Book Title: Saddharm Mandanam
Author(s): Jawaharlal Maharaj
Publisher: Tansukhdas Fusraj Duggad

View full book text
Previous | Next

Page 559
________________ कपाटाधिकारः। ५०९ गंसि एवहणं कप्पइ वत्थए कप्पह निग्गंथाणं अवंगुय दुवारए उवस्सए वथए। (वृहत्कल्प सूत्र) अर्थ : खले द्वार वाले मकानमें साध्वीका रहना नहीं कल्पता है परन्तु स्थानाभावके कारण यदि खुले द्वार वाले उपाश्रयमें साध्वीको रहना पड़े तो बाहर और भीतर चटाई आदिसे दो पर्दै बांधकर साध्वी उसमें रहै । साधुको खुले द्वार वाले मकानमें रहना कल्पता है। इस पाठमें कहा है कि "खुले द्वार वाले मकानमें साधुको रहना कल्पता है" इसका तात्पर्य यह नहीं है कि खुले द्वार वाले मकानमें हो साधु रहे, जिसका द्वार बन्द किया जा सके उस मकानमें न रहे क्योंकि इसी बृहत्कम्प सूत्रमें यह पाठ आया है : ___ "नो कप्पइ निग्गंधीणं अह आगमणगिह सिवा, वियडगिहसिवा, वंसिमुलसिवा, रुक्खमूलंसिवा, अभावगासियंसिवा, वत्थए । कप्पइ निग्गंथाणं अह आगमणगिह सिवा, वियडगिह सिवा, वंसिमूलंसिवा रुक्खमूलसिवा, अभावगासियंसिवा वथए । अर्थ : जहां पथिक गग आकर उतरते हैं, तथा खुले मकानमें, बांसके वृक्षके नीचे, दूसरे किसी वृक्षके नीचे, कुछ खुलो और कुछ ढके मकानमें, साध्वीको रहना नहीं कल्पता है, परन्तु साधुको रहना कल्पता है। इस पाठमें जहां पथिक लोग उतरते हैं, तथा बांसके नीचे, वृक्षके नीचे, कुछ खुले और कुछ ढके मकानमें साधुको रहना कल्पनीय कहा है इसका आशय जैसे यह नहीं है कि "जहां पथिक लोग उतरते हैं और बांसके नीचे, बृक्षके नीचे और कुछ ढके और कुछ खुले मकानमें ही साधु रहे अन्यत्र न रहे" उसी तरह पूर्व पाठका भी यह माशय नहीं है कि खुले द्वार वाले मकानमें ही साधु रहे अन्यत्र न रहे । अतः वृहत्कल्प सूत्रका नाम लेकर खुले किवाड़ वाले मकानमें ही साधुको रहनेका कल्प बताना मिथ्या है। यदि कोई दुराग्रही पूर्व पाठका यही आशय बतावे कि “साधुको खुले द्वार वाले मकानमें ही रहना कल्पता है वन्द द्वार वाले मकानमें रहना नहीं कल्पता" तो उसके हिसाबसे दूसरे पाठका भी यही आशय होना चाहिये कि "जहां पथिक लोग आकर उतरते हैं और वांसके नीचे वृक्षके नीचे तथा कुछ खुले और कुछ ढके मकानमें ही साधु को रहना चाहिये अन्यत्र नहीं रहना चाहिये" फिर वे लोग, जहां पथिक आकर नहीं उतरते हैं ऐसे मकानमें क्यों रहते हैं ? तथा वांसके नीचे और वृक्षके नीचे तथा कुछ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

Loading...

Page Navigation
1 ... 557 558 559 560 561 562