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सद्धर्ममण्डनम् ।
(प्ररूपक)
ठाणाङ्ग ठाणा १० के मूल पाठकी साक्षीसे आश्रवको एकान्त जीव सिद्ध करना मिथ्या है । वह पाठ लिख कर यह बतलाया जाता है
"धम्मे अघम्म सन्ना अधम्मे धम्म सन्ना" अर्थ:
( ठाणाङ्ग) धर्ममें अधमका और अधर्ममें धर्मका ज्ञान अज्ञान कहलाता है। ___यहां विपरीत ज्ञानका स्वरूप समझाते हुए यह लिखा है कि “धर्ममें अधर्मका और अधर्म में धर्मका ज्ञान अज्ञान है" इससे आश्रवका जीव होना सिद्ध नहीं होता क्योंकि इस पाठमें कहा हुआ विपरीत ज्ञान, क्षयोपशम भावमें है और आश्रव उदयभावमें है। भीषणजीने आश्रवको उदयभावमें माना है यह उनका लेख उद्ध त करके पहले बतला दिया गया है अतः उदयभावमें होने वाला पाश्रव, अज्ञान या विपरीत ज्ञानकी तरह कदापि एकान्त जीव नहीं हो सकता । आश्रव, मोहकर्मके उदयभावमें माना गया है और मोहकर्म चतु:स्पशी पुद्गल हैं अत: आश्रव भी चतुःस्पशी पुद्गल है उसे एकान्त जीव मानना अज्ञान है ।
(बोल १० वां समाप्त) (प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भगवती सूत्र शतक १७ उद्देशा २ का मूलपाठ लिखकर उसकी साक्षीसे आश्रवको एकान्त जीव बतलाते हैं।
इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक)
भगवती सुत्र शतक १७ उद्देशा २ के मूलपाठकी साक्षीसे आश्रवको एकान्त जीव वतलाना मिथ्या है । उस पाठमें आश्रवको एकान्त जीव नहीं कहा है वह पाठ इसी प्रकरणके सातवें बोलमें लिख दिया गया है उसका भाव यह है
१८ पाप और उनसे निवृत्ति, बुद्धिके चार भेद, अवग्रहादिक मति ज्ञानके चार भेद, उत्थानादिक पांच, चार गति, आठ कम, छः लेश्या, तीन दृष्टि, चार दर्शन, पांच ज्ञान, तीन अज्ञान, चार संज्ञाएं, पांच शरीर, तीन योग और साकार तथा अनाकार इन ९६ बोलोंमें रहने वाला जीव दूसरा है और ये बोल दूसरे हैं, यह अन्य तीर्थियोंका मत है इसका खण्डन करते हुए भगवान्ने कहा है कि "एवं खलु पाणाइवाए जाव मिच्छादसणसल्लेवट्टमाणे सच्चेव जीवे सच्चेव जीवाया"
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