Book Title: Saddharm Mandanam
Author(s): Jawaharlal Maharaj
Publisher: Tansukhdas Fusraj Duggad
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लव जागा voit is ca. coh* Tota அவமானபார்ப்பாயாயாயாயாயாயாமப்பாட்டை 18355 A Kale DRDOITIO HIOIHIROIUIII. 0000000000 OGS COOOOOC NSTHANI सद्धममण्डनम DOन atharnamammifiehinmenionlinehimamalinात D8CSC पूज्य श्री हुक्मीचन्दजी महाराजके पाटानुपाट पर विराजमान । प्रतिवादिमानमद्देन विद्वद्वर १००८ पूज्य श्री जन पाद जवाहिर लालजी महाराज द्वारा विरचित । प्राव पर्वत Dya सरदार सहर निवासी तनसुखदास फूसराज दूगड़ने छपाकर प्रकाशित किया। Co@GOOGOOGCODeOOOOOOOO0000000000000000OOOOOOOE SUPERes सव्वजगजीवरक्खणयट्टयाए पावयणं भगवया सुकहियं वीर निर्वाणाब्द विक्रमाब्द २४५८ १९८८ PINCODAIHICOMICCOUNCOIIDOIDGIND RSS मुद्रक : विश्वामन्त्र कायालय । १४१ए, शम्भू चटजो स्ट्रीट, कलकत्ता।। BilimochinicillHNIECHHIHIELDHIHHIEOmnexaminexamin प्रथमावृत्ति २०००] मूल्य २) 389 SERIKE PPENESS ADMONDS og IIGL IRIDHIOCOINICOOCHICOORDICIDCONICORINCIDCOMHIChock JIRIDIOCaliforg BREAL aloithn CDICICDOC MICDOCNICDOCKNINCOO C OOK MMCDOCKJACOOLKINMIDDICK MOP 338 2095 600332000 560600305 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओ३म् प्रस्तावना। यस्य ज्ञान मनंत वस्तुविषयं य: पूज्यते दैवतै नित्यं यस्य वचो न दुर्नय कृतैः कोलाहलैलु प्यते रागद्वेषमुखहिषाञ्च परिषत् क्षिप्ता क्षणायन सा सश्रीवीरविभु विधूतकलुषां बुद्धिं विधत्तां मम ? जिसका ज्ञान अनंत वस्तुओंको विषय करता है, देवता जिसकी पूजा करते हैं, जिसका वचन दुर्नयकृत कोलाहलोंसे लुप्त नहीं होता, और जिसने रागद्वेष प्रमुख शत्रुसमूहको क्षणभरमें भगा दिया था वह श्री वीर प्रभु हमारी बुद्धिको निर्मल करें। प्रिय वाचकवृन्द ! इस संसारमें धर्मके समान दूसरा कोई श्रेष्ठ और उपकारक वस्तु नहीं है। धर्म ही प्राणियोंको विपत्तिमें सहायता देने वाला सचा मित्र है । सांसारिक सभी पदार्थ शरीर के साथ ही इस लोकमें रह जाते हैं पर धर्म परलोकमें भी जीवके साथ जाता है और विपत्तिसे हटा कर जीवको सुख शांति देता है । जैसे कि कहा है धनानि भूमौ पशवश्च गोष्ठे भा• गृह द्वारि जनाः श्मशाने । देहश्चितायां परलोक मागें धर्मानुगो गच्छति जीव एकः" ___अर्थात् धन पृथिवी पर, पशु गोष्ठमें स्त्री, घरके द्वार पर और वन्धु वान्धव श्मशानमें, देह चिता पर रह जाते हैं पर एक धर्म इस जीव के साथ परलोक में भी जाता है । अतः जो मनुष्य धर्मका संग्रह नहीं करता उसको पशुकी उपमा दी गयी है। क्योंकि पशु और मनुष्योंमें यही अन्तर है कि पशु धर्मका संग्रह नहीं कर सकता और मनुष्य कर सकता है। बड़े बड़े ऋषि महर्षियोंने मनुष्योंके कल्याणार्थ धर्माचरण करनेका उपदेश किया है और धर्मकी बड़ी विशद व्याख्या की है। शास्त्र धर्मकी व्याख्या मात्र हैं। जैसे वस्त्र तन्तुमय और घट मृण्मय होता है उसी तरह शास्त्र भी धर्ममय हैं। शास्त्रोंमें अनेक प्रकार के धर्म बतलाए हैं पर सब धर्मोमें श्रेष्ठ और सबका मूलभूत धर्म जीवरक्षा रूप धर्म कहा गया है। जैनागमका तो इसीके लिये निर्माण ही हुमा है। प्रश्न व्याकरण सूत्रके प्रथम संवर द्वारमें लिखा है कि "सव अग जीव रक्खण दयठ्याए पावयणं भवया सुकहिय" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २ ] अर्थात जगत्के सम्पूर्ण जीवोंकी रक्षा रूप दयाके लिये भगवान्ने प्रवचन का है। इस मूलपाठमें जीवरक्षा रूप धर्म के लिये जैनागमकी रचना होना बतलायी गई है। अत: जीवरक्षः रूप धर्म जैन धर्म का प्रधान अङ्ग है। उस जीवरक्षाको जो धर्म मानता है और विधिवत् उसका पालन करता है वही तीर्थङ्करकी आज्ञाका आगधक पुरुष है। इसके विपरीत जो जीवरक्षाको धर्म नहीं मानता किन्तु इसको पाप अथवा अधर्म बलाता है वह धर्मका द्रोही और वीतगगकी आज्ञाका तिरस्कार करने वाला है। केवल जैनधर्म ही जीवरक्षाको प्रधान धर्म नहीं बतलाता किन्तु दूसरे मतवाले शास्त्र भी इसे सर्वोत्तम और सर्वप्रधान धर्म मानते हैं। महाभारत शान्तिपर्वमें लिखा है कि-"प्राणिनां रक्षणं युक्तं मृत्युभीताहि जन्तः आत्मौपम्येन जाननिरिष्टं सर्वस्य जीवितम्" "दीयते मा-माणस्य कोटि जीवितमेव वा। धनकोटिं परित्यज्य जीवो जीवितु मिच्छति"। जीवानां रक्षणं श्रेष्ठं जीवाः जीवित कांक्षिण: तस्मात्समस्तदानेभ्योऽभयदानं प्रशस्यते एकत: काञ्चनो मेरुवहुरत्ना वसुन्धरा एकतो भय भीतस्य प्राणिनः प्राणरक्षणम्' अर्थात जैसे अपना जीवन इष्ट है उसी तरह सभी प्राणियोंका अपना अपना जीवन इष्ट है, सभी जीव मरनेसे डरते हैं इसलिये सभीको अपने समान जान कर उनकी प्राणरक्षा करनी चाहिये। मारे जाने वाले पुरुषको एक तरफ करोड़ों धन दिया जाय और दूसरी ओर उसका जीवन दिया जाय तो वह धन छोड़ कर जीवनकी ही इच्छा करता है। जीव रक्षा करना सबसे प्रधान धर्म है । सभी जीव जीवित रहना चाहते हैं । इसलिये सभी द नोंमें अभयदान यानो जीवरक्षा काना श्रेष्ठ है। एक तरक सोनेका पत मेरु और बहुना पृथिवी रख दी जाय और दूसरे तरफ मृत्युभीत पुरुषका प्राणरक्षण रूप धर्म रख दियाजाय तो प्राणरक्षा रूप धर्म ही श्रेष्ठ सिद्ध होगा। इसी प्रकार विष्णु पुगणमें भी लिखा है "कपिलानां सहस्राणि योद्विजभ्यः प्रयच्छति एकस्य जीवितं दद्यान्नच तुल्यं युधिष्ठिर" . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात जो पुरुष हजार गायें ब्राह्मणोंको दान देता है वह यदि एक प्राणी को जीवन दान देवे तो उसके इस कार्यके तुल्य पहला कार्य नहीं है यानी जीवनदान देना गोदानसे भी श्रेष्ठ है। - इत्यादि अन्य मतावलम्बी शास्त्रोंमें भी जीवरक्षाको सर्वोत्तम धर्म माना है और जैनागमका तो यह प्राण ही है। पर आजकल हुण्डा अवसर्पिणी कालके प्रभावसे श्वेताम्बर जैन धर्मके अन्दर एक 'तेरह पंथ" नामक सम्प्रदाय प्रकट हुआ है। यह सम्प्रदाय जैनधर्म के मूल भूत जीवरक्षा धर्मको विनाश करके जैनधर्मका मूलोच्छेद करना चाहता है। इसके सिद्धांतोंके नमूने कुछ यहां बतलाये जाते हैं। (१) गायोंसे भरे हुए बाडेमें यद भाग लग जाय और कोई दयावान् पुरुष उस वाडे के द्वारको खोल कर गायों की रक्षा करे तो उसे तेरह पन्थी एकान्त पापी कहते हैं। (२) भारसे पूर्ण गाडी मा रही है और मार्गमें कोई बालक सोया हुआ है उस पालकको कोई दयावान पुरुष उठा लेवे तो इस कार्यको तेरह पन्थ सम्प्रदाय एकान्त पाप बतलाता है। (३) तीन मजिल पर से कोई बालक गिरता हो तो उस को ऊपर ही पकड़ कर बंचाने वाले दयावान् पुरुष को तेरह पन्थी एकान्त पाप करने वाला बत-- लाते हैं। (४) पञ्चमहाव्रतधारी साधु के गले में किसी दुष्ट के द्वारा गायी हुई फांसी को यदि कोई दयालु पुरुष खोल देवे तो उस में तेरह पन्थी एकान्त पाप होना बवलाते हैं। (५) कसाई मादि हिंसक प्राणीके हाथसे मारे जाते हुए वकरे आदि की पाण.. रक्षा करनेके लिये यदि कोई कसाईको नहीं मारनेका उपदेश देवे तो तेरह पन्थी उसे एकान्त पाप कहते हैं। (६) किसी गृहस्थके पैरके नीचे कोई जानवर आ गया हो तो उसको बतलाने वाले दयावान् पुरुषको तेरह पन्थी एकांत पाप होना कहते हैं। (७) तेरह पन्थके साधुओंके सिवाय संसारके सभी प्राणियों को तेरह पन्थी "कुणत्र" कहते हैं। (८) तेरह पन्थके साधुओंके सिवाय दुसरेको दान देना, मांस भक्षण मद्यपान और वेश्यागमनके समान एकान्त पाप तेरह पन्थी बतलाते हैं। (९) पुत्र अपने माता पिताकी और स्त्री, अपने पतिकी सेवा शुश्रूषा करे तो इस कार्यको तेरह पन्थी एकान्त पाप कहते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४ ] (१०) किसी गृहस्थ के घरमें आग लग गयी हो और गृहस्थका परिव र घरका द्वार बन्द होने के कारण बाहर नहीं निकल सकता हो किन्तु घरके भीतर आगमें जरते हुए मनुष्य, स्त्री और बच्चे आदि आर्तनाद करते हों तो उस घरका द्वार खोल कर उन प्राणियोंकी रक्षा करने वालेको तेरह पन्थी एकान्त पाप करनेवाला कहते हैं और उस घरका द्वार नहीं खोलना धर्म बतलाते हैं। जैसे कि भीषणजीने लिखा है "गृहस्थ रे सायो लायो घर वारे निकलियो न जायो। बलसा जीव विल विळ बोले साधु जाई किमाड न खोले" यही भीषणजी इस तेरह पन्थ सम्प्रदायके प्रवर्तक हुए हैं। इनका वृत्तान्त दीप विजयजीकी चर्चामें इस प्रकार लिखा है। मारवाड देशमें "कण्टालिया" नामक प्रामका रहने वाला ओसवाल संक्लेचा गोत्री भोषणचन्द नामक व्यक्तिने सम्बत १८०८ में वाईस सम्प्रदायके पूज्य आचार्या श्री रघुनाथजो महार.जसे दीक्षा ग्रहण की। पश्चात शहर मेरताके अन्दर श्री रघुनाथजी महाराज, भेषणचन्दजीको भगवती सूत्र पढ़ाने लगे। भीषणजीको कितनी बातें जंचती और कितनी नहीं जंचतीं। यह चेष्टा श्रावक समर्थमलजी धाडीवालने देखी। उक्त श्रावकने पूज्य श्री रघुनाथजी महागजसे कहा कि आप भीषणजीको भगवती सूत्र पढ़ा कर सर्पको दूध पिला रहे हैं। यह भोषणजी आगे चल कर निन्हव होगा और उत्सूत्र प्ररूपणा करेगा। ___ यह सुन कर पूज्य श्री ग्घुनाथजी महाराजने कहा कि पहले भी भगवान् महा. वीर स्वामीने गोशालक और जामाली को पढ़ाया था और वे निन्हव हुए, यह उनके को दोष था। इस प्रकार चौमासे भरमें सम्पूर्ण भगवती सूत्र वंचवा कर चौमासा उतरने पर पूज्य श्री रधुनाथजी महाराजने भीषणजीसे कहा कि पुस्तक यहां रख कर जाना। पर भीषणजीने यह बात नहीं मानी । वह भगवतीका पुस्तक लेकर वहांसे चल दिये । पश्चात् पूज्य श्री रघुनाथजीने दो शिष्योंको भेज कर भीषणजीसे पुस्तक मंगवाई। वहीं पर भीषगनीका पूज्य श्री रघुनाथजी महाराज पर क्रोध उत्पन्न हुआ। और भीषणजीने निश्चय किया कि मैं नवीन मत निकाल कर पूज्य श्री रघुनाथजीको अपमानित करू। ___यह विचार कर भीषगजीने मेरतासे विहार का मेवाड़में राजनगरके अन्दर चातुर्मास्य किया। वहां सूत्र बांचते हुए भीषणजीने यह प्ररूपणा की कि साधु मुनिराज को किसी त्रस स्थावर आदि जीवोंको हिंसा नहीं करनी चाहिये और करानी भी नहीं चाहिये तथा करते हुए को अच्छा भी न समझना चाहिये । तथा किसी प्राणीको बांधना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [4] नहीं चाहिये तथा बंध ना भी नहीं चाहिये और बांधते हुए को अच्छा भी नहीं समझना चाहिये । एवं क्रिसी बांधते हुए जीवको रक्षार्थ छोड़ना नहीं चाहिये छोड़ाना भी नहीं चाहिये और छोड़ने वालेको अच्छा भी नहीं आनना चाहिये। यह मुनिराजका आचार है इस प्रकार श्रावक भी तीर्थंकरका लघु पुत्र है और देशव्रती है इस लिये श्रावकको भी बांधे हुए प्राणीको रक्षार्थ नहीं छोड़ना चाहिये और छोड़ाना भी नहीं चाहिये तथा छोड़ने वाले को अच्छा भी नहीं समझना चाहिये । कोई किसी जीवको मारता हो तो छुड़ानेमें अन्तराय लगता है तथा छुड़ानेके बाद जो वह जीव हिंसा, मैथुन, पाप आदि कार्य करता है वह सब पाप छुड़ानेवालेके शिर पर लगता है। तथा गाय बैल आादिसे बाड़ा भरा हुआ है और उसमें यदि आग लग गई हो तो उम्र बाड़ेका द्वार खोल कर उन पशुओंकी रक्षा नहीं करनी चाहिये। क्योंकि मरने से बचे हुए वे गाय बैल आदि मैथुन और हिंसा आदि पाप करेंगे वह सब पाप उनकी रक्षा करने वाले को लगेगा । तथा हिंसकसे मारे जाने वाले बकरे, भैंसे आदि जीवित रह कर जो पाप करते हैं वह पाप छुड़ाने वालेको लगता है । यह प्ररूपणा भीषणजीने की थी । भीषगजी और जयमल जीके शिष्य वक्तोजी तथा वत्सराजजी ओसवाल और लालजी पोरवाल इन चारों जनोंने मिल कर यह प्ररूपणा की थी । यह बात पूज्य श्री रघुनाथजी महाराजने सोजदके चातुर्मास्यमें सुनी और उन लोगोंकी विपरीत श्रद्धा हुई जानी । चातुर्मास्य उतरने पर भीषगजी पूज्य श्री रघुनाथजी महाराजके पास गये परन्तु पूज्य श्रीने भीषणजीको उत्सूत्र प्ररूपी जान कर आदर नहीं दिया । और शामिलमें आहार भी नहीं किया। यह देख कर भीषगजीने पूज्य श्रीजीसे पूछा कि मेंने क्या अपराध किया है जिससे आप नाराज हो गये हैं। पूज्य श्री रघुनाथजी महाराजने कहा कि तुमने उत्सूत्र प्ररूपणा की है यही अपराध है । फिर पूज्य श्रीजीने भीषणजीको अच्छी तरह समझा कर षण्मासिक प्रायश्चित देकर आहार पानी शामिल में कर लिया । परन्तु भीषगजीके शिष्य भारमलने अपनी यह श्रद्धा नहीं छोड़ी। पश्चात् पूज्य श्री घुनाथजी महाराजने भीषणजी से कहा कि जयमलजीके शिष्य वक्तोजीको, वत्सराज ओसवालको, लालजी पोरवालको तथा राजनगरके श्रावकोंको तुमने ही विपरीत श्रद्धा दी है इस लिये वह श्रद्धा तुमसे ही मिटेगी तुम उनको समझाओ। ऐसी गुरुकी व्याज्ञा होने पर भीषगजी राजनगर आये। वहां आने पर भीषण जीको वक्तोजीने बहुत उपालम्भ दिया और कहा कि हम सबने मिल कर एक नवीन पन्थ चलाना सोचा था लेकिन तुम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ६ ] रघुनाथजीके पास जाकर उनसे मिल गये । इत्यादि कह कर वक्तोजीने भीषणजीका मन फिरा दिया । अत्र भीषणजीकी श्रद्धा फिर पूर्ववत् ज्यों की त्यों हो गई। पश्चात दो तीन मासके बाद भीषणजी पूज्य श्री रघुनाथजी महाराजके पास आये | और पूज्य श्री ने फिर उनका आहार अलग कर दिया। इसके बाद भीषण भी पूज्य श्री रघुनाथजी महाराजके गुरुभाई पूज्य श्री जयमलजी महाराजके पास चले गये। इसी कारण पूज्य श्री रघुनाथजी महाराज और जयमलजी महाराजमें मतभेद उत्पन्न हुआ और छः मास तक यह झंझट चलता रहा परन्तु भोषणजीने अपना मत नहीं छोड़ा । इसके अनन्तर श्री रघुनाथजी महाराजने गोशालकका दृष्टान्त देकर वगडी गांव में सम्वत् १८१५ चैत्र सुदी नवमी शुक्रवार के रोज भीषगजीको गच्छसे अलग कर दिया । पश्चात् भीषणजी, वक्तोजी, रूपचन्दजी, भारमलजी और गिरिधरजी आदि तेरह जनोंने मिल कर नवीन पन्थ चलाया । तेरह जनोंने इसे चलाया था इसलिये अपने मतका प्रचार 1 और शास्त्रमें जहां इसका नाम 'तेरइ पन्थ' हुआ। ये लोग प्रत्येक ग्रामोंमें घूम घूम कर करने लगे । ओर शास्त्रके ६५ बोलोंका अर्थ उलट पुलट कर दिया। जहां जीव रक्षा करनेका पाठ देखा उसके अर्थ फेर दिये। इन लोगोंने यह प्ररूपणा की थी कि जीव रक्षा आदि करनेमें कोई लाभ नहीं है। ये सब सांसारिक क. हैं। पहले पूज्य श्री रघुनाथजी महाराजने भोषगजीको समझाया था कि भगवती सूत्र के पन्द्रहवें शतक में गोशालकको वैश्यायन वाल तपस्वी तेजो लेश्याके द्वारा जला रहा था वहां भगवन् महावीर स्वामीने अनुकम्पा करके शीतल लेश्याके द्वारा गोशालक को बचाया था । इस लिये सिद्धान्त में अनुकम्पा करना परम धर्म माना है उसको तुमने क्यों उठाया है । यह सुन कर भीषणजीने कहा कि वीर समझदार होते तो छद्मस्थपनेमें गोशास्टकको दीक्षा क्यों देते, गोशालकको तिल क्यों बताते। वह तिल नहीं बताते तो गोशाएक उसे क्यों उखाड़ फेंकता । तथा वीर गोशालकको तेजो लेश्या क्यों सिखाते। इस तेजोलेश्या के सिखानेसे गोशालकने सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिको जला दिया तथा स्वयं arrat भी उस तेजोलेश्या के तापसे छः महीने तक रक्त व्याधि भोगनी पड़ी थी। इत्यादि बहुत से अनर्थ हुए। यदि वीर समझदार होते तो ऐसा अनर्थकर कार्य क्यों करते । किन्तु वीर चूक गये, उनमें छः लेश्यायें और आठ कर्म थे । यह हठ पकड़ कर भीषणजीने वीर भगवान् के प्रति बहुत कुछ अवर्ण वाद कहा। इसके अनन्तर फिर गुरुने समझाया कि तीर्थकर नीच कुलमें उत्पन्न नहीं होते और उनका गर्भापहार नहीं होता तथा केवल ज्ञान होने पर उनको उत्कृष्ट रक्त व्याधि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७ ] नहीं होती । इत्यादि जो दस आश्चर्य हुए हैं वे कभी नहीं होते पर किसी भावी योगसे हुए हैं। इस लिये गोशालक और भगवान् महावीर का पूर्वभवका वैर था उस वैश्का फल भोगे विना वह किस प्रकार मोक्ष पाते ? । तथा वह छः महीने तक रक्तव्याधि भोगे विना किस प्रकार मुक्त होते ? । १३ वे सयोगी केवली गुणस्थानमें मोक्ष जानेके समय साव कर्म सम्पूर्ण होते हैं और वेदनीय कर्म बहुत होते हैं । केवल समुद्घातको प्रकट करके वेदनीय कर्मों का क्षपण और आठ कर्मों को पूर्ण करके केवली मोक्ष जाते हैं । इसलिये गोशालक कृत वेदना और उसके वैरको सम्पूर्ण किये विना भगवान् महावीर किस प्रकार मोक्ष जा सकते थे । यह भात्री भाव था । इसी कारण भगवान् वीरने गोशालकको लेश्या सिखाई थी अतः वीर भूले यह शब्द तुम मत कहो। इस प्रकार पूज्य श्री रघुनाथजी महाराजने भूषणजीको बहुत कुछ समझाया पर भीषणजीने अपना हठ नहीं छोड़ा । 1 फिर पूज्य श्री रघुनाथजीने कहा कि उत्सूत्र प्ररूपणा करके तुम अनुकम्पा मत उठाओ । उपासक दशांग सूत्रमें श्रेणिक राजाने अनुकम्पा कर कसाई बाड़ा उठा दिया था और जीव नहीं मारनेका ढिंढोरा पिटवाया था । तथा राजप्रश्नीय सूत्रमें प्रदेशी रामाने बारह व्रत धारण करके अपनी संपत्तिके चतुर्थभागसे अनुकम्पार्थ दानशाला बनवाई थी। फिर उत्तराध्ययन सूत्रमें श्री नेमिनाथजीने विवाहार्थ जाते हुए पशुमसे भरा - हुआ बाड़ा देखा और अनुकम्पा कर उन्हें छुड़ा दिया । तथा ठाणाङ्ग सूत्रमें दश प्रकार के दान कहे है उनमें अनुकम्पा दानका वर्णन है । इस प्रकार शास्त्रमें ६५ जगह अनुकम्पा सम्बन्धी पाठ आये हैं उन पाठोंको बता कर भी भीषणभीको समझाया पर भीषण जीने अपना हठ नहीं छोड़ा | यह भीषणजी तेरह पन्थ सम्प्रदायके प्रवर्तक थे । इनका सम्प्रदाय शास्त्र विरुद्ध होने के कारण यद्यपि क्षण भर भी ठहरने योग्य न था तथापि जनताके बन्दर मूर्खताका आधिक्य होनेसे और हुण्डा व्यवसर्पिणी कालके प्रभाव से इनका सम्प्रदाय चल निकला । और इस सम्प्रदाय के चलने से जनताके अन्दर जीव रक्षा करनेमें एकान्त पापका विश्वास उत्पन्न हुआ । इस भीषण जीके चौथे पाट पर जीतमलजी नामक एक व्यक्ति आचार्य हुए । इन्होंने दान दयाका सर्वनाश करनेके लिये भ्रमविध्वंसन नामक एक ग्रंथ रचा और उसमें शास्त्र के अर्थ का अनर्थ करके मूर्ख जनता में भीषणजीके सिद्धान्तोंको पुष्ट करने का पूर्ण प्रयास किया। जहां जहां भीषण जी की श्रद्धा शास्त्रसे विरुद्ध होती थी वहां वहां इन्होंने शास्त्रका अर्थ बदल दिया है । और जहां अर्थ नहीं बदल सका वहांका पाठ ही नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिखा । तथा कहीं अपूर्ण पाठ लिख कर जनतामें भ्रम खण्डन करनेके बहानेसे भ्रमका प्रचार किया। इस प्रकार जीतमलजीने भ्रमविध्वंसनमें दान दया आदि पवित्र धर्मों का उच्छेद करनेके लिये पूर्ण प्रयत्न किया है । इस प्रथके प्रचार होनेसे जनताके अन्दर ऐसा अज्ञान फैल गया है कि थली प्रान्तमें रहने वाले तेरह पन्थी ओसवाल बन्धुओंने जीवरक्षा रूप धर्म का बहिष्कार सा कर दिया है। इस अनर्थ परम्पराको बढ़ते देख कर जनताके कल्याणार्ग पूज्य श्री हुकुमोचन्दजी महाराजके पटानुपाट पर विराजमान १००८ पूज्य श्री जवाहिरलालजी महाराजने बहुत परिश्रम के साथ यह सद्धर्ममण्डन नामक Hथ बनाया है। इस ग्रंथमें मूल सूत्र और उनसे मिलती हुई टीका, भाष्य, चूर्णी और कहीं कहीं मूलानुपारिणी टव्वाओंका आश्रय लेकर सत्य धर्मको प्रकट करनेकी पूर्ण चेष्टा की गई है। इस प्रथको मनन पूर्वक अवलोकन करनेसे शास्त्र विरुद्ध तेरह पन्थियोंका सिद्धान्त साफ साफ मिथ्या नजर आने लगता है और जीवरक्षा तथा दान माद धर्म, शास्त्रीय प्रमाणित होते हैं । अतः सत्य धर्म ज्ञान की इच्छा करने वाले पुरुषोंको अवश्य यह ग्रंथ देखने योग्य है और बाईस सम्प्रदायके श्रावकों के लिये तो इसे देखना परम आवश्यक है । यद्यपि तेरह पन्थ के शास्त्र विरुद्ध सिद्धान्तोंका खण्डन करनेके लिये अनेक मुनि महात्माओंने परिश्रमके साथ अनेक प्रथ बनाये हैं और तेरह पन्यकी कुयुक्तियोंसे चतुर्विध संघकी बहुत ही रक्षा को है। इस उपकार के लिये उन महात्माओंका यह बाईस सम्प्रदाय ऋणी है तथापि उन महात्माओंके प्रथ पुरानी भ षामें लिखे हैं और कई जगह दृष्टि दोषसे उनमें त्रुटियां भी रह गई हैं तथा कहीं कहीं उनमें अशुद्ध टप्वा भी छप गये हैं इस लिये आधुनिक प्रचलित भाषामें इस नवन प्रथको निकालनेकी मावश्यकता प्रतीत हुई। इस प्रथके बनानेमें सबसे प्रधान कारण यह है कि पूर्व महात्माओंके बनाये हुए पथोंमें इस "भ्रमविध्वंसन" का पूर्ण खण्डन नहीं आया है। क्योंकि वे सब पंथ भ्रमविध्वंसनके छपनेसे पहले के बने हैं। इस लिये उन ग्रंथों में भ्रमविध्वंसनके कुयुक्तियों का खण्डन नहीं होना स्वाभाविक है। इस त्रुटिको दूर करनेके लिये यह प्रथ बनाना आवश्यक हुआ । परन्तु किसी अच्छे का-के लिये सुअवसरका मिलना सुलभ नहीं है। सौभाग्यवश १००८ पूज्य श्री जवाहिर लालजी महाराजका भीनासरमें सम्बत् १९८४ में चातुर्मास्य हुआ। महाराज साहेबसे इस कार्यके लिये सङ्घको पहलेसे ही प्रार्थना थी और महाराज साहेव स्वयं भी इस कार्यको करना चाहते थे सुअवसर देख कर महाराजने घोर अन्धकारमें पड़ी हुई असन्मार्गमें प्रवृत्त जनताको सत्पथमें प्रवृत्त करनेके लिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ९ ] इस ग्रन्थका भीनासरमें ही बनाना आरम्भ कर दिया। और चातुर्मास्य भर भीनासरमें यह कार्य हुआ। पश्चत सङ्घकी प्रार्थनासे पूज्यश्रीका थली प्रान्तमें विहार हुआ वहां पर घोर अज्ञानान्धकारमें पड़ी हुई जनताको देख कर इस प्रन्थको बनानेमें पूज्यश्रीकी और भी प्रवल इच्छा हुई । और सरदार शहरके चातुर्मास्यमें पुन: यह कार्य प्रचलित किया पर सरदार सहरके चातुर्मास्य समाप्त होने पर पूज्यश्री का प्रामानुपाम विहार होनेके कारण यह कार्य चूरूके चातुर्मास्य तक रूका रहा। पश्चात् चूरूके चातुर्मास्यमें होकर वीकानेरके चातुर्मास्यमें सम्बत. १९८७ के अन्दर यह कार्य समाप्त हुआ। वन्धुओ? . भगवान महावीर स्वामीसे लेकर आज तक जितने आचार्य हुए हैं किसीने भी जीवरक्षाको पाप नहीं बतलाया है किन्तु सभीने इसे धर्म कहा है। पर आज तेरह पन्थ सम्प्रदाय इसे पाप कहता है यह इसकी अपनी कपोल कल्पना है शास्त्रकी यह राय नहीं है। तेरह पन्थियोंसे जब पूछा जाता है कि तुम्हारे समान प्ररूपणा किसी पूर्वाचायने पहले कभी की हो तो बतलाओ ?। इसका यथार्थ उत्तर तेरह पन्थियोंसे कुछ भी नहीं दिया जाता किन्तु भोली भाली श्रावक मण्डलीको वहकानेके लिये वे कहते हैं कि हमारी श्रद्धा ही पुरानी है और यही सच्चा जिनभाषित धर्म है परन्तु काल पाकर यह नष्ट हो गया था। पश्चात हमारे पूर्वाचार्य भीषणजीने इसका पुनरुद्धार किया है । यह कह कर अन्धविश्वासी जनताको वे भूलाये देते हैं। परन्तु बुद्धिमानों को निर्मूल तथा शास्त्रविरुद्ध इनकी बातें नहीं माननी चाहिये। . साक्षात् भगवान महावीर स्वामीने भगवती सूत्र शतक २० उद्देशा ६ के मूलपाठ में चतुर्विध सङ्घको लगातार २१००० वर्ष तक चलता रहना बतलाया है इसलिये तेरह पन्थियों का ती विच्छेद बतलाना एक.न्त मिथ्या है। भगवती सूत्र का वह मूलपाठ यह है जम्बू दीवेणं भन्ते ? दीवे भारए वासे इमीसे ओसप्पिणीए देवाणुप्पियाणं केव त्तियं कालं तित्थे अणुसिज्जिस्सइ १ गोयमा ? अम्बूदीवे दीवे मारए वासे इमीसे ओस्सप्पिणीए ममं एगविसं वास सहस्साई तित्थे अणुसिज्जस्सई" (सूत्र ६७९) . . __ अर्थ-हे भगवन् ? जम्बू द्वीपके भारतवर्षमें इस अवसर्पिणीकालमें आपका तीर्थ कितने काल तक लगातार चलता रहेगा ? . ... उत्तर-हे गोतम ? जम्बूद्वीपके भारतवर्षमें इस अवसर्पिणी कालमें मेरा तीर्थ २१००० वर्ष तक लगातार चलता रहेगा। ... ... . . . . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस पाठमें चतुर्विध संघका लगातार २१००० वर्ष तक चलता रहना साक्षात् तीर्थस्ने बतलाया है मतः भगवानके तीर्थको बीचमें टुटनेकी पात तेरह पन्थियों की नितांत शास्त्रविरुद्ध समझनी चाहिये। . अब यह पाठ तेरह पन्थियोंके सामने रक्खा जाता है तब वे कहते हैं कि इस पाठमें तीर्थ शब्दका चतुर्विध सङ्घ अर्थ नहीं किन्तु शास्त्र अर्थ है। और इस पाटमें भगवान्ने अपने शास्त्रको २१००० वर्ष तक चलना बतलाया है पर यह भी उनकी दलील शास्त्रविरुद्ध ही ठहरती है। इसी जगह भगवान्ने मूलपाठमें तीर्थ शब्दका अर्थ ब.. विध सङ्क बतलाया है वह पाठ "तित्यं भन्ते ? तित्थं सित्थंकरे तित्थं गोयमा ? भरहा वाव णियमा तित्यं करे तित्थं पुण चाउवण्णाइण्णे समणसंघे तंजहा समणा समणीयो साक्या सावियामो' (सत्रम् ६८१) अर्थ-हे भगवन् तीर्थको तीर्थ कहते हैं अथवा तीर्थङ्करको तीर्थ कहते हैं ? (उत्तर) हे गोतम ! अरिहंत तो नियमसे तीर्थकर होते हैं किन्तु चतुर्विध श्रमण सबको तीर्थ कहते हैं। वह श्रमण संघ यह है-साधु साध्वी, श्रावक और प्राषिकायें। - यहां भगवान्ने तीर्थ शब्दका साफ साफ साधु साध्वी श्रावक और श्राविका मर्य किया है और इनके समूह को ही इसके पूर्व सत्रमें २१००० वर्ष तक चटना बतलाया है । अत: तीर्थ शब्दका अर्थ यहां शास्त्र मानना और चतुर्विध सङ्घको बीचमें टुटनेकी प्ररूपणा करना एकांत मिथ्या है। इसी तरह बीचमें तीर्थ टुट जानेके सम्बन्धमें जो तेरह पन्थी यह युक्ति देते हैं कि भगवान महावीर स्वामीके जन्म नक्षत्र पर भश्मप्रहका लगना कल्पसूत्रमें कहा है उस भश्मप्रहके कारण भगवानका चलाया हुआ तीर्थ टूट गया था यह भी मिथ्या है क्योंकि कल्पसूत्रके उसी पाठसे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि भश्म गृहके लगने के समय में भी भगवान का तीर्थ चलता ही रहा था टूटा नहीं था । वह पाठ ___ "अप्पभिई चणं से खुहाए भासरासी महागहे दो वास सहस्सठिई समणस्स भगवो महावीरस्स जन्म नक्खत्त संकते तप्पमिई घणं समणाणं णिग्गंथाणं निग्गं योग्य मोउदिए उदिए पूजा सक्कारे पवत्तइ" (कल्पसूत्र) अर्थात् श्रमण भगवान महावीर स्वामीके जन्म नक्षत्र पर दो हजार वर्ष की स्थितिवाला भश्मराशि नामक महामह जबसे लगेगा सबसे अमण नियन्य और निप्रन्थियोंका पूजा सत्कार उदय उदय न होगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ११ ] इस मूलपाठमें भश्मग्रह लगनेसे भगवान् महावीर स्वामीका तीर्थ विच्छेद होना नहीं कहा किन्तु श्रमण निग्रन्थोंकी उदय उदय पूजा वर्जित की है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि भश्ममहके समयमें भी भगवान महावीर स्वामी का चलाया हुना तीर्थ चलता ही रहा दूटा नहीं क्योंकि जब तीर्थ ही नहीं रहेगा तब फिर उदय पूजा किस की बन्द होगी ? अतः कल्पसूत्रका नाम लेकर भगवान महावीर स्वामीके तीर्मका बीच में विच्छेद बतलाना मिथ्या है। इसी तरह भ्रमविध्वंसनकी भूमिकामें जे यह लिखा है कि “पश्चात् १८५३ में धूमकेतु ग्रहके उतर जाने के कारण श्री स्वामी हेमराजजीकी दोक्षा होनेके मनन्तर क्रमानुक्रम जिन मार्गकी उन्नति होने लगी” यह भी मिथ्या है। क्योंकि धूमकेतु ग्रह कंगचूलियाके पाठानुसार विक्रम संवत् १५६२ में ही उतर गया था। सम्वत १८५३ में उस के उतरने की बात मिथ्या है। देखिये दंग चूलिया का पाठ यह है___ततो सोलस्सएहिं नव नवति संजुएहिं वरीसेहिं ते दुटु वाणियागा अवमन्च संति सुर्य मेयं सम्मिगए अग्गिदत्त ? संघे सुय जम्मरासी नक्खचे अहतीसमो दो । लगिस्सइ धूमके उगहो। तस्सठिई तिन्नि सया तेतीसा एगराशि परिमाणं तम्स्यिमिण पइट्टो संघमुयस्स उठ्यो अत्यि" । अर्थात् इसके अनन्तर १६९९ वर्षमें संघके जन्म नक्षत्र पर अट्ठाइसवां भूमकेतु नामक महामह लगेगा वह तीनसौ तैतीस वर्ष तक वहां स्थित रहेगा इसकी स्थितिकाल में सा और शास्त्र की पूजा प्रतिष्ठा कम होमी। यह इस पाठका भावार्थ है। यहां वीर निर्वाणसे १६९९ पर तीनसौ तैतीस वर्षके लिये धुमकेतु का लाना बतलाया है और विक्रम संवत् १२२९ में वीर निर्वाण काल १६९९ वर्षका होता है। इसका हिसाब इस प्रकार लगाइये वीर निर्वाणके अनन्तर ४७० वर्ष तक नन्दी वाहनका शक चलता रहा उसके बाद विक्रम सम्बत् आरम्भ हुआ। इसलिये विक्रम संवत् १२२९ में ४७० वर्ष मिला देनेसे १६९९ वर्ष होते हैं। यही वंगचूलियाके हिसाबसे धूमकेतुग्रहके प्रवेशका समय है । वह धूमकेतु ३३३ वर्ष तक रहा इसलिये विक्रम संवत् १२२९ में ३३३ जोड़ देनेसे १५६२ वर्ष होता है। इसी विक्रम संवत् १५६२ में धूमकेतु ग्रह उतरा। अतः भ्रमविध्वंसनकी भूमिकामें विक्रम संवत् १८५३ में धूमकेतुके उतरनेका समय बतहाना मिथ्या समझना चाहिये। तथा इस ऊपर लिखे हुए वंगचूलियाके पाठमें धूमकेतु ग्रहके समयमें चतुर्विध साकी उदय उदय पूजाका ही निषेध किया है सङ्घका टूट जाना नहीं बतलाया है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १२ । अतः धूमकेतुके समयमें भी चतुर्विध सङ्घ का बना रहना सिद्ध होता है । तथापि जो तेरह पन्थी बीच में चतुर्विध सङ्घ के टुटने की प्ररूपणा करते हैं वह एकान्त मिथ्या है। ... तेरह एन्थियोंको अपने सिद्धान्तका समर्थक जब कई प्रमाण नहीं मिलता तब वे लाचार होकर सङ्घका टूटना बतलाने लगते हैं। लेकिन इन की यह बात भी जब भगवती शतक २० उद्देशा ६ के मूलपाठके विरुद्ध टहराई जाती है तब वे क्रोधान्ध हो कर पूछने वालेको अपमानित करने लगते हैं। इनके जितने प्रन्थ बने हैं उन सबोंका एकमात्र उद्देश्य दया दानका वहिष्कार करना ही है । पर सभी प्रन्थोंमें जितमलजाका बनाया हुमा भ्रमविध्वंसन ग्रन्थ प्रधान है। इसमें बड़ी चातुरीके साथ दयादानका खण्डन किया है। इसी एक दयादान का खण्डन करनेके लिये भ्रमविध्वंसनकारको अनेकों जगह शास्त्र के अर्थको अनर्थ करना पड़ा है। जैसे महाजनकी बहीमें एक जगह परिवर्तन होने पर सारी बहीके रकम बदलने पड़ते हैं उसी तरह एक दयादानका खण्डन करने के लिये जीतमलजी को अनेकों शास्त्र विरुद्ध बातें स्वीकार करनी पड़ी हैं। जैन दर्शन तथा जैनेतर दर्शन सभीका यह सिद्धांत है कि अंज्ञान तथा विथ्यात्वके साथ की जाने वाली क्रिया मोक्ष देनेवाली नहीं होती और उस क्रियाका आराधक पुरुष मोक्षमार्गका आराधक नहीं होता किंतु सम्यक्त्व और ज्ञानपूर्वक की जानेवाली क्रिया ही मोक्षदायिका होती है पर दयादानका खण्डन करनेके लिये तेरह पन्थियोंको अज्ञान और मिथ्यात्वले की जानेवाली क्रिया से भी मोक्षमार्गकी अराधना स्वीकार करनी पड़ी है। • जैन और उससे इतर शास्त्रोंकी एकमतसे मिथ्यात्विकी क्रिया के विषयमें यही मान्यता है कि मिथ्यात्विकी क्रियासे मोक्षमार्गकी आराधना नहीं होती। देखिये बृहदारण्यक उपनिषदमें लिखा है कि- "योवा एतदक्षरं गार्यविदित्वाऽस्मिल्लोके जुहोति यजते तपस्तप्यते वहूनि वर्ष सहस्राण्यन्तवदेवास्यतद्भवति अर्थ हे गार्गि ? जो अविनाशी-आत्माको बिना जाने इस लोकमें होम करता है यज्ञ करता है तपस्या करता है वह चाहे हजारों वर्ष तक इन क्रियाओं को करता रहे पर वह संसारके लिये ही हैं। (वृहदारण्यक) .. प्राचीन कालसे ले।र इस समय तकके प्रत्येक आस्तिक आर्या धर्मने आत्माका आत्माके वन्धनका और मोक्षका वर्णन किया है। जैसे अहिंसा या दयाके विषयमें ये सब धर्म एक मत है वैसे ही इस मान्यता में भी किसीको विवाद नहीं है कि विना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १३ ] सम्यक् ज्ञानके मोक्ष अथवा मोक्षकी आराधना नहीं हो सकती । इसका कारण यह है कि वन्धन से छूटना मोक्ष है । जब तक आत्मा अपने असली स्वरूप को, अपने वन्धनको, वन्धन के कारणको, मोक्षके उपायोंको सम्यक् प्रकार से नहीं जान लेना तब तक उसे न वर्तमान विकारमय अवस्थासे मुक्त होने की इच्छा हो सकती है और न वह उसके लिये किसी प्रकारकी प्रवृत्ति ही कर सकता है। जिस रोगीको यह मालूम नहीं है कि मैं रोगी हूं, मैं रोगी हुआ हूँ, रोगसे मुक्त होनेके उपाय क्या हैं नीरोगता क्या चीज है, वह अपना रोग मिटाने की न कभी इच्छा करेगा और न उसकी प्रवृत्ति ही करेगा । यही कारण है कि समस्त धर्मोने सम्यग्ज्ञानको अवश्य ही मुक्तिके साधनोंमें प्रधान माना है । ऊपर वृहदारण्यक के उल्लेखमें भी यही बात बताई गई है । बृहदारण्यक के सिवाय अन्य उपनिषदोंमें तथा प्रत्येक दर्शन शास्त्र में भी यही मान्यता स्वीकार की गई है। कुछ उदाहरण हम नीचे देते हैं, जिससे विषय स्पष्ट हो जाय । " नायमात्मा वलहीनेन लभ्यो नच प्रमादात्तपसोबाऽप्यलिंगात् तैरुपायैर्यते यस्तु विद्वांस्तस्यैष आत्मा विशते ब्रह्मधाम " अर्थात् जिसमें आत्मबल नहीं है वह पुरुष आत्मा ( आत्माके असली स्वरूप ) को नहीं पा सकता । न वह आत्मा प्रमादसे, और लिंग ( साधुका भैष ) हीन तपसे ही. प्राप्त हो सकता है। हां, जो ज्ञानी बन कर इन उपायोंको आत्मबल, अप्रमाद, लिंग युक्त aपको काममें लाता है वही ब्रह्मधाम ( आत्माके असली निवासस्थान ) में प्रवेश करता है । वृहदारण्यक और मुण्डकोपनिषद के इन दोनों उल्लेखोंसे, यह विषय साफ समझ जाता है कि जो मनुष्य ज्ञान हीन होकर तपस्या बादि करता है वे उसके सब कर्म संसारके ही कारण हैं और जो ज्ञान युक्त होकर इन्हीं तपस्या आदि कर्मोको करता है, उसके वे ही कर्म मुक्ति के कारण होते हैं । "यस्त्वविज्ञानवान् भवत्यमनस्कः सदाऽशुचिः । नसतपदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति । यस्तुविज्ञानवान् भवति समनस्कः सदाशुचिः । सतु तत्पदमाप्नोति यस्माद् भूयो न जायते । ( कठोपनिषत् ) अर्थात् जो ज्ञानी नहीं है वह ठीक ठीक विचार नहीं कर सकता और वह सदा अपवित्र है । वह मोक्ष नहीं पा सकता प्रत्युत संसारमें ही परिभ्रमण करता है। ओ ज्ञनी है वह ठीक ठीक विचार कर सकता है और वह सदा पवित्र है । वह ऐसे पदको पाता है जिससे फिर कभी वापस नहीं लौटना पड़ता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . इस उल्लेखमें नहानीको सदा अपवित्र बताया है 'सदा' शब्द देनेका तात्पर्म यह है कि मझानी चाहे अध जो क्रियाएं करे पर ज्ञानका अभाव होनेसे उसको सप क्रियाए पवित्रताका कारण नहीं हो सकती वरन् अपवित्रताका ही कारण होती हैं। ठीक इसी प्रकारका उल्लेख जैन सूत्र सूत्रकृतांग सूत्रमें है "जेयाऽबुद्धा महाभागा वीरा असम्मत्त दंसिणो असुद्ध तेसि परकतं सफल होइ सब्बसो । जेय बुद्धा महाभागा वीरा संमत्तदंसिणो / सुद्धतेसिं परकतं अफल होइ सब्बसो।" (सु० श्रु० १ ० ८ गाथा २३-२४) अर्थात् जो असम्यदी और अज्ञानी है वह जगतमें महाभाग यानी पूजनीय अथवा बड़ा भारी वीर समझा जाता हो पर उसकी सभी क्रियाएं अपवित्र और संसारिक फलको ही देने वाली होती हैं। जो सम्यग्दशी और ज्ञानी है उस महाभाग और वीर पुरुष की दानाध्ययनादि रूप सभी पारलौकिक क्रियाएं पवित्र और मोघ फल देती हैं। ___ अपर कहे हुए उपनिषद्के वाक्य और सुय० को उक्त गाथाओंके मिलान करनेसे स्पष्ट हो जाता है कि इस विषयमें जैन और वैदिक सम्प्रदायकी मान्यता एक ही है। क्रियाएं समान होने पर भी सम्यग्ज्ञानी होनेसे एक व्यक्ति उनसे मोक्ष प्राप्त करता है और दूसरा अज्ञानी होनेसे इन्ही क्रियाओंको संसारका कारण बना देता है। "हिरण्मये परे कोषे विरजं ब्रह्म निष्फलम् । तच्छुभ्र ज्योतिषां ज्योतिस्तद् यदात्मविदोविदुः" (मुण्डकोपनिषत् ) सुनहरी परम कोषमें निर्मल निरवयव ब्रह्म ( आत्मा) है वह शुभ्र है, ज्योतियों की ज्योति है उसे वे ही जान सकते हैं जो अपनी आत्माको जानते हैं। इस वाक्यमें भी ज्ञान को ही मुक्तिका साधन माना है अज्ञान या मिथ्यात्वको नहीं । बौद्ध धर्ममें मुक्तिके अंग माठ माने हैं । उन सबमें सबसे पहले सम्यग्दृष्टि अर्थात् दुःख दुःखके कारण और उन्हें दूर करनेके उपायोंको सम्यक्प्रकार जानना, बतलाया है। मूल पाठ यह है "सम्यादृष्टिः सम्यकसंकल्पः सम्यग्वाक् सम्यकर्मान्तः सम्यगाजीवः सम्याव्यवसायः सम्यकस्मृति: सम्यक्समाधिश्च । तत्र सम्यग्दृष्टिः दुःखतद्धतु तन्निषेधमार्गाणां यथा तथ्येन दर्शनम् । . (तत्व सं० प्र० पू०५) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१५] यहां सम्यग्दर्शनको पहला स्थान दिया है और सत्यचारित्रको चौथा, क्योंकि सम्यग्दर्शनके विना सम्यक् चारित्र नहीं होता। यहां तक कि सम्बं प्रकारका संकल्प भी नहीं हो सकता । सम्यग्दर्शन होने पर ही सम्यक् संकल्प और मोक्ष प्राप्तिकी दृढ़ इच्छा होती है, इसी कारण यहां सम्यग्दर्शनके बाद सम्यक संकल्प गिनाया गया है। न्याय दर्शनमें गोतम मुनि कहते हैं- "दुःख जन्म प्रवृत्ति दोष मिथ्याज्ञानाना मुखरोगपाये तदनंतरापायादपवर्गः” (न्याय ०१ ) र्थात् मोक्ष के लिये सर्व प्रथम मिथ्या ज्ञानका नाश होना व्यावश्यक है। मिध्या ज्ञानके नाश होने पर रागादि दोष, रागादि दोषोंके नाशसे प्रवृत्ति और प्रवृत्तिके नाशसे जन्म और जन्मके नाशसे दुःखका नाश होता है । दुःखों का नाश होने पर मोक्षकी प्राप्ति होती है । यहां पर भी यह बताया गया है कि मोक्षके लिये सबसे पहले सम्यग्ज्ञानकी आवश्यकता है। बिना सम्यक् ज्ञानके मिथ्या ज्ञानका नाश नहीं होता और मिथ्या ज्ञानके नाशके विना इह लोक और परलोकके सुखोंका अनुराग आदि नष्ट नहीं होते । अब तक सांसारिक सुखोंका अनुराग आदि नष्ट नहीं होते तब तक मोक्ष पाना अत्यन्त दुर्लभ है इस लिये मोक्ष प्राप्तिके लिये सम्यग् ज्ञानकी सर्व प्रथम नावश्यकता न्याय दर्शन में लाई है। वैशेषिक दर्शनमें कहा है : “तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम्” (वै० सूत्र ) तत्त्वज्ञानमात्मसाक्षात्कार ६६ विवक्षितस्वैव सवासन मिथ्याज्ञानोन्मूलनक्षमत्वात्” “तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्यः पन्था विद्यतेऽनाय" अर्थात् आत्माका साक्षात्कार हो जानेको तवज्ञान कहते हैं क्योंकि उसीसे मिथ्या ज्ञानका नाश हो सकता है। तत्वज्ञान होने पर ही मोक्ष होतो है। आत्माका प्रकाशके सिवाय मुक्तिका और कोई उपाय नहीं है। यह मान्यता भी जैन धर्मसे मिलती है। जैन धर्म का मत है कि आत्मामें जब सम्यग्दर्शन होता है तब मिथ्या ज्ञानका नाश होता है और वैशेषिक दर्शन भी यही कहता है कि आत्म साक्षात्कार ही मिथ्या ज्ञानका नाशके द्वारा मोक्ष देने में समर्थ है। कपिल ऋषि प्रणीत सांख्य दर्शनमें इस विषय पर और भी अधिक प्रकाश डाला गया है । सांख्य दर्शनके प्रारम्भिक सूत्र यों हैं— “अथ त्रिविध दुःखात्यन्तनिवृत्तिः परम पुरुषार्थः । नदृष्टात्सिद्धि निवृत्तेऽप्यनुवृत्ति दर्शनात् । प्रात्यहिकक्षुत्प्रतीकारवत् तत्प्रतीकार श्रेष्टनात्पुरुषार्थत्वम्” सर्वासंभवात् संभवेऽपि सत्त्वासंभवाद्ध`यः प्रमाणकुशलैः । उत्कर्षादपिमोक्षस्य सर्वोत्कर्म श्रुतेः" ( सांख्य दर्शन सूत्र १-२-३-४-५ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १६ ] अर्थात तीन प्रकार ( आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक) के दुःखोंकी मात्यन्तिक निवृत्ति हो जाना अत्यन्त पुरुषार्थ ( मोक्ष ) है । दुःखोंकी आत्यन्तिकनिवृत्ति (मोक्ष) लोकमें देखे जाने वाले धन, प्रियजनोंके संयोग आदि उपायोंसे नहीं हो सकती जैसे भोजन करनेसे सदाके लिये भूख नहीं मिटती वैसे ही लौकिक उपायोंसे सदाके लिये दुःख दूर नहीं होते। इन उपायोंसे दुःख पूर्ण रूपसे नष्ट नहीं होते, थोड़े बहुत होते भी हैं तथापि वे विद्यम न रहते हैं। लौकिक उपायोंसे उत्कृष्ट राज्य आदि लौकिक पदार्थ प्राप्त होते हैं लेकिन वेदमें मोक्ष उनसे भी बहुत उत्कृष्ट बताया है इसलिये भी उन उपायों से वह प्राप्त नहीं हो सकता। इसके बाद यह प्रश्न किया गया है कि “यदि दृष्ट साधनसे सर्वथा दु:खका नाश नहीं होता तो वेद विहित यज्ञ आदि कर्मो से हो जायगा ? इसका उत्तर कपिल ऋषि कहते हैं-"अविशेषश्चोभयोः' (सू०६) इसके भाष्यका अर्थ यह है-दोनोंका अर्थात् दृष्ट जो लोकमें देखनेमें आता है व अदृष्ट जो यज्ञ साधन धर्मफळ देखनेमें नहीं आता इन दोनोंका जैसा कहा गया है, आत्यन्ति दुःखको निवृत्ति के साधन होनेमें विशेष नहीं है । अर्थात दोनों ही एक समान हैं, अत्यन्त दुःखकी निवृत्ति यज्ञ आदिसे भी नहीं होती। मोक्ष के साधक होनेमें विवेक ( सम्यग् ज्ञान ) होना ही मुख्य उपाय है। विवेक से अविवेकका नाश होने पर दुःख मात्रका नाश होता है अन्यथा नहीं होता" इस प्रकार विना विवेक (सम्यग् ज्ञान ) के मोक्ष होना अत्यन्त असम्भव बता कर सत्रकार स्वयं कहते हैं "ज्ञानान्मुक्तिः " (अ० ३ सूत्र २४ ) अर्थात् ज्ञान हाने पर ही मुक्ति होती है और "वन्धो विपर्यायात्" (सूत्र २५) अज्ञानसे वन्ध होता है। इस तरह सांख्य दर्शनके अनुसार भी यह सिद्ध है कि कोई व्यक्ति यज्ञ, जप, तप, आदि क्रियाएं भले ही करता रहे परन्तु जब तक उसे सम्यग्ज्ञान नहीं होता तब तक उसकी ये क्रियाएं मुक्तिका कारण नहीं हो सकती ज्ञान होने पर ही मोक्ष की आराधना हो सकती है। पतञ्जलि ऋषि अपने योगदर्शनमें कहते हैं"तस्यहेतु रविद्या । तदभावात्संयोगाभावो हानं तद्दशेः कैवल्यम्” (साधनपाद सूत्र २४।२५). अर्थात् संसारका मूल कारण अविद्या है। अविद्या, मिथ्याज्ञानको कहते हैं । मिथ्या ज्ञानका नाश होनेसे. आत्माको मोक्ष प्राप्त होता है वहीं मोक्ष आत्माका कैवल्य है। अन्य वस्तुका संसर्ग न होनेसे वही आत्माकी शुद्ध निखोलश अवस्था है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १७ ] पातञ्जल योगसूत्रसे भी उपयुक्त विषयका ही समर्थन होता है। इसमें संसार का मूलकारण अज्ञान बताया है, इससे स्पष्ट सिद्ध है कि जब तक आत्मामें अज्ञान है तब तक मोक्षकी आराधना या मोक्ष नहीं हो सकता। इसी विषय का आगे और भी खुलासा किया गया है "विवेक ख्याति रविप्लवा हानो पायः” (सूत्र २६) "मिथ्याज्ञानवासनयाऽन्तराभिभवो विप्लवस्तद्रहितो विवेकत: पुरुषसाक्षात्कारो मोक्षोपायः सवासनाविद्योन्मूलन द्वारेत्यर्थः ।" (भाष्य ) अर्थात् मिथ्याज्ञानके संस्कारोंसे आत्मामें एक प्रकारका विप्लव होता रहता है। वह विप्लव सम्यगज्ञान होने पर नष्ट होता है वही सम्यगज्ञान - आत्माके सच्चे स्वरूपका अवलोकन-मोक्षा उपाय है। यहां भी वही बात बताई गयी है जिसका उल्लेख हम ऊपर कर आये हैं। __इन सब उल्लेखोंसे भलीभांति सिद्ध है कि मोक्षकी सिद्धि के लिये सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान अनिवार्य हैं। प्रत्येक मठ में इनको सर्वप्रथम कारण माना है अत: इस विषयमें भी संदेह नहीं कि सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान होने पर ही मोक्षकी आकांक्षा होती है। उपनिषदोंके प्रमाणोंसे यह पहले ही स्पष्ट हो चुका है कि बिना सम्यगज्ञानके किये जाने वाले तपस्या आदि आचरण मोक्षके कारण नहीं हैं बल्कि संसारके हो कारण हैं। ऊपर जो मान्यता प्रष्ट की गयी है ठीक वही जैन धर्मकी भी है। विना ज्ञान का किये जाने वाले तपको जैन परिभाषामें "बाल तप" कहते हैं और वह संसार का ही कारण है। प्रत्येक धर्मको ऐसी मान्यता होने पर भी आश्चर्यकी बात है कि थोड़े दिन पहले पैदा होने वाले भीषणजीने इनसे विरुद्ध एक विचित्र मत निकाला है। इन्होंने भारत वर्षके तमाम दर्शन-सिद्धांतोंका तखता ही उलट देने की चेष्टा को है। इनका मत है कि जो जीव, अपने स्वरूपको, बन्धको, और मोक्षको जानता ही नहीं वह भी मोक्ष की आराधना करता है। अर्थात् जिस व्यक्तिको यह भी ठीक नहीं मालूम है कि, मुझे रोग है या नहीं, है तो क्या रोग है, क्यों उत्पन्न हुआ है, कैसे दूर होगा, दूर होने पर क्या सुख दुःख होगा ? वह भी अपना रोग दूर कर सकता है । जो बात आज तक किसी ऋषि महर्षिको न सुझी थी वह महाशय भिक्खूजीको सूझी। इसीलिये वे कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि जीव भी मोक्षका आराधक है। वस्तुत: यह सिद्धांत प्रत्येक दर्शन से, अनुभवसे और युक्तिसे सर्वथा वाधित है। जिसे जिस वस्तुका सम्यगज्ञान ही नहीं है वह उसकी प्राप्तिके लिये कापि प्रयत्न नहीं कर सकता। अगर कोई करता भी है तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १८ ] कृतकार्य नहीं हो सकता अतः सिद्ध हुआ कि सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होने पर ही मोक्षाराधनाका आरम्भ होता है पहले नहीं। (भीषणजीने सर्व भारतीय दर्शनोंके विरुद्ध अज्ञान दशाकी क्रियासे मोक्ष की आराधना क्यों अङ्गीकार की ?) भीषणजीने अपने गुरुको नीचा दिखानेके लिये जो संकल्प किया था उसकी पूर्तिके लिये सिद्धान्तमें हेर फेर करके एक नवीन सम्प्रदाय निकाला और इसका मूलसिद्धान्त दयादानमें एकान्त पाप मानना अङ्गीकार किया। ऐसा मानने पर यह सम्प्रदाय अनायास ही वाइस सम्प्रदायके सिद्धान्तोंसे असहमत होकर पृथक् हो गया। इन्होंने दयादानको एकान्त पापमें सिद्ध करनेके लिये और कोई मार्ग न देख कर जिन आज्ञामें ही धर्म और पुण्य होना मान लिया परन्तु मिथ्यादृष्टि अज्ञानी जीव भी अकाम निर्जरा आदि क्रियाके द्वाग पुण्य बांध कर स्वर्ग जाते है यह देख कर इनको मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी जीवकी क्रिया भी जिन आज्ञामें ही माननी पड़ी। इस प्रकार मिथ्यादृष्टि की क्रियाको आज्ञामें मान कर हीन दीन दुःखी जीवोंको दिये जाने वाले अनुकम्पादान को आज्ञा बाहर बताकर उसे एकांतपापका कारण बताया। जीतमल जीने भीषणजीके उक्त मतकी पुष्टिके लिये भ्रमविध्वंसन नामक ग्रन्थ बनाया और उसके पहले प्रकरणमें विविध कुयुक्तियोंका आश्रय और शास्त्रोंका अनर्थ करके मिथ्यादृष्टिको क्रियाको आज्ञामें स्थापन करने की चेष्टा की दूसरे प्रकरण दानाधिकारमें हीन दीन जीवको दिये जाने वाले अनुकम्पा दानको आज्ञा बाहर ठहरा कर उसमें एकांत पाप बतलाया। हीन दीन दुःखी जीवोंको दिये जाने वाले दानमें प्रत्यक्ष अनुकम्पारूप गुण देखनेमें आता है और अनुकम्पा करना शास्त्रमें सातवेदनीय कर्मका कारण माना है यह देख कर जीतमलजीने अनुकम्पाका शास्त्रविरुद्ध सावध और निरवद्य दो भेद बताया और इसके लिये अनुकम्पाधिकार नामक तीसरा प्रकरण लिखा । भगवान् महावीर स्वामीने गोशालकके ऊपर अनुकम्पा करके उसके प्राण बचाये थे और जगत में जीवरक्षा करनेका एक पवित्र आदर्श रक्खा था इस कार्यसे अनुकम्पाका समर्थन होता देख कर जीतमलनीने भगवान् महावीर स्वामीपर चूक जाने का लांछन लगाने के लिये लब्धि गोशालक और गुण वर्णन आदि प्रकरण लिखे और उन प्रकरणोंमें शास्त्र के मर्थका अनर्थ करके यथा कथंचित् भगवान महावीर स्वामीके चूकनेका साधन किया। यह सब अनर्थ इन लोगों को दया दान में पाप स्थापन करनेके लिये करना पड़ा है। इन लोगोंके शास्त्र विरुद्ध सिद्धान्तोंका प्रकाश करनेके लिये इस सद्धर्ममण्डन नामक प्रन्यकी रचना हुई है अत: इस ग्रन्थके प्रकरणोंका दूसरा नाम न रखकर भ्रम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ १९ ] विध्वंसनके प्रकरणोंका ही नाम क्रमश: दिया गया है और उन प्रकरणोंमें भीषगजी और जीतमलजीके शास्त्र विरुद्ध सिद्धान्तोंका प्रमाणानुसार निराकरण किया गया है। भ्रमविध्वंसनको सामने रख कर बुद्धिमान् पुरुष यदि इस प्रन्थका मनन करें तो अनायास ही वे तथ्यातथ्यका निर्णय कर सकते हैं कालिदासने लिखा है कि "हेम्न: संहक्ष्यते ह्यनौ विशुद्धिः श्यामिकाऽपिवा" अर्थात् सोना विशुद्ध है या, नहीं है यह बात आग में ही जानी जाती है। अत: विद्वान् जीवोंसे इस प्रन्थ की सत्यता या असत्यता छिप 'नहीं सकती। __ अन्तिम निवेदन। प्रारम्भमें यह ग्रन्थ, प्रतिवादिमानमर्दन श्रीमन्जनाचार्या १००८ पूज्य श्री जवा हरलालजी महाराजने कच्चे खरे के रूपमें अपने सन्तोंको लिखवाया था। श्रीयुत पण्डित अम्बिकादत्तजी ओझाने उस कच्चे खरेको देख कर तथा अन्यान्य नये विचार पूज्य श्री के मुखारविन्दसे सुन कर बड़े परिश्रमके साथ अन्यको इस रूपमें तय्यार किया और जहां उन्हें उचित प्रतीत हुआ वहां संशोचन भी किया। पण्डित महोदय यद्यपि व्याकरण आदिके बहुत अच्छे विद्वान् हैं परन्तु जैन सिद्धांतोंको जानने और उनके विषय में कुछ लिखने का यह पहला ही मौका है। इसलिये सम्भव है कि पूज्यश्रीके कहे हुए आशयको समझनेमें पण्डित महोदयको कहीं भ्रम हुआ हो और इस प्रकार प्रन्थमें कोई त्रुटि रह गयी हो। साथ ही दृष्टिदोष और प्रेसके कर्मचारियोंकी असावधानीसे भी ग्रन्थ में त्रुटियोंका रहना सम्भव है। अत: पाठकोंसे निवेदन है कि किसी त्रुटिके दृष्टिगोचर होने पर हमें सूचित करने की कृपा करें। न्याय्य बातको स्वीकार करने में हमको किसी प्रकारका दुराग्रह नहीं हो सकता । तथा त्रुटियों का संशोधन होना भी उचित है इसलिये पाठकोंकी ओरसे आई हुई ऐसी सूचनाका स्वागत करते हुए हम पाठकों का आभार मानेंगे तथा दृमरी आवृत्तिमें उन त्रुटियोंको न रहने देनेका भर सक प्रयत्न करेंगे। गच्छतः स्खलनं कापि भवत्येव प्रमादतः हसंति दुर्जनास्तत्र समादधति साधवः । भवदीयःतनसुखदास फूसराज दूगड़ (सरदार शहर) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... अनुक्रमणिका । - मिथ्यात्वि क्रियाधिकारः। __ --**-- बोल १ पृष्ठ १ से ७ तक धर्म दो तरहका है-एक श्रुत और दूसरा चारित्र । इन्हींका भागधक वीतगग की आज्ञाका आराधक है अज्ञानी मिथ्यादृष्टि नहीं। बोल दूसरा पृष्ठ ७ से नौ तक ... मिथ्यादृष्टि अज्ञानीको अज्ञानपूर्वक की जाने वाली अछाम निर्जरा आदिको क्रिया वीतरागकी आज्ञामें नहीं है। बोल तीसरा पृष्ट १० से ११ तक ___अकाम निर्जराको धर्मका भेद ठहरानेके लिये धर्मका दो भेद संवर और निर्जरा बताना शास्त्र विरुद्ध है। बोल चौथा पृष्ठ ११ से १३ तक ... . धम्मो संगल मुक्कि? इस गाथामें कहा हुआ तप, चारित्रका हो भेद है चारित्ररहित मिथ्यादृष्टिका तप नहीं है । बोल ५ वां १३ से १७ तक भगवती सूत्र शतक ८ उद्देशा १० की चतुर्भगीके प्रथम भङ्गका स्वामी देश गधक चारित्री पुरुष है मिथ्यादृष्टि अज्ञानी नहीं है। बोल छट्ठा पृ० १७ से १८ तक संवर रहित निर्जराकी करनी करने वाले मिथ्यादृष्टिको उवाईसूत्रमें जिन माशा का अनाराधक कहा है। वोल सातवां पृष्ठ १९ से २१ तक ____ असंक्लिष्ट परिणामसे हाडी वन्धनादिका दुःख सहने वाले जो बारह हजार वर्ष की आयुके देवता होते हैं वे उवाई सूत्रमें वीतरागकी आज्ञाके अनाराधक कहे गये हैं। बोल आठ पृष्ठ २५ से २२ तक जो जीव, अज्ञानी तथा मिथ्यादृष्टि हैं, परन्तु माता पिताकी सेवासे चौदह हजार की आयुके देवता होते हैं वे उवाई सूत्रमें मोक्ष मार्गके मनाराधक कहे गये हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २१ ] बोल ९ वां पृष्ठ २२ से २३ तक अकाम ब्रह्मचर्य पारन करके चौसठ हजार वर्षकी आयुके देवता होने वाली अज्ञानी मिथ्यादृष्टि स्त्री वीतरागकी आज्ञाकी आराधिका नहीं है। बोल दशवां पृष्ठ २३ से २५ तक ___ अन्न जल आदिका नियम रख कर चौरासी हजार वर्षकी आयुके देवता होने वाले अज्ञानी तागस मोक्ष मार्गके आगधक नहीं हैं। बोल ११ वां पृष्ठ २५ से २६ तक कन्द मूल फलादिका माहार करने वाले पञ्चाग्नि सेवी अज्ञानी तापस जो एक पल्योपम और एक लाख वर्षको आयुके देवता होते हैं वे परलोकके आराधक नहीं हैं। बोल १२ वां पृष्ठ २६ से २७ तक संवर रहित निर्जराको क्रिया मोझ मागेके आराधनमें नहीं है। बोल १३ वा पृष्ठ २७ से २९ तक भगवती शतक ८ उद्देशा १० की चतुर्भगीके प्रथम भङ्गका स्वामी देशाराधक पुरुष पापसे सवथा हटा हुआ चारित्री है और उवाई सूत्रोक्त मोक्ष मार्गका अनाराधक पुरुष पापसे सर्वथा नहीं हटा हुआ मिथ्याष्टि है अतः ये दोनों भिन्न भिन्न हैं एक नहीं हैं। अकाम निर्जराकी करनो मोक्षमार्गमें नहीं है इसलिये उवाई सूत्रमें अकाम निर्जराकी करनी करने वालेको परलोकका अनागधक कहा है। बोल १४ वां पृष्ठ ३० से ३२ तक तामली तापस और पूरण तापस सम्यक्त्व पानेके पहले शास्त्रमें मोक्ष मागके आराधक नहीं कहे गये हैं। दूसरी जगह खुद जीतमलजीने अज्ञान दशाकी क्रियासे मोक्ष मार्गका आराधन न होना बतलाया है। बोल १५ वां पृष्ठ ३२ से ३५ तक सुदत्त अनगारको भिक्षा देते समय सुमुख गाथापति सम्यग्दृष्टि था मिथ्यादृष्टि नहीं । अनन्तानुवन्धी क्रोधादिके नाश हुए बिना संसार परिमित नहीं होता और सम्यक्त्व पाये बिना अनन्तानुवन्धी क्रोधादिका नाश नहीं होता। बोल १६ वां पृष्ठ ३५ से ३६ तक __ मेघकुमार का जीव हाथीके भवमें शशकादि प्राणियों की रक्षा करते समय सम्यकद्दष्टि था मिथ्यादृष्ट नहीं। बोल १७ वां पृष्ठ ३६ से ३७ तक दौलतगमजी और दलपति रायजी की प्रश्नोत्तरीमें हाथी तथा सुमुख गाथापति को मिथ्यादृष्टि नहीं कहा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २२ ] बोल १८ वां पृष्ठ ३७ से ४० तक शकडाल पुत्रने देवता के कहनेसे भगवान् महावीर स्वामीको वन्दन नमस्कार किया था और सुमुख गाथापतिने अपनो इच्छासे सुदत्त अनगारको बन्दन नमस्कार किये थे इस लिये इन दोनोंके बन्दन नमस्कार एक समान नहीं थे । बोल १९ व पृष्ठ ४० से ४२ तक विशिष्ट क्रियावादी मनुष्य और तिर्य्यच एक वैमानिक की सभी क्रियावादी नहीं । सामान्य क्रियावादी नरक योनिकी आयु भी श्रुत स्कन्ध सूत्र | विराधक श्रावक क्रियावादी होने पर भी जघन्य भुवनवासी और उत्कृष्ट ज्योति - कमें उत्पन्न होता है । प्रमाण भगवती शतक १ उद्देश २ | ही आयु बांधते हैं बांधता है । दशा वोल २० वां पृष्ठ ४२ से ४३ तक भगवती शतक ८ उद्देशा दशकी टीकामें चारित्र रहिन ज्ञान दर्शन और देश की आराधनासे उत्कृष्ट असंख्य भव होना कहा है। जोतमलजीने भी इसे माना है । बोल २१ वां पृष्ठ ४३ ४४ तक उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ७ गाथा २० में सम्यग्दृष्टि को "सुत्रा" कहा है मिथ्यादृष्टिको नहीं । बोल २२ वां पृष्ट ४५ से ४७ तक नागत्याका प्रियवाल मित्र सामान्य त्राधारी होकर भी मनुष्य योनिमें जन्म पाश था । भगवती शतक ७ उद्देशा ९ बोल २३ वां पृष्ठ ४७ से ४९ तक मास मासक्षमण रूप घोर तपस्या करने वाला मिथ्यादृष्टि, जिन भाषित धर्मका आचरण करने वाले पुरुषके सोलहवें अंशमें भी नहीं है। उत्तराध्ययन स० ९ गाथा ४४ बोल २४ नं पृष्ठ ४९ से ५१ रुक मिथ्यादृष्टि ( अज्ञानी ) माख मास पर्य्यन्त उपवास करके उसके अन्त में पारणा करता हुआ भो जन्म मरण के चक्कर से नहीं छूटता । सुयगडांग श्रुत स्कन्ध १ अ० २ 'उद्देशा १ गाथा ९ ) बोल २५ वां पृष्ठ ५१ से ५३ तक जिसको जीवाजीव दि पदार्थका ज्ञान नहीं है उसका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है। ( भगवती शतक ७ उद्देशा २ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २३ ] बोल २६ वां पृष्ठ ५३ से ५ढ़ तक मिथ्यादृष्टि ( अज्ञानी) की तपोदानादिरूप पारलौकिक क्रियाएं संसार के ही कारण हैं । सम्यग्दृष्टिकी ये ही क्रियाएं मोक्षके हेतु हैं । सुयगढांग श्रुतः १ अ० ८ गाथा २३ । २४ बोल सत्ताइसवां पृष्ठ ५६ से ६० तक मिथ्यादृष्टि ( अज्ञानी ) के घटपटादिज्ञान भी कारण विपर्य्यय, संबन्ध विपर्य्यय और स्वरूप विपर्य्ययके कारण अज्ञान हैं। कर्म विशुद्धिकी उत्कर्षापकर्णको लेकर चौदह गुणस्थान कहे गये हैं सम्यक् श्रद्धा को लेकर नहीं । ( समवायांग सूत्र ) बोड २८ वां पृष्ठ ६० से ६३ तक असोचा केवलोका विभंग अज्ञान, सम्यक्त्व प्राप्तिका साक्षात् कारण होने पर भी जब वीतरागकी आज्ञामें नहीं है तब उसके प्रकृति भद्रता आदि गुण, जो कि सम्यकृत्व प्राप्तिके परम्परा कारण हैं वे आज्ञामें कैसे हो सकते हैं । बोल २९ वां ६३ से ६४ तक भगवती शतक १३ उद्देशा १ के मूलपाठमें वस्तुस्वरूपको जानने की चेष्टा का नाम " हा ' है । उस चेष्टाके वाधक कारणोंको हटा देना "अपोह" है । सजातीय और विजातीय धर्मकी आलोचना करनेका नाम क्रमशः मार्गण और गवेषण है अतः मार्गण शब्दका जिनभाषित धर्म की आलोचना और गवेषण शब्दका अधिक धर्मकी आलोचना अर्थ करना अज्ञान है । बोल ३० वां पृष्ठ ६४ से ६७ तक उत्तराध्ययन सूत्र अ० ३४ गाथा ३१-३२ में विशिष्ट शुक्ल लेश्याका लक्षण कहा है सामान्य शुक्लेश्याका नहीं। जो ध्यान, श्रुत और चारित्र धर्मके साथ होता है वही धर्मध्यान है । बोल ३१ वां पृष्ठ ६७ से ६९ तक सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिकी उपमा क्रमशः सुगन्ध और दुर्गन्ध घटकी नन्दी सूत्रकी टीकामें दी है ब्राह्मण और भङ्गीके घडेकी नहीं । बोट ३२ वां पृष्ठ ६९ से ७० तक साधुको साधु समझ कर उसके निकट शील तप और सुपात्र दानकी आज्ञा मांगने वाला पुरुष मिथ्यादृष्टि नहीं है सम्यग्दृष्टि है । बोल ३३ वां पृष्ठ ७० से ७१ तक सूर्याभ देव के अभियोगिया देवताके मिथ्यादृष्टि होनेमें कोई प्रमाण नहीं है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोल ३४ वां पृष्ठ ७१ से ७२ तक गोतम स्वामीने स्कन्धकजीको भक्तिभावके साथ भावरूप वंदन नमस्कार करने को आज्ञा दी थी मिथ्यात्वके साथ द्रव्य वंदन कानेकी नहीं। बोल ३५ वां पृष्ठ ७२ से ७५ सक तामली वाल तपस्वी और सोमिल ऋषिकी अनित्य जागरणा उनकी प्रत्रज्याके समान वीतराग मत प्रसिद्ध अनित्य जागरणसे भिन्न थी। वोल ३६ वां पृष्ठ ७५ से ७७ तक बाल तपस्या और अकाम निजरा जिन आज्ञामें नहीं है तथापि इनसे स्वर्गप्राप्ति होती है। अकाम निर्जरा और बाल तप करने वाले को साक्षात् उववाई सूत्रमें परलोक का अनाराधक कहा है। बोल ३६ वां पृष्ठ ७७ से ७९ तक गोशालकमतोक्त जिव्हेन्द्रियप्रतिसलीनता वीतराग मतझी जिव्हेन्द्रिय प्रतिसंलीनतासे भिन्न है। . बोल ३८ वा ७९ से ८१ तक प्रश्नव्याकरण सूत्रके दूसरे सम्वर द्वारमें व्रतधारियोंसे सत्यका ग्रहण करना कहा है दाम्भिकोंसे नहीं। बोल ३९ वां पृष्ठ ८१ से ८३ तक व्यन्तर संज्ञक देवताओंके पूर्वभव के कार्य को आशामें नहीं कहा है किन्तु उनसे भोगे जाते हुए सुख विशेष की तरह उसे भी शुभ कह कर वस्तु स्थिति वताई है। बोल ४० वां पृष्ठ ८३ से ८६ तक माता पिताकी सेवा शुश्रूषा करने वाले पुत्रको उवाई सुत्रमें स्वर्गमामो कहा है। अथ दानाधिकारः। बोल पहला ८७ से ९४ तक हीन दीन जीवोंको अनुकम्पा दान देना एकान्त पाप नहीं है। जो अनुकम्पा दानको एकान्त पाप बता कर श्रावकोंसे उसका त्याग कराता है वह ठाणांग सूत्रके मूल पाठानुसार “पिहिता गामि पथ" नामक अन्तराय कर्म बांधता है। बोल दूसरा पृष्ठ ९४ से ९७ तक आनन्द श्रावकने हीन दीन दुःखी जीवोंको अनुकम्पा दान देनेका अभिग्रह नहीं धारण किया था । किन्तु अन्य तीर्थीको गुरु बुद्धिसे दान न देने का अभिग्रह धारण किया था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २५ ] बोल तीसरा पृष्ठः९७ से १०० तक आनन्द श्रावकके समान ही अभिप्रह धारी बारह व्रतधारी श्रावक राजा प्रदेशीने दानशाला खोल कर हीन दीन दुःखी जीवको अनुकम्पा दान दिया था। .. बोल चौथा १०० से १०१ तक रान प्रश्नीय सूत्रमें राजा प्रदेशी को दान देता हुआ विचरना लिखा है. कान देने से न्यारा होकर नहीं। बोल पांचवां १०१ से १६० तक भगवती शतक ८ उद्देशा ६ के मूलपाठमें मिथ्या धर्मका समर्थन करने वाले तथा मिथ्यादर्शनानुसारी वेश धारण करने वाले असंयतिको गुरु बुद्धिसे दान देनेसे एकान्त पाप कहा है अनुकम्पा दान देनेसे नहीं। बोल छट्ठा पृष्ठ १०६ से २०९ तक आर्द्र कुमार मुनिने दया धर्मके निंदक और हिंसा धर्मके समर्थक वैडाल. व्रतिक नीच वृत्ति वाले ब्राह्मणको गुरु बुद्धिसे भोजन देनेसे नरक जाना कहा है और मनुस्मृति में भी यही बात कही है, अनुकम्पा दानका खण्डन नहीं किया है। ___ बोल सातवां पृष्ठ १०९ से ११० तक . भृगु पुगेहितके पुत्रोंने अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप नहीं कहा है किन्तु जो लोग यज्ञयागादि करने और पुत्रोत्पादन करनेसे ही दुर्गतिका रुकना बतला कर प्रव्रज्या प्रहण करनेको व्यर्थ कहते हैं उनके मन्तव्यको मिथ्या कहा है। बोल ८ वां पृष्ठ. ११० से ११२ तक . सुयगडांग सूत्र श्रुतस्कन्ध २ अ० ५ गाथा ३३ में भाषा सुमतिका उपदेश किया. है अनुकम्पा दानका खण्डन नहीं किया है। उस गाथामें वर्तमान कालका नाम भी. नहीं है। बोल ९ वां पृष्ठ ११२ से ११३ तक नन्दन मनिहार अनुकम्पा दान देनेसे मेढक नहीं हुआ किन्तु नन्दा नामक पुकरिणीमें आसक्त होनेसे हुआ । ज्ञाता सूत्र अध्ययन १३ । बोल १० पृ० ११४ से ११९ तक धर्मदानको छोड़ कर बाकीके नौ दान एकान्त अधर्मदान नहीं हैं। इनके गुणानुसार नाम रक्खे गये हैं, यह भीषणजोने भी लिखा है। बोल १२ पृ०.१५९ से ११९ तक . विश्रामस्थानसे बाहर की सभी क्रियाएं एकान्त पापमें नहीं है। .. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [.२६ ]. बोल १२ वां पृष्ठ १२० से १२४ तक . ग्राम धर्मादि लौकिक धर्म और प्रमस्थविरादि लौकिक स्थविर पाम आदिके चोरी जारी आदि बुराइयां दूर करते हैं इसलिये उन्हें एकान्त पापमें बताना मूर्खाका कार्य है। __ बोल १३ वां पृष्ठ १२४ से १२७ तक ठाणाङ्ग ठाणा नौ में कहे हुए नवविध पुण्य केवल साधुको ही दान देनेसे नहीं किन्तु उनसे इतरको दान देनेसे भी होते हैं। बोल चौदहवां १२७ से १३० तक भीषण जीके जन्मसे पहलेके बने टव्वा अर्थमें लिखा है कि "पात्रने विषे अन्नादिक दीजे तेहयकी तो कर नामादिक पुण्य प्रकृतिनो बन्ध तेहथकी अनेराने देवुते भनेरी पुण्य प्रकृतिनो वन्ध । तीर्थकर नामकी पुण्य प्रकृति ४२ पुण्य प्रकृतियोंके आदिमें नहीं अपितु अन्तमें है अत: तीर्थ करादि कहनेसे सभी पुण्य प्रकृतियोंका ग्रहण नहीं हो सकता। बोल १५ पृष्ठ १३० से १३१ तक ठाणाङ्ग ठाणा नौके मूलपाठमें न कहे जाने पर भी जैसे साधुको परिहारी सुई कतरनी आदिके दानसे पुण्य ही होता है उसी तरह साधुसे इतरको धर्मानुकूल वस्तु देने से पुण्य ही होता है एकान्त पाप नहीं। बोल १६ वां पृ० १३१ से १३३ तक साधुसे इतर सभी जीवको कुपात्र कायम करके उनको दान देनेसे मांस भक्षण व्यसन कुशीलादि सेवन की तरह एकान्त पाप कहना अज्ञान है। साधुसे इतर होने पर भी श्रावकको तीर्थमें गिना गया है और उसे गुण रत्नका पात्र कहा गया है। कुपात्र नहीं कहा। बोल १७ वां पृष्ठ १३३ से १३५ तक ठाणाङ्ग ठाणा ४ की चौभंगीमें साधुसे इतरको दान देने वाला अक्षेत्र वर्षों नहीं कहा है अपितु जो प्रवचन प्रभावनाके लिये सबको दान देता है उसकी टीकाकारने प्रशंसा की है क्योंकि प्रवचन प्रभावनाके लिये दान देनेसे ज्ञाता सूत्रमें तीर्थकर गोत्र बांधना कहा है। - बोल १८ वां १३६ से १३८ तक शकडाल पुत्र श्रावकने गोशालकको दान देनेसे धर्म तपका निषेध किया है पुण्य का निषेध नहीं किया है तथा निर्जरा के साथ ही पुण्य वन्ध होनेका कोई नियम भी नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोल १९ वां पृष्ठ १३८ से १४० तक ___ चोर भार हिंसक आदि महारम्भी प्राणीको चोरी जारी हिंसा मादि महारम्भका कार्य करनेके लिये दान देनेसे मृगालोढ़के दुःख भोगनेका प्रश्न विपाक सूत्रमें किया गया है अनुकम्पा दानसे नहीं। बोल २० वां पृष्ठ १४० से १४२ तक क्रोधी, मानी, मायी और हिंसा, झूठ, चोरी और परिप्रहके सेवी ब्राह्मणको उक्तराध्ययनके अध्याय १२ गाथा २४ में पापकारी क्षेत्र कहा है सभी ब्राह्मणको नहीं।। बोल २१ वां पृ० १४२ से १४६ तक व्यभिचारिणी स्त्रीको रख कर भाड़े पर उससे व्यभिचार कराना पन्द्रहवें कर्मावानका सेवन करना है हीन दीन दुःखीको अनुकम्पा दान देना अथवा साधुसे इतरको पोषण करना नहीं। . .. बोल २२ वां पृ० १४६ से १४८ तक किसी भी अभिप्रायसे अपने माश्रित प्राणीका क्य, वन्धन छविच्छेद और अतिभार आदि डालनेसे अतिचार होता है प्राणवियोग करने के अभिप्रायसे ही नहीं क्योंकि वह अनाचार है। बोल,२३ वां पृष्ट १४९ से १५१ तक ..भिक्षुकोंका बेरोक टोक प्रवेश करनेके लिये तुङ्गिया नगरीके श्रावकोंके दरवाजे खुले रहते थे। . बोल २४ वां पृष्ठ १५१ से १६० तक। श्रावकको अप्रत्याख्यान (अव्रत ) की क्रिया नहीं लगती। बोल २५ वां पृष्ठ १६१ से १६२ तक जैसे मिथ्यादर्शन के अंशतः नहीं हटने पर भी श्रावकको , मिथ्यात्वको क्रिया नहीं लगती उसी तरह अप्रत्याख्यानसे अंशतः नहीं हटने पर भी श्रावकको मप्रत्याख्यानिकी क्रिया नहीं लगती है।। बोल २६ वा पृष्ठ १६३ से १६५ तक . . . . भगवती शतक ३ उद्देशा १ में श्रावकके हित, सुख, पथ्य और मनुकम्पाकी इच्छा करनेसे सनत्कुमार देवेन्द्रको भव सिद्धिसे लेकर यावत् चरम होना कहा है। रखवाई सूत्रमें श्रावकको धार्मिक, धर्मानुग, धर्मेष्ट, धर्माख्यायी धर्म प्ररंजन आदि कहा है। - बोल २७ वां पृष्ठ १६६ से १६७ तक . ... .. जिसमें भाव शस्त्र मौजूद है वह यदि कुपात्र है तो फिर षष्ट गुण स्थान वाले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २८ ] प्रमादी साधु भी कुपात्र ही ठहरेंगे। राजप्रश्नीय सूत्रमें साधुके समान श्रावकसे भी आर्य धर्म सम्बन्धी सुवाक्य सुननेसे दिव्य ऋद्धिकी प्राप्ति कही गई है। बोल २८ वां १६८ से १६१ तक श्रावक अल्पारम्भ और अल्पपरिग्रहसे देवता होते हैं प्रत्याख्यान और व्रत से नहीं। बोल २९ वां १७१ से १७३ तक ...सुयगडांग सूत्रकी गाथाका नाम लेकर गृहस्थके दानको संसार भ्रमणका हेतु बताना मूर्खता है। बोल ३० पृष्ठ १७३ से १७१ तक . . - साधु यदि उत्सर्ग मार्ग में गृहस्थको अन्नादि दान देवे तो निशीथ सूत्र उद्देशा १५ बोल ७८१७९ में प्रायश्चित्त होना कहा है परन्तु हीन दीन दुःखोको अनुकम्पा दान देने वाले गृहस्थको प्रायश्चित्त नहीं कहा है तथा उस गृहस्थके अनुकम्पा का अनुमोदन करने वाले साधुको भी प्रायश्चित्त नही कहा है। . .. अपवादमार्गमें अन्य यूथिक और गृहस्थको शामिलमें मिली हुई भिक्षाको बांट कर साधु भी देते हैं। बोल ३१ वी १७९ से १८२ तक : अपनी निरक्य भिक्षा वृत्ते कायम रखनेके लिये तथा ज्ञान दर्शन और चारित्रमें शिथिलता न आने देने के लिये उत्सर्ग मार्गमें साधु गृहस्थको दान नहीं देते एकान्त पाप जान कर। बोल ३२ वां पृष्ठ १८२ से १८३ तक साधुसे इतरको अनुकम्पा दान देनेके लिये जो अन्न बनाया जाता है उसे दस कारिक सूत्रमें पुण्यार्थ प्रकृत कहा है पापार्थ प्रकृत नहीं कहा और जिसके घरमें उक्त - अन्न बनाया जाता है उसे शिष्ट कहा है। . बोल ३३ वां १८३ से १८४ तक भगवती शतक २ उद्देशा ५ में साधुकी तरह श्रावककी सेवा करनेका भी शास्त्र श्रवणसे लेकर मोक्ष तक फल मिलना कहा है। ... बोल ३४ पृष्ट १८५ से १८७ तक उत्तराध्ययन सूत्रके अट्ठाइसवें अध्ययनमें सहधर्मी भाईको मातपानी आदिके द्वारा उचित सत्कार करना समकितका आचार कहा है। व्यवहार सूत्रके दुसरे उद्देशेके भव्य में प्रवचन के द्वारा श्रावकका साधर्मी साधु औरश्रावक दोनों कहे गये हैं । ४.तक . .. . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ २९ ] बोल ३५ वां पृष्ठ १८७ से १८८ तक भगवती शतक १२ उद्दशा १ में अपने सहधी भाईको भोजन कराना पोषध धर्मकी पुष्टिमें माना है। ... योल ३६ वां पृष्ठ १८८ से १९० तक एग्यारह प्रतिमाओंका विधान तीर्थंकरोंने किया है। बोल ३७ वां पृष्ठ १९० से १९३ तक पयारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक, दश विध यति धर्मका अनुष्ठान करने वाला बड़ा हो पवित्रास्मा एवं सुपात्र होता है इसे कुपात्र कहने वाले अज्ञानी हैं। . बोल -३८ वां पृष्ठ १९३ से १९४ तक मम्वड संन्यासी और वरुण नागत्तू याके पाठमें आये हुए कल्पका दृष्टान्त देकर एयारहवीं प्रतिमाधारीके कल्पको तीर्थ करकी आज्ञासे बाहर कहना अज्ञान है। बोल ३९ वां पृष्ठ १९४ से १९७ तक सामायक और पोषाके समय श्रावक, पूंजनी आदि उपकरण जीवदयाके लिये रखते हैं अपने शरीर रक्षाके लिये नहीं अतः श्रावकके पूंजनी आदि उपकरणोंको एकान्त पापमें स्थापन करना मूरता है। बोल ४० वां पृष्ठ १९७ से १९९ तक। अढाई द्वीपसे बाहर रहने वाले तियञ्च श्रावक कई ब्रोंमें श्रद्धा मात्र रखनेसे बारह व्रतधारी माने जाते हैं। मनुष्य श्रावककी तरह सभी व्रतोंका शरीरसे स्पर्श और पालन करनेसे नहीं। बोल ४१ वां पृष्ठ १९९ से २०३ तक श्रावक देश संयम पालनार्थ जो मन, वचन, काय और उपकरणोंका व्यापार करता है वह सुप्रणिधान है दुष्प्रणिधान नहीं। इति दानाधिकारः। अथ अनुकम्पाधिकारः। बोल १ पृष्ट २०४ से २०७ तक मरते हुए आणीकी प्राणरक्षा और मारने वालेकी हिंसा छोड़ानेके लिये साधु धर्मोपदेश करता है केवल हिंसकको हिंसाके पापसे बचाने के लिये ही नहीं। बोल दूसरा पृष्ठ २०७ से पृष्ठ २०९ तक सज प्रश्नीय सूत्रमें चित्त प्रधानने द्विपद, चतुष्पद, मृग पशु पक्षी और सरीसृपों की प्राणरक्षाके लिये केशी स्वामीसे राजा प्रदेशीको धर्मोपदेश देने की प्रार्थना की थी। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३० ] बोल तीसरा २०९ से २११ तक दूसरेसे भय पाते हुए प्राणीको भयसे मुक्त करना भो अभय दान है केवल अपनी ओरसे भय न देना ही नहीं । अरिदमन राजाकी चौथो रानीने चोरको सुलीसे बचाया था और उसे टीकाकारने अमय दान कहा है । बोल चौथा पृष्ठ २११ से २१६ तक आर्यक्षेत्र जीवोंका उपकार और अपने कर्मों का क्षपण करनेके लिये भगवान् महावीर स्वामी धर्मोपदेश करते थे । जीवोंकी प्राण रक्षा करना उनका प्रधान उपकार है । सुब० श्रु० ५ अ० ६ गाथा : १७-१८ भगवान् महावीर स्वामी त्रस और स्थावर के क्षेम करने वाले थे क्षेम नाम रक्षा, . और शान्तिका है । सुय० श्रु० २ अ० ६ गाथा ४ बोल ५ व २१६ से २१८ तक साधु संत जीव की प्राण रक्षा उनसे असंयम सेवन करानेके लिये नहीं करते किन्तु उनका आर्तरौद्र ध्यान मिटाने और हिंसक को हिंसाके पापसे बचाने के लिये करते हैं । बोल छट्ठा पृ० २१८ से २२१ तक भगवान नेमिनाथजी, पिंजड़े में मारनेके लिये रोके हुए प्राणियों को छुड़ा कर लौट गये थे । वो सातवां पृष्ठ २१८ से २२१ तक हाथीने शशका 'द प्राणियों की प्राणरक्षा करके संसार परिमित किया था । बोल आठवां पृष्ठ २२३ से २२५ तक सुयगडांग सूत्र की 'वज्झापाणा न वज्झेति" इत्यादि गाथामें वध दण्ड देने योग्य अपराधीको निरपराधी कहनेका निषेध है किसी प्राणीकी प्राण रक्षा के लिये मत मार कहनेका निषेध नहीं है । बोल नवां पृष्ठ २२५ से २२७ तक आचारांग सूत्र श्रु० २ अध्याय १ उद्देशा १ में मरते प्राणीकी प्राण रक्षा करने के भयसे साधुको गृहस्थ के निवास भूत मकानमें रहना वर्जित नहीं किया है किन्तु ऊंचा नीचा मन होनेकी भावनासे वर्जित किया है । बोल दसवां पृष्ठ २२७ से २२९ तक आचाराङ्ग सूत्र श्रु० २ अ० २ उ० में अपने स्वार्थ के लिये गृहस्थ द्वारा अग्नि ने और न जलानेकी भावना करना साधुके लिये वर्जित की है कीड़ी आदि जीवों की रक्षा की भावना से उक्त कार्य्य वर्जित नहीं किया है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१] बोल ११ वां पृष्ठ २२९ से २३१ तक : उत्तराध्ययन सूत्रके २६ वें अध्ययन में अपनी प्राण रक्षा के लिये साधुको महार अन्वेषण करने का विधान किया है। भगवती शतक १ उद्देशा ९ में साधुको पृथिवी काय आदिके जीवोंकी रक्षा करनेके लिये प्रासुक और एषणिक व्याहार लेना लिखा है । बोट १२ वां पृष्ठ २३१ से २३३ तक स्थ वर जंगम जन्तुओं को दण्ड देकर असंयमके साथ जीने या चिर काल तक जीने की इच्छा साधुके लिये वर्जित की गई है। प्राणियोंकी रक्षा के साथ और यथा प्राप्त अयु तक जीनेकी इच्छा करना वर्जित नहीं है । I ÷ सुय० अ० १ गथा २४ बोल १३ वां पृष्ठ २३३ से २३६ तक सुयगडाङ्ग श्रु० १ अध्याय १५ सुयगडांग श्रु० १ अ० ५ उ० १ गाथा ३ सुय-श्रुत० १ अध्याय १० गाथा ३ सुय० श्र० १ ० २ गाथा १६ में हिंसक के हाथ से मारे जाने वाले प्राणियोंकी प्राण रक्षा करनेका निषेध नहीं है । बोल १४ व पृष्ठ २३६ से २३७ तक उत्तराध्ययन सूत्र ४ गाथा ७ में गुणका उपार्जनके निमित्त साधुको जीवित रहना कहा है। प्राणियों की प्राण रक्षाके लिये उपदेश देना गुणका उपार्जन करना है इसलिये जीवरक्षा के लिये उपदेश देनेमें पाप बनलाना अज्ञान है । बोल १५ पृष्ठ २३८ से २३८ तक सुय० श्रु० १ अ० २ गाथा १ में संयम प्रधान जीवनको दुर्लभ कहा है। जंव रक्षा के लिये जीवन व्यतीत करना संयम जीवन है । बोल १६ वां पृष्ठ २५९ से २४० तक नमिगज ऋषिसे इन्द्रने जीव रक्षा करनेमें पाप या पुण्यका होना नहीं पूछा था किन्तु सांसारिक पदार्थोंमें उनकी ममताके होने व न होने की परीक्षा की थी । नमिराज ऋषि प्रत्येक बुद्ध साधु थे स्थविर कल्पी नहीं उनका उदाहरण स्थविर कल्पियोंके लिये देना अज्ञान है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat बोल १७ व पृष्ट २४० से २४२ तक दश वैकालिक सूत्र अ० ७ गाथा ५० में देवता मनुष्य और निर्यश्चोंमें परस्पर युद्ध होने पर एक की हार और दूसरेकी जीत कहना साधुके लिये वर्जित है परन्तु उपदेश देकर युद्ध शान्त कर देना या मरते जीवकी रक्षा करनेका निषेध नहीं है । www.umaragyanbhandar.com Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३२ ] बोल १८ वां पृष्ठ २४२ से २४४ तक दशवकालिक अध्ययन ७ गाथा ५१ में वायु आदि सात बातोंके होने वा न होनेकी प्रार्थना करना साधुको अपने स्वार्थके लिये वर्जित की गई है क्योंकि इससे प्रागियोंका अनिष्ट भी होता है। बोल १९ वा पृष्ठ २४५ से २४७ तक ... ठाणाङ्ग ठाणा चारकी चौभंगीमें जो अपनी ही रक्षा करता है. दूसरेकी नहीं करता उसे प्रत्येक बुद्ध, जिनकल्पी और निर्दय कहा है। स्थविर कल्पीको अपनी और दूसरेकी दोनोंकी रक्षा करने वाला बताया है। बोल २० वां पृष्ठ २४७ से पृष्ठ २५० तक जैसे अपना जेवर उतार कर साधुको दर्शन करने वाली स्त्री धार्मिक है उसी तरह जेवर उतार कर मरते जीवकी रक्षा करने वाली स्त्री भी धार्मिक है। बोल २१ वां पृष्ठ २५० से २५२ तक अन्य यूथक और गृहस्थ रास्तामें कदाचित् किसी पशुका घात करे अथवा वे चोर आदिसे लूट लिये जायं इस लिये साधु मार्ग नहीं बताते, अनुकम्पाको साक्य जान कर नहीं। बोल २२ वां पृष्ट २५२ से २५४ तक ठाणाङ्ग ठाणा ३ उद्देशा ४ में जीव रक्षा करनेका निषेध नहीं किया है परन्तु अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग करने वालेको धर्मोपदेश देकर समझाना या उसकी उपेक्षा करना अथवा वहांसे अन्यत्र चला जाना कहा है। बोल २३ वां पृष्ठ २५४ से २५५ तक अपने स्वार्थके लिये किसी जीवको सतानेके भावसे भय देना निशीथ सूत्रमें वर्जित किया है, आत्म रक्षा या पर रक्षा के लिये नासमझ प्राणीको भय दिखाकर हटा देना वर्जित नहीं है। . बोल २४ व पृष्ठ २५५ से २५७ हक निशीथ सूत्रमें भूति कर्म करने तथा मंत्र आदि करनेका निषेध है अपनी कल्प मर्यादाके अनुसार मरते पाणी की प्रागरक्षा करने का निषेध नहीं है। बोल २५ वां पृष्ठ २५७ से २६१ तक . अपराधी प्राणीको मारनेके लिये क्रोध करके दौड़नेसे कुलणी प्रियका व्रत और पौषध नष्ट हुमा था माताकी रक्षाके भाव आनेसे नहीं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३ ] बोल २६ वां पृष्ठ २६१ से २६४ तक नाव आता हुआ पानी बतलाना साधुका कल्प नहीं है इसलिये वह नाव में आता हुआ पानी नहीं बनलाता परन्तु शास्त्रीय विधानानुसार वह अपनी और दूसरे की रक्षा करता है । बोल २७ वां पृष्ठ २६४ से २६८ तक निशीथ सूत्रमें वन्धन और मोचनसे होने वाले दोषकी निवृत्ति के लिये त्रस प्राणीको बांधने और छोड़नेका निषेध किया है परन्तु जहां बांधे और छोड़े बिना त्रस प्राणीको रक्षा नहीं हो सकती हो वहां बांधने और छोड़नेका निषेध नहीं है । बोल २८ वां पृष्ठ २६८ से २६९ तक. 3 आजको किया दूसी है और अनुकम्पा दूसरी है इसलिये आने जाने की क्रिया के सावध होने से सुरसापर हरिणगमेसीको अनुकम्पा सावद्य नहीं हो सकती ।. बोल २९ वां पृष्ठ २६९ से २७० तक श्रीकृष्णजीकी वृद्ध पर अनुकम्पा करना सावध नहीं थी क्योंकि ईट उपाड़नेकी क्रिया न्यारी है और अनुकम्पा न्यारी है । बोल ३० वां पृष्ठ २७० से २७२ तक हरिकेशी मुनि पर अनुकम्पा करके यक्षने ब्राह्मगों को समझाया था परन्तु जब वे मारने दौड़े तो मारने के बदले में उसने भी मारा था । बोल ३१ व पृष्ठ २७३ से २७५ त धारिणी रानीकी गर्भानुकम्पाको मोह अनुकम्पा कहना अज्ञान है । धारिणी ने गर्भानुकम्पासे मोहको छोड़ दिया था तथा अंजयणाका परित्याग किया था । बोल ३२ वां पृष्ठ २७५ से २७६ तक अभयकुमार की प्रीति के लिये देवता का मेघ बरसाना कहा : ज्ञाता सूत्रके मूलपाठ है अनुकम्पाके लिये नहीं । बोल ३३ वां पृष्ठ २७६ से २७९ तक श्यणा देवी पर जिन ऋषि का करुण रस उत्पन्न हुआ था अनुकम्पा उत्पन्न नहीं हुई थी । बोल ३४ वां - पृष्ठ २७९ से २८२ तक aarat भक्ति दूसरी चीज है और नाटक दूसरा है अतः नाटक के सावध होने पर भी भक्ति सावद्य नहीं है । ५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . [ ३४ ] बोल ३५ वां पृष्ठ २८२ से २८४ तक मुनिका व्यावच दूसरा है और व्यावचके लिये की जाने वाली क्रिया दूसरी है ...इसलिये यक्षसे किया हुआ हरिकेशी मुनिका व्यावच सावद्य नहीं है। बोल ३६ वां पृष्ठ २८४ से २८५ तक शीतललेश्या प्रकट करके भगवान्ने गोशालक की प्राणरक्षा की थी इस अनु. कम्पाको सावध कहना अज्ञान है। शीतल हेश्यासे जोवविराधना नहीं किन्तु जीवरक्षा होती है। बोल ३७ वां पृष्ठ २८५ से २९० तक विम्बसारका पुत्र राजा कौणिकने भगवान महावीर स्वामीके वंदनार्थ जाने के लिये चतुरङ्गिणी सेना सजाई थी परन्तु सेना सत्राने रूप कार्यके बजहसे जैसे भगवान् का वंदन सावद्य नहीं हुआ उसी तरह ईट उपाडनेसे बुड्ढे पर कृष्णजी की अनुकम्पा सावध नहीं हुई। अथ लब्ध्यधिकारः। बोल १ वां पृष्ठ २९९ से २९२ तक शीतल लेश्याके प्रकट करनेमें तेजका समुद्घात नहीं होता इसलिये उसमें जघन्य .. तीन और उत्कृष्ट पांच क्रिया नहीं लगती। बोल दूसरा पृष्ठ २९२ से २९३ तक तेजो लब्धिधारी साधु क्रोधित होकर किसीको जलानेके लिये जो उष्ण तेजोळेश्या का प्रयोग करता है उसीमें तेजका समुद्घात होना कहा है मस्ते प्राणीकी प्राणरक्षा करनेके लिये शीतल लेश्याका प्रक्षेप करनेमें नहीं। बोल तीसरा २९३ से २९६ तक कायिकी, आधिकरणिकी, प्राद्वेषिको, पारितापनिकी, और प्राणातिपातिको ये क्रियायें हिंसाके भाव आनेसे लगती हैं रक्षाके भाव आनेसे नहीं। बोल चौथा पृष्ठ २९६ से २९७ तक अतिशय दयालुताके कारण दया करने योग्य पुरुष के प्रति तेजोलेश्याको शान्त करने में समर्थ शीतल तेजो विशेष के छोड़ने की शक्तिका नाम शीतल लेश्या है। बोल पाचवां पृष्ठ २९७ से २९८ तक ......मोशालकके द्वारा सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिका मरना अवश्य भावी जान कर भगवान्ने उनकी रक्षा नहीं की रक्षामें पाप जान कर नहीं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३५] बोल छठ्ठा २९९ से ३०१ तक रक्षामें राग करना, सावय नहीं है जैसे धर्ममें धर्माचार्य्यमें राग रखना सावध नहीं है। बोल सातवां पृष्ठ ३०१ से ३०२ तक भगवती शतक ७ उद्देशा १० के मूल पाठ में उष्ग तेजो लेश्याके पुद्गल को व्यचि कहा है इस लिये शीतल लेश्या के द्वारा उस को शान्त करने में आरम्भ दोष नहीं आता । बोल आठवां पृष्ठ ३०२ से ३०३ तक भगवती शतक २० उद्देशा ९ की टीकामें जङ्घा चरण और विद्याचरण लब्धिका प्रयोग करना प्रमाद सेवन करना कहा है शीतल लेश्या का प्रयोग करना प्रमाद सेवन करना नहीं कहा है । बोल नवां पृष्ठ ३०३ से ३०४ तक . छब्धिका प्रयोग न करके किसी दूसरे उपायसे भी भगवान यदि गोशालक की प्रागरक्षा करते तो भी जोतमलजीके मतमें पाप ही होता अतः इनका लब्धिकी चर्चा करना व्यर्थ है । इति लब्ध्यधिकारः । अथ प्रायश्चित्ताद्यधिकारः । बोल १ पृष्ठ ३०५ से ३०६ तक शीतल लेश्याका प्रयोग करके मरते प्रागीकी प्राणरक्षा करनेमें शास्त्रमें कहीं भी पाप होना नहीं कहा है तथा इस के लिये कहीं प्रायश्चित्तका भी विधान नहीं है. अतः सो अनगार, अतिमुक्त, रहनेमि आदि की तरह भगवान के प्रायश्चित करने की कल्पना करना अज्ञान है । बोल दूसरा ३०६ पृष्ठ ३०८ तक से भगवान महावीर स्वामी उच्च श्रेणिके कषाय कुशील थे अतः भ्रमविध्वंसन कार के कथनानुसार भी वह दोषके प्रतिसेवी नहीं हो सकते । बोल तीसरा पृष्ठ ३०८ से ३०९ तक. भगवान महावीर स्वामीने छद्मस्थावस्थामें स्वल्प भी पाप और एक बार भी:प्रमादका सेवन नहीं किया था । बोल चौथा पृष्ठ ३०९ से ३१० तक ब्याचारांग सूत्रकी "णञ्चाणंसे" और "अकसाइ" इत्यादि गाथाओं में भगवान् at केवल गुण वर्णन मात्र नहीं किंतु उनके दोषों का निषेध भी है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । ३६ ] बोल पाचवां पृष्ठ ३१० से ३१२ तक : उववाई सूत्रमें भगवान महावीर स्वामीके शिष्योंमें पाप और प्रमाद होने का निषेध नहीं किया है इसलिये उनके दृष्टान्तसे भगवान महावीर स्वामीमें दोषका स्थापन करना मिथ्या है। ..... बोल छट्ठा ३१२ से ३१३ तक . .उधवाई सूत्रमें यह नहीं कहा है कि कौणिक गजा कभी भी माता पिताका अविनीत नहीं था परन्तु आचारांग सूत्रमें कहा है कि भगवान महावीर स्वामीने कभी भी पाप और प्रमादका सेवन नहीं किया था अत: कौणिकके दृष्टान्तसे भगवान महावीर स्वामीमें दोषका स्थापन करना अज्ञान है। बोल सातवां पृष्ठ ३१३ से ३१४ तक उवबाई सूत्रमें श्रावकोंको पापसे सर्वथा हटा हुआ नहीं कहा है परन्तु आचारांग में भगवान को पाप और प्रमादसे सर्वथा हटा हुआ कहा है अतः श्रावकके दृष्टान्तसे भी भगवान्में पापका स्थापन करना अज्ञान है। ___ बोल आठवां पृष्ठ ३१४ से ३१७ तक ____ जिस समय गोतम स्वामी आनन्द के घर पर बचन बोलने में चूक गये थे उस समय उन में कषाय कुशील नियण्ठा तथा चौदहपूर्वका ज्ञान नहीं था। बोल नवां पृष्ठ ३१७ से ३१८ तक . दशवकालिक सूत्रके आठवें अध्ययनके दशवीं गाथामें जो दृष्टिवादका अध्ययन कर रहा है उसोका वाकस्खलन होना लिखा है परन्तु जिसने दृष्टिवादका अध्ययन कर लिया है उसका वास्खलन होना नहीं कहा है। ___ बोल दशवां ३१८ से ३२० तक भगवती शतक २५ उ० ६ में स्पष्ट लिखा है कि कषाय कुशील दोषका अप्रति सेवो होता है। बोल एग्यारहवां पृष्ठ ३२० से ३२१ तक जिस सम्वुडा साधुका सच्चा स्वप्न देखनेका शास्त्रमें वर्णन है उसीका झूठा स्वप्न देखनेका भी शास्त्रमें पाठ है परन्तु कषाय कुशीलके चूचनेका शास्त्र में कहीं भी पाठ नहीं है। बोल बारहवां पृष्ठ ३२२ से ३२३ तक ठाणाङ्ग ठाणा सातके मूल पाठमें यह नहीं कहा है कि सभी छद्मस्थ सात दोषके सेवी ही होते हैं अतः उक्त पाठका उदाहरण देकर भगवानमें दोषा सद्भाव कहना मूर्खता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोल तेरहवां पृष्ठ ३२३ से ३२४ तक - केवलोकी तरह छद्मस्थ तीर्थ कर भी आगम व्यवहारी और कल्पातीत होते हैं इस लिये सूत्र व्यवहारीके कल्पका नाम लेकर उनमें दोषका स्थापन नहीं किया जा सकता। . बोल चौदहवां पृ० ३२४ से ३२५ तक भगवती शतक २५ उहे शा ६ के मूलपाठमें कषाय कुशीलको कल्पातीत भो . कहा है। वोल पन्द्रहवां पृ० ३२५ से ३२७ तक भगवती ठाणाङ्ग ओर व्यवहार सूत्रमें व्यवहारके छः भेड़ कहे हैं उनमें पूर्व पूर्वके होने पर उत्तरोत्तरसे व्यवस्था नहीं दी जाती यह भी कहा है। . बोल सोलहवां पृ० ३२७ से ३२९ तक । भगवती शतक १५ को टीकामें लिखा है कि भगवानसे गोशालकका खोकार करना अवश्यम्भावी भाव था इस लिये भगवान्ने गोशालकको स्वीकार किया था। बोल १७ वां ३२९ से ३२९ तक ठाणाङ्ग ठागा नौ के अर्थमें लिखी हुई गाथा किसी मूलपाठ या प्रामाणिक टीका में नहीं मिलती और उसमें शिष्यवर्गको दीक्षा देनेका निषेध है एक शिष्यको दीक्षा देनेका निषेध नहीं है। बोल १८ वो ३३० ते ३३१ तक · सुधर्मा स्वामीने भगवान महावीर स्वामीसे सुन कर जम्बू स्वामीसे कहा है कि भगवान् महावीर स्वामीको छद्मस्थ दशामें किंचिन्मात्र भी पाप नहीं लगा था। . __ बोल १९ वां ३३१ से ३३१ तक। भगवान महावीर स्वामीको दश स्वप्न पाये थे उस समय उनको अन्तर्मुहूर्त तक द्रव्य निद्रा आई थी। विधिपूर्वक द्रव्य निद्रा लेना प्रमादका सेवन नहीं है। इति प्रायश्चित्ताधिकारः। अथ लेझ्याधिकारः। बोल १ पृ० ३३२ से ३३५ तक संयतियोंमें कृष्णादि तोन अप्रशस्त भाव लेश्याए नहीं होती। बोल दूसरा पृ० ३३५ से ३३७ तक .... भगवती शतक १.उद्देशा २ के मूलपाठमें कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओं में सगगी वीतरागी प्रमादी और अप्रमादी चारों प्रकारके साधुओंका निषेध है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३८ ] बोल ३ रा पृ० ३३७ से ३३९ तक। तेजः पद्म लेश्यामें जो सरागीका सदभाव मानते हैं उनके मतमें अष्टम, नवम और दशम गुण स्थान वाले साधुओंमें भी तेजः पद्म लेश्या होनी चाहिये । बोल चौथा पृ० ३३९ से ३४१ तक पन्नावणा सूत्र १७ के मूरपाठमें भगवती सूत्रकी तरह साधुओंमें भाव रूप कृष्ण टेश्याका निषेध किया है परन्तु सदभाव नहीं बताया है। बोल पांचवां ३४१ से ३४२ तक भगवती सुत्र शतक २५ उद्देशा ६ के मूलपाठमें कषाय कुशीलमें छः द्रव्य लेश्या कही है भाव लेश्या नहीं। बोल छट्ठा पृ० ३४२ से ३४५ तक भगवती शतक २५ उद्देशा ६ में कषाय कुशीलको दोषका अप्रतिसेवी कहा है। बोल सातवां पृ० ३४३ से ३४५ तक उत्तराध्ययन सूत्र अ० ३४ गाथा ३१॥३२ में अजितेन्द्रियता और चोरी आदिमें प्रवृत्त रहना कृष्ण लेश्याका लक्षण कहा है परन्तु साधु जितेन्द्रिय और चोरी मादि दुष्कर्मसे निवृत्त रहते हैं इस लिये उनमें कृष्ण लेश्याके लक्षण नहीं हैं। बोल आठवां पृ० ३४५ से ३४७ तक उत्तराध्ययन सत्र म० ३४ गाथा ३१।३२ में बताये हुए कृष्ण लेश्याके रक्षण सामान्य साधुमें भी नहीं पाये जाते फिर भगवान् महावीर स्वामी में उनके होनेके विषय में कहना ही क्या है। बोल नवां पृ० ३४८ से ३४९ तक . पुलाक, वकुश और प्रतिसेवना कुशील दोषके प्रतिसेवी होते हैं परन्तु उनमें तीन विशुद्ध भाव लेश्या ही होतो हैं इस लिये अप्रशस्त भाव लेश्याके विना दोषका प्रतिसेवन नहीं होता यह कहना भी अज्ञान है। बोल दसवां पृ० ३५० से ३५१ तक यदि विराधक होनेसे कषाय कुशील दोषका प्रतिसेवी हो तो फिर निग्रंथको भी दोषका प्रतिसेवी कहना चाहिये क्योंकि भगवती शतक २५ उद्देशा ६के मूलपाठमें कषाय कुशीलकी तरह निपथ भी विराधक कहा गया है। बोल ११ वां पृष्ठ ३५१ से ३५३ तक शास्त्रोक्त चार ध्यानोंमें अविश्वास होनेसे जो अतिचार आता है उसकी निवृत्ति के लिये साधु प्रतिक्रमण करता है परन्तु चार ध्यानोंके साधुओंमें होनेसे नहीं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३९ ] बोल १२ वां पृ० ३५३ से ३५४ तक पन्नावणा सूत्रकी मलयगिरि टीकामें मनः पर्य्यवज्ञानियोंमें कृष्ण लेश्या बताई • गई है परन्तु वह टीका भगवती सूत्र की टीकासे विरुद्ध होनेसे अप्रामाणिक है । बोल १३ वां पृ० ३५४ से ३५८ तक संघादिकी रक्षा करने के लिये वैक्रिय लब्धिका प्रयोग करने वाले साधुको शास्त्रकारने भवितात्मा अनगार कहा है । षड्विध लेश्याओं का स्वरूप समझाने के लिये आवश्यक सूत्र की टीका में जामुनके फर खाने की इच्छा करने वाले छ: पुरुषों का उदाहरण दिया है । इति लेश्या प्रकरणम् । अथ वैयावृत्यधिकारः । बोल १ पृष्ठ ३५९ से ३६० तक जैसे वन्दनार्थ किया जाने वाला वैक्रिय समुद्रघात वन्दनसे भिन्न है उसी तरह हरिवेश मुनिका व्यावच के लिये यक्षसे किया जाने वाला ब्राह्मण कुमारोंका ताडन मुनि के व्यावचसे भिन्न है । बोल दूसरा पृष्ठ ३६० से ३६१ व सूर्य्याभने नाटकको भक्ति स्वरूप नहीं कहा है इस लिये नाटकको भक्ति मानकर उसे सावध बताना अज्ञान है । बोल तीसरा पृष्ठ ३६१ से ३६२ तक गुरु आदि चितमें शान्ति उत्पन्न करनेसे ज्ञाता सूत्रमें तीर्थंकर गोत्र बांधना कहा है। गुरु केवल साधु ही नहीं होते माता पिता ज्येष्ठ वन्धु आदि भी होते हैं । बोल चौथा पृष्ठ ३६२ से ३६५ त सुय० ० १ ० ३ ० ४ गाथा ६।७ में जो लोग विषय सुख भोगनेसे मोक्षकी प्राप्त मानते हैं उनके सिद्धान्त का खण्डन है परन्तु साधुसे इतर प्राणीको साता देनेसे धर्म पुण्य होनेका निषेध नहीं है । बोल पांचवां पृष्ठ ३६६ से ३६८ तक गृहस्थसे साता पूछना तथा उसका व्यावच करना साधुके लिये अनाचार है गृहस्थ के लिये नहीं । बोल छठ्ठा पृष्ठ ३६८ से ३७१ त व सूत्र में दशविध व्यावच कहे गये हैं उनमें साधर्मिक व्यावच भी शामिल हैं । प्रवचनके द्वारा श्रावक भी श्रावकका साधर्मिक होता है अतः उसका व्यावच भी साधर्म के लिये निर्जराका हेतु है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४० बोल सातवां पृष्ठ ३७१ से ३७२ तक ठाणाङ्ग ठाणा ५ उद्देशा २ में श्रावकों के वर्ण बोलनेसे सुलभ बोधी और अवर्ण बोलने से दुर्लभ बोधी होना कहा है अतः श्रावकको अन्नदानादि द्वारा धार्मिक सहायता करनेसे एकान्त पाप करना अज्ञान है । बोल आठवां पृष्ठ ३७२ से ३७२ तक ias और श्राविकाओं के हित, सुख और पथ्य आदि की इच्छा करनेसे सनत्कुमार देवेन्द्र भवसिद्धिसे लेकर यावत् चरम हो गये हैं । भगवती शतक ३ उ० १ बोल नवां पृष्ठ ३७३ से ३७६ तक साधु या साध्वी को रात में या विकार के समय सर्प काटनेपर क्रमशः गृहस्थ स्त्री और पुरुष द्वारा झाडा दिलाना वृहत्कल्प सूत्रमें लिखा है । आचारांग सूत्रमें कहा है कि गड्ढे आदिमें गिरने की संभावना होनेपर गृहस्थका हाथ पकड़ कर साधु मार्गको पार कर सकता है । बोल दशवां पृष्ठ ३७६ से ३७९ तक साधुकी गले की फांसी काटने तथा आगमें जलते हुए साधुको बाहर निकालनेमें एक पाप कहने वाले निर्द य और शास्त्र विरोधी हैं । बोल ११ वां पृष्ठ ३७९ से ३८१ तक साधु नासिकामें लटकते हुए अर्शको धर्म बुद्धिसे काटने वाले गृहस्थको पुण्य वन्धकी क्रिया लगती है और लोभसे काटने वालेको पाप लगता है । बोल १२ वा ३८१ से ३८२ तक गृहस्थ द्वारा अपने फोड़े आदिके छेदन कगने की इच्छा करना बुरा है परन्तु गृहस्थको धर्मबुद्धिसे साधुके फोड़े आदिका छेदन करना पापका कारण नहीं है । sa वैयावृत्य प्रकरणम् । अथ विनयाधिकारः । बोल १ पृष्ठ ३८३ से ३८५ तक सम्यग्दृष्टि अपने से अधिक गुण वाले सम्यग्दृष्टिकी और श्रावक अपनेसे श्रेष्ठ श्रावकी तथा ये सभी लोग सम्यग्दृष्टि साधुकी जो सेवा शुश्रूषा करते हैं यह इनका दर्शन विनय समझना चाहिये । बोल दूसरा पृष्ठ ३८५ से ३८६ तक उत्पला श्राविकाने पोखली श्रावकको ओर पोखलीने शङ्ख श्रावकको वन्दन नमस्कार किये थे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४१ ] बोल तीसरा ४ ३८७ से ३९१ तक सामायकमें बैठा हुआ श्रावक सामायकमें नहीं बैठे हुए श्रावकसे श्रेष्ठ है इसलिये वह सामायकमें नहीं बैठे हुएको नमस्कार नहीं करता है। बोल चौथा पृष्ठ ३९१ से ३९६. तक अम्बइजी के शिष्योंने संथारा पर बैठने के समय बारह प्रत ग्रहण कराने का उपकार मानकर अम्वडजी को नमस्कार किया था भावनिक धर्माचार्या मान कर नहीं। बोल पांचवां पृष्ठ ३९७ से ३९९ तक दिक्कुमारियों ने गर्भस्थ तीर्थर और उनको माताको वन्दन नमस्कार किये थे। बोल छठा पृष्ठ ३९९ से ४.२१ जन्मते समय तीर्थङ्करको वंदना नमस्कार धर्म जान कर इन्द्र करते हैं लेपित रीतिके अनुसार नहीं। बोल साल १. २४०४ तक भगवती शतक २ उद्देशा ५ में तथारूपके श्रमण और माहन (श्रावक ) की सेवा भक्ति करनेते धर्म श्रवणसे लेकर मोक्षपर्यन्त फळ मिलना कहा है। बोल आठवां पृष्ठ ४०५ से ४०६ तक जैसे परतीयीं धर्मोपदेशक श्रमण और माहन दो हैं उसी तरह स्वतीयों धर्मोपोशक भी साधु और श्रावक दो हैं । बोल नवां पृष्ठ ४०६ से ४०७ सक मुंबुद्धि वायके प्रदेशसे जितशत्रु रामाने मारह व्रत महण किये थे। ___ बोल दशवां पृष्ठ ४०७ से १०८ वक भगवती शसक १ उद्देशा ७ की दीकामें श्रमण शब्दका साधु और माहन शब्दका श्रावक अर्थ किया है। बोल ग्यारहवां पृष्ठ ४०८ से ४९१ तक __ भगवती शतक १५ के मूलवाठमें साधु और श्रावक दोनों ही से सीखना और दोन नमस्कार करना कहां है। __ बोल १२ पृष्ठ ४१० से ४११ तक उत्तगध्ययन सूत्र की गाथाओं में कोहुए माइन के लक्षण श्रावकों में भी पाये जाते हैं। . ..... नयाधिकारः। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४२ ] अथ पुण्याधिकारः । बोल १ पृष्ठ ४१२ से ४१३ तक पुण्यानुवन्धी पुण्य आदरणीय है, मोक्षार्थी पुरुष भी इसका आदर करते हैं । बोल दूसरा पृष्ठ ४१३ से ४१४ तक साधन दशामें मोक्षार्थी भी पुण्य फलका आदर करते हैं । बोल तीसरा पृष्ठ ४१४ से ४१६ तक मनुष्य शरीर पुण्यका फल है मोक्षार्थियोंके लिये इसकी आवश्यकता उसी तरह है जैसे नदी से पार जाने वालेको नौका की । बोल चौथा पृष्ठ ४१६ से ४१९ तक भगवती शतक १ उद्देशा ७ में कही हुई पुण्यकामना और स्वर्गकामना बुरी नहीं है किंतु मोक्षका उपकारक है । इति पुण्याधिकारः । अथ आश्रवाधिकारः । बोल १ ४२० से ४२१ तक पांच इन्द्रिय, ग्वार कषाय, पांच अव्रत, पचीस क्रिया, तीन योग ये ४२ आश्रव है । पचीस क्रियाएं अजीव भी हैं। बोल दूसरा ४२१ से ४२५ तक अजीव की कही हैं और वे आश्रव हैं इस लिये आश्रव बोल तीसरा पृष्ठ ४२५ से ४२६ तक पुण्य पाप और वन्ध भी व्यवहार दशा में जीव हैं इन्हें एकान्त अभीव कहना अज्ञान है । बोल चौथा पृष्ठ ४२६ से ४२७ तक भगवती शतक १७ उद्देशा २ में सराग सलेश्य और समोह जीव को रूपी कहा है अतः जीव स्वरूप माश्रव भी रूपी सिद्ध होता है उसे एकान्त अरूपी कहना अज्ञान है । बोल पांचवां पृष्ठ ४२७ से ४२८ तक पाप, पुण्य, बंध, ये व्यवहार दशामें जीव और निश्चयनयके अनुसार अजीव हैं इन्हें एकान्त जीव या एकान्त अजीव कहना मिथ्या है । बोल छट्ठा पृष्ठ ४२८ से ४२९ तक ठाणा ठाणा ५ के मूलपाठसे व्यश्रवको एकान्त अरूपी और जीव सिद्ध करना जनताको धोखा देना है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४३ ] बोल सातवां पृष्ठ ४२९ से ४३० तक . भगवती शतक १२ उद्देशा ५ के मूलपाठमें तीन दृष्टियों को मरूपी और मिथ्यादर्शनशल्य को रूपी कहा है अत: मिथ्यात्व आश्रव एकान्त अरूपी नहीं हो सकता। बोल आठवां पृष्ठ ४३० से ४३२ तक कृष्ण लेश्या संसारी जीव का परिणाम है । संसारी जीव भगवती शतक १७ उद्देशा २ में रूपी भी कहा है अत: कृष्णलेश्या रूपी भी सिद्ध होती है। ... बोल नवां पृष्ठ ४३२ से ४३३ तक . सम्यक्त्व और मिथ्यात्व के होने पर जो क्रिया की जाती है वह जीव की हो या पुद्गल की हो क्रमशः सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्व क्रिया कही जाती हैं। बोल दशवां पृष्ठ ४३३ से ४३४ तक ठाणाङ्ग ठाणा १० के पाठ को साक्षी से आश्रव को एकान्त जीव बतलाना मिथ्या है। बोल १वां पृष्ठ ४३४ से ४३५ तक भगवती शतक १७ उद्देशा २ के मूल पाठ की साक्षी से आश्रव को एकान्त जीव कहना अज्ञान है। बोल १२ वां पृष्ठ ४३५ से ४३८ तक ठाणाङ्ग ठाणा १० के मूल पाठ में रूपी अजीव भी जीव का परिणाम कहा गया है। बोल तेरहवां पृष्ठ ४३८ से ४३९ तक भाव गति आदिको जीवका परिणाम मान कर द्रव्य गति आदिको जीव का परिणाम न मानना मूलपाठ और टीकासे विरुद्ध है। बोल चौदहवां पृष्ठ ४३९ से ४४० तक ___ दुग्ध जल की तरह एकाकार होकर रहनेसे गति आदिको ठाणांग ठाणा दशमें जीवका परिणाम कहा है। बोल १५ वां पृष्ठ ४४० से ४४१ तक भगवती शतक १२ उद्देशा १० में कषाय और योगको आत्मा कहा है । कषाय और योग रूपी हैं इस लिये संसारी आत्मा भी रूपी हैं और कषायाश्रव तथा योगाश्रव भी रूपी हैं। वोल १६ वां पृष्ठ ४४१ से ४४१ तक भाव कषाय और भाव योग को आत्मा मान कर द्रव्य कषाय और द्रभ्य योगको मात्मा न मानना शास्त्र विरुद्ध है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४४ ] बोल १७ बां पृष्ठ ४४२ से ४४४ तक भगवती शतक १२ उद्देशा १० में आत्म मात्रका भेद कहा गया है भाव आत्मा का ही नहीं। भगवतो शतक १३ उ० ७ में मात्माका शरीरके साथ दिन अभेद और यचित् भेद कहा है। बोल १८ वां पृष्ठ ४४५ से ४४६ तक पीलोइममिपन्न भावको एकान्त नीव और अजीयोदयनिष्पन्न माल को एकान्त अजीव बताना महान है। बोल १९ वां पृष्ठ ४४६ से ४४७ तक भाष रूप होनेसे न कोई पदार्थ एकान्त अरूपी होता है और अव्य-रूप होने से न एकान्त रूपी ही ो जाता है अतः भाव रूप होने से क्रोधादि को काम सरूपी कहना मिथ्या है। बोल २० वा पृष्ठ ४४७ से ४४९ तक क्रोध, मान, माया और लोभ कर्मों के उदयसे उत्पन्न होते हैं इस लिये अपने कारण अनुसार ये रूपी और पौगलिक हैं। बोल २१ वां पृष्ठ-४४९ से ४५१ तक ____ भगवती शतक १३ उद्दशा ७ में मन और वचनको रूपी तथा जीव से भिन्न कहा है इसलिये उनके योग भी रूपी और अजीव हैं अत: योगाश्रवको एकान्त अरूपी और जीव कहना अज्ञान है। बोल २२ वां ४५१ से ४५३ तक ठाणसत्रकी टीकामें आश्रयको जीव और अजीव दोनों में गतार्य किया है। बोल २३ वां गृष्ठ ४५३ से ४५४ तक कर्म भी कर्मके ग्रहण करनेमें कारण होनेसे माश्रव है। वह पौद्धलिक कहा गया है इस लिये श्रावकको एकान्त मजीव मानना अज्ञान है। इति आश्रवाधिकारः । अथ जीवाजीवदि पदार्थ विचारः। बोल १, पृष्ठ ४५५ से ४५६ तक। जीव और अजीव आदि नौ ही पदार्थ किसी न्यायसे रूपी और किसी न्यायसे अरूपी हैं। बोल दूसग पृष्ठ ४५६ से ४५७ तक मुख्य नयसे चार पदार्थ रूपी चार अरू पी और एक मिश्र है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४५ ] बोल तीसरा पृष्ठ ४५७ से ४५८ तक शब्द आदि तीन नय वालोंके मतसे नव ही तत्व जीव हैं। किसी अपेक्षासे एक जीव और आठ अजीव हैं। किसी अपेक्षासे एक जीव और आठ जीव हैं । बोल चौथा पृष्ठ ४५८ से ४५९ तक किसी अपेक्षासे चार जीव और पांच अजीव हैं । बोल पांचवां पृष्ठ ४५९ से ४६० तक एक अपेक्षासे एक जीव, एक अजीव और सात दोनोंके पर्याय हैं । इति नव तत्त्वविचारः । अथ जीवभेदाधिकारः । बोल १ पृष्ठ ४२१ से ४६३ तक प्रथम नारकि भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें जीवका तीसरा भेद न मानना सूना है, बोल दूसरा पृष्ट ४६३ से ४६४ तक असंज्ञोसे मर कर प्रथम नारकि भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें उत्पन्न होने वाले जीवोंको शास्त्रमें कहीं भी संज्ञो नहीं कहा है अतः पन्नावणा सूत्रके मनुष्य विषयक पाठक' दृष्टान्त देकर उक्त जीवोंमें असंज्ञीका अपर्याप्त भेद न मानना अज्ञान है । बोल वीसर । पृष्ठ ४६४ से ४६५ तक छोटे बालक और बालिका मनोयुक्त होते हैं मनोविकल नहीं होते इसलिये इनका दृष्टान्त देकर असंज्ञोसे मर कर प्रथम नारकि भुवनपति और व्यन्तर देवों में उत्पन्न होने वले जीवों में असंज्ञीका अपर्याप्त भेद न मानना अज्ञान मूलक है । बोल चौथा पृष्ठ ४६५ से ४६६ तक कीडी आदि जीवोंको दशवेकालिक सूत्रमें छोटा होने के कारण सुक्ष्म कहा है, सुक्ष्म जीवका भेद मान कर नहीं क्योंकि वे त्रस जीवमें गिने गये हैं परन्तु व्यसंज्ञी से मरकर नारकियादिमें उत्पन्न होने वाले जीव कहीं भी संज्ञी नहीं कहे हैं अतः उनमें असंज्ञीका भेद न मानना अज्ञान है । बोल पांचवां पृष्ठ ४६६ से ४६७ तक संमूर्छिम मनुष्यका दृष्ठान्त देकर प्रथम नारकि भुवनपति और व्यत्वर देवोंमें असंज्ञके अपर्याप्त भेदका निषेध करना भिथ्या है । बोल छट्ठा पृष्ट ४६७ से ४६८ तक भगवती शतक १३ उद्देशा २ के मूलपाठमें असुरकुमार देवतामें नपुंसक वेदका निषेध इस लिये किया है कि उनकी वह अवस्था अन्तमुहूर्तकी होती है । इति जीवभेदाधिकारः । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सूत्र पठनाधिकारः। बोल १ पृष्ठ ४६९ से ४७१ तक श्रावकको भी शास्त्र पढ़नेका अधिकार है। बोल दूसरा पृष्ठ ४७१ से ४७२ सक शास्त्र पढ़नेके चौदह अतिचार श्रावकोंके भी होते हैं यदि श्रावकको शास्त्र पढ़ने का अधिकार न होता तो उसको अकालमें स्वाध्याय करने और कालमें स्वाध्याय न करनेका अतिचार कैसे लगता। बोल तीसरा पृष्ठ ४७२ से ४७३ तक नन्दी और समवायांग सूत्रमें साधु और श्रावक दोनोंको “सुयपरिग्गहिया" कहा है इस लिये साधुकी तरह श्रावकका भी सूत्र और अर्थ दोनों जानने का अधिकार है । उत्तराध्ययन सूत्रमें पालित नामक श्रावकको निनथ प्रवचनका पण्डित कहा है। बोल चौथा पृष्ठ ४७३ ४७५ तक प्रश्न व्याकरण सूत्रके मूल पाठमें सत्य रूप महाव्रतकी प्रशंसा की गई है शास्त्र पढ़ने और पढ़ानेका कुछ जिक्र भी नहीं है। ..' बोल पांचवां पृष्ठ ४७६ से ४७७ तक व्यवहार सूत्रमें तीन वर्ष दीक्षा लेनेके पश्चात् निशोथ सूत्र पढ़नेका और दश वर्ष दीक्षा लेने के पश्चात् भगवती सूत्र पढ़नेका विधान किया है वह एकान्त नहीं है क्योंकि तीन वर्षकी प्रव्रज्या वाला साधु उत्कृष्ट द्वादशांगधारो भी कहा गया है। ___ बोल छट्ठा पृष्ठ ४७७ से ४७८ तक गुरुसे विना पढ़े अपने मनसे शास्त्र पढ़ने पर 'सुष्ट्वदिन्न नामक अतिचार होता है उसकी निवृत्ति के लिये श्रावक गुरु से पढ़ कर ही शास्त्रका अध्ययन करते हैं। बोल सातवां पृष्ट ४७८ से ४७९ तक · ठाणांग ठाणा तीनका नाम लेकर सभी श्रावकों को अविनीत लोलुप और क्रोधी ठहरा कर शास्त्र पढ़नेका अनधिकारी बताना मूर्खता है। ___ बोल आठवां पृष्ठ ४७९ से ४८१ तक . . सूर्या प्रज्ञप्तिका नाम लेकर श्रावकको अभाजन कहना मिथ्या है। वोल ९ वां पृष्ठ ४८१ से १८२ तक उसन्न पासस्थ और कुशील आदि श्रावक भी होते हैं साधु ही नहीं। इसलिये निशीथ सूत्र उद्देशा १९ के मूलपाठमें उसन्न पासत्थ और कुशील श्रावक और साधुको शास्त्र पढ़ानेका निषेथ है जो श्रावक उसन्न पासस्थ और कुशील नहीं है उसको शास्त्र पढ़नेका निषेध नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४७ ] बोल १० वां पृष्ठ ४८२ से ४८३ तक nto प्रकार के ज्ञानाचारोंमें दोष लगाने वाला पार्श्वस्थ कहा जाता है। आचाराङ्गारि अङ्ग और उत्तराध्ययनादि बाह्य अङ्गोंको पढ़ कर जो सम्यकूत्वका लाभ करता है उसे उत्तराध्ययन सूत्रमें सूत्र रूचि कहा है । इति सूत्र पठनाधिकारः । अथ क्रियाधिकारः । बोल १ पृष्ठ ४८४ से ४८४ तक आज्ञा बाहरकी करनी से भी पुण्य वन्ध होता है । बोल दूसरा पृष्ठ ४८४ से ४८५ तक मिथ्या दर्शनी भी अकाम निर्जरा आदि आज्ञा बाहरकी करनी करके स्वर्गगामी होते हैं । बोल तीसर1 पृष्ठ ४८५ से ४८६ तक आचा, उपाध्याय, कुल, गण और संघकी निन्दा करने वाले वीतरागकी आज्ञाका अनागधक अज्ञानी, आज्ञा बाहरकी क्रियासे स्वर्गगामीं होते हैं यह उवाई सूत्रमें कहा है । इति क्रियाधिकारः । अथ अल्प पाप बहु निर्जराधिकारः । बोल १ पृष्ठ ४८७ से ४८९ तक तथा रूपके श्रमण माइन को व्यकल्पनीय आहार देने वाले श्रावकको थोड़ा पाप और अधिक निर्जरा होना भगवती शतक ८ उद्देशा ६ में कही है । बोल दूसरा पृष्ठ ४८९ से ४९० तक reater करने अल्पवर पाप शब्दका अर्थ निर्जराकी अपेक्षा थोड़ा पाप लिम्बा है पाप न होना नहीं । बोल तीसरा पृष्ट ४९० से ४९१ तक बहु शब्दके साथ बाया हुआ अल्प शब्दका कहीं भी अभाव अर्थ नहीं होता । बोल चौथा पृष्ठ ४९१ से ४९२ तक आचारांग सूत्रकी स्वरचित टव्त्रा अर्थ में जीतमलजीने 'अफासुअं' का अर्थ अकल्पनीय कहा है | बोल पांचवां ४९२ से ४९६ तक भगवतों शतक पांच उद्दे शा ६ के मूलप ठमें आधाकर्मी आहार बनाने और झूठ बोल कर उसे साधुको देनेमें जो प्राणातिपात और मिथ्या भाषण होता है उससे अल्प आयुका बन्धन होना कहा है वह अल्प आयु क्षुल्लक भव ग्रहण रूप नहीं है किन्तु दीर्घ आयुकी अपेक्षासे अल्प है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ४८ ] बोड ६ट्ठा ४९६ से ४९९ तक . भगवती शतक १८ उद्देशा १० के मूलपाठमें उत्सर्ग मार्गमें अनेषणिक आहार साधुको अभक्ष्य कहा है कारण दशामें नहीं। बोल सातवां षष्ट ४९९ से ५०० तक . नित्य पिण्ड और उद्दिष्ट भक्त दोनों ही दुर्गतिके कारण कहे गये हैं। परन्तु कई नामधारी साधु विना कारण ही नित्य पिण्ड लेते हैं। इति अल्प पाप बहु निर्जगधिकारः। अथ कपाटाधिकारः। बोल १ पृष्ट ५०१ से ५०२ तफ तेहपंथी साधु अपने हाथसे खिडकीका कपाट खोरते हैं और बन्द करते हैं। भीषणजो खिड़कीका कपाट खोल कर रातमें बाहर गए थे तथा सोजदमें व जी नाथाजी आदि सात आUओंको अपने हाथसे छत्रीका कपाट खोल कर उतारा था। बोल दूसरा पृष्ठ ५०२ से ५०३ तक . उत्तराध्ययन सूत्र अ० ४ गाथा ३५ में इन्द्रियोंकी चंचलताको रोकनेके लिये कहा है कि साधु, मनोहर, चित्र युक्त मल्य और धूपसे सुवासित तथा कपाट वाले मकान में न रहे, कपाट बन्द करने और खोलनेके भयसे उक्त मकानमें रहने का निषेध नहीं है। ___ बोल तीसरा पृष्ट ५०४ मावश्यक सूत्रमें विना पूजे कपाट खोलने का प्रायश्चित स्वरूप मिच्छामिदुकई देना कहा है पूज कर खोकनेका नहीं है । बोल ४ पृष्ठ ५०४ से ५०५ तक। मुय० गाथा बाम्ह तेरहमें अकेला विहार करने वाले साधुके लिये कपाट बन्द करने का निषेध किया है स्थविर कल्पीके लिये नहीं। बोल पांचवां पृष्ठ ५०६ से ५०७ तक दश वैकालिक अ०५ उ० १ गाथा १८ में सण आदिके पर्देसे ढके हुए द्वारको गृहस्थकी आज्ञासे कारण दशःमें खोलनेका विधान किण है। ___ आचारांग सूत्रमें गृहस्वामीकी आज्ञासे प्रमाजन आदि करके गृहस्थके द्वार खोलनेका विधान किया गया है। ___ बोल छट्ठा पृष्ठ ५०७ ५०८ सेतक पाचारांग सूत्रके मूलपाठमें कपाट खोलने और बन्द करनेके भयसे कपाटवाले मकान रहनेका निषेध नहीं है किन्तु गृहस्थके संसर्ग वाले गृहमें रहनेका निषेध किया गया है। बोल सातवां पृष्ठ ५०८ से ५१२ तक . . . हत्कल्प सूत्रके माध्यमें कारण पड़ने पर साधुको जयणाके साथ कपाद खोलने और बन्द करनेका विधान किया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धाशुद्धि पत्र। अशुद्ध शुद्ध नियुक्ति नियुक्ति धम धर्म सर्वथा सथा जा रेसी मोक्ष माग तधा लिगे गये हैं लटका दिये हैं उन्हें मोक्ष मार्गका पठमें दशाराधक.. अथात् सम्यग्दृष्टिका घिपाक ज्ञात अध्ययन क्रियावादी सुसल विरतिपुक्त निमल मिथ्यथ्यात्व ऐसी मोक्ष मार्ग तथा लिये गये हैं लटका दिये गये है। उन्हें मज्ञानी होनेसे मोक्ष मार्ग का पढमे 'देशाराधक अर्थात सम्यग्दृष्टि था विपाक हाताध्ययन क्रियावादी ही मुसल विरतियुक्त निर्मल मिथ्यात्व श्रद्ध विपर्याय उद्देशा ३१. अद्ध पिपर्याय उद्देशा १ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40006520ca पृष्ठ ६३ ६३ ६४ ६९ ७२. ८२ ८२ ८२ ८८ ८८ ९६ ९६ ९९ १८५ १०७ १०७ १०७ १०७ १०८ १०९ १११ १२८ १३८ १४४ १४६ १४८ ४५३ १५५ १५६ पंक्ति १५. २८ ९ २५ १४ ३ २० ५ १४ १७ ६ २८ १७ १८ ९ १० ११ २९ ५ २ २३ २७ ९ ३ ११ १४ १३ ४ १२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ ५० ] उद्देशा १ 3" "" होता चन्तवना अच्छा " अशुद्ध " पूर्वत चार अधम बनलाते निर्वाह नुनि अथमें अहत शिरमणि प्रनिप्रह वैडालव्रातिक जना जनता टकानुसार तहर अथमें वरसेने मरवाने करने सरम्भ परिग्रहमें गतम शुद्ध उद्देशा ३१ 66 " होता है चिन्तवना शुभ " " पूर्ववत् चोर अध बतलाते जीविका निर्वाह मुनि अर्थ में आईत शिरोमणि प्रतिग्रह वैडालव्रतिक जाना जानता टोकानुसार तरह करने से मारवाने कारने संरम्भ उसकी ममता परिग्रहमें गोतम www.umaragyanbhandar.com Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्ध: जलको पृष्ठ १६५ १६६ १७९ १८२ ठाणांग [ ५१ ] अशुद्ध मिट्टोको गणांग बोल २९ बोल ३० बोल ३१ बोल ३२ कहने हैं बोळ ३० १८३ १८४ १८५ बोल ३३ बोल ३१ बोल ३२ बोल ३३ कहते हैं बोल ३४ विपुलं बोल ३५ बोल ३६ बोल ३७ १८७ १८८ १९० १९३ १९३ विसुलं बोल ३४ बोल ३५ बोल ३६ वाग बोल ३७ बोल ३८ नाग अव्रतमें १९७ १९८ १९९ २०३ २०४ २१२ २१३ वोल ३८ बोल ३९ आरम्भमें बोल ४० बोल ४१ भूले हुए कर्मका आर्या उपदेश हिंसकके मुक्त करना बोल पांचवां निमित्त बंचाकर बोल छट्ठा बोल ७.वां मत मार बोल ३९ बोल ४० मूले हुए कमका आय्य उपहेश हिंसके भुक्त करना बोल छट्ठा विमित्त देखकर बोल ७वां बोल आठवां .मनमार २२५ २१७ २१८ २२० २२० ..... २२१ २२३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ " २२४ २२५ २२६ २२७ २२९ २३१ २३३ 33 २३६ २३६ २३७ 33 ૨૨૮ 77 " २३९ 13 Po = २४० " "" २४१ " २४४ ६४७ -99 ६४८ २४९ " पंक्ति २५ २६ १४. ४ ९ २६ ५ १८ ३ २२ २६ ३० २ ५ २७ ११ १६ ४ ८ १८ २२ १३ " २९ २१ २८ २८ ९ २० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat [ ५२ ] अशुद्ध कहि मीरादीन बोल ९ वां श्रुत० १ बोल १० वां बोल ११ वां बोल १२ बां एक प्रकारका बोल १३ बोल १४ पासके समान जीवित रहनेकी की बोल १५ भ्रमविध्वंससन मारे जाने जाने वाले बोल १६ यह यह कनुकम्पा कते तुझको सांसासारिक बोल १७ श्रेय अहिन बोल १९ बोल २० राजा उतरना दिता जाता है धमको शुद्ध कहो मार्जारादीन् बोल आठवां श्रुत० २ बोल ९ वां बोट दशवां बोल ११ वां एक प्रकारके बोल १२ बोल १३ पाशके समान जीवित रहने की बोल १४ भ्रमविध्वंसन मारे जाने वाले बोल १५ यह अनुकम्पा करते तुमको सांसारिक बोल १६ जीत हार बोल १८ बोल १९ क्योंकि राजा उतारना दिया जाता है धर्मको www.umaragyanbhandar.com Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ge २५० २५२ " २५३ २५४ २५६ २५७ २६१ २६४ २६५ "3 २६७ २६९ २७० २७१ २७२ २०५ २७६ २७१ १८० २८२ २८४ २८५ " २९० २९४ ३०३ "" ३०८ " पंक्ति १९ १६ १८. २ २२ ६ १७ १६ ११ १३ १४ २९ २२ २५ १६ २९. ३ १६ २६ १ ८ ९ ९ १२ ५ १८ १० २२ ५१ १८ [ ५३ ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat अशुद्ध बोल २१ निवरणार्थ बोट २२ उच्चित्ता बोल २३ जेभिक्ख बोल २५ बोल २६ बोल २७ कनुकम्पा अर्थ है बोल २९ बोल ३० कहते बोल ३१ बोल ३२ बोल ३३ बोल ३४ नदीथी बोल ३५ बोल ३६ बोल ३७ अपनी बोल ३८ स्वल्प संवेग और निर्वेद होनेसे धमका कम कारित्था करते हुए . शुद्ध बोल २० निवारणार्थ बोल २१ उट्ठित्ता बेल २२ जे भिक्खू बोल २४ बोल २५ वोल २६ अनुकम्पा जाती है भावार्थ है बोल २८ बोल २९ कहते हैं बोल ३० बोल ३१ बोल ३२ बोल ३३ नदीधी बोल ३४ बोल ३५ बोल ३६ उपनी बोल ३७ ध्यान होने से धर्मका कर्म न कारित्था न करते हुए www.umaragyanbhandar.com Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ ३१४ ३१८ [ ५४ ] अशुद्ध अनेक दिनके तिर्णय दोष अप्रतिसेवी बोल (०) गाथाका अर्थ है छद्यस्थ गोशालको टोकामें ३२४ अनेक वर्षाके निर्णय दोषका अप्रतिसेवी बोल १२ वां पाठका अर्थ है उद्मस्थ गोशालक को अर्थमें लेश्या पञ्चक्खाण ३२९ ३४८ ३४९ .kene ३५२ ३५४ पञ्चक्खाण द्ररु गच्छज्जा सादिका स्वीकारए भगवक्ति ३५५ गच्छेज्जा आदिका सीरीकारए भगवद्भक्ति २६१ ३६९ भंगमें भंगोंमें कतव्य है श्रावकोंको ............ सूत्रको ३७५ ३७९ ३८० अथ करान वाले ३८२ Sunnsxxe. comr ३८३ ३८४ ३८७ ३८९ ३९१ धम बुद्धिसे अण्णपरेण भगवतो शत १५ असातना निर्जराक असनानुप्रदान मुनियोंको वाहर कुप्रावाचनिक सिरलावत हर्ष के साथ अपने शिष्योंको कर्तव्य है श्रावकों के श्रु० २ अ० ३ उ०२ सूत्रका अर्थ कराने वाले धर्म बुद्धिसे अण्णयरेण भगवती शतक २५ अनासातना निर्जराका आसनानुप्रदान मनियोंको वारह कुप्रावनिक सिरसावत्त धर्मके साथ अपने ७०० शिष्योंको ३९२ ३९६ ३९८ ४८५ ४०६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ५५ ] ____ अशुद्ध ४०७ ४१३ ४१५ " ४२२ इसीलिगे मायन्ते थह १३ वें अ० की २१ वी स्वर्गप्राप्ति किया तीना आरोलिय सगारो वतमान होता ४२३ ४२४ ४२४ " शुद्ध इसलिये जायते यह ३ रे अ० की पहली मोक्ष प्राप्ति क्रिया तीनों ओरालिय सागारो वर्तमान हो ता लघु मुख्यता श्रुताज्ञान नैकरूपत्वात ४३७ ४४३ रख्यता नाज्ञान नकरूपत्वात अगर ससारी शरीर ४४४ द्रला ४४५ ४५० ४६४ संसारी द्रव्य तात्पर्या प्रतिसंलीनता गर्भज जीवों असंज्ञीभूत सर्वत्र श्रावकों बोल २ पावयणे ४६५ तत्पर्य प्रति संडीलता गमन जीवों असंज्ञी सवत्र आश्रवों बोल १ पावपणे धम पढना मूत्रोंका हेनेसे समकर पए सगओ चीनको जावा ४७१ ४७२ धर्म ४८० ४८२ ४९० पढाना सूत्रोंका देनेसे समझकर पएसगाओ चीजको ही जीवा ४९१ ४९२ ४९३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ମୃ8 ४९७ ४९८ [ ५६ ] अशुद्ध मौनन्द्रागम उपयोग तथापि सल्लो, प्रमाजन सुन्नधास्स अलसीके काण्डकी टट्ट से प्रम जन ५०३ ५०४ शुद्ध मौनीन्द्रागम उपभोग अतएव सल्लोयं प्रमार्जन सुन्नघरस्स सणके प्रमार्जन करके अन्तो ५०६ कके ५०८ ५०९ ५१० पान्तो खले वाघ्राइय व्याघ्रादयः परिशिष्ट। पृष्ठ ६१, पंक्ति चौथीके १५ वें अक्षरके आगेका छुटा हुआ पाठ यह है : "विसुज्झमाणेविजाणई" पृष्ठ ७६, पंक्ति १७ के २३ अक्षरके आगेका पाठ यह है : "अणाराहगा" पृष्ठ १६७, पंक्ति ११ के १४ अक्षरके आगेका छूटा हुआ पाठ यह है : "किंवा दचा" पृष्ठ २६८ पंक्ति २२ के दश अक्षरके आगे का छूटा हुआ वाक्य यह है :-- "वास्तवमें शास्त्रसे मिलती हुई सभी चूर्णी मान्य हैं। पृष्ठ ३२३ के चौथी पंक्तिके आगेका छूटा हुआ बोल यह है : ( बोल १२) ३३५ पृष्ठके २९ वीं पक्तिके आगेका छूटा हुआ वाक्य यह है : "जहां जहां आरम्भ है वहां सर्वत्र यदि कृष्ण लेश्या है तो फिर शुक्ल लेश्या केवल अनारम्भो में ही पाई जानी चाहिये परन्तु वह आरम्भीमें भी पाई जातो है अत: पूर्वोक्त नियम मिथ्या है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीतरागाय नमः सद्धमेमण्डनम् । मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। अथ सद्धर्ममण्डनमारभ्यते सिद्धाण नमो किचा संजयाणंच भावओ अस्थ धम्म गई तच अणुसिडिं मुणेहमे १ भव वीजांकुर जनना रागाद्याः क्षय मुपागता यस्य ब्रह्मावा विष्णुर्वा हरो जिनोवा नमस्तस्मै २ सिद्ध और साधुओंको भावपूर्वक नमस्कार करके हिताहितका ज्ञान देनेवाला सदुपदेश दिया जाता है उसे उनिये । भववीजका अंकुर उत्पन्न करनेवाले रागादि दोष जिसके क्षीण हो गये हैं वह ब्रह्मा हो, विष्णु हो चाहे शिव या जिन हो उसे मेरा नमस्कार है। सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र, विद्या चारित्र और श्रुत चारित्र को "सद्धर्म" कहते हैं। उसका मण्डन तथा मिथ्या ज्ञान दर्शन और चारित्रका खण्डन और जीवरक्षा तथा अनुकम्पा दान आदिके विरोधी सिद्धान्तोंका निराकरण, शास्त्रीय प्रमाणसे इस ग्रन्थमें किया जाता है, इसलिये इसका नाम “सद्धर्म मण्डन" रक्खा है। भव्य जीवोंके उपकारार्थ, तथा आत्मलाभार्थ, यह ग्रन्थ आरम्भ किया जाता है। श्रीवीतरागदेवकी आज्ञाराधना रूप धर्मके दो भेद ठाणाङ्ग सूत्रके दूसरे ठाणेमें कहे हैं। वह पाठ __ "दुविहे धम्मे पन्नते तंजहा-सुयधम्मे चेव चारित्तधम्मे चेव" (ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा २) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । अर्थ-धर्म दो प्रकारका है एक श्रुत और दूसरा चारित्र । श्री सम्यग्ज्ञान, दर्शन, आठ ज्ञानाचार और आठ सम्यक्त्वके आचार धर्म में माने जाते हैं। साधु धर्म, तथा गृहस्थ धर्मके मूलगुण एवं आठ चारित्रके आचार, चारित्र धर्ममें कहे गये हैं । इस प्रकार श्रुत और चारित्र ये दो ही वीतरागकी आज्ञाके धर्म हैं । इनसे भिन्न कोई तीसरा धर्म, वीतराग भाषित या वीतरागकी आज्ञाका धर्म नहीं है । इन्हीं श्रुत और चारित्र धर्मोका आराधक पुरुष वीतरागकी आज्ञाका आराधक है । की आज्ञाराधनाके तीन भेद भगवती सूत्रमें कहे हैं वहपाठ - " कतिविहाणं भन्ते ! आराहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा आराहणा पण्णत्ता तंजहा नाणाराहणा दंसणाराहणा चारिता राहणा । णाणाराहणाणंभन्ते ! कतिविहा पण्णत्ता गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता तंजहाउक्कोसिया मज्झिमा जहण्णा । दंसणाराहणाणं भन्ते ! एवंचेव तिविहावि एवं चारिताराहणावि" २ ( भगवती शतक ८ उद्देशा १० ) अर्थ - हे भगवन्! आराधनाके भेद कितने होते है ? (उत्तर) हे गोतम ! आराधनाके भेद तीन हैं, ज्ञानाराधना ( ज्ञानकी आराधना ) दर्शनाराधना ( दर्शनकी आराधना ) और चारित्राराधना ( चारित्रकी आराधना ) । (प्रश्न ) हे भगवन् ! ज्ञानाराधनाके कितने भेद होते हैं ? (उत्तर) हे गोतम ! ज्ञानाराधनाके तीन भेद हैं, उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । इसी तरह दर्शनाराधना और चारित्राराधनाके भी तीन तीन भेद समझने चाहिये । यहां भगवान्ने आराधनायें तीन प्रकारकी कही हैं ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना और चारित्राराधना । इसलिये इन्हींका आराधक पुरुष मोक्ष मार्ग तथा वीतरागकी आज्ञाका आराधक समझा जाता है । परन्तु इनकी आराधना नहीं करके जो किसी दूसरे धर्मका आराधन करता है वह मोक्ष मार्ग तथा वीतरागकी आज्ञाका आराधक नहीं है । ऊपर बताये हुए मूलपाठ उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यके भेदसे जो तीनों आराधनाओंको तीन तीन प्रकारका कहा है उनमें किस भेदका आराधक पुरुष कितना भव करता है यह निर्णय भी इसी जगह भगवतीजीके मूलपाठमें कर दिया है वह पाठ “उक्कोसियाणं भन्ते ! णाणाराहणं आहेत्ता कतिहि भवग्गहणे हि सिज्झति जाव अन्तं करेंति ? गोयमा ! अत्थेगइए तेणेव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। भवग्गहणेणं सिझंति जाव अन्तं करेंति अत्येगइए दोघेणं भवग्गहणेणं सिझंति जाव अन्तं करेंति अत्थे गइए कप्पोवएसुवा कप्पाती एसुवा उववज्जंति। उक्कोसियणं भंते ! दंसणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं एवं चेव उक्कोसियणं भन्ते! चारित्ताराहणं आराहेत्ता एवंचेव नवरं अत्थेगहए कप्पातीएसुउववज्जति। मज्झिमियंणं भंते ! णाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं सिझंति जाव अंतं करेंति ? गोयमा ! अत्यंगइए दोघेणं भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव अन्तं करेंति तचं पुण भवग्गहणं नाइकमह । मज्झिमियं णं भन्ते ! दसणाराहणं आराहेत्ता एवंचेव एवं मज्झिमियं चरित्ताराहणंवि । जहन्नियंणं भन्ते ! गाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं सिंज्झंति जाव अन्तं करेंति ? गोयमा ! अत्थेगइए तच्चेणं भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव अन्तं करेंति सत्तभवग्गहणाई पुण नाइकमइ एवं दसणाराहणं वि एवं चरिताराहणं वि" (भगवती शतक ८ उ०१०) - इस पाठमें ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी उत्कृष्ट आराधना करनेवाले पुरुषको जघन्य एकभव और उत्कृष्ट दूसरे भवमें मोक्ष जाना कहा है तथा उत्कृष्ट ज्ञान और दर्शनकी आराधना करनेवालेको कल्प और कल्पातीत नामक स्थानोंमें ही देवता होना, एवं उत्कृष्ट चारित्रकी आराधना करनेवालेको अनुत्तर विमानमें ही जाना कहा है। इसी तरह इन तीनों आराधनाओंके मध्यम आराधकको जघन्य दो और उत्कृष्ट तीन भवमें, तथा इनके जघन्य आराधकको जघन्य तीन और उत्कृष्ट सात आठ भवमें मोक्ष जाना बतलाया है। इसका खुलासा करते हुए टीकाकारने लिखा है कि जिस ज्ञान दर्शनकी जघन्य आराधनासे उत्कृष्ट सात आठ भवमें मोक्ष जाना इस पाठमें बतलाया है वह ज्ञान और दर्शनकी आराधना चारित्राराधनाके साथ की जानेवाली समझनी चाहिए। परन्तु चारित्रकी आराधनासे रहित जघन्य ज्ञान और दर्शनकी आराधना नहीं । क्योंकि चारित्रकी आराधनासे रहित जघन्य ज्ञान और दर्शनकी आराधनासे, तथा श्रावकपनेके देशव्रतकी आराधनासे उत्कृष्ट असंख्य भव भी होते हैं। इस प्रकार जिस पुरुषमें चारित्रको आराधना नहीं है किन्तु ज्ञान और दर्शनकी जघन्य आराधना है वह पुरुष, तथा देशवती श्रावक, जघन्य तीन और उत्कृष्ट असंख्य भवमें मोक्ष प्राप्त करते हैं। इस न्यायसे जो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । पुरुष वीतरागकी आज्ञाराधनाके किसी भी भेदका आराधक है वह दो तीन भवोंमें अथवा असंख्य भवोंमें अवश्य ही मोक्ष जाता है पर जो पूर्वोक्त आराधनाओंके किसी भी भेदका आराधक नहीं है वह कभी भी मोक्ष नहीं जाता किन्तु वह अनन्त कालतक संसारमें ही पड़ा रहता है। अतः मिथ्यादृष्टि पुरुष वीतरागकी आज्ञाका किञ्चित् भी आराधक नहीं है क्योंकि आज्ञाराधक पुरुष पूर्वोक्त पाठ और टीकानुसार दो तीन भवमें अथवा उत्कृष्ट असंख्य भवमें अवश्य ही मोक्ष जाता है पर मिथ्या दृष्टि नहीं जाता। इसलिये वह वीतराग की आज्ञाराधनाके किसी भी अंशका आराधक नहीं है यह उक्त मूल पाठसे सिद्ध होता है। जो लोग मिथ्यादृष्टिको देशसे मोक्ष मार्गका आराधक मानते हैं उन्हें उक्त मूल पाठ और उस की टीकानुसार मिथ्यादृष्टि को उत्कृष्ट असंख्यभव में मोक्ष जाना भी मानना चाहिये। यदि मिथ्यादृष्टिको असंख्य भव में वे मोक्ष जाना नहीं मानते, तो फिर उसे वीतरागकी आज्ञाका देशसे आराधक भी नहीं मान सकते जो आज्ञाका आराधक तो हो और असंख्य भव में भी मोक्ष न जाय यह बात उक्त मूल पाठ और उस की टीका से विरुद्ध है। पूर्वोक्त त्रिविध आराधनाए श्रुत और चारित्रके ही अन्तर्गत हैं। ज्ञानके बिना दर्शन और दर्शनके बिना ज्ञान नहीं होता इसलिए ज्ञान और दर्शन ये दोनों श्रुत धर्ममें माने जाते हैं और चारित्राराधना चारित्रस्वरूप है इसलिए धर्मके मूलभेद श्रुत और चारित्र ये दो ही हैं। दशवकालिक सूत्र में “अहिंसा संजमो तवो" यह कह कर अहिंसा संयम, और तपको जो धर्म कहा है वह श्रुत और चारित्रको ही अहिंसा संयम और तप कह कर बतलाया है। पर श्रुत और चारित्र से अतिरिक्त अहिंसा संयम तप धर्म नहीं कहे हैं । अतएव इस गाथा की नियुक्ति में धर्म की व्याख्या करते हुए लिखा है कि "दुविहो लोगुत्तरियो सुयधम्मो खलु चरित्त धम्मोय " अर्थात् लोकोत्तर धर्म दो प्रकारका होता है एक श्रुत और दूसरा चारित्र । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि श्रुत और चारित्र रूप लोकोत्तर धर्मको ही उक्त गाथा में अहिंसा, संयम और तप कह कर बतलाया है परन्तु किसी लौकिक धर्मको नहीं। इसी तरह उत्तराध्ययन सुत्रके २८ वें अध्ययनमें मोक्षका मार्ग बतलानेके लिए यह गाथा कही है किः "नाणश्च दंसणंचैव चरितंच तवो तहा। एसमग्गुत्ति पन्नत्तो जिणेहिं वरदं सिहिं" ( उत्तरा० अ० २८ गाथा २) अर्थात् ज्ञान दर्शन चारित्र और तपको तत्त्वदर्शी जिनवरोंने मोक्षका मार्ग बतलाया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। यहां गाथामें ज्ञान, दर्शन, चारित्र, और तप ये चार मोक्ष के मार्ग कहे हैं। ये चारों ही श्रुत और चारित्र धर्म के भेद हैं ज्ञान और दर्शन तो श्रुत के अन्दर और चारित्र तथा तप चारित्र के अन्दर माने जाते हैं। अतः गाथा में कहे हुए ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप, श्रुत तथा चारित्रके अन्तर्गत हैं। अतएव इस गाथाकी पाई टीका में तप के विषय में लिखा है कि “तपो वाह्याभ्यन्तर भेद भिन्नं यदर्हद्वचनानुसारि तदेवो पादीयते " अर्थात् वाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे भिन्न अहंद्वचनानुसारी जो तप है उसी का इस गाथा में ग्रहण है। __ यहां टीकाकारने वीतराग भाषित तप को ही मुक्तिका मार्ग बतला कर गाथामें उसीका ग्रहण होना बतलाया है पर मिथ्यादर्शनानुसारी तपको मुक्ति का मार्ग नहीं कहा है। अतः वीतरागकी आज्ञामें होने वाला यह तप चारित्र का ही भेद है। अतएव इस गाथा की टीकामें चारित्रसे पृथक् तपको लिखनेका प्रयोजन बतलाते हुए टीकाकारने लिखा है कि-"इहच चारित्र भेदत्वेऽपि तपसः पृथगुपादान मस्यैव क्षपणं प्रत्यसाधारण हेतुत्वमुपदर्शयितुम् ।' अर्थात् तप, चारित्रका ही भेद है तथापि कर्मक्षय करनेमें यह सबसे प्रधान है यह बतलानेके लिए इस गाथामें चारित्रसे अलग तप कहा गया है। यहां टीकाकारने स्पष्ट लिखा है कि तप चारित्र का ही भेद है अतः सिद्ध हुआ कि ऊपर लिखी हुई गाथामें श्रुत और चारित्र धर्म ही ज्ञान, दशन, चारित्र तथा तप कह कर बतलाये गये हैं इस न्यायसे श्रुत और चारित्रसे भिन्न कोई तीसरा वीतरागकी आज्ञाका धर्म नहीं है यह बात स्पष्ट सिद्ध होती है। ठाणाङ्ग सूत्रमें विद्या और चारित्रके द्वारा संसार-सागरसे पार जाना कहा है, वह विद्या और चारित्र भी श्रुत तथा चारित्र धर्म ही हैं इनसे पृथक् नहीं। वह पाठ "दोहिं ठाणेहिं अणगारे सम्पन्ने अगादियं अणवयग्गं दीहमद्धं चाउरंतर संसारकतारं वीतिवरोजा । तंजहा विजाएचेव चरणेणचेव" (ठणाङ्ग ठाणा २ उद्देशा ३) ___ इस पाठमें विद्या और चारित्रके द्वारा संसार सागर से पार जाना कहा है और मूलपाठ में विद्या और चरण शब्द के साथ “एव कार" लगाकर भवसागर को पार करने के लिये अन्य उपाय का निषेध किया है। इसलिए मोक्ष प्राप्ति के लिये विद्या और चरण ये दो ही कारण सिद्ध होते हैं इनसे भिन्न कोई तीसरा कारण नहीं। यहां विद्या शब्द से ज्ञान दर्शन का और चरण शब्द से चारित्र का ग्रहण है इसलिये इस पाठ में श्रुत और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ सद्धममण्डनम्। - चारित्र ही विद्या, तथा चरण कहकर बतलाये हैं। अत: इस पाठसे भी यही सिद्ध होता है कि श्रुत और चारित्र धर्म ही मोक्ष प्राप्तिके कारण हैं इनसे भिन्न कोई दूसरा नहीं है। यहां कोई यह शङ्का करे कि विद्या शब्द तो केवल ज्ञान अर्थमें ही प्रसिद्ध है उससे ज्ञान और दर्शन इन दोनों का ग्रहण क्यों होगा ? तो इसका उत्तर यह है कि इस पाठ की टीका में विद्या शब्दसे ज्ञान और दर्शन दोनों ही का ग्रहण होना लिखा है। वह टीका यह है-"ननु सम्यगज्ञान दर्शन चारित्राणि मोक्ष मार्ग इति श्रूयते इह तु ज्ञान क्रियाभ्यामसावुक्त इति कथं न तद्विरोधः अथ द्विस्थानकानुरोधादेवं निर्देशेऽपि न विरोधो नैवमवधारणगर्भत्वान्निर्देशस्येति । अत्रोच्यते विद्यापहणेण दर्शनमप्यविरुद्ध द्रष्टव्यं ज्ञानभेदत्वात्सम्यग्दर्शनस्य । यथाहि अवोधात्मकत्वे सति मतेरनाकारत्वादवप्रहे दर्शनं साकारत्वाच्चापायधारणे ज्ञानमुक्तमेवं व्यवसायात्मकत्वे सत्यवायस्य रुचिरुपोंऽशो ऽवाय एवे ति न विरोधः। अवधारगंतु ज्ञानादिव्यतिरेकेण नान्यउपायो भव व्यवच्छेदस्येति दर्शनार्थ मिति” ___ अर्थ-सम्यग्ज्ञान दर्शन और चारित्र मोक्षके मार्ग सुने जाते हैं परन्तु यहां ज्ञान और क्रियासे मोक्ष कहा गया है इस कारण उससे विरोध क्यों नहीं ? यदि कहो कि ठाणाङ्ग सूत्रका यह दूसरा ठाणा है इसमें तीनका समावेश नहीं है इसलिये यहां ज्ञान और क्रियासे मोक्ष कहा, किन्तु दर्शनसे नहीं। तो यह अयुक्त है। क्योंकि इस मूल पाठमें "विज्जाए चेव चरणेण चेव" इन पदोंमें विद्या और चरण से ही मोक्ष जाने का नियम करके दूसरे से मोक्ष प्राप्तिका निषेध किया है। इसका उत्तर यह है कि विद्या शब्द से यहां दर्शन का भी ग्रहण समझना चाहिये । क्योंकि सम्यग्दर्शन, ज्ञानका ही भेद है। जैसे कि अववोध स्वरूप और अनाकार स्वरूप होने से मतिज्ञान के अवाह और ईहारूप भेद दर्शन स्वरूप हैं और साकार होने के कारण अवाय और धारणा रूप मतिज्ञान के भेद, ज्ञान के अन्दर कहे हैं इसी तरह व्यवसाय स्वरूप अवाय का रुचि रूप अंश सम्यग्दर्शन है और अवगमरूप अंश अवाय, ज्ञान स्वरूप ही है इसलिये कोई विरोध नहीं है। इस पाठ में जो “एवकार" आया है वह सम्यग्ज्ञान दर्शन और चारित्र से भिन्न कोई मोक्ष प्राप्ति का उपाय नहीं हैं यह दर्शाने के लिये समझना चाहिये । यह उक्त टीका का अर्थ है। . यहां टीकाकार ने विद्या शब्द से ज्ञान और दर्शन दोनों ही का ग्रहग बतलाया है और सम्यग्ज्ञान दर्शन ही श्रुत कहलाते हैं इसलिये उक्त मूलपाठ में श्रुत और चारित्रधर्म ही विद्या और चरण शब्द से कहे गये हैं। मूलपाठ में 'एवकार' देकर इनसे भिन्न पदार्थ को मोक्ष प्राप्ति में निषेध किया है अत: श्रुत और चारित्रधर्म ही मोक्ष के मार्ग तथा वीतराग की आज्ञा के धर्म सिद्ध होते हैं। श्रुत तथा चारित्र अथवा विद्या या चारित्रधर्म Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। अज्ञानी और मिथ्यात्वियों में नहीं होते सम्यग्दृष्टि पुरुषों में ही होते हैं अत: सम्यग्दृष्टि पुरुष ही वीतराग की आज्ञाराधक या मोक्ष मार्गके आराधक हैं मिथ्यादृष्टि नहीं। (१) पहला बोल समाप्त । जो जीव अज्ञानी तथा मिथ्यादृष्टि हैं उनसे जो परलोक के लिये तपोदानादि रूप क्रिया की जाती हैं वह वीतराग की आज्ञा में नहीं हैं और वे पुरुष मोक्ष मार्गके किञ्चित् भी आराधक नहीं हैं यह बात शास्त्र के प्रमाण से बतलाई जाती है। भगवती सूत्र शतक १ उद्दशा ४ में कहा है कि जो पुरुष अज्ञानी तथा मिथ्यादृष्टि हैं उनकी परलोक सम्बन्धी क्रिया मोह कर्म के उदय से होती है। वह पाठ “जीवेणं भन्ते ! मोहणिज्जेणं कडेणं कम्मेणं उदिन्नेणं उवट्ठावेज्जा ? हंता गोयमा उवट्ठाएज्जा । से भन्ते ! किं वीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा अवीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा ? गोयमा ! वीरियत्ताए उवट्ठाएज्जा णोअवीरियत्ताए उवट्ठाएजा। जइ वीरियत्ताएउवटाएज्जा किं वाल वीरियत्ताए उवहाएजा पण्डियवीरियत्ताए उवहाएज्जा वालपंडियवीरियताए उवट्ठाएज्जा गोयमा ! वालवीरियत्ताए उवटाएज्जा णोपंडियवीरियत्ताए उवट्ठाएजा णो वालपंडियवीरियताए उवटाएज्जा" (भगवती शतक १ उद्देशा ४) - अर्थ हे भगवन् ! मिथ्यात्व-मोहनीय कर्मके उदयसे जीव परलोककी क्रिया स्वीकार करता है या नहीं ? (उत्तर) हे गोतम ! करता है। (प्रश्न) हे भगवन् वीर्य्यके द्वारा स्वीकार करता है या अवीर्य्यके द्वारा करता है ? (उत्तर) वीर्य्यके द्वारा स्वीकार करता है अवीर्य्यके द्वारा नहीं क्योंकि परलोककी क्रिया करनेमें वीर्य्यकी आवश्यकता होती है। (प्रश्न ) यदि वीर्य्यके द्वारा स्वीकार करता है तो क्या बाल वीर्य्यके द्वारा करता है या पण्डित वीर्य्यके द्वारा करता है अथवा बाल पण्डित वीर्य्यके द्वारा स्वीकार करता है ? (उत्तर) बाल वीर्य्यके द्वारा स्वीकार करता है पण्डितवीर्य्य अथवा बालपण्डितवीर्य्यके द्वारा नहीं। यह इस पाठका अर्थ है। यहां “बाल" शब्दका अर्थ टीकाकारने मिथ्यादृष्टि किया है। वह टीका यह है "बालवीय॑त्ताए” त्ति वालः सम्यगर्थानववोधात् सद्वोधकार्यविरत्यभावाच्च मिथ्यादृष्टिः तस्य वीर्यता परिणति विशेषः सा तथा तया" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । अर्थात् जिसको सम्यक् अर्थका बोध नहीं है और सद्बोधसे उत्पन्न होनेवाली विरति भी नहीं है वह जीव "बाल' कहलाता है अर्थात् मिथ्यादृष्टिको बाल कहते हैं। उसकी वीर्यता बाल वीर्यता कहलाती है। यह टीकाका अर्थ है।। यहां मूलपाठ और टीकामें मिथ्यात्वमोहनीय कर्मके उदयसे जो परलोककी क्रिया की जाती है उसे बालवीय॑के द्वारा होना कहा है और वालवीर्य ( मिथ्यात्वीका वीर्य ) वीतरागकी आज्ञासे बाहर है इसलिए उस वीर्यके द्वारा जो परलोककी क्रिया की जाती है वह भी आज्ञासे बाहर सिद्ध होती है। अतः अज्ञानी और मिथ्यादृष्टियोंकी परलोकके लिए की जानेवाली तपोदानादिरूपा क्रिया वीतरागकी आज्ञासे बाहर समझनी चाहिए। ठाणाङ्ग सूत्रके तीसरे ठाणेमें मिथ्यादृष्टियोंकी क्रिया अज्ञान क्रिया कही हैं और अज्ञान भगवान्की आज्ञासे बाहर है अतः मिथ्यादृष्टिकी क्रिया भी आज्ञा बाहर सिद्ध होती है वह पाठ “अण्णाणकिरिया तिविहा पण्णत्ता तंजहा-मतिअण्णाण किरिया सुय अण्णाण किरिया विभंगण्णाण किरिया" (ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ३ उद्देशा ३) (टीका) "मइ अण्णाण किरिए” त्ति । "अविसेसिया मइच्चिय सम्मदिट्ठिस्स सा मइण्णाणं मइअण्णाणं मिच्छदिठुिस्स सुयं वि एवमेव त्ति मत्यज्ञानात् क्रियाऽनुष्ठानं मत्यज्ञानक्रिया एवमितरेऽपि नवरं विभंगो मिथ्यादृष्टेरवधिः स एवाज्ञानं विभंगा ज्ञानमिति ।" __ अर्थात्-जो क्रिया, अज्ञानसे की जाती है उसे “अज्ञान क्रिया" कहते हैं। उसके तीन भेद हैं मत्यज्ञानक्रिया, श्रुताज्ञानक्रिया और विभंगाज्ञानक्रिया।। यह मूलपाठका अर्थ है। इसमें अज्ञानक्रियाके जो मत्यज्ञानादिक तीन भेद बतलाए हैं इनका अर्थ जो उपरोक्त टीकामें किया है उसका भाव यह है सम्यग्दृष्टि पुरुषकी मतिको “मतिज्ञान" कहते हैं। और मिथ्यादृष्टिकी मतिको "मतिअज्ञान" कहते हैं। इसी तरह श्रुतके विषयमें भी जानना चाहिये। जो क्रिया मत्यज्ञानसे की जाती है वह मत्यज्ञानक्रिया कहलाती है। इसी तरह श्रुताज्ञानक्रिया और विभङ्गाज्ञान क्रिया समझनी चाहिये । “विभङ्ग' नाम मिथ्यादृष्टि के अवधि ज्ञान का है वह ज्ञान भी अज्ञान है इसलिये इसे “विभङ्गाज्ञान" कहते हैं। यह टीका का अर्थ है । यहां टीकाकार ने मिथ्यादृष्टि अज्ञानी की मति, श्रुत, और अवधि को मत्यज्ञान, श्रुताज्ञान, और विभङ्गाज्ञान कहा है और इनसे की जाने वाली उसकी क्रियाओं को मत्यज्ञान क्रिया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। श्रुताज्ञान क्रिया और विभङ्गाज्ञान क्रिया कहा है। ये सभी क्रियायं उपरोक्त मूल पाठमें अज्ञान क्रिया के मेद कही हैं। अज्ञान, वीतराग की आज्ञा से बाहर है इसलिये अज्ञानसे की जाने वाली मिथ्यादृष्टियों की ये क्रिया भी आज्ञा से बाहर ही हैं। आवश्यक सूत्र में अज्ञान को त्यागने योग्य और ज्ञानको आदरने योग्य कहा है। वह पाठ-"अन्नाणं परियाणामि नाणं उवसंपवज्जामि मिच्छत्तं परियाणामि सम्मत्तं उवसंपवज्जामि" (आवश्यक सूत्र) __ अर्थ-साधु प्रतिज्ञा करता है कि मैं अज्ञान को छोड़ता हूं और ज्ञान को प्राप्त करता हूं। तथा मिथ्यात्व को छोड़ता हूं और सम्यक्त्व को प्राप्त करता हूं। यह इस पाठका अर्थ है। ___इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अज्ञान और मिथ्यात्व वीतराग की आज्ञा से बाहर है इसलिये अज्ञान तथा मिथ्यात्व से जो क्रिया कीजाती है वह भी आज्ञा से बाहर ही सिद्ध होती है। भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशा २ में जिसको जीव, अजीव, त्रस और स्थावरका ज्ञान नहीं है उसके प्रत्याख्यानको दुष्प्रत्याख्यान कहा है इसलिये अज्ञानी मिथ्यादृष्टि की क्रिया आज्ञा बाहर सिद्ध होती है क्योंकि मिथ्यादृष्टि को जीव, अजीव, बस और स्थावरका सम्यग्ज्ञान नहीं होता। उवाई सूत्रमें कहा है कि जो पुरुष, अकामनिर्जराकी क्रिया करके दश हजार. वर्षकी आयुके देवता होते हैं जो हाडी बन्धनादिक दुःख सह कर बारह हजार वर्षको आयुके देवता होते हैं जो माता पिता आदिकी सेवासे चौदह हजार वर्षकी आयुके देवता होते हैं जो स्त्री अकाम ब्रह्मचर्य पालन करके चौसठ हजार वर्षकी आयुकी देवता होती है जो अन्न जल आदिका नियम रखकर चौरासी हजार वर्षकी आयुके देवता होते हैं जो कन्द मूलादि खाकर एक पल्योपम और एक लाख वर्षकी आयु के देवता होते हैं जो परिव्राजकधर्मका पालन करके दश सागरकी आयुके देवता होते हैं तथा गोशालक मतानुयायी जो बाईस सागरकी आयुके देवता होते हैं ये सभी लोग मोक्षमार्ग के आराधक नहीं हैं। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अज्ञान तथा मिथ्यात्वसे की जाने वाली क्रिया वीतराग की आज्ञासे बाहर है और उन क्रियाओंका आचरण करनेवाले मिथ्या दृष्टि पुरुष मोक्ष मार्गके आराधक नहीं है किन्तु जो ज्ञानवान और सम्यग्दृष्टि हैं वे ही भगवान् की आज्ञाके आराधक हैं। साता। (दूसरा बोल समाप्त।) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । (प्रेरक) : आपने पहले बोलमें ठाणाङ्ग आदि सूत्रोंका प्रमाण देकर धर्मके दो भेद श्रुत और चारित्र बतलाये हैं और मिथ्यादृष्टिमें इन धर्मोके न होनेसे उसे मोक्ष मार्गका किञ्चित् भी आराधक न होना कहा है। परन्तु भ्रमविध्वंसनकार आपकीतरह धर्मका भेद नहीं करते जैसे कि भ्रमविध्वंसनके पहले पृष्ठ पर उन्होंने लिखा है "ते धर्मरा दो भेद सर्वर निर्जरा । ए बीहूं भेदांमे जिन आज्ञा छै । ए संवर निर्जरा बीहुई धर्म छै । ए संवर निर्जरा टाल अनेरो धर्म नहीं छै । कई एक पाखण्डी संवरने धर्मश्रद्ध पिण निर्जराने धर्म श्रद्धे नहीं। त्यारे संवर निर्जरारी ओलखगा नहीं" इसका क्या समाधान-- (प्ररूपक) .. शास्त्रमें कहीं भी धर्म के दो भेद संवर और निजरा नही कहे हैं। किन्तु ठाणाङ्ग सुत्रके दूसरे ठागेमें श्रुत और चारित्र ये दो धर्मके भेद बताये हैं। वह पाठ पहले बोल में लिखा जा चुकाहै। इसलिए संवर और निर्जराको धर्मका भेद बतलाना अप्रामाणिक है। * शास्त्रकारको यदि यह इष्ट होता तो ठागाङ्ग सुत्रमें जहां यह पाठ आया है कि "दुवि हे धम्मे पनत्ते तंजहा-सुय धम्मे चेव चारित्त धम्मेचेव ।" वहां ऐसा पाठ आता कि "दुविहे धम्मे पन्नत्ते तंजहा संवर धम्मेचेत्र निजरा धम्मे वेव" मगर ऐसा पाठ नहीं आया । इसलिए संवर और निर्जराको धर्मका भेद कायम करना मिथ्या है। भ्रमविध्वंसनकारने मिथ्यादृष्टि की अप्रशस्त निर्जराको वीतरागकी आज्ञाके धर्ममें कायम करनेके लिये अपने मनसे धर्मके दो भेद संवर और निर्जग लिख दिये हैं। परन्तु यह बात शास्त्र सम्मत नहीं है। संवर रहित निर्जरा कहीं भी वीतरागकी आज्ञामें नहीं कही है और इसका आराधक भी कहीं मोक्ष मार्गका आराधक नहीं कहा है । तथापि यदि संवर रहित निर्जराको धर्ममें मान कर मिथ्या दृष्टिको मोक्ष मार्गका आराधक माना जाय तो कोई भी जीव मोक्ष मार्गका अनाराधक न होगा। क्योंकि संवर रहित अप्रशस्त निर्जरा सभी प्राणियोंमें होती है। ऐसी निर्जरासे २४ ही दण्डकके जीव युक्त हैं, अतः नोट-संवर और सकाम निर्जरा श्रुत तथा चारित्रके अन्तर्गत हैं अतः ये धर्म हैं पर अकाम निर्जरा धर्म नहीं है। लेकिन धर्मके दो भेद "संवर और निर्जरा" कहनेसे अकाम निर्जरा भी धर्म में ठहरती है और अकामनिर्जरा मिथ्यादृष्टि में भी होती है इसलिए वह भी मोक्षमाग का आराधक कायम होता है परन्तु यह बात शास्त्र सम्मत नहीं है। इसलिए शास्त्रानुसार धर्मके दो भेद श्रुत और चारित्र ही कहने चाहिये। इस प्रकार संवर और सकाम निर्जरा धर्म में कायम होंगे और अकाम निर्जरा न होगी, क्योंकि वह श्रुत तथा चारित्रसे बाहर है और अकाम निर्जरा के धर्मसे पृथक् होनेपर मिथ्यादृष्टि मोक्षमार्गका आराधक न होगा इस प्रकार शास्त्रसे कोई विरोध न आवेगा यही यहांका तात्पर्य है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः । सभी जीव भ्रमविध्वंसनकारके मत में मोक्ष मार्गके आराधक ही ठहरेंगे । पर यह बात शास्त्र विरुद्ध है | भगवती सूत्र शतक ८ उद्देशा १० के मूल पाठमें स्पष्ट लिखा है कि जो मोक्ष मार्ग एक अंशका भी आराधक नहीं है वह सर्वविराधक कहलाता है । यदि संवर रहित अप्रशस्त निर्जरा, धर्ममें हो तो कोई भी जीव सवं विराधक नहीं हो सकता । अतः अप्रशस्त निजराको धर्ममें कायम करने के लिए धर्मका दो भेद संवर और निर्जरा बतलाना दुराग्रहका परिणाम समझना चाहिए । बोल तीसरा । ( प्रेरक ) संवर और निर्जरा, ये दो धर्मके भेद हैं ऐसा अर्थ बतलानेवाला यद्यपि कोई मूल पाठ शास्त्रमें नहीं आया है तथापि भ्रमविध्वंसनकारने दशवैकालिक सूत्रके पहले अध्ययनकी पहली गाथा लिख कर संवर रहित अप्रशस्त निर्जगको वीतरागकी आज्ञामें सिद्ध करनेके लिए उक्त गाथाकी समालोचनामें यह लिखा है कि “इहां धर्मने माङ्गलिक उत्कृष्ट कह्यो । ते अहिंसाने संयमने अने तपने धर्म को छै । संयमते संवर धर्म अने तपते निर्जरा धर्म छै | अने त्याग बिना जीवरी दया पाले ते अहिंसा धर्म छे। अने जीव हवारा त्याग ते संयम पिण कहीजे अने अहिंसा पिण कहीजे अहिंसा तिहां तो संयमनी भजना छै अने संयम तिहां अहिंसानी नियमाछै । ए अहिंसा धम अने तप धर्म तो पहिला चार गुणठाणा पिण पावे छै" इसका क्या समाधान । (प्ररूपक) ( ० पृ० २ ) दशवैकालिक सूत्र प्रथम अध्ययनकी पहली गाथामें श्रुत और चारित्र धर्म ही अहिंसा,, संयम, तथा तप कह कर बतलाये हैं परन्तु सम्यक्त्व रहित द्रव्य अहिंसा और संबर रहित तप नहीं कहे हैं क्योंकि जो अहिंसा, सम्यक्त्वके बिना होती है और जो तप संवर रहित होता है उनमें कोई महत्त्व नहीं है । ऐसी द्रव्यरूपा अहिंसा और संवर रहित द्रव्य तप जीवने अनन्त बार किये हैं पर उनसे स्वल्प भी मोक्ष मार्गकी आराधना न हुई । अतः उनका कथन न होकर इस गाथामें श्रुत और चारित्र धर्मके अन्तर्गत जो सम्यक्त्वके साथ होनेवाली अहिंसा तथा संवरके साथ होनेवाला तप है उन्हींका कथन है । इसलिए गाथोक्त अहिंसा और तप धर्मको मिथ्यादृष्टिमें कायम करना अज्ञान मूलक है । अतएव गाथामें कहे हुए धर्म पदकी व्याख्या करते हुए नियुक्तिकारने लिखा: है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सममण्डनम् । "दुविहो धम्मो लोगुत्तरियो सुयधम्मो खलु चरित्तधम्मो य सुयधम्मो सज्झाओ चरित्तधम्मो समणधम्मो " १२ अर्थात् दशवैकालिक सूत्र की पहली गाथामें कहा हुआ धर्म लोकोत्तर धर्म है वह दो तरह का होता है एक श्रुत और दूसरा चारित्र | स्वाध्याय ( शास्त्र पाठ ) को श्रुत और श्रमण यानी सम्यग्दृष्टि साधुके धर्मको चारित्र कहते हैं । यह नियुक्ति पाठका अर्थ है । इस नियुक्ति की गाथासे स्पष्ट सिद्ध होता है कि दशवैकालिक सूत्रकी पहली गाथा में लोकोत्तर धर्म श्रुत और चारित्रकोही अहिंसा संयम और तप कह कर बतलाया है पर इससे भिन्न किसी लौकिक अहिंसा या तपको नहीं । अतः गाथामें कही हुई अहिंसा और तपको श्रुत तथा चारित्रसे अलग कायम करके मिथ्यादृष्टियोंमें इन धर्मो का सद्भाव बतलाना भ्रमविध्वंसकारका अज्ञान तथा इस नियुक्तिकी गाथासे भी विरुद्ध समझना चाहिये । उक्त गाथामें कहे हुए हिंसा और तप धर्मका मिध्यादृष्टिमें सद्भाव बतलाना, उक्त नियुक्ति तथा शास्त्रीय सिद्धान्तसे तो विरुद्ध होता ही है परन्तु इससे भ्रमविध्वंसनकारके मुख्य मुख्य सिद्धान्त भी विरुद्ध होते हैं। इनका सिद्धान्त है कि “साधुसे इतरको बन्दन नमस्कार करना एकान्त पाप है” “साधुसे इतर सभी कुपात्र हैं " इत्यादि । यदि सम्यक्त्व रहित अहिंसा और संवर रहित तप वीतरागकी आज्ञामें हैं, और ये मिथ्या ष्ट होते हैं तो मिथ्या दृष्टिको वन्दन नमस्कार दान सम्मान आदि करना भी तेरह पन्थियों को वीतराग की आज्ञामें ही मानना चाहिए और मिथ्यादृष्टि को भी सुपात्र कहना चाहिए क्योंकि यह गाथा "अहिंसा संयम और तपमें जिसका सदा मन लगा रहता है उसको देवता भी नमस्कार करते हैं " यह कह कर अहिंसा संयम और तप धर्मसे युक्त पुरुष वन्दन नमस्कारको वीतरागकी आज्ञामें कायम करती है इसलिए भ्रमविध्वंसनकारके मत से मिथ्यादृष्टिको वन्दन नमस्कार आदि करना वीतरागकी आज्ञा में ही ठहरता है। जिसका वन्दन नमस्कार वीतरागकी आज्ञामें है उसकी पूजा प्रतिष्ठा दान सम्मान आदि भी आज्ञामें ही होंगे अतः भ्रमविध्वंसनकारके हिसाब से मिथ्यादृष्टिकी पूजा प्रतिष्ठा और दान सम्मानादि भी वीतरागकी आज्ञामें ही ठहरते हैं। तथा मिथ्या दृष्टि भी सुपात्र ठहरता है क्योंकि जिसकी पूजा प्रतिष्ठा दान सम्मान आदि वीतरागकी आज्ञा में है वह कदापि कुपात्र नहीं हो सकता। ऐसी दशामें साधुसे इतरको वन्दन नमस्कार करनेमें एकान्त पाप कहना तथा साधुसे इतर सभी को कुपात्र बतलाना इनका मिथ्या सिद्ध होता है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। इसका समाधान यदि भ्रमविध्वंसनकार यह देवें कि जिस पुरुषका संयमके साथ अहिंसा और तपमें सदा मन लगा रहता है उसीको यह गाथा देववन्दनीय बतलाती है इसलिये संयमी पुरुषकी ही वन्दना वीतरागकी आज्ञामें हैं तो फिर संयमी पुरुषकी ही अहिंसा और तपको इस गाथामें कहा जाना भी मानना चाहिए और संयमके साथ जो अहिंसा और तप होते हैं उन्हींको वीतरागकी आज्ञामें भी कहना चाहिए। अतः दशवैकालिक सूत्रके पहले अध्ययनकी पहली गाथाका नाम लेकर मिथ्यादृष्टिकी क्रियाको आज्ञामें कायम करना और धर्मका दो भेद संवर तथा निर्जरा बतलाना मिथ्या समझना चाहिए। पाठकोंके ज्ञानार्थ देशवैकालिक सूत्र की वह गाथा लिख कर उसका मूलायें कर दिया जाता है। "धम्मो मंगल मुफिट अहिंसा संजमो तवो देवावि तं नमसंति जस्स धम्मे सया मणो।" (दशवकालिक सूत्र अ० १ गाथा १) अर्थ-धर्म, मंगल अर्थात् कल्याणका दाता और उत्कृष्ट यानी सब बस्तुओंमें प्रधान है। वह धम अहिंसा, संयम, तथा तप स्वरूप है। धर्ममें जिसका सदा मन लगा रहता है देवता भी उसे नमस्कार करते हैं। यह उक्त गाथाका अर्थ है। इस गाथामें मंगल देने वाला सबसे श्रेष्ठ देववन्दनीय धर्मका कथन है। ऐसा धर्म, श्रुत और चारित्र ही हो सकता है लौकिक धर्म नहीं। क्योंकि लौकिक धर्म न तो देववंदनीय है और न मोक्ष रूप मंगल देनेवाला सबसे प्रधान ही है इसलिये उसका कथन न होकर इस गाथामें मोक्ष रूप मंगलको देनेवाला सबसे प्रधान और देववन्दनीय श्रुत और चारित्र धर्मका ही कथन है। वह श्रुत और चारित्र ही इस गाथामें अहिंसा संयम तथा तप कह कर बतलाये हैं। इसलिये गाथोक्त अहिंसा संयम और तप मिथ्यादृष्टि अज्ञानीमें नहीं होते क्योंकि वह श्रुत तथा चारित्र धर्मसे रहित होता है। अतः इस गाथा का नाम लेकर मिथ्यादृष्टि अज्ञानीमें अहिंसा और तप धर्मका सद्भाव बतलाना और उसे मोक्ष मार्गका देशाराधक कहना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये । बोल चौथा (प्रेरक) आपने मिथ्यादृष्टि अज्ञानीको मोक्षमार्गका किंचित् भी आराधक न होना बतलाया पर भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४ पर लिखते हैं कि "तिवारे कोई कहे ते मिथ्यादृष्टि बालतपस्वीरे संवर व्रत तो किञ्चिन्मात्र नहीं तो प्रत विना देशाराधक किम हुवे इमि पूछ तेहनो उत्तर-बतीनेतो सर्वआराधक कहीजे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सद्धर्ममण्डनम् । अने ए बालतपस्वीने व्रत नहीं पिण निर्जरारेलेखे देशाराधक कह्या छै ।" इस विषय में भ्रम विध्वंसनकारने भगवती सूत्र शतक ८ उद्देशा १० का मूलपाठ प्रमाण दिया है और उक्त मूल पाठकी चतुर्भङ्गी के प्रथम भङ्गमें मिथ्यादृष्टिको कहा जाना बतलाया है । इसका समाधान क्या है ? (प्ररूपक) भगवती सूत्र शतक ८ उद्देशा १० में कही हुई चतुर्भङ्गीके पहले भङ्गका स्वामी प्रथम गुणस्थान वाला मिथ्यादृष्टि पुरुष नहीं है क्योंकि मिथ्यादृष्टिमें सम्यग् ज्ञान दर्शन तथा चारित्र इनमेंसे एक भी नहीं होता तथापि संवररहित निर्जराकी करनीको मोक्ष मार्ग में मान कर उस करनीकी अपेक्षासे मिथ्यादृष्टिको भ्रमविध्वंसनकार मोक्ष मार्ग का देशाधक कहते हैं लेकिन यह बात शास्त्र संमत नहीं है । भगवती सूत्रके इस पाठ तथा इसकी टीकामें संवर रहित निर्जराकी करनीको मोक्षमार्गकी देशाराधना में नहीं कहा है और उस करनी को लेकर यह आराधक विराधककी चतुर्भङ्गी भी नहीं कही है किन्तु श्रुत और शीलको लेकर कही है। श्रुत नाम ज्ञान और दर्शनका तथा 'शील' नाम चारित्रका है। इसलिये जिसमें श्रुत और शील इनमेंसे एक भी नहीं है वह पुरुष मोक्ष मार्गका देशाधक कैसे हो सकता है ? अतः मिथ्यादृष्टि अज्ञानी मोक्षमार्गका देशाराधक नहीं है क्योंकि उसमें श्रुत तथा शील ( चारित्र ) इनमें से एक भी नहीं होता । संवर रहित निर्जराको मोक्षमार्ग में मानकर उसके होने से यदि मिथ्यादृष्टि का इस चतुर्भङ्गीके प्रथम भङ्गमें माना जाय और मिथ्यादृष्टिको भी देशाराधक कहा जाय तो यह आराधक विराधक की चतुर्भङ्गी नहीं बन सकती क्योंकि जो पुरुष मोक्ष मार्गकी किंचित् भी आराधना नहीं करता वह चतुर्थभङ्गका स्वामी सर्वविराधक कहा गया है परन्तु संवररहित निर्जरा उसमें भी होती है अतः निर्जराके होनेसे मोक्षमार्गका देशाराधक मानने पर यह पुरुष भी देसाराधक ही ठहरता है सर्व विराधक नहीं । क्योंकि संवर रहित निर्जरा एकेन्द्रियादिक चौवीस ही दण्डकके जीवोंमें होती है इसलिये ( संवर रहित निर्जराको मोक्षमार्ग आराधनमें मानने पर ) सभी मिध्यादृष्टि आराधक ही ठहरते हैं पर कोई भी सर्वविराधक नहीं होता। इस प्रकार इस चतुर्भङ्गीका चौथा भङ्ग खाली रह जाता है पर यह इष्ट नहीं है इसका भी स्वामी होता है। अतः संवर रहित निज् गको मोक्षमार्ग आराधनमें मानना शास्त्रविरुद्ध समझना चाहिये । जब कि संवर रहित निर्जरा मोक्षमार्गमें नहीं मानी जाती और उस निजराके होते हुए भी आराधक नहीं माना जाता तब उक्त चतुर्भङ्गीका चौथा भङ्ग खाली नहीं रहता क्योंकि जो पुरुष श्रुत, तथा शील ( चारित्र) इन दोनोंसे नथा रहित है वह भगवती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्वक्रियाधिकारः । सूत्रोक्त चतुर्भङ्गीके चतुर्थ भङ्गका स्वामी होता है इस प्रकार सभी मिथ्यादृष्टि चतुर्थभङ्ग ही स्वामी हैं क्योंकि उनमें श्रुत ओर शील ( चारित्र ) इनमें से एक भी नहीं होता । अतः मिथ्यादृष्टि अज्ञानीको मोक्षमार्गका देशाराधक कहना और इसके लिये भगवतीकी साक्षी: देना अज्ञानमूलक समझना चाहिये । संबर रहित निर्जराकी करनीको मोक्ष मार्गके आराधन में कायम करके मिथ्या दृष्टिको देशाराधक माननेसे भ्रमविध्वंसनकारकी प्ररूपणा भी यहां पूर्वापर विरुद्ध हो गई है । जैसे कि भगवतीके इस पाठका अर्थ करते हुए जीतमलजीने लिखा है कि “म्हें ते पुरुष देश आराधक प्ररूप्यो एष बाल तपस्वी" "म्हैं ते पुरुष सर्वविराधक को अती बाल तपस्वी" ( भ्रम० पृ० ३ ) यह लिख कर भ्रमविध्वंसनकारने पहला और चौथा इन दोनों ही भंगोंमें बालतपस्वीका होना बतलाया हैं परन्तु यह परस्पर विरुद्ध है । जा बाल तपस्वी देशले मोक्ष मार्गका आराधक होकर प्रथम भङ्गका स्वामी है वह चतुर्थ भङ्गका स्वामी नहीं हो सकता है क्योंकि चतुर्थ भङ्गवाला मोक्ष मार्गका किंचित् भी आराधक नहीं है । यदि कहो कि चतुर्थ भङ्गवाला व्यब्रती बाल तपस्वी है और प्रथम भङ्गवाला पुरुष बाल तपस्वी है इसलिये जीतमलजी ने पूर्वापर विरुद्ध प्ररूपणा नहीं की है तो यहां यह प्रश्न होता है कि प्रथम भङ्गवाला बालतपस्वी अब्रती है या नहीं ? यदि अम्रती है तो फिर चतुर्थभङ्ग वाले अब्रती बालतपस्वीसे इसका कुछ भी भेद नहीं है क्योंकि यह . भी अती बालतपस्वी है और चतुर्थभङ्ग वाला भी अती बाल तपस्वी है इस प्रकार जीतमलजीके लेखानुसार प्रथम भङ्ग और चतुर्थ भङ्गके स्वामियोंमें कुछ भी भेद नहीं रहता । ये दोनों ही भङ्गके स्वामी एक ही हो जाते हैं परन्तु यह बात एकान्त विरुद्ध है. प्रथम भङ्गका स्वामी देशाराधक है और चौथा भङ्गका स्वामी सर्व विराधक है अतः ये दोनों एक नहीं हैं । यदि कहो कि प्रथम भङ्ग वाला बालतपस्वी अग्रती नहीं किन्तु व्रती है इसलिये यह चतुर्थ भङ्ग वाले बालतपस्वीसे भिन्न है तो फिर यह मिथ्यादृष्टि कैसे ? मिथ्यादृष्टिमें व्रत नहीं होता और यह व्रती है इसलिये सम्यग्दृष्टि ही ठहरता है मिथ्यादृष्टि नहीं अतः मिथ्यादृष्टिको देशाराधक बतलाना जीतमलजीका अज्ञान है । यदि कोई कहे कि भगवतीके मूल पाठमें देशाराधक शीलवान् पुरुषको “अविण्णा यधम्मे" कह कर धर्मका ज्ञाता न होना कहा है इसलिये यह सम्यग्दृष्टि नहीं है तो यह भी मिथ्या है क्योंकि "अविण्णाय धम्मे" इस पदका अर्थ अज्ञानी या धर्मको बिलकुल नहीं जाने वाला नहीं है । व्याकरणानुसार इसका अर्थ यह है कि - " न विशेषेण ज्ञात: धर्मोयेन स” अविज्ञात धर्मा” अर्थात् जिसने विशेष रूपसे धर्मको नहीं जाना है वह अविज्ञात धर्मा पुरुष कहलाता है । तात्पर्य यह है कि पहला देशाराधक पुरुष वह है जो चात्रिकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ सद्धर्ममण्डनम् । आराधना करता है पर विशेषरूपसे ज्ञानवान् नहीं है। जैसे कोई धनवान् यदि धनकी प्राप्ति के लिये विशेष प्रयत्न नहीं करता तो उसे दरिद्र नहीं कह सकते, वैसे ही यदि कोई पुरुष ज्ञान प्राप्ति के लिये विशेष प्रयत्न ( आराधना ) नहीं करता तो उसे अज्ञानी नहीं कह सकते | अतः उक्त भगवतीकी चौभङ्गीके पहले भङ्गका स्पष्ट अर्थ इस प्रकार है— (१) देशाराधक - जो चारित्रकी आराधना करता है पर विशेषरूपसे ज्ञानवान् नहीं है। ऐसा मानना ही शास्त्र के अनुकूल है इससे विरुद्ध अर्थ करनेसे "अविण्णायधम्मे” इस पाठमें दिया हुआ “वि” उपसर्ग निरर्थक ठहरता है और उत्तराध्ययन सूत्रकी गाथा से भी विरोध होता है । जैसे कि उत्तराध्ययन सूत्रमें यह गाथा कही है- "नादंसणिस्स नाणं नाणेण विना न होंति चरणगुणा" अर्थात् मिथ्यादृष्टिको ज्ञान नहीं होता और विना ज्ञानके चारित्र तथा गुण ( पिण्ड विशुद्धि आदि) नहीं होते । यह उक्त गाथाका अर्थ है । इसमें ज्ञानके विना चारित्रका न होना स्पष्ट कहा है इस लिये भगवती सूत्रोक्त प्रथम भङ्गके स्वामी चारित्री पुरुषको अज्ञानी मानना इस गाथासे भी विरुद्ध होता है अतः भग सूत्रोक्त प्रथम भङ्गके स्वामीको अज्ञानी मिथ्यादृष्टि कायम करना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये । सम्यग्ज्ञान दर्शन और चारित्रकी आराधनासे भिन्न कोई मोक्ष मार्गकी आराधना नहीं कही है और उक्त आराधना जिसमें नहीं है उसको आराधक भी नहीं कहा है ऐसी दशामें संवर रहित निर्जराकी करनीसे कोई मोक्ष मार्गका आराधन करने वाला कैसे हो सकता है ? यह पाठकोंको स्वयं सोच लेना चाहिये। अतएव इस चतुर्भुङ्गी में आराधक विराधकोंका चारभङ्ग बतला कर आराधनाका भेद बतलाते हुए आगे मूलपाठ तीन हीं आराधना कही हैं पर चौथी निर्जरा आदिकी आराधना नहीं बतलाई है। वह पाठ “कतिविहाणं भन्ते ! आराहणा पण्णत्ता गोयमा ! तिविहा आराहणा पण्णत्ता तंजहा - णाणाराहणा दंसणाराहणा चारित्ताराहणा" ( भगवती शतक ८ उ०१० ) अर्थ - हे भगवन् ! आराधना कितनी होती हैं ? (उत्तर) हे गोतम ! आराधना तीन प्रकारकी होती है ज्ञानकी आराधना दर्शनकी आराair और चारित्रकी आराधना । यहां मूल पाठ ज्ञान दर्शन और चारित्र इन तीनकी ही आराधना कही हैं पर निर्जराकी करनी आदिकी आराधना वीतरागकी आज्ञामें नहीं कही है। अतः संवर रहित Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः । १७ निर्जराकी करनी करके कोई मोक्षमार्गकी आराधना करने वाला कदापि नहीं हो सकता । ऐसी दशा में संवर रहित निर्जराकी करनीको वीतरागकी आज्ञामें ठहरा कर उस करनीसे मिथ्यादृष्टि अज्ञानीको मोक्षमार्गका देशाराधक कहना उत्सूत्र भाषण करनेवालोंका काय्य समझना चाहिये । बोल पाचवां । ( प्रेरक ) संबर रहित निर्जरा की करनी मोक्ष मार्ग के आराधन में नहीं है इसलिए उस करनी से कोई मोक्ष मार्ग का आराधक नहीं हो सकता यह मुझे ज्ञात हुआ । परन्तु किसी मूलपाठ में संवर रहित निर्जरा की करनीकरनेवाले को मोक्ष मार्गका आराधक न होना स्पष्ट लिखा हो तो उसे भी बतलाइये । ( प्ररूपक ) वाई सूत्र के मूलपाठों में संवर रहित निर्जरा की करनी करने वाले जीवों को अलग अलग गिन कर उन्हें मोक्ष मार्ग का आराधक न होना स्पष्ट लिखा है। वे पाठ यहां दिये जाते हैं । "जीवेणं भन्ते ! असंजए अबिरए अपडियपचक्खाय पाव कम्मे इओचुए पेच्चा देवेसिया ? गोयमा ! अत्थे गइया देवेसिया अत्थे गइया णो देवेसिया । सेकेणट्ठणं भन्ते ! ऐवं वुबह अत्येगइया देवेसिया अत्थेगइया णो देवे सिया ? । गोपमा ! जेइमे जीवा गामागर णयर निगम रायहाणि खेड कव्वड मडंव दोणमुह पहणासम संवाह सण्णिवेसेसु अकामतण्हाए अकामनुहाए अकामवंभer वासेणं अकामअण्हाण सीय ताव दंस मसग सेय जल्ल मल पङ्क परितावेणं अप्पतरो वा भुज्जतरोबा कालं अप्पाणं परिकिले सन्ति, अप्पतरोवा भुज्जतरोवा कालं अप्पाणं परिकिलेसित्ता काल मासे कालं किचा अण्णयरेसु वाणमंतरेसु देवलोएस देवत्ताए उबव तारो भवति । तहिं तेसिं गतो तहिं तेसिं ठोति तर्हि तेसिं उबनाए पण्णत्ते । तेसिंणं भन्ते ! देवाणं केवइयं कालं ठीई पण्णत्ता गोयमा 1 दसवाससहस्साइं ठिई पण्णत्ता । अत्थिणं भन्ते ! तेसिं देवाणं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ सद्धर्ममण्डनम् । इड्ढीवा जुईवा जसेतिवा वलेतिवा वीरिएवा पुरिसकार परिकमेइवा ? हन्ता ! अस्थि । तेणं भन्ते ! देवा परलोगरस आराहगा ? णोइणठे समठे" (उवाई सूत्र) अर्थ (प्रश्न ) हे भगवान् ! जो, संयम और विरतिसे रहित है तथा जिसने भूत काल के पापों का हनन और भविष्यत् के पापों का प्रत्याख्यान नहीं किया है वह इस लोक से मर कर क्या देवता हो सकता है ? ( उत्तर ) कोई कोई देवता होता भी है और कोई नहीं भी होता है। ( प्रश्न ) इसका वजह क्या है ? (उत्तर ) ग्राम, नगर, निगम, राजधानी, खेड़, कब्बड़, मडंव, द्रोणमुख, पट्टणासम, संवाह और सन्निवेशों में रहनेवाले जो जीव निर्जरा की इच्छा के बिना अकाम तृष्णा, अकाम क्षुधा, अकाम ब्रह्मचर्य पालन, अकाम स्नानका न करना तथा अकाम से शर्दी, गर्मी, दंश, मसक, स्वेद, धूलि, पङ्क, और मलका सहन करते हैं वे थोड़े या बहुत दिनों तक क्लेश सहन करके मरण काल आने पर मृत्यु को प्राप्त होकर वाण व्यन्तर संज्ञक देवलोक में उत्पन्न होते हैं। वहीं उनकी गति स्थिति और देवभव की प्राप्ति होती है। ...... ( प्रश्न ) वे जीव देवता होकर देवलोक में कितने काल तक रहते हैं ? ( उत्तर ) दश हजार वर्ष तक वे देवलोक में रहते हैं। ( प्रश्न ) उन देवताओं की वहां पारिवारिक सम्पत्ति, शरीर तथा भूषणोंकी दीप्ति, यश, बल, वीर्य्य पुरुषाभिमान और पराक्रम होते हैं ? - ( उत्तर ) होते हैं। ( प्रश्न ) वे देवता परलोक यानी मोक्षमार्गके आराधक हैं ? ( उत्तर ) नहीं। वे परलोक (मोक्षमार्ग ) के आराधक नहीं हैं। यह उवाई सूत्र के ऊपर लिखे हुए मूलपाठ का अर्थ है। - इस मूलपाठ में अकाम क्षुधा तृष्णा अकाम ब्रह्मचर्यपालन अकाम शर्दी, गर्मी, दंश मशक आदिका कष्ट सहन करके दश हजार वर्षकी आयुसे देवता होनेवाले जीव को श्री तीर्थकर देवने मोक्ष मार्ग का आराधक न होना बतलाया है । