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आश्रवाधिकारः ।
पुद्गलोंके भी धर्म नहीं है क्योंकि आत्म संसर्ग रहित पुद्गलोंमें इनका सद्भाव नहीं देखा जाता इस लिये पुद्गल संसर्ग विशिष्ट आत्माके ये धर्म हैं । पुद्गल संसर्ग विशिष्ट आत्मा रूपी संसारी और वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श आदिसे युक्त माना गया है इस लिये उसके धर्म क्रोधादि भाव भी एकान्त अरूपी नहीं हो सकते। दूसरी बात यह है कि क्रोधादि भाव कर्मों के उदयसे उत्पन्न होते हैं । कर्म रूपवान है इस लिये उससे उत्पन्न होने वाले क्रोधादि भाव भी रूपवान हैं एकान्त अरूपी नहीं हैं। यदि कोई ज्ञानादि गुण
दृष्टान्त देकर क्रोधादि भावको भी एकान्त अरूपी कहे तो उसे कहना चाहिये कि ज्ञानादिगुण कर्मके उदयसे नहीं किन्तु कर्म के क्षय, उपशम और क्षयोपशमसे उत्पन्न होते हैं और सिद्ध जीवोंमें भी पाये जाते हैं इस लिये ज्ञानादि, अरूपी और आत्माके मौलिक गुण हैं परन्तु क्रोधादि भाव ऐसे नहीं हैं वे कर्मों के उदयसे उत्पन्न होते हैं और सिद्धात्माओं में नहीं होते इस लिये वे ज्ञानादि गुणके समान एकान्त अरूपी नहीं हो सकते । यदि भाव रूप कहे जानेसे कोई क्रोधादि भावको एकान्त अरूपी कहे तो उसे कहना चाहिये कि भाव रूप होनेसे न कोई एकान्त व्यरूपी हो जाता है और न द्रव्य रूप होनेसे रूपी ही होता है यह हम पहले ही उदाहरणके साथ बतला चुके हैं अतः भाव रूप होनेसे क्रोधादिको एकान्त अरूपी कहना अज्ञान है ।
( बोल १९ वां समाप्त )
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( प्रेरक )
भ्रम विध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३२१ पर अनुयोग द्वार सूत्रका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं
“अथ इहां भाव लाभरा २ भेद कह्या । प्रशस्त भावनो लाभते ज्ञान, दर्शन, चारित्रने अप्रशस्त माठा भावनोलाभ क्रोध, मान, माया, लोभनो लाभ । इहां क्रोधादिकने भाव लाभ का ते मांटे ए भाव क्रोधादिकने भाव कषाय कहीजे ते भाव कषायने कषाय आश्रव कहीजे । तथा अनुयोग द्वार सूत्रमें इम कह्यो - सावज्ज जोग विरह" ते सावय योग की निवर्तेते सामायक । इहां योगाने सावद्य कह्या अने अजीवने तो सावध पिण न कहीजे | सावद्य निश्वद्य तो जीवने इज कहीजे । इहां योगांने सावय का ते मांटे ए भाव योग जीवछै अने योग आश्रव छै इण न्याय योग आश्रवने जीव कहीजे"
इसका क्या समाधान ?
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