Book Title: Saddharm Mandanam
Author(s): Jawaharlal Maharaj
Publisher: Tansukhdas Fusraj Duggad

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Page 560
________________ ५१० सद्धर्ममण्डनम् । ढके और कुछ खुले मकानमें ही वे क्यों नहीं रहते ? अन्यत्र क्यों रहते हैं ? तथा साधु को अटवीमें, विकट देशमें विचरना कल्पनीय कहा है फिर तेरह पन्थी साधु, अंटवीमें और विकट देशमें ही सदा क्यों नहीं विचरते हैं वे ग्रामादिकोंमें क्यों आते हैं ? यदि कहो कि यह बात एकान्त नहीं है, इसलिये साधु यदि अटवी और विकट देशोंसे अतिरिक्त स्थानमें विचरे तो भी कोई क्षति नहीं है वो उसी तरह सरल बुद्धिसे यह भी स झो कि खुले द्वार वाले मकानमें रहना साधुके' टिये एकान्तरूपसे नहीं कहा है अतः वह बन्द द्वारवाले मकानमें रहे तो भी कोई क्षति नहीं है वास्तवमें साध्वीकी अपेक्षासे यह साधुमें विशेषता बतलाई गई है कि साध्वी खुले मकानमें नहीं रह सकती है परन्तु साधु रह सकता है । इसका भाव यही है कि साध्वो तो एकमात्र वन्द द्वार वाले मकान ही उतरे और साधु वन्द द्वार वाले और खुले द्वार वाले दोनों ही प्रकारके मकान में अपनी परिस्थितिके अनुसार उतर सकता है। अत: इस पाठका नाम लेकर साधुको कपाट वन्द करने और खोलनेका निषेध करना अज्ञान समझना चाहिये । कारण दशा में साधुको कपाट खोलने और बन्द करनेका विधान वृहत्कल्प सूत्र के चौदहवें और पन्द्रहवें सूत्रके भाष्यमें भी किया है वह यहां लिखा जाता है । "आह किंतत्कारणं येन द्वारं पिधीयते पडिणीय तेण सावय उभामग गोण साण सुणगादी सीमं दुरद्वियासं दोहा पक्खी च सागरिये, ( २२६ ) उद्घाटिते द्वारे पत्यनीकः प्रविश्य आहननमपद्रावणं वा कुर्य्यात् । स्तेनाः शरीरस्तेनाः वा प्रविशेयुः एवं श्वापदाः सिंह ब्राघ्रादयः उद्मामकाः पारदारिका: गोबलीवर्दा: श्वान प्रायाः तत एतेवा प्रविशेयुः अनात्मवशः क्षिप्तचित्तादिः द्वारेऽपिहिते सति मिर्गच्छेत् । शीतं दुरधिसहं हिमकणानुसक्क निपतेत् दीर्घाः वा सर्पाः पक्षिणोवा काक कपोत प्रभृतयः प्रविशेयुः सागारिकावा कश्चित् प्रतिश्रयमुद्घघाटद्वारं दृष्ट्रा प्रविश्य शयी ता विश्रामंवा गृह्णीयात्" "एक कम्मि उठाणे चतुरो मासा हवंति उग्घाया अणाइणोय दोसा विरोहणा संयमाऽऽयाए,, ( २२७ ) द्वारमस्थगयता मनंतरोक्ता एकैकस्मिन् प्रत्यनीकप्रवेशादौ स्थाने चत्वारो मासा उदूघाता प्रायश्चित्तं भवति । आज्ञादयश्चात्र दोषा विराधनाच संयमात्मविषयां भावनीया यदुक्तं चत्वारो मासा उद्धाता इति सदेव तद्वाहुल्य मंगी कृत्य द्रष्टव्यम् अतोऽपवदन्नाह अहि सावय पचत्थि गुरुगा सेसेसु होंति चउलडुगा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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