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि संवर रहित निर्जरा की करनी मोक्ष मार्ग के आराधन में नहीं है। अन्यथा इस मूलपाठ में कहे हुए पुरुष को भगवान् मोक्ष मार्ग का आराधक न होना कैसे बतलाते ? अतः संवर रहित निर्जरा की करनी को मोक्ष का मार्ग कह कर उस करनी के करने से मिथ्यादृष्टि अज्ञानीको मोक्ष मार्ग का देशाराधक बतलाना प्रत्यक्ष इस पाठसे विरुद्ध समझना चाहिये। ... (६ छहा बोल समाप्त) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्वात्विक्रियाधिकारः। १९ (प्ररूपक) जो जीव असंक्लिष्ट परिणाम से हाडी । खोडा ) वन्धनादि दुःख सह कर बारह हजार वर्षकी आयु से देवता होते हैं उन्हें इसी जगह उवाई सूत्र में मोक्षमागे का आराधक न होना कहा है। वह पाठ “से जे इमे गामागरणयर णिगम रायहाणि खेड़ कव्वड मडंव दोणमुह पट्टणासम संवाह सन्निवेसेसु मणुआ भवन्ति तंजहाअंडुवद्धका णियलवद्धका हाडिवद्धगा हत्थछिन्नका पायछिन्नका कण्णछिन्नका णकछिन्नका टुछिन्नका जिब्भछिन्नका सीसछिन्नका मुखछिन्नका मज्झछिन्नका वेकछछिन्नका हियउत्पाडियगा णयगुत्पाडियगा दसणुप्पाडियगा वसणुप्पाडियगा गेवछिण्णका तंडुलछिन्नका कागणि मंसक्खाइयया ओलंविया लम्वियया धंसियया घोलियया फाडियया पीलियया सुलाइयया सूलभिण्णका खारवत्तिया वझवत्तिया सीहपुच्छियया दवग्गिढिगा पंकोसण्णका पंकेखुत्तका वलयमयका वसमयका नियाणमयका अन्तोसल्लमयका गिरिपडियका तरुपडियका गिरिपंखंदोलिया तरुपक्खंदोलिया मरुपक्खंदोलिया जलपवेसिका जलण पवेसिका विसभक्खितका सत्थोवाडितका वेहाणसिया गिद्धपिटका कतारमतका दुभिक्खमतका असंकिलिट्ठपरिणामा ते कालमासे काल किच्चा अण्णतरेसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति । तहिं तेसिं गती तहिं तेसिं ठिती तहिं तेसिं उववाए पण्णत्ते। तेसिंणं भन्ते! देवाणं केवइयं काल ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! वारसवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता। अत्थिणं भन्ते ! तेसिं देवाणं इड ढीवा जुइवा जसेतिवा वलेतिवा वीरिएवा पुरिसकार परक्कमेइवा ? हन्ता ! अस्थि । तेणं भन्ते ! देवा परलोगस्स आराहगा ? णोइणढे सम?" ( उवाई सूत्र ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । अर्थ ग्राम, नगर, निगम, राजधानी, खेड़, कव्वड़, मडव, द्रोणमुख, पट्टणासम, संवाह और संनिवेशों में रहने वाले मनुष्य जो हाथ और पैर में काष्ठ या लोहे के बन्धन से बांधे गये हैं, जो पैर में बेड़ियों द्वारा बांधे गये हैं, जो हाडीवन्धन में पड़े हैं, जो बन्दीगृह में पड़े हैं, तधा जिनके हाथ, पांव, कान, नाक, ओठ, जीभ, मस्तक, मुख और पेट काट लिगे गये हैं, जो चादर की तरह चीर दिये गये हैं, जिनके हृदय, नेत्र, दांत और अण्डकोश उपाड लिये गये हैं, एवं चावलकी तरह जिसका शरीर खण्ड खण्ड कर दिया गया है जिसके शरीर के चीकने चीकने मांस खा लिये गये हैं जो रस्सी से बांध कर गड्ढे आदि में लटका दिये हैं, जिनकी भुजा वृक्ष की शाखा में बांध दी गई है, जो पत्थर आदि पर चन्दन के समान घिसे गये हैं, जो दही की तरह घोल दिये गये हैं, जो कुठार से लकड़ी के समान काट दिये गये हैं, जो यन्त्र के द्वारा ईख की तरह पेरे गये हैं, जो शूली दे दिये गये हैं, जिनका मस्तक फाड़ कर शूल निकल गया है, जो क्षार में डाल दिये गये हैं, या जिस पर क्षार रक्खा गया है, या, जो, क्षार खिलाये गये हैं, जो रस्सीसे बांधे गये हैं, जिनका लिङ्ग काट लिया गया है, जो दावाग्निमें जल गये हैं, जो कीचड़ में फसकर उससे पार जाने में असमर्थ हैं, जो क्षुधा आदि की पीड़ा से मर गये हैं, जो विषय में परतन्त्र होकर मर गये हैं, जो बालतपस्या करके मृत्यु को प्राप्त हुए हैं, जो मिथ्यात्व आदि शल्य को, तथा पेटमें चुभे हुए भाले आदि को म निकाल कर मर गये हैं, जो पर्वत से गिर कर मर गये हैं, जो वृहत् पाषाण के शरीर पर गिरने से मर गये हैं, जो वृक्ष से गिर कर मर गये हैं, जो निर्जल देश में या निर्जल देशके स्थल विशेष से गिराये हुए मर गये हैं, जो तृण कपास आदि के भार से दब कर मर गये हैं, जो मरने के लिये पर्वत या वृक्ष के एक देशमें कम्पायमान होकर वहां से गिर कर मर गये हैं, जो शस्त्र के बारा अपने शरीर को चीर कर मर गये हैं, जो वृक्ष की शाखा में लटक कर मर गये हैं, जो मरने के लिये हाथी, उंट, गदहे आदि के शरीर के नीचे गिर जाते हैं और गीध आदि पक्षियों से नोच कर खा लिये जाते हैं, जो घोर जङ्गल में दुर्भिक्षसे मर जाते हैं, ये सब मनुष्य यदि असंक्लिष्ठ परिणामी होते हैं तो काल मास में काल करके वाणव्यन्तर संज्ञक देवलोक में देवता होते हैं। वहीं पर उनकी गति स्थिति और देवभव की प्राप्ति होती है। (प्रश्न ) देवलोक में उनकी स्थिति कितने काल की होती है ? (उत्तर) वहां उनकी बारह हजार वर्ष की स्थिति होती है। ( प्रश्न ) उन देवों की वहां पर पारिवारिक सम्पत्ति, शरीर और भूषणों की दीप्ति, यश बल, वीर्य्य, पुरुषाभिमान, पराक्रम, ये सब होते हैं ? ( उत्तर ) हां होते हैं। (प्रश्न ) वे परोक ( मोक्ष मार्ग ) के आराधक हैं ? ( उत्तर ) नहीं, वे परलोक के आराधक नहीं हैं। यह ऊपर लिखे हुए मूलपाठ का अर्थ है । www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। इसमें कहा है कि जो मनुष्य असंक्लिष्ट परिणाम से हाडीवन्धनादिक दुःख सह कर बारह हजार वर्ष की आयु के देवता होते हैं वे मोक्ष मागके आराधक नहीं हैं। यदि संवर रहित निर्जरा की करनी मोक्ष मार्गमें होती और उस करनी के करने से मोक्षमार्ग की आराधना होती, तो श्रीतीर्थ करदेव, असंक्लिष्ट परिणाम से हाडीवन्धन आदिका दुःख सहने वाले पुरुषोंको मोक्षमार्ग का आराधक न होना क्यों कहते ? क्योंकि ये पुरुष संवर रहित निर्जरा की करनी विशेष रूपसे करते हैं। परन्तु संवर रहित-निर्जरा, मोक्ष मार्गमें नहीं है इसलिए इन पुरुषोंको भगवान्ने मोक्ष मार्गका आराधक न होना कहा है। अत: संवर रहित निर्जरा की करनीको मोक्षमार्ग के आराधन में कायम करके उस करनी से मिथ्यादृष्टि अज्ञानी को मोक्ष मार्गका आराधक कहना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये। बोल ७ वां समाप्त (प्ररूपक ) जो जीव मिथ्यादृष्टि अज्ञानी हैं, परन्तु माता पिता की सेवा शुश्रूषा करके चौदह हजार वर्षकी आयुके देवता होते हैं उनको मोक्षमार्गका आराधक न होना इसी पाठके नीचे कहा गया है वह पाठ- "सेजे इमे गामागर नयर णिमम रायहाणि खेड़ कब्बड़ मडव दोणमुह पट्टणासम संवाह संनिवेसेसु मणुआ भवंति, तंजहा-पगइभद्दगा पगइउपसंता पगइपतणुकोहमाणमायालोहा मिउमद्दवसंपन्ना अल्लीणा विणीया अम्मापिउ सुस्ससगा अम्मापिईणं अणतिकमणीज्जवयणा अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्पपरिग्गहा अप्पेणं आरंभेणं अप्पेणं समारंभेणं अप्पेणं आरंभसमारंभेणं वित्तिं कप्पेमाणा वहुई वासाइं आउयं पाल ति पालित्ता कालमासे कालं किचा अण्णतरेसु वाणमंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति। तहिं तेसिंगती तहिं तेसिं ठिती तहिं तेसिं उववाए पण्णत्ते तेसिंणंभन्ते । देवाणं केवइयं काल ठिती पण्णत्ता गोयमा ? चउद्दसवाससहस्सा" ( उवाई ) अर्थ ग्रामसे लेकर यावत् संनिवेशों में रहने वाले जो मनुष्य स्वभावसे परोपकारी स्वभाव से उपशान्त स्वभावसे ही क्रोधमान, माया और लोभ को न्यून किये हुए, अहङ्कार रहित, गुरु के Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । आश्रय में रहने वाले, विनीत, माता पिता के वाक्यका उल्लङ्घन न करनेवाले माता पिता की सेवा करनेवाले, अल्प इच्छा अल्प आरम्भ समारम्भ से अपनी जीविका चलाने वाले बहुत वर्षों तक अपनी आयु को व्यतीत करते हैं ये काल आने पर मृत्यु को प्राप्त होकर वाण व्यन्तर संज्ञक देवलोक में देवता होते हैं। वहीं पर उनकी गति स्थिति और देवभवकी प्राप्ति होती है। ( प्रश्न ) हे भगवन् ! वहां वे कितने काल तक रहते हैं ? ( उत्तर ) वहां वे चौदह हजार वर्ष तक रहते हैं। ( प्रश्न ) वे परलोक (मोक्षमार्ग ) के आराधक हैं ? ( उत्तर ) नहीं, वे परलोक (मोक्षमार्ग) के आराधक नहीं हैं। यह ऊपर लिखे हुए मूलपाठका अर्थ है। यहां माता पिता की सेवा शुश्रूषा करनेवाले, स्वभावसे परोपकारी, उपशान्त, क्रोधमान माया और लोभ को न्यून किये हुए अज्ञानी मिथ्यादृष्टिको चौदह हजार वर्ष की आयु के देवता होना बतला कर भगवान्ने इन्हें मोक्षमार्ग का आराधक न होना बतलाया है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि संवर रहित निर्जरा की करनी मोक्षमार्ग में नहीं है। इसीसे इस पाठ में माता पिताकी सेवा करने वाला जो पुरुष चौदह हजार वर्ष की आयु का देवता होता है उसे भगवानने मोक्षमार्गका आराधक न होना कहा है। अन्यथा इसे कदापि मोक्षमार्गका आराधक न होना न कहते क्योंकि इस पुरुषमें संवर रहित निर्जरा की करनी विद्यमान है अतः संवर रहित निर्जरा की करनी को मोक्षमार्गमें कायम करके मिथ्यादृष्टि अज्ञानी को मोक्षमार्गका आराधक कहना इस पाठ से विरुद्ध समझना चाहिये। (बोल आठवां) ( प्ररूपक) जो स्त्री अकाम ब्रह्मचर्य पालन करके चौसठ हजार वर्ष की आयु की देवता होती है उसे इसी पाठके नीचे मोक्षमार्गका आराधक न होना बतलाया है। वह पाठ "सेजाओ इमाओ गामागर गयर णिगम रायहाणि खेड़ कव्वड़ मडव दोणमुह पट्टणासम संवाह संन्निवेसेसु इत्थियाओ भवन्ति तंजहा-अंतो अंतेउरिआओ गयपइआओ मयपइयाओ घालविहवाओ छड्डितल्लिताओ माइरक्खिआओ पियरक्खिआओ ससुरकुलरक्खि आओ पारूढणहमसकेसकक्खरोमाओ ववगयपुष्फ गंधमल्लालङ्काराओ अण्हाणगसेयजल्लमल्लपङ्कपरिताविआओ ववगय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्वात्विक्रियाधिकारः। २३ खीरदहिणवणीतसप्पितेलगुललोणमहुमज्जमंसपरिचत्तकयाहारोअप्पिच्छाओ अप्पारंभाओ अप्पपरिग्गहाओ अप्पेणं आरंभेणं अप्पेणं समारंभेणं अप्पेणं आरंभसमार भेणं वित्तिं कप्पेमाणीओ अकामवंभचेरवासेणं तमेव पइसेज्जं गाइकमइ ताओणं इथिआओ एयारवेणंविहारेणं विहरमाणीओ वहुई वासाई सेसं तंचेव जाव चउसहि वाससहस्साई ठिई पण्णत्ता" (उवाई सूत्र ) अर्थ_ .... ___ ग्रामसे लेकर यावत् संन्निवेशों में रहने वाली जिस स्त्रीका पति कहीं चला गया है या, मर गया है तथा जो वाल्य काल में विधवा हो गई है, जो पति से छोड़ दी गई है, जो अपने माता पिता या भाई से पाली जाती है, जो पिता या श्वसुर के घर में पाली जाती है, जो अपने शरीरका संस्कार नहीं करती, जिसके नख, केश, और कांख के बाल बढ़ गये हैं, जो फूल की माला गन्ध और फूल नहीं धारण करती, जो स्नान नहीं करती और पसीना धूलि तथा कीचडका कष्ट सहन करती है, जो दूध, दही, मक्खन, घी, गुड़, नमक, मधु, मद्य और मांस से रहित भोजन करती है, जो अल्पइच्छा अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह करती है, जो अल्प आरम्भ और अल्प समारम्भ से जीविका करती है, जो अकाम ब्रह्मचर्य पालन करती हुई पतिकी शय्याका उल्लङ्घन नहीं करती है, वह भी इस प्रकार अपने जीवन को व्यतीत करती हुई काल आने पर मृत्यु को प्राप्त होकर वाण व्यन्तर संज्ञक देवलोक में उत्पन्न होती है। शेष पूर्व पाठ की तरह समझना चाहिये विशेष बात यह है कि यह स्त्री चौसठ हजार वर्ष तक देवलोक में रहती है। यह स्त्री भी मोक्ष मार्गका आराधक नहीं है। यह इस पाठ का अर्थ है। . ___ यहां मूलपाठ में अकाम ब्रह्मचर्य पाल कर चौसठ हजार वर्ष की आयु से देवता होने वाली स्त्री को श्रीतीर्थङ्कर देवने मोक्षमार्ग का आराधक न होना बतलाया है। इससे भी पूर्ववत् यही बात सिद्ध होती है कि संवर रहित निर्जरा की करनी मोक्षमार्ग के आराधन में नहीं है। क्योंकि इस पाठ में कही हुई स्त्री संवर रहित निर्जरा की करनी भली भांति करती है तो भी वह मोक्षमार्ग की आराधिका नहीं मानी गई है। अतः संवर रहित निर्जरा को मोक्ष मार्ग में कायम करना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये । (बोल ९ वां समाप्त) ( प्ररूपक ) जो मनुष्य अन्न जल आदिका नियम रख कर चौरासी हजार वर्ष की आयु के देवता होते हैं उन्हें भी भगवान् ने मोक्षमार्गका आराधक न होना बतलाया है। वह पाठ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ सद्धममण्डनम् । "सेजे इमे गामागर णयर निगम रायहाणि खेड़ कव्वड़ मड व दोणमुह पट्टणासम संवाह सन्निवेसेसु मणुआभवंति तंजहाद्गविइया दगतइया दगएक्कारसमा गोअमा गोवइया गिहिधम्मा धम्मचिंतका अविरुद्धविरूद्ध वुद्धसावकष्पभिअओ तेसिं मणुआणं णो कप्पइ इमाओ नवरस विगईओ आहारित्तए तंजहा - खीर' दहिं णवणीयं सप्पिं तेल्ल फाणियं महु मज्जं गण्णत्थ एकाए सरसव विगए तेणं मणुआ अपिच्छा तंचेव सव्वं णवर' चउरासीइ वाससहस्साइं ठिई पण्णत्ता ॥ ९ ॥ ( वाई ) अर्थ ग्रामसे लेकर यावत् संनिवेशों में रहने वाला जो मनुष्य भात और पानी इन दो ही बस्तु ओंका आहार करता है । जो भात तथा एक और पदार्थ, तीसरा पानी का ही आहार करता है जो, भात आदि छः और सातवां पानी का आहार करता है जो भात आदि दश और एग्यारहवां पानीका आहार करता है जो छोटे बैल को पैर पर गिरने आदि की शिक्षा देकर उससे मनुष्यों को प्रसन्न करके भिक्षावृत्ति करता है, जो गाय के चलने पर चलता है और बैठने पर बैठता है भोजन करने पर भोजन करता है और सोने पर सोता है, जो गृहस्थ धर्मको श्र ेष्ठ जानकर देवता अतिथि आदिका सत्कार तथा दान करता हुआ गृहस्थधर्मका आचरण करता है, जो धर्मशास्त्र को पढ़ता है, जो देवता आदि में परम भक्ति रखता हुआ विनीत है, जो आत्मा आदि पदार्थों को नहीं मानता हुआ अक्रियावादी ( नास्तिक ) है जो, वृद्ध यानी तापस है जो धर्मशास्त्रका श्रवण करने श्रावक (ब्रह्म) है इन मनुष्योंको रसीले ९ पदार्थ अभक्ष्य होते हैं । वे ये हैं—दूध, दही, नवनीत, घी, तेल, गुड़, मद्य, और मांस । परन्तु एक सर्षपका (सरसों) तेल भक्ष्य होता है, ये सब मनुष्य अल्प आरम्भ और अल्पपरिग्रह, करके चौरासी हजार वर्ष की आयुके देवता होते हैं। और सब पूर्ववत् समझना चाहिये । यह इस पाठ का अर्थ है 1 इस पाठ में अन्न जल आदिका नियम रखने वाले धर्मशास्त्र पाठी गोत्रत करने वाले गृहस्थ धर्म के पालक रसवान् नौ पदार्थों का भोजन नहीं करने वाले मनुष्यों को चौरासी हजार वर्ष की आयु के देवता होना कह कर भगवान् ने इन्हें मोक्षमार्ग का आराधक न होना बतलाया है क्योंकि ज्ञान पूर्वक की जाने वाली क्रिया ही मोक्ष देती है परन्तु ये लोग इन क्रियाओंको करते हुए भी अज्ञानी हैं अतः अज्ञान ( मिथ्यात्व ) के कारण इन्हें मोक्षमार्ग का आराधक न होना कहा है। यदि संवर रहित निर्जरा की करनी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। . . २५ मोक्षमार्ग के आराधन में होती तो भगवान् इन पुरुषों को मोक्षमार्ग का आराधक न होना कदापि न कहते । क्योंकि संवर रहित निर्जरा की क्रिया इन पुरुषोंमें पूर्णतया विद्यमान है। अतः संवर रहित तथा अज्ञान ( मिथ्यात्व ) के साथ की जाने वाली निर्जरा की करनी को वीतराग की आज्ञा में मानना उत्सूत्र भाषकों का कार्य समझना चाहिये। [बोल दशवां समाप्त ( प्ररूपक) जो गङ्गाजी के तट पर रहते हैं, जो अग्निहोत्री हैं जो वानप्रस्थ हैं जो कन्द मूल फल आदि का आहार करते हैं उनको एक पल्योपम और एक लाख वर्षकी आयु का देवता होना बता का भगवान्ने उन्हें मोक्षमार्ग का आराधक न होना बतलाया है। वह पाठ "सेजे इमे गंगाकूलगा वाणपत्था तावसा भवंति तंजहाहोतिया पोतिया कोतिया जण्णई सडढई, घालई, हुपउठा दंतुक्खलिया उम्मज्जका संमज्जका निमज्जका संपक्खाला दक्षिण कूलका उत्तरकूलका संखधमका कूलधमका मिगलुद्धका हन्थितावसा दिसापेक्खिणो वाकवासिणो अंवुवासिणो विलवासिणो जलवासिणो वेलवासिणो रुखमूलिया अंधुभक्खिणो वायुभविखणो सेवाल भकिखणो मूलाहारा कन्दाहारा तोयाहारा पत्ताहारा पुष्फाहारा बीयाहारा परिसडियकन्दमूलतयपत्तपुष्फफलाहारा जलाभिसेअकठिण कायभूए आयावणाहिं पंचग्गितावेहिं इङ्गालसोल्लियं कडुसोल्लियं कठसोल्लियं पिव अप्पाणं करेमाणा बहुई वासाई परियायं पाउगंति । बहुई वासाई परियायं पाउणित्ता काल मासे काल किच्चा उक्कोसेणं जोइसिएसु देवेसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति । पलिओपमं वाससयसहस्समन्भहियं ठिई। आराहगा ? णो इणढे समठे" (उवाई सूत्र) अर्थः गंगातटमें निवास करनेवाले वानप्रस्थ तापस जो अग्निहोत्र करते हैं जो वनधारी और पृथ्वीपर सोते हैं जो यज्ञ कराते हैं, जो श्रद्धा रखते हैं, जो भाण्ड ग्रहण किये रहते हैं जो कमण्डलुधारी हैं जो सिर्फ फूल खाकर रहते हैं जो पानीमें एक बार दुब्बी लगाकर निकल जाते हैं जो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २६ . सद्धर्ममण्डनम्। पानीमें बार बार डुब्बी लगाते हैं जो पानीमें डुब्बी लगाकर बहुत देर तक रहते हैं जो शरीर में मृत्तिका लगाकर स्नान करते हैं जो गंगाके दक्षिण तटपर रहते हैं जो गंगाके उत्तर तटपर रहते हैं जो शङ्ख बजा कर भोजन करते हैं जो तटके ऊपर शब्द करके भोजन करते हैं जो मृग मार कर उसके मांससे बहुत दिन तक अपना निर्वाह करते हैं जो हाथी मार कर उसके मांससे चिरकाल तक अपना उदर पालते हैं जो दिशाओंके अन्दर जल छिड़क कर फल तोड़ते हैं जो दण्डको ऊंचा करके भोजन करते हैं जो वृक्षके छिलके पहिनते हैं जो जलमें निवास करते हैं जो विल बना कर रहते हैं जो जलमें प्रवेश करके रहते हैं जो समुद्रके तट पर रहते हैं जो वृक्षकी जड़में निवास करते हैं जो पानी पीकर रहते हैं जो हवा पीकर रहते हैं जो शैवाल खाकर रहते हैं जो कन्द, मूल, त्वचा, पत्ते फूल और फल खाकर रहते हैं जो सड़े गले कन्द मूल फल आदिको खाकर रहते हैं जिनका शरीर जल स्नान करनेसे कठिन हो गया है जिनका शरीर पञ्चाग्नि तापनेसे कोयला, कडाही और अधजले काठकी तरह काला हो गया है ये सब तापस बहुत वर्षों तक अपनी प्रव्रज्याका पालन करके काल आने पर मृत्युको प्राप्त होकर उत्कृष्ट ज्योतिष्क नामक देव लोकमें जाते हैं। वहां पर उनकी एक पल्योपम और एक लाख वर्षतक स्थिति होती है। शेष पूर्ववत् जानना चाहिये। ये सब तापस भी परलोक (मोक्षमार्ग) के आराधक नहीं हैं । यह ऊपर लिखे हुए मूल पाठका अर्थ है । इस पाठमें कहा है कि जो अज्ञानी तापस कन्द मूल फलादिका आहार करके, पंचाग्नि तापकर अग्निहोत्र करके तथा जलमें शयन आदि करके एक पल्योपम और एक लाख वर्षकी आयुके देवता होते हैं वे परलोकके आराधक नहीं हैं। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि संवर रहित निर्जरा की करनी मोक्षमार्गकी आराधनामें नहीं है क्योंकि उक्त पाठमें गिनाये हुए तपस्वी संवर रहित निर्जराकी करनी करते हैं तो भी उन्हें मोक्ष मार्ग का आराधक न होना कहा गया है। यदि संवर रहित निर्जराकी करनी मोक्ष मार्गके आराधनमें होती तो उक्त तपस्वी मोक्षमार्गके अनाराधक क्यों कहे जाते ? अतः संवर रहित निर्जराकी करनीको मोक्षमार्गमें कायम करना प्रत्यक्ष मूल पाठसे विरुद्ध समझना चाहिए। (बोल ग्यारहवां समाप्त) (प्ररूपक) छठे बोलसे लेकर ग्यारहवें बोल तक उवाई सूत्रके मूल पाठोंकी साक्षीसे संवर रहित निर्जराकी क्रियाको मोक्ष मार्गके आराधनमें न होना कहा गया है। उवाई सूत्रमें इस विषय पर और भी पाठ आये हैं। इन सभी पाठोंमें संवर रहित निर्जराकी करनीको और इन कार्योका आचरण करने वाले अज्ञानी तापसोंको अलग अलग गिन कर यह स्पष्ट कहा गया है कि ये अज्ञानी तापस मोक्षमार्गके आराधक नहीं हैं। यह देखते हुए निःस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। न्देह मानना पड़ता है कि संवर रहित निर्जराकी करनी मोक्षमार्गके आराधनमें नहीं है अन्यथा ये तापसादि मोक्ष मार्गके अनाराधक क्यों कहे जाते ? यद्यपि उवाई सूत्रके एक ही पाठ दे देनेसे यह बात सिद्ध हो जाती थी तथापि इतने पाठ यहां इसलिये दिखलाये गये हैं कि इन पाठोंमें सभी अकाम निर्जराकी क्रियायें और सभी अज्ञानी तापस गिना दिये गये हैं। इनसे भिन्न एक भी अकाम निर्जराकी क्रिया, तथा अज्ञानी तापस शेष नहीं रह जाते ।। जब कि सभी अकाम निर्जराकी क्रिया और उनके आराधक सभी अज्ञानी तापस मोक्षमार्गके अनाराधक यहां कह दिये गये हैं तो यह अपने आप ही सिद्ध हो जाता है कि सकामनिर्जराकी क्रिया, और ज्ञानवान् सम्यग्दृष्टि पुरुष ही मोक्षमार्गके आराधक हैं । अतः संवर रहित निर्जराको आज्ञामें कायम करके अज्ञानी मिथ्यात्वीको मोक्षमार्गका आराधक कहना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिए। बोल बारहवां। (प्रेरक) ____उवाई सूत्रके पूर्वोक्त मूल पाठोंसे संवर रहित निर्जराकी करनी मोक्षमार्गसे अलग सिद्ध होती है और उस करनीका आचरण करनेवाले मिथ्यादृष्टि अज्ञानी पुरुष भी मोक्ष मार्गके अनाराधक सिद्ध होते हैं तथापि इन पाठोंका तात्पर्य बतलाते हुए भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ट २५ पर लिखते हैं कि-"प्रथम गुणठाणारोधणी शुद्ध करणी करे तेहने उवाईमें तो कह्यो परलोकना आराधक न थी। अने भगवती शतक ८ उद्देशा १० कह्यो ज्ञान बिना जे करणी करे ते देश आराधक छै। एविहूंई पाठरो न्याय मिलावणो सर्वथ की तथा संवर आश्रीतो आराधक नथी अने निर्जरा आश्री तथा देशथकी तो आराधक छ । पिण जावक किञ्चिन्मात्र पिण आराधक नथी एहवो ऊंधी थाप करणी नहीं" इसके पहले लिखा है कि “ जिम भगवती शतक १० उद्देशा १ को पूर्व दिशे "धमत्थिकाए' धर्मास्तिकाय नथी एहवू कह्यो । अने धर्मास्तिकायने देश प्रदेश तो छ । ते पूर्व दिशे धर्मास्तिकायनो ना कह्यो ते तो सर्वथकी धर्मास्तिकाय बर्जी छै। पिण धर्मास्तिकायनो देश वौँ नथी । तिम अकाम शील उपशान्तपणो ए करणीरा धणीने परलोकना आराधक नथी इम कह्या ते पिण सर्वथकी आराधक न थी परं निर्जरा आश्री देशाराधक तो छै ।" (भ्र० पृ० २५) इसका क्या उत्तर(प्ररूपक) भगवती शतक ८ उद्देशा १० में कही हुई चतुर्भङ्गीमें जिसको मोक्ष मार्गका देशाराधक कहा है उसी पुरुषको उवाई सूत्रमें मोक्ष मार्गका आराधक न होना नहीं कहा है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्भर्ममण्डनम् । किन्तु जो पुरुष अपनी बुद्धिके द्वारा पापसे हट गया है उसे भगवतीमें देशाराधक कहा है और जो पापसे नहीं हटा है उवाई सूत्रमें उसे मोक्ष मार्गका अनाराधक कहा है। अतः उवाई सूत्रोक्त मोक्षमार्गके अनाराधक पुरुषको भगवतीका नाम लेकर देशाराधक कहना भ्रमविध्वंसनकारका अज्ञान समझना चाहिए। देखिए भगवती सूत्रमें देशाराधक पुरुषका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है: " तत्थणं जेते पठमे पुरिसजाए सेणं पुरिसे सीलवं असुयवं उवरए अविण्णाय धम्मे, एसणं गोयमा! मए पुरिसे देसाराहए पण्णत्ते।" अर्थात् इन चार प्रकारके पुरुषों में जो पहले पुरुष हैं, वे शीलवान् और अश्रु तवान् हैं। अर्थात् ये पुरुष पापसे हटे हुए और धर्मके विशिष्ट ज्ञाता नहीं हैं। इन पुरुषोंको मैं मोक्ष मार्गका दशाराधक मानता हूं। यह भगवतीके उक्त पाठका अर्थ है। इसमें कहा है किः ___ “जो पुरुष पापसे हट गया है वह मोक्ष मार्गका देशाराधक है ” परन्तु पापसे नहीं हटे हुए पुरुषको देशाराधक नहीं कहा है। और इस पाठकी टीकामें "उवरतः” इस पदका अर्थ टीकाकारने भी पापसे हटा हुआ ही किया है। वह टीका यह है-"निवृत्तः स्वबुद्ध या पापात् " अर्थात् भगवती सूत्रोक्त आराधक विराधक चतुर्भगीके प्रथम भङ्ग का स्वामी वह है जो अपनी बुद्धिके द्वारा पापसे हट गया है। यही बात खुद भ्रमविध्वंसनकाग्ने भी लिखी है । जैसे कि “पोतानी बुद्धिए पाप थी निवो छै" (भ्रम० पृ०३) इसलिए भगवती सूत्रोक्त चतुर्भङ्गीके प्रथम भङ्गका स्वामी देशाराधक पुरुष पाप से हटा हुआ है परन्तु उवाई सूत्रमें कहा हुआ निर्जराकी करनी करने वाला पुरुष पापसे हटा हुआ नहीं है इसलिए ये दोनों पुरुष भिन्न भिन्न हैं एक नहीं हैं। देखिए उवाई सूत्र के मूल पाठमें अकाम निर्जराकी करनीसे स्वर्ग जानेवाले पुरुषका स्वरूप इस प्रकार बतलाया है-“जीवेणंभन्ते असंजए अविरए अपडिहय पञ्चक्खाय पावकम्मे ” ( उवाई सूत्र)। "अथात् जो पुरुष संयम रहित विरतिहीन और भूत कालके पापोंका हनन और भविष्यत्के पापोंका प्रत्याख्यान नहीं करने वाला है" वह पुरुष उवाई सूत्रमें कहा हुआ है। इसलिए उवाई सूत्रमें कहे हुए अनाराधक पुरुषको भगवती सूत्रकी चतुर्भङ्गीके प्रथम भङ्गका नाम लेकर देशाराधक बताना मिथ्या है। उवाई सूत्रोक्त पुरुष पापसे हटा हुआ नहीं है और भगवती सूत्रोक्त पुरुष पापसे सर्वथा हटा है इसलिये ये दोनों कदापि एक नहीं हो सकते तथापि संवर रहित निर्जराकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्वात्विक्रियाधिकारः। २९ करनीको मोक्षमार्गके आराधनमें ठहरानेके लिये जीतमलजीने पापयुक्त और पापसे रहित पुरुषोंको एक कह दिया है अत: बुद्धिमानोंको इनकी प्ररूपणा शास्त्रविरुद्ध समझनी चाहिये । इसी तरह भ्रमविध्वंसनकारने जो उवाई सूत्रोक्त अकामनिर्जराकी क्रिया करने वाले पुरुषको संवर नहीं होनेसे अनाराधक होना बतलाया है यह भी मिथ्या है क्योंकि गौतम स्वामीने वहां पर यह पूछा है कि जो पुरुष संवरसे रहित है पर अकामनिर्जराकी करनी करके स्वर्गमें जाता है वह मोक्षमार्गका आराधक है या नहीं ? इस प्रश्नका आशय यही हो सकता है कि उक्त पुरुषकी अकाम निर्जरा मोक्ष मार्गके आराधनमें है अथवा नहीं ? यदि है तब तो वह आराधक है और नहीं है तो आराधक नहीं है क्योंकि किसी बातका संशय होनेसे ही प्रश्न होता है निश्चय होनेसे नहीं होता जब कि उवाई सुत्रोक्त पुरुषमें संवरकी आराधना न होना स्वयं गोतम स्वामीको निश्चित है तब वह इस पुरुषको आराधक होनेके विषयमें जो प्रश्न करते हैं इसका अभिप्राय यही हो सकता है कि इसकी अकाम निर्जराकी क्रिया मोक्ष मार्गके आराधनमें है अथवा नहीं। इस प्रश्नका उत्तर देते हुए भगवान्ने इसे मोक्ष मार्गका अनाराधक कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि संवर रहित निर्जराकी क्रिया मोक्षमार्गके आराधनमें नहीं है पर उसके द्वारा पुण्य बांध कर वह स्वर्गगामी होता है। यदि संवर रहित निर्जराकी क्रिया मोक्षमार्गके आराधनमें होती तो भगवान् इस पुरुषको मोक्षमार्गका अनाराधक क्यों कहते ? इस प्रकार बातके स्पष्ट होते हुए भी भोले जीवोंमें भ्रम फैलानेके लिये जीतमलजीने उवाई सूत्रोक्त पुरुषमें संवर नहीं होनेसे जो अनाराधक और निर्जराके होनेसे आराधक कहा है यह मिथ्या है ऐसा कभी नहीं होता कि “आम्रान् पृष्ठः को विदारान् आचष्ट" आमके विषयमें बात पूछी जाय और “को विदार" के विषयमें उत्तर मिले। जब कि गोतम स्वामी अकाम निर्जराकी करनीके विषयमें प्रश्न करते हैं और उसीके होनेसे उक्त पुरुषको आराधक होने की जिज्ञासा करते हैं तब तीर्थकर प्रकृत प्रश्न अकाम निर्जराके सम्बन्धमें उत्तर न देकर अप्रस्तुत विषय संवरके न होनेसे अनाराधक कहें यह कदापि नहीं हो सकता। इसलिये यहां भगवानने गोतम स्वामीकी पूछी हुई बातका ही उत्तर दिया है और संवर रहित निर्जराकी करनीके मोक्ष मार्गमें न होनेसे ही उक्त पुरुषको मोक्षमार्गका अनाराधक कहा है अतः उवाई सूत्रोक्त पुरुषको निर्जराकी करनीसे मोक्षमार्गका आराधक बतलाना प्रत्यक्ष शास्त्र विरुद्ध है। वास्तवमें अकाम निर्जराकी क्रियाके मोक्षमार्गमें न होनेसे उवाई सूत्रोक्त पुरुषको मोक्ष मार्गका अनाराधक कहा है यही शास्त्र सम्मत बात समझनी चाहिये । (बोल तेरहवां) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । (प्रेरक) संवर रहित निर्जराकी क्रिया मोक्ष मार्गमें नहीं है यह शास्त्रप्रमाणानुसार सिद्ध हुआ पर भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४ पर लिखते हैं कि “तामली तापस साठ हजार वर्ष ताई बेले बेले तपस्या की धी तेह थी घणा कर्मक्षय किया, पछे सम्यग्दृष्टि पामी मुक्तिगामी एकावतारी थयो। जो ए तपस्या न करतो तो कर्मक्षय न हुन्ता ते कर्मारी निर्जरा विना सम्यग्दृष्टि किम पावतो अने एकावतारी किम हुन्तो वली पूरण तापस बारह हजार वर्ष बेले बेले तपकरी घणा कर्म खपाया चमरेन्द्र थयो सम्यग्दृष्टि पामी एकावतारी थयो इत्यादिक घणां जीव मिथ्यात्वी थकां शुद्ध करणी थकां कर्म खपाया ते करणी शुद्ध छै मोक्ष नो मार्ग छै” इसका क्या समाधान (प्ररूपक) संवर रहित निर्जराकी करनीको मोक्ष मार्गमें कायम करनेके लिये तामली तापस और पूरण तापसका उदाहरण देना अयुक्त है क्योंकि तामली तापस और पूरण तापस जब तक अज्ञान दशामें अकाम निर्जराकी करनी करते थे तब तक उन्हें शास्त्रकारने मोक्ष मार्गका आराधक होना नहीं कहा। जब वे ज्ञानवान् सम्यग्दृष्टि हुए हैं तब भगवती शतक ३ उद्देशा १–२ में मोक्ष मार्गके आराधक कहे गये हैं। यदि अकाम निर्जराकी क्रिया मोक्ष मार्गमें होती तो ये लोग सम्यक्त्वकी प्राप्तिसे पहले भी मोक्षमार्गके आराधक कहे जाते परन्तु सम्यक्त्व पानेके पहले ये लोग मोक्ष मार्गके आराधक नहीं कहे गये हैं इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अज्ञान दशामें की जानेवाली संवर रहित निर्जराकी क्रिया मोक्ष मार्गके आराधनमें नहीं है। तथा उवाई सूत्रके पूर्वोक्त पाठोंमें जो संवर रहित निर्जरा की क्रिया गिनाई गई हैं उन क्रियाओंके अन्दर तामली तापस और पूरण तापसकी क्रिया भी शामिल है। उवाई सूत्रोक्त क्रियाओंका मोक्ष मार्गमें न होना स्पष्ट सिद्ध है इस लिये तामली तापस और पूरण तापसकी अज्ञान क्रियाका मोक्षमार्गमें न होना भी स्पष्ट है। अतः तामली और पूरण तापसकी अज्ञान दशाकी क्रियाओंको मोक्ष मार्गमें कायम करना अज्ञान मूलक है। दूसरी जगह जीतमलजी और भीषणजीने स्वयं यह स्वीकार किया है कि सम्यक्त्वको पाये विना कैसा ही साधुका आचार पाला जाय पर उससे किंचित् भी मोक्ष मार्ग की आराधना नहीं होती । भीषणजीने "श्रावक धर्म विचार" नामक पुस्तकमें लिखा है कि "समकित विन सुध पालियो अज्ञान पणे आचार नववेक ऊच्यो गयो नहीं सरी गरज लिगार" इसका अर्थ तेरह पन्थी श्रावक गुलाब चन्दजी का किया हुआ इस प्रकार है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। “सम्यक्त्व विना संयमकी शुद्ध क्रिया पालन कर जीव नव प्रवेक स्वर्ग तक गया परन्तु कुछ गरज नहीं सरी मिथ्यात्वी ही रहा ।" इसके आगे भीषगजीने फिर लिखा है कि "नवतत्त्व ओलख्या विना पहरे साधुरो भेष । समझ परे नहीं तेहने भारी हुवे विशेष" इसका अर्थ उक्त श्रावक गुलाब चन्दजीने इस प्रकार किया है कि "नवतत्वको जाने विना कई मनुष्य साधु वेष पहन कर साधु बन जाते हैं लेकिन उनको साधुके आचारकी क्रिया शास्त्र वचनोंकी समझ नहीं पड़ती सिर्फ वेषधारी द्रव्य साधु हैं। रजोहरण चद्दर पात्रादि साधु वेष अनन्तवार ग्रहण किया और गोतम स्वामी जैसी क्रिया मिथ्यात्व पनेमें करके नववेक कल्पातीत तक जीव जा पहुंचा परन्तु कुछ भी मोक्ष फलितार्थ न हुआ।" इन पद्योंमें भीषणजीने साफ साफ स्वीकार किया है कि सम्यक्त्व पाये विना अज्ञान दशामें चाहे गोतम स्वामी जैसी साधुपनेकी क्रिया भी की जाय पर उससे किंचित् भी प्रयोजन नहीं सिद्ध होता। यदि मिथ्यात्व दशाकी करनी मोक्ष मागमें होती तो भीषण जी उस करणीसे किञ्चित् भी प्रयोजन सिद्ध न होना कैसे कहते ? अतः भीषगजीने इस पद्यमें अकाम निर्जराकी करनीको मोक्ष मार्गमें न होना स्पष्ट स्वीकार किया है । तथा जीतमलजी ने भी आराधनाकी ढालमें अकाम निर्जराकी करनीको मोक्ष मार्गमें न होना स्वीकार किया है। जैसे कि उन्होंने लिखा है___“जे समकित विन हैं। चारित्रनी किरियारे, वार अनंत करी पिण काज न सरियारे” अर्थात् सम्यक्त्व पाये विना मैंने अनन्त वार चारित्रकी क्रिया की थी, पर उससे कुछ भी कार्य नहीं सिद्ध हुआ। इस पद्यमें जीतमलजीने स्पष्ट स्वीकार किया है कि मिथ्यात्व दशाकी करनीसे कार्य नहीं सिद्ध होता। यदि मिथ्यात्व दशामें की जाने वाली अकाम निर्जराकी करनी मोक्ष मार्गके आराधनमें है तब फिर उससे कार्य नहीं सिद्ध होने का क्या कारण है ? इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि मिथ्यात्व दशाकी करनी मोक्ष मार्ग में नहीं है तथापि जान बूझ कर भोले जीवोंमें भ्रम फैलानेके लिये जीतमलजीने भ्रमविध्वंसन में अपनी उक्ति तथा भीषणजीकी उक्ति और शास्त्रसे भी विरुद्ध मिथ्यात्व दशाकी करनी को मोक्ष मार्गमें कह दिया है। अतः तामली तापस और पूरण तापसका उदाहरण देकर संवर रहित निर्जराकी क्रियाको मोक्ष मार्गमें कायम करना मिथ्या समझना चाहिये । यदि कोई कहे कि "भीषणजी और जीतमलजीके पूर्वोक्त पद्योंमें "नही सरी गरज लिगार" और "काज न सरियारे” इसका भाव यह नहीं है कि मिथ्यात्व दशाकी क्रियासे मोक्ष मार्गका आराधन नहीं होता किन्तु सम्यक्त्व पाये विना मुक्ति नहीं होती यह आशय है" तो यह भी मिथ्या है उसी भवमें मोक्षकी प्राप्ति तो केवल क्षीणमोह और यथाख्यातचारित्र वालोंको ही होती है उनसे इतरकी. उसी भवमें मुक्ति नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सद्धममण्डनम् । होती । यदि मुक्ति नहीं होनेसे मिथ्यात्व दशाकी करनी किंचित् भी प्रयोजन नहीं सिद्ध करती तो फिर चतुर्थगुणस्थानसे लेकर ११ वें गुणस्थान तककी क्रियासे भी किंचित् प्रयोजन न सिद्ध होना मामना पड़ेगा क्योंकि इन गुण स्थानोंके जीव भी द्वादशादि गुग स्थानोंमें गये विना मोक्षगामी नहीं होते। यदि कहो कि चतुर्थ गुणस्थानसे लेकर ११ वें गुग स्थान तकके जीवोंकी क्रिया परम्परासे मोक्षका कारण होती है इसलिये उन क्रियाओंसे किंचित भी प्रयोजन सिद्ध न होना नहीं कहा जा सकता तो फिर भ्रमविध्वंसन कारकी श्रद्धानुसार मिथ्यात्व दशाको क्रिया भी परम्परासे मोक्षका कारण होती है इसलिये उससे भी प्रयोजनका न सिद्ध होना नहीं कहना चाहिये । परन्तु भीषणजी और जीतमलजीने उक्त पद्योंमें मिथ्यात्वदशाकी क्रियासे किंचित् भी प्रयोजन सिद्ध न होना कहा है इससे स्पष्ट जाना जाता है कि मिथ्यात्व दशाकी क्रियासे ये लोग भी मोक्ष मार्ग की आराधना नहीं मानते परन्तु अपने शास्त्र विरुद्ध पक्षके आग्रहमें पड़ कर भ्रमविध्वंसन में मिथ्यात्वीकी क्रियाको जीतमलजीने मोक्ष मार्गमें कह दिया है अतः भ्रमविध्वंसन कारकी यह प्ररूपणा मिथ्या समझनी चाहिये। बोल चौदहवां (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ६ के ऊपर मिथ्यादृष्टिकी क्रियाको मोक्ष मार्गमें कायम करनेके लिये यह लिखते हैं कि-"वली प्रथम गुणठाणारो धगी सुपात्र दान देई परीत संसार करी मनुष्यनो आयुषो बांध्यो सुवाहु कुमारने पा छिले भवे सुमुख गाथा पति इ" इनके कहनेका तात्पर्य यह है कि सुमुख गाथा पतिने मिथ्यात्व दशाकी करनीसे संसार परिमित करके मनुष्यकी आयु बांधी थी, इससे मिथ्यात्व दशाकी क्रिया मोक्ष मार्ग में सिद्ध होती है। यदि मिथ्यात्वीकी क्रिया मोक्ष मार्ग में न होती तो सुमुखगाथा पतिका संसार उससे परिमित कैसे होता ? इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) प्रथम गुणस्थान वाले मिथ्यादृष्टियोंका संसार परिमित नहीं होता क्योंकि संसारका कारण मिथ्यात्व उनमें मौजूद रहता है। जब सम्यग् दर्शनके उदयसे मिथ्यात्व का विनाश होता है तब संसार परिमित होता है परन्तु मिथ्यात्वके रहने पर नहीं होता। कारण के रहने पर कार्यका न होना असम्भव है । अतः मिथ्यादृष्टियोंका संसार परिमित होना जो बतलाता है उसे अज्ञानियोंका शिरोमणि समझना चाहिये। - सुमुख गाथापति मुनिको दान देते समय सम्यग्दृष्टि था मिथ्यात्वी नहीं था इसी लिए उसका संसार परिमित हुआ। अब प्रश्न यह होता है कि सुमुख गाथापति मुनिको दान देते समय सम्यग्दृष्टिका इसमें क्या प्रमाण ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। ३३ __ तो इसका उत्तर यह है कि सुमुख गाथापतिके विषयमें जो त्रिपाक सूत्रमें मूलपाठ आया है वही प्रमाण है । यह बात मूलपाठ लिख कर बतलाई जाती है। वह पाठ यह है। "तेणं कालेणं तेणं समएणं धम्मघोसाणं थेराणं अन्तेवासी सुदत्ते नामं अणगारे उराले जाव संखित्त विउल तेउलेसे मासं मासेणं खममाणे विहरन्ति । तत्तेणं सुदत्ते अणगारे मासखमणपारण गंसि पढमाए पोरसीए सज्झायं करेति जहा गोयमसामी तहेव सुधम्मेथेरे आपुच्छति जाव अडमाणे सुमुहस्स गाहावइस्स गिहं अणुपवि । तत्तेणं सुमुहे गाहावइ सुदत्तं अणगारं एज्जमाण पासइ पासित्ता हतु आसणाओ अन्मुट्ठति अन्भुट्टिता पादपीठाओ पचोसहति पाओयाओ मुयह एगसाडिय उत्तरासङ्ग करेइ सुदत्तं अनगारं सत्तट्ठपयाई पच्चुगच्छइ तिक्खुत्तो आयाहिण पयाहिण करेइ वंदइ नमसइत्ता जेणेव भत्तघरे तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता सयहत्थेणं विउलेण असण पाण खाइम साइम पडिलाभेस्सामीति तु? ३ तत्तेणं तस्स सुमुहस्स तेण' व्वसुद्धणं तिविहेणं तिकरण सुद्धणं २ सुदत्ते अणगारे पडिलामएसमाणे परीत्त संसारकए मणुस्साउए निवद्ध" (विपाक सूत्रसुख विपाक) अर्थः उस समय धर्म घोष नामक स्थविरके अन्तेवासी शिष्य सुदत्त नामक अनगार उदार यावत् तेजो लेश्याको गुप्त रखने वाले मास मासका क्षमण करते हुए जीवन व्यतीत करते थे वे मासक्षमण तपस्याके पारणेके दिन प्रथम पौरुषीमें स्वाध्याय करते थे शेष गोतम स्वामीकी तरह समझना चाहिये । वह सुदत्त अनगार अपने गुरु धर्मघोष स्थविरसे पूछ कर यावत् गोचरीके निमित्त जाते हुए सुमुख नामक गृहस्थके घरपर गये। अनन्तर सुमुख गाथापतिने सुदत्त अनगारको आते हुए देख कर हर्षके साथ आसन छोड़ दिया और पादपीठसे नीचे उतरकर पादुकाको छोड़कर एक शाटिक वस्त्रकी उत्तरासंग करके मुनिके सम्मुख सात आठ पैर तक आगे गया । दाहिनी ओरसे उसने मुनिकी तीन वार प्रदक्षिणादी और मुनिको बन्दन नमस्कार करके वह अपने भोजन गृहमें आया। वहां उसको इस बातके लिए बहुत हर्ष हो रहा था कि आज मैं अपने हाथसे मुनिको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ सद्भर्ममण्डनम् । विपुल अशनपान खाद्य और स्वाद्य दूंगा । देते समय भी उसे हर्ष हो रहा था और देनेके अनन्तर भी उसे हर्ष हुआ था इस प्रकार शुद्ध भाव शुद्ध मन वचन और कायसे जो सुमुख गाथापतिने सुपात्र के लिए शुद्ध द्रव्यका प्रदान किया था उससे उसने अपना संसार परिमित करके मनुष्यकी आयु बांधी। यह इस मूल पाठका अर्थ है । इसमें कहा है कि “सुमुख गाथापतिने सुदत्त अनगारको आते हुए देख कर अपना आसन छोड़ दिया और पादपीठसे उतर कर एक शाटिक वस्त्रका उत्तरासंग करके मुनिके सम्मुख सात आठ पैरतक गया, और मुनिको दाहिनी ओरसे तीन वार प्रदक्षिणादी " इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि सुमुख गाथापति सम्यग्दृष्टि था मिथ्यात्वी नही । क्योंकि मिथ्यादृष्टि पुरुष साधुको साधु नहीं समझता किन्तु असाधु समझता है इसलिये वह इस प्रकारका आदर सत्कार मुनिका नहीं कर सकता। जैसे हरिकेशी मुनिको देख कर ब्राह्मण कुमारोंने आदर सत्कार नहीं किया था किन्तु उनका अनादर करने लगे थे उसी तरह सुमुख गाथापति भी मिथ्यादृष्टि होता तो मानका आदर सत्कार नहीं करता किन्तु अनादर करता परन्तु उसने मुनिका सत्कार सम्मान किया था इससे उसका सम्यग्दृष्टि होना सिद्ध होता है । कदाचित् मिथ्यादृष्टि भी कारणवश मुनिका आदर सत्कार करे तो उसका हार्दिक भाव शुद्ध नहीं होता किन्तु उसके हृदयमें मुनिके प्रति अश्रद्धा बनी रहती है परन्तु सुमुख गाथापतिका हार्दिक भाव शुद्ध था इसीलिये मूलपाठमें "हट्टतुट्ठे " यह पद आया है इसका अर्थ यह है कि सुमुख गाथापति मुनिका सत्कार सम्मान करते समय हृदयमें बहुत प्रसन्न था । यदि वह मिथ्यादृष्टि होता तो साधुके प्रति हृष्ट तुष्ट नहीं होता अतः सुमुख गाथापति उस समय सम्यग्दृष्टि ही था मिथ्यादृष्टि नहीं । तथा सुमुख गाथापति जो मुनिको दान दिया था उसका वर्णन करते हुए उक्त मूलपाठमें कहा है कि " सुमुख गाथापतिका दान, दातृ शुद्धि, द्रव्य शुद्धि, और पात्र शुद्धि इन तीनों शुद्धियोंसे युक्त था । ये तीनों शुद्धियां सम्यग्दृष्टिके दानमें ही होती हैं मिथ्यादृष्टिके दानमें नहीं होतीं क्योंकि मिथ्यादृष्टिकी साधुके प्रति अश्रद्धा होनेसे उसका हृदय शुद्ध नहीं होता और हृदय शुद्ध न होनेसे उसके दानमें दाताकी शुद्धि नहीं होती अतः मिथ्यादृष्टियोंके दानमें त्रिविध शुद्धियां नहीं होतीं परन्तु सुमुख गाथापतिका दान तीनों प्रकारकी शुद्धियोंसे युक्त था इसलिए सुमुखगाथापतिका सम्यग्दृष्टि होना स्पष्ट प्रमाणित होता है । 22 इसी तरह इस मूलपाठ में सुमुख गाथापतिके दानको मानसिक शुद्धिसे युक्त होना कहा है यह भी सुमुख गाथापतिके सम्यग्दृष्टि होनेका साधक है। सम्यग्दृष्टिका ही साधु के प्रति मन शुद्ध होता है मिध्यादृष्टिका नहीं । सुमुख गाथापतिका साधुके प्रति मन शुद्ध था इस लिये वह सम्यग्दृष्टि ही था मिथ्यादृष्टि नहीं । एवं सुमुख गाथापतिने मुनिको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। दान देकर अपना संसार परिमित किया था यह भी इसके सम्यग्दृष्टि होनेका साधक है। यद्यपि भ्रमविध्वंसनकारने मिथ्याष्टिका भी संसार परिमित होना लिखा है परन्तु यह बात शास्त्र विरुद्ध है। जबतक अनन्तानुवन्धी क्रोध मान माया और लोभका क्षयोपशम या उपशम नहीं होता तबतक संसार परिमित नहीं होता। अनन्तानुवंधी क्रोधादिका यही अर्थ है कि वह अनन्त संसारका अनुबंध करता है। उसके होते हुए संसार परिमित हो जाय यह बात असंभव है। ठाणाङ्ग सुत्रकी टीकामें "अनन्तानुवंधी" शब्द का अर्थ इस प्रकार लिखा है “अनन्तं भवमनुवघ्नात्यविच्छिन्नंकरोतीत्येवंशीलोऽनन्तानुवन्धी” जो धारा प्रवाह विच्छेदरहित अनन्तकाल तक संसारको उत्पन्न करता है उसे "अनन्तानुवन्धी” कहते हैं। . अनन्तानुवंधी क्रोधादि जबतक सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती तबतक नष्ट नहीं होता और उसके रहते रहते संसारका समुच्छेद नहीं होता इसलिए सुमुख गाथापतिमें अनन्तानुवन्धी क्रोधादिका क्षयोपशम या उपशम होना अवश्य ही मानना पड़ेगा और उसके मान लेनेपर सुमुख गाथापतिका सम्यग्दृष्टि होना अपने आप ही सिद्ध हो जाता है। अतः सुमुख गाथापतिको मिथ्यादृष्टि कायम करके मिथ्यात्व दशाकी क्रियासे संसार का परिमित होना, बतला कर उसे मोक्ष मार्गमें कायम करना अज्ञानियोंका कार्य समझना चाहिए। (बोल १५ वां) (प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ८ के ऊपर मिथ्यात्व दशाकी क्रियासे संसार परिमित होना सिद्ध करनेकेलिए लिखते हैं कि-"वली मेघकुमाररो जीव पा छिले भवे हाथी सुसलारी दया पाली परीच संसार मिथ्यात्वी थके कियो।" इसका क्या समाधन ? (प्ररूपक) हाथीका भव पाया हुआ मेघ कुमारका जीव शशक आदि प्राणियोंकी प्राणरक्षा करते समय सम्यग्दृष्टि था मिथ्यादृष्टि नहीं यह बात ज्ञाता सूत्रके मूलपाठसे सिद्ध होती है। उस मूलपाठमें हाथीको साक्षात् सम्यग्हष्टि कहा है वह पाठ निम्नलिखित है: 'तंजइ ताव तुमं मेहा तिरिक्खजोणियभावमुवागएणं अपडिलद्धसंमत्तरयणलभेणं सेपाए पाणाणुकम्पयाए जाव अन्तराचेव सन्धारिए णोचेवणं णिक्खित्ते" ज्ञाता अध्यनन १) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । इसका टब्वा अर्थ यह है-" तं० तेमाटे तिहां तुम्मे तीजे भवे, मे० मेघा ? यिर्य्यञ्चरी योनि भावइ मु० उपनाहता अ० अनपाम्पो अछतो सम्यक्त्व लीधो रत्नपाम्यो से० तेसिकरी तेप्राणिनी अनुकम्पाइ जा० दयाइ करी जा. यावत् तिहांपग ऊचोराख्यो तेणे मनुष्य भवपाम्यो।" यह टव्वा अर्थ भीषणजीके जन्मसे पहलेका लिखा हुआ प्राचीन है हस्तलिखित प्रतियोंमें इसके लिखे जानेकी मिति संवत् १७६८ लिखी है जैसे कि-"संवत् १७६८ वर्षे शा० १६६३ प्रथम कार्तिके मासे शुक्ल पक्षे ११ तिथौ भृगुवासरे लिपिंचके मुनिक: रसागरः ” यह लिखा है। इसमें “ अपडिलद्धसंमत्त रयण लभेणं " इस पदका अर्थ यह किया है कि "अनपाम्यो अछतो सम्यक्त्वलीधो रत्न पाम्यो" अर्थात् “हाथीने पहले नहीं पाये हुए सम्यक्त्व रूपी रत्नको उस समय प्राप्त किया था।" इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि वह हाथी शशक आदि प्राणियोंकी प्राणरक्षा करतेसमय सम्यग्दृष्टि था मिथ्यादृष्टि नहीं । इस टब्बा अर्थमें जो "अपडिलद्ध सम्मत्त रयणलभेणं" इस पदका सम्यक्त्व रूपी रत्नको पाना अर्थ लिखा है वह व्युत्पत्तिसे भी निकलता है। जैसे कि इस पदकी संस्कृतच्छाया "अप्रतिलब्ध सम्यक्त्व रत्न लंभेन" वनती है। और इसकी व्युत्पत्ति यह है कि "अप्रतिलब्धमप्राप्त यत्सम्यक्त्व रत्नं तल्लभत इति अप्रतिलब्ध सम्यक्त्व रत्न लभस्तेन" अर्थात् पहले कभी नहीं पाये हुए सम्यक्त्व रत्नको प्राप्त करने वाला" यह इसका अर्थ है। इस लिये टव्वाकारका किया हुआ अर्थ व्युत्पत्तिसे भी सङ्गन है तथापि हाथीको मिथ्यादृष्टि कायम करके मिथ्यात्वदशाकी क्रियासे संसारका समुच्छेद बतलाना उत्सूत्र भाषियोंका कार्य समझना चाहिये। कई अशुद्ध टब्बाओंमें उक्त पदका अर्थ अशुद्ध किया है। जैसे भ्रममविध्वंनमें उक्त पदका अशुद्ध टव्वा अर्थ लिखा है ऐसे अशुद्ध टव्वाओंका आश्रय लेकर जगतमें भ्रम फैलाना सच्चे साधुओंका कर्तव्य नहीं है। अतः भ्रमविध्वंसनकारने जो मूलपाठसे विरुद्ध हाथी को मिथ्यादष्टि बतलाया है वह मिथ्या समझना चाहिए। बोल १६ वां (प्रेरक) ज्ञाता सूत्रके मूलपाठमें हाथीको शशकादि प्राणियोंकी प्राणरक्षा करते समय सम्यग्दृष्टि ही लिखा है यह ज्ञात हुआ । परन्तु भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंन पृष्ठ १० के ऊपर लेखते हैं कि “वलीयांमें इज दलपतिरायजी प्रश्न पूछ या तेहना उत्तर दौलतरामजी दीधा त प्रश्नोत्तर मध्ये पिण हाथीने तथा सुमुख गाथापतिने प्रथम गुणठाणे कह्या छै" इसका क्या समाधान ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। (प्ररूपक) दौलतरामजीके साथ दलपतिरायजीके जो प्रश्नोत्तर हुए हैं उसकी सम्बत् १८९१ की लिखी हुई प्रति मेरे पास मौजूद है उसमें हाथी और सुमुखगाथापतिका प्रथम गुण स्थानमें होना कहीं नहीं कहा है अतः उक्त प्रश्नोत्तरीका उदाहरण देकर हाथी और सुमुखगाथापतिको मिथ्यादृष्टि कायम करना मिथ्या है। तथा भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १० के नोटमें दौलतराम जी और दलपतिरायजीको "कोटा बूदीके आसपास विचरनेवाले वाईस सम्प्रदायके साधु" लिखा है यह भी मिथ्या है । दलपतिरायजी देहलीके रहने वाले वाईस सम्प्रदायके प्रसिद्ध श्रावक थे साधु नहीं थे तथा इनके प्रश्नोत्तरमें हाथी तथा सुमुखगाथापतिको मिथ्यात्वी होनेका कथन भी नहीं है अत: उक्त प्रश्नोत्तरीका दाखला देकर जो नोटके अन्दर लिखा है कि "उक्त प्रश्नोत्तरीके १३८ वें प्रश्नके उत्तरमें हाथीको और सुमुखगाथापतिको मिथ्यादृष्टि कहा है" यह सब मिथ्या समझना चाहिए। तेरह पन्थियोंको इस प्रश्नोत्तरीकी बात यदि मान्य हो तो इसके ५८ वे प्रश्नके उत्तरमें मिथ्यात्वीके अन्दर मोक्षप्राप्तिरूप सकाम निर्जराका प्रतिषेध किया है इस लिये मिथ्यादृष्टिको मोक्षमार्गका देशाराधक नहीं मानना चाहिये । वह ५८ वां प्रश्न और उस का उत्तर निम्नलिखित हैं ' “मिथ्यात्वीनो सकाम निर्जरा हो वा न हो, तेहनो उत्तर-मोक्ष प्राप्ति सकाम निर्जरा न होवे" इस प्रश्नोत्तरमें मिथ्यादृष्टिमें मोक्षमार्गका न होना स्पष्ट कहा है तथापि इसी प्रश्नोत्तरीका उदाहरण देकर जीतमलजीने मिथ्यादृष्टिको मोक्षमार्गका आराधक बतलाया है, यह इनका प्रत्यक्ष मिथ्याभाषण समझना चाहिये । ___ यहां विशेष ध्यानमें रखने योग्य बात यह है कि किसी भी आधुनिक छद्मस्थ अल्पज्ञकी बात शास्त्राधारके विना नहीं मानी जाती यह आग्रह तो भ्रमविध्वंसनकारके मतानुयायियोंका ही है जो वावा वाक्यको प्रमाण मान कर लकीरके फकीर बने हैं। उनके भीषणजी आदिकी बात यदि सूत्रके मूलपाठसे भी विरुद्ध हो तो भी उसे वे नहीं छोड़ते यही तो आभिनिवेशिक मिथ्यात्वका लक्षण है। परन्तु सम्यग्दृष्टि पुरुष सूत्रप्रमाणको समझ कर हठ नहीं करते । चाहे किसीका कथन हो सूत्र विरुद्ध बात वे नहीं मानते। [बोल १७ वां समाप्त] (प्रेरक) सुमुखगाथापतिने सुदत्त अनगारको जैसे वन्दन नमस्कार किया था उसी तरह गोशालक शिष्य शकडाल पुत्रने भी भगवान महावीर स्वामीको वन्दन नमस्कार किया था यदि मुनिको वन्दन नमस्कार करना ही सम्यग्दृष्टिका लक्षण है तो फिर गोशालक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ सद्धर्ममण्डनम् । शिष्य शकडाल पुत्रको भी सम्यग्दृष्टि ही मान लेना चाहिये । परन्तु यदि उसे आप सम्यग्दृष्टि नहीं मानते तो फिर सुमुखगाथापतिको सम्यग्दृष्टि क्यों मानते हैं ? ( प्ररूपक ) सुमुखगाथापति वन्दन नमस्कारको गोशालक शिष्य शकडाल पुत्रके वन्दन नमस्कार जैसा बतलाना अयुक्त है सुमुखगाथापतिने विना किसीकी प्रेरणा और दबाव अपनी हार्दिक इच्छा और श्रद्धाभक्तिसे सुदत्त अनगारको वन्दन नमस्कार किये थे परन्तु शकाल पुत्र देवताके कहने, और उसके दबावसे भगवानको वन्दन नमस्कार किया था । इसलिये इन दोनोंके वन्दन नमस्कार तुल्य नहीं हैं । जैसे कोई मनुष्य अपनी स्वाभाविक इच्छासे साधुका आचार पालता है और दूसरा अभव्य होकर भी सांसारिक पूजा प्रतिष्ठा आदिके लोभसे साधुका आचार पालता है ये दोनों पुरुष व्यवहार दशामें यद्यपि साधुका आचार पालने वाले ही कहे जाते हैं तथापि इनके आचारपालनमें तुल्यता नहीं है किन्तु महान भेद है उसी तरह जो अपनी मानसिक इच्छा और श्रद्धाभक्ति से मुनिको वन्दन नमस्कार करता है और जो किसीकी प्रेरणा या दबावसे बन्दन नमस्कार करता है इन दोनोंके वन्दन नमस्कारमें भी तुल्यता नहीं है महान् अन्तर है । सुमुखगाथापतिने अपनी इच्छा और स्वाभाविक श्रद्धा सेमुनिको वन्दन नमस्कार आदि किये थे इसलिये उसका वन्दन नमस्कार सम्यग्दृष्टिका वन्दन नमस्कार है और वह मोक्षका मार्ग है परन्तु शकडाल पुत्रने देवताके कहने से वन्दन नमस्कार किये थे इसलिये उसका वन्दन नमस्कार आन्तरिक भक्तिशून्य द्रव्यरूप होनेसे मिथ्यादृष्टिका वन्दन नमस्कार है वह मोक्षका मार्ग नहीं है । अत: इन दोनोंको तुल्य बतलाना मिथ्या है | शकडाल पुत्रने देवताके कहने से भगवान् महावीरस्वामीको वन्दन नमस्कार किया था अपनी इच्छासे नहीं यह बात उपासक दशांग सूत्रके मूलपाठ में कही है । वह पाठ यह है " समणे भगवं महावीरे सद्दालपुत्तं आजीवियोवासयं एवं वयासी से नूनं सद्दाल पुत्ता ! कल्लं तुमं पुच्वावरण्हाल जेणेव असोगवणिया जाव विहरसि तएणं तुब्भं एगे देवे अंतियं पाउ भवित्था तरणं से देवे अंतलिक्खपडिवन्ने एवं वयासीह'भो सद्दाल पुत्ता ! तंचेव सब्वं जाव पज्जुषासिस्सामि सेनूनं सद्दाल पुत्ता ! अट्ठे समट्ठे ! हंता अत्थि । नो खलु सद्दाल पुत्ता ! तेणं देवेणं गोसालं मंखलि पुत्तं पणिहाय एवं वृत्ते । तएणं तस्स सद्दाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। पुत्तस्स आजीवियो वासयस्स समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्तस्म समाणस्स इमेयाख्वे अज्झत्थिये ४ एसणं समणे भगवं महावीरे महामाहणे उप्पन्ननाणदंसणधरे जाव तच्चकम्मसंपया संपउत्ते" (उपासक दशांग अ० ६) अर्थ श्रमण भगवान महावीर स्वामीने गोशालक शिष्य शकडाल पुनसे कहा कि हे शकडाल पुत्र ! कल सन्ध्या समय अशोक वाटिकामें तू गया हुआ था। वहां एक देवताने तुम्हारे निकट आकाशमें स्थित होकर यह कहा था कि कल यहां महामाहन ज्ञान दर्शनका धारक यावत् सफल क्रियाओंसे युक्त पुरुष आवेगा तुम उसका वन्दन नमस्कार आदि यावत् शय्या संथारासे उपनिमंत्रित करना । यह सुन कर तुमने निश्श्रय किया कि "कल मेरे गुरु गोशालक मंखलिपुत्र आवेंगे उनकी वन्दना नमस्कार आदि यावत् उपासना मैं करूंगा" क्या यह बात सत्य है ? यह सुन कर शकडाल पुत्रने कहा कि हां सत्य है । तब फिर भगवान्ने कहा कि हे शकडाल पुत्र ! उस देवताने गोशालक मंखलिपुत्रके लिये ऐसा नहीं कहा था। इस प्रकार भगवान् महावीर स्वामीके कहने पर शकडाल पुत्रको यह निश्चय हुआ कि यह तो भगवान महावीर स्वामी हैं यही महामाहन ज्ञान-दर्शनके धारक यावत् सफल क्रियाओंसे युक्त है यह इस पाठका अर्थ है। इसमें स्पष्ट कहा है कि भगवान महावीर स्वामीने जब गोशालक शिष्य शकडाल पुत्रसे यह कहा कि “अशोक वाटिकाके अन्दर देवताने जो बात कही थी वह गोशालक मंखलिपुत्रके लिये नहीं" तव शकडाल पुत्रको यह मालूम हुआ कि यह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हैं पर हमारे गुरु गोशालक नहीं हैं। इससे निश्चित होता है कि शकडाल पुत्र अपने गुरु गोशालकको आया हुआ जानकर वहां आया था और आते समय उसने भगवान महावीर स्वामीको गोशालक समझ कर वन्दन नमस्कार किया था। अतः उसका यह वन्दन नमस्कार वास्तवमें भगवान महावीर स्वामीको न होकर उसके गुरु गोशालक मंखलि पुत्रका ही हुआ। पश्चात् भगवान् महावीर स्वामीके कहने पर जब उसका वह भ्रम दूर हुआ और उसने भगवान महावीरको जान लिया तब अशोक वाटिकामें मिले हुए देवताकी प्रेरणासे भगवान महावीर स्वामीको वन्दन नमस्कार किया था परन्तु उनको गुरु जान कर आन्तरिक भक्तिके साथ नहीं इसलिये इसका यह वन्दन नमस्कार भी भावशून्य होनेके कारण अहंभाषित धर्मका अङ्ग नहीं था किन्तु अहंदाज्ञावाह्य और मिथ्यात्व युक्त था। अत: इसे मोक्षमार्गमें नहीं कह सकते । परन्तु सुमुखगाथापतिका वन्दन नमस्कार आन्तरिक श्रद्धाके साथ होनेसे भावरूप था, इसलिये वह मोक्षका मार्ग और वीतराग भाषित धर्मका अङ्ग था। ऐसा भावरूप वन्दन नमस्कार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० सद्धममण्डनम् । सम्यग्दृष्टियोंका ही होता है मिथ्यादृष्टिका नहीं। अतः सुमुखगाथापतिके वन्दन नमस्कारको शकडाल पुत्रके वन्दन नमस्कार जैसा बतलाना शास्त्र नही जाननेका फल समझना चाहिये। [बोल १८ वां समाप्त (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १४ के ऊपर लिखते हैं कि “अथ क्रियावादी मनुष्य तिर्यञ्च रे एक वैमानिक रो बंध को और आयुषो बांधे नहीं इमि कह्यो ते मांटे सुमुख गाथापति, तथा हाथी तथा सुत्रती मनुष्य इहां कह्या तेसर्वने मनुष्यनो आयुषानो बन्ध कह्यो ते भणी ए सम्यग्दृष्टि नहीं ते मांटे मनुष्यनो आयुषो बांध्यो छै सम्यग्दृष्टि हुवे तो वैमानिकरो वन्ध कहता" इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भगवती सूत्र शतक ३० उद्देशा १ में कहा है कि "क्रियावादी मनुष्य एक वैमानिकके सिवाय दूसरेकी आयु नहीं बांधते" इसका अभिप्राय भ्रमविध्वंसनकारने नहीं समझा है इसीलिये वह मनुष्यका आयुबंध देख कर सुमुख गाथापति और हाथीको मिथ्यादृष्टि कहते हैं। भगवतीके उक्त कथनका आशय यह है कि जो मनुष्य और तिर्यञ्च विशिष्ट क्रियावादी होते हैं और अतिचार रहित निर्मल प्रतका पालन करते हैं वे वैमानिक की ही आयु बांधते हैं परन्तु सामान्य क्रियावादी नहीं। यदि कोई कहे कि भगवतीमें तो सिर्फ क्रियावादी भी लिखा है विशिष्ट क्रियावादी नहीं लिखा है फिर आप विशिष्ट क्रियावादी अर्थ क्यों करते हैं ? तो इसका उत्तर यह है कि दशाश्रुतस्कन्ध सूत्रके मूलपाठमें महारंभी महापरिग्रही क्रियावादी मनुष्यको उत्तरपथगामी नरकयोनिमें जाना भी कहा है यदि सभी क्रियावादी वैमानिककी ही आयु बांधते तो दशाश्रुतस्कन्ध सूत्रमें क्रियावादी मनुष्यको नरकयोनिकी आयु बांधना कैसे कहा जाता ? अतः निश्चित होता है कि भगवतीके मूलपाठमें जिस क्रियावादीके लिये एक वैमानिककी ही आयु बांधनेका नियम किया है वह विशिष्ट क्रियावादी है पर सभी क्रियावादी नहीं। दशाश्रुत स्कन्ध सूत्रमें क्रियावादी मनुष्यको नरक योनिमें जाना कहा है वह पाठ यह है सेकिंतं किरियावाइयावि भवइ ? तंजहा-आहियवाइ आहियपन्ने आहिय दिट्ठी सम्मावादी निइवादी संतिपरलोकवादी अस्थि इहलोके अत्थि परलोके अत्थि माया अत्थि पिया अत्थि अरिहन्ता अत्थि चकवधी अत्थि वलदेवा अत्थि वासुदेवा अत्थि सुक्कडदुक्क Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। डाणं फल वित्तिविसेसे सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवंति सफले कल्लाणे पावए पञ्चायंति जीवा अत्थि नेरइया देवा सिद्धि से एवंवादी एवंपन्ने एवंदिट्ठी छन्दरागमतिनिविठ्ठ आविभवइ से भवइ महेच्छे जाव उत्तर गामिए नेरइए सुक्कपक्खिए आगमेसाणं सुलभ वोहियावि भवइ सेतं किरियावादी सव्वधम्मरुचियावि भवई".... (दशाश्रु त स्कन्ध सूत्र). इसका टीकानुसार अर्थ यह है(प्रश्न ) क्रियावादी किसे कहते हैं ? (उत्तर) जो शास्त्रोक्त आत्मादिपदार्थो को सत्य और मोक्षोपयोगी पदार्थो को उपादेय तथा उसके प्रतिकूल वस्तुको हेय समझते हैं जो, जिसका जैसा स्वरूप है उसे उसी तरह अविपरीत बतलाते हैं और आस्तिकताके समर्थक सम्यग्दृष्टि हैं जो, मोक्षकी नित्यता और स्वर्ग, नरक, माता, पिता, इहलोक, परलोक, अरिहंत, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, इनका अस्तित्व मानते हैं। जो शुभ और अशुभ कर्मों का क्रमशः शुभ तथा अशुभ फल होना स्वीकार करते हैं जो शुभाशुभ कर्मों का फल भोगनेके लिये आत्माको विविध योनियों में जाना अङ्गीकार करते हैं जो नरक, मनुष्य, तिर्यञ्च, देवता, और मुक्तिको सत्य बताते हैं तथा पूर्वोक्त सभी बातोंमें जिसकी निश्चयात्मक मान्यता है वे क्रियावादी कहलाते हैं। ऐसे क्रियावादी यदि महारंभी महापरिग्रही और महान् इच्छावाले हों तो उत्तरपथगामी नरकयोनिमें जन्म पाते हैं परन्तु वे शुक्लपक्षीय और भविष्यमें सुलभ वोधी होते हैं । यह उक्त मूलपाठका अर्थ है। इसमें कहा है कि जो क्रियावादी मनुष्य महारंभी महापरिग्रही और महान् इच्छा वाले होते हैं वे उत्तरपथगामी नरकयोनिमें जाते हैं। यदि सभी क्रियावादी एक वैमानिक की ही आयु बांधते तो इस पाठमें क्रियावादी मनुष्यको नरकयोनिमें जाना कैसे कहा जाता ? अत: भगवती सूत्र शतक ३० उद्देशा १ में विशिष्ट क्रियावादीके लिए ही वैमानिकके आयुबंधका नियम कियाजाना समझना चाहिये सभी क्रियावादियोंके लिये नहीं। ___ इस विषयमें भगवती सूत्र शतक १ उद्देशा २ का मूलपाठ भी प्रमाण है । वह पाठ यह है "अविराहिय संजमाणं जहण्णेणं सोहम्मे कप्पे उकोसेणं स... ब्बठ्ठसिद्ध विमाणं। विराहिय संजमाणं जहण्णेणं भुवणवासिखें: उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे । अविराहिय संजमासंजमाणं जहण्णणं सो . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ सद्धर्ममण्डनम् । हम्मे कप्पे उक्कोसेणं अच्चुए कप्पे । विराहिय संजमासंजमाणं जहपणेणं भुवणवासीसु उक्कोसेणं जोइसिएसु। ( भगवती श० १ उद्देशा २) अर्थ संयमकी विराधना नहीं करने वाले आराधक साधु यदि देवलोकमें उत्पन्न होवें तो जघन्य प्रथम स्वर्ग सौधर्म कल्पमें और उत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध नामक विमानमें उत्पन्न होते हैं। तथा संयम की घिराधना करने वाले विराधक साधु यदि देवलोकमें उत्पन्न होवें तो जघन्य भुवनवासी और उत्कृष्ट सौधर्म कल्प प्रथम स्वर्गके देवता होते हैं। एवं अतिचार राहत अपने ब्रतकी आराधना करने वाले आराधक श्रावक देवलोकमें उत्पन्न हों तो जवन्य प्रथम स्वा सौवर्म कल्प और उत्कृष्ट अच्युत कल्प यानी बारहवें वन में उत्पन्न होते हैं। तथा विरावक श्रावक यदि देवलोकमें उत्पन्न होवें तो जवन्य भुवनवासी और उत्कृष्ट ज्योतिष्को उत्पन्न होते हैं। यह मूलपाठका अर्थ है। इसमें विराधक श्रावकको जघन्य भुवनवासी और उत्कृष्ट ज्योतिष्कमें उत्पन्न होना कहा है। यदि सभी क्रियावादी एक वैमानिक देवकी ही आयु बांधते तो इस मूल पाठमें विराधक श्रावकको जघन्य भुवनवासी और उत्कृष्ट ज्योतिष्कमें जाना क्यों कहा जाता ? क्योंकि विराधक श्रावक भी क्रियावादी ही है अक्रियावादी नहीं है। अत: निश्चित होता है कि सभी क्रियावादी मनुष्य और तिर्साच एक वैमानिककी ही आयु नहीं बांधते किन्तु सामान्य क्रियावादी मनुष्य और तिय्यं च अपने अपने कर्मानुसार दूसरे भवों में भी जाते हैं। अतः भगवती शतक ३० उद्देशा १ के मूलपाठका नाम लेकर सभी क्रियावादियोंको एक वैमानिकका ही आयुवन्ध बतलाना मिथ्या है । जब कि क्रियावादी मनुष्य और तिर्यकच वैमानिकके सिवाय दूसरे की भी आयु बांधते हैं तब मनुष्य का आयुबंध होना देख कर हाथी और सुमुखगाथापतिको मिथ्यादृष्टि कहना मिथ्याहष्टियोंका कार्य समझना चाहिये। (बोल १९ वां समाप्त) (प्ररूपक) सामान्य क्रियावादी मनुष्य और तिय्यञ्च वैमानिक देवके सिवाय दूसरे भवमें भी जाते हैं इसका प्रमाण और भी दिया जाता है भगवती शतक ८ उद्देशा १० के मूलपाठमें जघन्य ज्ञान और जघन्य दर्शनाराधनाका फल जघन्य तीन और उत्कृष्ट सात आठ भवसे मोक्ष जाना बतलाया है इसका अभिप्राय बतलाते हुए टीकाकारने लिखा है कि जघन्य तीन और उत्कृष्ट सात आठ भवोंमें जो यहां मोक्ष जाना कहा है वह चारित्राराधनाके सहित जघन्यज्ञान और जघन्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। दशनाराधनाका फल समझना चाहिये क्योंकि चारित्र रहित ज्ञान दर्शन तथा देश व्रतकी . आराधनासे उत्कृष्ट असंख्य भव भी होते हैं। इस टीकाकारकी बातको स्वीकार करते हुए जीतमलजीने "प्रश्नोत्तर तत्ववोध" नामक ग्रन्थमें लिखा है कि "अष्टम शतके भगवती दशम उद्देशे इष्ट जघन्य ज्ञान आराधना सत अठ भव उत्कृष्ट । वृत्तिकार का यह विध चरित सहित जे ज्ञान तेहनी जघन्य आराधना तसुभव ए पहिचान बीजा समदृष्टि तणा देशवतीना जे ह । भव उत्कृष्ट असंख्य छै न्याय वचन छै एह । इन दोहोंमें टीकाकारकी बातको प्रमाण मानते हुए जीतमलजीने चारित्र रहित जघन्य ज्ञान दर्शन तथा देशवतकी आराधनासे उत्कृष्ट असंख्य भव होना भी स्वीकार किया है। अब इनको क्रियावादी मनुष्य और तिर्यञ्चका वैमानिक भवके सिवाय दूसरे भवका ग्रहण करना भी मानना पड़ेगा। क्योंकि जिस जघन्य ज्ञान दर्शन तथा देशवत के आराधक पुरुषको असंख्य भवोंसे मोक्ष जाना है वह अपनी असंख्य भवोंकी पूर्ति वैमानिक और मनुष्य भवोंमें ही नहीं कर सकता क्योंकि मनुष्य भवसे वैमानिकका और वैमानिकसे मनुष्य भवका लगातार सात आठ वारसे अधिक होना भगवती शतक २४ में वर्जित किया है। इसलिये असंख्य भवों की पूर्ति के लिये उसे वैमानिकके सिवाय दूसरा भव करना ही होगा इस प्रकार जब कि असंख्य भवांसे मोक्ष जाने वाले जघन्य ज्ञान दर्शन तथा देशबती पुरुषका वैमानिकके सिवाय दूसरेका आयुर्वध होना भ्रमविध्वंसनकार को स्वीकृत है तब फिर क्रियावादी मनुष्य और तिर्यञ्चका वैमानिक देवके सिवाय दूसरा भव ग्रहण करना भी अपने आप ही स्वीकार हो जाता है क्योंकि जघन्य ज्ञान दर्शन तथा देशवतका आगधक पुरुष क्रियावादी ही है अक्रियावादी नहीं। अत: भगवती सूत्र शतक ३० उद्देशा एकका नाम लेकर सभी क्रियाबादी मनुष्य और तिय्येन्चको एक वैमानिकका ही आयु बंध बतलाना मिथ्या समझना चाहिये । [बोल २० वां समाप्त (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १३ के ऊपर उत्तराध्ययनसूत्र अध्ययन ७ गाथा बीसवींको लिख कर उसकी समालोचनामें लिखते हैं कि "एतो मिथ्यात्वी अनेक भला गुणां सहितने सुव्रती कह्यो । ते भली करणी आज्ञा मांहि छै। अने क्षमादि गुग आज्ञामें नहीं हुवे तो सुबती क्यू कयो । ते क्षमादिगुणारी करणी अशुद्ध हुवे तो कुलती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । कहता एतो साम्प्रत भली करणी आश्रय मिथ्यात्वीने सुत्रती को छै । अने जो सम्यदृष्टि हुवे तो मरीने मनुष्य हुवे नहीं" इसका क्या समाधान ? ४४ ( प्ररूपक ) उत्तराध्ययन सूत्रकी वह गाथा दीपिका के साथ लिख कर इसका समाधान किया जाता है - वह गाथा यह है- "वे मायाहिं सिक्खाहिं जेनरा गिहिसुब्वया । उवेंति माणुस जोणिं कम्म सच्चाहु पाणिणो " ( उत्तरा० अ० ७ गाथा २० ) इसकी दीपिका यह है " मानुषं योनिं के ब्रजन्ति तदाह – ये नराः विमात्राभिर्विविधप्रकाराभिः शिक्षा भिः गृहिसुत्रताः गृहिणश्चते सुनताश्च गृहिसुव्रताः गृहीतसम्यक्त्वादिगृहस्थद्वादशघ्रताः सत्यान्यवंध्यफलानि ज्ञानावरणीयादीनि कर्माणि येषां तेसत्यकर्माणः कर्मसत्याः प्राकृतत्वात्कर्म शब्दस्य प्राक्प्रयोगः ते जीवा "हु" इति निश्वयेन मानुषं योनि मुत्पद्यन्ते” इसका अर्थ यह है— मनुष्य योनिमें कौन प्राणी जन्म लेते हैं यह इस गाथामें बतलाया है। जो मनुष्य विविध प्रकारकी शिक्षाओंसे युक्त और गृहस्थ सम्बन्धी सम्यक्त्व आदि बारह व्रतोंके धारक हैं तथा जिनके ज्ञानावरणीयादि कर्म अवश्य फल देनेवाले हैं वे अवश्य मनुष्य योनिमें जन्म पाते हैं । यह गाथाकी दीपिकाका अर्थ है । S यहां सुव्रत शब्दका अर्थ दीपिका कारने बारह व्रतधारी किया है इस लिए इस गाथा में कहा हुआ सुवतपुरुष सम्यग्दृष्टि है मिथ्या दृष्टि नहीं । अतः इस गाथा में कहे हुए सुव्रत पुरुषको मिथ्या दृष्टि बतलाना दीपिकासे विरुद्ध समझना चाहिए । यदि कोई कहे कि इस गाथामें कहा हुआ सुव्रत पुरुष सम्यग्दृष्टि होता तो वह मनुष्यभवमें क्यों जाता क्योंकि सम्यग्दृष्टि मनुष्य एक वैमानिककी ही आयु बांधते हैं तो इसका समाधान इसके पूर्व बोलोंमें विस्तारके साथ सप्रमाण दे दिया गया है और यह सिद्ध कर दिया है कि सम्यग्दृष्टि मनुष्य भी वैमानिक देवसे भिन्न भवको प्राप्त करते हैं अतः मनुष्य भवके पानेसे गाथोक्त सुव्रत पुरुषको मिथ्यादृष्टि बतलाना अयुक्त समझना चाहिए । ( बोल २१ वां समाप्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। -- (प्रेरक) सामान्य व्रतधारी श्रावकका वैमानिक देवके सिवाय दूसरा भव पाना शास्त्रीय विधि वादसे तो आपने सिद्ध कर दिया परन्तु कहीं चारितानुवादमें इसका उदाहरण मिलता हो तो उसे भी बतलाइए। (प्ररूपक) भगवती शतक ७ उद्देशा ९ के मूलपाठमें सामान्य व्रतधारी पुरुषका मनुष्य भव छोड़ कर फिर मनुष्य भवमें जन्म पानेका उदाहरण मिलता है यह बात पाठ लिख कर बतलाई जाती है। वह पाठ यह है "तएण तस्स नागनत्तूयस्स एगे पियवालययंसए रह मुसलं सङ्गामेमाणे एगेणं पुरिसेण गाढप्पहारीकएसमाणे अत्यामे जाव अधारणिजमोति कटु वरुण नागनत्तूयं रहमुसलाओ सङ्गामाओ पडिनिक्खममाणं पासइ, पासइत्ता तुरगे निगिह णइ निगिह णइत्ता जहावरुणे जाव तुरए विसज्जेइ, पडसन्थारगं दुरुहइ दुरुहइत्ता पुरत्थाभिमुहे जाव अञ्जलिं कडु एवं वयासी-जाइणं मम पियवाल वयं सस्स वरुणस्त नागनतूयस्स सीलाई वयाई गुणाई वेरमणाई पञ्चक्खाणपोसहोववासाई ताइणं ममंपि भवन्तुत्ति कटु सण्णाह पट्ट परिमुयइ मुयइत्ता सल्लूद्धरण करेइ करेइत्ता आणुपुव्वीए काल गए" - इसके अनन्तर एक और पाठ आया है वह यह है ___ "तस्सणं भन्ते ! नागनत्तयस्स पियवालवयंसए काल मासे कालंकिच्चा कहिं गए कहिं उववन्ने ? गोयमा ! सुकुले पच्चाजाए । सेणंभन्ते ! तवा ओहितो अणंतर उवहिता कहिंगछिहिंति ? गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अन्तं करेहिंति सेवं भन्ते भन्तेति" (भगवतीशतक ७ रहे शा ९) इन पाठोंके अर्थ क्रमशः दिये जाते हैं उस समय वरुणनाग नत्तू याका प्रियबाल मित्र, रथ सुपल नामक संग्राम में युद्ध करता हुआ किसीसे गाढ प्रहारको प्राप्त होकर बहुत शक्तिहीन हो गया। उसी समय अपने बाल मित्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । बरुगको भी घायल होकर संग्राम भूमिसे बाहर जाते देखा । पश्चात् वह युद्ध भूमिसे बाहर आकर घोड़ोंको जङ्गलमें छोड़ अपने प्रियवालमित्र वरुणके समान कपड़ेके सन्यारेपर बैठ गया। संथारेपर बैठ कर पूर्वाभिमुख हो हाथ जोड़ कर कहने लगा कि-"प्रियवाल मित्र वरुगनाग नत्तू याके समान मेरे भी शील, प्रत, गुग, विरमग, प्रत्याख्यान, पौषधोपवास आदि सत्कर्म हों।" यह कह कर उसने अपने सन्नाहको निकाला । पश्चात् अङ्गमें चुभे हुए बाणको निकालकर मृत्युको प्राप्त हुआ। (यह पहले पाठका अर्थ है।) इसमें वरुगनागनत्तू याके प्रियवाल मित्रका सामान्य रूपसे बारह व्रतधारण करना कहा है। इस पाठमें जो शील, व्रत, गुग और विरमग शब्द आये हैं इनका अर्थ टीकाकारने इस प्रकार किया है "वयाई" त्ति अहिंसादीनि गुगाईत्ति गुगव्रतानि 'वेरमणाइ'त्ति सामान्येन रागादि विरतयः । “पञ्चक्खाग पोसहो वासाई "त्ति प्रत्याख्यानं पौरुष्यादिविषयं पौषधोपवासः पर्व दिनो पवासः" इसका अर्थ यह है यहां व्रत, अहिंसा समझनी चाहिए। तथा “गुण" शब्दका अर्थ गुणव्रत और विरमण शब्दका सामान्यतः रागादि निवृत्ति अर्थ जानना चाहिए। एवं प्रत्याख्यान नाम पौरुषी आदि कालतक त्याग करनेका है और पर्वके दिन उपवास करनेका नाम पौषधोपवास है । यह टीकाका अर्थ है । यहांटीकाकारने व्रत आदि शब्दोंका अहिंसादि अर्थ किया है। उन व्रतोंको वरुण नागनतू याके प्रियवाल मित्रसे ग्रहण किया जाना ऊपर लिखे हुए मूलपाठमें लिखा है इस प्रकार वरुणनागनत याके प्रियालमित्रने सामान्य रूपसे बारह व्रतधारी होकर मनुष्य योनिमें जन्म लिया था यह ऊपर लिखे हुए दूसरे पाठमें कहा है । उस पाठका अर्थ यह है (प्रश्न) हेभगवन् ! वरुगनाग नत्त याका प्रियवाल मित्र मृत्युको प्राप्त होकर किस योनिमें उत्पन्न हुआ ? (उत्तर) हे गोतम ! वह मनुष्य लोकमें उत्तमकुलके अन्दर उत्पन्न हुआ। (प्रश्न) अब वह किस योनिमें जन्म लेगा ? (उत्तर) वह मनुष्य भवसे निकल कर महाविदेह क्षेत्रमें मनुष्य भवको प्राप्त करके सिद्ध होगा यावत् कर्मोका अन्त करेगा। यह दूसरे पाठका अर्थ है। ___ इसमें, सामान्य रूपसे बारह व्रतधारी वरुणनागनत याके प्रियबालमित्रका मनुष्य भव छोड़ कर फिर मनुष्य भवमें ही जन्म लेना कहा है यह सामान्य व्रतधारी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। - - श्रावकका मनुष्य भव छोड़ कर फिर मनुष्य भवमें आनेका ज्वलन्त उदाहरण है इसलिये उत्तराध्यन सूत्रके अध्ययन ७ की बीसवीं गाथामें कहे हुए सुव्रत शब्दका सामान्य व्रतधारी अर्थ है मिथ्यादृष्टि नहीं। . (बोल २२ वा समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १६ के ऊपर उत्तराध्ययन सूत्रके अध्ययन ९ की चौवालीसवीं गाथा लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि-. “अथ इहां तो मिथ्यात्वीनो मास क्षमग तप सम्यग्दृष्टिना चारित्र धर्मने सोलवीं कला न आवे एवं कयो । तेचारित्र धर्मतो संवर छै तेहने सोलबों कलाइन आवे कह्यो ते सोलवी कलाईज नाम लेइ बतायो पिग हजारमेंइ भाग न आवे तेहने संवर धर्म छै इज नहीं। पिग निर्जरा धर्म आश्रय कयो नथी निर्जरा धर्म निर्मल छै तेकरणी तपस्या शुद्ध छै आज्ञामांहि छै" (भ्र० पृ० १६-१७) इसका क्या समाधान(प्ररूपक) उत्तराध्ययन सूत्रकी वह गाथा लिख कर इसका समाधान किया जाता है। वह गाथा यह है "मासे मासेउ जोवालो कुसग्गेण तु भुञ्जइ नसो सुक्खाय धम्मस्स कल अग्घइ सोलसिं" (उत्तरा० अ० ९ गाथा ४४) जो पुरुष, बाल यानी मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है वह हर एक मासमें कुशके अग्रभागमें जितमा अन्न ठहरता है उतना ही खाका चाहे कुशके अग्रभागको ही खाकर रह जावे तो भी वह जिनोक धर्मके आचरण करनेवाले पुरुषके सोलहवें अंशके बराबर भी नहीं होता। यह इस गाथाका अर्थ है। __यहां मास-मास क्षमग रूप घोर तपस्या करने वाले मिथ्यादृष्टि अज्ञानीको जिनोक्त धर्मका आचरण करने वाले पुरुषके सोलहवें अंशके बराबर भी न होना कहा है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि मिथ्यादृष्टिकी कठिनसे कठिन भी तपस्या, वीतरागकी आज्ञामें नहीं है। यदि वह आज्ञामें होती, तो उस तपस्याके आचरण करनेसे गायोक्त मिथ्यादृष्टि पुरुष भी जिनोक्त धर्मका ही आचरण करनेवाला होता और जब वह जिनोक्त धर्मका आचरण करने वाला होता तो उसके लिये इस गाथामें यह कदापि नहीं कहा जाता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धममण्डनम् । कि “उक्त तपस्या करने वाला मिथ्यादृष्टि जिनोक्त धर्मका आचरण करनेवाले पुरुषके सोलहवें अंशमें भी नहीं है।" क्योंकि जो पुरुष जिनोक्त धर्मका आचरण न करके किसी अन्यके धर्मका आचरण करता है उसीके लिये यह कहा जा सकता है कि “यह जिनोक्त धर्मका आचरण करनेवालेके सोलहवें अंशमें भी नहीं है” परन्तु जो जिनोक्त धर्मका ही आचरण करता है उसके लिये ऐसा नहीं कह सकते क्योंकि वह तो स्वयमेव जिनोक्त धर्मका ही आचरण करने वाला है। अत: इस गाथामें कही हुई मिथ्यात्वीकी तपस्या वीतरागकी आज्ञामें नहीं है और उसके आज्ञामें न होनेसे उसका आचरण करनेवाला गाथोक्त बाल तपस्वी भी जिनोक्त धर्मका आचरण करनेवाला नहीं है। अतएव उसे जिनोक्त धर्मका आचरण करनेवाले पुरुषके सोलवें अंशमें भी न होना कहा है। इसलिए इस गाथासे मिथ्यादृष्टिकी तपस्या स्पष्ट रूपसे जिन आज्ञा बाहर सिद्ध होती है । टीकाकारने भी गाथोक्त वाल तपस्वीकी तपस्याको जिन आज्ञासे बाहर बतलाया है वह टीका यह है “घोरस्यापि स्वाख्यातधर्मस्यैव धर्मार्थिनाऽनुष्ठेयत्वादन्यस्यत्वात्मविघातादिव दन्यथात्वात् " अर्थात् जो धर्म जिन भाषित है वह यदि घोर ( कठिन ) हो तो भी धर्मकामी पुरुषोंसे आचरण करने योग्य है परन्तु जो घोर-धर्म जिन भाषित नहीं है वह आत्मघातादिकी तरह आचरण करने योग्य नहीं है । यह इस ठीकाका अर्थ है। इसका तात्पर्य यह है कि गाथोक्त बालतपस्वीकी मास क्षमण तपस्या यद्यपि घोर है तथापि जिन भाषित न होनेके कारण धर्मार्थी पुरुषोंसे आचरण करने योग्य नहीं है। यदि गाथोक्त बाल तपस्वीकी तपस्या जिन भाषित धर्ममें होती तो उसे टीकाकार जिन भाषित न होना क्यों कहते ? इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि गाथोक्त बाल तपस्वीकी मासक्षमण तपस्या जिन आज्ञामें नहीं है इसी लिये उसे टीकाकारने अनाचरणीय कहा है और मूलगाथामे उसे जिनभाषित धर्मके सोलहवें अंशमें भी न होना बतलाया है। तथापि भ्रमविध्वंसनकारने गाथोक्तवालतपस्वीकी मिथ्यात्व युक्त तपस्याको वीतरागकी आज्ञामें होना बतलाया है यह प्रत्यक्ष उक्तगाथा और उसकी टीकासे विरुद्ध है। यद्यपि अपनी बातको सत्य और शास्त्रानुकूल सिद्ध करनेके लिये भ्रमविध्वंसनकारने यहां यह कल्पना की है कि “ मिथ्यादृष्टिमें संवर नहीं होता इसलिए उसे संवर धर्मवाले पुरुषके सोलहवें अंशमें न होना इस गाथामें कहा है" तथापि उनकी यह कल्पना निराधार है इस गाथामें "संवर" का नाम भी नहीं आया है यहां तो “स्वाख्यात धर्म " कहा गया है। स्वाख्यात धर्म वही है जो जिनवरोंसे कहा हुआ है। उस जिनवर भाषित धर्मसे जो अन्य धर्म है, यानी जो जिनोक्त धर्म नहीं है उसे इस गाथामें जिनोक्त धर्मके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः । सोलहवें अंशमें न होना बतलाया है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि यहां जिन भाक्ति धर्मका और जो धर्म जिन भाषित नहीं है उसका भेद बतलाया गया है, संवर और निर्जरा का विचार यहां नहीं किया है। अतः इस गाथासे मिथ्यादृष्टिकी तपस्या बीतरागसे नहीं कही हुई स्पष्ट सिद्ध होती है तथापि उसे आज्ञामें कायम करके मिथ्यादृष्टि अज्ञानीको मोक्षमार्गका आराधक बतलाना सूत्रार्थ नहीं समझनेका परिणाम है। __ (बोल २३ वां समाप्त) (प्रेरक) ___ भ्रमविध्वंसकार भ्र० पृ० पृष्ठ१८ के ऊपरसुयगडांग सूत्रकी गाथा लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि-"इहां सूत्रमें तो कह्यो जे मासने छाडे भोगवे पिण माया करे ते मायाथी अनन्त संसार भमे एतो मायाना फल कसा छै। पिण तपने खोटो कयो नथी इहां तो तपने अपूठो विशिष्ट कयो "आगे चलकर लिखते हैं कि “तिवारे कोई कहे ए आज्ञा माहिली करणी छै तो मोक्ष क्यं वर्जी तेहनो उत्तर-एहनो श्रद्धा ऊंथी ते मांटे मोक्ष नथी परं मोक्षनो मार्ग वज्यों नथी जे अव्रती सम्यग्दृष्टि शान सहित छै तेहने पिण चारित्र विन मोक्ष नथी परं मोक्षनो मार्ग कहिए” (भ्र० पृष्ठ १८) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) - सुयगडांग सूत्रकी वह गाथा लिखकर इसका समाधान किया जाता है। वह गाथा यह है "जइ विय णिगणे किसे घरे जइषिय भुञ्जिय मासमन्तसो जे इह मायाइमिजह आगन्ता गम्भाय गन्तसो" (सुयगडांग श्रु. १ अ०.२ उ० १ गाथा ९) अर्थ (जे इह मायाइ मिजइ ) जो पुरुष माया यानी अनन्तानुबन्धी कषायोंसे युक्त मिथ्यादृष्टिहै वह घरवार आदि सब प्रकारके वाह्य परिग्रहोंको छोड़ कर नगा और कृश होकर विचरे तथा मास-मास पर्यन्त उपवास करता हआ उसके अम्समें पारणा करे तो भी वह अनासकाल तक गर्भ में ही जाता है। अर्थात् उसका संसार घटता नहीं। इस गाथामें कहा है कि मिथ्यादृष्टि अज्ञानी पुरुष घर वार छोड़ कर नना और कृश होकर विवरे और मास-मासकी तपस्या करके उसके अन्तमें पारणा करे तो भी वह : अनन्त कालतक गर्भवासको ही प्राप्त होता है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि मिथ्यादृष्टि अज्ञानीकी तपस्या वीतरागकी आज्ञामें नहीं है। यदि वह आशामें होती तो उस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । तपस्यासे संसारका अन्त न होकर अनन्त कालतक गर्भवास भोगना क्यों पड़ता ? जो किया वीतरागसे कही हुई है उसका आचरण करनेवाला पुरुष कदापि अनन्त संसारी नहीं होता। यदि वीतराग भाषित क्रियाके आचरण करनेपर भी संसारका अन्त न हो तो फिर मोक्षार्थियोंके लिए कोई आश्रय ही नहीं रहता । अतः मिथ्यादृष्टिको वीतरागकी आज्ञा में होने बाली क्रियाका आराधक मानना और उस क्रिया के करनेपर भी अनन्त कालतक गर्भवास की प्राप्ति कहना अज्ञानका परिणाम है । ५० इस गाथामें मिथ्यादृष्टिकी तपस्याको गर्भवासका कारण बतला कर साफ साफ उसे आज्ञा बाहर और मोक्षमार्ग में न होना बतलाया है । अतएव इस गाथासे आगे की गाथाका इससे सम्बन्ध मिलाते हुए टीकाकारने लिखा है कि " यतो मिथ्यादृष्टयुपविष्ट तपसाऽपि न दुर्गति मार्ग निरोधोऽतो मदुक्त एव मार्गे स्थेयम् इत्येतत्संदर्भमुपदेशं दातु माह " इसका अर्थ यह है कि “मिध्यादृष्टियोंसे उपदेश की हुई तपस्या दुर्गतिके मार्गको नहीं रोक सकती इस लिए मेरे बताए हुए मार्ग ( वीतराग भाषित धर्म ) में ही रहना चाहिए यह उपदेश देनेके लिए अगली गाथा कहीं गई है। यह इस टीकाका अर्थ है । इसमें मिथ्यादृष्टि अज्ञानियोंकी तपस्याको स्पष्ट रूपसे मिथ्यादृष्टियोंसे उपदेश की हुई बतलाया है वीतरागसे कही हुई नही कहा है इसलिए मिथ्यादृष्टिकी क्रिया स्पष्ट आज्ञा बाहर सिद्ध होती है । यदि यह मोक्ष मार्गमें होती तो उससे दुर्गतिका निरोध क्यों नहीं होता ? तथा उसे छोड़ कर फिर वीतराग भाषित धर्ममें आनेकी भी क्या आवश्यकता थी ? जबकि यह भी वीतराग भाषित ही होती तो इसे छोड़ कर वीतराग भाषित धर्म में नेके लिए इसकी आगेकी गाथामें क्यों कहा जाता ? अतः मिथ्यादृष्टिकी तपस्याका जिनोक्त धर्म और मोक्षमार्ग में न होना स्पष्ट सिद्ध होता है । तथापि इस गाथाका अन्यथा तात्पर्य बतला कर भ्रमविध्वंसनकारने यह भ्रम फैलाया है कि 'मिथ्यादृष्टिकी तपस्या तो वीतरागकी आज्ञामें ही है पर मिथ्यादृष्टि मायाकरता है इसलिए उसको अनन्त कालतक गर्भवास भोगना यहां कहा है " यह इनका कथन नितान्त इस गाथासे विरुद्ध है । इस गाथा में मिथ्यादृष्टिकी तपस्याको मोक्षार्थी पुरुषोंसे सर्वथा त्यागने योग्य बतछाने के लिए उससे दुर्गति मार्गका निरोध न होना कहा है । यदि वह तपस्या मोक्ष मार्ग में होती तो उसे छोड़नेके लिये आग्रह करनेकी क्या आवश्यकता थी । तथा "जे इह मायाइ मिज्जइ " यह जो इस गाथामें वाक्य आया है उसका भी अर्थ यह नहीं है कि "ओ पुरुष माया करता है।" इसका अर्थ टीकाकारने इस प्रकार किया है कि – “यः तीर्थकः मायादिना मीयते उपलक्षणार्थत्वात्कषायैर्युक्त इत्येवं परिच्छेिद्यते " इसका अर्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्वात्विक्रियाधिकारः। “जो पुरुष माया मादि यानी कषायोंसे युक्त कह कर बतलाया जाता है।" यह है। वह पुरुष मिथ्यादृष्टि है उस मिथ्यादृष्टि का निर्देश करनेके लिए इस गाथामें "जे इह मायार मिज्जा" यह वाक्य आया है। अतः इस वाक्यका आश्रय लेकर मायाके कारण संसारका अन्त न होना बतला कर मिथ्यादृष्टिकी तपस्याको मोक्षमार्गमें कायम करना अज्ञान मूलक है। यदि मायाके कारण अनन्त कालतक गर्भवास भोगना पड़े तो दशम गुण स्थान सकके जीवोंका भी अनन्त कालतक गर्भवास भोगना मानना चाहिए। क्योंकि शामा दशमगुण स्थान पर्य्यन्त कषायका होना बतलाया है परन्तु यह शाखा विरुद्ध विहार गुणस्थानवाले जीव कदापि अनन्त संसारी नहीं होते। अतः इस गाथाका नाम लेकर मायाके कारण अनन्त कालतक गर्भवास भोगनेकी कल्पना करके मिथ्यादृष्टिकी तपस्याको जिनोक्त मोक्षमार्गमें कायम करना अज्ञानका परिणाम है। __चतुर्थ गुणस्थानवाले अबती सम्यग्दृष्टिकी तरह अकाम निर्जराकी क्रिया करने वाले पुरुषको मोक्षमार्गका आराधक कहना भी मिथ्या है । अव्रती सम्यग्दृष्टिमें ज्ञान दर्शन रूप मोक्षका मार्ग है और वह असंख्य भवमें मोक्ष भी जाता है पर अकाम निर्जरा की क्रिया करनेवाले पुरुषमें ज्ञानदर्शन तथा चारित्र रूष मोक्षमार्गका कोई भी अंश पाही है और वह अनन्त कालतक संसारमें ही भ्रमण करता है इस लिये अव्रती सम्यग्दृष्टिकी तरह अकाम निर्जराकी क्रिया करने वालेको मोक्षमार्गका आराधक बतलाना एकान्त मिथ्या है। बोल २४ वां) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १९ के ऊपर भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशा २ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि "तथा वली मिथ्यात्वी त्रस जाणने त्रसहणवारा त्याग करे तेहने संवर न होवे ते मांटे दुप्पचक्खाण कहीजे । पञ्चक्खाण नाम संवर नो छै । तेहने संवर नहीं ते भणी तेहना पञ्चक्खाण दुप्पच्चक्खाण छै पिण निर्जरा तो शुद्ध छै ते निर्जरारे लेखे निर्मल पञ्चक्वाण छै" (भ्र० पृ० १९) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भगवती सूत्रका वह पाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है। वह पाठ निम्नलिखित है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धममण्डनम् । सेणूणं भन्ते ! सब्यपाणेहिं सब्यभूएहिं सब्बजीवेहि सव्वसत्तेहि पचक्खायमितिवद्माणस्स सुपचक्खायं भवइ दुप्पचक्खायं. भवति ? गोयमा ! सव्वपाणेहिं जाव सव्व सत्तेहिं पञ्चक्खायमिति वदमाणस्स सिय सुप्पचक्खायं भवति सिय दुप्पचक्यायं भवति । सेकेण?णं भन्ते ! एवं वुच्चइ सव्व पाणेहिं जाव सिय दुप्पचक्खायं भवति ? गोयमा ! जस्सणं सव्व पाणेहिं जाव सव्व सत्तेहिं पच्च-. क्खाय मिति वद्माणस्स णो एवं अभिसमण्णागयं भवइ इमे जीवा, . इमे अजीवा इमे तसा इमे थावरा तस्सणं सव्व पाणेहिं जाव सव्व सत्तेहिं पञ्चक्खाय मिति वदमाणस्स नो सुपच्चक्खागं भवति दुप्पचक्खायं भवति । एवं खलुसे दुप्पचक्खाई सव्वपाणेहि जाव सव्व सत्तेहि पच्चक्खायमिति बदमाणे नो सच्च भासं भासइ मोसं भासं भासह एवं खलुसे मुसावाई सव्व पाणेहिं जाव सव्व सत्तेहिं तिविहं तिविहेणं असंजयविरयपडिहयपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुड़े एगंत दण्डे एगंत घाले याविभवई" .. (भगवती शतक ७ उ०२) इसका अर्थ यह है (प्रश्न ) हे भगवन ! जो पुरुष यह कहता है कि मैंने सब प्राणियोंसे लेकर यावत् सब सत्योंके हननका त्याग कर दिया है उसका वह प्रत्याख्यान (मारनेका त्याग) सुप्रत्याख्यान होता है या दुष्प्रत्याख्यान होता है ? (उत्तर) हे गोतम ! किसी किसीका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान होता है और किसी किसीका दुष्प्रत्याख्यान भी होता है। (प्रश्न ) इसका क्या कारण है ? . (उत्तर) हे गोतम ! जो यह कहता है कि हमने सब प्राणियोंसे लेकर यावत् सब स्वत्वों का मारना छोड़ दिया है उसको यदि यह ज्ञान नहीं है कि ये जीव हैं, ये अजीव हैं, ये स हैं और ये स्थावर हैं, उसका प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान होता है। इस प्रकार वह दुष्प्रत्याख्यानी पुरुष "मुझे सब जीवोंके हननका त्याग है" यह कहता हुआ सत्य नहीं बोलता वह झूठ बोलता है वह तीन करण और तीन योगसे संयमधारी, विरतिपुक्त, पापोंका हनन और प्रत्याख्यान किया हुआ नहीं है। वह कायिकी आदि क्रियाओंसे युक्त संवर रहित प्राणियोंको एकान्त दण्ड देनेवाला और एकान्त बाल है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्वक्रियाधिकारः । ५३ इस पाठ में, जिसको जीव अजीव त्रस और स्थावरका ज्ञान नहीं है उसको का - fast आदि क्रियाओंसे युक्त संवर रहित प्राणियोंको एकान्त दण्ड देनेवाला और एकांत बाल कह कर उसके प्रत्याख्यानको दुष्प्रत्याख्यान और उसे मिथ्यावादी कहा है । इससे मिथ्यादृष्टि अज्ञानी पुरुषकी प्रत्याख्यानादि क्रिया वीतरागकी आज्ञासे बाहर और मोक्षका अमार्ग सिद्ध होती है । तथापि भ्रमविध्वंसनकार भोले जीवोंको भ्रममें डालनेके लिये यह कहते हैं कि “मिथ्यादृष्टि भी त्रसको त्रस जानकर उसके हननका त्याग करता है परन्तु उसमें संवर नहीं होता इसलिये उसके प्रत्याख्यानको इस पाठमें दुष्प्रत्याख्यान कहा है” यह इनका कथन सर्वथा शास्त्रविरुद्ध है। जो पुरुष त्रस जीवको त्रस जान कर उसके हननका त्याग करता है वह एकान्त बाल एकान्त प्राणियोंको दण्ड देनेवाला और एकान्त संवर रहित नहीं है किन्तु देशसे (सके विषयमें ) प्राणियोंको दण्ड न देनेवाला देशसे पण्डित और देशसे संवरधारी है इसलिये वह मिथ्यादृष्टि नहीं किन्तु सम्यग्दृष्टि है उसके प्रत्याख्यान को यहां दुष्प्रत्याख्यान नहीं कहा है क्योंकि उसका प्रत्याख्यान, अज्ञान पूर्वक नहीं है। जिसका प्रत्याख्यान अज्ञानपूर्वक होता है उसीके प्रत्याख्यानको यहां दुष्प्रत्याख्यान कहा है इसलिये जो त्रसको त्रस स्थावरको स्थावर नहीं जानता और झूठ ही कहता है कि मैंने जीवोंके हननका त्याग कर दिया है उस मिथ्यादृष्टि अज्ञानीके प्रत्याख्यानको दुष्प्रत्याख्यान कह कर उसे यहां आज्ञा बाहर होनेकी सूचना दी है। अतः सको त्रस जानकर उसके हननका त्याग करनेवाले पुरुषको मिथ्या ही मिथ्यादृष्टि कायम करके मिथ्यादृष्टि प्रत्याख्यानको सुप्रत्याख्यान कहना एकांत मिथ्या है । भ्रमविध्वंसनकार यहां यह भी कहते हैं कि “मिध्यादृष्टिमें जो निर्जरा होती है वह निमल है उसके हिसाब से मिथ्यादृष्टिका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है" परन्तु यह इन की अपनी कल्पना है शास्त्रमें ऐसा कहीं नहीं कहा है कि मिथ्यादृष्टिका प्रत्याख्यान उस की निर्जरा के हिसाब से सुप्रत्याख्यान होता है । इसलिये इस पाठ में मिथ्यादृष्टिके प्रत्याख्यानको प्रत्यक्ष दुष्प्रत्याख्यान कहे जाने पर भी उसे अपने मतके आग्रहमें आकर सुप्रत्याख्यान कहना प्रत्यक्ष उत्सूत्र भाषण और अप्रामाणिक है । ( बोल २५ वां ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २१ के ऊपर सुयगंडाग सूत्र श्रुत० १ अ०.८ गाथा seat लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि "अथ अठेतो इमि कह्यो — जे तत्वना अजाण मिथ्यात्वीनो जेतलो अशुद्ध परा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७ सद्धममण्डनम्। कम छै ते सर्व संसारनो कारण छै । अशुद्ध करणीरो कथन इहां कह्यो अने शुद्ध करणीरो कनो इहां चाल्यो न थी" ( भ्र० प० २१ ) इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक) सुगडांग सूत्रकी वह गाथा लिख कर इसका समाधान किया जाता है। वह गाया यह है— " जे याकुद्धा महाभागा वीरा असंमच दंसिणो असुद्ध तेसिं परक्कतं सफल होइ सब्बसो” ( सुयगडांगसूत्र श्रुत० १ अध्ययन ८ गाथा २३ ) इसका अर्थ यह है कि जो पुरुष तत्वअर्थको नहीं जाननेवाले महाभाग ( संसारमें पूजनीय ) धीर और असम्बग्दर्शी ( सम्यग् ज्ञानादि विकल ) हैं उनके किये हुए तप अध्ययन और नियमादिरूप उद्योग सभी अशुद्ध और कर्मबन्धके ही कारण होते हैं। गाथामें मिथ्यादृष्टि अज्ञानी पुरुषोंसे किये हुए तप अध्ययन आदि सभी परलोक-सम्बन्धी काय्ये अशुद्ध और कर्मवन्धके कारण कहे गये हैं। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि मिथ्यादृष्टि अज्ञानीकी क्रिया मोक्षमार्गमें नहीं है और उन क्रियाओंका अनुष्ठान करनेसे वह मिथ्यादृष्टि पुरुष भी मोक्ष मार्गका आराधक नहीं है। यही बात दूसरे दूसरे दर्शन भी बतलाते हैं वृहदारण्यकोपनिषद् में लिखा है कि “योवा एतदक्षरं गार्ग्यविदित्वाऽस्मिँल्लोके जुहोति यजते तपस्तप्यते वहूनि वर्ष सहस्राण्यन्तवदेवास्यतद्भवति” हे गार्गि ! जो अविनाशी - आत्माको बिना जाने इस लोकमें होम करता है यज्ञ करता है तपस्या करता है वह चाहे हजारों वर्ष तक इन क्रियाओंको करता रहे पर वह संसार के लिए ही हैं (वृहदारण्यक ३ - ९ - ३० ) इसी तरह कठोपनिषद् में लिखा है कि“यस्त्वविज्ञानवान्भवत्यमनस्कः सदाऽशुचिः । नस्तत्पदमाप्नोति संसारं चाधिगच्छति " विज्ञानवान् भवति समनस्कः सदा शुचिः सतुतत्पदमाप्नोति यस्माद् भूयो न जायते । ( कठोपनिषद्) अर्थात् जो ज्ञानी नहीं है वह ठीक-ठीक विचार नहीं कर सकता और वह सदा अपवित्र है वह मोक्ष नहीं पा सकता प्रत्युत संसारमें ही भ्रमण करता रहता है । जो ज्ञानी है वह ठीक-ठीक विचार कर सकता है और वह सदा पवित्र है वह ऐसे पदको पाता है जिससे फिर कभी वापस नह" लौटना पड़ता । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्वात्विक्रियाधिकारः। इस उल्लेखमें अज्ञानीको सदा अपवित्र बताया है । 'सदा' शब्द देनेका तात्पय्य यह है कि अज्ञानी चाहे जब जो क्रियाएं करे पर शानके अभाव होनेसे उसकी सब क्रियायें पवित्रताका कारण नहीं हो सकतीं वरन् अपवित्रताका ही कारण होती हैं। इन उपनिषद्के वाक्योंमें जैसे मिथ्यादृष्टि अज्ञानीकी परलोक सम्बन्धी क्रियानों को संसारका ही कारण कहा है ठीक उसी तरह सुयगडांगसूत्रकी उपर लिझी हुई अत्यामें भी कहा है अत: उक्त गाथासे मिथ्यादृष्टिकी क्रियाका मोक्ष मार्गमें न होना स्पष्ट प्रथापित होता है तथापि मूढ़मतियोंको बहकानेके लिये जीतमलजीने लिखा है कि "मियास्दीनो ओतलो अशुद्ध पराक्रम छै ते सर्व संसारनो कारण छै । अशुद्ध करणीरो कथन हां कलो अने शुद्ध करणीरो कथन तो इहां चाल्यो न थी" यह एकान्त मिथ्या है। यहां मिथ्यादृष्टि अज्ञानियोंकी परलोक सम्बन्धी तपोदानाध्ययनादिरूप क्रियाओंको अबुद और संसारका कारण कहा है पर उनके कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य, संग्राम कुशील माडि फियाओंका कथन नहीं है। ये क्रियाएं चाहे मिथ्यादृष्टिकी हों या सम्यादृष्टि की हों संसारके लिये ही होती हैं इनसे मोक्षमार्गकी अराधना न होना प्रत्यक्ष सिद्ध है अतः इस गाथामें कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य और संग्राम कुशीलादि क्रियाओंका कथन नहीं है अतएव इस गाथाकी टीकामें टीकाकारने लिखा है कि "तेषां वालानां यत्किमपि सपोदानाध्ययन नियमादिषुपराक्रान्त मुद्यमकृतं तदविशुद्ध मविशुद्धिकारि" अर्थात् मज्ञानी मिथ्यादृष्टियोंका जो तपस्या, दान, अध्ययन और नियम आदिमें उद्योग होता है वह सभी अशुद्धिका ही कारण होता है यह इस टीकाका अर्थ है। यहां टीकाकारने अज्ञानी मिथ्यादृष्टियोंका, तपस्या दान अध्ययन आदिमें जो उद्योग है उसको उक्त गाथामें अशुद्ध कहा जाना बतलाया है इसलिये उक्त गाथामें मिथ्या दृष्टियोंकी पारलौकिक क्रियाओंका कथन न मान कर कृषि वाणिज्य संग्राम कुशलादि अशुद्ध क्रियाओंका कथन बतलाना मिथ्या है। इस गाथासे मिथ्यादृष्टियोंकी पारलौकिक क्रिया स्पष्ट रूपसे जिन आज्ञा बाहर और मोक्षमार्गसे पृथक् सिद्ध होती है तथापि उसे मोक्षमार्गमें कायम करना मिथ्यादृष्टियोंका कर्य है। इस गाथामें मिथ्यादृष्टि अज्ञानीकी जिन क्रियाओंको अशुद्ध और कर्म बन्धका कारण कहा है सम्यग्दृष्टिकी उन्हीं क्रियाओंको इसके आगेकी गाथामें शुद्ध और कर्मक्षयका हेतु कहा है। वह गाथा यह है-- ___"जेय बुद्धा महाभागा वीरा सम्मत्त दंसिणो सुद्ध तेसिं पर कतं अफल होइ सव्वसो" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम्। _अर्थात् जो पुरुष तत्वको जाननेवाले महा पूज्य कर्मको विदारण करनेमें समर्थ सम्यग्दर्शी हैं उनके तप, दान, अध्ययन और नियमादि सभी परलोक सम्वन्धी कार्य शुद्ध और कर्मक्षयके कारण हैं। - इस गाथामें सम्यग्दी पुरुषके परलोक सम्बन्धी तप दान अध्ययन और नियमादिरूप कार्यको शुद्ध और कर्मक्षयका कारण कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि सम्यग्दी पुरुषोंका ही परलोक सम्बन्धी कार्य मोक्षमार्गमें है मिथ्यादृष्टिका नहीं क्योंकि इसके पूर्व गाथामें मिथ्यादृष्टिके इन्ही कार्योको अशुद्ध और कर्मबन्धका कारण कहा है परन्तु कईएक मिथ्यादृष्टि यह कहते हैं कि इस “ गाथामें सम्यग्दृष्टिकी शुद्ध यानी परलोक सम्बन्धी क्रियाओंका वर्णन है और इसकी पूर्व गाथामें मिथ्यादृष्टिकी अशुद्ध यानी संग्राम कुशीलादिको अशुद्ध कहा है इसलिये मिथ्यादृष्टिकी बालतपस्या आदि पारलौकिक क्रियाएं मोक्षमार्गमें ही हैं " यह कहने वाले इन गाथाओंका अर्थ नहीं समझते । यदि इन दोनों गाथाओंका यही तात्पर्य हो कि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि इन दोनों ही की तप अध्ययनादि क्रियाएं शुद्ध हैं तो फिर यहां दो गाथा लिखने की आवश्यकता ही नहीं है केवल एकही जगह यह कह देते कि संग्राम कुशीलादि क्रियायें अशुद्ध और कर्मवन्धके कारण होती हैं। तथापि अलग अलग जो यहां दो गाथाएं आई हैं उनका तात्पर्य सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिकी पारलौकिक क्रियाओंमें भेद दर्शाना है। वह भेद यही है कि मिथ्यादृष्टिकी तपोदानाध्यानादि पारलौकिक क्रियाएं अशुद्ध और कर्मवन्धके कारण हैं क्योंकि वे अज्ञान तथा मिथ्यात्वपूर्वक की जाती हैं। और सम्यग्दृष्टि की ये ही क्रियाएं शुद्ध और कर्मक्षयके कारण हैं क्योंकि वे सम्यग्ज्ञानके साथ की जाती हैं और यही पात दर्शानान्तर सम्मत भी है। अतः इन दोनों गाथाओंका अन्यथा तात्पर्य्य बतला कर मिथ्यादृष्टि अज्ञानीकी क्रियाको मोक्षमार्गमें ठहराना अज्ञानका परिमाण है। ___बोल २६ वां (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्र० पृष्ठ २७ के ऊपर लिखते हैं “ मिथ्यात्व छै जेहने तिणने मित्यात्वी कयो तेहने कतियक श्रद्धा संउली छै अने केई एक बोल ऊधा छै तिहां जे बोल ऊंधा तेतो मिथ्याथ्यात्व अने जे केतला एक बोल सली श्रद्धारूप छै ते प्रथम गुण ठाणो छै। मिथ्यात्वीना जेतला गुणते मिथ्यात्व गुण ठाणो छै" इसके आगे लिखते हैं_. “तिवारे कोई कहे प्रथम गुण ठाणे किसा बोल संवला छ। तेहनो उत्तर-जे मिथ्यात्वी गायने गाय श्रद्ध मनुष्यने अनुष्य श्रद्ध दिनने दिन श्रद्ध सोनोने सोने अद्ध इत्यादि जे सउली श्रधा छ ते क्षयोपशम भाव छ” (भ्र० पृ० २७-२८) . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। इसका क्या उत्तर(प्ररूपक) प्रथमगुण स्थानवाले मिथ्यादृष्टियोंमें जीवादि पदार्थों की एक भी शुद्ध श्रद्धा नहीं होती उनके सारे ही श्रद्धान विपरीत होते हैं । इसी लिए पहले गुणस्थानका नाम "मिथ्या दृष्टि गुणस्थान" रक्खा है। जिसमें मिथ्यादृष्टि यानी मिथ्यादर्शनरूपगुणकी स्थिति है वह प्रथम गुणस्थानका स्वामी है। यदि कोई कहे कि मिथ्यादृष्टियोंमें कई पदार्थों की श्रद्धा सम्यक् होती है उस . सम्यक् श्रद्धारूप गुणका भाजन होनेसे वे प्रथम गुण स्थानके स्वामी हैं। जैसे कि मिथ्यादृष्टि गायको गाय मनुष्यको मनुष्य, सोनाको सोना श्रद्धते हैं इनकी ये श्रद्धाएं सम्यक् हैं तो यह मिथ्या है मिथ्यादृष्टियोंके सभी ज्ञानोंमें कारण विपर्याय स्वरूप विपय्यय और सम्बन्ध विपय्यय बने रहते हैं इनके बने रहनेसे उनका सभी पदार्थों का ज्ञान विपरीत ही होता है सम्यक् नहीं होता। उक्त तीन विपर्ययोंका स्वरूप यह है जिस पदार्थका जो कारण नहीं है उसका वह कारण जानना "कारण विपर्यय" कहलाता है। जैसे घटपटादि रूपी पदार्थ रूपवान् पुद्गलोंसे बने हैं तथापि कई एक उन्हें अमूर्त द्रव्यसे बना हुआ बतलाते हैं उनका घटपटादि ज्ञान कारण विपर्यय होनेसे अज्ञान है यद्यपि वे घटपटको घटपट कह कर ही बतलाते हैं तथापि उनका घटापटादि ज्ञान पूर्वोक्त प्रकारसे अज्ञान है। जिस वस्तुका जैसा स्वरूप नहीं है उसका वैसा स्वरूप मानना "स्वरूप पिपर्याय" कह लाता है। जैसे घटपटादि पदार्थ कथंचिन्नित्य और अनित्य हैं तथापि उन्हें कईएक एकान्त नित्य और कई एकान्त अनित्य बतलाते हैं उनका घटपटादि ज्ञान स्वरूप विपयेयके कारण अज्ञान है। कारण और काय्यका परस्पर जो सम्बन्ध है उसे न मानकर उससे विपरीत सम्बन्ध समझना “सम्बन्ध विपर्याय" कहलाता है जैसे घट और उसके कारणका कथंचित् भेदाभेद सम्बन्ध है उसे न मानकर कई इनमें एकान्त भेद और कई एकान्त अभेद सम्बन्ध मानते हैं इसलिए उनका घटादिज्ञान, सम्बन्ध विपर्ययके कारण अज्ञान है। इस प्रकार मिथ्यादृष्टियोंका ज्ञान, कारण विपर्याय, स्वरूप विपर्याय और सम्बन्ध विपर्याय रूप मिथ्यात्वसे युक्त होनेके कारण अज्ञान है सम्यग्ज्ञान नहीं है। अतः मिथ्यादृष्टिके घटपटादि ज्ञानको सम्यक् श्रद्धारूप बतलाना एकान्त मिथ्या है। .... __ अब प्रश्न यह होता है कि मिथ्यादृष्टिमें थोड़ी भी सम्यक् श्रद्धा नहीं है तो वह गुण स्थानमें कैसे गिना गया है ? तो इसका उत्तर यह है कि सम्यक् श्रद्धाको लेकर चतुईश गुणस्थान नहीं कहे हैं किन्तु कर्म विशुद्धिका उत्कर्ष और अपकर्षको लेकर कहे गये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धममण्डनम्। हैं इसलिए सम्यक् श्रद्धा न होनेपर भी मिथ्यादृष्टि जीव, गुणस्थानमें गिना जाता है। जिसमें कर्मकी विशुद्धि सबसे निकृष्ट है वह पुरुष प्रथम गुण स्थानका स्वामी है और ज्यों ज्यों कर्मोकी विशुद्धि होती जाती है त्यों त्यों जीव उन्नति करता हुआ ऊपरके गुण स्थानोंका स्वामी होता जाता है। मिथ्यादृष्टि पुरुषमें जो मिथ्यादर्शन और मिथ्या ज्ञान है वह कर्मकी विशुद्धिमें है उसीको लेकर वह प्रथम गुणस्थानमें गिना गया है किसी । सम्यक् श्रद्धाको लेकर नहीं। अतः मिथ्यादृष्टिमें झूठ ही सम्यक् श्रद्धाका सद्भाव बतला कर उसके सबबसे उसे प्रथम गुणस्थानमें कायम करना अज्ञान मूलक है। . समवायांग सूत्रके मूल पाठमें कर्म विशुद्धिके उत्कर्ष और अपकर्षका विचार कर के चौदह गुणस्थान बतलाए हैं सम्यक् श्रद्धाको लेकर नहीं । वह पाठ यह है.. . कम्मविसोहिमग्गणं पडुच्च चउद्दस जीव ठाणा पण्णत्ता तंजहा-मिच्छदिट्ठो, सासायणसम्मदिट्ठी, सम्ममिच्छदिट्ठी, अविरत सम्मदिट्ठी, विरयाविरए, पमत्तसंजए, अपमत्तसंजए, नियहिवायरे, अनियहिवायरे, सुहुमसंपराए, (उपममएवा खवएवा) अवसन्त मोहे, खीण मोहे, सयोगी केवली अयोगी केवली" (समवायांग सूत्र सू०४) अर्थात् कर्मकी विशुद्धिकी गवेषणा यानी उत्कर्ष और अपकर्णका विचार करके चौदह प्रकार के जीपोंके स्थान ( भेद) कहे हैं। वे ये हैं-(१) मिथ्यावृष्टि, (२) सास्वादन सम्यग्दृष्टि, (३) सम्य मिथ्यादृष्टि, (४) अविरत सम्यग्दृष्टि, (१) घिरताविरत, (६) प्रमत्त संयत, (७) अप्रमत्त सयत, (८) निवृत्तिवादर, (९) अनिवृत्तिवादर, (१०) सूक्ष्म संपराय (यह उपशमक और क्षपक दो तरहका होता १)(११) उपशान्त मोह, (१२) क्षीण मोह (१३) सयोगी केवली (१४) अयोगी केवली। ___ यहां समवायाङ्ग सूत्रके मूलपाठमें कर्म विशुद्धिके उत्कर्षापकर्षके विचारसे गुणस्थानोंका कहा जाना बतलाया है सम्यक् श्रद्धाको लेकर नहीं। इसलिए सम्यक् श्रद्धाको लेकर गुण स्थानोंका कथन बतलाना मिथ्या है। यहां जो कर्मकी विशुद्धि कही गयी है यह कर्मों का क्षयोपशम रूप है मिथ्यादृष्टि पुरुषका जो मिथ्यादर्शन और मिथ्या ज्ञान है वह क्षयोपशम भावमें है इस लिये मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञानको लेकर मिथ्यादृष्टि पुरुष प्रथम गुणस्थानमें कहा गया है। मिथ्यादर्शनका क्षयोपशमभावमें होना अनुयोग द्वार सूत्रमें कहा है। वह पाठ यह है.. "खओवसमिआ मइअण्णाणलद्धी, खओवसमिआ सपअण्णाणलद्धी, खओवसमिआ विभंगअण्णाणलद्धी, खओवस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्वक्रियाधिकारः । ५५ मिआ चक्खुदंसणलद्धो, खओवसमिआ अचक्खुदंसणलद्धी ओहिदंसणलद्धी, एवं सम्मदंसणलद्धी, मिच्छादंसणलद्धो, सम्ममिच्छादंसणलद्धी, एवं पण्डियवोरियल द्धी, वालपण्डिय वीरियलद्धी खओवसमिआ सोइन्दियलद्धी, जाव खओवसमिआ पासेन्दिय लद्धी ” (अनुयोग द्वार सूत्र ) इसका अर्थ यह है मति अज्ञानलब्धि, श्रुतअज्ञानलब्धि, विभङ्ग अज्ञान लब्धि, चक्षुर्दर्शन लब्धि, भचक्षुदर्शन लब्धि, अवधिदर्शन लब्धि, सम्यग्दर्शन लब्धि, मिथ्यादर्शन लब्धि, सम्यङ् मिथ्यादर्शन लब्ध, पण्डित वो लब्धि, बालवीर्य्य लब्धि, बाल पण्डित वीर्य्य लब्धि, श्रोत्र न्द्रिय सन्धि, यावत् स्पर्शेन्द्रिय लब्धि, ये सब अपने अपने आवरण कर्मों के क्षयोपशम होनेसे उत्पन्न होती हैं अतः ये क्षायोपशमिक कहलाती हैं। यहां मिथ्यादर्शन लब्धि, और मतिअज्ञानादिकको क्षयोपशमसे उत्पन्न होना कहा. है । इसलिये मिथ्यादृष्टि पुरुषका मिथ्यादर्शन और मिथ्याज्ञान क्षयोपशमिक भावमें हैं उन लेकर वह प्रथम गुण स्थानमें गिना जाता है किसी सम्यक् श्रद्धाको लेकर नहीं । यदि कोई कहे कि मिथ्यादर्शन लब्धि क्षयोपशमसे उत्पन्न होती है तो इसे वीतरागकी आज्ञामें क्यों नहीं मानते ? तो इसका समाधान यह है कि क्षयोपशमसे उत्पन्न होने मात्र से कोई पदार्थ वीतरागकी आज्ञामें नहीं हो जाता। क्योंकि मति आज्ञान लब्धि त अज्ञान लब्धि, और विभङ्ग अज्ञान लब्धि क्षयोपशमसे ही उत्पन्न होती हैं तथापि, त्यागने योग्य होनेसे ये वीतरागकी आज्ञामें नहीं हैं उसी तरह मिथ्यादर्शन लब्धि भी त्यागने योग्य होने से वीतरागकी आज्ञामें नहीं है । मति अज्ञानादिक और मिथ्यादर्शन त्यागने योग्य है यह आवश्यक सूत्रमें कहा है। वह पाठ यह है -- " मिच्छत्तं परियाणामि सभ्मत्त उवसंप्पवज्जामि, अन्नार्ण परियाणामि नाणं उवस पवज्जामि " अर्थात् साधु प्रतिज्ञा करता है कि मैं मिथ्यात्व और अज्ञानको छोड़ कर सम्यक्त्व और और ज्ञानका आश्रय लेता हूं । इस पाठ में मिथ्यात्व और अज्ञानको त्यागने योग्य कहा है अतः जैसे अज्ञान, क्षायोपशमिक भाव में होने पर भी आज्ञामें नहीं है उसी तरह मिथ्यादर्शन भी त्यागने योग्य होनेके कारण आज्ञामें नहीं है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धममण्डनम् । यदि कोई कहे कि मिथ्यादर्शन लब्धि, क्षयोपशमसे उत्पन्न होती है तो उससे कर्मवन्ध क्यों होता है ? तो इसका उत्तर यह है कि क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाले पदार्थ भी कर्मबन्धके कारण होते हैं। जैसे कि बालवीर्य लब्धि क्षयोपशमसे ही उत्पन्न होती है पर वह सांसारिक आरम्भादि कार्यो में प्रयुक्त होनेसे कर्मबन्धका कारण होती है उसी तरह अज्ञान और मिथ्यादर्शन क्षयोपशमसे उत्पन्न होकर भी विपरीत कार्यों में लगे हुए होनेसे कर्मवन्धके ही कारण होते हैं अतः जो लोग यह कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि, (मिथ्यादर्शन ) क्षयोपशमभावमें है और क्षयोपशमभाव कर्मवन्धका कारण नहीं होता इसलिये मिथ्यादृष्टि गुण स्थान वीतरागकी आज्ञामें है वे मिथ्यावादी हैं । [बोल २७ वां समाप्त] भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३१ के ऊपर भगवती सूत्र शतक ९ उद्देशा १ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं—“अथ इहां असोच्चा केवलीने अधिकारे इम का-जे कोई वालतपस्वी साधु श्रावक पासे धर्मसुण्या बिना बेले वेले तप करे, सूर्य साहमी आतापना लेवे ते प्रकृति भद्रिक विनीत उपशान्त स्वभावे पतला क्रोध, मान, माया, लोभ, मृदुकोमल अहङ्कार रहित एहवा गुण कह्या ए गुण शुद्ध छै के अशुद्ध छ, ए गुण निरवद्य छै के सावध छै” (भ्रम० पृ. ३२) . इनके कहनेका तात्पर्य यह है कि असोच्चा केवलीके अधिकारमें उक्त बाल तपस्वी के प्रकृति भद्रकतादिक गुण और तपस्या वीतरागकी आज्ञामें कही है आज्ञा बाहर नहीं । इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) __ भगवती सूत्र शतक ९ उद्देशा १ का मूलपाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है। वह पाठ यह हैं "तस्सण छ? छ?णं अणिक्खित्रोणं तवोपकम्मेणं उड वाहाओ पगिझिय सूराभिमुहस्स आयावण भूमिय आयावेमाण्णस्स पगहभद्दयाए पगइउवसन्तयाए पगइपनणुकोह माण माया लोभयाए मिउमद्दव सम्पन्नयाए अल्लीणयाए भद्दय ए विणोययाए अन्नया कयाई सुभेणं अज्झवसाएणं सुभेणं परिणामेणं लेस्साहिं विसुज्झमाणोहिं तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोह मग्गणं गवसणं करेमाणस्स विभ'गे नामं अन्नाणे समुपजइ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः । सेणंतेणंविभंगनाणसमुप्पन्नेणंजहन्नेणंअंगुलस्सअसंखोजाइ भागंउक्कोसेणं असंखोजाई जोयण सहस्साईजाणइ पासइ सेणंतेण विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जीवेविजाणइअजीवेवि जाणइ पासंडत्थे सारंभे सपरिग्गहे संकिलिस्समाणेविजाणइ सेणं पुव्वामेव सम्मत्त पडिवजह समणधम्म रोएइ चरित्त पडिवनइ लिंगपडिबजई" जो जीव, केवली आदिके वाक्यको सुने बिना सम्यक्त्वसे लेकर केवल ज्ञानतक प्राप्त करता है उसे जिस प्रकार सम्यक्त्वसे लेकर केवल ज्ञानकी प्राप्ति होती है वह इस पाठमें कहा है। इसका अर्थ यह है जो जीव, दो दो दिनको लगातार तपस्या करता हुआ सूर्या के सम्मुख अपनी भुजाओं को उठा कर आतापन भूमिमें आतापना लेता है उसकी स्वाभाविक भद्रता, शान्ति, स्वाभाविक क्रोध, मान, मायालोभकी अल्पता, मृदुता, विनीतता, इन्द्रियनिग्रह इन गुणोंसे, किसी समय शुभ अध्यवसाय, शुभपरिणाम और शुद्ध लेश्याओंसे विभङ्ग ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम होता है। और विभंग ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशम होनेसे वह जीव वस्तुस्वरूपको जाननेकी चेष्टा करता है और उस चेष्टाके विपक्ष यानी वाधक वस्तुको हटा देता है पश्चात् वस्तुओंके सजातीय और विजातीय धर्मकी आलोचना करते हुए उस जीवको विभंग नामक अज्ञान पैदा होता है उस विभंग अज्ञानके प्रभावसे वह जीव. जघन्य अंगुलिके असंख्य भागको और उत्कृष्ट असंख्य हजार योजन तकके पदार्थो को जानता और देखता है। वह जीवोंको भी जानता है और अजीवोंको भी जानता है व्रतधारियोंको भी जानता है और आरम्भ परिग्रह वालोंको भी जानता है। जो पुरुष आरम्भी और परिग्रही हैं उनको बहुत ज्यादा अशुद्ध और थोड़ा शुद्ध भी जानता है वह चारित्र प्राप्तिके पहले सम्यक्त्वको प्राप्त करता है तब पीछे श्रमण धर्मको पसन्द करता है पश्चात् चारित्र प्राप्ति करके लिंगको प्रहण करता है। __ इस मूलपाठमें, बालतपस्या, प्रकृति-भद्रकता, शान्ति, विनीतता, शुभ अध्यवसाय, शुभ-परिणाम और विशुद्धलेश्यासे विभंग ज्ञानके आवरणीय कर्मों का क्षय हो कर मिथ्यादृष्टिको विभंग ज्ञानकी प्राप्ति और विभंग ज्ञानसे जीवाजीवादि पदार्थों का ज्ञान होकर सम्यक्त्वकी प्राप्ति बतलाई है। इससे सिद्ध होता है कि विभंग ज्ञान सम्यक्त्वकी प्राप्तिका साक्षात् कारण है और प्रकृति भद्रकतादि गुण तथा शुभ परिणाम और विशुद्ध लेश्याए परम्परा कारण हैं । ऐसी दशामें सम्यक्त्वकी प्रापिके कारण होनेसे मिथ्यादृष्टिकी प्रकृति भद्रकता आदि गुण, तथा वाल तपस्याको कोई वीतरागकी आज्ञामें बतावे तो सबसे पहले उसे विभंग ज्ञानको वीतरागकी आज्ञामें मानना होगा। क्योंकि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धममण्डनम् । विभङ्ग ज्ञान सम्यक्त्व प्राप्तिका साक्षात् कारण यहां कहा है। यदि विभङ्ग ज्ञानको वीतरागकी आज्ञामें नहीं मानते तो बाल तपस्या और बाल तपस्वीके पूक्ति गुणोंको भी आज्ञामें नहीं मान सकते क्योंकि जब सम्यक्त्वकी प्राप्तिका साक्षात् कारण विभङ्ग ज्ञान वीतरागकी आज्ञामें नहीं है तब परम्परा कारण प्रकृति भद्रकतादि गुण क्यों कर आज्ञामें हो सकते हैं ? अतः सम्यक्त्व प्राप्तिके परम्पराकारण बाल तपस्या आदिको वीतरागकी आज्ञामें कहना अज्ञानमूलक है। यदि कोई विभङ्ग ज्ञानको भी वीतरागकी आज्ञामें बतावे तो उसे कहना चाहिये कि अज्ञान आज्ञामें नहीं होता। विभङ्ग ज्ञान अज्ञान है इसलिये वह आज्ञामें नहीं है। आवश्यक सूत्रमें कहा है कि "अन्नाणं परियाणामि नाणं उवसंपवजामि" अर्थात् साधु प्रतिज्ञा करता है कि मैं अज्ञानको छोड़ कर ज्ञानको प्राप्त करता हूं। यहां अज्ञानको त्यागने योग्य कहा है इसलिये वह आज्ञामें नहीं है। भगवतीके उक्त मूलपाठमें "लेस्साहिं विसुज्झमाणी हिं" यह पाठ आया है। इस में विशुद्ध लेश्याका कथन हुआ है इसे देख कर कई यह कहते हैं कि "उक्त लेश्या वीतरागकी आज्ञामें है क्योंकि वह विशुद्ध कही गई है" उनसे कहना चाहिये विशुद्ध होनेसे लेश्या आज्ञामें नहीं हो जाती। भगवती शतक १३ उद्देशा १ में नील लेश्या भी विशुद्ध कही है परन्तु वह वीतरागकी आज्ञामें नहीं है उसी तरह भगवतीके उक्त मूलपाठमें कही हुई मिथ्यादृष्टिकी विशुद्ध लेश्या भी आज्ञामें नहीं है। कृष्णलेश्यासे नील लेश्या विशुद्ध कही है वह पाठ यह है- "सेनूणं भन्ते ! कण्हलेसे जाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु नेरइएसु उववज्जंन्ति ? हंता गोयमा ! कण्हलेस्ते जाव उववज्जति । सेकेण?णं भन्ते ! एवं वुच्चइ कण्हलेस्ले जाव उववज्जंति ? गोयमा ! लेस्साठाणेसु संकिलिस्समाणेस्सु कण्हलेस्सं परिणमइ से कण्हलेस्सेसु नेरइएसु उववज्जति सेतेण?णं जाव उववज्जंति । सेनूणं भन्ते ! कण्हलेसे जाव सुक्कलेसो भवित्ता णोललेहोसु नेरइएसु उववज्जति ? हंता गोयमा ! जाव उववज्जते । सेकेण?णं जाव उववज्जति ? गोयमा ! लेस्सा ठाणेसु संकिलिस्समाणेसु विसुज्झमाणेसु नीलले परिणमइ नील लेस्सोसु नेरइएसु उववज्जति । सेतेण?णं गोयमा ?" (भगवती शतक १३ उद्देशा १) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। . .. इसका अर्थ इस प्रकार है- . (प्रश्न ) हे भगवन् ! कृष्णलेश्यासे लेकर यावत् शुक्ललेश्यावाले जोव, कृष्णलेशी नरक योनिमें क्या उत्पन्न होते हैं ? (उत्तर) हां होते हैं। (प्रश्न) ऐसा क्यों होता है ? (उत्तर) लेश्या स्थानके संक्लिश्यमान होने पर जीवको कृष्णलेश्याका परिणाम होता है और वे कृष्णलेशी होकर कृष्णलेश्या घाली नरक योनिमें उत्पन्न होते हैं। हे भगवन् ! कृष्णलेश्यासे लेकर यावत् शुक्ल लेश्या घाले जीप, नीललेशी होकर नील लेश्यावाली नरक योनिमें क्या उत्पन्न होते हैं ? (उत्तर) हां गोतम ! होते हैं। (प्रश्न ) ऐसा क्यों होता है ? | (उत्तर) लेश्या स्थानके संक्लिश्यमान और विशुद्ध होनेसे जीवोंको नील लेश्याका परिणाम होता है और वे नीललेशी होकर नील लेश्यावाली नरकयोनिमें उत्पन्न होते हैं। इस मूलपाठमें कृष्ण लेश्याकी अपेक्षा नील लेश्याको विशुद्ध कहा है तो भी वह वीतरागकी आज्ञामें नहीं है उसी तरह भगवती सूत्र शतक ९ उद्देशा १ के मूलपाठमें कही हुई बाल तपस्वीकी विशुद्ध लेश्या भी वीतगगकी आज्ञामें नहीं है। अत: बाल तपस्वीकी विशुद्ध लेश्या और उसके मिथ्यात्व युक्त प्रकृति भद्रकता आदि गुणोंको वीतरागकी आज्ञामें ठहराना अप्रामाणिक है। [बोल २८ वां समाप्त (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार पृष्ठ ३३ के ऊपर लिखते हैं "वली ईहापोहमग्गणं गवेसणं करे माणस्स" ए पाठ कह्या ईहा कहिता भला अर्थ जाणवा सम्मुख थयो अपोह कहितां धर्मध्यान वीजा पक्षपात रहित मग्गणं कहिता समुचय धर्मनी आलोचना गवेसणं कहितां अधिक धर्मनी आलोचना प्रथम गुण ठाणे कही ते धर्मनी आलोचनाने अनेधर्मध्यानने आज्ञा बाहरे किम कहिए एतो प्रत्यक्ष आज्ञामांहि छै" इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) __भगवती शतक ९ उद्देशा १ के मूल पाठमें आये हुए “ईहा" 'अपोह' 'मागण' और 'गवेषण' शब्दका भ्रमविध्वंसनकारने अशुद्ध अर्थ किया है । टीकानुसार इन शब्दों का अर्थ यह है "इहेहा सदर्थाभिमुखा ज्ञानचेष्टा, अपोहस्तु विपक्षनिराशः, मार्गणञ्चान्वय धर्मालोचनम्, गवेषणञ्च व्यतिरेक धर्मालोचनम," Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ सद्धर्ममण्डनम् । अर्थात् वस्तुस्वरूपको जाननेकी चेष्टा करनेका नाम “ईहा" है । और उस चेष्टाके वाधक कारणोंको हटा देना 'अपोह' है। और अन्वयधर्म (सजातीय धर्म ) की आलोचना करनेका नाम 'मार्गण' है तथा व्यतिरेक धर्म (विजातीय धर्म ) की आलोचना करना, 'गवेषण कहलाता है। यह उक्त टीकाका अर्थ है। ____ इस टीकामें 'मार्गण' शब्दका सजातीय धर्मकी आलोचना करना, और 'गवे. षण' शब्दका विजातीय धर्मकी आलोचना करना अर्थ बतलाया है वीतराग भाषित श्रुत और चारित्र रूप धर्मकी आलोचना करना अर्थ नहीं कहा है इसलिये मार्गण शब्दका वीतराग भाषित धर्मकी आलोचना और गवेषण शब्दका अधिक धर्मकी आलोचना अर्थ बतलाना एकान्त मिथ्या है। भ्रमविध्वंसनकारने जो भगवती शतक ९ उद्देशा १ के उक्त मूलपाठके नीचे टव्वा अर्थ लिखा है वह भी टीका विरुद्ध होनेसे अप्रामाणिक है। (बोल २९ वां ) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३४ पर लिखते हैं कि "इहां कह्यो आर्तरुद्रध्यान वर्ग और धर्मशुक्ल ध्यान ध्यावे ए शुक्ल लेश्याना लक्षण कह्या । ते शुक्ल ध्यान तो ऊपर ले गुण ठाणे पावे छै अने प्रथम गुण ठाणे शुक्ल लेश्यावर्ते ते वेलां आर्त रुद्र ध्यान तो वो छै अने धर्म ध्यान पावे छै। (भ्रमविध्वंसन पृ० ३४) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) प्रथम गुण स्थानके स्वामी मिथ्यादृष्टि पुरुषोंमें शुक्ललेश्या तो पाई जाती है परंतु वीतराग भाषित धर्म ध्यान नहीं पाया जाता। वीतराग भाषित धर्म ध्यान, श्रुत धर्म और चारित्र धर्मके होने पर ही होता है। मिथ्यादृष्टिमें श्रुत चारित्र धर्म नहीं होता अतः उसमें वीतरागभाषित धर्म ध्यान भी नहीं होता। ठाणाङ्ग सूत्रके मूलपाठमें चार ध्यानों का वर्णन किया है वहां टीकाकारने श्रुत और चारित्र धर्म वालेको ही धर्मध्यान होना बतलाया है मिथ्यादृष्टिको नहीं वह टीका मूलपाठके साथ लिखी जाती है। "चत्तारि झाणा पण्णत्ता-अ झाणे रोद्द झाणे धम्मे झाणे सुक्के झाणे" (ठाणाङ्ग ठाणा ४) इसकी टीका यह है"तत्र ऋतं दुःख तस्य निमित्तं तत्रवा भवम् ऋते पीडिते भव मार्तध्यानं हढोऽध्यवसायः। हिंसाधति क्रौर्यानुगतं रुद्रम् । श्रुतचरणधर्मादनपेतं धर्म्यम् । शोधयत्यष्ट प्रकारं कर्ममलं शुचंवाक्लमयतीति शुक्लम्" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्वात्विक्रियाधिकारः। ६५ ___ अर्थात् जो ध्यान, दुःखका कारण अथवा दुःख होने पर होता है वह "आत - ध्यान कहलाता है। और जो हिंसा आदि अतिक्रूरताके साथ होता है उसे "रुद्र ध्यान" कहते हैं। तथा जो ध्यान श्रुत और चारित्र रूप धर्मके साथ होता है उसे "धम्मध्यान" कहते हैं । एवं जो आठ प्रकारके कर्ममलोंको दूर करता हैं या झोकको हटाता है उसे “शुक्लध्यान" कहते हैं। ___ यहां टीकाकारने स्पष्ट कहा है कि जो ध्यान श्रुत और चारित्रधमके साथ होता है वही धर्म ध्यान है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि मिथ्यादृष्टि पुरुषमें धम्मै ध्यान नहीं होता क्योंकि उसमें श्रुत और चारित्र धर्मका सर्वथा अभाव है। अतः प्रथम गुण स्थानमें धर्म ध्यानका सद्भाव बतलाना शास्त्रविरुद्ध है। इसी जगह धर्मध्यान करने वाले पुरुषका लक्षण बतलानेके लिए ठाणाङ्ग सूत्रमें यह पाठ आया है धम्मस्सणं झाणस्स चत्तारि लक्खणा पन्नत्ता तंजहा-आणारूइ णिसग्गरूइ सुत्तरुइ ओगाढाइ" (ठाणाङ्ग) इसकी टीका यह है "आणारुइ" त्ति आज्ञासूत्रव्याख्यानं नियुक्त्यादि तत्र तयावा रूचिः श्रद्धानम् आज्ञा रुचिः एवमन्यत्रापि, नवरं निसर्गः स्वभावोऽनुपदेश स्तेन, तथा सूत्रम् आगमः तत्र तस्माद्वा तथा अवगाहन मवगाढं द्वादशाङ्गावगाहो विस्तराधिगम इति संभाव्यते तेन रुचिः अथवा 'ओगाढ' त्ति साधु प्रत्यासन्नीभूतस्तस्य साधूपदेशा द्रु चिः उक्तञ्च-"आगम उव एसेणं निसग्गाओ जं जिगप्पणीयाणं भावाणं सद्दहणं धम्मज्झागस्स तं लिंग” तत्त्वार्थ श्रद्धान रूपं धर्मस्य लिङ्गमिति हृदयम्" इस टीकाका यह अर्थ है—वीतराग भाषित सूत्रोंके व्याख्यानस्वरूप नियुक्ति आदिको आज्ञा कहते हैं (१) उसमें रुचि रखना, या उसके अध्ययन करनेसे धर्ममें रुचि उत्पन्न होना, (२) स्वभावसे ही वीतराग भाषित धर्ममे रुचि होना, (३) वीतराग भाषित सूत्रोंमें रुचि होना या उनके पढनेसे धर्ममें रुचि होना, (४) द्वादशाङ्गमें प्रवेश होने से रुचि होना, या निकटवर्ती साधुके उपदेशसे धर्ममें रुचि होना, ये चार धर्मध्यानके लक्षण हैं। किसी आचार्यने भी कहा है आगमके उपदेशसे अथवा स्वभावसे जिन भाषित धर्ममें श्रद्धा रखना धर्मध्यानी पुरुषका लक्षण है। तात्पर्य यह है कि तत्त्वार्थ श्रद्धान रूप सम्यक्त्व, धर्मध्यानका लक्षण है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् ।.. - यहां. मूलपाठ और उसकी टीकामें तत्त्वार्थश्रद्धान रूप सम्यक्त्वको धर्मध्यानका लक्षण कहा है वह तत्त्वार्थ श्रद्धान मिथ्यादृष्टि जीवमें नहीं होता इसलिये मिथ्यादृष्टिमें धर्मध्यान बतलाना उक्त मूलपाठ और उसकी टीकासे विरुद्ध है। ..... .. . .. ., ... यदि कोई कहे कि उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३४ की ३१ वीं गाथामें धर्मध्यान होना शुक्ललेश्याका लक्षण कहा है और शुक्ललेश्या मिथ्यादृष्टिमें भी पाई जाती है फिर उसमें धर्मध्यान क्यों नहीं होता ? तो इसका उत्तर यह है कि उत्तराध्ययन सूत्रकी उस गाथामें विशिष्ट शुक्ल लेश्याका लक्षण कहा है जो कि संयमी पुरुषोंमें पाई जाती है सामान्य शुक्ललेश्याका नहीं। यह बात उस गाथा और उसकी टीकासे स्पष्ट ध्यानमें आ जावेगी इसलिए यहां वह लिखी जाती है "अरुहाणि वजित्ता धम्मसुकाइ झायए . पसंत चित्ते दंतप्पा समिए गुत्तेय गुत्तिसु" सरागे वीय रागेवा उपसंते जिएन्दिए एय जोग समाउत्तो सुकलेस्संतुपरिणमे"..... (उत्तराध्ययन अ० ३४ गाथा. ३१-३२) जो पुरुष आर्तरुल ध्यानको त्याग कर धर्मध्यान और शुक्लध्यानको ध्याता है तथा अपने चित्त और इन्द्रियको वशमें रखते हुए समितिसे युक्त है। जिसने मनोगुप्ति आदिके द्वारा अपने समस्त व्यापारको रोक लिया है वह चाहे सरागी हो बीतरागी हो या इनसे अन्य उपशान्त और जितेन्द्रिय हो वह शुक्ललेश्याको प्राप्त होता है। यह ऊपर लिखी हुई गाथाओंका अर्थ है। इनमें कहे हुए शुक्ललेश्याके लक्षण विशिष्ट शुक्ल लेश्याके हैं सामान्य शुक्लरेश्या के नहीं अतएव इस गाथाकी टीकामें टीकाकारने लिखा है कि "विशिष्ट शुक्ल लेश्यापेक्षयैवं लक्षणाभिधान मिति न देवादिभिर्व्यभिचारः" । .. अर्थात् इन गाथाओंमें विशिष्ट शुक्ललेश्याके लक्षण कहे हैं इसलिये शुक्ललेशी देवताओंमें गाथोक्त लक्षणोंके न मिलने पर भी कोई दोष (व्यभिचार ) नहीं है। यहां टीकाकारने स्पष्ट लिखा है कि गाथोक्त लक्षणं विशिष्ट शुक्ललेश्याके है सामान्य शुक्ललेल्या के नहीं इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि ये लक्षण संयमधारी विशिष्ट शुक्ललेशी मुंनियोंकी शुक्ललेश्याके हैं सामान्य शुक्लरेश्याके नहीं तथापि यदि कोई इस टीकाको प्रमाण न मान कर सभी शुक्ललेश्याओंका गाथोक्त लक्षण बतावे तो उससे कहना चाहिये कि इन गाथाओंमें शुक्ललेश्याके लक्षण शुक्लध्यान, समिति गुप्ति, सर्वसावंद्य योगोंका परित्याग भी कहे हैं इन्हें भी प्रथम गुण स्थानमें तुम क्यों नहीं मानते ? यदि कहो कि शुक्लध्यान आदि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्वात्विक्रियाधिकारः । ६७ जो गाथा में शुक्लेश्या के लक्षण बताये हैं वे सब ऊपरके ही गुणस्थानोंमें पाये जाते हैं पहले गुण स्थानमें नहीं, तो उसी तरह धर्म्मध्यान भी ऊपरके ही गुणस्थानोंमें पाया • जाता है प्रथम गुणस्थानमें नहीं, ऐसा कदापि नहीं हो सकता कि गाथामें कहे हुए और सब लक्षण तो ऊपरके गुणस्थानोंमें ही पावें मगर एक धर्म्मध्यान प्रथम गुणस्थानमें भी पावे अतः उत्तराध्ययन सूत्रकी उक्त गाथाओंका नाम लेकर मिथ्यादृष्टिमें धर्म्मध्यान बतलाना एकान्त मिथ्या है । .. • · ( बोल ३० वां) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३४ के ऊपर लिखते हैं कि “जिम एक तालाव नो पाणी एक घडो ब्राह्मग भर ले गयो अने एक घडो भंगी भर ले गयो । भंगीरा asia भंगी पाणी वाजे अने ब्राझगरा घडामें ब्राह्मणरो पागी बाजे पिग पाणी तो मीठो शीतल छै भंगीरा घडामें आया खारो भयो न थी । तथा शीतलता मिटी नहीं पाणी तो तेहिज तालाव नो छै । पिण भाजन लारे नाम बोलत्रा रूप छै । तिम शील, दया, क्षमा तपस्यादिक रूप पाणी ब्राह्मग समान सम्यग्दृष्टि आदरे भंगी समान मिध्यादृष्टि आदरे ते . तो तपशील दया नो गुग जाय नहीं। जिमि पानी ब्राह्मग तथा भङ्गी रो बाजे पिण पाणी मीठा फेर नहीं पाणी मीठो एक सरीखो छै । तिमि मिध्यादृष्टि शीलादिक पाले ते मिथ्यादृष्टि री करणी बाजे पिग करगी दोनू मोक्षमार्गनी छै ।" [ ० ० ३४ ] इस का क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) एक तालाव से जल भरने वाले ब्राह्मग और भङ्गीका उदाहरण देकर मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टियों के गुणको तुल्य बताना मूर्खता है । ब्राह्मण और भङ्गीमें जातिमात्रका भेद है किन्तु उस ताला की मधुरता और उपादेयताके सम्बन्ध में मतभेद नहीं है । जैसे ब्राह्मग उस तालावको मधुर और जलप्रहण करनेयोग्य समझता है भङ्गी भी उसे उसी तरह समझता है । यदि भङ्गी उस तालाब को खारा या जलप्रहण न करनेके योग्य समतो वह उससे जल नहीं भरता इसलिये भङ्गी और ब्राह्मणका विचार उस तालावके सम्बन्धमें एक है परन्तु मिथ्यादृष्टि और सम्यादृष्टिमें यह बात नहीं है । मिथ्यादृष्टि जिस मियादर्शन रूप तालावको उत्तम समझता है. सम्यग्दृष्टि उसे बुरा जनता है। तथा सम्य शता I दृष्टि जिस सम्यादर्शनरूप तालावको अच्छा समझता है मिथ्यादृष्टि उसे बुरा जानता है इस प्रकार मिध्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिके विचारमें महान् अन्तर है इस अन्तरके होते हुए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ सद्धर्ममण्डनम् । सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि दोनों ही एक सम्यग्दर्शन, या एक मिथ्यादर्शन रूप तालावसे जल भरे यह कदापि सम्भव नहीं है अतः तालाव के सम्बन्धमें समान विचार रखनेवाले भी और ब्रह्म का उदाहरण देकर भिन्न भिन्न विचारवाले सम्यग्दृष्टि और मिथ्याafgate तालाव से पानी लेने वाला बताना अज्ञानमूलक है । ङ्गी और ब्राह्मग घडेका उदाहरण देकर सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके क्षमा दया आदिमें तुल्यता बताना भी अयुक्त है । भङ्गी और ब्राह्मणके घडोंमें माधुर्य गुणकी दृष्टिसे कुछ विशेषता नहीं है । ब्राह्मगका घट जैसे मधुर मिट्टीका बना होता है उसी तरह भाभी होता है इसीलिये इन दोनों घडोंमें रक्खा हुआ मधुर जल मधुर ही रहता है परन्तु सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टियोंमें यह बात नहीं है इनके गुण परस्पर विपरीत होते हैं । मिथ्याष्ट्रिका गुण मिथ्यात्व और सम्यग्दृष्टिका सम्यक्त्व होता है । ये सम्यक्त्व और मिथ्यात्व एक दूसरेसे विपरीत होते हैं अतः सम्यग्दृष्टिको मधुर मिट्टीके घड़े का दृष्टान्त और मिथ्यादृष्टिको खारे घडेका दृष्टान्त ठीक घटता है ब्राह्मण और भङ्गीके घडेका नहीं । तात्पर्य यह कि जैसे खारे घडेमें रक्खा हुआ जल खारा और मधुर घटमें हुआ मीठा होता है उसी तरह सम्यग्दृष्टिके शील, दया, और तपस्या आदि गुण सम्यप और और मिथ्यादृष्टिके ये सब असम्यम् प हो जाते हैं अतः इन दोनों को एक समान कह कर मिध्यादृष्टिके मिथ्यात्वयुक्त शील दया और तपस्या आदिको वीतरागकी आज्ञा में बताना शास्त्रविरुद्ध है । नंदी सूत्र टीका में सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिके लिये सुगन्ध और दुर्गन्ध घट की उपमा दी है ब्राह्मण और भङ्गीके घटकी नहीं । वह टीका यह है “भाविताः द्विविधाः प्रशस्तद्रव्यभाविता अप्रशस्तद्रव्यभाविताश्च । तत्र ये कर्पू रागुरुचन्दनादिभिःप्रशस्तैर्द्रव्यैर्भावितास्तेप्रशस्तद्रव्यभाविताः ये पुन: पालाण्डु लशुन सुगतैलादिभिर्भावितास्ते प्रशस्तद्रव्यभाविताः” अर्थात् वासित घट दो प्रकारके होते है एक प्रशस्त द्रव्योंसे वासे हुए और दूसरे अप्रशस्त द्रव्यों से वासे हुए। जो कपूर अगर और चन्दन आदि उत्तम द्रव्योंसे वासे हुए हैं वे "प्रशस्तद्रव्यभावित" कहलाते हैं और जो प्याज, लशुन, मद्य तथा तेल आदि अप्रशस्त द्रव्योंसे वासे गये हैं वे "अप्रशस्तद्रव्य वासित" हैं । जिस पुरुषका अन्तःकरण जिनाज्ञाराधक मुनियोंके उपदेशसे वैराग्ययुक्त और निर्मल होता है वह पुरुष प्रशस्तद्रव्यवासित घटके समान है और जिसका अन्त:करण जिनाज्ञा विरोधियोंके उपदेशसे कलुषित है वह अप्रशस्तद्रव्यवासित घटके सहै। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। ___ यहां नन्दी सूत्रकी टीकामें मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टियोंके गुणमें भेद होनेसे उनकी उपमा सुगन्ध और दुर्गन्ध घटको दीहै ब्राह्मग और भङ्गीके घडेकी नहीं अत: जिनके माधुर्य गुणमें कुछ भेद नहीं है ऐसे ब्राह्मग और भङ्गीके घडोंका दृष्टांत देकर मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिके गुणोंको तुल्य बताना एकान्त मिथ्या है। बोल ३१ वां भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३५ के ऊपर लिखते हैं “जे मिथ्यादृष्टि साधुने पूछे हूं सुपात्र दान देवू शील पालू वेला तेलादि तप करू जब साधु तेहने आज्ञा देवे कि नहीं ? जो आज्ञा देवे तो ते करणी आज्ञा मांहि थई" (६० पृ० ३५) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) तप, शील, सुपात्र दानको अच्छा जान कर उनका आचरण करनेके लिए साधुसे आज्ञा मांगने वाला पुरुष मिथ्यदृष्टि केसे कहा जा सकता है ? साधुके पास श्रद्वाभक्तिके साथ जाकर शील तप, सुपात्र दान आदिकी आज्ञा मांगना सम्यग्दृष्टिका लक्षण है यह बात सम्यग्दृष्टियोंमें ही पायी जाती है सम्यग्दृष्टि पुरुष ही साधुके पास भक्ति भावके साथ जाकर शील तप आदि धर्मो की आज्ञा मांगते हैं मिथ्यादृष्टि नहीं, क्योंकि वे साधुको साधु तथा उनके उपदेश किये हुए धर्मको धर्म नहीं मानते । ऐसी दशामें वे भक्ति भावके साथ साधुके पास जाकर शील तप दया आदि धर्मोकी आज्ञा मांग ही नहीं सकते यह भव्य जीवोंको स्वयं सोच लेना चाहिए। जो पुरुष साधुके निकट जाकर शील तप और सुपात्र दानकी आज्ञा मांगता है उसे उस समय सम्यग्दृष्टि ही मानना चाहिए क्योंकि उपशमसम्यक्त्वकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्तकी होती है इसलिए उस समय उस पुरुषको भावसम्यक्त्वकी प्राप्ति हुई समझनी चाहिए। अतः साधुके पास जाकर शील तप आदिकी आज्ञा मांगने वालेको मिथ्यादृष्टि ठहराकर मिथ्यादृष्टिकी मिथ्यात्वयुक्त क्रियाको आज्ञामें बताना एकान्त मिथ्या है। इसके अतिरिक्त यहां यह प्रश्न होता कि जो मिथ्यादृष्टि शील तप आदिकी आज्ञा मांग कर उसका अनुष्ठान करता है उसकी वह क्रिया सम्यग्रूप है या असम्यग्रूप है ? यदि सम्यग्रूप मानो तोसम्यक्क्रियाका अनुष्ठान करनेवाला मिथ्यादृष्टि कैसे ? वह सम्यक्रियाका अनुष्ठान करता है इसलिए मिथ्यादृष्टि नहीं है यदि उसकी क्रियाको असम्यअप कहो तो साधुने उसे असम्यक् क्रिया करने की आज्ञा नहीं दी है इसलिये उसकी वह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सद्धममण्डनम् । क्रिया साधुकी आज्ञामें नहीं हो सकती। अतः मिथ्यादृष्टिकी असम्यग्रूप क्रियाको साधु की आज्ञामें बताना अयुक्त है। .. साधु पुरुष हर एक जीवको सम्यक्रिया करनेकी आशा देते हैं उनकी आज्ञानुसार जो सम्यक् क्रियाका अनुष्ठान करता है वह मिथ्यादृष्टि नहीं है सम्यग्दृष्टि है और जो साधुकी आज्ञा लेकर भी सम्यक् क्रियाका अनुष्ठान नहीं करता मिथ्या क्रियाका अनुष्ठान करता है उसकी वह मिथ्याक्रिया साधुकी आज्ञामें नहीं है उस क्रियाके करनेसे वह आज्ञाराधक नहीं हो सकता किन्तु वह मिथ्यादृष्टि है और उसकी वह क्रिया आज्ञा बाहर है। अतः मिथ्यादृष्टिको साधुकी आज्ञाका आराधक कहना मिथ्या है। - जैसे साधु मोक्षमार्गका आराधन करने के लिए दीक्षा देते हैं और दीक्षा देकर सम्यग्ज्ञान पूर्वक क्रिया करने की आज्ञा देते हैं परन्तु दीक्षित पुरुष अभव्य हो और मिथ्यात्वी होनेसे अज्ञान पूर्वक द्रव्य क्रिया करने लग जाय तो उसकी वह क्रिया साधुकी आज्ञ.में नहीं कही जा सकती क्योंकि साधुने ज्ञानपूर्वक भावक्रिया करने की आज्ञा दी थी न कि अज्ञान पूर्वक द्रव्यक्रिया करने की, उसी तरह जो पुरुष साधुसे सम्यक्रिया करने की आज्ञा लेकर अशान पूर्वक द्रव्य क्रिया करता है उसकी वह क्रिया आज्ञामें नहीं है क्योंकि साधु ने अज्ञानपूर्वक द्रव्य क्रिया करने की आज्ञा नहीं दी है वल्कि ज्ञानपूर्वक भाव क्रिया करनेकी आज्ञा दी है इसलिये उसकी वह अज्ञान क्रिया साधुकी आज्ञामें नहीं हो सकती। अतः मिथ्यादृष्टिकी मिथ्यात्व युक्त क्रियाको वीतरागकी आज्ञामें ठहराना मिथ्या है। (बोल ३२ वां) (प्रेरक) · भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३६ पर लिखते हैं कि " इहां कयो सूय्य'भना अभियोगिया देवता भगवान्ने वन्दन नमस्कार कियो तिवारे. भगवान् वोल्या एवन्वनरूप तुम्हारो पुरागो आचार छ। ए तुम्हारो जित आचार छै ए वन्दनारी म्हारी आज्ञा छ । तो तिमकरणीने आज्ञा बाहिरे किम कहिए." (भ्र० पृ० ३६) . . ... . . इसका क्या उत्तर ? .(प्ररूपक) .: सूर्याभ देवताके अभियोगिया देवताका उदाहरण देकर मिथ्याष्ट्रिकी क्रियाको .. वीतरागकी आशामें कायम करना अज्ञान है । सूर्याभदेवके अभियोगिया देवताके मिथ्या · दृष्टि होनेमें कोई प्रमाण नहीं है। नरकयोनिके जीव भी. जब सम्यग्दृष्टि होते हैं तब www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्याविक्रियाधिकारः । सूर्य्याभिके अभियोगिया देवताओंके सम्यग्दृष्टि होनेमें क्या बाधा है। इसके अतिरिक्त यह प्रश्न भी उठते हैं कि आन्तरिक भक्तिशून्यं द्रव्यरूप वन्दना भगवान् की आज्ञामें है या भक्तिपूर्वकं भावरूप वन्दना ही आज्ञामें है ? यदि भावशून्य द्रव्यवन्दना भी भयवानकी आज्ञामें हो तो ऐसी वन्दना अभव्य जीव भी करते हैं इसलिए वे भी वीतरागकी आज्ञाराधक होकर मोक्ष के अधिकारी हो सकते हैं परन्तु ऐसा कदापि नहीं होता अभव्य ata मोक्षमार्गका आराधक त्रिकालमें भी नहीं है अतः भक्तिपूर्वक भावरूप वन्दनको ही आज्ञामें मानना चाहिये ऐसा वन्दन नमस्कार मिथ्यादृष्टियोंका नहीं होता क्योंकि मिथ्यादृष्टि मिथ्यात्वके कारण द्रव्यरूप क्रिया ही करता है भावरूप नहीं। सूर्य्याभके अभियोगिया देवताओंका वन्दन नमस्कार सम्यग्ज्ञानपूर्वक भावरूप था अतएव उसे भगवान् ७१ आज्ञा अन्दर बतलाया यदि वह द्रव्यरूप होता तो कदापि भगवान् आज्ञामें नहीं : कहते अतः सम्यक् क्रियाका अनुष्ठान करने वाले सूर्य्याभिके अभियोगिया देवता सम्यग्दृष्टि थे मिथ्यादृष्टि नहीं उनका उदाहरण देकर मिथ्यादृष्टिके भावशून्य द्रव्यरूप वन्दन नमस्कारको वीतरागकी आज्ञामें बताना अज्ञान मूलक है । (बोल ३३ वां समाप्त ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३७ पर भगवती सूत्र शतक २ उद्दे शां. १ का मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि " अर्थ अ कह्यो है गोतम ! तांहरा धर्माचार्य भगवान् महावीर स्वामीने बांदा यावत् सेवा करा । तिवारे गोतम बोल्या जिम सुख हुवे तिम करो हे देवानु प्रिय, पिणप्रतिवन्ध मत करो । इसी शीघ्र आज्ञा वन्दनानीदीधी ते वन्दना रूप करणी प्रथम गुणठाणा रो धगी करे M आज्ञा बाहिरे किम कहिये ।" (भ्र० पृ० ३७ ) । इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) भ्रमविध्वंसनकारके मतानुयायियोंसे पूछना चाहिये कि गोतम स्वामीने स्कन्दुक जीको भक्ति भाव के साथ सम्यग्ज्ञानपूर्वक तीर्थंकरको वन्दना करने की आज्ञा दी थी या भावरहित द्रव्य वन्दना करने की आज्ञा दी थी ? यदि भक्तिभाव के साथ सम्यग्ज्ञानपूर्वक वन्दना करने की आज्ञा दी थी तो मिध्यादृष्टिका वन्दन नमस्कार उनकी आज्ञा कैसे हो सकता है ? क्योंकि मिध्यादृष्टिका वन्दन नमस्कार भक्तिभाव रहित और मिथ्यात्व के साथ होता है भक्तिभाव के साथ सम्यग्ज्ञान पूर्वक नहीं । यदि भक्तिभावरहित द्रव्य वन्दना की आज्ञा दिया जाना कहो तो यह अयुक्त है साधु कदापि किसीको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । भक्ति-भावरहित द्रव्य वन्दना करनेकी आज्ञा नहीं देते । इसलिये गोतम स्वामीने भक्तिभावके साथ सम्यग्ज्ञानपूर्वक वन्दन नमस्कार करने की आज्ञा दी थी। उस आज्ञाके अनुसार यदि स्कन्दकजीने भगवान्को भक्तिभावके साथ सम्यग्ज्ञानपूर्वक वन्दन नमस्कार किया था तो वह उस समय सम्यग्दृष्टि ही थे मिथ्यादृष्टि नहीं । यदि वैसा न करके स्कन्दकजीने मिथ्यात्वके साथ द्रव्य रूप वन्दन नमस्कार किया था तो उनका वह नमस्कार गोतम स्वामीकी आज्ञामें हुमा ही नहीं क्योंकि गोतम स्वामीने भक्तिभावके साथ भाव रूप वन्दन नमस्कार करने की आज्ञा दी थी भक्ति रहित मिथ्यात्वयुक्त द्रव्य वन्दनकी नहीं। अतः स्कन्दकजीका उदाहरण देकर मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्वयुक्त द्रव्यरूप वन्दन नमस्कार को जिन आज्ञामें कायम करना नितान्त मिथ्या है। (बोल ३४ वां) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४० पर लिखते हैं कि “ अथ इहां तामली बालतपस्वीरी अनित्यचिन्तवना कही छे। ए संसार अनित्य छै एहवीचन्त वना ते तो शुद्ध छै" इसके बाद पुष्कियोपाङ्गका पाठ देकर लिखते हैं-अथ इहां सोमिल ऋषिनी अनित्य चिन्तवना कही। ए अनित्य चिन्तवना शुद्ध करणी छ निरवद्य छ तेहने आज्ञा बाहिरे किम कहिए" ___ इसके आगे और भी लिखते हैं—“वली अनित्य चिन्तवना धर्मध्यानरो भेद चाल्यो ते ही अनित्य चिन्तवना तामली सोमिल ऋषि प्रथम गुण ठाणे थकी कीधी तेहने अधर्म किम कहिए ए धर्मध्यानरो भेद आज्ञा बाहरे किम कहिए” (भ्र० पृ० ४०-४१ इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) तामली बाल तपस्वी और सोमिल ऋषिकी अनित्थ जागरणको धमध्यानकी अनुप्रेक्षामें कायम करके प्रथम गुण स्थान वाले मिथ्यादृष्टिकी क्रियाको जिन आज्ञामें कायम करना मिथ्या है। प्रथम गुण स्थान वाले मिथ्यादृष्टियोंमें धर्मध्यान होता ही नहीं, क्योंकि धम्मध्यान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके साथ ही होता है यह पहले बतलाया जा चुका है। सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन मिथ्यादृष्टियोंमें नहीं होता इसलिये उनमें धर्मध्यान भी नहीं हो सकता। जब कि प्रथम गुण स्थान वाले मिथ्यादृष्टियोंमें धर्मध्यान नहीं होता तब धर्मध्यानका भेद स्वरूप अनित्य जागरणा उनमें कैसे हो सकती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। है ? जब वृक्ष ही नहीं है तो शाखा पत्र कहांसे होंगे ? धर्मध्यान सम्यग्ज्ञान और सम्यक् दर्शनके साथ ही होता है इस विषयमें ठाणाङ्ग सूत्रका मूलपाठ और उसकी टीका लिखकर प्रमाण बतलाया जाता है। "चत्तारि झाणा पण्णता, तंजहा-अशाणे रोदे झाणे धम्मेझाणे सुके झाणे" "धम्मस्सणं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ एगाणुप्पेहा, अणिचाणुप्पेहा, असरणाणुप्पेहा, संसाराणुप्पेहा" . (ठाणाङ्गठाणा ४ उ०१) इस पाठकी टीका यह है "ध्यातयोध्यानानि अन्तर्मुहूर्त्तमात्रकालंचित्तस्थिरतालक्षणानि। उक्तच-"अन्तोमुहूत्त मित्तं चित्तावत्थाणमेग वत्थुम्मि छउमत्थाणं झाणं जोगणिरोहो जिणाणंतु" तत्र ऋतं दुःखं तस्य निमित्तं तत्रभवंवा ऋते पीडिते भवमात ध्यानं छढोऽध्यवसायः । हिंसायतिक्रौर्यानुगतं रौद्रम् । श्रुतचरणधर्मादनपेतं धर्म्यम् शेधयत्यष्टप्रकारं कर्ममलं शुचंवा क्लमयतीति शुक्लम्" ___ अर्थात् किसी एक विषयमें अन्तर्मुहूत्त तक चित्तको स्थिर रखना, ध्यान कहलाता है। कहा भी है किसी एक वस्तुमें अन्तर्मुहूर्त तक चित्तको स्थिर रखना ध्यान है। ऐसा ध्यान छद्मस्थोंका होता है। योगनिरोध काल तक सब वस्तुओंका ध्यान केवलियों का होता है वह ध्यान चार प्रकारका है आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान, और शुक्लध्यान । जो ध्यान दुःखका कारण है अथवा दुःख होने पर होता है उसे आर्तध्यान कहते हैं। जो ध्यान हिंसा आदि क्रूरतासे युक्त होता है वह रौद्रध्यान कहलाता है। जो ध्यान, सम्यग्ज्ञानदर्शन और चारित्रके साथ होता है वह धर्मध्यान है। जो ध्यान आठ प्रकारके कर्ममलोंको दूर करता है या शोकको दूर करता है वह शुक्लध्यान है। ___ इनमें सम्यग् ज्ञान दर्शन और चारित्रके साथ होने वाले धर्मध्यानकी चार अनुप्रेक्षाए कहीं हैं। ध्यान होने के पश्चात् भावना या पर्सालोचना करनेको 'अनुप्रेक्षा' कहते हैं। पहली अनुप्रेझाको 'एकानुप्रेक्षा' कहते हैं। मैं अकेला हूं, मेरा कोई नहीं है ऐसी भावना करना एकानुप्रेक्षा है। दूसरी 'अनित्यानुप्रेक्षा' है। यह शरीर नाशवान है सम्पत्ति दुःखका स्थान है, संयोग, वियोगका हेतु है उत्पन्न होने वाले सभी पदार्थ नश्वर हैं इस प्रकार जीवन आदिके विषयमें अनित्यताकी भावना करना 'अनित्यानुप्रेक्षा' है। तीसरी 'अशरणानुप्रेक्षा' है। इसका अर्थ जन्म जरा और मरणके भयसे भीत, व्याधि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ सद्धममण्डनम् । और वेदनासे ग्रस्त इन प्राणियोंके लिए जिनवरोंके वाक्यसे अतिरिक्त कोई दूसरा शरण नहीं है ऐसी भावना करना है। चौथी 'संसरणानुप्रेक्षा' है। संसारके प्राणी सदा अपने अपने कर्मानुसार चारों गतियोंमें जाते रहते हैं वही स्त्री वेदी जीव, किसी भवमें माता होकर दूसरे भवमें उसी जीवकी भगिनी हो जाता है और फिर अन्य भवमें भार्या एवं किसी भवमें पुत्री हो जाता है । इसी तरह कभी पुत्र ही पिता और पिता पुत्र हो जाता है इस प्रकार संसारके सभी जीव एक भवको छोड़ कर दूसरे भवमें जाते रहते हैं ऐसी भावना करनेको 'संसरणानुप्रेक्षा' कहते हैं । उक्त चतुर्विध अनुप्रेक्षाएं धर्मध्यान होनेके पश्चात् होती हैं और धर्मध्यान श्रुत तथा वारित्रके साथ होता है मिथ्यादृष्टि में श्रुत और चारित्र नहीं होता इसलिये धर्मध्यान भी उसमें नहीं होता और धर्मध्यानके न होनेसे मिथ्यादृष्टिमें चतुर्विध अनुप्र क्षाएं भी नहीं होतीं अत: मिथ्यादृष्टिके अन्दर धर्मध्यानके पश्चात् होने वाली अनित्य जागरणाका सद्भाव बताना शास्त्रविरुद्ध है। - यदि कोई कहे कि सोमिल ऋषि और तामली बाल तपस्वीकी अनित्य जागरणा शास्त्रमें कही है इसलिए मिथ्यादृष्टिमें अनित्य जागरणा होती है। तो इसका उत्तर यह है कि सोमिल ऋषि और तामली बाल तपस्वीमें जो अनित्य जागरणा शास्त्रमें कही है वह धर्मध्यानके पश्चात होने वाली सम्यग्दृष्टियोंकी अनित्य जागरणा नहीं किन्तु मिथ्यात्वके साथ होने वाली दूसरी अनित्य जागरणा है । जैसे शास्त्रमें मिथ्यादृष्टिकी प्रव्रज्या कही है और सम्यग्दृष्टिकी प्रव्रज्या भी कही है परन्तु वे दोनों प्रत्रज्याएं एक नहीं भिन्न भिन्न हैं। सम्यग्दृष्टिकी प्रव्रज्या, सम्यग्रूप और मिथ्यादृष्टिकी मिथ्यारूप है उसी तरह मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टिकी अनित्य जागरणाएं भी भिन्न भिन्न हैं एक नहीं हैं। सम्यग्दृष्टिकी अनित्य जागरणा धर्मध्यानके अन्तर्गत होनेसे वीतरागकी आज्ञामें है और मिथ्यादृष्टिकी धर्मध्यानसे वहिभूत और अज्ञानपूर्वक होनेसे वीतरागकी आज्ञामें नहीं है। अतः सोमिल ऋषि और तामली बाल तपस्वीकी अनित्य जागरणाको धर्मध्यानमें ठहरा कर वीतराग की आज्ञामें बताना एकान्त मिथ्या है। . शास्त्रमें मिथ्यादृष्टिकी प्रत्रज्या भी कही है वह पाठ यह है-“पव्वजाए पव्वइत्तए” यह भगवती शतक ३ उद्देशा १ में तामली तापसकी प्रव्रज्याके लिये पाठ आया है। इस पाठमें तामली तापसको प्रव्रज्या धारण करना कहा है परन्तु यह प्रव्रज्या मिथ्यात्वके साथ होनेसे वीतरागकी आज्ञामें नहीं मानी जाती उसी तरह मिथ्यात्वके साथ होने से तामली तापसकी अनित्य जागरणा भी आज्ञामें नहीं मानी जा सकती तथापि शब्द की तुल्यता देख कर यदि कोई हठी तामली तापसकी अनित्य जागरणाको जिन आज्ञामें ठहरावे तो उसे तामली तापसकी प्रव्रज्या भी जिन आज्ञामें मान लेनी चाहिये । यदि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। तामली तापसकी प्रव्रज्याको जिन आज्ञामें नहीं मानते तोउसकी अनित्य जागरणाको भी आज्ञामें नहीं मानना चाहिये । उवाई सूत्रमें वानप्रस्थ तापसोंकी प्रव्रज्याके लिये यह पाठ आया है"वदुई वासाई परियायं पाउणंति" अर्थात् वानप्रस्थ तापस बहुत वर्षों तक अपनी प्रव्रज्याका पालन करते हैं। यहां जिस प्रकार वानप्रस्थ तापसोंकी प्रव्रज्याका पाठ आया है उसी तरह जिनाज्ञाराधक मुनियोंकी प्रव्रज्याके लिये भी पाठ आया है। "वहुई वोसाइं केवल परियोग पाउणंति" वहुई वासाई छउमत्थं परियागं पाउणंति" इन पाठोंमें मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टियोंकी प्रव्रज्याके लिये समान पाठ आने पर भी जैसे इनकी प्रव्रज्याए एक नहीं किन्तु भिन्न भिन्न हैं उसी तरह सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टि की अनित्य जागरणाएं भी भिन्न भिन्न हैं एक नहीं। अतः तामली और सोमिलकी अनित्य जागरणाको भगवान महावीर स्वामीकी अनित्य जागरणाके तुल्य बताना मिथ्या है। [बोल ३५ वां समाप्त (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४२ के ऊपर भगवती सूत्र शतक ८ उद्देशा ९ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि "अथ इहां चार प्रकारे मनुष्यनो आयुषो बंधे कह्यो । जे प्रकृति भद्रिक, विनीत, दयावान् अमत्सर भाव एचार करणी शुद्ध छै आज्ञा मांहि छै तो दयादिक परिणाम साम्प्रत आज्ञामें छै" इसके आगे लिखते हैं-- "बली सरागसंयम संयमासंयम ते श्रावक पणो, वाल तप, अकाम निर्जरा ए चार कारणे करी देव आयुषो बंधे इम कह्यो तो ए चार कारण शुद्ध छै के अशुद्ध छ । सावध छै के निखद्यछ। आज्ञामें छै के आज्ञा वाहिरे छै । एतो चार करणी शुद्ध आज्ञा मांहि लीसू देव आयुषो बंधे छै। अने जे बाल तप अकाम निर्जराने आज्ञा बाहिरे कहे तेहने लेखे सरागसंयम संयमासंयम पिण आज्ञा बाहिरे कहिणा। अने सराग संयम संयमासंयमने आज्ञामें कहे तो बाल तप अकाम निर्जराने पिण आज्ञामें कहिणा । ए बाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । तप अकाम निर्जरा शुद्ध आज्ञा मांहि छै ते मांटे सरागसंयम संयमासंयमरे भेला कह्या । जो अशुद्ध हुवे तो भेला नकहिता" (भ्र० पृ० ४२-४३) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भगवती सूत्र शतक ८ उद्देशा ९ के मूलपाठके आश्रयसे मिथ्यादृष्टिकी करनीको आज्ञामें बताना मिथ्या है। भगवतीके उस पाठमें सिर्फ देवभव और मनुष्य भवकी प्राप्ति के चार कारण कहे हैं। वे कारण वीतरागकी आज्ञामें हैं या आज्ञाके बाहर हैं यह नहीं बतलाया है इसलिये भगवतीके उस पाठसे अकाम निर्जरा और बाल तपस्याको आज्ञामें ठहराना अप्रामाणिक है। उवाई सूत्रके मूलपाठमें अकाम निर्जरा और बाल तपस्याको आज्ञा बाहर कहा है इसलिये अकाम निर्जरा और बाल तपस्याको आज्ञामें कहना शास्त्र विरुद्ध है । उवाई सुत्रका वह पाठ निम्नलिखित है “जे हमे जीवा गामागर गयर णिगम रायहाणि खेड कव्वड मडंव दोण मुंह पट्टणासम संवाह सन्निवेसेसु अकाम तण्हाए अकाम छुहाए अकाम वंभर वासेणं अकाम अण्हाणक सीयायव दंसमसक सेअजल्लमल्ल पंक परितावेणं अप्पतरोवा भूजतरोवा कालं अप्पाणं परिकिलेसंति परिकिलेसित्ता काल मासे कालं किचा अण्णतरेसु वाण मंतरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति" (उवाई सूत्र) इस पाठका अर्थ पृष्ठ ( १८ ) पर दे दिया गया है। इस पाठमें अकाम निर्जराकी करनी करने वालेको जिन आज्ञाका अनाराधक कहा है। यदि अकाम निर्जरा वीतरागकी आज्ञामें होती तो उसके आराधकको परलोक का अनाराधक कैसे कहते ? अतः अकाम निर्जराका आज्ञा बाहर होना स्पष्ट सिद्ध होता है। इसी जगह उवाई सूत्रमें बाल तपस्या करने वालेको मोक्ष मार्गका अनागधक कहा है वह पाठ अर्थके साथ पृष्ठ (२५-२६) के ऊपर दे दिया गया है। यदि बाल तपस्या जिन आज्ञामें होती तो उक्त पाठमें गंगातट निवासी अज्ञानी तापसोंको परलोकका अनाराधक क्यों कहा जाता ? अतः बाल तपस्या जिन आज्ञामें नहीं है यह स्पष्ट सिद्ध होता है। उवाई सूत्रमें, प्रकृति भद्रक, विनीत, अमत्सरी पुरुष जो सम्यश्रद्धासे हीन हैं उन्हें परलोकका अनाराधक बतलाया है। वह पाठ भी पहले लिखा जा चुका है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्वक्रियाधिकारः । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि प्रकृति भद्रकता विनीतता और अमात्सय्ये आदि गुण यदि मिथ्यात्व और अज्ञानके साथ हों तो वे जिन आज्ञामें नहीं होते । अतः अकाम निर्जरा, बालतपस्या, और मिथ्यात्व तथा अज्ञानयुक्त प्रकृतिभद्रकता, विनीतता, और अमात्य आदि गुणों को वीतरागको आज्ञामें बताना उवाई सूत्रसे विरुद्ध है । I इसी तरह भ्रमविध्वंसन कारने जो यह कुतर्क किया है कि बालतपस्या और अकाम निर्जरा जिन आज्ञामें न होती तो सराग संयम और संयमासंयमके साथ क्यों कही जातीं, यह भी अयुक्त है । जो वीतराग की आज्ञामें नहीं है वह वीतरागकी आज्ञामें होने वाले पदार्थ के साथ न कहा जाय ऐसा कोई शास्त्रीय नियम नहीं है। ठाणाङ्ग सूत्रके चौथे ठाणे में धर्म ध्यान और शुकु ध्यानके साथ रौद्र ध्यान भी कहा है । यदि आज्ञामें होनेवाले पदार्थ के साथ आज्ञा बाहरके पदार्थ न कहे जाते तो धर्म्मध्यान और शुक्लध्यानके साथ रौद्र ध्यान क्यों कहा गया है ? अतः आज्ञामें होनेसे ही अकाम निर्जरा और बालतपस्याका सराग संयम और संयमासंयमके साथ भगवतीके पाठमें कथन बतलाना मिथ्या है। भगवतीके मूलपाठ अकामनिर्जरा और बालतपस्या स्वर्ग, प्राप्तिके कारण होनेसे सराग संयम और संयम संयमके साथ कही गयी हैं आज्ञामें होनेसे नहीं । अतः भगaath मूलपाठका नाम लेकर अकाम निर्जरा और बाल तपस्याको आशामें व्हरान्स मिथ्या है। बोल ३६ वां ) ७७ ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४३ पर ठाणाङ्ग सूत्र ठांणा ४ उद्देशा २ का मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं "अथ गोशालारे स्थविर एहवा तपना करणहार ह्या छै । उग्र तप, घोर तप, सनत्याग जिव्हेन्द्रिय वंश कीधी । तेहनी खोटी श्रद्धा अशुद्ध है पिण एतप अशुद्ध नहीं तप तो शुद्ध छै आज्ञा मांहि छै । ए जिव्हेन्द्रिय प्रति संलीनता तो भगवन्ते बारह भेद निर्जराना का हमें कही छै । उचाईमें प्रतिसंलीनतारा चार भेद किया । इन्द्रिय प्रति संलीनता, कषाय प्रतिसंलीनता, योग प्रतिसंलीनता, विविक्त शयनासनसेवणिया । अने इन्द्रिय प्रतिसंलीनता ना ५ भेदामें रसइन्द्रिय प्रतिसंलीनता निर्जराना बाहर भेद चाल्या तेमध्ये कही छै । ते निर्जराने आज्ञा बाहिरे किम कहिए " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ( ० पृ० ४४ ) www.umaragyanbhandar.com Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) गोशालक मतानुसारिणी जिव्हेन्द्रिय प्रतिसंलीनता और वीतरागमतमान्य जिव्हेंन्द्रिय प्रतिसंलीनता एक नहीं हैं भिन्न भिन्न हैं क्योंकि उवाई सूत्रके सत्रहवें बोल में गोशालक मतानुसारी तपस्वियोंको परलोकका अनाराधक कहा है। यदि गोशालक मतानुसारिणी जिव्हेन्द्रिय प्रतिसंलीनता जिनोक्त प्रतिसंलीनतासे भिन्न न होती तो गोशालक मतानुसारी तपस्वियोंको परलोकका अनाराधक कैसे कहते ? इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि गोशालक मतानुसारिणी जिव्हेन्द्रिय प्रतिसंलीनता अन्य है और वीतराग मतोक्त जिव्हेन्द्रिय प्रतिसंलीनता अन्य है। अतः पूर्वोक्त दोनों प्रतिसंलीनताओंको एक ठहरा कर मिथ्यादृष्टिकी क्रियाको जिनाज्ञामें बताना मिथ्या है। उवाई सूत्रका वह पाठ नीचे लिखा जाता है जिसमें गोशालक मतानुयायी तपस्वियोंकी तपस्याका वर्णन करके उन्हें परलोकका अनाराधक कहा है। ___"खेजे इमे गामागर जाव सन्निवेसेसु आजीविका भवंति तंजहा-दुघरंतरिया, तिघरंतरिया, सत्तघरंतरिया, उप्पलवेंटिया, घरसमुदाणिया, विज्जुअन्तरिया, उदियासमणा तेण एयारवेण विहारेणं विहरमाणा बहुई वासाइ परियायं पाउण ति। पाउणिता कालमासे काल किचा उक्कोसेण अच्चुएकप्पे देवत्ताए उववत्तारो भवन्तितहिं तेसिंगती बावीसं सागरोवमाई ठिती अणाराहगा सेसं तं चेव" ( उवाई सूत्र ) अर्थ ग्राम, आगर, यावत् सन्निवेशोंमें गोशालक मतानुसारो श्रमग होते हैं उनमें कई, दो घर टालकर तीसरे घरमें, कई तीन घरोंको टालकर चौथे घरमें, कई सात घरोंको टाल कर आठवें घरमें भिक्षा लेते हैं। कई, सिर्फ कमलवृत्तको खाकर रहते हैं, कई, प्रत्येक घरोंमें भिक्षा लेते हैं केवल एक ही घरसे नहीं। कई, विजली चमकनेपर भिक्षा नहीं लेते, कई एक ऊटकी तरह बने हुए मिट्टी के पात्र में रह कर तपस्या करते हैं। ये सभी अपने व्रतको बहुत वर्षातक पालकर कालके अबसरमें मृत्युको प्राप्त होकरउत्कृष्ट बारहवें देवलोक अच्युत कल्पमें उत्पन्न होते हैं। वहीं तक उनकी उत्कृष्ट गति है वाईस सागर पर्य्यन्त उनकी स्थिति है । ये लोग परलोकके आराधक नहीं हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः । यहां गोशालक मतानुयायियोंकी कष्ट कर तपस्याका वर्णन करके उन तपस्याजिनाज्ञामें न होने से उन्हें जिनाज्ञाका आराधक न होना कहा है । यदि गोशालक मतानुयायियोंकी तपस्या जिनाज्ञामें होती तो उन्हें इस पाठमें परलोकका अनाराधक कहते । तथा इनकी जिव्हेन्द्रिय प्रति संलीनीता यदि जिन आज्ञामें होती तो वे जिनाज्ञाके अनाराधक न कहे जाते । अतः गोशालक मतकी जिव्हेन्द्रिय प्रतिसंलीनता का वीतराग मतकी जिव्हेन्द्रिय प्रतिसंलीनवासे भिन्न होना स्पष्ट प्रमाणित होता है । तथापि शब्द की तुल्यता देख कर यदि कोई गोशालक मतानुयायियोंकी जिव्हेन्द्रिय प्रतिसंलीनताको जिन आज्ञामें बतावे तो उसे इनकी भिक्षाचरी और प्रब्रज्याको भी जिन आज्ञामें ही मानना चाहिए क्योंकि इनकी भिक्षाचरी और प्रब्रज्या भी जिन मार्गकी भिक्षाचरी और प्रव्रज्यासे शब्दतः तुल्य हैं । यदि शब्दतः तुल्य होने पर भी गोशालक मतानुयायियोंकी भिक्षाचरी और प्रब्रज्याको जिन आज्ञामें नहीं मातते तो इनकी जिव्हेन्द्रिय प्रति संलीनता को भी आज्ञामें नहीं मानना चाहिये अतः गोशालक मतानुयायियोंकी जिव्हेन्द्रिय प्रतिसंलीनताको वीतरागकी आज्ञामें ठहराकर मिथ्यादृष्टिकी क्रियाको जिन आज्ञामें बताना एकान्त मिथ्या है। ( बोल ३७ वां ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रम० पृ० ४४ पर प्रश्नव्याकरण सूत्रके दूसरे संवरद्वारका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं " इहां को सत्य बचन साधुने आदरवा योग्य छै । ते साथ अनेक पाषण्डी अन्य दर्शनी पिण आदरयो कह्यो, ते सत्य लोकमें सारभूत कह्यो । सत्य महासमुद्र की . पिण गम्भीर को मेरुथकी स्थिर कह्यो एहवा भगवन्ते सत्यने वखाण्यो ते सत्यने अन्य दर्शनी पण धार यो तो ते सत्यने खोटो अशुद्ध किम हनी श्रद्धा ऊधी छै पिण निरवद्य सत्य श्रीवीतरागे सरायो ते आज्ञा बाहरे नहीं " कहिए आज्ञा बाहरे कहे तो ( भ्रम० पृ० ४४ ), इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) प्रश्न व्याकरण सूत्रका वह मूलपाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है । वह पाठ यह है— Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । "अनेग पासण्ड परिग्गहियं जं तिलोकम्मिसारभूयं गंभीरतरं महासमुद्दाओ थिरतर मेरुपव्व आओ" (प्रश्न व्याकरण सम्बर द्वार २) इसका अर्थ यह है सत्यरूप महाव्रतको विविध व्रतधारियोंने स्वीकार किया है यह महासमुद्रसे भी गम्भीर मेरु पर्वतसे भी अधिक स्थिर और तीन लोकमें सारभूत है। - यहां मूलपाठमें जो “अनेग पाषण्ड परिग्गहियं ” पाठ आया है इसका अर्थ टीकाकारने इस प्रकार किया है "अनेक पाषण्डिपरिगृहीतं नानाविध व्रतिभि रङ्गी कृतम्" अर्थात् अनेक प्रकार के व्रतधारियोंसे स्वीकार किया हुआ व्रतका नाम पाषाण्ड है और वह व्रत जिसमें हो उसे "पाषण्डी” कहते हैं। उन पाषण्डियोंसे ग्रहण किए हुए होनेसे सत्य व्रत “अनेक पाषण्डि परिगृहीत" कहा गया है। यद्यपि लोकमें पाषण्डी शब्द दाम्भिक अर्थमें भी आता है तथापि उक्त पाठमें व्रतधारी अर्थमें ही आया है दाम्भिक अर्थमें नहीं। जैन शास्त्रमें पाषण्ड शब्दका व्रतधारी अर्थ भी होता है। दशवैकालिक सूत्र अध्याय २ नियुक्ति १५८ की टीकामें पापण्ड शब्दका अर्थ यों किया है: पाषण्डं ब्रतमित्याहुस्तद्यस्यास्त्यमलंभुवि। सपाषण्डी वदन्त्यन्ये कर्मपाश विनिर्गतः” अर्थात् पाषण्ड नाम व्रतका है वह जिसका निर्मल है उस कर्मबन्धनसे विनिमुक्त पुरुषको पाषण्डी कहते हैं। यहां टीकाकारने पाषण्ड शब्दका व्रत अर्थ बतलाया है और दशबैकालिक सूत्रकी नियुक्तिमें श्रमण निग्रन्थोंका 'पाषण्ड' नाम कहा है वह नियुक्तिकी गाथा यह है. " पब्बईए अणगारे पासण्डे चरग ताबसे मिक्खू परिवाइए य समणे निग्गंथे सञ्जए मुत्ते" अर्थात प्रवजित, अनगार, पाषण्ड, चरक, तापस, भिक्षु परिव्राजक, श्रमण, निग्रंथ, संयत और मुक्त ये सब श्रमण निग्रन्थोंके नाम हैं। इस नियुक्तिमें श्रमणनिप्रन्थोंका नाम “पाषण्ड" कहा है उपासकदशांग सूत्रके प्रथम अध्ययनमें और आवश्यक सूत्रमें सम्यक्त्वका अतिचार बतलानेके लिये यह पाठ आया है “पर पासण्डपसंसा परपासंड संत्थव" इसका अर्थ टीकाकारने यह किया है: "सवज्ञ प्रणीत पाषण्ड व्यतिरिक्तानां प्रशंसा प्रशंसनं स्तुतिरित्पर्थः । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्वात्विक्रियाधिकारः । अर्थात् सर्वज्ञसे रचा हुआ जो पाषण्ड हैं उससे भिन्न पाषण्डकी प्रशंसा करना. सम्यक्त्वका अतिचार है । ८१ यहां सर्वज्ञसे पाषण्डका रचा जाना कहा है जो लोग पाषण्डका व्यर्थ केवल दम्भ बतलाते हैं उनसे पूछना चाहिये कि सर्वज्ञने कौनसा दम्भ रचा है ? यदि वे सर्वज्ञसे दम्भ कारचा जाना न मानें तो उक्त टीकाके पाषण्ड शब्दका उन्हें व्रत अर्थ मानना ही पड़ेगा इस प्रकार उक्त टीकाका यही अर्थ है कि जो पाषण्ड यानी व्रत सर्वज्ञका कहा हुआ नहीं है उसकी प्रशंसा करना सम्यक्त्वका अतिचार है । यदि पाषण्ड शब्दका दम्भ ही अर्थ होता है तो मूलपाठ में "पाषण्ड" शब्दके पहिले "पर" लगानेकी क्या आवश्यकता थी क्योंकि जैसे दूसरेका दम्भ बुरा है वैसे ही अपना दम्भ भी ती बुरा होना चाहिये फिर " पर" शब्द क्यों लगाया ? केवल यही कहा जाता कि "मैंने यदि पाषण्डकी प्रशंसा की हो तो " तस्समिच्छामि दुक्कडं" परन्तु ऐसा न कह कर जो मूलपाठमें "परपाषण्ड" कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि " पाषण्ड" नाम व्रतका है उस व्रतके धारण करनेवाले पुरुषों से सत्यका ग्रहण किया जाना प्रश्न व्याकरण सूत्रके दूसरे संवरद्वारमें कहा है इसलिये प्रश्न व्याकरण सूत्रका नाम लेकर मिध्यादृष्टि अज्ञानी दाम्भिक पुरुषोंमें सत्यका स्थापन करना एकान्त मिया है । ( बोल ३८ वां समाप्त ) ( प्रेरकं ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४५ पर जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: "अथ अठे इम को ते वन खण्डने विषे वाण व्यन्तर देवता देवी बैसे सुर्वे क्रीडा करे पूर्वभवे भला पराक्रम फोडव्या तेहना फल भोगवे एहवा श्री तीर्थ कर देवें कयों । तो जे वाण व्यन्तरमें तो सम्यग्दृष्टि उपजै नहीं । व्यन्तरमें तो मिध्यात्वीज उपजें हैं अने मिथ्यात्वीरों सर्व पराक्रम अशुद्ध हुवे तो श्रीतीर्थंकर देवे इम क्यू क्यों जे वाण व्यन्तरे पूर्वभवे भला पराक्रम किया तेहना फल भोगवे है । एतो मिथ्यात्वीरा शील तपादिकने विषे भलो पराक्रम को छै । जो तिगरी पराक्रम अशुद्ध हुवे तो भगवन्त भली पराक्रम न कंहिता । एतो भली करणी करे ते आज्ञा मांहिं छै" ( ० पृ० ४५ ) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिके मूलपाठमें व्यन्तर संज्ञक देवताओंके पूर्वभवके कार्यको ग वान्ने अच्छा कह कर बतलाया है इससे यह नहीं सिद्ध हो सकता कि उन देवताओंके ११ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ सद्धर्ममण्डनम् । पूर्वभवके कार्य वीतरागकी आज्ञामें थे क्योंकि व्यन्तर देवोंके पूर्वभवके काय्यको जैसे भगवान्ने अच्छा कहा है उसी तरह पद्मवर वेदिका वनखण्ड और उनमें देवताओंसे भोगे जाने वाले सुख विशेषको भी अच्छा कहा है । पनवर वेदिका और वनखण्डके लिये यह पाठ आया है: "पासाइया दमणीया अभिरुवा पडिरूवा" __ अर्थात् पद्मवर वेदिका चित्तको प्रसन्न करने वाली है, देखने योग्य है, अभिरूप है, और प्रतिरूप है। यहां भगवान ने पद्मवर वेदिका और वनखण्ड को भी अच्छा . इसी तरह व्यन्तर संज्ञक देवताओं के सुख विशेष के सम्बन्ध में यह पाठ माया है:- "कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसे पचणुभवमाणा विहरंति" अर्थात् व्यन्तर संज्ञकदेव पूर्वभवमें किये हुए कल्याण रूप कर्मोका फलस्वरूप कल्याण रूप फल विशेषका अनुभव करते हैं। यहां भगवान्ने जैसे व्यन्तर देवोंके पूर्वभवके कार्यको कल्याण कह कर बताया है उसी तरह उनसे भोगे जाते हुए सुख विशेषको भी कल्याणरूप कहा है। अतः जो लोग भगवान द्वारा अच्छा कहे जानेके कारण व्यन्तर देवताओंके पूर्वभवके कार्यको आज्ञामें बताते हैं उन्हें व्यन्तरदेवोंके सुखविशेषको भी आज्ञा ही मान लेना चाहिये तथा पद्मवर वेदिका और वनखण्डको भी उन्हें आज्ञामें ही कहना चाहिये । यदि पद्मवर वेदिका बनखण्ड और वहां देवताओंसे भोगे जाने वाले सुखविशेषको भगवान द्वारा अच्छा कहे जानेपर भी आज्ञामें नहीं मानते तो व्यन्तर देवताओंके पूर्वभवके कार्यको भी आज्ञामें न मानना चाहिये । तथापि इस पाठका उदाहरण देकर व्यन्तर देवताओंके सुख विशेष और पद्मवर वेदिकाको आज्ञामें न मानते हुए भी उनके पूर्वभवके कार्यको आज्ञामें कहना दुराग्रहका परिणाम है। वास्तवमें आज्ञामें होनेके कारण भगवान ने व्यन्तर देवताओंके पूर्वभवके कार्य, उनके सुख विशेष, और पद्मवर वेदिका तथा वन खंडको अच्छा नहीं कहा है किन्तु वस्तु स्थिति बतलाई है। जैसे रत्नको श्रेष्ठ और कङ्करको निकृष्ट कहा जाता है इसका तात्पर्य यह नहीं है कि रत्न भगवान की आज्ञामें है और कङ्कर आज्ञामें नहीं है उसी तरह जम्बूद्वीप प्रज्ञप्तिके मूलपाठमें वस्तुस्थितिका कथन है वीतरागकी आज्ञामें होनेवाले मोक्षमार्गा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः। राधनरूप कार्योका कथन नहीं है। अतः जम्बूद्वीप प्राप्तिका नाम लेकर मिथ्यादृष्टिकी क्रियाको आज्ञामें बताना एकान्त मिथ्या है। (बोल ३९ वां) भ्रमविध्वंसनकार भ्रम पृष्ठ ४७ पर उवाई सूत्रका मूलपाठ लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: __"अने जो माता पितारा विनीत कया तेहिज गुण थायसे तो इहां इमि को माता पितारो वचन उल्लंघे नहीं तिणरे लेखे एपिण गुण कहिणो जो ए गुण छै तो धर्म करता माता पिता वर्जे अने न माने तो एवचन लोप्यो ते मांटे तिणरे लेखो अवगुण कहिणो। साधुपणोलेतां श्रावक पणू आदरतां सामायक पोषा करतां माता पिता वर्जे तो तिणर लेखे धर्म करणो नहीं अने सामायकादि करे तो अविनीत थयो ते अवगुण हुवे तेहथीतो धर्म हुवे नहीं' (भ्रम० पृ०४७-४८) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) उवाई सूत्रके मलपाठमें, माता पिताकी सेवा शुश्रूषा विनय भक्ति आज्ञा पालन करनेसे पुत्रको स्वर्ग प्राप्ति स्पष्ट लिखी है परन्तु इस शास्त्रोक्त बातके अङ्गीकार करने से भ्रमविध्वंसनकारका अपना कपोल कल्पित सिद्धांत मिथ्या ठहरता है इसलिये उवाइ. सूत्रके उक्त मूलपाठका इन्होंने विपरीत अभिप्राय बतलाया है। इनका सिद्धान्त है कि "इनके मतके साधुओंके सिवाय सभी कुपात्र हैं। यहां तक कि माता पिता ज्येष्ठ बन्धु आदि गुरुजनोंको भी यह कुपात्र कहते हैं उनकी सेवा करनेसे यह एकान्त पाप मानते हैं ऐसी दशामें उवाई सूत्रके मूलपाठका विपरीत अर्थ न करनेसे इनका मत खडा नहीं रह सकता अतः इन्होंने इस पाठका विपरीत अर्थ किया है। इनका यह कहना कि "माता पिताका विनय करना उनकी आज्ञा पालन करना यदि धर्म है तो माता पिता चोरी जारी व्यभिचार और मद्यपान मांसभक्षणकी आज्ञा देवें तो वह आज्ञा पालन करना भी पुत्रके लिये धर्म होना चाहिये और उस आज्ञाके न माननेसे पाप होना चाहिये " विलकुल कुतर्क है। इस विषयमें बुद्धिमानोंको सोचना चाहिये कि-अपने पुत्रको चोरी जारी मद्यपान मांसभक्षण वेश्यागमन आदि बुराइयोंकी शिक्षा देने वाले माता पिता अधिक हैं या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ सद्धममण्डनम् । इन कुकृत्योंसे निवृत्तिकी शिक्षा देनेवाले माता पिता अधिक हैं ? जहां तक आशा की सभी बुद्धिमा यही कहेंगे कि उक्त बुराइयोंसे निवृत्तिकी शिक्षा देनेवाले माता पिता ही अधिक हैं । सम्भव है कोई कोई माता पिता स्वार्थ या मूर्खतावश अपने पुत्र atra बुराइयों की शिक्षा भी देते हों पर वे विरले होते हैं । उन अपवाद स्वरूप माता पिताकी आज्ञामें यदि पाप होता है तो उनके उदाहरणसे सभी माता पिताओंकी आज्ञामें पाप ही है यह कौनसा न्याय है ? किसी अपवादका आश्रय लेकर उत्सर्गको बुरा कहना कहांकी विद्वत्ता है ? कभी कभी सूर्यग्रहण होने पर दिनमें ही अन्धकार हो जाता है उसे देख कर यदि कोई सूर्यको अन्धकार फैलानेवाला कहे तो वह मूर्ख है उसी तरह अपवादस्वरूप माता पिताके उदाहरणसे जो सभी माता पिताकी आज्ञा माननेमें पाप बताता है वह भी मू है। कोई कोई ऐसी भी दुष्टा माता सुननेमें आई है जिसने अपने पुत्रका घात कर दिया है, क्या उसके उदाहरगसे सभी माताएं पुत्रघातिनी कही जा सकती हैं ? कदापि नहीं । जब कि पुत्रघातिनी माताके उदाहरण से सभी माताएं पुत्रघातिनी नहीं कहीं जा ana तब कुकृत्यकी शिक्षा देनेवाले पिताके उदाहरण से सभी पिता बुरे कैसे कहे जा सकते हैं ? अतः माता पिताका विनय और सेवा शुश्रूषा करनेमें एकान्त पाप कहना शास्त्रविरुद्ध है। सूत्रमें माता पिताकी सेवा भक्ति और उनकी आज्ञा पालन करनेसे स्वर्ग आना कहा है वह पाठ यह है "सेजे इमे गामाग नगर जाव सन्निवेसेसु मणुआ भवंति बगह भद्दमा बगहउवसन्ता पाइपतणुकोह माममायालोभा मिउमद्दव संपन्ना अल्लीणा वीणीया अम्मापिओउ सुस्सुसगा अम्मापत्ताणं अणतिक्कमणिज्ज वयणा अपिच्छा अप्पारम्भा अप्पपरिग्गहा अध्पेणं आरभेणं अपेण आर भसमारंभेण वित्तंकप्पेमाणा बहु बालाइ आउयं पालयंति पालित्ता कालमासे काल किया अनुत्तरेसुवाणमंतरेसु देवत्ताए उववतारो भवंति तंचेव सव्वं नवर ठिति चोदसवास सहरसाई' - "" ( उवाई सूत्र ) अर्थात् ग्राम नगर आदि सन्निवेशों में रहने वाले जो मनुष्य स्वभावसे भद्रक अर्थात् परोपकारी हैं। स्वभावसे उपशान्त यानी शीतल हैं, स्वभावसे ही क्रोध मान माया और लोभको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः । हस्व किये हुए हैं। महार रहित होकर गुरुके आश्रयमें रहते हैं, बिनीत हैं, माता पिताके वचन को उल्लान नहीं करने वाले हैं, माता पिता की सेवाशुश्रूषा करते हैं, अल्पारम्भी अल्पपस्त्रिही हैं और अल्प मारम्भ समारम्भसे अपनी जीविका चलाते हैं वे बहुत वर्षों तक अपनी आयुको पूर्ण करके काल्के अवसरमें मृत्युको प्राप्त होकर वाण व्यन्तर संज्ञक देवलोकमें देवता होते हैं वहां वे चौहद हजार वर्ष तक रहते हैं। शेष पूर्वत् है। यह ऊपर लिखे पाठका अर्थ है। __ इसमें कहा है कि परोपकार करनेवाले विनीत और मातापिताकी आज्ञा पालने वाले पुरुष देवलोकमें जाते हैं। यदि मातापिताकी आज्ञा पालन करना उनकी सेवाभक्ति करना एकान्त पापमें होती तो उससे स्वर्ग जाना इस पाठमें क्यों कहा जाता ? स्वर्ग प्राप्ति पुण्यसे होती है पापसे नहीं होती। परन्तु भ्रमविध्वंसनकार मूढ मतियोंको वहकानेके लिये लिखते हैं “अहो महानुभावो ! ए गुण नहीं ए तो प्रतिपक्ष बचन छै। जे इहां इम कह्यो सहजे पतला क्रोध मान माया लोभ । क्रोध मान माया लोभ पतला थोड़ा ते तो अव गुण इज छै थोडा अवगुण छै पिण क्रोधादिक तो गुण नहीं पिण प्रतिपक्ष बचने करी ओल खायो छै। पतला क्रोधादिक कह्या तिवारे जाडा क्रोधादिक नहीं ए गुण कह्या छै।" यह लिख कर भ्रमविध्वंसनकार मूल पाठमें कहे हुए विनयकरने तथा माता पिताके वचन का उल्लङ्घन न करनेको गुण नहीं मानते । अतः इनके मतमें विनय करना भी बुरा है और अविनय करना भी बुरा है परन्तु यह बात शास्त्र और अनुभवसे सर्वथा विरुद्ध है। यदि विनय करना बुरा है तो अविनय करना अच्छा होना चाहिए एवं अविनय करना बुरा है हो विनय करना अच्छा होना चाहिए लेकिन विनय और अविनय दोनों ही, बुरे हों यह बात नहीं हो सकती है इस पाठमें विनय करना स्पष्ट गुण बतलाया है उसे बुरा बताना शास्त्रसे भी विरुद्ध है। इसी तरह प्रतिपक्ष वचनका नाम लेकर इस पाठमें कहे हुए विनय आदि गुणोंकों दोष कहना भी अज्ञान है। जैसे विनयका प्रतिपक्ष बचन अविनय और लघुक्रोध मान माया और लोभके प्रतिपक्ष बचन, महान् क्रोध मान माया और लोभ होते हैं उसी तरह माता पिताके वचनको उल्लङ्घन नहीं करनेका प्रतिपक्ष वचन मातापिताके वचनका उल्लबन करना होता है यदि प्रतिपक्ष वचनसे इस पाठमें गुण बतलाये हैं तो भ्रमविध्वंसनकारके मतमें माता पिताके वचनको उल्लङ्घन करना गुग कहना चाहिए क्योंकि मातापिता के वचनको उल्लङ्घन न करनेका प्रतिपक्ष वचन उनके वचनको उल्लङ्घन करना होता है। यदि माता पिताके वचनको उल्लङ्घन करना गुण नहीं मानते तो उनके वचनको उल्लङ्घन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । नहीं करनेको गुण कहना ही होगा जब कि माता पिताके वचनको उल्लकन नहीं करना गुण है तो उसी तरह इस पाठमें विनय आदि करना भी गुण है दोष नहीं है। अतः प्रतिपक्ष वचनका सूठ ही नाम लेकर मातापिताकी सेवाभक्ति आज्ञा पालन और विनय आदि करनेमें एकान्त पाप कहना शास्त्रसे सर्वथा विरुद्ध है। (बोल ४० वां) इति मिथ्यात्वि क्रियाधिकार : । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ दानाधिकारः। कईएक अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप होनेका उपदेश देकर श्रावकोंसे उसका त्याग कराते हैं परन्तु जिस समय कोई दयालु पुरुष, हीन दीन दुःखी अनाथ प्राणीको कुछ देता है और वे दीन दुःखी लेते हैं उस समय एकांत पाप कह कर उसका (अनुकम्पा दानका ) निषेध नहीं करते क्योंकि उस समय अनुकम्पा दानके त्याग करानेसे अन्तरायका पाप लगना वे भी मानते हैं। जैसे कि भ्रम० कारने लिखा है-"लेतो देतो इसो वर्तमान देखि पाप न कहे उण वेलां पाप कहां जे लेवे छ तेहने अन्तराय पडे ते मांटे साधु वर्तमाने मौन राखै " (भ्र० पृ०५) आगे चल कर भ्र० पृ० ७२ पर लिखा है "राजादिक वा अनेरा पुरुष कुआं, तालाव, पो, दानशाला विषय उद्यतथयोथको साधु प्रति पुण्य सद्भाव पूछे तिवारे साधुने मौन अवलम्बन करनी कही पिण तीन कालने निषेध कयो नथी" वास्तवमें यह प्ररूपणा जैन शास्त्रसे सर्वथा प्रतिकूल है। जैन शास्त्र किसी कालमें भी अनुकम्पा दानका प्रतिषेध नहीं करता। उपदेशमें अथवा भूतकाल औरवर्तमान कालमें अनुकम्पा दानको एकान्त पाप कह कर त्याग करानेकी शिक्षा जैन शास्त्र नहीं देता प्रत्युत इसे पुण्यका भी कारण कहता है इसलिए जो उपदेशमें अनुकम्पा दानको एकान्त पाप कह कर श्रावकोंसे उसका त्याग कराते हैं वे मिथ्यादृष्टि और उत्सुत्रभाषी हैं। शास्त्रमें अनुकम्पा दानके निषेध करनेसे तीनों ही कालमें अन्तराय होना कहा है परन्तु देनेवाला देता हो और लेनेवाला लेता हो उसी समयमें अन्तराय होना नहीं कहा है। अतः उपदेशमें या किसी भी समयमें जो अनुकम्पा दानका निषेध करता है वह अन्तरायका भागी और हीनदीन जीवोंकी जीविकाका अपहरण करनेवाला है। शास्त्र में अधर्म दानको एकान्त पाप कह कर उसका त्याग कराना तीनों ही कालमें धर्म माना है। कोई अधर्म दान दे रहा हो और चोर जार हिंसक प्राणी उसे चोरी जारी हिंसाके लिए ले रहे हों उस समयमें भी साधु समझा बुझा कर उस अधर्म दानका यदि त्याग करावे तो इसमें धर्म ही होता है पर अन्तराय नहीं होता। कोई आभिप्रहिक मिथ्यात्वी न माने तो लाचार होकर साधु यदि मौन रह जाय तो यह बात दूसरी है, परन्तु योग्य पुरुषको किसी भी समयमें समझा कर उससे अधर्म दानका त्याग कगना अन्तराय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । देना नहीं किन्तु धर्मका कार्य है। इस प्रकार तीनों ही कालमें अधर्म दानका निषेध करना शास्त्र सम्मत है। जो लोग अनुकम्पा दानको अधम दानमें गिनते हैं वे वर्तमान कालमें भी अनुकम्पा दान का निषेध क्यों नहीं करते ? क्योंकि अधर्म दानके निषेध करनेमें किसी भी कालमें अन्तराय नहीं कहा है। यदि अधर्म दानके त्याग कराने में भी अन्तराय लगना कोई माने तो उसके हिसाबसे चोरी जारी हिंसा आदिके लिए दान देने वाले पुरुषसे भी उसके दानका फल एकान्त पाप नहीं कहना चाहिए क्योंकि एकान्त पाप बतलानेसे देनेवाला यदि न देवे तो चोर जार हिंसक आदिके लाभमें अन्तराय पड़ता है। यदि चोरी जारी हिंसा आदि महारंभका कार्य करनेके लिये चोर जार हिंसकको दान देना एकान्त पाप है इसलिए वर्तमानमें भी उसके निषेध करनेसे अन्तराय नहीं होता तो उसी तरह तुम्हारे मतसे अनुकम्पा दान भी एकान्त पाप है इसलिए उसका वर्तमानमें निषेध करनेसे भी अन्तराय न होना चाहिये। यदि कहो कि हम इन सव विषयोंमें एक समान ही मौन रह जाते हैं अर्थात् "कोई दयालु किसी दीन दुःखीको कुछ दे रहा हो और व्यभिचासर्थ कोई वेश्याको दे रहा हो, तथा चोरी जारी हिंसाके लिये कोई चार जार और हिंसकको दे रहा हो इन सभी विषयोंमें हम एक समान ही मौन रहते हैं, अन्तरायके भयसे पुण्य पाप कुछ भी नहीं कहते" तो फिर दूसरे अधर्मो में भी आपको ऐसा ही करना चाहिये क्योंकि जैसे अधर्म दान अधर्म है. उसी तरह हिंसा करना चोरी करना आदि भी अधर्म है इनका भी वर्तमान कालमें आप लोग क्यों निषेध करते हैं ? कसाईको बकरा मारनेके लिए तैयार देख कर उपदेश द्वास उसे हिंसा छुड़ाने में भी आपके सिद्धान्तानुसार अन्तराय लगना चाहिये । यदि हिंसा छुडानेमें अन्तराय नहीं लगता तो अनुकम्पा दान छुड़ानेमें भी तुम्हारे मतमें अन्तराय न होना चहिए क्योंकि जैसे हिंसा करना अधर्म हैं अधर्म दान देना अधर्म है उसी तरह तुम्हारे मतमें अनुकम्पा दान भी अधर्म है क्योंकि देनेवाला अधर्ममें ही देता है और लेनेवाला अधर्म में लेता है उसका त्याग करा देनेसे दोनोंका अधर्म छूट सकता है अतः जिस प्रकार उपदेश द्वारा हिंसा छुड़ानेमें वर्तमानमें भी अन्तराय नहीं होता उसी तरह कोई अनुकम्पा दान दे रहा हो और लेने वाला ले रहा हो उस समय भी अनुकम्पा दानके त्याग करानेमें तुम्हारे हिसाबसे पाप न होना चाहिये । भ्र० पृ० १५० में लिखा है कि "हिंसा दिक अकार्य करता देखि उपदेश देई समझावगो" तो किसीको अधर्म दान देते देखकर क्यों नहीं समझाना चाहिये । जैसे हिंसा छुडाना धर्म है उसी तरह आपके मतमें अनुकम्पादान छुडाना भी धर्म है अतः जैसे वर्तमानमें भी हिंसा छुडाने में आप धर्म मानते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। ८९ हैं उसी तरह वर्तमानमें अनुकम्पादान छुडानेमें भी धर्म क्यों नहीं मानते ? यदि आप यह कहें कि अनुकम्पा दानके त्याग करानेसे वर्तमान कालमें लेने के लिए उपस्थित हीन दीन जीवोंकी जीविकामें वाधा पड़ती है पर कसाईसे हिंसा छुड़ानेमें किसीकी जीविका का नाश नहीं होता इसलिये हम वर्तमान कालमें हिंसाका निषेध करते हैं अनुकम्पा दान का निषेध नहीं करते तो यह मिथ्या है जिस मांसाहारीको मांस देनेके लिये कसाई हिंसा करता है उसके लाभका अन्तराय कसाईसे हिंसा छुड़ानेमें भी हो सकता है ऐसी दशामें आपके मतमें उपदेश देकर कसाईसे हिंसा भी नहीं छुड़ानी चाहिए। परन्तु जैसे हिंसा करना अधर्म है उसके छुड़ानेमें कोई अन्तराय नहीं होता उसी तरह अनुकम्पा दान भी आपके मतमें अधर्म है अतः वर्तमानमें भी उसका त्याग कराने पर आपको अन्तराय नहीं मानना चाहिए। परन्तु वर्तमान में अनुकाग दानके निषेध करनेमें आप भी अन्तरायका पाप होना मानते हैं इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अनुकम्पा दान, वेश्या चोर जार हिंसक प्राणियोंको व्यभिचार चोरी आदिके लिये दिया जानेवाला अधर्म दान के समान एकान्त पापका कारण नहीं है अतएव अनुकम्पा दानके निषेध करनेसे अन्तराय लगना कहा है अधर्म दानके निषेध करनेसे नहीं कहा है। दशवैकालिक सूत्रमें अनुकम्पा दानके अधिकारियोंको मिक्षार्थ गृहस्थके द्वारपर खड़े देख कर उन्हें अन्तराय न देनेके लिए साधुको वहांसे हट जाना कहा है परन्तु वेश्या आदिको व्यभिचारार्थ दान लेनेके लिये गृहस्थके द्वारपर खड़ा देख कर साधुको टल जाना नहीं कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि पुण्य कार्यमें वाधा पहुंचानेसे ही अन्तराय होता है एकान्त पापमें वाधा देनेसे अन्तराय नहीं होता वह दशवैकालिक सूत्रकी गाथा यह है-- "समणं माहणंवापि किविणंवा वणीमगं उवसंतमत्तं भत्तट्ठा पाणठाएवसंजए तमइक्कमित्तुनपविसे नविचि? चक्खुगोयरे एगन्तमवक्कमित्ता तत्थचिट्ठिजसंजए . (दश वै० अ० ५ उ० २ गाथा १०-११) अर्थात् श्रमण माहन दरिद्र और वनीपकको भिक्षार्थ गृहस्थके द्वार पर गये हुए या जाते हुए देख कर उनको उल्लङ्घन करके साधु भिक्षार्थ गृहस्थके मकानमें प्रवेश न करे और गृहस्वामीके दृष्टिगोचर में भी न स्थित रहे किन्तु जहां गृहस्थकी दृष्टि न पड़े वहां एकान्तमें जाकर हरे। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । .. यहां दशवैकालिक सूत्रकी गाथाओंमें अनुकम्पादान लेनेवाले श्रमण माहन दरिद्र भिखारी आदिको भिक्षार्थ गृहस्धके द्वार पर गये हुए देख कर साधुको उनका अन्तराय न देनेके लिये गृहस्थके द्वारसे टल जाना कहा है परन्तु चोर जार हिंसक और वेश्या आदिको चोरी जारी आदि कुकमके निमित्त गृहस्थके द्वार पर दान लेनेके लिये खड़े देखकर साधुको वहांसे टल जाना नहीं कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि एकांत पापके कार्यमें वाधा देनेसे अन्तरायका पाप नहीं होता पुण्यकार्यमें वाधा पहुंचानेसे अन्तराय कर्म बंधता है अत: अनुकम्पादानका किसी भी समयमें निषेध नहीं करना चाहिये क्योंकि इसमें पुण्यका सद्भाव है अतएव उक्त गाथाओंमें अनुकम्पादानमें वाधा पहुंचानेसे अन्तराय होना माना है एकान्त पापके काय्य चोरी जारी आदिमें वाधा देनेसे अन्तराय लगना नहीं कहा है इसलिये अनुकम्पादानको एकान्त पापमें बताना मूर्खाका कार्य है। अनुकम्पादान यदि अधर्म दान में है तो उसके निषेध करनेसे वर्तमानमें भी अन्तराय न होना चाहिये जैसे चोरी जारी हिंसा आदि कुकर्म करनेके लिये उद्यत हुए पुरुष को वर्तमानमें भी निषेध करनेसे अन्तराय नहीं लगता उसी तरह अनुकम्पादानको एकांत पाप कहनेवालोंके मतमें वर्तमानमें भी उसका ( अनुकम्पादानका ) निषेध करनेसे अन्तराय न होना चाहिये । यदि कहो कि चोरी जारी हिंसा आदिके निषेध करनेसे किसीके स्वार्थमें वाधा नहीं होती इसलिये वर्तमानमें भी चोरी जारी हिंसा आदिके निषेध करने से अन्तराय नहीं होता परन्तु अनुकम्पादानके निषेध करनेसे दान लेनेवालेके स्वार्थकी हानि होती है इसलिये हम वर्तमानमें अनुकम्पादानका निषेध नहीं करते तो यह बात अयुक्त है चोरके चोरी छुडानेसे उसके कुटुम्बके भरण पोषणमें वाधा पहुंचती है एवं जार को जारीका त्याग करानेसे उसकी प्रियाके कामसुखकी हानि होती है एवं हिंसकके हिंसा छुडाने पर मांसाहारीके मांस भोजनमें क्षति होती है ऐसी दशामें (उक्त जीवोंके स्वार्थमें वाधा पहुंचने पर भी) चोरी जारी हिंसा आदिका वर्तमानमें त्याग करा देना यदि अन्तराय रूप पापका कारण नहीं है तो हीन दोन प्राणियोंके स्वार्थमें वाधा पहुंचने पर भी वर्तमान कालमें अनुकम्पादानके निषेध करनेसे तुम्हारे मतमें पाप न होना चाहिये ? परंतु तुमने वतमानमें अनुकम्पादानका निषेध करना अन्तरायका कारण माना है और शास्त्र में सभी कालमें अनुकम्पादानका निषेध करना पापका हेतु कहा है अतः अनुकम्पादानको एकान्त पापमें स्थापन करके उपदेशमें उसके त्यागकी शिक्षा देना अनुकम्पाद्रोहियों का कार्य है। ____ अनुकम्पादानको एकांत पापमें कायम करने वाले मनुष्योंसे यह भी पूछना चाहिये कि एक पुरुष हाथमें रोटी लेकर भिक्षुकोंको देनेके लिये धर्मशालामें जा रहा है और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः । दूसरा रुपये लेकर व्यभिचारार्थ वेश्याको देने जा रहा है, तीसरा स्वयं खाने और दूसरे को मांस खिलाने के लिये छुरी लेकर बकरा मारने जा रहा है चौथा अपने परिवार के पोषणके लिये चोरी करने जाता है इन सभी पुरुषोंसे मार्ग में यदि साधु मिलें तो वह किसको एकांत पापकी शिक्षा देकर त्याग करावें और किसके विषयमें मौन रहें ? यदि कहो कि हाथमें रोटी लेकर भिक्षुकोंको देनेके लिये धर्मशालामें जाते हुए पुरुषके विषयमें साधु मौन रहें और शेष सभी लोगोंको एकान्त पापका उपदेश देकर उनसे चोरी व्यभिचार और हिंसाका त्याग करावें तो यहां यह प्रश्न होता है कि तुम्हारे मतमें अनुकम्पा दान देना भी तो चोरी जारी और हिंसाके समान ही एकान्त पाप है फिर अनुकम्पादान देनेके लिये जाने वालेके विषयमें साधु क्यों मौन रहता है ? तुम्हारे हिसाबसे उसको भी त्याग करा देना चाहिये । परन्तु तुम लोग भी अनुकम्पा दानके विषयमें वर्तमानमें मौन रह जाते हो उसका त्याग नहीं कराते इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अनुकम्पादान चोरी जारी और हिंसा आदिकी तरह एकान्त पापका काय्यं नहीं किंतु पुण्यका भी कारण है । कई अनुकम्पादानके विरोधी, ऐसा कुतर्क करते हैं कि “अनुकम्पादानमें यदि पुण्य है तो श्रावकोंको सामायक और पोषा न कराना चाहिये क्योंकि सामायक और पोषामें बैठा हुआ श्रावक अनुकम्पादान नहीं देता इसलिये हीन दीन जीवोंकी जीविकामें वाधा पड़ती है" जैसे कि भ्रम० कारने लिखा है "वली कोईने सामायक पोषो करावणो नहीं सामायक पोसामें कोईने देवे नहीं यदपिण इहां अन्तराय कर्म बंधे छै" (भ्र० पृ० ५१) इसका उत्तर यह है-श्रावक सामायक और पोषा विशिष्ट गुणकी प्राप्तिके लिये करते हैं न कि अनुकम्पादानसे अपनेको बचानेके लिए। अनुकम्पादान देना सामान्य गुण है और सामायक पोषा करना विशिष्ट गुण है उस विशिष्ट गुणकी प्राप्तिके समय सामान्य गुणका त्याग होना स्वाभाविक है। जैसे दिशाकी मर्यादा करने वाला जो श्रावक घरसे बाहर जानेका त्याग किया हुआ है वह मुनिराजके सम्मुख भी उनके स्वागतार्थ नहीं जाता इसलिये यह नहीं कहा जा सकता कि मुनिराजके सम्मुख जाना छोड़ने के लिए इसने दिशाकी मर्यादा की है। तथा मुनिराजके स्वागतार्थ उनके सम्मुख जाना एकान्त पाप भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि उस श्रावकने विशिष्ट गुग की प्राप्तिके लिये दिशाकी मर्यादा की है मुनिराजके सम्मुख जानेको एकान्त पाप जान कर उसे छोड़नेके आशयसे नहीं उसी तरह सामायक और पोषा करने वाला श्रावक एकांत पाप जान कर अनुकम्पा दान देना नहीं छोड़ता है किन्तु विशिष्ट गुगका उपार्जन करते समय सामान्य गुण उससे छूट जाता है अतः अनुकम्पादानको एकान्त पाप जान कर श्रावक सामायक और पोषामें उसका त्याग करते हैं यह कहनेवाले अविवेकी हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धममण्डनम् । जो श्रावक विशिष्ट निर्जराके निमित्त वैराग्यभावसे स्वयं उपवास करता है और उपदेश देकर अपने परिवारको भी उपवास कराता है वह उस रोज घरमें रसोई न होनेसे साधुको आहार पानी नहीं देता, तो भी उसको साधुदानका अन्तराय नहीं होता किंतु विशिष्ट निर्जराका लाभ होता है क्योंकि उसने साधुदानमें अन्तराय देनेके लिये उपवास नहीं किया है उसी तरह जो श्रावक सामायक और पोषा करते हैं उनको अनुकम्पादान का अन्तराय नहीं होता किन्तु विशिष्ट गुणकी प्राप्ति होती है क्योंकि अनुकम्पादानको त्यागनेके उद्देश्यसे श्रावक सामायक और पोषा नहीं करते । अत: अनुकम्पादानको एकान्त पाप जान कर सामायक और पोषामें उसका त्याग बतलाना अज्ञानियों का कार्य है। भूत भविष्यत् और वर्तमान तीनों ही कालमें अनुकम्पादानका निषेध करना शास्त्र में वर्जित है । जैसे कि सुयगडांग सूत्रमें लिखा है "जेयणं पडिसेहति वित्तिछे यं करंतिते" अर्थात् जो अनुकम्पादानका निषेध करते हैं वे हीन दीन जीवोंकी जीविका का उच्छेद __ यहां वर्तमान कालका नाम न लेकर सभी कालमें अनुकम्पादानका निषेध करना मना किया है इसलिये जो किसी भी कालमें अनुकम्पादानका निषेध करते हैं वे हीन दीनजीवोंकी जीविकाका छेदन करनेवाले पापी हैं । भ्रमविध्वंसनकारने इस गाथाको लिख कर इसके नीचे टव्वा अर्थ लिखा है वह टव्वा अर्थ यह है “जे गीतार्थ दाननेनिषेधे ते वृत्तिच्छेद वर्तमान काले पामवानो उपाय तेहनो विन्न करे" तथा इस पाठकी समालोचना करते हुए भ्र० कारने लिखा है “दान लेवे ते देवे छै ते वेलां निषेध्यां बृत्तिछेद हुवे अने जेलेवे ते देवे न थी वो बृत्तिच्छेद किम हुवे । ते मांटे बृत्तिच्छेद वर्तमान काले इज छै । वली सुयगडांगनीवृत्ति शीलांकचार्य की धी ते टीकामें विण वर्तमान कालरो इज अर्थ छै" परन्तु यह बिलकुल मिथ्या है सुयगडांग सूत्रकी उक्त गाथामें वर्तमान कालका नाम तक नहीं है और शीलांकाचार्य्यने जो उक्त गाथाकी टीका लिखी है उसमें भी वर्तमान कालका जिक्र नहीं है किन्तु गाथा और उसकी टीकामें सामान्यरूपसे सब कालके लिए अनुकम्पादानका निषेध करना वर्जित किया है । वह गाथा लिखी जा चुकी है उसकी दीका यह है-"येचकिलसूक्ष्मधियोवयमितिमन्यमानाआगमसद्भावानभिज्ञा प्रतिषेधन्तितेऽप्यगीतार्थाः प्राणिनां बृत्तिच्छेदं वर्तनोपाय विघ्नं कुर्वन्ति” अर्थात् जो अपने को सूक्ष्मदर्शी मानने वाले आगमके तत्त्वको न जाननेके कारण अनुकम्पादानका निषेध करते हैं वे गीतार्थ नहीं हैं क्योंकि वे प्राणियोंकी जीविकामें वाधा देते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः । यहां टीकाकारने वर्तमान कालका नाम न लेकर किसी भी कालमें अनुकम्पादान का निषेध करनेवालेको अगीतार्थ और प्राणियोंकी जीविकाका विनाश करनेवाला कहा है इस लिए इस टीकाका नाम लेकर वर्तमान कालमें ही अनुकम्पादानके निषेध करनेसे पाप कहना मूों का कार्य है। भ्रमविध्वंसनकारने जो सुयगडांगकी इस गाथाके नीचे टव्वा अर्थ दिया है वह मूल गाथा और उसकी टीकासे विरुद्ध होनेके कारण अप्रामाणिक है उसका आश्रय लेकर जनतामें भ्रम फैलाना साधुओंका कार्य नहीं है। भ्रमविध्वंसनकी पुरानी प्रतिमें तो शीलांकाचाय्यकी टीकामें आये हुए "वर्तन" शब्दका वर्तमान काल अर्थ किया है। वह लेख निम्न लिखित है "वृत्तिच्छेदं वर्तनोपाय विघ्नं कुर्वन्ति" "वृत्ति० आजीविका तेहनो छे० छेद व वर्तमान काले उ० पामवानों उपाय तेहनो वि० विघ्न के करे ते अविवेको" - यहां जीतमलजीने "वर्तन" शब्दका वर्तमान अर्थ लिया है परन्तु यह सर्वथा मिथ्या है । तन शब्दका अर्थ आजीविका है वर्तमान काल नहीं। टीकाकारने मूल गाथामें आये हुए "वृत्ति" शब्दका अर्थ वर्तन लिखा है इसलिए "वृत्ति" शब्दका वर्तन शब्द पर्याय शब्द है यह वर्तमान अर्थका वाचक नहीं हो सकता तथापि मूर्ख जनताको भ्रममें डालनेके लिये अथवा अज्ञतावश जीतमलजीने "वर्तन" शब्दका वर्तमान अर्थ लिखा है ऐसे लोगोंसे न्यायकी आशा रखना दुराशा मात्र है। भविष्यमें होनेवाले लाभमें विन पहुंचानेसे "पिहितागामिपथ " नामक अम्तराय लाता है। ठागाङ्ग सूत्रमें अन्तरायका भेद बतलानेके लिए यह पाठ आया है "अन्तराइए कम्मे दुविहे पण्णते तनहा पहुप्पन्नविनासिए पिहितागामिपह" मर्थात् अन्तराय कर्म दो प्रकारके कहे हैं एक प्रत्युत्पन्नविनाशी और दूसरा पिहिता गामि पथ । वर्तमानमें मिलती हुई वस्तुको न मिलने देना “प्रत्युत्पन्न विनाशी" कहलाता है। और भावो लाभके मार्गको रोक देना "पिहितागामिपथ" नामक अन्तराय कहलाता है। यहां ठाणाङ्गके मूल पाठमें भावी लाभके मार्गको रोक देनेसे अन्तराय लगना कहा है इसलिए भ्रमविध्वंसनकारने जो यह लिखा है कि “ अन्तराय तो वर्तमान काल में इज कही छै पिग ओर वेलां अन्तराय कयो नही" यह बिलकुल शास्त्रविरुद्ध है। ठाणाङ्गके उक्त पाठमें भविष्य कालमें भी अन्तराय कहा है इसलिए जो लोग उपदेश में एकान्त पाप कह का अनुकम्पा दानका त्याग कराते हैं वे ठाणाङ्ग सूत्रके मूल पाठानुसार "पिहिता गामि पथ" नामक अन्तरायके भागी हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४ सद्धर्ममण्डनम् । भावी लाभके मार्गको रोक देनेसे अन्तराय होना केवल शास्त्रसे ही नहीं प्रत्यक्षसे भी सिद्ध है। जैसे कोई मनुष्य किसी महाजनके दश हजार रुपयोंका ऋगी है उससे कोई यरि ऋग देनेका त्याग करावे तो यह प्रत्यक्षही महाजनके लाभमें अन्तराय देना है। अतः भावी लामके मार्गको रोक देनेसे अन्तराय न मानना शास्त्र और प्रत्यक्ष दोनों से विरुद्ध समझना चाहिये। (बोल १) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार आनन्द श्रावकका दाखला देकर अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप बतलाते हैं। जैसे कि भ्र० पृ०५१ पर उन्होंने लिखा है "तथा उपासक दशाङ्ग अध्ययन १ आनन्द श्रावक अभिग्रह धार यो जे हूं अन्यतीर्थीने दान देवू नहीं दिवावं नहीं" इन के कहने का आशय यह है कि हीन दीन दुःखी जीवोंपर दया लाकर दान देनेसे यदि पुण्य होता तो आनन्द श्रावक अन्य तीर्थी को दान न देनेका क्यों अभिग्रह धारण करता ? अतः हीन दीन जीवोंपर दया लाकर दान देना एकान्त पाप है। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) आनन्द श्रावकका उदाहरण देकर अनुकम्पा दानमें पाप बताना अयुक्त है। आनन्द श्रावकने हीन दीन जीवोंपर दया लाकर दान न देनेका अभिप्रह नहीं लिया था। क्योंकि हीन दीन प्राणियोंपर दया लाकर उन्हें दान देना श्रावकोंके धर्मसे विरुद्ध नहीं है किन्तु यह कार्य श्रावक धर्मको पुष्ट करने वाला है इसलिए आनन्दने अनुकम्पा दान का त्याग नहीं किया था। सर्वज्ञ भाषित धर्मसे भिन्न धर्मकी स्थापना करनेवाले अज्ञानी चरक परिव्राजक आदिको वन्दन नमस्कार काना, तथा भक्ति भाव से आहार देका उनकी पूजा प्रतिष्ठा करना, एवं उनके वन्दनीय पूजनीय सरागी देवताओंको वन्दन नमस्कार करना, यह सब कार्य श्रावकोंके धर्मसे विरुद्ध और मिथ्यात्वके पोषक हैं इसलिए इन्हों कार्योके न करने का आनन्दने अभिग्रह लिया था अनुकम्पा लाकर होन दोन जीवोंको दान न देने का नहीं। अतः आनन्द का नाम लेकर अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप कहना मूर्यो का कार्य है। उपासक दशांगका मूल पाठ लिख कर आनन्दके अभिग्रहका विवेचन किया जाता है। वह पाठ यह है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः । तएण से आनंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अन्तिए पञ्चाणुव्वइयं सत्तसिक्खा व्वइयं दुवाल सविह सावय धम्मं पडिवज्जह पडिवज्जइत्ता समणं भगवं महावीर वन्दइ नमसइत्ता एवं वयासो नो खलुमे कप्पइ अज्जप्पभिइ अन्नउत्थिएवा अन्नउस्थिय देवयाणिवा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणिवा वंदितएवा नमंसित्त एवा पुचि अणालणं आलवित्त एवा संल वित्तएवा तेसिं असणं वा पाणं वा खाइमंवा साइमंवा दाऊ व्वा अणुष्प दाऊ वा नन्नत्थ रायाभियोगेणं गणाभियोगेणं वलाभियोगेणं देवयाभियोगेणं गुरुनिग्गणं वित्ति कन्तारेणं । कप्पइमे समणे निग्गंथे फासुएणं एस णिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणंवत्थ परिग्गहपाय पुच्छणेणं पीढ़फलग सिज्जा संथारएणं ओसहभेषज्जेणं पडिलाभे माणस्स विहरित्तएत्तिकट्टु इमं एयारूवं अभिग्गह पडिगिहूणहत्ता पासिणाई पुच्छइत्ता अट्ठाई आदियइ 33 ८. ९५ ( उपासक दशाङ्ग अ० १ ) इसके अनन्तर आनन्द गाथा पतिने श्रमण भगवान् महावीर स्वामीसे पांच अनुव्रत सात शिक्षा व्रत द्वादश विध श्रावक धर्मको स्वीकार करके भगवान् महावीर स्वामीको धन्दन नमस्कार करके इस प्रकार कहा कि हे भगवन् ! अन्य यूथिक, यानी सर्वज्ञ भाषित धर्मसे भिन्न धर्मकी स्थापना करनेवाले अज्ञानी चरक परिब्राजक आदि तथा उनसे स्वीकार किये हुए देवताओंको वन्दन नमस्कार करना और उनके बोले बिना पहले ही उनसे आलाप संलाप करना, उन्हें एक वार या अनेक वार अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य देना आजसे मुझको नहीं कल्पता । परन्तु राजाभियोग, गाभियोग, वलाभियोग, देवाभियोग, गुरुनिग्रह और वृत्तिकान्तारको छोड़ कर यह बात समझनी चाहिए । श्रमण निग्रंथोंको प्रामुक ऐषणिक अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र परिग्रह, पादप्रोज्च्छन, पीठ, फलक, शय्या, संथारा, और औषध भेषज आदि देते हुए विचरना आजसे मुझको कल्पता है । इस प्रकारका अभिग्रह धारण करके आनन्द श्रावकने भगवान्से अपने प्रश्नोंका उत्तर पूछा और भगवान् से कहे हुए उत्तरको स्वीकार किया । यह ऊपर लिखे मूल पाठका भावार्थ है 1 नोट - इस पाठमें साम्प्रदायिक खींचातानीके कारण बहुत भेद पाया जाता है इसलिए एसियाटिक सोसाइटी कलकत्तामें छपी हुई पुस्तकसे लेकर यह पाठ लिखा गया है। मिष्पक्ष अंग्रेज विवानने उक्त पुस्तक छपाई है और इसी पाठको यथार्थ माना है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९६ सद्धर्ममण्डनम् । ___ इस पाठमें आनन्द श्रावकने अन्य यूथिकको गुरु बुद्धिसे दान देनेका त्याग किया है करुणासे दान देनेका त्याग नहीं किया है। अतएव इस पाठकी टीकामें टीकाकारने लिखा है "अयंच निषेधो धर्म वुद्ध यव, करुणयातु दद्यादपि” अर्थात् यह जो अन्य यूथिकको दान देनेका निषेध है यह धर्म बुद्धि (गुरु बुद्धि ) से ही समझना चाहिए अनुकम्पासे नही, अनुकम्पा करके अन्य यूयिकको दे भी सकते हैं । यहां टीकाकारने मूल पाठका आशय बनलाते हुए अन्य यूथिकको गुरु बुद्धिसे ही दान देने का निषेध बतलाया है अनुकम्पासे नहीं अतः आनन्दका नाम लेकर अनुकम्पादानका निषेध करना अज्ञानियोंका कार्य है। कोई अज्ञानी यहां यह कुतर्क करते हैं कि अन्ययूथिकको दान देना यदि पुण्य का कारण है तो अन्य यूथिकको वन्दन नमस्कार करना पुण्यका कारण क्यों नहीं ? उन लोगोंसे कहना चाहिये कि अनुकम्पा दान, अनुकम्पा लाकर दिया जाता है इसलिए इसमें पुण्य है क्योंकि अन्य तीर्थीपर अनुकम्पा करना भी पुण्यकाही कारण है परन्तु वन्दन नमस्कार करना नहीं, क्योंकि वन्दन नमस्कार पूज्य बुद्धिसे किया जाता है और अन्य तीर्थीमें पूज्य बुद्धि रखना समकितका अतिचार है इसलिए अन्य यूथिकको वन्दन नमस्कार करना पुण्य नहीं है। आनन्द श्रावकने अन्य यूथिकको जिस प्रकार पूज्य बुद्धिसे वन्दन नमस्कार करनेका त्याग किया था उसी तरह पूज्य बुद्धिसे उन्हें दान देनेका भी त्याग किया था अनुकम्पा दानका नहीं, अतः आनन्दका नाम लेकर अनुकम्पा दानको उड़ाना मूल्का कार्य है। * उपासक दशाङ्गके उक्त मूल पाठमें "दाऊंवा " अणुप्पदाऊंवा" ये दो शब्द आये हैं इनका अर्थ जीतमलजीने देना और दूसरेसे दिलाना लिखा है परन्तु "अणुप्पदाऊंवा" इस पदका दिलाना अर्थ नहीं होता बार बार देना अर्थ होता है तथा उक्त पाठ में आये हुए “वित्ति कतारेण" इस पदका अर्थ भी इन्होंने अशुद्ध किया है। जैसे कि भ्र० पृ०५३ में लिखा है “वि. अटवी कांतारने विषे कारणे आगार " यह अर्थ बिलकुल अशुद्ध है । टीकाकारने इसका अर्थ इस प्रकार किया है “ बृत्तिः जीविका तस्याः कान्तारम् अरण्यं तदिव कान्तार क्षेत्रं कालोवा वृत्ति-कान्तारम् निर्वाहा भावइत्यर्थः । अर्थात् “घोर जङ्गलकी तरह जीविकाके लिये कठिन क्षेत्र या कालका आना "वृत्तिकान्तार" कहलाता है । निर्वाह न होना इसका तात्पर्य है।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। ऐसे सरल अर्थको जो अशुद्ध टव्वा अर्थका आश्रय लेग विपरीत बदलाता है उससे शास्त्रके यथार्थ अभिप्रायको समझने और प्रकट करने की आशा रखना दुराशामात्र समझनी चाहिये। (बोल २) (प्रेरक) अन्य तीर्थीको गुरु बुद्धिसे दान देनेका निषेध, शास्त्र करता है अनुकम्पाराकर दान देनेका नहीं इसलिये हीन दीन दुःखीको अनुकम्पादान देना एकान्त पाप नहीं है यह ज्ञात हुआ। अब शास्त्रके मूलपाठसे यह बतलाइये कि किस अभिग्रहधारी वारह व्रतधारी श्रावकने वारह ब्रत धारण करनेके पश्चात् हीन दीन दुःखी जीवोंको अनुकम्पा दान दिया है ? (प्ररूपक) गजप्रश्नीय सत्र में आनन्द श्रावकी तरह अभिग्रहधारी समकित सहित वारह ब्रतधारी राजा प्रदेशीका वारह व्रत धारण करनेके पश्चात् हीन दीन दुःखी जीवोंको दानशाला खोल कर अनुकम्पादान देना लिखा है यह अभिग्रहधारी वारह व्रतधारी श्रावक के अनुकम्पा दान देनेका पूर्ण उदाहरण है। राजाप्रदेशी आनन्द श्रावकके समान ही वारह व्रतधारी श्रावक होनेके कारण अन्य तीर्थी को दान सम्मान पूजा प्रतिष्ठा आदि न करनेका अभिग्रह धारण किया हुआ था तो भी उसने दीन हीन जीवों को अनुकम्पा दान दिया, इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अन्यतीर्थीको अनुकम्पा लाकर दान न देने का श्रावकों को अभिग्रह नहीं होता पूज्य बुद्धिसे देनेका होता है अतः अन्य तीर्थी पर अनुकम्पा लाकर दान देने में एकान्त पाप कहने वाले मिथ्यावादी हैं। .. __यदि कोई यह पूछे कि राजा प्रदेशी आनन्द श्रावककी तरह अभिग्रह धारी था इसमें क्या प्रमाण है ? तो उसके लिए आवश्यक सूत्रका मूल पाठ प्रमाण दिया जाता है। वह पाठ यह है 'तत्थ समणोवासओ पुव्यामेव मिच्छत्ताओ पडिक्कमइ सम्मत्त उपसंपज्जइ । नो से कप्पह अज्जप्पभिई अन्नथिएवा" इत्यादि। (आवश्यक सूत्र) यह पाठ हर एक समकितधारीके लिए कहा है इस लिए सभी समकितधारी श्रावक अन्य तीर्थीको दान सम्मान पूजा प्रतिष्ठा न करनेका अभिप्रह धारण करते हैं । . १३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धममण्डनम् । गजा प्रदेशी भी समकित सहित वारह व्रतधारी था इसलिए वह भी आनन्द श्रावकके समान ही अभिग्रहधारी था तथापि उसने जो दानशाला खोल कर हीन दीन जीवोंको अनुकम्पा दान दिया था इससे अन्यतीर्थीको अनुकम्पा दान देना श्रावकोंका कर्तव्य सिद्ध होता है। राजा प्रदेशीने हीन दीन जीवोंको अनुकम्पा दान दिया था यह मूल पाठ लिख कर बताया जाता है। "तएणं पएसो राया केसोकुमार समणं एवं वयासी नो स्वलु भन्ते ! अहं पुब्विं रमणिज्जे भवित्ता पच्छा अरमणिज्जे भविस्सामि। जहासे वनखंडेइवा जाव खलवाडेइवा। अहणं सेयंवियाप्पमोक्खाइ सत्तग्गाम सहस्साई चत्तारिभागे करिस्सामि । एगे भागे वल वाहणस्स दलइस्सामि एगे भागे कोट्ठागारे दलइस्सामि एगे भागे अन्तेउरस्स दलइस्सामि एगेणं भागेणं महइमहालिय कूडागारसाल करिस्सामि । तत्थणं वहुहिं पुरिसेहिं दिण्णभत्तिभत्तवेयजेहिं विउल असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेत्ता पहुणं समणमाहणभिक्खुयाणं पंथियपहियाणय परिभोय माणे वहुहिं सोल पञ्चक्खाण पोसहोववासेहिं जाव विहरिस्सामित्ति कटु जामेव दिसं पाउन्भुए तामेव दिसं पडिगए। ततेणं पएसी राया कल्ल पाओ जाव तेजसा जलन्ते सेयंवियाप्पमोक्खाइ मत्तग्गाम सहस्साई चत्तारि भाए करेति । एगं भाग वलवाहणस्स दलयति जाव कूडागार सालं करेति तत्थ वहुहिं पुरुसेहिं जाव उवक्खडावेत्ता वहुर्ण समण माहणाणं जाव परिभोएमाणे विहरति" . (राजप्रश्नीय सूत्र ) अर्थः इसके अनन्तर राजा प्रदेशीने केशीकुमार श्रमण मुनिसे कहा कि हे मुने ! पहले रमणीय होकर पश्चात् बन खण्ड यावत् खलिहानकी तरह में अरमणीय न बनगा। किन्तु श्वेताम्बिक प्रभृति सात हजार गांवोंको चार भागोंमें बांट कर एक भाग बलवाहनके लिये दूसरा कोष्ठागार के लिए और तीसरा अंतःपुरके लिये दूंगा। शेष चौथे भागसे अति विशाल दानशाला बनाकर उसमें बहुतसे वेतन भोगी पुरुषोंको नौकर रख कर उनके द्वारा चतुर्विध आहार तैयार करा कर श्रमण माहन भिक्षक और राहगीरोंको भोजन कराता हुआ और शील प्रत्याख्यान पोषध www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोनाधिकारः । तथा उपवास करता हुआ यावत् मैं विचरूंगा यह कह कर राजा प्रदेशी जिधरसे आया था वहां चला गया। अनन्तर दूसरे दिन तेजसे प्रज्वलित सूर्योदय होनेपर र.जा प्रदेशीने श्वेताम्बिका प्रभृति सात हजार गांवोंको चार भागों में विभक्त करके एक भाग बल बाहनको दूसरा कोष्ठागारको तीसरा अंतःपुरको दिया और चौथे भागसे अतिविशाल दानशाला बनवा कर उसमें बहुतसे रसोए रख कर उनके द्वारा अशनादि चतुर्वित्र आहार तय्यार कराकर बहुतसे श्रमग माहृन । भिक्षुक और राहगीरोंको भोजन देता हुआ विचरने लगा। यहां राज प्रश्नीय सूत्रके ऊपर लिखे हुए मूल पाठमें राजा प्रदेशीका दानशाला बना कर श्रमग माहन भिक्षुक आदिको अनुकम्पा दान देना स्पष्ट लिखा हुआ है इससे सिद्ध होता है कि समकितके साथ बारह ब्रत धारण करने वाले श्रावकोंका अन्य तीर्थी को गुरु बुद्धिसे दान न देनेका ही अभिग्रह होता है अनुकम्पा दान देनेका नहीं । अन्यथा आनन्द श्रावकके समान ही अभिग्रह धारी बारह व्रतधारी श्रावक होकर राजा प्रदेशी श्रमग माहन भिक्षुकोंको अनुकम्पा दान क्यों देता ? तथा केशीकुमार श्रमण मुनि, अनुकम्पा दान देनेके लिए राजाकी प्रतिज्ञा सुन कर उसे क्यों नहीं इस कार्यसे रोक दिया ? जिस समय राजा प्रदेशीने मुनिके समक्ष रमणीय बने रहनेकी प्रतिज्ञा करता हुआ दानशाला बनाने की इच्छा प्रकट की थी उस समय कोई याचक वहां दान लेनेके लिए आया भी न था और राजा उसे कुछ देता भी न रहा था ऐसी दशामें केशी कुमार नुनि यदि राजाको अनुकम्पादानमें पाप बता कर रोक देते तो उनको जीतमल जीके सिद्धान्तानुसार अन्तराय भी न होता, क्योंकि जीतमलजीने भ्र० पृ० ५० पर लिखा है कि -"लेतो देतो इसो वर्तमान देखि पाप न कहे उग वेलां पाप कह्यां जे लेवे छै तेहने अन्तराय पडे ते मांटे साधु वर्तमाने मौन राखे" यहां जीतमलजीने वतमानमें ही अनुकम्पा दानके निषेत्रमें अन्तराय माना है दूसरे काल में नहीं इसलिये राजा प्रदेशी को अनुकम्पा दानसे यदि मुनि वारण कर देते तो उस समय उनको अन्तराय भी न होता और राजा प्रदेशी एक नवीन पापसे भी बच जाता परन्तु मुनिने राजाको अनुकम्पा दान देनेसे बारण नहीं किया और यह भी नहीं कहा कि “राजन् ! तुम यह क्या कह रहे हो। अनुकम्पा दान देना एकान्त पाप है इस कार्यके आचरण करनेसे तुम्हारा अभिप्रह टूट जायगा और तुम फिर अरमणीय हो जाओगे” किन्तु मुनिने अनुकम्पा दान देने की प्रतिज्ञा सुन कर मौन धारण किया था इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अनुकम्पा दान देना एकान्त पाप नहीं है तथा अभिग्रह धारी श्रावकोंको अन्यतीर्थीके लिए अनुकम्पा दान देनेका त्याग नहीं होता किन्तु गुरु बुद्धिसे दान देने का त्याग होता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । १०० है इस लिए जो अनुकम्पा दानमें एकान्त पापका उपदेश देकर श्रावकोंसे उसका त्याग कराते हैं वे हीन दीन जीवोंकी जीविकाका उच्छेद करने वाले अज्ञानी हैं। ( बोल ३ ) ( प्रेरक ) आपने प्रदेशी राजाका उदाहरण देकर राजप्रश्नीय सूत्र के प्रमाणसे हीन दीन rain अनुकम्पा दान देनेमें पुण्यका सद्भाव बतलाया परन्तु भ्र० कार भ्र० पृ० ७५ पर लिखते है - "वलीराय प्रसेनीमें प्रदेशी दानशाला मंडाई कही छै । राजरा चार भाग करने आप न्यारो होय धर्मे ध्यान करवा लाग्यो । केशी स्वामी वी हुईं ठामें मौन साधी छै पिग इम न कह्यो हे प्रदेशी तीन भागमें तो पाप छै परं चौथो भाग दानशाला से काम तो पुण्यरो हेतु छै । थारो भल्यो मन ऊठो ओतो अच्छो काम करिबो विचारयो इम चौथा भागने सरायो नहीं केशी स्वामी तो वो हुई सावद्य जाणीने मौन साधी छै। मांडे तीन भागरो फल जिसोई चौथो भागरो फल छै " ( ० पृ० ७५ ) इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) दानशाला बनवा कर हीन दीन दुःखी जीवोंको दान देने की प्रतिज्ञा सुन कर केशी स्वामीने जो मौन धारण किया इसका तात्पर्य यह नहीं हो सकता कि अनुकम्पा दान एकान्त पापका कार्य्य था । क्योंकि एकान्त पापके कार्य्यकी प्रतिज्ञा सुन कर साधु मौन धारण नहीं करते, उपदेश देकर उसका निषेध करते हैं। साधुके समक्ष यदि कोई हिंसादि कुकर्म करनेका विचार प्रकट करे तो उस समय साधु मौन धारण न करके उस कार्य्यका प्रतिषेध करते हैं । अनुकम्पा दान देना यदि हिंसा आदि की तरह एकान्त पापका कार्य होता तो उस कार्यके लिए प्रदेशीको प्रतिज्ञा करते देख कर मुनि कापि मौन न होते किन्तु धर्मोपदेश देकर उस कार्य्यसे उन्हें अवश्य रोकते । अतः मुनिने राजा प्रदेशीको अनुकम्पा दान देनेकी प्रतिज्ञा करते हुए देख कर निषेध न करके जो मौन धारण किया था इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अनुकम्पा दान देना हिंसा आदिकी तरह एकान्त पापका कार्य्य नहीं है किन्तु इससे पुण्य भी होता है । अतएव केशी स्वामीने राजा प्रदेशीको अनुकम्पा दान देनेसे नहीं रोका था किन्तु मौन होकर रहे अतः केशी स्वामीके मौन होनेका अभिप्राय अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप होने की बात बतलाना मूर्खोका कार्य्य है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः । १०१ भोजी अनुकम्पादानका यहां तक विरोध किया है कि यदि कोई अनुकम्पा दान देनेका त्याग कर देवे तो उसे उन्होंने अतिशय बुद्धिमान कहा है देखिये - भीषणके इस अभिप्राय ये पद्य हैं "अव्रतमें दान दे, तेहनों टालन से करे उपायजी । जाने कर्म बंधे छै म्हारे मोने भोगवतां दुःखदायजी । अत्रतमें दान देवां तगूं कोई त्याग करे मन शुद्धजी । तिणरो पाप निरन्तर टालियो तीणरी वीर बखाणी बुद्धिजी ।" (पद्य भीषणजीके) इन पद्योंमें भीषगजीने अव्रतमें दान न देने वाले की बुद्धिकी प्रशंसा वीर प्रभुसे किया जाना कहा है परन्तु केशी स्वामीने राजा प्रदेशीसे नहीं कराया । यदि भीषगजीकी उक्ति सत्य होती तो अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप कह कर उसका अवश्य रहते । अतः अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप बताने वाले मिथ्यावादी हैं । अव्रतमें दान देनेका त्याग केशी स्वामी राजा प्रदेशीको त्याग कराते, मौन होकर न इसी तरह भ्रमविध्वंसनकारने जो यह लिखा है कि "राजरा चार भाग करने आप न्यारो होय धर्मेध्यान करवा लाग्यो” यह भी मिथ्या है। राजप्रश्नीय सूत्रके मूल पाठ अनुकम्पादान देते हुए राजा प्रदेशीको धर्मध्यान करना लिखा है दान देनेसे न्यारा होकर धर्मध्यान करना नहीं । देखिये वहांका पाठ यह है " तत्थ वहुहिं पुरिसेहिं जाव उवक्खडावेत्ता समण माहाणं परिभोयमाणे विहरति” अर्थात् राजा प्रदेशी दानशालामें बहुत पुरुषोंके द्वारा चतुर्विध आहार तयार करा कर बहुतसे श्रमण माहन और राहगीरोंको भोजन कराता हुआ विचरने लगा । यहां मूलपाठ दान देनेसे न्यारा होकर राजा प्रदेशीका विचरना नहीं किंतु दान देते हुए विचरना लिखा है। अतः राजा प्रदेशीका दान देनेसे न्यारा होकर विचरनेकी प्ररूपणा मिथ्या है। ( बोल चौथा ) ( प्रेरक ) असंयतिको अनुकम्पा लाकर दान देना यदि एकान्त पाप नहीं है तो भगवती शतक ८ उद्देशा ६ में असंयतिको दान देनेसे एकान्त पाप होना क्यों कहा ? भ्रमविध्वंसनकारने भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ५५ पर इस विषयमें यह लिखा है "मथ अठे तथारूप असं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ सद्धममण्डनम् । यतिने फासु अफासु सूझतो असूझतो अशनादिक देवे ते श्रावकने एकान्त पाप कह्यो छै” (भ्र० पृ० ५५) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भगवती शतक ८ उद्देशा ६ के मूल पाठमें तथारूप असंयतिको गुरु बुद्धिसे दान देनेसे एकान्त पाप होना कहा है अनुकम्पादान देनेसे नहीं। टीकाकारने इस विषय को खोल कर लिख दिया है। वह टीका यह है __"सूत्र त्रयेणाऽपि चानेन मोक्षार्थ मेव यद्दानं तच्चिन्तितम् यत्पुनरनुकम्पादान मौचित्य दान म्वा तन्न चिन्तितम् । निर्जरायास्तत्रानपेक्षत्वात् अनुकम्पौचित्ययोरेव चापेक्षणीयत्वात् । उक्तञ्च मोक्खत्थं जं दाणं तं पइ एसो विही समक्खाऊं अणुकम्पा दाणं पुग जिणेहि न कहिंचि पडिसिद्ध" ___अर्थात् भगवती शतक आठ उद्देशा छः के इन तीन सूत्रोंमें मोक्षके लिये जो दान दिया जाता है उसीका विचार किया गया है अनुकम्पादान और औचित्यदानका नहीं। अनुकम्पादान और औचित्य दानमें अनुकम्पा और औचित्य ही अपेक्षित होते हैं निर्जरा अपेक्षित नहीं होती ( अतः निर्जराकी अपेक्षासे किये जाने वाले मोक्षार्थ दानका इन सूत्रोंमें फल कथन समझना चाहिये ) कहा भी है जो दान मोक्षके निमित्त दिया जाता है उसीका विधान भगवती शतक आठ उद्देशा ६ के तीनों सूत्रोंमें किया है दूसरे दानका नहीं क्योंकि जिनवरोंने अनुकम्पादानका कहीं भी निषेध नहीं किया है। यह ऊपर लिखी हुई टीकाका अर्थ है । इसमें टीकाकारने भगवतीशतक ८ उह शा ६ के तीनों मूलपाठोंका तात्पर्य्य बतलाते हुए मोक्षार्थ दानका ही इन पाठोंमें विचार किया जाना बतलाया है अनुकम्पा तथा औचित्य दानका नहीं। तथा हरिभद्र सूरिने भी यही बात कही है। उनका पद्य निम्नलिखित है "शुद्धवा यदशुद्धवाऽसंयताय प्रदीयते । गुरुत्वबुद्धया तत्कर्म वन्ध कृन्नानु कम्पया" अर्थात् शुद्ध, या अशुद्ध जो गुरु बुद्धिसे असंयतिको दिया जाता है वही कमवन्धका कारण है, जो अनुकम्पासे दिया जाता है वह नहीं। यह उक्त पद्यका अर्थ है। इसमें हरिभद्र सूरिने भगवती शतक ८ उद्देशा ६ के मूलपाठका आशय बतलाते हुए अनुकम्पादानका निषेध नहीं किया जाना स्पष्ट लिखा है । तथा आगे चलकर अनुकम्पादानका शुभ फल बतलाते हुए यह लिखा है "शुभाशय कर ह्य तदाग्रहच्छेद कारिच । सदभ्युदय सारांग मनुकम्पा प्रसूति च ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १०३ अर्थात् अनुकम्पा दान देनेसे चित्तकी शुद्धि, और धनके प्रति ममताका नाश तथा कल्याणानुवन्धी कल्याणकी प्राप्ति होती है और अनुकम्पाभावके उदय होनेसे यह दान दिया जाता है। इस श्लोकमें हरिभद्र सूरिने अनुकम्पादानका फल एकान्त पाप न कह कर इसे कल्याणानुवन्धी कल्यागका कारण कहा है अत: भगवती शतक ८ उद्देशा ६ के मूलपाठ में असंयतिको मोक्षार्थ गुरु बुद्धिसे दिया जाने वाला दानका ही फल एकान्त पाप कहा गया है अनुकम्पादानका नहीं इसलिये भगवती शतक ८ उद्देशा ६ का नाम लेकर अनुकम्पादानमें एकान्त पाप कहना सूत्रार्थ न जानने वालोंका कार्य है। यदि कोई कहे कि "हरिभद्र सूरि और भगवती सूत्रका टीकाकार यद्यपि असं- . यतिको अनुकम्पा दान देनेसे एकान्त पाप होना नहीं कहते तथापि यह बात मूलपाठसे नहीं निकलती। मूलपाठमें किसी दान विशेषका नाम न लेकर असंयतिको दान देनेसे एकान्त पाप कहा है इसलिये टीकाकार और हरिभद्रसूरिके कथनमें कोई प्रमाण नहीं है" तो इसका उत्तर यह है कि टीकाकार और हरिभद्र सूरिका पूर्वोक्त कथन निराधार नहीं है वह भगवतीके इस मूलपाठसे ही निकलता है । यह बात मूल पाठ लिख कर बताई जाती है। वह मूलपाठ यह है “समणोवासएणं भन्ते ! तहारूवं असंजय अविरय अपडिहय पचक्खाय पाव कम्मे फासुएणवा अफासुएणवा एसणिज्जेणवा अणेसणिज्जेणवा असणपाण जाव किं कजइ ? गोयमा! एगंतसो से पावे कम्मे कज्जइ नथिसे काइ निजरा कजई" (भगवती शतक ८ उद्देशा ६) इस पाठमें सभी असंयतिओंका नाम न लेकर तथा रूपके असंयतिको दान देने से श्रावकको एकान्त पाप होना कहा है । तथारूपका असंयति वह है जिसको लोकमें गुरु बुद्धिसे दान दिया जाता है और जो अन्य तीर्थियोंके शास्त्रानुसार लिङ्ग रखता हुआ अन्य तीर्थी धर्मकी स्थापना करता है उसीको दान देनेसे एकान्त पाप होना कहा है इसलिये भगवती सूत्रके इस मूलपाठ से ही यह बात निकलती है कि गुरु बुद्धिसे असंयतिको दान देना एकान्त पापका कारण है अत: भगवतीके टीकाकार और हरि भद्र सूरिका पूर्वोक्त कथन स्वकपोल कल्पित न होकर मूल पाठके अनुसार ही है उसे अप्रामाणिक समझना अज्ञान है। टीकाकारोंने “तथा रूप" शब्दका अर्थ इस प्रकार किया है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ सद्धर्ममण्डनम् । "तथा तत्प्रकारं रूपं स्वभावो नेपथ्यादिर्वा यस्यस तथारूपः' (ठाणाङ्ग टीका ठाणा ३ उद्देशा १) "उचित स्वभावे" "भक्ति दानोचित पात्र" (भगवती शतक ५ उ०५) "दानोचिते" (ठा० ठा० ३ उद्देशा १) अर्थात् जिसका स्वभाव या वेष भूषा आदि उसी तरहका है वह 'तथा रूप' कहलाता है। जो भक्तिपूर्वक दान देनेके योग्य पात्र समझा जाता है वह तथा रूप कहलाता है। उस तथा रूपके असंयतिको दान देनेसे श्रमणोपासकको एकान्त पाप होना भगवती शतक ८ उद्देशा ६ के मूलपाठमें कहा है इसलिये हरिभद्र सूरि और भगवती के टीकाकारका कथन इस मूलपाठके शब्दसे ही निकलता है अत: वह अप्रामाणिक नहीं है। दूसरी बात यह है कि जहां सब असंयतियोंको बतलाना होता है वहां ‘तहा रूवं" इस पदसे रहित पाठ आता है जैसे भगवती आदि सूत्रोंमें सब असंयतियों को बतानेके लिये यह पाठ आया है ___“जीवेणं भन्ते ! असंजए अविरए अपडिहय पञ्चक्खाय पावकम्मे" इत्यादि पाठों में "तहारूवं" इस पइसे रहित पाठ आया है इसलिये इन पाठोंमें सभी असंयतियों का ग्रहण होता है परन्तु भगवती शतक ८ उद्देशा ६ में “तहा रूवं" इस पदके साथ पाठ आया है इसलिये उसमें सभी असंयतियोंका ग्रहण न होकर अन्य तीर्थियोंके वेष भूषा धारण करने वाले उनके धर्माचार्य धर्म गुरुओंका ही ग्रहण होता है अतएव भगवती सूत्रके टीकाकार और हरिभद्र सूरिने गुरु बुद्धिसे असंयतिको दान देनेसे एकान्त पाप होना बतलाया है अनुकम्पादान देनेसे नहीं। - इस पाठमें "पडिलभमाणे" इस पदके आनेसे भी यही बात सिद्ध होती है। “पडिलभमाणे" इस पदका प्रयोग, स्वतीर्थी या परतीर्थी साधुको दान देने अर्थ में ही होता है गृहस्थको दान देने अर्थ में नहीं होता क्योंकि कहीं भी मूलपाठमें गृहस्थको दान देने अर्थमें “पडिलभमाणे” इस पदका व्यवहार नहीं देखा जाता इसलिये अन्य तीर्थियोंके मान्य पूज्य असंयतियोंको दान देनेका ही फल एकान्त पाप इस पाठमें कहा है सभी असंयतियोंको दान देनेका फल नहीं कहा । यदि कोई कहे कि भगवती शतक ८ उद्देशा ६ का मूल पाठ श्रावकके लिये आया है और श्रावक अन्य तीर्थयोंके गुरुको गुरु बुद्धिसे दान नहीं देते फिर उस दानके फल बतानेकी इस पाठमें क्या आवश्यकता है ? तो इसका उत्तर यह है कि जैसे साधु मैथुन सेवन, रात्रिभोजन आदि पापकार्य नहीं करते तथापि शास्त्रमें साधुको रात्रिभोजन और मैथुन सेवन करनेका प्रायश्चित्त कहा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः । है, वह इसलिये कि प्रायश्चित्तका कारण जान कर साधु उक्त कार्योंका सेवन न करे उसी तरह भगवती शतक ८ उद्देशा ६ में श्रमणोपासक के लिये अन्यतीर्थी धर्माचाय्ये को गुरु बुद्धिसे दान देनेका फल एकान्त पाप कह कर उस कार्य्यसे निवृत्त रहने का संकेत किया है। जो कार्य साधु या श्रावक नहीं करते उसका फल शास्त्र न बतावे यह कोई नियम नहीं है प्रत्युत निषिद्ध कर्मों का फल बता देना शास्त्रकार को आवश्यक है। नहीं तो निषिद्ध कर्मोंका बुरा फल किसी को कैसे ज्ञात हो, अतः अन्यतीर्थी धर्माचाको गुरु बुद्धिसे दान देनेका फल एकान्त पाप होना इस पाठमें कहा है अनुकम्पा दानमें पाप होना नहीं कहा अतः भगवतीके इस पाठका आश्रय लेकर हीन दीन दुःखी प्राणी पर दया लाकर दान देनेमें एकान्त पाप कहना मूर्खोका काय्र्य है । ( प्रेरक ) १०५ स्वतीर्थी या परतीर्थी साधुको ही देने अर्थ में "पडिलभ माणे" इस पदका व्यवहार मूलठोंमें हुआ है गृहस्थको देने अर्थ में नहीं यह बात भ्रमविध्वंसनकार नहीं मानते । उन्होंने ठाणाङ्ग, भगवती और ज्ञाता सूत्रका मूल पाठ लिख कर गृहस्थ को दान देनेके अथमें भी “पडिलभमाणे" इस पदका व्यवहार होना बताया है और आचारांग सूत्रका मूल पाठ लिख कर यह कहा है कि "दलएज्जा" और "पडिलभमाणे " ये दोनों शब्द एकार्थक हैं इनमें गृहस्थको दान देने अर्थ में "दलज्जा" शब्द आया है इस लिए उसका समानार्थक "पडिलभ माणे " पद भी हर एकको दान देने अर्थ में आ सकता है केवल साधुको देने अर्थमें ही नहीं । इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) ठाणाङ्ग, भगवती, और ज्ञाता आदि सूत्रोंमें कहीं स्वतीर्थी और कहीं परतीर्थी साधुको ही देने अर्थ में "पडिलभमाणे" इस पदका व्यवहार हुआ है गृहस्थको देने अर्थ में उक्त सूत्रोंमें कहीं भी उक्त पदका व्यवहार नहीं है इसलिए ठागाङ्ग आदि सूत्रोंका झूठ ही नाम लेकर स्वतीर्थी या परतीथों साधुसे इतरको दान देने अर्थ में "पडिलभमाणे " पद का व्यवहार बताना मिथ्या है। आचारांग सूत्रका मूल पाठ लिख कर जो जीतमलजीने “दलएज्जा” पदके समानार्थक होनेसे “पडिलभमाणे" इसका व्यवहार गृहस्थको दान देने अर्थ में बताया है वह भी अयुक्त है । साधुको दान देने अर्थ में दल्लएज्जा और "पडिलभमाणे” ये दोनों शब्द आते हैं परन्तु गृहस्थको देने अर्थ में "पडिलभमाणे" इस पदका व्यवहार कहीं भी नहीं है। गृहस्थ और साधु दोनोंको दान देने अर्थमें “दलएज्जा" यह पद आता है परन्तु "पडिलभमाणे" यह पद स्वतीर्थी या परतीर्थी साधुको देने अर्थमें ही आता है अतः आचारांग सूत्रकी साक्षी देनाभी भ्रमविध्वंसनकारका अयुक्त है । १४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । इसी तरह सूयगडांग श्रुत स्कन्ध २ उद्देशा ५ गाथा ३२ को लिख कर भ्रमविध्वंसनकारने जो गृहस्थको दान देने अर्थ में "पडिलभमाणे" इस पदका व्यवहार बतलाया है वह भी मिथ्या है। उस गाथामें स्वतीर्थी या परतीर्थी साधुको ही देने अर्थमें “ पडिलभमाणे" इस पदका व्यवहार हुआ है गृहस्थको दान देने अर्थ में नहीं यह बात आगे चलकर बतायी जायगी अतः सू० की गाथाका नाम लेकर गृहस्थको दान देने अर्थ में "पडिलभमाणे" पदका व्यवहार बताना भी अयुक्त है । भगवती शतक ८ उद्देशा ६ के मूल पाटमें "पडिलभमाणे" यह पद आया है इसलिए यह पाठ परतीर्थी साधु यानी अन्य यूथिकोंके गुरुको गुरुबुद्धिसे दान देने में हो एकान्त पाप बतलाता है अनुकम्पा दान देनेमें नहीं । अतः भगवतीके उक्त मूल पाठका नाम लेकर अनुकम्पा दानका निषेध करना मूर्खोका का है । [ बोल ५ वां समाप्त ] १०६ ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ६६ पर सुय० श्रुत० २ अ० ६ गाथा ४३४४ और ४५ वीं को लिख कर उनकी समालोचना करते हुए लिखते हैं 66 अथ अठे आर्द्र मुनिने ब्राह्मणां कह्यो - जे पुरुष बे हजार ब्राह्मण नित्य जीमा ते महा पुण्यस्कन्ध उपार्जी देवता हुई एहवो हमारे वेदनो वचन छै तिवारे आर्द्र मुनि बोल्या महो ब्राह्मगो ! जे मांसना गृद्वी घर घरने विषै मर्जारनी परे भ्रमण करनहार एहवा बेहजार कुपात्र वाह्मणाने नित्य जीमाडे ते जीमाडनहार पुरुष ते ब्राह्मणां सहित बहु वेदना छै जेहने एहवी महाअसह्य वेदना युक्त नरकने विषे जाई" (भ्र० प्र० ६६ ) इसका क्या समाधान ( प्ररूपक ) आर्द्र कुमार मुनिने हिंसक, मांसाहारी, वैडालब्रतिक ब्राह्मणों को पूज्य बुद्धिसे भोजन करानेसे नरक जाना कहा था, हीन दीन प्राणियोंपर दया लाकर उनको दान देनेसे एकान्त पाप या नरक जाना नहीं कहा इसलिए आर्द्र कुमार मुनिका नाम लेकर अनुकम्पा दानका खण्डन करना मूर्खो का कार्य है। अब वे गाथा ये लिख कर उन का अर्थ बताया जाता है जिससे पाठकोंको आर्द्र कुमार मुनिके कथनका भाव ज्ञात जाय । वे गाथाएं ये हैं "सिणायगाणंतु दुवे सहस्से जे भोगए यिए माहणाणं । ते पुण्ण खन्धे सुमहज्जणित्ता भवन्ति देवा इति वेयवाओ । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १०७ सिणायगाणंतु दुवे सहस्से जे भोयए णियए कुलालयाणं । से गच्छह लोलुव संपगाढे तोव्वाभिनावी नरगाभिसेवो । दयावरं धम्म दुगुच्छमाणा वहावह धम्म पसंसमाणा। एगंविजेभोयह असील णिवो णिसंजाति कुओ सुरेहिं ।" (सयगडांग सूत्र श्रुत० २ अ० ६ गाथा ४३-२४-१५) अर्थ पशुयागके समर्थक कर्मकाण्डी ब्राह्मण आर्द्र कुमार मुनिके पास आकर कहने लगे है आर्द्र कुमार ! तुमने गोशालक और बौद्ध मतको स्वीकार नहीं किया यह अच्छा किया है क्योंकि ये दोनों ही मत वेद वाह्य होनेके कारण अमान्य हैं और यह अहत मत भी वेद पाह्य होनेसे निन्दित ही है अतः आप जैसे क्षत्रिय शिरमणिके लिए इसका आश्रय लेना भी अयुक्त है। आप सब वर्णो से श्रेष्ठ ब्राह्मणोंकी सेवा करें शूद्रोंकी नहीं। वेदमें कहा है कि यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान और प्रनिग्रह इन छः कर्मों में तत्पर रहने वाले दो हजार ब्राह्मणोंको जो प्रतिदिन भोजन कराता है वह पुण्य समूहका उपार्जन करके स्वर्गलोक में देवता होता है। ४३ __ इसका उत्तर देते हुए आर्द्र कुमार मुनिने कहा कि हे ब्राह्मणो ! जो मांसकी तलासमें विडालकी तरह घा घर फिरते हैं, जो अपनी उदर पूर्तिके लिए क्षत्रिय आदिके घरों में नीच वृत्ति करते हैं ऐसे दो हजार ब्राह्मणोंको नित्य भोजन कराने वाला पुरुष उन मांसाहारी ब्राह्मणोंके साथ तीव्र वेदना युक्त नरकमें जाता है। ४४ जो, दया प्रधान धर्मकी निन्दा करता हुआ हिंसामय धर्मको प्रशंसा करता है ऐसे एक ब्राह्मणको भोजन करानेसे भी घोर अन्धकारसे पूर्ण नरककी प्राप्ति होती है फिर दो. हजार ऐसे ब्राह्मगोंको भोजन करानेसे तो कहना ही क्या है । पूर्वोक्त कुशील ब्राह्मणोंको भोजन करानेसे जब कि अधम देवता भी नहीं होता तब उत्तम देव होनेकी तो बात ही क्या है। ४५ यह ऊपर लिखी हुई गाथाओंका टीकानुसार अर्थ है। ___ इन गाथाओंमें दया धर्मको निन्दा और हिंसामय धर्मको प्रशंसा करने वाले वैडाल बतिक नीच वृत्ति वाले ब्राह्म गोंको पूज्य बुद्धिसे दान करनेसे नरक जाना कहा है, होन दीन दुःखी जीवोंपर दया लाकर अनुकम्पा दान देनेसे नहीं अतः इन गाथाओं की साक्षी देकर अनुकम्पा दानका निषेध करना एकान्त मिथ्या है। इन गाथाओंमें अनुकम्पा दानका कोई प्रसंग नहीं है यहां तो ब्राह्म गोंने जैन धमकी निन्दा करके ब्राह्मण भोजन करानेसे स्वर्ग जाना कहा था इसका उत्तर देते हुए आर्द्र कुमार मुनिने बैडालबातिक हिंसक नीच वृत्ति वाले ब्राह्मगको भोजन करानेसे नरक जाना कहा इससे न तो अनुकम्पा दानका खण्डन होता है और न दयावान् अहिंसक ब्रह्मचारी ब्राह्मणको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धममण्डनम् । भोजन कगनेसे ही पाप होना सिद्ध होता है अतः आर्द्र कुमार मुनिका नाम लेकर अनुकम्पा दान देने और ब्राह्मग मात्रको भोजन करानेसे नरक बतलाना सूत्रार्थ न जानने वालोंका काय्य है। वैडाल तिक हिंसक नीच वृत्ति करने वाले ब्राह्मगोंको भोजन करानेसे मन्वादि धर्म शास्त्रोंमें भी नरक जना कहा है। इस विषयमें मनुजीके निम्नलिखित पद्य है "धर्म ध्वजी सदा लुब्धः छाभिको लोक दम्भकः । वैडाल व्रतिको ज्ञयो हिंस्रः सर्वाभिसंधकः ॥ ९५ अधो दृष्टि नैष्कृतिकः स्वार्थसाधन तत्परः। शठो मिथ्या विनीतश्च बकब्रतचरो द्विजः ॥ ९६ ये वकवतिनो विप्राः येच मार्जार लिङ्गिनः । ते पतन्त्यन्धतामिस्र तेन पापेन कर्मणा ॥ ९७ न वार्यापि प्रयच्छेत्तु वैडालव्रतिके द्विजे । न बकवतिके निप्र नावेद निदि धर्मवित् ॥ विष्याप्येतेषुदत्तंहि निधिनाप्यर्जितं धनम् । दातुर्भवत्यनर्थाय परत्रादातुरेवच । यथा प्लवे नौपलेन निमज्जत्युदके तरन् । तथा निमज्जतोऽधस्ता दज्ञौ दातृ प्रतीच्छकौ ॥" (मनुस्मृति अ० ४) अर्थ जो धर्मात्माओंका चिन्ह धारण करके अपनेको धार्मिक प्रसिद्ध करता है और छिप कर पापाचरण करता है वह धर्मध्वजी कहलाता है। जो ब्राह्मग धर्मध्वजी है जो दूसरेके धन हरण करनेकी ताकमें सदा लगा रहता है जो छली कपटी लोकवञ्चक और हिंसक है जो सबकी निन्दा करता है उसको “वैडालबतिक " कहते हैं। जो अपनी बनावटी नम्रताको प्रकट करनेके लिए दृष्टि, नीचे रखता है और निष्ठुरताके साथ दूसरेका स्वार्थ बिगाड़ कर अपना स्वार्थ साधन करता है जो शठ है और कपटयुक्त नम्रता धारण करता है वह ब्राह्मण "वकबतिक" कहलाता है। चकवतिक और वैडाल बतिक ब्राह्मग, अपने पाप कर्मका फल भोगनेके लिए अन्धतामिस्र संज्ञक नरकमें जाते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १८९ वक बतिक और वैढालबतिक ब्राह्मणको जल देना भी धार्मिक मनुष्योंका कर्तव्य नहीं है। जो वेद नहीं जनता उसको भी दान देना धार्मिक मनुष्यों के लिये अयोग्य है। न्यायवृत्तिसे उपार्जन किया हुआ भी धन, वकवतिक और वैडाल बतिक ब्राह्मणको दिया हुआ परलोकमें दाता और ग्रहीता ( लेनेवाला) दोनोंका अनर्थके लिये होता है। जैसे पत्थरकी नावपर चढ़ा हुआ मनुष्य उस नावके साथ ही दूब जाता है उसी तरह दान और प्रतिग्रहकी विधि न जानने वाले दाता और ग्रहीता ( लेनेवाला) दोनों ही नरक में जाते हैं। यहां मनुजीने भी दयारहित हिंसक वैडालतिक ब्राह्मणोंको भोजन करानेसे नरक जाना कहा है और इन्हों ब्राह्मगोंको भोजन करानेसे मुनि आद्र कुमारने भी नरक प्राप्ति बताई है इसलिये आद्र कुमार मुनिका नाम लेकर अनुकम्पादान देने और ब्राह्मगमात्रको भोजन करानेसे नरक प्राप्ति बतलाना मिथ्यावादियोंका कार्य है। (बोल छट्ठा) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ट ६८ पर लिखते हैं “अथ इहां भग्गुने पुत्रां कह्यो वेद भण्यां त्राण न होवे ब्राह्मण जीमायां तमतमा जाय तमतमा ते अन्धेरा में अंधेरा ते एहवी नरकमें जाय इम कयो जो विप्र जीमायां पुण्य कहे तो नरक क्यूं कही" (भ्र० पृ०६८) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) __भृगु पुरोहितके पुत्रोंका नाम लेकर अनुकम्पादानमें पाप बताना मूखों का कार्य है। भृगुके पुत्रोंने अनुकम्पा दान देने में पाप होना नहीं कहा था किन्तु यज्ञ यागादि कर के पूज्य बुद्धिसे ब्राह्मण भोजन कराने, और पुत्रोत्पादन करनेसे जो लोग दुर्गतिमार्गका निरोध होना मानते हैं उनके मन्तव्यको मिथ्या बतलाया था। यदि कोई कहे कि अनुकम्पा करके असंयतिको दान देनेसे पुण्य होता तो भृगुके पुत्रोंने ब्राह्मण भोजन करानेसे तमतमा जाना क्यों कहा ? तो इसका उत्तर यह है। यहां टीकाकारने लिखा है किः तेहि भोजिता: कुमागे प्ररूपण पशुवधादावेव कर्मोपचयनिबन्धनेऽसव्यापार प्रवर्तन्त इत्यसत्प्रवर्तनतस्तदोजनस्य नरक गति हेतुत्वमेव" अर्थात् हिंसामय धमकी प्रशंसा और दयामय धर्मकी निंदा करने वाले ब्राह्मग, भोजन कराये हुए कुमागेकी प्ररूपणा और कर्मको बढाने वाले पशुवध आदि असद् व्यापारमें ही प्रवृत्त होते हैं अत: असद् व्यापारमें प्रवृत्त होनेके कारण उनको भोजन कराना नरक प्राप्तिका हेतु होता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० सद्धममण्डनम् । यहां टीकाकारने जो ब्राह्मण असद् व्यापारमें प्रवृत्त होता है उसीके भोजन कराने से नरक जाना कहा है परन्तु पशुवध आदि नीच कर्मोंका समर्थन न करनेवाले दयालु ब्राह्मणों को भोजन करानेसे नरक जाना नही कहा है इसलिये मूलगाथामें जो ब्राह्मण भोजन कराने से तमतमा जाना कहा है उसका अभिप्राय सब ब्राह्मणोंके भोजन करानेसे नहीं है किंतु दया रहित हिंसक ब्राह्मणको भोजन करानेसे है अतः भृगुके पुत्रोंका नाम लेकर अनुकम्पादानका विरोध करना मिथ्या है। हिंसक छली कपटी वक व्रतिक आदि ब्राह्मणों को भोजन करानेसे नरक जाना मनुने भी लिखा है और वही बात भृगुके पुत्रोंने कही है इसलिये अनुकम्पादानका खण्डन करना अयुक्त है । ( बोल ७ वां ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रम० पृ० ७३ पर सुयगडांग सूत्र श्रु० २ अ०५ गाथा ३३ वीं को लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: "अथ ईहां पि इम को दान देवे लेवे इसो वर्तमान देखि दूषण नहीं कहे । ए तो प्रत्यक्ष पाठ को जे लेवे देवे ते बेलां पाप पुण्य नहीं कहिणो । दक्खिणाए कहितां दाननो पंडिलंभ कहितां आगलाने देवो ते प्राप्ति एतले दान देवे ते दाननी आगलाने प्राप्ति हुवे ते बलां पुण्य पाप कहिगो वर्ज्यो पिग और वेलां वज्यों नहीं" इत्यादि इनके कहने का तात्प यह है कि जिस समय दाता अनुकम्पा लाकर किसी हीन दीनको दान दे रहा है और वह हीन दीन ले रहा है उस समय साधुको उस दानमें एकान्त पाप न कहना चाहिये परन्तु दूसरे समय में अनुकम्पादानका फल एकान्त पाप कह कर उसका निषेध कर देना चाहिये। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक सुयगडांग सूत्रकी वह गाथा, टीकाके साथ लिख कर इसका समाधान किया जाता है । वह गाथा यह है: "दक्खिणाए पडिलं भो अत्थिवा णत्थिवा पुणो वियागरेज्ज मेहावी संति मग्गंच बूहए" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ( सुय० श्रु० २ अ०५ गाथा ३३ ) ( टीका ) दानं दक्षिणा तस्याः प्रतिलंभ: प्राप्तिः स दानलाभोऽस्माद् गृहस्थादेः सकाशा दस्ति नास्तिवा इत्येवं न व्यागुणीयात् मेधावी मर्यादाव्यवस्थितः यदिवा स्वयूथ्यस्य तीर्था www.umaragyanbhandar.com Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... दानाधिकारः। १११ न्तरीयस्यवा दानं ग्रहणं प्रति योलाभः स एकान्तेनास्ति संभवति नास्तीत्येवं न ब या दे कान्तेन, तहान ग्रहण निषेधे दोषोत्पत्ति संभवात् । तथाहि तहान निषेधेऽन्तराय संभवस्तद्वचित्यञ्च, तदानानुमतावप्यधिकरणोद्भवः इत्यतोऽस्ति दानं नास्तिवेत्येवमेकान्तेन न बयान कथं वयादिति दर्शयति-शान्ति: मोक्षः तस्य मार्गः सम्यग्ज्ञान दर्शन चारित्रात्मकस्तमुपबृहयेद् वर्षपेत् । यथा मोक्ष मार्गाभिवृद्धिर्भवति तथा जयादित्यर्थः । एत दुक्त भावति पृष्टः केनचिद य प्रति ग्राहक विषयं निरवद्य मेव ब्रूयादित्येवमादिक मन्यदपि विविध धर्मदेशनावसरे वाच्यम् । तथा चोक्तम् “सावजण वजाणं वयणाणं जोणजाणइ विसेसं" अर्थः - साधुकी मर्यादामें स्थित हुए मुनिको यह न कहना चाहिये कि अमुक गृहस्थसे दानकी प्राप्ति होगो या न होगी। अथवा दानलाभके विषयमें स्वयूथिक या पत्यूथिक साधुके पूछने पर एकान्त रूपसे यह न कहना चाहिये कि आज तुझको मिक्षा मिलेगी या, न मिलेगी। यदि "आज तुझको भिक्षा न मिलेगो" ऐसा कहे तो अन्तराय होना सम्भव है और भिक्षार्थीके चित्तमें दुःख भी उत्पन्न होगा। तथा "आम तुमको भिक्षा मिलेगी" ऐसा कहने पर पूछने वाले साधुको हर्ष की उत्पत्ति होनेसे अधिकरणादि दोष उत्पन्न होगा इसलिये स्वयूयिक या परयूथिकके पूछने पर भिक्षा लाभके सम्बन्धमें साधुको एकान्तरूपसे कुछ भी न कहना चाहिये। जिस प्रकार ज्ञान दर्शन और चारित्र रूप मोक्षमार्गकी उन्नति हो वही बात भाषा उमतिके द्वारा कहनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि स्वयूधिक या परयूथिक साधु मुनिसे आकर पूछे कि "आज मुझको भिक्षाका लाम होगा या नहीं ?" तो साधुको मर्यादामें स्थित मुनि एकान्त रूपसे यह न कहे कि आज तुझको भिक्षा न मिलेगी, और यह भी न कहे कि आज तुझको भिक्षा मिलेगी किन्तु विधि निषेध न करके भाषा समतिके द्वारा उत्तर देना चाहिये। इसी प्रकार धर्मोपदेश करते समय भी साधुको निरवद्य भाषा बोलनी चाहिये। कहा है कि जिस साधुको सावध और निरवद्य भाषाका ज्ञान नहीं है वह धर्मोपदेश क्या दे सकता है ? यह ऊपर लिखी हुई गाथाका ट.कानुसार अर्थ है। यहां तो अनुकम्पादानका कोई प्रसङ्ग नहीं है । भाषासुमतिका यह प्रकरण है इस लिये उक्त गाथामें यह उपदेश किया है कि स्वयूथिक या परयूथिक साधु मुनिसे यदि यह पूछे कि आज मुझको मिक्षाका लाभ होगा या नहीं ? तो मर्यादामें कायम रहनेवाला मुनि एकान्त रूपसे भिक्षाका लाभ और अलाभ कुछ भी न कहे किन्तु भाषा सुमतिके द्वारा उसके प्रश्नका उत्तर देवे अतः इस गाथाका नाम लेकर यह कहना कि "जिस समय दाता हीन दीनको दे रहा हो और लेनेवाला ले रहा हो उसी समयमें साधुको अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप न कहना चाहिये परन्तु उपदेश करते समय एकान्त पाप कह कर अनुकम्पादानका निषेध काना चाहिये” एकांत मिथ्या है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ सद्धर्ममण्डनम् । इस गाथामें जो "पडिलंभ" पद आया है वह स्वयूथिक या परयूथिक साधु के दान लाभ अर्थमें ही आया है गृहस्थके दान लाभ अर्थमें नहीं। अतएव टीकाकारने लिखा है कि:-"यदि वा स्वयूथ्यस्य तीर्थान्तरीय स्य वा दानं ग्रहणं प्रति यो लाभ:" अर्थात् स्वयूथिक यानी अपने यूथके साधुको और तीर्थान्तरीय यानी अन्य दर्शनीय साधुको दानकी प्राप्ति होना प्रतिलम्भ है।" ___ अत: इस गाथाकी साक्षी देकर जो जीतमलजीने गृहस्थके दान लाभ अर्थमें "प्रतिलम्भ" पदका व्यवहार बतलाया है वह मिथ्या है तथा इस गाथाको लिखकर इसके नीचे जो जीतमलजीने टव्वा अर्थ दिया है वह भी मूडपाठ और टीकासे असम्मत होने के कारण एकान्त अशुद्ध और अप्रामाणिक है उसका आश्रय लेकर अनुकम्पादान का खण्डन करना मिथ्यादृष्टियोंका कार्य है । (बोल ८ वां) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रम० पृ० ७४ पर ज्ञाता सूत्र अध्ययन १३ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: “अथ इहां कयो जे नन्दन मणिहारो दान शालादिकनो घणो आरंभ करी मरीने डेडको थयो । जो सावद्य दान थी पुण्य हुवे तो दानशालादिकथी घणां असंयति जीवां रे साता उपजाई ते सातारा फल किहां गयो" इनके कहनेका भाव यह है कि नन्दन मनिहारने अनुकम्पा दान देकर अनेक हीन दीन दुःखी जीवोंको सुख दिया था परन्तु वह मर कर मेढक योनिमें उत्पन्न हुआ यदि अनुकम्पादान देना पुण्य होता तो नन्दन मनिहार मर कर मेढक क्यों होता ? अतः अनुकम्पा दान देना एकान्त पाप है। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) नन्दन मनिहारका नाम लेकर अनुकम्पादानमें पाप कहना अज्ञानका परिणाम है। ज्ञाता सूत्रके मूलपाठमें स्पष्ट लिखा है कि नन्दन मनिहार नन्दा नामक पुष्करिणीमें आसक्त होनेसे मेढक योनिमें उत्पन्न हुआ था, हीन दीन जीवोंको अनुकम्पादान देनेसे नहीं । ज्ञाता सूत्रका वह पाठ यह है: __ "तत्तेणं गंदे तेहिं सोलसेहिं रोगायंकेहिं अभिभूएसमाणे गंदाए पोखरिणीये मुच्छित्ते तिरिक्ख जोणिएहिं वद्धाण वद्धए सिए अह दुहट वस कालमासे कालं किचा गंदाए पोक्खरिणीये दददुरिये कुत्थिं सि दुरत्ताए उववण्णे" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः । ११३ इसके अनन्तर वह नन्दन मनिहार सोलह रोगोंसे पोडित होकर नन्दा नामक पुष्करिणीमें आसक्त होनेके कारण तिर्य्यञ्च योनिकी आयु बांध कर अतिरुद्र ध्यान ध्याता हुआ काल के अवसरमें मृत्युको प्राप्त होकर नन्दा नामक पुष्करिणीके अन्दर मेढक योनिमें उत्पन्न हुआ । यहां नन्दा नामक पुष्करिणीमें आसक्त (गृद्ध ) होनेके कारण नन्दन मनिहारको मेढक योनिमें जन्म लेना लिखा है हीन दीन जीवों पर दया लाकर दान देनेके कारण नहीं । अतः नन्दन मनिहारका नाम लेकर अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप कहना मिथ्यावादियों का काम है। कई ऐसा प्रश्न करते हैं कि अनुकम्पा दान देनेमें यदि पुण्य था तो नन्दन मनिहार अनुकम्पा दन देकर मेढक क्यों हुआ ? अनुकम्पा दानका फल उसको क्या मिला था ? उनसे कहना चाहिये कि नन्न मनिहारने श्रावकों के बारह व्रत भी धारण किये थे उसका फल उसको क्या मिला था यह व्याप बतलाइये ? यदि वह कहें कि बारह व्रत धारण करनेका फल नन्दन मनिहारको अच्छा ही मिला होगा परन्तु मूलपाठमें उसका कुछ कथन नहीं है, तो यही उनके प्रश्नका भी उत्तर है अर्थात् अनुकम्पा दान देने का फल नन्दन मनिहारको अच्छा ही मिला होगा परन्तु मूलपाठमें उसका कुछ कथन नहीं है यहां तो नन्दन मनिहार का चरित्र बता कर यह उपदेश किया है कि भव्य rtain सांसारिक पदार्थों में आसक्त न होना चाहिये और भूल कर भी कुसङ्गति में न पड़ना चाहिये क्योंकि नन्दन मनिहार कुसङ्गतिमें पड़ कर वारह व्रतधारी श्रावकसे फिर freeष्टि हो गया था और नन्दा नामक पुष्करिणोमें आसक्त होकर मेढक योनिमें जन्म लिया था । यही नन्दन मनिहारके उपाख्यानका सार है अतः नन्दन मनिहारके उदाहरण से अनुकम्पा दानमें एकांत पाप कहना अज्ञान है । कोई कोई कहते हैं कि " नन्दन मनिहार जब तक सम्यग्दृष्टि था तब तक उसने दानशाला आदि परोपकारका कार्य नहीं किया था किन्तु मिथ्यादृष्टि होने पर उसने दानशाला आदि परोपकारके कार्य्य किये थे इसलिये अनुकम्पादान आदि परोपकार के का मिथ्यादृष्टि करते हैं सम्यग्दृष्टि नहीं" वे भोले जीव हैं। राजा प्रदेशी जब तक मिथ्यात्वी था तब तक दानशाला आदि परोपकारका कार्य्य नहीं करता था बल्कि हीन दीन जीवोंकी जोविकाका उच्छेद करता था परन्तु केशीकुमार मुनिके उपदेशसे जब वह बारह व्रतधारी श्रावक हुआ तब वह दानशाला बना कर हीन दीन जीवों को दान देने लग गया था अतः अनुकम्पा दान देना मिथ्यादृष्टियों का ही काय्य नहीं है सम्यग्दृष्टि भी यह कार्य करते हैं इसलिये अनुकम्पादान आदि परोपकारके काय्यैसे जनता को विमुख करना मिथ्यादृष्टियों का कार्य समझना चाहिये । ( बोल ९ ) १५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ सद्धर्ममण्डनम् । (प्रेरक) भ्रमबिध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ७६ पर ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा दशका मूलपाठ लिख कर एक धर्मदानको छोड़ शेष नौ दानोंको अधर्म दानमें कायम करनेके लिये यह लिखते हैं: "असंयतिने सूझता असूझता अशनादिक ४ दीघां एकान्त पाप भगवती शतक माठ उद्देशा ६ कह्यो ते मांटे ए नौ दानामें धर्मपुण्य मिश्र नहीं छै कोई कहे एक धर्मदान एक अधर्मदान बीजा आठांमें मिश्र छै । केई एकलो पुण्य छै इम कहे तेहनो उत्तरजो वेश्यादिकनो दान अधर्म में थापे विषयरो दोष बतायने तो वीजा आठ पिण विषयमें इज छै" (भ्र० पृ० ७६) इसका समाधान ? (प्ररूपक) धर्मदानको छोड़ कर शेप नौ दानोंको अधर्मदानमें गिनना शास्त्रविरुद्ध है । शास्त्रकारने दश ही दानोंको परस्पर विलक्षण और एकमें दूसरेका समावेश न होना बतलाया है। यदि धर्मदानको छोड़ कर शेष नौ ही दान अधर्मदानके भेद होते तो शास्त्रकार यह लिखते कि "दुविहे दाणे पण्णते तंजहा-धम्म दाणे व अधम्मदाणे चेव" यह लिख कर पश्चात् अनुकम्पा आदि दानोंको अधर्मदानमें समावेश कर देते परन्तु ऐसा न कह कर जो दानके दश भेद शास्त्रकारने बतलाये हैं इससे अनुकम्पा आदि दानोंका अधर्मदानसे भेद होना स्पष्ट सिद्ध होता है। दूसरी बात यह है कि इन दश दानोंके गुणानुसार नाम रक्खे गये हैं जिस दानका फल अनुकम्पा है उसका 'अनुकम्पा' नाम रक्खा है और जिसका फल संग्रह ( दीन दुःखीको सहायता देना ) है उसका संग्रह नाम रक्खा है इसी तरह शेष माठ दानोंके भी गुणानुसार ही नाम रक्खे गये है और भीषणजीने भी यह बात मानी है जैसे कि उन्होंने लिखा है “दश दान भगवन्त भाषिया, सूत्र ठाणांग माय । गुण निष्पन्न नाम छै तेहनो, भोलांने खवर न काय" ( पद्य भीषणजी कृत ) इस पद्यमें दश दानोंका गुणानुसार नाम होना स्वयं भीषणजीने स्वीकार किया है ऐसी दशामें धर्मदानको छोड़ कर शेष नौ ही दानों को अधर्मदानमें बताना जीतमलजी का अपने गुरुकी उक्तिसे ही विरुद्ध होता है । जब कि इन दानोके नाम इनके गुणानुसार रक्खे गये हैं तब अनुकम्पादानका गुण अनुकम्पा कहना होगा अनुकम्पा अधर्ममें नहीं है, इसलिये अनुकम्पादान अधर्मदानमें नहीं हो सकता। इसी तरह संग्रह दानका फल संग्रह (दोन दुःखीको सहायता देना) करुणादानका कल करुणा और लज्जा आदि दानों के फल लज्जा आदि हैं। दीन दुःखीको सहायता देना आदि अधर्ममें नहीं है अत: संग्रह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। ११५ आदि दान अधर्मदानमें नहीं हो सकते ऐसी दशामें एक धर्मदानके सिवाय बाकीके नौ ही दानोंको अधर्मदानमें स्थापन करना अज्ञानका परिणाम है। __ जो लोग एक धर्मदानको छोड़ कर शेष नौ दानोंको अधर्ममें गिनते हैं उनसे कहना चाहिये कि जो दान, भक्ति भावसे प्रत्युपकारकी आशाके विना पञ्च महाव्रतधारी साधुको दिया जाता है वही मुख्य रूपसे एकान्त धर्मदान है। परन्तु जो लज्जावश या अनुकम्पा करके साधुको दिया जाता है वह दान, दाताके परिणामानुसार मुख्यरूपसे लज्जादान और अनुकम्पादान है । यह दान, धर्मदानसे कशंचित् भिन्न है क्योंकि इसमें दाताका परिणाम लज्जा और अनुकम्पाका भी है अत: तुम्हारे हिसाबसे इस दानका फल अधर्म ही होना चाहिये यदि कहो कि "किसी भी परिणामसे साधुको दान देना एकांत धर्मदान है इसलिये उक्त दानोंका फल अधर्म नहीं है" तो नागश्री ब्राह्मणीने मुनि को मारनेके परिणामसे कडुवा तुम्बा का शाक दिया था और साहुकारकी स्त्रीने विषय भोग कराने की लालसासे अर्णक मुनिको मोदक दिये थे फिर इन दानोंका फल भी अधर्म न होना चाहिए यदि कहो कि नागश्रीने मुनिको मारनेके परिणामसे, और साहूकार की स्त्रीने मुनिको भ्रष्ट करने के भावसे दान दिये थे इसलिये उनके दान उनके परिणामानुसार अधर्मदान थे धर्मदान नहीं, तो उसी तरह यह भी समझो कि जो दान, लज्जावश या अनुकम्पा करके मुनिको दिया जाता है वह भी दाताके परिणामानुसार लज्जादान और अनुकम्पादान ही है । तुम्हारे सिद्धांतानुसार इन दानोंमें भी अधर्म ही होना चाहिये परन्तु यह शास्त्र संमत नहीं है इन दानोंमें भी दाताके परिणामानुसार धर्म ही होता है। अतः धर्मदानको छोड़ कर शेष नो दानोंको अधर्म में कायम करना अज्ञान है। अनुकम्पा दान साधु भी देते हैं इसका प्रमाण नीचे दिया जाता है। "अणुकम्पं पडुच्च तओ पडिणीया पण्णत्ता तंजहा-तवस्सि पडिणीए, गिलाण पडिणीए, सेहपडिणीए" (ठाणाङ्ग ठाणा ३ उद्देशा ४) अर्थात् तीन मनुष्य अनुकम्पा करने योग्य होते हैं। तपस्वी क्षपक, रोग आदिसे ग्लान, और नवदीक्षित शिष्य, इनकी अनुकम्पा न करे और न करावे तो वह वैरी समझा जाता है। इस पाठके अनुसार यदि कोई, रोग आदिसे ग्लान और तपस्वी क्षपक, तथा नवदीक्षित शिष्य पर अनुकम्पा करके दान देवे तो वह दान दाताका परिणामके अनुसार मुख्य रूपसे अनुकम्पादान है। इसमें भी जो लोग धर्मदानके सिवाय नौ दानोंको अधर्ममें मानते हैं उनके हिसाबसे अधर्म होना चाहिये । उवाई सूत्रमें लोकोपचार विनय के "काय्रांहेतु" और "कृतप्रतिक्रिया” नामक दो भेद कहे गये हैं । “यदि गुरुजीको भात Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ सद्धर्ममण्डनम् । पानी आदि देकर मैं प्रसन्न रक्खूंगा तो वह मुझको शास्त्र देनेकी कृपा करेंगे” इस भाव गुरुकी सेवा भक्ति दान सम्मान आदि करना " काय्यैहेतु विनय" कहलाता है । यह विनय “करिष्यतीति दान” के अन्तर्गत है क्योंकि जो दान प्रत्युपकारकी आशासे दिया जाता है उसी 'करिष्यतीति" दान कहते हैं । साधु भी अपने गुरुको यह दान देकर लोकोपचार विनय करता है । यह दान प्रत्युपकारकी आशासे किये जानेसे 'करिष्यतीति दान" है । जीतमलजीके हिसाब से यह दान भी अधर्ममें ही ठहरता है क्योंकि प्रत्युपकार की आशासे किये जानेके कारण यह दान कथंचित् धर्मदानसे भिन्न है । जो दान उपकारी पुरुषको उपकारके बदले में दिया जाता है वह "कृत दान" कहलाता है । साधु भी उपकार के बदले में अपने गुरूको यह दान देकर “कृत प्रति क्रिया" नामक विनय करता है । यह दान उपकारके बदले में दिया जाता है इसलिये कथंचित् धर्मदान से भिन्न है अतः जीतमलजी के हिसाब से इसमें भी पाप ही होना चाहिये। कई मनुष्य मुनिको गर्वसे भी दान देते हैं वह दान दाताका परिणामके अनुसार गवंदान है उस में भी जीतमलजी की प्ररूपणाके अनुसार पाप ही ठहरता है परन्तु शास्त्र प्रमाणसे यह प्ररूपणा मिथ्या सिद्ध होती है क्योंकि लोकोपचार विनय करनेके लिये अपने गुरु को "कृत दान" और "करिष्यतीति दान" करने वाले मुनिको और गर्वसे गुनिको दान देने वाले गृहस्थ को धर्म होता है पाप नहीं होता । अतः एक धर्मदानको छोड़ कर शेष नौ दानों को एकान्त अधर्म में कायम करना अज्ञान है । वास्तव में ये दशविध दान, परस्पर एक दूसरे से भिन्न और नामानुसार गुणवाले हैं अतएव ये अलग अलग कहे गये हैं यदि धर्मदानको छोड़ कर शेष नौ दान एकान्त रूपसे अधर्म में ही होते तो इन्हें अधर्म दानसे अलग लिखनेकी कुछ भी आवश्यकता न थी। भीषणजीने अपने पद्यमें स्पष्ट स्वीकार किया है कि इन दानोंके नाम गुणानुसार रक्खे गये हैं इसलिये जैसा इनका नाम है वैसा ही इनका गुण भी है अतः अनुकम्पा आदि नौ दानों को एकांत अधर्म में स्थापन करना अज्ञान है । ठाङ्ग सूत्रकी मूलगाथा टीकाके साथ लिख कर इन दश दानोंकी व्याख्या की जाती है । वह गाथा यह है "दसविहे दाणे पण्णत्ते तंजहा "अनुकम्पा संग्गहे चैव भए कालुणि एति च लज्जाए गारवेणं च अधम्मे पुण सत्तमें धमेत अमेत्ते काही तीत कर्तति त" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ( ठाणाङ्ग ठाणा १० उद्द ेशा ३ ) www.umaragyanbhandar.com Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीका: दानाधिकारः । ११७ 'दशेत्यादि' अनुकम्पेत्यादि श्लोकः सार्धः 'अनुकम्प' त्ति दानशब्दसम्बन्धादनुकम्पया कृपया दानं दीनानाथ विषय मनुकम्पादान मथवा अनुकम्पातो यद्दानं तदनु कम्णैवोपचारात उक्तभ्व वाचक- - मुख्यै [ रुमास्वातिपूज्यपादैः 'कृपणेऽनाथदरिद्र व्यसनप्राप्तेच रोगशोकहते यद्दीयते कृपार्थादनुकम्पा तद्भवेद्दानम्' संग्रहणं संग्रहः व्यसनादौ सहाय करणं तदर्थं दानं संग्रहदानम् अथवा अभेदाद्दानमपि संग्रह उच्यते याच 'अभ्युदये व्यसनेवा यत्किञ्चिद्दीयते सहायार्थं तत्संग्रहतोऽभिमतं मुनिभिर्द्धानं न मोक्षाय " तथा भयाद्दानं भयदानं भयनिमित्तत्वाद्दानमपि भय मुपचारात् । उच्चभ्व 'राजारक्षपुरोहित मधुमुखमावत्र दण्डपाशिशुच । यद्दीयते भयार्थात्तद्भयदानं बुधैज्ञेयम्' कालुणिएत्ति कारुण्यं शोकस्तेन पुत्रादिवियोगजनितेन तदीयस्यैव तल्पादेः स जन्मान्तरे सुखिनो भवत्विति वासनातोऽन्यस्य वा यद्दानं सत्कारुण्य दान्म् । कारुण्यजन्यत्वा दान मपि कारुण्य मुक्त मुपचारात् । तथा रज्जया हिया दानंयद् तल्लज्जादान मुच्यते उक्तभ्च 'अभ्यर्थितः परेणतु यद्दानं जनसमूहमध्य गतः परचित्त रक्षणार्थ लज्जायास्तद्भवेद्दानम्” ‘गारवेणंत्ति गौरवेण गर्वेण यद्दीयते तद्गौरवदानम् उक्तञ्च "नट नर्त्तक मुष्टिकेभ्यो दानं सम्बन्धि बन्धु मित्रेभ्यः यद्दीयते यशोऽर्थं गर्वेणतु सद्भवेद्दानम्” अधर्मपोषकं नर्मदानम् अधर्मकारणाद्वा अधर्म एवेति उक्तश्च । 'हिंसानृत चौय्र्योद्यत परदार परिग्रह प्रसक्तेभ्यः यद्दीयतेहि तेषां तज्जानीयादधर्माय' धर्मकारणम् यत्तद्धर्मदानं धर्मएववा उक्तश्च -- 'समतृण मणि मुक्तेभ्यो यद्दानं दीयते सुपात्रभ्यः अक्षयमतुल मनंतं तद्दानं भवति धर्माय' करिष्यति वचनोपकारं ममायमित्ति बुद्धया यद्दानं तत्करिष्यतीति दान मुच्यते तथा कृतं ममानेन तत्प्रयोजन मिति प्रत्युपकारार्थ यद्दानं तत्कृत मिति । उक्तञ्च 'शतशः कृतोपकारो दत्तव्च सहस्रशो ममानेन अहमपि ददामि किञ्चित्प्रत्युपकाराय तद्दानम् । अथ:-- दान दश प्रकार के हैं (१) अनुकम्पा दान (२) संग्रह दान (३) भय दान (४) कारुण्य दान (५) लज्जादान (६) गौरव दान (७) अधर्म दान (८) धर्म दान (९) करियति दान (१०) कृत दान । यह मूलार्थ है। टीकाका अर्थ निम्नलिखित है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat मूलगाथा में यद्यपि अनुकम्पा और संग्रह यादि शब्दोंके आगे दान शब्द नहीं माया है तथापि गाथा के पूर्वमें पठित वाक्य से दान शब्दका सम्बन्ध करके अनुकम्पादान दान इत्यादि इन दानोंका नाम जानना चाहिये । अथवा अनुकम्पा से जो दान दिया जाता है उपचार से वह अनुकम्पा ही कहा जाता है । वाचक मुख्य उमा स्वातिने www.umaragyanbhandar.com Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ सद्धममण्डनम्। कहा है कि कृपण, अनाथ, दरिद्र, दुखी और रोग शोकसे पीड़ित जीव को अनुकम्पा करके जो दान दिया जाता है उसे 'अनुकम्पा' या 'अनुकम्पादान' कहते हैं। दुखी जीव को सहायता देनेका नाम 'संग्रह' है उसके निमित्त जो दान दिया जाता है उसे संग्रह या संग्रहदान कहते हैं । पूज्यपाद उमा स्वातिने कहा है कि अभ्युदय (सुशी) या संकट होने पर सहायताके लिये जो दान दिया जाता है उसे मुनि लोग संग्रहदान कहते हैं यह दान मोक्षके लिये नहीं होता। जो दान भयसे दिया जाता है वह 'भय' या भयदान कहा जाता है। राजा महाराजा कोटवाल आदिको भयके कारण दान देना 'भयदान' है । जो दान करुणा (शोक ) से दिया जाता है वह कारुण्य या कारुण्यदान कहलाता है। पुत्र आदिके मरने पर उस पुत्रको परलोकमें सुखी होनेके भावसे उसके खाट आदिको दान देना कारुण्य-दान' समझना चाहिये। जो दान लजाके कारण दिया जाता है वह लजादान कहलाता है। सभा आदिमें बैठे हुए पुरुषसे कोई वस्तु मांगने पर वह पुरुष लजावश पर।येका चित्त मङ्ग न होनेके लिये जो दान देता है वह लज्जादान कहलाता है। नाचने गाने वाले मल्लयुद्ध करनेवाले और अपने सम्बन्धी वन्धु वान्धव, और मित्र आदिको कीर्ति के लिये जो दान दिया जाता है उसे गौरवदान कहते हैं यह दान गर्दसे दिया जाता है इस लिये इसका गौरवदान नाम रक्खा है। जो दान अधर्मके लिये दिया जाता है वह अधर्मदान कहलाता है । हिंसा झूठ चोरी और परस्त्री सेवन करनेवालों को हिंसा झूठ चोरी और जारीकी सहायता देनेके लिये जो दान दिया जाता है वह 'अधर्मनान' है। धर्मके लिये दान देना धर्मदान है। तृण मणि और मुक्ताको समान समझने वाले सुपात्रको जो दान दिया जाता है वह धर्मदान है यह दान अक्षय अतुल्य और अनन्त होता है। जो दान प्रत्युपकारकी आशासे दिया जाता है उसे 'करिष्यति इति दान' कहते हैं । जो उपकारका बदला चुकानेके लिये उपकारीको दान दिया जाता है वह कृत दान कहलाता है । इसने सैकड़ों मेरे उपकार किये हैं और हजारों बार मुझको दान दिये हैं अतः इसे मैं भी हूँ यह समझ कर जो दान दिया जाता है वह कृतदान समझना चाहिये । यह ऊपर लिखी हुई टीकाका भावार्थ है। यहां मूलपाठ और टीकामें हिंसा झूठ चोरी और आरीके लिये जो हिंसक चोर जार आदिको दान दिया जाता है उसीको अवमैदान फहा है इससे भिन्न दानों को नहीं इस लिये धर्मदानको छोड़ कर शेष दानोंको अवर्मदानमें बताना मूल पाठ और टीकासे विरुद्ध समझना चाहिये। जो लोग धर्मदानके सिवाय दूसरे दानोंको अधर्म तथा एकांत पापमें बतलाते हैं उनके हिसाबसे उपकारीको उपकारके बदलेमें कृतदान करना अधर्म और एकान्त पाप ठहरता है और उपकारका बदला चुकानेवाला कृतज्ञ पुरुष एकान्त पापी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। ११९ - - - कायम होता है इसके विपरीत उपकारीको उपकारका बदला न चुकाना धर्म और उपकार का बदला न चुकानेवाला कृतघ्न पुरुष धार्मिक सिद्ध होता है परन्तु यह बात लोक और शास्त्र दोनों ही से विरुद्ध है शास्त्र और शिष्ट पुरुष कृतज्ञको पापी और कृवन्नको धार्मिक कदापि नहीं कह सकते यह तो जीतमलजीकी ही अलौकिक प्रतिभा है जो कृपज्ञ को पापी और कृतघ्नको धार्मिक कायम करती है । वास्तवमें इन दश दानोंके गुणानुसार नाम रक्खे गये हैं इसलिये एक अधर्मदान ही अधर्म है उससे भिन्न दान अधर्मदान नहीं हैं कितु नामानुसार उनके गुण हैं भोषणजीने भी इन दानों के नाम गुण निष्पन्न कहे हैं अतः धर्मदानको छोड़ कर शेष नौही दानोंको अधर्मदानमें कायम करना अज्ञानका परिणाम है। (बोल दसवां) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसन कार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ७८ पर लिखते हैं 'एनव दान चार विसामा बाहिरे छ । धर्मदान विसामा माहि छै । एन्याय तो चतुर हुवे तो ओ लखे इनके कहने का तात्पर्य यह है कि गृहस्थ जीवों को सावध कर्मों का भार उतार कर विश्राम करनेके लिये चार स्थान रहे हैं। वे ये हैं-बारह व्रत ग्रहण, सामायक देशावकाशिक व्रत, पौषधोपवास और संथारा सल्लेखना द्वारा पण्डित मरण प्राप्त करना, इन विश्राम स्थानों में एक धर्मदान ही शामिल होता है शेष नौ दान नहीं होते अतः वे अधर्मदान हैं। इसका समाधान क्या है ? (प्ररूपक) जो क्रिया विश्राम स्थ नसे बाहर है उसे एकान्त पापमें बताना मूर्खता है क्योंकि मिथ्यादृष्टियोंकी सभी क्रियाएं विश्राम स्थानोंसे बाहर ही होती हैं तो भी वे अपनी क्रियाओंसे पुण्य संचय करके स्वर्गगामी होते हैं यदि विश्राम स्थानसे बाहर की सभी क्रियाएं एकांत पापमें होती तो मिथ्यादृष्टि विश्राम स्थानसे बाहरकी क्रिया करके उसके द्वारा स्वर्गगामी क्यों होता ? क्योंकि ऊपर कहे हुए चार विश्राम स्थान सम्यष्टियोंके हैं मिथ्यादृष्टियोंके नहीं यह बात निर्विवाद है ऐसी दशामें विश्राम स्थानोंसे बाहर की क्रियाओंको एकान्त पापमें कायम करना मूर्खताके सिवाय और कुछ नहीं है। (बोल ग्यारहवां) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसन कार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ७८ पर लिखते हैं:-'अठ दश धर्म दश स्थविर कह्या पिण सावध निरवध ओलखणा, अने दश दान कह्या ते पिण सावध निरवद्य पिछाणणा । धर्म भने स्थविर वह्या छै पिण लोकिक लोकोचर दोन छै जिम जम्बद्वीप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० सद्धममण्डनम् । पन्नत्तिमें तीन तीर्थ कह्या मागध वरदाम प्रभास पिण आदरवा योग्य नहीं तिम सावध धर्म, स्थविर, द न पिण आदरवा योग्य नहीं सावध छाड़वा योग्य है" इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) ठसूत्र ठाणा दशका मूलपाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है । artis सूत्रका मूलपाठ यह है : " दसविहे धम्मे पन्नत्ते तंजहा - गामवम्मे, नगरघम्मे, रहधम्मे, पासंडघम्मे, कुलधम्मे, गणधम्मे, संघधम्मे, सुयधम्मे, चारितधम् अस्थिकायधम्मे" ( ठाणाङ्गठाणा १०) टीका: ग्रामाः जनपदाश्रयास्तेषां तेषुवा धर्मः सदाचारो व्यवस्थेति ग्राम धर्मः । सचप्रतिग्रामं भिन्न इति । अथवा ग्राम इन्द्रियग्रामो रूढे स्तद्धर्मो विषयाभिलाषः । नगरधम्र्मो नगराचारः सोऽपि प्रतिनगरं भिन्न एव । राष्ट्रधर्मो देशाचारः पाषण्डधर्मः पाखण्डिनामा'चारः कुलधर्म उग्रादि कुलाचारः । अथवा कुलं चान्द्रादिक माहतानां गच्छ समूहात्मकं तस्यधर्मः समाचारो । गणधर्मा मल्लादिगण व्यवस्था जैनानांवा कुडसमुदायो गणः कोटि कादिः तद्धर्मस्वत्समाचारः । श्रुतमेव व्याचारादिकं दुर्गति प्रपतज्जीव धारणाद्धर्मः श्रुतधर्मः चयरिक्तकरणा चारित्र' तदेव धर्मश्चारित्रधर्मः । अस्तयः प्रदेशा स्तेषां कायोराशि रस्तियः स एव धर्मो गतिपर्याये जीवपुद्गलयोर्धारणादस्तिकायधर्मः” । अर्थ: ग्रामस्थ जनताके व्याचार व्यवहार आदिकी व्यवस्थाका नाम ग्राम धर्म है वह भिन्न भिन्न ग्रामों का भिन्न भिन्न होता है धर्म यानी विषयाभिलाष को ग्रामधर्म कहते हैं । नगर में रहने वाली जनता के आचार व्यवहारका नाम नगरधर्म है और देश विदेश के आचार व्यवहार की व्यवस्था को राष्ट्रधर्म कहते हैं । पाखण्डी यानी ब्रतधारियों के आचार व्यवहार की व्यवस्था का नाम पाखण्ड धर्म है । उम्र आदि कुलके विषयाभिलाष इन्द्रियोंके स्वभावका भी नाम है उसमें रागद्वेष करना कर्मबन्धका कारण है अन्यथा नहीं इसलिये इसे एकान्त पापमें नहीं कह सकते । भीषणजीने भी लिखा है । 'कामने भोग शब्दादिक तेहथी रे समता नहीं पावे जीव लिंगार रे । असमत्ता पिण नहीं पामेछे एहथीरे यहां सृ मूल नहीं पावे जीव विकार रे । जो रागद्वेष आणे त्यां ऊपरे रे ते ही विकार विषय कषाय रे ।” ( इन्द्रियादिकी दाल ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १२१ आचार व्यवहारको व्यवस्थाको कुल धर्म कहते हैं, अथवा कुल नाम जैनोंके चान्द्रादिक गच्छका है उसकी समाचारीको कुल धर्म कहते हैं। मल्लयुद्ध आदिसे अपनी जीविका चलाने वाले मनुष्योंके आचार व्यवहारकी व्यवस्थाका नाम गण धर्म है। अथवा जैनोंके कुल समुदाय कोटिकादिका नाम गण है उसके समाचारको गगधर्म कहते हैं । सभा आदिके नियम और उपनियमोंको सङ्घधर्म कहते हैं अथवा जैनोंके साधु साध्वी श्रावक और श्राविकाओंके समूहका नाम सङ्घ है उसके धर्मको सङ्घधर्म कहते हैं । दुर्गतिमें पड़ते हुए जीवोंको बचाने वाले आचाराङ्गादि बारह अङ्गोंका नाम श्रुत धर्म है। कर्म समूहको विनाश करनेवाले धर्मको चारित्र धर्म कहते हैं । अस्ति नाम प्रदेशोंका है उनकी राशिको अस्तिकाय धर्म कहते हैं यह जीवोंको गति और पर्यायमें धारण करता है इसलिये इसे धर्म कहते हैं इसी तरह पञ्चास्ति कायका धर्म समझना चाहिए । यह ऊपर लिखी हुई टीकाका अर्थ है। . यहां मूलपाठ और टीकामें पहले पहल ग्राम धर्म कहा गया है यह ग्राम धर्म, प्रामस्थ जनताको चोरी जारी हिंसा झूठ आदि बुराइयोंसे हटा कर सत्पथमें प्रवृत्त करता है ग्रामवासियोंकी स्थिति रक्षा और उन्नति इसी ग्राम धर्म पर अवलम्बित है। जिस ग्राममें ग्रामधर्मका पालन नहीं होता उसका शीघ्र ही अन्त हो जाता है इसलिये ग्रामधर्म को जो एकान्त पाप कहता है उसे प्रथम श्रेणिका मूर्ख समझना चाहिये। जिससे चोरी जारी झूठ हिंसा आदि पाप कर्म रुकें और जनता सदाचारिणी बने वह एकान्त पाप कैसे हो सकता है ? इसी तरह नगरधर्म और राष्ट्रधर्म भी नगर तथा राष्ट्रमें रहने वाली जनताको चोरी जारी हिंसा आदि पाप कर्मोंसे रोक कर सुमार्गमें प्रवृत्त करते हैं। इनके विना नार और राष्ट्र सुव्यवस्थित नहीं रह सकते अतः इन धर्मोको एकांत पापमें कहना अज्ञान का परिणाम है । जिससे चोरी जारी और हिंसा आदि एकान्त पापके कार्य रोक दिये जाते हैं वह एकान्त पाप कैसे हो सकता है यह बुद्धिमानोंको स्वयं सोच लेना चाहिये। यदि कोई कहे कि “ये ग्रामधर्म आदि जनताके हितसाधक अवश्य हैं परन्तु मोक्ष के सहायक नहीं हैं इसलिये ये लौकिक धर्म हैं लोहोत्तरधर्म नहीं हैं और लोकोत्तरधर्मसे भिन्न सभी धर्म एकान्त पाप हैं तो यह मिथ्या है। ये प्रामधर्मादि मोक्षके भी सहायक हैं क्योंकि श्रुत और चारित्रधर्मके पालनसे मोक्ष होता है और उनका पालन करनेवाले पुरुष ग्राम नगर तथा राष्ट्रमें ही रहते हैं वे अपने श्रुत और चारित्र धर्मका पालन तभी कर सकते हैं जब ग्राम नगर और राष्ट्रोंमें प्रामधर्म नगरधर्म और राष्ट्रधर्मका पालन होता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ सद्धर्ममण्डनम् । हो । जहां उक्त धर्मों का पालन न होकर चोरी जारी हिंसा आदिका साम्राज्य हो उस स्थान पर चारित्री पुरुषका चारित्र नहीं पल सकता। अतएव श्रुत तथा चारित्रधर्म के पालन करने वाले पुरुषोंके ठाणाङ्ग सूत्रमें पांच सहायक बताए हैं वह पाठ "धम्मं चरमाणस्स पंचणिस्सा ठाणा पण्णत्ता तंजहा-छकाए, गणे, राया, गिहपती, सरीरं" (ठाणाङ्ग ठाणा ५) अर्थात् श्रुत और चारित्र धर्मका पालन करने वाले पुरुषोंके पांच सहायक होते हैं वे ये हैं:-छकाया, गण, राजा, गृहपति और शरीर । यहां छः काय आदिके समान ही राजा भी श्रुत और चारित्रधर्मके पालनमें सहायक माना गया है । यदि राजा न हो तो राष्ट्रमें शांति और सुव्यवस्था नहीं रह सकती और शांति तथा सुव्यवस्थाके विना श्रुत और चारित्रधर्मका पालन नहीं हो सकता इसलिये ठाणाङ्गसूत्रमें श्रुत और चारित्रधर्मके पालनमें राजा भी सहायक माना गया है। जिस प्रकार राज्यमें शांति और सुव्यवस्थाके विधान करनेसे राजा, श्रुत और चारित्रधर्मके पालन में सहायक होता है उसी तरह प्रामधर्म, नगरधर्म और राष्ट्रधर्म भी ग्राम आदिकी सुव्यवस्था करके श्रुत और चारित्र धर्मके पालनमें सहायक होते हैं अतः ये लौकिकधर्म होने पर भी परम्परासे मोक्षके साधक हैं इसलिये इन्हें एकान्त पापमें कहना अज्ञानियों का कार्य है। पाषण्ड धर्म भी एकान्त पापमें नहीं है क्योंकि पाषण्ड नाम प्रतका है और प्रतधारियोंके धर्मका नाम पाषण्ड धर्म है इसलिए यह भी एकान्त पापमें नहीं हो सकता। पर पाषण्डियोंके धर्ममें भी कई उत्तम गुण होते हैं और उन उत्तम गुणोंके प्रभावसे पर पाषण्डी भी स्वर्गगामी होते हैं इसलिए पर पाषण्डियोंके धर्मको भी एकान्त पाप नहीं कह सकते इसी प्रकार कुल, गग और सङ्घधर्म भी एकान्त पापमें नही हैं । उक्त दश ही धर्म अपने अपने कार्यक्षेत्रमें अच्छे हैं कोई भी बुरा नहीं है इसलिये इन दशविध धर्मों में से कई धर्मोको एकांत पापमें कायम करना अज्ञानका कार्य समझना चाहिये। इन दश विध धर्मों की व्यवस्था करनेवाले स्थविर भी दशप्रकारके कहे गये हैं वे सभी अपने अपने कार्यक्षेत्रमें अच्छे हैं कोई भी एकांत पापी नहीं है अत: कई स्थविरों को एकान्त पापी कहना भी अज्ञान है। इन स्थविरोंका स्वरूप ठाणाङ्ग सूत्रका मूलपाठ लिख कर बताया जाता है । वह पाठ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः । १२३ - “दशथेरा पन्नत्ता तंजहा-ग्रामोरा, नगरसेरा, रहोरा, पसत्थारथेरा, कुलशेरा, गणरा, संघोरा, जाइशेरा, सुयोरा, परियायशेरा। (ठाणाङ्ग ठाणा १०) टीकाः "स्थायपन्ति दुर्व्यवस्थितं जनं सन्मार्गे स्थायपन्तीति स्थविराः तत्र ये प्रामनगर राष्ट्रषु व्यवस्थाकरिगो बुद्धिमन्त आदेयाः प्रभविष्णवस्ते तत्स्थविराः । प्रशासति शिक्षयन्ति येते प्रशास्तारः धर्मोपदेशकास्तेच ते स्थिरी करणास्थविराश्च प्रशास्तृस्थविराः । ये कुलस्य, गगस्य, सङ्घस्यच लौकिकस्य लोकोत्तरस्यच व्यवस्थाकारिण स्तद्भक्त श्च निग्राहका स्तेतथोच्यन्ते । जातिस्थविराः षष्ठिवर्ष जन्म पर्यायाः । श्रुतस्थविराः समवायाधङ्गधारिणः पर्यायस्थविराः विंशति वर्ष प्रत्रज्या वन्तइति" अर्थः कुमार्गमें जाने वाले जनको जो सुमार्गमें स्थापन करते हैं वे स्थविर कहलाते हैं। जो ग्राम, नगर और राष्ट्रकी व्यवस्था करने वाले बुद्धिमान ग्राह्यवचन और प्रभावशाली हैं वे क्रमश: ग्रामस्थविर, नगरस्थविर और राष्ट्रस्थविर कहलाते हैं । जो धर्मका उपदेश देकर जनताको धर्ममें स्थिर करते हैं बे 'प्रशस्तृ स्थविर' कहलाते हैं। जो लौकिक और लोकोत्तर दोनों प्रकारके कुल, गण और सङ्घकी व्यवस्था करते हैं और उस व्यवस्थाके भङ्ग करने वाले मनुष्यको युक्त उपायोंसे रोकते हैं वे क्रमशः कुलस्थविर, गणस्थविर और सङ्घस्थविर कहे जाते हैं वे लौकिक और लोकोत्तर दो प्रकारके होते हैं। जिसकी अवस्था साठ वर्षकी हो गई है वे जातिस्थविर कहलाते हैं, जो समवायादि मङ्गोंको धारण करते हैं वे श्रुतस्थविर हैं जिनका प्रव्रज्या काल बीस वर्षका हो गया है वे पर्याय स्थविर कहे जाते हैं। यहां मूलपाठ और टीकामें ग्राम धर्म आदि दश प्रकारके धर्मों की व्यवस्था करने वाले दश स्थविर कहे गये हैं ये दश ही स्थविर जनताको बुरे कर्मसे हटा कर सन्मार्गमें प्रवृत्त करते हैं इसलिए अपने अपने कार्यक्षेत्र में ये सभी अच्छे हैं कोई भी एकांतपापी नहीं हैं। जिस ग्राम, नगर या राष्ट्रमें उनके स्थविर नहीं होते उनकी सुव्यवस्था नहीं हो सकती और ग्राम नगर तथा राष्ट्रकी सुव्यवस्था हुए बिना वहांकी जनता सन्मार्गसे नहीं चल सकती परन्तु ये ग्रामस्थविर आदि प्रामधर्म, नगरधर्म और राष्ट्रधर्म आदिका निमर्माण करके वहांकी जनताको कुमार्गसे रोक कर सन्मार्गसे चलाते हैं और प्राम नगर तथा राष्ट्रमें चोरी जारी झूठ हिंसा आदि पापोंका प्रचार बन्द करते हैं अत: इन स्थविरोंको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ सद्धमण्डनम् । जो एकान्त पापका कार्य करने वाला कहता है वह अज्ञानी है जिनसे चोरी जारी और हिंसा आदि सावध कर्मों का प्रचार बन्द होता है वे कदापि एकान्तपापी नहीं हो सकते । यदि कोई कहे कि ये स्थविर मोक्षमार्गके सहायक नहीं हैं किन्तु लोकोत्तर स्थविरों को छोड़ कर बाकी सब स्थविर सांसारिक कार्य्यकी व्यवस्था करते हैं और सांसारिक सभी का बुरे हैं इसलिए उनके स्थविर भी एकान्त पाप करने वाले हैं तो वह मिथ्यावादी है लौकिक स्थविर, जनताकी बुरी प्रवृत्तिको रोक कर उन्हें सन्मार्गमें स्थापन करते हैं तथा ग्राम नगर यादिमें चोरी जारी हिंसा आदि एकान्त पापोंके प्रचारको बन्द करते हैं एवं ग्राम नगर और राष्ट्रमें शान्ति स्थापित करके श्रुत और चारित्र धर्मके पालनमें भी सहायता देते हैं । जिस ग्राम नगर या राष्ट्र में शांति तथा सुव्यवस्था न हो वहां श्रुत और चारित्र धर्मका पालन नहीं हो सकता इसलिए ये स्थविर मोक्षधर्मके भी उपकारक हैं अतः लौकिक होनेसे इन्हें एकान्त पापमें कहना शास्त्र नहीं जाननेवालों का कार्य है । पूर्वोक्त दश स्थविर और दश धर्म सभी अपने अपने काय्र्यक्षेत्रमें अच्छे हैं कोई भी बुरा नहीं है इसी तरह दशविध दानोंमें भी अधर्म दानको छोड़ कर शेष अनुकम्पा आदि दान भी एकान्त पापमें नहीं हैं किन्तु अनुकम्पा दानका फल अनुकम्पा और संग्रह दान का फल दीन दुःखी आदिको सहायता देना एवं भय दान आदिका उनके नामानुसार फल हैं इसलिए धर्मदानको छोड़ कर बाकी के दान एकान्त पापमें नहीं हैं । अतः जो ग्रामधर्म आदि धर्म तथा ग्राम स्थविर आदि स्थवरों को अपने मनसे एकान्त पापमें ठहरा कर उनके दृष्टान्तसे अनुकम्पादान आदिको एकान्त पापमें कायम करता है उसे मज्ञानियोंका शिरोमणि समझना चाहिये । ( बोल १२ वां) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ७८ पर ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा नौ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: "अनेराने दोघां अनेरी प्रकृतिनो वन्ध को छै ते साधुथी अनेगे तो कुपात्र छै ते " दीघां ने प्रकृतिनो बन्ध ते अनेरी प्रकृति पापनी छै" इनके कहनेका आशय यह है कि ठाणाङ्ग सुत्रमें कहे हुए नौ प्रकारके पुण्य साधुको देनेसे ही होते हैं दूसरे को देने नहीं दूसरे को दान देनेसे एकान्त पाप होता है क्योंकि साधुसे इतर सभी कुपात्र हैं। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक ) ठाणाङ्ग सूत्रका मूलपाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है । वह पाठ यह है : - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १२५ "नवविहे पुण्णे पण्णत्ते तंजहाअन्न पुण्णे, पाण पुण्णे, लेण पुण्णे, सयण पुण्णे, वत्यषुण्णे, मन पुण्णे, वय पुण्णे, काय पुण्णे, नमोक्कार पुण्णे" (ठाणाङ्ग ठाणा ९) अर्थ: पुण्य नौ प्रकारके होते हैं अन्न दान देना, जल दान देना, घर मकान देना, शय्या संथारा देना, वस्त्र दान देना, गुणवान् पुरुष पर हर्षित रहमा, पचनसे गुणवान्की प्रशंसा करना और गुणवान्को नमस्कार करना। यहां मूल पाठमें किसीका नाम निर्देश न करके साधारण रूपसे अन्न जल आदि के दान देनेसे पुण्य बन्ध होना कहा गया है इसलिए हीन दीन जीवोंको दया लाकर दान देनेसे एकान्त पाप कहना मूखीका कार्य है। कोई कहते हैं कि “साधुसे भिन्नको दान देनेसे यदि पुण्य होता है तो साधुसे भिन्नको नमस्कार करने और उसकी प्रशंसा करनेसे भी पुण्य होना चाहिए परन्तु साधुसे भिन्नको नमस्कार और प्रशंसा करनेसे पुण्य नहीं होता अतः साधुसे इतरको दान देनेसे भी पुण्य नहीं होता है" उनसे कहना चाहिए कि तुम्हारी यह कल्पना मिथ्या है साधुसे इतरको बन्दन नमस्कार करने और प्रशंसा करनेसे भी पुण्य होता है परन्तु जिसको वन्दन नमस्कार तथा प्रशंसा की जाय वह पुरुष गुणवान होना चाहिए जैसे कि टीकाकारने लिखा है:-"मनसा गुणिषु तोषाद्वाचा प्रशंसनात्कायेन पुर्युपासनान्नमस्काराच्च यत्पुण्यन्तन्मनः पुण्यादीनि” अर्थात् गुणवान पुरुषोंपर मनमें प्रसन्नता लाने और वचनसे उनकी प्रशंसा करने और शरीरसे उनकी सेवाशुश्रूषा करने तथा उनको नमस्कार करनेसे जो पुण्य होता है उसे क्रमशः मनःपुण्य वचन पुण्य कायपुण्य और नमस्कार पुण्य कहते हैं । यहां टीकाकारने गुणवान् पुरुषमें प्रसन्नतालाने उनकी प्रशंसा आदि करनेसे पुण्यवन्य होना कहा है केवल साधुको ही नमस्कार आदि करनेसे पुण्यवंध होना नहीं कहा इसलिए साधुसे इतर सभीको वन्दन नमस्कार आदि करनेसे पाप बतलाना मिथ्या है। जिस प्रकार साधुसे इतर गुणवान् पुरुषको वन्दन नमस्कार और सेवा शुश्रूषा आदि करनेसे पुण्य होता है उसी तरह साधुसे इतर हीन दीन जीवोंपर अनुकम्पा करके दान देनेते भी पुण्य होता है अतः हीन दीन जीवोंपर दया लाकर दान देनेसे जो एकान्त पाप बतलाते हैं वे मिथ्यावादी हैं। यदि कोई कहे कि "ऊपर लिखी हुई टीकामें जो "गुणिषु" यह पद आया है उस का साधु अर्थ है क्योंकि गुणवान् साधु ही होते हैं इसलिए उक्त टीकामें साधुको ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । वन्दन नमस्कार और सेवा शुश्रूषा करनेसे पुण्यवन्ध होना कहा है अन्यको वन्दन नमस्कार आदि करनेसे नहीं" तो उससे कहना चाहिये कि टीकाकारको यदि यही इष्ट होता तो “गुणिषु" के स्थानमें "साधुषु" ऐसा लिखते परन्तु यह नहीं लिख कर जो “गुणिषु" यह पद दिया है इससे सभी गुणियोंके ग्रहण करने का आशय है केवल साधुको ही नहीं तथा साधु ही गुणवान होते हैं यह भी मिथ्या है साधुसे इतर भी गुणवान कहे गये हैं ठाणाङ्ग सूत्रकी टीकामें सङ्घ शब्दका अर्थ करते हुए टीकाकारने लिखा है कि "सङ्घः गुण रत्न पात्र भूत सत्त्व समूहः अर्थात् गुणरूपी रत्नोंके पात्र भूत जीवोंके समूहका नाम संघ है उस सङ्घमें केवल साधु ही नहीं किन्तु श्रावक श्राविका भी मौजूद रहते हैं इसलिए साधुसे इतर भी गुणवान होते हैं उन सभी गुणवान् पुरुषोंका ग्रहण करने के लिए ऊपर लिखी हुई टीकामें 'गुणिषु' यह पद आया है अतः उक्त टीकामें “गुणिषु" इस पदका अर्थ केवल साधु बतलाना मिथ्या है । साधुसे इतरकी प्रशंसा करनेसे भी ठाणाङ्ग सूत्र में पुण्य बन्ध होना कहा है वह पाठ यह है: "पंचहिं ठाणेहिं जीवा सुलभ वोधियत्ताए कम्मं पकरें ति तंजहा-अरिहंताणं वन्न वदमाणे जाव विवक्क तव वंभचेराणं देवाणं बन्नं वदमाणे" (ठाणाङ्ग ठाणा ५) ____ अर्थात् पांच कारणोंसे जीब मुलभ वोधो कर्म बांधते हैं अरिहन्तोंकी प्रशंसा करनेसे, अरिहन्त भाषित धर्मकी प्रशंसा करनेसे आचाय्य और उपाध्यायकी प्रशंसा करनेसे, साधु साध्वी श्रावक और श्राविकाओंके समूह की प्रशंसा करनेसे, तथा उत्तम श्रोणिका ब्रह्मचर्य धारण करने वाले देवताओंकी प्रशंसा करनेसे। यहां मूल पाठमें उत्तम श्रेणिका ब्रह्मचर्य धारण करने वाले देवताकी प्रशंसा करने से सुलभ वोधी कमका बन्ध होना कहा है अतः साधुसे इतरकी प्रशंसा करनेमें एकान्त पाप कहना मिथ्या है। जिस प्रकार साधुसे इतर परिपक्क ब्रह्मचर्य वाले देवताकी प्रशंसा करनेसे पुण्यबन्ध होता है उसी तरह साधुसे इतर गुगी पुरुषकी बन्दना नमस्कार सेवा शुश्रूषा करनेसे और हीन दीन दुःखीको अनुकम्पा दान देनेसे पुण्य बन्ध होता है यदि साधुसे इतरको दान देनेसे पुण्यवन्ध न हो तो फिर साधुसे इतर परिपक्क ब्रह्मचर्य वाले देवताकी प्रशंसा करनेसे भी पुण्य बन्ध न होना चाहिये इसलिए साधुसे इतरको दान सम्मान वन्दन नमस्कार करनेमें एकान्त पाप कहना मिथ्या है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १२७ छोटे साधु बड़े साधुको छोटे श्रावक बड़े श्रावकको छोटा भाई बड़े भाईको पुत्र अपने माता पिता आदि गुरु जनोंको जो वन्दन नमस्कार करते हैं उन सभीसे पुण्य ही होता है एकान्त पाप नहीं होता कोई कोई कहते हैं कि हीन दीन दुःखीको अनुकम्पा दान देनेसे यदि पुण्य होता है तो उसको नमस्कार करनेसे भी पुण्य होना चाहिए, उनसे कहना चाहिए कि अनुकम्पा, छोटे बड़े सब पर की जाती है पर वन्दन नमस्कार अपने से श्रेष्ठको ही किया जाता है। सबको नहीं। होन दीन दुःखी अनुकम्पा करनेके पात्र हैं पर श्रेष्ठ न होनेके कारण नमस्कार करनेके पात्र नहीं हैं इसलिए उनको अनुकम्पा दान देनेसे पुण्य होता है पर नमस्कार करनेसे नहीं इस प्रकार बातके स्पष्ट होनेपर भी खोटे कुतर्कको सहायतासे अनुकम्पा दान देने और साधुसे इतर माता पिता श्रेष्ठ श्रावक आदिको नमस्कार करनेमें एकान्त पाप कहना अज्ञानियोंका काय्य है। कोई कोई कहते हैं कि "साधुसे इतरको दान देनेसे यदि पुण्य होता है तो कसाई को बकरा मारनेके लिये, चोरको चोरी कराने के लिए, वेश्याको व्यभिचार सेवन करने के लिए दान देनेसे भी पुण्य होना चाहिये" उनसे कहना चाहिए कि चोरी हिंसा और व्यभिचार सेवनार्थ चोर, हिंसक और वेश्या आदिको दान देना अधर्म दान है और दाता भी यह दान एकान्त पापके भावसे देता है अतः इसमें एकान्त पाप ही होता है पुण्य नहीं होता जो दान पुण्यार्थं दिया जाता है उसीसे पुण्य बन्ध होता है और उसी दानका ठाणाङ्ग सूत्रके नवमे ठाणेमें कथन हुआ है अतः जो दान पुण्यके अर्थ हीन दीन दुःखी जीवों पर दया लाकर दिया जाता है उसीसे पुण्य होता है चोर, हिंसक, वेश्या आदिको चोरी हिंसा और व्यभिचारार्थ दिया जानेवाला दानसे नहीं अतः चोरी हिंसा और व्यभिचारार्थ चोर हिंसक और वेश्याको दिये जानेवाले दानके समान ही अनुकम्पा दानको भी एकान्त पापमें ठहराना अज्ञानियोंका कार्य है। [बोल १३ वां समाप्त (प्रेरक __ आपके कथनसे ज्ञात हुआ कि ठाणाङ्ग सूत्रोक्त नवविध पुण्य केवल साधुको ही दान देनेसे नहीं साधुसे इतरको देनेसे भी होते हैं परन्तु ठाणाङ्ग सुत्रके उक्त पाठके नीचे जीतमलजीने टव्वा अर्थ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखा है कि "अने जे टव्वामें कह्यो पात्रने विषे जे अन्नादिकनो देवो ते हथकी तीर्थ करादिक पुण्य प्रकृति नो बन्ध तो आदि शब्दमें तो बेयाली सुई पुण्य प्रकृति आई" फिर आगे चल कर लिखा है "वलीकांई पुण्य नी प्रकृति बाकी रही नहीं अनेराने दीधां अनेरी प्रकृतिनो बन्ध ते अनेरी प्रकृति पाप नीछै" (भ्र० पृ० ७९) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक ) भ्रमविध्वंसन कारने जो टव्वा अर्थ लिखा है वह अपूर्ण है भीषणजीके जन्मसे पहले के बने हुए टब्बा अर्थ में उक्त मूल पाठका अर्थ इस प्रकार किया है “पात्रने विषे अन्नादिक दीजे तेथ की तीर्थ कर नामादिक पुण्य प्रकृतिनो बन्ध तेहथकी अनेराने देव ते अनेरी पुण्य प्रकृतिनो बंध " इस टव्वा अर्थ में साधुसे इतर जीवको दान देने से पुण्य प्रकृतिका बंध होना स्पष्ट लिखा है इसलिए भ्रमविध्वंसनकारने इस टव्वा अर्थको छोड़ कर दूसरा अपूर्ण टव्वा अर्थ दिया है। वह टव्वा अर्थ भी साधुसे भिन्नको दान देने से पाप होना नहीं बतलाता तथापि खींचातानी करके जीतमलजीने साधुसे इतरको दान देनेमें एकान्त पाप सिद्ध करने की चेष्टा की है इनके लिखे हुए दवा अर्थ में लिखा है "अनेरा ने देवु ते अनेरी प्रकृतिनो बंध " इसमें "अनेरी प्रकृतिनो बंध " यह लिखा है "पाप प्रकृतिनो वन्ध 'यह नहीं लिखा है और अनेरी प्रकृति, तीर्थ कर नामादिक पुण्य प्रकृति से भिन्न पुण्य भी हो सकता है इसलिए अनेरी प्रकृतिका तात्पर्य पापकी प्रकृति बतलाना दुराग्रहका परिणाम है । अनेरी प्रकृतिको पापकी प्रकृति सिद्ध करने के लिए भ्रमविध्वंसनकार जो यह लिखते हैं कि “जिम ऋषभादिक कहिये चौबीसुई तीर्थंकर आया, प्राणातिपातादिक कहिवे अठारह पाप आया, मिथ्यात्वादिक आस्रव कहिवे पांच आस्रव आया तिम तीर्थ करादिक पुण्य प्रकृति कहिवे सर्व पुण्यनी प्रकृति आई वली का पुण्यनी प्रकृति बाकी रही नहीं " यह इनका कथन भी अयुक्त है । ऋषभदेवजी सब तीर्थ करोसे प्रथम हैं, गोतम स्वामी महावीर स्वामीके सभी साधुओंमें आदि हैं, अठारह पापोंमें सबसे प्रथम प्राणातिपात है, आस्रत्रोंमें मिथ्यात्व ही पहला आस्त्रत्र है इसलिए ऋषभादि तीर्थ कर कहने से चौबीस ही वीर्थ करका, गोतमादि साधु कहने से सभी साधुओंका, प्राणाति पातादि पाप कहने से सभी पापोंका और मिथ्यात्वादि आस्रव कहने से सभी सत्रों का ग्रहण होता होता है परन्तु तीर्थंकरादि पुण्य प्रकृति कहने से सभी पुण्य प्रकृतिओंका ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि तीर्थंकर नामकी पुण्य प्रकृति वेयालीस पुण्य प्रकृतियोंके अन्तमें है आदिमें नहीं है इसलिये जैसे सब तीर्थकरोंके अन्त में होने के कारण महावीरादि तर्थंकर कहने से सभी तीर्थंकरोंका ग्रहग नहीं हो सकता उसी तहर सभी पुण्य प्रकृतियोंके अन्तमें होने के पुण्य प्रकृति कहने से वेयालीस ही पुण्य प्रकृतियों का ग्रहण नहीं हो टीकानुसार तीर्थ कर नामकी पुण्य प्रकृति सबसे अन्तमे है आदिमें यहद्दैः कारण तीर्थ करादि सकता । शास्त्रकी नहीं है वह टीका - ܕܕ सद्धर्ममण्डनम् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः । १२९ " सायं १ उच्चागोय २ नर ३ तिरि ४ देवाङ ५ नाम एयाउ ६ मनुयदुर्ग ७ देव दुगं ९ पञ्चेन्दिय जाइ १० तणुपणगं १५ अङ्गोवंग तिथंपिय १८ संघयणं वज्जरिसहनारायं १० पढमं चिप संदानं वन्नाइ चक्क सुपसत्थं । अगुरुलघु २५ पराधाय २६ उस्सासं २७ आयवंच २८ उज्जोय २९ सुपसत्था विहयगह ३० तसाइ सदगंच ४० णिम्माणं तित्थयरेणं सहिया वयाला पुण्ण पगइओ " (ठाणाङ्ग टीका) इस गाथामें वेयालीस पुण्य प्रकृतियों का क्रमशः वर्णन करते हुए सबसे पहले सातावेदनीय पुण्य प्रकृतिका नाम आया है और सभीके अन्तमें तीर्थ कर नाम पुण्य प्रकृति कही गई है अतः सातावेदनीयादि पुण्य प्रकृति कहने से वैयालीस ही पुण्य प्रकृतिका ग्रहण सकता है किन्तु तीर्थं करादि पुण्य प्रकृति कहने से नहीं। ऊपर लिखी हुई गाथामें पुण्य प्रकृतियोंका जो क्रम बतलाया है वही क्रम भीषणजीने भी स्वीकार किया है: "नव सद्भाव पदार्थ निर्णय" नामक पुस्तक में पुण्य की ढालमें भीषणजीने वेयालीस पुण्य प्रकृतियोंका इसे वर्णन किया है। सर्वप्रथम सीतावेदनीयको, और सबसे अन्तमें तीर्थकर नाम की पुण्य प्रकृतिको भीषणजीने माना है अतः उपरोक्त टीकामें जो वेयालीस पुण्य प्रक· वियोंका क्रम बतलाया है वह जीतमलजीको भी मान्य है । जब कि तीर्थंकर नामकी पुण्य प्रकृति सबसे अन्तमें मानी जाती है तब तोर्थंकरादि पुण्य प्रकृति कहनेसे सभी पुण्य प्रकृतियोंका ग्रहण कैसे हो सकता है ? अतः तीर्थ करादि पुण्य प्रकृतिसे सभी पुण्य प्रकृतियोंका ग्रहण बताना मिथ्या है। यदि कोई पूछे कि तीर्थंकर नामकी पुण्य प्रकृति जब कि वेयालीसही पुण्य प्रकृति के अन्तमें है तब फिर तीर्थंकरादि पुण्य प्रकृति नेका यहां क्या तात्पर्य है ? तो उससे कहना चाहिये कि तीर्थ करादि शब्दके आदि शब्दका यहां साहश्य अर्थ है प्राथम्य अर्थ नहीं इसलिये तीर्थंकर नामकी पुण्य प्रकृतिके विशिष्ट पुण्य प्रकृतियोंका ग्रहण करनेके लिये यहां आदि शब्द टीका और टव्वामें आया है। आदि शब्दका साहश्य अर्थ भी पूर्वाचाय्यों ने कहा है जैसे कि: "सामीप्येच व्यवस्थायां प्रकारेऽवयवे तथा मेधावी ह्यादि शब्दंतु लक्षयेत् । अर्थात् आदि शब्दके चार अर्थ पण्डितोंको जानने चाहिये, [१] सामी [२] व्यवस्था [३] प्रकार ( सादृश्य ) [४] और अवयव । 0.0 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० सद्धर्ममण्ड नम् । . इस पद्यके अनुसार भ्रमविध्वंसनकारके लिखे हुए टव्वा अथका तात्पर्य यही है कि पात्रको दान देनेसे तीर्थंकर नामके सदृश उच्च पुण्य प्रकृतिका बंध होता है और दूसरे को देनेसे दूसरी पुण्य प्रकृति बंधती है, यह नहीं कि सभी पुण्य प्रकृति पात्रको ही दान देनेसे बंधे और दूसरेको दान देनेसे एकान्त पाप हो अतः उक्त टव्वा अर्थके आश्रयसे साधुसे भिन्नको दान देनेसे एकान्त पाप कहना अज्ञानका परिणाम है। . ऊपर लिखा हुआ ठाणाङ्ग सूत्रका 'नवविहे पुण्णे पण्णत्ते' इत्यादि पाठ, पुण्यका वर्णन करनेके लिये आया है पापका वर्णनके लिये नहीं इसलिये इस पाठमें पापका वर्णन वताना मिथ्या है । जब कि इस पाठमें पापका वर्णन नहीं है पुण्यका ही वर्णन है तब फिर इसका अर्थ करते हुए टम्वाकार साधुसे इतरको दान देनेसे पाप होना कैसे बतला सकते हैं ? यह बुद्धिमानोंको स्वयं सोच देना चाहिये। (बोल चौदहवां) (प्रेरक) भ्रभविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ७९ पर लिखते हैं कि "मने भगवन्त तो साधुने कल्पे तेहिज द्रव्य कया छै अनेराने दियां पुण्य हुवे तो गाय पुण्णे भैंस पुण्णे हप्यो पुण्णे खेती पुण्णे इत्यादिक बोल आणतां ते तो आण्या नहीं" इनके कहने का तात्पय्य यह है कि ठाणाङ्गके उक्त पाठमें साधुके लेने योग्य वस्तुका ही नाम लेकर पुण्य होना कहा है जो साधुके लेने योग्य चीज नहीं है उसके दान करनेसे पुण्य होना नहीं कहा है इसलिये इस पाठमें साधुको दान देनेसे ही पुण्यवन्ध बताया है साधुसे इतरको दान देनेसे नहीं इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भ्रमविध्वंसनकारकी यह कल्पना अयुक्त है। यदि साधुके कल्पनेयोग्य वस्तुमोका ही कथन ठाणाङ्गके इस पाठमें है तो फिर 'सुई पुण्णे कतरनी पुण्णे भस्म पुण्णे' इत्यादि पाठ भी यहां होना चाहिये, क्योंकि साधुको सुई कतरनी अचित्त मिट्टीके ढेले और भस्म भी कल्पनीय होते हैं अत: इनके दान करनेसे भी पुण्य ही होता है पाप नहीं होता फिर ये सब इस पाठमें क्यों नहीं कहे गये ? इससे ज्ञात होता है कि यह पाठ केवल साधुके लिए ही नहीं किन्तु सभी प्राणियोंके लिये आया है और पुण्यके निमित्त दूसरे प्राणीको दान देनेसे भी पुण्य ही होता है एकांतपाप नहीं होता अतः केवल साधुको ही देनेसे पुण्य बन्ध मान कर साधुसे इतरको दान देनेसे एकान्त पाप कहना अज्ञान है। इस पाठ्में जो नव बातोंसे पुण्य होना कहा है उसका तात्पर्या यह नहीं है कि इन नव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १३१ चीजोंसे भिन्न वस्तु यदि पुण्यार्थ दो जाय तो उससे पुण्य नहीं होता क्योंकि पडीहारी सुई कतरनी आदि देनेसे पुण्य होना इस पाठमें नहीं कहा है पर उनके दानसे भी पुण्य ही होता है तथापि इस पाठमें पुण्यके मुख्य २ कारण कहे गये हैं । गौण रूप पुण्यका कथन यहां नहीं है इसलिये अन्न दानादिसे भिन्न वस्तुओं का दान भी यदि धर्मानुकूल हो तो वह एकान्त पापमें नहीं है । जैसे इस पाठमें नहीं लिखी हुई सुई कतरनी अचित्त मिट्टीके ढेले औषधादि चीजोंके दानसे पाप नहीं होता उसी तरह साधुसे इतरको पुण्यार्थ यदि धर्मानुकूल वस्तु दी जाय तो उससे भी एकान्त पाप नहीं होता। अत: 'अनेराने दियां पुष्प हुवे तो गाय पुण्णे' इत्यादि भ्रमविध्वंसनकारका तर्क अयुक्त समझना चाहिये । (बोल १५) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार साधुसे इतर सभीको कुपात्र मानते हैं। माता पिता ज्येष्ट बंधु आदि गुरुजन भी इनके मतमें कुपात्र हैं उनको यदि धर्मानुकूल कोई वस्तु दो जाय तो भ्रमविध्वंसनकार कुपात्र दान ठहरा कर उसे एकान्त पाप कहते हैं। इनका सिद्धान्त है कि वेश्या हिंसक चोर आदिको व्यभिचार, हिंसा और चोरीके लिये दान देना जैसे एकान्त पाप है उसी तरह साधुसे इतरको दान देना एकान्त पाप है। भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ७९ पर जीतमलजीने लिखा है कि "साधुथी अनेरो तो कुपात्र छै तेहने दीधां अनेरी प्रकृतिनो बन्ध ते अनेरी प्रकृति पापनी छै” अर्थात साधुसे इतर सभी कुपात्र हैं उनको दान देना कुपात्र दान है । कुपात्र दानका फल जीतमल जीके सिद्धान्तानुसार बतलाते हुए संशोधक महाशयने भ्र० पृ० ८२ पर यह लिखा है : "कुपात्रदान, मांसादिसेवन व्यसन कुशीलादिक ये तीनों एक ही मार्गके पथिक हैं। जैसे चोर, जार, ठग ये समान व्यवसायी हैं उसी तरह जयाचार्य सिद्धान्तानुसार कुपात्र दान भी मांसादि सेवन व्यसन कुशीलादिकी श्रेणीमें ही गिनने योग्य हैं।" इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) साधुसे इतर सभीको कुपात्र कहना शास्त्र विरुद्ध है। कहीं भी साधुसे इतरको कुपात्र नहीं कहा है। श्रावक साधुसे इतर होता हुआ भी गुणरत्नका पात्र और तीथमें कहा गया है । भगवती सूत्र शतक २० उद्देशा ८ में यह पाठ आया है : Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ सद्धर्ममण्डनम् । __ "तित्थं पुण चाउवण्णा इण्णे समणसंघे तंजहा-समणा समणीओ सावया साविआओ" इस पाठमें साधु और साध्वीकी तरह श्रावक और श्राविका भी तीर्थ कहे गये हैं। तीर्थ नाम सुपात्रका है कुपात्रका नहीं जैसे कि मेदिनी कोषमें लिखा है: - "तीर्थ शास्त्राध्वर क्षेत्रो पाय नारी रजः सुच अवतारर्षि जुष्टाम्बुपात्रोपाध्यायमंत्रिपु" इस कोषके पथमें 'तीर्थ' शब्दका पात्र अर्थ बतलाया है अत: श्रावक सुपात्र सिद्ध होता है कुपात्र नहीं इस लिये साधुसे इतर सभीको कुपात्र कायम करना एकान्त मिथ्या है। ठाणाङ्ग सूत्रके चौथा ठागामें 'संघ' शब्दका अर्थ करते हुए टीकाकारने लिखा है कि-"संघः गुणरत्नपात्र भूत सत्व समूहः” अर्थात गुणरूपी रनके पात्र भूत प्राणियोंके समूहका नाम 'सङ्घ' है । उस संघमें साधु और साध्वीके समान श्रावक और श्राविका भी मौजूद हैं इस लिये वे भी गुण रूपी रत्नके पात्र होनेसे सुपात्र ही ठहरते हैं कुपात्र नहीं अतः साधुसे इतर सभीको कुपात्र कायम करना अज्ञानियों का कार्य है। __जब कि साधुसे इतर सभी कुपात्र नहीं हैं तब साधुसे इतरको दान देनेसे एकान्त पाप कैसे हो सकता हैं ? यह बुद्धिमानों को स्वयं विचार लेना चाहिये । साधु विशिष्ट पात्र है अतः उसको दान देनेसे विशिष्ट पुण्य वन्ध होता है और दूसरे लोग साधुकी अपेक्षा निकृष्ट पात्र हैं इस लिये उनको दान देनेसे निकृष्ट पुन्यवन्ध होता है। परन्तु साधुसे इतरको धर्मानुकूल वस्तु दान देनेसे एकान्त पाप हो यह शास्त्र विरुद्ध है । जो व्यभिचार सेवनके लिये वेश्याको दान देता है और जो विनीत मनुष्य माता पिताकी सेवाके लिये दान देता है ये दोनों ही जीतमलजीके हिसाबसे कुपात्रको दान देते हैं इस लिये ये दोनों जीतमलजीके मतानुसार एकान्त पाप का कार्य करते हैं परन्तु शास्त्र ऐसा नहीं कहता यह जीतमल जीकी अपनी कपोल कल्पना है। उवाई सुत्रके मूलपाठमें माता पिताकी सेवा भक्ति करने वाले मनुष्यको स्वर्गगामी कहा गया है यदि माता पिता को दान देना उसकी सेवा भक्ति करना कुपात्र दान और व्यसन कुशीलादिकी तरह एकांत पाप होता तो माता पिताके शुश्रूषक पुरुषको स्वर्गगामी हौना कैसे कहा जाता ? पुण्य से स्वर्गकी प्राप्ति होती है पापसे नहीं अत: साधुसे इतर माता पिता ज्येष्ठ वन्धु आदि गुरुजन तथा श्रावक को कुपात्र कहना अज्ञानका परिणाम है। राजा प्रदेशीने बारह व्रत धारण करनेके पश्चात दान शाला खोल कर बहुतसे हीन दीन दुःखी प्राणियोंको अनुकम्पा दान दिया था और शास्त्रकारने उसके दानकी निन्दा नहीं की है यदि साधुसे इतरको दान देना मांसाहार और व्यसन कुशीलादिकी तरह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। . १३३ एकान्त पापका कार्य होता तो शास्त्रकार राजा प्रदेशीके दानकी अवश्य निन्दा करते और राजा प्रदेशी भी बारह व्रत धारण करके एक नवीन एकान्त पापका कार्य क्यों आरम्भ करता ? पहले उसने दानशाला नहीं बनाई थी अब वह ऐसा निन्दित कार्य क्यों करता ? इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधुसे इतरको दान देना एकान्त पापका कार्य नहीं है तथा साधुसे इतर सभी कुपात्र भी नहीं हैं । हीन दीन प्राणी भी अनुकम्पा दानके पात्र हैं अतः हीन दीन जीवों पर दया लाकर दान देना भी पुण्य कार्य है एकांत पाप नहीं है इस लिये साधुसे इतरको दान देनेसे एकान्त पापकी स्थापना करना अज्ञानियोंका कार्य है। ( बोल १६) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ८० के ऊपर ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ४ का मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं : “अथ इहां पिण कुपात्र दान कुक्षेत्र कथा कुपात्ररूप कुक्षेत्रमें पुण्य रूप बीज किम उगे" इनके कहनेका भाव यह है कि साधुसे इतर सभी कुपात्र हैं और कुपात्रोंको इस प.ठमें कुक्षेत्र कहा है अतः जैसे कुशेत्रमें गेहूं चने आदिके बीज नहीं उगते उसी , तरह साधुसे इतर मनुष्यको दिया हुआ दान भी पुण्य रूप अंकुरको नहीं उत्पन्न करता । इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) ____ठाणाङ्ग सूत्रका वह पाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है। वह पाठ यह है : "चत्तारि मेहा पण्णत्ता तंजहा खेत्तवासी नाम मेगे णो मखेतवासी एवामेवा चत्वारि पुरिस जाया पण्णत्ता संजहा खेत्तवासी नाम मेगे णो अखेत्तवासी" (ठाणाङ्ग ठाणा ४) अर्थात् मेघ चार प्रकार के होते हैं एक तो वह है जो क्षेत्रमें ही वरसता है अक्षेत्रमें नहीं। दूसरा अक्षेत्रमें बरसता है क्षेत्रमें नहीं बरसता । तीसरा-क्षेत्र और अक्षेत्र दोनोंमें बरसता है । चौथा-क्षेत्र अक्षेत्र किसीमें नहीं बरसता। इसी तरह मनुष्य भी चार प्रकार के होते हैं । एक तो वह है जो पात्रको दान देता है अपात्रको नहीं देता। दूसरा-अपात्र को दान देता है पात्रको नहीं देती। तीसरा-पात्र और अपात्र दोनों ही को दान देता है। चौथा-पात्र और अपात्र किसीको भी नहीं देता। यह उक्त मूलका अर्थ है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ सद्धममण्डनम् । इस पाठ में आये हुए क्षेत्र और अक्षेत्र शब्द का अर्थ टीकाकारने यह किया है“क्षक्षेत्रं धान्याद्युत्पत्ति स्थानम्” अर्थात् 'जिस पृथ्वीमें बोये हुए गेहूं चने व्यादिके बीज अंकुर उत्पन्न करें उसे क्षेत्र समझना चाहिये और इससे जो भिन्न है वह अक्षेत्र है । मेघ पक्ष क्षेत्र और अक्षेत्र से पृथ्वी विशेषका ग्रहण होता है और मनुष्य पक्ष में दान देने योग्य जीव क्षेत्र और दान न देने योग्य अक्षेत्र है । यहां मूलपाठ और टीकामें समान्य रूपसे क्षेत्र और अक्षेत्रका वर्णन है परन्तु यह नहीं कहा है कि एक मात्र साघु ही क्षेत्र है और साधुसे इतर सभी अक्षेत्र हैं। अतः इस पाठका माश्रय लेकर साधुसे इतर सभी जीवों को अक्षेत्र या क्षेत्र कायम करके उनको दान देनेसे एकान्त पाप कहना मिथ्या है । शास्त्र में साधुको दान देनेसे निर्जरा लिखी है और हीन दीन जीवोंको दान देनेसे पुण्यवन्ध कहा है - इस लिये मुख्यमें मोक्षार्थ दानका क्षेत्र साधु है और अनुकम्पा दानके क्षेत्र हीन दीन दुखी प्राणी हैं तथा साधुसे इतर पुरुष मुख्यतामें मोक्षार्थ दानके और हीन दीन दुखियोंसे अतिरिक्त पुरुष अनुकम्पा दानके प्रायः अक्षेत्र हैं। जो पुरुष हीन दीन दुःखी जीवको अनुकम्पा दान देते हैं वे क्षेत्र वर्षी नहीं किन्तु क्षेत्र वर्षी हैं क्योंकि दीन दुःखी व अनुकम्पा दानके क्षेत्र हैं अतः हीन दीन दुःखी प्राणीको अनुकम्पा दान देने वाला पुरुष उक्त चतुर्भङ्गीके प्रथम भङ्गका स्वामी क्षेत्रवर्षी है। जो पुरुष हीन, दीन दुःखीको अनुकम्पा दान नहीं देता और पंच महाव्रतधारी साधुको मोक्षार्थ दान नहीं देता किन्तु जिसको दान देनेकी कुछ आवश्यकता नहीं है अथवा जिसको दान देनेसे दानके द्वारा हिंसादिक महारम्भका कार्य किया जाता है उसको दान देता है वह दूसरे भङ्गका स्वामी अक्षेत्र वर्षी पुरुष है। जिस पुरुष को यह ज्ञान नहीं है कि अमुक पुरुष दान देने योग्य है और अमुक नहीं है किन्तु पात्र अपात्र सभीको दान देता है वह विवेक विकल पुरुष तृतीय भङ्गका स्वामी उभयवर्षी है । अथवा जो विशाल उदारता के कारण या प्रवचनकी प्रभावनाके लिये सबको दान देता है वह तीसरे भङ्गका स्वामी भवर्षी है। जो क्षेत्र भक्षेत्र किसीको भी कुछ नहीं देता वह परम कृपण अनुभय वर्षी है। इस चतुर्भङ्गीके तीसरा भङ्गका स्वामी, जो विवेक विकल है उसका दान यद्यपि पूर्ण फलवान नहीं हैं तथापि सर्वथा निष्फल भी नहीं है क्योंकि अपात्र के साथ साथ वह पात्रको भी देता है। जो विशाल उदारताके कारण सबको दान देता है वह भी उदारता रूप गुणके प्रभाव से प्रशंसनीय है और जो प्रवचन प्रभावना के लिये सबको दान देता है वह पुरुष प्रवचन प्रभावना रूप महान् पुण्यका उपार्जन करता है । प्रवचन प्रभावनासे तीर्थङ्कर नाम गोत्र वैधमा ज्ञाता सूत्रके मूल पाठमें कहा है । वह पाठ यह है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १३५ " इमेहिं यणं वीसाएहिं कारणेहिं अविसेसिय बहुली कएहिं तित्थयर नाम कम्मं निवत्तिसु तंजहा-अरिहन्त सिद्ध पवयण गुरुथेर वहुस्सुए तवस्सिसु वच्छलयाय तेसिं अभोक्ख णाणोवयोगे य दंसण विणए सावस्सए य सोलव्वए निरइयारं खणलवतवच्चियाए समाही य अपुषणाणगहणे सुयभत्ती पवयणपन्भावणया एएहि कारणेहिं तित्थयर लहइ जीवो" (ज्ञाता सूत्र) : . इस पाठमें प्रवचन प्रभावनासे तीर्थङ्कर नाम गोत्रका बन्ध होना कहा है इसलिए जो पुरुष प्रवचन प्रभावनाके लिये सभीको दान देता है वह उत्तम पुण्यका उपार्जन करता है एकान्त पाप नहीं करता अतः साधुते इतरको दान देनेमें एकान्त पाप कहना मूोका काय्य है। ___ प्रवचन प्रभावनाके लिये साधुसे इतरको भी दान देने वाला पुरुष शास्त्रानुसार पुण्यका कार्य करता है परन्तु जीतमलजोके हिसाबसे यह एकान्त पापी ठहरता है अतः शास्त्र विरुद्ध जीतमलजोको प्ररूपणा सर्वथा त्यागने योग्य और मिथ्या है। यदि कोइ कहे कि प्रवचनको प्रभावनाके लिये सभीको दान देनेसे जब कि पुण्य ही होता है तो सभी जीव दान देने योग्य क्षेत्र ही कायम होते हैं कोई भी अक्षेत्र या कुक्षेत्र नहीं ठहरता फिर ठाणाङ्गके उक्त मूल पाठमें क्षेत्र और अक्षेत्रको लेकर उक्त चतुभङ्गी कैसे लिखी गयी है ? तो उससे कहना चाहिए कि प्रवचन प्रभावना रूप पुण्यके हिसाबसे यहां क्षेत्र और अक्षेत्रका विचार नहीं रक्खा गया है क्योंकि प्रवचन प्रभावना. के निमित्त दिये जाने वाले दानके सभी क्षेत्र हो हैं कोई भी अक्षेत्र नहीं है । वेश्या चोर जार आदिको भी उनका कुकर्म छुड़ा कर सुमार्गमें स्थापित करनेके लिए दान देना भी प्रवचनकी प्रभावना है अतः जो जिस दानके लायक नहीं है वह उस दानका यहां अक्षेत्र समझा जाता है। जैसे मोक्षार्थ दानका साधुसे भिन्न जीव अक्षेत्र हैं और अनुकम्पा दानका हीन दीन दुःखी जीवसे भिन्न अक्षेत्र हैं इसी तरह यहां क्षेत्र और अक्षेत्रका विभाग समझना चहिये यह नहीं कि साधुसे भिन्न सभी जीव अक्षेत्र या कुक्षेत्र हों अतः साधुसे भिन्न सभी जीवको अक्षेत्र कायम करके उनको दान देनेसे एकान्त पाप बताना मूखों का कार्य है। (बोल १७ वां समाप्त).. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम्। (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ८० के ऊपर लिखते हैं कि “अथ अठे पिण गोशालाने पीठ फलक शय्या संथारा शकडाल पुत्र दिया तिहां धर्म तप नहीं इमि करो तो गोशाला तो तीर्थङ्कर वाजतोथो निणने दिया ही धर्म तप नहीं तो असंयतिने दियां धर्म तप किम कहिए पुण्य पिण न श्रद्धवो पुण्य तो धर्म लारे बैधे छै शुभ योग छै ते निर्जरा बिना पुण्य निपजे नहीं ते मांटे असंयतिने दियां धर्म पुण्य नहीं" (भ्र० पृ० ८१) इकका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भ्रमविध्वंसनकारके मतमें पञ्च महाब्रवधारी साधुके सिबाय संसारके सभी जीव कुपात्र हैं, उनको दान देना या किसी प्रकारसे उनकी सहायता करना इनके मतमें मांस भोजन व्यसन कुशीलादिकी तरह एकान्त पापका कार्य है। भ्रमविध्वंसनका मूल लेख और उसकी टीप्पणी लिख कर यह कहा जा चुका है। इनका यह सिद्धान्त यदि शास्त्रानुकूल होता और शकडाल पुत्र श्रावक भी इसे मानता तो वह गोशालक जैसे असंयति और अन्य तीथियोंके शिरोमणिको शय्या संथारा देकर मांस भोजन और व्यसन कुशीलादिकी तरह एकान्त पापका कार्य क्यों करता ? क्योंकि इसके बिना शकडाल पुत्रका कोई आवश्यक कार्य नहीं रुका था। शकडाल पुत्र भी आनन्द श्रावक की तरह अभिग्रहधारो बारह व्रतधारी श्रावक था यदि अन्य तीर्थीको दान देनेसे श्रावकका अभिग्रह नष्ट हो जाता है और उसको मांस भोजनादिकी तरह एकान्त पाप होता है तो फिर शकडाल पुत्रका अभिग्रह गोशालकको दान देनेसे अवश्य ही नष्ट हो जाना चाहिये था और उसे एकांतपाप होना चाहिये था परन्तु शास्त्र में, गोशालकको दान देनेसे शकडाल पुत्रको एकान्त पाप होना या उसका अभिग्रह टूट जाना नहीं लिखा है अत: अन्य तीर्थीको दान देनेसे एकान्त पाप और अभिप्राह भङ्गकी स्थापना करना मिथ्या है। अन्य तीर्थीको गुरुबुद्धिसे मोक्षार्थ दान न देनेका ही श्रावक को अभिग्रह होता है अनुकम्पा लाकर हीन दीन दुःखीको दान देनेका नहीं होता तथा प्रवचन प्रभावनाके अर्थ भी दान न देनेका अभिग्रह नहीं होता है । अतएव शकडाल पुत्र ने गोशालकको शय्या संथारा दिया था और इस कार्यसे उसको एकान्त पाप होना शास्त्रकारने भी नहीं कहा है किन्तु इस दानसे धर्म और तप न होनेका मूलपाठमें वर्णन है एकान्त पाप होनेका या, पुण्य न होनेका कथन नहीं है। वह मूलपाठ यह है: तएणं से सहाल पुत्ते समणो वासए गोसाल मंखलि पुत्तं एवं षयासी जम्हाणं देवणुप्पिया ? तुम्हेमम' धम्मा यरियस्स जाव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १३७ जाव महावीरस्त सन्तेहिं तच्चेहिं तहिएहिं सब्जेहिं सव्वभूएहिं भावेहिं गुण कीत्तणं करेराहे तम्हाणं अहं तुम्भे पडिहारिएणं पीढ जाव संथारएणं उवनिमंत्तेमि णो चेवणं धम्मोत्तिवा तवोतिवा" (उपासक दशांग अध्ययन ७) अर्थ शकडाल पुत्र श्रावकने गोशालक महालि पुत्रसे यह कहा कि हे देवानुप्रिय ! तुमने हमारे धर्माचार्य यावत् महावीर स्वामीके विद्यमान और सत्यगुणोंका कीर्तन किया है इसलिए मैं तुझको पीठ फलक शय्या संथारा आदि देनेके लिये निमन्त्रित करहता हूं परन्तु इसे धर्म या तप समझ कर नहीं। इस पाठमें शकडाल पुत्र श्रावक गोशालक मंखलिपुत्रको शय्या संथारा देनेसे धर्म और तप होनेका ही निषेध करता है पुण्य होनेका निषेध नहीं करता अथवा इस दानसे एकान्त पाप होना नहीं बतलाता इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि पञ्चमहाव्रत धारी साधुसे इतरको दान देना एकान्त पाप नहीं है किन्तु उससे पुण्य भी होता है। यदि साधुसे इतरको दान देनेसे एकान्त पाप होता तो उक्त मूल पाठमें गोशालकको दान देनेसे शकडाल पुत्र एकान्त पाप बतलाता सिर्फ धर्म और तपका निषेध ही नही करता अतः शकडाल पुत्र श्रावकका नाम लेकर साधुसे इतरको दान देनेमें एकान्त पाप बताना मिथ्या समझना चाहिये। इस शकडाल पुत्रके उदाहरणसे प्रवचन प्रभावनाके लिए साधुसे इतरको दान देना भी श्रावकोंका कर्तव्य सिद्ध होता है। शकडाल पुत्रने भगवान् महावीर स्वामीके गुणानुवाद करनेसे गोशालकको शय्या संथारा देकर प्रवचनकी प्रभावना की थी। यह प्रवचनकी प्रभावना, तीर्थक्कर गोत्रबन्धका कारण कही गयी है इसीलिये शकडाल पुत्रने गोशालकको दान देनेसे पुण्यका निषेध नहीं किया है। जो लोग कहते हैं कि "पुण्यबन्ध निर्जराके साथ ही होता है इसलिए गोशालकको दान देनेसे शकडाल पुत्रको पुण्य भी न हुआ" वे मिथ्यावादी हैं शास्त्रमें निर्जराके साथ ही पुण्यवन्ध होने का कहीं भी नियम नहीं है इसलिए प्रवचनकी प्रभावनाके लिये दान देनेसे पुण्यकी उत्पत्ति न मानना अज्ञानका परिणाम है। उक्त शकडाल पुत्रके उदाहरणसे साधुसे इतरको दान देनेसे मांस भोजनादिकी तरह एकान्त पाप होनेका सिद्धान्त सर्वथा मिथ्या कायम होता है क्योंकि साधुसे इतरको दान देना यदि मांसाहारादिके समान एकान्त पापका कार्य होता तो शकडाल पुत्र कदापि गोशालकको शय्या संथारा नहीं देता अतः शकडाल पुत्रका नाम १८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ सद्धममण्डनम् । - लेकर साधुसे इतरके दानमें मांसाहार व्यसन कुशीलादिकी तरह एकान्त पाप बताना अज्ञानका परिणाम है। [बोल १८ वां समाप्त (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ८२ के ऊपर विपाक सूत्रका मूल पाठ लिख कर उसकी साक्षीसे साधुसे इतरको दान देने में एकान्त पाप बतलाते हुए यह लिखते हैं कि “ अथ श्हां गोतम भगवन्तने पूछ्यो इण मृगा लोढे पूर्वे काई कुकर्म कीधा कुपात्र दान दीधा तेहना फल ए नरक समान दुःख भोगवे छै। तो जो वोनी कुपात्र दानने चौड़े भारी कुकर्म कह्यो छः कायारा शत्रते कुपोत्र तेहने पोष्यां धर्म पुण्य किम निपजे" - (भ्र० वि० ८२-८३) . इसका क्या समाधान ? . . . (प्ररूपक) विपाक सूत्रके मूल पाठकी साक्षोसे हीन दीन दुःखी जीवपर दया लाकर दान देनेमें एकान्त पाप बताना मिथ्या है। वहां गोतम स्वामीने महावीर स्वामीसे पूछा है कि “ हे भगवन् यह “ मृगालोढ" ( किंवा दच्चा ) क्या देकर ऐसा नरकके समान दुःख भोगता है " इसका तात्पर्य यह है कि यह मृगा लोढ, किस चोर जार हिंसक आदि महारम्भी प्राणीको चोरी जारी हिंसा आदिके लिए दान देकर ऐसा दुःख भोग कर रहा है हीन दीन जीवोंपर दया लाकर दान देनेसे दुःख भोग पूछनेका तात्पर्य यहां नहीं है क्योंकि जो दान मोक्षार्थ संयति पुरुषको दिया जाता है और जो अनुकम्पा लाकर हीन दीन जीवोंको दिया जाता है उनसे दुःख भोग नहीं होता क्योंकि ये दान पापके कारण नहीं हैं अतः विपाक सूत्रकी साक्षीसे हीन दीन दुःखी जीवोंपर दया लाकर दान देनेसे एकान्त पाप बताना मिथ्या है। बिपाक सूत्रका पूरा पाठ देकर इसका खुलासा किया जाता है वहपाठ यह है: ___" सेणं भन्ते ! पुरिसे पुब्यभवे के आसिं किं णाम एवा कि गोएवा कायरंसि गामंसिवा नयर सिवाकिंवादच्चा किंवा भोच्चा किंवा समायरित्ता केसिंवा पुरा पोराणाणं दुचिण्णाणं दुप्पडिकंताणं असुभाणं पावाणं कम्माणं पावगं फलवित्ति विसेसं पञ्चणुभव माणे जाव विहरह" (विपाक सूत्र अ०१) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः । १३९ अर्थात् हे भगवन् ! यह पुरुष, पूर्व जन्ममें कौन था इसका क्या नाम था और गोत्र क्या था किस ग्राम या नगरमें यह रहता था। क्या देकर, क्या खाकर, क्या आचरण करके और प्रायश्चित्तसे नहीं हटाए हुए किस निन्दित पुराने अशुभ कर्मके पाप स्वरूप फल विशेषको यह भोग रहा है ? इस पाठ में जैसे " किंवा भोचा " और "किंवा समायरित्ता" ये दो पाठ अभक्ष्य मांसादि भक्षण और हिंसादि आचरण अर्थमें आये हैं, दाल रोटी आदिका भोजन और न्याय वृत्तिसे कुटुम्ब पालनादिके अर्थ में नहीं उसी तरह “किंवा दच्चा " यह पाठ भी चोर जर हिंसक आदिको चोरी जारी हिंसा आदिके लिए दान देने अर्थमें ही आया है अनुकम्पा लाकर होन दीन जीवोंको दान देने अथमें नहीं इसलिए इस पाठके आश्रय से 'अनुकम्पादानका खण्डन करना अज्ञान है । यदि कोई “किंवा दच्चा इस पाठसे अनुकम्पादानका ग्रहण करके अनुकम्पा दानमें भी पाप बतावे तो फिर वह " किंवा दवा " इस पदसे साधु दानका ग्रहण करके उसे भी पाप क्यों नहीं बतलाता ? "" यदि कहो कि पञ्च महाव्रतधारी साधुको दान देनेसे एकान्त पाप नहीं होता इस लिए उसका इस पाठमें ग्रहण नहीं है तो हीन दीन जीवोंपर दया लाकर दान देने से भी एकान्त पाप नहीं होता इसलिए उसका भी इस पाठमें ग्रहण नहीं है किन्तु जैसे पञ्च महाव्रतधारीको मोक्षार्थ दान देना प्रशस्त है उसी तरह हीन दीन जीवोंपर दया लाकर दान देना भी कनुकम्पा रूप गुणका हेतु है अतः अनुकम्पा दानमें एकान्त पाप कहना मूर्खता है । "" coatarरने "किंवा दच्चा इस पाठका कुपात्र दान अर्थ किया है कुपात्र दानका अर्थ, चोर जार हिंसक आदिको चोरी जारी हिंसा आदिके लिये दान देना है अनुकम्पा लाकर हीन दीनको दान देना नहीं क्योंकि चोर जार हिंसक आदि जीव ही कुपात्र हैं। भ्रमविध्वंसनकारकी कपोल कल्पित परिभाषानुसार साधुसे इतर सभी कुपात्र नहीं हैं इसलिए उक्त टव्वाकार अर्थानुसार भी हीनदीन जीवों को अनुकम्पा दान देनेसे एकान्त पाप नहीं सिद्ध होता अतः उक्त टव्वा अर्थका आश्रय लेकर भी अनुकम्पा दानमें पाप बताना मिथ्या है। विपाक सूत्रका यह पाठ जो अभी लिखा गया है भ्रमविध्वंसनकी पुरानी प्रतिमें अपूर्ण छपा हुआ है उसमें “ किंवा भोच्चा किंवा समायरित्ता " यह पाठ ही नहीं है और ईश्वरचन्द चोपडाकी छपाई हुई नयी प्रतिमें भी यह पाठ व्युत्क्र से लिखा है । विपाक सूत्रकी शुद्ध प्रतियों में सर्वत्र "किंवा दच्चा किंवा भोचा किंवा समायरित्ता " ये पाठ साथ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० सद्धर्ममण्डनम् । ही मिलते हैं और होना भी ऐसा ही चाहिए परन्तु भ्रमविध्वंसनकी नई प्रतिमें "किंवा भोचा किंवा समायरित्ता” यह पाठ "किंवा दचा" के अनन्तर न होकर “पञ्चणुभव माणे" इस शब्दके अनन्तर आया है इस प्रकार क्रम विरुद्ध पाठ देनेका तात्पर्य क्या है यह भ्रमविध्वंसनकारके मतानुयायी साधु जाने परन्तु प्रत्युत्तर दीपिकामें जो पुराने भ्रमविध्वंसनमें लिखे हुए पाठके सम्बन्धमें बात कही हुई है वह अक्षरशः सत्य है । जहां तक प्रतीत होता है कि प्रत्युत्तर दीपिकाकी सच्ची बातको मिथ्या सिद्ध करनेके लिए ही नए भ्र० वि० में “किंवा भोच्चा किंवा समायरित्ता" यह पाठ यथास्थान न देकर व्युत्क्रमसे दिया गया है। पुराने भ्रमविध्वंसनमें छपे हुए पाठके देखनेसे पाठकों को अपने आप ज्ञात हो सकता है कि प्रत्युत्तर दीपिकाकी बात सत्य है या भ्र० वि० के संशोधक महाशय की। (बोल १९ वां) (प्रेरक) _ भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ८३ के ऊपर उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन १२ की चौबीसवीं गाथाको लिख कर बतलाते हैं कि “ इस गाथामें ब्राह्मणों को पापकारी क्षेत्र कहा है। जब ब्राह्मग भी पापकारी क्षेत्र हैं तो दूसरे लोगोंकी तो बात ही क्या है। साधुसे इतर सभी जोव कुपात्र हैं उनको दान देनेसे धर्म पुण्य कैसे हो सकता है ? जैसे कि उन्होंने लिखा है " अथ अठे ब्राह्मगांने पापकारी क्षेत्र कह्या तो बीजानो स्यू कहियो ” (भ्र० पृ० ८३) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) उत्तराध्ययन सूत्रकी वह गाथा लिख कर इसका समाधान किया जाता है वह गाथा यह है: "कोहो य माणोय वहो य जेसि मोसं अदत्तंच परिग्गरंच । ते माहणा जाइ विजा विहोणा ताई तु खेत्ताईसुपावगाई" (उत्तराध्ययन आ० १२ गाथा २४) टीकानुसार इस गाथाका अर्थ किया जाता है। जो ब्राह्मण, क्रोधी, मानो, मयावी और लोभी हैं, जो हिंसा झूठ चोरी और परिग्रहके सेवा हैं वे जाति और विद्यासे विहीन पापकारी क्षेत्र हैं। गुण और कर्मके अनुसार चारों वर्णोकी सुष्टि हुई है। कहा भी है: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः । १४२ . “एक वर्ण मिदं सर्व पुर्वमासी युधिष्ठिर । क्रिया कम विभागेन चातुर्वण्र्य व्यवस्थितम् । "ब्राह्मणो ब्रह्मचर्येण यथाशिल्पेन शिल्पिकः । अन्यथा नाम मात्र स्यादिन्द्र गोपक कीटवत् ॥” अर्थात् “ हे युधिष्ठिर ! पहले सभी लोग एक वर्गके थे पीछेसे कर्मानुसार चार वर्गों की सृष्टि हुई। जैसे शिल्प कर्म करनेवाला शिल्पी हुआ उसी तरह ब्रह्मचर्य धारण करनेवाला पुरुष ब्राह्मग हुआ। जो ब्रह्मचर्य धारण नहीं करता वह “ इन्द्र गोप" कीटकी तरह नाम मात्रका ब्राह्मम है " ऐसे नामधारी ब्राह्मगोंमें सत् शास्त्ररूपा विद्या नहीं होती। सभी शास्त्रों में अहिंसा और सत्य आदिका ही विधान पाया जाता है । कहा भी है: " अहिंसा सत्य मस्तेय त्यागो मैथुन वजनम् पञ्चतानि पवित्राणि सर्वेषां ब्रह्मचारिणाम्" _ अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, और मैथुन वजन, ये पांच सभी ब्रह्मचारियोंके लिए पवित्र हैं। इनका सेवन करना ही विद्या पढ़नेका फल है जो शास्त्र पढ़ कर भी इनका सेवन नहीं करके क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा, झूठ, चोरी, परिग्रह, और मैथुनादि कार्यमें रत है वह वास्तवमें विद्या विहीन है। कहा भी है “सद् ज्ञानमेव नभवति यस्मिन्नुदिते विभाति राग गणः । तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकर किरणाग्रतः स्थातुम् ॥ अर्थात् जिस ज्ञानके उदय होनेपर भी राग गण प्रकाश करते हैं वह ज्ञान ही नहीं है क्योंकि सूर्यकी किरणों के सामने ठहरनेके लिये अन्धकारकी शक्ति कहां है ? जिस वस्तुसे प्रयोजनकी सिद्धि नहीं होती निश्चय नयके अनुसार वह कोई वस्तु ही नहीं है अतः जो ब्राह्मग विद्या पढ़ कर भी चोरी जारी हिंसा आदि कुकर्म करते हैं वे न तो वास्तविक ब्राह्मग है और न उनकी विद्या ही वास्तविक विद्या है किन्तु जाति और विद्या दोनोंसे वे हीन हैं उन ब्राह्मगोंको पापकारी क्षेत्र समझना चाहिये । यह उक्त गाथा का टीकानुसार भावार्थ है। इस गाथामें क्रोधी, मानी, मायी, लोभी, व्यभिचारी, हिंसक, और चोर ब्राह्मणों को पापकारी क्षेत्र कहा है जो उक्त दोष वर्जित ब्राह्मण हैं उनको नहीं अतः इस गाथा का नाम लेकर ब्राह्मग मात्रको पापकारी क्षेत्र बतलाना मूल् का कार्य है । यदि ब्राह्मण मात्रको पापकारी क्षेत्र बतलाना शास्त्रकारको इष्ट होता तो इस गाथामें शास्त्रकार ब्राह्मण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ सद्धर्ममण्डनम् । win के विशेषण क्रोध मान आदि क्यों देते ? किन्तु उक्त विशेषण न लगा कर सीधा ही ब्राह्मग मात्रको पापकारी क्षेत्र कह देते परन्तु शास्त्रकारने क्रोधी मानी हिंसक आदि ब्राह्मणोंको ही पापकारी क्षेत्र कहा है और मनुजीने भी क्रोधी मानी हिंसक ब्राह्मगोंको पापी नरक गामी और कुपात्र कहा है अतः ब्राह्मग मात्रको कुपात्र कहना उत्सूत्र भाषण समझना चाहिये। वास्तवमें चाहे ब्राह्मग हो या और कोई हो जो चोरी जारी हिंसा आदि बुरा कर्म करता है वह कुपात्र तथा पापकारी क्षेत्र है उसको चोरी जारी आदि असत्कर्म करनेके लिये दान देना कुपात्र दान और एकान्त पाप है परन्तु जो उक्त दोषोंसे रहित है उसको सत्कर्म करनेके लिये दान देना और हीन दीन दुःखी जीवको अनुकम्पा दान देना एकान्त पाप नहीं है अतः उक्त गाथाका नाम लेकर अनुकम्पा दानका खण्डन करना अज्ञानियोंका कार्य समझना चाहिए। (बोल २० वां) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ८४ पर उपासक दशाङ्ग सूत्रका मूल पाठ लिख कर साधुसे इतरको दान देने वाले श्रावकको पन्द्रहवें कर्मादानका सेवन रूप पाप होना बतलाते हैं जैसे कि उन्होंने लिखा है “ तिवारे कोई कहे इहां असं यति पोष व्यापार कयो छै तो तुमे अनुकम्पारे अर्थे असंयतिने पोष्यां पाप किम कहो छो तेहने उत्तर-ते असंयतिने पोषी पोषीने आजीविका करे ते असंयति पोष व्यापार छ अने दाम लियां बिना असंयतिने पोषे ते व्यापार नथी कहिए पर पाप किम न कहिए जिम कोयला करी बेंचे तो अङ्गाल कम व्यापार अने दाम लियां बिना आगलाने कोयला करी आपे ते व्यापार नथी परं पाप किम न कहिए (भ्र० पृ० ८५) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) पन्द्रहवें कर्मादानका नाम मूल पाठमें “असई जग पोषगया” यह लिखा है इस नामके अनुसार असती यानी व्यभिचारिणी स्त्रियोंको पोष कर उनसे भाड़ेपर व्यभिचार कराने रूप व्यापार करना पन्द्रहवें कर्मादानका अर्थ है साधुसे भिन्न जीवोंको पोषण करना अर्थ नहीं है अतः भ्रमविध्वंसनकारने जो पन्द्रहवें कर्मादानका "असंयति पोषणता" यह नाम रच कर साधुसे भिन्न जीवोंके पोषण करनेसे कर्मादानका पाप होना बतलाया है वह एकान्त मिथ्या है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १४३ भ्रमविध्वंसनकारने उपासक दशांग सूत्रका जो मूल पाठ, भ्र० वि० में उधृत किया है उसमें भी पन्द्रहवें कर्मादानका नाम “ असई जण पोषणया" यही लिखा है और उस पाठके टव्वा अर्थमें भी साधुसे भिन्नको दान देनेसे उक्त कर्मादानका सेवन न कह कर वेश्या आदिके पोषण करने रूप व्यापारको ही कर्मादानका सेवन कहा है। देखिए इस पाठका टव्या अर्थ भ्रमविध्वंसनकारका दिया हुआ यह है: " वेश्या आदिकने पोषणा आदिक व्यापार कर्म ” इसमें साधुसे भिन्नको पोषग रूप व्यापार न कह कर वेश्या आदिके पोषण रूप व्यापारको कर्मादानका सेवन बतलाया है तथापि जगत्में भ्रम फैलानेके लिए जीतमलजीने अपने मनसे १५ वें कर्मादानका " असंयति पोषणता" यह नाम रक्खा है । उसपर भी पहले प्रश्न रूपमें दूसरेसे स्वीकार कराकर तब पीछे खुदने स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है किः "तिवारे कोई इम कहे इहां असंयति पोष व्यापार को छै तो तुम्हे अनुकम्पारे अर्थे असंयतिने पोष्यां पाप किम कहो छो” इत्यादि । बुद्धिमानोंको सोचना चाहिये कि पन्द्रहवें कर्मादानका जबकि असंयति पोषणता" यह नाम ही नहीं है तो इसके सम्बन्धमें भ्रमविध्वंसनकारसे कोई प्रश्न ही कैसे कर सकता है ? परन्तु अपने मनसे एक ऐसा प्रश्न वना कर जीतमलजीने जगतमें यह भ्रम फैलानेकी चेष्टा की है कि अनुकम्पणका समर्थन करनेवाले भी १५ वे कर्मादानका नाम “ असंयति पोषणता" मानते हैं। परन्तु जो लोग मूल पाठ न देख कर केवल ढालोंके आधारपर शास्त्रकी बात जानना चाहते हैं उन्हींपर यह कपट चल सकता है जो मूल पाठ देख कर पदार्थका निर्णय करना चाहते हैं वे इस धोखेमें नहीं आ सकते । पन्द्रहवें कर्मादानका असंयति पोषणता यह नाम ही नहीं है इस लिए हीन दीन दुःखी जीवोंपर दया लाकर दान देने वाले श्रावकोंपर १५ वे कर्मादानका आरोप करना एकान्त मिथ्या है। आगे चल कर जीतमलजी लिखते हैं कि " आदिक शब्दमें तो सर्व असंयतिने रोजगाररे अर्थे राखे ते असंयति व्यापार कहिए" यहां बुद्धिमानोंको विचारना चाहिए कि जब पन्द्रहवें कर्मादानका नाम ही " असंयति पोषगता" है तब आदि शब्दसे असंयतियोंके ग्रहणकी क्या आवश्यकता है क्योंकि "असंयति पोषणता" इस नामसे ही सभी असंयतियोंका ग्रहण हो सकता है अतः निश्चय होता है कि जीतमलजीको भी पन्द्रहवें कर्मादानका नाम " असंयति पोषणता" यह स्वीकृत नहीं है इसीलिए वह आदि शब्दसे सभी असंयतियोंका ग्रहण होना बतलाते हैं। वह आदि शब्द भी न तो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । मूल पाठमें है और न उसकी टीकामें ही है इसलिए आदि शब्दसे सभी असंयतियोंका ग्रहण बतलाना भी इनका मूर्ख जनताको धोखा देना है । साधुके सिवाय दूसरेको पोषग करसेने यदि पन्द्रहवें कर्मादानका पाप लगे तो कोई भी व्यापारी श्रावक, निरतिचार अपने बारह व्रतका पालन नहीं कर सकता क्योंकि व्यापारी श्रावकको अपने व्यापार की सिद्धिके लिए गाय, भैंस, ऊंट घोड़े नौकर आदि असंयति प्राणियोंके पोषगकी आवश्यकता होती है इनका पालन किये बिना व्यापार सम्बन्धी कार्य नहीं चल सकता कदाचित् कोई इनके बिना भी अपना काम चला लेवे तो भी उसे अपने माता पिता पुत्र पौत्र आदि परिवार वर्गका पालन करना ही पड़ता है और इनके पालन करनेसे भी तेरह पन्थियोंके मतमें अतिचार लग सकता है क्योंकि ये लोग भी असंयति हैं और व्यापारमें सहायता देते हैं इनका पोषण भी व्यापारार्थ कहा जा सकता है इसलिये अपने माता पिता पुत्र पौत्र आदिका पालन कर ने वाला श्रावक भी तेरह पन्थियोंके हिसाबसे कर्मादानके पापसे नहीं बच सकता है किन्तु व्यापारी श्रावक मात्र ही कर्मादानके पापसे युक्त हो जाते हैं परन्तु यह बिलकुल मिथ्या है व्यापारी श्रावक अपने बारह व्रतका निरतिचार भी पालन कर सकता है वह जो गाय भैंस घोड़े ऊंट नौकर चाकर आदिका व्यापारार्थ पालन करता है इससे उसके बारह व्रतमें कोई अतिचार नहीं आता है क्योंकि पन्द्रहवें कर्मादानका नाम "असंयति पोषगता" है ही नहीं। जो वेश्या आदिका पोषण करके उनसे भाडेपर व्यभिचार कराने रूप व्यापार करता है वह पुरुष पन्द्रहवें कर्मादानका सेवन करता है क्योंकि १५ वें कर्मादानका नाम "असतीजन पोषणता” है। अतः साधुसे भिन्न प्राणीके पोषण करनेसे कर्मादानका सेवन बतलाना मिथ्या है। _ अपने आश्रित प्राणीको आहार न देनेसे श्रावकके प्रथम व्रतमें अतिचार आता है इसलिए अपने पहले व्रतको निरतिचार पालनार्थ श्रावकको अपने आश्रित प्राणीके लिये अवश्य आहार देना पड़ता है परन्तु जीतमलजीके हिसाबसे इस कार्य से श्रावकके ७ वें व्रतमें अतिचार आता है क्योंकि साधुके सिवाय दूसरेको आहार देना वे कर्मादानका सेवन करना बतलाते हैं ऐसी दशामें बारह व्रतधारी श्रावक अपने आश्रित प्राणीको भात पानी देकर अपने व्रतका अतिचार टाले या न देकर सातवें व्रतका अतिचार टाले ? यदि वह देवे तो कर्मादानका सेवन हो जाय और न देवे तो उसके पहले व्रतमें अतिचार आवे इसलिए वह देकर और न देकर किसी भी हालतमें अपने व्रतका निरतिचार पालन नहीं कर सकता। अतः साधुके सिवाय दूसरेके पालन करनेसे १५ वें कर्मादानका पाप बतलाना जीतमलजीका अज्ञान है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः । " अण्णवरस्सवि पमत्त संजयस्स " इति अत्रापि शब्दो भिन्न क्रमः प्रमत्त संयतस्याप्य न्यतरस्य एक तरस्य कस्यचित् प्रमादे सति काय दुष्प्रयोग भावतः पृथि व्यादेरुपमद्द संभवात् । अपि शब्दोऽन्येषा मधस्तन गुण स्थान वर्तिनां नियम प्रदर्शनार्थः । प्रमत्त संयतस्या प्यार भिकी क्रिया भवति किं पुनः शेषाणां देश विरति प्रभृतीनामिति एवं यथा योग मपि शब्द भावना कर्त्तव्या । पारिप्रहिकी संयतासंयतस्यापि देश विरतस्या पीत्यर्थः तस्यापि परिग्रह धारणात् माया प्रत्यया अप्रमत्त संयतस्यापि कथमितिचे दुच्यतेप्रवचनोड्डाह प्रच्छादनार्थं वल्लीकरणसमुद्द ेशा दिषु । अप्रत्याख्यान क्रिया अन्यतरस्याप्य प्रत्याख्यानिनः अन्यतरदपि न किञ्चिदित्यर्थः योन प्रत्याख्याति तस्येत्यर्थ : मिथ्यादर्शन क्रिया, अन्यतरस्यापि सूत्रोक्तमेकमक्षरमप्यरोचयमानस्येत्यर्थः मिथ्या व अर्थः पृथ्वी आदि काय प्राणियोंको सन्ताप देने का नाम " आरम्भ " है । कहा भी हैप्राणियों को सन्ताप देनेके लिए सङ्कल्प करनेका नाम 'सरम्भ' है और उनको परिताप देता " समारम्भ" कहलता है और प्राणियोंको उपद्रव पहुंचाना "आरम्भ" है उस आरंभ के लिये जो क्रिया की जाती है उसे आरम्भिकी क्रिया कहते हैं । ( पारिप्रहिकी ) धर्मोपकरणसे भिन्न वस्तुको अङ्गीकार करना, और रखना परिग्रह कहलता है । उसीको पारिग्रहिकी क्रिया कहते हैं हुई क्रियाको “पी क्रिया " कहते हैं । १५३ धर्मके उपकरणोंमें मूर्च्छा अथवा परिग्रहसे उत्पन्न ( माया प्रत्याया ) माया नाम कुटिलताका है यहां माया शब्दको उपलक्षण मान कर उससे क्रोधादि भी लिए जाते हैं इसलिये जो क्रिया माया आदिसे की जाती है उसे माया प्रत्यया क्रिया कहते हैं 1. ( अप्रत्याख्यान क्रिया ) विरतिका परिणाम थोड़ा भी न होना "अप्रत्याख्यान" कहलाता है उसीको 'अप्रत्याख्यान क्रिया' कहते हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ( मिथ्यादर्शन प्रत्यया ) मिथ्यादर्शनके कारण जो क्रिया की जाती है उसे "मिथ्यादर्शन प्रत्यया" कहते हैं । इनमें से कौनसी क्रिया किसको लगती है यह बतलाया जाता है:(प्रश्न) हे भगवन् ! आरम्भिकी क्रिया किसको लगती है ? २० www.umaragyanbhandar.com Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । (उत्तर) हे गोतम ! किसी किसी प्रमत्त संयत पुरुषको भी आरम्भिकी क्रिया लगती है प्रमत्त संयत पुरुष जब कभी प्रमादवश अपने शरीर आदिका दुष्प्रयोग करता है तब उससे पृथ्वी आदि कायोंके जीवकी विराधना होनेसे उसको आरम्भिकी क्रिया लगती है यहां जो अपि शब्द आया है उससे यह बतलाय गया है कि आरम्भिकी क्रिया जब किसी किसी प्रमत्त संयत को भी लगती है तब उससे नीचेके गुण स्थानोंमें तो कहना ही क्या है ? उनमें तो अवश्य हो आरम्भिकी क्रिया लगती है । इसी तरह इस पाठ में दूसरे अपि शब्दों का भी यथा योग्य समन्वय करना चाहिये । (प्रश्न) हे भगवन् ! पारिग्रहिकी क्रिया किसको लगती है ? १५४ (उत्तर) हे गोतम ! देश विरत श्रावकको भी पारिग्रहिकी क्रिया लगती है। यहां भी पूर्ववत् अपि शब्द यह बतलाया गया है कि पारिग्रहिकी क्रिया जबकि देशविरत श्रावकको भी लगती है तब उससे नीचेके गुण स्थानवालों को कहना ही क्या है ? उनको तो अवश्य ही पारिग्रहका क्रिया लगती है । (प्रश्न) हे भगवन ! माया प्रत्यया क्रिया किसको लगती है ? (उत्तर) हे गोतम ! माया प्रत्यया क्रिया किसी किसी अप्रमत्त संयत को भी लगती है क्योंकि वे भी अपने प्रवचनकी बदनामीको मिटानेके लिए वल्ली करण और समुद्देश आदिमें मायाकी क्रिया करते हैं। यहां भी अपि शब्दसे यह बतलाया गया है किजब सप्तम गुणस्थानवाले अप्रमत्त संयतको भी माया प्रत्यया क्रिया लगती है तब फिर उससे नीचे गुण स्थान वालों को कहना ही क्या है उन्हें तो अवश्य ही माया प्रत्यया क्रिया लगती है । के (प्रश्न) हे भगवन् अप्रत्यारूपानिकी क्रिया किसको लगती है ? (उत्तर) हे गोतम ! जो जरा भी प्रत्याख्यान नहीं करता उसको अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगती है । (प्रश्न) हे भगवन ! मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया किसको लगती है ? (उत्तर) हे गोत्तम ! जो पुरुष सूत्रमें कही हुई बातों में से एक भी अक्षरपर अरुचि करता है उसको मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया लगती है । यह उक्त मूल पाठ और उसकी टीकाका अर्थ है । यहां मूल पाठ और उसकी टीकामें कहा है कि “जो पुरुष किञ्चित् भी प्रत्याख्यान नहीं करता उसीको अप्रत्याख्यान क्रिया लगती है " श्रावक प्रत्याख्यान करता है अत: उसे अती क्रिया नहीं लग सकती इसलिए श्रावकके खाने पीने वस्त्र मकान Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १५५ आदिको अव्रतमें ठहरा कर उसको दान देनेसे एकान्त पाप कहना शास्त्र विरुद्ध है । यदि कोई कहे कि "श्रावकके अन्न, जल, वस्त्र मकान आदि अव्रतमें नहीं तो क्या व्रतमें है ? तो उससे कहना चाहिये कि श्रावकके अन्न वस्त्रादि न तो व्रतमें है और न अघ्रतमें ही, किन्तु परिग्रहमें है । भगवान्ने व्रत और अबतको आत्माका परिणाम बतलाया है और तेरह पन्थके प्रवर्तक भीषणजीने भी प्रत और अव्रतको जीव तथा अरूपी कहा है अतः श्रावकके अन्न वस्त्रादि जो कि रूपी और प्रत्यक्ष अजीव पदार्थ हैं वे व्रत और अप्रतमें नहीं हो सकते भीषण जीने तेरह द्वारमें छठ्ठा रूपी और अरूपी द्वारके अन्दर यह लिखा है "अत्रत आस्रवने अरूपी किग न्याय कही जै अत्याग भाव परिणाम जीवरा अरूपी कह्या छै" अतः श्रावकके अन्न वस्त्र आदिको अब्रतमें कायम करके श्रावकको अघ्रत की क्रिया लगनेकी प्ररूपणा एकान्त मिथ्या है। ____ श्रावकको अनतकी क्रिया नहीं लगना पन्नावणा सूत्रके मूल पाठसे भी सिद्ध होता होता है वह पाठ नीचे लिखा जाता है: "जस्सणं भन्ते ! जोवस्स आर भिया किरिया कज्जइ तस्स परिग्गहिया किं कजह ? जस्स परिग्गहिया किरिया कजइ तस्स आरंभिया किरिया कज्जइ ! गोयमा ? जस्सणं जीवस्स आरंभिया किरिया कज्जइ तस्स परिग्गहिया सिय कज्जइ सिय नो कज्जइ जस्स पुण परिग्गहिया किरिया कज्जह तस्स आर भिया किरिया नियमा कज्जइ । जस्सणं भन्ते । जीवस्ल आर भिया किरिया कज्जइ तस्स माया बत्तिया किरिया कजह ? पुच्छा गोयमा ! जस्सणं जीवस्स आरंभिया किरिया कज्जा तस्स माया पत्तिया किरिया नियमा कजइ जस्स पुण माया वत्तिया किरिया कजइ तस्स आरंभिया सिय कज्जइ सिय नो कज्जइ । जस्सणं भन्ते ! जीवस्स आरम्भिया किरिया कज्जइ तस्स अपञ्चक्खाण किरिया पुच्छा ? गोयमा ! जस्सणं जीवस्स आर भिया किरिया कज्जइ तस्स अपञ्चक्खाण किरिया सिय कज्जइ सियनो कज्जई जस्स पुण अपचक्खाण किरिया कज्जइ तस्स आरम्भिया किरिया नियमा। एवं मिच्छादसणवत्तिया एवि समं एवं परिग्गाहियावि तीहिं उवरिल्लाहिं समं संचारे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ सद्धममण्डनम्। त्तव्वा । जस्त माया वत्तिया किरिया कज्जा तस्स उवरिल्लाओ। दोवि सिय कन्जन्ति सिय नो कजन्ति जस्स उवरिल्लाओ दो कज्जति तस्स माया वत्तिया नियमा कजति । जस्स अपचक्खाण किरिया कज्जइ तस्स मिच्छदसणवत्तिया किरिया सिय कज्जह सिय नो कज्जइ जस्स पुण मिच्छदसण वत्तिया किरिया कज्जह तस्स अपच्चक्खाण किरिया नियमा कज्जह" (पन्नावणा सूत्र) अर्थ: (प्रश्न) हे भगवन जिसको आरम्भिकी क्रिया होती है क्या उसको पारिग्रहिकी क्रिया भी होती है ? और जिसको पारिग्रहिकी क्रिया होती है क्या उसको आरम्भिकी क्रिया भी होती है ? (उत्तर) हे गतम ! जिसको आरम्भिकी क्रिया होती है उसको पारिग्रहिकी क्रिया होती भी है और नहीं भी होती, परन्तु जिसको पारिग्रहिकी क्रिया होती है उसको आरम्भिकी क्रिया अवश्य होती है। (जैसे कि प्रमत्त संयत पुरुषको काय आदिके दुष्प्रयोगसे आरम्भिकी क्रिया होती है पारिप्रहिकी नहीं होती क्योंकि वे परिग्रह रहित होते हैं इसलिये आरंभिकी क्रियाके साथ पारिग्रहिकी क्रियाको भजना कही गयी है । छठे गुण स्थानसे नीचेके गुण स्थानवालोंमें परिग्रह भो होता है और आरम्भ भी होता है इसलिए पारिग्रहिकी क्रियाके साथ आरम्भिकी क्रियाका नियम कहा गया है ) (प्रश्न) हे भगवन् ! जिसको आरंभिकी क्रिया होती है क्या उसको माया प्रत्यया क्रिया होती है ? . (उत्तर) हे गोतम ! जिसको आरम्भिकी क्रिया होती है उसको माया प्रत्यया क्रिया अवश्य होती है परन्तु जिसको माया प्रत्यया क्रिया होती है उसको आरम्भिकी क्रिया होती भी है और नहीं भी होती। (इसका तात्पय्य यह है कि आरंभिकी क्रिया छठे गुण स्थानतकके जीवोंमें होती है और उनमें माया प्रत्यया क्रिया भी होती है इस लिए आरम्भिकी क्रियाके साथ माया प्रत्यया क्रियाका नियम कहा गया है परन्तु मायाप्रत्यया क्रिया सप्तमादि गुणस्थानवालोंमें भी होती है वहां आरम्भिकी क्रिया नहीं होती इसलिए माया प्रत्यया क्रिया के साथ आरंभिकी क्रियाकी भजना कही है।) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १५७ (प्रश्न ) हे भगवन् ! जिसको आरम्भिकी क्रिया होती है क्या उसको अप्रात्याख्यानिकी क्रिया होती है ? (उत्तर) हे गोतम ! जिसको आरंभिकी क्रिया होती है उसको अप्रत्याख्यानि की क्रिया होती भी है और नहीं भी होती है परन्तु जिसको अप्रत्याख्यानिकी क्रिया होती है उसको आरंभिकी क्रिया अवश्य होती है। (इसका भाव यह है कि प्रारंभिकी क्रिया षष्ट गुण स्थान पर्यन्त होती है परन्तु पञ्चम और षष्ठ गुण स्थानमें प्रत्याख्यान होनेसे अप्रत्यानिकी क्रिया नहीं होती इसलिये यहां आरंभिकीके साथ अप्रत्याख्यानिकी क्रियाकी भजना कही गई है। चतुर्थ गुण स्थान तकके जीवोंको अप्रत्याख्यानिकी क्रिया होती है और उनमें आरंभिकी क्रियाका भी सद्भाव होता है इस लिये अप्रत्याख्यानिकी क्रियाके साथ आरंभिकी क्रियाका नियम कहा गया है) (प्रश्न ) हे भगवन् ! जिसको आरंभिकी क्रिया होती है क्या उसको मिथ्या दर्शन प्रत्यया क्रिया होती है ? (उत्तर) हे गोतम ! जिसको मारंभिकी क्रिया होती है उसको मिथ्या दर्शन प्रत्यया क्रिया होती भी है और नहीं भी होती है परन्तु जिसको मिथ्या दर्शन प्रत्यया क्रिया होती है उसको आरंभिकी क्रिया अवश्य होती है। (इसका अभिप्राय यह है कि आरंभिकी क्रिया चौथे पांचवें और छठे गुण स्थानमें भी होती है परन्तु वहां मिथ्या दशन प्रत्यया क्रिया नही होती क्योंकि इन गुण स्थानोंके जीव सम्यग्दृष्टि होते हैं अतः आरंभिकी क्रियाके साथ मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रियाकी भजना कही है। मिथ्या दर्शन प्रत्यया क्रिया मिथ्यादृष्टिको होती है और उसमें आरंभिकी क्रिया भी मौजूद है इस लिये मिथ्या दर्शन प्रत्यया क्रियाके साथ आरंभिकी क्रियाका नियम कहा गया है)। आरंभिकी क्रियाके साथ शेष चार क्रियाओंकी भजना और नियमाका विचार कर दिया गया अब पारिग्रहिकी क्रियाके साथ उसके आगेकी क्रियाओंकी भजना और नियमका विचार किया जाता है। . (प्रश्न ) हे भगवन् ! जिसको पारिग्रहिकी क्रिया होती है क्या उसको माया प्रत्यया क्रिया होती है ? (उत्तर) हे गोतम ! जिसको पारिपहिकी क्रिया होती है उसको माया प्रत्यया क्रिया अवश्य होती है परन्तु जिसको माया प्रत्यया क्रिया होती है उसको पारिग्रहिकी क्रिया होती भी है और नहीं भी होती है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । ( इसका भाव यह है कि पारिग्रहिकी क्रिया पञ्चम गुणस्थान तकके जीवों में होती है और उनमें माया प्रत्यया क्रिया भी मौजूद है अतः पारिग्रहिकी क्रियाके साथ माया प्रत्यया क्रियाका नियम कहा है परन्तु माया प्रत्यया क्रिया छठे आदि गुण स्थानों में भी होती है वहां पारिग्रहिकी क्रिया नहीं होती क्योंकि षष्ठादि गुण स्थान वाले जीव परिग्रह रहित होते है इस लिये मायाप्रत्यया क्रियाके साथ पारिग्रहिकी क्रियाकी भजना कही है। ) १५८ ( प्रश्न ) हे भगवन् ! जिसको पारिग्रहिकी क्रिया होती है क्या उसको अप्रत्याख्यानिकी क्रिया होती है ? (उत्तर) हे गोतम ! जिसको पारिग्रहिकी होती है उसको अप्रत्याख्यानिकी क्रिया होती भी है और नहीं भी होती परन्तु जिसको अप्रत्याख्यानिकी क्रिया होती है। reat पारिप्रहिकी क्रिया अवश्य होती है । ( इसका भाव यह है कि पारिग्रहिकी क्रिया पञ्चम गुण स्थानमें भी होती है क्योंकि श्रावक भी परिग्रह धारी होते हैं परन्तु उनमें अप्रत्याख्यानिकी क्रिया नहीं होती कारण यह कि श्रावक प्रत्याख्यानी होते हैं अतः पारिग्रहिकी क्रियाके साथ अप्रत्याख्यानिकी क्रियाकी भजना कही है। चतुर्थ गुण स्थान पर्यन्त अप्रत्याख्यानिकी क्रिया होती है और वहां परिग्रह भी मौजूद होता है इस लिये अप्रत्याख्यानिकी क्रियाके साथ परिग्रहकी क्रियाका नियम कहा गया है ) ( प्रश्न ) हे भगवन् ! जिसको पारिग्रहिकी क्रिया होती है क्या उसको मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया होती है ? (उत्तर) हे गोतम ! जिसको पारिग्रहिकी क्रिया होती है उसको मिथ्या दर्शन प्रत्यया क्रिया होती भी है और नहीं भी होती परन्तु जिसको मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया होती है उसको पारिप्रहिकी क्रिया अवश्य होती है । ( इसका भाव यह है पारिग्रहिकी क्रिया चतुर्थ और पञ्चम गुण स्थानमें भी होती है परन्तु वहां मिथ्या दर्शन प्रत्यया क्रिया नहीं होती क्योंकि चतुर्थ और पञ्चम गुणस्थान वाले जीव, सम्यग्दृष्टि होते हैं अतः पारिग्रहिकी क्रियाके साथ मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया की भजना कही गई है । मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया, मिथ्या दृष्टियों में होती है और उनमें परिग्रहकी क्रिया भी मौजूद है इस लिये मिथ्या दर्शन प्रत्यया क्रिया के साथ पारिग्रहिकी क्रियाकी नियमा कही गई है ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -दानाधिकारः। पारिग्रहिकी क्रियाके साथ उसके आगेकी क्रियाओंकी भजना और नियमा कही गई, अब माया प्रत्यया क्रियाके साथ उसके आगेकी क्रियाओंकी भजना और नियम कहे जाते हैं : (प्रश्न ) हे भगवन् ! जिसको माया प्रत्यया क्रिया होती है क्या उसको मप्रख्यानिकी क्रिया होती है ? (उत्तर ) हे गोतम ! जिसको माया प्रत्यया क्रिया होती है उसको अप्रत्याख्यानिकी क्रिया होती भी है और नहीं भी होती परन्तु जिसको अप्रत्याख्यानिकी क्रिया होती है उसको माया प्रत्यया क्रिया अवश्य होती है। (इसका तात्पर्य यह है-माया प्रत्यया क्रिया पञ्चमादि गुण स्थानोंमें भी होती है परन्तु वहां अप्रत्याख्यानिकी क्रिया नहीं होती क्योंकि पञ्चमादि गुण स्थानोंमें प्रत्याख्यानी पुरुष होते हैं इस लिये माया प्रत्यया क्रियाके साथ अप्रत्याख्यानिकी क्रिया की भजना कही है। चतुथै गुण स्थान पय॑न्तके जीवोंमें अप्रत्याख्यानिकी क्रिया होती है और उनमें माया प्रत्यया क्रिया भी मौजूद है इस लिये अप्रत्याख्यानिकी क्रियाके साथ माया प्रत्यया क्रियाकी नियमा कही गई है)। प्रश्न- हे भगवन् ! जिसको माया प्रत्यया क्रिया होती है क्या उसको मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया होती है ? (उत्तर ) हे गोतम ! जिसको माया प्रत्यया होती है उसको मिथ्या दर्शन प्रत्यया क्रिया होती भी है और नहीं भी होती परन्तु जिसको मिथ्या दर्शन प्रत्यया क्रिया होती है उसको माया प्रत्यया क्रिया अवश्य होती है। (इसका भाव यह है-माया प्रत्यया क्रिया चतुर्थादि गुण स्थान वालोंमें भी होती है परन्तु उनमें मिथ्या दर्शन प्रत्यया क्रिया नहीं होती क्योंकि वे सम्यग्दृष्टि होते हैं अतः माया प्रत्यया क्रियाके साथ मिथ्या दर्शन प्रत्यया क्रियाकी भजना कही है। मिथ्या दर्शन प्रत्यया क्रिया मिथ्या दृष्टियोंमें होती है और उनमें माया प्रत्यया क्रिया भी होती है इस लिये मिथ्या दर्शन प्रत्यया क्रियाके साथ माया प्रत्यया क्रियाकी नियमा कही गई है।) (प्रश्न) हे भगवन् ! जिसको अप्रत्याख्यानिकी क्रिया होती है क्या उसको मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया होती है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० सधर्ममण्डनम् । ( उत्तर ) taar ! frest अप्रत्याख्यानिकी क्रिया होती है उसको मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया होती भी है और नहीं भी होती परन्तु जिसको मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया होती है उसको अप्रत्याख्यानिकी क्रिया अवश्य होती है । ( इसका भाव यह है कि चतुर्थ गुण स्थान वाले जीवों में अप्रत्याख्यानिकी क्रिया होती है परन्तु मिथ्याद्दर्शन प्रत्यया क्रिया नहीं होती क्योंकि वे सम्यग्दृष्टि हैं इस लिये अप्रत्याख्यानिकी क्रियाके साथ मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रियाकी भजना कही है। मिथ्या दृष्टि जीवोंमें मिथ्या दर्शन प्रत्यया क्रिया होती है और उनमें अप्रत्याख्यानिकी क्रिया भी मौजूद है इस लिये मिथ्यादर्शन प्रत्यया क्रिया के साथ अप्रत्याख्यानिकी क्रियाका नियम कहा गया है) यह उक्त मूल पाठका टीकानुसार भावार्थ है । यहां परिग्रहिक क्रियाके साथ अप्रत्याख्यानिकी क्रियाकी भजना कही गई है यह बात उसी हालत में घट सकती है जब कि किसी जगह परिग्रह तो हो परन्तु अप्रत्याख्यान न हो, ऐसा स्थान, पञ्चम गुण स्थानको छोड़ कर दूसरा नहीं हो सकता क्योंकि षष्ठ आदि गुण स्थानों में परिग्रह नहीं होता और पञ्चमसे पूर्वके गुण स्थानों में परिग्रहके साथ अप्रत्याख्यान भी मौजूद है अतः एक पञ्चम गुण स्थान ही ऐसा है जहां परिग्रह तो होता है परन्तु अप्रत्याख्यान नहीं होता इसलिये उक्त मूल पाठ परिग्रहके साथ अप्रत्याख्यानकी जो भजना कही है उसका पञ्चम गुण स्थान ही उदाहरण समझना चाहिये । यदि भ्रमविध्वंसनकारके सिद्धान्तानुसार श्रावकको भी raat क्रिया लगना माना जाय तो फिर उक्त मूलपाठ में पारिग्रहकी क्रियाके साथ जो अप्रत्याख्यानिकी क्रियाकी भजना कही गई है उसका उदाहरण कौन हो सकता है ? तेरह पंथी इसका कोई भी उदाहरण नहीं दे सकते। जो पुरुष किञ्चित् भी प्रत्याख्यान नहीं करता है उसीको अत्रतकी क्रिया लगना टीकाकारने भी कहा है। वह टीका यह है"अप्रत्याख्यान क्रिया अन्यतरस्याप्यप्रत्याख्यानिनः । - अन्यतरदपि नकिंचिदपीत्यर्थः यो न प्रत्याख्याति तस्येत्यर्थः ।" अर्थात् "जो किञ्चित् भी प्रत्याख्यान नहीं करता उसीको अप्रत्याख्यानिकी क्रिया लगती है" श्रावक तो देशसे प्रत्याख्यान करता है इस लिए उसको अब्रतकी क्रिया नहीं लग सकती तथापि श्रावक के खाने पीने वस्त्र मकान आदिको अनतमें ठहराकर उसको दान देने से जो जीतमलजीने एकान्त पाप और अप्रतका सेवन कराना बतलाया है वह शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये । [ बोल २४ वां समाप्त ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १६१ (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ९२ के ऊपर सुयगडांग और उवाई सूत्रका मूल पाठ लिख कर उनकी समालोचना करते हुए लिखते हैं : “अथ अठे आवकरा ब्रत अव्रत जूदा जूदा कया मोटा जीव हणवारा मोटा झूठरा मोटो चोरी मिथुन परिग्रहरी उपरान्त मर्यादा कीधी ते तो प्रत कही अने पांच स्थावर हणवारो आगार छोटो झूठ छोटी चोरी मिथुन परिप्रहरी मर्यादा कीधी ते माहिला सेवन सेवा वन रो आगार ते अव्रत कही" इत्यादि इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक) सुय गडांग सूत्र और उवाई सूत्र का नाम लेकर श्रावकको अबतकी क्रिया बताना मिथ्या है । उक्त सूत्रमें कहा है कि-"श्रावक अठारह पापोंसे अंशतः हटा है और अंशतः नहीं हटा है।" जिस अंशसे नहीं हटा है वह उसका अव्रत है ऐसा नहीं लिखा है अतः उक्त सूत्रोंकी सहायतासे श्रावकको अव्रत की क्रिया बताना अज्ञान है। - यदि कोई कहे कि श्रावक जिस अंशसे हटा है वह जब कि उसके व्रतमें है तब जिससे वह नहीं हटा है वह अवतमें क्यों नहीं है ? तो उससे कहना चाहिये कि सुय गडांग सूत्र और उवाई सूत्रके मूल पाठमें श्रावकको अठारह पापोंसे अंशतः हटना और अंशत: नहीं हटना कहा है इस लिये श्रावक मिथ्यादर्शन शल्यसे भी अंशतः हटा है और अंशतः नहीं हटा है। जिस अंशसे श्रावक नहीं हटा है उसके हिसाबसे श्रावकको मिथ्या दर्शनकी क्रिया क्यों नहीं लगती है ? यदि कहो कि श्रावक मिथ्यादर्शन शल्य रूप पाप से यद्यपि सर्वथा नहीं हटा है तथापि सम्यक्त्वकी प्राप्ति होनेसे उसे मिथ्यादर्शनकी क्रिया नहीं लगती तो उसी तरह समझो कि १७ पापोंके जिस जिस अंश श्रावक नहीं हटा है उसके सेवन करने पर भी प्रत्याख्यान होनेसे श्रावकको अप्रत्याख्यानकी क्रिया नहीं लगती । भगवती सूत्र शतक १ उद्देशा २ में स्पष्ट लिखा है कि श्रावकको आरम्भिकी पारिग्रहिकी और माया प्रत्यया ये तीन ही क्रियायें लगती हैं अप्रत्याख्यानकी और मिथ्यादर्शनकी क्रिया नहीं लगती। वह पाठ यह है : "तत्यणं जेते संजया संजया तेसिणं आदि आओ तीणि किरि आओ कज्जति" (भ० श०१ उ०२) अर्थात् संयता संयत (श्रावक) को आदिकी तीन क्रियाएं लगती हैं शेष अप्रत्याख्यानकी और मिथ्यादर्शनकी क्रिया नहीं लगती। अत: श्रावकको अवतकी क्रिया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ सद्धर्ममण्डनम् । लगनेकी प्ररूपणा इस पाठसे विरुद्ध समझनी चाहिये। फिर भी कोई कहे कि १७ पापों का जो अंश श्रावकको बाकी है उसके हिसाबसे श्रावकको अबतकी क्रिया भी होनी चाहिये" तो श्रावकमें मिथ्यात्वका जो अंश बाकी है उसके हिसाबसे मिथ्यात्वको क्रिया भी उसे होनी चाहिये । यदि कहो कि मिथ्यात्वकी क्रिया श्रावकको वजित की गई है तो भगवतीके उक्त पाठमें अबतकी क्रिया भी श्रावकको स्पष्ट रूपसे वर्जित की गई है अतः श्रावकको अप्रतकी क्रिया मानना एकान्त मिथ्या है। श्रावकको अबतकी क्रिया सिद्ध करनेके लिये उवाइ सूत्र और सुय गडांग सूत्रका जो मूलपाठ जीतमलजीने लिखा है वह निम्न लिखित है : _ "एगचाओ पाणाइनओ पडिविरया जाव जीवाए एगचाओ अपडि विरया एवं जाव परिग्गहाओ पडिविरया एगचाओ अपडि. विग्या। एगचाओ कोहाओ माणाओ मायाओ लोहाओ पेज्जाओ दोसाओ कलहाओ अभक्खाणाओ पेसुणोओपरपरिवायाओ अरति रतिओ मायामोसाओ मिच्छादसणसल्लाओ पडिविरया जाव जीवा ए एगचाओ अपडिविरया जाव जीवाए।" ( उवाई प्रश्न १२) अर्थ श्रावक यावजीवन, प्राणातिपातसे लेकर परिग्रह पर्यन्त एक एकसे निवृत्त और एक एकसे निवृत्त नहीं है इसी तरह क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, दोष, कलह, आख्यान, पैशुन्य, परपरीवाद, अरति रति, माया मृषा, और मिथ्यादर्शन शल्यके एक एक अंशसे हटे हुए और एक एक अंशसे महीं हटे हैं। इस पाठमें जैसे १७ पापोंसे श्रावकको अंशतः नहीं निवृत्त होना कहा है उसी तरह अठारहवां पाप मिथ्यादर्शन शल्यसे भो अंशत: नहीं हटना कहा है इस लिये जैसे मिथ्यादर्शन शल्यसे अंशतः नहीं हटने पर भी श्रावकको मिथ्यादर्शनकी क्रिया नहीं लगती उसी तरह १७ पापोंसे अंशतः नहीं हटने पर भी श्रावकको अव्रतकी क्रिया नहीं लगती अत: उक्त मूलपाठकी साक्षी देकर श्रावकको अत्रतकी क्रिया लगना ठहरा कर उसको अन्न पानादिके द्वारा सहायता करनेसे एकान्त पाप कहना अज्ञानियोंका कार्य समझना चाहिये। (बोल २५ वां समाप्त) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १६३ - (प्रेरक) श्रावकको अव्रतकी क्रिया नहीं लगती यह मुझको ज्ञात हुआ परन्तु श्रावकको साता उत्पन्न करनेसे धर्म या पुण्य होता है इसमें क्या प्रमाण है ? (प्ररूपक) श्रावकको साता उत्पन्न करनेसे धर्म और पुण्यकी उत्पत्ति होना भगवती सूत्र शतक ३ उद्देशा १ के मूल पाठसे सिद्ध होता है वह पाठ अर्थके साथ लिखा जाता "सणं कुमारे देविन्दे देवराया बहुणं समणाणं वहुणं समणीणं वहुणं सावयाणं वहुणं सावियाणं हिय कामए मुह कामए पत्थकामए अनुकम्पिए निस्सेयसिए हिय सुह निस्सेयम कामए सेते ण?णं गोयमा सणं कुमारे भवसिद्धिए णो अचरिमे" (भगवती शतक ३ उ०१) अर्थ :- . हे गोतम ! सनत्कुमार देवेन्द्र बहुतसे साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाओंके हित, मुख, पथ्य, अनुकम्पा और मोक्षकी कामना करते हैं इस लिये वह भवसिद्धिसे लेकर यावत् चरम हैं। इस पाठमें साधु साध्वीकी तरह श्रावक और श्राविकाओंका भो हित, सुख, पथ्य, अनुकम्पा ओर मोक्षकी कामना करनेसे सनत्कुमार देवेन्द्रको भवसिद्धिसे लेकर यावत् चरम होना कहा है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि श्रावक और श्राविकाको साता उत्पन्न करनेसे धर्म और पुण्य की प्राप्ति होती है। श्रावक और श्राविकाओंके हित, सुख और पथ्यकी कामना मात्र करनेसे जब कि सनत्कुमार देवेन्द्रको इतना बड़ा उत्तम फल प्राप्त हुआ है तब फिर साक्षात् हित सुख और पथ्य करनेसे तो कहना ही क्या है । अतः जो लोग श्रावको सुख साधक वस्तुका प्रदान करके धर्ममें सहायता देते हैं वे धर्मका कार्य करते हैं एकान्त पापका नहीं इस लिये श्रावकको सुखसाधक वस्तुका प्रदान करके उनको साता उत्पन्न करनेसे जो एकान्त पाप और अबतका सेवन कराना बतलाते हैं वे मिथ्यावादी हैं। ___ उक्त मूल पाठमें आये हुए हित, सुख और पथ्य शब्दोंका अर्थ, टीकाकारने इस प्रकार किया है : ____ “हितं सुख निवन्धनं वस्तु" "सुह कामए" त्ति सुखं शम" . "पत्थ कामए" त्ति पथ्यं दुःख त्राणं" कस्मादेव मित्यत आह "अनुकम्पिए"तिरूपावान्। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ सद्धर्ममण्डनम् । ___"अर्थात् सुख साधक वस्तुका नाम “हित" है। सुख पहुंचाना "सुख" है और दुःखसे त्राण ( रक्षा) करना पथ्य कहलाता है। सनत्कुमार देवेन्द्र साधु साध्वी श्रावक और श्राविकाओं पर अनुकम्पा रखते हैं इस लिये वह उनके हित, सुख, और पथ्यको कामना करते हैं। यह उक्त टीकाका अर्थ है। यदि कोई कहे कि उक्त मूल पाठमें श्रावक और श्राविकाओंके शारीरिक हित सुख और पथ्यकी कामना नहीं कही गई है किन्तु मोक्ष सम्बन्धी हित, सुख और पथ्य की कामना कही गई है इस लिये श्रावकको शारीरिक सुख देना कोई धर्म नहीं है तो उससे कहना चाहिये कि श्रावक और श्राविकाओंके समान ही यह पाठ साधु और साध्वियोंके लिये भी आया है इस लिये यदि श्रावक और श्राविकाओंके शारीरिक हित सुख और पथ्य करनेसे धर्म पुण्य नहीं है तो साधु और साध्वियोंके भी शारीरिक हित सुख और पथ्यसे धर्म पुण्य नहीं होना चाहिये । यदि साधु और साध्वीके शारीरिक हित सुख और पथ्यसे धर्म होना मानते हो तो फिर श्रावक और श्राविकाओंके शारीरिक हित सुख और पथ्यसे भी धर्म मानना ही होगा। उवाई सूत्रके मूल पाठमें श्रावकको धार्मिक, सुशील, सुव्रत, धर्मानुग और धर्म पूर्वक जीविका करने वाला कहा है । वह पाठ यह है : "अप्पिच्छा अप्पारंभा अप्प परिग्गहा धम्मिया धम्माणुया घम्मिट्ठा धम्मक्खाइ धम्मप्पलोइया धम्मप्पलबणा धम्मसमुदायारा धम्मेणंचेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति सुसोला सुव्वया सुप्पडियाणंदा साइ" (उवाई सूत्र ) इस पाठमें कहा है कि-श्रावक अल्पारंभी, अल्पपरिग्रही, धार्मिक, धर्मानुग, धर्मिष्ठ, धर्माख्यायी, धर्म प्रलोकी, धर्म प्ररंजन, धर्मसमुदाचार, सुशील, सुव्रत, सुप्रत्यानंद साधु तुल्य और धर्म पूर्वक जीविका करने वाले होते हैं। शास्त्र ऐसे ऐसे विशेषग लगा कर जिसकी प्रशंसा करता है उसी श्रावकको कुपात्र बताना और उसको दान देकर धर्म की सहायता पहुंचानेसे एकान्त पाप कहना कितना तीव्रतर मिथ्यात्वका काय्य है यह हर एक बुद्धिमान मनुष्य समझ सकता है । सुय गडांग सूत्रके मूल पाठमें श्रावकको धमपक्षमें माना है वह पाठ अर्थके साथ दिया जाता है "तत्थणं जासा सवओ विरया विरह एस ठाणे आरंभ णो आरंभ ठाणे । एस ठाणे आरिए केवले पडिपुन्ने णेयाउए संसुद्ध Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १६५ सलगत्तणे सिद्धिमग्गे मुत्तिमग्गे निव्वाणमग्गे निजाणमग्गे सव्व दुःखप्पहीणमग्गे एगंत सम्मे साहू". अर्थ:___ पहले बताये हुए स्थानों में जो विरता विरत नामक स्थान है वह आरम्भ नो आरंभ कहलाता है। यह स्थान, आर्य, केवल, प्रतिपूर्ण, नैयायिक, संशुद्ध, इन्द्रियसंयम, सिद्धिमार्ग, मुक्तिमार्ग, निर्याणमार्ग सर्वविध दुःखोंका विनाशकमार्ग, एकान्त सम्यग्भूत, और साधुभूत समझना चाहिये। यहां विरता-विरत नामक स्थानको साधूभूत सम्यग्भूत इत्यादि कहकर धर्मपक्षमें स्थापन किया है फिर भी श्रावकको कुपात्र कायम करना और उसको अन्नादि दानसे एकान्त पाप कहना अज्ञानी और कुपात्रोंका कार्य समझना चाहिये यद्यपि कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य आदिक व्यापार करते समय श्रावकोंसे आरम्भजा हिंसा भी होती है तथापि श्रावकोंमें धर्मके बाहुल्य होनेसे वे धर्मपक्षमें ही गिने गये हैं टीकाकारने भी यही कहा है। वह टीका यह है: "एतञ्च यद्यपि मिश्रत्वाद् धर्मा धर्मा भ्या मुपेतं तथापि धर्म भूयिष्ठत्वाद् धार्मिकपक्ष एवावतरति तद्यथा बहुषु गुणेषु मध्यपतितो दोषोनात्मानं लभते कलंक इव चन्द्रिकायाः तथा बहूदकमध्यपतितो मृच्छकलाक्यवोनोदकं कलुषयितुमलम् । एवम धर्मोऽपि धर्म मिति स्थितं धार्मिक पक्ष एवायम्" । अर्थात् यह विरता-विरत नामक स्थान, मिश्र होनेसे यद्यपि धर्म और अधर्म दोनों हीसे युक्त है तथापि धर्मके बाहुल्य होनेसे यह धर्म पक्षमें ही ठहरता है। क्योंकि बहुत गुणोंके मध्यमें पड़ा हुआ स्वल्प दोष अपना प्रभाव नहीं दीखलाता। किन्तु चन्द्रमाकी किरणोंमें कलंककी तरह छिप जाता है। जैसे बहुत जलमें पड़ा हुआ मिट्टीका कण मिट्टीको गन्दा करनेके लिये समर्थ नहीं होता उसी तरह बहुत धर्मके मध्यमें पड़ा हुआ थोडासा अधर्म, धर्मकी कुछ भी हानि नहीं पहुंचा सकता। यहां टीकाकारने मूलपाठका आशय दर्शाते हुए श्रावकको धर्मपक्षमें ही मान कर उसके स्वल्प पापको अकिंचित्कर और अगणनीय बतलाया है अतः उक्त मूलपाठ और उसकी टीकासे श्रावक सुपात्र और धार्मिक सिद्ध होता है इसलिये श्रावककी सेवा शुश्रूषा करने, और दान सम्मानादिके द्वारा धर्ममें सहायता देनेसे एकान्त पाप कहना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये । (बोल २६ वां समाप्त) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ९३ के ऊपर ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा दशकी गाथा लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं : "अथ अठे दश शस्त्र कह्या तिगमें अव्रतने भाव शस्त्र कह्यो तो जो श्रावकने अव्रत सेवायां रूडा फल किम लागे। एतो अव्रत शस्त्र छै ते मांटे जेतला जेतला श्रावकरे त्याग छ ते तो व्रत , अने जेतलो आगार छै ते सर्व अव्रत छै । आगार अव्रतसेव्यां सेवायां शस्त्र तीखो कियो कहिए पिणधर्म किम कहिये"। (भ्र० पृ० ९३) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) गणाङ्ग सुत्रकी वह गाथा लिखकर इसका समाधान किया जाता है "दस विहे सत्थे पन्नत्ते तं जहा-सत्थ मग्गी विसं लोणं सिण हो खार मंविलं । दुप्पउत्तो मनोवाया काओ भावो य अविरई।" अर्थः दश प्रकारके शस्त्र होते हैं वे ये हैं-अग्नि, विष, नमक, तैल घृतादि चिकने पदाथ, खारी चीज, भश्म आदि, खटाई, अयन पूर्वक प्रयोग किये हुए मन, वचन, काया, और अप्रत्याख्यान, ये दश शस्त्र होते हैं। यह उक्त गाथाका अर्थ है। इसमें पहले कहे हुए छः द्रव्य शस्त्र और पीछले ४ भाव शस्त्र हैं। ये भाव शस्त्र जिसमें मौजूद हैं वह यदि कुपात्र माना जाय और उसको दान देना यदि शस्त्रको तीखा करना तथा एकान्त पाप समझा जाय तो छठे गुण स्थानवाले प्रमादी साधुको भी कुपात्र मानना पड़ेगा और उसे दान देना प्रमाद रूप शस्त्रको तीखा करना और एकान्त पाप कहना होगा क्योंकि प्रमादी साधुमें प्रमादवश मन, वचन और कायका दुष्प्रयोग रूप भाव शस्त्र विद्यमान है। यदि कहो कि प्रमादी साधुको प्रमादवृद्धिके लिये दान नहीं दिया जाता किन्तु उसके ज्ञान दर्शन और चारित्रकी उन्नतिके लिये दिया जाता है इसलिये प्रमादी साधुको दान देनेसे एकान्त पाप नहीं होता तो उसी तरह सरल वुद्धिसे यह भी समझो कि श्रावकको दोष वृद्धि के लिए दान नहीं दिया जाता उसके गुणका पोषण करनेके लिये दिया जाता है अतः श्रावकको धर्मबृद्ध्यर्थ दान देना एकान्त पाप अथवा शस्त्रको तीखा करना नहीं है। श्रावकको अबतकी क्रिया भी नहीं लगती है इसलिये उसको दान देना अबतका सेवन कराना भी नहीं है यह बात विस्तारके साथ पहले कही जा चुकी है। बास्तवमें जैसे प्रमादी साधुको उसके मन वचन कायाके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः । १६७ दुष्प्रयोगको न्यून करनेके लिये दान दिया जाता है उसकी वृद्धिके लिये नहीं उसी तरह sarat भी उसके दोषोंको निवृत्तिके लिये दान दिया जाता है उनकी वृद्धिके लिये नहीं अतः श्रावकको दान देनेसे एकान्त पाप कहनेवाले मिथ्यावादी हैं । भ्रमविध्वंसनकार साधुके भोजनको धर्ममें और श्रावकके भोजनको पापमें कायम करके श्रावकको दान देनेसे एकान्त पाप होना बतलाते हैं परन्तु शास्त्रविरुद्ध होने से यह अप्रामाणिक है । राज प्रश्नीय सूत्रमें भोजन विशेषसे पुण्य होना भी कहा है वह पाठ यह है : "सुरियाणं भन्ते ! देवेणं सादिव्वा देविड्ढी सा दिव्वा देवजुई से दिव्वे देवाणुभागे किण्णा लद्ध किण्णोपत्ते किण्णा अभि समण्णागर पुत्र भवे के आसी किंनाम एवा को वा गुत्तेणं कयरं सिवा गामंसिवा जाव संनिवेसंसिवा किंवा भोचा किंवा किच्चा किंवा समारित्ता कस्सवा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्सवा अन्तिए एगमपि आरियं धम्मियं सुवयणं सोचा णिसम्म जण्णं सुरियाभेणं देवेणं सादिव्वा देव इड्ढी जावदेवाणुभागे लद्ध पत्ते अभिसमण्णा गए" । ( राज प्रश्नीय सूत्र ) अर्थ: हे भगवन् ! इस सूर्य्याभ देवने ऐसी उत्तम दिव्य ऋद्धि, ऐसी उत्तम द्युति और इस प्रकारका दिव्य प्रभाव कैसे प्राप्त किया है ? यह सूर्य्याभ देव पूर्वजन्ममें कौन था इसके नाम और गोत्र क्या थे यह किस ग्राम में या नगर में निवास करता था इसने पूर्वजन्ममें कौनसा दान दिया था किस नीरस पदार्थका भोजन किया था तथा कौनसा उद्योग और कौनसी तपस्या की थी किस श्रमण या माहनसे इसने एक भी आर्य्यं धर्म सम्बन्धी सुवाक्य सुना था जिससे इसको दिव्य ऋद्धिसे लेकर यावत् इस प्रकारका प्रभाव प्राप्त हुआ है।. इस पाठ्में जैसे तथा रूपके श्रमण माहनसे आर्य धर्म सम्बन्धी सुवाक्य सुनने से तथा दान देने तपस्या करने आदिसे दिव्य ऋद्धिकी प्राप्ति कही गयी है उसी तरह भोजन करने से भी कही गयी है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधुके सिवाय दूसरेका खाना पीना एकान्त पापमें नहीं है । यदि शुभ आशयसे नीरस पदार्थका भोजन किया जाय तो उससे पुण्य भी उत्पन्न होता है अतः श्रावक के खानेपीने आदि कार्य्योको एकान्त पापमें स्थापन करना इस पाठसे विरुद्ध और अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये । ( बोल २७ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ सद्धर्ममण्डनम् । (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ९४ पर भगवतीसूत्र शतक १ उद्देशा ८ का मूल पाठ लिखकर कहते हैं कि उक्त पाठमें श्रावकको देश प्रत्याख्यान करनेसे देवता होना कहा है आगारके सेवनसे देवता होना नहीं कहा इसलिये श्रावकका आगार एकांत पापमें है। जैसे कि उन्होंने लिखा है: 'अथ अठे कह्यो जे श्रावक देश थकी निवृत्यो देश थकी न थी निवृत्त्यो देश पञ्च क्खाण कीधो देश पञ्चवखाण की धो न थी। जे देशे करि निबृत्यो अने देश पञ्चक्खाण कीधो तेणे करी देवता हुवे इहां पञ्चक्खाणे करी देतवा थाय कह्यो ते किम जे पच्चक्खाण पालता कष्ट थी पुण्य बंधे तणे करो देवायुष बंधे कयो पिण अव्रत सेव्यां सेवायां देव गतिनो बंध न करो” । (भ्र० पृ० ९४ ) इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक) भगवती सूत्र शतक १ उद्दशा ८ का मूल पाठ लिखकर इसका समाधान किया जाता है वह पाठ यह है:_. “बाल पंडिएणं मणुसे किं नेरइयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ ? गोयमा ! णो रइयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ । सेकेण?णं जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ ? गोयमा ! पाल पण्डिएणं मणुसे तहा ख्वस्स समणस्स माहणस वा अन्तिए एगमपि आरियं धम्मियं सोचा णिसम्म देसं उवरमइ देसं नो उवरमइ देसं पच्चक्खाइ देसं नो पच्चक्खाइ सेतेण तुणं देसो वरइ देस पच क्खाणेणं नो नेरइयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जई सेतेण?णं जाव देवेसु उववज्जइ।" (भगवती शतक १ उ०८) - (प्रश्न ) हे भगवन् ! बालपण्डित मनुष्य नरक तिर्यञ्च तथा मनुष्यको आयु बांधकर नरक आदि योनियोंमें जाता है या देवताकी आयु बांधकर देवता होता है। (उत्तर) हे गोतम ! बाल पण्डित मनुष्य नरकादिकी आयु बांधकर नरक आदि गतिमें नहीं जाता किन्तु देवताको आयु बांधकर देव योनिमें जाता है। (प्रश्न ) ऐसा क्यों होता है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १६९ . (उत्तर) हे गोतम ! बाल पण्डित मनुष्य तथारूपके श्रमण और माहनसे आय्य धर्म सम्बन्धी एक भी सुवाक्यको सुन कर देशसे निवृत्त होता है और देशसे निवृत्त नहीं होता देशसे प्रत्याख्यान करता है और देशसे प्रत्याख्यान नहीं करता अतः देश विरति और देश प्रत्याख्यानसे उसको नरकका आयु वन्ध नहीं होता किन्तु देवताका आयुबांध कर वह देवता होता है। यह उक्त मूल पाठका अर्थ है। इस पाठमें देश विरति और देश प्रत्याख्यानसे नरकादि गतियोंका रुकना बतलाया गया है न कि उनसे देवताका आयुबंध होना भी। यदि विरति और प्रत्याख्यानसे आयु बन्ध होने लगे तो फिर मोक्ष कैसे हो सकता है ? अतएव पन्नावणा सूत्रके २२ वें पद की टीकामें विरतिसे वन्ध होनेका स्पष्ट निषेध किया है बह टोका यह है:- . - " ननु विरतस्य कथं वन्धो नहि विरतिवन्ध हेतुभवति यदि विरतिरपि वन्ध हेतुः स्यात्तदा निर्मोक्षप्रसंगः उपायाभावात् । उच्यते-नहि विरतिवन्धहेतुः किन्तु विरतस्य ये कषायास्ते वन्ध कारणम् । तथाहि सामायक छेदोपस्थापन चारित्र विशुद्धिकेष्वपि संयमेषु कषायाः संज्वलन रूपा उदय प्राप्ताः सन्ति योगाश्च ततो विरतस्यापि देवायुकादीनां शुभ प्रकृतीनां तत्प्रत्ययो वन्धः” अर्थ: (प्रश्न) विरत पुरुषको बन्ध क्यों होता है ? विरति, वन्धका कारण नहीं है यदि विरतिसे भी वन्ध हो तो मोक्ष कैसे हो सकता है ? क्योंकि विरतिके सिवाय दूसरा कोई मोक्षका कारण नहीं है। (उत्तर) इसका समाधान यह है कि विरतिसे बन्ध नहीं होता किन्तु विरत पुरुषों का जो कषाय है वह बन्धका कारण है । सामायक, छेदोपस्थापन, और परिहारविशुद्धि आदि संयमोंमें भी संज्वलनात्मक कषाय और योग, उदयको प्राप्त रहते हैं इसलिये इन्हीं से विरत पुरुषोंका भी आयु आदिका बन्ध होता है। . यह ऊपर लिखी हुई टीकाका अर्थ है।। इस टीकामें विरतिसे बन्ध होने का स्पष्ट निषेध किया है इसलिए भगवती शतक १ उद्देशा ८ के मूल पाठमें विरति और प्रत्याख्यानसे देवताका आयु बन्ध होना नहीं कहा है। विरति और प्रत्याख्यानसे नरक आदिका आयु बन्ध रुक जाता है और विरत पुरुषों में जो कषाय और योग होता है उससे देव आयुका बन्ध होता है। अतः विरति और प्रत्याख्यानसे देवताका आयु बन्ध बतलाना मिथ्या है। देश विरति और देश प्रत्याख्यानसे जो काय कष्ट होता है उससे पुण्य बन्ध मान कर देवता होने की कल्पना करना भी मिथ्या है कहीं भी मूल पाठ और टीकामें यह नहीं . २२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम्। कहा है कि "विरति और प्रत्याख्यानसे जो काय कष्ट होता है उससे देवता होता है" वलिक पन्नावणा सूत्र की टीकामें विरत पुरुषके संज्वलनात्मक कषाय और योगसे देवता होना बतलाया है अतः विरति और प्रत्याख्यानसे जो काय कष्ट होता है उससे कर्मोकी निर्जरा होती है पुण्य बन्ध नहीं होता। यदि विरति और प्रत्याख्यानसे होनेवाले काय कष्टसे पुण्य बन्ध होने लगे तो फिर कर्मोकी निजरा किससे होगी ? अतः विरति और प्रत्याख्यानसे होनेवाले काय कष्टके द्वारा पुण्य बन्ध मानकर उससे देवता होनेकी कल्पना करना मिथ्या है। ___ अब पश्न यह होता है कि देश विरति और देश प्रत्याख्यानसे देवता यदि नहीं होता तो श्रावक किस कर्मके प्रभाव से देवता होता है ? तो इसका उत्तर यह है: श्रावकोंमें जो अल्पारम्भ, अल्प परिग्रह, और अल्प क्रोध, मान, माया, आदि आस्रव होते हैं उन्होंसे वे देवना होते हैं देश विरति और देश प्रत्याख्यानसे नहीं क्योंकि बन्ध, आस्रवसे, होता है संवा और निर्जरासे नहीं। देश विरति और देश प्रत्याख्यान संवर हैं आस्रव नहीं हैं आः उनसे बन्ध नहीं हो सकता इस लिये देश विरति और देश प्र-याख्यानसे देवता हाने की बात मिथ्या है। व्रत प्रत्याख्यानले और उनमें होनेवाले काय कष्टसे देवता नहीं होता इस विषयमें भगवतोसूत्र शतक २ उदशा ५ का मूल पाठ भी प्रमाण है । वह पाठ यह है:-- ___ "संजमेणं भन्ते ! किंफलइ ? तवेणं भन्ते ! किं फलइ ? संजनेणं अज्जो ! अणण्हय फले तवेणं वोदारण फले" __ (मगवती शतक २ उ० ५) अर्थ: तुङ्गिया नगरीके श्रावकोंने भगवान् पार्श्वनाथजीके स्थविरोंसे पूछा कि हे भगवन् ! संयम और तपस्याका क्या फल है ? इस प्रश्नका उत्तर देते हुए पार्श्वनाथ भगवान्के स्थविरोंने कहा कि संयमका फल, नवीन कर्मों का आगमन रूकना है और तपस्याका फल, पूर्वकृत कर्मों का नाश है। इस पाठमें श्रीपार्श्वनाथ भगवान के स्थविरोंने व्रत और प्रत्याख्यानसे संवर और निर्जराकी उत्पत्ति बतलाई है पुण्य बन्ध होना नहीं कहा है अतः व्रत प्रत्याख्यानसे पुण्य बन्ध मानना शास्त्र विरुद्ध है। इसके अनन्तर उक्त श्रावकोंने पाश्वनाथ भगवानके स्थविरोंसे पूछा कि हे भगवन् ! संयम और तपस्यासे जबकि संवर और निर्जरा होती है तो संयमी ओर तपस्वी पुरुष देवता कैसे होते हैं ? इस प्रश्नके चार उत्तर चार स्थविरोंने पृथक पृथक दिये थे । एकने कहा कि सगग अवस्थाकी तपस्यासे प्रतधारी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीनाधिकारः । १७१ और तपस्वी पुरुष स्वर्ग जाते हैं। दूसरेने कहा कि सराग अवस्थाके संयमसे जीव स्वर्ग जाते हैं। तीसरे ने कहा कि क्षय होनेसे बचे हुए कर्मोके द्वारा स्वर्ग जाते हैं। चौथेने कहा कि सांसारिक पदार्थों में व्यासक्त होनेसे देवता होते हैं। इन उत्तरोंमेंसे पहिलेके दो उत्तरों का अभिप्राय बतलाते हुए टीकाकारने यह लिखा है : " ततश्च सराग कृतेन संयमेन तपसाच देवत्वावाप्तिः रागांशस्य कर्म बन्ध हेतुत्वात् " अर्थात् सरागसंयम और सराग तपस्यामें जो गगांश विद्यमान है वही कम धातु है उसी सराग संयमी और सराग तपस्वी देवता होते हैं ( संयम और तपस्या से नहीं ) तीसरे उत्तरमें क्षय होने से बचे हुए कर्मों के कारण बन्ध होना कहा है तपस्या और संयमसे नहीं। चौथेमें, तपस्वी और संयमी पुरुषों का अपने भाण्डोकरणोंमें जो ममत्व भाव है उससे देव भवपाना बतलाया है तपस्या और संयमसे नहीं । इस प्रकार इन चारों उत्तरोंमेंसे किसीमें भी व्रत प्रत्याख्यानसे तथा व्रत प्रत्याख्यान पालते समय जो काय कष्ट होता है उससे देवता होना नहीं कहा है अतः व्रत प्रत्याख्यान से तथा उनका पालन करनेमें होने वाले काय कष्टसे देवता होनेकी प्ररूपणा एकान्त मिथ्या है। जबकि अल्पारम्भ और अल्पपरिग्रहादिसे श्रावक, देवता होते हैं तब उनका शुभ आशय से भोजन करना एकान्त पापमें कैसे हो सकता है ? यह बुद्धिमानों को स्वयं सोच लेना चाहिये । ( बोल २८ वां ) ( प्रेरक ) 66 भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १-२ पर लिखते हैं अथ ईहां पिr air गृहस्थादिक नो देवो संसार भ्रमण हेतु जागीने साधु त्याग्यो इमि को तो गृहस्थ में तो श्रावक पिण आयो तो ते श्रावकने दानरी साधु अनुमोदना क्रिम करे तिणमें धर्म पुण्य किम कहिए " इसका क्या समाधान ? ( ० पृ० १०२ ) ( प्ररूपक ) सुयगडांग सूत्र की गाथा लिख कर इसका समाधान दिया जाता है । वह गाथा यह है : " जेणेह णिव्यहे भिक्खू भत्तपाणं तहा विह अणुध्वपाण मन्नेसिं तंविज्जं परिजाणिया " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ सद्धममण्डनम्। (टीका) “ येन अन्नेन पानेनवा तथाविधेनेति सुपरिशुद्धन कारणापेक्षयात्वशुद्ध नवा इह अस्मिन् लोके इदं संयम यात्रादिकं दुर्भिक्ष रोगातङ्कादिकं वा साधुः निवेहेन्निवाह येद्वा तदन्नपार्नवा तथाविधं द्रव्यक्षेत्रकालभावापेक्षया शुद्ध कल्प गृहणीयात् । तथैतेषामन्नादीनामनुप्रदान मन्यस्मै साधवे संयमयात्रानिवणसमर्थमनुतिष्ठेत् यदि वायेन केन चिदनुष्ठितेन इदं संयम निर्वहेदसारतामापादयेत् तथाविधमशनं पान मन्यद्वा तथाविध मनुष्ठान नकुर्याद् तथैतेषामशनादीनामनुप्रदानं गृहस्थानां परतीथिकानां स्वयूथ्यानां वा संयमोपघातकं नानुशीलयेदिति तदेतत्सर्व ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा सम्यक् परिहरेत् ”। अर्थः संयति पुरुष, उत्सर्ग मार्गमें शुद्ध और कारणकी अपेक्षासे अशुद्ध जिस अन्न पानसे संयम और दुर्भिक्ष रोगातङ्कादिका निर्वाह करता हो वह अन्न प्रान द्रव्य क्षेत्र काल और भावकी अपेक्षासे शुद्ध तथा कल्पानुसार ही ग्रहण करे और उसी तरहका मन्न पान वह दूसरे साधुको भी संयम निर्वाहार्थ प्रदान करे। अथवा जिसके अनुष्ठान से साधुका संयम नष्ट हो जाय उस तरहका अन्न पान या और भी कोई अन्य कार्य साधु न करे। जिस अन्न पानसे साधुका संयम भ्रष्ट हो जाय ऐसा अन्न पान, गृहस्थ, स्वयूथिक, या परतीर्थीको साधु न देवे किन्तु ज्ञपरिज्ञासे इसे जानकर प्रत्याख्यान परिज्ञासे त्याग कर देवे। यह उक्त गाथांका टीकानुसार अर्थ है। ___ इस गाथामें जिस अन्न पानके द्वारा साधुका संयम भ्रष्ट हो जाता है उसे स्वयं लेना और दूसरेको देना वर्जित किया है परन्तु "गृहस्थको दान देना संसार भ्रमणका हेतु जान कर साधु छोड़ देवे" यह नहीं कहा है इसलिए इस गाथाकी साक्षी देकर गृहस्थके दानको संसार भ्रमणका हेतु बताना मूर्खताका परिणाम है । इस गाथाको लिख कर इसके नीचे भ्रमविध्वंसनकारने जो टब्बा अर्थ लिखा है वह भी न तो मूल पाठके शब्दोंसे निकलता है और न टीकासे ही मिलता है इसलिये वह महा अशुद्ध और मिथ्या अर्थका वोधक है उसका आश्रय लेकर गृहस्थके दानको संसार भ्रमणका हेतु बताना मिथ्या है। इस गाथाके चतुर्थ चागमें "तं.वे परिजागिया" यह वाक्य आया है खींचातानीमे यदि कोई इस वाक्यका अशी करे कि पूर्वोक कार्यको संपार भ्रमका हेतु जान कर साधु छोड़ देवे तो इस गाथा पूर्व गाथामें भी यही वाक्य आया है इसलिये उसे वहां भी यही अर्थ करना होगा । वह गाथा यह है: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धिकारः । " जस्स' कित्तिं सलोयंच जाय वंदण पूयणा सव लोगंसि जे कामा तं विज्जं परिजाणिया " अर्थात् यश, कीर्ति, श्लाघा, वंदन, पूजन और सांसारिक सकल कामनायें साधु को छोड़ देनी चाहिये । इस गाथामें भी "तं विज्जं परिजाणिया " यह पाठ आया है इस लिये साधुके वंदन पूजन और सत्कार सम्मानको भी संसार भ्रमणका हेतु हो मानना पड़ेगा । यदि कोई कहे कि यह बात साधुको अपने लिये कही गई है इस लिये साधु यदि अपनी वंदना आदिकी इच्छा करे तो यह उसके संसार भ्रमणका हेतु है परन्तु यदि गृहस्थ साधु का वंदन पूजन करे तो यह काय्यें बुरा नहीं है तो उसे कहना चाहिये कि इस गाथाके अनुसार ही २३ वीं गाथा भी साधुके लिये ही कही गई है इस लिये साधु यदि गृहस्थको अनुचित दान देवे तो उसको २३ वीं गाथामें बुरा कहा है परन्तु यदि गृहस्थ गृहस्थको अनुकम्पा दान देवे तो यह बुरा नहीं है । अतः सुय गडांग सूत्रकी २१ वीं गाथाका नाम लेकर गृहस्थको दिये जाने वाले गृहस्थोंके द्वारा अनुकम्पा दानको एकान्त पाप बताना अज्ञानियोंका का है । [ बोल १७३ २९ वां समाप्त ] ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १०३ के ऊपर निशीथ सूत्र उद्देशा १५ बोल ७८-७९ के मूल पाठों को लिख कर उनकी समालोचना करते हुए लिखते हैं —— "अथ ईहां गृहस्थने अशनादिक दियां अने देतांने अनुमोद्यां चौमासी प्रायश्चित्त aur ने श्रावक पण गृहस्थ इज छै ते मांडे गृहस्थने दान साधुने अनुमोदनों नहीं धर्म तो अनुमोद्यां प्रायश्चित्त क्यूं कह्यो धर्मरी सदा ही साधु अनुमोदना करेछै ।” इसका क्या समाधान ? ( भ्र० पृ० १०३ ) ( प्ररूपक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat निशीथ सूत्र उद्देशा १५ बोल ७८-७९ के मूल पाठका आशय यह है कि साधु यदि किसी गृहस्थको उत्सग मार्गमें अन्नादि देवे तो उसका अनुरोदन करने वाले साधु को प्रायश्चित्त आता है । यदि गृहस्थ किमी गृहस्थको अनुकम्पा दान देवे तो उसका अनुरोदन काने वाले माधुको प्रायश्चित्त बत ना इस पा का आशय नहीं है क्योंकि इस पाठके निकटवर्ती पाठ का इसी प्रकार का अर्थ है तदनुसार इस पाठका भी यही अर्थ होना उचित है । वह निकटवर्ती पाठ यह है : 1 : www.umaragyanbhandar.com Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धममण्डनम् । "जेभिक्खू अन्नउत्थियंवा गारत्थियंवा पज्जोसवेइ पजोसवं तंवा साइजई" अर्थात् जो साधु अन्य यूथिकको या, गृहस्थको पर्युषण कराता है या कराते हुए को अच्छा समझता है उसको प्रायश्चित्त आता है । यह इस पाठका अर्थ है। इसमें कहा है कि "गृहस्थ और अन्य तीर्थीको पर्युपग कराने वालेकी अनुमोदना करनेसे साधुको प्रायश्चित्त आता है" इसका आशय यही है कि साधु किसी गृहस्थको या अन्य तीर्थीको पर्युषण करावे तो उसकी अनुमोदना करने वाले साधुको प्रायश्चित्त होता है परन्तु यदि गृहस्थ किसी गृहस्थको पयुषग करावे तो उसका अनुमोदन करने वाले साधुको प्रायश्चित बतलानेका आशय नहीं है उसी तरह बोल ७८ और ७९ के पाठ का भी यही अभिप्राय है कि गृहस्थको उत्सर्ग मार्गमें दान देने वाले साधुको अनुमोदन करनेसे साधुको प्रायश्चित्त होता है परन्तु गृहस्थको दान देने वाले गृहस्थकी अनुमोदना करनेसे नहीं। यदि कोई यह बात न मान कर गृहस्थको अनुकम्पा दान देने वाले गृहस्थके अनुमोदन करनेसे भी साधुको प्रायश्चित्त बतावे तो फिर उसके हिसाबसे गृहस्थको या अन्य यूथिकको प्रतिक्रमण ( पय्युषग) कराने वाले गृहस्थके अनुमोदन करनेसे भी साधुको प्रायश्चित्त होना चाहिये तथा जिस कारयका साधु अनुमोदन नहीं करते ऐसे पय्युषण रूप कार्य करने और कराने वाले गृहस्थको एकान्त पाप होना चाहिये परन्तु यह बात शास्त्र सम्मत नहीं है पय्युषण करने वाले या कराने वाले गृहस्थ को तथा उसका अनुमोदन करने वाले साधुको एकान्त पाप नहीं होता उसी तरह गृहस्थ को अनुकम्पादान देने वाले गृहस्थको और उसका अनुमोदन करने वाले साधुको प्रायश्चित नहीं होता। अत: गृहस्थको अनुकम्पा दान देने वाले गृहस्थके अनुमोदन करनेसे साधुको पाप बताना मिथ्या है । भूमविध्वंसनकारने निशीथ सूत्र उद्देशा १५ बोल ७८ ओर ७९ के मूल पाठ का अर्थ पूर्वा पर सोचे बिना ही गृहस्थ को दान देने वाले गृहस्थके अनुमोदन करनेसे साधुको प्रायश्चित्त होना बताया है अत: उनके अविवेक पूर्ण और प्रकरण विरुद्ध अथके फंदेमें पड़कर अनुकम्पा दानको एकान्त पाप नहीं समझना चाहिये । निशीथ सूत्र में इस प्रकार के अनेकों पाठ मिलते हैं जिनका भूमविध्वंसनकारकी रीतिते अर्थ कान महान आयका कारण हो सकता है। जो कि निशीथ सूत्रमें यह भी पाठ आया है : ___ "जेभिक्खू वासावासं पजोसवो सि गामाणु गामं दुइज्जइ दुइज्जंतं वा साइज्जई" ( निशीथ सूत्र ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। अर्थात् जो साधु, पर्युषगके पूर्व वर्षा ऋतु में ग्रामानुग्राम विहार करता है या विहार करने वालेको अच्छा जानता है उसे प्रायश्चित्त आता है। जो साधु पर्युषणके अनन्तर वर्षा ऋतु में ग्रामानुग्राम विहार करता है या विहार करने वालेको अच्छा जानता है उसे प्रायश्चित्त आता है। इस पाठमें वर्षा ऋतुमें प्रामानुप्राम विहार करने वाले और विहार करने वालेका अनुमोदन करने वाले साधुको प्रायश्चित्त आना कहा है इस लिये जो साधु अपने गुरुका दर्शन करनेके लिये भी पावस ऋतुमें ग्रामानुग्राम विहार करता है उसको, और उसको अनुमोदन करने वाले साधुको दोनों ही को प्रायश्वित्त आता है। भ्रमविध्वंसनकारके मतसे जो श्रावक वर्षा ऋतुमें साधुदर्शनार्थ विहार करते हैं और जो साधु उस श्रावकको अच्छा जानते हैं उन दोनोंको उक्त पाठके अनुसार प्रायश्चित्त आना चाहिये। क्योंकि जैसे गृहस्थको दान देने वाले गृहस्थके अनुमोदन करनेसे साधुको प्रायश्चित्त होना भ्रमविध्वंसनकार मानते हैं उसी तरह वर्षा ऋतुमें साधु दर्शनार्थ ग्रामानुग्राम विहार करने वाले श्रावकको अच्छा जाननेसे भी साधुको प्रायश्चित्त मानना पड़ेगा। क्योंकि दान और विहारके सम्बन्धमें आये हुए पाठोंमें कोई विशेषता नहीं है जिससे इनके अर्थों में विशेपता हो, अतः जैसे गृहस्थको दान देने वाले गृहस्थ को अच्छा जाननेसे भ्रमविध्वंसनकार साधुको प्रायश्चित्त होना बतलाते हैं उसी तरह पावस ऋतुमें साधुदर्शनार्थ प्रामानुग्राम विहार करनेवाले श्रावकको अच्छा जाननेसे भी भ्रमविध्वंसनकारके मतानुयायी साधुओंको प्रायश्चित्त होना चाहिये यदि कहो कि पावस ऋतुमें विहार करनेवाले साधुको अच्छा जाननेसे प्रायश्चित्त बतलाना उक्त पाठका आशय है । साधु दर्शनाथ ग्रामानुप्राम विहार करनेवाले श्रावकको अच्छा जाननेसे प्रायश्चित्त कहनेका अभिप्राय नहीं है तो उसी तरह सरल बुद्धिसे समझो कि गृहस्थको दान देनेवाले साधुको अच्छा जाननेसे प्रायश्चित्त बतलाना निशीथके उस पाठका आशय है गृहस्थको दान देनेवाले गृहस्थको अच्छा जाननेसे प्रायश्चित्त बतलाना नहीं अतः निशीथ सूत्रका नाम लेकर श्रावकको धर्मपालनार्थ दान देनेसे एकान्त पाप कहना नितान्त मिथ्या है। भ्रमविध्वंसनकारने श्रावकको दिये जाने वाले दानमें एकान्त पाप सिद्ध करनेके लिये जो निशीथ सूत्रका मूल पाठ लिखा है उस पाठकी चूर्णीमें कारण पाकर साक्षात् साधुको भी गृहस्थ दानका विधान किया है वह चूणी मूल पाठके साथ लिखी जाती है : ___ "जेभिक्खू अण्णउत्थिएणवा गारथिएणवा असणं वा ४ देयह देयन्तं वा साइजइ जेभिक्ख अण्ण उत्थिएण वा गरथिएण वा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धममण्डनम् । वत्थंवा परिग्गहंवा कम्वलंवा पायपुच्छणं वा देयह देयंतं वा साइजइ" (निशीथ सूत्र) (चूर्णी) “दुल्लहे भत्त पाण डंडिय माहिणा साहारणदिन्नं तत्थ ते गिही अन्नतीत्थिया विभज्जाएयवा अहते अनिच्छा साधु भणेज्जा अहंतेपन्ना ताते साहू विभज्जति साधुणा विभयंतेणं सव्वेसिं वहु समग्गमेव विभईव्वं एसुवदेसो" (निशीथ चूर्णी) अर्थ : किसी अकाल और दुष्कालके समय दाता पुरुष अन्य तीर्थी, गृहस्थ और साधुको शामिल में ही भिक्षा लाकर देवे तो साधु उस आहारका विभाग अन्य तीर्थी और गृहस्थोंसे ही करावे । यदि वे स्वयं विभाग न करके साधुसे ही विभाग करानेकी इच्छा प्रकट करे तो साधु बराबर बराबर बांट कर सबको दे देवे यही शास्त्रका उपदेश है। इस चूर्णीमें स्पष्ट लिखा है कि "कारण पड़ने पर साधु अन्य तीर्थी और गृहस्थ को शामिलमें मिली हुई भिक्षा बांट कर दे देते हैं" अत: साक्षात् साधु भी जब कारण पड़ने परं अन्य तीथों और गृहस्थ को देता है तब यदि हीन दीन दुःखी जीव पर दया करके कोई गृहम्थ दान देवे तो उसमें एकान्त पाप कैसे हो सकता है ? कारण पड़ने पर साधु भी गृहस्थको देते हैं यह केवल निशीथ सूत्रकी इस चूर्णी में ही नहीं आचारांग सूत्रके मूलपाठमें भी कहा है वह पाठ यह है : "सेभिक्खवा २ सेजं पुण जाणिज्जा समणं वा माहणं वा गामपिण्डोलगं वा अतिहिं वा पुवपविट्ठ पेहाए नो तेसिं संलोए सपडि दुवारे चिट्ठिज्जा से तमायाय एगंत मवक्कमेजा अवक्कमित्ता अणावायमसंलोए चिहिज्जा ससेपरो अणावाय मसंलोए चिट्ठमाणस्स असणं वा ४ आहढ दलइज्जा सेयएवं वएज्जा आउसंतो समणा ! इमेभेअसणे सव्वजणाए निसि? तं मुंजह वाणं परिभाएहतंचे गइओ पडिग्गाहित्ता तुसीणिओ उवेहिज्जा । अवि आई एयं मम मेव सिया माइट्ठाण सेफासे नो एवं कारिज्जा स तमायाए तत्थगच्छिज्जा. से पुवामेव आलोइज्जा आउसन्तो! समणा ! इमे भे असणे वा ४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः । १७७ सव्वजणाए निसि तं भुजह वाणं जाव परिभाएहवाणं सेणं मेगं वयन्तं परो वएज्जा आउसन्तो समणा ! तुमं चेवणं परिभाएहि सेतत्थ परिभाएमाणे नो अप्पणो खद्ध खद्' डायं डायं ऊसढं कसढं रसियं रसियं मणुन्नं मन्नं निद्ध' निद्ध लुक्खं लुक्खं से तत्थ अमुच्छिए अगिद्ध अगदिए अणज्झोववन्ने बहु सममेव परिभा इज्जा | सेणं परिभाएमाणं परोवएज्जा आउसन्तो समणा ! माणं तुमं परिभाएहि सव्वे वेगइया ठिआउ भुक्खामो से तत्थ भुजमाणे अपणा खद्ध खद्ध जाव लुक्खं से तत्थ अमुच्छिए ४ बहु सममेव भुजिज्जा पाइज्जा वा" अथः -- ( आचारांग सूत्र ) किसी ग्राम या नगरमें भिक्षाके लिये गये हुए साधु को यह मालूम हो जाय कि "इस गृहमें कोई दूसरा भिक्षुक भिक्षाके निमित्त गया हुआ है” तो साधु दाता और याचकके असन्तोष तथा अन्तरायके भय से उनके सम्मुख न खड़ा रहे तथा उस गृहके द्वार पर भी न ठहरे वहांसे इट कर किसी एकान्त स्थानमें चला जाय और जहां मनुष्योंका गमनागमन न होता हो तथा दाता और याचककी दृष्टि न पड़ती हो वहां जाकर ठहरे। ऐसे स्थानमें ठहरे हुए साधुके पास आकर वह गृहस्थ यदि चतुर्विध आहार देकर कहे कि 'हे आयुष्मन् श्रमण ! आज आप बहुतसे भिक्षुक भिक्षार्थ मेरे घर पर आ गये हैं परन्तु मैं किसी कार्य विशेषमें फंसा हुआ हूं अतः अलग अलग बांट कर आप लोगोंको भिक्षा देनेमें असमर्थ हूं यह चतुर्विध आहार आप सबको इकठ्ठा ही देता हूं आप लोग अपनी इच्छानुसार इसे एक साथ ही खा लेवें या बांट बांट कर खांय" तो साधु उत्सर्ग मार्ग में उस आहारको न लेवे परन्तु दुर्भिक्ष आदिके समय या मार्गकी थकावटकी हालत में साधु समिक्षाको ले सकता है उसे लेकर साधु यदि यह सोचे कि "यह भिक्षा गृहस्थने मुझको दी है और यह है भी थोड़ी इस लिये इसे मैं अकेला ही खा जाऊ" तो वह कपटी है ऐसा का साधुको कदापि न करना चाहिये अतः उस भिक्षाको लेकर साधु दूसरे भिक्षुकोंके पास जावे और उन्हें दिखा कर कहे कि हे श्रमणो ! यह आहार आप सभी लोगोंके लिये गृहस्थाने इकठ्ठा ही दिया है इस लिये आप इसे इकठ्ठा ही खा लेवें या बांट बांट कर खांय । यह सुन कर यदि कोई भिक्षुक यह कहे कि हे आयुष्पन श्रमण ! आप ही इसे बांटकर हम सबको दे देवें तो उत्सर्ग मार्ग में साधु इस बात को स्वीकार न करे। यदि अपवाद मार्गमें साधुको बांधना पड़े तो वह लोभमें आकर सुन्दर, सुगन्ध, चिकने रूखे और मनोज्ञ आहार अपने हिस्से में अधिक न लेवे किन्तु सभी चीजोंका २३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ सद्धर्ममण्डनम् । समान विभाग करे । विभाग करते समय यह ध्यान रक्खे कि सभी हिस्से प्रायः समान ही हों। उस समय यदि कोई यह कहे कि हे आयुष्मन् श्रमण ! आप इसे न बांटें हम सब इसे साथ ही खा लेंगे तो साधु परतीर्थियोंके साथ भोजन न करे, अपने यूथके पार्श्वस्थ और संभोगिक साधुके साथ आलोचना लेकर खावे । खाते समय उन आहारों में साधु मूञ्छित न होवे और अच्छी अच्छी चीजें साथ खाने वालोंसे ज्यादा न खा जाय, समान ही खावे। यह इस पाठका टीकानुसार अर्थ है। यहां अपवाद मार्गमें दूसरे भिक्षुकोंके शामिलमें मिली हुई मिक्षाको बांट कर दे देना साधुके लिये कहा है इस लिये अपवाद मार्गमें साधु भी गृहस्थ और अन्य तीर्थी को देते हैं । जब कि साधु भी अपवाद मार्गमें अन्य तीर्थी और गृहस्थको देते हैं तब यदि कोई गृहस्थ किसी गृहस्थको दान देकर उसके धमकी रक्षा करे तो इसमें एकान्त पाप कैसे हो सकता है ? अतः निशीथ सूत्र उद्देशा १५ बोल ७८-७९ के मूल पाठका नाम लेकर गृहस्थको अनुकम्पा दान देनेमें एकान्त पाप बताना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये। (प्रेरक) भ्रमविध्वंसन कार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १०३ के ऊपर लिखते हैं "इण निशीथने पनरमें उद्देशे एहवा पाठ कया छै- “जेभिक्खू सचिरी अम्वं भुजइ भुजंतं वा साइज्जई" इहां कयो सचित्त आंवो भोगवे भोगवताने अनुमोद्य तो प्रायश्चित्त आवे । जो साधु भोगवतो हुवे तेहने अनुमोदनो नहीं तो गृहस्थ आंवो भोगवे तेहने साधु किम अनुमोदे जो गृहस्थरा दानने साधु अनुमोदे तो तिणरे लेखे आंवो गृहस्थभोगवे तेहने पिण अनुमोदणो" (भू० पृ० १०३) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) आम्र फल वाले पाठके दृष्टान्तसे गृहस्थके दानको एकान्त पापमें स्थापन करना मिथ्या है । सचित्त आम्रके खाने में प्रत्यक्ष जीव हिंसा होती है इस लिये साधु उसका अनुमोदन नहीं कर सकते चाहे गृहस्थ सचित्त आम्र खावे या साधु खावे साधु दोनों ही को बुरा जानते हैं परन्तु यह बात गृहस्थके दानमें नहीं घटती । गृहस्थ यदि किसी गृहस्थ पर अनुकम्पा करके अचित्त अन्न और अचित्त दधि आदि पदार्थ देवे तो उसमें कौनसी जीवहिंसा होती है जिससे साधु उस अनुकम्पाका अनुमोदन न करे। साधु हिंसाका अनुमोदन नहीं करते अनुकम्पाका अनुमोदन करते हैं अतः सचित्त आम्र फल वाले पाठका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १७९ दृष्टान्त देकर दीन हीन दुःखी जीवको अनुकम्पा दान देनेमें एकान्त पाप बसलाना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये । (बोल २९ वां समाप्त) (प्रेरक) गृहस्थको दान देनेसे यदि पुण्य होता है तो साधु भी उत्सर्ग मार्ग में गृहस्थको दान क्यों नहीं देता तथा निशीथ सूत्र में गृहस्थको दान देने वाले साधुको प्रायश्चित्त आना क्यों कहा गया है ? इसका उत्तर दीजिये ? (प्ररूपक) गृहस्थ तथा अन्य तीथी के ऊपर अनुकम्पा लाकर दान देनेसे एकान्त पाप होना जान कर निशीथ सूत्रमें साधुको गृहस्थ दानका निषेध नहीं किया है, किन्तु, ज्ञान, दर्शन मौर चारित्र रूप विशाल धर्मको छोड़ कर अनुकम्पा दान रूप एक साधारण पुण्यका लोभ करना साधु के लिये वर्जित किया गया है । अनुकम्पा दानका पुण्य लाभ तो गृहस्थावस्थामें भी किया जा सकता है परन्तु ज्ञान दर्शन और चारित्र रूप धर्मका लाभ गृहस्थावस्थामें पूर्णतया नहीं हो सकता इसीलिये गृहस्थावस्थाको छोड़कर दीक्षा ग्रहण की जाती है। दीक्षा लेने का उद्देश्य ज्ञान दर्शन और चारित्र की उन्नति करना है उस मुख्य उद्देश्यको छोड़ कर अनुकम्पा दान आदि साधारण पुण्यके कार्यमें प्रवृत्त होना साधुके लिये अनुचित और उसकी अवनतिका कारण है। जैसे कोई रत्नका व्यापारी रत्नके व्यापारको छोड़ कर पैसेके व्यापारमें प्रवृत्त हो जाय तो उसके लिये यह उचित नहीं कहा जा सकता यद्यपि उसको पैसेके व्यापारमें केवल घाटा ही नहीं लाभ भी होता है तथापि रनके व्यापारमें होने वाले लाभकी अपेक्षासे वह लाभ बहुत ही निकृष्ट है उसी तरह जो साधु शान दर्शन और चारित्रका व्यापार छोड़ कर अनुकम्पा दान जैसा एक साधारण पुण्यके व्यापारमें प्रवृत्त होता है वह महान लाभको छोड़ कर एक साधारण लाभका कार्य करता है इसी लिये शास्त्रमें यह कार्य साधुको अनुचित कहा गया है, यह नहीं कि अनुकम्पा दानसे एकान्त पाप होना जान कर गृहस्थ दानका निषेध किया गया हो। यदि कोई कहे कि-गृहस्थको दान देनेसे साधुके ज्ञान दर्शन और चारित्रकी उन्नतिमें क्या बाधा होती है ? तो उसे कहना चाहिये कि साधुको अपने शरीरके निर्वाहसे अधिक भोजन लेना कल्पता नहीं है ऐसी दशामें यदि साधु अन्य तीथीं और Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० सधममण्डनम् । गृहस्थको अनुकम्पा दान देवे तो उसे अपने आहारसे अधिक भोजन लेने की आवश्यकता होगी और अपने आहार से अधिक भोजन लेने पर साधुकी निरवद्य भिक्षा वृत्ति नहीं कायम रह सकती, तथा उसके चारित्रमें बाधा और गृहस्थोंके साथ परिचय भी बढ़ता है इसी कारण से निशीथ सूत्रमें साधुको गृहस्थ दानका निषेध किया है एकान्त पाप जान कर नहीं । निशीथ सूत्रमें शिथिलाचारी साधुके अन्न, वस्त्र, कम्बल आदि लेनेसे साधु को प्रायश्चित्त होना कहा है वह पाठ यह है : "जे भिक्खू पासत्थस्स असणं पाणं खाइमं साइमं पडिच्छइ पडिच्छतं वा साइज्जइ । जे भिक्खू पासत्थस्स वत्थंवा पडिगह' वा कम्वलं वा पाय पुच्छणं वा पडिच्छइ पडिच्छतं वा साइज्जइ” ( निशोथ सूत्र ) अर्थात् जो साधु शिथिलाचारो साधुके अन्न, पान, खाद्य स्वाद्य, वस्त्र परिग्रह, कम्बल ओर पाद प्रोच्छन लेता है था लेने वालेको अच्छा जानता है उसे प्रायश्चित्त होता है । इस पाठ में शिथिलाचारी साधुके अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, परिग्रह, कस्त्रल और पाद प्रोक्छन लेनेसे साधुको प्रायश्चित्त होना कहा है । यहां यह प्रश्न उठता है कि साधु तो गृहस्थसे भी इन चीजोंको लेता है और गृहस्थ शिथिलाचारी साधुकी अपेक्षा बहुत ही न्यून है अतः जब गृहस्थसे इन चीजों को लेना साधुके लिये बुरा नहीं है तो फिर शिथिलाचारी साधुसे लेना क्यों दोषका कारण होता है ? इसका उत्तर यही है कि शिथिलाचारी साधुसे लेने देनेका व्यवहार रखने पर साधुको संसर्ग दोष से स्वयं भी शिथिलाचारी हो जानेकी आशंका हैं इस आशंका के कारण ही निशीथ उक्त पाठमें शिथिलाचारी साधुसे अन्न वस्त्रादि लेने देनेका निषेध किया गया है शिथिलाचारी साधुसे लेने में एकान्त पाप जान कर नहीं उसी तरह ज्ञान, दर्शन और चारित्रकी उन्नति में बाधा पड़ती देख कर निशोथ सूत्रमें साधुको गृहस्थ दानका निषेध किया है एकान्त पाप जान कर नहीं उत्तराध्यन सूत्र अध्ययन १ गाथा ३५ में चारों ओरसे घिरे हुए स्थान में साधुको भोजन करने का विधान किया गया है। इसका अभिप्राय बतलाते हुए टोका कारने यह लिखा है "तत्रापि प्रतिच्छन्ने उपरि प्रावरणान्विते अन्यथा संपातिम सत्व संपात संभवात् । संकटे पार्श्वतः कट कुड्या दिना संकट द्वारे अटव्यां कुडङ्गादिषुवा अन्यथा दीनादियाचने दानादानयोः पुण्यबंध प्रद्वेषादि दर्शनात्” अर्थात् ऊपरसे घिरे हुए मकान में साधुको भोजन करना चाहिये नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १८१ तो उड़ने वाले जीव वहां आ सकते हैं । तथा दीवाल या चटाईके द्वारा चारों तर्फ से घिरे हुए मकानमें साधुको आहार करना चाहिये अन्यथा दीन दुःखीके मांगने पर देनेसे पुण्य बन्ध और नहीं देनेसे विद्वेष होता है। यहां टीकाकारने हीन दीन दुःखो जीवको दान देनेसे पुण्य होना बतलाया है एकान्त पाप होना नहीं परन्तु ऐसे सामान्य पुण्यके कार्यामें साधुको प्रबृत्त होना उचित नहीं है इसलिए उत्तराध्ययन सूत्रमें साधुको खुली जगहपर भोजन करना निषेध किया है। साधु हीन दीन दुःखी जीवोंको अनुकम्पा दान स्वयं नहीं देता इसलिये यदि कोई अनुकम्पा दानमें पाप ठहरावे तो भगवतोका निम्न लिखित पाठ दिखला कर उसका भ्रम दूर करना चाहिये । वह पाठ यह है-. “निग्गंथ चणं गाहावइ कुल पिण्डवायपडियाए अणुप्प विट्ठ केई दोहि पिण्डेहिं उव निमन्तेज्जा। एगं आयुस्ते अप्पणा भुजाहि एगं थेराणं दलयाहि सेय तं पिण्ड पडिग्गाहेज्जा थेरायसे अणुगवेसियवासिया जत्थेव अणुगवेसमाणे शेरे पासिज्जा तत्थेवाणुप्पदायव्वे सिया नो चेवणं अणुवेसमाणे थेरे पासिज्जा तं नो अप्पणा भुजेज्जा नो अन्नेसिं दावए एगते अणावाए अचित्ते बहु फासए थण्डिले पडिले हित्ता पमज्जित्ता परिहावे सिया" (भगवती शतक ८ उद्देशा ६) अर्थः- गृहस्थके घर पर मिक्षार्थ गए हुए साधुको कोई गृहस्थ दो पिण्ड (ला) लाकर देवे और कहे कि " हे आयुष्मन् श्रमण ! इनमेंसे एक पिण्ड तो आप स्वयं खा लेमा और दूसरा स्थविरको देना" तो साधु उन दोनों पिण्डोंको लेकर स्वविरकी गवेषणा करे जहां स्थविरको देखे वहां जाकर वह पिण्ड उसे दे देवे । यदि ढूंढनेपर भी स्थविर न मिले तो वह पिण्ड साधु स्वयं न खावे और दूसरे किसी साधुको भी न देवे किन्तु एकान्स बहु प्रासक स्थानपर पूल और पडिलेहन करके परठ देवे । यह इस पाठका अर्थ है। इसमें कहा हैं कि “ स्थविरको दानार्थ गृहस्थसे मिला हुआ पिण्ड, स्थविरके न मिलनेपर साधु किसी दूसरे साधुको न देवे" तुम्हारे हिसाबसे साधुको देने में भी पाप कहना चाहिये क्योंकि स्थविरको देनेके लिए मिला हुआ पिण्ड, किसी साधुको भी साधु नहीं देता। यदि कहो कि वह पिण्ड, साधुने स्थविरको देनेको प्रतिज्ञासे लिया है इसलिए उसे बह दूसरे साधुको नहीं देता लेकिन साधुको देनेमें पाप नहीं है तो उसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ सद्धर्ममण्डनम् । तरह साधुने अपना और अपने सांभोगिक साधुको खानेके लिये भिक्षा गृहस्थसे ली है दूसरे किसीको देनेके लिये नहीं इसलिये वह अपना भिक्षान्न किसी गृहस्थ या अन्य तीर्थीको नहीं देता परन्तु गृहस्थ या अन्य तीर्थीको अनुकम्पा दान देना एकान्त पाप नहीं है अतः गृहस्थ या अन्य तीर्थीको अनुकम्पा दान देने में एकान्त पाप कहना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिए। (बोल ३० वां समाप्त) (प्रेरक) ___ साधुसे इतरको दान देनेसे पुण्यबन्ध होना यदि कहीं मूल पाठमें लिखा हो तो उसे बतलाइए ? (प्ररूपक) - साधुसे इतरको अनुकम्पा दान देना पुण्यका कार्य है यह दश वैकालिक सूत्रमें लिखा है वह गाथा यह है: " असणं पाणगंवापि खाइमं साइमं तहा जं जाणिज्ज सुणिज्जावा पुणट्ठा पगड इमं तं भवे भत्तपाणं तु संजयाणं अकप्पिय दितियं पडियाइक्खे नमे कप्पइ तारिसं" (दशवैकालिक सूत्र अ० ५ उ० १ गाथा ४९-५०) । अथ: भिक्षाचरीके निमत्त गया हुआ साधु, यदि यह जाने या सुने कि यह अशन पान खाद्य और स्वाद्य पुण्यार्थ बनाया गया है तो उसे अपने लिये अकल्पनीय समझे। वह अन्न यदि कोई देने लगे तो साधु न लेवे और पुण्यार्थ बनाया हुआ अन्न मुसको नहीं कल्पता यह कह देवे। ____ इन गाथाओंमें साधुसे इतरको देने के लिये बनाये हुए अन्नको “ पुण्यार्थ" कहा गया है। यदि साधुसे इतरको दान देनेसे एकान्त पाप होता तो इस पाठमें वह अन्न " पापार्थ प्रकृत" कहा जाता अतः साधुसे इतरको दान देनेसे एकान्त पाप कहना अज्ञानका परिणाम है । जिसके घरमें साधुसे इतरको देनेके लिये अन्न बनाया जाता है टीकाकारने उसे शिष्ट कहा है । वह टीका यह है "पुण्यार्थ प्रकन परित्यागे शिष्ट कुलेषु वस्तु तो मिक्षाया अग्रहणमेव शिष्टानां पुण्यार्थमेव पाक प्रक्रोः" - टीकाकारने मूलके गूढ आशयको प्रकट करनेके लिये शक्य करते हुए यह लिखा है कि " पुण्यार्य बनाया हुआ अन्न यदि साधु नहीं लेता तो फिर वह शिष्ट लोगोंके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। घरोंमें मिक्षा ले ही नहीं सकता क्योंकि शिष्ट लोगोंकी पुण्यार्थ ही पाक्रमें प्रवृत्ति होती है" इसका समाधान आगे दिया गया है लेकिन प्रकृतानुपयोगी होनेसे वह नहीं लिखा गया है। यहां टीकाकारने साधुसे इतरको दान देनेके लिये जिसके घरमें अन्न बनाया जाता है उसे शिष्ट कहा है एकान्त पापी नहीं कहा इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधु से इतरको दान देना एकान्त पाप नहीं है उसमें पुण्य भी होता है। अतः साधुसे इतर हीन दीन हीन दुःखी जीवपर दया लाकर दान देनेमें एकान्त पाप कहना अज्ञानियोंका कायं समझना चाहिये। (बोल ३१) (प्रेरक) श्रावकोंकी सेवा भक्ति और दान सम्मान करनेका विधान यदि कहीं मूल पाठमें किया हो तो उसे बतलाइये। (प्ररूपक) भगवती सूत्र शतक २.उद्देशा ५ के मूल पाठमें श्रावकोंकी सेवा भक्ति करनेका स्पष्ट विधान किया है । वह पाठ अर्थके साथ लिखा जाता है। "तहारवेणं भन्ते ! समणं वा माहनं वा पज्जुवासमाणस्स किं फला पज्जुवासणा ? गाण फले सेणं भन्ते ! गाणे किं फले विण्णाण फले सेणं भन्ते ! विण्णाणे किंफले पञ्चक्खाणफले सेणं भन्ते ! पञ्चक्खाणे कि फले सनम फले सेणं भन्ते ! सञ्जमे किं फले अणह्णय फले एवं अणह्णए तवफले, तवेवोदारण फले, वोदारणे अकिरिया फल सेणं भन्ते ! अकिरिया कि फला सिद्धि पज्जवसाग फला पण्णत्ता गोयमा!" (भग० श० २ उ०५) अर्थः (प्रभ) हे भगवन् ! तथा रूपके श्रमण ( साधु ) और माहन (श्रावक ) की सेवा करनेका क्या फल है ? (उत्तर ) हे गोतम ! तथारूपके श्रमण और माहनकी सेवा करनेका शास्त्र श्रवण फल है। और शास्त्रके श्रवण करनेका पदार्थ ज्ञान फल है इसी तरह पदार्थ ज्ञानका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ सद्धंममण्डनम् । फल विज्ञान, विज्ञानका फल प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यानका फल संयम, संयमका फल आस्रवोंका निरोध, आस्रव निरोधका फल तप, तपका फल कर्मो का क्षय, कर्म क्षयका फल क्रियाका अभाव और क्रियाके अभावका फल मोक्षकी प्राप्ति है। यह इस पाठका अर्थ है। इस पाठमें जैसे तथारूपके श्रमण की सेवा करनेका फल शास्त्र श्रवणसे लेकर मोक्षकी प्राप्ति तक कहा है उसी तरह माहन (श्रावक ) की सेवाका फल भी कहा है अतः श्रावककी सेवा भी शास्त्र श्रवणसे लेकर मोक्ष पर्यन्त फल देने वाली है यदि कोई कहे कि " इस पाठमें श्रमण और माहनकी सेवाका फल कहा गया है श्रावककी सेवा का फल नहीं कहा है" तो उसे कहना चाहिये कि " श्रमण" नाम साधुका और "माहन” नाम श्रावकका है इसलिये इस पाठमें साधु और श्रावक दोनोंकी सेवाका फल कहा है। इस पाठकी टीकामें टीकाकारने "माहन" शब्दका अर्थ श्रावक किया है वह टीका यह है-" श्रमणः साधुर्माहनः श्रावकः " अर्थात् “ श्रमण." नाम साधुका और “ माहन " नाम श्रावकका है अतः माहन शब्दका श्रावक अर्थ होनेमें कोई संशय नहीं है। इस टीकाके सिवाय दूसरे स्थलकी टीकाओंमें भी "माहन" शब्द. का श्रावक अर्थ किया है। भगवती सूत्र शतक १ उद्देशा ७ में मूल पाठ आया है कि "तहारूवस्स समणस्स माहणस्सवा अन्तिए एगमपि आरिय धम्मियं सुवयणं सोचा" इस पाठमें आये हुए माहन शब्दका टीकाकारने श्रावक अर्थ ही किया है वह टीका यह है "माहने त्येव मादिशति स्थूल प्राणातिपातादि निवृत्त त्वाद्यः स माहनः । अर्थात् जो स्वयं स्थूल प्राणातिपात आदिसे निवृत्त होकर दूसरेको न मारनेका उपदेश देता है वह " माहन" कहलाता है। वह पुरुष श्रावक है क्योंकि जो स्थूल प्राणातिपातसे निवृत्त है वही श्रावक है। उस श्रावककी सेवा करनेका फल शास्त्र श्रवण से लेकर मोक्ष पर्यन्त कहा है इस लिए श्रावकको अन्नादि द्वारा सेवा करनेमें एकान्त पाप बतलाना उत्सूत्र वादियोंका कार्य्य है। कई जीवोंने श्रावकके धर्मोपदेशसे कल्याण का लाभ किया है। जितशत्रु राजाने सुवुद्धि नामक श्रावकके धर्मोपदेशसे सम्यक्त्व और बारह व्रतका ला लाभ किया था, उस श्रावकको कुपात्र कहना और उसकी सेवा भक्तिको एकान्त पापमें ठहराना कितना अन्याय है यह सभी बुद्धिमान समझ सकते हैं। बोल ३२ वां समाप्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १८५ (प्ररूपक) ठाणांग सूत्रके दशवें ठाणामें प्रवचनको वत्सलतासे भविष्यमें कल्याण होना बतलाया है । टीकाकारने प्रवचन वत्सलताका अर्थ यह किया है "प्रकृष्ट प्रशस्त प्रगतं वा वचनम् आगमः प्रवचनं द्वादशाङ्गतदाधारोवा संघः तस्य वत्सलता हितकारिता प्रत्यनीकत्वादिनिरासेनेति प्रवचनवत्सलता तया" अर्थात् सबसे उत्तम आगमको प्रवचन कहने हैं वह प्रवचन, द्वादशाङ्ग है अथवा उस द्वादशाङ्गके आधारभूत साधु साध्वी श्रावक और श्राविकाओंको प्रवचन कहते हैं उसके विन्न आदिको हटा कर हित संपादन करना “प्रवचन वत्सलता" है इससे जीव को भविष्य में कल्याण प्राप्त होता है। यहां साधु साध्वी श्रावक और श्राविकाओंका इकट्ठा ही हित करना भावी कल्याणका कारण कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधु साध्वी की तरह श्रावक और श्राविकाओंका हित करना भी भावी कल्याणका कारण है। इससे चतुर्विध संघकी रक्षा होती है जो कि शासन रक्षार्थ परमावश्यक है अतएव उत्तराध्ययन सूत्रके २८ वें अध्ययनमें अपने सहधर्मी भाईका आहार पानीके द्वारा उचित सत्कार करना सम्यक्त्व का आचार कहा गया है वह पाठ यह है : "निस्संकिय निक्कंखिय निवित्तगिच्छं अमूढदिट्ठीय । लव वह थिरी करणं वच्छलप्पभावणेऽटते" (उत्तराध्यन अ० २८) अर्थः (१) सर्वज्ञभाषित शास्त्रमें देशसे या सर्वसे शंका न करना (२) सर्वज्ञभाषित शास्त्रसे भिन्न शास्त्रकी इच्छा न करना । (३) साधुओंकी निन्दा और तपके फलमें सन्देह न करना (४) कुतीर्थी को धनवान देख कर उसके धर्मको श्रेष्ट और अपने धर्मको बुरा न मानना । (५) ज्ञान दर्शन सम्पन्न पुरुषकी प्रशंसा करना । (६) धर्माचरण करनेमें कष्ट पाते हुए पुरुष को धर्ममें स्थिर करना । (७) अपने सहधर्मी भाईको भात पानी आदिसे उचित सत्कार करना (८) अपने धर्मकी उन्नतिके लिये सदा चेष्टा करना । ये आठ समकितके आचार हैं। ___ इस उत्तराध्ययन सूत्रकी गाथामें सहधर्मी भाईको भात पानी आदिके द्वारा उचित सत्कार करना सम्यक्त्व का आचार पालन करना कहा है इस लिये श्रावककी भात पानीके द्वारा सेवा करना एकान्त पाप नहीं किन्तु समकितका आचार पालन करना है इसे एकान्त पाप बताना मूल्का कार्य है। कोई कहते हैं 'सहधर्मी' नाम साधुनहै श्रावकका नहीं इस लिये साधुको भात पानी आदिके द्वारा उचित सत्कार करना है 'सहधर्मि वत्सलता' है श्रावकका सत्कार करना नहीं जैसे कि जीतमलजीने लिखा है: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ सद्धममण्डनम् । "अने साधर्मी पिण साधु साध्वियांने इज कह्या छै । किणहीक देशे लोकरूढ़ भाषा श्रावकांने साधर्मी कही बोलावियेछै ते रूढ़ भाषाए नाम है" ( ० पृ० २६१ ) यह इनका कथन एकान्त मिथ्या है। 'सहधर्मी' शब्द समान धर्मवालोंका वाचक है इस लिये साधुका सहधर्मी साधु और श्रावकका सहधर्मी श्रावक है । तथा एक मान्यता रूप धर्मको लेकर साधु भी श्रावकका सहधर्मी है । व्यवहार सूत्रके दूसरे उद्दे शेके भाष्यमें प्रवचनके द्वारा श्रावकका सहधर्मी साधु और श्रावक दोनों कहे गाथा यह है : गये हैं । वह भाष्य की "पवयण संघ गयरो लिङ्ग स्यहरण मुहपत्ती" ( टीका ) 'पवयण' त्ति प्रवचनतः सहधर्मिकः संघ मध्ये एकतरः श्रमणः श्रमणी श्रावकः श्राविका चेति । लिङ्गतु लङ्गितः साधर्मिकः रजोहरण मुह पोत्तिका युक्त: " अर्थात् साधु साध्वी श्रावक और श्राविका इनमेंसे कोई भी प्रवचन के द्वारा साधर्मिक होता है । और रजोहरण तथा भुख वस्त्रिकासे युक्त लिङ्गके द्वारा साधर्मिक है । यहां भाष्य और उसकी टीका में प्रवचन के द्वारा श्रावकको भी साधर्मिक कहा है तथा इस भाष्य १५ व गाथाकी टीकामें लिङ्ग और प्रवचनके द्वारा साधर्मिकोंकी एक चौभंगी कही गई है उसके दूसरे भंगमें श्रावक कहा गया है वह टीका यह है : “तथा प्रवचनतः साधर्मिको न पुनः लिङ्ग लिङ्गतः एष द्वितीयः केते एवं भूता इत्याह-दश भवंति सशिखाकाः अमुण्डितशिरस्का: श्रावका इति गम्यते । श्रावकाहि दर्शन व्रतादि प्रतिमा भेदेन एकादश विधाः भवति तत्र दश सकेशाः एकादश प्रतिमा प्रतिपन्नस्तु लुंचित शिराः श्रमणभूतो भवति तत स्तद्व्यवच्छेदाय सशिखाक ग्रहणम् एते दश सशिखाकाः श्रावकाः प्रवचनतः साधर्मिका भवंति तेषां संघान्तर्भूतत्वात् नतु लिङ्ग तो रजोहरणादि लिङ्ग रहितत्वात्" अर्थ : जो प्रवचन के द्वारा साधर्मिक है और लिङ्गके द्वारा नहीं है वह दूसरा भंगका स्वामी है । वह कौन है ? यह बतलाया जाता है जिनका शिर मुण्डित नहीं है, जो शिखाधारी हैं वे दशप्रकारके श्रावक दूसरे भंग के स्वामी हैं । दर्शन, व्रतादि और प्रतिमाके भेदसे ११ प्रकारके श्रावक होते हैं । उनमें दश शिखाधारी और एग्यारहवां लुब्चित शिर वाला साधुके सदृश होता है उसकी व्यावृत्तिके लिये दूसरे भंगमें शिखाधारी श्रावक कहा गया है। ये दश शिखाधारी श्रावक प्रवचनसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १८७ सार्मिक होते हैं । वे चतुर्विध संघमें माने जाते हैं इस लिये प्रवचनसे साधर्मिक हैं परन्तु लिङ्गसे नहीं क्योंकि रजो हरण और मुख वस्त्रिका उनके नहीं हैं। यह उक्त टीका का अर्थ है। ____ यहां टीकाकारने प्रवचनके द्वारा श्रावक को साधर्मिक कहा है इस लिये श्रावक भी श्रावकका साधर्मिक है अतः उसको वत्सलता करना प्रवचन वत्सलता रूप सम्यक्त्व का आचार पालन करना है एकान्त पाप नहीं इसलिये श्रावककी वत्सलता करनेमें एकान्त पाप कहना शास्त्र विरुद्ध और एकान्त मिथ्या समझना चाहिये। ( बोल ३३ वां समाप्त) (प्ररूपक) भगवती शतक १२ उद्देशा में अपनेसे श्रेष्ठ सहधमी भाईको भोजन देना, पोषध धर्मकी पुष्टिमें माना है वह पाठ यह है : _ "तएणं अम्हे तं विमुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसादे माणा विस्साएमाणा परिभाएमाणा परिभुजेमाणा पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामो" (भगवती शतक १२ उ०१) अथ: शल श्रावकने कहा कि हे देवानु प्रिय ! आप, विपुल अशन पान खाद्य और स्वाद्य तैयार करावें हम लोग अशनादि चतुर्विध आहार खाकर पोषध करेंगे। यहां अपने सहधर्मीभाईको भोजन कराना पोषध धर्मकी पुष्टिमें माना है इस लिये श्रावकको भोजनादि देकर धर्ममें उसकी श्रद्धा बढ़ाना एकान्त पाप नहीं किन्तु पोषध धर्मकी पुष्टि है। यदि कोई कहे कि पोषधमें आहार त्याग करनेका विधान किया गया है फिर यहां आहार खाकर पोषध करना कैसे कहा गया ? तो इस आशंकाका समाधान देते हुए टीकाकार यह लिखते हैं : "इह किल पोषधं पर्व दिनानुष्ठानम् तच्च द्वधा इष्टजनभोजनदानादिरूप माहार पोषधञ्च तत्र शंखः इष्ट जन भोजनदानादिरूपं पोषधं कर्तु काम: यदुक्तवांस्तदर्शयतेद मुत्तम्" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૮૮ सद्धमण्डनम् । अर्थ : पर्व के दिन धर्मानुष्ठान करना पोषध कहलाता है वह दो प्रकारका है अपने इष्ट जनको भोजन देना ओर आहारका त्याग करना । इनमें इष्ट जनको भोजन देने रूप पोषधका अनुष्ठान करने के लिये जो शंखने कहा था उसे दिखलानेके लिये यह पाठ आया है । यहां मूलपाठ और उसकी टीकामें इष्ट जनको भोजन देना पोषध धर्मकी पुष्टि में कहा गया है इस लिये श्रावकको भोजनादि देकर पोषध धर्मकी पुष्टि करनेमें एकान्त पाप बतलाना मिथ्यादृष्टियोंका का है । जीतमलजीने प्रश्नोत्तर सार्धं शतकके ५८ में प्रश्नोत्तर में लिखा है। :-- "भगवती शतक १२ उद्देशा पहले शंख पोषली को जीमिने पोसह करस्यां ते किम् इति प्रश्न ? (उत्तर) भगवती शतक ७ उद्देशा २ बारह व्रत में एग्यारहवां व्रतरोनाम " पोस होवासे को ते मांटे जीमिने पांच आस्रवना त्याग ते धर्मनी पुष्टि मांटे पोसह को ते व्रत दशमो छै पिण ग्यारमो नहीं ।" "यहां जीतमलजीने भगवती शतक १२ उद्देशा पहलेका अभिप्राय बतलाते हुए भोजन करके पाँच त्रत्रका त्याग करनेको धर्मकी पुष्टिमें कहा है इस लिये अपने सहभाईको पांच आस्रव का त्याग करानेके लिये भोजन देनेसे एकान्त पाप कहना इनका अपने कथनसे ही विरुद्ध भाषण समझना चाहिये । ( बोल ३४ वां ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसन कार भ्र० पृ० १०४ के ऊपर ११ वीं पडिमाधारी श्रावकको आहार देनेसे एकान्त पापकी स्थापना करते हुए लिखते हैं : "केतला एक एह वू प्रश्न पूछे जे पडिमाधारी श्रावकने दियां काई हुवै ? तेहनो उत्तर पडिमाधारी पिग देश व्रती छै तेहनें जेतला जेतला त्याग ते तो व्रत छै अने पारणे सूझता आहार नो आगार अत्रत छै ते अत्र सेवेछे ते पडिमाधारी तेहने धर्म नहीं तो जे अत सेवावण वालाने धर्म किम हुई। गृहस्थरा दानने साधु अनुमोदे तो प्रायश्चित्त आवे सो पडिमाधारी श्रावक पिण गृहस्थ छै तेहना दान अनुमोदनवालाने ही पाप हुवे तो देण वालाने धर्म किम हुवे " इसका क्या समाधान ? ( ० पृ० १०४ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १८९ (प्ररूपक) एयारहवी प्रतिमाको धारण करने वाला श्रावक, अठारह पापोंका सम्पूर्ण रूपसे त्याग किया हुआ, दविध यति धर्मों का अनुष्ठान करने वाला बिलकुल साधुके सदृश होता है । यह बड़ा ही पवित्रात्मा और सुपात्र है अतएव शास्त्रमें इसे श्रमणभूत यानी साधुके सदृश कहा है। इसका आचार विचार बिलकुल साधुके सदृश होता है अतः इसे भोजन देनेसे एकान्त पाप होने की बात मिथ्या है । ११ वी प्रतिमाधारीको सूझता आहार देना, यदि एकान्त पापका कार्य है तो तीर्थकर देवने इसे सूझता आहार लेनेका विधान क्यों किया है ? क्योंकि एकान्त पापमय काय्यका विधान तीर्थकर नहीं करते उसका निषेध करते हैं अत: एग्यारहवी प्रतिमाधारी श्रावकका सूझता आहार लेना और उसे सूझता आहार देना दोनों ही धर्मके काय्य हैं एकान्त पापके नहीं। कई आज्ञानी, यह भी कहते हैं कि “११ प्रतिमाओंका विधान, तीर्थकरने नहीं किया है किन्तु ये प्रतिमायें श्रावकोंके कपोल कल्पित हैं। उन्हें मिथ्यावादी जानना चाहिये ये ११ प्रकारकी प्रतिमाएं तीर्थंकरसे विधान की गई हैं श्रावकोंके कपोल कल्पित नहीं हैं। इस विषयमें दशाश्रुत स्कन्ध सूत्रका मूलपाठ प्रमाण है वह पाठ यह है: "सुयं मे आउसं ! तेणं भगवथा एवमक्खाइ इह खलु योरेहिं भगन्तेहिं एग्गारस उवासग पडिमाओ पण्णत्ताओ" । (दशाश्रु त स्कन्ध सूत्र, अ० ६) , अथ:____सुधर्मा स्वामी, जम्बू स्वामीसे कहते हैं कि हे आयुष्मन् ! इस जिन शास्त्र में स्थविर भगधन्तोंने जिस प्रकार श्रावकोंकी एग्यारह प्रतिमायें बतलाई हैं उसी तरह तीर्थङ्कर भगवान्ने भी कही हैं यह मैंने सुना है। इस पाठमें ११ प्रतिमाओंका श्री तीर्थक्कर देवसे विधान किया जाना कहा है अतः इन्हें श्रावकोंके कपोल कल्पित बतलाना एकान्त मिथ्या है। __ आनन्द श्रावकने कहा है कि "मैंने शास्त्रानुसार और कल्पानुसार इन प्रतिमाओं का आचार पालन किया है वह पाठ यह है: तएणं से आणंदे समणोवासए उवासग पडिमाओ उपसंपजित्ताणं विहरइ । पढम उवासग पडिमं अहासुत्तं अहाकप्पं अहा मग्गं अहा तच सम्मं कोएण पासेइ पालेइ सोहइ तिरइ कित्तह आराहेई" (उपासक दशांग अ०१) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९० संघममण्डनम् । ( टीका ) "अहासुतं ' त्ति सूत्रानति क्रमेण यथाकल्पम् प्रतिमाचारानतिक्रमेग यथामार्ग क्षयोपशमभावानतिक्रमेण यथा तत्त्वं दर्शन प्रतिमेति शब्दस्यान्वर्थानतिक्रमेण " अर्थ: इसके अनन्तर आनन्द श्रावक, उपासक प्रतिमाको स्वीकार करके विचरने लगा । उसने पहली उपासक प्रतिमाको सूत्रानुसार कल्पानुसार क्षयोपशमभावानुसार और दर्शन प्रतिमा शब्दार्थ के अनुसार ग्रहण किया । पश्चात् उपयोगके साथ बार बार प्रतिपरिशोधन करके उनकी अवधि पूरी होने पर वह थोड़ी देर तक ठहर जाता था। पारणेके दिन अपने अनुष्ठानका कीर्तन करता हुआ वह यह कहता था कि "इस प्रतिमामें अमुक कार्य किया जाता है इसका मैंने सूत्रानुसार और कल्पानुसार अनुष्ठान किया है" इस प्रकार आनन्दने तीर्थंकरकी आज्ञानुसार पहली प्रतिमाकी आराधना की शेष दश प्रतिमाओं का आराधन भी उसने इसी तरह किये थे । इस मूलपाठ, आनन्द श्रावकसे सूत्रानुसार प्रतिमाओंका आचार पालन किया जाना कहा है इससे इन प्रतिमाओंका आगमोक्त होना स्पष्ट सिद्ध होता है यदि ये प्रतिमायें श्रावकों के कपोल कल्पित होतीं तो सूत्रानुसार इनका पालन किया जाना उक्त मूल पाठमें कैसे कहा जाता ? अतः ११ प्रतिमाओंको श्रावकोंके कपोल कल्पित बतला कर ११ वीं प्रतिमाधारी श्रावक को सूझता आहार देनेसे एकान्त पाप कहना उत्सूत्र वादियों काका है। [बोल ३५ वां समाप्त ] ( प्रेरक ) ११ वीं प्रतिमाधारी श्रावकको दशविध-यति-धर्म पालन करने और साधुकी तरह भाण्डपकरण रखने की कहां आज्ञा दी गई है यह बतलाईए ? (प्ररूपक ) ११ वीं प्रतिमाधारी श्रावकको दशविध यति धर्मके अनुष्ठान करने और साधुको तरह भाण्डोपकरण रखने की दशाश्रुत स्कन्ध सूत्रमें आज्ञा दी गई है वह पाठ यह है :"अहावरा एक्कारसमा उवासगपडिमा सव्वधम्म रुइयावि भवइ उभते से परिण्णाते भवति । सेणं खुरमुण्डएवा लुत्त सिरएवा गहित्ताधार भंडग नेपत्था जे इमे समणाणं निग्गंथाणं धम्मे तं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १९१ सम्मं कारणं फासे माणे पाले माणे पुरतो जुग मायाए पेह माणे दट्टणं तसे पाणे उडु, पायं रीएजा साह पायं रोएज्जा तिरिच्छेवा पायं कटुरोएज्जा सतिपरक्कमे संजयामेव पक्कमेज्जा णो उज्जुयं गच्छेज्जा" ( दशाश्रुत स्कन्ध सूत्र अ० ६) अर्थ: अब दूसरी एग्यारहवीं उपासक प्रतिमा कही जाती है इसमें प्रवेश किये हुए श्रावकको इस की पूर्व प्रतिमाओंके सभी धर्मों में रुचि रखनी चाहिये और इसके निमित्त बनाये हुए अन्न (उद्दिष्ट) को न लेना चाहिये । केशोंका लुञ्चन या क्षुर मुण्डन करा कर साधुओंके आचार पालनार्थ पात्र रजोहरण और मुख वस्त्रिका आदि सभी धर्मोपकरणोंको रखना चाहिये। धर्मोपकरणोंको रख कर साधुके समान वेष बना कर श्रमण निग्रन्थोंके सभी धर्मों का शरीरसे स्पर्श और पालन करना चाहिये । यदि मार्गमें बस प्राणी दृष्टिगोचर हों तो उनकी रक्षाके लिये अपने पैरके पूर्व भागको ऊंचा करके अग्रतलकी सहायतासे गमन करना चाहिये अथवा जहां ब्रस प्राणी न हों वहां पैर रख कर जाना चाहिये । तात्पर्य यह है कि मार्गके प्राणियों की रक्षाके लिये कभी पैरको संकुचित करके कभी एडीके ऊपर अपने सम्पूर्ण शरीरका भार देकर चलना चाहिये परन्तु जैसे तैसे चलना ठीक नहीं है । यह बात भी जहां दूसरा मार्ग न हो वहींके लिये समझनी चाहिये परन्तु जहां दूसरा मार्ग मौजूद है वहां प्राणिसंकुल मार्गसे जाना उचित नहीं है । यह उक्त मूलपाठका अर्थ है। इस पाठमें ११ वी प्रतिमाधारी श्रावकको दशविध यति धर्मों का अनुष्ठान करने और उसके लिये साधु भोंके समान भाण्डोपकरण रखनेकी स्पष्ट आज्ञा दी गयी है अतः ११ वी प्रतिमाधारी श्रावक दशविध यति धर्मों का पूर्णरूपसे पालन करने वाला बड़ा ही पवित्रात्मा और सुपात्र है। इसे कुपात्र कह कर पारणेके दिन इसे सूझता आहार देनेसे एकान्त पाप बतलाना अज्ञानियोंका कार्य समझना चाहिये। जो दशविध यति धर्मोका पूर्णरूपसे पालन करता है वह अपात्र तथा कुपात्र नहीं हो सकता यह बुद्धिमानोंको स्वयं सोच लेना चाहिये। ___कई कहते हैं कि इन एग्यारह प्रतिमाओंमें जितना जितना त्याग है वह सब तीर्थकर और गणधरोंकी आज्ञामें है परन्तु उनमें जो आरम्भादि अंश शेष हैं वे तीर्थकर और गणधरकी आज्ञामें नहीं हैं। सातवीं प्रतिमा सचित्तका त्याग है परन्तु आरम्भका त्याग नहीं है अतः जैसे इसमें सचित्तका त्याग भगवान्की आज्ञामें है और आरम्भ करने का आगार भगवान्की आज्ञामें नहीं है उसी तरह एग्यारहवीं प्रतिमामें तपस्या करना, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ सद्धममण्डनम् । और दशविध यति धर्मका अनुष्ठान करना आदि भगवानकी आज्ञामें है परन्तु साधुके समान वेष बनाना निर्दोष आहार लेना भाण्डोपकरण रखना इत्यादि काय्य वीतरागकी आज्ञामें नहीं है इन कार्यो को ११ वी प्रतिमाधारी श्रावक अपनी इच्छासे करता है अतः ११ वी प्रतिमाधारीका साधुके समान वेष बनाना, भाण्डोपकरण रखना, और पारणेके दिन सूझता आहार लेना यह सब एकान्त पापमें है धर्म या पुण्य नहीं है। इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक) एग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावकके लिये दशाश्रुत स्कन्ध सूत्रमें साधुके समान वेष बनाना, धार्मिक भाण्डोपकरण रखना और पारणेके दिन सूझता आहार लेना, ये सब विधान किये गये हैं उस विधानके अनुसार ही एग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक साधुके समान वेष बनाता है, भाण्डोपकरण रखला है और पारणेके दिन सूझता आहार लेता है अतः ११ वी प्रतिमाधारीके ये सब कार्य वीतरागकी आज्ञामें है अपनी इच्छासे नहीं हैं इसलिये इन कार्योंमें एकान्त पाप कहना मिथ्यावादियोंका कार्य है। सातवी प्रतिमामें जो आरम्भका त्याग नहीं होता उसका दृष्टान्त देकर ११ वों प्रतिमामें भाण्डोपकरण रखने आदिको आज्ञा बाहर कहना भी अज्ञान है क्योंकि सातवी प्रतिमा आरम्भ करने का विधान शास्त्रमें नहीं किया गया है इसलिये सातवी प्रतिमाधारीका आरम्भ करना अपनी इच्छासे है शास्त्रकी आज्ञासे नहीं परन्तु ११ वी प्रतिमामें भाण्डोपकरण रखना, साधुके सदृश वेष बनाना और पारणेके दिन सूझता आहार लेना शास्त्रकी आज्ञानुसार है अपनी इच्छासे नहीं अतः यह सब आरम्भके समान एकान्त पापमें नहीं हैं। सातवीं प्रतिमामें "आरम्भे अपरिणाते भवति" यह पाठ आया है इसका अर्थ यह है कि "सातवी प्रतिमाधारी आरम्भ नहीं छोड़ता किन्तु आरम्भ करता है" यह पाठ सातवीं प्रतिमाधारीको आरम्भ करनेका विधान नहीं करता किन्तु अनुवाद करता है। यदि विधान करता तो यहां यह कहा जाता कि “सातवी प्रतिमामें श्रावकको आरम्भ करना चाहिये" अत: सातवीं प्रतिमाधारीका आरम्भ अपनी इच्छासे है शास्त्रकी आज्ञासे नहीं और वह आरम्भ पहले हो से उस श्रावकमें मौजूद है परन्तु ११ वी प्रतिमामें साधुके समान वेष बनाना धार्मिक भाण्डोपकरण लेना पारणेके दिन सूझता आहार लेना यह सब शास्त्रमें विधान किये गये हैं और उस विधानके अनुसार ही ११ वी प्रतिमाधारी इन सब कार्यों को करता है और ये सब बाते श्रावकमें पहलेसे मौजूद भी नहीं हैं किन्तु ११ बी प्रतिमामें ही शास्त्रको आज्ञा होनेसे नवीन स्वीकार की जाती हैं अत: आरम्भ का दृष्टान्त देकर ११ वी प्रतिमाधारी श्रावकके साधु तुल्य वेष बनाने, भाण्डोपकरण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १९३ रखने, पारणेके दिन सुझता आहार लेने आदिको पापमें बताना मिथ्यावादियों का कार्य है। (बोल ३६ वां समाप्त) (प्रेरक) __ भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १०९ के ऊपर लिखते हैं "तिवारे कोई एक कहे जो पडिमाधारीने दियां धर्म न हुवे तो दशाश्रुतस्कन्ध सूत्रमें इम क्यू कह्यो जे पडिमाधारी न्याती लारे घरे भिक्षाने अर्थ जाय तिहां पहिला उतरी दाल अने पछे उतरथा चावल तो कल्पे पडिमाधारीने दाल लेणी न कल्पे चावल लेवा” इत्यादि लिख कर आगे लिखते हैं-"इम कहे तेहनो उत्तर ए कल्पनाम आज्ञानो नहीं छै ए कल्पनाम तो आचारनो छै पडिमाधारीने जेहवो आचार कल्पतो हुन्तो ते वतायो पिण आज्ञा नहीं दी धी इम जो आज्ञा हुवे तो अम्वडने अधिकारे पिण एहवो कह्यो” इत्यादि लिख कर अम्वड संन्यासीके विषयमें आया हुआ पाठ लिख कर उसके दृष्टान्तसे ११ वी प्रतिमाधारीके आचारको आज्ञा बाहर सिद्ध करनेकी चेष्टा की है। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) अम्वड संन्यासी तथा दूसरे परिव्राजकके अधिकारमें जो "कल्प" शब्द आया है वह परिव्राजकोंके शास्त्रका कल्प है वीतरागकी आज्ञाका कल्प नहीं है तथा वरुण वाग न त्तू याके अधिकारमें जो यह कहा है कि "जो मुझे पहिले बाण मारेगा उसीको मैं भी वाण मारूंगा" यह कल्प भी तीर्थंकर की आज्ञाका नहीं किन्तु वरुण नागनत्तू या की इच्छाका कल्प है परन्तु प्रतिमाधारीके अधिकारमें जो कल्प शब्द आया है वह तीर्थङ्करका विधान किया हुआ कल्प है प्रतिमाधारियोंकी इच्छाका कल्प नहीं है क्योंकि दशाश्रुत स्कन्ध सूत्रमें प्रतिमाधारीके कल्पका तीर्थकर और गगधरोंसे विधान किया . जाना लिखा है। वह पाठ यह है: "सुर्यमे आउसं ! तेणं भगवया एव मक्खाई इह खलु थेरेहिं भगवन्तेहिं एगारस्स उवासग पडिमाओ पन्नत्ताओ" . अर्थात् हे आयुष्मन् ! स्थविर भगवन्तोंने जिस प्रकार. श्रावकोंकी ११ प्रतिमायें कही हैं उसी तरह तीर्थकरने भी कही हैं यह मैंने सुना है।। इस पाठमें ११ प्रकारकी प्रतिमाओंका आचार तीर्थङ्कर और गणधरोंसे कहा हुआ कहा है इसलिये ११ वी प्रतिमाधारीका कल्प तीर्थकर वोधित है अपनी इच्छाका कल्प Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ सद्धर्ममण्डनम् । नहीं है अतः प्रतिमाधारीके कल्पको ऐच्छिक कायम करके वीतरागकी आज्ञासे उसे बाहर बताना अज्ञानियोंका कार्य है। (बोल ३७ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ११५ के ऊपर भगवती शतक ७ उद्देशा १ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं “अथ इहां पिण सामायकमें श्रावकरी आत्मा अधिकरण कही छै । अधिकरण ते छः फायरो शस्त्र जाणवो ते मांडे सामायक पोषामें तेहनी काया शस्त्र छै। ते शस्त्र तीखां कियां धर्म नहीं। वली ठाणाङ्ग ठाणे दश अवतने भाव शस्त्र कह्यो छै ते सामायकमें पिण वस्त्र गेहणा पूंजनी आदिक उपकरण अने काया ए सर्वे अबत छै तेहना यत्न कियां धर्म नहीं" इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशा १ में जैसे श्रावककी आत्मा अधिकरण कही है उसी तरह भगवती सुत्र शतक १६ उद्देशा १ में साधुकी आत्मा भी अधिकरणी कही गई है वह पाठ यह है: "जीवेणं भन्ते ! आहारग सरीरं निवत्तिएमाणे किं अधिकरणी अधिकरणं वा पुच्छा ? गोयमा ! अधिकरणीवि अधिकरणं वि। सेकेण?णं जाव अधिकरणंवि । गोयमा ! पमादं पडुच्च सेतेण?णं जाव अधिकरणंवि" (भगवती शतक १६ उ०१) अर्थः (प्रश्न ) हे भगवन् ! आहारक शरीरको उत्पन्न करता हुआ जीव, क्या अधिकरिणी होता है या अधिकरण होता है ? (उत्तर) हे गोतम ! आहारक शरीरको उत्पन्न करता हुआ जीव अधिकरणी भी होता है और अधिकरण भी होता है। (प्रश्न) इसका क्या कारण है ? (उत्तर) हे गोतम ! आहारक शरीरको उत्पन्न करता हुआ जीव, प्रमादकी अपेक्षा से अधिकरणी भी होता है और अधिकरण भी होता है। इस मूलपाठमें प्रमादी साधुकी आत्माको प्रमादकी अपेक्षासे अधिकरण, और अधिकरणी कहा है और इस पाठकी टीकामें भी यही बात कही है वह टीका यह है: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। "इहाहारकशरीरं संयमवतामेव भवति तत्र चाविरतेरभावेऽपि प्रमादादधिकरणत्व मवसेयम्" अर्थात् आहारक शरीर संयमधारीका ही होता है उस संयमधारीमें यद्यपि अविरति नहीं है तथापि प्रमादके कारण उसे अधिकरण समझना चाहिये । तथा ठाणाङ्ग सूत्रके दसवें ठाणेमें अकुशल मन वचन और कायको भाव शस्त्र कहा है और प्रमादकी हालतमें प्रमादी साधुके भी मन वचन और काय अकुशल होते हैं । तथा भगवती शतक १ उद्देशा १ में प्रमादी साधुको आत्मारम्भी परारम्भी और तदुभयारम्भी कहा है वह पाठ यह है:___ "तत्थर्ण जेते पमत्त संजया ते सुहंजोगं पडुच्च णो आयारंभा णो परारंभा णो तदुभयारंभा अणारंभा चे व असुभजोगं पडुच्च आयारंभावि परारंभावि तदुभयारंभाषि णो अणारंभा" (भगवती शतक १ उद्देशा १) अर्थः प्रमादी साधु, शुभयोगको अपेक्षासे आत्मारंभी परारंभो और तदुभयारंभी नहीं है किन्तु अनारम्भी है परन्तु अशुभ योगको अपेक्षासे आत्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी है अनारंभी नहीं है। ___ इस पाठमें प्रमादी साधुको अशुभ योगकी अपेक्षासे आत्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी कहा है और पूर्वलिखित भगवतीके पाठमें प्रमादी साधुकी आत्माको अधिकरण कहा है एवं ठाणाङ्ग सूत्रके दशम ठाणेमें दुष्प्रयुक्त मन वचन और कायको भाव शस्त्र कहा है अत: प्रमादी साधुको अन्नादि दान देना भी भ्रमविध्वंसनकारके हिसाबसे शस्त्रको ही तीखा करना कहना चाहिये धर्म या पुण्य नहीं। यदि कहो कि "प्रमादी साधुको उसके प्रमादकी बृद्धिके लिये दान नहीं दिया जाता किन्तु उसके ज्ञान दर्शन और चारित्रकी उन्नतिके लिये दिया जाता है इसलिये प्रमादी साधुको दान देना शस्त्र को तीखा करना नहीं है" तो उसी तरह यह भी समझो कि श्रावकको उसके दोषोंकी वृद्धिके लिये आहारादि नहीं दिया जाता उसके व्रतकी पुष्टि के लिये दिया जाता है अतः श्रावकको व्रत पुण्यार्थ दान देना भी एकान्त पाप या शस्त्रको तीखा करना नहीं है। इसे एकान्त पाप या शस्त्रको तोखा करना बतलाने वाले मिथ्यावादी हैं। ___सामायक और पोषाके समय श्रावक, अपने धर्मका पालन करनेके लिये पूजनी आदि धर्मोपकरण रखते हैं उन उपकरणोंको एकान्त पापमें बताना पापियोंका कार्य है। विना पंजे पौषधोपवास करनेसे श्रावकको अतिचार होना उपासक दशांग सूत्रके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ सद्धेममण्डनम्। मूलाठमें कहा है अतः अपने अतिचारकी निवृत्ति और जीव रक्षाके लिये श्रावक पूजनी आदि धर्मापकरण रखते हैं किसी दूसरे आरम्भादिक कार्यके लिये नहीं। उपासक दशांग सूत्रका वह मूलपाठ यह है: "तयाणं तरं चणं पोसहोववासस्स समणोवासएणं पञ्च अइयारा जाणियव्वा न समायरियव्वा तंजहा-अप्पडिलैहिय दुष्पडिलेहिय सिज्जा संत्थारे, अप्पमज्जिय दुप्पमज्जिय सिज्जा संस्थारे, अप्पडिलेहिय दुप्पडिलेहिय उच्चार पासवण भूमि, अप्पमज्जिय दुप्पमज्जिय उच्चारपासवण भूमि पोसहोववासस्स समं अणणुपालना" (उपासक दशांग सूत्र) अर्थः-- ____ श्रमणोपासकको पौषधोपवास ब्रतके पांच अतिचार जानने चाहिये और उनका आचरण न करना चाहिये वे अतिचार ये हैं:-(१) शय्या संथाराका प्रतिलेखन न करना, या ठीक ठीक प्रतिलेखन न करना (२) शय्या संथाराको पूजनी आदिसे न पूजना, अथवा अच्छी तरहसे न पूजना । (३) उच्चार पासवण भूमिका प्रतिलेखन नहीं करना, अथवा अच्छी तरहसे प्रतिलेखन नहीं करना । (४) उच्चार पासवण भूमिको पूजनी आदिसे न पूजना, अथवा अच्छी तरहसे न पूजना । (५) पोषधोपवास ब्रतका विधिवत् पालन नहीं करना। __ ये पांच पौषधोपवास व्रतके अतिचार हैं इन अतिचारों को वर्जित करना आवश्यक है अतः श्रावक, पौषधोपवासके समय पूजने के लिये पूजनी आदि धर्मापकरण रखते हैं। यदि पौषधोपवासमें श्रावक पूजनी न रक्खें तो शय्या संथारा और उच्चार पासवण भूमिका पूजन नहीं हो सकता और उनका पूजन हुए विना श्रावकके व्रतमें अतिचार आता है उसकी निवृत्ति के लिये श्रावक पूजनी आदि धर्मापकरण रखते हैं अतः श्रावकके पूजनी आदि धपिकरगोंको एकान्त पापमें स्थापन करना अज्ञानियों का कार्य है। ११ वी प्रतिमाधारी श्रावक, जो मुख वस्त्रिका, ओघा पत्रादि धर्मापकरण रखते हैं वह भी अपने ब्रतका पालन करनेके लिये रखते हैं किसी दूसरे स्वार्थसे नहीं अत: उनका ओघा पात्रादि धर्मापकरण रखना धर्मका उपकारक और उनके ब्रतका अङ्गभूत है उसे एकान्त पापमें कायम करना अज्ञानका परिणाम है। दशाश्रुत स्कन्ध सूत्रके मूलपाठमें एग्यारहवों पडिमाधारी श्रावकको सभी धर्मोपकरणोंके रखनेका विधान किया है वह पाठ यह है: "लुचसिरए गहितायार भंडगनेपत्था जारिसे समणाणं निग्गंथाणं धम्मे तं धम्म काएग फासे माणे पाले माणे” अर्थात् एग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावकको शिरका लोच Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १९७ करके मुख वस्त्रिका आदि सभी धर्मापकरण साधुके आचार पालनार्थ रखने चाहिये और साधुके तुल्य वेष बना कर श्रमण निग्रन्थोंके धर्मका शरीरसे स्पर्श और पालन करते हुर विचरना चाहिये। इस पाठमें ११ वी प्रतिमाधारीको साधुके तुल्य आचार पालनार्थ धर्मोपकरण रखनेका विधान किया है और पौषधोपवासमें अतिचारको हटानेके लिये पूजनी आदि धर्मोंपकरणोंकी आवश्यकता होती है अतः श्रावकके धर्मोपकरणोंको एकान्त पापमें स्थापन करना कितनी विशाल मूर्खता है यह बुद्धिमान जीव स्वयं समझ सकते हैं । (बोल ३८ वां) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ११५ के ऊपर लिखते हैं “ए पूजणी आदिक सामायकमें राखे ते अब्रतमें छै एतो सामाय कमें शरीरनी रक्षा निमित्ते पूजणी आदिक उपधि राखे छै ते पिण आपरी कचाई छै परंधर्म नहीं ते किम जे पूजनी आदिक न राखे तो काया स्थिर राखणी पडे अने कायास्थिर राखनेरी शक्ति नहीं मच्छरादिक ना फस खमणी आवे नहीं ते मांटे पूंजनी आदिक राखे मच्छरादिक पुजी खाज करे ए तो शरीरनी रक्षा निमित्ते पूजे धर्म हेतु नहीं जो पूंजणी विना दया न पले तो अढाई द्वीप वारे असंख्याता तिर्यकच श्रावक छै सामायक ब्रत पाले छै त्यांरे पूजणी दीसे नहीं जे दयारे अर्थे पूजणी राखणी कहे त्यारे लेखे अढाई द्वीप वारे श्रावकारे दया किम पले" इसका क्या समाधान ? (भ्र० पृ० ११५-११६) (प्ररूपक) पौषध व्रत करता हुआ श्रावक, अपने शरीरकी रक्षाके लिये नहीं किन्तु उपासक दशांग सूत्रके पूर्वोक्त मूल पाठानुसार पूजन किये बिना होने वाले अतिचारको दूर करने के लिये पूजनी आदि धर्मोपकरण रखता है । अतः पूजनी आदि धर्मोपकरणोंको शरीर रक्षाका साधन कायम करके उन्हें अबतमें या एकान्त पापमें स्थापन करना मिथ्या है। पूंजनी अपनी शरीर रक्षाका कोई प्रधान साधन नहीं है इसके बिना भी शरीर रक्षा हो सकती है परन्तु इसके बिना पूजन नहीं किया जा सकता और पूजन किये बिना श्रावकके व्रतमें अतिचार होता है उसकी निवृत्ति के लिये पूजनी रखना श्रावकके लिये आवश्यक होता है । जो लोग पूजनीको शरीर रक्षाका साधन मान कर पौषध व्रत करते समय शरीर रक्षार्थ उसका ग्रहण किया जाना बतलाते हैं उनके मतमें पागल कुत्ता आदि से शरीर रक्षा करने के लिये श्रावकको एक डंडा भी रखना चाहिये तथा दूसरे दूसरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ सद्धर्ममण्डनम् । साधन भी रखने चाहिये अतः पूजनी आदि धर्मोपकरणों को अपनी शरीर रक्षाका साधन बतलाना मिथ्या है पूजनी आदि धर्मोपकरणोंके बिना जीवोंकी दया नहीं पाली जा सकती है इस लिये जीव रक्षार्थ श्रावक पूजनी रखते हैं । इस विषय में जीतमलजीने अढाई द्वीप से बाहर रहने वाले तिर्यच्च श्रावकों का दृष्टान्त देकर पूंजनी रक्खे बिना भी जीव दयाका पालन हो सकना कहा है, वह मिथ्या है । अढाई द्वीपसे बाहर रहनेवाले तिर्य्यन्च श्रावक, मनुष्य श्रावककी तरह श्रावकोंके बारह व्रतका शरीर से स्पर्श और पालन करते हों यह बात असम्भव है क्योंकि मनुष्य श्रावकों की तरह शरीरसे बारह प्रतों स्पर्श और पालन करनेकी उनमें योग्यता नहीं है और शास्त्र में भी कहीं यह नहीं कहा है कि “तिच श्रावक मनुष्य श्रावककी तरह श्रावकोंके बारह व्रतका शरीरसे स्पर्श और पालन करते हैं" अत: अढाई द्वीपसे बाहर रहने वाले तिर्य्यब्च श्रावक, कई तोंमें श्रद्धा मात्र रखने से बारह व्रतधारी माने जाते हैं शरीर से स्पर्श और पालन करने से नहीं अतएव ज्ञाता सूत्रमें नन्दन मनिहारका जीव, मेढक भवमें वारह व्रत धारी कहा गया है । यदि मनुष्य श्रावकों की तरह बारह व्रतोंका शरीरसे स्पर्श और पालन करने से तिर्य्यच श्रावक बारह व्रत धारी होते तो नन्दन मनिहार का जीव मेढक भवमें कदापि बारह व्रतधारी नहीं कहा जाता क्योंकि मेढक योनिके जीवमें मुनिको दान देने रूप बारहवें तका शरीर से स्पर्श करने की योग्यता नहीं है तथा मेढक योनिके जीवमें, आहार को सचित्त पदार्थ पर रखने और सचित्तसे ढकने पर जो अतिचार आता है उ earth योग्यता भी नहीं है अतः तिय्र्यन्च श्रावक कई व्रतोंमें श्रद्धा मात्र रखने से बारह व्रतधारी माने जाते हैं मनुष्य श्रावककी तरह सभी व्रतोंका शरीरसे स्पर्श करनेसे नहीं । अढाई द्वीपसे बाहर रहने वाले तिर्यञ्च श्रावक, मनुष्य श्रावककी तरह पौषध व्रतका शरीर से स्पर्श और पालन करते हों इसमें कोई प्रमाण नहीं है तथा कहीं मूल पाठमें भी यह नहीं कहा है कि "अमुक तिर्य्यन्च श्रावकने पौषध व्रतका शरीर से स्पर्श और पालन किया था ” अतः तिर्य्यन्च श्रावकों के पास पूंजनी आदि धर्मोपकरण नहीं होने पर भी को क्षति नहीं है लेकिन मनुष्य श्रावक तो सभी व्रतोंका शरोरसे स्पर्श और पालन करता है इस लिये उसके पास पौषध व्रतमें होने वाले अतिचारकी निवृत्तिके लिये पूजनी आदि धर्मोपकरणोंकी अत्यन्त आवश्यकता है । उनके बिना पौषध व्रतका अतिचार जो कि पूजे बिना होता है नहीं टल सकता अतः मनुष्य श्रावकोंके पूजनी आदि धर्मोपकरणों को अपने शरीर रक्षाका साधन मान कर उन्हें अव्रतमें कायम करना अज्ञानियोंका का है । पूजनी आदि धर्मोपकरण व्रतके उपकारक और धर्मके अङ्ग हैं अतः उन्हें पापका साधन मानना मिथ्या है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। १९९ जो लोग श्रावकोंके पूंजनी आदि धर्मोपकरणोंको शरीर रक्षाका साधन बतलाते हैं उनसे कहना चाहिये कि प्रमादी साधुके ओघा पात्रादि धर्मोपकरणोंको भी तुम उनके शरीर रक्षाका साधन क्यों नहीं मानते ? यदि वे प्रमादी साधुके ओघा पात्रादि धर्मोपकरणोंको भी उनके शरीर रक्षाका साधन मानें तो फिर उनके मतमें प्रमादी साधुके मोषा पात्रादि उपकरण भी एकान्त पाप तथा अव्रतमें ही ठहरते हैं क्योंकि भगवतीजीके मूल पाठमें प्रमादी साधुको आत्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी कहा है तथा प्रमादी साधु की आत्मा अधिकरण कही गई है इस लिये प्रमादी साधुके ओघा पात्रादिक भी तुम्हारे मतसे एकान्त पापमें ही ठहरते हैं। यदि कहो कि प्रमादी साधु, ओघा पात्रादि उपकरण प्रमाद सेवन और अपने शरीर रक्षाके लिये नहीं किन्तु जीव रक्षा आदि धर्मको पालन करनेके लिये रखते हैं अतः उनके धर्मोपकरण एकान्त पाप में नहीं हैं तो उसी तरह यह भी समझो कि श्रावक, पौषध व्रतमें होने वाले अतिचारकी निवृत्ति और जीव रक्षाके लिये पूजनी आदि धर्मोपकरण रखते हैं अपने दोषोंकी वृद्धि तथा और किसी स्वार्थसे नहीं रखते अतः श्रावकके पूजनी आदि धमों पकरणोंको एकान्त पाप और अब्रतमें कायम करना अज्ञान है। यह बात दूसरी है कि साधु यदि धर्मोपकरणों पर मूर्छा ममता रक्खे और अयत्न पूर्वक उनका व्यवहार करे तो उसको परिग्रह तथा आरम्भ दोष लगता है तथा श्रावक धर्मोपकरणोंपर मूछी ममता रक्खे और अयत्न पूर्वक उनका व्यवहार करे तो उसको भो परिग्रह और आरम्भ होता है परन्तु यत्न पूर्वक उपकरणोंका व्यवहार करने और उनमें ममता मूर्छा नहीं रखने पर वे उपकरण धर्मके सहायक हैं आरम्भ तथा परिग्रहके हेतु नहीं हैं अतः उन्हें पापमें बताना मिथ्या है। (बोल ३९) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ११७ के ऊपर ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ४ उद्देशा १ के मूल पाठका उदाहरण देकर लिखते हैं “अथ इहां चार व्यापार कह्या मन, वचन, काया, उपकरण, ये चारू व्यापार सन्निपन्चेन्द्रिय रे कहा ये चारू मुंडा व्यापार पिण १६ दण्डक सन्नीपञ्चेन्द्रिय रे कह्या अने ए चारू भला व्यापार तो एक संयति मनुष्यने इस कया पिग और ने न कया तो जोवोनी साधुरा उपकरण तो भला व्यापार में घाल्या अने श्रावकरा पुंजनी आदि उपकरण भला व्यापारमें न घाल्या ते मोटे पूजनी आदिक श्रावक राखे ते सावध योग ? (भ्र० पृ० ११७ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) ठाणाङ्ग सूत्रका वह पाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है। वह पाठ यह है : "चविहे पणिहाणे मन पणिहाणे वय पणिहाणे काय पणिहाणे उवगरण पणिहाणे । एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । चविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते तंजहा मन सुप्पडिहाणे जाव उपकरण सुपणिहाणे एवं संजय मणुस्साणवि । चउब्विहे दुष्पणिहागे पं० तं० मन दुष्पsिहाणे जाव उवगरण । एवं पञ्चेन्द्रियाणं जाव वैमाणियाणं" ( ठागाङ्ग ठाणा ४ उद्देशा १ ) सद्धमंमण्डनम् । ( टीका ) “प्रणिधानं प्रयोगः तत्र मनसः प्रणिधानम् आतंरौद्र धर्मादि रूपतया प्रयोगो मन: प्रणिधानम् । एवं वाक्काययोरपि उपकरणस्य लौकिक लोकोत्तररूपस्य वस्त्र पात्रादेः संयमा संयोपकाराय प्रणिधानं प्रयोगः उपकरण प्रणिधानम् । एवमिति तथा सामान्यत स्तथा नैरयिकाणामिति । तथा चतुर्विंशति दण्डक पठितानां मध्ये ये पन्चेन्द्रियास्तेषा वैमानिकान्तानामेवेति । एकेन्द्रियादीनां मनः प्रभृतीनाम संभवेन प्रणिधाना संभ I वात् । प्रणिधान विशेषः सुप्रणिधानं दुष्प्रणिधानव्चेति तत्सूत्राणि । शोभनं संयमार्थत्वा त्प्रणिधानं मनः प्रभृतीनां प्रयोजनं सुप्रणिधानमिति । इन्च सुप्रणिधानं चतुर्विंशति दण्डक निरूपणायां मनुष्याणां तत्रापि संयतानामेत्र भवति चारित्रपरिणतिरूपत्वात्सु प्रणिधानस्येत्याह "एवं संजए" इत्यादि, दुष्प्रणिधान सूत्र सामान्य सूत्रवत् नवरं दुष्प्रणिधानम् असंयमार्थं मनः प्रभृतीनां प्रयोग इति” अर्थ: - प्रयोग करनेका नाम “प्रणिधान " है। आर्त रौद्र और धर्म आदि ध्यान करना " मनः प्रणिधान " कहलाता है । इसी तरह वचन और शरीरके प्रयोगको क्रमशः वचन प्रणिधान और काय प्रणिधान कहते हैं । उपकरण नाम वस्त्र पात्र आदिका है वह दो तरहका होता है लौकिक और लोकोत्तर, उनका संयम और असंयम के लिये प्रयोग करना उपकरण प्रणिधान कहलाता है । ये चारों प्रणिधान नारकि पञ्चेन्द्रियसे लेकर मावत् वैमानिक देव तकके प्राणियों में होते हैं । एकेन्द्र आदि जीव जो मनोविकल हैं उनमें उक्त चतुर्विध व्यापार नहीं होते । प्रणिधान विशेष को सुप्रणिधान और दुष्प्रणिधान कहते हैं। मन, वचन काय और उपकरणका प्रयोग जो संयम पालनार्थ किया जाता है वह सुप्रणिधान है। यह सुप्रणिधान, चतुर्विंशति दण्डकके जीवोंमें केवल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दानाधिकारः। २० संयमधारी जीवका ही होता है क्योंकि सुप्रणिवान चारित्रका परिणाम स्वरूप है। इसी तरह असंयमके लिये जो मन वनन काय और उपकरणका प्रयोग किया जाता है वह दुष्प्रणिधान कहलाता है यह पञ्चेन्द्रियसे लेकर वैमानिक देव पर्य्यन्तके जीवोंको होता है। यह ऊपर लिखे मूल पाठका टीकानुसार अर्थ है। ___ यहां मन, वचन, काय और उपकरणका सुप्रणिधान संयमधारी जीवोंका होना कहा है इस लिये देशसे संयम पालन करने वाले श्रावकोंका देश संयम पालन के लिये मन, वचन, काय और उपकरणोंका जो प्रयोग होता है वह भी सुपणिधान ही है दुष्प्रणिधान नहीं अत: इस पाठका नाम लेकर श्रावकोंके मन, वचन, काय और उपकरणोंके सभी व्यापारोंको दुष्प्रणिधान बतलाना मिथ्या है। उक्त मूल पाठ और उसकी टीकामें जो संयत पुरुषोंका सुप्रणिधान होना कहा है वहां संयत पदसे देश संयत (श्रावक) और सर्व संयत ( साधु ) दोनोंका ही ग्रहण है केवल सर्व संयत का ही ग्रहण नहीं अतः श्रावक, अपने देश संयमका पालन करने के लिये जो मनसे धर्मध्यान, वचनसे अरिहंत सिद्ध और साधुओं का गुणानुवाद, शरीरसे साधुओं का मान सन्मान, सेवा सुश्रूषा और उपकरणोंसे जीव रक्षा आदि शुभ व्यापार करता है यह सब व्यापार सुप्रणिधान ही है दुष्प्रणिधान नहीं। जो लोग उक्त चारों ही सुप्रणिधान एक मात्र साधुओंका ही होना मान कर . श्रावकों के उपकरणके व्यापारको दुष्प्रणिधान मानते हैं उनसे कहना चाहिये कि श्रावक जो मनसे धर्म ध्यान और वचनसे अरिहन्त सिद्ध और साधुओंका गुणानुवाद और कायसे साधुको दान सम्मान सेवा सुश्रूषा आदि व्यापार करता है उसे भी आप दुष्प्रणिधान ही क्यों नहीं मानते ? यदि कहो कि ये सब व्यापार संयम पालनके लिये किये जाते हैं इस लिये ये दुष्प्रणिधान नहीं हैं तो उसी तरह संयम पालनके लिये जो श्रावक उपकरणका व्यापार करते हैं वह भी दुष्प्रणिधान नहीं किन्तु सुप्रणिधान ही है यदि उपकरणके व्यापारको दुष्प्रणिधान कहो तो उसके पूर्वोक्त मन, वचन और कायके व्यापारों को भी दुष्पणिधान ही कहना होगा परन्तु जैसे श्रावकका मन बचन और कायके पूर्वोक्त व्यापार दुष्प्रणिधान नहीं हैं उसी तरह संयम पालनार्थ उपकरणका व्यापार भी दुष्प्रणिधान नहीं हैं अत: ठाणाङ्ग सूत्रके इस प्राठका नाम लेकर श्रावकके पूंजनी आदि धमों पकरणोंके व्यापारको एकान्त पापमें स्थापन करना सूत्रार्थ न जाननेका फल समझना चाहिये। यदि कोई कहे कि 'श्रावकोंके मन, वचन, काय और उपकरणके व्यापार यदि सुप्रणिधान हैं तो इस पाठमें मनुष्य संयतिओंके ही एक चतुर्विध सुप्रणिधान क्यों कहे २६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ सद्धर्ममण्डनम् । गये हैं तिय॑श्च श्रावकोंके भी कहने चाहिये ?" तो इसका उत्तर यह है कि तिलाञ्च श्रावकोंके पास धार्मिक उपकरण नहीं होते और धार्मिक उपकरणके न होनेसे उपकरण का सुप्रणिधान उनमें असम्भव है इस लिये तिय्येच श्रावकोंके चतुबिंध सुप्रणिधान यहां नहीं कहे गये हैं । यद्यपि तियेच श्रावकोंके भी मन वचन और कायके व्यापार सुप्रधान होते हैं तथापि उपकरणके व्यापार न होनेसे तिर्यञ्च श्रावकोंका यहां कथन नहीं है। यह ठाणाङ्ग सूत्रका चौथा ठाणा है इस लिये जिसके चारों व्यापार यानी मन, वचन काय और उपकरणके व्यापार सुप्रणिधान होते हैं उन्हींका यहां कथन है। ___ उक्त चारों सुप्रणिधान मनुष्य श्रावक और साधुओंके ही होते हैं तिर्य्यब्च श्रावकोंके नहीं होते अत: इस पाठमें मनुष्य संयतियोंके ही चतुर्विध सुप्रणिधान कहे गये हैं तियंठच श्रावकोंके नहीं। अत: इस पाठका नाम लेकर श्रावकके पूजनी आदि धों पकरणोंको एकान्त पापमें स्थापन करना अज्ञानका परिणाम है। यदि कोई कहे कि "श्रावक असंयम पालनके लिये भी मन, वचन, काय और उपकरणोंका प्रयोग करते हैं फिर उनके ये व्यापार भी सुप्रणिधान क्यों नहीं मानते ?" तो इसका उत्तर यह है कि श्रावक संयम पालनके लिये जो मन वचन काय और उपकरणका व्यापार करते हैं उन्हीं व्यापारोंकी अपेक्षासे वे देश संयति माने जाते हैं असंयम सेवनके लिये जो उक्त चतुर्विध व्यापार करते हैं उनकी अपेक्षा से नहीं इस लिये उक्त चतुर्विध व्यापार जो संयम पालनार्थ होते हैं वे ही सुप्रणिधान हैं दूसरे व्यापार नहीं। असंयमके उपकारार्थ जो श्रावकके मन, वचन, काय और उपकरणके ब्यापार होते हैं उनकी अपेक्षासे श्रावक असंयत माना जाता है और संयम पालनार्थ जो उसके चतुर्विध व्यापार होते हैं उनकी अपेक्षासे वह संयत समझा जाता है अतएव शास्त्रमें श्रावकको “संयता संयत" कहा है। "संयता संयत" वही है जो देशसे संयम धारी है और जिसके मन, वचन, काय और उपकरणके व्यापार देशसे संयमोपकारी हैं। अतः संयमका उपकारके लिये जो श्रावकोंके मन, वचन, काय और उपकरणके व्यापार होते हैं वे सुप्रणिधान हैं और असंयम पालनार्थ जो उसके उक्त चतुर्विध व्यापार होते हैं वे दुष्प्रणिधान हैं परन्तु भ्रम विध्वंसन कार सामायक और पोषामें बैठे हुए श्रावकके मन, वचन और कायके व्यापारको तो सुप्रणिधान और उसके उपकरणके व्यापारको दुष्प्रणिधान कहते हैं यह इनका एकान्त व्यामोह है। सामायक और पोषामें बैठे हुए श्रावकोंके उपकरणोंका व्यापार यदि दुष्प्रणिधान है तो उसके मन वचन और कायके व्यापार कैसे सुप्रणिधान हो सकते हैं ? और मन वचन तथा कायके व्यापार यदि सुप्रणिधान हैं तो उसका उपकरणका व्यापार कैसे दुष्प्रणिधान हो सकता है ? अतः सामा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दधिकारः । २०३ यक और पोषामें बैठे हुए श्रावकके मन वचन और कायके व्यापारको सुप्रणिधान और उपकरण व्यापारको दुष्प्रणिधान बताना एकान्त मिथ्या समझना चाहिये । ठाणाङ्ग सूत्र उक्त मूल पाठमें मन, वचन, काय और उपकरणके व्यापार, संयति मनुष्योंके सुप्रणिधान कहे गये हैं वहां संयति पदसे जीतमलजीने केवल साधुओं काही ग्रहण होना माना है देश संयति श्रावकों का नहीं । ऐसी दशामें इनके मतानुसार सामायक और पोषामें वैठे हुए श्रावकोंके मन वचन और कायके व्यापार भी सुप्रणिधान नहीं कायम हो सकते क्योंकि मन वचन और कायके व्यापार भी उक्त पाठमें • संयतियोंके ही सुप्रणिधान कहे गये हैं दूसरोंके नहीं। यदि उक्त मूल पाठमें "संयत" पदसे देश संयति श्रावक का भी ग्रहण मान कर उसके भी मन वचन और कायके व्यापार को सुप्रणिधान मानते हो तो फिर उसके उपकरणके व्यापार को भी सुप्रणिधान मानना ही पड़ेगा अतः ठाणाङ्ग उक्त मूल पाठ का नाम लेकर सामायक और पोषामें बैठे एक मन वचन और कायके व्यापारको सुप्रणिधान और उसके उपकरणके व्यापारको दुष्प्रणिधान मानना एकान्त मिथ्या है । ( बोल ४० वां ) इति दानाधिकारः समाप्तः । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ अनुकम्पाधिकारः बहुत लोग अहिंसा धर्मका रहस्य नहीं समझते। ऐसे अज्ञानी अनुकम्पाधिकार की व्याख्या भी अजीब तरहसे करते हैं। उनके मतसे जो मनुष्य जीवों को मारता है वह हिंसा करता और एकान्त पापी होता है। जो नहीं मारता वह अहिंसा धर्मका पालन करता है वह धार्मिक है । लेकिन जो हिंसकको उपदेश देकर उसे हिंसा कम से रोकता है और प्राणीकी प्राण रक्षा करता है वह भी अधर्म करता है। जैसे भ्रमविध्वंसन कार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १२० पर लिखते हैं, "श्री तीर्थ कर देव विण पोताना कम खपावा तथा अनेराने तारिवाने अणे उपदेश देवे इम कयो छै पिण जीव बंचावा उपदेश देवे इम कह्यो नहीं" इत्यादि । अनुकम्पाकी ढालमें भीष गजीने इससे भी अधिक बढ़ कर कहा है "कईक अज्ञानी इम कहे छः कायारा काजे हो देवां धर्म उपदेश। एकन जीवने समझावियां मिट जावे हो घणां जीवांरा क्लेश । छ: कायारे घरे शान्ति हुवे एहवा भाषे हो अन्य तीर्थी धर्म । त्यांभेद न पायो जिन धर्मरो ते तो भूल्या हो उदय आया अशुभ कर्म । मत मार कहे उणरो रागीरे तीजे करणे हिंसा लागी रे" ____ "अर्थात् "कुछ लोग कहते हैं कि वे छः कायके जीवोंके घरमें शान्ति होनेके लिये धर्मका उपदेश देते हैं, क्योंकि एक जीवको समझा देनेसे बहुत जीवोंका क्लेश मिट जाता है। लेकिन छ: कायके जीवोंके घरों में शान्ति होनेके लिये उपझेश देना, अन्य तीर्थी लोगों का धर्म बतलाता है जैन धर्म नहीं बतलाता इस लिये छ: कायके जीवों के घरोंमें शान्ति होनेके लिये उपदेश देने वाले जैन धर्मके रहस्यको नहीं जानते वे मूले हुए हैं और उनको अशुभ कर्मका उदय हुआ है। जो मनुष्य हिंसकके हाथसे मतमार कह कर जीवकी रक्षा करता है वह तीसरे करणसे हिंसाका पाप करता है।" भीषणजीने और भी कहा है "मति मारणरो को नहीं तेतो सावज जाणी वायरे" लेकिन 'मतमार' ऐसा कहके प्राण रक्षा करना कभी सावद्य नहीं है। कोई भी जैन धर्मके तत्वको जानने वाला इसका अनुमोदन नहीं कर सकता। ऐसे ही अनर्गल उपदेश देकर लोगोंने जैन जगतमें भ्रम फैलाया है। जहां उपदेश द्वारा मरते प्राणीकी रक्षा करना एकान्त पाप है, वहां और किसी उपायसे वैसा करना तो और भी गह्य होगा अर्थात् उसके तो एकान्त पाप होनेमें कोई सन्देह ही नहीं है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। भ्रमविध्वंसनकारने अपने मतकी पुष्टिमें कुछ दृष्टान्त भी दे डाले हैं, जैसे “एक मनुष्य झूठ बोलता है और दूसरा झूठ नहीं बोलता और तीसरा सत्य बोलता है। इनमें जो झूठ बोलता है वह एकान्त पापी है और जो झूठ नहीं बोलता है वह एकांत धार्मिक है। तथा जो सत्य बोलता है उसके दो भेद हैं। एक सावध सत्य बोलता है और दूसरा निरवद्य सत्य बोलता है। इनमें जो सावध सत्य बोलता है वह एकान्त पाप करता है और जो निरवद्य सत्य बोलता है वह धर्म करता है। यह तो दृष्टान्त हुआ इसका दान्ति जीतमलजी यह देते हैं - "एक मनुष्य हिंसा करता है और दूसरा हिंसा नहीं करता और तीसरा रक्षा करता है। इनमें जो हिंसा करता है वह एकान्त पापी है और जो हिंसा नहीं करता है वह एकान्त धार्मिक है। तथा जो जीवरक्षा करता है उसके दो भेद हैं। एक हिंसकको हिंसाके पापसे बचानेके लिये न मारनेका उपदेश करता है और दूसरा हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्राणीकी प्राणरक्षा करनेके लिये न मारनेका उपदेश देता है । इनमें जो हिंसकको हिंसा का पाप छुड़ानेके लिये न मारनेका उपदेश देता है वह तो धार्मिक है और जो हिंसकके हाथसे मारे जानेवाले प्राणीकी प्राणरक्षा करनेके लिये न मारनेका उपदेश देता है वह एकान्त पाप करता है क्योंकि मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करना जैन धर्मका सिद्धान्त नहीं है" यह जीतमलजी का मत है। इस मतकी पुष्टिके लिये पूक्ति दृष्टांतके सिवाय यह और भी दृष्टान्त देते हैं जैसे-चोरी करनेवालेको साधु धनीके मालकी रक्षाके लिये चोरी न करनेका उपदेश नहीं देते किन्तु चोरको चोरीके पापसे बचानेके लिए उपदेश देते हैं उसी तरह साधु, कसाईके हाथसे मारे जानेवाले बकरे की प्राणरक्षाके लिये न मारनेका उपदेश नहीं देते किन्तु कसाईको हिंसाके पापसे बचाने के लिये उपदेश देते हैं इत्यादि भ्रमोत्पादक वातें लिख कर जीतमलजीने जैन धर्मके प्राणभूत रक्षा धर्मका समूल नाश करनेकी चेष्टा की है परन्तु इनकी ये सब बातें निराधार और शास्त्रसे विरुद्ध हैं। कसाईके हाथसे मारे जाने वाले प्राणियों की प्राणरक्षाके लिये उपदेश देना सावध सत्यकी तरह एकांत पाप नहीं है किन्तु यह धर्म कार्य है। मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करना जैन धर्मका खास उद्देश्य है सच पूछिये तो प्राणियोंकी प्राणरक्षा के लिये ही जैनागमका निर्माण हुआ है। प्रश्न व्याकरण सूत्रके प्रथम संवर द्वारमें यह पाठ आया है "सव्व जग जीव रक्खण दयठ्याए पावयणं भगवया सुकहियं” अर्थात् "संसारके सभी जीवोंकी रक्षारूप दयाके लिये भगवान् तीर्थङ्करसे प्रवचन (जैनागम ) कहा गया है" यदि हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले जीवोंकी रक्षा करनेके लिये उपदेश देना, एकान्त पाप होता तो इस पाठमें संसारके सभी जीवोंकी रक्षा रूप दयाके लिये जैनागमका कथन होना क्यों कहा जाता ? अत: जीवरक्षाके उद्देश्यसे उपदेश देनेको एकान्त पाप और इसे अन्य तीर्थी का धर्म बताना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । यदि कोई कहे कि “प्रश्न व्याकरण सूत्रके ऊपर लिखे पाठ में 'रक्षण' पदका जीवों को न मारना अर्थ है बचाना अर्थ नहीं है" तो वह मिथ्यावादी है रक्षण पदका कोष, व्याकरण तथा व्यवहार से बचाना अर्थ ही प्रसिद्ध है और जीतमलजीने भी यह स्वीकार किया है । जैसे ० पृ० ११९ पर उन्होंने लिखा है " ( १ ) एक तो जीव हणे ( २ ) एक न हणे (३) एक जीव छुडावे ए तीनू न्यारा न्यारा छै" यह लिख कर जीवको न मारना और जीवकी रक्षा करना इनको भिन्न भिन्न जीतमलजीने बतलाया है इसलिये जीव न मारने को रक्षा मानना और जीव छुड़ानेको रक्षा न मानना मिथ्या है । २०६ हिंसक हाथसे मारे जाने वाले जीवकी रक्षा करनेके लिये उपदेश देना सावध सत्यकी तरह एकान्त पाप नहीं है। सावध सत्यसे जीवको दुःख होता है जैसे काणको का अन्धेको अन्धा कहना सत्य तो है परन्तु इससे काण और अन्ध मनुष्यके दिल दुःख होता है इसलिये शास्त्रमें सावद्य सत्यको एकान्त पाप कहा है लेकिन हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्राणीकी प्राणरक्षाके लिये उपदेश देनेसे न तो हिंसक को दुःख होता है और न मारे जाने वाले जीवको ही दुःख होता है वल्कि हिंसक जीव, हिंसाके पापसे वचता है और मारे जानेवालेका आर्त रौद्र ध्यान छूटता है फिर इसमें पाप किस बाता हुआ ? यह बुद्धिमान, दयालु मनुष्य स्वयं समझ सकते हैं । प्रश्न व्याकरण सूत्रके पूर्वोक्त मूलपाठानुसार हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्राणी प्राणरक्षा करनेके लिये धर्मोपदेश देना बहुत ही प्रशस्त कार्य्य है इसे पाप बताना शास्त्र द्रोहियोंका कार्य है । सावध और निरवद्यके भेदसे सत्यका दो भेद होना, स्वयं शास्त्रकारने ही बतलाया है परन्तु रक्षाको सावद्य और निरवद्य कहीं नहीं कहा है अतः जो लोग रक्षाको सावद्य कहते हैं वे मिथ्यावादी हैं । जीव रक्षा रूप धर्मको एकान्त पाप सिद्ध करनेके लिये जीतमलजीने जो दूसरा दृष्टान्त दिया है कि “साधु चोरीके पापसे चोरको मुक्त करनेके लिये धर्मोपदेश देता है। परन्तु धनी धनकी रक्षा करनेके लिये नहीं देता उसी तरह हिंसकको हिंसाके पापसे मुक्त करनेके लिये न मारने का उपदेश देता है परन्तु मरते जीवकी रक्षाके लिये नहीं देता” यह दृष्टान्त भी असंगत है क्योंकि प्रश्न व्याकरण सूत्रमें जीवरक्षा रूप दयाके लिये जैनागम का कथन होना बतला कर जीवरक्षा रूप धर्मको जैनागमका प्रधान उद्देश्य कहा है इसलिये साधु जीव रक्षा के लिये धर्मोपदेश करते हैं परन्तु धनीके धनकी रक्षा के लिये नहीं क्योंकि उक्त सूत्रमें परायेद्रव्यके हरणरूप पापसे निवृत्तिरूप दया के लिये जैनागमका कथन होना बतलाया है धनीके धनकी रक्षारूप दयाके लिये नहीं इसलिये साधु, चोरको Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २०७ चोरीके पापसे मुक्त करनेके लिये ही धर्मापदेश देते हैं धनीके धनकी रक्षाके लिये नहीं। प्रश्न व्याकरण सूत्र का वह पाठ यह है "पर दव्व हरण वेरमण दयट्ठाए पावयणं भगवया सुकहियं” अर्थात् “पराये द्रव्यके हरण रूप पापसे निवृत्ति रूप धर्मकी रक्षाके लिये भगवान्ने प्रवचन कहा है।" इस पाठमें पराये द्रव्यके हरण रूप पापसे निबृत्तिके लिये प्रवचनका कथन होना कहा है धनीके धन की रक्षा के लिये नहीं इसलिये साधु चोरको चोरी के पाप से बचानेके लिये ही धर्मोपदेश देता है धनीके धनकी रक्षाके लिये नहीं परन्तु जीवरक्षाके विषयमें यह नहीं कहा है कि “हिंसाकी निवृत्तिके लिये जैनागमका कथन हुआ है जीवरक्षाके लिये नहीं बल्कि वहां तो यह साफ लिखा है कि "सम्व जगजीव रक्षण दयठ्याए पावयर्ण भगवया सुकहियं” अर्थात् “संसारके सभी प्राणियोंकी रक्षा रूप दया के लिये भगवानसे जैनागम कहा गया है।" इसलिये हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले जीवकी रक्षा करनेके लिये धर्मोपदेश देना शास्त्रानुमोदित और बहुत ही प्रशस्त कार्य है इसे पाप कहने वाले एकान्त मिथ्यावादी और मिथ्यादृष्टि हैं । धनरक्षाके साथ जीवरक्षा की तुल्यता बताना भी अज्ञान मूलक है। धन अचित्त पदार्थ है उसकी अनुकम्पा नहीं होती परन्तु जीव चेतन है उसकी रक्षा करना धर्म है अतएव शास्त्रमें जगह जगह "प्राणानु कम्पयाए भूयानुकम्पयाए" इत्यादि पाठ आया है “धनानुकम्पयाए वित्तानु कम्पयाए” इत्यादि पाठ नहीं आया है । इसलिये धनरक्षाका दृष्टान्त देकर जीवरक्षाके लिए धर्मोपदेश देनेमें एकान्त पाप कहना अज्ञानियोंका कार्य है। (बोल १ समाप्त) (प्रेरक) हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्राणियोंकी प्राणरक्षाके लिये किसी साधु महात्मा ने धर्मोपदेश दिया हो ऐसा उदाहरण मूल सूत्र के साथ बतलाइए ? (प्ररूपक) राज प्रश्नीय सूत्रका मूल पाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है। वह पाठ यह है:___"जइणं देवाणुप्पिया ! पएसिस्स रण्णो धम्ममाईक्खेजा बहु गुणतरं खलु होजा, पएसिस्स रण्णो तेसिं च वहुणं दुप्पयचउप्पय मियपसुपक्खीसरीसवाणं । तंजइ देवाणु प्पिया ! पएसिस्स रण्णो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ सद्धममण्डनम् । धम्म माइक्लोजा वह गुणतर फलं होजा तेसिंच वह्वणं समण माहन भिक्खुयाणं । तंजइणं देवाणुप्पिया ! पएसिस्स बहुगुणतरं होज्जा सव्वस्सवि जणवयस्स" (राजप्रश्नीय सूत्र ) अर्थ: हे देवानुप्रिय ! आप यदि प्रदेशी राजाको धर्म सुनावें तो बहुत गुण युक्त फल हो । वह किसे हो ?खुद राजा प्रदेशीको गुण हो और उनके हाथसे मारे जाने वाले बहुतसे द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी और सरी सृपोंको हो। हे देवानुप्रिय ! आप यदि राजा प्रदेशीको धर्म सुनावें तो बहुतसे श्रमग, माहन, और भिक्षुकोंको, तथा राजा प्रदेशी और उनके सम्पूर्ण राष्ट्रको बहुत गुणयुक्त फल हो। इस पाठमें राजा प्रदेशीको धर्म सुनानेसे राजा प्रदेशी और उसके हाथसे मारे जाने वाले द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी और सरी सृप, दोनों ही को गुण होना कहा है। इसका भाव यह है कि राजा प्रदेशीको धर्म सुनानेसे वह हिंसा करना छोड़ कर हिंसाके पापसे बच सकता है और उसके हाथसे मारे जाने वाले द्विपद, चतुष्पद आदि प्राणियोंकी प्राणरक्षा हो सकती है इसलिये राजा प्रदेशीको हिंसाके पापसे बचनेका गुण है और उसके हाथसे मारे जाने वाले प्राणियों को प्रागरक्षा रूप गुण है। इन दोनों ही लाभके लिए चित्त प्रधानने केशी स्वामीसे राजा प्रदेशीको धर्मोपदेश देनेकी प्रार्थना की है केवल प्रदेशीको हिंसाके पापसे बचाने के लिए ही नहीं अत: हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्राणियोंकी प्राणरक्षाके लिए भी साधु उपदेश देते हैं सिर्फ हिंसकको हिंसाके पापसे बचानेके लिए ही नहीं यह इस पाठसे स्पष्ट सिद्ध होता है। यदि कोई कहे कि “यह पाठ, चित प्रधान की प्रार्थनाको बतलानेके लिए आया है इसलिए यद्यपि इस पाठमें चित्त प्रधानने द्विपद, चतुष्पद, मृग, पशु, पक्षी और सरीसृपोंकी प्राणरक्षाके लिए केशी स्वामीसे धर्मोपदेश देने की प्रार्थना की है तथापि इससे साधुओंका मरते प्राणीकी प्राण रक्षा करनेके लिये धमो पदेश देना नहीं सिद्ध हो सकता क्योंकि चित्त प्रधान, अज्ञानवश भी मरते जीवकी रक्षा करनेके लिये मुनिसे धो पदेश देने की प्रार्थना कर सकता है" तो इसका उत्तर यह है कि चित्त प्रधान, कोई मामूली मनुष्य नहीं किन्तु बारह व्रतधारी श्रावक था वह जीवरक्षामें धर्म या अधर्म होना जानता था। दूसरी बात यह कि चित्त प्रधानने केशी स्वामीसे जीव रक्षाके लिए धर्मापदेश करने की प्रार्थना की थी, यदि यह कार्य एकान्तपापका था तो केशी स्वामीने चित्त प्रधानको क्यों नहीं समझा दिया कि "हे देवानुप्रिय ! राजा प्रदेशीको तारनेके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः । २०९ लिये धर्मोपदेश देना तो ठीक है परन्तु उसके हाथसे मारे जाने वाले प्राणियोंकी प्राणरक्षा के लिये धर्मोपदेश देना उचित नहीं है क्योंकि मरते जीवकी रक्षाके लिये उपदेश देना एकान्त पाप है" अतः जीवरक्षामें धर्म होना स्पष्ट सिद्ध होता है तथापि हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्राणियोंकी प्राणरक्षाके उद्देश्यसे धर्मोपदेश करनेमें जो एकान्त पाप बतलाते हैं उन्हें मिथ्यावादी और उत्सूत्र प्ररूपगा करनेवाला समझना चाहिये । [बोल २ रा समाप्त (प्रेरक) सुयगडांग सूत्र श्रु० १ अध्ययन ६ के मूलगाथामें “दाणाण सेट्ठ अभयप्पयाण" यह वाक्य आया है इसका कई एक यह अर्थ करते हैं कि "अपनी ओरसे किसी प्राणी को भय न देना अभयदान है परन्तु दूसरेसे भय पाते हुए प्राणीको भयसे मुक्त करना अभयदान नहीं हैं" इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) किसी प्राणीको अपनी ओरसे भय न देना, और दूसरेसे भय पाते हुए जीवको भयसे मुक्त करना, ये दोनों ही अभयदान हैं परन्तु अपनी ओरसे किसीको भय न देना ही नहीं अत: दूसरेसे भय पाते हुए जीवको भयसे मुक्त करनेको अभयदान न मानना अज्ञानियोंका कार्या है। इस गाथाकी टीकामें टीकाकारने, दूसरेसे भय पाते हुएको भय से मुक्त करना अभयदान बतलाया है वह टीका यह है: स्वपरानुग्रहार्थ मर्थिनेदीयत इति दान मनेकधा तेषां मध्ये जीवानां जीवितार्थिनां त्राणकारित्वादभयदानं श्रेष्ठम् । तदुक्तम् "दीयते म्रियमाणस्य कोटिं जीवितमेव वा धन कोटिं न गृह्णाति सर्वो जीवितुमिच्छति" __ गोपालाङ्गनादीनां दृष्टान्तद्वारेणाथों बुद्धौ सुखेनारोहतीत्यतोऽभयदान प्रधान्य ख्यापनार्थ कथानक मिदम्-वसन्तपुरे नगरे अरिदमनो राजा, सच कदाचित् चतुर्वधू समेतो वातायनस्थः क्रीडायमानस्तिष्ठति तेन कदाचिच्चोरो रक्त करवीरकृतमुण्डमालो रक्तपरिधानो रक्तचन्दनोपलिप्तश्च प्रहतवध्यडिण्डिमो राजमार्गेण नीयमानः सपत्नीकेन दृष्टः । दृष्ट वाच ताभिः पृष्ठम् किमनेना कारीति । तासामेके न रामपुरुषेणा वेदितम्, यथा परद्रव्यापहारेण राजविरुद्ध मिति तत एकया राजा विज्ञप्तः यथा यो भवता मम प्राग् वरः प्रतिपन्नः सोऽधुना दीयताम् यथाहमस्योपकरोमि किश्चित् राज्ञापि प्रतिपन्नम् । ततस्तया स्नानादिपुरःसरमलंकारेणालंकृतो दीनार सहस्र व्ययेन पञ्चविधान् शब्दादीनविषयानेक महः प्रापितः । पुनद्वितीययाऽपि तथैव द्वितीय महो दीनार शत सहस्र व्ययेन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० सद्धममण्डनम् । लालित: तत स्तृतीयया तृतीय महो दीनार कोटि व्ययेन सत्कारितः । चतुर्थ्यातु राजानुमत्या मरणाद्रक्षितोऽभयप्रदानेन । ततोऽसावन्याभिहसिता नास्यत्वया किश्चिद्दसमिति । तदेवं तासां परस्परं बहूपकारविषये विवादे जाते राज्ञाऽसावेव चौरः समाहूय पृष्ठः "यथाकेन तव वहूपकृतम्" तेनाप्यभाणि यथा न मया मरणमहाभयभीतेन किञ्चित् स्नानादिकं सुखं व्यज्ञायि अभयप्रदानाकर्णनेन पुनर्जन्मानमिवात्मान मवैमीति अत: सर्वदानाना मभय प्रदानं श्रेष्ठ मिति स्थितम् । अर्थ: अपने या परायेके अनुग्रहके लिये याचक पुरुषको जो दिया जाता है वह दान कहलाता है। वह अनेक प्रकारका है उनमें सबसे श्रेष्ठ अभयदान है। अभयदान, जीने की इच्छा रखने वाले प्राणियोंके जीवनकी रक्षा करता है इसलिये वह सब दानोंमें श्रेष्ठ माना गया है। कहा भी है-मरते हुए प्राणीको एक तरफ कोटि कोटि धन, और दूसरे तरफ जीवन दिया जाय तो वह धन कोटिको न लेकर जीवनको ही लेता है क्योंकि जीवोंको सबसे ज्यादा जीवन प्रिय है अत: सब दानोंमें अभय दान ही श्रेष्ठ है। साधारण बुद्धिवालों को समझानेके लिये अभयदानकी प्रधानता दृष्टान्तके द्वारा बतलाई जाती है .: वसन्तपुर नगरमें अरिदमन नामक राजा रहता था। वह किसी समय अपनी चार रानियोंके साथ झरोखे पर बैठ कर क्रीडा करता था। उसने अपनी स्त्रियोंके साथ, राजमार्गसे ले जाया जाता हुआ कण्ठमें लाल कनैलके फूलकी माला लगाया हुआ साल कपड़ा पहिना हुआ शरीरमें रक्त चन्दनका लेप किया हुआ और बाजा बजा कर बध करनेकी घोषणा किया जाता हुआ किसी चोरको देखा। उसे देख कर रानियोंने पूछा कि “इसने क्या अपराध किया है ?" यह सुन कर किसी राजपुरुषने कहा कि "इसने चोरी करके राजाकी आज्ञा उल्लञ्चन की है" इसके अनन्तर एक रानीने राजासे कहा कि "आपने जो मुझे पहले वरदान देना स्वीकार किया था वह अभी दे देवें जिससे मैं इस चोरका कुछ उपकार कर सकू” यह सुन कर राजाने वरदान देना स्वीकार कर लिया। रानीने राजासे यह वर मांगा कि “इस चोरको स्नान आदि करा कर भूषण आदि पहिना कर हजार मोहरके व्ययसे एक दिन तक शब्दादि पांच विषयोंका सुख दिया जाय।" पश्चात् दूसरी रानीने दूसरे दिन उस चोरको एक लाख मोहरके व्ययसे सुख देनेका वर मांगा। तीसरीने तीसरे दिन एक कोटि मोहरके व्ययसे उसे सुख देनेको कहा । परन्तु चौथी रानीने राजासे वर मांग कर उस चोरको अभयदान देकर मरनेसे बचा लिया। यह देख कर पहली तीन शानियां चौथी रानीकी हंसी उडाने लगी के कहने लगी कि इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २११ ने तो इस विचारेको कुछ भी नहीं दिया है" इसके अनन्तर उन रानियों में अपने अपने उपकारके विषयमें कलह होना आरम्भ हुआ उस कलहको शान्तिके लिये राजाने चोरको बुला कर पूछा कि “इन रानियोंमें सबसे अधिक तुम्हारा किसने उपकार किया है ?" चोर ने कहा कि-मरण रूपी महाभयसे मैं इतना डरा हुआ था कि स्नान आदिका सुख मुझको कुछ भी नहीं मालूम हुआ। जव मैने सुना कि मुझे अभयदान मिला है तब मुझ को नवीन जीवन प्राप्तिके समान महान् आनन्द प्राप्त हुआ। अत: सब दानोंमें अभयदान की श्रेष्ठता स्पष्ट सिद्ध होती है। __ यहां, मारे जाने वाले प्राणीको मरणसे बचा देना अभयदान कहा गया है और इस विषयको स्पष्ट समझानेके लिये चोरका दृष्टान्त दिया है। इस दृष्टान्तमें रानी ने अपनी ओरसे चोरको भय देने का त्याग नहीं बल्कि शूली या फांसीके द्वारा होने वाले मरणरूपी महाभयसे उसे बचाया है और इस कार्याको यहां अभयदान कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि दूसरेसे भय पाते हुए प्राणीका भय दूर करना भी अभयदान है अपनी ओरसे भय न देना ही नहीं अत: दूसरेसे भय पाते हुए प्राणीको भयसे मुक्त करने में जो. एकान्त पाप बतलाते हैं वे मिथ्यावादी हैं। (बोल ३रा समाप्त) (प्रेरक) ___ भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १२१ पर सुयगडांग सूत्रको गाथा लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: “अथ अठे कह्यो पोताना कम खपावा तथा आर्याक्षेत्रना मनुष्यने तारिवा भगवान् धर्म कहे इम कयो पिण इम न करो जे जीव बंचावाने अर्थे धर्म कहे, इण न्याय असंयति जीवांरो जीवगों वाच्छ्या धर्म नहीं। इनके कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान महावीर स्वामी आर्यक्षेत्रके मनुष्य को तारनेके लिए और अपने कर्मोका क्षय करनेके लिये धर्मोपदेश करते थे परन्तु हिंसक के हाथसे मारे जाने वाले प्राणियों की प्राणरक्षा करनेके लिये नहीं अत: मरते हुए प्राणीकी प्राणरक्षा करनेके लिये धर्मोपदेश देना साधुका कर्त्तव्य नहीं है। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) सुयगडांग सूत्रकी गाथाओंको लिख कर इसका समाधान दिया जाता है। वे गाथायें ये हैं: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ सद्धर्ममण्डनम् । I "नो काम किच्चा नयबालकिच्चा राजाभियोगेण कुतो भयेणं । वियागरेज्जा पसिणं नवावि सकाम किच्चे इह आरियाणं । गन्तावतत्था अदुवा अगंता वियागरेज्जा समिया सुपन्ने । अनारिया दंसणतो परीत्ता इति संकमाणो न उवेति तत्थ " ( सुय० श्रुत० ५ अ० ६ गाथा १७-१८ ) अर्थः गोशालक मतको खण्डन करनेके लिये आर्द्र मुनि कहते हैं कि भगवान् महावीर स्वामी विना इच्छा कोई कार्य नहीं करते। जो बिना बिचारे काम करता है वह इच्छाके बिना भी का करता है और वह अपने या दूसरेका जिससे अनिष्ट हो ऐसा भी काट कर डालता है परन्तु भगवान् महावीर स्वामी सर्वज्ञ सर्वदर्शी और परायेके हित करनेमें तत्पर रहते हैं जिससे अपना या दूसरेका उपकार नहीं होता ऐसा कार्य्यं भगवान् नहीं करते । भगवान् अपनी प्रतिष्ठा के लिये अथवा किसी राजा महाराज आदिके दबाव से धर्मोपदेश नहीं देते क्योंकि उनकी प्रवृत्ति भबसे नहीं होती । यदि कोई कुछ पूछता है तो उसका उपकार होता देख कर भगवान् उत्तर देते हैं अन्यथा नहीं देते। बिना पूछे भी लाभ समझने पर भगवान् उपदेश देते हैं । अनुत्तर विमानवासी देवता और ममःपर्याय ज्ञानियोंके प्रश्नोंके उत्तर भगवान् मनसे ही देते हैं वाणीद्वारा नहीं क्योंकि उन्हें वाणीद्वारा उपदेश देनेकी आवश्यकता नहीं है । भगवान् महावीर स्वामी यद्यपि वीतराग हैं तथापि अपने तीर्थकर नाम कमका क्षय करने के लिये और उपकार योग्य आर्य्य क्षेत्रके मनुष्यों का उपकार के लिये आक्षेत्र में उपदेश देते हैं । १७ भगवान् महावीर स्वामो दूसरोंके हित साधनमें प्रवृत्त रहते हैं इस लिये वह शिक्षा देने योग्य पुरुषके निकट जाकर भी उपदेश देते हैं, वह जिस प्रकार भव्य जीवोंका कल्याण देखते हैं उसी तरह काय्य करते हैं, वह नहीं जाकर भी उपदेश देते हैं । उपकार होता देख कर वह जाकर भी उपदेश देते हैं और उपकार न होता देख कर वहां रहते हुए भी उपदेश नहीं देते भगवान्को किसीसे भी राग द्वेष नहीं है, चक्रवर्ती राजा हो चाहे दरिद्र हो सबको वह एक दृष्टिसे देखते हैं । पूछने पर या न पूछने पर वह सबको समान रूपसे धर्मोपदेश देते हैं । भगवान् अनार्य्य देशमें धर्मो . पदेश देनेके लिये इस कारण नहीं जाते कि वहांके निवासी दर्शन भ्रष्ट और ऐहिक सुखको ही अपना अन्तिम लक्ष्य समझकर परलोकको अङ्गीकार नहीं करते। उन लोगोंको भाषा और कर्म भी आर्य पुरुषोंसे विपरीत होते हैं इस लिये वहां उपकार होता नहीं देख कर भगवान् अनार्य्य देशमें नहीं जाते। इन गाथाओं में कहा है कि “भगवान् महावीर स्वामी आय्य क्षेत्रके मनुष्योंके उपकार के लिये और अपने तीर्थकर नाम कर्मका क्षय करनेके लिये उपदेश देते हैं" इससे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः । २१३ हिंसक के हाथ से मारे जाने वाले जीव की प्राण रक्षा के लिये भी भगवान् का धर्मोपदेश देना सिद्ध होता है क्योंकि जैसे हिंसकको हिंसाके पापसे बचाना उसका उपकार करना है उसी तरह हिंसक हाथसे मारे जाने वाले प्राणीकी रक्षा करना भी उसका उपकार करना है । इन गाथाओं का अभिप्राय बतलाते हुए टीका कारने भी यह लिखा है 1 "असावपि तीर्थ कृन्नामकर्मणः क्षपणाय न यथा कथं चिदतोऽसावग्लान: इह मस्मिन् संसारे आय क्षेत्र वा उपकार योग्ये आय्र्याणां सर्वहेयधर्मदूरवर्तिनां तदुपकाराय धर्मदेशनां व्यागृणीयादसाविति " अर्थात् भगवान् महावीर स्वामी अपने तीर्थकर नाम कर्मका क्षय करनेके लिये इस संसारमें, अथवा उपकार योग्य इस आर्य्य क्षेत्र में त्यागने योग्य सभी बुरे धर्मों से अलग रहने वाले आय क्षेत्र वासी मनुष्योंका उपकारके लिये धर्मोपदेश देते हैं । यहां टीकाकारने भी मूल गाथाका अभिप्राय बतलाते हुए आय क्षेत्र वासी मनुsrint उपकारके aिये भगवान्का धर्मोपदेश करना बतलाया है इस लिये हिंसक के हाथसे मारे जाने वाले जीवोंकी रक्षा के लिये उपदेश देना भी धर्म सिद्ध होता है क्योंकि मरते प्राणीकी प्राण रक्षा करना उसका सबसे प्रधान उपकार है। अतः भगवान् महावीर स्वामी आय्य क्षेत्रके प्राणियों की प्राण रक्षा रूप उपकारके लिये भी धर्मोपदेश करते थे यह बात इस गाथा और इसकी टीकासे स्पष्ट सिद्ध होती है । तथापि इन गाथाओं का नाम लेकर यह कहना कि "भगवान् आय्य क्षेत्रके जीवोंकी प्राण रक्षा करनेके लिये उपदेश नहीं देते थे" एकान्त मिथ्या है। डांग सूत्रकी इन गाथाओं के पहलेकी गाथामें मरते जीवकी प्राण रक्षा करने के लिये भगवान्का धमोपदेश देना स्पष्ट लिखा है इस लिये वह गाथा भी यहां लिखी जाती है । "समिच्च लोगं तस थावराणं खेमंकरे समणे माहणेवा । आइक्ख माणेवि सहस्समज्झे एगंतयं सारयति तहच्चे" ( सुय० सू० २ अ० ६ गाथा ४ ) टीका - “स्यादेतत् धर्मदेशनया प्राणिनां कश्चिदुपकारो भवत्युतनेति, भवतीत्याह “समिच्च लोग" मित्यादि सम्यग्यथावस्थितं लोकं षड्द्रव्यात्मकं मत्वा अवगम्य केवला लोकेन परिच्छिद्य त्रस्यन्तीति त्रसाः नम्र नाम कर्मों दया द्वीन्द्रियादयः, तथा तिष्ठन्तीति स्थारा: स्थावरनामकम दयात्स्थावराः पृथिव्यादयस्तेषां मुभयेषा मपि जन्तूनां क्षेमं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । २१४ शान्तिः रक्षा तत्करण शीलः क्षेमंकरः । श्राम्यतीति श्रमण: द्वादश प्रकार तपोनिष्टप्तदेहः तथा मान इति प्रवृत्तिर्यस्यासौ मानो ब्राह्मगोवा स एवं भूतो निर्ममो राग द्वेष रहितः प्राणिहिताद्यर्थ न पूजालाभ ख्यात्याद्यर्थ धर्ममाचक्षागोऽपि प्राग्वत् छद्मस्थावस्थायां मौनव्रतिक इव वाक्संयत एव उत्पन्नदिव्यज्ञानत्वाद्भाषागुणदोषविवेकज्ञतया भाषनैव गुगावाप्तेः अनुत्पन्न दिव्य ज्ञानस्यतु मौन व्रतिकत्वेनेति । तथा देवासुर नर तिर्य्यक् सहस्रमध्येऽपि व्यवस्थितः पंकाधारपंकजवत्तदोषव्यासंगाभावान्ममत्व विरहा दाशंसादोष विकलत्वादेकान्तमेवासौ सारयति प्रख्यातिं नयति साधयतीति यावत् । agesपिरि करावस्थयोरस्ति विशेषः प्रत्यक्षेणैवोपालभ्यमानत्वात्सत्यम् - अस्ति विशेषो वाह्यतो नत्वतरतोऽपि दर्शयति - तथा प्राग्वदर्चा लेश्या शुक्लध्यानाख्या यस्य स तथार्चः यदिवा अर्चा शरीरं तच्चप्राग्वद्यस्य सतथार्चः । तथाहि असावशोकाद्यष्ट प्राति- हाय्र्योपेतोऽपि नोत्सेकं याति नापि शरीरं संस्कारायत्त विदधाति सहि भगवान् आत्यन्तिक राग द्वेष प्रहाणादेकाक्यपि जन परिवृतोऽप्येकाकी न तस्य तयोरवस्थयोः कश्चि द्विशेषोऽस्ति । तथा चोक्तम् "राग द्वेषौ विनिर्जित्य किमरण्ये करिष्यसि । अथनो निर्जितावेतौ किमरण्ये करिष्यसि" इत्यतो वाह्य मनंगमान्तरमेव कषायजयादिकं प्रधानं 'कारण मिति स्थितम्” अर्थ : भगवान् महावीर स्वामीके धर्मोपदेश से प्राणियों का कुछ उपकार होता था या नहीं ? कहते हैं कि होता था । भगवान् महावीर स्वामी, केवल ज्ञानसे षड्द्रव्यात्मक orest यथार्थ रूपसे जान कर द्वीन्द्रियादिक त्रस और पृथिवी आदि स्थावर प्राणियों की स्वभावसे ही रक्षा, शान्ति या क्षेम करते थे । तथा बारह प्रकारकी तपस्यासे अपने 'शरीरको तपाये हुए और माहन यानी प्राणियोंको अहिंसाका उपदेश करते हुए ममता रहित होकर प्राणियों के हित के लिये धर्मोपदेश करते थे उन्हें अपनी पूजा प्रतिष्ठा मान बड़ाई आदिको इच्छा न थी । भगवान् धर्मोपदेश करने के समय में भी पहलेके समान ही मोन प्रतिककी तरह वाक् संयत थे । तात्पर्य यह है कि छद्मस्थावस्था में जैसे भगवान् मौन प्रतिक थे उसी तरह केवल ज्ञान होने पर धर्मोपदेश देते हुए भी मौन व्रतिकके समान ही थे क्योंकि दिव्य ज्ञान उत्पन्न होने पर उन्हें भाषा के बोल ग ही था दोष नहीं था और जब तक वे deas मौन रहने में ही गुग था । भगवान् महावीर स्वामी, यद्यपि हजारों देवता असुर मनुष्य और तिर्योंके बीचमें रहते थे तथापि कीचड़में रहने वाले कमलकी तरह दोष से गुण और दोषके ज्ञान केवल ज्ञानी नहीं हुए थे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २१५ लिप्त नहीं होते थे। किन्तु ममता और सांसारिक लाभ की इच्छा तथा दोष रहित होकर वह सदा और सर्वत्र एकान्तका ही अनुभव करते थे। यदि कोई कहे कि एकाकी अवस्था और शिष्यादिकोंके साथ रहने की अवस्थामें प्रत्यक्ष ही भेद दृष्टिगोचर होता था फिर भगवान् लोगोंके मध्यमें रहते हुए एकान्तका अनुभव कैसे करते थे ? तो इसका उत्तर यह है कि एकाकी अवस्था और शिष्यादिके साथ रहने की अवस्थामें जो भेद दृष्टिगोचर होता था वह वाह्य भेद था आन्तरिक नहीं क्योंकि शिष्यादिकोंके साथ रहने पर भी भगवानकी पहलेके समान हो शुक्ल ध्यान रूपा लेश्याथी और वह अपने शरीरका पूर्ववत् ही संस्कार नहीं करते थे तथा अशोकादि आठ प्रतिहारियोंके साथ रहते हुए भी भगवान् गर्व रहित थे एवं राग द्वेषका सर्वथा अभाव हो गया था इस लिये मनुष्योंके साथ रहने पर भी भगवान् एकान्तका ही अनुभव करते थे। किसी भाचार्य्यने कहा है कि यदि तुमने राग द्वषको जीत लिया है तो वनमें जाकर क्या करोगे ? और यदि राग द्वेषको नहीं जीता है तो जंगलमें जाकर क्या करोगे। तात्पर्य यह है कि वाह्याचार कल्याणका कारण नहीं किन्तु आन्तरिक कपाय आदिका विजय ही मुक्ति साधक है । यह उक्त गाथा का टीकानुसार अर्थ है। इस गाथामें लिखा है कि भगवान् महावीर स्वामी त्रस औरः स्थावर सम्पूर्ण प्राणियोंके क्षेम यानी रक्षा करने वाले थे। और टीकाकारने भी लिखा है कि "क्षेमं शान्तिः रक्षा तत्करण शीलः शेमंकर:” अर्थात् भगवान् सब प्राणियोंका क्षेम शान्ति, यानी रक्षा करते थे । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि भगवान् मरते प्राणीकी प्राणरक्षाके लिये भी धर्मोपदेश देते थे केवल हिंसकको हिंसाके पापसे छुड़ानेके लिये ही नहीं। यदि कोई कहे कि हिंसाके पाससे वचा देना हो जीवकी रक्षा या शेम है मरनेसे बचाना नहीं, तो उसे कहना चाहिये कि इस गाथामें स्थावर जीवोंका भी क्षेम करने वाला भगवानको कहा है यदि वह मरते जोवकी प्राणरक्षाके लिये उपदेश नहीं देते थे तो स्थावर जीवोंका शेम करने वाले वह क्यों कहे गये हैं ? क्योंकि स्थावर जीवोंमें उपदेश ग्रहण करने की योग्यता नहीं होती इस लिये हिंसाके पापसे बचाने के लिये उनको उपहेश देना नहीं घट सकता किन्तु उनकी प्राणरक्षाके लिये उपदेश देना ही घटता है अत: भगवान् मरते प्राणीकी प्राण रक्षाके लिये भी उपदेश देते थे यह: इस. गाथासे स्पष्ट सिद्ध होता है। कोई कोई अज्ञानी कहते हैं कि "हिंसकके हायसे असंयक्ति जीवको बचाना उपके असंयमका अनुमोदन करना है, और असंयमका अनुमोकन करवा साधुको नहीं कल्पता इस लिये हिंसके हाथसे मारे जाते हुए असंयति जीवकी प्राणरक्षा के लिये साधुको धर्मोपदेश नहीं देना चाहिये" उनसे कहना चाहिये कि साधु, असंयति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ सद्धर्ममण्डनम् । जीवकी प्राण रक्षा उसके असंयम सेवनका अनुमोदन करनेके लिये नहीं करता। साधु यह नहीं चाहता कि "यह असंयति जीवित रह कर असंयमका सेवन करे, या असंयम सेवन करना अच्छा है। साधु असंयम सेवनको बुरा जानता है इस लिये वह असंयम सेवनके लिये असंयतिकी रक्षा नहीं करता किन्तु असंयतिको आत रौद्र ध्यान और मरण भयसे मुक्त करनेके लिये उसकी प्राणरक्षा करता है अत: असंयतिकी प्राणरक्षा करनेके लिये धमों पदेश देनेसे साधुको असंयमका अनुमोदन बतलाना मिथ्या है। यदि इस तरह असंयमका अनुमोदन लगे तो फिर हिंसककी हिंसा छुड़ाने के लिये अहिंसाका उपदेश भी न देना चाहिये । क्योंकि धमों पदेश सुन कर हिंसक यदि असंयतिको न मारे तो उसकी प्राण रक्षा होगी और वह जीवित रह कर असंयमका सेवन भी कर सकता है। फिर रक्षामें पाप कहने वाले, हिंसककी हिंसा छुड़ानेके लिये अहिंसाका उपदेश क्यों देते हैं ? यदि कहो कि हम असंयतिकी प्राणरक्षा करनेके लिये हिंसकको अहिंसाका उपदेश नहीं देते किन्तु उसे हिंसाके पापसे मुक्त करनेके लिये देते हैं इसलिये हमें असंयतिकी प्राणरक्षा या असंयम सेवनका अनुमोदन नहीं लगता तो उसी तरह समझो कि हम भी असंयमका सेवन करानेके लिये असंयतिकी प्राणरक्षा नहीं करते किन्तु उसका आर्त रौद्र ध्यान मिटा कर मरण दुःखसे उसे मुक्त करनेके लिये करते हैं अत: हमें असंयम सेवन का अनुमोदन नहीं लग सकता । अत: हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्राणीकी प्राण रक्षा करनेमें असंयम सेवनका नाम लेकर एकान्त पाप कहने वाले मिथ्यावादी हैं । ( बोल ४) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १२१ पर लिखते हैं कि "जिम कोई कसाई पांच सौ पञ्चन्द्रिय नित्य हणे छ । ते कसाईने कोई मारतो हुए तो तिणने साधु उपदेश देवे तो तिणने तारिवाने अर्थे पिण कसाईने जीवतो राखणे उपदेश न देवे, ए कसाई जीवतो रहे तो आच्छो इम कसाईनो जीवणो वांछनो नहीं । कोई पञ्चेन्द्रिय हणे केई एकेन्द्रियादिक हणे छै ते मांटे असंयति जीव ते हिंसक छै हिंसकनो जीवणों वान्छयां धर्म किम हुवे" इनके कहनेका आशय यह है कि कोई पञ्चेन्द्रिय जीव को मारता है और कोई एकेन्द्रिय जीवको मारता है इस लिये साधुके सिवाय सभी जीव कसाईके समान हिंसक हैं उनकी प्राण रक्षा करनेके लिये धर्मोपदेश देना धर्म नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः । २१७ किन्तु पाप है । जो कसाई प्रति दिन ५०० बकरा मारता है उसको कोई मारने लगे तो साधु उस मारनेवालेकी हिंसा छुडानेके लिये धर्मका उपदेश करता है कसाईकी प्राणरक्षा करनेके लिये धर्मोपदेश नहीं करता क्योंकि यदि कसाई बचेगा तो वह फिर ५०० बकरों को रोज मारेगा उसी तरह दूसरे असंयति यदि बचें तो वे भी प्रतिदिन एकेन्द्रियादि जीवों का विनाश करेंगे अतः साधु हिंसाका पाप छुडानेके लिये हिंसकको उपदेश करता है हिंसकके हाथ से असंयतिकी प्राणरक्षा करनेके लिये नहीं । इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) साधु किसी की भी हिंसा होना पसन्द नहीं करता वह सबकी रक्षा करना चाहता है वह जैसे कसाईकी हिंसा करनेवालेको धर्मोपदेश देकर कसाईकी प्राणरक्षा करना चाहता है उसी तरह कसाईको धर्मोपदेश देकर उससे प्रति दिन मारे जाने वाले बकरों की भी प्राणरक्षा ही चाहता है वह यह नहीं चाहता कि यह कसाई जीवित रह कर प्रतिदिन arinी हिंसा करे किन्तु यह कसाई तथा इससे मारे जाने वाले प्राणी, सभी आर्तरौद्र ध्यान और मरण भयसे बचें यही कामना साधु करता है और इसके साथ साथ हिंसाके पापसे हिंसकको भी भुक्त करना चाहता है इसी भाव से प्रेरित होकर साधु धर्मोपदेश देता है और धर्मोपदेश देकर मरनेवाले प्राणीको आर्त रौद्र ध्यानसे और मारने वालेको हिंसा के पाप से मुक्त करता है । वह मरने वाले प्राणीके मार्त रौद्र ध्यान तथा मरण महा भयकी निवृत्तिका ही कामुक है उसके असंयम सेवन आदि बुराइयोंका इच्छुक नहीं है अतः असंयति जीव की प्राणरक्षा के निमित्त धर्मोपदेश देनेसे उस असंयतिसे सेवन किये जाने वाले असंयम आदि बुराइयोंका अनुमोदन साधुको नहीं लगता । यदि असंयम की इच्छा न रखने पर भी असंयतिको बचा देने मात्र से साधु को असंयम का अनुमोदन लगे तो हिंसकको अहिंसाका उपदेश देनेसे भी असंयमका अनुमोदन लगना चाहिये क्योंकि अहिंसाका उपदेश सुन कर हिंसक यदि असंयतिको न मारे तो वह असंयति जीवित रह कर असंयमका सेवन कर सकता है । इस प्रकार जिसने अहिंसाका उपदेशके द्वारा हिंसकसे असंयतिकी हिंसा रोक दी है वह उस असंयतिके असंयम सेवनका अनुमोदक क्यों नहीं होगा ? यदि उक्त अहिंसाका उपदेशक, हिंसा छुडाने मात्र की भावनासे उपदेश देता है हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्राणी की प्राणरक्षा तथा उससे किए जाने वाले असंयम सेवनकी इच्छा से नहीं इस कारण उसे असंयम सेवनका अनुमोदन नहीं लगता तो उसी तरह जो प्राणियोंकी प्राणरक्षा और उनके आर्त रौद्र ध्यानको निवृत्त करने मात्रकी इच्छासे प्राणियोंकी प्राणरक्षा करता है २५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ सद्धर्ममण्डनम् । उनके असंयम सेवनकी इच्छासे नहीं, उसको भी असंयम सेवनका अनुमोदन नहीं लगता किन्तु मरते हुए प्राणीकी प्राणरक्षा रूप महान् धर्मका लाभ होता है। अतः मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करनेके लिये धर्मोपदेश देनेसे असंयम या हिंसाका समर्थन बतलाना निर्दय जीवोंका कार्य समझना चाहिये । (बोल छट्ठा समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १२७ पर लिखते हैं:-"अथ ईहां तो पाधरो कह्यो जे म्हारे कारण यां जीवांने हणे तो ए कारणज मोने परलोकमें कल्याणकारी भलो नहीं इम विचारी पाछा फिरया पिण जीवांने छुडाया चाल्यो नहीं” तथा पृष्ठ १२४ पर लिखा है कि "त्यां जीवांरे जीवणरे अर्थे तो नेमिनाथजी पाछा फिरथा नहीं। ए जो जीवांरी अनुकम्पा कही तेहनो न्याय इम छै जे माहरा व्याहरे वास्ते या जीवांने हणे तो मोने ए कार्य करवो नहीं इम विचारी पाछा फिरया" इत्यादि । इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) उत्तराध्ययन सूत्रकी गाथाओंको टीकाके साथ लिख कर इसका समाधान दिया जाता है: "सोऊण तस्स वयणं वहुपाणि विनासनं चिन्तेइ से महापन्ने सानुक्कोसो जिये हिउ । १८ जइ मज्झ कारणा एए हम्मन्ति सुवहु जिया नमे एयंतु निस्सेसं पर लोगे भविस्सइ । १९ सो कुण्डलाण जुगलं सुत्तगं च महा जसो आभरणानिच सव्वाणि सारहिस्स पणामइ” २० (उत्तराध्यन अ० २२) ( टीका) इत्थं सारथिनोक्ते यद्भगवान् विहित वास्तदाह सुगम मेव नवरं तस्य सारथः वहूनां प्रभूतानां प्राणानां प्राणिनां विनाशनं हननम् अभिधेयं यस्मिन् तद् बहुप्राणि विनाशनम् । सभगवान् सानुक्रोशः सकरुण: केषु “जीएहिउ" त्ति जीवेषु तुः पाद पूरणे मम कारणादिति मद्विवाह प्रयोजने भोजनार्थत्वादमीषामिति भावः । हम्मति हन्यन्ते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः । वर्तमान सामीप्ये लट् ततो हनिष्यन्ते इत्यर्थः । पाठान्तरतः "हमिहंति” त्ति, सुस्पष्टम् । सुवहव: अति प्रभूता: “जिय" त्ति जीवाः एतदिति जीव हननं तुः एव कारार्थी नेत्यनेन योज्यते ततः नतु नैव निः श्रेयसं कल्याणं परलोके भविष्यति पाप हेतुत्वादस्येति भावः भवान्तरेषु परलोकभीरुत्वस्यात्यन्तमभ्यस्ततयैवममिधान मन्यथा चरमशरीरत्वादति शयज्ञानित्वाच्च भगवतः कुत एवं विध चिन्तावसरः । एवंच विदितभगवदाकूतेन सारथिना मोचितेषु सत्रेषु परितोषितोऽसौ यत्कृतवांस्तदाह "सो" इत्यादि सुत्तकच ेति कटि सूत्र मर्पयतीति योगः किमेतदेवेत्याह आभरणानि सर्वाणि शेषाणीति गम्यते ।” अर्थः इस प्रकार सारथीके कहने पर भगवान् नेमिनाथजीने जो किया बह इन गाथाओं में कहा गया है। बहुत से प्राणियोंका विनाशरूप अर्थ को बतलाने वालो सारथी की वाणी सुन कर बड़े बुद्धिमान नेमिनाथ जी, उन प्राणियों पर दयायुक्त हो कर सोचने लगे । २१९ यदि ये, बहुतसे प्राणी मेरे कारण यानी मेरे विवाहमें आये हुए लोगोंके भोजनार्थ मारे जाएंगे तो यह कार्य्य परलोकमें कल्याणकारक नहीं होगा । (यद्यपि भगवान् नेमिनाथजी अतिशय ज्ञानवान और चरम शरीरी होने के कारण उसी भवमें मोक्ष जाने वाले थे अत: उन्हें परलोककी चिन्ता करनेकी आवश्यकता न थी तथापि दूसरे भवों परलोक से डरनेका जो उनको अत्यन्त अभ्यास था उस अभ्यासके कारण उन्हें पूर्वोक्त चिन्ता हुई थी ) भगवान नेमिनाथजीका अभिप्राय समझ कर सारथीने जब उन प्राणियोंको बन्धन से मुक्त कर दिया तब भगवान ने प्रसन्न होकर कानोंके कुण्डल और कटिसूत्र तथा दूसरे सब आभूषण उतार कर सारथीको इनाम दे दिये । यह उक्त गाथाओं का टीकानुसार अर्थ है । ܢ में कहा है कि “सानुकोसो जीएहिउ ? अर्थात् उन प्राणियों पर भगवान नेमिनाथजीको अनुक्रोश यानी दया उत्पन्न हुई । दया नाम दूसरेके दुःख को दूर करना यानी दुःखीकी रक्षा करना है कहा भी है “पर दुःख प्रहाणेच्छा दया" अर्थात् दूसरे दुःखको दूर करने की इच्छाका नाम दया है। यदि मरते हुए प्राणीकी रक्षा करना एकान्त पाप होता तो भगवान नेमिनाथजी को उन जीवों पर दया क्यों उत्पन्न होती अतः उक्त गाथाओंसे मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करना परम धर्म सिद्ध होता है । tataमलजीने जो यह लिखा है कि "म्हारे कारण यां जीवाने हणे तो एकारणज मोने परलोक कल्याणकारी भलो नहीं इम विचारि पाछा फिरथा पिण जीवने छुडाया चाल्यो नहीं" यह मिथ्या है। भगवान नेमिनाथजी जीवोंकी रक्षाके लिये और उनकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० सद्धममण्डनम् । मृत्युसे होने वाले पापसे बचनेके लिये पीछे लौटे थे केवल अपनी आत्मा को पाप से बचानेके लिये ही नहीं अतएव उक्त मूलगाथामें "सानुक्रोसोजिए हिउ" यह पाठ आया है। यह पाठ तभी सार्थक हो सकता है जब उन जीवोंकी रक्षा करनेके लिये भगवान का लौट जाना माना जाय । जो लोग जीवों पर दया करके उनकी रक्षाके लिये भगवान्का लौट जाना नहीं मानते उनके मतमें उक्त पाठ निरर्थक ठहरता है क्योंकि पापके भयसे लौटना तो अपनी अनुकम्पा है उन जीवोंकी नहीं इसलिये जीतमलजीके हिसाब से उक्त गाथाका "सानुक्कोसोजिए हिउ" यह पाठ किसी प्रकार भी सार्थक नहीं हो सकता अतः उन जीवोंकी रक्षाके लिए भगवान नहीं लौटे थे यह कहना मिथ्या है। ऊपर लिखी हुई वीसवीं गाथामें लिखा है कि भगवान नेमिनाथजीने अपने कानोंके कुण्डल, कटिसूत्र तथा शेष सभी आभूषण उतार कर सारथीको इनाम दे दिए। यहां इनाम देने का कारण बतलाते हुए टीकाकारने लिखा है कि "विदित भगवदाकूतेन नोट-कोई कोई एकेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीवकी हिंसाको एक समान मान कर उनमें अल्प और महान रूप भेदका खण्डन करते हैं और एकेन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय जीवोंकी हिंसामें अल्प और महानका भेद बतलाने वालोंको हिंसाका अनुमोदक कहते हैं इसी तरह एकेन्द्रियकी दयासे पञ्चेन्द्रियकी दयाको प्रधान कहने वालोंको हिंसाका समर्थक बतलाते हैं परन्तु यह उनका अज्ञान है क्योंकि इसी उत्तराध्ययन सूत्र के २३ वें अध्ययनमें भगवान् नेमिनाथजीका विवाहके विमित्त जल स्नान करना लिखा है, जलके जीव, विवाह मण्डपमें बांधे हुए पशुओंसे असंख्य गुण अधिक थे फिर भगवान् नेमिनाथजी उन जलके जीवोंकी हिंसा देख कर स्नान करनेसे क्यों नहीं निवृत्त हो गये । इससे स्पष्ट सिद्ध होता हैं कि भगवान् नेमिनाथजीने जलके जीवोंकी अपेक्षा मण्डपमें बांधे हुए पञ्चेन्द्रिय जीवोंकी हिंसाको बहुत ज्यादा पाप और एकेन्द्रियकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रियकी दया को बहुत ज्यादा उत्तम समझा था इश लिये वह जलस्नानसे तो निवृत्त न हुए परन्तु मण्डपमें बांधे हुए पशुओंके रक्षार्थ निवृत्त हो गये थे। यद्यपि भगवान् नेमिनाथजी तीन ज्ञानके धनी होनेके कारण अपना विवाह न होना जानते थे और उनके पूर्व तीर्थंकरोंने भी २२ वें तीर्थकरको बाल ब्रह्मचारी रह कर दीक्षा ग्रहण करना कहा था तथापि एकेन्द्रिय जीवोंकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय जीवोंकी दयाका महत्व बतानेके लिये भगवानने जल स्नानमें कोई आपत्ति नहीं की परन्तु विवाह मण्डपमें बांधे हुए पवेन्द्रिय जीवोंको देख कर वहांसे हट गये थे। संशोधक। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ अनुकम्पाधिकारः। सारथिना मोचितेषु सस्वेषु परितोषितोऽसौ यत्कृतवांस्तदाह” अर्थात भगवान्का अभिप्राय समझ कर जब सारथीने उन जीवोंको मुक्त कर दिया तब भगवान्ने सारथी पर प्रसन्न होकर जो काय्य किया था वह वीसवींगाथामें कहा है। वीसवींगाथामें भगवान्का आशय समझ कर उन जीवोंको मुक्त करना, और इस कार्य्यसे प्रसन्न होकर भगवान् का सारथीको इनाम देना स्पष्ट कहा गया है। यदि जीवरक्षा करनेमें पाप होता तो भगवान उन जीवोंकी रक्षा करनेके कारण सारथी पर प्रसन्न हो कर उसे इनाम क्यों देते ? तथा उन जीवोंकी रक्षाके लिये भगवान का भाव क्यों होता ? अत: उक्त गाथाओंसे मरते जीव की रक्षा करना परम धर्म सिद्ध होता है । जो लोग जीवरक्षा को एकान्त पाप कहते हैं उन्हें उत्सूत्र वादी और निई य समझना चाहिये । (बोल ७ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १२७ के ऊपर ज्ञाता सत्रके प्रथम अध्ययनका मूलपाठ लिख कर उसके अवतरणमें लिखते हैं कि “वली मेषकुमाररो जीव हाथीरे भवे सुसलारी अनुकम्पा करी परीत संसार कियो । अने केई कहे मण्डलामें घणा जीव बंच्या त्यां घणा प्राणी री अनुकम्पाई करी परीत संसार कियो छै ते सूत्रार्थना अजाण छै एक सुसलारी अनुकम्पा दयाकरी परीत संसार कियो छै। (भ्र० पृ० १२७) इसका क्या उत्तर। (प्ररूपक) हाथीने अकेले शशककी अनुकम्पासे परीत संसार किया है बहुत जीव, जो मण्डलमें बचे थे उनकी अनुकम्पासे संसार परीत नहीं किया यह कथन अविवेकका सब से बड़ा उदाहरण है। जब भ्रम विध्वंसन कार एक जीव शशककी अनुकम्पासे संसार परिमित होना स्वयं ही स्वीकार करते हैं तब अनेक जीवोंकी अनुकम्पा से डरनेकी क्या बात है। एक प्राणीकी अनुकम्पासे जब संसार परीत हो सकता है तो अनेक जीवोंकी अनुकम्पासे और भी अधिक धर्म ही होगा। यह एक ऐसी साधारण बात है कि जिसे बालक भी समझ सकता है। खैर ! अब देखना यह है कि हाथीने अकेले शशककी अनुकम्पा की या बहुतसे जीवों की ? यदि हाथीको शशककी ही अनुकम्पा करनी इष्ट थी दूसरोंकी नहीं तो वह अपना उठाया हुआ पैर शशकके ऊपर नहीं रख कर दूसरे प्राणी पर रख देता परन्तु उसने ऐसा नहीं करके अढाई दिन तक पैर ऊपर ही उठाये रक्खा इससे स्पष्ट है कि हाथी शशकके साथ और भी प्राणियोंकी रक्षा करना चाहता था। