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________________ धिकारः । " जस्स' कित्तिं सलोयंच जाय वंदण पूयणा सव लोगंसि जे कामा तं विज्जं परिजाणिया " अर्थात् यश, कीर्ति, श्लाघा, वंदन, पूजन और सांसारिक सकल कामनायें साधु को छोड़ देनी चाहिये । इस गाथामें भी "तं विज्जं परिजाणिया " यह पाठ आया है इस लिये साधुके वंदन पूजन और सत्कार सम्मानको भी संसार भ्रमणका हेतु हो मानना पड़ेगा । यदि कोई कहे कि यह बात साधुको अपने लिये कही गई है इस लिये साधु यदि अपनी वंदना आदिकी इच्छा करे तो यह उसके संसार भ्रमणका हेतु है परन्तु यदि गृहस्थ साधु का वंदन पूजन करे तो यह काय्यें बुरा नहीं है तो उसे कहना चाहिये कि इस गाथाके अनुसार ही २३ वीं गाथा भी साधुके लिये ही कही गई है इस लिये साधु यदि गृहस्थको अनुचित दान देवे तो उसको २३ वीं गाथामें बुरा कहा है परन्तु यदि गृहस्थ गृहस्थको अनुकम्पा दान देवे तो यह बुरा नहीं है । अतः सुय गडांग सूत्रकी २१ वीं गाथाका नाम लेकर गृहस्थको दिये जाने वाले गृहस्थोंके द्वारा अनुकम्पा दानको एकान्त पाप बताना अज्ञानियोंका का है । [ बोल १७३ २९ वां समाप्त ] ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १०३ के ऊपर निशीथ सूत्र उद्देशा १५ बोल ७८-७९ के मूल पाठों को लिख कर उनकी समालोचना करते हुए लिखते हैं —— "अथ ईहां गृहस्थने अशनादिक दियां अने देतांने अनुमोद्यां चौमासी प्रायश्चित्त aur ने श्रावक पण गृहस्थ इज छै ते मांडे गृहस्थने दान साधुने अनुमोदनों नहीं धर्म तो अनुमोद्यां प्रायश्चित्त क्यूं कह्यो धर्मरी सदा ही साधु अनुमोदना करेछै ।” इसका क्या समाधान ? ( भ्र० पृ० १०३ ) ( प्ररूपक Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat निशीथ सूत्र उद्देशा १५ बोल ७८-७९ के मूल पाठका आशय यह है कि साधु यदि किसी गृहस्थको उत्सग मार्गमें अन्नादि देवे तो उसका अनुरोदन करने वाले साधु को प्रायश्चित्त आता है । यदि गृहस्थ किमी गृहस्थको अनुकम्पा दान देवे तो उसका अनुरोदन काने वाले माधुको प्रायश्चित्त बत ना इस पा का आशय नहीं है क्योंकि इस पाठके निकटवर्ती पाठ का इसी प्रकार का अर्थ है तदनुसार इस पाठका भी यही अर्थ होना उचित है । वह निकटवर्ती पाठ यह है : 1 : www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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