं इमं - गिवतिणा चितियं - इमं गिहं जेहमासे भंजिरं भ्रष्णं नवकं काहामि, बेटुमासे च तत्व साहू मासकप्पेण ठिता । तासो चिति अच्छंतु ताव समणा, गरोसु मंतुं ततो णु काहामो ! श्रभासिए व संते, ण एंति ता मंतुंणं कुणिमो ॥२०२७|| इदाणि प्रच्छंतु, गते एतेसु प्रासादमासे मंजिऊण करिस्सामि, एसा उत्सक्कणा । खेत्तपडिले हमेहि श्रोमासियं लद्धं ताहे चितेति बेटुमासे साहू ठयंति तदा दुक्खं कबति, प्रतो जाव ते नागच्छति ताव वसाहे चैव मंत्रयं करेमि । एवं ग्रोसक्कष्णा भवति ||२०२७॥ एसेव गमो नियमा, छज्जे लेप्पे य भूमि-कम्मे य । तेसाल चउस्साले, पहुच करणं तु जति णिस्सा ॥२०२८ ॥ ३३३ एवं चावणे लेवणे भुमीकम्मे उस्सवकण ग्रहिसक्कणाओ दट्टुबायो । इयणि पहुन्च करणं तं इमेरिस " तेसाल" पच्छद्धं प्रायद्वा तेसालं काउं कामो साहुं "पहुच" चा उसालं करेति ॥२०२८|| अहवा पुव्वधरं दाऊणं, जई ण अष्णं करेति सट्टाए । कातुमणो वा श्रष्णं, व्हाणादिसु कालमोसक्के ॥२०२६|| एल्वक घरं सट्टा एवं साहून बाउं प्रप्पणी भट्टाए प्रणं करेति । एवं वा पहुचकर Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [ मूत्र-६१ अहवा- कोई सड्डी अण्णघरं अप्पणो अट्ठाते काउकामो जेट्टमासे, तत्थ हवणं रहजत्ता वा वसाहमासे भविसति, ताहे चितेति - प्रणागयं करेमि जेग तत्थ साहुणो चिट्ठति । एस प्रोसक्कणा साहुं पडुच्च ।।२०२६॥ एमेव य हाणादिसु, सीतलकज्जट्ठ कोइ उस्सक्के । मंगलबुद्धी सो पुण, गतेसु तहियं वसितुकामो॥२०३०॥ एमेव कोति सड्डो सीयकाले काउकामो चितेति - वसाहमासे इह ण्हवणं तत्य य साहुसमागमो भविस्सति, तं च तदा णवधरं साहूण सीयलं भविस्सति तम्हा हवणकालासण्णमेव करिस्सामि एवं साहवो पड्डच्च उसक्कणा । सो पुण मोसक्कणं अहीसक्कणं वा करेति मंगलबुद्धीए, पुव्वं साहको परिभुजतु त्ति तेसु य साहुसु गतेसु तम्मि य घरे पप्पणा वसिरसं ति, एयं वा पडुच्चकरणं ॥२०३०॥ बातर - पाहुडिता गता। इदाणि सुहुमा - सम्मज्जण वरिसीयण, उबलेवण पुप्फदीवए चेव । ओसक्कण उसक्कण, देसे सव्वे य णायव्वा ॥२०३१॥ सम्मजण त्ति पमजणं, उदगेण वरिसण प्रावरिसणं, छवणमट्टियाए लिंपणं उवलेवणं, पुप्फोवयारपदाणं, दीवग-पजालणं वा, एते - पुन्बमप्पणो कजमाणे चेव । णवरं - साघवो पडुच प्रोसक्कणं उस्सरकणं वा। एतेसि पि करणं देसे सव्वे वा ॥२०३१।। इमं प्रोसक्कास्सक्कविहाणं - जाव ण मंडलिवेला, ताव पमज्जार नि ओसरका। उडेति ताव पडिउं, उस्सकणमेन सव्वत्थ ॥२०३२॥ एवं सव्वत्थ भावरिसणाइएसु वि ॥२०३२।। इमं पच्छित्तं - सव्वम्मि उ चउलहुगा, देसम्मि य बादरा य मासो तु । सम्मि मासियं तू , देसे भिण्णो उ सुहुमाए ।॥२०३३॥ विद्धसणातिएमु पंचमु वि सम्वे चउलहुगा, देसे मासलहुं । सम्मजणातिएसु पंचमु वि मासलहुं सव्वे, देमे भिण्णमासो ॥२०३३॥ सा पुण सुहुमा पाहुडिया कालतो - छिण्णमछिण्णाकाले, पुणो य णियया य अणियया चेव । णिद्दिट्टमणिहिट्ठा, पाहुडिया अट्ठभंगा उ ॥२०३४॥ जीसे उवलेवणादि- परिछिणो काले कजति सा छिण्णा, इतरा अछिण्णा, छिणकाले जा अवम्म कजति सा णियया, इतरा भणियता, पुरिसो पाहुडियकारगो इंददनादि - णिहिट्ठो, गामेण अणुवलक्खिनो प्रणिहिट्ठो । छिण्ण -णियय - गिद्दिव, एतेसु तिमु वि पदेमु अट्ठभंगा कायना ।।२०३४॥ Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २०३० - २०४० ] कालतो इमा छिण्णां - मासे पक्खे दसरात य पणए य एगदिवसे य । वाघातिमपाहुडिया, होति पवाता णिवाता य ॥। २०३५॥ पंचम उददेशक: छिण्णकाले णिव्वाघातिमा इमा मासंते पवखते दसराते पणए एगदिवसे एगंतरातो निरंतरा वा दिने दिने एसा दिया | प्रछिण्णा पुण जति कम्मि ( कस्मिचित्) ३ दिवसे ? काए वेलाए ? जा सुत्तत्थपोरिसिवेलासु पाहुडिय कज्जति सा वाघातिमा । २०३५॥ इ पुव्वण्हे वरण्हे, सूरम्मि अणुग्गते व अत्थमिए । मज्हे इय वसती, सेसं कालं पडिकुट्ठा ॥२०३६॥ पुन्हे जा अणुग्गते सूरिए, अवरहे जा प्रत्थमिए सूरिए, मज्झरहे कालवेलाए प्रत्यपोरिसि उट्ठियाणे | एतेसु कालेसु जा पाहुडिया कज्जति सा श्रव्वाघातिमा । सेसं कालं पडिकुट्ठा ॥२०३६ ॥ पुरिसा, पाहुडिया कार ति निद्दिट्ठो । सेसा तु णिद्दिट्ठा, पाहुडिया होति गायव्वा || २०३७|| जातय-ग्रहणं स्त्रीपुंनपुंसक प्रदर्शनार्थम् ॥। २०३७॥ मासस्य । क्रियते सा इमेण कारणेण णिव्वाघातिमा भवति काऊण मासकप्पं, वयंति जा कीरते उ मासस्स सा खलु व्त्रिाघाता, तं वेलाऽऽरेण णिताणं ||२०३८ || काए पाहुडियाए पतिट्ठा मासकप्पं का ऊण पाहुडियकरणकालातो श्रारेण गिगच्छमाणाण णिव्वाघाता भवति ॥२०३८॥ "पवाय णिवाता य" त्ति अस्य व्याख्या - रह गिम्हकरणे, पवाय सा जेण णासयति घम्मं । पुत्रहे जा सिसिरे, णिव्वात शिवाय सा रतिं || २०३६॥ ३३५ -- गिम्हकाले प्रवरण्हे उवलेवणकारणेण सीतत्वात् धर्मं नाशयति यतस्तस्मात् प्रवाता। शिशिर काले पुत्र्वण्हे उवलेवणकारणेण सव्वदिणेण 'णिव्वात" ति उव्वाणा सा रात्री निवाता भवति, व्यपगतनेहत्वा " ॥२०३६ ॥ पुव्वण्हमपट्ठविते, अवरहे उट्ठितेसु य पसत्था । मज्झण्ण- णिग्गएसु य, मंडलि सुत पेह वाघातो ॥२०४० ॥ पुव्वहे पविते श्रणुग्गए सूरिए अपट्ठविते सज्झते, प्रवरण्ह उट्टितेसु, मञ्भण्हे भिक्ख-गिते, या सत्याओ जेण सुयभोयणमंडलीए उवकरणपेहणाए य अव्वाषायकरा, शेषकालं व्याघातकरा इत्यर्थः । सम्हा एयहोसपरिहरणत्थं प्रपाहुडियाए वसहीए वसियव्वं । || २०४०|| Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे कारणे सपाहुडियाए वसंतो पढमभंगे वसति । सेसेसु वि भंगेसु वसंतस्स इमा जयणा जतंति || २०४१ ॥ दोसा । तं वेलं सारवंती, पाहुडिया - कारणं व पुच्छति । मोचून चरिमभंगं, जयंति एमेव सेसेसु || २०४१ ॥ जं वेलं पाहुडिया कज्जति तं वेलं उवकरणं सार्खेति । ग्रहवा - पाहुडियाकारगं पुरिसं पुच्छंति कं वेलं काहिसि चरिमभंगं मोतुं सेसमनेसु एवं - चरिमे वि होइ जयणा, वसंति आउत्तउवहिनो पिच्चं । दक्खे य वसतिपाले, ठवंति थेरे पुणित्थीसु ॥२०४२॥ चरिमे विइमा जयणा - णिज्वं भाउता उवहीए मच्छंति, दक्खे य वसहिपाले ठवंति, प्रणित्वीसु वा पुरिसेसु ति तरुणे वसहिपाले ठवेति, मह इत्यीम्रो येरे ठवेंति ॥२०४२॥ देसम्म बायरा ते, सुत्तचित्रात उणिवतती एत्थं । सव्वम्मिय सुहुमाए, तं सेवंतम्मि आणादी ॥२०४३ ॥ बादराए देसे मुहुमाए सव्वे एत्य सुत्तणिवातो भवति भाषातिया य दोसा, सेसं विकोवणट्ठा भणियं । २०४३ ॥ सोमोरिए, रायदुट्टे भए व गेलने । अद्धाण रोहए वा, जतणाए कप्पती वसितुं ॥२०४४ ॥ पूर्ववत् । जे भिक्खू सपरिकम्मं सेज्जं अणुष्पविसर, अणुप्यविसंतं वा सातिअति ॥सू०||६२|| सह परिकम्मेण सपरिकम्मा, मूलगुणउत्तरपरिकर्म यस्यास्तीत्यर्थः; तस्स मासल भावाइवा य [ सूत्र- ६२ सपरिकम्मा सेज्जा दुविहा । एक्केक्का पुण सत्तविहा ॥। २०४५ ॥ इमे मूलगुणा सत सपरिकम्मा सेज्जा, मूलगुणे चैव उत्तरगुणे य । एक्केक्का वि य एतो, सतविहा होइ मायव्वा || २०४५ || १ गा० १४३ । २ गा० १४२ । पट्टीवंसो दो धारणाओ चचारि मूलवेलीश्र । मूलगुण- सपरिकम्मा, एसा सेज्जा उ णायव्वा ॥२०४६॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २०४१-२०५०] पंचम उददेशकः इमे उत्तरगुणेसु मूलगुणा सत्त - वंसग कडणोक्कंपण, छावण लेवण दुवारभूमी य। सप्परिकम्मा सेज्जा, एसा मूलुत्तरगुणेसु ॥२०४७॥ वंस इति दंडगो, प्राकडणं कुड्डकरणं, दंडगोवरि प्रोलवणं उक्कंपणं, दब्भातिणा छायणं, कुड्डाण ले वणं, बृहदल्पकरणं दुवारस्स, विसमाए समीकरणं भूकर्म, एसा सपरिकम्मा। उत्तरगुणेसु एते मूलगुणा इत्यर्थः ।।२०४७॥ इमे उत्तरोत्तरगुणा विसोहिकोडिट्ठिया वसहीए उवधायकरा । दूमिय धूमिय वासिय, उज्जोवित बलिकडा अवत्ता य । सित्ता मम्मट्ठा वि य, विसोहिकोडी कया वसही ॥२०४८॥ दमियं उल्लोइयं, दुग्गंधाए धूवाइणा धूवियं, दुग्गंधाए चेव पडिवासिणा वासाणं, रयणप्पदीवादिणा उज्जोवितं, कूरातिणा बलिकरणं, छगणमट्टियाए पाणिएण य अवत्ता, उदगेण केवलेण सित्ता, बहकाराणा सम्मट्ठा प्रमाजिता ।।२०४८।। इमं पच्छित्तं - अप्फासुएण देसे, सव्वे वा दूमितादि चउलहुआ। अफासु धूमजोती, देसे वि तहिं भवे लहुगा ॥२०४६॥ दुमियाइ - सत्तसु पदेसु अफासुरण देसे सव्वे वा चउलहुअं, धूवजोती णियमादेव अफासुयं, एतेसु देसे वि च उलहुग्रं ॥२०४६॥ सेसेसु फासुएणं, देसे लहु सव्वहिं भवे लहुगा । सम्मज्जण साह कुसादिछिण्णमेनं तु सच्चित्तं ॥२०५०॥ सेसेसु पंचसु पएसु फासुरण देसे मासलहुं सहिं चउलहुगा । सम्मज्जणं सचित्तेणं कहं भवति ? भणति - सचित्तेण कुसादिणा छिण्णमेत्तेण संभवति ।।२०५०॥ वसधीए मूलुत्तरगुणसंभवे चउक्कभंगो भण्णति । मूलुत्तरे चतुभंगो, पढमे बितिए य गुरुदुग-सविसेसा । ततियम्मि होति भयणा, अत्तट्टकडे चरिमसुद्धो ॥२०५१॥ पढमो - मूलगुणेसु प्रसुद्धो, उत्तरगुणेसु असुद्धो। चितितो – मूलगुणेसु असुद्धो, उत्तरगुणेसु सुद्धो । ततियो - उत्तरगुणेसु असुद्धो, मूलगुणेसु सुद्धो। चरिमो - दोसु वि सुद्धो।। पढमभंगे चउगुरु तवकालविसिटुं । बितिए तं चेव तवविसिटुं । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-६२ तइयभंगे भयणा - जति वंसकडणातियाते मूलगुणपाति ति चउगुरु कालगुरु, (घ) धूविया नितिया ते विसोहिकोडि त्ति काउं भासलहुं । एत्थ य सुत्तापि वा। यस्मान्मूलगुणोत्तरगुणा पात्माथं कृता तस्माच्चरिमः मुरः। अधवा - दूमियाती अत्तट्ठिया सुद्धा, चरिमभंगो विसुद्धो चेव ॥२०५१।। न केवलं एते वसहीए उवघायकारणा । अण्णे य इमे - संठावण लिंपणता, भूमी-कम्मे दुवार संथारे। थिग्गलकरणे पडियुज्जणे य दग-णिग्गमे चेव ॥२०५२।। संकम-करणे य तहा, दग-बात बिलाण होति पिहणे य । उच्छेव संधिकम्मे, उपाय उवरसेते ॥२०५३।। चत्तारि दारा एगगाहाए वक्खाणेति - सडितपडिताण करणं, संठवणा लिंप भूमि-कुलियाणं। संकोयण वित्थरणं, पडुच्च कालं तु दारस्स ॥२०५४॥ अवयवाण साडगो एगदेसखंडस्स पडणं एतेसि संठवणा, लिंपणं भूमि-कुलियाणं कुड, भूमीर विसमाए समीकरणं भूमि -परिकम्म, सीतकालं पडुच्च वित्तिणदुवारा संकुडा कज्जति, णिवायदा गिम्हं पडच्च संकुडदुवारा विसाला कज्जति पवायट्ठा ॥२०५४॥ तजातमतजाता, संथारा थिग्गला तु वातट्ठा। पडिवुजणा तु तेसि, वासा सिसिरे निवायट्ठा ॥२०५॥ संथारा तज्जाया उवट्टगा करेंति, प्रतज्जाया कविप्राया करेंति । थिग्गल ति गिम्हे वातागमट्टा गवक्खादि छिड्डे करेंति वासासु वा सिसिरेसु वा णिवातट्टा तेसिं चेत्र पडिवुज्जणा ॥२०५८।। दग-णिग्गमो पुव्वुत्तो, संकमो दगवातो सीभरो होति । तिहं परेण लहुगा, थिग्गल उच्छेय जति वारा ॥२०५६॥ दग-णिग्गमो दग-वीणिया, सा य बितिप्रोद्देसगे पुब्बुत्ता । संकमो पयमग्गो, मो वि तत्थेव पुवुत्तो। दगवातो सीतभरो, सा य उज्झखणी भण्णति । मूसगाति-कय-बिलाण पिहणं करेति। परिपेलव च्छातिते वे गलणं उच्छेवो । कडगस्स य संधी असंबुडा, तीए संवुडकरणं संधिकम्मं । एवं कुड्डुस्स वि। . इमं पत्तिछत्तं- एक्कं थिग्गलं करेति मासलहुँ। दोसु दो मासा। तिसु तिण्णि मासा । तिण्ह परेण च उलहुगा, पक्षुिज्जणे वि एवं चेव । उच्छेवं जति वारा लिपति साहति मंडगं वा उड्डेति तति चउलहगा । Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २०५१-२०६४ ] पंचम उद्देशक: अण्णे भणंति - मासलहु ॥२०५६।। दगवाय संधिकम्मे, लहुग बिले होंति गुरुग मूलं वा। अफासु फासुकरणं; देसे सव्वे य सेसेसु ॥२०५७|| दगवाते संधिकम्मे य एतेसु च उलहुगा । वसिमे बिले मूलं, अवसिमे चउगुरु । "सेसेसु" ति - सठण - लिंपण - भूमिकम्मे य प्रफासुएण देसे सव्वे वा चउलहुँ । एतेसु चेव फासुएण देसे मासलहुँ; सव्वे चउलहुं । संथारदुवारे चउलहु, उदग - वाह - संकमेसु मासलहु ॥२०५॥ पच्छा एते मूलुत्तरदोसा केवतिकालं परिहरियव्वा ? उत्तरमाह - कामं उदुविवरीता, केइ पदा होंति आयरणजोग्गा । सव्वाणुवाइ केई, केई तकालुवट्ठाणा ॥२०५८॥ काममवधृतार्थे द्रष्टव्यः । किमवधृतं ? यथा वक्ष्यति । "उडुविवरीय" त्ति पूर्वार्धस्य व्याख्या - हेमन्तकडा गिम्हे, गिम्हकडा सिसिर-बासे कप्पंति । अत्तट्टित-परिभुत्ता, तदिवसं केइ ण तु केई ॥२०५६।। उत्तरगुणोवधाता हेमंतजोग्गा जे कया ते गिम्हे अजोग त्ति काउं कप्पंति । गिम्हे जे कता पवातट्ठा ते सिसिर - वासासु अजोग त्ति काउं कप्पंति । केति मितादि गिहीहिं अत्तट्ठिया परिभुत्ता तक्काले चेव कप्पंति । " 'सव्वाणुवात केइ" ति - सव्वकालं अणुअत्तंति, तद्दोसभावेन न कदाचित् कल्पंति । ते च मूलगुणा इत्यर्थः । "केइ तक्कालुवट्ठाण" त्ति अस्य व्याख्या - "प्रत्तट्ठियपरिभुत्ता तद्दिवस" । के इ गि होहिं अत्तट्टियपरिभुत्ता तद्दिवसं चेव साधूणं कप्पंति । अहवा - तं कालं तं उडु वज्जेउं प्रण काले उबट्ठायंति, ण उ केति त्ति मूलगुणा । गतार्थम् ।।२०५६।। सुत्तणिवाओ एत्थं, विसोहिकोडी य णिवयई णियमा। . एए सामग्णयरं, पविसंताऽऽणाइणो दोसा ॥२०६०॥ दुमितादिएसु सुत्तणिवातो ॥२०६०।। भवे कारणं - असिवे ओमोयरिए, रायदुटे भए व आगाढे । गेलण्ण उत्तम, चरित्तऽसज्झाइए असती ॥२०६१॥ उत्तिमद्वपडिवण्णमो साहू अण्णा य वसही ण लब्मति, जा य लब्भति सा उत्तिमट्टपडिवणाण पाऊगा ण भवति, चरित्तोसो वा अण्णासु वसहीसु, असति णाम पत्थि अण्णा वसहि, बाहिर मसिवाति, तेण ण गच्छति अण्णं वा मासकप्पपाउग्गं खेतं णत्थि ।।२०६१।। १ गा० २०५८ ! २ पा० २०५८ । Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-६३ आलंबणे विसुद्धे, सत्तदुगं परिहरिज्ज जतणाए । आसज्ज तु परिभोगं, जतणा पडिसेह संकमणं ॥२०६२॥ प्रालंबणं कारणं, विसुद्धे स्पष्ट कारणेत्यर्थः । सत्तदुर्ग मूलगुणा पट्ठिवंसादि सत्त, उत्तरगुणा वि वंसगादि सत्त, एते वे सत्तगा 'परिहरे" णाम परिभुजे, जयणाए पणगपरिहाणीए जदा मासलहुगादि पत्तो। कारणं पुण आसज पडिसेहिय वसहीसु परिभोगं काउकामो अप्पबहुयजयणाए पणगपरिहाणीए जाहे चउगुरु पत्तो ताहे ॥२०६२॥ इमं अप्पबहुयं - एगा मूलगुणेहिं, तु अविसुद्धा इत्थि-सारिया बितिया । तुल्लारोवणवसही, कारणे कहिं तत्थ वसितव्वं ॥२०६३॥ एगा मूलगुणेहि प्रसुद्धा, अवरा सुद्धा, णतरं - इत्थिपडिबद्धा । दोसु य चउगुरु कहिं ठामो॥२०६३॥ एत्थ भण्णति - कम्मपसंगऽणवत्था, अणुण्णदोसा य ते समतीता। . सतिकरणभुत्तऽभुत्ते, संकातियरी यऽणेगविधा ॥२०६४॥ प्राहाकम्मियसेज्जपरिभोगे प्राहाकम्मे पसंगो कतो भवति - परि मुंजति त्ति पुणो पुणो करेति । एवं प्रसंगः । एगेण आयरिएण एगा प्राहाकम्मा सेज्जा परिभुत्ता, अण्णे वि परि जति ति प्रणवत्था कता भवति । परिभुंजतेण य पाणिवहे अणुण्णा कया भवति । एते उक्ता दोषाः । एतेषां प्रति अतिक्रान्ता भवन्ति । इतरी णाम इत्थीपडिबद्धा । ताहे भुत्तमोगीण सतिकरणं अभुत्तभोगीण कोउग्र, पडिगमणादी दोसा, गिहीण य संका । एते एतट्ठिया णूणं पडिसेवंति । संकिते था। णिस्संकिए मूलं । इत्थिसागारिए एवं अणेगे दोसा भवन्ति । तम्हा आहाकम्माए ठायंति ॥२०६४॥ अथवा गुरुस्स दोसा, कम्मे इतरी य होति सव्वसिं । जइणो तवो वणवासे, वसंति लोए य परिवातो ॥२०६॥ प्राहाकम्मवसहीए गुरुस्स चेव पश्छित्तं, ण सेसाणं । जतो भणितं "कस्सेयं पच्छितं ? गणिणो"। इतरीए इत्थिसागारियाए सव्वसाहूण सति करणादिया दोसा, लोगे य परिवातो “साहु तवोवणे वसंति" अतिशयवचनं ॥२०६५।। अधवा पुरिसाइण्णा, णातायारे य भीयपरिसा य । बालासु य वुड्डासु य, नातीसु य वजइ कम्मं ॥२०६६।। जा इत्थिसागारिया सा पुरिसाइण्णा पुरिसबहुला इत्यर्थः । ते वि पुरिसा णाताचारा सीलवंता, इत्थियानो वि सीलवंतीमो भीयपरिसा य ते पुरिसा । अहवा - ताो इत्थियानो बाला, अप्पत्त - जोव्वणा । अहवा - भतीववुड्ढा । . Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाध्यगाथा २०६१-२०७१1 पंचम उद्देशक: ३४१ अहवा - तरुणीनो वि तेसि साहूण णालबद्धा अगम्मानो, एरिसो प्राहाकम्मं वज्जिज्जति इत्थि - सागारियं ॥२०६६।। यत वम् - तम्हा सव्वाणुण्णा, सव्वनिसेहो य णत्थि समयम्मि । आय-व्ययं तुलेजा, लामाकंखि व्व वाणियो॥२०६७।। तस्म.१ कारणादेकस्य वस्तुनः सर्वथा सर्वत्र सर्वकालमनुज्ञेति न भवति, नापि प्रतिषेधः । किंतु आय व्वयं तुले यत्र बहुतर गुणप्राप्तिस्तद् भजन्ते वणिजवत् ।।२०६७॥ दव्वपडिबद्ध एवं, जावंतियमाइगासु भइतव्वा । अप्पा व अप्पकालं, व ठाउकामा ण दव्वम्मि ॥२०६८॥ एवं दव्वपडिबद्धा सेजा जावंतियमातियासु सेज्जासु अप्पबहुत्तेण भइयब्वा । जत्थ अप्पतरा दोसा तत्थ ठायत्वं । अहवा - अप्पा ते साडू अप्पं च कालं अच्छिउकामा ताहे दवपडिबद्धाए ठायंति, ण जावंतिय सु ॥२०६८॥ जे भिक्खू "णत्थि संभोगवत्तिया किरिय" ति वदतिः वदंतं वा सातिजति ।।सू०॥६३॥ नास्तीत्ययं प्रतिषेधः, 'सं" एगीभावे “भुज" पालनाभ्यवहारयोः, एकत्रभोजनं संभोगः । अहवा - समं भोगो संभोगो यथोक्तविधानेनेत्यर्थः । संभंजते वा संभोगः, संभुज्जते वा, स्वस्य वा भोगः संभोगः । एवं उवस्सग्गवसा अत्यो वत्तव्यो । "वत्तिया" प्रत्यया क्रिया कर्मवन्त्रः । जो एवं वयति भाषते तस्स मासलहुँ । एस सुत्तत्थो। इयाणि णिज्जुत्ती - संभोगपरूवणता सिरिघर-सिवपाहुडे य संभुत्ते। दसण णाण चरित्ते, तवहेउं उत्तरगुणेसु ॥२०६६।। "संभोगपरूवण" त्ति अस्य व्याख्या - ओह अभिग्गह दाणं, गहणे अणुपालणा य उववातो। संवासम्मि य छट्ठो, संभोगविधी मुणेयव्वो ॥२०७०॥ अोहदारस्स इमे बारस पडिदारा - उवहि सुत भत्त पाणे, अंजलीपग्गहेति य । दावणा य णिकाए य, अब्भुट्टाणेति यावरे ॥२०७१।। ४ २३ १ गा०२०६६। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪૨ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-६३ कितिकम्मस्स य करणे, वेयावच्चे करणेति य । समोसरण सणिसेज्जा, काए य पबंधणे ॥२०७२॥ उवहि ति दारस्स इमे छ पडिदारा - उग्गम उप्पादण एसणा य परिकम्मणा य परिहरणा। संजोय-विहि-विपत्ता, छट्ठाणा होति उवधिम्मि ॥२०७३|| तत्थ "'उग्गम" त्ति दारं अस्य व्याख्या - समणुण्णेण मणुण्णो, सहितो सुद्धोवधिग्गहे सुद्धो। अह अविसुद्धं गेहति, जेणऽविसुद्धं तमावज्जे ॥२०७४॥ संभोतितो संभोइएण समं उवहिं सोलसेहिं प्राहाकम्मतिएहिं उग्गमदोसेहिं सुखं उप्पाएति तो सुनो। .. मह भसुद्धं उप्पाएति जेण उग्गमदोसेण प्रसुदं गेण्हति तत्थ जावतिमो कम्मबंधो जं च पायच्छित्तं तं प्रावग्जति ॥२०७४। एग व दो व तिण्णि व, आउटुं तस्स होति पच्छित्तं । आउटुंते वि ततो, परेण तिण्हं विसंभोगो ॥२०७॥ संभोइमो असुद्धं गेण्हंतो चोइश्रो भणाति - "संता पडिचोयणा, मिच्छामि दुक्कडं, ण पुणो एवं करिस्सामो" एवं प्राउट्टे जमावण्णो तं पच्हितं दाउं संभोगो। एवं बितियवाराए वि, ततियवाराए वि। एवं ततियवारापो परेणं चउत्थवाराए तमेव प्रतियार सेविऊण प्राउटेतस्स वि विसंभोगो।।२०७६॥ णिक्कारणे अमणुण्णे, सुद्धासुद्धं च जो उ उग्गोवे । उवधि विसंभोगो खलु, सोथी वा कारणेसुद्धो ॥२०७६॥ णिक्कारणे अमगुण्णो अण्णसंभोतितो, तेण समाणं सुद्धं प्रसुद्धं जो उवहिं "उग्गोवेति" ति . उप्पाएति सो जति चोइतो णा उट्टति तो पढमवाराए चेव क्सिंभोगो, खलु अवधारणे, अह पाउदृति ती सोही संभोगो य, एवं तिणि वारा परतो विसंभोगो कारणे अण्णसंभोतितेण समाणं उहि उपाएंतो सुद्धो ॥२०७७॥ एवं पासत्याइएहिं गिहिहिं आहाछंदेहि य समाणं उग्गतेण सुद्ध असुद्धवा। उप्पाएंतस्स इमं पच्छित्तं -- संविग्गमण्णसंभोगिएहि पासत्थमाइ य गिहीहि । संघाडगम्मि मासो, गुरुग अहाछंद जं च ऽणं ॥२०७७॥ __ संविग्गेहि अण्णसंभोतिएहिं पासत्यातिसु गिहीसु य मासलहु पच्छित्तं । अहाच्छंदे मासगुरु, अण्णे भणंति- बउगुरु। “जं घणं" ति जं तेहिं समं मसुखं गेहीहि ति जं च हेट्ठा भणियं - "पासत्थस्स संघाडर्ग Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मारवगाथा २०७२-२०७२ 1 पंचम उद्देशक: ३४३ देति" तं च पावज्जति । च महाछंदो प्रहाच्छंदप्पण्णवणं पण्णवेज्जा, तं गेण्हेजा, ग्रह तुहिक्को अञ्चति तो प्रण मोयणा पडियाए प्रधिकरणादि ॥२०७७॥ संजतिवग्गे चे, समणुण्णितराण णवरि सव्वासि । संकिग्गासंविग्गाण, होति णिक्कारणे गुरुगा ॥२०७८॥ जति संजतीहिं संविग्गाहिं असंविग्गाहिं वा संभोइयाहिं असंभोइयाहि वा समाणं उग्गमेण सुद्ध मसुलं वा उवषि उप्पाएति तो च उगुरुगं ॥२०७८।। एवं ताव पुरिसाण गतं । इत्थीण भण्णति एमेव संजतीण वि, संजतिवग्गे गिहत्यवग्गे य । साधम्मि एतरासु य, णवरं पुरिसेसु चउगुरुगा ॥२०७६॥ संजतीण इत्थिवग्गे जहा साधूण पुरिसवम्गे तहा वत्तव्वं । जहा साधूण इथिवग्गे तहा तेसि पुरिसवग्गे वरुव्वं । साहम्मगणातो साहू, इतरगहणातो गिहत्था, णवरं - पुरिसक्ग्गे तेसिं चउगुरुगादि ॥२.०७॥ संघाडं दाऊणं, पाउद॒तस्स एक्कतो तिण्णि । ण होति विसंभोगो, तेण परं णत्थि संभोगो ॥२०८०॥ एवं असंभोतितातियाण संघाडगं दाऊग पडिचोइसो भाउट्टो मासलहुं संमोगो य । वितियवाराए वि चोतिमो माउट्टस्स मासलहु संभोगो य । ततियवाराए वि चोतिनो प्राउट्टस्स मासलह संभोगो य: च उत्यवाराए जइ देति संघाडयं तो पच्छित्तवुड्डी मासगुरु विसंभोगो य ॥२०८०॥ सीसो पुच्छति - पच्छित्तगुड्डी कतिप्पगाग? आयरियाह पच्छित्तस्स विवडी, सरिसट्ठाणातो विसरिसे तमेव । तप्पभिती अविसुद्ध मादी संभुंजतो गुरुगा ॥२०८१॥ पच्छित्तस्स वुड्डी दुविधा – सट्ठाणवुट्ठी परट्ठाणवुड्डी य । तत्थ सट्ठाणवुड्डी तिणि वारा मासलहू चउत्पवाराए तमेव मासगुरु। एवं चउलहनो चउगुरु छल्लहुप्रो छग्गुरु । एस सट्ठाणवुड्डी। परट्ठाणवुड्डी विसरिसं - जहा मासलहुयाम्रो दोमासिय, दुमासातो तेमासितं, एवं सव्वा विसरिसा परढाणवुड्डी। तो वारा प्रमायी, ततो परतो णियमा माती प्रविसुद्धो य, सो विसंमोगी कजति । जो तं संभु जति तस्स चउगुरुगा ॥२०८१॥ एमेव सेसगाण वि, अवराहपयाणि जाव तप्पभितिं । आउट्टिऊण पुणरवि, णिसेवमाणे विसंभोगो ॥२०८२॥ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [सूत्र-६३ मणिविसरूवेसु सेसेसु प्रवराहपदेसु सव्वेसु सट्टाणपच्छित्तं, तिणि वारा पाउट्टिऊगं पुणरवि च उत्थवाराए जिसेविणो सट्ठाणवुड्डी वा परट्ठाणवुड्डी वा पच्छित्तस्स भवति विसंभोगो य ॥२०८२॥ स किमवि कातूणऽधवा मुहुर्म वा बादरं व अवराहं । णाउट्ट विसंभोगो, असद्दहते असंभोगो ॥२०८३॥ अहवा-एक्कसि सुहुमं बादरं वा अवराहपदं काऊण जो ण प्राउट्टत्ति सो वि विसंभोगी कज्जति, जो वा एयं उग्गमदारत्थं परूवियं ण सद्दहति सो वि असंभोगी कजति ।।२०५३॥ उग्गमे ति दारं गतं । 'इदाणि "उप्पायण-एसण" त्ति दो दारा - उप्पायणेसणासु वि, एमेव चउक्कओ पडोयारो। पुरिसाण पुरिस-इत्थिसु, इत्थीणं इत्थि-पुरिसेसु ॥२०८४॥ चउक्कमो इमो पडोयारोपुरिसा पुरिसेहिं संभोइया - अण्णसंभोतिएहि पासत्याति । अहवा- गिहत्थ प्रहाच्छंदेहि समं एक्को पडोयारो। पुरिसा इत्थियाहिं संभोतिय -अण्णसंभोतिय - गिहत्यीहि समं बितितो गमो। इत्थिया इत्थियाहिं संभोतिय - अण्णसंभोतिय - गिहत्थीहि समं तइमो पडोयारो। इत्थिया पुरिसेहि संभोतिया - संभोतिएहि सव्वेहि समं चउत्यो पडोयारो। "उप्पायण-एसण" ति अभिलावो कायव्यो। शेषं पूर्ववत् ।।२०८७॥ इदाणि "परिकरणे" ति दारं। पडिकम्मणा णाम जं उवहिं पमाणपमाणेणं संजयपाउग्गं करेति । एत्थ चत्तारि भंगा परिकम्मणे चउभंगो, कारणविधि बितिओ कारणाप्रविधी । णिक्कारणम्मि य विधी, चउत्थो णिक्कारणे अविधी ॥२०८शा कारणे विधीए परिकम्मेति ॥१॥ कारणे प्रविधीए परिकम्मेति ॥२॥ णिक्कारणे विधीए ॥३॥ णिक्कारणे प्रविधीए । दू॥२०८५॥ कारणमणुण्ण-विधिणा, सुद्धो सेसेसु मासिया तिण्णि । तवकालेहि विसिट्ठा, अंते गुरुगा य दोहिं वि ॥२०८६।। एत्थ पढमभंगो मणुण्णातो। तेण परिकम्मतो सुद्धो । सेसेहिं तिहिं भंगेहि मासलहुं तवकालविसिट्टा। अंतिमभंगे दोहिं वि गुरु ॥२०८६॥ कारणमकारणे वा, विहि अविहीए उ मासिया चउरो। संविग्गअण्णसंभोइएसु गिहिणं तु चउलहुगा ॥२०८७।। १गा० २०७३। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २०५३-२०११] पवम उद्देशकः नाप्रपवादकारणमत्र गृहीतव्यम् । उवधेः प्रयोजनमत्र ग्राह्यम् । अतो भणति - संविग्गेहिं प्रणसंमोतिएहि समं कारणे विधीर अविवीए वा, णिक्कारणे विधिए प्रविधिए वा चउसु भंगेसु चउरो मासिया हवंति, गिहिपासत्याइएहि समं च उलहुगा चउरो, प्रहाच्छदेहि समं चउगुरुगा चउरो। सव्वे तवकालविसेसिता ॥२०८७॥ समणुण्ण-संजतीणं, परिकम्मेऊण गणहरो देति । संजति-जोग्ग विधीए, अविधीए चउगुरू होति ॥२०८८॥ संभोतियाणं संजतीणं उवधि विहिणा संजतिपाउग्ग गणहरो परिकम्मेत्ता देंतो य सुद्धो। प्रह प्रविधीए परिकम्मेत्ता देति तो चउगुरु ।।२०८८।। पासत्थि अण्णसंभोइणीण विहिणा उ अविहिणा गुरुगा। एमेव संजतीण वि, णवरि मणुण्णेतु वी गुरुगा ॥२०८६।। पासत्यादीहि असंभोतिताहिं संजतीहिं संभोइयाहि वा गिहत्थीहिं वा कारणे विधीर अविधीए वा, णिक्कारणे विधीए प्रविधीए वा उवधि परिकम्मेति च उगुरु तवकालविसिटुं । एवं संजतीण वि संजतीहिं समाणं परिकम्मणं करेंतीणं । संजतीमो पुरिसाण परिकम्मे उ ण देंति, ण वा तेहिं समाणं परिकम्मेउं देति । अध परिकम्मे देति, तेहिं वा समाणं परिकम्मेंति तो समगुण्णेसु वि चउगुरुगा तवकालविसिट्ठा ॥२०८६॥ "परिकम्मणे" त्ति गतं । इदाणि परिहरणे" ति दारं । परिहरणा णाम परिभोगो । कारणे विधीए परिभुजात ।। कारणे प्रविधीए ।२। णिककारणे विधीए ।३। णिक्कारणे प्रविधीए ।४। विधिपरिहरणे सुद्धो, अविहीए मासियं मणुण्णेसुं । विधि अविधि अण्णमासो लहुगा पुण होंति इतरेसुं ॥२०६०॥ "मणुणेसुं" ति संभोतितेसु समाणं पढमे भंगे उवकरणं परिभुंजतो सुद्धो, सेसेसु तिसु भंगेसु मासलह तवकालविसिद्रिं । अण्णसंमोइएसु समाणं उवकरणं परिभुजति । चउसु वि मासलहुँ तवकालविसेसियं । "इयरेस" ति पासत्याइसु गिहीसु य समं उवकरणपरिभोगे च उसु वि च उलहुगा तवकालविसेसिया। महाच्छदेसु चउगुरु तवकालविसेसियं ॥२०६०॥ संजतिवग्गे गुरुगा, एमेव य संजतीण जतिवग्गे । णवरि संजतिवग्गे, जह जतिणं साहुवग्गम्मि ॥२०६१।। संजति-गिहत्याहिं समाणं च उसु वि भंगेसु चउगुरुगा तवकालविसिट्ठा। जहा संजयाण संजतीवग्गे मणियं एवं संजतीण संजयवग्गे वत्तव्यं, णवरं - संजतीणं गिहत्याहिं पासत्याहिं संजतीहि समाणं परिभोगविधी भणियो, जहा संजयाण साधुवग्गे भणितं तहा भणियध्वं ॥२०६१॥ “परिहरण" त्ति दारं गतं । १गा.२०७३ । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ इदाणि " " संजोयण" त्ति दार सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे दस दुयए संजोगा, दस तियए चउक्कए उ पंचगमा | एक्को य पंचगंमी, णवरं पच्छित्त- संजोगा || २०६२|| दस दुयसंजोया, दस तियसंजोया, पंच चउक्कसंजोया, एक्को पंचग - संजोगो । तत्य दम दु संजोधा संभोतितो सभोतिएण समं उग्गमेण उप्पादणाए य सुद्धं उवहि उप्पादेति । संमोतितो संभोइएण समं उग्गमेण एसणाए य सुद्धं उवधि उप्पाएति |२| एवं परिकम्मणा |३| परिहरणा ॥४। एते उग्गमं श्रमुयंतेण लद्धा । एवं उप्पायणं प्रमुतेहि तिष्णि लब्भति । एसणं प्रमुयंतेहि दो लब्भंति । परिकम्मण परिभोगे एक्को । एते सव्वे दसदुगसंजोना । इदाणि तिय- संजोया भण्णंति - संमोतिओ संभोतिएण सह उग्गमउप्पादणेसणा सुद्धं उवह उप्पाएत्ति, एवं उग्गमउपायण - परिकम्मणाए वि |२| उग्गम उप्पायण परिहरणाए वि | ३| एवं उवज्जिऊण दस तिगसंजोगा भाणियव्वा । तहा पंच चउक्कसंजोगा भाणियव्वा । एगो य पंचगसंजोगो भाणियव्वो । एवं एते छवीसं भंगा || २०६२ ॥ एत्थ संभोइए समाणं सव्वत्थ सुद्धो । इदाणि अण्णसंभोतियातीहि भाणियव्वं । तस्य ज्ञापनार्थमिदमुच्यते संजोय - विधि-विभागे, चउपडोयारो तहेव गमओ उ । समणुण्णासमणुण्णा, इतरे एमेव इत्थी वि || २०६३|| तथापि स्मरणार्थं संक्षेपेण इदमाह - - संजोग एव विधि, उग्गमादिभेदमपेक्ष्य स विधिर्विकल्पो भवति । तस्य विभागे क्रियमाणे छब्वीसं भंगा भवति । एतेसु एक्के भंगे चउप्पडोयारो गमश्रो, जहा उगमदारे तहा विस्तरेणः त्रापि । - "समण" त्ति । साधू, ते समणुष्णा भ्रमणुष्णा, 'इतरे' गिहिपासत्यादि ग्रहाच्छंदो य, एस एक्को पडोयारो । पुरिसाणं इत्यीहि बितिनो । एमेव इत्थीहि वि दो गमा - इत्यीणं इत्थीहि, इत्थीणं पुरिसेहि । एत्थ संजोगपच्छित्तं, जहा दुगसंजोगे जं उग्गमदोसे उपायणादोसे य एते दो वि दायव्वा, एवं सेसभंगेस वि संजोगपच्छित्तं ॥ २०६३ ।। " उवंहि" त्ति दारं गयं । इदाणि "सुत्ते" त्ति दारं - १ गा० २०७३ । [ सूत्र- ६३ वायण पडिपुच्छण, पुच्छणा य परियट्टणा य कषणाय । संजोग - विधि-विभत्ता, छट्टाणा होति उ सुतम्मि || २०६४ || संभो तितो संभोइयं विधिणा वाएति सुद्धो । प्रविधीए प्रणिसिज्जं प्रपात्रं पात्र वा ण वाएति, एवं प्रविधीए वायंतस्स पच्छित्तं ॥ २०६४ || असंभोतिगो वा - णे वायण लहुगो, पासत्थादीसु लहुग गुरुगा य । सट्टा इत्थी वि, एमेव - विवज्जए गुरुगा || २०६५|| Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २०६२-२०६६ पंचम उद्देशक: अणणं संभोइयं प्रविधिमा गयं अणुवसंपणं वा वाएति मासलहुँ, पासत्थादी गिही वा वाएति चउलहु, प्रहाच्छंदं वाएंतस्स च उगुरुगा - एस एक्को पडोयारो - बितिग्रो इत्थीणं इत्थीवग्गे एवं चेव पच्छित्तं जं पुरिसाणं सट्टाणे। विवज्जते गुरुगा । पुरिमाणं इत्थीवायणाए च उगुरुगा ततिप्रो गमो। इत्थीणं पुरिस. वायणाए च उगुरुगा चेव, चउत्थो गमो। वायणा गता। इदाणि "'पडिपुच्छणे" ति एत्थ वि चत्तारि - पडोयारा पायच्छित्ता भाणियन्वा । एवं 'पुच्छणाए" वि चत्तारि पडोयारा । "परियट्टणाए" वि चत्तारि पडोयारा । "अणुप्रोगकहणाए" वि चत्तारि पडोयारा । संजोग एव विधिः, सो छब्बीसतिभंगविभागेण विभतो, एत्थ वि चत्तारि पडोयारा ॥२०६॥ इदाणि एतेसु वायणादिसु साववातं विशेषमाह - पडिपुच्छं अमणुण्णे, वि देंति ते वि यतो पडिच्छति । अण्णासती अमणुण्णीण देति सव्वाणि वि पदाणि ॥२०६६॥ अमणुणे पडिपुच्छ देति, ते वि अमणुगा ततो पडिपुच्छं दिज्जंतं पडिच्छंति न दोषः । संजतीण जह पायरियं मोत्तुं अण्णा पवत्तिणीमाती वायंती णस्थि, पायरियो वायणातीणि सव्वाणि एताणि देति न दोषः ।।२०६६॥ “सुते" त्ति दारं गतं । इदाणि “२भत्त-पाणे" ति दारं - उग्गम उप्पायण एसणा च संभंजणा णिसिरणा य । संजोग-विधि-विभत्ता, भत्ते पाणे वि छट्ठाणा ॥२०६७॥ अस्य व्याख्या सदृशस्यातिदेशः -- जो चेव य उवधिम्मि, गमो तु सो चेव भत्त-पाणम्मि । भुंजणवज मणुण्णे, तिण्णि दिणे कुणति पाहुण्णं ॥२०६८॥ जहा उवहिम्मि उग्गम उपायण-एसणासु भणियं च उपडोयारं तहा इहापि भाणियव्वं भुंजणमेगं दारं वज्जेउं । णवरं - प्राहारे पि अभिलावविसेसो। इदाणिं " भुजणे" ति दारं - समणुणो समणुण्णेण समं भुंजतो सुद्धो, समणुणे य तिण्णि दिणे पाहुण्णं करेति, अहण करेति प्रविधीए भुंजति अपरिहेण वा कुट्ठ-क्खयाति-सहिएण सम भुंजति तो च उलहु विसं भोगो य। अण्णसंभोइएण समं भुजति मासलहु, तस्स वि तिण्णि दिणे पाहुण्णं करेति ॥२०१८॥ इमेण विधिणा - ठवणाकुले व मुंचति, पुवगतो वा वि अहव संघाडं । अविसुद्ध भुंजगुरुगा, अविगडितेणं च अण्णेणं ॥२०६६॥ १ गा० २०६४ । २ गा० २०७१ । ३ गा० २०६७ । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-६३ . ठवणकुले वा मुंचति, सड्ढाइ ठवणकुलेसु वा पुव्वगतो दवावेति, अहवा - संघाडयं देति । 'भविगडियेणं च अण्णणं" त्ति अह अप्णस भोतिएण समं अणाभोतिए एगमंडलीए भुंजति तो मासलहुँ तिण्णि वारा, परतो मासगुरु विसंभोगे य । जो तं अविसुद्धं भुजति तस्स चउगुरुगा। एवं जत्थ चउलहुगा तस्स तिणि वारा आउटुंतस्स चउलहु चेव, चउत्थवाराए चउलहुगा विसंभोगो य। जो त अविसुद्धं भुंजति तस्स चउलहुगा । एवं जत्थ चउगुरु तत्थ आउटुंतस्स तिणि वारा चगुरु चेव, चउत्थवाराए छल्लहु । जो तं संभुजति तस्स च उगुरु । एवं सव्वतवारिहेसु वत्तव्वं ॥२०६६॥ समणि मणुण्णी छेदो, अमणुण्णी भुंजणे भवे मूलं । पासत्थे केयि छल्लहु, सच्छंदेणं तु छग्गुरुगा ॥२१००॥ समणीए मणुण्णाए समं एगमंडलीए भुजति छेदो, अण्णसंभोतिणीए मूलं, पासत्यादि-गिहत्येसु उलयं, अहच्छंदे चउगुरुयं । केइ पायरिया भणंति-पासल्याइगिहत्थेसु छल्लहुँ, प्रहच्छदे छग्गुरुं । जहा साधूण सपपक्ख-परपक्खेसु भणियं, एवं संजतीण वि सपक्ख-परपक्खेसु वत्तव्वं ॥२१००।। 'भुजणे" त्ति गतं । इदाणि "णिसिरणे" त्ति दारं समणुण्णस्स विधीए, सुद्धो णिसिरंतो भत्त-पाणं तु । अमणुण्णेतरसंजति, लहुओ लहुगा य गुरुगा य ॥२१०१।। समणुण्णो संभोतितो, तस्स पासण्णा बलियविधीए णिसिरंतो सुद्धो। "प्रमणुष्णेयर” त्ति. पासस्थाती गिहत्था य, अहाछंदा संजतीओ य । जहा संख पच्छित्तं - लहुमो लहुप्रा प्रधाच्छंदसंजतीसु गुरुगा । एवं संजतीण वि सपक्स-परपक्खेसु णिसिरणं पच्छितं च वत्तव्वं ॥२१०१॥ भुजण-वज-पदाणं, कज्जे अणुण्णातु अधव थी-वज्जा। अण्णे भायण असती, इतरे व सति सढे वा वि ॥२१०२।। अण्णसंभोइयाईणं भुंजणपदं वज्जेऊणं अण्णेसु सव्वपदेसु असिवादि - कज्जेसु अणुण्णा, भोयणे वि अणुण्णा, कारणे इत्थीमो मोत्तूण । 'अण्णे" ति अण्णसंभोतिया, तेसिं भायणस्स असतीए । कहं पुण भायणस्स असती होज्जा ? तेसु सिया अण्णसंभोतियाण साहूण सगासमागता तेसिं च भायणाणि भरियाणि ताहे पोहेणालोएत्ता एगटुं भुजति । "इतरे" णाम पासत्यातीहि तेहिं समं एरिसा चेव भायणाण असती होजा ते वा साधूहि समं भुंजेज । अहवा - एरिसा चेव भायणा' असतीए अण्णसंभोइयाहिं समं संखडीए उवट्ठिया तत्थ तेण संखडित्तेण भोयणं सव्वेसि णिसटु, अण्णसंभोतियाति-भायणेसु गहियं "सढे वा वि" ति - सढा भणेज्ज - "उड्डह भायणाणि" जाहे भागो दिजति । अहवा - अम्हेहिं समं भुजह ते जाणति न एते अम्हेहि समं भंजिहिंति, एयं भत्तपाणं सव्वं अम्हं चेव होति, एते सढा णाऊणं भायणेसु वा गेण्हे एगटुं वा मुंजे ॥२१०२॥ "भत्तपाणे ति ग़यं । १ गा० २०६७ । २ गा० २०७१ । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २१०० - २१०७ | इदाणि "अंजलिपग्गहे" त्ति दारं २ चउगुरुगं, पंचम उद्देशकः चंदिय पणमिय अंजलि, गुरुगालावे अभिग्गह णिसिजा I F संजोग - विधि-विभत्ता, अंजलि पगहे वि छट्ठाणा || २१०३ || पणवीसजुतं पुण, होइ वंदणं पणमितं तु मुद्धेणं । हत्थुस्सेह मोतिय, णिसज्ज करणं च तिण्हट्ठा ||२१०४ ॥ पणीसावसय जुत्तं वंदणं- गाहा - चउसिरं बारसावत्तं, दुपवेसं दुग्रणयं तिगुत्तं च । श्रहा जायं णिक्खमेगं, वंदणयं पणवीसजुयं । - मुद्वाणं सिरं तेण पमाण करणं भण्णति, एगेण वा दोहि वा मउलिएहिं हत्थेहि णिडालसंठितेहि अंजली भण्णति । भत्ति बहुमाण णेह भरितो सरभसं "णमो वखमासमणाणं ति" तो गुरुप्रालावो भणति । णिसजकरणं तिहट्ठा सुत्तपोरिसीए प्रत्यपोरिसीए ततिया झालोयण णिमित्तं प्रवराहालोयणा पक्खियाइसु वा एसा. प्रभिग्गह णिसेज्जा भण्गति । एयाणि सव्वाणि संभोइयाणं प्रष्णसंभोइयाण व संविग्गाणं करेंतो सुद्धो ॥२१०४ ॥ पासत्थाइयाण करेति, संविग्गाण ण करेति तो इमं पच्छत्तं - - इतरेसु होंति लहुगा, संजति गुरुगा य जं च आसंका । सेसाऽकरणे लहुओ, लहुगा वत्युं वा आज || २१०५॥ इतरापासत्थाइया गिहत्था य, तेसु वंदणं करेतंस्स चउलहु जति संजतीण बंदणं करेति तो ' जं च" ति अन्यच्च प्रासंका भवति किं मेहुणत्थी, ग्रह कुवियं पसादेति । ग्रहवा - जं च प्रासंकिते पच्छित्तं च पावति, संकिते . णिस्संकिते मूलं । सेसाणं संभोति - याप्रसंभोतिताणं संविग्गाणं वंदणस्स प्रकरणे मासलहु प्रायरियाति-वत्युं वा श्रासज चउव्विहं भवति प्रायरियस्स वंद ण करेति चल, उवज्झायस्स ण करेति मासगुरु, भिक्खुस्स मासलहु, खुडुस्स भिण्णमासो ॥ २१०५ ॥ विरुद्धा सव्वपदा, उवस्सए होंति संजतीणं तु । तिघरपत्तगुरुम्मिय, बहिया गुरुगा य श्राणादी || २१०६ || साधु- वस्सए पक्खियातिसु श्रागताण संजतीण वंदनातिया पदा सव्वे श्रविरुद्धा भवंति । ग्रह बाहि वंदणादि करेंति तो चउगुरुगा प्राणादिया य दोसा, संकातिया य । ३४८ भिक्खादिगता किं ण पमाणेण विष्णवितो होज्ज ? सपबखे पुण बहिणिभ्गता वंदणाति करेंति जह साहू साहूणं । संजांगे छव्वीस भंगा ॥ २१०६ ।। " अभिग्गह- णिसज्ज" त्ति गतं । इदाणि ""दावणं" त्ति दारं -- सेजो हि आहारे, सीसंगणाणुप्पदाण सज्झाए । संजोग - विहि-विभत्ता, दवावणाए वि बाणा || २१०७॥ सेज्जीवहि प्राहारो एते तिष्णि जहा णिसिरणद्दारे, सज्झाम्रो जहा सुत्तद्दारे ॥ २१०७॥ गा० २०५१ । - Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० ३५० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे । सूत्र-६३ सीसगणाणुप्पताणे त्ति अस्य व्याख्या - सीसगणम्मि विसेसो, अण्णेसु वि कारणे हरा लहुओ ! इयरेसि देति गुरुगा, संजतिवग्गे य जो देति ॥२१०८।। सीसगणाणुप्पयाणं एकके विसेसो, सेसा दो पूर्ववत् । 'अण्णे" ति अण्णसंभोतिया, तेसु सुप्र-वत्थाइयेहि संगहं कातु असत्तेसु एएण कारणेण देतो सुद्धो, इहर ति णिक्कारणा सीसगणं देंति तो मासलहुँ, पासत्थादीण देति चतुगुरुगा, जति संजतिवग्गे संजति देति तस्स वि चतुगुरुगं ॥२१०८॥ समणी उ देति उभयं, जतीण जतो वि सिस्सिणी तीए । छंदनिकाय निमंतण, एगट्ठा तत्थ वि तहेव ॥२१०६।। समणी संभोइयाण उभयं पि देति सुद्धा । उभयं पि णाम सीसं सीसिणि । “जतो" ति - साधू, सो वि संभोतियाए संजतीए सिस्सिणि देतो सुद्धो। "दावणं" ति गयं । इयाणि "णिकायण" ति दारं - "छंदणं ति वा "णिकायणं" त्ति वा "णिमंतणं" त्ति वा एगटुं ॥२१०६।। सेज्जोवहि आहारे, सीसगणाणुप्पदाण सज्झाए । संजोग-विधि-विभत्ता, णिकायणाए वि छट्ठाणा ॥