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ सद्धर्ममण्डनम् । इसी बातको सूत्रकारने "पाणाणुकम्पयाए" इत्यादि चार पद देकर स्पष्ट बतला दिया है। ____ कुछ लोग कहते हैं कि हाथीने बंचाने रूप अनुकम्पा नहीं की थी सिर्फ न मारने रूप अनुकम्पा की थी और इमीसे उसने संसार परीत किया था। पता नहीं कैसे उन लोगोंने यह बात जान लो कि हाथीका विचार जीवोंको बचानेका नहीं था। जाननेके दो ही मार्ग हैं-या तो हाथीने आकर स्वयं उनसे ऐसा कहा हो या उन्होंने ही मनः पर्याव ज्ञानसे जाना हो । इन दोनों उपायोंमेंसे एक भी संभव नहीं है ऐसी दशामें सूत्रके पाठका ही आश्रय लेना पड़ता है । सूत्रके पाठमें ऐसा एक भी शब्द नहीं है जिससे यह जाना जा सके कि हाथीका विचार जीवरक्षा करनेका नहीं था वरन् स्पष्ट शब्दोंमें 'पाणाणुकम्पयाए' इत्यादि शब्द दिये हैं यदि उसने पापसे वचनेके लिये ही न मारने रूप अनुकम्पा की होती तो वह अनुकम्पा मुख्य रूपसे उसी ( हाथी) की ही होती और भ्रमविध्वंसन कारने भी ऐसा नहीं लिखा कि हाथीने अपनी अनुकम्पासे संसार परीत किया किन्तु शशककी अनुकम्पासे वे संसार परीत होना मानते हैं और पाठमें “आयाणुकम्पयाए" या "प्राणाहिसयाए" इत्यादि पाठ नहीं हैं अतः जो लोग पाप भयसे न मारने रूप अनुकम्पा से ही संसार परीत होना मानते हैं जीव रक्षा रूप अनुकम्पासे नहीं उनके मतसे 'पाणाणुकम्पयाए" इत्यादि पाठ मिथ्या ठहरता है इस लिये यही मानना उचित है कि हाथीने प्राणियोंकी रक्षा रूप अनुकम्पासे संसार परीत किया क्योंकि "पाणाणुकम्पयाए" इत्यादि पाठसे बचाने रूप दया अर्थ ही निकलता है। जो शशक हाथीके पैर रखनेकी जगह आया था उसे बलवान प्राणी सता रहे थे हाथीने अपने पैरके ठहरनेका स्थान उसे दिया और स्वयं मारा भी नहीं इससे सिद्ध होता है कि जीवोंको स्वयं भी न मारे और यदि दूसरा मारता हो तो ऐसी सामग्री देवे कि उसके प्राणोंकी रक्षा हो जाय। अतः हाथीने एक शशककी अनुकम्पासे ही परीत संसार किया था दूसरेकी अनुकम्पासे नहीं यह कहने वाले मिथ्यावादी हैं। भीषणजीने इस विषयमें लिखा है कि :कष्ट सह्यो तिण पापसो डरतो, मन दृढ सेठि राखी तिण काया।' बलता जीव दवानल देखि, सुंढ सूग्रही ग्रही बाहिरे न लाया ।" (पद्य भीषण जी का) इनके कहनेका भाव यह है कि हाथीने पापसे डर कर मनको दृढ़ और शरीरको मजबूत रक्खा परन्तु दावानलमें जलते हुए जीवोंको सूढ़से पकड़ कर बाहर नहीं लाया था इस लिये मरते प्राणीकी प्राण रक्षा रूप दया करना एकान्त पाप है" परन्तु यह बात Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः । २२३ 1 अविवेक पूर्ण है । हाथी के आनेके पहले ही उसका मण्डल जीवोंसे इतना ज्यादा भर गया था कि स्वयं हाथीको भी अपने उठाये हुए पैर को नीचे रखनेका स्थान नहीं मिला ऐसी दशामें वह हाथो दावानल में जलते हुए जीवों को लाकर कहां रखता और उनको लानेके लिये वह किस मार्गसे जाता क्योंकि वह स्थान जीवोंसे इतना ज्यादा भर गया था कि कहीं भी पैर रखने की जगह नहीं थी अतः भीषणजीका पूर्वोक्त कथन एकान्त मिथ्या समझना चाहिये । वास्तवमें हाथीने शशककी प्राणरक्षाके लिये अपना उठाया हुआ पैर नीचे नहीं रखा और दूसरे प्राणियों की प्राग रक्षाके लिये दूसरी जगह भी नहीं रक्खा अतः हाथीके उदाहरणसे जीव रक्षा में पाप बतलाना मिथ्या दृष्टियों का का है। बोल ८ वां समाप्त ( प्रेरक ) भ्रम विध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १३४ पर सुय गडांग सूत्रकी गाथा लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं। :― अथ अठे को जीवांने मार तथा मत मार एहवू पिग वचन न कहिणो इहां ए रहस्य - महणो महणो तो साधुने उपदेश छै ते तारिवाने अर्थे उपदेश देवे अने इहां वयों द्वेष आणीने हणो इम पिग न कहिणो अनेत्यां जीवांरे राग आणीने मतहणो इम पिण न कहिणो मध्यस्थपणे रहिणो" ( ० पृ० १३४ ) इनके कहनेका मा यह है कि हिंसकके हाथसे मारे जाते हुए प्राणीकी प्राणरक्षा के लिये 'मन मार' कहना मरते जीव पर राग लाना है, किसी जीव पर राग करना साधुको उचित नहीं है अतः मरते जीव की प्राण रक्षा करनेके लिये साधुको 'मत मार ' यह उपदेश न देना चाहिये । इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) भ्रम विध्वंसनकारने सुय गडांग सूत्रकी गाथाका मूल अर्थ बतलाते हुए जो यह लिखा है कि "अथ अठे को जीवांने मार तथा मत मार एहवू पिण वचन न कहिणे' अर्थ ही मिथ्या है। भ्रम विध्वंसनकार इस गाथाका ठीक ठीक अर्थ नहीं समझ सके। इस गाथामें कहा है कि यह “ वज्झा पाणा न वज्ज्ञेति इति वायं न नीसरे " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ सधममण्डनम् । इसका अर्थ करते हुए शीलांकाचार्य अपनी टोकामें लिखते हैं "वध्याचौर पारदारिकादयोऽवध्यावा तत्कर्मानुमति प्रसंगादित्येवं भूतां वाचं स्त्रानुष्ठान परायणः साधुः पर व्यापार निरपेक्षो न निसृजेत्” अर्थात् वध दण्ड देने योग्य चोर और पारदारिक प्राणीको साधु, वध दण्ड न देने योग्य निरपराधी न कहे क्योंकि अपराधीको निरपराधी कहने से साधुको उसके कार्यका अनुमोदन लगता है अत: अपने अनुष्ठानमें पराor और दूसरोंके व्यापारसे निरपेक्ष साधुको पूर्वोक्क बात न कहनी चाहिये । यह उक्त मूल पाठक टोकानुसार अर्थ है । यहां मार और मत मार न कहने का कोई प्रसंग नहीं है यहां तो वध दण्ड देने योग्य अपराधीको निरपराधी कहनेका निषेध किया है अतः इस गाथाका नाम लेकर निरपराधी प्राणीकी प्राण रक्षा करनेके लिये मत मार कहनेका निषेध करना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये । आगे चल कर इस गाथाका तात्पर्य बतलाते हुए भ्रमविध्वंसन कारने जो यह लिखा है कि 'द्वेष आणीने हणो इम पिण न कहिगो, अनेत्यांजीवांरे राग आणीने मत हो इमपि न कहिणो" यह भी अयुक्त है क्योंकि मूल गाथामें न तो राग शब्द है और न द्वेष शब्द, परन्तु भ्रम विध्वंसनकारने दया धर्म को पाप बतलाने के लिये अपने मनसे राग और द्वेष घुसेड़ दिये हैं । इस गाथामें भाषा सुमतिका उपदेश किया गया है राग द्वेषकी कोई चर्चा नहीं है व्यतः मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करनेमें रागका नाम लेकर पाप बतलाना मुलगाथाका अभिप्राय न समझनेका परिणाम है । अब शीलांकाचार्य की टीका लिख कर इसका अर्थ बतलाया जाता है जिससे उक्त टीका का नाम लेकर भ्र० वि० कारका फैलाया हुआ भ्रम दूर हो जाय । " तथाहि सिंह व्याघ्र मार्जारादीन् परसत्वव्यापादन परायणान् दृष्ट्वा साधुर्माध्यस्थ्य मवलंवयेत् तथाचोक्तम् - मैत्री, प्रमोद, कारुण्य, माध्यस्थ्यानि सत्वगुणाधिकक्लिश्यमाना विनेयेषु” अर्थात् जीवों की हिंसा करनेमें तत्पर रहने वाले सिंह, व्याघ्र, मार्जार आदि प्राणियोंको देख कर साधु मध्यस्थ होकर रहे । कहा है कि सब जीवोंके साथ मैत्री और अधिक गुणवानोंमें प्रमोद, क्लेश पाते हुए जीवों पर करुणा और अविनेय प्राणियों पर मध्यस्थ भाव रखना चाहिये । यहां टीकामें “सिंह व्याघ्र मोर्जारादीन" इस पदमें जो आदि शब्द आया है उस से पचेन्द्रियघातक महारम्भी प्राणियोंका ग्रहण होता है साधुके सिवाय सभी जीवोंका नहीं इसलिए सिंह व्याघ्र और पञ्चेन्द्रिय जीवोंका विघातक प्राणियोंके विषय में ही मौन रहना, या मध्यस्थ भाव रखना शास्त्र सम्मत है क्लेश पाते हुए हीन दीन दुःखी जीवोंके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः । विषयमें नहीं उन पर करुणा करना साधुओंका कर्त्तव्य है । इसलिये जो मरते प्राणी पर दया नहीं करता और दया करके उसकी रक्षाका उपदेश नहीं देता वह अज्ञानी एवं मिथ्यादृष्टि है उसे शास्त्रीय रहस्यका ज्ञान नहीं है। जो लोग इस टीकामें आये हुए आदि शब्दसे साधुके सिवाय सभी जीवोंका ग्रहण होना मान कर साधुके सिवाय सभी जीवों को हिंसक और सभी विषयमें मध्यस्थ भाव रखनेका उपदेश देते हैं वे बिलकुल मू हैं। यदि साधुके सिवाय सभी हिंसक हैं और सभीके विषय में मध्यस्थ भाव रखना शास्त्र सम्मत है तो फिर मैत्री, प्रमोद, और कारुण्य किस पर रक्खे जाएंगे ? अतः इस टीका का नाम लेकर साधुके सिवाय सभी प्राणियोंको हिंसक और उपदेशके द्वारा उनकी प्राप्य रक्षा करनेमें पाप बताना एकान्त मिथ्या है वास्तव में पन्चेन्द्रिय घात आदि महारम्भका का करने वाले जो प्राणी समझानेसे भी नहीं समझ सकते हैं उन्हींके विषयमें मौन रहने का या मध्यस्थ भाव रखने का यहां उपदेश किया है मरते प्राणी पर दया करके उपदेश देनेका निषेध नहीं किया है उन पर करुणा करनी ही चाहिये, जो नहीं करता और करुणा करनेमें पाप कहता है उसे निद्द य और प्राणियोंका द्रोही समझना चाहिये । ( बोल ९ वां समाप्त ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन वृष्ठ १३५ पर आचारांग सूत्रका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं- "अथ इहां कह्यो गृहस्थ मांहो माहि छड़े छै आक्रोश व्यादि करे छै तो इम चिन्तवणो नहीं एहनो आक्रोशो हणो रोको उद्वेग दुःख उपजावो । तथा एहने मतहणो मत आक्रोशो मन रोको उद्वेग दुःख मत उपजावो इमि चिन्तवो नहीं । एहनो ए परमार्थ जे राग आणी जीवणो वाब्च्छी इम न चिन्तवजो एवापडाने मतणो उद्वेग दुःख न देवो । तो रागमें धर्म कहांथी जीवणो वांच्या धर्म किम कहिए अने जे हणे तेहने पाप टालिवाने वारिवाने उपदेश देई हिंसा छोडावे ते वो धर्म छै" (भ्र० पृ० १३५/३६ ) इसका क्या उत्तर ? २२५ (प्ररूपक) आचारांग सूत्रका मूल पाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है वह पाठ यह है : - " आयाण मेयं भिक्खूस्स सागारिए उवस्सए संवसमाणस्स इह खलु गाहावईवा जाब कम्मकरीवा अन्नमन्नं आकोसंतिया २९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ सद्धर्ममण्डनम् । वयंतिया भंतिवा उद्दवंतिवा अहभिक्खू उच्चाव मणं नियच्छेना एए खलु अन्नमन्न आकोसंतुवा मावा आक्कोसंतु जाव मावा उद्दवितुवा" (आचारांग श्रु० १ अ० २ उ०१) अर्थः___ गृहस्थ जिस मकानमें रहते हैं उसमें साधुफा रहना कर्मबन्धका कारण होता है क्योंकि उस मकानमें रहते हुए साधुके समक्ष यदि उस गृहका स्वामी या, कर्मकरी आदि, परस्पर आक्रोश करते हों या एक दूसरेको दण्ड आदिसे मारते हों रोकते हों या उपद्रव करते हों यह देख कर साधु अपना मन ऊंचा नीचा करे, अर्थात् ये लोग परस्पर आक्रोश मत करें मत मारे मत रोके, मत उपद्रव करें या ये लोग पूर्वोक्त कार्य करें तो यह कर्मवन्धका कारण होता है इसलिये गृहस्थ के निवास स्थानमें साधुको नहीं रहना चाहिए। यह इस पाठफा भावार्थ है। इस पाठमें कहा है कि जिस मकानमें सपरिवार गृहस्थ रहता हो उसमें साधुका रहना कर्मबन्धका कारण है क्योंकि गृहस्थोंके घरोंमें कभी कभी पारिवारिक कलह भी होता है वह यदि साधुकी मौजूदगीमें हो और साधु उसे देख कर अपने मनको ऊंचा नीचा करे तो यह कमबन्धका कारण होता है। यहां मत मारो मत रोको मत उपद्रव करो इस भावनाको ऊंचा मन कहा है और मागे रोको उपद्रव करो इस भावनाको नीचा मन कहा है। परिवार वालोंके घरमें रहने पर साधुकी ऐसी भावना होना सम्भव है इसलिये शास्त्रमें परिवार वालोंके निवास स्थानमें साधुका रहना वर्जित किया है। ___ इस पाठसे यह मतलब नहीं निकलता कि कोई हिंसक किसी पञ्चेन्द्रिय जीवका घात करना चाहता हो तो उसे देख कर न मारनेकी भावना करनेसे साधुको कर्मबन्ध होता है या उसे पाप लगता है क्योंकि इस पाठमें पारिवारिक कलहका वर्णन है जो कि गृहस्थोंके घरोंमें कभी कभी हो जाया करता है वह कलह किसीकी हिंसाके लिये नहीं होता क्योंकि परिवारमें परस्पर बड़ा भारी स्नेह होता है अतः वह कलह एक प्रकारका प्रणय कलह है उसका असर गृहस्थके साथ रहनेसे साधु पर भी पड़ सकता है उसकी निबृत्ति के लिये गृहस्थके मकानमें साधुका रहना वर्जित किया है हिंसकके हाथसे भारे जाने वाले प्राणीकी प्राणरक्षाके भयसे नहीं अतः इस पाठका नाम लेकर हिंसकके हाथ से मारे जाने वाले प्राणीकी प्राणरक्षा करनेके लिये उपदेश देनेमें पाप कहना अज्ञान का परिणाम है। - जो लोग इस पाठका तात्पर्य यह बतलाते हैं कि "किसी मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करनेकी भावना करना अनुचित है” उनसे कहना चाहिये कि आप लोग गृहस्थके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २२७ निवासभूत गृहमें क्यों नहीं रहते ? क्योंकि आपके हिसाबसे मरते प्राणी की प्राणरक्षा करनेकी भावना न करता हुआ साधु यदि गृहस्थके निवासभूत गृहमें भी रहे तो उसे कर्मबन्ध नहीं हो सकता है तथा दूसरी जगह रहता हुआ भो यदि मरते प्राणीकी प्राणरक्षा की भावना करे तो उसे कर्मबन्ध होगा। ऐसी दशामें गृहस्थके निवासभूत मकानमें ही साधुका रहना इस पाठमें क्यों वर्जित किया गया है ? सिर्फ मरते प्राणीकी प्राणरक्षा की भावना करना वर्जित कर देते परन्तु शास्त्रकारने मरते प्राणीकी प्राण रक्षा करनेकी भावनाको वर्जित नहीं करके गृहस्थके निवासभूत मकानमें साधुका रहना वर्जित किया है अतः मरते जीवकी रक्षाके लिये उपदेश आदिमें पाप कहना अज्ञान है। (बोल १० वां समाप्त) (प्रेरक) . भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १३७ पर आचारांग सूत्रका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: “अथ अठे इम कह्यो जे अग्नि लगाव तथा मत लगाव वुझाव इम पिण साधुने चिन्तवणो नहीं। तो लाय मत लगाव इहां स्यू आरम्भ छै ते मांटे इसो चिन्तवणो नहीं। इहां ए रहस्य -जे अग्निथी कीडियां आदि घणां जीव मरस्ये त्यां जीवांरे जीवणो वान्छीने इम न चिन्तवणो जे अग्नि मत लगाव । अने अग्निरो आरम्भ तेहनो पाप टालिवा तेहने तारिवा अनिसे आरम्भ करवारा त्याग करा यां धर्म छै पिण जीवणो वांछ्या धर्म नहीं" (भ्र० पृ० १३७) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) . . आचारांग सूत्रका वह पाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है वह पाठ __"आयाणमेयं भिक्खूस्स गाहावइहिं सद्धि वसमाणस्स इह खलुगाहावई अप्पणो सघटाए अगणिकायं उजालिजावा पन्जालिजावो विजावेजवा, अहभिक्ख उच्चावचं मणं नियच्छज्जा एते खलु अगणिकायं उज्जालेंतुवा मावाउज्जालेंतुवा पज्जालेंतुवा मावापज्जालेंतु विज्जतुवा मावाविज्जतुवा" (आचारांग श्रु० २ ० २ ३०१) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ मण्डनम् अर्थः गृहस्थ निवासभूत गृहमें साधुका रहना कमंबन्धका कारण होता है। गृहस्थ अपने hi लिये आग जलावे या बुझावे उस समय यदि साधुका मन ऊंचा नीचा हो अर्थात् यह गृहस्थ आग न जलावे या जलावे बुझावे या न बुझावे तो यह कमबन्ध का कारण होता है इसलिये गृहस्थ के निवासभूत गृहमें साधुको नहीं रहना चाहिये । यह इस पाठका अर्थ है । इस पाठ अग्नि जलाने से मरने वाले कीड़े आदिकी रक्षाके लिये साधुको अग्नि नहीं जलानेकी भावना नहीं करनी चाहिये यह नहीं कहा है इसलिये अग्नि जलानेसे मरने बाले जीवोंकी रक्षा के लिये अग्नि नहीं जलानेकी भावनाको कर्मबन्धका कारण बताना विध्वंसकारका अज्ञान है । भ्रमविध्वंसकारको जीवरक्षा न करना हो इस पाठका रहस्य सूझा है परन्तु इस का कारण क्या आपना स्वार्थ नहीं हो सकता है ? जैसे कि साधुको शीतकी पीड़ा हो रही हो तो उसके मन में ऐसी भावना होना सम्भव है कि यह गृहस्थ आग जलावे तो अच्छा हो, एवं गर्मी लगने पर यह भावना होना भी सम्भव है कि यह गृहस्थ आग न अलावे तो अच्छा हो। इस प्रकार अपने स्वार्थ के लिये साधुके मनमें आग जलाने और न जलाने की भावना हो सकती है। ऐसी भावना गृहस्थके निवास स्थानमें रहने वाले साधु मनमें सम्भव होना देख कर शास्त्रकारने गृहस्थके निवास स्थानमें साधुका रहना afia किया है जीव बचानेके लिये उक्त भावनाका होना कर्मबन्धका कारण जान कर नहीं क्योंकि जीव बचाना और जीव बचानेके लिये जगतको उपदेश देना तो साधुका प्रधान कर्त्तव्य है सच पूछिये तो जैनागमका निर्माण ही जीवरक्षाके लिये हुआ है अतएव प्रश्न व्याकरण सूत्रमें "सव्व जग जीव रक्खण दयठ्ठयाए पावयणं भगवया सुकहिये” यह पाठ आया है । अतः जीवरक्षामें पाप कहना और जीवरक्षा के लिये आग नहीं अनेक भावना को कर्मबन्ध का कारण बतलाना शास्त्र का रहस्य नहीं समझने का फल है। भ्रमविध्वंसन कारने जो इस पाठकी व्याख्या की है उससे तो यहांका सारा शास्त्रीय सिद्धान्त ही विपरीत हो जाता है । भ्रमविध्वंसनकार कहते हैं कि "आगमें जल कर मरने वाले जीवों की रक्षा के भावसे साधु यदि आग नहीं जलानेकी भावना करे तो यह कर्मबन्धका कारण है” इनके हिसाब से साधु यदि आगसे जल कर मरने वाले जीवों रक्षा भावना नहीं वरन् अपने स्वार्थसे आग न जलाने की भावना करे और गृहस्थ के निवासभूत गृहमें रहे तो दोष न होना चाहिये | बल्कि इनके हिसाब से तो साधुको गृहस्थ निवासभूत मकानमें ही रहना चाहिये क्योंकि वहां रहनेसे जब जब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः । २२९ गृहस्थ माग जलाना या बुझाना चाहेगा तब तब साधु उसे समझा बुझा कर आग जलाने या बुझानेका निषेध कर सकता है इस प्रकार गृहस्थके तरनेमें और ज्यादा सुविधा ही होगी परन्तु शास्त्रकार गृहस्थके मकानमें साधुका रहना वर्जित करते हैं इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अपने स्वार्थके लिये ही साधुको पूर्वोक्त भावना करना बुरा है जीव रक्षा करना बुरा नहीं है अत: उक्त पाठका उदाहरण देकर जीवरक्षा करनेमें पाप बतलाना अज्ञान समझना चाहिये। (बोल ११ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रम विध्वंसन कार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ १३८ पर ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा दशका मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं :- “अथ अठे पिण कयो जीव णो मरणो आपणो वान्छणो नहीं तो पारको क्यांने वान्छसी" इत्यादि लिख कर हिंसक के हाथसे मारे जाने वाले प्राणोकी प्राण रक्षा करनेमें एकान्त पाप बतलाते हैं । इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) : . भ्रमविध्वंसन कारने भ्र० वि० पृ० ३५४ में लिखा है कि "अथ अठे कसो साको पानोमें डूबतीने साधु बाहिरे काढे तो आज्ञा उल्लंघे नहीं" इनके मतानुयायियोंसे पूछना चाहिये कि साधु जब कि अपना या दूसरेका जीवन ही नहीं चाहता तब वह पानी में डूबती हुई साध्वीको क्यों निकालता है ? तथा अपनी प्राण रक्षाके लिये साधु क्यों आहार करता है ? उत्तराध्ययन सूत्रके २६ वें अध्ययनमें अपनी प्राण रक्षाके लिये साधु को आहार करनेका विधान किया गया है वह गाथा यह है :___ "वेयण वेयावच्चे इरियहाए य संजमहाए । तह पाण वत्तिवाए छट्ठ पुण धम्म चिन्ताए" भर्थात् (१) क्षुधा और पिपासासे उत्पन्न हुई वेदनाकी निवृत्तिके लिये (२) क्षधा और पिपासासे व्याकुल मनुष्य गुरु आदिको सेवा नहीं कर सकता अतः गुरु आदिकी सेवा करनेके लिये (३) क्षुधा और पिपासासे व्याकुल मनुष्य विधिवत् ाि समितिका पालन नहीं कर सकता अत: ईर्ष्या समितिका पालन करने के लिये (४) क्षुधातुर होकर यदि सचित्त वस्तुका आहार कर लेवे तो संयम ही नहीं कायम रह सकता अतः संयमकी रक्षाके लिये (५) अपने प्राणोंकी रक्षा करने के लिये (६) धर्मको विन्साके लिये, साधुको आहार पानीका अन्वेषण करना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० सद्धममण्डनम् । D यहां स्पष्ट लिखा है कि अपने प्राणोंकी रक्षाके लिये साधुको आहार पानीका अन्वेषण करना चाहिये और टीका कारने भी लिखा है कि "पाणवत्तिया ए'त्ति प्राण प्रत्ययं जीवत निमित्तम् अविधिनाह्यात्मनोऽपि प्राणोपक्रमणे हिंसा स्यात् ।' अर्थात् अपने जीवनकी रक्षा करनेके लिये साधुको आहारका अन्वेषण करना चाहिये क्योंकि शास्त्रीय विधिसे विपरीत अपने प्राणोंको छोड़ना भी हिंसा करना है। यह उक्त टीकाका अर्थ है। यहां टीकामें साधुको अपने जीवनकी रक्षाके लिये आहार करना बतलाया है और मूल पाठमें भी यही बात कही है इस लिये साधु अपने जीवनकी रक्षा नहीं करते यह कहना मिथ्या है। जब कि साधु अपने प्राणोंकी रक्षा करते हैं तब वह दूसरे प्राणीकी प्राण रक्षाके लिये उपदेश देवें तो इसमें पाप कैसे हो सकता है ? यह बुद्धिमानोंको विचार लेना चाहिये। उत्तराध्ययन सुत्रकी ऊपर लिखी हुई गाथामें जैसे अपने प्राणकी रक्षाके लिये साधुको आहार करने का विधान किया गया है उसी तरह भगवती सुत्र शतक १ उद्दशा ९ में पृथिवी काय आदिकी रक्षाके लिये साधुको प्रासुक और एषणिक आहार लेने का विधान किया है । वह पाठ यह है : "फोसु एसणिज्जं भुजमोणे समणे निग्गंथे आयाए धम्म नाईकमइ आयाए धम्म अणइक्कममाणे पुढविकार्य अवकंखइ जाव तसकार्य अवकंखई" (भ० श० १ उ०९) अर्थ : ___ जो साधु प्रासक और एषणिक आहार लेता है वह अपने धमका उल्लंघन नहीं करता और अपने धर्मका उल्लंवन नहीं करता हुआ साधु पृथिवी कायसे लेकर यावत् त्रस कायकी प्राण रक्षा करना चाहता है। यहां पृथिवी कायसे लेकर यावत् त्रस कायके प्राणियोंकी प्राणरक्षा करनेके लिये साधुको प्रासुक और एषणिक आहार लेनेका विधान किया है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि दूसरे प्राणियोंकी प्राण रक्षा करना भी साधुका कर्तव्य है। अतः ठाणाङ्ग सुत्रका नाम लेकर अपनी तथा दूसरेको प्राण रक्षा साधु नहीं चाहते यह कहने वाले अज्ञानी हैं। ठाणाङ्ग सूत्रके दशवें ठाणामें साधुको प्राप्त जीवनकी इच्छा करना वर्जित नहीं की है चिर काल तक जीते रहने की इच्छा वर्जित की गई है। वहां साधुको "जीवनाशंसा"का निषेध किया है "आशंसा" नाम है नहीं पायी हुई चीजके पाने का है। अभिधान राजेद्र कोशमें लिखा है "अप्राप्त प्रापणमाशंसा" अर्थात् नहीं पायी हुई चीजको पाना आशंसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः । २३१ है । इस प्रकार जो जीवन प्राप्त नहीं है उसके पाने की इच्छा करना यानी चिर काल तक जीने की इच्छा करना “जीवनाशंसा" कहलाती है वही साधुके लिये वर्जित की गई है यथा प्राप्त जीवनकी इच्छा वर्जित नहीं की है अन्यथा उत्तराध्ययन और पूर्वोक्त भगवतीके मूल पाठसे ठाणाङ्ग सूत्रका स्पष्ट ही विरोध होगा अतः ठागाङ्ग सूत्रके मूल पाठ का नाम लेकर साधु अपने और दुसरेका जीवन नहीं चाहता यह कहना अज्ञान तथा एकान्त मिथ्या है। कोई कोई कहते हैं कि "असंयतिकी प्राण रक्षा करनेसे असंयमका अनुमोदन लगता है" उनसे कहना चाहिये कि जो काम जिसको अच्छा नहीं लगता उसका अनुमोदन उसको नहीं लग सकता । साधु असंयतिको असंयम सेवनके लिये उपदेश नहीं देता और उसके असंयम सेवनको वह अच्छा भी नहीं समझता बल्कि वह असंयतिको असंयम सेवनका त्याग करनेके लिये उपदेश देता है फिर असंयतिकी प्राण रक्षाके लिये उपदेश देनेसे साधुको उसके असंयम का अनुमोदन कैसे लग सकता है ? यदि असंयति के बच जाने मात्र साधुको असंयमका अनुमोदन लग जाय तो फिर कसाईको तारने के लिये भी अहिंसाका उपदेश न देना चाहिये क्योंकि अहिंसाका उपदेश सुनकर कसाई यदि असंयतिको न मारे तो वह बच सकता है और बच कर वह असंयमका सेवन कर सकता है । फिर कसाईको तारनेके लिये अहिंसाका उपदेश देने वालेको असंयमका अनुमोदन क्यों नहीं लगता ? यदि कहो कि कसाई को तारनेके लिये उपदेश देने पर यद्यपि असंयति बच जाता है और बच कर वह असंयमका सेवन भी कर सकता है तथापि साधुको असंयमका अनुमोदन नहीं लगता क्योंकि उसने असंयम सेवन करानेके लिये कसाईको अहिंसाका उपदेश नहीं दिया है तो इसी तरह यह भी समझो कि मरते प्राणी की प्राण रक्षा करनेके लिये जो उपदेश देता है वह उस प्राणीका आर्त रौद्र ध्यान छुड़ाना चाहता है और कसाई को भी पापसे बचाना चाहता है वह यह नहीं चाहता कि यह प्राणी असंयमका सेवन करे तो अच्छा हो इस लिये मरते हुए असंयति प्राणीका आर्त रौद्र ध्यान छुड़ानेके लिये उसकी प्राण रक्षा करनेसे असंयमका अनुमोदन बतलाना मिथ्यावादियों का कार्य्य है । ( बोल १२ वां ) ( प्रेरक ) भ्रम विध्वंसन कार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ १३८ पर सुय० सू० अ० १० गाथा २४ एवं सू० श्रुत० १ अ० १३ गाथा २६ वीं को लिख कर बतलाते हैं कि इन गाथा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ सद्धर्ममण्डनम् । ओंमें साधुको अपने जीने और मरनेकी इच्छा करना वर्जित की गई है अतः दूसरोंके मरने और जीने की इच्छा भी न करनी चाहिये । इस प्रकार साधु जब कि दूसरे प्राणीके जीवनकी ही इच्छा नहीं रखता तब फिर वह मरते प्राणीकी प्राण रक्षाके लिये उपदेश कैसे दे सकता है ? अतः मरते प्राणीको प्राण रक्षाके लिये उपदेश देना एकान्त पाप है। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) सुय गडांग सूत्रकी दो गाथाओं का नाम लेकर हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्राणीकी प्राण रक्षाके लिये धर्मोपदेश देने में एकान्त पाप कहना मिथ्या है। उन गाथाओं में भी ठाणाङ्ग ठाणा दशमें कहे हुये “जीविताशंसा संप्रयोग" मरणाशंसा संप्रयोग" की तरह साधको चिर काल तक जीवित रहने और शीघ्र मर जानेकी इच्छा ही बर्जित की गई है यथा प्राप्त जीवन और यथा काल मरणकी इच्छा वर्जित नहीं की है अन्यथा उत्तराध्ययन सूत्रकी पूर्व लिखित गाथाके साथ सूय० की गाथाओंका भी विरोध पड़ेगा क्योंकि उत्तराध्ययनकी पूर्व लिखित गाथामें, साधुको अपने जीवन रक्षार्थ आहार अन्वेषण करनेका विधान किया है और भगवतीजीके पूर्व लिखित पाठमें पृथिवी कायसे लेकर यावत् त्रस कायकी रक्षाके लिये साधुको प्रासुक और एषणिक आहार लेनेका विधान किया है ऐसी दशामें सूय गहांग सूत्रको गाथाओंमें साधुको अपने जीवन और मरणकी इच्छा करना नहीं वर्जित की जा सकती है ? क्योंकि उत्तराध्ययन सूत्र और भगवतीके उक्त पाठोंसे विरोध पड़ता है अतः सुय गडांग सूत्रकी गाथाओंका यही भाव है कि साधु चिर काल तक जीवित रहने और शीघ्र मर जानेकी इच्छा न करे यथा प्राप्त जीवन और यथा काल मरगको इच्छाका निषेध नहीं किया है। अतएव सुय गडांग सूत्र की उक्त गाथाओंको टीकामें टीका कारने लिखा है कि “जीवित मसंयम जीवितं दीर्घायुष्कं वा स्थावर जंगम जन्तुदण्डेन नाभिकांक्षी स्यात्" ___ अर्थात् साधु, स्थावर जंगम जन्तुओंको दण्ड देकर असंयमके साथ जीवित रहने, या चिर काल तक जीवित रहनेकी इच्छा न करे। यहां प्राणियोंकी हिंसा करके तथा चिर काल तक जीते रहनेकी इच्छा करना साधुको वर्जित की गई है परन्तु प्राणियोंकी रक्षा करके और यथा प्राप्त जीवित रहनेकी इच्छा वर्जित नहीं की है। इस लिये साधु जीवोंकी रक्षाके साथ यथा प्राप्त जीवनकी इच्छा करते हैं और इसी इच्छासे प्रेरित होकर वे मरते प्राणीकी प्राण रक्षाके लिये उपदेश Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। । २३३ भी देते हैंमारने वाले और मरने वाले दोनों ही से वे जीव रक्षा करनेका उपदेश देते हैं। यह साधुका परम कर्तव्य है कि वह जीव रक्षा करनेका आदेश जगह जगह पहुंचा दें और सभी जीवों को हिंसकको छुरीसे बचा दें। पहले कहा जा चुका है कि जीव रक्षाके लिये ही जैनागमका निर्माण हुआ है। अतः जीवरक्षाके लिये उपदेश देनेमें जो एकान्त पापकी स्थापना करते हैं वह एक प्रकारका हिंसक और मिथ्या दृष्टि हैं। __'सुय गडांग सूत्रकी उक्त गाथाओंमें "नो जीविअंनो मरणावकंखी" इस वाक्यमें "नो अवकंखी" ये पद आये हैं इनको देख कर कई भ्रम जालमें पड़कर कहने लगते हैं कि “यहां तो जोवनको इच्छा करना साफ साफ वजित की गई है फिर साधु किसी मरते प्राणीकी रक्षा क्यों कर सकता है ? उन भ्रांत पुरुषोंसे कहना चाहिये कि जैसे सुयगडांग सूत्रकी उक्त गाथाओंमें "नो अवकंखई" यह पाठ आया है उसी तरह भगवती शतक १ उद्देशा ९ में "पुढवी कार्य अवकंखइ जाव तसकार्य अवकंखई" इस पाठमें "अवकखई" यह पाठ आया है इसका अर्थ, पृथिवी कायसे लेकर यावत् स कायके जीवोंको जीवनरक्षा की इच्छा करना है इसके विरुद्ध सुयगडांग सूत्रमें जीवन रक्षा की इच्छा करना कैसे बर्जित की.आ सकती है ? मतः सुयगडांग सूत्रके उक्त पाठका यही • आशय है कि साधु चिरकाल तक जीते रहने की इच्छा नहीं करे यथाप्राप्त जीवन रक्षाकी इच्छा करनेका निषेध नहीं है अतः सुयगडांग सुत्रका नाम लेकर जीवरक्षाके लिये उपदेश देने में पाप कहना एकान्त मिथ्या है। [बोल १३ समाप्त (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रम० पृष्ठ १४०। १४१ । १४२ के ऊपर सुयगडांग सूत्र श्रुत० १ अ० १५ गाथा १० तथा उक्त सूत्र श्रुत० १ अ०३ उ०४ गाथा १५ एवं उक्त सूत्र श्रुत० १ अ०५ गाथा ३ तथा उक्त सूत्र श्रुत० १ अ० १ गाथा ३ और उक्त सूत्र श्रुत० १ अ० २ उ० २ गाथा १६ का नाम लेकर हिंसकके हाथ से मारे जाने वाले प्राणी की प्राणरक्षा करने में पाप वतलाते हैं।. . इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भ्रमविध्वंसनकारकी लिखी हुई सुयगडांग सुत्रकी गाथामोंमें छ: कायके जीवोंकी हिंसा करके साधुको जीवित रहने की इच्छाका निषेध किया गया है परन्तु छः कायके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - २३४ सद्धर्ममण्डनम् । जीवोंकी रक्षाके साथ जीवित रहनेकी इच्छा नहीं वर्जित की है अत: उक्त गाथाओं का नाम लेकर जीवरक्षा करनेमें पाप बतलाना मूर्खता है। . सुयगडांग सूत्र श्रुत० १ अ० १५ के दशवी गाथामें लिखा है कि "जीवियं पीट्ठमोकिच्चा" इसका भाव यह है कि "साधु असंयम (हिंसा ) सहित जीवनको पीछे रख देवे" इससे प्राणियोंकी रक्षाके साथ जीवित रहना स्पष्ट सिद्ध होता है। .... इसी तरह सूय० श्रु० १ अ० ३ उ०४ के गाथा १५ में भी असंयम यानी हिंसा के साथ जीना ही निषेध किया गया है रक्षाके साथ जीनेका निषेध नहीं किया है वहां जो "नाव कांति जीवियं" यह वाक्य आया है उसका यही आशय है कि “साधु असंयम (हिंसा) के साथ जीवित रहनेको इच्छा नहीं करते" इससे जीवरक्षाके साथ जीवन की इच्छा करनेका निषेध नहीं सिद्ध होता । एवं सुयगडांग सूत्र श्रुत० १ अ० ५ उ०१ गाथा ३ में अपने जीवन के निमित्त दूसरे प्राणियों को भय देने, और हिंसादि पापोंके आचरण करनेसे नरक जाना कहा है प्राणियों को अभयदान देने, और उनकी रक्षा करने से नरक होना नहीं कहा है देखिये वह गाथा यह है: "जेकेइ बाले इह जोवियही पावाईकम्माई करेंतिरुद्दा । ते घोररूवे तिमिसड्डन्यारे तीव्वाभितावे नरए पतन्ति" (सूय० श्रु० १ अ० ५ उ० १ गाथा ३) अर्थात् जो अज्ञानी पुरुष, अपने जीवन के लिये दूसरे प्राणियोंको भय देता है और हिंसादि घोर कम करता है वह तीव्र तापयुक्त अन्धकार परिपूर्ण घोर नरकमें पड़ता है। यहां प्राणियोंको भय देने, और उनकी हिंसा करनेसे नरक जाना कहा है प्राणियोंको अभयदान देने, और उनकी रक्षा करनेसे नरक जाना नहीं कहा है अतः इस गाथाका नाम लेकर हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्रागी की प्राणरक्षा करने के लिये उपदेश देने में पाप बतलाना एकान्त मिथ्या है। इसी तरह सुय० श्रु० १ अ० १० गाथा तीसरीका नाम लेकर जीवरक्षा करने में पाप बताना मिथ्या है देखिये वह गाथा यह है: "सुयक्खाय धम्मे वितिगिच्छतिन्ने लाढचरे ओय तुले पयासु आगंन कुज्जा इह जीविअट्ठी चयं न कुज्जा सुतवस्सिभिक्खू" (सूय० श्रु० १ अ० १० गाथा ३) अर्थ: - इसी का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २३५ अर्थः अर्थात् वीतराग भाषित धमका आचरण करने वाला संशयरहित, ज्ञान दर्शन सम्पन्न उत्तम तपस्वी साधु प्रासक आहारसे अपना जीवन निर्वाह करे और संयमके पालनमें सदा वत्तचित्त रहे, तथा सब प्राणियों को आत्म तुल्य देखता हुआ आस्रव का सेवन नहीं करे एवं असंयम जीधन (हिंसा के साथ जीवन) और परिग्रह रूप संचय की इच्छा नहीं करे। यह इस गाथा का अर्थ है। . इस गाथामें कहा है कि "साधु अपने समान सब प्राणियोंको देखे" अतः अपने समान सब प्राणियोंको देखना जब साधुका कर्तव्य है तो जिस प्रकार साधु अपनी रक्षा करनेमें पाप नहीं समझता उसी प्रकार उसे किसी भी प्राणीकी रक्षा करनेमें पाप नहीं समझना चाहिये । इस प्रकार इस गाथासे जीवरक्षा करना साधुका कर्त्तव्य सिद्ध होता है परन्तु जीतमलजीने इसी गाथाका नाम लेकर जीवरक्षा करनेमें पाप बतानेकी चेष्टा की है बुद्धिमानोंको विचार कर देखना चाहिये कि इस गाथासे जीवरक्षा करनेमें धर्म सिद्ध होता है या पाप ? ____एक साधारण बुद्धिवाला भी इस गाथाको देख कर जीव रक्षा करनेमें धर्म हो कहेगा पाप नहीं कह सकता। तथा इस गाथामें भी पूर्व गाथाओं की तरह असंयम ((हिंसा) के साथ जीवित रहना ही वर्जित किया है रक्षाके साथ जीवित रहने का निषेध नहीं है अत: इस गाथा का नाम लेकर जीव रक्षा करने में पाप कहना मिथ्या है। इसी तरह सूय० श्रु० १ अ० २ गाथा १६ वीं का नाम लेकर मरते जीवकी प्राणरक्षा करने में पाप बतलाना मिथ्या है देखिये वह गाथा यह है: __ "नो अभिकखेज्ज जीवियं नाविय पूयण पत्थएसिया । अज्जत्थ मुवेंति भेरवा सुन्नोगारगयस्स भिक्खुणो” (सूय० श्रु० १ अ० २ गाथा १६) अर्थ:___अर्थात् शून्य गृहमें निवास करते हुए साधुके निकट यदि भैरवादि कृत उपद्रव हो तो उस से डर कर भागना नहीं चाहिये किंतु अपने जीवनकी परवाह न करके उस उपद्रवका सहन करना चाहिये यह सहन अपनी मान पूजा बड़ाईके लिए नहीं किंतु स्वाभाविक होना चाहिए। यह इस गाथाका टीकानुसार अर्थ है। इस गाथामें अभिग्रहधारी साधुके लिये भैरवादि कृत उपद्रव सहन करनेका उपदेश किया गया है, किसी हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्राणीकी प्राणरक्षा करनेका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - सद्धर्ममण्डनम् । निषेध नहीं किया है अत: इस गाथाका नाम लेकर मरते जीवकी प्राणरक्षा करनेमें पाप कहना मूर्खता है। ( बोल १४ वां समाप्त) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १४३ पर उत्तराध्ययन सूत्र अ० ४ गाथा सातवींको लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: "अथ अठे पिण कह्यो अन्न पानी आदि देई संयम जीवितव्य वधारणो पिण और मतलब नहीं ते किम उण जीवितव्यरी वाञ्छा नहीं एक संयमरी वांछा। आहार करतां पिण संयम छै आहार करणरी पिण अव्रत नहीं तीर्थकर री आज्ञा छै अने श्रावक नो तो आहार अग्रतमें छै तीर्थकरनी आज्ञा बाहिरे छ। श्रावकने तो जेतलो जेतलो पच्चक्खाण छै ते धर्म छै ते मांटे असंयम जीवन मरणरी वांछा करे ते तो अघ्रतमें छै (भ्र० पृ० १४३) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) उत्तराध्ययन सूत्रकी वह गाथा लिख कर इसका समाधान किया जाता है वह गाथा यह है: "चरे पयाई परिसङ्कमाणो जंकि चि पासं इह मन्नमाणो । लाभंतरे जीविय बूहइत्ता पच्छा परिन्नाय मलावधंसी,, (उत्तरा० अ०४ गाथा ७) अर्थ: किसी नस प्राणीको विराधमा न हो जाय इसलिये साधु अपने पैरको शङ्काके साथ पृथ्वो पर रख कर चले। गृहस्थ लोग यदि थोड़ी भी प्रशंसा करें वो उसे पासके समान कर्मबन्धका कारण समझे । ज्ञान दर्शन और चारित्रके विशेष लाभार्थ अन्न पानादिसे अपने जीवन की रक्षा करे । जब ज्ञान दर्शन और चारित्रकी प्राप्ति हो जाय और अपना शरीर भी रोगादिसे ग्रस्त या वृद्ध हो जाय, तथा साधुको ज्ञात हो कि इस शरीरसे अब ज्ञान दर्शन और चारित्रका उपार्जन नहीं हो सकता, तब वह शास्त्रीय विधानसे अपने शरीरका त्याग कर देवे । यह इस गाथाका टीका. नुसार अर्थ है। ___इसमें कहा है कि साधु ज्ञान दर्शन और चारित्र आदि गुणका उपार्जन करनेके लिये अन्न पानादिके द्वारा अपने जीवनकी रक्षा करे । इससे मरते हुए प्राणीकी प्राणरक्षाके लिये उपदेश मादि देना भी साधुका कर्तव्य सिद्ध होता है क्योंकि प्रश्न व्याक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २३७ रणादि सूत्रोंमें जीवोंकी रक्षा करना गुण कहा गया है और गुणका उपार्जन करनेके लिये इस गाथामें साधुको जीवनरक्षा करना कहा है इसलिये जो साधु उपदेश आदिके द्वारा मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करता है वह गुणका उपार्जन करता है पापका उपार्जन नहीं करता अतः इस गाथाका नाम लेकर मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करनेके लिये उपदेश देने में एकान्त पाप कहना अज्ञान है। इस गाथाकी समालोचनामें भ्रमविध्वंसनकारने साधुके भोजनको स्वतः व्रतमें बतलाया है यह भी इनकी भारी भूल है यदि भोजन करना स्वतः ब्रतमें है तो जैसे अधिकसे अधिक उपवास करना उत्तम है उसी तरह अधिकसे अधिक भोजन करना भी साधुके लिये गुण होना चाहिये । जो साधु अधिकसे अधिक और वार वार भोजन करे वह जीतमलजीके हिसाबसे बहुत ही उत्तम समझा जाना चाहिये । जैसे अधिकसे अधिक उपवास करने वाला साधु उत्कृष्ट व्रतधारी समझा जाता है उसी तरह अधिक से अधिक भोजन करनेवाला साधु जीतमजोलके मतमें उच्चश्रेणिका व्रतधारी समझा जाना चाहिए। परन्तु शास्त्र ऐसा नहीं कहता शास्त्र तो साधुको कारणवश आहार करनेका आदेश देता है और और अकारणसे तथा बार बार अधिक आहार करनेवाले साधुको पाप भमण कहता है इसलिए साधुका भोजन करना उपवासादिकी तरह साक्षात् व्रतमें नहीं है उसे स्वत: ब्रतमें गिनना अज्ञानका परिणाम है। साधुका कारणवश आहार करना उसके व्रतका उपकारक है इसलिए वह अव्रतमें नहीं है और उपवासादिकी तरह वह साक्षात् व्रत स्वरूप भी नहीं है अतः साधुके भोजनको उपवासादिको तरह साक्षात् ब्रत स्वरूप वतलाना अज्ञानियोंका कार्य है। जैसे साधुका आहार करना उसके ब्रतका उपकारक होनेसे अप्रतमें नहीं है उसी तरह बारह व्रतधारी श्रावक का भोजन भी उसके व्रतका उपकारक होनेसे अप्रतमें नही है । श्रावकको अव्रतकी क्रिया लगती भी नहीं है यह विस्तारके साथ पहले कहा जा चुका है अत: साधुके आहारको उपवासादिकी तरह साक्षात् प्रतमें, और श्रावकके आहारको अनतमें मानना मिथ्यात्वका परिणाम समझना चाहिये। इसी तरह मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करनेसे असंयम जीवनकी इच्छा बतलाना भी मिथ्या है हिंसा करके जीवित रहनेकी की इच्छा करना असंयम जीवनकी इच्छा करना, या उसका अनुमोदन करना है रक्षाके साथ जीवित रहनेकी इच्छा करना असंयम जीवनकी इच्छा नहीं है अतः मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करनेसे असंयम जीवनकी इच्छा बतलाना भ्रमविध्वंसनकारका एकान्त मिथ्या है। (बोल वां १५ समाप्त) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ सद्धर्ममण्डनम् । . (प्रेरक) भ्रमविध्वंससन कार भ्र० वि० पृष्ठ १४४ पर सूयगडांग सूत्रकी गाथा लिखकर उसको समालोचना करते हुए लिखते हैं “अथ अठे पिण संयम जीवितव्य दोहिलो कह्यो पिण और जीवितव्य दोहिलो न कह्यो" भ्रम पृ० १४४) इनका आशय यह है कि हिंसकके हाथसे मारे जाने जानेवाले असंयति जीवकी रक्षा करना असंयम जीवनकी इच्छा करना है इसलिये साधुको मरते प्राणीकी रक्षाके लिये उपदेश नहीं देना चाहिये। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) सूयगडांग सूत्रकी वह गाथा लिखकर इसका समाधान किया जाता है। वह गाथा निम्नलिखित है"संवुज्झह, किन वुज्झह संवोहो खलुपेच्च दुल्लहा, नोहूवण मंति राइयो नो सुलभं पुनराविजीवियं" अर्थ : (सू० श्रु०१ २ गाथा १) हे प्राणियों! तुम सम्यग् ज्ञान आदिकी प्राप्ति करो, तुम इसकी प्राप्ति क्यों नहीं करते यदि इस भवमें नहीं किया तो परलोकमें करना दुर्लभ होगा। जो रात बीत जाती है वह फिर लौट कर नहीं आती। संसारमें संयम प्रधान जीवन दुर्लभ है अथवा जिस जीवनकी आयु टूट गई है वह फिर नहीं जूट सकती। यह उक्त गाथाका अर्थ है। __इसमें संयम प्रधान जीवनको दुर्लभ कहा है। जो जीवन हिंसासे निवृत्त होकर रक्षाके साथ साथ व्यतीत होता है वही संयम जीवन है इसलिये जो साधु मरते प्राणीकी रक्षा करता है उसका जीवन संयम जीवन है असंयम जीवन नहीं है। रक्षा करनेसे संयमकी निर्मलता होती है इसलिए संयमी पुरुष जीव रक्षा करते हैं इसमें पाप कहना अज्ञानका परिणाम है। ऊपर लिखी हुई गाथामें ऐसा एक भी शब्द नहीं है जिससे जीवरक्षामें पाप होनेका समर्थन किया जा सके तथापि जीतमलजीने झूठाही इस गाथाका नाम लेकर रक्षा करनेमें पाप सिद्ध करनेकी चेष्टा की है अतः बुद्धिमानोंको इनके कथनका विश्वास न करना चाहिये । (बोल १६ वां) (प्रेरक) भूम विध्वंसनकार भमविध्वंसन पृष्ठ १४५ के ऊपर उत्तराध्ययन सूत्र अध्यन ९ की १२।१३ और १४ की गाथाओंको लिखकर उनकी समालोचना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २३९ करते हुए लिखते हैं-" अथ अठे इम कयो मिथिला नगरी बलती देख नमिराज ऋषि साहमो न जोयो वली कह्यो म्हारो वाहलो दुवाहलो एकही नहीं, रागद्वेष अकरवा मांटे तो साधु मिनकियादिकरे लारे पड़ने उदुरादिक जीवाने बंचावे ते शुद्ध के अशुद्ध असंतिरा शरीरनी जाब्ता करे ते धर्म के अधर्म" (भू० पृ० १४५) (प्ररूपक) नमिराज ऋषिका दाखला देकर मरते जीवकी रक्षा करनेमें पाप कहना अज्ञान है। नामिराज ऋषि प्रत्येकबुद्ध साधु थे प्रत्येक बुद्ध साधुओंका आचार स्थविर कल्प वालोंसे कितनेही अंशोंमें भिन्न होता है। वे किसी मरते प्राणीकी प्राणरक्षा नहीं करते शिष्य भी नहीं करते और अहार पानी लाकर किसी साधुका व्यावच भी नहीं करते वे संघके अन्दर न रहकर अकेला रहते हैं जीतमलजीनेभी पडि माधारी साधुके विषयमें यह यह लिखा है:-"जे पडिमा धारी किणहीने संथारो पिण पच खावे नहीं कोईने दीक्षा देवे नहीं श्रावकरा व्रत आदरावे नहीं उपदेश देवे नहीं। पडिमाधारी धर्मोपदेशकादिक कोईने देवे नहीं एतो एकान्त आपरोइज उद्धार करवाने उठ्या छै । तो पोते किणही जीवने हणे. नहीं एतो. आपरी अनुकम्पा करे पिण परनी न करे। जिम ठाणाङ्ग चौथे ठाणे उद्देशा ४ कह्यो "आयाणु कम्पए नाम मेगे नो परानु कम्पए" आत्मानीज कनुकम्पा करे पिण परनी न करे ते जिन कल्पी आदिक। इहां पिण जिन कल्पिक आदि कह्यो ते आदिक शब्दमें तो पडिमाधारी पिण आया ते आपरीज अनुकम्पा करे पिण परनी न करे तो जीवने नहणे ते आरीज अनुकम्पा छै" यह लिखकर जीतमलजीने पहिमाधारी साधुको अपने पर अनुकम्पा करनेवाला और दूसरे पर नहीं करनेवाला बतलाया है और इसमें प्रमाण देनेके लिये ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा चौथेका मूल पाठ लिखा है। उस मूलपाठमें जिन कल्पी आदिक शब्द नहीं है परन्तु उसकी टीकामें लिखा है कि अपने पर अनुकम्पा करनेवाले और दूसरे पर अनुकम्पा नहीं करनेवाले । तीन प्रकारके जीव होते हैं (१) प्रत्येक बुद्ध साधु, (२) जिन कल्पी (३) और परोपकार बुद्धि रहित निर्दय । इस टीकाके अनुसार प्रत्येक बुद्ध साधु दूसरेकी अनुकम्पा नहीं करते यह बात सर्वमान्य है और जीतमलजीको भी स्वीकृत है ऐसी दशामें प्रत्येक बुद्ध साधु नमिराज ऋषिका उदाहरण देकर स्थविर कल्पीको जीव रक्षा करने में पाप बतलाना कितना महान अज्ञान है यह बुद्धिमानोंको देखना चाहिए। प्रत्येक बुद्ध अपनी ही अनुकम्पा करते हैं दूसरेकी नहीं और स्थविर कल्पी अपनी तथादूसरेकी दोनोंकी अनुकम्पा करते हैं फिर प्रत्येक बुद्धके उदाहरणसे स्थविर कल्पीको जीवरक्षा करनेमें पाप कैसे कहा जा सकता है ?। प्रत्येक बुद्धका कल्प दूसरा है और स्थविर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० सधर्ममण्डनम्। कल्पीका कल्प दूसरा है अतः इन दोनोंके कार्य एक समान नहीं हो सकते। जो नमिराजके उदाहरणसे जीव रक्षा करनेमें पाप कहते हैं उनसे कहना चाहिए कि प्रत्येक बुद्ध साधु शिष्य नहीं करते धर्मोपदेश नहीं देते आहार व पानी लाकर किसी साधुका व्यावच नहीं करते इसलिए तुम्हारे हिसाबसे स्थविर कल्पी साधुको भी ये कार्य नहीं करने चाहिए ओर जो स्थविर कल्पी इन कार्योको करे उसे एकान्त पाप होना चाहिए । यदि कहो कि प्रत्येक बुद्धका कल्प दूसरा और स्थविर कल्पीका दूसरा है इसलिये इन कार्यों से प्रत्येक बुद्ध को ही दोष आता है स्थविर कल्पीको नहीं आता तो उसी तरह जीवरक्षाके विषयमें भी तुझको मानना चाहिए अर्थात् जीवरक्षा करनेमें स्थविर कल्पीको धर्म होता है और उसका यह कल्प है परन्तु प्रत्येक बुद्धका यह कल्प नहीं है। अतः प्रत्येक बुद्ध साधुका उदाहरण देकर स्थविरकल्पी साधुको जीवरक्षा करनेमें पाप कहना अज्ञानका परिणाम है। दूसरी बात यह है कि इन्द्रने नमिराज ऋषिसे यह नहीं पूछा था कि मरते जीवकी रक्षा करना धर्म है या पाप है ? यदि वह ऐसा पूछते और इसके उत्तरमें नमिराज ऋषि जीव रक्षा करना पाप बतलाते तो अवश्य जीवरक्षा करनेमें पाप माना जाता परन्तु वहां तो इन्द्रने माया करके नमिराज ऋषिको संसारिक पदार्थों में मासक्ति न होनेकी परीक्षा की है ओर नमिराज ऋषिने यह स्पष्ट कह दिया है कि "मिहिलाए डज्ज्ञमाणीए नमे डज्झइ फिचणं" अर्थात् मिथिलाके जलजाने पर भी मेरा कुछ नहीं जलता। ऐसा उत्तर देकर नमिराज ऋषिने संसासारिक पदार्थो से अपना ममत्व हट जाना बतलाया है परन्तु मरते जीवको रक्षा करने पाप नहीं कहा है क्योंकि इन्द्रका यह प्रश्न हो नहीं था अत: नमिराज ऋषिके उदाहरणसे जीवरक्षा करनेमें पाप कहना अज्ञानियोंका काय्य है। (बोल १७ वां समाप्त) (प्रेरक) भूमविध्वंसनकार भूमविध्वंसन पृष्ठ १४६ पर दशवकालिक सूत्रकी गाथा लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं:-"अथ अठे पिण कह्यो देवता मनुष्य ति-न्च माहोमाही कलह करे तो हार जीत वाच्छणी नही तो कायाथी हार जीत किम करावणी असंयति ना शरीरनी साता करते तो सावध हैं" (भू० पृष्ठ १४६) इसका क्या समाधान ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः । ( प्ररूपक ) दशवैकालिक सूत्रकी गाथाका नाम लेकर मरते जीवकी रक्षा करनेमें पाप कहना एकान्त मिथ्या है। यह बात इस गाथासे किसी प्रकार भी नहीं सिद्ध होती, देखिये वह गाथा यह है: "देवाणं मणुयाणञ्च तिरियाणंच बुग्गहे अमुयाणं जयो होउ : मावा होउत्तिणोवए,, ( दशवैकालिक सूत्र अ० ७ गाथा ५० ) २४१ अर्थ: देवता, मनुष्य और तिर्य्यञ्चोंके परस्पर युद्ध होने पर अमुककी जीत हो और अमुककी जीत न हो यह साधुको नहीं कहना चाहिये । यहां देवता मनुष्य और तिर्य्य चोंके युद्ध होने पर किसी एक पक्षकी हार या जीत कहनेका निषेध किया गया है क्योंकि साधुको मध्यस्थ भाव रखना ही शास्त्र सम्मत है किसी एक पक्षका श्रेय और दूसरे पक्षका अहित चाहना उचित नहीं है इस लिये दो दलों में युद्ध होने पर एक दलकी जीत और दूसरे दलको हार होनेकी बात कहना साधुको उचित नहीं है । ऐसे समयमें, जब कि दोनों दल वाले लड़ रहे हों साधु समझा बुझाकर युद्ध बन्द करादे और युद्धमें मारे जाने वाले जीवोंकी रक्षा करे तो उसका इस में निषेध नहीं है एक दलके पक्षपात करनेका और दूसरे पर द्वेष करने का यहां निषेध है इस लिये इस गाथा का नाम लेकर जीवरक्षा करनेमें पाप बतलाना अज्ञान का परिणाम है । मारे जाते हुए चूहे पर राग करना है, इसी गाथाका नाम लेकर जीतमलजी कहते हैं कि “बिल्लीसे की रक्षा करना एकान्त पाप है क्योंकि यह बिल्ली पर द्वेष और चूहे तथा बिल्लीकी हार और चूहेकी जीत कराना है" परन्तु यह इनका अज्ञान है । बिल्लीसे मारे जाते हुए चूहेकी रक्षा करना चूहेकी अनुकम्पा करना है अनुकम्पा करना पाप नहीं fog धर्म है और यह बिल्ली पर द्वेष करना नहीं है क्योंकि जो बिल्ली चूहे को मारना चाहती है उसी बिल्ली को यदि कोई कुत्ता आदि मारना चाहे तो दयालु पुरुष, कुत्ते से उस बिल्लीकी भी रक्षा करता है यदि बिल्ली पर उसका द्वेष होता तो वह कुत्ते से बिल्ली को क्यों बचाता ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat इसके सिवाय बिल्लीसे चूहेकी रक्षा करना बिल्लीकी हार और चूहेकी जीत कराना नही है क्योंकि हार और जीत का व्यवहार युद्धमें होता है परन्तु चूहेके साथ बिल्लीका ३१ www.umaragyanbhandar.com Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ सद्धमण्डनम् । कोई युद्ध नहीं होता क्योंकि जहां दोनों ही विजयकी इच्छा से दोनों पर आक्रमण करें ant युद्ध है चूहा तो बिल्लीसे डर कर भयभीत होकर आप ही भागा फिरता है वह युद्ध करनेके लिये बिल्लीके सम्मुख नहीं जाता इसलिये वह युद्ध नहीं है किन्तु वलवान् हिंसक प्राणीके द्वारा वहां दुर्बल और कायर प्राणीकी हिंसा हो रही है उसे युद्ध कायम करके चूहे की प्राणरक्षा करनेसे चूहेकी ज ेत और बिल्ली की हार बतलाना अज्ञानियोंका का समझना चाहिये । बोल १८ वां समाप्त ( प्रेरक ) दशवैकालिक सूत्र अध्ययन ७ गाथा ५१ को लिख कर उसकी समालोचना करते हुए भ्रमविध्वंसनकार पृष्ठ १४६ पर लिखते हैं: "अथ अठे को - वायरो, वर्षा, शीत, तावडो, राजविरोध रहित सुभिक्षपणो, उपद्रव रहित पणो, ए सात बोल हुवो इम साधुने कहिणो नहीं तो करणो किम उदुरादिकने मिनकियादिकथी छुडायने उपद्रव पणो रहित करे ते सूत्र विरुद्ध कार्य्य छै ( ० पृ० १४६ । १४७ ) इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) दशवैकालिक सूत्र अध्ययन ७ गाथा ५१ में साधुको अपनी पीड़ाकी निवृचिके लिये उक्त सात बातों की प्रार्थना करना वर्जित किया गया है क्योंकि आर्तध्यान करना साधुको उचित नहीं है और यह आर्तध्यान है परन्तु असंयति जीवकी प्राणरक्षा होनेके भयसे उक्त सात बातोंकी प्रार्थनाका निषेध यहां नहीं किया गया है। देखिये वह गाथा और उसकी टीका ये है: "वाओ विट्ठि च सोउन्हं होमं धायं सिवंतिया । कयाणुहुन याणि मावा होऊत्ति णोवए" ( दशवैकालिक अ० ७ गाथा ५१ ) इसकी दीपिका टीका:"पुन: किश्व धर्मादिनाऽभिभूतोयतिरेवंनो वदेदधिकरणादिदोषप्रसंगात् । वातादिषु सत्सु सत्त्व पीडा प्राप्तेः । तद्वचनतस्तथाऽभवनेऽप्यार्तध्यान भावादित्येवं नो वदेत् । तत्किं - वातो मलय मारुतादिः वृष्टवा वर्षणं शीतोष्णं प्रतीतं क्षेमं राज Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २४३ विज्वर शून्यं पुनः ध्रातं सुभिक्षं शिवमितिवा उपसर्ग रहितं कहानु भवेयुरेतानि वातादीनि मावा भवेयुरिति"। अर्थ: घाम (गर्मी) आदिसे पीड़ित होकर साधु इन बातोंको न कहे क्योंकि इसमें अधिकरणादि दोष होता है। वायु आदिके गलने पर प्राणियोंको पीड़ा होती है । यद्यपि साधुके कहने से वायु आदि नहीं चलते तथापि साधुको आर्तध्यान करना उचित नहीं है इसलिये वह इन बातों को नहीं कहे वे बातें ये हैं:-(१) मलय मारुत आदि (२) वर्षा (३) शीत (४) उष्ण (६) राजरोग दूर होना (६) समिक्ष होना (७) उपसर्ग रहित होना । इन सात बातोंके होने या नहीं होनेकी बात साधुको नहीं कहनी चाहिये । यह उक्त गाथाका दीपिकानुसार अर्थ है। इसमें अपनी पीडाको निवृत्तिके लिये साधुको इन सात बातोंकी प्रार्थना करनेका निषेध किया है परन्तु असंयति प्राणियोंकी रक्षाको पाप मान कर उसकी निवृत्तिके लिये नहीं इस लिये इस गाथाका नाम लेकर जीवरक्षा करनेमें पाप कहना मिथ्या है। इस गाथाकी टीकामें लिखा है: "एतानि वातादीनि मावा भवेयुरिति धर्माभिभूतो नो वदेद् अधिकरणादि दोषप्रसंगात् । वातादिषु सत्सु सत्त्वपीडा प्राप्तेः । तद्वचनत स्तथाऽभवनेऽप्या ध्यान भावादिति सूत्रार्थः। अर्थात् वायु आदिके चलने पर प्राणियोंको पीड़ा होती है इसलिये घाम (गर्मी ) मादिसे पीड़ित होकर साधु वायु आदि सात बातोंके होने वा न होनेकी प्रार्थना नहीं करे क्योंकि इसमें अधिकरण आदि दोषों का प्रसङ्ग होता है। यद्यपि साधुके कहनेसे ये सात बातें नहीं हो जाती तथापि आर्तध्यान करना साधुको उचित नहीं है इसलिये वह इन सात बातोंको न कहे। ___ यहां गाथाका अभिप्राय बतलाते हुए टीकाकारने भी यही कहा है कि "अपनी पीड़ाकी निवृत्ति के लिये साधुको इन सात बातोंकी प्रार्थना नहीं करनी चाहिये परन्तु प्राणियोंकी रक्षाको पाप जान कर उसकी निवृत्तिके लिये इन सात बातों की प्रार्थना का निषेध नहीं किया है। टीकाकारने यह भी लिखा है कि "वायु आदिके चलने पर प्राणियोंको पीड़ा होती है" इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि दूसरे प्राणीको पीड़ा न हो इसलिये घाम आदिसे स्वयं पीड़ा पाते हुए भी साधु वायु आदि सात बातोंकी प्रार्थना नहीं करते। यहां जीवोंकी रक्षा नहीं वर्जित की गयी है प्रत्युत जीवों की पीड़ा वर्जित की गयी है इस लिये इस गाथा का नाम लेकर जीव रक्षामें पाप सिद्ध करना अज्ञान का परिणाम है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ सद्धर्ममण्डनम् । वस्तुत: इस गाथामें वर्जित की हुई सात बाते सम्पूर्ण रूपसे जिन कल्पीके लिये, और अपनी कल्प मर्यादानुसार कई बाते स्थविर कल्पीके लिये समझनी चाहिये । ये सात ही बातें स्थविर कल्पीके लिये वर्जित नहीं हैं क्योंकि स्थविर कल्पी साधु रोगी साधुको रोग निवृत्त्यर्थ औषध आदि भी देते हैं और पानीमें डूबती हुई साध्वीको जल से बाहर निकाल कर उसका उपसर्ग भी दूर करते हैं तथा उपदेश देकर जनताके उपद्रव और उपसर्गको निवृत्त करते हैं साक्षात् भगवान महावीर स्वामी त्रस और स्थावर प्राणियोंका क्षेमके लिये उपदेश दिया करते थे। सुय० श्रु. २ अ० ६ गाथा ४ में लिखा है क “समिच्च लोगं तसथावराणं खेमंकरे समणे माहणेवा" अर्थात् भगवान् महावीर स्वामी, त्रस और स्थावर सम्पूर्ण प्राणियोंका क्षेमके लिये उपदेश देते थे। यदि दशवैकालिक सूत्र की उक्त गाथानुसार साधुको क्षेम की प्रार्थना करना बुग होता तो भगवान् त्रस और स्थावरका क्षेम करनेके लिये उपदेश क्यों देते ? अतः दशवैकालिक सूत्रकी उक्तगाथामें जो सात बातें वर्जित कीहैं वे सम्पूणरूपसे जिन कल्पीके लिये और कई बाते स्थविर कल्पीके लिये समझनी चाहिये । अतएव इस गाथामें उपसर्ग दूर करने और रोग निवृत्ति करनेकी प्रार्थना वर्जित होने पर भी स्थविर कल्पी साधु रोगी साधु की रोग निवृत्तिके लिये औषध आदि देते हैं और पानीमें डूबती हुई साध्वीको निकाल कर उसका उपसर्ग दूर करते हैं । अत: उक्त गाथामें कही हुई सात ही बातोंको स्थविर कल्पीके लिए भी बतलाना मिथ्या है। इस गाथामें आये हुए "क्षेम" शब्दका टीकाकारने "राज विज्वर शून्यम्" ऐसा अर्थ किया है यानी राज रोगका अभाव होना "क्षेम" है परन्तु जीतमलजीने “राजविज्वर शून्यम्" का अर्थ नहीं समझा है अतएव उन्होंने लिखा है कि "राजादिकना कलह रहित हुवे ते क्षेम" यह अर्थ मिथ्या है अत: किसी प्राणीको उपद्रव रहित करनेमें पाप बतलाना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये । स्वयं भ्रमविध्वंसनकारने भी दूसरी जगह पर उपसर्ग निवारण करना साधुका कत्त व्य बतलाया है। उन्होने भ्र० वि० पृ० १४९ पर लिखा है कि “धर्मनी चोयणा करीने परने उपदेशे जिम अनुकूल प्रतिकूल उपसर्ग कर्ताने वारे" इस लेखमें जीतमलजीने उपसर्ग निवारण करना साफ साफ साधुका कर्तव्य माना है तथापि दुराग्रहमें पड़ कर अपने कथनसे ही विरुद्ध यहां उन्होंने उपसर्ग निवारण करनेको दोष बतलाया है इस प्रकार अपने कथनसे ही विरुद्ध बोलने वालेकी बातमें आकर सच्चे धर्मका तिरस्कार करना बुद्धिमान् पुरुषोंका कार्य नहीं है। (बोल १९ समाप्त) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः । ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १४८ के ऊपर ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ४ की चौङ्गी लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: इसका क्या समाधान ? "अथ अठे पिण कह्यो - जे साधु पोतानी अनुकम्पा करे पिण आगलानी अनुकम्पा न करे तो जे परजीव ऊपर पग न देवे ते पिण पोतानीज अनुकम्पा निश्चय नियमा छैते किम् एहने मारयां मोने इज पाप लागसी इम जाणी नहणे ते भणी पोतानी अनुकम्पा कही छै । अने आपने पाप लगायने आगलानी अनुकम्पा करे ते सावध छै" ( भ्र० वि० पृ० १४८ ) २४५ (प्ररूपक ) ter सूत्र के चौथे ठाणेकी वैभौङ्गीमें मरते जीवकी रक्षा करना स्थविर कल्पी साधुका परम कर्त्तव्य बतलाया है परन्तु अपनी पोल छिपानेके लिए भ्र० वि० कारने इसका साफ साफ भावार्थ नहीं लिखा है। ठाणाङ्ग सूत्रका वह पाठ यह है :"वस्तारि पुरिस जाया पन्नत्ता तं जहा आयानु कम्पए नाम मेगे णो परानु कम्पए" । - इसकी टीका आत्मानुकम्पकः आत्म हित प्रवृत्तः प्रत्येक वुद्धो जिन कल्पिको वा परानपेक्षो निर्घृणः । परानुकम्पकः निष्ठितार्थतया तीर्थंकरः अत्मानपेक्षोवा दयैकरसो मेताय्यैवत् । उभयानुकम्पकः स्थविरकल्पिकः । उभयाननुकम्पकः पापात्मा कालशौकरिकादिरिति । " Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat अर्थात्- - चार प्रकारके पुरुष होते हैं (१) अपनी ही अनुकम्पा करते हैं परन्तु दूसरेकी नहीं करते, ऐसे तीन पुरुष होते हैं - प्रत्येक बुद्ध, जिन कल्पी और दूसरे की अपेक्षा नहीं करनेवाला निईय पुरुष । ये तीनों अपने ही हितमें तत्पर रहते हैं दूसरेका हित नहीं करते । (२) जो दूसरेकी अनुकम्पा करता है अपनी अनुकम्पा नहीं करता वह दूसरा भङ्गका स्वामी है, ऐसा पुरुष या तो तीर्थंकर होते हैं अथवा अपनी परवाह नहीं रखनेवाला मेतार्य्यकी तरह परम दयालु पुरुष होता है । ( ३ ) जो अपनी और दूसरेकी दोनोंकी अनुकम्पा करता है वह तीसरा भङ्गका स्वामी है। ऐसा पुरुष स्थविर कल्पी साधु होता है । स्थविर करूपी साधु अपनी और दूसरेकी दोनोंकी अनुकम्पा करता है । ( ४ ) जो अपनी भी अनुकम्पा नहीं करता और दूसरे की भी नहीं करता वह पुरुष www.umaragyanbhandar.com Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६ सद्धर्ममण्डनम् । ater भङ्गका स्वामी है । ऐसा पुरुष काल शौकरिकादिकी तरह अतिशय पापी होता है । यह उक्त चौभङ्गोका टीकानुसार अर्थ है । इसमें कहा है कि स्थविर कल्पी साधु उभयानुकम्पी है वह अपनी और दूसरेकी दोनोंकी अनुकम्पा करता है अतः मरते प्राणीकी रक्षा करना स्थविर कल्पी साधुका धार्मिक कर्त्तव्य सिद्ध होता है । जो स्थविर कल्पी साधु कहलाकर दूसरे जीव की रक्षा नहीं करता वह उक्त पाठानुसार अपने कत्तं व्यसे पतित होता है । जिन कल्पी और प्रत्येक बुद्ध साधु दूसरे की अनुकम्पा नहीं करते किन्तु अपने हितमें ही प्रवृत्त रहते हैं इसलिए वे प्रथम भङ्ग स्वामी कहे गए हैं उनकी तरह जो दूसरे जीवकी अनुकम्पा नहीं करता है वह पुरुष यदि जिनकल्पी और प्रत्येक बुद्ध नहीं है तो उसे प्रथम भङ्गका तीसरा स्वामी निर्दय समझना चाहिए । भ्र० वि० कारने भ्र० वि० पृष्ठ १४७ पर इस चौभङ्गीके पहला भङ्गका प्रकार लिखा है “जे पोताना हितने विषै प्रवर्ते ते प्रत्येक बुद्ध अथवा जिन कल्पिक अथवा परोपकार बुद्धि रहित निर्दय पारका हितने विषे न प्रवर्तें" । इनके अपने लेख से भी यह बात स्पष्ट सिद्ध होती है कि जो जिन कल्पिक और प्रत्येक वुद्धसे भिन्न पुरुष, दूसरे प्राणी अनुकम्पा (रक्षा) नहीं करता वह दयाहीन पुरुष है, साधु नहीं है । उस निर्दय को साधु समझना भ्रम है । इस इस पाठकी समालोचना करते हुए भ्रमविध्वंसन कारने सभी प्रकारके कल्पवाले साधुओं को इस चौभङ्गीके प्रथम भङ्गमें ही रक्खा है उन्होंने लिखा है कि “अथअठे पण को साधु पोतानी अनुकम्पा करे पिण आगलानी अनुकम्पा न करे तो जे पर जीव ऊपर पग न देवेते पिण पोतानीज अनुकम्पा निश्चय नियमाछे" यह मिथ्या है । स्थविर कल्पी साधु दूसरेकी भी अनुकम्पा करते हैं। स्वयं भ्र० वि० कारने भी लिखा है - "तीजे बेहूने हित वाच्छे ते स्थविर कल्पी” इनके इस लेख से भी स्थविर कल्पीका दूसरेकी अनुकम्पा करना सिद्ध होती है । अब प्रश्न यह है कि दूसरे जीवपर पैर नहीं रखना तो निश्चय नयसे अपनी ही अनुकम्पा है दूसरेकी नहीं है फिर स्थविर कल्पी दूसरेकी क्या अनुकम्पा करता है ? इसका उत्तर यही हो सकता है कि स्थविर कल्पी दूसरे मरते हुए जीवकी जो प्राण रक्षा करता है यह दूसरेकी अनुकम्पा है और स्वयं किसी जीवको वह नहीं मारता यह निश्चय नयसे उसकी अपनी अनुकम्पा है अतः उक्त पाठका नाम लेकर मरते जीवकी प्राणरक्षा करनेमें पाप कहना अज्ञानका फल समझना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २४७ यदि कोई कहे कि स्थविर कल्पी साधु दूसरेको धर्मोपदेश देते हैं यह तो उनकी दूसरेपर अनुकम्पा करना है और वह स्वयं किसी जीवको नहीं मारते यह निश्चय नयके अनुसार अपनी अनुकम्पा है परन्तु मरते जीवकी रक्षा करना दूसरेकी अनुकम्पा नहीं है तो यह मिथ्या है। तीर्थंकर भी धर्मोपदेश देते हैं और वह स्वयं किसी जीवको मारते भी नहीं हैं फिर तो वह भी तीसरे भङ्गका स्वामी उभयानुकम्पक ही ठहरेंगे दूसरे भङ्गका स्वामी परानुकम्पक मात्र नहीं इसलिए दूसरे जीवकी रक्षा करना ही यहां परानुकम्पा कही गई है इस प्रकार जो जीव अपनी रक्षाके ऊपर ध्यान न देकर दूसरे जीवकी ही रक्षा करता है वह दूसरे भङ्गका स्वामी है। ऐसे पुरुष तीर्थकर और मेताय॑ ऋषिकी तरह परम दयालु पुरुष होते हैं । जो अपनी और दूसरेकी दोनोंकी रक्षा करता है वह तीसरा भङ्गका स्वामी स्थविर कल्पी है। जो अपनी और दूसरेकी किसी की भी रक्षा नहीं करता वह चतुर्थ भङ्गका स्वामी काल शौकारिकादिकी तरह पापात्मा पुरुष है। जो केवल अपनी ही रक्षा करता है दूसरेकी नहीं करता वह प्रथम भङ्गका स्वामी है। इस प्रकार इस चर्तु भंगीसे मरते जीवकी रक्षा करना स्थविर कल्पी साधु का कर्तव्य सिद्ध होता है। जो किसी प्राणीकी स्वयं भी रक्षा नहीं करता और दूसरे को भी रक्षा करनेमें पापका उपदेश देता है वह इस पाठसे परोपकार बुद्धि रहित निय सिद्ध होता है। मेघकुमारके जीवने हाथीके भवमें अपनी रक्षाका ख्याल नहीं रख कर दूसरेकी रक्षाकी थी और धर्मरुचि अनगारने भी अपनी रक्षाकी परवाह नहीं करके दूसरे की रक्षा करना ही अपना कर्तव्य समझा था इसलिए वे लोग इस चर्तुभङ्गीके दूसरे भङ्ग के स्वामी थे अतः इस चतुभंगीका नाम लेकर जीवरक्षा करनेमें पाप कहना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिए। (बोल २२ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसन कार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १४८ पर उत्तराध्यन सूत्रकी गाथा लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं "अथ अठे पिण कह्यो-समुद्र पाली चोरने मरतो देखि वैराग्य आणी चारित्र लीधो पिण गर्थ देई छुड़ायो नहीं" (भ्र० पृ० १४८) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) समुद्रपालीका उदाहरण देकर जीव रक्षामें पाप बताना अज्ञान है। राजा, चोर का विक्रय नहीं करता था और उसने द्रब्य लेकर चोरको छोड़नेकी घोषणा नहीं कराई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ संद्धममण्डनम्। थी फिर समुद्रपाली द्रव्य देकर उस चोरको कैसे छुड़ा सकता था।" वध दण्डके योग्य अपराधी प्राणीको द्रव्य लेकर न्यायकारी राजा छोड़ता भी नहीं है यह जगत्में प्रसिद्ध है कि बध दण्डके लिए आज्ञा पाया हुआ अपराधी, द्रव्य देकर भी नहीं छुड़ाया जा सकता ऐसी दशामें समुद्रपाली किसी प्रकार भी उस चोरको नहीं छुड़ा सकता था अत: समुद्रपालीका उदाहरण देकर हिंसकके हाथसे मारे जाते हुए निरपराधी प्राणीकी प्राण रक्षा करने में एकान्त पाप कहना नितान्त मिथ्या समझना चाहिए । (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १४८ पर लिखते हैं "परिग्रह तो पाच मों पाप कहयो छे। जो परिग्रह देई छुड़ायां धर्महुवे तो बाकी चार आस्रव सेवायने जीव छुड़ायां पिण धर्म कहिणो पिण इण धर्म निपजे नहीं" इनके आचार्य ने इस विषयमें यह लिखा है : __ "दोय वेश्या कसाई वाडे गई । करता देखी हो जीवांरा संहार। दोनों जणियां मतो करी। मरता राख्या हो जीव दोय हजार। एक गहणो देई आपणो। तिण छोडायो हो जीव एक हजार । दूजी छुड़ाया इण विधे एक दोयसे हो चौथे आस्रव सेवाय । ( अनुकम्पाकी ढाल ७) इनके कहनेका भाव यह है कि किसी हिंसकको द्रव्य देकर जीव छुड़ाना, या उससे व्यभिचार कराकर जीव छुड़ाना दोनों ही एक समान एकान्त पापके कार्य हैं अतः हिंसकको द्रव्य देकर उसके हाथसे मारे जाते हुए जीवको रक्षा करना एकान्त पाप है। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) जीव रक्षा आदि परोपकारके कार्यमें अपने द्रव्यको लगाना, अपने धनमें लोभ और तृष्णाके न्यून करनेका फल है। अपने धनमें जिसकी तृष्णा और लोभ न्यून होता है वही पुरुष परोपकारार्थ अपने द्रव्यका व्यय करता है परन्तु जिसकी तृष्णा और लोभ तीन होते हैं वह नहीं कर सकता। जीव रक्षा आदि परोपकारके लिए अपने धनका व्यय करनेवाला पुरुष अपने लोभ और मोहको न्यून करता है तथा इसके साथ वह मरते प्राणीकी प्राण रक्षा भी करता है अतः यह पुरुष धार्मिक है एकान्त पापी नहीं है। परिप्रहसे अपनी ममता उतरना और जीव रक्षा करना ये दोनों ही बातें महान् धर्मके कारण हैं अतः इन दोनोंको एकान्त पाप बताना जोतमलजी और भीषणजीका अज्ञान है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २४९ द्रव्य देकर जीव छुड़ानेको एकान्त पाप सिद्ध करनेके लिए, व्यभिचार कराकर जीव छुड़ानेवाली वेश्याका दृष्टान्त देना भी भीषणजीका अज्ञान है । परोपकारार्थ अपने धनका खर्च करना, धनसे अपनी मोह तृष्णा और ममताको घटाना है और व्यभिचार सेवन करना, अपना मोह और तृष्णाको बढ़ाना है इसलिए ये दोनों बातें प्रकाश और अन्धकारकी तरह परस्पर एक दूसरेसे बिलकुल विपरीत हैं इन्हें एक समान मान कर परोपकारार्थ धन देनेवाले और व्यभिचार कराकर जीव रक्षा करनेवाले इन दोनोंको एक समान पापी बताना भीषणजीका अज्ञान है।। इस विषयको साफ करने के लिए भीषगजीके दिये हुए दृष्टान्तके समान ही एक दृष्टान्त दिता जाता है। मान लीजिए कि भीषणजीके पाटानुपाटपर बैठे हुए पूज्यजीका दर्शन करनेके के लिए दो गरीब स्त्रियां दूर देशसे आई, उनसे पूज्य जीने पूछा कि “तुम लोगोंने इतने दूर स्थान पर आनेके लिये द्रव्य आदि किस प्रकार प्राप्त किये हैं।" यह सुन कर एकने उत्तर दिया कि "मैंने अपने जेवरों को बेंच कर आपके दर्शनार्थ द्रव्य प्राप्त किया है" दूसरीने कहा कि "मैंने व्यभिचार करा कर द्रव्य प्राप्त किया है और उस द्रव्यसे आप के पास आई हूं।" वहां कोई मध्यस्थ सम्यग्दृष्टि श्रावक बैठा हुआ था उसने पूज्यजीसे पूछा कि "इन दोनों स्त्रियोंमेंसे कौनसी धार्मिक और कौन पापिनी है ?" इसके उत्तरमें भ्रमविध्वंसनकारके मतानुयायी पूज्यजी यह तो नहीं कह सकते कि “ये दोनों स्त्रियां एक समान ही धार्मिक हैं" किन्तु लाचार होकर उन्हें कहना ही पड़ेगा कि “जिसने जेवर बेंच कर दर्शनका लाम किया है वह स्त्रो धार्मिक है और जिसने व्यभिचार करा कर द्रव्य प्राप्त किया है वह धमको लज्जित करने वाली दुराचारिणी है साधुके दशनसे उत्पन्न होने वाला धर्म उसे नहीं हो सकता । ऐसी दुष्टा स्त्रियोंका साधु दर्शन का नाम लेना दम्भ है।" ___ यह सुन कर प्रश्नकर्ताने कहा कि “एकने तो पांचवें आस्रवका सेवन किया है और दूसरीने चौथे आस्रवका सेवन किया है फिर इन दोनोंको आप एक समान ही क्यों नहीं मानते ? जिसने पांचवें आस्रवका सेवन करके आपके दर्शनका लाभ किया है उसे धार्मिक और चौथे आस्रवका सेवन करके आपके दर्शनका लाभ उठाने वालीको आप पापिनी क्यों कहते हैं ?" इसके उत्तरमें उनके पूज्यजीको यह कहना ही पड़ेगा कि जिसने साधु दर्शनार्थ अपना जेवर वेंचा है उसने शृङ्गार और द्रव्यसे अपना ममत्व हटाया है और गहना बेंचनेसे उसके चारित्रमें किसी प्रकारकी बाधा नहीं हुई है। अतः वह धार्मिक है। परन्तु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० सद्धमण्डनम् । जिसने व्यभिचार करके द्रव्य संग्रह किया है उसने अपने मोह ममताको बढाया है तथा अपने चारित्र को नष्ट किया है इसलिये वह विषयानुरागिणी है धर्मानुरागिणी नहीं है । यह सुन कर उक्त श्रावकने कहा कि "जिस प्रकार आपके दर्शनार्थ आई हुई इन दोनों स्त्रियोंमेंसे गहना बेंच कर साधु दर्शनका लाभ उठाने वालीको धार्मिक और व्यभिचार करा कर दर्शनका लाभ करने वालीको आप पापिनी कहते हैं उसी तरह अपना जेवर देकर जीवरक्षा करने वाली स्त्रीको धार्मिक और व्यभिचार करा कर जीवरक्षा करने वालीको आप पापिनी क्यों नहीं कहते ? जिसने अपना जेवर देकर जीवरक्षा की है उसने अपने जेवरसे प्रेम उतार कर किसी सन्त महात्मा के सत्सङ्गसे दयामें चित्त लगाया है और बुरे कार्य से निवृत्त हो कर जीवरक्षा जैसे उत्तम काय्र्य का सेवन किया है अतः वह धार्मिक स्त्री है । और जिसने जीवरक्षाके बहाने से व्यभिचारका सेवन किया है वह साधु दर्शनार्थ व्यभिचार सेवन करने वाली स्त्री के समान ही दुरात्मा है । परन्तु आप लोग साधु दर्शनार्थ आई हुई उक्त दोनों स्त्रियोंमें तो झट भेद बतला देते हैं और जीव रक्षा के विषय में उक्त दोनों स्त्रियों को एक समान ही पापिनो बतलाते हैं इसका कारण क्या है ? यह तो आपका एक दुराग्रह है । जब कि साधु दर्शनार्थ अपने जेवरसे प्रेम हटाने वाली स्त्री धार्मिक हो सकती है तो जीवरक्षार्थ अपने जेवरका प्रेम हटाने वालो स्त्री धार्मिक क्यों नहीं हो सकती ? अतः द्रव्य दान देकर जीव रक्षा करने वालो स्त्रोको पापिनो कहना पापियोंका काय्यै समझना चाहिये । ( बोल २१ वां समाप्त ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १४९ पर निशीथ सूत्र उद्देशा १३ बोल २७ का नाम लेकर लिखते हैं: “अथ अठे गृहस्थ तथा अन्य तीर्थीने मार्ग भुलाने दुःखी अत्यन्त देखि मार्ग वतायां चौमासी प्रायश्चित्त कह्यो ते मांटे असंयतिरी सुख साता वान्छया धर्म नहीं" ( ० पृ० १४९ ) इसका क्या उत्तर ? ( प्ररूपक ) निशीथ सूत्रका वह पाठ लिख कर इसका समाधान दिया जाता है वह पाठ यह है : Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २५१ "जे भिक्खू अन्नउत्थियाणंवा गारन्थियाणं गाणं मुढाणं विपरियासियाणं मग्गंवा पवेदेइ संधि पवेदेइ संघिउवा मग्गं पवेदेइ पवेदंतंवा साइज्जह" (निशीथ सूत्र उ० १३ । बोल २७) अर्थ : जो साधु, मार्ग भ्रष्ट या दिङ्मूढ़ तथा विपरीत मागसे जाते हुए गृहस्थ या अन्य यूधिक को मार्ग, या मार्गकी संधि बतलाता है अथवा संधिसे मार्ग या मार्गसे संधि बतलाता है तथा बतलाते हुए को जो अच्छा जानता है उसे चौमासी प्रायश्चित्त आता है। यह इस पाठ का । मूलार्थ है। यहां यह प्रश्न होता है कि अन्य यूथिक और गृहस्थको मार्ग या उसकी संधि साधु द्वारा नहीं बतलानेका क्या कारण है ? तो इसका उत्तर देते हुए चीकार इस पाठ की चूर्णीमें बतलाते हैं कि मुनिसे बताये हुए मार्गसे जाते हुए गृहस्थ या अन्य यूथिकको कदाचित् कोई चोर लूट ले, सिंहादि जङ्गली जानवर उन्हें दुःख दे, और उस उपसर्गसे कदाचित् उन का प्राण छूट जाय, अथवा वे ही कदाचित मृगादि पशुओं का हनन करें, इस लिये दयावान् मुनि अन्य यूथिक और गृहस्थको माग नहीं बतलाते । वह चूर्णी यह है: __ "तेण पहेण गच्छंताणं सावयोवद्दवं सरीरोवहि तेणोवद्दवं पावेंति जंवा ते गच्छंता अन्नेसि उवहवं करेंति ।" अर्थात साधुके बताये हुए मार्गसे जाते हुए अन्य यूथिक और गृहस्थको कदाचित जङ्गली जानवरोंसे उपद्रव हो अथवा चोरोंसे वे लुट लिये जाय या वे ही किसी जीव पर उपद्रव कर बैठे अत: साधु अन्य तीर्थी और गृहस्थ को मार्ग नहीं बतलाते । यह ऊपर लिखी हुई चूर्णीका अर्थ है। ___यहां चूर्णीकारने स्पष्ट लिखा है कि अन्य यूथिक और गृहस्थ पर होने वाले या उनके द्वारा दूसरे पर किये जाने वाले उपद्रवकी संभावनासे साधु मार्ग नहीं बतलाते परन्तु जीवरक्षाको या दुःखसे बचानेको बुरा जान कर नहीं अतः निशीथ सूत्रके इस पाठका नाम लेकर जीवरक्षामें पाप कहना अज्ञान मूलक है। इसी पाठका नाम लेकर भीषणजीने अनुकम्पाको सावध बतलाया है । अनुकम्पा की ढालमें उन्होंने लिखा है: ___ "गृहस्थ भूलो ऊजड़ वनमें । अटवीने वले ऊअड जावे । अनुकम्पा माणी साधु मार्ग वतावे । तो चार महीना रो चारित्र जावे । आ अणुकम्पा सावज जाणो".. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ सद्धममण्डनम् । यह भीषणजीकी प्ररूपणा एकान्त मिथ्या है शास्त्रमें कहीं भी अनुकम्पा को सावद्य नहीं कहा है और इस पाठकी चूर्णीमें भी रास्ता नहीं बतानेका कारण अनुकम्पा का सावध होना नहीं लिखा है प्रत्युत भावी उपद्रवकी आशङ्कासे रास्ता बतानेका निषेध करके अनुकम्पाका समर्थन किया है अत: असंयतिकी प्राणरक्षाको पाप और अनुकम्पा को सावध बताना इनका अज्ञान है। यदि इनसे पूछा जाय कि कोई मनुष्यका झुण्ड आपके पूज्यजीके दर्शनार्थ ग्रामान्तरको जाना चाहे और वह आपसे मार्ग पूछे तो आप बतला सकते हैं या नहीं ? यदि कहें कि हम नहीं बतला सकते तो पूछना चाहिये कि क्या आपके पूज्यजीका दर्शन सावध है ? नहीं तो आप दर्शनार्थ जाने वालेको मार्ग क्यों नहीं बतलाते हैं ? यदि वह कहें कि “पूज्यजीका दर्शन तो सावद्य नहीं है परन्तु रास्ता बतलाना साधुका कल्प नहीं है इसलिये हम रास्ता नहीं बतलाते" तो सिद्ध हुआ कि जैसे आपके पूज्यजीका दर्शन सावद्य नहीं है तथापि रास्ता बताना कल्पमें न होनेसे आप रास्ता नहीं बताते उसी तरह किसी प्राणीका दुःख दूर करना, अथवा अनुकम्पा करना सावद्य नहीं है परन्तु रास्ता वताना साधुका कल्प न होनेसे साधु रास्ता नहीं बतलाते। यदि वह कहें कि पूज्यजीके दर्शनार्थ जाने वालेको निरवद्य भाषासे रास्ता बतानेमें कोई दोष नहीं है तो उसी तरह प्राणियों के कष्ट निवरणार्थ निरवद्य भाषासे रास्ता बता देनेमें भी दोष नहीं मानना चाहिये। (बोल २२ वां समाप्त) (प्रेरक) __ भ्रमविध्वंसकसनकार भ्रम० पृ० १४९ पर ठाणा ग सूत्र ठांणा ३ का मूल पाठ लिखकर उसकी समाचोलना करते हुए लिखते हैं:-"अथ अठे पिण कयो हिंसादिक अकार्य करता देखि धर्म उपदेश देई समझावणो तथा अनवोल्यो रहे तथा उठि एकान्त जावणो कह्यो पिण जवरीसू छुड़ावनो न कह्यो तो रजोहरणथी मिनकीने डरायने' दुराने पंचावे त्यांने आत्मरक्षक किम कहिए" (भू० वि० पृ० १४९) इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक) ___ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ३ उद्देशा ४ के पाठका नाम लेकर जीवरक्षाका निषेध करना मिथ्या है उस पाठमें मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करनेका निषेध नहीं है। देखिये वह पाठ और उसकी टीका ये है: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २५३ "तओ आयरक्खा पन्नत्ता तंजहा-धम्मियाए पडिचोयणाए भवइ तुसिणीए वासिया उचित्तावा आया एगंत मवक्कमेज्जा" (ठणाङ्ग ठाणा ३ उद्देशा ४). टीका ___आत्मानं रागद्वेषा दे रकृत्या द्भव कूपा द्वारक्षन्तीति आत्मरक्षाः । “धम्मियाए पडिचोयणा” ए त्ति धार्मिकोपदेशेन नेदं भवादृशा मुचित मित्यादिना प्रेरयिता उपदेष्टा भवति अनुकूलेतरोपसर्ग कारिणः। ततोऽसावुपसर्गकरणान्निवर्तते ततोऽकृत्या सेवा न भवती त्यात्मा रक्षितो भवति । तुष्गीकोवा वाचयम उपेक्षकः स्यादिति प्रेरणाया अविषये उपेक्षगा सामर्थ्येच ततः स्थानादुत्थाय आत्मना एकान्तं विजनम् अन्यं भूमिभाग मवक्रामेद गच्छेत्” । अर्थ: जो पुरुष रागद्वेषसे, अनुचित आचरणसे, तथा भवकूपसे अपनी आत्माकी रक्षा करता है वह आत्मरक्षक कहलाता है। उस आत्मरक्षक पुरुषके पास आकर यदि कोई अनुकूल उपसर्ग करे तो धर्पोदेश देकर समझाना चाहिये। कहना चाहिये कि-"आप जैसे पुरुषको यह आचरण करने योग्य नहीं है" इस उपदेशको सुनकर यदि वह उपसर्ग करनेवाला उपसर्ग करना बन्द कर दे तो साधुसे अकार्यको सेवा नहीं होतो किन्तु साधुकी आत्मा अकृत्य आचरणसे बंच जाती है। अथवा चुप रहकर साधु उस उपसर्गका सहन करलेवे तो इस प्रकार भी अनुचित आचरणसे उसकी आत्मा रक्षित होती है। यदि उपसर्ग करनेवाला धर्मोंपदेश देने योग्य न हो और साधुसे उपसग भी न सहा जा सके तो वहांसे हटकर किसी एकान्त स्थानमें साधुको चला जाना चाहिये। इसप्रकार अनुचित आचरणले साधुको अपनी आत्माकी रक्षा करनी चाहिये। (यह उक्त मूलपाठका टीकानुसार अर्थ है) यहां अनुकूल या प्रतिकूल उपसर्ग करनेवालेके प्रति रागद्वेष और अकृत्य आचरणसे. बंचनेके लिये आत्म रक्षक पुरुषको तीन उपाय बताये हैं' (१) धर्मोपदेश देना (२) उपसर्गको सह लेना (३) वहांसे हटकर एकान्तमें चला जाना। इसमें हिंसक द्वारा मारे जाते हुए प्राणीकी प्राणरक्षा करने, या उसके लिये धर्मोपदेश देनेका निषेध नहीं किया है अतः इस पाठका नाम लेकर मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करनेमेंपाप बतलाना एकान्त मिथ्या है। इस पाठकी समालोचनामें जीतमलजीने लिखा है कि "पिण जवरी सू छुडा वणो न कह्यो” इस लेखसे प्रतीत होता है कि जीतमलजी जवरजस्तीसे जीव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ सद्धर्ममण्डनम् । बचानेमें पाप कहते हैं उपदेश देकर जीव बंचानेमें पाप नहीं कहते परन्तु यह बात भी मिथ्या है। यह उपदेश देकर भी जीवरक्षा करनेमें पापही कहते हैं। इनका मन्तव्य, इनके लेख और भीषणजीकी ढाल लिखकर विस्तारके साथ बतलाया जा चूका है इसलिए इनका यह लिखना कि “पिण जवरीसू छोडावणो न कह्यो” जनताको धोखा देना है। आगे चलकर जीतमलजीने लिखा है कि "रोहरणथी मिनकीने डरायने ऊंदुराने बंचावे त्यांने आत्मरक्षक किम कहिए” इनकी यह बात भी असंगत है जो दयालु मनुष्य ओघासे विल्लीको डराकर चूहेकी प्राणरक्षा करता है वह कौनसा अनुचित कार्य करता है जिससे वह आत्मरक्षक नहीं कहा जाय ? यदि कहो कि "किसी प्राणीको भय देना उचित नहीं है और वह बिल्लीको भय देकर चूहेकी रक्षा करता है इसलिये बिल्लीको भय देनेके कारण वह आत्मरक्षक नहीं है" तो जो साधु, मारनेकेलिये आती हुई गाय भैंसको तथा काटनेके लिये आते हुए कुत्ते को ओघासे डराकर अपनी रक्षा करता है वह आत्मरक्षक कैसे कहला सकता है ? क्योंकि वह भी कुत्ते, गाय भैंसको ओघासे डराता है ? इसलिये उसे भी आत्मरक्षक नहीं कहना चाहिए। यदि कहो कि जो साधु मारनेके लिये आती हुई गाय भैंसको तथा काटनेके लिये आते हुए कुत्ते को ओधासे डराकर अपनी रक्षा करता है वह कुछ भी अनुचित कार्य नहीं करता अत: वह आत्मरक्षक ही है तो उसी तरह यह भी समझो कि जो दयालु पुरुष ओघा से बिल्लीको डराकर चूहेकी रक्षा करता है वह भी अनुचित काय्य नहीं करता प्रत्युत बिल्लीको हिंसाके पापसे बचाता है और चूहेकी प्राणरक्षा करता है इसलिये वह अपनी और दूसरेकी दोनोंकी रक्षा करता है किसीकी भी हानि नहीं करता इसलिये वह धार्मिक ही है पापी नहीं है अतः भूमविध्वंसनकारकी पूर्वोक्त बात भी मिथ्या है। (बोल २३ वां समाप्त) (प्रेरक ) भूम विध्वंसनकार भूमविध्धंसन पृष्ठ १५१ पर निशीथ सूत्र उद्देशा ११ बोल १७० का मूल पाठ लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: “अथ अठे पर जीवने विहाव्यां विहावताने अनुमोद्यां चौमासी प्रायश्चित्त कहयो तो मिनकीने डरायने उदुराने पोषगो किहांथी अने असंयतिना शरीरनी रक्षा किम करणी” (भ्र० द० १५१) इसका क्या समाधान ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः । २५५ (प्ररूपक ) निशीथ सूत्रके मूलपाठमें किसी प्राणीको भय देनेसे साधुको चौमासी प्रायश्चित्त होना कहा है इसलिए ओघासे बिल्लीको डराकर चूहेकी रक्षा करना पाप है तो काटनेके लिए आते हुए कुत्ते को और माग्नेके लिए आती हुई गाय भैंसको ओघासे डराकर अपनी रक्षा करनेमें भी पाप ही होना चाहिए। परन्तु भ्रम विध्वंसन कारके मतानुयायी साधु कुत्ते, गाय, भैंस आदि प्राणियों को ओघासे डराकर अपनी रक्षा कर लेते हैं और इससे निशीथ सूत्रकी आज्ञाका उलंघन भी नहीं मानते परन्तु ज्योंही बिल्लीको डराकर चूहे की रक्षा करनेका प्रश्न आता है त्योंही झटपट निशीथ सूत्रकी आज्ञाका उलंघन होने का कोलाहल मचाने लगते है यह इनका दूसरे जीवोंपर द्वेष करनेके सिवाय और कुछ नहीं है । जब कि ओघासे गाय भैंस और कुत्त े को डराकर अपनी रक्षा करने में निशीथ की आज्ञा उल्लंघन नहीं होती तब ओघासे बिल्लीको डराकर चूहेकी रक्षा करनेमें निशीथ सूत्रकी आज्ञा उल्लंघन कंसे हो सकती है ? यह बुद्धिमानोंको स्वयं सोच लेना चाहिए । वास्तवमें, किसी जीवको संतानेके अभिप्रायसे भय देना पाप है और इसी पाप के लिए निशीथ सूत्रके मूलपाठमें प्रायश्चित्त कहा गया है। किसी जीवको पापसे बचाने, तथा आत्मरक्षा और पर रक्षा करनेके लिए नासमझ प्राणीको भय दिखाकर हटा देना पाप नहीं है और उसके लिए निशीथ सूत्रमें प्रायश्चित्त भी नहीं कहा गया है क्योंकि किसी ना समझ प्राणीको भय दिखाकर जो पाप करनेसे हटाता है या आत्मरक्षा तथा पर रक्षा करता है उसका अभिप्राय उस नासमझ प्राणीको संतानेका नहीं किन्तु उसे पाप करनेसे हटानेका होता है इसलिए यह पाप नहीं कहा जा सकता यह तो उस प्राणी या करना है फिर इसमें प्रायश्चित्त कैसे हो सकता है ? यह हरएक बुद्धिमान समझ सकता है | अतः निशीथ सूत्रका नाम लेकर जीव रक्षा करनेमें पाप बताना अज्ञानियोंका कार्य समझना चाहिए । ( बोल २४ वां ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रम० पृ० १५१ पर निशीथ सूत्र उद्देशा १३ बोल १४ का मूल पाठ लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं “ore अठे गृहस्थनी रक्षा निमित्त मंत्रादिक कियां अनुमोद्यां चौमासी प्रायश्चित्त को तो जे उ दुरादिकनी रक्षा साधु किम करे। अने जो रक्षा कियां धर्म हुवे तो डाकिनी शाकिनी भूतादिक काढ़ना सर्पादिकना जहर उतारना, औषधादिक करी T Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ सधम मण्डनम् । असंयतिने वचवणा । अने जो एतला बोल न करणा तो असंयतिना शरीरनी रक्षा पिण नकरणी ( ० प० १५२ ) इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक) निशीथ सूत्रका वह पाठ लिखकर इसका समाधान किया जाता है । वह पाठ यह है : "जे भिक्ख अण्णउत्थिदंवा गारत्थियवा भुइकम्मं करेइ करतंवा साइज्जइ । ' ( निशीथ उ० १३ बोल १४ ) अर्थ जो साधु गृहस्थ या अन्य यूधिकको भूति कर्म करता है अथवा भूति कम करनेवालेको अच्छा जानता है उसे प्रायश्चित्त होता है । इस पाठ साधुको भूति कर्म करनेका निषेध किया है किसी मरते प्राणीको अपनी कल्प मर्यादानुसार रक्षा करनेका निषेध नहीं किया है किन्तु भ्रमविध्वंसनकारको चाहे जिस पाठमें जीवरक्षा करने का निषेध ही निषेध सूझ पड़ता है निशीथ सूत्रमें यह भी पाठ आया है कि: - "जेभिक्खू विज्जा पिण्डं भुजइ भुजंतंवा साइज्जई" "जेभिक्खू मंत पिण्डं भुजइ भुजंतंवा साइज्जई” "जेभिक्खु जोग पिण्डं भुजइ भुजंतंवा साइज्जई” ( निशीथ सूत्र ) ू अर्थः जो साधु विद्या वृत्ति से आहार पानी लेता है जो मन्त्र और योग वृत्ति से आहार पानी लेता है या लेने वाले साधु को अच्छा समझता है उसे प्रायश्चित्त होता है । यह इस पाठका मूलार्थ है । इस पाठ में जैसे विद्या मंत्र और योग वृत्तिसे साधुको आहार पानी लेना वर्जित किया है अपनी कल्पमर्य्यादानुसार आहार लेना वर्जित नहीं किया है उसी तरह निशीथ के पूर्वोक्त पाठ में भूति कर्म करनेका निषेध किया है अपनी कल्प मर्य्यादानुसार जीव रक्षा करनेका निषेध नहीं किया है यदि जीव रक्षा करनेसे प्रायश्चित्त वतलाना होता तो वह भूति कर्म करने का नाम क्यों लेते ? क्योंकि केवल भूति कार्यसे ही रक्षा नहीं होती रक्षा करनेके अनेकों उपाय होते हैं इसलिए सामान्य रूपसे यही लिख देते कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। "जे भिक्खू अन्न उत्यियंवा गारत्थियं वा स्क्वइ रक्खंतं का साइजई" ऐसा लिखनेपर जीवरक्षाका निषेध सरल रीतिसे हो जाता परन्तु ऐसा नहीं लिख कर शास्त्रकारने भूति कम करनेका निषेध किया है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि शास्त्रकारको भूतिकम करनेमें प्रायश्चित बतलाना है जीवरक्षा करनेमें नहीं। ___ जैसे किसी मनुष्यको प्रतिवोध देना पापका कार्य नहीं है तथापि यदि कोई साधु किसीको भूत कर्मके द्वारा प्रविवोध देवे तो उसे अवश्य ही निशीथ सूत्रके इस पाठके अनुसार प्रायश्चित्त होगा परन्तु वह प्रायश्चित्त प्रतिवोध देनेका नहीं किन्तु भूति कम करनेका है उसी तरह जो भूतिकर्मके द्वारा किसीकी रक्षा करता है उसको भूति कर्म करनेका प्रायश्चित्त आता है जीवरक्षा करनेका नहीं क्योंकि जीवरक्षा करना दीक्षा देनेके समानही धर्म है पाप नहीं है। इसी तरह डाकिनी, शाकिनी, और भूत आदि निकालना तथा सर्प आदिका जहर उतारना, और, औषध आदि बांटना साधुका कल्प नहीं है अत: इन कार्यों को साधु नहीं करते परन्तु मरते प्राणीकी अपने कल्पानुसार रक्षा करते हैं क्योंकि मरते प्राणीकी रक्षा करना प्रतिवोध देनेके समान ही एकान्त धर्मका कार्य है पाप नहीं है इसलिये विविध कुतर्कों की सहायतासे मस्ते प्राणीको प्राणरक्षा करने में पाप कहना निद य जीवोंका कार्य समझना चाहिये । (बोल २५ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंससनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ १५२ से लेकर १५६ तक उपासक दशांग सूत्रका मूलपाठ लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: "अथ अठे पिण कयो चुलगी प्रिय श्रावकरा मुंहडा आगे देवता तीन पुत्रांना शला किया पिण त्यांने बंचाया नहीं माताने बचावा उठ्यो ते पोषा व्रत भाग्यो कयो ते उंदुरादिकने साधु किम बंचावे (भ्र० द० १५९ इसका क्या समाधान ?) (प्ररूपक) भूमविध्वंसानकारका सिद्धान्त है कि "हिंसकको हिंसाके पापसे बचाने लिये उपदेश देना चाहिये किन्तु मरते जीवकी रक्षाके लिए नहीं" मसः इनके मतानुसार यहां यह प्रश्न होता है कि "चुलगी प्रिय श्रावकने उसके सामने हिंसा करते हुए हिंसक पुरुषको हिंसाके पापसे बचानेके लिए धर्मोपदेश क्यों नहीं दिया ?" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ सद्धर्ममण्डनम् । क्योंकि हिंसक प्राणीको हिंसा नहीं करनेके उिये उपदेश देना तो भूमविध्वंसन कारके मतमें भी धर्म ही है। यदि कहो कि हिंसकको हिंसाके पापसे बंचाने के लिये धर्मोपदेश देना धर्म तो है परन्तु वह पुरुष बिलकुल अनार्य और अयोग्य था उसे उपदेश देना निष्फल जानकर चुलणी प्रियने उपदेश नहीं दिया था तो इसी तरह सरल बुद्धिसे यह भी समझो कि जीवरक्षाके लिये धर्मोपदेश देना धर्म तो है परन्तु वह पुरुष अनार्या और अयोग्य था उसे जीवरक्षाके लिए उपदेश देना निष्फल जानकर चुलणी प्रियने उपदेश नहीं दिया। अतः चुलगी प्रिय श्रावकका दृष्टान्त देकर जीवरक्षा करनेमें पाप बताना इनका अज्ञान समझना चाहिए। इसीतरह माताकी रक्षाके लिये प्रवृत्त होनेसे चुलणी प्रियके व्रतनियमका भंगबताना भी अज्ञान है क्योंकि हिंसक पुरुषपर क्रोध करके उसे मारणार्थ दौड़नेसे चुलगी प्रियके व्रत नियम नष्ट हुए थे माताकी रक्षाका भाव आनेसे नहीं देखिये वहांका मूलपाठ और टीका ये हैं: "तएणं साभदा सात्थवाही चुलणी पियं समणोवासयं एवं वयासो नो खलु केइ पुरिसे तव जाव कणीयसं पुत्तं साओ गिहाओ निणेइ २ त्ता तव अग्गओ घाएइ । एसणं केइ पुरिसे तव उवसग्ग करेइ एसणं तुमे विदरिसणे दिढे तंणं तुमं एयाणिं भग्गवए भग्ग णियमे भग्ग पोसहे विहरसि" (टीका) __ "भगवए" त्ति भग्नवतः स्थूलपाणातिपातविरतर्भावतोभग्नत्वात् तद्विनानाशार्थ कोपेनोद्धावनात् । सापराधस्यापिव्रताविषयीकृतत्वात् । भग्ननियमः कोपोदये नोत्तरगुणस्य क्रोधाभिग्रहरूपस्य भग्नत्वात्। भग्नपोषधः अव्यापार पोषरूपस्य भंगत्वात्" (मूलार्थ) इसके अनन्तर उस भद्रा सार्थवाहिनीने कहा कि हे चुलणी प्रिय ! तुम्हारे ज्येष्ठ पुत्र से लेकर यावत् कनिष्ठ पुत्रको घरसे बाहर लाकर तुम्हारे समक्ष किसीने भी नहीं मारा है। यह तुम्हारे पर किसीने उपसर्ग किया है तुमने जो देखा है वह मिथ्या दृश्य था। इस समय तुम्हारे व्रत नियम और पोषध नष्ट हो गये हैं। यह ऊपर लिखे मूलपाठका अर्थ है। ___इस मूल पाठमें भद्रासार्थवाहिनीने चुलणीप्रियके व्रत नियम और पोषध भंग होनेकी जो बात कही है इसका कारण बतलाते हुए टीकाकारने यह कहा है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २५९ (टोकार्थ) ___ चुलणी प्रिय श्रावकका स्थूल प्राणातिपात विरमण ब्रत भावसे नष्ट हो गया क्योंकि वह क्रोध करके हिंसकको मारनेके लिये दौड़ा था। व्रतमें अपराधी प्राणी को भी मारनेका त्याग होता है। उत्तर गुण-क्रोध नहीं करने का जो अभिग्रह था वह क्रोध करनेसे नष्ट हो गया और अप्रयत्न पूर्वक दौड़नेसे उसका अव्यापार पोषध नष्ट हो गया" यह टीकाका अर्थ है। ___यहां टीकाकारने व्रत नियम और पोषध भंगका कारण बतलाते हुए यह स्पष्ट लिखा है कि "हिंसक पर क्रोध करके मारणार्थ दौड़नेसे चुलगी पियके व्रत नियम और पोषध नष्ट हुए थे" मातृरक्षाका भाव आनेसे व्रत नियम और पोषध भङ्ग होना नहीं कहा है अतः चुलणी प्रियके हृदयमें मातृरक्षाके भाव आनेसे और मातृ रक्षार्थ प्रवृत्त होने से उसके वा नियम और पोषध का भङ्ग बताना कपूतों का कार्य समझना चाहिये। इसी तरह भीषगजीने मूढ मतियोंको बहकानेके लिये माताकी अनुकम्पा करनेसे चुलगी प्रियका व्रत भङ्ग होना कहा है। उन्होंने लिखा है: ... "इम सुणने चुलगी पिया चल गयो, माने राखग रो करे उपाय रे । ओतो पुरुष अनार्य कहे जिसो, झाल राखूज्यों न करे घातरे । ओतो भद्रा बंचावण ऊठियो, इणरे थामो आयो हाथरे। अनुकम्पा आणी जननी तगी तो भांग्या ब्रतरे नेमरे । देखो मोह अनुकम्पा एहवी, तिणमें धर्म कहीजे केमरे" (अनुकम्पा विचार ढाल ७ कडी ३५) इनके कहनेका भाव यह है कि किसी मरते प्राणीकी प्राणरक्षार्थ अनुकम्पा करना मोह अनुकम्पा है चुलगी प्रियने माताकी रक्षाके लिये अनुकम्पा की थी इसीसे उसका व्रत भङ्ग हुआ क्योंकि वह मोह अनुकम्पा थी। इनकी यह प्ररुपणा शास्त्र विरुद्ध है। टीकाके प्रमाणसे भी पहले बतला दिया गया है कि क्रोधित होकर हिंसकके मारणार्थ दौड़नेसे चुलणी प्रियका व्रत नष्ट हुआ था माताकी अनुकम्पासे नहीं क्योंकि व्रत पौषध के समय श्रावकको हिंसाका त्याग होता है अनुकम्पाका त्याग नहीं होता अतः हिंसाके भाव आनेसे ही व्रत भङ्ग हो सकता है अनुकम्पाके भाव आनेसे नहीं। भोषगजी ने सामायक और पोषधके समय अग्नि सादिका भय होने पर जयणाके साथ निकल जाने की आज्ञा दी है। जैसे कि उन्होंने लिखा है: "लाय सादिकरा भयथकी, जयणासूनिसर आयजी । राख्या ते द्रव्य ले जावता सामाइरो भंगनथायजी । पोषाने सामायक व्रतना सरीखा छै पच्चक्खाणजी। पोषाने सामायक व्रतने यहां पोषामें सरीखा छै आगारजी" (श्रावक धर्म विचार नवम व्रतकी ढाल) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० सद्धर्ममण्डनम् । इस ढालमें भीषणजीने यह आज्ञा दी है कि "अग्नि सादिका भय होने पर श्रावक यदि जयणाके साथ निकल जाय तो उसका व्रत नष्ट नहीं होता।" यदि सामायक और पौषधके समय अनुकम्पा करना बुरा है तो अग्नि सादिका भय होने पर श्रावक जयणाके साथ कैसे निकल सकता है ? क्योंकि यह भी तो अपने ऊपर अनुकम्पा ही करना है। यदि कहो कि अपने पर अनुकम्पा करनेसे व्रत भङ्ग नहीं होता किन्तु दूसरे पर अनुकम्पा करनेसे होता है इसलिये सामायक और पौषधमें अपनी अनुकम्पाके लिये जयणाके साथ निकल जानेमें कोई दोष नहीं है तो फिर सुरादेवका व्रत भङ्ग क्यों हुआ था क्योंकि उसने किसी दूसरे पर अनुकम्पा नहीं करके अपने पर अनुकम्पा की थी। देखिये वह पाठ यह है:____ "तएणं से सुरादेवे समणोवासए धन्नं भारियं एवं वयासीएवं खलु देवाणुप्पिए ! केवि पुरिसे तहेव कहइ जहा चुलणीपिया । धन्नाविभणइ-जाव कणीयसं नो खलु देवाणुप्पिया ! तुभंकेवि पुरिसे सरीर गंसि जमग समगं सोलस रोगायंके परिपक्खिवइ । तएणं केवि पुरिसे तुभं उवसर्ग करेइ सेसं जहा चुलणोपियस्स तहा भणई" (उपासक दशांग अ०४) अर्थ: इसके अनन्तर उस मुरादेव श्रमणोपासकने धन्या नामक अपनी भार्यासे अपना सारा वृत्तान्त चूर्णी प्रिय श्रावकके समान ही कह सुनाया। यह सुन कर धन्याने कहा कि हे देवानुप्रिय ! किसीने भी तुम्हारे ज्येष्ठ पुत्रसे लेकर यावत् कनिष्ठ पुत्रको नहीं मारा है और कोई भी तुम्हारे शरीरमें एक ही साथ सोलह रोग नहीं डाल रहा था किन्तु यह किसीने तुम्हारे पर उपसग किया है। शेष बातें चूर्णीप्रियको माताके समान धन्याने अपने पतिसे कहीं। अर्थात् "तुम्हारा व्रत नियम और पौषध इस समय भङ्ग हो गये" यह, धन्याने अपने पतिसे कहा। यहां मूलपाठमें चूगी प्रिय श्रावकके समान ही सुरादेव श्रावकका व्रत नियम और पौषध भङ्ग होना कहा गया है अत: भीषण मतानुयायियोंसे पूछना चाहिये कि "सुरादेवका व्रत नियम और पौषध क्यों भङ्ग हुए ?। सुरादेवने अपनी अनुकम्पा की थी दूसरे की नहीं की थी, और अपनी अनुकम्पासे व्रत नियम और पौषध का भङ्ग होना भीषणजीने भी नहीं माना है फिर सुरादेवके व्रत नियम और पौषध भङ्ग होनेका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। क्या कारण है ? । यदि कहो कि सुरादेवके व्रत नियम और पौषध अपनी अनुकम्पाके कारण नहीं नष्ट हुए किन्तु अपराधीको मारणार्थ क्रोधित हो कर दौड़नेसे नष्ट हुए तो फिर यही बात चूर्गीप्रिय श्रावककै विषयमें भी तुमको मानना चाहिये। चूगीप्रिय गौर सुरादेवके सम्बन्धमें आये हुए पाठोंमें बिलकुल समानता है केवल भेद इतना हो है कि चुर्णीप्रियने अपनी माता पर अनुकम्पा की थी और सुरादेवने अपने ऊपर की थी। यदि माताके ऊपर अनुकम्पा करनेसे चुर्णीप्रियका व्रत भङ्ग होना मानते हो तो फिर सुगदेवका अपने पर अनुकम्पा करनेसे व्रत भङ्ग मानना पड़ेगा और जैसे चूगी प्रियकी मातृ अनुकम्पाको सावध कहते हो उसी तरह सुरादेवकी अपनी अनुकंपाकोभी सावध कहना होगा ऐसी दशामें भीषगजीने उक्त ढालमें सामायक और पौषधमें अपने पर अनुकम्पा करके अग्नि सादिके भयसे बचनेके लिये जयणाके साथ जो निकल जानेकी आज्ञा दी है वह बिलकुल मिथ्या सिद्ध होगी अत: अपनी अनुकम्पाको भीषण मतानुयायी सावद्य नहीं कह सकते अतः जैसे सुरादेवको अपनी अनुकम्पा सावद्य नहीं थी और उससे व्रत नियम तथा पौषध नष्ट नहीं हुए थे उसी तरह चूर्णीप्रिय की भी माता के ऊपर अनुकम्पा सावध नहीं थी और उससे उसके व्रत नियम भंग नहीं हुए थे इसलिये चूर्णीप्रियका उदाहरण देकर अनुकम्पाको सावध बतलाना अज्ञानियोंका कार्य है। (बोल २६ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ट १५९ पर आचारांग सूत्रका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: “अथ अठे कह्यो जे पाणी नावामें आवे घणा मनुष्य डूबता देखे पिण साधुने मन वचन करी बतावणो नहीं जो असंयतिरो जीवणो वाग्छथा धर्म हुवे तो नाकामें पाणी आवतो देखि साधु क्यों न बसावे । केतला एक कहे जे लाय लाग्यां ते परस केवाड उगाडना तथा गाडा हेठे बालक आवे तो साधुने उठाय लेणो इमि कहे तेहनो उत्तर-जे लाय लाग्यां ढाढा वाहिरे काढना तो नावामें पानी आवे ते क्यूंन बतावणो" (भ्र० पृ० १५९) इसका क्या समाधान (प्ररूपक) भ्रमविध्वंसनकार दूसरे प्राणीकी रक्षा करना पाप मानते हैं परन्तु अपनी रक्षा करना पाप नहीं मानते । अपनी रक्षा करना तो वे साधुका कर्राव्य मानते हैं ऐसी दशम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ सद्धर्ममण्डनम् । में दूसरेकी रक्षाके लिये न सही, अपनी रक्षाके लिये साधु नावमें आता हुआ पानी क्यों नहीं बतला देता ? क्योंकि नावमें पानी आने पर दूसरे लोगोंके समान साधु स्वयं भी तो डूब सकता है फिर वह अपनी रक्षाके लिये पानी क्यों नहीं बताता ? यदि कहो कि अपनी रक्षा करना साधुका कर्त्तव्य तो है परन्तु पानी बतलानेकी जिन आज्ञा नहीं है यह साधुका कल्प नहीं है इसलिये साधु नावमें आता हुआ पानी नहीं बतलाता तो उसी तरह यह भी समझो कि दूसरे जीवकी रक्षा करना साधुका कर्तव्य है परन्तु पानी बतलाना उसका कल्प नहीं है इसलिये साधु नावमें आता हुआ पानी नहीं बतलाता। भीषणजी ने लिखा है कि " आप डूबे अनेरा प्राणी अनुकम्पा किगरी नहीं आणी" अर्थात् नावमें बैठा हुआ साधु आप भी डूवे और दूसरे प्राणी भी डूब जायं परन्तु साधु किसी पर अनुकम्पा न करे। ऐसा माननेसे भीषगजीके सम्प्रदाय वाले साधु ठाणांग सूत्रकी पूर्वोक्त चतुभंगीके चौथो भंगमें शामिल होते हैं क्योंकि उस चतुर्भगी के चौथे भंग वाले जीव न अपनी अनुकम्पा करते हैं और न परकी, जैसे काल शौरिक आदि, किन्तु यह बात शास्त्र तथा इनके अपने सिद्धांतसे भी विरुद्ध है। जीतमल मीने लिखा है किः "अथ अठे पिण कयो जे साधु पोतानो अनुकम्पा करे पिण आगलानी अनुकम्पा न करे" (भ्र० पृ० १४७) यह लिख कर जीतमलजीने अपनी अनुकम्पा करना साधुका कर्तव्य बतलाया है तथा इनके मतानुयायी साधु गाय भैंस कुत्ता आदिसे अपनी रक्षा करते हैं और अपने शरीर की रक्षाके लिये आहार पानी का अन्वेषण करते हैं इस लिये पूर्वोक्त ढालमें भीषगजीने जो यह लिखा है कि "आप डूवे अनेरा प्राणी अनुकम्पा किगरी नहीं आणी" यह इनके अपने सिद्धांत और आचारसे भी विपरीत है परन्तु पर जीव की प्राण रक्षा का खण्डन के आवेश में आकर भीषण जी ने अपनी रक्षा का भी निषेध कर दिया है अत: आचारांगके मूलपाठसे जीवरक्षाका निषेध करना जीतमलजी और भीषण जी का अज्ञान समझना चाहिये । वास्तवमें ठाणांग सूत्र ठाणा ४ में कही हुई चौभंगीके अनुसार स्थविर कल्पी साधु अपनी और दूसरेकी दोनोंकी रक्षा करते हैं परन्तु नावमें आता हुआ पानी गृहस्थ को बताना उनका कल्प नहीं है इसलिये वे नावमें आता हुआ पानी नहीं बतलाते। इसो अगह आचारांग सूत्रमें साधुको तैर कर नदी पार करना कहा है। यदि भीषगजी की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः । २६३ उक्तिके अनुसार अपनी रक्षा करना साधुका कर्तव्य नहीं होता तो इस पाठमें नदी तैर कर साधुको अपनी रक्षा करना कैसे बतलाया जाता ? वह पाठ यह है: "सेभिक्खूवा उदगंसि पवमाणे नो हत्थेणं हृत्थं पाएण पायं काएण कार्य आसाइज्जा से अणासायणाए अणासायमाणे तओ सं० उद्ग सि पविज्जा । G. सेभिक्ख वा उद्गसि पवमाणे नो उमुग्ग निमुग्गियं करिज्जा मामेयं उद्ग कन्नेसुवा अच्छीसुवा नक्क सिवा मुहंसिवा परियाकजिज्जा तओ संजयामेव उद्गसि पविज्जा | सेभिक्ख वा उद्ग सि पवमाणे दुब्बलियं पाउणिज्जा खिप्पामेव उवहिं विगि चिज्जवा विसो हिज्जवा नो चेवणं साइजिज्जा । अह पु० पारए सिया उदगाओ तीरं पाउत्तिए तओ संजयामेव उदउल्लेणवा ससिद्धि णवा कारण उद्गतीरे चिट्टिज्जा" ( आचारांग श्रु० २ अ० २६ ) अथ: साधु या साध्वी जलसे तैरकर पार करते समय हाथसे हाथका, पैरसे पैरका और शरीरसे शरीरका स्पर्श न करें । किन्तु अपने • अङ्गोंका परस्पर स्पर्श न होने देकर जयणाके साथ जलको पार करें। तैरते समय जलमें डूब्बी न लगावें और अपने आंख, कान, नासिका और मुखमें जलन पैठने दे । जलमें तैरते तैरते यदि साधुके अंग दुर्बल हो जायँ तो वह अपने उपकरणोंको तुरन्त उसी जगह छोड़ देवे उनमें थोड़ी भी मूर्च्छा न लावे । यदि भाण्डोपकरणोंको लेकर साधु पार जाने में समर्थ हो तब उन्हें छोड़नेकी आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार जलसे पार हो कर जबतक शरीर से जलके बिन्दु गिरें और शरीर भींगा रहे तबतक साधु जलके किनारे पर ही खड़ा रहे, यह ऊपर लिखे हुए पाठका अर्थ हैं । यहां जलसे तैरकर साधुको पार जाना कहा है जलमें डूबकर मरना नहीं कहा है। इसलिए इस पाठसे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधु अपनी रक्षा करना पाप नहीं समझते ? जब अपनी रक्षा साधु करता है और उससे उसे पाप नहीं होता तो दूसरेकी रक्षा करनेसे उसे पाप कैसे हो सकता है ? अतः भीषणजीने साधुको जलमें डूब मरनेकी जो वात लिखी है वह एकान्त मिथ्या है । यदि कोई कहे कि “नदी पार करते समय साधुसे जलके जीवोंकी विराधना तो होती ही है फिर वह नावमें आता हुआ पानी बतलाकर अपनी और दूसरे की रक्षा क्यों नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ सद्धर्ममण्डनम् । करता ? | तो इसका उत्तर यही है कि साधु शास्त्रीय विगनानुसार ही अपनी और दूसरे की रक्षा करता है विधानका उल्लंघन करके नहीं करता। नावमें आता हुआ पानी बतलाना साधुका कल्प नहीं है इसलिए वह नावमें आता हुआ पानी नहीं बतलाता। जैसे कि गृहस्थके हाथकी रेखा भी यदि को पानीसे भींगो हुई हो तो साधु उसके हाथसे आहार नहीं लेता क्योंकि उसका यह कल्प नहीं है और वही साधु अपवाद मार्गमें नदी भी पार करता है । नदी पार करना उसके कल्पके विरुद्ध नहीं है क्योंकि इसके लिये तीर्थकरकी आज्ञा है परन्तु नावमें आता हुआ पानी बतलाना आज्ञामें नहीं है इसलिए साधु नावमें आता हुआ पानी नहीं बतलाता परन्तु अपनी और दूसरेकी कल्पानुसार रक्षा करने में साधु पाप नहीं समझता मतः आचारांग सूत्रका नाम लेकर जीव रक्षा करनेमें पाप बताना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिए। (बोल २७) (प्रेरक) ___ भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १६१ पर निशीथ सूत्र उद्देशा १२ बोल १-२ का मूल पाठ लिखकर उनकी समालोचना करते हुए लिखते हैं : “अथ इहा "कोलुण पडियाए" कहितां अनुकम्पा निमित्त स जीवने बांध बांधताने अनुमोदे भलो जाणे तो चौमासी दण्ड कयो अने बांध्या जीवने छोड़े छोड़ताने अनुमोदे भलो जाणे तो पिण चौमासी प्रायश्चित्त कयो बांधे छोड़े तिणने सरीखो प्रायश्चित्त कह्यो छे । (भ्र. पृ० १६१ इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) निशीथ सुत्रका वह पाठ लिखकर इसका समाधान किया जाता है । "जे भिक्ख कोलुण पडिआए अण्णरियं तसपाणिजायं तण पासएणवा मुञ्जपासएणवा कठ्ठपासएणवा चम्म पासएणका वंघइ वंधतंबा साइज्जइ । जेभिक्खू वंधोल्लय मुयइ मुर्यातवा साइज्जा ।' जो साधु अनुकम्पाके निमित्त किसी त्रस प्राणीको तृण पाससे, मुञ्जके पाससे, काष्ठपाससे या चर्म पाससे बांधता है या बांधनेवालेको अच्छा जानता है तथा जो साधु बंधे हुए इस प्राणीको छोड़ता है या छोड़ते हुएको अच्छा जानता है उसे चौमासी प्रायश्चित्त आता है। यह इस पाठका अर्थ है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २६५ यहां त्रस प्राणीको बांधने और छोड़नेसे साधुको प्रायश्चित्त कहा है उनपर अनुकम्पा करनेसे नहीं क्योंकि अनुकम्पा करनेकी तीर्थङ्करकी आज्ञा है। जैसे साधु को आहार पानी लेनेसे प्रायश्चित्त नहीं होता क्योंकि आहार पानी लेनेकी भगवानकी आज्ञा है परन्तु यदि विद्या वृत्तिसे, या मंत्र वृत्तिसे साधु आहार पानी लेवे तो उसका प्रायश्चित्त साधुको होता है । वह प्रायश्चित्त आहार पानी लेनेका नहीं किन्तु विद्या वृत्ति और मंत्र वृत्ति करने का है उसी तरह निशीथके इस पाठमें जो त्रस प्राणीको अनुकम्पाके निमित्त वांधने छोड़नेसे प्रायश्चित्त कहा है वह त्रस प्राणीपर अनुकम्पा करनेका प्रायश्चित्त नहीं किन्तु उनको बांधने और छोड़नेका प्रायश्चित्त है। त्रस प्राणीपर कनुकम्पा करना, उनमें शान्ति स्थापित करना, तथा किसी जीवकी प्राणरक्षा करना पाप नहीं है फिर अनुकम्पा करनेसे प्रायश्चित्त कैसे हो सकता है ? इस पाठके भाष्य और चूर्णीमें स्पष्ट लिखा हुआ है कि "त्रस प्राणीको बांधने और छोड़नेसे अनर्थकी सम्भावना रहती है इसलिये इस पाठमें त्रस प्राणीको बांधने और छोड़नेमें प्रायश्चित कहा है कनुकम्पा करनेसे प्रायश्चित्त नहीं कहा" वह भाष्य और चूर्णी लिखी है। __"अच्चावेटन मरणं तराय फडंत आत्त पर हिंसा सिंग खुर पेल्लणंवा उड्डाहो भदपंता वा" (भाष्य) "अईव आवेटियौं परिताविज्जइ मरइवा अन्तरायंचभवइ । वद्धचतड फफडतं अप्पाणं परंवाहिंसइ एसा संजम विहरणा, तंवा वझंतं सिंगेण खुरेणवा काएगवा साहुं पेलेज्जा एवंच साहुस्स आय विराहणा तंच टुं जपरेराह करेजा अहो दुट्ठि धम्मा पर तत्ति वाहिणो एवं पवयणोवघाओ भद्दयंत दोषों का भवे । महो पाइ अहो इमे साहवो अम्हे परोवक्खाणघरे वावारं करेंति सी "पुणभणेज्जो दुद्दि धम्म चाडु कारिणो कीसवा अम्हं वच्छे बंधति मुयंतिवा दिक वा-राओवा निच्छुभेज्जा वाचवा करेज्ज एए वंधणे दोसा" अर्थः रस्सी आदिसे बांधे हुए पशु अत्यन्त आंटा खाकर जाते हैं। एवं वन्धन से पीड़ित होकर तडफडाते हुए अपनी या दूसरेकी हिंसा भी कर देते हैं। इस प्रकार पशु बांधनेसे साधुके संयमकी विराधना होती है। पशु बांधते समय पशु, यदि सींग या खुरसे साधुको मार देवे तो साधुकी अपनी विराधना होती है। यदि ये बाते न हों तो भी गृहस्थके पशुओंको बांधते और छोड़ते हुए साधुको देखकर लोग साधुको निन्दा करते हैं। वे कहते हैं कि इन साधुओंका धर्म अच्छा नहीं है ८०31 टन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ सधर्ममण्डनम् । ये लोग गृहस्थकी नौकरी करते हैं । इस प्रकार प्रवचनकी निन्दा होती है। उस साधु पर श्रेष्ठजन और साधारणजन दोनोंही दोष लगाते हैं श्रेष्ठ पुरुष कहते हैं कि ये साधु मेरे घरके कामकाज करते हैं और साधारण पुरुष कहते हैं ये साधु गृहस्थोंकी खुशामद करते हैं। इनका धर्म अच्छा नहीं है ये मेरे वछड़ोंको बांधते हैं और छोड़ते हैं । इन निन्दा आदि कारणोंसे माधुको गाय आदि प्राणियोंका बंधन और मोचन न करना चाहिये। यह ऊपर लिखे हुए भाष्यकी चूर्णीके पाठका अर्थ है। उक्त भाष्य और चूर्णीमें गाय आदि पशुओंके बांधनेसे अनर्थ होना बतलाकर प्रायश्चित्त कहा है परन्तु गाय पर अनुकम्पा करनेसे प्रायश्चित्त होना नहीं कहा है इसलिए निशीथ सूत्रके इस पाठका नाम लेकर गाय आदि प्राणियोंपर अनुकम्पा करनेसे प्रायश्चित्त बताना अज्ञानियोंका कार्य समझना चाहिए । अव प्रश्न यह होता है कि त्रस प्राणीको बांधनेसे तो अनर्थ होनेको संभावना है इसलिए निशीथके उक्त पाठमें उन्हें बांधनेसे साधुको प्रायश्चित्त होना कहा है परन्तु बंधे हुए पशुको बंधनसे मुक्त करनेमें कौनसा अनर्थ होता है जिससे बंधे हुए पशुको छोड़नेसे भी प्रायश्चित्त कहा है" तो इसका उत्तर भी इसी भाष्य और चूर्णीमें दिया है, वह निम्नलिखित भाष्य और चूर्णीका पाठ है ___"छः काय अगड विसमे हिय गट्ठ पलाय खयइ पीएवा। जोग क्खेम वहन्ती गेवं दोसाय जे बुत्ता" (भाष्य) तन्न गाय मुक्क मडंतं छ: काय विराहणं करेज्ज । अगडे विसमेवा पडिज्ज, तेणेंहिंवा हीरेज्जा नट्ठ अटवीए रुलतं अत्थेज्ज मुक्कवा पलाइयं पुणो वंधितुन सकइ । दुगादि सडफ्फडहिंवा खज्जइ। मुक्कवा माऊए थणात खीरं पीएज्ज । जइवि एवमादि दोषा न होज तहवि गिहिणो विसत्था अत्थेज्ज अम्हं घरे साहवो सुतत्थ जोय खेम वावारं वहंति मणंति एवं मणेणं चिन्तित्ता अणुत्त सत्ता अप्पणो कम्म करेंति । अहतदोषभया मुक्क पुणो वंधति तत्थणं वन्धने जे दोसा वुत्ता ते भवंति । जम्हा एए दोसा तम्हाण वंधति णमुयंति" (चूर्णी ) (अर्थ) बन्धनसे छुटे हुए बछड़े दौड़कर छः कायके जीवोंकी विराधना करते हैं तथा खाई या गड्ढ़े आदिमें गिर जाते भी हैं उन्हें चोर चुरा सकता है या जंगलमें भूलकर इधर उधर भटकते फिरते हैं । भागते फिरते हुए बछड़ोंको फिर बांधनेमें कठिनाई भी होती है। तथा नाहर आदि जीवोंसे यदि वे मार दिए जायें अथवा वे अपनी माता Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २६७ का दूध पी जावें तो उनका धनी नाराज हो, इत्यादि अनेकों दोष बछड़े आदिको बंधनसे छोड़नेपर सम्भव होते हैं। यदि ये दोष न हों तो भी इस कार्यमें साधुकी प्रवृत्ति होनेपर गृहस्थके मनमें यह विश्वास हो जाता है कि मेरे घरकी सम्हाल रखने वाले साधु वहां मौजूद हैं मुझे गृह काय्यकी कुछ भी चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है। यह सोच कर गृहस्थ गृह कार्यकी चिन्ता छेड़ कर दूसरे कामोंमें प्रवृत्त हो जाते हैं ऐसी दशामें साधु यदि गृहस्थके पशुओंको बांधे तो उसे बांधनेके दोष लगते हैं अतः साधु गृहस्थके पशुओंको बांधते और छोड़ते नहीं हैं। __ यह ऊपर लिखे हुए भाष्य और चूर्णीके पाठोंका अर्थ है। __इसमें स्पष्ट लिखा है कि “वछडे आदिको वंधनसे मुक्त करने पर अनेक प्रकारके उपद्रवोंकी संभावना है इसलिये साधु गृहस्थके बछडे आदिको नहीं छोड़ते" यदि छोडं तो इन्हीं उपद्रवोंके कारण ही साधुको प्रायश्चित्त होना कहा है परन्तु अनुकम्पा करनेसे प्रायश्चित्त नहीं कहा है अत: इस पाठका नाम लेकर त्रस प्राणी पर अनुकम्पा करने का निषेध करना भाष्य और चूणीसे विरुद्ध है। गाय आदि प्राणियों पर अनुकम्पा करना महान धर्मका कार्य है परन्तु उनके बांधने और छोडनेमें अनर्थकी सम्भावना है इसीलिये उन्हें बांधने और छोड़नेसे साधुको प्रायश्चित्त कहा है। जहां बांधे और छोड़े विना गाय आदि प्राणियों की रक्षा नहीं हो सकती हो वहां इसी जगह निशीथसूत्रके भाष्य और चूर्णीमें बांधने और छोड़ने का विधान किया है - "कारणे पुण वन्धमुयणं करेज्जा । वितिय पदमणपज्झे वन्धे अविकोवितेव अप्पज्झे विसम गडअ गणिआउ वणफगादीसु जाणमवी" (भाष्य) अणपज्झो वंधइ अविकोविओवा सेहो अहवा विकोविओवा सेहो । अथवा विकोविओ अप्पज्झो इमेहि कारणेहिं बंधति विसमा अगडि अगणिऊसु मरिज्जिहि । इति दुगादिसणफएणवा माखज्जिहित्ति एवं जाणाणावि वंधइ मुयइ" अर्थात् जहां पशुकी आगमें जल कर गड्ढे में गिर कर या जङ्गली जानवरोंसे मारा. जाकर मर जानेको आशङ्का हो वहां साधु उन्हें बांधते और छोड़ते भी हैं। परन्तु वन्धन गाढ न होना चाहिये। यह ऊपर लिखे हुए भाष्य और चूर्णीका अर्थ है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ सद्धर्ममण्डनम् । यहां वांधे और छोड़े विना त्रस प्राणीकी रक्षा न होनेकी दशामें साधु को उन्हें बांधने और छोड़नेका भी विधान किया है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि निशीथ सूत्रके उक्त मूलपाठमें जहां बांधने और छोड़नेसे अनर्थको सम्भावना है वहीं त्रस प्राणी को बांधने और छोड़नेसे प्रायश्चित्त कहा है परन्तु सप्राणीकी रक्षा या अनुकम्पा करनेसे प्रायश्चित्त नहीं कहा है। इसलिये निशीथ सूत्रके मूलपाठ का नाम लेकर त्रस प्राणी पर अनुकम्पा करने और उन की रक्षा करनेमें पाप वताना अज्ञानियों का कार्य है। __ यदि जीतमलजीके मतानुयायी साधु कहें कि “अपवाद मार्ग में गाय आदि को बांधने और छोड़ने का विधान भाष्य में किया है मूल पाठ में नहीं" तो उनसे कहना चाहिये कि ___ आप लोग अपने जलके पात्रमें पड़ कर शीतसे मूच्छित मक्खी को कपड़े में बांध कर क्यों रखते हैं ? और मूर्छा मिट जाने पर उसे क्यों छोड़ते हैं ? क्योंकि मक्खी भी तो त्रस प्राणी ही है। तथा पागल होने की हालतमें साधुको क्यों बांधते हैं ? क्यों कि साधु भी त्रस प्राणीसे इतर नहीं है अतः निशीथ सूत्रकी चूर्णी और भाष्यमें जो बात कही है उसका आप लोग भी मक्खी आदि तथा साधुओं पर व्यवहार करते हैं परन्तु गाय आदिके विषयमें इसे पाप कहने लगते हैं यह आप लोगोंका अज्ञानके सिवाय और कुछ नहीं है। निशीथ सूत्रकी इस चूर्णीको जीतमलजीने भी प्रमाण माना है उन्होंने लिखा है 'कि “ कोलुण पडियाए" रो अर्थ चूणी में अनुकम्पा करुणाइज कियो छै" (भ्र० पृ० ११६) ___ वही ची कारण पड़ने पर पशुके बन्धन और मोचनका भी विधान करती है इस लिये इस चूर्णी की आधी बात को मानना और आधी नहीं मानना दुराग्रह के सिवाय और कुछ नहीं है। (बोल २८ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ १६८ पर लिखते हैं: “अथ अठे को सुलसानी अनुकम्पाने अर्थे देवकी पासे सुलसाना मुआ बालक मेल्या देवकी ना पुत्र सुलसा पासे मेल्या एपिण अनुकम्पा कहो ए अनुकम्पा आज्ञा मांहे के आज्ञा बाहिरे सावध के निरवद्य छै । एतो कार्य प्रत्यक्ष आज्ञा वाहिरे सावध छै ते कार्यनी देवता ना मनमें उपनी जे ए दुःखिनी छै तो एहने कार्य करी दुःख मेंटू। ए परिणाम रूप अनुकम्पा पिण सावध छै (भ्र० पृ० १६८) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - अनुकम्पाधिकारः। २६९ इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) हरिण गमेसी देवताने अनुकम्पा करके छः बालकोंके प्राण बचाये थे इस अनुकम्पाको सावध कहना अज्ञान है। वे छः ही लड़के चरम शरीरी थे और वे दीक्षा लेकर मोझ गये । यदि हरिण गमेशो उनकी रक्षा नहीं करता तो वे किस तरह बंचते और दीक्षा धारण करके किस प्रकार मोक्ष पाते ? इसलिये हरिण गमेशीने जो बालकों पर अनुकम्पा करके उनके प्राण बचाये थे और सुलसाकी दुःख निवृत्ति की थी उसे सावद्य बताना सर्वथा मिथ्या है। ___उन बालकोंकी रक्षा करने के लिये जो देवताने आने जानेकी क्रिया की थी उस क्रियाका नाम लेकर अनुकम्पाको सावध बताना भी अज्ञान है। आने जानेकी क्रिया दूसरी है और अनुकम्पाका परिणाम दूसरा है अत: आने जानेके कारण अनुकम्पा सावद्य नहीं हो सकती। तीर्थंकरों की वन्दना करनेके लिये देवता लोग आते जाते हैं परन्तु आने जाने से तीर्थंकर को वन्दना सावद्य नहीं होती क्योंकि आने जानेको क्रिया पृथक् है और वन्दना पृथक् है उसो तरह आने जानेकी क्रिया दूसरी है और अनुकम्पा दूसरी है इसलिये आने जाने की क्रियाके सावध होने पर भी अनुकम्पा सावद्य नहीं है। यदि कोई आने जाने की क्रियाके सावध होनेसे अनुकम्पाको सावध माने तो उसे आने जानेके सावध होनेसे तीर्थंकर की वन्दनाको भी सावध कहना चाहिये । परन्तु आने जानेसे यदि तीर्थकरकी वन्दना सावध नहीं होती तो उसो तरह आने जानेसे अनुकम्पा भी सावद्य नहीं हो सकती। हरिण गमेशी की अनुकम्पा का यह फल हुआ कि वे छः ही लड़के कंस के भयसे बच गये । अतः हरिण गमेशीको अनुकम्पाको सावध कहना अज्ञान का परिणाम है। (बोल २९ वां) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १६८ पर अन्तर्गड सूत्रका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं "अथ ईहां कृष्णजी डोकरानी अनुकम्पा करी हस्तिस्कंध बैठा ईट उपाडी तिणरे घरे मूको ए अनुकम्पा आज्ञामें के आज्ञा बाहिरे सावध छै के निरवद्य छै" (भ्र० पृ० १६९) __ इसका क्या समाधान ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० सद्धर्ममण्डनम् । ( प्ररूपक ) श्रीकृष्णजी नेमिनाथजी की वन्दना के निमित्त जा रहे थे रास्ता में उन्होंने जरासे अति दुःख और कांपते हुए एक वृद्धको देखा उसे देख कर कृष्णजीके हृदयमें अनुकम्पा उत्पन्न हुई और उन्होंने अपने हाथोंसे ईंट उठा कर बुढ्ढे के घर पर रक्खा था। यह श्रीकृष्णजीकी अनुकम्पा स्वार्थरहित थी इसे सावद्य सिद्ध करनेके लिये भ्रमविध्वंसनकार की ओर से यह कुहेतु लगाया जाता है कि “ईंट उठा कर रखने की साधु आज्ञा नहीं देते इसलिये श्रीकृष्णजीकी बुड्ढे पर अनुकम्पा सावद्य थी" परन्तु यह बिलकुल अयुक्त है ईंट उठाने की क्रियाके सावध होनेसे अनुकम्पा सावद्य नहीं हो सकती क्योंकि ईंट उठाने की क्रिया भिन्न है और अनुकम्पा भिन्न है, दोनों एक नहीं हैं इसलिये ईंट उठाने की क्रियाके सावद्य होनेसे अनुकम्पा सावध नहीं हो सकती । श्रीकृष्णजी मिनाथजीका दर्शन करने के लिये जत्र इच्छा उत्पन्न हुई तब उन्होंने चतुरंगिणी सेना सजायी थी । उस सेना सजाने रूप काय्र्यकी साधु आज्ञा नही देते परन्तु तीर्थकर के वन्दनको तो अच्छा जानते हैं । वह तीर्थंकरका वन्दन जैसे सेना सजाने रूप काय्यैके साव होने पर भी सावद्य नहीं समझा जाता क्योंकि सेना सजाना दूसरा है और वन्दन करना उससे भिन्न है उसी तरह ईंट उठा कर रखने की आज्ञा साधु नहीं देते परन्तु अनुकम्पा करने की आज्ञा देते हैं अतः ईंट उठाने की क्रिया का नाम लेकर अनुकम्पाको सावद्य बताना मिथ्या है। यदि ईंट उठाने की क्रियाके कराण अनुकम्पा सावध हो तो फिर सेना सजा कर आने जाने की क्रियाके कारण नेमिनाथजी का वन्दन भी सावध होना चाहिये परन्तु जैसे सेना साज कर आने जानेसे वन्दन सावध नहीं होता उसी तरह ईंट उठानेसे अनुकम्पा भी सावद्य नहीं होती । उत्तराध्ययन सूत्रके २९ वें अध्ययनमें वन्दनका फल उच्च गोत्र बांधना कहा है। और भगवती सूत्रमें अनुकम्पाका फल सात वेदनीय कर्मका बन्ध बतलाया है इसलिये ये दोनों ही काय्ये अच्छे हैं अनुकम्पा करना सावध नहीं है अतः बुढ्ढे पर श्रीकृष्णजीकी अनुकम्पाको सावद्य बताना अज्ञानका परिणाम है । ( बोल ३० ) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १६९ पर उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन १२ गाथा ८ को लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं -- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २७१ %3 "अथ अठे हरिकेशी मुनिनी अनुकम्पा करी यो विप्रांने ताड्या ऊंधापाड्या ए अनुकम्पा सावध छै के निरवद्य छै आज्ञामें छै के आज्ञा बाहिरे छै एतो प्रत्यक्ष आज्ञा बाहिरे छै” (भ्र० पृ० १६९) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) उत्तराध्यनन सूत्रकी वह गाथा लिख कर इसका समाधान किया जाता है वह गाथा यह है: "जक्खो तहिं तिदुग रुक्खवासो, अणु कम्पओ तस्स महा मुनिस्स । पच्छाइयत्ता नियग सरीरं . इमाइ वयणाइ मुदाहरित्था ।" (उ० अ० १२ गाथा ८) अर्थ: सिंदुक वृक्षपर निवास करनेवाला उस महा मुनिका अनुकम्पक यानी उनमें भक्तिभाव रखनेवाला यक्ष अपने शरीरको छिपाकर ब्राह्मणोंसे इस प्रकार कहा। यह उक्त गाथाका अर्थ है। इसीका नाम लेकर जीतमलजी और भीषणजी अनुकम्पाको सावध कहते । उनका कहना है कि यक्षने जो ब्राह्मग कुमारोंका ताड़न किया था यह उसकी हरिकेशी मुनिपर मनुकम्पा हुई" परन्तु यह बात मिथ्या है यक्षने मुनिपर अनुकम्पा करके ब्राह्मणों को सदुपदेश दिया था जब वे ब्राह्मग उसे मारने लगे तो उसने भी मारनेके बदलेमें मारा था परन्तु अनुकम्पाके कारण नहीं मारा । मुनिपर अनुकम्पा करके सदुपदेश देनेका शास्त्रमें कथन है मारनेका नहीं वह गाथा यह है : "समणो अहं संजउ वंभयारी, विरओ धण पयण परि ग्गहाओ। पर पवित्तस्सउ भिक्ख काले, अन्नस अट्ठा इह आगओ मि" ॥ वियरिज्जइ, खज्जइ, भुज्जइय, अन्न पभुयं भवयाणमेयं जाणाहिमे जायण जीवणुत्ति, सेसावसेसं लहओ तवस्सी"। (उत्तराध्ययन अ० १२ गाथा ९१०) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ सद्धर्ममण्डनम् । अर्थ : __ मैं श्रमण हूं और संयत यानी सर्व सावद्य योगोंसे हटा हुआ हूं। मैं ब्रह्मचारी और धन, पचन, पाचन, तथा परिग्रहसे रहित हूं, आपके यहां भिक्षाथ भिक्षाके समयमें आया हूं गृहस्थ अपने भोजनार्थ जो अन्न बनाते हैं उसी अन्नको भिक्षाके लिए मैं आया हूं आपके इस यज्ञ स्थान में प्रचुर अन्न दीन अनाथ और दरिद्रोंको दिया जाता है और खाया जाता है तथा खिलाया जाता है यह सब अन्न आप लोगोंका ही है। मैं भिक्षाजीवी तपस्वी हूं इसलिए आपके यहां जो वंचासे भी बंचा हुआ अन्न हो वह मुझे मिलना चाहिए। यहां यक्षने मुनिपर अनुकम्पा करके ब्राह्मणोंसे नम्रतापूर्वक मुनिको भिक्षा देनेका उपदेश दिया है यह उपदेश देना बुरा नहीं किन्तु धर्म है। जैसे कोई पुरुष क्षुधातुर साधुको भिक्षा देनेके लिए लोगोंको उपदेश देवे तो वह बुरा नहीं कहा जा सकता। उसी तरह मुनिको भिक्षा देनेके लिए यक्षका ब्राह्मणोंको उपदेश देना बुरा नहीं है । जब यक्षके उपदेशसे ब्राह्मण लोग न समझे बल्कि और अधिक उत्तेजित होकर मुनिको मारने दौड़े तब यक्षने भी क्रोध करके ब्राह्मणोंको मारा था। यह मारना रूप कायं ब्राह्मणोंपर क्रोध करके यक्षने किया था मुनिपर अनुकम्पा करके नहीं क्योंकि जहां मारने पीटनेकी बात आई है वहां मूल पाठमें यह नहीं कहा है कि यक्षने मुनिपर अनुकम्पा करके ब्राह्मणोंको मारा था अतः यक्षका यह कार्य क्रोधके कारण हुआ था अनुकम्पाके कारण नहीं अनुकम्पा करके उसने ब्राह्मणोंको उपदेश दिया था मारा नहीं था। इसलिए इस मारने रूप कार्यो के सावध होनेपर भी इसके पहले जो यक्षने ब्राह्मणोंको उपदेश दिया था वह सावद्य नहीं हो सकता। जैसे कोई साधु भक्त श्रावक, साधुपर अनुकम्पा करके लोगोंको भिक्षा देनेका उपदेश देवे परन्तु उसके उपदेशसे लोग भिक्षा तो न दें उलटे उत्तेजित होकर मुनिको मारने दोड़ें, यह देखकर साधु भक्त वह श्रावक भी यदि लोगोंको मारे पीटे तो उसके इस कार्यसे उसका पहला कार्य यानी साधुको भिक्षा देने के लिए उपदेश देना बुरा नहीं हो सकता उसी तरह यक्षने जो ब्राह्मणोंको मारा था इससे उसका पहला कार्य यानी मुनि पर अनुकम्पा करके भिक्षा देनेके लिए उपदेश देना बुरा नहीं हो सकता। अत: उत्तराध्ययन सूत्रकी गाथाका नाम लेकर हरिकेशी मुनिपर यक्षकी अनुकम्पा को सावध कहना एकान्त मिथ्या है। (बोल ३१ वां समाप्त) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २७३ (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १७० पर ज्ञाता सूत्रका मूल पाठ लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं "अथ ईहां धारणी राणी गर्भनी अनुकम्पा करी मन मंगता माहार जीम्या ए अनुकम्पा सावध छै के निरवद्य छै एतो प्रत्यक्ष आज्ञा बाहिरे छे" (भ्र० पृ० १७० ) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भ्रमविध्वंसन कारने जनताको भ्रममें डालनेके लिए साता सूत्रका मूल पाठ अपूर्ण लिखा है इसलिए उसका पूरा पाठ और अर्थ लिखकर इसका समाधान किया जाता है। वह पाठ यह है "तएणं साधारणी देवोतंसि अकालदोहलंसि विणियसि सम्माणियदोहला तस्त गम्भस्स अणुकम्पणट्टयाए जय चिट्ठइ जय आसह जय सुवइ आहारं पियणं आहारेमाणी नोइतित्तं नाइ कहु नाइ कसायं नाइ अंविलं णाइ महुर जं तस्स गन्भस्स हियं :मियं पत्थं तं देसेय कालेय आहारं आहारेमाणी णाइचिन्तं गाइ सोगं गाहदेण्णं णाइ मोहं गाइ भयं णाइ परितासं ववगयचिन्तासोगमोह भयपरित्तासा भोयणछायणगन्धमल्लालंकारेहितं गम्भं मुखं सुखेम बहति" (ज्ञाता अ० १) अर्थ: इसके अनन्तर वह धारिणी रानी अकाल दोहदको पूर्ण करके गर्भकी अनुकम्पाके लिये जयणाके साथ खड़ी होती थी। जयणाके साथ बैठती थी। जयणाके साथ सोती थी। मेधा और आयुको बढ़ाम वाला इंन्द्रियों के अनुकूल नीरोग और देशकालके अनुसार न अति तिक्क न अति कटु न अति कषाय म अति माम्ल (खाट्टा) न अति मधुर किन्तु उस गर्भके हितकारक, परिमित, तथा पथ्य आहार खाती थी और अति चिन्ता, अति शोक, अति दीनता, अति मोह अति भय तथा अति परित्रास नहीं करती थी। चिन्ता, शोक, मोह, भय और परित्रास से रहित हो कर भोजन, आच्छादान, गन्धमाल्य और अलङ्कारों से युक्त होकर सुखपूर्वक उस गर्नको पहन करती थी। यह ज्ञाता सूत्रके उक्तपाठका अर्थ है। इसी पाठका नाम लेकर जीतमल भी कहते हैं कि धारिणीने गर्भ पर अनुकम्पा करके मनवान्छित आहार खाया था परन्तु इस पाठमें मनवांछित आहार खाना नहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । बल्कि मनवांछित आहार छोड़ना लिखा है तथा गर्भ के हितकारक आहार खाना लिखा है इसलिये “धारिणीने गर्भ पर अनुकम्पा करके मनवांछित आहार खाया था" यह जीतमजीकी प्ररूपणा इस मूलपाठसे प्रत्यक्ष विरुद्ध है । २७४ इस पाठमें गर्भ पर अनुकम्पा करके धारणीसे अजयणाका त्याग किया जाना लिखा है तथा चिन्ता शोक मोह और भयको छोड़ देना लिखा है अतः तेरह पन्थियोंसे पूछना चाहिये कि धारिणीने गर्भ पर अनुकम्पा करके जो अजयणाका त्याग किया था तथा चिन्ता शोक मोह और भय आदि छोड़ दिये थे यह अच्छा किया था या बुरा किया था ? यदि अच्छा किया था तो धारिणीकी गर्भ पर अनुकम्पा वुरी कैसे हुई ? इस पाठ स्पष्ट लिखा है कि धारिणीने गर्भ पर अनुकम्पा करके मोह छोड़ दिया था तथापि जीतमलजी धारिणीको गर्भानुकम्पाको मोह अनुकम्पा बतलाते हैं यह इनका महान् अज्ञान है जिस अनुकम्पाके होनेसे मोह छोड़ दिया जाता है वह अनुकम्पा खुद ही मोह अनुकम्पा हो यह किस प्रकार हो सकता है ? इस पाठ कहा है कि “धारिणी रानी गर्भ पर अनुकम्पा करके गर्भका हितकारक आहार खाती थी" इस आहार खानेका नाम लेकर गर्भकी अनुकम्पा को सावध कहना भी अज्ञान है क्योंकि गर्भका आहार गर्भवती के आहारके आधीन है यदि गर्भवती आहार न करे तो उसके गर्भका भी आहार बन्द हो जाता है और आहार बन्द होने से वह गर्भ मर सकता है ऐसी दशामें आहार नहीं करनेवाली गर्भवतीको गर्भ हिंसा का पाप लग सकता है उस गर्भ हिंसाकी निवृत्ति और गर्भरक्षा के लिये धारिणीका भोजन करना भी एकान्त पापमें नहीं है गवती श्राविका यदि भोजन न करे तो उसके पहले व्रतमें अतिचार आता है क्योंकि अपने अश्रित प्राणीको भूखा मारना पहले व्रतका अतिचार है परन्तु निद्द य जीव इतना भी नहीं सोचते वे गर्भवतीको उपवास करनेका उपदेश देते हैं और गर्भ पर दया न करने को धर्म मानते हैं वे प्रत्यक्ष ही शास्त्रविरुद्ध कार्य करा कर गर्भ हिंसा के समर्थक बनते हैं । भगवती सूत्र शतक १ उद्देशा ७ में साक्षात् तीर्थकरने कहा है कि “माताके आहारसे गर्भको व्यहार मिलता है" अतः जो गर्भवतीका आहार छुडाते हैं वे गर्भस्थ बालकको भूखा मारते हैं परन्तु सम्यग्दृष्टि मनुष्य कदापि गर्भको दुःख नहीं देते उस पर अनुकम्पा रखते हैं । 1 यह बात केवल गर्भके लिये ही नहीं किन्तु अपने आश्रित द्विपद चतुष्पद आदि प्राणियों को भी सम्यग्दृष्टि भूखा नहीं रखते। उनपर अनुकम्पा करते हैं नहीं तो उनके पहले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः । व्रतमें अतिचार आता है अतः धारिणी रानीकी गर्भानुकम्पाको मोह अनुकम्पा और सावद्य अनुकम्पा बताना अज्ञानियोंका कार्य्य है । ( बोल ३२ वां समाप्त ) २७५ ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १७१ पर ज्ञाता सूत्र अध्ययन १ का मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं "अथ इहां अभयकुमारनी अनुकम्पा करी देवता मेह वरसायो, ए पिण अनुकम्पा कही ते सावद्य छै के निरवय छै एतो प्रत्यक्ष आज्ञा बाहिरे छै" (भ्र० पृ० १७१ ) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक ) अभयकुमारने तीन दिन तक उपवास किया था और ब्रह्मचर्य धारण पूर्वक तीन दिन तक बैठा रहा । उसका कष्ट देख कर देवताके हृदयमें अनुकम्पा उत्पन्न हुई तथा अभयकुमारका जीवके साथ उस देवता के पूर्वजन्ममें जो स्नेह, प्रीति, ओर बहुमान थे उनका स्मरण करके उसके हृदयमें क्षोभ उत्पन्न हुआ था । मूलपाठमें यही बात कहीं है अनुकम्पा लाकर पानी वरसाना नहीं कहा है परन्तु जीतमलजी अनुकम्पा लाकर पानी वरसानेकी बात कहते हैं इनकी यह बात मिथ्या है मूलपाठमें पानी बरसानेका कारण अनुकम्पा नहीं किन्तु प्रीति कही गयी है । यह मूल पाठ लिख कर स्पष्ट किया जाता है:"अभयकुमार मणुकम्पमाणे देवे पूर्व्वभव जणिय नेहपीई वहुमान जाय सोगे" ( टीका ) हा ! तस्य अष्टमोपवास रूपं कष्ट विद्यते इति विकल्पयन् " अर्थात् मेरे मित्रको अनुमोपवास जनित कष्ट हो रहा है यह सोचते हुए उस देवताके हृदयमें पूर्वजन्मकी प्रीति स्नेह बहुमान ( गुणानुराग) के स्मरण होनेसे मित्र विरह रूप खेद उत्पन्न हुआ । यहां अनुकम्पा करके पानी वरसाना नहीं लिखा है आगे चल कर मूलपाठमें पानी बरसाने की बात आई है वहां प्रीतिके कारण पानी बरसाना कहा है अनुकम्पा के कारण नहीं वह पाठ यह है "अभयं कुमारं एवं वयासी एवं खलुदेवाणुपिया ! मए तव प्पियट्टयाए सगज्जिया सफुसिया सविज्जुया दिव्बा पाउससिरी विउच्चिया " ( ज्ञाता अ० १ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम अर्थः अर्थात् देवताने अभयकुमारसे कहा कि हे देवानुप्रिय ! मैंने तुम्हारे प्रमके लिये गर्जन विद्युत और जलविन्दु पातके साथ दिव्य वर्षाऋतुकी शोभा उत्पन्न की है। यहां अभयकुमारकी प्रीतिके लिये मेह बरसाना कहा है अनुकम्पाके लिये नहीं अत: अनुकम्पासे मेह बरसानेकी बात मूलपाठसे विरुद्ध है। जैसे गुणोंमें प्रेम रखने वाले देवता तप और संयमसे युक्त मुनि पर अनुकम्पा करके उत्तर वैक्रिय शरीर बना कर उनके दर्शनार्थ हर्षके साथ आते हैं और उन देवताओं के गुणानुराग और मुनि पर अनुकम्पा तथा साधु दर्शनको शास्त्रकार वैक्रिय शरीर बनाने और आने जानेकी क्रिया करनेसे बुरा नहीं किन्तु उत्तम बतलाते हैं क्योंकि गुणानुराग, अनुकम्पा और साधु दर्शन भिन्न हैं और उत्तर वैक्रिय शरीर बनाना तथा आना आदि भिन्न हैं उसी तरह आने जाने आदिकी क्रियायें भिन्न हैं और अनुकम्पा भिन्न है इस लिये आने जाने आदि क्रिया के सावध होने पर भी अनुकम्पा सावद्य नहीं होती अत: अभय कुमार पर देवता की अनुकम्पा को सावय कहना अज्ञान का परिणाम है। __ (बोल ३३ समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन १७१ पर ज्ञाता सूत्र अध्ययन ९ का मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं "अथ इहां रयणा देवींरी अनुकम्पा करी जिन ऋषि साहमो जोयो एपिण अनुकम्पा कही ए अनुकम्पा मोह कमरा उदयथी के मोह कमरा क्षयोपशम थी ए अनुकम्पा सावय छै के निरवद्य छै आज्ञामें छै के आज्ञा बाहिरे छै विवेक विलोचने करी विचारी जोयजो" (भ्र० पृ० १७१) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) जिन ऋषिने रयणा देवी पर अनुकम्पा करके उसे देखा था यह भ्रमविध्वंसनकारकी बात बिलकुल झूठी और मूलपाठसे विरुद्ध है। वहां मूल पाठमें अनुकम्पाका नाम नहीं है वहां यह पाठ आया है "समुप्पन्न कलुणभावं" इस पाठमें जो "कलुग" शब्द आया है वह अनुकम्पा अर्थमें नहीं है क्योंकि रयणा देवी पर जिन ऋषिकी अनुकम्पा उत्पन्न होने का Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। कोई कारण न था किन्तु प्रियाके वियोगसे जो करुण नामक एक रस उत्पन्न होता है उसकी वहां सामग्री पूर्णरूपसे मौजूद थी इसलिये रयणा देवीके प्रति जिन ऋषिका करुण रस ही उत्पन्न हुआ था अनुकम्पा नहीं अतः उक्त पाठमें आया हुआ "कलुण" शब्द करुणरसका ही वोधक है अनुकम्पाका नहीं। ज्ञाता सूत्रके मूल पाठमें साफ साफ लिखा है कि रयणा देवीके विचित्र हाव भाव मौर कटाक्ष तथा सुरत सुखको स्मरण करके तथा उसके मनोहर शब्द और भूषणोंकी मधुर ध्वनि सुन कर जिन ऋषिके हृदयमें करुण भाव उत्पन्न हुआ था इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि जिन ऋषिका रयणा देवीके ऊपर करुण रस उत्पन्न हुआ था अनुकम्पा नहीं क्योंकि अपनी प्रियाके हाव भाव कटाक्ष और सुरत सुखके स्मरण करनेसे और उसके मनोहर वाक्य तथा भूषणोंकी ध्वनि सुननेसे करुण रस ही उत्पन्न होता है अनुकम्पा नहीं उत्पन्न होती है। वह ज्ञाता सूत्रका पाठ यह है : "ततेणं से जिण रक्खिए चलमणे तेणेव भूसणरवेणं कण्णसुह मनोहरेणं तेहिंय सप्पणय सरल महुर भासिएहिं संजायविउलराए रयण देवीस्स देवयाए तोसे सुन्दर थण जहण वयण कर चरण नयन लावण्णरूप जोवण सिरींचदिव्वं सरभस उवाहियाई जाति विव्वोय विलसिताणिय विहसिय सकडक्खदिट्ठी निस्ससिय मलिय उपललिय ठियगमण पणयखिज्जिय पासादियाणिय सरमाणे राग मोहियमह अवसे कम्मवसगए अवयकूखति मग्गतो सविलियं । ततेणं जिणरक्खियं समुप्पन्नकलुण भावं मच्चुगल्लत्थल्लणोल्लियमई अवयक्वंतं तहेव जक्खेय सेलए जाणिउण सणिणं सणियं उब्धिहति नियग पिटाहिं विगयसत्यं । ततेणं सा रयण दीव देवता निस्संसा कलुणं जिण रक्सियं सकलुसा सेलग पिट्टाहिं उवयंतं दास ! मओसोत्ति जम्पमाणो अप्पत्तं सागर सलिलं गेण्हिय वाहाहि आरसंतं उड्ढं उब्विहति अंवर तले ओवयमाणंच मंडलग्गेणं पडिच्छित्ता नीलुप्पणधवल अयसिप्पगासेण असिवरेण खडाखडिं करेति" (ज्ञाता अ०९) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ सद्धर्ममण्डनम् । अर्थ : इसके अनन्तर उस जिन रक्षितका मन रयणा देवीके ऊपर चलायमान हो गया। रयणा देवीके कर्ण मनोहर भूषण शब्द, और प्रेम सहित सरल मृदु भाषणसे जिन रक्षितका राग (मोह) रयणा देवी पर पहलेसे भी ज्यादा बढ़ कर द्विगुण हो गया। रयणा देवीके सुन्दर स्तन, जघन, मुख, कर चरण और नयनोंके लावण्यको तथा उसके शरीरकी सुन्दरता दिव्य यौवनकी शोभा हर्षके साथ आलिङ्गन करना स्त्री चेष्टा विलास मधुर हास्य सकटाक्ष दर्शन निःश्वास सुखद अंग स्पर्श रति कूजित अंक तथा आसनादि पर बैठना हंसवत् गमन प्रणय क्रोध और प्रसन्नताको स्मरण करके वह जिन रक्षित रयणा देवी पर मोहित हो गया घह अपने वशमें नहीं रह सका। वह जिन रक्षित अवश और कर्म वशीभूत होकर पीछेसे आती हुई रयणा देवीको लजाके साथ देखने लगा। इसके अनन्तर प्रियाके वियोगसे जिसको करुण रस उत्पन्न हो गया था और मृत्युसे जिसका गला पकड़ लिया गया था जो यमपुरो जानेके लिये तत्पर हो गया था जो रयणा देवीको प्रेम सहित देख रहा था ऐसे जिन रक्षितको उस शैलक यक्षने धीरे धीरे अपने पृष्ठसे नीचे गिरा दिया। इसके अनन्तर मनुष्योंका घात करने वाली छपसे पूर्ण हृदय पाली उस स्यणा देवीने शैलक यक्षके पृष्ठसे गिरते हुए करुणारससे युक्त उस जिन रक्षितको अरे दास ! मरा ऐसा कहती हुई समुद्र में पहुंचनेके पहले ही अपनी भुजाओंसे ऊपर आकाशमें फेंक दिया पश्चात् अपने तीक्ष्ण शूलके ऊपर उसे रोप कर तीक्ष्ण तलवारसे खण्ड खण्ड कर डाला । यह ज्ञाता सूत्रके ऊपर लिखे हुए मूल पाठका अर्थ है। यहां साफ साफ लिखा है कि रयणा देवीके भूषणोंके मनोहर शब्द और उसके कर्णमधुर वाक्योंको सुनकर जिन रक्षितका राग रयणा देवीके ऊपर पहलेसे भी अधिक हो गया तथा रयणा देवीके शरीरको सुन्दरता और स्तन जघन मुख आदि अंगोंको देख कर जिन रक्षित उसके ऊपर मोहित हो गया। मोहित होकर जिन रक्षित रयणा देवीकी मोर देखने लगा । यहां रवणा देवी पर मोहित होकर जिन रक्षितका उसकी ओर देखना कहा है अनुकम्पाके कारण देखना नहीं कहा है। अत: जिन रक्षितका रयणा देवीके ऊपर मोह उत्पन्न हुआ था अनुकम्पा नहीं उत्पन्न हुई थी इस पाठमें जो "समुप्पन्न कलुणभावं" यह जिन रक्षितका विशेषग आया है इसका अर्थ भी रयणा देवीके ऊपर प्रिय वियोगसे उत्पन्न होने वाला करुण रसका उत्पन्न होना ही है अनुकम्पा होना नहीं। अनुयोग द्वार सूत्रमें प्रियके वियोगसे करुण रसको उत्पत्ति बताई है वह पाठ यहां लिखा जाता है "नव कव्व रसा पण्णत्ता तंजहा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः । "वीरो सिंगारो अब्भुओ रोद्दो होइ बोद्धव्वो । वेलणओ वोभच्छो हासो को पसंतो अ" (अनुयोग द्वार सूत्र ) २७९ अर्थ : नौ प्रकारके काव्य रस होते हैं वे ये हैं- (१) वीर (२) श्रृंगार (३) अद्भुव ( ४ ) रौद्र (५) ब्रीडनक ( ६ ) वीभत्स (७) हास्य (८) करुण (९) प्रशान्त । यहां करुण नामक एक रस बताया गया है उसकी उत्पत्तिका कारण भी इसी tre मूलपाठ में कहा है । वह पाठ यह है : "पिय विपयोग बंध वह वाहि विणिवाय सम्भमुत्पन्नो । सोइय विविध अपम्हाण रुग्ण लिंगो रसो वरुणो" करुणो रसो जहा"पजज्ञाय किलामिअयं वाहागयपच्युअच्छियं वसो । तरसवियोगे पुत्तिय दुब्बलयंते मुह जायं" ( अनु० गाथा १६/१७ ) अर्थ : प्रिय साय वियोग होने से तथा वन्धन वध, व्याधि, पुत्रादि मरण और पर राष्ट्रके भय होनेसे कहा रस उत्पन्न होता है । चिन्ता करना विलाप करना उदास होना सेवी होना इसके लक्षण हैं। इसके उक्षहरण की गाथाका यह अर्थ है प्रिय वियोग से दुःखित बालासे कोई बुद्धा स्त्री कहती है कि हे पुत्रि ! अपने प्रियकी अत्यन्त चिन्ता करनेसे तुम्हारा मुख खिन्न हो गया है और अविरल अश्रु धारासे तुम्हारी आखें सदा भरी रहती हैं। यहां प्रियके वियोग से करुण रसकी उत्पत्ति क्ता कर प्रियके कियोनसे अत्यन्त दुःखित बालाका उदाहरण दिया है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि रयगा देवीके वियोग से जिन ऋषिके हृदय में करुण रस उत्पन्न हुआ था अनुकम्पा उत्पन्न नहीं हुई थी । यतः रयणा देवीके ऊपर जिन ऋषिके करुण रसको अनुकम्पा कायम करके मनुकम्पाको सावद्य बताना अज्ञानियों का कार्य्य है । बोल ३४ व ( प्रेरक ) भ्रम विध्वंसन कार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ १७५ के ऊपर राज प्रहनीय सूत्रका मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं : Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० सद्धर्ममण्डनम् । "अथ अठे सूर्याभरी नाटक रूपभक्ति कही तेहनी भगवान आज्ञा न दी थी अनुमोदना पिण न कीधी । अने सूर्याभ वन्दना रूप सेवा भक्ति की धी तिहां एहवो पाठ छै। "अब्भगुणगाण मेयं सुरियामा" एवन्दनारूप भक्तिरी म्हारी आज्ञा है इम आज्ञा दीधी अने नाटक रूपभक्ति सावद्य छै ते मांटे आज्ञा न दी धी अनुमोदना पिण न की धी जिम सावध निरवद्य भक्ति छै तिम अनुकम्पा पिण सावध निरवद्य छ । कोई कहे सावद्य अनुकम्पा किहां कही छै तेहणो कहिणो सावध भक्ति किहां कही छै" इसका क्या समाधान ? (भ्र० पृ० १७५) (प्ररूपक) राज प्रश्नीय सूत्रका मूल पाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है "तएणं से सूरियाभे देवे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं बुत्ते समाणे हह तुह चित्त माणं दिए परम सोमणो समणं भगवं महावोरं वंदति नमंसति एवं वयासी तुब्भेणं भन्ते ! सबंजाणह सलं पासह सलां कालं जाणह सां कालं पासह सव्वे भावे जाणह सव्वे भावे पासह जाणंतिणं देवाणुप्पिया! मम पुविंवा पच्छावा ममेयरूवं दिव्वंदेविड्ढिं दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभागं लद्ध पत्तं अभिसमण्णागयं चेति तं इच्छामिणं देवाणुप्पियाणं भत्तिपुव्वगं गोतमातियोणं समणाणं निग्गंथाणं दिव्वं देविष्टि दिव्वं देवजुई दिव्वं देवाणुभागं दिब्वं वत्तीसति वद्ध नविहि उवदंसित्तए । तएणं समणे भगवं महावीरे सूर्याभेणं देवेणं एवं बुत्ते समाणे सूरियाभस्स देवस्त एयमर्छनो आढाति नोपारिजाणाइ तुसिणिए संचिटई" (राज प्रश्नीय सूत्र) अर्थ :__ श्रमण भगवान् महावीर स्वामीसे इस प्रकार कहा हुआ सूर्याभ देवता हृष्ट तुष्ट और आनन्दित चित्त होकर भगवान्की बन्दना नमस्कार करके कहने लगा कि हे भगवन् ! आप सब कुछ जानते और देखते हैं । आप सब कालको सब भावोंको जानते और देखते हैं। तथा इस प्रकार की दिव्य देव ऋद्धि देव द्युति और दिव्य देव प्रभाव मुझको सर्वदा प्राप्त है यह भी आप जानते हैं इस लिये आपकी भक्ति पूर्वक मैं गौतमादि निग्रन्थोंको दिव्य देव ऋद्धि, दिव्य देव घुति, दिव्य देव प्रभाव और बत्तीस प्रकारकी नाटक विधि दिखलाना चाहता हूं। यह सुन कर भगवान महा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ % 3D अनुकम्पाधिकारः। ___ २८१ वीर स्वामीने सूर्याभके कथनका आदर नहीं किया । अनुमोदन भी नहीं किया किन्तु मौन धारण कर लिया। यह ऊपर लिखे हुए पाठका अर्थ है। ___ इस पाठमें सूर्याभने भक्तिपूर्वक नाटक दिखानेकी बात कही है भक्ति को ही नाटक नहीं कहा है यदि नाटक ही भक्ति होता तो इस पाटमें “भति पुवर्ग" की जगह "भत्ति रूपं" ऐसा नाटकका विशेषग आता परन्तु वह नहीं होकर जो यहां "भत्ति पुब्वगं" यह पाठ आया है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि नाटक दूसरी चीज है और भगवानकी भक्ति दूसरी है, ये दोनों एक नहीं हैं। वीतरागमें परमानुराग रखना वीतरागकी भक्ति है और वेष भाषा और भूषाके द्वारा किसी उत्तम पुरुषका अनुकरण करना नाटक है। ये दोनों भिन्न पदार्थ हैं एक नहीं हैं। नाटकके आरम्भमें विन निवारणके लिये नट लोग भगवान की भक्ति करते हैं यदि नाटक ही स्वयं भक्ति स्वरूप होता तो नाटकके पूर्व में भक्ति करने की क्या आवश्यकता थी। रागादिवासनाके उदयसे नाटक किया और देखा जाता है परन्तु वीतरागकी भक्ति, रागके क्षयोपशम आदि होनेसे की जाती है इसलिये भगवद्भक्ति और नाटक दोनों एक पदार्थ नहीं हैं। भगवान्ने भक्ति करनेकी आज्ञा दी थी परन्तु नाटककी आज्ञा नहीं दी इसलिये भक्ति और नाटक भिन्न भिन्न पदार्थ हैं एक नहीं हैं। अतः नाटकका ही भक्ति कायम करके उसे सावध सिद्ध करनेकी चेष्टा करना अज्ञान है। इस पाठकी टीकामें टीकाकारने लिखा है कि नाटक स्वाध्याय का विघातक है और भगवान् महावीर स्वामी वीतराग थे इसलिये भगवानने नाटक करनेको आज्ञा नहीं दी। यदि नाटक ही भक्ति होता तो टीकाकार स्पष्ट लिख देते कि नाटकरूप भक्ति सावध है इसलिये भगवान्ने उसकी आज्ञा नहीं दी थी। देखिये वह टीका यह है ___ततः श्रमणो भगवान् सूर्याभेग एवमुक्तः सन् सूर्याभस्य देवस्यैन मनंतरो दितमर्थ नाद्रियते नतदर्शकरणायादरपरोभवति नापि परिजानाति, अनुमन्यते स्वतो वीतरागत्वात् गोतमादीनांच नाट्य विधेः स्वाध्यायादि विघात कारित्वात् । केवलं तुष्गीकोऽवतिष्ठते"। अर्थात् सूर्याभदेवके इस प्रकार कहने पर भगवान महावीर स्वामीने उसके कथनका आदर नहीं किया और उसका अनुमोदन भी नहीं किया। भगवान स्वयं वीतराग थे और नाटक गोतमादि मुनियोंके स्वाध्यायका विघातक था। अतः भगवान इस विषयमें मौन रहे। यहां टीकाकारने नाटककी आज्ञा न देनेका कारण भगवान का वीतराग होना, और नाटकका गोतमादिके स्वाध्यायका विघातक होना बतलाया है परन्तु वीतराग की Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ सधममण्डनम् । % 3D भक्तिका सावध होना कारण नहीं बतलाया है अत: नाटकको भक्ति मान कर उसकी आज्ञा न देनेसे वीतरागकी भक्तिको सावध कायम करना अज्ञानका परिणाम है। यदि नाटक भक्तिस्वरूप होता तो मूलपाठमें "भक्ति पूवर्ग" यह पाठ न होकर "भत्ति रूवं" यह पाठ आता और टीकाकार नाटककी आज्ञा न देनेका कारण भक्तिका सावध होना बतलाते परन्तु टीकाकारने भक्तिको सावद्य नहीं कहा है और मूलपाठमें नाटकको भक्तिरूप नहीं कहा है अतः राजप्रश्नीय सूत्रके उक्त मूलपाठके आधार पर वीतरागकी भक्तिको सावध कहना अज्ञानका परिणाम है। (बोल ३५ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १७६ पर उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन १२ के ३२ वीं गाथाको लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि - "अथ अठे हरिकेशी कह्यो ए छात्राने हण्या ते यक्षे व्यावच की धी छै पर म्हारो दोष तीन ही कालमें न थी इहां व्यावच कही ते सावध छै आज्ञा वाहिरे छै अने हरि केशी मुनिने अशनादिक दान रूप जे व्यावच ते निरवद्य छै तिम अनुकम्पा पिण सावद्य निरवद्य छै" (भ्र० पृ० १७६) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) यक्षने ब्राह्मण कुमारोंको जो मारा था उसे मुनिका व्यावच कहना मिथ्या है क्योंकि व्यावच दूसरी वस्तु है और मारना दूसरा है। मारना ही व्यावच नहीं है अतएव गाथामें कहा है कि "इसिस्स वेयावडियट्ठयाए जक्खा कुमारे विणिवारयन्ति" अर्थात् ऋषिका व्यावच करनेके लिये यक्ष, ब्राह्मण कुमारोंका निवारण करने लगे। यहां व्यावचके लिये मारना कहा है परन्तु मारनेको ही व्यावच नहीं कहा है इस लिये मारनेको ही व्यावच बतलाना मिथ्या है। जैसे भगवान महावीर स्वामीका वन्दन करनेके लिये जहां देवताओंने वैक्रिय समुद्घात किया है वहां “वन्दन वत्तियाए" यह पाठ आया है उसी तरह यहां भी "वेयावडियठ्याए" यह पाठ आया है अतः जैसे भगवान का वन्दन करनेके लिये देवताओंसे किया हुआ वैक्रिय समुद्घात वन्दन स्वरूप नहीं किन्तु उससे भिन्न है उसी तरह मुनिका व्यावचके लिये यक्षोंसे किया हुआ ब्राह्मण कुमारोंका ताड़न भी व्यावच स्वरूप नहीं किंतु उससे भिन्न है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः । २८३ तथापि यदि कोई हठ करके "वेयावडियठ्ठयाए” यह पाठ देख कर मारने को ही व्यावच कहे तो फिर उसे वन्दनके निमित्त किया जाने वाला वैक्रिय समुद्रघातको भी वन्दन स्वरूप ही मानना पड़ेगा और भगवान्‌का वन्दन भी वैक्रिय समुद्घात स्वरूप होने कहना पड़ेगा | परन्तु वैक्रिय समुद्घातको यदि वन्दन स्वरूप नहीं मान कर उसे वन्दनसे भिन्न मानते हो तो उसी तरह व्यावचको भी मारनेसे भिन्न ही मानना पड़ेगा एक नहीं मान सकते । से उत्तराध्ययन सूत्रकी गाथामें भी मुनिने ब्राह्मणोंसे यही कहा है कि "यक्ष मेरा व्यावच करते हैं' परन्तु यक्षोंने जो ब्राह्मण कुमारों को मारा था उसे ही मुनिने अपना व्यावच नहीं कहा था । देखिये, उत्तराध्ययनकी गाथा यह है: “पुव्विंच इहिंच अनागयंच मनप्पदोसो नमे अत्थिकोई । क्खाहु वेयावडियं करेति तम्हाहु ए ए निहया कुमारा" ( उत्तरा० अ० १२ गाथा ३२ ) अर्थात् आप लोगोंके प्रति मेरे मनमें न कभी द्वेष था और न है और न होगा । यक्ष मेरा व्यावच करते हैं इसलिये ये लड़के मारे गये हैं। यह उक्त गाथा अर्थ है । यहां मुनिने यही कहा है कि यक्ष मेरा व्यावच करते हैं परन्तु यज्ञोंने जो air कुमारों को मारा है यह मेरा व्यावच है ऐसा नहीं कहा, इसलिये मारने को ही व्यावच मानना अज्ञान है । यद्यपि यक्षोंने मुनिका व्यावच करनेके लिये ही ब्राह्मग कुमारोंका ताडन किया था तथापि जैसे तीर्थङ्करकी वन्दनाके लिये देवताओंसे किया हुआ वैक्रिय समुद्घात वन्दनसे भिन्न है उसी तरह मुनिका व्यावचके लिये किया हुआ ब्राह्मग कुमारों का ताडन भी व्यावचसे भिन्न है । आज कल भी श्रावक लोग मुनियोंका दर्शन करनेके लिये रेलगाड़ी घोड़ा गाड़ी मोटर गाड़ी आदि विविध बाहनों में बैठ कर दूर दूरसे मुनियोंके पास आते हैं । उनका आना मुनियोंका वन्दनके लिये ही होता है परन्तु जैसे आने जाने रूप क्रिया मुनिका वन्दन भिन्न है उसी तरह हरि केशी मुनिका व्यावचके लिये यक्षोंके द्वारा ब्रह्म कुमारोंका ताडन भी व्यावचसे भिन्न है अतः मुनिके वन्दनके समान ही मुनिका व्यावच भी निरवद्य है सावद्य नहीं है । यदि कोई कहे कि “मुनिका वन्दन तो अपने लिये किया जाता है परन्तु व्यावच अपने लिये नहीं मुनिके लिये किया जाता है इस लिये व्यावच और वन्दन दोनों समान नहीं हैं" तो उसे कहना चाहिये कि व्यावच भी वन्दनके समान अपने लिये ही किया जाता है और उस व्यावचसे जो निर्जरा होती है वह भी व्यावच करनेवाले को ही Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ सद्धममण्डनम् । होती है अतएव वारह प्रकारकी निर्जराओंमें व्यावच को भी गिनाया है। मुनि तो व्यावच का एक साधन मात्र हैं अतः मुनिका व्यावच भी मुनि वन्दनके समान ही निरवद्य है और वह अपने लिये ही किया जाता है। जैसे वन्दनके लिये की जाने वाली जाने आनेकी क्रिया वन्दनसे भिन्न है उसी तरह मुनिका व्यावचके लिये की जाने वाली क्रिया भी व्यावचसे भिन्न है अतः यक्षोंने हरिकेशी मुनिका व्यावच करनेके लिये जो ब्राह्मण कुमारोंका ताडन किया था उसे मुनि का व्यावच स्वरूप कायम करके सावध बताना और उस के दृष्टान्त से अनुकम्पा को भी सावध कहना अज्ञानियों का कार्य समझना चाहिये। (बोल ३६ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १७७ के ऊपर लिखते हैं "वली केतला एक कहे-गोशालाने भगवान बंचायो ते अनुकम्पा कही छै ते मांटे धर्म छै" तेहनो उत्तर-जो ए अनुकम्पामें धर्म छै तो अनुकम्पा घणे ठीकाने कही छै' . इत्यादि लिख कर बूढ पर कृष्णजीकी और सुलसापर हरिण गमेशी आदि की अनुकम्पाका दृष्टान्त देकर गोशालक पर भगवान की अनुकम्पाको सावद्य बतलाते हैं। इसका क्या समाधान ? . (प्ररूपक) भगवान महावीर स्वामीने गोशालक पर अनुकम्पा करके उसके प्राण बचाये थे इस अनुकम्पाको सावध कहना अनुकम्पाके साथ द्रोह करने वालोंका कार्य है। प्रश्नव्याकरण सुत्रके मूलपाठका प्रमाण दे कर यह बतलाया जा चुका है कि मरते जीव पर दया करके उसकी प्राणरक्षा करना जैनागमका प्रधान उद्देश्य है अतः गोशालकपर अनुकम्पा करके भगवान ने उसके प्राण बचाये थे। इस कार्यको सावध कहना अज्ञानका परिणाम है। यदि कोई कहे कि गोशालकको बचानेके लिये भगवान को शीतललेश्या प्रकट करनी पड़ी थी और शीतललेश्या प्रकट करनेसे जीवोंको विराधना होती है इसलिये भगवान की यह अनुकम्पा निरवद्य नहीं कही जा सकती किन्तु यह सावध है" तो उसे कहना चाहिये कि शीतल लेश्यासे जीवोंको विराधना नहीं प्रत्युत उससे जीवरक्षा होती है इस लिये शीतल लेख्याका नाम लेकर भी गोशालक पर भगवान की अनुकम्पा को Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २८५ सावध कहना अज्ञान है। शीतललेश्यासे जीवकी विराधना नहीं होती यह बात विस्तार के साथ लब्धि प्रकरणमें चल कर बतलाई जावेगी। ___ कृष्णजीने बूढ़े पर जो अनुकम्पा की थी वह भी सावद्य नहीं है। यद्यपि अनुकम्पाके लिये कृष्णजीने बढ़ेको ईट उपाडी थी परन्तु ईट उपाडनेकी क्रिया न्यारी और अनुकम्पा न्यारी चीज है इस लिये ईट उपाडने रूप का-के सावध होने पर भी अनुकम्पा सावध नहीं हो सकती। यह बात विस्तारके साथ पहले बतला दी गई है अत: कृष्णजी आदिकी अनुकम्पाके उदाहरणसे गोशालक पर भगवान्की अनुकम्पाको सावध बताना अज्ञान मूलक ही है। (बोल ३७ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसन कार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ १७८ पर लिखते हैं : "एकार्यनी मनमें अपनी हियो कम्पायमान हुवो ते मांटे ए अनुकम्पा पिण सावध छै । इहां अनुकम्पा अने कार्य संलग्न छै । जे कृष्णजी ईट उपाही ते अनुकम्पाने अर्थे "अनुकम्पणट्ठयाए” एहवू पाठ कयो छ । ते अनुकम्पाने अथें ईट उपाडी मूकी ते मांटे एकार्याथी अनुकम्पा संलान छै एकार्य रूप अनुकम्पा सावध छ । इम हरिण गमेशी तथा धारिणी अनुकम्पा की धी तिहां पिग "अनुकम्पट्ठयाए” पाठ कह्यो ते मांटे ते अनुकम्पा पिण सावध छ । जिम भगवती शतक ७ उद्दे शा २ कह्यो “जीवो दवट्ठयाए सासए भावट्ठयाए असासए" जीव द्रव्याङ्क सासतो भावार्थे असासतो कह्यो ते द्रव्य भाव जीव थी न्यारा नहीं तिम कृष्ण आदि जे सावध कार्य किया ते तो अनुकम्पा अर्थे किया ते मांटे ए कार्या थी अनुकम्पा पिण न्यारी न गिणवी" (भ्र० पृ० १७८) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) अनुकम्पाके निमित्त जो कार्य किया जाता है वह यदि अनुकम्पासे भिन्न नहीं है तो फिर भगवान महावीर स्वामी और साधुओंका दर्शन के लिये जो कार्य किया जाता है वह भी भगवान महावीर स्वामी और साधुओंके दर्शनसे भिन्न न होना चाहिये। ऐसी दशामें अनुकम्पाके निमित्त किये जाने वाले कार्यके वजहसे जैसे अनुकम्पाको भ्रम विध्वंसनकार सावध कहते हैं उसी तरह दर्शनके लिये किये जाने वाले कार्यकी वजहसे दर्शनको भी सावध कहना चाहिये । जैसे कृष्णजीकी अनुकम्पाके विषयमें "अनुकम्पगट्ठाए" यह पाठ आया है उसी तरह भगवान महावीर स्वामीके दर्शनार्थ कौणिक राजा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । ने जहां चतुरंगिणी सेना सजाई है और पुरीका संस्कार कराया है वहां भी "निज्जाइस्सामि समणे भगवं महावीरं अभिवन्दए” यह पाठ आया है । इस पाठमें कौणिक राजा ने भगवान महावर स्वामी की वन्दनाके लिये सेना सजाने और पुरीका संस्कार करानेकी आज्ञा दी है। यदि अनुकम्पाके निमित्त किये जाने वाले कार्यासे अनुकम्पा संलग्न है तो फिर वन्दनाके निमित्त किये जाने वाले कार्यासे वन्दनाको भी संलग्न मानना चाहिये और जैसे अनुकम्पाके निमित्त किये जाने वाले कार्यसे संलग्न होकर अनुकम्पा सावध होती है उसी तरह वन्दनाके निमित्त किये जाने वाले कार्यो से संलग्न होकर वंदना भी सावध हो जानी चाहिये । परन्तु यदि वन्दनाके निमित्त किये जाने वाले, सेना सजाने और पुरीका संस्कार कराने रूप काय्यसे वन्दनाको संलग्न नहीं मानते और वन्दनाको सावद्य नहीं कहते तो उसी तरह अनुकम्पाके निमित्त किये जाने वाले कार्यसे अनुकम्पाको भी संलग्न नहीं मानना चाहिये और अनुकम्पाको भी सावद्य नहीं कहना चाहिये। __ वास्तवमें जैसे भगवानकी वन्दनाके लिये किया जाने वाला कार्य दूसरा है और भगवानकी वन्दना दूसरी है उसी तरह अनुकम्पाके लिये किया जाने वाला कार्य दूसरा है और अनुकम्पा दूसरी है अतः जैसे तीर्थकरकी वन्दनाके लिये किये जाने वाले कार्य के आज्ञा बाहर होने पर भी तीर्थकरकी वन्दना आज्ञा बाहर नहीं है उसी तरह अनुकम्पाके निमित्त किये जाने वाले कार्याके आज्ञा बाहर होने पर भी अनुकम्पा आज्ञा बाहर और सावद्य नहीं है। ___ भगवान महावीर स्वामीका वन्दन करनेके लिये कौणिक राजाने चतुरंगिणी सेना सजाई थी और पुरीका संस्कार कराया था। वह पाठ यह है : "तएणं कुणिए राया भिंभसार पुत्ते वलवाउअं आमंतेइ आमंतेत्ता एवंवयासी-खिप्पामेव देवाणुप्पिया। अभिसेक हत्थि रयणं परिकप्पेहि, हय, गयरह पवर जोह कप्पियंच चाउरंगिणीं सेण्णं सन्नाहीहि । सुभद्दा पमुहाणय देवीणं वाहिरियाउ उवट्ठाण सालाए पडिएक एडिएक्काई जत्ताभिमुहाई जुत्ताइ जाणाई उवट्ठवेह । चम्पं नयरों सब्भिंतर वाहरियं असित्त सित्त सुइ समह रथंतरावण वीहियं मंचाई मंच कलियं नाना विह राग उच्छिय झय पहागाई पडामंडियं लाउल्लोइयमहियं गोसीस सरस रत्तचंदन जाव गंधवहिभूयं करेह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। कारवेह कारेत्ता कारवेत्ता एमाणत्तियं पञ्चपिण्णाहि, निज्जाइस्सामि समणं भगवं महावीरं अभिवंदए" (उवाई सूत्र) अथ: इसके अनन्त बिम्बसारका पुत्र कौणिक राजाने अपने सेनापतिको बुला कर कहा कि हे देवानुप्रिय ! मेरे प्रधान हस्ति रनको शोघ्र तैयार करो और हाथी, घोड़े, स्थ तथा प्रधान योद्धाओं से युक्त चतुरंगिणी सेना सजाभो । सुभद्रा आदि रानियोंके जानेके लिये प्रत्येकके निमित्त अलग अलग रथ जोता कर खड़ा करो । झाडू बहादू सेचन लेपन आदिसे चम्पा नगरीके बाजार सड़क गलो आदिका संस्कार कराओ। सेनाको यात्रा देखनेके लिये आने वाले दर्शक लोगोंके निमित्त मंच आदि बंधवा दो । कृष्णागुरु धूप आदिसे पुरीको सुगन्धित करो। मेरी इस आज्ञाका शीघ्र पालन करा कर सूचना दो मैं श्रमण भगवान महावीर स्वामीका चन्दन करनेके लिये जाऊंगा। इस पाठका यह अर्थ है। इस पाठमें कहा है कि "विम्बसार पुत्र राजा कौणिकने भगवान महावीर स्वामी का वन्दन करनेके लिये चतुरंगिणी सेना सजाई और पुरीका संस्कार कराया था" जब कौणिकके मनमें भगवान महावीर स्वामीके वन्दनका भाव उत्पन्न हुआ तब उसने सेना सजायी और पुरीका संस्कार कराया। सेना सजाना और पुरीका संस्कार कराना आज्ञा बाहर है तथापि इन कार्यों से भगवान महावीर स्वामीका वन्दन सावद्य नहीं होता क्योंकि ये कार्य दुसरे हैं और वंदन दूसरा है उसी तरह अनुकम्पाके भाव आने पर जो कार्य किया जाता है वह कार्य दूसरा है और अनुकम्पा दूसरी है इस लिये अनुकम्पाके निमित्त किये जाने वाले कार्यके आज्ञा बाहर होने पर भी अनुकम्पा आज्ञा बाहर या सावद्य नहीं होती। सूर्याभदेवने भगवान महावीर स्वामीका वन्दन करनेके लिये जाते समय सुघोष नामक घण्टा बजाकर देवोंको सूचित किया था। वह पाठ यह है : - "सरियाभे देवे गच्छइणं भो सूरियाभेदेवे जम्बूदीवं २ भारह वासं आमलकप्पं नगरी अम्वसालवणं चेइयं समणं भगवं महावीरं अभिवन्दए । तं तुम्भेऽपिणं देवानुप्पिया! सव्विहिए अकाल परि• होणाचेव सरियामरस अंतियं पाउन्भह" . (राज प्रश्नीय सूत्र) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ सद्धर्ममण्डनम् । अर्थ: सूर्याभ देवने भगवान महावीर स्वामीकी वन्दना करनेके लिये जाते समय सुघोष नामक घण्टा बजा कर अपने विमान वासी देवताओंको सूचित किया कि हे देवानुप्रियो ! सूर्याम देवता जम्बू द्वीपके भारतवर्ष में भगवान् महावीर स्वामीको वन्दना करनेके लिये आम्रकल्पा नगरीके आम्रशाल नामक उद्यानमें जा रहा है अतः आप लोग भी अपनी सम्पूर्ण ऋद्धियोंसे युक्त होकर शीघ्र ही सूर्याभ देवके समीप आ जावें । इस पाठमें कहा है कि "सूर्याभदेवने भगवान महावीर स्वामीकी वन्दनाके लिये जाते समय सुघोष नामक घण्टेको बजा कर देवताओंको सूचना दी थी"। जब सूर्याभ देवके हृदयमें भगवान महावीर स्वामी को वन्दन करने का भाव उत्पन्न हुआ तब उसने घण्टा बजाकर देवोंको सूचना दी थी। घण्टा बजानेके लिये मुनि आज्ञा नहीं देते इस लिये घण्टा बजाना आज्ञा बाहर है । जो लोग अनुकम्पाके भाव आनेसे जो कार्य किया जाता है उसकी वजह से अनुकम्पाको सावध कहते हैं उनके मतमें भगवानकी वन्दना भी सावध कहनी चाहिये क्योंकि वन्दनाके भाव आनेसे ही सूर्याभदेवने सुघोष नामक घण्टा बजाया था । यदि घण्टा वजाना दूसरा है और वन्दना करना दूसरा है इस लिए घण्टा बजाना आज्ञा बाहर होने पर भी वन्दना आज्ञा बाहर नहीं है तो उसी तरह अनुकम्पा दूसरी है और उसके लिये जो कार्य किया जाता है वह दूसरा है इस लिये अनुकम्पाके लिये किये जाने वाले कार्यके आज्ञा बाहर होने पर भी अनुकम्पा आज्ञा बाहर और सावद्य नहीं है। । सूर्याभकी आज्ञा पाकर देवता लोग जब भगवानका दर्शन करनेके लिये सूर्याभ के समीप आये हैं उस समयका वर्णन करने के लिये यह पाठ आया है : "एयम सोचा णिसम्म हट्ट तु जाव हियया अप्पेगइया वन्दन वत्तियाए अप्पेगइया पूयण वत्तियाए अप्पेगइया सकारवत्तियाए अप्पेगइया असुयाई सुगिस्सामो सुयाई अट्ठाई हेउई पासिणाई कारणाई वागरणाई पुच्छिस्सामो अप्पेगइया सूरियाभस्स वयण मणुपत्तमाणा अप्पेगहया अन्न मन्न मणुपत्तमाणा अप्पेगइया जिणभत्तिरागेणं अप्पेगइया धम्मोत्ति अप्पेगइया जियमेयंत्ति कटु सवड्ढिए जाव अकाल परिहीणाव मुरियाभस्स अन्तियं पाउन्भवति" (राज प्रश्नीय सूत्रम् ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुकम्पाधिकारः। २८९ - - अर्थ: यह मन कर हृष्ट तुष्ट हृदय वाले देवतागग, कोई भगवानकी वन्दना करनेके लिये, कोई उनकी पूजा करनेके लिये, कोई सत्कार सम्मान करनेके लिये, कोई कौतूहलके लिये, कोई नहीं सुनो हुई बातको सुननेके लिये और सुने हुए संदिग्ध अर्थको पूछनेके लिये, कोई सूर्यामको आज्ञा पालन करनेके लिये, कोई आने मित्रको आज्ञा पालनके लिये, कोई भगवद्भक्तिके अनुरागसे, कोई धर्म समझ कर, सम्पूर्ण ऋद्धियोंसे युक्त होकर सूर्याभके निकट उपस्थित हुए। इस पाठमें कहा है कि "देवता लोग भगवान महावीर स्वामीका वन्दन नमस्कार सत्कार सम्मान और सेवा शुश्रूषा करनेके लिये सूर्याभके निकट सब ऋद्धियोंसे युक्त होकर आए" । देवताओंके हृदयमें जब भगवान महावीर स्वामी को वन्दन नमस्कार काने का भाव उत्पन्न हुआ तब वे सूर्याभके पास आये थे अतः भ्रमविध्वंसनकार के हिसाबले भगवान का वन्दन नमस्कार भी सावध ही ठहरेगा क्योंकि साधु किसीको कहीं जाने आनेको आज्ञा नहीं देते । परन्तु यदि आने जाने की क्रिया दूसरी है और वन्दन नमस्कार दूसरा है इसलिये आने जानेको क्रियाके आज्ञा बाहर होने पर भी वन्दन नमस्कर आज्ञा बाहर नहीं है तो उसी तरह अनुकम्पा भी दूसरी है और उसके लिये किया जाने वाला काये दूसरा है। उस काय्यके आज्ञा बाहर होने पर भी अनुकम्पा आज्ञा बाहर और सावध नहीं है। अत: अनुकम्पाके लिये को जाने वाली क्रियाका नाम लेकर अनुकम्पाको सावध कायम करना अज्ञानका परिणाम है। जिस कार्यके लिये मुनि आज्ञा नहीं देते वह एकान्त पाप है यह भ्रमविध्वंसन कारको प्ररूपगा भी मिथ्या है क्योंकि मुनि लोग किसीको साधुका दर्शन करनेके लिये जानेकी भो आज्ञा नहीं देते तथापि साधु का दर्शन करने के लिये जाना एकान्त पाप नहीं है। भगवती सूत्र और राजप्रश्नीय सूत्रमें यह पाठ आया है-"तहारूवाणं अरिहंता णं भगवंताणं नाम गोयस्सवि सवगयाए महाफलं किमङ्ग पुग अभिगमण वन्दन नमसण परिपुच्छग पज्जुवासगआए" अर्थात् तथारूपके अरिहंत और भगवंतोंके नाम गोत्रके श्रवण करनेसे भो महान् फल होता है फिर उनके सम्मुख जाने, वन्दन नमस्कार करने, कुशल प्रश्न करने और सेवा शुश्रूषा करनेसे तो कहना ही क्या है अर्थात उससे तो अवश्य ही महान फल होता है। इस पाठमें अरिहंत भगन्तोंके सम्मुख जानेका महान फल बतलाया है परन्तु साधु किसीको अरिहंतोंके संमुख जानेकी आज्ञा नहीं देते तथापि शास्त्रकार अरिहंतोंके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धमण्डनम् । सम्मुख जानेसे महान फल होना बतलाते हैं इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि जिस काय्ये के लिये साधु आज्ञा नहीं देते वह सब कार्य्यं एकान्त पाप ही हो यह कोई नियम नहीं है अत: आज्ञा बाहर के कार्यों को एकान्त पाप कहना अज्ञान मूलक समझना चाहिये । २९० ܢ ( बोल ३८ ) इति अनुकम्पाधिकारः । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ लब्ध्यधिकारः। (प्रेरक) भ्रमविध्वंसन कार कहते हैं कि भगवान. महावीर स्वामीने छद्मस्थपनेमें शीतल लेश्याको प्रकट करके गोशालककी प्राणरक्षा की थी इसमें भगवान को जघन्य तीन और उत्कृष्ट पांच क्रियाए लगी थी क्योंकि पन्नावणा पद ३६ में तेजः समुद्घात करनेसे जघन्य तीन और उत्कृष्ट पांच क्रिया लगना बतलाया है। शीतल लेश्या भी तेजो लेश्या ही है इसलिये उसमें भी तेजः समुद्घात होता है अत: शीतल लेश्याको प्रकट करके भगवान ने जो गोशालक की प्रागरक्षा की थी उसमें उनको जघन्य तोन और उत्कृष्ट पांच क्रियायें लगीं। