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कपाटाधिकारः।
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तणगोले बहु गुरुगा आणाइ विराहणा दुविहा,,
अहिषु श्वापदेषु स्तेनेषु चतुर्गुरुकाः । उपधिस्तेनेषु चतुर्लघुकाः आज्ञादयश्व दोषाः। विराधनाथ द्विविधा संयमविराधना, आत्मविराधनाच। तत्र संयमविराधना, स्तेनैरुपधावपहृते, द्वारेऽपिहिते सत्युपाश्रयं प्रविशत्सूपहते तृणग्रहणमग्निसेवनंवा कुर्वति । सागारिकादयोवा तथायोगोलकल्पा प्रविष्टाः सन्तो निषदनादि कुर्वाणा: बहूनां प्राणजातीयानामुपमईनं कुयुः। आत्मविराधनाच प्रत्यनीकादिष स्फुटैव। आह झातमस्माभिर पिधान कारणं परं कापुनः यतनेति नाथापि जानीमः । उच्यते
"उवयोगं हेदुवार काउण वएत वंगुरतेज पेहा जत्थ न सुज्झइ पमजिउ तत्थ सारिंति,,
नेत्रादिभिरिन्द्रिमै रधस्तादुपरिचोपयोगं कृत्वा द्वारं स्थगयन्तिवा पावृण्वन्तिवा यत्रचान्धकारे प्रेक्षा चक्षुषा निरीक्षणं नशुद्ध यति ततो रजोहणेन दारु दण्डकेनवा रजन्यां प्रमृज्य सारयन्ति द्वार' स्थगयन्तीत्यर्थः । उणलक्षणत्वा दुद्घाटयन्तीत्यर्थः अर्थ:
साधु अपने स्थानके द्वारको क्यों बन्द करता है इसका कारण बताया जाता है
द्वार खुला रहने पर शत्रु आदि मकानमें प्रवेश करके मार पीट और उपद्रव मचा सकता है। चोर, सिंह, व्याघ्र, पारदारिक, गाय, बैल मौर कुरो मादि स्थानकमें प्रवेश कर सकते हैं । पागल साधु मकानसे बाहर निकल सकता है। हिमकणसे मिश्रित दुःसह शीत घरमें प्रवेश कर सकती है एवं बड़े बड़े सर्प और काक कपोत आदि पक्षी उस मकानमें आ सकते हैं, धनसहित कोई गृहस्थ उस मकानमें आकर सो सकता है, इत्यादि कारणोंसे साधु अपने स्थानकके द्वारको वन्द करते हैं। द्वार खुला रहने पर पूर्वोक्त शत्रु आदिकों से किसी भी एकके प्रवेश करने पर चौमासी अनुद्धात नामक प्रायश्चित्त आता है और आज्ञाका उल्लङ्घन रूप दोष भी होता है, संयमकी भी विराधना होती है। यहां जो चौमासो अनुद्धात प्रायश्चित्त कहा है वही उसकी बहुलतासे समझना चाहिये खुले द्वार वाले मकानमें सर्व, जानवर, और चोरके प्रवेश करने पर चतुगुरु क प्रायश्चित्त आता है। उपधिका अपहरण करनेवालेके प्रवेश करने पर चतुर्लघुक प्रायश्चित्त आता है और आज्ञा भङ्ग तथा संयम और आत्माकी विराधना भी होती है।
चोर यदि उपधिको छुरा लेवे अथवा कोई मनुष्य उस स्थानमें प्रवेश करके तृणप्रहण या अग्नि सेवन करे तथा म्लेच्छके समान कोई मनुष्य आकर वहां बैठ जाय तो संयमकी विराधना होती है । शत्रु आक्केि द्वाग आत्म विराधना प्रसिद्ध ही है मतः साधु अपने स्थानकके द्वारको बन्द करते हैं।
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