२११०॥ जहेव दावणा-दारं, तहेव णिकायणा-दारं पि प्रविसेसं भाणियव्वं ।।२११०॥ णिकायण त्ति गयं । इयाणिं “२अब्भुट्ठाणे" त्ति दारं । तस्सिमाणि छद्दाराणि - अब्भुट्टाणे आसण, किंकर अभासकरण अविभत्ती । संजोग-विधि-विभत्ता, अभुट्टाणे वि छट्ठाणा ॥२१११।। जह चेव य कितिकम्मे, तह चेव य होति किंकरो जाव । सव्वेसि पि भुताणं, धम्मे अभासकरणं तु ॥२११२।। अग्भुट्ठाणादिया - जाव - किंकरो एते तिण्णि दारा जहा कितिकम्मं तहा वतव्वं । एत्थ पुण कितिकम्म-वंदणं, तं च पज्जायवयणेण अंजलिंपग्गहो भणियो, आयरियस्स छंद प्रणुवत्तत्ति - किं करेमि त्ति किंकरः, गिलाणस्स पाहुणयस्स य मागयस्स भणाति - संदिसह विस्सामणादि किं करेमि ति। "अब्भासकरण त्ति दारं -- अभ्यासे वर्तयति अभ्यासवर्ती, अभ्यासं करोतीत्यर्थः । सव्वेसि पि पउम्बिह-समण - संघातो जो सामत्थे करेंतो सुद्धो अकरेंतस्स पच्छित्तं विसंभोगो य । १ गा० २०६१।२ गा० २०७१। ३ गा० २१११ । Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५१ 3 भाष्यगाथा २१०८-२११६] पंचम उद्देशक: इदाणि "अविभत्ती दारस्स" इमं वक्खाणं -- भुंजण-वजा अण्णे, अविभत्ती इतर लहुग गुरुगा य । संजति थेर-विभत्ती, माता इतरीसु गुरुगा उ ॥२११३।। ___ एगट्ठभोयणं मोत्तूण अण्णसंभोतिताण वि अवित्ति करेंतो सुद्धो, पासत्याइगिहत्येसु जइ अविभत्ति करेति तो चउलहुगा, अहच्छंदे चउगुरुगा, संजतीण जा थेरी संविग्गा तीसे इमेरिसी अविभत्ती कायव्वा-तुमं मम माया वा भगिणी वा जारिसी, णाहं तुज्झ अप्पणो मायाए भइणीए वा विसेसं मण्णामि । “इयरीसु" त्ति पासत्थाइयासु गिहत्थीसु प्रवित्ति करेति चउगुरुगा, संविग्गासु तरुणिसजतीसु जइ. अविभत्ति करेति असुद्ध - भावितो चउगुरुगा, ग्रह च सुद्धभावो करेति तो सुद्धो॥२११३।। "अब्भुट्ठाणे' त्ति गयं । इयाणि “२कितिकम्मस य करणं" त्ति दारं । तस्स इमाणि छद्दाराणि - सुत्तायामसिरोणत, मुद्धाणं सुत्तवज्जियं चेव । संजोग-विधि-विभत्ता, छट्ठाणा होति कितिकम्मे ।।२११४॥ सुत्तं कति वेट्ठो, उट्ठ-णिवेसादि ण तरती काउं । आयामे पुण वेठ्ठो, करोति बितिश्रो ससुत्तपरो ॥२११५॥ जो साहू वारण गहितो उट्टेऊण णिवेसिउं वा ण सक्केति, हत्थावि से वातेण गहिता चालेऊ ण तरति, ताहे सो पावत्ते दाउं प्रसत्तो णिविट्ठो चेव वंदणगसुत्तं अक्खलियादि प्रतिपदं कड्दति । सुत्ते ति गत। इदाणि “3ायाम" त्ति अस्य व्याख्या - आयामे पच्छद्धं । उट्ठेउं णिवेसिउं वा असत्तो उवविट्ठो चेव आवत्ते ससुत्ते करेउं तरति । अहवा - पूर्वात (अ) क्लिष्टतरो यस्मात् स सूत्रानावर्तान् करोति ॥२११५॥ प्रायाम तिगतं । इदाणि "सिरोणय" ति दारं, अस्य व्याख्या - रातिणिय-सारिअतरणं, सिरप्पणामं करेति ततिओ उ । महुरोगी आयामे, मुद्ध समत्ते ऽधव गिलाणो ॥२११६॥ कम्मि य गच्छे कस्स ति साहुस्स प्रोमरातिणिग्रो प्रायरिणो होज्ज, तेणं पारिएणं मज्झिमए वंदणए रातिणियस्स वंदणं दायव्वं, तेण य रातिणिएणं सो पायरिभो वुत्तो होज्ज - मा तुमं मम वंदणयं देजह, मा सेहा परिभविस्संति त्ति काउं, ताहे सो सिरेणं पणामं करेति, सुत्तं उच्चारेउ, सागारिए वा सुतं अणुच्चारेऊणं सिरप्पणामं करेति । "प्रतणे" त्ति - गिलाणो, सो वि एवं चेव । "सिरोणयं" ति गयं । इदाणि "मुद्धाणं" - समत्ते वंदणे जंपायरियो पणामं करेति एवं मुद्धाणं मह व असत्तो गिलाणो मुद्धमेव केवलं पणामेति, मुद्धाणं प्रावतं सूत्रादिवजिता मून एव केवला किया इत्यर्थः ।।२११६॥ "मुद्धाणं" ति गयं। १ गा० २१११ । २ गा० २०७२ । ३ गा० २११४।४ गा० २११४ । ५गा० २११४ । Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-६३ इयाणि ''सुत्तज्जि" ति अस्य व्याख्या - "मुहरोगी मायामे" एस सव्वं उट्ठणिवेसावत्ताति करेति, मुहरोगे सुत्तं उच्चारेउ ण सक्केति, मणमा पुण कड्डति । छठे वि “संजोगद्दारे" संजोगा भाणियव्वा । जह चेवऽब्भुट्ठाणे, चउक्कमयणा तहेव कितिकम्मे । संजति संजयकरणे, ण मुद्ध केई तु रयहरणं ॥२११७।। जहा मन्मुट्ठाणदारे वृत्तं तहेव इह पि । चउक्कभयणा णाम - संजता संजताणं । संजया संजईण । संजतीमो संजयाण । संजतीनो संजतीण । सपायच्छितं जहा कितिकम्मे वि तहा कायवमित्यर्थः । जत्थ संजतीमो संजयाण कितिकम्म करेंति तत्थ सव्वं उद्घट्ठिता सुत्तावत्ताइ करेंति, ण मुद्धाणं ठिए रयहरणे पाडेंति । इह केयी आयरिया भणंति - उद्धट्टिता चेव रयोहरणे सिरे पणाति, तं चेव तेसि मुद्धाणं ।।२११॥ कित्तिकम्मकरणे त्ति गतं। झाणि "वेयावच्चकरणे" त्ति दारं - आहार उवहि विभत्ता, अधिकरण-विप्रोसणा य सुसहाए । संजोग-विहि-विभत्ता, वेयावच्चे वि छट्ठाणा ॥२११८॥ प्रधिकरणं कलहो, तस्स विविध प्रोसवणं विप्रोसवणं ।।२११८॥ ओसवणं अधिकरणे, सव्वेसु वि सेस जह उ आहारे । असहायस्स सहायं, कुसहाए वा जहा सीसे ॥२११६।। तं अधिकरणं उप्पणं सम्बेहिं उवसमियव्वं मोत्तुं गिहत्यो। सेसा आहार उहि मत्तमो य जहा माहारे तहा वत्तव्यं, णवरं - तिण्णि मत्तया - उच्चारे पासवणे खेलमत्तमो य । • सुसहाय' त्ति अस्य व्याख्या - असहायस्स सहायं देति, कुसहायस्स वा सुसहायं देति । एवं जह सीसगणप्पदाणे तहा इमं पि दद्रुव्वं, णवरं-प्रजाणं सहायो वि दिजति पंथा इसु, जति ण देति तो चउलहुं ॥२११६।। वेयावच्चे ति गतं। इदाणि ५ 'समोसरणे" त्ति दारं - वास उडु अहालंदे, साहारोग्गह पुहत्त इत्तरिए । वुट्टा वास समोसरणे, छट्ठाणा होंति पविभत्ता ॥२१२०॥ १ गा० २११४ । २ गा० २११४ । गा० २०७२ । ४ गा० २११८ । ५ गा० २०७२ । Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २११७ - २१२४ ] पंचम उद्देशकः एत्थ णत्थि संजोगो, पूरेति चेत्र छप्पया-वासा, उड्डु, अहालंदे त्ति, इत्तरीए, वुड्डुवासे, समोसरणे । एते संजोगवजिया छप्पया | ग्रहवा आएसंतरेण इमे छप्पया । ॥२१२१॥ - वास उड्डु अहालंदे, एते चिय होंति छप्पया गुणिता / साधारणोग्गहेणं, पत्तेगेणं तुभयकाले ॥ २१२१ ॥ वासोग्गहो, उडुबद्धोग्गहो, अहालंदोग्गहो, एते तिष्णि त्रि उडुबद्ध- वासाकाले साधारण - पत्तेगेण य दोहि गुणिया छप्पया भवति । इत्तरिम्रो वुडवासो समोसरणोग्गहो य एते उड्डुबद्धवासोग्गहेसु पट्ठा । अहवा - इत्तिरिओ समोसरणोग्गहो य महालंदे पट्टा । वुढ वासो उडुबद्धवासोग्गहेसु पट्टो । वासोग्गहो दुविधो - साधारणोग्गहो पत्तेगो य । एवं उडुबद्धोगगहो वि, एवं ग्रहालंदोगाहो वि पडिबद्धलंदि उग्गह, जं णिस्साए तु तस्स तो होति । रुक्खादी पुव्वठिते, इत्तरि वुड्ढे स पहाणादी ॥ २१२२।। जे अहालंदिया गच्छाडिबद्धा तेसि जो उग्गहो सो जं निस्साए ग्रायरियं विहरति तस्स सो "उग्गहो" भवति । रुक्खाति- हेट्ठिताण वीसमगट्ठा इत्तरियो उगाहो भवति । तत्थ जो पुव्वं प्रणुष्णावेडं ठितो तस्स सो उग्गहो । अव समगं अणुष्णविडं ताहे साधारणो भवति । वुड्ढावासोग्गहो जंघाबलपरिखीणस्स भवति । सो वि साधारण पत्तेगो भवति । समोसरणं हाणं श्रणुयागं पडिमाति-महिमा एतेसु साहू मिलति वं समोसरणं । एत्थ पत्तेयो ण भवति ।। २१२ ॥ साधारण - पत्तेगो, चरिमं उज्जित उग्गहो होति । गेण्हमदेताऽऽरुणा, सचिताचित णिफण्णा ॥ २१२३॥ आइल्ला पंच दुविधा - साधारणा होज, पत्तेगा वा । चरिमो णाम समोसरणं, तत्थ उग्गहो णत्थि, तत्थ वसहीए उग्गहमग्गणा, वसही साधारणा पऩया वा, एतेसु उग्गहेसु आउट्टियाए प्रणाभव्वं गेव्हंताणं श्राभोगेण वा पुत्रोग्गहियं अदेताणं "प्रारुवण" त्तिपच्छितं भवति । तं सचित्ताचित्तणिफणं, प्रचित्ते उवहिणिफण्णं, सचित्ते चउगुरु, ग्राएसेण अगदट्टो || २१२३|| समगुण्णमणुण्णे वा अदितऽणाभव्वगेण्हमाणे वा । संभोग वीसु करणं, इतरे य अलंय पेल्लति ॥२१२४॥ ३५३ संभोतितो जो प्रणाभव्वं गेव्हंति गहियं वा ण देति सो संभोगातो वीसुं पृथक् क्रियते । असंभोश्रो विणाहवं हति, गहियं वा ण देति, जेसि सो संभोश्रो ते तं विसंभोग करेंति । ' इयरे" त्ति- पासत्याती, तेसि णत्थि उग्गहो, अणुग्गहे वि पासत्याइयाण जति खुड्डुगं खेत्तं प्रणम्रो य संविग्गा संथरता पेल्लंति तत्य सचित्ताचित्तणिफणं । ग्रह पासत्यादियाग बित्थिष्णं खेत्तं, ते य ण देति, अण्णतोय असंयता, ताहे संविग्गा पेल्लं त्ति, सचित्ताइयं च गेव्हंता सुद्धा ।। २१२४ ।। समोसरणे त्ति दारं गतं । ४५ Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ मूत्र-६३ इदाणि "'सण्णिसेज्ज" त्ति दार - परियट्टणाणुअोगो, वागरण पडिच्छणा य आलोए । संजोग-विधि-विभत्ता, सण्णिसेज्जे वि छट्ठाणा ॥२१२।। सणिसेज्जो व गतो पुण, तग्गतेण परियट्टणे हवति सुद्धो। अण्णेण होति लहुओ, इतरे लहुगा य गुरुगा य ॥२१२६॥ दोण्णि आयरिया संभोतिया संघाडएण परियटुंति, पत्तेयं णिसेज्जगता सुद्धा, तग्गएण णिसिजागतेणेत्यर्थः । अह अण्णसंभोतिएण तो मासलहुं गवति । "इतरेहि" ति पासत्याइएहिं गिहत्थेहिं य समं तो चउलहुं । प्रहाच्छंदगिहत्थीहिं संजतीहिं च समं णिक्कारणे परियट्रेति चउगुरु । संजतीण वि इत्थी पुरिसेसु एवं चेव भाणियध्वं ॥२१२६।। “परियट्टणे" ति गतं । इदाणि "२अणुप्रोगे" त्ति दारं - अणिसेज्जा अणुप्रोगं, सुणेति लहुगा उ होंति देंते ल । वागरण णिसेज्जगतो, इतरेसु वि देंतऽसुद्धो तु ॥२१२७/. अक्ख-गिसेजाए विणा अणुप्रोगं कहेंतस्स सुणेतस्स य चउलहुगा । संजतीण अक्ख गिसेजा णत्यि। सेसं विधि करेति । इयाणि "वागरणे" त्ति पृष्टः सन् व्याकरोति" "वागरणं" पच्छद्धं । इतरे णाम पासत्थादी, भपिशब्दात् गिहत्थाण वि गिहत्यीण वि संजतीण वि देतो असुद्धो ॥२१२७॥ "पडिपुच्छणालोए" त्ति दो दारा एगटुं वक्खाणेति - जो उ णिसज्जोवगतो, पडिपुच्छे वा वि अह व आलोवे । लहुया य विसंभोगो, समणुण्णो होति अण्णो वा ॥२१२८॥ णिसज्जाए उवविट्ठो णिसज्जोवगतो भवति, जति सुत्तमत्थं वा पडिच्छति । अहवा - णिसेज्जोवविट्ठो पालोयणं देति तस्स मासलहुं । अणाउÉतो य विसंभोगो कजति । समणुष्णो वि जो उवसंपण्णो सो, विसंभोगी कजति । अहवा - जेसि सो संभोतिगो से विसंभोगं करेंति ।।२१२८॥ इदाणिं "२संजोगो" त्ति छटुं दारं जहा संभवं भाणियव्वं । सण्णिसेज्ज त्ति गतं। इयाणिं कहाए पबंधणे" त्ति दारं - वादो जप्प वितंडा, पइण्णग-कहा य णिच्छय-कहा य । संजोग-विहि-विभत्ता, कथ-पडिबन्धे वि छट्ठाणा ॥२१२६।। १ मा २०७०। २ मा० २११५। ३ गा० २०७२ । www.jainelibrary org. Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाबगावा २१२५-२१३५] पंचम उदशकः ३५५ वाद जप वितंड, सव्वेहि वि कुणति समणि-वज्जेहिं । समणीण वि पडिकुट्ठा, होति सपक्खे वि तिण्हि कहा ॥२१३०॥ मतमभ्युपगम्य पंचावयवेन श्यक्यवेन वा पक्ष-प्रतिपक्षपरिग्रहात् छलजातिविरहितो भूतान्वेि. षणपरो बादः। परिगृहा सिद्धान्तं प्रमाणं च छल-जाति-निग्रह-स्थानपरं भाषणं यत्र जल्पः । यत्रकस्य पक्षपरिग्रहो, नापरस्य, दूषणमात्रप्रवृत्तः स वितंडः । साधू वादं बल्पं वितंडं वा एता तिणि वि कहा समणीवज्जेहिं प्रसंभोतियातीहि सव्वेहि अण्णतिविएहिं वि समं करेति । समणीण समणीमो सपक्खो, तेहिं वि समाणं तिणि - वाद-जल्प-वितंड - कहा य . परिकुट्ठा प्रतिषिता इत्यर्थः ॥२१३०॥ उस्सगा पइम-कहा य, अववातो होति णिच्छय-कथा तु । महवा ववहारणया, पइण्णसुद्धा य णिच्छङ्गा ॥२१३१॥ उस्सम्गो पइनकहा भन्नति, भववातो णिच्छयकहा भण्णति । महवा - गम-संगह-ववहारेहिं जं कहिज्जति सा पइण्णकहा, रिजुसुत्तादिएहि सुद्धणएहिं जं कहिज्यति सा पिच्चयकहा ॥२१३१॥ एस बारस विहो ओहो। इमो विभागो पारस य चउव्वीसा, छत्तीसण्डयालमेव सट्ठी य । बावचरी विभत्ता, चोयालसयं तु संभोए ॥२१३२।। सव्वे बावत्तरी तिगादिएहिं गुणिया इमं भवति - दो चेव सया सोला, अट्ठासीया तहेव दोणि सया । तिणि य सद्विसयाई, चत्तारि सया य बत्तीसा ॥२१३३॥ जहा बारस दुगातिएहि गुणिया इमं भवति - वारस य चउव्वीसा, छत्तीसऽडयालमेव सट्टी य । बावत्तरि छग्गुणिया, चत्तारि सया तु बत्तीसा ॥२१३४॥ तहा बावत्तरीवि दुगादिएहिं गुणिया पज्जते छम्युणिया चत्तारि सया तु बत्तीसा भवति । एतेसिं तु पदाणं, करणे संभोग प्रकरणे इतरो। दोहि विमुक्के चउवीस होति तस्सहिते इतरो उ ॥२१३॥ एतेसि मोहसंमोतियपदाण दुगमाइगुणकारुप्पण्णाण विमागपदाण जहुत्ताण करणे संभोगो; प्रकरणे पुण "तरे" ति विसंभोग इत्यर्थः । इयाणि दुगातिगुणकारसरुवं भष्णति - "दोहि" पच्छदं । ते चेव वारस दोहि Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे ( [ सूत्र - ६३ रागदोसविप्प मुक्कस्स चउव्वीसतिविधो संभोगो भवति, तेहिं चैव सहितस्स चउव्धीसतिविधो विसंभोगो भवति ।। २१३५।। ३५६ णाणादी छत्तीसा, चउक्सायविवज्जितस्स अडयाला । संवर सहि दुसत्तरि, छहि अहव त एव छहारा ॥ २१३६ ॥ एवं णाण- दंसण-चरिते हि तिहि गुणिता बारस छत्तीसतिविधो संभोगो भवति । प्राणादिएहि तिहि छत्तीसतिविधो विसंभोगो भवति । चउक्कसायावगयस्स चउग्गुणा बारस प्रडयालीसतिविधो संभोगो, सो चेव चउक्सायसहियस्स विसंभोगो। संवरो पंचमहव्वयाति, तेहि गुणिया सट्ठी । रातीभोयणसहितेहि छग्गुणिया बारस बावत्तरी भवंति । उवधिमातिया त एव बारसदारा एक्केक्कं छव्विधं, ते मिलिया बावत्तरी भवंति जहा बारस दुगातिएहिं गुणिया ||२१३६ ।। एवं अधवा - बावत्तरिं पितह चेव, कुणसु रागादिसु संगुणितं । कप्पादि छहि पदेहिं, चतारि सया उ बत्तीसा ||२१३७|| प्पो, ग्रादिसद्दातो गिहिभायणं, पलियंक णिसेज्जा, सिणाणं, सोभकरणं । अहवा - प्रकप्पछक्क, आदिसद्दातो वयछक्कं कायछक्कं च । एतेसिं प्रण्णतरेण छक्केण गुणिया बावत्तरि, चत्तारि सता बत्तीसा भवंति ।।२१३७॥ " ग्रोहे" त्ति दारं गतं ' दाणि "अभिग्गहे" त्ति दारं भिसंभोगो पुण, णायव्वो तवे दुवालसविधम्मि | दाणग्गण दुविधो, सपक्खपरपक्खतो भइतो ॥ २१३८ || अभिराभिमुख्येन ग्रहो अभिग्गहो, सो वि तवे दुनालसविषे जहासत्तीए अभिग्गहो घेत्तव्वो, सति परिहावेमाणस्स च्छित्तं । -- इदाणि" "दाणग्गहणे " त्ति दारं - दाणग्गणे दुविध संभोगो सपवखे परपक्खे य । - एत्थ चउक्को भंगो - दाणं गहणं, एत्थ संभोतिता । दाणं नो गहणं, एत्थ संजतितो । नो दाणं गहणं, एत्थ गिहत्था । नो दाणं नो गहणं, एत्थ पासत्याती । पढम-बितिया सवक्खे, ततितो परपक्खे । चउत्थो संभोगं पति सुष्णो ।।२४३८|| दाणग्गहणे त्ति दारं गतं । इदाणि "प्रणुपालण" त्ति दारं - १ गा० २०७१ । २ गा० २०७१ । अणुपालण - संभोगो, णायव्वो होति संजतीवग्गे । उववाते संभोगो, पंचविधुवसंपदा तु ॥ २१३६ ॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा २१३६-२१४२ ] खेत्तोवहिसेज्जाइएस खेत्तसंकमणेसु य संजतीओ विधीए अणुपालेयव्वातो । इदाणि "" उववाते" ति पच्छद्ध - उववातो उवसंपज्जणं, उवसंपताए संभोगो भवति ।। २१३६ ।। सा य उवसंपया इमा पंचविधा पंचम उद्देशकः सुत सुह- दुक्खे खेत्ते मन्ये विणए य होइ बोधव्वो । उववाते संभोगो, पंचविगप्पो भवति एसो ॥ २१४०॥ इदाणि ""संवासे" त्ति दारं - सुत्तत्याण णिमित्तं उवसंपया सुत्तोवसपया । सुहदुक्खोव संपया घाउविसंवादादिएहि हिक्कातीहि वा श्रागंतुगेहि बहु पच्चवार्थ माणुसं माणिऊण प्रणतरेण मे रोगातकेण वाहियस्स ममेते वेयावच्च काहिति महं पि एतेसिं करिस्सामि प्रतो श्रसहायो गच्छे उवसंपयं पवज्जति । एस सुहदुक्खोवसंपया । एक्स्स फायरियस्स बहुगुणं खेतं तमगो प्रागरि जाणिऊण श्रणुजाणावेऊण तस्स खेत्ते ठायति एस खेत्तोवसंपया । दुवे प्रायरिया श्राणंदपुरातो महुरं गंतुकामा ताण एक्को देसितो एक्को प्रदेसितो । देसि श्रप्पणो पुरिसकारण पत्थियो । प्रदेसि विसण्णो, देसियं भणति - अहं तुहष्पभावेण तुमे समागं महुरं गच्छे । देसितो तस्सोव संपण्णस्स मग्गाणुरूवं उवएसं पयच्छति, एस मग्गोवसंपदा गया । सुरट्ठाविस दुवे प्रायरिया, एगो तत्थ वत्थवो, सो प्रागंतुगस्स सुगम-दुग्गमे मग्गे सुहविहारे य खेत्ते सध्वं कहेति, सचित्ताइयं उपनां सव्वे तेण वत्यव्यस्स णिवेदियव्वं, एस विणप्रवसंपदा । एस पंचविधो उववायसंभोगो ।।२१४०।। "उववाते" त्ति दारं गतं । - संवासे संभोगो, सुपक्ख-परपक्खतो य णायत्री । सरिकप्पे सपडे, परपक्खम्मी गिहत्थे ॥ २१४१ ॥ ३५७ संवास- संभोगो दुविधो- सपवखे परपवखे य, सरिसो कप्पो जेसि ते सरिसकप्पा संभोतिया इति यावत् । सपक्खे सरिसकप्पेसु संवासो, ण मण्णसंभोतिप्राइस, परपक्खे गित्येसु संवासो || २१४१ ॥ इयाणि एतेसु चैव अभिग्गहातिए पच्छित्तं । तवे सति परिहरेतस्स इमं पच्छित्तं पक्खिय चउवरिसे वा, प्रकरणे आरोवणा तु सति विरिए । सेसतस्स करणे, लहुगो मणुण्णता चेत्र || २१४२॥ पक्खि चत्यं करेति चउत्थं चैव पच्छितं । चाउम्मा सिए छटुं ण करेति, तं चेत्र पन्छितं । संवच्छ श्रमं ण करेति, अदुमं चेद पच्छितं । सेसो तवो प्रावकहिगमणासगं मोतुं बारसविहो तं ज करेति मासल, प्रणाउयमा असंभोगो ॥ २१४२ ॥ ३ गा० २०७१ । २ गा० २०७१ । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ समाष्य-बूर्णिके निशीषसूत्रे दाणग्गहणे इमं - चउभंगो दाणगहणे, मणुण्णे पढमो तु संजती वितिभो। गिहिएसु होति ततिओ, इयरेसु तु अंतिमो भंगो ॥२१४३॥ गतत्था। अण्णस मोतिएसु तिसु मंगेसु मासलहुँ । गिहत्य पासत्याइयाण तिसु भगेमु बठमडं। प्रहाच्छंदं पडुच्च तिसु वि भंगेसु चउगुरुगं । पढम-ततिएसु संजति पहुच्च पतगुरु ॥२१४३॥ अणुपालणं पडुच्च इमं - अविधी अणुपालेंते, अणाभवंतं व देंतगेहंते । पच्छित्त वीसुकरणे, पच्छाऽऽउट्ठे व संभुंजे ॥२१४४॥ संजतीयो प्रविधीए प्रणुपालेति प्रणाभव्यं च तेसि देति, जहा रयहरणं दंडियं सबिटयं का लाउयं सविसाणं वा भिसियं, तेसि वा हत्थापो गेहति चउगुरुगं पच्छित्तं । प्रणाउटुंतस्स वीसुकरणं, पुणो वा प्राउट्टं संभुजे ॥२१४४॥ इदाणि उववाते - संभोगमण्णसंभोइए, न उववाततो उ संभोगो। संवासो तु मणुण्णे, सेसे लहु लहुग गुरुगा य ॥२१४५॥ संभोतितो पवसितो पच्चागमो पालोयणउववातेण संभोगो, अण्णसंमोतिनो वि मालोयण देतो उवसंपज्जति । संभोतितो प्रणालोइयं उवसंपज्जावंतस्स मासलहु, विसंभोगो य । ग्रहवा - १"प्रणाभव्वं देंतो गेहंति" त्ति एवं वयणं एत्य उववाते दृढव्वं, सचित्तावितणिफणं पायच्छित्तं दायव्वं । इयाणि "संवासे" ति पच्छद्ध - संभोइनो संभोइएसु वसंतो सुद्धो। "सेस" ति अण्णसंभोतियादिया अण्णसंभोतिएसु मासलहुं, पासत्थाति-गिहीसु चउलहुगं, प्रहाच्छंदे संजतीसु य चउगुरुगा । संजतीन वि एवं चेव, सरिसवग्गे विसरिसवग्गे य वत्तव्वं । एस प्रोहातिएहिं गंदास-पज्जवसाणेहिं छहिं दारेहि संभोगविही भणितो ॥२१४५॥ जस्सेतेसंभोगा, उवलद्धा अत्थतो य विण्णाया। णिज्जूहितुं समत्थो, णिज्जूढे यावि परिहरितुं ॥२१४६॥ सुत्तपदेहिं उवलद्धा अत्थावधारणे य विष्णाया सो परं सीदंतं णिज्यूहि समत्थो, अप्पणा णिज्जूढं परेण वा णिज्जूढं परिहारिउं समत्यो भवति ।।२१४६।। सरिकप्पे सरिच्छंदे, तुल्लचरित्ते विसिहतरए वा । कुव्वे संथव तेहिं, गाणीहि चरित्तगुत्तेहिं ॥२१४७॥ थेरकप्पियस्स थेरकप्पिो चेव सरिसकप्पो, दवादिएहिं पभिग्गहेहिं सरिसच्छदो ददुब्लो, १ गा० २१४४ । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा २१४४-२१५१ ] पंचम उद्देशक ३५९ mmirm i ribanditionak shi सामायियचरित्तिणो सामायियचरित्ती तुल्ल-चरित्ती प्रज्झवसाणविसेसेण वा संजमकंडएस विसिद्रुतरो, एरिसेहि समाणं संथवो संवासो णाणोहिं । चरितेण गुत्ता, चरित्ते वा गुत्ता, ते चरित्त-गुत्ता ॥२१४ ॥ सरिकप्पे सरिछंदे, तुल्लचरित्ते विसिट्टतरए बा। आदेज्ज भत्तपाणं, सएण लाभेण वा तुस्से ॥२१४८॥ एरिसेण साहुणा भत्तपाणं मानीय माताए-मात्मीयेन वा साभेन तुष्ये, न हीनतरसत्कं गृहे ॥२१४८|| किं चान्यत् - ठितिकप्पम्मि दसविहे, ठवणाकप्पे य दुविधमण्णयरे । उत्तरगुणकप्पम्मि य, जो सरिकप्पो स संभोगो ॥२१४६॥ "माचेल्लक्कुद्देसिय, सेज्जातर-रायपिंड-कितिकम्मे । वयजेट्ट-पडिक्कमणे, मासं पजोसवण कप्पे"। एयम्मि जो दसविधे ठियकप्पे ठितो। दुविधो य ठवणाकप्पो - सेहठवणाकप्पो- अट्ठारसपुरिसेसुइत्यादि । प्रकप्पठवणाकप्पो '२वयछक्क-कायछक्क' इत्यादि, णासेवतीत्यर्थः । जो एयम्मि दुविधे ठितो; पिंडस्स जा विसोही इत्यादि, एयम्मि उत्तरगुणे कप्पे जो सरिसकप्पो; स संभोगो भवति इति ॥२१४६॥ एस संभोगो सप्पभेग्रो वणियो। एस य पुव्वं सव्वसंविग्गाणं अड्डभरहे एक्क संभोगो प्रासी, पच्छा जाया इमे संभोइया इमे असंभोइया । शिष्य आह - किं कारणं एत्थ ? । पायरियो - इमे उदाहरणे कप्पे उदाहरति - अगडे भातुए तिल तंडुले य सरक्खे य गोणि असिवे । अविणढे संभोए, सब्वे संभोइया आसी' ॥२१५०॥ अगड-पयस्स वक्खाणं - आगंतु तदुत्थेण व, दोसेण विणढे कूवे ततो पुच्छा। को आणीयं तुदयं, अविणडे णासि सा पुच्छा ॥२१५१॥ एगस्स नगरस्स एक्काए दिसाए बहवे महुरोदगा कूवा । तत्य य केई कूवा प्रागंतुय तदुत्येहि दोसेहिं दुट्ठोदगा जाता । प्रागंतुएण तया विसातिणा, तदुत्थेण खार-लोण-विस-पाणियसिस वा जाता। तत्य य केसुइ कूवेसु पाणियं पिजमाणं कुट्ठादिणा सरीरं सदूसणकरं भवंति । केइ हाणाइसु प्रविरुद्धा । केति ण्हाणाइसु वि विरुद्धा । एतद्दोसदुढे गाउं बहुजणो दगादि वारेति । प्राणिए य को प्राणियंति पुच्छा । जति णिहोसं तया परिभुजति । मह सदोसं जइ जाणतेण प्राणियं ताहे तपो वा वारापो फेडिजति तजिबति य । प्रह अजाणतेणं तो वारिजति, मा पुणो प्राणिजासि । एवं असंमोतिया वि केति चरित-सरीर-उत्तरगुण-दूसगा १ एकादशोद्देसके । २ दशवकालिके म० ६ गा० ८ । ३ समणा (पा.)। ४ गा० २१५० । Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [ सूत्र-६३ केति चरित-जीविय-ववरोवगा, केति संफास-परिभोगिणो, केति पुण संफासो वि वजिता । जाव य प्रविणट्ठपाणिया ताव पुच्छा वि णासी ॥२१५१।। "भाउय" पयस्स वक्खा - भोइयकुलसेविआओ दुस्सीलेक्के उ जाए ततो पुच्छा। एमेव सेसएसु वि, होइ विभासा तिलादीसु ॥२१५२।। दो कुलपुत्ता भायारो रण्णो भयरहिया सेवगा सव्वावारियप्पवेसा । तेसि कणिद्वेण अंतपुरे प्रणायारो करो। तस्स पवेसो वारिपो। जेट्ठो वि तहसेण रण्णो अणि तेइते पवेसं ण लहति । रणा पुच्छिजतिजेट्ठो, कणिट्ठो ? जेट्टो त्ति कहिते पविसति । पुवं एसा पुच्छा णासी । एवं संभोइया वि, उवणयविसे सो भाणियव्वो। एवं सेसेसु वि तिलादिएसु विसेसा कता । पुव्वं सबावणेसु तिला अभतिया विकायंता ततो एगेग वाणिएण पूतिता पागडिया, ततो पमिति पुच्छा पयट्टा । एवं तंडुलेसु वि। एगम्मि नगरे एगदिसाए बहवे देवकुला, तेसु सव्वेसु सुसीला वसंति । बहुजणा ते सव्वे अविसेसेण पूएंति । पच्छा के सु वि देवकुलेसु दुम्सीला जाया । ततो प्रामंतणे पुच्छ पयट्टा कतमे निमंतिताम ति। एगम्मि गामे एगो गोवग्गो असिवग्गहितो जानो। पुवं ततो गामाती प्राणी यासु गोणीमु नासी न्छा । पच्छा तम्मि गामे प्रसिवगहिय त्ति पुन्छ। पयट्टा । एवं साहम्मिनो वि परिक्खिउ परिभुजियव्यो । २१५२ इमा परिक्खा - साधम्मत वेधम्मत, निघरिस-भाणे कूवे य। अविणढे संभोए, सब्वे संभोइया आसी ॥२१५३।। सम,णघम्पता माहम्मता, तं णाऊणं परिभुजति । विगयधम्मो वेधम्मता, तं वेघपत्तं गाऊगं ण परिभुजति । यथा सुवणं णिग्यरिसे परिक्खिजति एवं प्रण।यसीलस्स भायणेग परिक्खिजइ। भायणस्स तलं ण घृष्ट, उवकरणं वा प्रविधीए सिवितं दीसति, तथा पालएण विहारेण इत्यादि, एवमाइएहि सीयंतो णजति । "तहेव कूवे य" ति - जहा कूवाती गाउं परिहरिया एवं एसो वि परिक्खि परिहरिजति । पुत्विं पुण "प्रविण?' पच्छद्धं ; पूर्व पासीदित्यर्थः ।।२१५३।। "सभोगपरूवणं" ति मूलदारं गतं । इदाणि सिरिघर सिव पाहुडे य संभुत्ते" ति अस्य व्याख्या - सीसो पुच्छति - कतिपुरिसजुगे एकको संभोगो प्रासीत् ? कम्मि वा पुरिसे प्रसंभोगो पयट्टो ? केव वा कारणेण ? ततो भणति - संपति-रण्णुप्पत्ती सिरिधर उजाणि हे? बोधव्वा । अज्जमहागिरि हत्थिप्पभिती जाणह विसंभोगो ॥२१५४॥ वद्धमाणसामिस्स सीसो सोहम्मो। तस्स जंबुणामा । तस्स वि पभवो । तस्स सेज्जभवो। तस्स वि सीसो जसभद्दो। जसमद्दमोसो संभूतो। संभूयस्स थूलभद्दो । थूलभदं जाव-सव्वेसि एकसंभोगो प्रासी। १ गा० २१५०। २ गा० २०७० । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २१५२-२१५४ ] पंचम उद्देशकः ३६१ थूलभद्दस्म जुगप्पहाणा दो भीसा - अजमहागिरी अज्जसुहत्थी य । अजमहागिरी जेट्ठो । अजसुहत्थी तस्म मट्ठियरो। थूलभद्दमामिणा अजसुहत्थिस्स नियमो गणो दिण्णो। तहा वि अजमहागिरी अज्जमुहत्थी य पीतिवसेण एकयो विहरति । अण्णया ते दो वि विहरता कोसंबाहारं गता । तत्थ य दुभिक्खं । ते य पायरिया वसहिवसेण पिहप्पिह ठियाण एगम्मि व सेट्टिकुले साधूहिं मोयगादि खजगविहाणं भत्तं च जावतियं लद्ध । एगो रंको तं साहुं दठ्ठ प्रोभासति । साहहिं भणियं - अम्ह पायरिया जाणगा, ण च सकेमो दाउं । सो रंको साधुपिटुतो गंतु अजसुहत्थिं प्रोभासति भत्तं । साहूहि वि सिटुं - अम्हे वि एतेण अोभासिता आसीत् । अजसुहत्थी उवउत्तो पासति - पवयणाधारो भविस्सति । भणितो - जति णिक्खमाहि । अब्भुवगतं । णिक्खंतो सामातियं कारवेत्ता जावतियं समुदाणं दिण्णं, तद्दिणरातीए चेव अजीरतो कालगयो । सो अवतसामातियो अंधकुमारपुत्तो जातो। "तस्स उप्पत्ती" - चंदगुत्तस्स पुत्तो बिंदुसारो । तस्स पुत्तो असोगो । तस्स पुत्तो कुणालो। तस्स बालत्तणे चेव उज्जेणी कुमारभुत्ती दिण्णा । ताहे वरिसे वरिसे दूो पाइलिपुत्तं असोगरण्णो पयट्टेइ ।। अण्णया असोगरष्णा चितियं - इदाणि कुमारो धणुवेइयाण कलाण जोग्गो । ततो असोगरण्णा सयमेव लेहो लिहियो - "इदाणि अधीयतां कुमारः कलाइ" त्ति लिखित ।। रणो अणाभोगेण कुमारस्स य कम्मोदएण भवियव्वयाए अगारस्स उवरि बिंदु पडिप्रो। 'केति भणंति - __ "राया लिहिउं असंवत्तियं लेहं मोत्तु वच्चाघरे पविट्ठो, एत्यंतरे य मातिसवत्तीए अणुव्वाएउ अगारस्स बिंदु कतो"। रण्णा पवागतेण प्रवायित्ता चेव संवत्तितो, बाहि रण्णा णामंकियो मुद्दियो, उज्जेणी णीतो। लेहगो वाएत्ता तुण्हिको ठितो । कुमारेण सयमेव वातियो। कुमारेण चितितं - जइ रणो एवं अभिप्पेयं पीती वा तो एवं कज्जति । अम्ह य मोरियवंसे अपडिहता आणा । णाहं प्राणं कोवेमि । सलागं तावेत्ता सयमेव अक्खीणि अंजिताणि । रण्णो जहावत्तं कहियं, अंधीकयो ता किमंधस्स रज्जेण । एगो से गामो दिण्णो। तंमि गामे - अच्छंतस्स कुणालकुमारस्स सो रंको घरे उप्पण्णो। णिवत्ते बारसाहे "संपत्ती' से णामं कतं । सो य कुणालो गंधब्वे अतीव कुसलो। ताहे सोय अणायचज्जाए याति, सामंत-भोतिय. कुलेसु गायति । अतीव जणो अक्खित्तो। असोगरण्णा सुयं, प्राणितो जवणियंतरितो गायति । १ यथाह भद्रेश्वरसूरि: कथावल्या द्वितीयखडे । www.jainelibrary.or Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-६३-६४ राया प्राउट्टो भणाति - किं देमि ? तेण भणियं - गाहा-'चंद्रगुत्त-पपुत्तो उ, बिंदुसारस्स नत्तुप्रो। असोगसिरिणो पुत्तो, अंधो जायति कागिणिं ॥ रण्णा भणियं - थोवं ते जाइतं, मंतीहि भणियं - बहुतं जातितं । कहं ? रज्ज कागिणी भण्णति । रण्णा भणियं - किं ते अंधस्स रज्जेण ? तेण भणितं-पुत्तो मे । रण्णा भणियं-संपति पुत्तो वि ते । 'अण्णे एत्थ णामकरणं भणंति - उज्जेणी से कुमारभोत्ती दिण्णा । तेण सुरट्ठविसयो अंधा दमिला य उयविया । अण्णया पायरिया पतीदिसं (?) जियपडिमं वंदिउं गतायो। तत्थ रहाणुजाणे रण्णो घरे रहो परिअंचति, संपतिरण्णा प्रोलोयणगतेण 'अज्जसुहत्थी' दिट्ठो । जातीसरणं जात । आगो पाएसु पडिअो । पच्चुट्टिओ विणोणग्रो भणति - भगव ! अहं ते कहिं दिट्ठो? सुमरह । आयरिया उवउत्ता - प्रामं दिट्ठो । तुमं मम सीसो पासि । पुत्वभवो कहितो । प्राउट्टो। धम्म पडिवण्णो। अतीव परोप्परं णेहो जायो। तत्थ य महागिरी सिरिघराययणे आवासितो। अजसुहत्थी सिवघरे आवासितो। ततो राया अभिक्खं अभिक्खं अजसुहत्थि पज्जुवासति पवयणभत्तीए अप्पणो विसए जणं - पिंडेतूणं भणाति – तुब्भे साधूणं आहारातिपायोग्गं देह । अहं भे. मोल्लं देहामि। अजसुहत्थी सीसाणुरागेण साहू गेण्हमाणे सातिजति, णो पडिसेहेति । तं अज्जमहागिरी जाणित्ता अजसुहत्थि भणाति - अज्जो ! कीस रायपिंडं पडिसेवह ? तो अज्जसुहत्थिणा भणियं -- जहा राया तहा पया, ण एस रायपिंडो। तेल्लिया तेल्लं, घयगोलिया घयं, दोसिया वत्थाई, पूइया भक्खभोज्जे देंति, एवं साहूणं सुभविहारे । अज्जमहागिरी माति त्ति काउं अज्जसुहन्थिस्स कसातितो। एस सिस्सारगुरागेण ण पडिसेहेति । ततो अज्जमहागिरी अज्जमुहत्थिं भणाति - अजप्पभिति तुम मम असंभोतियो। एवं "पाहुडं" कलह इत्यर्थः । । ततो अजसुहत्थी पच्चाउट्टो मिच्छादुकडं करेति, ण पुणो गेण्हामो । एवं भणिए संभुत्तो। एत्थ पुरिसे विसंभोगो उप्पण्णो। कारणं च भणिय । ततो अज्जमहागिरी उवउत्तो, पारण “मायाबहुला मणुय' त्ति काउ विसंभोग ठवेति ॥२१५४॥ "सिरिघर - सिव - पाहुडे य संभुत्ते" ति दारं गतं । इदाणि "दंसणे" ति दारं -- सदहणा खलु मूलं, सद्दहमागस्स होति संभोगो । णाणम्मि तदुवोगो, तहेव अविसीयणं चरणे ॥२१५॥ १ बृहत्कल्प द्वितीयोद्देशे। २ कथावल्यादौ। ३ प्रांध्र देश । ४ गा० २०६६ । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २१५५-२१५८ ] पंचम उद्देशक: ३६३ सद्दहणं देरिसणं, तं मोक्खमग्गस्स मूलं, खलु अवधारणे, सूते जे भावा पण्णत्ता उस्सग्गाववाइएहिं ववहार-णिच्छयणएहिं वा इमं वा संभोगं परूवियं सदहमाणस्स संभोगो, अण्णहा असंभोगो । दसणे त्ति गतं । इदाणि “णाणे" त्ति दारं- गाणम्मि तदुवोगो"। सुप्रणाणोवएसे उवउजति-२कि मे कडं, किं च मे किच्चसेसं, कि सक्कणिज्ज ण समायरामि, एवं णाणोवोगेणं उवउज्जमाणो संभोइनो, अन्नहा असंभोइयो, उवउज्जमाणस्स य णाणं भवति । इयाणि चरित्तं" जति चरित्तेण विसीयात उन्नयचरणो तो संभोतियो, अण्णहा विसंभोइनो मा विसंभोगो भर्भावस्सामि त्ति उज्जमति । ४. 'तवहे"-तवकारणमित्यर्थः । तवे वीरियं हावेतो विसंभोगो कज्जमाणो तहेव उज्जमति, प य इहलोगाससितं तवं करेति, णिज्जरद्वा य तवं करेंतो संभोतिगो, अन्नहा विसंभोप्रो ॥२१५५॥ विसंभोगो कि उत्तरगुणे मूलगुणे ? आयरियो भणति - उत्तरगुणे । अधवा - उत्तरगुगेसु सीयंतो संभोतियो त्ति काउं चोतिज्जति । एवं चोयणाए उत्तरगुणसंरक्खणे मूलगुणा संरक्खिया भवंति। एयस्स अत्यस्स पडिसमावणत्थं भण्णति - दंमण-णाण-चरित्ताण वडिहेउं तु एस संभोओ। तवहेउ उत्तरगुणेसु चेव सुहसारणा भवति ॥२१५६।। एवं दसण-णाण-वरित्ताण परिवुड्ढी-णिमित्तं संभोगो इच्छिति । तवहे - तववुड्डीनिमित्तं च संभोगो इच्छित्रइ। उत्तरगुणेसु य सीयंतो संभोतिगो त्ति काउं सुहसारणानो भवंति । एवं चरित्तरक्खणा कता भवति ॥२१५६॥ एतेसामण्णतरं, संभोगं जो वदेज्ज णत्थि ति । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥२१५७।। कंठा बितियपदमणप्पज्झे, वदेज्ज अविकोविदे व अप्पज्झे । जाणते वा वि पुणो, भयसा तव्यादि गच्छट्ठा ॥२१५८।। पासत्थातीहि समाणं संभोगेण णस्थि कम्मबंधो त्ति प्रणप्पज्झो भणेज्ज, सेहो वा अविकोवितो भणेज्ज, गीयत्थो वा विकोविग्रो भया भणेञ, 'तःवाती' कोति दंडियो हवेज्ज “णत्थिसं गोगवत्तिया किरिय" त्ति तम्मि पण्णवेति, तुहिक्को अच्छति, भया पुच्छिप्रो वा “प्राम" ति भणेज्ज, अप्पणो गच्छस्स व रक्खणट्टा मणेज्जा ।।२१५८॥ जे भिक्खू लाउर-पातं वा दारु-पातं वा मट्टिया-पातं वा अलं थिरं धुवं धारणिज्जं परिभिंदिय परिभिदिय परिहवेति, परिहवेतं वा सातिजति ॥सू०॥६४॥ १ गा० २०६६ । २ दश० द्वि० चू० गा० १२ । ३ गा० २०६६ । ४ गा० २०६६ । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र ६४-६७ प्रकारलोपाप्रो लाउयं दारुयं, भंदणघडियं, मट्टियामयं कुंभारघडियं, अलं पज्जत्तं, थिरं दढं, धुवं अपरिहारियं, धारणिज्जं लक्खणजुत्तं, खंडाखंडिकरणं पलिभेप्रो भण्णति, जो एवं करेति तस्स मासलहुं । जं पज्जतं तमलं, दढं थिरं अपरिहारिय धुवं तु। • लक्खणजुत्तं पायं, तं होती धारणिज्ज तु ॥२१५६।। गतार्थाः ॥२१५६॥ एतेसु चउसु पदेसु सोलस भंगा । प्रलं थिरं धुवं धारणिज्ज, एस पढमो भंगो। सेसा कायव्वा। एत्तो एगतरेणं, गुणेण सव्वेहि वा वि संजुत्तं । जे भित्तणं पादं, परिदृवे आणमादीणि ।।२१६०॥ कंठा ॥२१६०॥ भित्तुं परिवेंति। इमेसि विराहणा हवेज - अद्धाण-णिग्गयादी, झामिय सेसे व तेण पडिणीए । आय पर तदुभए वा, असती जे पाविहिति दोसा ॥२१६१।। प्रद्धाण -णिग्गता साधू प्रागया अज्झायणा, तेहि ते जातिता, पलिभिण्णादि परिदृवेति कि देंतु ? जति ण देति ताहे जे ते पाविहिति तमावज्जति । अह देंति अप्पणो हाणि । आदिसहातो असिवणिग्गता अागता। एवं मोमेण, रायदुट्ठ-गिलाणकारणेण । ___ अहवा -- तेसिं चेव झामियं उपकरणं परस्स वा उभयस्स वा सेहा वा पडुप्पण्णा भायणा सति ण पव्वावेंति, जं ते गिहारंभे काहिति तमावज्जे। ग्रहवा - अण्णेसिं संभोतियाणं सेहा उवहिता, ते भायणाणि मग्गति, जति ण देति अपणो हाणि । अहवा - तेणेहि उवकरणं अवहरियं, अप्पणो परस्स उभयस्स वा । एवं पडिणीएहि अवहितं जे दोसे पाविहिति तमावज्जे ॥२१६१॥ अद्धाण णिग्गतादी, ण य देते हाणि अप्पणो देते । गिहिभाणेसण पोरिसि, कायाण विराधणमडतो ॥२१६२।। पुवढं गतार्थ । पलिभिदिय परिदृवितेसु भायणासति जति गिहिभायणपरिभोग करेति, प्रणेसणीयं वा गेण्हति, भायणे वा गवसंतो पोरिसिभंग करेति, भायणट्ठा वा अडतो कायवि राहणं करेति ॥२१६२।। सव्वेसेतेसु पच्छित्तं वत्तव्वं । एतद्दोसपरिहरणत्थं तम्हा ण वि भिंदिज्जा, जातमजातं विगिंचते विधिणा । विस विज मंत थंडिल्ल, असती तुच्छे य बितियपदं ॥२१६३॥ विस-विज्जाति-कयं जायं, णिहोस प्रजायं, दुविहं पि जहाभिहिनं विघीए विगिचए, कारणे । भिदित्ता वि परिवेति । विसभावियं विज्जाए मंतेण वा अभियोजितं थंडिलस्स वा सति तुच्छं वा डहरयं ण तक्कज्जसाहयं, एतेहि कारणेहि भिदिउं परिट्ठवेति ॥२१६३॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २१५६-२ पंचम उद्देशक: ३६५ जे भिक्खू वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा अलं थिरं धुवं धारणिज्जं पलिच्छिदिय पलिच्छिदिय परिहवेति, परिट्ठवतं वा सातिज्जति ।।सू०६५॥ खोम्मिय कप्पासाति वत्थं, उण्णिगकप्पासाति कंबलं, रय-हरणं पायपुछणं, उवग्गहियं वा, वा, पलिखिदिय शस्त्रादिना । जे भिक्खू दंडगं वा लट्ठियं वा अवलेहणियं वा वेलु-सूई वा पलिभंजिय पलिभंजिय परिट्ठवेति, परिहवेंतं वा सातिजति ॥०॥६६॥ हत्थेहि प्रामोडणं पलिभंजणं । पायम्मि य जो उ गमो, णियमा वत्थम्मि होति सो चेव । दंडगमादीसु तहा, पुव्वे अवरम्मि य पदम्मि ॥२१६४॥ जे भिक्खू अइरेय-पमाणं रयहरणं धरेइ, धरतं वा सातिज्जति ।।सू०॥६७॥ रपो दवे भावे य । तं दुविहं पि रयं हरतीति रयोहरणं । प्रतिरेगं धरेंतस्स मासलहुं । गणणाए पमाणेण य, हीणातिरित्तं च अवचितोवचितो। झुसिरं खर-पम्हं वा, अणेगखंडं च जो धारे ॥२१६॥ सव्वेसु वि झुसिरवज्जेसु मासलहुं, मुसिरे चउलहुं, गणणाए उदु-बद्धे एग, वासासु दो, पमाणपमाणेण बत्तीसंगुलदीहं । जति हीणं एत्तो पमाणाप्रो करेति तो प्रोणमंतस्स कडिवियडणा, अपमज्जंतस्स : पाणविराहणा, अतिरित्ते अधिकरणं भारो य संचयदोसा य । अहवा - सारत्ते एगं घरेति तं हिंडंतस्स उल्लं, जति तेण उल्लेण पमज्जति तो उंडया भवंति, तारिसेण पमज्जंतस्स प्रसंजमो, अपमज्जंतो असंजतो। भारिये प्रायविराहणा । पोरप्पमाणातो जं ऊणं तं अवचियं, तम्मि भामाणविराहणा, जं पोरप्पमाणातो अतिरित्तं तं उवचियं तम्मि भारो भयपरितावणादि, अतिरिते अधिकरणं च संचपदोसा। झुसिरं कोयगणपावारगणवयगेसु प्रतिरोमधूलयं वा झुसिरं वा एतेसु संजमविराधणा । पडिलेहणा य ण सुज्झति । खरा णिसड्डा दसाप्रो जस्स तं खरपम्हं । एत्थ पमज्जणे कंथुमादिविराधणा। प्रणेगसिव्वणीहि अणेगखंडमुसिरं भवति, एत्थ वि संजमविराहणा। सिव्वंतस्स य सुत्तत्थपलिमंथो । २१६५ । जो एवं धरेति - सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं तहा दुविधं । पावइ जम्हा तम्हा, ण वि धारे हीणमइरित्तं ॥२१६६।। हीणे कज्जविवत्ती, अतिरेगे संचतो अ अधिकरणं । झुसिरादि उवरिमेसु, विराहणा संजमे होति ॥२१६७।। बत्तीसंगुलातो हीणतरं । शेषं गतार्थ ॥२१६७।। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे हीणाधिए य पोरा, भाणविवत्तीय होति भारो य । कडिवियणाय अदीहे, उण्णम उड्डाहमादीया ||२१६८|| पोरा होणं अवचियं, अहियं उवचियं हीणे भायणविवत्ती, अधिए भारो बत्तीसंगुलातो ही प्रदीहं भवति, तम्मि उणमंतस्स कडित्रियगा, प्रति श्रोणते य जलहरपलंबणे उड्डाहो ।।२१६८।। उडु-वासासु धरणे इमं पमाणं - एगं उडुबद्धम्मि, वासावासासु होति दो चेव | दंडो दसा य तस्स तु पमाणतो दोण्ह वी भइया ॥ २१६६ ॥ जति दंडो हत्थमाणो तो दसा अट्टंगुला । इह दंडाहणातो गम्मदडिया रोहरणपट्टगो वा । श्रह् ist वोलो तो दसा बारंगुला । अह दंडगो छवीसंगुलो तो दसा छ अंगुला । एवमाइ भयणा ॥ २१६६ ।। इमेरिसं धरेयव्वं - पडिपुण्ण हत्थ पूरिम, जुत्तपमाणं तु होति णायव्वं । अप्पोलम्मि तुम्हें, च एगखंडं चऽणुष्णातं ॥ २१७०॥ बत्तीसंगुलर डिपुणं बाहिरणिसज्जाए सह हत्यपूरिमं, एरिसं जुत्तरमाणं रोहरणं । पोल्लड़यं पोल्लं पोल्लं, ज्भुसि रमित्यर्थः, मउप्र दसम्मि उ पोम्हं, एगखडं च एरिसं प्रगुणातं ।। २१७० ।। भवे कारण जेण सव्वाण वि धरेज्जा - [ सूत्र - ६८-७२ चितियपदमणप्पज्झे, असइ पुव्वकय दुल्लभे चैव । सहे थुल्लेय खरे, एगस्स सती य दुगमादी || २१७१ ॥ अणप्पो सव्वाणि करे घरेति वा । अप्पज्झो वि प्रसति जहाभिहियस्स हीणातिरित्तिए करेज्ज वा, पुरुवक्तं वा हीणातिरित्तादियं दुल्लभं वा जाव लभति ताव हीणातिरित्ताए वि घरेति, असतीए सह वा भरेति, थूलं वा घरेति, खरदसं वा घरेति, एगखंडस्स वा असति दुगति- खंड धरेति ॥ २१७१ ॥ सहे करेति धुल्लं, उ गन्भयं परिहरेति तं धुल्ले । झुसिरेऽवणेति लोमे, खरं तु उल्लं पुणो मलए || २१७२॥ हे यहणपट्टतेलं गब्भयं करेति । हथूलो रहरणादृतो ताहे रयहरणगब्भयं परिहरेति । भए वा धूले तं पट्टयं परिहरेति । रोमज्भुसिरे तो रोमे श्रवणेति । ग्रह खरदसं ताहे उल्लेडं पुणो मलिज्जति ।। २१७२ ॥ जे भिक्खू सुहुमाई रयहरण- सीसाई करेति, करेंतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥६८॥ हुमा सहा, रयहरणमीसगा दसानो 1 जे भिक्खु सुहुमाई, करेज्ज स्यहरण- सीसगाई तु । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त - विराधणं पावे ||२१७३॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६७ भाष्यगाथा २१६८-२१७८ ] पंचम उद्देशक इमे दोसा - मूळेसु सम्मद्दो, झुसिरमणाइण्णदुब्बला चेव । सुहुमेसु होंति दोसा, बीतियं कासी य पुचकते ॥२१७४॥ मूढेसु सम्मद्ददोसो, भुसिरदोसो, साधूहि प्रणाइयो, दुब्बला य भवंति । बितियपदं प्रणप्पज्झाइ पुबकते वा ।।२१७४॥ जे भिक्खू रयहरणं कंडूसग-बंधेणं बंधति, बंधतं वा सातिज्जति ॥सू०॥६६॥ कंडूसगबंधो णाम जाहे रयहरणं तिभागपएसे खोमिएण उण्णिएण वा चोरेणं वेढियं भवति ताहे उणियदोरेण तिपासियं करेति, तं चीरं कंडूसगपट्टप्रो भण्णति । कंडूसगबंधेणं, तज्जइतरेण जो उ रयहरणं । बंधति कंड्रसो पुण, पट्टउ आणादिणो दोसा ॥२१७॥ वाणाइगो दोसा मासलहुं च ॥२१७५।। इमे य दो दोसा - अतिरेगउवधिअधि करणमेव सज्झाय-माण-पलिमंथो । कंड्सगबंधम्मी, दोसा लोभे पसज्जणता ॥२१७६॥ अतिरेगोवहि निरुवनोगतायो य अधिकरणं, तस्स सिञ्चणधोवणा बंधण - मुयणेहि सुत्तत्थपलिमयो, य पसंगो, णटे हिय-विस्सरिएहिं य अधिती भवति ॥२१७६।। वितियपदमणप्पज्झे, असतीए दुबले य पडिपुण्णे । एतेहिं कारणेहिं, संबद्धं कप्पती काउं ॥२१७७।। एगम्मि पएमे दुब्बलं, ताहे पडिसडिं करेंति, अपडिपुण्णं वा तेण वेढेत्ता हत्थपूरिमं करेंति । एतेहि कारणेहिं तथैव थिग्गलकारेणं संबद्धं करेति, जेण एगपडिलेहणा भवति ।:२१७७।। जे भिक्खू रयहरणं अविहीए बंधति, बंधतं वा सातिज्जति ॥१०॥७॥ अवसव्वादि अविधिबंधो। जे भिक्खू रयहरणं एक्कं बंधं देति देंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥७१॥ एगबंधो एगपासियं । जे भिक्खू रयहरणस्स परं तिण्हं बंधाणं देइ, देंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥७२।। तिपासितातो परं चउपासियादि । प्राणादिगो य दोसा । बहुबंधणे सज्झायझाणे य पलिमयो य भवति । एतेसिं तिण्ह वि सुत्ताण इमो अत्थो। तिण्हुवरि बंधाणं, डंड-तिभागस्स हे? उवरि वा। दोरेण असरिसेण व संतरं बंधणाणादी ॥२१७८॥ Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ सभाप्य चूर्णिके निशीथमूत्रे [ सूत्र - ७३–७५ दंडतिभागस्स जति ट्टा बंधति, उवरि वा बंधति असरिसेण वा दोरेण प्रतज्जाइएण बंधतो वा मंतर दोरं करेति तो प्राणातिया दोसा, सव्वेसु मासलहु ||२२७८ ॥ जम्हा एते दोसा अण्णासति तज्जातियस्स ।। २१८० ॥ तम्हा तिपामियं खलु, दंडतिभागे उ सरिसदोरेणं । रहरणं बंधेज्जा, पदाहिण णिरंतरं भिक्खू || २१७६|| चितियपद मणप्पज्झे, बंधे अविकोविते व अप्पज्झे । जाणते वा वि पुणो, मती अण्णस्स दोरस्सा ||२१८०|| जे भिक्खू रयहरणं अणिसङ्कं धरेति, धरेतं वा सातिज्जति ||सू०||७३ || सि णाम तत्करेहिं प्रदिष्णं तस्स मासलहु प्राणादिणो य दोसा | णिज्जुत्ती इमा - दव्वे खेत्ते काले, भावे य चउव्विधं तु अणिसङ्कं । बितिय विय आएसी, जं ण वि दिष्णं गुरुजणेणं ॥ २१८१ पंचतिरित्तं दव्वे उ, अच्चितं दुल्लभं च दोसुं तु । भावम्मि वन्नमोल्ला, अणणुण्णायं व जं गुरुणा ||२१८२|| दवतो पंचहं इरितं उग्गियं उट्टियं सण वच्चय मुंज- पिच्चं वा । एतेन पंचहं परतो णागुणातं, “दोलु” खेत्त-क: लेसु जं प्रच्चित्तं दुल्लभं वा तं गागुष्णातं, भावतो जं वण्णड्ढं, महद्वण-मोल्लं तं णो तित्थकरेहि सिटुं ण दत्तमित्यर्थः । व, ग्रहवा बितिश्रो आएमो - जं गुरुजणेण नो प्रणुन्नायं तं प्रणिसिहं ।। २१८२ ।। एते सामण्णतरं, रयहरणं जो धज्ज णिसङ्कं । आणाति विराहणया, संजम मुच्छा य तेणादी || २१८३ || - - महद्धणे वण्णड्ढे वा मुच्छा भवति । रागो रागेण सं जमविराधणा, तेणातिएहिं वा हरिज्जति ।। २१८३ ।। चितियपद मणप्पज्झे, धरेज्ज अविकोविते व अप्पज्झे । जाणते वा असती, धरेज्ज असिवा दिवेगागी || २१८४ ॥ श्रसिवेण एगागी जातो । तेण कस्स गिवेएउ ? गुरू णत्थि । एवं प्रणिसट्टं पि घरेज्ज ।। २१८४॥ जे भिक्खू रोहरणं वोसङ्कं धरेड, धरंतं वा सातिज्जति ||४०||७४ || आउग्गहखेत्ताओ, परेण जं तं तु होति वोस । आरेणमवोस, बोस वरेंत आणादी || २१८५|| Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २१७६-२१६१ ] पंचम उद्देशक: ३६६ वोसटुं णाम प्राउग्गहातो परेण । जं पुण प्रातोगहे वट्टति तं प्रवोसटुं । प्रायपमाणं खेतं आयोग्गहे । इह पुण रयोहरणं पडुच्च समंततो हत्यो, हत्याप्रो परं ण पावति त्ति वोसर्दू भण्णति ॥२१८५॥ वोस?-धरणे इमे दोसा - मूइंगमाति-खइते, अपमजते तु ता विराधेति । सप्पे व विच्छुगे वा, जा गेण्हति खइए आताए ॥२१८६॥ मूइंगा पिपीलिता एताहि खतितो, आदिसहातो मक्कोडगातिणा । जति अपमज्जिउं रयोहरणेण कंडूयति तो विराहेति । रयहरणं अपावेतो वा सहसा कडूयति तो विराहेति । प्रारुट्ठो सप्पो विच्छुगो वा प्रागतो जाव रयहरणं गेण्हति ताव खइनो मतो, प्रायविराहणा ॥२१८६।। बितियपदमणप्पज्झे, धोतुल्ल-गिलाण-संभमेगतरे । असिवादी परलिंगे, वोसटुं पी घरज्जाहि ॥२१८७|| अणप्पज्झो धरेति, धोवं वा जाव उच्चादि, नइसंतरणे वा उल्लं, गिलाणो गिलाणपडियारगो । उव्वत्तणाइ करतो, अगणि पंभमे वा धरतो, असिवादिकारणेण वा परलिंगं गहियं । एतेहि कारणेहि टुंपि धरेज्ज ॥२१८७॥ मुहपोत्ति-णिज्जाए, एसेव गमो उ होइ णायव्यो । वोसट्टमयोसट्ट, पुव्वे अवरम्मि य पदम्मि ।।२१८८॥ मुहपोत्तियणिज्जाए एसेव गमो वासट्ठावोसट्टेसु पुत्वावरपतेसु ।।२१८८।। जे भिक्खू रोहरणं अभिक्खणं अभिक्खणं अधिट्ठति, अधिटुंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥७॥ अधिट्ट णाम जं गिसेज्जवेटिए नेव उवविसणं, एवं अहिटणं, मासलहु, प्राणादिया य दोसा । तिण्हं तु विकप्पाणं, अण्णतराएण जो अधिटेज्जा । पाउंछणगं भिक्खू, सो पावति प्राणमादीणि ॥२१८६।। इमे तिण्णि विकप्पा - दोहि वि णिसिज्जणाह, एक्केण व वितिओ ततिय पादेहिं । अहवा मग्गतो एक्को, दोहि वि पासेहि दोणि भवे ॥२१६०॥ मिसेज्जणा पुता भण्गति, तेहि दोहि वि उवविसति, एकको विकप्पो। एगेण वा बितिम्रो विकप्पो। दोसु पायपण्हियाम् अक्कमति । ततिग्रो विकप्पो । ___ अहवा- मगतो ति पिटुतो अक्कमति । एगो विकप्पो । दोसु पासेसु पुतोरूएसु अक्कमति । एते दो विकप्पा। एते वा तिष्णि ।।२१६०।। बितियपदमणप्पज्झे, अधिटे अविकोक्तेि व अप्पज्झे । जाणते वा वि पुणो, मसग-तेणातिमादीसु ॥२१६१॥ ४ Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ७६-७७ मूसगेण वा कुट्टिज्जति तेणगेसु वा हरिज्जति, प्रादिसदातो चेडरूवाणि वा हरेज्जा, पडिणीप्रो . वा तेण अधिट्ठज्ज ॥ २१६१॥ 1 जे भिक्खु रहरणं उस्सीस-मूले ठवेति ठवेंतं वा सातिज्जति | | ० || ७६ ॥ जे भिक्खु रयहरणं तुट्टेइ, तुयतं वा सातिज्जति तं सेवमाणे वज्जति मासितं परिहारट्ठाणं उग्वाइयं || सू०||७७ || ३७० तं सेवमाणे श्रावज्जति मासितं परिहारट्ठाणं उग्वाइयं । सीसस्स समीवं उवसीसं वकारलोपात् तत्स्थानवाची मूलशब्दः । सीसस्स वा उक्खंभणं उसीसं ट्ठवणं णिक्खेवो सुत्तपडिसेधितं सेवमाणे श्रावज्जतिपावति, परिहरणं परिहारो, चिट्ठति जम्मि तं ठाणं, लहुगमिति उग्घातियं । जे भिक्खू तुयते, रयहरणं सीसते ठवेज्जा हि । पुरतो व मग्गतो वा, वामगपासे णिसण्णो वा । २१६२ || स्वग्वर्तनं तुयट्टणं शयनमित्यर्थः, वामपासे, दाहिणपासे वा उवरिहुत्तदसं, पादमूले वा ठवेति केवलं णिसण्णो, णिसण्णो वा पुरम्रो मग्गओ वा वामपासे ठवेति ॥ २१६२ ॥ सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त - विराधणं तहा दुविधं । पावति जम्हा तेणं, दाहिणपासम्मि तं कुज्जा ||२१६३|| तम्हा विष्णो सिणो वा दाहिणपासे अधोदसं करेज्जा ।। २९६३ ॥ वितियपदमणप्पज्झे, करेज्ज अविकोविते व अप्पज्झे । वास सति मूसग तेणगमादीसु जाणमवि || २१६४|| ॥ इति विसेस - णिसीहचुण्णीए पंचमो उद्देस समत्तो ॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठ उद्देशक: पंचमउद्दे साम्रो छुट्टस्स इमो संबंधो उस्सीसंग - गहणेणं, निसि सुवणं निसि समुब्भवो मोहो । गुरुलहुगा चउ मासा, वृत्ता चउमासिया इणमो || २१६५ ॥ 1 पंचमस्स अंतिमे सुत्ते उस्सीसग्गहणं कतं, तेण रति सुवणं वक्खायं, रातो सुव्वति, दिवसतो कप्पति सुविउं । रातो य समुब्भवो मोहो भवति । तेण य उदिण्णेण कोइ मेहुणपडियाए माउग्गामं विष्णवेज । एस संबंधो । ग्रहवा - इमो ग्रण्णो सबंधो आइल्लएसु पंचसु उद्देसएसु गुरु लहु मासो भणितो, इयाणि चउम्मासिया गुरुलहुगा भष्णंति ॥ २१५। - जे भिक्खु माउग्गामं मेहुणपडियाए विष्णवेति, विष्णवेतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१॥ मातिसमाणो गामो मातुगामो । मरहट्ठविसयभासाए वा इत्थी माउग्गामो भणति । मिहुणभावो मेहुणं मिथुनकर्म वा मेहुनं श्रब्रह्ममित्यर्थः । मिथुनभावप्रतिपत्तिः । पडिया मैथुनसेवनप्रतिज्ञेत्यर्थः । विज्ञापना प्रार्थना । अधवा - तद्भावसेवनं विज्ञापना, इह तु प्रार्थना परिगृह्यते । सुत्तत्थो । प्रधुना - निर्युक्तिविस्तरः मारगामो तिविहो, दिव्वो माणुस्सतो तिरिक्खो अ । एक्क्को वि यदुविहो, देहजुतो चेव पडिमजु ॥ २१६६ ॥ सो मातुग्गामो तिविधो- दिव्वो माणुस्सतो तिरिच्छो । पुणो एक्केक्को दुविधो कज्जति - देहजुतो, लेप्पगादि पडिमा जुत्तो य ।।२१६६ ॥ देहजुतो वि यदुविहो, सज्जीवो तह य चेव णिज्जीवो । सणिहितमसणिहितो, दुविधो पडिमाजुतो होति ॥ २१६७ || Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१ देहं सरीरमित्यर्थः । देहजुतो पुण दुविधो- सचेयणो अचेयणो य । पडिमाजुतोवि दुविधो कजति - सन्निहियो असन्निहियो य ॥२१६७।। एस दिव्वभेतो भणितो । माणुस-तिरिच्छएसु एस चेव भेदो भाणियव्यो। दिव्वे अचित्तदेहजुते इमं भण्णति : पण्णवणामेत्तमिदं, जं देहजुतं अचेतणं दिव्यं । तं पुण जीव-विमुक्कं, भिज्जति स तधा जह य दीवो ॥२१६८॥ यस्मादचित्तं देवशरीरं नास्ति, तस्मात् प्रज्ञापना मात्रं । तं पुण इमेण कारणेण नत्थि – जीवविमुक्कमेत्तमेव स तहा भिजति, प्रदीपशिखावत् ।।२१६८।। एक्केक्को वि य तिविधो, जहण्णो मज्झिमो य उक्कोसो। परिगहियमपरिगहिरो, एक्केक्को सो भवे दुविहो ॥२१६६॥ सो माउग्गामो दिव्वातियो एक्केको तिविधो - जहण्णमज्झिमुक्कोसो । वाणमंतरं जहणं, भवणजोइसिया मज्झिम, वेमाणियं उककोसं । माणुमेसु पायावच्चं जहणं, कोडुंबियं मज्झिम, दंडियं उक्कोसं। तिरिएसु जहणे अय-एलगादि । मज्झिम व लवा - महासद्दियादि, उक्कोसं गो-महिसादि । एककेक्कं पुणो सपरिमहापरिग्गहभेएणं दुविहं कज्नति ।।२१६६॥ सपरिग्गह पुणो तिविधं इमेहि कज्जति - पायावच्च कुटुंबिय, दंडियपरिग्गहो भवे तिविधो । तविवरीओ य पुणो, णातन्वऽपरिग्गहो होति ।।२२००। एतेहि तिहिं परिग्गहिय ग परिग्गहं, एयव्यतिरित्त अपरिग्गहं ॥२२००।। एवं तियभेदपरूवियस्स मा उग्गामस्स विण्णवणा दुविहा - दिट्ठमदिट्ठा य पुणो, विण्णवणा तस्स होइ दुविहा उ । ओभासणयाए या, तब्भावासवणाए य ॥२२०१॥ विणवणा दुविधा । प्रोभासणता प्रार्थनता, मथुनासेवनं तद्भावासेवनं ॥२२०१।। इयाणि एतेसि भेयाणं प्रोभासणाए तब्भावासेबनाए य पच्छित्तं भण्णति । तत्थ पढमं तब्भावामेवणाए भण्णति - मासगुरुगादि छल्लह, जहण्णए मज्झिमे य उक्कोसे । अपरिग्गहितचित्ते, दिवादिट्ठ य देहजुते ।।२२०२॥ दिव्वे देहजुत्ते अचिने अपरिगहं जहणणयं अदि₹ सेवति मासगुरु । दिद्वे का। एयम्मि चेव मज्झिमए प्रदिह्र ङ्क । दिढे था। एयम्मि उक्कोसए अदिह्र श्रा। दिढे । एयं अपरिग्गहं गयं ॥२२०२।। इयाणि एतं चेव अचित्तं पायावच्चपरिग्गहं भण्णति - चउलहुगादी मूलं, जहण्णगादिम्मि होति अच्चित्ते । तिविहे अपरिग्गहिते, दिट्ठादितु य देहजुते ॥२२०३।। Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७३ भाष्यगाथा २१९८-२२०७] . षष्ठ उद्देशक: ३७३ दिव्वे देहजुते प्रचित्ते पायावच्चपरिग्गहे जहण्णए अदिढे छ । दिद्वे का। एयम्मि चेव मज्झिमए अदितु इ । दिढे । एतम्मि चेव उक्कोसए प्रदिट्टे दिलै फर्की । कोडुबिए चउगुरुगातो आढतं अड्डोक्कंतीए छेते ठाति । दंडिय - पडिग्गहे छल्लहुयातो माढतं अड्ढोक्कंतीए मूले ठाति । गतं अचित्तं ॥२२०३।। इयाणि सचित्तं भण्णति - चतुगुरुगादी छेदो जहण्णए मज्झिमे य उक्कोसे । अपरिग्गहिते देहे, दिट्ठादितु य सच्चित्ते ॥२२०४॥ दिव्वे देहजुते सचित्ते अपरिग्गहे जहण्णए प्रदिटे ड्रा । दिद्वे फ, एयम्मि चेव मज्झिमए अदितु फ। दिद्वे फ्री । एयम्मि चेव उक्कोसए अदिढे आ । दिढे छेतो । दिव्वं सचित्तं अपरिग्गहं गतं ॥२२०५।। इयाणिं सपरिग्गह छल्लहुगादी चरिमं, जहण्णगादिम्मि होति सच्चित्ते । तिविहे ति-परिग्गहिते, दिट्ठादिढे य देहजुते ॥२२०५॥ दिव्वं देहजुत्तं सचित्तं पायावच्चपरिग्गहं जहण्णयं अदिढे । दिट्टे फ्रम । एयम्मि चेव मज्झिमे अदितु छेतो । दिद्वे मूलं । कोडंबियपरिग्गहे छग्गुरुगातो अणवढे ठायति । दंडियपरग्गहे छेयाति पारंचिए ठायति ।।२२०५॥ दिव्वं देहजुयं गतं । इयाणि पडिमाजुतं भण्णति । तथिमो अतिदेसो - सण्णिहितं जह स-जियं, अच्चित्तं जह तथा असण्णिहितं । पडिमाजुतं तु दिव्वं, माणुस तेरिच्छि एमेव ।।२२०६।। जहा दिव्वं देहजुयं सचित्तं भणियं सणिहियं पडिमाजुयं वत्तव्वं । जहा दिव्वं देहजुत्तं प्रचित्तं भणिय, तहा प्रसण्णिहियं पडिमा जुत्तं वत्तव्वं । दिव्वं गतं । इयाणि माणुसं तिरिक्खजोणियं च भण्णति । ते वि अविसिट्ठा एवं चेव भाणियन्वा ॥२२०६।। णवरं-इमो विसेसो पच्छित्तं दोहि गुरु, दिव्वे गुरुगं तवेण माणुस्से। तेरिच्छे दोहि लहू, तवारिहं विण्णवंतस्स ॥२२०७॥ जे दिवे तवारिहा ते दोहिं वि तवकालेहिं गुरुगा। माणुस्से जे तवारिहा ते तवगुरुगा। तेरिच्छे जे तवारिहा ते कालगुरु । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र अहवा - दोहिं वि तवकालेहिं लहुगा । तब्भावासेवविण्णवणाए एवं पच्छित्तं वुत्तं । अहवा - इमो अण्णो तन्मावासेवणपायच्छित्तदाणविगप्पो । तिष्णि पया तेरिच्छा ठावेयव्वा-दिव्व-मणुय-तिरिया । तेसिमहो दो पता ठावेयब्वा- देहजुत्तं, पडिमाजुयं च । तेसि पि ग्रहो तिणि पया ठावेयवा-जहण मज्झिम मुक्कोसं च । तेसिमधो तिणि पया ठावेयब्वा-पायाइय - कोडुबिय-दंडियसपरिग्गहा । तेसिमहो दो पया ठावेयव्या-अचित्तं, सचित्तं च । तेसिमहो दो पया ठावेयवा - अदिलृ दिटुं च ॥२२०७॥ एवं ठाविएसु इमा गाहा पढियव्वा - अयमण्णो उ विगप्पो, तिविहे तिपरिग्गहम्मि णायव्वो । सजिएयर पडिमजुए, दिव्वे माणुस्स तिरिए य ॥२२०८॥ "तिविह" त्ति - जहण्णादिया तिपरिग्गहिया पायातिया तिया सजीयं-सचेयणं, इयरं च अचेयणं । पडिमाजुतं सम्णिहियं असणिहियं च । दिव्वादियं च तिविहं, चसद्दामो दिटुं अदिटुं ॥२२०८॥ एतेसिं अहो इमे सत्त पायच्छित्तपया ठावेयव्वा - चत्तारि छच्च लहुगुरु, छम्मासिश्रो छेरो लहुगगुरुगो य । मूलं जहण्णगम्मि वि, णिसेवमाणस्स पच्छित्तं ॥२२०६॥ चउलहुगं चउगुरु छल्लहु छग्गुरुं छल्लहुछेदो छग्गुरुछेदो मूलं च । एते अढोक्कतीए चारेयव्वा । इमो चारणियप्पगारोदिव्वे देहजुते जहण्णए पायावच्चपरिग्गहे अचित्ते प्रदिट्टे डू। दिदै था। दिव्वे देहजुते जहण्णए पायावच्चपरिग्गहे सचित्ते अदिढे ड्वा । दिढे । दिव्वे देहजुते जहण्णए कोडुबियपरिग्गहे अचित्ते प्रदिढे । दिट्टे फ्री । दिव्वे देहजुते जहण्णए कोडुबियपरिग्गहे सचित्ते अदिढे फ्री । दिढे छल्लहुछेदो । दिव्वे देहजुते जहण्णए दंडियपरिग्गहे अचित्ते अदिटुं । दिढे । (छग्गुरुछेदो) दिव्वे देहजुते जहण्णए दंडियपरिग्गहे सचित्ते अदिटे छग्गुरुछेदो, दिढे मूलं ॥२२०६।। एयं जहण्णाते तब्भावविण्णवणाए' य भणियं। इयाणि मज्झिमे - चउगुरुग छच्च लहु गुरु, छम्मासिय छेदो लहुग गुरुगो य । मूलं अणवट्ठप्पो, मज्झिमए सेवमाणस्स ॥२२१०॥ एसेव चारणियप्पगारो, णवरं-चउगुरुगा पारद्धं प्रणवढे ठायति ॥२२१०॥ १ सेवणाए। Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा २२०८-२२१७ ] षष्ठ उद्देशकः इयाणि उक्कोसं - तव छेदो लहु गुरुगा, छमासिउ मूलसेवमाणस्स । अणवटुप्पो पारंचिो य उक्कोसविण्णवणे ॥२२११॥ तवगहणालो छल्लहु छग्गुरुगा। छेयग्गहणातो छल्लहुछेदो, छग्गुरुछेदो। सेसं गंथपसिद्ध। एत्थ छल्लहु पाढत्तं पारंचिए ठाति । देहजुत्तं गतं ।।२२११॥ इमं पडिमाजुयं - सण्णिहियं जह सजियं, अच्चित्तं जह तहा असण्णिहियं । पडिमाजुयं तु दिव्वं, माणुस तेरिच्छि एमेव ॥२२१२।। पच्छित्तं दोहि गुरु, दिव्वे गुरुगं तवेण माणुस्से । तेरिच्छे दोहि लहु, तवारिहं विण्णवेतस्स ॥२२१३॥ पूर्ववत् । एते पच्छित्ता दिव्वे दोहिं गुरू, मणुस्से तवगुरू, तेरिच्छे कालगुरू । अहवा-दोहिं लहु । अहवा - मणुस-तिरिएसु इमो अण्णो विकप्पो। अहवा - जं भणियं तं दिल्वे चेव ॥२११३॥. इयाणि माणुस - तिरिएसु भण्णति । तत्थ वि इमं मणुएसु - - चउगुरुगा छग्गुरुगा, छेदो मूलं जहण्णए होंति । छग्गुरुगा छेदो, मूलं अणवट्ठप्पो य मज्जिमए ॥२२१४॥ माणुस्सं जहण्णं पायावच्चपरिग्गहं अदिटुं सेवति का। दिढे म । कोडुबिए अदितु सेवति । दिद्वे छेदो। दंडिए प्रदिट्टे सेवति छेदो, दिद्वे मूलं । एवं जहण्णए । मज्झिमे पच्छद्धं - छग्गुरुग आढत्तं अणवढे ठाति ॥२२१४।। इमं उक्कोसे छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य होति पारंची। एवं दिट्ठमदिट्टे, माणुस्से विष्णवेतस्स ॥२२१५।। छेयातो पाढतं पारंचिए ठाति ॥२२१५॥ माणुसं गयं । इयाणि तिरियाणं . चउलहुगा चउगुरुगा, छेदो मूलं जहण्णए होति । चउगुरु छेदो मूलं, अणवठ्ठप्पो य मज्झिमए ॥२२१६॥ छेदो मूलं च तहा, अणवठ्ठप्पो य होति पारंची। एवं दिट्ठमदिढे, तेरिच्छं विण्णवेतस्स ॥२२१७॥ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-१ जहा माणुसे चारणा तहा एयम्मि दट्ठव्वं ।।२२१७॥ मेहुणभावो तब्भावसेवणे सेवगस्स पच्छित्तं । वुत्तं वोच्छामेत्तो, अोभासेंतस्स पच्छित्तं ॥२२१८॥ मेहुणसेवणं तद्भावसेवणा, ताए पच्छित्तं भणियं । अहवा - इमो अण्णो तद्भावसेवणे पच्छितविकप्पो। मासगुरु चउगुरुगा, दो चतुगुरुगा य लहुय लहुया य । दो चतुलहुगा य तहा, दिव्वे माणुस्स तेरिच्छे ॥२२१६॥ अविसेसिते देहसंजुत्ते प्रचित्ते अपरिग्गहे अदिटे मासगुरु । दिद्वे चउगुरु प्रविसेसिते देहसंजुत्ते सचित्ते अविसेसियपरिग्गहे अदितु चउगुरुं । दिटे वि चउगुरु । मविसेसिते देहजुते अपरिग्गहे अचित्ते अदितु मासलहुँ। दिढे चउलहुँ । अविसे सिते देहजुते अचित्ते अविसेस - परिग्गहे अदिढे चउलहुँ । दिठे वि चउलहु । दिव्व-माणुस-तिरिएसु प्रविसेसियं भणियं ॥२२१६॥ एवं देहजुयं गयं । इमं पडिमाजुयं - सण्णिहियं जह सजियं, अञ्चित्तं जह तहा असण्णिहियं । पडिमाजुयं तु दिव्वं, माणुस तेरिच्छि एमेव ॥२२२०॥ पच्छित्तं दोहि गुरु, दिव्वे गुरुगं तवे माणुस्से । तेरिच्छे दोहि लहू, तवारिहं विण्णवेतस्स ॥२२२१॥ पूर्ववत् ॥२२२२॥ तब्भावसेवणो ततिग्रो विकप्पो गयो । "वोच्छामेत्तो प्रोभासंतस्स पच्छित्तं" ति अस्य व्याख्या - अंविसेसितमद्दिढे, गुरुगो दिढे य होति गुरुगा उ । दिव्यनरअदिट्ट गुरुगो, दिढे गुरुगा य दोहिं पि ॥२२२२।। दिव्व-मणुय-तिरियविसेसेणं अविसेसियं प्रोभासति अदिट्टे मासगुरु । दिढे चउगुरुगा। इयाणि - विसेसियं दिटुं अदिटुं प्रोभासति । (देवेसु मदिळे) मासगुरु), नरेसु (अदि8) प्रोभासति मासगुरु । एवं चेव दोहिं वि दिलैस चउगुरुगा ॥२२२२।। तिरियमचेतसचेते, गुरुओ अदिढे दिडे चउलहुगा। अोभासंतस्सेवं, तब्भावासेवणे वुत्तं ॥२२२३॥ १ गा०२२१८। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७७ भाष्यगाथा २१०८-२२१६] षष्ठ उद्देशकः तिरिएषु चेयणे प्रचेयणे वा प्रदिढे प्रोभासति मासगुरु। दोसु वि दिद्वेसु घउलहुगा। एयं प्रोभासेंतस्स वुत्तं । तब्भावासेवणे पुणः पुरा वुत्तं ।। सीसो पुच्छति - सचित्ते प्रोभासणं भवति, अचित्ते प्रोभासणा कहं संभवति ? पायरियो आह - प्रचित्ते संकप्पकरणा चेव प्रोभासणा ॥२२२३॥ एतेसामण्णतरं, माउग्गामं तु जो उ विष्णवए। सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥२२२४॥ पूर्ववत् ।।२२२४।। पडिमाजुत्तं जं सण्णि हियं तं दुविधं - पता, भद्दा वा । सण्णिहिय-भद्दियासु, पडिबंधो गिण्हणादिओ दोसा । पंतासु लग्गकडण, खित्ताती दिट्ठ पत्थारो ॥२२२५॥ पडिमाजुते सणिहिते भद्दिया इथिविन्भमे करेज, ताहे तत्येव से पडिबंधो भवेज्ज । एस प्रदिठे दोसो। प्रह केणति दिट्ठो ताहे उड्डाहो गेण्हण - कड्ढणादग्रो दोसा । पंतासु इमे प्रदि8 दोसा पंता -पडिसेवंतं तत्येव लगेज्ज, श्वानवत् । अह केणइ दिट्ठो ताहे गेण्हणादयो दोसा । अहवा - सा पंता खित्तातियं करेज्जा । दिट्टे पत्थारदोसे य। पत्यारो णाम एयस्त गत्यि दोसो, अपरिक्खय-दिक्खगस्स (प्रह) दोसो, ॥२२२५॥ एते सण्णिहिते दोसा वुत्ता । इमे असणिहिते - एमेव असण्णिहिते, लग्गण-खेत्तादिया गवरि णत्थि । तत्थेव य पडिबंधो, दिढे गहणादिया उभए।।२२२६॥ दिढे गेण्हणादिया दोसा असगिहिए वि भवंति। "उभए" ति अप्पणो परस्स य प्रायरियादीणं ॥२२२६॥ सुत्तणिवातो एत्थं, चउगुरुगा जेसु होति ठाणेसु । उच्चारितऽत्थ सरिसा, सेसा तु विकोवणट्ठाए ॥२२२७॥ वितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झ वा वि दुविह तेइच्छे । अभियोग असिव दुभिक्खमादिर जा जहिं जयणा ॥२२२८।। अणप्पज्झो विष्णवेज्जा वि ण य पच्छित्तं पावेजा। अप्पज्झो वा दुविधे तेइच्छे करेज्जा-सणिमित्ते अणिमिते वा मोहोदए तिगिच्छा ॥२२२८॥ तथिमा जयणा मोहोदय अणुवसमे, कहणे अकहेंत होंति गुरुगा उ । कहितोपेहा गुरुगा, जं काहिति जं च पाविहिती ॥२२२६॥ ४८ . Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथ सूत्रे [ सूत्र - १ साहुस मोहे उदिणें प्रणुवसमंते प्रायरिस्स कहेयव्वं । जइ प्रायरियस्स न कहेति तो साहुस्स गुरु पच्छितं । ग्रह कहिते प्रायरियो उवेहं करेति तो प्रायरियस्स चउगुरुगा, उवेहकरणे जं सो मोहोदया हत्थकम्माति काहिति तं सव्वं प्रायरियस्स पच्छितं जं च गेण्हणादियं उड्डाहं पाविहिति तं पियरि पावति ।।२२२६ ॥ ३७८ पाडयं तम्हा रिएण दुविध - मोहोदए तेइच्छं गिव्विगतिमाति कारवेयध्वं । णिव्वितियं करेउ । तह विण द्विते णिव्वीतियं निब्बलं श्राहारेइ । तह विश्रमं श्रयंबिलाति उद्धट्टागाइयं पि प्रतिक्कतो ताहे प्रट्टाणेसु ठायति, दुवक्खरियं दुविधेतेगिच्छम्मी, णिच्चीइतियमादियं अतिक्कतो । सद्दहत्थे, पच्छाऽचित्ते गणे दोच्चं ॥ २२३०॥ तह वि ते सद्दपडिबद्धं गच्छति । तह व वि ते सागारिए हत्थकम्मं करेइ | तह विचित् इत्थीसरीरे बीयनिसग्गं करेइ | - तह वि श्रते "गणे दोच्च" त्ति पिट्टितो गणस्स दो भगेण कढिपडिमेवति । एस अक्खरत्थो || २२३०॥ याणि एती चैव गाहाए सवित्थरो ग्रत्थो भण्णनि उवभुत्त-थेरसद्धि, सदजुता वमहि तह वि उठते । अच्चित्त- तिरिय - णारिसु, गारिं णिच्वेगलक्खेजा || २२३१ ।। १. अट्ठाण सद्दे " त्ति अस्य व्याख्या - सुनभोगियो जे थेरा तेहि सद्धि दुवक्खरियातिपाडगे सद्दपडिबद्धाए यठायति, जति णाम प्रालिगणोत्रगूहग- चुंबणेत्थिंसद् परिचारणसद्द वा सोउं बीयनिसगो भवेत् ! २" पच्छा ग्रचित्ते" ति ग्रस्य व्याख्या - "अचित्त" पच्छद्धं । तह विप्रचिते तिरिय - गारी सरीरं पडिवति तिणि वारा । तह व माणुसीए प्रचित्तसरीरे तं पुण जड गिब्वंगं तो खयं करेइ मा वेयालो हि त्ति । तत्थ वि तिणि वारा ||२२३१॥ तह कि अहंते "गणे दोच्चं" ति दोच्चग्गहोणं बितिम्रो भंगो गहितो | बितियभंगग्गहणालो चत्तारि भंगा सूतिता । ते य इमे - सलिंगेण सलिंगे । सलिंगेश अण्णलिंगे । ऋणलिंगेण सलिंगे । अणलिंगेण प्रणालिंगे । सलिंगट्टिते लिंगे सेवियध्वं । 1 गा० २२३० । २ गा० २२३० ww Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २२३०-२२३६] षष्ठ उद्देशकः तं पुण इमाए जयणाए लिंगेण चेत्र किढिया, दियासु जा तिणि तेण परमूलं । तत्तो चउत्थभंगे, सेंसा भंगा पडिक्कुट्ठा ॥२२३२॥ सलिंगेण परलिंगे सेवमाणो गणाम्रो उपमुत्तथैरेहिं सदि अण्णवसहीए ठाविग्जति । तत्थंधकारे किरि-सड्ढोए मेलिज्जति, जहा अण्णोणं ण पस्संति । एवं तिष्णि वारा । जति उवसंतं सुदरं । उवसंतस्स पउगुर। तिण्हं वाराणं परतो परिसेवमाणस्स मूलं । तह वि अटुंतो ततो चउत्थ भंगे सेवति, तत्य वि तिणि वारा, परतो मूलं । सेना पढम-ततियभंगा पडिक्ट्ठा ॥२२३२।। पढमभंगे इमा भवति - सद्देसे सिस्सिणि सज्झऽतेवासिणी कुल-गणे य संघे य । कुलकण्णगा कुलवधू, विधवा य तहा सलिंगेणं ॥२२३३।। सदेसे परदेसे वा सिस्सिणी पडिसेवति, सज्झिवियं पडिसेवति, अंतेवासिणी पडिच्छिमा । अहवा - सझंतिगस्स अंतेवासिणी भर्तृज्जिकेत्यर्थः, कुले चियं, गणे चियं, संधे चियं वा सेवति । बितियभंगेण इमा जइ पडिसेवति - पितृमातृविशुद्धा कुलकन्यां अभिण्णजोणी जति तं पडिसेवति, विगतषवं वा रंड, कुलवधू वा पडिसवति सलिंगेण ॥२२३३॥ ऐत्थ भंगेसु इमं पच्छित्तं - लिंगम्मि य चउभंगो, पढमे भंगम्मि होति चरिमपदं । मूलं चउत्थभंगे. बितिए ततिए य भयणा तु २२३४॥ सलिंग परलिंगेहिं चउमंगो। तत्य पढमभंगे पडिसेवंतस्स णियमा चरिमपदं । चरिमे णियमा मूलं । बितिय ततियभंगेसु भयणा पच्छितं ।।२२३४॥ बितियभंगे इमा भयणा -- अण्णत्थ सलिंगेणं, कन्नागमणम्मि होति चरिमपदं । विहवाए होति णवभ, अविहवणारी य मूलं तु ॥२२३५।। 'अण्णत्थ'' ति - अण्णलिंगिणी, सलिंगेण पडिसेवति । कण्णं चरिम, विहवाए प्रणवट्ठो, प्र-विधवाए मूलं ॥२२३५॥ अहवा - बितियभंगे चेव इमं पच्छित्तं । अधवा पायावच्ची, कोडंबिणि दंडिणी य लिंगेणं । मूलं अणवठ्ठप्पो, चरमपदं पावती कमसो ॥२२३६।। पायावच्चीए मूलं, कोडंबिणोए प्रणवटुं, डंडिणीए चरिमं ॥२२३६।। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१ ततियभंगे इमा भयणा अण्णेण सलिंगम्मि य, सिस्सिणी सझंतिगी कुले चरिमं । णवमं गणिच्चियाए, संघच्चीए भवे मूलं ॥२२३७॥ अण्णलिंगेण सलिगि गडिसेवति । सिस्सिणि सज्जतिया, सिस्सिणि कुलेच्चिया, एतेसु चरिमं, गणेच्चियाते अणवट्ठो, संघेच्चियाए मूलं ॥२२३७॥ बितियभंगपडिसेवणाए अणुवसंतो चरिमभंगेण पडिसेवति । तथिमा जयणा - गंतूण परविदेस, लिंगविवेगेण सढि किढिगासु । पुन्वभणिया य दोसा, परिहरियव्या पयत्तेणं ॥२२३८॥ जम्मविहारभूमीमो वज्जेउं परविदेसं गंतूण सलिगं मोत्तं किढि-सड्ढिगातिएसु एक-दो-तिष्णिवारा, परतो मूलं । पुज्वभणिया य इमे-कण्णा कूलवधू विधवा अमच्ची रणो महादेवी पयत्तेणं परिहरियब्वा ॥२२३८॥ सेसासु पडिसेवंतो इमं जयणं करेइ - जोणी बीए य तहि, चउक्कमयणा उ तत्थ कायव्वा । एग दुग तिणि वारे, सुद्धस्स उ वड़िता गुरुगा ॥२२३६॥ इत्थीए जाव पणपन्नं वासा ण पूरेति ताव अमिलायजोणी, प्रत्तव्वं भवति, गर्भ च गृहातीत्यर्थः पणपन्नवासाए पुण कस्सइ अतव्व भवति, ण पुण गम्भं गेहति । पणपण्णाते परतो णो अत्तव्वं, णो गन्भं गेहति, एसा दुस्सम वाससतायुए य पडुच्च पण्णवणा परतो पुण पाउसद्धं सवाउय-वीसति-भाग-सहियं एसा अमिलायजोगी प्रातवं भवति । कालो- जाव - पुरु कोडीयायुया परतः सकृत् प्रसवर्धामण्यः प्रमिलाणयोनयश्च अवस्थितयौवनत्वात् । जस्स पणपण्णवासा ण पूरंति तस्सिमो चउभंगो - सबीयाए अंतो बीयं परिसाडेति, सबीयाए बाहिं, प्रवीयाए अंतो, अबीयाए बाहि । पणपण्णपूरवासाए एस चेव चउभंगो । एत्य बीयगहणातो अत्तवदिणा घेप्पंति ॥२२३६।। एतेसु भंगेसु इमं पच्छित्तं - सबीयम्मि अंतो मूलं, बाहिर-पडिसाडणे भवे छेदो। पणपण्णिगाइ अंतो, छेदो बाहिं तु छग्गुरुगा ॥२२४०॥ पणपण्णवरिसा जस्स ण पूरंति ताए तिसु अत्तवदिणेसु तारिसाए सबीयाए अंतो बीयपोग्गले परिसाडेति मूलं । ग्रह बाहिं तो छेतो। पणपण्णपूरवरिसाए सबीयाए अंतो छेतो। बहिं छग्गुरुगा ॥२२४०।। अण्णे भणंति - छेदो छग्गुरु अहवा, दसण्ह अंतो बहिं व आरेणं । पणपण्णायपरेणं, छग्गुरु चउगुरुग अंतो बहिं ॥२२४१॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २२२५-२२३८] षष्ठ उद्देशकः ३८१ उड्डु-संभवदिणाओ-जाव-दसदिणा ण पूरेंति-ताव अंतो छेतो, बाहिं छग्गुरु । "पारेणं" ति - पणाणवामियाए पारेण य एवं भणियं । सेससवभंगेसु पणपण्णाए य परतो छप्पण्णादिवरिसेसु अंतो छग्गुरुगा, बाहिं च उगुरु । एवं सणिमित्ते अणिमित्ते वा पडिसेवंतस्स एसा जयणा ॥२२४१।। तेइच्छं ति दारं गतं । इयाणि "अभियोगे" त्ति दारं - कुलवंसम्मि पहीणे, रज्जं अकुमारगं परो पेल्ले । तं कीरतु पक्खेवी, एत्थ उ बुद्धीए पाहण्णं ॥२२४२।। अभिप्रोगे ण पडिसेवेज्जा । तत्थिमं उयाहरणं - कोइ प्रपुत्तो राया प्रमच्चेहि भणिप्रो प्रपुत्तस्स तुज्झ कुलवंसे पहीणे प्रकुमारस्स य परोपेल्लेहिति रज्ज, कि कज्जउ, भणह-"तुझ बुद्धीए पाहण्णं वट्टति ।" मंतीहि भणियं अंतपुरे कोई खिपउ, तुह खेत्तज्जायया तुह ते पुत्ता । राया भणइ-प्रयसो मे भविस्सति.। ते भणति "जहा अयसो ण भवति तहा कज्जति । इमे समणा णिग्गंधा ण कहंति, एते पविखप्पंतु । एवं कीरउ । ताहे जे तरुणसंजता ते गहिया एक्कम्मि पासाए छूढा ॥२२४२।। तरुणीण य पक्खेवो, भोगेहि निमंतणा य भिक्खुस्स । भोत्तुं अणिच्छमाणे, मरणं व तहिं च वसियस्स ॥२२४३।। सुठुल्लसिते भीते, पच्चक्खाणे पडिच्छ गच्छ थेर विद् । मूलं छेदो छग्गुरु, चउगुरु लहुमासो गुरु लहुश्री ॥२२४४॥ 'पेढे पूर्ववत् ॥२२३४॥ एवं ता अहियोगेण पडिसेवंतस्स जयणा भणिया। " असिव-दुब्भिक्खादिसु" इमा बहुआइण्णे इतरेसु, गेण्हमाणाण दुल्लमे भिक्खे । असिवम्मि इमा जतणा, भिक्खे चेव संथरणे ॥२२४५॥ "इतरेसु" पासत्याइसु बहुया इण्णे एसणाणेसणेहि गिहनेसु, साहण एमणिज्जे दुल्लभे, मसिवे वा भसंधरतो, दुभिक्खे का प्रसंथरंतो, ॥२२३५॥ असिव दुभिक्खाणमणागयकाले प्रारियाण इमा सामायारी - लहुगो य होइ मासो, दुन्भिाव-विसजणम्मि साहूणं । णेहाणुरागरत्तो, खुड्डो वि य णेच्छती गंतुं ॥२२४६॥ भिक्ख पि य परिहायति, भोगेहि णिमंतणा य भिक्खुस्स । गेहति एगंतरिते, लहुगा गुरुगा य चउमासा ॥२२४७|| पडिसेवंतस्स तहिं, छम्मासा होति छेद मूलं च । प्रणवठ्ठप्पो पारंचिो य पुच्छा यतिविधम्मि ।।२२४८|| *पेढे पूर्ववत् । णवरं - तिविहं-दिव्वं माणुस्सं तेरिच्छ सगिमित्ताणिमित्तोदया ॥२२४८।। १ गा० २२२६ । २ गा० ३६६ । ३ गा० २२२६ । ४ ग' ३ २, ३७४, ३ ५। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे जे भिक्खू माउग्गामस्स मेदुणवडियाए हत्थकम्मं करेइ, करेंतं वा सातिज्जति ||म् ||२|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं कट्ठेण वा किलिंचेण वा अंगुलिया वा सलागाए वा संचालेह, संचालें तं वा सातिज्जति | | ० ||३|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संबा वालिम वा सातिज्जति | | ० ||४॥ [ सूत्र२-१ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए श्रंगादाणं तेल्लेण वा घरण वा वसा वा णवणीएण वा अब्भंगेज्ज वा मक्खेज वा अभंगतं वा मक्तं वा सातिज्जति | | ० || ५॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं कक्केण वा लोद्वेण वा पउमचुण्णेण वा पहाणेण वा सिणाणेण वा चुण्णेहिं वा वण्णेहिं वा उव्वट्टेइ वा परिवढे वा उव्वट्टेत्तं वा परिव्वतं वा सातिज्जति | | ० ||६ ॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं सीओदग-वियडेण वा उसिणोदग - वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलें तं वा पधोएंतं वा सातिज्जति | | ० ||७| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं णिच्छल्लेइ, पिच्छल्लेतं वा सातिज्जति ॥सू०||८|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवंडियाए अंगादाणं जिग्घर, जिग्वंतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥ ६ ॥ जे भिक्खु माउगामस्स मेहुणवडियाए अंगादाणं अन्नगरंसि अचित्तंसि सोयंसि पत्ता सुक्कपोग्गले निग्वायर, निग्घातं वा सातिज्जति ||०||१०|| मागामो पुत्रवप्रो, तं पाउणामं हिग्रए ठवेउं, "मम एसा प्रविरतिम" त्ति काउं एवं हियए franऊण, आत्मनो हस्तकर्म करेति । हस्तकर्म पूर्वं वर्णितं चउगुरु पच्छित्तं । ग्रहवा "जे" त्ति शिसे, भिक्खू पुत्रवणितो, माउग्गामो वि पुव्ववष्णिश्रो तस्स माउग्गाageतिय हस्तकर्म करोति, गंगुल्यादिना घट्टयतीत्यर्थः अंगादाणं । Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २२४६-२२५४ ] षष्ठ उद्देशक: ३०३ मातुग्गामं हियए, णिवेसइत्ताण हत्थकम्मादी । जे भिक्खू कुज्जाही, तं मेहुणसण्णितं होति ॥२२४६॥ हत्याइ-जाव-सोतं, पढमुद्देसम्मि जो गमो भणितो। मेहणं पडियाए, छमुद्देसम्मि सो चेव ॥२२५०॥ इह पुण माउग्गामं हियए काउ करेति तेण च उगुरुगं । तं चैव बितियपदं, सच्चेवं "अट्ठाणसद्दहत्यादिया जाव गणे दोच्च" ति । जे भिक्खू माउग्गामं मेहुणवडियाए अवाउडि सयं कुज्जा करेंतं वा ( सयं बूया, बूएतं वा) सातिज्जति ॥सू०॥११॥ भिवस्खू य माउणामो य पुत्रवणितो । जो तं सयमेन अवाउडि करेति । अहवा - सयं चेत्र बूया इच्छामि ते "प्रज्ज" ति पार्ये ! अचेलभावो, अचेलीया अपावृता इत्यर्थः, अंगादाणं पुववणितं, पासित्तए प्रेक्षितुमिच्छे का ।। जे कुज्जा व्या वा, माउग्गामं तु मेहुणहाए । इच्छामो ते अज्जे, अचेलियं दद्रुमाणादी ॥२२५१॥ मथुनेच्छया प्राणादिया दोसा भवंति । परेण य दिढे संका भोइयघाडियातिया दोसा ।।२२५१।। अहवा णातग कहण पदोसे, सयं दठूण गेण्हणादीया । आसुग्गहणं कीवे, अंगादाणं तु मा पेहे ॥२२५२।। सा कुविया णायग-भोतिगादीण कहेज्ज, ते पदोसं गच्छेज्जा, पट्ठा जं काहिति तमावज्जे । अहवा - ताहे अंगादाणे दातिते सो सयमेव गहणं करेज्जा । तत्थ गेण्हण-कड्ढणातिया दोसा ।। होवो य प्रासु पडिसेवणं करेज्ज । एत्थ वि गहणपदोसातिया दोसा ।। अहवा - ताए दाट्यं ण पुण पडिसेवणं देति त हे सो चिताए ढांमच्छति । जम्हा एते दोसा तम्हा अंगादाणाणि णो पेहे ।।२२५२।। कि चान्यत् - अहभावदरिमणम्मि वि, दोसा किमु जो तदडिओ पेहे । अहियं तं बंभवी, सूरालोगो व चक्खुस्स ॥२२५३॥ ग्रहाभावो - अधाप्रवृत्ति, महाभावेण वि दिटुं मोहृदयं भवति, किमु जो मेहुणठी पेहति । तस्स पलोगणं वभचारिणो अहियं भवति जहा चक्खुम्स मुरालायणं ॥२२५३॥ वितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झे वा वि दुविध तेइच्छे । अभियोग असिव दुभिक्खमादिम जा जहिं जतणा ॥२२५४॥* प्रथ. . .२२२६ २२३०, २२३१ सख्याकाः गाथाः पुनः पठनीयाः) Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ सभाष्य-चूणिके निशीथमूत्र [मूत्र १२-१३ भगेज वा करेज वा, पढम ता भणाति, जति गोच्छति ताहे प्रवर्गति वि, अभिप्रोगेण वि बला प्रवणाविज्जति ॥२२४४॥ मोहोदयअणुवसमे, कहणा अकति होति गुरुगा य । कहितापेहा गुरुया, जं काहिति जं च पाविहिति ॥२२५॥ दुविधे तेइच्छम्मी, निव्वीतियमाइयं अतिक्ते । अट्ठाण सद्द हत्थे, पच्छा चित्तं गण दोच्चं ॥२२५६॥ जे भिकाव माउग्गामम्स मेहणवडियाए कलहं कुज्जा, कलहं बूया, कलहवडियाए बूया, कलहवडियाए गच्छइ, गच्छंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१२॥ मेहगट्टी कुचोमसिरातिपहि पंतावेति, जारिम वा कामातुरो उल्लवति तारिस चेव बूया, एतेसि चेव दसणवडियाए वही ग्रो माधीग्रो वाडगाग्रो गामाग्रो वा बाहिं गच्छति । जत्थेस कामकलहो संभवति । तस्स च गुरु । विसयकलहेतरं वा, मातुगामस्स मेहुणहाए । जो कुज्जा बूया वा, बहिया गच्छेज्ज आणादी ।।२२५७॥ कलहो दुविहो-विमयकलहो इतो य । इतरो गाम कसायकलहो । शेषं गतार्थ ।२२५७।। इमो विसयकलहो - कारण व वायाए, वामपत्ताए विसयकलहो तु । . चंडिक्कितं व पासं, इतरो पुण तीय असहीहि ।।२२५८॥ वामो कामस्तत्प्रवृत्तिः जा पंतावकिरिया सो कायकलहो । जं कामातुरो थी पुरुसो वा उल्लवति सो वायकल हो। रुट्ठा चंडिकिता, तं चंडिकित कसातियं पासिऊग साहू तस्साराहगणिमित्तं तीसे विपक्ोहि मह जं कलहेति, एस "इयरो" कसायकलहेत्यर्थः । ताहे सा पाराहिया पडिसेवणं पयच्छेज्ज ।।२२५८।। इमे दोसा - पडिपक्खो तु पदुट्टो, छोभग्गहणादि अहव पंतावे । अण्णेसि पि अवण्णो, णिच्छुभणादी य दियराओ ।।२२५६।। तीसे पडिपक्खो सणाइया इयरे वा ते पट्ठा संजयस्स छोभगं देज्ज - णू गं तुम एयस्स भाणुमस्स कज्ज करेसि, गेहण कगादिए अ दोसे पावेज्ज । अहवा - ते पडिपक्खा तं संनयं पाउसेज्ज वा हणेज्न वा बघेज्ज वा मारेज वा, ते पट्ठा अगसाधूग वि - प्रवणं वएज्ज, पातोसादियं वा करेज्ज । गामवसही प्रो वा णिच्छुभेज्जा, दिया । रातो था॥२२५६॥ वितियपदभणप्पज्झे, अप्पज्झे वा विविध तेइच्छे । अभियोग असिव दृभि क्खमादिम जा जहिं जतणा ॥२२६० !! Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा २२४५-२२६७१ षष्ठ उद्देशकः ३८५ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए लेहं लिहति, लेहं लिहावति, लेहवडियाए वा गच्छति, गच्छंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१३॥ मप्पणो भावं लिहिउं मेहुणट्ठाए तस्स पट्ठवेति । अण्णेण वि लिहावेति । लिहणढाए वा बहि गच्छति'। चउगुरु। लेहो दुविधो - छण्णेतरं च लेहो, माउग्गामस्स मेहुणहाए । जे लेहति लेहावति, बहिया गच्छे व आणादी ॥२२६१॥ छण्णो अप्पगासो, इयरो पगडो य ।।२२६१।। तत्थ छण्णो इमो तिविहो - लिवि भासा अत्थेण व, छण्णो इतरो लिवीउ जा जहियं । उत्ताणत्थो सभासा, गतो य अप्याहितं वा वि ॥२२६२॥ - लिवी जा दोहि मिलिउ उपाइया । अधवा - दविडमाई जा जम्मि देसे णस्थि । अणारया तासा छण्णा । अत्थो - जं अप्पई ताभिहाणेण लिहितं वा ववहियं वा। "इयरो" अच्छण्णो - जा बहिं सरइ लिवी ताए लिहइ। उत्ताणटुं सभासए वा लिहइ, वाइयं वा फुडवियडत्थं संदिसइ पुरिसो इमं लहिउँ पट्टवेइ प्रत्थतोऽववहितं ॥२२६२॥ काले सिहि-णंदिकरे, मेहनिरुद्धम्मि अंबरतलम्मि । मित-मधुर-मंजुभासिणि, ते धन्ना जे पियासहिता.॥२२६३।। पयपढमक्खरा विष्णवेंति । इत्यी पडिलेहं पयच्छइ - कोमुति णिसा य पवरा, वारियवामा य दुद्धरो मयणो । ग्हंति य सरयगुणा, तीसे य समागमो णत्थि ॥२२६४॥ पढमपायमवखरेहि पडिवयणं । इमो वि इत्थिलेहो - एवं पाउसकाले, वरिसारत्ते य वासितुं मेहा । होउं णिब्भरभारा, तुरियं संपत्थिया सरदे ॥२२६॥ इहावि पादपढमक्ख रेहिं मायभावपण्णवणं । तुह दंसण-संजणिो , हियए चिंतिजमाण विलसंतो। वग्गति य मे अणंगो, सोगुल्लोगेसु अंगेसु ॥२२६६॥ लिक्खंत-णिज्जमाणे, अप्पिज्जंते कहिज्जमाणे वा । दोसा होति अणेगा, लिहग-णिवेदंत-णिताणं ॥२२६७॥ ४९ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १४-१८ लिक्खतो केण दिट्ठो तत्थं गेण्हणातिया दोसा । एवं णिज्जतो अंतरा केण ति दिट्ठो, गहितो वा, श्रप्पिज्जतो भोतिगादिणा, संदेसो वा कहेज्जतो सुतो केणइ । पच्छद्धं गतार्थम् ||२२६७॥ बितियदमणप्पज्झे, अप्पज्झे वा वि दुविध तेइच्छे । ३८६ अभियोग सति दुब्भक्खमादिस जा जहिं जतणा ||२२६८ || पूर्ववत् ।।२२६८ ।। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पोसंतं वा पिट्ठतं वा भल्लायएण उप्पाएंति, उप्पाएतं वा सातिज्जति | | तेन सेव्यमानेन पुष्यत इति पोषः, प्रात्मानं वा तेन पोषयतीति पोषः, तदर्थनो वा तं पोषयतीति पोषः मृगी पदमित्यर्थः । तस्य अंतानि पोषतानि । पिट्ठिए तं पिट्ठतं प्रपानद्वारमित्यर्थः । तस्यांतानि पिट्ठतानि । उत् प्राबल्येन पावयति उप्पाएति । जो एवं करेति तस्स चउगुरुं । भल्लायगमादीसुं, पोसंते वा वि व पिट्ठते । जे भिक्खू उप्पाए, मेहुणट्टाए प्राणादी || २२६६।। प्रादिसहातो चित्रकमूलादिना प्राणादिया य दोसा ||२२६६ ॥ किं णिमित्तं सोतं उप्पाएति ? 1 सो साहु तीए गाए पडिणीयतेण, "अण्णे" त्ति जे तस्स गीता संघाडयो वा तस्स पडिणीययाए. • प्रायतिहेउं एस ममायत्ता जं भणीहामि तं कज्जिता करिस्सति, दंसणकोउएणं वा उप्पक्कं ममेयं दंसेहित्ति काउं । संघाडस्स प्रचियत्तता । ताहे साहुं पुच्छति कथं मम संघाडगस्स चियत्ता भवेज्जामि अधवा ताहे सो भणाति अहं ते एरिसं जोगियालेवं देमि, जेग भोइगस्स चियत्ता भविस्ससि । अहवा तस्सा तम्मि देसे किचि दुक्खति ताहे पुच्छितो भणति – इमेण श्रसहेण लिपाहि ताहे पउसिसि ।। २२७०॥ इमे दोसा - पडिणीयता य अण्णे, आयतिहेतुं व कोउएणं वा । चीयत्ता य भविस्ससि, पउणिस्ससि ता इमेणं तु ॥ २२७० || - दिट्ठा व भोइएणं, सिट्ठे णीया व जं सि काहंति । परितावणा व वेज्जे, तुवरे लेवट्ठता काया ॥२२७१।। सोतं वा ० || १४ || तं परिभोगकाले भोतिएण दिट्ठे पुच्छिया किमेयं ? कहियं संजएण मे एयं कथं । एगतरपम्रोसं गच्छे । जं ते पंतावणादि करिस्संति तमावज्जे, सावज्जं प्रभागाढातिवेयणं वा पावति त संजयस्स पच्छितं । उद्धारणाए मूलं । वेज्जा वा जं किरियं करेंता तुवरट्ठया लेवट्ट्या वा काए ववरोवेज्ज, एत्थ वि संजयस्स कायणिफणं ॥२२७१॥ संजणवा लेवे उवदिट्ठे श्रागम्म कहेज्जा - उप्पक्कमे गत्तं, पेच्छामु ण जा से कीरती किरिया । ते च्चिय दोसा दिट्ठे, अंगादाण पासणे जे तु ।। २२७२॥ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा २२६८-२२७७ ] षष्ठ उद्देशक: ३८७ ताए भणियं उप्पक मे गत्तं पेच्छासो जा से किरिया किज्जति, ते चेव सव्वे दोसा जे अंगायाणपामणसुते वुत्ता ॥२२१२।। बितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झे वा वि दुविध तेइच्छे ।। अभिोग असति दुभिक्खमादिसू जा जहिं जतणा ॥२२७३॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पोसंतं वा पिटुंतं वा सोतं वा भल्लायएण उप्पाएत्ता सीओदग-वियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोल्लेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१५॥ सीतोदग वियडेणं, पासते वा वि अहव पिटुंते । जे भिक्खू पाहित्ता, उच्छोले प्राणमादीणि ॥२२७४॥ बितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झे वा वि दुषिध तेइच्छे । अभियोग असति दुभिक्खमादिसू जा जहिं जतणा ॥२२७शा जे भिक्खू माउग मस्स मेहुणवडियाए पोसंतं वा पिटुंतं वा सोतं वा उच्छोलेत्ता पधोएत्ता अन्नयरेणं अालेवणजाएणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा, आलिंपेतं वा विलितं वा सातिज्जति ॥२०॥१६॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पोसंतं वा पिटुंतं वा सोतं वा उच्छोलेना पधोएत्ता आलिंपत्ता विलियेत्ता तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा, अभंगंतं वा मक्खेंतं वा सातिज्जति ॥२०॥१७॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए पोसंतं वा पिट्ठतं वा सोतं वा उच्छोलेत्ता पधोएत्ता आलिंपेत्ता विलिंपेत्ता अभंगेत्ता मक्खेत्ता अन्नयरेण धूवण-जाएण धूवेज्ज वा पधूवेज्ज वा, धूर्वतं वा पधूतं वा सातिज्जति ॥१०॥१८॥ सीतोदे जो उ गमो, णियमा सो चेव तेल्लमादीसु । गंधादीएसु तहा, पुव्वे अवरम्मि य पदम्मि ॥२२७६।। सीतोदगेण देसे सब्वे फासुगाफासुगेण उप्पिलावणाइया य दोसा, घोयं तेल्लाइणा मक्खेयव्वं, एत्य वे ते चेव दिट्ठाइया लोद्धादिणा वा सुगंधदव्वेण, प्राउकाइयादिविराहणा ॥२२७६॥ बितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झ वा वि दुविध तेइच्छे । अभिोग असती दुभिक्खमादीसु जा जहिं जतणा ॥२२७७।। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ समाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [गूत्र २१-३६ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए कसिणाई वत्थाइ धरह धरतं वा सातिज्जति । जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडिराए अहयाई वत्थाई धरेइ, धरेंतं वा सातिज्जति । जे भिक्खू माउग्गामसस्स मेहुणवडियाए धोव-रत्ताइं वत्थाई धरेइ धरतं वा सातिज्जति । जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडिवयाए चित्ताई वत्थाई धरेइ धरेतं वा सातिज्जति । जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए विचित्ताई वत्थाई घरेइ धरेतं वा सातिज्जति । ॥२०॥१६॥ ॥२०॥२०॥ ॥०॥२१॥ ॥०॥२२॥ ॥०॥२३॥ महयं णाम तंतुग्गत्तं, परिभोगत्तेण धरणं । अहवा - धारणं प्रपरिभोगत्तणेणं, तेसिं दाहामि ति घरेति । पाणादिणा मलस्स फेडणं धोयं । ते मलिणा धरेति, घरं अणुभट्टाएत्ता संकगिजो भविस्सामि एवं प्रायभावियासु धरेति । अहवा- सो चेव मलिणो धरेति । वरं म एयानो अत्तट्टभावितानो मलिणवासस्स वीसंभं एंति । चित्तं णाम एगतरवण्णुज्जलं । विचित्तं णाम दोहि तिहिं वा गन्धेहि वा उज्जलं; सम्वेसु चउगुरुगं माणादिया य दोसा । अह जे य धोयमइले, रत्ते चित्ते तथा विचित्ते य । मेहुण्ण-परिण्णाए, एताइ धरेंति आणादी ॥२२७८॥ मइले अणुभडहेत, आतद्वित भावितासु वा वहती। आत-पर-मोहउदयट्ठयाए सेसाण दाहामो वा ॥२२७६।। वहति णाम परिभोगं करेति । सेसा तंतुगयाइया मइल मोत्तुं प्राय-पर-मोहुदयट्ठयाए वहइ। तेसि वा दाहिति घरेति ति । जति देति जं तापो काहिति कम्मबंधप्पसंगो य दट्टब्यो। अहवा – देतो दिट्ठो करणं अणुवघीते ॥२२७६।। वितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झे वा वि दुविध तेइच्छे । अभिोग असति दुभिक्खादिसू जा जहिं जतणा ॥२२८०॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो पाए आमजेज वा पमजेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिजति ।मु०॥२४॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो पाए संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संबाहेंतं वा पलिमद्दतं वा सातिज्जति ।।सू०॥२॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो पाए तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज वा भिलिंगेज्ज वा, मक्वंतं वा भिलिंगेतं वा सातिज्जति ॥२०॥२६॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २२७८ ] षष्ठ उद्देशकः ३८६ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो पाए लोग ेण वा कक्केण वा उल्लोल्लेज्ज वा उव्वट्टेज्ज वा उल्लोलतं वा उव्वट्टेतं वा सातिज्जति | | ० ||२७|| जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो पाए सीदग विगडेण वा उसिणोदग - वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलें तं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥ सू० ||२८|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अपणो पाए फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुमेतं वा रतं वा सातिज्जति ||०||२६|| ** * जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो कार्य आमज्जेज्ज वा पमज्जेञ्ज वा श्रमज्जतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ||सू०||३०|| जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो कार्य संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा संबात वा पलिमदेतं वा सातिज्जति ||सू०||३१|| ग जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणी कार्य तेल्लेण वा घरण वा वसा वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज वा, मक्तं वा मिलितं वा सातिज्जति ||सू०||३२|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेणवडियाए अप्पणो कार्य लोद्वेण वा कक्केण वा उल्लोल्लेज्ज वा उब्वट्टेज्ज वा, उल्लोलेंतं वा उच्चतं वा सातिज्जति | | ० ||३३|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो कार्य सीखोदग-वियडेण व उसिणोदग - वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा 'उच्छोलें या पधोतं वा सातिज्जति || ० ||३४|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणी कायं फुमेज्ज वा रएज्ज बा, फुतं वा रतं वा सातिज्जति | | ० ||३५|| ** * * जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणी कार्यसि वर्ण आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा श्रामज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति || || ३६ || 7 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० सभाष्य- चूर्णिके निशोधसूत्रे [ सूत्र ३७-५३ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए गप्पणो कार्यसि वर्ण संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, संत्रातं वा पलिमद्दतं वा सातिज्जति ||०||३७|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो कार्यसि वणं तेल्लेण वा घण वा बसाए वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा मिलिंगेज्ज वा मक्खतं वा भिलिंगेंतं वा सातिज्जति ॥ | सू०||३८|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अपणो कार्यसि वर्ण लोद्रेण वा कक्केण वा उल्लोल्लेज्ज वा उब्बट्टेज्ज वा उल्लोलेंतं वा उव्वद्वेतं वा सातिज्जति ||सू०||३६|| जे भिक्खू माउरगामस्स मेहुणवडियाए अप्पणी कार्यसि वर्ण सीओदग-वियडेण वा उसिणोद्ग - वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोतं वा सातिज्जति | | ० ||४०|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो कार्यसि वणं फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुमेंतं वा रतं वा सातिज्जति ||०||४१ ॥ जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणी कार्यसि गंड वा पिलगं वा अरइयं वा सियं वा भगंदलं वा अण्णगरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिदेज्ज वा विच्छिदेज्ज वा अच्छि दंतं वा विच्छि दंतं वा सातिज्जति । सू०||४२ ॥ | जे भिक्खू माउम्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो कार्यसि गंड वा पिजगं वा इयं वा सिवा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं च्छिदित्ता विच्छिदित्ता पूर्व वा सोणियं वा नीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, नोहरेंतं वा विसोर्हेतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥ ४३ ॥ जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अपणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा सियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजांएणं अच्छिदित्ता विच्छिदित्ता नीहरिता विसोहेत्ता सीओदग वियडेण वा उसिणोदग - वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पथोएज्ज वा उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति || मू०||४४|| जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो कार्यसि गंड वा पिलगं वा अरइयं वा सिवा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २२७८ । षष्ठ उद्देशक: ३६१ अच्छिदित्ता विच्छिदित्ता नीहरित्ता विसोहेत्ता उच्छोलेत्ता पधोएता अन्नयरेणं आलेवणजाएणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा, आलितं वा विलितं वा सातिज्जति ।।सू०॥४॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिदित्ता विच्छिदित्ता नीहरित्ता विसोहेत्ता उच्छोलेत्ता पधोएत्ता आलिंपत्ता विलिंपत्ता तेल्लेण वा घएण वा वसाए दा णवणीएण वा अभंगेज्ज वा मक्खज्ज वा,अभंगेंतं वा मक्खेंतं वा सातिज्जति॥४६॥ जे भिक्खू माउरगामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो कायंसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिकखणं सत्थजाएणं अच्छिदित्ता निच्छिदित्ता नीहरित्ता विसोहेत्ता उच्छोलेत्ता पधोएत्ता आलिंपेत्ता विलिपेत्ता अभंगेत्ता मस्खेत्ता अन्नयरेणं धूवणजाएण धूवेज्ज वा पधूवेज्ज वा, धूवेतं वा पधवेतं वा सातिज्जति ।।सू०॥४७॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो पालुकिमियं वा कुच्छिकिमियं वा अंगुलीए निवेसिय निवेसिय नीहरइ, नीहरतं वा सातिज्जति ॥सू०॥४८॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो दीहाओ नहसीहाओ कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥४६॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो दीहाई जंघ-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥५०॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो कक्ख-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥५१।। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो मंसु-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेतं वा सातिज्जति ।।सू०॥५२।। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो वत्थि-रोमाई कप्पेज्ज वा ___ संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठवेनं आ सातिज्जति ॥सू०॥५३।। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ सभाष्य-चूणि के निशीयसूत्रे [ सूत्र ५४-७६ जे मिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो चक्खु-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥५४॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो दंते आघसेज्ज वा पघंसेज्ज वा. अाघसंतं वा पसंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥५५॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो दंते उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥५६।। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो दंते मेज्ज वा रएज्ज वा, . फूमतं वा रएंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥५७।। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो उद्धे आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जतं वा पमज्जतं वा सातिज्जति ।।सू०।।५८|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो उठे संबाहेज वा पलिमद्देज्ज वा, संवाहेंतं वा पलिमदेंतं वा सातिजति ।।सू०।।५६।। जे भिक्खू माउग्गामस्स महुणवडियाए अप्पणो उढे तेल्लेण वा घएण वा क्साए वा णवणीएण वा मक्खेज वा भिलिंगेज वा मक्खेंतं वा भिलिंगेंतं वा सातिजति ॥०॥६०॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो उढे लोद्धेण वा कक्केण वा उल्लो ल्लेज वा उबट्टेज्ज वा,उल्लोलेंतं वा उवट्टेतं वा सातिजति।।सू०॥६१॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो उट्टे सीअोदग-वियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज वा पधोएज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिजति ॥सू०॥६२॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो उढे फूमेज वा रएज्ज वा, फुमेंतं वा रएंतं वा सातिज्जति ॥५०॥६३।। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो दीहाई उत्तरोडाई अच्छिपत्ताई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिजति।।मु०॥६॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २२८०] षष्ठ उद्देशक: जे भिक्खू माउग्गामम्स मेहुणवडियाए अप्पणो दीहाई अच्छिपत्ताई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति।।मु०॥६५।। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो अच्छीणि आमज्जेज्ज वा, पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥६६।। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो अच्छीणि संबाहेज्ज वा, पलिमद्देज्ज वा, संबाहेंतं या पलिमहतं वा सातिज्जति ।।सू०॥६७॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो अच्छीणि तेल्लेण वा धएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा, मक्खेंतं वा भिलिंगेतं वा सातिज्जति ॥सू०॥६८॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो अच्छीणि लोद्धेण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उव्वद्वेज्ज वा, उल्लोलेंतं वा उव्वटुंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥६६।। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो अच्छीणि सीओदग-वियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥०॥७०॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो अच्छीणि फुमेज्ज वा रएज्ज वा. फुतं वा रएंनं वा सातिज्जति ।।सू०॥७१।। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो दीहाई भुमग-रोमाइं कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥सू०७२।। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो दीहाई पास-रोमाई कप्पेज्ज वा . संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ।।सू०||७३।। जे भिक्खू माउग्गामरस मेहुणवडियाए अप्पणो अच्छि-मलं वा कण्ण-मलं का दंत-मलं वा नह-मलं वा नीहरेज्ज वा पिसोहेज्ज वा, नीहरेंतं वा विसोहेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥७४॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अप्पणो कायाओ सेयं वा जल्लं वा पंकं वा मलं वा नीहरेज वा विसोहेज्ज वा, नीहरतं वा विसोहेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥७॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए गामाणुगामं दूइज्जमाणे सीस-दुवारियं करेइ, करेंतं वा सातिज्जति सू०॥७६।। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [सूत्र ७७ मलिणो रयगुडितो, अचवखुस्सो वा अणिद्वच्छवी वा अफुडियहत्थपादो इत्यीणं अकामणिजो पाठप. मजणाती करेति, वरं इत्थीणं कमणिजो भविस्सामी ति, चउगुरु माणादिया य दोसा । पादे पमज्जणादी, सीसदुवारादि जो गमो ततिए । मेहुण्ण-परिणाए, छठ्ठद्देसम्मि सो चेव ॥२२८१॥ बितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झ वा वि दुविध तेइच्छे । अभियोग असति दुभिक्खमादिसू जा जहिं जतणा ॥२२८२॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए खीरं वा दहिं वा नवणीयं वा सप्पिं वा गुलं वा खंडं वा सक्करं वा मच्छंडियं वा अन्नयरं वा पणीयं । आहारं आहारेइ; आहारतं वा सातिञ्जति, तं सेवमाणे आवज्जति चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धातियं ॥सू०॥७७|| मधु-मज्ज-मंसा अववाते दट्टब्बा, अण्णतरं वा हावगाढं उवक्खडियं प्राहारेति, प्रवरं उवचिय-मंससोणिग्रो भविस्सामि सुकुमालो य, प्रतो कमणिज्जो भविस्सामि । उवचियमंससोणिएहिं सुहं पडिमेविज्जति, जति एयणिमित्तं भजति का। खीर-दधिमादीहिं, सेसाहारा विसइया होति । मेहुण्ण-परिण्णाते, ताणाहारेंत आणादी ॥२२८३॥ जइ मेहुणवडियाए अाहारेति तो चउगु, इहरहा मासगुरु। विगतिपरिवढदेहस्स ते चेव गमणादिया दोमा ।।२२८२।। णाणादि संधणट्ठा, वि सेविता णेति उप्पहं विगती। किं पुण जो पडिसेवति, विगती वण्णादिणं कज्जे ॥२२८४॥ जति वि णाणादिसंधणद्वा विर्गात भुजति ततोवि विगइ उप्पहं णेति, किं पुण जो पणातीणं अट्ठा ।। मेहणट्टा वा विगति भुजति ।।२२८२।। बितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झे वा वि दुविध तेइच्छे । अभियोग असति दुभिक्खमादिसु जा जहिं जतणा।।२२८५।।पूर्ववत् । पुरिसाणं जो उ गमो, इत्थीवग्गम्मि होइ सो चेव । एसेव अपरिसेसो, इत्थीणं पुरिस-वग्गम्मि ॥२२८६॥ पुरिसाणं जो गमो इत्थीवग्गे भणितो जहा "भिवस्खू माउग्गामं मेहुणवडियाए विष्णवेति" एस इत्थीणं पुरिसवग्गे वत्तव्यो – “जा भिक्खुणी वि पिउग्गामं मेहुणवडियाए विण्णवेइ,' उस्सग्गाववाहि दोसदसणेहिं प्रत्थो तहेव वत्तव्यो ।२२८४॥ ॥ इति विसेस-णिसीहचुण्णीए छट्टो उद्देसो समत्तो॥ www.jainelibrary:org Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तम उद्देशकः छटठुद्देसगे सत्तमुद्देसगो एवं संबज्झति - आहारमंतभूसा, मालियमादी उ बाहिरा भूसा । विगती विगतिसहावा, व बाहिरं कुन्ज संठप्पं ॥२२८७॥ छटठुद्देसगस्स अंतिमसुत्ते विगतीमाहारो पडिसिद्धो, मा तेण विगतिप्राहारेण य पोणियसरीरस्स भंतरभूसा भविस्सति । सत्तमुद्दे सगे वि प्राइमसुत्ते मालिगपडिसेहो, मा बाहिरभूसा भविस्सति । अहवा -- विगतीआहारातो संजमविगतसभावो बाहिरविभूसाणिमित्तं तणमालियाति करेज्ज तप्पडिसेहणत्थं इमं सुत्तं - जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए तण-मालियंवा मंज-मालियंवा वेत्त-मालियं वा मयण-मालियं वा पिछ-मालियं वा पोंडिअ-दंत-मालियं वा सिंग-मालियं वा संख-मालियं वा हड्ड-मालियं वा भिंड-मालियं वा कट्ठ-मालियं वा पत्त-मालियं वा पुप्फ-मालियं वा फल-मालियं वा बीय-मालियं वा हरिय-मालियंवा करेइ; करेंतं वा सातिजति।।सू०॥१॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए तण-मालियं या मुंज-मालियं वा वेत्त मालियं वा मयण-मालियं वा पिंछ-मालियं वा पोंडिअदंत-मालियंवा सिंग-मालियं वा संख-मालियं वा हड्ड-मालियं वा भिंड-मालियं वा कट्ठ-मालियं वा पत्त-मालियं वा पुप्फ-मालियं वा फल-मालियं वा बीय-मालियं वा हरिय-मालि वा धरेइ; धरेतं वा सातिञ्जति।सू०॥२॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए तण-मालियं वा मुंज-मालियं वा वेत्त मालियं वा मयण-मालियं वा पिंछ-मालियं वा पोडिअदंत-मालियंवा सिंग-मालियं वा संख-मालियं वा हड्ड-मालियं वा भिंड-मालियं वा Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ जडीकरणे । सभाष्य चूर्गिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ३-७ कटु-मालियं वा पत्त - मालियं वा पुष्क-मालियं वा फल-मालियं वा बी-मालियं वा हरिय- मालियं वा पिणड्डू, पिण्डुतं वा सातिज्जति ॥ सू३ || वोरणातितणेहिं पंचवण्णम लियाओं कीरंति जहा महुराए । मुंजमा लिया, जहा विज्जातियाणं वेत्त-कट्ठे कडगमादी कोरंति, कट्ठे वा चुंदपडिया भवंति । मयणे मयणपुफा की रंति, पंचत्रणा । भेंडे भेंडाकारा करेंति, मोरंगमयी वा । भाणं गलेसु बज्झति, हत्थि-दंतेसु दंनमयी, वराडगेसु कवडगमयी । महिससिंगेसु जहा पारसियाणं, पत्तमालिया तगरवत्तेसु माला गुज्भति । हवा - विवाहेसु प्रणेगविहेसु अणेगविहो वंदणमालियाओ कीरति । फलेहि गुजातितेहि रुद्दक्खेहि वा पुत्तंजीवगेहिं वा बोंडीवमणे तप्फलेहि वा माला कीरति । अष्णेण वा कारवेद, प्रणुमोयति वां । कथं वा अपरिभोगत्तणेण धरेति, विणद्धति श्रप्पणी सरीरं प्राभरेति, सव्वेसु वि मेहुण डियाए । एल्ब एक्केक्काग्र पदाती प्राणादिया दोसा प्रायं संजम विराणा य भवति ।। २२८७।। तणमालिया दिया उ, जत्तियमेत्ता उ अहिया सुते । मेहुण - परिणाए, ताउ धरेंतस्स आणादी || २२८८|| तण- वेत्त-मुंज-कट्ठे, भिंड-मयण-मोर- पिच्छ-हड्डूमयी । पोंडियदते पत्तादि, करे घरे पिगिद्धे आणादी || २२८६|| सविकारो मोहुद्दीरणा य वक्खेव रागऽणाइण्णं । गहणं च तेण दंडिंग, गोमिय भाराधिकरणादी ||२२६०|| सलिंगातो सविकारया लब्भति, आय पर मोहुदीरणं वा करेति, सुत्तत्थेसु वा पलिमंथो, सरागो वा लब्भति, प्रणाइणं तित्थकरेहि य प्रदिष्णं; तेणगेहि वा तदट्ठाए घेप्पति ग्रसाहु त्ति काउं दंडिगेहि वा पति, गोम्मिएहिं घेप्पति, भारेण य श्रायविराह्णा, अणुत्रकारिता य अधिकरणं भवति, फालण-छिंदणघसणादिएस वा प्रातविराहणा, भुसिग सिरेहिं य संजमविराहणा, लोगे य उड्डाहो ||२२६०|| जम्हां एते दोसा तम्हा ण करेति णो घरेति णो पिद्धति | भवे कारणं - बितियपदमणप्पज्भे, अप्पज्झे वा त्रि दुविध तेहच्छे । भगवदुभिक्खमादिस्सू जा जहिं जतणा ।। २२६१॥ प्रणष्पज्झो सन्त्राणवि करेज, ण य पच्छित्तं । अप्पको वा दुविध तेइच्छे तारिस खरियादीगं राहणट्टाए करेज | ताहे ताम्रो लोभावियाम्रो पडिसेवणं देव । पढमं ता जाम्रो ग्रप्पमोल्लाओ वा. पच्छा बहुमोल्ला । एवं दुब्भिक्खे वि भेंडगादि कष्णपूरगादि काउं दंडियस्स उवदुविज्जति, सो परितुट्ठो भत्तं दाहिति ।।२२६१।। Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २२८८-२२६४] सप्तम उददेशकः जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अय-लोहाणि का तंब-लोहाणि वा तउय-लोहाणि वा सीसग-लोहाणि वा रुप्प-लोहाणि वा सुवण्ण-लोहाणि वा करेति, करेंतं वा सातिजति ।।सू०॥४॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अय-लोहाणि वा तंब-लोहाणि वा तउय-लोहाणि वा सीसग-लोहाणि वा रुप्प-लोहाणि वा सुवण्ण-लोहाणि वा धरेइ, धरतं वा सातिज्जति ।।सू०॥५॥ जे भिक्ख माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अय-लोहाणि वा तंब-लोहाणि वा तउय-लोहाणि वा सीसग-लोहाणि वा रुप्प-लोहाणि वा सुवण्ण-लोहाणि वा परि जति, परि जंतं वा सातिज्जति ॥०॥६॥ हिरणं रुप्पं - अयमादी लोहा खलु, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते । मेहुण्ण-परिणाए, एताइ धरतस्स आणादी ॥२२६२॥ सषिगारो मोहुदीरणा य वक्खेव रागऽणाइण्णं । गहणं च तेण दंडिय-दिÉतो नंदिसेणेण ॥२२६३॥ मेहणदाए करेंते पिणि तस्स ड्रा प्राणादिया य विराहणा। घमंत - फूमंतस्स संजम- छक्कायविराहणा । राउले वा मूइजइ तत्थ बंधणातिमा य दोसा । सुवण्णं वा कारविज्जति, लोहादि वा कुटुंतस्स प्रायविराहणा वा, तेहिं वा घेप्पेज्ज ॥२२६१॥ जम्हा एते दोसा तम्हा णो करेति, णो धरेति, णो पिणद्धति। कारणे कारे - वितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झ वा वि दुविध तेइच्छे । अभिोग असिव दुभिक्खमादिसू जा जहिं जतणा ॥२२६४॥ रायाभियोगेण मेहुणढे वा करेज । बलामोडीए वा काराविति, दुभिक्खे वा प्रसंथरंतो सयं करेज। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए हाराणि वा श्रद्धहाराणि वा एगावली का मुत्तावली वा कणगावली वा रयणावली वा कडगाणि वा र डेयाणि वा केऊराणि वा कुंडलाणि वा पट्टाणि वा मउडाणि वा पलंबसुत्ताणि वा सवण्णसुत्ताणि वा करेति, करेंतं वा सातिजनि ॥२०॥७॥ जे भिक्ख माउग्गामस्स मेहुणवडियाए हाराणि वा अद्धहाराणि वा एगावली वा Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ८-१२ मुत्तावलीं वा कणगावलीं वा रयणावलीं वा कडगाणि वा तुडियाणि वा केऊराणि वा कुंडलाणि वा पट्टाणि वा मउडाणि वा पर्लचसुत्ताणि वा सुवण्णसुत्ताणि वा धरेति; धरेंतं वा सातिज्जति ॥ सू०||८|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए हाराणि वा श्रद्धहाराणि वा एगाली वा मुक्तावलीं वा कणगावलि वा रयणावलीं वा कडगाणि वा तुडियाणि वा केऊराणि या कुंडलाणि वा पट्टाणि वा मठडाणि वा पलंबसुत्ताणि वा सुवण्णसुत्ताणि वा परिभुंजति. परिभुंजंतं वा सातिज्जति ॥ सू०|६|| कुंडलं कण्णाभरणं, गुणं कडीसुतयं, मणी सूर्यमणीमादय, तुडियं बाहुरविखया, तिष्णि सरातो तिसरियं, वालंभा मउडादिसु श्रोचूला, अगारीण वा गलोलइया, नाभि जा गच्छ सा पलंबा सा य उलंवा भति । श्रारसलयाम्रो हारो, णत्रसु अहारो, विचित्तेहि एगसरा एगावली, मुत्तिएहिं मुत्तावली, मणिएहिं कणगावली, रयहिं रयणावली, चउरंगुलो सुवण्णओ पट्टो, त्रिकूटो मुकुटः । कडगाई भरणा, जत्तियमेत्ता उ अहिया सुत्ते । मेहुण - परिण्णाए, एताइ धरेतस्स आणादी || २२६५॥ सविगारो मोहुद्दीरणाय वक्खेव रागऽणाइण्णं । गहणं च तेण दंडिय - दिट्ठतो गंदिसेणेण ॥ २२६६॥ मेडियाएका, जच्चे लोहेसु विराणा । कारणे वितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झे दावि दुविध तेड़च्छे | अभियोग अवि दुभिक्खमादिस जा जहिं जतणा ||२२६७|| जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए आईणाणि वा श्रईण- पावराणि वा कंक्लाणि वा कंबल - पावराणि वा कोयराणि वा कोयर पावराणि वा काल - मियाणि वाणील- मियाणि वा सामाणि वा मिहा-सामाणि वा उाणि वा उट्टलेस्साणि वा वग्घाणि वा विवग्घाणिवा परसंगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकल्लाणि वा खोमाणि वा दुगुल्लाणि वा पणलाणि वा वरंताणि वा चीणाणि वा सुयाणि वा कण- कंताणि वा कणग-खचियाणि वा कणग- चित्ताणि वा १ गुगं वा मणिवा तिवराणि का वालंभाणि वा " एतानि सूत्रे न सन्ति चूर्गो व्याख्यातानि । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २२६५-२ ससम उद्देशक: ३९६ कणग-विचित्ताणि वा आभरण-विचित्ताणि वा करेति, करेंतं वा सातिज्जति ॥१०॥१०॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए आईणाणि वा आईण-पावराणि वा कंबलाणि वा कंबल-पावराणि वा कोयराणि वा कोयर-पावराणि वा काल-मियाणि वा णील-मियाणि वा सामाणि वा मिहासामाणि वा उट्टाणि वा उट्टलेस्साणि वग्याणि वा विवग्धाणि वा परवंगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकल्लाणि वा खोमाणि वा दुगुल्लाणि वा पणलाणि वा आवरंताणि वा चीणाणि वा अंसुयाणि वा कणग-कताणि वा कणग-खचियाणि वा कणग-चित्ताणि वा कणग-विचित्ताणि वा आभरण-विचित्ताणि वा धरेइ, धरतं वा सातिजति ॥सू०॥११॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए आईणाणि' वा आईण-पावराणि वा कंबलाणि वा कंबल-पावराणि वा कोयराणि वा कोयर-पावराणि वा काल-मियाणि वा णील-मियाणि वा सामाणि वा मिहा-सामाणि वा उट्टाणि वा उट्ट लेस्साणि वा वग्धाणि वा विवग्याणि वा परवंगाणि वा सहिणाणि वा सहिणकल्लाणि वा खोमाणि वा दुगुल्लाणि वा पणलाणि वा आवरंताणि वा चीणाणि वा अंसुयाणि वा कणग-कंताणि वा कणग-खचियाणि वा कणग-चित्ताणि वा कणग-विचित्ताणि वा आभरण-विचित्ताणि वा परि जति, परि जंतं वा सातिजति ।।सू०॥१२।। अजिणं चम्म, तम्मि जे कीरति ते आईणाणि, सहिणं सूक्ष्म, कल्लाणं स्निग्धं, लक्षणयुक्त वा, किं चि सहिणं कल्लाणं च, चउभंगो। प्रायं णाम तोमलिविसए सीयतलाए प्रयाणं खुरेनु सेवालतरिया लग्गति, तत्थ वत्था कीरंति । कायाणि कायविसए काकजंघस्स जहिं मणी पडितो तलागे तत्य रत्तणि जाणि ताणि कायाणि भण्णंति । दुते वा काये रत्ताणि कायाणि । पोंडमया खोम्मा, अण्णे भणंति - रुवोहितो निग्गच्छंति, जहा "बडेहितो पादगा साहा' । दुगुल्लो रुक्खो तस्स वागो धेत्तुं उदूखले कुट्टिजति पाणिए ण ताव जाव भूसीभूतो ताहे कज्जति एतेसु दुगुल्लो, तिरीडरुक्खस्स, वागो, तस्स तंतू पट्टमरिसो सो तिरीलो पट्टो, तम्मि कयाणि तिरीडपट्टाणि । ___ अहवा - किरीडयलाला मयलविसए मयलाणि पत्ताणि कोविजति, तेसु वालएसु पत्तुणा दुगुल्लातो अभंतरहिते जं उप्पजति तं अंसुयं, सुहमतरं ची गंसुयं भण्णति । चीण विसए वा जं तं चीणंसुयं, जत्थ विसए जा रंगविधी ताए, देसे रत्ता देसरागा। रोमेसु कया अमिला । १ सूत्रस्थ-पदानि चूर्णो अनानुपूर्व्या व्याख्यातानि, सूत्रबहिर्भूनानि अपि कानि चिन् । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० समाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र १३-३१ अहवा - णिम्मला अमिला घट्टिणी घटिता ते परिभुज्जमाणा कडं क.ति । गाजतसमाण सई करेंति ते गज्जला। फडिगपाहाणनिभा फाडिगा अच्छा इत्यर्थः । कोतवो वरको उवारसा कंबला खरडगपारिगादि पावारगा, सुवण्णे दुते सुतं रज्जति, तेण जं वुतं तं कणगं, अंता जस्स कणगेण कता तं कणगयकं, कणगेण जस्स पट्टा कता तं कणगपढें । __ग्रहवा - कणगपट्टा मिगा, कणगसुत्तेण फुल्लिया जस्स पाडिया तं कगग-खचित्तं, कणगेण जस्स फुल्लिताउ दिण्णाउ तं कणगफुल्लियं । जहा कद्दमेण उड्डेडिज्जति । वग्घस्स चम्म वग्घाणि, चित्तग-चम्म विवग्याणि । एत्थ छपत्रिकादि एकाभरणेन भंडिता प्राभरणथरत्रिकं चंदलेहिक-स्वस्तिक-घंटिक-मोतिकमादीहि पंडिता ग्राभरणविचित्ता, सुणगागिती जलचरा सत्ता तेसि अजिणा उट्ठा । अण्णे भण्णंति - उड्डे चम्मं गोरमिगाणं अहणा गोर मिगादिणा पेसा पसवा तेसिं अइणं । अण्णे भणंति - पेसा लेसा य मच्छादियाण एते - सहिणादी वत्था खलु. जत्तियमेत्ता य आहिया सुते । मेहुण्ण-परिणाए, ताइ धरतम्मि आणादी ॥२२६८॥ सविगारो मोहुद्दीरणा य वक्खेव रागऽणाइण्णं । गहणं च तेण दंडिय-दिटुंतो णंदिमेणेण ॥२२६६।। प्राणादि भारो भय-परितावणादि सब्वे दोसा वत्तबा। बितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झे वा वि दुविध तेइच्छे । अभियोग असिव दुभिक्खमादिसू जा जहिं जतणा ॥२३००॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणपडियाए अक्खंसि वा ऊरुसि वा उयरंसि वा थणंसि वा गहाय संचालेइ, संचालतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१३॥ अक्खा णाम संखाणियप्पदेसा । अथवा - प्रणतरं इंदियजायं अक्खं भण्णति, उवगच्छया कवखा भण्णति, वक्खंसि वा ऊरु सि, हत्यादिएमु वा मेहुणवडियाए संचालेति च उगुरु । अक्खादी ढाणा खलु, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते । जो घेत्तुं संचाले, सो पावति अाणमादीणि ॥२३०१॥ प्राणादिया दोसा, जस्स सा अविरइया रूसति । अहवा - सच्चेव रूसेज्ज, गेण्हणादयो दोसा ।।२२६६॥ बितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झे वा वि दुविध तेइच्छे। अभियोग असिन दुभिक्खमादिर जा जहिं जतणा ।।२३०२।। जे भिक्खू माउग्गामस्म मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स पाए आमज्जेज्ज वा पमज्जेज वा, आमज्जंतं वा पमन्जंतं वा सातिज्जति ॥५०॥१४॥ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २३०३ ] सप्तम उददेशक: जे भिक्खू माउग्गा मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स पाए संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, संबार्हतं वा पलिमद्देतं वा सातिज्जति ॥ सू०||१५|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स पाए तेल्लेण वा घण वा वसा वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा, मक्खतं वा मिलितं वा सातिज्जति | | ० ||१६|| जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स पाए लोद्वेण वा कक्केण वा उल्लोल्लेज्ज वा उब्वट्टेज्ज वा, ४०१ उल्लोलें तं वा उच्चतं वा सातिज्जति ||सू०||१७|| जे भिक्खू माउग्गामस्म मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स पाए सी श्रद्ग- विगडेण वा उसिणोदग - वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ||०||१८|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स पाए फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुमेतं वा रतं वा सातिज्जति ॥ | सू०||१६|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स कार्य आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ||०||२०|| जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स कार्य संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, संवातं वा पलिमदेतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥२१॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स कार्यं तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्तं वा भिलिंगतं वा सातिज्जति ||०||२२|| जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स कार्य लोद्रेण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उब्वट्टेज्ज वा उल्लोलेंतं वा उव्वद्वृतं वा सातिज्जति ॥सू०||२३|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स कार्य सीओदग-वियडेण वा उसिणोदग - वियडेण वा उच्छोल्लेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ||०||२४| ५१ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [गुन २५-४० जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स कार्य फुमेज वा रएज वा, फुमेतं वा रतं वा सातिज्जति | | ० ||२५|| * जे भिक्खू मांउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स कार्यसि वणं आमज्जेज वा पमज्जेज वा, मज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ||०||२६|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स कार्यंसि वर्ण संत्राहेज वा देवा, संबात वा पलिमदेतं वा सातिज्जति ||०||२७|| जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णरस कार्यसि वर्ण तेल्लेण वा घण वा वसा वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा, मक्तं वा भिलिंगंतं वा सातिज्जति ॥ | सू०||२८|| जे भिक्खू माउग्गामरस मेहुणवडियाए श्रष्णमण्णस्स कार्यसि वर्ण लोद्वेण वा कक्केण वा उल्लो लेज्ज वा उच्चट्टेज वा, उल्लोलेंतं वा उच्चतं वा सातिज्जति ||म्०||२६|| जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स कार्यसि ६णं सीओदगविगडेण वा उसिणोद्ग-वियडेण वा उच्छोलेज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंनं वा सातिज्जति ॥ मु० ||३०|| जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए ऋष्णमण्णस्स कार्यसि वर्ण फुमेज वा रएज्ज वा, फुर्मतं वा रतं वा सातिज्जति ||०||३१|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस कार्यसि गंडं वा पिलगं वा अयं वा सिवा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं छिंदेश वा विच्छिंदेज्ज वा, च्छिंदतं वा विच्छितं वा सातिज्जति | | ० ||३२|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स कार्यसि गंडा पिलगंवा इयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं च्छिंदत्ता विच्छिंदिता पूयं वा सोणियं वा नीहरेज्ज वा विसोहज्ज बा, नीहतें वा विसोर्हेतं वा सातिज्जति ||सू०||३३|| जे भिक्खु माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्म कार्यसि गंड वा पिलगं वा इयं वासयं वा भगंदलं वा ऋणमरेणं तिक्खणं सत्थजाएणं Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०३ भाष्यगाथा २३०३ ] सप्तम उद्देशक: अच्छिंदित्ता विच्छिंदित्तानीहरित्ता विसोहत्ता सीओदग-वियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥३४॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स कायंसि गंडं वा पिलगंवा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णवरेणं तिक्खणं सत्थजाएणं अच्छिंदित्ता विच्छिंदित्ता नीहरित्ता विसोहेत्ता उच्छोलेत्ता पधोएत्ता अण्णयरेणं आलेवण-जाएणं आलिंपेज्ज वा विलिंपेज्ज वा, प्रालिपंतं वा विलिपंतं वा सातिज्जति ॥०॥३।। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स कायंसिं गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्यजाएणं अच्छिंदित्ता विज्छिंदित्ता नीहरित्ता विसोहेत्ता उच्छोलेत्ता पधोएत्ता प्रालिंपित्ता विलिंपित्ता तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा अभंगेज्ज वा मक्खेज्ज वा अभंगेंतं वा मक्खंतं वा सातिजति ।।सू०॥३६॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स कायंसि गंडं वा पिलगं वा अरइयं वा असियं वा भगंदलं वा अण्णयरेणं तिक्खेणं सत्थजाएणं अच्छिंदित्ता विच्छिंदित्ता नीहरेत्ता विसोहेत्ता उच्छोलेत्ता पधोएत्ता प्रालिंपित्ता विलिंपित्ता अभंगेत्ता मक्खेत्ता अन्नयरण धूवण-जाएण धूवेज्ज वा पधूवेज्ज वा धूवंतं वा पधूवंतं वा सातिजति ॥सू०॥३७॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स पालु-किमियं वा कुच्छि-किमियं वा अंगुलीए निवेसिय निवेसिय नीहरइ, नीहरंतं वा सातिजति ।।सू०॥३८॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स दीहाओ नहसीहाओ कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पंतं वा संठवेतं वा सातिजति।।२०।।३।। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स दीहाई जंघ-रोमाई कप्पेज्ज वा मंठवेज बा, कप्तं वा संठवेतंवा सातिज्जति।।सू०॥४०॥ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ४१-६३ जे भिक्खु माउम्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स दीहाई कक्ख-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठवेंतं वा सातिज्जति ॥ | सू०||४१ ॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स दीहाई मंसु-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठवेतं वा सातिज्जति ।। सू० ।। ४२ ।। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स दोहाई वत्थि - रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठवतं वा सातिज्जति ॥ स ०४३ ॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स दोहाई चक्खु-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्पेतं वा संठवेंतं वा सातिञ्जति ॥ ० ॥ ४४ ॥ 8 * * जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स दंते आघंसेज्ज वा पघंसेज्ज वा, आघसंतंवा पसंतं वा सातिज्ञ्जति ॥ ० ॥ ४५ ॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स दंते उच्छोलेज वा पघोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति | | ० ||४६ || जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स दंते फुमेज्ज वा रएज वा, फुमेतं वा रतं वा सातिज्जति ||०||४७|| 8 8 *** जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स उडे आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, श्रमज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति ||३०||४८ || जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स उट्ठे संवाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, संवातं वा पलिमद्दतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥ ४६ ॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स उट्ठे तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा मिलिंगेज्ज वा, मक्तं वा मिलिंगंतं वा सातिज्जति ॥ मू०||५० ॥ जे भिक्खू माउरगामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स उडे लोद्रेण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उब्वट्टेज्ज वा उल्लोलतं वा उव्वद्वेतं वा सातिज्जति ॥ भू० || ५१ || जे भिक्खू माउग्गामस्स नेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स उडे सीओदग-वियडेण वा Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २३०३] सप्तम उद्देशक: Yoy उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति सू२॥५२॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स उट्टे फुमेज वा रएज्ज वा, फुतं वा रएंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥५३॥ जे भिक्खू माउग्गामा मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स दीहाई उत्तरोट्ठाई कप्पेज्न वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति।।मु०॥५४॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स दीहाई अच्छिपत्ताई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिज्जति।।सू०॥५शा जे भिक्खू माउग्गामम्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स अच्छीणि आमज्जेज्ज वा पमज्जेज्ज वा, आमज्जंतं वा पमज्जंतं वा सातिज्जति सू०॥५६॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स अच्छीणि संबाहेज्ज वा पलिमद्देज्ज वा, संबाहेंतं वा पलिमदेंतं वा सातिज्जति ॥२०॥५७॥ जे मिक्स् माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स अच्छीणि तेल्लेण वा घएण वा वसाए वा णवणीएण वा मक्खेज्ज वा भिलिंगेज्ज वा मक्खेंतं वा भिलिंगेंतं वा सातिज्जति ॥२०॥८॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स अच्छीणि लोद्रेण वा कक्केण वा उल्लोलेज्ज वा उबडेज्ज वा, .. उल्लोलेंतं वा उव्वडेतं वा सातिज्जति ।। ॥५६॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमणस्स अच्छीणि सीओदग वियडेण वा उसिणोदग-वियडेण वा उच्छोलेज्ज वा पधोएज्ज वा, उच्छोलेंतं वा पधोएंतं वा सातिज्जति ॥०॥६०॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणत्रडियाए अण्णमाणस्स अच्छीणि फुमेज्ज वा रएज्ज वा, फुतं वा रएंतं वा सातिज्जति ॥०॥६१।। जे भिक्ख माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स दीहाई भुमग-रोमाई कप्पेज्ज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेतं वा सातिज्जति ॥२०॥६२॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स दीहाई पास-रोमाई कप्पेज वा संठवेज्ज वा, कप्तं वा संठवेंतं वा सातिजति ॥५०॥६॥ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६ सभाष्य - चूर्णिके निशी सूत्रे सूत्र ६४-७४ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स अच्छि - मलं वा कण्ण-मलं वा दंत-मलं वा नह-मलं वा नीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा नीरेतं वा विसोर्हेतं वा सातिज्जति | | ० ||६४॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुण:डियाए अण्णमण्णस्स कापाओ सेयं वा जल्लं वा पंकं वा मलं वा नीहरेज्ज वा विसोहेज्ज वा, नहरें तं वा विसोर्हेतं वा सांतिज्जति | | ० || ६५॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णमण्णस्स गामाणुगामंयं दूइज्जमाने सीस- दुवारियं करेइ करेंतं वा सातिज्जति | | ० || ६६ ॥ " प्रणमण्णस्स पाए पमज्जति इमो साहू इमस्स, इमो वि इमस्स । दोण्ह वि एस संकप्पो - माउग्गामस्स श्रभिरमणिज्जा भविस्सामो त्ति काउं । पायष्पमज्जगादी, सोसदुवारादि जो गमो छडे । अण्णोष्णस्स तु करणे, सो चेत्र गमो उ सत्तमए || २३०४ || बितियपदमणप्पज्के, अप्पज्मे वा वि दुविध तेइच्छे | अभिओग असिव दुग्भिक्खमादिसू जा जहिं जतणां ||२३०५|| इमे प्रत्थ- सुत्ता - अण्णोष्ण-करण- वज्जा, जे सुत्ता सत्तमम्मि उद्दिट्ठा । उभयस्स वि विष्णवणे, इत्थी - पुरिसाण तो सुणसु || २३०६ ॥ - अण्णोष्णकरणसुत्ता जे सत्तमुद्दे से बुना ते वज्जेउं सेसगा पाय पमज्जगादी - जाव सीसद्वारादि । तणमलियादि जाव - - सोसदुवारसुत्तं ते उभयस्स वि इत्थी पुरिसाणं विष्णवणादवा । किमुक्त' भवति - इत्थी पुरिसं विष्णवेति, पुरिसो इत्थों विष्णवेति ।।२२६६ ॥ ग्रहवा एसेव गमो नियमा, पुं सगेसुंपि इत्थि पुरिसाणं । पादादि जा दुवारं सरिसेतु य बालमादीसु || २३०७॥ पुरिसो दृत्योत्थं पुंसगं विष्णवेति । इत्थी त्रि पुरिसदत्थं पुं मगं विष्णुवेति । "सरिसेमु बालमादीमु" ति - इत्थी इथिरूवं बालं चुंबति । पुरियो पुरिसरुवं बाल चुबति चद्दतो विसरिमेसु जति मेहुणवडियाए - बालं त्रुवति प्रादिमहातो प्रबालं पि, तो चउगुरुं । जे भिक्खु माउग्गामं मेहुणवडियाए अणंतर हियाए पुढवीए णिसीय | वेज्ज वा तुयद्वावेज्ज वा, णिसीयावतं वा तुयट्टावेतं वा सातिजति |सू०||६७|| " Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा २३०४ - २३०८ ] सप्तम उद्देशकः जे मिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए ससिणिद्वार पुढवीए णिसीया वेज्ज वा तुट्टाज्ज वा, णिसीयावेतं वा तुयट्टावेतं वा सातिज्जति ||सू०||६८ || जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए ससरक्खाए पुढवीए णिसीयावेज्ज वा तुट्टावेज्ज वा, णिसीयावेंतं वा तुयट्टावेतं वा सातिज्जति ||सू०||६|| जे भिक्खू माउग्गामहस मेहुणवडियाए महयाकडाए' पुढवीए णिसिया वेज्ज वा तुट्टावेज वा, णिसीयावेंतं वा तुयट्टावेतं वा सातिज्जति ॥ | सू०||१०|| जे भिक्खू माउम्गामस्स मेहुणवडियाए चित्तमंताए पुढवीए पिसीवेज्ज वा तुट्टा वेज्ज वा, णिसीयावेंतं वा तुयट्टावेंतं वा सातिज्जति ||०||७१ || जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडिया ए चित्तताए सीलाए णिसीवेज्ज वा तुयट्टावेज्ज वा, णिसीयावतं वा तुयट्टावेतं वा सातिज्ञ्जति ॥ । म् ॥ ७२ ॥ जे भिक्खू माउरगामरस मेहुणवडियाए चित्तमंताए लेलूए निसीयावेज्ज वा तुयद्वावेज्ज वा, निसीयातं वा तुयट्टावेतं वा सातिज्जति ।। म्||७३|| जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए कोलावासंसि वा दारूए जीवपट्ठिए सडे सपाणे सवीए सहरिए सबसे सउदए सउत्तिंग- पणग-द्गमट्टिय-मक्कडा - संताणगंसि णिसीयावेज्ज वा तुयट्टावेज्ज वा, निसीयातं वा तुयट्टावेतं वा सातिज्जति ॥ | सू०||७४ || प्रणंतरहिता णाम सचित्ता । अंते हिता अंता, अंता अनंता मध्यस्थिता इत्यर्थः । सा सीतवातादिहि सत्धेहि रहिता ग्रशस्त्रोपहता । अशस्त्रपतत्वाच्च ग्राद्यपदार्थत्वेन सचित्ताख्यानमित्यर्थः । तम्मि जो मेनिमित्तं णिसियावेति तुटावेति वा तस्स वा । पुहविनिष्कण्णं । एवं स्वतः श्रवित्ता आक्काएणं पुण ससगिद्धा, सचित्त पुढविरयेण ससरक्खा, महंता कंदा (रूवा ) सिला, सविना सच्यणा सिला, बेलू लेट्ठू, कोला घुणा, ताण आवासो घुणितं वाष्टमित्यर्थः । ४०७ ग्रहवा तं दारु कोहि विरहियं प्रणतरेसु जीवेसु पट्टियं इमेसु वा पिपीलिया दिडेमु पांडवद्ध, पाणा कुथुमादी, सालगादी बीया, दुवादी हरिया, उस्सा वा तम्मिठिता, उतिगो कीलियावासो, पणगो उल्ली, दगं पाणीयं, कोमारा मट्टिया । अथवा उल्लिया मटिया, कोलियापुडगो मक्कडसंताणयो । ग्रहवा १ महिना । पिपलियादी । मेहुण पडियाए चउगुरु | संघट्टणादि कायणिफण्णं च । पुढवीमादी सुं, माउरगामे उ मेहुणडाए । जे भिक्खू णिसियावे, सो पावति आणमादीणि ।। २३०८|| Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [ सूत्र ७५-८१ ते चेव दोसा - बितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झे वा वि दुविध तेइच्छे । अभिोग असिब दुभिक्खमादिसू जा जहि जतणा ॥२३०६।। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंकसि वा पलियंकसि वा निसीयावेज्ज वा तुयट्टावेज्ज वा, निसीयावेतं वा तुयट्टावेतं वा सातिज्जति।।सू०॥७॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अंकसि वा पलियंकंसि वा णिसीयावेत्ता वा तुयट्टावेत्ता वा असणं वा पाणं वा खाइमं या साइमं वा अणुग्धासेज्ज वा अणुपाएज्ज वा अणुग्घासंतं वा अणुपाएंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥७६॥ एगण ऊरूएणं अंको, दोहि पलियंको । एत्य मो मेहुणट्ठाए णिसियावेति तुयट्टावेति वा हा। ते चेव दोसा । दिढे संकादिया गेण्हणादिया दोसा । ___ अनु पश्चाद्भावे, अप्पणा ग्रसितु पच्छा तीए प्रासं देति, एव रोडगादीसु प्रप्पणा पाउं पच्छा तं पाएति । अंके पलियंके का, भाउग्गामं तु मेहुणडाए । जे भिक्खू णिसियावे, सो पावति प्राणमादीणि ॥२३१०॥ बितियपदमणप्पज्झे, अप्परके वा वि दुविध तेइच्छे । अभियोग असिव दुभिक्खमादिसू जा जहिं जतणा ॥२३१२॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए आगंतागारेसु वा आरामागासु वा गाहावइ-कुलेसु वा परियावसहेसु वा निसीयावेज्ज वा तुयट्टावेज्ज वा, निसीयावेतं वा तुयडावेतं वा सातिज्जति ॥सू०॥७७॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए आगंतागारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइ-कुलेसु वा परियावसहेसु वा निसीयावेत्ता वा तुयट्टावेत्ता वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अणुग्घासेज्ज वा अणुपाएज्ज वा अणुग्यासंतं वा अणुपाएंतं वा सातिज्जति ॥२०॥७८॥ दो सुत्ता । अर्थः तृतीयोद्देशके पूर्ववत् । णवर - मेहुणवडियाए का । आगंतागारादिसु, माउम्गामं तु मेहुणहाए । जे भिक्ख णिसियावे, सो पात्रति आणमादीणि ॥२३१२॥ १नालिकेराम्भस्सु । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काव्यगाथा २३०९-२३१८ ] सप्तप उद्देशकः ४०६ वितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झे वा वि दुविध तेइच्छे । अभियोग असिव दुभिक्खमादिस जा जहिं जतणा ॥२३१३।। जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णतरं तेइच्छं आउट्टति, आउद्धृतं वा सातिज्जति ॥२०॥७९॥ प्रारं गाम वतुम्विधार तिगिच्छाए - वादिय - पेत्तिय - संभिय - मणिवातियाए आउट्टति णाम करेति वा । जा वि सत्यघसणपीसणविराहणा, जं च सा पणा असंजमं काहिति । ग्रहवा - से अविर प्रो पासेज्ज ताहे सो भज्ज - केणेस तिगिच्छं कारावितं ? अण्णतरस्स पदोसं गच्छेज। अण्णतरं तइच्छं, माउग्गाणं तु मेहुणहाए । जे भिक्खू कुजाहि, सो पावति आणमादीणि ॥२३१४॥ वितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झ वा वि दुर्विध तेइच्छे । अभियोग असिव दुभिक्लमादिन जा जहिं जतणा ॥२३१५॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अमणुनाई पोग्गलाई नीहरइ (अवहरति), नीहरंतं (अवहरंत) वा सानिन्जति ॥०॥८॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए मणुनाई पोग्गलाई उवकिरति (उवहरति), __उवकिरतं (उवहरंत) वा सातिज्जति ।।सू०॥८१॥ अमगुष्णो पोग्गले प्रवहरति । मणुणे उवहरति संपाडेति । अममुग्णाणवहारं, उपहारं चेव तह मणुष्णाणं । जे भिक्खू पोग्गलाणं, देहट्ठाणे व आणादी ॥२३१६॥ प्रवहारो उवहारो वा एक्केको दुविधो -- सरीरे ठाणे य । सरीरे दुविहो - अतो बाहिं च ॥२३१६।। इमो अंतो वमण-विरेगादीहिं, अभंतर-पोग्गलाण अवहारो। तेल्लुबट्टण-जल-पुष्फ-चुण्णमादीहि बज्झाणं ।।२३१७॥ अमुभूसता ( प्रसुइभूया ) स संदूसिय-सेंभिय-पित्त-रुहिरादियाण वमग - विरेयण दीहि अवहारो। बाहिरो सरीरातो पूय - सोणिय - सिंघाण - लाल - कमलादि तेल्लुव्वट्टणादीहिं वज्ज अवहरति ।।२३१७॥ जत्थ ठाणे अच्छति तत्थिमं करेति । कयवर-रेणुचारं, मुलं चिक्खल्ल-खाणु-कंटाणं । सद्दादमणुण्णाणं, करेज्ज तडाण अवहारं ॥२३१८|| ५२ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे । सूत्र ८२-८६ बहु झुसिरदव्वसंकरो कयवरो, रेणू धूली, उच्चार - पासवण -चिक्खल्ल खाणु - कंटादीयं च जहा हदियादिसद्दागं असुभगंधाण य अहिमडादीशं तट्ठाणातो अवहारं करेति । सुभाण य उवहारं करेति ॥२३१८।। आवरिसायण उवलिंपणं च चुण्ण-कुसुमोवयारं च । सदादि मणुण्णाणं, करेज्ज तहाण उवहारं ॥२३१६॥ जत्थ जत्य अच्छति सा इत्थी तं ठाणं संपभज्जित्ता उदगेणावरिसति, छगणपाणिएण वा उलिपति, पडवासादिए वा चुष्णे उक्खिवति, पुप्फोवयारं वा करेति, गोयादि वा सद्दे करेज, प्रवणेति उवहरेति वा मेहुणहा था। दिह्र संकादिया दोसा, घरं संजनो सोवेति ति उड्डाहो ।। १३१६॥ बितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झे या वि दुविध तेइच्छे । अभियोग असिव दुम्भिक्खमादिसू जा जहिं जतणा ॥२३२०॥ जे भिक्खू माउग्गासस्स मेहुणवडियाए अन्नयरं पसु-जायं वा पक्खि-जायं वा पायंसि वा पक्खंसि वा पुच्छसि वा सीसंसि वा गहाय (उज्जिहति वा पव्धिहति वा ) संचालेति ( उज्जितं । पश्चिहेंतं वा) संचालतं वा सातिज्जति ।।मू०॥८२॥ प्रमिलाइया पसुजाती। हसचकोरादिया पविखजाती । पक्खादिया अंगावयवा पसिद्धा । तेसु .. गहाय उज्जिति उप्पाडेति, पगरिमण वहः विवति पविहति । ___ अहवा - प्रतीपं विहं पविहं मुचतीत्यर्थः । मेहुणट्टाए संचालेति वा डा। सा तडफडेज्जा, तस्स अप्पणो वा प्रायविराहणा । कायादीण वा उनरि पडेज । पक्खी-पसुमादीणं, सिंगादीएम जो उ वेत्तणं । उबीहे पव्वीह, मेहुणहा य प्राणादी ॥२३२१।। वितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झ बा वि दुविध तेइच्छे । अभिोग असिव दुभिक्खमादिसू जा जहिं जतणा ॥२३२२॥ जे भिक्खू माउग्गामास मेहुणहाए अन्नयरं पसु-जायं वा पक्खि-जायं वा सोतंसि कहुं वा कलिंचं वा अंगुलियं वा मलागं वा अणुप्पवेसित्ता संचालेति, संचालतं वा मातिज्जति ।। ०।।८३।। पसू व्यवगिणतो, लिचो बंगाप्पी, घडिया सलागा, अतरं सोतं अहिडाण, जोगीदारं, वामी अणकूलं पवेसो गुप्पवेसो, थोयं वा पवेमोऽगुप्मवेयो । संचालनं विघट्टनं । मेहुगट्ठा ड्का । ग्राणादिया य दोना, परितात गादिए मूलं, दिद्वे संकादिया । पक्खी-पसुमाईणं, जे भिक्खू सोय कट्ठमादीणि । अणुपविसेउं चाले, मेहुण्णट्ठाए प्राणादो ॥२३२३।। * अमिल :- भेड़, प्रमिला - पाडी। Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २३१६-२३२६ राप्तभ उद्देशक: णव सोओ खलु पुरिसो, सोया इक्कारसे व इत्थीणं । मणुयगईसू एवं, तिरि-इत्थीणं तु भतियया ॥२३२४॥ ___ दो कण्णा, दो अच्छी, दो णासा, मुहं, अंगादाणं, अधिट्ठाणं, च एते नव पुरिसम्स, इत्थीए ते चेत्र अण्णे दो थणा एते एक्कारस – एवं मण्यगतीए । तिरिएसु इमं भाणियब्वं ॥२३२४।। एक्कार-तेर-सत्तर, दत्थणि चउ अट्ठय भयणा तु । णिव्याघाते एते, वाघाएणं तु भइयव्वा ॥२३२५।। अयमादित्यणि ११ गवादी १ः सूयरमादी १७ णिवाघाए एवं । वाघाए एगच्छिणी अया दस सोत्ता, तिपयोधरा गौ ॥२३२५॥ बितियपदमणप्पज्झे, अप्पज्झे वा वि दुविध तेइच्छे । अभियोग असिव भिक्खमादिर जा जहिं जतणा ॥२३२६॥ अणपज्को (अप्पज्झो) दुविधतेगिच्छाए वा सुक्कपोग्गलणिग्यायपटुं. रायाभियोगेण वा, असिवे संजयपंता असंजउ ति काउं न मारेति, दुब्भिवखे वा समुद्देसट्ठा कोति गाविमादी व गेज्जा ।।२३२६॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णयरं पसु-जाय वा पक्खि-जायं वा अयमित्थि त्ति कटु आलिंगेज्ज वा परिम्सएज्ज वा परिचंबेज्ज वा विच्छेदेज्ज वा आलिंगंतं वा परिस्सयंतं वा परिचुंबतं वा विच्छेदंतं वा सातिज्जति ।।सू०||८४॥ आलिंगनं स्पर्शनं, उपगृहनं परिष्वजनं, मुखेन चुबन, दंतादिभिः सकृत् छेदनं, अनेकशी विच्छेदः विविध प्रकारो वा च्छेदः वोच्छेदः, जसा णहमादीहि परिताविज्जति । दिढे संका दिया दोसा।। पक्खीपसुमादीणं, एसा इत्थि ति जो करिय भिक्ख । दंत-णहादीएसुं, मेहुण्णहा य आणादी ॥२३२७॥ मेहुणट्टा था। वितियपदमणप्पज्झे, अप्पन्झ वा वि दुविध तेइच्छे । अभियोग असिब दुभिक्खमादीस जा जहि जतणा ॥२३२८॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियांए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं का देइ, देतं वा सातिज्जति ॥सू०॥८॥ जे भिक्ख माउग्गामस्स मेहुणवडियाए असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिच्छ, पडिच्छंतं वा सातिज्जति ।।मु०॥८६॥ मेहुणढाए देति पडिच्छति य ।। जे भिक्ख असणादी, माउग्गामस्स मेहुणट्टाए । देज्जा व पडिच्छेज्जा, सो पावति आणमादीणि ॥२३२६।। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे बितियपद मणप्पज्झे, अप्प वा वि दुविध तेइच्छे । अभियोग अनि दुभिक्खमा दिसू जा जहिं जतणा ||२३३० ॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पायपुंछणं वा देश, देतं वा सा तज्जति | | ० || ८७॥ जं भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणट्टाए वत्थं वा पडिग्गहं वा कंबलं वा पाणं वा पछि, पडिच्छंतं वा सातिज्जति ॥ सू०||८|| मेहुणट्ठाए देति पडिच्छति य व । जे भिक्खु वत्थादी, माउगा मस्त मेहुणट्टाए । देज्जा य परिच्छेज्जा, सो पावति ऋणमादीणि ॥ २३३१ ॥ बितियपद मणप्पज्झे, अपके वा वि दुविध तेइच्छे | अभियोग प्रसव दुभिक्खमा दिसू जा जहिं जतणा ||२३३२|| जे भिक्खु माउग्गामं मेहुणवडियाए सज्झायं दाएइ, वाएंतं वा सातिज्जति ॥०॥८६॥ जे भिक्खू माउग्गामं मेहुणवडियाए सज्झायं पांडच्छर, पडिच्छतं वा सातिज्जति ॥०॥६०॥ इह सझायणात सुत्तमत्थो वा तं उवदिसति सव्वे पदा मेहुणट्ठाए ङ्का । पंचविधं सज्झायं, माउगामस्त मेहुणहाए । [ सूत्र ८७-९१ जे मिक्वू कुज्जाही, सो पावती आणमादीणि ॥ २३३३|| चितिगपदमणप्पज्के, अप्पज्झे वा विदुत्रिध इच्छे | दुभिक्खमादिम् जा जहिं जतणा ||२३३४ || दुविधेतेमिच्चाए चरियाणि वा उद्दिसति ॥ २३३४ ॥ जे भिक्खू माउग्गामस्स मेहुणवडियाए अण्णयरेणं इंदिएणं श्राकारं करें करें वा सातिज्जति तं सेवमाणे आवज्जति चाउम्नासियं परिहारट्टाणं श्रणुग्घाइयं ! | ० || १ || सोमादि अष्णतरं इंदियं जो मेहुणट्टाए करेति सो आवज्जति पावति चाउम्मासस्तो किष्ण चाउम्गासिय, समवसरणाए प्रणुग्धाइयं गुरुगं : अहवा - छेदो पर्यवकरणं ( पर्यवापाकरणं ) उवपातो यथा उच्चातियसवकं । नास्योद्ग्धातः अनुपातः। गुरुत्वाद दुस्तरत्वाच्च श्रनुद्धा तमित्यर्थः । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २३३०-२३४०] सप्तम उद्देशक ४१३ आगारमिदिएणं, अण्णतराएण मातुगामस्स । जे भिक्खू कुज्जाही, सो पावति आणमादीणि ॥२३३।। अण्णतरेण इंदिएण इंदियाणि वा प्रागारे करेति सो प्राणादिदोसे पावति ॥२३३५॥ इत्थिअणुरत्तस्स पुरिसस्स इमे आगारा - काणच्छि रोमहरिसो, वेवहू सेओ वि दिमुहराओ। णीसासजुता य कथा, वियंभियं पुरिसआयारा ॥२३३६॥ काणच्छिं करेति । जस्स अणुरत्तो दर्छ रोमंचो भवति, हरिसो वा भवति । अहवा -- रोमाण हरिसो रोमहरिसो रोमंचेत्यर्थः, शरीरस्य ईषत् कंपो भवति। प्रस्वेदो भवति । दिट्ठीए मुहस्स रागो जायति । सनिश्वासं भाषते । पुनः पुनस्तत् कयां वा करोति," पुनः पुनः विजुभिका भवति । एते पुरिसागारा ॥२३३६।। जा पुरिसाणुरता इत्थी तस्सिमे आगारा - सकडक्खपेहणं वाल-सुंवणं कण-णासकंडुयणं । छण्णंगदंसणं घट्टणाणि उवगृहणं वाले ॥२३३७।' छणंगदंसणं ( छष्णंगणे य चट्टणा - ) । णीयल्लयदुच्चरिताणुकित्तणं तस्सुहीण य पसंसा । पायंगुटेण मही-बिलेहणं णिठ्ठभणपुव्वं ।।२३३८॥ जस्स अणुरत्ता तस्सग्गतो मप्पणो णिपल्लगाण दुच्चरियं वित्तेति । भूसण-विघट्टणाणि य, कुवियाणि सगव्वियाणि य गयाणि । इति इत्थी-आगारा, पुरिसायारा य जे भणिता ॥२३३६॥ एते प्रागारे करेंतो संघाडादिणा दिट्ठो भत्तसंकादि, गेम्हणादि दोसा य। बितियपदमणप्पज्झे अप्पज्झे वा वि दुविध तेइच्छे । अभियोग असिव दुभिक्खमादिसू जा जहिं जतणा ॥२३४०॥ ।। इति विसेस-णिसीहचुण्णीए सत्तमो उद्देशो समत्तो । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम उद्देशकः उक्तः सप्तमः । इदानीं अष्टमः । तस्स इमो संबंधो - कहिता खलु आगरा, ते उ कहिं कतिविधा उ विण्णेया। आगंतागारादिसु, सविगारविहारमादीया ॥२३४१॥ सत्तमस्स अंतसुते थीपुरिसागारा कहिता । ते कहि हवेज्ज ? प्रागंतागारादिसु । ते प्रागंतागारादी पमए कतिविहा गामे प्रागारा विष्णेया ? इह अपुव्वरूवियाणि । जे भिक्खू आगंतारेसु वा आरामागारेसु वा गाहावइ-कुलेसुवा परियावसहेसु वा एगो इत्थीए सद्धिं विहारं वा करेइ, सज्झायं वा करेइ,. असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेइ, उच्चारं वा पासवणं वा परिडवेइ, अण्णयरं वा अणारियं निठुरं अस्समणपाओग्गं कहं कहेति, कहेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१॥ एगो साहू एगाए इत्थियाए सद्धि समाणं, गामाप्रो गामंतरो विहारो । अहवा-गतागतं चंकमणं सज्झायं करेति, असणादियं वा पाहारेति, उच्चार-पासवणं परिट्ठवेति । एगो एगित्थीए सद्धि वियारभूमि गच्छति । प्रणारिया कामकहा गिरतरं वा अप्रियं कहं कहेति कामनिठुर - कहाभो । एता येव प्रसमणपायोग्गा। अधवा - देसभत्तकहादी जा संजमोवकारिका ण भवात सा सव्वा प्रसमणपाउग्गा ।।२३४१॥ आगंतारागारे, आरामागारे गिहकुला वसहे । पुरिसित्थि एगणेगे, चउक्कभयणा दुपक्खे वि ॥२३४२॥ एगे एगित्थीए सद्धि, एगे प्रणेगित्थीए सद्धि, प्रणेगा एगित्थीए सद्धि, प्रणेगा प्रणेगित्थीए सद्धि ।।२३४२।। जा कामकहा सा होतऽणारिया लोकिकी व उत्तरिया णि?र मल्लीकहणं, भागवतपदोसखामणया ॥२३४३।। तत्थ लोइया-गरवाहणदन्तकधा । लोगुत्तरिया- तरंगवती, मलयवती, मगधसेणादी। णिठ्ठरं णाम "भल्लीपरकहणं" - एगो साधू भरुकच्छा दक्खिणापहं सत्येण यातो य भागवएण पुच्छितो किमेयं भल्लीघरं Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणि के निशीथसूत्र [सूत्र ति ? तेण साहुणा दारवतिदाहातो प्रारम्भं जहा वासुदेवो य पयानो, जहा य कूरचारगभंजण कोसंबाराप : वेसो, जहा जरकुमारागमो, जह य जरकुमारेणं भल्लिगा हो य । एवं भल्लीघरुप्पत्ती सव्वा कहिया । ताहे सो भागवतो पदुटो चितेति-जइ एयं न भविस्सति तो एस समणो धाते पन्नो। तो गो विट्रो यऽगेण पादे भल्लीए विद्धो। ताहें मागंतूण तं साहुं खामेति भणति य मए एवं चिनियमासी तं खमेज्जासि । एवमःदी 'गिदुरा । एवमादि पुरिसाण वि ता | जु-जेति कहिउँ, किमु वा एगित्थियाणं ॥२३४३॥ अवि मायरं पि सद्धि, कथा तु एगागियस्स पडिसिद्धा । किं पुण अणारयादी, तरुणित्थीहिं सह गयस्स ॥२३४४॥ माइभगिणिमादीहिं अगमम्मित्थीहिं सद्धि एगाणिगरस धम्मकहा वि काउंण वट्टति । किं पुण माहि तरुणित्याहिं सद्धि । अण्णा वि अप्पसत्था, थीसु कधा किमु अणारिय असब्भा। चंकमण-ज्माय-भोयण, उच्चारेसुं तु सविसेसा ॥२३४।। अण्णा इति धम्मकधा, अक्सिटामो सवेरग्गा, सा वित्यीसु एगागिणियासु विरुद्धा, कि पुण प्रणारिया, अणारियाण जोग्गा प्रणारिया, सा य कामकहा, प्रसभा जोग्गा प्रसन्मा। अहवा - असम्भा जत्य उल्लविज्जति। चंकमणे सति विभम इंगितागारं दद्रु मोहन्भवो भवति, सज्झाए मणहरसद्देण, भोयणदाणग्गहणातो विसंभे, उच्चारे ऊरुगादि-छण्णंगदरिसणं ॥२३४५।। भयणपदाण चउण्हं, अण्णतरजुते उ संजते संते । जे भिक्खू विहरेज्जा, अहवा वि करेज्ज सज्झायं ॥२३४६॥ भयणादा - चउम्भंगो पुव्वुत्तो। असणादी वाऽऽहारे. उच्चारादि य आचरेज्जाहि । गिट्ठरमसाधुजुत्तं अण्णतरकथं च जो कहए ।।२३४७॥ सोाणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं नहा दुविधं । पावति जम्हा तेणं, एए तु पदे विवज्जेज्जा.॥२३४८॥ दिह्र संका, भोइगादि, जम्हा एते दोसा तम्हा ण कप्पति विहाराटि काउं ॥२३४६।। कारणे पुण करेज्जा - वितियपदमणप्पज्झे, गेलण्णुसग्ग-रोहगऽद्धाणे । संभम-भय-वासासु य, खंतियमादी य णिक्खमणे ॥२३४६॥ प्रणप्पज्झो सो सव्वाणि विहारादीणि करेज ॥२३४६।। १ णिठुरा। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाय। २६४८-२ प्रष्टम उद्देशक: इदाणि ''गेलण्णे" - उद्देसम्मि चउत्थे, गेलण्णे जो विधी समक्खाओ। सो चेव य बितियपदे, गेलण्णे अट्ठमुद्दे से ॥२३५०॥ कंठा इयाणि "२ उवसग्गे" तितत्थिमं उयाहरणं - कुलवंसम्मि पहीणे, सस-भिसएहिं तु होइ अाहरणं । सुकुमालिय-पवज्जा, सपच्चवाया य फासेणं ।।२३५१॥ इहेव अड्डभरहे वाणारसीणगरीए वासुदेवस्स जेहभानो जरकुमारस्स पुत्तो जियसचू राया । तस्स दुवे पुत्ता ससप्रो भसयो य, धूया य सुकुमालिया । असिवेण सव्वम्मि कुलवंसे पहीणे तिणि वि कुमारगा पव्वतिता । सा य सुकुमालिया जोव्वर्ण पत्ता । अतीवसुकुमाला रूववती य । जतो भिक्खादिवियारे वच्चइ ततो तरुणजुयाणा पिट्ठो वच्चंति । एवं सा रूवदोसेण सपच्चवाया जाया ।।२३५१।। एतीए गाहाए इमाग्रो वक्खाणगाहारो - जियसत्तु-परवरिंदस्स, अंगया सस-भिसो य सुकुमाला । धम्मे जिणपण्णत्ते, कुमारगा चेव. पव्वइया ॥२३५२॥ तरुणाइण्णे णिच्चं, उवस्सए सेसिगाण रक्खट्ठा । गणिणि गुरुणो उ कहणं, वीसुवस्सए हिंडए. एगो ॥२३५३।। तं णिमित्तं तरुणेहिं प्राइण्णे उवस्सगे सेसिगाण रवखणट्ठा गणिणी गुरूण कहेति । ताहे गुरुणा ते सस-भिसगा भणिया-संरक्खह एयं भगिणि । ते घेत्तु वीसु उवस्सए ठिया। ते य बलवं सहस्सजोहिणो । ताणेगो भिक्खं हिंडति एगो तं पयत्तेण रक्खति। जे तरुणा अहिवडंति ते हयविहए काउं घाडेति । एवं तेहिं बहुलोगो विराधितो ॥२३५३।। तत्थ उ तुरुमिणिणगरीए पंचसताहि साहूहि ठिता सपक्खोमाणं च .. हंतविहतविप्परद्धे, बण्हिकुमारेहि तुरमिणीणगरे । किं काहिति हिंडतो, पच्छा ससओ व भिसो वा ॥२३५४॥ चक्की वीसतिभागं, सव्वे वि य केसवानो दसभागं । मंडलिया छन्भागं, आयरिया अद्धमद्धणं ।।२३५।। एवं ते किलिस्समाणे गाउं भायणुकम्पपरिणा, समोहणं एगो भंडगं बितिओ। आसत्थवणियगहणं, भाउ य सारिच्छ दिक्खा य ॥२३५६॥ १ गा० २३४६ । २ गा० २३४६ । Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-१ . भायणुकंपाए सुकुमालिया अणसणं पन्वज्जति । बहुदिणखीणा सा मोहं गता। तेहि णायं कालगय त्ति । ताहे तं एगो गेण्हति, बितिम्रो उपकरणं गेण्हति । ततो सा पुरिसफासेण रातो य सीयलवातेण णिज्जती अप्पातिता सचेयणा जाया । तहावि तुहिक्का ठिता, तेहि परिझुविया, ते गया गुरुसगासं। सा वि आसत्था। इप्रो य अदूरेण सत्थो वच्चति । दिट्ठा य सत्थवाहेणं गहिया, संभोतिया रूववती महिला कया, कालेण भातियागमो, दिट्ठा, अब्भुट्ठियाय दिण्णा भिक्खा । तहावि साधवो णिरक्खंता अच्छं। तीए भणियं - किं णिरक्खह ? ते भणंति - अम्ह भगिणीए सारिक्खा हि, किंतु सा मता, अम्हेहि चेव परिविया, अण्णहा ण पत्तियंता । तीए भणियं- पत्तियह, अहं चिय सा, सव्वं कहेति। वयपरिणया य तेहिं दिक्खिया। एवमादिया उवसग्गेण चउम्भंगण्णतरेण वसेज्जा ।।२३५६॥ इदाणिं "'रोधग" ति दारं - सेणादी गम्मिहिती, खेत्तुष्पादं इमं वियाणित्ता । असिवे प्रोमोयरिए, भयचक्काऽणिग्गमे गुरुगा ॥२३५७॥ मासकप्पपाउग्गं खेत्तं भेत्तु सेणं गम्मिहिति, सेणाए वा अभिपडतिए ताहे तो खेत्तामो गम्मति, पादिसद्दामो २संवर्टेमि । वासकप्पखेत्ते इमे उवहवा होंति - असिवुवघातो प्रोमबोहिगममोप्पामो य परचक्कागम्मुयायो, एते गाउं जति ण णिगच्छति तो चउगुरुगं पच्छित्तं ॥२३५७।। आणादिया य दोसा, विराधणा होति संजमाताए । असिवादिम्मि परुविते, अहिगारो होति सेणाए ॥२३५८॥ प्रणितस्स माणादी दोसा पायसंजमविराहणा य । जया असिवादी सव्वे प्रतिपदं परूविता भवति तदा इह सेणापदेणाहिकारो कायव्यो । तं पुण मसिवादी इमे जाणंति प्रणागयमेव ॥२३५८।। अविसेस-देवत-णिमित्तमादि अबितह पवित्ति सोऊणं । णिग्गमण होति पुव्वं, अण्णाते रुद्ध वोच्छिण्णे ॥२३५६॥ पाहिमादिप्रतिसएण णायं, देवयाए वा कहियं, अविसंवादिणिमित्तेण वा णायं, पवत्तिवत्ता तं वा अवितहं णाउ, ततो भणागतं णिग्गंतव्वं, प्रणाते सहसा रोहिते, वोच्छिणेसु वा पहेसु ण णिग्गच्छति, ग दोसा ॥२३५६॥ तम्हा प्रणागयं सोच्चा व सोवसग्गं, खेत्तं मोत्तव्यमणागतं चेव । जइ ण मुयति सगाले, लग्गइ गुरुए सवित्थारे ।।२३६०॥ गाउं जति प्रणागयं ण मुंचति तो चउगुरु सवित्थारं भवति ॥२३६०।। इमो वित्थारो "परिताव महादुक्खो" - कारग गाहा । - १ गा० २३४६ । २ वक्खा गा० २३७३ । ३ वृह प्रथ० गा० १८६६ । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाध्यगाथा २३५७-२३६६ ] इमे पुर्ण कारणेहि प्रणितां वि सुद्धो रायविट्टिता सेणा । पिलाण पडिबद्धो, रोहिते णिग्गमो णत्थि बाहि असिवं । हवा - रायदुट्ठ श्रोमं वा बाहिं, उबहिसरीरतेणगा बाहि ।।२३६१ ॥ एहि यहि य, न णिग्गया कारणेहि बहुएहिं । अच्छं होति जतणा, संवट्टे नगररोहे य || २३६२॥ गेलण - रोह-असिवे, रायदुट्ठे भए व श्रोमम्मि | उवधी सरीरतेणग, गाते वि ण होइ णिग्गमणं ||२३६१ ॥ ते समाजयणा तत्थ श्रष्ठम उद्देशकः एतेहि यहिं य कारणेहि य प्रच्छंताण देससंवट्टेण नगररोधे य इमा जयणा ||२३६२ ।। बोहिमादिभएण परचक्कभएण च बहू गामा संवहिया एक्कतो ठिता संबट्टो भण्णति, ते च्चिय - - संवट्टम्म तु जतणा, भिक्खे भत्तट्ठ - वसहि - थंडिल्ले । वाउडा एगतो ठंति || २३६३।। तम्मि भए पत्तम्मी, ""भिक्खे" त्ति दारं - वासु व पल्लीसु व, भिक्खं काउं वसंति संवट्टे । सव्वम्म रज्जखोभे, तत्थेव य जाइ थंडिल्ले ॥ २३६४॥ संवट्टेण वा वासे सच्चित्ते' सच्चित्तो पुढविक्काश्रोत्ति काउं ण हिडंति, पुव्वट्ठितासु वतितासु पल्लो वा भिक्खं हिंडता ततो चेव थंडिल्ले भोक्तुं राम्रो संवट्टे वसंति । अध वइयादि णत्थि, सव्वम्मि रज्जखोभो, तो तत्थेव संवट्टे जाणि थंडिल्लप्रचित्ताई तेसु भिवखं गेव्हंति || २३६४॥ ग्रह णत्थि थंडिल्लचिता ताहे इमा जयणा १ गा० २३६३ । २ गा० २३६३ । - पूलिय सत्त श्रोण, गहणं पडलोवरिं पगासमुहे । सुक्खादीण अलंभे, अजवंते वा विलक्खणता || २३६५|| उल्लमि पडतेमा पुढविकायविराहणा भविस्सति तेग मंडगादि सुक्खपूप्रलियाए " असंसत्त" सुत्त गाहा । सुक्खोणं वा कुम्मासा, पगासमुहे भायणे गेव्हंति, पडलोवरिट्ठिते चेव । मह सुक्खं ण लब्भति, ण वा सरीरस्स जावगं, उल्ले घेप्पमाणो लेवाडिते पडले लेवाडगं लक्खति । दारं ||२३६५ ।। इदाणि "भट्टे "त्ति पच्छण्णासति वहिता, अह सभयं तेण चिलिमिणी तो । असती य व सभयम्मि व, धरेंति अद्ध ेतरे भुंजे ॥ २३६६॥ ४१६ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र -१ संवस्स बाहिरे पच्छष्णे भत्तठ्ठे करेतु, प्रसति पच्छणास्स सभए संवट्टस्स तो चेव चिलिमिलि दाउ भुंजति । प्रसति चिलिमिलीए सभए वा चिलिमिली ण पागडिज्जति ताहे श्रद्धभायणाणि घरेंति, श्रद्धा कमगादिसु भुंजंति ॥ २३५६ ।। ४२० काले पहुप्ते, भए व सत्थे व गंतुकामम्मि । कप्पुवरि भायणाई, काउं एक्को उ परिवेसे || २३६७॥ ग्रह वारगेण कालेन पहुप्पति भए वा तुरियं भोयव्वं, संवट्टादिसञ्चो चलितो गंतुकामो ताहे भायणा कप्पुवर ठवेडं सव्वे कमढगादिसु भुंजनि एक्को परिवेसति ॥ २३५२ ।। पत्तेयचड्डगासति, सज्झिलगा एगतो गुरू वीसुं । श्रमेण कप्पकरणं, अण्णो गुरु णेक्को वा वि ||२३६८॥ सव्वेसि चडुगा ण पहुप्पंति ताहे सज्झिलगा - जे वा पीतिवसेण एक्कतो मिलति एक्कतो भुजंति, गुरु वीसुं भुंजति, जाहे भुत्ता ताहे प्रोमेण आयामणं चड्डगाणं कायव्वं, गुरुसंतियं कमढगं ण तेसि मेलिज्जति, प्रणो कप्पेति । श्रहवा - प्रपहुव्वमाणेसु एक्कतो कपिज्जति ।।२३६८ || इयाणि भायण - कप्पविही - भाणस्स कप्पकरणं, दडू ल्लग - मुत्त- कडुयरुक्खेमु | तस्सऽसति कम कप्पर, काउमजीवे पदेसे वा ॥ २३६६ ॥ उदित्तगादि भूमीए गोमुत्तियपदेसेसु वा खारकडुयरुक्खहेट्ठा वा एवमादि थंडिलाण प्रसति कमढगे घडादिकप्परे वा भायणस्स कप्पं काउं अण्णत्थ गेउं थंडिले, गते वा संवट्टे पच्छा परिमिलियाजीवपदेसेसु परिवेति । स एवातुरे थंडिलस्स वा अभावे घम्माधम्माका सा जीवपदेसबुद्धिका उं परिवेति ॥ दारं ॥ २३६६ ॥ इदाणि "वसहि" त्ति दारं - 26 गोणादी वाघाते, लग्भमाणे व बाहि वसमाणा । वातदिसि सावतभए, सयं पडालिं पकुव्वंति || २३७०|| संस्तो निराबाधे मिलियपदेसे वसंति, अंतो वा - गोणमहिसा दिएहि तडफडतेहि वाघातो, प्रलंभे वा जतो धाडीभयं ततो वज्जेउं वसंत । अह सावयभयं ताहे वायाणुकूलं वज्जेंति, अंतो बाहि वा वसमाणा सीत-वातात व जल-सावत रक्खणट्ठा पुव्वकताए पडालीए ठायंति । असति फासुएहि सयं करेंति । प्रगाढे विधारणं काउं वसंति । वतिए वि एवं । दारं ।। २३७०॥ इदाणि उच्चारविधी भण्णति । 'थंडिले" त्ति दारं - पढमासति सेसाण व, मत्त वोच्चि रयvिe | थंडिल्ल निवेसे वा, गतेसु सभए पदेसेसुं ||२३७१॥ पढमं श्रणावातमसंलो, तस्सासति सेसाण श्रापायसंलोया दिया, प्रसति दिवसतो मच्छिउं रातो १ गा० २३६३ । २ विधानम् । ३ गा० २३६३ । ४ दिया णिसि पभाते । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २३६७-२३७६ ] अष्टम उद्देशक: मत्तए वोसिश्च पभाए थंडिले परिवेंति, तत्थ सग्निवेसे वा गते वोसिरति परिवेति वा । ग्रह पिट्ठतो भयं प्रणषियासो वा ताहे धम्मादिपदेसेसु वोसिरति । दारं । इदाणि "तम्मि भए" पच्छद्ध। जो ण परचक्कादिभएण संव? पइट्ठा तम्मि पत्ते परचयके धाडियागमे वा सव्वोवकरणं गुविलपदेसे ठवे "प्रवाउडा एकतो"त्ति अण्णतो एकपदेसे ठायंति ॥२३७१॥ कम्हा एवं करेंति ? भण्णति - जिणलिंगमप्पडिहतं, अवाउडा वा वि दळु वज्जेति । थंभणि मोहणिकरणं, कतजोगो वा भवे करणं ॥२३७२॥ प्रचेलिया जिणलिंग उस्सग्गे ठिया य, एवं ठिते ण कोति उवयेति, एस उववातो अपडिलेहितो जिणमुद्रेत्यर्थः। अहवा- ते तेण प्रा अवाउडे द४ सयमेव वजंति, विज्ज-मंतपभावेण थंभण-मोहणं करेति, सहस्सजोही वा तीसत्थे वा कयजोगो तस्स तारिसे प्रापं उभयगच्छसंरक्खणट्ठा करणं भवे। दारं ॥२३७२॥ "संव?" ति गतं । इदाणि "रेणगररोहे" त्ति दारं - संवट्ट णिग्गयाणं, णियट्टणा अद्धरोधजयणा य । भत्तद्वण थंडिल्ले, सरीरभिक्खे विगिचणता ॥२३७३।। जे मासकप्पखेत्ता गिग्गंतु संबट्टे ठिया ते संवट्टणिग्गया। ते इदाणि 3 उखंदचोरएणं संवट्टातो णियत्तिउ णगरं पविट्ठा ॥२३७३।। जे अणगारा तो ण णिग्गता तेसि इमा अट्टमासे रोहगजयणा भण्णति - "हाणी जा एगट्ठा, दो दारा कडग चिलिमिणी वसभा। तं चेव एगदारे, मत्तगसुधोवणं च जतणाए ॥२३७४॥ रोहे उ अट्ठमासे, वासासु सभूमिए णिवा जंति । रुद्ध उ तेण गगरे, हावंति ण मासकप्पं तु ॥२३७॥ अट्ट उदुबद्धिते मासे रोहेउं णिवा वासासु अप्पणो रजाति गच्छति, उडुबद्धे रोहिते तहााव साधू सासकणो ण हावियचो, अट्ठवसहीमो अट्ठभिक्खायरियातो, अवसहीनो अमुचंतेण भिक्खायरियानो ॥८॥ ६॥५॥४॥३॥२॥१॥ पुणो वि सत्तवसहीमो प्रमचंतेण अटादी भिक्खायरिया । एवं - जाव - एगा वसही एंगा भक्खायरिया । एतदुक्तं भवति "हाणी जा एगट्ट।" इमा य गाहा एत्थ - प्रत्थे जोएयव्वा ।।२३७५।। भिक्खस्स व वसधीय व, असती सत्तेव चतुरो जा एक्का । लंभालंभे एक्केक्कगस्सऽणेगा उ संजोगा ॥२३७६॥ कंठा । दारं ॥२६७६॥ “प्रद्धरोधगजयण" त्ति गयं । १ प्राकंपेउ भए गच्छ । २ गा० २३६५ । ३ घेरा डालना अथवा शत्रु को छल से मारना । ४ वक्खा गां० २३७५, २२७६, २३७७ । ५ गा० २३७४ । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीयसूत्रे . [सत्र-१ इदाणिं "'हाणी जा एगट्ठा" त्ति अस्य द्वितीयं व्याख्यानं- सपक्व - परपक्खवसहिजयणा य भण्णति । तत्थिमे विकपा - पत्तेया समणाणं । पत्तेया समणोणं । महाजणसम्मदेण वा दुग्लभवसहीए समण - समणीण एगट्टा । अहवा - सव्वपासंडित्थीण एगट्ठा । सवपासंडपुरिसाण य एगट्ठा । अहवा - सव्वपासंड पुरिमइत्थीण एगट्ठा। अहवा.- सव्वपासंड ( समण .) पुरिसित्थीण एगट्ठा ॥२३७६ । पत्तेयसमणविकप्पे “पासंडित्थी" तत्थिमा जयणा - एगत्थ वसंताणं, पिहं दुवारासती सयं करणं । मज्झेण कडगचिलिमिलि 'तेसुभो थेर-खुड्डीओ ॥२३७७॥ सजय - संजतीणं पत्तेयवसहिप्रभावे जदा एगवसहीए वसंति तहा चउसाले पिहं दुवारे वसति पिहदुवारासति सपमेव कुड्डु छेनुं दुवारं करेंति । गिहमाझे कुड्डासति कडगं चिलिमिलि वा ठावेंति कडगासणं थेरा ठायति । संजतीणं खुड्डियानो थेराण परतो खुड्डा। खुड्डीण परतो थेरी। खुड्डाण परमो मज्झिमा संजतिवग्गे थेरीण परतो मज्झिमायो । मज्झिमाण परतो तरुणा। संजतिवग्गे वि मज्झिमाण परतो तरुणीनो एमा विही दढकुड्डिगिहे । एवं सव् वसभा जयगं करेंति ॥२३७७॥ पुव्वद्धस्स वक्खाणं गतं । ""तं चेव एगदारे" त्ति अस्य व्याख्या - दारदुगस्स तु असती, मज्झे दारस्स कडगपोती का । णिक्खम-पवेसवेला, ससदपिंडेण सभाओ ॥२३७८॥ बितियदुवारस्सासति करणं वा न लब्भति तदा एगदुवारं कडगचिलिमिलीहि दुधा वि कजति, . प्रद्धेण संजया प्रद्धेण संजतीतो णिग्गच्छति । प्रह संकुडं ण लब्मति वा विसज्जिताहे परोप्परं णिग्गमणरेनं वज्जेंति वंदेण, ससह णिप्फिडंति, पिंडेण सज्झाय करेंति, संगारकहं ण करंति पढंति वा ॥२३७८॥ "तेसु भतो थेरखुड्डीप्रो" त्ति अस्य व्याख्या - अंतम्मि व मझमि व, तरुणी तरुणा तु सव्वबाहिरओ। मज्झे मज्झिम-थेरी, खुड्डग-थेरा य खुड्डी य ॥२३७६।। दढकुड्ड अंते सपञ्चवायमागासे मज्झे तरुणीसो । शेषं गतार्थम् । इदाणि "मत्तगे" ति दारं - *पत्तेय समण दिक्खिय, पुरिसा इत्थी य सब्वे एगट्ठा । पच्छण्ण कडगचिलिमिलि, मज्झे वसभा य मत्तेणं ॥२३८०॥ पत्तेगा जत्थ त्योवज्जा सवपासंडा एगवमहीए ठिया, जत्थ वा सव्वे पासंडा थीसहिया एगट्टिय। तथिमा जयणा - जो पच्छण्णपदेसो तत्य ठायंति, प्रमति पच्छण्णस्स मझगं कडगचिलिमिली वसभा देति अप्पसागारियकाइयभूमीए असति दिवा रातो वा वसभा मत्तगेहिं अतियंति । वसभगहणं ते खेत्तण्णा अप्पसागारियं परिठवेंति । एवं संजतीनो वि पासंडिस्थिमज्झे जयंति । १ गा० २३७४ । २ गा० २३७६ । ३ गा० २३७४ । ४ गा० २३७४ । ५ वक्खा गा० २३७७ ६ गा. २३७४ । ७ वक्खा गा० २३८२ । ' Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २३७७-२३८५ ] अष्टम उद्देशक: अहवा "वसभा यं मत्तेणं" त्ति जत्थ संजतासंजतीणं एगदुवारा एगवसही तत्थ प्रप्पसागारिय भूमी प्रसति बाहिं वा सपच्चवातो रातो तरुणीम्रो अंते, मज्भे वा वसभिणीश्रो, मत्तएमु काइयं वोसिरिउ मज्झिमाण प्रत्पेंति, ताम्रो थेरीण, थेरी खुड्डीणं, थेरा वसभाणं, ते परिद्ववेंति ॥ २३८०।। पच्छष्ण असति णिण्हग, बोडिय भिक्खू असोय सोए य । पउरदव - चड्डगादी, गरहा य सअंतरं एक्को ॥ २३८१|| पच्छष्णकडगचिलिमिलीण प्रसति णिव्हएसु ठायंति, तेसु प्रसति बोडिए, तेसु श्रसति भिक्खुपर, एवं पुव्वं प्रसोयवादीण, पच्छा सोयवादसु ठिया, प्रायमणादिकिरियासु पउरदवेणं कज्जं करेति, चडुगं कमढगं, तेसु भुंजंति, गरहापरिहरणत्थं, संतरं ठिया 'एगे" त्ति खुडुगादि एगो चडगाण कप्पं करेति । ग्रहवा - एगो साधू प्रायमणादिकिरियासु अंतरे ठायति ॥ २३८१ ॥ पत्तेय समणा दिविखय" अस्य व्याख्या. - पासंडीपुरिसाणं, पासंडित्थीण वा विपत्तेगे । पासंडित्थि पुमाणं. व एगतो होतिमा जतणा || २३८२ ॥ पुरिसा पत्तेयं, इत्थी पत्तेयं । अधवा - पुरिसा इत्थी य सव्वे एगतो ठिता। इमा जयणा । "पच्छण प्रसति पिण्ड्ग" प्रस्यार्थस्य स्पृशनं ॥ २३८२॥ जेहिं सोयवादी, साहम्मं वा वि जत्थ तहिं वासो । हिताय जुद्धकाले, ण वुग्गहो णेव सज्झाओ || २३८३ || सामिया हि बोडिएस भिक्खए वि कारुणियतं जीवातिपयत्याणि वा जेसु प्रत्थित्तं तेसु तेसु ठायंति, जुद्धकालो रोषगमित्यर्थः । ण तत्थ सपक्ख परपक्खेहि सद्धि वुग्गहं करेंति, ण च सज्झायं करेंति ।।२३८३|| "अद्धरोह गजयणा" सम्मत्ता । भत्तट्ठाणे वि एत्थेव गता । इदाणि " थंडिले " त्ति - तं चैव पुव्त्रभणियं, पत्तेगं दिस्समत्त कुरुक्कूयं । थंडिल्ल - सुक्ख - हरिते, पवायपासे पदेसे वा ॥ २३८४|| पुव्वभणियं "प्रणावायमसंलोए" एवं चैव पत्तेयं । हवा सेसं थंडिले पत्तेयमग्गहणं करेंति ॥ २३८४|| - - ""मट्टिय कुरुकुयं" च अस्य व्याख्या ४२३ - पढमासति श्रणुष्णे, तराण गिहियाण वा वि आलोए । पत्तेय मत्त कुरुकुय, दवं व पउरं गिहत्थेसुं ||२३८५॥ पढमं भणावायमसंलोयं, तस्सासति श्रमगुणाय प्रावातं गच्छेति, तस्सासति पासत्या दियाण । ततो बितियभंग प्रसोम-सोमाण गिहिपासंडियाण य कमेण प्रालोयं गच्छेति । पच्छद्धं कंठं ।। २३८५ ।' १ गा० २३८० । २ निर्व्यापारा: । ३ गा० २३६३ । ४ दिस्समाणे कुरुगाय । ५ गा० २३८४ । Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य - चूणिके निशीथसूत्रे तेण पर गिहत्थाणं, असोयवादीण गच्छ आवायं । इत्थी णपुंणएमु वि, परम्मूहो कुरुकुया सेव || २३८६|| ततो ततियभंगे गिहिपासंडिय प्रसोय सोयाण कमेण श्रात्रातं गच्छे । तेण परं बितियभंगे इत्थीमालोयं गच्छेति । परम्मूहो कुरुकुचं च करेति । ततो ततियभंगे इत्थिनपुंसावातं, तत्थ वंदेश वोलं करेता वच्चति । जयणाए पूर्ववत् । एसा थंडिलजयणा । बहिण लब्भति णिग्गंतुं जं अंतो थंडिलं विदिष्णं तत्थ वोसिरे, जति गत्य हरितं सुक्खे वोसिरेति, श्रसति सुक्खस्स मलियमीसेसु वोसिरति । श्रहो य भूमी न पासइ ताहे धम्मादिपदेसेसु वोसिरतो सुद्धो । दारं ||२३=६|| इदाणि ""सरीरे" त्ति दारं - पच्छण्ण- पुत्रभणिते, त्रिदिष्ण थंडिल सुक्ख हरिते वा । श्रगड वरंड दीहिय, जलणे पासे य देसेसु || २३८७|| रोघगे सरीरपरिवणविधी अवरदक्खिणाए चेव दिसाए प्रणावातमसंलोयं पच्छष्णपु० भणियं परिद्वावणियं से रयहरणादि उवकरणं पासे ठविज्जति ॥ २३८७ ॥ अण्णाते परलिंगे, णाउवगद्ध मा उ मिच्छत्तं । जाते उड्डाहो वा अयसो पत्थारदोसा वा ॥२३८८ || अण्णा वा जो तस्स परलिंगं कजति । तं पि उद्योगकालाम्रो परतो कजति मा सो मिच्छतं गमिति । जो जण जातो तम्मि परलिंगं ण कजति, मा जणो भणिहिति एते मातिणो, पावायारा, परोवघातिणो य एवं उड्डाहो, पवपणोवघातो, पत्थारदोसो य । एतद्दोसपरिहरणत्थं सलिगेण चैव विदिष्णे थंडिले परिविति । श्रह हरितं ताहे सुक्खसु श्रसति मीसमलिएसु. अगडे वा अणुष्णायं, पागारोवरिएण वा खिवियव्वं, दीहियाए वा वहतीए छुभियव्वं, जलणे वा जलते लुभियव्वं । एतेसि वा पासे ठविज्जति । ग्रहण लब्भति ताहे धम्मादिपएस त्ति काउं एतेसु खिवंति ॥ २३८८।। इदाणि “भिक्ख" त्ति दारं [ सूत्र - १ णवि कोइ किं चि पुच्छति, णितमणितं च बाहि अंतो वा । संकिते पडिसेहो, गमणे आणादिणो दोसा || २३८६|| जत्थ रोधगे तो बाहि वाण को ति पडिपुच्छति, णिप्फिडतो पविसंतो वा तत्थिच्छा, अंतो बाहि वा प्रति । जत्थ श्रासंकियं "को एस ? कतो वा प्रागतो ? मा एस अंतो कहेहिति, कहि वा णिग्गच्छति ? मा एस भेदं दाहिति" एरिसे प्रासंकिते पडिसेहे ग गंतव्वं । प्राणा दिया य दोसा ।। २३६६ || पउरऽण्णपाणगमणे, चउरो मासा हवंतऽणुग्वाता । सो य इतरे य चत्ता, कुल-गण-संघे य पत्थारो || २३६० || संथरंतो जति गच्छति चतुगुरु, जो गच्छति तेण प्रप्पा परिच्चत्ता, बाहिरा वा रिउ त्ति काउं गेहूति । भेदं पयच्छति त्ति संघ - पत्थारसंभवो ॥ २३६०. १ गा० २३७३ । २ गा० २३७३ । परिच्चत्तो, इतरे य अच्छंता ते य एतेन अभंतरा गेव्हंति । उभप्रो वि कुल-गण Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टम उद्देशकः तो लग्भमाणेसण मादीसु होइ जइतव्वं । जावंतिए विसोधी, अमच्चमादी अलाभे वा ॥ २३६१ ॥ भाष्यगाथा २३८६ - २३६५ ] फासुए एसणिज्जेय तो अलब्भमाणे अंते चेव पणगपरिहाणीए जयंति । जावंतिया विसोहिकोडीए जाव- चहुं पत्तो । विसोहिकोडीए प्रसति श्रमच्चो दाणसड्डादिया वा ओभासिज्जति, देताण अविसोहिकोडीए वि घेप्पति ||२३६१।। पुच्छि आरक्षिय, सेट्ठि सेणावति श्रमच्च-रायाणं । णिग्गमण-दिट्ठरुवे, भासा वि तहिं सावज्जा || २३६२|| अम्हं असंथरं णिग्गच्छामो, दारं णे देहि । तहावि भलभते, प्रारक्खितो कोट्टपालो, तं पुच्छंति, जति सो भणेज - मा णिगच्छह, श्रहं भे देमि, ताहे घेप्पंति । अह सो भणेज्ज - " णत्थि मे भत्तं, बीहेमि य रण्णो, सेट्ठि पुच्छह" । ताहे सेट्ठि पुच्छति । एवं सेणावति, श्रमच्चं, रायाणं, दितेसु गहणं । तेसिं वा प्रणुष्णाते णिग्गच्छति । दारवालाण य साहू दरिसिज्जंति एते दिट्ठरूवे करेह | ४२५ एते भट्ठा र्णेति प्रतितिय, ण किं चि तुम्भेहिं वत्तव्वा, बाहिं निग्गएहि य असावज्जा भासा भासियव्वा ॥ २३६२॥ माणी सयं दाहं, संकाए वा ण देति णिग्गंतुं । दाणम्मि होइ गहणं, अणुसट्टादीणि पडिसेहे || २३६३॥ श्रारक्खियादि पुच्छिया भणति - " मा णीह, श्रम्हे सयं भत्तं देमो", ते पुण भेदसंकाए णिग्गंतु ण देति । ते जति प्रविद्धं देति तहावि गहणं । ग्रह णो भत्तं णो णिग्गंतु देति ताहे अणुसट्ठी धम्मका विज्जामंतादिया वा पयुज्जति ॥ २३६३ ॥ जता णिग्गच्छति तदा बहिया वि इमं विधि पर्यु जति बहिया वि गमेतूणं, आरक्खगमादिणो ततो णिति । हित - ण-चारियादि, एवं दोसा जढा होंति || २३६४॥ तो बह च गमिते सब्वे चारिगादिदोसा परिचत्ता भवंति ॥ २३६४ ॥ बहिया जे साहू पट्टविज्जति ते इमेहिं गुणेहिं जुत्ता पिम्मे दधम्मे, संबंधऽविकारिणो 'करणदखे । पडिवत्तीण य कुसले, तन्भूते पेसते बहिता || २३६५ || जेसि तो बाहिं च सयणसंबंधो अस्थि, अविकारी ण उन्भडवेसा, ण कंदप्यसीला भिक्खरगहादिfaforदक्खा, पडिवत्ती प्रतिवचनं तं प्रति कुशला वाहि खंधारी प्रागतो तत्थ जे जा उप्पणा, ते बाहि पेसिज्जति ॥ २२६५।। १ क्रिरिय । २ भूमे ( पा० ) । Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे । सूत्र-1 "भासा वि तहि असावज्ज" त्ति अस्य व्याख्या - केवइय आस-हत्थी, जोधा घण्णं च केत्तियं णगरे । परितंत अपरितंता, णागरसेणा व ण वि जाणे ॥२३६६।। बाहिरच्चेहि पुच्छितो ण भणाति, ण जाणामि ॥२२६६॥ ते भणंति - तत्थेव वसंता कहं न याणह ? साह भणति - सुणमाणे वि ण सुणिमो, सज्झाए समिति गुत्ति आउत्ता। सावज्जं सोऊण वि, ण हु लब्भाऽऽइक्खिउं जइणो ।।२३६७।। जइ किं चि सुगिमो तहावि सावज्जं न युजति अक्खि । अंतो वि पुच्छितो भिक्खादिउवग्रोगे ण णायं । अंतो बहिया य - इमं उत्तरं “२बहु सुणेति" - सिलोगे । २२६७।। एवं हिंडते पडुप्पण्णे समुदाणे - भत्तट्टणमालोए, मोत्तणं संकिताइ ठाणाई । सच्चित्ते पडिसेहो, अतिगमणं दिविरूवाणं ॥२३६८।। "भत्तट्ठणमालोए'' त्ति अस्य व्याख्या - __ सावग सण्णिठाणे, ओयवितेतर करेंति भत्तटुं । तेसऽसती आलोए, चड्डग कुरुयाइ णो छण्णे ।।२३६६।। जत्थ सड्ढो य सड्डी य उभयं पि अप्पसागारियं तत्थ भत्तटुं करेंति, असती 3एगतरोयविते, इयरगहणेण प्रणोयविएवि, असति अहाभद्दएसु वा, एतेसि असतीए प्रडवीए प्रसंकणिज्जे घणदरट्टाणे वज्जेता. पालोए पगासे भत्तटुं करेंति, चारिगादिसंकाए णो छण्णे करेंति । सचित्तो सेहो जइ को ति पब्वाइउं ठाति तस्स पडिसेहो, न पब्बावेंति । प्रह कोइ काउंलिंगं पविसति, ताहे भगंति - अम्हे गया णामकिया दारेण णिग्गता, तं जइ तुमे घेप्पसि तो मव-सं मारिज्जसि, दारे गणिया पुच्छिया भणंति - ण जाणामो कोइ एस त्ति, पविसंता भगंति दारिटुं "अम्हे ते चेव इमे दिहरूवे करेसि" ॥२३६६।। भत्तट्टितऽपाहाडा, पुणरवि घेत्तुं अतिति पजत्तं । अणुसट्ठी दारिठे, अण्ण वऽसती य जं अंतं ॥२४००।। एवं भत्तट्ठिया तदूणे भायणे पुणरवि गज्जत्तं घेत्तुं अतिति, जति दारपालो मग्गति वा ण वा पवेसं देति, रुद्धसु जइ अण्णो कोइ अणुकंपाए देज्ज तत्थ अणुमती, ण वा वारिज्जति, अण्णदातारस्स वा असतीते तं जं अंतं पंतं दिजति ॥२४००। रुद्धे वोच्छिण्णे वा, दारिद्वे दो वि कारणं दीवे । इहरा चारियसंका, अकाल अोखंदमादीसु ॥२४०१॥ अह णिग्गताण दारं रुद्धं स्थगितमित्यर्थः, गमागमो य वोच्छिण्णो, अभिंतरा साहू बाहिरा जे भिवखाणिग्गया एते वि दो वि दारपालस्स भिक्खादि णिगमणकारणं दीवेति । इहरा अकहीए साहू णिम्गता, १ गा० २३६२ । २ दश० प्र०८ गा० २० । ३ परिकम्मित । ४ अपरिकम्मित । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २३६६-२४०७] अष्टम उद्देशकः ४२७ ण ते पविट्ठा, पूणं ते चारिया प्रागता प्रासी, जे ते साहू णिग्गता ते ण पविट्ठा, गुणं तेहिं एस उक्खंद मोकट्ठिो ॥२४०१॥ बाहिं तु वसितुकामं, अतिणेति पेल्लिया अणिच्छंतं । गुरुगा पराजय जए, बितियं रुद्धे व वोच्छिण्णे ॥२४०२।। भिक्पटुताणिग्गताण जइ कोइ साहू बाहि वशित्तुमिच्छति तं पि ते सहाया बला पवेति । एगे प्रणेगे वा गिकारणे बाहिं वसते च उगुरुगा । अभिंतरिल्लाण पराजय-जए अणेगे दोसा भवति । बितियपदेण सव्वं णित्थर णगरं रुद्धं, गमनागमो वोच्छिण्णो, एवं अपविसंतो दारितु वा अणिवेंदेते सुद्धो ॥२४०२।। एवं रोहकारणे - इत्याहिं सह विहारादि पदा हवेज्ज । “रोधगे" ति दारं गतं । इदाणि "'प्रद्धाणे' त्ति प्रद्धाणे जत्य मपच्चवायं । तत्य जति संजतीतो सत्थेणं पधाविता तत्य सत्थे जति बोधियतेणाइभयं हवेज तत्थ गमणे, राप्रो वा सुर्वताणं, इमा जयणा - मज्झम्मि य तरुणीओ, थेरीअो तासि होंति उभयंतो। थेरि बहिट्ठा खुड्डी, खुड्डिबहिट्ठा भवे थेरा ॥२४०३॥ थेरबहिट्ठा खुड्डा, खुड्डबहिट्ठा उ होंति तरुणा उ । दुविधम्मि वि अद्धाणे, सपञ्चवायम्मि एस गमो ॥२४०४॥ तरुणीनो माझे कीरति, तासि पिट्ठतो अग्गो य थेरीगो हवंति, तासि उभयंते थेरा, थेराणं उभयंते खुडा, तेसि उभयंतो तरुणा, दुविधं प्रद्धाणं-पंथो मग्गो य । तम्मि सपच्चवाए एस गमो भणितो। एवं अद्धागे वा इत्थीहिं सद्धि विहारादिया पदा भवे । दारं ॥२४०४॥ इदाणि "संभम भय वास" तिण्णि वि दारा एगगाहाए दंसेति - आऊ अगणी वाऊ, तेणग रहादि संभमो भणितो। बोहियमेच्छादिभए, गोयरचरियाए वासेणं ॥२४०५॥ पाऊमादिया संभमा, बोहियमेच्छादिभयं । गोयरं प्रडंता वासेण अन्भहता एगभिलए वि होज्जा ॥२४०५॥ जलसंभमे थलादिसु, चिटुंताणं भवेज्ज चउभंगो । एगतरुवस्सए वा, बूढगलंते व सव्वत्तो ॥२४०६॥ एगो एगित्थीए समं हवेज्ज, पाउकायसंभमेणं उदगवाहगे थले एगं उणयं थलं पव्वयं डोगरं वा, तत्थ चिटुंताणं च उभंगसंभवो हवेज्ज । जलसंभमे वा खेताओ खेतं संकमज्ज । एत्थ वि चतुरंगसंभवो। एगतरवसधीए वा बूढाए जाव अन्ना वसधी न लब्भति ताव चतुभंगसंभवो, सवयो वा एगपक्खस्स वसधी गलति, एवं पि एगट्टिताण चउभंगो ।२४०६।। एगतरझामिए उवस्सयम्मि डझज्ज वा वि मा बसधी । ऐमेव य वातम्मि वि, तेणभया वा णिलुक्काणं ॥२४०७॥ १ गा० २३४६ । २ मा० २३४६ । Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [सूत्र-१ संजत-संजतीण एगतरस्स झामिता वसधी । वसहिसंरक्खट्ठा वा ताण वसघि गता। झामितवसधिए वा खेत्तानो खेतं संकामिज्जति । एवं वाते वि चउभंगसंभवो हवेज्ज । तेणगभएण वा गुविले चउभंगसंभवेण णिलुक्का अच्छंति ॥२४०७॥ भोइयमाइविरोधे, रट्ठादीणं तु संभमे होज्जा । बोहिय-मेच्छभए वा, गुत्तिणिमित्तं च एगत्थ ॥२४०८॥ भोइयस्स भोइयस्स विरोहो, एवं गामस्स गामस्स य, रटुस्स रटुस्स य, एरिसे संभमे चउभंगसंभमो हवेज्ज । बोहियमेच्छभएण पलायाण चउभंगसंभवेन विहारसज्झाय असणादिग, उच्चारादिमा वा एगत्थ णिलुक्काण संभवो हवेज्ज, गुत्तिं वा रक्खणं करेंताण संभवेज्जा ।।२४०८॥ पुव्वपविटेगतरे, वासभएणं विसेज्ज अण्णतरो। तत्थ रहिते परंमुहो, ण य सुण्णे संजती ठंति ॥२४०६।। वासासु वासावासे पडते संजतो संजती वा कि चि णिव्वोवन्सिं ठाणं पविलृ हवेज्ज, पच्छा इयरं पविसिज्ज । तत्थ जणविरहिते दो वि परोप्परं परंमुहा अच्छंति, सज्झायजुत्ता य । सुठु वि वासे पडते संजती सुण्णट्ठाणे णो पविसति । दारं ॥२४०६।। - इदाणिं "खंतिमाईण णिक्खमणे" त्ति - इदाण' 'खातमा२ कारण एग मडंबे, खंतिगमादीसु मेलणा होज्ज । पव्वज्जमभुपगमे, अप्पाण चउन्विहा तुलणा ॥२४१०॥ असिवादिकारणेण एगागिनो छिण्णमडंबं गतो हवेज्ज, तत्थ य "खंतियमादी'' असंकणित्थी मिलेज्ज, सा य पव्वज्जब्भुवगर्म करेज्ज, ततो अप्पाणं चविहाए दब्ब - खेत्त - काल - भावतुलणाए तुलेति ॥२४१०॥ एसेव अत्थो इमाहिं गाहाहि भण्णति - असिवादिकारणगतो, वोच्छिण्णमडंब संजतीरहिते। कहिता कहित उवट्टिय, असंकइत्थीसिमा जयणा ॥२४११॥ अड्डाइय जोयणभंतरे जस्स अण्णं वसिमं णत्थि तं छिपण मडंबं सा असं हणिज्जत्थी धम्मे कहिते प्रकहिते वा पव्वजं उवट्ठिता, तत्थिमा जयणा अप्पणो दबतो तुलणा ।।२४११:। इमा तुलणा आहारादुप्पादण, दव्वे समुतिं व जाणते तीसे । जति तरति णित्तु खेत्ते, आहारादीणि वद्धाणे ॥२४१२।। दव्वतो जति माहारं उहि सेज्जं वा तरति उप्पाएत, समुइ णाम - जो तीसे सभावो भुक्खालू सीयालू । जति य तं पढमालियादि संपाडेउं सक्केति, महुरादि पाणगं वा एयाणि उप्पाएउं सक्केति, ततो पवावेति । खेत्ततो जइ श्रद्धाणं णेउं तरति, जति य अद्धाणे पाहारादी उप्पाएउं सत्तो ॥२४१२।। १ गा०२३४६। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा २४०८-२४१८ ] मष्टम ४२६ . गिम्हातिकालपाणग, णिसिगम वा वि जति सत्तो । भावे कोधादि जई, गाहे णाणे य रणे य ॥२४१३।। कालतो जति गिम्हकाले रिउक्खम पाणगं पवायवसही य प्रादिसहातो सीतकालादिसु य जं तम्मि रिउम्मि दुल्लभं तं जति उप्पाएतुं सत्तो, रातो वा जति सत्तो गेलं. मोमे वा ते पाहारुप्पादणं काउं सत्तो, भावे जति अप्पणो कोहादियाणं जयं काउं सत्तो, रत्तस्स वा जयं कारावेउं सत्तो । णाणचरणाशि वा जति सत्तो प्रणिध्वेएण गाहेडं, चक्कवालसामायारि च गाहे जइ सत्तो॥२४१३।। गुरु गणिणिपादमूलं, एवमपत्ताए अप्पतुलणाए । आवकधसमत्थो वा, पव्वावे एतरे भयणा ॥२४१४॥ जो वा जावज्जीवं समत्थो वट्टावेउ सो णियमा पव्वावेति, इयरो असमत्यो य, तस्स भयणा । जइ से प्राणो वट्टावगो प्रत्थि तो पव्वावेति । अह नत्थि न पव्वावेइ । एसा भयणा ॥२४१४॥ अब्भुज्जतमेगतरं, पडिवज्जिउ कामो सो वि पव्वावे । गण गणि सलद्धिते उ, एमेव अलद्धिजुत्तो वि ॥२४१॥ अब्भुज्जियमरणं परिणादि, अन्भुज्जिय-विहारो जिणकप्पादि । एयं एगतरं अभुज्जतिविहारं पडिवज्जितकामो। इत्यिया य उवद्विया पब्वज्ज । जति अण्णो गणे गणी सलद्धी अस्थि तीसे परियट्टियब्वा ते ताहे तं तस्स अप्पे अप्पणा अब्भुजविहारं पडिवज्जति । मह पत्थि अण्णो वट्टावगो ताए णो अब्भुज्जयविहारं पडिवज्जइ । तं परियति । किं कारणं ? अन्भुज्जियविहारातो तस्स विधिपरियट्टणे बहुतरिया णिज्जरा। अलद्धिजुत्तो वि अण्णवट्टावगसंभवे पवावेति, इयरहा णो ॥२४१५।। पव्वावणिज्ज-तुलणा, एमेवित्थ तदिक्खणा होति । अविदित-तुलणा उ परे, उपट्टित-तुलणा य आतगता ॥२४१६॥ जो पञ्चावणिज्जो तस्स वि एसेव दव्वादिया चउम्विहा तुलणा कज्जति । चोदग आह - जति ता तस्स माता वा भगिणो वा तो सो तस्सा समुई जाणाति चेव, किं तुलिज्जति ? उच्यते - कताइ सो खुड्डुलमो चेव तेसि मज्झायो फिडितो तो न जाणइ, एवं परे प्रविदिते तुलणा भवति । जस्स पुण सुइ-दुह-कोहादिया समुती गज्जति तस्स नत्थि तुलणा। तम्मि उवट्टिते प्रायतुलणा भवति ॥२४१६॥ तस्स पव्वावणिज्जस्स इमा तुलणा भवति - 'पारिच्छ पुच्छमण्णह, कायाणं दायणं च दिक्खा य । तत्थेव गाहणं पंथे, णयणं अप्पाय इत्तरिया ॥२४१७॥ अस्य विभाषा - पेज्जाति पातरासे, सयणासणवत्थ पाउरणदव्वे । दोसीण दुब्बलाणि य, सयणादि असक्कता एण्हि ॥२४१८॥ १ वक्खा गा . २४२५ परीक्षाद्वारम् । Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १ परिच्छा णाम तुलणा । सा भण्णति - पुवं तुममन्नहा दव्वादिए सु उचिया, इयाणि पव्वतियाए भण्णहा । पुव्वं प्रणुप्पए खीरादिपेज्जामो इत्थिया (इच्छिया) पायरासा-पढमालिय त्ति वुत्तं भवति, इदाणि सा पत्थि मज्झण्हे भिक्खं प्रडिता पारेयव्वं । उदुम्ढे सयणभूमीए, इक्कड कड्ढिणादिसंथारगेसु वासासु पासणं । पुव्वं मासंसादिसु. इदाणि उडुबाए णिसज्जाए वासासु णं संथारग - भिसिगादिएसुं । पुव्वं तुझ वत्थपाठरणा महद्धणमुल्ला सण्हा य प्रासि, इयाणि ते अमहद्धणमुल्ला थूलकडा य । पुष्वं ते रुप्प - सुवण्णादिसु भोय णं, इदाणि ते लाउ - कमढादिसु । माहारो वि ते पुव्वं जेहादगाढे रिउक्खमो प्रणुकूलो य, इदाणि ते वोसीणो णिब्बलो असंस्कृतः । एहि सयणादिया वि प्रसंस्कृता । "एण्हि" ति - इयाणि ॥२४१॥ पडिकारा य बहुविधा, विसयसुहा आसि तेण पुण एण्हि । चंकमणण्हाण धुवणा, विलेवणा ओसहाई च ॥२४१६।। पडियारा णाम सरीरसंस्कारा, चंकमणादि विविधरोगोवसमणियमोसहाणि । एवं दव्वे गतं ॥२४१॥ इमं खेत्ते - अद्धाण दुक्ख सेज्जा, सरेणु तमसा य वसधिओ खित्ते । परपातेसु गयाणं, वुत्थाण व उदु-सुहघरेसु ॥१४२०॥ मासकप्पे पुणे श्रद्धाणं णिरणुवाणएहिं । दृक्खकारियानो सेज्जामो रेणुकज्जवायो, प्रजोतिकडामो तमसानो, एवं पव्वज्जाए। गिहवासे पुण तुमं सिवियादिएहि प्रासादिएहि जाहि उदए वातणिवातेसु य हरितोवलित्तेसु य ऊसिता, कहं पवज्जाए धिति करेज्जह ? ॥२४२०॥ आहारादेवभोगो, जोग्गो जो जम्मि होइ कालम्मि । सो अण्णहा ण य णिसिं, अकालज्जोग्गो य हीणो य ॥२४२१॥ आहारादिनो उवभोगो जो जम्मि काले जोग्गो सो पयज्जाकाले अण्णहा विवरीतो। णिसि च जावज्जीवं ण भोत्तव्वं, दिया वि वेलातिक्कमे लभते, भजोग्गो अणणुकूलो, सो वि हीणो प्रोमोदरियाए ॥२४२१।। एण्हि भावे - सव्वस्स पुच्छणिज्जा, ण य पडिकूलेइ सइरमुइतत्था । खुड्डी वि पुच्छणिज्जा, चोदण-फरुसादिया भावे । २४२२॥ गिहवासे रामो पच्चुट्टिता मुहसलिलादिएहि सव्वस्स पुच्छणिज्जा प्रासी, गिहवासे ण ते कोति Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २४१६-२४२५ ] पष्टम उद्देशक: पहिकूलं करेति, मागमममादिएहि य "सतिर" मिति सेच्छा, "उदित" मिति भाविया, इदाणी ते खुड्डी वि पुन्छणिज्जा । असामायारिकरणे फरुसवयणेहिं चोतिज्जिहिसि । सव्वं सोढव्वं ॥२४२२॥ इमं संखेवो भण्णति - जा जेण व तेण जधा, व लालिता तं तहण्णहा भणति । सोताइ-कसायण य, जोगाण य णिग्गहो समिती ॥२४२३।। सुहभाविता अण्णहा भणति, " दुक्खभाविता। सोयादिमिदियाणं सदा णिग्गहो काययो, कोहादिकसाया जेयधा, मणादि अप्पसत्याण जोगाण गिग्गहो कायव्वो, इरियादिसमितीसु प्र सदा समियाए होयध्वं ।।२४२३॥ इयाणि "कायाणं" ति - आलिहण-सिंच-तावण-, वीयण-दंत-धुवणादिकज्जेसु । कायाणाणुवभोगो, फासुगभोगो परिमितो य ॥२४२४॥ पुढविकाए णो मालिहण विलीहणादी कायवा, प्राउकाए सिंचणादि, अगणीए तावणादि, वाते वीयणःदि, वणस्सतीए दंतधावणादी, एवमादिसु कज्जेसु गणुवभोगो, जो भोगो सो फासुएण, तेण वि परिमितेण ॥२४२॥ अब्भवगता य लोओ, कप्पट्ठग लिगकरण दावणता। भिक्खग्गहणं कहेति व, णेति वहं ते दिसा तिण्णि ॥२४२॥ एवं सव्वं प्रब्भुवगच्छति जइ तो से लोचो कज्जति । २दावणं च दिवखाए त्ति, जो साधू कप्पट्ट. गस्स नियंसेति, एवं से परिहरणलिंगकरणं दाइज्जति "तत्थेव" ति छिमंडवे, अप्पणो समीवे गहणासेवणसिक्खं गाहेति, उग्गमादि विसुद्धभिक्खागहणं च कारेति, पंथं व णेति, संबद्धइत्थिसहिएण प्रसंबंधिइत्थीहि वा पुरिसमीसेण वा संबंधिपुरिससत्येण वा असबंधेहि वा भद्दगेहि - जाव- गुरुसमीवं पत्ता तार “४ इत्तरं" दिसाबंधं करेति । इम, अहं ते दिसा तिन्नि- अहं ते पायरियो, अहं ते उवज्झाम्रो, पवत्तीण य । गरुसमीवं पुण पत्ताए गुरू वाहिति । एवं बितियपदे एगे एगित्थीए सद्धि चउभंगसंभवं इत्यर्थः ।।२४२५।। जे भिक्खू उज्जाणंसि वा उज्जाण-गिहसि वा उजाण-सालंसि वा निज्जाणंसि वा निजाण-गिहंसि वा निजाण-सालंसि वा एगो एगाए इत्थीए सद्धि विहारं वा करोति, सज्झायं वा करेति, असणंवा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेति, उच्चारं वा पासवणं वा परिवेति, अण्णयम् वा वा अणारियं पिहुणं अस्समण-पाओग्गं कहं कहेति, कहेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥२॥ जे भिक्खू अमुसि वा अट्टालयंसि वा चरियसि वा पागारंसि वा दारंसि वा गोपुरंसि वा एगो एगाए इत्थीए सद्धि विहारं वा करेति, सज्झायं वा १ गा० २४१७ । २ गा० २४१७ । ३ गा० २४१७ । ४ गा० २४१७ । Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२ सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र ३-१ करेति, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा श्राहारेति, उच्चारं वा पासवणं वा परिट्ठवेति, अण्णयरं वा अणारियं पिहुणं समण - पारगं कहं कहेति, कहेंतं वा सातिज्जति ॥ | सू०||३|| जे भिक्खु दसि वा दग-मग्गंसि वा दग-पहंसि वा दग-तीरंसि वा दग-ट्ठाणंसि वा एगो गए इत्थीए सद्धि विहारं वा करेई, सज्झायं वा करेह, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा श्राहारेति, उच्चारं वा पासवणं वा परिट्ठवेति, अण्णयरं वा णारि पिहुणं समण - पारगं कह कहेति, कहेंतं वा सातिज्जति ||सू०||४|| जे भिक्खू सुण-गिहंसि वा सुण्ण- सालंसि वा भिन्न-गिहंसि वा भिन्न- सालंसि वा कूडागारंसि वा कोट्ठागारंसि वा एगो एगाए इत्थीए सद्धि विहारं वा करेs, सज्झायं वा करेइ, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेति, उच्चारं वा पासवणं वा परिद्ववेति, अण्णयरं वा अणारियं 'पिहुणं श्रस्मण - पाउग्गं कहं कहेति, कहेंतं वा सातिज्जति ॥ | सू० ||५|| जे भिक्खू तण-गिहंसि वा तण- सालंसि वा तुस - गिहंसि या तुस- सालंसि वा छुस-गिहंसि वा छुस- सालंसि वा एगो एगाए इत्थीए सद्धिं विहारं वा करेइ, सभायं वा कांड, असणं वा पाणं खाइमं वा साइमं वा आहारेति, उच्चारं वा पासवणं वा, परिद्ववेति, अण्णयरं वा अणारियं पिणं अस्समण पाउरगं कहं कहेति, कर्हेतं वा सातिजति ||सू०||६|| जे भिक्खू जाण - सालंसि वा जाण-गिहंसि वा जुग्ग-सालंसि वा जुग्ग - गिहंसि वा एगो गए इत्थीए सद्धिं विहारं वा करेइ, सज्झायं वा करे, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेर, उच्चारं वा पासवणं वा परिवेति, अण्णयरं वा अणारियं पिहूणं अस्समण पाउरगं कहं कहेति, कहेंतं वा सातिज्जति ||०||७|| जे भिक्खू पणिय - सालंसि वा पणिय - गिहंसि वा परिया - सालंसि वा परिया - गिहसि वा कुविय - सालंसि वा कुविय - गिहंसि वा एगो एगाए इत्थीए सद्धिं विहारं वा करेइ, सज्झायं वा करेइ, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेति, उच्चारंचा पासवर्ण वा परिड १ निठुरं । २ निठुर । ३ कमियसालंसि वा । Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्य गाथा-२४२६ । अष्टम उद्देशकः ४३३ अण्णयरं वा अणारियं पिहुणं अस्समण-पाउग्गं कहं कहेति, कहेंतं वा सातिजति ॥०॥८॥ जे भिक्ख गोण-सालंसि वा गोण-गिहंसि वा महा-कुलंसि महा-गिर्हसि वा एगो एगाए इत्थीए सद्धि विहारं वा करेइ, सज्झायं वा करेइ, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारति, उच्चारं वा पासवणं वा परिवेति, अन्नयरं वा अणारियं पिहुणं अस्समण-पाउग्गं कहं कहेइ, कहेंतं वा सातिज्जति ।। ०।६।। उज्जाणं जत्थ लोगो उजाणियाए वच्चति. जं वा ईसि गर स्स उवकंठं ठियं तं उज्जाणं । रायादियाण णिग्गमणट्ठाणं णिउजाणिया, गगरपिगमे जं ठियं तं णिज्जाणं एतेसु चेव गिहा वया उजाण -णिज्जाणगिहा। नगरे पागारो तस्सेव देसे पट्टालगो। पागा रस्स प्रहो अड्डहत्यो रहमग्गो चरिया। बलाणगं दारं, दो बलाणगा पागारपडिबद्ध। । ताण अंतरं गोपुरं । जेण जणो दगस्स वच्चति सो दग-पहो दग-वाहो दग-मग्गो दग-भासं दग-जीरं । सुण्णं गिह सुण्णागारं । देसे पडियसडियं भिगा गारं । अधो विसालं उवरुवार संवटितं कूडागारं । धनागारं कोटामारं। दम्भादित गट्ठाणं अधोपगासं तणसाला । सालिमादि-तुसट्टाणं तुस-साला, मुग्गमादियाण तुमा । गोकरीसो गोमयं, गोणादि जत्य चिटुंति सा गोसाला, गिहं च । जुगादि जणाण प्रकुड्डा साला सकुड्ड गिहं । प्रस्सादिया वाहणा, ताणं साला गिहं वा । विक्केयं भंड जत्थ छूई चिट्ठति सा साला गिहं वा । पासंडिणो परियागा, तेसि पावसहो साला गिह वा । छुहादिया जत्थ कम्मविज्जति सा कम्मतसाला गिहं वा । मह पाहन्ने बहुत्ते वा, महंतं गिहं महागिहं, बहुमु वा उच्चारएमु महागिहं । महाकुलं पि इन्भकुलादी पाहणणे बहुजण प्राइणं बहुत्ते । इमा सुत्तसंगहगाहा - उज्जाणऽट्टाल दगे, सुण्णा कूडा व तुम भुसे गोमे । गोणा जाणा पणिगा, परियाग महाकुले सेवं ।।२४२६॥ एवं जहा पडममुत्ते । एवं एतेसु उस्सगाववातेण च उभंगसंभवो वत्तव्यो ।।२.४२६।। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ इमं "उज्जाणवक्खाणं" सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे इयरे ति णिज्जाणे, वणियमादिया णिग्गमगहियं कयं णिज्जाण - गिहं । हवा - पच्छद्धेणं बितियं बक्खाणं ।। २४२७ ।। सालागिहाण इमो विसेसो - सभमादुज्जाणगिहा, णिग्गमणगिहा वणियमादिणं इयरे । नगरादिनिग्गमेसु य, सभादि निज्जाणगेहा तु ॥२४२७॥ साला तु हे विडा, गेहं कुड्डसहितं तुऽणेगविधं । वणिभंडसाल परिभिक्खुगादिमहबहुगपाहणे || २४२८॥ पणियसाला पणियवसवो महाकुलं पच्छद्धेण व्याख्यातं । जे भिक्खू राम्रो वा वियाले वा इत्थि - मज्झगते इत्थि- संसत्ते इत्थि परिवुडे परिमाणाए कह कहेइ, कहेंतं वा सातिज्जति ॥०॥१०॥ संा राती भणिता, संझाए उ विगमो वियालो तु । केसिं ची वोच्छत्थं, पच्छण्णतरे दुविधकाले || २४२६॥ रातीति राती संज्ञा, तीए विगमो वियालो । अधवा जंसि काले चोरादिया रज्जति सा राती संभावगमेत्यर्थः, ते च्चिय जम्मि काले विगच्छति सो वियालो संकेत्यर्थः ।। २४२६॥ इद्राणि णिज्जत्ती - इत्थीणं मज्झम्मी, इत्थी - संसत्तेपरिवुडे ताहिं । चउ पंच उ परिमाणं, तेण परं कहंत आणादी || २४३०|| [ सूत्र १०-११ इत्थी उभोठियास मज्भं भवति उरुकोप्परमादीहिं संघट्टंतो संसत्तो भवति, दिट्ठोए वा परोप्परं संसतो, सव्वतो समता परिवेढियो परिवुडो भण्णति । परिमाणं जावतिष्णि चउरो पंच वा वागरणानि, परतो छट्टादि परिमाणं कहं कहेंतस्स चउगुरुगं श्राणादिया य दोसा ||२४३०|| एस सुत्तत्थो । १ गा० २४२६ । म दोहंतगतो, संसत्तो ऊरुगादिघट्टंतो । चतु दिसि ठिताहि परिवुडो, पासगताहि व अफुसंतो || २४३१ ॥ ग्रहवा - एगदिसिठियाहि वि अफुसंतीहि परिवुडो भण्णति ।। २४३१ ॥ दुविधं च होति मज्यं, संसत्तो दिट्ठि दिट्ठि अंतो वा । भावो वि तासु हितो, एमेवित्थीण पुरिसेसु || २४३२|| Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २४२०-२४३५] अष्टम उद्देशकः ४३५ च सद्दामो संसत्तं पि दुविधं - ऊरुगादिघटुंतो संसत्तो दिट्ठीए वा, इत्थीण वा मज्झे, दिट्ठीण वा मझे। ___ अहवा - संसत्तास इमं वक्खाणं - तेण तासु भावो णिहतो णिवेसितो, ताहिं वा तम्मि णिसेवितो, परस्परं गृद्धानीत्यर्थः ॥२४३२।। इमे दोसा - इत्थीणातिसुहीणं, अचियत्तं आसि आवणा छेदो । आत-पर-तदुभए वा, दोसा संकादिया चेव ॥२४३३॥ इत्थीणं जे णायपो भाया पिया पुत्त भचयमादी ताण वा जे सुही मित्ता एतेसिं अचियत्तं हवेज, प्रचियत्ते वा उप्पणे दिया असिवाति डू। रातो ड्रा। तेसिं प्रणेसि वा गसहिमादियाणं वोच्छेदं करेज प्राय - पर - उभयसमुत्थाणा एक्कतो मिलियाण दोसा हवेज । अह संकंति एते रातो मिलिता किं पुण प्रणायारं करेज, संकिते च उगुरु, णिस्संकित मूलं । गेण्हणादिया दोसा तम्हाणो रातो इत्थीणं धम्मो कहेयव्व।।२४३३॥ भवे कारणं - बितियपदमणप्पज्झे, णातीवग्गे य सण्णिसेजासु । णाताचारुवमग्गे, रण्णो अंतेपुरादीसु ॥२४३४॥ प्रणवज्झो वा णातिवग्गं वा सो चिरस्स गतो ताहे भणेज्ज - रत्तिधम्मं कहेह, ताहे सो कहेज - वर; कोइ धम्म पव्वज्ज वा पडिवज्जेज्ज । सावग-सेज्जातर - कुलेसु वा प्रसंकणिज्जेसु प्रदुटुसीले वा णायायारेसु । उव सग्गो वा जहा अंतेपुरे अभिवुत्तो। अहवा - राया भणेज्ज - अंतेपुरस्स मे धम्मं कहेह, ताहे अक्खेज ॥२४३४॥ तत्थिमं विधाणं - णच्चासण्णम्मि ठिो, दिहिमबंधंतो ईसि व किडीसु । वेरग्गं पुरिसविमिस्सियासु किढिगाजुयाणं वा ॥२४३शा णासपणे ठितो, भण्णइ य-दूरे ठायह, मा य मे संघट्टेह, तासु दिष्टुिं अबंधतो ईसि वुड्डासु दिट्ठी बंधेतो वेरग्गकह कहेति, पुरिसविमिस्साण वा कहेति । अहवा - सव्वा इत्योमो ताहे थेरविमिस्साण कहेति ॥