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) तेजः समधात करनेसे जघन्य तीन और उत्कृष्ट पांच क्रियाओंका लगना शास्त्र में कहा है परन्तु तेजः समुद्घात उष्ण तेजोलेश्याके प्रकट करनेमें ही होता है शीतल लेश्याके प्रकट करने में नहीं होता। भगवती शतक १५ उद्देशा १ में उष्ग तेजोलेश्याके प्रकट करनेमें तेजका समुदूधात होना बतलाया है परन्तु शीतल लेश्या के प्रकट करने में नहीं कहा है वह पाठ यह है:__ "तएणं से गोशाले मंखलि पुत्ते वेसियायणं वालतवस्सिं पासइ पासइत्ता ममं अंतिआओ सणियं पच्चोसक्कइ पच्चोसकइत्ता जेणेव वेसियायणे बालतपस्वी तेणेव उवागच्छइ उवागच्छइत्ता वेसियायणं वालतवस्सिं एवं वयासो-किं भवं मुणी मुणोए उदाहु जुया सेना संत्थरए ? तएणं से वेसियायणे बालतवस्ती गोसालस्स मंखलि पुत्तस्स एवम नो आढाइ नो परिजाणइ तुसिणोए संचिट्टइ। तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं चालतवस्सिं दोषि एवं वयासीकिं भवं मुणो मुणोए जावसेन्जायरए। तएणं से वेसियायणे वाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ सद्धर्ममण्डनम् । तवस्सी गोसालेणं मखलिपुत्तेणं दोचपि तच्चपि एवं वुत्ते समाणे असुरुते जाव मिस मिसे माणे आयावण भूमिओ पचोप्तका पचोसकहत्ता तेया समुग्घाएणं समोहणइ समोहणइत्ता सत्तट ठपयाई पच्चो सक्का पञ्चोसकहत्ता गोसालस्स मंखलि पुत्तस्स वहाए सरीरगं तेयं णिसिरइ तएणं अहं गोयमा ! गोसालस्स मंखलि पुत्तस्स अणुकम्पणठ्याए वेसियायणस्स वालतवस्सिस्स सा उसिण तेयलेस्सा तेय पडिसाहरणठ्याए एत्थणं अन्तरा अहं सोयलियं तेयलेस्सं निस्सरामि । जाए सा ममं सियलियाए तेय लेस्साए वेसियायणस्ल बालतवस्सिस्स साउसिण तेय लेस्सा पडिहया" (भगवती शतक १५ उद्देशा १) अर्थ: इसके अनन्तर गोशालक मंखलिपुत्र ने वैश्यायन बालतपस्वीको देखा । देख कर धीरे धीरे मेरे पाससे हट कर उसके पास गया वहां जाकर गोशालक मंखलिपुत्रने वैश्यायन बाल तपस्वीसे कहा कि "तुम कोई मुनि हो या जू आदिको शय्या हो ?" यह सुन कर वैश्यायन बालतपस्वीने गोशालककी बात पर कुछ ध्यान नहीं दिया किन्तु मौन धारण करके रहा। पश्चात् गोशालक मंखलिपुत्रने दो तोन बार यही बात कही। यह देख कर क्रोधके मारे मिस मिस करता हुआ वैश्यायन बाल तपस्वीने आतापन भूमिसे पोछे हट कर तेजका समुदघात किया । तेजका समुदयात करके सात आठ पैर पीछे हट कर गोशालक मंखलिपुत्रका वध करने के लिये अपने शरीर सम्बन्धी तेजको गोशालकके ऊपर फेंका । हे गोतम! उस समय गोशालक मंखलिपुत्रकी अनुकम्पाके लिये उस पर आती हुई तेजोलेश्याके निवारणार्थ मैंने शीतललेश्या छोडी। मेरी शीतललेश्या से वैश्यायन बाल तपस्वी की उष्ण तेजो लेश्या प्रतिहत हो गई। यह इस प ठका अर्थ है। ___ इसमें उष्ण तेजो लेश्याके वर्णनमें तेजके समुद्घात होनेका कथन है परन्तु शीतललेश्याके प्रकट करनेमें तेजके समुद्घात होनेका जिक्र नहीं है इसलिये शीतल लेश्यामें तेजके समुद्घात होनेकी बात अप्रामाणिक है। जब कि शीतल लेश्याके प्रकट करनेमें तेजका समुद्घात नहीं होता तब फिर उसमें जघन्य तीन और उत्कृष्ट पांच क्रियाएं कैसे लग सकती हैं ? अतः शीतल तेजो लेश्याके प्रकट करनेमें जघन्य तीन और उत्कृष्ट पांच क्रिया लगनेकी प्ररूपणा एकान्त मिथ्या समझनी चाहिये । (बोल १ समाप्त) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्ध्यधिकारः। २९३ (प्रेरक) "तेज: समुद्घात" शब्दका प्रमाणके साथ अर्थ बतलाइये जिससे यह ज्ञात हो जाय कि शीतल लेश्याके प्रकट करनेमें तेजका समुद्घात क्यों नहीं होता ?" (प्ररूपक) प्राचीन आचार्यों ने तेजः समुद्घात शब्दका यह अर्थ किया है "तेजो निसर्ग लब्धिमान क्रुद्धः साध्वादिः सप्ताष्टौपदानि अवष्वष्कय विष्कंभ वाहल्याभ्यां शरीरमान मायामतस्तु संख्येय योजन प्रमाणं जीवप्रदेशदण्डं शरीराद्धहिः प्रक्षिप्य क्रोध विषयी कृतं मनुष्यादि निर्दहति तत्रच प्रभूतांस्तैजसशरीरनामपुद्गलान शातयति" (प्रवचन सारोद्धार २३१ द्वार) अर्थ: तेजो लब्धिधारी साधु आदि क्रोधित होकर सात आठ पैर पीछे हट कर अपने शरीरके समान स्थूल और विस्तृत तथा संख्यात योजन पर्यन्त लम्बायमान जीव प्रदेश दण्डको बाहर निकाल कर क्रोध विषयीभूत मनुष्य आदिको जला देता है इसमें बहुतसे तेजस शरीर नाम वाले पुद्गलोंका शातन होता है इसलिये इसे तेजः समुद्घात कहते हैं । यह प्रवचन सारोद्धारके ऊपर लिखे हुए पाठका अर्थ है। इसमें, क्रोधित हो कर तेजोलब्धि धारी साधु किसीको जलानेके लिये जो उष्ण तेजोलेश्याका प्रक्षेप करता है उसी में तेजका समुद्घात होना कहा है परन्तु किसी मरते प्राणीकी प्राणरक्षाके लिये जो शीतल लेश्या छोड़ी जाती है उसमें तेजका समुदघात होना नहीं कहा है अत: भगवान महावीर स्वामीने गोशालककी प्राणरक्षा करनेके लिये जो शीतल लेश्या छोडी थी उसमें तेजके समुद्घातका नाम लेकर जघन्य तीन और उत्कृष्ट पांच क्रिया लगनेकी प्ररूपणा करना मिथ्या है। (बोल २ समाप्त) (प्रेरक) उष्णलेश्या के प्रकट करनेमें जिन क्रियाओं का लगना बतलाया है उनके नाम और अर्थ बतलाइये। (प्ररूपक) वे क्रियाएं पांच हैं--(१) कायिकी (२) आधिकरणिकी (प्राद्वेषिकी ), (४) पारितापनिकी (५) प्राणातिपातिकी। ये पांच ही क्रियायें हिंसाके साथ सम्बन्ध होनेसे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धममण्डनम् । लगती हैं रक्षा करने वालेको नहीं लगती। इनका अर्था ठागाङ्ग सूत्र का मूल पाठ देका बताया जाता है। "काइया किरिया दुविहा पन्नत्ता तंजहा-अनुवरयकायकिरि याचेव दुप्पउत्त कायकिरियाचेव । आहिकरणिया किरिया दुविहापन्नत्ता तंजहा-संजोयणाधिकरणिया चेव निवत्तनाधिकरणिया चेव । पाउसिया किरिया दुविहा पन्नत्ता तंजहा-जीव पाउसिया चेव अजीव पाउसिया चेव । पारियावणियाकिरिया दुविहा पन्नता तंजहा सहत्य पारियावणियाचेव परहत्थपारियावणियाचेव। पाणाइवाय किरिया दुविहा पन्नत्तो तंजहा-सहत्य पाणाइवाय किरियाचेव परहत्थ पाणाइवाय किरिया चेव ।" (ठाणान ठाणा २) अर्थः जो क्रिया शरीरसे की जाती है वह कायिकी क्रिया है वह दो तरहकी होती है अनुपरत काय क्रिया और दुष्प्रयुक्त काय क्रिया। जो क्रिया सावद्य कर्मो से नहीं हटे हुए मिथ्या दृष्टि और अविरत सम्यग्दृष्टि पुरुषके शरीर से उत्पन्न होकर कर्मवन्धका कारण होती है वह 'अनुपरत काय क्रिया' कहलाती है। प्रमत्त संयत पुरुष, अपने शरीरसे इन्द्रियोंकी इटानिष्ट वस्तुको प्राप्ति और परिहारके लिये जो स्वल्प संवेग और निर्वेद होनेसे क्रिया करता है वह क्रिया 'दुष्प्रयुक्त काय क्रिया' कहलासी है। अथवा मोक्ष मार्ग के प्रति दुर्व्यवस्थित प्रम त संयत पुरुष, अशुभ मानसिक संकल्पके साथ जो शरीरसे क्रिया करता है वह 'दुष्प्रयुक्त काय क्रिया' है 'आधिकाणिकी क्रिया' दो तरहको है (१) 'संयोगजनाधिकरगिकी (२) निर्वर्तनाधिकरणिको" तलवारमें उसके मूठ जोड़नेकी क्रियाको संयोजनाधिकरणिकी' कहते हैं । तलवार तथा उसके मूठको बनाने की क्रियाको "निर्वतं नाधिकरणिकी क्रिया" कहते हैं। - जो क्रिया किसी पर द्वष करके की जाती है उसे 'प्रावषिकी' कहते हैं। यह भी दो तरहकी होती है। (१) जीव प्राषिकी और (२) अजीव प्राषिकी। किसी जीव पर द्वष करके जो क्रिया को जाती है वह 'जीव प्राह षिकी' है और जो अजीव पर द्वष करके की जाती है वह 'अजीव प्राद्वोषिकी' है। किसीको ताडन आदिके द्वारा परिताप देनेको 'पारितापनिकी' क्रिया कहते हैं । यह दो तरह को है 'स्वहस्त पारितापनिको' और 'परहस्त पारितापनिकी' अपने हस्तसे किसीको ताप देना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्ध्यधिकारः। २९५ स्वहस्त पारितापनिकी क्रिया है और दूसरेके हस्तसे परिताप दिलाना "परहस्त पारितापनिको" क्रिया है। ___किलो जीवका घात करना “प्रागातियातिको' क्रिया है। यह भी द्विविध होतो है। (१) स्वहस्त प्रागातिपातिकी और (२) परहस्तप्रागातिपातिकी' । अपने हाथसे प्राणियोंका घात करना 'स्वहस्त प्राणातिपातिकी' है और दूसरेके हाथसे प्रागीका घात कराना 'परहस्तप्राणातिपातिको' क्रिया है। यह ठागाङ्गके उक्त मूल पाठका टोकानुपार अर्थ है। इसमें कायिको आदि पांच क्रियाओंका जो स्वरूप बतलाया है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि किसो प्रागीकी रक्षा करने के लिये जो शोतल लेश्या प्रकट की जाती है उसमें ये क्रियाएं नहीं लातों किन्तु उग लेश्याका प्रयोग करके किसो जीवको हिंसा करनेमें लाती हैं। किसो जोव को घात काना प्रागातिपातिको क्रिया है यह क्रिया किसी जीव को रक्षा करनेमें कैसे ला सकती है ? क्योंकि जोवोंकी रक्षा करना उनका घात करना नहीं है। किसो जोवको ताइन आदि करनेसे "पारितापनिको” क्रिया लगती है परन्तु जो किसोका ताडन आदि नहीं करता है बल्कि उसको रक्षा करता है उस रक्षक पुरुषको पारिता पनिकी क्रिया किस प्रकार ग सकती है ? क्योंकि रक्षा करना परिताप देना नहीं है। किसी जीवपर द्वेष करनेसे प्राद्वेषिकी क्रियाका लाना बतलाया है अत: जो मरते प्राणीकी प्राण रक्षा करता है उसको प्राद्वेषिकी क्रिया कैसे लग सकती है ? क्योंकि मरते प्रागोकी प्राण रक्षा करना उस पर द्वेष करना नहीं है। तलवार आदि घातक पदार्थो के बनाने और उनमें मूठ आदि जोड़नेसे 'आधिकरणिकी क्रियाका लगना कहा है । जो पुरुष किसी मरते प्राणीकी प्राण रक्षा करता है वह तलवार आदि घातक पदार्थो का निर्माण, या उनमें मूठ आदि नहों जोड़ रहा है फिर उसको 'आधिकरणिको क्रिया' कैसे लग सकती है ? मरते प्राणोकी प्राण रक्षा करना शरीरका दुष्प्रयोग नहीं किन्तु सुप्रयोग करना है अत: जो मरते प्राणोकी प्राण रक्षा करता है उसे कायिकी क्रिया भी नहीं लग सकती। इस लिये भगवान महावीर स्वामीने शीतल लेश्या प्रकट करके जो गोशालककी प्राणरक्षा की थी उसमें भगवान को क्रिया लगनेको बात मिथ्या है। स्वयं भ्रम विध्वंसनकारने भी पृष्ठ १८१ पर लिखा है : “अथ अठे वैक्रिय समुद्घात करो पुद्गल काढे ते पुद्गला सू जेतला क्षेत्रमें प्राण भूत जीव सत्वनी घात हुवे ते जाव शब्दमें ओल खाओ छ। ते पुद्रला थी विराधना हुवे तिणसू उत्कृष्ट पांच क्रिया कही इम वैक्रिय लब्धिफोड्यां पांच क्रिया कही। हिवे तेज़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ सद्धर्ममण्डनम् । लेश्या फोडे ते पाठ लिखिए छै" इसके आगे लिखते हैं कि "अथ इहां वैक्रिय समुद्यात करितां पांच क्रिया कही तिमहिज ते जू समुद्घात करिता पांच क्रिया जाणवी" यह लिख कर जीतमलजीने जीव विराधना होनेसे उत्कृष्ट पांच क्रिया लगना स्वीकार किया है परन्तु गोशालकको प्राण रक्षा करने के लिये जो भगवान्ने शीतल लेश्या प्रकट को थी उसमें कौन सी जीव विराधना हुई जिससे भगवानको पांच क्रिया लगेगी ? यह बुद्धिमानोंको विचार लेना चाहिये । शोतल लेश्यासे किसी भो जीवको विराधना नहीं होती बल्कि जीवोंको सुख शान्ति होती है फिर शीतल लेश्यामें उक्त पांच क्रियाओंके लगनेकी बात बिलकुल मिथ्या है । पन्नावणा पद ३२ में तेजके समुद्घात होनेसे पांच क्रियाओंका लाना कहा है परन्तु उष्ण तेजो लेश्याके प्रयोगमें ही तेजका समुद्घात होता है शीतल लेश्याके प्रयोगमें नहीं अतः शीतल लेश्याके प्रयोगमें तेजके समुद्घातका नाम लेकर उसमें उत्कृष्ट पांच क्रियाओंके लगने की स्थापना करना मिथ्या है। (बोल ३ समाप्त) (प्रेरक) शीतल लेश्या किसे कहते हैं यह सप्रमाण बतलाइये । ( प्ररूपक) "अगण्य कारुण्यवशादनुप्राह्य प्रानि तेजो लेश्या प्रशमन प्रत्यल शीतल तेजो विशेष विमोचन सामर्थ्यो।" (प्रवचन सारोद्धार) अतिशय दयालुताके कारण दया करने योग्य पुरुषके प्रति तेजो लेश्याको शान्त करने में समर्थ शीतल तेजो विशेषके छोड़ने की शक्तिका नाम 'तेजो लेश्या' है । यह शीतल लेश्याका स्वरूप प्रवचन सारोद्धारमें वतलाया है। इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि जहां उष्ण तेजो लेश्या जलाने का काम करती है वहां शीतल लेश्या शान्तिका कार्य करती है। उष्ण तेजो लेश्या जीव हिंसाके लिये चलाई जाती है और शीतल लेश्या जीव रक्षाके लिये चलाई जाती है। जैसे धूप और छाया, परस्पर एक दूसरेसे विरुद्ध गुण वाले हैं उसी तरह ये दोनों लेश्यायें परस्पर विरुद्ध गुण वाली हैं । अत: उष्ण तेजो लेश्याके छोड़नेसे जीवोंको विराधना होती है और जीव विराधना होनेसे उष्ण तेजो लेश्यामें उत्कृष्ट पांच क्रिया लगती हैं परन्तु शीतल तेजो लेश्यासे किसी जीवकी विराधना नहीं होतो बल्कि उससे जीवकी रक्षा होती है इसलिये जीव विराधनासे उत्पन्न होने वाली पूर्वोक्त क्रियाएं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लब्ध्यधिकारः। २९७ शीतल लेश्यामें नहीं लगती। अतः शीतल लेश्याके द्वारा भगवान्ने गोशालककी प्राण रक्षा की थी उसमें भगवानको उत्कृष्ट पांच क्रिया लानेकी बात मिथ्या समझनी चाहिये। (बोल ४ समाप्त) (प्रेरक) भ्रम विध्वंसन कार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ ११८ पर लिखते हैं "अने जो लब्धि फोडी गोशालाने बंचायां धर्म हुए तो केवल ज्ञान उपना पछे गोशाला दोय साधां वाल्या त्यांने क्यून बचायो। जो गोशालाने बंचाया धर्म छ तो दोय साधांने बंचाया घणा धर्म हुवे। विवारे कोई कहे भगवान केवली था सो दोय साधारे बायुषो आयो जाण्यो तिणसून बंचाया इमकहे तेहनो उत्तर जो भगवान केवल ज्ञानी आयुषो आयो जाण्यो तिणसून बंचाया तो और गोतमादिक छमस्थ साधु लब्धि धारी घणाई हुन्ता त्यांने आयुषो आयारी खबर नहीं त्यां साधांने लब्धि फोडीने क्यून बंचाया। (८० पृ० १८९) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) केवल ज्ञान होने पर भगवान महावीर स्वामीने सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिको नहीं बंचाया था इस लिये मरते प्राणीको प्राण रक्षा करनेमें पाप बताना मन्द बुद्धिका कार्या है। मूल पाठ तथा टीकामें कहीं भी नहीं कहा है कि भगवान महावीर स्वामीने मरते प्राणीकी प्राण रक्षा करने में पाप जान कर सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिको नहीं बचाया था बल्कि टीकाकारने यह साफ साफ लिख दिया है कि गोशालकके द्वारा सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिका मरना अवश्यम्भावी था इस लिये भगवानने उनकी रक्षा नहीं की। वह टीका "अवश्यम्भावि भावत्वा द्वेत्यवसेयम्" अर्थात गोशालकके द्वारा सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिका मरना अवश्य होनहार था इस लिये भगवान उनकी रक्षा नहीं कर सके । यदि रक्षा करनेमें पाप होता तो टीकाकार यह स्पष्ट लिख देते कि जीवरक्षामें पाप होना देख कर भगवानने सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिकी रक्षा नहीं की परन्तु टीकाकारने ऐसा नहीं कह कर सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिको नहीं बचानेका कारण अवश्य होनहार बतलाया है अत: गोशालक की प्राणरक्षा करने से भगवानको पाप लगनेकी प्ररूपणा मिथ्या है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ सद्धममण्डनम् । भ्रमविध्वंसनकार मरते जीवकी रक्षा करनेमें पाप कहते हैं परन्तु किसी साधुको विहार करानेमें पाप नहीं कहते ऐसी दशामें भगवान महावीर स्वामीने सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिको वहांसे विहार क्यों नहीं करा दिया ? क्योंकि केवल ज्ञानी होनेके कारण उन को यह ज्ञान तो अवश्य था कि गोशालक, सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिको जलावेगा। ऐसी खवर रहने पर भी भगवान्ने सुनक्षत्र और सर्वाभूतिको जो वहांसे अन्यत्र विहार नहीं कराया इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि भगवान को यह भी ज्ञात था कि सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिका गोशालककी क्रोधाग्निसे जल कर मरना अवश्य भावी भाव है। इसीसे भगवान ने सुनक्षत्र और सर्वानुभूति की रक्षा नहीं की थी, रक्षा करनेमें पाप होना जानकर नहीं। शास्त्रमें कहा है कि तीर्थ करों में ऐसा अतिशय होता है जिस से उनके निवास स्थानसे १५ योजन तक किसी प्रकारका उपद्रव नही होता। सभी प्राणी परस्पर वैर भावको छोड़ कर मित्र मित्रकी तरह रहते हैं । ऐसा विलक्षण भगवान का अतिशय होते हुए भी गोशालकने भगवान महावीर स्वामींके सम्मुख ही सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिको जला दिया यह होनहारका ही प्रभाव था । अन्यथा भगवान के अतिशयसे ही यह बात नहीं हो सकती थी। जो अवश्य होनहार था उसे भगवान किस प्रकार मिटा सकते थे ?। गोशालककी क्रोधाग्निसे सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिका जलना अवश्य होनहार जान कर भगवान ने उनकी रक्षा के लिये कुछ प्रयत्न नहीं किया था मरते जीवकी रक्षामें पाप होना जानकर नहीं । अतः सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिको नहीं बचानेका उदाहरण देकर जीवरक्षा करनेमें पाप बतलाना उक्त टीका तथा प्रश्न व्याकरणादि सूत्रों से विरुद्ध समझना चाहिये। भ्रमविध्वंसनकार कहते हैं कि "केवल ज्ञानी होनेके कारण यद्यपि भगवान सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिका आयुपूर्ण होना जानते थे तथापि गोतमादि छमस्थ मुनियोंको इस वातका ज्ञान न था। यदि रक्षा करनेमें धर्म था तो उन लोगोंने सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिकी रक्षा क्यों नहीं की ? इससे जाना जाता है कि जीवरक्षा करनेमें धर्म नहीं है” परन्तु भ्रमविध्वंसनकारकी यह बात भी अज्ञानसे खाली नहीं है क्योंकि चौदह पूर्व धारी साधु छद्मस्थ होते हुए भी उपयोग लगाकर आयुपूर्ण होना जान सकते हैं। धर्मघोष मुनिने छमस्थ हो कर भी उपयोग लगा कर धर्मरुचि मुनिका सम्पूर्ण वृत्तांत जान लिया था और उनकी आत्माको सर्वार्थ सिद्ध में देखा था अतः गोतमादि मुनि सुनक्षत्र और सर्वानुभूति का आयु पूर्ण होना नहीं जानते थे यह कहना भी अज्ञानमूलक ही है। (बोल ५ वां समाप्त) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लंध्यधिकारः । २९९ (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १८९ पर भगवती सूत्रकी टीका लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं ___ "अथ टीकामें पिण इम कह्यो ते गोशालानो रक्षण भगवन्ते कियो ते सराग पणे करी अने सुनक्षत्र सर्वानुभूतिनो रक्षण न करस्ये ते वीतराग पणे करी एतो गोशालाने बंचायो ते सराग पणो कह्यो पिण धर्म न कह्यो ए सराग पणाना अशुद्ध कार्यमें धर्म किम कहिए" (भ्र० पृ० १८९।१९०) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) सरागपनेके कार्यमें धर्म नही होता यह भ्रमविध्वंसनकारका कथन अज्ञान से परिपूर्ण है। अपने धर्म, धर्माचार्य और दया आदि उत्तम गुणोंमें राग रखना भी सरागताका ही कार्य है परन्तु इससे पाप होना शास्त्रमें नहीं कहा है बल्कि शास्त्रमें इसकी प्रशंसा की है। शास्त्रमें ये वाक्य मिलते हैं _ "धम्मायरियापेमाणुरायरत्ता” “अद्विमिंजा पेमाणुरायरत्ता" " तीव्वधम्मानुरागरत्ता” इनके क्रमशः अर्थ ये हैं: अपने धर्माचार्य में प्रेमानुरागसे रक्त । हड्डी और मज्जाओं में प्रेम और अनुराग से रंगे हुए । धर्मके तीव अनुरागसे रंगे हुए। __ ये बाते शास्त्रमें प्रशंसाके लिये कही गई हैं परन्तु धर्माचार्य प्रेमानुराग रखना, अपने धर्ममें तीव्र अनुराग रखना और हड्डी तथा मज्जाओंमें आचार्यके प्रति प्रेमानुरागसे रक्त होना सरागताके ही कार्य हैं इसलिये भ्रमविध्वंसनकार के हिसावसे इन कार्यों में भी पाप ही होना चाहिये क्योंकि ये सरागताके ही कार्य हैं। शास्त्रकार ने तो इन कार्योको पाप नहीं किन्तु धर्म जान कर इनको प्रशंसा की है अत: सरागताके सभी कार्यों में पाप बताना अज्ञानका परिणाम है। वास्तवमें हिंसा, झूठ, चोरी और व्यभिचार आदिमें राग रखना बुरा है पाप है परन्तु धम, धर्माचार्य, अहिंसा, सत्य, तप, संयम और जीव दया आदिमें राग रखना धर्म है पाप नहीं है। भिक्खयश रसायन नामक ग्रन्थमें जीतमलजीने लिखा है कि-"रूडे चित्त भेल्या रहा, वरषट संत वदीत हो। जाव जीव लगि जाणियो, परम माहो माही प्रीति हो।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सेद्धममण्डनम् । इस पद्यमें जीतमलजी कहते हैं कि छः साधुओंका जन्म भर भीषणजीमें परम प्रेम था। क्या यह सरागताका कार्य नहीं है ? यदि है तो जीतमलजी और उनके अनुयायी इसे पाप क्यों नहीं मानते ? यदि अपने धर्माचाय्य और धर्ममें राग रखना सरागताका कार्य होने पर भी पाप नहीं है तो फिर जीवदया राग रखना पापका काय्य कैसे हो सकता है ? । अत: सरागताके सभी कार्यों को पाप बतला कर भगवान महावीर स्वामीने दयाके प्रेमसे जो ग शालककी प्राणरक्षा की थी उसमें पाप बताना नितान्त मिथ्या समझना चाहिये । भगवती सूत्रकी जिस टीकाको लिख कर जीतमलजीने भ्रम फैलाया है उसे लिख कर उसका अर्थ किया जाता है जिससे जनताका भ्रम दूर हो जाय । "इहच यद् गोशालकस्य संरक्षणं भगवता कृतं तत्सरागत्वेन दयैकरसत्वाद्भगवतः । यच्च सुनक्षत्र सर्वानुभूति मुनिपुंगवयोर्न करिष्यति सद्वीतरागत्वेन लब्ध्यनुपजीवकत्वा दवश्यं भावि भाव त्वात्यवसेयम्” (भग० टीका) अर्थः यहां भगवान ने जो गोशालककी प्राणरक्षा की थी इसका कारण यह है कि सराग संयमी होनेके कारण भगवान बड़े भारी दयाके प्रेमी थे। सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिकी रक्षा जो नहीं करेंगे इसका कारण वीतराग होनेसे लब्धिका प्रयोग न करना, और गोशालकके द्वारा उनके मरणका अवश्य होनहार होना समझना चाहिये। यह उक्त टीकाका अक्षरार्थ है। इसी टीकाका नाम लेकर जीतमलजी जीवरक्षामें पाप बतलाते हैं परन्तु इस टोका में जीवरक्षा करनेसे पाप होना नहीं कहा है। यहां लिखा है कि-"भगवान ने दयामें परमानुराग होनेके कारण गोशालकी रक्षा की थी"। दयामें अनुराग रखना धर्म है पाप नहीं है इसलिये गोशालकी प्राणरक्षा करनेसे भगवान को धर्म हुआ पाप नहीं हुआ। ___ सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिकी रक्षा नहीं करनेका कारण भी टीकाकारने जोवरक्षा करनेमें पाप होना नहीं कहा है किन्तु उस समय वीतराग होनेके कारण भगवान के लब्धिका प्रयोग नहीं करना, और अवश्य होनहार कारण बतलाया है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि जीवरक्षामें पाप जानकर भगवान ने सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिकी रक्षाका प्रयत्न नहीं छोड़ा' था किंतु वीतराग होने के कारण वह लब्धि का प्रयोग नहीं करते थे । यद्यपि लब्धिका प्रयोग किये बिना भी वहांसे सुनक्षत्र और सर्वानुभूति को विहार आदि कराकर भगवान उनकी रक्षा कर सकते थे तथापि यह बात अवश्य होने बाली थी इसलिये भगवान ने उनको रक्षाके लिये प्रयत्न नहीं किया। अतएव टीकाकार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्यधिकारः। ने सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिकी रक्षा नहीं करने का सिद्धांतभूत कारण बतलाते हुए "अवश्यंभाविभावत्वात्" यह लिखा है। यदि जीवरक्षा करनेमें पाप होता तो टीकाकार ऐसा क्यों लिखते वह साफ साफ लिख देते कि जीवरक्षा करनेमें पाप था इसलिये भगवान ने सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिकी रक्षा नहीं की। परन्तु टीकाकारने यह नहीं लिख कर सुनक्षत्र और सर्वानुभूतिका मरना अवश्य होनहार बतलाया है, इससे यही बात सिद्ध होती है कि गोशालककी क्रोधाग्निसे सुनक्षत्र और सर्वानुभूति का मरण अवश्य होनहार जान कर भगवान ने उन की रक्षा नहीं की थी। अतः उक्त भगवती की टीका का नाम लेकर मरते जीव की रक्षा करने में पाप वताना अज्ञानमूलक है। (बोल छठा समाप्त) (प्रेरक) कोई कोई कहते हैं कि जैसे पानीके द्वारा आग बुझानेसे हिंसादि रूप आरम्भ होता है उसी तरह शीतल लेश्याके द्वारा तेजो लेश्याको बुझानेमें भी आरम्भ दोष होता है इस लिये शीतल लेश्याके द्वारा भगवानने जो तेजो लेश्याको शान्त करके गोशालककी प्राण रक्षा की थी इसमें उनको आरम्भ दोष लगा था। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) शोतल लेश्याके द्वारा तेजो लेश्याके शान्त करनेमें भारम्भ दोष बतलाना शास्त्र नहीं जाननेका फल है । भगवती शतक ७ उद्देशा १० के मूल पाठमें उष्ण तेजो लेश्याके पुगलोंको अचित्त कहा है। वह पाठ यह है __ "कयरेणं भन्ते ! अवित्तावि पोग्गला उ भासन्ति जाव पभासंति ? कालो दाई ! कुद्धस्स अणगारस्स तेयलेस्सा निसहासमाणी दूरंगता दूर निवाइ देसंगता देसं निवत्तइ जहि जहि चणंसा निवत्तइ सहि सहि चणं ते अचित्तावि पोग्गला उ भासंति जाव पभासंति। (भगवती शतक ७ ७० १०) अर्थ :(प्रश्न ) हे भगवन् ! कौमसे अचित्त पुद्गल प्रकाश करते हैं ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ सघम मण्डनम् । (उत्तर) हे कालोदायिन् ! क्रोधित हुए अनगारसे फेकी हुई तेजोलेश्या, दूर तक फेंकी हुई दूर और निकट में फेंकी हुई निकटमें जाकर पड़ती है। जहां जहां वह तेजोलेश्या पड़ती है वहां हां उसके अचित्त पुद्गल प्रकाश करते हैं । यहां भगवती के मूल पाठमें तेजोलेश्याके पुद्गलोंको अचित्त कहा है इस लिये अनि सचित्त पुलोंका दृष्टान्त देकर शीतल लेश्याके द्वारा इन अचित्त पुगलों को शान्त करनेमें आरम्भ दोष बतलाना शास्त्र नहीं जानने का फल समझना चाहिये । ( बोल ७ वां समाप्त ) ( प्रेरक ) भ्रम विध्वंसन कार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ १७८ के ऊपर भगवती शतक २० उ०९ की टीका लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: " अथ टीकामें इम को एलब्धिफोडते प्रमादनो सेववो ते आलोयां विना चारत्रनी आराधना न थी ते मांटे विराधक कह्यो । इहां पिण लब्धिफोड्यां रो प्रायश्चित्त कह्यो । इहां पिण लब्धि फोड्यां धर्म न कह्यो । ठाम ठाम लब्धि फोडनी सूत्रमें वर्जी छै तो भगवन्तट्ठ गुण ठाणे थका तेजू लब्धि फोडीने गोशालाने बचायो तिणमें धर्म किम कहिये । ( ० पृ० १८७ ) इसका क्या उत्तर ? ( प्ररूपक ) भगवती शतक २० उद्देशा ९ की टीकामें जंघाचरण और विद्याचरण लब्धिके विषय में विचार किया गया है दूसरी लब्धिके विषय में नहीं। वहां जंधाचरण और विद्याचरण लब्धिका प्रयोग करना प्रमादका सेवन कहा है शीतल लेश्याका प्रयोग करना प्रमाद का सेवन नहीं कहा है । तथापि यदि कोई दुराग्रह वश सभी लब्धियोंका प्रयोग करना प्रमादका ही सेवन करना बतलावे तो उसे कहना चाहिये कि - शास्त्रमें ज्ञान लब्धि, दर्शन लब्धि, चरित्र लब्धि, क्षीर, मधु, सर्विस्त्रत्र लब्धि भी कहो गई हैं इनका प्रयोग. करना भी तुम प्रमोदका सेवन क्यों नहीं मानते ? यदि कहो कि इनका प्रयोग करना प्रमादका सेवन करना नहीं है किन्तु गुग है तो उसी तरह शीतल लेश्या का प्रयोग करना भी गुण ही है प्रमादका सेवन करना नहीं है। भगवती सूत्रकी उक्त टीकामें जंघा चरण और विद्याचरण लब्धिका प्रयोग करना ही प्रमादका सेवन करना कहा है शीतल लेश्या लब्धि, ज्ञान, दर्शन, चारित्र लब्धिका प्रयोग करना प्रसादका सेवन नहीं कहा है अतः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लपध्यधिकारः। ३०३ इस टीकाका नाम लेकर शीतल लेश्याका प्रयोग करने में प्रमाद सेवन बतलाना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये। (बोल ८ वां) वास्तवमें भीषगजी और जीतमलजीका लब्धिकी चर्चा करना व्यर्थ है। लब्धि का प्रयोग न करके चाहे दूसरे उपायसे भी जीव रक्षा की जाय तो भी ये लोग उसमें पाप ही कहते हैं। किसी मरते प्राणी पर दण लाकर उसकी रक्षा करनेको ये लोग मोह अनुकम्पा, सावद्य अनुकम्पा और एकान्त पाप कहते हैं। भगवान महावीर स्वामी लब्धि का प्रयोग न करके यदि उपदेश द्वारा भी गोशालककी प्राण रक्षा करते तो भी इनके मतानुसार भगवानको एकान्त पाप ही होता। भीषणजीने लिखा है कि जीवरक्षा करनेके अभिप्रायसे उपदेश देना जैन धर्मका सिद्धान्त नहीं है यह अन्य तीथियोंका सिद्धान्त है' जैसे कि-"केई एक अज्ञानी इमि कहे, छ: कायारा काजे हो देवां धर्म उपदेश। एकन जीवने समझावियां, मिट जावे हो घणा जीवांरा क्लेश। छ: कायरे घरे शान्ति हुवे, एहवा भाषे हो अन्य तीर्थी धर्म। त्यां भेद नपायो जिन धर्मरो, तो भूल्या हो उदय आया अशुभ कर्म । (शि० हि० शि० ढाल ५) अर्थात् कई अज्ञानी कहते हैं कि छः कायके जीवोंके घरमें शान्ति होने के लिये वे धर्मका उपदेश करते हैं । वे कहते हैं कि “एक जीवको समझा देनेसे बहुत जीवोंका क्लेश मिट जाता है परन्तु छः कायके घरों में शान्ति होनेके लिये उपदेश देना जैन धर्मका सिद्धान्त नहीं है । यह अन्य तीर्थी धर्मका सिद्धान्त है अतः वे भूले हुए हैं और उनको अशुभ कर्मका उदय हुआ है। इस ढालमें साफ साफ भीषणजीने मरते जीवकी रक्षाके लिये उपदेश देना जैन धर्मसे विरुद्ध बतलाया है और भ्र० पृ० १२० पर जीतमलजीने लिखा है श्री तीर्थकर देव पोताना कम खपावा तथा अनेराने तारिवाने अथै उपदेश देवे इम का पिण जीव बंचावा उपदेश देवे इम कहो नहीं" __यह लिख कर जीतमलजीने जीव रक्षाके लिये उपदेश देना जैन धर्मसे विरुद्ध ठहराया है ऐसी दशामें इन लोगोंका लब्धिकी चर्चा करना व्यर्थ है जब कि उपदेश द्वारा भी जीव रक्षा करना इनके मतमें पाप है तब फिर दूसरे उपायोंसे तो कहना ही क्या है वह तो अवश्य ही एकान्त पाप है। शीतल लेश्याके प्रयोग करने में जो इन्होंने उत्कृष्ट पांच क्रियाका लगना बतलाया है वह केवल मूढ़ लोगोंको बहकाने मात्रके लिये है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४ सद्धर्ममण्डनम् । शीतल लेश्याके प्रयोग करने में उत्कृष्ट पांच क्रिया नहीं लगती है यह इस प्रकरणमें विस्तारके साथ बताया जा चुका है अतः शीतल लेश्याका प्रयोग करके मरते जीवकी रक्षा करनेमें पांच क्रिया लगनेका दोष बतलाना मिथ्या दृष्टियोंका काट समझना चाहिये। (इति लब्ध्यधिकारः) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( अथ प्रायश्चित्ताद्यधिकारः ) ( प्रेरक ) मरते जीवकी रक्षा करनेका समर्थन करने वाले मुनियोंका कहना है कि भगवान महावीर स्वामी को यदि गोशालककी रक्षा करनेमें पाप लगा होता तो उस पारकी निवृत्ति के लिये भगवान प्रायश्चित्त भी करते परन्तु इसके लिये भगवानका प्रायश्चित्त करना शास्त्रमें नहीं कहा है अतः शीतल लेश्याको प्रकट करके गोशालक की रक्षा करनेसे भगवान पर पापका आरोप करना मिथ्या है। इस कथनका खण्डन करनेके लिये जीतमलजी लिखते हैं “अथ ईहां सीहो अनगार ध्यान ध्यावतां मनमें मानसिक दुःख अत्यन्त उपनो माया कच्छ जाई मोटे मोटे शब्दे रोयो बांग पाडी एहवो कह्यो पिण तेहनो प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं पिण लियो इज होसी तिम भगवन्त लब्धि फोडी गोशालाने बचायो तेहनी प्रायश्चित्त चाल्यो नहीं पिण लियो इज होसी” (भ्र० पृ० १९६ ) इसी तरह भ्रम० पृ० २०८ तक अति मुक्त अनगार रहनेमि, धर्म घोषका शिष्य सुमंगल अनगार, ओर सेलक इन लोगोंका उदाहरण देकर जीतमलजीने कहा है कि उक्त साधुओं जैसे प्रायश्चित्तके योग्य कार्य किये थे परन्तु शास्त्रमें इनका प्रायश्चित्त करना नहीं कहा है उसी तरह भगवान महावीर स्वामीका भी प्रायश्चित करना नहीं कहा है परन्तु जैसे उक्त साधुओंने प्रायश्चित्त किया ही होगा उसी तरह भगवानने भी प्रायश्चित्त किया होगा । इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) शास्त्र विधवादमें जिस कार्य्यके करनेसे पाप होना कहा है उन्हींके अनुष्ठान से पाप होता है और उन्हीं के लिये प्रायश्चित्त भी कहा गया है परन्तु जिस कार्य्यके करने से शास्त्रकार पाप नहीं बतलाते और प्रायश्चित्त का विधान भी नहीं करते उस कार्य में पाप कहना और उसके लिये प्रायचित्त की कल्पना करना अज्ञानका परिणाम है। शीतल लेश्या के प्रयोग करनेसे शास्त्रमें कहीं भी पाप होना नहीं कहा है और इसके लिये कहीं प्रायश्चितका विधान भी नहीं है ऐसी दशामें शीतल लेश्याका प्रयोग करनेसे भगवानको पाप होने और उस पापकी निवृत्तिके लिये उनके प्रायश्चित्त करनेकी कल्पना करना निमूल ३९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ सद्धमैमण्डनम्। समझना चाहिए । शीतललेश्याको प्रकट करके गोशालाको प्रागरक्षा करनेसे भगवानको पाप हुआ ही नहीं धर्म हुआ फिर वह प्रायश्चित्त क्यों करते ? जिस जिसने शास्त्रानुसार प्रायश्चित्तका कार्य किया था उसके प्रायश्चित्त करने का वर्णन यदि शास्त्रमें नहीं है तो उसकी कल्पना की जा सकती है परन्तु जिसने प्रायश्चित्तके योग्य कार्य ही नहीं किया था उसके प्रायश्चित्त करने की कल्पना तो बिलकुल निराधार और उन्मत्त प्रलापकी तरह सर्वथा अनादरणीय है। ... जीतमलजीने भ्रम० पृ० २०८ के अनन्तर जो नियंठाका विचार किया है उसके हिसाबसे भी भगवान महावीर स्वामी दोषके अप्रतिसेती ही सिद्ध होते हैं क्योंकि कषाय कुशील निपथ मूल गुग और उत्तर गुगका अप्रति लेवो होता है और छमस्थ तीर्थ कर दीक्षा लेनेके बाद कषाय कुशाल ही होते हैं अतः भगवान महावीर स्वामीको दोष का प्रतिसेवी बतलाना मिथ्या है। बोल १ समाप्त (प्रेरक ) _भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २१४ पर लिखते हैं "एकषाय कुशील नियंठाने अपडिसेवी कह्यो ते मप्रमत्त तुल्य अपडिसेवी अणाय छै। कषाय कुशीलमें गुण ठाणा ५ छै छट्ठाथी दशमां ताई तिहां मातमें आठमें नवमें दशमें गुणठाणे अत्यन्त विशुद्ध, निर्मल चारित्र छ। ते अपडिसेवी छै। अने छठे गुणठाणे अत्यन्त विशुद्ध निर्मल परिणामनो धणी शुभयोम में प्रवर्ते छै ते अपडिसेवी छै" इत्यादि लिख कर भगवान महावीर स्वामीको अत्यन्त विशुद्ध निर्मल परिणाम का धनी नहीं मान कर उनको दोषका प्रतिसेवी बतलाते हैं। ___ इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भ्रमविध्वंसनकार अपने इस लेखमें षष्ठ गुण स्थान वाले निमल परिणामके धनी को दोषका अप्रतिसेवी बतलाते हैं इसलिये इनके इस लेखसे भी भगवान महावीर स्वामी दोषके अप्रतिसेवी ही सिद्ध होते हैं क्योंकि आचारांग सूत्रके मूल पाठमें छद्मस्थावस्था में भी भगवान महावीर स्वामीको अत्यन्त विशुद्ध निर्मल परिणामका धनी कहा है। वह आचारांगका पाठ यह है: Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्ताद्यधिकारः । "तपूर्ण समणे भगवं महावीरं वोसिहपत्तदेहे अणुत्तरेणं आलएणं अणुत्तरेणं बिहारेणं एवं संजमेणं पग्गहेणं संवरेणं तवेणं वंभचेर वासेणं खंतिए मुत्तिए सम्मीइए गुत्तिए तुट्टीए ठाणं कम्मेणं सुचरिय फलनिव्वाण मुत्तिमग्गेणं अध्धाणं भावे माणे विहरइ । एवं विहरमाणहस जेकेइ उवसग्गा समुपज्जंति दिव्वावा माणुसावा तिरिच्छियावा ते सव्वे उवसग्गे समुपन्ने समाणे अणाउले अव्वहिए अदीण माणसे तिविह मणवयण कायगुत्ते सम्मं सहइ खमइ तितिक्ख अहि आहह तओणं समणस्स भगवो महावीरस्स एणं विहारेणं विहर माणस वारस वासा विक्कता तेरस सम्मस्य वासस्स परियाये वहमाणस्स" ३०७ ( आचारांग श्र० २ चूलिका ३ भावनाध्ययन ) अर्थ : इसके अनन्तर अपने शरीरकी ममता छोड़े हुए भगवान् महावीर स्वामी अनुत्तर आलय ( मकान ) से, अनुत्तर बिहार से, अनुत्तर संयम से, अनुत्तर ग्रहण से, अनुत्तर सेवर से, अनुत्तर तपसे, अनुत्तर ब्रह्मचर्य्य से, अनुत्तर क्षांति से, अनुत्तर त्याग से, अनुत्तर समिति से, अनुत्तर गुप्त से, अनुत्तर तुष्टि से, अनुत्तर स्थिति से, अनुत्तर गमन से, सम्यक् आचरण से, मोक्षफलकी प्राप्ति कराने वाले मुक्ति मार्गसे अपनी आत्माको पवित्र करते हुए विचरते थे । इस प्रकार विचरते हुए को जो कोई दिव्य मानुष और तिच सम्बन्धी उपसर्ग उत्पन्न होता था उसे अनाकुल ( नहीं घबड़ाते हुए) और अदीन मानस होकर सह लेते थे। इस प्रकार विचरते हुए भगवान् को बारह वर्ष व्यतीत हुए पश्चात् तेरहवें वर्ष के पर्यायमें विद्यमान होने पर भगवानको केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। यह ऊपर लिखे हुए पाठका अर्थ है 1 Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat . इस पाठ में भगवान महावीर स्वामीके संयम, ब्रह्मचर्य, तप, क्षांति आदि गुग अनुत्तर यानी सबसे उत्कृष्ट कहे गए हैं इससे सिद्ध होता है कि भगवान महावीर Earat उच्च श्रेणी कषाय कुशील निमन्थ थे वह दोपके प्रतिसेवी नहीं थे अन्यथा इस पाठमें उनके तप ब्रह्मचय्य और संयम आदि अनुत्तर कैसे कहे जाते ? । अतः भगवान. महावीर स्वामी षष्ठ गुण स्थान में व्यस्यन्त विशिष्ट, निर्मल परिणाम के धनी होने के कारण दोष के अप्रतिसेवी थे प्रतिसेवी नहीं थे । तथापि गोशालककी रक्षा करनेके कारण www.umaragyanbhandar.com Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ सद्धर्ममण्डनम् । जीतमलजी जो भगवान को दोषका प्रतिसेवी बतलाते हैं यह इनका जीवरक्षाके साथ द्रोह रखनेका फल समझना चाहिये। (बोल २ समाप्त) (प्रेरक) भगवान महावीर स्वामीने छद्मस्थावस्थामें कभी भी दोषका प्रतिसेवन नहीं किया था इस विषयमें कोई शास्त्रका प्रमाण बतलाइए ? (प्ररूपक) आचारांग सूत्रमें स्पष्ट लिखा है कि भगवान महावीर स्वामीने छद्मस्थावस्थामें स्वल्प भी पाप और एकवार भी प्रमाद नहीं किया था। वह गाथा यह है: "णचाणं से महावीरे गोविय पावगं सयमकासी अन्नेहिंवा कारित्था करतंवि नाणुजाणिस्था" (आचारांग श्रु० १ अ० ९ उ० ४ गाथा ८ ) (टीका) "किञ्च ज्ञात्वा हेयोपादेयं स महावीरः कर्मप्रेरणसहिष्णुः नाऽपिच पापकं कमस्वय मकाषीत् । नाप्यन्यैरचीकरत् । नचक्रियमाण मपरैरनुज्ञातवान" अर्थात् त्यागने और संग्रह करने योग्य वस्तुको जानकर कर्म की प्रेरणाको सहन करने में समर्थ भगवान महावीर स्वामीने न तो स्वयं पाप कर्म किया न दूसरेसे कराया और करते हुएको अच्छा जाना। यह उक्त गाथाका टीकानुसार अर्थ है । इसमें स्पष्ट लिखा है कि भगवान महावीर स्वामीने छमस्थवास्थामें न स्वयं पाप किया न दूसरेसे कराया और न पाप करते हुएको अच्छा जाना । अतः गोशालक की प्राणरक्षा करनेसे भगवान को पाप लगने की प्ररूपणा मिथ्या समझनी चाहिये ।। ____ यदि गोशालककी प्राणरक्षा करना पाप होता तो इस गाथामें यह कैसे कहा जाता कि भगवान ने छदमस्थावस्थामें कभी भी पापका सेवन नहीं किया था। तथा आगे चल कर इसी उद्देशेकी १५ वी गाथा में कहा है कि भगवान महावीर स्वामीने छद्मस्थावस्थामें कभी भी प्रमादका सेवन नहीं किया था। वह गाथा यह है: "अकसाई विगयगेही य सहरूवेसु अमुच्छि ए झाई । छउमत्थोऽवि परकम माणो नष्पमा सवि कुव्वीस्था" (आचारांग श्र० १ ० ९ उ० ४ गाथा १५ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्ताधिकारः। ३०९ (टीका) ___ "नकषायी अकषायी तदुदयापादित ध्र कुट्यादि कार्य्या भावात् । तथा विगतो गृद्धिः गायं यस्यासौ विगत गृद्धिः तथा शब्दरूपादिषु इन्द्रियार्थेषु अमूच्छितो ध्यायति मनोऽनुकूछेषु नराग मुपयाति नापीतरेषु द्वेषवशगोऽभूत् । तथा छद्मनि ज्ञान दर्शना वरणीय मोहनीयान्तरायात्मके तिष्ठतीति छद्मस्थः इत्येवं भूतोऽपि विविध मनेक प्रकारं सदनुष्ठाने पराक्रममाणो प्रमाद कायादिकं सदपि न कृतवानिति" अर्थ : जिसमें कषाय नहीं है वह अकषायी कहलाता है। भगवान महावीर स्वामी अकषायी थे क्योंकि कषायके उदय से उन्होंने किसी पर भी अपनी ध्र कुटि. टेढ़ी नहीं की थी। भगवान महावीर स्वामी, अनुकूल शब्द आदि विषयों में राग और प्रतिकूलमें द्वेष नहीं करते थे। वह शब्दादि विषयोंमें आसक्त नहीं होकर रहते थे। यद्यपि भगवान छास्थ यानी ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मों में स्थित थे तथापि वह विविध प्रकारके शुभ अनुष्ठानमें ही प्रवृत रहते थे। उन्होंने एक वार भी कषायादि रूप प्रमादका सेवन नहीं किया था। यह इस गाथाका टीकानुसार अर्थ है। इसमें छग्रस्थावस्थामें भगवान महावीर स्वामीका एक वार भी प्रमादका सेवन करना वर्जित किया है अत: जो लोग गोशालककी प्राणरक्षाको प्रमादका सेवन बतलाते हैं वे प्रत्यक्ष उत्सूत्र वादी मिथ्यादृष्टि हैं उनके भ्रमजालमें पड़ कर भगवान महावीर स्वामीको प्रमादका सेवी बतलाना अज्ञान है । [बोल ३ समाप्त ] (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार आचारांग सूत्रको इस गाथा को लिख कर इसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: “अथ ईहां गणघरां भगवान ग गुग वर्णन कीधा त्यांगुणामें अवगुणाने किम कहे गुणोंमें तो गुणाने इन कहे (भ्र० पृ. २३१ ) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) आचारांग सूत्रकी पूर्वक्ति गाथाओंमें भगवान के गुणोंका. वर्णन मात्र ही नहीं किन्तु स्वल्प भी पाप करने और एक वार भी प्रमाद सेवन करने रूप दोषका निषेध भी किया है। अतः इन गाथाओं में केवल भगवान के गुणोंका वर्णन मात्र बतलाना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० सद्धर्ममण्डनम् । मिथ्या है। यदि गोशालककी प्राणरक्षा करना, प्रमाद सेवन और पापाचरण होता तो इन गाथाओंमें भगवान के पापाचरण और प्रमाद सेवन करने का खण्डन कैसे किया जाता ? अतः गोशालककी प्राण रक्षा करनेसे भगवान्को पापी ओर प्रमादी कहना अज्ञान है। यदि कोई कहे कि ये गाथायें गणधरों की कही हुई हैं तीर्थंकरकी नहीं । इस लिये ये प्रमाण नहीं हो सकतीं तो उसे कहना चाहिये कि गगधरोंने तीर्थंकरोंसे सुन कर ही शास्त्र की रचना की है । आर्य्य सुधर्मा स्वामीने भगवान महावीर स्वामीसे जो कुछ सुना था वही इस प्रकरणमें कहा है इस लिये इन गाथाओं को नहीं मानना साक्षात् केवल वाक्यका उल्लङ्घन रूप मिथ्यात्वका स्पर्श करना है। आचारांग सूत्रके इसी अध्ययमके आरम्भमें लिखा है "सुयं मे आउ तेगं भगवया एवमक्खाई" अर्थात् हे आयुष्मन् ! भगवान महावीर स्वामीने ऐसा कहा था यह मैंने सुना है तथा इस नवम अध्ययनके आरम्भमें सुधर्मा स्वामीने जब्वू स्वामीसे यह प्रतिज्ञा करते हुए कहा है कि - " अहा सुर्यं वइस्सामि" अर्थात मैंने जैसा सुना है वैसा ही कहूंगा मतः आर्य सुधर्मा स्वामीने भगवान महावीर स्वामीसे जैसा सुना था वैसा ही इस प्रकरणमें कहा है अपनी ओरसे एक भी बात बनाकर नहीं कही है अतः आवागंग सूत्रके म अध्ययनके चौथे उद्दे शेकी आठवीं और पन्द्रहवीं गाथामें कही हुई बातको नहीं मानना साक्षात् केवलीके वाक्यको नहीं मानने रूप मिथ्यात्व का स्पर्श समझना चाहिये । ( बोल ४ समाप्त ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २३२ पर उबाई सूत्रका मूल पाठ लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं "जे साधांमे गुण हुन्ता ते वखाण्या परं इम न जाणि ए जे वीर रा साधुरे कदेइ आर्तध्यान आवे इज नहीं मांठा परिणामे क्रोधादिक आवे इज नहीं इम नथी कदाचित् उपयोग चूक दोष लागे पर गुण वर्णनमें अवगुण क्रिम कहे तिम गणधगं भगवान रा गुण क्रिया तिगमें तो गुग इज वर्णव्या जेवलो पाप न कीधो तेहिज आश्री कह्यो परंगुण "अवगुण किम कहे ।" (भ्र० पृ० २३२ ) इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक) वाई सूत्रका मूल पाठ लिखकर इसका समाधान किया जाता है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३११ प्रायश्चित्तायधिकारः। "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ मन्तेवासी यहवे समणा भगवन्तो अप्पेगइया उम्गपन्नइया भोगपश्वया राहण्म णाय कोरव्व खत्तिय पवइया भडा जोहा सेणावइ पसत्यारो सेट्ठो इन्भा अण्णेय वहवे एवमाइणो उत्तम जाति कुल स्व विणय विण्णाण वण्ण लावण्ण विक्कम पहाण सोभग्य कंतिजुता वहु धण पाण्णणिचय परियालफिडिया णरवइ गुणातिरेका इच्छिषभोगा मुखसंपल्ललिया किंपाक फलोपमंच मुणि र विसयसोक्ख जलवुच्चुभ समाणं कुसग्ग जलविन्दु चंचलं जीवियं च गाउण अद्ध कमिणं रयमिव पठग्गलग्ग संवुधिणित्ता गं चइता हिरणं जाव पव्वया अप्पेगड्या अद्धमास परियाया अप्पेगइय। मास परियाया एवं दुमास तिमास जाव एकारस अप्पंगइया अनेक वास परियाया संजमेणं तपसा अप्पाणं भावेमाणाविहरति" (उवाई सूत्र) अथ : उस समय भगवान महावीर स्वामीके पास बहुतसे शिष्य विद्यमान थे। जिनमें कोई तो उग्र वंशमें उत्पन्न, कोई भोग वंशज, कोई राजन्य, कोई नाग वंशज, कोई कुरु वंशज, कोई क्षत्रिय वंशज, कोई चार भट, योद्धा, और कोई सेनापति, कई धर्मशास्त्र पाठी, कोई सेठ, कोई इभ्य (बड़े धनवान ) इस प्रकार उत्तम जाति, कुल, रूप, विनय, विज्ञान, वर्ण, लावण्य, विक्रम, सौभाग्य और कान्तिसे युक्त, धन धान्य परिवार दासी दास आदिके द्वारा गृहवास कालमें बड़े बड़े धनवान से भी श्रेष्ठ तथा विभव सुख में राजाओंसे भी बड़े बड़े इच्छानुरूप भोग पाने वाले सुखमें पाले हुए विषय सुखको विषवृक्षके फलके समान चुरा और कुशके अग्र भागमें लगे हुए जल विन्दुकी तरह जीवनको अति चंचल जान कर अनित्य विषय मुख और धन धान्य आदिको कपड़े में लगी हुई धूलिके समान झाड़कर हिरण्य सुवर्ग आदिको छोड़ कर प्रव्रजित (साधु) हो गये थे। इनमें काई अध मासके काई एक मासके काई दो मासके काई तोन मासके यावत् ११ मास के पर्याय वाले थे । काई अनेक दिनके पर्याय वाले थे। ये सभी शिष्य संयम और तपस्यासे अपनी आत्माको पवित्र करते हुए विचरते थे। (यह उवाई सूत्रके उक्त मूलका अर्थ है) इस पाठमें यह नहीं कहा है कि "भगवान् महावीर स्वामीके ये सब शिष्य कभी भो प्रमादका सेवन नहीं करते थे। तथा इन लोगोंने कभी पाप नहीं किया था।" इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ सद्धममण्डनम् । लिये भगवान महावीर स्वामीके इन शिष्योंमें पाप और प्रमादका होना सम्भव है, परंतु भगवान महावीर स्वामीमें नहीं क्योंकि भगवान महावीर स्वामीके विषयमें जो आचारांगकी गाथाएं लिखी गई हैं उनमें साफ साफ भगवान में पाप और प्रमाद का निषेध किया है। अत: उवाई सुत्रके इस पाठसे आचारांग सूत्रकी पूक्ति गाथाओंकी तुल्यता बता कर भगवान में बलात्कारसे पाप और प्रमादका स्थापन करना मिथ्या है। - उवाई सुत्रमें यदि यह कहा होता कि "भगवान महावीर स्वामी के शिष्यों ने कभी भी पाप और प्रमाइका सेवन नहीं किया था" तो अवश्य यह बात मानी जाती कि भगवान के शिष्योंने कभी भी पाप और प्रमाद नहीं किया था परन्तु मूलपाठमें ऐसा नहीं कहा गया है इसलिये भगवान महावीर स्वामीके शिष्यों में पाप और प्रमाद होनेका खण्डन नहीं किया जा सकता लेकिन भगवान महावीर स्वामीके विषयमें तो आचारांगकी उक्त गाथाओंमे साफ साफ लिखा है कि "भगवान ने छद्मस्थावस्थामें स्वल्प भी पाप और एक वार भी प्रमादका सेवन नहीं किया था।" ऐसी दशामें जो भगवान महावीर स्वामीमें पाप और प्रमादका स्थापन करता है वह उत्सूत्रवादी मिथ्यादृष्टि है। (बोल ५ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २३३ पर उवाई सूत्रका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं “अथ अठे कौणिकने सर्व राजाना गुग सहित कह्यो, माता पितानो विनीत कयो अने निरावलियामें कह्यो, जे कोणक श्रेणिकने वेडिवन्धन देई पोते राज्य बैठो तो जे श्रेणिकने वेडी वन्धन बांध्यो ते विनीत पणो नहीं ते तो अविनीत पणोइज छै। पिण उवाईमें कौणिकना गुण वर्णव्या तिणमें जेतलो विनीतपणो तेहिज वर्णव्यो अविनीत पणो गुग नहीं तेभणी गुग कहिणेमें तेहनो कथन कियो नहीं तिमगणधरां भगवानागुण किया त्यां गुगामें जेतला गुण हुन्ता तेहिज गुग वखाण्या परं लब्धि फोडो ते गुग नहीं ते अवगुणरो कथन गुणामें किम करे" ( भ्र० पृ० २३३) इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक) __भ्रमविध्वंसन कारका यह कथन भी अज्ञानसे परिपूर्ण है। उवाई सत्रके मूलपाठमें कौणिक राजाके चम्पानगरीमें निवास काल का गुग वर्णन किया है। कौणिक राजा चम्पानगरीमें जब रहने लगा था तब वह माता पिताका विनीत हो गया था अतएव वह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्ताद्यधिकारः । ३१३ पितृ शोकाकुल होकर राजगृह को छोड़ कर चम्पानगरीमें आया था। उस समय उसे माता पिताका विनीत कहना ठीक ही है परन्तु उस पाठमें यह नहीं कहा है कि कौणिक राजाने माता पिता के साथ कभी भी अविनय नहीं किया था। इसलिये उवाई सूत्रके इस पाठसे कौणिक अविनयी होनेका निषेध नहीं किया जा सकता परन्तु भगवान महावीर स्वामीके विषय में जो आचारांग सूत्रमें गाथाएं कही गई हैं उनमें साफ़ साफ भग में पाप और प्रमाद होनेका निषेध किया गया है ऐसी दशामें यह कैसे कहा जा सकता है कि भगवान में पाप और प्रमाद थे" क्योंकि यह कहना प्रत्यक्ष ही शाखसे विपरीत बोलना है अतः कौणिक वाले पाठके उदाहरण से भगवान में पाप और प्रमादका स्थापन करना उत्सूत्रवादियों का कार्य समझना चाहिये । [ बोल छट्ठा समाप्त ] ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २३४ पर उनाई सूत्र प्रश्न २० का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं “ अथ अठे श्रावकने धर्मरा करणहार कला ते तो स्यूं अधर्म न करे कांई । वा णिज्य, व्यापार, संग्राम आदिक अधर्म छै ते अधर्म ना करणहार है । पिग ते श्रत्रका गुण 'वर्णन में अवगुण किम कहे" इत्यादि लिख कर आगे लिखते हैं “तिम भगवान रे गुण वर्णन में लब्धिफोडीने अवगुण ना वर्णन किम करे" ( ० पृ० २३४ ) इसका क्या उत्तर ? ( प्ररूपक ) उबाई सूत्रमें श्रावकों के सम्बन्धमें जो पाठ आया है उसका उदाहरण देकर भगवान महावीर स्वामीमें पाप और प्रमादका स्थापन करना मिथ्या है । उवाई सूत्र श्रावक सम्बन्धी पाठमें साफ साफ लिखा है कि श्रावक अट्ठारह पापोंसे देशसे हटे हुए और देशसे नहीं हटे हुए होते हैं इसलिये इस पाठसे ही श्रावकों का देशसे पाप सेवन करना सिद्ध होता है परन्तु भगवान के विषय में जो आचारांग गाथाएं कही हैं उन में स्वल्प भी पाप और एक बार भी प्रमाद सेवन करने का निषेध किया है अतः श्रावक सम्बन्धी पाठके उदाहरणसे भगवान में पाप और प्रमाद का स्थापन करना ज्ञान है । दूसरी बात यह है कि भगवान् महावीर स्वामी दीक्षा लेनेके बाद छद्मस्थदशामें कषायकुशील निबंध थे । कषाय कुशील निप्रथ, मूल गुण और उत्तर गुणमें दोष नहीं ४० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ सद्धर्ममण्डनम् । लगाते यह बात शास्त्र प्रसिद्ध है इसलिये भगवान महावीर स्वामीने जो शीतललेश्याका प्रयोग करके गोशालेकी प्राणरक्षा की थी उसमें उनको पाप या प्रमाद नहीं हुआ यह बात शाख सम्मत समझनी चाहिये। (बोल ७ वां समाप्त) (प्रेरक) कषाय कुशील निथ यदि मूल गुण और उत्तर गुगमें दोष नहीं लगाता तो गोतम स्वामी कषाय कुशील निप्रय होते हुए भी आनन्दके घर पर वचन बोलनेमें क्यों स्खलित हुए थे ? अतः जैसे गोतम स्वामी कषाय कुशील निपंथ होते हुए भी आनन्द के घर पर चूक गये थो उसी तरह भगवान महावीर स्वामी भी चूक सकते हैं अतः कषाय कुशील निग्रंथके न चूकने की बात मिथ्या है। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) गोतम स्वामी जिस समय आनन्द श्रावकके घर वचन बोलनेमें चूक गये थे उस समय उनमें कषाय कुशील नियण्ठा था ही नहीं तथा चौदह पूर्व और चार ज्ञान भी उस समय गोतम स्वामीमें नहीं थे। अन्यथा चार ज्ञान और चौदह पूर्वके धनी कषाय कुशील निग्रन्थ हो कर गोतम स्वामी कदापि नहीं चूक सकते थे। इस विषयमें वहांका मूलपाठ ही प्रमाण है। वह पाठ यह है "तएणं से भगवं गोयमे आणदेणं समणोवासएणं एवं बुत्ते समाणे संकिए कंखिए विइगिच्छा समापन्ने आनंदस्स अंतिआओ पडिनिक्खमई" अर्थ अर्थात् आनन्द प्रापकने गोतम स्वामीसे जब यह कहा कि “आप व्यर्थ ही मुझे आलो. चना केनेका उपदेश देते हैं मेरी रायमें आपको ही आलोचना लेनी चाहिये" तब गोतम स्वामी शङ्का, कांक्षा और विचिकित्सासे युक्त होकर आनन्दके घरसे बाहर आये। यह उपर्युक्त गाथाका मूलार्थ है। ___ इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि उस समय गोतम स्वामीमें चार ज्ञान और चौदह पूर्व नहीं थो अन्यथा उनको आनन्दके वाक्यसै शङ्का, कांक्षा और विचिकित्सा क्यों उत्पन्न होती ? । वह अपने ज्ञानके प्रभावसे यथार्थ बातका तिर्णय स्वयं कर सकते थे फिर उन्हें शङ्का, कांक्षा आदि होनेका क्या कारण था ? तथा उस समय उनमें कषाय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्ताधिकारः। ३१५ कुशील नियण्ठा भी नहीं था। अन्यथा वह वचन बोलने में क्यों चूक जाते ? अतएव उपासक दशांग सूत्रमें जहां गोतम स्वामीका गुण वर्णन किया है वहां उनको चौदह पूर्व और चार ज्ञानका धनी नहीं कहा है। कोई कोई कहते हैं कि "भगवती सूत्र, उपासक दशांग सूत्रसे पहलेका बना है उस में गोतम स्वामीको चार ज्ञान और चौदह पूर्व का धारक बतला दिया है इसीलिये उपासक दशांगमें गोतम स्वामीको चौदह पूर्व और चार ज्ञानका धारक नहीं कहा है क्योंकि ये बातें भगवती सूत्रमें कही जा चुकी हैं। जो बाते भगवती सूत्र, कही जा चुकी हैं उसे फिर उपासक दशांगमें कहनेकी क्या आवश्यकता है ? । उनसे कहना चाहिये कि यदि भगवतीमे कहे जानेके कारण गोतम स्वामीके चार ज्ञान और चौदह पूर्वका कथन उपासक दशांग सूत्रमें नहीं किया गया है तो भगवतीसूत्र में जिन जिन गुणोंका वर्णन किया है उन सभी का वर्णन उपासक दशांग सूत्रमें नहीं होना चाहिये परन्तु ऐसा नहीं होकर भगवतोमें कहे हुए कई गुणोंका उपासक दशांग सूत्रमें वर्णन किया है और कई गुणोंका नहीं किया है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि भगवती सूत्रमें समुच्चय रूपसे सभी गुणोंका वर्णन किया गया है और उपासक दशांग सत्रमें आनन्दके पास जाते समय गोतम स्वामी में जितने गुम थे उन्हींका वर्णन है। नहीं तो उपासक दशांगमें फिर उन्हीं गुगोंके कहनेकी क्या आवश्यकता थी जो भगवती में कहे जा चुके हैं। भगवती सूत्र के साथ उपासक दशांग सूत्रके पाठमें केवल इतना ही अन्तर है कि भगवतीमें चार ज्ञान और चौदह पूर्वके साथ अन्य गुणोंका कथन है और उपासक दशांगमें अन्य गुणोंका वर्णनके साथ चार ज्ञान और चौदह पूर्वका कथन नहीं है। इसके सिवाय भगवती सूत्र और उपासक दशांग सूत्र के पाठों में कुछ भी अन्तर नहीं है। देखिये भगवतीका पाठ यह है: "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्त भगवओ महावीरस्स जेट्टे अन्तेवासी इन्दभूति नाम अनमारे गोतम गोतेणं सत्तुसेहे समयउस्स संहाण संहिए वज्जरिसह नाराय. संघमणे कणक पुलकणिघस पा मोरे ग्रम लवे दित्त तवे तत तवे महा तवे उराले घोरे घोर गुणे घोर तवस्ती घोर वंभचेर वासो उच्छढ़ सरोरे संखित्तविउलतेउल्लेस्ते चउद्दस पूव्वी चउण्णाणोवगये सव्वक्खर सन्निवाई" (भ० श० १ उ०१) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ सद्धर्ममण्डनम् । "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जे? अन्तेवासी इन्दभूइ नाम अणगारे गोयम गोत्तेणं सत्तुसेहे समचउरंससंहाणसंहिए वज्जरिसहनारायसंघमणे कणकपुलकणिघस पह्म गोरे उग्गतवे दित्ततवे घोर तवे उराले घोर गुणे घोर तवस्सी घोर वंभचेर वासी उच्छूट सरीरे संखित्त विउल तेउलेरसे छ8 छठेणं अणिखिनेणं तवोपक्रमेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावे माणे वि ( उपासक दशांग) इस पाठमें भगवती सूत्रोक्त गोतम स्वामीके "चउद्दस पूवी" "चउण्णाणोवगए" "सव्वक्खर संन्निवाई” इन तीन विशेषगोंको छोड़ कर बाकी सभी विशेषग कहे गये हैं। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि जिस समय गोतम स्वामी आनन्दके घर पर गये थे उस समय उनमें चौदह पूर्व और चार ज्ञान नहीं थे। यदि भगवतीमें कहे जानेके कारण इन तीन विशेषणोंका कथन उपासक दशांगके इस पाठमें न माना जाय तो फिर उपासक दशांग सूत्रमें अन्य विशेषगोंका कथन भी नहीं होना चाहिये क्योंकि भगवती में ये सभी कहे जा चुके हैं अतः जिस अवस्थाका गुग वर्णन करनेके लिये उपासक दशांगका पाठ कहा गया है उस समय गोतम स्वामीमें चार ज्ञान और चौदह पूर्व नहीं थे यही बात सिद्ध होती है। जो बातें पूर्वके अङ्गोंमें वर्णन की गई हैं वे सभी उत्तरके अङ्गोंमें समझी जायं ऐसा कोई नियम नहीं है क्योंकि आचारांग सूत्रके दूसरे श्रुत स्कन्धमें भगवान महावीर स्वामीके केवल ज्ञान उत्पन्न होनेका वर्णन किया गया है तथापि भगवती सूत्रके १५ वें शतकमें प्रसङ्गवश फिर भी भगवान के छद्मस्थपनेका वर्णन है । भगवती पांचवां अङ्ग है और आचाराङ्ग पहला है। उसी तरह भगवतीमें गोतम स्वामीके चार ज्ञान और चौदह पूर्वका वर्णन होने पर भी प्रसङ्गवश उपासक दशांग सूत्र में गोतम स्वामीके चार ज्ञान और चोदह पूर्व न होनेके समयकी वात कही गयी है। यदि भगवतीमें कहे हुए गोतम स्वामीके सभी गुणोंको उपासक दशांग सूत्रमें बतलाना होता तो “जाव" शब्दसे भगवतीके पाठका संकोच करके उपासक दशांग सूत्र में में इस तरह कह देते कि "तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस भगओ महावीरस्स जेठे अन्तेवासी इंदभूई नाम अनगारे जाव विहरइ" परन्तु शास्त्रकारको भगवतीमें कहे हुए सभी विशेषणोंके ग्रहंग करने की आवश्यकता नहीं थी अतएव जाव शब्दसे भगवती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्ताधिकारः। के पाठ का यहां सङ्कोच नहीं किया है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि आनन्द श्रावक को उत्तर देते समय गोतम स्वामी चौदह पूर्व और चार ज्ञानके धनी नहीं थे अतः गोतम स्वामीके दृष्टांतसे भगवान महावीर स्वामीको चूका हुआ बताना मिथ्या है। (बोल ८ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २१३ पर दशवैकालिक सूत्रकी गाथा लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं “अथ इहां कयो-दृष्टिवादरोधणी पिण वचनमें खलाय जाय तो और साधुने हसनो नहीं। ए दृष्टिवादरो जाणं चूके तिग में पिण कषाय कुशील नियंठो छै” (भ्र० पृ० २१३) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) - भ्रमविध्वंसनकारने दशवैकालिक सूत्रकी गाथाका अशुद्ध अर्थ किया है इसलिये वह गाथा लिखकर उसका शुद्ध अर्थ किया जाता है आयार पन्नत्तिधरं दिठिवाय महिज्जगं वायविक्खलियं नचा नतं उवहसे मुणी" (दशवैकालिक अ०८ गाथा ५०) (टीका) ___ 'आयार' त्ति सुत्रम् । आचार प्रज्ञप्तिधर मिति आचार धरः स्त्रीलिंगादीनि जानाति प्रज्ञप्तिधर स्तान्येव सविशेषाणीत्येवं भूतं । तथा दृष्टिवाद मधीयानं प्रकृति प्रत्यय लोपागम वर्ण विकार काल कारक वेदिनं वाग्विस्खलितं ज्ञात्वा विविध मनेकैः प्रकारैलिङ्ग भेदादिभिः स्खलितं विज्ञाय नत माचारादि धर मुपहसेन्मुनिः अहोनु खल्वाचारादिधरस्यवाचि कौशलमित्येवम् इहच दृष्टिवाइ मधीयान मित्युक्त मत इदं गम्यतेनाधीत दृष्टिवादं तस्य ज्ञानाप्रमादातिशयतःस्खलनासंभवात् । यद्यवं भूतस्यापि स्खलितं भवति नचैनमुपहसे दित्युपदेशः ततोऽन्यस्य सुतरां भवतीति नासौ हसितव्य इति सुत्रार्थः ।" अर्थ: जो स्त्रीलिङ्ग आदिको जानता है उसे आचारधर कहते हैं और जो विशिष्ट रूपसे स्त्रीलिङ्ग आदि जानता है उसे प्रज्ञप्तिधर कहते हैं । जो मुनि, आचारधर और प्रशप्तिधर हैं तथा दृष्टिवादका Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सधर्ममण्डनम् । अध्ययन कर रहे हैं, प्रकृति, प्रत्यय, लोप, आगम, वर्णविकार, काल और कारकको जानते हैं यह यदि बोलते समय लिङ्ग आदिसे अशुद्ध बोल देखें तो उन पर हास्य नहीं करना चाहिये । यह नहीं कहना चाहिये कि अहो ! आचारादि धर मुनिका इस प्रकार पाक्कौशल है ? इस गाथामें "दृष्टिवाद मधीयानं" इस शाक्यमें वर्तमान कालका प्रयोग करके यह बतलाया गया है कि जिस मुनिने दृष्टिवादका अध्ययन करना समाप्त नहीं किया है किन्तु दृष्टिवादका अध्ययन अभी कर रहा है उससे यदि वाक् स्खलन हो जाय तो हास्य नहीं करना चाहिये। जिसने दृष्टिवादको पढ़ कर समाप्त कर दिया है उससे वाक् स्खलन होना असम्भव है। दृष्टिवादको पढ़ कर जिसने समाप्त कर दिया है उसमें ज्ञान और अप्रमादका बहुत ज्यादा सद्भाव होता है अतः वह भूल नहीं कर सकता है। इस पाठमें यह उपदेश किया गया है कि दृष्टिवादका अध्ययन करने धाले मुनिसे यदि वाक् स्खलन हो जाय तो हास्य नहीं करना चाहिये। इससे यह भी सिद्ध होता है कि आचार प्रज्ञप्ति धर मुनिसे जब कि वाक् स्खलन होता है तब फिर दूसरेसे वाक्स्खलन होना तो एक साधारण बात है इसलिये यदि दूसरेसे भी वाक् स्खलन हो जाय तो उस पर हास्य नहीं करना चाहिये । यह उक्त गाथाका टीकानुसार अर्थ है। यहां "दृष्टिवाद मधीयान" इस वाक्यमें वर्तमान कालका प्रयोग देकर दृष्टिवादको पढ़ते हुए मुनिका वाक् स्खलन होना बतलाया है, जिसने दृष्टिवादको पढ़ कर समाप्त कर दिया है उसका वाक् स्खलन होना नहीं कहा है अत: इस गाथाका नाम लेकर चौदह पूर्वधारीको चूक होनेकी सिद्धि करना मिथ्या है। चौदह पूर्वधारी दृष्टिवादको पढ़ा हुआ होता है अतः वह कदापि चूक नहीं सकता है। किन्तु जो अभी दृष्टिवादको पढ़ रहा है उसीका चूकना इस गाथामें कहा है। (बोल ९ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकारका मत है कि कषाय कुशील निनथमें छ: समुदघात और पांच शरीर शास्त्रमें कहे हैं। और वैक्रियलब्धिका प्रयोग करनेवालेको विना आलोचना लिये मरने पर विराधक कहा है तथा वैक्रियलब्धि और आहारक लब्धिके प्रयोग करनेसे पांच क्रियाका लगना शास्त्रमें कहा है अतः कषाय कुशील निग्रन्थ भी वैक्रिय लब्धिका प्रयोग करता हुआ दोषका प्रतिसेवी होता है इसलिये सभी कषाय कुशीलोंको दोष अप्रतिसेवी बताना मिथ्या है। इसका क्या समाधान ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तायधिकारः। ,३१९ (प्ररूपक) कषाय कुशीलमें छः समुद्घात और पांच शरीर पाये जाते हैं तथापि भगवती शतक २५ उद्देशा ६ में उसे दोषका अप्रतिसेवी कहा है । वह पाठ यह है "कसाय कुसोलेणे पुछा गोयमा ! नो पष्ठिसेवए होज्जा अपडिसेवए होजा" (भगवती शतक २५ उ०६) अर्थ: (प्रश्न ) हे भगवन् । कषाय कुशील दोष का प्रतिसेधी होता है या अप्रतिसेधी होता है ? (उत्तर) हे गोतम ! कषाय कुशोल दोष का अप्रतिसेवी होता है प्रनिसेधी नहीं होता है। इस पाठमें कषाय कुशीलको साफ साफ दोषका अप्रतिसेवी बतलाया है इसलिये छः समुद्घात और पांच शरीरके पाये जाने पर भी कषाय कुशील दोषका अप्रतिसेवी ही होता है प्रतिसेवी नहीं। यदि कोई पूछे कि “काय कुशीलमें जब कि छः समुद्घात और पांच शरीर पाये जाते हैं सब वह दोष का अप्रतिसेवी कैसे हो सकता है ?" तो उसे कहना चाहिये कि दोषका प्रतिसेवन परिणामके अधीन होता है कार्यके अधीन नहीं होता। जैसे कि वीतराग साधुके पैरके नीचे आकर यदि कोई जानवर मर जाय तो वीतरागको ऐउपथिकी (पुण्य वन्ध ) किया लगती है और सरागी साधुके पैरके नीचे आकर कोई जानवर मर जाय तो उसको साम्परायिकी क्रिया लगती है। यहां पैरके नीचे आकर जानवरके मरनेमें कोई भेद नहीं है परन्तु परिणाममें भेद होनेसे वीतरागको तो पुण्यवन्ध और सगगको सम्पगयिकी क्रिया होती है। वीतरागका परिणाम निर्मल है इसलिये उसके पैरके नीचे आकर जानवरके मरनेसे उसे पुण्यवण्वकी क्रिया होती है और सराग साधुका परिणाम वैसा निर्मल नहीं है इस लिये उसके पैरके नीचे जानवरके मरनेसे उसे साम्परायिकी क्रिया लगती है उसी तरह कषाय कुशीलका परिणाम निर्मल होता है इसलिये छः समुद्घात और पांच शरीरके पाए जानेपर भी वह दोषका अप्रतिसेवी ही होता है। वकुश और प्रतिसेवना कुशील, कषाय कुशीलकी तरह निर्मल परिणाम वाले नहीं होते इस लिये ये दोषके प्रति सेवी होते हैं । यदि छः समुद्घात और पांच शरीरके पाये जानेसे ही दोषका प्रति सेवी हो जाता तो फिर वकुश और प्रतिसेवना कुशीलकी तरह कषाय कुशील Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० सद्धर्ममण्डनम् । को भी शास्त्रकार दोषका प्रतिसेवी बतलाते परन्तु शास्त्रकारने साफ साफ कषाय कुशील को दोषका अप्रतिसेवी बतलाया है इस लिये कषाय कुशीलको दोषका प्रतिसेवी बतलाना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये। [बोल १० वां समाप्त ]] (प्रेरक) ___ भ्रम विध्वंसन कारका कहना है कि "जैसे भगवती सत्र शतक १६ उद्दशा ६ में संवृत (साधु ) को यथार्थ स्वप्न आना कहा है और उसीको आवश्यक सूत्रमें मिथ्या स्वप्न भी आना कहा है इसलिये जैसे संवृत साधु दो तरहके होते हैं एक सच्चा स्वप्न देखनेवाले और एक झूठा स्वप्न देखनेवाले, उसी तरह कषाय कुशील भी दो तरह के होते हैं एक दोषका प्रतिसेवन नहीं करने वाले और दूसरे दोषका प्रतिसेवन करने वाले। इसका क्या समाधान ? - (प्ररूपक) संवुडा साधुका दृष्टान्त्र देकर कषाय कुशीलको दो तरहका बतलाना अज्ञान है। जिस संवुडा साधुका नाम लेकर भगवती शतक १६ उद्देशा ६ में सच्चा स्वप्न देखना कहा है उसी संवुडाका नाम लेकर आवश्यक सूत्रके चौथे अध्ययनमें मिथ्या स्वप्न देखना भी कहा है इस लिये संवुडा साधुका द्विविध होना शास्त्रसे ही सिद्ध होता है परन्तु कषाय कुशीलका द्विविध होना शास्त्रसे नहीं सिद्ध होता क्योंकि जिस कषाय कुशोलका नाम लेकर भगवती शतक २५ उद्देशा ६ में दोष का अप्रतिसेवी कहा है फिर उसी कषाय कुशील का नाम लेकर शास्त्रमें कहीं दोषका प्रतिसेवी नहीं कहा है अतः संघुडाकी तरह कषाय कुशील को दो तरहका बतलाना अप्रमाणिक है। (प्रेरक) भ्रम विध्वंसन कार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ २१७ पर भगवती शतक ५ उद्देशा ४ का मूल पाठ लिख कर उसको समालोचना करते हुए लिखते हैं "अश्न इहा कटो-अनुत्तर विमानरा देवता उदीर्ण मोह नथी अने क्षीण मोह नथी उपशान्त मोह छ, इम कयो । इहां मोइने उपशमायो कयो । अने उपशान्त मोहतो ११वें गुण ठाणे छै अने देवता तो चौथे गुण ठाणे छै विहांतो मोहनो उदय छै तेह थी समय समय सात २ कर्म लागे छ । मोहनो उदयतो दशमें गुणठाणे ताई छे अने इहां तो देवता ने उपशान्त मोह कयो ते उत्कद वेद मोहनी आश्री कयो तिहां देवताने परिचारणा नथी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तायधिकारः। ते मांटे वहुल वेद मोहनी आश्री उपशान्त मोह कयो। पिण सर्वथा मोह आश्री उपशान्त मोह न थी कह्या" इत्यादि लिख कर आगे लिखते हैं “तिम कषाय कुशीलने अपडिसेवी कह्यो ते पिण विशिष्ट परिणामनाधणी आश्री अपड़िसेवी को पिण सर्व कषाय कुशील चारित्रिया अपहिसेवी नहीं" (भ्र० पृ० २१७) . - इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) अनुत्तर विमानवासी देवताओंके विषयमें जो पाठ आया है उसका उदाहरण देकर कषाय कुशीलको दोषका प्रतिसेवी कहना अज्ञान है। अनुत्तर विमानवासी देवता चौथे गुण स्थानके धनी हैं इसलिये उनमें मोहका पूर्ण उपशम होना असम्भव है अतः उन्हें उपशान्त मोह कहनेका आशय यही हो सकता है कि उनमें उत्कट वेद मोहनीय का अभाव है परन्तु कषाय कुशीलके विषयमें यह उदाहरण नहीं घटता क्योंकि कषाय कुशील को कहीं भी दोषका प्रतिसेवी नहीं कहा है। ___यदि किसी जगह कषाय कुशीलको दोषका प्रतिसेवी कहा होता अथवा किसी दूसरे प्रमाणसे भी कषाय कुशीलका प्रतिसेवी होना जाना जाता तो भगवतीके २५ ३ शतक और छठे उद्देशेके पाठका यह अभिप्राय माना जा सकता था कि कषाय कुशील जो उच्च कोटिके हैं उनकी अपेक्षासे ही भगवतीमें दोषका अप्रतिसेवी कहा है परन्तु कषाय कुशीलको दोषका प्रतिसेवी बतानेवाला न कोई मूलपाठं ही कहीं मिलता है और न किसी दूसरे प्रमाणसे ही कषाय कुशीलका प्रतिसेवी होना सिद्ध होता है ऐसी दशामें अनुत्तर विमानवासी देवताओंके पाठका उदाहरण देकर कषाय कुशीलके सम्बन्धमें आये हुए पाठका यह अभिप्राय बतलाना कि "जो उच्च श्रेणीके कषाय कुशील . हैं उन्हीं को दोषका अप्रतिसेवी बतलाना इस पाठका आशय है", बिलकुल मिथ्या है । . . . . . . . सभी कषाय कुशील यदि दोषके अप्रतिसेवी नहीं होते तो कदापि भगवती शतक २५ उद्देशा ६ में कषाय कुशील मात्रको दोषका अप्रतिसेवी नहीं कहते । अथवा टीकामें तथा किसी दूसरी जगह मूलपाठमें ही इसका खुलासा अवश्य कर देते परन्तु कषाय कुशील दोषका प्रतिसेवी नहीं होता है इसीलिये शास्त्रकारने सामान्य रूपसे सभी कषाय कुशील को दोषका अप्रतिसेवी ही कहा है अतः कपाय कुशीलको दोषका प्रतिसेवी बतलाने के लिये विविध कुतर्को का आश्रय लेना दुराग्रहका परिणाम समझना चाहिये। [बोल ११ वां समाप्त ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ सद्धर्ममण्डनम् । (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १८८ पर ठाणांग सूत्र ठाणा ७ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: "अथ अठे पिण इम क्ह्यो सात प्रकारे छद्मस्थ जाणिये अने सात प्रकार वली जानिए । केवली तो ए सातुइ दोष न सेवे ते भगी न चूके अने छद्मस्थ सात दोष सेवे छै" (भ्र० पृ० १८८) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) ठाणाङ्ग ठाणा सातके मूलपाठसे भगवान महावीर स्वामीका दोष सेवन करना नहीं सिद्ध होता है क्योंकि सभी उमस्थ दोषके प्रतिसेवी होते ही हैं ऐसा कोई नियम ठाणाङ्ग ठाणा सातमें नहीं कहा है। वहांके मूलपाठका यही आशय है कि छद्मस्थोंमें सात दोषों का सम्भव होता है केवलियोंमें नहीं । सातवें गुग स्थानसे लेकर बारहवें गुण स्थान तक के जीव छद्मस्थ ही होते हैं परन्तु वे दोषोंका सेवन नहीं करते क्योंकि उनका परिणाम बहुत ही निर्मल होता है उसी तरह छट्ठा गुण स्थान वाले जो विशिष्ट निमल परिणामके धनी होते हैं वे भी दोषके प्रतिसेवो नहीं होते । यह बात भ्रमविध्वंसनकारने भी भ्र० पृ० २१४ पर लिखो है जैसे कि: ___"अने छ गुण ठाणे पिण अत्यन्त विशिष्ट निर्मल परिणामनो धगी शुभयोगमें प्रवतें है" - भगवान् महावीर स्वामी षष्ठ गुण स्थानमें अतिविशिष्ट निर्मल परिणामके धनी थे इसलिये वह दोषके प्रतिसेवी नहीं थे। भगवान् महावीर स्वामी छमस्थ दशामें प्रति विशिष्ट निर्मल परिणामके धनी थे यह बात प्रमाणके साथ पहले कही जा चुकी है और याचारांग सूत्रकी गाथाओंको लिख कर यह स्पष्ट सिद्ध कर दिया गया है कि भगवान् महावीर स्वामोने छमस्थ दशामें स्वल्प भी पाप और एक बार भी प्रमादका सेवन नहीं किया था अतः ठाणाङ्ग ठाणा सातके मूलपाठका नाम लेकर भगवान में चूक होनेकी प्ररूपणा मिथ्या समझनी चाहिये । .... यदि कोई दुराग्रही सभी छद्मस्थोंमें सात दोषोंका अवश्य सद्भाव बतावे तो उसे कहना चाहिये कि छद्मस्थ तो सातवें गुणस्थान वाले तथा ८ । ९ । १० । ११ और बारहवें गुण स्थान वाले भी होते हैं फिर तुम उन्हें भी दोषका प्रतिसेवी क्यों नहीं मान लेते ? । यदि सातवें आठवें आदि गुण स्थान वाले अति विशिष्ट निर्मल परिणामके धनी होनेसे दोषका प्रतिसेवी नहीं होते तो उसी तरह षष्ठ गुण स्थान वाला भी मतिविशिष्ट Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्तायधिकारः। निमेल परिणामका धनी दोषका प्रतिसेवी नहीं होता। भगवान महावीर स्वामी षष्ट गुण स्थानमें अति विशिष्ट निर्मल परिणामके धनी थे इसलिये वह दोषका प्रतिसेवो नहीं थे मतः गोशालककी रक्षा करनेके कारण भगवान को चूका हुआ बतलाने वाले अज्ञानी और अनुकम्पाके द्रोही हैं। (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्र० पृ० ३२२ पर लिखते हैं: "गोशालाने तिल बताई, लेश्या सिखाई, दीक्षा दीधी ए सर्व उपयोग चूकने कार्य कीधा । जो उपयोग देवे अने जाने ए तिल उखेड़नाखसी तो तिलवतावताइज क्याने पिण उपयोग दिया विना एकार्य किया छै" (भ्र० पृ० २२२) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भगवान महावीर स्वामीने छद्मस्थपनेमें गोशालकको तिल बताया, दीक्षा दी और लेख्या सिखाई यह सब कार्य यदि भगवान का चूकना है तो केवल झान होने पर भगवान महावीर स्वामीने गोशालकको मृत्यु बताई, जामालीको दीक्षा दी और काली आदि दश रानियोंको उनके पुत्रोंका मरण बताया था यह सब कार्य्य उनका चकना क्यों नहीं मान लेते ? क्योंकि इन कार्यो का परिणाम भी बहुत बुरा हुआ था। गोशालक अपने मरणका समय आया जान कर बहुत भयभीत हुआ था। जामाली कुशिष्य हुआ और काली आदि दश रानियां पुत्र मरण सुन कर भगवान के समवसरणमें ही मूच्छित होकर गिर गयीं थी। इसी तरह भगवान नेमिनाथजीने केवल ज्ञान होने पर संकेतसे सोमिल ब्राह्मगका मरण बतलाया था जिसका फल यह हुआ कि सोमिल को श्रीकृष्णने सारे शहरमें घसीट वाया और घसीटनेकी लकीर जो पृथ्वी पर पड़ी थी उस पर पानी छिटक वाया फिर इस कार्यको भगवान नेमिनाथजी के चूकने में क्यों नहीं मान लेते ? यदि कहो कि केवल ज्ञानी पुरुष, अतीन्द्रियार्थ दी अपरिमित झानी कल्पातीत और गम व्यवहारी होते हैं वह जो करते हैं उसका रहस्य वही जानते हैं इसलिये सूत्र व्यवहारीके कल्पानुसार उनके कार्याको बुरा नहीं कहा जा सकता तो उसी तरह छद मस्थ तीर्थकर भी आगम व्यवहारी और कल्पातीत होते हैं इसलिये सुत्र व्यवहारीके कल्पका नाम लेकर उनके कार्यको भी बुरा नहीं कह सकते अतः गोशालकको तिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । बताने, दीक्षा देने आदि कार्यों को भगवान्के चूकनेमें प्रमाण देना अविवेकका परिणाम जानना चाहिये। . [बोल १३ वां ] (प्रेरक) छमस्थ तीर्थकर आगम व्यवहारी और कल्पातीत होते हैं इस में क्या प्रमाण है ? (प्ररूपक) .. छद्मस्थ तीर्थङ्कर आगम व्यवहारो और कल्पातीत होते हैं इस विषयमें भगवती शतक २५ उद्देशा ६ का मूलपाठ प्रमाण है। वह पाठ यह है "कषाय कुशीले पुच्छा गोयमा ! जिण कप्पे वा होजा, शेर कप्पे वा होज्जा कप्पातीते वा होजा" . (भग० श० २५ उ०६) अर्थ:.... (प्रश्न ) हे भगवन् ! कषाय कुशील निग्रन्थमें कितने कल्प होते हैं ? (उत्तर) हे गोतम ! कषाय कुशील निग्रन्थ जिन कल्पी भी होते हैं स्थविर कल्पी भी होते हैं और कल्पातीत भी होते हैं। ___ यह उक्त गाथाका अर्थ है। इस पाठमें कषाय कुशीलमें तीन कल्प कहे हैं-जिन कल्प, स्थविर कल्प और कल्पातीत । इनमें कल्पातीत कषाय कुशील नियण्ठा, केवल छद्मस्थ तीर्थंकरमें ही होता है दूसरेमें नहीं यह टीकाकारने लिखा है वह टीका यह है: ___"कल्पातीतेवा कषाय कुशीलो भवेत् । कल्पातीतस्य छद्मस्थ तीर्थंकरस्य सकपायत्वात् । । अर्थात् कषाय कुशील निग्रन्थ, कल्पातीत भी होता है क्योंकि छद्मस्थ तीर्थकर कषाय कुशील होते हैं और वह कल्पातीत हैं।। उक्त पाठ और उसकी उक्त टीकामें छघस्थ तीर्थकरको कल्पातीत कहा है । कञ्पासीत वह है जो जिन कल्प और स्थविर कल्पका उल्लंघन किया हुआ है। भगवतीकी टीकामें लिखा हुआ है कि "कप्पा तीतेति जिन 'कल्प स्थविरकल्पाभ्यामन्यत्र” अर्थात् जिन कल्प और स्थविर कल्पसे भिन्नको कल्पातीत कहते हैं। कल्पम् अतीता: कल्पा सौताः" इस व्युत्पत्तिसे, जो कल्पका उल्लंघन किया हुआ है यानी जिस पर शास्त्रीय मर्यादाका कोई अधिकार नहीं है वह कल्पातीत है । शास्त्रमें प्रधान रूपसे दो ही कल्प Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्ताधिकारः। ३२५ बतलाये हैं । जिन कल्प और स्थविर कल्प । शेष सभी कल्प इनमें ही अन्तर्भूत हैं इस लिये जिन कल्पी और स्थविर कल्पी ही शास्त्रीय मर्यादाके अधिकारी होते हैं, जो कल्प को उल्लंघन किया हुआ है वह नहीं होता। भगवान महावीर स्वामी दीक्षा लेनेके बाद ही कल्पातीत हो गये थे इस लिये जैसे केवल ज्ञान होने पर कल्पातीत और आगम व्यवहारी होनेसे उनके कार्यको शास्त्रीय कल्पानुसार दोषमें नहीं कह सकते हैं उसी तरह उनके छद्मस्थपनेके कार्यको भी दोषमें नहीं कह सकते । जैसे केवल ज्ञान होनेपर जामाली आदिको दीक्षा देने आदि कार्य भगवानने किये थे और वे कार्य उनके दोषमें नहीं थे उसी तरह उनके छप्रस्थपनेमें गोशालको दीक्षा देने तिल बताने आदि काय्यं भी दोष या चकनेमें नहीं थे । अतः गोशालकको तिल बताने दीक्षा देने आदि कार्य को भगवानके चूकनेमें प्रमाण देना अज्ञान है। बोल १४ समाप्त (प्रेरक) ____ भगवान महावीर स्वामी छद्मस्थपनेमें आगम व्यवहारी और कल्पातीत थे इस लिये सूत्र व्यवहारीके कल्पानुसार उनके कार्यों को दोषमें नहीं कहा जा सकता यह ज्ञात हुआ, अब व्यवहारोंका भेद बतलाइये ? (प्ररूपक) __ भगवती व्यवहार सूत्र और ठाणाङ्ग सूत्रमें व्यवहारका भेद बतलानेके लिये यह पाठ आया है____ "कइ विहेणं भन्ते ! नवहारे पन्नत्ते ? गायमा ! पंचविहे वनहारे पन्नत्ते तंजहा आगमे, सुए आणा, धारणा, जीए। जहासे तत्व आगमेसिया आगमेणं ववहारे पट्ठवेज्जा णोयते तत्थ :आगमेसिया जहा से तत्थ सुए सिया सुएणं ववहारं पट्ठवेजा। गोवाले तत्य सुएसिया जहा से तत्थ आणासिया आणाए ववहारं पट्ठवेज्जा। णोयसे तत्थ आणासिया जहा से तत्थ धारणासिया धारणाएणं ववहारं पट्टवेजा। णोयसे तत्थ धारणासिया जहा से तत्थ जीएसिया जीएणं ववहारे पट्टवेबा". (भग० श० ८ व्यवहार उ० १० ठाणाङ्ग ठाणा ५) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ सद्धर्ममण्डनम् । अर्थ : (प्रश्न) हे भगवन् ! व्यवहार के प्रकारका होता है ? . (उत्तर) हे गोतम ! व्यवहार पांच प्रकारका होता है। (१) आगम व्यवहार (२ श्रुत व्यवहार (३) आज्ञा व्यवहार (8) धारणा व्यवहार (१) जित व्यवहार । जहां केवल आदि छः आगमोंमेंसे कोई आगम विद्यमान हो वहां प्रायश्चितादि व्यवस्था आगमसे दी जाती है श्रुत आदिसे नहीं। जहां आगम न हो वहां श्रुत व्यवहारसे व्यवस्था देनी चाहिये आज्ञा आदिसे नहीं। जहां श्रुत न हो वहां आज्ञासे, जहां आज्ञा न हो वहां धारणासे, जो धारणा न हो वहां जितसे व्यवस्था देनी चाहिये परन्तु आज्ञाके होने पर धारणासे और धारणाके होने पर जितसे व्यवस्था नहीं देनी चाहिये । यह उक्त पाठका अर्थ है। इस पाठमें व्यवहारके आगम आदि छः भेद बतला कर पूर्व पूर्वके सद्भावमें उत्तर उत्तरसे व्यवस्था देने का निषेध किया है इसी तरह आगमों में भी केवल ज्ञानके रहने पर शेष पांच आगमोंसे और मन पर्यावके रहते शेष चारसे एवं अवधिके रहने पर शेष तीन से, चौदह पर्वके रहते शेष दोसे और दश पूर्वके रहने पर शेष नव पूर्वसे और नव पूर्वके रहने पर श्रुत आदिसे व्यवस्था देनेका निषेध किया है अतः छद्मस्थतीर्थकरमें आगम व्यवहारके होनेसे श्रुतादि व्यवहारानुसार उनमें दोषकी स्थापना नहीं की जा सकती। भगवान महावीर स्वामी दीक्षा लेनेके बाद ही मन: पर्याव ज्ञानके धनी हो गये थे इस लिये उनको श्रुतादि व्यवहारोंसे आचरण करनेकी कोई आवश्यकता न थी उनके सभी व्यवहार आगम व्यवहारके अनुकूल ही होते थे अतः उनके कार्याको श्रुतादि व्यवहारके अनुसार समालोचना करना अज्ञान का परिणाम समझना चाहिये। भ्रम विध्वंसन कारने भी अपने प्रश्नोतर तत्वबोध नामक ग्रन्थमें आगम व्यवहारके रहने पर श्रुतादि व्यवहारोंसे कार्य न होनेका उल्लेख किया है। (प्रश्न) - दशवर्षा पछे भगवतो भगवी व्यवहार उहशा १० करो तो धनो नवमासे ११ अंग भण्यो किम् ? (उत्तर) वीरनी आज्ञाई दोष नहीं ते ठामे आगम व्यवहार प्रवततो सूत्र व्यवहाररो काम नहीं । व्यवहार उद्देशे १० तथा ठागाङ्ग ठाणा ५ करो जिवारे आगम व्यवहार व्है तिवारे आगम व्यवहार थापवो अने आगम व्यवहार न व्है तिवारे सूत्र व्यवहार थापवो इम कयो" (प्रश्नोत्तर तत्व बोध उत्तर नं० १२३) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्ताधधिकारः। . ऊपर लिखे हुए जीतमलजीके लेखमें आगम व्यवहारके होनेपर सूत्र व्यवहारका उपयोग नहीं किया जाना साफ साफ लिखा है और महावीर स्वामीके समयमें आगम व्यवहारका ही उपयोग होना भी लिखा है तथापि 'सूत्र व्यवहारानुसार भगवानमें दोष कायम करना इनका अपने कथनसे ही विरुद्ध समझना चाहिये। बोल १५ समाप्त (प्रेरक) भ्रम विध्वंसनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ २२४ पर भगवती शतक १५ वें की टीका लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं "अथ टीकामें पिण कह्यो ए अयोग्यने भगवान अंगीकार कियो ते अक्षीण रागपणे करी तेहना परिचय करी स्नेह मनुकम्पाना सद्भावथी अने छद्मस्थ छै ते मांटे आगामियां कालाना दोषना अजाण थकी अंगीकार कीधो कह्यो राग परिचय स्नेह अनुकम्पा कही ते स्नेह अनुकम्पा कहो अने भावे मोह अनुकम्पा कहो जो एकार्य करवायोग्य हुवे तो इम क्यांने कहिता" (भ्र० पृ० २२४ ) , __इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) ___भगवती सूत्र शतक १५ वे की टोकासे महावीर स्वामीका चकना नहीं सिद्ध होता क्योंकि वहां टीकाकारने लिखा है कि "अवश्यंभाविभावत्वाच्चतस्यार्थस्येति विभावनीयम्" अर्थात भगवानसे गोशालकका स्वीकार किया जाना अवश्य होनहार था इस लिये भगवानने उसे स्वीकार किया। यह लिखकर टीकाकारने भगवानको चक जाने का स्पष्ट रूपसे निषेध किया है तथापि इस टीकाके आश्रयसे भगवानको चूकनेकी सिद्धि करना अज्ञान है। यदि कोई कहे कि इस टीकामें गोशालकको स्वीकार करनेके दो कारण और भी बतलाये हैं। पहले तो गोशालकके ऊपर स्नेहके साथ अनुकम्पा करना कारण कहा है और साधुका किसी पर स्नेह करना गुण नहीं किन्तु दोष है तो उसे कहना चाहिये कि अनुकम्पाके ऊपर तथा अपने धर्म, धर्माचार्य और अपने सहधर्मी भाइयोंपर स्नेह करना बुरा नहीं किन्तु गुण है। शास्त्रमें चोरी जारी हिंसा और झूठ आदिमें स्नेह करना ही बुरा कहा है गुणके साथ स्नेह करना बुरा नहीं कहा है अतः गोशालकके ऊपर जो भगवानने स्नेहयुक्त अनुकम्पा की थी उसे सावध कहना अज्ञानका परिणाम है । यदि कोई कहे कि गोशालक अयोग्य व्यक्ति था उसपर स्नेह करना अवश्य बुरा था" तो इसका उत्तर देते हुए टीकाकार लिखते हैं कि “छद्मस्थतयानाऽगत दोषाऽनव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ सद्धमैमण्डनमः गमात्" अर्थात जिस समय भगवानने गोशालकको स्वीकार किया था उस समय गोशालक अयोग्य नहीं था किन्तु पीछे अयोग्य हुआ इस बातकी खबर भगवानको नहीं थी क्योंकि भगवान छमस्थ होनेके कारण भावी दोषको नहीं जानते थे। यह लिखकर टीकाकार भगवानके चूकनेका स्पष्ट रूपसे निषेध कर रहे हैं। क्योंकि भविष्य कालका दोष नहीं मानने वाला कोई पुरुष वर्तमान कालमें किसीको अयोग्य नहीं जान कर यदि उसपर स्नेहके साथ अनुकम्पा करे तो इसमें उसका क्या दोष है ? अत: भविष्य कालके दोषको नहीं जान कर भगवानने गोशालकको स्वीकार किया था यह भगवानका चूकना नहीं किन्तु दयालुता है। इसके आगे टीकाकारने भगवानके दोषका खण्डन करनेके लिये तीसरा हेतु अवश्य होनहार बतलाया है जो पहले लिख दिया गया है। यह तीसरा देतु इस लिये दिया गया है कि पहलेके दो हेतुओंमें अरुचि है। पहले हेतुमें अरुचि यह है कि “गोशालक अयोग्य था उसपर भगवानने स्नेह क्यों किया ?" इस अरुचिके कारण पहला हेतुको छोड़ कर टीकाकार दूसरा हेतु बतलाते हैं कि गोशालकके भविष्यमें अयोग्य होनेका भगवानको ज्ञान नहीं था क्योंकि वह उमस्थ थे इस लिये भगवानने गोशालकको स्वीकार किया। इस हेतुमें भी यह अरुचि आती है कि भगवान छद्मस्थ होकर भी भविष्यकी बात जान सकते थे जैसे कि उन्होंने गोशालकको बतलाया था कि इस तिलमें इतने दाने होंगे इत्यादि । अतः टीकाकारने पूर्व के दोनों हेतुओंसे सन्तुष्ट न होकर तीसरी हेतु दिया है और तीसरा हेतु देकर यह स्पष्ट कर दिया है कि गोशालकको भगवानके द्वारा स्वीकार किया जाना अवश्य होनहार था इस लिये इसमें भगवानका कुछ भी दोष नहीं है । आगम व्यवहारी पुरुष भावी बातको अपने ज्ञान द्वारा जान कर उसका अनुष्ठान करते हैं इसमें उनका कुछ दोष नहीं होता जैसे कि केवल ज्ञान होनेपर भावीको जानकर ही भगवानने जामालीको दीक्षा दी थी उसी तरह गोशालकके विषयमें भी समझना चाहिये । अत: भगवती शतक १५ की टीका नोट-भगवती शतक १५ की टीकामें भगवान के दोषका खण्डन किया है चूक जाना नहीं बतलाया है अन्यथा टीकाकार गोशालकको स्वीकार करना अवश्यम्भावी भाव क्यों बतलाते । पहलेके दो हेतुओंसे भी यही बात कही है उनसे भी दोषका खण्डन ही किया गया है समर्थन नहीं । क्योंकि एक ही विषयमें टीकाकार दो राय नहीं दे सकते यदि दो राय देवें तो स्थाणुर्वा पुरुषोवा की तरह उनकी बात संशयात्मक होनेसे प्रमाण नहीं हो सकती। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - प्रायश्चित्तायधिकारः। ३२९ का नाम लेकर भगवानको चूक जानेकी कल्पना करना निमूल तथा निराधार समझना चाहिये। [बोल १६ वां समाप्त ] भ्रम विध्वंसन कार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २२४ पर ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ९ की टीकामें लिखी हुई गाथाको लिख कर उसकी साक्षी देते हुए लिखते हैं "तथा छवास्थ तीर्थकर दीक्षा लेवे जिण दिन साथे कोई दीक्षा लेवे तेतो ठीक छै पिण तठापछे केवल ज्ञान उपना पहिला औरने दीक्षा देवे नहीं ठाणाङ्ग ठाणा ९ अर्थमें एरवी माथा कही है। (भ्र० पृ० २२४) - इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ९ के टन्या अर्थमें लिखी हुई गाथाका नाम लेकर भगवानको चूक जानेकी प्ररूपणा मिथ्या है। प्रथम तो वह गाथा कहीं मूलपाठ या किसी प्रमाणिक टीकामें नहीं पायी जाती इस लिये वह गाथा प्रमाण नहीं मानी जा सकती। दूसरी बात यह है कि उस गाथामें "नय सोसवगं दिक्खंति" यह लिखा है अर्थात् "छप्रस्थ तीर्थकर शिष्य वर्गको दीक्षा नहीं देते।" यहां शिष्य वर्गको दीक्षा देनेका निषेध किया है किसी एक शिष्यको दोक्षा देनेका निषेध नहीं है अत: इस गाथासे भी एक व्यक्ति (गोशालक) को दीक्षा देनेसे भगवानका चूकना नहीं सिद्ध हो सकता। अतः किसी अज्ञात व्यक्तिकी बनाई हुई इस गाथाका नाम लेकर भगवान के चूक जानेका समर्थन करना अज्ञान है। वास्तवमें छद्मस्थ तीर्थकर, वीतराग तीर्थकरके समान ही कल्पातीत होते हैं इस लिये उनके कार्यको शास्त्रीय कल्पानुसार दोष नहीं कहा जा सकता क्योंकि शास्त्रीय कल्प कल्पस्थित साधुओं पर ही लगता है कंल्पातीत पर नहीं। कल्पातीत साधु अपने ज्ञानमें जैसा देखते हैं वैसा ही करते हैं, यह उनका दोष नहीं किन्तु गुण है। ठाणाङ्ग ठाणा ९ के टब्वा अर्थमें लिखी हुई गाथा, तीर्थंकरोंका कल्प नहीं वतलाती है कि "अमुक अमुक कार्य तीर्थ करको कल्पता है और अमुक अमुक नहीं" क्योंकि कल्पातीतका कोई कल्प नहीं होता । तीर्थंकर लोग छमस्थ अवस्थामें प्रायः जो कार्य करते हैं उसका वर्णनमात्र इस गाथामें किया है अतः इस गाथाका नाम लेकर तीर्थ करमें कल्प कायम करके उन्हें चूकनेकी कल्पना करना मिथ्या है। (बोल १७ वां समाप्त) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । (प्रेरक) भ्रम विध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २३५ पर लिखते हैं "अने कई एक पाखण्डी कहे गोतमने भगवान कहो हे गोतम ! बारह वर्ष तेरह पक्षमें मोने किश्चिन्मात्र पाप लाग्यो नहीं ते झूठरा बोलनहार छै" (भ्र० पृ० २५५) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) बारह वर्ष और तेरह पक्षमें दोष नहीं लगनेकी बात भगवान्ने सुधर्मा स्वामीसे कही थी और सुधर्मा स्वामीने यह बात भगवानसे सुन कर जम्बू स्वामीसे आचारांगमें कही है। आचारांग सूत्रके प्रथम श्रुत स्कन्धके नवम अध्ययनमें पहले पहल सुधर्मा स्वामी ने कहा है "अहा सुयं वइस्सामि" अर्थात् जैसा मैंने सुना था वैसा ही कहूंगा। इससे ज्ञात होता है कि सुधर्मा स्वामीने भगवान महावीर स्वामीके मुखसे उनके छयास्थावस्थाका वृत्तान्त सुन कर उसका वर्णन आचारांग सूत्रमें जम्बू स्वामीसे किया है। अतएव आचारांगके आरम्भमें ही यह लिखा है कि "सुर्यमे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खाय" अर्थात 'हे आयुष्मन ! भगवान महावीर स्वामीने ऐसा कहा था यह मैंने सुना है' इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि सुधर्मा स्वामीने भगवान महावीर स्वामीसे सुनी हुई बातोंका ही भाचारांगमें जम्बू स्वामोसे वर्णन किया है अतः सुधर्मा स्वामीकी आचारांगमें कही हुई सब बातें भगवानकी ही कही हुई समझनी चाहिये। उन बातोंको न मानना सुधर्मा स्वामीकी ही नहीं किन्तु साक्षात् तीर्थ करकी बातको न मानना है। आचारांग सूत्रमें सुधर्मा स्वामीने जम्बू स्वामीसे कहा है कि- "एएहिं मुणी सपणेहिं समणे असिय तेरस वासे । राइदियंपि जयमाणे अप्पमत्ते समाहिए झाइ" (याचारांग श्रु० १ ० ९ उ० २ गाथा ४) __ अर्थात मुनि भगवान् महावीर स्वामी इन स्थानोंपर निवास करते हुए तेरहवें पर्ष पर्यन्त रात दिन संयमके अनुष्ठान में प्रवृत्त रहते थे और प्रमाद रहित होकर धर्म ध्यान या शुक्ल ध्यान करते थे। ___ इस पाठमें तेरहवें वर्ष पर्यन्त भगवानको प्रमाद रहित होकर रहना लिखा है। तथा आगे चलकर एक वार भी प्रमाद करनेका निषेध किया है। वह गाथा यह है "अकसाई विगयगेही सदस्वेसु अमूच्छिए झाई। एउमत्थोषि परफाममाणो न पमायं सहवि कुव्वीत्या" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रायश्चित्ताधधिकारः। ३३१ इस गाथामें छद्मस्थपनेमें भगवान्के एक वार भी प्रमाद सेवन करनेका निषेध किया है और यह बात साक्षात महावीर स्वामीसे सुनकर ही सुधर्मा स्वामीने जम्बू स्वामीसे कही थी इस लिये इस बातको न मानकर भगवानमें प्रमाद सेवन करनेका दोष लगाना केवलीके वाक्यका न मानने रूप मिथ्यात्वका स्पर्श करना है परन्तु दीर्घ संसारी जीव केवलीके वाक्यका तिरस्कार करनेमें शंका नहीं करते । आचारांग सूत्रके प्रमाणसे जब कि भगवानके न चलने की बात स्पष्ट सिद्ध होती है तब इसपर पर्दा डालनेके लिये जीतमलजीने अपने मनसे गढ़ कर यह बतलाया है कि 'गोतम स्वामीसे भगवानने १२ वर्ष और तेरह पक्ष तक पाप नहीं लगनेकी बात नहीं कही है।" अस्तु, भगवानने गोतम स्वामीसे नहीं कही परन्तु सुधर्मा स्वामीसे तो कही है फिर तुम इसे क्यों नहीं मानते ? वात तो सच्ची ही है। सच्ची बातको छिपानेके लिये अपने मनसे उसमें एक मिथ्या बात लगा देना कहांका पाण्डित्य है ? (बोल १८ समाप्त) (प्रेरक) ____ भगवानको छास्थपनेमें दश स्वप्न आये थे उस समय अन्तर्मुहूतं तक भगवानको निद्रा आई थी। निद्रा लेना प्रमादका सेवन करना है फिर आचारांग सूत्रकी गाथामें यह क्यों कहा गया कि भगवानने छद्मस्थपनेमें एक वार भी प्रमादका सेवन नहीं किया था ? (प्ररूपक) - भगवान महावीर स्वामीको दश स्वप्न आये थे उस समय अन्तर्मुहूर्त तक उन्हें निद्रा भी आई थी पर वह निद्रा द्रव्य निद्रा थी भाव निद्रा नहीं। मिथ्यात्व और अज्ञान को शास्त्रमें भाव निद्रा कहा है। केवल सोने मात्रको नहीं केवल सोना तो द्रव्य निद्रा है उसे शास्त्रीय विधानानुसार लेता हुआ साधु दोषका सेवन करने वाला नहीं होता। यह बात भ्रमविध्वंसनकारको भी मान्य है उन्होंने लिखा है कि "तिहां भाव निद्राथी तो पाप लागे छै अने द्रव्य निद्राथी तो जीव दबे छै" (भ्र०पृ० ४०९) अतः भगवानको द्रव्य निद्रा लेनेसे प्रमादका सेवन करने वाला नहीं कहा जा सकता है। अतः आचारांग सूत्रकी पूर्वोक्त गाथामें जो भगवानको एक बार भी प्रमाद सेवन नहीं करनेका कथन है वह अक्षरशः यथार्थ है उसे न मान कर भगवानके चूक जानेका या प्रमाद सेवन करनेका दुराग्रह करना मिथ्या दृष्टियोंका कार्य है। (बोल १९ वां) इति प्रायश्चित्ताधिकारः। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( प्रेरक ) ( अथ लेश्याधिकारः ) लेश्या किसे कहते हैं ? प्ररूपक) विश्यते श्लिष्यते कर्मणा सह आत्मा अनयेति लेश्या । कृष्णादिद्रव्य साचिव्यादात्मन: परिणाम विशेषे । "कृष्णादिद्रव्य साचिव्यात्परिणामोय आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्या शब्दः प्रयुज्यते " ॥१॥ अर्थात् जिसके द्वारा आत्माका कर्मके साथ सम्बन्ध होता है उसे लेश्या कहते हैं । व्यथवा कृष्णादि द्रव्यके संसर्गसे स्फटिक मणिकी तरह जो आत्माका परिणाम विशेष होता है उसे लेश्या कहते हैं । वह लेश्या दो प्रकारकी होती है एक द्रव्य लेश्या और दूसरी भाव लेश्या । भाव लेश्या मुख्य रूपसे द्रव्यके संसर्गसे पैदा होने वाला माका परिणाम है और द्रव्य लेश्या मुख्य रूपसे पुगलका परिणाम ( पर्याय) है । ( प्रेरक ) संयमधारी साधुओंमें कितनी लेश्यायें होती हैं । ( प्ररूपक ) मधारी साधुओं में तेजः पद्म और शुक्ल ये तीन भाव लेश्यायें होती हैं, कुक्षा नील मौर कापोत भाव छेश्यायें नहीं होतीं । भगवती शतक १ उद्देशा १ में वह लिखा है इसलिये वहांका पाठ टीकाके साथ लिखा जाता है ! "सहसा जहा ओहियो किण्हलेसस्स नीललेसस्स काउलेसस जहा ओहिया जीवा णवरं पमत्ता पमत्ता न भाणियत्र्वा । तेउलेसस्स पश्मलेसस्स सुकलेसस्स जहा ओहिया जीवा णवरं सिद्धानभाणियच्चा ( भ० श० १३०१ ) 33 ( टीका ) "लेस्साणं भन्ते ! जीवा किं आयारंभे" इत्यादि तदेव सर्व नवरं जीवस्थाने सश्या इतिवाच्यम् इत्ययमेको दण्डकः । कृष्णादिलेश्या भेदात् तदन्ये घट तदेवमेते Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याधिकारः। ३३३ - सप्त तत्र “किण्हलेसस्स” इत्यादि कृश्णलेश्यस्य नीललेश्यस्स कापोत लेश्यस्यच जीवराशेर्दण्डको यथौधिकजीवदण्डकस्तथाऽध्येतव्यः प्रमत्ता प्रमत्त विशेषण वज्यः कृष्णादिपुहि अप्रशस्त भावलेश्यासु संयतत्वंनास्ति यच्चोच्यते पुव्वं पडिवन्नाओ पुण अनेरिएउ लेस्साए" त्ति तद्रव्य लेश्यां प्रतीत्येतिमंतव्यम् । ततस्तासु प्रमत्तायभावः । तत्रसूत्रोज्चारण मेवम् । “किण्हलेस्साणं भन्ते ! जीवा किं आयारंभा पगरंभा तदुभयारंभा मणारंभा ? । गोयमा ! आयारंभावि जावणो अणारंभा, सेकेण?णं भन्ते ! एवं बुच्चइ ? गोयमा ! अविरयं पडुच्च" एवं नील कापोतलेश्या दण्डकावपीति । तथा तेजोलेश्या दे जीर्वराशेर्दण्डकाः यथौधिक जीवास्तथा वाच्यः नवरं तेषु सिद्धानवाच्याः सिद्धानामलेश्यत्वात् तच्चैवं "तेउलेस्साणं भन्ते ! जीवा किं आयारंभा ४ गोयमा ! अत्थेगइया आयारंभावि जावणो अनारंभा। अत्थेगइया नोआयारंभा जाव अणारंभा। सेकेणतुणं भन्ते ! एवं वुच्चइ ? गोयमा ! दुविहा तेउलेस्सा पन्नत्ता संजयाए मसजयाए" इस टीकाके अनुसार मूल पाठका अर्थ यह है___ अर्थात् जोव दो प्रकारका होता है एक सलेश्य और दूसरा अलेश्य । सलेश्य जीवोंका वर्णन सामान्य जीवोंका वर्णनके समान जानना चाहिये। कृष्ण, नील और कापोत लेश्या वाले जीवोंका वर्णन भी समुच्चय जीवोंका वर्णनके समान ही जानना चाहिये परन्तु इनमें प्रमादी और अप्रमादी ये दो भेद नहीं होते क्योंकि कृष्ण नील और कापोत भाव लेश्याओंमें संयतपना ( साधुपना) नहीं होता। कहीं कहीं साधुओं में छः लेश्याओंका भी उल्लेख है वह द्रव्यलेश्याकी अपेक्षासे समझना चाहिये भावलेश्याकी अपेक्षासे नहीं अतः कृष्ण नील और कापोत इन तीन भाव लेश्याओंमें प्रमत्त और अप्रमत्त रूप दो भेद नहीं कहने चाहिये। कृष्गादि लेश्याओंमें सूत्रका उच्चारण इस प्रकार करना चाहिये । “कण्हलेस्साणं भन्ते ! जीवा" इत्यादि। __ अर्थात् हे भगवन ! कृष्ण लेश्यावाले जीव आस्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी होते हैं या अनारंभी होते हैं ? (उत्तर) हे गोतम ! कृष्णलेश्या वाले जीव आत्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी होते हैं अनारंभी नहीं होते। (प्रश्न ) हे भगवन ! कृष्णलेश्था वाले जीव अनारंभी नहीं होते किन्तु आत्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी होते हैं इसका क्या कारण है ? (उत्तर ) हे गोतम ! कृष्णलेश्या वाले जीव, अव्रतकी अपेक्षासे आत्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी होते हैं अनारंभी नहीं होते। इसी तरह नील और कापोतलेश्या वाले जीवोंको भी समझना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सधर्म मण्डनम् । तेजः, पद्म और शुक्ल लेश्या वाले जीवोंको समुच्चय जीवोंके समान ही समझना चाहिये परन्तु इनमें सिद्ध जीवोंको न कहना चाहिये क्योंकि सिद्ध जीवोंमें कोई लेश्या नहीं होती। तेजोलेश्याके विषयमें सत्रका पाठ इस प्रकार है - "तेउलेस्साणं भन्ते ! जीद किं आयारंभावि जाव अणारंभा ? गोयमा ! अत्थेगइया आयार भावि जाव णो अणारभा अत्येगइया णो आयार भा जाव अणार भो । सेकेणट ठेणं भन्ते ! एवं बुचा ? गोयमा ! दुविहा तेउलेस्सा पण्णता संजयाए असंजयाए" (आ० स०) अर्थः हे भगवन् ! तेजोलेश्या वाले जीव, आत्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी होते हैं या अनारंभी होते हैं? (उ०) हे गोतम ! तेजोलेश्या वाले कोई कोई जीव, आत्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी होते हैं अनारंभी नहीं होते और कोई कोई अनारंभी होते हैं आत्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी नहीं होते। हे भगवन् ! तेजोलेश्या वाले जीवों में यह दो भेद क्यों होते हैं ? हे गोतम ! तेजोलेश्यावाले जीव दो तरह के होते हैं एक संयत और दूसरे असंयत । संयत भी दो प्रकार के होते हैं प्रमादी और अप्रमादो। अप्रमादी आत्मारंभी परारंभी और सदुभया' रंभी नहीं होते अनारंभी होते हैं परन्तु प्रमादी अशुभ योगी साधु, अशुभ योग की अपेक्षा से आत्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी होते हैं अनारंभी नहीं होते। यह भगवतीके मूलपाठ और टीकाका अर्थ है। इस पाठमें कहा है कि कृष्ण नील और कापोत लेश्या वाले जीवोंको ओधिक दण्डकके जीवोंके समान ही समझना चाहिये परन्तु विशेष इतना है कि कृष्ण नील और कापोत लेश्याओंमें प्रमादी और अप्रमादी ये दो भेद नहीं होते। इस मूलपाठको बातका अभिप्राय बतलाते हुए टीकाकारने लिखा है कि ___ "कृष्णादिषुहि अप्रशस्वभाव लेश्यासु संयतत्वं नास्ति' अर्थात् कृष्ण, नील और कापोत, इन भाव लेश्याओंमें साधुपन नहीं होता इसलिये कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओं में प्रमादी और अप्रमादी, ये दो भेद वर्जित किये गये हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याधिकारः। ३३५ यहां टीकाकारने मूलपाठका आशय बतलाते हुए साधुओंमें कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंका साफ साफ निषेध किया है इसलिये साधुओंमें तेजः पन और .. और शुक्ल, ये तीन भाव लेश्या ही होती हैं कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्या नहीं अतः साधुओंमें कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंका सद्भाव बताना उक्त मूलपाठ और टीकासे विरुद्ध समझना चाहिये। (बोल १ समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २४२ पर लिखते हैं "अथ अठे ओधिक पाठ करो-तिणमें संयतिरा भेद प्रमादी अप्रमादी किया। भने कृष्ण नील कापोत लेश्याने मोधिकनो पाठ कह्यो तिम कहिवो पिण एतलो विशेष संयतिरा प्रमादी अप्रमादी ए दो भेद न करवा ते किम् प्रमत्तमें कृष्णादिक तीन लेश्या हुवे अने अप्रमत्तमें न हुवे ते मांटे दो भेद वा " (भ्र० पृ० २४२) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भगवतीजीके उक्त मूल पाठमें “पमत्ता पमत्तान भाणियब्वा" यह जो वाक्य माया है उसका टीकानुसार यही अर्थ है कि कृष्ण नील और कापोत, इन तीन भाव लेश्याओंमें प्रमादी और अप्रमादी दोनों ही प्रकारके साधु नहीं होते किन्तु साधुसे भिन्न जीव इनमें होते हैं । अतः कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें प्रमादी साधुका सदभाव बताना मिथ्या है। यदि शास्त्रकारको उक्त तीन भाव लेश्याओंमें केवल अप्रमादीको ही वर्जित करना इष्ट होता तो वह “पमत्ता पमत्ता नभाणियब्वा" ऐसा नहीं लिख कर "अपमत्ता नभाणियव्वा" यही लिख देते। इस प्रकार लिखनेसे कृष्णाहि तीन भाव लेश्याओं में प्रमादीका होना और अप्रमादीका न होना साफ साफ मालूम हो जाता परन्तु शास्त्रकार ने ऐसा नहीं लिख कर "पमत्ता पमत्ता नमाणियवा" यह लिखा है इसका तात्पर्यो यही है कि कृष्णादि तीन भाव लेश्याओंमें प्रमादी और अप्रमादी दोनों ही प्रकारके संयत नहीं होते और टीकाकारने भी मूल पाठका यही अर्थ स्पष्टरूपसे बतलाया है तथा इस पाठका टब्वा मर्थ भी कृष्णादि तीन भाव लेश्यामोंमें प्रमादी और अप्रमादी दोनों प्रकार के संयतोंका निषेध करता है वह टम्ना अर्थ यह है- "एतलो विशेष प्रमत्त अप्रमत्त वर्जित कहिवा । कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याने विषे संयतपणो न थी" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ सद्धर्ममण्डनम् । इस टव्वा अर्थमें साफ साफ लिखा है कि कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओं में साधुपना नहीं होता इसलिये इन लेश्याओंमें प्रमादी और अप्रमादी दोनों प्रकार के संयत वर्जित किये गये हैं तथापि उक्त मूलपाठ, उसकी टीका तथा टव्वा अर्थ, इन तीनों को नहीं मान कर कृष्णादिक तीन भाव लेश्यामोंमें साधुपनाका स्थापन करना, मिथ्यात्वका परिणाम है। जिस प्रकार भगवतीके उक्त मूलपाठ, उसकी टीका और टव्वा अर्थमें कृष्णादि तीन भाव लेश्याओंमें प्रमादी और अप्रमादी दोनों ही प्रकारके साधुओंको वर्जित किया है उसी तरह भगवती सुत्र शतक १ उद्देशा २ में कृष्णादि तीन भाव लेश्याओं में सराग, वीतराग, प्रमादी और अप्रमादी इन चारों प्रकारके साधुओंको वर्जित किया है । वह पाठ यह है: "सलेस्साणं भन्ते ! नेरइया सव्वे समाहोरगा ? ओहियाणं सलेस्साणं सुक्कलेस्साणं एएसिणं तिनं तिण्ह एक्को गमो कण्हले. स्साणं नील लेस्साणं वि एक्को गमो। नवरं वेदणोए मायो मिच्छ दिघी उववन्नगाय अमायिसम्मदिठी उवगन्नगाय भाणियव्वा मणुसा किरियासु सराग वीयरागपमत्ता पमत्ता न भाणियना। काउलेस्साणवि एसेव गमो नवर नेरइए जहा ओहिए दण्डए तहा भाणियळा । तेउलेस्सा पद्मलेस्सा जस्स अत्थि जहा ओहिओ दण्डओ तहा भाणियमा नबार मणुसा सराग वीयरागा नभाणियला" (भ० श० १ ० २) अर्थ : (प्रश्न ) हे भगवन् ! सलेशी सभी नारकि जीवोंका क्या एक समान ही आहार है ? (उत्तर)ओधिक सलेशी और शुक्ललेशी इन तीनोंके लिये एक समान ही पाठ कहना चाहिये । एवं कृष्गलेशो और नीललेशी जीवोंके लिये भी एक समान ही पाठ कहना चाहिये परन्तु वेदनाके विषय में विशेष यह है कि-मायो मिथ्या दृष्टि महान वेदना वाले होते हैं और अमायी सम्यग्दृष्टि अल्पवेदना वाले होते हैं मनुष्यपदमें क्रिया सूत्रके अन्दर यद्यपि ओधिक दण्डकमें सरागी वीतरागी प्रमादी और अप्रमादी कहे हुए हैं तथापि कृष्ण और नील लेश्याके दण्डकमें इन्हें नहीं कहना चाहिये । कापोत लेश्याके दण्डकको भी नील लेश्याके दण्डकके समान ही कहना चाहिये परन्तु इसमें विशेष यही है कि कापोत लेश्या वाले नारकि जीवोंको ओधिक दण्डकके समान कहना चाहिये । तेजोलेश्या और पद्म लेश्या वाले जीवोंको ओधिक दण्डकी तरह कहना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याधिकारः । ३३७ चाहिये केवल इतना विशेष है कि इनमें सरागी और वीतरागी न कहने चाहिये। यह उक्त मूल पाठका अर्थ है । इसमें कृष्ण, नील ओर कापोत लेश्याओंमें सरागी वीतरागी प्रमादी और मप्रमादी चारों प्रकारके संयत ( साधु ) वर्जित किये गये हैं इस लिये कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याएं साधुओंमें नहीं होतीं यह स्पष्ट सिद्ध होता है अतः जो लोग संयतियोंमें कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंका स्थापन करते हैं उन्हें उत्सूत्रवादी जानना चाहिये । ( बोल २ समाप्त ) ( प्रेरक ) भ्रम विध्वंसनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ २४६ पर इसी पाठको लिख कर इसकी समाछोचना करते हुए लिखते है "सरागी वीतरागी प्रमादी अप्रमादी भेद कृष्ण नील संयति मनुष्यरा न हुवे aarit अने अप्रमादीमें कृष्ण नील लेश्या न हुवे ते मांटे दो दो भेद न हुवे । सरागीमें तो कृष्ण नील लेश्या हुवे परं वीतरागीमें न हुवे ते मांटे संयतिरा दो भेद सरागी वीतरागी न करवा । अने प्रमादीमें तो कृष्ण नील लेश्या हुवे परं अप्रमादीमें न हुवे ते मांटे सरागीरा दो भेद प्रमादी अप्रमादी न करवा । इण न्याय कृष्ण नील रेशी संयतिरा सरागी ari प्रमादी अप्रमादी भेद करवा वर्ज्या परं संयति वयों नहीं संयतिमें कृष्ण नील लेश्या छे। अने संयतिमें कृष्णादिक न हुवे तो इमि कहिता 'संजया न भाणियव्वा " इत्यादि । इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें संयति पुरुष नहीं होते क्योंकि अप्रशस्त भाव देश्याओंमें संयम नहीं होता इस लिये भगवतीके उक्त पाठमें कृष्णादिक तीन मप्रशस्त भाव लेश्याओंमें सरागी, वीतरागी, प्रमादी और अप्रमादी इन चारों प्रकारके संयतियों का होना निषेध किया है, केवल संयतियोंके भेदका ही निषेध नहीं किया है यहां पाठका भाव यह नहीं है कि प्रमादी और सरागीमें कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्यायें पायी जाती हैं और अप्रमादी तथा वीतरागीमें नहीं पायी जातीं क्योंकि इसी मूल पाठमें आगे चलकर कहा है कि "तेजः पद्म लेश्याओंमें सरागी और वीतरागी दोनों ही प्रकारके साधु नहीं होते" इसका तात्पर्य यही है कि सरागी ४३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ सद्धममण्डनम् । और वीतरागी इन दोनों प्रकारके साधुओंमें तेजः पद्म लेश्यायें नहीं होतीं, यह नहीं कि सरागीमें तेजः पद्म रेश्या पाई जाती हैं और वीतरगीमें नहीं पाई जाती क्योंकि अष्टम नवम और दशम गुण स्थान वाले जीव भी सरागी ही होते हैं परन्तु उनमें तेजःपद्मलेश्या ये नहीं होती एकमात्र शुक्ल लेश्या ही होती है अत: जैसे तेजो लेश्या और पद्म लेश्यामें सरागी और वीतरागी इन दोनों प्रकारके ही साधुओं का होना निषेध किया है उसी तरह कृष्णादिक लेश्याओंमें सरागी वीतरागी प्रमादी और अप्रमादी इन चारों प्रकारके संयतियोंके होनेका ही निषेध है। केवल भेद मात्र करनेका निषेध नहीं है। यदि कोई दुराग्रही यह नहीं मानकर सरागी और प्रमादीमें कृष्णादिक तीन भाव लेश्याओंका सद्भाव कहे तो उसे कहना चाहिये कि तुम सरागीमें तेज: पद्म लेश्याका होना क्यों नहीं मानते ? यदि वह सरागीमें तेजः पद्म लेश्याका होना स्वीकार कर ले तो फिर उसे अष्टम नवम और दशम गुण स्थान वाले साधुओंमें भी तेज: और पद्म लेश्याका सद्भाव मानना पड़ेगा क्योंकि ये भी सरागी हैं परन्तु यह बात शास्त्र विरुद्ध है अष्टमादि गुण स्थानोंमें एक मात्र शुक्ल लेश्या ही शास्त्र सम्मत है तेजः प्रद्म लेश्या नहीं। अत: जैसे तेजः पद्म लेश्या में सरागी और वीतरागीका भेद करना ही वर्जित नहीं किन्तु सरागी और वीतगगी दोनों प्रकारके साधुओंका होनेका निषेध है उसी तरह कृष्णादिक अप्रशस्त भाव लेश्याओं में सरागी और वीतरागी प्रमादी और अप्रमादी इन चार प्रकारके साधुओंके होनेका ही निषेध है केवल इनके भेद मात्रका निषेध नहीं है। यदि कोई कहे कि तेजो लेश्या और पद्म लेश्यामें सरागी और वीतरागी दोनों ही प्रकारके साधुओंका निषेध है तो फिर संयमी पुरुषों में तेजो लेश्या और पद्म लेश्या नहीं होनी चाहिये तो इसका उत्तर यह है कि उक्त भगवतीजीके मूल पाठोंमें प्रमादी अप्रमादी सरागी और वीतरागी ये चार प्रकारके संयमी कहे गये हैं उनमें षष्ठ गुण स्थान वाले प्रमादी, सप्तम गुण स्थान वाले अप्रमादी और अष्टमसे दशम गुण स्थान पर्यन्त तक सरागी और एकादशादि गुण स्थान वाले वीतरागी माने गये हैं इस लिये षष्ठ और सप्तम गुण स्थान वाले संयतियोंमें तेजः पद्म लेश्याके होनेका निषेध नहीं है क्योंकि यहां सरागी शब्दसे अष्टमादि गुण स्थान वाले संयति ही गृहीत होते हैं षष्ठ और सप्तम गुण स्थान वाले नहीं उनको तो प्रमादी और अप्रमादी कह कर बतलाया है इस लिये षष्ठ और सप्तम गुण स्थान वाले संयतियोंमें तेजो लेश्या और पद्म लेश्याके होनेका निषेध नहीं किया जा सकता। जो लोग कृष्ण नील लेश्या वाले भगवतीजीके पूर्व लिखित पाठ में, कृष्णादिक तीन भाव लेश्याओंमें केवल प्रमादी अप्रमादी सगगी और वीतरागीके भेद होनेका ही निषेध मानते हैं उनके मतमें तेज: पद्म लेश्यामें भी सरागी और वीत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेख्याधिकारः। रागीके भेदको ही वर्जित कहना चाहिये परन्तु सरागी साधुके अन्दर तेजो लेश्या और पद्म लेश्याके होनेका नहीं ऐसी दशामें जैसे वे लोग कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें प्रमादी और सरामीका सद्भाव मानते हैं उसी तरह तेभो लेश्या और पद्म लेश्यामें अष्टमादि मुम स्थानाले सरागियों को भी क्यों नहीं मान लेते ? अतः जैसे माटमादि गुण स्थान वाले संयतियोंमें वे तेजो पद्म लेश्या नहीं मानते उसी तरह संयतियोंमें कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्या भी नहीं माननी चाहिये। ____ यदि कोई कहे कि कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें संयति मात्रका निषेध करना इष्ट था तो शास्त्रकारने पदलाघवात् “संजया नभाणियव्वा" यही क्यों नही लिख दिया ? ऐसा लिखनेसे संयति मात्रका, कृष्णादिक अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें स्पष्ट निषेध हो जाता और पदका भी लाघव होता तो इसका उत्तर यह है कि शास्त्रकार वैयाकरणोंकी तरह पद लाघवके पक्षपाती नहीं थे जहां केवल "पाणाणुकम्पयाए" इतना कह देनेसे ही काम चल सकता था, वहां उन्होंने "पाणाणुकम्पयाए भूयानुकम्प्रयाए जीवानुकम्पयाए सत्तानुकम्पयाए" इत्यादि चार पदोंका प्रयोग किया है। उसी तरह यहां भी "संजया नभाणियन्वा' यह नहीं लिखकर “पमत्तापमत्ता सरागवीयरागा बभाणि यवा" यह लिखा है अतः इस पाठका टीका विरुद्ध और सम्प्रदाय विरुद्ध अर्थ करके साधुओंमें कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंका स्थापन करना मिथ्या समझना चाहिये। [बोल ३ ] (प्रेरक) भ्रम विध्वंसनकार पन्नावगा सूत्रका मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं "इहां पिण कृष्ण लेशी मनुष्यरा तीन भेद कह्या छै संयति असंयति संयता संयति ते न्याय संयतिमें पिण कृष्णादिक हुवे" इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक) - पन्नावणा सूत्रके मूल पाठका नाम लेकर संयतियोंमें कृष्णादिक अप्रशस्त भाव लेश्याओंका स्थापन करना मिथ्या है। भगवती सूत्र अंग है और पन्नावणा सूत्र उपांग है इस लिये भगवती सूत्रके विरुद्ध पन्नावणा सूत्रमें संयतियोंके अन्दर कृष्णादिक तीन अप्रशस्त लेश्याओंका सद्भाव नहीं कहा जा सकता। अंगोंमें कही हुई बातका उपांग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० सद्धर्ममण्डनम् । सूत्र समर्थन करते हैं खण्डन नहीं करते। जब कि भगवती सूत्रके मूल पाठमें और उसकी टीकामें संयतियोंमें कृष्णादिक अप्रशस्त भाव लेश्याओंके होनेका निषेध कर दिया है तो उसके विरुद्ध पन्नावणा सूत्रमें संयतियोंमें कृष्णादि तीन भाव लेश्याओंका सद्भाव कैसे कहा जा सकता है ? अब पाठकोंके ज्ञानार्थ पन्नावण सूत्रका वह पाठ लिख कर उसका अर्थ कर दिया जाता है। वह पाठ यह है :__"कण्हलेस्साणं भन्ते ! नेरइया सव्वे समाहारा सम सरीरा सवेवपुच्छा ? गोयमा ! जहा ओहिया णवरं गेरड्या वेदणाए मायो मिच्छदिट्ठी उववन्नगाय अमायी सम्मदिछी उववन्न गाय भाणियव्वा सेसंतहेव जहा ओहियाणं असुर कुमारा जाव वोणमंतरा एते जहा ओहिया णवरं मणुस्साणं किरियाहिं विसेसो जाव तत्थणं जेते सम्महिट्ठी तेतिविहा पन्नत्ता संजया असंजया संजया संजया जहा ओहियाणं" (पन्नावणासूत्र पद १७) अर्थ: (प्रश्न ) हे भगवन् ! कृष्णलेश्या वाले नारकी क्या सभी समान आहार वाले और समाम शरीर वाले होते हैं ? (उत्तर) हे गोतम ! जैसा औधिक दण्डकमें कहा गया है वैसा इसमें भी कहना चाहिये सिर्फ इतना विशेष है कि जो मायी मिथ्यादृष्टि मर कर नरकमें उत्पन्न होते हैं वे महान् वेदना वाले होते हैं और जो अमायी सम्यग्दृष्टि उत्पन्न होते हैं वे अल्प वेदना वाले होते हैं शेष सभी बातें औधिक दण्डकके समान समझनी चाहिये । असुर कुमार और धाण व्यन्तरोंको भी औधिक दण्डकके समान ही समझनी चाहिये । मनुष्यों में यह विशेष है-सम्यग्दृष्टि मनुष्य विविध होते हैं- १) संयत (२) असंयत (३) और संयता संयत । शेष सब औधिक दण्डक के समान समझना चाहिये। ___ यह इस पाठका अर्थ है। इस पाठमें "जहा ओहियाणं" कह कर औधिक दण्डकके समान ही संयति जीवोंका भेद कहा है । औधिक दण्डकमें संयतिके चार भेद कहे गए हैं प्रमादी, अप्रमादी, सरागी और वीतरागी। इन चारों प्रकारके संयतियोंको भगवती सूत्रमें कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेण्याओंमें न होना कहा है इसलिये इस पाठमें भी वही बात Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याधिकारः। ३४१ समझनी चाहिये । अर्थात् यहां भी "जहा ओहियाणं" कह कर प्रमादी अप्रमादी सरागी और वीतरागी इन चारों प्रकारके साधुओंको कृष्णलेश्यासे अलग किया गया है उनमें कृष्गलेश्याका सद्भाव नहीं कहा है। अन्यथा अप्रमादी और वीतरागमें भी कृष्णलेश्या माननी पडेगी क्योंकि औधिक दण्डकमें समुच्चय लेश्याके अन्दर संयतिके प्रमादी अप्रमादी सरागी और वीतरागी ये चारो ही भेद कहे गये हैं इनमें यदि इस पाठसे कृष्णलेश्याका सद्भाव माना जाय तो प्रमादी और सरागीकी तरह अप्रमादी और वीतरागीमें भी कृष्णलेश्या सिद्ध होगी परन्तु अप्रमादी और वीतरागीमें कृष्णलेश्याका सद्भाव मानना भ्रमविध्वंसनकारको भी इष्ट नहीं है अत: पन्नावणा सुत्र के इस पाठमें भी भगवती सूत्र के पूर्वोक्त पाठकी तरह कृष्णलेश्यामें चारो प्रकारके संयतियोंका निषेध ही किया है परन्तु सरागी और प्रमादीको स्थापन नहीं किया है। इसलिये इस पाठका नाम लेकर साधुओं में कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओं का स्थापन करना एकान्त मिथ्या है। ( बोल ४ समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २३८ के ऊपर भगवती सुत्र शतक २५ उद्देशा ६ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि “अथ अठे तीर्थंकरमें छद्मस्थपणे कषाय कुशील नियंठो कह्यो छै तिणसू भगवान में कषाय कुशील नियंठो हुन्तो अने कषाय कुशील नियंठे छः लेश्या कही छै” आगे चल कर लिखते हैं "ते न्याय भगवानमें छः लेश्या हुवे (भ्र० पृ० २३८) ___ इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भगवती शतक २५ उद्देशा ६ में कषाय कुशीलमें समुच्चय छः लेश्या कही हैं परन्तु वहां यह निर्णय नहीं किया है कि इन छ: लेश्याओंमें कौन कौन द्रव्य रूप हैं और कौन कौन भाव रूप हैं। अब देखना यह है कि कषाय कुशीलमें जो छः लेश्याएं कहीं गयी हैं वे द्रव्य रूप हैं या भाव रूप हैं ? इसका निर्णय भगवती शतक १ उद्देशा १ के मूलपाठ और दोकी टीकामें टीकाकारने कर दिया है वहां टीकाकारने कहा है कि-"कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें साधुपना नहीं होता इसलिये इन लेश्याओंमें साधुको वर्जित किया है जहां कहीं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ सद्धर्ममण्डनम् । संयतिओंमें कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याका कथन है वहां द्रव्यलेश्याकी अपेक्षासे समझना चाहिये भावलेश्याकी अपेक्षासे नहीं।" ___ यह टीका मूलपाठके साथ पहले लिखी जा चुकी है टीकाकारकी इस उक्तिसे ओर वहांके मूलपाठसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि भगवती सूत्र शतक २५ उद्देशा ६ के मूल गाठमें कषाय कुशीलमें छः द्रव्यलेश्या कही गई हैं भाव लेश्या नहीं अतः भगवती सूत्र शतक २५ उद्देशा ६ के मूलपाठका नाम लेकर कषाय कुशील में कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंका स्थापन करना एकान्त मिथ्या है। (बोल ५ वां समाप्त) (प्रेरक) कषाय कुशील निपथ मूल गुग और उत्तर गुगमें दोष नहीं लगाता है इसमें क्या प्रमाण है ? (प्ररूपक) भगवती सूत्र शतक २५ उद्देशा ६ के मूलपाठमें कषाय कुशीलको दोषका अप्रतिसेवी कहा है वह पाठ यह है "कसाय कुसीले पुच्छा गोयमा ! नोपडिसेवए होना एवं नियंठेवि वउरोऽवि" (भग० श० २५ । उ०६) अर्थ : हे भगवन् ! कषाय कुशील दोष का प्रतिसेवी होता है या नहीं ? ( उत्तर) हे गोतम ! कषाय कुशील मूल गुण और उत्तर गुणमें दोष नहीं लगाता इसी तरह निग्रंथ और स्नातक को भी समझना चाहिये। यह उक्त गाथाका अर्थ है। इस पाठमें स्नातक और निग्रन्थकी तरह कषाय कुशीलको दोषका अप्रतिसेवी कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि कषाय कुशील निप्रथमें कृष्णादिक तीन भाव लेश्याएं नहीं होती क्यों कि जिसमें कृष्णादि तीन भाव लेश्या होती हैं वह अवश्य ही दोषका सेवन करता है कषाय कुशील दोषका सेवन नहीं करता इसलिये उसमें कृष्णादि तीन भाव लेश्यायें नहीं होती अतः कषाय कुशीलमें कृष्णादिक तीन भाव लेश्याओंका स्थापन करना भगवती सूत्रके मूलपाठसे विरुद्ध समझना चाहिये । बोल छठा समाप्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( प्रेरक ) Shorter क्या लक्षण है और वह संयति पुरुषोंमें क्यों नहीं होती यह सप्रमाण बतलाइये ? यह है श्याधिकारः । (प्ररूपक ) उत्तराध्ययन सूत्रमें कृष्ण लेश्याका लक्षण जिस प्रकार बतलाया है वह पाठ ३४३ "पंचासवप्पमत्तो तोहिं अगुत्तो छसु अविरयोय । तोव्वारंभ परिणयो खुद्दो सहसिओनरो । निद्ध धस परिणामो निस्संसो अजि इन्दिओ । एय जोग समाउत्तो कण्हलेस तु परिणमे । " ( उत्तराध्ययन अ० ३४ गाथा ३१ । २२ ) - ( टीका ) पञ्चाश्रवाः हिंसादयः तैः प्रमत्तः प्रमादवान पञ्चाश्रव प्रमत्तः पाठान्तरतः पश्वाश्रव प्रवृत्तो वाऽत स्त्रिभिः प्रस्तावान्मनोवाक्कायै रगुप्तोऽनियन्त्रितो मनोगुप्त्यादि रहित इत्यर्थः तथा पट सु पृथिवीकायादिषु अविरतः अनिवृत्तस्तदुपमर्दकत्वादेरितिगम्यते । Parivaarjastiदतआह तीम्रा उत्कटा स्वरूपतोऽध्यवसायतोवा आरंभाः सर्वसावंद्य व्यापारास्तत्परिणतः तत्प्रवृत्त्या तदात्मतां गतः तथा क्षुद्रः सर्वस्यैवा हितैषी कार्पण्य युक्तोवा सहसा अपर्य्या लोच्य गुण दोषान प्रवर्तत इति साहसिकः चौर्य्यादि कृदिति योऽर्थः नरः उपलक्षणत्वा त्स्त्र्यादिर्वा "निद्ध ं धस " त्ति अत्यन्त मैहिकामुष्मिकापायशंकाविकलोऽत्यन्तं जन्तुवाधानपेक्षोवापरिणामोऽध्यवसायोवा यस्यसतथा । नृसंसो निस्तृ शो जीवान, विहिंसन मनागपि नशंकते निःसंसोवा पर प्रशंसा रहितः अतितेन्द्रियः अनिगृहीतेन्द्रियः । अन्येतु पूर्व पूर्वसूत्रोत्तरार्धस्थाने इदमभि धीयते तच्चे हेति उपसंहारमाह एतेच अनंतरोक्ताः योगाश्च मनोवाक्काय व्यापाराः एतद्योगाः पञ्चावश्र प्रमत्तत्वादय स्तैः समिति भृश माङिति अभिव्याप्त्या युक्त: अन्वितः एतद्योग समायुक्तः कृष्णलेश्यांतुः अवधारणे कृष्ण लेश्या मेवपरिणमेत् तद् द्रव्यसाचित्येन तथाविध द्रव्य संपर्कात् स्फटिक वत्तदु पर रंजनात तद्र ूपतां भजेत उक्त हि "कृष्णादि द्रव्यसाचिव्यापरिणामोय आत्मनः स्फटिकस्येव तत्रायं लेश्या शब्दः प्रयुज्यते" - Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat अर्थात् हिंसा आदि पांच आस्रवोंमें प्रमत्त यानी मग्न रहने वाला या प्रवृत्त रहने - वाला अतएव मन वचन और कायासे अगुप्त अर्थात् मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तियोंसे रहित तथा पृथिवी आदि छः कायके जीवोंके उपमद से नहीं हटा हुआ स्वरूप और www.umaragyanbhandar.com Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ सद्धममण्डनम् । अध्यवसायसे तीव्र यानी उत्कट सावध व्यापारमें प्रवृत्त होकर तत्स्वरूपताको प्राप्त, क्षुद्र सभीका अहित करने वाला अथवा कृपणतासे युक्त विना विचारे चोरी आदि बुरे कामों में झटपट प्रवृत्त हो जाने वाला इस लोक और परलोकके बिगड़नेकी थोड़ी भी शंका नहीं रखने वाला प्राणियोंकी हिंसादि रूप वाधासे अत्यन्त निरपेक्ष परिणाम वाला, जीवहिंसा करनेमें थोड़ी भी शंका नहीं रखने वाला अथवा दूसरेकी प्रशंसासे रहित अजितेन्द्रिय और पूर्वोक्त पंचाश्रव प्रमत्तत्व आदि योगोंसे अत्यन्त युक्त पुरुष कृष्ण लेश्याके परिणामी होते हैं जैसे कृष्णादि द्रव्यके संसर्गसे स्फटिक मणि तद्र प (कृष्ण रूप ) हो जाता है उसी तरह उक्त जीव भी कृष्ण लेश्याका परिणामी होता है कहा भी है कृष्णादि द्रव्यके संसर्गसे स्फटिककी तरह जो आत्माका कृष्णादिरूप परिणाम होता है उसीमें लेश्या शब्दका प्रयोग होता है । यह उक्त गाथाओंका टीकानुसार अर्थ है। इन गाथाओंमें जो कृष्ण लेश्याके लक्षण कहे गये हैं उनमेंसे एक भी साधुओंमें नहीं पाया जाता। कृष्ण लेशी जीव, हिंसा आदि पांच आस्रवों में प्रमत्त (मग्न ) या प्रवृत्त रहने वाला कहा गया है परन्तु साधु आस्रवोंमें मग्न नहीं रहता किन्तु वह पांच आस्रवका त्यागी होता है इस लिये साधुओंमें कृष्ण लेश्याका लक्षण नहीं घटता। यदि कोई कहे कि "प्रमादी साधु आरंभी कहा गया है और आरंभ करना आस्रवका सेवन करना है इस लिये यह लक्षण प्रमादी साधुमें घटता है" तो उसे कहना चाहिये कि इस गाथामें सामान्य आरंभी पुरुषका ग्रहण नहीं होता किन्तु विशिष्ट रूपसे जो हिंसा आदि आस्रवोंमें प्रवृत्त रहता है उसीका ग्रहण है अतएव इस गाथामें कहा है कि तीब्वारंभ परिणयो" इसका अर्थ टीकाकारने यह किया है "अयंच अतीवार भोपि स्यादत माह तीत्राः उत्कटाः स्वरूपतोऽध्यवसायतोवा आरम्भा सर्वसावध व्यापारास्तत्परिणतः तत्प्रवृत्या तदात्मतांगतः” अर्थात सामान्य आरम्भ करने वाला पुरुष भी पांच आस्रवोंमें प्रवृत्त, और मन वचन कायसे अगुप्त तथा छःकायके उपमदसे अविरत कहा जा सकता है परंतु उसका ग्रहण वर्जित करनेके लिये इस गाथामें "तीव्वारंभ परिणयो" ऐसा पद दिया गया है इसलिये जिसका आरंभ, स्वरूप और अध्यवसाय इन दोनोंसे उत्कट है और जो हमेशः पांच आस्रवोंमें प्रवृत्त होकर तत्स्वरूप हो गया है उसीका इस गाथामें ग्रहण है और वही कृष्णलेश्याका परिणामी है। जो कभी कभी सामान्य रूपसे मंद आरम्भ करता है वह कृष्णलेश्या का परिणामी नहीं है । षष्ट गुण स्थान वाला प्रमादी साधु यदा कदाचित प्रमादवश आरम्म करता है परन्तु उसका आरम्भ तीव्र नहीं होता अतः वह कृष्णलेश्या Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याधिकारः। ३४५ का परिणामी नहीं है। जो मनो गुप्ति आदि तीन गुप्तियोंसे रहित है उसे यहां कृष्गलेश्याका परिणामी कहा है साधु मनोगुप्ति आदिसे युक्त होता है इसलिये वह कृष्णलेश्या का परिणामी नहीं हो सकता। अजितेन्द्रिय और चोरी आदिमें प्रवृत्त रहना यहां कृष्णलेश्याका बक्षण कहा है परन्तु साधु जितेन्द्रिय और चोरी आदि दुष्कर्मसे निवृत्त रहते हैं अतः इस पाठमें कहा हुमा कृष्गलेश्याका लक्षण साधुमें एक भी नहीं मिलता अतः संयति पुरुषोंमें और विशेष कर कषाय कुशील में कृष्गलेश्या का सद्भाव कायम करना अज्ञानका परिणाम सम. झना चाहिये। [बोल ७ वां समाप्त] (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २३८ पर लिखते हैं "उत्तराध्ययन अध्ययन ३४ गाथा २१ पञ्चासवप्पमत्ता इतिवचनात् पञ्चास्रवमें प्रवते ते कृष्णलेश्याना लक्षण कहा अने भगवान् शीतल तेजो लेश्या लब्धिफोडो तिहां उत्कृष्टी पांच क्रिया कयो ते मांटे ए कृष्णलेश्याना अंश जाणवो" इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक) उत्तराध्ययन अ० ३४ गाथा २१ में पांच आस्रवमें प्रवृत्त रहना कृष्णलेश्या का लक्षण कहा है परन्तु जो पुरुष सामान्य रूपसे कभी कभी प्रमाद वश मंद आरम्भ करता है वह भी पांच आस्रवमें प्रवृत्त कहा जा सकता है अत: उसमें भी कृष्णलेश्याका लक्षण न चला जाय इसलिये उक्त गाथामें “तीबारंभ परिणयो'' यह कृष्गलेशी पुरुषका विशेषण लगाया है। इस विशेषणको लगा कर जो पुरुष पांच आस्रवोंमें तीब्र रूपसे प्रवृत्त रहता है जो तीव्र आरम्भ करता है उसीको कृष्णलेश्याका परिणामी कहा है जो तीव्र आरम्भ नहीं करता उसको नहीं अतएव इस विशेषग का सार्थक्य बतलाते हुए टीकाकार ने लिखा है कि-"अयंचा तीव्रारम्भोऽपिस्यादतआह" अर्थात पांच आस्रवोंमें प्रवृत्त होना, मन वचन कायसे गुप्त नहीं रहना, और पृथिवी काय माविका उपमद करना, ये सब सामान्य आरम्भ करने वाले पुरुषमें भी हो सकते हैं परन्तु सामान्य आरम्भ करने वाले कृष्णलेश्याके परिणामी नहीं होते इसलिये 'तीव्वारम्भ परिणयो' यह कृष्णलेशीका विशेषण लगाया है। इसलिये जो उत्कट हिंसा आदि का मारम्भ करता है वही कृष्णलेश्याका परिणामी है सामान्य आरम्भ करनेवाला नहीं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । जो पुरुष सामान्य आरम्भ करने वाला है वह चाहे गृहस्थ हो तो भी उसमें कृष्णलेश्या को परिणाम नहीं कहा जा सकता फिर साधु तो गृहस्थकी अपेक्षा बहुत ही शुद्ध परिणामी होता है उसमें भाव रूप कृष्णलेश्याका सद्भाव तो सुतगं असम्भव है। ___इस गाथामें बताये हुए कृष्णलेश्याके लक्षण जब कि सामान्य साधुओं में भी नहीं पाये जाते तब फिर भगवान महावीर स्वामीके विषयमें तो कहना ही क्या है । वह तो अनुत्तर चारित्री मूलगुण और उत्तर गुणमें दोष नहीं लगाने वाले कषाय कुशील थे उनमें भाव रूप कृष्णलेश्याका सद्भाव कैसे हो सकता है ? अत: उत्तराध्ययन सूत्रके इस गाथाका पहिला चरण लिख कर भगवान महावीर स्वामी में कृष्णलेश्या का लक्षण धटाना मूर्ख जनताको धोखा देना है। __ इस गाथाके बाद नीललेश्याका लक्षण बतानेके लिये उत्तगध्ययन सूत्रमें यह गाथा कही है: ___ "इस्सा अमरिस अतवो अविज माया अहीरिया' ___ अर्थात ईर्ष्या यानी दूसरेके गुणको नहीं सहना, अमर्ष यानी अत्यन्त आग्रह करना, तप नहीं करना, कुशास्त्ररूप अविद्या, माया करना, और निर्लज्जता, ये नीललेल्या के लक्षण हैं। इस गाथामें माया करना नील लेश्याका लक्षण कहा है और दशमगुण स्थान पर्य्यन्त माया होती है। भगवती सूत्र शतक १ उद्देशा २ के मूलपाठमें अप्रमादी साधुको माया प्रत्यया क्रिया कही गई है वह पाठ यह है "तत्थणं जेते अप्पमत्त संजया तेसिणं एगा माया वत्तिया किरिया कज्जई. अर्थात अप्रमादी साधुमें एक माया प्रत्यया क्रिया होती है। यहां अप्रमादी साधुमें माया प्रत्यया क्रियाका होना लिखा है और माया करना नील लेश्याका लक्षण कहा है फिर अप्रमादी साधुमें जीतमलजीके मतानुयायी नीललेश्या क्यों नहीं मानते ? यदि कहो कि "उत्तराध्ययन सूत्रकी उक्त गाथामें विशिष्ट मायाका ग्रहण होता है सामान्य का नहीं इसलिये विशिष्ट माया करना नील देश्याका लक्षण है सामान्य माया करना नहीं। अप्रमादी साधुमें विशिष्ट माया नहीं होती इसलिये उसमें नीललेश्या नहीं है" तो उसी तरह विशिष्ट रूपसे आरम्भ करना कृष्गलेश्याका लक्षण है सामान्य' आरम्भ करना नहीं इसलिये संयतियोंमें भाव रूप कृष्ण लेश्या नहीं होती क्यों कि वे विशिष्ट रूपसे आरम्भ नहीं करते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याधिकारः । यदि कोई सामान्य आरम्भको कृष्णलेश्याका लक्षण मान कर संयतियों में कृष्णश्याका स्थापन करे तो फिर सामान्य मायाको नील लेइयाका लक्षण मान कर अपमादी साधु नील या भी उसे माननी पड़ेगी परन्तु यदि सामान्य माया नील लेश्या का लक्षण नहीं है, तो उसी तरह सामान्य आरम्भ करना भी कृष्ण लेश्या का लक्षण नहीं है अतः साधुओं में भाव रूप कृष्ण लेश्या का स्थापन करना अज्ञान मूलक सम"झना चाहिये । ३४७ शीतल श्याके द्वारा जो भगवान ने गोशालक की प्राणरक्षा की थी उससे भगवान को पांच क्रिया लगनेकी कल्पना करना भी मिथ्या है क्योंकि शीतल लेश्याके प्रयोग करनेमें उत्कृष्ट पांच क्रिया नहीं होती यह विस्तार के साथ लब्धि प्रकरणमें कहा जा चुका है अतः लब्धि का नाम लेकर भगवान में कृष्ण लेश्याका अंश कायम करना एकांत मिथ्या है । यदि कोई कहे कि "कृष्ण लेश्या हुवे विना लब्धिका प्रयोग नहीं किया जाता इस लिये भगवान में कृष्ण लेश्या अवश्य थी” तो उसे कहना चाहिये कि पुलाक निग्रन्थ, . जिस समय पुलाक लब्धिका प्रयोग करता है उसी समय उसमें पुलाक नियण्ठा माता है । जीतमलजीने भी भिक्खुयश रसायनमें लिखा है कि “पुलाक नियंठो पीछाणए लब्धिफोड्यां कह्यो जिण जाणए । स्थिति अन्तलब्धी स्थितितो अधिकायए । ; विरह उत्कृष्ट : असंखेज्ज वासए पछे तो अवश्य प्रकटे विमासए । यामें चारित्र "गुण स्वीकारए ति वन्दन जोग विचारए” परन्तु पुलाक निग्रन्थ में तीन विशुद्ध भाव लेश्या ही कही गई हैं कृष्ण लेश्या नहीं तथा वकुश और प्रतिसेवना कुशील मूल गुण और उत्तर गुण में दोष लगाते हैं परन्तु उनमें लेश्या विशुद्ध ही कही गयी हैं इसलिये कृष्ण लेश्याके हुए विना लब्धिका प्रयोग नहीं होता यह कथन अज्ञानमूलक है । E [ बोल ८ वां समाप्त ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ( प्रेरक ) पुलाक, वकुश और प्रतिसेवना कुशीलमें तीन विशुद्ध भावलेश्या ही होती हैं इस में क्या प्रमाण है ? (प्ररूपक) www.umaragyanbhandar.com Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ सद्धर्ममण्डनम् । भगवती सूत्र शतक २५ उद्देशा ६ का मूल पाठ इसमें प्रमाण है। वह पाठ यह है: "पुलाएणं भन्ते । किं सलेस्तो होज्जा अलेस्से होज्जा ? गोयमा ! सलेस्से होज्जा णो अलेस्से होज्जा । :जइ सस्से होज्जा रोणं भन्ते ! कतिमुलेस्सासु होज्जा ? गोयमा ! तीसु विसुद्ध लेस्सासु होज्जा तंजहा-तेउलेस्साए पम्हलेस्साए सुक्ललेस्साए, एवं वउसेवि एवं पणिसेवणा कुसोलेवि" (भगवती श० २५ उ०६) मर्थ :(प्रश्न ) हे भगवन् ! पुलाक निग्रन्य, सलेशी होता है या अलेशी होता है ? (उत्तर) हे गोतम ! पुलाक निग्रन्थ सलेशी होता है अलेशी नहीं होता। (प्रश्न ) हे भगवन् ! यदि सलेशी होता है तो वह कितनी लेश्याओं में होता है ? (उत्तर) हे गोतम ! तीन विशुद्ध लेश्याओं में होता है तेजो लेश्या में, पन लेश्या में, और शुक्ल लेश्या में । इसी तरह वकुश और प्रतिसेवनाकुशील तीन विशुद्ध लेश्याओं में ही होते हैं। यहां पुलाक वकुश और प्रतिसेवना कुशीलमें तीन विशुद्ध भाव लेश्यायें कही गयी हैं कृष्णादि प्रशस्त भाव लेइया नहीं तथापि पुलाक निग्रन्थ लब्धिका प्रयोग क• रता है और वकुश तथा प्रतिसेवना कुशील मूल गुण और उत्तर गुण में दोष लगाते हैं इसलिये कृष्ण लेश्या के विना लब्धिका प्रयोग नहीं होता यह कहना शास्त्र नहीं जानने का फल है। (प्रेरक) पुलाक ऋश और प्रतिसेवनाकुशील दोषके प्रतिसेवी होते हैं इस में क्या प्रमाण है ? पुलाक वकुश और प्रतिसेवना कुशील दोषके प्रतिसेवी होते हैं इस विषयमें भगवती शतक २५ उद्देशा ६ का मूलपाठ प्रमाण है वह पाठ यह है: ___ "पुलाएणं भन्ते ! किं पडिसेवएहोजा अपडिसेवएहोला ? पडिसेवए होड्डा नो अपडिसेवए होजा। जइपडिसेवए होजा कि मूल गुण पडिसेवए होजा उत्तर गुण पडिसेवए होज्जा ? गोयमा ! मूल गुण पडिसेवए होज्जा उत्तर गुण पडिसेवए होज्जा । मूल गुण Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याधिकारः। ३४९ पडिसेवमाणे पञ्चण्हं अणासवाणं अण्णयरं पडिसेवएज्जा उत्तर गुण पडिसेवमाणे दसविहस्स पश्चक्खाणस्स अण्णयरं पडिसेवेज्जा । वउसेणं पुच्छा ? पडिसेवए होज्जाणो अपडिसेवए होज्जा। जइ पडिसेवए होज्जा कि मूल गुण पडिसेवए होज्जा उत्तर गुण पडिसेवए होज्जा। गोयमा ! नो मूलगुण पडिसेवए होज्जा उत्तरगुण पडिसेवए होज्जा उत्तरगुण पडिसेवमाणे दसविहस्स पञ्चक्खाणस्स अण्णयरं पडिसेवेज्जा । पडिसेवणा कुशील जहा पुलाए" (भग० श० २५ उ०६) अर्थ हे भगवन् ! पुलाक निनथ प्रतिसेवी होता है या अप्रतिसेषी होता है। . (उत्तर) हे गोतम ! प्रतिसेवो होता है अप्रतिसेवी नहीं होता। (प्रश्न ) यदि प्रतिसेवो होता है तो क्या वह मूल गुणका प्रतिसेवो होता है या उत्तर गुणका प्रतिसेवी होता है? ( उत्तर ) हे गोतम ! मूल गुण और उत्तर गुण दोनोंका ही प्रतिसेवो होता है जब वह मूल गुणका प्रतिसेवी होता है तब पञ्च महाव्रतोंमेंसे किसी एककी विराधना करता है और जब उत्तर गुणका प्रतिसेवी होता है तब दश विध प्रत्याख्यानों से किसी एककी विराधना करता है। (पूश्न ) हे भगवन् ! वकुश निनथ प्रतिसेवी होता है या अपूतिसेधी होता है ? (उत्तर हे गोतम ! पूतिसेवो होता है अपूतिसेवी नहीं होता ? (पूरन ) हे भगवन् ! वह मूल गुगका प्रतिसेवी होता है या उत्तर गुणका प्रतिसेवी होता है ? (उत्तर) हे गोतम ! वकुश निग्र'थ मूल गुण का नहीं उत्तर गुण का प्रतिसेधी होता है। जब यह उत्तर गुणका पूतिसेवी होता है तब दशविध प्रत्याख्यानोंमेंसे किसी एककी विराधना करता है। पूतिसेवना कुशील, पुलाककी तरह मूल गुण और उत्तर गुण दोनोंका पूतिसेवी होता है। यहां पुलाक और प्रतिसेवना कुशीलको मूलगुण और उत्तर गुण दोनोंका प्रतिसेवी कहा है तथा वकुशको उत्तर गुणका प्रतिसेवी कहा है तथापि इनमें तीन विशुद्ध भाव लेश्या ही पाई जाती हैं इस लिये कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याके बिना दोष का सेवन नहीं होता यह कहना अज्ञानका परिणाम है। (बोल ९ वां समाप्त) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० सद्धर्ममण्डनम् । . (प्रेस्क) भ्रम विध्वंसनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ २१२ पर भगवती शतक २५ उद्देशा ६ का मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं "कषाय कुशील छांडि ए छः ठीकाने आवतो कह्यो। कषाय कुशीलने दोष लागे इज नहीं तो संयमा संयममें किम आवे एतो साधुपणो भांगि श्रावकथयो तेतो मोंटो दोष छै । एतो साम्प्रत दोष लागे तिवारे साधुरो श्रावक हुवे छ । दोष लागा विना तो साधुरो श्रावक हुवे नहीं । जे कषाय नियंठे तो साधु हुन्तो पछे साधु पणो पल्यो नहीं तिवारे श्रावकरा व्रत आदरी श्रावक थयो जे साधुरो श्रावक थयो यह निश्चय दोष लाग्यो" . इसका क्या समाधान ? (भ्र० पृ० २१२) (प्ररूपक) जैसे कषाय कुशील, कषाय कुशीलपनाको छोड़कर संयमासंयममें जाता है उसी तरह निपथ भी निथपनाको छोड़ कर असंयममें जाता है । यदि कषाय कुशील, कषाय कुशीलपना छोड़कर संयमा संयममें जानेसे दोषका प्रतिसेवी होता है तो फिर निप्रथ भी निनथपना छोड़ कर असंयममें जानेसे दोषका प्रतिसेवी क्यों नहीं होता। भ्रमविध्वंसनकार भी निथको दोषका प्रतिसेवी नहीं मानते ऐसी दशामें कषाय कुशीलको प्रतिसेवी मानना उनका अयुक्त है। वास्तवमें दोषका प्रतिसेवी वही कहा गया है जो मूलगुण और उत्तर गुणमें दोष लगाता है । जो मूल गुण और उत्तर गुगमें दोष नहीं लगाता है वह दोषका प्रतिसेवी नहीं कहा गया है। कषाय कुशील और निग्रंथ मूल गुण और उत्तर गुणमें दोष नहीं लगाते हैं इस लिये वे दोषके प्रतिसेवो नहीं हैं। यदि गिरनेसे दोषका प्रतिसेवी माना जाय तो फिर निप्रथको भी प्रतिसेवी ही मानना पड़ेगा क्योंकि निनथ भी असंयममें आता है अतः गिरनेसे कोई दोषका प्रतिसेवी नहीं माना जाता किन्तु मूलगुण और उत्तर गुणमें दोष लगानेसे माना जाता है अतः जैसे निपथ गिरकर असंयममें जानेपर भी दोषका प्रतिसेवी नहीं है उसी तरह कषाय कुशील गिर कर संयमा संयममें जाने पर भी दोषका प्रतिसेवी नहीं है । यदि कोई कहे कि कषाय कुशील शास्त्रमें विराधकभी कहा गया है फिर वह दोष का प्रतिसेवी क्यों नहीं ? तो इसका उत्तर यह है कि कषाय कुशीलकी तरह निग्रंथ भी विराधक कहा गया है फिर निनथको भी दोषका प्रतिसेवी क्यों नहीं मानते ? भगवती शतक २५ उद्देशा ६ में निग्रवको विराधक कहा है वह पाठ यह है : Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याधिकारः। "कषाय कुसोले पुच्छा ? गोयमा ! अविराहणं पडुच्च इन्दताएवा उववज्जेज्जा जाव अहमिन्दताए उववज्जेज्जा। विराहणं पडुच अन्नयरेसु उववज्जेज्जा नियंठे पुच्छा ? गोयमा ! अविराहणं पडुच गोइन्दताए उववज्जेज्जा जावणो लोग पालताए उववज्जेज्जा अहमिन्दताए उववज्जेज्जा, विराहणं पहुच्च अण्णयरेसु उववज्जेज्जा" (भगक्ती शतक २५ उ०६) अर्थ: हे भगवन् ! कषाय कुशीलके विषय में प्रश्न है ? (उत्तर) हे गोतम ! अविराषक कषाय कुशील इन्द्रसे लेकर यावत् अहमिन्द्रमें उत्पन्न होता है और विराधक कषाय कुशोल भुवनपत्यादिकोंमें जाता है। .(प्रश्न) निथके विषवमें प्रश्न है ? ( उत्सर) भपिराधक निग्रक इन्दादिकोंमें तथा लोकपालादिकोंमें उत्पन्न नहीं होता किन्तु यह अहमिन्द्र होता है और विराधक निमय भुवनपत्यादिकों में जाता है। - यहां कषाय कुशीलकी तरह निथको भी विगधक कहा है अतः विगधक होनेसे यदि कषाय कुशील दोषका प्रतिसेवी हो तो फिर निथको भी दोषका प्रतिसेवी कहना होगा क्योंकि इस पाठमें निग्रंथको भी विराधक कहा है। इस लिये जैसे विराधक होने पर भी निथ दोषका प्रतिसेवी नहीं होता उसी तरह कषाय कुशील भी दोषका प्रतिसेवी नहीं होता । अतः विरावक तथा गिरनेका नाम लेकर कषाय कुशीलको दोषका प्रतिसेवी बताना अज्ञान है। (बोल १० वां समाप्त) (प्रेरक) __ भ्रम विध्वंसनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ २३९ पर आवश्यक सूत्रका नाम लेकर लिखते हैं : "अथ इहां पिण छः लेश्या कही। जो अशुभ लेश्या नवर्त तो ए पाठ क्यूं कह्यो । तथा पडिकमामि चउहि झानेहि अट्टणं झाणेणं रुद्दणं झाणेणं धम्मेणं झाणेणं सुक्केगं झाणेणं इहां साधुमें चार ध्यान कह्या। जिम आते रुद्रध्यान पावे तिम कृष्ण, नील; कापोत लेश्या पिण पावे" (भ्र० पृ० २३९) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) आवश्यक सूत्रका नाम लेकर साधुओंमें कृष्गादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याका स्थापन करना और साधुमें द्ररुध्यान बतलाना अयुक्त है । रुद्रध्यान वालेकी शास्त्रमे नरक गति कहो है और हिंसा आदि अति क्रूर कर्मोंके आचरण करनेके लिये दृढ़ निश्चय करनेका नाम रुद्रध्यान है। ठाणाङ्ग सूत्रकी टीकामें लिखा है कि ___ध्यानं दृढ़ोऽध्यवसायः । हिंसायति क्रौर्यानुगतं रुद्रम्” । अर्थात् हिंसा आदि अति क्रू र कर्मोंके आचरण करनेका जो दृढ़ निश्चय है वह रुद्रध्यान है। यह चतुर्विध होता है (१) हिंसानुवन्धी (२) मृषानुवन्धी (३) स्तेनानुवन्धी (४) संरक्षणानुवन्धी। ये चारों प्रकारके ध्यान अति क्रूर कर्मियों के होते हैं साधुके नहीं होते क्योंकि साधु अति क्रूर कर्मी नहीं है। आवश्यक सूत्रमें पडिक्कमामि चाहिं झाणेहि" यह पाठ आया है इससे साधुओं में रुद्रध्यान नहीं सिद्ध हो सकता क्योंकि आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यानमें अविश्वास होनेसे जो साधुको अतिचार आता है उसकी निवृत्तिके लिये उक्त पाठका उच्चारण करके साधु प्रतिक्रमण करता है इन चारों ध्यानोंके साधुमें होनेसे नहीं अतएव इस पाठका अभिप्राय बतलाते हुए टीकाकारने लिखा है "प्रतिक्रमामि चतुर्भिानैः करण भूतै रश्रद्धयादिना प्रकारेण योऽतिचारः कृतः" अर्थात् शास्त्रोक्त चार ध्यानोंमें अविश्वास होनेसे जो अतिचार किया है उससे मैं निवृत्त होता हूं यह साधु प्रतिज्ञा करता है। यहां टीकाकारने शास्त्रोक्त चार ध्यानोंमें अविश्वास रखनेसे होने वाले अतिचारकी निवृत्ति के लिये प्रतिक्रमण करना कहा है इन ध्यानोंके साधुओंमें होनेसे नहीं। अतः आवश्यक सूत्रका नाम लेकर साधुमें रुद्रध्यानका स्थापन करना मिथ्या है । जिस प्रकार साधुमें रुद्रध्यान नहीं होता उसी तरह उसमें कृष्णादि अप्रशस्त भाव लेश्या भी नहीं होती तथापि यदि कोई दुराग्रही प्रतिक्रमण सूत्रकी टीकाको न मान कर साधुमें रौद्र ध्यानका स्थापन करे तो उसे कहना चाहिये कि शास्त्र में प्रमादी साधुको ही प्रतिक्रमण करनेकी आवश्यकता बतलाई है और प्रतिक्रमण सूत्रमें रुद्र ध्यानकी तरह शुक्ल ध्यानका भी प्रतिक्रमण कहा है फिर तुम प्रमादी साधुमें शुक्ल ध्यानका सद्भाव क्यों नहीं मानते ? अतः जैसे प्रमादी साधुमें शुक्ल ध्यान न होने पर भी उसमें अविश्वास होनेसे जो अतिचार आता है उसकी निवृत्ति के लिये प्रमादी साधु प्रतिक्रमण करता है उसी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याधिकारः । ३५३ तरह रुद्रध्यानमें अविश्वास होनेके कारण जो अतिचार माता है उसकी निवृत्तिके लिये प्रतिक्रमण करता है रुद्रध्यानके साधुमें होनेसे नहीं । प्रतिक्रमण सूत्रमें जैसे चार ध्यानोंके प्रतिक्रमणके विषयमें पाठ आया है उसी तरह मिथ्या दर्शन शल्य के प्रतिक्रमण के विषय में भी पाठ आया है। वह पाठ यह है "कमामि तहिं सल्लेहि मायासल्लेणं नीयांणसल्लेगं मिच्छादंसण सल्लेणं" अर्थः ---- साधु कहता है कि मैं माया शल्य, निदान शल्य और मिथ्या दर्शन शल्य इन तीनों से निवृत्त होता हूं । यह इस पाठका अर्थ है । यहां साधुको मिथ्यादर्शन शल्यसे भी प्रतिक्रमण करना कहा है परन्तु साधुमें मिथ्या दर्शन शल्यका सद्भाव नहीं है उसी तरह रुद्र ध्यान भी साधुमें नहीं होता तथापि उसमें अविश्वास होनेके कारण प्रतिक्रमण करना कहा है। यदि साधुमें रुद्र ध्यान होनेसे वह प्रतिक्रमण करता है तो फिर साधुमें मिथ्या दर्शन शल्य होने से उसका प्रतिक्रमण करना मानना चाहिये । परन्तु साधुमें मिथ्यादर्शन नहीं होता उसी तरह उसमें रुद्र ध्यान भी नहीं होता, किन्तु उनमें अविश्वास होनेके कारण साधु प्रतिक्रमण करता है । ( बोल ११ वां समाप्त ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २४० पर पन्नावणा सूत्र पद १७ का मूलपाठ लिख कर उसकी मलय गिरिकी टीकाकी साक्षी देकर साधुओंमें कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याका स्थापन करते हैं । ( भ्र० पृ० २४० य० सू० १७ ) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) मलय गिरि टीकामें मन: पर्य्यवज्ञानियोंमें कृष्णलेश्या बतलाई गयी है परन्तु वह टीका भगवती शतक १ उद्देशा २ के मूलपाठ और उसकी टीकासे विरुद्ध है अतः वह प्रमाण नहीं मानी जा सकती है। भगवती शतक १ उद्देशा २ का मूलपाठ और उसकी ४५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । टीका पहले लिख दी गयी है। वहां साफ साफ लिखा है कि प्रमादी अप्रमादी सरागी और वीतरागी ये चारो प्रकारके संयति कृष्णादि तीन अग्रशस्त भाव लेश्यामें नहीं होते । टीकाकारने कहा है कि ___"कृष्णादिषुहि अप्रशस्त भाव लेश्यासु संयतत्वं नास्ति' अर्थात् कृष्णादिक अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें संयम नहीं होता । अतः कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें संयम मानना उक्त टीका और भगवती शतक १ उद्देशा २ के मूलपाठसे विरुद्ध है। यह स्मरण रखनेकी बात है कि कोई भी टीका स्वत: प्रमाण नहीं होती। टीका की प्रमाणता मूलपाठके आधीन है अतः जो टीका मूल पाठसे प्रतिकूलं है वह कदापि प्रमाण नहीं है । मलयगिरि टोका भगवतीके उक्त मूलपाठ और उसकी प्राचीन टीकासे विरुद्ध है इसलिये वह प्रमाण नहीं मानी जा सकती। ___ भ्रमविध्वंसनकारने पन्नावणा सुत्रका जो मूलपाठ लिखा है उसमें भी यह नहीं कहा है कि मनः पय्येव ज्ञानियोंमें भाव कृष्ण लेश्या पाई जाती है वहां सामान्य रूपसे कृष्ण लेश्याका होना लिखा है अत: वह कृष्ण लेश्या द्रव्यरूप है, भाव रूप नहीं क्योंकि भगवतीके मूलपाठमें साफ साफ संयतियोंमें कृष्णादि तीन भाव लेश्याओंका निषेध किया है उससे विरुद्ध पन्नावणा सुत्रमें संयसि पुरुषोंमें भाव कृष्ण लेश्याका स्थापन कैसे किया जा सकता है ? भगवती सूत्र अङ्ग है और पन्नावणा उपांग है। अङ्गमें कही हुई बात का उपाङ्ग सूत्रमें समर्थन किया जाता है खण्डन नहीं किया जाता। अत: पन्नावणा सत्र की साक्षी से संयतियों में भाव कृष्ण लेश्या का स्थापन करना अज्ञान (बोल १२ वां समाप्त) लेश्या प्रकरणका सार यह है कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें साधुता नहीं होती । तेजः पद्म और शुक्ल रूप भाव लेश्याओंमें ही साधुता होती है। इन विशुद्ध भाव लेश्याओंसे युक्त जो साधु, संघादिकी रक्षाके लिये वैक्रिय लब्धिका प्रयोग करता है उसे शास्त्रकारने भावितात्मा अनगार कहा है। भगवती शतक ३ उद्देशा ५ में मूलपाठ आया है "सेजहा नामए केइ पुरिसे असिचम्म पायं गाहाए गच्छज्जा एवामेव अणगारेवि भावियप्पा असिचम्मपायंहत्यकिञ्चगएणं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याधिकारः । अप्पाणेणं उडूढं वेहासं उप्पएज्जा ? हंता ! उप्पएज्जा" ( भ० श० ३ उ०५ ) ३५५ अर्थः ( प्रश्न ) हे भगवन् ! जैसे कोई पुरुष खङ्ग और धर्मको धारण करके चलता है उसी तरह भावितात्मा अनगार संघ आदिका कार्य्यके लिये असि चर्मको धारण करके ऊपर आकाशमें चल सकता है ? ( उत्तर ) हां ! गोतम ! चल सकता है । यह उपर्युक्त पाठका मूलार्थ है । इससे सिद्ध होता है कि मूल इस पीठमें संघ सादिका कार्य्यके लिये असि और चर्मको धारण करके ऊपर आकाशमें चलने वाले साधुको भावितात्मा अनगार कहा है और उत्तर गुण दोष लगाने पर भी साधुओंमें संयमके श्रेष्ठ गुण मौजूद रहते हैं इसलिये उनमें विशुद्ध भाव लेश्या ही होती हैं अप्रशस्त भाव लेश्या नहीं होती अन्यथा असि चर्म धारी होकर आकाशमें चलने वाले साधुको इस पाठ में भावितात्मा नहीं कहते । जिसमें शुद्ध भाव देश्याएं होती हैं वही भावितात्मा हो सकता है अशुद्ध भावश्या वाला नहीं अतः साधुओं में अप्रशस्त भाव लेश्याओं का स्थापन करना मिथ्या है। जीतमलजीने भिक्खुयश रसायन नामक ग्रन्थमें लिखा है कि “मूलगुणने उत्तर गुण मांहिए दोष लगावे ते दुःख दायए पडिसेवणा कुशील पिछाणए । जघन्य दो सौ कोडते जाणए नहीं विरह ए थी ओछा नाहीं ए । एपिण छटठे गुणठाणे कहिवायए यामें चारित्र गुण स्वीकार ए । तिणसूं वन्दवा जोग विचार ए । "" इनों में जीतमलजी ने कहा है कि प्रतिसेवना कुशील यद्यपि मूलगुण और उत्तर गुण दोष लगाता है तथापि उसमें छट्ठा गुण स्थान और चारित्रके श्रेष्ठ गुण मौजूद हैं तः वह वन्दनीय समझा जाता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat इनके मतानुयायियों से पूछना चाहिये कि मूलगुण और उत्तर गुणमें दोष लगाने वाले साधुओं में जबकि चारित्रके श्रेष्ठ गुण मौजूद रहते हैं तब फिर उनमें अप्रशस्त कृष्णादिक भाव लेश्या कैसे हो सकती हैं ? क्योंकि कृष्णादिक अप्रशस्त भाव लेश्याओं में चरित्र श्रेष्ट गुण कदापि नहीं विद्यमान रह सकते । अतः चारित्रके श्रेष्ठ गुण, और अशुभ भाव लेश्याओं का सद्भाव, इन दोनों परस्पर विरुद्ध बातोंको एक व्यक्तिमें स्वीकार करना अज्ञान मूलक समझना चाहिये । www.umaragyanbhandar.com Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । तेजः पद्म और शुक्ल लेश्याओं में भी दोषका प्रतिसेवन होता है इस लिये दोषके प्रतिसेवनका नाम लेकर साधुओंमें कृष्णादिक अप्रशस्त भाव लेश्याओंका स्थापन नहीं किया जा सकता । वैमानिफ देवताओंमें तेजः पद्म और शुक्ल लेश्या ही मानी गई हैं परन्तु वैमानिक देवता आत्मारंभी परारंभी और तदुभयारंभी होते हैं । इस प्रकार जब कि आत्मारंभी परार भी और तदुभयारंभी वैमानिक देवताओंमें विशुद्ध तीन भाव लेश्या ही मानी गई हैं तब महाव्रत के पालने वाले मुनियोंमें दोष लगानेपर भी प्रशस्त तीन भाव लेश्याओं के होने में क्या संदेह है ? अब इन लेश्याओं का स्वरूप समझाने के लिये आवश्यक सूत्रकी टीकामें दिये हुए दृष्टान्त वताये जाते हैं ३५६ " जहजम्बूतरु रेगो सुपक्कफल भरिय नमिय सालग्गो । दिट्ठो छहि पुरिसेहिं तेवंती जम्बु भक्खेमो । किह पुणते वेंतेको आरुहयाणाण जीव संदेहो । तो छिंदि ऊण मूले पाडे मुताहे भक्खेमो । बितिआह एहहेणं किं छिण्णेणं तरुण अम्हंति । साहा महल छिदह तेइयो वेंती प्रसाहाओ । गोच्छे चउत्थ ओऊण पञ्चमो वेगेण्हह फलाइ । छट्ठोवेंति पडिया एएच्चिय खाह वेतु जे । दिट्ठ' तस्सो वणयो जोर्वेति तरूवि छिन्नमूलाओ । सोव किन्हाए साल महल्लाउ नीलाओ । हवह पसाहा काऊ गोच्छा तेऊ फलाय पम्हाए । पडियाए शुक्कलेस्सा अहवा अन्न मुदाहरणं ।" अर्थ: पके हुए सुन्दर फलोंके भारसे नम्र शाखा वाले किसी एक जामुनके वृक्षको छः पुरुषोंने देखा । वे सभी कहने लगे कि हम लोग इस जामुनके फलको खांय । उनमें से किसी एक जामुन फलको पानेका उपाय बतलाते हुए कहा कि बृक्षके ऊपर चढ़नेमें गिरने का भय है इस लिये इस वृक्षको जड़से काटकर हम लोग इसके फलोंको खांय । दूसरे ने कहा कि इतने बड़े वृक्षको काटनेसे क्या प्रयोजन है इसकी शाखाको काट कर हम लोग जामुन खा लेवें। तीसरेने कहा कि शाखाओंको काटना भी ठीक नहीं है किन्तु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लेश्याधिकारः। - इसकी प्रशाखाओंको काट कर हम लोग इसके फल खांय । चौथेने कहा कि हम लोग केवल इसके गुच्छोंको तोड़ लेवें प्रशाखाओंको काटनेकी क्या आवश्यकता है। पांचवेने कहा कि हम लोग इसके फल तोड़ लेवें गुच्छोंको तोड़नेकी क्या आवश्यकता है । छ? ने कहा कि गिरे हुए फलोंको ही खा लेवें फलोंको तोड़नेका कुछ भी प्रयोजन नहीं है। यह एक दृष्टान्त है। इसमें पहला पुरुष जो वृक्षको जड़से काटनेकी सलाह देता है वह कृष्ण लेश्याके परिणाममें विद्यमान है। जो बड़ी शाखाओंको काटनेकी राय देता है वह दूसरा पुरुष नील लेशी है। प्रशाखाओंको काटनेकी राय देता हुआ तीसरा पुरुष कापोत लेशी है। गुच्छाको तोड़नेकी राय देने वाला चौथा पुरुष तेजो लेश्या वाला है। फलोंको तोड़ने की राय देने वाला पांचवां पुरुष पदम लेश्या वाला है। गिरे हुए फलोंके लेनेकी राय देने वाला छट्ठा पुरुष शुक्ल लेश्या वाला है । यह ऊपर लिखी हुई गाथाओंका अर्थ है। इसमें कहा है कि जो गुच्छा तोड़नेकी राय देता है वह तेजो लेश्या वाला है और जो फल तोड़नेकी राय देता है वह पद्म लेशी है, जो गिरे हुए फलोंके खानेकी राय देता है वह शुक्ल लेशी है। यद्यपि ये तीनो पुरुष आरंभ दोषसे रहित नहीं हैं, तथापि ये पहले दूसरे और तीसरे पुरुषकी अपेक्षा बहुत ही अल्पारंभी हैं अत: ये क्रमशः तेजो लेश्या, पद्म लेश्या और शुक्ल लेश्याके स्वामी कहे गए हैं। इसी तरह मूल गुण और उत्तर गुण में दोष लगाने वाले साधु यद्यपि आरम्भ दोषसे मुक्त नहीं हैं तथापि वे अवतियोंकी अपेक्षासे बहुत ही उत्तम निर्मल चारित्री हैं इस लिये इनकी लेश्या विशुद्ध है । जो पुरुष अल्प फलकी प्राप्तिके लिये महान् आरम्भ करता है जैसे जामुनके फलको पानेके लिये पहले पुरुषने जड़ काटनेकी और दूसरेने शाखा काटनेकी और तीसरेने प्रशाखा काटनेकी राय दी थी उसी तरह वह पुरुष भी कृष्णनील और कापोतलेश्या वाला है परन्तु जो अल्प फल पानेके लिये महान् आरम्भ नहीं करता वह कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्या वाला नहीं है । साधु जन आरम्भ त्यागी पञ्चमहाव्रतधारी और विवेकी होते हैं वे अल्प फलकी प्राप्तिके लिये कदापि महान आरम्भ नहीं करते अतः उनमें कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव टेश्यायें नहीं होती। ____ऊपर बताये हुए दृष्टान्तका भाव यह नहीं समझना चाहिये कि तेज: पद्म और शुक्ल लेश्या वाले सभी जीव आरंभी ही होते हैं । जो मुनि उत्कृष्ट परिणामके धनी होते हैं वे बिलकुल आरंभके त्यागी होते हैं। शुक्ल लेश्या वाले पुरुष वीतरागी भी होते हैं। उक्त दृष्टान्तमें जघन्य श्रेणीके तेजः पद्म और शुक्ल लेश्या वाले कहे गये हैं इसलिये इस दृष्टान्तसे सभी तेजः पद्म और शुक्ल लेश्या वालोंको आरंभी नहीं समझना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सधर्ममण्डनम् । ऊपर बताया हुआ लेश्याका दृष्टान्त तेरह पंथी साधु चित्रके साथ दिखलाकर लोगोंको इसका परिचय कराते हैं परन्तु जब साधुओंके लेश्याका प्रसंग आता है तब वे इस दृष्टान्तके भावको झट भूल जाते हैं और साधुओंमें यया कथं चित् कृष्गादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंका स्थापन करने लग जाते हैं यहां तक कि वे पंचमहाव्रतधारी साधुओंको आस्रवोंका सेवन करने वाला भी कह डालते हैं। इसी तरह मरते प्राणीकी प्राण रक्षा करनेमें, दुखी जीव पर दया करके उसको दान देनेमें बुरी लेश्याका स्थापन करके उसे एकान्तपाप कहते हैं। बुद्धिमानोंको सोचकर देखना चाहिये कि जब फल तोड़नेके परिणाम भो भली और बुरी दोनों ही लेश्याओंमें होते हैं तब मरते प्राणीकी प्राण रक्षा करने और दुखी जीव पर दया लाकर उसे दान देनेमें बुरी लेश्या कैसे हो सकती है ?। ( बोल १३ समाप्त) इति लेश्याप्रकरणम् । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( अथ वैयावृत्याधिकारः) ०*० सावद्य छ। (प्रेरक) भ्रम विध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २५१ के ऊपर उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन १२ की ३२ वी गाथा लिखकर उसकी सहायतासे मुनिके व्यावचको सावध सिद्ध करने की चेष्टा करते हुए लिखते हैं "अथ इहां हरिकेशी भुनि कहो-पूर्वे हिवाडा अने आगामिये काले म्हागे तो किञ्चिद्वेष नहीं । अने जे यशे व्यावचकोधी ते मांटे ए बिप्र वालकांने इण्या छै। एपोतानी आशंका मेटवा अथें कह्यो । जे छात्राने हण्याते यक्ष व्यावचकरी पिण म्हारो द्वेष न थी । ए छात्राने हण्या ते पक्षपात रूप व्यावच कही छै। आज्ञा वाहिरे छै ते मांटे (भ्र० पृ० २५१) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) यक्षने मुनिका उपद्रव मिटानेके लिये जो ब्राह्मण कुमारोंका ताडन किया था उस ताडनको मुनिका व्यावच बतलाकर मुनिके व्यावचको सावद्य बतलाना मिथ्या है। क्योंकि मुनिका व्यावच करना न्यारा है और ब्राह्मण कुमारोंको ताडन करना न्यारा है मारना और व्यावच करना दोनों एक नहीं हैं। अतएव इसी उत्तराध्ययन सत्रमें जहां यक्षोंने ब्राह्मग कुमारोंका निवारण करना आरंभ किया है वहां यह गाथा कही है कि "इसिस्सवेयावडियट्ठयाए जक्खा कुमारे विणिवारयन्ति" अर्थत् यक्ष ऋषिका व्यावच करनेके लिये ब्राह्मण कुमारोंका निवारण करने लगे। ___ यहां ऋषिका व्यावचके निमित्त ब्राह्मण कुमारोंका ताडन किया जाना कहा है, ताडनको ही मुनिका व्यावच नहीं कहा । इस लिये व्यावच और ताडनका भिन्न भिन्न होना स्पष्ट सिद्ध होता है । जैसे देवताओंने भगवान महावीर स्वामीका वन्दनके निमित्त जहां वैक्रिय समुद्घात किया है वहां “वन्दन वत्तियाए" यह पाठ आया है। उसी तरह यहां भी यक्ष लोग जब ब्राह्मण कुमारोंको वारण करने लगे हैं वहां 'वेयावडियठ्याए' यह पाठ आया है। जैसे वंदनार्थ किया जाने वाला वैक्रिय समुद्घात वन्दन स्वरूप नहीं है किन्तु वन्दनसे भिन्न है । उसी तरह व्यावचार्थ किया जानेवाला ब्राह्मण कुमारोंका ताडन Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० सद्धममण्डनम् । व्यावचसे भिन्न है व्यावच स्वरूप नहीं है । यतः जैसे वैक्रिय समुद्घातके सावध होनेपर भी भगवान्का वन्दन सावय नहीं है उसी तरह ब्राह्मण कुमारोंके ताडनके सावध होने पर भी मुनिका व्यावच सावय नहीं है । इस लिये उत्तराध्ययन सूत्रकी उक्त गाथाका नाम लेकर मुनिके व्यावचको सावय कायम करना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये । इस विषयका विशेष विचार अनुकम्पाधिकार के ३७ में बोलमें किया गया है इसलिये यहां संक्षेपसे लिखा गया है । ( बोल १ समाप्त ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २५२ के ऊपर राजप्रश्नीय सूत्र का मूल पाठ लिख कर उसकी सहायतासे वीतराग की भक्ति को सावद्य सिद्ध करने की चेष्टा करते हुए लिखते हैं “इहां सूर्य्याभ नाटकने भक्ति कही छै । ते भक्ति सावद्य छै । ते माटे भक्तिनी भगवन्ते आज्ञा न दीधी" इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक ) राजनीय सूत्रके मूलपाठके आश्रयसे भक्तिको सावद्य कायम करना अज्ञान है । उक्त सूत्रके मूल पाठ भक्तिको नाटक स्वरूप नहीं कहा है किन्तु नाटकसे भक्तिको भिन्न बतलाया है वहांका पाठ यह है "तं इच्छामिणं देवाणुवियाणं भत्ति पुव्वगं गोयमातियाणं समगाणं निग्गंथाणं दिव्वं देविडिदं दिव्वं देव जुह दिव्वं देवाणुभागं वत्तीसत्तिवद्ध नटविहिं उवदंसित्तए" ( राजप्रनीय सूत्र ) अर्थ: हे भगवन् ! मैं आप की भक्ति पूर्वक देव्य देव ऋद्धि, दिव्य देव द्युति, दिव्य देव प्रभाव, और बत्तीस प्रकार की नाटक विधि गोतमादि श्रमण निग्रन्थों को दिखलाना चाहता हूं । यह उपर्युक्त गाथाका अर्थ है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्याधिकारः । ३६१ यहां सूर्य्याभने भगवान्‌की भक्तिपूर्वक नाटक करने की आज्ञा मांगी है परन्तु उस कोही भगद्भक्तिस्वरूप नहीं बतलाया है क्योंकि इस पाठमें “भक्ति पुग्वगं" ऐसा पाठ आया है "भक्ति रूवं" ऐसा पाठ नहीं है । इसलिये नाटकको ही भक्ति कायम करना मिथ्या है। वीतरागमें परमानुराग रखनेका नाम वीतरागकी भक्ति है और शरीर वेष भूषा और भाषा आदि द्वारा किसी उत्तम पुरुषकी अवस्थाका अनुकरण करना नाटक है। इसलिये नाटक दूसरी चीज है और भक्ति दूसरी चीज है । इन दोनों को एक कायम करना अज्ञान है । यह विषय अनुकम्पाधिकारके ३५ वें बोलमें स्पष्ट कर दिया गया है। विशेष जिज्ञासुओंको वहीं देख लेना चाहिये । . ( बोल २ समाप्त ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २५४ के ऊपर साधुके सिवाय दूसरे जीवको साता उत्पन्न करनेसे एकान्त पापकी सिद्धि करनेके लिये लिखते हैं “कोई कहे सर्वजीवाने साता उपजायां तीर्थंकर गोत्र बंधे, इम कहे ते पिण झूठ छ । सूत्रमें तो सर्व जीवांरो नाम चाल्यो नहीं" इसके अनन्तर ज्ञाता सूत्रका मूलपाठ और उसकी टीका लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं "इहां टीका पण गुर्वादिक साधु इज कया । पिण गृहस्थ न कह्या । गृहस्थनी व्यावच करे तेतो अठ्ठाइसमो अणाचार है । पिण आज्ञामें नहीं ।" इत्यादि इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) ज्ञातासूत्र मूलपाठ तीर्थकर नाम गोत्र बांधनेके २० कारण बतलाये हैं । उनमें समाधि (चित्तमें शान्ति ) उत्पन्न करना भी तीर्थकर गोत्र बांधनेका कारण कहा है। वह समाधि जिसकी उत्पन्न करनी चाहिये ऐसा कोई खास करके पुरुष विशेष वहां नहीं कहा गया है ऐसी दशा में केवल साधुके चित्तमें शान्ति उत्पन्न करना ही तीर्थंकर गोत्र Waiter कारण होता है इतर प्राणियोंको शान्ति देना तीर्थंकर गोत्र वन्धका कारण नहीं होता ऐसी कल्पना अप्रामाणिक और मूलपाठसे विरुद्ध है । इस पाठकी टीकासे भी यह कल्पना नहीं की जा सकती देखिये वहांकी दीका यह है : ४६ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । "समाधौच गुर्वादीनां कार्यकरण द्वारेण चित्तस्वास्थ्योत्पादनेसति निर्ववर्तितवान्' अर्थात् गुरु आदिका कार्य करके उनके चित्तमें शान्ति उत्पन्न करनेसे तीर्थंकर गोत्र बंधता है। यहां गुरु आदिकसे साधु का ही ग्रहण बतलाना अज्ञान है क्योंकि माता पिता ज्येष्ठ वन्धु और चाचा आदि भी गुरु कहलाते हैं। फिर गुरु शब्दसे उनका ग्रहण नहीं होकर एकमात्र साधुका ही ग्रहण क्यों होगा ? इसमें “आदि" शब्द भी आया है। उस आदि शब्दसे गुरुजनसे भिन्न दुसरे लोग यदि नहीं लिये जायेंगे तो फिर आदि शब्द का प्रयोजन ही क्या होगा ? अतः इस टीकामें गुरु शब्दसे साधुके समान ही माता पिता ज्येष्ठ बन्धु आदि गुरु जन भी गृहीत हुए हैं और आदि शब्दसे जो लोग गुरु जनसे भिन्न हैं उनका भी ग्रहण किया गया है। अतः इस टीकाका मनमाना अर्थ करके साधुसे इतरको साता उत्पन्न करनेसे धर्मपुण्यका निषेध करना मिथ्या है। इस टीकासे साधुसे इतरको शान्ति देना भी तीर्थकर गोत्र वन्धका कारण सिद्ध होता है। अतः भ्रमविलसनकारका साधुसे इतरको साता देनेमें पाप कहना अज्ञान है। इसी तरह गृहस्थका व्यावच करनेको जो अठाईसवां अनाचार कहा है उसका दाखला देकर साधुसे इतरको साता देनेमें पाप कहना भी मिथ्या है। गृहस्थका व्यावच करना साधुके लिये अनाचार कहा है परन्तु गृहस्थके लिये गृहस्थ का व्यावच करना अनाचार नहीं कहा है । अतएव उवाई सूत्रमें माता पिताके श्रुश्रूषक पुत्रको स्वर्गगामी कहा है। यदि साधुसे इतरको शान्ति देना (शवच करना ) गृहस्थके लिये भो अनाचार होता तो माता पिताकी सेवा करनेसे उवाई सूत्र में स्वर्ग जाना कैसे कहा जाता। अत: ज्ञाता सूत्रका नाम लेकर साधुसे इतरको समाधि उत्पन्न करनेसे धर्मपुण्य नहीं मानना उत्सूत्रभाषियोंका कार्य समझना चाहिये । [बोल ३ समाप्त] (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २५६ के ऊपर सुयगडांग श्रुत० १ अ०३ उ०४ की छट्ठी और सातवीं गाथाओं को लिख कर उनकी समालोचना करते हुए लिखते हैं "अथ इहां कयो-साता दियां साता हुवे इम कहे ते आ-मार्ग थी अलगो कह्यो। समाधिमार्ग थी न्यारो कह्यो। जिणधर्मरी होलणारो करणहार, अल्प सुखरे अर्थे घणां सुखारो हारणहार, ए असत्य पक्षे अणछांणवे करी मोक्ष नहीं। लोहवाणियां Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्याधिकारः। नोपरे घणो झरसी। सातां दियां सातापरूपे तिणमें एतला अवगुण कह्या सावध सातामें धर्म किम कहिए । तेहथी तीर्थकर गोत्र किम बंधे" (भ्र० पृ० २५७) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) सुयगसंग सूत्र की गाथाओंका नाम लेकर साधुसे इतरको साता देनेमें धर्मपुण्य का निषेध करना जगत्में अन्धकार फैलाना है। उन गाथाओंमें शाक्यादिकोंके मतका खण्डन किया है साधुसे इतरको साता देनेका निषेध नहीं किया है परन्तु भ्रमविध्वंसनकारने शास्त्र नहीं जानने वाले भोले लोगोंको भ्रमानेके लिये उन गाथाओं का विपरीत अर्थ करके साता देने को सावध बतलाया है अतः पाठकोंके ज्ञानार्थ उन गाथाओं को टीकाके साथ लिख कर बतलाया जाता है जिससे उनका भ्रम दूर हो जाय । "इहमेगे उभासंति सातं सातेन विज्जतो जे तत्थ आरियं मग्गं परमंच समाहि ए (4) मा एवं अवमन्नतो अप्पेणं लुम्पहा वहुएतस्स (उ) अमोक्खाए अओ हारिव्व जरह" (सुय० श्रु० १ अ०३ उ० ४ गाथा ६-७) ( टीका) मतान्तरं निराकर्तु पूर्व पक्ष यितु माह-इहेति मोक्ष गमन विचार प्रस्तावे एके शाक्या दयः स्वयूथ्याः वा लोचादिनोपतप्ताः तुशब्दः पूर्वस्मात् शीतोदकादिपरिभोगाद्विशेष माह-भाषते त्रुवते मन्यन्ते वा कचित्पाठः। किंतदित्याह-सातं सुखं सातेनैव सुखे नैव विद्यते । भवतीति । तथाचवतारो भवन्ति "सर्वाणि सत्त्वानि सुखेरतानि सर्वाणि दुःखाच्च समुद्विजन्ते ? तस्मात्सुखार्थी सुखमेव दद्यात सुख प्रदाता लभते सुखानि" युक्तिरप्येवमेवस्थिता। यतः कारणानुरूपं कार्य मुत्पद्यते तद्यथा शालिवीजाच्छाल्यं कुरो जायते न यवांकुर इत्येव मिहत्यात्सुखान्मुक्ति रुप जायते नतु लोचादि रूपा :खा दिति । तथा ह्यागमोऽप्येवमेव व्यवस्थित:-"मणुण्णं भोयणं भोच्चा मणुण्णं सयणा सणं मणुण्णं सि अगासि मणुण्णं झायए मुणी।" "मृद्वीशय्या प्रात रुत्थाय पेया। भक्त मध्ये पानकं चापराण्हे द्राक्षाखण्डं शर्कराचार्य रात्रे मोक्षश्चान्ते शाक्य पुत्रण दृष्टः । इत्यतो मनोज्ञाहार विहारादे श्चित्त स्वास्थ्य मुत्पद्यते चित्त समाधेश्च मुक्त - यवाप्तिः । अतः स्थित मे तत सुखे नैव सुखावाप्तिः । नपुनः कदाचनापि लोचादिना कायक्ले शेन सुखावाप्ति रिति स्थितम् । इत्येवं व्यामूढ मतयो केचन शाक्यादयस्वत्र तस्मिन् मोक्ष विचार प्रस्तावे समुपस्थिते आराद्यातः सवैहेय धर्मेभ्य इत्यार्यों मार्गों जैनेंद्र Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । शासन प्रतिपादितो मोक्षमार्गस्तं ये परिहरन्ति तथाच परमं समाधि ज्ञान दर्शन चारित्रात्मकं येत्यजन्ति तेऽज्ञाः संसारान्त वर्तिनः सदा भवंति । एन मार्य मार्ग जैनेन्द्र प्रवचनं सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र मोक्ष माग प्रतिपादकं "सुखं सुखेनैव विद्यते” इत्यादि मोहेन मोहिता अवमन्यमाना परिहरन्तः अल्पेन वैषयिकेण सुखेन मा वहु परमार्थ सुख मोक्ष सुख मोक्षा ख्यं लुम्पथ विध्वंसथ । तथाहि मनोज्ञाहारादिना कामोद्रे कः । तदुद्र काच्च चित्ता स्वास्थ्यं न पुनः समाधिरिति । अपिच एतस्यासत्यक्षाभ्युपगमस्यामोक्षेऽपरित्पागे सति “अयोहारिक जूरह" अत्मानं यूयं कदर्थ यथ केवलं यथासौ अयसो-लोहस्याहर्ता अपान्तराले रूप्यादि लाभे सत्यपि दूरमानीत मिति कृत्वा नोज्झितवान पश्चात स्वस्थानावाप्तामल्प लाभे सति जूस्तिवान पश्चात्तापं कृतवान् एवं भवन्तोऽपि जूरयिज्यन्तीति ।" अर्थ :____ मतान्तरका खण्डन करनेके लिये छट्ठी गाथामें अन्य मतावलम्बियोंकी ओरसे पूर्व पक्ष किया गया है। वह इस प्रकार है-मोक्ष प्राप्तिके विषयमें शाक्य आदि, तथा केशोल्लुञ्चनसे पीड़ित कई एक अपने यूथ वाले, यह कहते हैं कि सुखकी प्राप्ति सुख हीसे होती है। जैसे कि उन लोगोंने अपने मतका पोषण करनेके लिये यह श्लोक बनाया है "सर्वाणि सत्वानि" इत्यादि । इसका अर्थ यह है कि सभी जीव सुखमें रत हैं और सभी लोग दुःखसे उद्विग्न होते हैं। इस लिये सुखकी इच्छा करने वाले पुरुषको सुख ही देना चाहिये क्योंकि सुख देनेवाला ही सुख पाता है । इस विषयमें ये लोग यह युक्ति देते हैं कि सभी कार्य अपने कारणके अनुरूप हो उत्पन्न होते हैं शालिके वीजसे शालिका ही अकुर उत्पन्न होता है यवका अंकुर उत्पन्न नहीं होता इसी तरह इस लोकमें सुख भोगनेसे ही पर लोकमें सुख मिलता है परन्तु केशोलुञ्चनादि रूप दुःख भोगनेसे नहीं मिलता । इनके आगममें भी यही कहा है कि साधुको मनोज्ञ आहार खाकर मनोज्ञ शय्याके ऊपर मनोज्ञ गृहमें मनोज्ञ वस्तुका ध्यान करना चाहिये। कोमल शय्यापर शयन करना, प्रभात कालमें दुग्ध आदि पौष्टिक पदार्थ पीना, तथा दिनके मध्य भागमें स्वादिष्ट भात आदि खाना, और दोपहरके बाद शर्वत आदि पीना, तथा आधी रातमें दाख शक्कर आदि मधुर पदार्थ खाना, इन कार्यों से अन्तमें मोक्ष मिलता है यह शाक्य पुत्रका विश्वास है। संक्षेपसे इनका सिद्धान्त यह है कि मनोज्ञ आहार विहारसे चित्तमें समाधि उत्पन्न होती है और चित्तमे समाधि उत्पन्न होनेसे मोक्ष सुख मिलता है । अतः सिद्ध हुआ कि सुखसे ही सुख मिलता है पर केशोलुञ्चनादि रूप दुःख भोगनेसे नहीं। ___इस प्रकारका सिद्धान्त रखनेवाले मूढ़मति शाक्य आदि, सभी हेय धर्मो से पृथक् रहने वाले जिन प्रतिपादित आर्य्य धर्मका त्याग करते हैं और ज्ञान दर्शन तथा चारित्र रूप मोक्ष मार्ग को छोड़ देते हैं ! वे ज्ञान रहित हैं और चिरकाल तक इस संसार चक्रमे घूमते रहते हैं। उनपर Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्याधिकारः । ३६५ कृपा करके शास्त्रकार उपदेश देते हैं कि हे भाइयो ! 