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आश्रवाधिकारः ।
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अर्थात् प्राणातिपातसे लेकर मिथ्या दर्शन शल्य पर्यन्त ९६ बोलामें रहनेवाला वही जीव है और वही जीवात्मा है । इस पाठसे आश्रवको एकान्त जीव बताना भोले जीवोंको धोखा देना है। इस पाठमें ९६ बोलोंके साथ जीवात्माका कथंचित् अभेद और कथंचित् भेद बतलाया है आवको एकान्त जीव नहीं कहा है । अतः इस पाठके आश्रय से आश्रवको एकान्त जीव मानना अज्ञान है।
इस पाठमें जो ९६ बोल कहे गये हैं उनमें १८ पाप भी शामिल हैं। उक्त ९६ बोल और जीवात्मा कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न हैं इस लिये अठारह पाप भी कथंचित् जीव और कथंचित् अजीव हैं परन्तु तेरह पंथके आचार्य जीतमलजी १८ पापोंको जीवसे एकान्त भेद मानते हैं यह इनका प्रत्यक्ष इस पाठसे विरुद्ध प्ररूपणा समझनी चाहिये।
(बोल ११ वां समाप्त ) (प्रेरक)
शास्त्रमें रूपी अजीवको कहीं जीवका परिणाम कहा हो तो उसे बतलाइये। (प्ररूपक)
ठाणाङ्ग सूत्रके दशवें ठाणेमें रूपी अजीवको जीवका परिणाम कहा है वह पाठ टीकाके साथ लिखा जाता है।
"दसविहे जीवपरिणामे पं० तं० गतिपरिणामे, इन्दिय परिणामे, कसाय परिणामे, लेस्सा परिणामे, जोगपरिणामे, उपयोग परिणामे, णाण परिणामे, दंसणपरिणामे, चरित्तपरिणामे, वेयपरिणामे" .
(ठाणाङ्ग ठाणा १०) अर्थ:
___जीवके परिणाम दश प्रकारके हैं-(१) गति परिणाम (२) इन्द्रिय परिणाम (३) कषाय परिणाम (8) लेश्या परिणाम [२] योग परिणाम [६] उपयोग परिणाम [0] ज्ञान परिणाम [८] दर्शन परिणाम [९] चारित्र परिणाम [१०] वेद परिणाम । टीका :
____ "परिणमनं परिणाम स्तभाव गमनमित्यर्थः यदाह-"परिणामोर्थान्तरगमनं नच सर्वदाव्यवस्थानं नच सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः" । सच प्रायोगिकः गतिरेव परिणामो गति परिणामः एवं सर्वत्र गतिश्चेह गतिनामकर्मोदयान्नारकादि व्यप
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