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पाटाधिकारः ।
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राधना बताना ज्ञान है। कारण होनेपर साधु जबकि गृहस्थके द्वारको भी खोलकर संयमका विराधक नहीं होता तब फिर अपने स्थानके द्वारको विधिपूर्वक खोलने और बन्द करनेसे वह संयमका विरावक कैसे हो सकता है ? अतः कपाट खोलने और बन् करनेसे साधुता का विनाश कहना अज्ञान मूलक है ।
( बोल ५ )
( प्रेरक )
भ्रम विध्वंसनकार भ्रम० ४६१ पर आचारांग सूत्रका मूलपाठ लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं :
"शत्रिने विषे अथवा विकालने विषे आवाधा पीडातां किमाड खोलना पडे तो खुलो देखि माय तस्कर बायने वतायां न बतायां अवगुण उपजता कह्या सर्व दोषा में प्रथम दोष किमाड खोलवानो कह्यो तिज कारणथी साधुने कीमाड़ खोलनो पडे एहवो थानके रहिवो नहीं" ( भ्र. पृ० ४६१ )
इसका क्या समाधान ?
(प्ररूपक )
आचारांग सूत्रके मूलपाठ में साधु और साध्वी दोनों को गृहस्थके संसर्गवाले मकान में रहनेका निषेध किया है। वह निषेध यदि कपाट खोलने और बन्द करनेके भय से किया गया हो तो फिर साध्वीको भी अपने निवास स्थानका कपाट नहीं बन्द करना चाहिये । यदि साध्वी को कपाट खोलने और बन्द करनेका निषेध नहीं है तो उसी तरह साधुको भी कपाट बन्द करने और खोलनेका निषेध नहीं है । वास्तवमें आचारांग सूत्रके मूलपाटमें कपाट खोलने और बन्द करनेके भयसे गृहस्थके संसर्ग वाले मकान में साधुको उतरना वर्जित नहीं किया है किन्तु उस मकानका द्वार खुला हुआ देख कर यदि उसमें चोर प्रवेश करे तो उस चोरको बताने या न बताने दोनों ही हालत में साधुको दोष लगता है उस दोष की निवृत्तिके लिये साधु और साध्वीको गृहस्थके संसर्ग वाले मकानमें रहना वर्जित किया है । वह पाठ यह है
"सेभिक्खूवा भिक्खूणीवा उच्चारपोसवणेण उवाहिज्जमाणे राओवा वियालेवा गाहावह कुलस्स दुवारवाह' अवंगुणिज्जा तेणेय तस्सं विचारी अणुष्पविसिज्जा । तस्स भिक्खूस्स णो कप्पइ एवं वत्तए अयं लेणो पविसइवा णोवापविसह उवल्लियहवा णोवा ० भाववा• बघवा गोवा ० तेन हर्ड अन्नेन हडं अयं इत्थमकासी तं
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