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________________ आश्रवाधिकारः। ४४५ (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार अनुयोग द्वार सूत्रको मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: "अथ ईहां उदयरा दो भेद कह्या उदय, अने उदय निष्पन्न, उदय ते आठ कर्म नी प्रकृति रो उदय, अने उदय निष्पन्नरा दो भेद जीव उदय निष्पन्न अजीव उदय निष्पन्न" यह लिख कर आगे लिखते हैं: ___"इहां तो चौडे कषाय, मिथ्यादृष्टि, अवत, योग इयां सर्वाने जीव कहा छ ते मांटे सर्व आश्रव छै इण न्याय आश्रव जीव छै (भ्र० पृ० ३१७) इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक) मिथ्यात्व, कषाय, अव्रत और योगको, जीवांशकी मुख्यताको लेकर जीवोदय निष्पन्न कहा है। ये एकान्त जीव हैं इनमें पुद्गलोंका सर्वथा अभाव है यह शास्त्रका तत्पर्य नहीं है क्योंकि कारणके अनुरूप ही कार्य होता है मिट्टीसे मिट्टीका ही घड़ा बनता है-सोनेका नहीं बनता। आठ प्रकारकी कर्मकी प्रकृतियोंका उदय चतुःस्पर्शी पौगलिक माना गया है इसलिये उससे उत्पन्न होने वाले पदार्थ भी चतुःस्पशी पौद्गलिक ही होंगे एकांत अरूपी और एकांत अपौद्गलिक नहीं हो सकते। मिथ्यात्व, अव्रत कषाय ओर योग आठ प्रकारकी कर्मकी प्रकृतियोंके उदयसे उत्पन्न होते हैं इस लिये अपने कारणके अनुसार ये रूपी और चतुःस्पर्शी पौद्गलिक हैं एकांत अरूपी और अपौद्गलिक नहीं हैं तथापि जीवांशकी मुख्यताको लेकर शास्त्रमें इन्हें जीवोदय निष्पन्न कहा है। इसलिये इन्हें एकांत जीव और अरूपी मानना मिथ्या है। टीकाकारने स्पष्ट रूपसे यह बात दर्शायी है वह टीका यह है: "ननुयथा नरकत्वादयः पर्यायाः जीवे भवन्तीति जीवोदय निष्पन्ने औदयिके पठ्यन्ते एवं शरीराण्यपि जीवे एव भवंतीति तान्यपि तत्रैव पठनीयानिस्युः किमिति अजीवोदयनिष्पन्ने अधीयन्ते ? । अस्त्येतत किन्त्वौदारिकादिशरीरनामकर्मोदय स्य मुख्यतया शरीर पुद्गलेष्वेव विपाक दर्शनात तन्निष्पन्न औदयिको भावः शरीर लक्षणेऽजीवे एव प्राधान्या द्दर्शित इत्यदोषः ।" (प्रश्न ) अर्थात जैसे नरक आदि पर्याय जीवमें होते हैं इसलिये वे जीवोदय निष्पन्न औदयिक भावमें पढ़े गये हैं उसी तरह शरीर भी जीवमें ही उत्पन्न होता है इसलिये उसे भी जीवोदय निष्पन्न औदयिक भावमें ही पढ़ना चाहिये । उसे मजीवोदय निष्पन्न मौदयिक भावमें क्यों पढ़ा गया है ? Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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