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सद्धर्ममण्डनम् ।
पाठ आया है यहां अकाल्पनिकको अवासुक कहा है और अकाल्पनिकको ही अनेषणिक कहा है परन्तु जीववाली चीजको अप्रासुक नहीं कहा है मतः जीतमलजीने जो उक्त पाठ में अप्राक शब्दका सचित्त अर्थ किया है वह मिथ्या है। दूसरी जगह स्वयं जीतमलजीने भी अप्रासुक शब्दका अकाल्पनिक अर्थ किया है। आचारांग सूत्रके दूसरे श्रुत स्कन्धके ऊपर जीतमलजीने टव्त्रा रची है उस टव्वामें "अफासुअं" इस पाठ पर उनकी लिखी हुई टवा यह है :
"अफाक ए अकाल्पनिक मांटे सचित्त तुल्य, जिम उत्तराध्यययन अ० १ गाथा ५ अवनतिने कह्यो - " दुसीले रम्मइ मिए” भूडा आचारने विषे रमे मिए कहितां मृग सरीखो व्यजाण ते मांटे मृग कह्यो तिम सचित्त पिण अकाल्पनिक छै अने जिहां art आहार वस्त्रादिक सचित्त नहीं तेहने अफाक को अकल्पता मांटे सचित्त सरीखो इमहीज (अणे सणीज ) ते अकल्पता मांटे असूझता सरीखो जाणवो "
इस वा अर्थमें स्वयं जीतमलजीने "अफासुअं" का अर्थ सचित्त तुल्य अकल्पनीय किया है अतः भगवती शतक ८ उद्देशा ६ के मूलपाठमें “अफासुअं" का सचित अर्थ करना इनका जनताको धोखा देना है वास्तवमें इस पाठमें अकल्पनीय वस्तु कोही अप्रामुक कह कर बतलाया है जीववाली चीज को नहीं अतः जीतमलजी का पूर्वोक्त आक्षेप मिथ्या समझना चाहिये ।
( बोल ४ )
( प्रेरक )
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४४४ पर भगवती सूत्र शशक ५ उद्देशा ६ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं
"अथ इहां तो साधुने अप्रासुक अनेषणिक बाहार दीघां अल्प आयुष बांधे व ह्यो इहां वो जे असूझतो देवे ते जीवहिंसा अने झूठरे वरोवर को है । अल्प आयुषो ते निगोदरे छै जे जीव हृण्या झूठ वोल्यां साधुने अशुद्ध अशानादिक दीघां बंधतो कह्यो इम हिज ठाणाङ्ग ठाणा ३ अशुद्ध दियां अल्प आयुषो बांधतो कह्यो तो अशुद्ध दियां थोडो पाप घणी निर्जरा किम हुवे" -
इसका क्या उत्तर ?
( प्ररूपक )
भगवती शतक ५ उद्देशा ६ के मूलपाठमें साधुको अप्रासुक अनेषणिक आहार देनेसे अल्प आयुका बंध होना लिखा है वह आयु, दीर्घ आयुकी अपेक्षा अल्प कही गई
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