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प्रायश्चित्तायधिकारः।
ते मांटे वहुल वेद मोहनी आश्री उपशान्त मोह कयो। पिण सर्वथा मोह आश्री उपशान्त मोह न थी कह्या" इत्यादि लिख कर आगे लिखते हैं “तिम कषाय कुशीलने अपडिसेवी कह्यो ते पिण विशिष्ट परिणामनाधणी आश्री अपड़िसेवी को पिण सर्व कषाय कुशील चारित्रिया अपहिसेवी नहीं" (भ्र० पृ० २१७) . - इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
अनुत्तर विमानवासी देवताओंके विषयमें जो पाठ आया है उसका उदाहरण देकर कषाय कुशीलको दोषका प्रतिसेवी कहना अज्ञान है। अनुत्तर विमानवासी देवता चौथे गुण स्थानके धनी हैं इसलिये उनमें मोहका पूर्ण उपशम होना असम्भव है अतः उन्हें उपशान्त मोह कहनेका आशय यही हो सकता है कि उनमें उत्कट वेद मोहनीय का अभाव है परन्तु कषाय कुशीलके विषयमें यह उदाहरण नहीं घटता क्योंकि कषाय कुशील को कहीं भी दोषका प्रतिसेवी नहीं कहा है। ___यदि किसी जगह कषाय कुशीलको दोषका प्रतिसेवी कहा होता अथवा किसी दूसरे प्रमाणसे भी कषाय कुशीलका प्रतिसेवी होना जाना जाता तो भगवतीके २५ ३ शतक और छठे उद्देशेके पाठका यह अभिप्राय माना जा सकता था कि कषाय कुशील जो उच्च कोटिके हैं उनकी अपेक्षासे ही भगवतीमें दोषका अप्रतिसेवी कहा है परन्तु कषाय कुशीलको दोषका प्रतिसेवी बतानेवाला न कोई मूलपाठं ही कहीं मिलता है और न किसी दूसरे प्रमाणसे ही कषाय कुशीलका प्रतिसेवी होना सिद्ध होता है ऐसी दशामें अनुत्तर विमानवासी देवताओंके पाठका उदाहरण देकर कषाय कुशीलके सम्बन्धमें आये हुए पाठका यह अभिप्राय बतलाना कि "जो उच्च श्रेणीके कषाय कुशील . हैं उन्हीं को दोषका अप्रतिसेवी बतलाना इस पाठका आशय है", बिलकुल मिथ्या है । . . . . . . .
सभी कषाय कुशील यदि दोषके अप्रतिसेवी नहीं होते तो कदापि भगवती शतक २५ उद्देशा ६ में कषाय कुशील मात्रको दोषका अप्रतिसेवी नहीं कहते । अथवा टीकामें तथा किसी दूसरी जगह मूलपाठमें ही इसका खुलासा अवश्य कर देते परन्तु कषाय कुशील दोषका प्रतिसेवी नहीं होता है इसीलिये शास्त्रकारने सामान्य रूपसे सभी कषाय कुशील को दोषका अप्रतिसेवी ही कहा है अतः कपाय कुशीलको दोषका प्रतिसेवी बतलाने के लिये विविध कुतर्को का आश्रय लेना दुराग्रहका परिणाम समझना चाहिये।
[बोल ११ वां समाप्त ]
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