२४३५।। जे भिक्खू सगणिच्चियाए वा परिणिच्चियाए वा णिग्गंथीए सद्धि गामाणुग्गामं दूइज्जमाणे पुरो गच्छमाणे पिट्ठो रीयमाणे ओहयमणसंकप्पे चिंता-सोय-सागरसंपविढे करतलपल्हत्थमुहे अट्टज्माणोवगए विहारं वा करेइ, सज्झायं वा करेइ, असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारेइ, उच्चारं वा पासवणं वा परिढुवेइ, अण्णयरं वा अणारियं पिडणं अस्समण-पाउग्गं कह कहेइ, कहेंतं वा मातिज्जति ||मू०||११|| Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य - चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र - ११ स- गणिच्चया स - सिस्सिणि, अथवा वि स गच्छवासिणी भणिता । पर- सिस्सिणि पर- गच्छे, णायव्त्रा पर गणिच्ची ॥२४३६|| सगणिच्चिया, ससिस्सिणी वा सगच्छवासिणी वा । परसिस्सिणी वा परगणवासिणी वा परिगगिच्चिया || २४३६॥ ४३६ पुरतो व मग्गतो वा, सपच्चवाते पञ्चवातेय | वच्चंताणं तेसिं, चउक्कभयणा अवोच्चत्थं ॥२४३७॥ पुरतो अग्गतो ठितो साहू वच्चति । ग्रहवा- पिट्ठतो मग्गतो ठितो साधू वच्चति ॥२४३७॥ एत्थ चउभंगो इमो - पुरतो वच्चति साधू, अधवा पिट्ठेण एत्थ चउभंगो । श्रवण पुरवा, पिट्ठे वा एत्थ वा चतुरो || २४३८॥ पुरतो साधु वच्यति णो मग्गतो । णो पुरतो मग्गो वच्चति । बहूसु पुरतो वि मग्गतो वि । जो पुरतो णो मग्गतो पक्खापक्खी सुण्णो वा । अहवा - इमो च उभंगो पुरतो सावायं णो पिट्ठतो। जो पुरतो, पिद्वतो सावायं । पुरतो विसावायं, पिट्ठतो वि सावातं । जो पुरतो णो पिटुतो सावात । गिन्भए ""अव्वोच्चत्यं " गंतव्वं पुरश्रो साधू पितो संजतीतो ॥२४३८|| भयणपदाण चतुण्हं, अण्णतरातेण संजतीसहिते । श्रहतमणसंकप्पो, जो कुञ्ज विहारमादीणि || २४३६॥ - - संजतिसहि जति हियमणसंकप्पो विहरति वा ||२४३६|| सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं तथा दुविधं । पावति जम्हा तेणं, एते तु पदे विवज्जेज्जा || २४४०॥ सो पुर्ण किं श्रहमणसंकप्पो विहरति ? भण्णति - अद्धितिकरणे पुच्छा, किं कहितेणं अणिग्गहसमत्थे । दुक्खमणाए किरिया, सिट्ठे सत्तिं ण हावेस्सं || २४४१॥ ताओ हयमणसं कप्पं दट्टु पुच्छति, जेदृऽज्जो ? कि अधिति करेह ? ताहे संजतो भज्जा - जो णिग्गहसमत्यो ण भवति तस्स कि कहिएण ? ताहे संजती भांति - "दुक्खे अणाते किरिया ण कजति, गाए पुत्र दुखपडियारो सोढा, यो सति ण हावेस्सं || २४४१ ॥ १ गा० २४३७ । Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३७ माणगाथा २४३६-२४४७ ] अष्टम उद्देशकः एवं भणिते तह वि गारवेण अकहेंते संजतीतो इमं भणंति - अम्ह वि करेति अरती, मूइतदुक्खं इमं असीसंतं । इति अणुरत्तं भावं, णातुं भावं पदंसेति ॥२४४२॥ प्रसीसंतं प्रकहिज्जतं । ताप्रो अणुगतभावानो गाउं अब्भुट्ठधम्मो अप्पणो भावं दंसेति । प्राकारविकारं करेज्ज । एवं सपरोभय - समुत्था दोसा भवंति ॥२४४२॥ कि चान्यत् - पंथे ति णवरि जेम्मं, उवस्सगादीसु एस चेव गमो। णिस्संकिता हु पंथे, इच्छमणिच्छे य वाबत्ती । २४४३।। निन्भमेत्तं णेमं ताण पुरतो, णो उबस्सए वि प्रोहियमणसंकप्पेण अच्छियवं, संजती जइ इच्छति ताहे चारित्रवि राहणा, जइ णो इच्छइ ताहे संजयस्स प्रायविराहणा, चिंताए वेहाणसं करेज़्ज ।।२४४३।। कारणे - बितियपदमणप्पज्झे गेलण्णुक्सग्ग-दुविधमदाणे । उवधी सरीर-तेणग, संभम-भय-खेत्त संकमणे ॥२४४४॥ अणप्पज्झो प्रोहयमणसंकप्पो भवे ।।२४४४!। गेलण्णे इम पाउग्गस्स अलंभे, एगागि-गिलाण खंतियादिसु वा । डंडिगमाउवसग्गा, मुच्चेज्ज कधं च इति चिंता ॥२४४५॥ गिलाणपाउग्गं ण लब्भति ताहे अधिति करेज । खंतियादिसु वा गिलाणीसु वा अधिति करेज । उवसग्गे इमं - डंडिएण उवस ग्गिजंतो उवसग्गिजतीसु वा चितं करेज्ज, उवसग्गे डंडएण अप्पणो संजतीण वा उवसग्गे की रंति कहं मुचे जामो त्ति चित्तं करेज्ज ॥२४४५।। "उवही सरीरतेणग" त्ति अस्य व्याख्या -- उवधी सरीर चारित्त भाव मुच्चेज्ज किह णहु अवाया । ववसायसहायस्स वि, सीयति चित्तं धितिमतो वि ॥२४४६।। उवधीतेगगा सरीरतेणगा य । संजतीण वा चारित लेणगा । कहि एतेहितो प्रविग्घेण णित्थरेन्ज । एरिसे कज्जे समत्थस्स वि चित्तं सीदति ।।२४४६।। परिसंतो अद्धाणे, दवग्गिभयसंभमं च नाऊणं । वोहियमेच्छभए वा, इति चिंता होति एगस्स ॥२४४७।। प्रद्धाणे परिस्संतो तल्हा खुहत्तो वा अद्धाणं कह णित्थरेज्ज । दगवाहसंभमे अग्गिसंभमे भयादिसंभमे वा चिता भवति । बोहियमेच्छभएण वा चिंतापरो भवेज ॥२४४७।। १ गा०४४४ । २ गा० २४४४ । Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र-११ इदाणि "'खेत्तसंकमेण" ति दारं - णिग्गंथीणं गणधर-परूवणा खेत्तपेहणा वसधी । सेज्जातर वीयारे, गच्छस्स य आणणा दारा ॥२४४८॥ एरिसो संजतीणं गणधरो भवति - पियधम्मे दढधम्मे, संविग्गेऽवज अोयतेयंसी संगहुबग्गह-कुसलो, सुत्तत्थविदू गणाधिपती ॥२४४६।। पियधम्मो णामेगे णो दढघम्मे । एवं चउभंगो। ततियभंगिल्लो गणधरो । संविग्गो दब्वे भावे य । दवे मिगो, भावे साधू । संसारभउब्वग्गो मा कतो वि पमाएण छलिज्जीहामि त्ति सततोव उत्तो अच्छति । वज्ज पावं तस्स भीरू । प्रोयतेयस्सि त्ति ॥२४४६॥ आरोह-परीणाहो, चितमंसो इंदियाइऽपडिपुण्णो । अह ओयो तेयो पुण, होइ अणोत्तप्पता देहे ॥२४५०॥ उस्से हो प्रारोहो भण्णति, वित्थारो परिणाहो भणति, एते जस्स दो वि तुल्ला, चियमंसोबलियसरीरो, इंदियपडिपुण्णो णो विगलिंदियो, ण चक्खुविगलादीत्यर्थः । अहेति-एस प्रोमो भग्णति । तेजो सगरे । प्रणोत्तप्पत्ता "त्रपूष" लज्जायां (अ) लज्जनीयमित्यर्थः । वत्थादिएहिं जो संगहकरो, मोसहभेसजेहि उवग्गहकरो, क्रियापरो कुसलो, मुतत्ये जाणतो विदू भण्णति । एरिसो गणाहिवती भण्णति ॥२४५०॥ गणधरपरूवणे त्ति दारं गतं । इदाणी “खेत्तपेहणे" त्ति दारं - खेत्तस्स उ पडिलेहा, कायव्वा होइ आणुपुवीए। किं वच्चती गणधरो, जो वहती सो तणं चरइ ॥२४५१॥ खेत्तपडिलेहणकमो जो सो चेव प्राणुपुब्बी। संजतीणं खेतं संजतेहि पडिलेहियव्वं णो संजनीहि, तत्य वि गणधरेण । चोदगाह - किं वच्चति गणधरो? उच्यते - जो वहती सो तणं चरति । एवं जो गणभोगं भुजति सो सव्वं गचिताभरं वहति ।।२४५१॥ संजतिगमणे गुरुगा, आणादी सउणि-पेसि-पेल्लणता। तुच्छालोभेण य आसियावणादी भवे दोसा ॥२४५२॥ संजतीग्रो खेत्तपडिलेहगा गच्छंति, तो पायरियस्स चउगुरु आणादिया य दोसा। जहा सउगी वीरल्लस्स उणस्स गंमा भवति. एवं तानो वि दुगम्मानो भवंति । सव्वस्स अभिलसणिज्जा भवंति, मंसपेसि १ गा० २४४४ । २ गा० २४४६ । ३ गा० २४४८ । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २४४६-२४५८] अष्टम उद्देशक: व्य विसयत्थीहि य पेल्लिज्जंति । तुच्छ स्वल्पं, तेण वि लोभिजति । प्रासियावणं हरणं, एवमादि दोसा भवंति ॥२४५२॥ तुच्छेण वि लोहिज्जति, भरुयच्छाहरण नियडिसडेणं । णितणिमंतण वहणे, चेइयरूढाण अक्खिवणं ॥२४५३॥ भरुयच्छे रूववतीतो संजतीमो दद्रु आगंतुगणियो णियडिस ड्डित्तणं पडिवण्णो, वीसंभिया गमणकाले पवत्तिगि विण्णवेति । वहणट्ठाणे मंगलट्ठाणतादि विवत्तेमि, संजतीग्रो पट्टवेह । पट्टविया । वहणे चेइयवंदणट्ठा मारूढा । पयट्टियं वहणं । "प्रक्खिवणं" ति एवं हरणदोसा भवंति ।।२४५३।। एमादिकारणेहिं, ण कप्पती संजतीण पडिलेहा । गंतव्वं गणधरेणं, विहिणा जो वण्णितो पुचि ॥२४५४॥ पुल्व ति -प्रोहणिज्जुत्तीए । दारं । इदाणि '"वसहि" दारं - घणकुड्डा सकवाडा, सागारिय भगिणिमाउ परंते । णिप्पच्चवाय जोग्गा, विच्छिण्ण पुरोहडा वसधी ॥२४५५।। पक्किटगादि घणकुड्डा, सह कवाडेग सकवाडा, सेज़्जातरमातुभगिणीणं जे घरे ते संजतिवसहीए पेरंतेण ठिता, दुद्रुतेणगादि पच्चवाया णत्थि, महंत पुरोहडा य ॥२४५५।। णासण्ण णाइदूरे, विधवा-परिणतवयाण पडिसेवे । मज्झत्थ विकाराणं, अकुतूहलभाविताणं च ॥२४५६॥ विहवा रंडा, प्रमहंता परिणतवया, मझत्था ण कंदप्पसीला, गीतादिविगाररहितातो, संजतीय भोयणादिकिरियासु प्रकोतुपा, पम्मे साधुसाधुणीहिं वा भाविता एरिसा पडिसेवे सवासिणीयो ॥२४५६।। वसहि त्ति गतं । इयाणिं " सेजायरे" ति दारं -.. गुत्तागुत्तदुवारा, कुलपुत्ते सत्तिमंत गंभीरे । भीत परिसमद्दविते, अज्जासेज्जायरे भणिता ॥२४५७।। कुलपुत्ते ति तिष्णिपदा पढियसिदा ।।२४५७।। सो य इमो भोइय-महयरमादी, बहुसयणो पेल्लो ' कुलीणो य । परिणतवो अभीरू, अणभिग्गहितो अकोहल्ली ॥२४५८॥ सत्तिमंतो महंतमवि पोयणं प्रज्ज वसही उप्पणे परोयो प्रभिरू प्रणभिग्गहितमिच्छतो। सेसं कंठं॥२४५८॥ १ गा० २४४८ । २ पक्वेष्टकादि । ३ गा० २४४८ । ४ पित्तप्रो पा० । Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र-११ इयाणि "वीयारे" त्ति, अणावायमसंलोगादी चतुण्हं भंगाणं तेसिं कयमो पसत्यो ? तेसि कि विधारभूमी ? अंतो पसत्था, बाहिं पसत्था ? भण्णति - वीयारे बहि गुरुगा, अंतो विय तइयवज्जते चेव ।। ततिए वि जत्थ पुरिसा, उवेति वेसित्थियात्रो य ॥२४५६।। उस्सग्गेण संजतीणं अंतो वियारभूमी, जइ बाहिं वियारभूमी गच्छंति तो प्रायरियस्स चउगुरु । अंतो ततिय भंगे अणुण्णायं, तत्थ विही - प्रावात अंतो वि सेसभगेसु चउगुरु । ततिए वि जइ पुरिसा प्रावयंति वेसित्थियानो य तहावि चउगुरु ॥२४५६।। जत्तो दुस्सीला खलु, वेसित्थि णपुंस हे? तेरिच्छा । सा तु दिसा पडिकुट्ठा, पहमा बितिया चउत्थी य ॥२४६०॥ परदाराभिगामी दुम्सीला हेवीवासणहेउं जत्य लोपकरा ठाअंति जत्थ य वाणरादि तिरिया बद्धा घिटुंति तत्य इमे उति ॥२४६०॥ चार भड घोड मेंठा, सोलग तरुणा य जे य दुस्सीला । उब्भामित्थी वेसिय, अपुमेसु य एंति तु तदट्ठी ॥२४६१॥ पंचाल वट्टादि घोडा, सोला तुरगपरियट्टगा, उब्भामगवेमित्थिय अपुमेसु य तदट्ठिो अण्णणे वा प्रागच्छति ॥२४६॥ “हेटुं" ति अस्य व्याख्या - हे?उवासणहेडं, गागमणम्मि गहण उड्डाहो । वानर मयूर हंसा, छगलग-सुणगादि-तेरिच्छा ॥२४६२॥ गुझादेसोवासणहेउं ते जति उदिण्णमोहा संजति गेण्हंति तो उड्डाहो । 5"तेरिच्छि' त्ति अस्य व्याख्या - ‘वानर" पच्छद्धं । एते किल इत्थियं अभिलसति ।।२४६२॥ जइ अंतो वाघातो, बहिया सिं ततियया अणुण्णाता। सेसा णाणुण्णाया, अजाण वियारभूमीओ ॥२४६३।। बहिया वि इत्थियात्रातो ततियभंगो. तो अणुयायो ।।दारं।।२४६३॥ इदाणि "गच्छस्स आणण" ति दारं - पडिलेहियं च खेत्तं, मंजतिवग्गस्स आणणा होति । णिक्कारणम्मि मग्गतो, कारण पुरतो व समगं वा ॥२४६४॥ जया खेत्तानो खेत्तं संजतीतो संचारिज्जति तदा णिभए णिराबाहे साधू पुरो ठिता ताग्रो य गा० २४४८ । २ गा० २४६० । ३ गा० २४६० । ४ गा० २४४८ । Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २४५६-२४६६] . अष्टम उद्देशक: ४४१ मग्गतो ठिता प्रागच्छति । भयातिकारणे पुण साधू पुरतो मग्गतो पक्खापक्खियं वा समंतप्रो वा छिया गन्छति ॥२४६४॥ णिप्पच्चवाय-संबंधि-भाविते गणधरप्पवितिय-ततित्रो। णेति भए पुण सत्थेण, सद्धिं कतकरणसहितो वा ॥२४६।। ____संजतीण संबंधिणो जे संजता तेहिं सहितो गणवरो अप्पबितिमो अपततिप्रो वा गिप्पच्चवाए णेति । सपच्चवाए सत्येण सद्धि णेति । जो वा संजतो सहस्सजोही सत्थे वा कयकरणो तेग सहितो णेति ॥२४६५। उभयहातिणिविटुं, मा पेल्ले वइणि तेण पुरएगे । तं तु ण जुज्जति अविणय, विरुद्ध उभयं च जतणाए ॥२४६६॥ एगे पायरिया भणंति - पुरतो वि ठिया संमतीतो गच्छंतु । कि कारणं ? प्राह - काइयसणागिवेढे संजयं मा वइणी पेल्लिहिति, सो वा वइणि, तम्हा पुरो गच्छतु ।" तं | जुज्जति । कम्हा ? तासि प्रविणतो भणति, लोगविरुद्धं च । तम्हा उभयं जयणाए करेज्ज । ___ का जयणा ? जत्य एगो काइयं सण्णं वोसिरति तत्थ सब्वे वि चिटुंति, ततो वि चिटुंते दर्छ मग्गतो चेव चिटुंति, ताप्रो वि पिट्ठतो सरीरचित्तं करेंति । एवं दोसा ण भवंति ॥२४६६।। जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासयं वा अणुवासयं या अंतो उवस्सयस्स अद्ध्वा राति कसिणं वा राति संवसावेइ संवसावेतं वा सातिज्जति ।मु०॥१२॥ ___ "णायगो" स्वजनो, "अणायगों'' अस्वजनः, "उवासगो" श्रावकः, इयरो अणुवासगो । “अद्ध" रातीए दो जामा, "वा" विकप्पेण एग वा जाम, चउरो जामा कसिणा राती, वा विकप्पेण तिष्णि जामा । एगवसहिए संवासो "वसाहि" ति भणाति, अण्णं वा. प्रणुमोदति । जो तं न पडिसेधेति, अण्णं वा अपडिसेघतं अणुमोयति तस्स च उगुरु । णातगमणातगं वा, सावगमस्सावगं च जे भिक्खू । अद्धं वा कसिणं वा, रातिं तू संवसाणादी ।।२४६७|| प्राणा प्रणवत्थिया दोसा ।।२४६७।। साधु उत्रासमाणो, उवासतो सो वती य अवती वा । सो पुण णातग इतरे, एवऽणुवासे वि दो भंगा ।।२४६८॥ साधु उवासतीति वामगो, धूलगपाणवहादिया वता जेग गहिता सो वती, इयरो अवती । दुविहो वि सयणो असयणो य । एवं प्रगुवासए वि दो भंगा। 'भंगा' इति प्रकारा इत्यर्थः । इमं पुण सुत्तं इत्थि पडुच्च - इत्थि पडुच्च सुत्तं, सहिरण्ण सभोयणे च आवामे । जति णिस्सागय जे वा, मेहुण-णिमिभोयणे कुज्जा ।।२४६६॥ Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १२-१४ जद्द इत्थी उवसग्गे संवसति, सइत्थोश्रो वा पुरिसो, प्रणित्थीश्रो वा सहिरण्णो, गहियभत्तपाणो जो, एते साधुत्रसहीए श्रावासेति, रातो साधुं वा पडुच्च प्रागता वसधिठिया मेहुणं करेंति. रातो वा भुंजति, सुसुत्तनिवातोङ्का । एतद्दोसविप्यमुक्के पुरिसे ॥। २४६६ ॥ कहं पुण श्रद्धराइए ऐगं वा जामं तिष्णि वा जामा संभवंति ? ४४२ जति पत्ता तु निसीधे, पए व णितेसु श्रमण्णगरे । एगतरमुभयतो वा, वाघातेणं तु श्रद्धणिसिं || २४७० ॥ जइ श्रड्ढरते वा एगम्मि वा जामे गते तिहि वा जामेहिं गतेहि पत्ता हवेज्ज "एगतर" ति - गिहत्था संजता वा, " उभय" ति गिहत्था संजता य । एवं वाघायकारणेण वा प्रप्पणो वा रुतए पए निगच्छंताण अद्धणिस्सादि संभवो भवति ।। २४७० ।। गहिणा सह वसंताणं इमे दोसा - सागार अधिकरणे, भासादोसा य वालमार्तके । आय - वाघातम्मिय, सपक्ख- परपक्ख तेणादी || २४७१ || काइयण्णावसरणे उद्गस्स प्रभावे कारणतो मोयायमणेण वा पादपमजणे वा सागारियं भवति, उज्जोवणवणियादिद्मधिकरणं । अहवा - णिताणिते चलणादिसंघट्टिते ' अधिकरणं" कलहो हवेज्ज । जति संजतिभासाहि भासंति तो गिहत्या गेण्हंति । ग्रह गारत्थियभासाहि भासति तो असंजतो वोलिति । सो गित्यो सप्पेण खइतो श्रायकेण वा मतो श्रधायुकालेण वा मतो ताहे संका ||२४७१ || किंचण अट्ठा एएहिं, घातितो गहण - दोस-गमणं वा । सहित्यस्स किंचणं श्रासि तं प्रयु संजएहिं उद्दविश्रो, गेव्हणा दिया दोसा । "सपक्खे” त्ति कोइ सेहो असेहो वा प्रब्भुदुधम्मो तं हिरण्णं जागित्ता तं से हरिउं णासेज्जा । एयं गमणगहणं " परपक्खे" ति सहिरण्णगं जागित्ता तं गिहत्थं अण्णो कोइ गिही हरेज्ज ताहे संजता संकिज्जति । वाहे सो रायकुलं गंतु कहेज्ज, संजएहि मे हिरण्णं प्रसियावियं । तत्थ गेम्हणादिया दोसा । प्रादिम्हणातो वा उभयं हरेज्ज || २४७२॥ जम्हा एते दोसा वावहिते, संका गहणादिया दोसा ||२४७२॥ तम्हा ण संवसेज्जा, खिप्पं णिक्कामते तत्र ते उ । जे भिक्खू णणिक्खामे, सो पावति प्राणमादीणि ॥ २४७३ || क्aिमणं णिप्फेडणं, "ततो" त्ति प्राश्रयात्, ते इति गृहस्थाः साधूहि वत्तत्रा "णिग्गच्छह" त्ति ।।२४७३।। भवे कारणं - - बितियपदं गेलणे, पडिणीए तेण सावयभए वा । सेहे श्रद्धाणम्मिय, कप्पति जतणाए संवासो ||२४७४॥ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २४७० - २४७७ ] श्रष्टम उददेशकः गिलाणट्ठा वेज्जो प्राणितो, पडिणीए वा उबवेंते कोति बिइज्जो णिज्जति । एवं लेणसावयभए वा सेहो वा जाव ण पव्वाविज्जति श्रद्धाणीए वा सह श्रागतं णणिक्खा मे "श्रद्धाणपणा वा समगं पविट्ठा" ।। २४७४। आगंतुगं तु वेज्जं, अण्णाणासती य संवसते । पांडेणी तु गिहीणं, ल्लियति गिही व आणेति || २४७५ || गतार्था । 'जयणा जहा अधिकरण उड्डाहादी ण भवति तहा जयंतीत्यर्थः ॥ २४७ ॥ जे भिक्खू णायगं वा अणायगं वा उवासयं वा अणुवासयं वा अंतो उवस्सयस्स द्ध वा राति कसिणं वा रातिं संवसावेति, तं पडुच्च निक्खमति वा पत्रिसति वा, निक्खमंतं वा पवितं वा सातिज्जति | | ० ||१३|| "पटुच्च" त्ति जाहे सो गित्यो काइयादि णिग्गच्छति ताहे संजतो वि चितते "एम काइयं गतो मविएस्साए काइयं गच्छामि, उट्टावेति वा एहि, बच्चामो । संवासे जे दोसा, णिक्खमण - पवेसणम्मि ते चेव | गातव्या तु मतिमता, पुत्रं वरम्मि य पदम्मि || २४७६ || जे संवासे अधिकरणादी दोसा भवंति ते भिगच्छते वि ॥ २४७६ ।। इमे अधिकतरा - गिहिसहितो वा संका, आरक्खिगमादि गेण्हणादीया | उभयाचरणदवासति, अण्ण-अपमज्जणादीया || २४७७ || ४४३ गहत्थसहितो त्ति काउं चोरपारदारियो त्ति कार्ड सका भवति, ताहे दंडवासियादीहि म्हणादी दोस । काइयण्णा उभयं तं वोसिरतो दवादि प्रसतीए उडाहो लोगो अवणं भासति पादथंडिलादी य मज्जति संजमविराणा ॥ २४७७७॥ जे भिक्खु रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्राभिसित्ताणं समनाएस वा पिंड - नियरेसु वा इंद - महेसु वा खंद - महेसु वा मुगंद महेसु वा धूम - महेसु वा दरि - महेसु वा दि - महेसु वा सर- महेसु वा सागर- महेसु वा आगर- महेसु वा sorry वा तह पगारेसु विरुबरूवेसु महा-महेसु असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेति, पडिग्गार्हतं वा सातिज्जति ||मू०||१४|| रुद्द - महेसु वा णाग- महेसु वा गिरि- महेसु वा भृत- महेसु वा जक्ख महेसु वा चेइय-महेसु वा रुक्ख - महेसु वा अगड - महेसु वा तडाग- महेसु वा दह - महेसु वा १ गा० २४१४ । Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र १५ खत्तिय इति जातिग्गहणं, मुदितो जाति-सुद्धो, पितिमादिएण अभिसित्तो मुद्धाभिसित्तो, समवायो गोट्टिमत्तं, पिंडणिगरो दाइभत्तं, पिति-पिडपदाणं वा पिंडणिगरो, इंदमहो, खंधो स्कन्द कुमारो, भागिणेयो रुद्रः, मुकुन्दो बलदेवः, चेतितं देवकुलं, कहिं चि रुक्खस्स जत्ता कीरइ गिरिपब्वइए जत्ता, णागदरिगादि धाउवायविलं वा सेसा पसिद्धा। एतेसि एगतरे महे जत्थ रणो ग्रंसिया, पत्तेगं वा रणो भत्ते जो गेण्हति डा। समवायाई तु पदा, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते । तेसिं असणादीणं, गेण्हंताऽऽणादिणो दोसा ॥२४७८।। गणभत्तं समवाओ, तत्थ ण कप्पं जहिं णिवस्संसी । पितिकालो पिंडनिवेदणं तु णिवणीयसामण्णो ॥२४७६॥ पितृपिंडप्रदानकालो मघा (यथा) श्राद्धेषु भवति ॥२४७६॥ इंदमहादीएसुं, उवहारे णिवस्स जणवतपुरे वा । वितिमिस्सितो न कप्पति, भद्दग-पंतादि दोसेहिं ॥२४८०॥ इंदादीण महेसु जे उवहार णिज्जति बलिमादिया जणेण पुरेण वा, ते जइ शिवपिंडवइमिस्सितो ण संकप्पंति, भद्रपंतादिया दोसा ॥२४८०।। रण्णो पत्तेगं वा, वि होज्ज अहवा वि मिस्सिता ते तु । गहणागहणेगस्स उ, दोसा उ इमे पसज्जति ।।२४८१॥ प्रासंतियं गेहंति, रणो संतियस्स अग्गहणं । अह रणस्सेगसंतियस्स वा गहणे अग्गहणे वि दोसा ॥२४८१॥ गहणे दुविधा - भद्द - पंतदोसा इमे - भद्दगो तण्णीसाए, पंतो घेपंत दट्टणं भणति । अंतो घरे इच्छध, इह गहणं दुट्ठधम्मोत्ति ॥२४८२॥ भहतो चितेति एएण उवाएण गेण्हंति ताहे अभिक्खणं समवायादिसंखडीतो करेति, लोगेण वा समं पत्तेगं वा । पंतो तत्थ समवायादिसु घेप्पतं दळूण भणति - अंतो मम घरे ण इच्छह इय मम संतियं जणवयभतेण सह गेहह, अहो ! दुद्रुधम्मो, ततो सो रुटो ।।२४८२॥ भत्तोवधिवोच्छेदं, णिन्विसय-चरित्त-जीवभेदं वा । एगमणेगपदोसे, कुजा पत्थारमादीणि ॥२४८३।। __ मत्तादी वोच्छेदं करेज्ज, मा एतेसि को उवकरणं देज, णिन्विसए वा करेज, चरित्तानो वा भंसेज, जीवियाग्रो वा वदरोवेज, एगस्स वा पदुस्सेज अणेगाण वा । कुल-गण-संघे वा पत्थारं करेज्ज ॥२४६३।। Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २४७८-२४८६ ] अष्टम उद्देशकः . इमे अगहणे दोसा - तेसु अगेण्हंतेसू, तीसे परिसाए एवमुप्पज्जे । को जाणति किं एते, साधू घेत्तुं ण इच्छंति ॥२४८४॥ साहिं अगेण्हतेहि तीसे गोट्ठि परिसाए एवं चित्तमुप्पज्जति को पुण कारणं जाणेज, किमिति - कस्माद्धंतोरित्यर्थः ॥२४८४॥ इतरेसिं गहणम्मी, णिव-चोल्लग-वजणे जणासंका। जातीदोसं से ते, जाणंतागंतो सो य ॥२४८५॥ इयरे गोट्ठियजणा तेसिं चोल्लगस्स गहणे णिवदोल्लगस्स वज्जणे जणस्स प्रासंका भवति - एते साधु नूणं से हीणजाति त्ति जाणंति दोसं । सो य तत्थ मागंतुगो करकंडुवत् । जणेण धूसियं, रणा उवालद्ध, ताहे पट्ठो भत्तोवहिवोच्छेदादिए दोसे करेज ।।२४८५।। तम्हा ण तत्थ गमणं, समवायादीसु जत्थ रण्णो उ। . पत्तेगं वा भत्तं, अण्णेण जणेण वा मिस्सं ॥२४८६॥ गोट्ठियसमवायभत्तेसु वा पत्तेयभई कुलगणसम्मिस्सं वा रण्णो णो गेहे ॥२४८६।। बितियपदं गेलण्णे, णिमंतणा दव्वदुल्लभे असिवे । श्रोमोयरियपदोसे, भए य गहणं अणुण्णातं ॥२४८७॥ भागाढे गेलणे अण्णतो ण लब्भति ताहे घेप्पंति, अभिक्खणं णिमंतमाणस्स घेत्तुं पसंगं वारेंति, जं वा से णत्थि तं मग्गति, दुल्लभं दव्वं तं च अण्णतो णत्यि, असिवगहिया अण्णे गिहा, नो रणो । प्रोमे रणो गेहे लब्भति, अण्णो अधिकतरो राया पदुट्ठो, अण्णतो बोहिगादि भयं, एवमादिएहि कारणेहि गहण प्राणायं ।।२४८७।। . जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं . उत्तर-सालंसि वा उत्तर-गिर्हसि वा रीयमाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेति,पडिग्गाहेंतंवा सातिज्जति।।सू०॥१५॥ प्रत्थानिगादिमंडवो उत्तरसाला, हयगयाण वा साला उत्तरसाला, मूलगिहमसंबद्धं उत्तरगिहं । उत्तर-साला उत्तर-गिहा य रण्णो हवंति दुविधा तु : गहणागहणे तत्थ उ, दोसा ते तं च बितियपदं ॥२४८८।। कंठा सालत्ति णवरि णेमं, उज्जाण-पवेसण सव्वहिं वज्जे । सालाणं पुण गहणं, हतादि हितणहमासंका ॥२४८६॥ णिभमेत्तं "णेम" उदाहरणमात्र, हयादि हिते पढे वा संका भवति । कल्ले एत्य संजया मागया, पहिं हडं हडेतु वा अण्णेसि कहियं, तेहिं वा हडं ।।२४८६।। १ ते "साध गुणं से हीण-जातिदोसं जाणंति सो । .. - Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ १“उत्तरसालागिहाणं” इमं वक्खाणं - सभाष्य- चूर्णिके निशीथसूत्रे पट्ठा भत्ता । मूलगिहमसंबद्धा, गिहा य साला य उत्तरा होंति । जत्थ व ण वसति राया, पच्छा कीरंति जावऽण्णे || २४६०|| जत्थ वा कीडा पुव्वं गच्छति ण वसति ते उत्तरसालागिहा वत्तव्वा । जे वा पच्छा कीरते ते उत्तरसालागिहा । एतेमु ठाणेसु मीसं अमीसं वा जो गेहन्ति ते चेव दोसा । तं चैव पच्छित्तं । तं चेव बितियपदं ||२४ जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं हय-सालागयाण वा गय-सालागयाण वा मंत- सालागयाण वा गुज्झ-सालागयाण वा रहस्स - सालागयाण वा मेहुण- सालागयाण वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा डिग्गाहेति, पडिग्गाहें तं वा सातिजति ||सू०||१६|| हयगयसालासु हयगयाण उवजेवण पिंडमणिय देति, तत्थ रायपिंडो अंतराय दोसो य सेससालासु [ सूत्र १६-१८ हवा - सुताऽभिहियसालासु ठितादीण प्रणाहादियाण भत्तं पयच्छति । जो गेहति ङ्का । हमादी साला खलु, जत्तियमेत्ता उ श्रहिया सुत्ते । गणगहणे तत्थ उ, दोसा ते तं च वितियपदं ॥ २४६१॥ रोयपिंड त्तिण गेहति प्रण्णेसि गेण्हति ? जे ईसरादिया दंसणगे प्राणेति । असि तस्स गणसंभवो भवति ।। २४६१।। जे भिक्खु रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं सण्णिहि सण्णिचयाओ खीरं वा दहिं वा णवणीयं वा सप्पिं वा गुलं वा खंडं वा सक्करं वा मच्छंडियं वा प्रणयरं वा भोयणजातं पडिग्गा हेति, • पडिग्गाहतं वा सातिज्जति ||२०|| १७|| सन्निही णाम दधिखीरादि जं विशासि दव्वं, जं पुरा घय तेल्ल - वत्थ - पत्त-गुल - खंड - सक्करा इय श्रविणासि दव्वं चिरमवि अच्छइ ण विणस्सर, सो सचतो। विडं कृष्णलवणं, सामुद्रकाटि उद्भिज्जं । 1 सणिधिसण्णिचयातो, खीरादी वत्थपत्तमादी वा । गहणागणे तत्थ उ, दोसा ते तं च वितियपदं ।। २४६२ ।। १ गा० २४८८ । द- गोरसमादी, विणासि दव्वा तु सणिधी होंति । सक्कुलि - तेल्ल-वय-गुला, अविणासी संचइय दव्वा ||२४६३|| Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २४६०-२४६५ ] अष्टम उद्देशक: ४४७ "सबकुली' पर्पटि: ॥२४६३॥ जे भिक्खू रयो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं उस्सट्ठ-पिंडं वा संसट्ठ -पिंडं वा अणाह-पिंडं वा किविण-पिंडं वा वणीमग-पिंडं वा पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा सातिजति तं सेवमाणे आवज्जइ चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्घाइयं ।।मु०॥१८।। अोमटे उझिय-धम्मिए उ संसट्ठ सावसेने सु । वणिमग जातणपिंडो, अणाहपिंडे अबंधूणं ।।२४६४॥ ऊपट्टे उज्झिय-धम्मिए । संसपिंडो भुनावमेसं । वणिमपिंडो णाम जो जायणवित्तिणो, दाणादि कलं विना लभंति, तेमि जं कड तं वगिमपिडो भाति । प्रणाहा प्रबंधवा, तेसिं जो कमो पिडो। एतेसि जो गेहति हा ॥२४६४।। एतेयामण्णतरं, जे पिंडं रायसंतियं गिण्हे । ते चव नन्य दोमा, तं चेव य होइ वितियपदं ॥२४६५।। दोगा ने चेव वितियपदं ॥२४६५|| ।। इति विमम-णिसीहचुण्णीए अट्ठमो उद्देमी समत्तो ।। Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवम उद्देशकः जे भिक्खू रायपिंडं गेण्हइ, गेण्हतं वा सातिजति ॥०॥१॥ जे भिक्खू रायपिंडं मुंजइ, मुंजतं वा सातिजति ॥२०॥२॥ इमो संबंधो पत्थिव-पिंडऽधिकारो, अयमवि तस्सेव एस णवमस्स । सो कतिविधोत्ति वा, केरिसस्स रण्णो विवजो उ ॥२४६६॥ भद्वमुद्देसगस्स अंतिमसुत्ते पत्थिडविचारो, इहावि णवमस्स प्रादिभुत्ते सो चेवाधिकतो। एत संबंधो । सो कतिविहो पिंडो ? केरिसस्स वा राणो वज्जेयव्यो ? ॥२४९६।। जो मुद्धा अभिसित्तो, पंचहि सहिओ प्रभुंजते रज्जं । तस्स तु पिंडो वज्जो, तविवरीयम्मि भयणा तु ॥२४६७॥ मुद्ध परं प्रधानमायमित्यर्थः, तस्स प्रादिराइणा अभिसितो मुद्धो मुद्धाभिसित्तो, सेणावइ प्रमच्च पुरोहिय सेटि सत्यवाहसहिनो रज्ज भुजति । एयस्स पिंडो वज्जणिज्जो । सेसे भयणा । जति अस्थि दोसो तो. वग्जे, मह पत्थि दोसो तो णो वजे ॥२४६७॥ मुदिते मुद्धमिसित्तो, मुदितो जो होति जोणितो सुद्धो। अमिसित्तो च परेहि, सयं च भरहो जधा राया ॥२४६८॥ मुइए मुद्धाभिसित्ते । मुइते, णो मुद्धामिसित्ते । णो मुइए, मुद्धाभिसत्ते। णो मुइते णो मुद्धाभिसित्ते । (एस चउभंगो) मुइतो जो उदितो उदियकुल-वंस-संभूतो, उभय कुलविसुद्धो, मुदाभिसित्तो मउडपट्टबंधेन पि (५) याहि वा अप्पणा वा अभिसित्तो जहा मरहो । एस पुदाभिसित्तो ॥२४६८।। पढमग-भंगो वज्जो, होतु व मा वा वि जे तहिं दोसा। सेसेसु होति पिंडो, जहिं दोसा तं विवज्जति ॥२४६६।। पढमममो वज्जो, सेस-ति-मंगे प्रपिंडो, प्रपिंडे वि जत्थ दोसा सो वजणिज्जो ॥२४६६।। राय-पिंडस्स इमो भेग्रो असणादिया चउरो, वत्थे पाए य कंबले चेव । पाउंछणगा य तहा, अट्टविहो राय-पिंडो उ ॥२५००॥ कंठा Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सून-२ अट्ठविध-राय-पिंडे, अण्णतरागं तु जो पडिगाहे । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥२५०१।। पण्णतरं जो गेहति का । प्राणादिया य दोसा ॥२५०१॥ ईसर-तलवर-माडंबिएहिं सेट्ठीहिं सत्थवाहहिं । णितेहि य अणितेहि य, वाघाप्रो होइ भिक्खुस्स ॥२५०२॥ ईसरभोइयमादी, तलवरपट्टेण तलवरो होइ । वेंटणबद्धो सेट्टी, पच्चंतणिवो तु माडंबी ॥२५०३॥ इश ऐश्वर्य, ऐश्वर्येण युक्तः ईश्वरः, सो य गामभोतियादिपट्टबंधो। रायप्रतिमो चामरविरहितो तलवरी भण्णति । जम्मि य पट्टे सिरिया देवी कजति तं वैटणगं, तं जस्स रण्णा अणुन्नातं सो सेट्ठी भण्णति । जो छिण्णमंडवं भुजति सो माडंबिओ, पच्चंतविसयणिवासी राया माडंबियो जो सरज्जे पररज्जे य पञ्चभि. ष्णातो। सत्यं वाहेति सो सत्थवाहो ॥२५०२ । २५०३॥ जा णिति इंति तावऽच्छणे उ सुत्तादिभिक्खपरिहाणी। रीया अमंगलं ति य, पेल्ला हणणा इहरधा वा ॥२४०४॥ एतेहिं एवमादीएहिं पविसंतेहिं वा णिक्खमंतेहिं वा वाघातो भिक्खुस्स भवति । आस -हत्यि - पाय ति - रहसंघट्टे पविसंतस्स भायणाणि भिज्जेज । अण्णतरं वा इंदियजायं लुसेज । अह जाव ते अतिति णिति वा ताव उदिक्खते तो मुत्तत्थभिक्खापरिहाणी य भवति । इरिग्रोवउत्तस्स अभिघामो भवति, प्रासादि णिरिक्वतस्स संजमविराधना, कस्स "अमंगलं' ति काउं अस्सादिणा पेल्लणं, कस्सादिणा वाघातं देजा। "इहरह" ति - जणसम्मद्दे अहाभावेणं पेल्लणं घातो वा भवे ॥२५०४॥ ग्रहवा - तत्थिमे दोसा लोभे एसणघातो, संका तेण णपुंस इत्थी य । इच्छंतमणिच्छंते, चातुम्मासा भवे गुरुगा ॥२५०५॥ अण्णत्थ एरिसं दुल्लभं ति गेण्हे अणेसणिज्जं पि । अण्णेण वि अवहरिते, संकेज्जति एस तेणो ति ॥२५०६।। 'वाघातो सज्झाए, सरीरवाघात भिक्खवाघातो। राखत्तिय चउभंगो, इत्थं वाघातदोसा य ॥२५०७॥ रायकुलघरं पविट्ठस्स अंतेपुरियाहिं उक्कोसं दव्वं णीणियं, तं च अणेसणिज्ज । सो चितेति - अण्णत्थ एरिसं णत्थि, दुल्लभं वा दव्वं, ताहे लोभेण अणेसणिज्जं पि गेष्हेजा। "संका तेण" त्ति रणो वा घरे 'उच्छुद्धविप्पइण्णे अण्णेण वि अवहडे संजतो पाराती ति संकिजति । लुद्धो वा अप्पणो चेव कए गेष्टणादिया दोसा। अधवा - तेणगो चितेति - एतेण लिंगेण पवेसो लन्भिहिति, लिंगं काउं पविसेज ॥२५०७॥ १ प्रक्षिप्त विप्रकीर्णे। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाठ्यगाथा २५०१-२५१२] . नवम उद्देशक: ४५१ "पण मइत्थिय" त्ति अस्य व्याख्या - अलभंता पवियारं, इत्थि णपुंसा बला पि गेण्हति । आयरियकुल-गणे वा, संधे व करेज्ज पत्थारं ॥२५०८।। इन्थि - गपुमा तत्थ णिरुडेदिया विरहितोगासे बला वि साहू गेण्हेज, जति पडिसेवति चरित्तविरहमाग्रह तीए भणितो णेच्छति ताहे सा कूवेज - एस मे समणो बला मेण्हति, तस्स पंतावण! दिया दोसा। एब ग्राय - पर - उभयसमुत्था य दोसा भवंति । ग्रहवा - रुट्टो राया पायरिय - कुल - गण - संघ पत्यारं करेज ॥२५०८॥ अण्णे वि होंति दोसा, आइण्णे गुम्मरयणमादीया । तण्णीसाए पवेसो, तिरिक्ख-मणुया भवे दुट्ठा ॥२५०६॥ रयणादि - ग्राइण्णे गुम्मिय तिढाणइल्ला अइभूमि पविट्ठो तेहिं घेप्पइ हम्मति वा, तणीसाए वा अवहर गट्टा अण्णो पविसति, वागरादि वा तिरिया दुवा तेहि उवद्दविजंति, प्रणारियपुरिसा वा दुट्ठा वा हणिज ।।२५०६।। "२प्राइण्णे" त्ति अस्य व्याख्या - आइण्णे रयणाई, गेण्हेज्ज सयं परो व तण्णीसा । गोमिय-गहणा हणणा, रण्णा य णिवेदिते जे तु ॥२५१०॥ रणो वावाप्रो, रष्णो वा उवण्णीए ( उवणीता ) जं राय पंतावणाइ करिस्सति ॥२५१०।। चारिय-चोराभिमरा, कामी पविसंति तत्थ तण्णीसा । वाणर-तरच्छ-वग्धा, मिच्छादि-णरा व धातेज्जा ॥२५११॥ एते साधुगिस्साए पविसेज । जति वि साहुस्स पवेसो अणुणातो तहा वि मेच्छमणुया अयाणता घाएज ॥२५११॥ भवे कारणं - दुविधे गेलण्णम्मि य, णिमंतणा दव्वदुल्लमे असिवे । अोमोयरियपदोसे, भए य गहणं अणुण्णातं ॥२५१२।। प्रागाढं प्रणागाढं च । अणागाढे तिखुत्तो मग्गिऊण जति ण लब्भति ताहे पणगपरिहाणीए जाहे च उगुरु पतो ताहे गेण्हति, प्रागाढे विप्पमेव गेण्हति । “भिक्खं गेण्हाहि" ति णिमंतिप्रो रण्या, भगाति – “जइ पुणो ण भणिहिसि तो गेण्हामो" णिबंधे वा गेहति । दव्वं वा किं चि दुल्लभं तित्तमहातित्तगादी, असिवे वा अण्णतो अलब्भमाणे राजकुलं वा असिवेण णो गहियं तत्थ गेहति । प्रोमे वा अण्णतो अलभते, अण्णम्मि वा असिवे, राया ण पदुटु, कुमारे वा, ताहे रणो घरातो अभिग्गच्छतो गेहति । बोहिग - मेच्छ - भए वा तत्थ ठितो गेहति । एवमादिएहिं कारणेहि गहणं रायपिंडस्स अणुण्णातं ।।२५१२।। १ गा० २५०५ । २ गा० २५०६ । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे जे भिक्खू रायंतेपुरं पविसति, पविसंतं वा सातिज्जति ॥२०॥३॥ अंतेउरं च तिविधं, जुण्ण णवं चत्र कण्णगाणं च । एक्केक्कं पि य दुविधं, सहाणे चेव परठाणे ॥२५१३॥ रणो अंतेपुरं तिविधं - हसियजीवणाप्रो अपरिभुनमाणीग्रो अच्छंति, एयं जुण्णतेपुरं । जोठवणयुता परिभुजमाणोनो नवंतेपुरं । अप्पत्त जोव्यणाण रायदुहियाण संगहो कन्नतेपुरं । तं पुण खेत्ततो एककेकं दुविधं - सटाणे परहाणे य । सट्टाणत्थं रायघरे चेट, परढाणत्थं वसंतादिसु उज्जाणियागयं ॥२५१३॥ एतेसामण्णतरं, रण्णो अंतेउरं तु जो पविसे । सो आणा अणवत्थं, भिच्छत्त-विराधणं पावे ॥२५१४॥ इमे दोसा - दंडारक्खिय दोवारेहि वरिसधर-कंचुइज्जेहिं । णितेहि अणितेहि य, वाघातो चेव भिकम्य ॥२५१।। एतीए गाहाए इमं वक्खाणं - दंडधरो दंडारक्खिनो उ दोवारिया उ दारिट्ठा । वरिसधर-बद्ध-चिप्पिति, कंचुगिपुरिसा तु महतरगा ॥२५१६॥ दंडगहियग्गहत्थो , तो अंतेपुरं रक्खइ । रणो वयणेण इत्थिं पुरिस वा अंतेपुरं गोगति पवेसेति वा, एस दंडारक्खितो। दोवारिया दारे चेव णिविट्ठा रक्खंति । वरिसधरा जेसि जातमेत्ताण चेव दोभाउयाच्छेज्जं दाऊगं गालिता ते वड्डिता । जातमेताण चेद जेसि मेलितेहिं चोतिमा ते चिप्पिसा । रणो आणत्तीए अंतेपुरियसमीवं गच्छंत, अंतेपुरियाणत्तीए वा रणो समोवं गच्छंति ते कंचुइया । जे रण्णो समीवं अंतेपुरियं णयंति प्राणेति वा रिउण्हायण्हात वा कहं कहेंति, कुवियं वा पसादेंति, कहेंति य रणो, विदिते कारणे अण्णतो वि जं अग्गतो काउं वयंति, ते महतरगा ॥२५१६।। अण्णे य इमे दोसा - अण्णे वि होंति दोसा, अाइपणे गुम्मरयणइत्थीओ। तण्णीसाए पवेसो, तिरिक्ख-मणुया भवे दुट्ठा ॥२५१७।' पूर्ववत् सदाइ इंदियत्थोवनोगदोसा ण एसणं मोधे । सिंगारकहाकहणे, एगतरुभए य बहु दोसा ॥२५१८।। तत्थ गीयादिसद्दोवनोगेश इरियं एसण वा ण सोहे,ति, हि पुच्छितो सिंगारकहं कहेज्ज, तत्थ य पायपरोभयसमुत्था दोसा ॥२५१८॥ . Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माध्यगाथा २५१३-२५२२ ] इमे परट्ठाणे - प्रयाणंतो । बहिया व होंति दोसा, केरिसिया कहण - गिण्हणादीया | गव्वो बाउसियत्तं, सिंगाराणं च संभरणं ।। २५१६ ।। उज्जाणादिठिया कोइ माधू कोउगेण गच्छेज्ञ, ते चैव पुव्ववणिया दोसा, सिंगारकहाकहने वा गण्हणादिया दोसा, अंतेपुरे धम्मरहण गव्वं गच्छेज्ज, प्रोरालसरीरो वा गव्यं करेज्ज, अंतेपुरे पवेसे उन्मातितोऽम्हि हत्थपादादिरूप्पं करेंते बाउसदोसा भवति, सिंगारे य सोउं पुत्र्वरयकीलिते सरेज्ज । नवम उद्देशकः ॥२५२१।। अहवा - ताम्रो दठ्ठे अप्पणी पुसिंगारे संभरेज्ज, पच्छा पडिगमणादि दोसा हवेज्ज || २५६६ ॥ चितिपदमणाभोगा, वसहि-परिकखेव सेज्ज - संथारे । हयमाई दुहाणं, आवतमाणाण कज्जे व || २५२०|| श्रणाभोगेण पविट्ठो । अहवा - अंतेपुरं परट्ठागत्यं साधुना ण णातं " एयाश्रो अंतेपुरियो" ति पुञ्वाभासेण पविट्टो ग्रहवा - साहू उज्जाणादिसु ठिता, रायतेउरं च सव्वम्रो समंता आगतो परिवेदिय ठियं, प्रणवसहि-मभावे यतं वसह अंतेपुरं मज्भेग अतिति णिति वा । अहवा- संथारगरस पञ्चपण हेउं पविट्ठो । ग्रहवा – सीह-वग्घ-महिसादियाण दृट्ठाण पडिणीयम्स वा भया रायंतेपुरं पविसेज्ज । अण्णतो णत्थि णी मरणोवातो, "कज्जे" ति कुल-गण-संघक जेसु वा पविसेज्ज, तत्थ देवी ददुवा, सारायाणं उपणेति । २५२०।। ४५३ जे भिक्खू रायपुरियं वदेज्जा - “उसो रायंतेपुरिए ! णो खलु म्हं कप्पति रायंतेपुरं णिक्खिमित्तए वा पविसित्तए वा इमम्हं तुमं पडिग्ग्रहणं गहाय रायंतेपुरात्र असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा अभिह आड दलयाहि" जो तं एवं वदति देवा सातिज्जति । मू०||४|| नोरिय निष्क्रम्य, गृहीत्वा श्राहत्य मम ददातीत्यर्थः । इमे दोसा - जे भिक्खू जाहि, अंतेउरियं ण कप्पते मज्भं । अंतेउरमतिगंं, आहारपिंडं इहाणादी || २५२१ ॥ तेपुरवासिणी अंतेपुरिया रष्णो मारिया इत्यर्थः । इहेब बाहि ठियस्स मम ग्रहाराति म नय गमणादि पडिलेहा, इंडियकोवे हिरण्णसच्चित्ते । अभियोग-विसे हरणं, भिदे विरोधे य लेवकडे ।। २५२२|| Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य चूर्णिके निशीयसूत्रे | सूत्र ५-७ गच्छंती आगच्छनीय छक्कायविराहेज्ज, अपडिलेहिए य गमागमे भिक्खा ण कप्पति, अपडिलेहिए वा भायगे गेण्हेज्ज, दंडिओ वा दठ्ठे पदुमेज्ज, संकेज्ज वा प्रणायारं हिरण्णादि वा किंचि तेगियं पच्छातीया तत्य छुभेज्ज, पलंबादि वा सचितं भेज, श्रोरालियसरीरस्स वा वसीकरणं देज्ज, प्रवणा पट्टा भोग वा पत्ता त्रिसं देज्ज, भायणं वा हरेज्ज, अजाणंती वा भायणं भिदेज्ज, खीरंवि हवी विरोहिदन्ने एकत्तो गेहेज्ज, पोग्गलादि वा संजमविरुद्धं गेण्हेज्ज, लेवाडेज्ज वा पत्तगबंधं ।। २५२२ ।। ४५४ लोभे एसणघातो, संका तेणे चरित्तभेदे य । इच्छंतमणिच्छंते, चाउम्मासा भवे गुरुगा || २५२३ ।। संकेज्ज उक्को सगलोभेण एसणघातं करेज्ज, गूणां से उन्भामगो संकितो का, णिस्संकिते मूलं, तेगट्टे वा किंपि हरिजं एयस्स पण मियं श्रायवरोभयसमुत्थेहिं दोसेहिं चरितभेदो, प्रगारीए य बल' गहिहे इच्छंते चरितभेदो, उड्डाहभया श्रणिच्छंतो का दुर्विधे गेलण्णम्मि, णिमंतणा दव्वदुल्लभे असिवे । मोरियपदोसे, भए सा कप्पते भणितुं || २५२४|| पूर्ववत् । - जे भिक्खू नो बएज्जा, रायंतेपुरिया वएज्जा - "उसंतो समणा ! णो खल तुझं कप्पइ रायंतेपुरं निक्खमित्तए वा पविसित्तए वा आहरेयं पडिग्गहगं अतो अहं रायतेपुराओ असणं वा पाण वा खाइमं वा साइमं वा अभिहडं आहटड दलयामि" जो तं एवं वदंती, पडसुणेति, पडिसुतं वा सातिज्जति ||०||५|| साहूण प्रायरगोरं जाणनाणी भणेज्ज एसेव गमो णियमा, गायव्वो होति त्रितियमुत्ते वि । पुव्वे अवरे य पदे, दुविहे उबहिम्मि वि तहेव || २५२५|| दुविहो उवही - श्रोहीश्रो उवग्गहितो । तत्थ वि एसेव गमो वत्तव्यो ।। २५२५।। जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं दुवारिंग भत्तं वा पसु भत्तं वा भयग-भत्तं वा बल भत्तं वा कयग भत्तं वा हय-भत्तं वा 'रय भत्तं वा कंतार-भत्तं वा दुब्भिक्ख भत्तं वा दमग-भत्तं वा गिलाण भत्तं वा वद्दलिया - भत्तं वा पाहुण भत्तं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गार्हतं वा सातिञ्जति ||०||६|| रण्णो दुवारमादी, भत्ता वृत्ता य जत्तिया सुत्ते । गहणाहणे तत्थ, दोसा उ इमे पसज्जंति || २५२६|| दोवारियपुत्ता, बलं पयादी पसु हयगयादी । सेवग - भोइगमादी, कयकयवित्ती व पुराणा वा ।। २५२७|| Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २५२३-२५३३ । नवम उद्देशकः कंतार- णिग्गताणं, दुब्भिक्खे दमग वरिसवद्दलिया । पाहुणग अतिहियाए, सिया य आरोग्गसालितरं ।। २५२८ || दोवारिया दारपाला । बलं चउन्विहं पाइक्कबलं आसबलं हत्त्थिबलं रहबलं । एतेसि कयवित्तीण वाकयवित्तीण वा णावालग्गाण वा जं रायकुलातो पेट्टगादि भत्तं णिग्गच्छति । कंताराते प्रडविणिग्गयाणं भुक्खत्ताणं जं दुब्भिक्खे राया देति तं दुब्भिक्खभत्तं, दमगा रंका सि भत्तं दमगमत्तं, सत्ताहवले पडते भत्तं करेति राया अपुव्वाणं वा प्रविधीण भत्तं करेति राया । अहवा - रण्णो को हि पाहुणगो आगतो तस्स भत्तं प्रादेसभत्तं, श्रारोग्यसालाए वा "इतरमि" ति - विणावि आरोग्यसालाए जं गिलाणस्स दिज्जति तं गिलाण भत्तं ॥