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________________ श्रात्म-निवेदन मानव-मन में चिरकाल से संकलित संकल्पों की सिद्धि, मानव के तदनुरूप सत्साहन, साधन-परिज्ञान एवं अथक परिश्रम से होती है । साहित्य साधना का यही मूल मंत्र मेरे जीवन को सदा प्रगति की ओर बढ़ाता रहा है। श्रय उपाध्याय कविरल श्री अमरचन्द्र जी महाराज की विमल यश-रश्मिया मेरे मानस को चिरकाल से आलोकित कर रही थी, पर उनके व्यावर वर्षावास से पूर्व जब मेने सुना कि उपाध्याय श्री जी मरुधरधरा को पावन करने के लिए पधार गए हैं, तव मेरा हृदय हर्ष-विभोर हो गया। उनके महामहिम व्यक्तित्व का स्पष्ट और विशद परिचय-मुझे "मधुकर" जी महाराज ने कराया, क्योंकि वे व्यावर-वर्षावास में उपाध्याय श्री के ज्ञानामृत का निरन्तर पान करते रहे थे। अजमेर वर्षावास से पूर्व उपाध्याय कवि श्री जी के दर्शनों का पूण्यमय लाभ मुझे पुष्कर में मिला । वह दिवस मेरे जीवन का पवित्रतम दिवस था। पुष्कर में अल्प समय के संपर्क से ही मुझे कवि श्री जी के दार्शनिक मस्तिष्क का, सरम कवि मानस का और विराट व्यक्तित्व का साक्षात्कार हो गया। फिर तो सादड़ी सम्मेलन में, सोजत सम्मेलन में, जोधपुर के संयुक्त वर्षावास में और भीनासर के सम्मेलन में, कवि श्री जी के उर्वर एवं ज्योतिर्मय मस्तिष्क ने जो विचार क्रान्ति पैदा की, उससे ग्राज कौन अपरिचित है? कवि श्री जी के विराट मानस में सबको सहज स्नेह से प्रात्म-जन बनाने की अपार क्षमता है। ज्ञान और विचार के इस अधि देवता ने एक ओर अपने अगाध ज्ञान से समाज के पुरातन मानस को प्रभावित किया, तो दूसरी पोर समाज के उदीयमान ग्रंकुरों को भी अपने ज्ञान के जल से सहज स्नेह के साथ सींचा है। इसका अर्थ - यह है, कि कवि श्री जी पुराने और नये युग की सन्धि हैं, बेजोड़ कड़ी हैं। उनके जीवन की अमर देन है -समाज संघटन। ____ मैं अपने साहित्यक जीवन के प्रारम्भ से ही प्रागम-साहित्य के सम्पादन के लिए उत्साहित रहा हूँ । पागम साहित्य की सेवा मेरे जीवन की विशेष अभिलाषा रही है। परन्तु मैं युगानुरूप अपनी एक नयी पद्धति से ही पागम साहित्य की सेवा करना चाहता था । अपनी, इस साध को पूरा करने के लिए मुझे अतीत में वहुन कुछ श्रम करना पड़ा है । मैं पागमों का विलय-क्रम से वर्गीकरण करने का कार्य करीव ७.८ वर्ष पूर्व से कर रहा हूँ, उसे सुसम्बद्ध करने के लिए मुझे किसी बहुश्रुत के सहयोग की अपेक्षा थी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001829
Book TitleAgam 24 Chhed 01 Nishith Sutra Part 02 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni, Kanhaiyalal Maharaj
PublisherAmar Publications
Publication Year2005
Total Pages498
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Ethics, & agam_sanstarak
File Size24 MB
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