'सुखसे ही सुख मिलता है' इस मिथ्या सिद्धान्तका आश्रय लेकर सम्यग् ज्ञान दर्शन और चारित्र रूप मोक्ष धर्मका उपदेशक जैनागमको तुम मोहवश छोड़ रहे हो। तुम तुच्छ विषय सुखाके लोभमें पड़कर वास्तविक सुख मोक्षको मत छोड़ो मनोज्ञ आहार आदि खानेसे कामकी वृद्धि होती है और कामवासना के प्रवल होनेपर चित्तमें शान्ति नहीं मिल सकती । इस प्रकार चित्तमे समाधि उत्पन्न होना एकान्त असम्भव है । अतः असत्पक्षका आश्रय लेकर तुम अपनेको खराब कर रहे हो । जैसे कोई वणिक् पुत्र दूरसे लोहा लिए हुए आता था उसे रास्तेमे चांदी मिली पर उसने सोचा कि मैं दूरसे इस लोहेको लिये आ रहा हूं इसे छोड़कर चांदी कैसे लू । इसी प्रकार रास्ते में उसने सोना भी नहीं लिया । पीछे अपने स्थान पर पहुंचने पर उसको सोना चांदीको अपेक्षा लोहेका बहुत कम मूल्य मिला तो वह पछिताने लगा था उसी तरह अन्तमें तुम्हें भी पछिताना पड़ेगा । यहां जो लोग विषय सुखसे मोक्ष मिलनेका सिद्धान्त मानकर जैनेन्द्र प्रवचन का त्याग करते हैं उनका सिद्धान्त खण्डन करनेके लिये कहा है कि “विषय सुख भोगने से मोक्ष की प्राप्तिकी आशा रखना मिथ्या है। विषय सुख को छोड़ कर जैन मार्गसे गमन करना ही मोक्षका साधन है" । परन्तु किसीको साता देना सावद्य है या किसीको साता देने से धर्म या पुण्य नहीं होता यह बात यहां नहीं कही है । इस लिये इन गाथाओं का नाम लेकर दूसरेको साता देनेसे पाप कहना मिथ्यावादियोंका काय्यं समझना चाहिये । यदि कोई इन गाथाओं का यही तात्पर्य बतावे कि दूसरेको साता देनेसे लोह वणिककी तरह पश्चात्ताप करना पड़ता है अथवा आर्य मार्गसे दूर रहता है तो फिर किसी साधुको साता देना भी उसके हिसाब से पाप ही ठहरेगा । यदि कहो कि “साधु से इतरको साता देने से पश्चात्ताप करना इस गाथामें कहा है इस लिये साधुको साता देना बुरा नहीं है" तो यह मिथ्या है उक्त गाथाओंमें तथा उनकी टीकामें यह नहीं कहा है कि " साधुसे इतरको साता देने वाला लोह वणिककी तरह पश्चात्ताप करता है" किन्तु साधु अथवा गृहस्थ जो कोई ऐसा मानता है कि विषय सुखके सेवन करनेसे मोक्ष मिलता है उस अधम श्रद्धा वालेको लौह वणिककी तरह पश्चात्तापका भागी बतलाया है परन्तु अनुकम्पा करके किसी हीन दीन दुःखीके दुःख मिटाने वाले की यहां जिक्र भी नहीं है । अत: उक्त गाथाका नाम लेकर हीन दीन दुःखी जीव पर दया करके उन्हें साता देने वालेको एकान्त पापी कहना अज्ञान समझना चाहिये । बोल ४ समाप्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ सद्धर्ममण्डनम् । (प्रेरक) भ्रम विध्वंसनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ २५७ के ऊपर लिखते हैं "दश वैकालिक अध्ययन ३ गृहस्थनी सातां पूछ्यां सोलमो अनाचार लागतो कह्यो । तथा गृहस्थनो व्यावच कीधां अट्ठाईसमो अनाचार कह्यो। तथा निशोथ उद्देशा १३ गृहस्थनी रक्षा निमित्त भूति कर्म कियां प्रायश्चित्त करो तो गृहस्थनी सावध सांता वांछया तीर्थङ्कर गोत्र किम बंधे। (भ्र० पृ० २५७) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) ___ गृहस्थसे साता पूछना तथा उसका व्यावच करना साधुके लिये अनाचार कहा है गृहस्थ के लिये अनाचार नहीं कहा है। देखिये दश वैकालिक सूत्रमें आचारों की गणना करते हुए पहले पहल यह गाथा लिखी है "संजमे सुटि अप्पाणं विप्पमुकाणताइणं तेसिमेयमणा इन्नं निग्गंथाण महेसिणं" अर्थ : संयमके अन्दर अपनी आत्माको स्थिर रहने वाले और वाह्य तथा अन्तरसे मुक्त एवं अपनी आत्माको रक्षा करने वाले निग्रंथ महर्षियोंके लिये ये बातें अनाचार हैं। इस गाथामें स्पष्ट कहा है कि अग्रिम गाथाओंमें कहे हुए ५२ अनाचार श्रमण निग्रन्थोंके हैं गृहस्थोंके नहीं हैं । इस लिये गृहस्थका साता पूछना और गृहस्थका व्यावव करना दश वैकालिक सूत्रके पाठानुसार गृहस्थके लिये एकान्त पाप नहीं हो सकता। अतः दशवकालिक सूत्रका नाम लेकर साधुसे इतरकी साता और व्यावचको सावध कायम करना अज्ञान है। यदि कोई ऐसी शंका करे कि गृहस्थकी साता पूछने और व्यावच करनेसे जब कि साधुको अनाचारका पाप लगता है तो फिर श्रावकको पाप क्यों नहीं लगेगा ? । तो इसका उत्तर यह है कि साधु और श्रावकका कल्प जुदा जुदा है एक नहीं है । इसलिये पूर्वोक्त कार्य साधुके कल्पसे विरुद्ध होनेके कारण साधुके लिये ही अनाचार है गृहस्थ के कल्पसे विरुद्ध नहीं होनेसे गृहस्थके लिये अनाचार नहीं है। जैसे अपने सांभोगिक साधुसे इतर प्राणीको उत्सर्ग मार्गमें आहार पानी देना साधुके लिये प्रायश्चित्तका कारण कहा है परन्तु गृहस्थ के लिये नहीं । गृहस्थके लिये तो अपने आश्रित पशु नौकर आदि को भात पानी नहीं देनेसे उसके पहले व्रतमें अतिचार होना कहा है। उसी तरह साधु Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्याधिकारः। के लिये गृहस्स्थकी साता पूछना और उसका व्यावच करना अनाचार है पर श्रावकके 'लिये नहीं। यदि कोई उक्त कार्यको गृहस्थके लिये भी अनाचार कहे तो फिर उसके हिसाबसे अपने आश्रित प्राणीको भात पानी देना भी गृहस्थके लिये प्रायश्चित्तका कारण कहना चाहिये। क्योंकि साधु अपने सांभोगिक साधुसे इतरको आहार पानी देनेसे प्रायश्चित्ती हो जाता है तो फिर गृहस्थ अपने आश्रित पशु आदिको आहार पानी देनेसे प्रायश्चित्ती क्यों नहीं होगा ? पर बात ऐसी नहीं है। गृहस्थ यदि अपने आश्रित पशु आदिको भात पानी न दे तो प्रायश्चित्ती होता है और साधु यदि सांभोगिक साधुसे भिन्नको उत्सर्ग मार्गमें आहार पानी देवे तो प्रायश्चित्ती होता है। अतः साधुके लिये गृहस्थकी साता पूछना और उसका व्यावच करना मनाचार है श्रावकके लिये नहीं है। दशवकालिक सूत्रमें उद्दिष्ट भक्त लेना साधुके लिये पहला अनाचार कहा है इस लिये जो साधु उद्दिष्ट भक्त लेता है वह प्रायश्चित्ती होता है परन्तु आदिम और अन्तिम तीर्थकरके साधुओंको छोड़ कर दूसरे साधु यदि उद्दिष्ट भक्त लेवें तो वे पापके भागी नहीं होते क्योंकि उद्दिष्ट भक्त लेना उनके कल्पसे विरुद्ध नहीं है। अतः जैसे उद्दिष्ट भक्त लेना आदिम और अन्तिम तीर्थ करके साधुओंके लिये अनाचार है दूसरे तीर्थकरोंके साधुओंके लिये अनाचार नहीं है उसी तरह गृहस्थकी साता पूछना और उसका व्यावच करना साधुके लिये अनाचार है श्रावकके लिये अनाचार नहीं है। अतः गृहस्थकी साता पूछने और उसका व्यावच करनेसे गृहस्थको भी अनाचार बतलाना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये। २४ वें तीर्थकरके साधु तेइसवें तीर्थ करके साधुको आहार पानी नहीं देते । क्योंकि उनका यह कल्प नहीं है। यदि देवें तो उनको प्रायश्चित्त आता है। परन्तु गृहस्थ यदि तेईसवें तीर्थ करके साधुओंको आहार पानी देवे तो उसको पाप नहीं होता किन्तु धर्म होता है। इस लिये जो कार्य साधुके लिये अनाचार है वह गृहस्थके लिये भी अनाचार हो यह कल्पना मिथ्या समझनी चाहिये । इसी तरह निशीथ सूत्र उद्देशा १३ का दाखला देकर जीवरक्षा करनेमें पाप कहना भी मिथ्या है निशोथ सूत्र उद्देशा १३ के अन्दर किसी प्राणीकी रक्षा करना वर्जित नहीं की है किन्तु भूति कर्म करनेका निषेध किया है। इस लिये साधु भूति कर्म नहीं करते । यदि भूति कर्म करें तो उनको अवश्य प्रायश्चित्त आता है परन्तु अपनी कल्प मर्यादाके अनुसार जीवरक्षा करनेसे पाप नहीं होता। क्योंकि जीवरक्षा करनेका कहीं भी शास्त्रमें निषेध नहीं है । प्रत्युत प्रश्नव्याकरणादि सूत्रोंमें जगह जगह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ सद्धर्ममण्डनम् । इसका विधान किया है । अत: निशीथ उद्देशा १३ का नाम लेकर जीवरक्षा करनेमें पाप का स्थापन करना एकान्त अज्ञान समझना चाहिये । इस विषयका विशेष रूपसे स्पष्टीकरण अनुकम्पाधिकारके २५ वें बोलमें किया गया है। इस लिये यहां बहुत संक्षेपसे लिखा गया है। [बोल ५ वां समाप्त ]] (प्रेरक) गृहस्थसे साता पूछना और उसका व्यावच करना गृहस्थ के लिये अनाचार नहीं है यह ज्ञात हुआ। परन्तु श्रावकके लिये श्रावकके व्यावचका विधान कहीं शास्त्रमें किया हो तो उसे बतलाइये। (प्ररूपक) उवाई सूत्रके मलपाठमें श्रावकके लिए श्रावकके व्यावचका विधान किया गया है वह पाठ यह है "सेकिंतं वेयावचे, दसविहे पन्नत तंजहा-आयारिय वेयावचे, उवज्झाय वेयावचे, सेह वेयावच्चे, गिलाण वेयावचे, तवस्ति वेयावचे, थेर वेयावच्चे, साहम्मिय वेयावच्चे, कुल वेयावच्चे, गण वेयावचे , संघ वेयावच्चे," ( उवाई सूत्र ) अर्थ : अर्थात् व्यावच दश प्रकारके कहे हैं। आचार्टाका व्यावच करना, उपाध्यायका व्यावच करना, नवदीक्षित शिष्यका व्याघच करना, रोगादिसे पीडित हुएका व्यावच करना, तपस्वीका व्यावच करना, स्थविर का व्यावच करना, साधर्मिक का व्यावच करना, गणका व्यावच करना, कुलका व्यावच करना, और संघ का व्यावा करना। यह उक्त गाथाका अर्थ है। यहां दश प्रकारके व्यावचोंमें साधर्मिक व्यावच कहा गया है और श्रावकसे श्रावकका व्यावच किया जाना भी साधर्मिक व्यावच है क्योंकि साधुका साधर्मिक जैसे लिङ्ग और प्रवचन के द्वारा साधु होता है उसी तरह श्रावक का साधर्मिक प्रवचन के द्वारा श्रावक भी होता है। व्यवहार सूत्र दूसरे उह शे के भाष्य में यह गाथा लिखी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्याधिकारः । "पवयणसंवे गयरो लिङ्ग रयहरण मुहपत्ती" इसकी टीका यह है- ३६९ " " पत्रयण" त्ति प्रवचनतः साधर्मिकः संघमध्ये एकतरः श्रमणः श्रमणी ras: श्राविका चेति । लिंगे लिङ्गतः साधर्मिकः रजोहरण मुहपोत्तिका युक्तः" अर्थ: श्रमण, श्रमणी श्रावक और श्राविका इनमें से कोई भी प्रवचन के द्वारा साधर्मिक होता है और रजोहरण तथा मुखवस्त्रिका से युक्त लिङ्ग के द्वारा साधर्मिक होता है । यह उपर्युक गाथाका टीकानुसार अर्थ है । यहां के द्वारा साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इनमेंसे किसी को भी साधर्मिक होना कहा है। इस लिये प्रवचन के द्वारा श्रावक का साधर्मिक श्रावक भी होता है । तथा इसी भाष्यके १५ वीं गाथाकी टीकामें टीकाकारने लिंग और प्रवचन के 'द्वारा साधर्मिकों की एक चतुर्भगी कही है। उस के दूसरे भंगों में श्रावक को बतलाया है । वह टीका यह है " तथा प्रवचनतः साधर्मिको न पुनः लिंगे लिंगतः एष द्वितीयः । केते एवं भूता इत्याह- दशभवंति सशिखाकाः अमुण्डित शिरस्का: श्रावका इति गम्यते । श्रावका हि दर्शन व्रतादि प्रतिमा भेदेन एकादशविधा भवन्ति । तत्र दश सकेशाः - एकादशप्रतिमा प्रतिपन्नस्तु लुब्वितशिराः श्रमणभूतो भवति । ततस्तद्व्यवच्छेदाय सशिखाक ग्रहणम् । एतेहि दश सशिखाकाः श्रावकाः प्रवचनतः साधर्मिकाः भवति तेषां संघान्तभूतस्वात् नतु लिङ्गतो रजोहरणादि लिङ्ग रहितत्वात् ” अर्थात् प्रवचनके द्वारा जो साधर्मिक होता है और लिंगके द्वारा नहीं होता वह दूसरा भांगावाला साधर्मिक है। अब यह बतलाया जाता है कि इस दूसरे भांगावाले साधर्मिक कौन होते हैं । जिनके केश मुण्डत नहीं हैं जो शिखाधारी हैं ऐसे दश प्रकार के श्रावक इस दूसरे भंगके स्वामी हैं क्योंकि श्रावक, दर्शन, व्रतादि, और प्रतिमा भेदसे एग्यारह प्रकारके होते हैं । उनमें दश शिखाधारी होते हैं। और एग्यारहवीं प्रतिमाप्रतिपन्न, लुब्चितशिर और साधुके सदृश होता है। उसकी व्यावृत्तिके लिये इस दूसरे भांगा में शिखाधारी श्रावक कहा गया है। ये दश शिखाधारी श्रावक प्रवचनसे. साधर्मिक होते हैं । ४७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ३७० क्योंकि वे सङ्घके अन्दर मौजूद हैं परन्तु लिङ्गसे साधर्मिक नहीं होते क्योंकि वे रजोहरणादि लिङ्गोंसे युक्त नहीं होते । यहां टीकाकारने श्रावकको प्रवचनके द्वारा साधर्मिक कह कर उसको साधर्मिकों की चौभङ्गीके दूसरे भङ्गमें रक्खा है । इसलिये श्रावक भी श्रावकका साधर्मिक होता है यह बात निर्विवाद सिद्ध है । दश प्रकारके व्यावचोंमें उवाई सूत्र के अन्दर साधर्मिक का व्यावच करना भी कहा गया है। इसलिये श्रावक श्रावकका व्यावच किया जाना भी साधर्मिक व्यावच होने से धर्म का ही हेतु है । उसे पाप कहना अज्ञानियोंका का है । उक्त दशविध व्यावचोंमें सङ्घका व्यावच भी कहा गया है और सङ्घ नाम है साधु साध्वी श्रावक और श्राविकाओं के समूह का । इसलिये सङ्घ के अन्तर्भूत होनेसे साधु की तरह श्रावक का व्यावच भी सङ्घके व्यावच में गिना जाता है । इस लिये श्रावक से श्रावक का व्यावच किया जाना भी देश सङ्घका व्यावच है । अत: वह धर्म है परन्तु पाप नहीं है । यदि कोई कहे कि साधुओं की १२ प्रकार की तपस्याओंके भेदमें व्यावच कहा गया है । इसलिये वाई सूत्रोक्त दश विध व्यावच साधुओं का ही है परन्तु श्रावक का नहीं तो उसे कहना चाहिये कि श्रावकोंके लिये तपका विधान कहीं अन्यत्र नहीं करके साधुओंके साथ ही किया गया है। कारण यह है कि तपके विषयमें साधु और श्रावकों का कोई अन्तर नहीं है । इस लिये जैसे वारह प्रकार के तप साधुओं के समान श्रावकों के भी हैं उसी तरह ये दशविध व्यावच साधुओं की तरह श्रावकों के भी हैं । इस विषय में भ्रमविध्वंसनकारका भी कोई मतभेद नहीं हो सकता क्योंकि उनके गुरु भीषणजीने लिखा है “सांधारे वारे भेद तपस्या करतां जहां जहां निरवद्य योग रूधायजी । तहां तहां संवर होय तपस्यारे लारे, तिणसु पुण्य लागता मिट जायजी । ४७ गाथा इण तप मांहिलो तप श्रावक करतां । कठे अशुभ योग रूधायजी जब व्रत संवर हुवे तपस्यारे लारे लागता पाप मिट जायजी" ४८ गाथा ( नवसद्भाव पदार्थ निर्णय ) इन पथोंमें भीषणजीने १२ प्रकारकी तपस्याएं साधुकी तरह श्रावकों की भी मानी हैं । इस लिये इन तपस्याओं में आया हुआ व्यावच श्रावकों का भी सिद्ध होता है । अतः पूर्वोक्त दश विध व्यावच को श्रावकों के लिये नहीं स्वीकार करना हठवाद समझना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्याधिकारः । ३७१ जब कि दश विध व्यावच करना श्रावकों का भो कत्तव्य है तब फिर कोई . श्रावक यदि अपने साधर्मिक श्रावक का व्यावच करे तो उसमें पाप या प्रायश्चित्त कैसे . हो सकता है ? यह बुद्धिमानोंको विचारना चाहिये । (बोल छटा समाप्त) (प्ररूपक) ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ५ उद्देशा २ के अन्दर श्रावकों को अवर्ण वोलनेसे दुर्लभवोधी और वर्ण बोलनेसे सुलभवोधी होना कहा है। वह पाठ-~___ "पंचहिं ठाणेहिं जीवा दुल्लभवोधियत्तार कम्म परेंति। तंजहा-अरिहंताणं अवन्नं वदमाणे अरिहंतपन्नत्तस्स धम्मस्स अवन्नं वदमाणे आयरिय उवज्झायाणं अवन्नं वदमाणे, चाउवण्ण स्स संघस्स अवन्न वदमाणे विवक्कनव वंभचेराणं अवन्नं वदमाणे । पंचहि ठाणेहि जोवामुलभवोधियत्ताए कम्मं पकरेंति अरिहताणं वन्नं वदमाणे जाव विवक्क तव वंभचेराणं वन्नं वमाणे" (ठाणाङ्ग ठाणा ५ उ० २) अर्थः अर्थात् पांच स्थानों में जीव, दुर्लभवोधी होनेका कर्म बांधता है। अरिहंतको अवर्ण बोलता हुआ, और अरिहंत प्रणीत धर्मको अधर्ण बोलता हुआ, तथा आचार्य और उपाध्यायको अवर्ण वोलता हुआ, एवं चतुर्णात्मक सङ्घको अवर्ण वोलता हुआ और परिपक्क ब्रह्मचर्य और तप वाले पुरुष को अवर्ण वोलता हुआ। इसी तरह पांच स्थानों में जीव मुलभवोधी होनेका कर्म बांधता है। जैसे कि अरिहंत को वर्ण वोलता हुआ, यावत् , परिपक्क, तप और ब्रह्मचर्या वाले पुरुष को वर्ण बोलता हुआ। ___ यह उपर्युक्त गाथाका अर्थ है। यहां चतुवर्णात्मक सङ्घको अवर्ण बोलनेसे दुर्लभवोधी कर्मका बन्ध होना, और वर्ण वोलनेसे सुलभ वोधी कर्मका वन्ध होना कहा है और श्रावक श्राविका भी चतुवर्णात्मक सङ्घके अङ्ग हैं। इसलिये श्रावक और श्राविकाको अवर्ण बोलना भी अवश्य ही दुर्लभवोधो कर्म बन्धका हेतु होता है। इसी तरह श्रावक और श्राविका को वर्ण बोलना भी निश्चय ही सुलभ वोधी कर्मबन्धका हेतु होता है। इस प्रकार जब कि श्रावक और श्राविकाको वर्ण बोलने मात्रसे जीव सुलभ वोधी कर्म बांधता है तब फिर कोई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संधममण्डनम् । श्रावक यदि किसी श्रावकको अन्नादिके द्वारा धार्मिक सहायता देने रूप व्यावच करे तो उससे पाप वन्ध कैसे हो सकता है ? । बल्कि उससे और ज्यादा पुण्य ही होगा अतः श्रावकों से किया जाने बाला श्रावक के व्यावच को पाप बतलाना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये। (बोल ७ वां समाप्त) (प्ररूपक) भगवती सूत्र शतक ३ उद्देशा पहलेमें कहा है कि सनत्कुमार देवेन्द्र श्रावकोंके हित, सुख, पथ्य यावत निःश्रेयसको इच्छा कानेसे भव सिद्धिसे लेकर यावत चरम शरीरी हो गये हैं । वह पाठ यह है "सणं कुमारे देविंदे देवराया बहूणं समणाणं वहूर्ण समणोणं वहूणं सावधाणं वहुणं सावियाणं हियकामए सुह कोमए पत्थ कामए अणुकम्पिए निस्तेयसिए हियमुह निस्सेयसकामए से तेण?णं गोयमा ? सणं कुमारेणं भव सिद्धिए णो अचरिमे" (भगवती शतक ३ उ० १) अर्थ:___ भगवान महावीर स्वामी कहते हैं कि हं गोतम ! सनत्कुमार देवेन्द्र देवराज बहुत से साधु, साध्वी श्रावक और श्राविकाओंके हित, सुखा, पथ्य, अनुकम्पा, और मोक्षकी कामना करते हैं। इसलिये वह भवसिद्धिसे लेकर यावत् चरम हैं । यहां श्रावक और श्राविकाओंके हित, सुख, पथ्य आदिकी इच्छा करने मात्रसे सनत्कुमार देवेन्द्रको भवसिद्धिसे लेकर यावत चरम शरीरी तक हो जाना कहा है ऐसी दशामें यदि कोई साक्षात श्रावक और श्राविकाओंको हित, सुख और पथ्यका सम्पादन करके उसके धर्ममें सहायता पहुंचाने रूप व्यावच करे तो उसे पाप कैसे हो सकता है ? बल्कि उसको और ज्यादा धर्म ही होगा। अतः श्रावकोंसे किया जाने वाला श्रावकके व्यावचको सावध कायम करना अज्ञान समझना चाहिये । [बोल ८ वां समाप्त ] नोट-इस पाठकी टीकामें हित, सुख और पथ्य शब्दका क्रमशः सुख साधक वस्तु, तथा सुख और दुःखसे त्राण ( रक्षा ) रूप अर्थ किया है । वह टीका दानाधिकार के २७ वें बोलमें इस पाठके साथ रिखी गयी है। जिज्ञासुओं को उसे वहीं देख लेना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्याधिकारः। ३७३ - (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २६२ के ऊपर भीषणजीके वार्तिकका दाखला देते हुए लिखते हैं कि "ते कहे छ । पडिमाधारी साधु अग्नि मांहि वलताने वाही पकडिने वाहिरे काढे । अथवा सिंहादिक पकडताने झाल राखे । तथा हर कोई साधु · साध्वी जिन कल्पी स्थविर कल्पी, त्यांने वांहि पकहिने बाहरे काढे इत्यादि कार्य करीने साता उपजावे । अथवा जीवां बंचावे । अथवा ऊंचाथी पडताने झाल वंचावे । अथवा भाखड़ पडताने झाल बंचावे अथवा ऊंचाथी पड़ताने वैठो करे तिण गृहस्थने अरिहंत भगवंतरी पिण आज्ञा नहीं। अनंता साधु साध्वी गये काल हुआ त्यांरी पिण आज्ञा नहीं। जिण साधुरे बंचायो तिगरी पिण आज्ञा नहीं। इत्यादि (भ्र. २६२) इनके कहनेका तात्पर्य यह है कि मरणान्त कष्टकी अवस्थामें भी यदि कोई गृहस्थ, साधुकी रक्षा कर देवे तो उसे एकांत पाप होता है । इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) मरणान्त कष्टमें पड़े हुए साधुकी रक्षा करनेसे गृहस्थ को एकान्त पाप कहना शास्त्र विरुद्ध है क्योंकि वृहत्कल्प सूत्रके मूलपाठमें स्थविर कल्पी साधु या साध्वीको सर्प काटने पर गृहस्थसे झाडा दिलानेकी वीतरागने आज्ञा दी है। अत: मरणान्त कष्ट से साधुकी रक्षा करना आज्ञा वाहर तथा एकांतपाप नहीं है वह पाठ यह है "निराशं चर्ण राओवा वियालेवा दीहपी? लूसेज्जा इत्थी पुरिसस्स पमज्जेजा पुरिसोवा इथिए पमज्जेजा। एवं से चिट्ठति परिहारंच नो पाउणति एसकप्पे शेर कप्पियाणं एवं से नो कप्पति एवं से नो चिट्ठति परिहारंच पाउणति एसकप्पे जिण कप्पियाणं" (बृहत्कल्प सूत्र) (इसकी व्याख्या) "सम्प्रति सूत्र व्याख्या क्रियते--निर्ग्रथं च शब्दान्निग्रंथों च रात्रौवा विकालेवा दीर्घ पृष्ठः सो लुषयेत् दंशेत । तत्र स्त्री वा पुरुषस्य हस्तेन तं विषमपमार्जयेत् । पुरुपोवा स्त्रियाः हस्तेन एवं से तस्य स्थविर कल्पिकस्य कल्पते । स्थविरकल्पस्य अपवाद बहुलत्वात । एवंचामुना प्रकारे णापवादमासेवमानस्य से तस्य तिष्ठति पर्यायः न स्थविर कल्पात. परिभ्रश्यति येन छेदादयः प्रायश्चित्त विशेषा स्तस्य न संति । परिहारंच Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ सद्धर्ममण्डनम् । तपो न प्राप्नोति कारणेन यतनया प्रवृत्तः। एष कल्पः स्थविरकल्पिकानाम् । एवममुना प्रकारेण सपक्षेण विपक्षेण वा वैयावृत्य कारापणं । "सें" तस्य जिन कल्पिकस्य न कल्पते केवलोत्सर्ग प्रवृत्तत्वा त्तस्येतिभावः । एवमपवाद सेवनेन "से" तस्य जिन कल्प पर्य्यायो नतिष्ठति जिनकल्पात पततीत्पर्थः । परिहारंच तपो विशेष परि पालयति एषकल्पो जिन कल्पिकानाम्". अर्थः ___ साधु या साध्वीको रातमें या विकालके समय यदि सांप काट लेवे तो स्त्री (साध्वी ) गृहस्थ पुरुषके हाथसे, और पुरुष ( साधु ) गृहस्थ स्त्रीके हाथसे उस विषका झाडा दिलावे । ऐसा करना, स्थविर कल्पी साधुका कल्प है। क्योंकि स्थविर कल्पियों के कल्पमें अपवाद बहुत होता है । इस लिये उक्त कार्य करनेसे स्थविर कल्पी का पर्याय रह जाता है । वह अपने कल्पसे गिरता नहीं है। इसलिये इस कार्यासे स्थविर कल्पीको छेद आदि प्रायश्चित्त विशेष नहीं प्राप्त होते और प्रायश्चित्त स्वरूप तपस्या भी नहीं प्राप्त होती क्योंकि कारणवश और यतनाके साथ उक्त कार्यमें स्थविर कल्पीकी प्रवृत्ति हुई है परन्तु इस प्रकार अपने या दूसरे पक्षवालोंसे व्यावच कराना जिन कल्पी साधुका कल्प नहीं है क्योंकि जिन कल्पी साधु उत्सर्ग मार्गसे ही प्रवृत्त होता हैं। वह यदि इस प्रकार अपवाद मार्गका आश्रय लेवे तो उसका पर्याय स्थिर नहीं रहता किन्तु वह जिन कल्पसे गिर जाता हैं। तथा वह प्रायश्चित्तका अधिकारी होता है। यहां स्थविर कल्पी साधु या साध्वीको सर्प काटने पर गृहस्थके हाथसे झाडा दिलाने का विधान किया है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि मरणान्त सङ्कटमे पड़े हुए साधु की प्राणरक्षा करना गृहस्थोंके लिये जिन आज्ञासे विरुद्ध नहीं है तथा ऐसी दशामें गृहस्थकी सहायता लेकर अपनी प्राणरक्षा करना स्थविर कल्पी साधुके लिये भी आज्ञा विरुद्ध तथा प्रायश्चित्त का कारण नहीं है। अतः मरणान्त कष्टमें पड़े हुए साधुकी रक्षा करना गृहस्थके लिये आज्ञा बाहर बतलाकर उसमें एकान्त पाप स्थापन करना अज्ञानियोंका का- समझना चाहिये । आचारांग सुत्रप्ने गड्ढे आदिमें गिरनेकी सम्भावना होने पर गृहस्थका हाथ पकड़ कर पार करना कहा है। वह पाठ यह है "सेभिक्खूवा गामाणुगाम दुइजमाणे अन्तरासे वप्पाणिवा फलिहाणिवा पागाराणिवा तोरणानिवा अग्गलाणिवा, अग्गल पासगा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्याधिकारः। णिवा, गड ढाओवा दरीओवा सइ परक्कमे संजयामेव परिकमिजा। नोउज्जुयं गच्छेन्ना केवली ब्रूया आयाण मेयं । तत्थ परकममाणे पपलिज्जदा २ सेतत्थ पयलमाणेवा रुक्खाणिवा गुच्छाणिवा लया ओवा वल्लोओवा तयाणिवा गहाणिवा, हरियाणिवा अवलम्क्यि उत्तरिज्जा। जे तत्थ पडिपहियावा उवागच्छंति ते पाणी जाइज्जा तओ संजयामेव अवलम्विय उत्तरिज्जा। तओ सं० गामानुगामं दुइज्जेज्जा". अर्थ: एक ग्रामसे दूसरे ग्राममें जाते हुए साधु या साध्वीको मार्गके अन्दर यदि क्यारी मिले या खाई; गड्ढा, तोरण, अर्गला, गर्त, या खोह मिले तो दूसरा मार्ग होने पर उस (गड्ढे आदि वाले) मार्गसे नहीं जाना चाहिये । क्योंकि उस मार्गसे जाने पर केवलोने कर्मबन्ध होमा कहा है। परन्तु दूसरा मार्ग नहीं होने पर उस मागसे जाने में दोष नहीं है। ऐसे कठिन मार्गसे जाता हुआ साधुकी यदि पैर फिसल जाय, तथा गिरनेकी नौबत आ जावे तो वह वृक्ष, लता, तृण या गहरी वनस्पतियोंको पकड़ कर उस मार्गसे पार हो जावे। अथवा जो कोई उस मार्गसे पथिक आता हो उसके हाथको सहायता लेकर जयणाके साथ उस कठिन मार्ग को पार करे। इसके पश्चात् प्रामानुग्राम विहार करे। यह इस पाठका अर्थ है। इसकी टीकामें भी लिखा है कि "अथ कारणिकस्तेनैव गच्छेत कथञ्चित पतितश्च गच्छगतो वल्ल्यादिकमवलम्व्य प्रातिपथिकं हस्तवा याचित्वा संयतएव गच्छेत् । अर्थात कारण पड़ने पर साधु उसी ( कठिन ) मार्गसे ही जावे। और किसी प्रकार गिरता हुआ स्थविर कल्पी साधु, लता आदिको पकड़ कर अथवा सम्मुख आते हुए पथिकके हाथका आश्रय लेकर जयणाके साथ उस मार्गको पार करे। जीतमलजी ने अपने प्रश्नोत्तर तत्ववोध नामक ग्रन्थ में ६३ वें प्रश्न के उत्तर में दूसरा मार्ग नहीं होने पर आचारांग सूत्रोक्त कठिन मार्ग से जाना लिखा है। जैसे कि: (प्रश्न)-विहार करतां मार्गमें पृथिवी हरी आयां तेणेइज मार्गे जावणो कि नहीं ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ सद्धर्ममण्डनम् । - ( उत्तर )--आचारांग श्रुत० २ अ० ३ ३० २ को विहार करता मार्ग माई वीज हरी पानी मांठी होय तो छते रास्ते ते मार्गे जावणो नहीं । इण न्याय रस्तो न होय तो ते मार्गरो दोष नहीं। ऊंची भूमि, खाई, गड्ढने मार्गे छते रस्ते न जावणो रास्तो और न होय तो जावणो'। इत्यादि जीतमलजीके लेखसे भी यह सिद्ध होता है कि दूसरा रास्ता नहीं होने पर साधु गर्त आदि वाले मार्गसे जाते हैं और वहां वे कारणवश पथिकके हाथकी सहायता भी आचारांग सूत्रोक्त विधिके अनुसार देते हैं। ऐसा करनेसे स्थविर कल्पो साधु का कल्प भङ्ग नहीं होता क्योंकि यह कार्य जिन आज्ञामें है। तथा उक्त मार्ग के अन्दर मुसीबतमें पड़े हुए साधुको जो पथिक अपने हाथकी सहायता देकर उनकी प्रागरक्षा करता है वह भी आज्ञानुसार ही कार्य करता है आज्ञासे बाहर या एकांतपापका कार्य नहीं करता। अतः आगमें जलते हुए साधुकी बांह पकड़ कर बाहर निकालने वाले गृहस्थ को पाप कैसे हो सकता है ? यह बुद्धिमानोंको विचारना चाहिये। यदि मरणान्त कष्ट उपस्थित होने पर भी गृहस्थ से शारीरिक सहायता लेना स्थविर कल्पी साधुका कल्प नहीं होता और उस हालतमें भी स्थाविर कल्पीको शारीरिक सहायता देना गृहस्थ के लिये वर्जित होता तो आचारांग सूत्रके इस पाठमें पथिक के हाथ की सहायता लेकर साधुको कठिन मार्गसे पार करने का विधान कैसे किया जाता ? तथा वृहत्कल्प सूत्रमें सर्पका जहर उतारनेके लिये साधु साध्वी को गृहस्थ से झाडा लगवाने का विधान क्यों किया जाता ? अत: साधु के लिये गृहस्थ से शारीरिक सहायता लेने को हर एक अवस्था में एकान्त निषेध करना शास्त्रविरुद्ध समझना चाहिये। (बोल ९ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २६५ के ऊपर भीषगजीके वार्तिकों का उल्लेख करते हुए लिखते हैं ___ "वली केई एक इसडी कहे छै । सुभद्रासती साधुरो आंख मांहि थी फांटो काड्यो तिणमे धर्म कहे छै।" इसके आगे २६७ पृष्ठमें अपनी ओरसे लिखते हैं कि "केतला एक जिन आज्ञा ना अजाण छै । ते साधु अग्नि मांहि बलतानी कोई गृहस्थी बांह पकड़नी वाहिरे काढे तथा साधुरी फांसी कोई काटे तिणमें धर्म कहे छै" इत्यादि। इनके कहने का तात्पर्य Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Sargत्याधिकारः । ३७७ यह है कि सुभद्रा सतीने जिन कल्पी मुनिकी आंखसे तिनका निकाला था, इससे उसको पाप हुआ तथा किसी दुष्टके द्वारा साधुके गलेमें लगाई हुई फांसीको यदि कोई दयालु गृहस्थ काट देवे, तथा आगमें जलते हुए साधुको कोई दयावान गृहस्थ बांह पकड़ कर बाहर कर दे तो उसको एकान्त पाप होता है । इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक ) सुभद्रा सतीने जिन कल्पी मुनिकी आंखसे तिनका निकाला था इस काय्यैसे सुभद्राजीको पाप बतलाना भीषणजीका अज्ञान है तथा साधुके गलेकी फांसी काटने और मगमें जलते हुए साधुको बांह पकड़कर बाहर निकालनेसे दयालु गृहस्थको पाप बतलाना जीतमलजीका भी अज्ञान है। भगवती सूत्र शतक १६ उद्देशा ३ के अन्दर साधुकी नासिकामें लटकते हुए अर्शका छेदन करने वाले वैद्यको शुभ क्रिया ( पुण्यवन्ध ) होना कहा है । वह पाठ यह है "अणगारस्सणं भन्ते ? भाविअप्पणो छट्ठ छट्टणं अणिक्खितेणं जाव आयावेमाणस्स तस्सणं पुरच्छिमेणं अवड्ढ दिवसं णो कप्पइ हत्थंवा पायंवा उरुवा आउंटावेत्तएवा पसारेत्तएवा पच्चच्छिमेणं अवड्ढ दिवसं कप्पइ हत्थंवा पायंवा जावउरुवा आटा वेत्तएवा पसारेत्तएवा” तस्स य अंसिआओ लंबइ तंचेव बिज्जे अदक्खु इसिपाडे इ । पाडे इत्ता अंसिआओ छिंदेज्जा सेणूणंभन्ते ? जे छिन्देज्जा तस्स किरिया कज्जइ । जस्सछिन्दइ णोतस्स किरिया कज्जइ गणत्थेगेणं धम्मं तराएणं १ हन्त ! गोयमा ! जेछिन्दइ जाव धम्मंतराएणं सेवं भन्ते भन्तेति " ( भ० श० १६ उ० ३ ) अर्थ हे भगवन् ! निरन्तर बेले बेळे तप करता हुआ यावत् आतापना लेता हुआ भावितामा अनगारका दिनके पूर्वार्ध भागमें अपने हाथ, पांच, ऊरू आदि अङ्गोंको पसारना और संकोच करना नहीं कल्पता । तथा दिनके उत्तरार्धमें उक्त अङ्गोंको पसारना और संकोच करना कस्पता है। उक्त साधुकी नासिकामें लटकते हुए अर्शको यदि कोई वैद्य साधुको नीचे डालकर काटे तो वैद्यको क्रिया लगती है परन्तु साधुको एक धर्मान्तरायके सिवाय और क्रिया नहीं लगती क्या यह बात सत्य है ? ४५ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat • www.umaragyanbhandar.com Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । हां गोतम ! सत्य है । छेदन करने वाले वैद्यको ही क्रिया लगती है और उक्त साधुको एक धर्मान्तरायसे भिन्न दूसरी क्रिया नहीं लगती यह बात यथार्थ है । यहां भगवतीजीके मूल पाठ में साधुकी नासिकामें लटके हुए अर्शके छेद न करने वैद्यको क्रिया लगना बतलाया है क्रियायें दो प्रकार की ठाणाङ्ग सूत्रमें कही गई हैं। शुभ और अशुभ परन्तु इस मूल पाठमें शुभ अथवा अशुभ किसी एक क्रियाका नाम न लेकर समुच्चय रूपसे कहा है कि साधुकी नासिकामें लटके हुए अर्शके छेदन करने वाले वैद्यको क्रिया लगती है। इसका खुलासा करते हुए टीकाकार बतलाते हैं कि साधु की नासिक में लटके हुए अर्शको जो वैद्य धर्म बुद्धिसे छेदन करता है उसको तो शुभ क्रिया (पुण्यकी क्रिया ) लगती है और जो लोभ आदिसे छेदन करता है उसको अशुभ क्रिया (पाप) होती है। वह टीका यह है ' ३७८ “तंचानगारं कृत कायोत्सर्ग लम्बमानार्शसमद्राक्षीत् । ततश्चार्शसांछेदनार्थमनगारं भूम्यां पातयति । नापातितस्यार्शश्छेदः कर्तुं शक्यत इति । तस्य वैद्यस्य क्रिया व्यापार रूपा साच शुभा धर्म बुद्धया छिन्दानस्य । लोभादिनात्व शुभा क्रिया तस्य भवति । यस्यसाघोरर्शा सिछिद्यन्ते नो तस्य क्रिया भवति निर्व्यापारत्वात् । किं सर्वथा क्रियाया अभावो नैव मित्याह नन्नत्थेत्यादि । न इति योऽयं निषेधः सोऽन्यत्र कस्माद्धर्मान्तरायाद् धर्मान्तराय लक्षणा क्रिया तस्याऽपि भवतीतिभावः । धर्मान्तरायश्च शुभध्यानविच्छेदा दर्शश्छेदानुमोदनाद्वः इति” • अर्थात् कायोत्सर्ग किये हुए अनगारकी नासिकामें लटकते हुए अर्शको देखकर उसका छेदन करनेके लिये कोई वैद्य साधुको नीचे डाले ( क्योंकि नीचे डाले बिना अर्श का छेदन नहीं किया जा सकता ) और नीचे डालकर धर्म बुद्धिसे साधुका अर्श छेदन करे तो उस वैद्यकी क्रिया शुभ समझनी चाहिये । अर्थात् उसको शुभ क्रिया ( पुण्यकी क्रिया) लगती है । तथा वह यदि लोभ आदिके द्वारा अर्शका छेदन करे तो उसको अशुभ क्रिया लगती है परन्तु जिसका अर्श काटा जाता है उस मुनिको एक धर्मान्तराय के सिवाय दूसरी क्रिया नहीं लगती क्योंकि वह मुनि व्यापार रहित है और वह धर्मान्तराय रूप क्रिया भी मुनिके शुभ ध्यानके विच्छेद होनेसे और अर्श छेदनके अनुमोदन करनेसे लगती है अन्यथा नहीं । यहां टीकाकार भगवतीके उक्त पाठ का अभिप्राय बसलाते हुए लिखते हैं कि जो वैद्य धर्म बुद्धिसे साधुका अर्श छेदन करता है उसको शुभ क्रिया यानी पुण्यकी क्रिया बनती है तब फिर सुभद्रा सतीने धर्म बुद्धिसे जो जिन कल्पी मुनिकी आंख से निका निकाला था उसमें सुभद्रा सतीको पाप कैसे हो सकता है ? तथा आगमें जलते हुए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्याधिकारः । ३७९ सांधुकी बांह पकड़कर धर्म बुद्धिसे बाहर करने वाले दयालु गृहस्थको तथा साधुकीं गले की फांसी काटने वाले धार्मिक दयालु पुरुषको पाप कैसे हो सकता है यह बुद्धिमानोंको सोचना चाहिये । यदि इन काय्यों में पाप होता तो फिर धर्म बुद्धिसे साधुका अर्श काटने वाले वैद्यको भगवती सूत्रके उक्त पाठमें तथा उसकी टीकामें शुभ क्रिया (पुण्य a) होना क्यों कहा जाता ? अतः भगवती के पूर्वोक्त पाठ और उसकी टीकासे स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधुके गलेकी फांसी काटना तथा आगमें जलते हुए साधुकी बांह पकड़कर उसको बाहर निकालना, मरणान्त कष्टमें पड़े हुए साधुकी शारीरिक सहायता प्राण रक्षा करना, धार्मिक गृहस्थोंके लिये पापका काय्य नहीं है किन्तु धर्मका कार्य हैं। अंतः भीषणजीने, सुभद्रा सतीको जिन कल्पी मुनिकी आंखसे तिनका निकालने से ओ पापिमी कहा है तथा जीतमलजीने जो साधुके गलेकी फांसी काटने वाले और आगमें जलते हुए साधुको बाहर निकालने वाले दयालु गृहस्थोंको पाप कर्म करने वाला बतलायां है यह इन लोगों की प्ररूपणा नितान्त शास्त्र विरुद्ध समझनी चाहिये । ( बोल १० वां ) ( प्रेरक ) आपने भगवती सूत्रके मूलपाठ और उसकी टीकासे यह सिद्ध कर दिया कि जो वैद्य साधुकी नासिका में लटके हुए अर्शको धर्म बुद्धिसे काटता है उसको शुभ क्रिया लगती है परन्तु भ्रम विध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २७० के ऊपर निशीथ सूत्र उद्देशा १५ बोल ३१ का मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते है : “अथ इहां कह्यो साधु अन्य तीर्थी तथा गृहस्थ पासे अर्श छेदावे तथा कोई अनेरा साधुरी अर्श छेदताने अनुमोदे तो मासिक प्रायश्चित्त आवे । अर्श छेदव्या पुण्यनी क्रिया होवे तो ए अर्श छेदन वालाने अनुमोदे तो दण्ड क्यूं कह्यो ? पुण्यरी करणी को निरवद्य छै । निरवद्य करणी अनुमोद्यां तो दण्ड आवे नहीं । दण्ड तो पापरी करणी अनुमोद्यां थीज आवे" इत्यादि । (भ्र० पृ० २७० ) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) निशीथ सूत्रको उक्त पाठ देकर इसका समाधान किया जाता है। वह पाठ यह है "जे भिक्खू अण्ण उत्थिएणवा गारत्थिएणवा अप्पाणो कायंसि गड बा पलियंवा अरियंवा असियंवा भगंदलंवा अण्णयरे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० सद्धर्ममण्डनम् । णवा तिक्खेण सत्थजाएणवा आच्छि देई विच्छिदेइ आच्छिदंतं विच्छिदंतंवा साइज्जई" (निशीथ १५ उ० बोल ३१) अथ: जो कोई साधु अन्य यूधिकसे अथवा गृहस्थसे अपने शरीरके गंडमालादिक, मेह, फोड़ा, अर्श भगन्दर, इनको किसी तीक्ष्ण शस्त्र जातिसे छेदावे तथा विशेष रूपसे छैदावे अथवा इनका छेदन कराने वाले साधुको अनुमोदना करे तो उसको प्रायश्चित्त आता है। यहां निशीथ सूत्रके मूल पाठमें अन्य यूथिक और गृहस्थके द्वारा अर्श छेदन कराने वाले और उसका अनुमोदन करने वाले साधुको प्रायश्चित्त आना कहा है इस लिये कोई साधु यदि गृहस्थसे अर्शका छेदन करावे तथा छेदन कराते हुए साधुको भला जाने तो उसको प्रायश्चित्त आता है परन्तु धर्म बुद्धिसे उक्त साधुका अर्श छेदन करने वाले गृहस्थको प्रायश्चित्त आना इस पाठमें नहीं कहा है क्योंकि भगवती सूत्र शतक १६ उद्देशा ३ के मूल पाठमें और उसकी टोकामें जब कि धर्म बुद्धिसे साधुका अर्श काटने वाले गृहस्थको शुभ क्रिया कही है तब उसके विरुद्ध यहां उक्त गृहस्थको पाप कैसे कहा जा सकता है । यद्यपि भ्रम विध्वंसनकार इस विषयमें यह तर्क करते हैं कि “साधुका अर्श काटने वाले गृहस्थका यदि पुण्यकी क्रिया होती है तो फिर उसका अनुमोदन करने से साधुको प्रायश्चित्त कैसे आता है" परन्तु उनका यह तर्क भी अज्ञान सूचक है। उक्त निशीथके मूलपाठमें अर्श छेदन करने वाले गृहस्थके कार्यका अनुमोदन करनेसे साधुको प्रायश्चित्त आना नहीं कहा है किन्तु गृहस्थके द्वारा अर्श छेदन कराते हुए साधुके कार्यका अनुमोदन करनेसे प्रायश्चित्त आना कहा है। इसलिये अनुमोदनका नाम लेकर धर्म बुद्धिसे साधु का अर्श छेदन करने वाले गृहस्थको पापकी स्थापना करना मिथ्या है। ___यदि कोई कहे "कि गृहस्थसे अर्श कटाने वाले साधुको यदि पाप लगता है तो साधुका अर्श काटने वाले गृहस्थको पुण्य कैसे होगा ? तो इसका उत्तर यह है कि जैसे गृहस्थके द्वारा सत्कार सम्मान और पूजा प्रतिष्ठा की इच्छा रखना उत्तराध्ययन सूत्रके अन्दर साधु को वर्जित की गयी है परन्तु श्रावक यदि साधुकी पूजा प्रतिष्ठा बन्दना सत्कार करे तो उसका निषेध नहीं है किंतु वह धर्म का कार्य है। उसी तरह साधु यदि गृहस्थसे अर्शछेदन करावे अथवा कराते हुए साधुको अच्छा जाने तो उसको प्रायश्चित्त आता है परन्तु धर्म बुद्धिसे साधुका अर्श काटने वाले गृहस्थ को पायश्चित्त नहीं माता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैयावृत्याधिकारः। ३८१ उत्तराध्ययन सूत्रकी मूलगाथा यह है"नोसकिय मिच्छई नपूअं नोविय चंदणगं कुओ पसंस" (उत्तरा० म० १५) अर्थ : "साधु अपनी पूजा और सत्कारकी इच्छा नहीं करे तथा चन्दन और प्रशंसा की चाहना भी न करे।" परन्तु श्रावक लोग साधुकी पूजा सत्कार वन्दन और प्रशंसा करते हैं और उक्त कार्यों से श्रावकोंको पाप नहीं होता किन्तु धर्म होता है। उसी तरह साधु यदि किसी गृहस्थसे अर्श कटवाना चाहें तो उसको पाप हो सकता है परन्तु अर्श काटनेवाले गृहस्थ को पाप नहीं हो सकता है बल्कि धर्म बुद्धिसे काटने पर धर्म ही होता है। तथापि साधु, गृहस्थसे अर्श कटवाना नहीं चाहते, यह देख कर साधुके अर्श काटनेसे गृहस्थको पाप होना यदि कोई हठी कहे तो फिर साधुकी वन्दना पूजा सत्कार सम्मान करनेवाले श्रावक को भी उसके हिसाबसे पाप ही होना चाहिये क्योंकि साधु गृहस्थसे पूजा प्रतिष्ठा वन्दना नमस्कार आदिकी भी चाहना नहीं रखता। अतः निशीथ सूत्रका मनमाना तात्पर्य बतला कर धर्म बुद्धिसे साधुका अर्श काटने वाले वैद्य को पाप होने की स्थापना करना एकमात्र अज्ञान का परिणाम समझना चाहिये । [बोल ११ वां समाप्त ] (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रम० पृ० २७० के ऊपर आचारांग सूत्र अध्ययन १३ श्रुत० २ रे का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि "मथ ईहां कह्यो जे साधुरे व्रण ते गुमडो फुणसी आदिक तेहने कोई पर अनेरो गृहस्थ शस्त्र करी छेदे तो तेहने मनकरी अनुमोदे नहीं। अने वचन करी तथा काया ई करी करावे नहीं। जे कार्य साधु मन करी अनुमोदना ई न करे ते कार्य करणवाला ने धर्म किम हुवे । इत्यादि। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) ___जैसे उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन १५ की गाथामें अपनी पूजा प्रतिष्ठा, सत्कार सम्मान की चाहना करना साधुके लिये वर्जित की है परन्तु गृहस्थ यदि साधुकी पूजा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ सद्धर्ममण्डनम् । प्रतिष्ठा आदि करे तो उसको पाप नहीं कहा है। उसी तरह आचारांग सूत्रके इस पाठ में भी गृहस्थके द्वारा अपने फोडे आदिको छेदन करानेकी इच्छा करना साधुको वर्जित की गयी है परन्तु गृहस्थको साधुके फोडे आदिका छेदन करना वर्जित नहीं है। इस लिये धम वुद्धिसे गृहस्थ यदि साधुका व्रणको काटे तो उसको एकान्त पाप नहीं हो सकता क्योंकि जैसे साधु गृहस्थके द्वारा अपनी पूजा प्रतिष्ठा कराने की इच्छा नहीं करता पर गृहस्थ साधुकी पूजा प्रतिष्ठा करता है और उस गृहस्थको उस कार्य से पाप नहीं होता धर्म होता है उसी तरह साधु, गृहस्थसे अपने फोडे आदिका छेदन कराना नहीं चाहता यदि चाहे तो पाप होगा परन्तु गृहस्थ यदि धर्म बुद्धिसे साधुका व्रण छेदन करे तो उसको एकान्त पाप नहीं हो सकता। ___ देखिये आचारांग सूत्रका वह पाठ यह है "सिया से परो कार्यसि वर्ण अण्णपरेण सत्य जाएणं आच्छिदेवया विच्छिदेजवा णो तं सातिए णो तं णियमे" (आचारांग म० १५ श्रु० २) अर्थ:___अर्थात् कदाचित् साधुके शरीरमें व्रण उत्पन्न हुआ देख कर गृहस्थ यदि उसका छेदय करे तो साधु उसकी इच्छा न करे। और छेदन न करावे । यहां साधुको गृहस्थसे फोडे आदिके छेदन करानेकी इच्छा करना वर्जित की गई है। परन्तु गृहस्थको साधुका व्रण छेदन करना वर्जित नहीं किया है इसलिये इस पाठ का नाम लेकर साधुका अर्श छेदन करने वाले गृहस्थको एकांत रूपसे पापी कहना मिथ्या समझना चाहिये। (बोल १२ वां समाप्त) ( इति वैयावृत्य प्रकरणं समाप्तम् ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ विनयाधिकारः। (प्रेरक).... विनय किसे कहते हैं। और उसके भेद कितने होते हैं। (प्ररूपक) "विनीयते कर्मानेनेति विनयः । गुरुशुश्रूषा विनयः नीचैत्यनुत्सेके" अर्थात् जिससे कर्मवन्ध निवृत्त होता है उसे विनय कहते हैं। तथा गुरुजन की सेवा शुश्रूषा करनेका नाम विनय है । एवं नम्रताको भी विनय कहते हैं। यह सात प्रकार का होता है। इस विषयमें भगवती आदि सूत्रोंमें यह पाठ मिलता है। "सत्तविहे विणए पण्णत्ते तंजहा णोण विणए, दसण विणए, चारित्त विणए, मण विणए, बत्ति विणए, काय विणए, लोगोक्यार विणए" (ठाणाङ्ग ठाणा ७-भगवती शतक १५ उ०७) ... ___ अर्थात् विनय सात प्रकारके होते हैं। . (१) ज्ञान विनय, (२) दर्शन विनय, (३) चारित्र विनय, (७) मनो विनय, (५) वचन विनय, (६) काय विनय, (७) लोकोपचार विनय । . . इनमें दर्शन विनयके विषयमें टीकाकारने यह लिखा है कि "दर्शनं सम्यक्त्वं तदेव विनयो दर्शन विनयः । दर्शनस्यवा तदव्यतिरेकादर्शन गुणाधिकानां शुश्रूषाऽनासातनारूपो क्नियो दर्शन विनयः । उक्तच-"सुस्सुसमा अणासायणा य विणओउ दसणे दुविहो दसण गुणाहिएसु कलह सुस्सुसणा विणओ। सकारा ब्भुट्टाणे सम्माणासण अभिग्गहो सहय। आसगमणुप्पयाणं कीकम्म अंजलि गहोम । तस्सगु गच्छगया ठियस्सतह पज्जुवासणा भणिया । गच्छंताणुव्वयणं एसो सुस्सुणा विणओ” अर्थात दर्शन नाम सम्यक्त्वका है और तद्र प जो विनय है उसे दर्शन विनय कहते हैं। अथवा गुण और गुणीके अभेदसे दर्शनरूप अधिक गुण वाले पुरुषकी शुश्रूषा कस्वा, तथा उनको असातना नहीं देना दर्शन विनय कहलाता है। कहा भी है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ दर्शन विनयके दो भेद होते हैं। शुश्रूषा विनय, और असातना विनय । दर्शनरूप अधिक गुण वाले पुरुषों की शुश्रूषा विनय करना चाहिये । शुश्रूषा विनय ये हैं सद्धममण्डनम् । सत्कार करना, सम्मुख खडा होना, सम्मान करना, सम्मुख जाना, व्यासन देना, वन्दन करना, हाथ जोड़ना, आते हुए गुरुजनके सामने जाना, बैठे हुए की सेवा करना और जाते हुए पोछे जाना । यह शुश्रूषा विनय कहलाता है । इसी तरह भगवती शतक १४ उद्देशा ३ के मूलपाठमें शुश्रूषा विनयके भेद बतलाये हैं वह पाठ यह है । "सक्कारेइवा सम्माणेइवा कोकम्मेइवा अन्भुट्ठाणेइवा अंजलिपग्गहेहवा । आसणाभिग्गहेहवा असणाणुप्पदाणेइवा इं तस्स पज्जुगच्छणया ठियस्स पज्जुवा सणया गच्छंतस्स पडिसंहाणत्ता" ( भ० श० १४ उ० ३ ) ( इस पाठकी टीका ) कारो विनयाषु वंदनादिना आदर करणम् प्रवर वस्त्रादि दानश्व “सकारो पवरवत्थादिहिं” इति वचनात । सम्मानस्तथाविधप्रतिपत्तिकरणम् [कृतिकर्म वंदनं कार्य्यं करणवच । अभ्युत्थानं गौरवाह दर्शने विष्टरत्यागः । अंजलिप्रप्रहः अंजलि करणम् । आसनाभिग्रहः तिष्ठव एव गौरव्यस्यासनानयनपूर्वक मुपविशतेति भणनम् । गौरव्यमाश्रित्यासनस्य स्थानांतर संचारणम् । आगच्छतो गौरव्यस्याभिमुखगमनं तिष्ठतो गौरव्यस्यसेवेति । गच्छतोऽनुगमनमिति । अर्थः - विनय करने योग्य पुरुषका वंदन आदिके द्वारा आदर करना और उसको उत्तमोत्तम वस्त्रादिका प्रदान करना सत्कार विनय कहलाता है । श्रेष्ठ पुरुषको स्वरूपानुरूप गौरव देना सम्मान विनय है । श्रेष्ठ पुरुष को वन्दन करना और उसका कार्य्य करना कृति कर्म कहलाता है । गौरव के योग्य पुरुष को देख कर आसन छोड़ खड़ा हो जाना अभ्युत्थान विनय है । गौरव के योग्य पुरुष को हाथ जोड़ना "अंजलि प्रह" कहलाता है । खड़े हुए गौरव योग्य पुरुषको आसन देकर बैठनेके लिये कहना आसनाभिप्रह कहलाता है। गौरव योग्य पुरुषके आसनको उसकी इच्छानुसार दूसरी जगह रखना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयाधिकारः । ३.८५ आसनानुप्रदान कहलाता है। इसी तरह आते हुए गौरव योग्य पुरुषके सम्मुख जाना और बैठे हुए की सेवा करना, और जाते हुएके पीछे जाना ये सब शुश्रूषा विनये कहलाते हैं । यह टीकाका अर्थ है : दर्शन विनयके अधिकारी सम्यग्दृष्टि, साधु और श्रावक सभी लोग होते हैं । सम्यष्टि अपने से अधिक गुण वाले सम्यग्दृष्टिकी और श्रावक अपनेसे अधिक गुण वाले श्रावककी, तथा ये सभी लोग सम्यग्दृष्टि साधुकी तथा कनिष्ठ साधु अपनेसे अधिक गुण वाले साधुकी जो शुश्रूषा करते हैं वह उनका दर्शन विनय समझा जाता है । यह दर्शन विनय निर्जराके भेदमें गिना गया है । इस लिये दर्शन विनय करनां निर्जराका हेतु समझना चाहिये | ( बोल १ समाप्त ) ( प्रेरक ) अपने से अधिक गुण वाले श्रावकका दर्शन विनय करना श्रावकके लिये निर्जरा का हेतु आप बतलाते हैं पर किसी श्रावकने किसी श्रावकका दर्शन विनय किया हो ऐसा उदाहरण कोई मूलपाठसे बतलाइये । (प्ररूपक ) भगवती सूत्र शतक ११ उद्देशा १२ के मूल पाठ श्रावकोंका श्रावकसे विनय करने का स्पष्ट कथन है। वह पाठ यह है 5 "लएणं ते समणो वासंगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिआओ एम सोचा णिसम्म समणं भगर्व महावीरं वदति - मंसंति वन्दित्ता जेणेव इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तेणेव उयोगच्छति उवागच्छत्ता इसिभहपुत्तं समणोवासयं बंद ति णमंस्संति मट्ठ विणणं भुज्जो भुज्जो खामेंति". ( भ० श० - ११ उ०१२ ) अर्थ : इसके अनन्तर वे श्रावक श्रमण भगवान् महावीर स्वामीसे इस बातको सुन कर श्रम* भवान् महावीर स्वामीको वन्दना नमस्कार करके ऋषिभद्र पुत्र श्रावकके पास गये वहां जाकर ऋषभद्र पुत्र श्रावकको वन्दना नमस्कार करके उनकी सच्ची बात नहीं मानने रूप अपराधके लिये विनयके साथ बार बार क्षमा प्रार्थमा की । ४९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ सद्धर्ममण्डनम् । इस पाठमें श्रावकोंका श्रावकसे विनय किया जाना स्पष्ट कहा गया है इस लिये अपनेसे उत्कृष्ट गुण वाले श्रावकोंका विनय करना श्रावकके लिये निर्जराका हेतु समझना चाहिये। इसी तरह भगवतीसूत्र शतक १२ उद्देशा १ के मूलपाठमें उपला श्राविकासे पोखलि श्रावकका दर्शन विनय किये जानेका उल्लेख है । वह पाठ यह है "तएणं साउपला समणोवासिया पोखलिं समणोवासयं एजमाणं पासइ पासइत्ता हट्टतुटा आसणाओ अब्भुट्टइत्ता सत्तकृपयाहिं अणुगच्छइ अणुगच्छइत्ता पोक्खलिं समणोवासयं वंदहणमंसह णमंसइत्ता आसणेणं उवनिमंत्तइत्ता एवं वयासी" _ (भ० २० १२ उ० १) अर्थ : ___ उत्पला नामक श्राविकाने पोखलि नामक श्रमणोपासकको आते हुए देख कर हृष्टतुष्ट से अपने भासन से उठ कर सात आठ पैर तक उनके सामने जाकर उक्त श्रापकको वन्दना नमस्कार करके आसन पर बैठनेकी प्रार्थना करके इस प्रकार कहा। इसी तरह पोखली श्रावकने शंख श्रावकको वन्दना नमस्कार किया था। वह पाठ यह है "तएणं से पोखली समणोवासए जेणेव पोसहसालाए जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छइत्ता गमणा गमणाए पडिकमइत्ता संसां समणोवासयं वन्दइ नमसइत्ता एवं वयासी" . (भ० श० १२ उ०१) अथ : इसके अनन्तर पुष्कली श्रावकने पौषध शालामें शंखा श्रावकके पास जाकर इउपथिक प्रतिक्रमण करके शंख श्रावकको वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार कहा। ___इस पाठमें भी पुष्कली श्रावकसे शंख श्रावकके वन्दन नमस्कार करनेका स्पष्ट उल्लेख किया है । यह सब श्रावकके प्रति श्रावकके शुश्रूषा विनयका उदाहरण समझना चाहिये। [बोल २ समाप्त ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयाधिकारः। ३८७ (प्रेरक) आपने शास्त्रके प्रमाणसे यह सिद्ध कर दिया कि अपनेसे अधिक गुण वाले श्रावकोंको श्रावक लोग वन्दन नमस्कार आदि करते हैं और वह उनका श्रावकके प्रति शुश्रूषा विनय है अतः वह निजगका हेतु है परन्तु जीतमलो और भीषणजी एक मात्र साधुकेही शुश्रूषा विनयको, निजराक हेतु बतलाते हैं श्रावकके शुश्रूषा विनयको निर्जराका हेतु नहीं मानते । भीषगजीने स्वरचित ढालमें कहा है "दर्शन विनयरा दोय भेद छ । शुश्रूषाने अणअसातना तेहजी । शुश्रूषो तो बड़ा साधुरी करणी त्यांने वन्दना करणी शीश नामजी" (निर्जग प्रकरण भीषणजीकी ढाल) तथा जीतमलजीने भ्रम० के २७३ पृष्ठ पर लिखा है कि "केई पाषण्डी श्रावकरी सावध विनय कियां धर्म कहे छ। विनय मूल धर्मरो नाम लेइ श्रावकरी शुश्रूषा विनय करवो थापे” इत्यादि (भ्र. पृ० २७३) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) ___ भीषणजीका और जीतमलनीका श्रावकके प्रति श्रावकके शुश्रूषा विनयको सावद्य बताना शास्त्र विरुद्ध और अप्रमाणिक है। हमने इसी पूर्व प्रकरणके बोलमें भगवती सूत्रकी कई साक्षियां देकर श्रावकोंके विनयका प्रमाण बतलाया है। यदि भीषणती और जीतमलजी के सिद्धान्तानुसार श्रावकके प्रति श्रावकका विनय करना सावध होता तो फिर भगवान महावीर स्वामीकी मौजूदगीमें उनके समवसरणमें ही श्रावक लोग ऋषिभद्र पुत्र श्रावकका विनय क्यों करते ? और उसे भगवान् सावध कहकर क्यों नहीं रोकते ? अतः श्रावकके प्रति श्रावकके विनयको सावध कहना मिथ्या समझना चाहिये। (प्रेरक ) भ्रम विध्वंसनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ २७६ के अपर लिखते हैं "सामायक पोषामें सावध रा त्याग छ । ते सामायक पोषामें श्रावक मांहो माही नमस्कार करे नहीं। ते मांटे ये विनय सावध छै। वली पोखलीने उत्पला नमस्कार कियो । ते पिण आवतां कियो । अने पोखली जातां वन्दना नमस्कार न कियो । जे धर्म हेते नमस्कार कीधी हुवे तो जातां पिण करता। वली शंखनो विनय पोखली कियो। ते पिण आवतां कियो पिण पाछा जावता विणय कियो चाल्यो न थी। इण न्याय संसार हेते विणय कियो पिण धर्म हेते न थी। जिम साधुनों विनय करे ते श्रावक आवतां पिण करे अने पाछां जावता पिण करे तिम पोखलीनो विनय उत्पला पाछां जावतां न Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ सद्धर्ममण्डनम् । कियो । तथा पोखली पिण शंखकनाथी पाछां जाता विनय न कियो। से मांटे संसारनी सेते ए विनय कियो छ ।” (भ्र० पृ० २७६) - इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) .. .....भगवतीसूत्रके मूलपाठमें यद्यपि पोखलीश्रावकको जाते समय उत्पलाका नमस्कार करना, तथा शंखके पाससे जाते समय शंखको पोखलीका नमस्कार करना लिखा हुआ नहीं है तथापि नहीं लिखनेसे यह नहीं निश्चय किया जा सकता कि उत्पलाने जाते समय पोखली, और पोखलीने जाते समय रंखको नमस्कार नहीं किये थे, क्योंकि उपासक दशांगसूत्रमें गोतमस्वामीको आतेसमयमेंही आनंदश्रावकसे नमस्कार किये जानेका उल्लेख है जाते समय नमस्कार करनेका कथन नहीं चला है तथा रेवती धर्मपत्नी श्राविकाके सीह अनगारको आते समयमें ही नमस्कार करनेका उल्लेख है आते समयका उल्लेख नहीं है इस लिये जैसे यह नहीं कहा जा सकता कि आनन्द श्रावकने जाते समय गोतम स्वामीको नमस्कार नहीं किये थे तथा रेवती श्राविकाने जाते समय सीह अनगारको वन्दन नमस्कार नहीं किये थे उसी तरह यह भी नहीं कहा जा सकता कि उत्पलाने जाते समथ पोखलीको और पोखलीने विदा होते समय शंखको वन्दन नमस्कार नहीं किये थे। अतः जाते समयके वन्दन नमस्कारका उल्लेख नहीं होनेसे उत्पलाने जाते समयमें पोखलीको और पोखलीने जुदा होते समय शंखको नमस्कार नहीं किये थे यह निश्चय करना भ्रमविध्वंसनकारका निर्मूल है। जाते समयके वन्दन नमस्कारका उल्लेख नहीं होने पर भी जैसे यह कहा जा सकता है कि आनन्द श्रावकने गोतम स्वामीको और रेवती श्राविकाने सीह अनगारको जाते समय भी वन्दना नमस्कार किये होंगे उसी तरह यह भी कहा जा सकता है कि उत्पलाने पोखलीको और पोखलीने शंखको जाते समय भी वन्दन नमस्कार किये होंगे। अस्तु-भ्रमविध्वंसनकारके अनुयायियोंसे पूछना चाहिये कि उत्पला श्राविकाने आते समय पोखलीको और पोखलीने शंखके पास जाते समय जो शंखको वन्दना नमस्कार किये थे यह लौकिक रीतिके पालनार्थ किये थे धर्मके निमित्त नहीं इसमें क्या प्रमाण है ? क्योंकि मूल पाठमें जैसे साधुके वन्दन नमस्कारका उल्लेख पाया जाता है उसी तरह पोखली और शंखके भी वन्दना नमस्कार का उल्लेख है वहां यह नहीं कहा है कि साधु वन्दन तो धर्मार्थ है और श्रावककी वन्दना लौकिक रीति पालनार्थ है। ऐसी दशा में तुमने यह निर्णय किस आधार से कर लिया है कि 'उत्पलाने पोखली को और पोखालोने शंखको जो वन्दन नमस्कार किये थे वह लौकिक रीति पालनार्थ किये थे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयाधिकारः। ३८९ धर्मार्थ नहीं' शास्त्र के अन्दर कहीं भी अपनेसे अधिक गुणवान श्रावकको वन्दन नमस्कार करनेका निषेध नहीं है प्रत्युत श्रेष्ठ श्रावकको वन्दन करनेकी शास्त्रमें प्रशंसा की गई है। अतः अधिक गुणवान श्रावक के प्रति श्रावक के विनय को सावध कायम करना अज्ञान है। यदि सभी शुश्रूषा विनय साधुका ही किया जाना धर्मका हेतु है तो फिर श्रावक लोग कृतिकर्म, असनानुप्रदान, और आसनाभिग्रहरूप विनय किसका करें ? 'कृतिकर्मका अर्थ है अपनेसे श्रेष्ठ पुरुषका कार्य करना परन्तु साधु लोग किसी गृहस्थ से अपना कार्य नहीं कराते फिर यह विनय श्रावक किस का करें ? यह भ्रमविध्वंसनकार के शिष्योंसे पूछना चाहिये। __अपनेसे श्रेष्ठ पुरुषके आसनको उसकी इच्छानुसार अन्यत्र रखना आसनानुप्रदान विनय है और अपनेसे श्रेष्ठ पुरुषको बैठनेके लिये आसन देना आसनाभिग्रह रूप विनय है परन्तु साधु लोग गृहस्थ से अपना आसन अन्यत्र नहीं रखवाते और गृहस्थ के दिये हुए आसन पर बैठते भी नहीं हैं । ऐसी दशामें श्रावक इन विनयों का व्यवहार किसके साथ करे ? यह भी भ्रमविध्वंसनकारके अनुयायियोंसे पूछना चाहिये । लाचार होकर उन्हें यह कहना ही होगा कि ये विनय श्रावकोंके साथ ही श्रावक करते हैं परन्तु साधुके साथ नहीं। . कदाचित् कोई यह कहे कि “उक्त सभी शुश्रूषा विनय श्रावकोंके नहीं हैं इसलिये श्रावक को यदि कृति कर्म, आसनानप्रदान, तथा आसनाभिग्रह रूप विनय करने का प्रसङ्ग नहीं आता तो इसमें कोई आपत्ति नहीं है तो इसका उत्तर यह है कि भंगवती सूत्र शतक १४ उद्देशा ३ में आसनानुप्रदान और आसनाभिप्रह रूप विनयको छोड़ कर शेष सभी विनयोंका सद्भाव तियेच श्रावकोंमें भी बतलाया है और मनुष्य श्रावकों में तो सभी विनयोंका सद्भाव कहा है। अतः मनुष्य श्रावकोंमें सभी शुश्रूषा विनयों का सद्भाव नहीं मानना शास्त्र से विरुद्ध है। श्रावक लोग अपनेसे श्रेष्ठ श्रावक के ओ कार्य कर देते हैं वह उनका कृतिकर्म रूप विनय है और उनके आसनको उनकी इच्छानुसार अलग रखना आसनानुप्रदान रूप विनय है और उन्हें बैठनेको आसन देना आसनाभिग्रहरूप विनय है। यह मिर्जराका हेतु है। इसे पाप कहना उत्सुत्रभाषियोंका कार्य समझना चाहिये। - . भगवती सुत्र शतक १४ उद्देशा ३ में मनुष्य श्रावकोंमें सभी विनयों का और तिर्यंच पञ्चेन्द्रिय श्रावकोंमें आसनानुप्रदान और आसनाभिप्रहको छोड़ कर शेष सभी विनयोंका सदभाव बतलाया है वह पाठ यह है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० सधर्ममण्डनम्। "अत्थिणं भंते ? पंचिन्दिय तिरिक्ख जोणियाणं सकारेवा जाव पडिसंसाहणया ? हंता ! अत्थि णो चेवणं आसणा भिग्गहेइवा आसणाणुप्पदाणेइवा । मणुस्साणं जाव वेमाणियाणं जहा असुर कुमाराणं" (भ० श० १४ उ०३) अर्थाःहे भगवन् तिञ्च पञ्चं न्द्रिय श्रावकोंमें सत्कार आदि शुश्रूषा विनयका सद्भाव होता है ? हां गोतम ! होता है । आसानानुप्रदान और आसनाभिग्रह को छोड़ कर सभी शुश्रूषा विनय तिर्म्यञ्च पञ्चेन्द्रिय श्रावकोंके भी होते हैं। तथा मनुष्य यावत् वैमानिक देवोंके असुर कुमारकी तरह सभी शुश्रूषा विनय होते हैं। इस पाठमें मनुष्य श्रावकोंमें सभी विनयोंका सद्भाव कहा है और ति-ब्च पञ्चेन्द्रिय श्रावकोंमें आसनानुपदान और आसनाभिप्रहको छोड़ कर शेष सभी विनय कहे हैं। यिंच पञ्चेन्द्रिय श्रावक अढाई द्वीपसे बाहर भी रहते हैं, जहां साधुओं का गमनागमन नहीं होता फिर वह शुश्रूषा विनय किसका करते हैं यह भ्रमविध्वंसनकार के मतावलम्बियोंसे पूछना चाहिये। लाचार होकर उन्हें यह मानना ही पड़ेगा कि अढाई द्वीपसे बाहर रहने वाले तिय्यैच पञ्चेन्द्रिय श्रावक जो अपनेसे श्रेष्ठ श्रावकका सत्कार सम्मान आदि करते हैं वह उनका शुश्रूषा विनय है। अतः श्रावकके प्रति श्रावकके शुश्रूषा विनयको सावय कायम करना अज्ञान का परिणाम समझना चाहिये। यदि कोई कहे कि "श्रावकको वन्दना नमस्कार करना सावध नहीं है तो सामायकके अन्दर बैठा हुआ श्रावक किसी श्रावकको बन्दना नमस्कार क्यों नहीं करता।" तो इसका उत्तर यह है कि सामायकके अन्दर बैठा हुआ श्रावक सामायक और पोषा में नहीं बैठे हुए श्रावकसे श्रेष्ठ होता है और श्रेष्ठ अपने से कनिष्ठ को नमस्कार नहीं करता इसलिये सामायक और पोषामें बैठा हुआ श्रावक सामायक और पोषा में नहीं बैठे हुए श्रावकको वन्दन नमस्कार नहीं करता परन्तु वह उसके वन्दन नमस्कार को सावद्य नहीं समझता। जैसे बड़ा साधु छोटे साधुको वन्दन नमस्कार नहीं करता तथा जिन कल्पी साधु स्थविर कल्पीको वन्दना नमस्कार नहीं करता एवं पुरुष साधु स्त्री साध्वीको वन्दना नमस्कार नहीं करता क्योंकि वे उनसे बड़े हैं परन्तु यदि कोई दूसरा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वनयाधिकारः। पूर्वोक्त मुनियोंको वन्दन नमस्कार करे तो उसे वे सावद्य नहीं जानते उसी तरह सामायकमें बैठा हुआ श्रावक श्रेष्ठ होनेके कारण दूसरे श्रावकको वन्दन नमस्कार नहीं करता परन्तु उसके वन्दन नमस्कारको सावध नहीं जानता। अन्यथा बड़ा साधु छोटे साधुको मौर जिनकल्पी, स्थविर कल्पी को एवं पुरुष साधु स्त्री साध्वीको वन्दन नमस्कार नहीं करते इसलिए छोटे साधु तथा स्थविर कल्पी साधु और स्त्री साध्वीके वन्दन नमस्कार को भी सावथ मानना पड़ेगा। ___यदि छोटे साधुको और स्थविर कल्पी साधुको तथा स्त्री साध्वीको क्रमशः बड़े साधु तथा जिनकल्पी साधु और पुरुष साधुसे वन्दन नमस्कार नहीं किये जाने पर भी उनका वन्दन नमस्कार सावय नहीं है तो उसी तरह सामायक और पोषामें बैठे हुए श्रावकसे श्रावकको बन्दन नमस्कार नहीं किये जाने पर भी श्रावक का वन्दन नमस्कार सावद्य नहीं है। अतः श्रावकके वंदन नमस्कारको सावय बतलाना एकांत मिथ्या समझना चाहिये। (बोल ३ समाप्त) (प्रेरक) सम्बड सन्यासीके शिष्योंने संथाराग्रहण करते समय अम्बडजीको वन्दन नमस्कार किया था। उस वन्दन नमकस्कारको सावध सिद्ध करते हुए भ्रमविध्वंसनकार लिखते हैं कि "अथ इहां चेला कयो नमस्कास्थावो म्हारा धर्माचार्य धर्मोपदेशकने इहां अम्वड परिव्राजकने नमस्कार थावो एहवू कयो । अम्वड श्रमणोपासकने नमस्कार थावो इम न कयो । ए श्रमणोपासक पद छांडि परिव्राजक पद ग्रहण करी नमस्कार कीधो ते मांटे परिव्राजकना धर्मनी आचार्य अने परिव्राजकना धर्मनो उपदेशक हैं। तिणने आगे पिण वन्दना नमस्कार करता हुन्ता । पछे जिण धर्म तिणकने पाम्या । पिण आगलो गुरुपणो मिट्यो नहीं । ते मांटे सन्यासी धर्मरो उपदेशक कयो छै ।" इत्यादि लिख कर आगे लिखते हैं कि__ आचाऱ्यांना ३६ गुण कह्या छै अने अम्बड में तो ते गुग पावे नहीं आचाय्य पद तो पांचपदा मांहि छै । भने अम्वड तो पांचपदा माहीं नहीं छै । (भ्र० पृ० २७७) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) सम्वडजीके शिष्योंने संथारा ग्रहण करते समय अरिहंत सिद्ध, और महावीर स्वामी के नमस्कारके साथ ही अम्बहजीको भी नमस्कार किया था उन्होंने अरिहंत, Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ मण्डनम् । सिद्ध, और भगवान् महावीर स्वामीको नमस्कार तो मोक्षार्थ किया हो और अम्डजी को नमस्कार मोक्षार्थ नहीं किया हो इसमें कोई प्रमाण नहीं है । उस पाठ में साफ साफ लिखा है कि जिस अम्वडजी से हम लोगोंने यावज्जीवन के लिये वाहर तको धारण किया है उनको नमस्कार है । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अम्वडजी के शिष्यों ने arasite वार व्रत धारण करानेका उपकार मान कर ही वन्दन नमस्कार किया है पर दूसरे किसी कारण से नहीं । अतः इस दाखले से वाहर व्रत धारण कराने वाला अपने से श्रेष्ठ श्रावकको वन्दन नमस्कार करना धर्मका कारण सिद्ध होता है सावध सिद्ध नहीं होता वह पाठ यह है । "अण्णमण्णस्स अंतिए एयम पडिसुणंति । अण्णमणस्स अन्ति पडिणित्ता तिदण्डएव जाव एगंते एडेइ २ गंगं महाणह ओगार्हेति रत्ता वालुआ संथारए संघरंति । वालुया संधारयं दुरुहिं-तिवारता पुरस्थाभिमुद्दा संपलियंक निसन्ना करयल जाव कट्टु एवं वयासी नमोऽणं अरह ताणं जाव संपत्ताणं नमोऽणं अम्बहस्स परिव्वास्स अम्' धम्मायरियस्स धम्मोवदेसगस्स पुब्विणं अम्हे अम्aste परिव्वायगस्स अन्तिए धूलग पाणाइवाए पच्चकखाए जाव जीवाए लगे मुसावाए थ लगे अदिष्णादाणे पञ्चकखाए जावज्जीवाए सच्चे मेहुणे पञ्चखाए जाव जीवाए थ लगे परिग्गहे पचखाए". ( ७ उवाई सूत्र प्रश्न १३ ) ू ू अर्थ:अम्वडजीके शिष्योंने परस्पर पूर्वोक्त प्रकारकी प्रतिज्ञा करके सन्यासी वेषोचितसम्पूर्ण त्रिदण्ड आदिको एकांतस्थान में रख कर गङ्गा नदीके तटपर जाकर वहां बालुकामय संधारा बनाया । उस पर स्थित होकर पूर्व दिशा की ओर मुख करके प कासन जमाकर हाथ जोड़ कहने लगे कि- नमस्कार हो अरिहंतोको यावत् मोक्षमें पहुंचे हुए सिद्धोंको तथा नमस्कार हो भगवान् महावीर स्वामीको जो मोक्षमें जाने की इच्छा रखते हैं । हमारे धर्माचा धर्मोपदेशक डोको नमस्कार हो जिनसे हमने स्थूलहिंसा, स्थूल मृषावाद, स्थूल अदत्ता दान, सब प्रकारका मैथुम और स्थूल परिग्रहको यावज्जीवनके लिये परित्याग किया है । यहां अrasith शिष्योंने संथारा ग्रहण करते समय अरिहंत, सिद्ध, और भगवान महावीर स्वामीके समान ही अम्बडजीको भी नमस्कार किया है। यदि अपने से श्रेष्ठ श्रावकको नमस्कार करना पाप होता तो वे अम्बडजीको नमस्कार क्यों करते ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयाधिकारः। ३९३ यदि कहो कि "अरिहंत, सिद्ध और भगवान महावीर स्वामीको नमस्कार तो उन्होंने मोक्षार्थ किया और अम्बडजीको लोक रीतिके अनुसार किया" तो इसमें कोई प्रमाण नहीं है बल्कि अरिहंत सिद्ध और महावीर स्वामीके साथ ही अम्वडजीका पाठ आनेसे उनका नमस्कार भी मोक्षार्थ ही सिद्ध होता है लौकिक रीतिके पालनार्थ नहीं । ____ तथा अम्बडजीके शिष्य उस समय संथारा पर बैठे हुए थे वहां लौकिक रीतिके पालनका प्रसंग नहीं था। उस समय लोकोत्तर रीतिके पालनका प्रसंग था तदनुसार ही उन्होंने अरिहंत सिद्ध और भगवान् महावीरको तथा अम्बड़जीको भी नमस्कार किया था । अतः अरिहंत आदिके नमस्कारको धर्मका अंग मानना और अम्बडजीके नमस्कारको धर्मसे बाहर कायम करना अज्ञान है। इस पाठमें अम्वडजीके लिये परिव्राजक पदका प्रयोग देख कर सन्यास धर्मके नातेसे अम्वडजीको नमस्कार करनेकी कल्पना करना भी मिथ्या है क्योंकि इस पाठमें साफ साफ शिष्योंने कहा है कि जिनके पास हमने स्थूल प्राणातिपात यावत् स्थूल परिग्रहका प्रत्याख्यान किया था उस सम्वडजीको नमस्कार है। यदि सन्यास धर्म के सम्बन्धसे शिष्योंने नमस्कार किया होता तो यहां वे प्राणातिपात मादिके प्रत्याख्यान का उपकार क्यों बतलाते बल्कि यह कहते कि जिस अम्वडजीसे हमने सन्यास धर्म ग्रहण किया था उनको मेरा नमस्कार हो । यहां मूल पाठमें साफ साफ बारह व्रत धारण करानेका उपकार मान कर ही अम्वनीको शिष्योंके द्वारा नमस्कार किये जानेका कथन है परन्तु सन्यास धर्मका उपदेशक गुरु मानकर अम्वडजीको नमस्कार करनेका कथन नहीं है । अतः इस पाठमें अम्वडजीके लिये परिव्राजक पदका प्रयोग देख कर सन्यास धर्मके सम्बन्धानुसार उनके शिष्योंका नमस्कार बतलाना अज्ञान है। यदि कोई कहे कि “अम्वलजीके शिष्योंने सन्यास धर्माके सम्बन्धानुसार यदि अम्वडजीको नमस्कार नहीं किया था तो यहां मूल पाठमें उन्होंने अम्बडजीके लिये श्रमणोपासक ऐसा विशेषण क्यों नहीं लगाया ?" तो इसका उत्तर यह है कि "जिन" धर्म का महत्व प्रकट करनेके लिये शास्त्रमें जगह जगह अम्वडजीके लिये "श्रमणोपासक" यह विशेषण नहीं लगाकर परिव्राजक यह विशेषण ही लगाया है सदनुसार यहां भी श्रमणोपासक ऐसा नहीं कह कर परिव्राजक ही कहा है क्योंकि इस विशेषणसे शीघ्र ही यह बात बुद्धिगोचर हो जाती है कि सन्यास धर्मकी अपेक्षासे श्रमणोपासकोंका धर्म भी श्रेष्ठ है अतएव अम्बडजीने सन्यास धर्मका परित्याग करके श्रावक धर्मको स्वीकार किया था अन्यथा शास्त्र में जो अम्वडजीके लिये परिव्राजक पद दिया है वह सर्वथा असंगत ठहरेगा क्योंकि जिस समय अम्वडजीके शिष्योंने संथारा पर बैठ कर अम्बड़ ५० Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४ सद्धर्ममण्डनम् । - - जीको परिव्राजक कहा है उस समय अम्वडजीने परिव्राजक कर्मको छोड़ दिया था वे परिव्राजक धर्मका आचरण उस समय नहीं करते थे फिर उन्हें परिव्राजक ऐसा विशेषण लगा कर कहनेका कोई दूसरा कारण नहीं है। जैसे कोई गृहस्थ गृहस्थाश्रमको छोड़ कर साधु हो जाता है तो उसे साधु हो जानेपर गृहस्थ ऐसा विशेषण लगाकर नहीं कहते क्योंकि उस समय उसने गृहस्थाश्रमको छोड़कर साधुता ग्रहण कर ली है। उसी तरह अम्वडजी सन्यास धर्मको छोड़कर उस समय श्रमणोपासक हो गये थे फिर उस समय उन्हें परिव्राजक ऐसा विशेषण लगा कर बतलाना उचित नहीं हो सकता। अतः यह मानना होगा कि जिन धर्मके पूर्वोक्त महत्वको प्रकट करनेके लिये ही मूलपाठमें अम्वड जीको श्रमणोपासक नहीं कह कर परिव्राजक कह कर बतलाया है। अतः अम्बडजीके लिये परिव्राजक पदका प्रयोग होनेसे परिव्राजक धर्मके सम्बन्धसे अम्वडजीको नमस्कार करनेकी प्ररूपणा मिथ्या समझनी चाहिये ।। जिस समय श्रावक धर्मानुसार अम्वडजीके शिष्य संथारा ग्रहण कर रहे थे उस समय कुप्रावचनिक धर्मका उपकार मानकर कुप्रावचनिक धर्माचार्यको वे किस प्रकार नमस्कार कर सकते थे यह बुद्धिमानोंको विचारना चाहिये क्योंकि इस कार्गमें वही वन्दनीय पूजनीय हो सकता है जो इसका समर्थन करता हो परन्तु संथारा प्रहण करनेको बुरा बतलाने वाला कुमावचनिक धर्माचार्या संथारा ग्रहण करने वालोंको वन्दनीय और नमस्कार करने योग्य नहीं हो सकता है। इस लिये अम्वडजीके शिष्योंने बारह बन ग्रहण करानेका उपकार मान कर ही अम्वडजी को वन्दन नमस्कार किया था परिव्राजक धर्मका उपकार मानकर नहीं। तथा जिसमें ३६ गुण विद्यमान हों वही धर्माचार्य होता है यह कोई नियम नहीं है क्योंकि ठाणांग सूत्रके अन्दर कई आचार्य ऐसे भी कहे हैं जिनमें ३६ गुण नहीं पाये जाते तथापि शास्त्र उन्हें धर्माचार्या बतलाता है। ___ वह पाठ यह है "पव्वायणायरिये नाम मेगे नो उवठ्ठावणायरिए उवट्ठावणायरिए नाम मेगे नो पञ्चायणायरिए। एगे पव्वायणायरिएवि उवट्ठावणायरिए वि। एगे नोपव्यायणायरिए नो उवठ्ठावणायरिए घम्मायरिए" "चत्तारि आयरिया पन्नत्ता तंजहा उद्देसनायरिए नाम मेगे नो वायणयरिए धम्मा यरिए। चत्तारि अन्तेवासो पं० तं० पवाय Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयाधिकारः। गान्तेवासी नाम मेगेणो उवट्ठावणान्तेवासी धम्मंतेवासो। पत्तारि अन्तेवासी पं० त० उद्दसणान्तेवासी धम्मतेवासी नाम मेगे नो वायणान्तेवासी धर्मतेवासी" (ठाणांग ठाणा ४ उद्देशा ३) अर्थ: आचार्य चार प्रकारके होते हैं । जो दीक्षा देते हैं परन्तु छेदोपस्थापन चारित्र नहीं देते । वे प्रव्राजनाचार्या कहलाते हैं जो छेदोपस्थापन चारित्र देते हैं पर दीक्षा नहीं देते वे उपल्यापनाचार्या कहलाते हैं जो दीक्षा तथा छेदोपस्थापन चारित्र दोनों ही देते हैं वे उभयावाऱ्या कहलाते हैं। तथा जो दीक्षा छेदोपस्थापन चारित्र नहीं देते किन्तु धर्मोपदेश मात्र देते हैं वे धर्माचार्य कहलाते हैं। फिर दूसरी तरहसे आचार्य चार प्रकारके होते हैं। जो अङ्गों को पढ़ने योग्य बना देते हैं परन्तु पढ़ाते नहीं हैं वह उद्देशनाचार्या कहलाते हैं जो अङ्गोंको पढ़नेके योग्य नहीं बनाते परन्तु अङ्गों को पढ़ाते हैं वे वाचनाचार्या कहलाते हैं। जो पूर्वोक्त दोनों ही कार्य करते हैं वह उभयाचार्य कहलाते हैं। जो अङ्गोंको पढ़ने योग्य बनाते हैं और न अङ्गोंको पढ़ाते ही हैं किन्तु धर्मका उपदेश देते हैं वे धर्माचार्य कहलाते हैं। इसी प्रकार शिष्योंके भी चार भेद कहे हैं। जो एक आचार्यसे दीक्षा मात्र ग्रहण करता है पर उन्हींसे छेदोपस्थापन चारित्र नहीं ग्रहग करता वह प्रधाजनान्तेवासी कहलाता है। जो छेदो पस्थापन चारित्रका ग्रहण किसी एकसे करता है परन्तु दीक्षा ग्रहण नहीं करता वह उपस्थापना न्सेवासी कहलाता है जो दोनों ही एक आचार्यसे ग्रहण करता है वह उसका उभयान्तेवासी कहलाता है। जो न तो किसी एक आचार्यसे दीक्षा ग्रहण करता है और न छेदोपस्थापन चारित्र ग्राम करता है किन्तु धर्मोपदेश मात्र लेता है वह उसका धर्मान्तेवासी कहलाता है। बिभी मिष्य चार प्रकार के होते हैं। जो जिससे भोंको पढ़नेकी योग्यता प्रास करता है परन्तु भङ्गोंको उससे पढ़वा नहीं वह उसका उद्देशनान्तेषासी कहलाता है जो जिससे अङ्गोंको पढ़ता है पर उनके पढ़नेकी योग्यता दूसरेसे प्राप्त किया होता है वह उसका पानवानलेवासी कालाता है। जो दोनो ही कार्य एक ही आचार्यसे करता है वह उसका उम. बान्तेवासी कहलाता है। जो जिससे न तो अङ्गोंके पढ़नेकी योग्यता ही प्राप्त करता है और न भोको पढ़ता ही है किन्तु धर्मोपदेश मात्र लेता है वह उसका धर्मान्तेवासी कहलाता है। यहां ठाणाङ्गके मूल पाठमें जो न तो दीक्षा देता है और न छोपस्थान चारित्र देता है तथा जो न तो अङ्गोंको पढ़ने योग्य ही बनाता है और न अङ्गोंको पढ़ाता ही है किन्तु धर्मका उपदेश मात्र करता है उसे धर्माचार्य कहा है। इसलिये जो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । कोई मनुष्य धर्मोपदेश करता है वह धर्माचार्य होता है अतएव इस पाठकी टीकामें लिखा है कि "आचार्या सूत्र चतुर्थ भंगे यो न प्रत्राजनया नचोत्थापनयाचार्यः सकः इत्याह धर्माचा- इति प्रतिवोधक इत्यर्थः आहच धम्मो जेणुवइट्ठो सो धम्म गुरु गिहीव समणोवा कोवि तिहिं संपउत्तो दोहिवि एक्केवागणेव" अर्थात् आचाय्य सूत्रके चतुर्थभङ्ग में जो न दीक्षा देता है और न छोदोपस्थापन चारित्र ही देता है वह कौन है ? तो इसका उत्तर यह है कि वह धर्मका प्रतिवोध देने वाला पुरुष है। कहा भी है जिसने धर्मका उपदेश दिया है वह चाहे गृहस्थ हो या श्रमण हो वह धर्माचार्य कहलाता है। इनमें कोई तो दीक्षा, छेदोपस्थापन चारित्र और धर्म इन तीनोंके आचार्य होते हैं और कोई दो के आचाय्य होते हैं और कोई एक एक के आचार्य होते हैं। यहां टीकाकारने उक्त गाथा लिख कर स्पष्ट बतला दिया है कि जो धर्मोपदेश देता है वह चाहे श्रमण हो या गृहस्थ हो धर्माचाय्य कहलाता है अम्वडजीने अपने शिष्योंको वारह व्रत रूप धर्मका उपदेश दिया था फिर वह उनके धर्याचा- क्यों नहीं हो सकते ? अतएव मूलपाठमें अम्वडजीके शिष्योंने अम्बडजीको धर्माचार्या बतला कर उनसे बारह व्रत धारण करने की बात कही है इसलिये यह निःसंदेह सिद्ध होता है कि अम्बडजीके शिष्यों ने उन्हें लोकोत्तर धर्मका आचार्य समझ कर ही नमस्कार किया था सन्यास धर्मका उपदेशक समझ कर नहीं। बारह ब्रल धारी श्रावक कुप्रवाचनिक धर्माचार्याको राजाभियोगादि छ: कारणों के विना वन्दन नमस्कार नहीं करते जैसे कि शकडाल पुत्र पहले गोशालकका शिष्य था पश्चात् महावीर स्वामीसे बारह व्रत धारण करनेपर उसने गोशालकको वन्दन नमस्कार नहीं किया था क्योंकि ऐसा करनेसे उसके समकितमें अतिचार आता। उसी तरह अम्वडजीके शिष्योंने भी अम्वडजीको कुप्रावचनिक धर्माचार्या समझ कर बन्दन नहीं किया था क्योंकि ऐसा करनेसे उनके समकितमें अतिचार आता किन्तु उन्हें बारह प्रत रूप धर्मका उपदेशक जान कर नमस्कार किया था। अत: अम्वडजीके शिष्यों से अम्वडजीको कुप्रावचनिक धर्माचार्यके सम्बन्धसे नमस्कार करनेकी प्ररूपणा करके अपनेसे अधिक गुणवान् श्रावकको नमस्कार करनेमें पाप बतलाना अज्ञानियोंका कार्य समझना चाहिये। [बोल ४ समाप्त ] Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयाधिकारः। ३९७ (प्ररूपक) ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ५ के अन्दर पांच कारणोंसे जीवको सुलभवोधी होना कहा है। वह पाठ यह है. . "पंचहिं ठाणेहिं जीवा सुलभ वोषियत्ताए कम्मं पकरेंति । तंजहा अरिहंताणं वन्नं पद्माणे जाव विवक्तववंभचेराणं देवाणं वन्नं वदमाणे" .. (ठाणांग ठाणा ५ उद्देशा २) अर्थ: ___ अर्थात् पांच कारणोसे जीव मुलभवोधी होनेके कर्म करते हैं। जैसे कि-अरि तो को यावत् परिपक्व ब्रह्मचर्या वाले देवों को वर्ण (प्रशंसा) बोलनेसे। ____यहां जिनके ब्रह्मचर्या और तप परिपक्क हो गये हैं ऐसे देवोंके गुणानुवाद करने से भी सुलभवोधी होना कहा है परन्तु वे देवता साधु नहीं हैं फिर उनकी प्रशंसा करनेसे जीव सुलभवोधी कर्म क्यों बांधता है ? इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधुसे इतर का विनय करना भी एकान्त पाप नहीं है किन्तु सम्यग्दृष्टि पुरुषके प्रति विनय करना सुलभ वोधी होनेका कारण है । इस प्रकार जब कि सम्यग्दृष्टि पुरुषके गुणानुवाद करनेसे जीव सुलभवोधी हो जाता है तब फिर उसको सेवा भक्ति और वन्दन नमस्कार आदि शुषा विनय करनेसे पाप कैसे हो सकता है ? उससे तो और अधिक धर्म ही होगा। जिस समय तीर्थकर जन्मधारण करते हैं उस समय वह साधु नहीं होते तथापि इन्द्रादि देवता उनको अपनेसे अधिक सम्यक्त्व आदि गुणोंसे युक्त जान कर भक्तिपूर्वक वन्दना और स्तुति करते हैं परन्तु भ्रमविध्वंसनकारके हिसावसे यह वन्दना सावय ठहरती है क्योंकि वह साधुसे इतरको की जाती है लेकिन शास्त्र ऐसा नहीं कहता वह तो इस वन्दनाको कल्याणका कारण बतलाता है तथा दिक्कुमारियोंने भी अपनेसे सम्यक्त्व आदि गुणोंमें श्रेष्ठ जान कर जन्मते ती कर और उनकी माताको वन्दना नमस्कार और गुणग्राम किया है। इस दाखलेसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अपनेसे सम्यकत्व आदि गुणोंमें श्रेष्ठ पुरुषको बन्दन नमस्कार करना धर्मका ही कारण होता है भ्रमविध्वंसनकार के कथनानुसार एकान्त पाप नहीं होता अन्यथा इन्द्रादि देवता जन्मते तीर्थ कर की, और दिक्क मारी गण तीर्थङ्कर की वन्दना और स्तुति क्यों करते हैं ? अतः साधुसे इतर अपनेसे श्रेष्ठ सम्यग्दृष्टि पुरुषके प्रति शुश्रूषा विनय करनेमें पाप बतलाना अज्ञानियों का कार्य समझना चाहिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ३९८ सद्धर्ममण्डनम् । दिक्कुमारियों ने तीर्थकर और उनकी माता का गुण ग्राम किया था वह पाठ यह है " जेणेव भगवं तित्थयरे तित्थयर माया य तेणेव उवागच्छंति २ त्ता भगवं तित्थवरं तित्थयर मायरंच तिक्खुत्तो आयाहिणं पया'हिणं करेंतित्ता पत्तेयं करयल परिग्गहियं सिरलावन्तं मत्थए अंजलि क एवं वासो मोत्थुते रयण कुच्छि धारिके जगप्पईव दीविए सव्व जग मंगलस्स चक्खुणो अमुत्तस्स सव्वजगजीव वच्छलस्स हियकारग मग्गदेसिय पागिद्धि विभु भुस्स जिष्णस्स णाणिस्स नायगस्स बुहस्स वोहगस्स सच्च लोग नाहस्स निम्ममस्त पवरकुलसमु भवस्स जाईए खत्तियस्स जंसि लोगुत्तमस्स जणणी घण्णासि तं पुष्णासि कयत्थासि अम्हेणं देवापिए अहेलोगवत्थव्वाओ अट्ठदिसा कुमारी महत्तरिआओ भगवओ तित्थयरस्स जम्मण महिमं करिस्सामो तण्णं तुन्भेहिं न भोइव्वं " ( श्री जम्बूद्वीप पन्नन्ति ) अर्थ : दिक्क मारियो ने भगवान् तीर्थकर और उनकी माताके पास आकर तीन बार परिक्रमा दे कर शिरपर अंजलि बांध कर कहा कि - हे रलकुक्षिधारिये ? तुम्हारे लिये मेरा नमस्कार है। हे देवि ! संसार की सम्पूर्ण वस्तुओं को दोपकी तरह प्रकाशित करने वाले तीर्थकर देवको तुम उस्पन्न करनेवाली हो जो जगत्के सम्पूर्ण पदार्थों का यथार्थ स्वरूप दिखलाने वाले नेत्रके समान हैं जिनकी वाणी सब प्राणियोंका उपकार करने वाली सम्यग्ज्ञान, दर्शन, और चारित्र का उपदेश देने वाली, सव व्यापक तथा सबके हृदयमें प्रवेश करनेवाली है। जो तीर्थ कर देव राग द्वेपको जीतनेवाले उत्कृष्ट ज्ञानके स्वामी नायक और बुद्ध यानी सब पदार्थो के यथार्थ स्वरूप को जानने वाले हैं जो सब प्राणियों के हृदय में वोधि वोज के स्थापक और सबकी • रक्षा करने वाले और सबके वोधक हैं जो ममतारहित उत्तमकुलमें जन्मे हुए क्षत्रिय वंशधर हैं। ऐसे तीर्थंकर देवकी तू जननी है इसलिये हे देवि ! तू धन्य है पुण्यवती है और कृतार्थ है । हे देवि ! हम लोग अधोलोकमें निवास करनेवाली दिक्क मारिका हैं हम तीर्थकर देव जन्मकी महिमा करेंगी अतः आप किसी प्रकारका भय न करें । 1 यहां दिक् मारियों द्वारा तीर्थङ्कर और उनकी माताको वन्दना नमस्कार किया जाना तथा उनका गुणग्राम किया जाना कहा है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयाधिकारः। ३९९ से अधिक गुणवान् सम्यग्दृष्टिको वन्दना नमस्कार करना तथा उसका गुणानुवाद करना धर्म है पाप नहीं है तथापि भ्रमविध्वंसनकार अपनेसे श्रेष्ठ सम्यग्दृष्टिके गुणानुवाइको तो धर्म और वन्दना नमस्कार को पाप बतलाते हैं यह इनका व्यामोह है । जब कि अपने से अधिक सम्यग्दृष्टिके गुणग्राम करनेमें धर्म होता है तब फिर वंदना नमस्कार करने से पाप कैसे हो सकता है ? यह विचारना चाहिये । अतः अपनेसे श्रेष्ठ सम्यग्दृष्टि पुरुष की वंदना नमस्कार को पाप कायम करना अज्ञान का परिणाम समझना चाहिये । [बोल ५ वां समाप्त ] (प्रेरक) जन्मते तीर्थ करको इन्द्रने, तथा जन्मते तीर्थङ्कर और उनकी माता को विकु मारियोंने वंदन नमस्कार और गुगप्राम किये थे इस दाखलासे यद्यपि अपने से श्रेष्ठ सम्यग्दृष्टि पुरुषका वंदन नमस्कार करना तथा उनका गुणग्राम करना धर्म सिद्ध होता है तथापि भ्रमविध्वंसनकार इस बात को मिथ्या सिद्ध करनेके लिये भ्रम० पृ० २८४ के ऊपर जम्बूद्वीप पन्नति का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते ___“अथ इहां कहो तीर्थकर जन्म्या ते द्रव्य तीर्थङ्करने इन्द्र नमोऽत्थुणं गुणे नमस्कार करे ते पिण इन्द्रनी रीति हुन्ती ते सांचवे पिण धर्म जाणे नहीं । तीण ज्ञान सहित इन्द्र एकावतारीने पिग पर पुठे जनम्या छतां द्रव्य तीर्थङ्कर नो विनय करे नमोऽत्थुणं गुणे ते लौकिक संसारनी रोति सांचवे पिण मोक्ष हेते नहीं।" (भ्र० पृ० २८४) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) जन्मते तीर्थङ्करको वंदना नमस्कार, इन्द्र धर्म जान कर नहीं करते इसमें कोई प्रमाणं नहीं है। यदि कहो कि मूलपाठमें "जीय मेयं” ऐसा पाठ आया है और इस पाठका अर्थ यह है कि इंद्र जन्मते समय तीर्थकरको वंदना नमस्कार करना अपना पुराना आचार बतलाता है अर्थात् पुराने इंद्रोंने पुराने तीर्थंकरोंको पंदन नमस्कार किया है इसलिये वर्तमान इंद्र भी वर्तमान तीर्थकरको वंदना नमस्कार करके पुरातन रीतिका पालन करता है पर इस कार्यको वह धर्म समझ कर नहीं करता तो यह मिथ्या है क्योंकि केवल झान उत्पन्न होने पर जहां देवताओंने तीर्थंकर को वंदना नमस्कार किया है वहां भी "जीय मेयं देवा" यही पाठ पाया है। 'अर्थात् हे देवताओं ! तीर्थंकरोंको वंदन नमस्कार करना तुम्हारा पुराना आचार है।' फिर तो भ्रमविध्वंसनकारके हिसाबसे केवल ज्ञान उत्पन्न होने पर भी तीर्थकरको वंदना नमस्कार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सधर्ममण्डनम्। करना धर्म नहीं होना चाहिये क्योंकि उस समय भी पुराने आचारके अनुसार ही वंदन नमस्कार करना कहा है परन्तु यदि केवल ज्ञान होने पर तीर्थकरको वन्दना नमस्कार करना पुराने रिवाजके अनुसार किये जाने पर भी पाप नहीं है किन्तु धर्म है तो उसी तरह जन्मते तीर्थंकर को पुराने रिवाजके अनुसार किया जाने बाला इन्द्रका वन्दन नमस्कार भी पाप नहीं है किंतु धर्म है । जैसे जन्मते समय इन्द्रादि देव भगवान्की जन्म महिमा करनेके लिये आते हैं उसी तरह केवल ज्ञान उत्पन्न होने पर भी केवल ज्ञानकी महिमा करने के लिये भगवान के पास वे आते हैं । शास्त्र के अन्दर जन्म महिमाके पाठका संकोच करके पांचों कल्याणोंका पाठ आया है अतः सभी पाठोंमें जन्म महिमाके पाठके समान ही "जिय मेयं" यह पाठ समझना चाहिये । तथा लोकान्तिक देवता जहां तीर्थकर को प्रतिवोध देनेके लिये आते हैं वहां भी पूर्व पाठका सङ्कोच करके "जिय मेयं" यह पाठ आया है। इस लिये जो लोग "जिय मेय" ऐसा पाठ आनेसे जन्मते तीर्थंकर को इन्द्र का वन्दन नमस्कार किया जाना पाप बतलाते हैं उनके हिसाबसे पांचो कल्याणोंके समय जो देवता भगवान को वन्दन नमस्कार करते हैं उन सभीको पाप ही कहना चाहिये तथा लोकान्तिक देवता पुराने रिवाजके अनुसार जो तीर्थकर देवको प्रतिवोध देते हैं वह भी पाप ही कहना चाहिये। जहां लोकान्तिक देवता तीर्थकरको प्रतिवोध देनेके लिये आये हैं वहांका पाठ यह है "तरोणं तेसिं लोगतियाणं देवाणं पत्तेयं २ आसणाई चलंति । तहेवजाव अरहताणं निक्खममाणं संवोहणं करेत्तएत्ति तंगच्छामोणं अम्हेऽवि मल्लिस्स अरहतो संवोहणं करेमित्ति कटु एवं संपेहेंति २ उत्तर पुरच्छिमं दिसिभायं वेउब्धिय समुग्घाएणं समोहणंति २संखिजाई जोयणाई एवं जहा जंभगा जाव जेणेव मिहिला रायहाणी जेणेव कुम्भगस्स रणो भवणे जेणेव मल्ली अरहा तेणेव उवागच्छति २ अतलिक्खपडिवन्ना सखिंखिणिआई जाववत्थाति पव रपरिहिया करयल ताहि इठा एवं वयासी बुज्झाहि भगवं लोग नाहा पवत्तेहि धम्मतित्थं जीवाणं हिय सुख निस्सेयसकरं भविस्ततोत्ति का दोचपि तचं पि एवं वयंति २ मल्लिं अरह वंदति नर्मसंति २ जामेव दिसं पाउभुया तामेव दिसिं पड़ि गया।" . . . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयाधिकारः। ४०१ इस पाठमें जाव शब्दसे जिस पूर्व पाठका संकोच किया गया है। वह पाठ यह है __"तएणं लोगंतिया देवता आसणाई चलिताईपासंति पासंतित्ता ओहि पाउजंति २ मल्लिं अरहं ओहिणा आभोऐति २। इमेयाख्वे अज्जत्थिए जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु जम्बू द्वीवे दीवे भारए वासे मिथिलाए कुम्भगस्त मल्ली अरहा निक्खमिस्सामीत्ति मनं पहारेंति तंजीयमेयं तोय पच्चपन्न मणागयाणं लोगंतियाणं" इस पाठमें “जीयमेय" यह वाक्य आया है और पूर्व लिखित पाठमें जाव शब्द से इसी पाठका संकोच किया है। इस लिये उस पाठमें भी "जीय मेय" इस वाक्यका सद्भाव है । ऐसी दशामें लोकान्तिक देवताओंने जित आचारके अनुसार जो मल्लिनाथ जीको प्रतिबोध दिया है उसे भी भ्रम० कारके हिसाबसे सावद्य ही कहना चाहिये। यदि "मीयमेयं" इस पाठके होनेपर भी प्रतिवोध देना सावद्य नहीं है तो जित आचारके अनुसार जन्मते तीर्थंकरको इन्द्रका वन्दन नमस्कार भी सावय नहीं है। अब उक्त पाठ का पाठकोंके ज्ञानार्थ अर्थ किया जाता हैअर्थ : इसके अनन्तर लोकान्तिक देवताओंके प्रत्येकके आसन डोलने लगे । यह देखकर देवताओंने अवधि ज्ञानका प्रयोग करके अरिहत मल्लिनाथजीको समझा। पश्चात् उनके मनमें यह निश्रय उत्पन्न हुआ कि जम्बू द्वीपके भारतवर्षमें मिथिला नगरीके राजा कुम्भककी पुत्री भगवान मल्लिनाथजी दीक्षा लेनेका विचार कर रहे हैं । अतः भूत भविष्यत और वर्तमान कालका हमारा गित आचार है कि तीर्थकरोंके पास जाकर हम उनको प्रतिबोध देते हैं । इस आचारके अनुसार भगवान मल्लिनाथजीके पास भी जाना चाहिये । यह सोचकर लोकान्तिक देवताओंने ईशान कोण में जाकर वैक्रिय समुद्घात किया । और संख्यात योजना दण्ड निकाल कर उत्तर वैक्रिय शरीर. बनाया । उसे बनाकर वे देवता जम्वक देवोंकी तरह मिथिला नगरीके कुम्मक राजाके मकानपर भगवान मलिनाथजीके पास आये। वर्हा आकाशमें स्थित घृधूरू बजाते हुए उत्तम वस्त्र पहने हुये हाथ जोडकर मधुर वचनोंसे कहने लगे कि हे भगवन् ! हे लोकनाथ ! प्रतिवोध प्राप्त करो और धर्म तीर्थकी प्रवृत्ति करो जिसमें जीवोंको हित सुख और निःश्रेयसकी प्राप्ति हो। इसी प्रकार दो तीन बार कहकर और धन्दना नमस्कार करके लोकान्तिक देवता जहांसे आये थे वहीं वापस चले गये। यहां भी जित आचारके अनुसार ही लोकान्तिक देवताओंका मल्लिनाथ भगवाचको प्रतिवोध देना कहा है । फिर इसे भी भ्रमविध्वंसन कारको सावध ही समझना चाहिये। ५१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । ___ यदि कहो कि भगवान्के जन्म समयमें देवता लोग बहुतसा आरंभ समारंभ भी करते हैं वह जैसे सावध है उसी तरह उस समयका वन्दन नमस्कार भी सावध है तो फिर केवल ज्ञान होने पर भी भगवान्को वन्दना नमस्कारार्थ देवता लोग आते हैं और मारंभ समारंभ करते हैं फिर उस आरंभ समारंभकी तरह उस समयका वन्दना नमस्कार सावध क्यों नहीं माना जाता ? अतः जैसे केवल ज्ञान होने पर देवता लोगोंके गमना गमन आदि रूप क्रियाके सावध होने पर भी भगवान्का वन्दना नमस्कार सावध नहीं होता उसी तरह जन्मोत्सवमें भी आरंभ समारंभके सावध होने पर भी भगवानको वन्दन नमस्कार करना सावध नहीं होता किन्तु धर्म होता है इस प्रकार शास्त्रीय प्रमाणसे अपनेसे अधिक गुणवान सम्यग्दृष्टि का शुश्रूषा विनय करना धर्म सिद्ध होता है पाप नहीं । अतः साधुके सिवाय दूसरोंके विनयको सावध कहना एकान्त मिथ्या समझना चाहिये। बोल ६ समाप्त (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २८१ के ऊपर लिखते हैं कि "इहां चक्र अपनो सुण्यो तिहां भरतजी इसो विनय कीधो पछे चक्र कने आवी पूजा कीधी । ते संसाररी रीते पिण धर्म हेते नहीं। तिम अम्वडने चेलां पिण आपरो निज गुरु जाण गुरुनो रीति सांचवी पिण धर्म न जाण्यो" इत्यादि। (भ्र०पृ०२८१) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भरतने जो चक्रकी पूजा की थी उसका दृष्टान्त अम्वडजीके साथ देना अज्ञान है क्योंकि चक्र तो प्रत्यक्ष ही स्थावर एकेन्द्रिय और मिथ्यात्वी है। उसकी पूजा करना मिथ्यात्वीकी पूजा करना है जो सम्यग्दृष्टिके लिये धर्मका कारण नहीं है अपितु उसके प्रतका अतिचार है। परन्तु अम्वडजी बारह व्रत धारी श्रावक और सम्यग्दृष्टि थे। उनको वन्दना नमस्कार करना सम्यग्दृष्टिको वन्दना नमस्कार करना है । अतः वह चक्र पूजाकी तरह लौकिक रीतिके पालनार्थ नहीं है किन्तु धर्मार्थ है। अत: चक्र पूजाका दृष्टान्त देकर अम्वडजीके वन्दन नमस्कारको सावध बतलाना अज्ञान है। (प्रेरक) श्रावककी सेवा भक्ति करनेसे क्या फल मिलता है। यह सप्रमाण बतलाइये ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयाधिकारः। (प्ररूपक) भगवती सूत्र शतक २ उद्देशा ५ में श्रावककी सेवा भक्ति करनेका शास श्रवणसे लेकर मोक्ष पर्यन्त फल बतलाया है। वह पाठ यह है "तहा रूवेणं भन्ते ! समणंवा माहनंवा पज्जुवासमाणस्स कि फला पज्जुपासणा ? गोयमा ! सवणफला सेणं भन्ते ! सवणे किं फले । णोणफले, सेणं भन्ते । णाणे किंफले विण्णाणफले । सेणं भन्ते विण्णाणे कि फले पञ्चक्खाण फले। सेणं भन्ते ! पञ्चक्खाणे किं फले, संजम फले । सेणं भन्ते ! संजमे किं फले, अणहणय फले। एवं अणण्हए तव फले तवे वोदारण फले वोदारणे अकिरियाफले। सेणं भन्ते! अकिरिया किं फला सिद्धिपनवसाणफला पण्णेत्ता गोयमा" (भ० श० २ उ०५) अर्थ : हे भगवन् तथा रूपके श्रमण और माहनकी सेवा करनेसे क्या फल होता है ? (उत्तर। हे गोतम ! शास्त्रका (धर्मका ) श्रवण फल होता है। (प्रश्न ) हे भगवन् ! शास्त्रके श्रवणसे क्या फल होता है । (उत्तर) हे गोतम ! शास्त्रीय सिद्धान्तका ज्ञान प्राप्त होता है। (प्रश्न) , ज्ञानसे क्या फल मिलता है ? (उत्तर) ज्ञानसे त्यागने योग्य और स्वीकार करने योग्य वस्तुका विवेक (विज्ञान) फल प्राप्त होता है। ( प्रश्न ) विज्ञानका क्या फल होता है ? (उत्तर) विज्ञामसे पापोंका प्रत्याख्यान होता है । ( प्रश्न ) पापोंके प्रत्याख्यानसे क्या फल होता है? (उत्तर) पापोंके प्रत्याख्यान करनेसे संयमकी प्राप्ति होती है । ( प्रश्न ) संयमका क्या फल होता है ? (उत्तर) संघमसे आश्रवका निरोध होता है। (प्रश्न) आश्रय निरोधसे क्या फल होता है। (उत्तर) आश्रवके निरोधसे तप रूप फल होता है। (प्रश्व) तपसे क्या फल मिलता है? (उत्तर) तपसे कर्मों की निर्जरा होती है। (प्रश्न ) निर्जराका क्या फल है ? ( उत्तर) मिर्जश से योगोंका निरोध होता है। ( प्रश्न ) योग निरोधका क्या फल है ? (उत्तर) योग निरोधसे सब फलोंका अन्त स्वरूप मोक्ष प्राप्त होता है। इस पाठमें तथा रूपके श्रमण और माहनकी सेवा भक्ति करनेसे धर्म श्रवणसे लेकर मोक्ष पर्यन्त फल मिलना कहा है और इस पाठकी टीकामें स्पष्ट लिखा है कि श्रमण नाम साधुका और माहन नाम श्रावकका है । वह टीका यह है "श्रमणः साधुर्माहनः पावकः" । अतः इस पाठसे श्रावककी सेवा भक्ति करमा धर्म सिद्ध होता है। अतः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ सद्धर्ममण्डनम् । जो श्रावककी सेवा भक्ति और वन्दन नमस्कार करनेसे एकान्त पाप बतलाते हैं उन्हें उत्सूत्रवादी समझना चाहिये। यदि कोई कहे कि भगवती सूत्रके इस पाठमें जो श्रमण और माहन शब्द आये हैं वे एक साधुके ही बोधक हैं माहन शब्दका श्रावक अर्थ नहीं है तो यह बात प्रथम तो उक्त टीकासे ही विरुद्ध है क्योंकि उक्त टीकामें माहन शब्दका स्पष्ट श्रावक अर्थ लिखा है। दूसरा अन्य तीर्थयोंके लिये भी श्रमण, माहन, शब्द आये हैं उनका अर्थ एक साधु ही नहीं किया है किन्तु श्रमण शब्दका अर्थ शाक्यादि और माहन शब्दका ब्राह्मण अर्थ किया है। इस प्रकार जैसे अन्य तीर्थियोंके विषयमें कहे हुप श्रमण और माहन शब्दका भिन्न भिन्न ही अर्थ है उसी तरह स्वती के लिये आये हुए श्रमण और माइन शब्दका भी भिन्न भिन्न ही अर्थ है पर एक साधु ही नहीं। जैसे कि सुयगडांग सूत्रके दूसरे श्रुतस्कन्धके दूसरे अध्ययनमें यह पाठ आया है "तत्थणं जेते समणा माहना एव माइक्खंति जाव परुवे ति सव्वे पाणा जाव सव्वे सत्ता हन्तव्या" अर्थ : ___ जो श्रमण माहन यह प्ररूपणा करते हैं कि सब प्राणियोंका वध करना धर्म है वे परमार्थ को नहीं जानते। यहां अन्य तीर्थीके लिये श्रमण और माह्न शब्दका प्रयोग हुआ है। इनका अर्थ टीकाकारने भिन्न भिन्न ही किया है। अर्थात् श्रमण शब्दका शाक्यादि और माहन शब्दका ब्राह्मण अर्थ क्रिया है और इस बातको भ्रमविध्वंसनकारने भी स्वीकार किया है । जैसे कि भ्रम० पृ० २९४ पर लिखा है कि “तिम अन्य तीर्थीमें श्रमण शाक्यादि माहन ते ब्राह्मण, ए अन्यतीर्थीना श्रमण माहन कह्या" अतः जैसे इस पाठमें श्रमण माहन शब्दका एक साधु ही अर्थ न होकर भिन्न भिन्न अर्थ होता है उसी तरह भगवती सूत्र शतक २ उद्देशा ५ के पूर्व लिखित मूल पाठमें भी श्रमण शब्दका साधु और माहन शब्दका श्रावक अर्थ ही समझना चाहिये परन्तु एक साधु ही नहीं। अतएव टीकाकारने वहां टीकामें साफ लिख दिया है कि "श्रमणः साधुर्माहनः श्रावकः" अतः पर तीर्थी के विषयमें आये हुए श्रमण माहन शब्दका भिन्न भिन्न अर्थ मान कर भी स्वती के लिये आये हुए श्रमण माहन शब्दोंका भिन्न भिन्न अर्थ नहीं मानना एक मात्र हठवाद और टीका तथा मूल पाठसे भी विरुद्ध समझना चाहिये। (बोल ७ वां समाप्त) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयाधिकारः । इसका क्या समाधान ? ( प्रेरक ) पर तीर्थी धर्मोपशक दो होते हैं। एक श्रमण शाक्यादि और दूसरा ब्राह्मण | इस लिये पर तीर्थी धर्मोपदेशक के लिये आये हुए श्रमण और माहन शब्दका भिन्न २ अर्थ होना ठीक ही है परन्तु स्वतीर्थी धर्मोपदेशक एक मात्र साधु ही होते हैं श्रावक नहीं होते । इस लिये स्वतीर्थी धर्मोपदेशकके विषय में जो श्रमण और माहन शब्द आये हैं उनका एक साधु ही अर्थ होना चाहिये परन्तु श्रमण शब्दका अर्थ साधु और माहन का अर्थ श्रावक न होना चाहिये । ४०५ ( प्ररूपक ) परतीर्थी धर्मोपदेशककी तरह स्वतीर्थी धर्मोपदेशक भी दो ही होते हैं । एक साधु और दूसरा श्रावक इस लिये परतीर्थी धर्मोपदेशकके पाठकी तरह स्वतीर्थी धर्मोपदेशकके पाठ में भी श्रमण शब्दका साधु और माहन शब्दका श्रावक, इस प्रकार भिन्न भिन्न अर्थ ही करना चाहिये एक साधु नहीं। यहां कोई यह पूछे कि 'श्रावक भी धर्मोपदेश करता है ऐसा पाठ कहां आया है' तो उसका उत्तर यह है कि सुयगडांग सूत्र श्रुत० २ अध्ययन दूसरे तथा उवाई सूत्रके २० वें प्रश्नमें श्रावकको भी धर्मोपदेशक कहा है । वह पाठ यह है "अहावरेतचस्प ठाणस्स मीसगस्स विभंगे एव माहिज्जइइहखलु पाईणंवा ४ संते गतिया मणुस्सा भवंति तंजहाअप्पिच्छा अप्पारंभा अप्प परिग्गहा धम्मिया धम्माणया धम्मिट्ठा धम्मक्खायी धम्मप्पलोइया धम्म पलज्जणा धम्म समुदायारा धम्मेणंचेव वित्तिं कप्पेमाणाविहरंति सुसीला सुव्वया सुप्पडियाणंदा साहू " अर्थ: ( सुय० श्रु० २ अ० २ ) तीसरा स्थान मिश्र संज्ञक है उसका विभंग कहा जाता है। इस जगतके अन्दर पूर्वादि दिशाओं में रहने वाले कोई कोई मनुष्य शुभ कर्म करने वाले होते हैं तथा अल्प इच्छा रखने वाले अल्पारंभी, अल्प परिग्रही, धार्मिक, श्रुत और चारित्र धर्मके पीछे चलने वाले भ्रष्ट और चारित्र रूप धर्म जिनको बहुत प्रिय है ) धर्माख्यायी यानी भव्य जीवोंके समक्ष धर्म का प्रतिपादन ( उपदेश ) करने वाले साधुओंके पास धर्मका अन्वेषण करने वाले अथवा धर्मको उपादेय समझने वाले, धर्ममें प्रेम रखने वाले, हर्षके साथ धर्माचरण करने वाले तथा हर्षके साथ जीविका करने वाले, सुन्दर स्वभाष वाले, सुव्रती और आनन्दमें मग्न रहने वाले साधुके सश होते हैं । श्रुत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । इस पाठमें श्रावकको धर्माख्यायी कहकर बतलाया है। धर्माख्यायो उसे कहते हैं जो धर्मका उपदेश देता है जैसे कि इस शब्दका अर्थ टीकाकारने इस प्रकार किया है। धर्म माख्याति भव्यानां प्रतिपादयति इति धर्माख्यायी" अर्थात् भव्य लोगोंके समक्ष जो धर्मका प्रतिपादन करता है वह धर्माख्यायी कहा जाता है । इस प्रकार इस पाठसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि श्रावक भी धर्मका उपदेश करता है अतः परतीर्थी धर्मोपदेशककी तरह स्वतीथों धर्मोपदेशक भी दो तरहके होते हैं अत: भगवतीके उक्त पाठमें भी श्रमण शब्दका साधु और माहन शब्दका श्रावक अर्थ समझना चाहिये परन्तु दोनोंका एक साधु ही अर्थ नहीं। अतः माहन शब्दका साधु ही अर्थ करना हठवादियों का काम समझना चाहिये। .. [बोल ८ वां समाप्त ] (प्रेरक) किसी श्रावकने धर्मोपदेश देकर यदि किसीको धार्मिक बनाया हो तो बतलाइये । (प्ररूपक) __प्रथम तो अम्वडजीने ही अपने ५०० शिष्योंको उपदेश देकर बारह व्रत धारण कराये थे यह बात खुद भ्रमविध्वंसनकारने भी लिखी है। दूसरी बात यह है कि सुवुद्धि प्रधानने जित शत्रु राजाको धर्मोपदेश देकर बारह व्रतधारी श्रावक बनाया था। वह पाठ यह है "तत्तेणं सुवुद्धी जितसत्तुस्स विचित्तं केवलिपन्नत्तं चाउजामं धम्म परिकहेइ । तमाइक्खति जहाजोवा वुझंति जाव पंच अणुव्वयाति । तत्तेणं जित सत्तु सुवुद्धिस्स अंतिए धम्मं सोचाणिसम्म हह सुवुद्धि अमचं एवं वयासो-सद्दहामिणं देवाणुप्पिया ! जिग्गंधे पावयणं ३ जाव से गहेयं तुम्भे वयह । तं इच्छामिणं तव अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्तसिक्खावयं जाव उवसंपजित्ताणं विहरित्तए । अहा सुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिवंधं करेह । तएणं से जितसत्तू सुवुद्धिस्स अमच्चस्स अंतिए पंचाणुव्वयं जाव दुवालसविहं सावधम्म पडिवजह । तत्रोणं जित सत्तू समणोवासए अभिगयजीवा जीवे जाव पडिलभमाणे विहरई" (ज्ञाता अध्ययन १२) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयाधिकारः । ४०७ अर्थ: इसके अनन्तर बुद्धि प्रधान ने जित शत्रु राजासे केवलिसे कहा हुआ चार महाव्रत arr विचित्र धर्म कहा और इस प्रकार राजाको समझाया जिससे जीव प्रतिषोध प्राप्त करके आराधक बन जाते हैं। तथा पांच अनुव्रत रूप श्रावक धर्मका भी सविस्तर उपदेश किया । इसके अनन्तर जिस शत्रु, राजाने सुबुद्धि प्रधानसे कहा कि हे देवानुप्रिय ! मैं निर्ग्रथ पूर्वचनमें श्रद्धा धारण करता हूं और तुम्हारे उपदेशानुसार श्रावकोंके बारह व्रतोंको तुमसे ग्रहण कर रहना चाहता हूं। यह सुन कर सुबुद्धि पूजानने कहा कि हे देवानुप्रिय ! सुखके साथ यह कार्य्यं करो बिलम्ब करनेकी आवश्यकता नहीं है । तदनन्तर जित शत्रु राजाने सुबुद्धि प्रधानसे बारह प्रकारके श्राचकोंके व्रत ग्रहण किये और वह श्रमणोपासक होकर जीव तथा अजीवको जानकर यावत् साधुओंको दान देता हुआ विचरने लगा । यहां सुबुद्धि प्रधानके उपदेशसे जित शत्रु राजाका बारह व्रत धारण करना स्पष्ट रूपसे कहा गया है । यह श्रावकों के धर्मोपदेशक होनेका मूल सूत्रोक्त उदाहरण है । इस लिये स्वतीर्थी धर्मोपदेशक भी साधु और श्रावक दोनों ही होते हैं तथापि भ्रमविध्वंसन कार जो स्वतीर्थी धर्मोपदेशक एक साधुको ही बतलाते हैं श्रावकको निषेध करते हैं यह इनका अज्ञान समझना चाहिये अतः भगवती सूत्र शतक २ उ० ५ के मूलपाठमें जो श्रमण और माहनकी सेवा भक्ति करनेसे शास्त्र श्रवणसे लेकर मोक्ष पर्य्यन्त फल मिलना कहा है उसके अनुसार श्रावककी सेवा भक्ति भी मोक्ष फल देने वाली सिद्ध होती है इसीलिये श्रावककी सेवा भक्तिको एकान्त पाप कहना मिथ्या समझना चाहिये । ( बोल ९ वां समाप्त ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २९६ के ऊपर लिखते हैं कि “अने किणही ठाटीका महणना अर्थ प्रथम तो साधु इज कियो । अने बीजो अर्थ अथवा श्रावक इम कियो छै । पिण मूल अर्थ तो श्रमण माहन नो साधु इज कियो" । इसका क्या समाधान ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ( प्ररूपक ) टीकाकारने पहले श्रमण और माहन शब्दका साधु ही अर्थ किया है और पीछे अथवा कह कर श्रावक अर्थ किया है यह बात मिथ्या है भगवती सूत्र शतक १ उद्देशा ७की टीकामें पहले ही टीकाकारने माहन शब्दका श्रावक अर्थ किया है। वह टीका यह है । “माहण” – त्ति माहनेत्येवमादिशति स्वयं स्थूलप्राणातिपातादिनिवृतत्वायः समाहनः ।" www.umaragyanbhandar.com Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धममण्डनम् ___ अर्थात् जो पुरुष स्थूल प्राणातिपात आदिसे निवृत्त होकर दूसरे को भी नहीं मारने का उपदेश करता है वह माहन कहलाता है। यहां टीकाकारने पहले ही पहल माहन शब्दका श्रावक अर्था किया है। दूसरी बात यह है कि इस टीकाके आगे भगवती शतक २ उद्देशा ५ के अन्दर जो टीका आई है उसमें भी पहले पहल माहन शब्द का अर्थ साधु नहीं किया है । देखिये वह टीका यह है । "वथा रूपं मुचित स्वभावं कञ्चन पुरुषं श्रमणं वा तयोयुक्त मुपलक्षणत्वा दस्योसर गुणवन्त मित्यर्थः। माहनंवा स्वयं हनन निवृत्तत्वात्परंप्रतिमाहनेतिवादिनम् उपलक्षणत्वा देव मूल गुण युक्त मित्यर्थः । वाशब्दौ समुच्चये। अथवा श्रमणः साधुर्माहनः श्रावकः” अर्थात् जो कोई पुरुष उचित स्वभाव वाला तपस्यासे युक्त यानी उत्तर गुणसे युक्त हो वह श्रमण कहलाता है और जो स्वयं हिंसासे निवृत्त होकर दूसरेको नहीं मारनेका उपदेश देने वाला, यानी मूल गुगसे युक्त हो वह "माहन" कहलाता है। अथवा श्रमण नाम साधुका और माहन नाम श्रावकका है। यहां टीकाकारने पहले पहल श्रमण शब्दका । उत्तर गुण युक्त" और माहन शब्द का "मूलगुण युक्त" अर्थ किया है । मूल गुण और उत्तर गुण साधु और श्रावक दोनों के होते हैं केवल सांधुके ही नहीं इस लिये पहले अर्थ में श्रमण और माहन शब्दसे मूल गुण और उत्तर गुणसे युक्त साधु और श्रावक दोनों ही का ग्रहण होता है केवल साधुका ही नहीं। दूसरे अर्थमें तो टीकाकारने साफ साफ खोलकर लिख दिया है कि "श्रमण नाम साधुका और माहन नाम श्रावकका है।" अत: उक्त टीकाका नाम लेकर माहन शब्दका श्रावक अर्थ होनेमें टीकाकारको अरुचि बताना अज्ञानका परिणाम है। (बोल १० वां समाप्त ) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २८७ के ऊपर भगवती सूत्र शतक १५ वें का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि "अथ अठे सुनक्षत्र सर्वानुभूति मुनि गोशालाने कह्यो । हे गोशाला ! जे तथारूप श्रमण माहन कने एक वचन सीखे तेहने पिण वाद नमस्कार करे कल्याणिक मांगलिक देवयं चेइयं जाणीने घणी सेवा करे। इहां श्रमण माहन कने सीखे तेहने वन्दना नमस्कार करणी कही। पिण श्रमणोपासकने सीखे तेहने वंदना नमस्कार करणी इम न कह्यो । श्रमण माहननी सेवा कही पिण श्रमणोपासकरी सेवा न कही। एतो प्रत्यक्ष Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयाधिकारः। श्रावकने टाल दियो । अने श्रमण माहनने वंदना नमस्कार करणो कह्यो ते मांटे श्रावक ने नमस्कार करे ते कार्या माज्ञा वाहिरे छै । (भ्र. पृ० २८७) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भगवती सूत्र शतक १५ । के मूलपाठका प्रमाण देकर यह कहना कि "श्रावकसे सीखे, पर उसको वंदना नमस्कार नहीं करे" एकान्त मिथ्या है। उक्त पाठमें साधु और श्रावक इन दोनोंसे सीखना, और दोनोंको ही वंदन नमस्कार करना कहा है श्रावकको नमस्कार करनेका निषेध नहीं किया है। इस पाठमें भगवती शतक २ उद्देशा ५ के पाठके समान ही श्रमण और माहनसे सीखना तथा उनको वंदना नमस्कार करना कहा है । इसलिये यहां भी पूर्ववत ही श्रमण शब्दका साधु और माहन शब्दका श्रावक अर्थ है। भगवतीके इस पाठसे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधु और श्रावक इन दोनों ही से सीखे और दोनों ही को वंदन नमस्कार करे तथा यह बात साधारण मनुष्य भी समझ सकता है कि जब श्रावकसे सीखना मना नहीं है तब फिर उस को वंदन नमस्कार करना मना कैसे हो सकता है ? परन्तु भ्रमविध्वंसनकार जो श्रावकसे सीखने का निषेध न करते हुए भी उसको वंदन नमस्कार करनेका निषेध करते हैं यह एकमात्र इनका हठवाद और जनतामें कृतघ्नताका प्रचार करना है क्योंकि श्रावक से सीख कर उससे अपना कार्य तो करा लेना पर उसको वंदन नमस्कार नहीं करना इससे बढ़ कर कृतघ्नता और क्या हो सकती है ?। अतः श्रावकसे धर्म सीख कर भी उसको वंदन नमस्कार नहीं करनेकी प्ररूपणा एकांत मिथ्या और शास्त्र विरुद्ध है। यदि कोई कहे कि “इस पाठमें श्रमण माहनका विशेषण "कल्याणं मंगलं देवयं चेइयं" यह आया है। और यह विशेषण श्रावक आदि किसी दूसरे में न आकर एकमात्र साधु और तीर्थंकरों में ही आता है इसलिये यहां माहन शब्दका श्रावक अर्थ नहीं है किन्तु साधु ही है तो यह मिथ्या है। उवाई सूत्रके मूलपाठमें पूर्ण भद्र नामक यक्षके लिये भी "कल्याणं मङ्गलं देवयं चेइयं" ये विशेषण माप है। वह पाठ यह है- . "बहुजणस्स आहुस्सणिज्जे पाहुणिज्जे अच्चणिज्जे वंदणिज्जे नमसणिज्जे पूमणिज्जे सकारणिज्जे सम्माणणिज्जे कल्लाणे मंगलं देवयं चेइयं विणएण पज्जुवासणिज्जे" (उवाई सूत्र) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० सद्धर्ममण्डनम् । यह पाठ पूर्ण भद्र नामक यक्षके लिये आया है। इसमें पूर्ण भद्र नामक यक्षके लिये "कल्याणं मङ्गल देवयं चेझ्यंयह विशेषण आया है। इसलिये ये विशेषण साधु और तीर्थंकरों के लिये ही आते हों यह नियम नहीं है इसलिये इन विशेषणोंका नाम ले कर भगवतीके १५ वें शतकके मूलपाठमें माहन शब्दका श्रावक अर्थ होने का निषेध करना अज्ञानमूलक समझना चाहिये। (बोल ११ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार उत्ताध्ययन सूत्रकी बहुतसी गाथाओं को लिख कर उन की साक्षीसे माहन शब्दका एक मात्र साधु ही अर्थ होना बतलाते हैं श्रावक नहीं। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) उत्तराध्ययन सूत्रकी गाथाओंमें जो "माहन" या ब्राह्मणका लक्षण लिखा है वह लक्षण केवल साधुमें ही मिलता हो श्रावकमें न मिले यह बात नहीं है । जैसे कि उत्तगध्ययन सूत्रमें माहन (ब्राह्मण ) का लक्षण यह लिखा है "समयाए समणो होई । वंभचेरेण वंभणो। नाणेणय मुणि होई। तवेणं होई तावसो" (उत्तराध्ययन सूत्र) अर्थ : __अर्थात् सब जीवोंमें समता रखनेसे श्रमण होता है और ब्रह्मचर्य धारण करनेसे ब्राह्मण (माहन) होता है । तथा ज्ञानसे मुनि और तपस्या करनेसे तापस होता है। यहां ब्रह्मचर्या धारण करनेसे ब्राह्मण (माहन) होना कहा है और श्रावक भी प्रक्षचा धारण करते हैं जैसे कि अम्वडजी और उनके शिष्य, श्रावक हो कर भी पूर्ण ब्रह्मचारी थे। तथा दूसरे श्रावक भी देशसे ब्रह्मचर्य को धारण करते हैं इस लिये इस गाथामें कहा हुआ माहन (ब्राह्मग ) का लक्षण श्रावकमें भी मौजूद है । अतः उत्तराध्ययन सूत्रकी गाथाओंका दाखला देकर एकमात्र साधुको ही माहन कहना और श्रावकको माहन होनेका निषेध करना अज्ञान समन चाहिये । (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २७७ के ऊपर लिखते हैं कि "इम जो धर्माचार्य हुवे तो पुत्रकने पिता श्रावकरा व्रतधारे तो तिणरे लेखे पुत्रने धर्माचार्य कही जै इम हिज स्त्री कने भार श्रावकना व्रत धारे तो तिणरे लेखे Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विनयाधिकारः। ४११ - स्त्रीने पिण धर्माचार्य कही जै। तथा सासू बहुकने व्रत आदरे तथा सेठ गुमास्ताकने व्रत आदरे तो तिणने पिण धर्माचार्य कहिजे".अने जिणपासे धर्म सीखा तिणने पंदना करणी कहे तिणरे लेखो पाछे कह्या ते सवने वन्दना नमस्कार करणी" (भ्र० पृ० २७७) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) ठाणाङ्ग सूत्रके छठे ठाणेमें कहा है कि पुरुष, कारणवश साध्वीसे दीक्षा ग्रहण कर सकता है पर वह दीक्षा ग्रहण करके साध्वीको वन्दन नमस्कार नहीं करता क्योंकि साध्वीको वन्दन नमस्कार करना साधुके कल्पसे विरुद्ध है उसी तरह पिता पुत्र से श्वश्रू पुत्रवधू से, और सेठ गुमास्तासे धर्मोपदेश ले सकते हैं पर लोक विरुद्ध होनेसे पिता पुत्र को श्वश्रू पुत्र वधूको और सेठ गुमास्तेको वन्दन नमस्कार नहीं करते किंतु जिस धर्मोपदेशक श्रावकको वंदन नमस्कार करनेसे कोई लोकाचारका विरोध नहीं होता उसको वन्दन नमस्कार करनेमें कोई दोष नहीं है किंतु धर्म है अतः धर्मोपदेशक पुत्र, वधू, और गुमास्ताको पिता, श्वश्रू, और सेठ नमस्कार नहीं करते यह दृष्टान्त देकर सभी धर्मोपदेशक श्रावकको वन्दन नमस्कार करने का निषेध करना मिथ्या समझना चाहिये। (बोल १२ वां समाप्त) ( इति विनयाधिकारः ) DIAN Nि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ पुण्याधिकारः। --* ---- (प्ररक) पुण्य किसे कहते हैं, और उसके कितने भेद हैं । (प्ररूपक) "पुनाति पवित्री करोत्यात्मान मिति पुण्यम् । अर्थात् जो आत्माको पवित्र करता है उसे पुण्य कहते हैं । वह नव प्रकारका कहा । जैसे कि ठाणाङ्ग सुत्रके नवम ठाणामें यह पाठ आया है "नवविहे पुणे पन्नत्ते तंजहा-अन्न पुण्णे, पाण पुण्णे, वत्थ पुष्णे, लेण पुण्णे, सयण पुण्णे, मण पुण्णे, वय पुण्णे, काय पुण्णे, नमोकार पुण्णे" अर्थः (ठाडाङ्ग ठाणा सूत्र) पुण्य नौ प्रकारका होता है। जैसे कि अन्न दान देना, जल दान देना, वस्त्र देना, मकान देना; शव्या आसनादि देना, गुणी पुरुषों में मन को तुष्ट रखना, वचन से प्रशंसा करना, शरीर से उन की सेवा काना, और श्रेष्ठ जनको नमस्कार करना। इस पाठका अर्थ करते हुए टीकाकार तथा टव्वाकारने लिखा है कि पात्रको अन्नादि दान देनेसे तीर्थकर नाम गोत्रादि विशिष्ठ पुण्य प्रकृति बंधती है और साधुसे इतरको दान देनेसे दूसरी पुण्य प्रकृति बंधती है इसलिये साधु और उससे इतर पुरुषको दान आदि देनेसे उक्त नव प्रकारका पुण्य होना समझना चाहिये ।। इन पुण्योंके फल ४२ प्रकारके होते हैं। वे भी कार्य और कारण के अमेद से पुण्य ही कहलाते हैं। इस प्रकार पुण्य नाम शुभ करणी का भी है और पुण्यफार्मका भी है। (प्रेरक) पुण्य आदरने योग्य है अथवा त्यागने योग्य है ? (प्ररूपक) ठाणाङ्ग सुत्रके प्रथम ठाणेकी टीकामें पुण्यके दो भेद किये हैं। एक पुण्यानुवंधी पुण्य, और दूसरा पापानुवन्धी पुण्य । उनमें पुण्यानुवन्धी पुण्य तो साधन दशामें मादरने योग्य है और पापानुबंधी पुण्य त्यागने योग्य है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ पुण्याधिकारः। (प्रेरक) । पुण्यानुबन्धी पुण्य किसे कहते हैं और उसकी उत्पत्ति कैसे होती है ? (प्ररूपक) "गेहाद्गेहान्तरं कश्चित् शोभनादधिकं नरः याति यद्वत् सुधर्मेण सद्धदेव भवायम्" (श्लोक हरिभद्रसरिकृत) अर्थ: जैसे कोई मनुष्य सुन्दर मकानसे निकल कर उससे भी अधिक सुन्दर दूसरे मकानमें जाता है उसी तरह जिस पुण्यके द्वारा जीव, मनुष्यादि उत्तम योनियोंको छोड़ कर उससे भी उत्तम देवादि योनियोंमें जाता है उसे पुण्यानुबंधी पुण्य कहते हैं। इस पुण्यानुवंधी पुण्यका कारण हरिभद्र सूरिने इस प्रकार बतलाया है। __"दया भूतेषु वैराग्यं विधिवद्गुरु पूजनम् । विशुद्धा शील वृत्तिश्च पुण्यं पुण्यानुवन्ध्यदः" अर्थात् सब प्राणियोंके उपर दया ( अनुकम्पा) रखना, वैराग्य, और विधिवत गुरु पूजन, तथा अतिचार रहित अहिंसा मादि व्रतोंका पालन करना, ये सब पुण्यानुबंधी पुण्यके कारण होते हैं। आगे चल कर हरि भद्र सूरिने यह भी लिखा है कि मोक्षाविषोंको पुण्यानुवंधी पुग्या आदर करना चाहिये । जैसे कि . “शुपक्ष्यतः पुण्यं कर्तव्यं सर्वथा नरैः यत्प्रभावादपातिन्यो चायन्ते सर्वसम्पदः” ..मयत मागुन्बों को पुण्यानुबंधी पुण्यका आदर करना चाहिये। क्योंकि इसके प्रभावले अविनाकर सब सम्पत्तियां प्राप्त होती हैं। इसमें पुण्यानुवंधी पुण्यको मादरणीय कहा है। अतः मोक्षार्थी पुरुष भी इसका [बोल १ समाप्त ] (प्रेरक) मोक्षार्थियोंको पुण्यका फल आदरणीय है या नहीं ? (प्ररूपक) साधन सा मोक्षार्थियोंको भी पुण्य फल मावरणीय है। शास्त्रों मोक्ष प्राप्तिके चार मुख्य कारण कहे हैं । जैसे कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ सद्धर्ममण्डनम् । "चत्तारि परमंगाणि दुल्लभाणीह जन्तुणो' माणुसत्तं सुई सद्धा संजमंमिय वीरियं" (उत्तरा० अ०३) अर्थ : चार वस्तु मुक्तिके परम साधन, और जीवोंके लिए दुर्लभ हैं। मनुष्य योनिमें जन्म लेमा, धर्म श्रवण करना, धार्मिक श्रद्धा, और संयमके अन्दर सामर्थ्य विशेष। यहां मनुष्य जन्मको मोक्ष प्राप्तिका परम साधन कहा है और वह मनुष्य जन्म पुण्य का ही फल है । इस लिये पुण्य फल मोक्षार्थियों को भी साधन दशामें आदरणीय है। अत: जो लोग पुण्य और उसके फलको एकान्त त्यागने योग्य बतलाते हैं उन्हें मिथ्यावादी जानना चाहिये। (प्रेरक) पुण्य आदरणीय है यह बात कहां कही है(प्ररूपक) उत्तराध्ययन अध्ययन १३ गाथा २१ में पुण्यको आदरणीय बतलाया है। वह गाथा यह है __"इह जीविए राय असासयम्मि धणियं तु पुण्णाई अकुञ्चमाणे। से सोयइ मनु महो वणीए धम्म अकाऊण परम्मिलोके" - (उत्तरा० अ० १३ गाथा २१) अर्थ: चित्त मुनि कहते हैं कि हे ब्रह्मदत्त ! अशाश्वत अर्थात् अमित्य मनुष्यकी आयु पाकर जो पुरुष अतिशय पुण्यका उपार्जन नहीं करता वह मृत्युमुखमें प्रवेश करके धर्माचरण नहीं करने के कारण परलोकमें पश्चात्ताप करता है। यहां चित्त मुनिने ब्रह्मदत्तसे मनुष्यकी आयु पाकर पुण्योपार्जन करनेकी आवश्यकता बतलाई है। अत: साधन दशामें मोक्षार्थियों को भी पुण्य आदरणीय सिद्ध होता है। (बोल २ समाप्त) (प्रेरक) भ्रम विध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३०० के ऊपर इस गाथाको लिखकर इसको समालोचना करते हुए लिखते हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्याधिकारः। ४१५ "अथ इहां तो वह्यो हे राजन् ! अशाश्वत जीवितव्यने विषे गाढ़ा पुण्यना हेतु शुभ अनुष्ठान शुभ करणी न करे ते मरणान्तने विषे पश्चात्ताप करे। इहां पुण्य शब्दे. पुण्य नो हेतु शुभ अनुष्ठानने को" इत्यादि। इनके कहनेका तात्पर्य यह है कि इस गाथामें पुण्यको आदरणीय नहीं कहा है। अतः मोक्षार्थियोंको पुण्य आदरणीय नहीं है। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) पुण्यके हेतुभूत शुभ अनुष्ठान का आदरणीय होना भ्रमविध्वंसन कार स्वयं कबूल करते है और शास्त्रके अन्दर शुभ अनुष्ठान, और पुण्य फल इन दोनोंको पुण्य कहकर बतलाया है । इस लिये मोक्षार्थियोंको पुण्य आदरणीय नहीं है यह कहना भ्रमविध्वंसनकारका अपने कथनसे ही विरुद्ध है। यदि वह कहें कि हम पुण्यफलकी अपेक्षा से पुण्यको अनादरणीय कहते हैं परन्तु शुभ अनुष्ठान की अपेक्षासे पुण्यको अनादरणीय नहीं कहते तो इसका उत्तर यह है कि पुण्य फलकी अपेक्षासे भो पुण्यको अनादरणीय कहना भ्रमविध्वंसनकारका मज्ञान है क्योंकि उत्तराध्ययन सूत्रके १३ वें अध्ययनके २१ वी गाथामें मनुष्य जन्मको दुर्लभ कह कर मोक्षार्थियोंको भी पादरणीय बतलाया है । तथा उत्तराध्ययन सूत्रके २३ वें अध्ययनमें संसार सागरसे पार होने वाले प्राणियोंके लिये मनुष्य शरीरको नौकाकी तरह आदरणीय बतलाया है। वह पाठ यह है "सरीर माहुनावत्ति जीवोउच्चइ नाविओ संसारो अन्नको उत्तो जं तरंति महेसिणो" (उ० अ० २३ गाथा) ___ अर्थात् मनुष्य शरीर मौका है जीव उस भावको चलाने वाला माविक है और यह संसार समुद्र है। इसे महर्षि लोग पार करते हैं। इसमें मनुष्य शरीरको नौकाका दृष्टान्त देकर संसार सागरसे पार जाने वाले पुरुषोंके लिये इसकी परम आवश्यकता बतलाई है। मनुष्य शरीर पुण्य का ही फल है । अतः स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधन दशामें पुण्य फल भी मोक्षार्थियोंको बादरणीय है। भगवान महावीर स्वामीने मनुष्य जन्म मिलना दुर्लभ बतलाते हुए यह कहा है कि... "दुल्लहे खलु माणुसे भवे चिर काले णवि सव्वपाणिणं" (उ०म०१०) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ सद्धर्ममण्डनम् । .. अर्थात हे गोतम ! चिरकाल के अनन्तर भी मनुष्य जन्म मिलना प्राणियोंके लिये दुर्लभ है। ठाणाङ्ग सूत्रके तीसरे ठाणेमें भी मनुष्य जन्मको देव बांच्छनीय कहा है। वह पाठ यह है "ततो ठाणाई देवेपोहेजा। तं. माणुसंभवं, आरिये खेत्ते जम्मं, सुकुलपञ्चायाति" (ठाणाङ्ग ठाणा ३) अर्थात् देवता भी तीन बातोंकी अभिलाषा करते हैं। मनुष्य योनिमें जन्म पाना, आर्या क्षेत्रमें अम्म पाना, और अच्छे कुलमें जन्म लेना। यहां मनुष्य जन्मको देव वांच्छनीय कहा है । तथा उत्तराध्ययनके १०वें अध्ययनमें साक्षात भगवान महावीर स्वामीने मनुष्य जन्मको दुर्लभ बतलाया है वह मनुष्य जन्म पुण्यका ही फल है। इस लिये पुण्य फलको एकान्त त्यागने योग्य बतलाना आज्ञान समझना चाहिये। (बोल ३ समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २९९ के ऊपर भगवती सूत्र शतक १ उद्देशा ७ के मूलपाठको लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं इहां नरक जाय ते जीवने अर्थनो राज्यनो भोगनो कामनो कांक्षी श्री तीर्थकरे कलो पिण अर्थ, भोग, राज्य, कामनी वांछा करे ते आज्ञामें नहीं। जिम अर्थ मोग, राज्य, कामनी वांडा करे ते माज्ञामें नहीं। जिम अर्थ भोग राज्य कामनी वांछाने सरावे नहीं तिम पुण्यनी वांछाने स्वर्गनी यांच्छाने पिण सरावे नथीं। पुण्ण कामप साग कामए" ए पाठ कयां मांटे पुण्यनी वांछाने सराई कहे तो तिणरे लेखे स्वर्गनो कामी वाग्छक करो ते पिण स्वर्गनी वाञ्छा सराई कहणी। (भ्र० पू० २९९) __ इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भगवती सूत्र शतक १ उद्देशा ७ के मूलपाठका नाम लेकर पुण्यको त्याज्य बतलाना मिथ्या है। वहां के पाठका अभिप्राय, पाठ मौर टीका लिखकर बतलाया जाता है। वह पाठ यह है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्याधिकारः । ४१७ "तहारूवरस समणस्सवा माहणस्सवा अंतिए एगमपि आरियं घम्मियं सुवयणं सोचाणिसम्म तओ भवइ संवेगजायसड्ढे तिव्वधम्माणुरागरते। सेणं जीवे धम्मकामए पुण्णकामए सग्गकामए मोक्खकामए धम्मकंखिए पुण्णकंखिए सग्गमोक्खकंखिए धम्मपिपासिए पुण्णसग्गमोक्ख पिपासिए तञ्चित् तम्मणे तल्लेस्ते तदझवसिए तत्तिव्वज्झवसाणे तट्टोवउत्ते तदप्पियकरणे तम्भावणाभाविए एयंसिणं अंतरंसिकालं करे. देवलो. उव० सेतेण?णं गोयमा ?" (भ० श० १ उ०७) (टीका) श्रमणस्य साधोः वाशब्दो देवलोकोत्पादहेतुत्वं प्रति श्रमणमाहनवचनयो स्तुल्यत्व प्रकाशनार्थः । "माहण" त्ति माहन इत्येव मादिशति स्वयं स्थूल प्राणातिपातादि निवृत्त त्वाद्यः समाहनः । अथवा ब्राह्मणो ब्रह्मचर्य्यस्य देशतः सद्भावात् । ब्राह्मणो देश विरतः तस्यवा अंतिके समीपे एकमप्यास्तां तावदनेकम् आर्याम् आरायातं पापं कर्मइत्या-म् अतएव धार्मिकम् इति । तदनन्तरमेव "संवेगजाय सड्ढिचि संवेगेन भव भयेन जाता श्रद्धा श्रद्धानं धर्मादिषुयस्य स ता । “तीव्व धम्माणुगग रत्ति” चि तीम्रो यो धर्मानुरागो धर्म वहुमान स्तेन रक्तइव यः सतथा। “धम्मकामए” त्ति धर्मः श्रुत चारित्र लक्षणः पुण्यं तत्फल भूतं शुभ कर्म इति" अर्थ: हे गोतम ! तथा रूपके श्रमण और माहन के पास एक भो आर्य धर्म सम्ब. न्धी सुवचनके सुननेसे जीवको उसके बाद ही भव भय होनेसे धर्ममें श्रद्धा उत्पन्न होती है। और वह तीन धर्मानुगगसे रक्त सा हो जाता है ! तथा वह जीव, धर्मका मी, पुण्य कामी, स्वर्गकामी, मोक्षकामी, धर्मकांक्षी, पुण्य कांक्षी, स्वर्गकांक्षी, मोक्षकांक्षी, धर्म पिपासित, तथा उनमें चित्त, लेश्या, मध्यवसाय, और तीब्र अध्यवसाय (प्रयत्न विशेष) वाला होता है । एवं उक्त धर्मादि अथों में उपयोग रखता हुआ तथा उन्हींमें अपने इन्द्रियोंको अर्पण किया हुआ और उनकी भावनासे भावित (वासित ) होता हुमा यदि उसी काल में मरणको प्राप्त होता है तो वह देवलोकमें उत्पन्न होता है। यहां तथा रूपके श्रमण और माहनसे आर्या धर्म सम्बन्धी एक भी सुवचन सुननेसे जीवको वैराग्य, धर्मप्रेम तथा धर्म पुण्य स्वर्ग और मोक्षमें कामना मादि होकर स्वर्ग प्राप्त करना बतलाया है । यह बतलाकर तथा रूपके श्रमण माहनसे धार्मिक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धममण्डनम् । वाक्यके श्रवण करनेसे ही जीवको पुण्य कामना होना यहां कहा है । वह पुण्य कामना यदि वुरी है तब तो तथा रूपके श्रमण माहनसे सुवाक्य सुनना भी बुरा ही कहना होगा क्योंकि उसीके सुननेसे जीवको पुण्य कामनाका होना इस पाठ में कहा है। यदि तथा रूपके श्रमण माहनसे आर्य धर्म सम्बन्धी सुवाक्य सुनना बुरा नहीं है तब उस वाक्य सुनने से उत्पन्न होने वाली पुण्य भावना या पुण्य कामना भी बुरी नहीं हो सकती है। तथा पुण्य शब्दका अर्थ करते हुए टीकाकार लिखते हैं ४१८ "धर्मः श्रुत चारित्र लक्षणः पुण्यं तत्फलभूतं शुभ कर्म " अर्थात् श्रुत और चारित्रको धर्म कहते हैं और उस श्रुत चारित्र रूप धर्मका जो कर्म शुभ रूप फल है वह पुण्य कहलाता है । उस पुण्यको जो बुग बतलाता है उसके हिसाब से तो श्रुत और चारित्र रूप धर्म भी बुग ही ठहरता है क्योंकि श्रुत और चारित्र लक्षण धर्मका ही फल यहां पुण्य कहा है । वह पुण्य यदि त्याज्य होगा तो फिर उसका कारण त चारित्र रूप तथा उसका भी कारण श्रमण माहनसे सुवाक्य सुनना त्याज्य ही ठहरेंगे | अतः इस पाठका नाम लेकर पुण्यको त्याज्य कायम करना मिथ्या है। यदि कहो कि इस प में तो आर्य्य धर्म सम्बन्धी सुवाक्य सुननेसे स्वर्गकामना होना भी लिखी है वह स्वर्ग कामना जैसे अच्छी नहीं कही जा सकती उसी तरह पुण्य कामना भी अच्छी नहीं कही जा सकती है तो यह भी मिथ्या है क्योंकि जो स्वर्ग कामना मोक्ष की प्रतिबन्धिका नहीं है किन्तु उसमें सहायता पहुंचाने वाली है उसीका यहां कथन है । जो मोक्षको रोकती है उसका नहीं। पहले पहल इस पाठ में श्रमण माहन के सुवाक्य सुनने से जीवको वैराग्य उत्पन्न होना कहा है । तदनन्तर स्वर्ग कामना लिखी है । वह स्वर्ग कामना मोक्षको सहायता देने वाली ही यहां समझनी चाहिये उसमें विघ्न डालने वाली नहीं क्योंकि जिसको संसारसे वैराग्य हो जाता है वह जीव मोक्ष प्राप्तिके वाधक वस्तुको अभिलाषा नहीं करता किन्तु उसके अनुकूल वस्तुकी ही इच्छा करता है । इसलिये इस पाठमें जो स्वर्ग कामना कही है वह भी मोक्षके अनुकूल होनेसे अच्छी ही है बुरी नहीं है | अतः उसका दृष्टान्त देकर पुण्य कामनाको बुरी बतलाना मिथ्या है। वास्तव में तथा रूपके श्रमण माहनसे आर्य धर्म सम्बन्धी सुवाक्य सुननेसे जो वैराग्य उत्पन्न होकर जीवके हृदय में धर्म कामना पुण्य कामना स्वर्ग कामना और मोक्ष कामना होती हैं वे सभी अच्छी हैं। इनमें एक भी बुरी नहीं है । यहां टीकाकारने लिखा है कि श्रमण और माहन इन दोनों शब्दोंके बाद जो मूल पाठ वा शब्द दिया है वह विकल्पका वोधक नहीं है किन्तु श्रमणसे सुवाक्य सुना जाय अथवा माइनसे सुवाक्य सुना जाय दोनोंसे एक समान ही स्वर्ग प्राप्ति होती Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुण्याधिकारः। ४१९ है यह तुल्यता बतलानेके लिये यहां वा शब्द दिया गया है। श्रमण नाम साधुका है। और स्थूल प्राणातिपातसे सिवृत्त होकर जो दूसरेको नहीं मारनेका उपदेश करता है वह माहन कहलाता है । अथवा ब्राह्मणका नाम माहन है। क्योंकि उसमें देश विरति होती है और जिसमें देश विरति होती है वही यहां ब्राह्मग समझा जाता है। शेष टीका का अर्थ मूल पाठके अर्थमें मिलाकर दे दिया गया है। ___यहां जो टोकाकार यह लिखते हैं कि इस पाठमें श्रमण माहन शब्दके साथ वा शब्द जोड़नेका यह भाव है कि चाहे श्रमणसे आर्य धर्म सम्बन्धी सुवाक्य सुना जाय चाहे माहनसे सुना जाय दोनोंसे एक समान ही स्वर्ग प्राप्ति होती है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि श्रमण दूसरा है और माहन दूसरा है। इस लिये श्रमण माहन इन दोनोंका एक साधु ही अर्थ बतलाना भी मिथ्या समझना चाहिये। इति पुण्याधिकारः। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( प्रेरक ) अथ आश्रवाधिकारः । ara किसे कहते हैं, वह जीव है या अजीव है ? ( प्ररूपक ) आत्म रूपी तालाब में कर्म रूपी जल जिसके द्वारा प्रवेश करता है उसे आश्रव कहते हैं। आश्रव, जीव भी है और अजीव भी है। ठाणाङ्ग सूत्रकी टीकामें टीकाकार Heart लक्षण और भेद बतलाते हुए यह लिखा है : “आश्रवन्ति प्रविशन्ति येन कर्माण्यात्मनीत्याआश्रवः कर्मवन्ध हेतु रितिभावः । सचेन्द्रिय कषाया व्रत क्रिया योग रूपः क्रमेण पंच चतुः पंच पन्चविंशति त्रिभेदः उक्तरच “इन्द्रिय कसाय अव्त्रय किरिया पण चउर पंच पणुवीसा जोगा तीन्नेव भवे आसव भेआओ वयाला" इति तदेवमयं द्विचत्वारिंशद्विधोऽथवा द्विविधो द्रव्य भाव भेदात् । तत्र द्रव्याश्रवो यज्जलान्तर्गत नवादौ तथा विधच्छिद्र जैल प्रवेशनम् भावाश्रवस्तु जीव नावीन्द्रियादिच्छिद्रतः कर्म जल संचय इति सचाश्रव सामान्यादेक एव" यह ठाणाङ्ग सूत्रके “एगे आसवे" इस पाठकी टीका है। इसका अर्थ यह है जिसके द्वारा आत्मामें कर्म प्रवेश करता है उसे "आश्रव" कहते हैं जो कर्मवन्ध का हेतु है वह आश्रव है। पांच इन्द्रिय, चार कषाय, पांच अत्रत, पचीस क्रिया, तीन योग, ये बयालीस आश्रवके भेद हैं । ये वेयालीस व्यश्रव, भाव व्याश्रव कहलाते हैं इनसे अलग द्रव्याश्रव भी होता है । छिद्रोंके द्वारा नाव आदिमें जलका प्रवेश होना द्रव्य मानव है । पूर्वोक्त ४२ वस्तुओंके द्वारा जीव रूपी नौकामें कर्म रूपी जलका प्रवेश होना भाव व्यव है। यहां टीकाकारने भाव आश्रवके वेयालीस भेद बतलाये हैं इनमें पचीस प्रकारकी क्रिया भी शामिल हैं। ये क्रियाएं केवल जीवकी ही नहीं किन्तु अजीवकी भी बतलाई गई हैं इस लिये आश्रव अजीव भी है । उक्त टीका में इन्द्रियों को आश्रव बतलाया है । इन्द्रियां दो तरह की हैं द्रव्य इन्द्रिय और भाव इन्द्रिय, द्रव्य इन्द्रिय अजीव हैं और भाव इन्द्रिय जीव हैं। इस लिये Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवाधिकारः। ४२१ भाव इन्द्रिय स्वरूप आश्रव भी जीव है। इस प्रकार आश्रव अजीव और जीव दोनों ही प्रकारका है। (बोल १ समाप्त) (प्रेरक) ठाणाङ्गकी उक्त टीकामें आश्रवका भेद बतलाते हुए पचीस क्रियाओंको आश्रव का भेद बतलाया है वे क्रियाएं कौनसी हैं और वे मजीवकी क्रिया क्यों मानी जाती हैं ? (प्ररूपक) ठाणाङ्ग सुत्रके दूसरे ठाणेमें क्रियाके दो भेद बतलाते हुए कहा है कि क्रिया द्विविध होती है एक जीवकी क्रिया और दूसरी अजीवकी क्रिया । वह पाठ यह है "दो किरिआओ पन्नत्ताओ तंजहा-जीव किरियाचेव अजीव किरियाचेव" (ठाणाङ्ग ठाणा २) . "तत्र जीवस्य क्रिया व्यापारो जीव क्रिया, तथा अजीवस्य पुद्गल समुदायस्य यत्कर्मरूपतया परिणमनं सा अजीव क्रियेति” । अर्थ:....... क्रिया दो प्रकारकी है । जीवकी और अजीवकी, जीषके व्यापारको जीव क्रिया कहते हैं और पुद्गल समूहके कर्म रूपसे परिणाम होनेको अजीव क्रिया कहते हैं। अजीव क्रिया दो तरहकी होती है एक ऐ-पथिकी और दूसरी सांपरायिकी, ऐउपथिकी का कोई अवान्तर भेद नहीं होता परन्तु साम्परायिकी क्रियाके चौवीस भेद होते हैं। चौबीस प्रकार की साम्परायिकी क्रिया और एक ऐापथिकी ये २५ क्रियाए अजीवकी कही गई हैं । ठाणाङ्ग ठाणा ५ में क्रियाका भेद बतलानेके लिये यह पाठ आया है : __"पंच किरियाओ पन्नत्ताओ तंजहा-कायिया, अहिकरणिया, पाओसिया, परितावणिया, पाणातिवायकिरिया। पंच किरिआमओ पन्नत्ताओ तंजहा-आरंभिया, परिग्गहिआ, मायावत्तिया, अपञ्चक्खाण किरियो, मिच्छादसणवत्तिया, पंचकिरिआओ पन्नत्ताओ तंजहा-दिटिया, पुटिया, पाडोचिया, सामन्तोवणिया, साहत्थिया। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ सद्धर्ममण्डनम् । पंच किरिआओ पन्नत्ताओ तंजहा -- णेसत्थिया, आणवणिया, वेयारणिया, अणा भोगवत्तिया, अणवक खवत्तिया । पञ्च किरिआओ पन्नत्ताओ तंजहा - पेज्जवत्तिया, दोसवत्तिआ, पयोगकिरिआ, समदाणकिरिआ, इय्यावहिआ । ( ठाणाङ्ग ठाणा ५ उ०२ ) fare पांच प्रकारकी होती हैं ( १ ) कायिकी ( शरीरसे की जाने वाली ) ( २ ) अधिकरणिकी ( खङ्ग आदि शस्त्रके द्वारा होने वाली क्रिया) (३) प्राद्वेषिकी ( मत्सर से होने arat क्रिया) (४) पारिताप निकी - किसी जीवको परिताप देनेसे होने वाली क्रिया । ( ५ ) प्राणातिपातकी - प्राणातिपात यानी हिंसासे होने वालो किया । अथ :-- फिर भी क्रियाओं के पांच भेद हैं ( १ ) आरम्भिकी- आरम्भसे होने वाली क्रिया । ( २ ) पारिग्रहिकी - परिग्रहसे होने वाला क्रिया । ( ३ ) माया प्रत्यया - मायासे होने वाली क्रिया । (४) अप्रत्याख्यानिकी - प्रत्याख्यान नहीं करनेसे होने वालो क्रिया । (५) मिथ्या दर्शन प्रत्यया-- मिथ्या दर्शनसे उत्पन्न होने वाली क्रिया । फिर भी क्रियाएं पांच प्रकारकी होती हैं । ( १ ) दिट्टिया -घोड़े और चित्र आदिको देखने के लिये आने जानेसे उत्पन्न होने वाली क्रिया । ( २ ) पुट्ठिया-राग आदिके कारण किसी जीव या अवीवको स्पर्श करनेसे अथवा पूछने से उत्पन्न होने वाली किया । (३) पाडुच्चिया - किसी वीजके लिये जो क्रिया की जाती है । ( ४ ) सामन्तोवणि इया-- अपने घोड़े आदिकी पूशंसा सुन कर हर्षित होकर जो क्रिया की जाती है । (५) साहत्थिया - अपने हाथसे किसी जीधको पकड़कर मारनेसे उत्पन्न होने वाली क्रिया । फिर क्रियाओंके पांच भेद होते हैं । ( १ ) नेसत्थिया - किसी जीवको यन्त्रादिके द्वारा पीड़न करनेसे उत्पन्न होने वाली क्रिया । ( २ ) आणवणिया-किसी जीव या अजीवको कहीं ले जानेसे उत्पन्न होने वाली क्रिया । ( ३ ) वियारणिया- किसी जीव या अजीवको विदारण करने से होने वाली किया । ( ४ ) अणाभोगवत्तिया - पात्र आदि उपकरणोंको असावधानीके साथ लेने या रखनेसे उत्पन्न होने वाली क्रिया । (५) अणवखवत्तिया - इस लोक या परलोक के बिगड़ने की अपेक्षा नहीं रखनेसे होने वाली क्रिया । फिर भी क्रियाए ं पांच पूकारकी होती हैं । ( १ ) राग प्रत्यया-रागसे होने वाली क्रिया । (२) द्व ेषपूत्यया-द्व ेषसे होने वाली क्रिया । ( ३ ) प्रयोग क्रिया - काय आदिके व्यापार से होने वाली क्रिया । ( ४ ) समुदान किया- कर्मो के उपादानसे होने वाली क्रिया । ( ५ ) ऐर्य्यापथिकी ( योगसे होने वाली क्रिया ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवाधिकारः। ४२३ ___ऊपर कहे हुए मूलपाठमें सब मिल कर २५ क्रियाओंका वर्णन किया गया है उनमें एक ऐUपथिकी है और २४ साम्परायिकी क्रिया है। ये सभी क्रियाए आस्रव हैं और कर्मबन्धके हेतु हैं ये क्रियाएं अजीव की कही हैं अत: आस्रव अजीव भी है। यद्यपि सभी क्रियाएं जीवकी सहायतासे ही होती हैं कोई भी जीवकी सहायताके बिना नहीं हो सकती तथापि इन क्रियाओंमें पुद्गलों के व्यापार की ही प्रधानता रहती है इस लिये ये क्रियाएं अजीव की कही गई हैं। ठाणांग सूत्रको टीकामें टीकाकारने ऐापथिकी और सांपरायिकी क्रियाकी व्याख्या करते हुए यह स्पष्ट लिखा है कि इन क्रियाओं में पुद्गलों का व्यापार ही मुख्य होता है इस लिये ये क्रियाएं अजीवकी कही गई हैं। वह टीका - "ईरण मी- गमनं तद्विशिष्टः पन्थाः ईर्ष्यापथस्तत्र भवा ऐपिथिकी व्युत्पत्ति मात्र मिदं प्रवृत्ति निमित्तन्तु यत्केवल योग प्रत्यय मुपशान्तमोहादित्रयस्य सात वेदनीयकर्मतया अजीवस्य पुद्गलराशेर्भवनं सा ऐO पथिकी । इह जीव व्यापारेऽपि अजीव प्रधानत्व विवक्षयाऽजीवक्रियेऽपमुक्ता तथा सम्परायाः कषाया स्तेषु भवा साम्परायिकी साह्य जीवस्य पुद्गल राशेः कर्मता परिणति रूपा जीव व्यापारस्याविवक्षणा दजीव क्रियेति साच सूक्ष्मसंपरायान्तानां गुणस्थानकवतां भवतीति" अर्थ : जानेको ईर्ष्या कहते हैं उससे युक्त जो मार्ग है वह ई-पथ कहलाता है उसमें जो क्रिया होती है उसे "ऐापथिको" कहते हैं। यह केवल व्युत्पत्ति मात्र है इसके प्रयोगका विषय अर्थ यह है:-उपशान्त मोह, क्षीण मोह, और सयोगीकेवली, इन तीना गुणस्थानोंमें जो योगोंके कारण पुद्गल राशिका सात वेदनीय कर्मरूपसे परिणाम होता है वह ऐापथिक कहलाता है यह क्रिया भी जीवके व्यापारके बिना नहीं हो सकती तथापि जीवके व्यापार की अपेक्षा इसमें पुद्गल राशिके व्यापारकी प्रधानता होती है इस लिये जीवके व्यापारकी अविवक्षा करके इसे अजीवकी क्रिया ही कहा है। संपराय नाम कषायका है उससे जो क्रिया होती है उसे साम्परायिकी कहते हैं पुद्गल राशिका कर्म रूप से परिणाम होना साम्परायिकी क्रिया है। इसमें भी जीवका व्यापार अवश्य होता है परन्तु अति अल्पताके कारण उसकी अविवक्षा तथा बहुत अधिक होनेसे पुद्गल के व्यापार की विवक्षा करके यह साम्परायिकी क्रिया भी अजीव की ही कही गयी है। यह क्रिया दशम गुण स्थान पर्यन्त रहती है। . यह उक्त टीकाका अर्थ है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ सद्धर्ममण्डनम् । यहां शास्त्रकार और टोकाकारने ऐापथिकी और साम्परायिकी दोनों ही क्रियाओंको अजीव की क्रिया कहा है इसलिये आश्रवको एकान्त जीव बतलाना मिथ्या है क्योंकि उक्त २५ क्रियाए अजीव आश्रव हैं। भगवती सूत्र शतक १७ उद्देशा दूसरेमें भगवान महावीर स्वामीने अन्य यूथिकों का मत खण्डन करते हुए प्राणाति पातादि ९६ बोलोंको और जीवको एक होना बतलाया है वह पाठ___ "अण्ण उत्थिआणं भन्ते ! एव माइक्खंति जाव परुति एवं खलु पाणाइवाए मुसावाए जाव मिच्छा दंसण सल्ले वामाणस्स अण्णे जीवे अण्णे जीवा या। पाणाइवाय-वेरमणे जाव परिग्गह वेरमणे कोह विवेगे जाव मिच्छा दंसण सल्ल विवेगे वट्टमाणस्स अण्णे जोवे अण्णे जोवाया । उत्पत्तियाए जाव परिणामियाए वमाणस्स अण्णे जीवे अण्णे जीवाया दुग्गहे ईहा अवाए वट्टमाणस्स जाव जीवाया उट्ठाणे जाव परक्कमे वट्टमाणस्स जाव जीवाया णेरइयत्ते तिरिक्ख मणुस देवत्ते वट्माणस्स जाव जोवाया णाणावरणिज्जे जाव अंतराए वहमाणस्स जोव जीवाया एवं कण्हलेस्सा ए जाव सुक्कलेस्साए समदिष्टि ए ३ एवं चक्खु दंसणे ४ आभिणिवोहियणाणे ५ मइ अण्णाणे आहार सण्णाए ४ एवं आरोलिय सरीरे ५ एवं मण. जोए ३ सगोरो वयोगे अणागारोवयोगे वहमाणस्स अण्णे जीवे अण्णे जोवाया से कह शेयं भन्ते ! एवं गोपमा ! जगणंते अण्ण उ. त्थिया एव माइक्खलि जाव मिच्छंते एव माहंसु अहं पुण गोयमा ! एव माइक्खालि जाव परवेमि एवं पाणाइवाए जाव मिच्छा दंसण सल्ले वहमाणस्त सचेव जीवे सचेव जीवाया जाव अणागारो वयोगे वट्ठमाणस्स सचेव जीवे सचेव जीवाया" । (भगवती शतक १७ उद्देशा २) अर्थ : (प्रश्न ) हे भगवन् ! अन्य यूथिक कहते हैं कि "प्राणातिपात और मृषावादसे लेकर मिथ्यादर्शन शल्य पर्यंत अठारह बोलोंमें वतमान रहने वाले देहधारीका जीव दूसरा है और ये बोल दूसरे हैं तथा प्राणातिपातसे लेकर मिथ्या दर्शन शल्य पर्यंत अठारह पापोंके विरमणमें वर्त Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवाधिकारः । मान देहधारीका जीव दूसरा है और ये बोल दूसरे हैं। चार प्रकारकी बुद्धि, अवग्रहादिक चार मि ज्ञान, उत्थानादिक वीयों के भेद, नरक आदि चार गति, ज्ञानावरणीयादि आठ कर्म, कृष्णादि छः लेश्याएं, चक्षुर्दर्शनादि चार दर्शन, अभिनिवोधिक आदि पांच ज्ञान, मति आदि तीन अज्ञान आहरादिक चार संज्ञायें, औदार्य्य आदि ५ शरीर, मन आदि तीन योग, सागार और अनागार दो पूकारके उपयोग, इन सब बोलोंमें वर्तमान रनेवाले देहधारीका जीव दूसरा है और ये बोल दूसरे हैं” हे भगवन् ! आप इसे कैसा समझते हैं ? (उत्तर) है गोतम ! अन्य यूथिकोंका यह कथन मिथ्या है उक्त ९६ बोल और जीवात्मा एक ही है परन्तु एकान्त भिन्न भिन्न नहीं हैं । यह भगवती उक्त पाठका अर्थ है । यहां भगवानने पूर्वोक्त ९६ बोलोंको जीव कहा है और ९६ वोलों में मनोयोगादि श्रव भी हैं इसलिये आश्रव कथंचित, जीव भी है और पूर्व वर्णन की हुई क्रिया के हिसाब से कथंचित अजीव भी है अतः आश्रवको एकान्त जीव मानना शास्त्रविरुद्ध समझना चाहिये । ४२५ ( बोल २ रा ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार और उनके गुरू भीषणजीने पुण्य, पाप और वन्धको एकांत रूपी और अजीव, तथा आश्रवको एकान्त अरूपी और जीव कहा है। भीषणजीने aruने तेरह द्वारके छट्ठ े द्वारमें लिखा है कि 1 "पुण्यते शुभ कर्म तेहने पुण्य कहीजे तेहने अजीव कहीजे तेहने वन्ध मही जे । पापते अशुभ कर्म तेहने पाप कहीजे अजीव कहीजे बन्ध कहीजे । कर्म प्रते आस्रव कहीजे तेहने जीव कहीजे । जव संघाते कर्म बंधाणा ते वन्ध कहीजे अजीव कहीजे" इसका क्या समाधान ? . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat (प्ररूपक ) ] पाप पुण्य और वन्धको एकान्त अजीव कहना मिथ्या है क्योंकि ये तीनों ही पदार्थ जीवात्मामें दूध और पानीकी तरह मिल कर एकाकार बने रहते हैं इसलिये व्यवहार दशामें इन्हें जीवका लक्षण माना है और व्यवहार नयसे इन तीनोंको शास्त्रमें जीव कहा है इसलिये पाप, पुण्य, और वन्धको एकान्त अजीव कहना मिथ्या है। दूसरी बात यह है कि पाप, पुण्य और वन्ध रूप कर्म की प्रकृति से ही जीवको चार गति और पांच जाति आदि प्राप्त होती हैं और चार गति पांच जाति और छः कायको भगवती आदि ५४ www.umaragyanbhandar.com Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । सूत्रोंमें जीव कह कर बतलाया है इसलिये शुभाशुभ कर्मोंसे बंधा हुआ जीवात्मा ही व्यवहार दशामें जीव कहलाता है। गति और जाति आदि जीवसे अलग कहे जाते हों और जीव उनसे अलग कहा जाता हो यह बात नहीं है अतः पुण्य, पाप, और वन्ध भी व्यवहार दशामें जीव ही हैं अजीव नहीं हैं इन्हें एकांत अजीव कहना अज्ञान है । [बोल ३ समाप्त ] (प्रेरक) पुण्य पाप और वन्ध रूपी हैं और जीव अरूपी है फिर ये दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? (प्ररूपक) व्यवहार दशामें जीव भी रूपी माना गया है । भगवती शतक १७ उद्दे शा २ में जीवको रूपी होना बतलाया है । वह पाठ यह है "देवेणं भन्ते ! महिड्ढिए जाव महेसक्खे पुवामेव रुवी भवि त्ता पभू अख्वीविउ भवित्ताणं चिहित्तए ? णो इण? समढे सेकेणतुणं भन्ते ! एवं बुच्चइ देवेणं जोवणो पभू अस्वीविउ भवित्ताणं चिट्टित्तए ? गोयमा ! अहमेयं जाणामि अहमेयं पासामि अहमेयं वुज्झामि अहमेयं अभिसमण्णागच्छामि मए एवं णायं मए एयं दिट्ठमए एवं बुद्ध मए एवं अभिसमण्णागयं जपणं तहागयस्स जीवस्स सरूविस्स सकम्मस्स सरागस्स सवेदगरस समोहस्स सलेस्सस्स ससरीरस्स तआ सरीराओ अविप्पमुक्कस्स एवं पण्णायाति तंजहा कालवा जाव सुकिलत्तेवा, सुन्भिगंधतेवा, दुन्भिगंधतेवा तित्तत्तेवा जीव महुरत्तेवा कक्खड़त्तेवा जावलुक्खत्तेवा सेतण?णं गोयमा ! जाव चिठ्ठित्तए" (भगवती शतक १७ उद्दशा २) अर्थ:- हे भगवन् ! महेश नामक देवता जो कि बड़ा समृद्धि शाली और शरीरादि पुदगलोंके सम्बन्धसे रूपी है वह अरूपी होकर रह सकता है या नहीं ? . .. . (उत्तर) हे गोतम ! यह सम्भव नहीं है। (प्रश्न ) इसका क्या कारण है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवाधिकारः । (उत्तर) हे गोतम ! मैं इसे जानता हूं यावत् अनुभव करता हूं यह बात मेरी जानी हुई यावत् अनुभव की हुई है। जो जीव मूर्तिमान् है सरागी है सवेद है और जिसमें मोह, तथा लेश्या विद्यमान है जो शरीर से छुटा हुआ नहीं है उसमें ये बातें अवश्य पाई जाती हैं जैसे कि यह काला है, यह शुक्ल है, इसमें दुर्गन्ध आता है, इसमें सुगन्ध आता है यह तित है, यह मधुर है यह कर्कश है यह सूक्ष्म है इत्यादि । जिसमें पूर्वोक्त बातें पाई जाती हैं वह रूपी ही बना रहता है। कापि अरूपी नहीं हो सकता । 1 यह इस पाठका सरल अर्थ है । इस पाठ में भगवान ने सराग, समोह, और सलेश्य जीवको रूपी कहा है इसलिये व्यवहार दशामें सराग जीव भी रूपी है। जब कि सराग जीव भी रूपी है तब फिर पुण्य, पाप और वन्ध, इन रूपी पदार्थों के साथ उसका अभेद व्यवहार होनेमें क्या संदेह है ? जो लोग रूपी होनेके कारण पाप, पुण्य और वन्धको जीवसे एकान्त भेद मानते हैं वे शास्त्र रहस्यको नहीं जानने वाले अज्ञानी हैं । इस पाठसे आवके एकान्त अरूपी होनेका सिद्धान्त भी खण्डित हो जाता हैं । इस पाठ में सराग सलेश्य और समोह जीवको रूपी कहा है अतः आश्रव रूपी भी सिद्ध होता है क्योंकि जब जीव भी रूपी है तब जीवस्वरूप आश्रव क्यों नहीं रूपी होगा ? इसलिये जो लोग आश्रवको एकान्त जीव मान कर उसे एकान्त अरूपी बतलाते हैं वे मिथ्यावादी हैं । [ बोल ४ समाप्त ] ( प्रेरक ) क्या पाप, पुण्य और वन्ध अजीव नहीं हैं ? ४२७ ( प्ररूपक ) पाप, पुण्य और वन्ध व्यवहार दशामें जीव और निश्चय नयके अनुसार अजीव हैं इसलिये इन्हें एकान्त अजीव या एकान्त जीव कहना मिथ्या है किन्तु ये कथंचित् जीव और कथंचित् अजीव हैं यही बात यथार्थ समझनी चाहिये जो इन्हें एकांत अजीव कहता है वह अज्ञानी है । ( प्रेरक ) भ्रमविकारका यदि व्यवहारनयसे नहीं किन्तु निश्चयनयके अनुसार पाप पुण्य और वन्धको संजीव कहनेका तात्पर्य्य हो तो इसमें क्या आपत्ति है ? (प्ररूपक ) यदि भ्रमविध्वंसन कार का यह तात्पर्य हो कि पाप, पुण्य और वन्ध निश्वय नय के अनुसार अजीव हैं परन्तु व्यवहारनयके अनुसार नहीं तो उनके कथनमें कुछ भी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ सद्धममण्डनम् । दोष नहीं है किन्तु वह बिलकूल यथार्थ है परन्तु एकान्त रूपसे पाप पुण्य और वन्धको अजीव कहना मिथ्या है। यही बात आश्रवके विषयमें भी है आवको भी यदि भ्रमविध्वंसनकार एकान्त रूपसे जीव और अरूपी न कहें तो कोई भी आपत्ति नहीं है परन्तु वह आश्रवको एकांत अरूपी और जीव कहते हैं यह बात भगवान के कथनसे ही प्रतिफूल है शास्त्रका कथन यह है कि आश्रव न तो एकांत जीव है और न एकांत अजीव ही है किंतु वह जीव और अजीव दोनों ही प्रकारका है। मिथ्यात्व, कषाय, और योग ये, आश्रव माने जाते हैं और मिथ्यात्व कषाय और योगको चतुस्स्पर्शी और काय योग को अष्ट स्पशी पुद्गल माना है अतः आश्रव कदापि एकांत रूपसे जीव नहीं हो सकता क्योंकि मिथ्यात्व, कषाय और योग जीव नहीं हैं। यदि आश्रवको कोई एकांत अजीव कहे तो वह भी ठीक नहीं कहता क्योंकि मिथ्यादृष्टिभी आश्रव माना गया है और मिथ्या दृष्ठि, अरूपी और जीवका परिणाम है इसलिये आश्रव जीव भी सिद्ध होता है अत: आश्रवको एकान्त जीव, या एकान्त अजीव, एकान्त रूपी, या एकान्त अरूपी कहना मिथ्या है। (बोल ५ वां) (प्रेरक) __ भ्रमविध्वंसनकारने ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा ५ ३ का मूलपाठ लिख कर आश्रव को एकांत अरूपी जीव सिद्ध किया है । __ इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भ्रमविध्वंसनकारने ठाणाङ्ग ठाणा ५ वे का जो मूलपाठ लिखा है उससे आश्रव एकांत अरूपी और एकांत जीव सिद्ध नहीं हो सकता। वह पाठ लिख कर बतलाया जाता है। ___ "पंच आसव द्वारा पन्नत्ता तंजहा–मिच्छत्तं, अविरतो, पमादो, कसायो, जोगा" ( ठाणाङ्ग ठाणा ५) अर्थ ___ मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय, और योग ये पांच आश्रव द्वारके भेद हैं । इस पाठमें आश्रव द्वारके भेद मात्र का वर्णन है परन्तु आश्रव जीव है या अजीव है यह निर्णय नहीं किया है इसलिये इस पाठका नाम लेकर आश्रव को एकान्त जीव या अरूपी कहना भोले जीवों को धोखा देना है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवाधिकारः। ४२ भगवती सूत्र शतक १२ उद्दशा ५ में मिथ्यात्वको चतुस्स्पशी पुद्गड माना है फिर मिथ्यात्व आश्रव एकांत जीव कैसे हो सकता है ? बल्कि इस पाठसे को आश्रवका अजीव होना ही सिद्ध होता है। दूसरा आश्रव द्वार अव्रत है। अठारह पापोंसे बिलकुल नहीं हटनेका नाम अव्रत है। अठारह पाप चतुःस्पर्शी पुद्गल माने गये हैं इसलिये दूसरा आश्रव द्वार भी अजीव ही सिद्ध होता है। प्रमाद और कषाय, मोहसे उत्पन्न हुई कर्म की प्रकृति के नाम हैं और मोह कर्मको शास्त्रमें चतुःस्पर्शी पुद गल माना है इसलिये मोह कर्मसे उत्पन्न होने वाले प्रमाद और कषाय भी चतु:स्पर्शी पौद गलिक होनेसे अजीव ही सिद्ध होते हैं। पांचवां आश्रव द्वार योग है यह मन, वचन, और कायके भेदसे तीन प्रकारका है। मन और वचनके योगको चतुःस्पर्शी और काय योगको स्पर्शी कहा है इसलिये योगाश्रव भी अजीव सिद्ध होता है अत: ठाणाङ्ग सूत्र के उक्त पाठका नाम लेकर आश्रवको एकांत जीव बतलाना अज्ञान समझना चाहिये । (बोल छटा समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकारने तीन दृष्टियोंका नाम लेकर मिथ्यात्व आश्रवको एकांत जीव और अरूपी बतलाया है। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भगवती सूत्र शतक १२ उद्देशा ५ के मूलपाठमें तीन दृष्टियोंको अरूपी और मिथ्यादर्शन शल्यको रूपी कहा है इसलिये मिथ्यात्व आश्रव एकांत मरूपी नहीं हो सकता। भगवतीका पाठ यह है: "अहभंते ! पेज्जे दोसे कलहे जाव मिच्छा दंसण सल्ले एसणं कइवण्णे ४ जहेव कोहे तहेव चउफासे" (भग० शतक १२ उ०५) इस पाठमें भगवान्ने मिथ्यादर्शन शल्यको चतुःस्पर्शी पौद गलिक कहा है अतः मिथ्यात्व पाश्रव रूपी भी है और अजीव भी है उसे एकान्त अरूपी और जीव बताना अज्ञान है। (प्रेरक) भगवती सूत्रके उक्त मूलपाठमें मिथ्यादर्शन शल्यको रूपी कहा है परन्तु वह आश्रव नहीं है आश्रव तो केवल मिथ्यादृष्टि है और वह अरूपी है फिर मिथ्यादर्शनके रूपी होनेसे आश्रव कैसे रूपी हो सकता है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम्। (प्ररूपक) ठाणाङ्ग ठाणा ५ के मूलपाठमें आश्रव द्वारका भेद बतलानेके लिये “मिच्छत्त" यह पाठ आया है इसका अर्थ है मिथ्यात्व, मिथ्यात्वसे जैसे मिथ्यादृष्टिका ग्रहण होता है उसी तरह मिथ्यादर्शन शल्यका भी-ग्रहण होता है इसलिये मिथ्यादृष्टि और मिथ्यादर्शन शल्य ये दोनों ही आश्रव हैं केवल मिथ्यादृष्टि ही नहीं अतः मिथ्यात्व पदसे केवल मिथ्यादृष्टिका ही ग्रहण करना और मिथ्यादर्शन शल्यका ग्रहण नहीं करना अप्रामाणिक है। मिथ्यादर्शन शल्य भी आश्रव है और वह रूपी है इसलिये मिथ्यात्व आश्रव को एकांत अरूपी बताना अज्ञान है । आश्रवके विषयमें भीषणजी और जीतमलजीने कई विरुद्ध बाते भी कह डाली हैं। भीषणजीने आश्रवको उदयभावमें माना है और मिथ्याष्टिको क्षयोपशम भावमें माना है अत: इनके मतानुसार मिथ्यादृष्टि आश्रव ही नहीं हो सकता क्योंकि मिथ्यादृष्टि क्षयोपशम भावमें है और आश्रव उदयभावमें है फिर ये दोनों एक कैसे हो सकते हैं ? अत: भीषणजीकी यह प्ररूपणा पूर्वापर विरुद्ध है। भीषणजीके उक्त आशय का लेख यह है___"आश्रवभाव दोय, उदय और पारिणामिक । मोहनीय कर्मरो क्षयोपशम होय तो आठ बोल पामे चार चारित्र, एक देश व्रत और तीन दृष्टि" इस लेखमें भीषणजीने आश्रवको उदयभावमें और मिथ्यादृष्टिको क्षयोपशमभाव में माना है तो भी मिथ्यादृष्टिको आश्रवमें मानना इनके अविवेकका पूर्ण उदाहरण समझना चाहिये। (बोल ७ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३०९ पर उत्तराध्ययन सूत्रका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: "अथ इहां पांच आश्रवने कृष्णलेश्याना लक्षण कह्या ते मांटे जे कृष्णलेश्या अरूपी तेहना लक्षण पांच आश्रव ते पिण अरूपी छै" ( भ्र० पृ० ३०९) इसका क्या समाधान ? '. (प्ररूपक) - कृष्णलेश्या संसारी जीवका परिणाम है और संसारी जीवको भगवती शतक १७ उद्देशा २ में रूपी होना भी कहा है इसलिये कृष्णलेश्या रूपी भी सिद्ध होती है अतः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवाधिकारः । ४३१ उसके लक्षण पांच आश्रव रूपी भी हो सकते हैं इसलिये कृष्णलेश्याके लक्षण होनेके कारण पांच माश्रवको एकांत अरूपी कहना मिथ्यात्वका परिणाम है । संसारी जीन रूपी भी हैं इस विषय में भगवती शतक १७ उद्देशा २ का मूलपाठके सिवाय भगवती शतक २ उद्देशा १ का मूलपाठ भी प्रमाण है वह पाठ यह है : "जेऽवियते खंदया ! जाव सअंते जीवे अणतेजीवे तस्सविवर्ण अयम एवं खलु जांव दव्वओणं एगे जीवे सअंते खेत्तओणं जोवे असंखेज एसिए असंखेज एसोगाढे अस्थिपुण से अन्ते । काल ओणं जीवे नकदाइ न आसी णिच्चे नस्थिपुण से अन्ते । भाव ओणं जीवे अनंता णाणपज्जवा अनंता दंसण पज्जवा अनंता चारित पज्जया अनंता अगुरु लहु पज्जवा णत्थिपुण से अन्ते । सेत्तं दव्यमो जीवेसअंते खेत्तओ जीवे सअन्ते कालओ जोवे अनंते भावओ . जीवे अणते" ( भ० श० २ उ०१) अर्थ हे स्कन्दुक ! जीव सान्त है या अनन्त है तुम्हारे इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है-जीव - द्रव्यसे एक और सान्त है क्षेत्रसे असंख्य प्रदेशी और असंख्य आकाश प्रदेशको व्याप्त किया हुआ - है अतः वह सांत है । कालसे जीव अनन्त है क्योंकि वह सब कालमें विद्यमान रहता है कभी भी • उसका अभाव नहीं होता । भावसे जीव अनन्त है अनन्त ज्ञानपर्याय, अनन्त दर्शन पर्याय, अनंत चारित्र पर्य्याय, अनन्त लघु गुरु पर्य्याय, और अनन्त अगुरु अलघु पर्य्याय जीवके होते हैं अतः • भावसे जीव अनन्त है । सारांश यह है कि द्रव्य और क्षेत्रसे जीव सांत और काल तथा भावसे अनन्त है । यहां मूल पाठ में कहा है कि "जीवके अनन्त लघु गुरु पर्य्याय और अनन्त अलघु अगुरु पर्य्याय होते हैं” इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि संसारी जीव रूपी भी है क्योंकि रूपी पदार्थ ल गुरु पर्य्याय और अगुरु अलघु पर्य्याय नहीं हो सकते । इस पाठकी टीकामें टीकाकारने लिखा है "अनन्ता गुरुलघुपर्य्याया औदारिकादिशरीर | ण्याश्रित्य इतरेतु कार्मणादि - द्रव्याणि जीव स्वरूपंचाश्रित्येति” अर्थात् औदारिकादि शरीर की अपेक्षासे जीवके अनन्त लघु गुरु. पर्याय कहे गये हैं और कार्मण आदि द्रव्य तथा जीवके स्वरूप की अपेक्षासे अनन्त मगुरु अलघु पर्याय कहे गये हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धमण्डनम् । इस टीकासे भी जीवका रूपी होना सिद्ध होता है । यद्यपि निश्चयनयसे निज स्वरूपापन्न जीव रूपी नहीं है किन्तु अरूपी है तथापि इस पाठमें उसका वर्णन न करके संसारी जीवका वर्णन किया गया है संसारी जीव औदारिकादि शरीर के साथ दूध पानी की तरह मिलकर एकाकार हुआ रहता है इस लिये इस पाठमें उसके अनन्त गुरु लघु और अनन्त अगुरु लघु पर्य्यायोंका वर्णन है। कृष्ण लेश्या संसारी जीवका ही परिणाम है और संसारी जीव इस पाठमें रूपी भी कहा गया है इस लिये कृष्ण लेश्या रूपी भी है । कृष्ण लेश्या रूपी है इस लिये उसके लक्षण पांच आश्रव रूपी भी हैं उन्हें एकान्त अरूपी कहना शास्त्र से विरुद्ध समझना चाहिये । ४३२ उक्त पाठ में संसारी जीवका औदारिकादि शरीर के साथ अभेद होना सिद्ध होता है और औदारिकादि शरीर, पुण्य पाप तथा धकी प्रकृति माना जाता है इस लिये पुण्य पाप और बंघका भी कथंचित् जीव होना सिद्ध होता है । अतः इनको सर्वथा जीवसे भिन्न मानना मिथ्या है । कर्मकी प्रकृत्तिको भी शुभाशुभ पुण्य, पाप और बंध कहते हैं और वह कर्मकी प्रकृति, चतुःस्पर्शी पौद्गलिक है इस लिये वह रूपी और जीवसे कथंचित् अभिन्न और कथंचित् भिन्न है उसे जीवसे एकान्त भिन्न मानना मिथ्या है। मिथ्यात्व, कषाय और योगको चतुःस्पर्शी और काययोगको अष्ट स्पर्शी पुद्गल माना है । इस लिये ये सब रूपी और अजीव भी सिद्ध होते हैं एकान्त अरूपी और जीव नहीं अतः यश्रवमात्र को एकान्त अरूपी और एकान्त जीव कहना अज्ञानका परिणाम है। वस्तुतः किसी अपेक्षा से आश्रव, जीव और अरूपी है और किसी अपेक्षासे अजीव और रूपी है परन्तु एकान्त पक्षका आश्रय लेकर इसे एकान्त अरूपी और जीव मानना मिथ्यात्वका परिहै। ( बोल ८ वां समाप्त ) ( प्ररूपक ) मिथ्यात्व आवको एकान्त जीव कहना भी भ्रमविध्वंसनकारका दुराग्रह और अपने सिद्धान्त से ही प्रतिकूल है। ठाणांग सूत्रका मूल पाठ लिख कर पहले बतलाया जा चुका है कि ऐपथिकी और साम्परायिकी ये दो क्रियाएं अजीवकी हैं और साम्परामिकी क्रिया के भेद में मिथ्यात्व और अत्रत भी शामिल हैं इस लिये मिथ्यात्व और ती क्रिया अजवकी क्रिया हैं इन्हें एकान्त जीवकी क्रिया मानना शास्त्रसे सर्वथा प्रतिकूल है । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवाधिकारः। - यद्यपि शास्त्रमें सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्व क्रिया जीवकी कही हैं तथापि उनका स्पष्ट अर्थ टीकाकारने यह किया है"सम्यग्दर्शन मिथ्यात्वयोः सतोर्ये भवतस्ते सम्यक्त्व मिथ्यात्व क्रियेति" । (ठाणांग ठाणा २ की टीका) "सम्यग्दर्शन और मिथ्या दर्शनके होनेपर जो क्रिया की जाती है वह सम्यक त्व क्रिया और मिथ्यात्व क्रिया है।" यहां टीकाकारने सम्यग्दर्शन और मिथ्या दर्शनके होनेपर जो क्रिया की जाती है वह क्रिया चाहे जीवकी हो या पुद्गल की हो दोनोंको ही सम्यक्त्व और मिथ्यात्क: की क्रिया कहा है केवल जीवकी ही क्रियाको सम्यक्त्व और मिथ्यात्व क्रिया नहीं कहा है इस लिये केवल जीवकी ही क्रियाको सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्व क्रिया कहना मिथ्या है। वास्तवमें ज्ञान और इच्छाको छोड़कर सभी क्रियाएं जीव और पुद्गल दोनों के व्यापारसे होती हैं कोई भी क्रिया अनीवके व्यापारको छोड़कर नहीं हो सकती, अन्तर सिर्फ इतना ही है कि किसी क्रियामें जीवके व्यापारको मुख्यता होती है और किसीमें अजीवके व्यापारकी मुख्यता होती है । साम्परायिकी और ऐUपथिकी क्रिया अजीवके व्यापारकी ही प्रधानता है इस लिये वे दोनों अजीवकी क्रिया कही गई हैं इसी तरह सम्यक्त्व क्रिया और मिथ्यात्व क्रियामें अजीवका व्यापार अवश्य रहता है परन्तु उसकी अपेक्षासे उनमें जीवका व्यापार ही प्रधान होता है इस लिये सम्यक्त्व क्रिया और। मिथ्यात्व क्रिया जीवकी कही गई हैं उनमें सर्वथा अजीवका व्यापार न हो यह बात नहीं है। ज्ञान और इच्छाको छोड़कर सभी क्रियाओंमें जीव और पुद्गल दोनोंके व्यापार होते हैं परन्तु जीवके व्यापारकी सुख्यताको लेकर किसीको जीवकी क्रिया और अजीव के व्यापारकी प्रधानताको लेकर किसीको अजीव क्रिया कहा है परन्तु दोनों ही प्रकार। की क्रियाओंमें जीव और पुद्गल दोनोंके व्यापार होते हैं। आश्रव, क्रिया स्वरूप है और क्रिया जीव और पुद्गल दोनोंकी हैं इस लिये आश्रव जीव और अजीव दोनों ही प्रकारका है उसे एकान्त जीव कहना अज्ञान है। [बोल ९ समाप्त ] (प्रेरक) भ्रम विध्वंसनकार ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा १० के पाठकी साक्षीसे आश्रवको एकान्त जीव बतलाते हैं। इसका क्या समाधान ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ सद्धर्ममण्डनम् । (प्ररूपक) ठाणाङ्ग ठाणा १० के मूल पाठकी साक्षीसे आश्रवको एकान्त जीव सिद्ध करना मिथ्या है । वह पाठ लिख कर यह बतलाया जाता है "धम्मे अघम्म सन्ना अधम्मे धम्म सन्ना" अर्थ: ( ठाणाङ्ग) धर्ममें अधमका और अधर्ममें धर्मका ज्ञान अज्ञान कहलाता है। ___यहां विपरीत ज्ञानका स्वरूप समझाते हुए यह लिखा है कि “धर्ममें अधर्मका और अधर्म में धर्मका ज्ञान अज्ञान है" इससे आश्रवका जीव होना सिद्ध नहीं होता क्योंकि इस पाठमें कहा हुआ विपरीत ज्ञान, क्षयोपशम भावमें है और आश्रव उदयभावमें है। भीषणजीने आश्रवको उदयभावमें माना है यह उनका लेख उद्ध त करके पहले बतला दिया गया है अतः उदयभावमें होने वाला पाश्रव, अज्ञान या विपरीत ज्ञानकी तरह कदापि एकान्त जीव नहीं हो सकता । आश्रव, मोहकर्मके उदयभावमें माना गया है और मोहकर्म चतु:स्पशी पुद्गल हैं अत: आश्रव भी चतुःस्पशी पुद्गल है उसे एकान्त जीव मानना अज्ञान है । (बोल १० वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भगवती सूत्र शतक १७ उद्देशा २ का मूलपाठ लिखकर उसकी साक्षीसे आश्रवको एकान्त जीव बतलाते हैं। इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक) भगवती सुत्र शतक १७ उद्देशा २ के मूलपाठकी साक्षीसे आश्रवको एकान्त जीव वतलाना मिथ्या है । उस पाठमें आश्रवको एकान्त जीव नहीं कहा है वह पाठ इसी प्रकरणके सातवें बोलमें लिख दिया गया है उसका भाव यह है १८ पाप और उनसे निवृत्ति, बुद्धिके चार भेद, अवग्रहादिक मति ज्ञानके चार भेद, उत्थानादिक पांच, चार गति, आठ कम, छः लेश्या, तीन दृष्टि, चार दर्शन, पांच ज्ञान, तीन अज्ञान, चार संज्ञाएं, पांच शरीर, तीन योग और साकार तथा अनाकार इन ९६ बोलोंमें रहने वाला जीव दूसरा है और ये बोल दूसरे हैं, यह अन्य तीर्थियोंका मत है इसका खण्डन करते हुए भगवान्ने कहा है कि "एवं खलु पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्लेवट्टमाणे सच्चेव जीवे सच्चेव जीवाया" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवाधिकारः । ४३५ - अर्थात् प्राणातिपातसे लेकर मिथ्या दर्शन शल्य पर्यन्त ९६ बोलामें रहनेवाला वही जीव है और वही जीवात्मा है । इस पाठसे आश्रवको एकान्त जीव बताना भोले जीवोंको धोखा देना है। इस पाठमें ९६ बोलोंके साथ जीवात्माका कथंचित् अभेद और कथंचित् भेद बतलाया है आवको एकान्त जीव नहीं कहा है । अतः इस पाठके आश्रय से आश्रवको एकान्त जीव मानना अज्ञान है। इस पाठमें जो ९६ बोल कहे गये हैं उनमें १८ पाप भी शामिल हैं। उक्त ९६ बोल और जीवात्मा कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न हैं इस लिये अठारह पाप भी कथंचित् जीव और कथंचित् अजीव हैं परन्तु तेरह पंथके आचार्य जीतमलजी १८ पापोंको जीवसे एकान्त भेद मानते हैं यह इनका प्रत्यक्ष इस पाठसे विरुद्ध प्ररूपणा समझनी चाहिये। (बोल ११ वां समाप्त ) (प्रेरक) शास्त्रमें रूपी अजीवको कहीं जीवका परिणाम कहा हो तो उसे बतलाइये। (प्ररूपक) ठाणाङ्ग सूत्रके दशवें ठाणेमें रूपी अजीवको जीवका परिणाम कहा है वह पाठ टीकाके साथ लिखा जाता है। "दसविहे जीवपरिणामे पं० तं० गतिपरिणामे, इन्दिय परिणामे, कसाय परिणामे, लेस्सा परिणामे, जोगपरिणामे, उपयोग परिणामे, णाण परिणामे, दंसणपरिणामे, चरित्तपरिणामे, वेयपरिणामे" . (ठाणाङ्ग ठाणा १०) अर्थ: ___जीवके परिणाम दश प्रकारके हैं-(१) गति परिणाम (२) इन्द्रिय परिणाम (३) कषाय परिणाम (8) लेश्या परिणाम [२] योग परिणाम [६] उपयोग परिणाम [0] ज्ञान परिणाम [८] दर्शन परिणाम [९] चारित्र परिणाम [१०] वेद परिणाम । टीका : ____ "परिणमनं परिणाम स्तभाव गमनमित्यर्थः यदाह-"परिणामोर्थान्तरगमनं नच सर्वदाव्यवस्थानं नच सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः" । सच प्रायोगिकः गतिरेव परिणामो गति परिणामः एवं सर्वत्र गतिश्चेह गतिनामकर्मोदयान्नारकादि व्यप Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ देश हेतुः । तत्परिणामश्चाभवक्षयादिति सचनरकगत्यादिश्चतुर्विधः गतिपरिणामेच सत्येवेन्द्रिय परिणामो भवतीति तमाह “इन्दिय परिणामे" त्ति सचश्रोत्रादिभेदात्पंचधा इन्द्रिय परिणतौ चेष्टानिष्टविषयसम्बन्धाद्रागद्वेष परिणति रिति तदनंतरं कषाय परिणाम उक्तः सच क्रोधादिभेदाच्चतुर्विधः । कषाय परिणामेच सति लेश्या परिणतिर्नतु लेश्या परिणतौ कषाय परिणतिः येन क्षीण कषायस्यापि शुक्ल परिणतिर्देशोन पूर्वकोटिं यावद्भ• वति यतउक्तम्" मुहुत्तद्ध तु जहन्ना उक्कोसा होई पुग्व कोडीओ नवहिं वरिसेहिं उणा नायच्वा शुकलेस्साय ( शुक्ल लेश्याया जघन्यास्थितिः मुहूर्त्ता नववर्षोना पूर्व कोटी उत्कृष्टा -ज्ञावन्या भवति ) अतो लेश्या परिणाम उक्तः । सच कृष्णादिभेदात् षोढेति । अयश्व योग परिणामेति भवति यस्मान्निरुद्धयोगस्य लेश्या परिणामोऽपैति यतः समुच्छिन्नक्रिय ध्यानमलेश्यस्य भवतीति लेश्यापरिणामानन्तरं योगपरिणाम उक्तः सचमनोवाक्काय भेदात्रिधेति । संसारिणाञ्च योगपरिणतावुपयोग परिणति भवतीति तद्नंतरमुपयोग परिणाम उक्तः सच साकारानाकार भेदाद्विधेति । सतिचोपयोगपरिणामे ज्ञानपरिणामोऽतस्तदनंतरमसायुक्तः । सचाभिनिवोधिकादि भेदात्पञ्चधा तथा मिथ्यादृष्टे ज्ञानमप्यज्ञानमित्यज्ञान परिणामो मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभंग ज्ञानलक्षणस्त्रिविधोऽपि विशेषग्रहण साधर्म्याज्ञान परिणाम ग्रहणेन गृहीतो द्रष्टव्य इति । ज्ञानाज्ञानपरिणामेचसति सम्यक् - त्वादिपरिणतिरिति ततोदर्शन परिणामउक्तः सचत्रिधा सम्यक्त्वमिथ्यात्वमिश्रभेदात् । सम्यक्त्वे सति चरित्रमिति ततस्तत्परिणामउक्तः । सच सामायिकादिभेदात्पंचधेति । स्त्र्यादिवेद परिणामे चारित्र परिणामो नतुचारित्रपरिणामे वेदपरिणतिर्यस्मादवेदकस्या यथाख्यात चारित्र परिणति ष्टेति चारित्र परिणामान्तरं वेद परिणाम उक्तः । सचस्त्रयादि भेदात्रिविध इति । " अर्थ : सद्धमण्डनम् । रूपान्तर प्राप्तिका नाम परिणाम है कहा है कि न तो सर्वथा अपने रूपमें स्थित रहना और न सर्वथा नाश हो जाना, किन्तु अपनेसे भिन्न किसी दूसरे रूपमें आ जाना परिणाम है। जीवका दूसरे रूपमें आना जीव परिणाम है वह गति आदिके भेइसे दस प्रकारका है । गति रूप जो जीवका परिणाम है वह गति परिणाम है इसी तरह सभी परिणामोंमें समझना चाहिये । गति नामक कर्मके उदयसे नरक आदि व्यवहारका कारण जो जीवका परिणाम होता है वह गति परिणाम है। यह परिणाम जब तक भवका क्षय नहीं होता तब तक बना रहता है। यह नरक आदिके भेदसे चार प्रकारका होता है । गति परिणाम होने के बाद इन्द्रिय परिणाम होता है इस लिये मूल पाठ में गति परिणामको कहकर पश्चात् इन्द्रिय परिणाम कहा है। श्रोत्र आदि के भेदसे इन्द्रिय परिणाम पांच प्रकार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवाधिकारः। ४३७ - "का है । इन्द्रिय परिणाम होनेके बाद इष्ट और अनिष्ट वस्तुके सम्बन्धसे राग और द्वेष रूप परिणाम होता है अत: इन्द्रिय परिणामको कहकर कषाय परिणाम कहा गया है। वह श्रोत्र आदिके भेदसे चार प्रकारका है । कषाय परिणाम होने पर लेश्या परिणाम होता है अतः कषाय परिणामके बाद लेश्या परिणाम कहा गया है। वह लेश्या परिणाम कृष्ण आदिके भेदसे छः प्रकारका होता है। योग परिणाम होनेके बाद लेश्या परिणाम होता है क्योंकि जिसके योग रुक जाते हैं उसको लेश्या परिणाम नहीं होता इस लिये लेश्या परिणामके बाद ही योग परिणाम कहा गया है। योग परिणाम मन, वचन और कायके मेदसे तीन प्रकारका है। संसारी जीवोंका योग परिणाम होनेपर उपयोग परिणाम होता है इस लिये योग परिणामके बाद उपयोग परिणाम कहा है। उपयोग परिणाम साकार और अनाकारके भेदसे दो तरहका होता है। उपयोग परिणाम होनेके वाद ज्ञान परिणाम होता है इस लिये उपयोग परिणामको कहकर ज्ञान परिणाम कहा गया है । ज्ञान परिणाम, भाभिनिवोधिक आदिके भेदसे पांच प्रकारका है। मिथ्या दृष्टियोंके मत्यज्ञान श्रुनाज्ञान और विभंगाज्ञान भी ज्ञान परिणामसे ही ग्रहण किये जाते हैं। ज्ञान और अज्ञान रूप परिणाम होने पर सम्यक्त्व और मिथ्यात्व आदि परिणाम होता है इस लिये ज्ञान परिणामको कहकर दर्शन परिणाम कहा है, यह सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और मिश्र भेदसे तीन प्रकारका है। सम्यक्त्व परिणाम होनेके बाद चारित्र परिणाम होता है अतः सम्यक्त्व परिणामको कहकर पश्चात् चारित्र परिणामको कहा है। चारित्र परिणाम सामयक आदि भेदसे पांच प्रकारका होता है। चारित्र परिणाम, वेद परिणामके होनेपर होता है परन्तु चारित्र परिणाम होनेपर वेद परिणाम होनेका कोई नियम नहीं है क्योंकि वेद परिणाम रहित जीव में भी यथाख्यात चारित्र देखा जाता है अतः "चारित्र परिणामके अनन्तर वेद परिणाम कहा गया है। वेद परिणाम स्त्री आदिके भेदसे तीन प्रकारका है। यहां मूल पाठ और टीकामें जीवके दश विध परिणाम कहे हैं उनमें ज्ञान, दर्शन, और चारित्र परिणाम तो अरूपी और एकान्त जीव हैं और गति, कषाय, योग और वेद परिणाम रूपी और अजीव हैं। गति, कषाय, योग और वेद आत्माके साथ क्षीर नीर न्यायसे मिलकर एकाकार होकर रहते हैं इस लिये इन्हें जीवका परिणाम कहा है यहां जो गति परिणाम कहा है वह गति नाम कर्मके उदयसे प्राप्त होने वाली नरक आदि ''चार गतियां समझनी चाहिये । टीकाकारने लिखा है "गतिश्चेह गतिनामकर्मोदयान्नारकादि ब्यपदेशहेतुः ।