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श्रीवीतरागाय नमः
सद्धमेमण्डनम् ।
मिथ्यात्विक्रियाधिकारः।
अथ सद्धर्ममण्डनमारभ्यते सिद्धाण नमो किचा संजयाणंच भावओ अस्थ धम्म गई तच अणुसिडिं मुणेहमे १ भव वीजांकुर जनना रागाद्याः क्षय मुपागता यस्य ब्रह्मावा विष्णुर्वा हरो जिनोवा नमस्तस्मै २ सिद्ध और साधुओंको भावपूर्वक नमस्कार करके हिताहितका ज्ञान देनेवाला सदुपदेश दिया जाता है उसे उनिये । भववीजका अंकुर उत्पन्न करनेवाले रागादि दोष जिसके क्षीण हो गये हैं वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो चाहे शिव या जिन हो उसे मेरा नमस्कार है।
सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विद्या चारित्र और श्रुत चारित्र को "सद्धर्म" कहते हैं। उसका मण्डन तथा मिथ्या ज्ञान दर्शन और चारित्रका खण्डन और जीवरक्षा तथा अनुकम्पा दान आदिके विरोधी सिद्धान्तोंका निराकरण, शास्त्रीय प्रमाणसे इस ग्रन्थमें किया जाता है, इसलिये इसका नाम “सद्धर्म मण्डन" रक्खा है। भव्य जीवोंके उपकारार्थ, तथा आत्मलाभार्थ, यह ग्रन्थ आरम्भ किया जाता है।
श्रीवीतरागदेवकी आज्ञाराधना रूप धर्मके दो भेद ठाणाङ्ग सूत्रके दूसरे ठाणेमें कहे हैं। वह पाठ
__ "दुविहे धम्मे पन्नते तंजहा-सुयधम्मे चेव चारित्तधम्मे चेव" (ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा २)
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