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सद्धर्ममण्डनम् ।
इस गाथामें जो "पडिलंभ" पद आया है वह स्वयूथिक या परयूथिक साधु के दान लाभ अर्थमें ही आया है गृहस्थके दान लाभ अर्थमें नहीं। अतएव टीकाकारने लिखा है कि:-"यदि वा स्वयूथ्यस्य तीर्थान्तरीय स्य वा दानं ग्रहणं प्रति यो लाभ:" अर्थात् स्वयूथिक यानी अपने यूथके साधुको और तीर्थान्तरीय यानी अन्य दर्शनीय साधुको दानकी प्राप्ति होना प्रतिलम्भ है।"
___ अत: इस गाथाकी साक्षी देकर जो जीतमलजीने गृहस्थके दान लाभ अर्थमें "प्रतिलम्भ" पदका व्यवहार बतलाया है वह मिथ्या है तथा इस गाथाको लिखकर इसके नीचे जो जीतमलजीने टव्वा अर्थ दिया है वह भी मूडपाठ और टीकासे असम्मत होने के कारण एकान्त अशुद्ध और अप्रामाणिक है उसका आश्रय लेकर अनुकम्पादान का खण्डन करना मिथ्यादृष्टियोंका कार्य है ।
(बोल ८ वां) (प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रम० पृ० ७४ पर ज्ञाता सूत्र अध्ययन १३ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं:
“अथ इहां कयो जे नन्दन मणिहारो दान शालादिकनो घणो आरंभ करी मरीने डेडको थयो । जो सावद्य दान थी पुण्य हुवे तो दानशालादिकथी घणां असंयति जीवां रे साता उपजाई ते सातारा फल किहां गयो" इनके कहनेका भाव यह है कि नन्दन मनिहारने अनुकम्पा दान देकर अनेक हीन दीन दुःखी जीवोंको सुख दिया था परन्तु वह मर कर मेढक योनिमें उत्पन्न हुआ यदि अनुकम्पादान देना पुण्य होता तो नन्दन मनिहार मर कर मेढक क्यों होता ? अतः अनुकम्पा दान देना एकान्त पाप है। इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
नन्दन मनिहारका नाम लेकर अनुकम्पादानमें पाप कहना अज्ञानका परिणाम है। ज्ञाता सूत्रके मूलपाठमें स्पष्ट लिखा है कि नन्दन मनिहार नन्दा नामक पुष्करिणीमें आसक्त होनेसे मेढक योनिमें उत्पन्न हुआ था, हीन दीन जीवोंको अनुकम्पादान देनेसे नहीं । ज्ञाता सूत्रका वह पाठ यह है:
__ "तत्तेणं गंदे तेहिं सोलसेहिं रोगायंकेहिं अभिभूएसमाणे गंदाए पोखरिणीये मुच्छित्ते तिरिक्ख जोणिएहिं वद्धाण वद्धए सिए अह दुहट वस कालमासे कालं किचा गंदाए पोक्खरिणीये दददुरिये कुत्थिं सि दुरत्ताए उववण्णे"
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