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सद्धर्ममण्डनम् ।
बल्कि मनवांछित आहार छोड़ना लिखा है तथा गर्भ के हितकारक आहार खाना लिखा है इसलिये “धारिणीने गर्भ पर अनुकम्पा करके मनवांछित आहार खाया था" यह जीतमजीकी प्ररूपणा इस मूलपाठसे प्रत्यक्ष विरुद्ध है ।
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इस पाठमें गर्भ पर अनुकम्पा करके धारणीसे अजयणाका त्याग किया जाना लिखा है तथा चिन्ता शोक मोह और भयको छोड़ देना लिखा है अतः तेरह पन्थियोंसे पूछना चाहिये कि धारिणीने गर्भ पर अनुकम्पा करके जो अजयणाका त्याग किया था तथा चिन्ता शोक मोह और भय आदि छोड़ दिये थे यह अच्छा किया था या बुरा किया था ? यदि अच्छा किया था तो धारिणीकी गर्भ पर अनुकम्पा वुरी कैसे हुई ?
इस पाठ स्पष्ट लिखा है कि धारिणीने गर्भ पर अनुकम्पा करके मोह छोड़ दिया था तथापि जीतमलजी धारिणीको गर्भानुकम्पाको मोह अनुकम्पा बतलाते हैं यह इनका महान् अज्ञान है जिस अनुकम्पाके होनेसे मोह छोड़ दिया जाता है वह अनुकम्पा खुद ही मोह अनुकम्पा हो यह किस प्रकार हो सकता है ?
इस पाठ कहा है कि “धारिणी रानी गर्भ पर अनुकम्पा करके गर्भका हितकारक आहार खाती थी" इस आहार खानेका नाम लेकर गर्भकी अनुकम्पा को सावध कहना भी अज्ञान है क्योंकि गर्भका आहार गर्भवती के आहारके आधीन है यदि गर्भवती आहार न करे तो उसके गर्भका भी आहार बन्द हो जाता है और आहार बन्द होने से वह गर्भ मर सकता है ऐसी दशामें आहार नहीं करनेवाली गर्भवतीको गर्भ हिंसा का पाप लग सकता है उस गर्भ हिंसाकी निवृत्ति और गर्भरक्षा के लिये धारिणीका भोजन करना भी एकान्त पापमें नहीं है
गवती श्राविका यदि भोजन न करे तो उसके पहले व्रतमें अतिचार आता है क्योंकि अपने अश्रित प्राणीको भूखा मारना पहले व्रतका अतिचार है परन्तु निद्द य जीव इतना भी नहीं सोचते वे गर्भवतीको उपवास करनेका उपदेश देते हैं और गर्भ पर दया न करने को धर्म मानते हैं वे प्रत्यक्ष ही शास्त्रविरुद्ध कार्य करा कर गर्भ हिंसा के समर्थक बनते हैं । भगवती सूत्र शतक १ उद्देशा ७ में साक्षात् तीर्थकरने कहा है कि “माताके आहारसे गर्भको व्यहार मिलता है" अतः जो गर्भवतीका आहार छुडाते हैं वे गर्भस्थ बालकको भूखा मारते हैं परन्तु सम्यग्दृष्टि मनुष्य कदापि गर्भको दुःख नहीं देते उस पर अनुकम्पा रखते हैं ।
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यह बात केवल गर्भके लिये ही नहीं किन्तु अपने आश्रित द्विपद चतुष्पद आदि प्राणियों को भी सम्यग्दृष्टि भूखा नहीं रखते। उनपर अनुकम्पा करते हैं नहीं तो उनके पहले
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