२५२८ ॥ भदो तणिस्साए, तो घेप्पंत दठुणं भणति । " तो घरे न इच्छह, इह गहणं दुट्ठधम्म ति ॥ २५२६ ॥ भत्तो वहिवोच्छेयं णिव्विसिम चरित - जीवभेदं वा । एगमणेगपदोसे, कुज्जा पत्थारमादीणि ॥२५३० ॥ तेसु गिते, तीसे परिसाए एवमुप्पज्जे | को जाति किं एते, साहू घेत्तुं न इच्छति || २५३१ ॥ दुविहे गेलण्णम्मी, णिमंतणा दव्वदुल्लभे सिवे । श्रीमोयरियपदोसे, भए व गहणं श्रणुष्णातं || २५३२॥ पूर्ववत् । जे भिक्खु रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं इमाईं छद्दोसाययणाई जाणि पुच्छय गवेसिय परं चउराय - पंचराया गाहावति कुलं पिंडवायपडियाए निक्खमति वा पविसति वा निक्खमंतं वा पवितं वा सातज्जति, तं जहा -- कोड्डागार - सालाणि वा भंडागार - सालाणि वा पाण-सालाणि वा खीर-सालाणि वा गंज- सालाणि वा महास- सालाणि वा ॥ सू०||७|| ४५५ "इमे" त्ति प्रत्यक्षीभावे, षडिति संख्या, दोसाणं प्राययणं ठाणं मिलए त्ति, अविज्ञाय भिक्षायै प्रविशति, चतुरात्रात् परत. प्रादेशेन वा पंचरात्रात् परतः ङ्का, सपरिखेवातो तो पविसति, अंतातो वा बाहिरियं णिग्गच्छति, धण्णभायणं कोट्ठागारो, "भांडागारो” – हिरण्ण-सुवण्णभायणं, जत्थ उदगादि पाणं सा पाणसाला भण्गति, खीरघरं खीरसाला, जत्थ वण्णं दभिज्जति सा गंजसाला, उवक्खडणसाला महाणसो, पुदि पुच्छा, अपुवे गवेराणा, अपुच्छंतस्स का इमा णिज्जुत्ती - छोसायतणे पुण, रण्णो चउराय - पंचरायं, परेण विजाणिऊण जे भिक्खू । पविसाणमादीणि ॥ २५३३ ।। Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [सूत्र ७-८ कोट्ठागारा य तहा, भंडागारा य पाणगारा य । खीर-घर-गंज-साला, महाणसाणं च छायतणा ॥२५३४॥ जत्य सण-सत्तरसाणि धणाणि कोट्ठागारो। भंडागारो जत्थ सोलसविहाई रयणाई। पाणागारं जत्थ पाणियकम्मं तो सुरा-मधु-सीधु-खंडग-मच्छंडिय-मुद्दियापभितीण पाणगाणि । खीरघरं जत्थ खीरं दधि-णवणीय-तककादीणि अच्छति । गंजसाला जत्थ सण-सत्तरसाणि-धण्याणि कोट्रिज्जति । अहवा - गंजा जवा ते जत्य अछंति सा गंजसाला। महाणससाला जत्थ असण-पाण-खातिमादीणि णाणाविहभक्खे उवक्खडिज्जति ॥२५३४।। एतेसु इमे दोसा - गहणाईया दोसा, आययणं संभवो त्ति वेगट्ठा। दिद्वेयर पुच्छि गविसण गंजसाला उ कुट्टणिया ॥२५३५॥ गहणादियाणं दोसाणं आययणं ति वा संभवट्ठाणं ति वा एगटुं, पुवदितु पुच्छा तत्थेव ताणि जत्थ पुरा आसीत्यर्थः, "इतरे" - अदितु गवेसणं - केवतियाणि ? कतोमुहाणि वा ? कम्मि वा ठाणे ? कि चिंधाणि वा ? शेषं गतार्थम् ॥२५३५।। पढमे बितिए ततिए, चउत्थमासावि चउगुरू अन्ते । उच्चातो पढमदिणे, बितिया एगेसि ता पंच ॥२५३६।। जत्थ पढमदिवसे ण पुच्छति मास नहुँ, बितियदिवसे ण पुच्छति मासगुरु, ततियदिवसे ण पुच्छति च उलहुं ति । तिण्हं परेणं अंते त्ति चतुर्थदिवसे चउगुरु।। ___ एगे भणंति - पढमदिणे परिसंतो वक्खेण वा अपरिसंतो ताहे बितियदिणाटो प्रारब्भ पंचदिणे च उगुरु, एवं चउराउ त्ति वुत्तं भवति ॥२५३६।। अहवा पढमे दिवसे, भिण्णमासादि पंचमे गुरुगा। वीसादि व एगेसिं, परेण पंचण्ह दिवसाणं ।।२५३७।। पढमदिवसे भिण्णमासे ।।२५।।०१० । का। पंचमे चउगुरु था। अधवा - पढमदिणे वीसादि ।।२०।२५।०।०। डा । छट्ठ दिवसे चउगुरु, था। एवं सुत्ते वणियं पंच गता ॥२५३७॥ तो परं भद्देसु रायपिंडं, आवजति गहणमादिपंतेसु । असिवे प्रोमोयरिए 'गेलण्णपदे य वितियपदं ॥२५३८॥ भद्देसु रायपिंडदोसा, पंतेसु गेण्हणादयो दोसा, जे रक्खगा ते भद्दपंता । Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगावा २५३४-२५४३ ] नवम उद्देशक: ४३ मद्दा भणति - किं प्रज्जो ! प्रतिगता? पंता चारिय चोर त्ति काउं पंतावणगेण्हणादी करेज । बितियपदे मसिवादियं पणगपरिहाणीए जइउं जाहे चउगुरु पत्तो ताहे गेण्हेज्ज ॥२५३८॥ जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं अइगच्छमाणाण वा णिग्गच्छमाणाण वा पयमवि चक्खुदंसणपडियाए अभिसंधारेंति, अभिसंधारेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥८॥ मतियानं प्रवेशः, बहिनिर्गमो निर्माण, चक्षुदंसणाण दटुं प्रतिज्ञा।। अधवा - चक्षुषा दर्शयामीति प्रतिज्ञा, एगपदं पि गच्छति तस्स प्राणादिया दोसा । जे मिक्खू रातीपं, णिग्गच्छंताण अहव निताणं । चक्खुपडियाए पदमवि, अभिधारे आणमादीणि ॥२५३६।। अतिति प्रविशंति, एकमवि पदं अभिधारेतो प्राणादिदोसे पावति ॥२५३६।। संकप्पुट्ठियपदभिंदणे य दिद्वेसु चेव सोही तु । लहुओ गुरुगो मासो, चउरो लहुगा य गुरुगा य ॥२५४०॥ मणउट्ठियपदभेदे, य दंसणे मासमादि चतुगुरुगा। गुरुश्री लहुगा गुरुगा, दंसणवज्जेसु य पदेसु ॥२५४१॥ . पडिपोग्गले अपडिपोग्गले य गमणं नियत्तणं वा वि । विजए पराजए वा, पडिसेहं वा वि वोच्छेदं ॥२५४२॥ "रायाणं पासामि" ति मणसा चिंतेति मासलहुँ, उहिते मासगुरु, पदभेदे च उलहुं, दिद्वे च उगुरु । । अहवा- बितियादेसेण - मणसा चितेति मासगुरु, उट्ठिते चउलहुं, पदभेदे चउगुरु, एगपदभेदे वि चउगुरुगा किमंग पुण दिह्र । माणादि विराहणा भद्दपंता दोसा य ।। - जो मद्दत्तो सो पडिपोग्गले त्ति- साधुश्वा ध्रुवा सिद्धिः अच्छिउकामो वि गच्छ ताहे अधिकरणं भवति, जं च सो जुज्झाति-करेस्सति, जति से जयो ताहे णिच्चमेव संजए पुरतो काउं गच्छति । "मपडिपोग्गले" ति- इमेहि लुत्तसिरेहिं वि दिहिं कतो मे सिद्धि, गंतुकामो वि णियत्तेति । मह कहं वि गतो पराजिमो ताहे पच्चागतो पदूसति, पउहो य ज काहिति भत्तोवकरणपव्ययंताण य पडिसेहं करेज्ज, उवकरणवोच्छेदं वा करेज्ज । अपहरतीत्यर्थः ॥२५४२॥ अहवा - इमे दोसा हवेज - दठ्ठण य रायडिं, परीसहपराजितोऽत्थ कोती तु । आसंसं वा कुज्जा, पडिगमणादीणि वा पदानि ॥२५४३।। प्रासंसा णिदाणं कुज्जा। अहवा - तस्समीवे प्रलंकियविभूसियाओ इत्थीमो दटुं पडिगमणं - अण्णतित्थिणी सिद्धपुत्ति संजती वा पडिसेवति, हत्थकम्म वा करेति । Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ समाष्य-चूगिके निशीथसूत्र [मूत्र १-११ अहवा - कोइ ईसरपुत्तो कुमारो पव्वइतो, सो तं रायाणं थी-परिवुडं दळूण चितेइ - लद्धं लोइयं अम्हेहि एरिसीणं णाणुभूतं, ताहे पडिगच्छेज्जा ॥२५४३॥ भवे कारणं - बितियपदमणप्पज्झे, अभिधारऽविकोविते व अप्पज्झे। जाणते वा वि पुणो, कुल-गण-संघाइकज्जेसु ॥२५४४॥ कुलादिकजे जइ राया पधावियो ताहे ण अल्लियंति मग्गतो गच्छति। एवं पडियरिऊण जतिने पडिपुग्गलादयो दोसा न भवंति तो जहिं ठिपो तहिं अलियंति ॥२५४४।। जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं इत्थीओ सबालंकार विभूसियाओ पयमवि चक्खुदसणपडियाए अभिसंधारेति, अभिसंधारेतं वा सातिज्जति ॥०॥६॥ जे भिक्खू इत्थियाए, सव्वलंकारभूसियाए उ। चक्खुवडियाए पदमवि, अमिधारे प्राणमादीणि ॥२५४५॥ पूर्ववत् । मणउट्टियपयभेदे, य दंसणे मासमादि चतुगुरुगा। गुरुत्रो लहुगा गुरुगा, दंसणवज्जेसु य पदेसु ॥२५४६।। केइत्थ भुत्तभोगी, अमुत्तभोगी य केइ निक्खंता । रमणिज्जलोइयं ति य, अम्हं पेयारिसं आसि ॥२५४७॥ भुतभोगियो सति विभवे निक्खंता पुणो संभवंता वच्चंति ॥२५४७॥ पडिगमण अण्णतित्थिय, सिद्धी संजति सलिंगहत्थे य । वेहाणस ओहाणे, एमेव अभुत्तभोगी वि ॥२५४८॥ पेढे पूर्ववत् । अभुत्तभोगी वि उप्पण्णकोउरो पडिगमगादी पदे करेज्ज ॥२५४८।। कि चान्यत् - रीयाति अणुवोगो, इत्थी-णाती-सुहीणमचियत्तं । अजितिंदिय उड्डाहो, आवडणे भेद पडणं च ॥२५४६॥ तणिरिक्खंतो रीयाए अणुवउत्तो भवति, इत्थीए जे सयणा सयणाण वा जे सुहीणो तेसिं अचियत्त भवति, जहा से अणुरत्ता दिट्ठी लक्खिज्जति तहा से अंतगो वि भावो णज्जति अजिइंदिग्रो एवं उड्डाहो । तं निनिवखंतो खाणगादिसु प्रावडेज, भायणं वा भिदेज्ज, सयं वा पडेज्ज, हत्थं पादं वा लूमेज, प्रायविराहणा वितियपदमणप्पज्झे, अभिधारऽविकोविते व अप्पज्झे । जाणतो या वि पुणो, मोह-तिगिच्छाइ-कज्जेसु ॥२५५०॥ मोहतिगिच्छाए वसभेहिं समं अप्पसागारिए ठितो णिरिक्खति ।।२५५०।। ॥२५४६॥ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २५४४-२५५४ ] नवम उद्देशक: ४५६ सो इमं विधिभतिक्कतो पासइ - णिव्वीयमायतीए, दिट्ठीकीवो असारिए पेहे । श्रद्धाणाणि व गच्छति, संवाहणमणादि दच्छंति ॥२५५१॥ णिव्वीतियादियं जाहे पातीतो ताहे अप्पसारिए दिट्टितो दिट्ठीए कीवो पासति, जइ से पोग्गलपरिमाडो जानो तो लटुं. अणुवसमंते संबाधादिए वा देच्छति, अद्धाणं गच्छेज्ज, तत्थ दच्छंति पदभेदे वि पत्थि पच्छित्तं ॥२५५१॥ जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं मंस-खायाणं वा मच्छ खायाणं वा छवि-खायाणं वा बहिया निग्गयाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिजति|सू०॥१०॥ मिगादिपारद्धिजिग्गता मंसखादगा - दह-णइ-समुद्देसु मच्छखादगा, छत्री कलमादिसंगा, ता खामो ति णिग्गया उज्जाणियाए वा णियकुलाण । मंस छवि भक्खणहा, सव्वे उडणिग्गया समक्खाया। गहणागहणे सत्थउ, दोसा ते तं च वितियपदं ॥२५५२॥ तेसु छमु उड्डसु राइण णिगताणं तत्येव असण-पाण-खाण-सातिम उवकरेंति तडियकप्पडियाण वा तत्थेव भत्तं करेज्ज । तत्थ भद्दपंतादयो दोसा पूर्ववत् । अण्णेसिं गहणे, रण्णो अग्गहणे इमं वक्खाणं ।।२५५२॥ मंसक्खाया पारद्धिणिग्गया मच्छ-णति-दह-समुद्दे । छवि-कलमादीसंगा, जे य फला जम्मि उ उडुम्मि ॥२५५३॥ तत्थ गया पगते कारवेंति ।।२५५३।।। जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं अण्णयरं उबवूहणियं समीहियं पेहाए तीसे परिसाए अणुट्टियाए अभिण्णाए अव्वोच्छिण्णाए जो तमण्णं पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥११॥ क्षतात त्रायन्तीति क्षत्रिया, अण्णात राहणेन भेददर्शन, शरीरं उपबृहयंतीति उपवृहणीया, समीहिता समीपमतिता, तं पुण पाहुडं, पेहाए प्रेक्ष्य । उववूहणिय त्ति अस्य पदस्य व्याख्या - मेहा धारण इंदिय, देहाऊणि विवज्जए जम्हा । उववृहणीय तम्हा, चउबिहा सा उ असणादी ॥२५५४॥ शीघ्र ग्रन्थग्रहणं मेधा, गृहीतस्याविस्मरन धुति र्धारणा, सोतिदियमाइंदियाणं सविसए पाडवजनाणं, देहस्सोपचनो, पाउसंवट्टणं, जम्हा एने एवं उबबूहस्ति तम्हा उववहणिया। सा य चउलिहाअसणादि ॥२१५४॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [सूत्र १२-१३ "तीसे परिसाए अणुट्ठिए" त्ति अस्य व्याख्या - आसण्णमुक्का उट्टिय, भिण्ण उ विणिग्गया ततो केई । वोच्छिण्णा सव्वे णिग्गया उ पडिपक्खनो सुत्तं ॥२५५५॥ जेमंतस्स रणो उववूहणिया प्राणिया, पिट्ठो त्ति वुत्तं. भवति, तं जो ताए परिसाए अणुद्विताए गेहति तस्स डा। रायपिंडो चेव सो। आसणाणि मोत्तु उद्विताए अच्छंति, ततो केति णिग्गता भिण्मा, असेसेसुणिग्गतेसु वोच्छिष्णा, एरिसे ण रायपिंडो । पडिपक्खे सुत्तं - अणुट्ठिताए अभिण्णाए अव्वोच्छिण्णाएइत्यर्थः ॥२५५५॥ रग्णो उववृहणिया, समीहितो वक्खडा तु दुविहा तु । 'छिन्नाच्छिन्ने तत्थ उ, दोसा ते तं च बितियपदं ॥२५५६॥ उवक्खडा अणुवक्खडा य । 'मोदणकुसणादि उवक्खडा य, खीरदहिमादि अणुवक्वडा, सव्वेसु परिविट्रेस छिण्णा परिविस्समाणी अच्छिण्णा सा उववूहणिया । तीए परिसाए अणुवट्ठिताए अभिणाए अव्वोच्छिण्णाए उववूहणियाए घेप्पमाणीए ते चेव भद्दपंते दोसा तं चेव बितियपदं ॥२५५६॥ अह पुण एवं जाणेज्ज - "इहज्ज रायखत्तिए परिवुसिए" जे भिक्खू ताए गिहाए ताए पयसाए ताए उवासंतराए विहारं वा करेइ, सज्झायं वा करेइ. असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा आहारइ, उच्चारं वा पासवणं वा परिहवेइ, अण्णयरं वा अणारियं पिहुणं अस्समण-पाउग्गं कहं कहेति, कहेंतं वा सातिज्जति।।सू०॥११॥ "प्रथे" त्ययं निपातः, उक्तः पिंडः, वसहिविसेसणो पुण सद्दो यथावक्ष्यमाणं एवं जाणेज्जा - "ज्ञा" अवबोधन; "इह" भूप्रदेशे "प्रज्जे" त्ति वर्तमानदिने, परिवुसे पर्युषिते वसतेत्यर्थः । जे भिक्खू तस्मिन् । गृहे निकृष्टतरो अपवरकादि प्रदेशः, तस्मिन्नपि निकृष्टतरः खदास्थानं अवकाशः विहारादि करेन. तस्स छ। राया उ जहिं उसिते, तेसु पएसेसु बितियदिवसादि । जे भिक्खू विहरेज्जा, अहवा वि करेज सज्मायं ॥२५५७॥ असणादी वाहारे, उच्चारादीणि वोसिरेज्जा वा । सो आणा अणवत्थं, मिच्छत्त-विराधणं पावे ॥२५५८|| प्राणादिणो दोसा, तस्मिन् गृहे यस्मिन् राजा स्थितः प्रासीत्, ततो रायोच्चरियानो रक्खिजंति, तत्थ गहणादयो दोसा । अह उच्चारपासवणं परिदृवैति ताहे तमेव छन्नाऽऽविज्जति ॥२५५८॥ अहवा पम्हुट्ट अवहए वा, संका अभिचारुगं च किं कुणति । इति अभिनववुत्थम्मि, चिर वुत्थऽचियत्तगहणादी ॥२५५६।। १ व्यंजनम् । २ गहणागहणमच्छिन्ने, इति पूनासत्कभाष्यप्रती पाठः । Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २५५५-२५६४ ] ४६१ तत्थ कि चिपम्हुट्ठ । पम्हुट्ठ णाम पडियं, वीसरियं वा किचि होज्ज, प्रगेण वि श्रवहरिते संकिज्जति, पट्ठस्स हरणबुद्धीए इंदियठिया उच्चाटण वसीकरणाणि, एस एत्थ ठितो अभिचारु करेति । त्रिवृत्थे एते दोसा, चिरपवुत्थे प्रपत्तियं, गहणादिया दो वि । नवम उद्देशकः हवा सचिकम्मे, दठूणोधारिते तु ते दिव्वे | अत्थाणी वासहरे, णिवण्णसंबाहियो व ईह || २५६० || तासु सचित्तकम्मासु वसहीसु प्रष्णारिसो भावो समुष्पज्जति एत्थ प्रत्याणि मंडवो, एत्थ से वासघरं, एत्थ विष्णो, एत्थ संबाधितो, एवमादि ठाणा दट्टु ।। २५६० ॥ भुत्तभुत्ताण तहिं, हवंति मोहुन्भवेण दोसा उ । पडिगमणादी तम्हा, एए उ पए वि वज्जेज्जा ॥ २५६१ || भुक्तभोगीण तं सुमरिउं मोहुब्भवो भवे, इतरेसि कोउएण || २५६१ ।। कारणेण - बितियपदमणप्पज्के, उस्सण्णाइन - संभमभए वा । जयणाऽगुणवत्ता, कप्पंति विहारमादीणि ॥ २५६२॥ प्रणवजो सव्वाणि वि करेज, उस्सणं णाम ण तत्थ कोति वावारं वहति, प्रोज्झितमित्यर्थः, श्राइष्णं - सव्वलोगो आयरति, अष्णत्रसहीए श्रभावे श्रग्गिमादिसंभमे वा बोहिगादिभये वा जयणाए तप्पडियर गे प्रणुष्णवेत्ता विहारमा दीणि करेति ॥ २५६२ || जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धा मिसित्ताणं बहिया जत्ता-संठियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेर, पडिग्गार्हतं वा सातिज्जति ॥ ० ॥ १२ ॥ जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं बहिया जत्ता - पडिणियत्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ, डिग्गा वा सातिज्जति ॥ सू०||१३|| जाहे पर विजयट्ठा गच्छति ताहे मंगलसंतिणिमित्तं दियादीण-भोयगं काउं गच्छति, पडिणियत्ता वि विजए संखड करेंति । जगतरादीणं, श्रहवा जत्ता उ पडिणियत्ताणं । गहणागणे तत्थ उ, दोसा ते तं च बितियपदं ॥ २५६३ ॥ गहणागणे भद्दपंतदोसा, रण्णो ण गेहति प्रष्णेसि गेव्हंति, प्रोहि वा प्रत्तट्ठियं गेहंति, ते चेव ater तं a fafaयपदं ।। २५६२ || मंगलममंगलिच्छा, णियत्तमणियत्त मे य अहिकरणं । जातिगमादी वा एमेव य पडिनियत्ते वी || २५६४ || Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १४-१८ जत्ताभिमुहस्स णियत्तस्स वा मंगलबुद्धीए अमंगलबुद्धीए वा । मंगलबुढीए गच्छति पविसति वा, प्रमंगलबुद्धीए ण गच्छति ण वा गिहं पविसति । दुहा वि अधिकरणं । जावंतियमादीणि वा दोसेण दुटुं भत्त गेण्हेज्जा ॥२५६४॥ जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धामिसित्ताणं णइ-जत्ता-पट्ठियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१४॥ जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं णइ-जत्ता-पडिणियत्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ॥सू०॥१॥ जे भिक्खू रपणो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं गिरि-जत्ता-पट्टियाणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१६॥ जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं गिरि-जत्ता-पडिनियत्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति ।।सू०॥१७॥ गिरिजत्तपट्ठियाणं, अहवा जत्तानो पडिनियत्ताणं । गहणागहणे तत्थ उ, दोसा ते तं च वितियपदं ॥२५६॥ गिरिजता गयगहणी, तत्थ उ संपट्ठिया नियत्ताणं । गहणागहणे तत्थ उ, दोसा ते तं च वितियपदं ॥२५६६।। चारिबंध हत्थिगहणी तीए गच्छति ॥२५६६॥ जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं महाभिसेयंसि वट्टमाणंसि णिक्खमति वा पविसति वा,णिक्खमंतं वा पविसंतंवा सातिज्जति॥१८॥ जे ति निह से, भिक्खू पुत्ववणियो, “राज दीप्तौ", ईसरतलवरमादियाणं अभिसेगाण महंततरो . अभिसेयो महाभिसेपो, अधिरायत्तेण अभिसेयो, तम्नि वटुंने जो तस्समीवेण मज्झेण वा णिवखमति वा तस्स प्राणादी दोसा । रण्णो महाभिसेगे, बटुंते जो उ णिक्खमे भिक्खू । अहवा वि पविसेज्जा, सो पावति आणमादीणि ॥२५६७॥ मंगलममंगले वा, पवत्तण णिवनणे य थिरमथिरे । विजए पराजए वा, वोच्छेयं वा वि पडिसेहं ॥२५६८।। Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माष्यगाथा २५६५-२५७५] नवम उद्देशक: मंगलबुद्धीए पवत्ताण अधिकरणं, अमंगलवुद्वीए णियत्तणे अधिकरणदोसा, वोच्छेदादिया य, जह से थिररज्जं विजयो वा जातो पुणो पुणो मंगलिएसु प्रत्येसु साहवो तत्थ ठविज्जति अधिकरणं च। अथिरे पराजए वा वोच्छेदं पडिसेहं वा, गिन्धिसयादि करेज्ज। अहवा दठ्ठण य रायडिं, परीसह-पराजिओऽत्थ कोई तु । आसंसं वा कुज्जा, पडिगमणाईणि व पयाणि ॥२५६६॥ पूर्ववत् । बितियपदमणप्पज्झे, अभिचारऽरिकोविते व अप्पज्झे । जाणते वा वि पुणो, अणुण्णवणादीहिं कज्जेहिं ॥२५७०॥ काए विधीए अणुणवितव्यो ? किं पुवि पच्छा माझे अणुण्णवेयव्यो ? उच्यते - गाउणमणुण्णवणा, पुचि पच्छा अमंगलमवण्णा । उपभोगपुच्छिऊणं, न णाए मज्झे अणुण्णवणे ॥२५७१।। ओहादीयाभोगिणि, णिमित्तविसएण वा वि णाऊणं । भद्दे पुन्वाणुण्णा, पंतमणाए ‘य मज्झम्मि ॥२५७२॥ अोहिमादिणा णाणविसेसेण प्राभोगिणिविज्जाए वा अवितहनिमित्त वा उवउज्जिऊण, पप्पणो असति अण्णं वा पुच्छिणं थिरंति रज्ज णाऊणं अणुणवणा पुट्विं भवति । अथिरं वा रज्जं णाऊण पुस्विं अणुणाविज्जतो अमंगलबुद्धी वा से उप्पज्जति, पच्छा अवज्ञाबुद्धी उप्पज्जति, अोहिमादिणाणाभावे वा मज्झे आणण्णवेति ॥२५७२॥ अणुण्णविते दोसा, पच्छा वा अप्पियं अवण्णो वा । पंते पुत्वममंगल, णिच्छुभण पोस पत्थारो ॥२५७३॥ .. मम रज्जाभिसेए अट्ठारस पगतीनो सन्चपासंडा य अग्धे घेत्तूमागया इमे सेयभिक्खुणो णागता तं एते अपयद्धा प्रलोकना। अहवा - अहमेतेसि अप्पिो , गिन्त्रिसयादी करेज्ज, पच्छा वि अवज्ञादोषा भवंति, पुवं अमंगलदोसो, तम्हा ते अणुष्णवेयवा ।।२५७३॥ आभोएत्ताण विद्, पुल्विं पच्छा णिमित्तविसएण। राया किं देमि त्ति य, जं दिण्णं पुश्वरादीहिं ।।२५७४॥ धम्मलाभेत्ता भणति - प्रणुजाणह पाउरगं, ताहे जइ जाणति पाउग्गं, मद्दगो वा ताहे भगाति - जाव प्रगुणायं । अयाणगो राया भणति - किं देमि ? ताहे साहवो भणंति - जं दिणं पुञ्च - रातीहिं ।। २५७४।। 'जाणतो अणुजाणति, अजाणतो भणति तेहि किं दिणं । पाउग्गं ति य वुत्ते, किं पाउग्गं इमं सुणतु ॥२५७५॥ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ सभाष्य-चूर्णिके निशीथसूत्रे [सूत्र-१८ किं दिण्णं पुबरातीहिं ? साहवो भणंति - इमं सुणसु - आहार उवहि सेज्जा, ठाण णिसीयण तुयट्ट-गमणादी। थी-पुरिसाण य दिक्खा, दिण्णा णे पुव्वरादीहि ॥२५७६॥ एवं भणिए - भद्दो सव्वं वितरति, दिक्खावज्जमणुजाणते पंतो। अणुसट्ठातिमकाउं, णिते गुरुगा य प्राणादी ॥२५७७॥ पंतो भणाति-मा पवावेह, सेसं अणुण्णायं, जइ तुन्भे सव्वं लोग पवावेह, किं करेमो ? एवं पडिसिद्धा अणुसट्ठादी अकाउं ततो रज्जातो णिति चउगुरु, प्राणादिणो ॥२५७७॥ इमे य दोसा - चेइय-सावग-पव्वतिउकामअतरंत-बाल-बुड्डा य । चत्ता अजंगमा वि य, अभत्ति तित्थस्स हाणी य ॥२५७८॥ एते सव्वे परिचत्ता भवंति, चेतियतित्थकरेसु अभत्ती, पवयणे हाणी कता, एत्य पडिसिद्ध अन्नत्य वि पडिसिद्धं, एवं ण कोति पव्वयति एवं हाणो ॥२५७८॥ अच्छताण वि गुरुगा, अभत्ति तित्थे य हाणि जा वुत्ता। भणमाण भाणवेता, अच्छंति अणिच्छे वच्चंति ॥२५७६।। पडिसिद्धे वि अच्छताण चउगुरु । अण्णात्य वि भविय जीवा बोहियन्या । ते ण बोहेति । अउ तत्थ भच्छता सयं भयंता प्रणेहि य भणाविता किं चि कालं उ दिक्खंति, सम्बहा पणिच्छंते प्रणरज्ज गच्छति ॥२५७६॥ — संदिसह य पाउग्गं, दंडिगो णिक्खमण एत्थ वारेति । गुरुगा अणिग्गमम्मी, दोसु वि रज्जेसु अप्पबहुं ॥२५८०॥ "'पुव्वभणियं तु जं भण्णति - कारग-गाहा" एत्य पडिसेहे देसाणुण्णा । का अणुण्णा ? इमा, “दोसु वि रज्जेसु मप्पबहु" ति - तस्स दो रज्जे हवेज्ज ॥२५८०॥ एक्कहि विदिण्ण रज्जे, रज्जे एगत्थ होइ अविदिण्णं । एगत्थ इत्थियात्रो, पुरिसज्जाता य एगत्थ ॥२५८१॥ अहवा - सो भणेज्ज - मम दो रज्जे, एगत्थ पवातेह, एगत्थ मा । तत्थ साहवो रज्जेसु अप्पबहुं जाणिऊण जत्थ बहुया पव्वयंति तत्थ गच्छति । अहवा - एगत्य रज्जे इत्थियात्रो अन्भणुण्णाया, एगत्य पुरिसा, दोसु वि रज्जेसु एगतरं वा ।।२५८१॥ १ पिठिकायां तृतीय पृष्ठे। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २५७६-२५८७ ] नवम उद्देशकः ४६५ तरुणा थेरा य तहा, दुग्गयगा अडगा य कुलपुत्ता। जणवयगा णागरगा, अभंतरवाहिरा कुमरा ॥२५८२।। अहवा - भणेज्ज - थेरे पव्वावेह, मा तरुणे । अहवा - मा थेरा, तरुणा । दुग्गए पवावेह, मा अड्डे । अहवा - प्रड्ड मा, दुग्गते । कुलपुत्ते - कुलपुत्तगहणाग्रो सुमोला, सुसीले पवावेह, मा दुस्सीले । अहवा - दुस्सीले, मा सुसीले । एवं जागपदा, गागरा, गगरभंतरा, बाहिरा, कुमारा प्रकतदारमंगहा ॥२५८२।। ओहीमाती णातुं, जे दिक्खमुवेति तत्थ बहुगा उ । ते वेति समणुजाणसु, असती पुरिसे य जे य बहु ।।२५८३॥ असति त्ति प्रोहिमादीण, पुरिरो पब्वाति जो वा थी-पुरिसादियाण बहुतरो वग्गो तं पब्वाति ।।२५८३॥ एताणि वितरति तहिं, कम्मघण कक्खडो उ णिन्चिसए । भरहाहियो णऽसि तुमं, पभवामी अप्पणो रज्जे ॥२५८४॥ कोति एयाणि वितरति, कोति पुण अतिपंतो 'कम्मघणो" ति - कम्मबहलो "कक्खडो - तिनकम्मोदए वट्टमाणो णिदिवसए प्राणवेज्ज । तत्थ पुलागलद्धिमादिगा वत्तव्वं - भरद्वाहिवो ऽसि तमं । सो भणति - जइ वि णो भरहाहियो तहावि अप्पणो रज्जे पभवामि ॥२५८४।। सो पुण णिव्विसए इमेण कज्जेण करेति - दिक्खेहिं अच्छंता, अमंगलं वा मए इमे दिट्ठा। मा वा ण पुणो देच्छं, अभिक्खणं चेति णिव्यिसएं ॥२५८।। मा अच्छता दिवहिति, अमंगलं वा, इमे मए दिट्ठा मा पुगो अभिवखणं देच्छामि, एतेग कारणेण गिन्धिसए ।।२५८५।। 'भणति तत्थ अणसट्ठी धम्मकहा, विज्जणिमित्ते पभुस्स करणं वा । भिक्खे अलन्भाणे, अदाणे जा जहिं जयणा ॥२५८६॥ . अणुसट्टी धम्मकहा विज्जा मंत-गिमित्तादिएहिं उबसामिज्जति । अशुवसमते जति पभू तो करणं करेति ॥२५८६॥ बेउव्वियलद्धी वा, ईसत्थे विज्जोरसवली वा । तवलद्धि पुलागो वा, पेल्लेति तमेतरे गुरुगा ॥२५८७।। जहा भगव या "विण्हुणा" प्रणगारेग, ईसत्थे वा जो कयकरणो, विज्जासमत्यो वा जहा "अजखउडो", सहस्स जोही वा उरस्सबले ग जुनो, तवसा वा जम्स तेग्रोललो उपमा. पुलागली वा. एरिसो समत्थो बंधिता पुत्त सरज्जे ठवेति । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्रे [ सूत्र १६-२० अहवा - अप्पणा वट्टावेति जाव रायपुत्तो जोग्गो लद्धो। इतरो पुण असमत्थो जइ पेल्लेति तो चउगुरुगा । अणुवसमते णिग्गंतव्व, णिग्गएहिं उग्गमुप्पायणे सणासुद्धं भुंजतेहिं गंतव्वं, जाहे ण लब्भइ ताहे पणगपरिहाणीए जतितुं घेप्पति, प्रधाणे जा जयणा वुत्ता सा जयणा इहा वि दट्ठवा ।।२५८७।। जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं इमाओ दसअभिसेयाओ रायहाणियो उद्दिट्ठात्रो गणियाओ वंजियाओ अंतो मासस्स दुक्खुत्तो वा तिक्खूत्तो वा णिक्खमति वा पविसति वा, णिक्खमंतं वा पविसंतं वा सातिज्जति। तं जहा-चंपा महुरा वाणारसी सावत्थी साएयं कंपिल्लं कोसंबी मिहिला हथिणपुरं रायगिहं वा ॥सू०॥१६॥ "इमा' प्रत्यक्षीभावे, दस इति संस्था, राईण ठाणं रायपाणि त्ति उद्दिट्टातो, गणियानो दस, पंजियानो णा मेहिं, अंतो मासस्स दुक्खुत्तो तिक्खुत्तो वा शिक्खम-पवेसं करेंतम्स ङ्क। दसहिं य रायहाणी, सेसाणं सूयणा कया होइ । मासस्संतो दुग-तिग, ताओ अतितम्मि प्राणादी ॥२५८८।। अन्नामो वि णयरीमो बहुजणसंपगाढायो णो पविसियव्वं ॥२५८८।। इमा सूत्रस्य व्याख्या - इम इति पच्चक्खम्मी, दस संखा जत्थ राइणो ठाणा । उद्दिट्ठ-रायहाणी, गणिता दस वंज चंपादी ॥२५८६॥ " णामेहि वंजियानो चंपादि ॥२५८६॥ चंपा महुरा वाणारसी य सावत्थिमेव साएतं । हत्थिणपुर कंपिल्लं, मिहिला कोसंबि रायगिहं ।।२५६०॥ बारसचक्कीण एया रायहाणीयो ।।२५६०।। संती कुथू य अरो, तिण्णि वि जिणचक्की एक्कहिं जाया । तेण दस होति जत्थ व, केसवजाया जणाइण्णा ॥२५६१॥ जासु वा णगरीसु केसवा अण्णा वि जा जणाइण्णा सा वि वज्जणिज्जा ॥२५६१॥ तत्थ को दोसो? तरुणा वेसित्थि विवाहरायमादीसु होति सतिकरणं । आउज्ज-गीयसद्दे, इत्थीसद्दे य सवियारे ॥२५६२।। तरुणे हातविलिते थीगुम्मपरिवुडे दळूण, वेसित्यीयो उत्तरवेउवियानो, वीवाहे य विवाहरिद्धिसमिद्धे अाहिंडमाणो, रायाऽयविविहरिद्धिजुत्ते णितागिते दटुं. भुत्तभोगीणं सतिकरणं, प्रभुत्ताणं कोउयं पडिगमगादी दोसा। प्रादिसद्दातो वहु नडनट्टादि श्राोज्जाणि वा ततविततादीणि गीयसद्दाणि वा ललिय-विलासहसिय-भगियाणि, मंजुलाणि य इत्थीसद्दागि, सविगारग्गहणातो मोहोदीरगा ।।२५६२।। Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाष्यगाथा २५८८-२५९६ ] नवम उद्देशक: ४६७ किं चान्यत् - रूवं आभरणविहिं, वत्थालंकार भोयणे गंधे । मत्तम्मत्तविउव्वण, वाहण-जाणे सतीकरणं ॥२५६३॥ सिंगारागाररूवाणि, हारऽद्धहारादिया पाभरणविधी. वत्था "प्राजीनसहिणादिया" सत्तमुद्देसगाभिहिता, केसपुप्फादि अलंकारो, विविधं वंजणोववेयं भोयणजाय भुंजमाणं पासित्ता, मिगंड-कप्पूरागरु - कुंकुम - चंदण - तुरुक्खादिए गंधे, तहा मत्ते विलोलघोलंतनयणे, उत् प्राबल्येन मत्ते उन्मत्ते दरमत्तो वा उन्मत्तो, विविधवेसेहिं विउलिया, प्रासादिवाहणारूढा, सिबियादिएहि जाणेहिं गच्छमाणे पासित्ता, सतिकरणादिएहिं दोसेहिं संजमामो भज्जेज्ज। अहवा - वेहाणसं गद्धपटुं वा करेज्ज ॥२५६३।। इमे य विराहणादोसा - हय-गय-रह-सम्मदे, जणसम्महे य आयवावत्ती। भिक्ख वियार विहारे, सज्झायज्माणपलिमंथो ॥२५६४॥ हय-गय-रह-जाणसम्मद्देश प्रायविराहणा भवे, बहुजणसम्मद्देण रोहिय-रत्थासु दिक्खंतस्स भिक्खवियारे विहारेसु सज्झाएसु य पलिमंथो अच्चाउले झाणपलिमंथो ॥२५६४।। जम्हा एते दोसा तम्हा एत्य ण गंतव्यं । भवे कारगं बितियपदे असिवादी, उवहिस्स वा कारणे व लेवस्स । बहुगुणतरं च गच्छे, आयरियादि ब्व आगाढे ॥२५६५॥ अण्णो असिवं तेण प्रतिगम्मति, उवही वा अण्ण प्रोण लब्भति, तत्थ मुलभो लेवो, गच्छवामीण वा तं बहुगुणं खेत्तं, पायरियाण वा तत्थ जवणिज पाउग्गं वा लब्भति। आदिसद्दामो बाल-वुड-गिलागाण वा अण्णतरे वा आगाढे पोयणे ॥२५॥५॥ ग्रहवा रायादि-गाहणट्ठा, पदुट्ठ-उवसामणट्ठ-कज्जे का । सेहे व अतिच्छंता, गिलाण वेज्जोसहट्ठा वा ॥२५६६॥ रणो धम्मगाहट्ठा । रणो प्रणास्स वा पदुटुम्स उवसमठ्ठा । सेहो वा तत्थ ठितो सणायगा य अगम्मो, तम्मझेण वा गच्छिउकामो, गिलाणस्स वा वेज्जोसह - गिमित्तं ।।२५९६॥ जे भिक्खू रणो खत्तियाणं मुदियाणं मुदाभिसित्ताणं असणं या पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पड्डिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति । तं जहा - खत्तियाण वा राईण वा कुराईण वा राय-संसियाण वा राय-पेमियाण वा ॥सू०॥२०॥ क्षतात् त्रायन्तीति क्षत्रिया प्रारक्षकेत्यर्थः, अधिवो राया, कुस्सितो राया कुराया । Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [सूत्र २१-२० अहवा - पच्चंत-णिवो कुराया, जे एतेसिं चेव प्रेष्या पेसिता, एतेसि णोहडं - णिसटुं -दत्तमित्यर्थः । खत्तियमादी ठाणा, जतियमेत्ता उ आहिया सुत्ते । तेम णीहड-गहणे, दोसा ते तं च वितियपदं ॥२५६७॥ जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति । तं जहा-णडाण वा गट्टाण वा कच्छुयाण वा जल्लाण वा मल्लाण वा मुट्टियाण वा वेलंवगाण वा कहगाण वा पवगाण वा लासगाण वा दोखलयाण वा छत्ताणुयाण वा ॥॥२१॥ णाडगादि णाडयंता णडा, गट्टा अकेल्ला, जल्ला राज्ञः स्तोत्रपाठकाः, अणाहमल्लगाणं पविट्ठा मल्ला, मुट्ठिया जुज्झणमल्ला, वेलबका खेलं वा(?) प्रक्खातिगा कहाकारगा कहगा, णदीसमुद्दादिसु जे तरंति ते पवगा, जयसहपयोत्तारो लासगा भंडा इत्यर्थः । नडमादी ठाणा खलु, जत्तियमेत्ता य आहिया सुत्ते । तेसू णीहड-गहणे, दोसा ते तं च बितियपदं ॥२५९८॥ जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिजति । तं जहा-आस-पोसयाण वा हत्थि-पोसयाण वा महिस-पोसयाण वा वसह-पोसयाण' वा सीह-पोसयाण वा वग्ध-पोसयाण वा अय-पोसयाण वा पोय-पोसयाण वा मिगपोसयाण वा सुण्ह-पोसयाण वा सूयर-पोसयाण वा मेंढ-पोसयाण वा कुक्कुड-पोसयाण वा तित्तिर-पोसयाण वा वट्टय-पोसयाण वा लावय-पोसयाण वा चीरल्ल-पोसयाण का हंस-पोसयाण वा मयर-पोसयाण वा सुय-पोसयाण वा ॥०॥२२॥ बृहत्तरा रक्तपादा वट्टा, अल्पतरा लावगा। पोसगमादी ठाणा, जत्तियमेत्ता उ आहिया मुत्ते । - तेमू णीहड-गहणे, दोसा ते तं च वितियपदं ॥२५६६॥ जे भिकवू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्राभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा साइमं वा साइमं वा परम्स णीहडं पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति । तं जहा-प्रास-दमगाण वा हत्थि-दमगाण वा ।।मु०॥२३॥ . Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाष्यगाथा २५६७-२६०२] नवम उद्देशकः जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं वा असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेड़, पडिग्गाहेंतं वा सातिजति । तं जहा - आस-मिठाण वा हत्थि-मिठाण वा ॥०॥२४॥ जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स णीहडं पडिग्गाहेइ, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति । तं जहा आस-रोहाण वा हत्थि-रोहाण वा।।सू०॥२५॥ दमगादी ठाणा खलु, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते। तेस नीहड-गहणे, दोसा ते तं च बितियपदं ॥२६००॥ इमं सुत्तवक्खाणं आसाण य हत्थीण य, दमगा जे पढमताए विणियंति । परियट्ट मेंठ पच्छा, आरोहा जुद्धकालम्मि ॥२६०१॥ जे पढम विणयं गाहेति ते दमगा, जे जगा जोगासणेहि वावारं वा वहति ते मेंठा, जुद्धकाले जे पारुहति ते प्रारोहा ॥२६०१।। जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं या सातिज्जति । तं जहा - सत्थवाहाण वा संवाहावयाण वा अभंगावयाण वा उबट्टावयाण वा मज्जावयाण वा मंडावयाण वा छत्त-ग्गहाण वा चामर-ग्गहाण वा हडप्प-ग्गहाण वा परियट्ट-ग्गहाण वा दीविय-ग्गहाण वा असि-ग्गहाण वा धणु ग्गाहाण वा सत्ति-ग्गहाण वा कोंत-ग्गहाण वा ॥सू०॥२६॥ ईसत्थमादियाणि राय: त्याणि प्राहयंति कथयति ते सत्थवाहा, पडिमईति जे ते परमद्दा शयन-काले परिपिट्टति, शतपाकादिना तैलेन प्रब्भगेति, पादेहि, उबट्टेति, हावेंति जे ते मज्जावका, मउडादिणा मंडेति जे ते मंडावगा, वस्त्रपरावतं गृहन्ति जे ते परियट्टगा, प्राभरणभंडयं "हडप्पो", चावं धणुयं, असी खग्गं । सत्थवाहादि ठाणा. जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते। तेसू नीहड-गहणे, दोसा ते तं च वितियपदं ॥२६०२॥ जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति । तं जहा - वरिस-धराण वा कंचुइज्जाण वा दोवारियाण वा डंडारक्खियाण वा सू०॥२७॥ Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभाष्य-चूणिके निशीथसूत्र [ सूत्र-२८ वरिसधरहाणादी, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते । तेसू नीहड-गहणे, दोसा ते तं च बितियपदं ॥२६०३।। गतार्थाः - जे भिक्खू रण्णो खत्तियाणं मुदियाणं मुद्धाभिसित्ताणं असणं वा पाणं वा खाइमं वा साइमं वा परस्स नीहडं पडिग्गाहेति, पडिग्गाहेंतं वा सातिज्जति । तं जहा - खुज्जाण वा चिलाइयाण वा वामणीण वा पडभीण वा बब्बरीण वा पाउसीण वा जोणियाण वा पल्हवियाण वा ईसणीण वा थारुगिणीण वा लउसीण वा लासीण वा सिंहलीण वा आलवीण वा पुलिंदीण वा सबरीण वा परिसणीण वा, तं सेवमाणे आवज्जति चाउम्मासियं परिहारहाणं अणुग्धाइयं ।।सू०॥२८॥ शरीरवका खुज्जा, पट्ठिवदुगाहारा (पट्ठी कुजागारा) णिग्गता वडभ, सेसा विसयाभिहाणेहिं वत्तव्यं । खुज्जाई ठाणा खलु, जत्तियमेत्ता उ आहिया सुत्ते । तेसू नीहड-गहणे, दोसा ते तं च बितियपदं ॥२६०४॥ अद्धाण-सद्ददोसा, दुगुंछिता लोए संकसतिकरणं । आत-परसमुत्थेहि, कणगहणादिया दोसा ॥२६०५॥ खुज्जादियासु गच्छंतस्स प्रद्धा(ट्टा) णदोसा । गीयादिया य सद्ददोसा । दुगु छिताम्रो य तारो लोए, अपायारसेवणे संकिज्जति । भुत्ताण सतिकरणादिया दोसा । इतराण कोउयं । प्राय-पर-उभयसमुत्या य दोसा । सो वा इत्थिं, इत्थी वा तं बला गेण्हेज्ज । गेण्हण-कड्ढणदोसा ॥२६०५।। ॥ इति निसीह-विसेसचुण्णीए नवमत्रो उद्देसो समत्तो ।। www.jainelibrary:org Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुस्तक परिचय निशीथ-भाष्य एक महत्त्वपूर्ण विशालकाय आगम है। उसमें आचार के सभी अंगों का जीवन एवं देश-काल की परिस्थितियों के अनुसार सांगोपांग वर्णन किया गया है। आचार के साथ दर्शन, तत्त्व-ज्ञान एवं उस समय की सारंकृतिक, राजनैतिक, सामाजिक स्थिति का, रहन-सहन, रीति-रिवाज आदि सभ्यता का भी विस्तृत वर्णन मिलता है। वस्तुतः निशीथ, एक ज्ञान-कोष है। जो अब तक अलभ्य था। उपाध्याय श्री अमरमुनि जी एवं सहयोगी पं0 मुनि श्री कन्हैयालाल जी महाराज जी द्वारा इसका संपादन तथा सन्मति ज्ञानपीठ, आगरा द्वारा प्रकाशन हुआ था। उक्त संपादित निशीथ पर कुछ रिसर्च स्कॉलर पी0 एच0 डी0 भी कर चुके हैं। _भारत के मूर्धन्य विद्वानों एवं विशेष कर जर्मनी के कई पुरकालयों एवं विद्वानों की ओर से निरन्तर निशीथ की मॉग आ रही है, उसकी संपूर्ति के लिए 'निशीथ-सुत्रम्' का द्वितीय संस्करण मुद्रित किया गया था। प्रस्तुत आगम पर स्थविर पुंगव श्री विसाहगणी महत्तर का भाष्य और आचार्य प्रवर श्री जिनदास महत्तर की विशेष चूर्णि भी प्रकाशित हो रही है। सुप्रसिद्ध दार्शनिक विद्वान् पं0 दलसुख मालवणिया, अहमदाबाद 'निशीथः एक अध्ययन तथा सुप्रसिद्ध शोधकर्ता बी० बी० रायनाडे (उज्जैन) द्वारा इंग्लिश में लिखित समालोचनात्मक विस्तृत प्रस्तावना भी साथ में संलग्न है। पुस्तक की विद्वानों द्वारा मांग पर हमने इसका तृतीय संस्करण की कुछ प्रतियां छापी है ताकि गुरुदेव जी का नाम अमर रहे। प्रस्तुत ग्रन्थ चार भागों में डेमी साइज 8 पेजी लगभग 2000 पृष्ठ। तृतीय संस्करण मूल्य : 1000 रू० S ainelibrary.org Nain Education International Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ardha Magadhi Ditionary : (Illustrated) : Literary Philosophic and Scientific by Shatabdhani Rattan Chand ji maharaj, (Complete in Five Vols. ) with Introduction by A. C. Woolner (in original size), 1988 7500/श्रीमद्वादिदेवसूरिविरचित :- स्याद्वादरत्नाकरः | 800/जैन दर्शन - (सम्यक् ज्ञान दर्शन चरित्र के परिप्रेक्ष्य में) डॉ० साध्वीसुभाषा 500/जैन साहित्य में युवाचार्य मधुकर मुनि का योगदान - आर्या चन्द्रप्रभा आभा श्री 250/Jain Philosophy - (Religion and Ethics)-Prof. B.B. Rayanade, Demy 8 Vo. 2001 395/प्राकृतसूक्ति-कोश - मुनिचन्द्रप्रभसागर-2002 250/शौरसेनी प्राकृतभाषा और व्याकरण - प्रो० प्रेमसुमन जैन 125/कुन्दकुन्दाचार्य की प्रमुख कृतियों में दार्शनिक दृष्टि - डॉ० सुषमागांग 60/प्राकृतचन्द्रिका (Prakrtacandrika) : प्रभाकर झा 25/भारतीय दर्शन परम्पराया जैनदर्शनाभ्मित-दे व तत्त्वम् (Bharatiyadarsana Paramparayam JainadarsanabhimataDevatattvam): डॉ० दामोदर शास्त्री, 1985 150/ अमर पब्लिकेशन्स सी० के० 13/23 सती चौतरा, वाराणसी। फोन 2392378