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कपाटाधिकारः।
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णो पीहेण य नावपंगुणे दारं सुन्नधरस्स संजए पुट्ठण उदाहरे वयं णसमुच्छे णो संथरे तणं"
(सुय० गाथा १२।१३) अर्थः
द्रव्यसे अकेला विहार करने वाला भावसे राग द्वेष रहित साधु, कायोत्सर्गादिक अकेला ही करे तथा पैठना, सोना, उठना आदि भी अकेला करे धमध्यानसे युक्त होकर तपस्यामें अपने पराक्रमका पूर्ण उपयोग करे किसीके पूछने पर विचार कर वाक्य वोले अपने मनको गुप्त रक्को, किसी कारणवश यदि शून्य गृहमें रहना पड़े तो उसका कपाट न बन्द करे और न खोले उस मकानके कतारेको न बुहारे, तथा सोनेके लिये तृण आदिकी शय्या न विछावे । यह इन गाथाओं का अर्थ है।
यहां "एगेचरे" यह लिख कर अकेला विहार करनेवाले साधुके विषयमें गाथोक्त सभी नियम कहे गये हैं स्थविर कल्पीके लिये उक्त नियमोंका वर्णन नहीं है अतः इस गाथाका नाम लेकर स्थविर कल्पीको कपाट खोलने और बन्द करनेका निषेध करना
ज्ञान है। इस गाथामें मकानका कचरा निकालना, तृणादिकी शय्या विछाना इत्यादि बातें भी निषेध की गयी हैं फिर जीतमलजीके सम्प्रदायवाले साधु अपने निवासस्थान के कचरेको क्यों निकालते हैं तथा शयनके लिये तृगादिकी शय्या क्यों विछाते हैं ? यदि कहो कि यह सब नियम जिनकल्पीका है स्थविरकल्पीका नहीं तो उसी तरह यह भी समझो कि कपाट बन्द करने और खोलने का निषेध जिनकल्पीके लिये है स्थविरकल्पी के लिये नहीं। अत: इस गाथांका नाम लेकर स्थविर कल्पीको कपाट खोलने और बंद करनेका निषेध करना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये । यदि कोई दुगग्रही उक्त गाथाके तीन चरणोंको स्थविर कल्पीके लिये और एक चरणको जिनकल्पीके लिये कहा जाना बतावे तो उसे कहना चाहिये कि ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि यह बात शास्त्र शैलीसे विरुद्ध है। उक्त गाथाके आरम्भ और समाप्तिमें जिनकल्पीका ही नियम बताया गया है फिर बिना किसी प्रकारकी सूचना दिये मध्यमें स्थविर कल्पीका नियम नहीं कहा जा सकता। दूसरी बात यह है कि स्थविर कल्पीमें साध्वी भी शामिल हैं फिर तो उन्हें भी कपाट नहीं बन्द करना चाहिये । यदि साध्वियोंको कपाट बन्द करने में पाप नहीं होता तो फिर साधुओंको क्यों होगा ? अतः जिनकल्पीके लिये कही हुई गाथाका नाम लेकर स्थविर कल्पीको कपाट बन्द करने और खोलने का निषेध करना जनताकी आंखमें प्रत्यक्ष धूल झोकना है।
(बोल ४)
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