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________________ अनुकम्पाधिकारः। २४७ यदि कोई कहे कि स्थविर कल्पी साधु दूसरेको धर्मोपदेश देते हैं यह तो उनकी दूसरेपर अनुकम्पा करना है और वह स्वयं किसी जीवको नहीं मारते यह निश्चय नयके अनुसार अपनी अनुकम्पा है परन्तु मरते जीवकी रक्षा करना दूसरेकी अनुकम्पा नहीं है तो यह मिथ्या है। तीर्थंकर भी धर्मोपदेश देते हैं और वह स्वयं किसी जीवको मारते भी नहीं हैं फिर तो वह भी तीसरे भङ्गका स्वामी उभयानुकम्पक ही ठहरेंगे दूसरे भङ्गका स्वामी परानुकम्पक मात्र नहीं इसलिए दूसरे जीवकी रक्षा करना ही यहां परानुकम्पा कही गई है इस प्रकार जो जीव अपनी रक्षाके ऊपर ध्यान न देकर दूसरे जीवकी ही रक्षा करता है वह दूसरे भङ्गका स्वामी है। ऐसे पुरुष तीर्थकर और मेताय॑ ऋषिकी तरह परम दयालु पुरुष होते हैं । जो अपनी और दूसरेकी दोनोंकी रक्षा करता है वह तीसरा भङ्गका स्वामी स्थविर कल्पी है। जो अपनी और दूसरेकी किसी की भी रक्षा नहीं करता वह चतुर्थ भङ्गका स्वामी काल शौकारिकादिकी तरह पापात्मा पुरुष है। जो केवल अपनी ही रक्षा करता है दूसरेकी नहीं करता वह प्रथम भङ्गका स्वामी है। इस प्रकार इस चर्तु भंगीसे मरते जीवकी रक्षा करना स्थविर कल्पी साधु का कर्तव्य सिद्ध होता है। जो किसी प्राणीकी स्वयं भी रक्षा नहीं करता और दूसरे को भी रक्षा करनेमें पापका उपदेश देता है वह इस पाठसे परोपकार बुद्धि रहित निय सिद्ध होता है। मेघकुमारके जीवने हाथीके भवमें अपनी रक्षाका ख्याल नहीं रख कर दूसरेकी रक्षाकी थी और धर्मरुचि अनगारने भी अपनी रक्षाकी परवाह नहीं करके दूसरे की रक्षा करना ही अपना कर्तव्य समझा था इसलिए वे लोग इस चर्तुभङ्गीके दूसरे भङ्ग के स्वामी थे अतः इस चतुभंगीका नाम लेकर जीवरक्षा करनेमें पाप कहना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिए। (बोल २२ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसन कार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १४८ पर उत्तराध्यन सूत्रकी गाथा लिखकर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं "अथ अठे पिण कह्यो-समुद्र पाली चोरने मरतो देखि वैराग्य आणी चारित्र लीधो पिण गर्थ देई छुड़ायो नहीं" (भ्र० पृ० १४८) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) समुद्रपालीका उदाहरण देकर जीव रक्षामें पाप बताना अज्ञान है। राजा, चोर का विक्रय नहीं करता था और उसने द्रब्य लेकर चोरको छोड़नेकी घोषणा नहीं कराई Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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