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सद्धर्ममण्डनम् ।
इसी बातको सूत्रकारने "पाणाणुकम्पयाए" इत्यादि चार पद देकर स्पष्ट बतला दिया है।
____ कुछ लोग कहते हैं कि हाथीने बंचाने रूप अनुकम्पा नहीं की थी सिर्फ न मारने रूप अनुकम्पा की थी और इमीसे उसने संसार परीत किया था। पता नहीं कैसे उन लोगोंने यह बात जान लो कि हाथीका विचार जीवोंको बचानेका नहीं था। जाननेके दो ही मार्ग हैं-या तो हाथीने आकर स्वयं उनसे ऐसा कहा हो या उन्होंने ही मनः पर्याव ज्ञानसे जाना हो । इन दोनों उपायोंमेंसे एक भी संभव नहीं है ऐसी दशामें सूत्रके पाठका ही आश्रय लेना पड़ता है । सूत्रके पाठमें ऐसा एक भी शब्द नहीं है जिससे यह जाना जा सके कि हाथीका विचार जीवरक्षा करनेका नहीं था वरन् स्पष्ट शब्दोंमें 'पाणाणुकम्पयाए' इत्यादि शब्द दिये हैं यदि उसने पापसे वचनेके लिये ही न मारने रूप अनुकम्पा की होती तो वह अनुकम्पा मुख्य रूपसे उसी ( हाथी) की ही होती और भ्रमविध्वंसन कारने भी ऐसा नहीं लिखा कि हाथीने अपनी अनुकम्पासे संसार परीत किया किन्तु शशककी अनुकम्पासे वे संसार परीत होना मानते हैं और पाठमें “आयाणुकम्पयाए" या "प्राणाहिसयाए" इत्यादि पाठ नहीं हैं अतः जो लोग पाप भयसे न मारने रूप अनुकम्पा से ही संसार परीत होना मानते हैं जीव रक्षा रूप अनुकम्पासे नहीं उनके मतसे 'पाणाणुकम्पयाए" इत्यादि पाठ मिथ्या ठहरता है इस लिये यही मानना उचित है कि हाथीने प्राणियोंकी रक्षा रूप अनुकम्पासे संसार परीत किया क्योंकि "पाणाणुकम्पयाए" इत्यादि पाठसे बचाने रूप दया अर्थ ही निकलता है। जो शशक हाथीके पैर रखनेकी जगह आया था उसे बलवान प्राणी सता रहे थे हाथीने अपने पैरके ठहरनेका स्थान उसे दिया और स्वयं मारा भी नहीं इससे सिद्ध होता है कि जीवोंको स्वयं भी न मारे और यदि दूसरा मारता हो तो ऐसी सामग्री देवे कि उसके प्राणोंकी रक्षा हो जाय। अतः हाथीने एक शशककी अनुकम्पासे ही परीत संसार किया था दूसरेकी अनुकम्पासे नहीं यह कहने वाले मिथ्यावादी हैं।
भीषणजीने इस विषयमें लिखा है कि :कष्ट सह्यो तिण पापसो डरतो, मन दृढ सेठि राखी तिण काया।' बलता जीव दवानल देखि, सुंढ सूग्रही ग्रही बाहिरे न लाया ।"
(पद्य भीषण जी का) इनके कहनेका भाव यह है कि हाथीने पापसे डर कर मनको दृढ़ और शरीरको मजबूत रक्खा परन्तु दावानलमें जलते हुए जीवोंको सूढ़से पकड़ कर बाहर नहीं लाया था इस लिये मरते प्राणीकी प्राण रक्षा रूप दया करना एकान्त पाप है" परन्तु यह बात
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