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डनम् । अर्थात् गति नाम कर्मके उदयसे उत्पन्न होने वाली नरक आदि व्यवहारका कारण यहां गति समझनी चाहिये” नरक आदि चार गतियां रूपी और अजीव हैं तो भी यहां वे जीवका परिणाम कही गई हैं इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि रुपी और अजीव भी जीवका परिणाम होता है । ( बोल १२ वां समाप्त ) ४३८ (प्रेरक) भ्रमविध्वंसकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३१४ पर ठाणांग ठाणा दशका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: "इहां तो गति परिणामने भावे गतिने जीव कही, भाव इन्द्रिय, भाव कषाय, भाव योग, भाव वेद, ये सर्व जीवना परिणाम है" ( ० पृ० ३१४ ) इनके कहनेका आशय यह है कि गति नाम कर्मके उदयसे उत्पन्न होने वालीं नरक आदि चार गतियां अजीव हैं वे जीवका परिणाम नहीं हो सकती इसलिये ठाणांग ठाणा दशके मूलपाठ जो जीवका गत्यादि परिणाम कहा है वह भावरूप गत्यादि समसमझना चाहिये द्रव्य रूप नहीं । इसी तरह द्रव्य इन्द्रिय, द्रव्य कषाय, द्रव्य योग और द्रव्य वेद भी अजीव हैं वे कदापि जीवके परिणाम नहीं हो सकते इसलिये ये भी भाव रूप ही जीवके परिणाम समझने चाहिये द्रव्य रूप नहीं । इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) ठग ठाणा दशके मूलपाठ में जो गति, कषाय, और इन्द्रिय आदिको जीवका परिणाम बतलाया है उसका अभिप्राय भाव गति, भाव, कषाय, और भाव इन्द्रिय बतला कर द्रव्य गति, द्रव्य कषाय और द्रव्य इन्द्रियको जीवका परिणाम नहीं मानना मूलपाठ और टीकासे विरुद्ध होनेसे अप्रामाणिक है। टीकाकारने गतिके विषयमें स्पष्ट लिखा है कि “गतिश्चह गतिनाम कर्मोदयान्नार का दिव्यपदेशहेतुः” . अर्थात "यहां गति शब्दसे, गति नाम कर्म के उदयसे उत्पन्न होने वाली नरकादि व्यवहारका कारण जो गति है वह समझनी चाहिये" यहां टीकाकारने नाम कर्मके उदयसे उत्पन्न होने वाली नरकादि गतिको जीवका परिणाम बतलाया है इसलिये भाव गत्यादिको ही जीवका परिणाम मान कर द्रव्यगत्यादिको जीवका परिणाम न मानना मूलपाठ और टीकासे विरुद्ध समझना चाहिये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवाधिकारः। ४३९ दूसरी बात यह है कि रूपी अरूपी सिद्ध करनेके लिये द्रव्य और भावकी कल्पना करना व्यर्थ है। द्रव्य होनेके कारण कोई वस्तु रूपी नहीं होती और भाव होनेसे अरूपी नहीं हो जाती । द्रव्य होनेसे यदि रूपीकी कल्पना की जाय तो धर्म द्रव्य, अधर्म द्रव्य और काल द्रव्य भी रूपी मानने पड़ेंगे क्योंकि ये सब द्रव्य हैं। यदि भाव होनेके कारण किसीको अरूपी मान लिया जाय तो वह भी ठीक नहीं है क्योंकि क्रोध, मान, माया, लोभ आदि भाव रूप हैं उन्हें औदायिक भावोंमें गिना गया है, परन्तु वे अष्टस्पी रूपी हैं। तात्पर्य यह है कि कोई कोई द्रव्य भी अरूपी होता है और कोई कोई भाव भी रूपी होता है। ऐसी हालतमें भ्रमविध्वंसनकार जो मरूपी सिद्ध करनेके लिये भाव की कल्पना करते हैं वह सर्वथा असंगत और शास्त्र न जानने का परिणाम समझना चाहिये। (बोल १३ वां समाप्त) (प्ररूपक) यहां यह शङ्का होती है कि गति, कषाय और योग चतुःस्पर्शी और अष्टस्पशी पुद गल माने गये हैं पुद गल जीव नहीं किन्तु अजीव हैं फिर गति, कषाय और योग को जीवका परिणाम यहां कैसे कहा है ? तो इसका उत्तर यह है: गुरु लघु पाय, अष्टस्पी और अगुरु अलघु पर्याय चतुःस्पर्शी पुद गल हैं तथापि जैसे जीवके साथ एकाकार होकर रहनेसे इन्हें भगवती शतक २ उद्देशा १ में जीवका पर्याय कहा है उसी तरह जीवके साथ मिल कर एकाकार होकर रहनेसे गति आदिको ठाणांग ठाणा दशमें जीवका परिणाम कहा है। भगवती शतक २ उद्देशा १ का मूल पाठ यह है: "भावओणं जीवे अनंता नाण पलवा अनंता दंसण पज्जवा अनंता चारित पज्जवा अनंता गुरु लहु पज्जवा अनंता अगुरु अलहु पजवा" (भगवती शतक २ उ०१) अर्थ: भाष जीवके अनंत ज्ञान पर्याय, अनन्त दर्शन पाय, अनन्त चारित्र पर्याय, अनन्त गुरु लघु पर्याय और अनन्त अगुरु अलघु पर्याय होते हैं। यहां भाव जीवके अनन्त गुरु लघु पर्याय और अनंत अगुरु अघु पर्याय कहे हैं। गुरु लघु पर्याय और अगुरु अलघु पर्याय क्रमशः अष्ट्रस्पी और चतुःस्पर्शी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० सद्धर्ममण्डनम् । पुद्गल हैं तथापि जीवके साथ एकाकार होकर रहनेसे जैसे इन्हें भाव जीवका पर्याय कहा है उसी तरह दुग्ध जलवत जीवके साथ मिल कर एकाकार होकर रहने से गति आदिको ठाणांग ठाणा १० में जीवका परिणाम कहा है अत: गति आदि को भावरूप मान कर द्रव्य गति को जीव का परिणाम नहीं मानना मिथ्या समझना चाहिये। [बोल १४ वां समाप्त] (प्ररूपक) पन्नावणा सूत्रके पांचवें पदमें मनुष्य जीवके वर्ण, गन्ध, आदि पर्याय भी कहे हैं वह पाठ यह है: "मनुस्साणं भन्ते ! केवइया पजवा पण्णत्ता ? गोयमा ! अनंती पज्जवा पण्णत्ता। सेकेणढेणं भन्ते ! एवं वुच्चइ मणुस्साणं अणंता पजवा पण्णात्ता ? गोयमा ! मणुस्से मणुस दध्वट्टयाए तुल्ले पएसट्टयाए तुल्ले ओगाहण कृयाए चउठाण वडिए ठीए चउठाण वडिए वन्नगंधरसफासआभिणियोहियणाणओहिणाणमनपज्जवणाण केवल णाण पज्जवेंहिं तुल्ले तिहिं दसणेहिं छट्ठाण वणिए केवल दसण पज्जवेहि तुल्ले" (पन्नावणा पद ५) इस पाठमें मनुष्य जीवके वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श, पर्याय कहे हैं। वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श रूपी और पौद गलिक हैं तो भी क्षीर नीरकी तरह जीवके साथ मिले हुए होनेसे इन्हें जीवका पर्याय कहा है उसी तरह ठाणांग ठाणा दशमें, जीव के साथ मिले हुए होनेसे गति आदिको जीवका परिणाम कहा है। भगवती शतक १२ उद्देशा १० में आत्माको रूपी और अरूपी दोनों ही प्रकार का कहा है वह पाठ यह है। "कइ विहाणं भन्ते ! आया पण्णत्ता १ गोयमा ! अठविहा आया पण्णत्ता तंजहा-दवि आयो, कसायाया, जोगाया, उपयोगाया, णाणाया, दसणाया, चरिताया, वीरियाया" (भगवती शतक १२ उ० १०) अर्थ : हे भगवन् ! आत्मा के प्रकारका होता है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवाधिकारः। ४४१ हे गोतम ! आत्मा आठ प्रकारका है [१] द्रव्यात्मा [ २ ] कषायात्मा [३] योगात्मा [ ] उपयोगात्मा [५] ज्ञानात्मा [६.] दर्शनात्मा [ . ] चारित्रात्मा [ 0] वीर्यात्मा। यहां आठ प्रकारका आत्मा कहा गया है। इनमें कषाय, और योग क्रमशः चतुःस्पी और अष्टस्पर्शी पुद गल हैं और दोनों ही रूपी हैं इसलिये आत्मा रूपी भी सिद्ध होता है। कषाय और योग रूपी हैं इसलिये कषायाश्रव और योगाश्रव भी रूपी हैं अत: आश्रत्रको एकान्त अरूपी मानना सर्वथा शास्त्रसे प्रतिकूल समझना चाहिये। बोल १५ वां समाप्त भ्रमविध्वंसनकार भ्रम० पृष्ठ ३१५ पर लिखते हैं कि ते मांटे कषाय अने योग आत्मा कही ते माव कषाय भाव योगने कह्या छै ।। भाव काय तो आश्रव छै।" इनके कहनेका तात्पर्य यह है कि उक्त भगवती सूत्र के मूलपाठमें जो कषाय और योगको आत्मा कहा है वह भाव कषाय भाव योग समझना चाहिये । भाव कषाय ही माश्रय है और वह अरूपी है इसलिये माश्रव अरूपी है। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भगवती सूत्र शतक १२ उद्देशा १० का मूलपाठ १५ वें वोलमें लिख दिया गया है उस पाठमें सामान्य रूप से लिखा है कि "कषाय और योग आत्मा हैं।" भाव कषाय और भाव योग आत्मा हैं ऐसा वहां नहीं लिखा है इसलिये भाव कषाय और भाव योग को आत्मा मान कर द्रव्य कषाय और द्रव्य योगको आत्मा न मानना भ्रमविध्वंसनकार का अज्ञान है। उस पाठको टीका और टवामें भी नहीं कहा है कि "भाव कषाय और भाव योग ही आत्मा हैं" तथा दूसरी जगह भी कषाय और योगका द्रव्य भाव रूप भेद नहीं किया गया है अतः भ्रमविध्वंसनकार की पूक्ति कल्पना अप्रामाणिक और मिथ्या है। यदि कोई कहे कि "कषाय और योग क्रमश: चतुःस्पशी और अष्टस्पर्शी रूपी हैं, वे आत्मा नहीं हो सकते क्योंकि आत्मा अरूपी है" तो यह ठीक नहीं है। भगवती आदि सत्रोंका प्रमाण देकर यह बतला दिया गया है कि संसारी आत्मा रूपी भी होता है इसलिये कषाय और योगके क्रमशः चतुःस्पर्शी और अष्टस्पर्शी रूपी होने पर भी आत्मा होनेमें कोई सन्देह नहीं है। (बोल १६ वां समाप्त) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२ सद्धर्ममण्डनम् । ( प्रेरक ) भगवती शतक १२ उद्देशा १० में भाव आत्माके आठ भेद कहे हैं द्रव्य आत्मा के नहीं । भाव आत्मा अरूपी है इसलिये कषाय और योग भी भावरूप ही आत्माके भेद हैं, द्रव्य कषाय योग नहीं । भाव रूप कषाय योग अरूपी हैं इसलिये कृषायाश्रव और योगाश्रव भी अरूपी हैं रूपी नहीं । अतः भ्रमविध्वंसनकारने जो भाव रूप कषाय और योगको आत्माका भेद माना है वह ठीक ही मालुम होता है । (प्ररूपक ) भगवती शतक १२ उद्देशा १० में आत्ममात्रके आठ भेद कहे हैं केवल भाव आत्मा ही नहीं । वहां द्रव्य और भावका कुछ जिक्र भी नहीं है इस लिये भगवती सूत्रोक्त आत्माके आठ भेद भाव आत्माके हैं यह कल्पना निर्मूल है। यदि तुम्हारी बात मानकर भगवती सूत्र में भाव आत्मा के ही आठ भेद मान लिये जायं तो योग नामक तीसरा भेद व्यर्थ ठहरता है क्योंकि भाव योगको भीषणजीने वीर्य्य स्वरूप माना है, वह a नामक आठवां भेद अलग कहा गया है उसीमें भाव योग भी शामिल हो जाता है फिर उसे अलग करनेकी क्या आवश्यकता है ? भीषणजीने भाव योगको वीर्य्य स्वरूप माना है वह गाथा यह है "योग वीर्य्य तणो व्यापार तिणस अरूपी छे भाव जीव" विध्वंसन पृष्ठ ३१८ में जीतमलजीने लिखा है -- "अने उत्थान, कर्म, बल, वीर्य्य, पुरुषाकार पराक्रम, फोडवे तेहिज भाव योग छै" भीषणजी और जीतमलजीने भाव योगको वीर्य्य स्वरूप माना है वह वीर्य्य नामक आत्माका भेद जब कि कह दिया गया है तो उससे अलग योग नामक भेद कहने की क्या आवश्यकता है क्योंकि वीर्य्य नामक भेदमें ही भाव योग भी गतार्थ हो जाता है अतः भीषणजी और जीतमलजीका भाव योगको ही आत्माका भेद मानकर द्रव्य योगको आत्माका भेद नहीं मानना नितान्त अज्ञान समझना चाहिये । भगवती शतक १३ उद्देशा ७ में संसारी आत्माका शरीरके साथ कथंचित् अभेद कहा गया है । वह पाठ " आयाते ! काया अण्णे काया ? गोयमा ! आयाविकाए अण्णे विकाएं | रुवी भन्ते ! काए अरूवीकाए ? गोयमा ! रुवीविare अवीविकाए" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat ( भग० शतक १३ उ० ७ ) www.umaragyanbhandar.com Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवाधिकारः । ( टीका ) " " " आयाते ! काए" इत्यादि । आत्मा कायः कायेन कृतस्यानुभवना न्नान्येन· कृतमन्योऽनुभवत्यकृताभ्यागमप्रसंगात् । अथान्य आत्मनः कायः कायैकदेशच्छेदेऽपि संवेदनस्य सम्पूर्णत्वेनाभ्युपगमादिति प्रश्नः । उत्तरंतु आत्मापि कायः कथंचित्तदव्यतिरेकात् क्षीर नीरवत अग्न्ययः पिण्डवत काभ्वनौपलवद्वा अतएव कायस्पर्शे सत्यात्मनः संवेदनं भवति । अतएव कायेन कृत मात्मना भवान्तरे वेद्यते अत्यन्त भेदेवाकृताभ्यागम प्रसंग इति । " अण्णेऽविकाए" ति अत्यन्ता भेदेहि शरीरांशच्छेदे जीवांशच्छेद प्रसंग: तथाच संवेदनस्यासं पूर्णतास्यात तथा शरीर दाहे आत्मनोऽपिदाहेन पर लोका भाव प्रसंग इत्यतः कथं चिदन्योऽप्यात्मनः काय इति । अन्यैस्तु कार्मण कायमाश्रित्यात्मकाय इति व्याख्यातम् । कार्मण कायस्य संसार्य्यात्मनश्च परस्परान्यभि - चारित्वेनकरूपत्वात् । “अण्णेऽविकाए" त्ति औदारिकादिकाया पेक्षया जीवादन्यः कायः द्विमोचनेन तद्भेदसिद्ध रिति "रुवीकाए" त्ति रूप्यपि कायः औदारिकादि कायस्थल रूपापेक्षया । अरूप्यपिकायः कार्मण कायस्यातिसूक्ष्मरूपित्वेनारूपित्व विवक्षणात ।” अर्थ : हे भगवन् ! आत्मा शरीरसे भिन्न है या शरीर स्वरूप है ? हे गोतम ! आत्मा कथंचित शरीर स्वरूप है और कथंचित् शरीरसे भिन्न भी है। ४४३ इस प्रश्नोत्तरका अभिप्राय यह है: आत्मा शरीर स्वरूप है क्योंफि अरीरसे किये हुए का अनुभव आत्माको होता है । यदि आत्मा शरीर से जुदा होता तो शरीर से किये हुए का आत्माको अनुभव नहीं होता क्योंकि दूसरे से किये हुएका अनुभव दूसरे को नहीं होता अतः आत्माका शरीर स्वरूप होना सिद्ध होता है । आत्मा शरीरसे भिन्न है क्योंकि शरीरके किसी अवयवका विच्छेद होने पर भी ज्ञानका विच्छेद नहीं होता किन्तु ज्ञान पूर्णरूप में ही होता है। यदि व्यत्मा और शरीर एक होते तो. शरीर के किसी अवयवका विच्छेद होने पर सम्पूर्ण रूपसे ज्ञानका उदय नहीं होता । अतः आत्मा शरीर से भिन्न है । ये दो परस्पर विरुद्ध बातोंको देख कर आत्मा और शरीर भेद और अभेदका प्रश्न किया गया है। इसका उत्तर यह है : ― Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat " आत्मा, कथंचित शरीर स्वरूप भी है क्योंकि मिले हुए दूध जलकी तरह आग और लौह पिण्डकी तरह पत्थर और सोनेकी तरह आत्मा शरीर से एकाकार होकर रहता है | अतएव शरीरका स्पर्श होने पर उसका ज्ञान आत्माको होता है और शरीर से किये हुएका फल आत्माको जन्मान्तरमें मिलता है। यदि शरीर के साथ आत्मा का www.umaragyanbhandar.com Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ सद्धर्ममण्डनम् । अत्यन्त भेद हो तो शरीरके कर्मका फल आत्माको कदापि नहीं मिल सकता। दूसरोंके कर्मका फल दूसरेको नहीं मिलता । अत: आत्मा शरीरसे कथंचित अभिन्न है । यदि आत्माको शरीरके साथ सर्वथा अभेद मान लिया जाय तो शरीरके किसी अवयवका छेद हो जाने पर आत्माके अंशका भी छेद मानना पड़ेगा और आत्माके अंश का छेद मानने पर सम्पूर्ण रूपमें ज्ञानकी उत्पत्ति नहीं हो सकती और शरीरके दाह होने पर आत्माका भी दाह मानना पड़ेगा ऐसी दशामें आत्माके परलोक होने का अभाव होगा अतः आत्मा कथंचित शरीरसे भिन्न भी है। किसी किसी टीकाकारने कार्मण शरीरके साथ आत्माका अभेद मान कर 'आयाविकाए' इसकी व्याख्या की है। उनका आशय यह है कि "ससारी आत्मा और कार्मण शरीर क्षीर नीरकी तरह मिले हुए होनेस अभिन्न मालूम होते हैं- इसलिये यहां आत्माको शरीर स्वरूप कहा है।" "औदारिकादि शरीरको आत्मा छोड़ देता है इसलिये औदारिकादि शरीर से आत्माको जुदा मान कर “अण्णेविकाए" यह पाठ कहा है।" औदारिकादि स्थूल शरीर रूपी है उसकी अपेक्षासे कायको रूपी कहा है। कार्मण शरीरका रूप अत्यन्त सूक्ष्म है इसलिये उस रूपकी अविवक्षा करके काय को अरूपी भी कहा है। यह उक्त मूलपाठके टीकाका अर्थ है। यहां मूलपाठ और टीकामें संसारी आत्माको शरीरसे कथंचित अभिन्न माना है अतः संसारी आत्माका रूपी होना भी सिद्ध होता है । जब कि संसारी आत्मा कथंचित् रूपी भी है तब फिर रूपवाले कषाय और योग उसके भेद क्यों नहीं हो सकते हैं ? अत: भाव कषाय और भाव योगको आत्माका भेद मान कर द्रव्य कषाय और मूल्य योगको आत्माका भेद न मानना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये। अनुयोग द्वार सूत्रमें, कर्मके उदयसे कषाय और योगकी उत्पत्ति कही गई है। कर्मके उदयसे उत्पन्न होने वाले पदार्थ न तो एकान्त जीव हैं और न एकांत अजीव हैं वे कशंचित जीव और कथंचित अजीव दोनों ही तरहके हैं इसलिये कषाय और योगको एकान्त अजीव या एकांत जीव बताना मिथ्या है। __ शास्त्रकारोंने मिथ्यात्व अव्रत कषाय और योगको कहीं तो जीव, और कहीं अजीव कहा है। जहां जीव कहा है वहां जीवांशकी प्रधानता और जहां अजीव कहा है वह पुद्गलांश की प्रधानता समझनी चाहिये परन्तु एकान्त जीव या एकांत अजीव बताना शास्त्रका आशय नहीं है। (बोल १७ वां समाप्त) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवाधिकारः। ४४५ (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार अनुयोग द्वार सूत्रको मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: "अथ ईहां उदयरा दो भेद कह्या उदय, अने उदय निष्पन्न, उदय ते आठ कर्म नी प्रकृति रो उदय, अने उदय निष्पन्नरा दो भेद जीव उदय निष्पन्न अजीव उदय निष्पन्न" यह लिख कर आगे लिखते हैं: ___"इहां तो चौडे कषाय, मिथ्यादृष्टि, अवत, योग इयां सर्वाने जीव कहा छ ते मांटे सर्व आश्रव छै इण न्याय आश्रव जीव छै (भ्र० पृ० ३१७) इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक) मिथ्यात्व, कषाय, अव्रत और योगको, जीवांशकी मुख्यताको लेकर जीवोदय निष्पन्न कहा है। ये एकान्त जीव हैं इनमें पुद्गलोंका सर्वथा अभाव है यह शास्त्रका तत्पर्य नहीं है क्योंकि कारणके अनुरूप ही कार्य होता है मिट्टीसे मिट्टीका ही घड़ा बनता है-सोनेका नहीं बनता। आठ प्रकारकी कर्मकी प्रकृतियोंका उदय चतुःस्पर्शी पौगलिक माना गया है इसलिये उससे उत्पन्न होने वाले पदार्थ भी चतुःस्पशी पौद्गलिक ही होंगे एकांत अरूपी और एकांत अपौद्गलिक नहीं हो सकते। मिथ्यात्व, अव्रत कषाय ओर योग आठ प्रकारकी कर्मकी प्रकृतियोंके उदयसे उत्पन्न होते हैं इस लिये अपने कारणके अनुसार ये रूपी और चतुःस्पर्शी पौद्गलिक हैं एकांत अरूपी और अपौद्गलिक नहीं हैं तथापि जीवांशकी मुख्यताको लेकर शास्त्रमें इन्हें जीवोदय निष्पन्न कहा है। इसलिये इन्हें एकांत जीव और अरूपी मानना मिथ्या है। टीकाकारने स्पष्ट रूपसे यह बात दर्शायी है वह टीका यह है: "ननुयथा नरकत्वादयः पर्यायाः जीवे भवन्तीति जीवोदय निष्पन्ने औदयिके पठ्यन्ते एवं शरीराण्यपि जीवे एव भवंतीति तान्यपि तत्रैव पठनीयानिस्युः किमिति अजीवोदयनिष्पन्ने अधीयन्ते ? । अस्त्येतत किन्त्वौदारिकादिशरीरनामकर्मोदय स्य मुख्यतया शरीर पुद्गलेष्वेव विपाक दर्शनात तन्निष्पन्न औदयिको भावः शरीर लक्षणेऽजीवे एव प्राधान्या द्दर्शित इत्यदोषः ।" (प्रश्न ) अर्थात जैसे नरक आदि पर्याय जीवमें होते हैं इसलिये वे जीवोदय निष्पन्न औदयिक भावमें पढ़े गये हैं उसी तरह शरीर भी जीवमें ही उत्पन्न होता है इसलिये उसे भी जीवोदय निष्पन्न औदयिक भावमें ही पढ़ना चाहिये । उसे मजीवोदय निष्पन्न मौदयिक भावमें क्यों पढ़ा गया है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धममण्डनम्। (उत्तर ) ठीक है परंतु औदारिक आदि शरीर नाम कर्मके उदयका बिपाक, मुख्य रूपसे शरीर पुद्गलोंमें ही देखा जाता है इसलिये उससे (शरीर नाम कर्मके उदय से ) उत्पन्न हुए भावको शरीर रूप अजीवमें ही प्रधानतासे दिखलाया गया है इसलिये कोई दोष नहीं। ___इस टीकामें टीकाकारने शरीरको अजीवोदयनिष्पन्न औदयिक भावमें कहने का कारण बतलाते हुए यह स्पष्ट लिखा है कि “यद्यपि शरीर भी जीवोदय निष्पन्न औदयिक भाव कहा जा सकता है तथापि उसमें पुद्गलांशकी मुख्यता होनेसे अजीवोदय निष्पन्न कहा है।" ___ इस टीकाकारकी उक्तिसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि शास्त्रमें जीवांशकी मुख्यताको लेकर जीवोदय निष्पन्न और पुद्गलांशकी मुख्यताको लेकर, अजीवोदय निष्पन्न कहा है परन्तु किसीको एकांत अजीव या एकांत जीव कहनेका तात्पर्य नहीं है। जीवोदय निष्पन्न पदार्थों में जीवांशकी मुख्यता और अजीवोदय निष्पन्नमें पुद्गलांशकी मुख्यता मात्र समझनी चाहिये परन्तु जीवोदय निष्पन्नमें पुद्गलांशका और अजीवोदय निष्पन्न में जीवांशका सर्वथा अभाव नहीं है। इसी प्रधानताको लेकर ही शास्त्रमें उदयभावके जीवोदय निष्पन्न और अजीवोदय निष्पन्न नामक दो भेद किये हैं एकांत जीव या एकांत अजीवको लेकर नहीं अतः जीवोदयनिष्पन्न भावको एकांत जीव और अजीवोदय निष्पन्नको एकांत अजीव बतलाना मिथ्या है। (बोल १८ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रम विध्वंसनकार भ्रम विध्वंसन पृष्ठ ३२० पर अनुयोग द्वार सूत्रके पाठकी समालोचना करते हुए लिखते हैं __ "अने भाव संयोग जे ज्ञानादिक ना भला भावने संयोगे तथा क्रोधादिक मांठा भावने संयोग नाम ते भाव संयोग कह्या तिहां भाव क्रोधादिकने संयोगे क्रोधी मानो मायी लोभी कह्यो ते मांटे ए ज्ञानादिक भाव कह्या ते जीव छै तिम भाव क्रोधादिक पिण जीव छै । एतला भाव क्रोधादिक ४ कह्या ते जीवरा भाव छै ते कषाय आश्रव छै ते मांटे कषाय आश्रवने जीव कही जे" (भ्र० पृ० ३२०) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) यद्यपि क्रोध, मान, माया और लोभ भाव रूप कहे गये हैं तथापि ये सिर्फ आत्माके ही धर्म नहीं हैं क्योंकि सिद्धात्माओंमें इनका सर्वथा अभाव है और केवल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवाधिकारः । पुद्गलोंके भी धर्म नहीं है क्योंकि आत्म संसर्ग रहित पुद्गलोंमें इनका सद्भाव नहीं देखा जाता इस लिये पुद्गल संसर्ग विशिष्ट आत्माके ये धर्म हैं । पुद्गल संसर्ग विशिष्ट आत्मा रूपी संसारी और वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श आदिसे युक्त माना गया है इस लिये उसके धर्म क्रोधादि भाव भी एकान्त अरूपी नहीं हो सकते। दूसरी बात यह है कि क्रोधादि भाव कर्मों के उदयसे उत्पन्न होते हैं । कर्म रूपवान है इस लिये उससे उत्पन्न होने वाले क्रोधादि भाव भी रूपवान हैं एकान्त अरूपी नहीं हैं। यदि कोई ज्ञानादि गुण दृष्टान्त देकर क्रोधादि भावको भी एकान्त अरूपी कहे तो उसे कहना चाहिये कि ज्ञानादिगुण कर्मके उदयसे नहीं किन्तु कर्म के क्षय, उपशम और क्षयोपशमसे उत्पन्न होते हैं और सिद्ध जीवोंमें भी पाये जाते हैं इस लिये ज्ञानादि, अरूपी और आत्माके मौलिक गुण हैं परन्तु क्रोधादि भाव ऐसे नहीं हैं वे कर्मों के उदयसे उत्पन्न होते हैं और सिद्धात्माओं में नहीं होते इस लिये वे ज्ञानादि गुणके समान एकान्त अरूपी नहीं हो सकते । यदि भाव रूप कहे जानेसे कोई क्रोधादि भावको एकान्त अरूपी कहे तो उसे कहना चाहिये कि भाव रूप होनेसे न कोई एकान्त व्यरूपी हो जाता है और न द्रव्य रूप होनेसे रूपी ही होता है यह हम पहले ही उदाहरणके साथ बतला चुके हैं अतः भाव रूप होनेसे क्रोधादिको एकान्त अरूपी कहना अज्ञान है । ( बोल १९ वां समाप्त ) ४४७ ( प्रेरक ) भ्रम विध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३२१ पर अनुयोग द्वार सूत्रका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं “अथ इहां भाव लाभरा २ भेद कह्या । प्रशस्त भावनो लाभते ज्ञान, दर्शन, चारित्रने अप्रशस्त माठा भावनोलाभ क्रोध, मान, माया, लोभनो लाभ । इहां क्रोधादिकने भाव लाभ का ते मांटे ए भाव क्रोधादिकने भाव कषाय कहीजे ते भाव कषायने कषाय आश्रव कहीजे । तथा अनुयोग द्वार सूत्रमें इम कह्यो - सावज्ज जोग विरह" ते सावय योग की निवर्तेते सामायक । इहां योगाने सावद्य कह्या अने अजीवने तो सावध पिण न कहीजे | सावद्य निश्वद्य तो जीवने इज कहीजे । इहां योगांने सावय का ते मांटे ए भाव योग जीवछै अने योग आश्रव छै इण न्याय योग आश्रवने जीव कहीजे" इसका क्या समाधान ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ सद्धममण्डनम् । (प्ररूपक) अनुयोग द्वार सूत्रके मूल पाठमें क्रोध, मान, माया और लोभके लाभको अप्रशस्त भावका लाभ कहा है। यहां क्रोधादिको भाव रूप कहा है यह देखकर जीतमलजी इन्हें अरूपी बतलाते हैं परन्तु यह मिथ्या है। पहले वतला दिया गया है कि भाव रूप होनेसे न कोई एकान्त अरूपी होता है और द्रव्य रूप होनेसे न कोई एकान्त अरूपी ही हो जाता है किन्तु अपने कारणके अनुरूप सभी कार्य होते है क्रोध, मान, माया और लोभ कर्मों के उदयसे उत्पन्न होते हैं इस लिये अपने कारणके अनुसार ये रूपी और पौद्गलिक हैं। यदि ये रूपी और पौद्गलिक नहीं हैं तो फिर इन्हें आत्मा का मूलगुण कहना होगा और आत्माका मूलगुण माननेपर सिद्धात्माओंमें भी इनको स्वीकार करना पड़ेगा क्योंकि आत्माके मौलिक गुणोंका कभी भी नाश नहीं होता से ज्ञानादि गुण आत्माके मौलिक गुण हैं अतः वे सिद्ध होनेपर भी आत्मामें मौजूद रहते हैं उसी तरह क्रोध, मान, माया और लोभ भी सिद्धात्मामें मानने होंगे परन्तु यह बात जीतमलजीको भी इष्ट नहीं है अतः कर्मके उदयसे उत्पन्न होने वाले क्रोधादि भाव पौद्गलिक हैं एकान्त अरूपी नहीं हैं यद्यपि ये आत्माके गुण कहे गये हैं तथापि इन्हें पुद्गल संसर्ग विशिष्ट आत्माका गुण समझना चाहिये शुद्ध मात्माका गुण नहीं । तात्पर्य यह है कि क्रोधादि भाव आत्माके मौलिक गुण नहीं किन्तु पुद्गल और आत्मके संसर्ग से उत्पन्न होते हैं इस लिये ये एकान्त जीव और एकान्त अरूपी नहीं हो सकते । ज्ञान दर्शन और चारित्र तो आत्माके मौलिक गुण हैं और ये पुद्गलके संसर्गसे उत्पन्न नहीं होते हैं तथा इनके कारण भी कर्मों का क्षय, उपशम और क्षयोपशम हैं कर्मों का उदय नहीं है इसलिये ज्ञानादि गुण एकान्त मरूपी और जीव हैं इनके दृष्टान्तसे क्रोधादि भावोंको एकान्त अरूपी और जीव बताना अज्ञान है। इसी तरह सावद्यको एकान्त अरूपी और जीव बताना भी मूरता है। सुयगडांग सूत्रमें १२ प्रकारकी साम्परायिकी क्रिया और १ प्रकारकी ऐ-पथिकी इन १३ क्रियाओं को अजीव कहा गया है और भ्रमविध्वंसनकारने भी भ्र० पृ. ३१० में ठाणांगका मूल पाठ लिखकर इन क्रियाओंको अजीव क्रिया कहा है और ये १३ क्रियाए सावद्य मानी गई हैं इसलिये सावद्यका अजीव होना भी सिद्ध होता है। सुयगडांग सूत्रमें उक्त क्रियाओंको सावध कहा है। वह पाठ यह है ___ "एवं खलु तस्स तप्पत्तियं सावज्जति आहिज्जइ टुवालसमे किरियठाणे लोभवत्तिएत्ति आहिए" (सुयगडांग) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवाधिकारः । ४४९ यही पाठ साम्परायिकी क्रियाके लिये भी आया है इस पाठमें साम्परायिकी और ऐarat क्रिया को भी सावद्य कहा है अतः निश्चित होता है कि सावध रूपी और जीव भी है उसे एकान्त अरूपी और जीव मानना अज्ञानियोंका काम है । ( बोल २० समाप्त ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३२२ पर उवाई सूत्रका मूलपाठ लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं "अथ इहां अकुशल मनने मांठा मनने रुधवो कह्यो । कुशल मन प्रवर्तावणो को । इमपि वचन कह्यो । अकुशल मनने रूधवो कह्यो ते अजीवने किम रूधे पिण एतोजीव छै ।" इनके कहने का भाव यह है कि योग प्रतिसंलीनता नामक तपमें आया हुआ योग एकान्स अरूपी और जीव है इस लिये आश्रव एकान्त जीव और अरूपी है। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक ) वाई सूत्र के मूलपाठ में मन, वचनका योगके समान कायका योग भी कहा हुआ है परन्तु भ्रमविध्वंसनकारने काय योगके पाठको छोड़कर अधूरा पाठ लिखा है। काय योग प्रत्यक्ष ही रूपी और अजीव है और वह भी योगप्रति संलीनता नामक सपमें कहा हुआ योग में शामिल है इस लिये योग प्रतिसंलीनता नामक तपमें आये हुए योग को एकान्त अरूपी और एकान्त जीव बताना मिथ्या है । उवाई सुत्रका पूर्ण पाठ इस प्रकार है “से किंतं मणजोगपडि संलीनया ? अकुसलमनणिरोहोवा, कुसल मनउदीरणंवा सेतं मणजोगपडिसंलीनया । सेकितं वयजोगपडिसंलीनया ? असकुलवर्याणिरोहोवा कुसलवयउदीरणंवा सेतं वय जोगपडिसलोनया । सेकितं कायजोगपडिसंलोनया ? जण्णं सुसमाहितपाणिए कुम्भोइव गुत्तिदिए सव्वगायपडिसंलीने चिठ से तं कायजोगपडिसलोनया" ( उवाई सूत्र ) ५७ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५० सद्धमण्डनम् । अर्थ: [ प्रश्न ] मनोयोग प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? [ उत्तर ] अकुशल मनको रोकना और कुशल मनको प्रवृत्त करना, मनोयोग पूतिसंली ता है। [ पूश्न ] वचनयोग प्रतिसंलीनता किसे कहते हैं ? [ उत्तर ] अकुशल वचनको रोकना और कुशल वचनको प्रवृत्त करना वचनयोगपूर्तिसंलीनता है। [ पूश्न ] काययोगपतिसंलीनता किसको कहते हैं ? [ उत्तर ] हाथ पैर आदि अवयवोंको सुसमाहित रखना तथा कच्छपकी तरह अपनी इन्द्रिय और अवयवोंको संकुचित रखना " काययोग पूतिसंलीनता" है । यहां अकुशल मन वचन और कायके योगको रोकना तथा कुशल मन वचन और कायके योगको प्रवृत्त करना योगप्रति संलीनता नामक तप कहा गया है परन्तु जीतमलजी लिखते हैं कि "अजीवने किम रू पिण एजीव है” यदि अजीव नहीं रोका जा सकता तो इस पाठमें अकुशल कायके योगका निरोध करना क्यों कहा गया है ? क्योंकि शरीर और उसकी इन्द्रियां तो जीतमलजीके मतमें भी प्रत्यक्ष ही एका न्त अजीव और पौद्गलिक हैं। यदि अजीव होनेपर भी शरीर और इन्द्रियां रोकी जा सकती हैं तो फिर मन और वचन भी अजीव होनेपर क्यों नहीं रोके जा सकते ? अतः इस पाठ में कुशल मन वचनको रोकनेके लिये कथन होनेसे मन और वचन के योगको एकान्त जीव और अरूपी बताना भिथ्या है। दूसरी बात यह है कि भगवती शतक १३ उद्देशा ७ में वचनको अजीव और रूपी कहा है इसलिये वचनका योग रूपी और अजीव है । वह पाठ यह है "आयाते ! भासा अण्णा भासा ? गोयमा ! णो आया भासा अण्णा भासा ! रूपी भंते ! भासा अरुपो भासा ? गोयमा ! रूपी भासा णो अरूपी भासा" अर्थ : -- [ प्रश्न ] हे भगवन् ! भाषा, ( वचन ) आत्मा है या अन्य है ? [ उत्तर ] हे गोतम ! भाषा आत्मा नहीं है, आत्मासे अन्य है 1 [ प्रश्न ] हे भगवन् ! भाषा ( वचन ) रूपवती है या अरूपवती है ? [ उत्तर ] हे गोतम ! भाषा रूपवती है अरूपवती नहीं है । इसी तरह मनके विषय में भी पाठ आया है। वह पाठ यह है- Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रवाधिकारः। ४५१ "आया भन्ते ! मणे अण्णे मणे णो आया मणे अण्णे मणे" अर्थ :-- हे भगवन् ! मन आत्मा है या आत्मासे भिन्न है ? हे गोतम ! मन आत्मा नहीं है किन्तु वह आत्मासे भिन्न है। उक्त पाठमें मन और वचनको रूपी और आत्मासे भिन्न कहा है इस लिये उनके योग भी रूपी और अजीव हैं इस लिये मन वचन और योगको एकान्त मरूपी और जीव मान कर आश्रवको एकान्त जीव कहना अज्ञान है। भाव मन और भाव वचनकी कुयुक्ति लगा कर आश्रवको एकान्त जीव और मरूपी बताना भी मिथ्या है क्योंकि मूलपाठमें भाव होनेसे किसीको एकान्त अरूपी और जीव नहीं कहा है और द्रव्य होनेसे किसीको एकान्त रूपी और अर्ज व भी नहीं कहा है अत: शास्त्र विरुद्ध आश्रवको एकान्त अरूपी और जीव मानना मिथ्यात्वका परिणाम समझना चाहिये। [बोल २१ समाप्त (प्रेरक) आश्रवको जीव और अजीव दोनों ही प्रकारका कहीं कहा हो तो उसे उदाहरण सहित बतलाइये ? (प्ररूपक) ठाणांग सूत्रकी टीकामें आश्रवको जीव और अजीव दोनोंमें ही माना है। वह टीका यह है ___ "नव सब्भावे" त्यादि सभावेन परमार्थेनानुपचारेणेत्यर्थः पदार्थाः वस्तूनि नव सद्भावपदार्थास्तद्यथा जीवाः सुखदुःखज्ञानोपयोगलक्षणाः अजीवास्तद्विपरीताः पुण्यं शुभप्रकृतिरूपं कर्म, पापं तद्विपरीतं कम व । आश्रूयते गृह्यते कर्माऽनेनेत्याश्रवः शुभाशुभ कर्मादान हेतुरिति भावः । संवर आश्रवनिरोधो गुप्त्यादिभिः निर्जरा विपाकात्तपसावा कमणां देशतः क्षपणा वन्ध आश्रवैगत्तस्य कर्मणः आत्मना संयोगः । मोक्षः कृत्स्न कर्मक्षयादात्मनः स्वात्मन्यधिष्ठानम्। ननु जीवाजीव व्यतिरिक्ताः पुण्यादयोनसंति तथा युज्यमानत्वात् तथाहि-पुण्य पापे कर्मणी वन्धोऽपि तदात्मकएव । कर्मच पुद्गल परिणामः पुद्गलाश्चाजीवा इति । माश्रवस्तु मिथ्यादर्शनादिरूपः परिणामो जीवस्य सवात्मानं पुद्गलांश्च विरहय्यकोऽन्यः। संवरोऽपि आश्रवनिरोधलक्षणो देशसर्वभेदादात्मनः परिणामो निवृत्तिरूपः । निर्जर.तु कर्म पग्शिाटोजीवः कर्मणां यत्पार्थक्य मापादयति स्वशक्त्या । मोक्षोऽप्यात्मा समस्त कर्म विरहित इति तस्मान्जीवाजीबो सदभावपदार्थाविन्ति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ सद्धर्ममण्डनम् । वक्तव्यम् अतएवोक्तमिद्दैव " यदत्थि चणं लोए तंसव्वं दुप्पडोयारं तंजहा - जीवच्चेअ अजीवचचेअ अथोच्यते सत्यमेतत् किन्तु द्वावेव जीवाजीव पदार्थों सामान्येनोक्तौ तावेवेह विशेषतो नवधोक्ताविति” अर्थ : :― ज्ञान और उप अजीव है । शुभ प्रकार हैं ( १ ) जीव ( २ ) अजीव ( ३ ) पुण्य ( ४ ) पाप ( ५ ) आश्रव ( ६ ) संवर ( ७ ) निर्जरा ( ८ ) बंध ( ९ ) मोक्ष | सुख दुःख योग लक्षण पदार्थको जीव कहते हैं और उससे भिन्न पदार्थका नाम प्रकृति रूप कर्म 'पुण्य' और अशुभ प्रकृति रूप कर्म पाप कहलाते हैं । शुभ और अशुभ दोनों ही प्रकार कर्मीका ग्रहण जिससे होता है उसे "आश्रव" कहते हैं । गुप्ति आदिके श्रवको रोक देना 'संवर' है । विपाक या तपस्यासे देशसे कर्मों का क्षपण करना निर्जरा है । श्रव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्मों का आत्मा के साथ संयोग होना 'बंध' कहलाता है । सब कर्मों के क्षय होनेपर आत्माका अपने स्वरूपमें स्थित हो जाना 'मोक्ष' है । ( शंका ) उक्त नव ही पदार्थ जीव और अजीव नामक दो ही पदार्थ में शामिल हो जाते हैं। इन्हें अलग कहने की क्या आवश्यकता है ? पाप और पुण्य कर्मस्वरूप हैं और वन्ध भी कर्म स्वरूप ही है कर्म पुद्गलोंका परिणाम है पुद्गल अजीव हैं इसलिये पाप, पुण्य और वन्ध ये तीनों पदार्थ अजीवमें गतार्थ होते हैं । मिथ्या दर्शनादि रूप आश्रव जीवका परिणाम है वह जीव और पुद्गलोंको छोड़कर अन्य क्या हो सकता है ? ( अर्थात् श्रव कोई तो जीवका परिणाम है और कोई पुद्गलका परिणाम है अत: वह जीव और अजीव दोनोंमें ही गतार्थ है ) देश या सर्वसे आश्रवको रोकने वाला निवृत्तिस्वरूप संवर भी जीवका ही परिणाम है। कर्मों का परिशाटन रूप निर्जरा भी जीव स्वरूप ही है क्योंकि जीव ही अपनी शक्ति से कर्मों को अपनेसे पृथक कर देता है । मोक्ष भी जीवस्वरूप ही है क्योंकि समस्त कर्मों से रहित हुआ जीव ही मोक्ष माना जाता है इस प्रकार उक्त नौ ही पदार्थ जीव और अजीव नामक दो ही पदार्थ में शामिल हो जाते हैं । • कहा भी है-छोकमें जो कुछ देखा जाता है वह कोई तो जीव और कोई अजीव है । ( उत्तर ) यह सत्य है परन्तु सामान्य रूपसे संक्षेपमें बतलाये हुए जीव और अजीव पदार्थों का ही यहां विशेष रूपसे उल्लेख करके उनका प्रपंच समझाया गया है इस लिये यहां जो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - आश्रवाधिकारः। पदार्थोका नौ भेद किया है इसमें कोई दोष नहीं है। वास्तवमें पदार्थ जीव और अजीव दो ही हैं। यहां टीकाकारने आश्रवके विषयमें लिखा है कि "सचात्मानं पुद्गलांश्च विरहय्य कोऽन्यः" अर्थात् वह आश्रव आत्मा और पुद्गलोंको छोड़कर अन्य क्या है ? अर्थात कुछ भी नहीं है । आश्रव, आत्मा और पुद्गल इन दोनोंका परिणाम स्वरूप ही है यह टीकाकारका आशय है इस लिये आश्रवको एकान्त जीव मानना इस टीकासे विरुद्ध समझना चाहिये । यद्यपि टीकाके इस पूर्वोक्त वाक्यके पहले आश्रवके सम्बन्धमें यह वाक्य आया है कि "आश्रवस्तु मिथ्यादर्शनादिरूपः परिणामो जीवस्य" तथापि इस वाक्यमें “परिणामो जीवस्य" इसमें दो तरहका सन्धि विच्छेद है-"परिणामः जीवस्य" परिणामः अजीवस्य" इन दोनों ही प्रकारका छेद करके आश्रवको जीव और अजीव दोनोंका परिणाम बताना टीकाकारको इष्ट है। यदि आश्रवको केवल जीवका ही परिणाम बताना इष्ट होता तो टीकाकार यह कैसे लिखते कि "सचात्मानं पुद्गलांश्च विरहय्य कोऽन्यः। अतः टीकाकारका "परिणामो जीवस्य” इसमें पूर्वोक्त गतिसे द्विविध सन्धिका विच्छेद करना तात्पर्य है। परन्तु जीतमलजीने भोले जीवोंको भ्रममें डालनेके लिये इस टीकाके "सचात्मानं पुद्गलांश्च विरहय्य कोऽन्यः इस वाक्यका अर्थ नहीं करके केवल "आश्रवस्तु मिथ्या दर्शनादिरूपः परिणामो जीवस्य इसीका अर्थ करके छोड़ दिया है और वह अर्थ भी "परिणामः जीवस्य" इस विच्छेदके अनुसार ही किया है “परिणामः अजीवस्य" इस विच्छेदके अनुसार नहीं किया है अतः माश्रवको एकान्त अजीव कहना उनका अज्ञान समझना चाहिये । बोल २२ वां समाप्त (प्ररूपक) भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशा १ में पाठ आया है कि-"दुखी दुखेण फुडे नो अदुखी दुखेण फुडे' अर्थात् कर्मों से युक्त पुरुष ही कर्मका स्पर्श करता है परन्तु अकर्मा पुरुष, कर्मका स्पर्श नहीं करता" यदि अकर्मा ( कर्म रहित ) पुरुषको भी कर्मका स्पर्श हो तो सिद्धात्मा पुरुषों में भी कर्मका स्पर्श मानना पड़ेगा। परन्तु यह बात नहीं होती अतः निश्चित होता है कि कर्म भी कर्मके ग्रहण करनेमें कारण होनेसे आश्रव हैं। तथा भगवती में इस पाठके आगे यह पाठ आया है कि "दुखी दुखं परियायइ" अर्थात कर्मसे युक्त मनुष्य कर्मका ग्रहण करता है" इस पाठसे कर्मका आश्रव होना सिद्ध होता है। कर्म पौद्गलिक अजीव है इस लिये आश्रव, पौद्गलिक अजीव भी सिद्ध होता है उसे एकान्त जीव मानने वाले अज्ञानी हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५४ सद्धममण्डनम् । इसके पहले के वोलमें ठाणाङ्ग सूत्रकी टीकाकी साक्षी देकर जो पाप, पुण्य और वन्धको अजीवमें, और संवर, मोक्ष तथा निर्जराको जीवमें एवं आश्रवको जीव ओर अजीव दोनों ही में गतार्थ पिया है वह निश्चय नयके अनुसार सम्झना चाहिये क्योंकि व्यवहारनय में पाप, पुण्य और बन्ध को आत्मा का परिणाम भी कहा है। वह पाठ यह है। "अहभंते ! पाणाइवाए मुसावाए जावमिच्छादसणसल्ले, पाणाइवायवेरमणे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे उप्पत्तिया जाव परिणामिया उग्गहे जावधारणा उहाणे कम्मे वले वीरिए पुरिसकार परकमे णेरइयत्ते असुर कुमारत्ते जाव वेमाणियत्ते णाणावरणिज्जे जाव अन्तराइए कण्ह लेस्ला जाच सुक्कलेस्सा समदिटिए ३ चक्ख दसणे ४ ओरालिय सरीरे ५ मण जोगे ३ सागारोक्योगे जेयावष्णे तहप्पगारा सव्वेते णणस्थ आत्ताए परिणमन्ति ? हंता ! गोयमा ! पाणाइवाए जाव सवेते णणत्थ आत्ताए परिणमन्ति ।" (भगवतो शतक २० उद्देशा ३) अर्थ: हे भगवन् ! प्राणातिपात और मृपा वादसे लेकर मिथ्यादर्शन शल्य पर्यन्त, और प्राणातिपात घिरमणसे लेकर यावत् मिथ्या दर्शन शल्य विवेक पर्यन्त, औत्पातिकी यावत् परिणामिकी, अवग्रह यावत् धारणा, उत्थान, बल, वीर्य, कर्मा, पुरुषाकार पराक्रम, नैरयिकत्व, असुर कुमारत्व, यावत् वैमानिकत्व, ज्ञानावरणीय यावत् आन्तरायिक, कृष्ण लेश्या यावत् शुक्ल लेश्या, सम्यग्दृष्टि आदि दि चार, आभिनिवोधिकादि पांच ज्ञान, यावत विभंग ज्ञान आहारादि चार संज्ञाए औदारिकादि पांच शरीर, मनोयोगादि तीन योग, साकार और अनाकारोपयोग ये सब पदार्थ क्या आत्माके ही परिणाम हैं ? [उत्तर ] हा गोतम ! प्राणातिपातसे लेकर उक्त सभी बोल आत्माके ही परिणाम हैं दूसरोके नहीं। __ इस पाठमें प्राणातिपातसे लेकर अनाकारोपयोग पर्यंत सभी आत्माके ही परिणाम कहे हैं इसलिये पुण्य पाप और बंध भी व्यवहारनय में जीव है इन्हें एकांत अजीव कहना अज्ञानका परिणाम है । बोल २३ वां समाप्त ( इति आश्रवाधिकारः समाप्तः) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ जीवाजीवादि पदार्थ विचारः। (प्ररूपक) जैन शास्त्रमें, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा बंध और मोक्ष ये नव तत्व माने गये हैं। ये नव ही तत्व, किसी न्यायसे रूपी और किसी न्यायसे मरूपी हैं। इसका विवेक नीचे लिखे अनुसार समझना चाहिये । जीव, निश्चयनयसे मरूपी और व्यवहार नयसे रूपी है। कौए बगले आदि । शरीर धारी प्राणियोंको जीव कहते हैं और वे रूपी हैं अतः व्यवहार नयसे जीव रूपी है। सिद्धात्मा, रूपरहित होते हैं और वे भी जीव हैं इसलिये निश्चय नयसे जीव निगकार निरसन और रूप रहित है। ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा दोमें जीवके दो भेद किये हैं एक संसारी और दूसरा सिद्ध उनमें संसारी जीव रूपी और सिद्ध अरूपी हैं। अजीव पदार्थ भी रूपी और अरूपी दो तरहका है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ये अरूपी हैं और पुद्गल रूपी है। पुण्य और पाप, रूपी और अरूपी दो तरहके हैं। आत्माका, अन्नादि दान करनेके लिये जो शुभ अध्यवसाय होता है वह पुण्य है। उक्त शुभ अध्यवसाय अरूपी है इसलिये पुण्य अरूपी है । ४२ प्रकारकी पुण्यकी प्रकृति अनंत पुदूगलोंके स्कन्धसे उत्पन्न होती हैं अत: शुभकरनीसे उत्पन्न हुआ पुण्य रूप फल रूपी है । हिंसा आदि करनेके लिये जो बुरा अध्यवसाय या आत्मपरिणाम होता है वह पाप है वह अध्यवसाय अरूपी है इसलिये पाप अरूपी है। पापका फल जो ८२ प्रकृतियोंका उदय है वह भी पाप कहलाता है और वह रूपवान् है इसलिये पाप रूपी भी है। आश्रव भी रूपी और अरूपी दो तरहका होता है शुभ, और अशुभ अध्यवसाय, छः भाव लेश्याए', मिथ्यात्व आदि जीवके परिणाम ये सब कर्मबन्धके कारण होने से मानव कहलाते हैं ये रूपी नहीं हैं इसलिये आश्रव अरूपी है। कर्म और अजीवकी २५ क्रियाएं, छः द्रव्यलेश्या, मिथ्यात्व आदि कर्मको प्रकृति ये सब कर्मबन्धके कारण होमेसे माश्रव कहे जाते हैं ये सब रूपी हैं इसलिये आश्रव भी रूपी है। संवर भी रूपी और अरूपी दो प्रकारका होता है। सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और अयोग ये सब संवर कहे जाते हैं । ये जीवके गुण और अरूपी हैं इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । 3 - मा लिये संवर भी अरूपी है। जवरूपी तालाबमें आने वाले कर्मरूपी जलको रोक देना संवर है और रुके हुए कर्म, रूपी हैं इसलिये संवर रूपी भी है। निर्जराभी रूपी और अरूपी दो प्रकारकी होती है । आत्माके किसो एक देशसे कर्मो का झड़ जाना और कर्मों के झड़ जानेसे आत्म प्रदेशका निर्मल हो जाना निर्जरा है। वह आत्म प्रदेश अरूपी है इसलिये निर्जग मरूपी है। आत्म प्रदेशसे झड़े हुए कर्म पुद्गल भी निर्जरा कहलाते हैं वे रूपी हैं इसलिये निर्जरा भी रूपी है। बन्ध भी रूपी और अरूपी दो तरहका होता है । शुभ और अशुभ कर्मों के बन्ध का हेतु जो आत्म परिणाम है वह “बंध" कहलाता है वह आत्म परिणाम अरूपी है इस लिये बंध भी अरूपी है। शुभ शौर अशुभ कर्मकी प्रकृतियोंके वन्धनको भी “बंध" कहते हैं । कर्मकी प्रकृति रूपी है इसलिये बंध भी रूपी है। मोक्ष भी रूपी और अरूपी दो प्रकारका है । आत्मा का कर्मबन्धन से सर्वथा छुट कर अपने सहज रूपमें स्थित हो जाना मोक्ष है वह आत्माका स्वाभाविक रूप है और आत्मा अरूपी है इसलिये मोक्ष अरूपी है। जो कर्म, आत्मासे पृथक् हो जाते हैं वे भी मुक्त कहे जाते हैं वे कर्म रूपी हैं इसलिये मोक्ष भी रूपी है। इस प्रकार नौही पदार्थ किसी अपेक्षासे रूपी और किसी अपेक्षासे अरूपी हैं। ( बोल १ समाप्त) (प्ररूपक) मुख्यनयसे चार पदार्थ रूपी चार अरूपी और एक मिश्र है। भगवती शतक १२ उद्देशा ५ में, माठ कर्म, अठारह पापस्थानक, दो योग, तैजस और कार्मण शरीर, सूक्ष्म स्कन्ध, इन तीस बोलोंमें पांच वर्ण, पांच रस, दो गंध और चार स्पर्श बतलाए हैं । घनोदधि धनवात, तनुवात, चार शरीर, वादर स्कन्ध, छ: द्रव्यलेश्या, और काय योग इनमें पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस और आठ स्पर्श कहे गये हैं। आठरह पापोंसे विरमण, वारह उपयोग, छ: भाव लेश्या, चार संज्ञाए औत्पत्यादिक बुद्धिके चार भेद, अवग्रहादिक चार मतिज्ञान, उत्थानादिक चार, तीन दृष्टि, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, जीवास्तिकाय, और काल इनको वर्ण, गंध, रस और स्पर्श रहित होनेसे अरूपी कहा है। अत: पुण्य, पाप, और बंध ये तीन कम स्वरूप होनेसे रूपी हैं। छः द्रव्यलेश्या, तीन योग, पांच शरीर, हिंसा, मृषावाद, चोरी, मिथुन, परिग्रह ये सब रूपी हैं और आश्रव हैं इसलिये आश्रव भी रूपी है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवादि पदाथ विचारः। ४५७ यद्यपि छः भावलेश्या, मिथ्यादृष्टि, और चार संज्ञा आदि भी माश्रव हैं और वे अरूपी हैं तथापि मुख्यनयमें ये रूपी ही माने जाते हैं क्योंकि आश्रवको त्यागनेयोग्य कहा है और त्याग रूपी वस्तुका ही होता है इसलिये मुख्यनयमें आश्रव रूपी है अरूपी नहीं। आश्रव उदयमावमें माना गया है इसलिये परगुण होनेसे वह रूपी है अरूपी नहीं। मन, और भाषा, चतुःस्पर्शी और अष्टस्पशी माने गये हैं और वे भी आश्रव हैं इसलिये निश्चयनयमें आश्रव रूपी ही है अरूपी नहीं है। अठारह पापोंसे निवृत्त हो जाना संवर है वह अरूपी है। निर्जरा और मोक्ष आत्माके स्वाभाविक गुण हैं इसलिये अरूपी हैं। जीव, निश्चयनयसे निराकार और निरजन है इसलिये जीव, संवर, मोक्ष, और निर्जरा ये चार निश्चय नयमें अरूपी हैं। __अजीव पदार्थमें धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ये चार अरूपी हैं और पुद्गल रूपी है इसलिये निश्चनयमें अजीव तत्त्व, रूपी और अरूपी दोनों ही प्रकारका है। [बोल २ रा] उक्त नौ ही पदार्थ किसी अपेक्षासे जीव माने जाते हैं। किसी अपेक्षा से एक जीव और आठ अजीव माने जाते है। किसी अपेक्षासे आठ जीव और एक अजीव माना जाता है। किसी अपेक्षासे चार जीव और पांच अजीव माने जाते हैं परन्तु मुख्यनयमें एक जीव, एक अजीव और शेष सात पदार्थ जीव और अजीव इन दोनोंके पर्याय माने जाते है। इसका खुलासा इस प्रकार समझना चाहिये । जीव और अजीव आदि पदार्थों के वास्तविक स्वरूपको "तत्त्व" कहते हैं उसके ज्ञानका नाम तत्त्वज्ञान है वह तत्वज्ञान जीवरूप है इसलिये तत्वज्ञानकी अपेक्षासे नौ ही पदार्थ जीव माने जाते हैं। जैसे अनुयोग द्वार सूत्रमें शब्दादि तीन नयवालोंके मतमें मात्माके उपयोगको "पायली' कहा है और आत्माका उपयोग आत्मस्वरूप है इसलिये पायलीको भी आत्मा कहा है उसी तरह नवतत्वोंका जो उपयोग है वही नवतत्व है और वह उपयोग जीव है इसलिये शब्दादि तीन नयवालोंके मतमें नव ही तत्त्व जीव हैं। किसी अपेक्षासे एक जीव और आठ पदार्थ अजीव हैं । एक तो अजीव पदार्थ स्वत: सिद्ध हो है बाकीके सात पदार्थों का द्रव्य, पुद्गल स्वरूप है इसलिये एक जीव और आठ पदार्थ अजीव हैं। . (किसी अपेक्षासे एक अजीव और आठ जीव हैं) ५८ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मण्डनम् । इसका विचार इस प्रकार है:: - उक्त नव तत्त्वोंमें एक तो जीव सिद्ध है वाकी, अजीव तत्वको छोड़कर सब जीव हैं क्योंकि पन्नावगा सूत्रके पांचवें पदमें ३६ बोलों आत्मा कहा है। भगवती शतक १३ उद्देशा ७ में कायको आत्मा, सचेतन और जीव कहा है । आवश्यक सूत्रमें "सचित्त आहारे" यह पाठ देकर आहारको सचित्त कहा है । भगवती शतक २० उद्देशा २ में ११६ बोलोंको जीवात्मा कहा है । वे बोल ये हैं - ४५८ अठारह पाप और अठारह पापोंसे विरमण, औत्पातिकी आदि चार बुद्धि, अवग्रहादिक मति ज्ञानके चार भेद, उट्ठाणादिक पांच वीर्य्य नारकी आदि चौबीस दण्डक, ज्ञानावरणादिक माठ कर्म, छः लेश्या, तन दृष्टि, चार दर्शन, पांच ज्ञान, तीन अज्ञान, चार संज्ञा, पांच शरीर, तीन योग, दो उपयोग ये ११६ बोल जीवात्माके परिणाम हैं । इन बोलों में पाप, पुण्य, आश्रव, संवर, बंध, मोक्ष, निर्जरा सभी शामिल हैं इस लिये आठ जीव हैं और एक अजीव है । ठाणांग सूत्र के दूसरे ठाणा में कालको जीव और अजीव दो तरहका माना है वहां कहा है कि जीवके साथ सम्बन्ध रखने वाले काल, धूप, छाया, भवन, विमान आदि जीव हैं और अजीवके साथ सम्बन्ध रखने वाले पूर्वोक्त काल आदि अजीव है । संसारी जीव पुण्य, पाप आश्रम, संवर, निर्जरा, वन्ध और मोक्ष ये आठ पदार्थ कर्म और काया को छोड़कर नहीं रहते किन्तु इनके साथ ही रहते हैं । अतः ये आठ पदार्थ जीव, हैं और एक अजीव है । [ बोल ३ ] ( किसी अपेक्षासे चार जीव और पांच अजीव हैं ) पुण्य, पाप, आश्रव और बन्ध, जीवके निज गुण नहीं हैं किन्तु कर्मके परिणाम रूप होनसे ये दूसरेके गुण हैं । अतः निश्चय नयमें ये चारों अजीव हैं संवर, निर्जरा और मोक्ष ये आत्मा निज गुण हैं इस लिये गुण गुणीके अभेद न्यायसे निश्चय नयमें हैं । अनुयोगद्वार सूत्रमें लिखा है कि ये --- "जीवगुणप्पमाणे तिविहे पन्नत्ते तंजहा - नाणगुणप्पमाणे दंसणगुणप्पमाणे चरितगुणप्पमाणे" . अर्थात्, ज्ञान, दर्शन और चारित्र ये तीनों आत्माके निजगुण हैं इस लिये गुण गुणी अभेद होने से ये भी जीव हैं । उत्तराध्ययन सूत्रके २८ वें अध्ययनमें जीवका लक्षण बताते हुए लिखा है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवादि पदार्थ विचारः। ४५९ "जीव उपयोग लक्खणं" नाणंच दसणं चैव चरितंच तवो सहा वोरियं य उवयोगो य एवं जीवस्स लक्खणं" __अर्थात ज्ञान दर्शन चारित्र तप वीा और उपयोग, ये जीवके लक्षण हैं । अतः गुण गुणीके अभेद होनेसे ये भी जीव हैं । भाचारांग सुत्रके पांचवें अध्यायमें मूलपाठ आया है कि "जे आया से विन्नाया" अर्थात् जो आत्मा है वही विज्ञान है। इस लिये विज्ञान भी आत्मा है। भगवती सूत्र शतक १ उद्देशा ९ में महावीर स्वामीके स्थविरोंने कालाश्य-वैशिक मुनिसे कहा है कि "आयाणं अजो सामाइए आयाणं मजो सामाइयस्स अट्ठो” अर्थात् हे आर्यों ! आत्मा ही सामायक है और आत्मा ही सामायकका प्रयोजन है । इसी तरह संयम, प्रत्याख्यान, चारित्र और व्युत्सर्ग ये सब भी आत्मा कहे गये हैं। अतः संवर, निर्जरा और मोक्ष आत्माके निज गुण होनेसे जीव हैं । पाप, पुण्य, आश्रव और वन्ध ये कहीं भी निश्चय नयमें आत्माके निज गुण नहीं कहे हैं किन्तु कर्मके परिणामस्वरूप होनेसे ये दूसरे के गुण हैं। अत: जीव, संवर और मोक्ष तथा निर्जरा ये चार पदार्थ जीव हैं और अजीव, आश्रव, पाप, पुण्य और वन्ध ये पांच अजीव हैं। [बोल ४ समाप्त ] (किसी अपेक्षासे एक जीव, और एक अजीव और सात इन दोनोंके पर्याय हैं ) पन्नावणा सूत्रके पांचवें पदमें कहा है कि द्रव्य, प्रदेश, पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध, आठ स्पर्श, बारह उपयोग, पुद्गल जनित शरीरका अवगाहन, आयुष्यकी स्थिति, ये ३६ बोल जीवके पर्याय हैं। किसीमें जीवकी और किसीमें अजीवकी प्रधानता होनेसे किसीको जीव और किसीको अजीव कहा है। इन बोलोंमें कई तो संवर निर्जरा और कई मोक्ष स्वरूप हैं और कई पुण्य, पाप, आश्रव और वन्ध स्वरूप हैं अतः जीव और अजीव तत्वको छोड़ कर शेष सात पदार्थ इन दोनोंके ही पाय हैं यह बात सिद्ध होती है। यहां कई नयोंका आश्रय लेकर संक्षेपसे नव तत्वोंका विचार किया गया है। क्योंकि किसी एक नयका आश्रय लेकर शेष नयों की अवहेलना करना जैन शास्त्रसे विरुद्ध है। अत: किसी नयको मुख्य और किसीको गौण मानकर पदार्थोंका स्वरूप बताना ही जैन धर्मका सिद्धान्त है इस लिये वुद्धिमानोंको पक्षपात छोड़ कर अनेकान्त नयस्वरूप जैन सिद्धान्तानुसार इन पदार्थों का स्वरूप जानना चाहिये। यदि किसी कोमलबुद्धि वाले Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६० सद्धर्ममण्डनम् । पुरुषको उक्त बातें समझ न पड़े तो उसे पक्षपात रहित होकर भगवती सूत्रोक्त वाक्यानुसार अपनी आत्माको पवित्र करना चाहिये। "तमेवसच निःसंकं जं जिणेहिं पव्वएइयं" अर्थात् जिनवरोंने जो कहा है वही सत्य है उसमें थोड़ी भी शंका नहीं है । ऐसी भावना रखनेसे भी पुरुष भगवानकी आज्ञाका आराधक हो सकता है । ( बोल ५ वां समाप्त) इति नव तत्व विचारः। CRIP Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ जीवभेदाधिकारः। (प्रेरक) • भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३३६ पर लिखते हैं कि “केतला एक अज्ञानी भुवनपति वाण व्यन्तरमें अने प्रथम नरकमें जीवरा तीन भेर कई" इनके कहनेका आशय यह है कि "प्रथम नारकी, भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें जीवके दोही भेद होते हैं। असंज्ञीका अपर्याप्त नामक तीसरा भेद नहीं होता" ___ इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) . प्रथम नारकी, भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें जीवका तीसरा भेद न मानना मूर्खता है क्योंकि शास्त्रके मूलपाठ मौर टीकासे प्रथम नारकी, भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें जीवोंके तीन भेद सिद्ध होते हैं। इस विषयमें पन्नावणा सुत्रमें यह पाठ आया है- "जीवाणं भन्ते ! कि सन्नी कि असन्नी नो सन्नी नो असन्नी ? गोयमा ! जीवा सन्नीवि असन्नीवि नोसन्नी नोअसन्नीवि । नेरइयाणं पुच्छा ? गोयमा ! नेरइया सन्नीवि असन्नीवि नो नोसन्नो नो असन्नी" (पन्नावणा) अर्थ : है भगवन् ! जीव सजी होते हैं या असंज्ञी होते हैं अथवा संज्ञी असंज्ञी इन दोनोंसे भिन्न होते हैं ? [३०] हे गोतम ! जीव संज्ञी भी होते हैं असंज्ञी भी होते हैं और इन दोनोंसे भिन्न भी होते हैं। [प्र.] हे भगवन् नारकि जीवके विषयमें प्रश्न है ? [उ०] हे गोतम ! नारकि जीव संज्ञी और असंज्ञी दो प्रकारके होते हैं परन्तु इससे भिन्न नहीं होते। इसके आगे चलकर पन्नावणा सूत्रमें व्यन्तर देवोंके विषयमें भी ऐसा ही पाठ आया है और असुर कुमारसे लेकर स्वनित कुमार पर्यन्त भुवनवासी देवताओंके विषय में भी यही बात कही है इस लिये प्रथम नारकि भुवनपति और व्यन्तर देवताओंमें असंज्ञीका भेद होना भी शास्त्रसे सिद्ध होता है तथापि उसे न मानना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मसद्धमण्डनम्। भगवतो सूत्र शतक १३ उद्देशा १ में यह मूलपाठ आया है - "गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवोए तीसाए णिरयावास सय सहस्सेसु संखेन्जावि पत्थडेंस नरयेसु संखेज्जा रया पण्णत्ता संज्जा काउलेस्सा पण्णत्ता एवं जाव संखेला सन्नी पण्णत्ता असंज्ञो सिय अस्थि सिय णो अस्थि जइ अस्थि एक्कोवा दोवा तीणिवा उक्कोसेणं संखेना पण्णत्ता" (भगवती शतक १३ उद्देशा १) अर्थ : हे गोतम ! रत्नप्रभा नामक पृथिवीमें कुल तीस लाख नारकि जीव के निवास स्थान हैं उनमें कई संख्यात योजन और कई असंख्यात योजन विस्तृत हैं। संख्यात योजन विस्तृत नरकावासोंमें संख्यात नारकि और संख्यात कापोतलेशी जीव रहते हैं । संख्यात नारकि जीव संज्ञी हैं परन्तु असंज्ञी जीव इन नरकोंमें कभी होते हैं और कभी नहीं भी होते हैं यदि होते हैं तो १-२-३ और उत्कृष्ट संख्यात होते हैं। इस पाठमें नारकि जीवोंमें जघन्य १-२-३ और उत्कृष्ट संख्यात असंज्ञी जीव कहे गये हैं । तथा असंख्यात योजन वाले नरकाबासमें असंत्र्यात असंज्ञी जीव माने गये हैं । भगवती शतक १३ उद्देशा २ में भुवनपति और व्यन्तर देवोंके लिये भी इसी तरह का पाठ आया है इसलिये प्रथम नारकी भुवनपति तथा व्यन्तर देवोंमें असंज्ञीका अपर्याप्त नामक भेद न मानना अयुक्त है। ऊपर लिखे हुए पाठ जो "सिय अत्थि सिय नो अत्थि" यह असंज्ञीके विषयमें पाठ आया है इसका अभिप्राय बताते हुए टीकाकारने यह लिखा है "असज्ञिभ्य उद्धृत्य ये नारकत्वेनोत्पन्नास्तेऽपर्याप्तावस्थायामसंझिनो भूतभावत्वात्ते चाल्पा इति कृत्वा" "सिय अत्थि" इत्याधु क्तम्” अर्थात् जो जीव असंज्ञीसे निकलकर नरकमें जाते हैं वे अपर्याप्तावस्थामें असंज्ञी ही होकर रहते हैं वे जीव बहुत अल्प होते हैं इस लिये मूलपाठमें लिखा है कि "सिय अत्थि" इत्यादि । यहां टीकाकारने मूलपाठका आशय समझाते हुए नारकि जीवोंमें असंज्ञीके अपयाप्त नामक भेदका स्पष्ट उल्लेख किया है अत: नारकि जीवोंमें असंज्ञीके अपर्याप्त नामक भेदको न मानना उक्त मूलपाठ और टीकासे विरुद्ध होनेके कारण अप्रामाणिक समझना चाहिये। मगवती सूत्र शतक १ उद्देशा ४ में संज्ञी नारकि और देवतामें काला देशके छः भङ्ग बतलाये हैं एवं जीवाभिगम सूत्रमें नारकि, भुवनपति, और व्यन्तर दोवोंके संझी और असंज्ञी दोनों ही भेद कहे गये हैं। वहांका पाठ यह है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवभेदाधिकारः। ४६३ "तेसिंग अन्ने जीवा किं सन्नी असन्नी ? गोयमा ! सन्नीवि असन्नोवि" इस पाठमें प्रथम नरकके जीवोंको संज्ञी और असंज्ञी दोनों ही तरहका कहा है। एवं इसी जीवाभिगम सूत्रमें नारकि जीवोंका ज्ञान के विषयमें प्रश्न करने पर भगवान्ने यह उत्तर दिया है "जे अण्णाणी ते अत्ोगइया दुअण्णाणी अत्ोगइया ती अ. ण्णाणी । जेय दुअण्णाणी ते णियमा महअण्णाणी सुयअण्णाणोय" (जीवाभिगम सूत्र) (टीका) ये नारका असंझिनस्तेऽपर्याप्तावस्थायां दू यज्ञानिन: पर्याप्तावस्थायान्तु ज्यशानिनः" _अर्थात् जो नारकि जीव असंज्ञी हैं वे अपर्याप्तावस्थामें दो अज्ञानवाले होते हैं और पर्याप्तावस्थामें तीन अज्ञानवाले होते हैं। जो नारकि दो अज्ञानवाले होते हैं वे नियमसे मति अज्ञान और श्रुत अज्ञानवाले होते हैं। यह उक्त मूलपाठ और उसकी टीकाका मिलित अर्थ है। . इस मूलपाठमें असंज्ञी नारकि जीवको दो अज्ञानवाला कहा है और टीकाकारने स्पष्ट लिखा है कि असंज्ञी नारकि अपर्याप्तावस्थामें दो अज्ञानसे युक्त होते हैं यहां टीकाकारने तो नारकि जीवोंमें असंज्ञीके अपर्याप्त नामक भेदका स्पष्ट रूपसे प्रतिपादन किया है इसलिये नारकि जीवोंमें असंज्ञीके अपर्याप्त नामक भेदको न मानना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये । इस पाठके आगे भुवनपति और व्यन्तर देवोंके लिये भी इसी तरहका पाठ आया है इसलिये भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें भी असंझीके अपर्याप्त नामक मेद होना स्पष्ट सिद्ध होता है तथापि उसे न माननां अपने अज्ञानका परिचय देना समझना चाहिये। (बोल १) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३३७ पर पन्नावणा सूत्र पद १५ उद्देशा १ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं "इहां कह्यो मनुष्यना दो भेद । सन्नीभून ते विशिष्ट अवधिज्ञान सहित मनुष्य" इत्यादि लिख कर आगे लिखते हैं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ सद्धर्ममण्डनम्। "ते अवधिज्ञान रहितने असन्नीभूत कह्यो पिण असन्नीरो भेद न पावे तिम नेरइयाने असन्नीभूत कह्या पिण असन्नीगे भेद न पावे । ए नेरइया अने देवताने असन्नी कह्या ते संज्ञावाची छै । जे अवधि विभंग रहित नेरइयानो नाम असंज्ञी छ । जिम विशिष्ट अवधि रहित मनुष्य निर्जरया पुद्गल न देखे तेहने पिण असन्नीभूत करो" (भ्र० पृ० ३३७) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) गर्भज मनुष्यको शास्त्रमें जगह जगह संज्ञीभूत कहा है और पन्नावणा सूत्रमें उसे असंज्ञीभूत भी कहा है, इससे संशय उत्पन्न होता है कि शास्त्रमें जब कि जगह जगह गभज मनुष्यको संज्ञीभूत कहा है तब पन्नावणा सूत्र में उसे असंज्ञीभूत क्यों कहा ? इसका समाधान यह किया जाता है कि पन्नावणा सूत्र में जो गर्भज मनुष्यको मसंज्ञीभूत कहा है उसका अभिप्राय अवधिज्ञान रहित होना है संज्ञीका विरोधी असंज्ञी होना नहीं है क्योंकि ऐसा माननेसे पन्नावगा सूत्रके साथ दूसरे सूत्रोंका विरोध पड़ता है अतः विशिष्ट अवधि ज्ञान रहित होनेकी अपेक्षासे ही पन्नावणामें गर्भज मनुष्य को असंज्ञी भूत कहा है संज्ञोका विरोधी असंज्ञी होनेसे नहीं परन्तु यह दृष्टांत, असंज्ञीसे मर कर नारकि भुवनपति ओर व्यन्तर देवोंमें उत्पन्न होने वाले जीवोंमें नहीं घटता है क्यों कि उन जीवोंको सभी जगह असंज्ञो हो कहा है संज्ञोभून कहीं नहीं कहा है। यदि किसी जगह उन्हें संज्ञी भी कहा होता तो मनुष्य के विषयमें कहेहुए पन्नावणा सूत्रके उक्त पाठका दृष्टान्त देकर नारकि, भुवनपति, और व्यन्तर देवोंमें असंज्ञीके भेदका निषेध किया जा सकता था परन्तु असंज्ञासे मर कर नारकि आदिमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंको कहीं भी संज्ञो नहीं कहा है अतः पन्नावणा सुत्रका दृष्टांत देकर नारकि भुवनपति और व्यन्तर देवों में मसंज्ञो के अपर्याप्त भेद को न मानना अज्ञान का परिणाम समझना चाहिये। (बोल २ समाप्त) (प्रेरक) ___ भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३३९ पर पन्नावणा पद ११ के मूलपाठको लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं ___"Aथ अठे पिण कह्यो-न्हाना वालक वालिका मनपटुता पण न पाम्यो विशिष्ट ज्ञान रहितने सन्नी न कहो पिण जीवरो भेद तेरमों छै तिणमें असन्नीरो भेद न थी तिम नेरइयाने असन्नीभूत कह्या पिण असन्नीरो भेद न थी' (भ्र० पृ० ३३९) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवभेदाधिकारः । ४६५ इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) वालक और वालिका, मनोयुक्त होते हैं मनोविकल नहीं होते इसलिये वास्तवमें वे संज्ञो ही हैं असंज्ञी नहीं हैं परन्तु पन्नावगा सूत्रमें विशिष्ट ज्ञान रहित होनेसे उन्हें असंही कहा है। अतएव शास्त्रमें उत्तानशय बालक, और वालिकाओंको संज्ञी कह कर लिखा है परन्तु असंज्ञीसे निकल कर नरक, भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें उत्पन्न हुए जीवोंको कहीं भी संज्ञी नहीं कहा है इसलिये छोटे बालक और बालिकाका दृष्टांत देकर उक्त जीवोंमें असंज्ञीके भेदका निषेध काना अज्ञान मूलक है । यदि असंज्ञोसे मरकर नरक, भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें उत्पन्न होने वाले जीवको किसी जगह भी शास्त्र में संज्ञी कह कर बतलाया होता तो कदाचित् छोटे बालक और बालिकाके विषयमें आये हुए पन्नावणा सूत्रके मूलपाठका दृष्टांत देकर उक्त जीवोंमें असंज्ञीके अपर्याप्त भेदका निषेध किया जा सकता था परन्तु कहीं भी असंज्ञीसे मर कर नरक आदि में उत्पन्न होने वाले जोव को संज्ञो नहीं कहा है अत: उनमें असंज्ञी के भेद का निषेध करना मिथ्या है। . ( बोल ३) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३४० पर दश वैकालिक सूत्रकी गाथा लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं। "अथ इहां ८ सूक्ष्म कह्या धूवर प्रमुखनी सूक्ष्म स्नेह न्हाना फल कुंथुआ उत्तिंग कीडी नागरा नीलग फूलण वीज खसखसादिकाना न्हाना अंकुर किडी प्रमुखना अण्डा सूक्ष्म कह्या । ते न्हाना मांटे सूक्ष्म छै पिण सूक्ष्मरो जीवरो भेद नहीं तिम नेरइया अने देवताने असन्नी कह्या पिण असन्नीरो भेद नहीं" (भ्र० पृ० ३४०) इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक) किडी आदि जीव, शास्त्रमें जगह जगह, त्रस जीवोंमें गिने गये हैं सूक्ष्म जीवोंके भेदमें नहीं गिने गये हैं इसलिये छोटा होनेके कारण उन्हें दशवैकालिक सूत्रमें सूक्ष्म कहा है परन्तु यह दृष्टांत असंझीसे मर कर नरक, भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें उत्पन्न होने वाले जीवोंमें नहीं घटता क्योंकि असंज्ञीसे मर कर नरक भुवनपति, और व्यन्तर देवोंमें उत्पन्न होने वाले जीवको कहीं भी संज्ञी नहीं कहा है किंतु सर्वत्र असंझी ही कहा है Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । अत: दशवैकालिक सूत्र के दृष्टांत से नरक, भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें असंज्ञीके अपर्याप्त नामक भेद को न मानना अज्ञान है । ( बोल ४ ) ४६६ (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३४२ पर अनुयोगद्वार सूत्रका मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते है: "अथ इहां विशेष अविशेष ए वे नाम कह्या तिणमें व्यविशेषधी तो मनुष्य विशेथी संमूच्छिम गर्भज । अने व्यविशेषथी तो संमूच्छिम मनुष्य अने विशेषथी 1 तो अपर्याप्त कह्यो । इहां संमूच्छिम मनुष्यने पर्याप्तो अपर्याप्तो ते केतलीक पर्याय बांधी ते पर्याय आश्री पर्याप्तो कह्यो । अने सम्पूर्णत: वांधी ते न्याय अपको। संमूच्छिम मनुष्यने पर्याप्तो कह्यो पिण पर्य्याप्ता में जीवरा सात भेद पावे ते मांहिलो भेद न थी । जे देवताने असंज्ञी कह्या मांटे असन्नीरो जीवरो भेद कहे तो तिणरे लेखे संमूच्छिम मनुष्यने पिण पर्याप्तो ह्या मांटे पर्याप्तारो भेद कहिणो अने संमूच्छिम मनुष्य में पर्य्याप्तारो भेद न थी कहे तो देवतामें पिण असन्नीरो भेद न कहिणो" ( ० पृ० ३४२ ) इसका क्या उत्तर ? ( प्ररूपक ) संमूच्छिम मनुष्यका दृष्टांत देकर प्रथम नारकि, भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें असंज्ञके भेदका निषेध करना अयुक्त है क्योंकि अन्य सूत्रोंमें संमूच्छिम जीवों में पर्याप्तपनेका स्पष्ट निषेध किया है इसलिये संमूच्छिम मनुष्योंमें पर्याप्तका भेद नहीं माना जा सकता परन्तु प्रथम नारकि, भुवनपति, और व्यन्तर देवोंमें असंज्ञीके अपcaca भेदका कहीं भी निषेध नहीं किया है इसलिये प्रथम नारकि, भुवनपति, और व्यन्तर देवों में असंज्ञी के अपर्याप्त नामक भेद का निषेध करना अप्रामाणिक है । यदि कोई कहे कि संमूच्छिम मनुष्योंमें पर्याप्तपनेका जब कि अन्य सूत्रों में निषेध किया है तब फिर अनुयोग द्वार सूत्रमें उसे पर्याप्त कैसे कहा है ? तो इसका समाधान यह है कि — जैसे अनुयोग द्वार सूत्रमें उदय आदि भावोंके २६ विकल्प, विकल्प मात्र दिखाने के लिये किये हैं परन्तु सभी विकल्पोंके उदाहरण नहीं मिलते उसी तरह संमूच्छिम मनुष्योंके दो भेद भी संभावना मात्रसे किये हैं परन्तु संमूच्छिम जीवों में पर्याप्त नामक भेदके होनेसे नहीं क्योंकि अन्य सूत्रोंमें संमूच्छिमजीवों में पर्याप्तपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीभेदाधिकारः । ४६७ का स्पष्ट निषेध किया गया है परन्तु यह बात प्रथम नारकि भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें नहीं घटती क्योंकि कहीं भी शास्त्रमें उनमें असंज्ञीके भेदका निषेध नहीं किया है अतः विविध कुतर्कों का आश्रय लेकर प्रथम नारकि, भुवनपति और व्यन्तर देवमें असंज्ञीके अपर्याप्त नामक भेद को निषेध करना अयुक्त है । ( बोल ५ वां समाप्त ) ( प्रेरक ) भगवती सूत्र शतक १३ उद्देशा २ के मूलपाठमें लिखा है कि "असुर कुमार देवतामें नपुंसक वेद नहीं पाया जाता है" यदि भुवनपतिमें बसंज्ञीका अपर्याप्त भेद होता है तो उसमें नपुंसक वेद भी पाया जाना चाहिये परन्तु यह बात भगवतीके उक्त शतक और उद्दे शके मूलपाठसे विरुद्ध है इस लिये भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें असंज्ञी के अपर्याप्त नामक भेदको मानना अयुक्त है । इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) प्रथम नारकि, भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें असंज्ञीके अपर्याप्त नामक भेदका शास्त्रमें स्पष्ट उल्लेख किया है इसलिये प्रथम नारकि, भुवनपत्ति और व्यन्तर देवोंमें संज्ञीका अपर्याप्त भेद होता है और असंज्ञीके अपर्याप्त भेदका उनमें सद्भाव होने से नपुंसक वेद भी उनमें पाया जाता है परन्तु वह अवस्था अन्तर्मुहूर्त की होती है इसलिये उसकी विवक्षा करके भगवती सूत्रके मूलपाठमें असुर कुमार देवतामें नपुंसक वेदका निषेध किया है । जैसे भगवती सूत्र शतक ३० उद्देशा पहलेमें सम्यग्दृष्टि द्वीन्द्रिय, त्रीन्त्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवको विशिष्ट सम्यक्त्वके अभावसे क्रियावादी और विनय वादी होने का निषेध किया है सर्वथा सम्यक्त्वके प्रभाव होनेसे नहीं उसी तरह भगवती सूत्रमें भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें विशिष्ट रूपसे असंज्ञीके अपर्याप्त भेदके न होने से नपुंसक वेदका निषेध किया है, सर्वथा असंज्ञीके अपर्याप्त भेदके न होनेसे नहीं अतः प्रथम नारकि, भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें असंज्ञीके अपर्याप्त भेदका निषेध करना अज्ञानमूलक है । इस प्रकरणका सार यह है असंज्ञीसे मरकर प्रथम नारकि भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें उत्पन्न होने वाले rain असंज्ञीका अपर्याप्त नामक भेद होता है क्योंकि शास्त्रमें जगह जगह उन्हें अशी कहकर ही बतलाया है, कहीं भी संज्ञी नहीं कहा है। यदि उनमें असंज्ञीका भेद मानना शास्त्रकारको इष्ट न होता तो जैसे उत्तानशय (छोटा) बालकको असंज्ञी कह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ सद्धममण्डनम् । कर भी संज्ञी कहा है उसी तरह असंज्ञीसे मर कर प्रथम नारकि और भुवनपति आदिमें उत्पन्न होने वाले जीवोंको भी अवश्य संज्ञी कहते परन्तु कहीं भी उक्त जीवको संज्ञी नहीं कहा है सभी जगह उसे असंज्ञी कहकर ही बतलाया है और कई टीकाकारोंने तो साफ साफ उक्त जीवोंमें असंज्ञीके भेदका कथन किया है इस लिये पूर्वोक्त दृष्टान्तोंके आश्रयसे प्रथम नारकि भुवनपति और व्यन्तर देवताओंमें असंज्ञीके अपर्याप्त भेदका खण्डन करना अज्ञान समझना चाहिये। (बोल ६ हा समाप्त) इति जीवभेदाधिकारः। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ सूत्रपठनाधिकारः। (प्रेरक) भ्रम विध्वंसनकार भ्रमविध्वसन पृष्ठ ३६१ पर लिखते हैं "केतला एक कहे गृहस्थ सूत्रमणे तेहनी जिन आज्ञा छै ते सूत्रना अजाण है। अने भगवन्तनी आज्ञा तो साधुनो इज छै पिण सूत्रभणवारी गृहस्थने याज्ञा दीधी नथी। इसका क्या समाधान ? (भ्र० पृ० ३६१) (प्ररूपक) समुच्चय गृहस्थका नाम लेकर श्रावकको भी सूत्र पढ़नेका निषेध करना स्वार्थ तथा अज्ञानका परिणाम है क्योंकि शास्त्रमें शास्त्र पढ़नेके चौदह अतिचार साधु और श्रावक दोनोंको कहे हैं यदि श्रावकको शास्त्र पढ़नेका अधिकार ही नहीं है तो फिर उसके लिये शास्त्र पढ़नेके अतिचारोंके कहनेकी क्या आवश्यकता है ? अतः एकान्त रूपसे श्रावकको शास्त्र पढ़नेका निषेध करना अज्ञान मूलक है। शास्त्रोंका भेदके साथ चौदह अतिचार बताये जाते हैं। नन्दी सूत्रमें शास्त्रोंका भेद बतलानेके लिये यह पाठ आया है _ "अहवा तं समारओ दुविहं पण्णत्तं तंजहा-अङ्गपविट्ठ अजवाहिरंच से किंतं अङ्ग वाहिरं? अगवाहिरं दुविहं पण्णत्तं तंजहाआवस्सयंच आवस्स्यवइरित्तंच । सेकित्तं आवस्सयं ? आवस्सयं छव्विहं पण्णतंजहा-सामाइयं जाव पच्चक्खाणं सेतं आवस्सयं । सेकित्तं आवस्सयवइरित्तं आवस्सयवइरित्तं दुविहं पण्णत्तं तंजहाकालियंच उक्कालियंच" (नन्दी सूत्र) अथ : अथवा प्रकारान्तरसे गमिक और अगमिक शास्त्रके दो भेद हैं। एक अंग प्रविष्ट और दूसरा अंग बाह्य अंग वाह्य भी दो प्रकारके होते हैं एक आवश्यक और दूसरा आवश्यकसे भिन्न आवश्यकके छः भेद हैं सामायकसे लेकर प्रत्याख्यान प-न्त । आवश्यकसे भिन्न भी दो तरहके होते हैं कालिक और उत्कालिक । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धममण्डनम् । जो प्रातःकाल, मध्यान्ह काल, संध्याकाल और मध्य रात्रिकी दो घड़ीको छोड़ कर शेष कालमें पढ़े जाते हैं वे उत्कालिक सूत्र हैं और जो दिन रातके पहले और पिछले पहरोंमें ही पढ़े जाते हैं वे कालिक सूत्र कहलाते हैं । इन सभी सूत्रों के पढ़नेमें चौदह तरह के अतिचारोंका त्याग करना शास्त्रमें कहा है। वे अतिचार ये हैं ४७० "जंवाइद्ध' वच्चामेलियं होणक्खरियं अञ्चक्खरियं पयहोणं विजयहीणं घोसहीणं जोगहीणं सुवदिन दुइ, पडिच्छि अकाले कओसज्झाओ कालेनकओ सज्झाओ असझाए सज्झाइयं सज्झाए नसज्झाहर्य तस्समिच्छामि दुक्कडं । ( आवश्यक सूत्र ) शास्त्र पढ़ने के चौदह अतिचार होते हैं वे ये हैं [१] व्याविद्व- विपरीत गूंथी हुई रत्नमालाकी तरह क्रमको छोड़कर व्युत्क्रमसे पढ़ना "व्याविद्ध” कहलाता है । [ २ ] व्यत्यात्रे डित--वार वार पुनरुक्ति करके पढ़ना 'व्यत्यास्म्रति' है । [३] हीनाक्षर-अक्षर हीन पाठ करना हीनाक्षर कहलाता है । [४] अत्यक्षर-अक्षर बढ़ा कर पढ़ना अत्यक्षर नामक अतिचार है । [ ५ ] पद होन-किसी पदको छोड़कर पढ़ना पद होन कहलाता है । [ ६ ] विनय होन -- विनयको छोड़कर पढ़ना विनय हीन है। [७] घोष हीन-उदात्त अनुदात्त आदिसे हीन पाठ करना घोषहीन कहलाता है। [८] योगहीन - अच्छी तरहसे योगोपचार करके न पढ़ना योगहीन कहलाता है। [९] राष्ट्रवदत्त - गुरुसे नहीं दिये हुएका पाठ करनाष्ट्वदत्त है, [१०] दुष्टु प्रतीच्छित दुष्ट अन्तःकरणसे पाये हुएका पाठ करना 'दुष्टुप्रतीच्छित' कहलाता है । [ ११ ] अकाले कृतस्वाध्याय-- जिस उद्देशा आदि पढ़नेका जो काल नहीं है उसमें उसे पढ़ना 'अकाले कृत स्वाध्याय' कहलाता है । [१३] काले न कृत स्वाध्यायजिस उद्देशा आदिके पढ़नेका जो काल है इसमें उसे न पढ़ना, 'काले न कृत स्वाध्याय' है । [१३] अस्वाध्याये स्वाध्यायित-अस्वाध्याय (अनध्याय) में स्वाध्याय करना 'अस्वाध्याये स्वाध्यायित' है ।। [ १४ ] स्वाध्याये न स्वाध्यायित--स्वाध्याय कालमें स्वाध्याय न करना स्वाध्याये न स्वाध्यायित' कहलाता है । ये चौदह शास्त्र पढ़नेके अतिचार हैं इनके प्रयोग हो जानेपर प्रायश्चित्तस्वरूप पाठकको मिच्छामि दुक्कडं देना पड़ता है । ये चौदह अतिचार साधुकी तरह श्रावकोंके भी कहे हैं। सब मिलकर ९९ अतिचार श्रावकों होते हैं उनमें ये चौदह अतिचार भी शामिल हैं। भीषण जीने अपनी बारह की ढालमें लिखा है : --- "चौदह अतिचार ज्ञानरा पांच समकित ना जान । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रपठनाधिकारः। ४७१ 35 साठ बारह व्रतां तणा पन्द्रह कर्मादान"। . इस दोहामें भीषणजीने शास्त्र पढ़नेके उक्त चौदह अतिचार श्रावकोंके भी कहे हैं इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि शास्त्र पढ़नेका श्रावकोंको भी अधिकार है केवल साधुओंको ही नहीं अन्यथा आश्रवोंके उक्त चौदह अतिचार क्यों कहे जाते और भीषणजी भी उसे क्यों स्वीकार करते । अतः श्रावकोंका शास्त्र पढ़नेका एकान्त रूपसे निषेध करना अज्ञान मूलक समझना चाहिये। बोल १ समाप्त (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकारका मत है कि श्रावकको प्रतिक्रमण सूत्र पढ़ने का तो अधिकार है परन्तु दूसरे सूत्रोंके पढ़ने का अधिकार नहीं है इसलिये ये चौदह ज्ञानके अतिचार श्रावकोंके भी कहे हैं। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) _भ्रमविध्वंसनकारका यह मत असंगत है क्योंकि उक्त चौदह अतिचारोंमें कालमें स्वाध्याय न करना और अकालमें स्वाध्याय करना भी गिने गये हैं । ये अतिचार आवश्यक सूत्रके पढ़नेमें नहीं लगते क्योंकि आवश्यक सूत्रके पढ़नेमें कोई काल विशेष का नियम नहीं है जिसके पढ़नेमें काल विशेषका नियम है उन्हीं के पढ़नेमें ये अतिधार लगते है। यदि श्रावकको आवश्यकसे भिन्न सूत्रों के पढ़नेका अधिकार ही नहीं है तो फिर ये पूर्वोक्त दो अतिचार श्रावकोंके कैसे हो सकते हैं ? अत: अवश्यकके सिवाय दूसरे सूत्रों के पढ़ने का श्रावकों को अधिकार नहीं है यह कहने वालोंको अज्ञानी समझना चाहिये। भीषणजीने, अकालमें स्वाध्याय करने और कालमें स्वाध्याय न करनेरूप अतिचार श्रावकोंके भी कहे हैं___"अकाले करे स्वञ्झाय हो श्रावक, काले स्वज्झाय करे नहीं। अस्वज्झायमें करे स्वज्झाय हो श्रावक, स्वज्झाय वेलां आलस करे जब ज्ञान थारो मेलो थायहो श्रावक, अतिचार लागे ज्ञानने" (कडी तीसरी) इस भीषणजीके पद्यसे स्पष्ट सिद्ध होता है कि काल विशेषके साथ पढ़े जानेवाले आवश्यक सूत्रसे अतिरिक्त सूत्रों के पढ़नेका अधिकार श्रावकोंका भी है अन्यथा अकाल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७२ सद्धममण्डनम् । में स्वाध्याय करने और कालमें स्वाध्याय न करने रूप अतिचार श्रावकों कैसे हो सकते हैं ? अतः आवश्यक सूत्रसे अतिरिक्त सूत्रोंके पढ़नेका श्रावक को अधिकार न मानना मिथ्या है । Abhy नदी सूत्र और समवायाङ्ग सूत्रमें श्रावकोंके लिये यह पाठ आया है"सुयपरिग्गहा तपोवहाणाह" ( टीका ) "श्रुत परिप्रहास्तप उपधानानि प्रतीतानि” अर्थात श्रावक सूत्र पढ़े हुए और उपधान रूप तपके करने वाले होते हैं । " यह मूलपाठ और टीकामें श्रावकको श्रुत परिग्रह ( शास्त्र पढ़ने वाला ) कहा है । यदि श्रावकको शास्त्र पढ़नेका अधिकार ही नहीं है तो वह श्रुत परिग्रह कैसे हो सकता है ? अतः श्रावकों को व्यावश्यक सूत्र से भिन्न सूत्रोंके पढ़ने का अधिकार स्पष्ट सिद्ध होता है तथापि उसे न मानना मूर्खताका परिणाम है । ( बोल १ समाप्त ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३६८ पर लिखते हैं “जे जन्दी समवायाङ्ग साधाने सुयपरिग्गहिया का ते तो सूत्र श्रुत अने अर्थ बहूना ग्रहण करवा थकी कह्या छै मने श्रावकाने सुयपरिग्गहिया कह्या ते अर्थ श्रुत नाही ग्रहण करणहार मांटे जाणवा" (भ्र० पृ० ३६८ ) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक ) नन्दी और समवायांग सूत्रमें साधु और श्रावक दोनोंके लिये समान ही "सुयपरिग्गहिया " यह पाठ आया है । साधुके लिये इसका अर्ग दूसरा हो और श्रावकके लिये दूसरा हो यह त्रिकालमें भी नहीं हो सकता । टीका और टव्वामें भी यह नहीं लिखा है। कि साधु तो सूत्र अर्थ दोनों ही पढ़ता है और श्रावक केवल अर्थ ही पढ़ता है इसलिये साधु की तरह श्रावकका भी सूत्र और अर्थ दोनों ही पढ़नेका अधिकार है । उत्तराध्ययन सूत्रमें पालित नामक श्रावकके विषयमें यह पाठ आया है - "निग्गंथे पावपणे सावए सेवि कोविए" अर्थात वह पालित नामक श्रावक, निप्रन्थ प्रवचनका कोविद ( पण्डित ) था । यदि श्रावकको सूत्र पढ़नेका अधिकार ही नहीं है तो पालित श्रावक निग्रन्थ प्रवचनका कोविद कैसे हो सकता था ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रपठनाधिकारः । ४७३ - उत्तराध्यन सूत्रके २२ वें अध्ययनमें राजमतीके लिये यह पाठ आया है कि"सीलवंता वहुस्सुया" ___ अर्थात् राजकन्या रानमती बड़ी शीलवती और वहुश्रुत थी । यदि श्रावकको शास्त्र पढ़नेका अधिकार हो नहीं है तो शास्त्र पढ़े बिना गजमती बहुश्रुत कैसे हुई थी ? ___ भगवती उवाई और सुयगडांग आदि सूत्रोंमें श्रावकों का वर्णन करनेके लिये यह पाठ आया है कि "अस्सव संवर निजा किरिया अहिगरणवन्धमोक्खकुसला" इस पाठमें श्रावकको १२ प्रकारकी निर्जगमें कुशल होना कहा है और निजंग का दशवां मेद स्वाध्याय है । स्वाध्यायके पांच भेद होते हैं-(१) वाचना (२) पुच्छना (३) पर्याटना (४) अनुत्प्रेक्षा (५) धर्मक्था । इन पाचों प्रकारके स्वाध्यायोंमें वही कुशल हो सकता है जो सूत्र भी पढ़ता हो और अर्थ भी पढ़ता हो, जो सूत्र पढ़ने का अधिकारी ही नहीं है वह उक्त स्वाध्यायके पांच भेदोंमें कुशल नहीं हो सकता। जो स्वाध्यायमें कुशल नहीं है वह बारह प्रकारको निर्जरा में भी कुशल नहीं हो सकता परन्तु श्रावक १२ प्रकारकी निर्जरामें कुशल होता है इसलिये वह पांच प्रकारके स्वाध्यायमें भी कुशल है। श्रावक पांच प्रकारके स्वाध्यायमें कुशल होता है इसलिये वह शास्त्र पढ़ने का भी अधिकारी है । ज्ञाता सूत्र में कहा है कि सुबुद्धि प्रधानने जितशत्रु राजाको विचित्र प्रकारसे केवलि प्रगीत धर्मका उपदेश दिया था। यदि श्रावक सूत्र नहीं पढ़ता तो सुबुद्धि प्रधान शास्त्र पढ़े बिना केवलि प्रणीत धर्मका उपदेश राजाको किस प्रकार दे सकता था ? शास्त्रमें जगह जगह श्रावकको “धम्मक्खाइ” कहा है । जो धर्मका यथार्थ प्रतिपादन करता है वह धर्माख्यायी कहा जाता है। यदि श्रावकको शास्त्र पढ़ने का अधिकार ही नहीं है तो शास्त्र पढ़े विना वह धर्माख्यायी (धर्मको कहनेवाला) कैसे हो सकता है ? अतः श्रावक को शास्त्र पढ़नेका अधिकार नहीं मानने वाले अज्ञानी हैं। बोल २ रा (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २६१ पर प्रश्नव्याकरणसूत्रका मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं - “अथ इहां कह्यो उत्तम महर्षि साधुने इज सूत्र भणवारी आज्ञा दीधी ते साधुसिद्धान्त भणीने सत्यवचन जाणे भाषे भने देवेन्द्र नरेन्द्रादिकने भाष्या अर्थ ते सांभली Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । सत्य वचन जाणे । ए तो प्रत्यक्ष साधुने इज सूत्र भणवारी आज्ञा कही पिण गृहस्थने सूत्र भणवारी आज्ञा नहीं । ते मांटे श्रावक सूत्र भणे ते आपरे छांदे पिण जिन आज्ञा नहीं" (भ्र० पृ० २६१) इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक) प्रश्नव्याकरण सूत्रका मूलपाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है। वह पाठ यह है: "तं सच भगवं तित्थयरसुभासियं दसविहं चोद्दसपूवीहिं पाउडत्यविदितं महरीसीणयसमयप्पदिन्नं देवेन्दनरेन्दभासियों वेमाणियसाहियं महत्थं मंतोसहिविज्जासाहणत्यं" (प्रश्न व्याकरण सूत्र) (टीका) तमिति यस्मादेवं तस्मात् सत्यं द्वितीयं महाव्रतम् भगवदूभट्टारकतीर्थङ्करसुभाषितं जिनैः सुष्टूक्त दशविधं दशप्रकारं जनपदसम्मतसत्यादिभेदेन दशवैकालिकादि प्रसिद्ध चतुदशपूर्विभिः प्राभृतार्थवेदितं पूर्वगतांशविशेषाभिधेयतयाज्ञातं, महर्षीणांच समयेन सिद्धान्तेन “पइन्न" त्ति प्रदत्त समयप्रतिज्ञावा समाचाराभ्युपगमः। पाठान्तरे "महीरिसीसमयपइन्नचिन्न" ति महषिभिः समय प्रतिज्ञा सिद्धान्ताभ्युपगम: समाचागभ्युपगमो वेति चरितं यत् तत्तथा। देवेन्द्रनरेन्द्रर्भाषित: जनानामुक्तोऽर्थः पुरुपार्थ स्तत्साध्यो धर्मादिर्यस्य तत्तथा। अथवा देवेन्द्रनरेन्द्राणां भासित: प्रतिभासितोऽ र्थः प्रयोजनं यस्य तत्तथा । अथवा देवेन्द्रादीनां भाषिताः अर्थाः जीवादयो जिनवचन रूपेण येन तत्तथा। तथा वैमानिकानां साधितं प्रतिपादितमुपादेयतया जिनादिभिर्य तत्तथा । वैमानिकैर्वा साधितं कृत मासेवितं समर्थितंवा यत्तत्तथा । महार्थ महाप्रयोजनम एतदेवाह मन्त्रौषधिविद्यानां साधनमर्थः प्रयोजनं यस्य तद्विना तस्याभावात तत्तथा । अर्थ : सत्य, दूसरा महाव्रत है इसे तीर्थंकरोंने दश प्रकारका कहा है। जनपदसम्मत सत्यादिके भेदसे दश प्रकारका सत्य, दश वैकालिक आदि सूत्रों में प्रसिद्ध है। इसे चौदह पूर्वधारियोंने पूर्वान्तर्गत प्रभृत नामक श्रुत विशेषसे जाना है। · बड़े बड़े ऋषियोंके सिद्धान्तसे यह सत्य दिया गया है अथवा बड़े बड़े ऋषियोंने सत्य भाषणकी प्रतिज्ञा की है । अथवा पाठान्सरके अनुसार, बड़े बड़े ऋषियोंने सत्य भाषणकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र पठनाधिकारः । ४७५ प्रतिज्ञा और सत्य भाषण किया है । देवेन्द्र और नरेन्द्रोंने सत्यभाषणका धर्मादिरूप प्रयोजन मनुष्यों को बतलाया है अथवा देवेन्द्र और नरेन्द्रों को सत्य भाषणका प्रयोजन प्रतिभासित हुआ है अथवा सत्यने ही देवेन्द्र और नरेन्द्रों को जिनवचनरूपसे जीवादि पदार्थका ज्ञान कराया है । इस सत्यको वैमानिक देवोंने भी स्वीकार किया है अथवा वैमानिक देवोंने सत्य का सेवन और समर्थन किया है। यह सत्य बड़े बड़े प्रयोजनों को सिद्ध करता है । सत्य के विना मन्त्र औषधि विद्याएं भी सिद्ध नहीं होतीं । यह उक्त मूलपाठका टीकानुसार भावार्थ है । यहां मूलपाठमें सत्य रूप महाव्रतका माहात्म्य बतलाया है, शास्त्र पढ़ने पढ़ानेका कुछ जिक्र भी नहीं है इसलिये इस पाठका नाम लेकर श्रावकोंको शास्त्र पढ़नेका निषेध करना अज्ञानमूलक है। यहां मूलपाठमें सत्यकी प्रशंसा करतेहुए जो यह लिखा है कि – “महरिसीणय समयपइन्नंदेविन्द नरिन्दभासियत्थं” इसका टीकाकार ने यह अर्थ किया है "महर्षीणाञ्च समयेन सिद्धान्तेन प्रदत्तम् ” देवेन्द्रनरेन्द्राणां भासितोऽर्थः प्रयोजनं यस्य तत्तथा । ", अर्थात् बड़े बड़े ऋषियोंके सिद्धान्तसे सत्य दिया हुआ है और देवेन्द्र और नरेद्रों सत्यका प्रयोजन प्रतिभासित हुआ है । इन पदोंसे सत्य रूप महात्रतकी प्रशंसा की गयी है परन्तु शास्त्र पढ़ने पढ़ाने के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहा है तथापि इन्हीं पदोंका अर्थ करते हुए जीतमलजी बतलाते हैं। कि "उत्तम ऋषि महर्षियोंको ही शास्त्र पढ़नेका अधिकार है । देवेन्द्र और नरेन्द्रों को सूत्र के अर्थ जाननेका ही अधिकार है इत्यादि,” परन्तु उक्त पदों का ऐसा अर्थ त्रिकालमें भी नहीं हो सकता अत: भ्रमविध्वंसनकारका यह अर्थ करना उनके अज्ञानका सूचक है । टीकाकारने " महऋषीणां समयेन प्रदत्त" ऐसा तृतीया तत्पुरुष दिखलाकर साफ बतला दिया है कि सत्य वचन, महर्षियोंके सिद्धान्तसे दिया गया है अतः महर्षियोंकोही सिद्धांत दिये जानेका अर्थ सर्वथा मिथ्या और व्युत्पत्तिसे विरुद्ध । है । इसी तरह देवेन्द्र और नरेन्द्रों को केवल अर्थ जाननेका ही अधिकार है, यह उक्त दूसरे विशेषणका तात्पर्य्य बतलाना भी अज्ञान है क्योंकि टीकाकारने साफ साफ कह दिया है कि "अर्थ" शब्दका यहां प्रयोजन अर्थ है शब्दका या सूत्रका अर्थ नहीं। व्यतः उक्त दोनों विशेषणोंका व्युत्पत्ति विरुद्ध उन्मत्त प्रलाप जैसा मनमाना अथ करके श्रावकको शास्त्र पढ़नेका निषेध करना मुर्खताका परिणाम समझना चाहिये । बोल ३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धममण्डनम् (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३६२ पर व्यवहार सुत्रकी साक्षी देकर लिखते हैं "दश बर्ष दीक्षा लियां साधुने कल्पे भगवती सूत्र भणिवो ए साधुने पिण मर्यादा सूत्र भणवारी कही जे तीन वर्षा दीक्षा लियां पछे निशीथ सूत्र भणवो कल्पे अने तीन वर्ष दीक्षा लियां पहिल तो साधुने पिण निशीथ सूत्र भणवो न कल्पे अने तीन वर्ष पहिले साधु निशीथ सूत्र भणे तेहनी जिन आज्ञा नहीं तो गृहस्थ सूत्र भणे तेहनी आज्ञा किम देवे" (भ्र० पृ० ३६२) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) ___ व्यवहार सूत्रमें, तीन वर्ष दीक्षा लेनेके वाद निशीथ सूत्र पढ़नेका और दश वर दीक्षा लेनेके बाद जो भगवती सूत्र पढ़नेका विधान किया है वह सबके लिये नहीं है क्योंकि विशिष्ट योग्यतावाले मुनिको तीन वर्णकी दीक्षाके बाद ही शास्त्रमें जघन्य आचारांग, निशीथ और उत्कृष्ट द्वादशांगको पढ़ने वाला बहुश्रुत और वह वागम कहा है। वह पाठ यह है: "तिवास पजाए समणे निग्गंथे आयारकुसले संजमकुसले पवयणकुसले पण्णत्तिकुसले संग्गहकुशले उवग्गहकुशले अक्खयायारे असवलायारे अभिन्नायारे असंकिलिहायारचरिते वहुस्सुए वह वागमे जहण्णेणं आयारकप्पधरे कप्पइ उवज्झायताए उद्दिसित्तए ।, (व्यवहार सुत्र उ०३) अर्थ : तीन वर्षकी दीक्षा पर्यायवाला जो श्रमण निनथ, आचार कुशल, संग्रह कुशल, उपग्रह कुशल, अक्षताचार, (अखंडित आचारपाला) अशबलाचार अभिन्नाचार, असंक्लिष्टाचार, बहुश्रुत और वह वागम है अर्थात् अल्पसे अल्प आचारांक, दिखीथ, और उत्कृष्ट द्वादशांगधारी है उसे आचार्य पद देना कल्पता है। इस पाठमें तीन वर्षकी दीक्षावाले साधुको बहुश्रुत और वह वागम, कहा है इन का अर्थ करते हुए टीकाकारने लिखा है कि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रपठनाधिकारः । ४७७ “तथा वहु श्रुतं सूत्र यस्यासो वहु श्रुतः तथा वहुगगमोऽर्थरूपोयस्यस वहवागमः । जघन्येनाचारकल्पधरो निशीथाध्ययनसूत्रार्थधर इत्यर्थः । जघन्यत आचार कल्पग्रहणादुष्कर्षतो द्वादशांगविदिति” अर्थात जिसने बहुत सूत्रोंका अध्ययन किया है वह बहुश्रुत है और जो बहुत अर्थरूप आगमका ज्ञाता है वह बहूवागम कहलाता है । तात्पर्य यह है कि तीन वर्षकी दीक्षा वाला जो साधु, जधन्य निशीथ सूत्र और उसका अर्थ जानता हो और उत्कृष्ट द्वादशांगधारी हो वह आचार्य्य बनाया जा सकता है। यहां टीका और मूलपाठ तीन वर्षकी दीक्षावाले साधुको उत्कृष्ट द्वादशांगधारी कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि व्यवहार सूत्र में तीन वर्ष दीक्षा लेनेके पश्चात निशीथ सूत्र पढ़ने और १० वर्ष दीक्षा लेनेके बाद जो भगवती सूत्र पढ़ने का विधान किया है वह एकांतरूपसे नहीं है। विशेष योग्यतावाले साधु, तीन वर्षके अन्दर ही उत्कृष्ट द्वादशाङ्गधारी भी हो सकते हैं अतः व्यवहार सूत्रका नाम लेकर श्रावकको शास्त्र पढ़नेका निषेध करना अज्ञानमूलक है । + बोल ४ ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३६४ पर निशीथ सूत्र उद्देशा १९ का मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: "जे आचार्य उपाध्यायनी अणदीधी वांचणी आचरे तथा आचारताने अनुमोदे तो चौमासीदण्ड आवे तो गृहस्थ आपरे मते सूत्र भणे ते तो आचार्य्यरी अणthat aiचणीछे तेहनी अनुमोदना किया चौमासी दण्ड आवे तो जे अगदीधां वांचणी गृहस्थ आचरे तेहने धर्म किम कहिये । (भ्र० पृ० ३६४ ) इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) गुरुसे पढ़े विना अपने मनसे शास्त्र पढने पर "सुष्ट वदिन्न" नामक ज्ञान का अतिचार होता है उम्रकी निवृत्तिके लिये, निरतिचार शास्त्राध्ययन करनेवाले श्रावक, गुरुसे पढ़कर ही शास्त्रका अध्ययन करते हैं। यह "सुष्ट वदिन्न" नामक अतिचार, साधु की तरह श्रावक भी कहा है इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि श्रावकको भी गुरुसे शास्त्र पढ़नेका अधिकार है। यदि श्रावकको शास्त्र पढ़नेका अधिकार ही न होता तो उसको "सुष्ट वदिन्न" नामक अतिचार क्यों आता ? अतः निशीथ उद्देशा १९ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् । का नाम लेकर श्रावकको शास्त्र पढ़नेका अनधिकार बताना मिथ्या है। उक्त पाठमें गुरु से पढ़े विना शास्त्रका अध्ययन करनेसे प्रायश्चित्त कहा है इसलिये जो गुरुसे पढ़ कर शास्त्रका अध्ययन करता है उसके अध्ययनका अनुमोदन करनेसे प्रायश्चित्त नहीं हो सकता अतः श्रावक को शास्त्र पढ़ने का अनधिकार बताना मिथ्या समझना चाहिये। [बोल ५ वां ] (प्रेरक) ___ भ्रमविध्वंसनकार ठाणाङ्ग ठाणा ३ उद्देशा ४ के मूलपाठको लिख कर उसको समालोचना करते हुए लिखते हैं "इहां कह्यो ए तीन वांचणी देवायोग्य नहीं अविनीत, विधेना लोलुपी, खमावोवळी २ उदेरे, एतीन साधुने वाचणी पिण देणी नहीं तो गृहस्थ तो क्रोधी मानी पिण हुवे अविनीत पिण हुवे विधेनो गृध्र स्त्री आदिकनो गृध्र पिण हुवे ते मांटे श्रावकने वाचणी देणी नहीं" (भ्र० पृ० ३६५ ) । इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) ठाणाङ्ग ठाणा ३ का नाम लेकर सभी श्रावकको अविनीत, लोलुप और क्रोधी आदि ठहरा कर शास्त्र पढ़ने का अनधिकारी कहना मर्खता है। जैसे साधुओंमें कोई कोई अविनीत लोलुप और क्रोधी होता है उसी तरह श्रावकोंमें भी कोई कोई अविनीत, लोलप और क्रोधी होता है। ऐसे साधु और श्रावकको ठाणाङ्ग ठाणा तीन में शास्त्र पढ़ाने का निपेध किया है परन्तु जो श्रावक अविनीत लोलुप और क्रोधी नहीं है उसको शास्त्र पढ़ानेका निषेध नहीं है। अत: ठाणाङ्ग ठाणा ३ का नाम लेकर श्रावकको शास्त्र पढ़ने का निषेध करना अज्ञान है। (प्रेरक) । भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३३६ पर उवाई और सुयगडांग सुत्रका मूल पाठ लिखकर उनको समालोचना करते हुए लिखते हैं - "अथ इहां कह्यो अर्थ लाधा छै अर्थ प्रह्या छै अर्थ पूछा छै अर्थ जाण्या छै । इहाँ श्रावकाने अर्थाराज्ञाता कह्या पिण इम न कह्यो “लद्धसुत्ता" जे लाधा भण्या छै सूत्र इम न कहो ते मांटे सिद्धान्त भगवानी आज्ञा साधुने इज छै पिण श्रावकने नहीं" इसका क्या उत्तर ? (भ्र० पृ० ३३६) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्र पठनाधिकारः । ४७९ (प्ररूपक) वाई सूत्र और सुगडांग सूत्रमें जैसे श्रावकको अर्थका ज्ञाता कहा है उसी तरह समवायांग सूत्र और नन्दी सूत्रमें श्रावकको सूत्रों का ज्ञाता भी कहा है । वह पाठ यह है :- “सुयपरिग्गहिया तवोवहाणाइ” अर्थात् श्रावक सूत्रको पढ़े हुए और उपधान नामक तप करने वाले होते हैं। यहां प्रत्यक्ष श्रावकको सूत्र पढ़नेवाला कहा है इसलिये श्रावकको सुत्र पढ़ने का अधिकार स्पष्ट सिद्ध होता है तथापि उवाई और सुयगडांग का नाम लेकर श्रावकको शास्त्र पढ़नेका अनधिकार बताना एकान्त मिथ्या है । उवाई और सुगडांग सूत्र में श्रावकको अर्थका ज्ञाता कहा है इसका अभिप्राय यह नहीं हो सकता कि वे अर्थ जानने ही अधिकारी हैं सूत्र पढ़नेके अधिकारी नहीं हैं किन्तु उवाई और गांग सूत्र से अर्थ जाननेके और समत्रयांग सूत्र से सूत्र पढ़नेके श्रावक अधिकारी सिद्ध होते हैं अतः श्रावक को सूत्र पढ़नेका अनधिकारी बताना अज्ञान है । इसी तरह सुयगडांग सूत्रके ११ वें अध्ययनकी २४वीं गाथा लिखकर भ्रमविध्वंसनकारने जो यह लिखा है कि "आत्म साधु इज शुद्ध धर्मनो परुपण हार छै” यह भी मिथ्या है क्योंकि उक्त गाथामें श्रावकको शुद्ध धर्मका उपदेशक होना वर्जित नहीं किया है और किया भी नहीं जा सकता क्योंकि उवाई सूत्र में श्रावकको “धम्मक्खा३" कह कर धर्मोपदेशक होना साफ साफ बतलाया है और भ्रमविध्वंसनकारने भी भ्र० पृ० २३४ पर श्रावकको धर्मोपदेशक माना है । जैसे कि वे लिखते हैं- “धर्म श्रुत चारित्र रूपने संभलावे ते धर्मख्यात कहीजै" यह लिखकर स्वयं भ्रमविध्वंसनकारने भी श्रावकको धर्मोपदेशक होना स्वीकार किया है तथापि सुगडांग सूत्रकी गाथाका नाम लेकर श्रावकको धर्मोपदेशक होनेका निषेध करना इनका शास्त्र और अपने कथनसे भी विरुद्ध है । ( बोल ६ समाप्त ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३६८ पर सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र की तीसरी ओर चौथी गाथा लिख कर उनकी समालोचना करते हुए लिखते हैं "अथ इहां कह्यो – ए सूत्र, अभाजनने सिखावे ते कुल गण संघ वाहिरे ज्ञानादिक रहित कह्यो । अरिहंत गणधर स्थविरनी मर्य्यादानो लोपहार कह्यो । जो साधु अभाजन सिखावण तो गृहस्थतो प्रत्यक्ष पांच आश्रवनो सेवणहार अभाजनइज छै तेहने सिखायां धर्मकिम हुवे इत्यादि लिखकर श्रावकको एकान्तरूपसे अभाजन कायम करके उसको शास्त्र पढ़ानेका अनधिकारी बतलाते हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८० इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) सूर्यप्रज्ञप्ति सूत्र की दूसरी ओर तीसरी गाथाओं में अभाजनको शास्त्र पढ़ानेका निषेध किया है परन्तु वहां यह नहीं कहा है कि श्रावक अभाजन होता है इसलिये उसे नहीं पढ़ाना चाहिये । अतः सूय्यै प्रज्ञप्ति सूत्रकी गाथाओंका नाम लेकर श्रावकको शास्त्र पढ़नेका अनधिकारी बताना मिथ्या है। सूर्य्यप्रज्ञप्ति सूत्र में अभाजनको शास्त्र पढ़ानेका निषेध किया है परन्तु श्रावक अभाजन नहीं है क्योंकि वह चतुर्विध तीर्थमें गिना गया है और शास्त्रकारोंने श्रावकको गुण रूपो रत्नका पात्र कहा है इस लिये श्रावक भाजन है अभाजन नहीं है। जैसे कोई कोई साधु शास्त्र में अभाजन कहे गए हैं उसी तरह कोई कोई श्रावक भी अयोग्य होते हैं ऐसे अयोग्य साधु और श्रावकोंको शास्त्र पढ़ाने का निषेध है परन्तु सभी श्रावकों को अयोग्य कायम करके उन्हें शास्त्र पढ़ाने का निषेध करना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये । पाठ यह है सद्धर्ममण्डनम् । ठागाङ्ग ठाणा दूसरे में श्रुत और चारित्र धर्मका दो भेद बताकर श्रावकको श्रुत धम वाला और देश चारित्री बतलाया है तथा साधुको श्रुतवान और सम्पूर्ण चारित्री कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि श्रावकको भी शास्त्र पढ़ने का अधिकार है क्योंकि शास्त्र पढ़े बिना श्रावक श्रुत धर्मवाला कैसे हो सकता है ? ठाणा में श्रुत और चारित्रको लेकर एक चौभंगी कही गई है। वह :–― "सुय सम्पन्ने नाम मेगे नो चरित्तसम्पन्ने” (१) कोई पुरुष श्रुत सम्पन्न होते हैं चारित्र सम्पन्न नहीं होते । (२) कोई चारित्र सम्पन्न होते हैं श्रुत सम्पन्न नहीं होते । (३) कोई चारित्र और श्रुत उपय सम्पन्न होते हैं । (४) कोई न श्रुत सम्पन्न होते हैं और न चारित्र सम्पन्न होते हैं । यहां चारित्र रहित पुरुषको श्रुत सम्पन्न कहा है । यदि साधुसे इतरको शास्त्र पढ़ने का अधिकार ही नहीं है तो चारित्र रहित पुरुष श्रुत सम्पन्न कैसे हो सकता है ? अतः साधुसे इतरको भी शास्त्र पढ़नेका अधिकार है । भगवती शतक ८ उद्देशा १० में यह पाठ आया है :--- "सुयसम्पन्ने नाम मेगे नो सोल सम्पन्ने" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रपठनाधिकारः। ४८१ इस पाठमें शील रहितको श्रुत सम्पन्न होना कहा है। यदि साधुसे इतरको शास्त्र पढ़नेका अधिकार नहीं है तो शील रहित पुरुष श्रुतसम्पन्न कैसे हो सकता है ? अतः श्रावकको शास्त्र पढ़नेका निषेध करना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये । (बोल ७ समाप्त) (प्रेरक) निशीथ सूत्र उद्दशा १९ में पाठ आया है कि "जेभिक्खू पासत्यं वायइ वायंतं वा साइजइ" जेभिक्ख पासत्वं पडिच्छइ पडिच्छतंवा साइजई" अर्थात जो साधु पासत्थको पढ़ाता है या पढ़ाते हुए को अच्छा जानता है। जो साधु पासत्थसे शास्त्र पढ़ता है या पढ़ते हुएको अच्छा जानता है उसे प्रायश्चित्त आता है । इसी तरह उसन्न कुशील आदिके लिये भी पाठ आया है इन पाठोंके अनुसार जब कि परिग्रह रहित स्त्री आदिका त्यागी पासत्थ आदिको भी शास्त्र पढ़ानेका निषेध है तब फिर श्रावक तो परिग्रही और स्त्री आदिको रखने वाला होता है उसको शास्त्र पढ़ने का अधिकार कैसे हो सकता है ? इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) उसन्न पासत्थ और कुशील मादि, केवल साधु ही नहीं होते श्रावक भी होते हैं इस लिये निशीथ सूत्र उद्देशा १९ के मूलपाठमें जो साधु और श्रावक, उसन्न पासत्थ और कुशोल आदि हैं उनको शास्त्र पढ़ानेका निषेध किया है परन्तु जो साधु और श्रावक उसन्न पासत्य और कुशील आदि नहीं हैं उनको शास्त्र पढ़ानेका निषेध नहीं है अतः निशीथके उक्त मलपाठका नाम लेकर श्रावकको शास्त्र पढ़ाने का निषेध करना असंगत है। भगवती सूत्र शतक दश उद्देशा चारमें श्रावकों को भी उसन्न पासत्थ और कुशील आदि कहा है वह पाठ यह है : ____ "तएणं ते तायतिसं सहाया गाहावई समणोवासगा पुग्विं उग्गा उग्गविहारी संविग्गा संविग्गविहारी भवित्ता तवोपच्छा पासत्था पासत्थ विहारी उसन्ना औसन्नविहारी कुशीला कुशील विहारी अहाच्छन्दा अहाच्छन्द विहारी बहुइ वासाई समणोवासग परियाय पाउणंति" (भ० श० १० उ०४) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८२ अर्थ: इसके अनन्तर परस्पर सहायता करने वाले वे तैंतीस कुटुम्ब नामक श्रावक, पहले उग्र, प्रविहारी, संचित और संबिन विहारी होकर पीछे पासत्थ, पासत्थ विहारी उसन्न उसन्नविहारी, कुशल कुशीलविहारी, यथाच्छन्द और यथाच्छन्द विहारी होकर रहने लगे थे और इस प्रकार वे बहुत वर्षो तक श्रमणोपासककी पर्य्यायका पालन करते रहे । इस पाठ में श्रमणोपासक को भी उसन्न पासत्थ और कुशील आदि कहा है इस टिये जो श्रावक उसन्न, पासत्थ और कुशील आदि है उसीको शास्त्र पढ़ने का निशीथ सूत्रके उक्त पाठमें निषेध किया है। जो श्रावक संविग्न, संविद्मविहारी उम्र और और उमविहारी हैं उनको शास्त्र पढ़नेका निषेध नहीं किया है अतः निशीथ सूत्रका नाम लेकर श्रावक मात्रको शास्त्र पढ़ानेका निषेध करना मिथ्या समझना चाहिये । बोल ८ ( प्रेरक ) पासत्य किसे कहते हैं ? I ( प्ररूपक ) शास्त्रमें ज्ञानादि आचारके आठ भेद कहे हैं उनमें दोष लगानेवाला पाइर्वस्थ कहा जाता है । वे ज्ञानाचार ये हैं 1 : "काले, विणए, वहुमाणे, तहय अनिहूणवणे । वंजन अत्थ तदुभये अट्ठविहो नाण मायारो । ( आचारांग टीका ) [१] नियत की हुई मर्यादाके साथ कालिक मूत्रोंका अध्ययन करना [२] विनय पूर्वक अध्ययन करना [३] बहुमानके साथ अध्ययन करना [४] उपधानतपके साथ पढ़ना [५] पढ़ानेवालेका नाम नहीं छिपाना [ ६ ] सूत्र [७] अर्थ [८] और तदुभयको पढ़ना ये आठ ज्ञानाचार कहे गये हैं । इन आठ ज्ञानाचारोंमें जो दोष लगाता है वह "पासत्थ" कहा जाता है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि श्रावक भी शास्त्र पढ़नेका अधिकारी है क्योंकि भगवती शतक १० उद्देशा ४ में श्रावक को भी पासत्य कहा है । यदि श्रावकको शास्त्र पढ़नेका अधिकार ही नहीं है तो वह ज्ञानाचारमें दोष लगाकर पासत्थ कैसे हो सकता है ? अतः श्रा वकको सूत्र पढ़नेका निषेध करना अज्ञान है । उत्तराध्ययन सूत्रमें लिखा है कि जो मनुष्य सूत्रोंको पढ़ता हुआ आचारांगादि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . सूत्रपठनाधिकारः। ___ ४८३ अंग और बाह्य उत्तराध्ययन आदिके द्वारा सम्यक्त्वका लाभ करता है वह "सूत्र रुचि" कहा जाता है । वह गाथा यह है: "जे सुत्त महिज्जतो सुएण ओगाहह संमत्तं अंगण वाहिरेण य सोसुत्तइत्ति नायव्वो" (उत्तराध्ययन अ० २८ गाथा २१) इस गाथामें, जो पुरुष साधु नहीं है परन्तु सूत्र पढ़ कर सम्यक्त्वका लाभ करता है उसे “सूत्र रुचि" कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधुसे इतर पुरुष को भी शास्त्र पढ़नेका अधिकार है अत: साधुके सिवाय समीको शास्त्र पढ़नेका अनधिकारी बताना अज्ञानियोंका कार्य समझना चाहिये । [बोल ९ वां समाप्त ] इति सूत्रपठनाधिकारः) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( अथ क्रियाधिकारः) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३७४ पर आज्ञा वाहरकी करनी से पुण्य होनेका खण्डन करते हुए लिखते हैं: "केतला एक अजाण आज्ञा वाहरली करणीथी पुण्य वंधतो कहे ते सूत्रना जाणणहार नहीं" (भ्र० पृ. ३७४) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) आज्ञा बाहरकी करनीसे पुण्यवंध नहीं मानना शास्त्र न जाननेका फल है क्यों कि जो, जैन धर्मके निन्दक और मिथ्यादर्शनमें श्रद्धा रखने वाले अपने शास्त्रके अनुसार अकाम निर्जरा आदिकी करनी करते हैं उनकी करनी जिन आज्ञामें नहीं है तथापि वे अपनी उस आज्ञा वाहरकी करनीसे पुण्य बांध कर स्वर्गमें जाते हैं। यदि आज्ञा बाहर की करनीसे पुण्यवंध नहीं होता तो उक्त पुरुष स्वर्गमें कैसे जाते ? अतः आज्ञा बाहर की करनीसे पुण्यवंध नहीं मानना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये । (बोल १ समाप्त) (प्रेरक) जैन धर्ममें श्रद्धा नहीं रखने वाले मिथ्या दर्शनियोंकी अकाम निर्जरादि क्रियाको भ्रमविध्वंसनकार जिन आज्ञामें बतलाते हैं और उसे आज्ञामें बतला कर आज्ञा बाहरकी क्रियासे पुण्यवन्ध होनेका निषेध करते हैं। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) वीतराग भाषित धर्म में श्रद्धा नहीं रख कर मिथ्यादर्शन आदिमें श्रद्धा रखनेवाले जो अज्ञानी अकाम निर्जरा आदिकी करनी करते हैं उनकी करनी यदि जिन आज्ञामें है तो फिर वे मिथ्यादृष्टि कैसे हो सकते हैं ? क्योंकि जिन आज्ञाका आराधक पुरुष मिथ्यादृष्टि नहीं होता अत: अकाम निर्जरा आदिकी करनी करने वाले को मिथ्यादृष्टि मानना और उसकी करनीको जिनआज्ञामें बताना परस्पर विरुद्ध और एकांत मिथ्या है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अथ क्रियाधिकारः। ४८५ [बोल २ समाप्त] (प्रेरक) ___ जो जीव वीतरागकी आज्ञाका माराधक नहीं है वह आज्ञा बाहरकी क्रिया कर के स्वर्ग प्राप्त करता है यह कहां लिखा है ? (प्ररूपक) उवाई सूत्र के मूल पाठमें स्पष्ट लिखा है कि जो जीव वीतराग की आज्ञा का आराधक नहीं है वह भी आज्ञा बाहर की क्रिया करके स्वर्गगामी होता है वह पाठ यह है:___"सेजे इमे गामागर जाव सन्निवेसेसु पन्चया समणा भवंति तंजही आयरियपडिणीया उवज्झायपडिणोया कुलपंडिणीया गण पहिणीया आयरियउवज्झायाणं अजसकारगा अवण्णकारमा अकीत्तिकारगा असम्भावुभावणाहिमिच्छत्ताभिणिवेसेहिय अप्पाणंच परंच तदुभयंच बुग्गाहे माणा बुप्पाए माणा विहरित्ता बहुई वासाई समण्णपरियागं पाउणति तस्स ठाणस्स मणालोइय अपडिकता काल मासे कालं किच्चा उकोसेणं लंतए कप्पे देवकिब्णिएसु देवकिन्विसियत्ताए उवक्त्तारो भवंति तहिं तेसिं गती तेरससागरो बमाई ठीति अणाराहगा सेसं तंव" (उवाई सुत्र) अर्थ : आचार्या, उपाध्याय, कुल और गणके साथ वैरभाव रखने वाले और उनकी अवज्ञा, भकीर्ति, तथा अयशका प्रचार करने वाले कई नामधारी प्रव्रजित ग्राम आदि यावत् संनिवेशों में रहते हैं वे मिथ्यात्वके अभिनिवेश और असनावकी भावनासे अपने आपको और दूसरों को भी बुरे आग्रहमें डालते हैं । असद्भावनाका समर्थन करने वाले बहुत काल तक अपनी प्रव्रज्या का पालन करके अपने बुरे कार्याकी आलोचना नहीं लेनेसे पापरहित नहीं होते । वे आयु शेष होने पर मर कर लन्तक नामक देवलोक में उत्पन्न होकर किल्विषी नामक देवता होते हैं। वहां उन की तैंतीस सागर तक स्थिति होती है वे परलोक सम्बन्धी भगवान् की आज्ञा के आराधक इस पाठमें आचार्या उपाध्याय कुल, गण संघ आदिकी निन्दा करने वाले वीत Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८६ सद्धर्ममण्डनम् । तरागको आज्ञाका अनाराधक अज्ञानी जीवोंको आज्ञा बाहरकी क्रियासे स्वर्ग प्राप्त करना कहा है अतः आज्ञा बाहर की क्रियासे भी पुण्य वन्ध होना स्पष्ट सिद्ध होता है। तथापि आज्ञा बाहर की क्रिया से पुण्यवन्धका निषेध करके अज्ञानियों की अकाम निर्जरा आदि क्रियाओंको आज्ञामें कायम करना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये । इस विषयका विस्तृत विवेचन मिथ्यात्वि क्रियाधिकारमें किया गया है विशेष जिज्ञासुओं को वहीं देखना चाहिये। (बोल ३ समाप्त) (इति क्रियाधिकारः) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (अथ अल्पपाप वहुनिर्जराधिकारः) (प्रेरक) भगवती शतक ८ उद्देशा ६ के मूलपाठमें साधुको अप्रासुक और अनेषणिक आहार देनेसे अल्पतर पाप कर्म और बहुतर निर्जरा होना लिखा है उसका अर्थ करते हुए भ्रमविध्वंसनकार लिखते हैं: "तेहने अल्प पाप ते पापतो नहींज छ अने हर्ष करी दीधां बहुत घगी निर्जरा हुई" (भ्र० पृ० ४४९) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भगवती सूत्रका वह मूलपाठ टीकाके साथ लिख कर इसका समाधान दिया जाता है वह पाठ यह है: "समणोवासएणं भन्ते ! तहाल्वं समणं वा माहनं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेमाणस्त किंकजइ गोयमा ! वहुतरिया से निजरा कजइ अप्पतराए में पाव कम्मे कजई" (भगवती शतक ८ उद्देशा ६) (टीका) ___ 'बहुतरियत्ति पाप कर्मापेक्षया 'अल्पतराए'त्ति अल्पतरं निर्जरापेक्षया । अयमों गुगवतेपात्रायापासुकादिद्रव्यदाने चारित्रकायोपष्टम्भो जीवघातो व्यवहारतस्तचारित्रवाधाच भवति ततश्च चारित्रकायोपष्टम्भान्निर्जरा जीवधातादेश्च पाकर्म तत्रच स्वहेतुसामर्थ्यात् पापापेक्षया बहुतरा निर्जरा निर्जरापेक्षयाचाल्पतरं पापं भवति । इहच विवेचकाः मन्यते असंस्तरणादिकारणतएवा प्रासुकादि दाने बहुतरा निर्जरा भवति नाकारणे यदुक्तं "संथरणम्मि असुद्ध दोण्ह विगेण्हत दितयाणहियं आउर दिट्टतेणं तंचेव हियं मसंथरणेत्ति" अन्येत्वाहुरकारणेऽपि गुणवत्पात्रायाप्रासुकादिदाने परिणामवशात् बहुतरा निर्जराभवति अल्पतरंच पापं कर्मेति निर्विशेषणत्वात्सुत्रस्य परिणामस्यच प्रमाणत्वात् आहच-"परम रहस्स मिसीणं समत्त गणिपिग किरिय साराणं । परिणामय पमाणं निच्छयमवलंब Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८८ सद्धममण्डनम्। - माणाणे' यच्चोच्यते संथरणमि असुद्ध मित्यादिनाऽशुद्ध द्वयोरपि दागृप्रहीत्रो रहितायेति तद्ग्राहकस्य व्यवहारतः संयमविराधनादायकस्यच लुब्धकदृष्टान्तभावित्वेनवा, ददत: शुभाल्यायुष्कता निमित्तत्वात् । शुभमपिचायुरल्प महितं विवक्षया, शुभायुष्कता निमित्तं चा प्रासुकादि दानस्य अल्पायुष्कता प्रतिपादकसूत्रे प्राक्चर्चितं यत्पुनरिहतत्वं तत्केवलिगम्यम्' अर्थ : हे भगवन् ! तथाविध श्रमण और माहनको अप्रासुक अनेषणिक आहार देनेवाले श्रमणोपासकको क्या फल होता है ? (उत्तर ) हे गोतम ! अल्पतर पाप और बहुतर निर्जरा होती है। यह मूलपाठ का अर्थ है । टीकाका अर्थ निम्नलिखित है पाप कर्मकी अपेक्षा बहुत अधिक निर्जरा होती है और निर्जराकी अपेक्षा पाप कर्म बहुत थोड़ा होता है । इसका आशय यह है कि गुणवान पात्रको अप्रासुक अन्नादि दान देनेसे उसके चारित्र और शरीरको सहायता प्राप्त होती है और व्यवहारसे चारित्र की वाधा और जीवको विराधना होती है अतः चारित्र और शरीरकी सहायता होनेसे निर्जग होती है और जीव विराधना भादि होनेसे पाप होता है। चारित्र और शरीरकी सहायता बहुत अधिक होती है और जीव विराधना बहुत थोड़ी होती है इस लिये अपने कारणानुसार बहुतर निर्जरा और निर्जराकी अपेक्षासे अल्पतर पाप होता है । इस विषय में विवेचक लोगोंका मत यह है निर्वाह नहीं होने आदि कारणोंसे अप्रासुक वस्तुका दान करना बहुतर निर्जराका हेतु होता है अन्यथा नहीं, जैसे किसी आचार्य्यने कहा है-निर्वाह होनेपर अशुद्ध आहार देना और देना दाता और ग्राहक दोनोंके अहितके लिये होता है परन्तु रोगीके दृष्टान्त से निर्वाह नहीं हो सकनेपर वह दान दोनोंका हितकारक होता है। इस विषयमें दूसरे लोगोंका कहना यह है कारण नहीं होनेपर भी गुणवान पात्रको अप्रासुकादि आहार देनेसे बहुत निर्जरा और अल्पतर पाप होता है क्योंकि मूल सूत्रमें कारण विशेषका उल्लेख नहीं किया गया है तथा गुणवान पात्रको श्रद्धापूर्वक अप्रासुक आहार देने वाले श्रमणोपासकका परिणाम शुद्ध है उस परिणामको शुद्धिके कारण बहुतर निर्जरा, और अशुद्ध अन्न होनेके कारण अल्पतर पाप होता है। जैसे आचार्यों ने कहा है :- परम रहस्यको जानने वाले सम्पूर्ण द्वादशांग के सारका ज्ञाता, निश्चय नयका अवलम्बन करने वाले ऋषियोंने (पाप और पुण्य आदिके विषयमें ) परिणामको ही प्रमाण माना है। अतः विना कारण भी गुणवान पात्रको असूझता आहार देनेसे बहुतर निर्जरा और अल्पतर पाप होना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rever बहुनिर्जराराधिकारः । ४८९ समझना चाहिये | जो कि "संकरणमि अशुद्ध" इत्यादि गाथामें अप्रासुक दानको देने वाले और लेने वाले दोनोंके लिये अहित कहा है वह इस लिये कहा है कि अशुद्ध आहार लेनेसे व्यवहारतः संयम विराधना होती है और लुग्धकके दृष्टान्तसे देनेवालेकी शुभ अल्प आयु बंधती है यद्यपि वह आयु शुभ है तथापि थोड़ी होनेसे उसे अहित कहा है अप्रासु आदिका दान, शुभ आयु वन्धका भी कारण होता है यह पूर्व सूत्रमें पहले ही बतला दिया गया है । इस विषय में जो तत्व यानी यथार्थ बात है वह केवलि गम्य है यह ऊपर लिखी हुई का अर्थ है । इस टीका टीकाकारने अल्पतर पाप शब्दका अर्थ निर्जराकी अपेक्षा थोड़ा पाप होना और बहुतर निर्जराका अर्थ पापकी अपेक्षासे बहुत ज्यादा निर्जरा होना बतलाया है परन्तु पापका अभाव, या पाप नहीं होना इत्यादि अर्थ नहीं किया है अतः अल्पतर पाप शब्दका पापका अभाव अर्थ बताना मिथ्या समझना चाहिये । इस टीका विवेचक और अन्य मतसे उक्त मूल पाठके दो आशय बतलाये हैं । विवेचक लोग कारण पड़ने पर अप्रासुक दानका अल्पतर पाप और बहुतर निर्जरा रूप फल बतलाते हैं और अन्य लोग कारण नहीं होनेपर भी अप्रासुंक दानका अल्पतर पाप और बहुतर निर्जरा रूप फल मानते हैं परन्तु दोनों मतवालोंको अल्पतर पाप शब्दके में कोई मतभेद नहीं है दोनोंहीने अल्पतर पाप शब्दका निर्जराकी अपेक्षासे अल्प पाप होना ही अर्थ माना है अतः अल्पतर पाप शब्दका अर्थ पापका अभाव बताना टीका से विरुद्ध और एकान्त मिथ्या है । ( बोल १ समाप्त ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४४८ पर " यत्पुनरिह तत्त्वं तत्केवलिगम्यम्" इस टीका वाक्यको लिख कर लिखते हैं- “ अथ अठे पिण टीकामें एपाठनो न्याय केवलीने भलायो ते मांटे अशुद्ध लेवारी थाप करणी नहीं" इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) अल्पतर पाप और बहुतर निर्जरा शब्दका अर्थके विषय में टीकाकारने केवली पर न्याय करना नहीं छोड़ा है इनका अर्थ तो स्पष्ट रूपसे कर दिया है । निर्जराकी अपेक्षा अल्प पाप होना अल्पतर पाप शब्दका और पापकी अपेक्षा बहुत निर्जरा होना बहुतर ६२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९० सद्धर्ममण्डनम् । निर्जरा शब्दका अर्थ कर दिया है इस लिये अल्पतर पाप शब्दका अर्थ निर्जराकी अपेक्षा से थोड़ा पाप होना ही है पापका अभाव या पाप न होना अर्थ नहीं है। उक्त टोकामें जो विवेचकोंने कारण पड़नेपर अप्रासुक आहार देनेका फल अल्प पाप और बहुतर निर्जरा बतलाया है और अन्य लोग विना कारण भी अप्रासुक दानका उक्त फल कहते हैं इन दोनोंमें कौनसा मत युक्त है इसका निर्णय टीकाकारने स्वयं कुछ नहीं करके लिखा है कि 'यत्पुनरिहतत्त्वं तत्केवलिगम्यम्' अर्थात् उक्त दोनों मतोंमें कौन मत श्रेष्ठ है यह बात केवली जानें, परन्तु टीकाकारको अल्पतर पाप शब्दका अर्थके विषयमें कोई संशय नहीं है अतः 'यत्पुनरिहतत्त्वं तत्केवलिगम्यम्' इस टीकाका नाम लेकर अल्पतापापशब्दका पापका अभाव अर्थ करना टीकाका अर्थ नहीं समझनेका परिणाम समझना चाहिये । [बोल २ रा] (प्रेरक) __ भ्रमविध्वंसन कार इस पाठका तात्पर्य यह बतलाते हैं कि जो आहार असूझता हो गया है परन्तु श्रावक और साधुको इसका पता नहीं है । साधु सूझता समझकर लेता है और श्रावक उसे सूझता समझ कर देता है उस दानका फल इस गठमें अल्पतर पाप और बहुतर निर्जरा कही है क्योंकि श्रावक सूझता समझकर उस अन्नको देता है इसलिये उसका कोई अपराध नहीं है अतः उस दानसे श्रावकको अल्प पाप यानी थोड़ा भी पाप नहीं होता और बहुत निर्जरा होती है। यह बात भ्र० पृ० ४४९ में कही है। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) जिस अन्नको श्रावक असूझता नहीं जानता किन्तु सूझता जानकर साधुको देता है वह अन्न असूझता नहीं है वह सूझता ही है और उस दनका फल पूर्ण पाठमें एकान्त निर्जरा और थोड़ा भी पाप न होना कह दिया गया है फिर उसी बात को इस पाठमें दुहरानेकी कोई आवश्यकता नहीं है इसमें तो असूझता आहार देनेका फल कहा है और टीकाकारने साफ साफ लिख दिया है कि साधुके चारित्र और शरीरकी सहायता होती है इस लिये असूझता आहार हेनेसे बहुतर निर्जरा होती है और व्यवहारसे चारित्र की वाधा और हिंसा होती है इस लिये असूझता आहार देनेसे थोड़ा पाप भी होता है । यदि श्रावक सूझता समकर ही साधुको देवे तो फिर टीकाकारको ऐसा लिखनेका क्या प्रयोजन था ? और कारण पड़नेपर असुझता आहार देनेका फल अल्पतर पाप, बहुतर निर्जरा है या, विना कारण भी देने पर उक्तफल है, इस विषयका विचार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपाप बहुनिर्जराधिकारः। ४९१ विवेचक और अन्यके मतसे जो टीकाकारने किया है उसका क्या प्रयोजन था ? अतः असूझता आहार देनेका हो फल इस टीका और पाठमें कहा है सूझता आहार देनेका फल नहीं, इसमें किसी प्रकार का भी संशय नहीं करना चाहिये। ___ अल्पतर पाप शब्दका अर्थ भी भ्रमविध्वंसनकारने अशुद्ध किया है । टीकाकारने साफ साफ लिख दिया है कि निर्जराकी अपेक्षासे अल्प पाप होना अल्पतर पाप शब्दका अर्थ है । दूसरी बात यह है कि वहु शब्दके साथ आये हुए अल्प शब्दका अभाव अर्थ होता भी नहीं है । जैसे उत्तराध्ययन सूत्रमें वहु शब्दके साथ अल्प शब्द आया है उसका निषेध या अभाव अर्थ न होकर "थोडा" अर्थ ही होता है वह पाठ यह है: "वहुपएसगओ अप्पपएसग ओ पकरेइ" तथा भगवती शतक १ उद्देशा ९ में पाठ आया है-अप्पपएएगाओ वहुपएसगाओ" दशवैकालिक सूत्रमें पाठ आया है"अप्पंवा वहुवा” ठाणाङ्ग ठाणा चौथामें पाठ आया है-"चउन्विहे अप्पा वहुए पण्णते" भगवनी शतक १९ उद्देशा ३ और उक्त सूत्र शतक २५ उद्दशा ३ में पाठ आया है"कयरे कयरे हितो अप्पावा वहुयावा तुल्लावा" पन्नावणा सूत्रके तीसरे पदमें पाठ आया है "अप्पावा वहुयावा" उवाइ सूत्रमें पाठ आया है “अप्पतरोवा भुजतरोवा” इसी तरह शास्त्रमें अनेकों जगह वहुशब्दके साथ अल्प शब्द का प्रयोग हुआ है और सभी जगह उसका "थोड़ा" अर्थ हो होता है अभाव या निशेध अर्थ नहीं होता अलवत्ता जहां वहु शब्दके साथ न आकर अकेला अल्प शब्द आता है वहां कहीं कहीं उसका अभाव अर्थ भी होता है परन्तु वहु शब्दके साथ आये हुए अल्प शब्दका कहीं भी अभाव अर्थ नहीं होता । भगवती शतक ८ उद्देशा ६ में वहु शब्दके साथ अल्प शब्द आया है और उस पर भी उसके उत्तर तरप् प्रत्यय लगा है अत: वहां अल्प शब्दका अभाव अर्थ करना एकान्त मिथ्या है। (बोल ३) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकारने अल्पपाप वहु निर्जरा प्रकरणके पहले बोलमें अफासुक अने सणीकका अर्थ सचित्त यानी जीववाली चीज किया है और यह अर्थ करके जनता को यह बतलानेकी चेष्टा की है कि श्रावक, साधुको सचित्त चीज यानी कच्चा पानी आदि कैसे दे सकता है ? इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भगवती शसक ८ उद्देशा ६ के मूलपाठमें "अफासुअं अनेसणीज” यह Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ सद्धर्ममण्डनम् । पाठ आया है यहां अकाल्पनिकको अवासुक कहा है और अकाल्पनिकको ही अनेषणिक कहा है परन्तु जीववाली चीजको अप्रासुक नहीं कहा है मतः जीतमलजीने जो उक्त पाठ में अप्राक शब्दका सचित्त अर्थ किया है वह मिथ्या है। दूसरी जगह स्वयं जीतमलजीने भी अप्रासुक शब्दका अकाल्पनिक अर्थ किया है। आचारांग सूत्रके दूसरे श्रुत स्कन्धके ऊपर जीतमलजीने टव्त्रा रची है उस टव्वामें "अफासुअं" इस पाठ पर उनकी लिखी हुई टवा यह है : "अफाक ए अकाल्पनिक मांटे सचित्त तुल्य, जिम उत्तराध्यययन अ० १ गाथा ५ अवनतिने कह्यो - " दुसीले रम्मइ मिए” भूडा आचारने विषे रमे मिए कहितां मृग सरीखो व्यजाण ते मांटे मृग कह्यो तिम सचित्त पिण अकाल्पनिक छै अने जिहां art आहार वस्त्रादिक सचित्त नहीं तेहने अफाक को अकल्पता मांटे सचित्त सरीखो इमहीज (अणे सणीज ) ते अकल्पता मांटे असूझता सरीखो जाणवो " इस वा अर्थमें स्वयं जीतमलजीने "अफासुअं" का अर्थ सचित्त तुल्य अकल्पनीय किया है अतः भगवती शतक ८ उद्देशा ६ के मूलपाठमें “अफासुअं" का सचित अर्थ करना इनका जनताको धोखा देना है वास्तवमें इस पाठमें अकल्पनीय वस्तु कोही अप्रामुक कह कर बतलाया है जीववाली चीज को नहीं अतः जीतमलजी का पूर्वोक्त आक्षेप मिथ्या समझना चाहिये । ( बोल ४ ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४४४ पर भगवती सूत्र शशक ५ उद्देशा ६ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं "अथ इहां तो साधुने अप्रासुक अनेषणिक बाहार दीघां अल्प आयुष बांधे व ह्यो इहां वो जे असूझतो देवे ते जीवहिंसा अने झूठरे वरोवर को है । अल्प आयुषो ते निगोदरे छै जे जीव हृण्या झूठ वोल्यां साधुने अशुद्ध अशानादिक दीघां बंधतो कह्यो इम हिज ठाणाङ्ग ठाणा ३ अशुद्ध दियां अल्प आयुषो बांधतो कह्यो तो अशुद्ध दियां थोडो पाप घणी निर्जरा किम हुवे" - इसका क्या उत्तर ? ( प्ररूपक ) भगवती शतक ५ उद्देशा ६ के मूलपाठमें साधुको अप्रासुक अनेषणिक आहार देनेसे अल्प आयुका बंध होना लिखा है वह आयु, दीर्घ आयुकी अपेक्षा अल्प कही गई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपाप बहुनि जराधिकारः । ४९३ taraणरूप निगोदकी आयु होनेसे नहीं । अतः भगवती शतक ५ उद्देशा ६ के मूलपाठका नाम लेकर साधुको अप्रासुक अनेषणिक आहार देनेसे निगोदका आयु न्ध बताना अज्ञान है । साधुको अप्रासुक अनेषणिक आहार देनेसे भगवती शतक ५ उद्देशा ६ के मूलपाठ में शुभ अल्प आयु बंध होना लिखा है यह बात भगवती शतक आठ उद्देशा ६ के टीकामें भी कही है। वह टीका यह है:"शुभायुकतानिमित्त 'चाप्रा सुकादिदानस्याल्प युड कता फलप्रतिपादकसूत्रे प्राकू चर्चितम् " - अर्थात् साधुको अप्रासु अनेषणिक आहार देनेसे शुभ अल्प आयुका वन्ध होता है यह पहले बतला दिया गया है। यहां टीकाकारने स्पष्ट लिखा है कि साधुको अप्रासुक और अनेषणिक आहार देनेसे शुभ अल्प आयुका बन्ध होता है निगोदकी आयु पाना नहीं कहा है तथा भगवती शतक ५ उद्देशा ६ के पाठकी टीकामें भी यही बात कही है वह टीका यह है : - "अथवेहापेक्षिकी अल्पायुष्कता ग्राह्या यतः किल जिनागमाभिसंस्कृतमतयो मुनयः प्रथमवयसं भोगिनं कश्चन मृतंदृष्ट्वा वक्तारो भवन्ति नून मनेन भवान्तरे किंचिदशुभं प्राणिवधादि चासेवितम् अकल्प्यंवा मुनिभ्यो दत्तं येनायं भोग्यप्यल्पायुः संवृत्तहति । " अर्थात् भगवती शतक ५ उद्देशा ६ के मूलपाठमें मुनिको अप्रासूक अनेपणिक आहार देने से जो अल्प आयु प्राप्त होना कहा गया है वह दीर्घ आयुकी अपेक्षासे अल्प समझना चाहिये, क्योंकि जिनागमसे संस्कृत वुद्धिवाले मुनि, किसी भोगी पुरुषको पहली व्यवस्था में मरा हुआ देख कर कहते हैं कि इसने जन्मान्तर में प्राणिवध आदि अशुभ कर्मका अवश्य आचरण किया था अथवा मुनियोंके। अकल्पनीय अन्नादि दिया था जिससे भोगी होकर भी यह अल्पायु हुआ है। यहां टीकाकारने मूलपाठका आशय बतलाते हुए दीर्घ आयुकी अपेक्षासे अल्प आयु पाना लिखा है निगोदकी आयु पाना नहीं कहा है इस लिये भगवती शतक ५ उद्देशा ६ का नाम लेकर साधु को अप्रासुक और अनेषणिक आहार देने से निगोद की आयु बताना मिथ्या है। भगवती शतक ५ उद्देशा ६ का मूलपाठ यह है : "कण्हं भन्ते ! जावा अध्याउयत्ताए कम्मं पकरेंति ? गोमा ! तहिं ठाणेहिं जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति तं - जहा - पाणेअइवाइत्ता मुसंवदित्ता तहारूवं समर्णवा माहणंवा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९४ सद्धममण्डनम् । अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असणं पाणं खाइमं साइमं पडिलाभित्ता भवइ एवं खलु जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति" (भ० श० ५ ० ६) अर्थ : हे भगवन् ! जीव, अल्प आयु कैसे बांधते हैं ? __(उत्तर) हे गोतम ! तीन कारणोंसे जीवको अल्प आयुका वन्ध होता है जीवहिंसा करने से, झूठ बोलने से और मुनिको अप्रासक अनेषणिक आहारादि देनेसे। ___इस पाठमें प्राणातिपात, मृषावाद और मुनिको असूझता आहार देनेसे अल्प आयुका वन्ध होना कहा है। यह अल्प आयु, क्षुल्लक भव ग्रहण रूप नहीं है किंतु दीर्घ आयुकी अपेक्षासे अल्प है यह पहले टीकाका प्रमाणके साथ लिख दिया गया है। यहां प्राणातिपात और मृषावाद भी सब प्रकारके नहीं लिये गये हैं किंतु मुनिको माहार देने के लिये जो आधाकर्मी आहार तय्यार किया जाता है उसमें जो प्रागातिपात होता है वह प्राणातिपात, और उस भाषा कर्मी आहारको देनेके लिये जो मिथ्या भाषण किया जाता है वह मिथ्या भाषण, इन्हींका ग्रहण है सब प्राणातिपात और सब मृषावादका ग्रहण नहीं है। इसका खुलासा ठाणाङ्ग सुत्रके पाठकी टीकामें किया है वह टीका यह है: ___"तथाहि प्राणानतिपात्याधाकर्मादिकरणतो मृपोक्त वा यथा अहो साधो ! स्वार्थ सिद्ध मिदं भक्तादि कल्पनीयं वो नशङ्का कार्योत्यादि" अर्थात् प्राणियों का विनाशके द्वारा आधाकर्मी आहार तय्यार करके झूठ बोल कर साधुको देना "अर्थात हे साधो ! यह अन्न हमने अपने लिये बनाया है यह आपका कल्पके योग्य है" इत्यादि मिथ्या बोल कर आधा कर्मी आहार साधुको देना, इस प्रकार जो झूठ बोला जाता है और आधा कर्मी आहार तय्यार करनेमें जो प्राणातिपात होता है उन्हीं प्रागातिपात और मृषावादसे शुभ अल्प आयुका वन्ध होना सम- ' झना चाहिये सब प्राणातिपात और मृषीवादसे नहीं। अतः भावती शतक ५ उद्देशा ६ के मूलपाठमें सभी प्राणातिपात और सभी मृपावादोंका ग्रहण करना एकान्त मिथ्या. समझना चाहिये। _यदि कोई कहे कि भगवती शतक ५ उद्देशा ६ के मूलपाठमें सामान्य रूपसे प्राणातिपात और मिथ्या भाषगका फल अल्प आयुका वध होना लिखा है, आधाकर्मी आहार तैय्यार करनेमें जो जीवहिंसा होती है और उसे साधुको देनेके लिये जो मिथ्या भाषण किया जाता है उन्होंसे अल्प आयुका वन्ध नहीं कहा है फिर आप यह किस प्रमाणसे कहते हैं ? तो इसका उत्तर यह है कि भगवती शतक ५ उद्देशा ६ के उक्त मूल Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अल्पपाप बहुनिर्जराधिकारः । ४९५ पाठके निकटवर्ती पाठ में कहा है कि प्राणातिपात और मृषावादसे अशुभ दीर्घ आयुका वन्ध होता है । परन्तु एक ही कारण से परस्पर विरुद्ध दो कार्य नहीं हो सकते इसलिये टीकाकारने इस पाठकी टीकामें इसका निर्णय स्पष्ट रूपसे कर दिया है कि आधाकर्मी आहार तैयार करनेमें जो जीवहिंसा होती है उस जीव हिंसासे और झूठ बोलकर जो साधुको धाक आहार दिया जाता है उस मृषावाद से शुभ अल्प आयुका वन्ध होता है इनसे अतिरिक्त जो प्राणातिपात और मृषावाद है उनसे अशुभ दीर्घ आयुका बन्ध होता है अतः टीकाकारका किया हुआ निर्णय से इस पाठ में सभी प्राणातिपात और सभी मृषावादोंका ग्रहण न होकर आधाकर्मी आहार तैयार करनेमें जो जीवहिंसा होती है उसीका ग्रहण होता है । वह टीका यह है : : “यो जीवो जिनसाधुगुणपक्षपातितया तत्पूजार्थं पृथिव्याद्यारंभेण स्वभाण्डा सत्योत्कर्षणादिनाऽधाकर्मादिकरणेनच प्राणातिपातादिषु वर्तते तस्य वधादि विरति निरवद्यदाननिमित्तायुष्कापेक्षयेय मल्पायुष्कता समवसेया । अथनैवं निर्विशेषणत्वात्सूत्रस्य अल्पायुष्कत्वस्यच क्षुल्लकभवग्रहणरूपस्यापि प्राणातिपातादिहेतुतोयुज्यमानत्वादतः कथमभिधीयते सविशेषण प्राणातिपातादिवतो जीवस्य आपेक्षिकी चाल्यायुष्कतेति ? उच्यते - अविशेषण त्वेऽपिसूत्रस्य प्राणातिप तादेर्विशेषणमवश्यं वाच्यम् । यत इतस्तृतीयसूत्रे प्राणातिपातादितएव अशुभदीर्घायुष्कतां वक्ष्यति नहि सामान्यहेतौ कार्य्यवैषम्यं युज्यते सर्वत्रानाश्वास प्रसंगात् तथा “समणोवासरणं भन्ते ! तहारूवं समणं माहवा अफासुएणं असण ४ पडिलाभमाणस्स किं कज्जइ ? बहुतरिया निज्जग वज्जइ अप्पतरे से पावकम्मे कज्जइ” इतिवक्ष्यमाण वचनादवसीयते नैवेयं क्षुल्लकभवग्रहणरूपा अल्पायुष्कता नहिस्वल्पपाप बहुनिर्जरा निवन्धनस्यानुष्ठानस्य क्षुल्लकभवग्रहणनिमित्ततता संभाव्यते । अर्थ: जो जीव, जैन साधुओंके गुणके पक्षपातसे उनकी पूजा और सत्कार करनेके लिये पृथिवी काय आदिका आरम्भ करके अपने पात्र आदिको अयत्न पूर्वक रख और उठा कर आधा आहार तैयार करता है और आधाकर्मी आहार तैयार करके प्राणातिपात करता है उस पुरुषकी, प्राणातिपात रहित निरवद्य दानसे उत्पन्न होने वाली आयु की अपेक्षा से अल्प आयु वंधती है। यदि कोई कहे कि इस सूत्र में प्राणातिपात और मिथ्या भाषणसे अल्प आयु वन्ध होना कहा है परन्तु 'यह नहीं कहा है कि अमुक प्राणातिपात या अमुक मिथ्याभाषणसे अल्प मायु बंधती है । तथा यह भी नहीं कहा है कि दीर्घ आयुकी अपेक्षा अल्प आयु बंधती है परन्तु क्षुल्लक भव ग्रहण रूप अल्प आयु नहीं बंधती फिर यह किस प्रकार मान लिया जावे कि आधाकर्मी आहार तैयार करनेमें जो प्राणा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९६ सद्धर्ममण्डनम् । - तिपात होता है और मिथ्या भाषग करके जो साधुको आधाकर्मी आहार दिया जाता है उन्होंसे अल्प आयुका वन्ध होता है दूसरे पागातिपात और मिथ्या भाषणसे नहीं ?" तो इसका उत्तर यह है -यद्यपि इस सूत्रमें सामान्य रूपसे प्राणातिपात और मिथ्या भाषणसे अल्प आयुका वन्ध होना कहा है तथापि इनका विशेषण अवश्य कहना होगा अर्थात् आधाकर्मी आहार तैयार करनेमें जो प्राणातिपात होता है और झूठ बोलकर जो साधुको आधाकर्मी आहार दिया जाता है उन्हींसे अल्प आयुका वन्ध होता है यह कहना ही होगा क्योंकि इस सूत्रके तीसरे सूत्रमें कहा है कि "प्राणातिपात और मिथ्या भाषगसे अशुभ दीर्घ आयुका वन्ध होता है।" एक ही कारणसे परस्पर विरुद्ध दो कार्या उत्पन्न हों यह संभव नहीं है क्योंकि ऐसा माननेपर सभी जगह अव्यवस्था हो जायगी तथा भगवतो शतक ८ उद्देशा ६ के मूलपाठमें इसी अकल्पनीय अन्नके दानसे अल्पतर पाप और बहुतर निर्जरा होना कहा है इससे ज्ञात होता है कि इस पाठमें कही हुई अल्पायुकता क्षुल्लकभव ग्रहण रूपा नहीं है क्योंकि जिससे अल्पतर पाप ओर वहुतर निज रा होती है उस कायसे क्षुल्लकभव ग्रहण रूप अल्पायुष्कता होना संभव नहीं है। यह उक्त टोकाका अर्थ है। यहां टीकाकारने स्पष्ट लिखा है कि आधा कमी आहार तैयार करने में जो प्राणातिपात होता है और मुनिको झूठ बोलकर जो आधाकर्मी आहार दिया जाता है उन्हीं प्राणातिपात और मिथ्या भाषणसे अल्प आयुका वन्ध होता है सभी प्राणातिपात और मिथ्या भाषगसे नहीं तथा अल्प आयु भी दीर्घ आयुकी अपेक्षासे कही गई है क्षुल्लकभव ग्रहण रूप नहीं। अत: सभी प्राणातिपात और मिथ्या भाषणका इस पाठमें ग्रहण करना और अल्प आयुसे निगोदकी आयु बताना तथा भगवती शतक ८ उद्देशा ६ के मूलपाठमें अल्पतर पाप शब्दका पापका अभाव अर्थ करना, यह सब एकान्त मिथ्या और मूल सूत्र तथा टीकासे विरुद्ध समझना चाहिये । (बोल ५वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भगवती शतक १८ उद्देशा १० का मूलपाठ लिखकर लिखते हैं कि "ते अभक्ष्य आहार साधुने दीधां वहुतर निर्जरा किम होवे' इत्यादि । इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) भगवती सूत्र शतक १८ उद्देशा १० के मूलपाठमें उत्सर्गमार्गमें अनेषणिक आहार साधुको अभक्ष्य कहा है कारण दशामें अभक्ष्य नहीं कहा है अतएव सुयगडांग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९७ अल्पपाप बहुनिर्जराधिकारः। सूत्रके दूसरे श्रुतस्कन्धकी आठवीं और नवीं गाथामें आधाकर्मी आहार खानेवालेको एकान्त पापी कहने का निषेध किया है । वे गाथाएं टीकाके साथ लिखी जाती हैं "अहाकम्माणि भुजति अण्णमण्णे सकम्मुणा उबलित्तेति जाणिज्जा अणुवलिरोति वापुणो" एएहिं दोहि ठाणेहिं ववहारो न विज्जइ एएहिं दोहि ठाणेहि अणायारं तु जाणए" (सुय० श्रु० २ गाथा ८-९) टीका : साधुच प्रधान कारणमाश्रित्य कर्माण्याधाकर्माणि तानिच वस्त्र भोजन वसल्यादीन्युच्यन्ते । एतान्याधाकर्माणि ये मुजते एतैरुपयोगं ये कुर्वन्ति अन्योऽन्यं परस्परं तान स्वकीयेन कर्मणा उपलिसान् विजानीयादित्येवं नोवदेत् तथा अनुपलिप्तानितिवा नोव. देत् । एतदुक्तं भवति-आधाकर्माऽपि श्रुतोपदेशेन शुद्धमिति कृत्वा मुंजान: कर्मणा नोपलिप्यते तदाधाकर्मोपभोगेनावश्य कर्मवन्धो भवतीत्येवं नोवदेत् । यथावस्थित मौन न्द्रागमज्ञस्यत्वेवं युज्यते वक्तुम् माधाकर्मोपभोगेन स्यात्कर्मवन्धः स्यान्नेति । यत उक्तम्-"किंचिच्छुद्ध कल्प्य मकल्प्यं वास्यादकल्प्यमपि कल्प्यम् । पिण्डः शय्या, वस्त्र, पात्रं वा भेषजाघवा' तथाऽन्यौरप्यभिहितम् “उत्पयेतहिसाऽवस्था देशकालमयान् प्रति । यस्यामका- कार्या स्यात्कर्म कार्यान्च वर्जयेत्” इत्यादि । गाथा ८ किमित्येवस्याद्वादः प्रतिपाद्यतेइत्याह-आभ्यां द्वाभ्यां स्थानाभ्यामाश्रिताभ्यां मनयोर्वा स्थानयो राधाको पभोगेन कर्मवन्धभावाभावभूतयो र्व्यवहारो न विद्यते । तथाहि यद्यवश्यमाधाकों पभोगेनैकान्तेन कर्मवन्धोऽभ्युपगम्येन एवंचाहागभावेनापि क्वचित्सुतगमनयों दयः स्यात् । तथाहि क्षुत्पपीडितो नसम्यगोर्यापथं शोधयेत् ततश्चव्रजन् प्राण्युपमदेमपि कुर्यात् । मूर्छादि सभावतयाच देहपातेसत्यवश्यभावी प्रसादि व्याघातोऽकालमरणेचाविरति रङ्गीकृता भवत्यार्तध्यानापत्तो चतिलग्गतिरिति। आगमश्च "सव्वत्थ संजमं संजमाओ अप्पाणमेव रक्खेजा" इत्यादिनाऽपि तदुपभोगे कर्मवंधाभाव इति । तथाहि आधाकर्मण्यपि निष्पाद्यमाने षड्जीवनिकायवधः तद्वधेच प्रतीत: कर्मवन्ध इत्यनयोः स्थानयो रेकान्तेनाश्रीयमाणयोर्व्यवहरणं व्यवहारो न युज्यते तथाऽभ्यामेव स्थानाभ्यां समाश्रिताभ्यां सनमनाचारं विजानीयादिति स्थितम्" ६३ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४९८ सद्धर्ममण्डनम् । अर्थ : साधुके निमित्त जो प्रधानरूपसे कर्म किया जाता है उसे आधाकर्म कहते हैं। साधुके निमित्त वन, भोजन मकान आदि जो किये गये हैं वे सब माधाकर्म कहलाते हैं । जो साधु इनका उपभोग करता है उसे एकान्त रूपसे क्रमसे उपलिन अथवा एकान्त रूपसे कर्मसे अनुपलिप्त न कहना चाहिये । इसका कारण यह है कि जो साधु शास्त्रोक्त रीतिसे आधाकर्मका उपभोग करता है उसको कर्मवन्ध नहीं होता और जो शास्त्र विधिका उल्लंघन करके आहारके लोभसे आधाकर्मका उपयोग करता है उसको कम्वन्य होता है । अतः आधाम के उपभोग करनेसे अवश्य कर्मवन्ध होता है या बिलकुल कर्मकन्ध नहीं होता यह एकान्त रूपले नहीं कहना चाहिये । इस विषयमें जैनागमके तत्वको जाननेवाले पुरुषों को यह कहना चाहिये कि आधाकर्मके उपभोगसे कथंचित् कर्मवन्ध होता है और कथंचित् नहीं भी होता है। पूर्वाचार्योंने कहा है कि पिण्ड, शय्या, वस्त्र, पात्र और भेषज आरि, शुद्ध और कल्पनीय होकर भी कदाचित् अशुद्ध और अकल्पनीय हो जाते हैं और अल्पनीय होकर भी कदाचित् शुद्ध और कल्पनीय होते हैं। अन्य आचार्योंने भी कहा है कि कोई ऐसी अवस्था या जाती है जिसमें कार्य तो अकार्य और अकार्य ही कार्य हो जाता है । अतः हर एक दशामें आधाकर्मी आहार खाना वर्जित नहीं हो सकता। यदि सभी समयमें आधाकर्मी आहार खाना अनुचित माना जाय तो महान अनर्थका उदय हो सकता है क्योंकि क्षुधासे पीड़ित साधु, अच्छी तरहसे ई-पथका परिशोधन नहीं कर सकता है और ईर्यापथका यथावत परिशोधन नहीं होने पर प्राणियोंका उपमद होना भी सम्भव है तथा क्षुधासे पीड़ित साधु यदि मूच्छित होकर गिर पड़े तो अवश्य उसे त्रस आदि प्राणियोंका विवात हो सकता है। कदाचित् क्षुधा कष्टसे साधुका मरण हो जाय तो उसकी विरति भी कायम नहीं रह सकती। कदाचित् क्षुधा कष्टसे मरते हुए साधुको आर्तध्यान आ जावे तो उसको ति-ग्गति होती है अतः सभी दशामें आधा कर्मी आहार खानेको वर्जित करना मिथ्या है। आगममें कहा है कि साधु को सर्वत्र संयमकी रक्षा करनी चाहिये और संयमसे भी अपनी रक्षा करनी चाहिये । यह आगम भी आधाकर्मी आहारको कारणवश खाने पर क्रमवन्धका अभाव बतलाता है यद्यपि आधाकर्मी आहारको तय्यार करनेमें छ: कायके जीवोंका विघात होता है और जीवोंके विघात होनेसे कमवन्ध होना भी प्रसिद्ध है तथापि आधाकर्मी आहार खाने से एकान्त रूपसे पाप बताना उचित नहीं है। इसी तरह सारे अनाचारों के विषयमें समझना चाहिये । यह उक्त गाथा और उनकी टीकाका भावार्थ है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ____ अल्पपाप बहुनिर्जराधिकारः। ४९९ इन गाथाओंमें आधाकर्मी माहार खानेवालेको एकान्तरूपसे कर्मोपलिन कहने का निषेध किया है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि भगवती शतक १८ उद्दशा १० में जो अनेषणिक आहार साधुके लिये अभक्ष्य कहा है वह उत्सर्ग मार्गमें कहा है कारण दशामें नहीं । वृहत्कल्प सूत्र में सदोष आहार को एकान्त अभक्ष्य नहीं कहा है। वह पाठ यह है:__ "निगंथेणवा गाहावइकुलं पिण्डवायपडियाए अणुप्पवि?णं अण्णेरे अचित्ते अनेसणिज्जे पाणभोयणे पडिग्गाहित्तए सिया। अस्थिया इत्थ केइ सेहत्तराए अणुवठ्ठावित्तए कप्पड़ से तस्स दोऊया अणुप्पदाऊंवा गत्थिया इत्थ केइ सेहत्तरोए अणुवट्ठाविएसिया तं णो अप्पणा भुजेजा णो अण्णेसि अणुप्पदेना एगते बहुफोसुए थंडिले पडिलेहिता पमज्जित्ता परिहवेयवेसिया" (वृहत्कल्प) इस पाठका भाव यह है कि भिक्षार्थ गये हुए साधुको यदि कोई गृहस्थ अचित्त . अनेषणिक आहार लाकर देवे तो साधु वह अन्न अपने नवदीक्षित शिष्य यानी सामायक चरित्रवालेको खानेके लिये दे देवे यदि नवदीक्षित शिष्य न हो तो उस अन्नको स्वयं न खावे और किसी दूसरे साधुको भी न दे किन्तु एकान्त स्थानमें पूजन और प्रतिलेखन करके परठ देवे। इस पाठमें सदोष आहार नवदीक्षित शिष्यके खाने योग्य कहा है अत: सदोष आहारको एकान्त अभक्ष्य कहना शास्त्र विरुद्ध है। जब कि सदोष आहार एकांत अभक्ष्य नहीं है तब फिर सदोष आहार देने वाले श्रावकको एकान्त पाप कैसे हो सकता है ? यह बुद्धिमानोंको सोचना चाहिये । जीतमलजीने भी आधाकर्मी आहार नवदीक्षित शिष्यके खाने योग्य कहा है। बृहत्कल्प सूत्रकी जोड़के चौथो ढालमें जीतमलजी ने यह लिखा है: ___ "इमहि वेकोश उपरंत लेगयो आधाकर्मादि अचित्त रह्यो छै। नवदीक्षित तो तसुदीजे नहीं तर साहू पारिठणो कयो" अत: आधाकर्मी आहारको एकान्त अभक्ष्य कहना मिथ्या है। (बोल छट्ठा समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकारके मतानुयायी साधु, कारण पड़ने पर निस्य पिण्ड देना कल्प Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्भमण्डनम् । नीय बतलाते हैं परन्तु कारण होने पर भी व्याधाकर्मी 'आहारको त्यागनेयोग्य कहते हैं। प्रश्नोत्तर साधशतक में जीतमलजीने लिखा है कि — ५०० " साधुने कारण पड्यां आधाकर्मी उद्दे शिक न लेगो तो कारणे नित्य पिण्ड भोगवो कि नहीं । इति प्रश्न (५६) (उत्तर) आधाकर्मी उद्दे शिक तो वस्तुइ अशुद्ध छे अने नित्यपिण्ड वस्तु अशुद्ध नहीं ते भाणी कारण पढ्यां दोष नहीं। कोई कहे एवो अनाचार छै ते कारणे किम सेवे ? तो अनाचार तो स्नान क्रियां पिण कह्यो, सुगन्ध सुध्यां, वमन, गले हेठना, केश कापे, रेच, भंजन, ए सर्व अनाचार छै पिण जितव्यवहारथी कारणे दोष न कह्यो ।" ( प्रश्नो० सा० श० ) इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) उद्दिष्ट भक्त और नित्य पिण्ड, इन दोनोंको शास्त्रमें एक समान दुर्गतिका कारण बताया है । उत्तराध्ययन सूत्रके वीसवें अध्ययन में इस विषय में यह गाथा आई है:"उद्दे सियं कोयगडं नियोगं, नमुचइ किंचि अनेसणिज्जं । अग्गीविवा सव्वभक्खो भवित्ता, इयो चुओ गच्छइ कट्टु पाव" (उत्तरा० सु० ) अर्थः जो आहार साधुके लिये बनाया गया है, जो साधुके लिये खरीदा गया है तथा एक ही after नित्य पिण्ड लेना, इन आहारोंको नहीं छोड़कर जो साधु अभिकी तरह सघभक्षी हो जाता है वह पाप कर्मका उपार्जन करत । है और उसकी गति बुरी होती है । इस गाथामें उद्दिष्ट भक्त और नित्य पिण्ड इन दोनोंको दुर्गतिका कारण बतलाया है । इसलिये कारण पड़ने पर नित्य पिण्ड लेनेका स्थापन करना और उद्दिष्टका खण्डन करना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये । वास्तवमें उत्सर्ग मार्गमें दोनों ही वर्जित हैं परन्तु अपवादकी बात न्यारी है। एक हो धनीके आहारको प्रति दिन लेना नित्यपिण्ड कहलाता है परन्तु कई नामधारी साधु एक ही धनी आहारको क्षेत्रभेद कायम करके प्रतिदिन विना कारण ही लेते हैं और रास्तेमें साधु सेवाका अधिक माहात्म्य बता कर गृहस्थों को अपने साथ लेकर विहार करते हैं। रास्तेमें प्रत्येक पडावोंपर प्रतिदिन एक ही धनीका आहार लेकर खाते हैं यह सब साधुताका विनाशक और प्रत्यक्ष शास्त्र से बिरुद्ध है इस लिये ऐसे आवरण वाले साधुओंको अज्ञानी समझना चाहिये । ( बोल ७ वां ससाप्त ) ( इति अल्पपोप बहुनिर्जराधिकारः ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( अथ कपाटाधिकारः). (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ट ४५६ पर लिखते हैं "कोई पाखण्डी, साधु नाम धरायने पोते हाथथकी किमाड जडे उघाडे भने सूत्रना झूठा नाम लेईने किमाड़ जडवानी अने उघाडवानी अणहुन्ती थाप करे छ" (भ्र० पृष्ठ ४५६) इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक). . प्रथम तो भ्रमविध्वंसनकारके मतानुयायी साधु ही कपाट खोलने और बन्द करनेका परहेज नहीं करते, वे अपने हाथसे खिड़कीका कपाट खोलते हैं और बन्द करते हैं तथा इस कार्यको शास्त्रानुकूछ बताते हैं परन्तु यदि दूसरा कोई साधु ऐसा करे तो उसे वे बुरा बताते हैं यह इनकी अद्भुत लीला है। यदि कहो कि वे खिड़कीके कपाट को खेलते हैं और बन्द करते हैं प्रान्तु द्वारके कपाटको नहीं खोलते और नहीं बन्द करते हैं तो यह उनका मिथ्याचार है कहीं भी शासनमें ऐसा नहीं कहा है कि साधुको खिड़की का कपाट खोलना और बन्द करना चाहिये परन्तु द्वारका कपाट खोलना और बन्द करना नहीं चाहिये । मत: खिड़कीके कपाटको खोलने और बन्द करनेको बुरा नहीं मान कर भी द्वार के कपाट को खोलने और बन्द करने को बुरा बताना अज्ञानमूलक है। भिक्खुशयरसायन पत्र ११८ पर जीतमलजी लिखते हैं: "पञ्चावने वर्ष पूज्यजी सहर कांकरोली सार सेंहलोतारी पोलमें उतरिया तिण वार (१) प्रत्यक्ष वारी पोली जडी हुन्ती तिण वार ऋषि भिक्खु रहितां थकां एक दिवस अवधार (२) वारी खोली वारणे दिशा जायवा देख निसरिया भिक्खू निशा पूछे हेम संपेख (३) स्वामी वरी खोलण तणी नहीं काई अंटकाव तब भिक्खू वोल्या तुरत प्रत्यक्ष ते प्रस्ताव (४) पूज कहे पूछे इंसी इणरो नहीं अटकाव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ सद्धर्ममण्डनम् । ___ अटकाव हुवे जो पहने म्हें खोलां किण न्याय (५) तथा कुमति विहंडन नामक ग्रन्थमें जीतमलजीने लिखा है "सम्वत् १८५९ सोजदमें वर्जू जी नाथाजी आदि सात आर्य्याने भीषगजी स्वामी साथे आय छत्री आगलकानी उपासरारी अज्ञालिधी गृहस्थ और वासथी कूची ल्यायो आर्या मांहे उतारी जितरे स्वामीजी कने ऊभा। आO उपसरामें गया पछे स्वामीजी ठीकाने माया ए वात नाथाजीरे मुंहडा थी सुणी तिम लिखो। सम्बत १८९४ चैत्र शुदी १५ वार सोम खेरवामें नाथाजी कने बैठा पूछने लिखियो छै" ___ यहां पर जीतमलजीने साफ २ लिखा है कि भीषणजीने गृहस्थसे कूजी लाकर द्वारके फाटकका ताला खोला था और सतीओंको अन्दर प्रवेश कराया था। तथा पूर्व लिखित दोहोंमें खिडकीका कपाट खोल कर भीषणजीका बाहर जाना और हेमजी के पूछने पर उसे शास्त्रानुकूल बताना साफ साफ लिखा है। यदि द्वारका कपाट खोलनेमें दोष था तो भीषगजीने छत्रीके फाटकका ताला खोल कर सतियोंको अन्दर कैसे प्रवेश कराया था ? तथा खिडकीका कपाट खोल कर वह रातमें बाहर कैसे गये थे ? अतः द्वारके कपाटको खोलनेमें साधुताका विनाश मानना इनका अज्ञान और इनके स्वयं आचरणसे भी भी विरुद्ध है। (बोल १ समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४५६ पर उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ४ के ३५ वी गाथा लिख कर उसकी समाले चनामें लिखते हैं "अथ अठे इम कह्यो किमाण सहित स्थानक मणकरीने पिण वांछणो नहीं तो जडवो किहांथकी' (भ्र० पृ० ४५६) इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक) कपाट वाले मकानकी जब मनसे इच्छा भी बुरी है तब फिर उसमें उतरना तो और ज्यादा वुरा होगा फिर तेरह पन्थी साधु कपाट वाले मकानमें क्यों उतरते हैं ? इस काऱ्यांसे उनकी साधुता से रह सकती है ? जिसकी मनसे इच्छा रखना भी बुरा है उस कार्याको शरीरसे करना तो और अधिक हानिकर है परन्तु तेरहपन्थी स धु कपाट वाले मकानमें उतरते हैं, उसका परहेज नहीं रखते और कहते हैं कि कपाट सहित मकान की साधुको मनसे भी इच्छा नहीं रखनी चाहिये । इस प्रकार जो अपने कथनसे ही विपरीत आचरण करता है उसका सिद्धान्त कहांतक सत्य है यह हर एक बुद्धिमान जीव Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपाटाधिकारः। ५०३ जान सकते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र की गाथा जो जीतमलजीने लिखी है उसका अभिप्राय वह गाथा लिख कर बताया जाता है। वह गाथा यह है:-- मनोहरं चित्तहरं मल्लधूवेण वासियं सकवार्ड पांडुरुल्लो मनसावि न पत्थए" इसके आगेकी गाथा यह है "इन्दियाणिउ भिक्खुस्स तारिसंमिउवस्सए दुक्कराई निवारेउ कामरागविवडढणे" (उत्तराध्ययन अध्ययन ४ गाथा ३५ । ३६ ) : अर्थ: मनोहर, चित्रोंसे युक्त, माल्य शौर धूपसे वासित, कपाटयुक्त, और श्वेत धनको चादर से ढके हुए, मकानकी साधु मनसे भी चाहमा नहीं करे । क्योंकि ऐसे मकान में रहने पर साधुकी इंद्रियां जब चञ्चल होकर अपने अपने विषयों में प्रवृत्त होती हैं तब उनका निरोध करना कठिन हो जाता है क्योंकि पूर्वोक्त प्रकारका मकान काम रागको बढ़ाने वाला होता है। इन गाथाओंमें, साधुको अपनी इन्द्रियोंका निग्रह कानेके लिये मनोहर, चित्र युक्त, सुवासित सकपाट, और श्वेत चांदनी वाले मकानमें रहना वर्जित किया है कपाट खोलने और वन्द करनेके भयसे गहना वर्जित नहीं किया है। अगली गाथामें साफ साफ लिखा है कि "मनोहर, चित्रयुक्त, माल्य और धूपसे सुवासित मकानमें रहना, काम राग को बढ़ाने वाला होता है इसलिये साधुको उक्त मकानमें नहीं रहना चाहिये" यदि कपाट खोलनेमें दोष होता तो जैसे शास्त्रकारने यह कहा है कि "ऐसे मकानमें रहने पर काम रागको वृद्धि होती है" उसी तरह यह भी कह देते कि 'ऐसे मकानमें रहने पर कपाट खोलना और बन्द करना पड़ता है इसलिये साधुको उक्त मकान में नहीं रहना चाहिये" परन्तु शास्त्रकारने यह नहीं कह कर काम बृद्धिके भयसे उक्त मकानमें रहना वर्जित किया है इसलिये उक्त गाथाका नाम लेकर कपाट खोलने और बन्द करने का निषेध करना अज्ञानमूलक समझना चाहिये । आजकल व्यवहारमें भी यही देखा जाता है कि कपाटवाले मकानमें तो साधु उतरते है परन्तु अश्लील चित्र वाले माल्य और धूप से सुवासित मकानमें नहीं उतरते अत: कपाट खोलने और बन्द करनेके भयसे कपाट वाले मकानमें उतरनेका निषेध करना मिथ्या समझना चाहिये। ( बोल २) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०४ सद्धममण्डनम् । (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४५० पा मापक सूत्रका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: “अथ अठे कटो-थोडो उघाड़गो पिण किमाड़ घगो उघाड्यो हुवे तेहनां पिण "मिच्छामि दुक्कड" देवे तो पूरो जड़गो उघाड़गो किहां थकी" (भ्र० पृ० ४५७ ) इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक) बिना पूजे कगट खोलने का प्रायश्चित्त स्वरूप "मिच्छामि दुक” देना आवश्यक सूत्रमें कहा है कपाट खोलनेका प्रायश्चित स्वरूप “मिच्छामि दुकडे" देना नहीं कहा है अतएव टीकाकारने लिखा है कि "इहचाप्रमार्जनादिभ्योऽतिचारः" अर्थात यह अतिचार विना प्रमाजेन किये कपाट खोलनेसे होता है। इस टीकाकारकी उक्ति से स्पष्ट सिद्ध होता है कि प्रमाजन करके कपाट खोलने पर अतिचार नहीं होता है अत: आवश्यक सूत्रका नाम लेकर कपाट खोलनेसे साधुताका विनाश बताना सूत्रार्थ नहीं जाननेका फल समझना चाहिये । (बोल ३) (प्रेरक) - भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४५७ पर सुयगडांग सूत्र की गाथा लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: “अथ अठे इम कयो और जागा न मिले तो सूना घरने विशे रह्यो साधु पिण किमाड़ जडे उघारे नहीं तो प्रामादिकमें रह्यो किमाड़ किम जडे उघाडे ए तो मोंटा दोष छै" (भ्र० पृ० ४५७) . इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक) सुयगडांग सूत्रकी गाथाका नाम लेकर स्थविर कल्पी साधु के लिये कपाट खोलने मौर बन्द कानेका निषेध करना अज्ञान है। उस गाथामें अकेला विहार करनेवाले जिन कल्पी साधुको कपाट खोलने और बन्द करनेका निछोध किया है स्थविर कल्पीको नहीं। वह गाथा यह है: "एगे चरे ठाण मासणे सएणे एगे समाहिए सिया। भिक्खू उवहाण वीरिए वइगुत्ते अज्झत्त संवुडे" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपाटाधिकारः। ५०५ णो पीहेण य नावपंगुणे दारं सुन्नधरस्स संजए पुट्ठण उदाहरे वयं णसमुच्छे णो संथरे तणं" (सुय० गाथा १२।१३) अर्थः द्रव्यसे अकेला विहार करने वाला भावसे राग द्वेष रहित साधु, कायोत्सर्गादिक अकेला ही करे तथा पैठना, सोना, उठना आदि भी अकेला करे धमध्यानसे युक्त होकर तपस्यामें अपने पराक्रमका पूर्ण उपयोग करे किसीके पूछने पर विचार कर वाक्य वोले अपने मनको गुप्त रक्को, किसी कारणवश यदि शून्य गृहमें रहना पड़े तो उसका कपाट न बन्द करे और न खोले उस मकानके कतारेको न बुहारे, तथा सोनेके लिये तृण आदिकी शय्या न विछावे । यह इन गाथाओं का अर्थ है। यहां "एगेचरे" यह लिख कर अकेला विहार करनेवाले साधुके विषयमें गाथोक्त सभी नियम कहे गये हैं स्थविर कल्पीके लिये उक्त नियमोंका वर्णन नहीं है अतः इस गाथाका नाम लेकर स्थविर कल्पीको कपाट खोलने और बन्द करनेका निषेध करना ज्ञान है। इस गाथामें मकानका कचरा निकालना, तृणादिकी शय्या विछाना इत्यादि बातें भी निषेध की गयी हैं फिर जीतमलजीके सम्प्रदायवाले साधु अपने निवासस्थान के कचरेको क्यों निकालते हैं तथा शयनके लिये तृगादिकी शय्या क्यों विछाते हैं ? यदि कहो कि यह सब नियम जिनकल्पीका है स्थविरकल्पीका नहीं तो उसी तरह यह भी समझो कि कपाट बन्द करने और खोलने का निषेध जिनकल्पीके लिये है स्थविरकल्पी के लिये नहीं। अत: इस गाथांका नाम लेकर स्थविर कल्पीको कपाट खोलने और बंद करनेका निषेध करना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये । यदि कोई दुगग्रही उक्त गाथाके तीन चरणोंको स्थविर कल्पीके लिये और एक चरणको जिनकल्पीके लिये कहा जाना बतावे तो उसे कहना चाहिये कि ऐसा नहीं हो सकता क्योंकि यह बात शास्त्र शैलीसे विरुद्ध है। उक्त गाथाके आरम्भ और समाप्तिमें जिनकल्पीका ही नियम बताया गया है फिर बिना किसी प्रकारकी सूचना दिये मध्यमें स्थविर कल्पीका नियम नहीं कहा जा सकता। दूसरी बात यह है कि स्थविर कल्पीमें साध्वी भी शामिल हैं फिर तो उन्हें भी कपाट नहीं बन्द करना चाहिये । यदि साध्वियोंको कपाट बन्द करने में पाप नहीं होता तो फिर साधुओंको क्यों होगा ? अतः जिनकल्पीके लिये कही हुई गाथाका नाम लेकर स्थविर कल्पीको कपाट बन्द करने और खोलने का निषेध करना जनताकी आंखमें प्रत्यक्ष धूल झोकना है। (बोल ४) ६४ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०६ ( प्रेरक ) शास्त्र यदि कहीं साधुको कपाट खोलने और बन्द करनेका विधान किया हो तो उसे बतलाइये । (प्ररूपक) कपाट खोलने और बन्द करनेका विधान अनेकों जगह पर मिलता है। कई यहां भी लिखे जाते हैं :-- सद्धर्ममण्डनम् "खाणी पावार पिहियं अप्पणा नाव पंगुरे कवाडं नो पणुलिज्जा उग्गहंसि अजाइथा,, ( दश वैकालिक अ० ५ उ० १ गाथा १८ ) अलसी काण्डकी टट्टीसे या पढ़ें आदिसे ढके हुए मकानको गृहस्वामीकी आशाके बिना साधु न खोले तथा धनीकी आज्ञा के बिना कपांट भी न खोके परन्तु गाढ़ कारण होनेपर गृहस्वामी की आज्ञा लेकर खोलने में कोई दोष नहीं है । इस गाथामें गृहस्वामीकी आज्ञा लेकर विधिपूर्वक कपाट खोलने का विधान किया गया है अत: अपने निवास स्थानके कपाटको विधिपूर्वक खोलने और बन्द करनेमें कोई दोष नहीं है । आचारांग सूत्रमें गृहस्थका द्वार खोलने का विधान किया गया है। वह पाठ यह है " से भिक्ख वा भिक्खूणीवा गाहावइ कुलस्स दुवारवाह कंटक दियाए परिपिहियं पेहाए तेसि पुव्वामेव उग्गहं अणणुन्नविय अपडिलेहिय अप्पमज्जिय णो अवगुणिज्जवा पविसेज्जवा णिक्खमेज्जवा तेसिं पुत्रामेव अणुन्नविय पडिलेहिय २ पमज्जिय तओसंजयामेव अवगुणेज्जवा पविसेब्जवा क्लिमेज्जया' ( आचारांग मूत्र ) अर्थ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat , ·1 भिक्षाके निमित्त गया हुआ साधु, गृहस्थके मकानको कंटकको शाखा से ढका हुआ देख गृहस्थकी आज्ञा बिना और बिना देखे तथा रजोहरणादिसे प्रमाजन किये बिना उसका द्वार खोलकर अन्दर न प्रवेश करे और न निकले क्योंकि इसमें गृहस्वामीका साधुपर क्रोधित होना संभव है परन्तु गृहस्वामीकी आज्ञा लेकर देख भाल करके और रजोहरणादिके दुवारा प्रमार्जन करके दुवार खोलकर प्रवेश करनेमें कोई दोष नहीं है। इस पाठ में गृहस्वामीकी आज्ञा लेकर प्रमार्जन आदि करके गृहस्थके मकानका द्वार खोलने का विधान किया गया है अतः कपाट खोलनेसे एकान्तरूपसे संयम की वि www.umaragyanbhandar.com Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाटाधिकारः । ५०७ राधना बताना ज्ञान है। कारण होनेपर साधु जबकि गृहस्थके द्वारको भी खोलकर संयमका विराधक नहीं होता तब फिर अपने स्थानके द्वारको विधिपूर्वक खोलने और बन्द करनेसे वह संयमका विरावक कैसे हो सकता है ? अतः कपाट खोलने और बन् करनेसे साधुता का विनाश कहना अज्ञान मूलक है । ( बोल ५ ) ( प्रेरक ) भ्रम विध्वंसनकार भ्रम० ४६१ पर आचारांग सूत्रका मूलपाठ लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं : "शत्रिने विषे अथवा विकालने विषे आवाधा पीडातां किमाड खोलना पडे तो खुलो देखि माय तस्कर बायने वतायां न बतायां अवगुण उपजता कह्या सर्व दोषा में प्रथम दोष किमाड खोलवानो कह्यो तिज कारणथी साधुने कीमाड़ खोलनो पडे एहवो थानके रहिवो नहीं" ( भ्र. पृ० ४६१ ) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक ) आचारांग सूत्रके मूलपाठ में साधु और साध्वी दोनों को गृहस्थके संसर्गवाले मकान में रहनेका निषेध किया है। वह निषेध यदि कपाट खोलने और बन्द करनेके भय से किया गया हो तो फिर साध्वीको भी अपने निवास स्थानका कपाट नहीं बन्द करना चाहिये । यदि साध्वी को कपाट खोलने और बन्द करनेका निषेध नहीं है तो उसी तरह साधुको भी कपाट बन्द करने और खोलनेका निषेध नहीं है । वास्तवमें आचारांग सूत्रके मूलपाटमें कपाट खोलने और बन्द करनेके भयसे गृहस्थके संसर्ग वाले मकान में साधुको उतरना वर्जित नहीं किया है किन्तु उस मकानका द्वार खुला हुआ देख कर यदि उसमें चोर प्रवेश करे तो उस चोरको बताने या न बताने दोनों ही हालत में साधुको दोष लगता है उस दोष की निवृत्तिके लिये साधु और साध्वीको गृहस्थके संसर्ग वाले मकानमें रहना वर्जित किया है । वह पाठ यह है "सेभिक्खूवा भिक्खूणीवा उच्चारपोसवणेण उवाहिज्जमाणे राओवा वियालेवा गाहावह कुलस्स दुवारवाह' अवंगुणिज्जा तेणेय तस्सं विचारी अणुष्पविसिज्जा । तस्स भिक्खूस्स णो कप्पइ एवं वत्तए अयं लेणो पविसइवा णोवापविसह उवल्लियहवा णोवा ० भाववा• बघवा गोवा ० तेन हर्ड अन्नेन हडं अयं इत्थमकासी तं Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्धर्ममण्डनम् तवस्सिं भिक्खू अतेणं तेणंति संकइ अहभिक्खूणं पूव्वोवदिट्ठा जाव णो चेतेज्जा । अर्थ : साधु या साध्वी गृहस्थके संसर्गवाले मकानमें रहते हुए लघु नीति या बड़ी नीतिसे पीड़ित होकर बाहर जानेके लिये यदि उस मकानका द्वार खोले और कपाट खलनेकी प्रतीक्षामें बैठा हुआ चोर यदि उस मकान में प्रवेश कर जाय तो साधुको यह कहना नहीं कल्पता है कि यह चोर घरके अन्दर प्रवेश करता है या नहीं प्रवेश करता है, छिपता है या नहीं छिपता है, बोलता है या नहीं बोलता है, इसने यह चीज चुराई है या नहीं चुराई है, यह चोर है या चोरका परिचारक है, यह हथियार लिया हुआ है या नहीं लिया है, यह मार डालेगा, इसने यह कार्य किया है इत्यादि। ऐसा कहनेपर चोरपर आपत्ति आवेगी अथवा क्रोधित होकर वह चोर साधुको ही मार सकता है और महीं कहनेपर कदाचित् साधुको ही वह गृहस्थ चोर समझ लेवे तो इसमें महान् अनथ हो सकता है । अतः साधु और साध्वीको गृहस्थके संसर्ग वाले मकानमें नहीं रहना चाहिये। इस पाठमें गृहस्थके मकानमें चोरके प्रवेश करनेपर होने वाले अनर्थके भयसे साधु और साध्वीको गृहस्थ के संसर्ग वाले मकानमें रहना वर्जित किया है कपाट खोलने और बन्द करनेके भयसे नहीं अतः इस पाठका नाम लेकर साधुको अपने निवास स्थान के कपाटको खोलने और वन्द करनेका निषेध करना अज्ञान मूलक समझना चाहिये । बोल ६ ट्ठा समाप्त (प्रेरक) भ्रम विध्वंसककार बृहत्कल्प सूत्रका मूलपाठ लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं : "साध्वीने उघारे वारने रहणो नहीं किवाड़ न हवे तो चिलमिली बांधीने रहिणो पिण उघाडे वारणे रहिवो न कल्पे तिणरो ए परमार्थ शीलादिक राखवा निमित्त कीमाड जड़णो पिण शीलादिक कारण विना जड़नो उघाड़नो नहीं। अने साधुने तो उघारे द्वारे हीज रहिवो कल्पे इमि कह्यो" (भ्र० पृ० ४६२) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) बृहत्कल्पसूत्रका मूलपाठ लिखकर इसका समाधान किया जाता है। वह पाठ यह है : "नो कप्पइ निग्गंधीणं अवंगुयदुवारए उवस्सए वत्थए एगं पत्यारं आलोकिच्चा एगं पत्थारं वाहिकिचा ओहाडिय चिलमिलिया Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपाटाधिकारः। ५०९ गंसि एवहणं कप्पइ वत्थए कप्पह निग्गंथाणं अवंगुय दुवारए उवस्सए वथए। (वृहत्कल्प सूत्र) अर्थ : खले द्वार वाले मकानमें साध्वीका रहना नहीं कल्पता है परन्तु स्थानाभावके कारण यदि खुले द्वार वाले उपाश्रयमें साध्वीको रहना पड़े तो बाहर और भीतर चटाई आदिसे दो पर्दै बांधकर साध्वी उसमें रहै । साधुको खुले द्वार वाले मकानमें रहना कल्पता है। इस पाठमें कहा है कि "खुले द्वार वाले मकानमें साधुको रहना कल्पता है" इसका तात्पर्य यह नहीं है कि खुले द्वार वाले मकानमें हो साधु रहे, जिसका द्वार बन्द किया जा सके उस मकानमें न रहे क्योंकि इसी बृहत्कम्प सूत्रमें यह पाठ आया है : ___ "नो कप्पइ निग्गंधीणं अह आगमणगिह सिवा, वियडगिहसिवा, वंसिमुलसिवा, रुक्खमूलंसिवा, अभावगासियंसिवा, वत्थए । कप्पइ निग्गंथाणं अह आगमणगिह सिवा, वियडगिह सिवा, वंसिमूलंसिवा रुक्खमूलसिवा, अभावगासियंसिवा वथए । अर्थ : जहां पथिक गग आकर उतरते हैं, तथा खुले मकानमें, बांसके वृक्षके नीचे, दूसरे किसी वृक्षके नीचे, कुछ खुलो और कुछ ढके मकानमें, साध्वीको रहना नहीं कल्पता है, परन्तु साधुको रहना कल्पता है। इस पाठमें जहां पथिक लोग उतरते हैं, तथा बांसके नीचे, वृक्षके नीचे, कुछ खुले और कुछ ढके मकानमें साधुको रहना कल्पनीय कहा है इसका आशय जैसे यह नहीं है कि "जहां पथिक लोग उतरते हैं और बांसके नीचे, बृक्षके नीचे और कुछ ढके और कुछ खुले मकानमें ही साधु रहे अन्यत्र न रहे" उसी तरह पूर्व पाठका भी यह माशय नहीं है कि खुले द्वार वाले मकानमें ही साधु रहे अन्यत्र न रहे । अतः वृहत्कल्प सूत्रका नाम लेकर खुले किवाड़ वाले मकानमें ही साधुको रहनेका कल्प बताना मिथ्या है। यदि कोई दुराग्रही पूर्व पाठका यही आशय बतावे कि “साधुको खुले द्वार वाले मकानमें ही रहना कल्पता है वन्द द्वार वाले मकानमें रहना नहीं कल्पता" तो उसके हिसाबसे दूसरे पाठका भी यही आशय होना चाहिये कि "जहां पथिक लोग आकर उतरते हैं और वांसके नीचे वृक्षके नीचे तथा कुछ खुले और कुछ ढके मकानमें ही साधु को रहना चाहिये अन्यत्र नहीं रहना चाहिये" फिर वे लोग, जहां पथिक आकर नहीं उतरते हैं ऐसे मकानमें क्यों रहते हैं ? तथा वांसके नीचे और वृक्षके नीचे तथा कुछ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१० सद्धर्ममण्डनम् । ढके और कुछ खुले मकानमें ही वे क्यों नहीं रहते ? अन्यत्र क्यों रहते हैं ? तथा साधु को अटवीमें, विकट देशमें विचरना कल्पनीय कहा है फिर तेरह पन्थी साधु, अंटवीमें और विकट देशमें ही सदा क्यों नहीं विचरते हैं वे ग्रामादिकोंमें क्यों आते हैं ? यदि कहो कि यह बात एकान्त नहीं है, इसलिये साधु यदि अटवी और विकट देशोंसे अतिरिक्त स्थानमें विचरे तो भी कोई क्षति नहीं है वो उसी तरह सरल बुद्धिसे यह भी स झो कि खुले द्वार वाले मकानमें रहना साधुके' टिये एकान्तरूपसे नहीं कहा है अतः वह बन्द द्वारवाले मकानमें रहे तो भी कोई क्षति नहीं है वास्तवमें साध्वीकी अपेक्षासे यह साधुमें विशेषता बतलाई गई है कि साध्वी खुले मकानमें नहीं रह सकती है परन्तु साधु रह सकता है । इसका भाव यही है कि साध्वो तो एकमात्र वन्द द्वार वाले मकान ही उतरे और साधु वन्द द्वार वाले और खुले द्वार वाले दोनों ही प्रकारके मकान में अपनी परिस्थितिके अनुसार उतर सकता है। अत: इस पाठका नाम लेकर साधुको कपाट वन्द करने और खोलनेका निषेध करना अज्ञान समझना चाहिये । कारण दशा में साधुको कपाट खोलने और बन्द करनेका विधान वृहत्कल्प सूत्र के चौदहवें और पन्द्रहवें सूत्रके भाष्यमें भी किया है वह यहां लिखा जाता है । "आह किंतत्कारणं येन द्वारं पिधीयते पडिणीय तेण सावय उभामग गोण साण सुणगादी सीमं दुरद्वियासं दोहा पक्खी च सागरिये, ( २२६ ) उद्घाटिते द्वारे पत्यनीकः प्रविश्य आहननमपद्रावणं वा कुर्य्यात् । स्तेनाः शरीरस्तेनाः वा प्रविशेयुः एवं श्वापदाः सिंह ब्राघ्रादयः उद्मामकाः पारदारिका: गोबलीवर्दा: श्वान प्रायाः तत एतेवा प्रविशेयुः अनात्मवशः क्षिप्तचित्तादिः द्वारेऽपिहिते सति मिर्गच्छेत् । शीतं दुरधिसहं हिमकणानुसक्क निपतेत् दीर्घाः वा सर्पाः पक्षिणोवा काक कपोत प्रभृतयः प्रविशेयुः सागारिकावा कश्चित् प्रतिश्रयमुद्घघाटद्वारं दृष्ट्रा प्रविश्य शयी ता विश्रामंवा गृह्णीयात्" "एक कम्मि उठाणे चतुरो मासा हवंति उग्घाया अणाइणोय दोसा विरोहणा संयमाऽऽयाए,, ( २२७ ) द्वारमस्थगयता मनंतरोक्ता एकैकस्मिन् प्रत्यनीकप्रवेशादौ स्थाने चत्वारो मासा उदूघाता प्रायश्चित्तं भवति । आज्ञादयश्चात्र दोषा विराधनाच संयमात्मविषयां भावनीया यदुक्तं चत्वारो मासा उद्धाता इति सदेव तद्वाहुल्य मंगी कृत्य द्रष्टव्यम् अतोऽपवदन्नाह अहि सावय पचत्थि गुरुगा सेसेसु होंति चउलडुगा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कपाटाधिकारः। ५११ तणगोले बहु गुरुगा आणाइ विराहणा दुविहा,, अहिषु श्वापदेषु स्तेनेषु चतुर्गुरुकाः । उपधिस्तेनेषु चतुर्लघुकाः आज्ञादयश्व दोषाः। विराधनाथ द्विविधा संयमविराधना, आत्मविराधनाच। तत्र संयमविराधना, स्तेनैरुपधावपहृते, द्वारेऽपिहिते सत्युपाश्रयं प्रविशत्सूपहते तृणग्रहणमग्निसेवनंवा कुर्वति । सागारिकादयोवा तथायोगोलकल्पा प्रविष्टाः सन्तो निषदनादि कुर्वाणा: बहूनां प्राणजातीयानामुपमईनं कुयुः। आत्मविराधनाच प्रत्यनीकादिष स्फुटैव। आह झातमस्माभिर पिधान कारणं परं कापुनः यतनेति नाथापि जानीमः । उच्यते "उवयोगं हेदुवार काउण वएत वंगुरतेज पेहा जत्थ न सुज्झइ पमजिउ तत्थ सारिंति,, नेत्रादिभिरिन्द्रिमै रधस्तादुपरिचोपयोगं कृत्वा द्वारं स्थगयन्तिवा पावृण्वन्तिवा यत्रचान्धकारे प्रेक्षा चक्षुषा निरीक्षणं नशुद्ध यति ततो रजोहणेन दारु दण्डकेनवा रजन्यां प्रमृज्य सारयन्ति द्वार' स्थगयन्तीत्यर्थः । उणलक्षणत्वा दुद्घाटयन्तीत्यर्थः अर्थ: साधु अपने स्थानके द्वारको क्यों बन्द करता है इसका कारण बताया जाता है द्वार खुला रहने पर शत्रु आदि मकानमें प्रवेश करके मार पीट और उपद्रव मचा सकता है। चोर, सिंह, व्याघ्र, पारदारिक, गाय, बैल मौर कुरो मादि स्थानकमें प्रवेश कर सकते हैं । पागल साधु मकानसे बाहर निकल सकता है। हिमकणसे मिश्रित दुःसह शीत घरमें प्रवेश कर सकती है एवं बड़े बड़े सर्प और काक कपोत आदि पक्षी उस मकानमें आ सकते हैं, धनसहित कोई गृहस्थ उस मकानमें आकर सो सकता है, इत्यादि कारणोंसे साधु अपने स्थानकके द्वारको वन्द करते हैं। द्वार खुला रहने पर पूर्वोक्त शत्रु आदिकों से किसी भी एकके प्रवेश करने पर चौमासी अनुद्धात नामक प्रायश्चित्त आता है और आज्ञाका उल्लङ्घन रूप दोष भी होता है, संयमकी भी विराधना होती है। यहां जो चौमासो अनुद्धात प्रायश्चित्त कहा है वही उसकी बहुलतासे समझना चाहिये खुले द्वार वाले मकानमें सर्व, जानवर, और चोरके प्रवेश करने पर चतुगुरु क प्रायश्चित्त आता है। उपधिका अपहरण करनेवालेके प्रवेश करने पर चतुर्लघुक प्रायश्चित्त आता है और आज्ञा भङ्ग तथा संयम और आत्माकी विराधना भी होती है। चोर यदि उपधिको छुरा लेवे अथवा कोई मनुष्य उस स्थानमें प्रवेश करके तृणप्रहण या अग्नि सेवन करे तथा म्लेच्छके समान कोई मनुष्य आकर वहां बैठ जाय तो संयमकी विराधना होती है । शत्रु आक्केि द्वाग आत्म विराधना प्रसिद्ध ही है मतः साधु अपने स्थानकके द्वारको बन्द करते हैं। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 512 सद्धर्ममण्डनम् / द्वार बन्द करनेका कारण बता दिया गया अब उसकी जयणा बताई जाती है नेत्रोंके द्वारा नीचे और ऊपर देख कर साधु कपाट बन्द करते हैं और खोलते हैं। रातके समयमें अन्धकारमें रजोहरण या पूजनीके द्वारा पूज कर द्वारको खोलते हैं और बन्द करते हैं यह उक्त गाथाका अर्थ है। इस भाष्यमें साधुको कारणवश जयणाके साथ कपाट खोलने और बन्द करनेका स्पष्ट विधान किया है / वृहत्कल्प सूत्रके मूलपाठमें धान आदिकी राशिसे युक्त तथा ढके हुए घृतपूर्ण घृतादि पात्रोंके सहित मकानमें साधुको एकमास रहनेका कल्प बताया है। जिस मकानमें खुले हुए घृत मादिके पात्र रक्खे हैं उसमें भी स्थानाभाव की हालतमें 1-2 दिन रहने का विधान किया है / ऐसे मकानमें रहाहुआ साधु यदि कपाट बन्द न करे तो चोर और कुत्ते आदिके द्वारा गृहस्थाके घृतादिका विनाश होने पर साधुके लिये महान् अपवादका कार्या हो सकता है अतः ऐसे अवसर पर यत्नपूर्वक कपाट खोलना और बन्द करना साधुके लिये कोई अनुचित नहीं है। (बोल ७वां) (इति कपाटाधिकारः) समाप्त। THI Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com